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नृपति। गुरु- नागार्जुन । कुल संख्या 400। धर्मपाल तथा चन्द्रकीर्ति द्वारा इस पर टीका लिखी है। व्हेन सांग ने इसके उत्तरार्ध का धर्मपाला टीका सहित चीनी अनुवाद किया था । उस में इसे “शतशास्त्रवैपुल्य" की संज्ञा है । चन्द्रकीर्ति टीका तिब्बती अनुवाद के रूप में उपलब्ध है। कुछ मूल संस्कृत अंश भी प्राप्त होते हैं। प्रथम भाग धर्मशासन शतक तथा दूसरा विग्रहशतक नाम से ज्ञात है। विषय- शून्यवाद । चतुःशतकम् - ले मातृचेट। 400 श्लोकों का स्तोत्रकाव्य । यह मूल संस्कृत में उपलब्ध नहीं परंतु तिब्बती अनुवाद सुरक्षित है जिसमें इसका अभिधान 'वर्णनार्हवर्णन' है टायलन का आंग्लानुवाद इण्डियन एण्टिक्वेरी में प्रकाशित हो चुका है। चतुःशतकटीका ले चन्द्रकीर्ति आचार्य आर्यदेवरचित चतुःशती स्तोत्र की टीका । उपलब्ध प्रारम्भिक संस्कृत अंश म. म. हरप्रसाद शास्त्री द्वारा सम्पादित। इसके 8 से 16 परिच्छेद तक मूल और व्याख्या विधुशेखर शास्त्री द्वारा संस्कृत में सम्पादित हुए हैं। शून्यवाद के सिद्धान्तों के स्पष्टीकरणार्थ यह महत्त्वपूर्ण रचना है ।
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चतुःशतीटीका ( नामान्तर अर्थरत्नावली या नामकेश्वर)
- विद्यानन्द | गुरु-रत्नेश । अध्याय-5। बहुरूपाष्टक की अंशभूत चतुःशती पर यह व्याख्यान है। विषय- देवी त्रिपुरसुन्दरी की तांत्रिक पूजा। चतुःशती (नारदीय)
400 अध्याय-6 1
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पार्वती - ईश्वर संवाद रूप । श्लोक
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चतुःस्तव - नागार्जुन । शून्यवादी बौद्धाचार्य । भक्तिरसपूर्ण चार स्तोत्रों का संग्रह । इसका तिब्बती अनुवाद ही उपलब्ध है। चन्दनषष्टीकथा ले श्रुतसागरसूरि जैनाचार्य ई. 16 वीं शती । चन्दनषष्ठी व्रतपूजा - ले- शुभचन्द्र । जैनाचार्य । ई. 16-17 शती । चन्दनाचरितम् - ले- शुभचन्द्र जैनाचार्य । ई. 16-17 शती । चन्द्रकलाकल्याणम् (नाटक) ले नृसिंहकवि ई. 18 वीं शती। मैसूरनिवासी प्रथम अभिनय गरलपुरीश्वर के वसन्तोत्सव के अवसर पर । ऐतिहासिक कथावस्तु । प्रधान रस- शृङ्गार । कथासार - कुन्तल के राजा रत्नाकर की पुत्री चन्द्रकला पर नायक नंजराज अनुरक्त है । विदूषक तथा चन्द्रकला की चेटियों की सहायता से दोनों का मिलन होता है। भगवती अम्बिका द्वारा स्वप्न में सन्देश पाकर स्वयंवर आयोजित करते हैं। उसमें जराज भी आमंत्रित है। चन्द्रकला उन्हीं को जयमाला पहनाती है। चन्द्रचूडचरित ( काव्य ) ले- उमापतिधर । राजा चाणक्यचन्द्र के निजी वैद्य । राजा द्वारा पारितोषिक प्राप्त । चन्द्रज्ञानम् - चन्द्रहाससंहितान्तर्गत शिव चन्द्र संवादरूप। विषयसंसार की विविध वस्तुओं की वास्तविक प्रकृति के संबंध में विवेचन | चन्द्रज्ञानागमसंग्रह शिव-पार्वती संवादरूप अध्याय 15
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104 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड
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विषय- षडाम्नायों, पीठों तथा श्रीचक्र के लक्षण । चक्र के मध्य में देवताओं का प्रतिपादन। श्रीविद्योपासना की प्रशंसा । श्रीविद्यासन्ध्यानुष्ठान, श्रीविद्यान्यास, श्रीविद्याजपकल्प, पूजा के स्थान समय का निरूपण, चक्र की आराधना का फल, शक्तिपूजा का फल, शक्त- शाक्तों के आचार और दीक्षाविधि । चन्द्रदूतम् ले. कृष्णचन्द्र कलंकार ई. 18 वीं शती । चन्द्रप्रज्ञप्ति - ले. अमितगति (द्वितीय)। जैनाचार्य। ई. 10 वीं शती।
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चन्द्रप्रभचरित - ले. शुभचन्द्र जैनाचार्य । ई. 16-17 श. । चन्द्रप्रभा ले. म.म. विधुशेखर शास्त्री । जन्म - 1870 1 प्रणयप्रधान गद्यबन्ध | चंद्रमहीपति - ले. कविराज श्रीनिवासशास्त्री । राजस्थान निवासी । बीसवी शताब्दी का सुप्रसिद्ध उपन्यास। इसकी रचना कादम्बरी की शैली पर हुई है। ग्रंथ का निर्माण काल ई. 1933 और प्रकाशन काल ई. 1958 है। लेखक ने स्वयं ही इसकी "पार्वती विवृति" लिखी है इस कथा कृति में राजा चंद्र महीपति के चरित्र का वर्णन है, जो प्रजा के कल्याण के लिये अपनी समस्त संपत्ति त्याग कर देता है। लेखक ने सर्वोदय की स्थापना को ध्यान में रख कर ही नायक के चरित्र का निर्माण किया है। उपन्यास में 9 अध्याय ( निश्वास) और 296 पृष्ठ हैं। गद्य के बीच-बीच में श्लोक भी पिरोये गये हैं। चन्द्रवंशम् - ले, चन्द्रकान्त तर्कालंकार । समय- 1836-1908 ई. । रघुवंश से प्रभावित महाकाव्य । चन्द्रव्याकरणम्- ले. चन्द्रगोमी (देखिए चान्द्र व्याकरण) । चन्द्रशेखरचंपू ले. रामनाथ कवि । पिता रघुनाथ देव । कवि की मृत्यु 1915 ई में । यह चंपू काव्य पूर्वार्ध व उत्तरार्ध दो भागों में विभक्त है । पूर्वार्ध में 5 उल्लास हैं। इसमें ब्रह्मावर्त नरेश पौष्य के जीवन-वृत्त पुत्रोत्सव, मृगया आदि का वर्णन है। उत्तरार्ध अपूर्ण रूप में प्राप्त होता है । पूर्वार्ध का प्रकाशन कलकत्ता व वाराणसी से हो चुका है। चन्द्रशेखरचरितम् ले दुःखभंजन वाराणसी के निवासी ई. 18 वीं शती । चन्द्रशेखरविलासम्- ले तंजौरनरेश शाहजी महाराज। ई. 18 वीं शती, सर्वप्रथम हस्तलिखित प्रति सन 1701 की है | यक्षगान कोटि की यह रचना तेलगु भाषा से संस्पृष्ट है। शिष्य और एक मुनि का संवाद तेलगु में है। सुबोध, संगीतमयी शैली । विविध रागों की सूचना । रंगमंच पर सूत्रधार अन्त तक उपस्थित रहता है। कथासार इन्द्र की सभा अप्सराओं का नृत्यगान इतने में सभी देवता भयभीत होकर आते है। इन्द्र से निवेदन करते हैं कि कालकूट से सब आतंकित हैं। परंतु इन्द्र, ब्रह्मा तथा विष्णु उनका समाधान करने में असमर्थ हैं । अन्त मे शिवजी उन्हें आश्वस्त करतें है कि मैं कालकूट
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