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से ही विश्व की उत्पत्ति होती है। प्रकृति है परमात्मा की शक्ति। ईश्वर एक है और अनेक. शरीरों के आश्रय के कारण वह बहुरूप दिखाई देता है। ब्रह्मानंद के उपरान्त प्राप्त होने वाली आनंद की स्थिति वास्तव सुख है। उसी प्रकार विषयों की इच्छा ही दुख है। विषय-सुख में डूबे हुए लोगों की संगति है नरकवास। अनादि अविद्या के कारण निर्माण होने वाली - “मेरा जन्म हुआ” यह भावना बंध है और नित्यानित्यवस्तुविवेक और मोहपाशों का छेदन है मोक्ष । चिदात्मक ब्रह्म की ओर ले जाने वाला ही सच्चा गुरु है और जिसे बाह्य विश्व का आकर्षण न रहा हो वही है सच्चा शिष्य । प्राणिमात्र के हृदय में निवास करने वाले शुद्ध ज्ञान का प्रतीक है ज्ञानी। कर्तृत्त्व के अभिमान से पीडित व्यक्ति ही मूढ है। व्रत-उपवासों से शरीर को कष्ट देने वाला किंतु प्रदीप्त विषयवासनावाला असुर । कामनाओं के बीजों को जला डालना ही तप है और सच्चिदानंद ब्रह्म ही परमपद है। निरुक्तम् - प्रणेता-महर्षि यास्क । आधुनिक विद्वानों के अनुसार इनका समय ई. पू. 8 वीं शताब्दी है। "निरुक्त" के टीकाकार दुर्गाचार्य ने अपनी वृत्ति में 14 निरुक्तों का संकेत किया है (दुर्गावृत्ति, 1-13)। यास्क कृत निरुक्त में भी 12 निरुक्तकारों के नाम हैं। वे हैं- आग्रायण, औपमन्यव, औदुंबरायण, शाकपूणि, व स्थौलाष्ठीवि इ.। इनमें से शाकपूणि का मत "बृहदेवता" में भी उद्धृत है। यास्क कृत निरुक्त (जो निघंटु की टीका है) में 12 अध्याय हैं और अंतिम 2 अध्याय परिशिष्टरूप हैं। महाभारत के शांतिपर्व में यास्क का नाम निरुक्तकार के रूप में आया है (अध्याय 342-72-73)। इस दृष्टि से इनका समय और भी अधिक प्राचीन सिद्ध होता है। निरुक्त के चौदह अध्याय हैं परन्तु तेरहवां व चौदहवां अध्याय स्वरचित न होकर अन्य किसी का है। अतः इन दो अध्यायों को परिशिष्ट कहा जाता है। निरुक्त तीन कांडों में विभक्त है। पहले कांड को नैघंटुक, दूसरे को नैगम और तीसरें को दैवत कहते हैं। इस तरह निरुक्त के तीन प्रकार होते हैं।
निरुक्त में प्रतिपादित विषय हैं- नाम, आख्यात, उपसर्ग व निपात के लक्षण, भावविकार-लक्षण, पदविभाग-परिज्ञान, देवतापरिज्ञान, अर्थप्रशंसा, वेदवेदांगव्यूहलोप उपधाविकार, वर्णलोप, वर्णविपर्यय का विवेचन, संप्रसार्य व असंप्रसार्य धातु, निर्वचनोपदेश, शिष्य-लक्षण, मंत्र-लक्षण आशीर्वाद, शपथ, अभिशाप, अभिख्या, परिदेवना, निंदा, प्रशंसा आदि द्वारा मंत्राभिव्यक्ति हेतु उपदेश, देवताओं का वर्गीकरण इत्यादि । निरुक्तकार ने शब्दों की व्युत्पत्ति प्रदर्शित करते हुए धातु के साथ विभिन्न प्रत्ययों का भी निर्देश किया है। यास्क समस्त नाम ने "धातुज' मानते हैं। इसमें आधुनिक भाषा-शास्त्र के अनेक सिद्धांतों का पूर्वरूप प्राप्त होता है। निरुक्त में वैदिक शब्दों की व्याख्या के अतिरिक्त व्याकरण, भाषाविज्ञान,
साहित्य, समाज-शास्त्र, इतिहास आदि विषयों का भी प्रसंगवश विवेचन मिलता है। यास्क ने वैदिक देवताओं के 3 विभाग किये हैं- पृथ्वीस्थानीय (अग्नि) अंतरिक्षस्थानीय (वायु व इंद्र) और स्वर्गस्थानीय (सूर्य)। यास्काचार्य के प्रभाव के कारण सभी परवर्ती निरुक्तकार उनसे पिछड गए। आगे के वेदभाष्यकारों को केवल यास्क ने ही प्रभावित किया। सायणाचार्य ने यास्काचार्य के अनुकरण पर ही अपने वेदभाष्यों की रचना की है। निरुक्त की गुर्जर व महाराष्ट्र-प्रतियां सांप्रत उपलब्ध हैं। निरुक्त का समय-समय पर विस्तार किया गया है और वह भी अनेक व्यक्तियों द्वारा। अतः मूल निरुक्त की व्याप्ति निर्धारित करना कठिन हो गया है। निरुक्त के विस्तार की दृष्टि से दुर्गाचार्य की प्रति, गुर्जर-प्रति और महाराष्ट्र-प्रति ऐसा अनुक्रम लगाना पडता है। निरुक्त के सभी टीकाकारों में श्री. दुर्गाचार्य का नाम सर्वप्रथम आता है। उन्होंने अपने ग्रंथ में पूर्ववर्ती टीकाकारों का उल्लेख तथा उनके मतों की समीक्षा भी की है। सबसे प्राचीन टीकाकार हैं स्कंदस्वामी। उन्होंने सरल शब्दों में निरुक्त के 12 अध्यायों की टीका लिखी थी। डॉ. लक्ष्मणसरूप के अनुसार उनका समय 500 ई. है। देवराज यज्वा ने "निघण्टु" की भी टीका लिखी है। उनका समय 1300 ई. है। महेश्वर की टीका खंडशः प्राप्त होती जिसे डॉ. लक्ष्मणसरूप ने 3 खंडों में प्रकाशित किया है। महेश्वर का समय 1500 ई. है। आधुनिक युग में "निरुक्त" के अंग्रजी व हिन्दी में कई अनुवाद प्राप्त होते है। निरुक्तोपनिषद् - एक अत्यंत छोटा नव्य उपनिषद् । गर्भावस्था में शरीर के विविध अवयव किस प्रकार निर्माण होते हैं और अर्भक की वृद्धि किस क्रम से होती है, यह (गर्भोपनिषद् के समान) इस उपनिषद का प्रतिपाद्य विषय है। निरूढ-पशुबंध-प्रयोग - ले. गागाभट्ट। ई. 17 वीं शती। पिता- दिनकरभट्ट। निरुत्तरतन्त्रम् - शिव-पार्वती संवादरूप। श्लोक-20001 पटल151 विषय-दक्षिण-कालिका का माहात्म्य, पूजाविधि, मन्त्र, कवच, पुरश्चरणविधि और रजनीदेवी की पूजाविधि आदि । निरुत्तरभट्टाकर - देवी-भैरव संवादरूप। मुख्यतः योगसंबंधी ग्रंथ। निरौपम्यस्तव - ले. नागार्जुन। एक बौद्ध स्तोत्र। यह सुरस स्तोत्र शून्यवादी कवि की आस्तिकता का उत्कृष्ट निदर्शन है। निर्णयकौस्तुभ- ले. विश्वेश्वर । निर्णयचंद्रिका - 1. ले. शंकरभट्ट। ई. 17 वीं शती। पितानारायणभट्ट । विषय - धर्मशास्त्र। निर्णयचिन्तामणि - ले. विष्णुशर्मा महायाज्ञिक। विषयधर्मशास्त्र। निर्णयतत्त्वम् - ले. नागदैवज्ञ । पिता-शिव । ई. 14 वीं शती।
आधुनिक भाषा
का पूर्वरूप प्रा
* शब्दों की
164 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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