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कहते हैं। इसमें यज्ञ, दान, और तप जैसे पावन कर्म अनासक्त वृत्ति से अवश्य करने का आदेश दिया है। कर्म फल के त्याग से, कर्म के इष्ट, अनिष्ट अथवा इष्टानिष्ट फलों से कर्ता मुक्त होता है। त्रिगुणों के कारण कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति, और सुख के भी सात्त्विक राजस और तामस प्रकार होते हैं।
त्रिगुणों के कारण ही मानव में ब्राह्मणादिक चार वर्णों के भेद निर्माण हुए प्रत्येक वर्ण का व्यक्ति अपने नियत कर्मद्वारा परमात्मा की उपासना करने से सिद्धि प्राप्त करता है। अपना चित्त सतत परमात्मा को समर्पण करने वाले पर, परमात्मा की कृपा हो कर वह परम शांति तथा शाश्वत पद प्राप्त करता है । इस प्रकार गीता में प्रतिपादित विषयों का अध्यायशः स्वरूप देखकर यह स्पष्ट होता है की गीता ज्ञान, भक्ति, कर्म, तथा राजयोग का प्रतिपादन करने वाला अखिल मानव जाति का मार्गदर्शक दीपस्तंभ है। हिंदु समाज के सभी सम्प्रदायों में गीता के प्रति परम श्रद्धा है । समस्त उपनिषदों का सारभूत ज्ञान गीता में संगृहीत हुआ है। सभी प्रमुख आचायों ने अपना मन्तव्य प्रतिपादन करने के लिए गीता पर विद्वत्तापूर्ण भाष्य ग्रंथ लिखे हैं। श्री ज्ञानेश्वर महाराज की भावार्थदीपिका अर्थात् ज्ञानेश्वरी नामक मराठी टीका भारतीय (विशेषतः मराठी) साहित्य का सौभाग्यालंकार माना जाता है। हिंदी में संत तुलसीदास व हरिवल्लभदास जैसे संतों ने लिखे छन्दोबद्ध गीता टीका के उल्लेख मिलते हैं। आधुनिक महापुरुषों में लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, योगी अरविन्द, डॉ. राधाकृष्णन वेदमूर्ति सातवळेकर, स्वामी चिन्मयानंद जैसे विद्वानों ने देशकाल - परिस्थितीसाक्षेप गीता के भाष्य ग्रंथ लिखे हैं। आचार्य विनोबाजी के गीता प्रवचन तथा गीताई नामक समश्लोकी अनुवाद अत्यंत लोकप्रिय हुए हैं। संसार की सभी प्रगल्भ भाषाओं में गीता के अनुवाद हो चुके हैं। गीता की इस योग्यता तथा मान्यता के कारण संस्कृत भाषा में रामगीता, शिवगीता, गुरुगीता हंसगीता, पांडवगीता, आदि 17 प्राचीन प्रसिद्ध गीता ग्रंथ प्रचलित हुए तथा आधुनिक काल में रमणगीता इत्यादि दो सौ से अधिक "गीता" संज्ञक ग्रंथ निर्माण हुए हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के प्रभाव से "दूतकाव्य" के समान गीता एक पृथगात्म वाङ्मयप्रकार ही संस्कृत वाङ्मय के क्षेत्र में हो गया है।
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गीता सन 1960 में के. वेंकटराव के सम्पादकत्व में इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन उडुपी से प्रारंभ हुआ। यह संस्कृत पत्रिका कन्नड लिपी में प्रकाशित होती थी। इसका वार्षिक मूल्य तीन रुपये था।
गीतांजलि रवींद्रनाथ टैगोर की प्रस्तुत सुप्रसिद्ध काव्य रचना एवं कथा उपन्यास आदि बंगाली साहित्य का अनुवाद पद्यवाणी, मंजूषा आदि संस्कृत पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ । अन्यान्य अनुवादकों में क्षितीशचन्द्र चट्टोपाध्याय प्रमुख अनुवादक हैं।
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96 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड
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गीतातात्पर्य-निर्णय लेखक हैं द्वैत मत के प्रतिष्ठापक मध्वाचार्य जो पूर्णत्रज्ञ एवं आनंदतीर्थ के नामों से भी जाने जाते हैं। यह गीता की गद्यात्मक टीका है। गीताभाष्य की अपेक्षा यह गंभीर शैली में निबद्ध है। मध्वाचार्य के अनुसार ईश्वर का " अपरोक्ष ज्ञान" ही मोक्ष का अंतिम साधन है। यह दो प्रकार से संभव है। ध्यान एवं परम वैराग्य का जीवन बिताने से तथा शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित कर्मों का योग्य दृष्टि से संपादन करने मे । गीतातात्पर्य - न्यायदीपिका माध्वमत की गुरुपरंपरा में 6 वें गुरु जयतीर्थ की गीताप्रस्थान विषयक दो महनीय रचनाओं में से एक। (दूसरी रचना है- गीताभाष्यप्रवेश टीका ) । गीताभाष्यप्रवेश -टीका माध्वमत की गुरुपरंपरा में 6 वें गुरु जयतीर्थ की गीता प्रस्थान विषयक दो महनीय रचनाओं में से यह टीका विस्तृत तथा शास्त्रीय विवेचन की दृष्टि से नितांत प्रौढ एवं प्रामाणिक है। इसमें आचार्य शंकर तथा भास्कर के गीता भाष्यों में लिखित मतों का खंडन किया गया है। गीतार्थसंग्रह ले. यामुनाचार्य तामिल नाम आलंवंदार । विशिष्टाद्वैत मत के अनुसार गीता के गूढ - सिद्धान्तों का संकलन इस ग्रंथ में किया है।
गिरिजायाः प्रतिज्ञा (रूपक) ले. श्रीमती लीला राव दयाल । ई. 20 वीं शती । कथासार एकमात्र पुत्र की हत्या के प्रतिशोध की लालसा रखने वाली एकाकिनी वृद्धा गिरिजा के घर पर जेल से भागा हुआ एक बन्दी आता है। गिरिजा उसे कुएं में छिपाती है। बाद में ज्ञात होता है कि वही उसके पुत्र का हत्यारा है। वह उससे प्रतिशोध लेने की ठानती है, परंतु बंदी उसे कहता है कि वह भी माता का एकमात्र पुत्र है अतः उसे क्षमा किया जाये । वृद्धा गिरिजा प्रतिशोध की भावना भूलकर उसे छोड देती है । गिरि-संबर्धनम् (व्यायोग) ले. जीव न्यायतीर्थ । जन्म 1894 ई. । प्रणव- पारिजात में प्रकाशित। संस्कृत राष्ट्रभाषा सम्मेलन के अधिवेशन में अभिनीत । कृष्ण के गोवर्धन धारण की कथा में सुदर्शन, योगमाया आदि छायात्मक पात्र दिखाए हैं । । नृत्य तथा संगीत का प्राचुर्य और हास्य का पुट इसकी विशेषताएं हैं। गीर्वाण (पत्रिका) कार्यालय मद्रास। 1924 में प्रारंभ। गीर्वाणकेकावली अनुवादक पं. डी. टी. साकुरीकर, भोर (महाराष्ट्र) के निवासी मूल मोरोपन्त कृत केकावली नामक प्रख्यात मराठी भक्तिस्तोत्र का अनुवाद |
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गीर्वाणज्ञानेश्वरी अनुवादककर्ता - अनंत विष्णु खासनीस | प्रत्येक 6 अध्यायों के 2 भागों में प्रकाशित मूल श्रीज्ञानेश्वर लिखित भावार्थदीपिका (ज्ञानेश्वरी नामक भगवद्गीता का मराठी में भावार्थ ) । महादेव पांडुरंग ओक ने प्रथम 6 अध्यायों का अनुवाद किया है।
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