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में प्रकाशित । अंक संख्या सात विषय- दुर्गासप्तशती में वर्णित दुर्गादेवी का चरित्र | दुर्गामंत्रविभागकारिका श्लोक- 2151
दुर्गारहस्यम् पटल - 101 विषय- मंत्रविग्रह, पुरश्चर्याविधि, चक्रपूजाविधि इ.
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दुर्गाराधनचन्द्रिका श्लोक- 784। विषय- तंत्रशास्त्र । दुर्गार्चनकल्पतरु ले देवशशिरोमणि लक्ष्मीपति पिताकृष्णानन्द 10 कुसूमों में पूर्ण विषय-पूजा, पाठ आदि का निर्णय प्रतिपदा से पंचमी पर्यंत कृत्य, बिल्व का अभिमंत्रण, अष्टमी, नवमी, दशमी के कृत्य, बलिदान, कुमारीपूजन इत्यादि । दुर्गार्चनामृतरहस्यम् - ले. मथुरानाथ शुक्ल । विषय- तंत्रशास्त्र । दुर्गार्चाकालनिष्कर्ष - ले. मधुसूदन वाचस्पति । दुर्गाचकौमुदी - ले. परमानन्द शर्मा ।
दुर्गार्चाकुर ले. कालीचरण । दो खण्डों में पूर्ण प्रथम में जगद्धात्रीपूजा और द्वितीय में कालिका पूजा है। इसमें दुर्गापूजा को कार्तिक शुक्ल के दिन माना है, किन्तु प्रसिद्ध दुर्गापूजा आश्विन में होती है । दुर्गावती-प्रकाश ले. पद्मनाभ । पिता बलभद्र । सात आलोक (अध्याय) सुप्रसिद्ध रानी दुर्गावती के आश्रय में ग्रंथलेखन हुआ। सात आलोकों के विषय :- समय, व्रत, आचार, व्यवहार, दान, शुद्धि और ईश्वराराधना इत्यादि । दुर्गा-सप्तशती - ले. म. म. विधुशेखर शास्त्री । जन्म 1878 । दुर्गासहस्त्रनामस्तोत्रम् कुर्लागवतान्तर्गत।
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दुर्गेशनन्दिनी बंकिमचंद्र के बंगभाषीय उपन्यास का अनुवाद। अनुवादक- श्रीशैलताताचार्य।
दुर्गोत्सव - ले. उमानन्दनाथ । श्लोक 700 । दुर्गोत्सवकृत्यकौमुदी ले. शम्भुनाथ सिद्धान्तवागीश संवत्सरप्रदीप एवं वर्षकृत्य इन ग्रंथों का उल्लेख है। लेखक कामरूप के राजा की सभा का पण्डित था। ई. 18 वीं शती । दुर्गोत्सवचन्द्रिका ले. भारतभूषण वर्धमान । उडीसा के राजकुमार रामचंद्रदेव गजपति के आदेश से लिखित ।
दुर्गोत्सवतत्त्वम् (दुर्गातत्त्व) ले. रघुनन्दन । दुर्गोत्सवनिर्णय - ले. गोपाल ।
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दुर्गोत्सवप्रमाणम् - ले. शूलपाणि ।
2) ले. श्रीनाथ आचार्यचूडामणि ।
दुर्घटवृत्ति ले. शरणदेव असाधु वा दुःसाध्य पदों के साधुत्व का व्याकरणदृष्ट्या निर्णय देने का प्रयास इसमें है । 2) ले. पुरुषोत्तम देव । ई. 12-13 वीं शती । 3) ले. मैत्रयरक्षित ।
दुर्जन मुखचपेटिका- ले. गंगाधर भट्ट । वल्लभ संप्रदाय में
140 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड
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सर्वमान्य ग्रंथ श्रीमद् भागवत के विषय में प्रस्तुत किये जाने वाले प्रमाणता तथा महापुराणता संबंधी संदेहों का निरसन करने हेतु लिखे गए लघुकलेवर ग्रंथों में से एक ग्रंथ इस पर, पंडित कन्हैयालाल रचित "प्रहस्तिका" नामक व्याख्या प्रकाशित है। पुष्पिका पुष्पिका में व्याख्याकार (पंडित कन्हैयालाल ) "दुर्जन मुख-चपेटिका" के लेखक गंगाधरभट्ट के पुत्र निर्दिष्ट किये गये है। मूल चपेटिका तो लघु है किन्तु " हस्तिका " में विषय का प्रतिपादन बड़े विस्तार के साथ किया गया है। इसी प्रकार के 5 अन्य लघु ग्रंथों के साथ इसका प्रकाशन, "सप्रकाश तत्त्वार्थ- दीपिका-निबंध" के द्वितीय प्रकरण के रूप में मुंबई से 1943 ई. मे किया गया है। दुर्वासस्तृप्तिस्वीकार (नाटक) ले. पं. शिवदत्त त्रिपाठी । दूतघटोत्कचम् (नाटक) ले महाकवि भास इसमें हिडिंबा के पुत्र घटोत्कच के द्वारा, धृतराष्ट्र के पास जाकर दौत्य करने का वर्णन है । अर्जुन द्वारा जयद्रथ के वध की प्रतिज्ञा करने पर, श्रीकृष्ण के आदेश से घटोत्कच धृतराष्ट्र के पास जाता है । वह युद्ध के भयंकर दुष्परिणामों की ओर उनका ध्यान आकृष्ट करता है । धृतराष्ट्र दुर्योधन को समझाते हैं, पर शकुनि की सलाह से वह उनकी एक भी नहीं सुनता। दुर्योधन व घटोत्कच में वाद-विवाद होने लगता है और घटोत्कच युद्ध के लिये दुर्योधन को ललकारता है पर धृतराष्ट्र उसे शांत कर देते हैं। अंत में घटोत्कच अर्जुन द्वारा अभिमन्यु की हत्या का बदला लेने की बात कहकर धमकी देते हुए चला जाता है। इस नाटक में भरतवाक्य नहीं है। इसमें पात्र महाभारतीय हैं परंतु कथा काल्पनिक है । घटोत्कच के दूत बनकर जाने के कारण ही इस नाटक का नाम "दूतघटोत्कच " है । इसका नायक घटोत्कच वीररस के प्रतीक के रूप में चित्रित है। वीरतत्त्व के साथ ही साथ उसमें शालीनता व शिष्टता समान रूप से विद्यमान है। दुर्योधन, कर्ण व शकुनि के चरित्र परंपरागत हैं और वे अभिमानी व क्रूर व्यक्ति के रूप में चित्रित हैं। इस नाटक में वीर व करुण दोनो रसों का मिश्रण है। अभिमन्यु की मृत्यु के कारण करुण रस है तो घटोत्कच व दुर्योधनादि के विवाद में वीर रस है।
दूत-वाक्यम् ले. महाकवि भास एक अंक का यह "व्यायोग" है। (रूपक के एक भेद को व्यायोग कहते हैं ।) इसमें महाभारत के विनाशकारी युद्ध से बचने के लिये पांडवों द्वारा कृष्ण को अपना दूत बनाकर दुर्योधन के पास भेजने का वर्णन है । कथासार नाटक के प्रारंभ में कंचुकी घोषणा करता है कि "पांडवों की ओर से पुरुषोत्तम कृष्ण दूत बनकर आये हैं"। श्रीकृष्ण को पुरुषोत्तम कहने पर दुर्योधन उसे डांट कर वैसा फिर कभी न कहने को कहता है। वह अपने सभासदों से कहता है कि "कोई भी व्यक्ति कृष्ण के आनेपर अपने आसन से खडा न हो। जो व्यक्ति कृष्ण के आगमन
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