Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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उत्तरलामे तु नियतः पूर्वलामः ॥३१॥ . सम्यग्दर्शन आदि तीनोंमें उचर उचरकी प्राप्ति होने पर तो पूर्व पूर्वकी प्राप्ति नियमसे होती है। ॥ सूत्रमें जैसा पाठ रक्खा गया है उसकी अपेक्षा पूर्व सम्यग्दर्शन और उत्तर सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्दर्शन है
के हो जानेपर सम्यग्ज्ञान हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता, परन्तु सम्यग्ज्ञानके होनेपर सम्यग्दर्शन से | नियमसे रहता है। विना सम्यग्दर्शनके सम्यग्ज्ञान हो नहीं सकता। उसीप्रकार सम्यग्ज्ञानसे उत्तर सम्यक् है Pil चारित्र और पूर्व सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञानके रहते सम्यक्चारित्र रह भी सकता है और नहीं ना भी रह सकता परन्तु सम्यक्चारित्रके रहते सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान नियमसे रहते हैं विना सम्यग्दर्शन || और सम्यग्ज्ञानके चारित्र कभी सम्यक्चारित्र हो ही नहीं सकता। यदि यहांपर यह कहा जाय कि
तदनुपपत्तिरज्ञानपूर्वकश्रद्धानप्रसंगात् ॥ ३२॥ ___ पूर्व पूर्वके प्राप्त हो जानेपर उचर उत्तर भाज्य है तब सम्यग्ज्ञानसे सम्यग्दर्शन पूर्व है इसलिये सम्यग्दर्शनके हो जानेपर भी सम्यग्ज्ञानका होना तो नियमरूप रहा नहीं।वह हो भी सकता है नहीं भी हो सकता। इस रीतिसे सम्यग्दर्शनके हो जानेपर जहां ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं हुआ है वहांपर श्रद्धानको अज्ञान-मिथ्याज्ञानपूर्वक मानना पडेगा ? तथा
___अनुपलब्धस्वतत्त्वेऽर्थे श्रद्धानानुपपत्तिरविज्ञातफलरसोपयोगवत् ॥३३॥ __ यदि अज्ञानपूर्वक श्रद्धान माना जायगा तो जिसतरह फलको विनाजाने उसके रसकी भी पहिचान || न होगी इसलिये उस फलके रसको तयार करो 'वह फल रसवाला है ऐसाश्रद्धान नहीं हो सक्ता उसीप्रकार || ७५
जीवअजीव आदितत्त्वोंको विना जाने यह जीव हैवाअजीव है ऐसा श्रद्धान होना भी असंभव है। तथा-हूँ
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