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भागवत-टीका- ले.-आचार्य केशव काश्मीरी। इस टीका में केवल "वेद-स्तुति" का ही भाष्य उपलब्ध एवं प्रकाशित है। भागवततात्पर्यम् - ले.-मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती। द्वैत मत विषयक प्रबन्ध। भागवत-तात्पर्यनिर्णय - ले.-मध्वाचार्य । द्वैत मत के प्रतिष्ठापक। भागवत के 18 सहस्त्र श्लोकों में से केवल 16 सौ श्लोकों की टीका। इसमें भागवत के अधिकार, विषय, प्रयोजन, तथा फल का विस्तृत विवरण दिया गया है। मूल ग्रंथ के समान भी इसमें भी 12 स्कंध हैं तथा उसके अध्यायों के विषय का भी विवेचन है। मध्वाचार्य ने भागवत में वर्णित समग्र प्रमेयों का समर्थन श्रुति, स्मृति, इतिहास एवं पुराण, तंत्र के आधार पर किया है। अपनी टीका को पुष्ट करने हेतु आचार्य ने इसमें पांचरात्र संहिताओं (विशेषकर ब्रह्मतर्क, कापिलेय, महा (सनत्कुमार) संहिता तथा तंत्रभागवत से उद्धरण दिये हैं। फलतः प्रस्तुत "भागवत-तात्पर्य निर्णय", भागवत के गूढ तात्पर्य को समझने की दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है। इसमें उद्धरण तो विपुल हैं, किन्तु तत्संबंधित अनेक मूल ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। माध्व मत में भागवत की विशेष मान्यता है। इसीलिये आचार्य मध्व ने अपने प्रस्तुत ग्रंथ में भागवत के गंभीर तात्पर्य का निर्णय किया। इस विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ में प्रत्येक स्कंध के अध्यायों का तात्पर्य तथा विवेचन अलग-अलग किया गया है। ग्रंथकार का विश्वास है कि भागवत ग्रंथ का ब्रह्मसूत्र , महाभारत, गायत्री एवं वेद से संबंध है। इस संबंध में प्रस्तुत ग्रंथ में गरुड पुराण के अनेक पद्य उद्धृत किये गए है। भागवत-तात्पर्य-निर्णय - ले.-आनंदतीर्थ । ई. 13-14 वीं शती। भागवतनिर्णय-सिद्धान्त - ले. दामोदर । लघु गद्यात्मक रचना । इसमें पुराणों के विस्तृत अनुशीलन का परिचय मिलता है। यह कृति पुष्टिमार्गीय साहित्य के अंतर्गत आती है। इसी प्रकार के 5 अन्य लघु ग्रंथों के साथ इसका प्रकाशन, "सप्रकाश तत्त्वार्थ-दीपनिबंध' के द्वितीय प्रकरण के परिशिष्ट रूप में मुंबई से 1943 ई. में किया जा चुका है। भागवत-प्रमाण-भास्कर- इसी लघु कलेवर ग्रंथ के लेखक अज्ञात हैं। विषय प्रतिपादन को देखते हुए यह कृति पुष्टिमार्गीय साहित्य की श्रेणी में आती है। वल्लभ संप्रदाय के मूर्धन्य मान्यग्रंथ श्रीमद्भागवत के अष्टादश पुराणों के अंतर्गत होने से स्वमत का मंडन तथा विरुद्ध मत का खंडन इस ग्रंथ में किया गया है। इसी प्रकार के 5 अन्य लघु ग्रंथों के साथ इसका प्रकाशन “सप्रकाश-तत्त्वार्थ-दीप निबंध" के द्वितीय प्रकरण के परिशिष्ट के रूप में 1943 में मुंबई से किया गया है। भागवतपुराणम्- व्यासजी की पौराणिक रचनाओं में इस ग्रंथ को सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। संस्कृत पुराण साहित्य का एक अनुपम रत्न होने के साथ ही भक्ति शास्त्र के सर्वस्व के रूप में यह चिरप्रतिष्ठित है। इसकी भाषा इतनी ललित है, भाव
इतने कोमल व कमनीय हैं कि ज्ञान तथा कर्मकाण्ड की संततसेवा से उपर बने मानस में भी यह ग्रंथ भक्ति की अमृतमयसरिता बहाने में समर्थ सिद्ध होता है। व्यास द्वारा अपने पुत्र शुक को यह महापुराण कथन किया गया तथा शुक के मुख से राजा परीक्षित् ने उसे श्रवण किया। इसके पश्चात् सर्वसाधारण जनता में उसका प्रचारण हुआ। इसमें कृष्णभक्ति (अर्थात विष्णु-भक्ति) का प्रतिपादन किया गया है। इसकी रचना के संबंध में निम्नलिखित कथा प्रचलित है : एक बार व्यास महर्षि अत्यंत खिन्न होकर अपने सरस्वती तीर पर स्थित आश्रम में बैठे हुये थे कि नारद मुनि उनके पास आये। नारद मुनि ने उनसे उनकी खिन्नता का कारण पूछा। व्यास ने कहा, "अनेक पुराणों तथा भारत ग्रंथ की रचना करने पर भी मुझे आत्मशांति का लाभ नहीं हुआ है, इसलिये मै खिन्न हूं।
'नारद मुनि विचारमग्न हुये, फिर उन्होंने कहा, "आपने अब तक प्रचंड साहित्य निर्माण कर केवल ज्ञानमहिमा का बखान किया परन्तु भगवान् का भक्तियुक्त गुणगान आपके द्वारा नहीं हुआ है, अतः उस प्रकार की ग्रंथ रचना आप किजिये। इससे आपको आत्मशांति मिलेगी।
नारदमुनि के उपदेश पर व्यास मुनि ने भक्ति रस प्रधान भागवत-पुराण की रचना की। उससे उन्हें शान्ति मिली।
वैष्णव धर्म के अवांतरकालीन समग्र संप्रदाय , भागवत के ही अनुग्रह के विलास हैं, विशेषतः वल्लभ संप्रदाय तथा चैतन्य संप्रदाय, जो उपनिषद्, गीता तथा ब्रह्मसूत्र जैसी प्रस्थानत्रयी मानते हैं। वल्लभ तथा चैतन्य के संप्रदायों को अधिक सरस तथा हृदयावर्जक होने का यही रहस्य है कि उनका मुख्य उपकाव्य ग्रंथ है श्रीमद्भागवत । इसमें गेय गीतियों की प्रधानता है, किन्तु इस ग्रंथ की स्तुतियां आध्यात्मिकता से इतनी परिप्लुप्त हैं कि उनको बोधगम्य करना, विशेष शास्त्रमर्मज्ञों की ही क्षमता की बात है। इसी लिये पंडितों में कहावत प्रचलित है- "विद्यावतां भागवते परीक्षा"। इसमें 12 स्कंध हैं तथा लगभग 18 सहस्र श्लोक हैं। दशम स्कन्ध सबसे बड़ा है जिसके पूर्वार्ध तथा उत्तरार्थ दो विभाग हैं। द्वादश स्कन्ध सबसे
छोटा है। ___भागवत के विषय में प्रश्न उठता रहता है कि इसे पुराणों के अंतर्गत माना जाये अथवा उपपुराणों के। आचार्य बलदेव उपाध्याय ने अपने पुराण-विमर्श नामक ग्रंथ में इस बात का साधार विवेचन करते हुए अपना अभिमत व्यक्त किया है कि भागवत ही अंतिम अठारहवां पुराण है। वैष्णव धर्म के सर्वस्वभूत श्रीमद्भागवत को अष्टादश पुराणों के अंतर्गत ही मानना उचित प्रतीत होता है।
भागवत के रचनाकाल के बारे में भी विद्वानों में अनेक भ्रामक धारणाएं हैं। पुराणों के विरोधक स्वामी दयानंदजी ने
232 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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