Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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आत्मस्वरूपाभावप्रसंगात् ॥ ३४ ॥
यदि सम्यग्दर्शन के हो जाने पर सम्यग्ज्ञानको भाज्य माना जायगा तब वह असत्-कभी होगा तो कभी नहीं भी होगा - कहना पडेगा तब जिससमय सम्यग्दर्शनका विरोधी मिथ्याज्ञान सम्यग्दर्शन के प्रगट होते ही नष्ट हो जायगा और भाज्य होनेसे सम्यग्ज्ञान भी उमसमय रह न सकेगा उस समय आत्मामें ज्ञानोपयोगका अभाव मानना पडेगा वह ज्ञानोपयोग आत्माका लक्षण है "लक्षण के अभाव में लक्ष्यका भी अभाव हो जाता है" -इप्स नियमके अनुसार लक्ष्यभूत आत्माका भी अभाव हो जायगा फिर मोक्षमार्गकी परीक्षा करना व्यर्थ है क्योंकि आत्माके रहते ही मोक्षकी व्यवस्था है जब आत्मा | पदार्थ ही संसार में न रहेगा तब मोक्ष किसकी सिद्ध की जायगी ? इसलिये श्रद्धान, अज्ञानपूर्वक न हो इस बातकी रक्षा के लिये "पूर्व पूर्वके प्राप्त हो जाने पर उत्तर उत्तर भाज्य है" यह नियम सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रमें मानना अयुक्त है ? उत्तर
नवा यावति ज्ञानमित्येतत्परिसमाप्यते तावतोऽसंभवान्नयापेक्षं वचनं ॥ ३५ ॥
'ऊपरकी वार्तिकमें जो शंकाकारने यह शंका उठाई थी कि यदि सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यग्ज्ञान | भजनीय है, तो सम्यग्दर्शनके होने पर कुछ काल सम्यग्ज्ञानका अभाव रहनेसे आत्माका ज्ञानोपयोग रूप लक्षण ही नहीं घटित होगा ? इस शंकाके उत्तर में यह समझना चाहिये कि सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यग्ज्ञान भजनीय है यहां पर सम्यग्ज्ञानसे श्रुतज्ञान तथा केवलज्ञान से प्रयोजन है । सामान्य ज्ञानमात्र | को भजनीय नहीं बतलाया गया है । इसलिये उपर्युक्त दोष नहीं आता । ज्ञान सामान्य तो प्राणी मात्र में पाया जाता है परन्तु विशेष सम्यग्ज्ञान असंभव है इसलिये उसीको भजनीय कहा गया है । नयकी
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भाषा
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