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कालिकारहस्यम् - ले. पूर्णानन्द ।। कालिका_मुकुर - ले. कालीचरण, जो कामख्या देवी के परम उपासक थे। कालिकाशतकम् - ले. बटुकनाथ शर्मा । कालिका-सपर्याविधि। - ले. काशीनाथ तर्कालंकार । कालिकोपनिषद् - आथर्वण के सौभाग्यकांडांतर्गत उपनिषद् । विषय- श्रीचक्र की पूजाविधि, कुंडलिनी व कालिका की एकरूपता, तथा कालिकामंत्र के जप से पांडित्य कवित्व व चतुर्विध पुरुषार्थ की प्राप्ति इत्यादि। श्लोकसंख्या 50 । कालिदासचरित्रम् (नाटक) - ले. श्रीराम भिकाजी वेलणकर। मुंबई निवासी। रचना सन 1961 में। संस्कृत नाट्यमहोत्सव में उसी वर्ष अभिनीत । अंकसंख्या- पांच। प्रत्येक अंक तीन दृश्यों में विभाजित। संवाद प्रायः संगीतमय। एकोक्तियों का प्रचुर प्रयोग। मध्यम और अधम कोटि के पात्रों द्वारा हास्योत्पादकता, छायातत्त्व का प्रयोग। संस्कृत छन्दों के साथ मराठी की दिण्डी, ओवी तथा साकी का भी प्रयोग, प्राकृत का अभाव इत्यादि इस नाटक की विशेषताएं हैं। कथासारविक्रमादित्य के शासन में परराष्ट्र कार्यालय के उपसचिव कालिदास, अपनी प्रतिभा के कारण पण्डितसभा में प्रवेश पाते हैं। रानी वसुधा उनके विरोध में है। विदर्भ के राजा कोशलेश्वर से मिलकर उज्जयिनी पर आक्रमण करने वाले हैं यह सुनकर, वसुधा की सूचना पर विक्रमादित्य कालिदास को विदर्भ भेजते हैं। वसुधा और पंडितराज (पंडितसभा के अध्यक्ष) गोपाल को उकसाते हैं कि कालिदास के घर जाकर उसके द्वारा विरचित ग्रंथ चुराने पर अभीष्ट धन मिलेगा।
विदर्भराज कालिदास को बंदी बनाता है। सरस्वती नामक दासी को विदर्भराज नियुक्त करते हैं कि वह कालिदास के मन की बातें ज्ञात करे। गोविंद उसका शीलभंग करना चाहता है, उस समय कालिदास का भाई रघुनाथ उसको बचाता है। सरस्वती कालिदास से मिलती है। वह वस्तुतः विदिशा की निवासी होने से कालिदास के साथ योजना बनाती है कि कालिदास के स्थान पर उसका भाई रघुनाथ बंदीगृह में रहे,
और कालिदास को अपनी राजसी मुद्रा देकर उज्जयिनी भेजती है। बंदीगृह मे रघुनाथ और सरस्वती में प्रेम होता है। यहां गोपाल कालिदास के ग्रंथ तथा माला चुराने पहुचता है, इतने में सैनिक वेष में कालिदास आता है और क्षमा मांगने पर उसे छोड देता है। वसुधा और पंडितराज, कालिदास पर राजद्रोह का आरोप लगाते हैं परंतु रघुनाथ और सरस्वती वहां जाकर सत्य कथन करके कालिदास को बचाते हैं।
कालिदास को "कविकुलगुरु" की उपाधि मिलती है परंतु नवरत्नपरिषद् से त्यागपत्र देकर कालिदास बन्धनविमुक्त होकर रघुवंश लिखने में व्यग्र होते हैं। यह कथावस्तु सर्वथा उत्पाद्य है।
कालिदासचरित्रम् (नाटक) - ले. डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य । रचना - सन 1967 में। लेखक की यह पहली संस्कृत रचना है। निखिल भारत प्राच्य विद्या सम्मेलन के रजतजयन्ती महोत्सव पर अभिनीत। अंकसंख्या- सात। गीतों का प्रचुर प्रयोग। महत्त्वपूर्ण पात्र के प्रवेश के पूर्व उसका परिचय गीतों द्वारा होना, कतिपय नये छन्दों में रचना। मेघदूत के श्लोकों का समावेश। एकोक्तियों से भरपूर । नायक कालिदास का चित्रण आधुनिक प्रणयी नायक के आदर्श पर हुआ है। प्राकृत भाषाओं का प्रयोग नहीं है। कथासार - प्रतिभाशाली किन्तु दरिद्री कालिदास विक्रमादित्य की राजसभा में जाकर नवरत्न परिषद के मध्यमणि बनते हैं। वहा मंजुभाषिणी को काव्यशिक्षा देते समय उसके प्रणय में लिप्त होते हैं। यह विदित होने पर विक्रमादित्य मंजुभाषिणी को बन्दी कर कालिदास को एक वर्ष तक निष्कासित करते हैं। इसी मनःस्थिति में मेघदूत की रचना होती है। निष्कासन की अवधि बीत जाने पर विक्रमादित्य स्वयं कालिदास से मिलकर मंजुभाषिणी के साथ विवाह कराते हैं। विक्रमादित्य के दिग्विजय का वर्णन कालिदास कृत रघुवंश में रघुविजय द्वारा करते हैं। अन्त में विक्रम कहते हैं कि कालिदास के कारण ही विक्रम अमर बना है। कालिदासप्रतिभा - मद्रास की संस्कृत अकादमी द्वारा, कालिदास दिन के निमित्त 25-10-1955 को प्रकाशित । कालिदास की प्रतिभा को लक्ष्य कर 28 कवियों के काव्यों का संग्रह इस ग्रंथ में हुआ है। कालिदासमहोत्सवम् (नाटक) - ले. डॉ. हरि रामचन्द्र दिवेकर। ग्वालियर निवासी। कालिदास महोत्सव के अवसर पर उज्जयिनी में अभिनीत । कथावस्तु काल्पनिक। यह रूपक नायक तथा नायिका संबंध से विरहित है। प्रधान रस हास्य
और भाषा सुबोध है। सन 1965 में साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित। कथासार- बहुत दिन स्वर्ग में बिता कर नारद के साथ कालिदास मातृभूमि पर आते हैं। हस्तपत्रक पढने पर ज्ञात होता है कि कालिदास के जन्मदिन पर कालिदास स्मारक बनाने हेतु विशाल सभा का आयोजन होने वाला है। इतने में एक घोषणा होती है कि आयोजन नहीं होगा। चकित और खिन्न कालिदास विश्वविद्यालय जाते हैं परंतु मैट्रिक पास न होने के कारण उन्हें प्रवेश निषिद्ध होता है। प्राध्यापक भी विषय के ज्ञाता नहीं दीखते। सडक पर जहां तहां "अखिल भारतीय" विशेषण दीखता है। प्रवेशपत्र के अभाव में कालिदास समारोह में कालिदास को ही प्रवेश नहीं मिलता। वे द्वार रक्षक बनकर समारोह देखते हैं। समारोह का उद्घाटक संस्कृत नहीं जानता। उर्दू का जानकार है। कालिदास उसका विरोध करता है। इससे छात्र उससे प्रभावित होकर उसका व्याख्यान रखते हैं। भरतवाक्य है कि युवा तथा वृद्ध पीढी में सामंजस्य बना रहे।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/61
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