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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मद्रास आकाशवाणी से प्रसारित हुआ था। विषय- आचार्य गोविन्द स्वामी की शिष्या, उच्चकोटिक कवयित्री विकटनितम्बा का चरित्रचित्रण, जिस में उसके निरक्षर, प्राकृतभाषी पति का परिहास किया है। विक्रमचरितम् (या सिंहासन-द्वात्रिंशिका) -एक लोकप्रिय कथा-संग्रह। इसके 3 संस्करण उपलब्ध है।:- (1) क्षेमंकर का जैन- संस्करण, (2) दक्षिण भारतीय पाठ और, (3) वररुचि-रचित कहा जाने वाला बंगाल का पाठांतर। इसमें 32 सिंहासनों या 32 पुतलियों की कहानी है। राजा भोज पृथ्वी में गडे हुए महाराज विक्रमादित्य के सिंहासन को उखाडते हैं और ज्योंही उस पर बैठने की तैयारी करते हैं त्योंही बत्तीस पुतलियाँ विक्रम के पराक्रम का वर्णन कर भोज को सिंहासन पर बैठने से रोकती हैं। वे भोज को उस सिंहासन के अयोग्य सिद्ध करती हैं। इस संग्रह में विक्रम की उदारता व दानशीलता का वर्णन है। राजा अपनी वीरता से जो धन प्राप्त करता था, उसमें से आधा पुरोहित को दान कर देता था। क्षेमंकर वाले जैन संस्करण में प्रत्येक गद्यात्मक कथा के आदि व अंत में पद्य दिये गये हैं, जिनमें संबंधित विषय का संक्षिप्त विवरण है। इसके एक अन्य पाठ में केवल पद्य प्राप्त होते हैं। अंग्रेज विद्वान् एडगर्टन ने इसका संपादन कर इसे रोमन अक्षरों में प्रकाशित कराया था, जो दो भागों में समाप्त हुआ है। इसका प्रकाशन हारवर्ड ओरिएंटल सीरीज से 1926 ई. में हुआ है। प्रस्तुत कथा-संग्रह का हिंदी अनुवाद "सिंहासन बत्तीसी" के नाम से हुआ है। चौखंबा विद्याभवन ने मूल संग्रह को हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशित किया है। विद्वानों ने इसका रचना-काल 14 वीं शती से प्राचीन नहीं माना है। डॉ. हर्टल की दृष्टि में जैन संस्करण मूल के निकट तथा अधिक प्रामाणिक है। दूसरी और एडगर्टन दक्षिणी वचनिका को ही अधिक प्रामाणिक व प्राचीनतर मानते हैं। दोनों में ही हेमाद्रि के "दानखंड" का विवरण रहने के कारण, इसे 13 वीं शती के बाद की कृति माना गया है। विक्रम-भारतम्- ले.- श्रीश्वर विद्यालंकार (श. 19-20) कलकत्ता में मुद्रित। विक्रमभारतम्- ले.- राजा शम्भुचन्द्र राय (श. 19, पूर्वार्ध) विक्रमादित्य के शासन का पौराणिक शैली में वर्णन । प्रभवादिकल्प तथा शैशवादिकल्प नामक विभागों में विभाजित । विक्रमराघवीयम् - अपने को "नूतनकालिदास" कहने वाले किसी कवि की यह रचना है। विक्रमसेनचंपू- ले.- नारायणराय । पिता- गंगाधर । ई. 17-18 वीं शती। प्रस्तुत चंपू-काव्य में प्रतिष्ठिानपुर के राजा विक्रमसेन की काल्पनिक कथा का वर्णन है। ग्रंथ में कवि ने अपना कुछ परिचय भी दिया है। विक्रमांकदेवचरितम्- ले. काश्मीरीय कवि बिल्हण। यह एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य है। इसमें 18 सर्ग हैं जिनमें कवि के अश्रयदाता राजा विक्रमादित्य के पूर्वजों के शौर्य व पराक्रम का वर्णन है। चालुक्यवंशीय राजा विक्रमादित्य षष्ठ, दक्षिण के नृपति थे। उनका समय 1076 से 1127 ई.। ऐतिहासिक घटनाओं के निदर्शन में बिल्हण बडे जागरूक रहे हैं। "विक्रमांकदेवचरित" में वीररस का प्राधान्य है। कतिपय स्थलों पर श्रृंगार व करुण रस का भी सुंदर रूप उपस्थित हुआ हैं। इसके प्रारंभिक 7 सों में मुख्यतः ऐतिहासिक सामग्री भारी पडी है। 8 वें से 11 वें सर्ग तक राजकुमारी चंदलदेवी का नायक से परिणय, प्रणय-प्रसंग, वसंत ऋतू का श्रृंगारी चित्र, नायिका का रूप-सौंदर्य व कामकेलि आदि का वर्णन है। 12 वें, 13 वें और 16 वें सर्ग में जलक्रीडा, मृगया आदि वर्णित हैं। 14 वें सर्ग में चौलों की पराजय तथा 18 वें सर्ग में कविवंश वर्णन व भारत-यात्रा का वृत्तांत प्रस्तुत किया गया है। बिल्हण ने राजाओं के यश को फैलाने और अपकीर्ति के प्रसारण का कारण कवियों को माना है: लंकापतेः संकुचितं यशो यत् यत् कीर्तिपात्रं रघुराजपुत्रः । स सर्व एवादिकवेः प्रभावो न कोपनीया कवयः क्षितीन्द्रैः । । इस महाकाव्य का सर्वप्रथम प्रकाशन बूल्हर द्वारा 1875 ई. में हुआ था। फिर हिंदी अनुवाद सहित चौखंबा विद्याभवन से प्रकाशन हुआ। विक्रमाश्वस्थामीयम् (व्यायोग)- ले.- डॉ. नारायणराव चिलुकुरी। सन् 1938 में प्रकाशित। अनेक दृश्य, छाया तत्त्व का समावेश, नाट्योचित संवाद, सुबोध भाषा। अनन्तपुर (कर्नाटक) की प्रभुत्व कलाशाला के अध्यक्ष कृष्णमार्य के आदेशानुसार उत्सव दिवस पर अभिनीत । कथासार- मरणासन्न दुर्योधन को अश्वत्थामा भीम का कटा हुआ सिर दिखाता है, जिससे दुर्योधन सन्तुष्ट होकर मर जाता है। कृपाचार्य अश्वत्थामा को बताते हैं कि वह तो कृत्रिम सिर है। विक्रमोर्वशीयम् - ले.-महाकवि कालिदास। पांच अंकों का त्रोटक (उपरूपक का एक प्रकार) इसके नायक-नायिका, मानवी व दैवी दोनों ही कोटियों से संबद्ध हैं। इसमें महाराज पुरुरवा एवं उर्वशी की प्रणयकथा का वर्णन है। कैलाश पर्वत से इन्द्र लोक लौटते समय पुरुरवा को ज्ञात होता है कि स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी को कुबेरभवन से आते समय केशी नामक दैत्य ने पकड़ लिया है। पुरुरवा उस दैत्य से उर्वशी की मुक्तता करते हैं, और उसके अद्भुत सौंदर्य पर मुग्ध हो जाते हैं। पुरुरवा, उर्वशी को उसके संबन्धियों को सौंप कर अपनी राजधानी लोटते हैं, और उर्वशी विषयक अपनी भावना अपने मित्र विदूषक को सूचित करते हैं। इसी बीच भूर्जपत्र पर लिखा हुआ उर्वशी का एक प्रेमपत्र पुरुरवा को मिलता है, जिसे पढ कर वह आनंदातिरेक से भर उठते हैं। फिर राजकीय प्रमदवन में दोनों की भेंट होती है। पश्चात् भरत मुनि द्वारा 332 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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