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नवार्णचन्द्रिका - ले- परमानन्दनाथ। 5 प्रकाशों में पूर्ण। विषय- चण्डिका- उपासक के दैनिक कर्तव्य और चण्डिका की पूजा। नवार्णपूजापद्धति - ले-सर्वानन्दनाथ। श्लोक- 2881 नवीननिर्माणदीधिति- टीका- ले- रघुदेव न्यायालंकार । नष्टहास्यम् (प्रहसन) - ले- जीव न्यायतीर्थ ( जन्म 1894) नष्टोद्दिष्ट- प्रबोधक- ले- भावभट्ट।। नहुषाभिलाषः (ईहामृग) - ले-व्ही. रामानुजाचार्य । नागकुमारकाव्यम् - ले-मल्लिषेण । जैनाचार्य। त्रिषष्टिमहापुराण के रचयिता। कर्नाटकवासी। ई. 11 वीं शती। 5 सर्ग और 507 पद्म। नाग-निस्तारम् (नाटक) - ले- जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894)। महाभारत के जनमेजय आख्यान का नाट्यरूप। अंकसंख्या- छः । अंगी रस अद्भुत । वीर तथा श्रृंगार अंगरस । गीतों की प्रचुरता। गीतोंद्वारा भावी घटनाएं व्यंजित की हैं। "किरतनिया नाटक" का प्रभाव इस नाटक पर है। सूर्य, काल, ब्रह्मा इ. दिव्य पात्र है। नागप्रतिष्ठा - (1) ले- बोधायन। (2) ले- शौनक । नागबलिः - ले- शौनक। नागरसर्वस्वम् - लेखक पद्मश्री ज्ञान। 18 अध्याय। मनोहर काव्य का उदाहरण। सौंदर्य तथा विलास प्रिय व्यक्ति के लिए आवश्यक सब अंगों का विवेचन करने वाले शरीर तथा घर सजाने से लेकर, प्रियाराधन और गर्भधारणा तक सब क्रिया कलापों का इसमें विचार है। जादू टोना और औषधियों को भी स्पर्श किया है। टीका तथा टीकाकार- (1) तनुसुखराम, लेखक प्रकाशक, (2) जगज्ज्योतिर्मल्ल (इ.स. 1617-1633 । (3) नागरिदास रचित नागरसमुच्चय। नागराज- विजयम् (रूपक) - ले- डॉ. हरिहर त्रिवेदी। 1960 में 'संस्कृत--प्रतिभा' में प्रकाशित। उज्जयिनी में अभिनीत । विषय- नायक नागराज द्वारा शक तथा कुषाणों पर प्राप्त विजय की कथा। नागानंदम् (नाटक) - ले- महाकवि श्रीहर्ष । इस नाटक में कवि ने विद्याधरराज के पुत्र जीमूतवाहन की प्रेम कथा व उसके त्यागमय जीवन का वर्णन किया है। इस नाटक का मूल एक बौद्ध-कथा है, जिसका मूल "बृहत्कथा" व वेताल-पंचविंशति में प्राप्त होता है। __ कथानक- प्रथम अंक- विद्याधरराज जीमूतकेतु, वृद्ध होने पर वे इस अभिलाषा से वन की और प्रस्थान करते हैं कि उनके पुत्र जीमूतवाहन का राज्याभिषेक हो जाय किंतु पितृभक्त जीमूतवाहन स्वयं राज्य का त्याग कर, पिता की सेवा के निमित्त, अपने मित्र आत्रेय के साथ वन-प्रस्थान करता है।
वह अपने पिता के स्थान की खोज करता हुआ मलय पर्वत पर पहुंचता है जहां देवी गौरी के मंदिर में अर्चना करती हुई मलयवती उसे दिखाई पड़ती है। दोनों मित्र गौरी देवी के मंदिर में जाते हैं और मलयवती के साथ उनका साक्षात्कार होता है। मलयवती को स्वप्न में देवी गौरी, जीमूतवाहन को उसका भावी पति बतलाती है। जब वह स्वप्र-वृत्तांत अपनी सखी मे कहती है, तब जीमूतवाहन झाड़ी में छिप कर उनकी बातें सुन लेता है। विदूषक दोनों के मिलन की व्यवस्था करता है किन्तु एक संन्यासी के आने से उनका मिलन संपन्न नहीं होता।
द्वितीय अंक- इसमें मलयवती का चित्रण कामाकुल स्थिति में किया गया है। जीमूतवाहन भी प्रेमातुर है। इसी बीच मित्रवसु आता है और अपनी बहन मलयवती की मनोव्यथा को जान कर उसका विवाह किसी अन्य राजा से करना चाहता है। मलयवती को जब यह सूचना प्राप्त होती है तब वह प्राणांत करने का प्रस्तुत हो जाती है पर सखियों द्वारा उसे रोक लिया जाता है। जब मित्रवसु को ज्ञात होता है कि उसकी बहन उसके मित्र से विवाह करना चाहती है तो वह प्रसन्न चित्त होकर उसका विवाह जीमूतवाहन से कर देता है।
तृतीय व चतुर्थ अंक में नाटक के कथानक में परिवर्तन होता है। एक दिन जीमूतवाहन भ्रमण करता हुआ अपने मित्र मित्रवसु के साथ समुद्र के किनारे पहुंचता है। वहां उन्हें तत्काल वध किये गए सपों की हड्डियों का ढेर दिखाई पडता है। वहां पर उन्हें शंखचूड नामक सर्प की माता विलाप करती हुई दीख पडती है। उससे उन्हें विदित होता है कि वे हड्डियाँ गरुड द्वारा प्रतिदिन के आहार के रूप में खाये गये सों की है। इस वृत्तांत को जान कर जीमूतवाहन अत्यंत दुखी होता है। वह अपने मित्र को एकाकी छोड कर बलिदान-स्थल पर जाता है जहां शंखचूड की माता विलाप कर रही थी क्यों कि उस दिन उसके पुत्र शंखचूड की बलि होने वाली थी। तब जीमूतवाहन ने प्रतिज्ञा की कि वह स्वयं अपने प्राण देकर उस हत्याकांड को बंद करेगा। ___ पंचम अंक में जीमूतवाहन अपनी प्रतिज्ञानुसार बलिदान-स्थल पर जाता है जिसे गरुड अपनी चंचू में पकड कर मलय पर्वत पर चल देता है। जीमूतवाहन के वापस न लौटने से उसके परिवार के लोग उद्विग्न हो उठते हैं। इसी बीच रक्त व मांस से लथपथ जीमूतवाहन का चूडामणि अचानक कहीं से आकर उसके पिता के समीप गिर पडता है। तब सभी लोग चिंतित होकर उसकी खोज में निकल पड़ते हैं। मार्ग में जीमूतवाहन के लिये रोता हुआ शंखचूड मिलता है और वह उन्हें सारा वृत्तांत कह सुनाता है। सभी लोग गरुड के पास पहुंचते हैं। जीमूतवाहन को खाते-खाते उसका अद्भुत धैर्य देख कर गरुड उसका परिचय पूछते हैं और चकित हो
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 155
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