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ग्रंथ पिंगलसूत्र पर पूर्णतथा आधारित है। वृत्तमौक्तिक के छह प्रकरण हैं। उसका लेखक चंद्रशेखर उसे पिंगलसूत्र का वार्तिक कहता है। पिंगलसूत्र के टीकाकार : (1) हलायुध, (2) श्रीहर्षशर्मा, (3) वाणीनाथ, (4) लक्ष्मीनाथ, (5) यादवप्रकाश, (6) दामोदर। पिंगलामतम् - पिंगला-भैरव संवादरूप। यह ब्रह्मयामल का एक अंश है। इसमें आगम, शास्त्र, ज्ञान और तंत्र के लक्षण प्रतिपादित हैं। यह ग्रंथ पश्चिमानाय से सम्बध्द है। इसमें आठ प्रकार है । पिच्छिलातन्त्रम् - पूर्व और उत्तर दो खण्डों में विभक्त। उनमें क्रमशः 21 और 24 पटल हैं। इस तन्त्र में मुख्यतया कालीपूजाविधि वर्णित है। साथ ही आनुषंगिक रूप से उपासना के यन्त्र मन्त्र आदि का भी प्रतिपादन है। पिण्डपितृयज्ञप्रयोग - ले. चन्द्रचूडभट्ट। उमापति के पुत्र।। विषय- धर्मशास्त्र। ___ (2) ले. विश्वेश्वरभट्ट (अर्थात् सुप्रसिद्ध मीमांसक गागाभट्ट काशीकर) पिंडोपनिषद् - यह अथर्ववेद से संबद्ध केवल 8 श्लोकों का एक नव्य उपनिषद् है। कतिपय विद्वान् इसे शुक्ल युजर्वेद से संबद्ध मानते हैं। मनुष्य-देह के पंचत्व में विलीन होने पर उसके जीवात्मा का क्या होता है, ऐसा प्रश्न देवताओं ने पूछा । प्रजापति ने जो उत्तर दिया वही यह उपनिषद् है। उसका सारांश इस प्रकार है :- देह का पतन होने पर जीवात्मा उसे छोड जाता है। पश्चात् वह क्रमशः तीन दिन पानी में, तीन दिन अग्नि में, तीन दिन आकाश में और एक दिन वायु में रहता है। दसवें दिन अंत्यक्रिया करने वाला अधिकारी दस पिंड देकर, उस जीवात्मा के लिये शरीर बनाता है। पहले पिंड से संभव, दूसरे पिंड से मांस, तीसरे से त्वचा, चौथे
से रक्त इस क्रम से वह शरीर बनाता है। पितामह-स्मृति - ले. पितामह । “पितामह-स्मृति" के उध्दरण "मिताक्षरा" में प्राप्त होते हैं और पितामह ने बृहस्पति का उल्लेख किया है, अतः डॉ. काणे के अनुसार इनका समय 400 ई. के आसपास आता है। इस स्मृति में वेद, वेदांग, मीमांसा, स्मृति, पुराण व न्याय को भी धर्मशास्त्र के अंतर्गत परिगणित किया गया है। "स्मृति-चंद्रिका" में "पितामह-स्मृति" के व्यवहार विषयक 22 श्लोक प्राप्त होते हैं। पितामह ने न्यायालय में 8 करणों की आवश्यकता पर बल दिया हैलिपिक, गणक, शास्त्र, साक्ष्यपाल, सभासद, सोना, अग्नि व जल। इस स्मृति में व्यवहार का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। पितुरुपदेशः - मूल शेक्सपियर का हैमलेट। अनुवादक रामचन्द्राचार्य। पितदयिता - ले. अनिरुद्ध। साहित्यपरिषद्, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित।
पितृपद्धति - ले. गोपालाचार्य। समय 1450 ई. के उपरान्त । विषय- धर्मशास्त्र। पितृभक्ति - ले-श्रीदत्त उपाध्याय। समय- 13 से 15 वीं शती। इस पर मुरारिकृत टीका है। पितृभक्तितरंगिणी (श्राद्धकल्प) - ले-वाचस्पति मिश्र। पितृमेधप्रयोग - ले- कपर्दिकारिका के एक अनुयायी जो
अज्ञात है। पितृमेधभाष्यम् (आपस्तम्बीय) - ले-गार्ग्य गोपाल । पितृमेधविवरणम् - ले- रंगनाथ । पितृमेधसार - ले- रंगनाथ के पुत्र वेंकटनाथ । पितृमेधसारसुधाविलोचनम् (एक टीका) - ले- वैदिक सार्वभौम। पितृमेधसूत्रम् - ले-गौतम। इसपर अनन्त यज्वा, भारद्वाज, हिरण्यकेशी और कपर्दिस्वामी की टीकाएं हैं। पिष्टपशुखण्डनम् - टीकाकार-शर्मा। गार्ग्यगोत्री । पिष्टपशुमीमांसाकारिका - ले- नारायण । विश्वनाथ के पुत्र । पिष्टपशुखण्डनमीमांसा - ले- नारायण पंडित । पिता- विश्वनाथ । गुरु- नीलकंठ। विषय- यज्ञों में बकरे के स्थान पर पिष्टपशु का प्रयोग करना योग्य इस मत का प्रतिपादन। पिष्टपशुखण्डन-व्याख्यार्थदीपिका -' ले- रक्षपाल । पीठचिन्तामणि - ले- रामकृष्ण । पीठनिरूपणम् - शिव-पार्वती संवादरूप ग्रंथ। सती नाम से प्रसिद्ध भगवती द्वारा दक्षयज्ञ में अपना शरीर त्याग करने पर भगवान् महादेवजी ने उस देह के टुकड़े-टुकडे कर उन्हें विभिन्न प्रदेशों में फेंक दिया। वे ही प्रदेश पीठ नाम से विख्यात है। उन्हीं का विवरण इससे किया गया है।
पीठनिर्णय (या महापीठनिरूपणम्)- पार्वती-शिव संवादरूप ग्रंथ। तंत्रचूडामणि के अन्तर्गत। 51 विद्याओं की उत्पत्ति इस में वर्णित है। सती के शरीर के अवयव गिरने से उत्पन्न हुए पीठ स्थानों में स्थित शक्ति, भैरव आदि का प्रतिपादन है। पीठपूजाविधि - दक्ष-यज्ञ में सतीजी के देहत्याग के बाद जहां-जहां उनके शरीर के अवयव गिरे वहां (पीठों) पर होने वाली तांत्रिक क्रियाएं इसमें वर्णित हैं। पीताम्बरापद्धति - श्लोक- 155। विषय- पीताम्बरा देवी के मंत्र, जप, ध्यान, पूजा, मुद्रा, होम आदि का प्रतिपादन । पीताम्बरापूजापद्धति - श्लोक- 1196 । पीतांबरोपनिषद् - एक नव्य शाक्त उपनिषद् । इसमें पीतांबरादेवी का शांभवी महाविद्या के रूप में इस प्रकार वर्णन किया गया है :
इस देवी के सर्वांग, पीत (पीले) रंग के हैं और वह पीतांबर तथा पीत अलंकार धारण करती है। अतः इसे पीतांबरा
192 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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