Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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ॐ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः-भी बदलना पडेगा और विना वैसा किये उपर्युक्त शंका खडी 9 रहती है, इस शंकाका परिहार इसप्रकार समझ लेना चाहिये कि जो सूत्रक्रम है उसीके अनुसार
भजनीयता आती है, अन्यथा नहीं। सम्यग्ज्ञान होनेपर सम्यकचारित्र ही भजनीय है कारण विना हूँ सम्यग्ज्ञानके प्राप्त किए सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति असम्भव है। बारहवें गुणस्थानमें भले ही सम्यक्वारित्र हैं क्षायिकचारित्र पूरा हो जाता है परन्तु परमावगाढ यथाख्यात चारित्र चौदहवें गुणस्थानमें ही प्राप्त होता है है इसलिये वह सम्यग्ज्ञानकी पूर्ति होनेपर भी भजनीय रहता है।
पूर्वसम्यग्दर्शनलामे भजनीयमुत्तरमिति चेन्न निर्देशस्यागमकत्वात् ॥ ३५॥ 'पूर्व पूर्वक प्राप्त हो जानेपर उत्तर उत्तर भाज्य है' इस नियमके अनुसार जिस समय यह अर्थ 8 किया जाता है कि पूर्व-सम्यग्दर्शनके प्राप्त हो जानेपर सम्यग्ज्ञान भाज्य है उस समय तो श्रद्धानको है अज्ञानपूर्वकपना आता है और उस दोषकी निवृचिके लिपे शब्द नयकी अपेक्षा ज्ञान का अर्थ श्रुनज्ञान , वा केवलज्ञान किया जाता है किंतु जब यह अर्थ किया जायगा कि-'सम्पग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के हूँ हैं प्राप्त हो जानेपर सम्यक्चारित्र भाज्य है' तब अज्ञानपूर्वक श्रद्धानका प्रसंग नहीं आता क्योंकि सम्य- हूँ है ग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका काल एक ही है इसलिये सम्यग्दर्शनके प्राप्त हो जानेपर सम्यग्ज्ञान भाज्य है।
5 यह अर्थ न कर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके प्राप्त हो जानेपर सम्यक्चारित्र भाज्य है यही अर्थ करना • युक्त है सो ठीक नहीं। जैसा निर्देश होता है उसीके अनुसार अर्थ किया जाता है 'एषां पूर्वस्य लाभे. 8 भजनीयमुत्रं' इस वार्तिकमें पूर्वस्य' यह षष्ठी विभक्तिके एक वचनका निर्देश है इसलिये पूर्व शब्दसे ५ ६ अकेले सम्यग्दर्शनका ही ग्रहण हो सकता है, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनोंका नहीं। हां! यदि त् ७०
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