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ले- मैत्रेय नाण। प्रस्तुतों का जीव
भरतार्णव का संक्षेप है।) भरतनाट्यशास्त्र पर अभिनवगुप्ताचार्य नादासक्त मन फिर विषयों की इच्छा नहीं करता। जिस स्थान की अभिनवभारती नामक टीका अप्रतिम मानी गई है। पर चित्त का लय होता है वहीं है विष्णु का परमपद। जिस नाट्यसंहार - ले- वीरभट्टदेशिक। आंध्र के काकतीय नृपति समय योगी शब्दातीत ब्रह्मप्रणव के नाद में मग्न रहता है रुद्रदेव का आश्रित। ई. 12 वीं शती।
उस समय उसका शरीर मृतवत् होता है। नाट्यसर्वस्वदीपिका - ले- नारायण शिवयोगी।
नानकचन्द्रोदय- कवि देवराज व गंगाराव। इसमें सिक्ख नाथमुनिविजयचंपू - ले- मैत्रेय रामानुज। समय- अनुमानतः संप्रदाय के आद्य प्रवर्तक नानक के चरित्र का वर्णन है। 16 वीं शताब्दी का अंतिम चरण। प्रस्तुत चंपू-काव्य में नानार्थ-शब्द - ले. माथुरेश विद्यालंकार। (ई. 17 वीं शती) नाथमुनि से रामानुज पर्यंत विशिष्टाद्वैतवादी आचायों का जीवन-वृत्त स्वलिखित शब्दरत्नावली का अंश। वर्णित है। इसका कवित्वपक्ष दुर्बल है और इसमें विवरणात्मकता नानार्थसंग्रह - ले. अजय पाल । शब्दकोश । ई. 11 वीं शती। का प्राधान्य है।
नानाशास्त्रीयनिर्णय - ले. वर्धमान। पिता- भवेश। ई. 16 नादकारिका - ले- रामकंठ। पिता-नारायण। इस पर रामकंठ वीं शती। के शिष्य अघोर शिवाचार्य ने टीका लिखी है।
नान्दीश्राद्धपद्धति - ले. रामदत्त मंत्री। पिता- गणेश्वर । नाद-दीपक - ले-भट्टाचार्य। इस ग्रंथ में आधुनिक संगीत
नाभिनिर्णय - ले. पुण्डरीक विठ्ठल। विषयक विविध तंत्रों की जानकारी है।
नाभिविद्या - श्लोक 173। इसमें त्रिपुरसुन्दरी के मंत्र, (जिन्हें नादबिंदूपनिषद् - ले- ऋग्वेद से संबंधित 56 श्लोकों का
"नाभिविद्या" कहते हैं) के जप की पद्धति वर्णित है। एक नव्य उपनिषद् । ग्रंथारंभ में प्रणव की तुलना पक्षी से
नामलिंगाख्या -कौमुदी- ले. रामकृष्ण भट्टाचार्य (ई. 16 वीं की गई है। तदनुसार 'अ' है पक्षी का दाहिना पंख 'उ' बाया
शती) अमरकोश की टीका । पंख 'म' पूंछ, अर्धमात्रा है सिर, सत्त्व, रज, तम ये गुण हैं
नायिकासाधनम् - 1) श्लोक- 157| विषय- 1। सुन्दरी, पैर, सत्य है शरीर, धर्म है दाहिनी आंख, अधर्म बांई आंख,
2) मनोहरी, 3) कनकवती,? 4) कामेश्वरी,-5) रतिकरी, भूलोक है पोटरियां, भुवर्लोक हैं घुटने, स्वलोक जंधाएं, महर्लोक
6) पद्मिनी, 7) नटी, 8) अनुरागिणी नामक अष्टनायिकाओं है नाभी, जनलोक है हृदय और तपोलोक है पक्षी का गला ।
का साधन और विचित्रा, विभ्रमा, विशाला, सुलोचना, मदनविद्या, प्रणव की मात्राओं में से अकार अग्नि की, उकार वायु
मानिनी, हंसिनी, शतपत्रिका, मेखला, विकला, लक्ष्मी, महाभया की, मकार बीजात्मक की, तथा अर्धमात्रा वरुण की मानी गई
विद्या, महेन्द्रिका, श्मशानी विद्या, वटयक्षिणी, कपालिनी, चंद्रिका, है। इनके अतिरिक्त घोषणी, विद्युत्, पतंगिनी, वामवायुवेगिनी,
घटना विद्या, भीषणा, रंजिका, विलासिनी नामक 21 अवांतर नामधेयी, ऐन्द्री, वैष्णवी, शांकरी, महती, धृति, नारी और ब्राह्मी
शक्तियों की साधना। नामक और भी प्रणव की मात्राएं हैं।
नारदपंचरात्रम् - इसमें लक्ष्मी, ज्ञानामृतसागर, परमागम-चूडामणि, योगी को सुनाई देने वाले विविध नादों का वर्णन भी इस
पौष्कर, पाद्म और बृहद्ब्रह्म नामक छः संहिताएं अन्तर्भूत हैं। उपनिषद् में इस प्रकार किया गया है :
श्लोक 12 हजार। आदौ जलधि-जीमूत-भेरी-निर्झर-सम्भवः ।
नारदपरिव्राजकोपनिषद् - अथर्ववेद से संबद्ध एक नव्य मध्ये मर्दलशब्दाभो घण्टा-काहलजस्तथा।।
उपनिषद्। इसके १ भाग हैं। प्रत्येक भाग की संज्ञा है अन्ते तु किङकिणी-वंश-वीणा-भ्रमर-निःस्वनः।
"उपदेश"। नारद ने यह उपनिषद् शौनकादि मुनियों को कथन इति नानाविधा नादाः श्रूयन्ते सूक्ष्म-सूक्ष्मतः ।।
किया है। इसके पहले उपदेश में बताया गया है कि ब्रह्मचर्य,
गार्हस्थ व वानप्रस्थ इन तीन आश्रमों मे जीवन किस प्रकार अर्थ- प्रथम समुद्र, मेघ, भेरी, झरने की ध्वनि जैसे आवाज, व्यतित किया जाय। क्रमांक 2 से 5 तक के उपदेशों में फिर नगाडा, घंटा मानकंद के आवाजों जैसे नाद और अंत संन्यास- विधि का वर्णन, संन्यास के भेद और संन्यासी के में क्षुद्र घंटा, वेणु (मुरली), वीणा एवं भ्रमर के आवाजों कर्तव्य अंकित हैं। 6 वें उपदेश में ज्ञानी पुरुष का रूपकात्मक जैसे नाद इस प्रकार अनेकविध सूक्ष्मातिसूक्ष्म नाद सुनाई देते हैं।
वर्णन निम्न प्रकार हैंजिस नाद में मन पहले रमता है, वही पर स्थिर होकर ज्ञानी पुरुष का ज्ञान है शरीर, संन्यास है जीवन, शांति बाद में उसी में वह विलीन होता है। फिर बाह्य नादों को व दांति हैं नेत्र, मन है मुख, बुद्धि है कला, पच्चीस तत्त्व भूलकर मन चिदाकाश में विलीन होता है और ऐसे योगी __ हैं अवयव और कर्म व भक्ति अथवा ज्ञान व संन्यास हैं बाहु। को उन्मनी अवस्था प्राप्त होती है। जिस प्रकार मधु का सेवन इसके पश्चात् इसी उपदेश में हृदय पर निर्माण होने वाली करने वाला भ्रमर सुगंध की अपेक्षा नहीं करता, उसी प्रकार विविध भावनाओं की उर्मियां कहां कहां पर निर्माण होती है
158 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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