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शाम्बव्यशाखा (ऋग्वेद की ) शाम्बव्य शाखा की कोई स्वतन्त्र संहिता या ब्राह्मण थे या नहीं इस विषय में निश्चित रूप से कहना असंभव है किन्तु आश्वलायन गृह्यसूत्र में शाम्बव्य आचार्य के मत का उद्धरण होने के कारण शाम्बव्य शाखा का कल्प हो सकता है । जैमिनीय श्रौतभाष्य में भी शाम्बव्यकल्प का निर्देश मिलता है। वहीं पर कल्प के 25 पटलों का निर्देश किया है। इस 24 पटलों में गृह्यसूत्र और श्रौतसूत्रों का विभाजन किस प्रकार था यह निश्चित रूप से नहीं बताया जा सकता। महाभारतीय आश्रमवासिक पर्व के आधार पण शाम्बव्य कुरु देशवासी हो सकते हैं।
शाब्दिकाभरणम् ले. - हरियोगी ( नामान्तर- प्रोलनाचार्य, शैवलाचार्य) । पाणिनीय धातुपाठ की व्याख्या। ई. 12 वीं शती । शाम्भवम् - श्लोक 200। विषय- शैवमतानुसार आह्निक क्रिया का स्पष्टीकरण ।
शाम्भवकल्पद्रुम ले. - माधवानन्द ।
शाम्भवाचारकौमुदी - ले. भडोपनामक काशीनाथ। पिताजयराम भट्ट । श्लोक- लगभग 185, पूर्ण । विषय- शिवपूजा का विस्तार से प्रतिपादन ।
शांभवीतन्त्रम् (ज्ञानसंकुलामात्र) श्लोक 2001
शारदा (पत्रिका) में प्रारंभ।
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कार्यालय- शृंगेरी मठ, मैसूर। 1924
शारदा शारदा निकेतन, दारागंज, प्रयाग से 1913 में चन्द्रशेखर शास्त्री के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इस पत्रिका का मूल्य विद्यार्थियों के लिए तीन रु. और अन्यों के लिये चार रु. था । पचास पृष्ठों वाली इस पत्रिका में विज्ञान, शिल्प, इतिहास, दर्शन, साहित्य आदि विषयों के निबंधों का प्रकाशन होता था ।
364 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड
उमा-महेश्वर संवादरूप ।
शारदा सन 1959 में पुणे से वसन्त अनंत गाडगील के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। इस पत्रिका का वार्षिक मूल्य 5 रु. था ।
इस पत्रिका में बालभारती, आन्तरभारती, शिशुभारती आदि स्तम्भों में बालकों के लिये सामग्री प्रकाशित की जाती है। इसकी भाषा अत्यंत सरल है। इसमें समाचार, नाटक उत्त्सवों के विवरण, जीवनचरित, संस्कृत विश्ववार्ता भी प्रकाशित होती है। श्री अप्पाशास्त्री से संबधित दो विशेषांक तथा इसमें प्रकाशित डॉ. श्री. भा. वर्णेकर कृत शिवराज्योदयं महाकाव्य विशेष उल्लेखनीय हैं। प्राप्ति स्थल है- झेलम, पत्रकारनगर, पुणे । शारदागम ( या शरदागम) ले पद्मनाभ मिश्र । ई. 16 वीं शती । जयदेव के "चन्द्रालोक" पर टीका । शारदातिलक- ले.- लक्ष्मण देशिकेन्द्र । पिता- वारेन्द्रकुलोत्पन्न श्रीकृष्ण रचना ई. 1300 के पूर्व । यह तान्त्रिक ग्रन्थ है,
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परंतु धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में बहुधा उध्दृत हुआ है। 25 पटलों में पूर्ण विषय विभिन्न देवियों के बीजमंत्र, देवीदेवता तथा उनकी शक्तियां, दीक्षा, 18 संस्कार, वर्णमाला के अक्षर, तांत्रिक मंत्रों से पूजा, जगद्धात्री, खरिता, दुर्गा, त्रिपुरा, गणेश आदि देवताओं के मंत्र टीकाएँ (1) महाराजाधिराज पुण्यपालदेव कृत शारदातिलकप्रकाश। 2) सीरपाणिकृत मंत्रप्रकाशिका । (3) पूर्णानन्द कृत (4) । त्रिविक्रमकृत गूढार्थदीपिका (5 ( कामरूपपतिकृत गृहार्थप्रकाशिका (6) लक्ष्मण देशिककृत तंत्रप्रदीप (7) विक्रमभट्टकृत गूढार्थसार
शारदातिलक- ले. गदाधर । पिता राघवेन्द्र मिथिला के राजा (भैरवेन्द्र के पुत्र) रामभद्र के शासनकाल में लगभग 1450 ई. में प्रणीत टीकाएं (1) मथुरानाथ शुक्ल कृत प्रेमनिधि प्रकाशः । ( 2 ) राघवभट्ट कृत पदार्थादर्श (3) पन्तकृत शब्दार्थचिन्तामणि । (4) हर्षदीक्षितकृत हर्षकौमुदी । इनके अतिरिक्त नारायण और भट्टाचार्य सिद्धान्त वागीश कृत टीकाएं भी हैं।
शारदातिलक (भाण) ले. शेषगिरि। ई. 18 वीं शती । श्रीरंगपत्तन में अभिनीत ।
शारदानवरात्रविधि विषय- युद्ध-विजय के लिए यात्रार्थ आवश्यक विधि |
शारदार्चाप्रयोग ले. रामचंद्र ।
शारदाशतकम् - ले. श्रीनिवास शास्त्री। ई. 19 वीं शती । तंजौर के निवासी।
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शारदीयाख्यानम् - ले. हर्षकीर्ति । ई. 17 वीं शती। 5 सर्ग श्लोकसंध्या 465 I
शारिपुत्रप्रकरणम् महाकवि अश्वघोष रचित एक रूपक जो खंडित रूप में प्राप्त है। मध्य एशिया के तुर्फान नामक क्षेत्र में प्रो. ल्यूडर्स को तालपत्रों पर 3 बौद्ध नाटकों की प्रतियां प्राप्त हुई थीं, जिनमें प्रस्तुत शारिपुत्र प्रकरण भी था। इसकी खंडित प्रति में कहा गया है कि इसकी रचना सुवर्णाक्षी के पुत्र अश्वघोष ने की थी। इसी खंडित प्रति से ज्ञात होता है। कि यह "प्रकरण" कोटि का रूपक रहा होगा और उसमें 9 अंक रहे होंगे। इस "प्रकरण" में मौद्गल्यायन व शारीपुत्र को बुद्ध द्वारा दीक्षित किये जाने का वर्णन है। इसका प्रकाशन प्रो. ल्यूडर्स द्वारा बर्लिन से हुआ है। इसमें अन्य संस्कृत नाटकों की भांति नांदी, प्रस्तावना, सूत्रधार, गद्य-पद्य का मिश्रण, संस्कृत एवं विविध प्रकार के प्राकृतों के प्रयोग, भरत वाक्य आदि सभी नाटकीय तत्त्वों को समावेश है। इस नाटक में बुद्धि, कीर्ति, धृति आदि अमूर्त कल्पनाएं रूप धारण कर मंच पर आती हैं और आपस में वार्तालाप करती हैं। संस्कृत साहित्य के प्रतीक नाटकों की यह परंपरा प्रस्तुत नाटक के पश्चात् ई. 11 वीं शती के उत्तरार्थ तक खंडित रही ।
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