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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संगीतदर्पण ले. चतुर दामोदर सोमनाथ के रागविबोध पर आधारित ग्रंथ । इसमें नृत्य का भी विवरण है। (2) ले भट्ट। - संगीतदामोदर - ले. शुभंकर। ई. 15 वीं शती। 7 अध्याय । नृत्य संगीत का रस तथा नायिका की दृष्टि से विचार । संगीतनारायण में उद्धृत । नारदीय शिक्षा के लेखक ने टीका लिखी है । भरतप्रणीत सिद्धान्तों से भिन्न । पूर्वदेशीय परम्परा के नाट्य तत्त्वों का प्रस्तुतीकरण इसमें है। www.kobatirth.org संगीतनारायण ले. गजपति वीर श्री नारायण देव । ई.स. 1700 में रचित चार अध्याय, संगीत, नृत्य, वाद्य तथा गीत प्रबन्ध । इसके उदाहरणों में रचयिता की प्रशंसा है। विद्यारण्य स्वामी कृत संगीतसार का उल्लेख इस ग्रंथ में है । संगीतप्रकाश ले. रघुनाथ । संगीतपारिजात ले. अहोबिल । ई.स. 17 वीं शती । फारसी में अनुवाद। रामामात्य के मत का पुरस्कार। वीणा के तार की लम्बाई से 12 स्वरों का वर्णन इस ग्रंथ में प्रथम किया है। संगीतमकरन्द ले. नारद । ई. 11 वीं शती में रचित । संगीत तथा नृत्य दो भाग । प्रत्येक के चार अध्याय । रागों का वर्गीकरण, और मुख्य रागरागिनियों का विवेचन इसमें है । इस में अभिनवगुप्त का 'महामहेश्वर' उपाधि से उल्लेख किया है। संगीतमकरन्द ले. वेद शहाजी (शिवाजी के पिता) के सभाकवि विषय संगीत तथा नृत्य पाश्चात्य तथा यावनी कला से प्रभावित नृत्य प्रकार इसमें भी दर्शित हैं। शहाजी (शिवाजी के पिता) मकरन्दभूग नाम से निर्दिष्ट समय ई. 17 वीं शती पूर्वार्ध लेखक की अन्य रचना है- संगीतपुष्पांजलि। संगीतमाधवम् ले.- गोविन्ददास वंगप्रान्तीय संगीतज्ञ कवि । ई. 17 वीं शती । गीत-गोविंद की शैली में रचित गीतिकाव्य । संगीतमाधवम् ले प्रयोधानन्द सरस्वती ई. 16 वीं शती। कृष्णचरित विषयक गीतिकाव्य । 1 - - संगीतमुक्तावली ले. देवेन्द्र। ई. 15 या 16 वीं शती । (2) ले. देवनाचार्य। इसमें राजस्तुतिपर गीत हैं। संगीतरघुनन्दनम् ले. बघेलखण्ड के अधिपति विश्वनाथसिंह । इसे गीतगोविंद की पूर्णतः अनुकृति कहा जा सकता है। यह 16 सर्गों में विभाजित है। कथा का तत्त्व रामकथा है। शैली की दृष्टि से यह मधुर गीतिनाट्य है । (2) ले.- प्रियदास । सर्ग - 16 । ई. 19 वीं शती । संगीतरत्व ले. राधामोहन सेन। 1 संगीतरत्नाकर - ले. शाङ्गदेव (निःशंक शाङ्गदेव) ई. 12 वीं शती देवगिरि (दौलताबाद- महाराष्ट्र) के निवासी भूपति सिंहल (इ.स. 1123-1169) के लेखापाल । संगीत के पूर्वसूरियों के मतों का विस्तृत विवेचन इस ग्रंथ में है । संगीत के क्षेत्र में यह प्रथम क्रमांक की रचना मानी जाती है। यह 396 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केवल पूर्वाचायों के मतों का संक्षेप ही नहीं है। लेखक ने अनेक प्रश्नों की मौलिक चर्चा तथा परिभाषाएं भी की है। इसमें लिखित विस्तृत राग-ताल- विवेचन लेखक के समय का है। वर्तमान पद्धति में बहुत परिवर्तन हो गए हैं। यह रचना शास्त्रीय इतिहास की दृष्टि से उपयुक्त है। नाट्य तथा काव्य के शास्त्रकारों में जो स्थान आचार्य अभिनवगुप्त को है, वही स्थान संगीत के शास्त्रकारों में आचार्य शागदेव को है। संगीत के विविध पक्षों का सर्वांगीण विवेचन प्रस्तुत करने वाला उनका बृहदाकर ग्रंथ संगीतशास्त्र का आकर ग्रंथ है। इस ग्रंथ का नाम संगीतरत्नाकर इस कारण है कि इसमें प्राचीन संगीत विशारद आचायों के मतसागर का मन्थन करके शार्ङ्गगदेव ने सारोद्धार रूप इस ग्रन्थ की रचना की है। लेखक ने अपना परिचय दिया है। उनके पूर्वज वृषणऋषि के कुल के थे। वे काश्मीर के निवासी थे। उनमें एक पं. भास्कर दक्षिण चले गये। उनके पुत्र सोढल हुए और उनके पुत्र शाईगदेव ने यादववंशीय सिंगणदेव के शासनकाल में पद, प्रतिष्ठा तथा समृद्धि अर्जित की। सिंगण का काल 1230 ई. के आसपास माना गया है। शाईगदेव ने परिचय पद्यों में दर्शन, संगीत, आयुर्वेद आदि शास्त्रों में अपने पांडित्य की चर्चा की है। वे अपने को भ्रमणश्रांता सरस्वती का विश्राम स्थान भी घोषित करते हैं। "नानास्थानेषु संभ्रांता परिश्रांता सरस्वती । सहवासप्रिया शश्वद् विश्राम्यति तदालये " । संगीतरत्नाकर के विषय के सामान्य परिचय से ही विविध शास्त्रों में उनकी अप्रतिहत गति का बोध होता है। संगीतरत्नाकर में सात अध्याय हैं। क्रमशः उनके शीर्षक हैं : (1) स्वर, (2) राग, (3) प्रकीर्णक, (4) प्रबंध, (5) ताल, (6) वाद्य, (7) नृत्य प्रथम अध्याय में संगीत का सामान्य लक्षण बता कर अध्यायों की विषयवस्तु का संग्रह है । पिंडोत्पत्ति, नाद, स्थान, श्रुति, आदि के देवता, ऋषि, छंद तथा रसों का विवरण आदि विषय हैं। सप्तम अध्याय के अन्तर्गत नाट्यशास्त्र के आधार पर रसविषयक निरूपण किया गया है। पूर्ववर्ती आचायों में उन्होंने मातृगुप्त, नंदिकेश्वर, रुद्रट, नान्य- भूपाल, भोज तथा भरत के व्याख्याकार लोल्लट, उद्भट, शंकुक कीर्तिधर तथा अभिनवगुप्त का उल्लेख किया है। इस ग्रंथ पर नाट्यशास्त्र के समान अनेक टीकाएं लिखी गई हैं। श्री कृष्णमाचारियर ने संस्कृत की पांच तथा ब्रजभाषा में एक टीका प्राप्त होने का उल्लेख किया है। संस्कृत टीकाकारों में उल्लेखनीय है (1) सिंहभूपाल (2) केशव, (3) कल्लिनाथ, ( 4 ) हंसभूपाल तथा (5) कुंभकर्ण । ब्रजभाषा के पं. गंगाराम ने सेतु नामक टीका लिखी है। इनमें से हंसभूपाल तो सिंहभूपाल का ही रूप है केशन, कौस्तुभ तथा अज्ञात लेखक की चन्द्रिका नामक टीकाओं का उल्लेखमात्र मिलता है चतुर कल्लिनाथ की टीका सुप्रसिद्ध है तथा अधार : For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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