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सदाचारप्रकरणम् ले.- शंकराचार्य । योगियों के लिए लिखित । सदाचाररहस्यम् - ले.- अन्नंभट्ट मीमांसक । वाराणसी निवासी। सदाचाररहस्यम्- ले.- अनन्तभट्ट । दाईभट्ट के पुत्र । अमरेशात्मज संग्रामसिंह की इच्छा से बनारस में प्रणीत । लगभग 1715 ई. में। सदाचारविवरणम्- ले.- शंकर। सदाचारसंग्रह -ले.- गोपाल न्यायपंचानन । (2) ले.- श्रीनिवास पण्डित। आचार, व्यवहार एवं प्रायश्चित्त नामक तीन काण्डों में विभाजित। (3) ले.- शंकरभट्ट। पिता- नीलकंठ। ई. 17 वीं शती। (4) ले.- वेंकटनाथ। सदाचार-स्मृति- ले.- मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती। द्वैत-मत के प्रतिष्ठापक। इसमें वर्णाश्रम-धर्मानुसार आह्निक-विधि का काव्यात्मक वर्णन है। सदाचारस्मृति- ले.- नारायण पण्डित। विश्वनाथ-पुत्र। (2) ले.- श्रीनिवास। (3) ले.- आनंदतीर्थ। श्लोक- 40। इस पर मध्वशिष्य नृहरि और रामाचार्य की टीकाएं हैं। (4) ले.-. राघवेन्द्रयति। सदाशिवनित्यार्चनपद्धति- श्लोक - 600। सदुक्तिकर्णामृतम्- श्रीधरदास। (ई. 12 वीं शती) द्वारा । संकलित। लक्ष्मणसेन, उसका पुत्र केशवसेन आदि अप्रसिद्ध बंगाली कवियों के श्लोक भी इसमें समाविष्ट हैं। सदुक्तिमुक्तावली - ले.- गौरीकान्त सार्वभौम । सध्दर्म - सन् 1906 में श्री वामनाचार्य के सम्पादकत्व में मथुरा के वेणीमाधव मंदिर से इस पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ। इस का वार्षिक मूल्य 1 रु. था। कुल 20 पृष्ठों वाली इस मासिक पत्रिका में विविध विषयों से संबधित सामग्री का प्रकाशन किया जाता था। सध्दर्मतत्त्वाख्याह्निकम्- ले.- हरिप्रसाद। पिता- गंगेश। मथुरानिवासी। श्लोक-621 सद्धर्मपुण्डरीकम् (अन्यनाम-वैपुल्यराजसूत्रम्) - महायानी बौद्धों की भक्तिमयी विचारधारा एवं गुणावगुण के ज्ञान हेतु महत्त्वपूर्ण रचना । जागतिक प्रपंच से पीडित प्राणिवर्ग को पवित्रता का संदेश देने में समर्थ कृति। महायान पंथ के विशिष्ट बौद्ध सिद्धान्तों का इसमें निदर्शन मिलता है। 27 परिवर्तों में विभक्त इस ग्रंथ में सुगत-शारिपुत्र संवादरूप में सुगत का उपदेश है। निदान-परिवर्त, उपायकौशल्यपरिवर्त
औपम्यपरिवर्त आदि 27 परिवर्तों के भिन्न नाम हैं। यह ग्रंथ भारत तथा नेपाल, तिब्बत, आदि बाह्य देशों में लोकप्रिय है तथा गिलगिट, फारमोसा, तुरफान आदि स्थानों से इसके अनेक हस्तलेख प्राप्त हुए और इनके अनेक संस्करण भी देवनागरी तथा रोमन लिपि में किये गए हैं। इस ग्रंथ के अनुवाद भी अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, तिब्बती, चीनी हिन्दी, जापानी भाषाओं में हुए हैं। प्राचीनतम चीनी अनुवाद ई. 286 में धर्मरक्ष द्वारा
संपन्न हुआ। समय- प्रायः सभी विद्वानों को संमत ईसा की प्रथम शती। पाली सुत्तों के उपदेष्टा बुद्ध जहां संन्यासी रूप में नाना स्थानों का परिभ्रमण कर उपदेश करते हैं, वहां
सध्दर्मपुण्डरीक के सुगत बुद्ध गृध्रकूटगिरि पर असंख्य मामयों से परिवृत् हैं। भक्तों के अनुरोध पर उपदेश प्रारम्भ करने पर
अन्तरिक्ष से अजस्त्र पुष्पवृष्टि होती है। चीन के कुछ बौद्ध पंथ, जपान के तेनदाई एवं निचिरेन पथ का यह धर्मग्रंथ है। झेन पंथ के मंदिर में इसका पठन किया जाता है। "नमोऽस्तु बुद्धाय" इस मंत्र के उच्चार से मृढ पुरुष को अग्र बोधी प्राप्त होती है, ऐसा कहा गया है। इस महायानसूत्र ग्रंथ पर आचार्य वसुबन्धु की टीका है, जिसका चीनी अनुवाद 508-535 में हुआ। सद्धर्मामृतवर्षिणी- 1875 में आगरा से ज्वालाप्रसाद भार्गव के सम्पादकत्व में इस संस्कृत-हिन्दी मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसमें धार्मिक निबन्धों को प्रमुख स्थान दिया जाता था। सद्भाषितावली - ले.- सकलकीर्ति । जैनाचार्य । पिता-कर्णसिंह। माता-शोभा। ई. 14 वीं शती। 389 पद्यों में पूर्ण। सद्राग-चंद्रोदय - ले.- पुंडरीक विठ्ठल। ई. 16 वीं शती। इनके समय उत्तर हिन्दुस्तानी संगीत-पद्धति में बडी अव्यवस्था फैली हई थी। अतः इनके आश्रयदाता बुरहानपुर के राजा बुरहानखान ने इनसे कहा कि वे उस संगीत-पद्धति को सुव्यवस्थित रूप दें। पुंडरीक मूलतः मैसूर के निवासी तथा दाक्षिणात्य पद्धति के प्रसिद्ध गायक तथा संगीतज्ञ थे। अतः उन्होंने उत्तर व दक्षिण की संगीत-पद्धतियों का तौलनिक अध्ययन करने के पश्चात् प्रस्तुत ग्रंथ लिखा। पश्चात् राजा मानसिंग के आश्रय में रहते हुए पुंडरीक ने राग-मंजरी तथा बादशाह अकबर के आश्रय में रागमाला व नृत्यनिर्णय नामक ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों को विद्वत्समाज में विपुल सम्मान प्राप्त हुआ। सरतकुमारगृहवास्तु- सनत्कुमार-पुलस्त्य-संवादरूप । श्लोक-504। 11 पटलों में पूर्ण। विषय- विष्णुमन्त्र, गोपाल पूजा, होमादि-निर्णय, त्रैलोक्य-मंगल कवच, पुरश्चरणविधि और दीक्षाविधि। सनातन-भौतिकविज्ञानम्- ले.- सी.सी. वेंकटरमणाचार्य । मैसूरनिवासी। विषय- प्राचीन विज्ञान विषयक साहित्य का सिंहावलोकन। सनातनशास्त्रम्- कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली धार्मिक पत्रिका। सन्पतिसूत्रम् - ले.- सिद्धसेन । जैनाचार्य। माता-देवश्री। समयप्रथम मान्यता- ई. प्रथम शती। द्वितीय मान्यता ई. 5 वीं शती। तृतीय मान्यता- ई. 8 वीं शती। सन्मार्गकण्टकोध्दार- ले.- कृष्णतात। विषय- प्रपन्न के
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 389
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