________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गया है। आधुनिक विद्वानों का मत है कि मूलतः यह पुराण केवल 175 अध्यायों का ही था, और 176 तक के अध्याय प्रक्षिप्त हैं या बाद में जोडे गए हैं। 1) ब्रह्मखंड- इस खंड में श्रीकृष्ण द्वारा संसार की रचना करने का वर्णन है। इसमें 30 अध्याय हैं। इसमें परब्रह्म परमात्मा के तत्त्व का निरूपण किया गया है, और उसे सब का बीजरूप माना गया है। 2) प्रकृति खंड- इसमें देवियों का शुभ चरित वर्णित है। खंड 3 में प्रकृति का वर्णन, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री व राधा के रूप में है। इस में वर्णित अन्य प्रधान विषय हैं- तुलसीपूजन विधि, रामचरित, द्रौपदी के पूर्वजन्म की कथा, सावित्री की कथा, 86 प्रकार के नर्ककुंडों का वर्णन, लक्ष्मी की कथा, भगवती स्वाहा, स्वधा,देवी, षष्ठी आदि की कथा व पूजन विधि, महादेव द्वारा राधा के प्रादुर्भाव व महत्त्व का वर्णन, राधा के ध्यान व षोडशोपचार पूजन की विधि, दुर्गाजी के 16 नामों की व्याख्या दुर्गाशन स्तोत्र व प्रकृतिकवच आदि का वर्णन है। 3) गणेश खंड में- गणेश के जन्म, कर्म व चरित्र का परिकीर्तन है, और उन्हें कृष्ण के अवतार के रूप में परिदर्शित किया गया है। 4) श्रीकृष्ण-जन्मखंड - इसमें कृष्ण की लीला बड़े विस्तार के साथ कही गई है व राधा-कृष्ण के विवाह का वर्णन किया गया है। कृष्णकथा के अतिरिक्त इस पुराण में जिन विषयों का प्रतिपादन किया गया है, वे हैं- भगवद्भक्ति, योग, सदाचार, भक्ति-महिमा, पुरुष व नारी के धर्म, पतिव्रता व कुलटाओं के लक्षण, अतिथि-सेवा, गुरु-महिमा, माता-पिता की महिमा, रोग-विज्ञान, स्वास्थ्य के नियम, औषधों की उपादेयता, वृद्धत्व के न आने के साधन, आयुर्वेद के 16 आचार्य व उनके ग्रंथों का विवरण, भक्ष्याभक्ष्य, शकुन -अपशकुन व पाप-पुण्य का प्रतिपादन। इनके अतिरिक्त इस पुराण में कई सिद्धमंत्रों, अनुष्ठानों व स्तोत्रों का भी वर्णन है। इस पुराण का मूल उद्देश्य, परमतत्त्व के रूप में श्रीकृष्ण का चित्रण तथा उनकी स्वरूपभूता शक्ति को राधा के नाम से कथन करना है। इसमें श्रीकृष्ण, महाविष्णु, विष्णु, नारायण,शिव व गणेश आदि के रूप में चित्रित हैं, तथा राधा को दुर्गा, सरस्वती, महालक्ष्मी आदि अनेक रूपों में वर्णित किया गया है, अर्थात् श्रीकृष्ण के रूप में एकमात्र परमसत्य तत्त्व का कथन है, तो राधा के रूप में एकमात्र सत्यतत्त्वमयी भगवती का प्रतिपादन। इस पुराण के कतिपय अंशों को ग्रंथों ने उद्धृत किया है उदा- "कल्पतरु" में इसके लगभग 1500 श्लोक हैं और "तीर्थ-चिंतामणि" में तीर्थों संबंधी अनेक श्लोक उद्धृत किये गये हैं। "तीर्थ-चिंतामणि' के प्रणेता वाचस्पति मिश्र का समय ई. 17 वीं शती माना जाता है। इसके काल-निर्णय के संबंध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। डॉ. विंटरनित्स ने, इसमें उडीसा के मंदिरों का वर्णन होने के कारण, इसका समय 13 वीं शती निश्चित किया है पर परंपरावादी भारतीय विद्वान् इसका रचनाकाल इतना अर्वाचीन
नहीं मानते। उनका कहना है कि देवमुक्ति क्षेत्र एवं उनका माहात्म्य प्राचीन काल से है और मंदिर नित नये बनते रहते हैं। अतः मंदिरों के आधार पर, जिनका वर्णन इस पुराण में है, इस पुराण का काल-निर्धारण करना युक्तियुक्त नहीं है। परंपरावादी भारतीय विद्वानों के अनुसार "ब्रह्मपुराण' का रचनाकाल श्रीकृष्ण के गोलोक पधारने के बाद ही (द्वापर युग का अंत) का है। ब्रह्मप्रकाशिका - ले. वनमाली मिश्र। पिता- महेश मिश्र । यह सन्ध्यामंत्र की टीका है। ब्रह्मयज्ञशिरोरत्नम् - ले. नरसिंह। ब्रह्मयामलम् - किंवदन्ती है कि 25000 श्लोकात्मक पूर्ण ब्रह्मयामल तन्त्र के पूर्वानाय, दक्षिणाम्नाय, पश्चिमाम्नाय, उत्तराम्नाय, ऊर्ध्वाम्नाय आदि छहों आनायों से संबद्ध था। यह केवल 12000 श्लोकात्मक इसका एक अंश मात्र है और संभवतः केवल पश्चिमाम्नाय से ही संबद्ध है। यह 101 पटलों में पूर्ण है। ब्रह्मयामलतन्त्रम् (यामलतन्त्र) - विषय - आचारसार प्रकरण, ऊर्ध्वजननशांति, गुह्यकवच, चैतन्यकल्प, चैतन्यकल्प, जानकी त्रैलोक्यमोहनकवच, त्रैलोक्यमंगल-सूर्यकवच, नारायण-प्रश्नावली, रकारादि-सहस्रनाम, रामकवच, रामलोक्यमोहन-कवच, राम-सहस्रनाम, सर्वतोभद्रचक्र, सूर्यकवच इत्यादि। ब्रह्मलक्षणनिरूपणम् - ले. अनंतार्य। ई. 16 वीं शती। ब्रह्मरामायणम् - ले. भुशुण्डी। श्रीराम की रासलीला का वर्णन इसकी विशेषता है। ब्रह्मविद्या - 1) सन 1886 में चिदम्बरम् से इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। प्रथम संपादक श्रीनिवास शास्त्री शिवाद्वैती थे। बाद में नादुकावेरी (तंजोर) से परब्रह्मश्री विद्वान्, श्रीनिवास दीक्षित के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन होने लगा। यह पत्रिका 1903 तक प्रकाशित हुई। इस में धार्मिक निबन्धों के अतिरिक्त कतिपय उपनिषदों की टीकाओं और शतकों का प्रकाशन हुआ।
2) यह अड्यार लाइब्रेरी मद्रास की त्रैमासिकी पत्रिका है जो 1937 से प्रकाशित हो रही है। इसके प्रथम भाग में अंग्रेजी में संस्कृत विषयक निबंध तथा द्वितीय भाग में प्राचीन और अर्वाचीन संस्कृत ग्रंथों का प्रकाशन होता है। श्री रामशर्मा, वे. राघवन् तथा के, कुन्जुनी राजा इसके सम्पादक रहे।
3) सन 1948 में कुम्भकोणम् से पण्डितराज एस. सुब्रह्मण्य शास्त्री के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह "अद्वैतसभा कांची कामकोटि पीठ" की मुखपत्रिका है। इसमें अद्वैतदर्शन सम्बन्धी उच्चकोटि के निबंध प्रकाशित होते हैं। इसका वार्षिक मूल्य पांच रुपये है। ब्रह्मविद्योपनिषद् - कृष्ण-यजुर्वेद से संबंध एक नव्य उपनिषद् । इसमें 110 श्लोक है। विषय- ब्रह्मविद्या का महत्त्व ।
224/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
For Private and Personal Use Only