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लक्षण, दोषों की परीक्षा, प्रेत्यभाव की परीक्षा, शून्यताका जो द्वैत -संप्रदाय के "मुनित्रय" में समाविष्ट किये जाते हैं। उपादान व निराकरण, ईश्वर का उपादानकारणत्व, सर्वानित्यत्व अद्वैत विषयक विभिन्न शास्त्रीय ग्रंथों के अनुशीलन द्वारा का निरसन, सर्वस्वलक्षणपृथक्त्व का निराकरण, सर्वशून्यत्व का अद्वैतवादियों के मतों को संकलित कर तथा नैयायिक पद्धति निराकरण, सांख्य एकांतवाद का निराकरण, फलपरीक्षा, दुःखपरीक्षा से उनका विन्यास कर, व्यासराय ने इस ग्रंथ में उनका गंभीरता व अपवर्गपरीक्षा शीर्षक -चौदह प्रकरण हैं और दूसरे आह्निक से खंडन किया है। इसके पूर्व किसी भी द्वैती पंडित ने अपने में है तत्त्वज्ञानोत्पत्ति, अवयवी, निरवयव, बाह्यार्थभंगनिराकरण, खंडन-मे इतने विषयों का समावेश नहीं किया था। न्यायामृत तत्त्वज्ञानाभिवृद्धि व तत्त्वज्ञानपरिपालन शीर्षक 6 प्रकरण। में किया गया खंडन,अद्वैत के मर्म-स्थल को भेदने वाला है। __पांचवें अध्याय के पहले आह्निक में सत्रह प्रकरण हैं। फलतः मधुसूदन सरस्वती जैसे दार्शनिक-प्रवर (ई. 16 वीं दूसरे आह्निक में न्यायाश्रित पांच निग्रह, अभिमतार्थ प्रतिपादन
श. ने इसके खंडन के लिये “अद्वैत-सिद्धि" का प्रणयन न करने वाले चार निग्रह, स्वसिद्धांत के अनुरूप प्रयोगाभास किया। रामाचार्य (17 वीं शती का प्रारंभ) ने अपनी "तरंगिणी" के तीन निग्रह व निग्रहस्थानविशेष शीर्षक विषयों का प्रतिपादन में इसका खंडन किया, जिसकी आलोचना की ब्रह्मानंद सरस्वती किया गया है। न्यायदर्शन पर सैकडों ग्रंथ लिखे जा चुके
ने। पश्चात् वनमाली मिश्र ने अपने "तरंगिणी-सौरभ" में (17 हैं, फिर भी न्यायसूत्रों का महत्त्व कम नहीं हुआ है। न्यायसूत्रों वीं शती का उत्तरार्थ) सरस्वतीजी का खंडन प्रस्तुत किया। की भाषाशैली प्रौढ है। प्रमाण और तर्क इन विषयों में गौतम इस प्रकार न्यायामृत में उद्भावित तथ्यों के खंडन को नव्यन्याय की विशेष रुचि है। पूर्वपक्ष का प्रस्तुतीकरण वे निष्पक्षतापूर्वक की शैली में ध्वस्त करने हेतु अद्वैती विद्वानों का एक संप्रदाय करते हैं। प्रतिपक्ष द्वारा उद्भूत कठिन शंकाओं से भी वे ही उठ खडा हुआ जिसे “नव्यवेदांत' के नाम से निर्दिष्ट विचलित नही होते। अपने सिद्धान्त पर उनका विश्वास दृढ किया जाता है। यह बात न्यायामृत के असाधारण महत्त्व की है। अन्य दर्शनों के समानन्यायदर्शन का चरम लक्ष्य भी द्योतक है। उन्होंने ज्ञानद्वारा मोक्ष ही माना है किन्तु बौद्धों के मतों का न्यायामृतसौगंधम् - ले. वनमाली मिश्र । खंडन करना भी उनका उद्देश्य था। अतः इस दर्शन में उन्होंने न्यायादर्श (न्यायसारावली) - ले. जगदीश तर्कालंकार । वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान न्यायावतार - ले. सिद्धसेन दिवाकर। जैनाचार्य। माता-देवश्री। का समावेश किया है।
समय- ई. 8 वीं शती। न्यायसुधा (न्यायसूत्रभाष्यम्) - ले. वात्सायन। गौतम के
न्यायेन्दुशेखर - ले. त्यागराजमखी (राजू शास्त्रीगल) । विषयन्यायसूत्र पर प्रसिद्ध भाष्य ग्रंथ।
शैवाद्वैत का समर्थन। न्यायसूत्रवृत्ति - ले. विश्वनाथ सिद्धान्तपंचानन (भट्टाचार्य)। . इसकी रचना 1631 ई. में हुई थी। इसमें न्यायसूत्रों की 'सरल
न्यासजालम् - इसमें मूलमन्त्र के करन्यास तथा छह अंगन्यास व्याख्या प्रस्तुत की गई है जिसका आधार रघुनाथ शिरोमणि
कर "शिवोहम्" की भावना करते हुए क्षोभण आदि नौ मुद्राएं
तथा पाशादि चार मुद्राएं बांध कर सर्वावयवरूप से काम-कलारूप कृत व्याख्यान है।
अपना ध्यान कर, शक्त्युत्यापन मुद्रा बांध कर प्रातःस्मरण में न्याय-सुधा - ले. जयतीर्थ टीकाचार्य। मध्व के मूर्धन्य ग्रंथ
उक्त प्रकार से कुण्डलिनी को जगाकर छह चक्रों के भेदनक्रम अनुव्याख्यान की अत्यंत प्रौढ व्याख्या। माध्व-मत की गुरुपरंपरा
से ध्यान करते हुए अन्तर्याग कर सर्वाभरण-संयुक्त शक्ति का में 6 वें गुरु थे जयतीर्थ। यह व्याख्या केवल "सुधा" के
ध्यान करना चाहिये, यह प्रतिपादित किया है। नाम से विशेष विख्यात है। संप्रदायवेत्ता पंडितों की "सुधा वा पठनीया, वसुधा वा पालनीया" यह उक्ति प्रस्तुत व्याख्या
न्यास-पद्धति - ले. त्रिविक्रम । की महनीयता का प्रमाण है। द्वैतविरोधी आचार्य शंकर, भास्कर,
न्यायप्रकाश - ले. नरपति महामिश्र। रामानुज एवं यादवप्रकाश के दार्शनिक सिद्धांतों का अनेक न्यासोद्दीपनम् - ले. मनसाराम (अपर नाम श्रीमान् उपाध्याय) प्रबल युक्तियों के आधार पर खंडन, इस ग्रंथ की विशेषता ई. 16 वीं शती) यह "न्यास" पर टीका है। विषय- व्याकरण । है। मूल ग्रंथ के समान ही प्रस्तुत व्याख्या, जयतीर्थ स्वामी ___ न्यासदीपिका - ले. रामकृष्ण भट्टाचार्य चक्रवर्ती। का मूर्धाभिषिक्त ग्रंथ है। यह सूत्रप्रस्थान विषयक ग्रंथ है। न्यासोद्योत - ले. मल्लिनाथ । न्यायसूर्यावली - ले. भावसेन त्रैविद्य। जैनाचार्य। ई. 13 वीं
पक्षिराजविधानम् - आकाशभैरवान्तर्गत । श्लोक 4801 शती।
पंचकन्या (रूपक) - सुरेन्द्रमोहन। श. २०। उपनिषद् की न्यायामृतम् - ले. व्यासराय (व्यासतीर्थ) अद्वैत वेदांत के परस्पर स्पर्धा करने वाली इन्द्रियों की कथा पर आधारित । सिद्धांतों का सांगोपांग खंडन करने वाला एक सशक्त ग्रंथ। "मंजूषा" में प्रकाशित। बालोचित लघु प्रतीकनाटक । शिक्षा, ग्रंथ के प्रणेता माध्वमत की गुरु परंपरा में 14 वें गुरु थे भक्ति, सेवा, प्रीति तथा शान्ति पंच कन्याओं के रूप में चित्रित
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/173
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