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बनता वह उसके दस्युदलचाता है। परंत लूटते हुए दीखन
चरित्र। अंकसंख्या- नौ। ___ अकाल-पीडित बंगाल, सूदखोरी, घुसखोरी आदि समसामयिक तत्त्वों का प्रदर्शन इस नाटक में है। सभी संवाद संस्कृत में हैं। गीतों की प्रचुरता तथा सुमति, नियति आदि प्रतीक-भूमिकाएं इसकी विशेषताएं हैं। अग्निदाह, लूटमार, दुर्भिक्ष्य, भिक्षा मांगना, नौकाविहार, मत्स्यभक्षण, च्यवन द्वारा फांसी लगाकर मर जाना आदि विरल दृश्यों का समावेश इसमें है। कथासाररत्नाकर नामक पहलवान दारिद्र से पीडित होकर फांसी लगाना चाहता है, इतने में किसी स्त्री को डाकू लूटते हुए दीखते हैं। वह उस स्त्री को बचाता है। परंतु डाकू से प्रभावित होकर वह उसके दस्युदल में समाविष्ट होकर दस्युदल-प्रमुख बनता है। धनिकों को लूटकर दरिद्रों की रक्षा करना उसका ध्येय रहता है।
उस प्रदेश का राजा कामेश्वर अत्याचारी है। उसका कोश रत्नाकर लूटता है। उस के पुत्र को तथा पिता को कामेश्वर पिटवाता है तब रत्नाकर बदला लेने की सोचता है। वह कामेश्वर को बन्दी बनाता है। किन्तु च्यवन (रत्नाकर के पिता) उसे छुडाकर, पुत्र को सत्पथ पर लाने हेतु आत्मघात करता है। उस शोक से च्यवन की पत्नी भी मरती है। रत्नाकर का पुत्र क्षय रोग से और पत्नी विष पीकर मरती है। रत्नाकर अकेला बचता है। वह नदी में प्राण देने उद्युक्त है, इतने में "सुमति" प्रकट होकर सन्देश देती है कि शान्तिनिकेतन जाकर भक्ति करो। वहां नारद द्वारा राममंत्र पाकर धन्य होता है। वही बाद में वाल्मीकि बन रामायण की रचना करता है।
अभ्यास करो और उसके पश्चात् मुझसे प्रश्न पूछो"। अपने गुरु की सूचनानुसार रहकर एक वर्ष बाद कबंधी कात्यायन ने पूछा- महाराज, यह प्रजा कहां से निर्माण होती है"। पिप्पलाद ने उत्तर दिया - प्रजापति अर्थात् ब्रह्मा को प्रजोत्पति की आवश्यकता प्रतीत हुई तब उन्होंने तपस्या कर, एक स्त्री-पुरुष की जोडी उत्पन्न की। रयी व प्राण उनके नाम हैं। ये दोनों अनेक प्रकार की प्रजा को उत्पन्न करेंगे, इस हेतु प्रजापति ने इस मिथुन को उत्पन्न किया था।
इसके पश्चात् भार्गव वैदर्भी ने दूसरा प्रश्न पूछा- "भगवन्, कौनसी शक्तियां इस शरीर का धारण करती हैं। उनमें से कौनसी शक्तियां शरीर को प्रकाशित करती हैं और उनमें से सर्वश्रेष्ठ कौन सी है"।
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए पिप्पलाद ने कहा- "आकाश, वायु, अग्नि, आप, पृथ्वी, वाणी, मन, नेत्र व कान ये 9 शक्तियां शरीर का धारण करती हैं। दसवां प्राण इन सभी से श्रेष्ठ है।"।
त्रैलोक्य में जो-जो स्थित है, वह सभी प्राण के अधीन है। प्राण विश्वव्यापी तत्त्व है। वह चिच्छक्ति है। इंद्रियों, मन व बुद्धि के सभी व्यापार प्राण की शक्ति पर चलते हैं। प्राणरूप चिच्छक्ति विलक्षण गतिमान् है, और जीव के जन्म-मरणादि सभी व्यवहार उसकी इच्छानुसार होते हैं। यह दूसरे प्रश्न का गर्भितार्थ है।
फिर कौशल्य अश्वलायन ने पूर्व सूत्र के ही अनुरोध से अपना (तीसरा) प्रश्न पूछा- " हे भगवन्, प्राण किससे उत्पन्न होता है। इस शरीर में वह किस प्रकार आता है। स्वयं को विभक्त करते हुए वह शरीर में किस प्रकार रहता है आदि। ___इस पर पिप्पलाद ने बताया- यह प्राण आत्मा से उत्पन्न होता है। जिस प्रकार देह के साथ छाया रहा करती है, उसी प्रकार आत्मा के साथ यह प्राण रहा करता है। मन के द्वारा किये गए पूर्व कर्म के अनुसार वह शरीर में आता है।
इस प्रश्न के उपरांत सौर्यायणी गार्ग्य ने अपना (चौथा) प्रश्न उपस्थित किया- “हे भगवन, शरीर में कौनसी इंद्रियां निद्रित होती हैं। कौनसी इंद्रिय जाग्रत् रहती हैं। स्वप्न कौन देखता है। सुख किसे होता है।
श्री पिप्पलाद ने उत्तर देते हुए कहा- निद्रिस्त अवस्था में सभी इंद्रियां, अपने विषयों के साथ, स्वयं से श्रेष्ठ व दिव्य ऐसे मन में लीन होती हैं। इस अवस्था को सुषुप्ति कहते हैं। इस शरीररूपी नगरी में प्राणादि वायु जाग्रत् रहते हैं। मन स्वप्रों का अनुभव लेता है। जिस प्रकार पक्षी अपने निवासवृक्ष पर एकत्रित हुआ करते हैं उसी प्रकार पृथ्वी, आप, तेज, वायु व आकाश, अपने तन्मात्र,उनके विषय आदि सभी, आत्मा में लीन होकर विश्रांति लेते हैं।
प्रश्नकौमुदी (ज्योतिषकौमुदी) - ले. नीलकण्ठ। ई. 16 वीं शती। प्रश्नतन्त्रम् - केरल सिद्धान्त के अन्तर्गत तांत्रिक ग्रंथ । श्लोक3601 प्रश्नार्थरत्नावली - ले. लाला पण्डित, काश्मीरी। ज्योतिःशास्त्रीय रचना। प्रश्नावलीविमर्श - डा. श्री. भा. वणेकर, नागपुर। भारत सरकार के संस्कृतायोग की प्रश्नावलि का सविस्तर परामर्श इस निबंध लिया गया है। प्रश्नोपनिषद् - यह उपनिषद् अथर्ववेद से संबद्ध है। पिप्पलाद ऋषि के 6 शिष्यों ने उन्हें 1-1 प्रश्न पूछा, और पिप्पलाद ने उन प्रश्नों समर्पक उत्तर दिये। इसी लिये प्रस्तुत उपनिषद् को उक्त नाम प्राप्त हुआ। इसका उपक्रम निम्न प्रकार है___एक बार सुकेश भारद्वाज, शैल्य सत्यकाम, सौर्यायणी गाये, कौशल्य आश्वलायन, भार्गव वैदर्भी व कबंधी कात्यायन नामक 6 ब्रह्मनिष्ठ शिष्य अपने गुरु पिप्पलाद के पास आकर उनसे ब्रह्म-विद्या बताने की प्रार्थना की तब पिप्पलाद ने कहा, "तुम लोग यहां रहकर एक वर्ष तप, ब्रह्मचर्य व श्रद्धा का पहले
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 207
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