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नामक टीका लिखी है।
सरस्वती ।
भगवद्भक्तिरसायनम्- ले. - भक्तियोगविषयक एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ भगवद्भक्तिविलास से गोपालभट्ट प्रबोधानन्द के शिष्य 20 विलासों में पूर्ण । वैष्णवों के लिए रचित । कलकत्ता में सन् 1845 में प्रकाशित ।
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मधुसूदन
भगवद्भास्कर (या स्मृतिभास्कर) ले. नीलकण्ठभट्ट ई. 17 वीं शती । यमुना और चंबल नदियों के संगम समीपस्थ प्रदेश के बुंदेला राजा श्री भगवंतदेव थे उनके आश्रित धर्मशास्त्रज्ञ नीलकंठ थे । आश्रयदाता के लिये "भगवद्भास्कर" नामक एक बृहद् ग्रंथ की रचना की थी। धार्मिक और दीवानी कानून के बारे में इस ग्रंथ को ज्ञानकोश मानना युक्त होगा। इस ग्रंथ के संस्कारमयूख, कालमयूख, श्रद्धमयूख, नीतिमयूख, व्यवहारमयूख, दानमयूख, उत्सर्गमयूख, प्रतिष्ठामयूख, प्रायश्चित्तमयूख, शुद्धिमयूख आदि बारह भाग हैं, जिनमें धर्मशास्त्रांतर्गत विविध विषयों का विवेचन किया गया है। व्यवहारमयूख नामक प्रकरण (भाग) बड़ा महत्त्वपूर्ण है। उसे गुजरात तथा महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों के उच्च न्यायालयों में प्रमाण माना जाता था। मिताक्षरा के पश्चात् इसी ग्रंथ को उच्चतम स्थान प्राप्त हुआ है। नीतिमयूख में राज्यशास्त्र विषयक सभी तथ्यों पर विचार किया गया है। भगवद्भास्कर में सर्वप्रथम राज्याभिषेक के कृत्यों का विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है। फिर राज्य के स्वरूप व सप्तांगों का निरूपण है। इसके निर्माण में मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, कामंदक नीतिसार, वराहमिहिर, महाभारत व चाणक्य के विचारों से पूर्णतः सहायता ली गई है। स्थान स्थान पर इनके वचन भी उद्धृत किये गए हैं। इसमें राज्यकृत्य, अमात्यप्रकरण, राष्ट्र, दुर्ग, चतुरंग बल, दूताचार, युद्ध, युद्धयात्रा, व्यूह रचना स्कंधावार युद्धप्रस्थान के समय के शकुन व अपशकुन आदि विषय अत्यंत विस्तार के साथ वर्णित हैं। सन 1880 में वाराणसी में प्रकाशित।
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भगवन्नामामृतरसोदय ले. बोधेन्द्रसरस्वती गुरु विश्वाधिपेन्द्र
अनेक कवियों के संस्कृत गेय काव्यों
श्लोक 3001 भजनोत्सवकौमुदी का संकलन । भंजमहोदय- (प्रकरण ) ले. नीलकण्ठ । ई. 18 वीं शती। अंकसंख्या दस विषय केओझर के भंजवंशी राजाओं का आनुवंशिक विवरण प्रधान रूप से राजा बलभद्र भंज (1764-1792) का परिचय । ऐतिहासिक युद्धों के समसामयिक वर्णन के कारण यह रूपक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। रंगमंच पर केवल प्रियंवद तथा अनङ्गकलेवर अपने संवादों द्वारा इतिवृत्त दर्शाते हैं। संवाद प्रायः पद्यात्मक है ।
भट्ट - संकटम् (प्रहसन ) ले. जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894 ) संस्कृत "साहित्य परिषद पत्रिका" में सन 1926 में कलकत्ता से प्रकाशित। कलकत्ता में सरस्वती महोत्सव में अभिनीत अंकसंख्या पांच कथासार यज्ञपरायण भट्ट अपनी कुरूप, कर्कशा पत्नी से त्रस्त है, किन्तु यज्ञ में सहधर्मिणी के रूप में चाहते हैं। यज्ञों से उद्विग्न राक्षस भट्ट पत्नी का अपहरण करते हैं। राजा श्रीभट्ट को दूसरी पत्नी ला देने या उसी पत्नी की स्वर्ण प्रतिमा बनवाने उद्यत हैं किन्तु भट्ट उसके लिए तैयार नहीं। राक्षस भट्टपत्नी का विवाह किसी वानर से साथ कराने का आयोजन करता है, परंतु उसी समय राजा राक्षस पर आक्रमण कर भट्टपत्नी को छुडाता है 1 भट्टचिन्तामणि ले. विश्वेश्वरभट्ट (गागाभट्ट काशीकर ) । भट्टिकाव्यम् - ले भट्टि रचनाकाल 6 वीं शताब्दी का उत्तरार्थ । महाकाव्य का मूलनाम "रावणवध" था परंतु कवि भट्टि के नाम से ही वह प्रसिद्ध है। इसमें 4 काण्ड 22 सर्ग, और 1025 श्लोक हैं। इसकी विशेषता यह है कि कवि द्वारा इसके माध्यम से संस्कृत व्याकरण की शिक्षा देने के एक अभिनव प्रयोग का सूत्रपात किया गया है।
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इसमें कथावस्तु तथा व्याकरण के सिद्धान्तों का गुम्फन इस प्रकार हुआ है- प्रथम (प्रकीर्ण) काण्ड में 5 सर्गों में रामजन्म से सीताहरण तक की कथा है। व्याकरण के अधिकार और अंगाधिकार के नियमों का उल्लेख है। द्वितीय (अधिकार) कांड में 4 सर्गों में ( 6 से 9 सर्ग) सुग्रीव के राज्याभिषेक से हनुमान् के रावण की राजसभा में दूत के नाते उपस्थित होने तक की कथा है । दुहादि द्विकर्मक धातु, कृत्- अधिकार, भावे तथा कर्तरि प्रयोग, आत्मनेपद आदि के उदाहरण हैं । तृतीय ( प्रसन्न ) काण्ड में (10 से 13 सर्ग) सेतुबंध की कथा है। शब्दालंकार तथा अर्थालंकार तथा उनके विभिन्न भेदोपभेद के उदाहरण है। चतुर्थ ( तिङ्न्त ) कांड में (14 से 22 सर्ग) रावणवध से राम के राज्याभिषेक तक की कथा है । व्याकरण शास्त्र के 9 लकार तथा उनका व्यावहारिक दिग्दर्शन है।
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यह काव्य टीका की सहायता से ही समझा जा सकता है। इस पर कुल 14 टीकाएं लिखी गई हैं। उनमें जयमंगला तथा मल्लिनाथी टीका विशेष प्रसिद्ध हैं । भट्टिकाव्य के टीकाकार- 1) कन्दर्पचक्रवर्ती भरतसेन, 2) नारायण विद्याविनोद, 3) पुण्डरीकाक्ष, 4) कुमुदनन्दन, 5) पुरुषोत्तम, 6) रामचन्द्र वाचस्पति, 7) रामानन्द 8 ) हरिहराचार्य, 9) भरत या भरतमल्लिक, 10) जयमंगल, 11) जीवानन्द विद्यासागर, 12 ) मल्लिनाथ, 13) श्रीधर और 14) शंकराचार्य । भद्रकल्पावदानम् 34 अवदानों का संग्रह । उपगुप्त तथा अशोक के संवाद में कथन है। रचना छन्दोबद्ध । स्वरूप तथा विषय विनयपिटक के अनुरूप हैं। समय- क्षेमेंद्रोत्तर काल
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 229
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