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सर्ग में राजा शुद्धोदन व उनकी पत्नी का वर्णन है। मायादेवी (शुद्धोदन की पत्नी) ने एक रात सपना देखा की एक श्वेत गजराज उनाके शरीर में प्रवेश कर रहा है। लुंबिनी के वन में सिद्धार्थ का जन्म होता है। उत्पन्न बालक ने भविष्यवाणी की- "मैं जगत् के हित के लिये तथा ज्ञान-अर्जन के लिये जन्मा हूं"। द्वितीय सर्ग- राजा शुद्धोदन ने कुमार सिद्धार्थ की मनोवृत्ति को देख कर अपने राज्य को अत्यंत सुखकर बना कर सिद्धार्थ के मन को विलासिता की ओर मोडना चाहा तथा उसके वन में चले जाने के भय से उसे सुसज्जित महल में रखा। तृतीय सर्ग- उद्यान में एक वृद्ध, रोगी व मुर्दे को देखकर सिद्धार्थ के मन में वैराग्य उत्पन्न होता है। इस सर्ग में कुमार की वैराग्य-भावना का वर्णन है। चतुर्थ सर्ग- नगर व उद्यान में पहुंच कर सुंदरी स्त्रियों द्वारा कुमार को मोहित करने का प्रयास पर कुमार उनसे प्रभावित नहीं होता। पंचम सर्ग- वनभूमि देखने के लिये कुमार गमन करता है। वहां उन्हें एक श्रमण मिलता है। नगर में प्रवेश करने पर कुमार का गृह-त्याग का संकल्प व महाभिनिष्क्रमण । षष्ठ सर्ग- कुमार छंदक को लौटाता है । सप्तम सर्ग- कुमार तपोवन में प्रवेश कर कठोर तपस्या में लीन होता है। अष्टम सर्ग - कंथक नामक अश्व पर छंदक कपिलवस्तु लौटता है। नागरिकों व यशोधरा का विलाप। नवम सर्ग- राजा कुमार का अन्वेषण करता है। कुमार नगर को लौटता है। दशम सर्ग- बिंबिसार द्वारा कुमार को कपिलवस्तु लौटने का आग्रह। एकादश सर्गरामकुमार राज्य व संपत्ति की निंदा करता है व नगर में जाना अस्वीकार करता है। द्वादश सर्ग- राजकुमार अराड मुनि के आश्रम में जाता है। अराड अपनी विचारधारा का प्रतिपादन करता है। उसे मान कर कुमार के मन में असंतोष होता है और वह तत्पश्चात् कठोर तपस्या में संलग्न होता है। नंदबाला से पायस की प्राप्ति । त्रयोदश सर्ग- मार (काम) कुमार की तपस्या में बाधा डालता है परंतु वह पराजित होता है। चतुर्दश सर्ग में कुमार को बुद्धत्व की प्राप्ति। शेष सों मे धर्मचक्र प्रवर्तन व अनेक शिष्यों को दीक्षित करना, पिता-पुत्र का समागम, बुद्ध के सिद्धान्तों व शिक्षा का वर्णन तथा निर्वाण की प्रशंसा की गई है। "बुद्धचरित" में काव्य के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का प्रचार किया गया है। विशुद्ध काव्य की दृष्टि से, प्रारंभिक 5 सर्ग व 8 वें तथा 13 वें सर्ग के कुछ अंश अत्यंत सुंदर हैं। डॉ. जॉन्स्टन ने इस के उत्तरार्ध का अनुवाद किया है। हिन्दी अनुवाद, सूर्यनारायण चौधरी ने किया है। बुद्धविजयकाव्यम् - ले.-शान्तिभिक्षु शास्त्री। हरियाणा में सोलन में निवास । लेखक अनेक वर्षों तक श्रीलंका में रहे हैं। प्रस्तुत महाकाव्य 100 सर्गों का है। 1977 में उसे साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ है। बुद्धसंदेशम् (काव्य) - ले.-सुब्रह्मण्यम सूरि ।
बुद्धिसागर-व्याकरणम् - ले.-बुद्धिसागर सूरि । श्वेताब्दाचार्य । रचनासमय- वि.सं. 1080। इसी व्याकरण का दूसरा नाम है "पंचग्रंथी व्याकरण"। इसमें सूत्रपाठ के साथ, धातु-पाठ, गणपाठ, प्रातिपादिक पाठ, उणादिपाठ तथा लिंगानुशासन होने से यह "पंचग्रंथी" नाम से प्रसिद्ध है। श्लोकसंख्या 7000। इन पांच ग्रंथों में शब्दानुशासन मुख्य है, शेष चार अंग शब्दानुशासन के सहाय्यक होने से गौण हैं। अत एव धातु पाठ आदि चार अंगभूत व्याकरणशास्त्र (खिलपाठ) माने जाते हैं। बुद्धिवाद - ले. गदाधर भट्टाचार्य । बुलेटिन ऑफ दि गव्हर्नमेन्ट ओरियन्टल मॅन्युस्क्रिए लॉयब्रेरी- यह पत्रिका मद्रास से 1952 से प्रकाशित हो रही है। इसके सम्पादक टी. चन्द्रशेखर हैं। इस में संस्कृत हस्तलिखित ग्रंथों का परिचय दिया जाता है। बृहच्छंकरविजय - कवि- चित्सुखाचार्य । विषय- आद्यशंकराचार्य का चरित्र। बृहच्छब्देनुशेखर - ले.-नागोजी भट्ट। पिता- शिवभट्ट । मातासती। ई, 18 वीं शती। यह व्याकरण दृष्ट्या महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इस पर भैरवमित्र की “चन्द्रकला' नामक टीका है। बृहच्छान्तिस्तोत्रम्- ले.-हर्षकीर्ति । ई. 17 वीं शती। बृहज्जातकम् - ले.-वराहमिहिर। ज्योतिष-शास्त्र का सुप्रसिद्ध ग्रंथ। इस की रचना उज्जयिनी में हुई। प्रस्तुत ग्रंथ में वराहमिहिर ने स्वयं के बारे में भी कुछ जानकारी दी है यवन-ज्योतिष के अनेक पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया है, और अनेक यवनाचार्यों का उल्लेख किया है। ग्रंथ की शैली प्रभावपूर्ण व कवित्वमयी है। ग्रंथ में व्यक्त प्रतिभा की प्रशंसा पाश्चात्य विद्वानों ने भी की है। बृहजातिविवेक - ले.-गोपीनाथ कवि। बृहज्जाबालोपनिषद् - एक नव्य उपनिषद्। इसमें शिव-महिमा तथा भस्मधारण और रुद्राक्षधारण विधि का वर्णन है। बृहती (निबंधन) - ले.-प्रभाकर मिश्र। ई. 7 वीं शती। बृहत्कथा - ले.- गुणाढ्य । इन्होंने पैशाची भाषा में "बड्डकहा" के नाम से इस ग्रंथ की रचना की थी किंतु इसका मूल रूप नष्ट हो चुका है। इसका उल्लेख सुबंधु, दंडी व बाणभट्ट ने किया है। इससे इसकी प्रामाणिकता की पुष्टि होती है। "दशरूपक" व उसकी टीका "अवलोक" में भी बृहत्कथा के साक्ष्य हैं। त्रिविक्रमभट्ट ने अपने "नलचंपू" व सोमदेव ने अपने “यशस्तिलकचंपू' में इसका उल्लेख किया है। कंबोडिया के एक शिलालेख (875 ई.) में गुणाढ्य के नाम का तथा प्राकृत भाषा के प्रति उनकी विरक्तता का उल्लेख किया गया है। इन सभी साक्ष्यों के आधार पर गुणाढ्य का समय 600 ई. से पूर्व माना जा सकता है। गुणाढ्य के इस प्राकृत (पैशाची) ग्रंथ का संस्कृत अनुवाद बृहत्कथा के रूप
218 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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