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जबसे भागवत को बोपदेव की रचना बताया, तब से इतिहास के मर्मज्ञ कहलाने वाले विद्वानों ने भी उनके मत को अभ्रांत सत्य मान लिया है। परन्तु इस विषय का अनुसंधान इसे इस निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि भागवत 13 वीं सदी में हुए बोपदेव की रचना न होकर, उनसे लगभग एक हजार वर्ष पूर्व ही उसकी निर्मिति हो चुकी थी। बोपदेव ने तो भागवत के विपुल प्रचार की दृष्टि से तद्विषयक तीन ग्रंथों की रचना की थी। उन ग्रंथों के नाम हैं- हरिलीलामृत (या भागवतानुक्रमणी), मुक्ताफल और परमहंसप्रिया। हरिलीलामृत में भागवत के समग्र अध्यायों की विशिष्ट सूची दी गई है तथा मुक्ताफल है भागवत के श्लोकों के, नव रसों की दृष्टि से वर्गीकरण का एक श्लाघनीय प्रयास। ये दोनों ग्रंथ तो क्रमशः काशी व कलकत्ता से प्रकाशित हो चुके हैं किन्तु तीसरा ग्रंथ परमहंसप्रिया, अभी तक प्रकाशित नहीं हो सका। कहना न होगा की कोई भी ग्रंथकार, अपने ही ग्रंथ के श्लोकों के संग्रह प्रस्तुत करने का। प्रयास नहीं किया करता। यह कार्य तो अवांतरकालीन गुणग्राही विद्वान् ही करते है। अन्य प्रमाण इस प्रकार हैं
1) हेमाद्रि में, जो यादव नरेश महादेव (1260/71) तथा तथा रामचन्द्र (1271-1309 ई.) के धर्मामात्य तथा बोपदेव के आश्रयदाता थे, अपने "चतुवर्ग-चिंतामणि" के इतर खण्ड व "दानखंड" में भागवत के श्लोकों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है। कोई भी ग्रंथकार, धर्म के विषय में, अपने समकालीन लेखक के ग्रंथ का आग्रहपूर्वक निर्देश नहीं किया करता।
2) द्वैतमत के आदरणीय आचार्य आनंदतीर्थ (मध्वाचार्य) ने, जिनका जन्म 1199 ई. में माना जाता है, अपने भक्तों का भक्ति-भावना की पुष्टि के हेतु श्रीमद्भागवत के गूढ अभिप्राय को अपने "भागवत-तात्पर्य-निर्णय" नामक ग्रंथ में अभिव्यक्त किया है। वे भागवत को पंचम वेद मानते हैं।
3) रामानुजाचार्य (जन्मकाल 1017 ई.) ने अपने "वेदान्त तत्त्वसार” नामक ग्रंथ में भागवत की वेदस्तुति (दशम स्कंध,
अध्याय 87) से तथा एकादश स्कंध से कतिपय श्लोकों को उद्धृत किया है। इससे भागवत का, 11 वें शतक से प्राचीन होना ही सिद्ध होता है।
4) काशी के प्रसिद्ध सरस्वतीभवन नामक पस्तकालय में वंगाक्षरों में लिखित भागवत की एक प्रति है। इसकी लिपि का काल दशम शतक के आसपास निर्विवाद सिद्ध किया जा चुका है।
5) शंकराचार्यजी द्वारा रचित "प्रबोध-सुधाकर" के अनेक पद्य भागवत की छाया पर निबद्ध किए गए हैं। सबसे प्राचीन निर्देश मिलता है हमें श्रीमद्शंकराचार्य के दादा-गुरु अद्वैत के महनीय आचार्य गौडपाद के ग्रंथों में। अपनी पंचीकरण व्याख्या में गौडपाद ने "जगृहे पौरुषं रूपम्" श्लोक उद्धृत किया है,
जो भागवत के प्रथम स्कंध के तृतीय अध्याय का प्रथम श्लोक है।
आचार्य शंकर का आविर्भाव काल आधुनिक विद्वानों के अनुसार सप्तम शतक माना जाता है। अतः उनके दादा गुरु का काल, षष्ठ शतक का उत्तरार्ध मानना सर्वथा उचित होगा। इस प्रकार गौडपाद (600 ई.) के समय में प्रामाण्य के लिये उद्धृत भागवत, 13 वें शतक के ग्रंथकार बोपदेव की रचना हो ही नहीं सकती। भागवत, कम से कम दो हजार वर्ष पुरानी रचना है। पहाडपुरा (राजशाही जिला, बंगाल) की खुदाई से प्राप्त राधा-कृष्ण की मूर्ति, जिसका समय पंचम शतक है, भागवत की प्राचीनता को ही सिद्ध करती है।
जहांतक भागवत के रूप का प्रश्न है, उसका वर्तमान रूप ही प्राचीन है। उसमें क्षेपक होने की कल्पना का होई आधार नहीं। इसके 12 स्कंध हैं और श्लोकों की संख्या 18 हजार है। इसमें किसी भी विद्वान् का मतभेद नहीं परंतु अध्यायों के विषय में संदेश का अवसर अवश्य है। अध्यायों की संख्या के बारे में पद्मपुराण का वचन है- "द्वात्रिंशत् त्रिशतं च यस्य- विलसच्छायाः।" चित्सुख्याचार्य के अनुसार भी भागवत के अध्यायों की संख्या 332 है (द्वित्रिंशत् त्रिशतं पूर्णमध्यायाः) । परन्तु वर्तमान भागवत के अध्यायों की संख्या 335 है। अतः किसी टीकाकार ने दशम स्कंध में 3 अध्यायों (क्र.12, 13 तथा 14) को प्रक्षिप्त माना है। ___ भागवत ग्रंथ टीकासंपत्ति की दृष्टि से भी पुराण साहित्य में अग्रगण्य है। समस्त वेद का सारभूत, ब्रह्म तथा आत्मा की एकता रूप अद्वितीय वस्तु इसका प्रतिपाद्य है और यह उसी में प्रतिष्ठित है। इसीके गूढ अर्थ को सुबोध बनाने हेतु, अत्यंत प्राचीन काल से इस पर टीका ग्रंथों की रचना होती रही है। वैष्णव संप्रदायों के विभिन्न आचार्यों ने अपने मतों के अनकल इस पर टीकाएं लिखी हैं और अपने मत को भागवत मलक दिखलाने का उद्योग किया है। भागवत में हृदय पक्ष का प्राधान्य होने पर भी, कला पक्ष का अभाव नहीं है। इसका आध्यात्मिक महत्त्व जितना अधिक है, साहित्यिक गौरव भी उतना ही है। भागवत के अंतरंग की परीक्षा करने से ज्ञात होता है कि उसमें दक्षिण भारत के तीर्थ क्षेत्रों की महिमा उत्तर भारत के तीर्थ क्षेत्रों से अधिक गाई गई है। इसमें पयस्विनी, कतमाला. ताम्रपर्णी आदि तामिलनाडु प्रदेश की नदियों का विशेष रूप से उल्लेख है, इसके साथ ही यह वर्णन है कि कलियुग में नारायण परायण जन सर्वत्र पैदा होंगे, परंतु तामिलनाडु में वे बहुसंख्य होंगे। इन विधानों से अनुमान किया जाता है कि भागवत की रचना दक्षिण भारत में विशेषतः तामीलनाडु में हुई है।
श्रीमद्भागवत की प्रमुख टीकाएं1) भावार्थदीपिका- ले.- श्रीधरस्वामी [ई. 13-14 वीं श. (अद्वैत मत)]
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 233
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