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है पर कहीं भी उसका नाम नहीं है। कवि के भ्राता सूर्यनारायण ही इसके नायक ज्ञात होते हैं। कवि ने स्थान-स्थान पर प्रकृति के मनोरम चित्र का अंकन किया है। तीर्थयात्रा के प्रसंग में उत्तान श्रृंगार के चित्र भी यत्र-तत्र उपस्थित किये गये हैं और दृतिप्रेक्षण चंद्रोपालंभ व काम-पीडा के अतिरिक्त भयानक रति-युद्ध का भी वर्णन किया गया है। भारत का काव्यात्मक भोगोलिक चित्र प्रस्तुत करने में कवि पूर्णतः सफल हुआ है। इस चंप-काव्य का प्रकाशन, काव्यमाला निर्णय सागर प्रेस मुंबई से, 1936 ई. में हो चुका है। तीर्थाटनम् - कवि- चक्रवर्ति राजगोपाल। समय- इ. 1882 से 1934। इसके चार अध्यायों में भारतान्तर्गत प्रवास के विभिन्न अनुभव वर्णित हैं। तीर्थेन्दुशेखर - ले. नागोजी भट्ट। ई. 18 वीं शती। पिताशिवभट्ट । माता- सती। विषय- धर्मशास्त्र के अन्तर्गत तीर्थयात्रा की विधि। त्यागराजचरितम् - ले. सुन्दरेश शर्मा। विषय- दक्षिणभारत के मख्यात आधुनिक गायक सन्त त्यागराज का चरित्र । ई. 1937 में प्रकाशित। त्यागराजविजयम् - ले.म.म.यज्ञस्वामी। लेखक ने अपने पितामह का चरित्र इस काव्य में ग्रथित किया है। त्रिकाण्डविवेक - ले. रामनाथ विद्यावाचस्पति । रचनाकालसन 1633 ईसवी। विषय- अमरकोश पर टीका। त्रिकाण्ड-चिन्तामणि - ले. रघुनाथ। रचनाकाल सन 1652 । विषय- अमरकोश पर टीका। त्रिकाण्ड-शेष - ले. पुरुषोत्तम। ई. 12-13 वीं शती।।
अमरकोश का परिशिष्ट । त्रिकालपरीक्षा - ले. दिङ्नाग। इस ग्रंथ का अस्तित्व केवल तिब्बती अनुवाद से ज्ञात होता है। त्रिकुटारहस्यम् - श्रीविद्यासाधन में वामाचार का वर्णन । त्रिकुटार्चनपद्धति - (नामान्तर त्रिपुरार्चनपद्धति) श्लोक-620 । त्रिकोणमिति - ले. बापूदेवशास्त्री। विषय- गणितशास्त्र । त्रिदशडामर - देवी-भैरव संवादरूप। श्लोक 24000। पटल 82 । देवताओं की सिद्धि के लिए साधु जनों के हितार्थ दुष्ट जीवों के विनाशक डामर तंत्र का निर्माण हुआ। त्रिपादविभूति-महानारायणोपनिषद् - अथर्ववेद से संबंधित माना हुआ एक नव्य उपनिषद्। इसके दो कांड और प्रत्येक कांड के चार-चार अध्याय हैं। इसकी रचना समासप्रचुर एवं पांडित्यपूर्ण गद्य में की गई है। अद्वैतवेदान्त पर वैष्णव उपनिषदों में इसका प्रमुख स्थान है। परमतत्त्व का रहस्य जानने हेतु ब्रह्माजी ने हजार वर्षों तक तपस्या की। विष्णु भगवान् उन पर प्रसन्न हुए। ब्रह्माजी ने उनकी स्तुति करते हुए उनसे प्रार्थना की कि वे उन्हें परमतत्त्व का रहस्य समझायें। वही प्रस्तुत
उपनिषद् का विषय बना है। इस उपनिषद् में अद्वैताधिष्ठित भक्ति पर विशेष बल दिया गया है। त्रिपुरतापिन्युपनिषद् - यह प्रायः अड्यार से शाक्त उपनिषदों में प्रकाशित है। त्रिपुरदाहः (डिम)- संक्षिप्त कथा -इस डिम में देव-दानवों के युद्ध का वर्णन है। प्रथम अंक में पृथ्वी, शेष नाग, हिमवान, बृहस्पति, इन्द्र तथा नारद शिव को त्रिपुर नामक दानव के अत्याचार के बारे में बताते हैं। शिवजी इन्द्रादि देवताओं को त्रिपुरदाह करने के लिए सत्रद्ध होने को कहते हैं। [तैयारी करने की बात जानकर देवताओं में विवाद उत्पन्न करने के लिए मिथ्या नारद का रूप धारण करता है।] तृतीय अंक में देव-दानव युद्ध का वर्णन है। किन्तु दानव मरकर भी पुनः जीवित हो जाते हैं। इससे देव चिंतित होते हैं। चतुर्थ अंक में महेश (शिव) स्वयं युद्ध करने जाते हैं और त्रिपुर का अन्त करते हैं। इस डिम में कुल 22 अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें 2 विष्कम्भक, 1 प्रवेशक और 19 चूलिकाएं हैं। त्रिपुरभैरवी-पंचांगम् - विश्वसार तन्त्रान्तर्गत। श्लोक- 3801 त्रिपुर-विजयचंपू - ले. अतिरात्रयाजी। नीलकंठ दीक्षित के सहोदर। समय 17 वीं शती। यह चंपू काव्य चार आश्वासों में प्राप्त हुआ है और अभी तक अप्रकाशित है। इसके प्रथम व चतुर्थ आश्वास के क्रमशः प्रारंभ व अंत के कतिपय पृष्ठ नष्ट हो गए हैं। इसका विवरण तंजौर कैटलाग संख्या 4037 में प्राप्त होता है। (2) ले. नृसिंहाचार्य। यह रचना अभी तक अप्रकाशित है। इसका विवरण तंजौर कैटलाग संख्या 4036 में प्राप्त होता है। इसका रचनाकाल 16 वीं शताब्दी के मध्य के आसपास रहा होगा क्यों कि इसके रचयिता नृसिंहाचार्य तंजौर के भोसला-नरेश एकोजी के अमात्यप्रवर थे। (3) कवि शैल। पिता - आनन्दयज्वा तंजौर नरेश के मन्त्री थे। ई. 17 वीं शती।। त्रिपुरविजय-व्यागोग - ले. पद्मनाभ। ई. 19 वीं शती। रामेश्वर के वसन्त-कल्याण महोत्सव में अभीनीत । विषय- त्रिपुर दाह की पौराणिक कथा । त्रिपुरसुन्दरीतन्त्रम् - शिव-पार्वती संवादरूप यह तंत्र 101 कल्पों में पूर्ण है। त्रिपुरसुन्दरीत्रैलोक्यमोहनकवचम् - गन्धर्वतंत्रान्तर्गत उमा-महेश्वर संवादरूप। त्रिपुरसुन्दरीदीपदानविधि - रुद्रयामलान्तर्गत। उमा-महेश्वर संवादरूप। विषय- त्रिपुरसुन्दरी देवी के निमित्त प्रज्वलित दीपदान की विधि। त्रिपुरसुन्दरीपंचागम् - (षोडशीपंचांग) रुद्रयामलान्तर्गत । श्लोक3501 त्रिपुरसुन्दरीपटलम् - (पंचांग के अन्तर्गत) रुद्रयायमलान्तर्गत ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 127
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