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विक्रय करने पर भी ग्राहक को उसका कब्जा न देना), क्रीतानुशय (खरीदी रद्द करना), समयस्यानपाकर्म (मंडलिया, संघ आदि के नियमों का उल्लंघन), सीमाबंध (चतुःसीमा निश्चित करना), स्त्रीपुंसयोग (वैवाहिक संबंध), दायभाग (प्राप्ति का बंटवारा और उत्तराधिकार), साहस (मनुष्यवध, डाका, स्त्री पर बलात्कार आदि प्रकार के अपराध), वाक्पारुष्य (बेइज्जती और गालीगलोज), दंडपारुष्य (विविध प्रकार के शारीरिक आघात) और प्रकीर्ण (संकीर्ण अपराध)। परिशिष्ट में चोरों के अपराध के बारे में विवेचन किया गया है।
न्यायदान की पद्धति के विषय में जो- कानून स्मृति में अंकित है उन्हें देखते हुए नारद को मनु से श्रेष्ठ मानना पडता है। दीवानी और फौजदारी कानूनों के बारे में नारद जैसा वतंत्र विचार अन्य किसी भी स्मृतिकार ने नहीं किया है। महत्त्व की बात यह है कि प्रायश्चित्त तथा अन्य वैसी ही धार्मिक विधियों का विचार न करते हुए, नारदजी ने केवल कानूनों का ही विचार किया है। परिणाम स्वरूप नारदस्मृति से तत्कालीन राजकीय एवं सामाजिक संस्थाओं के बारे में काफी जानकारी मिलती है। सभी स्मृतियों में मनुस्मृति का स्थान श्रेष्ठ है, किन्तु नारद ने मनु के विरुद्ध अपना मतस्वातंत्र्य व्यक्त किया है। इस बारे में नारद को पूर्ववर्ती स्मृतिकारों का आधार अवश्य होगा।
मूलभूत मानी गई नारदस्मृति की प्रतियां अनेक हैं, किन्तु श्री. बेंडाल को ताडपत्र पर लिखी गई जो प्रति नेपाल में मिली, उसी प्रति को प्रामाणिक माना जाता है। उसमें एक नवीन अध्याय उपलब्ध है। नारदस्मृति पर असहाय नामक पंडित ने टीका लिखी है। यह टीका बडी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। डा. विंटरनित्सने इसमें "दीनार" शब्द को देख कर इसका समय द्वितीय या तृतीय शताब्दी माना है पर डा. कीथ इसका काल 100 ई. से 300 ई. के बीच मानते हैं। इसे "याज्ञवल्क्य-स्मृति" का परवर्ती माना जाता है। नारदोपनिषद् - बारह पंक्तियों का एक अपूर्ण नव्य उपनिषद् । इसमें ब्रह्माजी ने नारद को अमरत्व संबंधी ज्ञान कथन किया है वैष्णव ने ऊर्ध्वत्रिपुंड्र किस प्रकार लगाना चाहिये इस जानकारी के साथ प्रस्तुत उपनिषद् का आरंभ हुआ। नारायणउत्तरतापिनी उपनिषद् - अथर्ववेद से संबंध तीन खंडों का एक नव्य उपनिषद्। इसमें प्रथम "वासुदेव" शब्द की व्युत्पति देते हुए बताया गया है कि नारायण से ही समस्त सृष्टि का निर्माण हुआ और वे ही जीवात्मा तथा परमात्मा हैं। दूसरे खंड में "ओम् नमो भगवते श्रीमन्नारायणाय" से प्रारंभ होने वाला नारायणमालामंत्र दिया गया है। तीसरे खंड में प्रस्तुत उपनिषद् के अभ्यास से प्राप्त होने वाली फलप्राप्ति का वर्णन है। नारायणपंचांग - विश्वसारतन्त्रान्तर्गत। श्लोक 392।
नारायण-पदभूषणमाला (स्तोत्र) - 1) ले. शेषाद्रि शास्त्री। पिता- वेंकटेश्वरसूरि । श्लोक 100 । इस पर लेखक की व्याख्या है। नारायणपूर्वतापिनी उपनिषद् - अथर्ववेद से संबंद्ध एक नव्य उपनिषद्। यह ब्रह्मदेव ने सनत्कुमारदि मुनियों को कथन किया है। इसके 6 खंड हैं। प्रथम खंड में पृथ्वी आदि पंचमहाभूत, चंद्र, सूर्य व यजमान को नारायण की अष्ट मूर्तिया बताया गया है और कहा गया है कि सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोधान व अनुसंमति ये नारायण के 5 प्रमुख कृत्य हैं। दूसरे खंड में अष्टाक्षरी-मन्त्र का वर्णन है और नारायण को परब्रह्म व महालक्ष्मी को मूलप्रकृति बताया गया है। तीसरे खंड में नारायणगायत्री है, और वेदवचनों के आधार पर नारायण का माहात्म्य प्रतिपादित है। इसमें नारायण के 5,6,7,12,13 व 16 अक्षरों के मंत्र दिये गये हैं। चौथे खंड में नारायण गायत्री, अनंगगायत्री व लक्ष्मीगायत्री नामक मंत्र दिये हैं। पांचवें खंड में विष्णु की जरा, शांति आदि दस कलाओं के नाम बताते हुए उनके 10 अवतारों के मंत्र दिये है। फिर सांख्यपद्धति से मिलता-जुलता विश्व की उत्पति का वर्णन है। इस उपनिषद् के 6 वें खंड में नारायणयंत्र का विस्तृत वर्णन करते हुए बताया गया है कि उनकी पूजा करने से विविध ऐहिक कामनाएं पूर्ण होती हैं। . नारायणभट्टी - नारायणभट्टकृत प्रयोगरत्न एवं अन्त्येष्टि पद्धति का यह नामान्तर है। नारायणबलिपद्धति - ले. दाल्भ्य । नारायणबलि प्रयोग - ले. कमलाकर। पिता- रामकृष्ण । नारायणाचरित्रमाला - ले. भगवद्गोस्वामी। विषय- तांत्रिक रीति से नारायण की पूजाविधि । नारायणोपनिषद् - कृष्ण यजुर्वेद से संबद्ध एक नव्य उपनिषद् । इसमें नारायण ही ब्रह्म है और वे ही सब कुछ हैं इस प्रतिपादन के साथ "ओम् नमो नारायणाय" यह अष्टाक्षरी मंत्र अंकित है। इस उपनिषद् का संदेश है कि नारायण के साक्षात्कार द्वारा माया पर विजय प्राप्त की जा सकती है। नारसिंहकल्प - ब्रह्म-नारद संवादरूप। पटल- 8। विषयनृसिंह भगवान् की पूजा। नासदीयसूक्तम् - ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 129 वां सूक्त। इस सूक्त का प्रारंभ "नासदासीत्" शब्द से होने के कारण इसे यह नाम प्राप्त है। इसकी 7 ऋचाएं हैं। इसके ऋषि हैं परमश्रेष्ठी प्रजापति, देवता है परमात्मा और छंद है त्रिष्टुप् । यह सूक्त उपनिषदंतर्गत ब्रह्मविद्या का आधारभूत सिद्ध हुआ है। सृष्टि का मूल तत्त्व क्या है और उससे यह विविध दृष्य सृष्टि किस प्रकार निर्मित हुई होगी इस बारे में इस सूक्त में जो विचार प्रस्तुत किये गए हैं, वे प्रगल्भ, स्वतंत्र तथा मूलगामी हैं। लोकमान्य तिलक के मतानुसार- "इस प्रकार
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/161
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