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इसका वर्णन है। - सातवें उपदेश में यति के आचार-नियम बताये हैं और आठवें तथा नौवें उपदेश में संसारतारक प्रणव का वर्णन है। नारदपुराणम्- (बृहन्नारदीयपुराणम्) - सनत्कुमारों द्वारा नारद को कथन किया जाने के कारण इसे नारद पुराण कहते हैं। इस उपपुराण की श्लोकसंख्या 25 हजार बताई गई है, किन्तु उपलब्ध प्रति के केवल 18 हजार 101 श्लोक हैं। इसके दो भाग हैं- पूर्व भाग में 125 अध्याय हैं और उत्तर भाग में 82 अध्याय । पूर्वभाग में चार पाद हैं। उत्तर भाग अखंड है।
नारद पुराण में समाविष्ट विषय इस प्रकार हैं- गंगा-माहात्म्य, भगीरथकृत गंगावतरण की कथा, धर्माख्यान, वापीकूपतडागादि की निर्मिति, तिथिव्रत, दान, प्रायश्चित्त, युगचतुष्टय- परिस्थिति, नाममाहात्म्य, सृष्टि-निरूपण, ध्यानयोग, मोक्षधर्म-निरूपण, निवृत्ति-धर्म का वर्णन मंत्रसिद्धि, मंत्रजप, दीक्षा-विधि, गायत्री-विधान, महा-विष्णुमन्त्र का जपविधान, नृसिंहमंत्र, हनुमन्मंत्र, महेश्वरमंत्र, दुर्गामंत्र, एकादशी-माहात्य के प्रसंग में रुक्मांगद-मोहिनी की कथा, पुरुषोत्तमक्षेत्रयात्रा, समुद्र-स्नान, राम-कृष्ण-सुभद्रादर्शन, कुरुक्षेत्रमाहात्य, बद्रीक्षेत्रयात्रा, पुष्करक्षेत्रमाहात्म्य, नर्मदातीर्थमाहात्म्य, रामेश्वर-माहात्य, मथुरा-वृंदावन माहात्म्य आदि ।
प्रस्तुत पुराण का काल ई 6 वीं शती शताब्दी के पूर्व का माना जाता है। अल् बेरुनी (7 वीं शती) ने इसका उल्लेख किया है। पद्मपुराण में इस पुराण को सात्त्विक कहा गया है। इस पुराण में एकादशी और श्रीविष्णु का माहात्म्य विशेष रूप से है। अतः इसे वैष्णव पुराण माना जाता है। इस पुराणांतर्गत विषयों की विविधता को देखते हुए विद्वानों ने इसे ज्ञानकोश ही बताया है।
नारद-पुराण ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ है क्यों कि इसके 92 के 109 तक के अध्यायों में पूरे अठारह पुराणों की विस्तृत सूचि दी गई है। इस सूचि से संबंधित पुराण का मूल भाग कौनसा है इस तथ्य का निश्चित पता चला जाता है। ___इस पुराण में अनेक विषयों का निरूपण है जिनमें मुख्य हैं- मोक्षधर्म, नक्षत्र, व कल्प-निरूपण, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, गृहविचार, मंत्रसिद्धि, देवताओं के मन्त्र, अनुष्ठान-विधि । अष्टादश-पुराण विषयानुक्रमणिका, वर्णाश्रम धर्म, श्राद्ध, प्रायश्चित्त, सांसारिक कष्ट व भक्तिद्वारा सुख। इसमें विष्णुभक्ति को ही मोक्ष का एक मात्र साधन माना गया है तथा अनेक अध्यायों में विष्णु, राम, हनुमान, कृष्ण, काली व महेश के मन्त्रों का विश्ववत् निरूपण है। सूत-शौनक संवाद के रूप में इस पुराण की रचना हुई है। इसके प्रारंभ में सृष्टि का संक्षेप वर्णन किया गया है। तदनंतर नाना प्रकार की धार्मिक कथाएं वर्णित हैं।
प्रस्तुत पुराण में दार्शनिक विषयों की जो चर्चा की गई है
वह महाभारतांतर्गत शांतिपर्व में की गई चर्चा के अनुसार है (पूर्वभाग 42 से 45 तक)।
नारदपुराण के तत्त्वज्ञानानुसार नारायण ही अंतिम तत्त्व है। उन्हींको महाविष्णु कहते हैं। उन्हींसे ब्रह्मा-विष्णु-महेश की उत्पत्ति होती है। जिस प्रकार अखिल विश्व में श्रीहरि समाये हुए हैं उसी प्रकार उनकी शक्ति भी। उस शक्ति को श्रीहरि से पृथक् नहीं किया जा सकता। यह शक्ति कभी व्यक्त स्वरूप में रहती है तो कभी अव्यक्त स्वरूप में। प्रकृति, पुरुष और काल हैं उसके तीन व्यक्त स्वरूप ।
प्राणिमात्र को त्रिविध दुःख भोगने ही पडते हैं किन्तु भक्तियोग द्वारा ईश्वर की प्राप्ति होने पर ये सभी दुःख नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य का मन ही बंध और मोक्ष का कारण है। मनुष्य की विषयासक्ति है बंध। इस बंध के दूर होने पर सहज ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। मन का ब्रह्म से संयोग करना ही योग है। भक्तियोग द्वारा ब्रह्मलय साध्य होता है। वह मानव जीवन में भी एक अत्यंत आवश्यक तत्त्व है। उसी के द्वारा ईश्वरी कृपा का लाभ होता है और मनुष्य के इह-परलोक सुरक्षित होते हैं। ___ पुराणों में नारदीय पुराण के अतिरिक्त एक 'नारदीय उपपुराण' भी प्राप्त होता है। इसमें 38 अध्याय व 3600 श्लोक हैं। यह वैष्णव मत का प्रचारक एवं विशुद्ध सांप्रदायिक ग्रंथ है। इसमें पुराण के लक्षण नहीं मिलते। कतिपय विद्वानों ने इसी ग्रंथ को "नारद-पुराण" मान लिया है। इसका प्रकाशन एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता से हुआ है।
"नारद-पुराण" के दो हिन्दी अनुवाद हुए हैं। 1) गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित और 2) रामचंद्र शर्मा द्वारा अनूदित व मुरादाबाद से प्रकाशित। नारद-भक्तिसूत्रम्- भक्तियोग का व्याख्यान करने वाला एक प्रमाणभूत सूत्रग्रंथ। इसमें कुल 84 सूत्र हैं। इसका प्रथम सूत्र है-“अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः"-यहां से आगे भक्ति का व्याख्यान कर रहे हैं। आगे के दो सूत्रों में भक्ति का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है
सा त्वस्मिन् परमप्रेमस्वरूपा। अमृतस्वरूपा च। अर्थ भक्ति परमात्मा के प्रति परमप्रेमरूप है और अमृत (मोक्ष) स्वरूप भी है।
इस स्वरूप के कथन के पश्चात् नारद ने पहले दूसरों के भक्तिलक्षण बतलाकर फिर स्वयं के भक्ति लक्षण इस प्रकार बताय है-.
नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारता
तविस्मरणे परमव्याकुलतेति । __अर्थ- नारद के मतानुसार भक्ति का लक्षण अपने सभी कर्म भगवंत को अर्पण करते हुए रहना तथा उस भगवंत के विस्मरण से परम व्याकुल होना है। समस्त ज्ञान का ही नहीं
तद्वर
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/159
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