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ई. 17 वीं शती। यह टीका वल्लभाचार्यजी की सुबोधिनी के भावार्थ को स्पष्ट करने हेतु विरचित है। आचार्य ने सुबोधिनी में श्रीधर के मत का उल्लेख, खंडन के निमित्त केवल संकेत ही से किया है, किन्तु सुबोधिनीप्रकाश के लेखक ने नामोल्लेखपूर्वक बडी कठोरता से किया है। वल्लभाचार्यजी विष्णुस्वामी के संप्रदाय के अंतर्मुख होकर गोपाल के उपासक थे- इसका पता लेखक ने दिया है।
श्रीधर “पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽ भिनेदुः" भाग- 2-2) की व्याख्या में "पुत्रेति" पद में संधि आर्ष मानते हैं जब कि पुरुषोत्तमजी का कहना है कि संधि, विरह के कारण कातरता का द्योतक होने से स्वाभाविक है, आर्ष नहीं। फलतः श्रीधर का यह कथन भूल है। (अत्र संधेरार्षत्वं वदतः श्रीधरस्य विरहकातरपद-तात्पर्याज्ञानमित्यर्थः)। इतनी भर्त्सना करने पर भी भागवत के अध्यायों की संख्या के विषय में वे श्रीधर का मत मानते हैं कि भागवत के अध्यायों की संख्या 332 ही है ("द्वात्रिंशत् त्रिशतं") प्रस्तुत टीका बडी पांडित्यपूर्ण है तथा सांप्रदायिक मान्यता की अभिव्यक्ति सर्वथा है। पुरुषोत्तम जी वल्लभाचार्य की 7 वीं पीढी में हुए।
तात्पर्य इस प्रकार है- प्रथम स्कंध का विषय है अधिकारी निरूपण, द्वितीय का साधन, तृतीय का सर्ग, चतुर्थ का विसर्ग, पंचम का स्थान (स्थिति), षष्ठ का पोषण (भगवान् का
अनुग्रह ("पोषणं तदनुग्रहः" भाग 2-10-4) सप्तम का ऊति (कर्मवासना), अष्टम का मन्वंतर, नवम का ईशानुकथा, दशम का निरोध, एकादश का मुक्ति तथा द्वादशी का आश्रय (परब्रह्म, परमात्मा)। दशम की विशुद्धि के लिये, आदिम नव तत्त्वों का लक्षण किया गया है। (दशमस्य विशुद्ध्यर्थं नवानामिह लक्षणम् 2-10-2) इन तत्त्वों का बडी गंभीरता से समग्रतया निरूपण करना, सुबोधिनी का वैशिष्ट्य है।
प्रतीत होता है कि आचार्य वल्लभ की “सुबोधिनी" मूलतः पूर्ण ही थी, परंतु आचार्य के ज्येष्ठ पुत्र गोपीनाथजी के पश्चात् गद्दी के उत्तराधिकार को लेकर परिवार में उत्पन्न विवाद और अव्यवस्था के कारण यह ग्रंथ खंडित हो गया।
आचार्य वल्लभ के पूर्ववर्ती आचार्यों ने केवल वेद, गीता और ब्रह्मसूत्र पर ही भाष्य लिखे थे। आचार्य ने इस प्रस्थानत्रयी को अपूर्ण समझ कर भागवत पर प्रस्तुत टीका और भागवत को "चतुर्थ प्रस्थान" बताया। सुबोधिनी- ले.-विश्वेश्वर भट्ट (गागाभट्ट) । मिताक्षरा पर टीका। व्यवहार प्रकरण एवं अनुवाद घारपुरे द्वारा प्रकाशित । 2) ले.- महादेव। 3) ले.- संजीवेश्वर के पुत्र रत्नपाणि शर्मा। यह मिथिला के नरेश रुद्रसिंह के आदेश से लिखित। यह दस संस्कारों, श्राद्ध एवं आह्निक पर एक स्मृतिनिबन्ध है। 4) (त्रिंशत्श्लोकी की एक टीका) ले.- कमलाकर के पुत्र अनन्त। 1610-1660 ई.। 5) (होरापद्धति) ले.- अनन्तदेव । विषय- नवग्रहों की शान्ति । 6) (प्रयोगपद्धति) ले.- शिवराम। विश्राम के पुत्र। सामवेद के विद्यार्थियों के लिए अपने कृत्यचिन्तामणि का उल्लेख किया है। लगभग 1640 ई.। 7) ले.- नीलकण्ठ। ई. 16 वीं शती। जैमिनि के मीमांसा सूत्रों की टीका। 8) (शब्दाशक्तिप्रकाश की टीका) ले.- रामभद्र सिद्धान्तवागीश । 9) ले.- अभिनव रामभद्राश्रम । संन्यासी । रघूत्तमाश्रम के शिष्य । सुबोधिनी- टीका ग्रंथ। ले.- श्रीधर स्वामी। ई. 14 वीं शती (पूर्वार्ध)। सुबोधिनी-टिपण्णी - ले.- गोसाई विट्ठलनाथ। वल्लभाचार्य के सुपुत्र । पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक आचार्य वल्लभ ने "सुबोधिनी" का प्रणयन किया। इसका विषय है श्रीमद्भागवत की टीका एवं कारिकाएं, जो केवल प्रथम, द्वितीय, तृतीय, दशम तथा एकादश स्कंधों पर उपलब्ध होती है। उसी की यह टिप्पणी है। सुबोधिनीप्रकाश- (भागवत की टीका) लेखक- पुरुषोत्तमजी।
सुबोधिनी-प्रयोगपद्धति - काशी संस्कृतमाला में प्रकाशित । (कृष्णयजुर्वेदीया एवं सामवेदीया) सुभग-सुलोचनाचरितम् - ले.-वादिचन्द्रसूरि गुजरातनिवासी। ई. 10 वीं शती। सुभगार्चनपद्धति - श्लोक- 1000। सुभगाचरितम् - ले.-रामचंद्र । श्लोक- 500। तरंग-8। सुभगोदय टीका - ले.-लक्ष्मीधर। सुभगोदयदर्पण - ले.- श्रीनिवास राजयोगीश्वर । विषय- शक्ति की पूजा। सुभगोदयस्तुति (टीका) - शंकराचार्य के परम गुरु गौडपादाचार्यकृत। श्लोक- लगभग 250। सुभद्रा (नाटिका) - ले.-हस्तिमल्ल। जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती। पिता- गोविन्दभट्ट। चार अंक। सुभद्राधनंजयम् (नाटक) - ले.-गुरुराम। ई. 16 वीं शती। मूलेन्द्र (तमिलनाडू) के निवासी। सुभद्रापरिणयम् (नाटक) - ले.-वेंकटाध्वरी। केवल दो अंक उपलब्ध। सुभद्रापरिणयम् (नाटिका) - ले.- नल्ला दीक्षित (भूमिनाथ) ई. 17 वीं शती। प्रथम अभिनय मध्यार्जुन प्रभु की यात्रा के अवसर पर । पांच अंकों का नाटक। शार्दूलविक्रीडित और वसन्ततिलका वृत्तों की बहुलता। अर्जुन द्वारा सुभद्रा के अपहरण तथा विवाह की कथा। (रघुनाथाचार्य और रामदेव ने भी सुभद्रापरिणय नामक नाटक लिखे हैं।
414 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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