Book Title: Sanmatitarka Prakaranam Part 2
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi
Publisher: Gujarat Puratattva Mandir Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TET ETC પ્રય જીર્ણોદ્ધાર -: સંયોજક :શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવના હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫. - મો. ૯૪૨૬૫ ૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૦૭૯-૨૨૧૩૨૫૪૩ ; Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૧૦૭ સન્મતિતર્ક પ્રકરણમ્ ભાગ-૨ : દ્રવ્ય સહાયક : પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી રામચન્દ્ર-ભદ્રંકર-કુંદકુંદસૂરીશ્વરજી મહારાજાના શિષ્યરત્ન વર્ધમાન તપની ૧૦૦+૭૫ ઓળીના આરાધક પૂ. ગણિવર્ય શ્રી નયભદ્રવિજયજી મ.સા.ની શુભ પ્રેરણાથી જૈન પંચ મહાજન - વાસા (રાજસ્થાન) તરફથી સહયોગ મળેલ છે. : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-380005 (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૭ ઈ.સ. ૨૦૧૧ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "Aho Shrut Gyanam" Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૃષ્ઠ 238 286 54 007 810 850 322 280 162 302 અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯- સેટ નં-૧ ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ કર્તા-ટીકાકાસંપાદક | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी पू. विक्रमसूरिजीम.सा. 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी पू. जिनदासगणिचूर्णीकार । | 003 श्री अर्हद्रीता-भगवद्गीता पू. मेघविजयजी गणिम.सा. 004 श्री अर्हच्चूडामणिसारसटीकः पू. भद्रबाहुस्वामीम.सा. 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं | पू. पद्मसागरजी गणिम.सा. 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम् | पू. मानतुंगविजयजीम.सा. अपराजितपृच्छा | श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्पस्मृति वास्तु विद्यायाम् | श्री नंदलाल चुनिलालसोमपुरा 009 शिल्परत्नम्भाग-१ | श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 010 | शिल्परत्नम्भाग-२ | श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 011 प्रासादतिलक श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 012 | काश्यशिल्पम् श्री विनायक गणेश आपटे 013 प्रासादमञ्जरी श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र श्री नारायण भारतीगोसाई 015 शिल्पदीपक | श्री गंगाधरजी प्रणीत | वास्तुसार श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 017 दीपार्णव उत्तरार्ध | श्री प्रभाशंकर ओघडभाई જિનપ્રાસાદમાર્તડ શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા | जैन ग्रंथावली | श्री जैन श्वेताम्बरकोन्फ्रन्स 020 હીરકલશ જૈનજ્યોતિષ શ્રી હિમ્મતરામમહાશંકર જાની न्यायप्रवेशः भाग-१ | श्री आनंदशंकर बी.ध्रुव 022 | दीपार्णवपूर्वार्ध श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग पू. मुनिचंद्रसूरिजीम.सा. | अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग२ | श्री एच. आर. कापडीआ 025 | प्राकृतव्याकरणभाषांतर सह श्री बेचरदास जीवराजदोशी तत्पोपप्लवसिंहः | श्री जयराशी भट्ट बी. भट्टाचार्य | 027 शक्तिवादादर्शः श्री सुदर्शनाचार्यशास्त्री 156 352 120 88 110 018 498 019 502 454 021 226 640 452 024 500 454 188 026 214 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 028 029 030 031 032 033 034 035 036 037 038 039 040 041 042 043 044 045 046 047 048 049 050 051 052 053 054 क्षीरार्णव वेधवास्तु प्रभाकर शिल्परत्नाकर प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय? श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्यायर श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय३ (१) श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय (२) (३) श्री सिद्धम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय ५ વાસ્તુનિઘંટુ તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમન્નરી ભાગ-૨ તિલકમન્નરી ભાગ-૩ સપ્તસન્માન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભઙીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સામાન્યનિયુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરકિણીતરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ બૃહદ્ ધારણા યંત્ર જ્યોતિર્મહોદય श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री नर्मदाशंकर शास्त्री पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजीम. सा. પૂ. ભાવબ્યસૂરિનીમ.સા. પૂ. ભાવન્યસૂરિનીમ.સા. पू. लावण्यसूरिजीम. सा. પૂ. ભાવખ્યરિનીમ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી 414 192 824 288 520 578 278 252 324 302 196 190 202 480 228 60 218 190 138 296 210 274 286 216 532 113 112 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦)- સેટ નં-૨ ભાષા કર્તા-ટીકાકાસંપાદક પુસ્તકનું નામ सं सं ક્રમ 055 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय-६ 056 विविध तीर्थ कल्प 057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका જૈન સંગીત રાગમાળા 064 | विवेक विलास 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध 066 सन्मतितत्त्वसोपानम् ઉપદેશમાલા દોઘટ્ટી ટીકા ગુર્જરાનુવાદ 060 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश ) 062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय सं 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी सं 067 068 मोहराजापराजयम् 069 | क्रियाकोश 070 कालिकाचार्यकथासंग्रह 071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका 072 जन्मसमुद्रजातक 073 | मेघमहोदय वर्षप्रबोध 074 075 शुभ. सं सं જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ गु. सं 4.4.9 सं/गु. सं सं शुभ. सं पू. लावण्यसूरिजीम. सा. पू. जिनविजयजी म. सा. शुभ. गु४. पू. पूण्यविजयजी म. सा. श्री धर्मदत्तसूरि | श्री धर्मदत्तसूरि श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी श्री रसिकलाल एच. कापडीआ | श्री सुदर्शनाचार्य पू. मेघविजयजी गणि श्री दामोदर गोविंदाचार्य पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. पू. लब्धिसूरिजी म.सा. પૃષ્ઠ 296 160 164 202 48 306 322 668 516 पू. हेमसागरसूरिजी म. सा. पू. चतुरविजयजी म.सा. सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया सं/गु. श्री अंबालाल प्रेमचंद 406 सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य 308 सं/ हिं श्री भगवानदास जैन 128 सं/ हं श्री भगवानदास जैन 532 श्री हिम्मतराम महाशंकर जान 376 श्री साराभाई नवाब 374 268 456 420 638 192 428 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 076 | ઇ જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ વન જ 17 સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 07 | ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય 079 | શિલ્પ ચિતામણિ ભાગ-૧ O80 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 114 08 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ 082 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083 આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ 084 | કલ્યાણ કારક 085 | વિશ્વનયન વોશ 086 | કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 087 કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 હસ્તસગ્નીવનમ ગુજ. શ્રી સારામારૂં નવાવ 238 | ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવાવ 194 ગુજ. | શ્રી સારામારૂં નવાવ 192 ગુજ. | શ્રી મનસુહાનાન્ન મુવમન | 254 ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારીમ 260 ગુજ. | શ્રી નાગનાથ મંવારમ 238 ગુજ. | શ્રી નવીન્નાથ મંવારમ 260 ગુજ. | પૂ. વરાન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પાર્શ્વનાથ શાસ્ત્રી 910 सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा 436 ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન કોશી 336 | ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન તોશી | 230 સં. | પૂ. મે વિનયની પૂ.સવિનયન, પૂ. पुण्यविजयजी | आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 560 322 114 089 એ%ચતુર્વિશતિકા 090 સમ્મતિ તક મહાર્ણવાવતારિકા Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार पृष्ठ 191 272 92 240 93 254 282 95 118 96 466 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम पुस्तक नाम कर्ता/टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-३ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-४ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-५ वादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना पवित्र कल्पसूत्र पुण्यविजयजी सं./अं साराभाई नवाब 97 समराङ्गण सूत्रधार भाग-१ | भोजदेवसं . टी. गणपति शास्त्री 98 समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव टी. गणपति शास्त्री 99 भवनदीपक पद्मप्रभसूरिजी सं. वेंकटेश प्रेस 100 गाथासहस्त्री समयसुंदरजी सं. सुखलालजी भारतीय प्राचीन लिपीमाला गौरीशंकर ओझा हिन्दी मुन्शीराम मनोहरराम 102 शब्दरत्नाकर साधुसुन्दरजी हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश न्यायविजयजी सं./गु हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर ओरीएन्ट इस्टी. बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३ माणिक्यसागरसूरिजी आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मतितर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी सन्मतितर्क प्रकरण भाग-४,५ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण एसियाटीक सोसायटी 342 362 134 70 101 316 224 612 307 250 514 107 454 354 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं./हि 337 110 सं./हि 354 111 372 सं./हि सं./हि सं./हि 142 113 336 364 सं./गु सं./गु पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार अरविन्द धामणिया यशोविजयजी ग्रंथमाळा | यशोविजयजी ग्रंथमाळा | नाहटा ब्रधर्स | जैन आत्मानंद सभा जैन आत्मानंद सभा फार्बस गुजराती सभा फार्बस गुजराती सभा | फार्बस गुजराती सभा 218 116 656 122 109 जैन लेख संग्रह भाग-१ पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-२ पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-३ पुरणचंद्र नाहर 112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१ कांतिसागरजी जैन प्रतिमा लेख संग्रह दौलतसिंह लोढा 114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह विशालविजयजी 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१ विजयधर्मसूरिजी बीकानेर जैन लेख संग्रह अगरचंद नाहटा 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री 120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 122 __इन मुंबई सर्कल-१ ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 123 इन मुंबई सर्कल-४ ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल-५ कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत पी. पीटरसन __ इन्स्क्रीप्शन्स 126 | विजयदेव माहात्म्यम् जिनविजयजी 764 सं./हि सं./हि सं./हि सं./गु सं./गु सं./गु 404 404 121 540 रॉयल एशियाटीक जर्नल 274 रॉयल एशियाटीक जर्नल 41 124 400 अं. रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपार्टमेन्ट, भावनगर जैन सत्य संशोधक 125 | 320 148 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूजरात पुरातत्वमन्दिर ग्रन्थावली POOO सावधाका RAN MUVI थO GHATA ग्रन्थाङ्क १९ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूजरातपुरातत्त्वमन्दिरग्रन्थावली आचार्यश्रीसिद्धसेनदिवाकरप्रणीतं संमतितर्क-प्रकरणम्। - --- जैनश्वेताम्बर-राजगच्छीय-प्रद्युम्नसूरिशिष्य-तर्कपश्चाननश्रीमद्-अभयदेवसूरिनिर्मितया तत्त्वबोधविधायिन्या व्याख्यया विभूषितम् । चतुर्थो विभागः। (द्वितीयकाण्डान्तः) गूजरातविद्यापीठप्रतिष्ठितपुरातत्त्वमन्दिरस्थेन संस्कृतसाहित्य-दर्शनशास्त्राध्यापकेन पं० सुखलालसंघविना प्राकृतवानयाध्यापकेन जैनन्याय-व्याकरणतीर्थ पं० बेचरदासदोशिना च पाठान्तर-टिप्पण्यादिभिः परिष्कृत्य संशोधितम् । गूजरात विद्यापीठ अमदावाद प्रथमावृत्तिः, प्रतिसं.५०. संवत् १९८५ [मूल्यम्-१. रूप्यकाणि. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक:-नरहरि द्वारकादास परीख महामात्र, गूजरात विद्यापीठ, अमदावाद मुद्रक:-रामचंद्र येसू शेडगे, निर्णयसागर प्रेस, नं. २६-२८, कोलभाट लेन, मुंबई Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका-टिप्पण्युपयुक्तावतरणस्थानानां संकेताः। अभिधानचिन्तामणिकोशः। अष्टशती। अभिधान अष्टश० आप्तपरीक्षाप्रस्तावना। आवश्यकनि० नवकारनि० आवश्यक हारि० कल्पसू० मू० कुमारसं० केवलिभुक्तिप्रकरणम् गोम्मटसारः गं० श्लो० वा० चरकसंहिता। जैनतर्कपरि० शानबिं० तत्त्वार्थ० व्या० तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालङ्कारः। तत्त्वोप०लि. त्रिशिकाविज्ञ त्रिशिंकाविज्ञ० भा० नयनप्रसादिनी चित्सुखी। नियमसारः। नन्दि० चू०लिं० लि. नन्दि० म० नन्दिसूत्रवृत्तिः । नन्दि० ल० वा० लि. आवश्यकनियुक्तौ नमस्कारनियुक्तिः। आवश्यकस्य हरिभद्रीया वृत्तिः । कल्पसूत्रमूलम् । कुमारसंभवटीका। शाकटायनविरचितं केवलिभुक्तिप्रकरणम् । गङ्गानाथझाकृतानुवादं श्लोकवार्तिकम् । जैनतर्कपरिभाषा। ज्ञानबिन्दुः। तत्त्वार्थव्याख्या। तत्त्वोपप्लवः लिखितः। त्रिशिकाविज्ञप्तिः वसुबन्धुकृता। त्रिंशिकाविज्ञप्तिभाष्यम् स्थिरमतिकृतम् । नन्दिसूत्रचूर्णिः लिम्बडीभण्डारसत्का लिखिता। नन्दिसूत्रमलयगिरिटीका नन्दिसूत्रलघुटीका वाडीपार्श्वनाथभण्डार सत्का लिखिता। धर्मकीर्तिकतन्यायबिन्दोष्टीका। धर्मकीर्तिकृतन्यायबिन्दोष्टीकायाष्टिप्पणी। न्यायमञ्जरी। न्यायसिद्धान्तमुक्तावलिकारिका । ध० न्या० टी० । न्यायबिं० टी० ध० न्या०टी०टिक न्यायमञ्ज० न्यायसि० मु० का० । मुक्ताव परीक्षामुखम्। प्रमाणप० प्रमाणमी० प्रज्ञाप० बृहद्रव्यसंग्रहः। महाभा० " वनप० रक्षाकराव० रामाय० अरण्य० लघीयत्र० प्रमाणपरीक्षा। प्रमाणमीमांसा। प्रज्ञापनासूत्रम् । महाभारतम् । , वनपर्व। रत्नाकरावतारिका। रामायणम् अरण्यकाण्डः। लघीयस्त्रयम्। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघीयन खो० ० लि. विशेषणवती। विशेषा० भा० विशेषावश्यकभाष्यवृत्तिः। विज्ञप्तिमात्र वैजय श्रीभा० लो० वा० अनु० , अर्थाप० , उपमान० निरा० , प्रत्यक्ष० । , प्रत्यक्षसू० , शब्दप० षड्द० स० वृ० वृ० स्फुटार्थअभिः लघीयस्त्रयस्य खोपशा बृहहृत्तिः लिखिता। विशेषावश्यकभाष्यम् । विज्ञप्तिमात्रतासिद्धिः विंशतिका वसुबन्धकृता । वैजयन्तीकोशः। श्रीभाष्यम् । श्लोकवार्तिकम् अनुमानपरिच्छेदः। अर्थापत्तिपरिच्छेदः। उपमानपरिच्छेदः। निरालम्बनवादः। प्रत्यक्षसूत्रम्। शब्दपरिच्छेदः। षड्दर्शनसमुच्चयबृहदृत्तिः। स्फुटार्थअभिधर्मकोशव्याख्या यशोमित्रकृता। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः ४५७-५९५ ४५७-४५८ ४५८ ४५८-५१८ ४५८-४६३ ४६३-४६६ ४६६-४६७ ४६७-४७१ ४७१-४७२ ४७३-४७५ विषयः प्रथमगाथाव्याख्या। १ उपयोगनिरूपणम् । व्यस्तयोर्दर्शन-शानयोः लक्षणममिधाय द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकाभ्यां तयोः स्वभावस्य विभज्य वर्णनम् । उपयोगस्य साकारानाकारते स्पष्टयित्वा तयोः प्रामाण्याऽप्रामाण्यकथंताभिधानम्। २ प्रमाणसामान्यनिरूपणम् । वैभाषिक-सौत्रान्तिक-योगाचारसंमतानां निराकार-साकारविज्ञानवादानां परस्परोपमर्द पूर्वपक्षतयोपन्यासः। बाह्यार्थ तबाहकं च निराकार-साकारज्ञानं स्वीकुर्वता सिद्धान्तिना साकारज्ञानप्रमाणवादस्य प्रतिविधानम्। जैमिनीयसंमतं मातृव्यापारस्य प्रमाणत्वं निराकर्तुं तद्विशेषणस्यानधि. गतार्थाधिगन्तृत्वस्य व्यपोहनम् ।। धर्मोत्तरीयं प्रमाणसामान्यलक्षणं व्यावर्ण्य सिद्धान्तिना तस्य समालोच्य दूषणम् । नैयायिक वैशेषिकसंमतस्य सामग्रीप्रामाण्यवादस्य पूर्वपक्षतयोपन्यासः। सामग्रीप्रमाणवादं प्रतिविधाय स्वार्थनिर्णीतिस्वभावशानस्य प्रमाणसामान्यलक्षणतयोपसंहारः। नैयायिकादिसंमतं परसंविदितत्वपक्षमपास्य सिद्धान्तिना लक्षणैकदेश भूतस्य स्वनिर्णीतिस्वभावत्वस्य व्यवस्थापनम् । विज्ञान-शून्यतावादीयमर्थस्यासत्त्वपक्षं निरस्य तस्य च पारमार्थिकत्वं प्रतिष्ठाप्य लक्षणेऽर्थनिर्णीतिस्वभावत्वस्योपपादनम्। स्वार्थनिर्णयस्वभावं शानमिति प्रमाणलक्षणं प्रतिक्षेनुकामेन सौगतेन निर्विकल्पस्यैव प्रत्यक्षत्वस्थापनम् । वैयाकरणसम्मतं केवलसविकल्पकवादमुपन्यस्य निर्विकल्पकवादिना तस्य दूषणम्। नैयायिकादिसम्मतं केवलसविकल्पकवादमुपन्यस्य निर्विकल्पकवादिना तस्यापि दूषणम् । निर्विकल्पकमेवाध्यक्षमिति मतं प्रतिविधाय सविकल्पस्याध्यक्षत्वमुपपाद्य च सिद्धान्तिना स्वार्थनिर्णयस्वभावज्ञानस्य प्रमाणसामान्यलक्षणत्वव्यवस्थापनम् । ३ प्रमाणविशेषनिरूपणम् । प्रत्यक्षम्। प्रत्यक्षे निरूपयितव्ये पूर्व सौगतमतविरोधितया नैयायिकसम्मतस्य प्रत्यक्षलक्षणस्योपन्यासः। निर्विकल्पकस्यैव प्रत्यक्षत्वमामनतां सौगतानां नैयायिकसम्मते विकल्पप्रामाण्ये प्रतिक्षेपः। नैयायिकैः सौगताक्षेपस्य प्रतिविधानम् । ४७५-४७९ ४८०-४८८ ४८८ ४८९-४२३ ४९३-४९९ ४९९-५१८ ५१८-५७२ ५१८-५५३ ५१८-५२४ ५२४-५२५ ५२५-५२७ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठम् ५२७-५३० ५३०-५३२ ५३३-५३४ ५३४-५३९ ५४०-५५२ ५४०-५४६ ५४३ ५५२-५५३ ५५४-५५९ ५६०-५६७ ५६७-५७२ ५७३-५९० ५७३-५७४ विषयः केषांचित् न्यायसूत्रीयप्रत्यक्षलक्षणे प्रतिक्षेपः। नैयायिकैः फलविशेषणपक्षाश्रयेण प्रतिक्षेपमुदस्य प्रत्यक्षसूत्रोक्त लक्षणस्य समर्थनम् । नैयायिकैर्विन्ध्यवासीय प्रत्यक्षलक्षणस्य निराकरणम् । नैयायिकैजैमिनीयसूत्रोक्तप्रत्यक्षलक्षणस्य निरासः। सिद्धान्तिना न्यायसूत्रीयप्रत्यक्षलक्षणस्य खण्डनम् । प्रसङ्गादिन्द्रियाणां प्राप्याप्राप्यकारित्वचर्चा । अनुषङ्गात् तमसो भावाभावत्वप्रक्रमः। प्रत्यक्षस्य तद्भेदानां च सिद्धान्तसंमतं निरूपणम् । प्रत्यक्षकप्रमाणवादिनश्चार्वाकस्यानुमानप्रामाण्याशङ्का । सौगतैरनुमानप्रामाण्यसमर्थनेन चार्वाकाशङ्कायाः प्रतिविधानम् । अक्षपादीयानुमानसूत्रस्य विविधां व्याख्यामुपन्यस्य तदीयानुमान लक्षणस्य अनेकधा निरूपणम् । सौगतप्रणीतानुमानलक्षणाश्रयेण नैयायिकोक्तानुमानलक्षणस्य प्रतिक्षेपप्रकारः। सौगतैर्मीमांसकीयमनुमानलक्षणमुपन्यस्य तस्य स्वमतानुसारित्वाविष्करणम् । ४ प्रमाणसङ्ख्या निरूपणम् । प्रत्यक्षभिन्नानि प्रमाणान्यनुमानेऽन्तर्भावयतां प्रमाणद्वयवादिनां सौगतानां विचारप्रक्रिया। सौगतसंमतं प्रमाणद्वित्ववादं प्रतिवदितुं मीमांसकेन शाब्दस्य प्रमाणान्तरत्वस्थापनम् । मीमांसकेन उपमानस्य प्रमाणान्तरत्वस्थापनम् । नैयायिककृतमुपमानस्य स्वरूपवर्णनम् प्रमाणान्तरत्वसमर्थनं च । मीमांसकेन अर्थापत्तेः स्वरूपव्यावर्णनपूर्वकं प्रमाणान्तरत्वसमर्थनम् । मीमांसकेन अभावस्य प्रमाणान्तरत्वसमर्थनम्।। सौगतेन मीमांसकादिमतानामुपमानादीनामप्रमाणत्वं यथायथं प्रत्यक्षानुमानयोरन्तर्भावनेन पृथप्रामाण्याभावं चोपपाद्य प्रमाणान्तरत्वप्रतिविधानम् । सौगतकृतां मीमांसकादिसम्मतप्रमाणान्तरप्रति विधानप्रक्रियां यथासिद्धान्तं स्वीकृत्याऽपाकृत्य च सिद्धान्तिना प्रत्यक्ष परोक्षतया प्रमाणद्वय व्यवस्थापनम्। मुण्यवृत्त्या संव्यवहारेण च परोक्षप्रमाणस्य स्वरूपविभजनम् । २ गाथाव्याख्या। दर्शनविषयीभूतस्य प्रमेयस्य न विशेषाकारेण शून्यत्वम् न वा शानविषयीभूतस्य सामान्याकारेण इति निरूपणम् । ३ गाथाव्याख्या। उपयोगखाभाव्यादेव छानस्थिकयोनि-दर्शनयोः क्रमवर्तित्वम् न पुनः केवलिगतयोस्तयोः सहवर्तित्वात् इति प्रतिपादनम् । ४ गाथाव्याख्या। केवलज्ञानदर्शनयोः सहभावित्वे विप्रतिपद्यमानानां केषांचिन्मतस्य साधिक्षेपं निर्देशः। ५७४-५७५ ५७५-५७७ ५७७-५७८ ५७८-५७९ ५७९-५८२ ५८२-५९० ५९०-५९५ ५९५ ५९७-६०५ ५९७ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः केवलोपयोगद्वयस्य क्रमभावित्वं प्रतिवेध्य तत्सह भावित्व परतया आगमस्य व्याख्यानम् । ५ गाथा व्याख्या । आगमेन केवलज्ञानदर्शनयोर्योगपद्यमभिधाय अनुमानयुक्त्या पुनस्तत्प्रतिपादनम् । ६ गाथाव्याख्या | सर्वशे छाद्मस्थिकक्रमोपयोगाभावात् तदृष्टान्तेनैव तत्र केवलज्ञानादन्यदा केवलदर्शनाभावप्रतिपादनम् । ७ गाथाव्याख्या । क्रमवादिमतेऽनुमानविरोधवदागमविरोधोऽप्यापततीति प्रदर्शनम् । ८ गाथा व्याख्या । सोपसंहारमागमविरोधस्य स्पष्टीकरणम् । ९ गाथा व्याख्या । प्रकरणकारेण क्रमोपयोगद्वयवादिनम् सहोपयोगद्वयवादिनं च पर्यनुयुज्य स्वपक्षस्योपन्यासः । १० गाथाव्याख्या | केवलज्ञान-दर्शनयोर मेदपक्ष एव सर्वज्ञत्व- सर्व दर्शित्वोपपत्तिरिति प्रकटनम् । क्रमाक्रमाSमेदपत्रयग्राहिण आचार्यान् नामग्राहं निर्दिश्य तैः स्वस्वपक्षपोषकतया व्याख्यातानां सूत्राणां संसूचनम् । ११ गाथा व्याख्या | साकारानाकारोपयोगयोरेकान्तिक मेदासंभवप्रदर्शनेन अनेकान्तस्य समर्थनम् । १२ गाथा व्याख्या । क्रमाक्रमोपयोगद्वयपक्षे शास्त्रसिद्धं ज्ञान दृष्टभाषित्वं भगवतो न घटते इत्यभिधानम् । १३ गाथाव्याख्या | क्रमाक्रमपक्षद्वये भगवतः अज्ञातदर्शितया अष्टष्टज्ञायितया च सर्वज्ञत्वासंभवप्रदर्शनम् । १४ गाथा व्याख्या । भागमसिद्ध समसंख्यक विषयावगाहित्ययुक्त्या केवलज्ञानदर्शनयोरभेदसमर्थनम् । १५ गाथा व्याख्या | अमेदवाद्युक्तस्य केवले अपर्यवसितत्वादिदोषस्य क्रमवादिना समुद्धरणम् तस्य च पुनरमेदवादिना प्रतिसमाधानम् । भुक्ति क्रमोपयोगयोश्छद्मना व्याप्तिं स्वीकुर्वतां केषांचिन्मतस्य व्यावर्णनम् । केवलिकवलाहारचर्चा | कवलाहारनिषेधवादस्य पूर्वपक्षतयोपन्यासः । पूर्वपक्षं प्रतिविधातुमुपयोगऋमसामान्यस्य छद्मना व्याप्तिं निरस्य भुक्तेरपि तेन सह व्याप्त्यभावे तात्पर्यख्यापनम् । केवलिन कवलाहारमुपपादयितुं बाधकप्रमाणनिरासपूर्वकं साधकप्रमाणप्रदर्शनम् । १६ गाथाव्याख्या | १ पृष्ठम् ६०५ ६०६ * = * = * = * = = ६०६ ६०७ ६०७ ६०७ ६०८ " ૬ = = = ६०९ ६०९ ६९ ६१” ६१० 39 ६१०-६१५ ६१०-६११ ६१२ ६१२ ६१५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठम् ६१५ ६१६ ६१६ विषयः मस्यादिक्षानचतुष्करूपे दृष्टान्ते यत्र यत्रोपयोगे विषयभेदस्तत्र तत्रासर्वार्थत्वमिति व्याप्तेर्भावनम् । १७ गाथाव्याख्या। मत्यादिवैधय॒ण केवलोपयोगस्य असर्वार्थत्वाभावेन विषयभेदाभावादक्रमोपयोगद्वयात्मकैकरूपत्वसाधनम् । १८ गाथाव्याख्या। अभिन्नोपयोगवादिना स्वपक्षे समापतत आगमविरोधस्यार्थगत्या व्याख्यान्तरमाश्रित्य परिहरणम् । १९ गाथाव्याख्या। भक्रमोपयोगद्वयात्मकमेकं चेत केवलं किमिति मनःपर्यायवदागमे तस्य ज्ञानमात्रतया न कथनम् किमिति च ज्ञान-दर्शनरूपतया द्वैविध्येन वर्णनमिति चोये मर्मोद्धाटनम् । २० गाथाव्याख्या। एकत्वेऽपि केवलस्य शान-दर्शनोभयरूपतया शास्त्रे पाठात् तस्य कथंचिदनेकरूपत्वाभ्युपगमनम् । २१ गाथाव्याख्या। एकदेशिना मत्युपयोगं दृष्टान्तीकृत्य एकस्यापि केवलोपयोगस्य द्विरूपत्वसमर्थनम्। २२ गाथाव्याख्या। पुनरप्येकदेशिना ऋमिकभेदं दूषयितुं शास्त्रीययुक्त्या शान-दर्शनयोः कथंचिदन्यत्वव्यवस्थापनम् । २३-२४ गाथाव्याख्या। एकदेशीये अवग्रहमात्रमतिज्ञानस्य दर्शनत्वाभ्युपगमे समापततो दोषस्याभिधानं तत्समर्थनं च। २५ गाथाव्याख्या। शान एव चक्षुरचक्षुर्दर्शनप्रवादसमर्थनाय दर्शनपदस्य अर्थाभिधानम् । २६ गाथाव्याख्या। अस्पृष्टाविषयावगाहित्वेऽपि न मनःपर्यायबोधस्य दर्शनत्वप्रसङ्ग इति सयुक्तिकं प्रतिपादनम्। २७ गाथाव्याख्या। अस्पृष्टाविषयावगाहि ज्ञानमेव दर्शनम् न ततः पृथगिति प्रतिपादनम् । २८ गाथाव्याख्या। अस्पृष्टार्थावगाहित्वेऽपि श्रतज्ञानस्य दर्शनत्वाभावप्रतिपादनम् । २९ गाथाव्याख्या। अवधिज्ञान एव प्रवृत्तिनिमित्तवशेन दर्शनशब्दस्यापि लब्धावकाशत्वसमर्थनम् । ३० गाथाव्याख्या। सिद्धान्तिना एकस्यैव केवलोपयोगस्य ज्ञानदर्शनोपयोगद्वय रूपत्वव्यावर्णनम् । सूर्यभिप्रायेण ज्ञानपञ्चक-दर्शनचतुष्कयोः स्वरूपविभजनम् । ३१ गाथाव्याख्या । एक एव केवलोपयोगो यात्मक इति स्वसिद्धान्तः समयान्तरोत्पादवचनं तु परतीर्थिकमतकथनमिति विभजनम्। ६१८ ६१८ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ विषयः ३२ गाथा व्याख्या । एवंभूततत्त्वश्रद्धानरूपस्य सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानरूपत्वमेव इति वर्णनम् । ३३ गाथा व्याख्या | सम्यग्ज्ञाने दर्शनत्वस्य नियततया दर्शने सम्यग्ज्ञानत्वस्य विकल्पनीयतया सम्यग्दर्शनं विशिष्टज्ञानरूपमेव इति फलिताभिधानम् । ३४ गाथा व्याख्या | सूत्रोक्तं साद्यपर्यवसितत्वं शब्दशः स्पृशतां केषांचिदाचार्याणां 'गर्विष्ठतया सम्यग्वादित्वाभावप्रतिपादनम् । ३५ गाथा व्याख्या । सिद्धान्तिना केवलस्य पर्यवसितत्वप्रदर्शनम् । ३६ गाथाव्याख्या । सिध्यत्समये केवलस्य विनाशवद् उत्पादस्यापि प्रदर्शनम् अपर्यवसितत्वविषय सूत्रोक्तेरपेक्षाविशेषेण समर्थनं च । ३७-३८ गाथाव्याख्या । स्वरूप लक्षणाभ्यां जीव- केवलयोर्भेदे सत्यपि कथं तयोरेकत्वमित्यस्याः केषांचिदाशङ्काया उल्लेखः । ३९ गाथा व्याख्या । प्रागुक्तामाशङ्कां निरसितुमुपक्रमः । ४० गाथाव्याख्या | अनेकान्तात्मकैकरूपत्वेन साध्येन सत्त्वस्य हेतोर्व्यासिं प्रसाधयितुं दृष्टान्तोपन्यासः । ४१ गाथा व्याख्या | दृष्टान्तगृहीतव्याप्तेः सत्वहेतोर्दान्तिके केवले उपनयनम् । ४२ गाथाव्याख्या । जीव-तत्पर्यायगतं प्रामाणिकं व्यवहारमाश्रित्य द्रव्य-पर्याययोरेकान्तभेदनिराकरणम् । ४३ गाथा व्याख्या | आत्मद्रव्यस्य स्वाभाविकैर्वैभाविकैश्च पर्यायैः कथंचिदेकानेकत्वप्रदर्शनम् । पृष्टम् ६२९ 35 ६२२ 35 ६२२ 33 ६२२ 39 ६२३ " ६२३ ६२३ ६२३ 23 ६२४ 35 ६२४ 22 ६२४ 39 ६२५ 33 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय निवेदन जो के आ भाग त्रीजो भाग प्रसिद्ध थया पछी पूरुं एक वर्ष वीत्या पहेलां ज प्रसिद्ध थाय छे छतां एनी संपूर्ण तैयारीमां फक्त एटलो ज वखत लाग्यो छे एम कोई न धारे. आगळना भागोनी पेठे आ भागनी तैयारी पण दोढे ज चालती हती. साधनसंपत्ति अने सहकारीओनी मदद पण अविच्छिन्न रहेली तेथी ज आ भागनुं प्रकाशन जलदी करी शकायुं छे. (क) प्रस्तुत भागने अंगे बे बाबतो अत्रे जणाववानी छे; ग्रंथने लगती अने संपादनने लगती. ग्रंथने लगती बाबतमां मुख्य त्रण मुद्दाओ छे. १ मूळ अने टीकानुं परिमाण २ विषय ३ अने तेनी नवीनता. १ प्रस्तुत भागमां सम्मतितर्कनुं बीजुं काण्ड आखुं आवी जाय छे. एमां ४३ गाथाओ छे. ए बधी गाथाओनी संपूर्ण टीका पण आ भागमां आवी ज जाय छे. बधी गाथाओमांथी पहेली गाथानी टीकाथी ज प्रस्तुत भागनो मोटो हिस्सो रोकाएलो छे. लगभग पोणा जेटलो हिस्सो ए टीकाए रोक्यो छे अने बाकीना हिस्सामां बीजीथी ठेठ सुधीनी बधी गाथाओनी टीका समाई जाय छे. २ प्रस्तुत भागमां आवेला बीजा काण्डनो विषय ज्ञान छे. जैन आगमोमां जे ज्ञानसंबंधी प्राचीन विचार छे अने जे तेना भेदोनुं वर्गीकरण छे तेने ज आधारे आ बीजा काण्डमा चर्चा करवामां आवी छे. परंतु टीकामां एक विशेषता छे अने ते ए के जैन आगमनी प्राचीन शैलीमां स्थान नहि पामेली अने तर्कना विकास दरमियान उद्भव तथा प्रसार पामेली प्रमाणचर्चा टीकाकारे पहेली गाथानी टीकामां बहु उदारताथी दाखल करी छे. ए चर्चामां तत्कालीन बौद्ध अने वैदिक दर्शनोनां मंतव्योने पूर्वपक्षरूपे गोठवी सर्वदर्शनसंग्रहनी ढबे अंदरोअंदर एकथी बीजानुं निरसन करी छेवटे जैनदर्शननां मंतव्योने उत्तरपक्षरूपे मूकी तेनुं ज स्थापन करवामां आव्युं छे. ए प्रमाणचर्चा टीकाकारना बौद्ध अने वैदिक दर्शनसंबंधी प्रमाणविषयक महान् ग्रंथराशिना अभ्यासनी साक्षी पूरे छे. बीजीथी छेल्ली गाथा सुनी टीकामां मात्र गाथानो ज विषय टीकाकारे स्पष्ट कर्यो छे, एमां तो फक्त प्राचीन आगमशैलीए ज्ञाननो विचार आवे छे तेथी तेमां दर्शनांतरना ग्रंथो अने तेना विषयने स्थान ज मळ्युं नथी. ३ जैन आगमोमां उपयोगना दर्शन अने ज्ञानरूपे बे भेद पाडी दरेकना अनुक्रमे चार अने पांच प्रकारो वर्णववामां आव्या छे, ए ज आगमनी ज्ञाननिरूपणासंबंधी प्राचीन शैली; ए शैलीने आधारे ज प्रस्तुत बीजा काण्डमा ज्ञाननी चर्चा छे, पण आ चर्चामां जे एक तत्त्व छे ते समग्र जैन वाङ्मयनी दृष्टि तद्दन नवीन छे. प्राचीन आगम परंपरामां पांच ज्ञान अने चार दर्शनोनुं वर्णन होवाथी तेम ज ए नवे प्रकारोना आवरणभूत कर्मना नव प्रकारोनुं वर्णन होवाथी केवळज्ञान अने केवळदर्शन ए बने उपयोगो जूदा जूदा तेम ज भिन्नभिन्न समयवर्ती मनाता आव्या छे. गमे त्यारे पण पाछळथी उत्पन्न थयेली बीजी एक विचारपरंपरा ए बन्ने उपयोगोनुं जूदापणुं स्वीकारे छे छतां तेनुं भिन्नभिन्नसमयवर्तीपणुं न स्वीकारतां मात्र समकालीनपणुं स्वीकारे छे. आ बन्ने परंपराओनी सामे दिवाकर श्रीसिद्धसेने एक जो पक्ष रजु कर्यो अने ते ए के जेम उक्त बन्ने उपयोगोनुं भिन्नभिन्नसमयवर्तीपणुं संभवतुं नथी तेम मनुं व्यक्तिरूपे जूदापणुं पण संभवतुं नथी. तेथी ए बन्ने उपयोगो जूदा नथी पण एक ज उपयोगनां जूद जूदां सार्थक नामो छे. आ पक्ष दिवाकर श्रीनो पोतानो ज होवाथी ते नव्य मत तरीके पण Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ प्रसिद्ध छे. ए नव्य पक्षनी इमारत तर्कना पाया उपर चणाएली छे. आगमना पाठो उपरथी स्पष्टपणे फलित थती केवळोपयोगना क्रमपक्षनी परंपरानो अने पाछळथी विचारबळे उत्पन्न करेली केवळोपयोगना युगपद् पक्षनी परंपरानो सबळ विरोध शमाववा अने पोताना पक्षने सप्रमाण स्थापवा माटे दिवाकर श्रीए मस्तुत बीजा काण्डमा अद्भुत बुद्धिचातुरी अने प्रतिभा वापर्या छे. जेम हमेशां बनतुं आव्युं छे तेम ते वखते पण शास्त्रना आधार सिवाय कोई पण वस्तु लोकोने गळे ऊतारवानुं अशक्यप्राय जणावाथी दिवाकरश्रीए बे विरोधी परंपराओ सामे पोतानो पक्ष तर्कबळथी मूक्यो खरो पण तेनी साबीती तो शास्त्रवाक्योने आधारे ज करी एम करवामां पण तेमणे कौशळ खूब वापर्यु छे. विषय अने तेना प्रतिपादननी आ ज नवीनता प्रस्तुत बीजा काण्डमां छे. ए नवीनता समजवा, एनो तुलनात्मक दृष्टिए अभ्यास करवा अने तेना पक्षप्रतिपक्षोनी दलीलो जाणावा माटे गा० ४ पृ० ५९७ - ६०४ उपर एक टिप्पण आपवामां आव्युं छे. एमां आर्यावर्तीय मुख्य मुख्य बधां दर्शनोना सर्वज्ञत्वविषयक पक्षप्रतिपक्षो उपरांत जैनदर्शनमां ते संबंधी उपलब्ध थती बधी विचारपरंपराओ प्रधान प्रधान पुरस्कर्ता अने ग्रंथोनां नाम साधे आपवामां आवी छे. दिवाकर श्रीना प्रबळ विरोधी सैद्धान्तिक जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हता तेमना विशेषणवती नामक नहि छपायेल ग्रंथमां प्रस्तुत विषयनी सौथी वधारे चर्चा मळे छे. तेथी एनो ए बधो भाग टिप्पणमां आपी तेमां अमुद्रित नन्दिचूर्णि अने लघुनन्दिटीकानो उपयोग करी प्रस्तुत विषय उपरनी मुद्रित अमुद्रित समग्र ज्ञात साहित्यनी सामग्री एकत्र करवामां आवी छे ते अभ्यासीओना मानसने अनुकूळ थाय एवी छे. उपयोगनो अभेद पक्ष दिवाकर श्रीनो खोपज्ञ कहेवाय छे. ए विचारनां सूक्ष्म बीजो जैन परंपरामां प्रथम हतां के नहि ते कहेवुं जो के कठण छे छतां बहु बारीकीथी विचार अने तुलना करतां एम चोक्खु लागे छे के न्याय वैशेषिक आदि सर्वज्ञवादी जैनेतर दर्शनोना सर्वज्ञत्वसंबंधी विचारोना उंडा अभ्यासे अने तुलनात्मक बुद्धिए उपयोगनो अभेद पक्ष उपस्थित करवामां दिवाकरश्रीने कांइक प्रेरणा आपी हशे. (ख) संपादनने लगती बाबतमां मुख्य पांच मुद्दा अत्रे कहेवाना छे. १ प्रतिओ २ पाठांतरो ३ संशोधनमां वपरायेल ग्रंथोना उपयोगनी पद्धति ४ तद्दन अप्रसिद्ध एवां लिखित पुस्तकोनो उपयोग ५ एक अगत्यना ग्रंथनो उपयोग शक्य छतां नहि करवानुं कारण. १ त्रीजा भागनी पेठे आ भागना संशोधनमां पण कागळ उपरांत ताडपत्रनी प्रतिओनो उपयोग करवामां आव्यो छे. फेर एटलो के त्रीजा भागमां ताडपत्रनी बन्ने प्रतिओ अधूरी हती ज्यारे आ भागमां ताडपत्रनी बृहत् प्रति तो संपूर्ण ज हती. कागळ अने ताडपत्रनी प्रतिओमांनो प्रस्तुत बीजा काण्डने लगतो धो भाग मोटे भागे शुद्ध ज छे. तेमां य भां० मां० वा० वा० अने ताडपत्रनी प्रतिओनुं स्थान शुद्धिनी दृष्टिए उत्तरोत्तर चडतुं छे. ताडपत्रनी प्रतिओमां शुद्धि उपरांत नानां नानां टिप्पणोनी पण एक खास विशेषता छे. जेथी प्रस्तुत संशोधनमां बहु मदद मळी छे. एमांनां केटलांक टिप्पणो मां० प्रतिमां पण छे. २ पाठांतरो लेवां अने तेमांथी पसंद करी गोठववानो क्रम तो प्रथमना भागोनी जेम ज आ भागमां पण राखवामां आव्यो छे छतां प्रतिओनी शुद्धि अने अन्य साधनोनी सगवडने लीधे आ भागमां पाठांतरो बहु आव्यां ज नथी अने लील पाठांतरोमांथी पण यथासंभव ओछा राखवामां आव्यां के. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ३ प्रस्तुत संशोधनमा धपरायेल ग्रंथोना बे भाग पडे छे; १ छपायेल २ लखेल. ग्रंथने शुद्ध करवा माटे, विषयने स्पष्ट करवा माटे, सरखामणी माटे के अभ्यासमां विशाळता आणवा माटे ज्यां ज्यां छपायेल ग्रंथोनो उपयोग थयेलो छे त्यां त्यां धणी जगोए तो शरुआतमां ते ते ग्रंथोना उपयोगी पाठो वगर संकोचे नीचे आपवामां आव्या छे. पण घणे स्थळे लाघव आदि अनेक कारणोने लीधे मात्र तेनां स्थळो ज सूचववामां आव्यां छे. परंतु ज्यां ज्यां लखेल पुस्तकोनो उपयोग कर्यो छे त्यां त्यां बनी शक्यु त्यां सुधी तेना पाठो ज नीचे आपवानो आग्रह राख्यो छे, जेथी अभ्यासीने दुर्लभ एवा लिखित पुस्तकोना पाठो सुलभ थाय. ४ अत्यार सुधीमा हजु क्यांय प्रसिद्धि नहि पामेल अने मोटे भागे अज्ञात अगर दुर्लभप्राय एवां सात लिखित पुस्तकोनो प्रस्तुत संशोधनमां उपयोग करवामां आव्यो छे, जे प्रथमना त्रण भागोमां अल्पप्राय छे. १ हेतुबिंदुटीका २ तत्त्वोपप्लव ३ सिद्धिविनिश्चय टीका ४ न्यायकुमुदचंद्रोदय ५ विशेषणवती ६ नन्दिचूर्णी अने ७ लघुनन्दिटीका. आ साते ग्रंथोनो करवा धारेलो सर्वांशे उपयोग थयो छे एम रखे कोई धारे. एम करवू ए वर्तमान मर्यादामां अशक्यप्राय हतुं छतां आवश्यक स्थळोए दिशासूचन पूरतो खास उपयोग कर्यो छे. ५ बीजा काण्डनी ४३ गाथाओमांनी प्रस्तुत विषय उपर महत्त्व धरावती केटलीक गाथाओनी व्याख्या महामहोपाध्याय श्रीयशोविजयजीए पोताना ज्ञानबिंदुप्रकरणमां करी छे. ए व्याख्या मुद्रित पण छे अने गंभीर पण छे. तो ए प्रस्तुत भागमां तेनो उपयोग आवश्यक छतां कर्यो नथी ते एम धारीने के भिन्नभिन्न स्थळे टिप्पणमां कटके कटके ए व्याख्या आपवी ते करतां एक ज साथे समग्र व्याख्या आपवी ए विशेष अनुकूळ थशे. तेथी प्रथमना त्रण भागोमां समाप्त थयेल नयकाण्डनी अनेक गाथाओ उपरनी उपाध्यायजीश्रीना भिन्न भिन्न ग्रंथोमां मळी आवती छूटी छूटी व्याख्याओना संग्रहरूपे आगळ आपवा धारेल परिशिष्टनी पेठे ज्ञानकाण्डमांनी गाथाओ उपरनी तेमनी व्याख्यान परिशिष्ट पण छेवटे ज आपवा धारीए छीए. ते साथे एमां विशेषता ए रहेशे के बीजा पण श्वेतांबर दिगंबर आचार्योए जे जे अने जेटजेटली गाथाओ उपर करेली व्याख्याओ उपलब्ध थाय छे ते पण परिशिष्टमां जोडवामां आवशे. त्रीजा काण्डनी गाथाओ विषे पण आ योजना योग्य धारी छे जेथी अत्यार सुधीमां सम्मतितर्कनी गाथाओ उपर छूटुं छूटुं के एकसाथे लखायेलं बधुं साहित्य अभ्यासीने एक ज स्थळे उपलब्ध थाय. प्रस्तुत भागना संशोधनकार्यमां पाठांतर लेवां, प्रतिओ जोवी वगेरे नीरस अने कठण छतां बहु किंमती कार्यमा उदारचेता प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजीना शिष्य श्रीचतुरविजयजीए पोताना सुशील अने विद्याव्यसनी शिष्य पुण्यविजयजी आदि साथे जे किंमती मदद आपी छे तेनी अत्यंत कृतज्ञतापूर्वक अमे नोंध लईए छीए. सुखलाल अने बेचरदास. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीयं निवेदनम् पूर्वभागसहभावित्वेनैव संपादनकार्यस्य समारब्धतया साधनसाद्गुण्य-सहकारिसाहायकयोरविच्छिन्नोपनततया च प्रस्तुतभागस्य प्रकाशनं तृतीयभागानन्तरं किञ्चिदूनेनैकेनैव वर्षेण संपन्नमित्यवगन्तव्यम् । १ ग्रन्थगोचरः २ संपादनगोचरश्चेति द्वावेव प्रस्तुतभागसंबन्धिनौ विषयौ प्रधानतयाऽत्र प्रतिपिपादयिषितौ स्तः । प्रन्थगोचरे विषये १ मूल-टीकयोः परिमाणम् २ प्रतिपाद्यं तत्त्वम् ३ तदीयं वापूर्वत्वम् इति त्रीण्येव वस्तूनि वक्तव्यानि सन्ति । १ प्रस्तुते भागे सम्मतितर्कस्य त्रिचत्वारिंशद्गाथात्मकं द्वितीयं काण्डम् तदीया च टीका संपूर्णतया परिसमाप्यते । तत्र चास्य भागस्य पादोनमितप्रायोंऽशः प्रथमगाथाटीकया शेषश्चाऽवशिष्टसमस्तगाथाटीकया व्याप्तो वर्तते । २ आगमगतां ज्ञानस्य तदीयभेदानां च प्राचीनां विचारशैलीमनुसरन्ती ज्ञानचर्चा विदधतः प्रस्तुतान्मूलकाण्डात् तट्टीकाया एतावान् विशेषः-आगमगतायां प्राचीनायां शैल्यामलब्धावकाशा तर्कविकाससमये च प्राप्तोद्भवप्रसरा प्रमाणचर्चा टीकाकारेण प्रथमगाथाटीकायां सविस्तरं संगृहीता वर्तते । तत्र च तत्कालोपलब्धानि बौद्धवैदिकदर्शनानां मन्तव्यानि पूर्वपक्षतया सन्निवेश्य सर्वदर्शनसंग्रहीयमार्गेण परस्परं निरस्य पर्यवसाने जैनदर्शनमन्तव्यान्युत्तरपक्षतयोपन्यस्य प्रतिष्ठापितानि सन्ति । सा पुनः प्रमाणचर्चा टीकाकारकृतस्य बौद्धवैदिकदर्शनसंबन्धिप्रमाणविषयकमहामन्थराशिगोचराभ्यासस्य साक्षित्वं परिपूरयति । टीकाकारेण द्वितीयाप्रभृतिचरमापर्यवसानसमस्तगाथाटीकायां गाथागतस्यैवाऽर्थस्य स्फुटीकृततया तत्र च केवलमागमशैलीकृताया ज्ञानमीमांसाया लब्धावकाशत्वेन न तत्र दर्शनान्तरीया ग्रन्था न वा तदीया विषयाः स्थानमलभन्त । ३ आगमेषूपयोगं ज्ञानदर्शनरूपतया द्वेधा विभज्य तयोर्द्वयोरनुक्रमेण पञ्च चत्वारश्च प्रकारा वर्णिताः सन्ति । इयमेव ज्ञाननिरूपणपरा प्राचीनाऽऽगमिकशैली निगद्यते; यद्यप्येनामेव शैलीमवलम्बमाना प्रस्तुतकाण्डगता ज्ञानचर्चा समस्ति तथापि तस्यामुपलभ्यमानमेकं तत्त्वमितरस्मिन् समग्रेऽपि जैनवाङ्मयेऽदृष्टचरतया सर्वथैवाऽपूर्व प्रतिभाति । तद्यथा-प्राचीनाऽऽगमपरंपरा ज्ञानपञ्चक-दर्शनचतुष्कयोस्तदीयावरणभूतकर्मप्रकारनवकस्य च व्यावर्णिततया केवलज्ञान-केवलदर्शनरूपमुपयोगद्वयं विभिन्नत्वेन भिन्नभिन्नसमयवर्तित्वेन चाऽभ्युपगच्छति । यदाकदाचिच्च पश्चादुत्पन्ना द्वितीया विचारपरंपरा तस्योपयोगद्वयस्य विभिन्नत्वं मन्यमानाऽपि भिन्नभिन्नसमयवर्तित्वमनङ्गीकृत्यैकसमयवर्तित्वमेवाऽभ्युपगच्छति । तत्र च केवलोपयोगे भिन्नभिन्नसमयवर्तित्ववद् वैयक्तिकभेदस्याऽप्यसंभवात् केवल एक एवोपयोगो द्वाभ्यां सार्थकाभ्यां नामभ्या द्वेधा व्यपदिश्यत इत्येष तृतीयः पक्षः श्रीसिद्धसेनदिवाकरेण पूर्वोक्तयोर्द्वयोः परंपरयोः समक्षमुपस्थाप्य समर्थितः । अयं च पक्षो दिवाकरोपज्ञतया नव्यमतत्वेन ख्यातिं गतः । एष च नव्यपक्षप्रासादस्तर्कभूमिकामवष्टभ्य विनिर्मितो वर्तते । आगमेभ्यः स्पष्टतया प्रतीयमानायाः केवलोपयोगद्वयक्रमपक्षपरंपरायाः पश्चाद् विचारबलप्रादुर्भावितायाः केवलोपयोगयोगपद्यपक्षपरंपरायाश्च विरोधमुन्मूलयितुं स्वपक्षं सप्रमाणं स्थापयितुं च श्रीमता दिवाकरेण प्रस्तुते काण्डेऽद्भुता चातुरी प्रतिभा चोपायोजिषाताम्, सार्वदिकाऽनुभववत् तदाऽपि शास्त्राधारमन्तरेण कस्यापि वस्तुनो लोकेन स्वीकारयितुमशक्यत्वमवगम्य श्रीमता दिवाकरेण Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ द्वयोर्विरोधिपरंपरयोः पुरस्तात् सतर्कबलमुपन्यस्तोऽपि स्वपक्षः शास्त्रवाक्यैरेव सकौशलं प्रमाणीकृतः । एषैव प्रतिपाद्यगता प्रतिपादनशैलीगता चापूर्वता प्रस्तुते काण्डे प्रतीयते । सिद्धसेनोपज्ञत्वेन प्रसिद्धस्योपयोगाभेदपक्षस्य सूक्ष्माणि विचारबीजानि जैनपरंपरायां प्रागभूवन् न वेत्यस्य सांप्रतं वक्तुमशक्यत्वेपि सूक्ष्मेक्षिकया तुलनात्मकविचारणाबलादेतावत्त्विदानीं वक्तुं पार्यते यत् न्याय-वैशेषिकप्रभृतिसर्वज्ञवादिजैनेतरदर्शनसंमतसर्वज्ञत्वविषयकविचारगोचरगम्भीराभ्यासप्रयुक्तमेवोपयोगा भेदपक्षोपस्थापनं तत्समर्थनं चेति । प्रस्तुतकाण्डस्य मुख्यतयाऽपूर्वतया च प्रतिपाद्य उपयोगाभेदपक्षो दिवाकरोपज्ञानामनेकेषां विशेषाणामन्यतमो विशेषोऽवगन्तव्यः । एनं विशेषं परिज्ञातुम् तुलनयाऽभ्यसितुम् तदीयपक्षप्रतिपक्षयोर्युक्तीरवगन्तुं च गा० ४ पृ० ५९७ - ६०४ एकं टिप्पणं निवेशितम् । तत्राऽऽर्यावर्तीयसमग्रमुख्य मुख्यदर्शनगतैः सर्वज्ञत्वसंबन्धिभिः पक्षप्रतिपक्षैः सह तदीया जैनदर्शनगताः सर्वा अपि विचारपरंपराः सशास्त्राधारं विविच्य संनिवेशिताः सन्ति । श्रीमद्दिवाकरप्रबल विरोधिश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणकर्तृके विशेषणवतीनामकेऽमुद्रिते ग्रन्थे प्रस्तुतविषयायाश्चचया विस्तृततयोपलभ्यत्वेन तद्गतं सर्वमप्युपयुक्तं भागं टिप्पणके समादाय तत्र चामुद्रिते नन्दिचूर्णि - नन्दिलघुटीके उपयुज्य प्रस्तुतविषय संबन्धिनी सर्वाऽपि मुद्रिताऽमुद्रितवाङ्मयसामग्री समगृह्यत सा चाभ्यासिनां मनांस्यनुकूलयिष्यतीति संभाव्यते । संपादनगोचरे च विषये आदर्शगतत्वेन, पाठान्तरगतत्वेन, संशोधनोपयुक्तग्रन्थोपयोगपद्धतिगतत्वेन, क्वाप्यप्रसिद्ध लिखितग्रन्थोपयोगगतत्वेन, प्रसिद्धात्युपयोगिग्रन्थोपयोगाविधानकारणगतत्वेन च पञ्चैव वस्तूनि वक्तव्यानि सन्ति । १ तृतीयभागवत् प्रस्तुतभागस्याऽपि संशोधने पत्रप्रतिभिः सार्धं ताडपत्रप्रती अप्युपायोजिषाताम् विशेषश्चैतावानेव यत् तृतीये भागे द्वे अपि ते प्रती अपूर्णे आस्ताम् अत्र तु बृहत्ताडपत्रप्रतिरेका पूर्णेवाऽऽसीत् । २ पत्र - ताडपत्रादर्शगतः प्रस्तुतकाण्डसंबन्धी सर्वोऽपि पाठः शुद्धप्राय एव विद्यते तत्राऽपि भ० मां० बा० बा० ता० संज्ञका आदर्श उत्तरोत्तराधिकशुद्धिभाजः सन्ति । केवलताडपत्रादर्शद्वयगतेभ्यो लघुलघुतर टिप्पण केभ्योऽपि पाठशुद्धेरिव प्रस्तुते संशोधनकर्मणि महानुपकारः संवृत्तः । यद्यपि पाठान्तराणां संग्रह- पृथक्करणव्यवस्थापनक्रमः प्राक्तनभागतुल्यतयैव प्रस्तुतभागेऽवलम्बितस्तथाप्यादर्शानां शुद्धतयेतरसाधनानां च सुलभतया संगृहीतानामपि पाठान्तराणां यथासंभवमल्पीकृतत्वात् प्रस्तुते भागे तेषां भूयस्त्वं नावशिष्यते । ३ प्रस्तुतसंशोधनोपयुक्ता ग्रन्था मुद्रित - लिखिततया द्वेधा विभज्यन्ते । ग्रन्थं शोधयितुम् विषयं विशदीकर्तुम् तुलनां विधातुम् विशालमभ्यसितुं च यत्र यत्र मुद्रिता ग्रन्था उपयोजितास्तत्र पूर्वं बहुषु स्थलेषु तत्तद्द्व्रन्थगता उपयोगिनः पाठा निःसंकोचमधस्तादुपन्यस्ताः । पुरस्ताच्चानेकेषु स्थलेषु लाघवादिभिर्बहुभिर्हेतुभिः केवलं तदीयानि तदीयानि स्थलान्येव प्राधान्येन सूचितानि परंतु यत्र लिखिता ग्रन्था उपायोजयिषत तत्र सर्वत्राभ्यासिनां सौलभ्याय तत्तदज्ञातदुर्लभग्रन्थगतान् पाठान् यथाशक्यं यथामर्यादं चाधस्तादुपन्यसितुमाग्रहो व्यधायि । ४ इदानीं यावत् काव्यप्रकाशिता अज्ञातप्राया दुर्लभप्रायाश्च प्राक्तनभागसंशोधनेऽल्पोपयोजितप्रायाः सप्त लिखितग्रन्था यथामर्यादं प्रस्तुते संशोधने दिब्मात्रतयोपयोजिताः सन्ति । ते चेमे १ हेतुबिन्दुटीका २ तत्त्वोपप्लवः ३ न्यायकुमुदचन्द्रोदयः ४ सिद्धिविनिश्वयटीका ५ विशेषणवती ६ नन्दिचूर्णी ७ लध्वी नन्दिवृत्तिश्च । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ ५ श्रीमद्वाचकयशोविजयैः स्वीये तत्र तत्र ग्रन्थे सम्मतितर्कीयकाण्डत्रयगता बढ्यो गाथाः प्रकीर्णतया क्रमबद्धतया च विवृता दृश्यन्ते अभ्यासिनामानुगुण्याय तामां सर्वासामपि तदीयव्याख्योपेतानां गाथानां ग्रन्थसमाप्तिगामिषु परिशिष्टेषु संकलयितुमिष्टतया नयकाण्डवत् प्रस्तुतेऽपि काण्डे तत्र तत्र टिप्पणके खण्डीकृत्य नोपन्यासः कृतः । एवमेवान्यैरपि श्वेताम्बरीय-दिगम्बरीयैराचार्यैः कृतविवरणत्वेनोपलभ्यास्तत्तद्गाथास्तेषु परिशिष्टेषु संकलयितुमिष्टतया न कचित् टिप्पणके उपन्यास्यन्त । प्रस्तुतभागसंशोधनकर्मोपयोगिषु पाठान्तरग्रहण-प्रतिप्रेक्षणादिपु नीरसेषु क्लिष्टेषु च बहुमूल्येषु कार्येषु सहायतां विदधानान् उदारचित्तप्रवर्तकश्रीकान्तिविजयशिप्यान् श्रीचतुरविजय-पुण्यविजयादीन् कृतज्ञतापूर्वकं स्मराम इति । मुग्वलाल बेचरदासश्च। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमतितर्क-प्रकरणम् । चतुर्थो विभागः। द्वितीयः काण्डः। प्रथमगाथाव्याख्या। [१ उपयोगनिरूपणम् ] [व्यस्तयोर्दर्शन-ज्ञानयोः लक्षणमभिधाय द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकाभ्यां तयोः स्वभावस्य विभज्य वर्णनम् ] एवमर्थाभिधानरूपशेयस्य सामान्य-विशेषरूपतया यात्मकत्वं प्रतिपाद्य 'ये वचनीयविकल्पाः संयुज्यमानयोरनयोर्नययोर्भवन्ति सा स्वसमयप्रज्ञापनाऽन्यथा तु सा तीर्थकदासादना' इति यदुक्तम५ तदेव प्रपञ्चयितुम् 'उपयोगोऽपि परस्परसव्यपेक्षसामान्य-विशेषग्रहणप्रवृत्तदर्शन-ज्ञानस्वरूपद्वयात्मकः प्रमाणम् दर्शन-ज्ञानकान्तरूपस्त्वप्रमाणम्' इति दर्शयितुं प्रकरणमारभमाणो द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकाभिमतप्रत्येकदर्शन-शानस्वरूपप्रतिपादिकां गाथामाहाचार्यः जं सामण्णग्गहणं दसणमेयं विसेसियं णाणं । दोण्ह वि णयाण एसो पाडेकं अत्थपज्जाओ ॥१॥ द्रव्यास्तिकस्य सामान्यमेव वस्तु तदेव गृह्यते अनेनेति ग्रहणं दर्शनमेतद् उच्यते, पर्यायास्तिकस्य तु विशेष एव वस्तु स एव गृह्यते येन तत् ज्ञानम् अभिधीयते ग्रहणम् विशेषितम् इति विशेषग्रहणमित्यभिप्रायः । द्वयोरपि अनयोर्नययोरेष प्रत्येकमर्थपर्यायः अर्थ विषयं पर्येति अवगच्छति यः सोऽर्थपर्यायः ईदृग्भूतार्थग्राहकत्वमित्यर्थः।। १-नयोनय-आ. हा. वि.। २ पृ. ४५५ गा० ५३ पं० २८ । ३ “जं सामण्णंगहणं भावाणं णेव कुटुमायारं । अविसे सिदूण अढे दसणमिदि भण्णए समए" ॥ ४३ ॥ इतीय गाथा दर्शनखरूपप्रतिपादिका बृहद्रव्यसंग्रहगता-पृ. १६८ । ५९ स०त. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे[उपयोगस्य साकारानाकारते स्पष्टयित्वा तयोः प्रामाण्याऽप्रामाण्यकथंतामिधानम् ] उपयोगस्य चानाकार-साकारते सामान्य-विशेषग्राहकते एव तत्र तत्राभिधीयते । अविद्यमान आकारः भेदो ग्राह्यस्य अस्येत्यनाकारं दर्शनमुच्यते । सह आकारैर्ग्राह्यभेदैर्वर्त्तते यद् ग्राहकं तत् साकारं ज्ञानमित्युच्यते । निराकार-साकारोपयोगौ तूपसर्जनीकृततदितराकारौ स्वविषयावभास५कत्वेन प्रवर्तमानौ प्रमाणम् न तु निरस्तेतराकारी, तथाभूतवस्तुरूपविषयाभावेन निर्विषयतया प्रमाणत्वानुपपत्तेरितरांशविकलैकांशरूपोपयोगसत्तानुपपत्तेश्च । तेनैकान्तवाद्यभ्युपगमः 'बोधमात्र प्रमाणम् साकारो बोधोऽनधिगतार्थाधिगन्तृत्वविशिष्टः स एव ज्ञातृव्यापारोऽर्थदृष्टताख्यफलानुमेयः संवेदनाख्यफलानुमेयो वा अनधिगतार्थाधिगन्ता इन्द्रियादिसंपाद्यः अव्यभिचारादिविशेषणविशिटार्थोपलब्धिजनिका सामग्री तदेकदेशो वा वोधरूपोऽबोधरूपो वा साधकैतमत्वात् प्रमाणम्' १० इत्यादिरूपोऽयुक्तः। [२ प्रमाणसामान्यनिरूपणम् ] [वैभाषिक-सौत्रान्तिक-योगाचारसंमतानां निराकार-साकार-विज्ञानवादानां परस्परोपमर्द पूर्वपक्षतयोपन्यासः] तथाहि-'बोधः प्रमाणम्' इति वदन्तो वैभाषिकाः पर्यनुयोज्याः-किं वोधमात्रस्य प्रामाण्यम् , १५ आहोस्विद्वोधविशेषस्य? यदि वोधमात्रस्य तदा तल्लक्षणप्रणयनमयुक्तम् व्यवच्छेद्याभावात्, अबोधस्य व्यवच्छेद्यत्वेऽपि संशय-विपर्ययादीनां वोधस्वभावत्वात् प्रमाणताप्रसक्तिः । न च संशयादीनामपि प्रमाणता लोक-शास्त्रविरोधात् । लोकप्रसिद्धं च प्रमाणे व्युत्पादयितुमारब्धम् तत्र चेन्द्रियादेरपि प्रमाणतायाः प्रसिद्धोधस्य प्रामाण्येऽव्याप्तिश्च लक्षणदोषः। न चाबोधरूपस्येन्द्रियादेर्लोकः प्रमाणतां न व्यपदिशति 'अंदीपेनोपलब्धम्' 'चक्षुषा दृष्टम्' 'धूमेनावगतम्' इति लौकिकानां व्यवहारदर्शनात् । १-कार शा-वा. बा. विना। २-पयोगावुप-आ०। ३-स्तुवि-बृ०। ४ वा बोधरूपो वा सा-वा. बा०। ५-कत्वात् वृ० वा. वा०। ६ संक्षेपेण वैभाषिकादिमतखरूपमित्थं वर्णितमस्ति षड्दर्शनसमुच्चयबृहद्वृत्तौ-"अथवा वैभाषिक-सौत्रान्तिक-योगाचार-माध्यमिकभेदाच्चतुर्धा बौद्धा भवन्ति । तत्रार्यसमितीयापरनामकवैभाषिकमतमदः-चतुःक्षणिक वस्तु जातिर्जनयति, स्थितिः स्थापयति, जरा जर्जरयति, विनाशो विनाशयति । तथा आत्मापि तथाविध एव पुद्गल श्वासावभिधीयते । निराकारो बोधोऽर्थसहभाव्येकसामग्यधीनस्तत्रार्थे प्रमाणमिति । सौत्रान्तिकमतं पुनरिदम्-रूप-वेदना-विज्ञान-संज्ञासंस्काराः सर्वशरीरिणामेते पञ्च स्कन्धा विद्यन्ते न पुनरात्मा । त एव हि परलोकगामिनः । तथा च तत्सिद्धान्तः–पञ्चेमानि भिक्षवः । संज्ञामात्रम् प्रतिज्ञामात्रम् संवृतिमात्रम् व्यवहारमात्रम् । कतमानि पञ्च ? अतीतोऽध्वा, अनागतोऽध्वा, सहेतुको विनाशः, आकाशम् , पुद्गल इति, अत्र पुद्गलशब्देन परपरिकल्पितो नित्यत्वव्यापकवादिधर्मक आत्मेति । बाह्योऽर्थो नित्यमप्रत्यक्ष एव ज्ञानाकारान्यथानुपपत्त्या तु सन्नवगम्यते । साकारो बोधः प्रमाणम् तथा क्षणिकाः सर्वसंस्काराः खलक्षणं परमार्थः । यदाहुस्तद्वादिनः-प्रतिक्षणं विशरारवो रूप-रस-गन्धस्पर्शपरमाणवो ज्ञानं चेत्येव तत्त्वमिति । अन्यापोहः शब्दार्थः । तदुत्पति-तदाकारताभ्यामर्थपरिच्छेदः । नैरात्म्यभावनातो ज्ञानसंतानोच्छेदो मोक्ष इति । योगाचारमतं विदम्-विज्ञानमात्रमिदं भुवनम् , नास्ति बाह्योऽर्थः ज्ञानाद्वैतस्यैव तात्त्विकलात् । अनेके ज्ञानसंतानाः साकारो बोधः प्रमाणम् वासनापरिपाकतो नील-पीतादिप्रतिभासाः । आलयविज्ञानं हि सर्ववासनाधारभूतम् । आलयविज्ञानविशुद्धिरेवापवर्ग इति । ___ माध्यमिकदर्शने तु-शून्यमिदम् स्वप्नोपमः प्रमाण-प्रमेययोः प्रविभागः, मुक्तिस्तु शून्यतादृष्टेस्तदर्थं शेषभावनेति । केचित्तु माध्यमिकाः खस्थं ज्ञानमाहुः"-पृ० ४६ पं० १२-पृ० ४७ पं० १५। एतदर्थ सर्वदर्शनसंग्रहगतं बौद्धदर्शनमपि (पृ. २८-४६) विलोकनीयम् । -ज्याःबो-आ०। ८-णमयु-वा. बा०। ९ प्रमेयक० पृ. ३ प्र० ५० ५। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ४५९ न चौपचारिकं तेषां प्रामाण्यम् प्रमितिक्रियायां साधकतमत्वेन मुख्यप्रामाण्योपपत्तेः अत एव शास्त्रान्तरेष्वपि विशिष्टोपलब्धिजनकस्य बोधाऽबोधरूपविशेपत्यागेन सामान्यतः “लिखितं साक्षिणो भुक्तिः प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम्" [ ] इन्युक्तिः । किश्च, 'प्रमीयतेऽनेन' इति प्रमाणशब्दः करणविशेषप्रतिपादकः करणविशेषत्वं चास्य विशिष्टोपलब्धिखरूपकार्यजनकत्वेन कार्यस्य चाव्यभिचारादिस्वरूँपप्रमितिरूपत्वात् तज्जनकेनापरेण साधक-५ तमेन भाव्यम् एकस्यैव स्वात्मनि करणक्रियाविरोधात् ततो वोधावोधरूपस्य प्रमितिजनकस्य प्रमाणतोपपत्तेः 'वोधमात्र प्रमाणम्' इत्यत्राव्याप्तिर्लक्षणदोपः प्राप्नोतीति स्थितम् । अथ वोधविशेषः प्रमाणम् तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-कः पुनरसौ बोधस्य विशेषः? यद्यव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टत्वं तदा प्रमितिखभावस्य तस्य प्रमाणताप्रसक्तिः । न चाभ्युपगम्यत एवेति वाच्यम् करणविशेषस्य प्रमाणत्वव्यवस्थितेः। १० ___ अत एव “निराकारो वोधोऽर्थसहभाव्येकसामग्र्यधीनस्तत्रार्थे प्रमाणम्” [ ] इति वैभाषिकोक्तमसंगतम् । अपि च, कर्मण्यसौ प्रमाणमभ्युपेयते । यत उक्तम् __"सव्यापारमिवाभाति व्यापारेण स्वकर्मणि" [ ] इति । कर्मता च बोधसहभाविनोऽर्थस्य तद्बोधापेक्षया न सम्भवति, तत्समानकालस्य तत्कृतविकार्यत्वाद्ययोगात् अकर्मरूपे च तत्र कारणे क्रियायाः कथं प्रतिनियमः तदभावे चैकसामग्र्यधीनताया-१५ मपि सर्वः सर्वस्य बोधो भवेत् । किञ्च, एकसामग्र्यधीनत्यस्य द्वयोरप्यविशेषात् यथा बोधोऽर्थस्य ग्राहकस्तथाऽथोऽपि बोधस्य किं न भवेत् ? तन्न निराकारो वोधः प्रमाणं सम्भवति। अथ मा भूनिराकारो बोधःप्रमाणम् साकारस्त्वसौ प्रमितिक्रियायां साधकतमत्वात् प्रमाणम्। ननु च बोधस्य प्रमाणवरूपत्वादाकारात्मकत्वमयुक्तम् प्रमेयरूपत्वापत्तः। न च प्रमेयरूपमेव प्रमाणं भवितुमर्हति प्रमाणस्य तदाहकत्वेन प्रतिभासात् । न च तथात्वेन प्रतिभासमानमपि प्रमेय-२० रूपं युक्तम् प्रमाण-प्रमेययोरन्तर्बहिर्व्यवस्थितत्वेनावभासनात् भेदेन च प्रतिभासमानं नान्यथाधिगन्तुं युक्तम् । न हि प्रतिभासः साक्षात्करणाकारत्वात् प्रत्यक्षरूपोऽर्थव्यवस्थापका प्रमाणान्तरादनुग्रहं बाधां वा प्रतिपद्यते। उक्तं च "प्रमाणस्य प्रमाणेने न बाधा नाप्यनुग्रहः । बाधायामप्रमाणत्वमानर्थक्यमनुग्रह" ॥ [ ] इति सर्वदा बहिर्विच्छिन्नार्थावभासिनोऽध्यक्षस्याप्रमाणत्वे प्रमाणान्तराप्रवृत्तिरेव । न चाध्यक्षेण शानमेव बहिराकारं वेद्यते न बाह्योऽर्थ इति कथं निराकारता तस्येति वक्तव्यम् ज्ञानरूपतया बोधस्याध्यक्षे प्रतिभासनात् अर्थस्य च ज्ञानरूपतयाऽप्रतिपत्तेः । न ह्यनहङ्कारास्पदत्वेनार्थस्य प्रतिभासेऽहङ्कारास्पदबोधरूपस्येव ज्ञानरूपता युक्ता, यदि त्वहङ्कारास्पदत्वेनार्थस्य प्रतिभासः स्यात् तदा ३० शानरूपादभिन्नत्वात् तदात्मनः 'अहं घटः' इति प्रतिभासः स्यात् । न चान्यथाभूता प्रतिपत्तिरन्यथा १-स्य बोधरूपवि-भां० मां। २-क्षिणो भुक्षिः प्र-आ० ।-क्षिणो मुक्ति प्र-हा० । ३ "ततो यद् बोधाबोधरूपस्य प्रमाणवाभिधानकम् "लिखितं साक्षिणो भुक्तिः प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम्"इति तत् प्रत्याख्यातम् ज्ञानस्यैवानुपचरितप्रमाणव्यपदेशाहखात्" लिखितम् “शासनादि लोके पत्रादि तत् प्रमाणम्” साक्षिणः “पुरुषाः प्रमाणम्" भुक्तिः "अनुभवः प्रमाणम्"-प्रमेयक. पृ. ३ प्र. पं० ११, टि. ४०, ४१, ४२ । षड्द० स० बृ. वृ० पृ. २०७ पं० १७-१९ । ४-रूपत्वात्-वा० बा० । ५-नकत्वेना-वा० बा०। ६-पवि-आ० हा० वि० । ७-कर्मण इ-हा० वि० । ८-पताप-बृ० वा. बा०। ९-रूपार्थ-आ० । १०-पद्येत-आ० हा०वि०। ११-न नाबा-(नाऽऽबा-) आ० । १२ अत्र 'अनुग्रहे' 'अनुग्रहः' इति द्वयमपि संभाव्यते इति विचार्य 'अनुग्रह इति' इति सर्वप्रतिषु विद्यमानः ससन्धिः पाठो न्यस्तः। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे भूतमर्थ व्यवस्थापयितुं शक्ता प्रतिपत्तिव्यतिरेकेणाप्यर्थव्यवस्थितिप्रसंक्तेरतिप्रसक्तिश्च नीलप्रतिपत्तेरपि पीतादिव्यवस्थापनाप्रसङ्गात् । अथ साकारं विज्ञानमाकारप्रतिनियमात् तत्प्रतिपत्त्यैवार्थापत्त्या तदाकारतां तजनकस्यार्थस्य व्यवस्थापयेदिति प्रतिकर्म व्यवस्था सिध्यति निराकारं तु विज्ञानं बोधमात्रतया व्यवस्थितं सर्वार्थान् प्रत्यविशिष्टत्वात् 'नीलस्येदं संवेदनंन पीतस्य' इति प्रतिकर्म ५व्यवस्थानिबन्धनं न भवेदिति साकारं ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम्, असदेतत् ; 'सर्वार्थान् प्रति बोधमात्रतया निराकारस्याविशिष्टत्वात्' इति हेतोरसिद्धेः निराकारत्वेपि चक्षुरादिवृत्त्या बोधस्य तत्रैव नियमित । न च नियतत्वं तस्य सर्वार्थेषु, नीलादावेव तस्य प्रतीतेः समानत्वेऽपि वा पुरोवर्तिन्येव नीलादौ समानत्वस्य सम्भवान्न सर्वार्थसाधारणी प्रतिपत्तिरिति निराकारज्ञानवादिनो न काचित् क्षतिः तथादृष्टत्वात् 'नहि दृष्टेऽनुपपन्नं नाम' । निराकारत्वे किमिति पुरोवर्त्तिन्येव नीलादौ प्रवर्तते १० विज्ञानम् ? चक्षुरादिभिस्तत्रैव नियमितत्वादिति प्रतिपादितं प्राक् । कस्मात् तैस्तत्र तन्नियम्यत इति चेत् अत्र वस्तुस्वभावैरुत्तरं वाच्यम् न हि कारणानि कार्यजननप्रतिनियमे पर्यनुयोगमहन्ति तत्र तस्य वैफल्यात् । साकारत्वेऽपि चायं पर्यनुयोगः समानः । तथाहि-साकारमपि ज्ञानं किमिति नीलादिकमेव पुरोवर्ति तत्सन्निहितमेव च व्यवस्थापयति? तेनैव तथा तस्य जननादिति चेत् समानमेतन्निराकारत्वेऽपि । किञ्च, चक्षुरादिजन्यं तद्विज्ञानं किमिति चक्षुरा१५द्याकारं न भवति इति पर्यनुयोगे भवतापि 'वस्तुस्वभावैरत्रोत्तरं वाच्यम्' इति वक्तव्यम् तदस्माभिरभिधीयमानं किमित्यसंगतं भवतः प्रतिभाति । अपि च, साकारता विज्ञानस्य किं साकारेण प्रतीयते, आहोस्विनिराकारेण? यदि साकारेण तदां तत्रापि प्रतिपत्तावाकारान्तरपरिकल्पनमित्यनवस्थाप्रसक्तिः । निराकारेण चेद वाह्यार्थस्यापि तथाभूतेनैव प्रतिपत्तिप्रसक्तिः। न च बाह्ये प्रत्यासत्तिनियमाभावान्न तथाभूतेन प्रतिपत्तिरिति वाच्यम् इतरत्रापि प्रत्यासत्तिनियमा. २०भावस्य तुल्यत्वात् । शुक्ले पीताकारदर्शनाद् अभ्रान्ते न प्रतिनियमाभाव इति चेत् निराकारेऽपि तीभ्रान्तत्वादेव प्रतिनियमो भविष्यतीति किमाकारपरिकल्पनया? कथमाकारमन्तरेण प्रतिनियम इति न वाच्यम् आकारेऽप्यस्य समानत्वात् । तथाहि-साकारवादिनोऽपि कथं प्रतिनियम इति प्रेरणायाम् 'प्रतिनियताकारपरिग्रह एव प्रतिनियमः' इति नोत्तरं युक्तम् प्रतिनियताकारपरिग्रहस्यैव प्रतिनियमरूपतयोपन्यस्तस्याद्यापि विचार्यमाणत्वात् । अथानुमानाद् वाह्योऽर्थः प्रतीयते तर्हि २५ प्रतिबन्धसिद्धिर्वक्तव्या । न च बाह्योऽर्थोऽध्यक्षतः कदाचनापि सिद्धः नापि तत्प्रतिबद्धो ज्ञानाकार इति न प्रतिबन्धसिद्धिः तामन्तरेण न चानुमानप्रवृत्तिरिति कथं वाह्यार्थसिद्धिः? अथार्थापत्त्या बाह्योऽर्थोऽधिगम्यते, न; अर्थापत्त्याऽर्थस्वरूपप्रतिपत्तौ तस्याः प्रत्यक्षरूपताप्रसक्तेः । न च स्वरूपप्रतिपत्तिमन्तरेणाप्यनुमानवत् तस्याः प्रामाण्यम् अनुमानस्यावगतप्रतिबन्धलिङ्गप्रभवत्वेन प्रामाण्यात् अत्र च तदभावात् । न चाऽप्यत्यन्तपरोक्षस्यार्थस्य केनचिदाकारेण विषयीकरणमिति न तस्य ३० प्रतिपत्तिविषयता अनुमानविषयस्य तु पूर्वदृष्टत्वात् 'इदं तत्' इत्याकारेण प्रतिपत्तिविषयता सम्भवत्यपि इति नार्थापत्त्याप्यर्थप्रतीतिः । अथ दूरस्थितवृक्षादौ तत्पिण्डाद्याकारो यथा बाह्यवृक्षाद्यर्थव्यतिरेकेण न प्रतिभासविषयस्तद्वत् पुरोवर्तिनि स्तम्भादौ तदाकारः सत्येव बाह्ये स्तम्भाद्यर्थे इति सिद्ध एव बाह्योऽर्थः। न च वृक्षादावपि पिण्डाद्याकार एव वृक्षादिः तस्य स्व-पराभ्यां सन्निहितस्यान्यथाप्रतीतेः असदेतत्; यतः ख-पराभ्यामसौ सन्निहितः प्रतीयमानः साकारेण वा १-सक्तेरितिप्र-बृ.। २-रसिद्धत्वात् नि-आ०। ३-रणा प्र-भां। ४ "नास्ति दृष्टेऽनुपपन्न नाम"-मीमांसाद० १-१-५ भा० पृ० १३ पं० २०। ५-रादेस्त-आ० ।-रादिस्त-हा. वि. । “यतो निराकारखेऽपि अवबोधस्य इन्द्रियवृत्त्या पुरोवर्तिन्येवार्थे नियमितखान्न सर्वार्थघटनप्रसङ्गः"-प्रमेयक० पृ. २८ प्र. पं. १२। ६ प्राक तस्मा-बु० सं० । प्र. पृ. पं. ६ । ७ “कस्मात् तैस्तत्र तन्नियम्यते इत्यत्र वस्तुखभावैरुत्तरं वाच्यम्" -प्रमेयक पृ० २८ द्वि० पं० १। "प्रत्यक्षेण प्रतीतेऽर्थे यदि पर्यनुयुज्यते । खभावैरुत्तरं वाच्यं दृष्टे काऽनुपपन्नता" ॥ इति स्वयमभिधानात्"-अष्टस. पृ. १९१ पं० १३ । ८-पि वायं वा. बा. वि. विना। ९-दाऽत्राब. आ. हा०वि०। १.न चात्य-बृ. ल. । ११-क्षादौ मृपिण्डाद्याका-बृ. आहा० ।-क्षादी मृपिण्डाका-वा. बा. वि.। १२ बाह्यार्थः आ० हा० वि० । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । शानेन प्रतीयते, निराकारेण वा? यदि साकारेण इति पक्षस्तदा असावपि ज्ञानाकार एव न बाह्योऽर्थ इति क्वचिदपि अर्थासिद्धरसिद्धो दृष्टान्तः तथा च प्रतिबन्धाप्रसिद्धेर्न ज्ञानाकाराद बाह्यार्थसिद्धिः। अथ निराकारेण तेन अर्थः स्व-पराभ्यां प्रतीयत इति प्रतिबन्धसिद्धिरभ्युपगम्यते पिण्डाद्याकारस्य बाह्यार्थेन सह; नन्वेवं निराकारं ज्ञानं बाह्यार्थग्राहकं सिद्धमिति व्यर्थ ज्ञानाकारकल्पनम् । न च तत्रापि प्रतिभासमानो वृक्षो ज्ञानाकार एव इति अपरमर्थ साधयति तत्रापि अपरापरार्थ-५ कल्पनायामनवस्थाप्रसङ्गात् कुतोऽर्थसिद्धिः? ज्ञानाकारात् इति चेत्, ननु प्रतिबन्धाग्रहणे कथं ततस्तत्सिद्धिः इति पुनरपि तदेव वक्तव्यमिति अपर्यवसाना पर्यनुयोगानवस्था । तस्मात् निराकारादेव ज्ञानाद् बाह्यार्थसिद्धिरभ्युपगन्तव्या । ____ अथ निराकारं ज्ञानं नीलादावर्थे व्यापारवत् प्रवर्त्तते, उत निर्व्यापारम् इति कल्पनाद्वयम् । प्रथमकल्पनायामपि अव्यतिरिक्तव्यापारवत् उत व्यतिरिक्तव्यापारवत् इति कल्पनाद्वयम् । आद्य-१० विकल्पे ज्ञानरूपमेव न व्यापारः कश्चित् । न च व्यापार-तद्वतोरभेदो युक्तः धर्मधर्मितया प्रतीतेः। द्वितीयविकल्पेऽपि सम्बन्धासिद्धिः ततस्तस्योपकाराभावात् उपकारेऽपि तस्य तन्निर्वर्तनेऽपरो व्यापारः कल्पनीय इत्यनवस्था । व्यापारस्यापि चार्थग्रहणव्यापृतावपरो व्यापारः परिकल्पनीय इत्यत्राप्यनवस्था । निर्व्यापारस्यापि व्यापारस्यार्थव्यापृतावर्थस्यापि ज्ञानग्रहणे व्यापृतिप्रसक्तिरित्यर्थस्यापि ज्ञानं प्रति ग्राहकता स्यात् । न च निराकारो बोधो निर्व्यापारोऽपि बोधस्वरूपत्वादर्थग्राहकः अर्थ-१५ स्थाप्यर्थरूपतया बोधं प्रति ग्राहकतोपपत्तेः ततो ग्राह्यरूपासंस्पर्शान्न बोधस्य ग्राहकता । नच ग्राह्यार्थरूपान्यथानुपपत्त्या बोधस्य ग्राहकताव्यवस्था, इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः। तथाहि-ग्राह्यरूपव्यवस्था ग्राहकरूपसंस्पर्शाद ग्राहकरूपव्यवस्थापि ग्राह्यरूपसंस्पर्शादिति कथं नेतरेतराश्रयदोषः? न च समानकालयोर्नील-बोधयोाह्यग्राहकभावव्यवस्था, कर्म-कर्तृरूपत्वासिद्धेः-न हि समानकालतायां निवर्त्य-विकार्य-प्राप्यरूपकर्मतासम्भवः समानकालस्य निर्वर्त्य-विकार्यताऽयोगात् प्राप्य-२० रूपता च न तद्व्यतिरिक्ता सम्भवति समानकालयोर्द्वयोरपि ग्राह्यग्राहकभावाविशेषात् । तन्न निराकारस्याप्यर्थव्यवस्थापकत्वं बोधस्येति “विज्ञप्तिमात्रमेव नार्थव्यवस्था" [ ] इति विज्ञानवादिनः। अयुक्तमेतत् सप्रतिघरूपतयाऽध्यक्षतो बाह्यस्य सिद्धेर्विज्ञप्तिमात्रत्वे तद्रूपताऽभावप्रसक्तिर्भवेत् । १-कारक्षा-बृ.। २ एते निवर्त्यप्रभृतयः कर्मकारकभेदाः । तदुल्लेखः तत्स्वरूपं चैवम्"प्राप्यं विषयभूतं च निर्वर्से विक्रियात्मकम् । कर्तुश्च क्रियया व्याप्यमीप्सितानीप्सितेतरत्" ॥ -जैने. व्या० पृ. ९७ पं० ३ । "निर्वखं च विकार्य च प्राप्यं च त्रिविधं मतम् । तत्रेप्सिततमं कर्म चतुर्धाऽन्यत् तु कल्पितम्"॥ “सती वा विद्यमाना वा प्रकृतिः परिणामिनी । यस्य नाश्रीयते तस्य निर्वर्त्यवं प्रचक्षते" ॥ "प्रकृतेस्तु विवक्षायां विकार्य कैश्चिदन्यथा। निर्वर्यं च विकार्य च कर्म शास्त्रे प्रदर्शितम्" ॥ "यदसज्जायते सद्वा जन्मना यत् प्रकाश्यते । तन्निवर्स विकार्य च कर्म द्वेधा व्यवस्थितम्"॥ "प्रकृत्युच्छेदसंभूतं किश्चित् काष्ठादिभस्मवत् । किञ्चिद् गुणान्तरोत्पत्त्या सुवर्णादिविकारवत्" ॥ "क्रियाकृतविशेषाणां सिद्धिर्यत्र न गम्यते । दर्शनादनुमानाद्वा तत् प्राप्यमिति कथ्यते" ॥ -वाक्यप० तृ. का० श्लो० ४५-५१ पृ. २०२-२०५ । ब्रह्मणः स्वरूपे न कश्चनापि कर्मकारकप्रकारो घटते इति निरूपयता श्रीशंकराचार्येण खभाष्ये कर्मकारकस्य चातुर्विध्यमभ्यनुज्ञातम् । भामतीकृताऽपि तदेव विशदीकृतम् । तद्यथा “अत्र च कूटस्थनित्यम् इति निर्यकर्मतामपाकरोति । सर्वव्यापि इति प्राप्यकर्मताम् । सर्वविक्रियारहितम् इति विकार्यकर्मताम् । निरवयवम् इति संस्कार्यकर्मताम्" -ब्रह्मसू० १-१-४ पृ. ११९ पं० १९। भर्तृहर्युक्तं निर्वादिस्वरूपं गद्यात्मकतया निरदेशि आचार्य हेमचन्द्रेण-"तत् त्रेधा-निर्वय॑म् विकार्यम् प्राप्यं च । तत्र यदसज्जायते जन्मना वा प्रकाश्यते तन्निववंम् । कटं करोति । पुत्रं प्रसूते । प्रकृत्युच्छेदेन गुणान्तराधानेन वा यद् विकृतिमापाद्यते तद् विकार्यम् । काष्ठं दहति । काण्डं लुनाति । यत्र तु क्रियाकृतो विशेषो नास्ति तत् प्राप्यम् । आदित्यं पश्यति । ग्राम गच्छति"।-हैम. बृ० वृ०२-२-३ पृ. २१ द्वि. पं०६। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ द्वितीये काण्डेन चाध्यक्षतः सप्रतिघबाह्यरूपतया प्रतीयमानस्य 'विज्ञप्तिः' इति नामकरणे काचिन्नः क्षतिः नामकरणमात्रेण सप्रतिघत्वबाह्यरूपत्वादेरर्थधर्मस्याव्यावृत्तेः । अतः सप्रतिघत्वादिरूपो बाह्योऽर्थः तद्विपरीतश्चान्तरो बोधोऽभ्युपगन्तव्य इति कथं विज्ञप्तिमात्रम् ? न च सप्रतिघाकारतया बोधप्रतिपत्तिः तद्विषयतया तु तस्य प्रतिपत्तिरस्त्येव 'नीलविषयो वोधो मयाऽनुभूयते' ५ इति निश्चयोत्पत्तेः । न च प्रतिभासनिश्चयमन्तरेणापरं पदार्थस्वरूपव्यवस्थितौ निबन्धनमुत्पश्यामः ततो निराकारादेव बोधाद् वाह्यार्थसिद्धिरभ्युपेया, असदेतत्; यतः 'निराकारं ज्ञानमर्थव्यवस्थापकम्' इति किं प्रत्यक्षतोऽवगम्यते आहोखिदनुमानतः उतार्थापत्तेरिति विकल्पाः। तत्र न तावत् प्रत्यक्षतस्तत्प्रतिपत्तिः प्रतिभासमानशरीर-स्तम्भादिव्यतिरिक्तस्यापरस्य ज्ञानस्यानुपलम्भेनासत्वात् । न च सुखाद्यान्तररूपेण अहङ्कारास्पदतया स्वसंवेदनाध्यक्षतो ज्ञानरूपं प्रतीयत एवेति कथं तस्यानुपलम्भः १० यतः सुखादयो नान्तःस्प्रष्टव्यशरीरव्यतिरिच्यमानतनवः प्रतिभान्ति 'अहम्'इति प्रत्ययोऽपि तथा भूतशरीरालम्बनतया संवेद्यत इति । न च तद्व्यतिरिक्तो वोधात्मा स्वप्नेऽप्यनुभवविषय इति न प्रत्यक्षतो ग्राह्यव्यतिरिक्तवपुर्णाहकस्वरूपमवभातीति न तत् प्रत्यक्षावसेयम् । नाप्यनुमानाधिगम्यम् प्रत्यक्षाप्रवृत्तौ तत्पूर्वकस्य तत्र तस्याप्यप्रवृत्तेः । नाप्यर्थापत्तिस्तत्सद्भावमवगमयति तस्याः प्रामाण्यानुपपत्तेः । किञ्च, अनुस्मरणमात्रमापत्तिः न च 'इदं ततइत्युल्लेखवदनुस्मरणमहेऽर्थे प्रवृत्ति१५मासादयति । न च ज्ञानस्वरूपं कदाचनापि दृष्टम् दृष्टौ वा तत एव तत्सिद्धेः किमर्थापत्त्या? अथ 'अर्थस्य ज्ञानम्'इति निराकारस्य ज्ञानस्य प्रतीतेस्तत्सद्भावः । न चार्थग्राहकत्वेन सर्वदा 'अर्थस्य ज्ञानम्'इत्येवंप्रतीयमानस्याविसंवादिप्रत्ययविषयस्य तस्याभावः संवेदनमात्रस्याप्यभावप्रसक्तः। अतो निराकाराऽविसंवादिप्रत्ययविषया बुद्धिः सिद्धेति युक्तमुक्तम्-"निराकारा नो बुद्धिः" [ ] इति, असदेतत्; यतो निराकारा अर्थबुद्धिर्मया प्रतीयत इत्यपरा बुद्धस्तदर्थस्य च ग्राहिका वुद्धिः २० प्रसज्येत तथा च सति आकारमन्तरेण केनाकारेण 'वुद्धिरर्थस्य'इति संयोज्य प्रतीयेत? नहि 'इदं तत्'इत्यनिरूपिताकारमाकारान्तरेण नियोजनामर्हति । न च तथाऽप्रतीयमाना 'वुद्धिः'इति व्यपदेशमासादयति शशशृङ्गादेरपि बुद्धित्वप्रसक्तेः । अथापि स्यात् 'ममार्थवुद्धिरासीत्'इति नाकारव्यतिरिक्ता सा प्रतिभाति किन्तु पृथगपोद्धारपरिकल्पनया प्रकाशरूपतया व्यवस्थापिता 'बुद्धिः इति व्यपदिश्यते, अयुक्तमेतत् ; यतो नाव्यतिरेकेण प्रतीयमाना वुद्धिर्विकल्पेनापोर्तुं शक्या २५न च पृथक प्रतीयते सेत्युक्तम् । अथ सुख-स्तम्भाद्याकारतया यद्यन्त(न्तः)स्पष्टव्यरूपादिकमेव तिभाति न पुनस्ततो व्यतिरिक्तमपरं ज्ञानम् तथासति संवेदनमात्रमेव प्रसक्तम् एवं च 'चक्षुरादिना मया रूपं प्रतीयते'इति सम्बन्धाभावात् कथं प्रतीतिः? अस्ति चेयं प्रतीतिः तस्मादुपलभ्ये रूपादिके अभिमुखीभूतं चक्षुस्तत्प्रकाशंत्वं विदधाति सा च बुद्धिरुच्यते । न च नीलाद्याकारमविद्यमानमेव तत्र प्रकाशत्वमुत्पन्नमिति वक्तव्यम् विद्यमाननीलादिविषयस्य चक्षुरादिव्यापारादविद्य३०मानस्य प्रकाशत्वस्यैव तत्रोत्पत्तेः नीलादेस्तु पूर्वमेव भावात् तथा च सति 'अर्थस्य बुद्धिः' इति व्यपदेशः सिद्ध एव । अत एवोक्तम्-"बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानमित्यनर्थान्तरम्" [न्यायद०१-१-१५] इति, एतदप्यसत्; यतो न प्रकाशव्यतिरेकेण नीलादिरुपलभ्यते इति कुतः पूर्वव्यवस्थिते एव नीलादौ प्रकाशता चक्षुरादेरुदयतीति वक्तुं शक्यम् न हि प्रकाशतारहितं कदाचिदुपलब्धं नीलादि कम् उपलम्भे वा सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्रसक्तिः। अथ 'नीलस्य प्रकाशः इति व्यतिरेक उपलभ्यत एव, ३५न; 'शिलापुत्रकस्य शरीरम्' 'स्तम्भस्य स्वरूपम्' इत्यत्रापि व्यतिरेकोपलब्धेय॑तिरेकःस्यात् 'प्रकाशस्य प्रकाशता' इति च दृष्टेभेंदः प्रकाशतायाः स्यात् । अथात्रैकैव प्रकाशतोपलभ्यते नापरेति न प्रकाशस्यापरः प्रकाशः व्यतिरेकोपलम्भस्य प्रत्यक्षवाधितत्वात् तर्हि नील-प्रकाशयोरपि न प्रत्यक्षप्रतीतो भेद इति तत्रापि समानन्यायतो व्यतिरेकस्यासिद्धेलाद्याकारैव प्रकाशता सा च बुद्धिः इति सिद्धा साकारता ज्ञानस्य। १-परज्ञा-ल.। २ नान्तस्प्र-बृ० । नान्तद्रष्ट-आ० । ३-षयस्याभा-आ० । ४-'त्यपरा* वुद्धेस्तदर्थस्य च ग्राहिका बुद्धिः प्रसज्येत' इत्यन्वयसूचकचिह्नाङ्कितः पाठः ल०। ५ नहीह त-आ०। ६-ण योघृ० वा. बा०। ७ यद्यन्तप्रष्ट-हा० वि०। यदेतत्स्पष्ट-वा. बा०। यद्यन्तद्रष्ट-आ०। ८ एवं चक्षुकृ. ल. वा. बा. विना। ९-लंभ्ये वृ० । लंभे वृ० सं० । वा. बा.। १०-शकत्वं भां० म० । ११-यचक्षु-वा. बा०। १२-लम्मे च स-आ. हा. वि.। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। अथ परोक्षा बुद्धिनिराकारा च ततः साकारत्वमुभयस्यासिद्धम्, असदेतत् निराकारस्य बोधस्य 'बुद्धिः बुद्धिः' इति विकल्पेऽप्यप्रतिभासनात् अर्थापत्तेश्च प्रक्षयः प्रकाशमात्रेणार्थस्य सिद्धत्वाद् व्यर्थं तदपरवुद्धिपरिकल्पनम् ततश्च यदुक्तम्-"निराकारमेव ज्ञानमर्थोन्मुखमुपलभ्यमानं प्रतिनियमेन कथं सर्वसाधारणमिति सिद्धः प्रतिकर्म प्रत्ययः" [ ] इति, तदप्ययुक्तम् यतो न किञ्चिन्नीलाद्याकारप्रकाशताव्यतिरेकेणोपलभ्यतेऽपरमिति कस्यार्थे प्रत्यासन्नता५ परैः परिकल्प्यते प्रकाशता तु यदि निराकारा स्यात् प्रतिकर्म व्यवस्था न भवेत् न ह्यालोकमात्रेणामिश्रितघटादिरूपेण तद्रूपप्रकाशनं युक्तम् कथं तर्हि चक्षुरादिना रूपमुपलभ्यत इति व्यवस्था? बाह्यार्थवादिपरिकल्पिते परोक्ष रूपादौ तदाकारा प्रकाशता चक्षुरादिना जन्यत इति तथाव्यपदेशः संभवी प्रकाशंता वा अपोद्धारंपरिकल्पनयाऽनादिवासनानियमाद् भिन्ना व्यपदिश्यत इति न किश्चिदयुक्तम् यद्वा पूर्वसामग्रीतश्चक्षुरादिरूपाद्याकारप्रकाशता बुद्धिखभावोपजायत इत्येकसाम-१० ग्यधीनतयों तथाव्यपदेशः-दृश्यते हि प्रदीप-प्रकाशयोः समानकालयोः 'प्रदीपेन घटः प्रकाशितः' इत्येकसामध्यधीनतया व्यपदेशः। न ह्येककालयोरत्रापि प्रकाश्य-प्रकाशयोः कार्यकारणभाव उपपद्यते; ननु यदि साकारं विज्ञानमभ्युपगम्यते तदा चक्षुरादिकोऽर्थः प्रतिक्षिप्त एवं भवेत् चक्षुराद्याकारस्य संवेदनमात्रस्यैवोपलब्धेन तदाकाराच्चक्षुराद्यर्थव्यवस्था स्यात् । यतो न बाह्यार्थस्तदाकारं च विज्ञानं द्वयमुपलम्भविषयः तत्त्वे वा ज्ञानमेव, तत्रापि साकारम् तत्राप्यर्थस्य पुनरप्युपलब्ध्य-१५ भ्युपगमे ज्ञानाकारेऽन्तर्भाव इति न कदाचित् स्वरूपेणोपलब्धिर्भवेदिति नार्थव्यवस्था, असदेतत्; कार्यव्यतिरेकेण बाह्यार्थपरिकल्पना अर्थापत्त्या वा परेषामभिमतेति तदभ्युपगमादर्थस्यायमाकारः प्रकाशतामनुप्रविष्ट इत्यभिधानात् यथोक्तदोषानुपपंत्तिः अथवा विज्ञानवादेऽर्थासिद्धिप्रेरणं सिद्धसाध्यतया न दोषावहमिति साकारमेव ज्ञानं प्रमाणमभ्युपपन्नाः सौत्रान्तिक-योगाचाराः। [बाह्यार्थं तद्वाहकं च निराकार-साकारज्ञानं स्वीकुर्वता सिद्धान्तिना साकारज्ञानप्रमाणवादस्य २० प्रतिविधानम् ] अत्र प्रतिविधीयते-निराकारं विज्ञानमर्थग्राहकमिति नै प्रत्यक्षतः प्रतीयते शरीर-स्तम्भादिव्यतिरेकेणानुपलम्भतस्तस्यासत्त्वादिति 'तस्यासत्त्वात्' इत्यत्र हेतुरसिद्धः अहङ्कारास्पदस्य सुखादेनिविशेषस्यान्तःस्वसंवेदनप्रत्यक्षानुभूयमानस्य सत्त्वात् । न च स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धस्याप्यसत्त्वम् स्तम्भाद्याकारस्यापि ज्ञानस्यासत्त्वप्रसक्तेः न हि तथाप्रतिभासव्यतिरेकेणापरमत्रापि सत्त्वनिबन्धनम् २५ न च 'अहम्' इति प्रत्ययोऽन्तःस्प्रष्टव्यशरीराद्यालम्बनः शरीरस्य सप्रतिघत्वेनापरप्रत्यक्षविषयत्वेन चाऽज्ञानरूपतया मुख्याहंप्रत्ययविषयत्वानुपपत्तेः ज्ञानस्यैवाप्रतिघानन्यवेद्यरूपस्यान्तर्मुखाकारस्य मुख्याहंप्रत्ययविषयत्वात् 'अहं कृशः'इत्यादिशरीरालम्वनस्य त्वहंप्रत्ययस्यौपचारिकत्वात् उपचारनिबन्धनत्वस्य च प्राक् प्रतिपादितत्वात् तेन 'निराकारस्य ज्ञानस्य स्वप्नेऽप्यसंवेदनान्न प्रत्यक्षतो ग्राह्यव्यतिरिक्तं ग्राहकवरूपं प्रतिभाति' इति प्रत्युक्तम् । 'नीलमहं वेद्मि' इति वाह्यनीलार्थग्राहकस्या-३० न्ताह्याद् व्यतिरिक्तस्य खसंवेदनाध्यक्षतो ज्ञानस्याहमहमिकया प्रतीतेः। न चान्तःसुखादयो बहिश्च नीलादयः परिस्फुटवपुषः स्वसंविदिताः प्रतिभान्ति न पुनस्तव्यतिरिक्तं निराकारं झानखरूपमर्थग्राहकमाभाति सुखादेरर्थग्राहकत्वायोगादिति वक्तव्यम् यतो बाह्य प्रति सुखादीनां नैवास्माभिरपि ग्राहकत्वमभ्युपगम्यते । नहि सुखादयो भावनोपनेयजन्मानो वहिरर्थसंनिधिमन्तरेणापि प्रादुर्भवन्तः पदार्थव्यक्तीनां नियमेनोद्योतकाः स्खवपुःपर्यवसितस्वरूपत्वात् तेषाम् चक्षुरादिप्रभवास्तु संविदो ३५ बहिरर्थमुद्भासयन्त्यः स्पष्टावभासा अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां पृथगवसीयन्त इति पदार्थग्राहिण्यस्ता एवाभ्युपगमनीयाः सुखादिवेदनं तु हृदि परिवर्तमानं वाह्यार्थसंविदः पृथगेव न तत् बाह्यार्थग्राहक १-शता चाऽपो-बृ०। २-रक-बृ० ल. विना। ३-या व्यप-आ० हा० वि०। ४-काश्ययोः भां. मां०। ५-काशते' वा० बा०। ६-व च भ-वा० बा०। ७ तत्त्वे विज्ञा-आ० हा० वि०। ८-नरुप-बृ. ल० वा० बा०। ९-पत्तेः भां०। १० पृ. ४६२ पं०७। ११-नुपलम्भस्तस्या-वृ० ल. वा० बा० ।-नुपलम्भतस्तस्यासत्त्वादिति हेतुर-आ० । १२-दसु-बृ० । १३-न्तःप्र-आ० हा० वि० । १४ पृ० ४६२ पं० ११ । १५-न्तग्राह्यद्व्यति-हा० ।-स्ताव्यति-वा. बा० आ० वि०। १६-कारज्ञा-बृ० वा. बा० आ० वि० । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ द्वितीये काण्डेतयाऽभ्युपगमविषयः । तदेवं ग्राह्याद् व्यतिरेकेण निराकारज्ञानस्य स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धत्वादनुमानमपि तत्सत्त्वप्रतिपादकत्वेन प्रवर्तत एव विप्रतिपत्तिसद्भावे । यच्च 'अर्थापत्तेरप्रामाण्याद् नातस्तत्प्रतिपत्तिः' इति, तत् सिद्धसाधनमेव । यदपि 'निराकारा मया बुद्धिः प्रतीयते इति बुद्धेरप्यपरा बुद्धिाहिका' इत्यांद्युक्तम् तदप्यसंगतमेव यतः स्वपरार्थग्राहकं बुद्धेः स्वरूपम् तेन च रूपेण खसंविदि ५प्रतिभासमाना कथं शशशृङ्गादिवदव्यवस्थितस्वरूपा भवेत् ? यदपि 'तदव्यतिरिक्ततया प्रतीयमाना न विकल्पेनाप्यपोर्तुं शक्या' इति, तदप्यसङ्गतम्; ग्राह्यार्थस्वरूपविविक्ततया स्वरूपेण तत्प्रतिभासनस्य प्रतिपादितत्वात् । यदपि 'प्रकाशतारहितं नीलादिकं नोपलभ्यते तथोपलम्भे सर्वः सर्वदर्शी भवेत्' इति, अत्रापि यदि ज्ञानं विना नीलादिकं नोपलभ्यत इत्युच्यते तदा सिद्धसाध्यता तदन्तरेण तदुपलम्भस्यानिष्टेः । अथ नीलमेव प्रकाशरूपमिति प्रतिपाद्यते, तदयुक्तम् ; नीलस्य १० जडतया प्रकाशरूपत्वानुपपत्तेः परस्परपरिहारस्थितलक्षणतया जडाजडयोरेकत्वायोगात् । यदपि 'नीलस्य प्रकाशः' इति व्यतिरेकः 'शिलापुत्रकस्य शरीरम्' इत्यादाविवाभेदेऽपि संभवति' इति, तदपि न सम्यग ; दृष्टान्ते हि प्रत्यक्षावगतोऽभेदो भेदप्रतिभासस्य बाधकः न तु दार्शन्तिके प्रत्यक्षारूढोऽभेदप्रतिभासः समस्ति । तथाहि-ग्राह्यरूपं स्तम्भाद्यनन्यव्यापृतत्वेन ग्राह्यतयाऽध्यक्ष प्रतिभाति प्रका शता तु स्तम्भादिकर्मणि व्यापृतत्वेन ग्राहकतया प्रतिभातीति न स्तम्भ-तत्संवेदनयोरमेदावभासो१५ऽध्यक्षारूढोऽवभाति । न केवलं ग्राहकाकारोऽन्यव्यापृतत्वेन प्रतिभाति किन्त्वाहादादिस्वभावतया अहङ्कारास्पदश्च प्रतिभास-निश्चयाभ्यामवसीयते तदाह्यस्तु तद्विपरीतत्वेन । न चाध्यक्षसिद्धभेदयोनील-तत्संवेदनयोः कुतश्चित् प्रमाणादेकताऽवसातुं शक्येति न भेदप्रतिभासस्य बाधा। न च नीलादिरेव ज्ञानरूपः 'अहं नीलादिः' इत्यनवगमात् तेन 'नीलाद्याकारैव प्रकाशता सा च बुद्धिरिति साकारता ज्ञानस्य' इति यदुक्तम् तदपि निरस्तं द्रष्टव्यम् । यदपि 'प्रकाशतामात्रेणार्थस्य सिद्धत्वाद् २० व्यर्थं तदपरबुद्धिपरिकल्पनम्', तदपि सिद्धमेव साधितम् ; अर्थप्रकाशताया अर्थव्यतिरिक्ताया बुद्धित्वेन तदपरबुद्धिपरिकल्पनाया असिद्धत्वात् । यदपि 'नापरं नीलाद्याकारप्रकाशताव्यतिरेकेणोपलभ्यत इति कस्यार्थे प्रत्यासन्नता परैः परिकल्प्यते' तदपि नीलाद्यर्थग्रहणपरिणतर्ज्ञानस्य खसंवेदनाध्यक्षतः सिद्धरयुक्ततया स्थितम् । 'प्रकाशता तु यदि निराकारा भवेत् प्रतिकर्म व्यवस्था न स्यात्' इति यदुक्तम्, तदप्यसंगतमेव; यतः प्रकाशता किं नीलाद्याकारा, आहोस्विद् ग्राह्याकाराऽभ्यु२५ पगम्यते? यदि प्रथमो विकल्पस्तदा वक्तव्यम् किमेकदेशेन नीलाद्याकारा प्रकाशता, आहोस्वित् सर्वात्मनेति? तत्र यद्येकदेशेन तदा सांशैका प्रकाशता प्रसक्तेत्यनेकान्तसिद्धिः । अथ सर्वात्मना तदा प्रकाशताया जडरूपनीलादिखभावत्वाद् विज्ञप्तिरूपताऽभावप्रसक्तिः जडस्य प्रकाशरूपतायोगात् । अथ ग्राह्याकारा एवमपीतरेतराश्रयत्वम् । तथाहि-ग्राह्यस्य प्रतिनियतरूपसिद्धौ तदाकारा प्रकाशता सिध्यति तत्सिद्धौ च ग्राह्यस्य प्रतिनियतरूपसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । ३० नहि देवदत्तस्य प्रतिनियताकारतासिद्धौ यज्ञदत्तस्य तदाकारतासिद्धिदृष्टा । न च प्रकाशता साकारतासिद्धिमन्तरेणापि ग्राह्यस्य प्रतिनियतरूपसिद्धिः निराकारज्ञानस्य प्रतिकर्मव्यवस्थाहेतृत्वप्रसक्तेः । न च 'यद् यदाकारं तत् तस्य ग्राहकम्' इति व्याप्तिसिद्धिः अन्यथोत्तरनीलक्षणः पूर्वनीलक्षणस्य ग्राहकः स्यात् । न च तस्याज्ञानरूपत्वान्नायं दोषः देवदत्तनीलज्ञानस्य यज्ञदत्तनीलज्ञानग्राहकताप्रसक्तेः । न च तयोः कार्यकारणभावाभावान्नायं दोषः सदृशसमनन्तरज्ञानक्षणं ३५ प्रत्युत्तरज्ञानक्षणस्य ग्राहकताप्रसक्तेः । अथ तत्र तादृग्विधसारूप्याभावान्नायं दोषः; ननु तथाविधं सारूप्यं यदि कथञ्चित्सारूप्यमभिधीयते तदाऽनेकान्तवादापत्तिः । अथ सर्वात्मना सारूप्यम् तदोत्तरक्षणस्य पूर्वक्षणरूपताप्रसक्तिरित्येकक्षणमात्रं सर्वः सन्तानो भवेत् । न च पूर्वोत्तरक्षणयोः परपक्षे भिन्नमभिन्नं वा एकान्ततः सारूप्यं संभवति भेदपक्षे सामान्यवादप्रसक्तेः अभेदपक्षे तु तदभावप्र १-कारस्य ज्ञा-बृ० वा. बा. भां० मां. विना। २ पृ. ४६२ पं० १३ । ३ पृ. ४६२ पं० १९ । ४-दपि च त-आ. हा०वि०। ५ पृ० ४६२ पं० २४ । ६ पृ० ४६२ पं० ३३ । ७-भवीति बृ० वा. बा०। ८ पृ. ४६२ पं० ३५। ९-व्यावृतत्वे-बृ० ल० ।-व्यावृत्तत्वे-वा. बा० । १० व्यावृतत्वे-बृ. ल. । व्यावृत्तत्वेवा० बा० । ११-व्यावृतत्वे-बृ० ल० ।-व्यावृत्तत्वे-वा० बा० । १२ पृ. ४६२ पं०३८ । १३ पृ. ४६३ पं० २। १४ पृ. ४६३ पं० ५। १५ पृ. ४६३ पं०६। १६-शता-आ० हा० वि० । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। सक्तः। न च परपक्षे सारूप्यग्रहणोपायः संभवतीत्युक्तम् । किञ्च, यदि नीलाकारं शानमनुभूयत इति बाह्योऽप्यऽर्थो नीलतया व्यवस्थाप्यते तर्हि त्रैलोक्यगतनीलार्थव्यवस्थितिस्ततो भवेत् सर्वनीलार्थसाधारणत्वात् तस्य । अथ नीलाकारताऽविशेषेऽपि कश्चित् प्रतिनियमहेतुस्तत्र विद्यते यतः पुरोवर्तिन एव नीलादेस्ततो व्यवस्था तहनाकारत्वेऽपि ज्ञानस्य तत एव नियमहेतोः प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकत्वं भविष्यतीति तत्साकारतापरिकल्पनं व्यर्थम् । यदपि 'चक्षुरादिना रूपमुपलभ्यते इतिव्यपदेश-५ निबन्धनं चक्षुरादिजन्यत्वं रूपाकारप्रकाशस्य' उक्तम्, तदपि स्वजोड्याविष्करणमात्रम् ; यतो यया प्रत्यासत्त्या चक्षुरादिकं समानकालं भिन्नकालं वा भिन्न रूपाद्याकारं ज्ञानं जनयति तयैव निराकारमपि ज्ञानं समानकालं भिन्नकालं वा स्वग्राह्य भिन्नमपि ग्रहीष्यति न हि चक्षुरादेविभिन्नकार्योत्पादनवद विभिन्नग्राह्यग्रहणे शक्तिप्रक्षयः कश्चिद् ज्ञानस्य संभवी। ____ अथ विभिन्नकार्योत्पादनमप्यसंभवीति नाभ्युपगम्यते तर्हि "प्रमाणमविसंवादि"[ १० इति प्रमाणलक्षणप्रणयनमनर्थकं धर्मकीर्तेरासज्यते अविसंवादित्वस्यार्थक्रियाज्ञानजनकत्वलक्षणस्याभावात् । अथ व्यावहारिकमेतत् प्रमाणलक्षणं न पारमार्थिकम् किं तर्हि पारमार्थिकमिति वक्तव्यम? अज्ञातार्थप्रकाशो वेति चेत्, न; अत्रापि यद्यज्ञातस्यार्थस्य प्रकाशः स्वसंविदितोऽर्थग्रहणपरिणाम आत्मसम्बन्धी तदाऽस्मन्मताभ्युपगम इति न कश्चिद्दोषः। अथ स्वरूपस्य स्खतो गतिः”[ ] इति वचनाद् अज्ञातार्थप्रकाशः स्वरूपसंवेदनमात्रम् तदाध्यक्षबाधा दोषः स्वपरवेदकत्वेन ज्ञानस्य १५ खसंवेदनाध्यक्षतः प्रतिपत्तेरिति प्रतिपादितत्वात् प्रतिपादयिष्यमाणत्वाच्च । एतेन 'एकसामग्र्यधीनतया चक्षुरादिना रूपमुपलभ्यत इति व्यपदेशः' इत्येतदपि निरस्तम् भिन्नानामेकसामग्र्यधीनत्वलक्षणप्रतिबन्धाविरोधे ग्राह्यग्राहकलक्षणस्यापि तस्याविरोधात् यथा चैकसामग्र्यधीनानां चक्षुरादीनां समानसमयेऽपि स्वरूपप्रतिनियमस्तथा ग्राह्यग्राहकयोरपि समानकालत्वाविशेषेऽपि विज्ञानं ग्राहकमेव अर्थस्तु ग्राह्य एवेति प्रतिनियमो भविष्यति । अथैकसामग्र्यधीनत्वं रूपप्रतिनियमश्चक्षुरादेर्नेष्यते २० तर्हि प्रमाणादिव्यवहारस्य सकलस्य विलोपात् साकारज्ञानाभ्युपगमोऽसंगत एव स्यात् । यदपि 'कार्यव्यतिरेकेण बाह्यार्थकल्पनाऽर्थापत्या वा परेषामिति तदभ्युपगमेनोच्यते अर्थस्यायमाकारः प्रकाशतामनुप्रविष्टः' इत्युक्तम् , तदपि परदर्शनाऽनभिज्ञतां ख्यापयति; न हि जैनानां कार्यव्यतिरेकात् अर्थापत्त्या वाऽर्थपरिकल्पना किन्तु तद्रोहकप्रतिभासवशात् । साकारज्ञानवादिनस्तु यदि ज्ञानाकारोऽर्थव्यतिरेकेण नोपपद्यत इत्यर्थव्यवस्थापकस्तदाऽनियतार्थव्यवस्थापकः स्यात् । जनकस्यैव व्यव-२५ स्थापक इति चेत्, न; चक्षुरादेरपि व्यवस्थापकः स्यात् । तजनकत्वेऽपि चक्षुरादेरतदाकारत्वान्नेति चेत् ननु चक्षुरादिजन्यत्वेऽपि किमिति तज्ज्ञानं तदाकारं न भवति चक्षुरादि वा स्वाकारज्ञानाजनकमिति वक्तव्यम् ? स्वहेतुबलायाततत्स्वभावत्वात् तयोरिति चेत् ; ननु निराकारज्ञानपक्षेऽपि तत्वाभाव्याद् ज्ञानमेव चक्षुरादिव्यतिरेकेण स्वजनकार्थव्यवस्थापकमिति किं नाभ्युपगम्यते न्यायस्य समानत्वात् ? किञ्च, ग्राहकस्यार्थजन्यत्वेन साकारता सा च प्रतिभासगोचरा एवं च ग्राहके आकारस्य ३० जनकस्यैव प्रतिभासविषयत्वेऽन्यस्य तजनकस्य कल्पनाप्रसक्तिः तत्राप्येवमित्यनवस्था भवेत् । तन्न १-कारपरि-बृ० ल० वा. बा. भां० हा.। २ पृ. ४६३ पं०७। ३-जात्यावि-वा. बा. विना । ४ वा भिन्नरू-बृ० ल. वा. बा. हा० विना। ५-रपरिज्ञानं हा०। ६ "अविसंवादकं ज्ञानं सम्यग्ज्ञानम्"-न्यायवि० टी० पृ. ३ पं. ५ । “यथाह प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम्"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ४२८ पं० १० । "अन्ये तु अविसंवादि ज्ञानं प्रमाणमभिदधति"-तत्त्वोप० लि. पृ. ३७ पं०१ । “अपरे पुनरविसंवादकलं प्रमाणसामान्यलक्षणमाचक्षते"-न्यायमा. आ. १ पृ. २३ पं० १९ । “तथाह प्रज्ञाकरगुप्तः प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् इत्यादि प्रमाणलक्षणं व्यवहारेण"-सिद्धिवि. टी. लि. पृ. ७८ पं० १९ इत्युल्लेखाद्वचनमेतत् प्रज्ञाकरगुप्तीयं ज्ञायते । पार्थसारथिमिश्रः श्लोकवार्तिकटीकायां वचनमेतद् धर्मकीर्तिकर्तृकतयोल्लिखतीति तत्पाठप्रदर्शनपूर्वकं संसूचितं प्रथमे भागे पृ० १५ पं० २३ तथा टि. १२ । “अविसंवादकं प्रमाणम्"-न्यायावता. टी. पृ० २० पं० १५ । स्याद्वादर. पृ० १७ प्र. पं० ७ । “प्रमाणमविसंवादि ज्ञानमिति सौगताः"-प्रमाणमी. १-१-८ पृ० ११५० १९ । पृ० १५ पं० २२। ८ पृ. ४६३ पं० १०। ९पृ० ४६३ पं० १७। १०-द्राहिम-बु. ल. वा. बा. भा० मा० । ११ अयं चर्चस्तावद् भङ्गयन्तरेण वर्तते-आप्तमी. का० १३ अष्टश० पृ० ११५० २९ । अष्टस. पृ० ११८ पं०१०। प्रमेयक. पृ. २७ द्वि०५०९। ६० स० त० Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे - साकारज्ञानानुभववशादर्थव्यवस्था । प्रकाशतानुप्रविष्टता चार्थाकारस्यायुक्तैव वस्त्वन्तरानुप्रवेशासंभवात् संभवे वा प्रकाशताया अपि चैतन्यरूपतायाः पृथिव्याद्यनुप्रवेशात् परलोकाय दत्तो जलाञ्जलिर्भवेत् । यदपि 'अर्थवादिन एवायं दोषो ज्ञानवादे तु सिद्धसाध्यता' इति, तदपि न्यायबहिष्कृतम् ; प्रमाणसिद्धस्याप्यर्थस्याभावो यदि न दोषाय भवेत् ज्ञानाभावोऽपि न दोषाय स्यात् । न च शून्यताभ्यु५ पगमात् तद्भावोऽपि न दोषावह इति वक्तव्यम् तत्प्रतिपादक प्रमाणाभावान्न शून्यतेति न साकारज्ञानप्रमाणवादोऽभ्युपगमार्होऽनेकदोषदुष्टत्वादिति स्थितम् । [ जैमिनीयसंमतं ज्ञातृव्यापारस्य प्रमाणत्वं निराकर्तुं तद्विशेषणस्यानधिगतार्थाधिगन्तृत्वस्य व्यपोहनम् ] जैमिनीयाभिमतस्य तु ज्ञातृव्यापारस्य फलानुमेयस्यं यथा प्रमाणता न संभवति तथा स्वतः१० प्रामाण्यं निराकुर्वद्भिः प्रदर्शितमिति न पुनः प्रतन्यते । यदपि अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वं ज्ञातृव्यापारविशेषणत्वेन प्रतिपादितम् तदप्यसङ्गतमेवः यैतः प्रमाणं वस्तुन्यधिगतेऽनधिगते वाऽव्यभिचारादिविशिष्ट प्रमां जनयन्नोपालम्भविषयः । न चाधिगते वस्तुनि किं कुर्वत् तत् प्रमाणतामाप्नोतीति वक्तव्यम् विशिष्टप्रमां विदधतस्तस्य प्रमाणताप्रतिपादनात् । न च पूर्वोत्पन्नैव प्रमा तेन जन्यते, प्रमित्यन्तरोत्पादकत्वेन प्रमाणत्वात् । न च प्रमित्यन्तरजनकत्वेऽप्यधिगते विषये तस्याकिञ्चित्करत्वेनो१५ पालम्भविषयता, स्वहेतुसन्निधिबलादधिगतमनधिगतं वा वस्त्वधिगच्छतोऽप्रेक्षापूर्व कारितयोपालम्भविषयतानुपपत्तेः । न चैकान्ततोऽनधिगतार्थाधिगन्तृत्वे प्रामाण्यं तस्यावसातुं शक्यम् तद्ध्यर्थतथा भावित्वलक्षणं संवादादवसीयते स च तदर्थोत्तरज्ञानवृत्तिः । न चानधिगतार्थाधिगन्तुरेव प्रामाण्ये संवादप्रत्ययस्य प्रामाण्यमुपपन्नम् न चाप्रमाणेन संवादप्रत्ययेन प्राक्तनस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयितुं शक्यम् अतिप्रसङ्गात् अतो यथा अधिगतार्थाधिगन्तुरर्थक्रियानिर्भासिज्ञानस्य प्रामाण्यम् तथा २० साधननिर्भासिनोप्यभ्युपगन्तव्यम् । न च सामान्य- विशेषतादात्म्यवादिन एकान्ततोऽनधिगतार्थाधिगन्तृत्वं प्रमाणस्य संभवति इदानीन्तनास्तित्वस्य पूर्वास्तित्वाभेदात् तस्य च पूर्वमप्यधिगतत्वसंभवत् कथञ्चिदनधिगतार्थाधिगन्तृत्वाभ्युपगमे अस्मन्मतानुप्रवेशप्रसक्तिः । अर्थं अप्रेक्षापूर्वकारितया प्रमा ४६६ १ पृ० ४६३ ० १८ । २ " अर्था परोक्षतातत्संवेदनरूप "स्य - बृ० ल० टि० । ३ पृ० २० पं० १ । ४ पृ० ४५८ पं० ७ । ५ अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वविशेषणस्य निरसनमिदं प्रायोऽक्षरशः परीक्षामुखीय १ - ४ सूत्रव्याख्यायां वर्तते - प्रमेयक० पृ० १६ द्वि० पं० ३ । एतदेवांशतः “यदपि प्रमाणविशेषणमनधिगतार्थग्रा हि त्वमभिधीयते परैः तदपि न साम्प्रतम्" इत्यादिना शब्दान्तरेण न्यायमञ्जर्यं दृष्टिपथमायाति -आ० १ पृ० २१ पं० २४ । स्याद्वादरत्नाकरे तु तदेव "अविज्ञातज्ञानं त्वभिदधति भट्टस्य तनयाः प्रमाणं तत् सम्प्रत्यवतरतु दूष्यत्वपदवीम् " ॥ इत्यादिभङ्ग्यन्तरेण चर्चितम् - १-२ पृ० १८ प्र० पं० १५ । ६ “ अन्यथा भेदायोगात् " - बृ० ल० टि० । ७ " न च प्रयोजनानुवर्ति प्रमाणं भवति । कस्य चैष पर्यनुयोगः ? न प्रमाणस्य अचेतनत्वात् । पुंसस्तु सन्निहिते विषये करणे च संभवन्ति ज्ञानानीति सोऽपि किमनुयोज्यताम् किमक्षिगी निमील्य नास्ते कस्माद् दृष्टं विषयं पश्यसीति । प्रमाणस्य तु न किञ्चिद् बाध्यं पश्यामः येन तद् अप्रमाणमिति व्यवस्थापयामः न च सर्वात्मनः वैफल्यम् हेये अहिकण्ठवृक-मकर-विषधरादौ विषये पुनः पुनरुपलभ्यमाने मनःसंतापात् सत्वरं तदाहानाय प्रवृत्तिः उपादेयेऽपि चन्दन - घनसारहार - महिलादौ परिदृश्यमाने प्रीत्यतिशयः स्वसंवेद्य एव भवति" इत्यादि – न्यायमञ्ज० आ० १ ० २२ पं० २-८ " न च प्रयोजनानुवर्ति प्रमाणं भवति x x x अपि च, किमिति पश्यसि वस्तु तदेव मो यदिह पूर्वधिया कलितं किल । किमिति वस्तुनि सन्निहितेऽपि च त्वमसि नैव निमीलितलोचनः ॥ पुनः पुनः प्रमाणानां प्रवृत्तौ विषयेष्विह । सर्वथा नास्ति वैयथ्यं फलस्याप्युपलम्भनात् ॥ तथाहि-हालाहल-जिह्मगादौ हेये मुहुर्वस्तुनि वीक्ष्यमाणे । स कोऽपि तापः स्फुरति प्रकामं न गोचरं यो वचसामुपैति ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । ४६७ णस्यानुपालम्भविषयत्वेऽपि पुरुषस्य प्रेक्षापूर्वकारिणोऽधिगतविषयमपि प्रमाणं पर्येषमाणस्योपालम्भविषयता-स हि पूर्वाधिगते वस्तुनि प्रेक्षापूर्वकारी किमित्यधिगमाय प्रमाणान्तरमन्वेपते निष्पन्नप्रयोजनापेक्षया हेतुं व्यापारयतःप्रेक्षापूर्वकारिताहानिप्रसक्तेः, नैतदेवम् ; यतःप्रीत्यतिशयादेः प्रयोजनस्यानिष्पन्नस्य भावात् तन्निष्पत्त्यर्थमुपायान्वेषणं न प्रेक्षापूर्वकारितां तस्योपहन्तुं समर्थम् । तथाहि-सुखसाधने विषये पुनः पुनःप्रमांजनयतःप्रीत्यतिशयजनकत्वेन सप्रयोजनत्वात् प्रमाणान्वेषणस्य न तदन पुरुषस्योपालम्भार्हता । न च निश्चिते विषये न किञ्चिन्निश्चयान्तरेण प्रयोजनम्-यतस्तदर्थं प्रमाणान्वेषणं न वैयर्थ्यमनुभवेत्-यतो भूयो भूय उपलभ्यमाने दृढतरा प्रतिपत्तिर्भवतीति सुखसाधनं तथैव निश्चित्योपादत्ते दुःखसाधनं च तथात्वेन सुनिश्चित्य परित्यजेत् अन्यथा विपर्ययेणाप्युपादान-त्यागौ भवेताम् अत एवैकविषयाणामपि शाब्दाऽनुमानाऽध्यक्षाणां प्रामाण्यमुपपन्नम् प्रतिपत्तिविशेषस्य प्रीत्यतिशयादेश्च सद्भावात् । न च प्रथमप्रत्ययेनैवार्थक्रियासमर्थवस्तुप्रदर्शने प्रवर्तितः पुरुषः१० प्रापितश्चार्थ इति तत्रापरप्रमाणान्वेषणं वैयर्थ्यमनुभवेत् , पुरुषप्रवृत्तेःप्रमाणाधीनत्वाभावात् विशिष्टप्रमाया एव प्रमाणाधीनत्वात् तां च जनयत उपेक्षणीयादौ विषये प्रमाणस्याप्रवर्तकस्यापि प्रमाणत्वेन लोके प्रसिद्धत्वात् प्रवृत्तेस्तु पुरुषेच्छानिवन्धनत्वात् तेदभावे नोक्तफलजनकस्य प्रमाणत्वव्याघातः। न च पुरुषार्थसाधनप्रदर्शकत्वमेव तस्य प्रवर्तकत्वम् तत्सद्भावेऽपि 'प्रवर्तितोऽहमनेनात्र' इति तद्हँणेच्छाभावे प्रतिपत्त्यनुपपत्तेः। न च प्रवृत्त्यभावे तस्य प्रदर्शकत्वलक्षणो निजो व्यापार एव नोपपद्यत १५ इति वक्तव्यम् प्रतीतिवाधोपपत्तेः। नहि चन्द्रार्काद्यर्थविषयमध्यक्षमप्रवर्तकत्वात् न तत्प्रदर्शकमिति लोकप्रतीतिः। तन्न अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वमपि ज्ञातृव्यापारविशेषणमुपपत्तिमत् । अतोऽनधिगतार्थाधिगन्ता ज्ञातृव्यापारोऽर्थप्रकटताख्यफलानुमेयो जैमिनीयपरिकल्पितो न प्रमाणमिति स्थितम् । [धर्मोत्तरीयं प्रमाणसामान्यलक्षणं व्यावर्ण्य सिद्धान्तिना तस्य समालोच्य दूषणम् ] सौगतैस्तु 'प्रमाणमविसंवादिज्ञानम्' इति वचनात् अविसंवादकत्वं प्रमाणलक्षणमुक्तम् अविसं-२० निरीक्ष्यमाणे परमार्थतस्तु हेये मुहुर्मोहविकारमुख्ये । विवेकसेकछुतमानसानामरोचकस्तीव्रतरोऽभ्युदेति ॥ प्रि(प्रे)यखिनी-पार्वण-शीतरोचिर्-मयूर-माणिक्यमुखे खजस्रम् । आदेयवस्तुन्यवलोक्यमाने सम्प्राप्यते प्रीतिरसः स कोऽपि ॥” इत्यादि-स्याद्वादर. १-२ पृ. १८ द्वि. पं०७-पृ० १९ प्र. पं. ४ । १-धनवि-वृ० ल. भा. मां० विना। २ “उत्तरम्"-बृ. ल. टि.। ३ सुनिश्चितं प-ल. वा. बा० भां० मां० हा०। ४-मपि शब्दा-बृ० ल० वा. बा० विना। ५ "प्रवृत्त्यभावे"-बृ० टि० । “प्रवृत्तिः"ल.टि.। ६ “प्रदर्शकता-" बृ० ल. टि.। ७-हणे भावेच्छा प्रति-वा० बा०। ८-कत्वमि-वा० बा० । "न च प्रवृत्त्यभावे प्रमाणस्यार्थप्रदर्शकत्वलक्षणव्यापाराभावो वाच्यः प्रतीतिविरोधात् । न खलु चन्द्रार्कादिविषयं प्रत्यक्षमप्रवर्तकखान्न तत्प्रदर्शकमिति लोके प्रतीतिः"-प्रमेयक० पृ. ८ प्र. पं०६ । “न च प्रवृत्तेरभावे प्रमाणस्य वस्तुप्रदर्शकखरूपो व्यापार एव न संभवतीति विभावनीयम् अनुभवविरोधात् । न खलु कुमुदबान्धवादौ प्रत्यक्षेण दृष्टेऽप्यप्रवर्तमानो लोकः तस्याप्रदर्शकखमिति प्रतिपद्यते"-स्याद्वादर० पृ० २१ द्वि० पं०६। ९ "भट्टमतं(त)प्रसिद्धतत्संवेदनरूपफलोप(पल)क्षणमेतत्"-ल. टि०। १० जैमिनीय-वा० बा। ११ एतत् सर्व धर्मोत्तरीयायां धर्मकीर्तिकृतन्यायबिन्दुवृत्तावित्थं दृश्यते-"अविसंवादकं ज्ञानं सम्यग्ज्ञानम् । लोके च पूर्वमुपदर्शितमर्थ प्रापयन् संवादक उच्यते तद्वद् ज्ञानमपि प्रदर्शितमर्थ प्रापयत् संवादकमुच्यते प्रदर्शिते चार्थे प्रवर्तकलमेव प्रापकत्वम् नान्यत् । तथाहि-न ज्ञानं जनयद् अर्थ प्रापयति अपि तु अर्थे पुरुषं प्रवर्तयत् प्रापयत्यर्थम् प्रवर्तकलमपि प्रवृत्तिविषयप्रदर्शकलमेव । न हि पुरुषं हठात् प्रवर्तयितुं शक्नोति विज्ञानम् अत एव चार्थाधिगतिरेव प्रमाणफलम् अधिगते चार्थे प्रवर्तितः पुरुषः प्रापितश्चार्थः तथा च सति अर्थाधिगमात् समाप्तः प्रमाणव्यापारः । अत एव अनधिगतविषयं प्रमाणम् येनैव हि ज्ञानेन प्रथममधिगतोऽर्थस्तेनैव प्रवर्तितः पुरुषःप्रापितश्चार्थः तत्रैवार्थे किमन्येन ज्ञानेनाधिक कार्यम् ततोऽधिगतविषयमप्रमाणम् तत्र योऽर्थो दृष्टत्वेन ज्ञातः स प्रत्यक्षेण प्रवृत्तिविषयीकृतः यस्माद् यस्मिन्नर्थे प्रत्यक्षस्य साक्षात्कारित्वव्यापारो विकल्पेनानुगम्यते तस्य प्रदर्शकं प्रत्यक्षम् तस्माद् दृष्टतया ज्ञातः प्रत्यक्षदर्शितः । अनुमानं तु लिङ्गदर्शनानिश्चिन्वत् प्रवृत्तिविषयं दर्शयति Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ द्वितीये काण्डेपादकत्वं च प्राप्तिनिमित्तप्रवृत्तिहेतुभूतार्थक्रियाप्रसाधकार्थप्रदर्शकत्वम् यतोऽर्थक्रियार्थी पुरुषस्तन्निघर्तनक्षममर्थमवाप्नुकामः प्रमाणमप्रमाणं वा अन्वेषते यदेव चार्थक्रियानिवर्तकवस्तुप्रदर्शकं तदेव तेनान्विष्यते प्रत्यक्षानुमाने एव च तथाभूतार्थप्रदर्शके न ज्ञानान्तरमिति ते एव च लक्षणार्हे तयोश्च द्वयोरप्यविसंवादकत्वमस्ति लक्षणम् प्रत्यक्षेण ह्यर्थक्रियासाधनं दृष्टतयाऽवगतं प्रदर्शितं भवति अनु५मानेन तु दृष्टलिङ्गाव्यभिचारितयाऽध्यवसितम् इत्यनयोः प्रदर्शकत्वमेव प्रापकत्वम् न ह्याभ्यां प्रदर्शितेऽर्थे प्रवृत्तौ न प्राप्तिरिति नान्यत् प्रदर्शकत्वव्यतिरेकेण प्रापकत्वम् तच्च शक्तिरूपम् । उक्तं च"प्रापणशक्तिः प्रामाण्यम् तदेव च प्रापकत्वम् अन्यथा ज्ञानान्तरस्वभावत्वेन व्यवस्थितायाः प्राप्तेः कथं प्रवर्तकज्ञानशक्तिस्वभावता? तत्र यद्यपि प्रत्यक्षं वस्तुक्षणग्राहि तबाहकत्वं च तस्य प्रदर्शकत्वं तथापि क्षणिकत्वेन तस्याप्राप्तेः तत्सन्तान एव प्राप्यत इति सन्तानाध्यवसायोऽध्यक्षस्य प्रदर्शकव्या१०पारो द्रष्टव्यः अनुमानस्य तु वस्त्वग्राहकत्वात् तत्प्रापकत्वं यद्यपि न संभवति तथापि खाकारस्य बाह्यवस्त्वध्यवसायेन पुरुषप्रवृत्तौ निमित्तभावोऽस्तीति तस्य तत्प्रापकमुच्यते"।[ एतदुक्तं भवति-प्रत्यक्षस्य हि क्षणो ग्राह्यः स च निवृत्तत्वान्न प्राप्तिविषयः सन्तानस्त्वध्यवसेयः प्रवृत्तिपूर्विकायाःप्राप्तेविषय इति तद्विषयं प्रदर्शितार्थप्रापकत्वमध्यक्षस्य प्रामाण्यम् अनुमानेन त्वारोपितं वस्तु गृहीतम् स्वाकारो वा तयोर्द्धयोरप्यवस्तुत्वान्न प्रवृत्तिविषयतेति न तद्विषयं तस्य प्रापक१५ त्वम् अपि त्वारोपित-बाह्ययोरभेदाध्यवसायेन वस्तुन्येव प्रवर्तकत्व-प्रापकत्वे अस्य द्रष्टव्ये । तेनानु मानस्य ग्राह्योऽनर्थः प्राप्यस्तु बाह्यः स्वाकाराऽभेदेनाध्यवसित इति तद्विषयमस्यापि प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं प्रामाण्यम् । उक्तं च-"ततोऽपि विकल्पात् तदध्यवसायेन वस्तुन्येव |वृत्तेः प्रवृत्तौ च प्रत्यक्षेणाभिन्नयोगक्षेमत्वात्" [ ] तथाऽपरमप्युक्तम्-"न ह्याभ्यामर्थ परिच्छिद्य प्रवर्त्तमानोऽर्थक्रियायां विसंवाद्यते" [ इति । अत्र च प्रत्यक्षानुमानयोर्द्धयोरपि परिच्छेदः २० सन्तानविषयोऽध्यवसायो द्रष्टव्यः तथा, प्रामाण्यं वस्तुविषयं द्वयोरिति च । उक्तमत्रापि-"सन्तानविषयत्वेन वस्तुविषयत्वं द्रुयोरुक्तम्" [ ] लौकिकं चैतदविसंवादकत्वं प्रामाण्यम् यतो लोके प्रतिज्ञातमर्थ प्रापयन् पुरुषः संवादकः प्रमाणमुच्यते तद्वदत्रापि द्रष्टव्यम् । न च क्षणिकस्य ज्ञानस्यार्थप्राप्तिकालं यावदनवस्थितेः कथं प्रापकतेत्याशङ्कनीयम् प्रदर्शकत्वव्यतिरेकेण तस्यास्त तथा च प्रत्यक्ष प्रतिभासमानं नियतमर्थ दर्शयति अनुमानं च लिङ्गसंबद्धं नियतमर्थ दर्शयति अत एते नियतस्यार्थस्य प्रदर्शके तेन ते प्रमाणे नान्यद् विज्ञानम् । प्राप्तुं शक्यमर्थमादर्शयत् प्रापकम् प्रापकलाच प्रमाणम् आभ्यां प्रमाणाभ्यामन्येन ज्ञानेन प्रदर्शितोऽर्थः कश्चिद् अत्यन्तविपर्यस्तः यथा मरीचिकासु जलम् स च असत्त्वात् प्राप्तुमशक्यः कश्चिदनियतो भावाभावयोः यथा संशयार्थः । न च भावाभावाभ्यां युक्तोऽर्थो जगत्यस्ति ततः प्राप्तुमशक्यस्तादृशः । सर्वेण चालिङ्गजेन विकल्पेन नियाभकमदृष्ट्वा प्रवृत्तेन भावाभावयोरनियत एवार्थो दर्शयितव्यः स च प्राप्तुमशक्यः तस्माद् अशक्यप्रापणमत्यन्तविपरीतं भावाभावानियतं चार्थ दर्शयदप्रमाणमन्यद् ज्ञानम् । अर्थक्रियार्थिभिश्च अर्थक्रियासमर्थप्राप्तिनिमित्तं ज्ञानं मृग्यते । यच्च तैर्मृग्यते तदेव शास्त्रे विचार्यते ततोऽर्थक्रियासमर्थवस्तुप्रदर्शकं सम्यग्ज्ञानम् यच्च तेन प्रदर्शितं तदेव प्रापणीयम् अर्थाधिगमात्मकं हि प्रापकमित्युक्तम् । तत्र प्रदर्शिताद् अन्यद् वस्तु भिन्नाकारं भिन्नदेशं भिन्नकालं च । विरुद्धधर्मसंसर्गाद्धि अन्यद् वस्तु देश-कालाऽऽकारभेदश्च विरुद्धधर्मसंसर्गः तस्माद् अन्याकारवद्वस्तुग्राहि नाकारान्तरवति वस्तुनि प्रमाणम् यथा पीतशङ्खग्राहि शुक्ले शङ्ख, देशान्तरस्थग्राहि च न देशान्तरस्थे प्रमाणम् यथा कुञ्चिकाविवरदेशस्थायां मणिप्रभायां मणिग्राहि ज्ञानं नापवरकदेशस्थे मणौ, कालान्तरयुक्तग्राहि च न कालान्तरवति वस्तुनि प्रमाणम् यथा अर्धरात्रे मध्याह्नकालवस्तुग्राहि खप्नज्ञानं नार्धरात्रकाले वस्तुनि प्रमाणम् । ननु देशनियतमाकारनियतं च प्रापयितुं शक्यम् यत्कालं तु परिच्छिन्नं तत्कालं न शक्यं प्रापयितुम् नोच्यते यस्मिमेव काले परिच्छिद्यते तस्मिन्नेव काले प्रापयितव्यमिति अन्यो हि दर्शनकालः अन्यश्च प्राप्तिकालः किन्तु यत्कालं परिच्छिन्नं तदेव प्रापणीयम् अभेदाध्यवसायाच संतानगतमेकवं द्रष्टव्यमिति"-१-१ पृ. ३ पं० ५-पृ. ४ पं० ११ षड्द. स. बृ० वृ० पृ. ३२ पं० १५-पृ. ३३ । १ "अर्थक्रिया-" बृ० ल० टि०। २-ग्राहि ग्राह-बृ०। ३-कत्वे च आ० हा० वि०। ४ "क्षणस्य"बृ. ल. टि.। ५-थापि साका-आ. हा. वि. । ६ "वस्तुविषयमभेदाध्यवसायेन"-बृ० ल. टि.। ७ प्रवर्तते प्रवृ- वा० बा०। ८ "विकल्पस्य"-बृ० टि.। ९द्वयोरित्युक्तम् बृ. विना। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ४६९ प्रासंभवादित्युक्तत्वात् । न चान्यस्य ज्ञानान्तरस्य प्राप्तौ सन्निकृष्टत्वात् तदेव प्रापकमित्याशङ्कनीयम् यतो यद्यप्यनेकस्मात् ज्ञानक्षणात् प्रवृत्तावर्थप्राप्तिस्तथापि पर्यालोच्यमानमर्थप्रदर्शकत्वमेव ज्ञानस्य प्रापकत्वं नान्यत् तच्च प्रथमज्ञानक्षण एव संपन्न मिति नोत्तरोत्तरज्ञानक्षणानां तदुपयोगि प्राप्यमाणं च वस्तु नियतदेश-कालाऽऽकारं प्राप्यत इति तथाभूतवस्तुप्रदर्शकयोस्तयोरेव प्रामाण्यम् न ज्ञानान्तरस्य तेन प्रदर्शितप्रापकत्वलक्षणे प्रामाण्ये पीतशङ्खादिनाहिज्ञानानामपि प्रापकत्वात् प्रामाण्यप्रस-५ क्तिर्न भवति न हि तानि प्रदर्शितमर्थ प्रापयन्ति यद्देश-कालाऽऽकारं वस्तु तैः प्रदर्शितम् न तत् तथा प्राप्यते यच्च यथा प्राप्यते न तैस्तत् तथा प्रदर्शितम् देशादिभेदेन वस्तुभेदस्य निश्चितत्वान्न तेषां प्रदर्शितार्थप्रापकता । एवमपि प्रदर्शितार्थप्रापकत्वे जलादिप्रदर्शकस्य मरीच्यादिवस्त्वन्तरप्राप्तौ प्रदर्शितप्रापकत्वेन प्रामाण्यप्रसक्तिरिति न किञ्चिदप्रमाणं भवेत् । प्रमाणद्वयव्यतिरिक्तं च ज्ञानं न नियतप्रदर्शितार्थप्रापकम् । तेन हि भावाभावसाधारणोऽनियतोऽर्थः प्रदर्शितः स च तथाभूतोऽस-१० स्वान्न प्राप्तुं शक्य इति न तत् प्रदर्शितार्थप्रापकत्वेन प्रमाणम् । अनियतार्थप्रदर्शकत्वं च शाब्दादेः साक्षात् पारम्पर्येण वा प्रतिपाद्यादर्थादनुत्पत्तेः । तत् स्थितं प्रापणशक्तिखभावमविसंवादकत्वं प्रामाण्यं द्वयोरेव । प्रापणशक्तिश्च प्रमाणस्यार्थाविनाभावनिमित्ता दर्शनपृष्ठभाविना विकल्पेन निश्चीयते । तथाहि-दर्शनं यतोऽर्थादुत्पन्नं तद्दर्शकमात्मानं स्वानुरूपावसायोत्पादनात् निश्चिन्वदर्थाविनाभावित्वं प्रापणशक्तिनिमित्तं प्रामाण्यं स्वतो निश्चिनोतीत्युच्यते न पुनर्ज्ञानान्तरं तन्निश्चायकमपेक्ष-१५ तेऽर्थानुभूताविव ततोऽविसंवादकत्वमेव प्रमाणलक्षणं युक्तम् । एतदप्ययुक्तम्, यतो नार्थप्रदर्शकत्वमेव प्रापकत्वम् पुरुषेच्छाधीनप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् सति वस्तुन्यर्थप्राप्तः। एतच्च प्राक् प्रतिपादितम् । उपेक्षणीये च विषये पुरुषस्य तद्विषयार्थित्वाद्यभावे प्राप्ति-परित्यागयोरभावेऽपि तत्प्रदर्शकत्वलक्षणस्य प्रामाण्यस्य न कश्चिद् व्याघात उपलभ्यते । अथ इष्टाऽनिष्टसाधनार्थव्यतिरेकेणोपेक्षणीयस्यार्थान्तरस्याभावान्न तत्प्रदर्शक किश्चिज् ज्ञानं समस्तीति २० कथं प्रापकत्वाभावेऽपि प्रदर्शकत्वस्य संभवेन दोषांपादनं क्रियते? तथा च तृतीयविषयाभावमवगत्यैवोक्तम्-"अर्थानर्थविवेचनस्यानुमानायत्तत्वात्" [ ] तथा, “हिताहितप्राप्ति-परिहारयोः”[ ] इति च । तृतीयविषयाभावश्च सर्वस्य वस्तुनो राशियेन्तर्भावात् । १-पयोगी प्राप्य-वा० बा । "तच प्रथमत एव ज्ञानक्षणे संपन्न मिति नोत्तरोत्तरज्ञानानां तदुपयोगि तद्विशेषांशप्रदर्शकत्वेन तु तत् तेषामुपपन्नमेव" । तद् “प्रदर्शकलम्" । उपयोगि “फलवत्" । तद्-"अर्थ"-1 अंश-“भेद-"। प्रमेयक. पृ. ८ प्र. पं. ५, टि. १२-१३-१४-१५। २-यतार्थः बृ.। ३ न च त-वा. बा० । ४ पृ. ४६७ पं० १३। ५-पादानं वा० बा०। ६ दार्शनिकग्रन्थेषु तावदर्थविभागक्रम इत्थं दृश्यते यद्यपि न्यायसूत्रभाष्यकारवार्तिककाराभ्यामुपेक्षणीयार्थस्य पार्थक्येन कृतं समर्थनं न दृष्टं तथापि अवयवसूत्रे हानोपादानोपेक्षाबुद्धित्रयवर्णनेन तयोस्तदर्थस्य पार्थक्ये तात्पर्य प्रतिभाति यतो वाचस्पतिमिश्रेण उपेक्षणीयार्थस्य हेयोपादेयपार्थक्येन समर्थनं कृखा तत्तात्पर्य स्पष्टीकृतम् अप्रतीयमानमर्थ कस्माजिज्ञासते ? तं तत्त्वतो ज्ञातं हास्यामि वोपादास्य उपेक्षिष्ये वेति । ता एता हानोपादानोपेक्षाबुद्धयस्तत्त्वज्ञानस्यार्थस्तदर्थमयं जिज्ञासते” १-१-३२ वात्स्या० भा०।। "पुरुषापेक्षया तु प्रामाण्ये चन्द्रतारकादिविज्ञानस्य पुरुषानपेक्षितस्य अप्रामाण्यप्रसङ्गः । न चातिदवीयस्तया तदर्थस्य हेयतया तदपि पुरुषस्यापेक्षितम् तस्योपेक्षणीयविषयखात् । न चोपेक्षणीयमपि अनुपादेयत्वाद् हेयमिति निवेदयिष्यते" न्यायवा० ता० टी० १-१-१ पृ. २१५० १६ । तनिवेदनस्थानं च १-१-३ पृ० १०३ पं० २२-पृ० १०४ पं०३ । ____ “ननु कोऽयमुपेक्षणीयो नाम विषयः? स हि उपेक्षणीयबादेव नोपादीयते चेत् स तर्हि हेय एव अनुपादेयत्वादिति, नेतद् युक्तम् , उपेक्षणीयविषयस्य स्वसंवेद्यखेन अप्रत्याख्येयत्वात् । हेयोपादेययोरस्ति दुःख-प्रीतिनिमित्तता । यत्नेन हानोपादाने भवततत्र देहिनाम् ॥ यत्नसाध्यद्वयाभावादुभयस्यापि साधनात् । ताभ्यां विसदृशं वस्तु खसंविदितमस्ति नः ॥ उपादेये च विषये दृष्टे रागः प्रवर्तते । इतरत्र तु विद्वेषस्तत्रोभावपि दुर्लभौ ॥ यत्तु अनुपादेयत्वाद् हेय एवेति, तदप्रयोजकम् , न ह्येवं भवति, यदेतद् नपुंसकम् स पुमान् अस्त्रीत्वात् स्त्री वा नपुंसकम् अपुंस्त्वादिति, स्त्रीपुंसाभ्यामन्यदेव नपुंसकम् तथोपलभ्यमानत्वात् । एवमुपेक्षणीयोऽपि विषयो हेयोपादेयाभ्यामर्थान्तरम् तथोपलम्भादिति । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डेतथाहि-तृतीयं वस्तु नेटसाधनम् उपेक्षणीयत्वात् यच्च तत्साधनं न भवति तस्यानिष्टसाधनराशावन्तर्भावः एतच्चायुक्तम् । खसंविदितवस्त्वपह्नवस्य युक्तिशतेनापि कर्तुमशक्यत्वात् । तथाहि-यथा तद वस्तु इष्टसाधनं न भवति तथाऽनिष्टसाधनमपि न भवति इष्टानिष्टसाधनयोर्यत्नोपादेयत्वहेयत्वदर्शनात् उपेक्षणीयस्य चायनसाध्योपादानत्यागविषयत्वात् कथमिष्टानिष्टसाधनयोरन्तर्भावः? ५ तन्न प्रदर्शकत्वमेव प्रापकत्वम् । न च बौद्धाभ्युपगमेन प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं क्वचिदपि ज्ञाने संभवति । तद्धि सन्तानाश्रयेण सौगतैः परिकल्प्यते । न च सन्तानः संभवति-स हि स्वरूपेण वा वस्तुसन् भवेत् सन्तानिरूपेण वा? न तावत् स्वरूपेण सन्तानिव्यतिरेकेण तस्य वस्तुसतोऽनभ्युपगमात् अभ्युपगमे वा क्षणिकवादहानिप्रसक्तिः सामान्यानभ्युपगमश्च निर्निबन्धनो भवेत् इति न तस्य स्वरूपेण प्रवृत्त्यादिविषयता । सन्तानिरूपेणापि तस्य सत्त्वे सन्तानिन एव तथाभूता न तद्व्यतिरिक्तः १० सन्तानः प्रवृत्त्यादिविपयः सन्तानिनां चोत्पत्त्यनन्तरध्वंसित्वात् न तद्विषयस्य विज्ञानस्य प्रदर्शितार्थप्रापकत्वम् दृश्य-प्राप्ययोः क्षणयोरत्यन्तभेदात् यत्र हि देश-कालाऽऽकारभेदाभेदेन प्रतीयमानस्यापि वस्तुनो भेदोऽभ्युपगम्यते तत्र स्वरूपेण भिन्नयोः पूर्वोत्तरक्षणयोः कथमभेदः येन प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं साधननिर्भासिज्ञानस्य युक्तिसंगतं भवेत् ? अथ संवृत्या सन्तानस्य स्वरूपसिद्धेः पूर्वोक्तम दूषणम् । तथा च प्रतिपादितम्-"सांव्यवहारिकस्य च प्रमाणस्यैतल्लक्षणम्" [ ] नन्वेवं लोक१५व्यवहारानुरोधेन यदि प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं प्रमाणस्याभ्युपगम्यते तदा नित्यानित्यवस्तुप्रदर्शकस्य तद् अभ्युपगम्यताम् लोकव्यवहारस्य तत्रैवोपपत्तेः। न च तथाभूततद्राहकस्य युक्तिबाधितत्वानिर्विषयत्वम् सन्तानविषयस्यैव पूर्वोक्तन्यायेन युक्तिवाधितत्वोपपत्तेः । तन्नाध्यवसितार्थप्रापकं प्रत्यक्षं पराभ्युपगमेन संभवति । तथाहि-यदेवाध्यक्षेणोपलब्धं नदेव तेनाध्यवसितम् न च सन्तानस्तेन पूर्व यदेतत् तृण-पर्णादि चकास्ति पथि गच्छतः । न धीरछत्रादिवत् तत्र न च काकोदरादिवत्" ॥ -न्यायमज० आ० १ पृ. २४ पं० २५-पृ० २५५० १२।। "प्रमितिर्गुण-दोष-माध्यस्थ्यदर्शनम् । गुणदर्शनमुपादेयत्वज्ञानम् , दोषदर्शनं हेयखज्ञानम् , माध्यस्थ्यदर्शनं न हेयं नोपादेयमिति ज्ञानं प्रमितिः"-[प्रशस्त० के० पृ० १९९५० १८-१९] इत्येषा श्रीधरीयकन्दल्यपि उपेक्षणीयं भावं व्यक्ततया समर्थयते। "पुरुषस्यार्थः अर्थ्यत इत्यर्थः काम्यत इति यावत् । हेयोऽर्थः उपादेयो वा । हेयो ह्यर्थो हातुमिष्यते उपादेयोऽप्युपादातुम् । न च हेयोपादेयाभ्यामन्यो राशिरस्ति उपेक्षणीयो ह्यनुपादेयवाद् हेय एव"-ध० न्या० टी०१-१,पृ. ४५०२१॥ ननु च हेयोपादेयाभ्यामन्योऽप्युपेक्षणीय अस्ति(योऽस्ति) तस्य किमिति न कथनम् ? इत्याह-नच हेयेत्यादि। x x x किन्तु तस्यानुपादेयत्वाद् हेयत्वमेवेति न पृथक्कथनम् । तेन यदुक्तं कैश्चिद् हेयोपादेययोः पुरुषार्थोपयोगिलात् कथनम् उपेक्षणीयस्य तद्विपर्ययान्न कथनमिति तत् प्रत्युक्तम्"-ध० न्या० टी० टि. पृ० १३ पं०७॥ "हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत्"-१-२ । “अर्थ्यतेऽभिलष्यते प्रयोजनार्थिभिरित्यर्थों हेय उपादेयश्च । उपेक्षणीयस्यापि परित्यजनीयवाद् हेयत्वम् उपादानक्रियां प्रति अकर्मभावात् नोपादेयखम् हानक्रियां प्रति विपर्ययात् तत्त्वम् । तथा च लोको वदति-अहमनेन उपेक्षणीयलेन परित्यक्त इति"-प्रमेयक. पृ. २ प्र. पं०४॥ "अभिमताऽनभिमतवस्तुखीकारतिरस्कारक्षम हि प्रमाणम् अतो ज्ञानमेवेदम्"-१-२ । “अभिमताऽनभिमतयोरुपलक्षणवाद् अभिमताऽनभिमतोभयाभावखभाव उपेक्षणीयोऽप्यत्रार्थो लक्षयितव्यः । रागगोचरः खल्वभिमतः द्वेषविषयोऽनभिमतः रागद्वेषद्वितयानालम्बनं तृणादिरुपेक्षणीयः तस्य चोपेक्षक प्रमाणं तदुपेक्षायां समर्थमित्यर्थः"-स्याद्वादर. पृ० २१ द्वि०५०१। "अर्यते अर्थ्यते वा अर्थो हेयोपादेयोपेक्षणीयलक्षणः हेयस्य हातुम् उपादेयस्योपादातुम् उपेक्षणीयस्योपेक्षितुमर्थ्यमानत्वात् । न च अनुपादेयत्वाद् उपेक्षणीयो हेय एवान्तर्भवति अहेयवाद् उपादेय एव अन्तर्भावप्रसक्तेः । उपेक्षणीय एव च मूर्धाभिषिक्तोऽर्थों योगिभिस्तस्यैव अर्यमाणखात् अस्मदादीनामपि हेयोपादेयाभ्यां भूयानेव उपेक्षणीयोऽर्थः । तनायमुपेक्षितुं क्षमः"-प्रमाणमी० १-१-२ पृ० ५५० ११ । १ "न हेतु-फलभावादिरन्यभावादनन्वयात् । संतानान्तरवन्नैकः संतानस्तद्वतः पृथक् ॥-आप्तमी. ३ श्लो. ४३ ॥ अष्टस• पृ० १९१५० ५। २"अन्येष्वनन्यशब्दोऽयं संवृतिर्न मृषा कथम् ? । मुख्यार्थः संवृतिर्नास्ति विना मुख्यान संवृतिः"॥ -आप्तमी. ३ श्लो.४४ । अष्टस० पृ. १९२ पं० २। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ४७१ मुपलब्ध इति कथमसावध्यवसीयते? न हि क्षणमात्रभाविनां सन्तानिनां दर्शनविषयत्वे तत्पृष्ठभाविनाऽध्यवसायेन तददृष्टस्यैव विषयीकरणम् न चान्यथाभूतैवस्तुग्रहणेऽन्यथाभूताध्यवसायिनः प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं प्रामाण्यं युक्तम् तथाभ्युपगमे शुक्तिकायां रजताध्यवसायिनोऽपि तत् स्यात् । अथात्र प्रवृत्तेन रजतं न प्राप्यत इति न प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं तर्हि सन्तानेऽध्यवसिते क्षणः प्राप्यत इति प्रकृतेऽपि न प्रदर्शितार्थप्रापकत्वम् । अथात्र सन्तान एव प्राप्यते तर्हि स एव वस्तुसन् भवेदिति ५ न सामान्यधर्माः स्वरूपेणासन्तोऽभ्युपगन्तव्याः अक्षणिकस्य च वस्तुनः सिद्धेः । यदुक्तं भवद्भिः"दर्शनेन क्षणिकाक्षणिकत्वसाधारणस्यार्थस्य विषयीकरणात् कुतश्चिद्' भ्रमनिमित्तादक्षणिकत्वारोपेऽपि न दर्शनमक्षणिकत्वे प्रमाणम् किन्तु प्रत्युताप्रमाणम् विपरीतावसायाक्रान्तत्वात् क्षणिकत्वेऽपि न तत् प्रमाणं अनुरूपाध्यवसायाऽजननात् नीलरूपे तु तथाविधनिश्चयकरणात् प्रमाणम्" ] इति, तद विरुध्यते । किञ्च, एवंवादिन एकस्यैव दर्शनस्य क्षणिकत्वाक्षणिकत्व-१० योरप्रामाण्यम् नीलादौ तु प्रामाण्यं प्रसक्तमित्यनेकान्तवादाभ्युपगमो बलादापतति । न च क्षणग्रहणे तद्विपरीतसन्तानावसायोत्पत्तौ दर्शनस्य प्रामाण्यं युक्तं मरीचिकाखलक्षणग्रहणे जलाध्यवसायिन इव, यतो 'यदेव मया तत्त्वतो दृष्टं तदेव प्राप्तम्' इत्यध्यवसाये तस्य प्रामाण्यं व्यवस्थाप्यते । न च दृष्टस्य क्षणिकसन्तानिखरूपेण सन्तानस्य प्राप्तिरिति प्राक् प्रतिपादितम् स्वरूपेण तु ताऽसत्वात् प्रात्यविषयतैवेति न धर्मोत्तरमतपर्यालोचनया किञ्चित् परमार्थतः प्रदर्शितार्थप्रापकं प्रमाणं संभवति १५ अतः संवादकत्वमपि तन्मतेन प्रमाणलक्षणमयुक्तम् । [ नैयायिक-वैशेषिकसंमतस्य सामग्रीप्रामाण्यवादस्य पूर्वपक्षतयोपन्यासः ] नैयायिकास्तु "अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनिका सामग्री प्रमाणम्” [ ] इति प्रमाणसामान्यलक्षणं प्रतिपन्नाः तजनकत्वं च प्रामाण्यमिति च । अथ सामग्र्याः प्रमाणत्वे साधकतमत्वमनुपपन्नम् सामग्री ह्यनेककारकस्वभावा तत्र चानेककारकसमुदाये कस्य स्वरूपेणाति-२० शयो वक्तुं शक्येत? तथाहि-सर्वस्मात् कारणकलापात् कार्यमुपजायमानमुपलभ्यते तदन्यतमापायेऽप्यनुपजायमानं कस्य कार्योत्पादने साधकतमत्वमावेदयतु ? न च समस्तसामग्र्याः साधकतमत्वम् अपरस्यासाधकतमस्याभावे तदपेक्षया साधकतमत्वस्यानुपपत्तेः असाधकतममपेक्ष्य साधकतमत्वव्यवस्थितेः न च अनेककारकजन्यत्वेऽपि कार्यस्य "विवक्षातः कारकाणि भवन्ति" [ इति न्यायात् साधकतमत्वं विवक्षात इति वक्तव्यम् पुरुषेच्छानिवन्धनत्वेन वस्तुव्यवस्थितेरयोगात् ।२५ अथ कर्म-कर्तृविलक्षणस्याव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टोपलब्धिजनकस्य प्रमाणत्वान्न यथोक्तदोषानुषङ्गः, असदेतत्; अनेकसन्निधानात् कार्यस्य स्वरूपलामे एकस्य तदुत्पत्तौ चैलक्षण्याभावे साधकतमत्वानुपपत्तेः। तन्न कर्म-कर्तृवैलक्षण्यमपि साधकतमत्वम् । अत्र चानेकपक्षानुद्भाव्य उद्द्योतकराऽध्ययनप्रभृतिभिः साधकतमत्वं निरस्तम् ते च पक्षा ग्रन्थगौरवभयान्नेह प्रदर्श्यन्ते । सन्निपत्यजनकत्वे १-यत्वेन त-आ०। २-तस्य व-वा. बा० । ३-वृत्ते र-वा. बा०। ४ क्षणिकाक्षणि-बृ. । ५ पृ. ४७० ५० ५। ६ “सन्तानस्य"-. ल. टि.। ७ "अव्यभिचारिणीमसंदिग्धामर्थोपलब्धि विदधती बोधाबोधखभावा सामग्री प्रमाणम्"-इत्यादिना सामग्रीप्रमाणवादसमर्थनं दृश्यते न्यायमज० आ० १पृ० १२५० २२पृ० १५ पं० २२ । इदं सामग्रीप्रमाणवादिकणाद-नैयायिकमतम् तदुपपादनम् सिद्धान्तिकृतं तत्प्रतिविधानं च सर्व प्रमेयकमलमार्तण्डे वर्तते पृ० ३ द्वि०पं०१। न्यायकुमुद वन्द्रोदये तु तदेव सर्वमतिस्फुटतया विपश्चितम् लि. पृ० १४ प्र. पं० ३-पृ० १७ द्वि. पं. ४ । स्थाद्वादरत्नाकरेऽपि न्यायकुमुदचन्द्रोदयगतां सरणीमाश्रित्यैव पुनस्तदेव सविशेषतया स्पष्टीकृतं दृश्यते, तत्र च सामग्रीप्रमाणवादप्रदर्शनपरा भाजयन्तकर्तृकपल्लवगताः सप्त श्लोका अपि समुद्धृताः सन्तिपृ. ३० द्वि. पं०१। ८"विशिष्टार्थोपलब्धि-" बृ० ल.टि.। ९ शक्यते वा० बा । १० हैम बृ० वृ०७४-१२२ । ११ प्रमाणस्य प्रमातृ-प्रमेयाभ्यां साधकतमलेन वैलक्षण्यं दर्शयितुकामेन उद्द्योतकरेण साधकतमत्वार्थः सप्तधा दर्शितः । तथाहि-"कः खलु साधकतमार्थः साधकतमं प्रमाणमिति केवलं वाक्यमभिधीयते नार्थ इति । १ भावाभावयोस्तद्वत्ता न प्रमातरि प्रमेये वाऽसति प्रमा भवति सति तु भवति न पुनः सति भवत्येव प्रमाणे तु सति भवन्ती भवत्येव सोऽयमतिशयः साधकतमलमुच्यते । २ यद्वान् वा प्रमिमीते सोऽतिशयः किंवान् प्रमिमीते ? प्रमाणवान् प्रमिमीते प्रमाणे सति प्रमिमीते नासतीति । ३ सतोर्वाऽकर्तृवं यदभावात् यस्य चाभावात् प्रमातृ-प्रमेये न प्रमां कुरुतः Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ द्वितीये काण्डेपूर्वोदितदोषाभावः । तथाहि-अनेकसन्निधौ कार्यनिष्पत्तेः साधकतमत्वानुपपत्तिः तस्मिंस्तु सति यदा नियमेन कार्यमुपजायते तदा कथं न तस्य साधकतमत्वोपपत्तिः ? असदेतत्, एवं प्रमाणत्वस्याव्यवस्थितिप्रसक्तेः। तथाहि-दीपादेः प्रकाशस्य सामंत्र्येकदेशस्य कस्याञ्चिदवस्थायां प्रमाणत्वेनाभिमतस्य सद्भावेऽपि प्रमेयाभावात् कार्यानिष्पत्तौ तत्सद्भावे तु तन्निष्पत्तौ तस्यापि प्रदीपवत् सन्निपत्य५कारकत्वात् प्रमाणताप्रसक्तिर्भवेत् तथा प्रमातुरपि मूर्छाद्यवस्थायामनवधाने वाऽन्यकारकसनिधानेऽपि कार्यानुत्पत्तौ तद्वधानादिसन्निधाने तजन्यकार्यनिष्पत्तेः सन्निपत्यजनकत्वेन साधकतमत्वप्रसक्तिः। अत्रै कारकसाकल्यस्य साधकतमत्वेनाभ्युपगमात् पूर्वोक्तदोषाभावं केचिन्मन्यन्ते । तथाहिनैकस्य प्रदीपादेः सामग्र्यैकदेशस्य करणता अपि तु कारकसाकल्यस्य तद्भावे कारकसाकल्याभावे१० नाभिमतकार्यासत्त्वमिति प्रमातृ-प्रमेयसद्भावे कारकसाकल्यस्योत्पत्तौ प्रमितिलक्षणस्य कार्यस्य भाव एव । अथ मुख्यप्रमातृ-प्रमेयसद्भावेऽपि पूर्वोदितस्य नियमस्य तुल्यता, न कारकसाकल्यभावाभावनिमित्तत्वात् तन्मुख्यगौणभावस्य । तथाहि-कथंचित् कारकवैकल्ये तयोः सत्त्वेऽपि गौणता तत्साकल्ये कुतश्चिद् निमित्तान्तरात् यथोक्तप्रमितिलक्षणकार्यनिष्पत्तावगौणता प्रमातृ-प्रमेययोः तयोश्चा नुपपत्ती साकल्यस्यासत्त्वम् अतः कारकसाकल्ये कार्यस्यावश्यंभाव इति तस्यैव साधकतमत्वम् । १५ अनेककारकसन्निधाने उपजायमानोऽतिशयः सन्निपत्यजननं साधकतमत्वं यद्युच्येत तदा न कश्चिद् दोषः। तथाहि-सामग्र्यैकदेशकारकसद्भावेऽपिप्रमितिकार्यस्यानुत्पत्तेरेकदेशस्यन प्रमाणता सामग्रीसद्भावे त्ववश्यन्तया विशिष्टप्रसितिस्वरूपोत्पत्तेः एकदेशापेक्षया तस्या एव सन्निपत्यजनकत्वेन साधकतमता ।न चात्र किमपेक्षया तस्याः साधकतमत्वं अन्यस्मिन्नसाधकतमे साधके साधकतरे वा सति तदपेक्षया तस्याः साधकतमत्वमुपपन्नमिति प्रेरणीयम् यतो न सामग्र्यन्तर्गतानामेकदेशानां २०जनकत्वव्याघातः तेषामेव धर्ममात्रत्वात् सामग्र्यस्येति जनकैकदेशापेक्षया तत्सामग्र्यस्य साधकतमत्वात् प्रमाणत्वमुपपन्नमेव । एतेन यत् परैः प्रेरितम्-"किल सामग्री करणं तच्च कर्तृकर्मापेक्षम् सामग्रीजनकत्वेनं तयोर्व्यापृतेरर्थान्तरभूतयोरभावात् किमपेक्ष्य साधकतमत्वमासादयेत्” [ ] इति, तदपि निरस्तम्; यतः कर्तृ-कर्मणोः सामग्रीजनकत्वेन स्थितयोः कथमसत्त्वम् ? तत्सद्भावे च तदपेक्षा कथं न तस्याः करणता ? अथापि स्यात् तस्यास्तजन्यत्वे करणत्वव्याघातः अन्यतः सिद्धस्य २५करणत्वसद्भावात्, असदेतत्; यतो दृश्यत एव प्रदीपादेस्तजन्यस्यापि करणत्वसद्भाव इति न कश्चिद् व्याघातस्तजन्यत्व-करणत्वयोः । ततोऽव्यभिचारादिविशेषणार्थोपलब्धिजनिका सामग्री बोधाबोधस्वभावा तदेकदेशभूतकारकजन्या प्रमाणम् । वैशेषिका अप्येतदेव प्रमाणसामान्यलक्षणं प्रतिपादयन्ति । एतत्कार्यभूता वा यथोक्तविशेषणविशिष्टोपलब्धिः प्रमाणस्य सामान्यलक्षणम् तैया स्वकारणस्य प्रमाणाभासेभ्यो व्यवच्छिद्यमानत्वात् इन्द्रियजत्वादिविशेषणविशेषिता सैवोपलब्धिः ३०प्रमाणस्य विशेषलक्षणमिति स्थितं सामग्नी प्रमाणमिति । सोऽतिशयः । ४ संयोगवञ्चरमभाविता वा यथा वा संयोगः पश्चाद्भावी द्रव्यशक्तिर्भवति तथा प्रमाणं चरमभावि प्रमातृ-प्रमेययोः प्रमाशक्तिर्भवति पश्चाद्भावोऽतिशयः । ५ प्रतिपत्तेरानन्तर्य वा यद्वा प्रमाणानन्तरं प्रतिपत्तेर्जन्म स चायमतिशय इति । ६ असाधारणकारणता वा प्रमाता साधारणं कारणं सर्वप्रतिपत्तीनाम् प्रमेयमपि अशेषपुरुषसाधारणलात् तथाभूतम् प्रमाण खसाधारणकारणलात् प्रधानम् प्राधान्याच साधकतमलेनाभिधीयत इति । ७ प्रमाकारणसंयोगविशेषकलं वा यो वा प्रमाकारणं संयोगस्तस्य प्रमाणमनुग्रहे वर्तमानमतिशयशब्दवाच्यम्"-न्यायवा० १-१-१ पृ. ६ पं० २३-पृ० ७ पं० १३ । साधकतमत्वगोचरा एते सप्ताऽपि पक्षा अधिक विशदीकृता वाचस्पति मिश्रेण-न्यायवा० ता० टी० पृ. २४ पं० १५पृ. २६ पं० १२। १-मत्र्यैक-बृ० । २ "प्रमेयस्य"-वृ. ल. टि०। ३-धाने का-आ० हा० वि०। ४ “परः प्रतिविधत्ते"-बृ. ल. टि०। ५-भावे नाभि-हा० वि०। ६ "प्रमातृ-प्रगेययोः"-बृ. ल.टि.। -धुच्यते आ० हा० वि०। ८-पत्तिमदिति बु. ल. वा. बा०। ९-मग्रीकार-आ०। १०-न च त-वृ० ल. भां० मां. हा०। ११ “कर्तृ"-बृ० ल. टि.। १२ “सामग्री"-ल. टि.। १३-स्य विशेषल-आ० हा० वि० । १४ तयोरेककारण-आ०। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ४७३ [सामग्रीप्रमाणवादं प्रतिविधाय स्वार्थनिर्णीतिस्वभावज्ञानस्य प्रमाणसामान्यलक्षणतयोपसंहारः] अत्र प्रतिविधीयते यत् तावदुक्तम्-'कारकसाकल्यस्य करणत्वेनाभ्युपगमे पूर्वोक्तदोषाभावः' इति, अत्र वक्तव्यम्-किमिदं कारकसाकल्यम् ? किं सकलान्येव कारकाणि, आहोस्वित् तद्धर्मः, उत तत्कार्यम्, किंवा पदार्थान्तरमिति प्रक्षाः । तत्र न तावत् सकलान्येव कारकाणि साकल्यम् कर्तृकर्माभावे तेषां करणत्वानुपपत्तेः तत्सद्भावे वा नान्येषां कर्तृकर्मरूपता सकलकारकव्यतिरेकेणा-५ ज्येषामभावात् भावे वा न कारकसाकल्यम् । अथ तेषामेव कर्तृ-कर्मरूपता, न तेषां करणत्वाभ्युपगमात् न च कर्तृ-कर्मरूपाणामपि तेषां करणत्वम् तेषां परस्परविरोधात् । तथाहि-ज्ञानचिकीर्षाधारता स्वातन्यं वा कर्तृता, निर्वादिधर्मयोगिता कर्मत्वम् , प्रधानक्रियानाधारत्वं करणत्वम् एतानि परस्परविरुद्धानि कथमेकत्र संभवन्ति ? अथापरापरनिमित्तभेदादेकत्र कर्तृ-कर्म-करणरूपताया अविरोधः; ननु तान्यपि निमित्तानि किं सकलकारकेभ्यो व्यतिरिक्तानि, उताव्यतिरिक्तानीति वाच्यम् । यद्यव्यति-१० रिक्तानीति पक्षस्तदा तदभेदे तेषामप्यभेदः तेषां वा भेदे कारकस्यापि भेदः अन्यथाऽव्यतिरेकासिद्धेः। अथ व्यतिरिक्तानि तदा सम्बन्धासिद्धिः-नच समवायलक्षणः सम्बन्धः तस्य निषिद्धत्वात् निषेत्स्यमानत्वाच्च, न च एकान्तभेदे विशेषणविशेष्यभावादिकोऽपि सम्बन्धः कश्चित् संभवति तत्रापि सम्बन्धान्तरकल्पनातोऽनवस्थाप्रसक्तेः, न च तस्य सम्बन्धरूपत्वात् सम्बन्धान्तरमन्तरेणापि सँम्बद्धत्वान्नानवस्था एकान्तभेदे सम्बन्धरूपताया एवायोगात् । कथञ्चिन्निमित्तानां कारकेभ्योऽ-१५ मेदे अनेकान्तवादापत्तिःतन्न सकलकारणानि साकल्यम् । अथ कारणधर्मः साकल्यम् । ननु सोऽपि यदि कारकाव्यतिरिक्तस्तदा धर्ममात्रम् कारकमात्रं वा । अथ व्यतिरिक्तस्तदा 'सकलकारकधर्मः साकल्यम्' इति सम्बन्धासिद्धिः सम्बन्धेऽपि यदि सर्वकारणेषु युगपदसौ संम्बध्यते तदा बहुत्वसङ्ख्या तत् पृथक्त्व-संयोग-विभाग-सामान्यानामन्यतमस्वरूपापत्तिस्तस्येति तद्दूषणेन तस्य दूषितत्वात् न साधकतमत्वमुपपत्तिमत् । २० अथ तत्कार्य साकल्यम्, तदप्ययुक्तम् ; नित्यानां साकल्यजननस्वभावत्वे सर्वदा तदुत्पत्तिप्रसक्तेः ततश्चैकप्रमाणोत्पत्तिसमये सकलतदुत्पाद्यप्रमाणोत्पत्तिप्रसक्तिः तजनकस्वभावस्य कारणेषु पूर्वोत्तरकालभाविनस्तदैव भावात् । तथाहि-यदा यजनकमस्ति तत् तदोत्पत्तिमत् यथा तत्कालाभिमतं प्रमाणम् अस्ति च पूर्वोत्तरकालभाविनां सर्वप्रमाणानां तदा नित्याभिमतं जनकमात्मादिकं कारणमिति कथं न तदैव सकलतदुत्पाद्यप्रमाणोत्पत्तिप्रसक्तिः? अथ आत्मादिके सत्यपि तदा तानि न २५ भवन्ति न तर्हि तत् तत्कारणम् नापि तानि तत्कार्याणीति सकृदपि तानि ततो न भवेयुरिति सकलं जगत् प्रमाणविकलमापद्येत । न च आत्मादिके तत्करणसमर्थे सत्यपि स्वयमेव यथाकालं तानि भवन्ति इति वक्तव्यम् तेषां तत्कार्यताऽभावप्रसक्तेः तस्मिन् सत्यपि तदाऽभावात् स्वयमेवान्यदा च भावात् । नच स्वकालेऽपि कारणे सत्येव भवन्तीति तत्कार्यता गगनादिकार्यताप्रसक्तेः-गगनादावपि सत्येव तेषां भावात् । न च गगनादेरपि तत् प्रति कारणत्वस्येष्ट यं दोषः, प्रमितिलक्षणस्य तत्फल-३० स्थापि व्योमादिजन्यतया आत्माऽनात्मविभागाभावप्रसक्तेः । अथ यत्र प्रमितिः समवेता स एव आत्मा न व्योमादिरिति न तद्विभागाभावः ननु 'समवेता' इति कोऽर्थः? समवायेन संबद्धेति चेत्, ननु तस्य नित्यसर्वगतैकत्वेन व्योमादावपि प्रमितेः सम्बन्धान तत्परिहारेणात्मनो विभागः । न च समवायाविशेषेऽपि समवायिनोर्विशेषान्नायं दोषः, समवायस्याभावप्रसक्तेः । अथ यदा यत्र यथा १पृ. ४७२ ५० ८।२ अत्र बृहत्ताडपत्रादर्श 'किमिदं कारकसाकल्यम्' इति प्रश्नं विषयीकुर्वाणानां पक्षाणां संख्यास्पष्टीकरणाय तत्तत्पक्षदर्शकवाक्यस्योपरि १-२-३-४ इत्येवमङ्का अपि लिखिताः । अन्यत्रापि एतादृशे स्थले तत्रैवाद” क्वचित् क्वचित् अङ्काः प्रदर्शिताः सन्ति । ३-षामेककर्तु-ल. विना । "तद्भावे वान्येषां कर्तृकर्मरूपता लेषामेव वा ता-(न ता-)वदन्येषां सकलकारकव्यतिरेकेणान्येषामभावात् भावे वा न कारकसाकल्यम् नापि तेषामेव कर्तृकर्मरूपता करणवाभ्युपगमात्"-प्रमेयक० पृ. ३ द्वि. पं० २। ४-गित्वात् क-वा० बा० । “निर्वय॑त्वादिधर्मयोगिलं कर्मखम्"-प्रमेयक. पृ. ३ द्वि०५०४।५पृ० १०६ पं०१०। ६ संबंधमंतरेणापि बृ०। ७संबंधत्वा-ल. वा. बा। संबंधाना-आ. हा०वि०। ८-त्रं वा का-आ० । “धर्ममात्रं कारकमात्रं वा स्यात्"-प्रमेयक० पृ. ३ द्वि०५०६। सम्बन्ध्यते आ. हा०वि०। १० तत्र पृ-आ. हा०वि०। ६१ स.त. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ द्वितीये काण्डे - यद् भवति तदा तत्र तथा तदात्मादिकं कर्तुं समर्थमिति नैकदा सकलतदुत्पाद्यप्रमाणोत्पत्तिप्रसक्तिः, नं; स्वभावभूतसामर्थ्य भेदमन्तरेण कार्यस्य कालादिभेदायोगात् अन्यथा दृश्यपृथिव्यादिमहाभूतकार्यनानात्वस्य कारणं किमदृद्धं पृथिवीपरमाण्वादिचेतुर्विधमभ्युपेयते ? एकमेवानंशं नित्यं सर्वगं सर्वोत्पत्तिमतां समवायिकारणमभ्युपगम्यताम् । अथ कारणजाति मेदमन्तरेण न कार्यमेद् उपपद्यते ५ तर्हि कारणशक्तिभेदमन्तरेणापि न कार्यभेद उपपद्यते इत्यभ्युपगन्तव्यम् । अथ यया शक्त्यैकमनेकाः शक्तीर्विभर्ति - तत्राप्यनेकशक्तिपरिकल्पने ऽनवस्थाप्रसक्तेः - तयैव तद् अनेकं कार्य विधास्यतीति न शक्तिभेदपरिकल्पना, असदेतत्; यतो न जैनस्यायमभ्युपगमः यदुत भिन्नाः शक्तीः कयाचित् प्रत्यासत्तिलक्षणया शक्त्या एकः कश्चिद्धारयतीति किन्तु तत् तदात्मकम् तदपि तथाविधं न कस्याश्चित् शक्तेः अपि तु स्वकारणवशात् । न चैकस्यानेकात्मकत्वमदृष्टमेव परिकल्प्यते अनेकरूपाद्यात्मक१० स्यैकस्य पटादेः प्रमाणतः प्रतिपत्तेः अन्यथा गुणगुणिभाव एव न भवेत् समवायस्य तन्निमित्तस्याभावात् । ततो नित्यानि चेत् सकलकारणानि साकल्यजननस्वभावानि, सकलकालभाविसाकल्यस्य तदैवोत्पत्तिप्रसक्तिः । न चेत् तज्जननस्वभावानि नैकदापि तदुत्पत्तिः अतज्जननस्वभावात् सकृदपि तस्यानुत्पत्तेः। न च सहकारिसव्यपेक्षाणि तानि तज्जनयन्ति नित्यस्यानुपकार्यतया सहकार्यपेक्षा - योगात् । न च संभूयैकार्थकारित्वं तेषां सहकारित्वम् एकान्तनित्यवादे तस्यापि निषिद्धत्वात् । १५ तन्न सकलकारणकार्यमपि साकल्यं संभवति । किञ्च, किमसकलानि कारणानि साकल्यं जनयन्ति उत सकलानि ? न तावदसकलानि अतिप्रसङ्गात् । नापि सकलानि साकल्यमन्तरेण 'सकलानि' इति व्यपदेशाभावात् भावे वा अकिञ्चित्करं साकल्यमिति तत्परिकल्पना व्यर्था । किञ्च, यया प्रत्यासत्त्या तानि साकल्यं जनयन्ति तयैव प्रमितिमप्युत्पादयिष्यन्तीति व्यर्था साकल्यपरिकल्पना । अथ साकल्यस्य साधकतमत्वात् तदभावे नाकरणिका प्रमित्युत्पत्तिस्तर्हि साकल्योत्पत्तावपि २० तेषामपरं साकल्यलक्षणं करणमभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा अकरणिका साकल्यस्यापि कथमुत्पत्तिः ? अथ तदुत्पत्तावपि करणमभ्युपगम्यते तर्हि तदुत्पत्तावप्यपरं करणमभ्युपगन्तव्यमित्यनवस्था । अँथ करणोत्पत्तौ नापरं करणमभ्युपगम्यत इति नानवस्था तर्हि उपलब्ध्युत्पत्तावपि न करणमभ्युपगन्तव्यमिति न साकल्यप्रमाणपरिकल्पना युक्तिसङ्गता । न च साकल्यस्य अध्यक्षादिप्रमाण सिद्धत्वाद् अध्यक्षबाधितोऽयं विकल्पकलापः, आत्माऽन्तःकरण- तत्संयोगादेः कारणसाकल्यस्यातीन्द्रियत्वेना२५ ध्यक्षाविषयत्वात् तत्पूर्वकत्वेन पूर्ववदादेरनुमानस्याप्यभ्युपगमान्न ततोऽपि साकल्यसिद्धिः केवलं विशिष्टार्थोपलब्धिलक्षणमध्यक्ष सिद्धं कार्य करणमन्तरेण नोपपद्यत इति तत्परिकल्पना, तच्च साकल्यमिति न कल्पयितुं शक्यम् आत्मादिकरणसद्भावे कार्यस्योपपत्तावपरपरिकल्पने ऽदृष्टपरिकल्पनाप्रसक्तितोऽपरापरादृष्टपरिकल्पनयाऽनवस्थाप्रसक्तेः । तन्न सकलकारणकार्यमपि साकल्यम् । अथ पदार्थान्तरं सकलकारणेभ्यः साकल्यम् तदा यत् किञ्चित् पदार्थान्तरं तत् साकल्यं प्रसज्यत ३० इति यस्य कस्यचित् पदार्थान्तरस्य सद्भावे अर्थोपलब्धिर्भवेदिति सर्वदा सर्वस्य सर्वज्ञताप्रसक्तिः । तन्न कारकसाकल्यं प्रमाणम् । तेन 'प्रमातृ - प्रमेययोरभावे साकल्याभावः' इत्यादि प्रतिक्षिप्तम् तत्सद्भावेऽपि भवदभिप्रायेण साकल्यानुपपत्तेः । यदपि 'मुख्यगौणभावस्य कारकसाकल्यभावाभावनिमित्तत्वात्' इत्यादि, तदपि व्योमकुसुमायतंसकभावाभावकृतदेवदत्तसौभाग्यासौभाग्यप्रख्यं द्रष्टव्यम्; एतेन 'सन्निपत्यजननं साधकतमत्वम्' ३५ यद् व्याख्यातम् तदपि निरस्तम् तस्यापि साकल्यार्थत्वात् । यदपि 'साकल्यं हि तेषामेव धर्ममात्रम् नैकान्तेन वस्त्वन्तरम्' इति, तदपि अनेकान्तवादिमतानुप्रवेशं भवतः सूचयति अन्यथा साकल्यस्य सकलेभ्योऽभेदे धर्मिमात्रमिति ने साकल्यम् धर्ममात्रं वा भवेदिति न धर्मिणः । एकान्तभेदे तु बस्त्वन्तरमेव तत् इति ‘न वस्त्वन्तरम्' इत्यभिधेयशून्यं वचः वस्त्वन्तरपक्षे तु दोषाः प्रतिपादित एव । यदपि 'प्रमातृप्रमेयजन्यत्वेऽपि सामग्र्या न करणत्वव्याहतिः' इति, तदपि न सङ्गतम् ; सामग्र्या १ न च स्व-ल० कारणम - बृ० विना । ६ पृ० ४७२ पं० १२ । १० प्र० पृ० पं० २९ । आ० हा० वि० । २ " पार्थिव-आप्य - तैजस- वायवरूपम् " - बृ० ल० टि० । ३-कार्य४ अथ च क -आ० हा ० वि० । ५ " अनुमानात् " - बृ० टि० । “अनुमानतः " -ल० टि० । ७ पृ० ४७२ पं० १५ । ८ पृ० ४७२ पं० २० । ९ न च सा-आ० हा० वि । ११ पृ० ४७२ पं० २६ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। स्तजन्यत्वेऽनवस्थाद्यनेकदोषापत्तेः प्रतिपादनात् । यदपि 'अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धि. जनिका सामग्री प्रमाणम्' इत्युक्तम् तदप्यसङ्गतम् अव्यभिचारादेरुपलब्धिविशेषणस्य भवदभिप्राये णायोगात् यथा च तस्याऽयोगस्तथा प्रत्यक्षलक्षणे प्रदर्शयिष्यामः । सामग्री च तजनिका यथा न संभवति तथाभिहितमेव साकल्यं विचारयद्भिः। यच्च 'अबोधस्वभावस्याधि प्रदीपादेः प्रमाणत्वं प्रतिपाद्यते, तदप्यसङ्गतमेव; अबोधस्वभावस्य तस्य प्रमितिक्रियायां साधकतमत्वायोगात् । यच्च लोक-५ स्तेषां प्रामाण्यम् 'दीपेन मया दृष्टम् 'चक्षुषाऽवगतम् 'धूमेन प्रतिपन्नम्' इसि व्यवहरति तदुपचारतः यथा 'ममायं पुरुषः चक्षुः' इति न तु मुख्यतः मुख्यतस्तु बोधस्यैव प्रमिति प्रति तादात्म्यादव्यवहितं साधकतमत्वम् चक्षुरादेस्तु बोधव्यवधानाद् गौणम् । न च व्यपदेशमात्रात् पारमार्थिकवस्तुव्यवस्था उपचारतोऽपि 'नड्वलोदकं पादरोगः' इत्यादिव्यपदेशप्रवृत्तेः । न च प्रमाणस्य प्रेमितिरूपता विरुद्धा स्वरूपे विरोधासिद्धेः। न च प्रमाण-प्रमित्योरेकान्ततो भेद एवाभ्युपगम्यते, कथञ्चिद् बोधादर्थपरि-१० च्छित्तिविशेषस्य भेदात् प्राक्तनपर्यायनिरोधेन कथञ्चिदवस्थितस्यैव बोधस्यार्थपरिच्छित्तिविशेषरूपतयोत्पत्तेः अन्यथा कार्यकारणभावविरोधात् इत्यसकृत् प्रतिपादितत्वात् । एतेन 'लिखितं साक्षिणो भुक्तिः प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम् ।' इति यत् शास्त्रान्तरेषु बोधाबोधरूपस्य प्रमाणत्वाभिधानम् तदप्युपचारेण व्याख्येयमित्युक्तं भवति अन्यथा प्रमाणविरोधःप्रदर्शितन्यायेन । यदपि 'तत्कार्यभूता वा उदितविशेषणोपलब्धिस्तस्य १५ सामान्यलक्षणम्' इत्युक्तम् तदप्यसङ्गतम् न हि यथोक्तविशेषणोपलब्धिः पराभ्युपदामेन संभवति । नापि पराभ्युपगतप्रमाणकार्यतयासौ सिद्धा येन स्वकारणं प्रमाणाभासेभ्यो व्यवच्छिन्द्यात् । तन्नाक्षपाद-कणभुग्मतानुसारिपरिकल्पितमपि प्रमाणसामान्यलक्षणमुपपत्तिक्षमम् । तस्मात् प्रमाणं स्वार्थनिर्णीतिखभावं ज्ञानमित्येतदेव प्रमाणसामान्यलक्षणमनवद्यम् । [ नैयायिकादिसंमतं परसंविदितत्वपक्षमपास्य सिद्धान्तिना लक्षणैकदेशभूतस्य स्वनिर्णीति- २० स्वभावत्वस्य व्यवस्थापनम् ] ननु चात्रापि स्वग्रहणविधुरस्य ज्ञानस्य नैयायिकादिभिरभ्युपगमाद् बौद्धैस्त्वर्थग्रहणविधुरस्येति स्वार्थनिर्णीतिखभावताऽसिद्धा । तथाहि-नैयायिकाः प्रतिपादयन्ति-घटादिज्ञानं स्वग्राह्यं न भवति शानान्तरग्राह्यं वा, ज्ञेयत्वाद् घटादिवत् । अत्र प्रयोगे हेतुः स्वरूपासिद्धः आश्रयासिद्धश्च धर्मिणो ज्ञानस्याप्रतिपत्तौ तदाश्रितशेयत्वधर्मा-२५ प्रतिपत्तेः। न चाश्रयासिद्धस्य परैर्गमकत्वमभ्युपगम्यते अन्यथा सामान्यादिनिषेधे 'सामान्यस्यासिद्धौ परं प्रत्याश्रयासिद्धो हेतुः' इति दोषोद्भावनमयुक्तियुक्तं भवेत् । अथ घटादिज्ञानस्य प्रमाणतः प्रसिद्धेर्नायं दोषः; ननु तत्प्रसिद्धिरध्यक्षतः, अनुमानतो वा प्रमाणान्तरस्यात्रानधिकारात् ? न तावद्ध्यक्षतः तस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वाभ्युपगमात् न च ज्ञानस्य चक्षुरादीन्द्रियेण सन्निकर्षः न च तद्व्यतिरिक्तमिन्द्रियान्तरमस्ति । अथ मनोलक्षणमन्तःकरणमस्ति तस्य च ज्ञानेन संयुक्तसमवायः सन्निकर्ष इति ३० तत्प्रभवमध्यक्षं तत्र प्रवर्तत इति । तथाहि-आत्मना मनः संयुक्तम् आत्मनि च समवेतं ज्ञानमिति १पृ० ४७१ पं० १८। २-मग्री त-बृ० । ३ पृ. ४७३ पं० ३ । ४ न्यायस्यास्योपयोगो महाभाष्ये इत्थं विहितः___"अन्तरेणापि निमित्तशब्दं निमित्तार्थो गम्यते । तद्यथा-"दधित्रपुसं प्रत्यक्षो ज्वरः" ज्वरनिमित्तमिति गम्यते । "नडलोदकं पादरोगः" पादरोगनिमित्तमिति गम्यते । “आयुर्घतम्" आयुषो निमित्तमिति गम्यते"-१-१-५८ पृ० ४५८ । लौकिकन्याया. भा. ३ पृ. ६६ तथा ६१। ५पृ. ४५९ पं० ३।६ पृ. ४७२ पं० २८। ७ ज्ञानस्य परसंविदितत्वनिराकरण-खसंविदितवस्थापनपरेयं चर्चा प्रमेयकमलमार्तण्डे भाष्यायमाणा बहुधा शब्दसाम्यं बिभ्रती च क्रमोत्क्रमाभ्यां वर्तते-पृ. ३३ द्वि. पं. ६-पृ० ३८ । प्र.पं०५। ८ प्रस्तुतप्रक्रियाप्रतिपादक षड्दर्शनसमुच्चयबृहट्टीकायां "यदुक्तम्" निर्दिश्य समुद्धृतं प्राच्यं पद्यमित्थम् "आत्मा सहति मनसा मन इन्द्रियेण खार्थेन चेन्द्रियमिति क्रम एष शीघ्रः । योगोऽयमेव मनसः किमगम्यमस्ति यस्मिन् मनो ब्रजति तत्र गतोऽयमात्मा" | पृ०५८ पं०१। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डेमनोज्ञानेन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नतदेकार्थसमवेताध्यक्षग्राह्यत्वाद् घटादिशानस्य कथमाश्रयासिद्धत्वादिहेतोर्दोषः १ युक्तमेतत् यदि इन्द्रियं मनः सिद्धं भवेत् । अथानुमानात् तसिद्धिः। तथाहि-घटादिक्षानज्ञानमिन्द्रियार्थसन्निकर्षजम् प्रत्यक्षत्वे सति ज्ञानत्वात् चक्षुरादिप्रभवरूपादिशानवत्, न; अस्य हेतो. रप्रसिद्धविशेषणत्वात् न हि घटादिज्ञानज्ञानस्याध्यक्षत्वं सिद्धम् इतरेतराश्रयत्वात् । तथाहि-मनइ५न्द्रियसिद्धावस्याध्यक्षत्वसिद्धिः तत्सिद्धौ च सविशेषणहेतुसिद्धर्मनइन्द्रियसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । न च घेटादिज्ञानाद् भिन्नमपरं ज्ञानं तद्भाहकमनुभूयत इति विशेष्यासिद्धश्च हेतुः।। __ सुखादिसंवेदनेन व्यभिचारी च । तथाहि-तत्संवेदनमध्यक्षत्वे सति शानं न च तेजन्यमिति व्यभिचारः । अथास्यापि पक्षीकरणाददोषः। तथाहि-सुखादिसंवेदनमिन्द्रियार्थसन्निकर्षजम् अध्यक्ष शानत्वात् चक्षुरादिप्रभवरूपादिवेदनवत् सुखादिर्वा भिन्नज्ञानवेद्यः शेयत्वात् घटवत् । नन्वेवं १० व्यभिचारविषयस्य पक्षीकरणे न कश्चिद्धतुर्व्यभिचारी स्यात् । तथाहि-अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् घटवत् इत्यत्राप्यात्मादेर्व्यभिचारविषयस्य पक्षीकरणान्न व्यभिचारः शक्यं ह्यत्रापि वक्तुम् अनित्य आत्मादिः प्रमेयत्वात् घटवत् । न चात्र प्रत्यक्षबाधः अन्यत्रापि तस्य समानत्वात् न हि सुखाद्यविदितस्वरूपं पूर्व घटादिवदुत्पन्नं पुनरिन्द्रियसम्बन्धोपजातज्ञानान्तराद् वेद्यत इति लोकप्रतीतिः अपि तु प्रथममेव स्वप्रकाशरूपं तदुदयमासादयदुपलभ्यते । आत्मनि क्रियाविरोध इति चेत्, न स्वरूपेण १५पदार्थस्य विरोधाभावात् अन्यथा प्रदीपादेरप्यपरप्रकाशविकलस्वरूपप्रकाशविरोधः स्यात् । तस्य तत्स्वरूपं कुतः सिद्धमिति चेत् प्रदीपादौ कुतः? तथादर्शनमितरत्रापि समानम् । न चैकस्य स्वभावोऽपरत्राप्यभ्युपगमार्हः अन्यथा स्वपराप्रकाशस्वभावो घटगतःप्रदीपेऽप्यभ्युपगमनीयो भवेत्। मच तदवगमात् पूर्वमप्रतीयमानमपि सुखाद्यभ्युपगन्तुं युक्तम् श्रवणसमयात् प्राक् पश्चाश्च शब्दस्य सत्ताभ्युपगमप्रसङ्गतो नित्यत्वापत्तेः । न चात्मनो ज्ञानाच्च अर्थान्तरभूता एव सुखादयोऽनुग्रहादि२०विधायिनो भवेयुः इतरथा योगिनोऽपि ते तथा स्युः । न च तेषां तत्राऽसमवायानायं दोपः समवायस्य निषिद्धत्वात् । तन्न सुखादिग्रहणे मनइन्द्रियसिद्धिः । अत एव च 'आत्मा मनसा युज्यते तत्र च समवेताः सुखादयः' इत्यादिप्रक्रियाऽनुपपनैव । न च निरंशयोरात्म-मनसोः संयोगः संभवी एकदेशेन तत्संयोगे सांशत्वप्रसक्तेः सर्वात्मना संयोगे उभयोरेकरवप्राप्तः। यदि च यत्र मनः संयुक्तं तत्र समवेतं ज्ञानं समुत्पादयति तदा सर्वात्मनां व्यापितया समानदेशत्वेन मनसस्तैः संयुक्त२५त्वात् सर्वात्मसमवेतसुखादिषु तदेवैकं ज्ञानमुत्पादयतीति प्रतिप्राणि भिन्नमनःपरिकल्पनमनर्थक मासज्येत । न च यस्य सम्बन्धि यन्मनस्तत्समवेतसुखादिक्षाने तदेव हेतुरिति नायं दोषः प्रतिनियतात्मसम्बन्धित्वस्यैव तत्रासिद्धेः न हि तत्कार्यत्वेन तत्सम्बन्धिता, तस्य नित्यत्वाभ्युपगमात् तत्र चानाधेयाप्रहेयातिशये तत्कार्यताऽयोगात् । नापि तत्संयोगात् तस्यापि तत्रैकदेशेन सर्वात्मना वाऽयोगात् योगेऽपि व्यापकत्वेन समानदेशिसर्वात्मभिर्युगपत्संयोगात् प्रतिनियतात्मसम्बन्धित्वा३० नुपपत्तेः । न च यदृष्टप्रेरितं तत् प्रवर्तते तत्सम्बन्धीति वक्तव्यम् अदृष्टस्याचेतनत्वेन प्रतिनियतविषय(षये) तत्प्रेरकत्वायोगात् प्रेरकत्वे वा ईश्वरपरिकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तेः। न चेश्वरप्रेरित एवासौ तत्प्रेरक इति न तत्परिकल्पनावैयर्थ्यम् अदृष्टप्रेरणामन्तरेणेश्वरस्य साक्षान्मनःप्रेरकत्वोपपत्तेरदृष्टपरिकल्पनावैफल्यापत्तेः। न चेश्वरस्य सर्वसाधारणत्वाददृष्टविकलस्य मनःप्रेरकत्वे न ततस्तस्य प्रतिनियतात्मसम्बन्धितेति अदृष्टपरिकल्पना, तस्याचेतनत्वेनेश्वरसहितस्यापि प्रतिनियतमनःप्रवृत्ति३५ हेतुत्वायोगात् अचेतनस्यापि चेतनसहितस्य प्रवर्तने मनसोऽचेतनस्यादृष्टविकलस्य चेतनसहितस्य १-तोर्दोषोऽयु-बृ० । २ घटशा-ल. विना । ३ "इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यम्"-६० ल. टि. । ४ सुखसं-बृ० । ५ पृ० ४७५ पं० ३१ । ६ तदैवै-वा० बा०। ७-षयेमेतत प्रे-हा० ।-षयमेतत् प्रे-भां० मां० आ० वि० । “नापि यददृष्टप्रेरितं प्रवर्तते निवर्तते वा तत् तस्येति वाच्यम् अचेतनस्यादृष्टस्य अनिष्टदेशादिपरिहारेण इष्टदेशादौ तत्प्रेरणासंभवात् अन्यथेश्वरकल्पनावैफल्यम्"-प्रमेयक. पृ. ३६ द्वि. पं० ११। ८-रितयेवासौ बृ० वा. बा० ।-रितायेवासौ आ० ।-रितायवासौ ल. हा०वि०-रित एवासौ ल० सं०।९ आत्मा"ल. टि. । “न चेश्वरस्यादृष्टप्रेरणे व्यापारात् साफल्यं मनस एवासौ प्रेरकः कल्प्यतां किं परंपरया"-प्रमेयक. पृ० ३७ प्र. पं० १। १०-वैयापत्तेः ल.। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। प्रवृत्तिर्भविष्यतीत्यदृष्टपरिकल्पनावैयर्थ्य पुनःप्रसज्यते।नच प्रतिनियमनिमित्तमदृष्टंकल्पना, तैस्यापि खत प्रतिनियतत्वासिद्धेः । येनात्मना यद् अदृष्टं निर्वर्तितं तत् तस्येति प्रतिनियमसिद्धिरिति चेत्, ननु किमिदमात्मनोऽदृष्टनिर्वर्तकत्वम् ? तदाधारभाव इति चेत्, ननु समवायस्यैकत्वे आरमनां च व्यापकत्वेनैकदेशत्वे 'प्रतिनियत एवात्मा प्रतिनियतादृष्टाधारः' इत्येतदेव दुर्घटम् । समवायाविशेषेऽपि समवायिनोर्विशेषात् प्रतिनियमे समवायाभावप्रसक्तरित्यात्मसुखाद्योस्तत्संवेदनस्य५ कथश्चित्तादात्म्यमभ्युपेयम् अन्यथा तदेकार्थसमवेतज्ञानग्राह्यत्वेन सुखादयो न सिद्धिमासादयेयुः। तन्नादृष्टमपि मनसःप्रतिनियमहेतुः। न च 'येनात्मना यन्मनःप्रेर्यते तत् तत्सम्बन्धि' इति प्रतिनियमः अदृष्टवदात्मनोऽप्यचेतनत्वेन तत् प्रत्यप्रेरकत्वात् चेतनत्वेऽपि नानुपलब्धस्य प्रेरणमिति न नियंतं मनःसिद्ध्यतीत्येकस्मात् ततो युगपत्सर्वसुखादिसंवेदनप्रसक्तिरित्युक्तन्यायेन सुखादिसंवेदनस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षजेन्यत्वाभावाद् हेतुरनेन व्यभिचारी। किञ्च, स्वसंविदितविज्ञानानभ्युपगमे 'सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्बनः अनेकत्वात् पञ्चाङ्गुलिवत्' इत्यत्र पक्षीकृतैकदेशेन व्यभिचारः तज्ज्ञानाऽन्यसदसद्वर्गयोरनेकत्वाविशेषेऽप्येकज्ञानालम्बनत्वाभावात् एकशाखाप्रभवत्वानुमानवत् । अथ सर्वज्ञज्ञानं स्वसंविदितमिति नानेकत्वानुमानस्य व्यभिचारस्तर्हि तज्ज्ञानवदन्यज्ञानस्यापि न स्वात्मनि क्रियाविरोध इति सर्व ज्ञानं स्वसंविदितम् ज्ञानत्वात् सर्वज्ञज्ञानवत्' इति तद्दष्टान्तबलात् स्वसंविदितसकलज्ञानसिद्धिः घटादिज्ञानं ज्ञानान्तरग्राह्यम् १५ ज्ञेयत्वात् घटवत् इत्यत्रं च व्यभिचारः। अथ “युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्" [ न्यायद०१-१-१६] इति वचनाद् आत्मेन्द्रियविषयसन्निधानेऽपि यतो युगपज्ज्ञानानि नोपजायन्ते ततोऽवसीयते अस्ति तत्कारणं यतस्तथा तदनुत्पत्तिरिति तत्कारणं मनः सिद्धम्। ननु तदनुत्पत्तिर्मनःप्रतिबद्धा कुतः सिद्धा यतस्तस्यास्तदनुमीयेत? अथात्मनः सर्वगतस्य सर्वार्थः सम्बन्धात् पञ्चभिश्चेन्द्रियैरात्मसम्बद्धः स्वविषयसम्बन्धे एकदा २० किमिति युगपज्ज्ञानानि नोत्पद्यन्ते यद्यणु मनो नेन्द्रियैः सम्बन्धमनुभवेत् तत्सद्भावे तु यदैकेनेन्द्रियेणैकदा तत् सम्बध्यते न तदाऽपरेण तस्य सूक्ष्मत्वादिति सिद्धा युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनोनिमित्तेति; नन्वेवं तस्यात्मसंयोगसमये श्रोत्रसंज्ञकेन नभसापि संयोगात् संयुक्तसमवायाविशेषात् सुखादिवत् शब्दोपलब्धिरपि तदैव स्यात् निमित्तस्य समानत्वेऽपि युगपज्ज्ञानानुत्पत्तावपरं निमित्तान्तरमभ्युपगन्तव्यमिति नातो मनःसिद्धिः । न च कर्णशष्कुल्यवच्छिन्नाकाशदेशस्य श्रोत्रत्वात् तेन च तदैव २५ मनसः सम्बन्धाभावान्नायं दोषः निरंशस्य नमसः प्रदेशाभावात् । न च संयोगस्याव्याप्यवृत्तित्वं तस्य प्रदेशव्यपदेशनिमित्तम् उपचरितस्य व्यपदेशमात्रनिबन्धनस्यार्थक्रियायामुपयोगाभावात् न ह्युपचरिताग्नित्वो माणवकः पाकनिर्वर्तनसमर्थो दृष्टः । न च कर्णशषकुल्यवच्छिन्ननभोभागस्य तथाविधस्यापि शब्दोपलब्धिहेतुत्वमुपलभ्यत एवेति वाच्यम् तदुपलब्धेरन्यनिमित्तत्वात् । किञ्च, चक्षुराद्यन्यतमेन्द्रियसम्बन्धाद रूपादिज्ञानोत्पत्तिकाले मनसः सम्बद्धसम्बन्धात् मानसज्ञानं किं न भवेत् ? न ३० च 'तथाविधादृष्टाऽभावात्' इत्युत्तरम् अदृष्टनिमित्तयुगपज्ज्ञानानुत्पत्तिप्रसक्तितो मनसोऽनिमित्तताभावात् अश्वविकल्पसमये गोदर्शनानुभवाद् युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिश्चासिद्धा कथं मनोऽनुमापिका? न चाश्वविकल्प-गोदर्शनयोर्युगपदनुभवेऽपि क्रमोत्पत्तिकल्पना अध्यक्षविरोधात् । न चोत्पलपत्रशतव्यतिमेदवदाशुवृत्तेः क्रमेऽपि योगपद्यानुभवाभिमानः अध्यक्षसिद्धस्य दृष्टान्तमात्रेणान्यथाकर्तुमशक्तेः अन्यथा शुक्लशङ्खादौ पीतविभ्रमदर्शनात् स्वर्णेऽपि तद्भान्तिर्भवेत् । मूर्तस्य सूच्यग्रस्यौत्तराधर्यव्यवस्थि-३५ १-टपरिक-बृ० ल.। २ “अदृष्टस्य"-वृ० ल.टि.। ३-यतहे-बृ. ल. वा. बा. भ. मा. विना । ४-यतमनः बृ० ल. वा. बा. भां० मां० विना। ५-जत्वा-बृ०। ६ “यथा सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्बनमनेकखात् पञ्चाङ्गुलवत्" । सद्-"द्रव्यगुणादि" । असद्-"प्रागभावादि"-प्रमेयक० पृ० १०५ प्र. पं० ८, टि. १९-२०। ७“पक्कान्येतानि फलानि एक शाखाप्रभवत्वात् उपयुक्तफलवत्"-प्रमेयक० पृ. १०३ प्र० पं० ११॥ ८ सर्वज्ञा-वा. बा. आ. हा०वि०। ९-त्र व्य-बृ०। १० "युगपदनुत्पत्तेः"-बृ० ल० टि० । ११ “मनः"बृ. ल. टि.। १२-मीयते वा० बा०। १३ "मनः"-बृ. ल.टि.। १४-शस्य व्य-ल०।-शनिमिबृ०। १५संबंद्धसं-वा. बा. आ. हा० वि० । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ द्वितीये काण्डेतमुत्पलपत्रशतं युगपद् व्याप्तुमशक्तेः । क्रममेदेऽप्याशुवृत्तेस्तत्र यौगपद्याभिमान इति युक्तम् आत्मनस्तु क्षयोपशमसव्यपेक्षस्य युगपत् स्वपरप्रकाशनस्वभावस्य स्वयममूर्तस्याप्राप्तार्थग्राहिणो युगपत् स्वविषयग्रहणे न कश्चिद् विरोध इति किं न युगपद् ज्ञानोत्पत्तिः ? न च मनोऽपि सूच्यग्रवन्मू-मिन्द्रियाणि तूत्पलपत्रवत् परस्परपरिहारस्थितस्वरूपाणि न युगपद् व्याप्तुं समर्थमिति न युगपज्ज्ञानो५त्पत्तिः तथाभूतस्य तस्यैवासिद्धेः। तथाहि-सिद्धे तद्विभ्रमे मनःसिद्धिः तत्सिद्धौ च युगपज्ज्ञानोत्पत्तिविभ्रमसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वान्न मनःसिद्धिः। ___ ननु "जुगवं दो णत्थि उवओगो" [आवश्यकनि० गा० ९७९] इति वचनात् भवतोऽपि युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिः सिद्धैव, ने; मानसविकल्पद्वययौगपद्यनिषेधपरत्वादस्य नेन्द्रिय-मनोविज्ञानयोयोग पद्यनिषेधः । न च 'विवादास्पदीभूतानि शानानि क्रमभावीनि ज्ञानत्वात् मानसविकल्पद्वयवत्' १० इत्यतोऽनुमानात् तद्विभ्रमसिद्धिः अस्य प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टत्वात् । न चैतदनुमानबाधितत्वात् युगपत्प्रतिपत्त्यनुभवः प्रत्यक्षमेव न भवति 'अश्रावणः शब्दः सत्त्वात् घटवत्' इत्यनुमानबाधितत्वात् श्रावणशब्दज्ञानस्याप्यप्रत्यक्षताप्रसक्तेः । न च सौगतमतमेतत् न जैनमतमिति वक्तव्यम् "सहभाविनो गुणाः क्रमभाविनः पर्यायोः" जैनैरभिधानात् । तथा च सहभावित्वं गुणानां प्रतिपादयता दृष्टान्तार्थमुक्तम् "सुखमाहादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम् ।। शक्तिः क्रियानुमेया स्यात् यूनः कान्तासमागमे ॥” [ तदेवं मनसोऽसिद्धेर्न घटादिक्षानं तेन सन्निकृष्टमिति कुतस्तत्राध्यक्षज्ञानोत्पत्तिः? इति यतस्ततस्तत् प्रतीयेत न चान्यत् तदुत्पत्तौ पराभ्युपगमेन निमित्तमस्ति सद्भावे वेन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नत्वादिना तदाहिणोऽध्यक्षता विरुध्येत । अथ ज्ञानान्तरस्यानध्यक्षत्वेऽपि घटज्ञानग्राहकता भविष्यतीति २०न धर्म्यसिद्धेराश्रयासिद्धो हेतुर्भविष्यति घटज्ञानस्य ततः सिद्धेः, असदेतत्; स्वयमसिद्धेन ज्ञानेन गृहीतस्याप्यगृहीतरूपत्वात् अन्यथा सर्वज्ञज्ञानगृहीतस्य रथ्यापुरुषज्ञानगृहीतत्वं भवेदिति तस्यापि सर्वज्ञताप्रसक्तिः । न च खज्ञानगृहीतं तद्गृहीतमिति नायं दोषः स्वसंविदितज्ञानाभावे 'वज्ञानम्' इत्यस्यैवासिद्धेः । स्वस्मिन् समवेतं स्वज्ञानमभिधीयते इति नायं दोष इति चेत्, न तस्याभावात् भावेऽप्यविशिष्टत्वाच्च । न च खोत्पादितं 'खम्'इति वक्तव्यम् तदुत्पादस्य परदर्शने तदाधेयत्वेन ] इति १-तिन ल०। २ एवं च 'तवापि जुगवं दो णत्थि उवओगा' इति वचनव्याघात इति वाच्यम्; उक्तवचनस्य समानसविकल्पद्वययोगपद्यनिषेधपरत्वात् इन्द्रिय-मनोज्ञानयोरेकदाप्युपपत्तेः इति सम्मतिटीकाकारः"-शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० १५५ प्र.पं. ६-८।। __ "नाणम्मि दंसणम्मि अ इत्तो एगयरयम्मि उवउत्ता । सव्वस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उवओगा" ॥आवश्यकनि० नवकारनि० गा० ९३ पृ० १७५ । आवश्यक. हारि० पृ. ४४६ गा. ९७९ । विशेषावश्यकभाष्ये एषैव गाथा (३.९६ पृ१२००) "एतदिहैव व्यक्तं पुरस्ताद् वक्ष्यति । ततोऽस्यां गाथायां भद्रबाहुखामिभिर्व्यक्तेऽपि युगपदुपयोगे निषिद्धे तद्योगपद्याभिमानोऽद्यापि न त्यज्यते इति भावः" इति व्याख्याता । नन्दिसूत्रटीकायां तु "एतदेव सूत्रेण दर्शयति" इत्यवतरणिकां कृलोद्धृतैषा गाथा-पृ० १३८ प्र. पं० १३-द्वि. पं. १। अधिकारिमेदेन ज्ञान-दर्शनयोर्द्वयोरुपयोगयोर्योगपद्याऽयोगपद्यप्रतिपादिका बृहद्व्यसंग्रहेऽपि गाथा वर्तते । सा चेयम् "दसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवउग्गा । जुगवं जम्हा केवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि"॥४॥-पृ० १६९। ३ भगवतो-बृ० ल० वा. बा. विना। ४ न समान-आ. हा० वि०। ५“सहभुवो गुणाः"-सिद्धिवि. टी. लि.पृ. ९६ पं० १३। "गुणः सहभावी धर्मःxxx पर्यायस्तु क्रमभावी" xxx-प्रमाणनयत. ५,७-८ । रत्नाकरा. ५, पृ. ८२। ६ अष्टस० पृ. ७८ पं० १४ । “कथमन्यथा न्यायविनिश्चये “सहभुवो गुणाः" इत्यस्य ___ "सुखमालादनाकार विज्ञानं मेयबोधकम् । शक्तिः क्रियानुमेया स्याद् यूनः कान्तासमागमे" ॥ इति निदर्शनं स्यात्"-सिद्धिवि. टी.लि. पृ. १६५०१३-१४ । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। प्रसिद्धत्वात् समवायाभावे च तस्याप्यसिद्धत्वान्नित्यस्य चेश्वरशानस्येश्वरज्ञानत्वासिद्धः । न च खसंविदितज्ञानवादेऽपि स्वसंविदितत्वाविशेषाद् देवदत्तज्ञानं यज्ञदत्तज्ञानं प्रसज्येत यज्ञदत्तज्ञानस्य देवदत्तासंविदितत्वात् स्वज्ञानस्य कथञ्चित् स्वात्मना तादात्म्यात् तस्यैव तद्रूपतया परिणतेरिति प्रसाधितत्वात् । ज्ञानान्तरेण तस्य संवेदनात् नागृहीतत्वमिति चेत्, न तस्यापि ज्ञानान्तरेण ग्रहणेऽनवस्थाप्रसक्तेः अग्रहणेऽगृहीतवेदनेन गृहीतस्य द्वितीयज्ञानस्यागृहीतरूपत्वान्न तेन 'प्रथम-५ ग्रहणमिति तवस्था धर्म्यसिद्धिः तेन घटादिज्ञानस्य धर्मिणः द्वितीयेन तस्यापि तृतीयेन ग्रहणादर्थसिद्ध परज्ञानकल्पनमिति नानवस्था' इति यदुक्तम् तदप्यसङ्गतम् तृतीयादेर्शानस्याग्रहणे प्रथमस्याप्यसिद्धेरुक्तन्यायात् यदि पुनस्तृतीयज्ञानेन स्वयमसिद्धेनापि द्वितीयं गृह्यते द्वितीयेन तथाभूतेनैव प्रथमम् तेनापि तथाभूतेनैवार्थों ग्रहीष्यत इति द्वितीयज्ञानपरिकल्पनमपि व्यर्थमासज्येत । न च 'विदितोऽर्थः' इति ज्ञानविशेषणस्यार्थस्य प्रतिपत्तेः "अगृहीतविशेषणा च विशेष्ये बुद्धिर्नोपजायते"१० [ ] इति विशेषणग्राहिज्ञानं द्वितीयं परिकल्प्यते । न च विशेषणस्याप्यपरविशेषणविशिष्टता प्रतीयते येन तृतीयादिज्ञानपरिकल्पना युक्तिसङ्गता भवेदिति वक्तव्यम् विशेषणस्यैव तृतीयादिज्ञानपरिकल्पनामन्तरेण ग्रहणासंभवादित्युक्तेः स्वसंविदितज्ञानाभ्युपगम एव ज्ञानविशेषणविशिष्टार्थप्रतिपत्तिः संभविनी अन्यथा तदयोगादनवस्थाऽनिवृत्तेः । न च विषयान्तरसश्चारादनवस्थानिवृत्तिः यतो धर्मिज्ञानविषयात् साधनादि विषयान्तरम् तत्र ज्ञानस्योत्पत्तिर्विषयान्तरस-१५ ञ्चारः न चापरापरज्ञानग्राहिज्ञानसन्तत्युत्पत्ताववश्यंभाविबाह्यसाधनादिविषयसन्निधानम् येन तत्र ज्ञानस्य सञ्चारो भवेत् सन्निधानेऽपि “अन्तरङ्ग-बहिरङ्गयोरन्तरङ्गस्यैव बलीयस्त्वात् ] नान्तरङ्गविषयपरिहारेण बाह्यविषये शानोत्पत्तिर्भवेदिति कुतोऽनवस्थानिवृत्तिः? न चादृष्टवशादनवस्थानिवृत्तिः स्वसंविदितज्ञानाभ्युपगमेनाप्यनवस्थानिवृत्तेः संभवाद् अन्यथा कार्येऽनुपपद्यमानेऽदृष्टपरिकल्पनाया उपपत्तेः स्वसंवेदनेऽपि चादृष्टस्य शक्तिप्रक्षयाभावात् ।२० एतेन 'ईश्वरादेरनवस्थानिवृत्तिः' इति प्रतिविहितम् तस्यादृष्टकल्पनत्वात् प्रतिषिद्धत्वाँच्च । न च शक्तिप्रक्षयाच्चतुर्थज्ञानादेरनुत्पत्तेरनवस्थानिवृत्तिः धर्मिग्रहणस्यैवमभावापत्तेः । किञ्च, शक्तिर्यद्यात्मनोऽव्यतिरिक्ता तदा तत्क्षये आत्मनोऽपि क्षयापत्तिः व्यतिरिक्ता चेत् तत एव ज्ञानोत्पत्तेरनर्थक आत्मा भवेत् । न च सा तस्य' इति नात्मानर्थक्यम् समवायाभावे 'तस्य सा' इत्यसिद्धेः । किञ्च, यदि शक्तिप्रक्षयादनवस्थानिवृत्तिः बाह्यविषयमपि ज्ञानं न भवेत् शक्तिप्रक्षयादेव । न च चतुर्थादिज्ञानजनन-२५ शक्तेरेव प्रक्षयो न बाह्यविषयज्ञानशक्तेः युगपदनेकशक्त्यभावात् भावे वा युगपदनेकज्ञानोत्पत्तिप्रसक्तिः सहकार्यपेक्षापि नित्यस्यासंभविनीति प्रतिपादितम् । क्रमेण शक्तिभावे कुतः स इति वक्तव्यम् ? आत्मन इति चेत्, न; अपरशक्तिविकलात् ततः तदभावात् अपरशक्तिपरिकल्पने तद्भावेऽप्यपरशक्तिपरिकल्पनमित्यनवस्था । तदेवं स्वसंविदितविज्ञानोनभ्युपगमे कथञ्चिद् घटादिज्ञानस्यासिद्धेराश्रयासिद्धः 'शेयत्वात्' इति हेतुः स्वरूपासिद्धश्चेति व्यवस्थितमेतत् स्वनिर्णीति-३० खभावं ज्ञानमिति। १-सिद्धिः । वा. बा० । “खोत्पाद्यखायोगेन"-वृ० टि० । “खोत्पाथलायोगात्"-ल. टि० । २ धर्मासि-वा. बा० । धर्मसि-आ० । ३-मपि सि-ल.। ४ "न हि अप्रतीते विशेषणे विशिष्टं केचन प्रत्येतुमर्हन्तीति"-मीमां० १-३-३३ पृ०५६ पं० २१ । सिद्धिवि० टी० लि. पृ० ११३ पं० ८ । “नाऽगृहीते विशेषणे विशिष्टबुद्धिरुदेति"-लौकिकन्याया० भा० ३ पृ. ७७ । अस्य न्यायस्य व कोपयोगः, तस्य च पाठभेदभिन्नानि कानिचिद् रूपान्तराणि इत्यादि सर्व लौकिकन्यायाञ्जलो तत्रैव विशेषेण निरूपितम् । ५ “अन्तरग-बहिरङ्गयोरन्तर# बलवत् इति न्यायात्"-ब्रह्मसू. शाङ्करभा० आनन्दगि० टी० २-१-४ पृ. ४३२ पं० १५ । हैम. बृ० वृ०७-४-१२२ । लौकिकन्याया० भा०३ पृ. १०। ६-यादेते-ल। पृ० १०२ पं०६। ८ पृ. ४७४ पं० १३ । ९-नानाभ्यु-वृ० ।-नाभ्यु-ल० वा. बा. आ० हा० वि०।१० पृ० ४७५ पं० २४ ।। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे [विज्ञान-शून्यतावादीयमर्थस्यासत्त्वपक्षं निरस्य तस्य च पारमार्थिकत्वं प्रतिष्ठाप्य लक्ष णेऽर्थनिर्णीतिस्वभावत्वस्योपपादनम् ] अत्राह सौगतः-भवतु स्वसंविदितं ज्ञानम् अर्थग्रहणस्वभावं तु तन्न युक्तम् अर्थस्यैवाभावात् । तथाहि-यद् अवभासते तद् ज्ञानम् यथा सुखादिः अवभासते च नीलादिकमिति स्वभावहेतुः । ५ नन्वत्र किं स्वतोऽवभासो हेतुः, उत परतः, आहोस्विदवभासमात्रमिति विकल्पाः । तत्र यद्याद्यः पक्षः सन युक्तः, परं प्रति तस्यासिद्धत्वात् 'नीलमहं वेद्मि' इत्यहमहमिकया नीलाद विभिनस्वरूपतया प्रतीयमानेन ज्ञानेन नीलादेब्रहणाभ्युपगमान्न परानपेक्षनीलाद्यवभासः परस्य सिद्धः। यदि तु परनिरपेक्षो नीलाद्यवभासः परस्य सिद्धो भवेत् किमतो हेतोरपरं साध्यमिति वक्तव्यम् ? ज्ञानरूपतेति चेत्, ननु सा यदि प्रकाशता तदा हेतुसिद्धौ सिद्धैव न साध्या । अथ सा न सिद्धा १०कथं हेतो सिद्धिः? अथ भ्रान्तेः पुरुषधर्मत्वात् स्वतोऽवभासनं नीलादिष्वभ्युपगच्छन्नपि ज्ञानरू पतां नेच्छेदिति साध्यते तर्हि भ्रान्तेरेव भावधर्ममिच्छन्नपि कश्चिद् भावं नेच्छेदिति "नासि भावधर्मोऽस्ति" [ ] इत्यत्र कथमुक्तम्-"को हि भावधर्म हेतुमिच्छन् भावं नेच्छेत्" ] इति । अथापि स्यात् यदि भिन्नेन ज्ञानेन नीलादेर्ग्रहणमुपपत्तिमद् भवेत् तदा हेतुरसिद्धः स्यात् न चैवम् । तथाहि-न भिन्नकालस्यार्थस्य तेन ग्रहणं संभवति नापि समानकालस्य, १५तथा न निर्व्यापारेण, नापि भिन्नाभिन्नव्यापारवता, तथा, न परोक्षेण, नापि खसंविद्रूपं बिभ्रता, नापि ज्ञानान्तरवेद्येनेति प्रतिपादितं सौगतैरिति न स्वतोऽवभासलक्षणो हेतुरसिद्धः असदेतत् एवमभ्युपगच्छतः सौगतस्यानुमानोच्छेदप्रसक्तः । तथाहि-'यद् अवभासते तद् ज्ञानम् सुखादिवत् तथा च नीलादिकम्' इत्यनुमानमेतत् तच्च त्रिरूपलिङ्गप्रभवम् "त्रिरूपाल्लिङ्गादर्थर" [ ] इति वचनात् लिङ्गं चानुमानाद् भिन्न भिन्नसमयं च यदि तस्य जनकं तर्हि समस्तानुमानजनकं तदेव २० स्यादिति अनमानभेदकल्पनावैयर्थ्यम् । अथ भिन्नकालमपि लिङ्गं किञ्चिदेव कस्यचित कारणमिति नायं दोषस्तर्हि ज्ञानमपि तथाविधं किञ्चिदेव कस्यचिद् ग्राहकम् अर्थो वा तथाविधः कश्चिदेव कस्यचिद ग्राह्य इति नातिप्रसक्तिः । अथ भिन्नकालेऽतीतानुत्पन्नेऽर्थे ग्रहणप्रवृत्तं ज्ञानं निर्विषयं भवेत् तर्हि लिङ्गाद विनष्टानुत्पन्नादुपजायमानमनुमानं निर्हेतुकं किं न भवेत् ? अथ स्वकाले विद्यमानं स्वरूपेण तज्जनकमिति नायं दोषस्तर्हि ग्राह्यमपि खकालेऽपि विद्यमानमिति तथा तस्य तद्वाहकं न निर्वि२५षयं भवेत् । अथ न भिन्नकालं लिङ्गमनुमानस्य कारणं किन्तु समकालम्, न; समकालस्य जनकत्वविरोधात् अविरोधे वा अनुमानमपि लिङ्गस्य जनकं भवेत् तथा चान्योन्याश्रयदोष इति नैकस्यापि १-दितज्ञा-बृ० विना। २ “तथा च यदुक्तं प्रज्ञाकरेण यदवभासते तज् ज्ञानम् यथा सुखादि अवभासते च नीलादिकम् जडस्य प्रतिभासायोगात्"-सिद्धिवि० टी० लि. पृ० १३६ पं० १२-१३ । अयं चर्चाविधिस्तावदर्थशः शब्दशश्च प्रमेयकमलमार्तण्डे वर्तते-पृ० २२ प्र. पं० ४ । ३ "नासिद्धर्भाव-xxx। धर्मो विरुद्धो भावश्च सा xxx?" ॥ -तत्त्वसं० पजि० ० ४१२ पं० २७ । "असिद्धो भावधर्मश्चेद् व्यभि-xxx। विरुद्धो धर्मोऽभावस्य स सत्तां साधयेत् कथम्" ॥ -अष्टस० पृ० ५८ पं० १८। "नासिद्धे भावधर्मोऽस्ति व्यभिचार्युभयाश्रयः । धर्मो विरुद्धो भावस्य सा सत्ता साध्यते कथम्"?॥न्यायमञ्ज. आ० २ पृ० १२८ पं० ७ । प्रमाणमी० १-२-१७ पृ. ६८ पं० २० । जैनतर्कपरि० पृ. १२२ द्वि. पं. ४ यशो०। ४ एतादृशी वाचोयुक्तिः अष्टसहरुयाम् प्रमेयकमलमार्तण्डे च यथाक्रममित्थं दृश्यते-“को हि नाम सर्वज्ञभावधर्म हेतुमिच्छन् सर्वज्ञमेव नेच्छेत्"-पृ० ५८ पं० १६ । “को हि नाम खप्रतिभासं तत्रेच्छन् ज्ञानतां नेच्छेत्"-पृ० २२ प्र. पं० । ५प्र० पृ. पं० ४। ६ 'त्रिरूंपलिङ्गप्रभवं त्रिरूपाल्लिङ्गादर्थडग्' इत्येवमङ्कितः पाठः वृ०। ७ 'लिङ्गं चानुमानादू भिन्न भिन्नसमयं च । यदि तस्य जनकं तैर्हि' इत्येवमङ्कितः पाठः बृ० । ८"ज्ञानम्-बृ० टि.। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्गजन्यत्वाविशेषणानुमानत्वमित्युत्तरपर्यनयातस्य लिङ्गजन्यत्वाल्लिङ्गतापनि ज्ञानमीमांसा। ४८१ सद्भावः । अथानुमानमेव जन्यम् तत्रैव जन्यताप्रतीतेः न लिङ्गम् तद्विपर्ययात्, न; अनुमानव्यतिरेकेण ग्राह्यतावजन्यताया अप्रतीतेः । न च तत्स्वरूपमेव जन्यता लिङ्गेऽपि स्वरूपसद्भावेन जन्यताप्रसक्तेः तथा च परस्परजन्यतायां पुनरपि स एवेतरेतराश्रयलक्षणो दोषः । अथ स्वरूपाविशेषेऽपि लिङ्गानुमानयोरनुमान एव जन्यता लिङ्गापेक्षा न पुनर्लिङ्गे तैदपेक्षा सेति तर्हि नील-तत्संवेदनयोस्तदविशेषेऽपि तत एव नीलस्यैव तत्संवेदनापेक्षा ग्राह्यता न तु तत्संवेदनस्य नीलापेक्षा सेति५ समानमुत्पश्यामः। न च लिङ्गमनुमानोत्पत्तिकरणादुत्पादकम् यतो यद्युत्पत्तिरनुमानादनान्तरभूता क्रियते तदानुमानमेव लिङ्गेन कृतं भवेत् तथा च तल्लिङ्गमेव प्रसक्तम् लिङ्गजन्यत्वादुत्तरलिङ्गक्षणवत् । न चानुमानोपादानजन्यत्वात् तदनुमानमेव, यतस्तदप्यनुमानोपादानकारणं कुतो जायते? इति पर्यनुयोगे 'अपरलिङ्गात्' इत्युत्तरमभिधानीयम् तत्र च तस्य लिङ्गजन्यत्वाल्लिङ्गतापत्तिरिति पर्यनुयोगे पुनरपि अनुमानोपादानत्वादनुमानत्वमित्युत्तरपर्यनुयोगानवस्थाप्रसक्तिः स्यात् । अथ तथाप्रतीते-१० लिङ्गजन्यत्वाविशेषेऽपि किञ्चिल्लिङ्गम् अपरमनुमानं तर्हि ज्ञानजन्यत्वाविशेषेऽपि किञ्चिज्ज्ञानम् अपरोऽर्थ इति किं न स्यात् ? ततश्च 'नीलादि ज्ञानं ज्ञानकार्यत्वात् उत्तरज्ञानवत्' इत्ययुक्ततया व्यवस्थितम् । यदपि 'यया प्रत्यासत्त्या स्वरूपं विषयीकरोति ज्ञानं तयैव चेद् अर्थम् तयोरैक्यप्रसक्तिः न होकस्वभाववेद्यमनेकं युक्तम् अन्यथैकमेव न किञ्चिद् भवेत् अथान्यथा, स्वभावद्वयापत्तिनिस्य भवेत् तदपि च स्वभावद्वयं यद्यपरेण स्वभावद्वयेनाधिगच्छति तदाऽपरापरस्वभावद्वया-१५ पेक्षणादनवस्था अन्यथा स्वार्थयोरपि तदपेक्षा न स्यात् स्वसंवेदनलक्षणत्वाच्च ज्ञानस्य नासंविदितं रूपं युक्तम्' इत्युक्तम्, तदपि निरस्तम्: लिङ्गस्य समानक्षणानुमानकरणेप्यस्य समानत्वात् । तथाहिलिङ्गं यया प्रत्यासत्या स्वोपादेयक्षणान्तरं जनयति तयैव चेदनुमानम् तयोरैक्यमिति लिङ्गानुमानयोरन्यतरदेव भवेत् । न च लिङ्गाभावेऽनुमानम् तदभावे वा लिङ्गमित्यन्यतरस्याप्यभावः । न च लिङ्गं सजातीयक्षणं नोपजनयति अनुमानसमये नीलाद्यवभासाभावप्रसक्तेः । अथान्यया स्वोपादेय-२० क्षणम् अपरया चानुमानं तर्हि लिङ्गस्यैकस्य रूपद्वयमायातम् तत्र चावभासनं लिङ्गम् तच्च ज्ञानमेव । न च ज्ञानस्याविदितं रूपं संभवति विरोधात् तद्वेदनं चापरेणं तद्दयेनेति सैवात्राप्यनवस्था । अपि च, येन स्वभावेनैकां शक्तिमात्मनि विभर्ति लिङ्गं तेनैव चेदपराम् तयोरैक्यम् अन्येन चेत् स्वभावद्वयम् तत्रापि चापरं स्वभावद्वयं प्राक्तनन्यायेनेत्यपराऽनवस्था । अथ तत्करणकस्वभावत्वाल्लिङ्गं भिन्नस्वभावं कार्यद्वयं निर्वर्तयेत् तर्हि ज्ञानमपि परस्परविविक्तरूपयोः स्वार्थयोरेकं सद ग्राहकमस्तु २५ तहणैकस्वभावत्वात् ततो यदि लिङ्गेनामानस्योत्पत्तिग्नर्थान्तरभूता क्रियते तर्हि ज्ञानेनार्थस्यानर्थान्तरभूता गृहीतिः क्रियत इति समानो न्यायः । अथार्थान्तरभूतोत्पत्तिर्लिङ्गेनानुमानस्य क्रियते तर्हि नानुमानसद्भावः सद्भावेऽपि 'लिङ्गम्' 'उत्पत्तिः' 'अनुमानम्' इति परस्परासंसक्तत्रितयस्य प्रतिभासात् "भ्रान्तिरपि सम्बन्धतः प्रमो" [ ] इति न युक्तमभिधानम् । अथ तयाप्युत्पत्त्या अपरार्थान्तरभूतोत्पत्तिर्विधीयते तर्हि तयापि तथाविधापरोत्पत्तिर्विधीयत इत्यनव-३० स्थानान्नानुमानसद्भावः। किञ्च, लिङ्गेनोत्पत्तिः स्वसमया भिन्नसमया वा विधीयेत? भिन्नसमा चेद अर्थग्रहणवत्प्रसक्तिः । समानसमया चेत् सव्येतरगोविपाणवदन्योन्यमुपकार्योपकारकभावाभावान्न जन्यजनकभावः तद्भावे वा तदुत्पत्तिर्जन्यता लिङ्गस्य प्रसज्येत ततश्च लिङ्गमुत्पत्तिर्भवेत् तत्कार्यत्वात् उत्तरोत्पत्तिवत् । न च लिङ्गेनोत्पत्तिर्विधीयते न तया लिङ्गं तस्यामेव कार्यताप्रतीतेरिति वक्तव्यम् तद्व्यतिरेकेण कार्यताऽप्रतीतेः प्रतीतौ वा 'लिङ्गम्' 'कार्यता' 'उत्पत्तिः' इति त्रितयं परस्परासम्बद्धं ३५ भवेत् । न च तत्स्वरूपमेव कार्यता लिङ्गस्यापि ततस्तद्धावापत्तेः । अथ तदविशेषेऽपि प्रतिनियतः कार्यकारणभाव उत्पत्ति-लिङ्गयोस्तर्हि ज्ञानार्थयोः स्वरूपाविशेषेऽपि नियतो ग्राह्यग्राहकभावः किं न स्यात् ? एवमन्यदपि ग्राह्यग्राहकभावपक्षोदितदूषणं लिङ्गानुमानयोर्जन्यजनकभावाभ्युपगमे १"अनुमान"-बृ. ल. टि.। २-नकार-पृ. । ३ "न चेति योगः"-ल.टि.। ४-ण तद्वयेबृ. ल.-ण द्वये-वा. बा.। ५ "भ्रान्तिरपि संबन्धतः प्रमेति चेत्"-सिद्धिवि. टी.लि. पृ. ६८५०८। "अतस्मिंस्तद्ब्रहो भ्रान्तिरपि संधानतः प्रमा"-षड्द० स० बृ० वृ० पृ.४१ पं०१६। ६-या चे तदर्थ-ल। -दितं दू-बृ०। ६२ स०त. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे - समानतया योज्यम् । अथ सकलानुमानोच्छेदकत्वान्नायं विचारोऽत्र युक्तस्तर्हि ज्ञानार्थयोरपि न विधेयः तत्राप्यस्य विचारस्य सकलव्यवहारोच्छेदकत्वात् । न च परमार्थतो लिङ्गमनुमानकारणं नेष्यत एव व्यवहारिजनमतानुरोधेन तस्याङ्गीकरणादिति वक्तव्यम् तेनैव 'अहम्' इति भिन्नावभासिना ज्ञानेन नीलादेर्भिन्नस्य ग्रहणसिद्धेः स्वतोऽवभासनलक्षणस्य हेतोरसिद्धत्व५ प्रसक्तेः । न च क्वचिद् व्यवहाराश्रयणं क्वचिन्नेति युक्तम् न्यायस्य समानत्वात् । अथ लिङ्गमनुमानकारणं नेष्यत एव ग्राह्यग्राहकभाववत् कार्यकारणभावस्यापि निषेधात् । कथमनुमानम् ? स्वसाध्याविनाभावितग्रहणात् तदपि तद्योग्यतयाः नन्वनुमानं स्वविषयतया विषयीकरोति न ज्ञानान्तरमिति कुतोऽयं विभागः ? न चानुमानं न किञ्चिद् विषयीकरोति तस्याप्रमाणत्वप्रसक्तेः । ४८२ न च समारोप व्यवच्छेदकरणात् तत् प्रमाणम् समानासमानसमय समारोपव्यवच्छेदविधाने ऽर्थ१० ग्रहणवद्दोषप्रसक्तेः । तथाहि भिन्नसमयसमारोपव्यवच्छेद विधाने एकस्मादेवानुमानात् सकलसमारोप विच्छेदोदयात् सकलं जगद् असमारोपमिति समारोपान्तरसमुच्छेदार्थ मनुमानान्तरान्वेषणमनर्थकमासज्येत । अथ भिन्नसमयोऽप्यसौ कश्चिदेव केनचित् तेन समुच्छिद्यते; ननु भिन्नकालोऽर्थोऽपि कश्चिदेव केनचित् संवेदनेन विपयीक्रियते न सर्वः सर्वेणेति समानम् । यथा च स्वरूपं समारोपस्य व्यवच्छिद्यते तथा अर्थस्य तदेव विपयीक्रियत इत्यपि समानम् । न च समारोप१५व्यवच्छेदोऽनुमानेन सौगतमते विधातुं शक्यः तद्व्यवच्छेदस्य विनाशरूपत्वात् तस्य च निर्हेतुकत्वाभ्युपगमात् । न च प्रवृत्तसमारोपस्य स्वत एव निवृत्तेर्भाविनस्तु तेन व्यवच्छेदः क्रियत इति वक्तव्यम् यतस्तस्यापि सतो व्यवच्छेदो भूतवन्न तेन विधातुं शक्यः असतोऽपि खरविषाणवन्नासौ शक्यक्रियः । अथ भाविनोऽपि समारोपस्य न तेन व्यवच्छेदो विधीयते अपि तु तदुत्पत्तिप्रतिबन्धः समर्थे करणे तदुत्पत्तेरवश्यंभावित्वान्न ततस्तत्प्रतिबन्धः अनुत्पत्तौ वा न तत् तत्कारणम् २० नाप्यसौ तज्जन्यो भवेत् । अथ तेन तत्कारणस्य सामर्थ्यविधातः क्रियते, सोऽप्ययुक्तः सतः सामर्थ्यस्योपहन्तुमशक्यत्वात् अस्य चार्थस्य " तस्य शक्तिरशक्तिर्वा या स्वभावेन संस्थिता । नित्यत्वादचिकित्सस्य कस्तां क्षपयितुं क्षमः” ॥ [ ] इति भवतैव प्रतिपादनात् । असमर्थे तु कारणे कारणाभावादेव नोत्पत्स्यत इति कस्तत्रानुमानो२५पयोगः न चानुमानसहायः प्राक्तनः समारोपक्षण उत्तरं समारोपक्षणान्तरजननासमर्थ जनयतीति द्वितीये क्षणे कारणाभावादेव समारोपानुत्पत्तिः लिङ्गानुमानयोरिव पूर्वोत्तरसमारोपक्षणयो हेतुफलभावाभावात् । अथ समारोपव्यवच्छेदकृदप्यनुमानं नेष्यते तर्हि प्रकृतानुमानस्य फलान्तराभावादभिधानमसाधनाङ्गवचनत्वान्निग्रहस्थानमापद्यते । अथ प्रकृतानुमानं नोपन्यस्यते कुतस्तर्हि नीलादीनां ज्ञानरूपतासिद्धि: ? प्रत्यक्षत एवेति चेत्, तत एव जडतासिद्धि३० रप्यस्तु । अथ ज्ञानरूपतापि नीलादेर्नापरा समस्त्यपि तु तत्स्वरूपमेव, नः अन्यत्राप्यस्य समानत्वात् । अथ नीलादेर्जडत्वे प्रतिभासो न भवेत् जडस्य प्रकाशायोगात् नः स्वतस्तस्याभावे सिद्धसाध्यतापत्तेः परतोऽपि तदभावोऽसिद्धो 'नीलमहं वेद्मि' इति प्रतीतेः जडस्य च प्रकाशायोगे कस्यासाविति वाच्यम् ज्ञानस्येति चेत्, न तत्रापि 'स्वतः परतो वा' इति विकल्पद्रयानतिवृत्तेः । न च जडस्य स्वतःप्रकाशे ज्ञानता जडताविरोधिनी प्रसज्यते ज्ञानस्य तु स्वतः प्रकाशे विरोधाभावान्न ३५ प्रथमविकल्पे दोषापत्तिः निरंशैकपरमाणुपरिमाणस्य तस्य स्वतः प्रकाशे स्थूलैकप्रतिभासविरोधात् न हि प्रत्यक्षप्रतीतस्य स्थूलैकप्रतिभासस्य विरोधो न दोषाय तत्प्रतिभासपरिहारेण निरंशैकपरमाणुप्रतिभासस्याप्रतीयमानस्याभ्युपगमे एकस्य ब्रह्मणः स्वतः प्रतिभासः किं नाभ्युपगम्यते अप्रति भासमानकल्पनायास्तत्रापि निरङ्कुशत्वात् ? चित्रैकस्वभावस्य तस्याभ्युपगमे क्षणिकत्वविरोधः क्रम १ " अविनाभावः " - बृ० टि० । “अविनाभावग्रहणात् " -ल० टि० । २ " तद्ब्रहणम्" - बृ० ल० टि० । ३ " कर्तृतापन्नम् " बृ० ल० टि० । ४ समान्यस - भ० मां० । समानं स ब० । ५ धानेऽर्थेग्र - ल० । -धानेर्थाग्र-आ० हा ० वि० । ६ " नित्यत्वादचिकित्स्यस्य " - तत्त्वसं० पजि० पृ० २५७ पं० ५ । सिद्धिवि० टी० लि० पू० २६ पं० १२-१३ । शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० १७८ द्वि० पं० ३। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। परिणामिनस्तथैवात्मनः स्वतःप्रतिभासाविरोधात् सर्वविकल्पातीतस्य तस्याभ्युपगमे नील-सुखादिव्यतिरिक्तस्य तस्य ब्रह्मस्वरूपवत् तदप्रतिभासनमेव विरोधः नील-सुखाद्यात्मकत्वेऽपि नील-सुखप्रतिभासेन पीत-दुःखप्रतिभासाविषयीकरणात् पीत-दुःखप्रतिभासेन नील-सुखप्रतिभासयोश्चासंवेदनात् परलोकवदसत्त्वेन सकलशून्यताप्रसक्तिः। किञ्च, नीलादिप्रतिभासानामेकेनाणुप्रतिभासेन तंदन्येषां तैश्च तस्याविषयीकरणादभावप्रसक्तिः स्वतोऽपि केवलपरमाणुप्रतिभासस्यासंवेदनात् ।५ अथ नील-सुखादीनां नाभावः स्वयमुपलम्भात्, न; सन्तानान्तरानिषेधप्रसक्तेः तदभ्युपगमे कथं स्व-परग्रहणव्यापारनिषेधोऽनुमानाभावात् । न च विचारात् तद्व्यापारनिषेधः अनेन तदविषयी. करणे न तनिषेधः विषयीकरणे ग्राह्यग्राहकभावसिद्धर्न तनिषेधः इति न सकलविकल्पातीतत्वसंभवः । न च तत्त्वस्यान्यत्र न भावः नाप्यभावः सर्वत्र तथाभावापत्तेः सन्तानान्तरवत् ततः स्थलैकत्वादिविकल्परहितस्य कदाचिदप्यप्रतिभासनाद् जडवदजडस्यापि न स्वतोऽवभासनं परा-१० भ्युपगमेन संभवति । परतस्तस्यावभासने जडस्यापि ततोऽवभाससिद्धेर्विज्ञानमात्रताऽसिद्धिः । न च परेण समानकालेनाप्रतिबन्धात् परस्परग्रहणप्रसक्तेश्च नार्थग्रहणम् भिन्नकालेनाप्यतिप्रसङ्गात् न तेन तहणम् अन्यत्रापि समानत्वात् । अत एव "स्वरूपस्य खतो गतिः" [ 1 इत्ययुक्तम् तत्रापि समानकालस्य गतावर्थवत्प्रसङ्गात् । न च स्वरूपस्य ज्ञानतादात्म्यान्नायं दोषः तादात्म्येऽपि समानेतरकालविकल्पद्वयानतिवृत्तेः। अथ स्वरूपं ज्ञानमेवेति न भेदभाविविकल्पावता-१५ रस्तत्र, न; तथाप्रतीतेः तत्तथाप्रतीतिश्च यद्यप्रमाणं नातः स्वरूपस्य ज्ञानतासिद्धिःप्रमाणं चेत् तर्हि स्वपरग्रहणखरूपतापि ज्ञानस्य तत एव सिद्धेति न तत्रापि तद्विकल्पावतारः प्रत्यक्षविरोधात्। तन्न स्वतोऽवभासनं हेतुः असिद्धत्वात् । परतोऽवभासनं चेत्, न; तस्यापि वाद्यसिद्धत्वात्___"नॉन्योऽनुर्भाव्यो वुद्ध्यास्ति तस्या नानुभवोऽपरः । ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात् स्वयं सैव प्रकाशंते" ॥ [ 1 इत्यभिधानान्न सौगताभिप्रायेण परप्रकाशता कस्यचित् सिद्धा। न च प्रकाशनलक्षणस्य हेतोर्ज्ञानत्वेन व्याप्तिसिद्धिर्यतः खरूपमात्रपर्यवसितं ज्ञानं सर्वमवभासनं ज्ञान(नत्व)व्याप्तमिति नाधिगन्तुं समर्थम् । न च सकलसम्वन्ध्यप्रतिपत्तौ सम्बन्धप्रतिपत्तिः। उक्तं च __"द्विष्टसम्बन्धसंवित्ति:करूपप्रवेदनात् ।। द्वयस्वरूपग्रहणे सति सम्बन्धवेदनम् ॥” [ न च विवक्षितज्ञान ज्ञानत्वमवभासनं चात्मन्येव प्रतिपद्य तयोर्व्याप्तिमधिगच्छति । तत्रैवानुमानप्रवृत्तेः तत्र च तत्प्रवृत्तेर्वैयर्थ्यम् साध्यस्याध्यक्षसिद्धत्वात् । न च सकलं ज्ञानमात्मनि तयोर्व्याप्तिं प्रतिपद्यत २० १ "नीलादिप्रतिभासानामिति योगः"-बृ.टि. । “तदन्येषां नीलादिप्रतिभासानामिति योगः"-ल.टि.। २"नीलादिप्रतिभासैः"-बृ. ल. टि.। ३ “एकाणुप्रतिभासस्य"-बृ० ल.टि.। ४ "विचारेण"-बृ० ल.टि.। ५-तस्य तत्व-बृ०। ६ “न चैवंवादिनः खरूपस्य खतोऽवगतिघंटते" । एवंवादिनः “समकालो भिन्नकालो वार्थो न ग्राह्य इत्येवंवादिनो योगाचारस्य" । खरूपस्य "ज्ञानस्य" । स्वतः "ज्ञानात्"-प्रमेयक० पृ. २४ प्र. पं० २, टि० ९-१०-११ । ७ नान्या-ल. वा. बा. भां० मां०। ८-भावो वु-ल० वा० बा० । ९प्रमेयक० पृ. २४ प्र. पं०५, अन्यः "अर्थः" । अनुभाव्यो “ग्राह्यः"। अनुभवो “ग्राहकः"-टि० ३३३४-३५ । स्याद्वादर० पृ. ७३ द्वि. पं० १३ । “नान्योऽनुभावो बुद्धयाऽस्ति xxx खयमेव प्रकाशते"-न्यायमज. आ. ९ पृ. ५४० ५० १९ । श्लो० वा. पार्थ० व्या० पृ. २७५ पं० १९ । सर्वदर्शनसं० द. २ पृ. ३१ पं० १९६ । षड्द० स० बृ० वृ० पृ. ४० पं०१३। १० "न खलु खरूपमात्रपर्यवसितं ज्ञानं निखिलमवभासमानलं ज्ञानत्वव्याप्तमित्यधिगन्तुं समर्थम्"-प्रमेयक० पृ० २४ प्र. पं०६।११ पृ. २५० २५, टि. ७ । "तदुक्तमन्यैः-द्वयसंबन्धसंवित्तिनैकरूपप्रवेदनात् ।" इत्यादि५,२४ तत्त्वार्थश्लो. वा. पृ. ४२१ पं० ११। सिद्धिवि० टी० लि. पृ. १०९ पं० २६ । १, २० रत्नाकराव. पृ. ४२५० ८ । स्याद्वा० का० १६ पृ० १३० पं० ८। १२ “अवभासनस्य"-. ल. टि.। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ द्वितीये काण्डेइति वक्तव्यम् सकलज्ञानावेदने वादिनैवंप्रतिपत्तुमशक्तेः । न च न परमार्थतस्तयोर्व्याप्तिः अपितु व्यवहारेणेति वक्तव्यम् व्यवहारस्यापि प्रमाणत्वाभ्युपगमे उक्तदोषानतिवृत्तेः । अथाप्रमाणं विकल्पनमात्रमसौ, नन्वनुमानमप्यतः प्रवृत्तिमासादयत् तथाभूतमिति नातोऽभिमतसिद्धिः । न च मिथ्याविकल्पविषयधूमाग्निव्याप्तिप्रभवाश्यनुमानवदस्यापि स्वसाध्याव्यभिचारित्वम् मिथ्याविक५ल्पावगतव्याप्तिप्रभवस्य तस्य स्वसाध्याव्यभिचारित्वव्याघातात् न हि साध्यभाव एव साधनभावलक्षणव्याप्त्यभावे साधनप्रभवानुमानस्य कस्यचित् स्वसाध्याव्यभिचारोऽविरुद्धः । न चाविद्यमानव्याप्तिलिङ्गप्रभवादनुमानात् सौगतस्य स्वमतसिद्धिः परस्यापि तथाभूतात् कार्याद्यनुमानात् ईश्वराद्यभिमतसाध्यसिद्धिप्रसक्तेः । न च ज्ञानत्व-स्वतःप्रकाशनयोः साध्यसाधनयोः कुतश्चित् प्रमाणाद व्याप्तिसिद्धिः पारमार्थिकी ज्ञानवजडस्यापि परतोग्रहणसिद्धेहेतोरनैकान्तिकत्वप्रसक्तेः। १० जडस्य प्रकाशायोगोऽप्यप्रतिपन्नस्य प्रतिपत्तुमशक्यः शक्यत्वे वा सन्तानान्तरस्यापि स्वप्रकाशायोगः प्रेतिपत्तव्य इति तस्याप्यभावः प्रसक्तः तथा च परप्रतिपादनार्थ प्रकृतहेतूपन्यासो व्यर्थः । अथ प्रतिपन्नस्य जडस्य प्रकाशायोगस्तथापि विरोधः-'जडः प्रतीयते प्रकाशायोगश्च' इति । अथादृश्येऽपि जडे विचारात् तदयोगः प्रतीयते; ननु जडस्य तेनाप्यविषयीकरणे पूर्ववद्दोषः-'विचारस्तत्र न प्रवर्तते तत एव च प्रकाशीयोगप्रतिपत्तिः' इति । विषयीकरणे विचारवत् प्रत्यक्षादिनापि तस्य १५विषयीकरणात् प्रकाशायोगोऽसिद्धः । न च सुखादी प्रकाशनस्य ज्ञानत्वेन व्याप्तिनिश्चयात् स्वव्यापकरहिते जडे न तस्य संभवोऽन्यथा कृतकत्वादेरप्यनित्यत्वविकल आत्मादौ संभव इति सकलानुमानोच्छेद इति वक्तव्यम् यतस्तत् तत्र तेन व्याप्तमिति कुतो निश्चितम् ? 'तस्मिन् सति दर्शनात्' इति यद्युच्येत पुरुषत्वं किञ्चिज्ज्ञत्वेन व्याप्तं तेत एव सिद्ध्येत् विपक्षे बाधकाभावः प्रकृतेऽपि समानः। अपि च, ज्ञानत्वेन व्याप्त प्रकाशनं सुखादौ स्वयमेव प्रतिपन्नं यदि तदेव नीला२०दावपि कुतश्चित् प्रमाणात् प्रतीयते तदा ततस्तत्र साध्यसिद्धिर्युक्ता न पुनः साध्यव्याप्तधर्मविलक्षणादपि 'धर्मात् प्रतिभासः' इति शब्दसाम्येऽपि अन्यथा बुद्धिमत्कारणव्याप्तघटादिसन्निवेशविलक्षणादपि पर्वतादिसन्निवेशात् तत्र बुद्धिमत्कारणसिद्धिः स्यादिति “वस्तुभेदे प्रसिद्धस्य"[ ] इत्यादेरभिधानमसङ्गतं भवेत् । न च नीलादौ सुखाद्यवभासनं परस्य सिद्धम् सिद्धौ वा विप्रति पत्तेरभावान्न तदवबोधार्थ शास्त्रप्रणयनं सौगतस्य युक्तम् । जडतासमारोपव्यवच्छेदार्थ तदिति २५चेत्, न; स्वप्रतिभासेऽप्यन्यथाप्रतिभाससमारोपोऽस्त्येव आत्मनोऽनेकरूपेण स्वतःप्रतिभासाभ्युप गमात् स कुतो व्यवच्छिद्यताम् ? न चाँयं न समारोपः खात्मनि स्वकार्यकारी साध्यवत् 'स्वप्रतिभासो नीलादिः अन्यग्राहकाभावे सत्युपलभ्यमानत्वात् सुखादिवत्' इत्यतोऽनुमानात् स व्यवच्छिद्यते अन्यग्राहकाभावश्चानुपलम्भादिति चेत्, न; स्वसंवेदनप्रत्यक्षतोऽहमहमिकया अन्यग्राहकोपलब्धेस्तैदभावस्यासिद्धत्वात् । अथ 'स्थूलोऽहम्' 'कृशोऽहम्' इति प्रतीतेः 'अहं'प्रत्ययः शरीरमेव ३० न च तत् नीलादेाहकम् स्वयं तस्य प्रमेयत्वात्, न; अन्धकाराद्यवगुण्ठितशरीराग्रहेऽपि सालोक घटादिग्रहणोपलब्धेः शरीरात् तद्भेदसिद्धिस्तथाप्यभेदे न किञ्चिद् भिन्नं भवेत् । ततो भिन्नोऽपि न नीलादेाहक इति चेत्, न; अस्य प्रतिविहितत्वात् । ततो न दृष्टान्तदृष्टसाधनधर्मस्य साध्यधर्मिण्यवगतिरित्यसिद्धो हेतुः । न च नैयायिकादीन् प्रति सुखादेर्ज्ञानता सिद्धति साध्यविकलता दृष्टान्तस्य अथात एव हेतोर्ज्ञानता सुखादेः सिद्धेति न साध्यविकलतादोषः; नन्वत्राप्यपरं निदर्शनमुपा३५ देयम् तत्राप्येतच्चोधे निदर्शनान्तरमित्यनवस्था । नीलादेर्निदर्शनत्वे इतरेतराश्रयत्वम्-सुखादिज्ञानतासिद्धौ नीलादेस्तद्रूपतासिद्धिः तस्याश्च तन्निदर्शनवशात् सुखादेस्तद्रूपतेति कथं नेतरेतराश्रयत्वम् ? न च सुखादौ दृष्टान्तमन्तरेणापि तद्रूपतासिद्धिः नीलादावपि तथैव तदापत्तेः। अथ सुखादेर्जडत्वे प्रतिभासो न भवेत् जडस्य प्रकाशायोगात्। ननु नीलादावपि प्रकाशतासिद्धावेतदेव "प्रमाणभूतम्”-बृ० टि० । “प्रमाणरूपम्"-ल.टि.। २ प्रतिपद्यत इति बृ०। ३ "विचारेण"बृ. ल.टि.। ४-शायोगः प्र-बृ०। ५"तद्दर्शनात्"-वृ. ल.टि.। ६ प्रतीयेत त-बृ०। ७-शात तद बु-वा. बा०। ८"शास्त्रप्रणयनम्"-बृ. ल.टि.। ९-भासमारो-बृ० भां. मां. विना। १. "खप्रतिभासेऽपि यो जायते"-वृ० ल.टि.। ११ “अन्यग्राहकस्य"-बृ. ल. टि.। १२-त्वान्नाधका-ल. । -त्वान्नकारा-वृ.। १३ "तस्यां च तन्निदर्शनात्"-प्रमेयक० पृ. २४ द्वि. पं० । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। वक्तव्यम् किं सुखादिनिदर्शनेन? तत्र चोक्तमेव दूषणम् । अथ सुखादेरज्ञानत्वे ततोऽनुग्रहाद्यभावो भवेत्, ननु किं सुखमेवानुग्रहः, उत ततो भिन्नम् ? प्रथमपक्षे व ज्ञानत्वेनासौ व्याप्तः यतस्तदभावे न स्यात् व्यापकाभावे हि नियमेन व्याप्याभावः परस्याभीष्टः अन्यथा प्राणादेः सात्मकत्वेन क्वचिद् व्यात्यसिद्धावप्यात्माभावे स न भवेदिति केवलव्यतिरेकिहेत्वगमकत्वप्रदर्शनमयुक्तं भवेत् । तन्न प्रथमः पक्षः । नापि द्वितीयः यतो यदि नाम सुखे ज्ञानताऽभावः अर्थान्तरभृतानुग्रहस्याभावे५ किमायातम् न हि यज्ञदत्तस्य गौरताअभा(ताऽभा)वे देवदत्ताभावो दृष्टः। तज्ज्ञानताकार्यत्वात् तदभाव इति चेत्, न; परं प्रति तदसिद्धेः । किञ्च, ग्राह्यग्राहकभाववत् समानसमय-भिन्नसमययोः कार्यकारणभावो दुरन्वय इति प्राक् प्रतिपादितं न पुनरुच्यते । तन्न नैयायिकादीन् प्रति ज्ञानता सुखादेः कुतश्चित् साधनात् सिद्धा । प्रत्यक्षतस्तत्सिद्धिरिति चेत्, न; नीलादावप्यध्यक्षत एव तत्सिद्धिप्रसक्तेरनुमानोपन्यासस्तत्र तत्साधनाय वैफल्यमासादयेत् तथापि तदुपन्यासे सुखादावपि १० तत्प्रसाधनाय तस्योपन्यासो भवेत् न हि नीलादिकमपि स्वसंवेद्यमिति परस्य न सिद्धम् । अथ तत्र जडतासमारोपाद तद्व्यवच्छेदार्थमनुमानं प्रवर्त्तमानं नानर्थकं तर्हि सुखादावपि तद्व्यवच्छेदाय तत् प्रवर्त्तमानं किमित्यनर्थकं भवेत् ? अस्ति च तत्रापि नैयायिकादीनां जडतासमारोपः तत्र च तत्प्रवर्त्तने दोषःप्रतिपादित एव । न च विपरीतारोपव्यतिषक्तमूर्तयो भावा दृष्टान्तीभवन्ति साध्याविशेषादिति । न सुखादीनां प्रकृतसाध्ये दृष्टान्तता । न च जैनस्य तत्र समारोपाभावात तं प्रति १५ तस्य दृष्टान्तता साधनोपन्यासस्यापि तमेव प्रति प्रसक्तेनैकान्ततोऽर्थाभावः सर्वान् प्रति विप्रतिपत्तेरनिराकरणाद् जैनस्यापि किमिति तत्र तदभावः? तेन तंत्र ज्ञानत्वनिश्चयात् निश्चयसमारोपयोश्च विरोधादिति चेत्, कुतः पुनस्तत्र तस्य तन्निश्चयः? प्रमाणमन्तरेणेति चेत्, न; तथानिश्चितस्य दृष्टान्तत्वायोगात् । प्रमाणतश्चेत् नीलादौ जडतानिश्चयस्यापि तत एव संभवात् समारोपाभावतोऽनुमानोपन्यासो व्यर्थस्तव्यवच्छेदाय । नीलादावजडे जडतानिश्चयो न प्रमाणनिबन्धनस्तेन २० तत्रानुमानोपन्यास इति चेत् सुखादौ कुतस्तन्निबन्धनो ज्ञानतानिश्चयः? अध्यक्षतस्तस्य ज्ञानता. सिद्धिरिति चेत्, न; इतरत्रापि तत एव जडतासिद्धेः न च जडतानिश्चयहेतुरध्यक्षं प्रमाणमेव न भवति इतरत्रापि तत्प्रसक्तेः अबाधितत्वमुभयत्र समानम् न च जैनस्य सुखादौ प्रकाशनं ज्ञानरूपतया व्याप्तं प्रसिद्धमिति तेन स्तम्भादौ ज्ञानता साध्यत इति न किञ्चित् प्रमाणाप्रमाणसिद्धताविचारेण प्रयोजनं यतः स्वतःप्रकाशनं ज्ञानरूपतया व्याप्तं तस्य यत् सिद्धं तत् स्तम्भादौ २५ नास्तीत्यसिद्धो हेतुः परतःप्रकाशनं यत् स्तम्भादौ तस्य सिद्धं न तद् ज्ञानरूपतया व्याप्तम् प्रकाशनमात्रं च स्तम्भादावुपलभ्यमानं जडतयाऽविरुद्धत्वान्नैकान्ततो ज्ञानरूपतां साधयतीति न प्रकाशनलक्षणो हेतुर्ज्ञानरूपतां स्तम्भादेः साधयतीति स्थितम् । अथ माभून्नीलादेर्शानरूपता तत्प्रसाधकप्रमाणाभावतः पारमार्थिकार्थरूपता तु तस्य कुतो येन ताहिज्ञानमर्थनिर्णीतिरूपतया प्रमाणं भवेत् ? उच्यते; अबाधितप्रत्ययविषयत्वान्नीलादेः परमार्थ-३० रूपता । तथाहि जाग्रदवस्थोपलभ्यमानो नीलादिः परमार्थसन् सुनिश्चिताऽसंभवद्वाधकप्रमाणत्वात् सुखादिसंवेदनवत् । न चास्य प्रत्यक्षं बाधकम् अस्खलत्प्रत्ययविषयतया सर्वेरस्य दर्शनात् अन्यथा व्यवहारिणस्तत्र प्रवृत्तिर्न स्यात् । न चानुमानं वाधकम् अध्यक्षसिद्धेऽनुमानस्य बाधकत्वेनाप्रवृत्तेः न चानुमानमर्थासत्त्वप्रतिपादकमुपलभ्यते । अथ यद् विशददर्शनावसेयं न तत् परमार्थसत् यथा तैमिरिकोपलभ्यमानं केशोन्दुकादि, विशददर्शनावसेयं च स्तम्भादिकमित्यतोऽनुमानात् तदभावः, ३५ न; अस्यानुमानस्य पराभ्युपगमेन प्रामाण्यायोगादिति प्रतिपादितत्वात् । किञ्च, परमार्थसत्ताभावः १“अनुग्रहः"-बृ० ल० टि.। २ “ज्ञानरूपता"-बृ० ल० टि.। ३-ताभा-बृ० विना। ४ "न खलु यज्ञदत्तस्य गौरत्वाभावे देवदत्ताभावो दृष्टः"-प्रमेयक. पृ. २४ द्वि. पं० ११। ५ तज्ञा-ल. वा. बा० । तदज्ञाभां. मां०। ६-त एतत्-बृ० विना। ७ "ज्ञानरूपता"-बृ. ल. टि.। ८ "जैनम्"-बृ० ल. टि.। ९ “जैनेन"-बृ० ल. टि.। १० "सुखादिषु"-बृ. ल.टि.। ११-यावि-बृ० विना। १२ पृ. ३६१ टि. ३१ । एतत्पदस्यार्थ स्पष्टीकर्तुमयमष्टसहस्रीगतः पाठो विचारणीयः-"नभसि केशादिज्ञानं हि बहिर्विसंवादकत्वात् प्रमाणाभासम् खरूपे संवादकत्वात् प्रमाणम्"-पृ. २४८ पं० ११। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे - स्तम्भादेर्यद्यनेनानुमानेन न प्रतीयते कथमस्य बाधकता ? बाध्यज्ञानगृहीत धर्माभावग्राहकस्यैव बाधकत्वात् 'अश्रावणः शब्दः' इत्यस्य प्रत्यक्षवत् अन्यथा नीलज्ञानस्यापि पीतज्ञानबाधकता भवेत् । प्रतीयत इति चेत् स यद्यपरमार्थसन् नातः स्तम्भादेरसत्त्वसिद्धिः परमार्थसंश्चेत् अनेनैव हेतोर्व्यभिचारः । न चाभावग्राहकत्वादनुमानं तद्बाधकं नेष्यते अपि तु परमार्थसत्त्वसमारोपव्यवच्छेद५ करणादिति वक्तव्यम् तस्यैवासिद्धेः । तथाहि तद्व्यवच्छेदः समारोपस्वभावः तदभावरूपो वा भवेत् ? 'प्रथमपक्षे समारोपव्यवच्छेदकार्यनुमानं समारोपकारि प्रसक्तम् न चैतद् युक्तम् कृतस्य करणायोगात् । द्वितीयपक्षे विनाशस्य सहेतुकत्वमनिष्टमासज्यते । किञ्च, असौ व्यवच्छेदोऽनुमानेन यदि प्रतीयते परमार्थसंश्च पुनरपि हेतोरनैकान्तिकत्वम् । न प्रतीयते चेत् न तर्ह्यनुमानेन समारोपव्यवच्छेदकरणम् अन्यथाभूतस्यं तस्य तेन करणासंभवात् । न च स्तम्भादिस्वरूपोऽपि समारोपव्यवच्छेदोऽनुमानेन १० क्रियते स्तम्भादेः स्वहेतुभ्य एवोत्पत्तेः । न चासावनुमानस्वरूप एव तेनैव तस्य करणविरोधात् । न चानुमानसन्निधौ तदनुत्पत्तिरेव ततस्तद्व्यवच्छेदः तत्रापि पूर्वोक्तदोषस्य समानत्वात् । किञ्च, समारोपविविक्तं भावान्तरं यदि भाविसमारोपानुत्पत्तिः तच्चानुमानेन प्रतीयते परमार्थसच्च पुनरपि हेतुस्तेनैव व्यभिचारी । अथ न परमार्थसन्न तर्हि तद्राह्यनुमानं प्रमाणमिति कथं तस्य बाधकत्वम् ? न च न तद्व्यवच्छेदकरणादनुमानं तद्वाधकमपि तु तदभावाविसंवादादिति वक्तव्यम् तदविषयस्य तदवि - १५ संवादकत्वायोगात् । तत आत्मलाभ एव तदविसंवाद इति चेत्; ननु तदात्मलाभोऽपि यद्यनुमानेनात्मनो ज्ञायते पारमार्थिकश्च पुनरप्यनेनैव हेतुर्व्यभिचारी अपारमार्थिकश्चेन्न तद्विषयमनुमानं तद्बाधकम् । न च स्वापादौ तदभावदर्शनावसेयत्वयोः प्रतिबन्धग्रहणादन्यत्रापि दर्शनावसेयत्वं तत्प्रतिबद्धं तज्जनितं चानुमानं पदार्थाभावजनितमिति सिद्धस्तत आत्मलाभोऽविसंवादः यतः साकल्येन प्रतिबन्धग्रहणे प्रतिबन्धस्य ग्राहकं तदासक्तं तत्र च पूर्वप्रतिपादित एव दोषः तदग्रहणे २० च न तस्मादनुमानस्यात्मलाभनिश्चयः । न च तयोरेकत्र सहभावदर्शनात् सर्वत्र तथाभावः अन्यथेश्वराद्यनुमानमप्यविसंवादकं भवेत् । अपि च, स्वापाद्यवस्थावभासिनो घटादेर्यदि परमार्थसत्त्वाभावो न गृह्यते कथं न साध्यविकलता दृष्टान्तस्य । गृह्यते चेत् तस्य पारमार्थिकत्वे हेतोर्व्यभिचारस्तदवस्थः अपारमार्थिकत्वे दृष्टान्तः साध्यविकलः । अथ न सौगतेन तदभावो गृह्यते अपि तु बहिरर्थवादिनेति न पूर्वोक्तो दोषः, नः तेन प्रमाणेन तदभावग्रहणे सौगतेनापि तग्रहणप्रसङ्गात् प्रमाणस्य क्वचित् २५ पक्षपातासंभवात् प्रमाणमन्तरेण ग्रहणे न तेन हेतोर्व्याप्तिः अभ्युपगममात्रसिद्धस्य व्यापकत्वायोगात् अन्यथा बौद्धाभिमतनाशादिना सुखादेरचेतनत्वसाधनं साङ्ख्यस्य किमित्ययुक्तं भवेत् ? तन्न प्रकृतमनुमानं साध्यसाधनयोर्व्यात्यग्रहणात् प्रकृतसाध्यसाधनायालमिति न तद्वाधकं युक्तम् । न च प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तं प्रमाणान्तरं सौगतस्याभीष्टं यत् तद्वाधकं भवेत् अतः 'सुनिश्चितासंभव -' ईत्यादिहेतुर्नासिद्धः । न चापरमार्थसति यथोक्तो हेतुः संभवीति नानैकान्तिकः । ३० अथ स्वप्नदृष्टे घटादावपरमार्थसति यथोक्तहेतोः सद्भाव इति कथं नानैकान्तिकः ? न च तत्र बाधकप्रमाणविषयत्वम् वाध्यत्वस्य क्वचिदप्यसंभवात् । तथाहि न तावद् बाधकेन ज्ञानस्य प्रतिभासकाले स्वरूपं बाध्यते तस्य परिस्फुटेन रूपेण प्रतिभासनात् नाप्युत्तरकालं क्षणिकत्वेन तदा तस्य स्वयमेवाभावात् नापि तत्प्रमेयस्य प्रतिभासमानेन रूपेण स्वरूपं बाध्यते प्रतिभासनादेव न च प्रतिभासमानरूपसहचारिणा स्पर्शादिरूपेण, तस्य ततोऽन्यत्वात् न चान्याभावेऽन्यस्याभावो ऽति३५ प्रसङ्गात् । न च ज्ञानस्य ज्ञेयस्य वा फलमुत्पन्नमनुत्पन्नं वा बाध्यते उत्पन्नस्य विद्यमानत्वेन वाध्यत्वासंभवात् अनुत्पन्नस्यापि स्वयमेवासत्त्वात् । न च स्वप्नदृष्टे घटादिके उदकाहरणाद्यर्थक्रिया न संभवति तस्या अपि तत्र दर्शनात् "असंतः सत्त्वेन प्रतिभासनमस्य" [ ] इति ज्ञापनात् स तेन बाध्यत इति चेत्, न; प्रतिभासमानस्य तज्ज्ञापनासंभवात् जाग्रदृष्टघटादावपि तत्प्रसङ्गात् । न च १- सत्वे स-आ० वि० । २- स्य तेन बृ० विना । ३ " अनुमानेन ” – बृ० ल० टि० । ४ " तस्यानुमान - रूपसमारोपस्य” – बृ० ल० टि० । ५ " समारोप " - बृ० ल० टि० । ६ प्र० पृ० पं० ५। ७ हणं त-ल० । ८ " बाह्यार्थवादिना " - बृ० ल० टि० । ९ " न संविद्रूपाः सुखादयः विनाशित्वादिभ्यः कुम्भवदिति" - बृ० ल० टि० । १० पृ० ४८५ पं० ३१ । ११ - भावो - बृ० ल० । १२- त्पन्नं बा - बृ० ल० । १३ “ उदकस्य " - बृ० ल० टि० । १४ " खमवेदने" - बृ० ल० टि० । १५ " घटादिकोऽर्थः " - बृ० ल० टि० । ४८६ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा | ४८७ 'नेदम्' इति तत्र ज्ञानाभावान्न तत्त्रसङ्गः 'नेदम्' इति ज्ञानस्य संत्यपि क्वचित् झटित्यपसृते भावात् असत्यपि चान्यगतचित्तस्याभावात् । तथाहि शीघ्रं गच्छतो मरीचिकाजलज्ञाने 'नेदम्' इति प्रत्ययो नोत्पद्यत एव । 'नेदम्' इति प्रत्ययविषयस्यापि च कथं सत्यता ? बाधकाभावादिति चेत्; ननु बाधकं 'नेदम्' इति ज्ञानम् तस्य चाभावोऽसत्यपि विषये भवतीत्युक्तम् । किञ्च तद्विषयम् अन्यविषयं वा बाधकमभ्युपगम्यते ? न तावत् तद्विषयम् विरोधात् नहि यत् यद्विषयं तदेव तस्यासत्प्रति- ५ भासनं ज्ञापयतीत्युपपन्नम् । नाप्यन्यविषयम् तेनाप्रतिभासमानस्यान्यस्य तज्ज्ञापनायोगात् अन्यथा घंटज्ञानं पटस्य तद् ज्ञापयेदिति । अत्र प्रतिविधीयते - नहि बाधकेन ज्ञानेन स्वरूपम् ज्ञानस्य विषयः फलं वा वाध्यते किन्तु ज्ञानस्यासद्विषयत्वम् अर्थस्य वाऽसत्प्रतिभासनं तेन ज्ञाप्यते यथा शुक्तिकाज्ञानेन रजतविज्ञानस्य रजताकारस्य वा । एतच्च वाध्यबाधकभावमनिच्छताप्यवश्यमभ्युपगन्तव्यम् प्रतिभासाद्वैते स्कन्ध - १० सन्तानादिविकल्पानां स्वयमेव निर्विषयत्वोपवर्णनात् तदुपवर्णनाऽभावे बाह्यभावानामेकानेकरूपतया सामान्य - सामानाधिकरण्य-विशेषणविशेष्यभावादेः पारमार्थिकस्य भावात् प्रतिभासाद्वैतस्याभाव एव स्यात् । किञ्च बाध्यबाधकभावप्रतिषेधविधायियुक्त्युपन्यासेन वादिना किं क्रियते इति वक्तव्यम् न किञ्चिदिति चेत्, तदुपन्यासवैयर्थ्यम् । अथ तूष्णींभावो निग्रहः स्यादिति तदुपन्यासस्तर्हि तदुपन्यासेऽप्यसाधनाङ्गवचनं निग्रह एव भवेदिति तदुपन्यासानर्थक्यम् । बाध्यबाधक - १५ भावाभावप्रतिपत्तिस्तदुपन्यासप्रयोजनमिति चेत्, न तत्प्रतिपत्तेर्यथार्थत्वे परमतसिद्धिप्रसक्तेः तस्या अयथार्थत्वे पुनरप्यानर्थक्यम् । समारोपव्यवच्छेदार्थ तदुपन्यास इति चेत् बाध्यबाधकभावाभावेऽपि र्तंद्भावाध्यवसायसमारोपस्य व्यवच्छेदः स्वरूपापहारश्चेत् तर्ह्यभ्युपगत एव वाध्यबाधकभावः । किञ्च, उदयकाल एव तदपहारे तदप्रतिभास इति न समारोपो नाम इति कस्य निवृत्त्यर्थः शास्त्राद्यारम्भः अन्यदापि स्वयमेव नाशान्न ततस्तन्निवृत्तिः ? अथ शास्त्रादेः प्राक्तनसमारोपक्षणादुत्तर- २० समारोपक्षणजननासमर्थः क्षणः समुपजायत इति तन्निवृत्तिस्तर्हि बाधकाद् वाध्यनिवृत्तिरपि तथैव संपत्स्यत इति न बाध्यबाधकभावनिराकरणं युक्तिसंगतं स्यात् । न च बाध्यबाधकाभावेऽपि परस्य तद्भावाभिमान इति शास्त्रादिना ज्ञाप्यते 'असत्येवार्थे सदभिमानो बाध्यस्येति बाधकेन ज्ञाप्यते' इत्यस्य स्वयमेवाभ्युपगमप्राप्तेस्तद्विषयातद्विषयबाधकपक्षोक्तदोषस्याप्येवमभ्युपगच्छता स्वयमेवाङ्गीकरर्णात् । अथ न किञ्चित् शास्त्रादिना क्रियते केवलमलीकाभिमानोऽयं लोकस्य 'शास्त्रेण बाध्य - २५ बार्धकभावाभावो ज्ञाप्यते तत्समारोपो वा व्यवच्छिद्यते' इति ननु तदभिमानस्यालीकता तदभावेऽपि तदध्यवसायः तथा चैतत्परिज्ञाने परमतमेवाभ्युपगतं भवेत् । अथ शास्त्राद्युपन्यासोऽपि नाभ्युपगम्यते तर्हि 'बाध्यत्वायोगात्' इत्यादिकं किमिति वक्तव्यम् ? तदपि नास्तीति चेत् उपलभ्यमानस्य कथमसत्त्वम् ? अथोपलभ्यते किन्तु स्वप्नोपलब्धसदृशं तत् । तथाहि तद्वचनमपरमार्थसत् उपलभ्यमानत्वात् स्वप्नोपलभ्यमानवचोवदित्यतोऽनुमानात् तदसत्त्वम्, असदेतत्; पूर्वोपन्यस्तदोषानुबन्धात् ३० पुनरपि 'स्वप्नोपलभ्यमानवत्' इत्युत्तराभिधाने चक्रकप्रसक्तिरिति किञ्चिच्छास्त्रादिकमभ्युपगच्छता १ " घटादिके" - बृ० ल० टि० । २ “कर्तृभूतम् " - नृ० ल० टि० । ४ " बाघकेन" - धृ० ल० टि० । ३ " बाधकं कर्मभूतम्”-ल० टि० । ५ " असाधनाङ्गवचनमपजयप्राप्तिरिति व्याहतम् " - अष्टश० का० ७ पृ० ७ ० ८ । "तदुक्तम् - खपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः । नासाधनाङ्गवचनं नादोषोद्भावनं द्वयोः " ॥ अष्टस० पृ० ८७ पं० २० । “अत्र कीर्ति राह--- द्वाविंशतिधा निग्रहस्थानानि विभज्यन्ते तेषां च प्रतिपदमिदानीं विशेषलक्षणानि वर्ण्यन्त इति न मृष्यामहे । कुतः ? असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः । निग्रहस्थानमन्यत् तु न युक्तमिति नेष्यते" । -न्यायमअ० आ० १२ पृ० ६३९ पं० ५-९ । सौगतागमितं पराजयाधिकरणं परीक्षमाणेनाचार्य हेमचन्द्रेण प्रस्तुतटिप्पणोपन्यस्तः “ असाधनाङ्गवचन – ” इत्यादिकः श्लोकः " यथाह धर्मकीर्तिः” इत्युल्लिख्योद्धृतः प्रमाणमीमांसायाम् - २-१-३४ पृ० १०४ पं० २०-२१ । न्यायदर्शन संमतं पराजयाधिकरणमक्षपादेनेत्थं लक्षितम् - " विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम् " - न्यायद० १ २ १९ । एतदपि निग्रहस्थानलक्षणं “न विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्तिमात्रम्" इति सूत्रयन्नाचार्य हेमचन्द्रस्तत्रैव प्रतिक्षिप्तवान् । ६ तदभा वा० वा० आ० । ७-धकाभा - बृ० । ८-णादेव न कि आ० । ९-धकाभाव० ल० । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ द्वितीये काण्डेवाध्यबाधकभावाभावेऽपि तदभिमानो लोकस्येति प्रतीतिश्रितावभ्युपगन्तव्यः स इति बाध्यबाधकभावः स्वप्नोपलब्धौ घटादौ सिद्धो न प्रकृतहेतोर्व्यभिचारः । नापि विरुद्धता परमार्थसत्ताभावेन व्याप्त्यसिद्धेः अन्यथाऽपारमार्थिकं स्वसंवेदनमात्रमपि भवेत् तत्राप्यपरहेतोः पारमार्थिकत्वसाधकस्याभावात् विपर्ययव्याप्तश्च हेतुर्विरुद्धो भवेदिति असिद्ध-विरुद्धाऽनैकान्तिकत्वदोषरहिताद् भव५ त्यतो हेतोर्जाग्रदवस्थोपलभ्यमानस्य घटादेः परमार्थसत्त्वसिद्धिः । तेन 'संवृतानुमानसाध्या शून्यता यद्वा परेण यः कश्चिद्धर्मः पदार्थस्याभ्युपगम्यते स प्रमाणाभान्नि सिध्यति प्रमाणव्यावृत्तौ प्रमेयस्य व्यावृत्तेरभ्युपगमाहत्वात्' इत्याद्यपि परोक्तं निरस्तं द्रष्टव्यम् । उक्तदूषणप्रकारस्यात्रापि समानत्वात् । __ यच्च प्रतिभासाविशेषप्रतिपादनं कृतम्, तदप्ययुक्तम् ; स्वसंवेदनमात्रवत् प्रधानादेरपि सद्भावसिद्धेस्तदभावे स्वसंवेदनस्याप्यभावापत्तेः अन्यथा प्रतिभासाविशेषायोगात् तस्याप्यभावे न किञ्चित् १० तत्त्वं स्यात् । शून्यताभ्युपगमात् तत्त्वाभावः समिष्यत एवेति चेत्, न; तदभ्युपगमस्यापि तत्त्वरूपत्वात् । न च सापि निष्प्रमाणिका अभ्युपगन्तुं युक्ता प्रमाणभावे वा कथं शून्यता तस्यैव तत्त्वरूपत्वात् । न चान्यपरिहारेण तस्य शून्यताव्यवस्थापकत्वे प्रतिभासाविशेषसिद्धिः । अथ न शून्यता नाम काचित् यव्यवस्थापकं प्रमाणमन्विष्येत अपि तु प्रतिभासोपमत्वं सर्वधर्माणां सेति । उक्तं च-"मायोपमाः सर्वधर्माः" [ ] इति, असदेतत् प्रमाणाभावे सर्वधर्माणां मायोपमत्व१५ स्यैवासिद्धेः । यदपि 'प्रतिभासमानस्यैकानेकत्वरूपतयाऽयोगः' तदपि प्रतिभासाभावे असङ्गतम् तत्सद्भावे वा यथा प्रतिभासस्यास्तित्वं तथैकत्वानेकत्वादेरपि धर्मकलापस्यास्तु तन्निषेधकयुक्तिकलापस्य निरस्तत्वात् प्रतिभासस्य च विद्यमानत्वात् इत्यलमतिप्रसङ्गेनेति सिद्धा विज्ञान-शून्यतावादनिषेधेन अर्थनिर्णीतिस्वभावता प्रमाणस्य । [स्वार्थनिर्णयस्वभावं ज्ञानमिति प्रमाणलक्षणं प्रतिक्षेनुकामेन सौगतेन निर्विकल्पस्यैव प्रत्यक्षवस्थापनम् ] अत्राह सौगतः-भवतु स्वार्थनिर्णीतिखभावमनुमानम् प्रत्यक्षं तु निर्विकल्पकत्वान्न तन्निर्णयस्वभावम् । तथाहि-यद् यथा अवभाति तत् तथाव्यवहृतिमवतरति यथा विशदमाभासमानं सुखादिसंवेदनम् नामाद्युल्लेखविविक्ततया चाक्षजं संवेदनमाभातीति स्वभावहेतुः नामाद्युल्लेखपरिष्वक्तवपुषः संविदोऽध्यक्षत्वविरोधात् यतः साक्षात्कारिज्ञानमध्यक्षतया लोके प्रसिद्धम् साक्षात्कारित्वं च २५सन्निहितार्थावभासित्वम् असन्निहिते तद्भावात् नामादिकं चासन्निहितत्वात् परोक्षमिति न तद्योजनामवतरीतुमलम् । १-धकाभावाभावे-वा० बा० ।-धकभावे-आ०। २ “खने उपलब्धिर्यस्येति समासः यद्वा स्वप्नोपलब्धौ यो घटादिस्तत्रासौ"-वृ० ल. टि. । “स्वप्नोपलब्धे [ब्धेः-बृ.टि.] इति पाठान्तरम्"-ल. टि. । ३-थापा-बृ० विना । ४-त्रापि प-वा. वा० । ५ "तेन निरस्तं द्रष्टव्यमिति संटङ्कः"-बृ. ल. टि. । ६-वान्ना सि-आ• हा० वि०। ७ स्याद्वादर० पृ. ९३ प्र. पं० १०-१३ । “अभ्यधिष्महि च शून्ये मानमुपैति चेन्ननु तदा शून्यात्मता दुःस्थिता नो चेत् तर्हि तथापि किं न सुतरां शून्यात्मता दुःस्थिता ?"रत्नाकराव० १,१५ पृ. ३२ पं० २५ । "विना प्रमाणं परवन्न शून्यः खपक्षसिद्धेः पदमश्नवीत । कुप्येत् कृतान्तः स्पृशते प्रमाणमहो ! सुदृष्टं खदसूयिदृष्टम्"स्याद्वा० का० १७ पृ० १४४ । ८ पृ० ३७७ पं० १, टि. १ । पृ. ३७१ टि०८। न्यायप्रवेशकारेण "तत्र प्रत्यक्षं कल्पनापोढं यज्ज्ञानमर्थे रूपादौ नामजात्यादिकल्पनारहितं तदक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षम्” इत्यनेन निर्विकल्पकस्य प्रत्यक्षप्रमाणलं सूत्रितम्-न्यायप्र. सू. ५४ पृ. ७ । तदेव धर्मकीर्तिना "तत्र प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम्" इत्यत्र सूत्रे 'अभ्रान्त'पदनिवेशनेन परिष्कृत्य समर्थितम्-न्यायविं० १-४-पृ. ६ । “यदुकं धर्मोत्तरादिना-कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षमिति"-सिद्धिवि० टी० लि. पृ. ५४ पं०९। एतदेव निर्विकल्पकस्य प्रमाणलोपवर्णनं शान्तरक्षितेन प्रत्यक्षलक्षणपरीक्षायां सविस्तर विविधाक्षेपपरिहारादिना समर्थ्य प्रतिष्ठापितम्-तत्त्वसं० का० १२१३-१३६१ पृ. ३६६-४०४ । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । ४८९ [ वैयाकरणसम्मतं केवलसविकल्पकवादमुपन्यस्य निर्विकल्पकवादिना तस्य दूषणम् ] अत्राह वैयाकरणः:-न वाक्संस्पर्शरहिता काचित् प्रतिपत्तिरस्ति शब्दानुविद्धायास्तस्याः प्रतिभासनात् यदि तु तत्संस्पर्शविकला साऽभ्युपगम्येत प्रकाशरूपतापि तस्या हीयेत वाग्रूपता हि शाश्वती प्रत्यवमर्शिनी च तदभावे न तस्याः किञ्चिदपरं रूपमवशिष्यते । तदुक्तम्"वाग्रूपता चेद् व्युत्क्रामेदवबोधस्य शाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी " ॥ [ वाक्यप० प्र० का लो० १२५ न च निरस्तोल्लेखं स्वसंवेदनं व्यवहारविरचैनचतुरमिति सविकल्पमभ्युपगन्तव्यम् । असदेतत् यतोऽध्यक्षं पुरः सन्निहितमेव भावात्मानमवभासयति तत्रैवाक्षवृत्तेः वाग्रूपता च न पुरःसन्निहितेति न सा तत्र प्रतिभाति । न च व्यापितया पदार्थात्मतया वा अर्थदेशे सन्निहिता वागिति तद्दर्शने साप्यवभाति, वाचामर्थदेशे सन्निधेरयोगात् । तथाहि यदाऽक्षान्वये संवेदने १० पुरस्थो नीलादिराभाति न तदा तद्देश एव शब्दात्मा वक्तमुखदेशस्य तस्यावभासनात् । न चान्यदेशतयोपलभ्यमानोऽन्यदेशोऽभ्युपगन्तुं युक्तः नीलादेरपि तथाभावप्रसक्तेः । अतो वाग्विविक्तस्य नीलादेरवभासनान्नार्थदेशे वाक्सन्निधिरिति न तत्संस्पर्शवत्यक्षमतिः । न च पदार्थात्मता वाचो युक्ता, तत्त्वेनाप्रतिभासनात् । स्तम्भादिर्हि शब्दाकारविविक्तः पुरः प्रतिभाति शब्दोऽप्यर्थविविक्तस्वरूपेण श्रोत्रज्ञानेऽवभातीति न तयोरैक्यम् प्रतिभासभेदतो भेदात् तथाप्यभेदे न क्वचिद् भेदो १५ भवेदित्यध्यक्षं शब्दविविक्तरूपादिविषयं न वाग्रूपतासंसृष्टं तत्र तस्या असन्निधानात् । व्यवहिताया अपि वाचः प्रतिभासे सकलव्यवहितभावपरम्परा प्रतिभासताम् अर्थसन्निधानेऽपि वा वाचो लोचनमतावर्थप्रतिभासे न तस्याः प्रतिभासः तदविषयत्वात् नहि यो यदविषयः स सन्निहितोऽपि तत्र प्रतिभाति यथाऽऽम्ररूपप्रतिपत्तौ तद्रसः अविषयश्च लोचनबुद्धेः शब्द इति । लोचनबुद्धिर्वाऽर्थमनुसरन्ती स्वविषयमेवावभासयति नेन्द्रियान्तरविषयं सन्निहितमपि यथा रसनसमुद्भवा मधुरादि- २० प्रतिपत्तिस्तदेव न परिमलादिकं लोचनप्रभवप्रत्ययेनैव श्रुतिविषयशब्दप्रतिपत्तौ नयनबुद्धिरेव सर्वाक्षविषयग्राहिका इतीन्द्रियान्तरपरिकल्पनावैयर्थ्यम् । शब्दात्मकेऽपि पदार्थेऽभ्युपगम्यमाने श्रुतिरेव शब्दपरिणतिमधिगच्छति लोचनं च रूपविवर्त पर्येतीत्यभ्युपगन्तव्यम् अन्यथैकमेवाक्षं विषयपञ्चकं विषयीकरोतीति तत्राप्यक्षपञ्चककल्पना विफलतामनुभवेत् ततः सकलमक्षवेदनं वाचकविकलं स्वविषयमेवावलोकयतीति निर्विकल्पकम् । न चार्थसन्निधानाद् वाचः - सन्निधावप्यक्षान्तर. २५ वैफल्यप्रसक्तेः – लोचनमतौ यदि नाम न शब्दसन्निधिजनिता शब्दाकारता तथाप्युपादानाद् बोधरूपतैव वाग्रूपतापि वाचकस्मृतिजनिता तत्र भविष्यति यतो यदि स्मरणजनितो वाग्रूपतोल्लेखस्तदा स्पटलोच प्रभवशोभिन्न एव भवेत् कारण - विषयभेदात् । तथाहि - लोचनव्यापारानुसारिणी हर घर्तमानकालं रूपमात्रं विशदतयाऽवभासयति विकल्पस्तु शब्दस्मरणप्रभवोऽसन्निहितां वाग्रूपतामध्यवस्यति कथं न हेतुविषयभेदात् तयोर्भेदः १ अथ वाक्परिष्वक्तं रूपमधिगच्छद् 'रूपमिदम्' इत्येकं ३० संवेदनमध्यवस्यति जन इति कथं न तयोरैक्यम् ? नैतत् यतः 'रूपमिदम्' इति ज्ञानेन वाग्रूपतापन्नाः पदार्था गृह्येरन्, भिन्नवाग्रूपताविशेषणविशिष्टा वा ? प्रथमपक्षे लोचनं वाश्रूपतायां न प्रभवतीति तदनुसारिण्यध्यक्षमतिरपि न तत्र प्रवृत्तिमती ततः कथमसावर्थरूपापन्नां वाग्रूपतामधिगन्तुं क्षमेत्यन्यैवाक्षमतिर्नामोल्लेखात् । अथ द्वितीयः पक्षस्तदापि नयेंनडेंग् तद्विषये शुद्ध एव पुरोव्यवस्थिते ५ १ इदं मतं तन्निरसनं च प्रमेयकमलमार्तण्डे समानप्रायं वर्तते पृ० ११ द्वि० पं० ३ - पृ० १२ प्र० पं० ११ । अष्टसहख्यां तु वैयाकरणीयशब्दाद्वैतदर्शन- तत्प्रतिवादपरा चर्चा संक्षिप्ता भङ्गयन्तरेण च दृश्यते - पृ० १३० पं० १ । २- ते यदुक्तम् बृ० ल० वा० वा० । ३ पृ० ३८० पं० १४, टि० १३ । “ तथा च वैयाकरणा आहुः" इत्युल्लिख्य श्लोकोऽयमुद्धृतो वर्तते न्यायबिन्दुटीकाटिप्पण्याम् पृ० २० पं० २-४ । न्यायमञ्ज० आ० ९ पृ० ५३२ पं० ११ ॥ ४- चनाच- आ० । ५ " सौगत उत्तरमिति” -ल० टि० । ६- क्तनी - आ० । ७ - विक्तः स्व बृ० । ८-ति अत्रा घृ० वा० बा० । ९ चार्थे स वा० बा० । चास पृ० । १० - यनं ह - भ० छा० वि० विना । ११- ग् वि धृ० । ६३ स० त० Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० द्वितीये काण्डे - प्रवर्तते न वाचि, तत्र चावर्त्तमाना कथं तद्विशिष्टं स्वविषयमुद्द्योतयितुं समर्था, न हि विशेषणं भिन्ननवभासयन्ती तद्विशिष्टतया विशेष्यमवभासयति दण्डाग्रहण इव दण्डिनम् । न च यद्यपि वाग शिन प्रतिभाति तथापि स्मृतौ प्रतिभातीति विशेषणमर्थस्य भिन्नज्ञानग्राह्यस्यापि विशेषणत्वोपपत्तेरिति वक्तुं शक्यम् संविदन्तरप्रतीतस्य स्वातन्त्र्येण प्रतिभासनात् तदनन्तरप्रतीयमानविशेषण५ त्वानुपपत्तिः । यतो नैककालमनेककालं वा शब्दस्वरूपं स्वतन्त्रतया स्वग्राहिणि ज्ञाने प्रतिभासमानं विशेषणभावं प्रतिपद्यते सर्वत्र तस्यं तद्भावापत्तेः । न च शब्दानुरक्तरूपाद्यध्यक्षमतिरुदेतीति शब्दस्य विशेषणत्वं रूपादेश्व विशेष्यत्वम् यतो यदि तदनुरक्तता तत्प्रतिभासस्तदा शब्दस्याक्षबुद्धावप्रतिभासनान्न तदनुरक्तता । अथ रूपादिदेशे शब्दवेदनं तदनुरक्तता, तदपि न युक्तम्; निरस्तशब्दसन्निधीनां रूपादीनां स्वज्ञाने प्रतिभासनात् । अथ तत्कालशब्दप्रतिभासस्तदनुरागः, न; नयनदृशि १० रूपादिव्यतिरिक्तशब्दप्रतिभासाभावात् यतो न तुल्यकालमपि शब्दं लोचनसंविद् अवभासयितुं क्षमा तस्य तदविषयत्वात् । अथ शब्दानुषक्तरूपस्मृतिदर्शनात् तद्रूपस्य तस्य प्राग्दर्शनमुपेयते तर्हि शब्दविविक्तमर्थरूपं प्रत्यक्षमधिगच्छति वाचकं तु स्मृतिरुल्लिखतीति न तत्संस्पर्शमध्यक्षमनुभवतीति निर्विकल्पकमासक्तम् अन्यथा शब्दस्मरणासंभवादध्यक्षाभावो भवेत् । तथाहि यदि वाक्संस्पृष्टस्य सकलार्थस्य संवेदनं तथासत्यर्थदर्शने तद्वाक्स्मृतिस्तत्र च तत्परिकरितार्थदर्शनम् न च कश्चिद१५ वाक्संस्पर्शविकलमर्थमवगच्छति तमन्तरेण च न वाक्स्मृतिः तां चान्तरेण न वागनुषक्तार्थदर्शनमित्यर्थदर्शनाभावो भवेत् ततोऽर्थदर्शनान्निर्विकल्पकमेव तदभ्युपगन्तव्यम् । यदि च वाक्संसृष्टस्यैवार्थस्य ग्रहणं तदाऽगृहीतसंकेतस्य बालकस्य तग्रहणं न भवेत् । अथ तस्यापि 'किम' इति वागुखोऽस्तीति तदनुषक्तग्रहणं सविकल्पकम् नैतद् युक्तम्; तस्य 'किमपि इति सामान्यस्यैव ग्रहणं भवेन्न विशेषस्येति न विशदावभास्यर्थसंवेदनसंभवः । यदा चावं विकल्पयतो गोदर्शनं परिणमति २० तदा तद्वागपरिच्छेदात् कथमवबोधस्य शाश्वती वाग्रूपता ? न हि तदा गोशब्दोल्लेखस्तदवबोधस्य संभवति तत्संवेदनाभावात् युगपद्विकल्पद्वयानुत्पत्तेश्च । ततोऽध्यक्षमर्थ साक्षत्करणान्न वाग्योजना १-पत्तेः । आ० हा० वि० । २-स्य सद्भा-वृ० । ३ " शब्दस्य लोचनसंविद विषयत्वात् " - बृ० टि० । ४-मर्थस्वरू- बृ० वा० बा० भ० मां० । ५ " शब्द - " बृ० टि० । ६- संसृष्ट- बृ० वा० बा० आ० । ७- कश्चिद् वाधृ० । कश्चिदव - आ० । ८- संस्पृष्ट-आ० । ९ हणे स वृ० विना । १० - क्षात्का वा० बा० भ० मां० विना । 'न वाक्संस्पर्शरहिता काचित् प्रतिपत्तिरस्ति शब्दानुविद्धायास्तस्याः प्रतिभासनात्' इति वैयाकरणसिद्धान्तस्य निरसनं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकेऽनेन प्रकारेण दृश्यते " तथासति यदाह परः “वाग्रूपता चेदुत्क्रामेदवबोधस्य शाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी " ॥ इति तदपास्तं भवति तया विनैव आभिनिबोधिकस्य प्रकाशनादित्यावेदयति वाग्रूपता ततो न स्याद्योक्ता प्रत्यवमर्शिनी । मतिज्ञानं प्रकाशेत सदा तद्धि तया विना ॥ वैखरीं मध्यमां वाचं विनाशज्ञानमात्मनः । खसंवेदनमिष्टं नोऽन्योन्याश्रयणमन्यथा ॥ पश्यन्त्या नु विना नैतद्व्यवसायात्म वेदनम् । युक्तं न चात्र संभाव्यः प्रोक्तोऽन्योन्यसमाश्रयः ॥ व्यापिन्या सूक्ष्मया वाचा व्याप्तं सर्वं च वेदनम् । तया विना हि पश्यन्ती विकल्पात्मा कुतः पुनः ॥ मध्यमा तदभावे क्व निर्बीजा वैखरी रखात् । ततः सा शाश्वती सर्ववेदनेषु प्रकाशते ॥ इति येऽपि समादध्युस्तेऽप्यनालोचितोक्तयः । शब्दब्रह्मणि निर्भागे तथा वक्तुमशक्तितः ॥ नयवस्था च श्रोत्रस्य सत्याद्वैतप्रसङ्गतः । न च तासामविद्यात्वं तत्त्वासिद्धौ प्रसिध्यति ॥ ब्रह्मणो न व्यवस्थानमक्षज्ञानात् कुतश्चन । खमादाविव मिथ्यात्वात् तस्य साकल्यतः स्वयम् ॥ नानुमानात् ततोऽर्थानां प्रतीतेर्दुर्लभत्वतः । परप्रसिद्धिरप्यस्य प्रसिद्धा नाप्रमाणिका ॥ स्वतःसंवेदनात् सिद्धिः क्षणिकानंशवित्तिवत् । न परब्रह्मणो नापि सा युक्ता साधनाद् विना ॥ आगमादेव तत्सिद्धौ भेदसिद्धिस्तथा न किम् । निर्बाधादेव चेत्तव्यं न प्रमाणान्तरादृते ॥ तदागमस्य निश्चेतुं शक्यं जातु परीक्षकैः । न चागमस्ततो भिन्नः समस्ति परमार्थतः ॥ तद्विवर्तस्त्वविद्यात्मा तस्य प्रज्ञापकः कथम् । न चाविनिश्चिते तत्वे फेनबुद्बुदवद् भिदा । मायेयं बत दुष्पारा विपश्चिदिति पश्यति । येनाविद्या विनिर्णीता विद्यां गमयति ध्रुवम् ॥ भ्रान्तेर्बीजाविनाभावादनुमात्रैवमागता । ततो नैव परं ब्रह्मास्त्यनादिनिधनात्मकम् ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । मुपस्पृशतीति निराकृतम् "वाश्रूपता चेद् व्युत्क्रामेत्" इत्यादि लोचनाद्ययक्षे वाक्संस्पर्शायोगात् यतः श्रोत्रग्राह्यां वैखैरीं वाचं न तावन्नयनजसंवेदनमुपस्पृशति तस्यास्तदविषयत्वात् । नापि स्मृति ४९१ विवर्तेतार्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः" -१,२०४० २४० ० ८९-१०४। १ पृ० ४८९ पं० ५। २-ध्यक्ष वा बृ० । ३ वैखर्यादयस्तिस्रो वाचो वाक्यपदीये इत्थं दर्शिताः “वैखर्या मध्यमायाश्च पश्यन्त्याश्चैतदद्भुतम् । अनेकतीर्थमेदायास्त्रय्या वाचः परं पदम् ॥" का० १ श्लो० १४४ पृ० ५५ । तासामेव सूक्ष्माख्यवाग्मेदसहितानां वाचां लक्षणानि प्रमेयकमलमार्तण्डे प्राचीनपयेवर्णिताल स्याद्वादरत्नाकरे वाक्यपदीयटीकायां च तान्येव विस्तरतो व्यावर्णितानि, तत्संवादकप्राचीनपद्यानां व्याख्यापि तत्र स्फुटं कृता । तद्यथा क्रमशः - "स्थानेषु विवृते नायौ कृतपरिमहा वैखरी वाक् प्रयोक्तृणां प्राणवृत्तिनिबन्धना ॥ प्राणसिमतिक्रम्य मध्यमा वाक् प्रवर्तते । अविभागा तु पश्यन्ती सर्वतः संहतकमा ॥ स्वरूपज्योतिरेवान्तःसूक्ष्मा वागनपायिनी । तया व्याप्तं जगत् सर्वं ततः शब्दात्मकं जगत् ॥ इत्यादि ० १२ २००९ “सा चेयं वाक् त्रैविध्येन व्यवस्थिता वैखरी मध्यमा पश्यन्तीति । तत्र येयं स्थान-करण - प्रयत्नक्रमव्यज्यमाना अकारादिवर्णसमुदायात्मिका वाक् सा वैखरीत्युच्यते । तदुक्तम् स्थानेषु विधृते वायौ कृतवर्णपरिमदा वैखरी वाक् प्रयोक्तृणां प्राणवृत्तिनिबन्धना ॥ अस्यार्थः-स्थानेविति तात्वादिस्थानेषु वायो प्राणसंज्ञे, विवृते अभिपातार्थं निरुद्धे सति कृतवर्णपरिप्रति हेतुद्वारेण विशेषणम् ततः ककारादिवर्णरूपस्वीकारात् वैलरी संज्ञा वक्तृभिर्विशिष्टायां खरावस्थायां परूपायां भवा वैखरीति निरुतेः या प्रोक्तृणां संबन्धिनी, यथा तेषां स्थानेषु तस्याध प्राणदृत्तिरेव निवन्धनं तत्रैव निबद्धा सा तन्मयलादिति । या पुनरन्तः सङ्कल्प्यमाना क्रमवती श्रोत्रग्राह्यवर्णरूपाभिव्यक्तिरहिता वाक् सा मध्यमेत्युच्यते । तदुक्तम् - केवलं बुद्धघुपादानात् क्रमरूपानुपातिनी । प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा वाक् प्रवर्तते ॥ अस्यार्थः-स्थूलां प्राणवृत्तिं हेतुत्वेन वैखरीवदनपेक्ष्य केवलं बुद्धिरेवोपादानं हेतुर्यस्याः सा प्राणस्थत्वात् क्रमरूपमनुपतति अस्वाथ मनोभूमाययस्थानम्, वैखरी पश्यन्लोमध्ये भावाद् मध्यमा वागिति । या तु ग्राह्यभेदक्रमादिरहिता स्वप्रकाशा संविद्रूपा वाक् स पश्यन्तीत्युच्यते । तदुक्तम् अविभागा तु पश्यन्ती सर्वतः संहतकमा स्वरूपज्योति रेवान्तः सूक्ष्मा वागनपायिनी ॥ अस्यार्थः पश्यन्ती यस्यां वाच्यवाचकयोर्विभागेनावभासो नास्ति सर्वतथ सजातीयविजातीयापेक्षया संहृतो वाच्यानां वाचकानां च क्रमो देशकालकृतो यत्र क्रमविवर्तशक्तिस्तु विद्यते । स्वरूपज्योतिः खप्रकाशा वेद्यते वेदकभेदातिक्रमात् सूक्ष्मा दुर्लक्ष्या अनपाविनी] काल मेदास्पर्शादिति १७४० ४३ द्वि० ०३-१८। " यस्याः श्रोत्रविषयलेन प्रतिनियतं श्रुतिरूपं सा बेसरी विष्टव्यवर्णसमुचारणप्रसिद्धसाधुभावा असंस्काराच दुन्दुभि-वेणु - वीणादिशब्दरूपा चेत्यपरिमितभेदा । मध्यमा त्वन्तःसन्निवेशिनी परिगृहीतक्रमेव बुद्धिमात्रोपादाना सूक्ष्मा प्राणदृत्त्यनुगता प्रतिसंहृतकमा सयप्यनेदे समाविष्टकम शक्तिः । पश्यन्ती तु सा चलाचलप्रतिबद्धसमाधाना सजिविटयाकारा प्रतिलौनाकारा निराकारा च परिच्छिन्नार्य प्रत्यवभासा संसृष्टार्थप्रत्यय भासा च प्रशान्तसवयंप्रत्यवभासा चेत्यपरिमितमेदा । तत्र व्यावहारिकीषु सर्वासु वागवस्था व्यवस्थितसाध्यसाधुप्रविभागा पुरुषसंस्कारहेतुः परन्तु पश्यन्या रूपमनपभ्रंशम - कीर्ण लोकव्यवहारातीतम् । तस्या एव वाचो व्याकरणेन साधुवज्ञानलभ्येन शब्दपूर्वेग योगेनाधिगम इत्येकेषामागमः । तदुक्तमितिहासे आश्वमेधिके पर्वणि ब्राह्मणगीतासु - ( महाभा० पर्व १४ अनुगीतापर्व २ अ० २२ श्लो० २०-२३ । ) गौरिव प्रचरलेका रखमुत्तमशाखिनी । दिव्यादिव्येन रूपेण भारती गौः शुचिस्मिता एतयोरन्तरं पश्य सूक्ष्मयोः सन्दमानयोः । प्राणापानान्तरे निलमेका सर्वस्य तिष्ठति ॥ अन्या लपरिमाणेव विना प्राणेन वर्तते । जायते हि ततः प्राणो वाचमाध्याययन् पुनः ॥ प्राणेनाप्यायिता सैव व्यवहार निबन्धनम् । सर्वस्योच्छ्वासमासाद्य न वाग् वदति कर्हिचित् ॥ घोषिणी जातनिर्घोषा अघोषा च प्रवर्तते । तयोरपि च घोषिण्या निर्घोषैव गरीयसी ॥ इति । ( आवमेधिके पर्वणि वाक्यपदीयटीकायां च पाठान्तरसहितानीमानि पद्यानि वर्तन्ते ) पुनवाद स्थानेषु वि वायीकृतवर्णपरिमहा वैखरी वाक् प्रयोक्तृणां प्रावृत्तिनिरन्धिनी ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ द्वितीये काण्डेविषयां मध्यमां तामवगमयति तामन्तरेणापि शुद्धसंविदो भावात् । संहृताशेषवर्णादिविभागा केवलं बुद्धथुपादानक्रमरूपानुपातिनी । प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा वाक् प्रवर्तते ॥ अविभागा तु पश्यन्ती सर्वतः संहृतकमा । खरूपज्योतिरेवान्तस्सैषा वागनपायिनी॥ सैषा संकीर्यमाणाऽपि नित्यमागन्तुकैर्मलैः । अन्त्या कलेव सोमस्य नात्यन्तमभिभूयते ॥ तस्यां दृष्टस्वरूपायामधिकारो निवर्तते । पुरुषे षोडशकले तामाहुरमृतां कलाम् ॥ इति सैषा त्रयी वाक् चैतन्यग्रन्थिविवर्तवदनाख्येयपरिमाणा तुरीयेण भागेन मनुष्येषु प्रत्यवभासते"-का. १ पृ०५६ पं० १-पृ. ५७ पं०६। "एतेन वाग्रूपता चेद् व्युत्क्रामेदवबोधस्य शाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी॥ इति वाक्संस्पृष्टस्यैव सकलार्थस्य संवेदनम् इति शाब्दिकमतं निरस्तम् अर्थदर्शने तद्वाक्स्मृतेस्तत्संस्पर्शः तत्संस्पर्शे च तत्संस्पृष्टार्थग्रहणमिति अन्योन्याश्रयात् अगृहीतसंकेतस्य च बालस्य वागसंस्पर्शनार्थाग्रहणप्रसङ्गात् 'किम्' इति वाक्संस्पर्श च सामान्यग्रहेऽपि विशेषाग्रहात् । किञ्च, वैखरी वाचं न नायनं ज्ञानमुपस्पृशति तस्याः श्रोत्रमात्रग्राह्यलाभ्युपगमात् । नापि स्मृतिविषयां मध्यमाम् तामन्तरेणापि शुद्धसंविदो भावात् । संहृताशेषवर्णादिविभागा पश्यन्ती च वागेव न भवति बोधरूपलात् वाचश्च वर्णरूपत्वात् अतो न तद्युक्ता प्रतिपत्तिः अपि तु अविकल्पिकैवेति"-शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० १५५ द्वि. पं० १०-पृ० १५६ प्र. पं०३ । "उक्तंचवैखरी शब्दनिष्पत्तिमध्यमा श्रुतिगोचरा । द्योतितार्था च पश्यन्ती सूक्ष्मा वागनपायिनी" ॥ -कुमारसं० स० २ श्लो० १७ टीका।। श्रुतज्ञानभेदान् संख्यापयता विद्यानन्दिवामिना स्याद्वाददृष्ट्या द्रव्यभावभझ्या ता एव चतस्रोऽपि वैखर्यादयो वाचो द्रव्य-पर्याय-व्यक्ति-शक्तिप्रकारतया निरूपितास्तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके तट्टीकारूपे तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालङ्कारे च"चतुर्विधा हि वाग् वैखरी मध्यमा पश्यन्ती सूक्ष्मा चेति"-१, २० पृ. २४० पं० १९ । "स्याद्वादिनां पुनर्वाचो द्रव्य-भावविकल्पतः । द्वैविध्यं द्रव्यवाग द्वेधा द्रव्यपर्यायभेदतः ॥ श्रोत्रग्राह्यात्र पर्यायरूपा सा वैखरी मता । मध्यमा च परैस्तस्याः कृतं नामान्तरं तथा ॥ द्रव्यरूपा पुनर्भाषावर्गणाः पुद्गलाः स्थिताः । प्रत्ययान्मनसा नापि सर्वप्रत्ययगामिनी ॥ भाववाग् व्यक्तिरूपात्र विकल्पात्मनिबन्धनम् । द्रव्यवाचोभिधा तस्याः पश्यन्तीत्यनिराकृताः॥ वाग्विज्ञानावृतिच्छेदविशेषोपहितात्मनः । वक्तुः शक्तिः पुनः सूक्ष्मा भाववागभिधीयताम् ॥ तया विना प्रवर्तन्ते न वाचः कस्यचित् क्वचित् । सर्वज्ञस्याप्यनन्ताया ज्ञानशक्तेस्तदुद्भवः ॥” । -१,२० पृ० २४१ श्लो० १०४-१०९। "ननु च श्रोत्रग्राह्या पर्यायरूपा वैखरी मध्यमा च वागुक्ता शब्दाद्वैतवादिभिः यतो नामान्तरमानं तस्याः स्यान पुनरर्थमेद इति । नापि पश्यन्ती वाग् वाचकविकल्पलक्षणा सूक्ष्मा वा वाक् शब्दज्ञानशक्तिरूपा किं तर्हि स्थानेषु उरःप्रभृतिषु विभज्यमाने विवृते वायौ कृतवर्णवपरिग्रहा वर्णखमापद्यमाना वक्तृप्राणवृत्तिहेतुका वैखरी “वैखरी वाक् प्रयोक्तृणां प्राणवृत्तिनिबन्धना" इति वचनात् । तथा मध्यमा केवलमेव बुद्धथुपादाना कमरूपानुपातिनी वक्तृप्राणवृत्तिमतिक्रम्य प्रवर्तमाना निश्चिता "केवलं बुद्धथुपादाना क्रमरूपानुपातिनी । प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा वाक् प्रवर्तते ॥” इति वचनात् । पश्यन्ती पुनरविभागा सर्वतः संहृतकमा प्रत्येया। सूक्ष्माऽत्र खरूपज्योतिरेवान्तरवभासिनी नित्यावगन्तव्या । “अविभागानु पश्यन्ती सर्वतः संहृतकमा । खरूपज्योतिरेवान्तःसूक्ष्मा वागवभासिनी ॥” इति वचनात् । ततो न स्याद्वादिनां कल्पयितुं युक्ताश्च. तस्रोऽवस्थाः श्रुतस्य वैखर्यादयस्तदनिष्टलक्षणखादिति केचित् । तेऽपि न प्रातीतिकोक्तयः । वैखर्या मध्यमायाश्च श्रोत्रग्राह्यललक्षणानतिक्रमात् । स्थानेषु विवृतो हि वायुर्वक्तृणां प्राणवृत्तिश्च वर्णवं परिगृह्णत्या वैखर्याः कारणम् । वर्णवपरिग्रहस्तु लक्षणम् । स च श्रोत्रग्राह्यवपरिणाम एव इति न किञ्चिदनिष्टम् । तथा केवला बुद्धिर्वक्तृप्राणवृत्त्यतिक्रमश्च मध्यमायाः कारणं तु (3) लक्षणं क्रमरूपानुपातित्वमेव च तत्र श्रोत्रग्रहणयोग्यत्वाविरुद्धमिति न निराक्रियते । पश्यन्याः सर्वतः संहृतक्रमसमविभागलं च लक्षणम् । तच यदि सर्वथा तदा प्रमाणविरोधः, वाच्यवाचकविकल्पक्रमाविभागयोस्तत्र प्रतिभासनात् कथंचित् तु संहृतकमत्वं विभागलं च तत्रेष्टमेव युगपदुपयुक्तश्रुतविकल्पानामसंभवाद् वर्णादिविभागाभावाचानुपयुक्तश्रुतविकल्पस्येति तस्याविकल्पात्मकत्वलक्षणानतिक्रम एव । सूक्ष्मायाः पुनरन्तःप्रकाशमानस्वरूपज्योतिलेक्षणलं कथंचिन्नित्यत्वं च नित्योद्घाटितानिरावरणलब्ध्यक्षरज्ञानाच्छक्तिरूपाच चित्सामान्यान्न विशिष्यते"-१,२०पृ० २४१५०२३-पृ. २४२ पं०६। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ४९३ पश्यन्ती वागेव न भवति बोधरूपता(पत्वात्) वर्णपदाद्यनुक्रमलक्षणत्वाद् वाचः न तद्युक्ता प्रतिपत्तिर्विकल्पिका अपि तु निर्विकल्पिकैव श्रुतिस्मृतिविषयवर्णपदानुक्रमोल्लेखशून्यत्वात् । यदि चाविकल्पकं संवेदनं किञ्चिन्नाभ्युपेयते तदा वाक्संस्मरणासंभवाद् विकल्पस्याप्यसंभव एव स्यात् । अथ प्रथमं संवेदनं तदा वाचकस्मृतेरभावादविकल्पकम् तजनितवाचकस्मृतिसहकारीन्द्रियप्रभवं त्वभिधानानुरक्तार्थावभासि द्वितीयं सविकल्पकम् , नैतदस्ति; यतः स्मृतिसचिवमपि लोचनं न५ वाचके तत्संकेतसमयभाविनि प्रवृत्तिमदिति कथं तदविषये स्मृतिदर्शितेऽपि वाचकानुषक्तेऽध्यक्षप्रवृत्तिः यतो न गन्धस्मृतिसहकारिलोचनमविषये परिमलादौ संवेदनं जनयद दृष्टम् किन्तु सन्निहित एव मलयजरूपे दर्शनं तु तत्सहचारिणि परिमलादौ स्मृति जनयतीति न तत् तद्रूपसंविदो रूपं हेतुविषयभेदात् तथात्रापि नयनसंवेदनं रूपमात्रसाक्षात्कारि भिन्नम् तद्दर्शनोपजनितं तु विकल्पशानं वचनंपरीतार्थाध्यवसायस्वभावं भिन्नमेवेत्यविकल्पकमध्यक्षं सिद्धम् । [नैयायिकादिसम्मतं केवलसविकल्पकवादमुपन्यस्य निर्विकल्पकवादिना तस्यापि दूषणम् ] ___ स्यादेतत् यद्यपि वाचो नयनजप्रतिपत्त्यविषयत्वान्न तद्विशिष्टार्थदर्शनमध्यक्षं तथापि द्रव्यादे. नयनादिविषयत्वात् तद्विशिष्टार्थाध्यक्षप्रतिपत्तिः सविकल्पिका भविष्यति । तथाहि-नियतदेशादितया वस्तु परिदृश्यमानं व्यवहारोपयोगि अन्यथा तंदसंभवाद् देशादिसंसर्गरहितस्य च तस्य कदाचिदप्य. ननुभवात् यच्च देशादिविशिष्टतया नामोल्लेखाभावेऽपि वस्तु संगृह्णाति तत् सविकल्पकम् विशेषण-१५ विशेष्यभावेन हि प्रतीतिः कल्पना देशादयश्च नीलादिवद् तदवच्छेदका दर्शने प्रतिभान्तीति न तत्र शब्दसंयोजनापक्षभावी दोषः। ___एतदप्यसत्, यतोऽध्यक्षं पुरोवर्ति नीलादिकमवलोकयितुं समर्थम् न तवष्टब्धं भूतलम् तदनवभासे च कथं तद्विशिष्टमर्थ तदवगन्तुं प्रभुः(भु)? यदपि तदनवष्टब्धं तत्र प्रतिभाति तदपि न तद्विशेषणमिति शुद्धस्यैव सकलस्य प्रतिभासनान्न विशेषणविशेप्यभावग्रहणम् । तथाहि-२० दर्शने रूपमालोकश्च स्वखरूपव्यवस्थितं द्वितयमाभाति न तव्यतिरिक्तं काल-दिगादिकमिति कथमप्रतिभासमानं तद्विशेषणं भवति सर्वत्र तद्भावग्रसक्तेः तेन 'देशादिभिर्विशिष्टस्य सर्वस्यार्थस्य संवेदनम्' इति निरस्तम् विशेषणभूतस्य कस्यचिदप्रतिभासनात् । यत्रापि स्थिराधेयदर्शनाद्धस्तादाधारमनुमिन्वन्ति तत्रापि नानुमानावसेयमधिकरणमिन्द्रियविज्ञानविषयविशेषणम् नापि तदवसायोऽक्षवुद्धेः स्वरूपमिति न विशेषणविशिष्टप्रतिपत्तिरक्षबुद्धिः । किञ्च, २५ समानकालयोर्वा भावयोर्विशेषणविशेष्यभावम् भिन्नकालयोर्वा अक्षवुद्धिरवभासयति? न तावद् भिन्नकालयोः तयोर्यगपत् तत्राप्रतिभामनात-यदा हि विशेषणं स्वादिकं पूर्वमवभाति न तदा स्वाम्यादिकं विशेष्यम् यदापि चोत्तरकालं तदवभाति न तदा स्वादिकम् असन्निधानादिति न तद्विशिष्ठतयाऽध्यक्षेण तस्य ग्रहणम् । तथाहि-चक्षुर्व्यापारे पुरोव्यवस्थितश्चैत्र एव परिस्फुटमाभातीति तन्मात्रग्रहणान्न तद्विशिष्टत्वप्रतीतिः । न चासन्निहितमपि विशेषणं स्मरणसन्निधापितमक्षबुद्धिरधि-३० गच्छति स्मरणात् प्रागिव तदुत्तरकालमपि विशेषणासन्निधेस्तुल्यत्वान्न तत्र तदाप्यध्यक्षबुद्धिप्रवृत्तिरित्यपास्तविशेषणस्यार्थस्य साक्षात्करणं युक्तियुक्तम् । नापि तुल्यकालयोर्भावयोर्विशेषणविशेष्यभावमध्यक्षमधिगन्तुं समर्थम् तस्यानवस्थितेः । तथाहि-अविशिष्टेऽपि दण्डपुरुषसंयोगे कश्चिद् दण्डविशिष्टतया पुरुष 'दण्डी'इति प्रतिपद्यते अपरस्तु तत्रैव पुरुषविशिष्टतया 'दण्डोऽस्य'इति प्रतिपद्यते असङ्केतितविशेषणविशेप्यभावस्तु 'दण्ड-पुरुपौ' इति स्वतनयं द्वयमधिगच्छति वास्तवे तु तस्मिन् ३५ १-धरूप। ताव-वा. वा० । “संहृताशेषवर्णादिविभागानु पश्यन्ती सूक्ष्मा चान्तज्योतीरूपा वागेव न भवति अनयोरात्मदर्शनलक्षणखात्" । संहृत-"नष्ट-"1-वर्णादि-"पद-वाक्य-"1-विभागा-“अर्थदर्शनम्" ।-पश्यन्ती "अर्थदर्शनलक्षणा" ।-ज्योतीरूपा “आत्मदर्शनलक्षणा"-प्रमेयक पृ० १२ प्र. पं. ८ तथा टि० २७, २८, २९, ३०, ३१ । २ "पश्यन्तीवाचा युक्ता"- बृ.टि.। ३-कल्पकै-बृ०। ४ यदि वावि-बृ• विना। ५-चके संकेत-वा. वा० भ० मा०।-चके तत्सम-वृ०। ६ न तद्र-बृ० वा. बा. हा. वि. विना। -नव्यप-आ० हा० वि० । ८ "एवं शब्दब्रह्मवादिपूर्वपक्षप्रतिक्षेपः कृतः। संप्रति नैयायिकान् प्रत्याह"-बृ.टि.। ९-पि न वा-वा. बा. विना । १. "व्यवहार-" बृ.टि.। ११ प्र० पृ. पं०१३। १२ "स्वादि-" बृ.टि.। १३ "उत्तरकालेऽपि"-पृ. टि.। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ द्वितीये काण्डेयोग्यदेशस्थप्रतिपत्तृणां दण्ड-पुरुषरूपयोरिव तुल्याकारतयाऽवभासो भवेत् न चैवम् । तेन दण्डपुरुषस्वरूपमेव स्वतन्त्रमध्यक्षावसेयम् विशेषणविशेष्यभावस्तु कल्पनाविरचित एव । येन हि दण्डोपकृतपुरुषजनितार्थक्रिया प्रागुपलब्धा तदर्थी च स तत्र विशेषणत्वेन दण्डं विशेष्यत्वेन च पुरुष प्रतिपद्यते प्रधानत्वात् येन च पुरुषोपकृतदण्डेन फलमभ्युपेतं स तत्र दण्डं प्राधान्याद ५विशेष्यमध्यवस्यति अपरिगतफलोपकारस्य प्रथमदर्शने स्वरूपमात्रनिर्भासात् ततोऽन्वय-व्यतिरेकाभ्यामवगतसामर्थ्य द्वयमासाद्य विशिष्टत्वप्रतिपत्तिः प्रागवगते च सामर्थ्य नेन्द्रियस्य व्यापार: तस्यासन्निहितत्वात् । न च व्यापाराविषये तत् प्रतिपत्तिजननसमर्थम् । न च पुरःसन्निहितेऽर्थे प्रवर्तमानमिन्द्रियं तत्रापि प्रतिपत्तिमुपजनयितुं समर्थम् वर्तमानकालालीढनीलादिदर्शनप्रवृत्तस्य चिरातीतभावपरम्परादर्शनप्रवृत्तिप्रसक्तेः सकलातीतभावविषयस्मृतेरध्यक्षता भवेत् तथा खगोचर१०चारिणी स्मृतिरपि स्फुटमर्थं वर्तमानसमयमुद्भासयिष्यतीति सर्वाक्षमतिः स्मृतिर्भवेत् । न च वर्त्त मानमर्थमध्यक्षमेवोद्भासयतीति किं तत्र स्मृत्या? यत्र हि दर्शनानवतारस्तत्र स्मृतिपरिकल्पना फलवती स्पष्टदर्शनावतारे तु वर्तमानसमयभाविनि रूपादौ स्मृतिप्रवृत्तिरसंभविनी विफला चेति न तत्परिकल्पना; नन्वेवमतीते विशेषणादी स्मृतिरेव प्रवर्तिष्यत इति किं तत्र विशदसंविदवतारेण? सा हि सन्निहितमेवार्थमवतरति न च तदा विशेषणादयः सन्निहितास्तानवलम्बमाना निरालम्बनैव १५भवेत् ततो विशुद्धरूपमात्रप्रतिभासादध्यक्षसंविनिरस्तविशेषणमर्थमवगमयति विशेषणयोजना तु स्मरणादुपजायमाना अपास्ताक्षार्थसन्निधिर्मानसी । न च स्पष्टप्रतिभासाद वर्तमानार्थग्राहिणीति वक्तव्यम् तामन्तरेणापि स्फटमर्थप्रतिभासात् । न च स्मृतिमन्तरेणापि यदि विशदतनुरात्मा प्रतिभातीति न तस्य ग्राहिका स्मृतिस्ताक्षव्यापारसद्भावे सुखमन्तरेणापि विषयावगतिरस्तीति सुखमपि विषयग्राहि न स्यात् यतो निरस्तवहिरर्थसन्निधयो भावनाविर्भूततनवः सुखादयो नार्था२०वेदकाः स्वग्रहणपर्यवसितस्वरूपत्वात् तेषाम् अक्षान्वयव्यतिरेकानुविधायिन्यो विशदसंविद एव बहिरावभासिकाः पृथगवसीयन्ते सुखादिभ्यस्ता एव तवभासिकास्तद्वद् विकल्पोऽपि नार्थसाक्षात्करणखभाव इति । ननु यदि न पुरःस्थितार्थग्राही विकल्पः कथं ततस्तत्र प्रवृत्तिर्भवेत् ? यदेव विशेषणादिकं प्राक् तेनानुभूतं तत्रैव ततः प्रवृत्तिर्भवेत् नहि स्वात्मानमनारूढेऽर्थे प्रवृत्तिविधायि विज्ञानमुपलब्धम् २५ अन्यथा शुक्लमर्थमवतरन्ती संविन्नीलार्थे प्रवर्तिका भवेत । न च निर्विकल्पकमेव संवेदनं वर्तमानेऽर्थे प्रवृत्तिविधायि, विकल्पमन्तरेणापि सर्वत्र प्रवृत्तिप्रसक्तेः । न च सुखसाधनत्वनिश्चयमन्तरेण पुरःप्रकाशनमात्रेण कश्चित् प्रवर्तत इति विकल्प एव पुरोव्यवस्थितार्थग्राही प्रवर्तकत्वात् अक्षानुसारितया च स एवाध्यक्षमिति युक्तं पूर्वदृष्ट-नामादिविशेषणग्राही निश्चय इति, एतदप्यसङ्गतम्। धूमग्राह्यध्यक्षव्यतिरिक्ताऽस्पष्टावभासाग्यनुमानाकारस्येव विशददर्शनभृतोऽर्थाकाराद व्यतिरिक्त३० विकल्पमत्युल्लिख्यमानाऽस्पष्टाकारस्य तदाऽननुभवात् । ततो वहिरर्थग्राहिण्यो विकल्पमतयोऽभ्युप गन्तव्या न पुनस्तदा विकल्पमतिः पूर्वदृष्टविशेषणमात्राध्यवसायिनी अपरा पुरोवर्तिविशदार्थावभासाध्यक्षसंविदपरैव भेदप्रतिभासाभावादिति, असदेतत: यतो यदि नाम पुरोवर्तिनमर्थ विकल्पमतिरुद्दयोतयितुं प्रभवति तथापि न तत्र प्रवृत्तिःप्रवृत्तिविरचनाचतुरार्थक्रियासमर्थरूपानवभासनात् तवभासने ह्यर्थक्रियार्थिनां प्रवृत्तिर्युक्ता । न चार्थक्रियासम्बन्धं वर्तमानसमयसम्बन्धिन्यर्थे ताः ३५प्रदर्शयितुं समर्थाः तदानीं तस्या असन्निधानात् असन्निधौ च न तत्र सामर्थ्यावगतिः पदार्थखरूपमात्रावसायात् । न च तत्स्वरूपमात्रावसायादेव सामर्थ्यावगतिः अतिप्रसङ्गात् । ततः पुरोवतिनि प्रवर्तमानोऽपि न विकल्पः प्रवर्तकः। न च यतः पूर्वमर्थक्रिया प्रभवन्ती दृष्टा संप्रत्यपि तदर्थक्रियार्थितया तदध्यवसायात प्रवृत्तिर्भविष्यति, यतो येन प्रागर्थक्रिया निर्वर्तिता तदेवेदं पुरःप्रतिभातीति तन्निसाभावे कुतः सिध्यति? न च कल्पनैव तदध्यवसायिनी तन्निर्भासः यतो न कल्पनाबुद्ध्य४०ध्यवसितं तत्त्वं परमार्थसद्व्यवहारमवतरति प्रत्यक्षप्रतिभातस्यैव तद्व्यवहाँरावतारात् तदभावे तद् १-ददर्शनाव-वा. बा. भा. मा० । २-त्मा न प्र-भां० मा । ३ पुरोऽवस्थि-वृ० वा. बा० भां० मा०। ४-म्बन्धं प्रव-वा० बा० ।-म्बन्धव-बृ० आ० हा० वि०। ५“अर्थक्रियासमर्थवस्तु"-बृ.टि.। ६-वुझ्यव-बृ० वा. वा. विना। -हारात्तद-आ० वि०। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा | भावात् । न चाध्यक्षबुद्धेस्तत्वावसायः प्रथमाक्षसन्निपातवेलायामेव नीलादिरूपतावत् तन्निर्भासोदयप्रसक्तेः। अतो न कल्पनाध्यक्षविषयस्तत्त्वम् आद्यदर्शनानधिगतत्वात् । ४९५ अथ सहकारिवैकल्याद् यद्यप्याद्यदर्शनावभासि न तत्त्वं तथापि न तन्नास्ति न हि तीक्ष्णांशुकरनिकरोपहतदृशां गर्भगृहाद्यनुप्रवेशानन्तरमप्रतिभासमाना अपि घटादयो भावाः स्वस्थीभूतनेत्राणां न प्रतिभान्ति, न च प्रागप्रतिभासनान्न सन्ति यथा चं सहकारिवशात् पूर्वमप्रतिभाता अपि पश्चात् ५ प्रतिभान्ति तथात्राप्याद्यदर्शनं शुद्धार्थावभासि यद्यपि तत्त्वं नानुभवति स्मरणसहायाक्षप्रभवा तु प्रत्यभिज्ञा तदनु भविष्यतीति न तत्त्वस्यासत्त्वम् नाप्यक्षान्वयव्यतिरेकानुविधायिनी प्रत्यभिज्ञा न प्रत्यक्षमिति, अत्रोच्यते; यद्यक्षप्रभवा संविदाद्या न तत्त्वमवभासयति पश्चादपि तदविषयत्वान्नावभासयेत् यथा ह्यक्षमविषयत्वान्नैकत्वे प्रतिपत्तिं विदधाति तथा स्मरणसहकृतमपि न तत्र तां विधास्यति अविषयत्वाविशेषात् न हि परिमलस्मरणसहायमपि लोचनं गन्धे प्रतिपत्तिकृदुपलब्ध- १० मिति न तत्त्वग्रहणमध्यक्षात् । किञ्च किं कुर्वाणा स्मृतिरिन्द्रियस्य सहकारित्वं प्रतिपद्यते ? पूर्वापरस्य ढौकनमिति चेत्; ननु विनष्टेऽप्यर्थे स्मृतिरुदयन्ती दृष्टेति कथं तत्सन्निधापिते' पौर्वापर्ये प्रवर्तमानाध्यक्षधी: सत्यार्था भवेत् ? अथ यदुपरतं वस्तु तद्राहिणी बुद्धिर्न सत्यार्थग्राहिणीति युक्तम् अनुपरतं त्वर्थमवगच्छन्ती कथं सा न सत्यार्था ? अयुक्तमेतत्; यतः स्मर्यमाणस्यार्थस्यानुपरतिः कुतोऽवगता ? न स्मरणात् व्युपरतेऽपि स्मृतिप्रवृत्तेरित्युक्त- १५ त्वात् । न च स्मरणोपनीतपौर्वापर्यस्य दर्शने प्रतिभासनात् तदप्रच्युतिः इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । तथाहि - स्मर्यमाणस्यार्थस्यानस्तमयसिद्धेस्तदुपनीते तत्र दर्शनप्रवृत्तिः सिद्ध्यति तत्सिद्धौ च स्मरणोपनी तस्यानस्तमयसिद्धिरिति कथं नेतरेतराश्रयत्वम् ? अथ स्मृतिः संप्रति प्रतिभासविषयादर्थाद् भिन्नं विषयमध्यवस्यन्ती निरालम्बना स्यात् प्रतिभासविषयं तमेवार्थमुल्लिखन्ती तु कथमसदर्थ - विषया ? न; दर्शनगृहीतमेवार्थमुल्लिखतीत्यत्र प्रमाणाभावान्न स्मरणोपनीतै कत्वावभासिन्यध्यक्षमतिः २० सत्यार्थग्राहिणी सिद्धा । न च पूर्वदर्शनमेव पूर्वरूपसङ्गतमर्थमनुभव देकत्वे प्रमाणम् यतो यदि पूर्वरूपतामर्थस्याऽऽद्यदर्शनमेवावभासयति तथासति पूर्वापरैकत्वं तदेवावगमयिष्यतीति तत्र स्मृतिः प्रवर्तमाना व्यर्था । न च तदपि पूर्वरूपतां तस्यावभासयितुं क्षमम् तस्य सन्निहितमात्रविषयत्वात् पूर्वरूपता हि पूर्वदेश-काल- दशासम्बन्धिता पूर्वदेशादीनां च तद्दर्शने अप्रतिभासनात् न तत्संस्पर्शिरूपप्रतिभासस्तत्र संभवी न हि तदप्रतिभासे तत्सम्बन्धिपदार्थ रूपप्रतिभासः अन्यथा नीलता - २५ प्रतिभासेऽपि पीते नीलसम्वन्धिताऽवगतिर्भवेत् । तन्नैकत्वग्राहिण्यध्यक्षमतिः । यच्च 'दृष्टता प्रत्यक्षग्राह्या' इति परैरुच्यते तत्र दृष्टता यदि तद्दृशि प्रतिभातता तदा वर्त्तमानतैव । अथ पूर्वदृशि प्रतिभातता तदा पूर्वदृशोऽप्रतिभासने कथं तत्प्रतिभाततावभासः संप्रति संवेदने ? तत्र हि स्वदृष्टतया सन्निहितं रूपमाभातीति सैव तत्र युक्ता पूर्वदर्शनं तु प्रत्यस्तमितमिति तद्दृष्टतापि व्युपरतैवेति कथं सा वर्तमानदृशि प्रतिभासेत ? तदभ्युपगमे वा तद्दृशो निरालम्बनत्वप्रसक्तिः । ३० न च पूर्वदृश्यमानता तत्र व्युपरता दृष्टता तु तदैवोत्पन्नेति कथमसती येन तां प्रतियती प्रत्यक्षमतिर्निरालम्बना भवेत् ? यतो यदि दृष्टता तत्र सन्निहिता भवेत् तदा प्रथममागतो नीलादिरूपतामिव तामप्यधिगच्छेत् न चाधिगच्छतीति ज्ञानस्वभावोऽसाधारणतयाऽसौ नार्थस्वरूपमिति कुतोऽध्यक्षावसेया ? तथाहि - पूर्वदर्शनमनुस्मरन्नेव पूर्वदृतां व्यवहारी तत्राध्यारोपयति विस्मरणे तदनध्यवसायात् यच्च स्मृतिरध्यवस्यति स्वरूपं न तद्दर्शनपथोपयुक्तम् आकारभेदात् । न च ३५ तद्दर्शन- स्मरणे एकं विषयं विभृतः 'पूर्वदृएं पश्यामि' इत्यध्यवसायात् । यतः किं स्मर्यमाणं दृश्यमानतया रूपं प्रतीयते, आहोस्विद् दृश्यमानं स्मर्यमाणतयेति विकल्पद्वयम् । तत्र यद्याद्यः पक्षस्तथासति स्मर्यमाणं परिस्फुटतया रूपमाभातीति कथं तस्य परोक्षता ? अथ द्वितीयस्तत्रापि दृश्यमानं स्मर्यमाणेन रूपेणावभातीति सर्वं परोक्षं भवेदिति न काचिदध्यक्षमतिः सत्यार्था स्यात् । अतोऽक्षधीवर्तमानमेव रूपं प्रत्येति स्मृतिरपि तदसंस्पर्शि परोक्षं रूपमिति न तयोरैक्यम् प्रतिभासभेदस्य सर्वत्र ४० भेदकत्वात् तस्य च विशदाविशदरूपतयावभासमानयोर्दश्य- स्मर्यमाणयोः सद्भावात् कथं न भेदः ? ४ - गमे त बृ० । १ च पूर्वसह - भ० मां० । २- धानेपि ते बृ० वा० वा० विना । ३ - स्यानु -वृ० । ५-रणे' ए-'णे' इत्यस्य शिरसि न्यस्तोऽयं द्वित्वसंख्यासूचकोऽङ्को द्विवचनख्यापनाय प्रतौ निर्दिष्टो भाति । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे किञ्च, यदि शुद्धमेव दर्शनं स्मृतिनिरपेक्षं पूर्वरूपताग्राहि; नन्वेवं भाविरूपताग्राहि प्रथमदर्शनं कि नोपेयते न हि भाविभूतयोरसन्निहितत्वे विशेषः येनैकत्राध्यक्षवृत्तिरपरत्र नेति भवेत् ? न च 'पूर्वदृष्ट पश्यामि' इति व्यवसायात् पूर्वरूपे एव दर्शनव्यापारः 'पूर्वमेवेदं मया दृष्टम्' इत्यध्यवसायाद भाविरूपेऽपि दर्शनव्यापारप्रसक्तेः । अतोऽपाकृतम्-"इदानींतनमस्तित्वं नहि पूर्वधिया ५ पूर्वदृशा तदा भाविकालताया असन्निधानादग्रहणम् संप्रति दर्शनकाले पूर्वरूपताया अप्यसन्निधेस्ततोऽग्रहणप्रसक्तेः। यदि पुन विरूपतामप्यध्यक्षमनुभवति 'पूर्वमेवेदं मया दृष्टम्' इति व्यवहृतिदर्शनात् तर्हि प्रथमसंवेदनमेव मरणावधिरूपपरम्परामधिगच्छतीति तदैव मृतो भवेत् । न च मृतिसद्भावे मृतो भवत्युत्पत्तिसमये तु नासाविति कुतोऽयं दोषः यतो यदि तदासौ नास्ति कथमसती सौ दर्शने प्रतिभाति? तदप्रतिभासने तु कथं भाविरूपपरिगतो भावोऽवभातो भवेत् ? यदेव तत्र १० वर्तमान रूपमाभाति तदेवाध्यक्षमस्तु न भावि यदि तु तदपि तदाध्यक्षं तदाद्याध्यक्ष एव मृत्युपाधेः सकलविषयस्य प्रतिभातस्यास्तमयात् तद्विषां तदुत्तरकालभाविनी सर्वा मतिर्निविषया भवेत् । किञ्च, भावि-भूतयोरध्यक्षविषयत्वे भिन्नमपि तदध्यक्षविषयं भवेदिति सर्वस्त्रिकालदर्शी भवेदिति "भविष्यंश्चैषोऽर्थो न ज्ञानकालेऽस्तीति न प्रतिभाति" [. ] इति निराकृतं द्रष्टव्यम् भावि-भूतकालतावद भविष्यतो धर्मादेर्दर्शनकालेऽसतोऽपि प्रतिभासनात् । न चाभिन्नयोर्भावि रूपयोः प्रतिभासेऽपि भाविधर्मादेभिन्नत्वान्न प्रतिभासः भेदेनाध्यक्षप्रतिभासनाविरोधात् दृश्यन्त एव हि भिन्नरूपा घट-पटादयोऽध्यक्षप्रतिभासमादधानास्तन्न भाविभूतरूपताध्यक्षावसेयेति स्मृतिविषयः पूर्वरूपता दर्शनावभासिनोऽर्थस्य भाविरूपता चानुमानावसेया । तेन "न च स्मरणतः पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्तनम्" ॥ "वार्यते केनचिन्नापि तदिदानी प्रदुष्यति"। २० __ [श्लो० वा० प्रत्यक्ष० श्लो० २३५-२३६] इति निरस्तम् यतो यदि स्मरणादूर्ध्व वर्तमानरूपे इन्द्रियस्य प्रवर्त्तनमभिप्रेतं तथासति वर्तमानमात्रपरिच्छेदान्न स्मरणोपढौकितैकत्वग्रहः । अथ पूर्वरूपे तत्रापि यथा प्राक् स्मृतेर्दर्शनं पूर्वरूपतायामविषयत्वान्न प्रवर्तते तथा तदुत्तरकालमपि अविषयत्वाविशेषात् । “तदा प्रवर्तने चक्षुषो न दोषः" ] इत्यत्रापि यद्यसन्निहिते स्मरणोपढौकिते नयनं प्रवर्तते तह्यविद्यमानविषयत्वात् २५ तदालम्बनं ज्ञानं निर्विषयं भवेदिति कथं न दोषः? तिमिरोपहतदृशोऽप्यसत्यदर्शनमेव दोषः तच्चा त्रापि समानमिति कथं न दोषः? अथ वर्तमाने स्मृत्युत्तरकालं तत् प्रवर्तमानमदुष्टं तर्हि नैकत्वप्रतीतिः। न च यदेव वर्तमानं तदेव पूर्वमिति भेदाभावात् तत्त्वग्रहः अभेदस्यासिद्धेः-न हि दृश्यमान-स्मर्यमाणयोरमेदसिद्धिः दृश्यमाने स्मृतेः स्मर्यमाणे च दृशोऽनवतारात् । न च स्मरणोपनीते पूर्वरूपे दोषाभावेऽपीन्द्रियप्रवर्तनं युक्तम् धूमदर्शनोत्तरकालं स्मृत्युपस्थापिते पावकेऽपि दोषा३० भावादिन्द्रियप्रवृत्तिप्रसक्तेः शक्यं ह्यत्रापि वक्तुम् न चापि लिङ्गतः पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्तनम् । ___ वार्यते केनचिन्नापि तदिदानी प्रदुष्यति ॥ अथ प्रत्यक्षप्रतिभाताद्भूमात् स्पष्टावभासाद् व्यतिरिक्ता स्मृतिप्रभवानुमितिर्भिन्नाकाराग्निमुल्लिखतीति न तत्र दृगवतारस्तर्हि विशदहगवसेयाद् रूपादस्पष्टतया पूर्वरूपमुल्लिखन्ती स्मृत्युपजनिता प्रति३५ पत्तिर्न दृगुपदर्शितं रूपमवतरतीत्यभ्युपेयम् ततः स्मृतेः पूर्वमुत्तरकालं वा पौर्वापर्यविविक्तं वर्तमान कालमर्थ दृगवतरतीति नैकत्वग्राहिणी । ततो विकल्पविकलाध्यक्षमतिः सिद्धा एकत्वप्रतिपत्तिस्तु स्मृतिकृतोदया पृथगेव पूर्वापरविविक्तरूपावभासिस्पष्टदृशः। अथ पौर्वापर्ये दृशोऽप्रवृत्तेर्न तहहात् सविकल्पाध्यक्षमतिः जातिगुणक्रियादीनां तु दर्शनविषयत्वात तद्विशिष्टार्थप्रतिपत्तिः सविकल्पिका भविष्यति, नः जात्यादेः खरूपानवभासनातन हि १ "मृतिः"-बृ० टि.। २“मृतिः"-वृ.टि.। ३ “यतो मृतेरभावस्ततः कथं भाविरूपपरिगतो भावो भवेत्"-बृ.टि.। ४-यात्तदु-बृ०। ५-ध्यंश्चैकार्थी वृ. वा. बा. भ. मां. विना। ६ पृ. ३१९ पं० ६-७ । प्रमेयक० पृ. ९७ द्वि. पं०९। ७ “परोदिते"-बृ० टि.। ८ “एकल-" बृ.टि.। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा | व्यक्तिर्द्वयव्यतिरिक्तवपुर्ग्राह्याकारतां बहिर्बिभ्राणा विशददर्शने जातिराभातीति न तद्योजनादध्यक्ष-मतिः सविकल्पका । न चाम्र- बकुलादिषु 'तरुस्तरुः' इत्युल्लिखन्ती बुद्धिराभातीति नाऽसती जातिः विकल्पोल्लिख्यमानतयापि बहिर्ग्राह्याकारतया जातेरनुद्भासनात् प्रतीतिरेव तत्रापि तुल्याकारतां वचनं वा बिभर्ति । न च शब्दः प्रतीतिर्वा जातिमन्तरेण तुल्याकारतां नानुभवति 'जातिर्जातिः' इत्यपरजातिव्यतिरेकेणापि गोत्वादिसामान्येषु तयोस्तुल्याकारतादर्शनात् । न च तेष्वप्यपरा जातिः ५ अनवस्थाप्रसक्तेः। अथ तुल्याकारा प्रतिपत्तिर्यदि निर्निमित्ता तदा सर्वदा भवेत् न वा क्वचित् व्यक्तिनिमित्तत्वे आम्रादिष्विव घटादिष्वपि 'तरुस्तरुः' इति प्रतिपत्तिर्भवेत् व्यक्तिरूपताया अत्रापि समानत्वात्, असदेतत्; व्यक्तिनिमित्तत्वेऽपि प्रतिनियतव्यक्तिनिमित्तत्वान्नातिप्रसङ्गः यथा हि ताः प्रतिनियता एव कुतश्चिन्निमित्तात् प्रतिनियतजातिव्यञ्जकत्वं प्रतिपद्यन्ते तथा प्रतिनियतां तुल्याकारां प्रतिपत्तिं तत एव जनयिष्यन्तीति किमपरजातिकल्पनया ? यथा वा गुडूच्यादयो भिन्ना १० एकजातिमन्तरेणापि ज्वरादिशमनमेकं कार्य निर्वर्तयन्ति तथा आम्रादयस्तरुत्वमन्तरेणापि तत एव 'तरुस्तरुः' इति प्रतिपत्तिं जनयिष्यन्ति नान्य इति व्यर्था तेषु तरुत्वजातिकल्पना । तन्न जातिर्दर्शने कल्पनाज्ञाने वा बहिराकारमाविभ्रती स्वेन वपुषा प्रतिभाति कल्पनाबुद्धावप्यविशदाकारव्यक्तिरूपमन्तःशब्दोल्लेखं वापहाय वर्णसंस्थानव्यतिरिक्तजातिस्वरूपानवभासनात् । तन्नाप्रतीयमाना जातिः सती । नापि कस्यचिद् विशेषणमिति न तद्योजनाविधायिनी अध्यक्षमतिरिति न सविकल्पिका । एवं १५ गुण-क्रियादीनामप्यप्रतिभासनादसत्त्वमिति न तद्विशिष्टार्थग्राह्यध्यक्षं सविकल्पकतामनुभवति । अथ निर्विकल्पकत्वेऽध्यक्षेण शुद्धवस्तुग्रहणात् कथं ततो व्यवहृतिः साँ हि हेयोपादेययोर्दुःख-सुखसाधनत्वनिश्चये हानोपादानार्था दृष्टा न च निर्विकल्पकमध्यक्षं तन्निश्चयरूपम्, असदेतत् यतो यद्यपि सविकल्पकमध्यक्षं तथापि कथं तदर्थिनां तत्र ततः प्रवृत्तिः न हि निश्चयमात्रात् फलार्थिनः प्रवर्तन्ते अपि तु तज्जननयोग्यतावसायात् सा चासन्निहितफलानिश्चये न निश्चेतुं शक्या । न च २० परोक्षं सुखसाधनत्वं निश्चिन्वती मतिरध्यक्षतामनुभवति अनुमितेरप्यध्यक्षताप्रसक्तेः परोक्षनिश्चयरूपताया अविशेषात् । न च निश्चयात्मकेनाध्यक्षेण वस्तु निश्चीयते तत्प्रतिवद्धा च प्रागर्थक्रियोपलब्धा ततः पुरस्थार्थावसायात् तत्र स्मृतिः प्रादुर्भवन्ती तत्राभिलाषजननात् प्रवृत्तिमुपजनयति निर्विकल्पकेऽप्यस्य समानत्वात् । तथाहि - प्रत्यक्षप्रतिभाते वस्तुनि पूर्वमर्थक्रियावगतेति तत्स्मरणीव( णाद)भिलाषेण प्रवृत्तिर्भविष्यतीति कः स्व-परपक्षयोर्विशेषः ? अथ वस्तुस्वरूपप्रतिभासं दर्शन - २५ मर्थक्रियासम्बन्धाननुभवान्न प्रवृत्तिमुपरचयितुं क्षमम् तत्सम्बन्धानुभवे वा सविकल्पकं तद् भवेत् । न चाप्रवर्तकस्य प्रामाण्यम् - " प्रामाण्यं व्यवहारेण" [ इत्यत्र "व्यावहारिकस्य चैतत् प्रमाणस्य लक्षणमुक्तम्" [ ] इत्यभिधानात् असदेतत् ; यतो न दर्शनं केवलं प्रमाणं क्षणिकत्वादावपि तस्यै भावात् किन्तु अभ्यासपाटवादिसव्यपेक्षं यत्रांशे विधिप्रतिषेधविकल्पद्वयं जनयत् पुरुषं प्रवर्तयति तत्रास्य प्रामाण्यमिति निश्चयापेक्षस्य प्रत्यक्षस्य ३० व्यवहारसाधकत्वान्न प्रामाण्यक्षतिः; नन्वेवमपि यदि निश्चये सति प्रवृत्तिस्तदभावे च नेत्यभ्युप १- द्वयद्व्यति-आ० हा ० वि० ।-द्वयाद्व्यति - वि० सं० । २ " शब्द - प्रतीत्योः " - बृ० टि० । ३ शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० १५६ द्वि० ० ५ ४ पत्तिं त ए- बृ० । ५ “यथा धात्र्यभयादीनां नानारोगनिवर्तने । प्रत्येकं सह वा शक्तिर्नानावेऽप्युपलभ्यते ॥ न तेषु विद्यते किश्चित् सामान्यं तत्र शक्तिमत् । चिरक्षिप्रादिभेदेन रोगशान्त्युपलम्भतः ॥ सामान्येऽतिशयः कश्चिन्न हि क्षेत्रादिभेदतः । एकरूपतया नित्यं धात्र्यादेस्तु स विद्यते ॥ एवमत्यन्तमेदेऽपि केचिन्नियतशक्तितः । तुल्यप्रत्यवमर्शादेर्हेतुत्वं यान्ति नापरे" ॥ ४९७ -तत्त्वसं० का० ७२३-७२६ पृ० २३९ । ६-त एव बृ० भ० मां० । ७ " व्यवहृतिः " - बृ० टि० । ८-ननि-आ० । १०- णाभि- बृ० भ० मां० आ० हा० वि० । ११ - ण्यं व्यवहारेण तत्र भां० १२ पृ० १५० २४ । १३ “ दर्शनमात्रस्य " - बृ० टि० । ६४ स० त० ९ " अर्थक्रिया" - बृ० टि० । मां० आ० हा०वि० । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ द्वितीये काण्डेगमस्तर्हि प्रवृत्तिकरणान्निश्चय एव प्रमाणं भवेत् न च दर्शनगृहीतं नीलं निश्चिन्वन्नुपजायमानो विकल्पो गृहीतग्राहितया अप्रमाणम् यतोऽर्थक्रियासम्बन्धितामुल्लिखन्ती दर्शनावगतस्यार्थस्य कल्पना प्रवृत्तिमारचयति । न च विशददृशार्थक्रियासाधकता तस्यावगतेति कथं कल्पना न भिन्नविषया? सर्वत्र च कल्पनैव प्रवृत्तिं विरचयति दर्शनाभावेऽप्यनुमानात् प्रवृत्तिदर्शनाद् दर्शनसद्भावेऽपि ५क्षणिकादौ व्यवसायाभावात् प्रवृत्तेरभावाद् व्यवहारमुपरचयन्ती मतिः प्रमाणमिति न निर्विकल्पिका सा प्रमाणं किन्तु विकल्पिकैव । ननु न विकल्पस्याप्रामाण्यम् किन्त्वसौ प्रत्यक्षं न भवति अनुमानताभ्युपगमात् । अथ लिङ्गजत्वाभावादपरोक्षमर्थ निश्चिन्वन् कथमनुमानं विकल्पः? नैतत्; यतो नापरोक्षमेवार्थमसौ निश्चिनोति अर्थक्रियासम्बन्धित्वस्य परोक्षस्याप्यध्यवसितेस्तदावे च प्रवृत्तेरयोगात् । सा च फलसङ्गतिः परोक्षाऽनुमानग्राह्या दृश्यमान इव प्रदेशे परोक्षदहनसङ्गतिः । न च तत्र धूम१०लिङ्गसद्भावादनुमानावतारेऽपि फलसम्बन्धितायां लिङ्गाभावान्नानुमानप्रवृत्तिः प्रतिभासमानरूपस्यैव लिङ्गत्वात् । तथाहि-उपलभ्यमाने जलरूपे शीतस्पर्शादयस्तत्सहचारिणो यदि निश्चेतुं शक्याः कालान्तरस्थायितया तदा तत्र प्रवृत्तिर्युक्ता रूपप्रतिभासमात्रस्य तु तदैवोदयान्न तदर्था प्रवृत्तिः सङ्गता प्रवृत्तौ वा तदविरतिप्रसक्तिः स्पर्शादीनां चैकसामग्र्यधीनतयोपलभ्यमानं रूपं हेतुः स्थैर्य चोपलभ्यमानं कालान्तरस्थितौ लिङ्गमिति कथं न निश्चयोऽनुमानम् ? न च सम्बन्धस्मरणपक्ष१५धर्मत्वनिश्चयादुपजायमानमनुमानमनुभूयते अंत्र तु त्रैरूप्यपर्यालोचनमन्तरेणापि नीलानुभवानन्तरं 'नीलमेतत्' इति निश्चयो झगित्युदेतीति नानुमानतास्य यतो न सर्वदानुमितिौरूप्यपर्यालोचनमपेक्ष्य प्रवर्तते अत्यन्ताभ्यासात् कदाचित् सम्बन्धस्मरणानपेक्षलिङ्गस्वरूपदर्शनमात्रादुदयदर्शनाद् धूमोपलम्भादभ्यासदशायामग्निप्रतिपत्तिवत् । अथात्राविनाभावपर्यालोचनंप्रागासीदनवगतसम्बन्धस्य धूमदर्शनादेवाप्रतीतेस्तर्हि मन्दाभ्यासे प्रकृतेऽपि पर्यालोचनमस्त्येव-'एवंजातीये पूर्वमप्यर्थक्रियो२० पलब्धा इदमप्येवंजातीयं प्रतिभासमान रूपम्' इति । अभ्यासदशायां तु रूपदर्शनादेव पर्यालोचनमन्तरेणापि झगिति फलयोग्यता प्रतीयते इति व्यवस्थितमेतत्-दृश्यमानं रूपं धर्मि तत्फलयोग्यता साध्या तपसामान्य लिङ्गमिति न प्रतिज्ञार्थकदेशत्वमपि हेतोः अतो निश्चयः स्वरूपावभासादुदयमासादयन् परोक्षमर्थक्रियायोग्यत्वं निश्चिन्वन्ननुमानमेव । व्यवहारोऽप्यते एव न प्रत्यक्षात । आहच "तदृष्टावेव दृष्टेषु संवित्सामर्थ्य भाविनः। स्मरणादभिलाषेण व्यवहारः प्रवर्तते" ॥[ ] इति स्मरणादनुमानरूपाद् व्यवहारः प्रवर्तत इत्ययमर्थः।। नॅन्वन्यगतचेतसोऽभ्यस्ते परिमलादावविकल्पाक्षमतेः प्रवृत्तिदर्शनात् कथं न निर्विकल्पकं प्रवर्तकम् ? किञ्च, यद्यनुमितिरेव बाह्ये सर्वदा प्रवृत्तिमारचयति तर्हि तत्र नाध्यक्ष प्रमाणमिति - १ "सविकल्पिका"- बृ.टि.। २-भावे प्र-आ. हा०वि०विना। ३ “उत्तरम्"-बृ.टि.। ४ "जलरूपे"-बृ.टि.। ५ “अनुमानरूपानिश्चयात्"-बृ० टि०। ६ “येन वार्तिककार एवमाह" इत्युल्लिख्य विभिन्नोत्तरार्धकमेतत् पद्यं न्यायबिन्दुटीकाटिप्पण्यामुद्धृतमित्थं वर्तते "तदृष्टावेव दृष्टेषु संवित्सामर्थ्यभाविनः । खव्यापारसकरणात् स्मरणादित्यादि"-पृ. ३१ पं. ५-६ । "तदुक्तम्" इति कृत्वा इदं पद्यं सिद्धिविनिश्चयटीकायामुपन्यस्तमस्ति-लि. पृ. ९.पं. १८॥ सिद्धिविनिश्चयटीकायां "कारिकां विवृण्वन्नाह" इत्युपक्रम्य “ 'तदृष्टावेव' इत्यादि"प्रतीकं निर्दिश्य च व्याख्यातमेतत् पद्यमित्थं दृश्यते-"निर्विकल्पिका दृष्टिस्तदृष्टिस्तस्यां सत्यां पुनये दृष्टास्तेषु व्यवहारः । प्रवृत्तावङ्गीक्रियमाणायां कुत इत्यत्राहसंवित्तीत्यादि-संवित्तेर्बलं सामर्थ्य तस्माद् या सजातीयस्मृतिस्तस्या अभिलाषः आदिशब्देन द्वेषपरिग्रहस्तस्मादिति"-लि. पृ० ११८ पं० १९-२२ । सिद्धिविनिश्चयटीकाव्याख्यानत एतत् पद्यमित्थं कल्पयितुमुचितं भाति तदृष्टावेव दृष्टेषु संवित्तिबलभाविनः । स्मरणादभिलाषादेर्व्यवहारः प्रवर्तते ॥ "यदुक्तम्" इत्युल्लिख्योद्धृतं पद्यमिदं धर्मसंग्रहण्यां वर्तते-पृ. २६ द्वि.पं. ७ पृ.१६ पं० २६ । न त्वन्य-पृ. विना। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ४९९ खसंवेदनमात्रमेवैकमध्यक्षं भवेत् तथा च-"रूपादिखलक्षणविषयमिन्द्रियज्ञानम् आर्यसत्यचतुष्टयगोचरं योगिज्ञानम्" [ __] इत्यादि चतुर्विधाध्यक्षोपवर्णनमसङ्गतमनुषज्येत । अथ निर्विकल्पकमध्यक्षं नार्थस्यार्थक्रियायोग्यतामधिगच्छति तदभावे न प्रवृत्तिरित्यप्रवर्तकत्वान्न बाह्ये प्रमाणं तहनुमानमपि नार्थक्रियासङ्गतिमवभासयति तस्यावस्तुविषयत्वात् तथा च तदपि कथं प्रवर्तकम् ? अथ तदध्यवसायितया तस्योत्पत्तरर्थग्राहित्वाभावेऽपि प्रवर्तकता, असदेतत् तद्ध्यव-५ सायित्वस्याप्यनुपपत्तेः । तथाहि-तदध्यवसायित्वं तस्य किं ग्राहकाकारः, उत ग्राह्याकारः इति वक्तव्यम् यदि ग्राहकाकारस्तदा तस्य ग्राहकं स्वरूपं न बाह्यमर्थ सन्निधापयतीति न तदध्यवसायोsनुमानसाध्यः। अथ ग्राह्याकारः सोऽपि नार्थवरूपसंस्पर्शीति कथं तदवगमे बाह्यार्थाऽध्यवसितिरनुमानफलम् ? तदेवमनुमितेः स्वसंवेदनमात्रपर्यवसितत्वान्नार्थप्रदर्शनद्वारेण प्रवर्तकता युक्ता । नन्वनुमाने सति प्रवृत्तिदृष्टा तदभावे सा न दृष्टेति तत्कार्यासौ निश्चीयते त_भ्यासदशायां विकल्प-१० विकले दर्शने सति प्रवृत्तिदृष्टा प्रतिपदोच्चारं तत्र विकल्पनासंवेदनेऽपि पुरःपरिस्फुटप्रतिभासमात्रादेव प्रवृत्त्युपपत्तेस्तत्कार्याऽसौ किं न व्यवस्थाप्यते? अथानुमानादनभ्यासदशायां प्रवृत्तिरुपलब्धेति तदन्तरेण सा कथं भवेत् ? न; मन्दाभ्यासेऽनुमानादेव प्रवृत्तिः अभ्यासदशायां तु पर्यालोचनलक्षणानुमानव्यतिरेकेणापि वस्तुदर्शनमात्रादेव समस्तु तथादर्शनात् अन्यथाऽनभ्यासदशायामनुमानात् प्रवृत्तिदर्शनात् सर्वदानुमानस्यैव व्यवहृतिजनकत्वे प्रत्यक्षेण लिङ्गग्रहणाभावतस्तन्निश्चयकृदपरमनु-१५ मानमभ्युपगन्तव्यम् तत्राप्यनुमानान्तराल्लिङ्गनिश्चय इति तन्निश्चयकृदपरमनुमानमित्यनवस्थाप्रसङ्गतो न कदाचिद् व्यवहृतिर्भवेत् । ततोऽविकल्पकं दर्शनमभ्यासदशायां व्यवहारकृदभ्युपगन्तव्यमन्यथा पूर्वोक्तप्रकारेणानुमानानवतारात् । न च पौर्वापर्येऽप्रवृत्तिमत् सन्निहितमात्रावभास्यध्यक्षं कथं तारलिङ्गग्रहणक्षमं यतोऽनभ्यासावस्थायामनुमानात् प्रार व्यवहारः पश्चात्त्वध्यक्षादभ्यासदशायामिति प्रेर्यम् ? यतः संवृत्या लिङ्गप्रतिबन्धग्राहि प्रत्यक्षमभिमतम् लोकस्य ह्येवमभिमानः 'तदेव साध्य-२० प्रतिबद्धं लिङ्गमहं पश्यामि' इति तदभिमानाञ्च लिङ्गप्रतिबन्धग्राह्यध्यक्षं व्यवहारकृदभ्युपेयते परमार्थपर्यालोचनया तु न प्रत्यक्षानुमानभेदः नापि व्यवहारः संवेदनमात्रत्वात् सर्वप्रपञ्चस्य। स्वसंवेदनं च सकलविकल्पविकलमिति कथं स्वार्थनिर्णयस्वभावं ज्ञानं प्रमाणं सिद्धिमासादयेत् ? [निर्विकल्पकमेवाध्यक्षमिति मतं प्रति विधाय सविकल्पस्याध्यक्षत्वमुपपाद्य च सिद्धान्तिना स्वार्थनिर्णयस्वभावज्ञानस्य प्रमाणसामान्यलक्षणत्वव्यवस्थापनम् ] २५ अत्र प्रतिविधीयते-'स्वार्थनिर्णयस्वभावं प्रत्यक्षं न भवति' इत्येतत् किं तद्राहकप्रमाणाभावादभिधीयते, आहोखित् तद्वाधकप्रमाणसद्भावात? तत्र न तावदाद्यः पक्षोऽभ्युपगमाहः स्थिरस्थूलसाधारणस्य स्तम्भादेरर्थस्य बहिरन्तश्च सद्रव्यचेतनत्वाद्यनेकधर्माकान्तस्य ज्ञानस्यैकदा निर्णयात् सांशस्वार्थनिर्णयात्मनोऽध्यक्षस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वात् तद्राहकप्रमाणाभावोऽसिद्धः। तथाहिअन्तर्बहिश्च स्वलक्षणं पश्य(श्य)ल्लोकः स्थूलमेकं स्वगुणावयवात्मकं ज्ञानं घटादिकं च सकृत्प्रति-३० पत्त्याध्यवस्यति, न चेयं प्रतिपत्तिरनध्यक्षा विशदखभावतयानुभूतेः । न च विकल्पाऽविकल्पयोर्मनसोर्युगपट्टत्तेः क्रमभौविनोर्लघुवृत्तेर्वा एकत्वमध्यवस्यति जनस्तत्रेत्यविकल्पाऽध्यक्षगतं वैशचं १ बौद्धसम्मतं केवलनिर्विकल्पकप्रामाण्यपक्षं वैयाकरणसम्मतं केवलसविकल्पकप्रामाण्यपक्षं च निराकृत्य निर्विकल्पकसविकल्पकोभयप्रामाण्यं व्यवस्थापयितुं कुमारिलेन चर्चा कृताऽस्ति-श्लो० वा. प्रत्यक्षसू० श्लो० ८६-१४५ । __ सैव चर्चा तदीयानि कानिचित् पद्यान्युपयुज्य वाचस्पतिमिश्रेण सूक्ष्मेक्षिकया हृदयहारिण्या च शल्या विस्तरमुपनीता दृश्यते-ज्यायवा. ता.टी.पृ. १३३-१३७। अत्रत्यः शास्त्रार्थः प्रस्तुतप्रन्थशैल्या क्वचित् कचित् शब्दसाम्यमजहदेव संक्षेपेण भणयन्तरेण च प्रमेयकमलमार्तण्डे वर्तते-पृ. ८ द्वि.पं०६-पृ० ११ द्वि० पं० २। मार्तण्डगतश्च स एव शास्त्रार्थः अक्षरशः समादाय पुनरनेकधा पल्लवीकृत्य च वर्णितः स्याद्वादरत्नाकरे दृश्यते-पृ. ७५-८८ आ० । शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० १५६ द्वि. पं०९-। २-पद वृ-आ० हा०वि० । शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० १५६ द्वि.पं. ११। ३-भाविनोल-वृ. आ. वि.। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डेविकल्पे सांशस्वार्थाध्यवसायिन्यध्यारोपयतीति वैशद्यावगतिः एकस्यैव तथाभूतस्वार्थनिर्णयात्मनो विशदज्ञानस्यानुभूतेरननुभूयमानस्याप्यपरनिर्विकल्पकस्य परिकल्पने बुद्धेश्चैतन्यस्यापरस्य परिकल्पनाप्रसङ्ग इति साङ्ख्यमतमप्यनिषेध्यं स्यात् । किञ्च, सविकल्पाविकल्पयोः कः पुनरैक्यमध्यवस्यति? न तावदनुभवो विकल्पेन आत्मन ऐक्यमध्यवस्यति व्यवसायविकलत्वेनाभ्युपगमात् तस्य अन्यथा ५भ्रान्तताप्रसङ्गात् । नापि विकल्पोऽविकल्पेन स्वस्यैक्यमध्यवस्यति तेनाविकल्पस्याविषयीकरणात अन्यथा स्खलक्षणगोचरताप्राप्तेः अविषयीकृतस्य चान्यत्राध्यारोपाभावात् न ह्यप्रतिपन्नरजतः शुक्तिकायां रजतमध्यारोपयितुं 'रजतमेतत्' इति समर्थः। न च यथेश्वरादिविकल्पस्तदविषयीकरणेऽप्यध्यवसिततद्भाव उपजायते तथात्राप्यध्यवसिताविकल्पस्वभावो विकल्पः समुपजायत इति स तयो रैक्यमध्यवस्यति, उक्तोत्तरत्वात् । तथाहि-न तावदनुभव ऐवंरूपमात्मानमवगच्छति तेनास्यार्थस्या१०विषयीकरणात् एतत्'रूपतया तस्यासिद्धेश्च । न हि मरीचिका जलरूपतयाऽध्यवसिता तद्रूपतयाऽसिद्धार्थक्रियोपयोगिन्युपलब्धा एवमनुभवोऽपि विकल्परूपतयाऽध्यवसितस्तथाऽसिद्धो नार्थक्रियोपयोगी नातः किञ्चित् सिध्यति । नापि विकल्पः तस्याऽवस्तुविषयत्वाभ्युपगमात् । यदि पुनर्विकल्पस्तद्रूपमात्मानमध्यवस्येत् तर्हि परमार्थविषयता तस्येति _ "विकल्पोऽवस्तुनिर्भासाद् विसंवादादुपप्लवः" [. १५ इति असङ्गतं स्यात् । अत एव न विकल्पान्तरमपि तमध्यवस्येत् तस्यापि तुल्यदोषत्वात् । किञ्च, तयोरैक्यं व्यवस्यतीत्यत्र यदि विकल्पं निर्विकल्पकतया मन्यते व्यवहारी तदा निर्विकल्पकमेव सर्व ज्ञानमिति विकल्पव्यवहारोच्छेदादनुमानप्रमाणाभावः। अथाविकल्पं विकल्पतया तदा सविकल्पकमेव सर्व प्रमाणमिति अविकल्पप्रत्यक्षवादो विशीर्यत । यथा हि प्रज्ञाकराभिप्रायेण मणिप्रभायां मणिज्ञानं 'य एव मणिर्मया दृष्टः स एव प्राप्तः' इत्यभिमानिनःप्रत्यक्षं प्रमाणम्-अन्यथाऽभ्यासदशायां २० भाविनि दृश्य-प्राप्ययोरेकत्वाध्यवसायात् प्रत्यक्षमेव प्रमाणमिति न भवेत् अन्यस्य तन्निबन्धनस्य तत्राप्यभावात्-तथा सर्व निर्विकल्पं विकल्पत्वेन निश्चित्य सविकल्पकमेव सर्व ज्ञानमिति यो व्यवहरति तस्य किमिति तदेव न प्रमाणम् ? यथा हि दृश्यं प्राप्यारोपात प्राप्यम् तथाऽविकल्पो विकल्पारोपाद विकल्पो भवेत् न्यायस्य समानत्वात् । अथ यथा प्राप्यमणिप्रभा-मणिप्रतिभासयोरेकत्वाध्यवसायेऽपि न मणिप्राप्तौ तत्प्रतिभासस्याभावः-अन्यथा मणिः प्रतिभातो न प्राप्तः स्यात्-तथा २५सविकल्पाविकल्पयोरेकत्वाध्यवसायेऽपि निर्विकल्पकस्य नाभावः; नन्वेवं सांशस्थूलैकस्पष्टप्रतिभास व्यतिरिक्तस्य निरंशक्षणिकपरमाणुप्रतिभासलक्षणनिर्विकल्पकानुभवस्य तदैव निर्णयप्रसक्तिः । अथ विकल्पनाविकल्पस्य सहस्रांशुनों तारानिकरस्येव तिरस्कारान्न तथा निर्णयस्तर्हि विकल्पस्याप्यविकल्पेन तिरस्कारात् प्रतिभासनिर्णयो न स्यात् । अथ विकल्पस्य बलीयस्त्वाद्विकल्पस्य च दुर्बलत्वात् तेन तस्य तिरस्कारः; ननु कुतो विकल्पस्य ३० बलीयस्त्वम् ? प्रचुरविषयत्वादिति चेत्, न; अविकल्पविषय एव प्रवृत्त्यभ्युपगमात् अन्यथाऽस्य गृही १-कल्पे खांश-बृ. ल. वा. बा. विना। २-स्याप-आ० । ३-कल्पत्वे-ल. विना । “न तावन्निर्विकल्पकम् अध्यवसायविकलखात् तस्य अन्यथा भ्रान्तताप्रसङ्गः"-प्रमेयक पृ. ९ द्वि. पं. ३ । “न तावन्निर्विकल्पकम् तस्याध्यवसायशून्यत्वात् इतरथा भ्रान्तलप्रसक्तिः"-स्याद्वादर. पृ. ८२५०४ आ० । ४-स्तद्वि-बृ० । ५ एवंस्वरूआ. हा० वि०। ६ तथावस्तु-भां० मा० विना। ७“अनुभवरूपम्"-बृ. ल. टि.। ८ “विकल्पोऽवस्तुनिर्भासः इत्यस्य विरोधः" । अवस्तुनिर्भासः “अवस्तुनि निर्भासः प्रतिभासो यस्य विकल्पस्य सः" इत्यस्य "ग्रन्थस्य"-प्रमेयक० पृ. ९ द्वि. पं० ४ टि. १६, १७ । “तदुक्तम्-विकल्पोऽवस्तुनि सौ(सो) विसंवादादुपप्लवः"सिद्धिवि० टी० लि. पृ० ९० पं० २२ । “यथोक्तम् विकल्पो वस्तुनिर्भासाद्विसंवादादुपप्लव इति"-प्रशस्त. कं० पृ० १९. पं० १८ । “विकल्पोऽवस्तुनिर्भासात्" इति वचो विरुध्यते" स्याद्वादर० पृ० ८२५० ६ आ० । “विकल्पोऽवस्तुनिर्भासाद् विसंवादादुपप्लवः । प्रत्यक्षाभः" इति वचनात्"-धर्मसं० पृ० १३४ प्र. पं० १। “तदुक्तम्" इति कृखा "विकल्पो वस्तु. निर्भासादसंवादादुपप्लवः" इत्युद्धृतं वर्तते सर्वदर्शनसंग्रहे-पृ. ४४ द० २५० ३३५।। ९"विकल्पान्तरस्य"-बृ० ल. टि.। १० सर्वज्ञा-भां० मा. आ. विना। ११-माणं न बृ. ल.। १२-सकलक्ष-आ. हा० वि०। १३-कल्पिकानु-ल. आ० हा० वि० ।-कल्पिका त्वानु-वा. बा. भां० मां०। १४-ना तमोनि- आ० । “भानुना तारानिकरस्येवेति चेत्"-प्रमेयक पृ० ८ द्वि. पं० १४ । “तिग्मभानुना विभावरीभुजंगस्येवेति चेतू"-स्याद्वादर० पृ. ७९ पं० २५ आ० । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५०१ तग्राहित्वासंभवात । निर्णयात्मकत्वात् तस्य तदात्मकत्वमिति चेतः नन तस्य किं स्वरूप निर्णयात्मकत्वम्, उतार्थरूपे? न तावत् स्वरूपे “सर्वचित्त-चैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम" [न्यायविं० १-१०] इत्यस्य विरोधात् । एवमपि तत्र तेस्य निर्णयात्मकत्वे चक्षुरादिज्ञानं स्वपरयोस्तदात्मकं किं न भवेत् ? तथा च स्वार्थाकाराध्यवसायाधिगमश्चक्षुरादिचेतसां सिद्ध इति केन कस्य तिरस्कारः? तन्न विकल्पः स्वरूपे निर्णयात्मकोऽभ्युपगन्तव्यः । अथाऽर्थे तस्य निर्णयात्मकत्वम् : नन्वेवमेकस्य५ विकल्पस्य निर्णयानिर्णयस्वभावं रूपद्वयमायातम् तच्च परस्परं तद्वतश्च यद्येकान्ततो भिन्नमभ्युपगम्यते समवायादेरनभ्युपगमात् सम्बन्धासिद्धेः 'वलवान् विकल्पो निर्णयात्मकत्वात्' इत्यस्यासिद्धिः। न च रूपादीनामिव परस्परमेकसामग्यधीनतालक्षणः तयोः सम्बन्धः तद्वता चाग्निधूमयोरिव तदुत्पत्तिलक्षण इति वक्तव्यम् स्वाभ्युपगमविरोधात् । किञ्च, यदा विकल्पस्य कारणत्वम् निर्णयाऽनिर्णययोश्च कार्यत्वं तदा विकल्पस्य पूर्वकालत्वं तयोश्चोत्तरकालत्वम् प्रज्ञाकराभिप्रायात् तु विपर्ययोऽपि १० मरणलिङ्गस्यारिष्टादेस्तत्कार्यतया प्राग्भाविनस्तनाभ्युपगमात् तथा च भिन्नकालस्य विकल्पस्य न निर्णयानिर्णयात्मकत्वमिति ज्ञानरूपताया अप्यभावः तद्विकलस्य गत्यन्तराभावात् तयोश्च विकल्पस्वभावविकलतया निःस्वभावता । ज्ञानाद भिन्नयोरनुपलभ्यत्वेन गत्यन्तराभावात् स्वयं तयोरुपलम्भे विकल्पाद भिन्ने ज्ञाने स्याताम् एवं च यदनिर्णयात्मकं तत तदेव यञ्च निर्णयस्वरूपं तदपि तदेव तथा च निर्विकल्पकस्य पृथगुपलम्भनिर्णयः स्यादिति पूर्वोक्तमेव दूपणं पुनरापतति, निर्णयात्मकेऽपि १५ चक्षुरादिज्ञानमपि तथैव स्यादिति पूर्वोक्त एव दोषः । तत्रापि रूपद्वय कल्पनायां प्रकृतो दोपः अनवस्था च । तन्न परस्परं तद्वतश्च भेदैकान्तो युक्तः । अभेदैकान्तेऽपि तवयमेव तद्वान् वा भवेत् तथा चन प्रकृतसिद्धिः। अथ निर्णयानिर्णयस्वभावयोरन्योन्यं तद्वतश्च कथञ्चित्तादात्म्यं तर्हि यत् खात्मनि अनिर्णयात्मकं बहिरर्थे च निर्णयस्वभौवं रूपं तत्साधारणमात्मानं प्रतिपद्यते चेद् विकल्पः स्वरूपेऽपि सविकल्पकः २० प्रसक्तः अन्यथा निर्णयस्वभावतादात्म्यायोगात् । न च स्वरूपमनिश्चिन्वन् विकल्पोऽर्थ निश्चिनोति इतरथाऽगृहीतखरूपमपि ज्ञानमर्थग्राहकं भवेदिति न नैयायिकमतप्रतिक्षेपः। न च नैयायिकाभ्युपगमेन परगृहीतस्य स्वगृहीततादोषः भवन्मतेऽपि परनिश्चितस्य स्खनिश्चितत्वप्रसक्तेः । यथा च परझाँतमननुभूतत्वान्नात्मनो विषयस्तथा विकल्पस्य स्वरूपमनिश्चितत्वान्नात्मनो विषय इति समानं पश्यामः। न च तस्यापि विकल्पान्तरेण निश्चयः तस्यापि विकल्पान्तरेण निश्चयापत्तेरनवस्थाप्रसक्तेः।२५ न च विकल्पस्वरूपमनुभूतमपि क्षणिकत्वादिवदनिश्चितमर्थनिश्चायकं युक्तम् अनिश्चितस्यानुभवेऽपि क्षणिकत्ववत् स्वयमव्यवस्थितत्वात् अव्यवस्थितस्य च शशशृङ्गादेरिवान्यव्यवस्थापकत्वायोगात् । यथा च विकल्पस्य स्वार्थनिर्णयात्मकत्वं तथा चक्षुरादिबुद्धीनामपि तद्युक्तम् अन्यथा तासां तबाहकत्वायोगात् । अथ विकल्पस्य बहिरर्थे प्रवृत्तिरेव नास्तीति कथं तन्निर्णयात्मकः? न हि नीलज्ञानं पीताप्रवृत्तिकं तन्निर्णयात्मकं वक्तुं शक्यम् प्रतिपत्रभिप्रायवशात् बौद्धर्वाह्यार्थव्यवसायात्मकत्वं विकल्पस्य ३० परमार्थतो निर्विषयत्वेऽपि व्यावय॑ते, तदयुक्तम् । यतः किमिदं विकल्पस्य परमार्थतो निर्विषयत्वम् ? यद्यात्मविषयत्वं तात्मविषयं निर्विकल्पकमपि ज्ञानं निर्विपयमित्यर्थनिर्णयात्मकत्वाद् बलवान् विकल्प इति निर्विकल्पकानुभवस्य निर्णयस्तिरस्कारक इत्यसङ्कतं स्यात् सविकल्पकस्यैव कस्यचिदभावादात्मविषयस्य निर्विकल्पकण्यापि विकल्पवत् सविकल्पकस्यैवं वा भावात् नचैवं कस्यचित् प्रतिपत्तुरभिप्रायः। अथ साधारणस्यास्पष्टस्य स्व-परयोरविद्यमानस्याकारस्य शब्दसंसर्गयोग्यस्य विषयी-३५ करणं निर्विषयत्वम्, न तस्य तत्र संबन्धाभावतो विषयीकरणासंभवान् तथापि तद्विषयीकरणे सर्व १“विकल्पस्य"-बृ. ल. टि.। २ “बलीयस्वम्"-बृ० ल.टि.। ३ न्यायबिन्दुसूत्रे 'प्रत्यक्ष पदं नास्ति । ४ "खरूपे"-वृ. ल.टि.। ५ "तस्य विकल्पस्य"-बृ० ल० टि०। ६-सायो धि-वृ०। ७ इति न व-बृ० । ८ "निर्णयानिर्णययोः"-बृ.टि.। ९-था भि-बृ०। १० तद्विकल्पस्य ल. भां० मां० विना। ११च निआ० हा० वि०। १२-था नि-बृ०। १३-त्मके च-ल. वा. बा. विना । १४-रर्थे नि-बृ०। १५-भावरूआ० हा० वि०। १६-था गृ-वृ• विना। १७-ज्ञानम-बृ० ल० वा. बा. भां मां० विना। १८-त्वात्मनो वृ०।-त्वान्न मनो बृ० सं०। १९-शात् तु बौ-बृ० वा. बा. भा. मां०। २०-व चाभा-भा० मा० । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ द्वितीये काण्डेमपि शानं तथैव स्वविषयं विषयीकुर्यादिति तदुत्पत्त्यादिसम्बन्धकल्पनमनर्थकमासज्येत । न च तादात्म्यलक्षणस्तत्र तस्य सम्बन्धः तदाकोरेऽविकल्पकत्वस्य अविकल्पकत्वे वा तदाकारत्वस्य प्रसक्तेः। तदुत्पत्तिसम्बन्धवशात् तेन तद्रहणम् इत्येतदप्ययुक्तम् तदाकारस्य तज्ज्ञानोत्पादकत्वेन स्खलक्षणत्वप्राप्तेस्तज्ज्ञानस्य सविषयताप्रसक्तिदोषात् । न च स्ववासनाप्रकृतिविभ्रमवशादतदुत्पन्नमतदाकारं च ५तत् तद्विषयीकरोति अक्षसमनन्तरविशेषात् अन्यस्याप्युपजातस्य तथास्वविषयीकरणप्रसक्तेः सर्वत्र तदाकारतदुत्पत्तिप्रतिबन्धकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तेः । अतस्तदाकारविषयीकरणासंभवाद् विकल्प्यार्थाभावतो दृश्य-विकल्प्यावावेकीकृत्य प्रवर्तत इत्ययुक्तमभिधानम् । ततो न बलवान् विकल्प इति कथं तेनाविकल्पतिरस्कार इति अविकल्पकनिश्चयस्तदैव भवेत् न चैवम् अतो नाविकल्पस्य विकल्पेनैकत्वाध्यवसायः । किञ्च, विकल्पेऽविकल्पकस्यैकत्वेनाध्यारोप इति कुतो निश्चीयते? अस्पष्टास्खलक्षण१० ग्राहिणि स्पष्टस्खलक्षणग्राहित्वस्य प्रतीतेस्तध्यारोपावगतिरिति चेत् ; ननु यदि नाम तत्र तत्प्रतीतिः अविकल्पारोपस्तु कुतः? स्पष्टत्वादेस्तद्धर्मस्य तंत्र दर्शनादिति चेत् तद्धर्मः स्पष्टत्वादिरित्येतदेव कुतः? तत्र दर्शनादिति चेत् ; अंत एव विकल्पधर्मोऽप्यस्तु अन्यथाऽविकल्पस्यापि मा भूत् । न च विकल्पव्यतिरेकेणाविकल्पमपरमनुभूयते यस्य स्पष्टत्वादिधर्मः परिकल्पेत एवमपि तत्र तत्परिकल्पने ततोऽप्यपरमननुभूयमानं विशदत्वादिधर्माधारं परिकल्पनीयमित्यनवस्थाप्रसक्तिः। अथ किञ्चिज्ज्ञानं १५सविकल्पकमपरं निर्विकल्पकं राश्यन्तराभावात् विकल्पस्य चार्थसामोद्भूतत्वासंभवान्न विशद त्वादिधर्मयोगः अविकल्पस्यापि तद्योगाभावे विशदत्वादिकं न क्वचिदपि भवेदित्यविकल्पस्यैव तदभ्युपगन्तव्यम् । भवेदेतत् यद्यर्थसामर्थ्यप्रभवत्वेन वैशद्यादेाप्तिः स्यात् तदभावे तन्न भवेत् न चैवम् अर्थसामोद्भूतेऽपि दूरस्थितपादपादिज्ञाने वैशद्यादेरभावात् योगिप्रत्यक्षे चार्थप्रभवत्वाभावेऽपि च भावात् । न च तदप्यर्थसामोद्भुतम् तत्समानसमयस्य चिरातीतानुत्पन्नस्य चार्थस्य २० तहणानुपपत्तेः। तथाहि-प्रागसर्वज्ञः सन् सुगतो विवक्षितक्षणे सर्वज्ञतामासादयंस्तत्समानसमयभाविनां भावानाम्-तज्ज्ञानं प्रत्यजनकत्वात् तेषाम्-ग्राहको न स्यात् एवमुत्तरोत्तरतद्विज्ञानक्षणा अपि स्वसमयार्थग्राहका न भवेयुः चिरतरविनष्टस्य भावकलापस्यासत्त्वेन तदकारणत्वान्न तं प्रति ग्राहकता भवेत् अनुत्पन्नस्य च पदार्थसमूहस्य कारणत्वासंभवात् तं प्रति ग्राहकता तस्य दूरोत्सारि तैव । अथ चिरातीतं भावि च तत्कारणमभ्युपगम्यत इति नायं दोषः; नन्वत्राप्यभ्युपगमे येन २५ स्वभावेन तत् तदनन्तरभावि कार्यमुत्पादयति तेनैव यदि सुगतज्ञानमिदानीन्तनकालभावि जनयति तदैकस्वभावत्वान्नित्यादिवत् कार्यक्रमायोगात् पूर्वमेवैतदप्युत्पद्येत । अथ समनन्तरप्रत्ययस्य सुगतज्ञानहेतोरिदानीमेव भावान्न पूर्वमुत्पत्तिः, असदेतत्; यत आलम्बनकारणं चिरातीतसमयभावि तदैव तत्कार्यमुत्पादयितुं प्रभवति समनन्तरप्रत्ययस्त्विदानीमिति विरुद्धकारणसामर्थ्यानुविधायिनः कार्यस्योत्पत्तिरेव न भवेत् । अथान्येन स्वभावेन तर्हि सांशं तत् प्रसज्यत इति तदाहिणोऽपि ज्ञानस्य ३० सांशैकवस्तुग्राहकत्वेन सविकल्पकताप्रसक्तिः। एवं भाविकारणेऽपि वक्तव्यम् । तन्न योगिप्रत्यक्षमर्थसामर्थ्यप्रभवमभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा पूर्वोक्तदोषप्रसक्तेः। तच्च तैदप्रभवमपि यथा विशदम्अन्यथा प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः-तथा विकल्पज्ञानमर्थसामर्थ्याप्रभवमपि यदि विशदं भवेत् तदा को विरोधः? विकल्पस्य वैशद्यमेव विरोधः। तदुक्तम् "न विकल्पानुबद्धस्य स्पष्टार्थप्रतिभासिता। स्वप्नेऽपि स्मर्यते स्मार्त न च तत् तादृगर्थदृ"॥[ १-षयं निवि-ल०।-षयं वि-आ० । 'खविषयम्' इति पदस्य 'विषयीकुर्यात्' इति क्रियाया व्याप्यखेन द्वितीयान्तवात् 'सर्वमपि ज्ञानम्' इति पदेन सह नान्वयः इति ख्यापनाय आ. प्रती 'षयं' इत्यस्य शिरसि द्वितीयविभक्तिसूचकोऽको न्यस्तः। २-कारे विकल्पकत्वे वा ल. वा. बा. भां० मा. विना। ३-कल्पार्था-वा. बा. विना। ४-कल्पाव-भां. मां. हा. विना । ५“अविकल्पक"-बृ. ल. टि.। ६ “सविकल्पके"-. ल.टि.। ७"तत्र दर्शनादेव"-बृ. ल.टि.। -कल्प्ये त बृ० सं०। ९ “पदार्थसमूहम्"-वृ० ल.टि.। १.कार्योत्प-आ. हा०वि०। ११ भवति । बृ०। १२ "अर्थाप्रभवम्"-वृ.ल.टि.। १३-त्यक्षानु-वृ०। १४ "तथा चोक्तम्" इत्युल्लिख्योद्धृतोऽयं श्लोको वर्तते सिद्धिविनिश्चयटीकायाम्-लि. पृ. ९५५० १६ । “न विकल्पानुबन्धस्य"-शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० १५७ द्वि. पं०३। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५०३ इति चेत्। ननु स्वप्नावस्थायां पुरोवर्तिहस्त्याद्यवभासमेकं शानमनुभूयते अपरं तु स्मरणक्षानम् तत्र पूर्वोल्लेखतयोपजायमानस्य यदि वैशद्यवैकल्यम् नैतावता सर्वविकल्पस्य पुरोवर्तिस्तम्भाद्युल्लेखवतो वैशद्याभावः तत्र तैस्य खसंवेदनाध्यक्षतः प्रतीतेः । न चाविकल्पकं तदिति वक्तव्यम् स्थिरस्थूलपुरोव्यवस्थितर्हेस्त्याद्यवभासिनः स्वप्नदशाज्ञानस्याविकल्पकत्वे अनुमानस्यापि सांशवस्त्वध्यवसायिनो निर्विकल्पकत्वप्रसक्तेर्विकल्पवार्ताविरतिरेव स्यात् । अत एव 'प्रथमं निर्विकल्पकं निरंशवस्तुग्राहकं ५ तदर्थसामोद्भूतत्वात् तदुत्तरकालभावि तु निर्विकल्पकज्ञानप्रभवमर्थनिरपेक्षं सांशवस्त्वध्यवसायि सविकल्पकमविशदं लघुवृत्तेस्तु निर्विकल्पकज्ञानवैशद्याध्यारोपात् तत्राध्यक्षत्वाभिमानो लोकस्य' इति एतदपि निरस्तं द्रष्टव्यम् विकल्प एव पूर्वोक्तन्यायेन वैशद्योपपत्तेर्निर्विकल्पकस्य च निरंशक्षणिकपरमाणुमात्रावसायिनः कदाचिदंप्यनुपलब्धेस्तत्र वैशद्यकल्पनाया दुरापास्तत्वात् । ____ अथ संहृतसकलविकल्पावस्थायां पुरोवर्तिवस्तुनिर्भासि विशदमक्षप्रभवं ज्ञानमविकल्पकं संवेद्यत १० एव तथा चाध्यक्षसिद्ध एव ज्ञानानां कल्पनाविरह इति नात्र प्रमाणान्तरान्वेषणमुपयोगि। तदुक्तम्"प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति" ॥ [ ] इत्यादि। तथा पुनरप्युक्तम् "संहृत्य सर्वतश्चिन्तां स्तिमितेनान्तरात्मना। स्थितोऽपि चक्षुषा रूपं वीक्षते साक्षजा मतिः” ॥ [ न ह्यस्यामवस्थायां नामादिसंयोजितार्थोल्लेखो विकल्पस्वरूपोऽनुभूयते । न च विकल्पानां खसंविदित १-हस्ताद्य-वृ० । २ "स्वप्नज्ञाने पुरोवर्सनेकपावभासरूपतया"-बृ. ल. टि. । ३ "वैशद्यस्य"- बृ० ल• टि। ४-हस्ताद्य-बृ० । “खप्नदशायामपि स्मरणविलक्षणस्य पुरोवृत्तिहस्त्याद्यवभासिनो बोधस्य निर्विकल्पकत्वे अनुमानस्यापि सांशवस्तुग्राहिणस्तथालप्रसङ्गे विकल्पवार्ताया एव व्युपरमप्रसङ्गात्"-शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० १५७ द्वि. पं. ४-५। ५-रपेक्ष सां-बृ० भ० मा०। ६-दनु- आ० हा० वि०। ७“प्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां विकल्पा नामसंश्रयः॥ इति पश्चिमार्धम्"-बृ.टि. । “प्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां विकल्पो नामसंश्रयः॥ इति"-ल. टि.। “यदाह न्यायवादी प्रत्यक्ष कल्पनापोडं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति । प्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां विकल्पो नामसंश्रयः॥ संहृत्य सर्वतश्चिन्तां स्तिमितेनान्तरात्मना । स्थितोऽपि चक्षुषा रूपमीक्षते साऽक्षजा मतिः॥ पुनर्विकल्पयन् किञ्चिदासीद् मे कल्पनेशी । इति वेत्ति न पूर्वोक्तावस्थायामिन्द्रियाद् गतौ ॥ इत्यादि, तदपाकृतमवसेयम्"-अनेका० पृ. २०७ पं० ११-१८ । "यदाह न्यायवादी धर्मकीर्तिर्वार्तिके-प्रत्यक्षमित्यादि तदपाकृतमवसेयमिति योगः । प्रत्यक्षं प्रस्तुतम् कल्पनापोढमियेतत् प्रत्यक्षेणैव सिध्यति । कथमित्याह-प्रत्यात्मवेद्यो यस्मात् सर्वेषां प्रमातृणाम् , विकल्पो नामसंश्रयः शब्दानुविद्ध इत्यर्थः॥ तथा, संहृत्य सर्वतश्चिन्तां विकल्परूपाम् , स्तिमितेन अन्तरात्मना प्रसन्ननिर्व्यापारेण, स्थितोऽपि सन् , चक्षुषा रूपमीक्षते पश्यति यया बुद्धया सा अक्षजा मतिः॥ ईक्षिला पुनर्विकल्पयन् किश्चित् पश्चात् आसीद् मे कल्पना ईदृशी एवंभूता इति वेत्ति, न पूर्वोक्तावस्थायां चक्षुषा रूपेक्षणलक्षणायाम् इन्द्रियाद् गतो ॥ इत्यादि यदाह न्यायवादी तद् अपाकृतम् अपास्तमबसेयम्"-अनेका० टी० पृ. २०८ पं० ११-२०। प्रमेयकमलमार्तण्डे "विकल्पो नामसंश्रयः" इति पाठो वर्तते । नामसंश्रयः "शब्दः संश्रयः कारणं यस्य विकल्पस्य सः"-पृ. ९ द्वि. पं. ८ टि. ३८।। अयं श्लोकः सिद्धिविनिश्चयटीकायामुद्धृतोऽस्ति-लि. पृ. ३१ पं०१९ । “यथाह" इति निर्दिश्य वाचस्पतिमिश्रः श्लोकस्यास्य पूर्वार्धमुद्धृतवान्-न्यायवा० ता० टी० पृ० १५४ पं० ९-१० । स्याद्वादर पृ० ८२ पं० १९-२० आ०। शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ. १५७ द्वि०५०६। ८ सप्तमं टिप्पणं विलोकनीयम् । "संहृत्य सर्वतश्चित्तं स्तिमितेनान्तरात्मना । स्थितोपि चक्षुषा रूपं खं च स्पष्ट व्यवस्यति ॥" -तत्त्वार्थश्लोकवा० पृ. १८६ श्लो. १३ । प्रमेयक• पृ. ९ द्वि. पं० ७ । “परेण हि यासौ तदवस्थोपवर्णिता "सहत्य सर्वत्र चिन्ताम्" इत्यादिना"-सिद्धिवि. टी.लि. पृ. ३४ पं० २५। स्याद्रादर. पू. ८२ पं० १२-१३ भा• । शासवा० स्याद्वादक. पृ. १५७ द्वि. पं०८।९-जितोर्थो-बृ.। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे - स्थायां रूपतयाऽननुभूयमानानामपि संभव इति विकल्पविकला सावस्था सिद्धा, असदेतत् यतस्तस्यामवस्थिरस्थूलस्वभावशब्दसंसर्गयोग्यपुरोव्यवस्थितगवादिप्रतिभासस्यानुभूतेः सविकल्पकज्ञानानुभव एव । नहि शब्दसंसर्गप्रतिभास एव सविकल्पकत्वम् तद्योग्यावभासस्यापि कल्पनात्वाभ्युपगमात् अन्यथाऽव्युत्पन्नसंकेतस्य ज्ञानं शब्दसंसर्गविरहात् कल्पनावन्न स्यात् । न च पूर्वकाल५ दृष्टत्वस्य वर्तमान समयभाविनि संयोजनाच्छब्दोले खाभावेऽप्यसदर्थग्राहितयाऽविशदप्रतिभासत्वात् तत् सविकल्पकम्, पूर्वकालदृटत्वस्य पूर्वदर्शनाप्रतीतावपि व्यापकाप्रतीतौ व्याप्यस्येव प्रतीतेरसत्त्वासिद्धेस्तत्सम्बन्धित्वग्राहिणोऽसदर्थताऽसिद्धेवैशद्याभावस्य तत्रानुपपत्तेः शब्दसंसर्गयोग्यप्रतिभासस्य विशदतया विकल्परूपस्याप्यध्यक्षतोपपत्तेः शब्दयोजनामन्तरेणापि स्थिरस्थूरार्थप्रतिभासं निर्णयात्मकं ज्ञानमध्यक्षमभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा तस्य प्रामाण्यमेवानुपपन्नं भवेत् । तथाहि यत्रैवांशे १० नीलादौ विधिप्रतिषेधविकल्पद्वयं पाश्चात्यं तज्जनयति तत्रैव तस्य प्रामाण्यम् तदाकारोत्पत्तिमात्रेण प्रामाण्ये क्षणिकत्वादावपि तस्य प्रामाण्यप्रसक्तेः क्षणक्षयानुमानवैफल्यमन्यथा भवेत् विकल्पश्च शब्दसंयोजितार्थग्रहणं तत्संयोजना च शब्दस्मरणमन्तरेणासंभविनी तत्स्मरणं च प्राक्तत्सन्निध्युपलब्धार्थदर्शनमन्तरेणानुपपत्तिमत् तद्दर्शनं चाध्यक्षतः क्षणिकत्वादाविव निश्चयजननमन्तरेणासंभवि निश्चयश्च शब्दयोजनाव्यतिरेकेण नाभ्युपगम्यत इत्यध्यक्षस्य क्वचिदप्यर्थप्रदर्शकत्वासंभवात् प्रामाण्यं १५ न भवेत् । तस्मात् शब्दयोजनामन्तरेणाप्यर्थ निर्णयात्मकमध्यक्षमभ्युपगन्तव्यम् अन्यथाऽविकल्पाध्यक्षेण लिङ्गस्याप्यनिर्णयात् अनुमानात् तन्निर्णये अनवस्थाप्रसक्तेरनुमानस्याप्यप्रवृत्तितः सकलप्रमाणादिव्यवहारविलोपः स्यात् । अत एव "अश्वं विकल्पयेतो गोदर्शनात् न तदा गोशब्दसंयोजना तस्यास्तदाननुभवात् युगपद्विकल्पद्वयानुत्पत्तेश्च निर्विकल्पकगोदर्शनसद्भाव स्तदा " [ 1 इति निरस्तम् गोशब्दसंयोजनामन्तरेणापि तद्दर्शनस्य निर्णयात्मकत्वात् अन्यथाऽश्वविकल्पनाद् २० व्युत्थितस्य गवि क्षणिकत्ववत् शब्दस्मरणासंभवतः स्मृतिर्न भवेत् अभ्युपगमनीयं चैतत् अन्यथा गोशब्दस्मरणस्यापि विकल्परूपत्वादपरतच्छब्दस्मरणमन्तरेण तद्योजनारूपस्य तस्यासंभवात् तत्स्मरणमभ्युपगन्तव्यम् तस्यापि चापरतच्छब्दस्मरणमन्तरेण तथाभूतस्यानुपपत्तेरपरतच्छब्दस्मरणमित्यनवस्थानान्न प्रथमशब्दस्मरणमिति न क्वचिद् विकल्पप्रसवो भवेत् । अथापरशब्दम्म रणमन्तरेणापि शब्दस्मरणसंभवान्नानवस्था तर्हि प्रथमशब्दस्मरणं तद्योजनं च व्यतिरेकेणाप्यश्वविकल्पनसमये २५ गोदर्शनस्य निर्णयात्मनः संभवात् कथमस्याविकल्परूपता सिद्धिमुपगच्छेत् ? यदपि 'निरंशवस्तुसामर्थ्योद्भूतत्वात् प्रथमाक्षसन्निपातजं निरंशवस्तुग्राहि निर्विकल्पकम्' इति, तदप्यसङ्गतम् ; निरंशंस्य वस्तुनोऽभावेन तत्सामर्थ्योद्भूतत्वस्य निर्विकल्पकत्वहेतोस्तत्रासिद्धेः । न च यत् निरंशप्रभवं तन्निरंशग्राहि, निरंशरूपक्षणप्रभवस्याप्युत्तररूपक्षणस्य तद्राहित्वादर्शनात् । न च 'ज्ञानत्वे सति' इति विशेषणान्नायं दोषः प्रत्यक्षेप्रभवविकल्पस्य ज्ञानत्वेऽपि तद्भावानुपपत्तेः उपपत्तौ वा हिंसाविरतिदान३० चित्तखसंवेदनाध्यक्षप्रभवनिर्णयेन तग्रहणोपपत्तेर्निश्चयविषयीकृतस्य चानिश्चितरूपान्तराभावात् ५०४ 66 १ यथा व्यापक प्रतीतौ व्याप्यप्रतीतिर्नेति वैधर्म्यदृष्टान्तोऽयं तथा पूर्वदर्शनाप्रतीतावपि पूर्वकालदृष्टत्वस्य प्रतीत्यसत्त्वं नेति भावः " - बृ० ल० टि० । २" प्रत्यक्षज्ञानस्य " - बृ० ल० टि० । ३ “किञ्च, एवं तस्य प्रामाण्यमेवानुपपन्नं स्यात्; यत्रैव हि पाश्चात्यं विधि - निषेधविकल्पद्वयं तज्जनयति तत्रैव तस्य प्रामाण्यम्, विकल्पश्च शब्दसंयोजितार्थग्रहणम्, तत्संयोजना च शब्दस्मरणाधीना, तच्च सम्बन्धितावच्छेदकप्रकारकसम्बन्धिग्रहरूपार्थधीजन्यमिति, न चेदेवम् गवानुभवाद् गोशब्द संयोजनावत् क्षणिकत्वानुभवात् क्षणिकत्वशब्दसंयोजनापि स्यात् । एतेन 'अश्वं विकल्पयतो गोदर्शनेऽपि तदा गोशब्दसंयोजनाभावाद् युगपद्विकल्पद्वयानुपपत्तेश्च निर्विकल्पकमेव गोदर्शनम्' इति निरस्तम्, गोशब्दसंयोजनामन्तरेणापि तद्दर्शनस्य निर्णयात्मकत्वात्, अन्यथा तत्स्मरणानुपपत्तेः, समानप्रकारकानुभवस्यैव समानप्रकारकस्मरणहेतुत्वात्, तत्संशयापत्तेश्च तत्प्रकारकनिश्चयस्यैव तत्प्रकारकसंशयविरोधित्वात्; अन्यथा क्षणिकत्वादावपि स्मरणासंशयप्रसङ्गात् ” — शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० १५७ द्वि० पं० १३ । ४-कत्वसं-भां० मां० । ५ यतो गोर्द - बृ० । ६- नुपपत्ते - वृ० ल० वा० वा० विना । ७स्तदेतन्नि बृ० ल० वा० बा० विना । ८- परं त-ल० वा० बा० भ० मां० विना । ९-शव-भां० मां० आ० हा० वि० । १० च नि-वृ० । ११ क्षभ - बृ० ल० वा० बा० । १२-नत्वे त-आ० हा ० बि० । १३ " प्रत्यक्षप्राहिता - " बृ० टि० । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। वर्गप्रापणसामर्थ्यादेरपि तद्गतस्य निश्चयात् तत्र विप्रतिपत्तिर्न भवेत् । अथानुभवस्यैवायं यथावस्थितवस्तुग्रहणलक्षणः स्वभावविशेषो न विकल्पस्य तेनायमदोपस्तर्हि यथा दानचित्तानुभवः स्वसंवेदनाध्यक्षलक्षणस्तद्गतं स;व्यचेतनादिकं विषयीकरोति तथा स्वर्गप्रापणसामर्थ्यमपि तत्स्वरूपाव्यतिरिक्तत्वात् विषयीकुर्यात् ततश्च स व्यचेतनत्वादाविव तत्रापि विवादो न भवेत् । न चासौ नास्तीति शक्यं वक्तुम् चार्वाकादेस्तत्र विप्रतिपत्तिदर्शनात् । तथाहि-"यावजीवेत् सुखं जीव" [ ]५ इत्याद्यभिधानान्न स्वर्गः नापि तत्प्राप्तिहेतुः कश्चिद् भाव इति चार्वाकाः। "नैव दानादिचित्तात् स्वर्गः यदि ततो भवेत् तदनन्तरमेवासौ भवेत् अन्यथा मृताच्छिखिनः केकायितं भवेत् तस्मात् ततो धर्मस्तस्माच्च स्वर्गः" [ ] इति नैयायिकादयः । “इष्टानिष्टार्थसाधनयोग्यतालक्षणौ धर्माधौं”[ ] इति मीमांसकाः । उक्तं च शाबरे–“य एव श्रेयस्करः स एव धर्मशब्देनोच्यते" [मीमांसाद० १-१-२ शाब० पृ०४ पं०१५] अनेन द्रव्यादीनामिष्टार्थसाधन-१० योग्यता धर्म इति प्रतिपादितं शबरस्वामिना । भट्टोऽप्येतदेवाह "श्रेयो हि पुरुषप्रीतिः सा द्रव्यगुणकर्मभिः । चोदनालक्षणैः साध्या तस्मादेष्वेव धर्मता॥ एषामैन्द्रियकत्वेऽपि न तद्रूप्येण धर्मता ॥ श्रेयःसाधनता ह्येषां नित्यं वेदात् प्रतीयते । ताद्रूप्येण च धर्मत्वं तस्मान्नेन्द्रियगोचरः" ॥ [श्लो० वा० सू० २ श्लो० १९१-१३-१४ ] इति । एवमनेकधा विवाददर्शनान्न विवादाभावः स च स्वर्गप्रापणसामर्थ्यस्य दानचित्तादभेदे वस्तुस्वरूपग्राहिणा च स्वसंवेदनाध्यक्षेणानुभवे सद्रव्यचेतनत्वादाविव न युक्तः। अथ तच्चित्तादभिन्नं तत्प्रापण १ निर्णयात् वा० बा०। २-द्रव्यं चे-ल. भा. मां। ३ “द्रव्यतः परमार्थतश्चेतनवम्"-बृ० ल. टि.। ४ "स्वर्गप्रापणसामर्थेऽपि"- बृ० ल. टि.। ५ "विवादः"-बृ. ल. टि.। ६ “यथाह यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः । भस्मीभूतस्य शान्तस्य पुनरागमनं कुतः ॥"-न्यायमञ्ज आ० ७ पृ. ४६७ पं० २४ । "तदेतत् सर्व बृहस्पतिनाऽप्युक्तम्" इत्युल्लिख्योद्धृते श्लोककदम्बके __“यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥" इत्युपन्यस्तवान् सायणमाधवः-सर्वदर्शनसं० पृ. १४ द. १५० १२२ । गुणरत्नसूरिरपि लोकायतमतविवेचने परावर्तितपूर्वार्धमेनमेव श्लोकमित्थमुद्धृतवान् “तदुक्तम्" इति कृखा __ "यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् तावद्वैषयिकं सुखम् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥"-षइद० स० बृ० वृ० पृ. ३०२ पं०२०। -स्तस्मात् स स्व-आ० हा० वि०।-स्तन्मते च स्व-वा० बा०। ८-धनायो-आ० हा० वि० । षड्द. स० बृ• वृ० पृ. २८९ पं० २-११ । ९ तत्त्वसं० पजि० पृ० ५८३ पं० ११-२० । “यद्यपि गोदोहनादिद्रव्यम् , यागादिक्रिया, नीचैस्वादिगुणश्च फलसाधनवाद् धर्मशब्देनोच्यते नापूर्वादय इति श्रेयस्करभाष्ये वक्ष्यते, तथापि तेषां फलसाधनरूपेण धर्मखात् फलस्य च जन्मान्तरादिभाविलाद्धर्मखरूपेण प्रत्यक्षविषयलं न संभवति"-१-१-२ शास्त्रदीपिका पृ० १९ पं० १८ । श्लो० वा. पार्थव्या० पृ० ४८ पं० २२ । ___य एव श्रेयस्करः स एव धर्मशब्देनोच्यते । कथमवगम्यते ? यो हि यागमनुतिष्ठति तं धार्मिकमिति हि समाचक्षते । यश्च यस्य कर्ता स तेन व्यपदिश्यते यथा पाचको लावक इति । तेन यः पुरुषं निःश्रेयसेन संयुनक्ति स धर्मशब्देनोच्यते । न केवलं लोके, वेदेऽपि “यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्" इति यजतिशब्दवाच्यमेव धर्म समामनन्तीति श्रेयस्करभाष्ये वक्ष्यत इत्यर्थः"-१-१-२ शास्त्रदीपिका युक्तिस्नेहप्रपूरणीसिद्धान्त पृ० १९५० २९ । १० “इन्द्रियगोचररूपतया"-बृ० ल• टि० । पूर्वार्धमस्येत्थम्-"द्रव्य-क्रिया-गुणादीनां धर्मलं स्थापयिष्यते"। ६५ स० त० Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ द्वितीये काण्डेसामर्थ्य तगृहे गृहीतमेव किन्तु स्वसंवेदनस्य "सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षमविकल्पम्" ] इति वचनात् अविकल्पाध्यक्षत्वमिति तद्गृहीतस्यागृहीतकल्पत्वाद् विवादसंभवस्तत्र आह च कीर्तिः–“पश्यन्नपि न पश्यति" [ ] इत्युच्यते, असदेतत् ; यतो यदि तत्सामर्थ्य निर्विकल्पकाध्यक्षविषयत्वात् गृहीतमप्यगृहीतकल्पं तर्हि तश्चित्तमपि तत एव तथा ५भवेत् अविशेषात् तथा च 'यद् दानादिचित्तं तद् बहुजनसेव्यतानिबन्धनम् यथा त्यागिनरपतिचित्तम् दानादिचित्तं च विवक्षितम्' इत्याद्यनुमानमगमकम्-आश्रयासिद्धत्वादिदोषात्-प्रसज्येत । अथा। विकल्पोत्पत्तेर्न दोषः, असदेतत् यतो यद्यहेतुको विकल्पश्चित्तवत् तत्सामर्थ्येऽपि भवेत् अथ न, तत्र चित्तेऽपि मा भूत् अविशेषात् । अनुभवाद् विकल्पोत्पत्तिर्नानिमित्तेति चेत् उभयत्र स्यान्न वा क्वचिदप्यनुभवस्याप्यविशेषात् । न च चेतोविकल्पप्रभव एवानुभवः समर्थो न तत्सामर्थ्य विकल्पोत्पत्ताविति १० वक्तव्यम् यतो येन खभावेन तञ्चित्तचेतनादिकं स्वसंवेदनाध्यक्षमनुभवति तेनैव चेत् तत्सामर्थ्य त भयत्रापि विकल्पस्ततः प्रादुर्भवेत् । अथ रूपान्तरेण तद्युभयरूपतैकस्यानुभवस्येत्यविकल्पकैकान्तवादव्याघातः। न चैकेनैव स्वभावेनोभयानुभवेऽपि तत्सामर्थ्य न विकल्पमुत्पादयत्यनुभवोऽशक्तेरन्यत्र तदुत्पादयति विपर्ययादिति वक्तव्यम्, एकस्य शक्तेतररूपद्वयायोगात् । न चैकत्र शक्तिरेवान्यत्रा शक्तिस्तस्येति ईश्वरस्यापि क्रमभाविकार्यविधायिन एकत्र शक्तिरेवापरत्राशक्तिरिति स्वभावमेदो न १५भवेदिति न नित्यकारणप्रतिक्षेपो भवेत् । अथ नानुभवमात्राद् विकल्पप्रभवः अन्यथा निर्णयात्मकानु भववादिनोऽपि विस्तीर्णप्रघट्टकादौ वर्णपदवाक्यादेः सकलस्य निर्णयात्मनाऽध्यक्षेणानुभवात् स्मरणविकल्पानुदयो न भवेत् । अथार्च दर्शनपाटवाभ्यासप्रकरणाद्यपेक्षा त_न्यत्रापि सा तुल्येति, एतदप्यसत्; यतो दर्शनस्य पाटवं सञ्चेतनादौ तद्रहणयोग्यता तत्सामर्थ्य अपाटवं तदग्रहणयोग्यता तच्च दर्शनस्य दृश्यस्य च सांशतायामुपपत्तिमदिति कथं न सविकल्पकता? विकल्पजननाजनने तत्पाटवा२० पाटवे अपि नाभ्युपगमनीये सांशतापत्तिदोषादेव । अथाभ्यासादिसहायं दर्शनं विकल्पमुत्पादयति; नन्वेवमपि यदेव सञ्चेतनादौ दर्शनं तदेवचेत्, अन्यत्रोभयत्र विकल्पोत्पत्तिर्भवेत् अन्यथा 'नित्यस्यापि सहकारिसचिवमेकदैकत्र यद्रूपं तस्यान्यनान्यदा सद्भावेऽपि न तत्कार्यकरणं तदा तत्र' इति तस्य यद् दूषणं तदसङ्गतं भवेत् । किञ्च, यदपरमपेक्ष्य कार्यजनकं कचिद् दृष्टं तत् तत्सहकृतं कार्य १-दने प्र-वा० बा०। २ अत्र धर्मकीर्तिकृते न्यायबिन्दौ “सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनम्” इत्येतावदेव सूत्र दृश्यते-प०१ सू० १० पृ० ११ । ततः “प्रत्यक्षमविकल्पकम्” इत्यंशस्तत्सूत्रटीकानुसारी समुद्धृतो बोद्धव्यः । सा च टीकेयम् वर्तते-"तच ज्ञानरूपं वेदनमात्मनः साक्षात्कारि निर्विकल्पकमभ्रान्तं च तस्मात् प्रत्यक्षम्"-पृ० ११ पं० १४ । तट्टीकाटिप्पण्यपि यथा-"तत् प्रत्यक्षं खसंवेदनरूपं निर्विकल्पकं तत्र शब्दादियोजनाभावात् । कुतः । शब्दे संकेताभावात् । अभ्रान्तं च तद्विज्ञानं खरूपेऽविपर्यस्तत्वादु बाधकाभावाच्चेति"-पृ. ३३ पं. ५-६ । “सर्वचित्तचत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षं निर्विकल्पकमिति"-सिद्धिवि.टी.लि. पृ. ५१ पं० २० । ३ प्र०२४५५०१४-१५ । “अथ क्षणिकवादेनिर्विकल्पकैकवेद्यखात् तद् गृहीतकल्पवाद न दोषः," तदाह धर्मकीर्तिः"पश्यन्नपि न पश्यतीत्युच्यते” इति न दोष इति चेत् । न, तच्चित्तांशेऽपि तथावप्रसङ्गात् । तत्र विकल्पोत्सत्तेर्न दोष इति चेत् । न, स्मरणरूपतदनुत्पत्तेरनुत्तरत्वात् । तव विस्तीर्णप्रघट्टकानुभवे सकलवर्णपदाद्यस्मरणवदुपपत्तिरिति चेत् । न, मम विस्तीर्णप्रघट्टकस्थले वर्णादीनां तज्ज्ञानानां च व्यक्तिभेदाद् दृढसंस्कारस्यैव निश्चयस्य स्मृतिजनकलेन नियमसंभवात् , तव तु निरंशानुभवस्यांशे विकल्पजननाऽजननस्वभावभेदस्य, शक्तिभेदस्य, पाटवाऽपाटवादेर्वा न संभव इत्युक्तवात् ; 'एकस्यापि सहकारिसाचिव्येन तद्विकल्पस्यैव जनकत्वं, नान्यविकल्पस्य' इयभ्युपगमे स्थिरस्यापि सहकारिसाचिव्याऽसाचिव्याभ्यां कार्यजनकखाजनकलाभ्युपगमप्रसङ्गात् ; कुम्भकारादिसहकृतस्य मृदादेर्घटाद्यन्वय-व्यतिरेकदर्शनवदभ्यासादिसहकृतस्य निर्विकल्पस्य कदापि विकल्पान्वयव्यतिरेकाग्रहणेनाभ्यासादिसहकृतस्याविकल्पस्य विकल्पजनकत्वकल्पनाया अन्याय्यत्वाच"शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. १५८ प्र. पं०७॥ ४ "स्वर्गप्रापण-" बृ० ल. टि. । ५ "सद्रव्यचेतनखादिरूपे"-बृ. ल.टि.। ६ "उत्पादे"-बृ. ल. टि। ७ "शक्तिभावात्"-बृ० ल. टि. । ८ "विस्तीर्णप्रघट्टकादौ"-बृ० टि० । विस्तीर्णप्रघट्टकादौ स्मरणविकल्पानुदये"-ल. टि०। ९-स्थान्यदा भां० मां० आ० हा० वि० । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५०७ निर्वर्त्तयतीति युक्तं मृदादिवत् कुम्भकाराद्युपकृतम् । न चाभ्यासादिसहायमविकल्पकं कदाचिद् विकल्पमुपजनयद् दृष्टमिति कथं तस्य सहकारिसचिवस्य विकल्पजनकताभ्युपगमः? । अथ सञ्चेतनादिविकल्पमविकल्पकमुत्पादयद् दृष्टमिति तदभ्युपगमः; स्यादेतत् यदि क्रमभाविहेतुफलभूतमविकल्पसविकल्पकं ज्ञानद्वयमवसीयेत न च तदवसीयते सांशैकविकल्पस्वभावस्य सामान्यविशेषात्मकवस्तुग्राहिणः प्रथममेवोपजायमानस्यैकस्यैव निश्चयात्। तथाप्यप्रतीयमानस्य पूर्वकालभाविनोऽपरस्या-५ विकल्पकस्याभ्युपगमे तत्राप्यपरस्य तथाभूतस्याभ्युपगम इत्यनवस्थाप्रसक्तिः । यदप्यविकल्पकस्याभ्यासादिसहायविकल्पजनने प्रघट्टकास्मरणं दृष्टान्तत्वेनोपन्यस्तम्, तदप्ययुक्तम् । यतो वर्णादीनां तज्ज्ञानानां च व्यक्तिमेदाद दृढसंस्काराण्येव निश्चयात्मकान्यपि ज्ञानानि स्मृतिजनकोनि नापराणीति प्रतिनियतविषयस्मृतिसंभवान्न सकलप्रघट्टकास्मरणदोषः अनिश्चयात्मकं तु ज्ञानं क्षणिकत्वादाविव न क्वचिद् विकल्पहेतुर्भवेत् इत्युक्तं प्राक् न च भवत्पंक्षे सच्चेतनादि-१० स्वर्गप्रापणशक्त्यादीनां परस्परं तदनुभवानां च भेदः येनेदमुत्तरं समानं भवेत् । तथाहि-सच्चेतनादितत्सामर्थ्ययोरभेदे तदनुभवादेकरूपादुभयत्र संस्कारः स्मरणं वा भवेत् न वा क्वचिदिति अन्यथा अनुभवस्य सांशतापत्तिरिति सविकल्पकत्वं भवेत् । तस्माद् दानचित्तादौ सच्चेतनत्वादिकमनुभूयते न स्वर्गप्रापणसामर्थ्यमित्यभ्युपगन्तव्यम् । अथ तच्चेतसो मूषिकालर्कविषविकारवदनन्तरं फलस्यानुपलम्भाद् अतत्फलसाधादसामर्थ्यसमारोपाद् वा तदनुभवेऽपि न विकल्पः । तदुक्तम्- १५ "एकस्यार्थस्वभावस्य प्रत्यक्षस्य सतः खयम् । कोऽन्यो न दृष्टो भागः स्यात् यः प्रमाणैः परीक्ष्यते"॥ [ "नो चेद् भ्रान्तिनिमित्तेन संयोज्येत गुणान्तरम् । शुक्तौ वा रजताकारो रूपसाधर्म्यदर्शनात्" ॥ [ ] इति । अत्र च तात्पर्यार्थः-यद् यतोऽभिन्नं तस्मिन्ननुभूयमाने तदनुभूयते, यथा तस्यैव स्वरूपम् २० अभिन्नं च सच्चेतनादेश्चेतसः स्वर्गप्रापणसामर्थ्यम् तस्य ततो भेदे सम्बन्धासिद्धेः सामर्थ्यादेव तत्प्राप्तेश्वेतसस्तत्प्राप्तिं प्रत्यकारकत्वं च भवेत् निरंशस्य च वस्तुनोऽध्यक्षेणानुभवेऽननुभूतापरांशाभावान्न तत्र प्रमाणान्तरप्रवृत्तिः प्रयोजनवती अयं च निश्चयात्मकाध्यक्षवादिनो दोषः निश्चिते विपरीतसमारोपाभावात् निश्चयारोपमनसोर्बाध्यबाधकभावात् अविकल्पदर्शनानुभूते तु वस्तुन्यनिश्चयाद् भ्रान्तिनिमित्तगुणान्तरारोपसंभवात् तद्व्यवच्छेदार्थ प्रमाणान्तरप्रवृत्तिः सप्रयोजनैवेति, एतदप्य-२५ युक्तम् , यतस्तत्सामर्थ्यस्य यत् फलं सच्चेतसां तदेव, उतान्यदिति? प्रथमपक्षे उभयत्र निश्चयाभावः फलादर्शनस्याविशेषात् । द्वितीयपक्षे घट-पटवत् तद्भेदः । यदप्यसामर्थ्यसमारोपात् तन्निश्चयानुत्पत्तिरिति तत्रापि तत्सामर्थ्यानुभवो यद्यनिश्चितोऽप्यस्ति सर्व सर्वत्रानिश्चितमपि भवेदिति साङ्ख्यमताऽप्रतिक्षेपः । न च तत्सामर्थ्य तच्चेतसोऽभिन्नमिति तदनुभवे तस्याप्यनुभवः चन्द्रग्रहणेऽपि तदेकत्वाग्रहणतस्तैमिरिकदर्शनेन व्यभिचारात् । तस्यापि ग्रहणमिति चेत्, न; भ्रान्तेरभावप्रसङ्गतः ३० १“उत्तरम्"-बृ. ल. टि. । २ "निर्विकल्पकस्य"-बृ० टि.। ३ "दृढसंस्काराण्येव स्मृतिजनकानीति योगः"-बृ० ल० टि०। ४-त्पक्षे तच्चे-आ० हा० वि०। ५ “खर्गप्रापणसामर्थ्य"-बृ. ल. टि. । ६ “यथोक्तम् तस्माद् दृष्टस्य भावस्य दृष्ट एवाखिलो गुणः । भागः कोऽम्यो न दृष्टः स्यात् यः प्रमाणैः परीक्ष्यते ॥" इतिप्रशस्त. कं० पृ० २०८ पं०३। "तदुक्तम्" इत्युल्लिख्योद्धृतवानिदं एकस्यार्थखभावस्य' इत्यादि पद्यं जयन्तभट्टः।-न्यायमज आ० २०९३५०१४ । "तदुक्तम्" इत्युल्लिख्य श्रीयशोविजयैरिदं पद्यद्वयमुद्धृतं वर्तते शास्त्रवार्तासमुच्चयस्य टीकायाम्-पृ० १५८ द्वि. पं० २-४। ७ "स्वर्ग-"बृ. ल.टि.। ८-त्यपका-आ. हा० वि०। ९-मित्तं गु-ल. वा. बा०। १० "चित्ततत्सामर्थ्ययोर्भेदः"-बृ. ल. टि.। ११ “चन्द्रैकखस्य तैमिरिकदर्शने"-ल. टि. । “चन्द्रकत्वस्य"-बृ.टि.। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ द्वितीये काण्डे - " कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् " [ न्यायबिं० १-४] इत्यत्राभ्रान्तग्रहणानर्थक्यप्रसक्तेर्व्यवच्छेद्याभावात् । चन्द्रग्रहणमपि तत्र नास्तीति चेत्, न एकत्वाप्रतिपत्तावपि तत्प्रतिभासदर्शनात् । एकस्य द्वित्वविशिष्टतया तस्य ग्रहणान्मरीचिकाजलज्ञानवद् भ्रान्तं तदिति चेत्, नः द्वित्वे यथा विसंवादाभिप्रायात् तद् भ्रान्तं तथा चन्द्रमसि संवादाभिप्रायात् किमिति तत्रा (ना) भ्रान्तं प्रमाणेतरव्यवस्थाया ५ व्यवहार्यनुरोधतः समाश्रयणात् "प्रामाण्यं व्यवहारेण शस्त्रं मोहनिवर्तनम्" [ ] इति भवतैवाभिहितत्वात् । न चैकत्र ज्ञाने भ्रान्तेतरेंरूपद्वयमयुक्तम् व्यवहारिणा तथाश्रयणात् अन्यथैकचन्द्रदर्शनस्यापि 'चन्द्ररूपे प्रमाणता क्षणिकत्वे अप्रमाणता' इति रूपद्वयं न स्यात् क्षणक्षयेऽपि तत्प्रामाण्ये प्रमाणान्तराप्रवृत्तिर्भवेत् । चन्द्रमस्यप्यप्रमाणत्वे न किञ्चित् क्वचित् प्रमाणं भवेदिति सर्वप्रमाणव्यवहारलोपः । यस्य तु मतं दृश्य प्राप्ययोरेकत्वे अविसंवादाभिमानिनः प्रत्यक्षं प्रमाणम् १० ईतरस्य तयोर्विवेके सत्यनुभूतेऽपि न प्रमाणम् तस्य चन्द्रदर्शने चन्द्रप्रात्यभिमानिनः किमिति चन्द्र मात्रे तन्न प्रमाणम् ? विवेकानध्यवसायिनस्तु यदि तदननुभूतेऽप्येकत्वे प्रमाणं तर्हि यद् यथावभासते तत् तथैव परमार्थसद्व्यवहारावतारि यथा नीलं नीलतयावभासमानं तथैव सद्व्यवहारावतारि अवभासन्ते च क्षणिकतया सर्वे भावाः इत्यनुमानमसङ्गतम् हेतोरसिद्धताप्राप्तेः । अथ तं प्रत्येतदनुमानमेव नोपादीयते तर्हि कं प्रत्येतदुपादेयम् ? यस्तयोर्विवेकं मन्यते तं प्रतीति चेत्, न तं प्रत्यनु१५ मानानर्थक्यात् तदन्तरेणापि तदर्थनिष्पत्तेः यच्च तं प्रति भाविनि प्रवर्तकत्वादनुमानं प्रमाणं युक्तम् तत् "सर्वचित्त- चैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम् ” [ ] इति वचनात् स्वरूपेऽभ्रान्तं बहिरर्थे “भ्रान्तिरपि सम्बन्धतः प्रेमा" [ ] इति वचनाद् भ्रान्तमित्येकमेव कथं द्विरूपम् ? किञ्च यदि तस्य न प्रत्यक्षं प्रमाणमस्ति कथमनुमानप्रादुर्भावः ? अस्ति चेत् तत् किंविषयमिति वाच्यम् ? साधनावभासि जलादिसाधनविषयं प्राप्यावभासि प्राप्यार्थक्रियाविषयमिति चेत्; २० ननु तदपि जलादिमात्रे प्रमाणम् स्वविषयकार्यजननसामर्थ्यादावप्रमाणम् अन्यथा विवादाभावात् शास्त्रप्रणयनं तदर्थमनर्थकं भवेदिति तदप्यंशेनैव प्रमाणम् । यत् पुनरभ्यधायि 'दृश्य-प्राप्ययोरेकत्वे १० ४८८ टि० ९ । " तस्माद्यत्कल्पनापोढपदं प्रत्यक्षलक्षणे । भिक्षुणा पठितं तस्य व्यवच्छेयं न विद्यते ॥ अभ्रान्तपदस्यापि व्यावर्त्य न किंचन तन्मतेन पश्यामः । ननु तिमिराशुभ्रमणनौयानसंक्षोभाद्याहितविभ्रमं द्विचन्द्रालातचक्रचलत्पादप|दिदर्शनमपोह्यमस्य परैरुक्तम् । सत्यमुक्तम् अयुक्तं तु कल्पनापोढपदेनैव तद्युदाससिद्धेः । तत्रापि निर्विकल्पकं ज्ञानमेकं चन्द्रादिविषयमेव विकल्पास्तु विपरीताकारग्राहिणो भवन्ति यथा मरीचिग्राहिणि निर्विकल्प के सलिलावसायी विकल्प इति । ननु तिमिरेण द्विधाकृतं चक्षुरेकतया न शक्नोति शशिनं ग्रहीतुमिति निर्विकल्पकमपि द्विचन्द्रज्ञानम् । यद्येवं तरङ्गादिसादृश्यरूषितमूषरे मरीचिचकं चक्षुषा परिच्छेत्तुमशक्यमिति तत्रापि निर्विकल्पक मुदकग्राहि विज्ञानं किमिति नेष्यते अभ्युपगमे वा सदसत्कल्पनोत्पातादिकृतः प्रमाणेतरव्यवहारो न स्यात् । अपि च न बाधकोपनिपातमन्तरेण भ्रान्तताऽवकल्पते ज्ञानानाम् । न च क्षणिकवादिमते बाध्यबाधकभावो बुद्धीनामुपपद्यते इत्यलं विमर्देन । इति सुनिपुणवुद्धिलक्षणं वक्तुकामः पदयुगलमपीदं निर्ममे नानवद्यम् । भवतु मतिमहिम्नश्चेष्टितं दृष्टमेतज्जगदभिभवधीरं धीमतो धर्मकीर्तेः " ॥ न्यायमअ० आ० २ पृ० ९९ पं० २३ । २ "शशि " - बृ० टि० । ३ शास्त्रमो - बृ० वि० । तत्त्वार्थछो० वा० पृ० १७३ श्लो० ६२ । “नान्तरीयकत्वादेकानुभवोऽन्यानुभवे मानमिति चेत् । न, चन्द्रग्रहणेऽपि तदेकत्वाग्रहणतस्तै मिरिकदर्शनेन व्यभिचारात्, द्विले तस्य भ्रान्तत्वेऽपि चन्द्रेऽभ्रान्तत्वात् प्रमाणेतरव्यवस्थाया व्यवहारिजनापेक्षत्वात् " प्रामाण्यं व्यवहारेण शास्त्रं मोहनिवर्तनम्” इति त्वयैवाभिहितत्वात् अन्यथैकचन्द्रदर्शनस्यापि चन्द्ररूपे प्रमाणता क्षणिकले चाप्रमाणता इति रूपद्वयस्याभ्युपगमविरोधात् " -- शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० १५८ द्वि० पं० ६-९ । ४- रस्पद्व- बृ० । ५-हारिणां त-वा० बा० । ६- रूपेण प्र-बृ० भ० मां० । ७" चन्द्रदर्शन" - बृ० ल० टि० । ८ शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० १५८ द्वि० पं० १०-1 ल० टि० । ११ " चन्द्रदर्शनम् " - बृ० ल० टि० । प्रमाणं तथा क्षणिकत्वेऽप्यननुभूते भविष्यतीति" - १४ " अनुमानम्" - बृ० टि० । १५ “विवेकप्रति१८ पृ० ४०१ गतं ९ " विसंवादाभिमानिनः " - वृ० ल० टि० । १० " वादिनः " - बृ० १२ “यथा विवेकानध्यवसायिनश्चन्द्रविषये एकत्वेऽननुभूतेऽपि दर्शनं बृ० ल० टि० । १३ “विवेकानध्यवसायिनम् " - वृ० ल० टि० । पत्तारं प्रति" - बृ० ल० टि० । १६ पृ० ५०६ टि० १ । १७- रूपे भ्रा- वृ० विना । पश्चमं टिप्पणमवलोकनीयम् । १९ “ विवेकाध्यवसायिनः " - वृ० ल० टि० । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। विसंवादवुद्धि प्रति प्रत्यक्षाभासम्' इति तत्र दृश्यादिमात्र तदाभासत्वे वस्तुदर्शनमुच्छिद्यत । अथात्र प्रमाण-तदाभासधर्मद्वयमेकत्रोप्यभ्युपगम्यते प्रकृतेऽप्यभ्युपगम्यताम् । अथ नैमिरिकज्ञानेनाप्रतीयमानमेकत्वं तस्येति कथम् ? ननु निश्चिते शब्दे अनिश्चिता क्षणिकता तम्यत्यपि कथम ? अनुमानेन तत्रैव निश्चयात् तस्येति एतदन्यत्रापि समानम् । तदेवं निरंशत्वे वस्तुनस्तच्चित्तग्रहणे तंत्मामर्थ्यस्थापि ग्रहणप्रसक्तेर्विवादाभावस्तत्रैव भवेत् न चैवमिति सांश यस्तु तथाभृतवस्तुग्राहकं प्रमाण-५ मपि सांशं सत् सविकल्पकम् । अपि च, यदि निरंशवस्तुसामोद्भुतत्वात् कल्पनापोढमध्यक्षं स्वसंवेदनं तथाभूतवस्तुप्रभवत्वाभावात् संवेदनग्राहि निर्विकल्पकं च न भवेत् । अथ तादात्म्यं तत्र तन्निमित्तम्, न; सच्चेतनादेरिव स्वर्गप्रापणसामर्थ्यादेरपि ग्रहणप्रसक्तस्तदविशपात् । अथन तादात्म्याद ग्रहणमेवाभिन्नस्य किन्तु तादात्म्यादेव, असदेतत् : तादात्म्यादेव स्वरूपस्य ग्रह इत्यत्र प्रमाणाभावात् । अविकल्पकं दर्शनं प्रमाणमिति चेत्, न; सुपुप्तावस्थायां तत्प्रसङ्गात् तत्रापि चैतन्यमद्भावात् अन्यथा १० प्रबोधावस्थाविज्ञानमनुपादानम् अचेतनोपादानं वा भवेत् । न च तदनुरूपप्रवोधदर्शनाजाग्रद्विज्ञानोपादानं तत् विप्रकृष्टदेशकालस्यापि कारणत्वे तैमिरिकज्ञानस्यापि विप्रकृष्टदेशकालकारणप्रभवत्वसंभवात् निरालम्बनता न भवेत् अतोऽव्यवहितं कारणमभ्युपगन्तव्यम् । न च सुपुप्तावस्थायां विकल्पानुत्पत्तेर्न तत्प्रसङ्गः विकल्पवशात् तादात्म्ये सत्यपि तव्यवस्थायां बाह्यार्थेऽपि तत एव तयवस्थोपपत्तेर्विकल्प एव प्रमाणं भवेत् । किच, यद्यर्थप्रभवत्वात् ज्ञानमर्थग्राहकं तर्हि इन्द्रियादेरपि तत एव ग्राहकं भवेत् तद्व्यतिरिक्तबाह्यार्थग्राहकत्वं च तस्याभ्युपेयते। तथाहि-"प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्ती प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत् प्रमाणम्" [वात्स्या० भा० पृ०१पं० १] इत्यत्र भाप्ये प्रमातृ-प्रमेयाभ्यामर्थान्तरमर्थसहकार्यर्थवत् प्रमाण नैयायिकैाख्यातम् । तेन न तत्प्रभवत्वं तन्निमित्तम् तदभ्युपगमे वा शब्दज्ञाने शब्दवत् तत्समवायिकारणकर्णशष्कुल्यवच्छिन्ननभोदेशाख्यश्रोत्रेन्द्रिय-तत्समवाययोरपि प्रतिभासः स्यादित्याकाशसम-२० वायविषयानुमानोपन्यासो वैयर्थ्यमनुभवेत् अध्यक्षसिद्धेऽनुमानोपन्यासप्रयासस्य वैफल्यात् । न च समवायविषयाध्यक्षस्याविकल्पकत्वेन तद्गृहीतस्यागृहीतरूपत्वान्नायं दोपः शब्देऽप्यस्य समानत्वात् यतो नैकमेकत्र निर्णयात्मकमपरवान्यथेत्येकान्तवादिनो वक्तुं युक्तम् । एवं रूप-तत्सामान्य-समवायेष्वपि वाच्यम् । अथ न कारणमित्येवार्थग्रहः किन्तु योग्यतात; नन्वेवं किमनिमित्तमर्थस्य ज्ञानं प्रति कारणता परिकल्प्यते? अथ न तद्हणान्यथानुपपत्तेस्तत्प्रति तत्कारणतापरिकल्पनम् किन्त्व-२५ न्वय-व्यतिरेकाभ्याम्-'अर्थे सति तदवभासि ज्ञानमुपलब्धं तदभावे च न' इत्यन्वय-व्यतिरेकनिबन्धनोऽन्यत्रापि हेतुफलभाव इति, असदेतत् योगिज्ञानस्य सकलातीतानागतपदार्थसाक्षात्कारिणोऽतीतानागततत्पदार्थाभावेऽपि भावाभ्युपगमात् । न च सर्वेऽप्यतीतानागता भावास्तदा सन्ति सर्वभावानां नित्यताप्रसक्तेः। न च तद्विषयं तज्ज्ञानं न भवति 'सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्वनः अनेकत्वात् पञ्चाङ्गलिवत्' इत्यनुमानविरोधात् । एतेन “यस्य ज्ञाने प्रतिभासस्तस्य तत्र तत्कारणत्वं ३० निमित्तमभिधीयते नत्वप्रतिभासमानस्य समवायादेस्तन्निमित्तः प्रतिभासो भवतु इत्यासअयितुं युक्तम्" [ ] इत्यध्ययनादिमतं निरस्तम् योगिज्ञानेऽकारणस्यापि प्रतिभासप्रतिपादनात् । 'तैजसं चक्षुः रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात् प्रदीपर्वत्' तथा 'प्राप्तार्थप्रकाशकं चक्षुः तैजसत्वात् प्रदीपवत्' इत्येतदप्यत एव निरस्तम् रूपप्रकाशकत्वं हि रूपज्ञानजनकत्वम् तच्च प्रदीपस्यासिद्धम् तस्य रूपैकज्ञानसंसर्गित्वात् । प्रयोगश्चात्र-प्रदीपस्तद्विज्ञानकारणं न भवति विषय-३५ त्वात् यो हि यद्विषयो नासौ तत्कारणं यथा त्रिकालाशेषभावविषययोगिज्ञानस्यातीतादिकोऽर्थः तथा च प्रदीपो विषयो यथोक्तरूपज्ञानस्य तस्मान्न कारणमिति तैजसत्वासिद्धौ च चक्षुपः प्राप्तार्थप्रकाश १-त्राभ्यु-आ. हा०वि०। २"द्विचन्द्रज्ञानेनेकखमप्रतीतमिति"-वृ. ल. टि.। ३ "द्विचन्द्रदर्शने"-वृ. ले. टि.। ४ "खर्गप्रापणसामर्थ्य"-बृ. ल.टि.। ५-स्तत्र भ-वृ० ल• वा० बा०। ६ ग्रहण इ-आ. हा. वि.। . “खरूपग्रहण"-बृ० ल. टि०। ८ "स्वप्नज्ञानम्"-वृ० ल. टि.। ९-कार्यार्थ-ल. आ. हा. वि०। १० "अर्थप्रभवत्वादर्थग्राहकल"-वृ० ल. टि. । ११ “यथा शब्दे"-वृ० ल. टि० । १२ प्रशस्त. कं० पृ. ३९५० ५, पृ. ४० ५० ११ । न्यायसि. मु. का. ४२। १३-स्याप्यसि-वृ० भां० मा० । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे - 1 कथं दृरोत्सारितमेव । अत एव "नाननुकृतान्वयव्यतिरेकं कारणं नाकारणं विषयेः” [ इति सौगतमतमप्यपास्तम् । तथाहि किं कारणं विषय एव, उत कारणमेव विषयः ? प्रथमपक्ष रूपादिसंविदां चक्षुराद्यपि विषयो भवेत् तथा च 'यस्मिन् सत्यपि यन्न भवति तत् तदतिरिक्तहेत्वपेक्षं यथा कुलालाभावे सत्यप्यपरकारकसमूहे ऽभवन् घटः कुलालापेक्षः सत्यपि च रूपादौ कदाचिच ५ भवति रूपादिज्ञानम्' इत्यनुमानोपन्यासो व्यर्थः अध्यक्षत एव चक्षुराद्यधिगतेः । द्वितीयपक्षेऽपि 'भविष्यति रोहिण्युदयः कृत्तिकोदयादती तक्षपायामिव' इत्यस्यानुमानस्य भावी रोहिण्युदयोऽकारणत्वात् विषयो न स्यात् न हि भावी रोहिण्युदयः कृत्तिकोदयस्य परम्परयापि कारणम् । अथ भावी रोहिण्युदयः प्राग्भाविनः कृत्तिकोदयस्य कारणं प्रज्ञांकराभिप्रायेण कार्यस्य प्राग्भावित्वात् तर्हि 'अभूद् भरण्युदयः कृत्तिकोदयात्' इत्यनुमानमविषयं भवेत् । अथ भरण्युदयोऽपि कृत्तिकोदयस्य कारणं तेना१० यमदोषः ननु येन स्वभावेन भरण्युदयात् कृत्तिकोदयस्तेनैव यदि शकटोदयादपि तदा भरण्युदयादिव पश्चात् ततोऽपि भवेत् यथा वा शकटोदयात् प्राक् तथैव भरण्युदयादपि प्राग् भवेत् । अथान्यतरकार्य कृत्तिको दयस्तर्ह्यन्यतरस्यैव ततः प्रतीतिर्भवेत् न चैवमिति न युक्तं 'कारणमेव विषयः' इति पक्षाश्रयणम् । अथ कारणं स्वाकाराधायकं विज्ञाने विषय एवेति पक्षः अयमप्ययुक्तः यतः किं कारणमेव तदाधायकं तत्र, आहोखित् तत् तदाधायकमेवेति विकल्पद्वयानतिवृत्तिः । प्रथमविकल्पे १५ केशोन्दुकादिज्ञानं कुतः कारणात् तदाकारमुपजायते ? न तावदर्थात् तस्य तत्कारणत्वानभ्युपगमात् अभ्युपगमे वा तस्याभ्रान्ततापत्तेः । न समनन्तरप्रत्ययात् तस्य तदाकारता ( ताS ) योगात् । नेन्द्रि यादेः अत एव हेतोः । तन्न कारणमेव तदाधायकमिति पक्षाभ्युपगमः क्षमः । नापि तत् तदाधायकमेवेति पक्षोऽभ्युपगन्तुं युक्तः इन्द्रियस्यापि तदाधायकतापत्तेस्तज्ज्ञानविषयताप्रसक्तेः । अर्थस्य च सर्वात्मना तत्र स्वाकाराधाने ज्ञानस्य जडताप्रसक्तेः उत्तरार्थक्षणवदेकदेशेन तदाधायकत्वे सांगता - २० प्रसक्तेः । समनन्तरप्रत्ययस्य तत्र स्वाकाराधायकत्वान्न जडतापत्तिलक्षणो दोष इति चेत्, नः सैमनन्तरप्रत्ययार्थक्षणयोः द्वयोरपि स्वाकारापकत्वे तज्ज्ञानस्य चेतनाचेतनरूपद्वयापत्तेः । प्राक्तनज्ञानक्षणस्यैव तत्र स्वाकाराधायकत्वे सर्वात्मना तदाधाने तस्य पूर्वरूपताप्रसक्तिरिति कारणरूपतैव स्यात् तथा च पूर्वपूर्वक्षणानामप्येवं प्रसक्तेरेकक्षणवर्त्ती सर्वः सन्तानो भवेदिति प्रमाणादिव्यवहारलोपः । २५ किञ्च, तदाकारं तत उत्पन्नं च यदि समनन्तरप्रत्यये न तत् प्रमाणम् तदुत्पत्ति - सारूप्ययोर्व्यभिचार इति नार्थेऽपि तत् प्रमाणं भवेत् । तथा च "अर्थेन घटयेदेनां नहि मुक्त्वार्थरूपताम् । तस्मात् प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता" ॥ [ ५१० 1 १ " नाकारणं विषयः इति वचनप्रामाण्यात्" -अनेका० टी० पृ० २०७०१ । स्याद्वादर० पृ० ७६९ पं० १९ आ० । बोधिचर्याव• प्रज्ञापार० पृ० ३९८ पं० १० । धर्मसं० पृ० १७६ द्वि० पं० १२ । स्याद्वा० पृ० १३४ पं० १८ । "तदुक्तम्-नाननुकृतान्वयव्यतिरेकं कारणं नाकारणं विषयः " - पड्द० स० बृ० ० पृ० ३७ पं० ३ । " " नाननुकृतान्वयव्यतिरेकं कारणं नाकारणं विषयः' इति हि सांगतानां मतम् " - शानवा० स्याद्वादक० पृ० १५१ प्र० पं० ८ । २ “ननु प्रज्ञाकराभिप्रायेण भाविरोहिण्युदयकार्यतया कृत्तिकोदयस्य गमकत्वात् कथं कार्यहेतो नास्यान्तर्भाव इति चेत् कथमेवमभूद् भरण्युदयः कृत्तिकोदयादित्यनुमानम् ! अथ भरण्युदयोपि कृत्तिकोदयस्य कारणं तेनायमदोषः । ननु येन स्वभावेन भरण्युदयान् कृत्तिकादयस्तेनैव यदि शकटोदयात् तदा भरण्युदयादिव अतोपि पश्चादसौ स्यात् । यथा च शकटोदयात् प्राक् तथैव भरण्युदयादपि " - प्रमेयक० पृ० ११० प्र० पं० ९-1 । ३ प्र० पृ० पं० २ । ४ " केशोन्दुकज्ञानस्य " बृ० ल० टि० ५- णमेव तत्तदा भ० मां० । - णमेतत् तदा आ० । ६-मः नापि ल० वा० वा० भ० मां० विना । ७ शास्त्रत्रा • स्याद्वादक० पृ० १५९ प्र० पं० १० । ८ मुक्तार्थ वा० वा० आ० हा० वि० । " तदुक्तम्" इत्युविख्योद्धृतं पद्यमिदमस्ति सिद्धिविनिश्चयटीकायाम् - लि० पृ० ११९ पं० १। " अर्थेन घटयन्येनां न हि मुक्तार्थरूपताम्" - प्रमेयक० पृ० २८ प्र० पं० । प्रमाणमी० पृ० ३३ पं० १० स्याद्वा० पृ० १३६ पं० २२ । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५११ इत्यसङ्गतमभिधानम् । अर्थ यदाकारं यदुत्पन्नं यध्यवस्यति तत्र तत् प्रमाणम् नन्वत्रापि यदाकारं यदुत्पन्नं विज्ञानमेवार्थाध्यवसायं जनयति, उत तत् तमेव, आहोखिजनयत्येवेति कल्पनात्रयम् । आद्यकल्पनायां कारणान्तरनिषेधाद विकल्पवासनापि तत्कारणं न भवेत् एवं च निर्विकल्पकबोधाद यथा सामान्यावभासी विकल्पस्तथार्थादेव तथाभूताद भविष्यतीति किमन्तरालवर्तिनिर्विकल्पदर्शनकल्पनया? न चाविकल्परूपताविशेषेऽपि दर्शनादेव विकल्पोत्पत्तिर्नार्थाद् वस्तुस्वाभाव्यादित्युत्तरम्५ तस्य स्वरूपेणैवासिद्धेः । किञ्च, यथा(थाऽ)विकल्पादादविकल्पदर्शनप्रभवस्तथा दर्शनादपि तथाभूतात् तथाभूतस्यैवाविकल्पस्य प्रसव इति विकल्पवार्ताप्युपरतैव भवेत् । किञ्च, स्थिरस्थूरावभासि स्तम्भादिज्ञानं यद्यविकल्पकं कोऽपरो विकल्पो यस्तजन्यो भवेत् ? अथ 'स्तम्भः स्तम्भोऽयम्' इत्यनुगताकारावभासि ज्ञानं विकल्पः सामान्यावभासित्वात् ताद्यमप्यनेकावयवसाधारणस्थूलैकाकारस्तम्भावभासि विकल्पः किं न भवेत् सामान्यावभासस्यात्रापि तुल्यत्वात् ? अस्यापलापेऽपरस्याप्रति-१० भासनात् प्रतिभासविकलं जगत् स्यात् । न च स्तम्भप्रतिभासात् प्राग निरंशक्षणिकैकपरमाणु. गोचरमविकल्पकं ज्ञानं पुरुषवत् प्रतिभाति तथापि तत्कल्पने पुरुषपरिकल्पनापि भवेदिति न सौगतपक्षस्यैव सिद्धिः। किञ्च, निरंशक्षणिकानेकस्तम्भादिपरमाण्वाकाराद्यनेकं तद बिभर्ति स्वात्मनि तदा सविकल्पकमासज्येत अनेकानुविधानस्य विकल्पनान्तरीयकत्वात् । अथ भिन्नं प्रतिपरमाणु तदिष्यते भवेदेवमविकल्पकं किन्तु एकपरमाणुग्रहणव्यापारवन्नापरपरमाणुग्रहणाय व्याप्रियत इति तेषां पर-१५ लोकप्रख्यताप्रसक्तिः तेद्वेदनैश्च तस्यावेदनमिति तस्याप्यभावः । न चैकैकपरमाणुनियतभिन्नं वेदनमविकल्पकम् अन्यविविक्तैकपरमाणोरर्वाग्दशि अप्रतिभासनाद विवादगोचरस्य तज्ज्ञानस्य विकल्पजनकत्वासिद्धेः। तन्न प्रथमः पक्षो युक्तिसङ्गतः । इतश्चायमसङ्गतो यतो येन स्वभावेनाविकल्पकं दर्शनं स्वजातीयमुत्तरं जनयति तेनैव यदि विकल्पं तहविकल्पो विकल्पः प्रसज्येत विकल्पो वाऽविकल्पः अन्यथा कारणभेदः कार्यभेदविधायी न भवेतः स्वभावान्तरेण जनने सांशतापत्तिरिति ।२० अथ तत् तमेव जनयति तथासति धारावाहिनिर्विकल्पसन्ततिर्न भवेत् । अथ तत् तं जनयत्येवेति तृतीयपक्षाश्रयणं तथासति क्षणभङ्गादावपि निश्चय इति न ज्ञानसंततौ सत्त्वसमारोपः। न च रागादयस्तन्निबन्धना इति तद्व्यवच्छेदार्थमनुमितिनॆरर्थक्यमनुभवेत् । किञ्च, यदि व्यवसायवशात् निर्विकल्पकस्य प्रामाण्यव्यवस्था तर्हि तदुत्पत्तिसारूप्यार्थग्रहणमन्तरेणाध्यवसाय एव प्रमाणं भवेत् । अथ तथाभूतानुभवमन्तरेण विकल्प एव न भवेत् , असदेतत् तस्य तज्जन्यत्वासिद्धरुक्तविकल्पदोषानति-२५ क्रमात् । किञ्च, यदि तदाका दर्शनान्निर्णयप्रभवस्तदा स्खलक्षणगोचरो निर्णयो भवेत् निर्णयवद् वा सामान्यविषयमविकल्पकमासज्येत अन्यथा स्मृतिसारूप्याद दर्शनस्य सारूप्यसाधनमयुक्तं भवेत् । अथार्थलेशमात्रानुकारि स्मरणं तथापि स्खलक्षणविषयत्वं स्मरणस्य सर्वथा तदनुकारित्वमविकल्पकस्याप्यसिद्धम् अन्यथा तस्य जडतापत्तिरिति प्रतिपादनात् तथा च-"विकल्पोऽवस्तुनिर्भासाद विसंवादादुपप्लवः” इत्ययुक्ततया व्यवस्थितम् । अथ न लेशतोऽपि परमार्थतस्तदनुकारी विकल्पः३० प्रतिपत्रभिप्रायवशात् तु तदभिधानमिति न खलक्षणगोचरत्वम निर्विकल्पकस्यापि व्यवहार्यभिप्राय १ "अथ यदाकारं यदुत्पन्नं यदध्यवस्यति तत्र तत् प्रमाणम् । नन्वत्र यदाकारं यदुत्पन्नं विज्ञानमेवाऽर्थाध्यवसायं जनयतीत्यर्थः, उत तमेवेति आहोखिजनयत्येवेति ? । आये विकल्पवासनापि तत्कारणं न भवेत् । एवं च निर्विकल्पकबोधाद् यथा सामान्यावभासी विकल्पः, तथाऽर्थादेव तथाभूनाद् भविष्यति, इति किमन्तरालवर्तिनिर्विकल्पककल्पनया ? । न चाविकल्पताविशेषेऽपि दर्शनादेव विकल्पोत्पत्तिः, नार्थात् , वस्तुखाभाव्यादित्युत्तरम् , तस्य खरूपेणैवासिद्धेः, 'स्तम्भः स्तम्भोऽयम्' इतिवत् स्थिरैकस्तम्भावगाहिज्ञानस्य सामान्यविषयत्वात् , ऊर्ध्वतासामान्यापलापे तिर्यक्सामान्यस्याप्यपलापाज्जगतः प्रतिभासवैकल्यप्रसङ्गात् , निरंशक्षणिकानेकपरमाण्वाकारस्य तस्य सांशलेनाभ्युपगन्तुमशक्यखात्, प्रतिविविक्तपरमाणुतद्भेदस्य दुःश्रद्धानखात् । किञ्च, यथाऽविकल्पादर्थादविकल्पदर्शनप्रभवः तथा दर्शनादपि तथाभूताद् विकल्पस्यैव प्रभव इति विकल्पकथाऽप्युच्छिन्ना । द्वितीये धारावाहिकनिर्विकल्पकसंततिर्न स्यात् । तृतीयेऽपि अत्यन्तायोगव्यवच्छेदः स्वभावभेदं विना दुर्घट इति न किञ्चिदेतत् । तस्मात् तदुत्पत्तिसारूप्यार्थग्रहणमन्तरेणाप्यध्यवसायस्य प्रामाण्यं युक्तम्, अनाद्यसत्यविकल्पवासनात एव तदुत्पत्त्यभ्युपगमे दर्शनस्याप्यहेतुखात् “यत्रैव जनयेदेना" इत्याद्यभ्युपगमव्याघातात् ।"-शास्त्रवा. स्याद्वादक. पृ. १५९ प्र. पं० १३ । २ "अर्थाध्यवसायमेव"-बृ० ल. टि. । ३ "अविकल्प"-बृ० टि० । ४ “मतुप्-प्रत्ययः"-बृ.टि.। ५ "अपरपरमाणुवेदनैः”-बृ० टि०। ६ "विज्ञानमेवार्थाध्यवसायं जनयतीत्ययम्"-बृ० ल• टि०। ७-शात् न निवा० बा०। ८-रादर्श-ल। ९-र्णयाप्र-ल.। १० पृ. ५०० पं० १४ दि० ८। तद्भेदस्य दुःश्रद्धानबाच्छन्ना । द्वितीये धारावातिसारूप्यार्थग्रहणमन्तरणदेना" इत्याद्यभ्युपग Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ द्वितीये काण्डेवशात् तदनुकारित्वं न परमार्थतः "सर्वमालम्बने भ्रान्तम्" [ ] इत्यभिधानात् । ननु किमिति न परमार्थतोऽपि तदनुर्कोरि तेत् ? सामान्यावभासादिति चेत्; नवसावपि कुतः? अनाद्यसत्यविकल्पवासनातः नन्वेवं न दर्शनं विकल्पजनकमिति “यत्रैव जैनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता" ] इत्यसङ्गतं वचो भवेत् । न च तद्वासनाप्रबोधविधायकत्वेन तदपि तद्धेतुः इन्द्रि५यार्थसन्निधानस्यैव तत्त्रबोधहेतुत्वात् । न च वासनाप्रभवत्वेनाक्षजस्य भ्रान्ततैवं भवेत् अर्थस्यापि कारणत्वेनानुमानवत् प्रमाणत्वात् । न च निर्विषयत्वात् व्यवसायस्याप्रामाण्यम् अनुमानस्यापि तत्प्रसक्तेः प्रत्यक्षप्रभवविकल्पवत् तस्याप्यवस्तुसामान्यगोचरत्वात् । न च तद्राह्यविषयस्यावस्तुत्वेऽ. प्यध्यवसेयस्य स्खलक्षणत्वात् दृश्यविकल्पा(ल्प्या)वावेकीकृत्य ततः प्रवृत्तेरनुमानस्य प्रामाण्यम् प्रकृतविकल्पेऽप्यस्य समानत्वात् अन्यथा “पक्षधर्मतानिश्चयः प्रत्यक्षतः क्वचित्" [ ] इति १० कथं वचो युक्तं भवेत् ? न च गृहीतग्रहणाद् विकल्पोऽप्रमाणम् क्षणक्षयानुमानस्यापि तत्प्रसक्तः शब्दखरूपावभास्यध्यक्षावगतक्षणक्षयविषयत्वात् । न चाध्यक्षेण धर्मिखरूपग्राहिणा शब्दग्रहणेऽपिन क्षणक्षयग्रहणम् विरुद्धधर्माध्यासतस्ततस्तद्धेदप्रसक्तेः। प्रज्ञाकराभिप्रायेण तु लिङ्ग-लिङ्गिनोः साकल्येन योगिप्रत्यक्षतो व्याप्तिग्रहणेऽनभ्यासदशायां प्राप्ये भाविन्यनधिगतार्थाधिगन्तृत्वाभावादनुमानं प्रमाणं न भवेत् । अनिर्णीतमनुमेयं निश्चिन्वत् प्रमाणमनुमानं तह निश्चितं नीलं निश्चिन्वन् विकल्पस्तथा१५विधः किं न प्रमाणम् ? अथ समारोपव्यवच्छेदकरणादनुमानं प्रमाणं तर्हि नीलविकल्पोऽपि तत एव प्रमाणं भवेत् । न च सादृश्यादेव समारोपः-येन तत्रानीलसमारोपो न भवेत्-किन्तु स्वागमाहितविकल्पाभ्यासवासनातोऽपि यथा 'सर्व सर्वात्मकम्' इति साङ्ख्यस्य एवं च नीलेऽनीलात्मकत्वसमारोपं व्यवच्छिन्दानो विकल्पः क्षणक्षयानुमानवत् कथं न प्रमाणम् ? दृश्यन्ते हि शुक्तिकारज्वादिषु रजत-सादिसमारोपास्तथाभूत विकल्पवशाल्लिङ्गानुस्मरणमन्तरेणापि निवर्तमानाः। २० अथ भवत्वसौ विकल्पः प्रमाणम् न च प्रमाणान्तरम् अनुमानेऽन्तर्भावात् , न; अनभ्यास दशायां भाविनि प्रवर्तकत्वादनमानं प्रमाणमिष्टं तच्च निश्चितत्रिरूपाल्लिङ्गादुपजायते निश्चयस्य चानुमानान्तर्भावे त्रैरूप्यनिश्चयोऽप्यनुमानं तदपि निश्चितत्रैरूप्याल्लिङ्गात् प्रवर्तत इत्यनवस्थानात् अनुमानाप्रवृत्तिरेवेति कुतो विकल्पस्य तंत्रान्तर्भावः? अथ पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकनिश्चायकं लिङ्गस्य नानुमानं तर्हि प्रमाणान्तरस्याभावादध्यक्षं निर्णयात्मकं पक्षधर्मत्वादिनिश्चयः सिद्धः । अत एवं २५'अनभ्यासदशायामनुमानम् अभ्यासदशायां तु दर्शनमेव प्रमाणं न च तृतीया दशा विद्यते यस्यां विकल्पः प्रमाणं भवेत्' इति निरस्तम् अनभ्यासदशायामनुमानस्यैव तमन्तरेणाप्रवृत्तेस्तदपेक्षस्यैव तस्य प्रमाणत्वात् । न च भवतु प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तो विकल्पस्तथापि न तदपेक्षं दर्शनं प्रमाणं स्वत एव तस्य प्रमाणत्वात् अन्यथा विकल्पस्यापि विकल्पान्तरापेक्षया प्रमाणत्वादनवस्था दुष्परिहारा अर्थविषयीकरणाद् विकल्पस्यान्यनिरपेक्षस्य प्रामाण्ये निर्विकल्पकस्यापि तथैव प्रामाण्यं भविष्यतीति ३० किं विकल्पापेक्षयेति वक्तव्यम् यतः संशय-विपर्ययोत्पादकमपि दर्शनमेवं प्रमाणं स्यात् तथा च तत्राप्यर्थक्रियार्थी प्रवर्तेत । अथ जले 'जलमेतत्' इति निर्णयविधायि प्रमाणं तर्हि सिद्धं विकल्पापेक्षणं तस्येति वरं विकल्प एव प्रमाणमभ्युपगतस्तस्यैव प्रवृत्त्यादिव्यवहारसाधकतमत्वात् । यदपि 'अभ्यासदशायां दर्शनमेव विकल्पनिरपेक्षं प्रमाणम्' इति तत्र वक्तव्यं क तत् प्रमाणम् ? प्राप्ये १-शादनु-आ. हा० वि०। २ “सर्वमालम्बने भ्रान्तमिति राद्धान्तात्"-सिद्धिवि० टी० लि. पृ. ५४ पं० १३ । ३-ति प-बृ०। ४"खलक्षणानुकारि"-बृ. ल.टि.। ५ "निर्विकल्पकम्"-बृ० ल.टि.६"विकल्पः"बृ. ल. टि.। ७ “यत्रैव जनयेदेताम्"-प्रमेयक० पृ. १० द्वि. पं० ५। “अत्रापरः सौगतः प्राह-यत्रैव जनयेदेना तत्रैवास्य प्रमाणतेति धर्मोत्तरस्य मतमेतत्"-सिद्धिवि०टी० लि. पृ. ९१ पं० १६ । शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ० १५१ द्वि. पं०६। ८ "दर्शनम्"-बृ० टि०। ९-पि कर-वा० बा० । १० "अनुमानस्यापि"-बृ० ल.टि.। ११-वसायस्य आ० हा० वि० । शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० १५९ द्वि. पं० १२ । “न च तद्बाह्यस्य सामान्यरूपत्वेऽप्यध्यवसेयस्य स्खलक्षणरूपत्वाद् दृश्यविकल्प्यावर्थावेकीकृत्य ततः प्रवृत्तेरनुमानस्य प्रामाण्यं प्रकृतविकल्पेऽप्यस्य समानखात्"प्रमेयक. पृ० ११ प्र. पं० १० । स्याद्वादर० पृ. ८८५०६ आ० । १२ पृ. ७६ पं०३३-३४ । १३ "धर्मिणः"-बृ. ल.टि.। १४ "क्षणक्षय"-बृ० ल• टि.। १५ शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ० १६० प्र. पं० १- १६ एव च आ० हा० वि०। १७ “अनुमाने"-बृ. ल.टि.। १८ "सामानाधिकरण्यमेतत्"-बृ. ल.टि.। १९-वमनआ० हा०वि०। २० "दर्शनस्य"-बु. ल.टि.। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा | ५१३ ] ] भाविनि रूपादाविति चेत्, तेस्याविषयीकरणे तेनायुक्तम् अन्यथा नीलज्ञानं पीते प्रमाणं स्यात् foreteरणे भावविषयत्वं तस्यैव भवेत् तथा च "वर्तमानावभासि सर्व प्रत्यक्षम् " [ इति विरुध्येत । अथ वर्त्तमानविषयमपि भाविनि प्रवृत्तिविधानात् प्रमाणम् नः अविपयीकृते प्रवर्तकत्वासंभवात् प्रवर्तकत्वे वा शाब्दमपि सामान्यमात्रविषयं विशेषे प्रवृत्तिं विधास्यतीति न मीमांसकमतप्रतिक्षेपो युक्तः । यदि वा ( चा ) विषयेऽपि कुतश्चिन्निमित्ताद् ज्ञानं प्रवर्तकं तर्हि प्रत्यक्षं-५ पृष्ठभाविसामान्यमात्राध्यवसायिविकल्पस्य विशेषे प्रवर्तकत्वं भविष्यतीति न युक्तम् 'दृश्य-विकल्प(प्य) योरर्थयोरेकीकरणं तत्र प्रवृत्तिनिमित्तम्' इत्यभिधानम् । तन्न प्राध्ये तत् प्रमाणम् । दृश्यप्राप्ययोरेकत्वे तत् प्रमाणमिति चेत् कुत एतत् ? व्यवहारिणां तत्राविसंवादाभिप्रायात् अविसंवादि च ज्ञानं प्रमाणम् । तदुक्तम् - " प्रमाणमविसंवादिज्ञानम् अर्थक्रियास्थितिरविसंवादनम् " [ इति चेत्; ननु तदेकत्वं कस्य विषयः ? दर्शनस्येति चेत्, नः तस्य सामान्यविषयतया सविकल्प- १० कत्वप्रसक्तेः । विकल्पस्येति चेत्, नः अभ्यासदशायां विकल्पस्यानभ्युपगमात् । कथं च दृश्यप्राप्ययोरेकत्वं विकल्पस्यैव विषयो नाविकल्पस्य एकत्वस्यायोगादिति चेत् कथं विकल्पविषयः ? अवस्तुविषयत्वात् तस्येति चेत् दर्शनस्य को विषयः ? दृश्यमानक्षणमात्रमिति चेत् ननु यदि तत् सञ्चितपरमाणुस्वभावं तत्र दर्शने प्रतिभाति तदा तस्य सविकल्पकत्वमिति प्राक् प्रतिपादितम् । विविक्तैकैकपरमाणुरूपं चेत् सर्वशून्यताप्राप्तेर्न काचिदभ्यासदशा यस्यां दर्शनं प्रमाणं विकल्पविकलं १५ भवेत् । यथा चानेकपरमाण्वाकारमेकं ज्ञानं तथा दृश्य प्राप्ययोर्घटादिकमेकमिति तद्विषयं परमार्थतोऽभ्यासदशायां सविकल्पकमध्यक्षं किमिति नाभ्युपगम्यते ? अथाशक्यविवेचनत्वाच्चित्र प्रतिभासाप्येकैव बुद्धिः घटादिकस्तु चित्रो नैकस्तद्विपर्ययात्; ननु किमिदं बुद्धेरशक्यविवेचनत्वंम् ? यदि सहोत्पत्तिविनाशौ तदन्याननुभवो वा तदभ्युपगम्यते तदैकक्षणभावि सन्तानान्तरज्ञानेषु भिन्नरूपतयोपगतेष्वपि तस्य भावादित्यनैकान्तिको हेतुः । अथ सन्तानान्तराण्यपि नाभ्युपगम्यन्ते २० कथमवस्थाद्वयाभ्युपगमः ? व्यवहारेण तदभ्युपगमे तथैव सन्ताननानात्वोपगमादनैकान्तिकत्वं तदघस्थमेव । न च प्रतिभासाद्वैतवादोपगमात् तान्यपि पक्षीक्रियन्त इति नानैकान्तिकः एकशाखाप्रभवत्वहेतोरपि विपक्षविषयपक्षीकरणादनैकान्तिकत्वाभावप्रसक्तेः । न चात्राऽऽमताग्राह्यध्यक्षेण पक्षबाधनान्न पक्षीकरणसंभवः प्रकृतेऽपि युगपद्भाविनां नानाचित्तसंतानानां भेदावभासिस्वसंवेदनाध्यक्षेण बाधनादस्य समानत्वात् । अथानन्यवेद्यत्वमशक्यविवेचनत्वम् तदपि सुखादिभिः २५ क्रमेणैकसन्तानभाविभिर्व्यभिचारि । अथैषमपि पक्षीकरणम्ः नन्वेवं परिणाम्यात्मसिद्धेः 'यद् यथावभासते ' इत्याद्यनुमानमयुक्तम् हेतोरसिद्धताप्राप्तेः । अथ भेदाभेदात्मकत्वेन प्रतिभासनं तदभिमतं तर्हि दृश्य - प्राप्ययोरपि तदस्तीति कथं नैकत्वम् ? अथ नीलादिप्रतिभासानां नैकत्वं चित्रप्रतिभासात् न नानात्वं तदात्मकस्य वा तड्राहकस्याभावात् सर्वविकल्पातीतं तु तत्त्वमिति अत्रापि यद्येकत्वस्यैकान्तेन निषेधः साध्यस्तदा सिद्धसाध्यता अन्यथा चित्रप्रतिभासाभावात् । ३० कथञ्चिदेकत्वस्य तु निषेधेऽसिद्धश्चित्रप्रतिभासादिति हेतुः यतः पीतादीनां नीलप्रतिभासेनाविषयीकरणे सन्तानान्तरवदभावस्तथापि भावे न सन्तानान्तरनिषेधः तेषां च क्षणक्षयसाधने ग्राह्यग्राहकभाव इति न सर्वविकल्पातीतं तत्त्वं विषयीकरणे तदाकारेणापि तज्राहकाभावात् नापि नानात्वमित्यस्य विरोधः खपरग्राहकस्यैव तैग्राहकत्वात् सर्वथा तदाकारत्वे नीलमात्रं पीतमात्रं भवेदिति न चित्रप्रतिभासः कथञ्चित् तदाकारत्वे सिद्धं सविकल्पदर्शनम् । अथ सर्वविकल्पातीते तत्त्वे इदमप्य- ३५ वक्तव्यम् तर्हि न परस्यापि परतो गतिः किन्तु "स्वरूपस्य स्वतो गतिः” [ ] इत्ये १ " भाविरूपादेः " - बृ० ल० टि० । २ तस्य भ-बृ० ल० वा० बा० । ३-क्षप्रभा-आ० हा० वि० । ४ विशेषप्रवर्तक- बृ० ल० विना । ५ पृ० १५ पं० २३ । ६ " विकल्पस्य " - वृ० ल० टि० । ७ अशक्यविवेचनत्वं तन्निराकरणं च प्रमेयक० मार्तण्डे भयन्तरेण चर्चितं दृश्यते - पृ० २५ प्र० पं० ६ । ८ " प्रथमपक्षे दूषणमेतत्" - बृ० ल० टि० । ९ " प्रत्यक्षबाधस्य" - बृ० ल० टि० । १०- विचेतन-वृ० । ११ “एकसन्तानसुखादीनाम् ” - बृ० ल० टि० । १२ पृ० ४८८ पं० २२ । १३ " अशक्यविवेचनत्वम् " - बृ० ल० दि० धृ० । १५ “ नानात्व” - बृ० ल० टि० । १४ - रणेऽत । १६- कल्पं द-ल० आ० । ६६ स० त० Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ द्वितीये काण्डेतदपि न वक्तव्यम् तथा च विज्ञानाद्वैतमपि कुतः? न चान्यग्रहणविमुखज्ञानसंवेदनादेवमुच्यते अन्यत्राप्यस्य समानत्वात् । तदेवं चित्रप्रतिभासमभ्युपगच्छता चित्रमेकं ज्ञानमभ्युपगन्तव्यमिति अभ्यासदशायामपि व्यवसायात्मकमध्यक्षं सिद्धिमासादयेत् । ___ यदपि 'यद्यर्थग्रहणं व्यवसायोऽविकल्पे तथा नामकरणमथ जात्यादिविशिष्टार्थग्रहणं तत् ५ प्रत्यक्षेऽसंभवि' इत्युच्यते, तदपि निरस्तं द्रष्टव्यम् ; अर्थग्रहणस्य विकल्पस्वर्भावनान्तरीयकत्वात् । यदि ोकैकपरमाणनियतभिन्नदर्शने तन्नाम क्रियेत तदा स्यादेतत न चैवम स्थलैकप्रतिभासाभाव यदपि 'जात्यादिविशिष्टग्रहणं प्रत्यक्षेऽसंभवि' तदपि सदृशपरिणामसामान्याभ्युपगमे सिद्धम् तथाभूतस्य तस्याध्यक्षे प्रतिभाससंवेदनात् तथाभूतस्यापि तस्य निराकरणे "नो चेद्धान्तिनिमित्त-" ईत्यादेस्तथा "अर्थेन घटयेदेनाम्” इत्याँदेश्चाभिधानमसङ्गतं भवेत् । तथाहि-शुक्तिका-रजतयोः १० कथञ्चित् सदृशपरिणामाभावे रूपसाधर्म्यदर्शनाभावाद् अन्यथाऽतिप्रसङ्गात्। अथ मरीचिकासु यथा जलाभावेऽपि तद्दर्शनं तथा तयोर्भविष्यति न च तयोस्तदर्शनं सत्यम् तत्परिणामस्य परमार्थतस्तत्रीभावात् इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । तथाहि-तत्परिणामस्य परमार्थतस्तयोः सत्त्वे तद्दर्शनस्य सत्यता ततश्च तत्परिणामस्य पारमार्थिकत्वमिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वमिति चेत्, असदेतत् सर्वभावे वेवमव्यवस्थाप्रसङ्गात् । तथाहि-स्वसंवेदनमविकल्पमध्यक्षं तथाप्रतीतेयदि सिद्धिमासादयति तत १५एव सदृशपरिणामोऽपि सेत्स्यति अनवगतसम्बन्धस्यापि खण्डमुण्डादिषु समानप्रत्ययोत्पत्तेः तस्य भ्रान्तत्वे संवेदनेऽपि तत्प्रसक्तेः । अथ सत्येव स्वसंवेदने तद्दर्शनमिति न भ्रान्तम्, न; इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः। तथाहि-खसंवेदनस्य सत्यत्वे तदर्शनमभ्रान्तम् अतश्च तत्सत्यत्वमिति कथं नेतरेतराश्रयदोषः? अथ बाधकासद्भावान्नायं दोषः सदृशपरिणामस्य किं बाधकमिति वक्तव्यम् ? विशेषेभ्यस्तस्य भेदे सम्बन्धासिद्धिः अभेदे विशेषा एव न तत्सद्भाव इति बाधकमिति चेत्, न; एकान्त२०भेदाभेदपक्षस्य तत्रानिष्टस्त एव विशेषाः कथञ्चित् परस्परं समानपरिणतिभाज इत्यस्मदभ्युपगमात् । न च चित्रकविज्ञानवत् समानासमानपरिणतेरेकत्वविरोधः 'यदेवाहमद्राक्षं तदेव स्पृशामि आस्वादयामि जिघ्रामि' इति प्रतीतेर्गुणगुणिनोरेकत्वप्रतीतेः । न च यदेव रूपं दृष्टं तदेव कथं स्पृश्यते इन्द्रियविषयसंकरप्रसक्तेरिति वक्तव्यम् चक्षुर्ग्राह्यतास्वभावस्यैकस्य स्पर्शनादिविषयतास्वभावाविरोधात् । तथाहि-दूरादिदेशं सहकारिणमासाद्यैकोऽपि भूरुहोऽविशदतयेन्द्रियजे प्रत्यये प्रतिभाति २५ स एव निकटादिदेशसचिवो विशदतयेत्युपलब्धम् । न चाविशदं दर्शनमवस्तुविषयम् तस्य वस्तुविषयतया प्रतिपादितत्वात् । न च चक्षुःप्रभवे प्रत्यये रूपमेव चकास्ति नापरस्तद्वानिति वक्तव्यम् यतोऽत्रापि स्तम्भव्यपदेशाह रूपं किमेकं प्रतिभाति, उतानेकाऽनंशपरमाणुसञ्चयमात्रम् ? प्रथमपक्षेऽधोमध्योर्ध्वात्मकैकरूपवद्रसाद्यात्मैकैकस्तम्भप्रसिद्धिः । द्वितीयपक्षेऽपि किमेकमनेकपरमाण्वाकारं चक्षुर्ज्ञानम्, उतैकैकपरमाण्वाकारमनेकम् ? प्रथमपक्षे रूपाात्मैकवस्तुसिद्धिप्रसक्तिः ३० चित्रैकज्ञानवत् । द्वितीयेऽपि विविक्तज्ञानपरमाणुप्रतिभासस्यासंवेदनात् सकलशून्यताप्रसक्तिरिति प्रतिपादितम् एतेन क्रियावतोऽपि भावस्याध्यक्षविषयता प्रतिपादिता । न चैकस्य देशाद् देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया न केनचित् प्रमाणेनावसातुं शक्येति वक्तव्यम् पूर्वपर्यायग्रहणपरिणामममुश्चताऽध्यक्षेणोत्तरपर्यायग्रहणात् यथा स्तम्भादावधोभागग्रहणमत्यजतोर्खादिभागग्रहस्तेन अन्यथा सकलशून्यतेत्युक्तत्वात् । यदपि १ "परग्रहग्रहणसम्मुखज्ञानसंवेदनात् परतो गतिरित्येवम्"-बृ० ल.टि.। 'ग्रह' इत्यङ्कितं पदं ल. टि. नास्ति । २-हणव्य-बृ.। ३ "अविकल्पेऽपि वस्तुग्रहणस्य मतत्वान्नाममात्रेण भेदः"-बृ. ल. टि.। ४-भावानन्तरीयकत्वात् आ० हा० वि० ।-भावानान्तरीयकत्वात् ल०। ५क्रियते त-वृ० ल. वा. बा. विना । ६ पृ. ५०७ पं० १८। ७ पृ. ५१० पं० २७॥ ८-धाद-बृ०। ९ "इह किमपि कूटं संभाव्यते"बृ. ल.टि. । अत्र 'रूपसाधर्म्यदर्शनाभावाद् भ्रान्तिर्न स्यात् अन्यथातिप्रसङ्गात्' एतादृशपाठकल्पनया कूटलं शक्यं परिहर्तुम् । १. "रजत"-बृ. ल.टि.। ११ “शुक्तिकायाम्"-वृ० ल.टि.। १२-ति भ्रा-ल.। १३-सक्तिः आ. हा. वि.। १४-यमस्य बृ०। १५-द्यात्मकै-भां० मां०। १६-द्यात्मकैक-बृ० । १७ "प्रत्यक्षेण"बृ. ल. टि०। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । "विशेषणं विशेष्यं च सम्बन्धं लौकिकीं स्थितिम् । गृहीत्वा संकलय्यैतत् तथा प्रत्येति नान्यथा” ॥ [ ५१५ ] इत्युक्तम् तदपि निरस्तं द्रष्टव्यम्; चित्रपतङ्गस्येवैकानेकात्मनो वस्तुनः प्रथमतयैव प्रतिभासनात् एवं कल्पनाया दूरापास्तत्वात् । यदपि - "संकेतस्मरणोपायं दृप्रं सङ्कलनात्मकम् । पूर्वापरपरामर्शशून्ये तच्चाक्षुषे कथम्" ॥ [ ५ ] इत्यभिधानम्, तदप्यसङ्गतम् ; संकेतकालानुभूतशब्द स्मरणमन्तरेणापि व्यवसायात्मकस्य ज्ञानस्याक्षप्रभवस्य प्रतिपादनात् अन्यथा विकल्पानुत्पत्तेरित्युक्तत्वात् । तस्मात् पुरोवर्तिस्थिरस्थूलस्वगुणपर्यायसाधारणस्तम्भादिप्रतिभासस्याक्षप्रभवस्य निर्णयात्मनः स्वसंवेद्नाध्यक्षतोऽनुभूतेः स्वार्थनिर्णयात्मकमध्यक्षं सिद्धम् । न चेदं मानसम् एतद्व्यतिरेकेण निरंशैकपरमाणुग्राहिणोऽविकल्पस्य कदाचिदप्य १० ननुभवात् । यदि चायं स्तम्भादिप्रतिभासो मानसो भवेत् विकल्पान्तरतोऽस्य निवृत्तिर्भवेत् न चैवम् क्षणक्षयित्वमनुमानान्निश्चिन्वतोऽश्वादिकं वा विकल्पयतस्तदैवास्य प्रतिभाससंवेदनात् । ततोऽध्यक्षप्रमाणसिद्धत्वान्न सविकल्पकत्वे साधकप्रमाणाभावः । तथानुमानादपि सविकल्पकत्वमध्यक्षस्य नासिद्धम् । तथाहि यद् ज्ञानं यद्विषयीकरोति तत् तन्निर्णयात्मकतया अनुमानमिवान्यादिकम् विषयीकरोति च स्वार्थमध्यक्षमिति । न चाँस्याध्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्यया- १५ पदिष्टत्वम् पक्षस्य चाध्यक्षबाधः साध्यविपरीतार्थोपस्थापकाध्यक्षस्य निषिद्धत्वात् । न च स्वार्थविषयीकरणं विज्ञानस्यासिद्धम् प्राक् तस्य प्रसाधितत्वात् । अतो नासिद्धो हेतुः । न च सपक्षावृत्तित्वादसाधारणानैकान्तिकः स्वार्थनिर्णयात्मकत्वेन प्रसिद्धेऽनुमाने अस्य वृत्तिनिश्चयात् । न चानुमानस्याप्यर्थविषयीकरणमन्तरेण तन्निश्चयस्वरूपता संभवति समारोपव्यवच्छेदकत्वादेः प्रामाण्यनिमित्तस्य तत्र निषिद्धत्वात् तदन्तरेण प्रामाण्यस्यैवायोगात् । न च निर्णयात्मकार्थविषयीकरणयोर - २० नुमाने साहचर्यदर्शनेऽपि विपर्यये वाधकप्रमाणाभावतः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनैकान्तिकः तदुत्पत्तिसारूप्यादेर्निर्णय स्वभावताव्यतिरिक्तस्यैकान्तवादे अर्थविषयीकरण निबन्धनस्य विज्ञानेऽसंभवात् तदसंभवस्य च प्राक् प्रतिपादितत्वात् । ततो न सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकोऽपि । अत एव न विरुद्धः विपक्षवृत्तेरेव विरुद्धत्वात् । ततोऽसिद्धविरुद्धानैकान्तिकादिदोषविकलाद् भवत्यतः साधनाद् विवक्षितसाध्यसिद्धिरिति न तत्साधकप्रमाणाभावान्निर्णयात्मकाध्यक्षाभावः । } २५ नापि तद्वाधकप्रमाणसद्भावात् तस्यैवासिद्धेः। तथाहि —तद्वाधकमध्यक्षम् अनुमानं वा प्रकल्प्येत प्रमाणान्तरानभ्युपगमात् । न तावद्ध्यक्षं तद्बाधकं संभवति अविकल्पप्रसाधकस्य तस्य तद्वाधकत्वात् न च निरंशक्षणिकैकपरमाणुसंवेदनं स्वसंवेदनाध्यक्षतः सिद्धमिति प्राक् प्रतिपादितमिति नाध्यक्षं तद्वाधकम् । नाप्यनुमानं तद्वाधकं संभवति अध्यक्षाप्रवृत्तौ तत्पूर्वकस्य तैस्यापि तत्राप्रवृत्तेः । यदपि 'यद् यथा प्रतिभाति तत् तथा सद्व्यवहृतिमवतरति' इत्यादि निर्विकल्पकाध्यक्षप्रसाधकमनुमान- ३० मुपन्यस्तं तत्रापि प्रत्यक्षानुमाननिराकृतत्वं पक्षदोषः नामादिविशेषणोल्लेख विविक्ततया नाक्षमतिरुद्रातीति हेतोरसिद्धता च जातिगुणक्रियाद्यनेकविशेषणविशिष्टस्थिरस्थूराकारस्तम्भादिविषयाक्षज प्रत्ययस्यैकानेकस्वभावस्य विशेषणविशिष्टतया स्वसंवेदनाध्यक्षतो निर्णयात् अस्य च प्राक् प्रसाधितत्वात् । यदपि 'विशेषणपरिष्वक्तवपुषः संविदोऽध्यक्षत्वविरोधात्' इत्युक्तम् तदपि प्रलापमात्रम् ; स्वसंवेदनाध्यक्षप्रसिद्धे स्वरूपे विरोधायोगात् अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । यदपि 'सन्निहितमर्थमवतरत्य- ३५ ध्यक्षं नामादिकं च विशेषणमसन्निहितमिति न तद्योजनामवतरीतुं क्षमम्' इति तत्रापि यदि सन्निहितमर्थ मध्यक्ष मवतरेत् पक्ष्ममूलपरिष्वक्तमञ्जनादिकं सन्निहितं किं नावतरेत् ? अथ यत् प्रतिभास १ अष्टस० पृ० ११९ पं० १० । २ "विशेषणं विशेष्यं च" इत्यादिकल्पनायाः " बृ० ल० टि० । ३ दृष्टसङ्क आ० हा० वि० विना । ४- नाद्यथा आ० हा० वि० विना । ५- स्थूरस्व - बृ० वा० बा० । ६- हिणो वि-बृ० विना । ७ " स्वार्थविषयत्वादिति हेतोः " - बृ० ल० टि० । ८- स्य वा बृ० । ९ त्वादन्त बृ० ल० । १०- प्यादिनि-आ० हा ० वि० । ११ “ अनुमानस्य " - बृ० ल० टि० । १२ पृ० ४८८ पं० २२ । १३ पृ० ४८८ पं० २३ । १४ पृ० ४८८ पं० २५ । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ द्वितीये काण्डेयोग्य वस्तु तदेवावतरेत्। ननु स्तम्भादिकं व्यवहितमपि योग्यम् अञ्जनादिकं त्वतिसन्निहितमप्ययोग्यमित्येतदेव कुतः? स्तम्भादेः प्रतिभासनात् तत् तत्र योग्यं नेतरत् विपर्ययादिति चेत्, न इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः। तथाहि-प्रतिभासनात् स्तम्भादि योग्यं ततश्च तत्प्रतिभासनमिति कथं नेतरेतराश्रयत्वम् ? अथ न योग्यतातस्तत्प्रतिभासनव्यवस्था किन्तु तत्प्रतिभासनात् तद्योग्यता ५ व्यवस्थाप्यते तर्हि तत्प्रतिभासनं कुतो व्यवस्थाप्यम् ? स्वसंवेदनादिति चेत्, ननु यत्प्रतिभासः संवेद्यते तत् तत्र योग्यमितरच्चायोग्यमिति व्यवस्थायां तत्सन्निधानासन्निधाने क्वोपयोगिनी? एवं च यद्यसन्निहितस्यापि नामादिविशेषणस्याध्यक्षमतौ प्रतिभासः को विरोधोऽध्यक्षत्वेन? विरोधे वा चिरातीतभविष्यदर्थराशेरसन्निहितस्य बुद्धसंवेदने प्रतिभासनाध्यक्षताविरोधस्तस्यापि भवेत् । अथ विशदत्वात् तज्ज्ञानस्य नाध्यक्षताविरोधः तद् विशेषणविशिष्टार्थावभासिन्यप्यध्यक्षशाने १० समानम् । एतेन 'उपाधीनामुपाधिमतः पूर्वकालत्वे उपाधिमद्राहिणा ज्ञानेनासन्निहितत्वेनाग्रहणान्न तद्विशेषणविशिष्टार्थग्राहिण्यध्यक्षमतिर्विशदा संभवति' इति प्रत्युक्तम् बुद्धज्ञानेऽप्यनेन न्यायेन वैशद्याभावतोऽनध्यक्षतापत्तेः । न चासन्निहितस्यापि विशेषणस्याध्यक्षप्रतिभासे सकलस्याप्यसन्निहितस्य प्रतिभासप्रसक्तिः यतो यस्यैवाऽसन्निहितस्यापि प्रतिभासः संवेद्यते तदेव तत्र प्रतिभातीत्य भ्युपगन्तव्यम् अन्यथा अनन्तरातीतार्थक्षणस्याध्यक्षप्रतिभासे चिरतरातीतस्याप्यतीततया प्रति१५भासप्रसक्तिरित्यनाद्यतीतजन्मपरम्पराप्रतिभास्याग्दृगध्यक्षं भवेत् । यच्च 'वाचोऽव्यापितयाऽपदार्थात्मतया च नार्थदेशे सन्निधिरिति तदर्शने न सा प्रतिभाति' इति तत् सिद्धमेव साधितम् । यच्च 'व्यवहितायास्तु वाचः प्रतिभासे निखिलातीतार्थपरम्परा प्रतिभासताम्' इति तदसङ्गतम् न ह्येकस्य व्यवहितस्य प्रतिभासे अतीतक्षणवत् सकलस्य व्यवहितस्य चिरातीतक्षणस्येव प्रतिभासः संभवीत्युक्तत्वात् । यच्च 'समनन्तरप्रत्ययाद्' बोधरूपतेव वाग्रूपताऽपि वाचकस्मृतिसन्निहितोदया २० भविष्यति' इति तद्युक्तमेव । यच्च 'हेतुविषयभेदादक्षस्मृतिप्रभवसंवेदनस्मरणयोर्भेदप्रसक्तिः' इति, तदसङ्गतमेवः चक्षुरूपालोकमनस्कारप्रभवस्य यथा रूपज्ञानस्य हेतुभेदेऽप्येकसामग्रीप्रभवत्वादमेदस्तथा विशिष्टशब्दस्मरणमनस्कारसचिवसामग्रीप्रभवस्य 'रूपम्' इत्यल्लेखवतो विशदस्यैकतया प्रतीयमानस्य किमिति मेदो भवेत् ? यथा हि चक्षुषो रूपग्रहणप्रतिनियमः बोधाञ्चिद्रूपता आलोकाद विशदतेत्याद्यनेकधर्माकान्तस्य रूपज्ञानस्यैकरूपतया प्रतिभासनादेकता तथा विशिष्टाच्छब्दस्मरण२५मनस्काराद 'रूपम्' इति विशिष्टोल्लेखाक्रान्तस्यैकतया प्रतीयमानस्य बोधविशेषस्यैकरूपता युक्ति सङ्गतैव सामग्र्यन्तर्गतकारणभेदेऽपि सामग्रीलक्षणस्य कारणस्याभिन्नत्वात् । यदपि 'तटस्थवाग्रपताविशिष्टा वा अर्थमात्रा गृह्यन्ते वापतापन्ना वा' तत्पक्षद्वयमप्यनभ्युपगमान्निरस्तम् विशिष्टशब्दवाच्यतया तु विशिष्टक्षयोपशमसव्यपेक्षेन्द्रियजप्रतिपत्त्याऽर्थमात्रा गृह्यन्ते एव तद्वाच्यत्वं चार्थमात्राणां कथंचिदनन्यभूतो निजो धर्म इति प्रतिपादितं शब्दप्रामाण्यं व्यवस्थापयद्भिः केवलं ३० तद्वाच्यताप्रतिपत्तिस्तासां मैतिः श्रुतं वा? इत्यत्र विचारः स च यथास्थानं निरूपयिष्यते । अक्ष. प्रभवा तु 'रूपमिदम्' इति प्रतिपत्ती रूपशब्दवाच्यताविशिष्टार्थग्राहिण्येका स्वसंवेदनाध्यक्षतोऽनुभूयत एव अस्या अपलापे खसंवेदनमात्रस्याप्यपलापप्रसक्तेः शून्यतामात्रमेव स्यात् । न च शब्दगोचरोऽर्थ इन्द्रियाविषयः सामान्यविशेषात्मनस्तस्याक्षप्रभवप्रतिपत्तौ प्रतिभासनात् । न च प्रतिभासमानस्याविषयत्वम् अतिप्रसङ्गात् । यच्चे 'न संविदन्तरप्रतीतोऽर्थः संविदन्तरप्रतीतस्य ३५ विशेषणम्' तद्युक्तमेव विशिष्टशब्दवाच्यताविशेषणस्य रूपस्य 'रूपमिदम्' इत्येकप्रतीतिविषयत्वा भ्युपगमात् । अत एव 'केयं तदनुरक्तता' इति विकल्पत्रये यद् दोषाभिधानं तदनभ्युपगमादेव निरस्तम् । यदपि 'यदि नामपरिणद्धस्य सकलार्थस्य संवित् तदार्थसंवेदनमेव न भवेत्' इति दोषाभिधानम् तदप्यनभ्युपगमान्निरस्तम्नहि शब्दानुविद्धार्थप्रतिपत्तिरेव सविकल्पिका तथाभ्युपगमे सविकल्पप्रतिपत्त्युत्पत्तिरेव न भवेदित्युक्तं प्राक् । 'अर्गृहीतसंकेतस्य पुंसोऽर्थप्रतिपत्तिनिर्विकल्पिका' ४० तथा 'अश्वं विकल्पयतो गोप्रतिपत्तिः गोशब्दोल्लेखविकला' इति, अत्रापि प्रतिविहितमेव । यदपि १-भासा-आ० हा० वि०। २ पृ. ४८९ पं०९- ३ पृ. ४८९ पं० १६- ४ मतिश्रु-बृज भी मां० विना। ५ पृ. ४९० पं०४। ६ पृ. ४९.पं. ७-९। ७ पृ. ४९. पं० १३ । “नाना परिणद्धः संबद्धः वाक्संसृष्ट इति भावः"-वृ० ल.टि.। ८पृ० ४९० पं०१७॥ ९पृ. ४९. पं० १९। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । "वाग्रूपता चेद् व्युत्क्रामेत्" इत्यादि दोषाभिधानम् तदपि सिद्धसाध्यतया निरस्तम् । यच्च 'समानकायोर्वा भावयोर्विशेषणविशेष्यभावमिन्द्रियप्रतिपत्तिरधिगच्छति भिन्नकालयोर्वा' इति पक्षद्वेयेऽपि दोषाभिधानम् तदप्यसङ्गतम् यत्र हि समानासमानकालविशेषणविशिष्टोऽर्थः अबाधिताकाराक्षजप्रतिपत्तौ प्रतिभाति सा तद्राहिकाऽभ्युपगम्यते नाऽन्येति कुतोऽतिप्रसङ्गदोषावकाशः ? यथा च स्तम्भाकारोत्पन्नैकपरमाणुग्रहणप्रवृत्तं संवेदनं भिन्नदेशं परमाण्वन्तरमवभासयति - अन्यथा प्रति- ५ भासविरतिप्रसङ्गात् - तथा विशेषणग्रहणप्रवृत्तं भिन्नकालविशेष्यावभासि तदभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा विशेषणविशिष्टार्थावभासाभावो भवेदित्युक्तं प्राक् । न च विशेषणविशेष्यभावस्यानवस्थानान्न समानकालयोरपि तयोस्तद्भावप्रतिपत्तिः अनेक धर्म कलापाक्रान्तस्य वस्तुनो विशिष्टसामग्रीप्रभवप्रतिपत्त्या प्रतिनियतधर्मविशिष्टतया ग्रहणात् । न चार्वागद्दग्दर्शने अशेषधर्माध्यासितवस्तुस्वरूपप्रतिभासः कस्यचित् कथञ्चित् कयाचित् प्रतिपत्त्या यथाक्षयोपशमं ग्रहणात् । न च तत्प्रतिपत्त्याऽगृह्य- १० माणस्यात्यन्तिकस्ततो भेदः असत्त्वं वा क्षणिकत्वादेरपि नीलप्रतिपत्त्या प्रतीयमानस्य तथत्वप्रसक्तेरित्युक्तत्वात् । यदपि 'पुरोवर्त्तिनि रूपे प्रवृत्तमक्षं यद्यतीते विशेषणादौ प्रतिपत्तिमुपजनयति अतिचिरमुपगतासु पदार्थ परम्परास्वपि प्रतिपत्तिमुपजनयेत्' तदप्ययुक्ताभिधानम् यतो यदेव ह्यक्षमतौ परिस्फुटमवभाति तत्रैवाक्षं प्रतिपत्तिमुपरचयतीति व्यवस्थाप्यते अन्यथैकस्तम्भपरिणत्यापन्नैकपरमाणुग्रहणज्ञानजननप्रवृत्तमक्षं तदपरपरमाणुग्रहणज्ञानजननवत् सकलपदार्थ ग्राहिज्ञानजननेऽपि प्रवर्तेत १५ भेदाविशेषात् भवदभ्युपगमेनानन्तरातीतक्षणग्रहणज्ञानजननप्रवृत्तं वा सकलातीतक्षणग्रहणज्ञानजनने वा प्रवर्तेत अतीतत्वाविशेषात् । अथ यदेव तज्ज्ञाने प्रतिभाति तज्जनन एव तस्य व्यापारः परिकल्प्यते तदितरत्राऽपि समानम् । न च विशेषणादयस्तदाऽसन्निहिता एवैकान्ततो येन तान् प्रति प्रत्यक्षबुद्धिर्निरालम्बना भवेत् निरन्वयक्षणक्षयस्य निषिद्धत्वात् कथञ्चिदनुगतस्य च प्रसाधितत्वात् । यदपि 'सुखादिव्यतिरिक्त स्याक्षप्रभवसंवेदनस्यार्थावभासकत्वं प्रतिपादितम्' तदपि सिद्ध- २० साधनमेव । यच्च 'सुखादिवद् विकल्पोऽपि नार्थसाक्षात्करणस्वभावः' इति, अत्र यद्यविशेषेण विकल्पमात्रमभिधीयते तदा सिद्धसाध्यता । अथ प्रकृतो विकल्पस्तदाऽसिद्धम् तमन्तरेणापरस्यार्थसाक्षात्कारिणोऽविकल्पस्याभावात् । यदपि 'यदि नाम पुरोवर्तिनमर्थ विकल्पमतिरुद्योतयति तथाप्यर्थक्रियासमर्थरूपापरिच्छेदान्न तत्र प्रवृत्तिमारचयितुं क्षमा' इति, तदप्ययुक्तम्; अर्थक्रियासमर्थरूपस्य तस्या एव परिच्छेदकत्वेन प्रवर्तकत्वात् अन्यथा प्रवृत्तेरभावप्रसङ्गात् - तीमन्तरेण कस्यचित् २५ प्रत्ययस्य तद्रूपपरिच्छेदकत्वेन प्रवर्तकत्वायोगादिति प्रतिपादनात् । अत एव 'यदि नयनप्रसरमनुसरन्ती प्रथमा मतिर्न तत्त्वं प्रत्येति पश्चादपि नैव प्रत्येष्यति स्मरणसहायस्यापि लोचनंस्याविषयतयैकत्वे प्रतिपत्त्यजनकत्वात्' इत्यादि सर्व प्रतिक्षिप्तम् स्थिरस्थूरार्थावभास्यक्षप्रभवसंवेदनस्य प्राप्तिपर्यवसानफलनिमित्तस्य स्वसंवेदनाध्यक्षतः प्रसिद्धेस्तथापि तत्त्वस्याक्षप्रतिपत्त्यविषयत्वे संवेदनस्य स्वसंवेदनाध्यक्षविषयताऽपि न भवेत् । अबाधितप्रतिपत्तिविषयत्वादिकं च सर्वमन्यत्रापि समानम् । ३० ५१७ अथ स्वसंवेदनं संवेदनाभावे न दृष्टमिति तत् तद्विषयम् संवेदनं तु विपर्ययान्न तद्विषयम्; ननु किं क्षणिक निरंशैकपरमाण्वाकारसंवेदनाभावे तन्न दृष्टम् उत तद्विपरीत संवेदनाभावे ! यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः सर्वदा तदभाव एव तस्य दृष्टेः । अथ द्वितीयस्तदा विपर्ययसिद्धिः । यथा स्थिरस्थूराकारसंवेदनाभावेऽभवत् स्वसंवेदनं तद्विषयं सिध्यति तथा स्थिरस्थूरार्थाभावेऽभवत् संवेदनं किं न तद्विषयं सिध्यति येन लोचनाविषयत्वं तत्त्वस्य भवेत् ? यथा च पूर्वदेशदशादर्शना- ३५ नामग्रहणेऽपीदानीन्तनदर्शनेन स्वग्राह्यस्य तद्विवेकः प्रतीयते तथा तेन तस्य तत्संसृष्टता किमिति नावगम्यत इति न युक्तं पूर्वदर्शनाद्यप्रतीतौ तद् दृष्टतादिकं तस्य न प्रत्येतुं शक्यमित्याद्यभिधानम् । यदि च प्राप्याप्रतीतावपि दृश्यदर्शनेन स्वग्राह्यस्य तदेकत्वं प्रतीयते - अन्यथा तस्याविसंवादकत्वा १ पृ० ४९१ पं० १ । २०४९३ ० २६–१ ३ " आत्यन्तिकभेद" - बृ० ल० टि० । ४ पृ० ४९४ पं० ७ । ५ वर्तते भे-आ० हा० वि० । ६-वर्तते अ-आ० हा ० वि० । ७ " विशेषणेऽपि " बृ० टि० । ८ पृ० ४९४ पं० १९ । ९ पृ० ४९४ पं० २१ । १० पृ० ४९४ पं० ३२ । ११ “ सविकल्पमतिम् " - बृ० ल० टि० । १२- नस्य वि-बृ० ल० विना । १३ पृ० ४९५ पं० ८ । १४ “ एकत्वस्य " - बृ० ल० टि० । १५ “पूर्वदेशदशादि" - बृ० ल० टि० । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ द्वितीये काण्डेयोगात् प्रामाण्यं न स्यात्-किमित्यर्थक्रियाऽदर्शने तत्समर्थरूपांऽप्रतिपत्तिर्येन प्रकृतविकल्पात् प्रवृत्तिर्न भवेत् । यदपि 'स्मर्यमाणस्यार्थस्य सत्त्वासिद्धेस्तदृत्तिस्मृत्यनन्तरभाविनोऽध्यक्षस्य सत्यता' इत्यादीतरेतराश्रयत्वं प्रेरितं तत् स्वसंवेदनेऽपि समानम् । तथाहि-संवेदनस्य सत्यत्वे तत्वसंवेदनस्य सत्यवेदिता तस्याश्च तत्सत्यतेति कथं नेतरेतराश्रयत्वम् ? 'यथा च लिङ्गनिश्चयाद विशदतनोरनु तिरविशदावभासा पृथगवसीयते न तथा प्रकृतविकल्पात् पृथगविकल्पिका मतिः कदाचिदप्यनुभूयते' इति तत् सत्यमेव, निरंशक्षणिकैकपरमाण्ववभासस्थासत्त्वप्रतिपादनात् । यदपि “न चापि लिङ्गतः पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्तनम्" इत्यादि प्रत्यंगि(प्रत्यग्गि)रयोपन्यस्तम् तत् सर्वमयुक्ततया स्थितम् । यदपि 'जात्यादेरभावात् तद्विशिष्टार्थप्रतिपत्तिः सविकल्पिका न संभवति' इति, तदपि प्रतिक्षिप्तत्वान्न पुनः प्रतिसमाधानमर्हति । यच्च 'फलयोग्यता परोक्षेति नाध्यक्षमतिर्निश्चयात्मिका १०तत्र प्रवर्तते' इति, तदपि प्रतिविहितमेव । यँच्च 'दर्शनपरिणत्यनवगंतं फलसम्बन्धित्वमवगच्छन्ती कथं न भिन्नविषया' इति, तत् सिद्धमेव साधितम् तद्व्यतिरेकेण दर्शनपरिणतेरविकल्पिकाया अभावात् । यदपि 'रूपदर्शनाल्लिङ्गात् परोक्षार्थक्रियायोग्यताध्यवसायानुमानमुदयमासादयद् व्यवहृतिमुपजनयति' इति, तदप्ययुक्तम् फलजननयोग्यतायाः परोक्षत्वासिद्धेः । प्रतिभासमानरूपस्य चानिश्चितस्य लिङ्गत्वायोगादनुमानात् तन्निश्चये अनवस्थाप्रतिपादनात् अध्यक्षतस्तन्निश्चये च सिद्धं निर्णयात्मक१५मध्यक्षम् । यदपि 'अनिश्चयात्मकमध्यक्षमभ्यासदशायां प्रवृत्तिमुपरचयद् दृष्टम् तदप्यसङ्गतम्। शब्दोल्लेखशून्यस्यापि सावयवैकरूपार्थाधिगतिस्वभावस्य सविकल्पकतया व्यवस्थापनात् तमन्तरेणाभ्यासदशायामपि प्रवृत्त्यनुपपत्तेः। यत् पुनः सर्वदाऽनुमानात् प्रवृत्त्यभ्युपगमे लिङ्गग्रहणाभावतोsध्यक्षेणाऽनवस्थादूषणमभ्यधायि तेद् युक्तमेव । यदपि 'पौर्वापर्येऽप्रवृत्तमध्यक्षं कथं तादृग्लिङ्ग ग्रहणे क्षमम्' इति पूर्वपक्षमुत्थाप्य 'लोकाभिमानादेवाऽध्यक्षं लिङ्गग्राहि व्यवहारकृच्च तत्त्वतस्तु २० स्वसंविन्मात्रत्वान्न प्रत्यक्षानुमानभेदः' इत्युत्तराभिधानम्, तदप्यसङ्गतम्। प्रत्यक्षानुमानभेदस्यापारमार्थिकत्वे खसंवेदनमात्रस्याप्यपारमार्थिकत्वप्रसक्तेः सर्वशून्यतापत्तिरिति निर्विकल्पकत्वादिव्यवहारो दुरापास्त एव स्यात् । न च शून्यतैवास्त्वित्यभिधानं युक्तिसङ्गतम् प्रमाणमन्तरेण तदभ्युपगमस्याप्यघटमानत्वात् इत्युक्तत्वात् । तदेवं सकलबाधकापाये साधकप्रमाणविषयत्वात् सविकल्पकमध्यक्षं सिद्धमिति व्यवस्थितं प्रमाणं स्वार्थनिर्णीतिस्वभावज्ञानमिति। २५ अत्र च स्वस्य ग्रहणयोग्योऽर्थः स्वार्थ इत्यस्यापि समासस्याश्रयणाद् व्यवहारिजनापेक्षया यस्य यथा यत्र ज्ञानस्याविसंवादस्तस्य तथा तत्र प्रामाण्यमित्यभिहितं भवति तेन संशयादेरपि धर्मिमात्रापेक्षया न प्रामाण्यव्याहतिः । एतेन “प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम्" इति प्रत्यक्षलक्षणं सौगतपरिकल्पितमयुक्ततया व्यवस्थापितम् । [३ प्रमाणविशेषनिरूपणम् ] [प्रत्यक्षम् ] [प्रत्यक्षे निरूपयितव्ये पूर्व सौगतमतविरोधितया नैयायिकसम्मतस्य प्रत्यक्षलक्षणस्योपन्यासः] तत्राऽऽहुर्नैयायिकाः-मा भूत् सौगतपरिकल्पितं निर्विकल्पकमध्यक्षं प्रमाणम् “इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्” [न्यायद-१-१-४] इत्येतल्लक्षण लक्षितं तु प्रत्यक्षं प्रमाणम् । अस्यार्थः-इन्द्रियं द्रव्यत्वकरणत्वनियताधिष्ठानत्वातीन्द्रियत्वे सत्य३५परोक्षोपलब्धिजनकत्वात् चक्षुरादि मनःपर्यन्तम् तस्यार्थः परिच्छेद्य इन्द्रियार्थः। “पृथिव्यादिगुणों १-पाप्र-बृ० ल० वा. बा०। २“खसंवेदनसत्यवेदितायाः"-बृ. ल. टि०। ३ “सविकल्पसंवेदनम्"-बृ. ल० टि०। ४-सस्य स-आ० हा० वि० । ५ पृ. ४९६ पं० ३१ । ६ पृ. ४९६ पं० ३९ । ७ यच्च यद्दर्श-आ० । पृ. ४९८ पं० ३। ८-गतिफल-वा० बा०। ९पृ. ४९८ पं० २२। १० पृ. ४९९ पं० १३-११ तदयुहा० वि० । पृ. ४९९ पं० १५। १२ पृ. ४९९ पं० १८। १३ पृ. ४९९ पं० २०- १४ पृ. ४८८ पं० ११, टिप्पण । १५पृ. ४८८ टि०९।१६ “गन्ध-रस-रूप-स्पर्श-शब्दाः पृथिव्यादिगुणास्तदर्थाः"-ज्यायद०१-१-१४ । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। रूपादयस्तदर्थाः" । ] इति तदर्थलक्षणन्यात् अर्थ इति लक्ष्य निर्देशः तदर्थन्वं लक्षणं तदर्थत्वं चेन्द्रियार्थत्वम् । ननु 'तदर्थाः' इत्यतावदेवास्तु तदर्थलक्षणं पृथिव्यादिगुणग्रहणं तु न कर्तव्यम्, न तदर्थत्वेन लक्षणेन ये संगृहीतास्तपां विभागार्थ पृथिव्यादिगुणग्रहणम । तथा चोक्ष्योतर:-"पृथिव्यादिग्रहणेन त्रिविधं द्रव्यमुपलब्धिलक्षणप्राप्तं गृह्यते गुणग्रहणेन सर्वो गुणोऽस्मदाधुपलब्धिलक्षणप्राप्त आश्रितत्व-विशेषणत्वाभ्याम्"[ ] एवं च पृथिव्यादिगुणग्रहणं ५ लक्ष्यविभागसूत्रोपलक्षणार्थम् ; नन्वेवमपि रूपादिग्रहणं व्यर्थ गुणग्रहणेन संगृहीनत्वात् , नः विशेषलक्षणप्रतिपादनार्थत्वात् । तथा च प्रतिपादितम्-पृथिव्यादिगुणस्य सतश्चक्षुर्ग्राह्यत्वमेव यस्य तद्रूपं 'चक्षुर्ग्राह्यं यत् तद् रूपम्' इत्यभिधीयमाने घटादावतिप्रसक्तिस्तनिवृत्त्यर्थमबंधारणम् तथापि रूपत्वेऽतिप्रसङ्गः तन्निवृत्त्यर्थं पृथिव्यादिगुणग्रहणम् एवं रसादिष्वपि । “एकादिव्यवहारहेतुः सङ्ख्या" [प्रशस्त०भा०पू०१११ पं०३] इत्यादिविशंपलक्षणं वैशषिकमतप्रसिद्धं सर्वत्र द्रव्यम् । नन्वेवं १० रूपादीनामपि विशेषलक्षणं न वाच्यं तत्रैव प्रसिद्धत्वात् , नः अविप्रतिपत्तिज्ञापनार्थत्वात् रूपादयो हि बहुभिर्विषयत्वेन संप्रतिपन्ना इति पञ्चानामपि लक्षणाभिधानम पुरुषस्य चैतेऽतिशयेनासक्तिहेतवः एतावत्त्वत्रोपयुज्यते इन्द्रियविषयभूतोऽर्थः अर्थशब्देनाभिप्रेतः नार्थमात्रम् । तेन सन्निकर्षः प्रत्यासत्तेरिन्द्रियस्य प्राप्तिः तस्य च व्यवहितार्थानुपलब्ध्या सद्भावः सूत्रकृता प्रतिपादितः तत्सद्भावे च सिद्धे पारिशेप्यात् तत्संयोगादिकल्पना; परिशेपश्चेन्द्रियेण सार्द्ध द्रव्यस्य संयोग एव युतसिद्ध-१५ त्वात् १ गुणादीनां द्रव्यसमवेतानां संयुक्तंसमवाय एव अद्रव्यत्वे सति अत्र समवायात् २। तत्समवेतेषु संयुक्तसमवेतसमवाय एव अन्यस्यासंभवात् प्राप्तेश्च प्रसाधितत्वात् ३। शब्दे समवाय एवाकाशस्य श्रोत्रत्वेन व्यवस्थापितत्वात् शब्दस्य च गुणभावात् गुणत्वेन चाकाशलिङ्गत्वादाकाशसमवायित्वं निश्चितमिति समवाय एवेत्युक्तम् ।। शब्दत्वे समवेतसमवाय एव परिशेषात् ५। समवायाभावयोश्च विशेषणविशेष्यभाव एव परिशेषात् । लक्षणस्य च त्रैविध्यात् कथमेतल्लक्षणं २० व्यवच्छिनत्तीत्यन्यव्यवच्छेदार्थमिन्द्रियार्थसन्निकर्षः कारणमित्यभिधीयते कारणत्वेऽप्यसंभविदोपाशङ्कापरिजिहीर्षयाऽन्याननुयायि कारणवचनं नं त्वन्यानुयायिकारणनिवृत्तिः एवंभृतम्य इन्द्रियार्थसन्निकर्षस्यैव कारणत्वाभिधानम् नत्वन्तःकरणेन्द्रियसम्बन्धस्य तस्याऽव्यापकत्वात् अव्यापकत्वं तु सुखादिज्ञानोत्पत्तावसंभवात् । अथ 'निकर्ष'ग्रहणमेवास्तु 'संग्रहणं व्यर्थम्, नः संशयादिज्ञान १ लक्षणनि-वा. बा०। २ "अत्र चोद्देशक्रमस्मारिता अर्था लक्ष्यतया प्रतिपत्तव्याः तेषां च लक्षणं तदा इति । तदिति अनन्तरलक्षितानीन्द्रियाणि परामृशति । तेषामिन्द्रियाणामा इन्द्रियैरर्थ्यमानत्वमर्थानां लक्षणम्”-न्यायवा. ता० टी० पृ० २२४ पं० १७-२० । तदर्थत्वं चेन्द्रिया-बृ० ल०। ३ तदर्थत्वं पञ्चेन्द्रिया-वा० बा० । ४ "पृथिव्यादिग्रहणेन पृथिव्यप्तेजांसि बाह्यकरणग्राह्याणि अपदिश्यन्ते, गुणग्रहणेन च सर्व आथितो गुण इति सङ्ख्यापरिमाण-पृथक्व-संयोग-विभाग-परत्वाऽपरत्व-स्नेह-वेग-कर्मसामान्यविशेषा अनाश्रितश्च ममवायस्तद्धर्मत्वाद् गुण इति" -न्यायवा० पृ० ७२६०२१-२४ । न्यायवा० ता० टी० पृ० २२५ पं० १७ ५ “गन्ध-रस-रूप-स्पर्श-शब्दास्तर्हि पृथङ् न वक्तव्याः गुणग्रहणेन ग्रहणात् । पृथिव्यादिगुणास्तदर्थी इति सूत्रे वक्तव्यम् । लघु चैवं भवतीति स एवार्थः सेत्स्यतीति । न कर्तव्यम् । गन्ध-रस-रूप-स्पर्ग-शब्दानां पृथगभिधानमिन्द्रिय. विशेषनियमज्ञापनार्थम् । इन्द्रियाणि गन्ध-रस-रूप-स्पर्श-शब्देषु तत्सामान्येषु नियतानि अन्यत्रानियतानि । तत्र पृथिव्यप्तेजांसि द्वीन्द्रियग्राह्याणि, शेषश्च गुणराशिः सत्ता-गुणत्वे च सर्वेन्द्रियग्राद्ये समवायोऽभावश्च तथा"-न्यायवा० पृ. ७३ पं० १-७ । न्यायवा० ता. टी. पृ० २२५ पं० २३।। ६ "चक्षु ह्यखमेवेति"-बृ. ल. टि. । -भूतोऽर्थश-भां० मा० विना । ८-कर्ष प्र-वा. बा. । ९"पृथक"-बृ० ल.टि.। न्यायवा० पृ. ३१५० १-1 न्यायवा० ता. टी. पृ० १०९५० ४-। न्यायमञ्ज० पृ. ७२ पं० २३॥ प्रशस्त. कं.पृ० १९५५० ९-१०"इन्द्रियादिना"-वृ० ल.टि.। ११ “द्रव्ये इन्द्रियसंयुक्त गुणानाम्"वृ० ल. टि.। १२ “रूपत्वादिषु"-बृ. ल. टि.। १३ “समवायोऽभावश्च विशेषणविशेष्येण ज्ञायते"-बृ. ल.टि.। १४ च तैर्विध्यात् वा. बा० । अत्रायमभिप्रायो भाति-कारणगर्भलेन कार्यगर्भलेन स्वरूपगर्भत्वेन च लक्षणस्य त्रैविध्यं न्यायगतलक्षणमीमांसायां प्रसिद्धम् । तद्यथा-कपालमयखादि जलाहरणादि कम्बुग्रीवादि च यथाक्रम कारणगर्भम् कार्यगर्भम् खरूपगर्भ च घटस्य लक्षणं भवितुमर्हति । अन्यश्चेदभिप्रायो ग्रन्थकारस्य स्यान् नहिं पर्यालोचकैरनुसन्धेयः। १५-ल्लक्षणव्य-भां० मा० आ०।-लक्ष्यं व्य-वृ० ।-लक्षं व्य-वा० बा०। १६ नन्वन्या-वा० वा. विना। १७-गुनया-वा. बा.। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० द्वितीये काण्डे निवृत्त्यर्थत्वात् ‘सं'शब्दोपादानस्य । तथाहि-सम्यग् निकर्षः संनिकर्षः सम्यक्त्वं तु तस्य यथोक्तविशेषणविशिष्टफलजनकत्वेन, नैतत् ; अव्यभिचारादिपदोपादानवैयर्थ्यप्रसक्तेस्तदर्थस्य 'सं'शब्दोपादानादेव लब्धत्वात् , न; अव्यभिचारादिविशेषणोपादानमन्तरेण तत्सम्यक्त्वस्य ज्ञातुमशक्तेः कारणस्य ह्यतीन्द्रियस्य सम्यक्त्वमसम्यक्त्वं वा सम्यगसम्यकार्यद्वारेणैव निश्चीयत इति तत्फलविशेषणार्थम५व्यभिचार्यादिपदोपादानं कारणसाधुत्वावगमाय न व्यर्थम् । नन्वेवमपि 'संशब्दोपादानानर्थक्यम् अव्यभिचारादिपदोपादानादेव तत्फलस्य विशेषितत्वात्, न; 'संग्रहणस्य सन्निकर्षषट्कप्रतिपादनार्थत्वात् एतदेव सन्निकर्षषकं ज्ञानोत्पादे समर्थं कारणं न संयुक्तसंयोगादिकमिति 'सं'ग्रहणाल्लभ्यते । नन्वेवमपीन्द्रियग्रहणानर्थक्यम्, नः अनुमानव्यवच्छेदार्थत्वात् । तथाहि-'अर्थसन्निकर्षादुत्पन्नम्' इत्यभिधीयमानेऽनुमाने प्रसङ्ग इतीन्द्रियग्रहणमिन्द्रियविषयेऽर्थे सन्निकर्षाद् यदुत्पद्यते ज्ञानं तत् १०प्रत्यक्षमनुमानादिभ्यो व्यवच्छिनत्ति न चानुमानिकमिन्द्रियसम्बन्धादिन्द्रियविषये समुत्पद्यत इति । तथाप्यर्थग्रहणमनर्थकमिति चेत्, न: स्मृतिफलसन्निकर्षनिवृत्त्यर्थत्वात् । तथाहि-आत्माऽन्तःकरणसम्बन्धात् स्मृतिरुपजायत इति तजनकस्यापि प्रत्यक्षत्वं स्यादसत्यर्थग्रहणे न चेन्द्रियार्थसन्निकर्षजा स्मृतिः अतीतस्याऽपि स्मर्यमाणत्वात् तस्य च तदाऽसत्त्वात् । उत्पत्तिग्रहणं कारकत्वज्ञापनार्थम् । हानग्रहणं सुखादिनिवृत्त्यर्थम् ।। १-कर्षः२ स-आ०। २ "कर्तृभूतम्”-बृ० टि.। ३ स्मृतिस-बृ०। ४-हणं न आ०। ५ "बीजादिवत् कारकोऽर्थसन्निकर्षः दीपादिवद् व्यञ्जकः"-वृ.टि.। ६ “अथ ज्ञानग्रहणं किमर्थ ? सुखादिव्यवच्छेदार्थम् । इन्द्रियार्थसनिकर्षात् सुखदुःखे अपि भवतः तद्वयुदासार्थमाह ज्ञानमिति” । ज्यायवा० पृ० ३६ पं० २२-। "पृच्छति अथ ज्ञानेति । प्रत्यक्षसमाज्ञातलक्ष्यानुवादेन लक्षणे विधीयमाने ज्ञायत एवैतज् ज्ञानमिति, लोके साक्षा. त्कारिज्ञानहेतोः प्रत्यक्षलादिति भावः । उत्तरं सुखादिव्युदासार्थम् । तदेव हि लक्षणवाक्यमुच्यते यस्य लक्ष्यानपेक्षोऽतिव्याप्त्यव्याप्तिव्युदासो लक्षणपदेभ्य एव प्रतीयते । लक्ष्यानुरोधेन तु लक्षणव्यवस्थापनेऽन्योन्याश्रयत्वमगतिर्वेति भावः । सुखादीनां विज्ञानाभिन्नहेतुजत्वेन विज्ञानवादशक्यं व्यावर्तनमिति चेत् । न । अभिन्नहेतुजलासिद्धेः । न खलु यैव चन्दनस्पर्शज्ञानस्योत्पत्तौ सामग्री सैव सुखस्यापीति, अस्ति हि शीतातस्यापि चन्दनेन्द्रियसंयोगाच्छीतस्पर्शज्ञान मिति तद्वदेवास्य सुखमपि भवेत् । अवान्तरसामग्रीभेदेऽपीन्द्रियार्थमनस्कारजखाज ज्ञानजातीयत्वमिति चेत् । न । किञ्चित्कारणमेदेऽपि कार्यभेदस्यानाकस्मिकत्वोपपत्तेः । तदर्थत्वाच्च कारणभेदानुसरणप्रयासस्य । न चोपादानाभेदादभेद इति युक्तम् । भिन्नानामपि ज्ञानानामेकसमनन्तरप्रत्ययोपादानवस्य भवद्भिरभ्युपगतत्वात् । अपि चोपादानाभेदश्च कुतश्चित् कारणभेदात् कार्यभेदश्चेति को विरोधः । अत एवास्माकमभेदेऽप्युपादानस्य पिठरस्यौष्ण्यापराख्यस्य च वहिसंयोगस्य पूर्वरूपादिप्रध्वंसानां कारणानां भेदाद् भिन्नजातीया जायन्ते गन्धरूपरसस्पर्शा इति सिद्धान्तः । तस्मादर्थप्रवणेभ्यो ज्ञानेभ्यस्तदप्रवणतया भिन्नजातीयाः सुखादयो यथाखमनुकूलवेदनीयत्वादिभिलक्षणैरन्योन्यमपि भेदवन्तस्तीव्रसंवेगितया प्रमित्सानपेक्षमानसप्रत्यक्षवेदनीया इति रमणीयम्"। __ न्यायवा० ता० टी० पृ० १२३ पं० २-। "अथवा सुखादिव्यावृत्त्यर्थ ज्ञानपदोपादानम् । इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं हि सुखमपि भवति तत्र तजनक कारकचक्र प्रमाणं मा भूद् ज्ञानजनकमेव प्रमाणं यथा स्यादिति ज्ञानग्रहणम् । अत्र शाक्याश्चोदयन्ति न ज्ञानपदेन सुखादिव्यवच्छेदः कर्तुं युक्तः शक्यो वा सुखादीनामपि ज्ञानखभावखात् । ज्ञानस्यैवामी भेदाः सुखं दुःखमिच्छा द्वेषः प्रयत्न इति । कारणाधीनो हि भावानां भेदो भवितुमर्हति समानकारणानामपि तु मेदेऽभिधीयमाने न कारणकृतं पदार्थानां नियतं रूपमिति तदाऽऽकस्मिकत्वप्रसङ्गः । तदुक्तम् । तदतद्रूपिणो भावास्तदतद्रूपहेतुजाः। तत्सुखादि किमज्ञानं विज्ञानाभिन्नहेतुजम् ॥ इति । तस्माज ज्ञानरूपाः सुखादयः तदभिन्नहेतुजलादिति तदिदमनुपपन्नम् । प्रत्यक्षविरुद्धत्वाद्धेतोः । सुखादि संवेद्यमानमानन्दादिरूपतयाऽनुभूयते ज्ञानं विषयानुभवस्वभावतयेति प्रत्यक्षसिद्धभेदत्वात् कथमभेदे अनुमानं क्रमते । अत एव इदमपि न वचनीयम् । एवमेवेदं संविद्रूपं हर्षविषादाद्यनेकाकारविवर्त पश्यामः तत्र यथेष्टं सज्ञाः क्रियन्तामिति । संविदो विषयानुभवखभावतयैव प्रतिभासात् सुखादेश्च विषयानुभवखभावानुस्यूतस्याप्रतिभासात् । ज्ञानमेव विषयग्रहणरूपं प्रकाशते न सुखं दुःखं था । यस्तु सुखज्ञानं दुःखज्ञानमिति प्रतिभासः स ज्ञानखभावभेदकृत एव संशयज्ञानं विपर्ययज्ञानमितिवत् । उक्तमत्र संशय Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५२१ न च तुल्यकारणजन्यत्वात् शान-सुखादीनामेकत्वमिति तन्निवृत्त्यर्थे ज्ञानग्रहणं न कार्यम् तुल्यकारणजन्यत्वस्यासिद्धत्वात् । वक्ष्यति च चतुर्थेऽध्याये-"एकयोनयश्च पाकजोः" [४-१-५ वात्स्या०भा०] । न च तेषामेकत्वमिति व्यभिचारः । प्रत्यक्षविरोधश्च सुप्रसिद्ध एव । तथाहिआल्हादादिस्वभावाः सुखादयोऽनुभूयन्ते ग्राह्यतया च ज्ञानं त्वर्थावगमस्वभावं ग्राहकतयाऽनुभूयत इति ज्ञान-सुखाद्योर्भेदोऽध्यक्षसिद्ध एव । विशिष्टादृष्टकारणजन्यत्वात् सुखादेः सुखादिजात्युत्पाद्य-५ त्वाच्चै न भिन्नहेतुजत्वमसिद्धं ज्ञान-सुखाद्योः अतो बोधजनकस्य ज्ञापनार्थ युक्तं ज्ञानग्रहणम् । ___अव्यपदेश्यग्रहणमप्यतिव्याप्तिनिवृत्त्यर्थम् व्यपदेशः शब्दः तेन इन्द्रियार्थसन्निकण चोत्पादितमध्यक्षम्-शाब्देऽनन्तर्भावात्-स्यात् तन्निवृत्त्यर्थमव्यपदेश्यपदोपादानम् । नन्विन्द्रियविपये शब्दस्य विपर्ययादौ विषयानुभवखभावलमनुस्यूतमवभाति संशयो हि विषयग्रहणात्मकोऽनुभूयते अनिश्चितं तु विषयं गृह्णाति विपर्ययोऽपि विषयग्रहणात्मक एव विपरीतमसन्तं वा विषयं गृह्णाति न तु विषयग्रहणखभावं सुखं दुःखं चानुभूयते । अन्य एवार्य प्रायैकखभाव आन्तरो धर्मः सुखदुःखादिरिति घजानवद्विषयतयैव ज्ञानं भिनत्ति न खभावभेदेन संशयवदिति । तत्रैतत् स्यात् खप्रकाशत्वात् सुखादेन प्रायैकस्वभावत्वम् । अतश्च ग्राह्यग्रहणोभयस्वभावलाज ज्ञानमेव तदिति । मैवं वोचः । प्रकाशवं ज्ञानेऽपि प्रतिक्षिप्तं प्रतिक्षेप्स्यते तत् कुतः सुखादौ भविष्यति । न हि ग्रहणस्वभावं कश्चित् सुखमनुभवति ज्ञानवदिति । नन्वस्य प्रकाशवानभ्युपगमे सुखादेरुत्पादानुत्पादयोरविशेषात् सर्वदा सुखिवं न कदाचिद्वा स्यादिति । नैतदेवम् । उत्पन्नमेव सपदि सुखं गृह्यते ज्ञानेनेति कथमनुत्पन्नान्न विशिष्यते । प्रत्युत खप्रकाशसुखवादिनामेष दोषः स्वप्रकाशस्य दीपादेः सर्वान् प्रत्यविशिष्टत्वात् । क्वचित् सन्ताने खप्रकाशसुखोत्पादात् तेनैव खप्रकाशेन सुखेनान्योऽपि सुखी स्याद् यस्यापि सुखं नोत्पन्नमिति । किंच किमेकमेव ज्ञानं सर्वसुखदुःखाद्यशेषाकारभूषितमिष्यते उत किंचित् सुखात्मकं किंचिद् दुःखात्मकं ज्ञानमिति । आये पक्षे सर्वाकारखचितज्ञानोपजननादेकस्मिन्नेव क्षणे परस्परविरुद्धसुखदुःखादिधर्मप्रबन्धवेदनप्रसङ्गः । उत्तरस्मिस्तु किंचित् सुखज्ञानं किंचिद्दुःखज्ञानमिति यत्किंचिदसुखदुःखचितं विषयानुभवखभावमपि ज्ञानमनुभूयमानमेषितव्यमेव । तच्च न खच्छम् अपि तु केनचिद् घटादिना विषयेणोपरक्तमन्वयव्यतिरेकाभ्यां च घटाधुपजननापायेऽपि बोधस्वभावमनुवर्तमानं प्रतीयते । तदिदानीं सुखज्ञानमप्यनुभूयमानं सुखेन विषयभावजुषा घटादिनेवोपरज्यते इति गम्यते न स्वरूपेणैव सुखात्मकं ततो भिन्नरूपस्य बोधमात्रस्वभावस्य ज्ञानस्यान्यदा दृष्टवादिति । तस्मान्न बोधरूपाः सुखादयः । अभिन्नहेतुजलादिति चायमसिद्धो हेतुः समवायिकारणस्यात्मनः असमवायिकारणस्यात्मनः संयोगस्य अभेदेऽपि निमित्तकारणस्य सुखवज्ञानवादेर्भिन्नखात् । ननु सुखोत्पादात् पूर्वमनाश्रयं सुखवसामान्यं कथं तत्र स्यात् । कश्चापि सुखहेतुभिः कारकैः संसर्गः असंसृष्टं च कथं कारकं स्यात् । उच्यते । सर्वसर्वगतानि सामान्यानि साधयिष्यन्ते इति सन्ति तत्रापि सुखखादीनि योग्यतालक्षण एव चैषां सुखहेतुभिः कारकैः संसर्गः धर्माधर्मवत् । धर्माधर्मी हि सर्वस्य प्राणिनां सुखदुःखहेतोः जायमानस्य शाल्यादेः कार्यस्य कारणं तयोश्च तत्कारणैः बीजक्षितिजलादिभिः सहयोग्यतैव संसर्गः एवं सुखखादीनामपि स्यात् । तस्मानिमित्तकारणभेदा भिन्नानि ज्ञानसुखादीनि कार्याणि । निमित्तकारणान्यत्वमपि कार्यस्य भेदकम् । विलक्षणा हि दृश्यन्ते घटादौ पाकजा गुणाः ॥ अपि च ज्ञानमिच्छन्ति न सर्वे ज्ञानपूर्वकम् । सुखदुःखादि सर्व तु विषयज्ञानपूर्वकम् ॥ विषयानुभवोत्पाद्या यत्रापि न सुखादयः । तत्रापि तेषामुत्पत्ती कारणं विषयस्मृतिः ॥ क्वचित्तु सङ्कल्पोऽपि सुखस्य कारणतां प्रतिपद्यते । तस्मात् सर्व सुखादि ज्ञानपूर्वकमेव । ज्ञानमपि ज्ञानपूर्वकमेवेति चेद् उपरिष्टान्निराकरिष्यमाणत्वात् । न हि गर्भादौ मदमूर्छाद्यनन्तरं वा ज्ञानमुपजायमानं ज्ञानान्तरपूर्वकं भवतीति वक्ष्यामः । तेन सुखादीनां वैलक्षण्योपपादनात् सुखादिव्यवच्छेदस्य सिद्धलात्"। न्यायमञ्ज० आ० २ पृ. ७४ पं० ११ १“एकप्रत्यनीकाः पृथिव्यां श्यामादयोऽग्निसंयोगेनैकेन एकयोनयश्च पाकजा इति"-पृ० ३६६ पं० १६। "व्यभिचारादहेतुः ॥ एकप्रत्यनीकाश्च रूपादयः एकाग्निसंयोगविरोधिनः न चैषामेकत्वमिति अनैकान्तिकम् । एकयोनिखादेकं रागादयः शब्दवदित्यप्यनेनैव प्रत्युक्तम् । एकयोनयो रूपादयो न चैषामेकत्वमिति"।न्यायवा० पृ. ४५० ५० १६ । “एकयोनयो हि रूपादयो न चैषामेकलं, यदि पुनस्तत्र रूपादीनां परस्परभेदसिद्धये कश्चित् कारणभेद आस्थीयते स रागादिष्वपि समान इति भावः" । न्यायवा० ता० टी० पृ. ५८९ पं० ४ । २ "ज्ञानस्य ज्ञानजात्युत्पाद्यत्वात्"-बृ. ल. टि. । ३ “परः"-बृ० टि। ४ अव्यपदेश्यपदकृत्यचर्चा भाष्य-वार्तिक-तात्पर्यटीकासु उत्तरोत्तरमधिकतया विविधतया च कृता दृश्यते-१-१-४ वात्स्या० भा० पृ. २० पं०९। न्यायवा० पृ.३६ पं० २४ । न्यायवा. ता० टी० पृ. १२७ पं०६ । जयन्तस्तु तां सर्वामपि चचों संगृह्य, समीक्ष्य चातिपल्लवयांचकार-न्यायमज आ०२ पृ. ७७ पं० २१-पृ० ८० पं०६। ६७ सात Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे - सामान्यविषयत्वेन व्यापारासंभवादिन्द्रियस्य च स्वलक्षणविषयत्वान्नोभयोरेक विषयत्वमिति न तज्जन्यमेकं ज्ञानं संभवति, नः तयोर्भिन्नविषयत्वस्य "व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थः” [ न्यायद० २२-६५ ] इत्यत्र निषेत्स्यमानत्वात् तद्भावभावित्वाच्चोभयजन्यत्वं ज्ञानस्यावगतमेव । तथाहि चक्षुर्गोशब्दव्यापारे सति 'अयं गौः' इति विशिष्टकाले ज्ञानमुपजायमानमुपलभ्यत एव तद्भावभावित्वेन ५ चान्यत्रापि कार्यकारणभावो व्यवस्थाप्यते तच्चात्रापि तुल्यमिति कथं नोभयजं ज्ञानम् ? न चान्तःकरणाधिष्ठितत्वदोषश्चक्षुषः तेनाधिष्ठानात् शब्दस्य च प्रदीपवत् करणत्वात् । न ह्यत्काले शब्दस्य करणत्वमयुक्तम् श्रोत्रस्यैव तदा करणभावात् शब्दस्य तु तदा ग्राह्यत्वमेव गृहीतस्य चोत्तरकालमन्तःकरणाधिष्ठितचक्षुः सहायस्यार्थप्रतिपत्तौ व्यापार इति भवत्युभयजं 'गौः' इति ज्ञानम् । न चास्य प्रमाणान्तरत्वं युक्तम् उभयविलक्षणत्वात् शाब्देऽव्यपदेश्यविशेषणस्याभावात् प्रत्यक्षे च १० भावादस्य शाब्दत्वात् । न च शब्देनैव यज्जन्यते तच्छाब्दमिति शाब्दलक्षणे नियमः अपि च शब्देन यजनितं तच्छाब्दम् अस्ति च प्रक्रान्ते एतद्रूपमिति कथं न शाब्दम् ? न चैतन्नास्ति न चाप्रमाणम् अव्यभिचारित्वादिविशेषणयोगात् । न चानुमानम् पक्षधर्मत्वाद्यभावात् । प्रत्यक्षमप्येतन्न भवति शब्देनापि जन्यत्वात् । नाप्युपमानम् तल्लक्षणविरहात् । पारिशेष्यात् शाब्दम् । ननु शाब्दमपि न युक्तम् इन्द्रियेणापि जनितत्वात् नः शब्दस्यात्र प्राधान्यात् प्राधान्यं च तस्य प्रभूतविषयापेक्षया १५ यतोऽसौ न क्वचिद् व्याहन्यते तथा च प्रत्यपादि भाष्यकृता - " यावदर्था वै नामधेयशब्दांः” [१-१-४ वात्स्या० भा०] इति । न त्वेवमिन्द्रियं तस्य स्वर्गादौ प्रतिहन्यमानत्वात् । तस्मात् प्राधान्याच्छब्देनैव व्यपदेशः । ५२२ व्यपदेशकर्मतापन्नज्ञाननिवृत्त्यर्थमव्यपदेश्यमिति विशेषणमिति केचित् प्रतिपन्नाः । तथाहिइन्द्रियार्थसन्निकर्षादुपजातस्य ज्ञानस्य शब्देनाऽनभिधीयमानस्य प्रत्यक्षत्वम् अयुक्तमेतत् प्रदीपेन्द्रिय२० सुवर्णादीनामभिधीयमानत्वेऽपि प्रत्यक्षत्वानिवृत्तेः । न च ज्ञानस्याभिधीयमानत्वे करणत्वव्याहतिः शक्तिनिमित्तत्वात् कारकशब्दस्य । न ह्यभिधीयमानार्थोऽन्यत्र तदैव परिच्छित्तिं न विदधाति । न चायं न्यायो नैयायिकैर्नाभ्युपगतः “प्रमेया च तुलाप्रामाण्यैवत्" [ न्यायद० २-१-१६] इत्यत्र प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । फलविशेषणपक्षेऽप्यभिधीयमानस्य स्वकारण व्यवच्छेदकत्वमस्त्येव । शब्दब्रह्मनिवृत्त्यर्थमेतदिति एतदप्ययुक्तम् अप्रकृतत्वात् । शब्दप्रमेयत्वेऽपीन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नत्वं २५ ज्ञानस्य संभवति किमनेन विशेषणेन कृत्यम् ? तथाहि - इन्द्रियविषयभूतेन रूपेण शब्देन वा जनितं ज्ञानमिति कोऽत्र प्रत्यक्षत्वे विशेषः ? सर्वथा लक्षणं युक्तिमदेव विशेषणं चातिव्यास्यादिदोषनिवृत्त्यर्थ लक्षणे उपादेयम् न परपक्षव्युदासार्थम् । इन्द्रियार्थसन्निकर्षादुपजातं शब्देन चाजनितं व्यभिचारिज्ञानं न प्रत्यक्षव्यवच्छेदकमित्यव्यभिचारिपदोपादानम् । इन्द्रियजत्वं च मरीचिषूदकज्ञानस्य तद्भावभावित्वेनावसीयते । मरीच्यालम्बन १ " प्रत्यक्ष - शाब्दो भयविलक्षणत्वं च न प्रमाणान्तर इत्याह" - बृ० टि० । “प्रत्यक्ष - शब्दोभयलक्षणत्वेन प्रमाणान्तरता गौरिति ज्ञानस्य नाभिधेया कुत इत्याह " -ल० टि० । २ भाष्ये तु " यावदर्थं वै नामधेयशब्दाः " - इति पाठोऽस्ति । न्यायवा० ता० टी० पृ० १२५ पं० १४ । ३ " प्रमेयता च तुलाप्रामाण्यवत् ” - न्यायवा० पृ० १९३ । “यथा तुला किल कलयति प्रमाणतां तथा प्रमेयतामपि तुलान्तराश्रयणेन ” बृ० ल० टि० । ४ " सामग्री प्रमाणतापक्षे न केवलम् " - बृ० ल० टि० । ५ अव्यपदेश्य पदस्य शब्दब्रह्मनिवृत्तिपरतां व्याख्यातुकामेन वाचस्पतिमिश्रेण "तत्र नामरहितम विकल्पकं नास्तीति ये विप्रतिपद्यन्ते तन्मतमपाचिकीर्षुरुपन्यस्यति भाष्यकारः" इत्यादिना वैयाकरणीयः शब्दब्रह्मवाद उपन्यस्तः अनन्तरं च सा निवृत्तिपरता " अयमभिसन्धिः-सामानाधिकरण्येन शब्दात्मकत्वं रूपादीनामभिधीयमानं शब्दब्रह्मात्मत्वं वोच्यते श्रूयमाणगौरित्यादिपदभेदात्मत्वं वा" इत्यादिना सविस्तरं दर्शिता - न्यायवा० ता० टी० पृ० १२५ पं० १२ तथा पृ० १२७ पं० ९ । ६-क्षणमुपाआ० हा० वि० । ७- न वाज बृ० विना । ८ " विशेषकम् ” – बृ० ल० टि० । भाष्यादिषु 'अव्यभिचारि' पदस्यैतद् व्यापत्यं दर्शितमस्ति - वात्स्या० भा० पृ० २० पं० २० - । न्यायवा० पृ० ३७ पं० ६ । न्यायवा० ता० टी० पृ० १३० पं० २२-१३२ पं० १४ । न्यायमज० आ० २ पृ० ८८ पं० ७ पृ० ९० पं० ६ ॥ ९ " इन्द्रिय " - बृ० ल० टि० । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । ५२३ स्वमपि तत एवावसीयते मरीचिदेशं प्रति प्रवृत्तेश्च । पूर्वानुभृतोदकविषयत्वे तु तद्देशैव प्रवृत्तिर्भवेन्न मरीचिदेशे । भ्रान्तत्वान्न तद्देशे प्रवर्तत इति चेत् य एवाभ्रान्तः स उदकस्मरणादुदकदेश एव प्रवर्तते अयं तु भ्रान्त इति अयुक्तमेतद् भ्रान्तिनिमित्ताभावात् । इन्द्रियव्यापार एव तन्निमित्त इति चेत् अयुक्तमेतत् तत एवेन्द्रियजत्वसिद्धेः । न च स्मृतिर्वाह्येन्द्रियजा दृष्टा इदं तु वाहन्द्रियजमिति न स्मृतिः । ननु कथमुदकज्ञानस्यालम्वनं मरीचयोऽप्रतिभासमानाः? उक्तमेतत् तेषु सत्सु५ भावादस्य । ननु यद्येतद् अनुदके उदकप्रतिभासं भवत्यन्यत्र किमिति न भवेत् ? न भवत्यन्यस्योदकेन सारूप्याभावात् तस्मादुदकसरूपा मरीचय एव देशकालादिसव्यपेक्षा उदकज्ञानं जनयन्ति । तथाहिसामान्योपक्रमं विशेषपर्यवसानम् इदमुदकम्' इत्येकं ज्ञानं तस्य सामान्यवानर्थः स्मृत्युपस्थापितविशेषापेक्षो जनकः तिरस्कृतखाकारस्थागृहीताकारान्तरस्य सामान्यविशिष्टस्य वस्तुनो विपर्ययजनकत्वे तथाविधस्येन्द्रियेण सम्बन्धोपपत्तेः कथं नेन्द्रियार्थसन्निकर्षजो विपर्ययः? नन्वस्य शब्दसहायेन्द्रियार्थ-१० सन्निकर्पजत्वेन नाव्यभिचारिपदव्यवच्छेद्यत्वम् अव्यपदेश्यपदेनैव निरस्तत्वात्, न प्रथमाक्षसंनिपातजस्य शब्दस्मरणनिमित्तस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षप्रभवस्याशब्दजन्यस्याव्यभिचारिपदापोह्यत्वाभ्युपगमात्। अभ्युपगमनीयं चैतत् अन्यथोदकशब्दस्मृतेरयोगात् “यत्सन्निधाने यो दृष्टस्तदृष्टेस्तद्धनौ स्मृतिः” इति न्यायात् । न च तरङ्गायमाणवस्तुसन्निधाने उदकशब्दस्य दृष्टिः किन्तूदकसन्निधान एव अतो मरु-जङ्गलादौ देशे क्वचिद्दरस्थस्य निदाघसमये तरङ्गायमाणवस्तुनः सामान्य-१५ विशिष्टस्य दर्शनम् तदनन्तरं तत्सहचरितोदकत्वानुस्मरणम् तस्मात् सामान्यवत्ताध्यारोपितोदकग्रहणम् तत उदकशब्दानुस्मृतिः ततोऽप्यनुस्मृतोदकसहायादिन्द्रियार्थसन्निकर्षात् 'उदकम्' इति ज्ञानम् अतो यत् पूर्वमुदकशब्दस्मृतेर्निमित्तं तत् इन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वेनाव्यभिचारिपदापोह्यमिति केचित् संप्रतिपन्नाः। - अपरे तु स्मर्यमाणशब्दसहायेन्द्रियार्थसन्निकर्षजमप्यव्यभिचारिपदापोह्यमेव मरीचिषु 'उदकम्' २० इति शब्दोल्लेखवज्ज्ञानं मन्यन्ते अव्यपदेश्यपदव्यवच्छेद्यं तु यत्र प्रथमतः एवेन्द्रियसनिकृष्टेऽर्थे संकेतानभिज्ञस्य श्रूयमाणाच्छब्दात् 'पनसोऽयम्' इति ज्ञानमुत्पद्यते तत्र शब्दस्यैव तदवगतौ प्राधान्यात् इन्द्रियार्थसन्निकर्षस्य तु विद्यमानस्यापि तवगतावप्राधान्यात् तदेवाव्यपदेश्यपदव्यवच्छेद्यं न पुनरवगतसमयस्मर्यमाणशब्दसचिवेन्द्रियार्थसन्निकर्षप्रभवम् तत्र तत्सन्निकर्षस्यैव प्राधान्याद वाचकस्य च तद्विपर्ययात् । ननु सामग्यां कस्य व्यभिचारः कर्तुः, करणस्य, कर्मणो वा? तत्र २५ स्वाारसंवरणेनाकारान्तरेण ज्ञानजननात् कर्मणो व्यभिचारः कर्तृ-करणयोस्तु तथाविधकर्मसहकारित्वादसाविति मन्यन्ते । भवत्वयं व्यभिचारः न त्वेतन्निवृत्त्यर्थमव्यभिचारिपदोपादानमर्थवत् अनिन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वादेव तन्निवृत्तिसिद्धेः । नहि ज्ञानरूपतेन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वे तत्र सिद्धे तस्माद् यद् अतस्मिंस्तदित्युत्पद्यते तद् व्यभिचारिज्ञानम् तद्व्यवच्छेदेन 'तस्मिंस्तत्' इति ज्ञानमव्यभिचारिपदसंग्राह्यम् । नन्वेवमपि ज्ञानपदमनर्थकम् अव्यभिचारिपदादेव ज्ञानसिद्धेः व्यभिचारित्वं ३० हि ज्ञानस्यैव तद्व्यवच्छेदार्थमव्यभिचारित्वमपि तस्यैवेति ज्ञानपदमनर्थकम् , न; इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नस्याज्ञानरूपस्यापि सुखस्याव्यभिचारात् तन्निवृत्त्यर्थ ज्ञानपदमर्थवत् । किं पुनः सुखं व्यभिचारि? तास्मस्तत्' अव्यभिचारिपना धारित्वमपि १ "तद्भावभावितातः"-वृ. ल. टि० । २ "परः"-बृ. ल. टि.। ३ "परः"-बृ. ल. टि० । ४ "शब्दः"-बृ. ल.टि.। ५ "वस्तु"-बृ. ल.टि.। ६ “जगलो निर्जले देशे” इत्यादि-हैम० अनेका. ३,६४४ । ७-वन्नाध्या-बृ०। ८-कारं सं-आ० हा० वि०। ९ "व्यभिचारः"-बृ० टि.। १० "तथाहिमरीचिकायां जलज्ञानस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षों नास्ति तद्धि जलं परिच्छिनत्ति न च जलं तत्र विद्यते येन खार्थसन्निकर्षः स्यात् तेन तन्निवृत्तयेऽव्यभिचारिपदं न कार्यमिति"-वृ० ल.टि०। ११ “परः"-वृ. ल.टि.। "व्यभिचाराव्यभिचारी हि ज्ञानस्य धर्मो न सुखादेः अतस्तदुपादानात् तद्धर्मयोगि ज्ञानं लभ्यत एव किं ज्ञानग्रहणेन । नैतदेवम् । सुखस्यापि सव्यभिचारस्य दृष्टलात् । किं पुनः सुखं व्यभिचारवद् दृष्टम् ? यदेतत् परदाराभिमर्शादिनिषिद्धाचरणसंभवं सुखं तद् व्यभिचारि । ननु सुखस्य कीदृशो व्यभिचारः ? ज्ञानस्यापि कीदृशो व्यभिचारः? अतस्मिंस्तथाभावः सुखस्यापि अतस्मिंस्तथाभाव एव । किं परपुरन्ध्रिपरिरम्भसंभवं सुखं सुखं न भवति ? किं शुक्तिकायां रजतज्ञानं ज्ञानं न भवति ! ज्ञानं तु तद् भवति किन्तु मिथ्या । इदमपि सुखं भवति किन्तु मिथ्या । ननु न सुख मिथ्या तदपि हि आनन्दस्वभावमेव । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ द्वितीये काण्डे - यत् परयोषिति । ननु कस्तस्य व्यभिचारः ? ज्ञानस्य क इति वाच्यम् ? अतस्मिंस्तदिति भावः स सुखेऽपि समानः । किं पराङ्गनोत्पन्नं सुखं न भवति ? मरीचिषूदकज्ञानं किं न ज्ञानम् ? अथातस्मिंस्तदितिभावाद् ज्ञानत्वेऽपि तद् व्यभिचारि असुखसाधने पराङ्गनादौ सुखस्य भावात् समानं व्यभि चारित्वमिति सुखनिवृत्त्यर्थ ज्ञानपदमर्थवत् । एतच्च केचिद् दूषयन्ति नहि तापादिखभावं पराङ्गनायां ५ सुखमुत्पद्यते अपि त्वाल्हादस्वरूपम् यथा खललनायाम् सुखसाधनत्वादेव चासक्तिहेतुत्वादधर्मोत्पादकत्वेन तस्या भाविनि काले दुःखसाधनत्वम् । न च यस्यैकदा दुःखजनकत्वं तस्य सर्वदा तद्रूपत्वमेव अन्यथा पावकस्य निदाघसमये दुःखजनकत्वांच्छिशिरेऽपि तजनकत्वमेव स्यात् एवं देशाद्यपेक्षयापि न नियतरूपता भावानाम् । उक्तं च भाष्यकृता - "सोऽयं प्रमाणार्थोऽपरिसङ्ख्येयः” [ वात्स्या० भा० पृ० १ पं० १२ ] इति । ततो व्यभिचाराभावान्न सुखनिवृत्त्या ज्ञानपदोपादानमर्थ - १० वत् । न चैवमनर्थकमेवैतत् धर्मिप्रतिपादनार्थत्वादस्य ज्ञानैपदोपात्तो हि धर्मी इन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वादिभिर्विशेष्यते अन्यथा धर्म्यभावे वाऽव्यभिचारादीन् धर्मास्तत्पदानि प्रतिपादयेयुः ? न च विशेषणसामर्थ्याद्धर्मिणः प्रतिलम्भ इति वक्तव्यम् तथाभ्युपगमे 'प्रत्यक्षं प्रत्यक्षम्' इत्येव वक्तव्यं शेषस्य सामर्थ्यलभ्यत्वात् । यथोक्तविशेषणविशिष्टं संशयज्ञानं भवति 'व्यभिचारिप्रतियोगि अव्यभिचारि' इति कृत्वा न चैतत् प्रत्यक्षव्यवच्छेदकम् न चास्येन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वं नास्ति तद्भावितया १५ तज्जन्यत्वस्य तंत्र सिद्धेः अतस्तद्व्यवच्छेदार्थ व्यवसायात्मकपदोपादनम् । व्यवसीयते अनेनेति व्यवसायो विशेष उच्यते विशेषजनितं व्यवसायात्मकम् संशयज्ञानं तु सामान्यजनितत्वान्नैवम् अथवा निश्चयात्मकं व्यवसायात्मकम् संशयज्ञानं त्वनिश्चयात्मकम् अत एव विपर्ययाद् भिन्नम् व्यवस्यति व्यवसायः अन्यपदार्थव्यवच्छेदेनैक पदार्थालम्बनत्वमस्य तद्विपरीतस्तु संशयः । [ निर्विकल्पकस्यैव प्रत्यक्षत्वमामनतां सौगतानां नैयायिकसम्मते विकल्पप्रामाण्ये प्रतिक्षेपः ] २० ननु च विकल्परूपत्वान्न व्यवसायात्मकस्येन्द्रियार्थजत्वम् कथमस्य प्रत्यक्षफलता ? न च व्यवसायात्मकस्याप्यध्यक्षता जैनमतानुसारेण व्यवस्थापनीया तेनानै (ने) कान्तात्मकस्य वस्तुनोऽङ्गीकृतत्वात् भवतस्त्वेकान्तवादिनस्तद्युक्तितः तद्व्यवस्थापनासंभवात् । कुतः पुनर्विकल्पस्यानर्थजत्वम् ? शब्दार्थ प्रतिभासस्वभावत्वात् । नहि विकल्पोऽर्थ सामर्थ्यापेक्षः समुपजायते निर्विकल्पकं त्वर्थसन्नि धानापेक्षं तत्सामर्थ्यसमुद्भूतत्वात् प्रत्यक्षं प्रमाणम् । तदुक्तम् - "यो ज्ञानप्रतिभासमन्वयव्यतिरेकावनु२५ कारयति” [ ] इत्यादि । अथ शब्दार्थः तिभासित्वेऽपि किमिति विकल्पानां नार्थत्वम् ? रूपादेरर्थस्य स्वलक्षणत्वेन व्यावृत्तरूपत्वात् शब्दार्थत्वानुपपत्तेः विकल्पप्रतिर्भास्याकारस्य तु तद्व्यतिरिक्तस्यार्थत्वानुपपत्तेः सदसद्रूपस्य नित्यत्व सत्त्वाभ्यां तस्य ज्ञानजनकत्वनिषेधत् अनुगतस्य चाशब्दार्थत्वात् स्वलक्षणस्य च सर्वतो व्यावृत्ततयाऽनुगतत्वासंभवादनर्थजा विकल्पाः । यद्येवं शुक्तिकायां रजतज्ञानमपि न मिथ्या तदपि विषयानुभवखभावमेव । ननु विषयानुभवस्वभावमपि तद् ज्ञानं विषयं व्यभिचरति । सुखमपि तर्हि इदमानन्दखभावमपि विषयं व्यभिचरत्येव । किमसुखसाधनेन तद् जनितम् ? ज्ञानमपि किमज्ञानसाधनेन जनितम् ? ननु ज्ञानं ज्ञानसाधनेन जनितमसत्येन प्रत्यक्षबाधितेन रजतादिना । सुखमपि सुखसाधनेन जनितमसत्येन तु शास्त्रबाधितेन परवनितादिना । किं परवनितादि न सत्यम् ? तत्रापि ज्ञानजनकं सत्यम् असत्यं प्रत्यक्षबाधितत्वात् । परवनिताद्यपि सुखसाधनमसत्यं शास्त्रबाधितत्वात् । ननु शास्त्रेण किमत्र बाध्यते ? ज्ञानेऽपि प्रत्यक्षेण किं बाध्यते ? विषयो मिथ्येति ख्याप्यते । शास्त्रेणापि सुखस्य हेतुर्मिथ्येति ख्याप्यते । किं स विषयः सुखहेतुर्न भवति ? यथा त्वेष विषयः कलुषस्य ज्ञानस्य हेतुस्तथा सोऽपि कलुषस्य कटुविपाकस्य सुखस्य हेतुरिति तथाविधं सुखमपि व्यभिचारि भवत्येवेति अलमतिकेलिना ” न्यायमञ्ज० आ० २ पृ० ७६ पं० १८ १- त्वाच्छशि-ल० वा० बा० । २-नपदोपपत्तो हि बृ० ३ " संशये " - बृ० टि० । “ संशय " -ल० टि० । ४ वात्स्या० भा० पृ० न्यायवा० ता० टी० पृ० १४४ पं० ३। न्यायमज० आ० २ पृ० ९० पं० ७ । ५-त्मकमसंश-आ० हा ० वि० । ६ " ' ननु च' इत्यादेरुत्तरं कुत इत्यादिना निगदति" - बृ० टि० । ९- नकत्वानि -आ० हा ० वि० । हेतुता निरुपाख्यत्वात् " - बृ० टि० । १० “यत् सत् तत् तावत् परेण ।-नपदोत्पत्तौ हि ल० वा० बा० । २१ पं० ५ । न्यायवा० पृ० ३७ पं० १६ । ७" परः " बृ० टि० । ८-भासस्या -ल० । नित्यमिष्टम् नित्यस्य च हेतुता नास्ति असतोऽपि न Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५२५ इतोऽप्यक्षार्थजा न भवन्ति अक्षार्थसन्निपातवेलायां प्रथमत एव तेषामनुभृतेः यदि हि तदुद्भवास्ते स्युः स्मृतिमन्तरेणानुभवत उत्पद्येरन् । न चार्थोपयोगेऽपि तामन्तरेण उत्पद्यन्ते । तदुक्तम् "अर्थोपयोगेऽपि पुनः स्मार्त शब्दानुयोजनम् । अक्षधीयद्यपेक्षेत सोऽर्थो व्यवहितो भवेत्"॥ [ यो हि यजन्यः स तदापात एव भवत्यविकल्पवत् न भवन्ति च तदापातसमये विकल्पा इति नार्थ-५ जन्यत्वं तेषां स्मृतिव्यवहितत्वात् । न चार्थस्य स्मृत्याऽव्यवधानं तस्यास्तत्सहकारित्वादिति वाच्यम् यतो यद्यर्थस्य ज्ञानजनकत्वं तदा तजनने किमित्यसौ स्मृत्यपेक्षः? न च तया विना ज्ञानस्योत्पत्तिस्तन्नार्थस्तजनकः । न च तदपेक्षस्य तस्य तजनकत्वं तस्यास्तत्र व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्तोपकारजनकत्वेनाकिञ्चित्करत्वात् । तदुक्तम् "यः प्रागजनको बुद्धरुपयोगाविशेषतः । स पश्चादपि तेन स्यादपायेऽपि नेत्रधीः" ॥[ अपि च, जात्यादिविशेषणविशिष्टार्थग्राहिविकल्पज्ञानम् न च जात्यादीनां सद्भावः तत्त्वेऽपि तद्विशिष्टग्रहणं बहुप्रयाससाध्यमध्यक्षं न भवति । उक्तं च "विशेषणं विशेष्यं च सम्वन्धं लौकिकी स्थितिम । गृहीत्वा संकलय्यैतत् तथा प्रत्येति नान्यों" ॥ [ "संकेतस्मरणोपायं दृष्टसङ्कलनात्मकम् । पूर्वापरपरामर्शशून्ये तच्चाक्षुषे कथम् "॥ [ ] इति। अतोऽर्थसन्निधानाभावेऽपि भावान्नार्थप्रभवा विकल्पाः। अथ मा भूवन राज्यादिविकल्पा अर्थप्रभवाः इदंताविकल्पास्त्वर्थमन्तरेणानुद्भवन्तः कथं नार्थप्रभवाः? तदुक्तम्-"नान्यथेदंतया" [ ] इति चेत्, न; इदंताविकल्पानामपि वस्तुप्रतिभासित्वासंभवात् न हि शब्दसंसर्गयोग्यार्थप्रतिभासिनो२० विकल्पा वस्तुनिश्चायका अन्यथा शब्दप्रत्ययस्याध्यक्षप्रतीतितुल्यता भवेत् । उक्तं च "शब्देनाव्यापृताक्षस्य वुद्धावप्रतिभासनात् । अर्थस्य दृष्टाविव तदनिर्देशस्य वेदकम्" ॥ [ पदकम् ॥ [ ] इति । तन्नार्थाक्षप्रभवत्वं व्यवसायस्येति प्रत्यक्षत्वमयुक्तम् । [नैयायिकैः सौगताक्षेपस्य प्रतिविधानम् ] अत्र नैयायिकाः प्रतिविदधति-किमिदं विकल्पत्वं परस्याभिप्रेतम् ? किं शब्दसंसर्गयोग्यवस्तुप्रतिभासित्वम्, आहोस्विदविद्यमानार्थग्राहित्वम्, किं विशेषणविशिष्टार्थावभासित्वम्, उताकारान्तरानुषक्तवस्त्ववभासकत्वम् ? तत्र यद्याद्यः पक्षस्तदा वक्तव्यम् किमिदं शब्दसंसर्गयोग्यार्थप्रतिभासित्वं विकल्पत्वं पारिभाषिकम् उत वास्तवम् ? यदि पारिभाषिकम् तदा न युक्तम् परिभाषाया १ अटस• पृ० १२२ पं० २। तत्त्वोप० लि. पृ. ५१ पं० १२। सिद्धिवि० टी० लि. पृ. ७६ पं० १८ ॥ न्यायवा० ता० टी० पृ० १३६ पं० २१ । न्यायमज. आ० २ पृ० ९२ पं० २३ । २ अष्टस० पृ० १२२ पं० १० । तत्त्वोप० लि. पृ० ५१५०९। सिद्धिवि० टी० लि. पृ. ३५ पं० ११। न्यायवा. ता. टी. पृ० १३७ पं० १। न्यायमञ्ज. आ० २ पृ. ९२पं० १९ । ___ तात्पर्यटीकायां तु-"दक्षापायेऽपि नेत्रधीः" इति पाठमाश्रित्य "अन्धानामपि रूपसाक्षात्कारप्रसङ्गः" इति भावो वार्णितो दृश्यते। ३ “सद्भावेऽपि"-बृ. ल.टि.। ४ सिद्धिवि.टी.लि. पृ. ३१५० १। न्यायवा. ता. टी.पृ. १३७ पं०९। न्यायमञ्ज. आ० २ पृ. ९३ पं०३ । पृ० ५१५५० १ टि. १। ५ "दृष्टसङ्कल्पनात्मकम् । पूर्वापरपरामर्शशून्यं तच्चाक्षुषं कथम्-"न्यायमञ्ज. आ० २ पृ० ९३ पं०७। पृ० ५१५५० ५। ६ "तत्रैतत् स्यात् । द्विविधा विकल्पाः छात्रमनोरथविरचिताः इदन्ताग्राहिणश्च नीलमित्यादयः तत्र पूर्वे मा भूवन् प्रमाणं कस्तेष्वर्थनिरपेक्षजन्मसु प्रामाण्येऽभिनिवेशः । इदन्ताग्राहिणां वर्थाविनाभूतत्वात् कथं न प्रामाण्यमिति”-न्यायमज. आ. २ पृ. ९३ पं०९। ७ पृ. २६.५० १७ टि. ११ । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे अत्रानवतारात् । अथ वास्तवम् तदपि न, प्रमाणाभावात् । भवतु वा तस्य तद्रूपत्वं तथापि कथमनध्यक्षत्वम् ? अथार्थसामोद्भूतत्वात् तस्येत्युक्तम् विकल्पानां च तदसंभवान्नाध्यक्षता; ननु नीलादिज्ञानवच्छब्दार्थप्रतिभासित्वेऽपि कथं नार्थप्रभवत्वं तेषाम् ? स्वलक्षणातिरिक्तशब्दार्थस्याभावान तत्प्रभवत्वं तेषामिति चेत् । नन्वेवमसदर्थग्राहित्वं कल्पनात्वं प्रसक्तम् तच्च सामान्यादेः सत्त्वप्रति५पादनान्निरस्तम जातिविशिष्टस्यार्थस्य शब्दार्थत्वेन प्रतिपादनात् तदवभासिनो ज्ञानस्य कथमसदर्थविषयत्वेन कल्पनात्वं भवेत् ? न चार्थाभावेऽपि विकल्पानामुत्पत्तेर्नार्थजत्वम् अविकल्पस्याप्यर्थाभावेऽपि भावादनर्थजत्वप्रसक्तेः । अथ तदध्यक्षं प्रमाणमेव नाभ्युपगम्यते तर्हि विकल्पानामप्ययं न्यायः समानः तेऽप्यसदर्था अध्यक्षप्रमाणतया नाभ्युपगम्यन्ते असदर्थत्वं च विकल्पाविकल्पयोर्वाधकप्रमाणावसेयम् तच्च यत्र न प्रवर्तते तस्य कथमसदर्थता? एतेन द्वितीयो विकल्पः प्रति१० विहितः। अथ विशेषणविशिष्टार्थग्राहित्वं कल्पनात्वम् तदा किं तथाभूतार्थाभावात् तद्ब्राहिणो ज्ञानस्य विकल्पकत्वम्, आहोस्विद् विशेषणविशिष्टार्थग्राहित्वेनैवेति वक्तव्यम् आद्यविकल्पे सिद्धसाध्यता असदर्थग्राहिणः प्रत्यक्षप्रमाणत्वेनानभ्युपगमात् । न च द्वितीयपक्षादस्य पक्षान्तरत्वम् द्वितीयपक्षस्य च प्रतिविधानं विहितमेव । अथ द्वितीयः पक्षोऽभ्युपगम्यते सोऽपि न युक्तः नीलादिज्ञानस्यापि अप्रत्य क्षत्वप्रसक्तेः। अथास्य न विशेषणविशिष्टार्थग्राहिता, ननु विशेषणविशिष्टार्थग्राहकत्वेनाध्यक्षत्वस्य को १५विरोधो येन तद्राहिणोऽध्यवसायस्यानध्यक्षता? अथ विशेषणविशिष्टार्थग्राहित्वे विचारकत्वमध्यक्षविरुद्धम् अर्थसामोद्भूतस्य विचारकत्वायोगात्, असदेतत् ; विशेषणविशिष्टार्थावभासिनस्तस्याविकल्पवत् विचारकत्वायोगात् स्मरणाद्यनुसंवंधान( संधान )समर्थस्य प्रमातुरेव विचारकत्वात् कथं विशेषणग्रहणादिसामग्रीप्रभवस्य तस्याप्रत्यक्षता? विशिष्टसामग्रीप्रभवस्यास्याप्रत्यक्षत्वे चक्षरूपा लोकमनस्कारसापेक्षस्याविकल्पस्याप्रत्यक्षताप्रसक्तिःनच विशेषणादिसामग्र्यनपेक्षत्वादस्य प्रत्यक्षता २० प्रतिनियतस्वसामय्यपेक्षस्य विशेषणविशिष्टार्थावभासिनोऽपि प्रत्यक्षत्वाविरोधात् अन्यथा रूपज्ञान स्यालोकाद्यपेक्षस्याध्यक्षत्वे रसज्ञानं सामग्र्यन्तरसापेक्षमनध्यक्षं स्यात् विभिन्नस्वभावसामग्रीसापेक्षत्वात् । न च विशेषणविशिष्टार्थग्रहणे विशेषणविशेष्यसम्बन्धलौकिकस्थितीनां परामर्शः यतो विशेषणविशेष्यतत्सम्बन्धानां न स्वतन्त्राणां विशिष्टार्थग्रहणात् प्रागवभासः अपि तु चक्षुरादिव्यापारे स्वतन्त्र नीलग्रहणवत् विशेषणविशिष्टार्थग्रहणं सकृदेव; केवलं तत्र 'त्रयम्' इति प्रतिभासो विशिष्टार्थग्रहण२५स्यान्यथाऽसम्भवात् कथ्यते । न च यथावस्थितवस्तुग्रहणं कल्पना अतीतादिग्रहणवत् । न च जात्यादित्रयस्याभिन्नस्य भेदाध्यवसायः दण्ड-शब्दयोर्भिन्नयोरभेदाध्यवसायो वा कल्पनाद्वयस्याप्यसंभवात् । तथाहि-न जात्यादित्रयस्य वस्तुनोऽव्यतिरेकादसत्त्वाद्वाऽभेदे भेदाध्यवसायः द्वयोरप्यनुपपत्तेः न हि जात्यादेरभेदे असत्त्वे वा तद्व्यवच्छिन्नवस्तुग्रहणसंभवः असतोऽभिन्नस्य वा अवच्छेद कत्वानुपपत्तेः । न च तत्प्रतिभासेऽपि प्रतिभासविषयस्य द्विचन्द्रादेरिव प्रमाणबाधितत्वात तत्प्रति३० भासोऽप्रमाणम् यतो न द्विचन्द्रादेरिव जात्यादेः किञ्चिद् वाधकम् वृत्तिविकल्पादेस्तद्वाधकस्य निषेधात् । तन्न जात्यादित्रयस्याभिन्नस्य भेदप्रतिभांसः कल्पना । नापि दण्ड-शब्दयोरभेदाध्यवसायः यदि तत्राभेदप्रतिपत्तिस्तदैकप्रतिभासेऽवच्छेदकावच्छेद्यभावेन ग्रहणं न भवेत् किं हि तदपेक्ष्याव: च्छेदकमवच्छेद्यं वा अर्थान्तरापेक्षत्वात् तयोः । तथाहि-दण्डस्य दण्डिनं प्रति व्यवच्छेदकत्वेन प्रतिभासो नैकत्वेन एवं वाचकस्याऽपि वाच्यप्रतिपत्तौ द्रष्टव्यम् । वाचकावच्छिन्नवाच्यप्रतिभासा३५ भ्युपगमवादिनामेतन्मतम् येषां तु तटस्थ एव वाचकः वाच्यप्रतिपत्तौ वाचकत्वेन प्रतिभातीति मतं तेपाममेदाध्यवसायो दुरापास्त एव । अपि च, एवंवादिना तिरस्कृतस्वाकारस्याकारान्तरानुपक्तस्यार्थस्य ग्रहणं कल्पनेति चतुर्थपक्ष एवाभ्युपगतो भवेत् । न चायमभ्युपगमः सौगतानां युक्तः स्वसिद्धान्तविरोधात् । तथाहि-अविकल्पकमेतद्विज्ञानं भ्रान्तमध्यक्षाभासमभ्रान्तपदव्यवच्छेद्यं सौगतसमये प्रसिद्धम् । तथा च १ "प्रत्यक्षस्य"-वृ० ल० टि०। २ पृ० ५२५ पं० २७। ३ प्र० पृ. पं० ११। ४-ग्राहित्वे-आ० । ५-तस्य तस्य वि-ल. भा. मां०। ६-हणवि-भां. मां। "वैधर्म्य-"बृ. ल. टि.। -यव-बृ. आ. हा. वि.। ९"विशिष्ट-"बृ० ल. टि.। १०-भासक-आ० हा० वि०। ११-पि पिण्ड-ल.। १२-स्तदेक-वा० बा० भां. मा. विना। १३ तदापे-बृ. आ. हा०वि०। १४-पेक्षाव-आ. हा• वि.। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५२७ "भ्रान्तिसंवृतिसंज्ञानमनुमानानुमानिकम् । स्मार्ताभिलाषिकं चेति प्रत्यक्षाभं सतैमिरम्" ॥[ इत्यत्र 'स्मार्ताभिलाषिकं चेति' इति' शब्दपरिसमापिताद् विकल्पवर्गात् पृथक् 'सतैमिरम्' इत्यनेनाविकल्पस्यैवंजातीयकस्य प्रत्यक्षाभासत्वं प्रतिपादितम् । कल्पनात्वे वास्याऽभ्रान्तपदोपादानमेतद्यवच्छेदार्थ प्रत्यक्षलक्षणे न युक्तियुक्तं स्यात् । तन्न चतुर्थपक्षाभ्युपगमोऽपि न्यायोपपन्न इति नार्थ-५ सामर्थ्यानुद्भूतत्वादप्रत्यक्षता विकल्पानाम् । यच्च 'अर्थोपयोगेऽपि' इत्यादिदूषणमक्षजत्वे तेषां प्रतिपादितम् तदप्यसङ्गतम् । यतो यथा निर्विकल्पोत्पादकसामग्र्यन्तर्भूताश्चक्षुरादयः सहकारिणोऽन्योन्यसव्यपेक्षा अपि कार्योत्पादनेनैव परस्परतो व्यवधीयन्ते-तजननस्वभावत्वात् तेषां-तथा सविकल्पोत्पादका अपि । न चान्त्यावस्थाप्राप्तं निर्विकल्पोत्पादकं चक्षुरादिकमन्यनिरपेक्षमेव स्वकार्यनिर्वर्तकमन्यसन्निधिस्तु तत्र स्वहेतुनिबन्धनो नोपालम्भविषय इति वक्तव्यम् “न वै किञ्चिदेकं १० जनकम्" [ ] इत्यादेर्विरोधप्रसक्तेः । अतश्चक्षुरादिवन्न स्मृत्याऽर्थस्य व्यवधानम् । न च क्षणिकत्वात् स्मृतिकाले अर्थस्यातीतत्वात् तया तस्य व्यवधानं क्षणिकत्वस्यास्मान् प्रत्यसिद्धत्वात् स्फटिकसूत्रे निराकरिष्यमाणत्वाच्च । यदपि अर्थस्य स्मृतिसापेक्षत्वे दृषणमभ्यधायि-'यः प्रागजनक'-इादि, तदप्यसङ्गतम् : उपयोगाविशेषस्यासिद्धत्वात् । तथाहि-भावानां द्विविधा शक्तिः प्रतिनियतकार्यजनने एका स्वरूपशक्तिरपरा सहकारिस्वभावा । तत्र प्राक्स्मरणात् स्वरूपशक्तिः१५ केवला न कार्य जनयति, यदा तु समासादितसहकारिशक्तिः खरूपशक्तिर्भवति तदा कार्यमाविर्भावयत्येव । न च स्वरूपशक्तेः सहकारिशक्त्या व्यतिरिक्तोऽव्यतिरिक्तो वा कश्चिदुपकारः क्रियते किन्तु संभूय ताभ्यामेकं कार्य निष्पाद्यते । तथाहि-अन्त्यावस्थाप्राप्तक्षणवत् सहकर्तृत्वमेव सर्वत्र सहकारार्थो न त्वतिशयाधानमिति क्षणभङ्गभङ्गे विस्तरेण प्रतिपादयिष्यते । यदपि 'विशेषणं विशेष्यं च' इत्यादि दूषणमभिहितम् तथा, 'सङ्केतस्मरणोपायम्' इत्यादि च तदपि प्रागेव निरस्तम् ।२० यदपि 'विकल्पाध्यक्षयोरेकविषयत्वे प्रतिभासभेदो न स्यात् दृश्यते च तदुक्तम्-'शब्देनाव्यापृताक्षस्य' इत्यादि तदप्यसङ्गतम्। शब्दाक्षप्रभवप्रतिपत्त्योर्विपयभेदस्य प्रसाधितत्वात् । शब्दजप्रतिपत्ती शब्दावेच्छेदेन वाच्यस्य कैश्चित् प्रतिभासोपगमात् कारणभेदादेकविषयत्वेऽपि प्रतिभासभेदस्य च कैश्चिदभ्युपगमान्नैकान्तेन तयोभिन्नविषयता । तन्न व्यवसायात्मकं विकल्परूपत्वादनक्षार्थजम् । व्यवसायस्य ज्ञानरूपत्वाद् ज्ञानग्रहणं न कार्यमिति चेत्, न; धर्मि निर्देशार्थ ज्ञानपदोपादानस्य २५ दर्शितत्वात् । व्यवसायात्मकग्रहणं तु धर्मनिर्देशार्थमिति न पुनरुक्तम् । [ केषांचित् न्यायसूत्रीयप्रत्यक्षलक्षणे प्रतिक्षेपः ] ननु फल-स्वरूप-सामग्रीविशेषणत्वेनासंभवान्नेदं लक्षणम् । तथाहि-प्रत्यक्षफलविशेषणत्वे इन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वादिषु ज्ञान-प्रत्यक्षशब्दयोः सामानाधिकरण्यानुपपत्तिः फलप्रमाणाभिधाय कत्वेन; ज्ञानं हि फलं प्रत्यक्षं तत्साधकतमत्वात् प्रमाणमिति कथं तयोः सामानाधिकरण्यम् ? न च ३० एवंभूतं फलं यतस्तत् प्रत्यक्षम् , 'यतः' इत्यस्याश्रुतत्वात् । तन्न फलविशेषणपक्षः। अथैतद्दोपपरिजिहीर्षया स्वरूपविशेषणपक्षः समाश्रीयते सोऽप्ययुक्तः एतद्विशेषणविशिष्टस्य प्रत्यक्ष निर्णयस्याकारकस्य प्रत्यक्षत्वप्रसक्तेः, न चाकारकस्यासाधकतमत्वात् प्रत्यक्षत्वं युक्तम् । अथ कारकत्वं विशेषणमुपादीयते तथापि संस्कारजनके प्रसङ्गः। अथैवंविशिष्टमुपलब्धिसाधनं यत् तत् प्रत्यक्षम् । नन्वेवमप्यश्रुतपरिकल्पनाप्रसक्तिः । सामान्यलक्षणानुवादवारेण विशेषलक्षणविधानान्ना-३५ श्रुतकल्पनेति चेत्, न; एवमपि द्वितीयलिङ्गदर्शनेऽविनाभावस्मृतिजनके गोत्ववदर्थदर्शने च सङ्केत १-क्षाभासित्वं वा० बा० ।-क्षावभासित्वं भां० मां०। २ "कल्पनापोढपदेनैव व्यवच्छिन्नत्वात्"-बृ० ल.टि.। ३ पृ. ५२५ पं० ३। ४ पृ० १२ पं० ५। ५ स्फुटि-वा० बा० भां. मां० विना । “स्फटिकेऽप्यपरापरोत्पत्तेः क्षणिकत्वाद् व्यक्तीनामहेतुः"-न्यायद०३-२-१०। ६ पृ० ५२५ पं० १०। ७ पृ. ५२५ पं० १४ । ८ पृ० ५२५ पं० १६। ९ "शब्दविशिष्टतया"-बृ. ल.टि.। १०-त् कर-वा. बा. भा. मां० विना । ११ पृ. ५२४ पं० १०। १२ "ज्ञान"-बृ. ल. टि.। १३ “प्राप्नोति खरूपविशेषणपक्षे"-बृ. ल. टि.। १४ “स हि संस्कार जनयन् कारक एवेति प्राप्नोति अस्य प्रत्यक्षता"-बृ० ल• टि। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ द्वितीये काण्डेस्मृतिजनके प्रसङ्गः। तन्निवृत्त्यर्थमर्थोपलब्धिजनकत्वाध्याहारे विपर्ययज्ञानजनके प्रसङ्गः। विपर्ययशानं हि सारूप्यज्ञानादुपजायते यथोक्तविशेषणविशेषितात् तस्य चार्थोपलब्धित्वमिन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वप्रतिपादनात् सूत्रकारस्याभीष्टमेव । अथ तव्यावृत्तये अव्यभिचारिविशिष्टोपलब्धिजनकत्वाध्याहारस्तथापि संशयज्ञानजनके प्रत्यक्षत्वप्रसक्तिः । अथ तन्निवृत्तये व्यवसायात्मकार्थोपलब्धि५ जनकत्वाध्याहारस्तथाप्यनुमाने प्रसङ्गः यस्मात् प्राक् प्रतिपादिताशेषविशेषणाध्यासितं विशिष्टोपलब्धिजनकं च परामर्शज्ञानमध्ययनादिभिरभ्युपगम्यत इति तस्यानुमितिफलजनकस्याध्यक्षताप्रसक्तिः । अथेन्द्रियार्थसन्निकर्पजोपलब्धिजनकस्येत्यध्याहारस्तथाप्युभयजज्ञानजनकस्य प्रत्यक्षताप्रसक्तिः यस्मादिन्द्रियजखरूपज्ञानात् केनचिद 'देवदत्तोऽयम्' इति शब्द उच्चारिते इन्द्रियशब्द व्यापाराद् 'देवदत्तोऽयम्' इति सङ्केतग्रहणसमये ज्ञानमुत्पद्यते यथोक्तविशेषणविशिष्टमिति तज्जन१० कस्य स्वरूपज्ञानस्य प्रत्यक्षताप्रसक्तिः । तन्निवृत्त्यर्थमव्यपदेशपदाध्याहार इति चेत् तहश्रुतस्य द्वितीयसूत्रस्य कल्पनाप्रसक्तिः । सत्यामप्यश्रुतसूत्रकल्पनायामव्याप्त्यतिव्याप्त्योरनिवृत्तिः तुलासुवर्णादीनामबोधरूपाणामप्रत्यक्षत्वप्राप्तेः सन्निकर्षेन्द्रियादीनां च । न च सन्निकर्षस्य प्रामाण्यं सूत्रकृता नेष्टं “सन्निकर्षविशेषात् तद्ब्रहणम्" [ ] इति वचनात् ग्रहणहेतोश्च प्रामाण्यम् । न च कर्म-कर्तृरूपता तैस्येति कर्म-कर्तृविलक्षणस्य ज्ञानजनकत्वात् कथं न तस्य १५प्रामाण्यम् ? एवमिन्द्रियाणामपि प्रमाणत्वं सूत्रकृतोऽभिमतम् “इन्द्रियाणि अतीन्द्रियाणि स्वविषयग्रहणलक्षणानि" [ ] इति वचनात् । न च प्रमाणसहकारित्वात् तेषां प्रमाणत्वम् अन्यस्येन्द्रियात् प्रागुपग्राहकस्योपग्राहिणोऽभावात् भावेऽप्यज्ञानरूपत्वात् तस्य न प्रमाणता भवेदित्यव्याप्तिस्तदवस्थैव । प्रदीपादीनां चाज्ञानात्मकत्वेऽपि प्रमाणत्वं प्रसिद्ध लोके तथा सुवर्णादेः-"प्रमेया च तुलाप्रामाण्यवत्" [ न्यायद० २-१-१६] इति-प्रामाण्यं प्रतिपादितं सूत्रकृता । सूत्रस्य चार्थः२० यथा सुवर्णादि परिच्छिद्यते तदा तुला प्रमाणम् प्रमाणं चानुमानमागमपूर्वकम् दशपलादिज्ञानस्यानिन्द्रियार्थसन्निकर्षपूर्वकत्वात् तदभावश्च वस्त्रादिव्यवहितेऽपि भावात् तथा प्रमेयं च यदा सुवर्णादिना तुलान्तरंमितेनानुमीयते तदा सुवर्णादिद्रव्यं प्रत्यक्ष प्रमाणमिन्द्रियार्थसन्निकर्षजज्ञानजनकत्वात् इन्द्रियार्थसन्निकर्षजं च पञ्चपलरेखादिज्ञानं तद्भावभावित्वात् अत इन्द्रियादिसहकारि तत् सुवर्णादि पञ्चपलरेखादिज्ञानमुत्पादयत् प्रत्यक्षं प्रमाणम् । सुवर्णवदिन्द्रियार्थजज्ञानमुत्पादयन्तः सर्व एव भावा: २५प्रत्यक्षप्रमाणतामाबिभ्रति । स्मृति-संशय-विपर्ययादीनां चेन्द्रियार्थसन्निकर्षेण सह व्यापारे विशिष्ट फलजनकत्वेन प्रत्यक्षतोपेयते। तथाहि-संशय-विपर्यययोरपि बाह्य विषये स्वालम्बने स्वावच्छेदकत्वेनेन्द्रियार्थसन्निकर्षेण सह व्यापारादात्मप्रत्यक्षवादिनां चात्मनो विशेषणत्वेन विशिष्टप्रतीतिजनकत्वेन प्रत्यक्षत्वात् । न च तयोः सूत्रोपात्तविशेषणयोगिता सन्दिग्धविपर्ययस्वभावत्वात् । अतिव्याप्तिरपि यदेन्द्रियार्थसन्निकर्षाल्लिङ्गाद गतिमदिन्द्रियं प्रतिपद्यते तदा सकलसूत्रोपात्तविशेषणयोगात् सन्नि३० कर्षलक्षणलिङ्गालम्बनस्य ज्ञानस्य तथाविधफलजनकस्य प्रत्यक्षताप्रसङ्गात् । एतच्च 'इन्द्रियस्यार्थ' इति समासोश्रयणे दूषणं द्रष्टव्यमिति स्वरूपविशेषणपक्षे अनेकदोषापत्तिः। अथ ज्ञानप्रामाण्यवादिभिर्निर्णयस्य प्रामाण्यमिष्यत एवेति नानिष्टप्रेरणावकाशः । तथाहितत्सद्भावे विषयोधिगतिरिति लोकस्याभिमानः यच्च तथाविधविषयाधिगमे करणं तत् प्रमाणम् । निर्णये च सति तदधिगतिरिति स एव प्रमाणम् अत एव नाश्रुतसूत्रान्तरकल्पनादोषानुषङ्गोऽपि, ३५ नैतत् सारम् । यतो निर्णये सति योऽयं विषयाधिगत्यभिमानः स किं साधकतमत्वान्निर्णयस्य उत १"विपर्ययज्ञानस्य"-बृ. ल.टि.। २ “अनुमानजनके प्रसङ्ग इत्यर्थः"-बृ. ल.टि.। ३ "सन्निकर्षस्य"-बृ० ल. टि.। ४ “यदि हि इन्द्रियात् प्राक् किञ्चिदन्यदपि भवेत् तदा इन्द्रियं तस्य सहकारि कुर्यात् । न च किञ्चित् प्रसिद्धं तदा तदुपग्राह्यस्याभावात्"-बृ. ल. टि.। ५ "गुरुवपरिमाणज्ञानसाधनं तुला प्रमाणम् ज्ञानविषयो गुरुद्रव्यं सुवर्णादि प्रमेयम् । यदा सुवर्णादिना तुलान्तरं व्यवस्थाप्यते तदा तुलान्तरप्रतिपत्तौ सुवर्णादि प्रमाणम् तुलान्तरं प्रमेयमिति" इत्यादि-वात्स्या. भा० पृ. ११३ पं०८-११ । न्यायवा० पृ. १९३ पं०८-११॥ न्यायवा. ता० टी० पृ. ३६४ पं० २२-पृ. ३६५५०८।६-त् यथा भां. मां०। ७"तुला"-बृ० ल.टि.। ८ यथा सु-भां• मां०। ९-रमेतेना-बृ० सं० । १० "तुलायास्तु प्रमेयलम्"-बृ. ल.टि.। ११-त्वादित इ-वा० बा०। १२-सानाश्रय-बृ० ल. विना। १३-यावग-बृ०। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ५२९ विषयाधिगतिखभावत्वादिति सन्देहः विशेषहेत्वभावात् साधकतमत्वे च सिद्धे तत्प्रामाण्यावगतिः। अथ विषयाधिगतिस्वभावत्वेनैव निर्णयस्य विषयाधिगत्यभिमानो न साधकतमत्वेनेति भवतोऽपि विशेषहेत्वभावः, न; अबोधस्वभावानामप्यर्थोपलम्भनिमित्तानां भावे विषयाधिगतिसिद्धेः तथा च 'धमाज ज्ञातोऽग्निः' इति व्यपदिशंल्लोक उपलभ्यते नाग्निज्ञानादिति एवं चक्षुषः प्रदीपादेश्चान्धकारे विषयाधिगतिनिमित्तताव्यपदेशो लोकप्रसिद्ध इति परिच्छेदेऽबोधस्वभावस्य तजनकस्य साधकतम-५ त्वान्नार्थज्ञानस्य प्रमाणता । अथापि स्यात् साधकतमज्ञानजनकत्वेनापि धूमादीनां तोव्यपदेशः संभवीति न तेषां ततः साधकतमत्वसिद्धिः तथा च धूमसद्भावेऽपि विषयाधिगतिरित्यभिमानाभावात् सति त्वर्थशाने प्रत्येकशस्तेषामांवेऽपि भावाद विषयाधिगत्यँभिमाने अनन्तरवृत्तमर्थज्ञानमेव साधकतमम् न विषयाधिगतौ ज्ञानस्य साधकतमता विषयाधिगतिखरूपत्वात् तस्य न च किश्चिद्वस्तु स्वरूपे साधकतमं तद्विशेषाभिधानं च प्रमाणपदम् अथ स्वविषये सव्यापारप्रतीततामुपादाय फलस्यैव १० प्रमाणतोपचारः। उक्तं च"सव्यापारप्रतीतत्वात् प्रमाणं फलमेव सत"।। ] तथा, "सव्यापारमिवाभाति व्यापारेण स्वकर्मणि"।[ ] इति चेत्, न; मुख्यसद्भावे उपचारपरिकल्पनात् । बौद्धपक्षे तु न मुख्यं साधकतमत्वं क्वचिदपि सिद्धमिति नोपचारः अस्मन्मते तु धूमादीनां साधकतमत्वं विशिष्टावगतिहेतुत्वात् ज्ञानस्य तु न तद् युक्तं तस्य १५ तत्वभावत्वात् अभिमानवशात् तस्य साधकतमत्वे प्रमाण-फलयोर्भेदः प्रसज्यते स च भवतोऽनिष्टः। यञ्च 'धूमादिभावेऽपि विषयाधिगतेरभावात् तद्भावे च भावात्' इत्युक्तम्, तदसंगतम् यतो नैव ज्ञानसद्भावे काचित् तज्जन्या विषयाधिगतिः धूमादिसद्भावे तु तस्याः सद्भावोऽनन्तरमुपलभ्यत एव अतो धूमाद्येव साधकतमम् अभिमानस्तु ज्ञानानन्तरमुपजायमानो धूमादिभावेऽप्यनुपजायमानो ज्ञानस्य न साधकतमत्वं प्रकाशयति अपि त्वर्थाधिगमस्वरूपताम् । तथाहि-अर्थाधिगतावर्थोऽधिगत २० इत्यभिमानः प्रभवति न तु धूमादिभावे । अतो विषयाधिगत्यभिमानस्यानेन प्रकारेण भावान्न तव. गतौ साधकतमत्वं ज्ञानस्येति निर्णयेऽध्यक्षताप्रसक्तिप्रेरणा तदवस्थैव । किञ्च, सुप्तावस्थोत्तरकालं घटादिज्ञानोत्पत्तौ यद्यबोधरूपं तजनकं प्रमाणं नेष्यते तदा प्रागपरज्ञानस्याभावात् कस्य तत् फलं भवेत् ? घटत्वसामान्यज्ञानस्य घटज्ञानं फलमिति चेत् ननु घटत्वज्ञाने किं प्रमाणम् ? तदेवेति चेत् एकस्य प्रमाण-फलताप्रसक्तिः । अभ्युपगम्यत एवेति चेत् न, विशेष्यज्ञानेऽपि तत्प्रसङ्गात् । न च २५ विशेष्यज्ञानोत्पत्तौ विशेषणज्ञानस्य प्रमाणत्वं दृष्टमिति ततस्तद्भिन्नमभ्युपगम्यत इति वक्तव्यम् इन्द्रियार्थसन्निकर्षानन्तरं घटत्वादिसामान्यज्ञानस्य दर्शनात् तत्र सन्निकर्षस्य प्रमाणत्वप्रसक्तेः । अज्ञानत्वान्नेति चेत् न, विशेषणज्ञानं विशेष्यज्ञानोत्पत्तौ ज्ञानत्वाद विशेष्यविषयत्वेन प्रमाणं स्यात् न च तदिष्यते विशेषणविशेष्यालम्बनभिन्नज्ञानवादिभिः अतो यथा विशेषणज्ञानस्य विशेष्यज्ञानोत्पत्ती प्रामाण्यं तथा सन्निकर्षस्यापि विशेषणज्ञानोत्पत्तौ तदभ्युपगन्तव्यम् । तथाहि-सन्निकर्षः प्रमाणं३० विशिष्टज्ञानोत्पत्तौ कारणत्वात् विशेषणज्ञानवत् । ज्ञानत्वात् प्रमाणत्वाभ्युपगमेऽकारकाणां निर्णयादीनां प्रमाणत्वं स्यात् न च स्वसंवेद्यत्वेन तेषामजनकानामपि प्रमाणत्वम् अर्थान्तरफलवादित्वहानिप्रसङ्गात् । न च नैयायिकैरनर्थान्तरभूतं बौद्धैरिव फलमभ्युपगम्यते तदभ्युपगमे वा तत्पक्षनिरासादयमपि निरस्त एव अतो ज्ञानप्रमाणवादिनः सुषुप्तावस्थोत्तरकालं घटत्वादिज्ञानाभावप्रसक्तेर्घटादिज्ञानस्याप्यभावप्रसङ्ग इत्यशेषस्य जगत आन्ध्यापत्तिः । न च सुषुप्तावस्थायां ज्ञान-३५ सद्भावान्नायं दोषः असंवेद्यमानस्य तदवस्थायां तस्य सद्भावासिद्धेः । न च जाग्रत्प्रत्ययेन तत्सद्भावोऽवसीयते तस्य तत्प्रतिबन्धासिद्धेः। तत्कार्यत्वात् तत्प्रतिबन्ध इति चेत् न, वैशेषिकैः सर्वस्य शानस्य १-ति भाव-बृ. ल. वा. बा. विना। २-गते सि-बृ०। ३ "विषयाधिगतिनिमित्ततारूपः"-बृ. ल. टि.। ४-भवतीति बृ० आ० हा०वि०। ५ सन्निकर्षज्ञाने वा० बा० विना । ६-भावेपि भावेपि भावा० बा०। ७-त्यभिधाने आ० हा०वि०। ८ "ज्ञानस्य"-बु. ल.टि.। ९ "साधकतम"-बृ. ल. टि.। १. “प्रत्यक्षज्ञानस्य"-बृ. ल.टि.। ११ न्यायमन. आ० २ पृ. ७० पं० १६। १२ “अवगतिखभाव-" बृ. ल.टि.। १३ अत्र 'तत्पदं यदि धूमादिपरं तदा तदभावे च' इति पाठः संभाव्यते, यदि च 'तत् पदमर्थज्ञानपरं तदा यथाश्रुतमेव सम्यक् । १४ “विषयाधिगमरूपः"-बृ. ल.टि.। १५ सुषुप्ता-भां. मां । ६८ स० त० Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डेज्ञानपूर्वकत्वानभ्युपगमात् विशेष्यज्ञानादीनामेव विशेषणशानादिपूर्वकत्वं नान्येषां प्रतिबन्धाभावात्। बोधरूपता प्रतिबन्ध इति चेत् न, अवोधस्वभावादपि बोधस्योत्पत्त्यविरोधादन्यथा अधूमस्वभावादग्नधूमोत्पत्तिर्न भवेत् । तस्य तजननवभावत्वाददोष इति चेत् न, इतरत्राप्यस्य समानत्वात् । तथाहि-अबोधात्मिका कारणसामग्री वोधजननस्वभावत्वात् तं जनयिष्यतीति न प्रतिबन्धः । ५तस्मादबोधात्मकस्यापि प्रमाणत्वमभ्युपगन्तव्यमित्यव्यापकत्वं लक्षणदोषः । तन्न स्वरूपविशेषणपक्षोऽपि युक्तिसंगतः। _नापि सामग्रीविशेषणपक्षः तत्रास्यौपचारिकत्वात् । तथाहि-सामग्रीविशेषणपक्षे इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमित्युपपन्नमिति व्याख्येयम् तच्चायुक्तम् उत्पत्तिशब्दस्य स्वरूपनिष्पत्तौ प्रसिद्धत्वात् । तथा ज्ञानशब्दोऽपि सामग्रीविशेषणपक्षे ज्ञानजनकत्वात् 'सामग्र्यं ज्ञानम्' इति व्याख्येयम् एवम१० व्यभिचारि व्यवसायात्मकं च सामग्र्यम् तथाविधफलजनकत्वात् अव्यपदेश्यमपि तच्छब्देन सहा व्यापारात् । तदेवं सूत्रोपात्तविशेषणयोगित्वं सामन्यस्य तथाविधफलजनकत्वेन न खत इति न युक्तस्तत्पक्षोऽपि। [नैयायिकैः फलविशेषणपक्षाश्रयेण प्रतिक्षेपमुदस्य प्रत्यक्षसूत्रोक्तलक्षणस्य समर्थनम् ] तीनर्थकं सूत्रम्, न; फलविशेषणपक्षस्योपपत्तेः । ननु तत्रापि 'यतः' इत्यध्याहारोऽस्त्येव दोषः, १५न; तावन्मात्रेण सकलदोषविकलाभिमतपक्षसिद्धः। अतस्तथाविधं शानं यतो भवति तत् प्रत्यक्षमिति सकलदोषविकलं प्रत्यक्षलक्षणं सिद्धम् । नन्वेतस्मिन्नपि पक्षे ज्ञानस्य प्रामाण्यं न लभ्यते इष्टं च तस्य प्रामाण्यम्-“यदा ज्ञानं प्रमाणं तदा हानादिवुद्धयः फलम्" [१-१-३ वात्स्या०भा०] इति वचनात्, नैष दोषः; ज्ञानस्याप्येवंविधफलजनकत्वेन प्रमाणत्वात् । तथा चानुभवज्ञानवंशजायाः स्मृतेः 'तथा १ "इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेशमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्-[ न्यायद० १-१-४ ] प्रत्यक्षमिति लक्ष्यनिर्देशः इतरल्लक्षणम् । समानासमानजातीयव्यवच्छेदो लक्षणार्थः । समानजातीयं प्रमाणतया अनुमानादि, विजातीयं प्रमेयादि ततो व्यवच्छिन्नं प्रत्यक्षस्य लक्षणमनेन सूत्रेणोपपाद्यते। अत्र चोदयन्ति-इन्द्रियार्थसन्निकर्फत्पन्नवादिविशेषणैः खरूपं वा विशिष्यते, सामग्री वा, फलं वा? तत्र खरूपविशेषणपक्षे यद् एवंखरूपं ज्ञानं तत् प्रत्यक्षमिति तत्स्वरूपस्य विशेषितत्वात् फलविशेषणानुपादानाच्च लक्षणमव्याप्ति-अतिव्याप्तिभ्यामुपहृतं स्यात् । अव्याप्तिस्तावद् अतथाविधस्वरूपस्य बोधस्य इन्द्रियादेश्च निर्मलफलजनकतया लब्धप्रमाणभावस्यापि प्रामाण्यं नोक्तं भवेत् । अतिव्याप्तिश्च तथाविधखरूपस्यापि ज्ञानस्याकारकस्य वा संस्कारकारिणो वा स्मृतिं जनयतो वा संशयमादधानस्य वा विपर्ययमुत्पादयतो वा प्रमाणवं प्राप्नोति फलस्याविशेषितत्वात् । तद्विशेषणाभिधाने पुनरश्रुतसूत्रान्तराध्याहारप्रसक्तिः अव्याप्तिश्च तदवस्थेति न खरूपविशेषणपक्षः"-न्यायमञ्ज० आ० २ पृ. ६५५० ४- २ "नापि सामग्रीविशेषणपक्षः तत्र हीन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्पन्नमिति इन्द्रियार्थसन्निकर्षोपपन्नं सामग्र्यमिति व्याख्यातव्यम् । अव्यपदेशमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं ज्ञानमिति च तजनकत्वादुपचारेण तथा साकल्यं वर्णनीयमिति क्लिष्टकल्पना" ।-न्यायमा० आ० २ पृ० ६५५० १७-। ३-न स्व-बृ. ल.। ४"फलविशेषणपक्षोऽपि न संगच्छते ज्ञान-प्रत्यक्षयोः फल-करणवाचिनोः सामानाधिकरण्यप्रसङ्गात् । प्रमाणलक्षणप्रस्तावात् प्रत्यक्षं प्रमाणमुच्यते तच करणमिति वर्णितम् । ज्ञानं तु तदुपजनितं फलमिति कथमैकाधिकरण्यं तस्मात् पक्षत्रयस्यापि अयुक्तियुक्तखात् पक्षान्तरस्यापि असंभवादयुक्तं सूत्रमिति । अत्रोच्यते-खरूप-सामग्रीविशेषणपक्षौ तावद् यथोक्तदोषोपहतवान्नाभ्युपगम्यते । फलविशेषणपक्षमेव संमन्यामहे । तत्र च यद् वैयधिकरण्यं चोदितं तद् 'यतः'शब्दाध्याहारेण परिहरिष्यामः । यत एवं यद् विशेषणविशिष्टं ज्ञानाख्यं फलं भवति तत् प्रत्यक्षमिति सूत्रार्थः । इत्थं च न क्वचिद् अव्याप्तिरतिव्याप्तिर्वा न काचित् क्लिष्टकल्पना 'यतः'शब्दाध्याहारमात्रेण निरवद्यलक्षणोपवर्णनसमर्थसूत्रपदसंगतिसंभवात् । ननु समानाधिकरणे एव ज्ञान-प्रत्यक्षपदे कथं न व्याख्यायेते कि 'यतः'शब्दाध्याहारेण ? उक्तमत्र करणस्य प्रमाणवाद् ज्ञानस्य च तत्फलखात् फल-करणयोश्च खरूपभेदस्य सिद्धत्वात् । तदत्र प्रमाणतायां सामग्यास्तज्ज्ञानं फलमिष्यते । तस्य प्रमाणभावे तु फल(लं) हानादिबुद्धयः॥" इत्यादि-न्यायमज. आ. २ पृ. ६५ पं० २१- ५ज्ञानं न य-बृ०। ६ “यदा सनिकर्षस्तदा ज्ञानं प्रमितिः यदा ज्ञानम् तदा हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलम्"-वात्स्या० भा०पृ० १७५०२१। "सर्वच प्रमाणं खविषयं प्रति भावसाधनं प्रमितिः प्रमाणमिति । विषयान्तरं प्रति करणसाधनं प्रमीयते अनेनेति Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा | ५३१ चायम्' इत्येतद् ज्ञानमिन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वात् प्रत्यक्षं फलं तत्स्मृतेस्तु प्रत्यक्षप्रमाणता, सुखदुःखसम्बन्धस्मृतेस्त्विन्द्रियार्थसन्निकर्षसहकारित्वात् तथा चायम् इति सारूप्यज्ञानजनकत्वेनाध्यक्षप्रमाणता सारूप्यज्ञानस्य च 'सुखसाधनोऽयम्' इत्यानुमानिकफलजनकत्वेनानुमानप्रमाणता । न च सुखसाधनत्वज्ञानमिन्द्रियार्थसन्निकर्षजं शंक्तरसन्निहितत्वात् शक्तिर्हि सहकारिकारणान्तरसान्निध्यम् तच्चासन्निहितमिति नाध्यक्षप्रमाणफलं सुखसाधनत्वज्ञानमिति केचित् । अपरे तु५ याsयर्थे विशेष्याकृष्टमसन्निहिते विशेषणे मनः प्रवर्तते इति मनोलक्षणेन्द्रियार्थसन्निकर्षजमध्यक्षप्रमाणफलमेतज् ज्ञानमिति सम्प्रतिपन्नाः । नन्वेवमप्यव्यापकं लक्षणम् आत्मसुखादिविषयज्ञानस्याप्रत्यक्षफलत्वात् तच्च मनसोऽनिन्द्रियत्वात् अनिन्द्रियत्वं तु मनस इन्द्रियसूत्रे अपरिपाटितत्वात् प्रत्यक्षफलता च तद्विपयज्ञानस्याभ्युपगम्यते, असदेतत्; मनस इन्द्रियधर्मापतत्वेनेन्द्रियत्वात् अधिगतानधिगतविषयग्राहकत्वमिन्द्रियधर्मः स च मनसि विद्यत एव तेनेन्द्रियधमपितस्य सर्वस्यैव १० प्रत्यक्षसूत्रे इन्द्रियग्रहणेनविरोधः । ततः प्रत्यक्षसूत्र एवेन्द्रियत्वं मनसः सिद्धम् तत्सिद्धौ च नाव्याप्तिर्लक्षणदोषः । इन्द्रियसूत्रे च मनसोऽपाठः तत्सूत्रस्य नानात्वे इन्द्रियाणां लक्षणपरत्वात् सूत्रशब्देन हि जात्यपेक्षया सूत्रसमूह एवोच्यते तेन लक्षणसूत्रसमूहोद्देशार्थं तत्सूत्रम् । तथा च जिघ्रत्यनेनेति घ्राणं भूतं गन्धोपलब्धौ कारणम् ' घ्राणम्' इत्यभिधीयमाने सन्निकर्षे प्रसङ्गः तन्नि वृत्त्यर्थे 'भूतम्' इति भूतस्वभावत्वं विशेषणम् । एवं चष्टे अनेनेति चक्षू रूपोपलब्धौ कारणम् सन्निकर्षे १५ प्रसङ्गस्तन्निवृत्त्यर्थं भूतग्रहणं सम्बन्धनीयम् प्रदीपे प्रसङ्गस्तनिवृत्त्यर्थमिन्द्रियाणामिति वाच्यम् एवं वगादिष्वपि योज्यम् । एवं च सूत्रपञ्चकमेतल्लक्षणार्थ प्रत्येकमिन्द्रियाणां न पुनर्विभागार्थम् आदिसूत्रोद्दिष्टस्य भेदवतो विभागाभ्युपगमात् विभक्तविभागे चानवस्था विभागार्थे वा वाह्यानामित्यध्याहारः कार्यः स्वलक्षणसामर्थ्यात् । मनसस्तु तदनन्तरं लक्षणानुपदेशो वैधर्म्यात् तच्च तस्याभूतस्वाभाव्यात् भूतस्वाभाव्येनेन्द्रियाणि व्यवच्छिद्यन्ते "भूतेभ्यः " [ न्यायद० १-१-१२] इति वचनात् न तु मनस २० तल्लक्षणमस्ति अत एव सर्वविषयत्वं मनसः न त्विन्द्रियाणि वाद्यानि सर्वविपयाणि तन्त्रयुक्तया वा मनसोऽनभिधानम् परमतमप्रतिषिद्धमनुमतमिति हि तन्त्रयुक्तिः । न चैवं घ्राणादीनामप्यनभिधानं प्रसज्यते घ्राणादेरप्यनभिधाने स्वमतस्यैवाभावात् परमतमिति व्यपदेशासंभवात् । अस्ति च "युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्” [ न्यायद० १-१-१६] इति वचनात् मनसोऽभिधानमिन्द्रियत्वेन इन्द्रियानन्तरं त्वनभिधानं वैधर्म्यादित्युक्तम् । तन्नाव्याप्तिर्दोष इति स्थितम् । प्रमाणम् । यदि भावसाधनः प्रमाणशब्दः किं फलम् विषयस्याधिगतत्वात् । उक्तं फलं हानादिबुद्धय इति । ज्ञाते तद्भावात् ज्ञाते खल्वर्थे त्रिधा बुद्धिर्भवति हेयो वा उपादेयो वा उपेक्षणीयो वेति । केचित् तु सन्निकर्षमेव प्रत्यक्षं वर्णयन्ति न तश्याय्यं प्रमाणाभावात् - सन्निकर्ष एव प्रमाणमिति न प्रमाणमस्ति । उभयं तु युक्तं परिच्छेदकत्वात् उभयं परिच्छेदकम् - सन्निकर्षो ज्ञानं च । एकान्तवादिनस्तु दोष इति” - न्यायवा० पृ० २९ पं० १ । न्यायवा० ता० टी० पृ० १०२ पं० ८- पृ० १०५ पं० १६ । " तस्मात् सुष्टकं यदा ज्ञानं प्रमाणं तदा हानादिबुद्धयः फलमिति । तदेवं फलविशेपणपक्षे 'यतः 'शब्दाध्याहारेण वाचकं सूत्रम् यत इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नत्वादिविशेषणविशेषितं ज्ञानाख्यं फलं भवति तत् प्रत्यक्षमिति” – न्यायमञ्ज० आ० २ ० ७२ पं० ४ १-त्यक्ष फ-वा० वा० विना । २ सर्वस्येव भां० मां० । ३-नाविरोधः ल० वा० बा० आ० हा ० वि० । ४- वत्वं च वि-वृ० । ५-भागे वा बृ० । ६ " मनसः " वृ० ल० टि० । ७ " घ्राण- रसन-चक्षुस् - त्वक्-श्रोत्राणीन्द्रियाणि भूतेभ्यः" इति सूत्रम् । न्यायवा० पृ० ६९- । न्यायवा० ता० टी० पृ० २२१ - न्यायमञ्ज० आ० ८ पृ० ४७६-१ ८ प्र० पृ० पं० १९ । ९ " आत्मादिषु सुखादिषु च प्रत्यक्षलक्षणं वक्तव्यम् अनिन्द्रियार्थसन्निकर्षजं हि तदिति इन्द्रियस्य वै सतो मनस इन्द्रियेभ्यः पृथगुपदेशो धर्मभेदात् भौतिकानीन्द्रियाणि नियतविषयाणि सगुणानां चैषामिन्द्रियभाव इति, मनस्त्वभौतिकं सर्वविषयं च नास्य सगुणस्येन्द्रियभाव इति । सति चेन्द्रियार्थसन्निकर्षे सन्निविमसन्निधिं चास्य युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिकारणं वक्ष्यामः ( अ० १ ० १ सू० १६ ) इति । मनसश्चेन्द्रियभावान् तन्न वाच्यं लक्षणान्तरमिति । तन्त्रान्तरसमाचाराच्चैतत् प्रत्येतव्यमिति । परमतमप्रतिषिद्धमनुमतमिति हि तन्त्र युक्तिः " - वात्स्या० भा० पृ० २१पं० १४ - २५ “इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमित्येवमादिलक्षणमात्मादिषु सुखादिषु च नास्ति मनसोऽनिन्द्रियत्वादव्यापकमेतत् प्रत्यक्षलक्षणमिति । कथं पुनरिन्द्रियं मनो न भवति ? इन्द्रियसूत्रेऽपठितलात् । परिपठितानि घ्राणादीनीन्द्रियाणि । न च तेषु मनः 1 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ द्वितीये काण्डे पठितम् । तस्मान्मनो नेन्द्रियम् । पृथक् चानभिधानान्नास्ति मनस इन्द्रियले प्रमाणं ततश्च नेन्द्रियं मनः । न चैवं प्रत्यक्षाः सुखादयो भविष्यन्तीति । प्रत्यक्षाश्चैते नानुमानिकाः लिङ्गाभावात् । न हि लिङ्गमन्तरेणानुमेयार्थो गम्यते । नाप्यन्यत् प्रमाण प्रतिपादकमस्ति सुखादीनाम् । न च तेषामनुमेयत्वम् । न चान्या गतिरस्ति । तस्मात् कर्तव्यं सुखादीनां प्रत्यक्षेण ग्रहणोपसं. ख्यानमिति । कश्चैवमाह न प्रत्यक्षाः सुखादय इति ? इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यप्रत्यक्षवाद्याह । नैष दोषः । मनस इन्द्रियखादिन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं सुखादिज्ञानमिति । यत्तु सूत्रेऽनभिधानं तद्वैधयात् । किं तद्वैधयं ? सर्व विषयत्वासर्व विषयले । सर्वविषयं मनोऽसर्व विषयाणीतराणि । सर्वविषयं तु मनः स्मृतिकारणसंयोगाधारखात् आत्मवत् सुखग्राहकसंयोगाधिकरणवात् समस्तेन्द्रियाधिष्ठातृवाच आत्मवत् । भौतिकाभौतिकवं तु न, विरोधात् । न हि भौतिकं मनो नाप्यभौतिकमिति । कार्यधर्मावेतौ भौतिकत्वमभौतिकलं च । न च कार्य मनः । तस्मान्न भौतिकं नाप्यभौतिकमिति । श्रोत्रे चासम्भवः यदि भौतिकवाभौतिकवलक्षणाद् वैधादपरिपाठः सूत्रे मनसः, श्रोत्रमपि सूत्रे न पठितव्यं तर्हि, न हि श्रोत्रं भौतिकं नाप्यभौतिकमिति । खार्थे प्रत्ययविधानमिति चेत् । न । प्रत्ययवैयर्थ्यात् । स्यादेषा बुद्धिः खार्थिक एष प्रत्ययो भूतमेव भौतिकमिति । तच्च न। प्रत्ययवैयर्थ्यात् । न हि भौतिकमित्यनेन कश्चित्तद्धितार्थो लभ्यते । तस्माद् व्यर्थमेतत् स्वार्थे प्रत्ययविधानमिति । यत्पुनरेतत् पृथगभिधानं नास्तीति । न नास्ति युगपज्ज्ञानानुपपत्तरिति । युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गमित्युच्यते । तेन च प्रतिपादित. मेतन्मनसः करणलमिति सगुणानामिन्द्रियभावो वैधर्म्यमित्येतदप्ययुक्तम् । श्रोत्रानभिधानप्रसङ्गादेव । तस्मात् सर्व विषय. खासर्व विषयत्वमेव वैधर्म्यमित्येतदेव ज्यायः । तत्रान्तरसमाचाराच्च । तन्त्रान्तरे मन इन्द्रियमिति पठ्यते । तच्चेह न प्रतिषिध्यते । अप्रतिषेधादुपात्तं तदिति न । शेषाभिधानवैयर्थ्यात् । शेषाण्यपीन्द्रियाणि तैः परिपठितानि तस्मात् तान्यपि न बक्तव्यानि यद्यप्रतिषेधादुपादानं स्यादिति । न । तत्रयुक्त्यनवबोधात् । न भवता तन्त्रयुक्तिः परिज्ञायते । परमतमप्रतिषिद्धमनुमतमिति हि तत्रयुक्तिः । न च यस्य खमतपरिग्रहो नास्ति तस्य स्वमतं परमतं वा भिद्यते । भवता च परमतानुरोधेन सर्व खमतं निवार्यत इति । तन्निवारणात् खमतं परमतमित्येतदेव न स्यात् । तस्मादस्ति मन इन्द्रियं चेति । तदुपपन्नमिन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं सुखादिज्ञानमिति व्यापकं लक्षणम्”-न्य यवा० पृ. ३८१० १-। "अव्यापकलेन लक्षणाक्षेपपरं भाष्यमात्मादिष्वित्यादि, तझ्याचष्टे । इन्द्रियार्थेति । देशयति । कथं पुनरिति । परिहरति । इन्द्रियेति । मा भूदिन्द्रियसूत्रे पाठः, तद्धि बाह्येन्द्रियलक्षणमान्तरं च मन इत्यत आह । पृथक् चेति । न च सुखादौ प्रमाणान्तरमस्ति, तस्मात् पारिशेष्यात् सिद्धं प्रत्यक्षवमित्याह । प्रत्यक्षाश्चेति । ननु नेते प्रमेयाः, खसंवेदनसिद्धत्वात् , तत् किमत्र प्रमेयार्थेन प्रमाणेनेत्यत आह । न च तेषामिति । ननूक्तं स्वसंवेदनतया न प्रमाकर्मभाव एषामित्यत आह । न चान्या गतिरिति । संवेदनलेन हि तेषां खसंवेदनता न चैते संवेदनमित्युक्तमधस्तादिति भावः । आक्षेपमुपसंहरति । तस्मादिति । भाष्ये चात्मादिषु सुखादिष्विति नित्यानित्याभिप्रायं वर्गद्वयमात्मसुखदुःखखादयो नित्या अनित्याश्च सुखदुःखादय इति । तदिदमुक्तं दिग्नागेन । 'न सुखादिप्रमेयं वा मनो वाऽस्तीन्द्रियान्तरम् ।' मच तत् सम्भवति । घ्राणादिसूत्रेण विभागपरेण निषेधादिति भावः । समाधिभाष्यमिन्द्रियस्य वै सत इति । तझ्याचिख्यासुगूढाभिप्रायः पृच्छति । कश्चैवमिति । आक्षेप्नुरुत्तरमिन्द्रियार्थेति । समाधाता आह । नैष दोष इति । आक्षेप्तुरनुशयबीजमुद्धाट्य दूषयति । यत्तु सूत्र इति । नेदं विभागपरं घ्राणादिसूत्रमपि तु लक्षणपरं, तत्र चेन्द्रियमपि मनो न लक्षितं वैधादित्यर्थः । वैधर्म्यमाह । वैधय॑मिति । तत्र प्रमाणयति । सर्वविषयं खिति । वैधान्तर दूषयति । भौतिकेति । कार्य्यस्य हि विशेषौ भौतिकवाभौतिकले, भूतकार्य भौतिकं यद् भूतकायं न भवति तदू भौतिकं न भवति । भूतकार्यवप्रतिषेधश्च तदन्यकार्यलं गमयति । विशेषनिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञानहेतुत्वात् । इतरथा खकार्यमेवोच्येत न खभौतिकम् । तस्मादकार्य्यस्य मनसोऽभौतिकवं कार्यधर्मो विरुद्धमित्यर्थः । अपि च वैधान्मनोवत् श्रोत्रमपि न वक्तव्यमित्याह । श्रोत्रे चेति । शङ्कते । स्वार्थ इति । भूतानि हि घ्राणादीनि श्रोत्रान्तानि मनस्तु न भूतमिति वैधर्म्यमित्यर्थः । निराकरोति । तच नेति । दर्शयिष्यति हि वार्तिककारो यथा स्वार्थिको न कश्चिदपि प्रत्यय इत्यर्थः । आक्षेपहे. तुमनुभाषते । यत्पुनरिति । दूषयति । तन्नास्तीति । तदनेन सति चेन्द्रियार्थसन्निकर्षे इत्यादि भाष्यं व्याख्यातम् । यच्चापरं वेधर्म्य घ्राणादिभ्यो मनस उक्तं भाष्यकारेण तत्सिंहावलोकितेन दूषयति । सगुणानामिति । घ्राणादीनि यथा खस्खगुणेन गन्धादिना बाह्यं गन्धादि बोधयन्ति नैवं खगुणेन शब्देन श्रोत्रं बाह्यं शब्द बोधयति, तन्मनोवत् श्रोत्रमपि घ्राणादिसूत्रे न पठितव्यमित्यर्थः । भाष्योक्तेषु मध्येऽभिमतं वैधर्म्यमुपसंहरति । तस्मादिति । भूतखाभूतत्वलक्षणं वैधयं न भौतिकवाभौतिकखग्रहन शक्यमित्यवधारणाभिप्रायः। ननु युगपज्ज्ञानानुत्पत्तेख़नकारणं मनोऽस्तीत्यवगम्यते न पुनरस्येन्द्रियलमपि, तद्भावानवगमे च नेन्द्रियार्थसन्निकर्ष सुखादिज्ञानं शक्यं वक्तुमित्यत आह । तन्त्रान्तरेति । सच्यते व्युत्पाद्यते अनेन तत्त्वमिति तन्त्रं शास्त्रम् । तदनेन मनसश्चेत्यादि भाष्यं व्याख्यातम् , तद दूषितं दिग्नागेन । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ ज्ञानमीमांसा। [नैयायिकैर्विन्ध्यवासीयप्रत्यक्षलक्षणस्य निराकरणम् ] "श्रोत्रादिवृत्तिरविकल्पिंका"[ ] इति विन्ध्यवासिप्रत्यक्षलक्षणमनेनैव निरस्तम् । यथा ह्यविकल्पिका शाक्यदृष्ट्याऽध्यक्षमतिः प्रमाणं न भवति तथा विन्ध्यवासिपरिकल्पिताऽपि सा 'अनिषेधादुपात्तं चेदन्येन्द्रियरुतं वृथा।' तद् दूषयितुमुपन्यस्यति । न शेषेति । तद् दूषयति । न तन्त्रयुक्तीति । सर्वस्य तन्त्रान्तरे लोके च सिद्धवादवक्तव्यतायाँ खमतमपि नास्ति । वचनलिङ्गं हि मतज्ञानं न चाननुमते निषेधमात्रं शक्यं कर्तुमभावस्य भावनिरूपणाधीननिरूपणवादिति भावः । सिद्धमर्थमुपसंहरति । तस्मादिति । प्रकृतमुपसंहरति । तदिति"-न्यायवा० ता० टी० पृ० १४६ पं०१ १सायकारिकाप्रमुखेदानींतनोपलभ्यमानसाङ्ख्यदर्शनग्रन्थेषु प्रत्यक्षलक्षणमित्थं दर्शितमस्ति"प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टम्"-साङ्ख्यका० ५। "विषयं विषयं प्रति योऽध्यवसायो नेत्रादीनामिन्द्रियाणां पञ्चानां रूपादिषु पञ्चसु तत् प्रत्यक्ष प्रतिपत्तिरूपं दृष्टाख्यम्"माठर० पृ० १२ पं० १.-1 "xxx विषयं विषयं प्रति वर्तते इति प्रतिविषयम् । वृत्तिश्च सन्निकर्षः । अर्थसन्निकृष्टमिन्द्रियमित्यर्थः । तस्मिन् अध्यवसायः तदाश्रित इत्यर्थः । अध्यवसायश्च वुद्धिव्यापारो ज्ञानम् उपात्तविषयाणामिन्द्रियाणां वृत्तौ सत्यां बुद्धस्तमोऽभिभवे सति यः सत्त्वसमुद्रेकः सोऽध्यवसाय इति वृत्तिरिति ज्ञानमिति चाख्यायते । इदं तत् प्रमाणम्-साङ्ख्य० को. पृ. २४ पं०११ “यत् संबद्धं सत् तदाकारोल्लेखि विज्ञानं तत् प्रत्यक्षम्"-साङ्ख्यद० १-८१ । "संबद्धं भवत् संबद्धवस्त्राकारधारि भवति यद् विज्ञानं बुद्धिवृत्तिस्तत् प्रत्यक्षं प्रमाणमित्यर्थः"-साङ्ख्यप्र. भा० पृ० ६५ पं० १६-1 "तत्र प्रत्यक्षं तावत् श्रोत्रादिपञ्चकं लोकोचितशब्दादिगुणग्राहकम्"-सायस० साङ्ख्यतत्त्ववि० पृ० २७ पं० ५। यद्यपि टीकाकृन्निर्दिष्टमिदं सात्यसंमतं प्रत्यक्षलक्षणं पूर्वनिर्दिष्टसाङ्ख्यग्रन्थेषु न क्वाप्युपलभ्यते तथाप्यन्ये समालोचकाष्टीकाकृन्निर्दिष्टां 'श्रोत्रादिवृत्तिरविकल्पिका' इति शब्दानुपूर्वीमेवाऽविकलतया विकलतया वोद्भूत्यैतल्लक्षणं समालोचित. बन्तः। तद्यथा "तथा, श्रोत्रादिवृत्तिरविकल्पिका एतदपि प्रत्युक्तम्" इत्यादि तत्त्वोप० लि. पृ. ७७५० १०-पृ०८१५०५। "तथा, श्रोत्रादिवृत्तिरिति । किं कारणम् ? पञ्चपदपरिग्रहेण प्रत्यक्षलक्षणमुक्तं यत्रान्यतरपदपरिग्रहो नास्ति तत् प्रत्यक्षाभासमिति"-न्यायवा० पृ. ४३ पं० १०-1 __ "वार्षगण्यस्यापि लक्षणमयुक्तमित्याह-श्रोत्रादिवृत्तिरिति । पञ्चानां खल्विन्द्रियाणामकारेण परिणतानामालोचनमात्रं वृत्तिरिष्यते, सा च संशयादिव्यापकवादलक्षणमिति"-न्यायवा० ता० टी० पृ० १५५ पं० १९ "श्रोत्रादिवृत्तिरपरैरविकल्पिकेति प्रत्यक्षलक्षणमवर्णि तदप्यपास्तम् । साम्यान यस्य न च सिध्यति बुद्धिवृत्त्या द्रष्टवमात्मन इति प्रतिपादितं प्राक्" ॥ -न्यायमज० आ० २ पृ० १०० पं० १३-1 "ईश्वरकृष्णस्तु प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टमिति प्रत्यक्षलक्षणमवोचत् । तदपि न मनोज्ञम् । अनुमानादिज्ञानानामपि विषयाध्यवसायखभावलेनातिव्याप्तेः । यत्तु राजा व्याख्यातवान् प्रतिराभिमुख्ये वर्तते तेनाभिमुख्येन विषयाध्यवसायः प्रत्यक्षमिति तदपि अनुमानादावस्त्येव" इत्यादि-न्यायमज. आ० २ पृ० १०९ पं०४-१४ । "श्रोत्रादिवृत्तिरध्यक्षमित्यप्येतेन चिन्तितम् । तस्या विचार्यमाणाया विरोधश्च प्रमाणतः" ॥ ३६॥ xxx "न च प्रमाणतो विचार्यमाणा श्रोत्रादिवृत्तिः साङ्ख्यानां युज्यते" इत्यादि-तत्त्वार्थश्लो० वा. पृ. १८७ पं० २६-३२ । "एतेनेन्द्रियवृत्तिः प्रमाणमित्यभिदधानः साङ्ख्यः प्रत्याख्यातः" इत्यादि-प्रमेयक. पृ.६ प्र. पं०७-१४ । "तथाहि-श्रोत्रादिवृत्तिःप्रत्यक्षमिति साङ्ख्याः प्रत्यक्षलक्षणमाचक्षते" इत्यादि-स्याद्वादर० पृ. ३४३ पं०१-४ आ०। "श्रोत्रादिवृत्तिरविकल्पिका प्रत्यक्षमिति वृद्धसाङ्ख्याः"xxx “प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्ट(ष्टम्) इति प्रत्यक्षलक्षणमितीश्वरकृष्णः” इत्यादि-प्रमाणमी. पृ. ३९ पं०७-१७ ॥ २"आचार्येण कुमारिलेन शान्तरक्षितेन कमलशीलेन हरिभद्रेण च खवग्रन्थे विन्ध्यवासिनो नाम निर्दिष्टम् । तद्यथा "संदिह्यमानसद्भाववस्तुबोधात् प्रमाणता । विशेषदृष्टमेतच लिखितं विन्ध्यवासिना" ॥-लो. वा. अनु० श्लो. १४३ पृ० ३९३ । तत्त्वसं० का० १४४५ पृ० ४२२ । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ द्वितीये काण्डेप्रमाणं न युक्ता । न च सांख्यदर्शनकल्पितस्य श्रोत्रादेः पदार्थस्य सिद्धिः सत्कार्यवादसिद्धौ तत्पदार्थव्यवस्थितेः तस्य च निषिद्धत्वात् । किञ्च, श्रोत्रादीनां वृत्तिस्तेभ्यो यद्यव्यतिरिक्ता तदा श्रोत्रादिकमेव तच्च सुप्तमत्ताद्यवस्थास्वपि विद्यत इति तदाप्यध्यक्षप्रमाणप्रसक्तिरिति सुप्तादिव्यवहारोच्छेदः । अथ व्यतिरिक्ता तेभ्यो वृत्तिस्तदा वक्तव्यम् किमसौ तेषां धर्ममात्रम् आहोखिदर्थान्तरम् ? यद्याद्यः पक्ष५स्तदा वृत्तेस्तैः सम्बन्धो वक्तव्यः यदि तादात्म्यं तदा श्रोत्रादिमात्रमेवासाविति पूर्वोक्तो दोषः । अथ समवायस्तदाऽयुतसिद्धिप्रसक्तिरिति व्यापिश्रोत्रादिसद्भावे सति नियतदेशा वृत्तिरभिव्यज्यत इति प्लवते । अथ संयोगस्तदार्थान्तरप्रसक्तिरिति न तद्धर्मो वृत्तिर्भवेत् । अथार्थान्तरं वृत्तिस्तदा नासौ वृत्तिः अर्थान्तरत्वात् पटादिवत् । अथार्थान्तरत्वेऽपि प्रतिनियतविशेषसद्भावात् तेषामसौ वृत्तिः, नन्वसौ विशेषो यदि श्रोत्रादिविषयप्राप्तिस्वरूपस्तदेन्द्रियार्थसन्निकर्षोऽभिधानान्तरेण प्रतिपादितो १०भवेत् । स च यद्यव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टार्थीपलब्धिजनकः प्रत्यक्षं प्रमाणमभिधीयते तदा अस्मत्पक्ष एव समाश्रितो भवेत् । अथ तथाभूतोपलब्ध्यजनकः न तर्हि प्रमाणमसाधकतमत्वात् । अथार्थाकारपरिणतिः श्रोत्रादीनां वृत्तिस्तदात्रापि वक्तव्यम् किमसौ परिणतिः श्रोत्रादिस्वभावा, उत धर्मः, आहोस्विदर्थान्तरमिति? पक्षत्रयेऽपि च पूर्ववद्दोषाभिधानं विधेयम् । न च श्रोत्रादीनां विषयाकारपरिणतिः परपक्षे संभविनी परिणामस्य व्यतिरिक्तस्याव्यतिरिक्तस्य चासंभवादिति प्रति१५पादितत्वात । प्रतिनियताध्यवसायस्तु श्रोत्रादिसमुत्थोऽध्यक्षफलम् न पुनरध्यक्षं प्रमाणमसाधकतमत्वात । विशिष्टोपलब्धिनिर्वर्तकत्वेनाध्यक्षत्वेऽस्मन्मतमेव समाश्रितं भवेत् । तन्न सांख्यमतानसारिपरिकल्पितमप्यध्यक्षलक्षणमुपपन्नम् । [नैयायिकैजैमिनीयसूत्रोक्तप्रत्यक्षलक्षणस्य निरासः] जैमिनिपरिकल्पितमपि प्रत्यक्षलक्षणम् “सत्सम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षम" २० [ मीमांसाद० १-१-४] इति संशयादिषु समानत्वात् वार्तिककारप्रभृतिभिर्निरस्तमेव । यैरपि "एतच्च यथोक्तं प्रत्यक्षदृष्टसम्बन्धमनुमानं विशेषतोदृष्टमनुमानमित्येवं विन्ध्यवासिना गदितम्"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ४१३ पं० २२ । “सारूप्यं सादृश्यं विन्ध्यवासीष्टम्"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ६३६ पं० ७ ॥ “यदेव दधि तत् क्षीरं यत् क्षीरं तद्दधीति च । वदता रुद्रिलेनैव ख्यापिता विन्ध्यवासिता" ॥ -तत्त्वसं० पजि. पृ. २२ पं० २६ । "देहभोगेन नैवास्य भावतो भोग इष्यते । प्रतिबिम्बोदयात् किन्तु यथोक्तं पूर्वसूरिभिः"-शास्त्रवा०स्त०३, श्लो०२७॥ "पूर्वसूरिभिः विन्ध्यवास्यादिभिः"-शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ. १०९ प्र. पं०८ । आचार्यहेमचन्द्र-यादवप्रकाशौ लेनं 'व्याडि' इति नाम्नापि प्रत्यभिज्ञापयतः "अथ व्याडिविन्ध्यवासी नन्दिनीतनयश्च सः"-अभिधान. ३, श्लो० ५१६ । “विन्ध्ये वसति विन्ध्यवासी"अभिधान० टी०। "अथ व्यालिविन्ध्यवासी नन्दिनीनन्दनोऽपि च"-वैजय० श्लो. १५८ पृ. ९६। १पू. २९६ पं०८। २ इदं विन्ध्यवासिप्रणीतप्रत्यक्षलक्षणनिराकरणं शब्दशः प्रमेयकमलमार्तण्डे वर्ततेपृ०६प्र.पं. ७-१४ । तदेव चांशतः साम्येन स्याद्वादरत्नाकरेऽपि दृश्यते-पृ० ७३ पं० ४ आ०। ३ "श्रोत्रादिभिः सह"-वृ० ल.टि.। ४ प्र० पृ. पं० २। ५-णतिश्रो-बृ० वा. बा. आ. हा०वि०।-णतश्रो-ल. प्र. पृ० पं० २-४। ७ पृ. २९७ पं० २-३०।। ८"सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षम् अनिमित्तं विद्यमानोपलम्भनखात्" इति सूत्रम् । सोपपत्तिकमेतत् मीमांसाश्लोकवार्तिकादितोऽवगन्तव्यम्-श्लो० वा. पृ० १३३-२०७ श्लो० १-२५४ । शास्त्रदीपिका पृ. ३५ पं० १६-पृ० ४३ पं० ११॥ "तथा, सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षम् तदपि प्रत्युक्तम्" इत्यादि-तत्त्वोप० लि. पृ० ७३ पं० १४-पृ. ७७ पं०९। "सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षमिति एतदपि संशयाद्युत्पत्तिनिमित्तखादलक्षणमिति । तथा चोकं प्रत्यक्षसूत्रं वर्णयद्भिरिति"-न्यायवा० पृ. ४३ पं०६- "जैमिनिप्रत्यक्षलक्षणं दूषयति-सत्संप्रयोग-इति" इत्यादिभ्यायवा० ता० टी० पृ. १५५५०९-१९ । जन्म तत्व प्रत्यक्षमिति एतदपि संशयाचपतिवित्तित्वादचक्षणामिति । तथा त्यो फ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। "सम्यगर्थे च संशब्दो दुष्प्रयोगनिवारणः”। [श्लो० वा० सू० ४ प्रत्यक्ष० श्लो० ३८] इत्यादिना तल्लक्षणं व्याख्यातम् तेषामपि प्रयोगस्यातीन्द्रियत्वात् सम्यक्त्वं न विशिष्टफलमन्तरेण ज्ञातुं शक्यम् फलविशेषणत्वेन च न किञ्चित् पदं श्रूयत इति न कार्यद्वारेणापि तत्सम्यक्त्वावगतिः। बुद्धिजन्मनः प्रमाणत्वं तु न सम्भवत्येव वुद्धातृव्यापारलक्षणायाः पूर्वमेव प्रमाणत्वनिषेधांत् । यैस्तु "नेदं प्रत्यक्षलक्षणविधानं किन्तु लोकप्रसिद्धप्रत्यक्षानुवादेन प्रत्यक्षस्य धर्म प्रत्यनिमित्तत्वविधानम्"५ [ ] इति व्याख्यातं तैरपि वाच्यम् कतरस्य प्रत्यक्षस्य धर्म प्रत्यनिमित्तत्वं विधीयते? "सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षम्" इत्यादिना जयन्तकृतं जैमिनिप्रत्यक्षलक्षणसमालोचनमत्रत्यया सर्वया चर्चया समानप्रायं वर्तते-न्यायमज. आ० २ पृ० १०० पं० १७-पृ० १०८ पं० २५ । तदेव च तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-स्याद्वादरत्नाकर-प्रमाणमीमांसादितोऽपि क्रमेण समवगन्तव्यम्-पृ० १८७ श्लो० ३७ ॥ पृ० ३४१ पं० १९-पृ० ३४२ पं० २५ आ० । १-१-३० पृ. ३७ पं० १९-पृ० ३९ पं० ७॥ १ श्लोकवार्तिके "प्रयोग इन्द्रियाणां च व्यापारोऽर्थेषु कथ्यते"-इत्युत्तरार्धम् ।। "सम्यगर्थे च संशब्दो दुष्प्रयोगनिवारणः। दुष्टत्वाच्छुक्तिकायोगो वार्यतामक्षजेक्षणात्"-न्यायमज आ० २ पृ. १.१५०३। "वार्यते रजतेक्षणात्"-स्याद्वादर० पृ. ३४२ पं. ६ आ०, प्रमाणमी० पृ. ३८ पं० ११॥ २० २० पं०१। प्रमेयक पृ० ६ प्र० पं० १५-पृ० ७ द्वि. पं. १४। ३ पृ. ४८ पं०१७-1 "भवदासेनैतत् सूत्रं द्विधा कृत्वा सत्संप्रयोगे इत्येवमादि तत् प्रत्यक्षमित्येवमन्तं प्रत्यक्षलक्षणपरम् अनिमित्तमित्यादि च तस्य धर्म प्रत्यनिमित्तवपरं व्याख्यातम् तदुपन्यस्य दूषयति"-श्लो० वा. पार्थव्या. पृ. १३३ पं० १५-पृ० १३४ पं०९। “अत्र भाष्यकारेणैतत् सूत्रं सकलमेव प्रत्यक्षस्यानिमित्तलकथनपरखेन व्याख्यातम् , वृत्त्यन्तरे तु सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षमित्येतावत् प्रत्यक्षलक्षणपरलेन व्याख्यातम् अवशिष्टं तु तस्य धर्म प्रत्यनिमित्तत्वेन । तदस्य लक्षणपरले परोद्भावितं दूषणमनूद्य परिहरति"-शास्त्रदीपिका युक्तिनेहप्रपूरणीसिद्धान्त पृ० ३५५० ३६-1 गं० श्लो. वा० पृ. ६९ टि. १२।। ४"कतरस्य प्रत्यक्षस्य धर्म प्रत्यनिमित्तत्वं प्रतिपाद्यते किमस्मदादिप्रत्यक्षस्य योगिप्रत्यक्षस्य वा । तत्रास्मदादिप्रत्यक्षस्य तथाले सर्वेषामविवाद एवेति किं तत्रेयता श्रमेण । योगिप्रत्यक्षस्य तु भवतामसिद्धत्वात् कस्य धर्म प्रत्यनिमित्तलप्रतिपादनम् । एवं च धर्मिणोऽभावादाश्रयासिद्धतां स्पृशेत् । विद्यमानोपलम्भवप्रत्यक्षलादिसाधनम् ॥ परप्रसिद्धया तत्सिद्धिरिति चेत्केयं प्रसिद्धिर्नाम । प्रमाणमूला तद्विपरीता वा । आद्य पक्षे प्रमाणस्यापक्षपातिखात् परस्येव तवापि तत्सिद्धिर्भवतु । अप्रमाणमूलवे तु न कस्यचिदप्यसौ प्रसिद्धिः। योगिज्ञानं परेषां यत्सिद्धं तदनुभाषणे । प्रतिज्ञापदयोरेव व्याघातस्ते प्रसज्यते ॥ परैर्हि धर्मग्राहि योगिज्ञानमभ्युपगतम् अतस्तदनुभाषणे धर्मग्राहकं न धर्मग्राहकमिति उक्तं स्यात् । परसंसिद्धमूलं च नानुमान प्रकल्पते । उक्तं भवद्भिरेवेदं निरालम्बनदूषणम् ॥ साध्यसिद्धिर्यथा नास्ति परसिद्धन हेतुना । तथैव धर्मिसिद्धवं परसिद्धया न युज्यते ॥ तत्रैतत्स्यात् प्रसङ्गसाधनमिदं प्रसङ्गश्च नाम परप्रसिद्धेन परस्यानिष्टापादनमुच्यते । परस्य च विद्यमानोपलम्भनं सत्सम्प्रयोगजन्यं च प्रत्यक्षं प्रसिद्धम् । अतस्तेनैव धर्मेण हेतुना धर्मानिमित्तलं तस्योपपद्यते इति को दोषः । नैतदेवम् । प्रसङ्गसाधनं नाम नास्त्येव परमार्थतः । तद्धि कुड्यं विना तत्र चित्रकर्मेव लक्ष्यते ॥ न हि नभःकुसुमस्य सौरभासौरभविचारो युक्तः । अथापि किं न एतेन भवविदं प्रसङ्गसाधनम् । तदत्रापि न तु व्याप्तिप्रतीतिरिह मादृशाम् । न धर्मग्राहि सर्वेषां प्रत्यक्षमिति वेत्ति कः ॥ मत्प्रत्यक्षमक्षमं धर्मग्रहणे इति भवान्न जानीते वत्प्रत्यक्षमपि न धर्मग्राहीति नाहं जाने अन्यस्य प्रत्यक्षमीदृशमेवेत्युभावप्यावां न जानीवहे। खया तु यदि सर्वेषां प्रत्यक्षं ज्ञातमीदृशम् । तर्हि त्वमेव योगीति योगिनो द्वेक्षि किं वृथा ॥ प्रामाणिकस्थिति तस्मादित्थं श्रोत्रिय ! बुध्यसे । परोक्तेऽतीन्द्रिये ह्यर्थे मा वादीर्दूषणं पुनः ॥ प्रमाणसिद्धे हतशक्तिदूषणं प्रमाणशून्येऽपि वृथा तदुक्तयः । निरस्य चोद्यव्यसनं तु मृग्यतामतीन्द्रिये वस्तुनि साधनं पुनः ॥ सचेत् पर्यनुयुक्तः सन् वक्तुं शक्नोति साधनम् । ओमिति प्रतिपत्तव्यं नो चेन्नास्त्येव तस्य तत्"-न्यायमा० आ० २ पृ० १०२ पं०-1 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ द्वितीये काण्डे किमस्मदादिप्रत्यक्षस्य, उत योगिप्रत्यक्षस्येति ? तत्र यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः सिद्धसाध्यताप्रसक्तेः। द्वितीयपक्षोऽप्ययुक्तः योगिप्रत्यक्षस्य स्वमतेनासिद्धत्वात् । न चासिद्धस्यानिमित्तत्वविधानम् अन्यथा खरविषाणादेरपि तं प्रत्यनिमित्तत्वविधिर्भवेत् । न च योगिप्रत्यक्षं परेणाभ्युपगतमिति तं प्रति तस्य तदनिमित्तत्वं साध्यत इति वक्तव्यम् यतो यदि प्रमाणतस्तत् तेनाभ्युपगतं तदा प्रमाणप्रसिद्धस्य ५भवतोऽपि प्रसिद्धत्वात् कथं तस्य तदनिमित्तत्वं साध्येत तन्निमित्ततयैव योगिप्रत्यक्षस्य प्रमाणप्रसिद्धत्वात् ? अथाप्रमाणतस्तत् तेनाभ्युपगतं तदा प्रमाणाभावादेव नासावभ्युपगम इति कथं ततस्तस्य तदनिमित्तत्वसिद्धिः? अत एवातीन्द्रियं वस्त्वनङ्गीकुर्वता परप्रतिपन्ने वस्तुन्यतीन्द्रियेऽसौ प्रमाणं प्रष्टव्यः-सचेत् तत् तत्र ब्रूते तदा तद्वस्त्वङ्गीकर्तव्यम् । अथ न ब्रूते तदा तस्य प्रमाणाभावादेवासिद्धिः न तदुक्तप्रमाणप्रतिषेधात् न ह्यतीन्द्रिये वस्तुनि प्रमाणं प्रतिषेधविधायि प्रवर्तितु१० मुत्सहते धर्म्यसिद्धत्वादिदोपैराघ्रातत्वात् । अथापि स्यात् भवेदेष दोपः स्वतन्त्रसाधनपक्षे नत्विदं स्वतन्त्रसाधनम् अपि तु प्रसङ्गसाधनम् तच्च स्वतोऽप्रसिद्धेऽपि वस्तुनि परप्रसिद्धेन परस्यानिष्टापादनमिति परैरभ्युपगतं यथा सामान्यादिनिषेधे, एतदप्ययुक्तम् दृष्टान्तस्याप्यसिद्धेः। यथा च सामान्यादिनिषेधे न प्रसङ्गसाधनं प्रवर्तते तथा नैयायिकैः प्रतिपादित सामान्यादिपरीक्षायाम् । किञ्च, प्रसङ्ग साधनानुपपत्तिरत्र, यतः प्रसङ्गः सर्वोऽपि विपर्ययफल इति पूर्व प्रसङ्गः प्रदर्शनीयः । स च कथं प्रद१५र्यत इति वक्तव्यम् ? अथ योगिप्रत्यक्ष धर्मग्राहकं न भवति विद्यमानोपलम्भनत्वात्, न; हेतोरसिद्धत्वात् । अथ तेन्सिद्ध्यर्थ हेत्वन्तरोपादानम् । तथाहि-विद्यमानोपलम्भनं योगिप्रत्यक्षं सत्संप्रयोगजत्वात् , न; अस्याप्यसिद्धत्वात् । अथैतत्सिद्धये हेत्वन्तरमुपादीयते-विवादास्पदं सत्संयोगजं प्रत्यक्षत्वात् तच्छब्दवाच्यत्वाद्वा अस्मदादिप्रत्यक्षवदिति दृष्टान्तः सर्वत्र वक्तव्यः। धर्मादिग्राहकत्वे वा धर्मा देरसत्त्वान्न विद्यमानोपलम्भकत्वमिति विपर्ययः अविद्यमानोपलम्भनत्वे च न सत्संयोगजम् अस२०त्संयोगजत्वे वा न प्रत्यक्षम् नापि तच्छन्दवाच्यम् ननु भवत्येवंप्रसङ्गपूर्वको विपर्ययः तस्य त्वनेन किं सद्भावो निषिध्यते, उत प्रत्यक्षत्वम् ? प्राच्ये विकल्पे धर्म्यसिद्धता हेतूनामित्युक्तम् । द्वितीयेऽपि तस्य प्रमाणान्तरत्वप्रसक्तिः विशेषप्रतिपेधस्य शेपाभ्यनुज्ञानलक्षणत्वात् । स्यादेतत् विशेषप्रतिषेधे धर्मिण एव प्रतिषेधः तस्य तद्रूपतयैवाभ्युपगमात् न च धर्म्यसिद्धत्वादिर्हेतुदोषः 'यदि'अर्थस्याभ्युपगमात्, असदेतत् व्याप्ती सत्यां प्रसङ्गपूर्वकस्य विपर्ययस्य प्रवृत्तेः। न च प्रत्यक्षत्वस्य तच्छब्दवाच्यत्वस्य वा २५सत्संप्रयोगजत्वेन व्याप्तिसिद्धिः क्वचित् संजाता । अथ प्रसङ्गसाधनवादिनि तत्सिद्धिस्तथापि दोषः न हि यत् तेन न गृह्यते तदन्येनापि न गृह्यत इति व्याप्तिसिद्धिः । तथाहि-यथा प्रसङ्गसाधनवादिचक्षुर्नातिदूरस्थविषयग्राहि सम्पात्यादे[ध्रराजस्य तु चक्षुष्वेऽपि चक्षुर्योजनशतव्यवहितावभासि श्रूयते रामायणादौ । न च कादम्बर्यादेरिव काव्यत्वादस्याप्रमाणतेति न तन्निवन्धना वस्तुव्यवस्था भारतेऽपि प्रमाणभूते अस्यार्थस्य संसूचनात् । खरूपार्थप्रतिपादकत्वेऽपि च भारतादीनां प्रमाणता सिद्धव । ३० यद्याप्तप्रणीतत्वे निश्चयस्तदा वृपदंशचक्षुश्चक्षुष्टेऽपि तच्छब्दवाच्यत्वेऽपि वा भिन्नखभावं दृष्टं तद्वत् १पृ० १११ पं० ३-३४ । २ पूर्व प्र-बृ० हा० विना। ३ तद्वित्सि-आ० । तस्मित्सि-वा० बा० । ४ सम्पत्या-वा० बा० । सम्पत्त्या-भां. मां० । सम्पातिनामा च गृध्रराजो योजनशतव्यवहितामपि दशरथनन्दनसुन्दरी ददर्शति श्रूयते रामायणे-न्यायमा. आ. २ पृ० १०३ पं० २३ । ५तु चक्षुचक्षुष्टेऽपि वा. बा० । तु चक्षुष्केऽपि ल०। ६ गृध्रराजस्य सविस्तरवर्णनार्थ द्रष्टव्यम्-रामाय० अरण्य० स० १४ श्लो. १-३६ । ७ “सखा दशरथस्यासीजटायुररुणात्मजः । गृध्रराजो महावीरः संपातिर्यस्य सोदरः ॥ स ददर्श तदा सीतां रावणाङ्कगतां सुषाम् । सक्रोधोऽभ्यद्रवत् पक्षी रावणं राक्षसेश्वरम् ॥ अथैनमब्रवीद्गृध्रो मुञ्चमुञ्चेति मैथिलीम् । ध्रियमाणे मयि कथं हरिष्यसि निशाचर ! ॥ न हि मे मोक्ष्यसे जीवन् यदि नोत्सृजसे वधूम् । उक्त्वैवं राक्षसेन्द्रं तं चकत नखरैभृशम् ॥ पक्षतुण्डप्रहारैश्च शतशो जर्जरीकृतम् । चक्षार रुधिरं भूरि गिरिः प्रस्रवणैरिव" ॥ इत्यादि महाभा० वनप० अ० २८० श्लो० १-५॥ ८-स्तथा वृ-बृ० विना। ९ "वृषदंशो मार्जारः" अमर सिंहादिवर्ग० २,६ । अभिधान० ४,३६७ । “तथाहियोजनशतव्यवहितमन्धकारान्तरितं वा नास्मदादिलोचनगोचरतामुपयाति सम्पातिवृषदंशदृशोस्तु विषयो भवत्येव" ।न्यायमा. आ. २ पृ. १०४ पं०९। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५३७ योगिप्रत्यक्षं भविष्यति एवं प्रतिवादिप्रत्यक्षेऽपि साध्यसाधनयोर्व्याप्तिनिषेधो द्रष्टव्यः । अथ गृध्रवृषदंशचक्षुषोरेतत्स्वभावत्वेऽपि रूपग्रहणप्रतिनियमः न हि ते रसादौ कदाचित् प्रवर्तन्ते तथा योगिप्रत्यक्षस्यापि स्वविषय एवातिशयो भविष्यति । तदुक्तम् “यत्राप्यतिशयो दृष्यैः” इत्यादि । तथा, "येऽपि सातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधादिभिर्नराः" । इत्यादि च । एवमेतत् किन्तु द्विविधं प्रत्यक्षम् बाह्येन्द्रियजम् मानसं च । तत्र पूर्वस्यातीतादिग्राहकत्वनिषेधे रसादिग्राहकाणामिव इतरेतरविषयाग्रहणे सिद्धसाध्यता । मानसस्य त्वतीतादिरपि विषयः तस्य सर्व विषयत्वात् । तथाहि-त्रादि-प्रतिवादिनोर्मानसं स्पष्टाभं स्मार्तमतीतार्थग्राहि विज्ञानं सिद्धम् एव: मनागतार्थाध्यवसायि मानसंवादि-प्रतिवादिनोस्तथाविधं द्रष्टव्यम। तस्य चाभूतार्थस्यापि स्पटामता भावनाप्रकर्षात् काम-शोक-भयादिज्ञाने प्रतिपादिता । यत् पुनर्भूतार्थ प्रमाणद्वयपूर्वकं भावनाप्रकर्ष-१० समुद्भूतं तत् संवादात् प्रमाणम् विशदत्वाच्च प्रत्यक्षम् संभाव्यते च तथाविधं प्रत्यक्षं योगिनाम् यथाऽस्मदादीनां प्रातिभम् –'श्वो मे भ्राता आगन्ता' इत्यनागतार्थग्राहकम् । न च सन्दिग्धस्वभावताऽस्य निश्चितत्वेनोत्पादाद् बाधकाभावान्न विपर्यस्ततापि । अथ सर्वा प्रतिभा सत्यार्थी न सिद्धेति न प्रमाणं प्रातिभंतीन्द्रियजमपि सर्व न सत्यार्थ सिद्धमिति तदप्यप्रमाणं भवेत् । अथ मा भूत् प्रमाणं यद्वाध्यते इतरं तु (इतरत् तु) प्रमाणम् प्रातिभेऽपि समानमेतत् । अथ प्रतिभाया न प्रमाणफलता १५ अर्थजत्वानुपपत्तेः । तथाहि-कर्मशक्तिः कर्तृकरणसहकृता क्रियानिर्वर्तिका कर्तृकरणशक्तिरिव कर्मशक्तिसहकृता । न चासती स्वरूपेणानागता वर्तमानकालकर्तृ-करणाभ्यां सह कर्मशक्तिः खकार्य व्याप्रियते । नापि कर्तृकरणशक्तिर्वर्तमानसमयसम्वन्धिनी भाविकर्मशक्त्या तदा विद्यमानया सह स्वकार्ये व्याप्रियत इति कथमनागतार्थविषयार्थजा प्रतिभा? ततो न प्रमाणफलं सेति, अयुक्तमेतत्; असमानकालत्वेऽपि प्रतिभाविषयस्य कर्तृकरणव्यापारसमानकालतोपपत्तेः । तथाहि-करणं प्रति-२० भाजनकं न वर्तमानसमयवस्तुपरिच्छेदकं किन्त्वनागतस्य तेनानागते वस्तुनि करणस्य व्यापाराद् वस्तुनश्च तेन रूपेण सत्त्वात् कथं प्रतिभा निर्विषया? यदि च सा भाविभावविषयं ज्ञानं निर्विषयं तर्हि चोदनाजनितं ज्ञानं वाक्यप्रभवं वाक्यकाले कार्यस्यार्थस्यासत्त्वान्निविषयमासज्येत । अथ वर्तमानार्थग्रहणस्वभावोऽध्यक्षस्यैव न शब्दादेः । उक्तं च “सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना"। [श्लो० वा० प्रत्यक्ष० श्लो० ८४] २५ तथा "एष प्रत्यक्षधर्मश्च वर्तमानार्थतैव यो" ॥ [श्लो० वा० निरा० श्लो० ११४] "सन्निकृष्टार्थवृत्तित्वं न तु ज्ञानान्तरेष्वयम्”। [श्लो० वा० निरा० श्लो० ११५] इति, १पृ० ४९ पं. १२ । तत्त्वसं. का. ३३८७ पृ.८८६ । न्यायमञ्ज. आ. २ पृ० १०४ पं०३। २ पृ० ४९ पं० १० । “प्रज्ञामेधाबलेनराः"-तत्त्वसं. का० ३१६० पृ. ८२५ । "प्रज्ञामेधाबलेर्नृणाम्"-न्यायमा. आ. २ पृ० १०४ पं०६। ३-कर्षात् का-बृ. ल.। ४ “अपि चानागतं ज्ञानमस्मदादेरपि क्वचित् । प्रमाणं प्रातिभं श्वो मे भ्राताऽऽगन्तेति दृश्यते ॥ नानर्थजं न संदिग्धं न बाधविधुरीकृतम् । न दुष्टकारणं चेति प्रमाणमिदमिष्यताम् ॥ क्वचिद्बाधकयोगश्चेदस्तु तस्याप्रमाणता । यत्रापरेधुरभ्येति भ्राता तत्र किमुच्यताम्" । न्यायमज. आ. २ पृ. १०६ पं० १३-। ५-शक्तिः खक-वा. बा०। ६-शक्तिरेव वा. बा०। ७ "मनोलक्षणम्"-बृ० ल.टि.। ८ च भाभां. मांविना। ९ “सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना । सामान्य वा विशेषो वा ग्राह्यं नाऽतोऽत्र कल्प्यते" ॥ श्लो० वा० । न्यायकु. लि. पृ० २४ द्वि. पं. १० । “सन्निहितं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना"-सिद्धिवि० टी० लि.पृ० ४१३ पं० ४। १. "तस्योत्पत्तौ कथञ्चित् स्युः पृथिव्यादीनि कारणम् । एष प्रत्यक्षधर्मश्च वर्तमानार्थतैव या" ॥ श्लो. वा० । ११ ननु ज्ञा-बृ. ल.। “सन्निकृष्टार्थवृत्तिश्च न तु ज्ञानान्तरेष्वियम् । कथमुत्पादयेज् ज्ञानं तत्राऽसंश्चेत्कुतोन्वियम्" ॥ श्लो. वा० । १२ "वर्तमानार्थतारूपः प्रत्यक्षधर्मः"-बृ० ल.टि.। ६९ स० त. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ द्वितीये काण्डेअसदेतत् मनोविज्ञानस्यातीतानागतार्थग्रहणे व्याघाताभावात् चक्षुरादिप्रभवप्रतिपत्तीनां तु युक्त एव वर्तमानार्थग्रहणलक्षणो धर्मः न तु मानसस्य अन्यथा चोदनाजनितस्यापि सं स्यादित्युक्तम् । ___ नन्वेवमपि भाविरूपता भावस्य सावधिः प्रागभावः न च भिन्नकालत्वाद् वस्त्ववस्तुनोः सम्बन्ध इति कथं तस्य भाविरूपता? अत्र केचिदाहुः-न तयोरसम्बन्धिता विशेषणविशेष्यतया ५प्रतिपत्तेः, नैतत् न हि सम्बन्धपूर्वको विशेषणविशेष्यभावः किं तर्हि भाविता भावस्योच्यते? बुद्धौ प्रतिभासमानस्याकारस्य कुतश्चिन्निमित्तात् प्रागभावविशेषणता तच्च निमित्तं भोजनादिकार्य भ्रातृकृतम् तद् भ्रातुरनागतस्य नोपपद्यत इत्यनागमनकाल एव कार्येण बुद्धयुपस्थापितस्य भ्रातुः श्वस्तनागमनविशिष्टता प्रतिपद्यते । सद्व्यवहारनिवन्धनं च सत्त्वम् तच्च विधिप्रतिभास एव अतो विधिप्रतिभासवभावत्वान्न निर्विषया प्रतिभा । मा भूनिर्विषयत्वं तस्याः तेन त्वर्थेन सह सन्निकर्ष १० इन्द्रियस्य वाच्यः इन्द्रियार्थासन्निकर्षजस्य प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः । अत्र केचित् प्रतिसमादधति-'श्वो मे भ्राताऽत्र देशे आगन्ता' इति प्रतिभोत्पादाद देशादेश्चेन्द्रियेण संयोगात् तद्विशेषणत्वाच्च श्वस्तना. गमनविशिष्टस्य भ्रातुः संयुक्तविशेषणभावः सन्निकर्षः। एतत् परे नाऽनुमन्यन्ते विशेषणविशेष्ययोरेकविषयत्वान्न भ्रात्रा विशेषणेन चक्षुरादेः सन्निकर्षः तेदभााद विशेषणाग्रहणे कथं विशेष्यबुद्धिः? अपि च, श्वस्तनागमनविशिष्टभ्रातृज्ञानं प्रतिभा न देशादिज्ञानम् न चेन्द्रियस्य तेनं कश्चित् सम्बन्धः। १५अत एव आर्षमपि ज्ञानं न प्रतिभा । यतः "ऋषीणामपि यद् शानं तदप्यागमपूर्वकम्”। [वाक्यप० प्र० का० श्लो० ३०] अनेनोपायजत्वमार्षस्य दर्शयति उपायश्च सन्निकर्ष-लिङ्ग-शब्दस्वभावः आगमग्रहणस्य प्रदर्शनार्थत्वात् । नापि धर्मविशेषात् सन्निकर्ष विनापि प्रतिभायाः समुद्भवः यतो धर्माधर्मयोः फलजनकत्वं साधनजनकत्वेनैव यथा सुखादी जन्ये शरीरादेर्जननम् एवं प्रतिभाया अपि धर्मविशेषजन्यत्वे २० केनचिदिन्द्रियार्थसन्निकर्षादिना साधनेन धर्मविशेषजनितेन भाव्यम् । अत एव सिद्धदर्शनमपि न प्रतिभा रथ्यापुरुषस्यापि भावात् । अनियतनिमित्तप्रभवत्वेनाप्रमाणं प्रतिभेति यत् कैश्चिदभ्यधायि तन्नैयायिकैर्निराक्रियत एव मनसस्तन्निमित्तत्वेन तत्र तत्र प्रतिपादनात् । नाप्यस्या लिङ्ग-शब्दप्रभवत्वम् तदोवेऽपि भावात् । उपमानजत्वाशङ्का दरोत्सारिता अतः प्रत्यक्षं प्रतिभा । यद्येवं तदुत्पत्तावक्षं वक्तव्यम् किमत्रोच्यते मनसः सन्निहितत्वात् तस्य विशिष्टार्थग्रहणे विशेषणविशेष्य२५भावः सन्निकर्षः नियामकत्वेन पूर्व प्रदर्शितः यथा प्रत्यभिज्ञानोत्पत्तौ स्मर्यमाणप्रतीयमानानुभवविशेषणं वस्तु तस्या विषयः न चैतावति बाह्येन्द्रियव्यापार इति मानसं प्रत्यभिज्ञानम् तद्वत् प्रातिभमपि । १ "वर्तमानार्थतारूपः प्रत्यक्षधर्मः"-बृ. ल.टि.। २ "ननु भावितया ग्रहणमघटमानम् भावित्वं हि नाम सावधिः प्रागभावः अभावस्य च भावेन भ्रात्रा सह कः सम्बन्धः । वस्त्ववस्तुनोर्विरोधात् । तदेतदसम्यक् । तद्देशसंबन्धस्य तत्र प्रागभावो न तु धर्मिणः । स हि विद्यते एव प्रागभावतः । स च कुतश्चिद्भोजनोत्कण्ठादेः कारणात् स्मरणपदवीमुपारूढः श्वस्तनागमनविशिष्टत्वेन प्रतिभातीति प्रातिभस्य स एव जनक इति । तस्मादनर्थजवाभावात् प्रमाण प्रातिभम्"-न्यायमज. आ० २ पृ० १०६ पं० २३-। ३-षता बृ०। ४-ते सिद्ध्यव्यव-भां० मां०। ५“सन्निकर्षाभावात्"-बृ. ल. टि.। ६-वा वि-ल. वा० बा० ।-वादवि-आ० हा० वि०। ७ "भ्रात्रा"-बृ० ल० टि.।। ८ "न चागमादृते धर्मस्तकेंण व्यवतिष्ठते । ऋषीणामपि यद् ज्ञानं तदप्यागमहेतुकम्" ॥ वाक्यप० । न्यायमञ्ज. आ० २ पृ० १०७ पं० ८। ९ "उपायस्य"-बृ० ल. टि.। १० “यथा सुखादेर्धर्मविशेषजन्यत्वे शरीरादेर्धर्मविशेषजनितस्य भावस्तथेति"बृ. ल. टि.। ११-वत्वेन प्र-वा० बा० । १२-भावे भा-बृ. आ. हा० वि०। १३ प्रशस्तपादभाष्ये तत्त्वसंग्रहपत्रिकायां च प्रातिभस्य वर्णनमित्थं दृश्यते-- "आम्नायविधातृणामृषीणामतीतानागतवर्तमानेष्वतीन्द्रियेष्वर्थेषु धर्मादिषु प्रन्थोपनिबद्धेष्वनुपनिबद्धेषु चात्ममनसोः संयोगाद् धर्मविशेषाच्च यत् प्रातिभं यथार्थनिवेदनं ज्ञानमुत्पद्यते तदार्षमित्याचक्षते । तत् तु प्रस्तारेण देवर्षीणाम् कदाचिदेव लौकिकानां यथा कन्यका ब्रवीति श्वो मे भ्राताऽऽगन्तेति हृदयं मे कथयतीति"। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा | अन्धाद्यभावो बाह्यार्थाभ्युपगमे मनसः स्वातन्येण पूर्व निराकृतः । एवं मानसस्य प्रत्यक्षस्याविद्यमानोपलम्भकस्य सद्भावान्न प्रसङ्गसाधने व्याप्तिसिद्धिः । तथा सर्वस्यैव स्थपत्यादेः क्रियमाणवस्तुग्रहणं प्रत्यक्षं सिद्धमेव । किञ्च कथं जैमिनीयाः स्थिरग्रहणवादिनो वर्त्तमानविषयमेव प्रत्यक्षं संचक्षते ? स्थिरग्रहणं हि वस्तुन एवं भवति यदि वर्तमानविशिष्टस्यैवातीतानागतकालविशिष्टग्रहणम् अन्यथा स्थिरग्रहणाभावः । तथा चोक्तम् "रजतं गृह्यमाणं हि चिरस्थायीति गृह्यते " [ ५३९ J ततः परस्परव्याहतार्थाभिधानात् यत्किञ्चिदेतत् । तदेवं न प्रत्यक्षस्यातीन्द्रियार्थग्रहणनिषेधः पूर्वोक्तनीत्या, संभाव्यते चातीन्द्रियार्थ ग्रहणमध्यक्षस्य । यथा तत् संभवति तथा सर्वज्ञसिद्धौ प्रतिपादितमिति न पुनरुच्यते । "अवश्यं भाविनं नाशं विद्धि सम्प्रत्युपस्थितम् । अयमेव हि ते कालः पूर्वमासीदनागतः ॥ [ ५ किञ्च, सत्संयोगजत्वाद् यदि विद्यमानोपलम्भनत्वमुच्यते तत्र 'सता सीदता साधुना सद्भिर्वा' १० इत्येतान् पक्षान् व्युदस्याभिमतपक्षस्थापनं कृतम् - सति सम्प्रयोगे, प्रयोगश्च द्विधा प्रदर्शितः विन्द्रियाणां व्यापारः योग्यता वा न तु नैयायिकाभ्युपगत एव संयोगादिः । स द्विविधोऽप्यतीतानागतादिलक्षणेऽर्थे अन्तःकरणस्य चोदनया इव कार्येऽर्थे न वार्यते । अथाविद्यमाने कथं करणव्यापारः? करणत्वेनाभ्युपगतायाश्चोदनाया अपि कथं कार्येऽर्थे ? ततो नान्तःकरणस्य विशेषः तत्प्रमेयस्य त्रिकालावच्छिन्नत्वात् भाविरूपस्यापि वा तद्रूपत्वेन सतो वर्तमानत्वापत्तिः । तथा १५ चोक्तं व्यासेन 1 यत् पुनः कार्य कालत्रयापरामृष्टं शशशृङ्गप्रख्यं तत्र कथं प्रेरणाख्यकरणव्यापारः ? अथावाधितप्रतीतिजनकत्वेन प्रेरणायास्तत्र व्यापारस्तर्ह्यन्तःकरणेऽप्येतत् तुल्यम् । ततोऽविद्यमानोपलम्भनस्य २० मानसाध्यक्षस्य सद्भावान्न प्रसङ्गसाधने व्याप्तिसिद्धिरिति न प्रर्थमा व्याख्या । द्वितीयव्याख्याने तत्संतोर्व्यत्ययेऽपि च न संशयज्ञानव्युदासः । तत्र ह्ययमर्थो व्यवतिष्ठते यद्विषयं विज्ञानं तेनैव संप्रयोगे इन्द्रियाणां प्रत्यक्षम् प्रत्यक्षाभासं त्वन्यसंप्रयोगजमिति । तत्र संशयज्ञानं सम्यग्ज्ञानवत् यत्प्रतिभासि तेनैव संयोगे भवति । ननु उभयालम्बनत्वादुभयप्रतिभासि संशयज्ञानम् न चोभयात्मकेनेन्द्रियसम्बन्धः यद्यपि नोभयात्मकेन तेनेन्द्रियसम्बन्धस्तथापि तत्त्वतः २५ सामान्यवान् पुरोऽवस्थितो धर्मी प्रतिभासमानान्यतरविशेषाश्रयः अतो यत् प्रतिभाति तेन सहेन्द्रियस्य संयोगे संशयज्ञानमुदेति न चैतद्व्यवच्छेदाय किञ्चित् पदमुपात्तमिति नैतल्लक्षणात् तैद्रयुदास इति न जैमिनीयमपि प्रत्यक्षलक्षणमनवद्यम् । चार्वाकैस्तु प्रत्यक्षमपि न तत्त्वतः प्रमाणमभ्युपगम्यत इति न तद्विचारणप्रयासः सफल इत्यक्षपादविरचितमेव प्रत्यक्षलक्षणमनवद्यमिति नैयायिकाः । “इन्द्रियलिङ्गाद्यभावे यदर्थप्रतिभानं सा प्रतिभा प्रतिभैव प्रातिभमित्युच्यते तत्र भवद्भिः । तस्योत्पत्तिरनुपपन्ना कारणाभावादित्यनुपयोगे सति इदमुक्तम् धर्मविशेषादिति । विशिष्यते इति विशेषो धर्म एव विशेषो धर्मविशेषः विद्यातपःसमाधिजः प्रकृष्टो धर्मस्तस्मात् प्रतिभोदयः । तत्तु प्रस्तारेण बाहुल्येन देवर्षीणां भवति कदाचिदेव लौकिकानामपि यथा कन्यका ब्रवीति वो मे भ्राताऽऽगन्तेति हृदयं मे कथयतीति । न चेदं संशयः उभयकोटिसंस्पर्शाभावात् न च विपर्ययः संवादादतः प्रमाणमेव” - प्रशस्तकं० पृ० २५८ पं० १– । "प्रातिभं तु ज्ञानमार्ष यथा श्वो मे भ्राताऽऽगमिष्यतीति" - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ८० पं० २१ । १ " सूत्रधारादेः " - बृ० ल० टि० । २ " यथाह भट्टः- रजतं गृह्यमाणं हि चिरस्थायीति गृह्यते इति” - न्यायमञ्ज • आ० ७ पृ० ४६२ पं० १७ । ३ पृ० ५३-६९ । ४ यद्यवि - भां मां० विना । ५ अर्थेन्द्रि-आ०हा० वि० । ६- ना इ-भां० म० । ७ " व्यापार इति योगः " - बृ० ल० टि० । ८ " वर्तमानः " - बृ० ल० टि० । ९-थमव्याभ० मां० । १० - त्सतोव्य - वा० बा० । ११ - त्ययोऽ-भां मां० । १२ " जैमिनीयैः " - बृ० ल० टि० । १३ " संशयज्ञान- " बृ० ल० टि० । १४ - यप्रत्यक्षलक्षणमप्यनव - भां० मां० । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे[सिद्धान्तिना न्यायसूत्रीयप्रत्यक्षलक्षणस्य खण्डनम् ] [प्रसङ्गादिन्द्रियाणां प्राप्याप्राप्यकारित्वचर्चा ] असदेतत् तदभ्युपगमेनेन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नत्वादेरघटमानत्वात् । तथाहि-इन्द्रियं यदि चक्षुर्गोलकादिकमवयविरूपमभ्युपगम्यते तदा तस्य स्वविषयेण व्यवहितदेशेन पर्वतादिना सन्नि५कर्षोऽसिद्धः । न ह्यत्यन्तव्यवहितयोहिमवद्विन्ध्ययोरिव चक्षुर्गोलक-तदर्थयोः सन्निकर्षः संयोगादिलक्षणः सिद्धः । न चावयविलक्षणं गोलकादि वस्तु सिद्धम् तद्राहकाभिमतप्रमाणस्य निषिद्धत्वात् । न च तदाधारः संयोगादिकः सम्बन्धः समस्ति पराभ्युपगतस्य तस्य निषिद्धत्वात् निषेत्स्यमानत्वाच्च । योऽपि कथंचित् पदार्थाव्यतिरिक्तः संश्लेषलक्षणः काष्ठ-जतुनोरिव सम्बन्धः प्रसिद्धः सोऽपि व्यवहितेन पर्वतादिना स्वविषयेण सह चक्षुर्गोलकस्यानुपपन्नः तत्प्रसाधकप्रमाणाभावात् । अथास्ति १० तत्प्रसाधकं प्रमाणम् । ननु तत् किं प्रत्यक्षम्, उतानुमानम् ? न तावत् प्रत्यक्षमत्र विषये प्रवर्तितु. मुत्सहते न हि 'देवदत्तचक्षुस्तद्विषयेण पर्वतादिना सम्वद्धम्' इत्यस्मदादेरक्षप्रभवा प्रतिपत्तिः । अथानुमानं तत्सन्निकर्षप्रसाधनाय प्रवर्तते । ननु किं तदनुमानमिति वक्तव्यम् ? अर्थ 'चक्षुः प्राप्तार्थप्रकाशकम् बाह्येन्द्रियत्वात् त्वगादिवत्' इत्येतदनुमानं तत्सन्निकर्षप्रसाधनम्, न; चक्षुगोलक-तदर्थ योरध्यक्षेणैवासनिकृष्टयोः प्रतिपत्तेरध्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेनास्य हेतोः कालात्यया१५पदिष्टत्वात् अवयविलक्षणस्य च चक्षुषोऽसिद्धराश्रयासिद्धश्च हेतुः । अत एव स्वरूपासिद्धश्च न ह्यविद्यमानस्यावयविनो बाह्येन्द्रियत्वमुपपन्नम् 'त्वगादिवत्' इति निदर्शनमपि साध्यसाधनविकलम् । अथ चक्षुःशब्देनात्र तद्रश्मयोऽभिधीयन्त इति न प्रागुक्तदोषावकाशः, न तेषामसिद्धेः इतरथाऽस्यानुमानस्य वैफल्यापत्तेराश्रयासिद्धो हेतुः । अथात एवानुमानात् तत्सिद्धर्नायं दोषः, न; इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः। तथाहि-तद्रश्मिसिद्धावाश्रयासिद्धत्वदोपपरिहारः तस्मिंश्च सत्यतो हेतोस्तत्सिद्धिरिति २० व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् अत एव स्वरूपासिद्धिरपि हेतोः तेषामसिद्धौ तदाश्रयबाह्येन्द्रियत्वासिद्धेः। यदि पुनर्गोलकाद् बहिर्भूता रश्मयश्चक्षुःशब्दवाच्या अर्थप्रकाशकास्तर्हि गोलकस्याञ्जनादिना संस्कार १ "अवयवि"-बृ० ल. टि.। २ "चक्षुर्विषय"-बृ० ल० टि०। ३ सालय-नैयायिक-वैशेषिक-जैमिनीयाः सर्वेषां बहिरिन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वं मन्यन्ते । बौद्धास्त्वग्-घ्राण-रसनानां प्राप्यकारित्वम् चक्षुः-श्रोत्रयोरप्राप्यकारित्वं च खीकुर्वते । जैनास्तु त्वग्-घ्राण-रसन-श्रोत्राणां प्राप्यकारिखम् चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वं च साधयन्ति । तदेवं साङ्ख्यनैयायिक-वैशेषिक-जैमिनीय-बौद्ध-जैनतर्कग्रन्थेषु प्राप्यकारिताप्राप्यकारित्वविषयो वादः सविस्तर चर्चितो दृश्यते । अत्र च तत्तद्वन्थीयतद्वादस्थलप्रदर्शनमात्रं क्रियते क्रमेण सांख्यद. १,८७ पृ० ६२ पं० २१- मुक्ताव पृ. २९३ पं० १-२९४ । न्यायद. ३,१, ३३-५३ पृ० २५८-२७४ । न्यायवा० पृ. ३३ पं० १५-३६ पं० २१ तथा पृ० ३७३ पं०४-३८५५०६। न्यायवा. ता. टी. पृ. ११६ पं. १८-१२३ पं. १ तथा पृ. ५२० पं० २२५२६ पं० ११ । न्यायमञ्ज. आ० ८ पृ० ४७७ पं० २५-४८० पं० २० । प्रशस्त० के० पृ. २३ पं० ४- । १, १, १३ शाबरभा० पृ० १९-२० । श्लो० वा० पृ० १४६-१४९ तथा पृ. ७४०-७८१ । शास्त्रदीपिका अधि० ६ पृ० १३३-१४० । स्फुटार्थअभि. पृ. ८४-९४ । प्रज्ञाप० १५, पृ० २९८ प्र. पं०६-१० । आवश्यकनि. गा० ५ । विशेषाव. भा. गा० २०४-२१२ पृ. १२२-१२७ तथा गा० ३३६-३४० पृ. १९९-२००।१, १९ तत्त्वार्थभाष्यव्याख्या पृ० ८७ पं० २३-राजवा. पृ.४७ पं० ३३-४८ पं० ३२ । तत्त्वार्थश्लोवा. पृ. २२९ श्लो. १-२३६ श्लो. ९८ । न्यायकु. लि. पृ. ३६ द्वि. पं०११-४२ । प्रमेयक० पृ० ५९ प्र. पं० ११-६२ प्र.५०५।२, ३ स्याद्वादर. पृ. ३१८ पं. ११३४१ आ० । २, ५ रत्नाकराव० पृ. ५१ पं० २२-६० श्लो. ९३। । अन्तरिन्द्रियस्य मनसस्तु प्राप्यकारित्वं पुष्णाति सांख्यवेदान्तप्रक्रिया न पुनस्तद्भिनदर्शनप्रक्रिया । ४ "खगिन्द्रियलक्षणावयविनोऽस्माभिः प्राप्तार्थप्रकाशकत्वं बाह्येन्द्रियत्वं च नेष्यते अवयविनोऽभावातू"-वृ० ल.टि.। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५४१ उन्मीलनादिकश्च व्यापारो वैयर्थ्यमनुभवेत् । अथ गोलकाश्रयास्त इति तन्निमीलने असंस्कारे वा तेषामपि स्थगनमसंस्कृतिश्चेति विषयं प्रति गमनं तत्प्रकाशनं च न स्यात् अतस्तदर्थं तदुन्मीलनं तत्संस्कारश्च न वैयर्थ्यमनुभवेत् तर्हि गोलकानुषक्तकामलादेः प्रकाशकत्वं तेषां स्यात् न हि प्रदीपः स्खलग्नं शलाकादिकं न प्रकाशयतीति दृष्टम् । यैरपि 'गोलकान्तर्गतं तेजोद्रव्यमस्ति तदाश्रितास्ते' इत्यभ्युपगतं तेषामपीदं दूषणं समानम् न हि काचकूपिकान्तर्गताः प्रदीपादिरश्मयस्ततो निर्गच्छन्त-५ स्तद्योगिनमर्थ न प्रकाशयन्ति । तदेवं रश्मीनामसिद्धेर्न ते चक्षुःशब्दाभिधेयाः । अथ रसनादयो बाह्येन्द्रियत्वात् प्राप्तार्थप्रकाशका उपलब्धाः बाह्येन्द्रियं च चक्षुः ततस्तदपि प्राप्तार्थप्रकाशकम् न च गोलकस्य वाह्यार्थप्राप्तिः सम्भविनीति पारिशेष्यात् तद्रश्मीनां तत्प्राप्तिरिति रश्मिसिद्धिः, न; अत्यासन्नमलाञ्जनशलाकादेःप्रकाशप्रसक्तेः। किञ्च, यदि गोलकान्निर्गत्य बाह्यार्थेनाभिसम्बध्य तद्रश्मयोऽर्थ प्रकाशयन्ति तयर्थ प्रत्युपसर्पन्तस्त उपलभ्येरन रूप-स्पर्शविशेषवतां तैजसानां वह्नयादिवत् सता-१० मनुपलम्भे निमित्ताभावात् न चोपलभ्यन्त इत्युपलब्धिलक्षणप्राप्तानामनुपलम्भादसत्त्वम् । अनुभूतरूप-स्पर्शत्वादनुपलभ्यास्त इति चेत् किं पुनरनुभूतरूप-स्पर्श तेजोद्रव्यमुपलब्धं येनैवं कल्पना भवेत् ? अथ दृश्यते सतोरपि तैजसरूप-स्पर्शयोर्नीर-हेम्नोरनुभूतिः, न स्वर्ण-तप्तोदकयोस्तेजस्त्वासिद्धेः दृष्टानुसारेण चानुपलभ्यमानभावप्रकल्पनाः प्रभवन्ति अन्यथा रात्रौ भास्करकराः सन्तोऽपि नोपलभ्यन्ते अनुभूतरूपस्पर्शत्वान्नायनरश्मिवदित्यपि कल्पनाप्रसक्तेः । अथ यद्यपि नायना रश्मयोऽ-१५ ध्यक्षतो न प्रतीयन्ते तथाप्यनुमानतः प्रतीयन्ते अनुमानं च तेजोरश्मिवत् चक्षू रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात् प्रदीपकलिकावदिति तद्रश्मिसत्त्वप्रतिपादकम् नैवं भास्करकरसत्त्वप्रतिपादकं क्षपायामनुमानमस्ति, न; निशायां वहुलान्धकारायां वृषदंशचक्षुर्वाह्यालोकसव्यपेक्षमर्थप्रकाशकं चक्षुष्टात् दिवा पुरुषचक्षुर्वदित्यस्यानुमानस्य रात्रौ तत्सत्त्वप्रतिपादकस्य भावात् । अथ वृषदंशादेश्चाक्षुषं तेजोऽस्तीत्यर्थसिद्धेर्न किञ्चिद् भास्करज्योतिपाऽनुद्भूतरूपेण प्रकल्पितेन तर्हि मनुष्यादीनामपि २० तदस्तीति किमुद्भूतरूपेण वाह्यतेजसा तेषां कृत्यम् ? अथ यद् यथा दृश्यते तत् तथाऽभ्युपगम्यत इति मनुष्यादीनां नायनं सौर्य च तेजो विज्ञानकारणं दृश्यते ततस्तथैव तत् कल्प्यते क्षपायां मार्जारादे यनमेव दृश्यते अतस्तदेव तत्कारणं प्रकल्प्यते न सौर्यम् भवेदेवं यदि तथादर्शनं स्यात् यावता यथा रात्री भास्करकरादर्शनं तथा दिवा चाक्षुषरश्म्यदर्शनम् यथा वा दिवा भास्करकरावभासनं तथा क्षपायां वृषदंशनेत्रालोकावलोकनम् विशेषस्त्वयम्-एकदा भास्कररश्मयोऽन्यदा नाय-२५ नास्तेऽनुमेया इति । अथान्धकारावधनिशीथिनीसमयेऽपि भास्करकरसंभवे नक्तंचराणामिर्व नराणामपि रूपदर्शनं स्यात्, न; सन्तोऽपि तदा तत्करा न नराणां रूपदर्शनजननप्रत्यलाः यथा त एव वासरे उलूकादीनाम् भावशक्तीनां विचित्रत्वात् । तस्मादनुपलम्भात् क्षपायां यथा न भास्करकरास्तथा नायना रश्मयोऽन्यदेति स्थितम् । यदपि परेणात्रोक्तम् 'दूरस्थितकुड्यादिप्रतिफलितानामन्तराले गच्छतां प्रदीपरश्मीनां सतामप्यनुपलम्भदर्शनान्नानुपलम्भात् तभावसिद्धिः' इति, ३० तदप्यनेनैव निरस्तम् ; रविरश्मीनामपि क्षपायामभावासिद्धिप्रसक्तेः । किञ्च, योगिन आत्ममनःसंयोगो यदा सदसवर्गालम्बनमेकं ज्ञानं जनयति तदा सकलसदसद्वर्गस्तस्य चेन्न सहकारी तर्हि "अर्थवत् प्रमाणम्" [वात्स्या० भा० पृ० १] इत्यत्र "अर्थः सहकारी यस्य विशिष्टप्रमिती प्रमातृप्रमेयाभ्यामर्थान्तरं तदर्थवत् प्रमाणम्"[ ] इति विरुध्यते । सहकारी चेदसौ देशाद्यन्तरितोऽपि कुड्यादेःप्रभासुरतयोत्पत्तौ प्रदीपो देशव्यवहितोऽपि सहकारीति नान्तराले तद्रश्मिसिद्धिः।३५ ततो न तैरनुपलम्भव्यभिचारः अत एव नाप्यनुमानम् उदकं तेज उखादिव्यवहितमप्युष्णस्पर्श जनयिष्यतीति नोदके उष्णस्पर्शोपलम्भादनद्भतभास्वररूपस्य तेजसः सिद्धिः। यदपि चक्षुः स्वर सम्बद्धार्थप्रकाशकं तैजसत्वात् प्रदीपवदित्यनुमानम् अनेन किं चक्षुषो रश्मयः साध्यन्ते उतान्यतः सिद्धानां ग्राह्यार्थसम्बन्धस्तेषां साध्यत इति? आये पक्षे तरुणनारीनयनानां दुग्धधवलतया भासुर १-पःप्रल-पृ. आ. हा० वि०। २-सम्बन्ध्य बृ० ल. विना। ३ बहला-वृ० आ. हा० वि० । ४ “चाक्षुष तेजः"-वृ. ल. टि०। ५ "भास्करसम्बन्धिना"-बृ. ल. टि.। ६-वरूप-ल. वा. बा० । ७ "रवि-" बृ. ल.टि.। ८"दिने"-बृ० ल. टि। ९-कुट्यादि-भां० मां० विना। १०-शानं न जपा. बा. भा. मा. विना। ११-प्युपलब्धं स्प-मां० ।-प्युपलब्ध स्प-भा० । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ द्वितीये काण्डेरश्मिरहितानामध्यक्षतः प्रतीतेरध्यक्षबाधितकर्म निर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टो हेतुः। अथ यदध्यक्षग्रहणयोग्यं साध्यमध्यक्षत एव तत्र नोपलभ्यते तत्र तद्वाधः कर्मणः यथाऽनुष्णोऽग्निः सत्त्वादिति न चाध्यक्षग्रहणयोग्या नायना रश्मयःसदा तेषामदृश्यत्वात् , न: पृथिव्यादिद्रव्येऽपितेषां साध्यत्वप्रसक्तेः । तथाहि-रश्मिवन्तो भूम्यादयः सत्वात् प्रदीपवदित्यनुमातुं शक्यत्वात् यथैव हि तैजसत्वं ५प्रदीप रश्मिवत्तया व्याप्तमुपलब्धं तथा सत्त्वमपि । अस्याऽन्यथाऽपि संभावना न तैजसत्वस्येति कुतो विभागः? अथ भूम्यादेस्तत्साधनेऽध्यक्षबाधः, न; दुग्धवलक्षाबलालोचनानामपि तत्साधने तद्विरोधः समानः । अथ वृषदंशचक्षुषोऽध्यक्षतो वीक्ष्यन्ते रश्मय इति कथं तद्विरोधः? ननु यदि तत्र त ईक्ष्यन्तेऽन्यत्र किमायातम् ? तत एवान्यत्र तत्साधने हेम्नि पीतत्वप्रतीतौ रजते पीतत्वप्रसङ्गः प्रमाणबाधनमुभयत्र तुल्यम् । अथ तंत्र तेत्प्रतीतेर्नान्यत्र सत्त्वेन ते साध्यन्ते अपि त्वनुमानतः तत् तु १० दृष्टान्तमात्रम् ; नन्वत्र 'नेत्रत्वात्' इति यदि हेतुः 'तैजसत्वात्' इत्यस्याऽऽनर्थक्यम् अत एव प्रकृतसिद्धेः अध्यक्षबाधा चात्रापि तदवस्थैव तैजसत्वात्' इत्यस्य हेतुत्वे प्रदीपदृष्टान्तेनैवार्थसिद्धवृषदंशनेत्रनिदर्शनमनर्थकम् । न च तस्य तैजसत्वं परं प्रति सिद्धमिति तत्साधनविकलता तदपेक्षया दृष्टान्तदोषः । न च रश्मिवत्त्वाद् विडाललोचनस्य तैजसत्वं सिद्धम् मण्यादीनामपि तत्प्रसक्तेः । न च रश्मिवत्त्वान्मण्यादीनामपि तैजसत्वम् मूलोष्णप्रभाया एव तैजसत्वात् अन्यथा तरुणतरुकिसल१५यानामपि तैजसत्वं स्यात् । न च नारीनयनानां तैजसत्वं सिद्धमित्यसिद्धो हेतुः। न च रश्मिवत्त्वादेव तेषां तत् साध्यते इतरेतराश्रयदोपप्रसक्तेः-सिद्धे भाँवरप्रभावत्त्वे तैजसत्वसिद्धिस्ततश्च भास्वरप्रभावत्वसिद्धिरिति कथं नेतरेतराश्रयदोपः ? अथ तैजसं चक्षू रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात् प्रदीपवदित्यतोऽनुमानात् तैजसत्वसिद्धेर्नेतरेतराश्रयदोषः । नन्वत्र भास्वररूपोष्णस्पर्शतेजो द्रव्यसमवेतगोलकखभावं कार्यद्रव्यं यदि 'चक्षुःशब्दवाच्यं तस्य तैजसत्वसाधने अध्यक्षविरोधः २० तद्विपरीतरूपस्पर्शाधारतयाऽध्यक्षतः प्रतिपत्तेः । तथाहि-अबला-पारावत-बलीवर्दादीनां चक्षुषो धवल-लोहित-नीलरूपतयोष्णस्पर्शविकलतया चाध्यक्षतः प्रतिपतिः सिद्धैव । न च गोलकव्यतिरिक्तं चक्षुस्तब्राहकप्रमाणाभावात् सिद्धमित्याश्रयासिद्धः स्वरूपासिद्धश्च, रूपस्यैव प्रकाशकत्वादिति हेतुरनैकान्तिकश्च तुहिनकरकरनिकरेण तस्य रूपस्यैव प्रकाशकत्वेऽप्यतैजसत्वात् । न चास्यापि पक्षीकरणाददोषः व्यभिचारविषयस्य पक्षीकरणादैकान्तिकत्वे सर्वत्रानैकान्तिकहेत्वभावप्रसक्तेः। न २५ चैवं जलानलयोर्विशेषगुणसङ्कराद् भेदः सिध्येत् । न च तनिकरान्तर्गतं तेजस्तत्रापि रूपप्रकाशकमिति न व्यभिचारःदीपेऽप्यन्यस्य तदन्तर्गतस्य तत्प्रकाशकस्य प्रकल्पनात् दृष्टान्तासिद्धिप्रसक्तेः। प्रत्यक्षबाधोभयत्र चक्षूरूपसम्बन्धेन रूपस्यैव प्रकाशकेन च व्यभिचारः । न चासौ रसादेरपि प्रकाशकः इन्द्रियान्तरपरिकल्पनावैफल्यप्रसक्तेः । रूपप्रकाशकत्वं च रूपज्ञानजनकत्वम् तच्च नील रूपेऽपि विद्यते अन्यथा “अर्थवत् प्रमाणम्" [वात्स्या० भा०पृ०१] इत्यत्रार्थसहकारित्वं तस्य न ३० स्यादिति तेन व्यभिचारः । अथ द्रव्यत्वे सति करणस्य रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वादिति विशेषणान्न सम्बन्ध-रूपाभ्यामनेकान्तः। ननु यथा सम्बन्धादेरद्रव्यादेरप्यतैजसस्य रूपज्ञानजननं तथा चक्षुषोऽपि किं न स्यात् ? न च 'अदर्शनात्' इत्युत्तरम् असर्वदर्शिदर्शननिवृत्तेर्भावानिवर्तकत्वात् । प्रदीपवदिति दृष्टान्तस्यापि रूपप्रकाशकत्वासिद्धेः साधनविकलता दृष्टान्तस्य । न च १-द्वाधकः क-बृ. ल. वा. बा. विना। २ "पक्षस्य"-बृ० ल. टि। ३-धने तु त-वृ. आ. हा०वि०। ४ "वृषर्दशनेत्रे"-वृ० ल.टि.। ५"रश्मिप्रतीतेः"-बृ. ल.टि.। ६ “नारीनयनानां तैजससम्"बृ. ल. टि०। ७ भास्कर-भां० मां०। ८-त्तिस्तथा सि-भा० मा०। ९-णादनैका-बृ० वा. बा। १. "अयमभिप्रायः यथा न हिमकरकरा रूपप्रकाशकाः किन्तु तदन्तर्गतमन्यदेव तेजो रूपप्रकाशकम्"-ल.टि.। "अयमभिप्रायः-यथा न हिमकरकरा रूपप्रकाशकाः किन्वन्यदेव तेषु अन्तर्गतं रूपं तेजः तत् तत्प्रकाशकमिति"-बृ.टि.। ११ "हिमकरनिकर"-बृ. ल.टि.। १२ “दीपेऽपि वक्तुं शक्यम्-न दीपो रूपप्रकाशकः किन्तु तदन्तर्गतमन्यदेव तेजो रूपप्रकाशकम्"-बृ० ल.टि.। १३ "सनिकर्षों हि चक्षुरूपसंवन्धरूपः स च रूपप्रकाशकोऽपि तै-(न तै-)जसतामनुभवति"-बृ० ल.टि.। १४ "न च तैजसत्वं रूपप्रकाशकत्वेऽपि"-बृ० ल. टि.। १५-रूपे वि-बृ. आ. हा. वि. विना। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५४३ प्रदीपे सति प्रतिनियतप्राणिनां रूपदर्शनसंभवात् तस्य रूपप्रकाशकत्वम् अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां सदभावेऽपि रूपदर्शनसद्भावात् । न च यदन्तरेणापि यद् भवति तत् तत्कार्यम् इतरत् तत्कारणम् अन्वयव्यतिरेकनिबन्धनत्वात् तद्भावस्य । अथ प्रदीपे सति यद् दर्शनं तत् तदभावे न भवति यत्तु तेदभावे भवति न तत तत्रापि तत्सदृशम । न चान्यस्य व्यभिचारे अन्यस्यासौ अतिप्रसकात. असदेतत्; यतो यादृशमेव रूपदर्शनमालोके संस्कृतचक्षुषाम् तदभावेऽपि तादृशमेव तद्भेदानव-५ धारणात् । तथा हि तद्भेदकल्पने न किञ्चित् कस्यचिद् वस्तुनः सदृशमिति सौगतमतानुप्रवेशः स्यात् । रूप-प्रदीपयोश्च सहोत्पन्नयोर्युगपद्दर्शने प्रदीपवत् रूपस्यापि प्रदीपप्रकाशकत्वाद् रूपं तैजसं भवेत् अन्यथा न प्रदीपोऽपि तैजसः स्यात् तजनकत्वाविशेषात् तयोः । न चायंदा प्रदीपस्यैव रूपप्रकाशकत्वोपलब्धेः स एव तदापि प्रकाशकोऽन्यदाऽप्यञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां तेंदभावेऽपि रूपदर्शनसद्भावात् तस्र्यं तत्प्रकाशकत्वासिद्धेः । अथ तस्मिन् सति कदाचित् कस्यचित् रूपदर्शनात् १० तस्य तत्प्रदर्शकत्वं तर्हि नक्तंचराणां संतमसे रूपदर्शनात् तेदभावे च तदभावात् हेतुफलभावस्य सर्वत्र तन्निबन्धनत्वात् तमोऽपि रूपप्रकाशकत्वात् प्रदीपवत् तैजसं भवेत् । अन्यथा हेतोरनेनैव व्यभिचारः स्यात् । [अनुषङ्गात् तमसो भावाभावत्वप्रक्रमः ] आलोकाभाव एव तम इति चेत्, न; आलोकस्यापि तमोऽभावरूपताप्रसक्तेः । आलोकस्य १५ तरतमादिरूपतयोपलम्भात् नाभावरूपतेति चेत् न, तमस्यप्यस्य समानत्वात् । यथा चालोकः प्रतिभासविषयस्तथा तमोऽपि तद्विषयः। न चालोकप्रतिभासाभाव एव तमःप्रतिभासः इतरत्राप्यस्य समानत्वात् । न च चक्षुर्व्यापाराभावेऽपि तत्प्रतिभाससंवेदनादालोकप्रतिभासाभाव एव तमःप्रतिभासः प्रतिनियतसामग्रीप्रभवविज्ञानावभासित्वात् प्रतिनियतभावानां तमसस्तदतत्प्रभवविज्ञानावभासित्वात् आलोकस्य च तद्विपर्ययात् यद्वा आलोकस्याप्यचक्षुर्जे सत्यस्वप्नज्ञाने प्रतिभासनात् २० मोज्ञानाभावरूपता भवेत् । अथालोकस्य रूपप्रतिपत्तौ हेतुभावान्नाभावरूपता तर्हि तमसोऽपि नक्तंचररूपप्रतिपत्तौ हेतुभावो विद्यत इति नाभावरूपता भवेत् । तदेवमालोकस्य वस्तुत्वे तमसोऽपि तदस्त्विति तेन हेतोर्व्यभिचारः । भवतु वा आलोकाभाव एव तमस्तथापि व्यभिचारापरिहारः तभावस्यातैजसस्यापि तत्प्रकाशकत्वात् । अथ तमोऽभावेऽपि रूपदर्शनान्न तस्य तत्प्रकाशकत्वं तर्हि नक्तंचराणामालोकाभावेऽपि रूपदर्शनादालोकस्यापि न तत्प्रकाशकत्वं भवेत् । अथास्मदादीनां २५ १ "दीपाभावे"-बृ० ल. टि०। २ "व्यभिचारः"-बृ० ल० टि.। ३ अत्र 'तथापि पाठः सम्यक् स्यात् । ४-स्तुतः स-वृ० ल०। ५ "प्रदीप-रूपयोः"-बृ०ल.टि.। ६ “आलोकाभावे"-बृ० ल. टि.। ७ “दीप-" बृ० ल.टि.। ८-स्य प्र-बृ. आ. हा० वि०। ९ "तमः-" बृ० ल.टि.। १० "रूपदर्शन-" बृ० ल० टि। ११ “रूपप्रकाशकवादित्यस्य"-ल. टि.। १२ “तमसा"-ल. टि.। १३ तमसः खरूपे मतद्वयम्-केचित् तमो भावरूपं मन्यन्ते केचित्त्वभावरूपम् । तत्र जैनाः पुद्गलपरिणामतया, भर्तृहरिप्रमुखवैयाकरणा अणुपरिणामतया, साङ्ख्याः प्रकृतिपरिणामतया मीमांसकाश्च अभावस्य पदार्थान्तरखाभावेन च तमसो भावरूपता प्रतिपन्नाः । नैयायिक-वैशेषिको तु तमसस्तेजोऽभावरूपत्वेन अभावरूपतां खीकृतवन्तः । तमोभावाभावचर्चाविषयाणि तत्तद्न्थस्थलानि यथा-५, २४ राजवा० वा० १९, २०, २१ पृ. २३३ । ५, २४ तत्त्वार्थभाष्यव्याख्या पृ० ३६३ पं० ६- ३६४ पं० १६ । प्रमेयक पृ० ६५ प्र. पं० २-। ५, ८ स्याद्वादर• पृ० ८४९ पं० १९८६७ पं० ९ आ० । २, २१ रत्नाकराव. पृ. ६४-७२ । स्याद्वा० का० ५ पृ० १६ पं०७-२१ । "अणवः सर्वशक्तिवाद् भेदसंसर्गवृत्तयः । छायाऽऽतपतमःशब्दभावेन परिणामिनः॥ खशक्तौ व्यज्यमानायां प्रयत्नेन समीरिताः । अभ्राणीव प्रचीयन्ते शब्दाख्याः परमाणवः ॥" -वाक्यप० प्र० का० श्लो. १११-११२ । न्यायवा. ता. टी. पृ. ३४५पं०४-१६ । प्रशस्त. के. पृ. ९५० १-१० पं०८। १४ “वस्तुसम्"-वृ० टि.। १५ “'रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकखात्' इत्यस्य"-बृ. ल. टि.। १६ “नक्तंचरादीनां रूपप्रकाशकलात्"-बृ० ल० टि.। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ द्वितीये काण्डेकिमित्यालोकाभावे रूपदर्शनं न भवति? भवत्येव कथमन्यथान्धकारसाक्षात्करणम् ? घटरूपदर्शनं किं नेति चेत् बहलतमोव्यवधानात् तीवालोकतिरोहिताल्परूपवत् । प्रदीपोपादानं तु तस्य व्यवच्छेदार्थम् । अत एवान्यत्रोक्तम् “तमोनिरोधे वीक्षन्ते तमसानावृत्तं(वृतं) परम् । घटादिकम्" [ ] इत्यादि। प्रदीपस्य च घटरूपैव्यवधायकतमोऽपनेतृत्वे 'तैजसं चक्षू रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात् प्रदीपवत्' इति साधनविकलत्वाद् दृष्टान्तस्य निरस्तं द्रष्टव्यम् । न चान्यत एव तस्य रश्मयः सिद्धाः केवलमनेन प्राप्तार्थप्रकाशकत्वं तेषां साध्यत इति वक्तव्यम तत्सद्भावप्रतिपादकस्य प्रमाणस्याभावात् । अथ यद्यप्राप्तार्थप्रकाशकं चक्षुः अविशेषेण सर्व प्रकाशयेत. १०न; भावानां नियतशक्तित्वात् । यतो य एव यत्र योग्यः स एव तत् प्रकाशयति अन्यथा संयुक्तसमवायाविशेषाच्चक्षुर्यथा कुवलयरूपं प्रकाशयति तथा तद्गन्धमपि प्रकाशयेत् तथा चेन्द्रियान्तरवैफल्यम् । अथ योग्यताऽभावान्न तत् तद्न्धमवभासयति तर्हि योग्यताऽभावात् प्राप्त्यभावेऽपि नातिव्यवहितमतिसन्निकृष्ट वा तद्रूपं प्रकाशयतीति सर्वत्र योग्यतैवाश्रयणीया नापरं सम्बन्ध प्रकल्पनेन कृत्यम् 'रश्मयो वा कुतो न लोकान्तमुपयान्ति'? इति प्रेरणायां परेणाप्ययोग्यतैव तत्र १५इतरत्र तु योग्यता प्रतिविधानत्वेन वक्तव्या। तथा, यस्य कारणाद भिन्नमेव कार्य तस्य मेदाविशेषात् सर्व सर्वस्मात् कुतो नोत्पद्यत इति चोये योग्यतातो नापरमुत्तरमिति सैवात्राप्यभ्युपगमनीया। किञ्च, यदि प्राप्तार्थप्रकाशकं चक्षुः स्फटिकाद्यन्तरितवस्तुप्रकाशकं न स्यात् तद्रश्मीनां विषयं प्रति गच्छता स्फटिकादिना प्रतिबन्धात् । न च तैस्तस्यै ध्वस्तत्वादयमदोषः तद्व्यवहितवस्तुदर्शनसमये स्फटिकादेर्व्यवधायकस्यादर्शनप्रसङ्गात् तदुपरि व्यवस्थापितस्य चाधारविनाशात् पातप्रसक्तेश्च न हि २०परमाणवो दृश्याः कस्यचिदाधारभूता वा अवयविकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तेः । अन्यस्यावयविन आशुत्प त्तेरदोषश्चेत्, न तदा तद्व्यवहितस्यादर्शनप्रसक्तः। तथा च यदा व्यवधायकदर्शनं न तदा व्यवहितदर्शनम् यदा च व्यवहितदर्शनं न तदा व्यवधायकदर्शनमिति प्रसज्येत । न चैवम् युगपद् द्वयोदर्शनात् । अथाशूत्पत्तेर्निरन्तरं व्यवहितप्रतिपत्तिविभ्रमस्तर्हि तेदभावस्थापि आशुवृत्तेरभावप्रतिपत्तिविभ्रमस्तथा किं न भवेत् ? भावपक्षस्य बलीयस्त्वादिति चेत्, न; भावाभावयोः परस्परं खकार्य२५करणं प्रत्यविशेषात । किञ्च, कलषजलाद्यावतस्यार्थस्य किं न ते प्रकाशकोः स्फटिकादेरिव जलादेरपि भेदे तेषां सामर्थ्याप्रतिघातात् ? न च जलेन ते प्रतिहन्यन्ते स्वच्छजलेनापि तेषां प्रतिघातात् तद्व्यवहितस्याप्यप्रकाशनप्रसङ्गात् । अथ तेषां तत्र प्रकाशनयोग्यता तर्हि तत एव तेऽप्राप्तमप्यर्थ प्रकाशयिष्यन्तीति व्यर्थ संयुक्तसमवायादिसन्निकर्षप्रकल्पनम् । अपि च, समवायसम्बन्धनिषेधे चक्षुषो घटरूपेण संयुक्तसमवायप्रतिबन्धस्याभावात् तद्रूपाप्रकाशकत्वात् कथं नासिद्धो हेतुः 'रूपादीनां ३०मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात्' इति? अथ 'इह तन्तुषु पटः' इति बुद्धिः सम्बन्धनिबन्धना तद्बुद्धित्वात् 'इह कुण्डे दद्धि' इति बुद्धिवत् इत्यतोऽनुमानात् समवायसिद्धेः न संयुक्तसमवायसम्बन्धाभावः, न; 'इह'बुद्ध्या सम्बन्धमात्रसाधने घट-तद्रूपयोः कथञ्चित्तादात्म्यसम्बन्धाभ्युपगमात् सिद्धसाध्यताप्रसङ्गात् । अथ कथञ्चित्तादात्म्यसम्बन्धः तद्बुद्धिनिमित्तत्वेन न प्रतिपन्न इति कथमतोऽसौ साध्यस्तर्हि समवायेऽप्येतत् समानम् । तथापि ततस्तत्साधनेऽन्यत्र कः प्रद्वेषः? अथ घट-तद्रूपयोः ३५कथञ्चित्तादात्म्यसम्बन्धो विरोधान्नेष्यते तर्हि भावाभावयोः कथञ्चित्तादात्म्याभावे समवायादेर संभवादसम्बन्धः स्यात् तथा च अभावेनाक्षाणां सन्निकर्षाभावान्नाक्षतस्तत्प्रतिपत्तिः स्यात् । विशेषणविशेष्यभावस्य भावाभावयोः सम्बन्धस्य भावान्नायं दोष इति चेत्, न; भावाभावाभ्यां १“जनाः"-बृ. ल. टि.। २-पस्य व्य-भा० मां०। ३-क्षुः स्फुटि-ल. वा. बा० । ४-तां स्फुटि-ल० वा. बा०। ५ “प्रतिबन्धस्य"-बृ० ल. टि.। ६-मये स्फुटि-ल. वा. बा०। ७-स्य वाधाबृ. ल. वा. बा. विना। ८-न्तर व्य-वा० बा० । “निरन्तरस्फटिकादिविभ्रमः"-प्रमेयक. पृ० ६१ द्वि. पं०६। ९ “अवयवि-" बृ० ल.टि.। १० "रश्मयः"-बृ० ल. टि.। ११-काः स्फुटि-वा० बा०। १२ “खच्छजल-" बृ. ल. टि. । १३ व्यर्थ समवा-बृ. आ. हा०वि०। १४ अत्र प्रशस्त० के० गतं समवायनिरूपणं द्रष्टव्यम्-पृ० ३२४-३२५। १५-न प्र-वा० बा। तत एक वात् तम् । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। १० तस्यानर्थान्तरत्वे तावेव स एव वा स्यात् । अर्थान्तरत्वे भावाभावयोः सद्भावेऽपि न विशेषणविशेष्यरूपंता ताभ्यां तस्यासम्बन्धात् सम्बन्धे वा ताभ्यां तस्यापरेण सम्बन्धनिमित्तेन विशेषणविशेष्यभावेन भवितव्यम् । तस्यापि सम्बन्धनिमित्तनापरेण तेनेत्यनवस्था भवेत् । तस्मात् कथञ्चित् तयोस्तादात्म्यमभ्युपगन्तव्यम् । अन्यथाऽभावस्याध्यक्षप्रमाणग्राह्यता न भवेत्। तदेवं समवायासिद्धेर्नाक्षस्य रूपेण सम्बन्ध इति न तेन तस्य ग्रहणं परपक्षे भवेदिति "चक्षुषो घटेन संयोग एव युतसिद्ध-५ त्वात् द्रव्यसमवेतानां गुणादीनां संयुक्तसमवाय एव” [ ] इत्यादि षोढा सन्निकर्षप्रतिपादनमयुक्तम् संयोग-समवाय-विशेषणविशेष्यभावसम्बन्धानामभावेन तदनुपपत्तेः संयोगादेश्चाभावः प्रतिपादित एव यथावसरमिति न पुनः प्रतिपाद्यते । ___अथ यथाऽस्माकं चक्षुपः प्राप्तार्थप्रकाशकत्वं प्रमाणाभावान्न सिद्धं तथा भवतोऽप्यप्राप्तार्थप्रकाशकत्वं तस्य तत एव न सिद्धमिति कथम् “रूवं पुण पासइ अपुढे तु” [आवश्यकनि० गा० ५] इत्यभिधानं युक्तिसङ्गतम्, न तस्याप्राप्तार्थप्रकाशने अनुमानसद्भावात् । तथाहि-अप्राप्तार्थप्रकाशकं चक्षुः अत्यासन्नार्थाप्रकाशकत्वात् यत् पुनः प्राप्तार्थप्रकाशकं तदत्यासन्नप्रकाशकमुपलब्धम् यथा श्रोत्रादि अत्यासन्नार्थाप्रकाशकं च चक्षुस्तस्मादप्राप्तार्थप्रकाशकमिति व्यतिरेकी हेतुः । न चायमसिद्धो हेतुः गोलकस्थस्य कामलादेः पक्ष्मपुटगतस्य चाञ्जनादेस्तेनाप्रकाशनात् कथमन्यथा दर्पणादेः परो-१५ पदेशस्य वा तत्प्रतिपत्त्यर्थमुपादानं भवेत? अथ साध्यनिवृत्ती नियमेन यतः साधनं निवर्तते स वैधर्म्यदृष्टान्तः जीवच्छरीरस्य सात्मकत्वे साध्ये घट इव आत्मशरीरसंयोगविशेषे सात्मकत्वे निवर्तमाने नियमेन ततः प्राणादिमत्त्वनिवृत्तेः न च श्रोत्रादेरप्राप्तार्थप्रकाशकत्वे निवर्तमानेऽत्यासन्नार्थाप्रकाशकत्वं नियमेन व्यावर्तते चक्षुप इव तस्याप्यत्यासन्नार्थाप्रकाशकत्वात् ततो नायं व्यतिरेकी हेतुः, न; कर्णशष्कुलीप्रविष्टमशकादिशब्दस्य तेनं प्रकाशनात् स्पर्शनादौ त्वविवाद एव । २० "चक्षुः-श्रोत्र-मनसामप्राप्तार्थकारित्वम्" [ ] इति वचनादप्राप्तार्थप्रकाशकं श्रोत्रमिति न साध्यनिवृत्तौ साधननिवृत्तिस्तत इति नायं व्यतिरेकी हेतुरिति सौगतः यथा सर्वगतात्मपक्षे सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वादिति हेतुः, न; अप्राप्तकारित्वे श्रोत्रस्य चक्षुष इवात्यासन्नविषयप्रकाशकत्वं न स्यादिति मशकादिशब्दस्य प्राप्तस्य प्रत्यक्षतः प्रकाशकत्वेन प्रतीयमानस्याप्राप्तार्थप्रकाशकत्वं तस्याध्यक्षबाधितम् अग्नावनुष्णत्ववत् । अथ 'दूरे शब्दो निकटे शब्दः' इति प्रतीतेः २५ प्रोप्ताप्रकाशकम् प्राप्तार्थप्रकाशकं च श्रोत्रमिष्यते, न सदेतत्; यतः साकारज्ञानपक्षेऽनाकार ज्ञानपक्षे वाऽयमभ्युपगम इति वाच्यम् ? न तावत् प्रथमः पक्षः शब्दाकारस्य ज्ञानगतस्यावभासे दूर-निकटव्यवहारानुपपत्तेः अन्यथा स्वसंवेदनाकारेऽपि तत्प्रसक्तिर्भवेदिति सर्वत्रासन्नद्रव्यवहारोऽघटमानक: स्यात् । अथाकाराधायकस्यासन्नादित्वात् तद्व्यवहारस्तर्हि परपक्षेऽप्येतदुत्तरं समानं भवेदिति किं तत्प्रतिक्षेपः? शक्यं हि परेणाप्येवमभिधातुम् कर्णशष्कुल्यनुप्रविष्टस्य शब्दस्य ३० ग्रहणेऽपि तत्प्रथमकारणस्य दूरत्वाद दरव्यवहारो विपर्ययाच्च विपर्यय इति । द्वितीयपक्षस्त्वयुक्तः सौगतस्यानभिमतत्वात् । अथ परापेक्षयोऽप्राप्तार्थप्रकाशकं श्रोत्रमित्यभिधीयते दूरादिव्यवहारात् १-वयोस्तद्धा-भां० मां० विन।। २-पताभ्यां भां० मा० आ० हा० । ३ पृ० ५१९ पं० १५-२० टि०९। ४ पृ० ११३ पं० ४२ तथा पृ० १०६ पं० १०। ५ “पुढे सुणेइ सई रूवं पुण पासइ अपुढे तु । गंधं रसं च फासं बद्धपुढे वियागरे" ॥ इति संपूर्णा गाथा । ६ "चक्षुषाऽप्रकाशनात्"-बृ. ल. टि.। "घटादेः सकाशात्"-वृ. ल. टि०। ८"प्राप्तार्थप्रकाशकत्वे"बृ० ल० टि०। ९ "श्रोत्रादे:"-बृ० ल. टि.। १० "श्रोत्रेण"-बृ० ल. टि.। ११ "श्रोत्रस्य"-बृ. ल. टि.। १२ प्राप्तार्थप्र-वा. बा. आ. हा०वि० । अत्र 'प्राप्तार्थप्रकाशकं च' इत्यंशस्य असंलग्नतया भासमानत्वात् 'अथ दूरे शब्दो निकटे शब्द इति प्रतीतेः प्राप्तार्थाप्रकाशक श्रोत्रमिष्यते' एतावान् पाठो मौलिको भाति । “प्राप्यकारित्वे च श्रोत्रस्य तद्गोचरे शब्दे दूरादिव्यवहारो न स्यात् । अस्ति चात्रायं दूरे शब्दो निकटे शब्दः श्रूयत इति प्रतीतिः अतोऽप्राप्य. कारित्वमेवास्योपपन्नम्”–स्याद्वादर० पृ. ३३३ पं० १८ आ०। १३ "निराकारज्ञानस्य"-बृ.टि.। १४ “निरा. कारज्ञानरूपः"-ल.टि.. १५-या प्रा-वा. बा०। ७० स०त. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ द्वितीये काण्डे - तद्विषये चक्षुर्वदिति नः एवं परसिद्धेनानुमानेन प्रमाणेतरसामान्यव्यवस्थादेश्चार्वाकस्योत्पत्त्यनित्यत्वादिना सुखादेरचेतनत्वप्रसाधनं सांख्यस्यं चानिषिद्धं भवेत् बौद्धाभ्युपगतेनानुमानेनोत्पत्त्यादिना च तेनापि स्वाभिप्रेतसाध्यस्य साधयितुं शक्यत्वात् । यश्च बाणादेरागतस्य ग्रहणेऽपि दूरादिव्यवहारं प्रतिपद्यते परः स कथं तत एव त्वदीयं साध्यं प्रतिपद्येत ? यदि च स्वोत्पत्तिदेशस्थ एवं शब्दः श्रोत्रेण ५ गृह्येत नागतस्तर्हि कथमनुवाते शब्दस्य तद्देशोत्पत्तिकस्यैव श्रवणम् प्रतिवातेऽश्रवणम् मन्दवाते मना श्रवणं भवेत् ? न च प्रतिकूलवातेन शब्दस्य नाशितत्वात् श्रोत्रस्य वाभिहतत्वान्न श्रवणं शब्दविनाशे अनुकूलवातस्थस्यापि तदश्रवणप्रसक्तेः । शब्दस्य विनष्टत्वात् व्यवहितदेशस्थस्य च तस्य श्रोत्राभिघातहेतुत्वानुपपत्तेः अन्यथा भस्त्रादिव्यवस्थितस्यापि तस्य तदुपघातकत्वं स्यात् । अनुकूलवातेन तस्य तं प्रति प्रेरणात् तेन तच्छ्रवणे 'प्राप्तः शब्दः श्रूयते' इति प्राप्तम् तथापि तत्र दूरादि१० व्यवहारे न श्रोत्रमप्राप्तप्रकाशकमतः सिध्यतीति कथं न व्यतिरेकी हेतुः ? न च 'चक्षुः शब्देन नायनरश्म्यभिधानादत्यासन्नप्रकाशकत्वाच्च तेषाम् 'अत्यासन्नाप्रकाशकत्वात्' इति हेतुरसिद्धः तेषां प्रत्यक्षादिप्रमाणाविषयत्वेन सद्भावासिद्धेरिति प्रतिपादनात् । तदसिद्धतादिदोषविकलादतो हेतोर - प्राप्तार्थप्रकाशकत्वं चक्षुषः सिद्धमिति 'रूवं पुण पासइ अपुठ्ठे तु' इति न युक्तिविकलं वचः तदेवमिन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नत्वं प्रत्यक्षस्यासिद्धम् । १५ दपि न त्वन्तःकरणेन्द्रियसम्बन्धस्य सुखादिज्ञानोत्पत्तावसंभवेन तस्याव्यापकत्वादभिधानम्' इति, तदप्यसम्बद्धम् ; यथा हीन्द्रियार्थसन्निकर्षो यथोक्तन्यायेन रूपज्ञानोत्पत्तौ न संभवीति न प्रत्यक्षलक्षणं तथान्तःकरणेन्द्रियसम्बन्धोऽपि; अन्तःकरणस्य परपरिकल्पितस्यासिद्धत्वात् तत्सम्बन्धस्य च दूरापास्तत्वात् । यथा चान्तःकरणस्यासिद्धिस्तथा स्वनिर्णयं ज्ञानस्य साधयद्भिः प्रदर्शितम् । यदपि 'अव्यभिचारादिकार्यविशेषणोपादानमन्तरेण सन्निकर्षस्य साधुत्वं ज्ञातुं न शक्यते' इति २० अभिधानम् तदप्यसङ्गतम् ; परपक्षेऽव्यभिचारादिधर्मोपेतस्य ज्ञानकार्यस्यैवासिद्धेः कथं ततः सन्नि कर्षस्य साधुत्वावगमः ? कोर्यत्वानवगमश्च ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वानभ्युपगमे ज्ञानान्तरप्रत्यक्षतायामनवस्थादिदोषोपपत्तेः प्राक् प्रतिपादनात् । यच्च 'अर्थग्रहणं स्मृतिफलसन्निकर्षनिवृत्त्यर्थम्' इत्युक्तम्, तदप्यसङ्गतम् ; स्मृतिवद् ज्ञानस्याप्यर्थजन्यत्वासिद्धेः तज्जन्यत्वात् तस्यें तड्राहकत्वे समानसमयचिरातीतानागतार्थग्राहकत्वं तस्य न स्यात् तथाभूतस्यार्थस्य तत् प्रत्यजनकत्वात् तथा च सर्वज्ञज्ञानं २५ सकलपदार्थग्राहकं न भवेदिति प्राक् प्रतिपादितम् । यदपि 'ज्ञानग्रहणं सुखादिनिवृत्त्यर्थम्' इति प्रतिपादितम्, तदप्यसङ्गतम् ; सुखादेर्ज्ञानरूपत्वानतिक्रमात् अन्यथा आल्हादाद्यनुभवो न स्यात् तग्राहकस्यापरस्यानुभवस्यानवस्थादिदोषतो निषिद्धत्वात् । यदपि भिन्नहेतुकत्वं सुखादेः प्रतिपदितम् तदपि सुखत्वादेः सामान्यस्यासिद्धेरसङ्गतम् । यश्च प्रत्यक्षविरोधः प्रतिपादितो ज्ञानसुखयोरेकत्वे - 'ज्ञानमर्थावबोधस्वभावं सुखादिकमाल्हादादिस्वभावं ततो भिन्नमध्यक्षतोऽनुभूयते' इति ३० सोऽप्यनुपपन्नः यतः स्वावबोध एव विज्ञाने अव्यभिचरितो धर्मः स्मरणादौ ज्ञानरूपतायामप्यर्थावबोधरूपताया अभावात् । एतच्च 'अर्थोपलब्धिः' इति विशेषणमुपाददता प्रमाणे परेणाभ्युपगतमेव । स्वावबोधरूपता तु ज्ञानाव्यभिचरिता सुखादावप्यस्ति अन्यथा तस्यानुभव एव न स्यादिति प्रतिपादितम् ततश्च सुखादेर्ज्ञानरूपतायां कथमध्यक्षविरोधः ? अदृष्टविशेषप्रभवत्वेन च सुखादेर्भेदे सुरूपज्ञानस्य विरूपज्ञानाद् ज्ञानरूपतया भेदो भवेत् अहप्रविशेपजन्यताया अविशेषात् । तन्न ३५ सुखादिव्यवच्छेदार्थ ज्ञानपदोपादानं युक्तम् । अव्यपदेश्यपदोपादानमप्यनर्थकम् व्यवच्छेद्याभावात् । 'उभयजं ज्ञानं व्यवच्छेद्यमिति चेत्, नः तस्याध्यक्षंतायां दोषाभावात् । अथ शब्दजत्वात् तस्य शाब्दे ऽन्तर्भावः; नन्वक्षजत्वादध्यक्षे किमिति नान्तर्भावः ? शब्दस्य तत्र प्राधान्याच्छाब्दं तदिति चेत्, न; अक्ष १- स्य वानि - आ० । २ “परवादिना”-बृ० ल० टि० । ३ व श्रोत्रे - वृ० आ० हा० वि० विना । ४-हारो म श्रो- आ० हा ० वि० ।-हारे श्रो- वा० बा० । ५ पृ० ५४५ पं० भां० मां० विना । ८ पृ० ४७७ पं० विना । ११ पृ० ५२० पं० ११ । १५ पृ० ५२० पं० १४ । १९- क्षतया दो - वृ० । १७ पृ० ४७८ पं० ६ । ९ १२ “ज्ञानस्य”–बृ० ल० टि० १६० ५२१ पं० ५ । ११ । ६ पृ० ५१९ पं० २३ । ७-स्य दूपृ० ५२० पं० ३ । १० कार्यान - वा० वा० । १३ “अर्थः " - बृ० ल० टि० । १४ सर्वज्ञानं १७ पृ० ५२१ पं० ४ । १८- यजज्ञा-पृ० भा० बृ० । वि० । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५४७ -लिङ्गातिक्रान्त एव शब्दस्य प्राधान्येन व्यापारोपगमात् । अथोभयजज्ञानविषयस्यापि तदतिक्रान्तत्वं तहव्यपदेश्यपदोपादानमन्तरेणापि शाब्द एव तस्यान्तर्भावो भविष्यतीति तद्व्यवच्छेदार्थमव्यपदेश्यपदोपादानमनर्थकम् । अथोभयजत्वादस्य प्रमाणान्तरत्वं स्यात् असति अव्यपदेश्यग्रहणे, न; अक्षप्राधान्ये प्रत्यक्षता शब्दप्राधान्ये तु शाब्दतेति कथं प्रमाणान्तरता? न चोभयोरपि प्राधान्यम् सामग्र्यामेकस्यैव साधकतमत्वात् तेनैव च व्यपदेशप्राप्तेः । यदपि 'व्यभिचारिज्ञाननिवृत्त्यर्थमव्यभिचारिपदमुपा-५ त्तम् । तदप्ययुक्तम् । तत्प्रतिपाद्यस्यार्थस्य परमतेनासङ्गतेः। तथाहि-अदुष्टकारणप्रभवत्वं वाधारहितत्वं वा अव्यभिचारित्वं प्रवृत्तिसामर्थ्यावगमव्यतिरेकेण न ज्ञातुं शक्यमिति स्वतःप्रामाण्यनिराकरणप्रस्तावे प्रतिपादितमिति प्रवृत्तिसामर्थ्य सेवाव्यभिचारित्वम् । तच्च विषयप्राप्त्या विज्ञानस्याव्यभिचारित्वं शायमानं किं प्रतिभातविषयप्राप्त्याऽवगम्यते आहोस्विदप्रतिभातविषयप्राप्त्या? यदि प्रतिभातविषयप्राप्त्या तदोदकज्ञाने किमुदकावयवी प्रतिभातः प्राप्यते उत तत्सामान्यम् आहोस्विदुभयमिति पक्षाः।१० तत्र यद्यवयवी प्रतिभातः प्राप्यत इति पक्षः स न यक्तः अवयविनोऽसत्त्वेन प्रतिभासं प्रति विषयत्वासंभवात् सत्त्वेऽपि न तस्य पराभ्युपगमेन प्रतिभातस्य प्राप्तिः अषादिविर्वर्तनाभिघातोपजातावयवक्रियादिक्रमेण ध्वंससंभवात् । अथावस्थितव्यहरवयवैरारब्धस्य तस्य तज्जातीयतया प्रतिभातस्यैव प्राप्तिः नन्वेवमप्यन्यः प्रतिभातोऽन्यश्च प्राप्यत इति कथं तदवभासिनो ज्ञानस्याव्यभिचारिता न ह्यन्यप्रतिभासनेऽन्यत्र प्राप्तावव्यभिचारिता अन्यथा मरीचिकाजलप्रतिभासे दैवात् सत्यजलप्राप्तौ तदव-१५ भासिनस्तस्याऽव्यभिचारिता भवेत् । न च तद्देशजलप्रापकस्याव्यभिचारितेति नायं दोषः यतो देशस्यापि भास्करकरानुप्रवेशादिनाऽवयवक्रियाक्रमेण नाशात तत्त्वानुपपत्तिः। न चैवमव्यभिचारवादिनः चन्द्रार्कादिज्ञानं विनश्यवस्थपदार्थोत्पादितत्वा(दितं वा) तदव्यभिचारि भवेत् । अथ प्रतिभातो. दकसामान्यप्रात्या तदव्यभिचारीति पक्षः सोऽप्ययुक्तः एकान्ततो व्यक्तिभ्यो भिन्नस्याभिन्नस्य वा सामान्यस्यासत्त्वेन प्रतिभासपात्यालम्वनत्वायोगात् सत्त्वेऽपि तस्य नित्यतया स्वप्रतिभासज्ञानजन-२० कत्वायोगादजनकस्य च परेण ज्ञानविषयत्वानभ्युपगमात् ज्ञानविषयत्वेऽपि तस्य पानावगाहनाद्यर्थक्रियाऽनिर्वर्तकत्वान्नार्थक्रियार्थिनी तज्ज्ञानात् जलाधुपादानार्था प्रवृत्तिर्भवेत् । न च समवायात् सामान्यावगमेऽपि व्यक्तावर्थक्रियार्थिनां प्रवृत्तिः अन्यप्रतिभासे अन्यत्र प्रवृत्त्ययोगात् योगे वाऽतिप्रसङ्गात् । न च समवायस्यातिसूक्ष्मतया जाति-व्यक्त्योरेकलोलीभावेन जातिप्रतिपत्तावपि भ्रान्त्या व्यक्ती प्रवृत्तिः तज्ज्ञानस्यातस्मिंस्तहणरूपतया भ्रान्तिरूपत्वादव्यभिचारित्वायोगात् । न च २५ समवायोऽपि जातेय॑क्तौ संभवति संभवेऽपि तस्य व्यापितया सर्वत्रैकस्य प्रतिनियतव्यक्तिप्रवृत्तिनिमित्तत्वानुपपत्तिः । न च नित्यस्य तस्य ज्ञानजनकत्वमपि संभवीति स्वग्राहिणि ज्ञाने अप्रतिभासमानस्य कथं भ्रान्तिहेतुतापि तस्य संभवति? प्रतिभासनेऽपि स्वरूपेण प्रतिभासनात् कथं भ्रान्तिनिमित्तता? न च सामान्यस्य प्रतिपत्तौ सामान्यसाध्यार्थक्रियार्थितया तंदर्थिनां प्रवृत्तिःज्ञानाभिधान १ "इन्द्रियसन्निकर्षाभावेन"-वृ० ल० टि०। २-क्षप्राधान्ये तु शाब्दतेति कथं बृ. ल. आ० ।-क्षप्रा धान्ये नु मानतेति कथं हा०वि०। ३ "शब्देन्द्रिययोः"-वृ० ल. टि.। ४ "व्यभिचारिपद-" वृ० ल.टि.। ५पृ० ८-१९। ६-कज्ञानेन कि-बृ० आ० हा० वि० । तत्त्वोपप्लवे (लि. पृ० २-३०) इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षमिति नैयायिकसंमतप्रत्यक्षलक्षणस्य विचारासहखप्रदर्शिका सविस्तरा चर्चा दृश्यते, तत्र यो योऽशः शब्देनार्थेन च प्रस्तुतटीकया समानभावं बिभर्ति सोऽत्रान्यत्र च तत्तत्स्थले समुद्धृतोऽस्ति । ___ “अथावगतं तदवगतेरव्यभिचारिता कथमवगम्यत इति पूर्वोक्तमनुसतव्यम् । उदकप्राप्त्या पूर्वोत्पन्नोदकविज्ञानस्याव्यभिचारिता व्यवस्थाप्यते । किं तत्प्रतिभातोदकप्राप्त्या आहोखित् तजातीयोद(दक) प्राप्त्या तद्वंशजजलप्राप्त्या वा ? तद्यदि प्रतिभातोदकपात्या तदयुक्तम् प्रतिभातोदकस्यावस्थानं नोपपद्यते । झषमहिषपरिवर्तनाभिघातोपजातावयवक्रियान्यायेन प्रत्यस्तमयसंभवात् । अथ तज्जातीयोदकप्राप्त्या एवं तीसत्योदकज्ञानेऽपि जाते क्वचित् तोयमासादयन्ति पुमांसस्तदपि 'अवितथं स्यात्" इत्यादि-तत्त्वोप० लि. पृ० ४ पं० ८। ७ “मत्स्य"-बृ० ल० टि०। ८-वर्तमानाभि-बृ. आ० हा० वि०। ९ “विषयप्राप्तिलक्षणाव्यभिचारित्वकल्पने"बृ० ल. टि.। १०-चारावा-भां० मां०। ११-त्पादितत्वात्तद-भां० । १२ “सामान्यस्य"-बृ० ल० टि० । १३-नां ज्ञा-बृ० । १४-क्तिप्रतिनिमि-हा० वि० ।-क्तिनिमि-ल० वा. बा. भां० मा० । १५ “समवायस्य"बृ० टि०। १६ “समवायस्य"-बृ. टि.। १७ "अर्थक्रियार्थिनाम्"-बृ० ल. टि.। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ द्वितीये काण्डेलक्षणायास्तदर्थक्रियायास्तदैव निष्पत्तेः । व्यापकत्वाच्च सामान्यस्य न प्रतिनियतदेशकालप्रवृत्ति विषयतेति प्रवृत्त्यभावात् न तत्सामर्थ्यम् तदभावान्न तदवभासिनो ज्ञानस्याव्यभिचारितावगतिः। अथ प्रतिभाततद्वदर्थप्राप्त्या तदव्यभिचारित्वमिति पक्षः सोऽप्यसङ्गतः अवयवि-सामान्ययोरभावे तब्दत्पक्षस्य दुरापास्तत्वात् । अथ प्रतिभातावयवप्राप्त्या तस्याव्यभिचारिता, न; अवयवानामपि व्यणुकं ५यावदवयवित्वात् परमाणूनां चार्वाग्दर्शनेऽप्रतिभासनान्न कथंचित्प्रतिभातार्थप्राप्त्या ज्ञानस्याव्यभिचारितासंभवः । किञ्च, प्रवृत्तिसामर्थ्येनाव्यभिचारिता पूर्वोदितज्ञानस्य किं लिङ्गभूतेन ज्ञायते, उताध्यक्षरूपेण? यद्याद्यः पक्षःसन युक्तः तेन सह सम्बन्धानवगतेः अवगतौ वा न प्रवृत्तिसामर्थेन प्रयोजनम् । अथ द्वितीयः सोऽपि न युक्तः ध्वस्तेन पूर्वज्ञानेन सह इन्द्रियस्य सन्निकर्षाभावात् तद्विषयज्ञानस्याध्यक्षफलतानुपपत्तेः केशोन्दुकादिज्ञानवत् तस्य निरालम्बनत्वाच्च कथमव्यभिचारिताव्यव१० स्थापकत्वम् ? न चाविद्यमानस्य कथञ्चिद्विपयभावः संभवति जनकत्वाकारार्पकत्वमहत्त्वादिधर्मो पेतत्वसहोत्पादसत्त्वमात्रादीनां विषयत्वहेतुत्वेन परिकल्पितानामसति सर्वेषामभावात् । अथात्मान्तःकरणसम्बन्धेनाव्यभिचारिताविशिष्टज्ञानमुत्पन्नं गृह्यत इति तदव्यभिचारितावगमः; नन्वत्राप्यव्यभिचारित्वं किं ज्ञानधर्मः उत तत्स्वरूपम् ? यदि तद्धर्मस्तदान नित्यःसामान्यपणेनापोदितत्वात्। अनित्योऽपि यदि ज्ञानात् प्रागुत्पन्नस्तदा न तद्धर्मः धर्मिणमन्तरेण तस्य तद्धर्मत्वायोगात् । १५सहोत्पादेऽपि तादात्म्य-तदुत्पत्ति-समवायादिसम्बन्धाभावे 'तस्य धर्मः' इति व्यपदेशानुपपत्तिः। पश्चादुत्पादे पूर्व व्यभिचारि तद् ज्ञानं स्यात् । किञ्च, अव्यभिचारितादि को धर्मो ज्ञानाद व्यतिरिक्तः अव्यतिरिक्तो वा? यदि व्यतिरिक्तस्तदा तस्य ज्ञानेन सह सम्वन्धो वाच्यः । सन समवायलक्षणः तस्यासिद्धेः सिद्धावपि ज्ञानस्य धर्मतया अव्यभिचारितादिधर्माधिकरणताऽयोगात् धर्माणी धर्माधिकरणताऽनभ्युपगमात् अभ्युपगमे वा तस्यापि धर्मिरूपताप्रसक्तिः । अथ समानधर्माधिकरणता २०धर्माणां नाभ्युपगम्यते विजातीयधर्माधिकरणता त्विष्यत एव अन्यथा ज्ञाने 'अव्यभिचारि' इत्यादिव्यपदेशानुपपत्तिर्भवेत् तहव्यभिचारितादीनामपि धर्माणां सत्त्व-प्रमेयत्व-ज्ञेयत्वाद्यनेकधर्माधिकरणतया धर्मिरूपतैव प्रसक्तेति कस्यचिद्धर्मस्यापरधर्मानधिकरणस्याभावाद् धर्माभावतो धर्मिणोऽप्यभावप्रसक्तिः । नापि विशेषणविशेष्यभावलक्षणोऽसौ तस्याप्यपरसम्बन्धकल्पनया सम्बन्ध(द्ध) १“पानादिरूपा बर्थक्रिया ततः कथं प्रादु.ध्यात्"-वृ० टि० । २ "जातिमदर्थप्राप्या"-बृ. ल. टि. । ३ "किञ्च, प्रवृत्तिसामर्थेनाव्यभिचारिता पूर्वोदितज्ञानस्य ज्ञाप्यते किं लिङ्गभूतेन आहो अध्यक्षात्मकेन ? तद्यदि लिङ्गभूतेन तदयुक्तम् तेन साकं संबन्धानवगतेः अवगतौ वा अलं प्रवृत्तिसामर्थेन । अथाध्यक्षात्मकेन तदयुक्तम् पूर्वोदितप्रत्यस्तमितेन साकं सन्निकर्षाभावात् तद्विषयविज्ञानं न प्रत्यक्षफलं निरालम्बनचात् केशोण्डुकादिसंवेदनवत् । न विज्ञानस्याभावोऽवभाति न भावस्तदभावात् । अविद्यमानस्य विषयार्थो वक्तव्यः । किमाकारार्थ(प)कत्वेन वा महत्त्वादिधर्मोपेतत्वेन वा सत्तामात्रेण वा सहोत्पादेन वा सर्वस्य प्रत्यस्तमितत्वात् कथमसी विषयस्तद्विषयत्वे केशोण्डुकादिविज्ञानस्येव मिथ्यात्वे बीजमन्वेषणीयम् आत्मसत्तामात्रेण मिथ्यात्वे सर्वस्य मिथ्याखमापद्यते ततस्तत्त्वोपप्लवः स्यात् । अथान्यथाऽव्यभिचारित्वं गृह्यते आत्मान्तःकरणसंबन्धेनोत्पन्नं विज्ञानमव्यभिचारिताविशिष्टं प्रद्योत्यते तदयुक्तम् तदव्यभिचारित्वं तद्धर्मो वा तत्स्वरूपं वा? तद्यदि तद्धर्मः स नित्योऽनित्यो वा ? यदि नित्यस्तदा जातिदोषेणापोपो(णापो)दितो वेदितव्यः । अथानित्यः स पूर्वोत्पन्नः सह पश्चाद् वा जातः ? तद्यदि पूर्वोत्पन्नस्तदा कस्यासौ धर्मः ? न हि धर्मिणमन्तरेण धर्मों भवितुमर्हति सर्वतो व्यावृत्तरूपखात् कः कस्येति वक्तव्यम् । अथ सहोत्पन्नः कस्तयोः संबन्ध इति वक्तव्यम् । तादात्म्य-तदुत्पत्ति-समवायसंवन्धाभावे सति षष्ठ्यर्थो वक्तव्यस्तस्याव्यभिचारिखमिति । अथ पृष्ठोत्पन्नस्तहिं पूर्व व्यभिचारिता विज्ञानस्य प्राप्नोति न चाध्यात्मिको व्यभिचारिरूपो धर्मोऽस्ति सुखादिव्यतिरिक्तस्तत्प्रतीत्यसंभवेन खयमनभ्युपगमात् । यदि वाऽव्यभिचारादयो धर्मा अर्थान्तरभूता अभ्युपगम्यन्ते तैरवच्छिन्नं विज्ञानं सामग्र्या अवस्थापकमु ष्यते तच्चानुपपन्नम्"-इत्यादि-तत्त्वोप० लि. पृ० १२ पं० ३-पृ० १३ पं० ११। ४ "ज्ञानेन सह लिङ्गस्य"-बृ. ल. टि. । ५ “पूर्वज्ञानविषयः"-बृ० ल. टि.। ६-यहे-बृ० आ० हा० वि० विना०। ७-नापादि-बृ० ल० आ० हा० वि०। ८ “यावदद्यापि व्य(अव्य)भिचारिता न जायते"-वृ०ल. टि. । ९ "व्य(अव्य)भि०धर्मिणः"-बृ० टि० । "व्य(अव्य)भि०धर्मस्य"-ल. टि. । १० “सम्बन्धः"-ल. टि. । ११-णां च धर्मा-आ० हा० वि० ।-णां न च धर्मा-बृ. ल.। १२-ऽसावस्या-बृ. आ. हा० वि०। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानमीमांसा। ५४९ त्वेऽनवस्थाप्रसक्तेः असम्बद्धत्वे 'तत्सम्बद्धः' इति व्यपदेशानुपपत्तेः । नाप्यसावेकार्थसमवायः आत्मन्येवाव्यभिचारितादिधर्मकलापस्य प्रसक्तः। न च समवायाभावे एकार्थसमवायः संभवी न चान्यः सम्बन्धोऽत्र परैरभ्युपगम्यते । किञ्च, यदि अव्यभिचारितादयो धर्मा अर्थान्तरभूता ज्ञानस्य विशेषणत्वेनोपेयन्ते तदैकविशेषणावच्छिन्नज्ञानप्रतिपत्तिकाले नापरविशेषणावच्छिन्नस्य तस्य प्रतिपत्तिरित्यशेषविशेषणानवच्छिन्नं तत् सामथ्या व्यवच्छेदकं भवेत् अपरविशेषणावच्छिन्नतत्प्रति-५ पत्तिकाले ज्ञानस्य ज्ञानान्तरविरोधितया तँस्यासत्त्वात् । अथ निर्विकल्पके युगपदनेकविशेषणावच्छिन्नस्य तस्य प्रतिभासान्नायं दोपस्तर्हि 'व्यवसायात्मकम्' इति पदमध्यक्षलक्षणे नोपादेयम् अनिश्चयात्मकस्याप्यध्यक्षफलत्वेनाभ्युपगमात् । अथ विशेषजनितं व्यवसायात्मकम् नन्वेवं सामान्यजनितं विशेपणज्ञानमध्यक्षफलं न भवेत् । यदि चानेकविशेषणावच्छिन्नकज्ञानाधिगतिरेकं ज्ञानम् कथमेकानेकरूपं वस्तु नाऽभ्युपगतं भवेत् ? अथाव्यतिरिक्तस्तर्हि ज्ञानमेव नाऽव्यभिचारितादि तदेव १० वा न ज्ञानमित्यन्यतरदेव स्यात् न सामग्रीव्यवच्छेदस्ततो भवेत् । अथाव्यभिचारितादि ज्ञानस्वरूपमेव तदा विपर्ययज्ञानेऽप्यव्यभिचारिताप्रमक्तिः । अथ विशिएं ज्ञानमव्यभिचारितादिस्वभावम् । ननु विशेपणमन्तरेण विशिष्टता कथम्पपत्तिमती? विशेषणस्य चकान्ततो भेदे सैव सम्वन्धासिद्धिः अभेदे न विशिष्टता कथंचिद्भेदे परपक्षसिद्धिः । नन्न अव्यभिचारितापदोपादानमर्थवत् । इतोऽप्यपार्थकम इन्द्रियार्थसन्निकर्षपदनैव तव्यावर्त्यस्यापोदितत्वात् । तथाहि-मरीच्युदक-१५ ज्ञानव्यवच्छेदायाऽव्यभिचारिपदोपादानम् तज्जाने च उदकं प्रतिभाति न च तेनेन्द्रियसम्बन्धः अविद्यमानेन सह सम्बन्धानुपपत्तः विद्यमानन्वे वा न तद्विपयज्ञानम्य व्यभिचारिता विद्यमानार्थज्ञानवत्। अथ प्रतिभासमानोदकसम्बन्धाभावेऽपि मरीचिभिःसम्बन्धादिन्द्रियस्य तत्सन्निकर्पप्रभवं तत् अत एव मरीचीनां तदालम्बनत्वं तस्य तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात् तद्देशं प्रति प्रवृत्तेश्च मिथ्यात्वमपि तज्ज्ञानस्यान्यदालम्बनमन्यत् प्रतिभातीति कृत्वाः नन्वप्रतिभासमानं कथमालम्वनम् ? यदि ज्ञानजन-२० कत्वात् इन्द्रियादेरप्यालम्बनत्वप्रसक्तिः आकारार्पकत्वतदधिकरणत्वादिकं त्वालम्बनत्वं न परस्याभिमनम् तस्मात् तदवभासित्वमेवालम्बनत्वम न च मरीच्यदकमाने मरीचयः प्रतिभान्ति । अथोदकाकारतया ता एव तत्र प्रतिभान्तिः ननु ताभ्य उदकाकारता यद्यव्यतिरिक्ता परमार्थसती च तदा तत्प्रतिपत्तन व्यभिचारित्वम् । अथापग्मार्थमती नदा नासामप्यपरमार्थसत्त्वप्रसक्तिः । किञ्च, अपारमार्थिकोदकतादात्म्ये मरीचीनां तदकज्ञानवद मरीचिज्ञानमपि वितथं भवेत् । न च उदकाकार २५ एकस्मिन् प्रतीयमाने मरीचयः प्रतीयन्त इति वनं शक्यमतिप्रसङ्गात् । अथ व्यतिरिक्ता ताभ्य उदकाकारता तर्हि तत्प्रतिपत्ती कथं मरीचयः प्रतिभान्ति अन्यप्रतिभासेऽप्यन्यप्रतिभासाभ्युपगमे अतिप्रसङ्गात् ? किञ्च, केशोन्दुकशाने किमालम्बनम् किं वा प्रतिभातीति वक्तव्यम् ? अथ केशोन्दुकादिकमेवालम्बनम् प्रतिभाति च तदेव तत्र तर्हि मरीच्यदकज्ञानेऽपि तदेवालम्बनम् तदेव प्रतिभातीति किं न भवेत् ? न च तज्ज्ञानम्य प्रतीयमानान्यालम्वनन्वेन मिथ्यात्वम् अपि तु प्रतिभास-३० मानम्यासत्यत्वेन अन्यथा केशोन्दकमानम्य मिथ्यात्वं न भवेत् । न च मरीचिदेशं प्रति प्रवृत्तेर्मरीच्या १-म्वन्धत्वे आ० । २-म्बन्ध इ-बृ० वा. बा. मां. आ० । ३-भावऽ(वेऽपि ए-ल०। ४ "विशेषकम्"-वृ० ल.टि.। ५ “अव्यभिचारित्व"-बृ० ल.टि.। ६-कालेन ज्ञा-भां० मा०। ७ "ज्ञानस्य"-बृ. ल. टि.। ८-फलं भ-ल.। ९ "अव्यभिचारिपदव्यावृत्त्यस्य"-वृ० ल.टि. । ___ “अतोऽव्यभिचारिपदमपार्थकमितोऽप्यपार्थकमिन्द्रियार्थसन्निकर्षपदेनापोदितत्वात् न हि केशोण्डुकविज्ञानस्य नयनार्थसन्निको दतिरस्ति । नन्वस्ति मरीच्युदकविज्ञानस्य तदपनोदायाव्यभिचारि पदम् नन्न, यत उदकं प्रतिभाति न च तेन सह सम्बन्धोऽस्ति विद्यमानेन सार्क सम्बध्यते नाऽविद्यमानेन । तत्संबन्धे वा न तद्विषयो मिथ्यावमिहोपपद्यते सत्योदकसंवेदनवत् ; ननु यद्यपि प्रतीयमानोदकेन सह संबन्धो नास्ति चक्षुपस्तथापाग्या (थाप्या) लम्ब्य मरीचिनिचयेन सार्क संवन्धोऽस्ति तस्य॑वालम्बनखात् तद्देशं प्रति प्रवृत्तरत एव मिथ्यात्वमन्यद आलम्बनमन्यच प्रतिभाति"-इत्यादि-तत्त्वोप० लि. पृ० १५५० ११-पृ० १६ पं० २। १. "मरीचिदेशम्"-बृ. ल.टि.। ११ “अव्यतिरिक्ता"-बृ० ल. टि.। १२ "मरीच्युदक"-बृ. ल. टि.। १३-सत्वे-वृ०। १४ "न हि केशोन्दुकज्ञानस्य प्रतीयमानात् केशोन्दुकादन्यत् किश्चिदालम्बनमस्ति ततोऽस्यापि मिथ्यावं न स्यात्"-वृ० ल.टि.। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० द्वितीये काण्डेलम्बनत्वम् तद्देशस्यैवमालम्बनत्वप्रसक्तेः न च प्रतिभासमानान्यार्थसन्निकर्षजत्वं तज्ज्ञानस्य सत्योदकज्ञाने अस्यादृष्टेः । न चा(वा) प्रतीयमानसन्निकर्षजत्वस्य तस्य जित्वमभ्युपगन्तुं युक्तम् अन्यथानुमेयदहनज्ञानस्यापीन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वं स्यात् । अथ मन एव तत्रेन्द्रियं तस्य च दहनेन सह प्रतीयमानेन नास्ति सम्बन्धः इहापि तर्हि प्रतीयमानेनोदकेन न सम्बन्धश्चक्षुषः मरीचीनां तु न ५प्रतीयमानत्वमिति ताभिरपि कथं तस्य सम्बन्धः? यच्च 'सामान्योपक्रमं विशेषपर्यवसानम् 'इदमुदकम् इत्येकं ज्ञानं तस्य सामान्यवानर्थः स्मृत्युपस्थापितविशेषापेक्षो जनकः तिरस्कृतस्वाकारस्य परिगृहीताकारान्तरस्य सामान्यविशिष्टस्य वस्तुनो जनकत्वे तथाविधस्येन्द्रियेण सम्बन्धोपपत्तेरिन्द्रियार्थसन्निकर्षजो विपर्ययः' इति, तदत्यन्तमसम्बद्धम् । पराभ्युपगमेनास्यानुपपत्तेः। तथाहि-सामान्यो पक्रममिति यदि सामान्यविषयम् 'इदम् इति ज्ञानं तदा मरीच्युदकयोः साधारणमेकं सामान्य १० 'इदम्'इति ज्ञानस्य विषयो वक्तव्यः । न चैकान्ततो व्यक्तिभिन्नमभिन्नं वा सामान्यं संभवति संभवेऽपि सत्त्वद्रव्यत्वव्यतिरिक्तस्य मरीच्युदकसाधारणस्य तस्य न सद्भावः सत्त्वद्रव्यत्वादेश्च ज्वलनादावपि सद्भाव इति न मरीच्युदकसाधारणत्वम् । तरङ्गायमाणत्वं तूभयसाधारणं सामान्य पराभ्युपगमेन न संभवत्येव संभवेऽपि न तस्य तदुभयनियतत्वम् अन्यत्रापि सद्भावोपपत्तेः । 'विशेषपर्यवसानम्' इत्येतदपि यदि विशेषग्राहकं तदा सामान्यग्राहकत्वानुपपत्तिः न हि 'इदम्'१५ इत्येतस्य ज्ञानस्य विशेषग्राहिताऽनुभूयते तत्त्वे वा सामान्य-विशेषयोर्भिन्नस्वरूपत्वात् कथं सामान्य ग्राहिताऽस्य? अथ 'उदकम्'इति ज्ञानं विशेषग्राहि तर्हि भिन्नावभासम् 'इदम्' 'उदकम्' इति ज्ञानद्वयं प्रसक्तम् प्रतिभासभेदस्यान्यत्रापि भेदनिबन्धनत्वात् तस्य चात्रापि भावात् । ज्ञानद्वये च 'इदम्'इति सामान्यावभासि सत्यार्थविषयं सन्निकर्षप्रभवम् 'उदकम्'इति त्वविद्यमानविशेषावभासि न तत् सन्निकर्षप्रभवम् यदसत्यार्थ न तद् व्य(अव्यभिचारिपदोपादानव्यवच्छेद्यम् सन्निकर्षों२० त्पन्नपदेनापोदितत्वात् यच्च सन्निकर्षजं सामान्यज्ञानं तद् व्यभिचारि न भवतीति नाव्यभिचारिपदव्यवच्छेद्यम् । अथ 'इदमुदकम्' इत्युल्लेखद्वययुक्तमेकं ज्ञानं तर्हि सामान्ये तत् प्रत्यक्षं प्रमाणं च विशेष अनध्यक्षमप्रमाणं चेति कथमेकं ज्ञानमध्यक्षानध्यक्षरूपं प्रमाणाप्रमाणरूपं च नाभ्युपगतं भवेत् ? अथ सामान्येऽपि नाध्यक्षं प्रमाणं चेदमभ्युपगम्यते तीन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वाभावादस्य नाव्यभिचारिपदापोद्यता विशेषेऽप्यस्य प्रामाण्येऽध्यक्षत्वे चाव्यभिचारिपदमपार्थकमपोद्याभावात् । यदि २५ च सामान्यवानर्थः स्मृत्युपस्थापितविशेषापेक्षोऽस्य जनकः कथमस्य विपर्यस्तता विद्यमानविशेषविषयत्वात् ? अथ स्मृत्युपस्थापितत्वाद् विशेषस्य अविद्यमानविशेषविषयतया तस्य विपर्यस्तता; ननु तत्राविद्यमानः स्मृत्युपस्थापितो विशेषः कथं तजनको येन सामान्यवानर्थस्तदपेक्षस्तजनकः परिगीयेत? तथापि तज्जनकत्वे इन्द्रियस्य स्वदेशकालासन्निहितार्थापेक्षस्य ज्ञानजनकत्वादर्थेन सन्निकर्षकल्पना तस्य प्रमाणस्य चार्थवत्त्वकल्पना विशीर्येत तथा च "इन्द्रियार्थसन्निकर्षात्पन्नम्" ३० न्यायद०१-१-४] इति “अर्थवत् प्रमाणम्" [१-१-वात्स्या०भा०पृ०१] इति च न वक्तव्यं स्यात् । अथाजनकस्य तत्र न प्रतिभास इति स्मृत्युपस्थापितस्य तस्य तज्जनकता तहविद्यमानस्य न जनकत्वमिति विद्यमानविशेषविषयत्वेन तज्ज्ञानस्याविपर्यस्ततेति तद्व्यवच्छेदार्थमव्यभिचारिपदोपादानमनर्थकं भवेत् । सामान्यवतोऽर्थस्य केवलस्य तजनकत्वे तस्यैव तत्र प्रतिभासः स्यात् । यदपि 'तिरस्कृतस्वाकारस्य परिगृहीताकारान्तरस्य तस्य तजनकत्वम् तत्रापि वस्तुनः स्वाकारतिरस्कारे वस्तु३५ त्वमेव न स्यादिति कथं तस्य सामान्यविशिष्टता? तथाहि-मरीचीनां मरीच्याकारतापरित्यागे वस्तुत्वमेव परित्यक्तं भवेत् स्वाकारलक्षणत्वाद् वस्तुनःन चाकारान्तरस्य परिग्रहःसंभवति वस्त्वन्तरस्य १ "न चावभातोदकभिन्नार्थसन्निकर्षजखमुदकविज्ञानस्योपपद्यते सत्योदकज्ञानेऽदृष्टवात् अन्यथानुमेयदहनज्ञानस्यापि इन्द्रियार्थसन्निकर्षजखमापनीपद्येत आत्ममनःसन्निकर्षजवात् । अथ प्रतीयमानदहनेन सह मनसो नास्ति संबन्धः तदिहापि प्रतीयमानेनाम्भसा सह नास्ति सम्बन्धश्चक्षुषस्तस्माद् अव्यभिचारिपदं न युक्तम् इन्द्रियार्थसन्निकर्षपदेनापोदितखात्"इत्यादि-तत्त्वोप० लि. पृ. १७ पं० १०-१६ । २-त्व (-त्वं तस्य) तस्य ल.। ३ "तज्ज्ञानस्य"-बृ० ल.टि.। ४ “सन्निकर्षजत्वम्"-वृ. ल.टि.। ५ पृ. ५२३ पं०८। ६ तथा म-बृ. आ. हा. वि. विना। "तरङ्गायमाणत्वसामान्यस्य"-बृ. टि.। ८-वापोहित-बृ० वा. बा. विना। ९ “सन्निकर्षप्रभवत्वात्"-बृ० ल. टि.। १०-क्षत्वे वा-बृ. ल. वा. बा० विना । ११ पृ. ५२३ पं०९। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांमा। ५५१ बस्त्वन्तरोनापनिरूपन्यात् नदापनिरूपन्वे ना मगचय उदकम्पनामापन्ना इति तत्प्रतिभामि ज्ञानं सत्योदकज्ञानवदविपर्यस्तमिति नव्यवच्छेदार्थमयभिचारिपदोगदानं न कार्य भवेत् सामान्यविशिष्टस्य च वस्तुन इन्द्रियसम्बद्धम्य विपर्ययनानजनकन्वे यत्रांश तम्यन्द्रियसम्बन्धोत्पाद्ययं तत्राध्यक्षता प्रमाणता च अन्यत्र तद्विपर्यय इत्येकं ज्ञानमध्यक्षेप्रमाणं तद्विपर्ययरूपं च भवदित्यनम यदपि "यन्सन्निधाने यो दृष्टः" इत्यादि. तदाप्ययुक्रमः दादावदेन 'उदकम इति ज्ञानम्यानुत्पनः ५ न [दकवन् शब्दोऽप्यत्र ज्ञाने विशेषणभृतो ग्राहानया प्रतिभाति तथाप्रतीतेग्भावान । शब्दविशिशोदकप्रतिभासाभ्युपगमेऽपि यदि शब्दम्मग्णाद्यन्तरेण नार्थ निश्चयम्नदा नवस्थादोपप्रतिपादनान तहनिस्मृतिर्भवेत् । अथ शब्दस्मरणाद्यन्तरेणाप्युदकादेनिश्चयस्तदा जनमतानुप्रवेशान दोपामनिः काचित् । एवं संशयज्ञानव्यवच्छेदार्थ व्यवसायात्मकपदोपादानमपि न कर्तव्यम इन्द्रियार्थमनिकोप-१० अपदेनैव तस्यापि निरस्तत्वान् न हि पगभ्युपगमेन 'म्याणुर्वा पुरुषो वा इति संशयशानमेकमुभयोलेखीन्द्रियार्थसन्निकर्षजं संभवति असंभवप्रकारश्च पूर्वबदनुमन्यात्रापि वनव्यः । सविकल्पकाध्यक्षप्रसाधनप्रकारश्चैकान्ताक्षणिकपक्षे न सम्भवत्येव “यः प्रागजनको बुद्धः" इत्याददृपणम्य नत्राविचलितस्वरूपत्वात् यथा चाक्षणिकैकान्ते सहकार्यपेक्षा न संभवति भावानां तथा प्राक प्रतिपादित. मिति न पुनरुच्यते । यदपि 'संशयज्ञानव्यवच्छेदार्थ व्यवसायान्मकपदम इत्यभिधानम नत्र सामा-१५ न्यप्रत्यक्षात् विशेषाप्रत्यक्षात् विशेषस्मृतेश्च 'किंम्बित इत्यनवधारणात्मकः प्रत्ययः सन्देही व्यवच्छेद्यतयाभिमतः तत्र च किं प्रतिभाति धर्मिमात्रम धमाँ चा? यदि धर्मा वस्तमन प्रतिभाति तदा नास्याऽपनेयता सम्यग्ज्ञानत्वात् । अथावस्तुमन्नसावत्र प्रतिभाति तदाऽव्यभिचारिपदव्यावर्तितस्वान्न तद्व्यावर्तनाय व्यवसायपदोपादानमर्थवत् । अथ धर्मः प्रतिभाति तदाऽत्रापि वक्तव्यम किमसी स्थाणुत्व पुरुषत्वयोग्यतर: उभयं वा? यदि स्थाणुवलक्षणों वस्तुसन कथमम्य ज्ञानम्य २० व्यवच्छेद्यता सम्यग्ज्ञानत्वादिति ? अथापारमार्थिकोऽमी तत्र प्रतिभाति तथाप्यव्यभिचारिपदापोहातैव मिथ्याज्ञानत्वात् । एवं पुरुषत्वलक्षणप्रतिभासेप्येतदेव दृपणं वाच्यम् । उभयम्यापि तात्त्विकम्य प्रतिभासे न तज्ज्ञानस्य सन्देहरूपतेति नापोहता । उभयम्याप्यताविकम्य प्रतिभासे तद्विपयज्ञानम्य विपर्ययरूपता न सन्देहात्मकतेत्यव्यभिचारिपदापोहानैव । अथैकम्य धर्मम्य तात्त्विकत्वम अपरम्यानात्विकत्वम् एवमपि तात्त्विकधर्मावभासित्वात् तज्ज्ञानमव्यभिचारि अतात्त्विक धर्मावभासिवाच तदेव २५ व्यभिचारीति एकमेव शानं प्रमाणमप्रमाणं च प्रसक्तम् । न च सन्दिग्धाकारप्रतिभासिन्वान् सन्देहमानमिति वाच्यम् यतो यदि सन्दिग्धाकारता परमार्थतोऽ) विद्यते तदाऽवाधिनार्थगृहीतिरूपत्वान्न सन्देहज्ञानता सत्यार्थज्ञानवत । अथ न विद्यते तदाऽव्यभिचारिपदन तहाहिज्ञानम्यापोदितन्वाद चवसायग्रहणं तद्व्यवच्छेदायोपादीयमानं निरर्थकम् । अथ न किञ्चिदपि तत्र प्रतिभाति न तर्हि तस्यन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वमिति न तव्यवच्छेदाय व्यवसायात्मपदोपादानमर्थवन् । तन्न तदपि ३० प्रत्यक्षलक्षणे उपादेयम्। यदपि 'फलस्वरूपसामग्रीविशेषणवेनासंभवान्नदं लक्षणम् इति. तद्युक्तमेवाभिहितमः अम्य पक्षत्रयेऽप्यघटमानत्वात् । यंदपि 'यतः' इत्यध्याहारान् फलविशेषणपक्षाश्रयणम', तदप्यसङ्गतम् यतोऽपरिच्छेदस्वरूपस्याध्यक्षप्रमाणता विशिष्टप्रमितिजनकन्वेन प्रमेय-प्रमात्रारिवामङ्गना । न च प्रमातृ-प्रमेययोरर्थान्तरत्वे सति विशिष्टप्रमितिजनकं यत् तत् प्रत्यक्षमिति विशेषणान् प्रमातृ-प्रमेय-३५ व्यतिरिक्तस्य तस्य प्रमाणता, सन्निकर्यादिप्रमाणत्वाभिमतव्यतिरिकम्य तज्जनकस्य प्रमाणतेत्यपि वक्तुं शक्यत्वात् । न च सामग्र्यस्य सन्निकर्षस्य वा साधकतमत्वात् प्रमाणता. साधकतमन्यस्य प्रमाणसामान्यलक्षणप्रस्तावे निरस्तत्वात् । यदपि इन्द्रियादेरचेतनस्य प्रमाणत्वं प्रतिपादितम् नदप्य १-राप-वा. बा.। २ पृ. ५५० पं० २२। ३ पृ. ५२३ पं० १३। ४-मेकोल्ल-ल०। ५१० ५२५ ५०१०। ६ “सामान्यप्रत्यक्षाद् विशेषाप्रत्यक्षाद् विशेषस्मृतेश्च संशय."-वैशषिकद. २-२-१, । प्रशन्न. के.. पृ. १७४ पं० २०-पृ.१७५५०८। "समानानेकधपपत्तविप्रतिपनेरुपलभ्यनुपलब्ध्यव्यवस्थानच विशेष पेक्षी विमर्श: संशयः"-न्यायद.१-१-२३। -यखरू-भां० मां०। ८-पि वफल-वा. बा. भा०। पृ० ५२७ पं० २८ । १पृ. ५३.पं. १४॥ १.पृ. ४७१५० २०। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ द्वितीये काण्डेतिप्रसङ्गतोऽघटमानकम् । यदपि 'ज्ञानसद्भावे न काचित् तजन्या विषयाधिगतिः अक्षादिसद्भावे तु विषयाधिगतिभिन्नोपजायत इत्यक्षादेरेवाधिगतिजनकस्य प्रमाणता' इति, तदप्यसमीक्षिताभिधानम्; ज्ञानस्यैव यथावस्थितार्थाधिगतिस्वभावतया प्रमाणत्वात् प्रमाणफलामेदाविरोधस्य च प्रतिपादितत्वात् अक्षादिसद्भावे तु विषयाधिगतेरसिद्धत्वात् । तथाहि-व्यापारवदक्षादिसद्भावेऽपि ५व्यासक्तचेतसो न विषयाधिगतिः सत्यस्वप्नज्ञाने त्वक्षादिव्यापाराभावेऽपि यथावस्थितार्थाधिगतिरुपलभ्यत इति न सा अक्षादिकार्या । न चासावपि मनोऽक्षकार्या परपरिकल्पितमनोऽक्षस्य प्रागेव निषिद्धत्वात् । अत एव 'चक्षुषाऽधिगतम्' इति तस्य साधकतमत्वाभिमानः न साधकतमताव्यवस्थापकः तदभावेऽपि विषयाधिगतिसद्भावात् । 'ज्ञानेनाधिगतः' इत्यभिमानस्तु ज्ञानस्य साधकतम ताव्यवस्थापक एव ज्ञानाभावे तदधिगतेरभावात् । परम्परया तूपचरितमाधिगतौ साधकतमत्वम१०क्षादेर्न प्रतिषिध्यते अस्मदादिप्रत्यक्षस्य स्वार्थाधिगतिस्वभावस्याक्षादिप्रभवत्वात् । तत् "इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्" [ तत्त्वार्थ०१-१४] इति वचनात् एतेन प्रातिभस्यानक्षप्रभवस्यापि स्वार्थावगतिरूपस्य विशदतयाऽध्यक्षप्रमाणता प्रतिपादिता द्रष्टव्या। तेन यत् तत्रेन्द्रियार्थसन्निकर्पजत्वाभावप्रतिपादनेन मीमांसकैर्दषणमभ्यधायि यच्च नैयायिकैर्मनोऽक्षार्थजत्वसमर्थनेनोत्तरं प्रतिपादितं तदुभयमप्ययुक्ततया व्यवस्थितम् । शेषं त्वत्र यथास्थानं प्रतिविहितत्वान्न प्रत्युच्चार्य दूष्यते । तन्नैकान्तवादि१५प्रकल्पितमध्यक्षलक्षणमनवद्यम् । [प्रत्यक्षस्य तद्भेदानां च सिद्धान्तसंमतं निरूपणम् ] किं पुनस्तदनवद्यम् ? "स्वार्थसंवेदनं स्पष्टमध्यक्षं मुख्यगौर्णतः" [ ] इत्येतत् । अत्र च मुख्यमतीन्द्रियज्ञानमशेषविशेषालम्बनमध्यक्षं सर्वज्ञसिद्धौ प्रतिपादितम् । गौणं तु संव्यवहारनिमित्तमसर्वपर्यायद्रव्यविषयमिन्द्रियानिन्द्रियग्रभवमस्मदाद्यध्यक्षं विशदमुच्यते । अस्य च वयो२०ग्योऽर्थः स्वार्थः तस्य संवेदनं विशदतया निर्णयखरूपम् । तेन संशय-विपर्ययाऽनध्यवसायलक्षणय ज्ञानस्य संव्यवहारानिमित्तस्य नाध्यक्षताप्रसक्तिः नाप्यज्ञानरूपस्येन्द्रियादेः अविकल्पस्य वा सौगतपरिकल्पितस्येन्द्रियज-मानस-योगिज्ञानस्वसंवेदनरूपस्य । स्खं चार्थश्च स्वार्थो तयोः संवेदनं स्वार्थसंवेदनमित्यस्यापि समासस्याश्रयणात् अर्थसंवेदनस्यैव जैमिनीय-वैशेषिकादिपरिकल्पितस्य परोक्षस्य तदेकार्थसमवेतानन्तरज्ञानग्राह्यस्यास्वसंविदितस्वभावस्याध्यक्षताव्युदासः विज्ञानवादिपरिकल्पितस्य २५च स्वरूपमात्रग्राहकस्य । प्रमाणप्रमेयरूपस्य च सकलस्य क्रमाक्रममाव्यनेकधर्माकान्तस्यैकरूपस्य वस्तुनः सद्भावेऽध्यक्ष प्रमाणस्यैकस्य क्रमवर्तिपर्यायवशात् तथाव्यपदेशमासादयतश्चातुर्विध्यमवग्रहेहावायधारणरूपतयोपपन्नम् । तत्र "विषयविषयिसन्निपातानन्तरमाद्यं ग्रहणमवग्रहः”[ ] विषयस्य तावत १ पृ. ५२९ पं० १८। २ पृ० ५३७ पं० १५। ३ पृ. ५३७ पं० २० । ४ "प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं मुख्यसंव्यवहारतः । परोक्षं शेषविज्ञानं प्रमाणे इति संग्रहः" ॥३॥-लघीयत्र० पृ० ६ । प्रमाणप० पृ. ६९ पं० २४-२५ । "तदुक्तम्-प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं त्रिधाश्रितमविप्लवम् । परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि प्रमाणे इति संग्रहः" ॥ अष्टस० पृ. २८९ पं० २। ५ पृ० ५३-६९ । ६-स्य संव्य-बृ. आ. हा० वि०। ७ "तत्राव्यक्तं यथाखमिन्द्रियैर्विषयाणामालोचनावधारणमवग्रहः"-१-१५ तत्त्वार्थ. भा० । “विषयविषयिसन्निपातसमयानन्तरमाद्यग्रहणमवग्रहः । विषयविषयिसन्निपाते सति दर्शनं भवति तदनन्तरमर्थस्य ग्रहणमवग्रहः"-१-१५ सर्वार्थक तथा राजवा० । "विषयविषयिसन्निपातानन्तरमाद्यं ग्रहणमवग्रहः । विषयस्तावद् द्रव्यपर्यायात्मार्थः विषयिणो द्रव्यभावेन्द्रियम् अर्थग्रहणं योग्यतालक्षणम् तदनन्तरभूतं सन्मानं दर्शनं स्वविषयव्यवस्थापन विकल्पमुत्तरं परिणामं प्रतिपद्यतेऽवग्रहः"लघीयत्र. खो• बृ० लि. पृ. २ प्र० पं० १-३ । ___"विषयविषयिसंनिपातानन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरदर्शनाज्जातमाद्यमवान्तरसामान्याकारविशिष्टवस्तुग्रहणमवग्रहः"प्रमाणनयत०२-७॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। द्रव्यपर्यायात्मनोऽर्थस्य विषयिणश्च निर्वृत्त्युपंकरणलक्षणस्य द्रव्येन्द्रियस्य लब्ध्युपयोगस्वभावस्य च भावेन्द्रियस्य विशिष्टपदलपरिणतिरूपस्यार्थग्रहणयोग्यतास्वभावस्य च यथाक्रमं सन्निपातो योग्यदेशावस्थानं तदनन्तरोद्भूतं सत्तामात्रदर्शनस्वभावं दर्शनमुत्तरपरिणाम स्वविषयव्यवस्थापनविकल्परूपं प्रतिपद्यमानमवग्रहः । “पुनरवगृहीतविषयाकाङ्क्षणमीही" [ . ] “तदनन्तरं तदीहितविशेषनिर्णयोऽवायः" [ ] "अवेतविषयस्मृतिहेतुस्तदनन्तरं धारणा" [ ]।५ ___अत्र च पूर्वपूर्वस्य प्रमाणता उत्तरोत्तरस्य च फलतेत्येकस्यापि मतिज्ञानस्य चातुर्विध्यम् कथञ्चित् प्रमाणफलभेदश्वोपपन्नः । यथा च प्रतिभासभेदेऽपि ग्राह्यग्राहकसंविदां युगपदेकत्वं तथा क्रमभाविनामवग्रहादीनां हेतुफलरूपतया व्यवस्थितस्वरूपाणामेकत्वं कथंचिदविरुद्धम् अन्यथा हेतुफलभावाभावप्रसक्तिरिति प्रतिपादितमनेकशः । धारणास्वरूपा च मतिरविसंवादस्वरूपस्मृतिफलस्य हेतुत्वात् प्रमाणम् स्मृतिरपि तथाभूतप्रत्यवमर्शस्वभावसंज्ञाफलजनकत्वात् , संज्ञाऽपि तथाभूततर्क-१० खभावचिन्ताफलजनकत्वात्, चिन्ताऽप्यनुमानलक्षणाभिनिबोधफलजनकत्वात् , सोऽपि हानादिबुद्धिजनकत्वात् । तदुक्तम्-"मतिस्मृतिसंज्ञाचिन्ताऽभिनिबोध इत्यैनन्तरम्" [तत्त्वार्थ० १-१३] अनर्थान्तरमिति कथंचिदेकविषयम् । “प्राक् शब्दयोजनात् मतिज्ञानमेतत् शेषमनेकप्रभेद(दं) शब्दयोजनादुपजायमानमविशदं ज्ञानं श्रुतम्" [ . ] इति केचित् । सैद्धान्तिकास्तु अवग्रहेहावायधारणाप्रभेदरूपाया मतेर्वाचकाः पर्यायशब्दा मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ता अभिनिबोध १५ इत्येते शब्दा इति प्रतिपन्नाः । स्मृतिसंज्ञाचिन्तादीनां तु कथञ्चिगृहीतग्राहित्वेऽप्यविसंवादकत्वादनुमानवत् प्रमाणताऽभ्युपेया। न चानुमानस्यागृहीतवलक्षणाध्यवसायात् प्रामाण्यं न यथोक्तस्मृत्यादेः शब्दानित्यत्वादिषु लिङ्गलिङ्गिधियोरप्रमाणताप्रसङ्गात् व्याप्तिग्राहकप्रमाणेन साकल्येनानधिगतस्खलक्षणाध्यवसायिना सैत्वानित्यत्वादेर्ग्रहणे तयोः समधिगतस्खलक्षणविषयत्वात् । शेषमत्र सविकल्पकमध्यक्ष प्रसाधयद्भिश्चिन्तितम् । अत्र च यत् शब्दसंयोजनात् प्राक स्मृत्यादिकमवि-२० संवादिव्यवहारनिर्वर्तनक्षम प्रवर्तते तन्मतिः शब्दसंयोजनात् प्रादुर्भूतं तु सर्व श्रुतमिति विभागः । "अक्षार्थयोगे दर्शनानन्तरमर्थग्रहणमवग्रहः" । प्रमाणमी. १-१-२७॥ । ईहादित्रयस्य लक्षणवाक्यानामपि क्रमविकासमवगन्तुकामैरुक्तेभ्य एव ग्रन्थेभ्यस्तत्तुलना विधेया। आवश्यकनियुक्ति-विशेषावश्यकभाष्ययोस्तु अवग्रहादीनां चतुर्णा लक्षणानीत्थम्"अत्थाणं उग्गहणं अवग्गहं तह वियालणं ईहं । ववसायं च अवार्य धरणं पुण धारणं बेंति" ॥ नि० १७९॥ सामण्णत्थावरगहणमुग्गहो मेयमग्गणमहेहा । तस्सावगमोऽवाओ अविच्चुई धारणा तस्स" ॥ भा० १८०॥ १“कर्णशष्कुलिकारूपमुपकरणेन्द्रियम् कदम्बगोलकाद्याकारा चक्षुरादीन्द्रियनिर्वृत्तिः"-वृ० ल.टि.। द्रव्येन्द्रिय-भावेन्द्रियखरूप-संस्थान-पृथुवादिकं प्रज्ञापनोपाङ्गगतेन्द्रियाख्यपञ्चदशपदतोऽवबोद्धव्यम्-पृ० २९२ द्वि०३१७ प्र०। २-णलक्षणस्य वा. बा. भा. मां०। ३-त्रदर्शनमुत्तर-बृ. आ. हा० वि०। ४ "पुनरवग्रहगृहीतविशेषाकाङ्गणमीहा"-लघीयस्त्र. खो. वृ० लि. पृ. २ प्र. पं०३। ५ "तथेहितविशेषनिर्णयोऽवायः"लघीयत्र. खो. वृ.लि. पृ. २ प्र. पं०४। ६ "स्मृतिहेतुर्धारणा संस्कार इति यावत्-लघीयत्र. खो० वृ.लि. पृ. २ प्र.पं०५। ७"प्रमाणमिति सर्वत्र संटङ्कः"-बृ. ल.टि.। ८-त्यनान्तरमिति कथ-बृ. ल. वा. बा० विना । सर्वेष्वपि श्वेताम्बरीय-दिगम्बरीयेषु तत्त्वार्थव्याख्याग्रन्थेषु “मतिः स्मृतिः संज्ञा" इत्यादिक एव पाठः । सिद्धिविनिश्चयटीकायामपि तथैव समुद्धृतो दृश्यते-लि. पृ. ९९ पं० १४ । “ज्ञानमाद्यं मतिः संज्ञा चिन्ता चाभिनिबोधनम्"।-लघीयस्त्र. ५०३ श्लो०१। "प्राङ् नामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात्"।-लघीयत्र०प०३ श्लो. १। “अविसंवादस्मृतेः फलस्य हेतुखात् प्रमाणं धारणा स्मृति(स्मृतिः) संज्ञायाः प्रत्यवमर्शस्य, संज्ञा चिन्तायास्तर्कस्य, चिन्ताभिनिबोधस्यानुमानादेः प्राक् शब्दयोजनाच्छेषं श्रुतज्ञानमनेकप्रदम्"-लघीयत्र. खो० वृ० लि. पृ. २ द्वि. पं. ११ । “प्राङ् नामयोजनाच्छेषम्" इत्याद्याकलई पद्यमादाय विद्यानन्दिना चर्चितम्-१,२० तत्त्वार्थ० श्लो० वा० श्लो०८४-८८ । विशेषा० गा० १६२ पृ. ९९ । १. विशेषा• गा० ३९६-४०१ पृ. २२६-२२९ । १,१३ तत्त्वार्थ० व्या० पृ. ७८ पं० १२- ११ सत्त्वनि-वा. बा. भां० माविना। १२ “लिङ्ग-लिङ्गिधिषणयोः"-बृ० ल० टि० । १३ "मति-श्रुतयोः खरूपविभागपरा भूयसी चर्चा शास्त्रेषु दृश्यते, ततो विशेषार्थिना विशेषावश्यकभाष्य-ज्ञानबिन्दुतोऽवसेया-विशेषाव. भा. गा. ९७-१७५ पृ. ६३-१०६ । ज्ञानबिं० पृ. १३६ द्वि०-१३८ द्वि० तथा १४२ द्वि०-१४३ द्वि०। ०स० त. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ द्वितीये काण्डे - [ प्रत्यक्षैकप्रमाणवादिनः चार्वाकस्यानुमानप्रामाण्याशङ्का ] अत्राहुश्चार्वाकाः - भवतु सांव्यवहारिकं विशदमध्यक्षम् अनुमानादिकं तूपचरितरूपत्वाद्विषयाभावाश्च प्रमाणमनुपपन्नमिति कथं शब्दसंयोजनात् श्रुतं स्मृत्याद्युपपत्तिमत् ? तदुक्तम्- “प्रमाणस्यागौणत्वादनुमानादर्थनिर्णयो दुर्लभः” [ ] तथा “अनधिगतार्थपरिच्छित्तिः ५ प्रमाणम्" । [ ] न चानुमानमर्थ परिच्छित्तिस्वभावम् तद्विषयाभिमतस्य सामान्यादेरर्थस्याभावात् । भावेऽपि यदि विशेषस्तद्विषयोऽभ्युपगम्यते तदा तत्र हेतोरनुगमाभावः अथ सामान्यं तद्विषयस्तदा सिद्धसाध्यताप्रसक्तिः । तदुक्तम् - "विशेषेऽनुगमाभावः सामान्ये सिद्धसाधनम्" । [ ] इति । किञ्च व्याप्तिग्रहणे पक्षधर्मतावगमे च सत्यनुमानं प्रवर्तते न च व्याप्तिग्रहणमध्यक्षतः संभवति तस्य सन्निहितमात्रार्थ ग्राहकत्वेन सकलपदार्थाक्षेपेण १० व्याप्तिग्रहणेऽसामर्थ्यात् । नाप्यनुमानं तग्रहणक्षमम् तस्यापि व्याप्तिग्रहणपुरःसरतया तत्र प्रवृत्तेः अनुमानात् तग्रहणेऽनवस्थेतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तस्य च व्याप्तिग्राहकत्वायोगात् विशेषविरुद्धानुमानविरोधयोश्च सर्वत्र सुलभत्वात् कुतोऽनुमानस्य प्रामाण्यम् ? [ सौगतैरनुमानप्रामाण्यसमर्थनेन चार्वाकाशङ्कायाः प्रतिविधानम् ] अत्र प्रत्यक्षानुमानप्रमाणद्वयवादिनः सौगताः प्रतिविदधति - प्रमाणेतरसामान्यस्थितेः परबुद्धि१५ परिच्छित्तेः स्वर्गापूर्वदेवतादिप्रतिषेधेस्य चाकृतलक्षणाभिः स्वसंवित्तिभिः कर्तुमशक्तेः प्रमाणान्तरसद्भावः सिद्धः । यच्च 'प्रमाणस्यागौणत्वात्' इत्युक्तम् तत्र यद्यगौणत्वमनुपचरितत्वमभिप्रेतं तदानुमानमप्यनुपचरितमेव अस्खलितबुद्धिरूपत्वात् अथ धर्मिधर्मसमुदायस्य साध्यत्वे हेतोः पक्षधर्मत्वम् अन्वयो वाऽसंभवीति धर्मिणः साध्यत्वं पक्षधर्मत्वप्रसिद्ध्यर्थं धर्मस्य चान्वयसिद्ध्यर्थमुपचरितमित्युपचरित विषयत्वादनुमानमुपचरितम्, असदेतत् यतो यत्र धर्मिणि धूममात्रमग्नि२० मात्र व्याप्तमुपलभ्यते तत्रैवाग्निप्रतिपत्तिर्भवन्ती लोके दृश्यत इति कस्यात्रोपचारः ? समुदायस्याप्येवं साध्यत्वं सिध्यत्येव । यदाह "केवल एव धर्मो धर्मिणि साध्यस्तथेष्ट समुदायस्य सिद्धिः कृता भवति" [ ] इति । पुनरप्युक्तम् - "धर्मस्याव्यभिचारस्तु धर्मेणान्यत्र दर्श्यते । तत्र प्रसिद्धं तद्युक्तं धर्मिणं गमयिष्यति ॥" [ ] इति । २५ न चानुमानविषये साध्यशब्दोपचारे अनुमानमुपचरितं नाम । न चागौणत्वादभ्रान्तत्वात् प्रमाणस्यानुमानस्य च भ्रान्तत्वादप्रामाण्यम् भ्रान्तस्याप्यनुमानस्य प्रतिबन्धबलादुपजायमानस्य प्रामाण्यसिद्धेः । तथाहि— प्रत्यक्षस्यापि अर्थस्यासंभवेऽभाव एवाव्यभिचारित्वलक्षणं प्रामाण्यम् तच्च साध्यप्रतिबद्धहेतु प्रभवस्यानुमानस्याप्यस्तीति कथं न प्रमाणम् ? तदुक्तम् १ प्रत्यक्षैक प्रमाण समर्थन प्रवणं चार्वाकमतं प्रमेयकमलमार्तण्डे द्रष्टव्यम् - पृ० ४५ द्वि० पं० ५। २ पृ० ७० पं० २७ टि० २ । “तथा चाहुः-प्रमाणस्यागौणत्वादनुमानार्थनिश्चयो दुर्लभः " - न्यायमञ्ज० आ० २ पृ० ११८ पं० २१ । ३ “विशेषेऽनुगमाभावात् सामान्य सिद्धसाधनात् । तद्वतोऽनुपपन्नत्वादनुमानकथा कुतः " ॥ - न्यायमञ्ज० आ० २ पृ० ११९ पं० ४-५ । “येऽपि मन्यन्ते – विशेषेऽनुगमाभावः सामान्ये सिद्धसाध्यता ” - १,१,५ शास्त्रदीपिका ० ११ पं० १० । ४ अत्रार्थे कारिकेयं वर्तते - " तदुक्तं धर्मकीर्तिना प्रमाणेतरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः । प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ” - प्रमाणप० पृ० ६४ पं० ३६-३८ । प्रमेयक० पृ० ४६ द्वि० पं० २ । “ तथा चोक्तं सौगतैः” इति कृत्वोद्धृतोऽयं श्लोकः प्रशस्तपाद कन्दल्याम् - पृ० २५५ पं० १७-१९ । “धर्मकीर्तिरप्येतदाह” इति निर्दिश्योद्धृतोऽयं श्लोकः प्रमाणमीमांसायाम् - १-१-११ पृ० १४ पं० १४ । ५- धस्याकृ-आ० हा० वि० । ६ प्र० पृ० पं० ४ । ७ धर्मत्वं प्रभां ० मां० आ० हा० वि० । ८ " साध्यधर्म" - बृ० टि० । “लिङ्गस्याव्यभिचारस्तु धर्मेणान्यत्र दृश्यते । तत्र प्रसिद्धं तद्युक्तं धर्मिणं गमयिष्यति ॥” - न्यायवा० ता० टी० पृ० १८० पं० ९ । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] इति । ज्ञानमीमांसा। ५५५ "अर्थस्यासंभवे भावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता । प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम्” ॥ [ तेन 'अनधिगतार्थपरिच्छित्तिः प्रमाणम्' इत्यादि यदुक्तम् तदप्यपास्तम्; यतः सर्व एव प्रेक्षावान् प्रवृत्तिकामः प्रमाणमन्वेषते प्रवृत्तिविषयार्थप्रदर्शकम् । अर्थक्रियासमर्थश्चार्थः प्रवृत्तिविषयः । अनागतं च प्रवृत्तिसाध्यमर्थक्रियासामर्थ्यमर्थस्य नाध्यक्षमधिगन्तं समर्थम भाविनि प्रमाणव्या वात् तत् कथमस्यार्थपरिच्छेदमात्रात् प्रामाण्यं युक्तम् ? अतः स्वविषये अध्यक्षं तदुत्पत्त्या 'यत् पूर्व मया प्रबन्धेनार्थक्रियाकारि प्रतिपन्नं वस्तु तदेवेदम्' इति निश्चयं कुर्वत् प्रवर्तकत्वात् प्रमाणम् अनुमानेऽपि चैतत् समानम् यतोऽर्थक्रियाकारित्वेन निश्चितादर्थात् पारम्पर्येणोत्पत्तिरेवाव्यभिचारित्वलक्षणं प्रामाण्यमनुमानेऽप्यध्यक्षवत् कथं नाविप्रतिपत्तिविषयः? प्रतिपद्यत एवं चाप्यनुमानस्य तदुत्पत्त्या बाह्यवह्नयध्यवसायेन लोकोऽध्यक्षवत् प्रामाण्यम् । अथाध्यक्षमपि प्रमाणं नेष्यते तर्हि १० लोकप्रतीतिबाधा भवन्तमनुवध्नाति अध्यक्षानुमानयोः प्रमाणतया लोके प्रतीतत्वात् । न च नाध्यक्षानुमानयोः प्रामाण्यमस्माभिर्निषिध्यते किन्तु त्रिलक्षणं चतुर्लक्षणं वा लिङ्गं न केनचित् प्रमाणेन भवतः प्रसिद्धमिति पर्यनुयोगे यद्यनुमानं साधकमभिधीयते ततस्तत्रापि स एव पर्यनुयोग इत्येवं सर्वत्र पर्यनुयोगपराण्येव बृहस्पतेः सूत्राणीति वक्तव्यम् यतः पक्षधर्मात् तदंशव्याप्तात् प्रमाणतोऽव. गतात् साध्यप्रतिपत्तिरनुमानम् पक्षधर्मतानिश्चयश्च क्वचित् प्रत्यक्षात् क्वचिच्चानुमानात् यत्राप्यनु-१५ मानात् तन्निश्चयस्तत्रापि नानवस्थादिदूषणम् प्रत्यक्षादेव क्वचित् तन्निश्चयादनवस्थादिदोषव्यावृत्तेः तदंशव्याप्तिनिश्चयश्च कार्यहेतोः कस्यचित् स्वभावहेतोश्च विशिष्टप्रत्यक्षादेव । स्वभावहेतोरप्यनित्यत्वस्याध्यक्षेणैव प्रतिपत्तेस्तन्निबन्धन एव तन्निश्चयः । अध्यक्षावगतेऽपि च क्षणिकत्वे तद्व्यवहारसाधनाय प्रवर्त्तमानमनुमानं न वैयर्थ्यमनुभवेत् शिंशपात्वाद् वृक्षत्वानुमानवत् । न च सत्त्व-क्षणिकत्वयोस्तादात्म्ये सत्त्वनिश्चये क्षणिकत्वस्यापि निश्चयात् तदनिश्चये वा सत्त्वस्याप्यनिश्चयात्-अन्यथा २० तत्तादात्म्यायोगात्-क्षणिकत्वानुमानवैयर्थ्यम् यतो निश्चयापेक्षो हि गम्यगमकभावः निश्चयश्चानुभवाविशेषेऽपि सत्त्व एव न क्षणिकत्वे सदृशापरापरोत्पत्त्यादेर्भ्रान्तिनिमित्तस्य सद्भावात् विपर्यये बाधकप्रमाणवृत्त्या सत्त्व-क्षणिकत्वयोस्तादात्म्यसिद्धर्वाधकप्रमाणस्य च प्रतिबन्धसिद्धिरध्यक्षत इति नानवस्थादिदोषः । न च निर्विकल्पकं व्याल्या प्रतिवन्धग्रहणाक्षमम् विकल्पोत्पादनद्वारेण तस्य तत्र सामर्थ्याभ्युपगमात् । न चाप्रमाणकेने परः पर्यनुयुज्यते वादिप्रतिवादिनोः पर्यनुयोगस्य प्रमाणत्वे-२५ नासिद्धेः । अथ यथा वचनात्मकमनुमानं न वक्तुः प्रमाणम् अथ चाऽनेन वक्ता परान् प्रतिपादयति तथाऽप्रमाणकेन पर्यनुयोगः क्रियत इत्ययुक्तमेतत् यतो वचनाद् द्वयोरप्यर्थप्रतीतिः प्रमाणभूतैवोत्पद्यतेऽर्थपरिच्छेदकत्वात् केवलं वक्तुरधिगमस्य निष्पन्नत्वात् प्रमाणं नोच्यते न पुनरप्रमाणं भवति अप्रामाण्ये वा द्वयोरप्यप्रमाणमिति कथं तथार्थप्रतीतिः? यदपि 'परप्रसिद्धनानुमानेन तदेव निषिध्यते' इत्युच्यते तदप्येतेनैव निरस्तम् । यच्च 'तद्विषयस्य सामान्यादेरभावादनुमानमप्रमाणम्' इत्यु-३० क्तम् तदप्यतद्रूपपरावृत्तवस्तुमात्रप्रसाधकत्वेनानुमानस्य प्रतिपादनात् प्रतिविहितम् यथोक्तस्य च सामान्यस्यायोगव्यवच्छेदेन प्रतिनियतदेशादिसम्बन्धितयाऽनुमानेन प्रसाधनात् । 'विशेषेऽनुगमाभावः सामान्ये सिद्धसाधनम्' इत्यपि प्रतिविहितमेव । अवगततादात्म्यतदुत्पत्तिप्रतिबन्धस्य च लिङ्गस्य साध्यगमकत्वे विशेषविरुद्धानुमानविरोधयोः सहभावदर्शनमात्रप्रतिपन्नाविनाभावलिङ्गप्रभ १ "प्रमाणहेतुत्वे"-बृ.टि.। २ पृ. १७ पं. ९ । तत्त्वसं० पजि. पृ. ७७५ पं० २७ । आप्तप० पृ० ४३ पं. १६ । १-१-११ प्रमाणमी. पृ० १४ पं. १६। ३ पृ० ५५४ पं० ४। ४ "प्रत्यक्षस्य"-बृ.टि.। ५-पत्तिर्विबृ०। ६-व वा-बृ० वा. बा. विना। लोकेऽ-बृ० विना। ८ लिङ्गं के-वा. बा. भां० मा विना । ९पृ० ६९ पं०३९ । “परपर्यनुयोगपराणि हि बृहस्पतेः सूत्राणि इति वचनात्"-प्रमाणप० पृ. ६३ पं० १। १० “प्रत्यक्षनिबन्धन-" बृ० टि०। ११-न पर्य-वा० बा०। १२-नं व-भां० मां० विना। १३ "वचनात्मकं हि अनुमानं परार्थ ततस्तस्यैव प्रमाणं न वक्तुः वक्ता चात्माप्रमाणेनाऽपि परं प्रतिपादयति"-वृ. ल. टि. । १४ नित्योत्पन्न-बृ० सं०। १५ कथं वितथाथै प्र-भां० मां०। १६ पृ. ५५४ पं०५। १७ पृ. ५५४ पं. ७॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ द्वितीये काण्डेवयोः कथमवकाशः? तेन 'विशेषविरुद्ध'-इत्याद्यप्यसङ्गतमेव अतोऽनुमानस्यापि प्रामाण्योपपत्ते "प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणम्" [ ] इति चार्वाकमतमयुक्तम् । अत्र च"पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुस्त्रिधैव सः।। अविनाभावनियमाद्धेत्वाभासास्ततोऽपरे" [ ५ इति वचनात् पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्त इति लक्षणनिर्देशः हेतुरिति लक्ष्यनिर्देशः त्रिधैव स हेतुरिति तत्प्रभेदनिर्देशः। १पृ. ५५४ पं० १२। २ क्वचित् कचित् खण्डितोऽपि हेतुबिन्दुतर्कटीकागतः पाठः समानप्रायत्वेन परस्परशुद्धीकरण-तुलनयोरुपयोगितया सटिप्पणिकत्वेन च अर्थवेशद्योपयोगितया ताडपत्रप्रत्युपलब्धावस्थ एवात्र समुझियते___"एष चार्थः पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुः कस्य परोक्षा..."पि च व्याप्ती सत्यां तेत्र नियतं भवतीत्यभिप्रायवता विपर्ययव्याप्ति प्रदर्शयितुमिदमुक्तम्-"हेलाभासस्ततोऽपरः” इति तत्रैतत् स्यात् क्षणिकविपक्ष... विपर्ययेण व्याप्तिर्बाधकप्रमाणवशादवसिता इह तु त्रिसङ्ख्याबाह्यानामर्थानां हेलाभासत्वेन व्याप्तिः कतरेण प्रमाणेनावसितेत्यव..अविनाभावनियमात् इति । त्रिविधहेतुव्यतिरिक्त लिङ्गतयोपगते शङ्कामाने वा वस्तुनि पक्षधर्मतासद्भावेऽप्यविनाभावाभावा.... तथा च वक्ष्यति "न स त्रिविधाद्धेतोरन्यत्रास्तीत्यत्रैव नियत उच्यते" इति । अविनाभाववैकल्यं च हेखाभासलेनासिद्धविरुद्धानका न्तिकसामान्य"णव्याप्तं प्रमेयवादी निश्चितमिति हेवाभासले साध्येऽविनाभाववैकल्यं खभावहेतुः अविनाभाववैकल्यं च त्रिविधहेतुव्यतिरिक्तखादेव त''''गता नापि हेतुत्वं तेषु निषिध्यमानं केवलं व्यामोहात् हेतुबमन्यत्र प्रसिद्धमेव तत्राऽऽरोपितमाशङ्कितं वा तद्विरुद्धोपलम्भादपसार्यते । तत् किमुच्यते "विनः कथं विरोध इति न च सहानवस्थानलक्षण एव विरोधो येन तन्यायः सर्वत्रोपवर्येत । नाऽपि यद् यत्र प्रतिषिध्यते तस्य तत्रैव विरो..(धः प्रति) पत्तव्यो येन "कथऽमसतः केनचिद् विरोधगतिः" इति चोद्येत । नहि नात्र शीतस्पर्शोऽमेरिति साध्यधर्मिण्येव शीतस्पर्शस्याग्निना विरोध "न्धो यथा वऽस्योन्यत्र प्रतीतविरोधस्याग्निना साध्यधर्मिणि निषेधः तथा हेवाभासखोपलम्भाद् हेतुत्रयबाह्येष्वर्थेषु हेतुखनिरास ..."तोऽपि च लाक्षणिको विरोधः प्रतीयते । यथा क्षणिकलेनाक्षणिकत्वस्य तस्य वस्तुनि क्वचिदप्यसम्भवात् । भावेन वा यद्वदभावस्य सर्वसन्नि...'क्षणस्येत्यलं दुर्मतिविस्पन्दितेष्वत्यादरेणेति स्थितमेतत्-त्रित्वे हेतुत्वं नियम्यमान''कानुपलब्धितः सिद्धम् । तथाहि-तादात्म्य-तदुत्पत्तिभ्यामविनाभावो व्याप्तः, तयोस्तावश्यंभावात् । तस्य च तयोरेव भावादतत्खभावस्यातदुत्पत्तेश्च ।. या तदव्यभिचारनियमाभावात् । तदुक्तम् कार्यकारणभावाद्वा खंभावाद्वा नियामकात् । अविनाभावनियमोऽदर्शनान न दर्शनीत् ॥ नियमः कः परस्यान्यथों परैः । अनन्तरनिमित्ते वा धर्मे वाससि रागवत् ॥ इति ॥ रूपादिनाऽपि हि रसादेरविनाभावो न खणाव्यभिचारद्वारक इति । तत्कारणोत्पत्तिरेवाविनाभावनिबन्धनम् । अन्यथा तेदनायत्तस्य तत्कारणानायत्तस्य वा तेन 'नायां सर्वस्य सवात्थैरविनाभावः स्यात् , अविशेषात् । एकार्थसमवायनिमित्तो रूपरसादेरविनाभाव इति चेत्, ननु समवायोऽप्याधार्या भूतानामुपवर्ण्यते । स चाधाराधेयभावस्तदात्मानुपकारेऽतिप्रसगतो न सिध्यतीत्येकसामन्यधीनतैवैकार्थसमवाय. योऽन्यो वा वस्तुभूतः संबन्धोऽसम्भवी तथा सम्बन्धपरीक्षायां विस्तरतः शास्त्रकृता प्रतिपादितमेवेति तत एवावधार्यम् । अँस...'न वा जन्यजनकभावे तादात्म्ये वा तेनैवाविनाभावो नान्येनेत्यत्र वस्तुखभावैरेवोत्तर वाच्यम् । ये एवं भवन्ति नास्माभिः क.. इति चेत्, आकस्मिकस्तर्हि स वस्तूनां खभाव इति न कस्यचिन्न स्यात् । न ह्यहेतोर्देशकालद्रव्यनियमो युक्तः । नहि.नीयेत न वा यस्य यत्र किश्चिदायत्तमनायत्तं वा अन्यथा विशेषाभावादिष्टदेशकालद्रव्यवदन्यदेशादिभावः केना..."द् यद् येनाविनाभूतं दृश्यते तस्य तेनाव्यभिचारकारणं तत्त्वचिन्तकैरभिधानीयम् , न तु पादप्रसारिकाऽवलम्बनीया । तच्चाव्यभिचारकारणम् यथोक्तादन्यन्न युज्यते इति तद्विकला न हेतुलक्षणभाजः इति । तथा चाह १त्रित्वे। २ भवतोऽन्यभावेऽभावलक्षणः। ३ शीतस्पर्शस्य । ४ संयो...(१)त्रिबहेतु"। ५ अविनाभावे । ६ तादात्म्यात् । ७ साध्येन । ८ साधनस्य । ९ विपक्षे । १० सपक्षे । ११ साधनस्य । १२ तादात्म्यतदुत्पत्त्यभावे। १३ साध्ये। १४ मुद्गरादि । १५ नित्यवादिके। १६ एकसामग्रीप्रतिबन्धाभावे। १७ साध्यानायत्तस्य । १८ साध्यकारणाऽनायत्तस्य । १९ ऽधेयस्य रूपरसादेरनुपकारे २० पर"। २१ प्रतिबद्धं । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। अथ हेत्वन्तराभावनिश्चये त्रिवि स इति नियमो युक्तः प्रतियोग्यभावनिश्चयसापेक्षत्वाद् संयोग्यादिषु येष्वस्ति प्रतिबन्धो न तादृशः । न ते हेतवः व्यभिचारस्य संभवात् ॥ इति ॥ अत्र प्रयोगः यस्य येन सह तादात्म्य-तदुत्पत्ती न स्तो न स तदविनाभावी, यथा प्रमेयखादिरनित्यवादिना न, नस्तश्च केन "ितादात्म्यतदुत्पत्ती खभावकार्यव्यतिरेकिणामर्थानामिति व्यापकानुपलब्धिः । खभावानुपलब्धिस्तु खभावहेतावन्त वितेति तस्या...'लक्षण एवं प्रतिबन्धः । व्यापककारणानुपलब्धी तु तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणप्रतिबन्धवशादेव व्याप्यकार्ययोनिवृत्तिं साधयत. ...त् तन्मौत्रसम्बद्धः खौवो भावमे वा । निवर्तयेत् कारणं वा कार्यमव्यभिचारतः ॥ इति ॥ तदेवं हेतुलक्षणं संख्यानियमस्तदुपदर्श...'मत्र श्लोके निर्दिष्टमिति । अथवा त्रिधैव स इति स पक्षधर्मस्त्रिप्रकार एवं खभावकार्यानुपलम्भाख्यस्तदंशेन व्याप्तो नान्यः । त्रिप्रकारस्तदंशेन व्याप्त एवेति सम्बन्धः । किं कारणम् ? अविनाभावनियमात् । अविनाभावस्य व्याप्तेः त्रिविध एव पक्षधर्मे नियम्यमानस्य च पक्षधर्मस्याविनाभावे नियमात् । तेन च भावकार्यानुपलम्भात्मकत्रिविधपक्षधर्मव्यतिरिक्ता न तदंशेन व्याप्ता इति । त्रिविधश्च कार्यस्वभावानुपलब्धिरूपः पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्त एवेति न तस्याहेतुत्वमित्युक्तं भवति । ततत्रिविधहेतुबाह्येष्वविरोधाद्धेतुव्यवहारं कुर्वन्तः त्रिविधे च हेतावविनाभावस्यावश्यम्भावादहेतुखमाचक्षाणा निरस्ता भवन्ति । तत्रैतत् स्यात् हेवाभासानामवि "हि कथितम् । तत्र कार्यखभावयोर्विधिसाधनवान्न प्रतिषेधे साध्ये व्यापारः अनुपलब्धितोऽपि न हेवन्तराभावनिश्चयो यतः सा चतुऽवस्थिता स्वभाव"व्यापकानुपलब्धयो विरुद्धविधिश्चेति । तत्र तुल्ययोग्यतारूपस्यैकज्ञानसंसर्गिणः खभावानुपलब्धिरन्योपलब्धिरूपा अभावव्यवहारहेतुरिष्यते । न"."तरमत्यन्ताभावतयोपगतमनुक्रॉन्तरूपम् यदि हि स्याद्देशादिनिषेध एवास्य स्यात् नात्यन्ताभावः । कारणव्यापकानुपलब्धी तु सिद्धे कार्य.. व्याप्यव्यापकभावे भवतः । न च हेवन्तरेऽत्यन्तासत्तयाऽङ्गीकृते प्रकारोऽयं सम्भवति तत् कथं ते तदभावं गमयिष्यतः । विरोधोऽप्यविकल... भवतोऽन्यभावेऽभावादवगम्यत इति विरुद्धोपलब्धिरप्यसम्भविनी । सम्भवे वा कारणानुपलब्ध्यादीनां कथमत्यन्तनिषेधः ? इत्याशझ्याह-"हेलाभासास्ततोऽपरे" इति । ततस्त्रिविधाद्धतोरपरेऽन्ये हेलाभासा यतस्ततनिधैव स इति । एवं मन्यतेइह येर्दै यत्रं नियम्यते विपर्ययेण तद्विपक्षस्य व्याप्तौ स नियमः सिध्यति । यथा यत् सत् तत् क्षणिकमेवेति । सत्त्वस्य क्षणिकेषु नियम उच्यमानः सत्त्वविपर्ययेणा."खेन क्षणिकविपक्षस्याक्षणिकस्य व्याप्तौ सिध्यति । एवमिहापि त्रिले हेतुर्नियम्यमानो हेतुविपर्ययेण हेत्वाभासखेन त्रिसंख्या वा"स्य व्याप्तौ त्रिसंख्यायामेव नियतो भवति । ततत्रिविधहेतुव्यतिरिक्तानामर्थानां हेवाभासतां दर्शयति । तेन खभावविरुद्धोपलब्ध्य... भावानुपलम्भव्यतिरिक्तानामर्थानां हेतुत्वाभावनिश्चय इति । हेतुतदाभासयोश्च परस्परपरिहारस्थितलक्षणतयैव विरोधो...क्षणप्रतीतिकाल एव प्रतिपन्नः तदात्मनियतप्रतिभासज्ञानादेव तद्विपरीतस्यान्यतया तदाभासताप्रतीतेः परस्परमितरेतररूपाभाव .."यात् । तत्र त्रिविधहेतुव्यतिरिक्तेष्वर्थेषु हेखाभासखमुपलभ्यमानं खविरुद्धं हेतुलं निराकरोति । ते च हेतुत्रयबाह्या अर्था नात्यन्तासत्त"भिधानीयम् तत्र शिष्याणां हेतुव्यवहारनिवृत्तय इत्याह "हेलाभासास्ततोऽपरे" इति । ततः पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्त इति हेतुलक्षणादपरेऽ"लक्षणविकला हेखाभासा गम्यन्त एवेति न तल्लक्षणमुच्यते । तथाहि-पक्षधर्म इत्युक्ते यत्र पक्षधर्मता नास्ति न स हेतुस्तदंशेन व्याप्त इति वचने यत्र तदंशव्याप्तिविरहो विपर्ययव्याप्तेर्व्यापकस्य वा तत्रावश्यम्भावाभावात् ते हेतुरूपविकलतया हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धाऽनैकान्तिका गम्यन्त एव । तथाहि-यल्लक्षणो योऽर्थः शिष्यस्य व्युत्पादितः तल्लक्षणविरहिते न तझ्यवहार खयमेव प्रवर्तयिष्यत्य.. परिहारेणव तद्रूपप्रतिपत्तेरिति न तत्र यत्नः फलवान् भवति । यत्त्वन्यत्र हेत्वाभासव्युत्पादनं तन्मन्दबुद्धीनधिकृत्य इदं तु प्रकरणं विपुलमतीनुद्दिश्य प्रणीतम् “संक्षेपतः” इति वचनात् । त एव हि संक्षेपोक्तं यथावदवगन्तुं क्षमाः न मन्दमतयः तेषां विस्तराभिधानमन्तरेण यथावदर्थप्रतिपत्तेरभावात् । अत एवार्थाक्षिप्तोपन्यासपूर्वकमेव हेत्वाभासलक्षणं तत्रोपवर्णितमिति । तदत्र व्याख्याने हेतुलक्षणं १ हेतुसंख्यानियमः २ तस्य च त्रिविध स्य हेतुत्वावधारणं ३ तदुभयकोरणं ५ लिष्टनिर्देशा........ हेत्वाभासलक्षणानभिधानकारणं चेति ६ षडीः श्लोकेऽत्र निर्दिया इति"-हेतु.टी. ता.लि. पृ०४ ब-पृ० ९ब। २२..."दि। २३ ऽनित्यादिकः। २४ व्याप्यं कृतकवादिकम् । २५ चार्वाकाः । २६ तुल्यं ल"तो योग्यतारूपं यस्य । २७ एकज्ञानसंसर्गिव" । २८ हेतुत्वम् । २९..."र्योगले। ३० हेतु- ३१ यद्रूपः। ३२ तस्योभयस्य हेतुसंख्यानियमस्य हेतुत्वावधारणस्य च कारण अविनाभावनियम इत्येत"। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ भावेषु सावधारणं निश्चयस्य । उक्तं च द्वितीये काण्डे - "अयमेवेति यो ह्येष भावे भवति निर्णयः । नैष वस्त्वन्तराभवसंवित्यनुगमादृते” [ ] इति । न च हेत्वन्तराभावः प्रत्यक्षसमधिगम्यः तस्याभावविषयत्वविरोधात् । नाप्यनुमानतः तस्य ५ त्रिविधलिङ्गप्रभवत्वोपवर्णनात् कार्यस्वभावयोश्च विधिसाधकत्वेनाभावे साध्ये व्यापारासंभवात् अनुपलब्धेश्च हेत्वन्तराभावनिश्चये चतुर्विधाया अप्ययोगात् । तथाहि स्वभावानुपलब्धिर्ह्यन्योपलब्धिरूपा तुल्ययोग्यता रूपस्यैकशानसंसर्गिणोऽभावव्यवहारहेतुरभ्युपगम्यते । न चात्यन्तासत्त योपगतं हेत्वन्तरमुक्तस्वभावम् तथात्वे देशादिनिषेध एव तस्य भवेन्नात्यन्ताभावः । कारणव्यापकानुपलब्ध्योरपि कार्यकारणव्याप्यव्यापकभावसिद्धौ सत्यां व्यापारः न चात्यन्तासतो हेत्वन्तरस्य १० किञ्चिद् वस्तु कारणं व्यापकं वा सिद्धं येन तयोस्तत्र व्यापारो भवेत् । विरुद्धविधिरप्यत्रासंभवी यतो विरोधोऽविकलकारणस्य भवतोऽन्यभावेऽभावादवसीयते न च हेत्वन्तरेऽत्यन्तासत्ययं प्रकारः संभवति संभवे वा न कारणानुपलब्ध्यादीनामात्यन्तिकनिषेधहेतु तेत्याशङ्कयाह - " हेत्वाभासास्ततोSपैरे” इति । तदंशव्र्व्याप्तिवचनेनान्वयव्यतिरेकयोरभिधानात् ततः पक्षधर्मत्वान्वयव्यतिरेकलक्षणकार्यस्वभावानुपलब्धिस्वरूपात्रिविधाद्धेतोरपरेऽन्ये हेत्वाभासा यतस्ततः “त्रिधैव सः” इति । १५ अयमभिप्रायः - त्रित्वे हेतुर्नियम्यमानो हेतुर्विपर्ययेण हेत्वाभासत्वेन त्रिसंख्याबाह्यस्यार्थस्य व्याप्तौ त्रिसंख्यायामेव नियतो भवति । यथा सत्त्वलक्षणो हेतुः क्षणिकेषु नियम्यमानः सत्त्वविपर्ययेणासवेन क्षणिकविपक्षस्याक्षणिकस्य व्याप्तौ नियतः सिध्यतीति त्रिविधहेतुव्यतिरिक्तेष्वर्थेषु हेत्वाभासतोपदर्शनम् । इह च विरुद्धोपलब्ध्या कार्यस्वभावानुपलम्भव्यतिरिक्तानां भावानां हेतुत्वाभावनिश्चयः । हेतुतदाभासयोश्च परस्परपरिहारस्थितलक्षणतैव विरोधः प्रतिपन्नः हेतुलक्षणप्रतीतिकाल एव २० तदात्मनियतप्रतिभासज्ञानादेव तद्विपरीतस्यान्यतया तदाभासताप्रतीतेः परस्परमितरेतररूपाभावनिश्वयात् । तेन हेत्वाभासत्वं त्रिविधहेतुव्यतिरिक्तेषूपलभ्यमानं स्वविरुद्धं हेतुत्वं निराकरोति । न चात्यन्तासत्त्वेन हेतुत्रयवाह्यार्था अभ्युपगताः केवलं हेतुत्वमन्यत्र प्रसिद्धमेव तेषु व्यामोहादध्यारोपितमाशङ्कितं वा तद्विरुद्धोपलब्धेः प्रतिषिध्यत इति कथम् “अत्यन्तासंभविनो न विरोधगतिः” [ ] इति दूषणम् ? सहानवस्थानलक्षणवत् परस्परपरिहार स्थितलक्षणस्यापि विरोधस्य २५ भावे सर्वत्र तत्र्यायोपवर्णनमसंगतमेव । अन्यत्र च प्रसिद्ध विरोधयोः शीतोष्णयोरिव हेतुतदाभासयोहेतुत्रयवाह्येष्वर्थेषु हेत्वाभासत्वोपलम्भाद्धेतुत्वनिरासो यथाग्नावुष्णस्पर्शोपलम्भात् शीतस्पर्शनिषेध इति न क्वचित् साध्यर्धर्मिण्येव विरोधः प्रतिपत्तव्यः । अत्यन्तासतोऽपि च लाक्षणिको विरोधोऽवगम्यत एव यथा भावेन सर्वशक्तिविरहलक्षणस्याभावस्य । कुतः पुनः प्रमाणात् त्रिसंख्याबाह्यानामर्थानां हेत्वाभासत्वेन व्याप्तिरवगतेत्याशङ्कयाह - " अविनाभावनियमत्” इति लिङ्गतयाऽऽराज्यमाने ३० त्रिविध हेतुव्यतिरिक्तेऽर्थे पक्षधर्मतासद्भावेऽप्यविनाभावस्याभावात् । वक्ष्यति च - "न से त्रिविधाद्धेतोरन्यत्रास्तीत्यत्रैव नियत उच्यते” [ ] इति हेत्वाभासत्वेनासिद्धविरुद्धानैकान्तिकसामान्यधर्मेण व्याप्तमविनाभाववैकल्यं प्रमेयत्वादाववगतमिति हेत्वाभासत्वे साध्ये तत्स्वभावहेतुः त्रिविधहेतुव्यतिरिक्तत्वादेव तदन्येषामविनाभाववैकल्यं व्यापकानुपलब्धेः सिद्धम् अविनाभावस्य तादात्म्य - तदुत्पत्तिभ्यां व्याप्तत्वात् तयोरेव तस्य भावात् तत्र च तयोरवश्यं भावादतदुत्पत्तेरत३५ त्स्वभावस्य च तदनायत्ततया तदव्यभिचारनियमाभावात् । उक्तं च "कार्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात् । अविनाभावनियमो ऽदर्शनान्न न दर्शनात् " ॥ [ J १- णस्य नि-वा० बा० । २- भावः सं-भां० म० । पृ० ३४९ पं० २३ । ३-४-५ पृ० ५५६ पं० ३-४ । ६ " अपि तु अन्यत्र धर्म्यन्तरे " - बृ० ल० टि० । ७ “ परस्परपरिहारस्थितिलक्षणः " - बृ० ल० टि० । ८ पृ० ५५६ पं० ४। ९ “ अविनाभावः " - बृ० ल० टि० । १० - हेतु त्रि- वा० वा० । ११ “ अविनाभावस्य ” - बृ० टि० । १२ - त् अत्र वा० बा० भ० मां० । १३ “ तादात्म्य-तदुत्पत्त्योः " - बृ० ल० टि० । १४ - यमोद - बृ० भ० मां• विना । पृ० ७६ पं० १७ | तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ४३० पं०२० । “नियमोऽदर्शनान्न तु दर्शनात् " - प्रशस्त० कं० पृ० २०७ पं० ८ | न्यायवा० ता० टी० पृ० १५८ पं० २४ । नयनप्रसादिन्यां चित्सुख्या व्याख्यायाम् " तदप्युक्तं कीर्तिना " इत्युल्लिख्यायं श्लोक उद्धृतोऽस्ति परं तत्र " - दर्शनान्न तु दर्शनात्" इति चतुर्थ चरणम् पृ० ७१ पं० २८ । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा १० "अवश्यंभावनियमः कः परस्यान्यथा परैः। अर्थान्तरनिमित्ते वा धर्मे वाससि रागवत्" ॥ [ ] इति । याऽपि रसतः समानसमयस्य रूपादेः प्रतिपंत्तिः सोऽपि स्वकारणाव्यभिचारनिमित्ताविनाभावनिवधनेति तत्कारणोत्पत्तिरेवाविनामावनिवन्धनमन्यथा तदनायत्तस्य तत्कारणानायत्तस्य वा तेनावि यामविशषात् सवार्थविनाभावो भवेत् । न चैकार्थसमवायनिमित्तो रूपरसादेरविना-५ भावः तस्य निषिद्धत्वात् । तदुक्तम् "एकसामग्र्यधीनत्वाद् रूपादे रसतो गतिः। हेतुर्मानुमानेन धूमेन्धनविकारवत् ॥” [ 1 इति । तदेवं तादात्म्य-तदुत्पत्त्योरविनाभावव्यापिकयोर्यत्राभावस्तत्राविनाभावाभावाद् हेतुत्वस्याप्यभावः सिद्धः । तदुक्तम् "संयोग्यादिषु येष्वस्ति प्रतिबन्धो न तादृशः। न ते हेतव इत्युक्तं व्यभिचारस्य संभवात्" ॥ [ तथा च प्रयोगः-यस्य येन तादात्म्य-तदुत्पत्ती न स्तः न स तदविनाभावी यथा प्रमेयत्वादिरनित्यत्वादिना न स्तश्च केनचित् तादात्म्य-तदुत्पत्ती स्वभावकार्यव्यतिरेकिणामर्थानामिति व्यापकानुपलब्धिः । स्वभावानुपलब्धेस्तु स्वभावहेतावन्तर्भाव इति तस्यास्तादात्म्यलक्षण एव प्रतिबन्धः । कारण-१५ व्यापकानुपलब्ध्योरपि तादात्म्य-तदुत्पत्तिप्रतिबन्धाद् व्याप्यकार्यनिवृत्तिसाधकत्वम् । उक्तं च "तस्मात् तन्मात्रसम्बद्धः खभावो भावमेव वा। निवर्तयेत् कारणं वा कार्यमव्यभिचारतः" ॥ [ ] इति। यद्वा "त्रिधैव संः” इति स पक्षधर्मस्त्रिप्रकार एव स्वभावकार्यानुपलम्भाख्यः तदंशेन व्याप्तो नान्यः स त्रिप्रकारस्तदंशेन व्याप्त एवेति च सम्बन्धनीयम् । अविनाभावनियमात् अविनाभावस्य व्याप्तेस्त्रि-२० प्रकार एव पक्षधर्मे नियमात् त्रिविधस्य च पक्षधर्मस्याविनाभावनियमात् तेन त्रिविधपक्षधर्मव्यतिरिक्ता न हेतवः । त्रिविधश्च पक्षधर्मों हेतुरेव तदंशेन व्याप्त एवेति कृत्वा हेतुलक्षणावगमादेव हेत्वाभासाः ततो हेतुलक्षणयुक्तादपरे अन्ये तल्लक्षणविकला हेत्वाभासा अवगम्यन्त इति न पृथक तल्लक्षणाभिधानम् । तदेवं यथोक्तलक्षणाद्धेतोः साध्यप्रतिपत्तिः स्वार्थमनुमानम् यथोक्तहेत्वभिधानं च परार्थमनुमानमिति स्थितम् । एतेन "तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतोदृष्टं २५ चे" [ न्यायद०१-५-५] नैयायिकपरिकल्पितमनुमानलक्षणं प्रतिक्षिप्तम् । १पृ० ७६ पं० २०। २"अ."-बृटि० । इदं टिप्पणकं संकेतयुक्तं भाति । तत्र 'अ' शब्देन अविनाभावः । एवमग्रेतनटिप्पणगतेन 'ता.' 'त.' शब्देन तादात्म्यतदुत्पत्तिश्च सूचिता भाति । ३ "ता." "त." बृ० टि। ४-चारिनि-बृ• हा०। ५-धर्मोनु-भां० । "एकसामग्यधीनवं स्वरूपादेस्सतो गतिः। हेतुधर्मानुमानेन धूमेन्धनविकारवत्"॥-तत्त्वसं० पजि० पृ. ४१७ पं० २४ । "एकसामग्यधीनस्य रूपादेरसतो गतिः" ।-न्यायवा० ता० टी० पृ० १६२ पं० ८ । १-२-१२ प्रमाणमी. पृ० ६३ पं० १२। ६-त्वव्याप्य-वा. बा. भां० मां० विना । -म्बन्धः वा. बा. मां०। ८ यदि वा त्रि-भां० मां०। ९ पृ. ५५६ पं०३।। १० प्रस्तुतसूत्रगतमनुमानत्रैविध्यं वात्स्यायनेन द्विधा व्याख्यायि-वात्स्या० भा० पृ. २३-२४ । इदं त्रिविधमपि अनुमानं प्रत्येकमन्वयविधाद्वयेन व्यतिरेकविधया अन्वय-व्यतिरेकविधाद्वयेन च पञ्चविधं सत् कालत्रयमेदेन पञ्चदशधा भवति । तदेव च प्रतिपन्नाऽप्रतिपन्नसंदिग्ध-विपर्यस्तपुरुषभेदेन षष्टिभेदं जायते । आन्तर्गणिक त्वेतदनन्तभेदं भवति इत्यादि सर्वमनुमानत्रैविध्यविषयकमतान्तरसमालोचनसहितं सविस्तर विवेचनं न्यायवार्तिक-न्यायवार्तिक'तात्पर्यटीका-न्यायमञ्जरीप्रभृतिग्रन्थेभ्योऽवसेयमनुक्रमेण-पृ. ४३-५७ । पृ० १५६-१९६ । पृ० १०९-१३५।। नैयायिकवत् सांख्य-जैन-चरकाचार्यानिविधमनुमानं प्रतिपन्नाः । वैशेषिकास्तद् द्विविधं मन्यन्ते । मीमांसका अपि तद् द्विविधं वर्णयन्ति । बौद्धास्तु पूर्ववदादिभेदेनानुमानं न विभजन्ति । तथाहि साख्यकारिकायामीश्वरकृष्णः "त्रिविधमनुमानमाख्यातम्" [का०५] इत्यनेनानुमानस्य त्रैविध्यमाख्यातवान् । माठरस्तदृत्तौ त्रिविधपदेन पूर्ववदादिभेदान् व्याख्यातवान् उदाहृतवांश्च सत्कार्यवादसिद्धान्तानुसारेण अत एव साङ्ख्य-नैयायिकयोः Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० द्वितीये काण्डे[अक्षपादीयानुमानसूत्रस्य विविधा व्याख्यामुपन्यस्य तदीयानुमानलक्षणस्य अनेकधा निरूपणम् ] __ अत्र च सूत्रे "तत्पूर्वकमनुमानम्" इत्येतावदनुमानलक्षणमित्येके । “तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानम्" इति चान्ये । “तत्पूर्व त्रिविधं पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतोदृष्टं चानुमानम्" इत्यपरे । आधे सूत्र लक्ष्यलक्षणविभागमुपदर्शयन्ति-अनुमानमिति लक्ष्यनिर्देशः तत्पूर्वकमिति लक्षणम् अत्र चैकस्य ५ पूर्वकशब्दस्य समानश्रुत्या “प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भ-" [न्यायद०१-२-१] सूत्रवत् साधनशब्दस्य लुप्तनिर्देशं मन्यन्ते । 'तत्पूर्वकम्' इत्यत्र तच्छब्देन प्रत्यक्षं प्रमाणमभिसम्बध्यते । तत्पूर्वकं तत्फलं तत्फलपूर्वकं तत्पूर्वकं तदनुमानं व्यर्वेच्छिनत्तीत्युच्यमाने संस्कारे अतिप्रसङ्गः तस्य तत्फलपूर्वकत्वेऽप्यबोधरूपत्वान्नानुमानव्यवच्छेदकत्वमिति तन्निवृत्तये ज्ञानग्रहणं कार्यम् अथ प्रत्यक्षसूत्रे शानग्रहणं प्रक्रान्तं तदिहापि सम्बध्यते; नन्वेवमपि ज्ञानरूपं तत्पूर्वकं यतो भवति तदनुमानमित्यु१० च्यमाने स्मृत्यातिप्रसङ्गः द्वितीयलिङ्गदर्शनपूर्विकाया अविनाभावसम्बन्धस्मृतेस्तत्पूर्वकत्वात् तज्जन पूर्ववदाद्यनुमानविषयाण्युदाहरणानि अत्यन्तं विभिन्नानि वर्तन्ते । उक्तकारिकाव्याख्यायां साञ्जयतत्त्वकौमुद्यां वाचस्पतिमिश्रस्त पूर्ववदादित्रिप्रकारमेव तद् वीतावीतभेदेन संगृहीतवान् तत्स्वरूपं च सविस्तर विवृतवान् । जैनागमग्रन्थेषु भगवती-[श. ५, उ. ४] अनुयोगद्वार [पृ० २१२-२१५ स०] प्रभृतिषु पूर्ववदादिमेदेनानुमानविभागः कृतो दृश्यते परन्तु तत्र सामान्यदृष्ट-विशेषदृष्टोभयभेदभिन्नं तृतीयमनुमानं दृष्टसाधर्म्यवन्नाम्ना ज्ञापितमस्ति । 'प्रत्यक्षं च परोक्षं च' इति सूत्रयन्तः श्रीसिद्धसेन-समन्तभद्रादयो जैनतार्किका इममागमिकमनुमानविभागं न वर्णितवन्तः। चरकसंहितायां श्लोकस्थाने अनुमानद्वैविध्यमित्थं प्रदर्शितम् "प्रत्यक्षपूर्व त्रिविधं त्रिकालं चानुमीयते । वहिर्निगूढो धूमेन मैथुनं गर्भदर्शनात् ॥ एवं व्यवस्यन्त्यतीतं बीजात् फलमनागतम् । दृष्ट्वा बीजात् फलं जातमिहैव सदृशं बुधाः" । अ० ११ श्लो. २८-२९ पृ० २६१।। प्रशस्तपादभाष्ये "तत् तु द्विविधम् दृष्टं सामान्यतोदृष्टं च" [पृ० २०५] इत्यादिनाऽनुमानद्वैविध्यं प्रदर्शितम् । मीमांसादर्शने शाबरभाष्ये “तत् तु द्विविधम्-प्रत्यक्षतोदृष्टसंबन्धं सामान्यतोदृष्टसंबन्धं च" [पृ.८५०९1 इत्येवमनुमानद्वैविध्य प्ररूपितम्।। इदमेव मीमांसकसंमतमनुमानद्वैविध्यं तत्त्वसंग्रहे इत्थं निरूपितम्"द्वैविध्यमनुमानस्य केचिदेवं प्रचक्षते । विशेषदृष्ट-सामान्यपरिदृष्टखमेदतः" ॥-तत्त्वसं० का० १४४२ पृ. ४२२ । "केचिदिति कुमारिलादयः" । तत्त्वसं० पनि । अत्रार्थे सविशेषमवबुभुत्सुभिः श्लोकवार्तिकगतोऽनुमानपरिच्छेदोऽव. धारणीयः । जैनागमे सामान्यदृष्ट-विशेषदृष्टे अनुमानस्य प्रभेदौ मीमांसकनये तु ते एवानुमानस्य मेदाविति बोद्धव्यम् । १ "अत्र हि प्रथमं लिङ्गदर्शनं ततः प्रतिबन्धस्मरणम् ततः केषांचिन्मते परामर्शज्ञानं ततः साध्यार्थप्रतीतिः ततः प्रत्यक्षलक्षणावसरवर्णितेन क्रमेण हेयादिज्ञानमितीयति प्रतीतिकलापे यथोपपत्ति कार्यकारणभावो वक्तव्य इत्येवं तत्पूर्वकपदमेव केवलमनुमानलक्षणक्षममिति गुरवो वर्णयाचक्रुः । अन्ये पुनः उपमानाद्यतिव्याप्तिव्युदासाय त्रिविधग्रहणं व्याख्यातवन्तः । तत्पूर्वकमनुमानमित्युच्यमाने सति उपमानादौ प्रसङ्ग इति त्रिविधग्रहणम्"।-न्यायमञ्ज. आ० २ पृ. १२६ पं० २३-पृ० १२७ पं० २। "तदेवं लक्षणे कश्चित् सर्व सूत्रमयोजयत् । एवं तु ख्यापितं न स्यात् सूत्रकारस्य कौशलम्"।-न्यायमञ्ज. आ. २ पृ. १२७ पं० १५। २ "प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिप्रहो वादः" इति संपूर्ण सूत्रम् । ३ “तानि ते तत् पूर्व यस्य तदिदं तत्पूर्वकम्" इत्यादिना 'तत्पूर्वक'पदस्य व्युत्पत्तिविचारणा न्यायवार्तिके वर्ततेपृ० ४३ पं० १९-1 एषैव विचारणा न्यायवार्तिकतात्पर्यटीकायामपि चर्चिताऽस्ति-पृ० १५६ पं० २१-1 न्यायमजर्या तु सैव भङ्गयन्तरेण विशेषविशदतया सुललिततया च निरूपिताऽस्ति-आ० २, पृ० १२६ पं०७-। ४ तत्फलपूर्वकं तत्पूर्वकपूर्वकं ल• मां० वि०। तत्फलपूर्वकं तत्पूर्वकपूर्वकपूर्वकं वा० बा । तत्फलपूर्वकं तत्पूर्वकं पूर्वकं बृ। तत्फलपूर्वकपूर्वकं हा.।। ५ "विशिनष्टि'-बृ० ल.टि.“यदि प्रत्यक्षपूर्वकमनुमानं संस्कारे निर्णये च प्रसङ्ग इति । प्रत्यक्षपूर्वको भावनाख्यः स्मृतिहेतुः संस्कारः निर्णयश्च प्रत्यक्षपूर्वकवादनुमान प्रसज्यत इति । नैष दोषः विज्ञानस्याधिकृतत्वात् । इन्द्रियार्थसन्निकर्षोंत्पन्नं ज्ञानमिति ज्ञानाधिकारो वर्तत इति तेन न संस्कारेऽतिप्रसङ्गः । निर्णये तु उभयथा" इत्यादि-न्यायवा. पृ. ४५पं. १९- न्यायवा० ता० टी० पृ० १७० पं० २०६ नन्वेवमिहापि भां० मां०। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५६१ कस्यानुमानत्वप्रसङ्ग इति तन्निवृत्तयेऽर्थीपलब्धिग्रहणं कार्यम् स्मृतेस्त्वनर्थजन्यत्वमर्थ विनाऽपि भावात् । न च विनष्टस्य जनकत्वम् अविनत्वप्रसक्तेः । न च विनष्टरूपतया जनकत्वम् नदाऽसत्त्वात् । अतोऽर्थोपलब्धियथोक्तविशेपणा यतो भवति तदनुमानम् । एवमपि लैङ्गिकविपर्ययेऽतिप्रसङ्गः यतो गवयविपाणदर्शनाद् गोप्रतिपत्तिरुपजायते यद् गोविषाणसादृश्यज्ञानं प्रत्यक्षफलं तत्पूर्वकं गौः' इति विपर्ययज्ञानम् अतस्तजनकस्याप्यनुमानत्वप्रसक्तिः तन्निवृत्तये अव्यभिचारिर्पदमनुवर्तनीयम् ५ एवमपि संशयज्ञानजनकेऽतिप्रसङ्गः यतो गोगवयानुयायिलिङ्गदर्शनाद् 'गोर्गवयो वा' इति संशय उपजायते तजनकं च सदृशलिङ्गज्ञानं प्रत्यक्षफलम् तत्पूर्वकं संशयज्ञानमर्थविषयं च तजनकस्याप्यनु. मानप्रसक्तिरिति तद्व्यवच्छित्तये व्यवसायात्मकपदमनुवर्तनीयम् । तथाप्यविनाभावसम्बन्धस्मरणानन्तरं 'तथा चायं धूमः' इति प्रदर्शनज्ञानाद् ‘अग्निः' इति वाक्याच्च नालिकेरद्वीपवासिनो विशिष्टदेशेऽग्निप्रतिपत्तिरुपजायते न च तस्या अनुमानफलत्वम् शाब्दत्वेन व्यवस्थापनात् तन्निवृत्तयेऽव्यप-१० देश्यपदानुवृत्तिः तथाप्युपमानेऽतिप्रसङ्गः गृहीतातिदेशवाक्यस्य पुंसः सादृश्यज्ञानं वाक्यार्थानुस्मरणसहायमव्यपदेश्यादिविशेषणत्रयविशिष्टं संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानं तत्पूर्वकपूर्वकं जनयदपि नानुमानम् तत्फलस्याव्यपदेश्यत्वं च श्रूयमाणवाक्याजनितत्वात् । तथानुमानादिपूर्वकाणामसङ्ग्रह इति अव्याप्त्यतिव्याप्ती न निवर्तेते ततस्तन्निवृत्तये विग्रहद्वयाश्रयणम्-तानि ते च पूर्व यस्य तत् तत्पूर्वकम् । 'तानि' इति विग्रहविशेपाश्रयणेन सर्वप्रमाणपूर्वकत्वमनुमानस्य लभ्यते । न च तेषां पूर्वमप्रकृतत्वात् १५ कथं सर्वनाम्ना परामर्श इति प्रेर्यम् यतः साक्षादप्रकृतत्वेऽपि प्रत्यक्षसूत्रे व्यवच्छेद्यत्वेन प्रकृतत्वात् अव्याप्तेरेव निवृत्तिः । अतिव्याप्तेस्तु ते द्वे प्रत्यक्षे पूर्व यस्य' विग्रहविशेषाश्रयान्निवृत्तिः । तथाहितत्पूर्वकमित्यनेन लिङ्गलिगिनोः सम्बन्धदर्शनं लिङ्गदर्शनं च सम्बध्यते । न चोपमानफलमेवम्भूताध्यक्षफलद्वयपूर्वकमिति तत्फलाद् भिद्यते अनुमानफलम् । न चानुमेयप्रतिपत्तिकाले सम्बन्धग्रहणस्य निवृत्तत्वात् कथं तत्पूर्वकत्वमनुमेयप्रतिपत्तेरित्याशङ्कनीयम् यतोऽविनाभावसम्बन्धग्रहण-२० जनितसंस्कारप्रभवा स्मृतिः सम्बन्धदर्शनवाच्याऽत्र गृह्यते तया जनितो लिङ्गपरामर्शः तेनाप्रत्यक्षस्यार्थस्यानुसानम् । न चोपमानफलमेवंभूतफलपूर्वकम् अविनाभावसम्बन्धानुभवसम्बन्धस्मृतिपूर्वकत्वेन तस्य निषेत्स्यमानत्वात् । न चैवमपि प्रत्यक्षद्वयस्याश्रुतत्वान्नैवं सम्बन्ध इति वक्तव्यम् एकशेषतस्तत्सिद्धेः । नन्वेवमप्यविनाभावसम्बन्धदर्शनस्याश्रुतत्वादेव व्याख्यानमयुक्तम् , न; विशिष्ट फलद्वारेण तदपपत्तेः। तथाहि-अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टं फलं यतः समुपजायते तदनुमानमित्युक्ते अविनाभावसम्बन्धः सिध्यत्येव । अनिन्द्रियार्थसन्निकर्पजमशाब्दमसारूप्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं न ह्यविनाभावविकलाल्लिङ्गादुदयमासादयितुं समर्थम् ; अर्थापत्त्यादीनां चानुमान एवान्तर्भावान्न तत्प्रसङ्गः। एवं यथोक्तप्रकारेण नातिव्याप्त्यव्याप्ती। ये तु पूर्वशब्दस्यैकस्य लुप्तनिर्देशं नाभ्युपगच्छन्ति तेषां प्रत्यक्षफले अनुमानत्वप्रसक्तिः तत्फलस्य प्रत्यक्षप्रमाणपूर्वकत्वात् । अथाकारकस्याप्रमाणत्वात् कारकत्वं लभ्यते तथापि संस्कारजनके ३० प्रसङ्गः । उपलैंब्धिजनकस्येति चेत् स्मृतिजनके प्रसङ्गः । अर्थोपलब्धिजनकस्येति विशेषणे लैङ्गिकविपर्ययोपलब्धिजनके प्रसङ्गः । अव्यभिचरितार्थोपलब्धिजनकस्यति विशेपणे लैङ्गिकसन्दिग्धार्थोपलब्धिजनके प्रसङ्गः । व्यवसायात्मिकार्थोपलब्धिजनकस्येत्यभिधाने लिङ्गशब्दोत्पाद्यार्थीपलब्धिजनके १-टस्य प्र-ल.। २-यते तद्गो-वा० बा० भ० मो०। ३ "अर्थजन्यं च"-वृ० ल. टि.। ४-पदं सम-वि०। ५-फल त-भां० मां०। ६ “पर(रा)मर्शज्ञानादिति वा पाठः"-ल• टि०। ७-फलं शा-वा० बा० । ८-त्वम् श-हा०। ९ "अग्निरेषः इति वाक्यादुपजायमानत्वात्"-वृ० ल.टि.। १०-ज्ञान वा-वा. बा. भां. मां. विना। ११-ज्ञान त-बु.।। १२ "तानि ते तत् पूर्व यस्य तदिदं तत्पूर्वकम् । यदा 'तानि' इति विग्रहस्तदा समस्तप्रमाणाभिसंबन्धात् सर्वप्र. भाणपूर्वकत्वमनुमानस्य वर्णितं भवति । पारंपर्येण पुनस्तत् प्रत्यक्ष एवं व्यवतिष्ठत इति तत्पूर्वकत्वमुक्तं भवति । यदापि विवेकात् ते पूर्वे यस्येति ते द्वे प्रत्यक्षे पूर्वे यस्य प्रत्यक्षस्य तदिदं तत्पूर्वक प्रत्यक्षमिति"-न्यायवा० पृ. ४३ पं० २०-। न्यायवा० ता० टी० पृ. १५६ पं० २०-न्यायमचर्यामेतत् प्रकारान्तरेण सुस्पष्टं चर्चितमस्ति-आ० २ पृ० १२५ पं० ५-1 १३-मक-बृ. आ० हा. वि. विना। १४-भूतं फ-ल० । १५-भवं स-वृ०। १६-नैव स-आ• हा० वि०। १७ अत्र विशेषणपदमध्याहृत्य 'उपलब्धिजनकस्येति विशेषणमिति चेतू' एतादृशः पाठः पूरणीयः। ७२ स० तक Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ द्वितीये काण्डेप्रसङ्गः । अव्यपदेश्यार्थीपलब्धिजनकस्येति विशेषणे विशिष्टफलजनकस्याध्यक्षफलस्यानुमानत्वमभ्युपगतं भवेत् । तथा च विशिष्टज्ञानमेवानुमान प्रसज्यत इत्यव्याप्तिलक्षणदोषः । न च तस्यैवानुमान त्वम् "स्मृत्यनुमानागमसंशयप्रतिभास्वप्नशानोहाः सुखादिप्रत्यक्षमिच्छादयश्च मनसो लिङ्गानि" [१-१-१६ वात्स्या०भा०] इति वचनात् सर्वस्य विशिष्टफलजनकस्यानुमानत्वात् तथापि स्वरूपवि५शेषणवादिनामेषामनुमानत्वं न प्राप्नोति अव्यभिचारादिविशेषणानामसंभवात् । स्मृत्यादयस्तु स्वज्ञानविशिष्टा लिङ्गं सम्भवन्त्येव अतोऽर्थोपलब्धिरव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टा तत्पूर्वकपूर्विका यतः तदनुमानमित्यभिधीयमाने न कश्चिद्दोषः । नन्वेतस्मिन् सूत्रव्याख्याने त्रिविधग्रहणमनर्थकम्, ना अनुमानविभागार्थत्वात् । न च पूर्ववदादिवैयर्थ्यम् स्वभावादिविषयप्रतिषेधेन तहणस्य पूर्ववदादिविषयशापनार्थत्वात्-पूर्ववदायेव त्रिविधविभागेन विवक्षितम् न स्वभावादिकम् । १० अपरे तु तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानमित्येतावदनुमानलक्षणमाचक्षते । अत्र चानुमानमिति लक्ष्यम् तत्पूर्वकं त्रिविधमिति लक्षणम् । तत्पूर्वकमनुमानमित्यभिधीयमाने संस्कार-स्मृति-शाब्दविपर्यय-संशयोपमानादिषु प्रसङ्गस्तन्निवृत्त्यर्थ त्रिविधपदोपादानम् । त्रिविधमिति त्रिरूपम् त्रीणि च रूपाणि पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणानि गृह्यन्ते पूर्ववदादिश्रुतेः । पूर्वमुपादीयमानत्वात् कथात्रयेऽपि पूर्वः पक्षः सोऽस्यास्तीति पूर्ववत्-पक्षधर्मत्वम् । शेष उपयुक्तादन्यत्वात् साधर्म्यदृष्टान्तः तस्मिन् १५ विद्यत इति शेषवत्-सपक्षे सत्त्वम् । सामान्यतोऽदृष्टमिति विपक्षे मनागपि यन्न दृष्टम्-विपक्षे सर्वत्रासत्त्वं तृतीयं रूपम् एतद्रूपलिङ्गालम्वनं यत् तत्पूर्वकं तदनुमानमित्युच्यमाने संस्कारादौ नातिप्रसङ्गस्तथाप्यतिव्याप्तिर्वाधितसप्रतिपक्षेषु तन्निवृत्त्यर्थं सामान्यतोदृष्टं चेति 'च'शब्दोऽबाधितविषयत्वासत्प्रतिपक्षत्वरूपद्वयसमुच्चयार्थः । तथाप्यव्याप्तिः अन्धय-व्यतिरेकिलिङ्गालम्बनयोरसंग्रहात्, न; अन्वयिलिङ्गविवक्षायां सामान्यतोऽदृएमित्येतस्यानभिसम्बन्धात् 'पू २० तरूपद्वयोपेतचतुर्लक्षणलिङ्गप्राप्तेः। व्यतिरेकिविवक्षायां शेषवदित्येतस्यानभिसम्बन्धाद् व्यतिरेकिचतुर्लक्षणलिङ्गसंग्रहाद् अन्वयव्यतिरेकिलिङ्गविवक्षायां समस्तपदाभिसम्बन्धात् पञ्चलक्षणलिङ्गप्राप्तेः। अन्ये तु त्रिविधग्रहणमतिव्याप्तिनिवृत्यर्थमेवान्यथा वर्णयन्ति-त्रिविधं त्रिप्रकारम् के पुनस्त्रयः प्रकारा इति विवक्षायां पूर्ववदादिनिर्देशः। तत्र पूर्ववत् यत्र कारणेन कार्यमनुमीयते । अथापि स्यात् पूर्व कारणं तदस्यास्तीति पूर्ववत् कार्यम् एवं च कार्यात् कारणानुमानं पूर्ववत् प्रसक्तम् न कारणात् २५ कार्यानुमानम् । न च कारणदर्शनात् कार्यप्रतिपत्तिः संभविनी । तथाहि-कारणात् कार्ये साध्ये यदि कार्यस्य धर्मित्वं तदा तस्यासिद्धत्वादाश्रयासिद्धो हेतुः। अथ तस्य सिद्धत्वान्न धर्म्यसिद्ध्या हेतोराश्रयासिद्धता तर्हि साधनवैफल्यम् कार्यसत्त्वस्य हेतुव्यापारात् प्रागेव सिद्धत्वात् । न च कार्यसत्तायां साध्यायां कारणलक्षणो हेतुर्भावधर्मः सिद्धः तत्सत्तासिद्धौ हेतोस्तद्धर्मतासिद्धेः। नाप्यभावधर्मोऽसौ तत्सत्तासाधने तस्य विरुद्धत्वात् । नाप्युभयधर्मः तत्र तस्य व्यभिचारित्वात् न ह्युभयधर्मो भावमेव ३० प्रतिपादयेत् । उक्तं च-"नासिद्धे भावधर्मोऽस्ति" [ ] इत्यादि । किञ्च, कारणात् कार्यमस्तीति साध्ये हेतुळधिकरणः स्यात् । कारणाच्च यदि प्रतिबद्धसामर्थ्यात् कार्यास्तित्वं भाव्यनुमीयते तदानैकान्तिकत्वं हेतोः तदुक्तम्-"नावश्यं कारणानि तद्वन्ति भवन्ति" [ ] प्रतिबन्धवैकल्यसंभवात् । अथाप्रतिवद्धसामर्थ्यात् तदा तथाभूतकारणदर्शनसमय एव कार्यस्योत्पत्तेरनन्तरसमये तस्याध्यक्षत्वात् प्रतिवन्धाद्यनुस्मरणं व्यर्थम् । यदपि समग्रेण हेतुना कार्योत्पादा १-वत्येव बृ० ल. मां। २ अत्र न्यायवार्तिक-तापर्यटीका-मञ्जरी-रत्नाकरीयाणि तत्तत्स्थलान्यपि अनुसंधेयानि-न्यायवा० पृ.४६ पं० २-1 न्यायवा. ता. टी. पृ. १७१-१७३ । न्यायमज. आ० २ पृ. १२७ पं. ५-1 स्याद्वादर० पृ. ५२७ पं० २२पृ० ५२८ पं० १९ आ० । ३-दाश्रितेः वा० बा०। ४ पूर्वपक्षः वा. बा. विना। ५ न्यायवा० पृ. ४६ पं० १५-पृ. ४७ । न्यायवा. ता. टी. पृ० १७३ पं०१६-पृ० १७६ । प्रस्तुता पूर्ववदादिविषया चर्चा मञ्जर्यामपि समानप्राया वर्तते-न्यायमा. आ. २ पृ० १२७ पं० २६-1 ६ “कार्यस्य"-बृ. ल.टि.। ७ "कार्यसत्ता"-वृ० ल.टि.। -ताऽसि-वृ०। ९ पृ.४८.५० ११,टि.३। १०-वैफल्य-वा. बा०मा०विना । न्यायमज आ. ३.पू. १२०.५.२ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। नुमान सौगतैरभ्युपगतं तदपि योग्यतानुमानम् । तथाहि-योग्येयं वीजादिसामग्री प्रतिबन्धवैफल्यासंभवे विवक्षितकार्योत्पादने इत्येवं तत्स्वभावभूतयोग्यतानुमानात् स्वभावहेतुप्रभवम् । तदुक्तम् "हेतुना यः समग्रेण कार्योत्पादोऽनुमीयते। ___अर्थान्तरानपेक्षत्वात् स स्वभावोऽनुवर्णितः ॥”[ ] इति, असदेतत्; यतो न कार्यस्य धर्मित्वं कारणस्य च हेतुत्वमस्माभिः क्रियते येन कार्यस्य सिद्ध्यसिद्धि-५ भ्यामनुमानाप्रवृत्तिर्भवेत् किन्तु कारणस्यैव धर्मित्वं मेघादेः क्रियते तस्य च सिद्धत्वान्नाथ्रयासिद्धत्वदोषः। तत्रैव च वृष्टयुत्पादकत्वं धर्मः साध्यते तद्धर्मेणोन्नतत्वादिना । न च प्रतिज्ञार्थंकदेश एवं हेतुः साध्यसाधनयोधर्मिधर्मयोर्वा भेदात् । तथाहि-मेघत्वजातियुक्तानां धर्मित्वं भविष्यदृष्ट्युत्पादकत्वमसिद्धमर्थान्तरं ततः साध्यो धर्मः उन्नतत्वादिकमपि साधनधर्मः मेघेभ्यो भिन्नम् तेषां द्वैविध्यदर्शनात् तेन न प्रतिज्ञार्थंकदेशताऽपि । न च साध्य-साधनयोरैक्यम् न च भाष्यविरोध.१० "कारणेन कार्यमनुमीयते” [१-१-५ वात्स्या० भा०] इति तत्र वचनात् यत उन्नतत्वादिधर्म विशिष्टा मेघाः कारणम् तथाविधकारणधर्मेण भविष्यदृष्ट्युत्पादकत्वं धर्मो यदाऽनुमीयते तदा वृष्टेरनुमानात् कारणात् कार्यानुमानमित्युपदिश्यते । अथोन्नतत्वादिधर्मयुक्तानामपि मेघानां वृष्ट्यजनकत्वदर्शनात् कथमैकान्तिकं कारणात् कार्यानुमानम् ? न; विशिष्टस्योन्नतत्वादेर्धर्मस्य गमकत्वेन विवक्षितत्वात् । न च तस्य विशेषो नासर्वज्ञेन निश्चेतुं पार्यत इति वक्तुं शक्यम् सर्वानुमानोच्छेदप्रसक्तेः । तथाहि-१५ मशकादिव्यावृत्तधूमादीनामपि खसाध्याव्यभिचारित्वमसर्वविदा न निश्चेतुं शक्यमिति वक्तुं शक्यत एव । अथ “सुविवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचरति" [ ] इति न्यायाद् धूमादेर्गमकत्वं तत्रापि तुल्यम् यो हि भविष्यदृष्ट्यव्यभिचारिणमुन्नतत्वादिविशेषमवगन्तुं समर्थः स एव तस्मात् तामनुमिनोति नागृहीतविशेषः । तदुक्तम्-"अनुमातुरयमपराधो नानुमानस्य" [२-१-३८ वात्स्या०भा०] तथा सूत्रकारेणाऽप्यभ्यधायि-"नैकदेशवाससादृश्येभ्योऽर्थान्तरभावात्”[न्यायद०२० २-१-३८] अंत एव “गम्भीरध्वानवत्त्वे सति" [१-१-५ न्यायवा० पृ० ४७] इत्याधुन्नतत्वादेर्वार्तिककृता विशेषो दर्शितः। न चैवं साध्यसाधनभावे कार्यसत्तायाः साध्यत्वं येन भावाभावोभयधर्मस्याहेतुत्वमिति दोषः स्यात् । वैयधिकरण्यमपि प्रदर्शितप्रयोगे परिहृतमेव । यच्च अप्रतिबद्धसामर्थ्यस्य कारणस्य हेतुत्वे कार्यप्रत्यक्षतालक्षणं दूपणमभिहितम् तदसंगतमेव व्यवधानसंभवात् । तथाहिनिष्पाद्ये पटे अनुत्पन्नावयवक्रियस्यान्त्यतन्तोर्यदा क्रियातो विभागस्तदाऽविनाभावसम्वन्धस्मृति २५ विभागात् पूर्वसंयोगविनाशः तन्त्वन्तरेण च संयोगोत्पत्तिर्यदैव तदैवाविनाभावसम्बन्धस्मरणात् परामर्शज्ञानम्, यदा संयोगात् कार्योत्पादस्तदैव परामर्शविशिष्टाल्लिङ्गात् 'भविष्यति कार्यम्' इत्यनुमेयप्रतिपत्तिः । न चोत्पादकाल एव कार्यस्य प्रत्यक्षता तंत्र तंदा रूपाद्यभावात् । न च १“यत्र कारणेन कार्यमनुमीयते यथा मेघोन्नत्या भविष्यति वृष्टिरिति” संपूर्ण भाष्यवाक्यम्। २ तथापि काबृ. आ. हा० वि०। ३ "उन्नतत्वादिना"-बृ.टि.। ४ "वृष्टिम्"-वृ.टि.। ५ “सोऽयमनुमातुरपराधो नानु मानस्य योऽर्थविशेषेणानुमेयमर्थमविशिष्टार्थदर्शनेन बुभुत्सत इति" संपूर्ण भाष्यवाक्यम् । "आवर्तवर्तनाशालि विशालकलुषोदकः । कल्लोलविकटास्फालस्फुरत्फेनच्छटाञ्चितः ॥ वहदहलशैवालवनशाद्वलसंकुलः । नदीपूरविशेषोऽपि शक्येत न निवेदितुम् ॥ प्रमातुरपराधोऽयं विशेष यो न पश्यति । नानुमानस्य दोषोऽस्ति प्रमेयाव्यभिचारिणः ॥ रोधोपघातसादृश्यव्यभिचारनिबन्धनम् । अनुमानाप्रमाणत्वमतो वक्तुमसांप्रतम् ॥ पारम्पर्येण वृष्टिश्च नदीपूरस्य कारणम् । पतद्धनपयोबिन्दुसंदोहस्पन्दनक्रमात्" ॥ -न्यायमा० आ० २ पृ० १३० पं० १३-। ६ "कथं पुनरस्य प्रयोगः ? वृष्टिमन्त एते मेघा गम्भीरध्वानवत्त्वे सति बहुलबलाकावत्त्वे सति अचिरप्रभावत्त्वे सति उन्नतिमत्त्वात् वृष्टिवन्मेघवदिति-"न्यायवा० पृ० ४७ पं० १०। ७ पृ. ५६२ पं० २९ । ८ पृ. ५६२ पं. ३१ ९पृ० ५६२ पं० ३३ । एतद् मजर्या समानमेव दृश्यते-न्यायमज आ० २ पृ. १२९ पं० १२-1 १० “एककाल"बृ० टि०। ११-स्मृति वि-आ० हा० वि०। १२ "इत्येककालः"-बृ.टि.। १३-त्तिः तथोत्पा-हा० । १४ “कार्ये"-बृ० टि०। १५ "भावकाले"-बृ.टि.। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ १५ द्वितीये काण्डेरूपादिभिः सहोत्पादस्तदधिकरणानाम् रूपादीनां तत्कार्यत्वात् कार्यकारणयोश्च सहोत्पादे निर्हेतुकत्वप्रसक्तेः । न चान्त्यतन्तुक्रिया अन्तराले प्रतिबन्धसंभवात् त्रिचतुरक्षणव्यवधानान्नावश्य विवक्षितकार्योत्पादिकेति वक्तव्यम् यतोऽनुत्पन्नावयवक्रिये तन्ताविति विशेषणोपादानं कृतमिति नाधारविनाशात् क्रियाविनाशः क्रिया चाविनष्टा स्वकार्य विभागमवश्यमुत्पादयति से च स्वप्रति५ बन्धकाभावे स्वाश्रयसंयोग नियमतो निर्वर्तयति अन्यथा क्रियायाः स्थैर्यप्रसक्तिर्नित्याधारयोश्च नित्यत्वप्रसक्तिर्भवेत स च क्रियाप्रभवः संयोगो नियतो द्रव्याविर्भावकः सति तस्मिन् द्रव्यप्रभवोपलम्भात् । ततोऽन्त्यतन्तुक्रियातोऽन्त्यतन्तोर्विभागविशिष्टस्योपलम्भात् कार्यानुमाने न कार्यप्रत्यक्षतादोषः । येषां तु परामर्शज्ञानं न संभवति तेषां कार्यप्रत्यक्षता दूरापास्तैव । यत् पुनः 'समग्रात् कारणात् स्वात्मभूतस्य योग्यताख्यधर्मस्यानुमानं न कार्यस्य तेन स्वभावहेतुप्रभवमेतदनुमानम्' इति, २० तदसङ्गतम् ; अभेदे गम्यगमकभावस्यासंभवात् । अथ यत्रापि साध्यसाधनयोर्वास्तवोऽभेदस्तत्रापि खलक्षणेन व्यवहारायोगात् लिङ्गसाध्यधर्मिसाध्यधर्मनानात्वप्रतिपत्तिरूपो व्यवहारो बुद्ध्यारूढ एव । तदुक्तम् “सर्व एवायमनुमानानुमेयव्यवहारो बुद्ध्यारूढेन धर्मधर्मिभेदेनं" [ ] इत्यादि। असदेतत्, यतो यदि बुद्धिकल्पितो धर्मधर्मिव्यवहारस्तर्हि कल्पिताद्धेतोः साध्यसिद्धिर्भवेत् । ततश्च यावान् हेतुदोषः स सर्वो भवत्प्रयुक्ते साधने प्रसज्येत । तदुक्तं कुमारिलेन "यदि चाविद्यमानोऽपि भेदो बुद्धिप्रकल्पितः। साध्यसाधनधर्मादेर्व्यवहाराय कल्पते ॥ ततो भवत्प्रयुक्तेऽस्मिन् साधने यावदुच्यते। सर्वत्रोत्पद्यते बुद्धिरिति दूषणता भवेत् ॥” [श्लो० वा० निरा० श्लो० १७१-१७२ ] इति । २० अथ धर्मधर्मितया भेद एंव बुद्धिपरिकल्पितो नार्थोऽपि लिङ्गलक्षणः विकल्पमेदानामिच्छामात्रानुरोधित्वेन स्वतन्त्राणामाप्रतिबद्धत्वेन तदप्रतिपादकत्वात् विकल्पकल्पिताद्धेतोरर्थप्रतिपत्त्यभ्युपगमे अर्थप्रतिलम्भ एव न भवेत् ततोऽर्थ एवार्थ गमयति, असदेतत्; यतो यदि कृतकत्वादिलक्षणोऽर्थोऽनित्यत्वादेरर्थस्य गमकस्तदा तयोस्तादात्म्याद् गम्यगमकभावोऽयुक्त इत्यसकृदावेदितम् । अथ विकल्पप्रतिभासी कृतकत्वादिकः सामान्यलक्षणोऽर्थोऽभ्युपगम्यते तदा तस्यावस्तुत्वेन साध्यप्रतिबद्धत्वा२५भावाद् वस्तुत्वेनाध्यवसितस्यापि कुतो गमकत्वम् ? ययोहि प्रतिबन्धो न तयोर्भेद इति न गम्यगमकभावः ययोश्च मेदाध्यवसायो न तयोःप्रतिबन्धः। न च दृश्य-विकल्प्ययोरेकत्वाध्यवसायादनुमानानुमेयव्यवहाराददोषः तथाभ्युपगमे तदेव कल्पनाविरचितलिङ्गप्रभवत्वमनुमेयप्रतिपत्तेः संवादविरोधि समायातमिति कुतः परोक्तदूषणव्युदासः ? न च समारोपव्यवच्छेदः स्वभावहेतोः फलं संभवीति प्रतिपादितमसकृदिति न पुनः प्रतन्यते ततोऽप्रतिबद्धसामर्थ्यकारणदर्शनात् कार्यस्यैवानुमानं न पुनः ३० समग्रेभ्यः सामर्थ्यानुमानं युक्तम् । न च समर्थकारणस्य धर्मिभूतस्यानन्तरभाविकार्यविशिष्टत्वेऽनुमीयमाने समर्थत्वेन तद्गतेन साधनधर्मेण हेतुरपि व्यधिकरणः । अतः 'हेतुना यः समग्रेण' इत्याद्ययुक्तमेव । अत्र च पूर्व कारणमस्यास्तीति पूर्ववत् कार्य नाभिधीयते किन्तु कारणधर्म उन्नतत्वादिः तेन कारणधर्मस्य वृष्ट्युत्पादकत्वस्यानुमानम् न तु पूर्ववत्-कार्यात् कारणानुमानम् तेन 'पूर्ववत् कार्यात् कारणानुमानं प्राप्नोति' इति यद् गोगाचार्येण प्रेरितम् तन्निराकृतं द्रष्टव्यम् । १ "पटादि"-बृ. टि. । २ "खकार्यविभागः”-बृ. टि.। ३-वे आश्र-भां. मां। ४ निवर्त-६० विना। ५ “पारम्पर्येण"-बृ. टि. । ६ पृ० ५६३ पं०१। -मानं का-वा. बा०।-मान कार्य-बृ० । ८-कस्वभा-भां० मा० । ९ “एतेन “सर्व एव अयमनुमानाऽनुमेयव्यवहारो बुद्धयारूढेन धर्मधर्मिन्यायेन" इति एतदपि प्रत्युक्तम्"-अनेका• पृ० २०९ पं० १० । १० कल्प्यते वा० बा० । श्लो० वा०। ११ एवं बृ.। १२-वादिवि-बृ० । १३ "कारणगतेन"-बृ. टि. । १४ पृ. ५६३ पं. ३ । १५-णस्य वृ-ल. । १६ पृ. ५६२ पं० २४ । १७ यद् दिग्नागाचा-मां० । य दिग्नागाचा-भा० । य दियागाचा-वा० बा० । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६५ ज्ञानमीमांसा। शेषवदित्यत्रापि कारण-कार्ययोर्लिङ्गत्वेनोपक्षेप अनुपयुक्त कार्य शेषः तद् यस्यास्ति तच्छेषवदिति तद्गत एव साधनधर्मः कश्चिदुक्तः न तु कारणम् तेन हि कार्यगतेन धर्मान्तरमप्रत्यक्ष वृष्टिमद्देशसम्बन्धित्वादिकं कार्यगतमेवानुमीयते । अत एव कारणगमकत्वपक्षोक्तदोषप्रसक्त्यभावोऽत्रापि द्रष्टव्यः । तथाहि-नदीशब्दवाच्यो गर्तविशेषो धर्मी तस्योपरिवृष्टिमद्देशसम्बन्धित्वं साध्योधर्मः उभयतटव्यापित्वादिकस्तु साधनधर्मः अनेकफल-फेनसमहवत्त्व-शीघ्रतरगमनत्व-कल-५ षत्वादिकश्च तस्य विशेषः साध्याव्यभिचारी यदा निश्चितो भवति तदा गमकत्वम् नोभयतटव्यापित्वमात्र तोयस्य । अत एव न प्रतिज्ञार्थंकदेशताऽपि दोषः । न चोभयतटव्यापित्वमुदकस्य कथमपामधःपातलक्षणाया वृष्टेः कार्यमिति वक्तव्यम् पारम्पर्येण तस्य तत्कार्यत्वात् । तथाहिद्रवत्वादापः भूसंस्पृष्टाः स्पन्दन्ते स्पन्दमानाश्च संयुक्ताः परस्परं महत्कार्यमारभन्ते तदपि स्पन्दमानं स्वात्मनि वेगमारभते क्रियाकारणापेक्षं तच्च तथाप्रवृत्तं नदीशब्दवाच्यं गत विदधाति । तत्र पूर्वोदक-१० विलक्षणस्योदकस्योभयतटसंयोगः पारम्पर्येण वृष्टिकार्य इति कार्यात् कारणानुमानं शेषवत् । शेषमत्र पूर्ववदनुमान एव चिन्तितम् । सामान्यतोदृष्टम् अकार्यकारणभूतेन लिङ्गेन यत्र लिङ्गिनोऽवगमः । अविनाभावित्वं त्रयाणामप्यविशिष्टम् । विवक्षितसाध्यसाधनापेक्षयाऽकार्यकारणभूतत्वादिकस्तस्य विशेषः । अन्यत्रदृष्टस्यान्यत्रदर्शनं वापूर्वकं देवदत्तादेः तथा चादित्यस्यान्यवृक्षोपरिसम्बन्धितया निर्दिश्यमानस्यान्यपर्वतो+भागसम्बन्धितया निर्देशो दृष्टः तेन च गत्यविनाभाविना भाव्यम् । अन्यत्र-१५ दर्शनस्य च न गतिकार्यत्वम् गतेः संयोगाँदिकार्यत्वात् । अन्यत्रदर्शनं धर्मि गत्यविनाभूतमिति साध्यो धर्मः अन्यत्रदर्शनशब्दवाच्यत्वाद् देवदत्तान्यत्रदर्शनवत् । नन्वन्यत्रदर्शनस्य शेषवत्यन्तर्भावो गतिजन्यत्वात् । अथान्यत्रदर्शनं न साक्षाद् गतिकार्यमपि तु पारम्पर्येणेति न शेषवत्यन्तर्भावस्त - भयतटव्यापित्वमपि न साक्षाद् वृष्टिकार्यमिति न शेषवदुदाहरणं भवेत् । अथ नान्यत्रदर्शनं हेतुः किन्तु तच्छब्दवाच्यत्वम् नन्वत्रापि वक्तव्यम् किं तद् अन्यत्रदर्शनमेव, उत तच्छक्तिः? पूर्वस्मिन् २० विकल्पे शेषवत्यन्तर्भावः । उत्तरस्मिन्नपि 'अन्यत्रदर्शनम्' इत्येवंविधः शब्दो विशिष्टप्रत्ययजनने अन्यत्रदर्शनस्वरूपस्य सहकारी हेतुः स च पारम्पर्येण गतेः कार्यत्वात् शेषवान्, असदेतत्; अत्र ह्यन्यत्रदर्शनत्वं हेतुः न तच्छब्दवाच्यत्वम् तच्च स्वरूपसहकारिभेदेन द्विरूपा शक्तिः अन्यत्रदर्शनं स्वरूपशक्तिस्तदर्शनत्वं सहकारिशक्तिः सा चात्ममनःसंयोगोऽदृष्टादि च । तत्र केषांचिन्नित्यत्वे केषांचिदनित्यत्वेऽपि न गतिकार्यतेति कुतः शेषवत्यन्तर्भावः? एतदपरे दूषयन्ति-अन्यत्रदर्शनमित्यनेन सवितुः किमप्यधिकरणं निर्दिष्टम् । न च निरूप्यमाणं तत् संभवतीति तद्दर्शनमात्रमेवावशिष्यते न 'अन्यत्र' इतिशब्दवाच्यम् । अथोदयसमयेऽन्यत्रदर्शनं ततोऽन्यत्रदर्शनं सवितुरस्तमयसमये न च दृष्टस्यापलापो युक्तियुक्तः सत्यम् अस्त्ययं प्रतिभासः स तु 'अन्यत्र' इत्यधिकरणस्य निर्देष्टुमशक्तरयुक्तः। न च तत्सद्भावेऽप्यन्यत्रदर्शनत्वमनुपलभ्यमानं हेतुः। न च तस्योपलम्भः संभवति आत्ममनःसंयोगादृष्टादेः सर्वस्यातीन्द्रियत्वात् संयोगस्यैन्द्रियकत्वेऽप्य-३० प्रत्यक्षद्रव्यवृत्तेः प्रत्यक्षाप्रत्यक्षद्रव्यवृत्तेश्च तस्यातीन्द्रियत्वात् । अतोऽसिद्धत्वान्नान्यत्रदर्शनत्वं गत्यनुमापकमिति न सामान्यतोदृष्टानुमानोदाहरणमेतद् युक्तं किन्तु समानकोलस्य स्पर्शस्य रूपादकार्यकारणभूतात् प्रतिपत्तिः सामान्यतोदृष्टानुमानप्रभवा । न च रूप-स्पर्शयोः कार्यकारणभावो नैयायिकदृष्ट्या प्रसिद्धः अविनाभावस्तु तमन्तरेणापि तयोरुपपन्न एव । न च सौगतप्रक्रियया १ "पूर्वमप्रतिपादितम्"-बृ.टि.। २ “अनुपयुक्तकार्य"-बृ.टि.। ३ "तेन गोगाचार्यदोषो नास्ति कारणानभिधानात्"-बृ.टि.। ४-म्बन्धत्वा-ल. वा. बा. । ५ न्यायमञ्ज. आ० २ पृ. १३० पं० २३-1 ६-तसाधना-वा० बा. हा० वि०। ७-नं प्रव-आ. हा० वि० । ८ “गमनपूर्वकम्"-बृ० टि०। ९-वि भाव्य-वा० बा०। १० "संयोगादि कार्य यस्य तद्भावः"-बृ. टि.। ११ "स्वरूपशक्तिरात्ममनःसंयोगः सहकारिशक्तिरदृष्टादि भण्यते"-बृ० टि.। १२ “अन्यत्रदर्शनस्य पारम्पर्येण गतिकार्यवात्"-बृ• टि०। १३ अत्र वा० बा. आ० हा० वि० । १४ "अन्यत्रदर्शनसम्"-बृ.टि.। १५-र्शनख-बृ०। १६-भवीति बृ०। १७ “अधिकरणसद्भावे"-बृ० टि.। १८ "अन्यत्रदर्शनस्य तत्त्वस्य वा"-बृ० टि०। १९-कालस्प-वा. बा. आ० वि० । -कार्यस्य स्प-भा. मा० । २० "रूप-स्पर्शयोविभिन्नगुणखात् ततो रूपं रूपस्यैवारम्भकम् न स्पर्शस्य एवं स्पर्शोऽपि"-बृ.टि.। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डेरूपस्य स्पर्शकार्यता तत्कार्यतया लोके तस्याप्रसिद्धः । न चाप्रसिद्धमपि तत्कार्यत्वं गमकत्वान्यथानुपपत्त्या तस्य परिकल्पनीयम् प्रतिबन्धस्य सौगताभ्युपगमेने तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणस्यासंभवात् संभवेऽपि तद्राहकप्रमाणायोगात् क्षणविशरारुत्वे भावानां सर्वस्याप्यस्याघटमानत्वेन प्रतिपादि. तत्वात् । ततो रूपेण स्पर्शानुमान सामान्यतोदृष्टमनुमानम् । ५ अथवा पूर्वेण तुल्यं वर्तत इति पूर्ववदिति वतेः प्रयोगः । न च क्रियातुल्यत्वे वतिप्रयोगस्य वैयाकरणैरिष्टेरत्र च सम्बन्धप्रतिपत्तेः स्पष्टत्वादनुमेयप्रतिपत्तश्चाविशदेतया तंदभावतो विषयतुल्यत्वस्य च तन्निमित्तत्वेनानिष्टेर्वतिप्रयोगोऽनुपपन्न इति वक्तव्यम् यतो यद्यपि प्रत्यक्षानुमानप्रतीत्योर्भेदस्तथापि विषयतुल्यत्वात् कथंचित् क्रियाया अपि तुल्यता समस्तीति न वतेः प्रयोगोऽनुपपन्नः तेन पूर्वप्रतिपत्त्या तुल्या प्रतिपत्तिर्यतो भवति तत् पूर्ववदनुमानम् नन्वेवं शेषवत्-सामान्यतो१०दृष्टयोरपि पूर्ववत्त्वप्रसक्तिः । तथाहि-साध्यसाधनयोः प्रत्यक्षेण दृष्टान्तधर्मिणि सामान्यरूपतया प्रतिबन्धग्रहणम् अन्यथाऽनवस्थाप्रसक्तेरनुमानस्याप्रवृत्तिरिति तत्रितयस्यापि पूर्वेण तुल्यत्वात् पूर्ववत्त्वम् । न हि यादृग्भूतेन साध्यसामान्येन लिङ्गसामान्यस्य दृष्टान्ते अध्यक्षतोऽविनाभावग्रहस्तादृग्भूतस्यैवानध्यक्षस्य साध्यस्य क्वचिद्धर्मिणि हेतुसामान्यात् शेषवत्-सामान्यतोदृष्टयोरप्रतिपत्तिः । अतो विषयतुल्यतया क्रियातुल्यत्वाद् वतेः सर्वत्रैव संभवात् कुतः शेषवत्-सामान्यतोदृष्टयोः पूर्ववतो १५ भेदसिद्धिः? असदेतत्, प्रत्यक्षेणागृहीतान्वयं केवलव्यतिरेकबलात् प्रमा निर्वर्तयत् शेषवदनुमानमित्यभ्युपगमात् । तथाहि-शेषवन्नाम परिशेषः यथा गुणत्वाद् इच्छादीनां पारतन्ये सिद्धे शरीरेन्द्रियादिषु प्रसक्तेषु प्रतिषेधः शरीरविशेषगुणा इच्छादयो न भवन्ति तहुणवैधात् तच्च रूपादीनां खपरात्मप्रत्यक्षत्वेऽपीच्छादीनां स्वात्मप्रत्यक्षत्वमेव नापीन्द्रियाणाम् इच्छाधुत्पत्तौ तेषां समवाय्यादिकारणत्वायोगात् नापि विषयाणाम् उपहतेष्वनुस्मरणदर्शनात् न चान्यस्य प्रसक्तिरस्ति अतः परि२०शेषादात्मसिद्धिः । प्रयोगश्चात्र-योऽसौ परः स आत्मा इच्छाद्याधारत्वात् ये विच्छाद्याधारान भवन्ति ते आत्मशब्दवाच्या अपि न भवन्ति यथा शरीरादयः आत्मशब्दश्च आत्मत्वसम्बन्धिनि द्रष्टव्यः। न चैवं पूर्वेण तुल्यं पूर्ववदिति वतिरत्र संभवति सपक्षे अदृष्टत्वात् । न चैवं सामान्यतो. दृष्टात् पूर्ववतोऽविशेषः यतो यत्र धर्मी साधनधर्मश्च प्रत्यक्षः साध्यधर्मश्च सर्वदाऽप्रत्यक्षः साध्यते तत् सामान्यतोदृष्टं यथेच्छादयः परतन्त्रा गुणत्वात् रूपवत् उपलब्धिर्वा करणसाध्या क्रियात्वात् २५ छिदिक्रियावत् असाधारणकारणपूर्वकं जगद्वैचित्र्यं चित्रत्वात् चित्रादिवैचित्र्यवदित्यादि सामान्य तोदृष्टस्यानेकमुदाहरणम् । उक्तं च ईश्वरकृष्णेन-“सामान्यतस्तु दृष्टादतीन्द्रियाणां प्रसिद्धिरनुमानात्" [साङ्ख्यका०६] इत्यादि । ननु साध्यधर्मस्य सर्वदाऽप्रत्यक्षत्वे तेन हेतोाप्तिग्रहणासंभवात् कथं तत्प्रतिपादकलिङ्गप्रवृत्तिः? नैष दोषः केनचिदर्थेन सामान्यात् । ननु लिङ्गं गुणत्वं कार्यत्वं वाऽत्र सामान्यस्वभावम् न च तस्य सामान्य केनचिदर्थेन संभवति "निःसामान्यानि सामान्यानि" ३०[ ] इति वचनात् । अत्र केषांचित् प्रतिसमाधानम्-इच्छादय एवात्र लिङ्गत्वेनोक्ता इच्छादेश्च रूपादिना सामान्य गुणत्वं कार्यत्वं चोपपद्यत एव । अपरे तु लिङ्गाधिकरणत्वादिच्छादयो लिङ्गत्वेनोक्ता इति व्याचक्षते । तेषां च पूर्ववत् सामान्ययोगः प्रतिपत्तव्यः ततोऽप्रत्यक्षस्य पारतन्यस्य प्रतिपत्ति: सामान्यतोदृष्टम् । अत्रापि च धर्मिण इच्छादेः प्रत्यक्षप्रतिपन्नत्वं गुणत्वकार्यत्वादेरपि साधनस्य १-सिद्धिः वा. बा०। २-न वा ता-भा० मा०। ३ “अथवा पूर्ववदिति भाष्यम् । तस्यार्थः पूर्वेण तुल्य वर्तत इति पूर्ववत् । क्रियातुल्यतायां च वतिरिति कियातुल्यता दर्शिता"-न्यायवा० ता० टी० पृ. १७९ पं० १७ । ४ "तेन तुल्यं क्रिया चेद् वतिः"-पाणि ५-१-११५ । “स्यादेरिवे"-हैम० ७-१-५२। ५ “पूर्वप्रतिपत्तेहि वैशद्यमनुमेयप्रतिपत्तेस्तु नास्तीति"-बृ० ल.टि.। ६ “क्रियातुल्यवाभावतः"-बृ.टि.। "क्रियातुल्यवभावतः"-ल. टि.। ७ “वतिप्रत्ययनिमित्तवेन"-बृ० ल• टि०। ८-हीत्वान्व-बृ०। ९-रेकात् प्र-बृ० आ० हा० वि० । १. "शेषवन्नाम परिशेषः स च प्रसक्तप्रतिषेधेऽन्यत्राऽप्रसाच्छिष्यमाणे संप्रत्ययः" इत्यादि-१-१-५ वात्स्या. भा० पृ. २३ पं० १६-। न्यायवा० पृ० ५१ पं. १६ । न्यायवा० ता० टी० पृ. १८२ पं० १२ । का. ५ साङ्ख्यतत्त्वकौ• पृ० ३०५०७-1 ११-वायादि-वा. बा. भां० मां निना। १२-दिकका-वा० बा। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । ५६७ तद्धर्मत्वं प्रतिपन्नमेव । पारतन्येण च स्वसाध्येन तस्य व्याप्तिरध्यक्षतो रूपादिष्ववगतैव । साध्यव्यावृत्त्या साधनव्यावृत्तिरपि प्रमाणान्तरादेवावगता । न च त्रिर्तयप्रसिद्धावस्य प्रवृत्तेर्न सामान्यतोदृष्टता अपि तु पूर्ववदेवैकमनुमानं प्रसक्तमिति वक्तव्यम् धर्मिणि पारतन्यस्य सर्वदाऽप्रत्य क्षत्वात् नहीच्छादौ धर्मिणि कदाचित् पारतन्त्र्यं प्रत्यक्षम् परस्याप्रत्यक्षत्वात् । अनेन च विशेषेणैतत् सामान्यतोदृष्टव्यपदेशमासादयति । धर्मिणः साध्यसाधनयोवी सर्वदा प्रत्यक्षत्वे गमकाङ्गासिद्धौ ५ गमकत्वासिद्धेः सामान्यतोदृष्टमनुमानमेव न भवेत् । नन्वेवं पूर्ववत् शेषवत् - सामान्यतोदृष्टानां परस्परतः को विशेषः ? उच्यते-इच्छादेः पारतथ्यमप्रतिपत्तौ गुणत्वं कार्यत्वं वा पूर्ववत् तदेव चाश्रयान्तरबाधया विशिष्टाश्रयत्वेन वाधकेन प्रमाणेनावसीयमानं शेषवतः फलम्, तस्य साध्यधर्मस्य धर्म्यन्तरे प्रत्यक्षस्यापि तत्र धर्मिणि सर्वदाऽप्रत्यक्षत्वं सामान्यतोदृष्टव्यपदेशनिबन्धनम् अतस्त्रयाणामेकमेवोदाहरणम् शेषवतश्च शिष्य- १० माणोक्तिरन्वयव्यतिरेकिणो हेतोः पारतंत्र्यप्रतिपत्तौ द्रष्टव्या । तैत् स्वहेतोः प्रतिपन्नमाश्रयान्तराद् बाधकेन प्रच्यावितं तस्य शिष्यमाणविशिष्टाश्रयत्वप्रतिपत्तिः शेषवतः फलम् । एवं च वतेः सर्वत्र संभवान्न विशेष इति न वक्तव्यम्, विशेषस्य प्रदर्शितत्वात् । एतत्रिप्रकारां मतिं जनयत् तत्पूर्वकं सदनुमानमित्यव्याध्यादिदोषविकलमनुमानलक्षणम् । तृतीयसूत्रेऽप्येतदेव व्याख्यानम् । अयं तु विशेषः - पूर्वस्मिंस्त्रिप्रकारमेव लिङ्गमनुमानव्यव - १५ च्छेदकम् पूर्ववदादयस्तु त्रिप्रकारलिङ्गविशेषणार्थाः । उत्तरस्मिंस्तु सर्वमेतदनुमानव्यवच्छेदार्थम् व्यवच्छेदेस्तु पूर्वेणैव न्यायेन । अत्र च सूत्रत्रये प्रथमसूत्रव्याख्यानमेवाभिमतमध्ययनप्रभृतीनाम् अणुना सूत्रेण महतोऽर्थस्य सङ्ग्रहादकारकस्य च त्रिप्रकारलिङ्गालम्बनस्योत्तरव्याख्यानेऽनुमानत्वप्रसक्तिः । फलस्याश्रयणाद् उपलब्धिसाधनस्येत्यध्याहारो न युक्तोऽप्रकृतत्वात् । सामान्यलक्षणे प्रकृतत्वाददोष इति चेत् तर्ह्यतिव्याप्तिनिवृत्त्यर्थं पूर्ववदादिपदोपादानं न कर्तव्यम् प्रत्यक्षसूत्रे ऽव्यप २० देश्यादीनां प्रकृतत्वात् । शाब्दे च प्रसङ्गो न व्यावर्त्तते यल लिङ्ग-शब्दाभ्यां जन्यते विज्ञानं यथोक्तविशेषणविशिष्टोपलब्धिरूपं तत्साधनस्यानुमानत्वप्रसक्तिरतस्तन्निवृत्तये विशेषणान्तरोपादानं कर्तव्यम् । प्रथमसूत्रव्याख्याने तु सर्वदोषाभावः प्रक्रान्तस्याविरोधिनः सर्वस्याभिसम्बन्धात् । त्रिविधग्रहणं तत्र विभागार्थमित्युक्तम् पूर्ववदादिग्रहणमपि स्वभावादित्रैविध्यप्रतिषेधेन पूर्ववदादिष्वेव नियमज्ञापनार्थम् । पूर्ववदादीनां तु द्वितीयसूत्रे यद्व्याख्यानं तदेवेहापि द्रष्टव्यम् । विशेषस्तु तत्रानुमान - २५ लक्षणोपयोगित्वमिह तु त्रिविधभागेन विभज्यमानस्य स्वरूपदर्शनार्थम् । अनुमानस्य च त्रैविध्यं कारणादित्रैविध्यादेवेति । } [ सौगतप्रणीतानुमानलक्षणाश्रयेण नैयायिकोक्तानुमानलक्षणस्य प्रतिक्षेपप्रकारः ] कथं पुनः सौगतप्रणीतलक्षणादस्य प्रतिक्षेपः ? उच्यते- तत्पूर्वकमिति प्रत्यक्षप्रमाणफलपूर्वकं यतो भवति तदनुमानमिति प्रथमसूत्रव्याख्यानमसंगतमेव परोक्तलक्षणलक्षितस्य प्रत्यक्षस्य प्रमाण- ३० स्वेनासिद्धेः तत्पूर्वकत्वस्यानुमानलक्षणस्यासंभवात् । तदसंभवे च स्मृत्यादिजनक व्यवच्छेदार्थ विशेषणकलापाध्याहारोऽप्यसंगत एव । यदपि पूर्वशब्दस्य लुप्तस्यानिर्देशे प्रत्यक्षफलेऽनुमानत्वप्रसक्तिप्रेरणम् तदप्यसङ्गतम् तत्फलस्यैव प्रत्यक्षप्रमाणत्वेन व्यवस्थापितत्वात् अवोधरूपस्य प्रमाणत्वनिषेधात् । यदपि 'त्रिविधग्रहणमनुमानविभागार्थम् पूर्ववदादिग्रहणं च विभागविषयज्ञापनार्थम्' इत्युक्तम् तदप्यसारम् कारणादप्रतिबद्धसामर्थ्यात् प्रदर्शितन्ययेन कार्यानुमाने कार्याध्यक्षता - ३५ दोषस्याविचलितरूपत्वात् । या च 'अनुत्पन्नावयवक्रियस्यान्त्यतन्तोर्यदा क्रियातो विभागः' इत्यादि १ " धर्मि तद्धर्म - व्याप्तिरूप" - बृ० ल० टि० । २ “पारतन्त्र्यानुमानस्य” - बृ० ल० टि० । ३-न्यतोऽढ - बृ० । ४- मात्रा - वा० बा० भ० मां० विना । ५ " पारतन्त्र्यम्”- बृ० टि० । ६- पत्तिविशेषतः फ-आ० हा० वि० । ७- कारं मितिं जनय - वृ० । कारं मिति जनय-आ० हा ० वि० ।-कारमिति जनय वा० बा० । ८ " विशेषकम्" - बृ० टि० । ९- दकस्तु आ० हा ० वि० । १०- क्षणाप्र-वृ० आ० हा ० वि० ११ - र्थमपू- वृ० । १२ “अत्र प्रतिविधीयते " - बृ० टि० । १३-मानं ल- बृ० । १४ पृ० ५६१ पं० २९ । १५० ५६२ पं० ९ । १६४० ५६२ ५० ३३ । “पूर्वपक्षवेलोपन्यस्त" - बृ० टि० । १७० ५६३ पं० २५ । । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ द्वितीये काण्डेप्रक्रियोपवर्णिता साऽपि प्रमाणबाधितत्वादनुद्धोष्या । यथा च क्रियाविभागादीनां प्रमाणवाधितत्वं तथा प्राक् प्रतिपादितम् प्रतिपादयिष्यते च यथावसरम् । यदपि 'मेघानां भविष्यदृष्टिकार्यविशेषणविशिष्टत्वमुन्नतत्वादिना धर्मेण तद्गतेन साध्यते' इत्युक्तम् तदप्यसंगतम् अस्वसंविदितविज्ञानाऽभ्युपगमवादिनां प्रदर्शितन्यायेन धर्माद्यसिद्धेरवयविसंयोगविशेषणविशेष्यभावादीनां च ५पराभ्युपगमेनासिद्धेर्हेतोराश्रय-स्वरूप-दृष्टान्तासिद्धिदोषा वाच्याः । न च कार्याभावात् कारणमात्रस्याभावसिद्धिरिति सन्दिग्धव्यतिरेको हेतुः अप्रतिबद्धसामर्थ्यस्य कारणविशेषस्याभावसिद्धावपि नाप्रतिबद्धसामर्थ्यत्वं कारणस्योन्नतत्वादिधर्मविशिष्टस्य ज्ञातुं शक्यम् ज्ञप्तौ वा कार्यस्यैव तदा प्रत्यक्षतेत्युक्तं प्राग् । यदपि 'यो हि भविष्यदृष्ट्यव्यभिचारिणमुन्नतत्वादिविशेषमवगन्तुं समर्थः स एव तस्मात् तामनुमिनोति' इत्युक्तम् तदप्यसङ्गतम् तदनुमितेः प्रागेव कार्यस्य प्रत्यक्षतया तदनु१० मितेर्वैयर्थ्यप्रसक्तेरित्युक्तत्वात् । यदपि 'गम्भीरध्वानवत्वे सति' इत्याधुन्नतत्वादेर्विशेषणम् तदप्येते. नैव निरस्तम् अनुमेयप्रतिपत्तौ तस्यानुपयोगित्वात् अध्यक्षत एव तत्प्रतिपाद्यस्यार्थस्य सिद्धेः । यदपि शेषवत उदाहरणं प्रतिपादितम् तत्र नदीविशेषो धर्मी अवयविरूपोऽसिद्धः उभयतटव्यापित्वादिकस्तु संयोगविशेषत्वात् साधनधर्मोऽसिद्धः संयोगस्यासत्त्वेन प्रतिपादनात् । यदपि वृष्टिकार्यत्वं साधन धर्मस्य परम्परया प्रक्रियोपवर्णनेन प्रदर्शित॑म् तदपि प्रक्रियाया असिद्धत्वान्निरस्तम् । 'अकार्यकारण१५ भूतेन लिङ्गेन यत्र लिङ्गिनोऽवगमस्तत् सामान्यतोदृष्टम्' इति यदभिधानम् तदप्यसङ्गतम् अकार्य कारणभूतस्यास्वभावभूतस्य च लिङ्गस्य गमकत्वेऽविनाभावनिमित्तस्य तादात्म्य-तदुत्पत्तिलक्षणप्रतिबन्धस्याभावेऽपि गमकत्वाभ्युपगमात् सर्वस्य सर्व प्रति गमकत्वोपपत्तेः । न चासत्यपि जन्यजनकभावे तादात्म्ये वा स्वसाध्येनैव लिङ्गस्याविनाभावो नान्येनेत्यत्र वस्तुस्वभावैरुत्तरं वाच्यं य एवं भवन्ति नास्माभिर्वयं केवलं द्रष्टार इति वक्तव्यम् यत एवमभ्युपगमे आकस्मिक एव वस्तूनां स २० स्वभावो भवेत् तथा च न कस्यचिदसौ न स्यात् न ह्यहेतोदेशकालनियमो युक्तः । तद्धि किश्चित् क्वचिदुपलीयेत न वा यस्य किश्चिद् यत्रायत्तमनायत्तं वा अन्यथेष्टदेशकालद्रव्यवदन्यदेशादिभावः केन वार्येत विशेषाभावात् ? ततो येनाऽविनाभूतं यद दृश्यते तेन तस्य तत्त्वचिन्तकैरव्यभिचौरनिबन्धनं वाच्यम् न पुनः पादप्रसारिका विधेया । तच्च यथोक्तादन्यव्यभिचारनिबन्धनं नोपपत्तिमत्। न च तादात्म्य-तदुत्पत्तिलक्षणप्रतिबन्धमन्तरेण पक्षधर्मताऽपि हेतोः संभवति संयोग-समवायादि२५ लक्षणस्य सम्बन्धस्य प्रागेव निरस्तत्वात् । एकार्थसमवायित्वस्य च समवायाभावे दुरापास्तत्वात् विशेषणविशेष्यभावस्य च सम्बन्धस्य संयोगाद्यन्तरेणासंभवात् । न चानवगतपक्षधर्मत्वादेहतोर्भवद्भिर्गमकत्वमभ्युपगम्यते । एकसामग्यधीनतालक्षणस्तु प्रतिबन्धः कार्यकारणभावविशेष एवेति तभावे तस्याप्यभाव इति नाकार्यकारणभूताद् रूपादेस्तत्समानकालस्य रसस्यानुमान सामान्यतो. दृष्टस्योदाहरणं युक्तिसङ्गतम् । ३० यदपि वतेः प्रयोगमाश्रित्य पूर्ववदनुमानं व्याख्यातम् तत्रापि दृष्टान्तधर्मिणि साध्यसाधनयोः प्रत्यक्षेण प्रतिबन्धग्रहणेऽनुमानस्योत्थानं न स्यात् साध्यधर्मिणि हेतोः साध्यधर्मेणाविनाभूतत्वाग्रहणात् । न च दृष्टान्तधर्मिणि हेतोः साध्याविनाभूतत्वग्रहणमात्रादेव साध्यधर्मिणि साध्यप्रतिपत्तिः अन्यथा 'लोहलेख्यं वजं पार्थिवत्वात् काष्ठवत्' इत्यत्रापि साध्यप्रतिपत्तिर्भवेत् दृष्टान्तधर्मिणि १पृ. ५६३ ५.७। २ पृ. ५६३ पं० १८। ३ पृ. ५६३ पं० २१। ४-दप्यनेनैव बृ. भा. मो०। ५० ५६५५० ४। ६ पृ. ५६५ पं०८। पृ० ५६५५० १२। ८ इतः 'संयोगाद्यन्तरेणासंभवात्' इतिपर्यन्तः पाठोऽक्षरशः हेतुबिन्दुटीकायां वर्तते स च पृ. ५५६ पं० ३३ टिप्पणतोऽवगन्तव्यः । ९एवं भवति आ. हा०वि० । एवं न भवन्ति भां० म०।१०-पनीये-वा. बा०।-पमीये-आ. हा.वि.। ११-चारिनि-ल० । १२ पादप्रसारिका, भिक्षुपादप्रसारणन्यायः द्वावेतौ समानौ न्यायौ। एनयोः स्पष्टीकरणम् एतदुपयोगस्थलानि च लौकिकन्यायाजलौ यथाक्रम द्वितीये पृ०४६ प्रथमे पृ० ३९ च भागे दर्शितानि सन्ति। भिक्षुपादप्रसारणन्यायः प्रथमे भागे एवं विवृतोऽस्ति-"यथा कश्चिद् भिक्षुर्यथेष्टभोजनाच्छादनवासगृहादिलाभार्थ कस्यचिद् धनिनो गृहे प्रविश्य युगपत् सर्वाभीष्टालाभं मन्यमानः प्रथमं धनिगृहे मे पादप्रसारणमस्तु पश्चादनेन परिचयमुत्पाद्य सर्वममीष्टं संपादयिष्यामीति घिया खल्पामपि भिक्षां बहु मन्यमानः पश्चात् क्रमेण खाभीष्टं संपादयति एवं यत्र विवक्षा तत्रास्य प्रवृत्तिः"पृ०३९। १३-दात्म्यं त-वृ० ल. वा. बा.। १४ पृ. ११३ तथा पृ०१०६। १५पृ. ५६६५०५। १६-तत्वप्र-भां• मां। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ५६९ पार्थिवत्वस्य लोहलेख्यतयाऽध्यक्षतः प्रतिपत्तेः । न चाध्यक्षबाधनादत्र न साध्यप्रतिपत्तिः बाधाऽविनाभावयोर्विरोधात् अविनाभावयुक्ते अध्यक्षबाधाऽयोगात् । न चाबाधितत्वाऽसत्प्रतिपक्षत्वरूपद्वययोगात् विलक्षणस्य हेतोरविनाभावपरिसमाप्तिरिति त्रैलक्षण्येऽपि पार्थिवत्वस्याबाधितत्वरूपा. न्तराभावान्न साध्याविनाभाव इति वक्तव्यम् अबाधितत्वस्याविसंवादित्वप्रतिपत्तिमन्तरेण शातु. मशक्तेः अज्ञातस्य च ज्ञापकहेत्वनङ्गत्वात् तदङ्गत्वे वाऽनवगताविनाभावस्यापि धूमोऽग्निप्रतिपत्ति५ विदध्यात् । तन्नाबाधितत्वं हेतो रूपान्तरमिति पार्थिवत्वं काष्ठे लोहलेख्यत्वाविनाभूतमध्यक्षतः प्रतिपन्नं वजे उपलभ्यमानं लोहलेख्यत्वं गमयेत् । अथ सर्वोपसंहारेणाध्यक्षं दृष्टान्तधर्मिण्यपि प्रवृत्तं साध्यसाधनयोरविनाभावमवगमयतीति साध्यधर्मिण्यपि हेतोः साध्यधर्मेणाविनाभावनिश्चयान्नानुमानानुत्थानम् भवेदेतत् यद्यस्मदाद्यध्यक्षं सकलदेशकालनियतसाध्यसाधनसाकल्यावभासि भवेत् तथाभ्युपगमे वा धूमस्वरूपावभासिनाऽध्यक्षेण देशादिव्यवहितस्याग्नेरपि प्रतिपत्तेरनुमानप्रवृत्ते-१० वैयर्थ्यप्रसक्तिः स्यात् । न च मानसं योगिप्रत्यक्षं वा सर्वोपसंहारेण साध्यसाधनयोाप्तिग्राहकं संभवति अध्यक्षस्य विशदावभासस्य साध्यसाधनावगतिखभावस्यासंवेदनात् विशदावमासि च सन्निहितार्थग्रहणस्वभावमस्मदाद्यध्यक्षमित्युक्तं प्राक् । अथानुमानेन व्याप्तिग्रहणेऽनवस्थाप्रसक्तेर्भवताऽप्यध्यक्षतस्तद्रहणमभ्युपगन्तव्यम् तंत्र चोक्त एव दोषः, तदसत्, प्रतिबन्धग्राहिणा प्रमाणेन सकलोपसंहारेण व्याप्तिनिश्चयात् । तथाहि-महानसादौ विशिष्टमध्यक्षमग्निधूमयोः कार्यकारणभाव-१५ ग्राहकत्वेन प्रवृत्तं 'सर्वत्रानग्निव्यावृत्तोऽग्निः अधूमव्यावृत्तस्य धूमस्य जनकः' इति व्यवस्थापयति अन्यथा सकृदप्यग्ने—मस्योत्पत्तिर्न भवेत् अहेतोः कदाचिदप्युत्पत्तिविरोधात् । तदुक्तम् "कार्य धूमो हुतभुजः कार्यधर्मानुवृत्तितः। संभवंस्तभावेऽपि हेतुमत्तां विलङ्घयेत्” ॥ [ तथा भावमन्तरेणापि भवन् स्वभावो निःस्वभाव एव स्यात् । तदुक्तम् "स्वभावेऽप्यविनाभावो भावमात्रानुरोधिनि । तदभावे स्वयं भावस्याभावः स्यादभेदतः ॥ [ इति तादात्म्य-तदुत्पत्तिव्यवस्थापकमेव प्रमाणं सकलोपसंहारेण व्याप्तिव्यवस्थापकमित्युक्तं प्राक् । __ अथ सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्रहणे अनुमानस्याप्रामाण्यं भवेत् व्याप्तिग्राहकप्रमाणप्रतिपन्नार्थविषयत्वेन स्मृतिरूपत्वात् तदंशव्याप्तिसामर्थ्येन च हेतोः खसाध्यप्रतिपादकत्वं न पक्षे सत्तामात्रतः२५ नत्स्थस्य रासभादेरपि साध्यप्रतिपादकत्वप्रसक्तेस्ततस्तदंशव्याप्तिवचनेनैव गतत्वात् पक्षधर्म इति हेतोः पृथग लक्षणं न वक्तव्यं भवेत् । उक्तं च जैनैः अन्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम? । नान्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ? ॥ [ ] इति । १-तरू-वा. बा.। २ "प्रत्यक्षग्रहणकक्षीकारे"-बृ. ल. टि.। ३ पृ. ३२२ पं.१ तथा टि. १-२ । "तथा च कीर्तिना कीर्तितं वार्तिके" इत्युल्लिख्यायं श्लोकः स्याद्वादरत्नाकरे उद्धृतोऽस्ति-पृ० ५१५५० ७ आ० । १,२,१२ प्रमाणमी० पृ. ६४ पं० ५। ४ पृ. ३२१ पं० २९ तथा टि. २९। ५-त्र तत्स्थ-भां. मां०। ६"प्रतिज्ञास्थस्य"-बृ० ल.टि.। ७ अस्य पद्यस्य कर्तृतविषये प्राचां विप्रतिपत्तयो दृश्यन्ते आचार्यकमलशीलेन “अन्यथा' इत्यादिना पात्रखामिमतमाशङ्कते" इत्युल्लिख्य व्याख्यातासु षोडशसु कारिकासु पात्रखामिसंबन्धं धारयद् इदं पद्य १३६९ तमं सव्यत्ययं वर्तते-तत्त्वसं० का० १३६४-१३७९ पृ०४०५-४०७ । वादिदेवसूरिणा तत् पद्यं पात्रखामिकर्तृकत्वेन निर्दिष्टम् स्याद्वादर० पृ० ५२१ पं० ५-६ आ० । दिगम्बरपरम्परायां 'पात्रकेसरी' इति प्रसिद्धि प्राप्तेन विद्यानन्दिवामिना खकृतौ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके "तथाह च" इत्युक्खा प्रमाणपरीक्षायां च "तदुक्तम्" इत्युक्त्वा तत् पा समुद्धतं दृश्यते-पृ. २०३ श्लो. १७८, पृ०७२ पं०१८। तथा, __ केचन स्वामिपदस्य पात्रकेसरीति अर्थ गृहीखा अस्य पद्यस्य पात्रकेसरिकर्तृकां मन्यमाना अभूवन् तेषां मतं निराकतुकामेन रविभवशिष्यानन्तवीर्येण तस्य पद्यस्य तीर्थकरसीमन्धरकर्तृकता स्थापिता सिद्धिविनिश्चयवृत्तौ । तथाहि कस्य तदित्याह-वामिनः पात्रकेसरिण इत्येके। कुत एतत् ! तेन तद्विष्यत्रिलक्षणकदर्थनमुत्तरभाष्यं यतः कृतमिति चेत् नन्वेव(वं?) सीमन्धरभट्टारकस्याशेषार्थसाक्षात्कारिणस्तीर्थकरस्य स्यात् । तेन हि प्रथमम् ७३ स.त. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डेअनुपलब्धेश्च पक्षधर्मत्वं नोपपत्तिमत् अन्योपलब्धिस्वभावायास्तस्याः पुरुषधर्मत्वात् । कार्यहेतोच खातव्येण धर्म्यनपेक्षत्वात् कुतः पक्षधर्मता? स्वभावहेतोः पुनर्धर्मिरूपत्वाद् भेदनिबन्धना पक्षधर्मता दूरोत्सारितैव । न च कल्पितस्य पक्षधर्मस्य कार्यस्वभावहेतुत्वं साध्यव्याप्तिश्चोपपत्तिमती । ततो न पक्षधर्मत्वं हेतोर्लक्षणं भवदभिप्रायेण युक्तिसंगतम्, असदेतत्; ५यतो यद्यपि सर्वोपसंहारेण साध्यसाधनयोर्व्याप्तिप्रतिपत्तिस्तथापि न तत्प्रतिपत्तिमात्रात् 'इदानीमिह साध्यधर्मिणि साध्यधर्मः' इति विशेषावगमः तेनाप्रतिपन्नविशिष्टदेशादिसम्बन्धिसाध्यार्थप्रतिपादकत्वेनानुमानं नाप्रामाण्यमश्रुते । न चान्यदेशादिस्थेन साध्यधर्मेणान्यदेशादिस्थः साधनधर्मः सम्बन्धमनुभवति तेन प्रतिनियतदेशादिविशेषितसाधनप्रतिपत्तिवलादेव प्रतिनियतदेशाद्यवच्छिन्नसाध्यप्रतिपत्तिरेवानुमानमिति न पक्षधर्मत्वमन्तरेणानुमानसंभवः । न च धूममात्राद् १० वह्निमात्रस्यावगतिरनुमानम् व्याप्तिग्राहकप्रमाणफलत्वात् तस्याः । न च हेतोः पक्षधर्मत्वं 'यत्र साधनधर्मस्तत्र साध्यधर्मः' इत्यविशिष्टावगतिमात्रात् सिध्यति साध्यधर्मिधर्मतया साधनधर्मस्याप्रतीतेः सामान्येनाभिधानात् ततो विशिष्टदेशाद्यवच्छिन्नसाध्यावगतये पक्षधर्मत्वं प्रदर्शनीयम् अतः 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निः' इत्यनेनैव पक्षधर्मन्वस्योक्तत्वात् प्रदेशविशेषे अग्निसिद्ध्यर्थ 'धूमश्चात्र इति न वक्तव्यमुक्तार्थत्वात् इति यदुक्तं तन्निरस्तं द्रष्टव्यम् । एतेनैव यदुक्तं कुमारिलेन "नदीपूरोऽप्यधोदेशे दृष्टः सन्नुपरि स्थिताम् । नियम्यो गमयत्येव वृत्तां वृष्टिं नियामिकाम् ॥ एवं यत् पक्षधर्मत्वं ज्येष्ठं हेत्वङ्गमिप्यते । तत् पूर्वोक्तान्यधर्मत्वदर्शनाद् व्यभिचार्यते ॥ पित्रोश्च ब्राह्मणत्वेन पुत्रव्राह्मणताऽनुमा । सर्वलोकप्रसिद्धा न पक्षधर्ममपेक्षते ॥ क्लेशेन पक्षधर्मत्वं यस्तत्रापि प्रकल्पयेत् । न संगच्छेत तस्यैतल्लक्ष्येण सह लक्षणम् ॥ यथा लोकप्रसिद्धं च लक्षणैरनुगम्यते । लक्ष्यं हि लक्षणेनैतदपूर्व न प्रसाध्यते" ॥ [ ] इति, २५ तदपि प्रत्युक्तम् यतः किमित्यधस्तान्नदीपूरमुपलभ्योपर्येव वृष्टयनुमानं नान्यत्र? तथा, शिशुरयं ब्राह्मणो मातापित्रोर्ब्राह्मण्यादिति किमिति यस्यैव शिशोः ब्राह्मण्यं साध्यं तस्यैव मातापितृब्राह्मण्यलक्षणो धर्मः सम्बन्धी गमको न मातापितृव्राह्मण्यमात्रम् ? अथ नदीपूरस्योपरिदेशसम्बन्धिनः भन्यसम्बन्धिमातापितृव्राह्मण्यस्य चागमकत्वादेवमनुमानं तर्हि नदीपरो यतः समायातस्तत्रैव अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्रयेण किम् ? । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ इत्येतत् कृतम् । कथमिदमवगम्यत इति चेत् पात्रकेसरिणा त्रिलक्षणकदर्थनं कृतमिति कथमवगम्यत इति समानम् । आचार्यप्रसिद्धरित्यपि समानम् । उभयत्र कथा च महती सुप्रसिद्धा । तस्य तत्कृतत्वे प्रमाण(प्रामाण्या)प्रामाण्ये तत्प्रसिद्धौ कः समाश्वासः? तदर्थ करणात् तस्येति चेत् तर्हि सर्व शास्त्रं तदविधेयं चात एव शिष्याणामेव न तत्कृतमिति व्यपदिश्येत पात्रकेसरिणोऽपि वा न भवेत् तेनापि अन्याथ तत्करणात् तेनापि अन्यार्थमिति न कस्यचित् स्यादेनत(8)तद्विषयप्रबन्धकरणात् पात्रकेसरिणस्तदिति चिन्तितं मूलसूत्रकारेण कस्यचिद् व्यपदेशाभावप्रसङ्गात् । तस्मात् साकल्येन साक्षात्कृत्योपदिशत एवार्य भगवतस्तीर्थकरस्य हेतुरिति निश्चीयते"-सिद्धिवि० टी० लि. पृ. ३०.५० २-१२। ____ 'अयं श्लोकः पद्मावत्या देवतया विरचितः' इत्यादिका किंवदन्ती प्रभाचन्द्र-ब्रह्मदत्ताभ्यां खरचितकथाकोशे लिखितायो पात्रकेसरिकथायां वर्तते-आप्तपरीक्षाप्रस्तावना पृ. २-३ पात्रकेसरिकथा । १ "पक्षस्य धर्मस्वं न घटते"-वृ. ल.टि.। २-भावं हे-बृ. ल.। ३ नैतानि पद्यानि मीमांसाश्लोकवार्तिके दृश्यन्ते, किन्तु इतस्त्रीणि पद्यानि अनिर्दिष्टकर्तृकानि प्रमेयकमलमार्तण्डे उद्धृतानि वर्तन्ते पृ०५.द्वि. पं० १०-पृ. ५१ प्र. पं० १-२ । वादिदेवसूरिस्तु तान्येव पद्यानि भट्टकर्तृकतया समुद्धरति-स्याद्वादर. पृ. २८५ पं० १-६ आ० । ४"भट्टोऽप्याह" इत्युल्लिख्य आचार्यहेमचन्द्रेण एक एवायं श्लोक उद्धृतोऽस्ति-२-१-१७ प्रमाणमी० पृ० ७९ । “भट्टेन खयमभिधानातू" इत्युक्त्वा रत्नप्रभसूरिरपि एनमेकमेव श्लोकमुश्तवान् -२,१ रत्नाकराव.पृ.४९ पं. १४-१६। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। वृष्टयनुमानं नान्यत्र व्यभिचारात् तस्य च तत्सम्बन्धित्वनिश्चये गमकत्वं नान्यथा अनैकान्तिकत्वप्रसक्तेः एवं च कथं न पक्षधर्मतानिश्चयो हेत्वङ्गम् ? तन्मातापितृव्राह्मण्यस्यापि पक्षधर्मत्वं तन्निश्चयश्च समस्त्येवान्यथागमकताऽयोगान्नात्रापि क्लेशेन पक्षधर्मत्वकल्पना । अथवा व्यभिचारनिमित्त एव धर्मो हेतुर्युक्तो धूमस्याग्निकार्यत्ववत् ब्राह्मणमातापितृजन्यत्वं च ब्राह्मण्यनिमित्तं शिशोरिति तदेव हेतुर्युक्तोऽन्यस्य तत्कल्पनायां क्लेशः स्यादेव । एवं चन्द्रोदयात्५ समुद्रवृझ्यनुमानं किमिति तदैव न पूर्व नापि पश्चात? तदैव व्याप्तग्रहणादिति चेत तर्हि साध्य साधनयोस्तत्कालसम्बन्धित्वमेवेति स एव कालो धर्मी तत्सम्बन्धिनश्चन्द्रोदयात् तत्रैव साध्यानुमानमिति कथमत्राप्यपक्षधर्मत्वम् ? कालानभ्युपगमे च नैतदनुमानं व्यभिचारात् । न च सौगतैः कालानभ्युपगमान्नास्यानुमानस्य सम्भवः । पूर्वाह्लादिप्रत्ययविपयस्य महाभूतविशेषस्य कालशब्दवाच्यस्याभ्युपगमात् । एवं विशिष्टपिपीलिकोत्सर्पणादेरपि पक्षधर्मता योज्या । नन्वेवमपि तदेश-१० व्याप्तिवचनेनैव गतत्वात् पक्षधर्म इति पृथग लक्षणं न वक्तव्यम् , न; अपक्षधर्मस्यापि साध्यव्याप्तस्य हेतुत्वनिराकरणार्थत्वात् तस्य अन्यथा महानसोपलब्धधूमाद महार्णवे पावकानुमानं प्रसज्येत । अथ महानसस्थो धूमो न तत्स्थेन पावकेन व्याप्तः एवमेतत् किन्तु 'साध्यव्याप्तो हेतुः' इत्येतावन्मात्रे लक्षणे यत्रैव साधनधर्मस्तत्रैव साध्यधर्मानुमानमिति न प्राप्येत इत्यन्यत्रापि साध्यानुमानाशङ्का भवेत् ततस्तन्निवृत्त्यर्थ पृथक् पक्षधर्मवचनम् । यदा च भूतलादेरुपलब्धिजननयोग्यताऽनुपलब्धि-१५ स्तदाऽसौ भूतलादिखभावेति कथमनुपलब्धेरपक्षधर्मत्वम् ? पुरुषधर्मरूपायास्त्वनुपलब्धेरन्यभूतलादिकार्यत्वमेव तद्धर्मत्वम् परमार्थतस्तस्यास्तदायत्तत्वात् । कृतकत्वादेस्तु शब्दादिधर्मत्वम् परमार्थत एकत्वेऽपि भेदान्तरप्रतिक्षेपाद्धर्ममेदव्यवस्थापनात् । धूमादेरपि कार्यस्य प्रदेशादिधर्मत्वम् तत्कार्यतया तदायत्तत्वात् । तेषां च विकल्पेन तत्सम्बन्धिस्वरूपमेव 'पक्षस्यायं धर्मः' इति व्यवस्थाप्यते। तन्नास्मन्मते सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्रहणेऽनुमानानुत्थानम् । नापि हेतोः पक्षधर्मत्वाभिधानं व्यर्थम् २० यथा च पक्षधर्मतानिश्चयो व्याप्तिनिश्चयश्च यतश्च प्रमाणतः संभवति तथा प्रदर्शितमेव प्रमाणवार्तिकादौ ग्रन्थगौरवभयान्नेह प्रदर्श्यते विस्तरतः। यदपि विषयतुल्यतया क्रियातुल्यत्वं वतेः प्रयोगनिबन्धनमभ्यायि तदपि प्रतिभासमेदस्य विषयभेदमन्तरेणानुपपद्यमानत्वप्रतिपादनात् प्रतिक्षिप्तम् । तन्न पूर्ववदिति 'वति'प्रयोगाश्रयणेनापि व्याख्यानं युक्तिसङ्गतम् । यदपि 'पूर्ववतः शेषवदनुमानस्य भेदप्रतिपादनाय शेषवन्नाम परिशेषः'२५ इत्याद्यभिधानम्, तदपि स्वप्रक्रियोपवर्णनमात्रम्; यत इच्छादीनां गुणत्वसिद्धौ पारतत्र्यसिद्धे शरीरादिषु प्रसक्तेषु प्रतिषेधे सति परिशेषादात्मसिद्धिः तच्च गुणत्वमिच्छादीनां द्रव्याश्रितत्वसिद्धौ सिध्यति तच्च समवायाभावतोऽयुक्तमिति प्रतिपादितम् । यदपि 'सामान्यवत्त्वे सति अचाक्षुषप्रत्यक्षत्वात् रसवत्' इत्यादि इच्छादीनां गुणत्वसिद्धावनुमानमुपन्यस्यते तदपि न युक्तिक्षमम् रसादीनामपि गुणत्वासिद्धितो दृष्टान्तासिद्धेः । न च तेषामपि गुणत्वसिद्धौ दृष्टान्तान्तरमस्ति ३० इच्छादीनां तदृष्टान्तत्वे इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । यदपि 'इच्छादयो गुणाः प्रतिषिध्यमानकर्मत्वे सत्येकद्रव्यत्वात् शब्दवत्' इत्यनुमानम् तत्रापि दृष्टान्तासिद्धिः । तथाहि-द्रव्यस्य द्वैविध्यं वैशेषिकैः प्रतिपादितम्-घटाद्यनेकद्रव्यं द्रव्यम् अद्रव्यं चाकाशादि । शब्दस्तु प्रतिषिध्यमानकर्मत्वे सत्येकद्रव्यः तस्माद् रूपादिवद् गुण इत्येवं शब्दस्य गुणत्वसिद्धौ दृष्टान्तसिद्धिर्भवेत् । न चैतत् शब्दगुणत्वसिद्धौ साधनमुपपत्तिमत् शब्दस्य हि गुणत्वसिद्धौ निराश्रयस्य गुणस्यासंभवादाश्रयभूतेन गुणिना भवितव्यम् ३५ पृथिव्यादेश्च तहणत्वनिषेधात् परिशेषादाकाशाश्रयः शब्दः तस्य चैकत्वं शब्दलिङ्गाविशेषाद् विशेषलिङ्गाभावाच्च ततो गुणत्वसिद्धौ शब्दस्यैकद्रव्यत्वसिद्धिः ततश्च यथोक्तविशेषणाद् गुणत्वसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वान्न शब्दस्य दृष्टान्तत्वसिद्धिः। { अथ नानेन प्रकारेणैकद्रव्यत्वं शब्दस्य साध्यते किन्तु कादाचित्कत्वाच्छब्दः कार्यम् कार्यस्य च क्षणिकत्वनिषेधे अनाधारस्यासंभवात् समवायिकारणेन १-र्वाहादि-आ० हा० वि० विना। २-रूपयोस्त्व-वृ० । अत्र 'षष्ट्या द्विवचनम्' इति सूचकं ६-२ इति अङ्कद्वयम् । ३ "हेतूनाम्"-बृ० दि०। ४ पृ. ५६६ पं० ८। ५१० ५६६ पं० १६ । ६-षु च प्र-भ० मां.. -दात्म्यसि-वृ० वा. बा. विना। ८-नांह-वृ० आ. हा०वि० Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ द्वितीये काण्डेभवितव्यम् पृथिव्यादेश्व समवायिकारणत्वनिषेधे आकाशस्यैव समवायिकारणत्वम् तस्यैकत्वं पूर्ववद् द्रष्टव्यम् । अत एकद्रव्यत्वं शब्दस्य सिद्धमिति प्रतिषिध्यमानकर्मत्वे एकद्रव्यत्वात् रूपादिवद् गुणः शब्दः सिद्ध इति न दृष्टान्तासिद्धिः। प्रतिषिध्यमानकर्मत्वं च 'शब्दः कर्म न भवति शब्दान्तरहेतुत्वात् आकाशवत्' शब्दान्तरहेतुत्वं च शब्दस्य कार्यत्वाव्यापकत्वाभ्यां सिद्धम् कार्य हि पूर्ववत् समवायि५कारणापेक्षम् पृथिव्यादेश्च समवायिकारणत्वनिषेधात् व्योम्नस्तं प्रति समवायिकारणता शब्दस्य च प्रत्यक्षत्वान्यथाऽनुपपत्त्या सन्तानकल्पना सन्तानश्च शब्दान्तरहेतुत्वमन्तरेणानुपपन्न इति नासिद्धौ हेतु-दृष्टान्तौ । प्रतिषिध्यमानकर्मत्वं चेच्छादीनां कर्मत्वानधिकरणतयाध्यक्षप्रतिपत्तित एव सिद्धम् एकद्रव्यत्वं च यज्ञदत्तेच्छादीनां देवदत्तादावनुभवाभावतो व्यवस्थितमेव । } असदेतत् कार्यत्वस्य समवायिकारणप्रभवत्वेन शब्दादावसिद्धेर्न पूर्वोक्तप्रक्रिययाऽप्येकद्रव्यत्वसिद्धिः। अत एव शब्दान्तर१० हेतुत्वान्न कर्मत्वप्रतिषेधः शब्दस्य हेतु-दृष्टान्तयोरसिद्धेः न हि शब्दलक्षणस्य कार्यस्य निराधारस्य सम्भवे व्योम्नः समवायिकारणत्वेन शब्दान्तरहेतुत्वं शब्दस्य वाऽसमवायिकारणत्वेन तद् युक्तम् । न च शब्दप्रत्यक्षताऽन्यथानुपपत्या सन्तानकल्पना युक्तिसङ्गता तामन्तरेणापि शब्दप्रत्यक्षतोपपत्तेः प्रतिपादनात् । एकद्रव्यत्वस्य प्रतिषिध्यमानकर्मत्वस्य चेच्छादिष्वध्यक्षत एव सिद्धौ गुणत्वसमवायाद् गुणरूपताया अपि तत एव सिद्धरनुमानोपन्यासस्य वैयर्थ्य स्यात् । न चाध्यक्षसिद्धेऽपि गुणत्वयोगे १५म्यवहारसाधनार्थ तदुपन्याससाफल्यम् तहुणत्वस्य समवायस्य वाऽध्यक्षप्रतिपत्तौ कदाचिदप्यप्रति भासनात् । एतेन 'गुणत्वयोगात् रूपादयो गुणाः' इति निरस्तम् गुणत्वसमवायस्य व्यतिरेकिहेतो रूपादिषु गुणव्यवहारसाधकस्यासिद्धेः । यदपि इच्छादेः पारतच्यमात्रप्रतिपत्ती गुणत्वं कार्यत्वं वा पूर्ववदित्यादित्रयाणामपि हेतूनां विभागेनोदाहरणप्रदर्शनम् तदप्यसङ्गतमेव; गुणत्वकार्यत्वयोर्यथोक्तप्रकारेण पारतत्र्यप्रतिपत्तौ हेतुत्वासंभवतःसर्वस्यानुपपत्तिकत्वादित्यलमतिप्रसङ्गेन । एतेन सांख्यपरि२० कल्पितमपि पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतोदृष्टं चेति त्रिविधमनुमानं निरस्तम् न्यायस्य समानत्वात् । यदपि "तल्लिङ्ग-लिङ्गिपूर्वकम्" [साङ्ख्यका०५] इत्यनुमानलक्षणं तैरभ्यधायि तदपि यद्यस्मत्प्रणीताजुमानलक्षणानुयायि न व्याख्यायते तदा प्रतिवन्धग्राहकप्रमाणासंभवतः प्रदर्शितन्यायेन नानु. मेयप्रतिपत्त्यङ्गम् । अथानुयायितया तदैतदेव लक्षणं शब्दान्यत्वेऽप्यभ्युपगतमिति न विप्रतिपत्तिः। [सौगतैर्मीमांसकीयमनुमानलक्षणमुपन्यस्य तस्य स्वमतानुसारित्वाविष्करणम् ] २५ "ज्ञातसम्बन्धस्यैकदेशदर्शनादसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिरनुमानम्" [१-१-५ शाबरभा०] इति शाबरमनुमानलक्षणम् । अत्र च यदि दर्शनादर्शननिवन्धनं सम्बन्धग्रहणमाश्रीयते तदा तत्पुत्रत्वादेरप्यनुमानत्वसंभवादतिव्याप्तिर्लक्षणदोपः । अथ न सहभावदर्शनमात्रात् सम्बन्धावगमः किन्तु विपर्यये हेतोर्बाधकप्रमाणबलात् न च तदत्रास्तीति नातिव्याप्तिः । ननु किं पुनर्विपर्यये बाधकप्रमाणम् ? अदर्शनमिति चेत् स्वसम्बन्धिनोऽदर्शनस्यात्रापि सद्भावात् सर्वसम्बन्धिनोऽन्यत्राप्यसिद्धेर्न ह्या३० ग्शा देशकालविप्रकृष्टाःसाध्यविकला हेतुरहितत्वेन सकलार्था निश्चेतुं शक्याः अथ कारणव्यापकानु पलब्धिविरुद्धविधीनामन्यतमद् बाधकं प्रमाणं तर्हि कार्यकारणव्याप्यव्यापकभावविरोधसिद्धौ प्रमाणतस्तत् प्रवर्तत इति कार्यकारणभावादिकः सम्बन्धस्तदवगमनिमित्तं चाध्यक्षादिकं प्रमाणमभ्युपगन्तव्यम् । न चैवमप्यपक्षधर्मस्य हेतोर्गमकत्वं प्राक् प्रदर्शितन्यायेनोपपद्यत इति पक्षधर्मत्वमपरं रूपान्तरं लक्षणं वक्तव्यम् तथाभ्युपगमे च 'ज्ञातसम्बन्धस्य' इत्यनेनान्वयव्यतिरेकयोः संसूचनात् ३५ पक्षधर्मत्वस्य चाध्याहारात् “त्रिरूपाल्लिङ्गाल्लिङ्गिनि ज्ञानमनुमानम्" [ ] इत्येतदेवास्मदीयमनुमानलक्षणं भवद्भिरभ्युपगतं भवतीति सौगताः। १ कार्यस्य बृ०। २ पृ० ५६६ ५० २६ । ३ “प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टं त्रिविधमनुमानमाख्यातम् । तल्लिङ्गलिङ्गिपूर्वकमाप्तश्रुतिराप्तवचनं तु" इति संपूर्णा कारिका। ४"अनुमानं ज्ञातसंबन्धस्यैकदेशदर्शनादेकदेशान्तरेऽसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिः"-शाबरभा० पृ० ८ पं० ८ । पृ० २० पं० १० तथा टि.५। ५-लार्थाः सर्वेनिश्चीयन्त इति निश्चेतुं शक्यम् अथ वा. बा. भां. मां-लार्थाः सबैर्निश्चीयन्त इति निश्चेतुं शक्या अथ ल.। ६ पृ. ३ पं. ३ । “तत्र त्रिरूपालिङ्गाद् यदनुमेये ज्ञानं तदनुमानम्"-न्यायवि०१-३॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । ५७३ [४ प्रमाणसङ्ख्यानिरूपणम् ] [प्रत्यक्षभिन्नानि प्रमाणान्यनुमानेऽन्तर्भावयतां प्रमाणद्वयवादिनां सौगतानां विचारप्रक्रिया ] अप्रत्यक्षस्य चार्थस्य स्वसाध्येन धर्मिणा च सम्बद्धाद् अन्यतः सामान्याकारेण प्रतिपत्तेः यदप्रत्यक्षार्थविषयं प्रमाणं तदनुमानेऽन्तर्भूतमिति प्रत्यक्षानुमानलक्षणे द्वे एव प्रमाणे । तथाहि-न परोक्षोऽर्थः स्वत एव तदाकारोत्पत्त्या प्रतीयते प्रमाणेन तस्यापरोक्षत्वप्रसक्तेः । विकल्पमात्रस्य च५ स्वतन्त्रस्य राज्यादिविकल्पवदप्रमाणत्वात् तदप्रतिबद्धस्यावश्यतया तव्यभिचाराभावात् । न च स्वसाध्येन विनाभूतोऽर्थो गमकः अतिप्रसक्तेः धर्मिसम्बन्धानपेक्षस्यापि गमकत्वे प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावात् सर्वत्र प्रतिपत्तिहेतुर्भवेत् । यश्चैवंविधार्थप्रतिपत्तिनिवन्धनं प्रमाणं तदनुमानमेव तस्यैवंलक्षणत्वात् तथा च प्रयोगः–यदप्रत्यक्ष प्रमाणं तदनुमानान्तर्भूतम् यथा लिङ्गबलभावि अप्रत्यक्षप्रमाणं च शाब्दादिकं प्रमाणान्तरत्वेनाभ्युपगम्यमानमिति स्वभावहेतुः । यच्च यत्रान्तर्भूतं तस्य न १० ततो बहिर्भावः यथा प्रसिद्धान्तर्भावस्य क्वचित् कस्यापि अन्तर्भूतं चेदं सर्व प्रत्यक्षादन्यत् प्रमाणमनुमान इति विरुद्धोपलब्धिः अन्तर्भाव-बहिर्भावयोः परस्परपरिहारस्थितलक्षणतया विरोधात् । अत एव "प्रत्यक्षस्याभावविषयत्वविरोधान्न ततः प्रमाणान्तराभावोऽवसातुं शक्यः नापि कार्यस्वभावलक्षणादनुमानात् कार्यस्वभावयोर्विधिसाधकत्वेनाभावसाधने व्यापारानभ्युपगमात् कारणव्यापकानुपलब्ध्योस्तु अत्यन्तासत्तयोपगते प्रमाणान्तरेऽभावसाधकत्वेन व्यापार एव न संगच्छते १५ अत्यन्तासतस्तस्य कार्यत्वेन व्याप्यत्वेन वा कस्यचिदसिद्धेः । तयोश्च कार्यकारणव्याप्यव्यापकभावसिद्धावेव व्यापाराद विरुद्धविधिरप्यत्रासंभवी सहानवस्थानलक्षणस्य विरोधस्यात्यन्ता त्यसिद्धेः" [ ] इत्यादि यत् परेणोच्यते तदपास्तं द्रष्टव्यम् यथाप्रदर्शितन्यायेन स्वभावविरुद्धोपलब्धेरत्र व्यापारात् । स्यादेतत् भवतु परोक्षविषयस्य प्रमाणस्यानुमानेऽन्तर्भावः अर्थान्तरविषयस्य च तस्यासावयुक्तः, न; प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यामन्यस्यार्थस्याभावात् प्रमेयरहितस्य च प्रमाणस्य प्रामाण्यासंभवात् २० प्रमीयतेऽनेनेत्यागृहीतप्रमेयस्यैव प्रमाणमिति व्युत्पत्त्या तस्य प्रमाणत्वव्यवस्थितेः। तथाहि-यविद्यमानप्रमेयं न तत् प्रमाणम् यथा केशोन्दुकादिज्ञानम् अविद्यमानप्रमेयं च प्रमेयद्वयातिरिक्तविषयतयाऽभ्युपगम्यमानं प्रमाणान्तरमिति कारणानुपलब्धिः प्रमेयस्य साक्षात् पारम्पर्येण वा प्रमाण प्रति कारणत्वात् । तदुक्तम्-"नाननुकृतान्वयव्यतिरेकं कारणम् नाकारणं विषयः" [ ] इति । न च प्रत्यक्ष-परोक्षातिरिक्तप्रमेयान्तराभावप्रतिपादकप्रमाणान्तराभावादसिद्धो हेतुरिति २५ वक्तव्यम् अध्यक्षेणैव प्रमेयान्तरविरहप्रतिपादनात् । तँद्धि पुरःस्थितार्थसामर्थ्यादुपजायमानं तदात्मनियतप्रतिभासावभासादेव तस्य प्रत्यक्षव्यवहारकारणं भवति तदन्यात्मतां च तस्य व्यवच्छिन्दानमन्यदर्थजातं सकलं राश्यन्तरत्वेन व्यवस्थापयत् तृतीयप्रकाराभावं च साधयति तत्राप्रतीयमानस्य सकलस्यार्थजातस्यान्यत्वेन परोक्षतया व्यवस्थापनादन्यथा तस्य तदन्यात्मताऽव्यवच्छेदे तद्रूपतया परिच्छेदो न भवेदिति न किञ्चिदध्यक्षेणावगतं भवेत् । प्रतिनियतस्वरूपता हि भावानां प्रमाणतो ३० व्यवस्थिता अन्यथा सर्वस्य सर्वत्रोपयोगादिप्रसङ्गतः प्रतिनियतव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिर्भवेत् । सा चेन्न प्रत्यक्षावगता किमन्यद् रूपं तेन तस्यावगतमिति पदार्थस्वरूपावभासिना प्रमेयान्तराभावः प्रतिपादित एव । अनुमानतोऽपि तदभावः प्रतीयत एव अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामितरप्रकारव्यवच्छेदेन तदितरप्रकारव्यवस्थापनात् । प्रयोगश्चात्र-यत्र यत्प्रकारव्यवच्छेदेन तदितरप्रकारव्यवस्था न तत्र प्रकारान्तरसम्भवः तद्यथा-पीतादौ नीलप्रकारव्यवच्छेदेनाऽनीलप्रकारव्यवस्थायाम अस्ति च ३५ प्रत्यक्ष-परोक्षयोरन्यतरप्रकारव्यवच्छेदेनेतरप्रकारव्यवस्था व्यवच्छिद्यमानप्रकाराविषयीकृते सर्वस्मिन् प्रमेय इति विरुद्धोपलब्धिः तदतत्प्रकारयोः परस्परपरिहारस्थितलक्षणत्वात् । अतः प्रमेयान्तराभावान्न प्रमाणान्तरभावः। उक्तंच १-माने द्वे भा० म०। २-कर्षभा-बृ० ल.। ३ "अत एव तदपास्तं द्रष्टव्यमिति दूरतः संटङ्कः"-बृ. ल.टि.। ४-सत्य-बृ० । सप्तम्येकवचनसूचकमकद्वयम् । ५न च प्र-आ० हा०वि०। ६ पृ० ५१० ५० १, टि.१। ७“प्रत्यक्ष-" बृ.टि.। ८तदान्यात्मनां च त-वा. बा०। ९-त्मतां अ-बृ० । १०-कारविवा. बा. भा. मां०। ११ अतः शब्दज्ञानात प्रमेया-आ० हा० वि०। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे "न प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यां मेयस्यान्यस्य संभवः। तस्मात् प्रमेयद्वित्वेन प्रमाणद्वित्वमिष्यते” ॥ [ ] इति । [सौगतसंमतं प्रमाणद्वित्ववादं प्रतिवदितुं मीमांसकेने शाब्दस्य प्रमाणान्तरत्वस्थापनम् ] __ अत्राह मीमांसकः-"शब्दज्ञानादसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिः शाब्दम्" [१-१-५ शाबरभा०] इति ५वचनात् । "शब्दादुदेति यद् ज्ञानमप्रत्यक्षेऽपि वस्तुनि। शाब्दं तदिति मन्यन्ते प्रमाणान्तरवादिनः" ॥ [ इतिलक्षणलक्षितस्य प्रमाणान्तरस्य सद्भावात् कथं द्वे एव प्रमाणे? न चार्य प्रत्यक्षप्रमाणता सविकल्पकत्वात् । नाप्यनुमानता त्रिरूपलिङ्गाप्रभवत्वात् अनुमानगोचराविषयत्वाच्च । तदुक्तम् तस्मादननुमानत्वं शाब्दे प्रत्यक्षवद भवेत् । त्रैरूप्यरहितत्वेन तादृग्विषयवर्जनात्" ॥ [श्लो० वा० शब्दप० ९८] तथाहि-न शब्दस्य पक्षधर्मत्वम् धर्मिणोऽयोगात् । न चार्थस्य धर्मित्वम् तेन तस्य सम्बन्धासिद्धेः। न चाप्रतीतेऽर्थे तद्धर्मतया शब्दस्य प्रतीतिः संभविनी प्रतीते चार्थे न तद्धर्मताप्रतिपत्तिः शब्दस्योप योगिनी तामन्तरेणाप्यर्थस्य प्रागेव प्रतीतेरन्यथा तस्य तद्धर्मतया प्रतीत्ययोगात् । भवतु वार्थो धर्मी १५तथापि किं तत्र साध्यमिति वक्तव्यम् ? सामान्यमिति चेत्, न; तस्य धर्मिपरिच्छेदकाल एव सिद्धत्वात् तदपरिच्छेदे धर्मिपरिच्छेदायोगात् “नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः”[ ] इति न्यायात् । न च सामान्यं धर्मि अर्थविशेषस्तत्र साध्यो धर्मः उक्तदोषानतिक्रमात् विशेषस्य चानन्वयात् । अथ शब्दो धर्मी अर्थवानिति साध्यो धर्मः शब्द एव च हेतुः, न; प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वप्राप्तः। अथ शब्दत्वं हेतुरिति न प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वं दोषः, न; शब्दत्वस्यागमकत्वाद् गोशब्दत्वस्य २० च निषेत्स्यमानत्वेनासिद्धत्वात् । अत एवानुमानतुल्यविषयताऽपि न शाब्दे संभवति । तदुक्तम् १ सौगतसंमतं प्रमाणद्वैविध्यं पूर्वपक्षयिला जयन्तभट्टेन प्रत्युक्तम् तच्च "ते हि प्रमेयद्वैविध्यात् प्रमाणं द्विविधं जगुः । नान्यः प्रमाणभेदस्य हेतुर्विषयभेदतः" ॥ इत्यादिकं इत्युद्धताखिलपरोदितदोषजातसंपातभीतिरिह संप्लव एष सिद्धः। सर्वाश्च सौगतमनस्सु चिरप्ररूढा भग्नाः प्रमाणविषयद्यसिद्धिवाञ्छाः" ॥ इत्यन्तं न्यायमञ्जरीतोऽवबोद्धव्यम्-पृ. २८-३६ । २ शाब्दं प्रमाणान्तरखेनानङ्गीकृतवतः शाक्यवैशेषिकानधिक्षिप्य कुमारिलभट्टेन तत् प्रमाणान्तरलेन व्यवास्थापि तच "तत्रानुमानमेवेदं बौद्धवैशेषिकैः श्रितम्"। इत्यादितः "दृष्ट्वाऽनुमानव्यतिरेकभीताः क्लिष्टाः पदाभेदविचारणायाम्"। इतिपर्यन्तं श्लोकवार्तिकतोऽवसेयम्-पृ. ४१०-४३३। ३ "शास्त्रं शब्दविज्ञानादसन्निकृष्टेऽर्थे विज्ञानम्"-शाबरभा० पृ० ८५० १२ । “तत्र शबरखामी शाब्दलक्षणमाह-शब्दज्ञानादसन्निकृष्टेऽर्थज्ञानं शाब्दमिति । शब्दखलक्षणग्रहणादुत्तरकालं परोक्षेऽर्थे यद् उत्पद्यते ज्ञानम् तत् शब्दादागतमिति कृत्वा शाब्दप्रमाणम्"-तत्त्वसं० पञ्जि० पृ. ४३४ पं०३-५। ४ शाब्दस्य प्रमाणान्तरत्वं स्थापयन्त्येषा सकलाऽपि सपद्या चर्चा शब्दसाम्यमजहती प्रमेयकमलमार्तण्डे अधिकविशदतया वर्तते-पृ. ४७ द्वि. पं० २-पृ. ४८ प्र. पं० ५। ५-णेन न चा-बृ० । ६ प्रमाणान्तरपरीक्षायां शाब्दविचारे पूर्वपक्ष स्थापयन् शान्तरक्षितो भङ्गयन्तरेणैतदेवाभिव्यक्तवान् । तथाहि "शब्दज्ञानात् परोक्षार्थज्ञानं शाब्दं परे जगुः । तच्चाकर्तृकतो वाक्यात् तथाप्रत्ययिनोदितात् ॥ इदं च किल नाध्यक्ष परोक्षविषयत्वतः । नानुमानं च घटते तल्लक्षणवियोगतः" ॥ -तत्त्वसं० का० १४८९-१४९० पृ. ४३३ । ७ तत्त्वसं• का० १४९८ पृ. ४३५। ८ "तद्धमताप्रतिपत्तिम्"-. टि.। ९धर्मप-बृ० । १० पृ. ४७९ पं० १०, टि.४। ११-यादेव श-हा०वि०। १२ धर्मो अ-आ० हा०वि०। १२ "हेतुल"-बृ.टि.। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५७५ २० "सामान्यविषयत्वं हि पदस्य स्थापयिष्यते ॥ धर्मी धर्मविशिष्टश्च लिङ्गीत्येतच्च साधितम् । न तावदनुमानं हि यावत्तद्विषयं न तत् ॥ अथ शब्दोऽर्थवत्त्वेन पक्षः कस्मान्न कल्प्यते ॥ प्रतिज्ञार्थंकदेशो हि हेतुस्तत्र प्रसज्यते । पक्षे धूमविशेषे हि सामान्यं हेतुरिष्यते ॥ शब्दत्वं गमकं नात्र गोशब्दत्वं निषेत्स्यते । व्यक्तिरेव विशेष्याऽतो हेतुश्चैका प्रसज्यते" ॥ इति । वा० शब्दप०५५-५६,६२-६३-६४] शब्दस्य चार्थेन सम्बन्धाभावतो यथा न पक्षधर्मत्वं तथान्वयोऽपि प्रमेयेण व्यापाराभावतोऽसंगत १० एव । तदुक्तम् "अन्वयो न च शब्दस्य प्रमेयेण निरूप्यते । व्यापारेण हि सर्वेषामन्वेतृत्वं प्रतीयते ॥ यत्र धूमोऽस्ति तत्राग्नेरस्तित्वेनान्वयः स्फुटः। न त्वेवं यत्र शब्दोऽस्ति तत्रार्थोऽस्तीति निश्चयः॥ ने तावद्यत्र देशेऽसौ न तत्कालेऽवगम्यते । भवेन्नित्यविभुत्वाच्चेत् सर्वार्थेष्वपि तत्समम् ॥ तेन सर्वत्र दृष्टत्वाद्व्यतिरेकस्य चागतेः। सर्वशब्दैरशेषार्थप्रतिपत्तिः प्रसज्यते” ॥ [ श्लो० वा० शब्दप० ८५-८८] अन्वयाभावे व्यतिरेकस्याप्यभावः। उक्तं च"अन्वयेन विना तस्माद्व्यतिरेकः कथं भवेत् ?"। [ ] इति। तदेवमनुमानलक्षणाभावात् शाब्दं प्रमाणान्तरमेव । [मीमांसकेन उपमानस्य प्रमाणान्तरत्वस्थापनम् ] उपमानमपि प्रमाणान्तरम् । तस्य लक्षणम् "दृश्यमानाद् यदन्यत्र विज्ञानमुपजायते । सादृश्योपाधि तत्त्वज्ञैरुपमानमिति स्मृतम्" ॥ [ १ "धर्मी धर्मविशिष्टो हि लिङ्गीत्येतत् सुनिश्चितम् । न भवेदनुमानं च यावत् तद्विषयं न तत् ॥ यश्चात्र कल्प्यते धर्मी प्रमेयोऽस्य स एव च । न चानवधृते तस्मिंस्तद्धर्मवावधारणा ॥ प्राक् स चेत् पक्षधर्मवाद् गृहीतः किं ततः परम् । पक्षधर्मादिभितिर्येन स्यादनुमानता" ॥ -तत्त्वसं. का. १४९१-१४९३ पृ. ४३४ । २ चार्थत्वन आ० हा० वि० । ३-“मन्वितलं"-श्लो० वा. । "अन्वयो न च शब्दस्य प्रमेयेण निरूप्यते । व्यापारेण हि सर्वेषामन्वेतृत्वं प्रतीयते ॥ यत्र धूमोऽस्ति तत्राग्नेरस्तिखेनान्वयः स्फुटम् । नलेवं यत्र शब्दोऽस्ति तत्रार्थोऽस्तीति निश्चितम्"। -तत्त्वसं० का० १४९४-१४९५ पृ० ४३४-४३५ । ४ “न तावत् तत्र देशेऽसौ तत्काले वाऽवगम्यते"-श्लो. वा। "न तावत् तत्र देशेऽसौ न तत्काले च गम्यते । भवेनित्यविभुत्वाचेत् सर्वशब्देषु तत्समम् ॥ तेन सर्वत्र दृष्टखाद् व्यतिरेकस्य चागतेः । सर्वशब्देरशेषार्थप्रतिपत्तिः प्रसज्यते" ॥ तत्त्वसं० का० १४९६-१४९७ पृ. ४३५ । ५ शाब्दस्य अनुमानेऽन्तर्भावं प्रतिक्षिपन्त्याः ततश्च तत्पार्थक्यं समर्थयन्त्याश्च न्यायमञ्जरीगतायाश्चर्चायाःप्रस्तुतचर्चातः केवलं भनीभेदः न तु वाच्यभेदः। सा हि ततः “आह आस्तां तावदेतत् इदं तु चिन्त्यताम्-किमर्थमिदं पुनः शब्दस्य पृथग्लक्षणमुपवर्ण्यते” इत्यत आरभ्य “एवंविधविषयभेदात् सामग्रीभेदाच्च प्रत्यक्षवद् अनुमानादन्यः शब्द इति सिद्धम्" इत्यवसाना द्रष्टव्या-पृ० १५२५०४-पृ० १५५५२०।। ६ उपमानस्य प्रमाणान्तरखं ख्यापयन्त्येषा पद्ययुता चर्चा प्रमेयकमलमार्तण्डेऽपि ईदृश्येव वर्तते-पृ० ४८ प्र.पं. ५-द्वि०५०६ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डेयथोक्तम्-"उपमानमपि सादृश्यादसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिमुत्पादयति यथा गवयदर्शनं गोस्मरणस्य" [१-१-५ शाबरभा० ] इति । अस्यायमर्थः-येन प्रतिपत्रा गौरुपलब्धो न गवयः न चातिदेशवाक्यं 'गौरिव गवयः' इति श्रुतम् तस्याटव्यां पर्यटतः गवयदर्शने प्रथमे उपजाते परोक्षगवि सादृश्यज्ञानं यदुत्पद्यते 'अनेन सदृशो गौः' इति तदुपमानमिति । तस्य विषयः सादृश्यविशिष्टः परोक्षो गौः ५ तद्विशिष्टं वा सादृश्यम् सादृश्यं च वस्तुभूतमेव । यदाह "सादृश्यस्य च वस्तुत्वं न शक्यमववाधितुम् । भूयोऽवयवसामान्ययोगो जात्यन्तरस्य तत्" ॥ [श्लो० वा० उपमान० श्लो० १८] इति । अस्य चानधिगतार्थाधिगन्तृतया प्रामाण्यमुपपन्नम् यतोऽत्र गवयविषयेण प्रत्यक्षेण गवय एव १० विपयीकृतो न पुनरसन्निहितोऽपि सादृश्यविशिष्टो गौः तद्विशिष्टं वा सादृश्यम् । यदपि तस्य 'पूर्व गौः' इति प्रत्यक्षमभूत् तस्यापि गवयोऽत्यन्तमप्रत्यक्ष एवेति कथं गवि तदपेक्षं तत्सादृश्यज्ञानम् ? तदेवं गवयसदृशो गौरिति प्रागप्रतिपत्तेरनधिगतार्थाधिगन्तृ परोक्षे गवि गवयदर्शनात् सादृश्यज्ञानम् । तदुक्तम् "तस्माद् यत् स्मर्यते तत् स्यात् सादृश्येन विशेषितम् । प्रमेयमुपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम् ॥ प्रत्यक्षेणावबुद्धेऽपि सादृश्ये गवि च स्मृते । विशिष्टस्यान्यतोऽसिद्धरुपमानप्रमाणता ॥ प्रत्यक्षेऽपि यथा देशे स्मर्यमाणेच पावके । विशिष्टविषयत्वेन नानुमानाप्रमाणता ॥" [श्लो० वा० उपमान० श्लो० ३७-३९] इति । न चेदं प्रत्यक्षम् परोक्षविषयत्वात् सविकल्पत्वाच्च; नाप्यनुमानम् हेत्वभावात् । न च स एव दृश्यमानो गवयविशेषः तद्गतं वा सादृश्यं हेतुः उभयस्यापि धर्मिणा सह प्रतिबन्धाभावात् न चाप्रतिवद्धो हेतुः अतिप्रसङ्गात् । न च गोगतं सादृश्यं गौर्वा हेतुःप्रतिज्ञार्थंकदेशत्वात् । न च सादृश्यमात्र प्राक् प्रमेयेण सम्बद्ध प्रतिपन्नम् । न चान्वयप्रतिपत्तिमन्तरेण हेतोः साध्यप्रतिपादकत्वमुपलब्धम् । २५ तदेवं गवार्थदर्शने गवयं पश्यतः सादृश्येन विशिष्ट गवि पक्षधर्मत्वग्रहणं सम्वन्धानुस्मरणं चान्तरेण प्रतिपत्तिरुपजायमाना नानुमानेऽन्तर्भवतीति प्रमाणान्तरमुपमानम् । तदुक्तम् १ "उपमानमपि सादृश्यमसन्निकृष्टेऽर्थे” इत्यादि-शाबरभा० पृ. ८ पं० १४। “उपमानमपि सादृश्यमसन्निकृष्टेऽर्थे" इत्यादि-तत्त्वसं० पजि. पृ० ४४४ पं० ९ । प्रमाणान्तरपरीक्षायामुपमान विचारे पूर्वपक्षमारचयन् शान्तरक्षितः पूर्वं तावत् प्रस्तुतचर्चया साम्यं बिभ्रत् शबरस्वामिसंमतोपमानसमर्थनमाह-तत्त्वसंका. १५२६-१५४२ पृ. ४४४-४४७ । २-जायते बृ० वा. बा.। ३-शिष्टं वा सादृश्यं च वस्तु-वा. बा. भां मां० ।-शिष्टस्य सादृश्यं च वस्तु-आ० हा० वि० । ४ “सादृश्यस्यापि वस्तुलं न शक्यमपवाधितुम्"-श्लो० वा० । “सादृश्यस्य च वस्तुत्वं न शक्यमपबाधितुम्"-तत्त्वसं० का० १५३३ पृ० ४४५ । ५ “सादृश्यं वा तदाश्रितम्"-तत्त्वसं० का० १५३५ पृ. ४४५। ६ स्मृतेः वा. बा० । "प्रत्यक्षेणावबुद्धे च सादृश्ये च गवि स्मृते। विशिष्टस्यान्यतोऽसिद्धरुपमायाः प्रमाणता ॥ प्रत्यक्षेऽपि यथा देशे स्मर्यमाणेऽपि पावके । विशिष्टविषयत्वेन नानुमानाप्रमाणता" ॥ -तत्त्वसं० का. १५३६-१५३७ पृ. ४४६ । ७ "न हि प्रत्यक्षतासिद्ध विज्ञानस्योपपद्यते । इन्द्रियार्थाभिसंवन्धव्यापारविरहात् तदा"। -तत्त्वसं० का १५३८पृ०४६ । ८ "त्ररूप्यानुपपत्तेश्च न च तस्यानुमानता । पक्षधर्मादि नैवात्र कथंचिदवकल्पते"॥ -तत्त्वसं० का. १५३९ पृ.४४६ । ९ "गवा"-बृ.टि.। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। "न चैतस्यानुमानत्वं पक्षधर्माद्यसम्भवात् । प्राक् प्रमेयस्य सादृश्यं न धर्मत्वेन गृह्यते ॥ गवये गृह्यमाणं च न गवार्थानुमापकम् । प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वाद् गोगतस्य न लिङ्गता ॥ गवयश्चाप्यसम्बन्धान्न गोलिङ्गत्वमृच्छति । सादृश्यं न च पूर्वेण पूर्व दृष्टं तदन्वयि ॥ एकस्मिन्नपि दृऐऽर्थे द्वितीयं पश्यतो वने । सादृश्येन सहैकस्मिंस्तदैवोत्पद्यते मतिः" ॥ [ श्लो० वा० उपमान० श्लो० ४३-४६] इति । [नैयायिककृतमुपमानस्य स्वरूपवर्णनम् प्रमाणान्तरत्वसमर्थनं च] नयाँयिकास्तूपमानलक्षणमभिदधति-प्रसिद्धसाधात् साध्यसाधनमुपमानम्' [ न्यायद० १-१-६] इति । अत्र 'उपमानम्' इति लक्ष्यनिर्देशः 'प्रसिद्धसाधात् साध्यसाधनम्' इति लक्षणम् १ “(प्राग् गोगतं हि सादृश्यं न ) धर्मलेन गृयते । गवये गृह्यमाणं च न गवामनुमापकम्" ॥ -तत्त्वसं० का० १५४० पृ० ४४६ । २ "गवामनु"-श्लो० वा०। ३ "प्रतिज्ञार्थंकदेशवाद् गोगतस्य न लिङ्गता । गवयश्चाप्यसंबन्धान गोलिङ्गलमृच्छति॥ -तत्त्वसं• का० १५४१ पृ० ४४७ । ४"सादृश्यं न च सर्वेण"-श्लो० वा० श्लोकवार्तिकव्याख्याकारोऽपि 'सर्वेण' इति प्रतीकं गृहीत्वैव एनं श्लोकं व्याख्याति। तथाहि-"अत उक्तम् सर्वेण इति । सत्यं दृष्टम् न तु सर्वेण गवयं दृष्ट्वा तत्सादृश्यं गृहतैवमन्वयो गृहीतो भवतीति"-श्लो. वा. पार्थव्या० पृ. ४४७ पं० २०-२१ । प्रमेयकमलमार्तण्डेऽपि श्लोकवार्तिकवत् पाठः । तत्र च टिप्पण्याम् 'सर्वेण' इत्यस्य "पुंसा" इति स्पष्टीकरणम्-पृ० ४८ द्वि० पं० ५ टि० ३३। ५ "सहैवास्मिंस्त"-श्लो० वा० । पार्थ० व्याख्यायां तु 'एकस्मिन्' इति प्रतीकमस्ति । ६ “उपमानं सैव"-बृ० टि.। ७ नैयायिकसंमतमुपमानखरूपं तत्समर्थनं च सविशेष जिज्ञासमानैर्वात्स्यायनभाष्य-न्यायवार्तिक-तात्पर्यटीकागतं तदवधेयम्-पृ० २५ । पृ० ५७-५८ । पृ० १९६-२०१।। मजरीकारीया तु उपमानविषया चर्चा तत्खरूपं स्पष्टयति, तस्य प्रमाणान्तरतां समर्थयते, मीमांसकोतं तत्स्वरूपं च समालोचयति सा च सर्वाप्यत्रावधारणीया-न्यायमञ्ज० आ०२ पृ० १४१-१४९ । ८प्रस्तुतटीकाकारः पूर्व शबरखामिसमतामुपमानव्यवस्थामुपन्यस्य ततो नैयायिकसंभतां तामुपन्यस्यति शान्तरक्षितोऽपि तथैव तामुपन्यस्य परीक्षितवान् । तथाहि"श्रुतातिदेशवाक्यस्य समानार्थोपलम्भने । संज्ञासंबन्धविज्ञानमुपमा कैश्विदिष्यते" ॥ -तत्त्वसं० का० १५६३ पृ० ४५१ । "कैश्चिदिति नैयायिकैः । त एवमुपमानस्य लक्षणमाहुः-प्रसिद्धमाधात् साध्यसाधनमुपमानमिति"-तत्त्वसं. पजि० पृ. ४५१५० १६।। वृद्धनैयायिकास्तु उपमानखरूपमित्थं वर्णयन्ति"किदृग्गवय इत्येवं पृष्टो नागरिकैर्यदा । ब्रवीत्यारण्यको वाक्यं यथा गौर्गवयस्तथा" ॥ -तत्त्वसं० का० १५२६ पृ. ४४४ । "कीदृशो गवय इत्येवंपृष्टस्य यद् वाक्यं यादृशो गौस्तादृशो गवय इति, अस्य वाक्यस्योपमानवं वृद्धनैयायिकानां प्रसिद्धम्"-तत्त्वसं० पजि० पृ० ४४४ पं० ६-७ । श्रीधरस्तु पूर्वमीमांसक-शबरखामिशिष्यप्रभृतिभिर्यत् पृथक् पृथग उपमानवरूपं वर्णितं तत् प्रदर्य तस्यानुमान एवान्तर्भावं करोति-प्रशस्त. कं० पृ. २२० पं० १६-पृ. २२२ पं० ८। “अत्र वृद्धनैयायिकास्तावदेवमुपमानखरूपमाचक्षते-संज्ञासंज्ञिसंबन्धप्रतीतिफलं प्रसिद्धतरयोः सारूप्यप्रतिपादकमतिदेशवाक्यमेवोपमानम्" इत्यादि-न्यायमज. आ. २ पृ० १४१ पं० १५-१६। कैश्चिद् अद्यतनैरपि यदितर उपमानखरूपं वर्णितं तदपि न्यायमजयां प्रदर्शितमस्ति-पृ० १४२ पं० १३-१५। ७४ स०त. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ द्वितीये काण्डे 'प्रसिद्धसाधर्म्यात्' इत्यागमपूर्विका प्रसिद्धिर्दर्शिता । आगमस्तु 'यथा गौस्तथा गवयः' इत्येवम् प्रसिद्धन साधयं प्रसिद्धं वा साधर्म्यमिति साधर्म्यप्रसिद्धः संस्कारवान् पुरुषः कदाचिदरण्ये परिभ्रमन् समानमर्थ यदा पश्यति तदा तज्ज्ञानादागमाहितसंस्कारप्रवोधः ततः स्मृतिः 'गोसदृशो गवयः' इत्येवंरूपा स्मृतिसहायेन्द्रियार्थसन्निकर्षण 'गोसदृशोऽयम्' इति ज्ञानमुत्पाद्यते तच्चेन्द्रियार्थ५सन्निकर्षजत्वात् प्रत्यक्षफलम् तदेवाव्यपदेश्यादिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनकत्वाद् गोसारूप्यज्ञानमुपमानम् । न च तत्रैव विषये हेयादिज्ञानोत्पादकत्वेनोपमानप्रमाणताप्रसक्तिः हेयादिज्ञानस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वात् तजनकत्वेनास्य प्रत्यक्षप्रमाणताप्रसक्तेः । न च शब्देन साधं यथोक्तमुत्पादयदेतच्छाब्दं प्रसज्यते अव्यपदेश्यपदाध्याहारात् । अव्यभिचार्यादिपदानां तु पूर्ववद् व्यवच्छेद्यं द्रष्टव्यम् । नन्वेवमप्यनुमाने प्रसङ्गः तस्य यथोक्तफलजनकत्वात्, न; अविनाभावसम्बन्धस्मृति१० पूर्वकस्य परामर्शज्ञानस्य विशिष्टफलजनकत्वेनानुमानत्वात् । न चाधिकृतज्ञानमविनाभावसम्वन्ध स्मृतिपूर्वकम् गोसदृशस्य गवयशब्दवाच्यत्वेनान्यस्याप्रसिद्धत्वात् । 'गोसदृशस्य गवयशब्दः संज्ञा' इति आगमात् प्रतीतिरिति चेत्, न तस्य सन्निधीयमानगोसदृशपिण्डविषयत्वेनाप्युपपत्तेः निश्चितश्चान्वयः साध्यप्रतिपत्त्यङ्गम् न च तदोपलभ्यमानाद् गोसदृशपिण्डाद् व्यतिरिक्तगोसदृशसद्भावनिश्चायकं प्रमाणमस्ति । न चात्र व्यतिरेक्यपि हेतुः समस्ति सपक्षासत्त्वप्रतिपादकप्रमाणाभावात् १५ अतो नाविनाभावसम्वन्धानुस्मृतिः। व्याप्तिरहितेऽपि चागमे 'गोसदृशो गवयः' इति सकृदुच्चारिते उत्तरकालं गोसदृशपदार्थदर्शनात् 'अयं स गवयशब्दवाच्यः' इति प्रतिपत्तिर्भवतीति नानुमानमेतत्; संज्ञासंशिसम्बन्धज्ञानं त्वागमिकं न भवत्येव शब्दस्य तज्जनकस्य तदाऽभावात् शब्दजनितं च शाब्द प्रमाणमिति व्यवस्थितम् । प्राक् शब्दप्रतीतत्वात् शाब्दमिति चेत्, नन्वनुमानस्याप्येवमभावप्रसक्तिः अग्निसामान्यस्य प्राक् प्रत्यक्षेण प्रतीतत्वात् न ह्यप्रतीते महानसादावग्निसामान्येऽनुमानप्रवृत्तिरिति २० अप्रतीतार्थाप्रतिपादकत्वादनुमानं न प्रमाणं भवेत् । न च विशिष्टदेशाद्यवच्छेदसाधकत्वेनास्य प्रामाण्यम् इतरत्रापि समानत्वात् । तथाहि-सन्निधीयमानपिण्डविषयत्वेनं स्वप्रतिपाद्यमिदं प्रतिपादयति आगमस्त्वसन्निहितपिण्डविषयत्वेन । न चागमात् संज्ञासंशिसम्वन्धः प्रतीयते ततः सारूप्यमात्रप्रतीतेः । यत्र च शब्दस्यैव साधकतमत्वं तदेव शाब्दफलम् न च विप्रतिपत्त्यधिकरणे संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञाने एतत् समस्ति । प्रत्यक्षफलं तु न भवत्येवैतत् संज्ञासंज्ञिसम्बन्धस्येन्द्रियेणा२५सन्निकर्षात् तदसन्निकर्षश्चन्द्रियाविषयत्वात् तस्य । तदेवं संज्ञासंझिसम्बन्धप्रतिपत्तिरूपं फलं यतः समुपजायते तदुपमानम् आह च सूत्रकार:-"साध्यसाधनम्" [ न्यायद०१-१-६] इति । साध्य विशिष्टं फलम् तस्य साधनं जनकं यत् तदुपमानम् । एवं सारूंप्यज्ञानवत् सारूप्यस्याप्युपमानत्वं न पुनः संज्ञासंशिसम्बन्धज्ञानस्य फलाभावात् । न च हेयादिज्ञानमस्य फलं प्रत्यक्षादिफलत्वात् । तथाहि-हेयादिज्ञानं पिण्डविषयं तच्चेन्द्रियार्थसन्निकर्षादुपजायते यथा प्रत्यक्षफलमनुमानं विशिष्ट३० फलजनकत्वात् । एवं प्रमाणान्तरानिष्पाद्यविशिष्टफलजनकत्वात् प्रमाणान्तरमुपमानम् । [ मीमांसकेन अर्थापत्तेः स्वरूपव्यावर्णनपूर्वकं प्रमाणान्तरत्वसमर्थनम् ] अपत्तिरपि प्रमाणान्तरम् यतस्तस्या लक्षणम्-"अर्थापत्तिरपि दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यदृष्टार्थकल्पना" [१-१-५ शावरभा०]। कुमारिलोऽप्येतदेव भाष्यवचनं विभजन्नाह "प्रमाणषट्कविज्ञातो यत्रार्थो नान्यथा भवेत् । अदृष्टं कल्पयत्यन्य साऽर्थापत्तिरुदाहृता ॥ दृष्टः पञ्चभिरप्यस्माद् भेदेनोक्ता श्रुतोद्भवा । प्रमाणग्राहिणीत्वेन यस्मात् पूर्वविलक्षणा" ॥ [ श्लो० वा० अर्थाप० श्लो० १-२] १ "गवयरूपम्"-बृ. ल. टि.। २ तथेन्द्रि-बृ० । ३-ज्ञानत्वविशि-आ. हा० वि० ।-ज्ञानविशिल० ।-ज्ञानाविशि-बृ० । ४-रिक्तःगो-वा० बा० । ५ शाब्दप्र-ल. । ६-सक्तेः आ० हा० वि०। ७-न प्रतिवा. बा. भां० मां० विना। ८ विधिप्र-भां० मां० । विधि प्र-बृ०।९ पृ. ५७७ पं० ११।१०-रूप्यं ज्ञा-वृ०। ११ तत्त्वसं० पजि. पृ० ४५६ पं० २३-२४ । १२ “यत्रार्थोऽनन्यथा भवन्"-ल. टि. । “यत्रार्थो नान्यथा भवन् अदृष्ट कल्पयेदन्यम्-पाठान्तरम्"-बृ. ल. टि.। १३-ल्पयन्त्यन्यं बृ. आ. हा० ।-"रूपयेदन्यं"-श्लो० वा० । १४ “अर्थम्"- बृ० ल. टि.। प्रस्तुता टीका कौमारिलं श्लोकवार्तिकमनुसरति-श्लो. वा. अर्थाप.लो. १-८८ पृ. ४५०-४७२ । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। प्रत्यक्षादिभिः षभिः प्रमाणैः प्रसिद्धो योऽर्थः स येन विना नोपपद्यते तस्यार्थस्य प्रकल्पनमर्थापत्तिः यथाग्नेर्दाहकत्वम् । तत्र प्रत्यक्षपूर्विकार्थापत्तिः यथाग्नेः प्रत्यक्षेणोष्णस्पर्शमुपलभ्य दाहकशक्तियोगोऽर्थापत्त्या प्रकल्प्यते न हि शक्तिरध्यक्षपरिच्छेद्या नाप्यनुमानादिसमधिगण्या अप्रत्यक्षेणार्थन शक्तिलक्षणेन कस्यचिदर्थस्य सम्बन्धासिद्धेः । अनुमानपूर्विका त्वर्थापत्तिः यथा आदित्यस्य देशान्तरप्राप्त्या देवदत्तस्येव गत्यनुमाने ततो गमनशक्तियोगोऽर्थापत्त्यावसीयते । उपमानपूर्विका त्वर्थापत्तिः५ यथा 'गवयवद् गौः' इत्युक्तेराद् वाहदोहादिशक्तियोगस्तस्य प्रतीयते अन्यथा गोत्वस्यैवायोगात् । शब्दपूर्विकार्थापत्तिः यथा शब्दादर्थप्रतीतौ शब्दस्यार्थेन सम्बन्धसिद्धिः । अर्थापत्तिपूर्विकार्थापत्तिः यथोक्तप्रकारेण शब्दस्यार्थेन सम्बन्धसिद्धावन्नित्यत्वसिद्धिः पौरुषेयत्वे शब्दस्य सम्बन्धायोगात् । अभावपूर्विकार्थापत्तिः यथा जीवतो देवदत्तस्य गृहे अदर्शनादर्थाद् वहिर्भावः। अत्र चतसृभिरर्थापत्तिभिः शक्तिः साध्यते, पञ्चम्यां नित्यता, पठ्यां गृहाद् वहिर्भूतो देवदत्त एव साध्यत इत्येवं षट्प्र-१० कारा अर्थापत्तिः। अन्ये तु श्रुतार्थापत्तिमन्यथोदाहरन्ति 'पीनो देवदत्तो दिवा न भुते' इति वाक्यश्रवणाद् रात्रिभोजनवाक्यप्रतिपत्तिः श्रुतार्थापत्तिः । गवयोपमितस्य गोस्तज्ज्ञानग्राह्यताशक्तिरुपमानपूर्विकार्थापत्तिः । तदुक्तम् "तत्र प्रत्यक्षतो ज्ञातात् दाहाद्दहनशक्तिता। वढेरनुमितात् सूर्ये यानात् तच्छक्तियोगिता” ॥ [ श्लो० वा० अर्थाप० श्लो० ३] १५ "पीनो दिवा न भुते इत्येवमादिवचःश्रुतौ। रात्रिभोजनविज्ञानं श्रुतार्थापत्तिरुच्यते” ॥ [ श्लो० वा० अर्थाप० श्लो० ५१ ] "गवयोपमिताया गोस्तज्ञानग्राह्यशक्तिता" ॥ [ श्लो० वा० अर्थाप० श्लो० ४] "अभिधानप्रसिद्ध्यर्थमर्थापत्त्यावबोधितात् ।। शब्दे वाचकमामात् तन्नित्यत्वप्रमेयता" ॥ [ श्लो० वा० अर्थाप० श्लो०५] २० "प्रमाणाभावनिर्णीतचैत्राभावविशेषितात् । गेहाच्चैत्रबहिर्भावसिद्धिर्या विह दर्शिता" ॥ "तामभावोत्थितामन्यामपनिमुदाहरेत्"। [श्लो० वा० अर्थाप० श्लो०८-९] इत्यादि । इयं च पट्प्रकाराप्यर्थापत्तिर्नाध्यक्षम् अतीन्द्रियशक्त्याद्यर्थविषयत्वात् । अत एव नानुमानम् प्रत्यक्षा-२५ वगतप्रतिवद्धलिङ्गप्रभवत्वेन तस्योपवर्णनात् अर्थापत्तिगोचरस्यार्थस्य कदाचिदप्यध्यक्षाविषयत्वात् तेन सहार्थापत्त्यन्थापकस्यार्थस्य सम्बन्धाप्रतिपत्तस्तदैवार्थापत्त्या ततस्तस्य प्रकल्पनात् प्रमाणान्तरमेवार्थापत्तिः। [ मीमांसकेन अमावस्य प्रमाणान्तरत्वसमर्थनम् ] "अर्थस्थासन्निकृष्टस्य प्रसिद्ध्यर्थ प्रमान्तरम् । प्रमाभावमभावाख्यं वर्णयन्ति तथाऽपरे" ॥ [ प्रमाणान्तरपरीक्षायामापत्तिविचारे पूर्वपक्षप्रसो शान्तरक्षित इंटगेव अर्थापत्तिस्वरूपं तद्भेदांश्च निरूपितवान् तचात्र तत्कारिकाकैरेव निर्दिश्यते-तत्त्वसं० का० १५८७-१६०६ पृ. ४५६-४६१ । प्रमेयकमलमार्तण्डस्तु प्रस्तुतटीकया अक्षरशः साम्यं विभर्ति-पृ. ४८ द्वि. पं०६-पृ. ४९ प्र० पं० ८। श्रीधरोऽपि तामनुमानेऽन्तभावयन् व्याख्यातवान्-प्रशस्त. कं० पृ. २२२-२२५ । श्रीधरानुसारी जयन्तस्तु अर्थापति व्यावर्णयन् नोज्नितवान् प्रस्तुतटीकासाम्यम्-न्यायमज. आ. १ पृ. ३६ पं. ८-पृ० ४९ पं० ४। १-स्तज्ञा-आ० हा०वि० विना। २ तत्त्वसंग्रहे ईदृशी एव कारिका-१५८८ । “ज्ञानाद् दाहाद्दहनशक्तता । वहेरनुमिता सूर्ये यानात्तच्छक्तियोग्यता"-श्लो. वा.३ "गवयोपमिता या गीस्त ज्ज्ञानग्राह्यता मता"-श्लो० वा० । “गवयोपमिता या गौस्तज्ज्ञानग्राह्यशक्तता"-तत्त्वसं. का० १५९९ । ४ "शब्दे बोधकसामर्थ्यात् तन्नित्यत्वप्रकल्पनम्"-श्लो० वा० । ५ अर्थापत्तिचर्चायामिव अत्र अभावच यामपि समानप्रायाणि लोकवार्तिक-तत्त्वसंग्रह-प्रमेयकमलमार्तण्ड-कन्दलीन्यायमजरीणामभावनिरूपकाणि तत्तचर्चास्थलानि अवधारणीयानि-लो. १-५८ पृ० ४७३-४९२ । का० १६४८१६५९ पृ० ४७०-४७३ । पृ० ४९ प्र. पं. ९-पृ. ५. प्र. पं. ४ । पृ. २२५-२३० । पृ० ४९-५१ । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० द्वितीये काण्डे"अभावोऽपि प्रमाणाभावः 'नास्ति'इत्यर्थस्यासन्निकृष्टस्य" [१-१-५ शाबरभा०] इति वचनात् । अन्ये पुनरभावाख्यं प्रमाणं त्रिधा वर्णयन्ति-प्रमाणपञ्चकाभावलक्षणोऽनन्तरोक्तोऽभावः, प्रतिषिध्यमानाद् वा तद्न्यज्ञानम् आत्मा वा विषयरूपेणानभिनिवृ(निवृत्तस्वभाव इति अनेन चाभाव. प्रमाणेन प्रदेशादौ घटादीनामभावो गम्यते । तदुक्तम् "प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते। वस्तुसत्तावबोधार्थं तत्राभावप्रमाणता" ॥ [ श्लो० वा० अभावप० श्लो०१] "प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः प्रमाणाभाव उच्यते। सात्मनोऽपरिणामो वा विज्ञानं वान्यवस्तुनि" ॥ [ श्लो० वा० अभावप० श्लो० ११ ] इति । १० न च प्रत्यक्षेणैवाभावोऽवसीयते तस्याभावविषयत्वविरोधात् भावांशेनैवेन्द्रियाणां संयोगात् । तदुक्तम् "न तावदिन्द्रियेणैपा नास्तीत्युत्पाद्यते मतिः । भावांशेनैव संयोगो योग्यत्वादिन्द्रियस्य हिं" ॥ [श्लो० वा० अभावप० श्लो०१८] इति। १५ नाप्यनुमानेनासौ साध्यते हेत्वभावात् । न च प्रदेश एव हेतुः तस्य साध्यधर्मित्वेनाभ्युपगमात् । न चैवमपि हेतुः प्रतिज्ञार्थंकदेशताप्राप्तेः न च प्रदेशविशेषो धर्मी तत्सामान्यं हेतुः तस्य घटाभावव्यभिचारात् न हि सर्वत्र प्रदेशे घटाभावः शक्यः साधयितुं सघटस्यापि प्रदेशस्य संभवात् । अथ घटानुपलब्ध्या प्रदेशे धर्मिणि घटाभावः साध्यते, असदेतत् साध्यसाधनयोः कस्यचित् सम्वन्धस्याभावात् । तस्मादभावोऽपि प्रमाणान्तरमेव । न चाभावस्य तद्विषयस्याभावादभावप्रमाणान्तरवैयर्थ्यम् २०प्रागभावादिभेदेन चतुर्विधस्य वस्तुरूपस्याभावस्य भावात् अन्यथा कारणादिविभागतो व्यवहारस्य लोकप्रतीतस्याभावप्रसङ्गात् । तदुक्तम् "न च स्याद् व्यवहारोऽयं कारणादिविभार्गतः। प्रागभावादिभेदेन नाभावो यदि भिद्यते" ॥ [ श्लो० वा० अभावप० श्लो०७] अभावस्य च प्रागभावादिभेदान्यथानुपपत्तेरापत्त्या वस्तुरूपताऽवसीयते । तदुक्तम् "न चावस्तुन एते स्युर्भेदास्तेनास्य वस्तुता। कार्यादीनामभावः को भावो यः कारणादि न" ॥ [श्लो० वा० अभावप० श्लो०८] इति । अनुमानप्रमाणावसेया वाऽभावस्य वस्तुरूपता । यदाह "यद्वाऽनुवृत्तिव्यावृत्तिबुद्धिग्राह्यो यतस्त्वयम् । तस्माद् गवादिवद् वस्तु प्रमेयत्वाच्च गृह्यताम्" ॥ [श्लो० वा० अभावप० श्लो०९] इति । २५ १ "तत्र कुमारिलेन त्रिविधोऽभावो वर्णितः-आत्मनोऽपरिणाम एकः पदार्थान्तरविशेषज्ञानं द्वितीयः xxx प्रमाणनिवृत्तिमात्रात्मकस्तृतीयः"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ४७३ पं० ११-१३ । २-नभिर्निवृत्त-आ० ।-नभिवृत्त-ल० वा० बा० । “अपरिणत-"बृ० टि.। __“सात्मनोऽपरिणामो वा विज्ञानं वाऽन्यवस्तुनीति । सा-प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः निषेध्याभिमतघटादिपदार्थज्ञानरूपेणापरिणतं साम्यावस्थमात्मद्रव्यमुच्यते घटादिविविक्तभूतलज्ञानं वा" -तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ४७१ पं० १०-१२ । ३-शानं चान्य-भां. मां० । “सात्मनः परिणामो वा"-श्लो. वा० । तत्त्वसं. का. १६४९ पृ. ४७१। ४“न तावदिन्द्रियैरेषा नास्तीत्युत्पद्यते मतिः"-श्लो० वा. पृ. ३५१५० १३। ५ "प्रमेयतया"-बृ० ल.टि.। ६-गशः बृ०। ७ "नाभावो विद्यते यदि"-तत्त्वसं. का. १६५४ पृ. ४७२ । श्लोकवार्तिकेऽपि “नाभावो विद्यते यदि"-इति पाठान्तरं विद्यते। ८-रणादित इ-हा० वि०।-रणोदित इ-आ० । “योऽभावः कारणादिनः"-श्लो० वा० । “यो भावः कारणादिना"-तत्त्वसं० का० १६५५ पृ. ४७२ । ९-"बुद्धयो यो यतः खयम्"-तत्त्वसं० का० १६५६ पृ०४७३ । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ५८१ अभावश्च चतुर्धा व्यवस्थितः-प्रागभावः प्रध्वंसाभावः इतरेतराभावः अत्यन्ताभावश्चेति । तत्र "क्षीरे दध्यादि यन्नास्ति प्रागभावः स उच्यते ॥ नास्तिता पयसो दनि प्रध्वंसाभावलक्षणम् । गवि योऽश्वाद्यभावस्तु सोऽन्योन्याभाव उच्यते ॥ शिरसोऽवयवा निम्ना वृद्धिकाठिन्यवर्जिताः। शशशृङ्गादिरूपेण सोऽत्यन्ताभाव उच्यते” ॥ [श्लो० वा० अभावप० श्लो० २-३-४] यदि चैतद्व्यवस्थापकमभावाख्यं प्रमाणं न भवेत् तदा प्रतिनियतवस्तुव्यवस्था दूरोत्सारितैव स्यात् । तदुक्तम् "क्षीरे दधि भवेदेव दनि क्षीरं घटे पटः। शशे शृङ्गं पृथिव्यादौ चैतन्यं मूर्तिरात्मनि ॥ अप्सु गन्धो रसश्चाग्नौ वायौ रूपेण तो सह । व्योम्नि संस्पर्शता ते च न चेदस्य प्रमाणता" ॥ [ श्लो० वा० अभावप० श्लो०५-६] इति । न च निरंशभावैकरूपत्वाद् वस्तुनस्तत्स्वरूपग्राहिणाऽध्यक्षेण तस्य सर्वात्मना ग्रहणादगृहीतस्य १५ चापरस्यासदंशस्य तत्राभावात् कथं तद्व्यवस्थापनाय प्रवर्त्तमानमभावाख्यं प्रमाणं प्रामाण्यमश्नुत इति वक्तव्यम् यतः सदसदात्मके वस्तुनि प्रत्यक्षादिना तत्र सदंशग्रहणेऽप्यगृहीतस्यासदंशस्य व्यवस्थापनाय प्रमाणाभावस्य प्रवर्तमानस्य न प्रामाण्यव्याहतिः। तदुक्तम् "वरूप-पररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके। वस्तुनि ज्ञायते किंचित् रूपं कैश्चित् कदाचन ॥ यस्य यत्र यदोद्भूतिर्जिघृक्षा चोपजायते । चेत्यतेऽनुभवस्तस्य तेन च व्यपदिश्यते ॥ तस्योपकारकत्वेन वर्ततेंऽशस्तदेतरः। उभयोरपि संवित्योरुभयानुगमोऽस्ति तु ॥ प्रत्यक्षाद्यवतारश्च भावांशो गृह्यते यदा । व्यापारस्तंदनुत्पत्तेरभावांशे जिघृक्षित" ॥ [श्लो० वा० अभावप० श्लो० १२-१३-१४,१७ ] इति । न च भावांशादभिन्नत्वादभावांशस्य तद्हणे तस्यापि ग्रह इति, सदसदंशयोर्धर्म्यभेदेऽपि भेदाभ्युपगमात् । उक्तं च "ननु भावादभिन्नत्वात् सम्प्रयोगोऽस्ति तेन च । न हत्यन्तमभेदोऽस्ति रूपादिवदिहापि नः ॥ धर्मयोर्भेद इष्टो हि धर्म्यभेदेऽपि नः स्थिते । उद्भवाभिभवात्मत्वाद् ग्रहणं चावतिष्ठते" ॥[श्लो० वा० अभावप०१९-२०] इत्यादि । १पृ० १८६ पं० २२ टि० ११। २ तत्त्वसं० पजि० पृ. ४७२ पं० १४-१५। ३ "तौ गन्ध-रसौ"-बृ. ल० टि०। ४ संस्पर्शता भां० मा० विना । “संस्पर्शिता"-श्लो० वा० । “सस्पर्शकास्ते"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० ४७२ पं०१६। ५ "गन्ध-रूप-रसाः"-बृ. ल.टि.। ६ तत्त्वसंका१६७२ । ७ “संवित्तावुभया"-श्लो० वा.। ८ तत्त्वसं. का. १६७३ । ९"अभावप्रमाणस्य"-वृ० ल.टि.। “व्यापारस्तदनुत्पत्ति"-श्लो० वा० । “तदनुत्पत्तिः प्रत्यक्षाद्यभाव इति-पार्थ० व्या० पृ. ४७८ । “व्यापारस्तदनुत्पत्ते"-तत्त्वसं० का० । “तदनुत्पत्तेापारः-तेषां प्रत्यक्षादीनामनुत्पत्तरभावस्येति यावत्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० ४७७ पं० । १० जिविक्षत इति वा. बा० । “जिघृक्षिते"श्लो० वा० । तत्त्वसं० का० । “अभावांशे ग्रहीतुमिष्टे"-तत्त्वसं० पञ्जि० पृ. ४७७ पं०६। ११ "अभावेन"-बृ० ल. टि.। १२-पिन स्थिते हा०वि०।-पिनःस्थितेः भा. मां०। १३ “उत्कट खानुत्कटखात्मलातू"-वृ.टि.। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ द्वितीये काण्डेतदेवमगृहीतंप्रमेयाभावग्राहकत्वात् प्रमाणाभावस्य प्रमाणत्वम् प्रत्यक्षाष्विनन्तर्भावात् प्रमाणान्तरत्वं च व्यवस्थितम् । [ सौगतेन मीमांसकादिमतानामुपमानादीनामप्रमाणत्वं यथायथं प्रत्यक्षानुमानयोरन्तर्भावनेन पृथक्प्रामाण्याभावं चोपपाद्य प्रमाणान्तरत्वप्रति विधानम् ] ५ अत्र प्रतिविधीयते-यत् तावत् शाब्दस्य त्रैरूप्यरहितत्वेन तादृग् विषयाभावाच्चानुमानानन्त र्भावप्रतिपादनमभ्यधायि तद् युक्तमेव न ह्यप्रमाणस्यानुमानेऽन्तर्भावो युक्तः। कुतः पुनः शब्दोद्भवस्य ज्ञानस्याप्रामाण्यम् ? शब्दस्यार्थप्रतिबन्धाभावात् न हि शब्दोऽर्थस्य स्वभावः अत्यन्तभेदात् नापि कार्य तेन विनापि भावात् न च तादात्म्य-तदुत्पत्तिव्यतिरिक्तः सम्बन्धो गमकत्वनिबन्धनमस्ति । न च सङ्केतबलाद वास्तवप्रतिपत्तिशक्तियुक्तानां प्रदीपानामिवार्थप्रकाशकत्वं संभवति । न च १० व्यवस्थितैवार्थप्रतिपादनयोग्यता सङ्केतेन शब्दस्याभिव्यज्यत इति वक्तव्यम् पुरुषेच्छावशादन्यत्रार्थे शब्दस्य समैयादप्रवृत्तिप्रसक्तेः दृश्यते च पुरुषेच्छावशादन्यत्रापि विषये शब्दानां प्रवृत्तिः । न च पुरुषेच्छावृत्तिः समयो वस्तुप्रतिवद्धः तदभावेऽपि तस्य प्रवृत्तेः । न च सङ्केतमन्तरेण शब्दस्य वस्तुप्रत्यायकत्वम् सङ्केताभावप्रसक्तेः । आप्तप्रणीतशब्दानां पुनरर्थाव्यभिचारेऽप्याप्तप्रणीतत्वानिश्चया देवाप्रामाण्यं न पुनराप्तस्यैवासंभवात् तत्संभववाधकप्रमाणाभावात् । ततो बाह्ये विषये शब्दानां १५ प्रतिवन्धाभावतःप्रामाण्यमेव न संभवति पक्षधर्मत्वाद्यसंभवादनुमानत्वाभावप्रतिपादनं युक्तमेवेति स्थितम् । यत्रं तु वक्रभिप्रायसूचने प्रामाण्यमस्य तत्रानुमानलक्षणयुक्तस्यैव नान्यादृग्भूतस्येति न प्रमाणान्तरत्वम् । उपमानस्य त्वपूर्वार्थाधिगन्तृत्वाभावात् प्रामाण्यमेव न संभवति । नन्वस्यापूर्वार्थविषयता प्रागुप॑दर्शितैव सत्यमुपदर्शिता न तु युक्ता । तथाहि-तस्य विषयः सादृश्यविशिष्टो गौः तद्विशिष्टं वा १० सादृश्यमुपदर्शितं तच्च भूयोऽवयवसामान्ययोगलक्षणं प्रतिपादितम् । न च सामान्यं तद्योगो वा वस्तु संभवीति प्रतिपादितम् तत्सद्भावेऽपि प्रत्यक्षविषयतया परैस्तस्येष्टेः कथमुपमानस्य तद्गोचरत्वेनागृहीतार्थग्राहित्वं प्रामाण्यनिवन्धनं भवेत् ? सादृश्यज्ञानस्य चोत्पत्तावयं क्रमः-पूर्व तावद गो-गवययोर्विषाणित्वादि सादृश्यं गवि प्रत्यक्षतः प्रतिपद्यते पश्चाद् गवयदर्शनानन्तरं 'यदेतद् विषाणित्वादि सादृश्यं पिण्डेऽस्मिन्नुपलभ्यते मया तद् गव्यप्युपलब्धम्' इति स्मरति तदनन्तरं गवि २५विषाणित्वादिसादृश्यप्रतिसन्धानं जायते 'अनेन पिण्डेन सदृशो गौः' इति । एवं च स्मार्तमेतद् ज्ञानं कथं प्रमाणान्तरं भवेत् ? यदि च गवि प्रत्यक्षेणोभयगतं विषाणित्वादिसादृश्यं प्रागे न प्रतिपन्नं १-तमप्र-बृ० वा. बा० विना। २ पृ. ५७४ पं० ९।। ३ "वचसा प्रतिबन्धो वा को बाह्येष्वपि वस्तुषु । प्रतिपादयतां तानि येनैषां स्यात् प्रमाणता ॥ भिन्नाक्षग्रहणादिभ्यो नैकात्म्यं न तदुद्भवः । व्यभिचारान्न चान्यस्य युज्यतेऽव्यभिचारिता" ॥ -तत्त्वसं० का० १५१३-१५१४ पृ. ४४० । ४ "शब्दानाम्"-बृ० टि०। ५-मवायाद-आ० हा० वि०। ६ “वस्वभावे"-बृ० टि। ७ “यत्र त्वेषामभीष्टेयं व्यक्तं तत्र त्रिरूपता । विवक्षायां तु साध्यायां त्रैलक्षण्यं प्रकाशितम् ॥ एवं स्थितेऽनुमानत्वं शब्दे धूमादिवद् भवेत् । त्रैरूप्यसहितत्वेन तादृग्विषयसत्त्वतः" ॥ -तत्त्वसं. का. १५२४-१५२५ पृ. ४४३ । ८ पृ. ५७६ पं० ९ । ९ पृ० ५७६ पं० ७ । “भूयोवयवसामान्ययोगः सादृश्यमस्ति चेत्"। -तत्त्वसं० का० १५४३ पृ. ४४७ ॥ १० “सामान्यानि निरस्तानि भूयस्ता तेषु सा कुतः"?।-तत्त्वसं० का० १५४४ पृ० ४४७ । ११ “एवं तु युज्यते तत्र गोरूपावयवैः सह । गवयावयवाः केचित् तुल्यप्रत्ययहेतवः ॥ तत्रास्य गवये दृष्टे स्मृतिः समुपजायते। असकृद् दृष्टपूर्वेषु गोरूपावयवेषियम् ॥" -तत्त्वसं.का. १५४७-१५४८ पृ०४४७॥ १२-ग प्र-आ० हा० वि० । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५८३ भवेत् प्रतिपन्नमपि यदि विस्मृतं भवेत् तदा गवयदर्शने सत्यपि परोक्षगवि नैव सादृश्यज्ञानमुपजायेत । अतो विषाणित्वादिसादृश्यं पूर्वमेव गवि प्रत्यक्षेणावगतमिदानीं गवयदर्शनात् तत्रैव स्मर्यते तन्न गृहीतग्रहणात् सादृश्यज्ञानं प्रमाणम् । अथ पूर्वप्रत्यक्षेण गोगतमेव सादृश्यमवगतं गवयदर्शनेन तु तद्गतमेव उभयगतसादृश्यप्रतिपत्तिस्तु गवयदर्शनानन्तरं सादृश्यज्ञाननिबन्धनेति अगृहीतग्राहितया प्रमाणमुपमानम्, असदेतत् पूर्वमुभयगतसादृश्याप्रतिपत्तौ गवयदर्शनानन्तरमप्यप्रतिपत्ते-५ स्तदनुसन्धानप्रतिपत्तेरप्यसंभवात् न हि गवयपिण्डदर्शनानन्तरं प्रागप्रतिपन्नतत्सादृश्येऽश्वपिण्डे 'अनेन सदृशोऽश्वः' इति प्रतिपत्तिः कदाचिदपि भवति । तस्मात् प्रागध्यक्षावगतसादृश्ये प्रतियोगिग्रहणाद् व्यवहारमात्रप्रवृत्तिरेव तदा, प्राक् तदप्रवृत्तिः प्रतियोग्यपेक्षत्वात् तस्य भ्रात्रादिव्यवहारवत् । न चं तावता प्रामाण्यं युक्तम् प्रमाणानामियत्ताऽभावप्रसक्तेः । एवं च धूमदर्शनात् स्मर्यमाणाग्निसम्बन्धितयाऽध्यक्षानवगतप्रदेशे तदयोगव्यवच्छेदमवगमयन्ती प्रतिपत्तिरुपजायमाना-१० नुमितिः प्रमाणतां यथा समासादयति न तथा सादृश्यप्रतिपत्तिः गवाख्यधर्मिप्रतिपत्तिकाल एव भूयोऽवयवसामान्ययोगलक्षणस्य सादृश्यस्य प्रतिपत्तेः । तेन 'प्रत्यक्षेऽपि यथा देशे' इत्यादि वचनमयुक्ततया व्यवस्थितम् । किञ्च, यदि सादृश्यज्ञानं गृहीतग्राहित्वेऽपि व्यवहारमात्रप्रवर्तनात् प्रमाण तर्हि वैसदृश्यज्ञानमपि सप्तमं प्रमाणं भवेत् । ___दृश्यात् परोक्षे सादृश्यधीः प्रमाणान्तरं यदि । वैधर्म्यमतिरप्येवं प्रमाणं किं न सप्तमम् ?” ॥ [ तथा सोपानमालामाकामतः प्रथमाकान्तं पश्चादाक्रान्ताद्दीर्घ महद् हवं चेत्याद्यने प्रमाणं प्रसक्तमिति कुतः प्रमाणपट्कवादः सङ्गतो भवेत् ? "दृश्यमानव्यपेक्षंचेद दृष्टज्ञानं प्रमान्तरम। तत्पूर्वमस्मादित्यादि प्रमाणान्तरमिष्यताम्" ॥ [ ] २० अप्रामाण्ये चास्य पक्षधर्मवाद्यभावप्रतिपादनं सिद्धसाधनमेव अप्रमाणस्यानुमानत्वानभ्युपगमात् । यदा च प्रत्यक्षेण प्रतियन्नपि गवावादी भूयोवयवसामान्ययोगं तद्वियोगं वा व्यामूढः सदृशासदृशव्यवहारं न प्रवर्तयति तदा विषयदर्शनेन विषयिणो व्यवहारस्य साधनात् त्रैरूप्यसद्भावादनुमानप्रमाणता समस्त्येव । तथाहि-गवावादी विपाणाद्यवयवसामान्ययोगस्तद्वियोगो वा प्रागुपलब्ध इदानीं स्मर्यमाण इति नासिद्धता हेतोः प्रवृत्तव्यवहारविपयश्च सर्व एवार्थोऽत्र दृष्टान्तोऽस्तीति नान्वयव्य-२५ तिरेकयोरप्यभावः । ततो 'न चैतस्यानुमानत्वम्' इत्यादि पक्षधर्मत्वाद्यसंभवप्रतिपादनमसंगतम् व्यवहारसाधने पक्षधर्मत्वादेः प्रसाधनात् ।। १-जायतेऽतो आ० हा० वि०।२ "विज्ञातार्थप्रकाशलान्न प्रमाण मियं ततः"-तत्त्वसं० का० १५५० पृ०४४८। ३ "व्यवहारस्य"-बृ.टि.। ४ "एतावता च लेशेन प्रमाणलव्यवस्थितौ । नेयत्ता स्यात् प्रमाणानामन्यथाऽपि प्रमाणतः" ॥ -तत्त्वसं० का० १५५६ पृ. ४४९ । ५ पृ० ५७६ पं० १८। ६-दृशज्ञा-ल० वा. बा० । "गवयस्योपलम्मे च तुरनादौ प्रवर्तते । तद्वसदृश्य विज्ञानं यत् तदन्यप्रमा न किम्"?॥ -तत्त्वसं० का० १५५९ पृ० ४५० । ७ तत्त्वसंग्रहे खन्यया भझ्योदाहृतमस्ति "तरुपतयादिसंदृष्टावेकपादपदर्शनात् । द्वितीयशाखिविज्ञानादाद्योऽसाविति निश्चयः॥ प्रमाणान्तरमासकं सादृश्याद्यनपेक्षणात् । गृहीतग्रहणानो चेत् समानमुपमाखपि ॥" -तत्त्वसं• का० १५५७-१५५८ पृ० ४५० । ८पृ० ५७६ पं० २५। ९ "प्रतिपद्यमानोऽपि"-बृ० ल. टि.। १०-द्वियोगे वा ल• आ० ।-द्वियोगं च वि०। ११ पृ० ५७७ पं०१। १२ मीमांसकसंमतोपमानप्रतिवादिन्येषा चर्चा उपमानस्य प्रत्यभिज्ञात्मतां स्थापयन्ती प्रमेयकमलमार्तण्डीयां चर्चामनुसरति-प्रमेयक. पृ. ९९ द्वि०पं०६-पृ० १००प्र० पं०६। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ द्वितीये काण्डेनैयायिकोपर्वर्णितमप्युपमानमनधिगतार्थाधिगन्तृत्वाभावात् प्रमाणं न भवति । तथाहि-यथा गौस्तथा गवय इति वाक्याद् गोसदृशार्थसामान्यस्य गवयशब्दवाच्यताप्रतिपत्तेः अन्यथा विसदृशमहिष्याद्यर्थदर्शनादपि 'अयं स गवयः' इति संज्ञासंशिसम्बन्धप्रतिपत्तिः किं न भवेत् ? तस्माद् यथा कश्चित् 'योऽङ्गदी कुण्डली छत्री स राजा' इति कुतश्चिदुपश्रुत्य अङ्गदादिमदर्थदर्शनात् 'अयं स ५राजा' इति प्रतिपद्यते । न चासौ प्रतिपत्तिः प्रमाणम् उपदेशवाक्यादेवाङ्गदादिमतोऽर्थस्य राजशब्दवाच्यत्वेन प्रतिपन्नत्वात् तथेहापि 'यथा गौस्तथा गवयः' इत्यतिदेशवाक्यात् सम्बन्धमवगत्य गवयदर्शनात् सङ्केतानुस्मरणे सति 'अयं स गवयशब्दवाच्योऽर्थः' इति प्रतिपत्तरप्रमाणमुपमानम् । यदि पुनरतिदेशवाक्यात् सम्बन्धप्रतिपत्ति भ्युपगम्यते पश्चादपि 'अयं स गवयशब्दवाच्यः' इति प्रत्ययो न स्यात् तदपरनिमित्ताभावाद दृश्यते च तस्माद गृहीतग्रहणान्नेदं प्रमाणम् । अथातिदेशवा१०क्यात् पूर्व गोसदृशार्थस्य गवयशब्दवाच्यता सामान्येन प्रतीता गवयदर्शनानन्तरं तु गवयविशेष तच्छब्दवाच्यत्वेन पूर्वमप्रतीतं प्रतिपद्यत इति न गृहीतग्राहिता, असदेतत्; सन्निहितगवयविशेषविषयस्य ज्ञानस्य प्रत्यक्षतयोपमानत्वानुपपत्तेः । गवयदर्शनोत्तरकालभावितु 'अयं स गवयशब्दवाच्योऽर्थः' इति यद् ज्ञानं तत् प्रत्यक्षवलोत्पन्नत्वात् स्मृतिरेव न प्रमाणम् । किश्च, गवयविशेषस्य गवयशब्दवाच्यता यद्यतिदेशवाक्यान्न प्रतिपन्ना कथं तर्हि गवयविशेषदर्शन उपजातेऽकस्मादस्य १५ तच्छब्दवाच्यतां प्रतिपद्यते ? यस्यैवार्थस्य सम्वन्धग्रहणकाले येन सह सम्बन्धोऽनुभूतस्तस्यैवार्थस्य तेन सह सम्बन्धे तच्छब्दवाच्यता कालान्तरेऽपि दृश्यते ततः सामान्येन सङ्केतकाल एव सम्बन्धः प्रतीतः पश्चाद गवयदर्शन उपजाते सङ्केतमनुसृत्य 'अयं स गवयशब्दवाच्योऽर्थः' इति प्रतिपद्यते इत्यभ्युपगन्तव्यम् । एतेन "उपयुक्तोपमानस्तु तुल्यार्थग्रहणे सति । विशिष्टविषयत्वेन सम्बन्ध प्रतिपद्यते" ॥[ इत्यपि निरस्तम् विशेषस्य सङ्केतकालानुभूतस्य व्यवहारकालाननुगमादवाच्यत्वाच्च । यश्च शब्दप्रभवप्रतिपत्तावर्थः प्रतिभाति स एव शब्दवाच्यः न च विशेषस्तत्र प्रतिभाति अक्षज्ञान इव विशदाभासस्य तत्रासंवेदनात् संवेदने वा विकल्परूपताविरहादर्थरूपस्यैवानुकारात् तस्य च शब्दसंसर्गविकलत्वात् तत्सामर्थ्यप्रभवे च ज्ञाने असतस्तत्र शब्दस्याप्रतिभासनान्न विशेषः शब्दवाच्यः या च 'अय २५मसौ गवयशब्दवाच्यः' इति विशेषस्य वाच्यताप्रतिपत्तिः सा दृश्यविकल्प(ल्प्य)योरेकीकरणाद् १ पृ० ५७७ पं० ११। २ "तत्रापि संज्ञासंबन्धप्रतिपत्तिरनाकुला । तस्यातिदेशवाक्यस्य तदैव श्रवणे यदि ॥ तथा परिगृहीतार्थग्रहणान्न प्रमाणता । स्मृतेरिवोपमानस्य करणार्थवियोगतः" ॥ -तत्त्वसं० का० १५६४-१५६५ पृ० ४५२ । ३-त् स योङ्गदी भा० मा० । ४ “अथ सा नैव संजाता तथापि प्रतिपद्यते । सोऽयं यस्य मया संज्ञा संश्रुतेति कथं तदा ॥ तथाह्यश्रुततत्संज्ञो गवयस्योपलम्भने । तन्नाम श्रुतमस्येति न ज्ञातुं कश्चन प्रभुः"॥ -तत्त्वसं० का० १५६६-१५६७ पृ. ४५२ । ५ इतः "उपयुक्तोपमानस्तु" इति पद्यपर्यन्ता चर्चा अविद्धकर्णसंमतेति कमलशील आह । तथाहि"अविद्धकर्णस्वाह-आगमात् सामान्येन प्रतिपद्यते विशेषप्रतिपत्तिस्तूपमानादिति । अतस्तन्मतमाशङ्कते xxx उपयुक्तोपमानश्चेत् तुल्यत्वग्रहणे सति । विशिष्टविषयखेन सम्बन्धमवगच्छति ॥ उपयुक्तमुपमानमतिदेशवाक्यं यस्य स तथोक्तः।xxx आगमाद्धि स संबन्धं वेत्ति सामान्यगोचरम् । विशिष्टविषयं तं तु विजानात्युपमाश्रयात्"॥ -तत्त्वसं. का० १५६८-१५६९ पृ. ४५२ । अस्य अविद्धकर्णमतस्य प्रतिविधानमपि चतसृभिः कारिकाभिः कृतं वर्तते तत्त्वसंग्रहे-का. १५७०-१५७३ पृ. ४५२-४५३ । ६ गोशब्दार्थस्य ल०। ७-जायते-आ० हा०वि०। ८ अनेन पद्येन समानभावं बिभ्राणा तत्त्व. संग्रहीया कारिका द्रष्टव्या-प्र. पृ० टि. ५। ९एक श-वा. बा० । १. "अर्थरूपस्य"-बृ. टि. । ११ "अर्थरूपसामर्थ्य"-बृ.टि.। १२-वाच्यो यथा यम-आ० हा०वि०। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५८५ भ्रान्तिः अन्यथा पूर्वानुभूतोकारपरामर्शन दृश्यमानस्य 'अयमसौ गवयशब्दवाच्यः' इति प्रतिपत्तिः कथं भवेत् अतिदेशवाक्यश्रवणसमये विशेष सम्बन्धाप्रतिपत्तेः ? प्रतिपत्त्यभ्युपगमे वा विशेषेऽपि सामान्यवत् स्मृतिरेवेति कुतः प्रामाण्यमुपमानस्य ? यदपि 'गौरिव गवयः' इति गो-गवययोरतिदेशवाक्यात् सादृश्यमात्रप्रतिपत्तिः 'संज्ञासंशिसम्बन्धप्रतिपत्तिस्तूपमानात्' तदप्यसमीक्षिताभिधानम्, यतो गवयदर्शनानन्तरम् 'अयं स गवयशब्दवाच्यः' इति प्रतिपत्तिरुपजायते इयं च नाध्यक्षप्रतिप-५ त्तिफलम् अश्रुतातिदेशवाक्यस्य प्रभ्रष्टसंस्कारस्य वा तत्सद्भावेऽप्यस्यानुत्पत्तेर्विशेषशब्दवाच्यत्वस्याध्यक्षविषयत्वानभ्युपगमाच्च । अतिदेशवाक्यस्मरणसहायस्य गवयदर्शनस्य तत्प्रतिपत्तिजनकत्वे स्मर्यमाणमतिदेशवाक्यमेव तजनकमभ्युपगतं भवेन्न दर्शनम् न हि यत्राध्यक्षमप्रवृत्तिमत् तत्र शब्दस्मरणसहितमपि प्रवर्तते यथा चक्षुर्ज्ञानं गन्धस्मरणसहायं परिमलप्रतिपत्तौ अतिदेशवाक्याच्च सम्बन्धाप्रतिपत्तावपरस्य तत्प्रतिपत्तिनिमित्तस्याभावात् 'अयं स गवयशब्दवाच्यः' इति पूर्वानुभूतपरा-१० मर्शन प्रतिपत्तिर्न स्यात् अपि तु 'अयं गोसदृशः' इत्येवं भवेत् । न चैतत्प्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्यैव ' प्रमाणान्तरमुपमाख्यमेतत्प्रतिपत्तिजनकं प्रकल्पनीयम् 'यः कुण्डली स राजा' इति श्रुतातिदेशवाक्यस्य तदर्शनानन्तरम् 'अयं स राजशब्दवाच्यः' इति प्रतिपत्तेरप्युपमानफलत्वप्रसक्तेः । अथात्र तेच्छब्दवाच्यता अतिदेशवाक्यादेव प्रतिपन्नेति नातिप्रसक्तिस्तर्हि 'गौरिव गवयः' इत्यतिदेशवाक्याद् गोसदृशस्यार्थस्य गवयशब्दवाच्यताऽपि प्रतिपन्नेति नोपमानप्रमाणफलता 'अयं स गवयश-१५ ब्दवाच्यः' इति प्रतिपत्तेः । तस्मात् स्मृतिरूपत्वादस्याः प्रतिपत्ते तस्या जनकस्य प्रमाणतेति अनुमानानन्तर्भावप्रतिपादनं न दोषायेत्यलमतिविस्तरेण । ___ अर्थापत्तेस्तु षट्प्रकारायाः 'प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रसिद्धोऽर्थो येन विना नोपपद्यते तस्यार्थस्य प्रकल्पनमापत्तिः' इति लक्षणं नोपपत्तिमत् यतोग्नेर्दाहकत्वेन विनाऽग्नित्वं नोपपद्यत इति तदा दाहकत्वं परिकल्प्यते यदि तयोः कश्चित् संवन्धो भवेत् असति च तत्र सत्यप्यग्नौ दाहकत्वस्याभावः२० असत्यपि च भाव इति कथं दाहकत्वमन्तरेण वढेरभावसिद्धिरिति दाहकत्ववदाहकत्वमपि कल्पनीयं स्यात् । अतः सम्बन्धे निश्चिते सति एकमविनाभूतं सम्बन्धिनमुपलभ्य द्वितीयस्य सम्बन्धिनः प्रकल्पना युक्तिमती । एवं च प्रकल्पने अनुमानत्वमेव सम्बन्धनिश्चयपूर्वकत्वाद्' एकस्माद् द्वितीयपरिकल्पनस्य कृतकत्वदर्शनपूर्वकाऽनित्यत्वानुमानवत् । सम्बन्धश्चार्थापत्तिप्रवृत्तेः प्रागेव तयोः प्रतिपत्तव्यः । एवं ह्यापत्त्युत्थापकस्यार्थस्यानन्यथाभावोऽर्थापत्तेराश्रयः सिद्धो भवेत् । अथ २५ प्रकल्प्यमानार्थानन्यथाभवनमर्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्य तदैव सिद्धमित्यनुमानादापत्तेर्भेदः, ननु यदि तस्यानन्यथाभवनं प्रमाणान्तरात् प्रतिपन्नमर्थापत्तेराश्रयस्तदाऽनुमानेऽन्तर्भावः अथ न सिद्धं तदा नार्थापत्तिप्रवृत्तिरतिप्रसङ्गादित्युक्तम् । अथार्थापत्तिरेव प्रकल्प्यानन्यथाभवनं दृष्टस्य श्रुतस्य वार्थस्य प्रकल्पयति तींतरेतराश्रयत्वम्-अनन्यथाभवनसिद्धौ तस्यार्थापत्तिप्रवृत्तिः तत्प्रवृत्तेश्च तस्यानन्यथाभवनप्रसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । ततस्तादात्म्य-तदुत्पत्तिप्रतिबन्धलक्षणान-३० न्यथाभवननिश्चयमन्तरेणान्यतरः सम्बन्धी अन्यतोऽर्थादर्थापत्त्या प्रकल्पयितुं न शक्यत इत्यन्वयव्यतिरेकसिद्धिः । पक्षधर्मता त्वर्थापत्तिसमाश्रयोऽर्थो यत्र धर्मिणि प्रमाणतो निश्चीयते तत्रैव स्वप्रकल्प्यं प्रकल्पयतीति न दुरुपपादा कारण-व्यापकयोरेव प्रतिबन्धात्तयोश्चान्यत्र सद्भावे कार्य-व्याप्ययोरपरत्रासंभवात् । एवमर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावात् तल्लक्षणमनुमानलक्षणात् पृथगयुक्तम् । प्रत्यक्ष १-तानाका-आ०। २“गवयसद्धावे"-बृटि०। ३ "राज"-बृ.टि.। ४ "उपमामानविचारः"-बृ० टि.। प्रमेयकमलमार्तण्डे नैयायिकसंमतमुपमानं प्रतिविदधत्येषा चर्चा भगीभेदेन दृश्यते-पृ० १०. प्र. पं०७-1 ५पृ० ५७९पं०१६-पर्विकानि-वा० बा०।-पूर्वकनि-बृ० आ० हा० वि०। ७"अोपत्तिप्रवृत्तिकाले"बृ.टि.। ८ प्रपन्न-वा. बा०। ९सिद्धः त-बृ०। १०-स्य चा-वा० बा० भां० मा० । ११ "तत्र शक्कातिरेकेण न शक्तिर्नाम काचन । याऽर्थापत्त्याऽवगम्येत शक्तश्चाध्यक्ष एव हि ॥ दाहादीनां तु यो हेतुः पावकादिः समीक्ष्यते । असंशयाविपर्यासं शक्तिः कान्या भवेत् ततः ॥ व्यतिरिके तु कार्येषु तस्या एवोपयोगतः । भावोऽकारक एव स्यादुपयोगे न भेदिनी ॥ अर्थक्रियासमर्थ हि खरूपं शक्तिलक्षणम् । एवमात्मा च भावोऽयं प्रत्यक्षाद् व्यवसीयते" ॥ -तत्त्वसं० का० १६०७-१६१० पृ० ४६१ । ७५स. १० Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे पूर्विका त्वर्थापत्तिर्योदाहता सा प्रमाणमेव न भवति स्मृतिरूपत्वात् न हि पावकादन्यैव दाहकशक्तिर्याऽर्थापत्तिसाध्या स्यात् । वह्निस्वरूपमेव दाहादिककार्यनिर्वर्तनसमर्थ शक्तिव्यपदेशमासादयति अध्यक्षेण च तत्स्वरूपं प्रतियता तदव्यतिरिक्ता शक्तिरपि प्रतिपन्नैव न हि कार्रणभावादन्या भावानां शक्तिः । स च कार्यात् प्राग्भाव एव । अन्वयव्यतिरेकौ च प्रत्यक्षानुपलम्भगम्यौ तौ ५च विशिष्टमेव प्रत्यक्षमिति प्रत्यक्षावगतत्वाच्छक्तेर्नार्थापत्तिविषयता । न च शक्तिः शक्तादन्यैव 'अस्येयं शक्तिः' इति सम्बन्धाभावप्रसक्तेः उपकारकल्पनायामनवस्थादिदोषात् व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तशक्तिप्रकल्पनायामपि विरोधादिदूषणं प्रतिपादितमेव । तन्न प्रत्यक्षपूर्विकाया अर्थापत्तेरुदाहरणं युक्तम् । अत एव 'चतसृभिरर्थापत्तिभिः प्रत्यक्षादिप्रसिद्धस्यार्थस्य शक्तिः साध्यते' इत्ययुक्तमुक्तम् वह्निरूपादिदर्शनाद् दाहकशक्तियुक्तवस्तुसाधनेऽभ्युपगम्यमाने चार्थापत्तिरनुमानमेव भवेत् । विशिष्ट१० रूपाद् विशिष्टस्पर्शानुमानाद् देशान्तरप्राप्त्या सवितुर्गन्तुरनुमानादनुमानपूर्विकार्थापत्तिरनुमानमेव । अर्थापत्तिपूर्विका चार्थापत्तिरनुमितानुमानम् अर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावात् । यनूदाहरणम्-'शब्दस्यार्थेन सम्बन्धसिद्धेरान्नित्यत्वसिद्धिः' इति, तदयुक्तम्। पौरुषेयाणामपि हस्तसंज्ञादीनां सङ्केतसम्बन्धादर्थप्रतिपादनसामोपलब्धेः । नित्यस्य क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् कस्यचिद् भावस्यासंभवात् कथमर्थापत्त्या सम्बन्धस्य नित्यत्वं साध्येत? चक्षुरादिज्ञानान्यथानुपपत्त्या लोच१५ नादिप्रतीतिस्त्वनुमानमेव । तथाहि-येषु सत्स्वपि ये कादाचित्काः परिदृश्यमानकारणव्यतिरिक्तकारणान्तरसापेक्षास्ते यथाऽङ्कुरादयोऽसमग्रसामग्रीकाः कादाचित्कं चेदं रूपालोकमनस्कारादिषु सत्वपि चक्षुर्ज्ञानमिति स्वभावहेतुः । न चैवं धर्म्यसिद्धिः ज्ञानस्यैव धर्मित्वात् । अत्र यत् तत्कारणं तचू चक्षुरिति व्यवहियते । न चैतत्प्रतिपत्तिविषयस्य चक्षुषः स्वलक्षणत्वात् कथमस्याः प्रतिपत्तेरनुमानतेति वक्तव्यम् स्वलक्षणस्य चक्षुरादेरस्यां प्रतिपत्तावप्रतिभासनात् तत्र शास्त्रकृतां विप्रतिपत्ति२० दर्शनात् तत्सद्भावे तस्यायोगात् । उपमानस्य चाप्रमाणत्वात् तत्पूर्विकाऽर्थापत्तिःप्रमाणत्वेन दूरापास्तैव । याँऽपीयमभावपूर्विकार्थापत्तिः साऽपि न प्रमाणान्तरम् । तथाहि-देवदत्तो धर्मी बहिर्भावस्तस्य साध्यो धर्मः गृहासंसृष्टजीवनं हेतुः । एवंविधस्य गृहासंसृष्टजीवनस्य साध्येन व्याप्तेः खात्मन्येव निश्चयादनुमानमेव । कथं पुनर्देवदत्तस्यानुपलभ्यमानस्य जीवनं सिद्धं येन हेतुर्भवेदिति चेत्, न; भवदभ्युपगमेन सिद्धमङ्गीकृत्य हेतुत्वेनोपन्यासात् परमार्थतस्तु सन्दिग्धमेव यतो युष्माभि२५रप्यसिद्धेनैव जीवनेन बहिर्भावः साध्यत इति समानता न्यायस्य । श्रुतार्थापत्तिरपि प्रमाणं न भवति। १पृ. ५७९ पं० २। २-हश-भां. मां. विना। ३-दिका-बृ. ४-मर्थश-बृ. हा. वि.। ५-तिनियता ल०। ६-रणाभा-ल०। ७ पृ. ५७९ पं०१०। ८० ५७९ पं०४। ९पृ.५७९ पं०८। १० "अनन्यस्ववियोगेऽपि शब्दानां न विरुध्यते । अर्थप्रत्यायनं यद्वत् पाणिकम्पादिकारणम्" ॥ -तत्त्वसं० का० १६३५ पृ० ४६७ । ११-त्वादत्र यत्र यत्का-भा० मां०। १२ तत् बृ० । अत्र न्यस्तोऽयं द्वितीयोऽङ्कः 'तत् तत्' इति वीप्सासूचको भाति। १३ "उपमायाः प्रमाणत्वे विस्तरेण निराकृते । अर्थापत्तेस्तदुत्थाया वारितैव प्रमाणता" ॥ -तत्त्वसं० का० १६३२ पृ. ४६७ ॥ १४ पृ. ५७९ पं०९। १५ “तदापि गेहायुक्तलं दृष्ट्याऽदृष्टेर्विनिश्चितम् । अतस्तत्र बहिर्भावो लिङ्गादेवावसीयते ॥ सद्मना यो ह्यसंसृष्टो नियतं बहिरस्त्यसौ। गेहाङ्गणस्थितो दृष्टः पुमान् द्वारि स्थितैरिव ॥ विपक्षोऽपि भवत्यत्र सदनान्तर्गतो नवः । अर्थापत्तिरियं तस्मादनुमानान्न भिद्यते" ॥ -तत्त्वसं० का० १६४५-१६४७ पृ. ४७० Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । तथाहि-पीनो देवदत्तो दिवा न भुते' इत्येतद्वाक्यं स्वार्थप्रत्यायनद्वारेण रात्रिभोजनवाक्यान्तरमुपकल्पयतीत्यभ्युपगमः । न च स्वार्थमेतत् प्रतिपादयति बहिरर्थे शब्दानां प्रतिबन्धाभावतः प्रामाण्यानुपपत्तेः । अथ कुतश्चित् प्रमाणाद् दिवाभोजनप्रतिषेधे भोजनकार्यस्य पीनताविशेषस्य प्रतिपत्तिर्न तर्हि श्रुतार्थापत्तिर्भवेत् कार्यतो रात्रिभोजनकारणप्रतिपत्तेरनुमानेऽन्तर्भावात । वाक्याद वाक्यान्तरप्रतिपत्तिस्त्वयुक्तैव तेन सह वाक्यस्य प्रतिबन्धासंभवात् न हि दिवाभोजनप्रतिषेध-५ वाक्यस्य रात्रिभोजनवाक्येन कश्चित् कार्यकारणभावादिकः सम्बन्धः संभवतीत्युक्तम् । तेन्नार्थापत्तिः प्रमाणान्तरम् । अभावाख्यं तु प्रमाणं त्रिप्रकारम्-'प्रमाणपञ्चकाभावः तदन्यज ज्ञानम आत्मा वा ज्ञानविनि । तत्राद्यस्य तावत् पक्षस्यासंभव एव यतः प्रमाणपञ्चकाभावो निरुपाख्यत्वान्न किश्चितः स कथं प्रमेयाभावं परिच्छिन्द्यात् परिच्छित्तेनिधर्मत्वात् ? अथ प्रमाणपश्चकाभावो १० वस्त्वभावविषयज्ञानं प्रमाणं जनयन्नुपचाराभावाख्यं प्रमाणमुच्यते; नन्वेवमपि प्रमाणपश्चकाभावस्यावस्तुत्वाद् अभावज्ञानजनकत्वायोगात् प्रमाणत्वमनुपपन्नम् । तथाहि-वस्त्वेव कार्यमुत्पादयति नावस्तु तस्य सकलसामर्थ्यविकलत्वात् सामर्थ्य वा तस्य भावरूपताप्रसक्तेः तथा चाभावाद भवति ज्ञानमिति 'भावान्न भवति' इति हेतुप्रतिषेध एव तस्य कृतः स्यात् एवं च देशकालादिप्रतिनियमो न स्यात् । अपि च "शब्दस्य वृत्तेः सर्वत्र पञ्चानामपि न क्वचित् । प्रमाणानामभावोऽतो नार्थाभावविनिश्चयः॥ अगृहीतान्न चाभावात् प्रमेयाभावनिर्णयः। तहहोऽप्यन्यतो भावादनवस्था दुरुत्तरा॥ मेयाभावात् प्रमाभावनिर्णयेऽन्योन्यसंश्रयः। मेयाभावात् प्रमाणस्य तस्मात् तस्य विनिर्णयात् ।। अज्ञातस्यापि चाक्षस्य प्रमाहेतोः प्रमाणता। प्रमाभावस्त्वसामर्थ्यान्नाज्ञातोऽभाववेदकः" ॥ [ द्वितीयपक्षे तु यत् तदन्यज्ञानं प्रत्यक्षमेव तत् प्रमाणम् पर्युदासवृत्या च तदेवाभावप्रमाणशब्दवाच्यतामनुभवति । तथाविधेन च तेन तदन्यंभावलक्षणो भावः परिच्छिद्यत एव । यत् पुनः 'इह २५ घटो नास्ति' इति ज्ञानं तत् प्रत्यक्षसामर्थ्यप्रभवत्वात् स्मृतिरूपतामासादयन्न प्रमाणम् । तयो हि सकलत्रैलोक्यव्यावृत्तपदार्थसामोद्भूततदाकारदर्शनानन्तरं विकल्पद्वयम् ‘इमत्रास्ति' 'इदं नास्ति' इति दर्शनसामर्थ्यभावि तद्गृहीतमेवार्थमुल्लिखदुपजायते । तत्र दर्शनमेव भावाभावयोः प्रतिपादकत्वात् प्रमाणं न तु विधिप्रतिषेधविकल्पो गृहीतग्राहित्वात् अन्यभावलक्षणस्य भावाभावस्याध्यक्षेणैव सिद्धत्वात् । व्यवहार एवान्योपलब्ध्याऽपि साध्यते स्वयमेव वा 'नास्तीह घटः' इति विकल्पयति न३० च तावता प्रमाणान्तरत्वं यथादृष्टस्यैव विकल्पनात् । सकल त्रैलोक्यव्यावृत्तस्वरूपस्याध्यक्षण ग्रहणेऽपि य एव निराकर्तुमिष्टो घटादिकोऽर्थः स एव व्यवच्छिद्यते नान्यः तेन 'न प्रत्यक्षेण घटादी १ "पीनो दिवा न भुङ्क्ते चेत्यस्मिन्नर्थे न निश्चयः । द्वेषमोहादिभिर्योगादन्यथाऽपि वदेत् पुमान् ॥ अर्थगत्यनपेक्षेण यदि वाक्यान्तरं पुनः । सार्थमाक्षिप्यते तेन स्यादाक्षेपो वचोन्तरे ॥ अथोपगमरूपेण तत्रार्थगतिरिष्यते । प्रमाणान्तरतो यद्वा भवत्वर्थगतिस्ततः” । -तत्त्वसं० का० १६२०-१६२२ पृ. ४६४ । २ "पीनताविशेषरूपात्"-बृ० टि.। ३-न्धाभावा-भां० मां०। ४ अर्थापत्तेः पृथक्प्रमाणतां प्रतिविदधाना अनुमाने च तस्या अन्तर्भावं समर्थयमाना सविस्तरा चर्चा प्रमेयकमलमार्तण्डे स्याद्वादरत्नाकरे च दृश्यते-पृ० ५० प्र० पं. १०-पृ. ५४ । पृ० २८३ पं० २२-पृ० ३०९ पं० २२ आ० । ५ अभावस्य प्रामाण्यं प्रतिक्षिपन्ती विस्तरयुता चर्चा तत्त्वसंग्रहे मार्तण्डे न्यायमचर्याम् रत्नाकरे च विद्यते-तत्त्वसं. का. १६६०-१६९१ पृ. ४७४-४८२ । प्रमेयक० पृ. ५४ प्र. पं०८-पृ. ५७ द्वि. पं० १४ । न्यायमज आ० १ पृ. ५१५०१०-पृ. ५४ पं० ७ । स्याद्वादर. पृ. ३१० पं० १-पृ. ३१३ पं० १० आ०। ६ पृ. ५८०५०२। ७-न्यजू शा-बृ० सं०। ८-न्यताभाव-बृ०। ९ स्मृत्या"-बृ० टि०। १०-माभा-आ० हा० वि०। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ द्वितीये काण्डेनामभावो गृह्यते तस्याभावविषयत्वविरोधात् नाप्यनुमानेन हेत्वभावात्' इत्यादि यदुक्तं तनिरस्तं द्रष्टव्यम् । तृतीयपक्षस्य पुनरसंभव एव आत्मनोऽभावात् भावेऽपि तस्य ज्ञानाभावे कथं वस्त्वभावावेदकत्वम् वेदनस्य ज्ञानधर्मत्वात् शानविनिर्मुक्तात्मनि च तस्याभावात् । अथ "चैतन्यं पुरुषस्य खरूपम्" [ ] इति वचनात् तस्यैतद्रूपतेष्यते तर्हि ज्ञानविनिर्मुक्त इति न वक्तव्यम् ५स्वरूपहानिप्रसक्तेः पुरुषस्यैव च प्रत्यक्षादिप्रमाणत्वं भवेद् बोधरूपत्वात् । अभ्युपगम्यत एवेति चेत् तर्हि बुद्धिजन्म प्रत्यक्षमिति न वक्तव्यम् । ततः प्रमाणपञ्चकाभावो ज्ञानविनिर्मुक्तात्मलक्षणश्चाभाव: प्रमाणं न भवति तदन्यज्ञानलक्षणश्चाभावः प्रत्यक्षमेवेति न प्रमाणान्तरमभावः । यच्च अमावस्य प्रागभावादिभेदतश्चातुर्विध्यं वस्तुस्वरूपत्वं च प्रतिपादितम् तदसङ्गतमेव यतः स्वस्वभावव्यवस्थितयः सर्व एव भावा नात्मानं परेण मिश्रयन्ति तस्यापरत्वप्रसक्तेः । न चान्यतोऽव्यावृत्तस्वरूपाणामेषां १० भिन्नोऽभावांशः संभवति तद्भावे वा तस्यापि पररूपत्वाद् भावेन ततोऽपि व्यावर्तितव्यमित्यपराभावपरिकल्पनयाऽनवस्थाप्रसङ्गतो न कुतश्चिद् भावेन व्यावर्तितव्यमिति द्रव्यमेकं विश्वं भवेत् ततश्च सहोत्पत्त्यादिप्रसङ्गः परभावाभावाच्च व्यावर्तमानस्य भावस्य पररूपताप्रसक्तिरिति पूर्वोक्त एव दोषः। न चेतरेतराभावात्मकत्वे भावानां घटाभावात्मकात् कटाद् व्यावर्तमानः पटो यथा न घटस्तथा परभावाभावादपि निवर्तमानस्य तस्य न पररूपतेति वक्तव्यम् यतो नास्माकं घटात् पटो भिन्नः १५कटलक्षणाभाववशात् यतो निवर्तमानस्य ततस्तस्य घटरूपताप्रसक्तिर्भवतामिव अपि तु स्वस्वभाववशात् परस्परतो भेदमनुभवन्ति भावा इत्युक्तं प्राक् तेन खत एव घटाभावरूपः पटःन पुनर्वस्तुभूताभावांशवशात् येन भवतामिव ततो व्यावर्तमानस्य तस्य पररूपताप्रसक्तिर्भवेत् । स्वभावादपि परगतादस्य निवृत्तेः न पररूपतेति चेत् न, उभयतो व्यावृत्तस्यापि यथा परस्य पररूपताऽभ्युपगता तथाऽस्यापि स्यात् उभयरूपता वा स्यात् ततो निवर्तमानो भावः स्खेनैव रूपेणान्यतो निवर्तते २० नाभावांशवशादिति कुतोऽस्मत्पक्षसमानताप्रसक्तिः? यदि पुनरस्मदभ्युपगत एव न्यायोऽभ्युप गम्यते तदाऽसदंशप्रकल्पनमनर्थकमासज्येत । न च सदंशासदंशयोरात्यन्तिकमेदाभावान्नायं दोषः 'धर्मयोर्भेद इष्टो हि' इत्यादिवचनतस्तयोर्भेदाभ्युपगमात् आत्यन्तिकमेदस्य च परस्य क्वचिदनिष्टेः। "सणदव्यरूपेण पाटेकतेष्यते। खरूपापेक्षया चैषां परस्परं विभिन्नता" ॥ [ श्लो० वा० अभावप० श्लो० २४] २५ इति वचनात् । एवं चात्यन्तिकस्य क्वचिदपि भेदस्याभावादभावरूपता भावानामन्योन्यं न सिद्धयेदित्यन्योन्याभावाभाव एव । एवं कारणे कार्याभावः कार्यात् कारणाच्च भेदात् तद्वयादपि व्यावर्तमानोऽपरापराभाववशाद् व्यावर्तत इत्युभयतोऽनवस्थालतां निरवसानामातनोति तथा कार्ये कारणाभावश्च । अथ कार्यादीनामभावः कारणाद्यात्मकः स्वभावेनैव कार्यादिरूपविकलतया भिद्यते ततो नान्याभाववशादेवं कार्यात्मा कारणादीनामभावोऽपि; नन्वेवं कारणादयोऽपि कार्यादिभ्यः ३०स्वभावेनैव मेत्स्यन्त इति किमपराभावाशपरिकल्पनया? अत एव "कार्यादीनामभावः को भावो य: कारणादि न" इत्यपि सङ्गतं स्यात् कारणादेरेव स्वरूपस्य पर्युदासवृत्त्या कार्याद्यभावशब्दवाच्यत्वात् तस्य च कारणादिस्वरूपस्याभावस्य वस्तुरूपताऽस्माकमिष्टैव । प्रागभावादेश्च कारणादिभावरूपतया कारणादिविभागतो व्यवहारो लोकस्याप्येवं सिद्ध एव । अनुवृत्तिव्यावृत्तिबुद्धिग्राह्यत्वात् तत्स्वभावो गवादिवदित्यत्रापि हेतुरसिद्धः साधनविकलश्च दृष्टान्तः अबाधितानुवृत्तिव्यावृत्तिबुद्धिग्राह्यत्वस्य १पृ० ५८० ५० १०-१५। २ पृ. ३०७ पं० १४ टि० ८। ३-द्रपं नेष्य-आ० हा० वि०। ४ पृ.५८१ पं०१ तथा पृ. ५८० पं० २०। ५भिन्नो भा-बृ० विना०। ६ “भिन्नाभावांश"-बृ० टि०। ७-भावाभावाबृ० । अत्र '६-१' इत्यङ्केन 'भावस्य अभावात्' इति षष्ठीतत्पुरुषः सूच्यते इति भाति । ८-त्मकत्वात् बृ० । ९-वादपि वा. बा.। १०-त् स्वाभा-वा० बा० भां० मा०। ११-रस्पररू-बृ० ल. विना। १२ पृ. ५८१५०३२ । १३-स्परवि-भां० मा०। १४ पृ. ५८० पं० २६ । १५ “अनुवृत्तव्यावृत्तखभाव"-बृ० ल.टि.। १६ पृ०५८. पं०३०। १७ “सौगतानां गवादावप्यनुवृत्तिव्यावृत्तिबुद्धिग्राह्यवस्या सिद्धेः"-बृ० ल.टि.। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५८९ कचिदप्यसिद्धः। वस्तुनः सर्वस्य सकलसजातीयविजातीयव्यावृत्तत्वात् सामान्येन तत्साधने केशोन्दुकादिभिरनेकान्तः प्रतिबन्धाभावतः सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकश्च हेतुः कल्पनासमारोपितस्य च वस्तुत्वसाधनेऽभ्युपगमबाधः । 'प्रमेयत्वाञ्च' इत्ययं पुनरनैकान्तिको हेतुः प्रसज्यरूपेणाभावेन तस्यापि प्रमाणतः कथञ्चिद्विषयीकरणात् । न च तुच्छरूपस्याभावस्याभावान्नायं दोषः यतो यदि प्रमाणतस्तस्याभावोऽवसीयते कथं न तस्य प्रमेयत्वं तस्याभावरूपतया प्रमाणेन विषयीकरणात् १५ अथ न प्रमाणतस्तस्य विषयीकरणं कथमप्रमाणकं वच उच्यमानं शोभेत? तुच्छरूपस्य चाभावस्यानभ्युपगमे प्रागभावादयोऽपि वस्तुरूपा अभ्युपगता न सिध्यन्ति पर्युदास एवैको मअर्थश्च स्यात् सोऽपि वा न भवेत् कस्यचिदनिवर्तनादित्युक्तं प्राक् । क्षीरादिस्वरूपश्च यदि दध्यादीनां प्रागभावादिस्तदा सिद्धसाध्यता । अथ ततो भिन्नोऽसावसदंशस्तदाऽनवस्थादिदोषतोऽयुक्त इति "क्षीरे दध्यादि यन्नास्ति" इत्यादि प्रागभावादिखरूपप्रतिपादनमयुक्तम् । यदपि "क्षीरे दधि भवेदेव" इत्याद्यभिधा-१० नेम् तदप्यसङ्गतम् यतो यदि नाम तत्प्रतिपादकं प्रमाणं न प्रवृत्तं तथापि कथं क्षीरादिषु ध्यादिसद्भावः तद्भावस्य कारणायत्तत्वात् ? तदसत्त्वग्राहकप्रमाणाभावाद्धि तदसद्व्यवहारनिवृत्तिमात्रकमेव स्यान्न तत्र दध्यादिसद्भावः । निरंशैकभावरूपत्वे च पदार्थस्य "स्वरूप-पररूपाभ्यां नित्यम्" इत्यादि सर्व निरस्तम् । यच्च 'यस्य यत्र यदोद्भूतिः' इत्यादि 'उद्भवाभिभवात्मत्वात्' इति च तत्र सदसदंशयोः सत्त्वेऽपि स्वत एव याद्भवाभिभवौ तदा अपरनिमित्तानपेक्षणात् सर्वदैव स्याताम् न ह्यनि-१५ मित्तस्य कस्यचित् कदाचिदुद्भवोऽपरस्य चाभिभवो युक्तः । न चैकाभिभवनिमित्तोऽपरस्योद्भवस्तदुद्भवनिमित्तो वा परस्याभिभवः इतरेतराश्रयप्रसक्तः । अभिभवश्च स्वरूपखण्डनम् तच्च विनाशः स चाहेतुक इति नोद्भवनिमित्तोऽभिभवः विनाशस्य च सर्वसामर्थ्य विकलतया कथमभिभवनिमित्तोऽ. परस्योद्भवः? न चाभिभवावस्थायामनुपलब्धस्य तस्यैवोद्भवावस्थायामुपलम्भः सिद्धो येनोद्भवाभिभवव्यवस्था भवेत् । न च प्रत्यभिज्ञानादेकत्वसिद्धर्नायं दोपः असदर्थग्राहितया तस्य भ्रान्तत्वात् । न २० च धर्मिणः सर्वदाऽवस्थानात् तदाहितया प्रत्यभिज्ञानस्य नायं दोषः तस्याप्याद्यदर्शनेनोद्भुतस्वभावतयोपलभ्यमानस्य पुनरनुपलम्भपूर्वकमुपलब्धस्यानुपलम्भसमयेऽसतः-अन्यथा तदाप्युपलम्भप्रसङ्गात्-यत् प्रत्यभिज्ञानं तस्यासद्विषयतया भ्रान्तत्वानतिक्रमात् । न चावस्थाव्यतिरिक्तोऽवस्थाता सिद्धः उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तस्यानुपलम्भात् अनुपलभ्यस्वभावत्वे वा कुतस्तस्य प्रत्यभिज्ञानम् ? अव्यतिरिक्तश्चेदवस्थाविनाशे तस्यापि विनाशप्रसङ्गः अविनाशे विरुद्धधर्मसंसर्गादवस्थाभ्यस्तस्य २५ मेदः अन्यत्रापि तस्य तन्मात्रनिबन्धनत्वात् । यथा च प्रत्यभिज्ञान प्रमाणं तथा प्रतिपादितमेव न पुनरुच्यते । तदेवमभावस्य प्रमेयासंभवात संभवेऽपि तस्यार्थक्रियासामर्थ्यविकलतया विज्ञानजननायोगान्न तबाहकमभावाख्यं प्रमाणं संभवतीति स्थितम्।। एतेन संयुक्तविशेषणभावादभावग्राहीन्द्रियार्थसन्निकर्षजमध्यक्ष नैयायिकप्रकल्पितमपि व्युदस्तम् । तथाहि-तत तावदनिमित्तं न भवति कादाचित्कन्वात् । नाभावनिमित्तं तस्याजनकत्वात् ।३० जनकत्वेऽपि तस्यानाधेयातिशयतया सहकार्यपेक्षाऽयोगात् सर्वदा तज्ज्ञानजननप्रसक्तेस्तज्ज्ञानस्यैव सद्भावो भवेत् । सहकार्याधेयातिशयत्वे वाऽभावस्य भावरूपता भवेत् विशेषप्रतिलम्भलक्षणत्वाद भावस्य । पर्यदासरूपस्य तस्याभ्युपगमाददोपश्चेत, नः स्वसिद्धान्तविरोधात् तथापि तथाभूतस्य तस्याभ्युपगमे प्रतिषेध्यविविक्तप्रदेशादिरूपतैव तस्याभ्युपगता भवेत् प्रदेशादिश्च प्रथमाक्षसन्निपातजाध्यक्षप्रतिपन्न एवेति गृहीतग्राहितया कथं तदनन्तरभाविनः स्वतन्त्रस्याध्यक्षान्तरस्य पृथक् प्रामा-३५ ण्यम् अभावविषयत्वं वा भवेत ? तस्मात प्रसज्यप्रतिषेधरूपतैवाभावस्याभ्युपगन्तव्या तस्य च तथाभूतस्य घटादिना सम्बन्धाभावात् 'घटस्याभावः' इति कथं घटविशेष्यता? घटेनाविशेषणे च 'घटो नास्ति' इति न प्रतीतिर्भवेत् अपि तु 'अभावोस्ति' इत्येवं प्रतिपत्तिः स्यात् एवं च घटस्यानिवर्तनान्न किंचित् कृतं स्यात् । न चाभावः प्रदेशादेर्विशेषणं संभवति भावाभावयोः सम्बन्धाभावात् । न 'तावत् तादात्म्यलक्षणस्तयोः सम्बन्धः अन्योन्यव्यवच्छेदरूपत्वात् उपकार्योपकारकभावाभावाच्च । न४० १पृ. ५८०५०३०। २-पस्याभावान्ना-बृ० वा. बा. हा०। ३-स्य वा-भां० मा०। ४ पृ. ५८१ पं० २। ५पृ० ५८१५०१०। ६ पृ. ५८१ पं० १९ । पृ० ५८१ पं० २१। ८पृ० ५८१ पं०३३ । -मूत_नि-वृ० ल• वा. बा. विना । १०-च्छेद्यरू-भां० मा० । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० द्वितीये काण्डे-- तदुत्पत्तिलक्षणः । न चापरसम्बन्धमन्तरेण तयोर्विशेषणविशेष्यभावः सम्भवत्यतिप्रसङ्गात् । न चैतत्प्रतीतिसामर्थ्यादेवाभिप्रेतसम्बन्धप्रकल्पना प्रतीतेरन्यथापि सिद्धेः । तन्नाक्षस्य संयुक्तविशेषणभावादेतत्प्रतिपत्तिजनकत्वं युक्तम् । किञ्च, 'इह घटस्याभावः' इति स्वतन्त्रो यद्यध्यक्षप्रत्ययः कथं दर्शनानन्तरं भवेत् ? न च मानसाध्यक्षवत् स्वातन्येऽप्यानन्तर्य भविष्यति तत्र स्खविषयानन्तरविष५यसहकारित्वादेस्तदानन्तर्यनिमित्तस्य सद्भावात् अत्र च तस्यासंभवात् । तदेवं घटविविक्तप्रदेशसामोद्भतेनाध्यक्षेण तत्स्वरूपग्रहणे 'सघटात् प्रदेशादयमन्यः प्रदेशः' 'नायं घटवान्' 'इह घटो नास्ति' इत्यादयः प्रतिषेधविकल्पाः प्रवर्तमाना गृहीतग्राहितया स्मृतिरूपतां बिभ्राणा न ततः पृथक् प्रमाणतामासादयन्तीत्यभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा शुक्लभावदर्शनानन्तरं 'शुक्लोऽयं भावः न नीलः' इति प्रत्ययो दर्शनात् पृथक प्रमाणं भवेत् । एवमन्येषामपि युक्ति-संभवानुपलब्ध्यादीनां प्रमाणान्तरत्वेन परप्रक१०ल्पितानां यथालक्षणं प्रत्यक्षानुमानयोरन्तर्भावो निराकरणं वा विधेयम् । तदेवं शब्दादीनां केषाश्चित प्रामाण्यमेव न सम्भवति अपरेषां त्वनयोरन्तर्भाव इत्यालोच्य न्यायविदोक्तम्-"प्रमाणस्य सतोऽत्रैवान्तर्भावाद् द्वे एव प्रमाणे" [ ] इति । [सौगतकृतां मीमांसकादिसम्मतप्रमाणान्तरप्रतिविधानप्रक्रियां यथासिद्धान्तं स्वीकृत्याऽपाकृत्य च सिद्धान्तिना प्रत्यक्ष-परोक्षतया प्रमाणद्वयव्यवस्थापनम्] १५ अत्र प्रतिविधीयते यत् तावत् पक्षधर्मत्वादित्रिलक्षणयोगिनो हेतोः साध्यप्रतिपत्तिरनुमान मभिहितम् तत्र त्रिलक्षणस्य हेतोरविनाभावित्वं नावश्यंभावि तत्पुत्रादेपैलक्षण्येऽपि गमकत्वादर्शनात् । अथ यत्राविनाभावित्वं तत्र त्रैलक्षण्यमवश्यंभावीति हेतोस्तल्लक्षणमुच्यते, असदेतत्। 'सर्वमनेकान्तात्मकं क्षणिकं वा सत्वात्' इति साधयतः क्वचिदन्वयाभावेऽपि सत्त्वस्यानेकान्तात्म कत्वेन क्षणिकत्वेन वा विनाऽनुपपत्त्या गमकत्वदर्शनात् । तथा, 'परिणामी ध्वनिःक्षणिको वा श्रावण२०त्वात्' इत्यत्रापि न क्वचिदन्वयसद्भावः । न चानित्यत्वमन्तरेण श्रावणत्वं संभवति नित्यस्य श्रवण ज्ञानजनकत्वासंभवात् यस्मिन् सत्येव यद् भवति यदभावे यन्न भवत्येव कथं न तत् तस्य गमकं भवेत? तथा सर्वोऽपि धूमोऽग्निमन्तरेण न कदाचित् प्रभवतीति व्याप्तिसाधने नान्वयः संभवति तदसिद्धौ च कुतोऽभिमतप्रदेशे धूमाद् अग्निनिश्चयः? अतस्त्रिलक्षणपरिकल्पनायां व्याप्तिनिश्चयस्य सर्वत्रासंभवात् कार्य-स्वभावहेतुद्वयस्यापि गमकत्वं न स्यात् । तथा 'नास्तीह घटः उपलब्धिलक्षण२५प्राप्तस्यानुपलब्धेः' इत्यत्रापि दृष्टान्ताभावान्नान्वयः सिद्धः। न च शशशृङ्गादिको दृष्टान्तः समस्तीति वक्तव्यम् तत्रापि दृष्टान्तान्तरकल्पनायामनवस्थाप्रसक्तेः । अथ शशशृङ्गादावनुपलम्भात् प्रवर्तिताभावव्यवहारोऽपि मूढः अनुपलभ्यमानेऽपि प्रदेशविशेषे घटादौ यस्तं न प्रवर्तयति स निमित्तदर्शनात तत्र प्रवर्त्यत इति भवत्येव शशशृङ्गोंदिरभावव्यवहारे साध्येऽनवस्थादोषविकलो दृष्टान्तः तत्रानुपलम्भेनाभावव्यवहारस्य प्रवृत्तासद्व्यवहारशशशृङ्गादिदृष्टान्तबलात् प्रसाधनात् प्रदेशविशेषे ३० घटाभावस्य त्वध्यक्षसिद्धत्वात्, असदेतत्; यतो घटाभावसिद्धिर्घटाभावनिर्णय उच्यते सचेत सिद्धः अभावव्यवहारोऽपि सिद्ध एव अभावनिर्णयव्यतिरेकेणाभावव्यवहारायोगात् । न च प्रदेशे घटाभावं निश्चिन्वानोऽपि तच्छब्दादिकं कश्चिन्न प्रवर्तयेदित्यनुपलम्भेन प्रवर्त्यत इति वाच्यम् एवं हि भावं निश्चिन्वानोऽपि कश्चित् शब्दं नोच्चारयेदिति तत्प्रवर्तनाय हेत्वन्तरं मृग्यं स्यात् ततो घटादावप्यभावस्य साधनादृष्टान्तान्वेषणे तत्राप्यभावो यदि दृष्टान्तान्तरात् सिद्धस्तदा सैवानवस्था। १-धकल्प-बृ. आ. हा० वि० । २ युक्ति-अनुपलब्धि-संभव-ऐतिह्यादीनां पृथक् प्रामाण्यप्रतिक्षेपः प्रत्यक्ष-परोक्षयोश्चान्तर्भावस्तत्त्वसंग्रहे प्रतिपादितःका. १६९२-१७०० पृ. ४८२-४८४ । ३ प्रस्तुतचर्चया साम्यं बिभ्राणा हेतुखरूपप्रधाना चर्चा प्रमेयकमलमार्तण्डतोऽवबोद्धव्या-पृ० १०० द्वि.पं०१२पृ० १०७ प्र. पं० ७॥ ४ “अनित्यत्वाभावे"-बृ० टि०। ५“श्रवणज्ञानजनकसम्”-बृ.टि.। ६ “महानसादेरन्वयार्थ ग्रहणे तत्रापि अपरनिदर्शनाद् व्याप्तिर्निश्चेतव्या तत्राप्यपरस्मादित्यनवस्थानादिति"-बृ.टि.। ७ “व्यवहारम्"बृ० टि.। ८-ङ्गादेर-भां० मां०। ९-देशघ-बृ. आ०। १०-धनाद् दृष्टा-बृ० सं०।-धनदृष्टा-आ०। अत्र 'साधने' अथवा 'साधनाय' इति पाठः कलयितुं योग्यो भाति । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । ५९१ अथ तत्र साध्याविनाभूतादनुपलम्भादेर्लिङ्गाद् दृष्टान्तान्तरमन्तरेणाप्यभावनिर्णयः शब्दादिव्यवहारस्य च प्रवृत्तिस्तर्झनुपलब्धावन्वयमन्तरेणापि गमकत्वमविनाभावमात्रात् कथं नाभ्युपगतं भवेत् ? एतेन 'व्यतिरेकस्यान्वयेन विनाभावादगमकाङ्गता' इत्यपास्तम् तेन नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरम् अप्राणादिमत्त्वप्रसङ्गादिति व्यतिरेक्यपि हेतुर्गमकः सिद्धः। अथ सर्वथा परोक्षस्यात्मनोऽनुपलम्भादभावासिद्धरनात्मवत्तया घटादीनां सन्देहान् व्यतिरेकासिद्धितोऽस्य हेतोरनैकान्तिकत्वम्। नन्वेवं५ कथं सत्त्वादेः क्षणिकत्वव्याप्तिसिद्धिर्यतः क्षणक्षयी ध्वनिः सिध्येत? अथात्र विपर्यये बाधकप्रमाणबलात् सत्त्वस्य क्षणक्षयित्वेन व्याप्तिसिद्धिस्तत्रापि बाधकप्रमाणबलादेव निरात्मकाद् घटादेरविचलितस्वरूपादात्मनश्च प्राणादीनां निवृत्तेः सात्मकत्वेन तेषां व्याप्तिसिद्धिः किं नाभ्युपगम्यते ? अथैवमपि स्वरसनिरन्वयविनश्वरबुद्धिमात्रजन्यत्वात् प्राणादेर्बुद्धिसन्तानेन व्याप्तिप्रसक्तिः, असदेतत्; बुद्धिक्षणस्य अप्राप्य स्वकायेकालं निवृत्तेरपरबुद्धिक्षणस्य तेत उत्पत्तेरसंभवात् सन्तानव्यावृ कुतस्तत्र प्राणादेर्वृत्तिः? सन्तानसद्भावेऽपि निरंशस्वभावस्य शक्तिनानात्वमन्तरेण कार्यनानात्वासंभवात् कुर्तश्चित्तक्षणश्चित्तक्षणान्तरजनकः सन् प्राणादेरुपकारकः स्यात् ? अथ कारणशक्तिभेदाभावेऽपि कार्याण्येव भिद्यन्ते कथं तहक्षणिकतायामर्थक्रियाविरोधः सिध्येत् क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाभावात् तदभावो वा युक्तिसङ्गतः स्यात् ? नित्यस्य चात्मनोऽसंभवे कथं तेन सात्मकत्वं घटादिषु सन्दिग्धं येन निरात्मकाद् घटादेः प्राणादिमत्त्वादेः सन्दिग्धो व्यतिरेको भवेत् । तस्मात् १५ परिणाम्यात्मव्यतिरेकेण जीवच्छरीरस्य प्राणादिमत्त्वमनुपपन्नम् निरंशस्यैकपरमाणुवत् तदुपकारासंभवाच्च कूटस्थेन निरंशक्षणिकविज्ञानपरमाणुसन्ततिरूपेण चात्मना सात्मकत्वसाधने तस्येष्टविघातकृद् विरुद्धः प्राणादिमत्त्वादिहेतुः प्रसज्यते। ____ अथ साध्याभावे सर्वत्र साधनाभावो व्यतिरेकः साधनसद्भावेऽपि साध्यसद्भावाभावे व्यतिरेक एव न भवेत् साधनाभावेन साध्याभावस्याव्याप्तत्वात् य एव च साध्यसद्भाव एव साधनस-२० द्भावः स एवान्वयः स च दृष्टान्तधर्मिणमन्तरेणापि साध्यधर्मिण्यपि विपर्यये बाधकप्रमाणबलान्निश्वीयमानः कथमसन् ? न चैवं पक्षत्वेनेच्छाव्यवस्थितलक्षणेन तत्र पारमार्थिकस्य सपक्षत्वस्य बाधाअन्यथा साध्यधर्मिण्येव हेतुः अविद्यमानसाध्यधर्मे वर्तमानो विरुद्धः स्यात्-इति तत्रै तयुक्त एव वर्तमानः कथं न सपक्षवृत्तिः ? इति यत्र व्यतिरेकसद्भावस्तत्रावश्यमन्वयः यत्र चासौ तत्रावश्यभावी व्यतिरेक इति नैकसद्भावे द्वितीयस्याभावः; नन्वेवमपि 'श्व उदेष्यति सविता अद्यतनादित्यो-२५ दयात्' 'जाता समुद्रवृद्धिः शशाङ्कोदयदर्शनात्' इत्यादिप्रयोगेषु हेतोः पक्षधर्मत्वाभावेऽपि गमकत्वोपलब्धेर्न पक्षधर्मत्वं तल्लक्षणम् अथात्रापि कालस्य देशस्य वा तावतः पक्षत्वमिति पक्षधर्मता, न; कालस्याकाशस्य च पक्षत्वेन सौगतस्यानिष्टेः । अथापि भूतसंक्षोभादिलक्षणः कालः आकाशं वा पक्षत्वेनाभ्युपगम्यत एवेति नापक्षधर्मता, न; लोकस्य साध्यान्यथानुपपन्नहेतुप्रदर्शनमात्रादेव पक्षधर्मत्वाद्यनुस्मरणमन्तरेणापि साध्यप्रतिपत्तिदर्शनात् त्रैलक्षण्यस्य तत्र सतोऽप्यकिञ्चित्करत्वात् ।३० न च सौगताभ्युपगमेन हेतोः पक्षधर्मता सम्भवति सामान्यस्यावस्तुतयाऽभ्युपगतस्य हेतुत्वे शशशृङ्गादेरिव पक्षधर्मतासम्भवात स्खलक्षणस्य च हेतत्वे पक्ष एव हेतरिति नैतद्धो हेतः अभेदे धर्मिधर्मभावस्थानुपपत्तेः स्खलक्षणस्य चान्यत्राननुगमान्नान्वयसिद्धिः अतद्रूपपरावृत्तस्य तस्य हेतुत्वेऽपि स्खलक्षणपक्षभावी दोषस्तदवस्थ एव अतद्रूपपरावृत्तेः स्वलक्षणादव्यतिरेकात् व्यतिरेके अनुग तत्वे पारमार्थिकत्वे च सामान्यस्य भङ्गयन्तरेण हेतुत्वमभ्युपगतं भवेत् कल्पनाविरचितस्य हेतुत्वे ३५ १-श्व प्रमाणादी-ल. आ. हा. वि.। २"प्राणादीनाम्"-बृ० ल.टि.। ३ "सोत्साह"-बृ० ल.टि.। ४-रसनिर-बृ० । ३-१ इत्यती तृतीयातत्पुरुषसूचकौ भातः। ५ तत् उ-भां. मां. विना। ६-र्ता णान्त-बृ० ल० वा. बा. विना। ७ घटादेः सोत्साह प्राणादि-आ० हा० वि० । अत्र “सोत्साह" इति तृतीयटिप्पनकं पाठे प्रविष्टं भाति । घटोदेः बृ० । अङ्कौ पञ्चम्येकवचनसूचकौ बोद्धयौ। -मत्त्वादेः बृ० । षष्ट्येकवचनसूचकावको ज्ञातव्यो। ९-धनाऽस-वा० बा०।-धनास-भां• मां०। १०-ये वा बा-बृ० आ. विना। ११ “साध्यधर्मिणि साध्यधर्मः"-बृ.टि.। १२ "हेतु"-बृ.टि.। १३ "आलोकसंज्ञकम्"-बृ. ल. टि.। १४-न्यस्य व-वा. बा.। १५-देरेव भा. मां। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ द्वितीये काण्डेकतः पक्षधर्मता? कल्पनायाः परमार्थतो वस्त्वसंस्पर्शादित्यक्तं प्राक । न च परपक्षे पक्षधर्मवं संभवति पक्षलक्षणस्यैवासंभवात् । “जिशासितविशेषो धर्मी पक्षः" [ न्यायबिं० २,८] इति तल्लक्षणं चेत् नैतत् यतो न तावत् शब्दे वादी अनित्यत्वं जिज्ञासितुमर्हति खनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनाय तेन साधनप्रयोगात् । नापि प्रतिवादी, प्रतिपक्षप्रसाधनाय वाद्युक्तसाधनप्रतिघाताय च तस्य प्रवृत्तेः। ५नापि प्राश्निकाः तेषां विदितवेद्यतया तत्र जिज्ञासाऽसंभवात् । स्वार्थानुमाने चहेतोर्लक्षणं न कथञ्चित् तद्युक्तितः स्वयमेव तत्र जिज्ञासनात् । एतेन "प्रतिपिपादयिषितविशेषो धर्मी" [ ] इत्यपि लक्षणं प्रतिविहितम् यदर्थमनमानमुपन्यस्तं तेन तत्र जिज्ञास्यविशेषो धर्मी पक्ष इति चेत्, न हेतावपि समर्थनात् प्राग जिज्ञासनीयविशेषत्वात् पक्षत्वप्राप्तेः। साध्यत्वेन बुभुत्सितविशेषो धर्मी पक्ष इति चेत्, न; बुभुत्सितग्रहणस्यानर्थकत्वात् । साध्यविशेषो धर्मीति चेत् तथापि न किञ्चिद्विशे१०षग्रहणेन धर्मिग्रहणेन वा प्रयोजनमिति न पक्षलक्षणं परोदितमनवद्यम् । तस्माद यदन्तरेण यन्नोपपद्यते तत् साधनमितरच्च साध्यमित्येतावदेव पक्षादिलक्षणमनवद्यम् । “स्वरूपेणैव निर्देश्य" ] इत्यादिकमपि पक्षलक्षणमेकान्तवादिनोऽसङ्गतम् धर्मिधर्मभावस्यैकान्तवादे कथंचिदप्यनुपपत्तेरित्यसकृत् प्रतिपादनात् । तदेवं त्रैलक्षण्यस्यासंभवात् संभवेऽपि सति साध्यावि नाभावित्वमात्रेणैव तोर्गमकत्वान्न किञ्चित् पक्षधर्मत्वादिना रूपान्तरेणेति । तथाहि-न क्वचित् १५धूमसत्ताग्निविनाभाविनीति सिद्धमविनाभावित्वम् तत्सिद्धौ च सत्यपि पक्षधर्मादिवचने तथैव गम कत्वम् न हि वास्तवं रूपं साध्याविनाभावित्वलक्षणं हेतोरुपलभ्यमानं पक्षधर्मत्वादिवचनेऽवचने वा स्वसाध्यं न साधयति न हि वस्तुबलायातां स्वसाध्यप्रतिपादनशक्तिं लिङ्गं पक्षधर्मत्वादिवचनादवचनादू वा मुञ्चति वस्तुशक्तीनां वचनादव्यावृत्तेः। अथ त्रैलक्षण्यमपि हेतोः संभवतीति तदपि लक्षणत्वेन प्रकल्प्यते सत्यं संभवति किन्तु अविनाभावित्वेनैव हेतोः गमकत्वं सिद्धं न किञ्चित्तल्लक्षणवच२० नेन । तथाहि-यद्रूपानुवादेन हेतोः स्वरूपं लक्ष्यते तदेव लक्षणत्वेनानुवदितव्यमित्यविनाभावित्वरूपानुवादमात्रेण हेतुलक्षणस्य परिसमाप्तेर्न पक्षधर्मत्वादि विधेयमनुवदितव्यं वा लक्षणत्वेन । न च तत् तत्र संभवतीति लक्षणत्वेन वाच्यम् तथाभ्युपगमे अबाधितविषयत्वमपि तादृग्विधे हेतौ संभवतीति लक्षणान्तरत्वेन वचनीयं स्यात् । अथाविनाभावित्वं सदपि पक्षधर्मत्वाद्यभावेऽगमकम्, न, व्याहतत्वात् । तथाहि-अविनाभावित्वं स्वसाध्येन विना तस्यासंभव उच्यते अगमकत्वं तु विनापि २५साध्यं संभवस्तस्यैवेति कथं नान्योन्यविरुद्धयोाहतिः ? अथ धर्मिणोऽन्यत्राविनाभावित्वं तस्य न पुनर्विवादाधिकरणे धर्मिणीति न पक्षधर्मत्वाद्यभावे तस्य गमकत्वम् तत् किमयं तपस्वी विवादाधिकरणो(णं) धर्मी शण्ढमुद्वाह्य पुत्रं मृग्यते । तथाहि-अन्यत्र तदविनाभावित्वम् विवादाधिकरणे तु तन्नास्तीति कथमन्यस्तद्वानुच्यते ? न च धर्मः केवलो यदा हेतुस्तदा स केवलो न संभवतीति न तावन्मात्रस्याविनाभावित्वमिति यतो धर्ममात्रवचनेऽपि साधारस्यैवाविनाभावित्वम् यथा कृतकत्व३० मनित्यत्वमन्तरेणानुपपद्यमानं कृतकत्ववत्स्वेव भावेषु व्यवतिष्ठते न ह्यन्यत्र तत्कृतकत्वं नाप्यविना भावीति कृतकत्वस्याविनाभावित्वमाक्षिप्तधर्मिस्वरूपमेवेति सामर्थ्यसिद्धम् । तेन नावश्यं तत्सत्त्वं वचनेन विधातव्यं धर्मोपरक्तधर्मिणि पृथक्पक्षधर्मत्ववचनमन्तरेणाप्यन्यथानुपपन्नत्वं कृतकस्यार्थस्य स्वरूपं जानानस्तदुपलभमान एव तदविनाभाविनमपरं स्वभावं झगित्यवगच्छति यतो नानेन पूर्वमन्यथानुपपत्तिरूपनिश्चयसमयेऽन्यत्र व्यवस्थितो धूमोऽन्यत्र व्यवस्थितेन वह्निना विनाऽनुपपन्न इत्यविना १“अनुमेयोऽत्र जिज्ञासितविशेषो धर्मी" इति न्यायबिन्दुसूत्रस्यांशरूपं वचनमेतद् बोध्यम्। २ "खनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनं बुधैः । परार्थं मानमाख्यातं वाक्यं तदुपचारतः" ॥-न्यायावता० श्लो०१०। ३ अत्र 'जिज्ञासितुमर्हति' इति पूर्वोक्तमध्याहार्यम् । ४-क्षसा-बृ० । ५ “अन्यथाऽनुपपन्नलं हेतोर्लक्षणमीरितम् । तदप्रतीतिसन्देहविपर्यासैस्तदाभता" ॥-न्यायवता. श्लो. २२ । ६ “अन्यथानुपपद्यमानबम्"-वृ. टि. । लिङ्गम् बृ० । १-१ इत्यङ्काभ्यां प्रथमैकवचनं सूचितमस्ति । ७-रणध-आ० हा०वि०। ८-रणे ध-वा. बा०। ९ एतत्समानो न्यायो लौकिकन्यायाजलावयं वर्तते-"पण्डकमुद्वाह्य मुग्धायाः पुत्रप्रार्थनम्"-भा० २ पृ. ४६ । तत्रास्य न्यायस्य उपयोगस्थलान्यपि दर्शितानि सन्ति । १. "पक्षधर्म"-वृ.टि.। ११-पन्नं कृ-भां० मा०। १२ जानातिन स्त-मां०। जानीमस्त-वृ०। जानमस्त-आ० हा०वि०। १३-लभ्यमा-भां० मा० आ० हा० वि०। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । भावः प्रतीतः नाऽपि तयोस्तथाविधः प्रतिबन्धः न च प्रदेशव्यवस्थितं धूममुपलभमानोऽवश्यतया 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राऽग्निः' इति 'तथा चेह धूमः' इति परामृश्य 'अग्निमान्' इति प्रत्येति किन्तु परिज्ञाताविनाभावो 'धूमदर्शनानन्तरं प्रदेशेऽग्निरत्र' इति प्राक्तनानुभवदाात् स्मरति 'असत्यत्र वही धूम एव न स्यात्' इति लिङ्गरूपानुस्मरणं प्रकृतस्मरणस्य तथाभावमन्तरेणाभावप्रदर्शनार्थम । अथात्रोऽप्यन्यथानुपपन्नं स्वरूपं हेतोः क्वचिदनेन निश्चेतव्यम् यत्र च तन्निश्चीयते स सपक्षः५ पुनस्तथाविधरूपवेदिनां यत्रासौ हेतुस्तत्रैव ततो हेतोस्तैदन्यप्रतिपत्तिरिति पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकबलादेव हेतुर्गमक इति, नैतत् सारम् ; यतोऽविनामावित्वरूपेणैव सपक्षे सत्त्वमत्राक्षिप्तमिति न रूपान्तरम् । तथाहि-अविनाभावित्वं रूपं ज्ञातं सद् गमकमिति तत् क्वचिद् ज्ञातव्यम् तेन तद्रूपपरिज्ञानोपायत्वात् तदरूपं सदविनाभावित्वमेवैकं हेतो रूपं विधीयमानं स्वात्मन्यन्तर्भावयति शेयसत्ताया ज्ञानसत्तानिबन्धनत्वात् ज्ञानं यथा न पृथग्रूपं तथा क्वचित् सपक्षे सत्त्वमप्यपश्यतः तदविनाभाविरू-१० पग्रहणाभाव इति तदेवैकं रूपं विधीयमानमन्यत् सर्वमाक्षिपतीति न तस्माद्धेतोरन्यद्रूपं युक्तम् । अथ तैर्विना तदेवैकं रूपं हेतोर्न शायत इति रूपान्तरं कल्प्यते तर्हि न केवलं सपक्षे सत्त्वं विना तद्रूपं न ज्ञायते किन्तु बुद्धीन्द्रियादिकमपि विना तन्न ज्ञायते इति तेषामपि तद्रूपताप्रसक्तिः। अत एव "अपक्षधर्मस्यापि हेतोर्गमकत्वे चाक्षुषत्वमपि शब्दे नित्यत्वस्य गमकं स्यात्" [ ] इति परोक्तमपास्तम् यतश्चाक्षुषमनित्यत्वाविनाभावि शब्दश्चाक्षुषो न भवतीति कुतोऽत्र दोषावकाशः ११५ यदपि 'यदि धूमोऽग्यविनाभावित्वमात्रादग्निं गमयेत् महाम्बुराशौ किं न गमयेत् ?' इति चोद्यम् तदप्यसङ्गतम् यतो नान्यदेशो धूमोऽम्भोनिधिपावकाविनाभावी सिद्धः तद्देशसाध्याविनामावित्वात तस्य । अत एव यद्यप्यन्यदेशस्थो हेतुर्नान्यदेशस्थसाध्याविनाभावी तथाप्यपक्षधर्मोऽसौ गमको न भवतीत्यस्यार्थस्य ज्ञापनार्थ पृथक पक्षधर्मत्ववचनं लक्षणे विधेयमिति न वक्तव्यम् साध्यान्यथानुपपनत्वैकरूपप्रतिपत्तेरेव तदर्थस्य लब्धत्वात् । एतेन 'न स त्रिविधाद्धेतोरन्यत्रास्तीति अत्रैव नियत २० उच्यते' इत्यपि निरस्तम् यथोक्तप्रकारेण साध्याविनाभावित्वस्यैव त्रित्वव्यापकत्वात् तद्विकलस्य तस्य विद्यमानस्याप्यकिञ्चित्करत्वात् किञ्चित्करत्वेऽप्यविनाभावित्वैकरूपनिर्णयनिमित्ततया दृष्टान्तादिवद् हेत्वनङ्गत्वात् । खभावकार्यानुपलम्भकल्पनामन्तरेणाप्यन्यथानुपपत्तिमात्राद्धेतोर्गमकत्वोपपत्ते विनाभावः त्रिसंख्येन हेतुना व्याप्तः । तथाहि-वृक्षाच्छायानुमानं लोके प्रसिद्धम् न च वृक्षस्तच्छायाकार्य सहभावित्वात् , नापि स्वभावः स्वभावभेदोपलब्धेः । एतेन तुलादेनमनाद् उन्नामाद्यनुमान २५ चिन्तितम् 'परभागवान् इन्दुः अर्वाग्भागवत्त्वात् घटादिवत्' इत्यत्रापि न तादात्म्यं तदुत्पत्तिा पराभ्युपगमेन संभवति ऊर्श्वभागवतामधोभागवतां च परमाणूनां स्वभावभेदात् सहभावाच्च । एकसामग्र्यधीनताप्रतिवन्धकल्पनायां रूपादे रसादेरिवानुमानं कारणात् कार्यानुमानं प्रसक्तम् । तथाहिसमानकालभाविनो रूपादेर्यद् रसतोऽनुमानं तत् तत्कारणाद् रूपजनकादनुमितादनुमानम् । न चसमानकालभावि रूपजनकत्वानुमानं रसहेतोरेतदिति हेतुधर्मानुमानम् कारणात् कार्यानुमानेऽप्येवं ३० दोषाभावात् । न चात्रैवं लोकप्रतीत्यभावदोषः हेतुधर्मानुमानेऽपि लोकप्रतीतेरभावात् । तथाहितथाविधरसोपलम्भात् तत्समानकालं तथाविधं रूपम् अर्वाग्भागदर्शनाच्च परभागं लोकः प्रतिपद्यते न पुनर्विशिष्टं कारणम् । अथाप्रतिबद्धादेकतोऽन्यप्रतिपत्तावतिप्रसङ्गः, न; अविनाभूतादन्यतोऽन्यप्रतिपत्त्यभ्युपगमात् । अथ प्रतिबन्धमन्तरेणान्यस्यान्याविनाभाव एव कुतः ? ननु प्रतिबन्धोऽप्यपरप्रतिबन्धमन्तरेणान्यस्यान्येन कुतः ? अथ प्रतिबन्धोऽपि न वास्तवः प्रतिबद्धयोरन्यः किन्तु कारणान-३५ न्तरमपरस्य कार्याभिमतस्य भावो वस्तुखरूपमे तच्च पूर्वोत्तरवस्तुस्वरूपग्राहिप्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां निश्चीयते तन्निश्चयनमेव कार्यकारणभावप्रतिबन्धनिश्चयनम् । नन्वेवं प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यामन्येनान्य १-भावप्र-बृ० आ० हा०वि०।२“अविनाभावः"-बृ० टि०।३-त्रान्य-भां० मां० । ४ “साध्य"-बृ.टि.। ५ कल्पते भां० वि०। ६ शब्दनित्य-वा० बा०। ७ “पक्षधर्मल"-बृ० टि। ८ स द्विवि-बृ० । “अविनाभावः”-बृ. टि.। ९ पृ० ५५८ पं०३०-३१ तथा पृ० ५५६ टि. पं० १५। १० “पक्षधर्मादे:"-बृ.टि.। ११ “सहभाविनो( नोः) कार्यकारणभावाभावात् तत्र च तद्भावादिति"-बृ० टि०। १२-मन्तेभाग-बृ० विना । १३ “रसकारणात्"-बृ० टि.। १४-व तं सप्तम्या तच्च आ० हा० ।-व स तं सप्तम्या तच्च वि० । अत्र किमपि टिप्पणमन्तः प्रविष्टमाभाति । १५ पूर्वोक्त व-बृ० । इदं पाठान्तरं न मूललेखकेन लिखितं किन्तु तावति रिक्त स्थाने पश्चात् केनचित् पूरितमिति लिपिमेदादू मषीभेदाच स्पष्टं ज्ञायते। १६-रणाभा-आ० हा० वि० । ७६ स० त० Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ द्वितीये काण्डेस्याविनाभावित्वनिश्चयेऽपि न दोषः । अथैकदान्येनान्यस्याविनाभावित्वदर्शनेऽपि सर्वदा सर्वत्रानयोरेवमेव भाव इति न दर्शनादर्शनाभ्यां निश्चेतुं शक्यम् प्रतिवन्धग्रहणे तु नायं दोषः कर्पूरोर्णादीन्धनखभावानुकारिधूमस्वरूपग्राहिणा विशिष्टाध्यक्षेण सकृदपि प्रवृत्तेनाग्निधूमयोः कार्यकारणभावनिश्चयात् धंदाऽनग्निव्यावृत्ताग्निजन्योऽधमव्यावृत्तो धूमः' इति निश्चीयते अन्यथाऽन्यदैकदाप्यग्नेबूंमस्योत्पादो ५न भवेत् अहेतोः सकृदप्यभावात् भावे वा निर्हेतुकताप्रसक्तेः । तदुक्तम्-'कार्य धूमो हुतभुजः कार्य धर्मानुवृत्तितः' इत्यादि अयुक्तमेतत् परपक्षे कार्यधर्मानुवृत्तेरेवायोगात् । एकदेशेन कार्यधर्मानुवृत्ता. वनेकान्तवादप्रसक्तेः सर्वात्मना तदनुवृत्तौ कार्यस्य कारणरूपतापत्तेः कार्यकारणभावाभावप्रसङ्गात् इत्युक्तत्वात् । किञ्च, सर्वदा सर्वत्राग्निजन्यो धूम इति न प्रत्यक्षमनुपलम्भसहायमपीयतो व्यापारान् कर्तुं समर्थम् सन्निहितविषयवलोत्पत्तेरविचारकत्वाच्च । तत्पृष्ठभाविनोऽपि विकल्पस्य नात्रार्थे साम१० र्थ्यम् तदर्थविषयतया तस्य गृहीतग्राहित्वेनाप्रामाण्याभ्युपगमात् । अनुमानमपि नैवं प्रतिबन्धग्राहकम् अनवस्थेतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । न च भवत्पक्षेऽप्यविनाभावित्वग्रहणे हेतोरयं समानो दोषः यतोऽन्यथानुपपन्नकलक्षणो हेतुरित्यस्माकं हेतुलक्षणम् अन्यथानुपपन्नत्वं च तादात्म्यतदुत्पत्त्योः पूर्ववत्-शेषवत्-सामान्यतोदृष्टमित्येषां च तथैकार्थसमवायि-संयोगि-समवायीत्यादीनां च तथा वीतमवीतं वीतावीतं चेत्यादीनां च सर्वहेतूनां व्यापकम् सति गमकत्वे सर्वेषामप्येषां साध्याविना१५भावित्वात् तद्विकलानां च गमकत्वायोगात्। तस्य च ग्राहकमूहः प्रत्यक्षानुपलम्भप्रभवः प्रमाणम् तच्चाविसंवादकत्वादनक्षजत्वालिङ्गजत्वाच्च स्वार्थाध्यवसायरूपं मतिनिवन्धनमस्माकम(कम्) प्रमाणान्तरं परैः प्रमाणान्तरत्वेनावश्यमभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा व्याप्तिग्राहकप्रमाणाभावतोऽनुमानस्याप्यप्रवृत्तिप्रसक्तः । अत एवानुमानं प्रमाणमभ्युपगच्छता 'प्रत्यक्षमनुमानं चेति द्वे एव प्रमाणे' इति न वक्तव्यम् अनुमानाभ्युपगमे यथोक्तन्यायेन प्रमाणान्तरस्याप्यापत्तेः । यदपि 'गोत्वाद विषाणी' २० इत्यादौ 'समुदायव्यवस्थायाः कारणं समुदायिनः' इत्यभिहितम् तत्रापि व्यवस्था यदि शब्दामिका अथ विकल्पामिकाभ्युपगम्यते उभयथाऽपि नार्थेन प्रतिवन्धसिद्धिः अतो न कार्यहेतुर्गमकः नापि स्वभावहेतुरविनाभाववैकल्ये इति स्थितम् 'उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य' इत्यनुपलब्धौ विशेषणोपादानं चानर्थकम् परचैतन्य भूत-ग्रहादीनामदृश्यानामपि क्वचिदभावसिद्धेर्दाहादिव्यवहारदर्शनात् । यदि पनरनुपलब्धिलक्षणप्राप्तानुपलब्धेरभावो न सिध्येत् 'नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरम् अप्राणादिमत्त्वप्रस२५ङ्गात्' इत्यत्र प्रयोगेऽदृश्यानुपलम्भादभावासिद्धेर्घटादीनां नैरात्म्यासिद्धितो 'यत् सत् तत् सर्व क्षणिकम्' इति व्याप्तेः साकल्येनासिद्धौ प्रकृतोऽपि क्षणभङ्गो भावानां न सिद्धिमासादयेत् । यथा च तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणप्रतिबन्धग्रहणं परपक्षे न संभवति तथा असकृत् प्रतिपादितम् तेन 'त्रिसंख्यहेतुव्यतिरिक्तेषु तथाविधप्रतिबन्धाभावादविनाभावस्य हेतुत्वव्यापकस्याभावाद्धेत्वाभासत्वम्' इति यदुक्तं तन्निरस्तं द्रष्टव्यम् यथोक्तप्रतिबन्धेन त्रित्वस्याविनाभावस्य चाव्याप्तेः उक्तन्यायेन तेनैव तयो३० प्प्तेः । अतः 'संयोग्यादिषु येष्वस्ति प्रतिबन्धो न तादृशः' इत्यादि सर्वमयुक्ततया व्यवस्थितम् । यथोक्तहेतुप्रभवस्य च साध्यनिश्चयस्यानुमानत्वेऽन्यतः सम्बद्धात् सामान्याकारेण प्रतिपत्तिरनुमानमित्यादि प्रमाणान्तरस्य तत्रान्तर्भावप्रतिपादनमयुक्तम् यथोक्तन्यायात् । शब्दस्य चाप्तप्रणीतत्वेन सामान्यविशेषात्मकवाह्यार्थविषयस्य यथा प्रमाणान्तरत्वं तथा प्राक् प्रतिपादितम् । अर्थापत्तेश्च प्रमाणत्वेनानुमानेऽन्तर्भावनं सिद्धसाधनेमेव । अभावस्य च पृथगप्रामाण्यप्रतिपादनमस्माकमभीष्टमेव ३५सदसदात्मकवस्तुतत्त्वग्राहिणाऽध्यक्षेण यथाक्षयोपशमं भावांशवदऽभावांशस्यापि ग्रहणात् । केवलं क्वचिदुपसर्जनीकृतसदंशस्य प्रधानतयाऽसदंशस्य ग्रहणं क्वचिच्च विपर्ययेण । न च सदंशासदंशयोरे १-वृत्त्याग्नि-बृ. आ. हा० वि०। २०५६९ पं० १८ टि. ३ । “पश्चार्धं तु-स भवंस्तदभावेऽपि हेतुमत्तां विलवयेत् ॥"-बृ० टि० । स भवंस्तदभावेऽपि हेतुमत्तां विलयेत् । इति अपरार्धम् ॥-ल. टि.। ३-दीनां स-बृ. आ० हा० वि०। ४ ऊहस्य परोक्षप्रमाणभेदलेन समर्थनं प्रमेयकमलमार्तण्ड-स्याद्वादरत्नाकराभ्यामवसेयम्-पृ० १०० द्वि. पं. ४-११ पृ. ५०० ५०९-पृ०५१६ पं० १५ आ० । ५-त्वाल्लिङ्ग-आ० हा० वि०। ६ स्वार्थाद्यवसावृ० । स्वार्थव्यवसा-आ० हा० वि०। ७-सिद्धेर्दा-वा. बा०। ८-रात्म्यसि-वा. बा. भां• मां० विना । ९-स्य वाव्या-वा० बा० । १० पृ० ५५९ पं० ११ तथा पृ० ५५७ टि. पं० २। ११-श्व प्रामाण्यमनुमा-बृ० । १२-नमभाव-वृ० । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५९५ कान्तेन भेदोऽभेदो वा उभयात्मकतया जात्यन्तररूपस्य वस्तुनो विरोधादिदोषविकलस्य साधितत्वात् । तेनैकान्तभेदाभेदपक्षावाश्रित्यानवस्थादि सकलमेव दूषणजातमनास्पदम् अध्यक्षप्रमाणप्रसिद्धे सदसदात्मके वस्तुनि सर्वस्य दूपणत्वेनाभिहितस्य तदाभासत्वात् । उपमानादेरप्यविसंवादकस्य प्रमाणत्वे सर्वस्य परोक्षेऽन्तर्भावात् अन्यसंख्याव्युदासेन प्रत्यक्ष परोक्षं चेति द्वे एव प्रमाणे अभ्युपगन्तव्ये अन्यथा तत्संख्यानवस्थितेः । [ मुख्यवृत्त्या संव्यवहारेण च परोक्षप्रमाणस्य स्वरूपविभजनम् ] किं पुनरिदं परोक्षम् ? अविशदमविसंवादि ज्ञानं परोक्षम् । तेन "मुख्यसंव्यवहारेण संवादि विशदं मतम् ।। ज्ञानमध्यक्षमन्यद्धि परोक्षमिति संग्रहः" [ ] इति । "यद् यथैवाविसंवादि प्रमाणं तत् तथा मतम् । विसंवाद्यप्रमाणं च तदध्यक्ष-परोक्षयोः" ॥ [ 1 तिमिराद्युपप्लुतं ज्ञानं चन्द्रादावविसंवादकत्वात् प्रमाणम् तत्संख्यादौ तदेव विसंवादकत्वादप्रमाणं प्रमाणेतरव्यवस्थायास्तल्लक्षणत्वात् यतो ज्ञानं यदप्यनुकरोति तत्र न प्रमाणमेव समारोपव्यवच्छेदापेक्षत्वात् अन्यथा दृष्टे प्रमाणान्तरवृत्तिन स्यात् कृतस्य करणायोगात् तदेकान्तहानेः कथंचित् करणानिः तदस्य विसंवादोऽप्यवस्तुनिर्भासाचन्द्रादिवस्तुनिर्भासादविसंवादोऽपीत्येकस्यैव ज्ञानस्य १५ यत्राविसंवादस्तत्र प्रमाणता इतरत्र तदाभासतेति प्राक् प्रतिपादितत्वान्न पुनरुच्यते । स्थितमेतत् प्रत्यक्षं परोक्षं च द्वे एव प्रमाणे। __ अत्र च मति-श्रुताऽवधि-मनःपर्याय-केवलज्ञानानां मध्ये मति-श्रुते मुख्यतः परोक्षं प्रमाणम् । अवधि-मनःपर्याय-केवलानि तु प्रत्यक्षं प्रमाणम् । तदुक्तं वाचकमुख्येन "मति-श्रुताऽवधि-मनःपर्याय-केवलानि ज्ञानम्"। "तत् प्रमाणे"। "आद्ये परोक्षम्"। "प्रत्यक्षमन्यत्"। [ तत्त्वार्थ० १-९,१०,११,१२] अस्य च सूत्रसमूहस्य व्याख्या गन्धहस्तिप्रभृतिभिर्विहितेति न प्रदर्श्यते । परोक्षप्रमाणता च मतेर्मुख्यवृत्त्याऽत्र प्रदर्शिता । संव्यवहारतस्तु विशदरूपस्य मतिभेदस्य प्रत्यक्षताऽभ्युपगतैव ॥१॥ २५ १ एतत्पद्यगतो भावः श्रीसमन्तभद्रेण "तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते"-आप्तमी० श्लो० १.१] इति कारिकांशेन प्रतिपिपादयिषितः, स एव च भट्टारकाकलङ्केन अष्टशत्यां स्पष्टीकृतः । तद्यथा "बुद्धरनेकान्तात् येनाकारेण तत्त्वपरिच्छेदस्तदपेक्षया प्रामाण्यमिति तेन प्रत्यक्षतदाभासयोरपि प्रायशः संकीर्णप्रामाण्येतरस्थितिरुन्नेतव्या प्रसिद्धानुपहतेन्द्रियदृष्टेरपि चन्द्रार्कादिषु देशप्रत्यासत्त्याद्यभूताकारावभासनात् तथोपहताक्षादेरपि संख्यादिविसंवादेऽपि चन्द्रादिखभावतत्त्वोपलम्भात् तत्प्रकर्षापेक्षया व्यपदेशव्यवस्था गन्धद्रव्यादिवत् । तथानुमानादेरपि कथंचिन्मिथ्याप्रतिभासेऽपि तत्त्वप्रतिपत्त्यैव प्रामाण्यम्"-अष्टश० अष्टस. पृ. २७६ पं० १५-। २-क्षयोः॥ अस्ति तैमि-भा० ।-क्षयोः॥ अस्ति तिमि-मा० । ३-दप्युपक-भा० मा०। ४ "मति-श्रुते"-बृ० टि०। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ द्वितीये काण्ड [ दर्शनविषयीभूतस्य प्रमेयस्य न विशेपाकारेण शून्यत्वम् न वा ज्ञान विषयीभूतस्य सामान्याकारेण इति निरूपणम् ] सामान्यविशेषात्मके च प्रमाणप्रमेयरूपे वस्तुतत्त्वे व्यवस्थिते द्रव्यास्तिकस्यालोचनमात्रं विशेपाकारत्यागि दर्शनं यत् तत् सत्यम् इतरस्य तु विशेपाकारं सामान्याकाररहितं यद ज्ञानं तदेव ५पारमार्थिकमभिप्रेतम् 'प्रत्येकमेपोऽर्थपर्यायः' इति वचनात् । प्रमाणं तु द्रव्यपर्यायौ दर्शन - ज्ञानस्वरूपावन्योन्याविनिर्भागवर्तिनाविति दर्शयन्नाह दवढिओ वि होऊण दंसणे पज्जवढिओ होइ । उवसमियाईभावं पड्डुच्च णाणे उ विवरीयं ॥२॥ अस्यास्तात्पर्यार्थः-दर्शनेऽपि विशेषांशो न निवृत्तः नापि शाने सामान्यांश इति । १० द्रव्यास्तिकोऽपि इति आत्मा द्रव्यार्थरूपः स भूत्वा दर्शने सामान्यात्मके स ह्यात्मा चेतनालोकमात्रस्वभावो भूत्वा तदैव पर्यायास्तिको विशेषाकारोऽपि भवति । यदा हि विशेषरूपतयाऽऽत्मा संपद्यते तदा सामान्यस्वभावमपरित्यजन्नेव विशेषाकारश्च विशेषावगमस्वभावं ज्ञानं दर्शने सामान्यपर्यालोचने प्रवृत्तोऽप्युपात्तज्ञानाकारः न हि विशिष्टेन रूपेण विना सामान्यं संभवति। एतदेवाह-औपशमिकादिभावं प्रतीत्य इति औपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिकादीन् १५भावान् अपेक्ष्य विशेषरूपत्वेन ज्ञानस्वभावाद वैपरीत्यं सामान्यरूपतां प्रतिपद्यते विशेषरूपः सन् स एव सामान्यरूपोऽपि भवति न ह्यस्ति सामान्य विशेषविकलं वस्तुत्वात् शिवकादिविकलमृ. स्ववत् विशेषा वा सामान्यविकला न सन्ति असामान्यत्वात् मृत्त्वरहितशिबकादिवत् ॥२॥ [ उपयोगस्वाभाव्यादेव छानस्थिकयोनि-दर्शनयोः क्रमवर्तित्वम् न पुनः केवलिगतयो स्तयोः सहवर्तित्वात् इति प्रतिपादनम् ] ... अत्र च सामान्यविशेषात्मके प्रमेयवस्तुनि ताहि प्रमाणमपि दर्शनज्ञानरूपं तथापि च्छद्मस्थो. पयोगस्वाभाव्यात् कदाचिद् शानोपसर्जनो दर्शनोपयोगः कदाचित्तु दर्शनोपसर्जनो ज्ञानोपयोग इति क्रमेण दर्शनज्ञानोपयोगौ क्षायिके तु ज्ञानदर्शने युगपद्वर्तिनी इति दर्शयन्नाह सूरिः मणपजवणाणतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो। केवलणाणं पुण दंसणं ति णाणं ति य समाणं ॥३॥ २५ मनःपर्यायज्ञानमन्तः पर्यवसानं यस्य विश्लेषस्य स तथोक्तः ज्ञानस्य च दर्शनस्य च विश्लेषः पृथग्भावः मत्यादिषु चतुर्षु ज्ञानदर्शनोपयोगी क्रमेण भवत इति यावत् । तथाहि-चक्षुरचक्षुरवधिज्ञानानि चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनेभ्यः पृथकालानि छद्मस्थोपयोगात्मकज्ञानत्वात् श्रुत-मनःपर्यायज्ञानवत् वाक्यार्थविशेषविषयं श्रुतज्ञानम् मनोद्रव्यविशेषालम्बनं च मनःपर्यायज्ञानम् एतद्वयमपि अदर्शनस्वभावं मत्यवधिज्ञानदर्शनोपयोगाद् भिन्नकालं सिद्धम् । केवलज्ञानं पुनः केवलाख्यो ३० बोधः दर्शनमिति वा ज्ञानमिति वा यत् केवलं तत् समानं समानकालं द्वयमपि युगपदेवेति भावः । तथाहि-एककालौ केवलिगतज्ञानदर्शनोपयोगौ तथाभूताप्रतिहताविर्भूततत्स्वभावत्वात् तथाभूतादित्यप्रकाशतापाविव यदैव केवली जानाति तदैव पश्यतीति सूरेरभिप्रायः॥३॥ १ पृ० ४५७ गा० १५० १०, १३। २"आत्मा न केवलं पर्यायार्थिकः”-बृ.टि.। ३-णाणंदो बृ० । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९७ ज्ञानमीमांसा । [ केवलज्ञान-दर्शनयोः सहभावित्वे विप्रतिपद्यमानानां केषांचिन्मतस्य साधिक्षेपं निर्देशः] अयं चागमविरोधीति केषांचिन्मतमुपदर्शयन्नाह केई भणंति “जइया जाणइ तइया ण पासइ जिणो"त्ति । सुत्तमवलंबमाणा तित्थयरासायणाऽभीरू ॥४॥ १"जिनभद्रक्षमाश्रमणादीनाम्"-ल.टि.।। प्रस्तुतां केवलज्ञान-केवलदर्शनोपयोगचर्चा तुलनादृष्ट्या ऐतिहासिकदृष्ट्या चाभ्यसितुं जैनेतरदर्शनगतां सर्वज्ञवमीमांसां पूर्वं संक्षेपेणात्र पक्षप्रतिपक्षविभागपुरस्सरमुपन्यस्य अनन्तरं जैनदर्शनगता सा किश्चिद् विस्तरतः प्रदर्शयितुमभिप्रेता । . तथाहि-प्रथमं तावत् भारतीयदर्शनेषु सर्वज्ञत्वसम्भवासम्भवविषयावेव द्वौ पक्षौ स्तः । चार्वाका जैमिनीयाश्च सर्वज्ञ• खासम्भवपक्षग्राहिणः [मीमां०१-१-२ शाबरभा० तथा श्लो० वा. श्लो. ११३ प्रभृति, मीमां०१-१-४ शाबरभा० श्लो. वा० श्लो० २६] तदितरे च सर्वे दार्शनिकाः सर्वज्ञत्वसंभवपक्षग्राहिणः सन्ति । सर्वज्ञवसम्भवपक्षमाहिष्वपि केचिदीश्वरवादिनः केचिचानीश्वरवादिनः । तत्र ईश्वरवादिनो वैशेषिक-नैयायिक-पातजलौपनिषदाः अनीश्वरवादिनश्च साङ्ख्य-बौद्ध-जनाः। ईश्वरवादिन ईश्वरे अनाद्यनन्तं-नित्यं-सर्वज्ञवं मन्यमानाः योगप्रकर्षपराकाष्ठाप्राप्तेषु केषुचिद् जीवात्मस्वपि सादिसान्तं-अनित्यं-सर्वज्ञवं स्वीकुर्वते [ कन्दली पृ० ५६ पं० २४, प्रशस्तपा० पृ. १८७ पं० ७ तथा कन्दली पृ० १९५ पं० १९ । न्यायद० ४-१-२१ वात्स्या. भा० न्यायवा० न्यायवा० ता० टी० । न्यायमञ्ज० आ० २ पृ० १०३ पं० १९ तथा आ० ३ पृ. २०० पं० २८ । योगद० १-२५, ३-४९, ५५४-३१ भा० टी० । ब्रह्मसू० १-१-३,४,५,२-१-१, १४,२-३-१८ शाङ्करभा० भा० । श्रीभा० ।] परन्तु अनीश्वरवादिनः केषुचिद् योगिमूर्धन्येष्वेव जीवात्मसु सर्वज्ञखमभ्युपगच्छन्ति-["बुद्धानां हि सा भगवतां सर्वप्रकारं गोचरः सर्वाकारसर्वज्ञेयज्ञानाविघातादिति"-का. २२ विज्ञप्तिमात्र. वृ० पृ. ११५०४ । “क्लेशा हि मोक्षप्राप्तेरावरणमिति अतस्तेषु प्रहीणेषु मोक्षोऽधिगम्यते ज्ञेयावरणमपि सर्वस्मिन् ज्ञेये ज्ञानप्रवृत्तिप्रतिबन्धभूतम् xxx तस्मिन् प्रहीणे सर्वाकारे ज्ञेयेऽसक्तमप्रतिहतं च ज्ञानं प्रवर्तत इत्यतः सर्वज्ञसमधिगम्यते" -का० १त्रिंशिकाविज्ञ० भा० पृ० १५५० ८-११। "अचित्तोऽनुपलम्भोऽसौ ज्ञानं लोकोत्तरं च तत्" । का० २९ त्रिंशिकाविज्ञ०।। "आद्यस्य क्लेशबीजम् इतरस्य द्वयावरणबीजम् तदुद्धातात् सर्वज्ञतावाप्तिर्भवतीति"-का० २९ त्रिंशिकाविज्ञ० भा. पृ. ४४ पं० १७-१८] अत्र मुख्यतया द्वौ विशेषा ज्ञातव्यौ तत्र प्रथमो नित्यानित्यत्तविषयकः यथा सायसम्मतं सर्वज्ञत्वं जन्यखेन सादिकं देहादिपर्यन्तस्थायित्वेन च सान्तं बोद्धव्यम् जैनसम्मतं तु सार्वयं सादिकमपि प्रवाहरूपेणाविनश्वरवाद् विदेहावस्थायामपि सदा सत्त्वेन अनन्तं बोद्धव्यम् । द्वितीयश्च स्वरूपविषयो विशेषः स चायम्-वैशेषिकादिसकलजनेतरदर्शनसम्मतमीश्वरीयमनीश्वरीयं वा सार्वश्य सामान्य-विशेषतद्वत् सकलत्रैकालिकगोचरमेकविधमेव । जनसम्मतं तु सार्वश्यं सामान्यविशेषात्मकसकलत्रैकालिकवस्तुगोचर सदपि गौणप्रधानभावेन सामान्यावगाहितया विशेषावगाहितया च भिद्यमानं केवलज्ञानकेवलदर्शनसंज्ञाद्वयेन व्यपदिश्यते। तत्र जैनवादिनः सर्वेपि सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शित्वं च निर्विवादमभ्युपगच्छन्तोऽपि तदीये स्वरूपे विप्रतिपद्यन्ते-केचित् केवलज्ञान-केवलदर्शनयोः क्रम समर्थयन्ते । केचित् तयोर्योगपद्यं व्यवस्थापयन्ति । केचिच तयोरैक्यं प्रस्थापयन्ति । अमी त्रयोऽपि पक्षाः श्वेताम्बरीयवाङ्मयेषु चर्चिताः लब्धावकाशाश्च दृश्यन्ते । दिगम्बरीयवाड्मयेषु तु द्वितीय एव पक्षश्चर्चितो लब्धप्रतिष्ठश्चावेक्ष्यते।। इमे त्रयोपि पक्षाः विशेषणवत्याम् , विशेषावश्यकभाष्ये, नन्दिसूत्रचूाम् [लिं० लि. पृ. ८-९] हरिभद्रीयायाम् [वा. लि. पृ० २१-] मलयगिरीयायां च नन्दिसूत्रवृत्ती, [पृ० १३४ द्वि०-पृ० १३८ द्वि.] धर्मसङ्ग्रहण्याम् , तत्त्वार्थभाष्यवृत्तौ [पृ० ११० पं० १४ ] प्रज्ञापनावृत्तौ [पृ० ५३१ प्र. पं०९-पृ० ५३३ प्र० ] ज्ञानबिन्दौ [पृ० १५४ पं० ४ ] च सविस्तरं दृश्यन्ते। अत्रोड्रियमाणाः सर्वा अपि गाथा विशेषणवत्यन्तर्गता अवबोद्धव्याः तासु या या विशेषावश्यकभाष्य-नन्दिसूत्रचूर्णिनन्दिसूत्रलघुवृत्ति-धर्मसंग्रहणी-नन्दिसूत्रमलयगिरिवृत्तिषु आगताः तास्तत्र तत्र तत्तद्न्थनाम्ना सूचिताः । यच्च गाथा-विवरणप्रभृति विशेषावश्यकभाष्यादिषु अधिकमुपयोगि च वर्तते तदपि तत्र तत्र टिप्पण्या समुपन्यस्तम् Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ द्वितीये काण्डे “केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली नियमा । अण्णे एगंतरिअं इच्छंति सुओवएसेणं ॥ १८४ ॥ नन्दि० ० चू० । नन्दि० ल० । धर्मसं० गा० १३३६ । नन्दि० म० । अगेन चैव जी दंसणमिच्छेति जिनवरिंदस्स । जं चिय केवलगाणं तं चिय से दरिसणं बिंति ॥ १८५ ॥ — नन्दि० चू० । नन्दि० ० धर्मसं० गा० १३३७ । नन्दि० म० । जैह किर खीणावरणे देसण्णाणाण संभवो ण जिणे । उभयावरणाईए तह केवलदंसणस्सावि ॥ १८६ ॥ - नन्दि० पू० । नन्दि० ० धर्मसं० गा० १३५२ । नन्दि० म० । - * देसण्णाणोवर मे जह केवलणाणसंभवो भणिओ । देसद्दंसणविगमे तह केवलदंसणं होइ ॥ १८७ ॥ - नन्दि० चू० । नन्दि० ल० । धर्मसं० गा० १३५३ । नन्दि० म० । १९३ ॥ अह देखणाणदंसणविगमे तुह केवलं मयं नाणं न मयं केवल सणमिच्छामेतं णणु तवेयं ॥ १८८ ॥ - नन्दि० चू० । नन्दि० ल० । धर्मसं० गा० १३५४ । नन्दि० म० । देसण्णाणाभावो जह अविसयलिंगनिमित्ता गुत्तो जिणम्मि एवं ण उ केवलदंसणाभावो ॥ १८९॥ अहवा ण चेव देसण्णाणाभावो जिगम्मि किं कर्म है जाग जेण जिणंदो तेसिं विसए अपरिसेसे ॥ १९०॥ तह वियण पंचाणी भण्णइ समयम्मि मा हु होज्जा हि । केवलणाणाकसिणप्प संगदोसो जिणंदस्स ॥१९१॥ पुणे महातलागे णत्थि पभुत्तं तदंतवत्तीणं । जह सेसतलागाणं जिणम्मि तद् सेसणाणणं ॥ १९२॥ अहवा जह संताण वि गहू-ताराईण दिनकरम्भुदए न पुहुत्तमेवमण्णणाणा केवल अहवा खओवसमियत्तणेण छउमत्थभाववत्तीणि । केवलणाणं खइयं जेण जिणे ( s) संभवो तस्स ॥ १९४ ॥ केवलसणमेवं छमत्ये परिथ तं जओ सइयं जइ तं नत्वि जिणम्मि वि तो करथ तयं गय १ ॥ १९५ ॥ णत्थि । सिद्धं च चउवियप्पं च दंसणं सासणे बहुसो ॥१९६॥ किंतु गाणं ति दंसणं ति य एवं चिप केवलं तस्स ॥१९७॥ इहरा फुटमण्णतं पुणरुत गिररथया या वि ॥ १९८ ॥ सागाराणागारं सिद्धाणं लक्खणं कह णु ॥ १९९॥ - विशेषा० भा० गा० ३०९३ पूर्वार्धम् । १ "इत्व केवलणाणदंसणोवयोगेहिं बहुधा समयसभावं आयबुद्धीए पकष्पिता इमं भति" “इह च केवलज्ञानदर्शनोपयोग चिन्तायां क्रमोपयोगादौ सूरीणामनेकविधा विप्रतिपत्तिरतः संक्षेपतो विनेयजनानुग्रहाय प्रदर्शनार्थ क्रियत इति । तत्र” - नन्दि० ल० । 1 नन्दि० चू० । छउमत्थम्मि जिणम्मि व जं णत्थी सव्त्रहेव तं आदण उसव्वसो थिय केवलिगो णत्थि दंसणं ज एग दोन्द वि तो एगयरोव ओगया जुत्ता पैलेयावरण कह वा वारस विहोवओगत्तं । २ "गाथाद्वयम् अस्य व्याख्या केचन सिद्धसेनाचार्यादयो भणन्ति किम् ? युगपदेकस्मिन्नेव काले जानाति पश्यति त्येकः केवली नवम्यः नियमानियमेन । अन्ये जिनभागणिक्षमाश्रमणप्रभृतय एकान्तरितं जानाति पश्यति चेत्येवमिच्छन्ति श्रुतोपदेशेन यथा श्रुतानुगमानुसारेणेत्यर्थः । अन्ये तु वृद्धाचार्याः न नैव पृथक् पृथग्दर्शनमिच्छन्ति जिनवरेन्द्रस्व केवलिन इत्यर्थः किं तर्हि यदेव केवलज्ञानं तदेव से तस्स केवलिनो दर्शनं ब्रुवते क्षीणावरणस्य देशज्ञानाभावात् केवलदर्शनाभावादिति भावना अर्थ गाथाद्वयार्थः " नन्दि० ० । ३ " जे भणति केवलणाणदंसणाण एमसे ते इमं हेतुजुति भति" नन्दि० चू० । “अधुना ये केवलज्ञानदर्शना भेदवादिनस्तन्मतमुपन्यस्यन्नाह ” – नन्दि० ल० । ४ "एस ते हेतुजुत्तं तहा अत्थं ण संसहइ त्ति हेउत्तरहेउजुत्तीण चेव भणति आ (!) वा संसहइ तहा उत्तरहेऊ जुत्तीए चेव भणति । मेदणाणोवरमे जह केवलणाण संभवो भणितो । देसद्दंसणविगमे तह केवलदंसणं होई” ॥ नन्दि० चू० । " सिद्धान्तनायाद" नन्दि० ० । ५ इतो गावात उपरि अधस्ताद् वा या या अधिका गाथा विशेषावश्यकभाष्ये वियन्ते ताः सर्वा अपि अत्र निर्दिष्टाः"साओ लीओ जं सागरोन ओमलाभाओ । तेणे सिद्धलद्वी उप्पम तवउत्तस्स ॥ एवं च गम्म धुवं तरतमजोगोवओगया तस्स । जुगवोवओगभावे सागरविसेसणमजुतं ॥ अव मई सव्वं चिय सागार से तओ अदोसो त्ति । नाणं ति दंसणं ति च न विसेसो तं च नो जम्हा ॥ सागारमनागार लक्खणमेयं ति भणियमिह चेव । तह नाण-दंसणाई समए वीसुं पसिद्धाई ॥ मार्ग पंचविणं चव्विहं दंसणं करतो " गा० २०८९-३०९३ । भणियमिव य केवलनाणुवउत्ता मुणंति सव्वं ति । पासंति सव्वउ त्तिय केवलदिट्ठीहिणंताहिं ॥ गा० ३०९४ । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। ५९९ णाणस्स जाणिअव्वे विसओ जइ दंसणस्स दट्ठव्वे । जुतं तो इहरा पुण लक्खणवेहम्ममावणं ॥२०॥ अह वा जइ णाणेण वि दीसइ णजइ य दंसणेणावि । एवं खु णाणदंसणपरूवणा कप्पणामेत्तं ॥२०१॥ एवं च सेसदसणणाणाण वि णाम पत्तमेगत्तं । सिद्धाणि अ पत्तेअंदसणणाणाणि समयम्मि ॥२०२॥ कह वा जिणेण भणियं दोणि अहं नाणदंसणहाए । सोमिलपुच्छाए जइ दंसणणाणाणमेगत्तं ॥२०३॥ आह जओ चिय जीवाणण्णाई तेण तेसिमेगत्तं । भण्णइ तो सेसाण विणाणाणं पत्तमेगत्तं ॥२०४॥ ताई पि जीवभावाणण्णाई जे य सेसया भावा । अण्णोण्णलिंगभिण्णा खओवसमिआदओ पंच ॥ २०५॥ सइ जीवाणण्णते णाणत्तं तव मयं अहो तेसिं । ण मयं केवलदंसणणाणाणं एव मिच्छा ते ॥ २०६॥ जह जीवाणन्नाणं नाणत्तं सेसभावमेयाणं । तह जीवाणण्णाणं णाणत्तं केवलाणं पि ॥ २०७॥ अह भणियं च जिणमए जाणइ पासइ य केवलण्णाणी।ण वि दसण तितम्हा णाणं चिय दंसणं तस्स ॥२०॥ भण्णइ जहोहिणाणी जाणइ पासइ य भासियं सुत्ते । ण य णाम ओहिदसणणाणेगतं तह इमं पि ॥२०९॥ -नन्दि० चू० । नन्दि० ल० । धर्मसं गा० १३५५ । नन्दि० म० । जं पासइ त्ति भणियं तम्हा तं दंसणेण घेत्तन्वं । जेण विसेसियमेअंपण्णवणदसाइसुत्तेसु ॥२१०॥ खीणे पंचविहम्मि वि णाणावरणम्मि जाणइ जगं ति । पासइ य दंसणावरणविप्पणासम्मि सव्वण्णू ॥२११॥ मइणाणाणत्यंतरभूयस्स वि चक्खुदंसणस्सेह । जह दंसणोक्यारो जुत्तो तह केवलसावि ॥२१२॥ भण्णइ चक्खुद्देसणमइनाणत्तमिह कालभेयकयं । जं जत्य दसणं तत्थ णत्थि कालम्मि णाणं तु ॥२१३॥ जइ वा जुगवं चक्खुईसणमइणाणविसयया होजा । तो जुग छउमत्थे वि होज उवओगदुगमेवं ॥२१४॥ तम्हा अचक्खुदंसणमिह दसणमिट्टमुग्गहेहाओ । सव्वत्थ अवाओ धारणा य सुद्धं मईणाणं ॥२१५॥ आह किमोग्गहमेत्तं ण दसणं होइ सेमयं णाणं । भग्णइ एगममइओ जमोग्गहो णोवओगो उ ॥२१६॥ अंतोमुहुत्तमेत्तं उवओगो णियमिओ जओ सुत्ते । तम्हा दंगणकालो सिद्धो फुडमोग्गहेहातो ॥२१॥ जह सेसणाणदंमणणाणत्तं तह जिणम्मि किमणिटुं ? । णाणत्तं केवलणाणदंसणाणं सलक्खणओ ॥२१८॥ णाणं वत्तं दसणमव्वत्तं भणइ देसियं समए । तो णाणदंसणाणं जिणम्मि सविसेसणं जुत्तं ॥२१९॥ भण्गइ केवलदसणमवत्तं जेण होज को हेऊ । जइ नाणाओ अन्नं वत्तं च हवेज को दोसो ? ॥२२०॥ जह सव्वं विष्णेयं णाणेण जिणोऽमलं विजाणेइ । तह दंसणेण पासइ णिययावरणक्खए सव्वं ॥२२१॥ जेसिमणिटुं दंसणमण्णं णाणा हि जिणवरिंदस्स । तेसि न पासइ जिणो सविसयणिययं जओ णाणं ॥२२२॥ आह पिहभावम्मि वि उव उत्ता दंगे य णाणे य । भणियं तो जुगवं सो नणु भणियमिणं पितं सुणसु॥ गा० ३०९५। अह सव्वस्सेव न केवलिस्स दो किंतु कासइ हवेज । मो य जिणो सिद्धो वा तं च न सिद्धाहिगाराओ॥ गा० ३०९७। अहवा पुव्वद्धेण व सिद्धमिको ति किंथ विइएणं । इत्तो चिय पच्छद्धे वि गम्मई सव्वपडिसेहो ॥ गा. ३०९८ । तो कहमिहेव भणियं उवउत्ता दसणे य नाणे य? । समुदायवयणमेयं उभयनिसेहो य पत्तयं ॥ गा० ३०९९ । जमपजंताई केवलाई तेणोभओवओगो त्ति । भण्णइ नायं निअमो संतं तेणोवओगो त्ति ॥ गा० ३१००। एगयराणुवउत्ते तदसव्वदरिसणत्तण न तं च । भण्णइ छ उमत्थस्सवि समाणमेगन्तरे सव्वं ॥गा. ३१.३। अह जम्मि नोवउत्तो तं नयि तओन दंसणाइतिगे। अस्थि जुगवोवओगो त्ति होउ साहू कहं विगलो?॥ गा० ३१०६ । आह भणियं नणु सुए केवलिणो केवलोवओगेण । पढम त्ति तेण गम्मइ सओवओगोभयं तेसिं॥ गा० ३१०८। उवओगग्गहणाओ इह केवलनाणदसणग्गहणं । जइ तदणत्थंतरया हवेज सुत्तम्मि को दोसो ?॥गा०३१०९। तग्गहणे किमिह फलं नणु तदणत्यंतरोवएसत्थं । तह वत्थुविसेसत्यं सयसो सुत्ताई समयम्मि ॥ गा० ३११०। सिद्धो काइय-नोसंजयाइपजायओ स एवेगो । सुत्तेसु विसे सिजइ जहेह तह सव्ववत्थूणि ॥ गा० ३१११ । जइ केवलीण जुगवं उवओगा होज होज तो एवं । सागारऽणगारयमीसाण य तिण्हमप्पबहुं ॥ गा० ३१२५। जइ नन्नुन्नावरणं नाकारणया कहं तदावरणं । एतरोवओगे जिणस्स तं भण्णइ सहावो ॥ गा० ३१३४ । परिणामियभावाओ जीवतं पिव सहाव एवायं । एगंतरोवओगो जीवाणमणण्णहेउ त्ति ॥ गा० ३१३५॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० द्वितीये काण्डे जह पासइ तह पासउ पासइ जो जेण दंसणं तं से । जाणइ अ जेण अरहा तं से णाणं ति घेत्तव्वं ॥२२३॥ -नन्दि• चू० । नन्दि० ल० । धर्मसं० गा० १३५६ । नन्दि० म० । जं केवलाई साई अपज्जवसियाई दो वि भणिआई । तो बिंति केइ जुगवं जाणइ पासइ य सवण्णू ॥२४॥ -नन्दि० चू० । नन्दि० ल. । धर्मसं० गा० १३३८ । नन्दि० म०। इहराऽऽईणिहणत्तं मिच्छाऽऽवरणक्खओ त्ति व जिणस्स । इयरेयरावरणया अहवा णिकारणावरणं ॥२२५॥ -विशेषा० भा० गा० ३१०२ । नन्दि० चू० । नन्दि० ल. । धर्मसं० गा० १३३९ । नन्दि० मः। तह य असव्वण्णुत्तं असव्वदरिसत्तणप्पसंगो य । एगंतरोवओगे जिणस्स दोसा बहुविहीया ॥२२६॥ -नन्दि० चू० । नन्दि० ल० । धर्मसं० गा० १३४० । नन्दि० म० । ठिइकालं जह सेसईसणणाणाणमणुवओगे वि । दिट्ठमवट्ठाणं तह ण होइ किं केवलाणं पि ॥२२७॥ -विशेषा० भा० गा० ३१०१। तुल्ले वि णाणदसणसम्भावे किह णु जुगवमुवओगो । छउमत्थस्साणिट्ठो इट्ठो य जिणस्स दुविहो वि ? ॥२२८॥ सव्वक्खीणावरणो अह मण्णसि केवली ण छउमत्थो । तो जुगवमजुगवं पि य उवओगविसेसणं तेसि ॥२२९॥ -विशेषा० भा० गा० ३१०४ । देसक्खए अजुत्तं जुगवं कसिणोभओवओगित्तं । देसोभओवओगो पुणाइ पडिसिज्झए कीस ? ॥ २३०॥ -विशेषा० भा० गा० ३१०५ । अह णेवं सो घेप्पउ जह छउमत्थस्स तह जिणस्सावि । दोण्हं उवओगागं एगयरो एगसमयम्मि ॥ २३१॥ तो भणइ एव मिच्छा उभयावरणक्खओ त्ति केवलिणो। उवउत्तस्सेगयरे जेणेगयरस्स आवरणं ॥ २३२॥ भण्णइ भिण्णमुहुत्तोवओगकाले वि तो तिणाणस्स । मिच्छा छावट्ठीसागरोवमाई खओवसमो॥ २३३ ॥ -नन्दि० चू० । नन्दि० ल० । धर्मसं. गा० १३४१ । नन्दि० म०। १ "एवं पराभिप्पाए पडिसिद्धे एगंतरोवयोगता सिद्धा। तहविमं भण्णति"-नन्दि० चू०। २ "तत्थ जे ते भणति जुगवं जाणइ पासइ य ते इमं उववत्तिं उवदिसंति"।-नन्दि. चू० । "सांप्रतं युगपदुपयोगवादिमतप्रदर्शनायाह"-नन्दि० ल० । ३ “यस्मात् केवलज्ञानदर्शने साद्यपर्यवसिते द्वे अपि भणिते ततो ब्रुवते केचन सिद्धसेनाचार्यादयः किम् ? युगपदेकस्मिन् काले जानाति पश्यति च कः? सर्वज्ञ इति गाथार्थः"-नन्दि० ल.। ४ "इतरथान्यथा आदिनिधनवं सादिपर्यवसानलं केवलज्ञानदर्शनयोरुत्पत्त्यनन्तरमेव केवलज्ञानोपयोगकाले केवलदर्शनाभावादेव केवलदर्शनोपयोगकालेऽपि केवलज्ञानाभावात् । तथा, मिथ्यावरणक्षय इति वा जिनस्य-न ह्यपनीतावरणौ द्वौ प्रदीपौ क्रमेण प्रकाश्य प्रकाशयत इत्यभिप्रायः । तथा इतरेतरावरणता-खावरणे क्षीणेप्यन्यतमभावे अन्यतमाभावादिति भावना । अथवा निष्कारणावरणमित्यकारणमेव अन्यतरोपयोगकालेऽन्यतरस्यावरणम् तथा च सति सर्वदेव भावाभावप्रसङ्गस्तथा चोक्तम्नित्यं वा सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कलसंभवः ॥ इति गाथार्थः" -नन्दि० ल.। ५ "व्याख्या-तथा च सति असर्वज्ञवं असर्वदर्शिवप्रसङ्गश्च पाक्षिकं वा असर्वज्ञवम्-यदा सर्वज्ञो न तदा सर्वदर्शी दर्शनोपयोगाभावादेव, यदा सर्वदर्शी न तदा सर्वज्ञः ज्ञानोपयोगाभावात् । एवमेकान्तरोपयोगे ह्युपगम्यमाने सति जिनस्य केवलिनः दोषा बहुविधा इति गाथार्थः"-नन्दि० ल.। ६ “एवं परेण बहुधा भणिते आगमवादी उत्तरमिममाह"।-नन्दि० चू०। "एवं परेणोक्ते सत्यागमवाद्याह"-नन्दि० ल.।। ७ “व्याख्या । यदुक्तमितरथादिनिधनत्वमिति । तदसदिति दर्शयति-उपयोगानुपयोगकालापेक्षयैव साद्यपर्यवसितखात् केवलज्ञानदर्शनयोरित्यभिप्रायो न चानर्थमिदम् कथम् ? भण्यते अन्यथा हि भिन्नमुहूर्तोपयोगकाले मत्यादीनां ततस्त्रिज्ञानिनः मिथ्या षट्षष्टिसागरोपमाणि क्षयोपशमः प्रतिपादितश्च सूत्रे न च युगपदेव मत्याधुपयोगः । एवं क्षायिकोपयोगेपि भविष्यति । जीवखाभाव्यादिति गाथाभिप्रायः"-नन्दि० ल.। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा | अह ण वि एवं तो गुण जहेन खीणंतराइओ अरहा। संते वि अंतराक्वयम्मि पंचप्पगारम् ॥२३४॥ - नन्दि० चू० । नन्दि० ० धर्म० गा० १३४२ नन्दि० म० । समयं ण देह लद्द व मुंजइ उपभुंजई य सम्वष्णू जम्मि देह लह व भुंज व तहेव एवं पि ॥ २३५॥ नन्दि० चू० । नन्दि० स० । धर्मसं०] गा० १३४३ । नन्दि० म० । देतस्स लभंतस्स य भुजंतस्स वि जिगस्स एस गुणो खीणंतराइयते जं से विग् ण संभव ॥ २३६॥ - नन्दि० चू० । नन्दि० ल० । धर्मसं० गा० १३४४ । नन्दि० म० । उवउत्तस्सेमेव य णाणम्मि व दंसणम्मि व जिणस्स । खीणावरणगुणोऽयं जं कसिणं मुणइ पासइ वा ॥ २३७ ॥ नन्दि० चू० । नन्दि० ल० । धर्मसं० गा० १३४५ । नन्दि० म० । तो भइ केवलाणं पत्तो इयरेयरावरणदोसो । भण्णइ चउणाणिस्स वि स एव दोसो समाविसइ ॥ २३८॥ एवं विणा वि णामं कारणमुप्पायविगमया पत्ता । एवं च सइ विष्णाणुब्भवो कह णु सिद्धाणं ? ॥ २३९ ॥ जुगवाणुओगिते बुधइ चढणानिणो विणा हे बिगमुप्पाओ जह तह जिणस्स जड़ होज को दोस्रो ॥ २४० ॥ अवा लीणावरणे जिणम्मि निकारणावरणदोसो न उ जुज्जइ छउमत्थे संतावरणे ति ते बुद्धी ॥ २४१ ॥ भइ छ उमत्थस्स वि णाणेगयरोवओगिभाव से संते वि खओवसमे सेसावरणं न संभवइ ॥ २४२ ॥ जेणं जया ण जाणइ णूणमुइण्णं तदा तदावरणं अध संतेण ण जाणइ मिच्छावरणक्खओवसमो ॥ २४३ ॥ एवं जं ञं का उववज्जइ जम्मि जम्म णागम्मि तं तं का जुत्तो तस्सावरणवखओवसमो ॥ २४४ ॥ ठिकालविवाओ णाणाणं न वि स ते चढण्णाणी एवं सति छठमत्थो अस्थि न जइ दंसणी समए ॥ २४५॥ - विशेषा० भा० गा० ३१०७ । । । पातो ण वि जाणइ जाणं व ण पासई जइ जिणंदो। एवं ण कयाइ वि सो सव्वण्णू सव्वदरिसी य ॥ २४६॥ नन्दि० चू० । नन्दि० ० धर्मसं० गा० १३४६ । नन्दि० म० । जुगनमजाणतो वि हु चतहिं णामेहिं जह चउण्णाणी भण्णइ तहेब अरहा सव्यण्णू सव्यदरिसी ये ॥ २४७ ॥ - नन्दि० पू० । नन्दि० ० धर्मसं०] गा० १३४७ । नन्दि० म० । तुले उभवावरणक्यम्मि पुग्वयरमुज्भवो करा दुबिहुबओगाभावे जिणस्स जुगवं ति थोरै ॥ २४८ ॥ नन्दि० चू० । नन्दि० ० धर्मसं० गा० १३४८ । नन्दि० म० । भैण्णइ ण एस जियमो जुगनुपने जुगनमेवेह होयव्यं उवओगेण एत्थ गुण तान दिद्रुतं ॥ २४९ ॥ नन्दि० चू० । नन्दि० ० धर्मसं० गा० १३४९ । नन्दि० म० । १ “जधा तओ तत्थस्स मतिसुतावधिणाणेसु अंतमुहुत्तो कालोवयोगसंभवो उवयोगाणुवयोगेण य छावद्विसागरा से द्वितिकालो दिट्ठो तथा जति जिणस्स गाणदंसणा सादिअपजवसान उपयोगाणुवयोगेण भवति तो को दोस्रो ! जति एवं ते णामयं तो इमं ते कथं अणुमतं भविस्सति ?” – नन्दि० चू० । " न च क्षयकार्येण अवश्यमनवरतमेव भवितव्यमिति दर्शयन्नाह" नन्दि० ० । ६०१ २ " पुणो पर आह" - नन्दि० चू० । " व्याख्या - पश्यमपि न जानाति जानन् वा न पश्यति यदि जिनेन्द्रः । एवं न कदाचिदप्यसी सर्वज्ञः सर्वदशांच युगपदम्यतरोपयोगकालेऽन्यतरोपयोगानुभावादिति गाथार्थः नन्दि० ० । ३ "उत्तरमाचा आह" नन्दि० चू० । " सिद्धान्तवाद्याह” – नन्दि० ल० । ४ इयं तु निगदसिव नवरं क्षायिकभावमाधित्येति गाथार्थः " नन्दि० ० 1 ५ " पर एवाह" - नन्दि० चू० । ६ “व्याख्या- तुल्ये उभयावरणक्षये केवलज्ञानदर्शनावरणक्षये पूर्वतरं प्रथमतरमुद्भवः उत्पादः कस्य ? यदि ज्ञानस्य सकिनिबन्धन इति वाच्यम्। तदावरणक्षयनिबन्धन इति चेत् दर्शनेऽपि तुल्य इति तस्याप्युद्धवप्रसङ्गः । एवं दर्शनेपि वाच्यः । अतः खावरणक्षयेऽपि दर्शनाभाववद् ज्ञानस्याप्यभावप्रसङ्गः । विपर्ययो वा एवं द्विविधोपयोगाभावे जिनस्य युगपदिति चोदयत्ययं गाथार्थः " - नन्दि० ल० । ७" उत्तरमाचार्य आह" नन्दि० चू० । "अत्र सिद्धान्तवाद्याह" - नन्दि० ल० ७७ स० त० - Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ द्वितीये काण्डे जह जुगवुप्पत्तीइ वि सुत्ते सम्मत्तमइसुयाईणं । णत्थि जुगवोवओगो सम्वेसु तहेव केवलिणो ॥२५०॥ -नन्दि० चू। नन्दि० ल.। धर्मसं. गा० १३५० । नन्दि०म०। भणियं पिय पण्णत्ती-पण्णवणाईसु जह जिणो समयं । जं जाणइ ण वि पासइ तं अणु-रयणप्पभाईणि ॥२५॥ -विशेषा० भा० गा० ३११२ । नन्दि० चू० । नन्दि० ल.। धर्मसं० गा० १३५१ । नन्दि० म०। इवसहमतुप्पच्चयलोवा तं बिंति केइ छउमत्थे । अण्णे पुण परतित्थिअवतव्वमिणं तं जपंति ॥ २५२॥ -विशेषा० भा० गा० ३११३ । जं छउमत्थाऽऽधोहियपरमावहिणो विसेसिङ कमसो। णिदिसइ केवलित्तेण तस्स छउमत्थया णस्थि ॥२५३॥ -विशेषा० भा० गा० ३११४ । ण य पासइ अणुमण्णो छउमत्थो मोत्तुमोहिसंपण्णं । तत्तो जो परमावहिणाणी तत्तो वि किंचूणो ॥ २५४ ॥ -विशेषा० भा० गा० ३११५ । ते दो वि विसेसेउं अण्णो छउमत्थकेवली को सो? । जो पासइ परमाणुं गहणमिहं जस्स होजा हि ॥२५५॥ -विशेषा. भा० गा० ३११६ । तेसिं चिय छउमत्थाइयाण मग्गिजए जहिं सुत्ते । केवलसंजम-संवर-बंभाईएहिं निव्वाणं ॥ २५६ ॥ -विशेषा० भा० गा० ३११७ ॥ तिण्णि वि पडिसेहेउं तीसु वि कालेसु केवली तत्थ । सिज्झिसु सिज्झइ त्ति य सिज्झिस्सइ या विणिहिट्ठा २५७॥ -विशेषा. भा० गा० ३११८ । एवं विसेसयम्मि वि परमयमगंतरोवओगो ति । ण पुण जुगवोवओगो परवत्तव्वं ति का बुद्धी?॥ २५८ ॥ -विशेषा० भा० गा० ३११९ । अण्णं च इमा गाहा समए सिद्धाहिगारपरिपढिया । फुडवियडत्थं साहइ जिणस्स एर्गतरुवओगं ॥ २५९ ॥ णाणम्मि दसणम्मि य एत्तो एगतरगम्मि उवउत्ता । सव्वस्स केवलिस्सा जुगवं दो पत्थि उवओगा ॥२६॥ -विशेषा० भा० गा० ३०९६ । नन्दि० चू० । नन्दि० ल० । धर्मसं० गा० १३५७ । नन्दि० म । सिद्धाण वि एगयरोवओगवत्तित्तणं ति एईसे । पुबद्धणं सिद्धं अच्छउ पच्छद्धमिह ताव ॥ २६१॥ परवत्तव्वामिण ति य भणिज एवं पि कोइ तं ण भवे । पण्णत्तीए विसेसियमेयं जम्हा णियंठेसु ॥ २६२ ॥ ठेवओगो एगयरो पणुवीसइमे सए सिणायस्स । भणिओ वियडत्थो चिय छट्ठद्देसे विसेसेउं ॥ २६३ ॥ -विशेषा० भा० गा० ३१२० । नन्दि० चू० । नन्दि० ल० । धर्मसं० गा० १३५८ । नन्दि० म०। पण्णवणाचरमैपए भणिओ सिद्धो विसुद्धनाणीहिं । सागारे उव उत्तो सिज्झइ जह तत्थ गंतूणं ॥ २६४ ॥ अह भणसी सव्वं चिय सागारं से अओ अदोसो त्ति । ता सिद्धलक्खणं कह भणियं सागारऽणागारं ॥२६५॥ एवं फुडवियडम्मि वि सुत्ते सव्वण्णुभासिए सिद्धे । कह तीरइ परतिस्थियवत्तव्वमिणं ति वोत्तुं जे ?॥ २६६ ॥ -विशेषा० भा० गा० ३१२१ । सव्वत्थ सुत्तमत्थि य फुडमेगयरोव उत्तसत्ताणं । उभओवउत्तसत्ता सुत्ते वुत्ता ण कत्थइ वि॥२६॥ -विशेषा० भा० गा० ३१२२ । कस्सइ वि णाम कत्थइ काले जइ होज दोवि उवओगा । उभओवउत्तसत्ताण सुत्तमेगं पिता हुज्जा ॥२६८॥ -विशेषा० भा० गा० ३१२३ । दुविहाणं पि य जीवाण भणियमपबहुयं ससमयम्मि । सागारऽणगाराण य ण भणियमुभओवउत्ताणं ॥२६॥ -विशेषा. भा० गा० ३१२४ । जइ केवलीण जुगवं उवओगा होज होज तो एवं । सागारऽणगाराण य मीसाण य तिहमप्पबहु ॥ २७ ॥ -विशेषा० भा० गा० ३१२५ । १ "किंच, सिद्धाधिकारे एगंतरोवयोगदंसिगा इमा पाहुडा गाहा"-नन्दि० चू०। "खपक्षे समर्थनायैव सिद्धान्तवाद्याह"-नन्दि० ल.। २ "किंच, भगवईए"-नन्दि० चू०। "नवरं भगवत्यां पञ्चविंशतितमे शते [श. २५ उ०६ पृ. ८९९ द्वि० सू० ७६७] अधिकारोपलक्षिते सिणाययस्स त्ति स्नातकस्य केवलिनः।"-नन्दि. ल.। ३ प्रज्ञाप० प० ३६ पृ. ६०७ सू० ३४९ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा | 1 • ० अव मई उमर पहुच मुतमिणमो ण केवलिनो तं पि न जुबइ जं सम्यत्तसंखाहिगारोऽयं ॥ २७१ ॥ विशेषा भा० गा० ३१२६ । काउं सिद्धग्गहणं बहुवत्तव्वयपएसु सव्वेसु । इह केवलमग्गहणं जइ ते तं कारणं वचं ॥ २७२ ॥ - विशेषा० भा० गा० ३१२७ । अहवा विसेति चिय जीवाभिगमम्मि एतमप्पबहुं । दुबि त्ति सम्वजीवा सिद्धा सिद्धादिया जत् ॥ २७३ ॥ --विशेषा० भा० गा० ३१९८ । सिद्ध सइंदियकाए जोगे वेए कसाय लेसा य । णाणुवओगाहारगभासा य सरीरचरिमे य ॥ २७४ ॥ - विशेषा० भा० गा० ३१२९ । अंतोमुहुत्तमेव य कालो भणिओ तहोब ओगस्स साई अपजातिओ त्ति णत्थि कत्थई वि मिहिझे ॥ २७५ ॥ — विशेषा० ० भा० गा० ३१३० । जह सिद्धाईयाणं भणियं साईअप जवसियतं । तद् जइ उवओगाणं हवेज तो होज ते जुगवं ॥ २७६ ॥ - विशेषा० भा० गा० ३१३१ । 1 होंति जुगवं जओ णिसिद्धा सुए बहुसो ॥ धर्मसं० गा० १३५९ । नन्दि० म० । ण केस्स व णाणुमयमिणं जिणस्स जइ होज्ज दो वि उवओगा । णूणं - विशेषा० भा० गा० ३१३२ । नन्दि० चू० । नन्दि० ० वि अभिणिवेसबुद्धी अम्हं एगंतरोवओगम्मि । तह वि भणिमो ण तीरइ जं जिणमयमण्णहा काउं ॥ २७८॥ - विशेषा० भा० ना० ३१३३ । 1 1 मोण हेउवायं आगममेत्तावलंबियो होउं सम्ममणुचिंतणिजं किं समजुतमेयमि ॥ २७९ ॥ अहवा ण सव्दसो थिय सव्वं जिनमयमउयं भणियं किंतु अणुयत्तमाणो अण्णत्तं हे उओ भगइ " ॥ २८० ॥ अत्र श्रीमानादिव्यवस्थापितलेन प्रसिद्ध एक एवं उपयोगयोगपयपक्षो दिगम्बरीयेषु प्रवचनसार - आप्तमीमांसा अष्टशती-अष्टसहस्री-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- नियमसार - गोम्मटसार - बृहद्रव्यसंग्रहेषु स्पष्टमुपलभ्यते नेतरौ खण्डनीयत्वेनापि । अनुक्रमेण तद्यथा "तेकालणिच्च विसमं सकलं सव्वत्थसंभवं चित्तं । जुगवं जाणदि जोन्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं ॥ ज्ञानाधि० १ ।। ५१ ।। "तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् कमभावि च यज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥ १०१ ॥ परि० [० १० पृ० ४४ । ६०३ तत्र सकलज्ञानावरणपरिक्षयविजृम्भितं केवलज्ञानं युगपत्सर्वार्थविषयं करणक्रमव्यवधानातिवर्तिसाद् युगपत्सर्वरासनं तत्त्वज्ञानखात् प्रमाणम् । तथोकम् 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' इति सूत्रकारैः केवलज्ञानदर्शनयोः क्रमवृत्तिलात् क्षुरादिज्ञानदर्शनवयुगपत्सर्वभासनमयुक्तमिति चेन्न तयोर्यौगपद्यात्, तदावरणक्षयस्य युगपद्भावात् 'मोक्षयाज्ज्ञानदर्शना । १ सिद्धान्तवाद्येवानुद्धतत्वमागमभक्ति च परां ख्यापयन्नाह - नन्दि० ल० । इतो धर्मसंप्रदष्यामिमा गाथा अधिका वर्तन्ते --- / जं दंसणणाणाई सामन्नविसेसगहणरूवाई । तेण ण सव्वण्णू सो णाया ण य सव्वदरिसी वि ॥ समुदितमुभयं सव्वं अन्यतरेण ण वि पेप्पति तयं च भेदाभेदेवि महो एसो सतु होइ नातो ति ॥ सामनमिह कहंची गेयं अन्तरीयविखे ते वि इतरेण एवं उभयं पि ण जुलाई इहरा ॥ एवं च उभयरूले सिद्धे सव्वम्मि वायुजायम्मि । दंसणणाणे वि फुढं सिद्धे यि सब्दविसए ति ॥ जं एत्थ णिव्विसेसं गहो विसेसाण दंसणं होति । सविसेसं पुण णाणं ता सयलत्थे तओ दो वि ॥ समताधम्मविसिद्धं पेप्पति जं दंसणेण सव्वं तु पण तु विसमताए ता कइ सवलत्थमिति वत्तम्बं ! ॥ एवं विवज्जासेणं णाणस्स वि असयलत्थया णेया उभयग्गहणे [य] दोहवि अविसेसो पावती णियमा ॥ समएतरधम्मार्ण मेदामेदम्मि ण खल अण्णोष्णं निरवेक्खमेव ग्रहणं इस सयलत्थे तभी दो वि ॥ जं सामण्णप्पहाणं गहणं इतरोवसज्जणं चेव । अत्थस्स दंसणं तं विवरीयं होइ गाणं तु ॥ जीवसहावातो चिय एतं एवं तु होइ णातव्यं अविसिद्धम्मि वि अत्ये जुगवं चिय उभवरुने वि ॥ अन्ने सम्वं यं जगति सो जेण तेण सम्यम् । सव्वं च दरिसनिजं पासइ ता सम्पदरिति ति ॥ या तु विसेस चिय सामण्णं चैव दरिसणिज्जं तु । ण य अण्णेयण्णाणे वि तस्स णो इट्टसिद्धि त्ति ॥ मा० १३५०-१३७१ धर्मसं० ४० ४४२ द्वि० । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे - वरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्' इति अत्र प्रथमं मोहक्षयस्ततो ज्ञानावरणादित्रयक्षयः सकृदिति व्याख्यानात् । तज्ज्ञानदर्शनयोः क्रमवृत्ती हि सर्वज्ञत्वं कादाचित्कं स्याद् दर्शनकाले ज्ञानाभावात् तत्काले च दर्शनाभावात् । सततं च भगवतः केवलिनः सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शित्वं च साद्यपर्यवसिते केवलज्ञानदर्शने इति वचनात् । कुतस्तत्सिद्धिरिति चेत् निर्लोठितमेतत् सर्वज्ञसिद्धिप्रस्तावे न पुनरिहोच्यते । केवलज्ञानदर्शनयोर्युगपद्भावः कुतः सिद्ध इति चेत्, सामान्य - विशेषविषय योर्वि गतावरणयोरयुगपत्प्रतिभासायोगात् प्रतिबन्धकान्तराभावात् । सामान्यप्रतिभासो हि दर्शनं विशेषप्रतिभासो ज्ञानम् । तत्प्रतिबन्धकं ज्ञानावरणं दर्शनावरणं च । यदुदयादस्मदादेः केवलज्ञानदर्शनानाविर्भावः तयोश्च युगपदात्मविशुद्धिप्रकर्षविशेषात् परिक्षयसिद्धेः कथमिवा युगपत्प्रतिभासनं सामान्यविशेषयोः स्यात् प्रक्षीणाशेषमोहान्तरायस्य प्रतिबन्धान्तरं च कथमिव संभाव्येत येन युगपत्तद्वितयं न स्यात् ? अस्तु नाम केवलं तत्त्वज्ञानं युगपत्सर्वभासनम्, मतिश्रुतावधिमनः पर्ययज्ञानं तु कथमित्युच्यते" । अष्टश० अष्टस० पृ० २८१ पं० ५। ६०४ “सोपयोगस्यानेकस्य ज्ञानस्यैकत्र यौगपद्यवचने हि सिद्धान्तविरोधः सूत्रकारस्य न पुनरनुपयोगस्य सह द्वावुपयोगौ न स्त इति वचनात् ॥ सोपयोगयोर्ज्ञानयोः सह प्रतिषेधादिति निवेदयन्ति - क्षायोपशमिकं ज्ञानं सोपयोगं क्रमादिति । नार्थस्य व्याहतिः काचित् क्रमज्ञानाभिधायिनः ॥ निरुपयोगस्यानेकस्य ज्ञानस्य सहभाववचनसामर्थ्यात् सोपयोगस्य क्रमभावः क्षायोपशमिकस्येत्युक्तं भवति तथा च नार्थस्य हानिः क्रमभाविज्ञानावबोधकस्य सम्भाव्यते । अत्रापराकूतमनूद्य निराकुर्वन्नाह मोपयोगौ सह स्यातामित्यार्याः ख्यापयन्ति ये । दर्शनज्ञानरूपौ तौ न तु ज्ञानात्मकाविति ॥ ज्ञानानां सह भावाय तेषामेतद्विरुद्धयते । क्रमभावि च यज्ज्ञानमिति युक्तं ततो न तत्" ॥ १-३० लो० ६-८ पृ० २५३ पं० ३०। “जुगवं वहइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा । दिणयरपयास - तापं जह वह तह मुणेयव्वं ॥ १६० ॥ “सिद्धाणं सिद्धगई केवलणाणं च दंसणं खयियं । सम्मतमणाहारं, उवजोगा ण कमपउत्ती” ॥ ७३० ॥ "दंसणपुव्वं गाणं, छदमत्थाणं ण दोण्णि उवउग्गा । जुगवं जम्दा केवलि-णाहे जुगवं तु ते दोवि ॥ ४४ ॥ दंसणपुत्रं गाणं छदमत्थाणं" सत्तावलोकनदर्शनपूर्वकं ज्ञानं भवति छद्मस्थानां संसारिणाम् । कस्मात् "ण दोण्णि उवउग्गा जुगवं जम्हा” ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयं युगपन्न भवति यस्मात् "केवलिणाहे जुगवं तु ते दोऽवि” केवलिनाथे तु युगपत्ती ज्ञानदर्शनोपयोगी द्वौ भवत इति” – पृ० १६९ पं० ३-८ । अत्रेदमवधातव्यं विशेषावश्यकभाष्ये नन्दिचूर्ण्य च पक्षत्रयं पुरस्कर्तॄणां नामानि अनिर्दिश्यैव सामान्यतो वर्णितम् हरिभद्रीयायां मलयगिरीयायां च वृत्तौ क्रमोपयोगपक्षः श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणादिसत्कत्वेन युगपदुपयोगपक्षः श्रीसिद्धसेनादिसत्कत्वेन एकोपयोगपक्षश्च श्रीवृद्धाचार्यादिसत्कत्वेन उपन्यस्तः परन्तु सम्मतिटीकाकारैः श्रीमदभयदेवैः युगपदुपयोगपक्षः श्रीमल्लवादिसत्कत्वेन एकोपयोगपक्षश्च प्रकरणकार - सिद्धसेन दिवाकर - सत्कत्वेन वर्णितः श्रीहरिभद्राभयदेवमलयगिरीणां पक्षद्वयपुरस्कर्तृ विषयोऽयं मतभेदः वाचकवर्यैः श्रीमद्यशोविजयैरित्थं परिहृतः - " इदमिदानीं निरूप्यते - केवलज्ञानं स्वसमानाधिकरण केवलदर्शन समानकालीनं न वा, केवलज्ञानक्षणत्वं स्वसमानाधिकरणदर्शनक्षणाव्यवहितोत्तरत्वव्याप्यं न वा ? एवमाद्याः क्रमोपयोगवादिनां जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादानाम्, युगपदुपयोगवादिनां च मलवादिप्रभृतीनाम्, यदेव केवलज्ञानं तदेव केवलदर्शनमिति वादिनां च महावादि श्री सिद्धसेनदिवाकराणां साधारण्यो विप्रतिपत्तयः । यत्तु युगपदुपयोगवादित्वं सिद्धसेनाचार्याणां नन्दिवृत्तावुकं तदभ्युपगमवादाभिप्रायेण न तु खतन्त्रसिद्धान्ताभिप्रायेण क्रमाक्रमोपयोगद्वयपर्यनुयोगानन्तरमेव खपक्षस्य संमतावृद्भावितत्वादिति द्रष्टव्यम्” – ज्ञानबिं० पृ० १५४ द्वि० पं० ५ । सार्वश्य विषय को क्तपक्षत्रयगतः पारस्परिको बलीयान् विवादस्तेरेव नयवादाश्रयेण इत्थं समाहितः "मेदप्राही व्यवहृतिनयं संश्रितो मल्लवादी पूज्याः प्रायः करणफलयोः सीनि शुद्धर्जुसूत्रम् । मेदोच्छेदोन्मुखमधिगतः संग्रहं सिद्धसेनस्तस्मादेते न खलु विषमाः सूरिपक्षास्त्रयोऽपि ॥ चित्सामान्यं पुरुषपदभाक्केवलाख्ये विशेषे तद्रूपेण स्फुटमभिहितं साधनन्तं यदेव । सूक्ष्मैरंशैः क्रमवदिदमप्युच्यमानं न दुष्टं तत्सूरीणामियमभिमता मुख्यगौणव्यवस्था ॥ तमोऽपगमचिज्जनुःक्षणभिदा निदानोद्भवाः श्रुता बहुतराः श्रुते नयविवादपक्षा यथा । तथा क इव विस्मयो भवतु सूरिपक्षत्रये प्रधानपदवी घियां क नु दवीयसी दृश्यते" ॥ - ज्ञानबिं० पृ० १६४ प्र० छो० २,३,४, Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा | ६०५ head "दा जानाति तदा न पश्यति जिनः" इति सूत्रम् - "केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढविं आयारेहिं पमाणेहिं हेऊहिं संठाणेहिं परिवारेहिं जं समयं जाणइ नो तं समयं पासइ ? हंता गोयमा ! केवली णं" [ ] इत्यादिकम् - अवलम्बमानाः । अस्य च सूत्रस्य किलायमर्थः - केवली सम्पूर्णबोधः 'णं' इति प्रश्नोऽभ्युपगमसूचकः । 'भन्ते !' इति भगवन् ! इमां रत्नप्रभामन्वर्थाभिधानां पृथ्वीमाकारैः समनिम्नोन्नतादिभिः प्रमाणैर्देर्घ्यादिभिः हेतुभि ५ रनन्तानन्तप्रदेशिकैः स्कन्धैः संस्थानैः परिमण्डलादिभिः परिवारैः घनोदधिवलयादिभिः 'जं समयं णो तं समयं' इति च "कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे” [ पा० २-३-५ ] इति द्वितीयाँ अधिकरणसप्तमीबाधिका तेन यं समयं जानाति यदा जानातीत्यर्थः 'णो तं समयं पश्यतीति न तदा पश्यतीति भावः । विशेषोपयोगः सामान्योपयोगान्तरितः सामान्योपयोगश्च विशेषोपयोगान्तरितस्तत्स्वाभाव्यादिति प्रश्नार्थः । उत्तरं पुनः 'हंता गोयमा !' इत्यादिकं प्रश्नानुमोदकम् 'हंता' इत्यभिमतस्यामन्त्रणम् 'गौतम' १० इति गोत्रामन्त्रणम् प्रश्नानुमोदनार्थ पुनस्तदेव सूत्रमुच्चारणीयम् हेतुप्रश्नस्य चात्र सूत्रे उत्तरम् - "साकारे से णाणे अणागारे दंसणे" [ ] साकारं विशेषावलम्बि अस्य केवलिनो ज्ञानं भवति अनाकारमतिक्रान्तविशेषं सामान्यालम्बि दर्शनम् । न चानेकप्रत्ययोत्पत्तिरेकदा निरावरणस्यापि तत्स्वाभा व्यात् न हि चक्षुर्ज्ञानकाले श्रोत्रज्ञानोत्पत्तिरुपलभ्यते । न चावृतत्वात् तदा तदनुत्पत्तिः स्वसमयेऽप्य नुत्पत्तिप्रसङ्गात् । ततो युगपदने कप्रत्ययानुत्पत्तौ स्वभाव एव कारणम् नावरणसद्भावः । सन्निहिते ऽपि १५ चयात्मके विषये विशेषांशमेव गृह्णन् केवली तत्रैव सामर्थ्यात् सर्वज्ञ इति व्यपदिश्यते सर्वविशेषशत्वात् सर्वसामान्यदर्शित्वाच्च सर्वदर्शी । यच्चैवंव्याख्यायामकिञ्चिज्ज्ञत्वं केवलिनः होढैदानं चेति दूपणम्, तन्नः यतो यदि तत् केवलं ज्ञानमेव भवेद् दर्शनमेव वा ततः स्यादकिञ्चिज्ज्ञता न चैवम् आलदानमपि न संभवति 'यं समयं' इत्याद्युक्तव्याख्यायाः सम्प्रदायाविच्छेदतो ऽपव्याख्यानत्वायोगात् । न च दुःसम्प्रदायोऽयम् तदन्यव्याख्यातॄणामविसंवादात् "जं समयं च णं समणे भगवं महा २० वीरे" [ ] इत्यादावप्यागमे असकृदुच्चार्यमाणस्यास्य शब्दस्यैतदर्थत्वेन सिद्धत्वात् । ततो दुर्व्याख्यैषा - यैः समकं यत्समकमिति भवतैव होढदानं कृतम् । [ केवलोपयोगद्वयस्य क्रमभावित्वं प्रतिषेध्य तत्सहभावित्वपरतया आगमस्य व्याख्यानम् ] एते च व्याख्यातारः तीर्थकरासादनाया अभीरवः तीर्थकरमासादयन्तो न विभ्यतीति यावत् । सा च 'न किञ्चिज्जानाति तीर्थकृदित्यधिक्षेपः' 'अन्यथोक्ते तीर्थकृतैवमुक्तम्' इत्यालदार्नम् । २५ तथाहि-- यदि विषयः सामान्यविशेषात्मकस्तदा विषयि केवलं विशेषात्मकं वा भवेत् सामान्यात्मकं वा ? यदि विशेषात्मकमिति पक्षस्तदा निःसामान्यविशेषग्राहित्वात् तेषां च तद्विकलानामभावात् निर्विषयतया तदवभासिनो ज्ञानस्याभाव इत्यकिञ्चिज्ज्ञः सर्वज्ञस्ततो भवेत् । अथ १" केवली णं भंते! इमं रयणप्पभ्रं पुढविं आगारेहिं हेतुहिं उवमाहिं दितेहिं वण्णेहिं संठाणेहिं पमाणेहिं पढोया रेहिं जं समयं जाणति तं समयं पासइ ? जं समयं पासइ तं समयं जाणइ ? गोयमा ! नो तिणट्ठे समट्ठे । सेकेणणं भंते ! एवं वुच्चति - 'केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं आगारेहिं जं समयं जाणति नो तं समयं पासति, जं समयं पासति नो तं समयं जाणति ? गोयमा ! सागारे से णाणे भवति, अणागारे से दंसणे भवति से तेणद्वेणं जाव णो तं समयं जाणति एवं जाव अहेसत्तमं । एवं सोहम्मकप्पं जाव अचुयं गेविजगविमाणा अणुत्तरविमाणा ईसीपब्भारं पुढविं, परमाणुं पोग्गलं दुपदेसियं खंधं जाव अणंतपदेसियं खंधं" इति संपूर्ण सूत्रम् - प्रज्ञाप० प० ३० सू० ३१४ पृ० ५३१ । एतत्सदृशान्यन्यानि सूत्राणि भगवतीसूत्रीयचतुर्दशाऽष्टादशशतकान्तर्गताभ्यां दशमाष्टमोद्देशकाभ्यां यथाक्रममवगन्तव्यानि । २ " कालाध्वनोर्व्याप्तौ " - हैम० २-२-४२ । ३ - या सप्तमीबा -ल० वा० बा० भ० मां० विना । ४ 'नाम' -ल० टि० । ५ " आलदानम्" - बृ० ल० टि० । ६ “सिद्धसेनदिवाकरेण " - बृ० टि० । ७ “जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणमतमुक्तम् सम्प्रत्युत्तरं कृतम्” - बृ० टि० । ८ सा न आ० हा० वि० । ९-नं च त भ० मां० विना । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डे - सामान्यात्मकम् एवमपि विशेषविकलसामान्यरूपविषयाभावतो निर्विषयस्य दर्शनस्याप्यभावान्न किञ्चित् केवली पश्येत् । अथायुगपद् ज्ञानदर्शने तस्याभ्युपगम्येते तथापि यदा जानाति न तदा पश्यति, यदा च पश्यति न तदा जानातीत्येकरूपाभावे अन्यतरस्याप्यभावात् पूर्ववदकिञ्चिज्ज्ञो ऽकिञ्चिद्दर्शी च स्यात् । उभयरूपे वा वस्तुन्यन्यतरस्यैव ग्राहकत्वात् केवलोपयोगो विपर्यस्तो वा भवेत् । ५ तथाहि - यद् उभयरूपे वस्तुनि सामान्यस्यैव ग्राहकं तद्विपर्यस्तम् यथा सांख्यज्ञानम् तथा च 'सामान्यग्राहि केवलदर्शनमिति तथा, यद् विशेषावभास्येव तथाभूते वस्तुनि तदपि विपर्यस्तम् यथा सुगतज्ञानम् तथा च केवलज्ञानमिति । यथा च सामान्यविशेषात्मकं वस्तु तथा प्रतिपादितमनेकधा । दानमपि सूत्रस्यान्यथाव्याख्यानादुपपन्नम् । तथाहि - न पूर्व प्रदर्शितस्तत्रार्थः किन्त्वयम् - केवली इमां रत्नप्रभां पृथिवीं यैराकारादिभिः समकं तुल्यं जानाति न तैराकारादिभिस्तुल्यं पश्यतीति १० किमेवं ग्राह्यम् ? 'एवम्' इत्यनुमोदना । ततो हेतौ पृष्ठे सति तत्प्रतिवचनं भिन्नालम्बनप्रदर्शकं तत् ज्ञानं साकारं भवति यतो दर्शनं पुनरनाकारमित्यतो भिन्नालम्बनावेतौ प्रत्ययाविति । इदं चोदाहरणमात्रं प्रदर्शितम् । एवं च सूत्रार्थव्यवस्थितौ पूर्वार्थकथनमालदानमेव । 'जंसमयं ' इत्यत्र 'जं' शब्दे 'अम्'भावः प्राकृतलक्षणात्— १५ णीया लोवमभूया आणीया दो वि बिंदु-दुब्भावा । अत्थं वहति तं चिय जो च्चिय सिं पुव्वनिद्दिडो' ॥ [ अभूत एव बिन्दुरिहानीतः । यथा 'यत्कृत सुकृते' इति "जंकयसुकयं" [ ६०६ २० ] ] इति लोकप्रयोगे ॥४॥ ३० [ आगमेन केवलज्ञान-दर्शनयो यौगपद्यमभिधाय अनुमानयुक्त्या पुनस्तत्प्रतिपादनम् ] आगमेनाभिधाय यौगपद्यं ज्ञान-दर्शनयोरनुमानेनाऽपि तयोस्तद् दर्शयितुमाहकेवलणाणावरणक्खयजायं केवलं जहा णाणं । तह दंसणं पि जुज्जइ णियआवरणक्खयस्संते ॥ ५ ॥ केवलज्ञानावरणक्षये यथोत्पन्नं विशेषावबोधस्वभावं ज्ञानं तथा तदैव दर्शनावरणक्षये सति सामान्यपरिच्छेदस्वभावं दर्शनमप्युत्पद्यताम् न ह्यविकलकारणे सति कार्यानुत्पत्तिर्युक्ता तस्यातत्कार्यताप्रसक्तेरितरत्राप्यविशेषतोऽनुत्पत्तिप्रसक्तेश्च । ज्ञानकाले दर्शनस्यापि संभवः तदुत्पत्तौ कारणसद्भावाद् युगपदुत्पत्त्यविकलकारणघटपटयुगपदुत्पत्तिवेत् । ननु च हेतौ सत्यपि २५ श्रुताद्यावरणक्षयोपशमे श्रुताद्यनुत्पद्यमानमपि कदाचित् दृष्टमित्यनैकान्तिको हेतुः नः श्रुतादौ क्षीणावरणत्वस्य हेतोरभावात् श्रुतादेः क्षीणोपशान्तावरर्णत्वात् । भिन्नावरणत्वादेव च श्रुतावधिवन्नैकत्वमेकान्ततो ज्ञानदर्शनयोरेकंदो भयाभ्युपगमवादेनैव ॥ ५ ॥ [ सर्वज्ञे छाद्मस्थिकक्रमोपयोगाभावात् तदृष्टान्तेनैव तत्र केवलज्ञानादन्यदा केवलदर्शनाभावप्रतिपादनम् ] दृष्टस्तजातीय एवासावन्यत्राप्यभ्युपगमार्हो न जात्यन्तरे धूमवत् पावकेतरभावाभावयोः अन्यथानुमानादिव्यवहारविलोपप्रसङ्गादित्याह भण्णइ खीणावरणे जह महणाणं जिणे ण संभवइ । तह खीणावरणिज्जे विसेसओ दंसणं नत्थि ॥ ६ ॥ १ "ध्यात्मके " - बृ० टि० । २ नीतौ लोपमभूतौ आनीतौ द्वावपि बिन्दु-द्विर्भावौ । अर्थं वहन्ति तमेव य एव तयोः पूर्वनिर्दिष्टः ॥ ३ " यदविकलकारणं तद् भवत्येव यथाऽऽदित्यप्रकाशसमये तदविनाभावी प्रतापः । अविकलकारणं च ज्ञानोत्पत्तिकाले दर्शनमिति प्रयोगः ” — वृ० टि० । ४-कतोभ - वा० बा० । ५ यो यो ह-बृ० । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । यथा क्षीणावर मति श्रुताऽवधि-मनः पर्यायज्ञानानि जिने न संभवन्तीत्यभ्युपगम्यते तथा तत्रैव क्षीणावरणीये विश्लेषतो ज्ञानोपयोगादन्यदा दर्शनं न संभवतीत्यभ्युपगन्तव्यम् क्रमोपयोगस्य मत्याद्यात्मकत्वात् तदभावे तदभावात् ॥ ६ ॥ [ क्रमवादिमतेऽनुमान विरोधवदागम विरोधोऽप्यापततीति प्रदर्शनम् ] न केवलं क्रमवादिनोऽनुमानविरोधः आगमविरोधोऽपीत्याह सुक्तम्म चेव साई अपज्जवसियं ति केवलं वृत्तं । सुत्तासायणभीरूहि तं च दट्ठव्वयं होइ ॥ ७ ॥ ६०७ साद्यपर्यवसाने केवलज्ञानदर्शने क्रमोपयोगे तु द्वितीयसमये तयोः पर्यवसानमिति कुतोऽपर्यवसितता? तेन क्रमोपयोगवादिभिः सूत्रासादना भीरुभिः “ केवलणाणे णं भंते !” [ ] इत्यादि आगमे साद्यपर्यवसानताभिधानं केवलज्ञानस्य केवलदर्शनस्य च द्रष्टव्यं पर्यालो- १० चनीयं भवति । सूत्रासादना चात्र सर्वज्ञाधिक्षेपद्वारेण द्रष्टव्या अचेतनस्य वचनस्याधिक्षेपायोगात् । न च द्रव्यापेक्षयाऽपर्यवसितत्वम् द्रव्यविषयप्रश्नोत्तराश्रुतेः । अथ भवतोऽपि कथं तयोरपर्यवसानता पर्यायाणामुत्पादविगमात्मकत्वात् ? न च द्रव्यपेक्षयैतदिति वाच्यम् अस्मत्पक्षेऽप्यस्य समानत्वात् । तद्विषयप्रश्नप्रतिवचनाभावान्नेति चेत् तर्हि भवतोऽपि द्रव्यापेक्षयाऽपर्यवसानकथनमयुक्तम्, असदेतत्; तयोर्युगपद् रूपरसयोरिवोत्पादाभ्युपगमान्न ऋजुत्व वक्रतावत् । एवमपि १५ सपर्यवसानतेति चेत्, नः कथंचित् केवलिद्रव्यादव्यतिरेकतस्तयोरपर्यवसितत्वात् । न च क्रमैकान्तेऽप्येवं भविष्यत्यनेकान्तविरोधात् । न चात्रापि तथाभावः तथाभूतात्मकै ककेव लिद्रव्याभ्युपगमात् रूपरसात्मैकद्रव्यवत् अक्रमरूपत्वे च द्रव्यस्य तदात्मकत्वेन तयोरप्यक्रम एव । न च तयोस्तद्रूपतया तथाभावो न स्वरूपतः तथत्वेऽनेकान्तरूपताविरोधान्निरावरणस्याक्रमस्य क्रमरूपत्वविरोधाच्च तस्यावरणकृतत्वात् । किञ्च, यदि सर्वथा क्रमेणैव तयोरुत्पत्तिरनेकान्तविरोधः । अथ कथञ्चित् तदा युग- २० पदुत्पत्तिपक्षोऽप्यभ्युपगतः । न च द्वितीये क्षणे तयोरभावे अपर्यवसितता छानस्थिकज्ञानस्यैव युक्ता । पुनरुत्पादाद पर्यवसितत्वे पर्यायस्याप्यपर्यवसितताप्रसक्तिः । द्रव्यार्थतया तत्त्वे द्वितीयक्षणेऽपि तयोः सद्भावोऽन्यथा द्रव्यार्थत्वायोगात् ॥ ७ ॥ [ सोपसंहारमागमविरोधस्य स्पष्टीकरणम् ] तदेवं क्रमाभ्युपगमे तयोरागमविरोध इत्युपसंहरन्नाह - २५ संतम्मि केवले दंसणम्मि णाणस्स संभवो णत्थि । केवलणाणम्मिय दंसणस्स तम्हा सणिहणाई ॥ ८ ॥ क्रमोत्पादे सति केवलदर्शने न तदा ज्ञानस्य संभवस्तथा केवलज्ञाने न दर्शनस्य तस्मात् सनिधने केवलज्ञानदर्शने ॥ ८ ॥ [ प्रकरणकारेण क्रमोपयोगद्वयवादिनम् सहोपयोगद्वयवादिनं च पर्यनुयुज्य खपक्षस्योपन्यासः ] ३० अत्र प्रकरणकारः क्रमोपयोगवादिनं तदुभयप्रधानाक्रमोपयोगवादिनं च पर्यनुयुज्य स्वपक्षं दर्शयितुमाह १- भवीन्यभ्यु - आ० हा ० वि० । २ “केवलणाणी णं पुच्छा, गोयमा ! सातिए अपज्जवसिते" - प्रज्ञाप० प० १८ सू० २४१ पृ० ३८९ । ३ - थात्वेनैका - वा० बा० आ० हा०वि० । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ सामान्यविशेषपरिच्छेदकावरणापगमे समाने कस्य प्रथमतरमुत्पादो भवेत् अन्यतरस्योत्पादे तदितरस्याप्युत्पादः स्यात् न चेदन्यतरस्यापि न स्यादविशेषात् इत्युभयोरप्यभाव५ प्रसक्तिः अक्रमोपयोगवादिनः कथमिति चेत् समम् एककालम् उत्पादस्तयोर्भवेत् सत्यक्रमकारणे कार्यस्याप्यक्रमस्य भावादित्यक्रमौ द्वावुपयोगौ । अत्रैकोपयोगवाद्याह- हंदि दुवे णत्थि उवओगा इति द्वावप्युपयोग नैकदेति ज्ञायताम् सामान्यविशेषपरिच्छेदात्मकत्वात् केवलस्येति ॥ ९ ॥ १० द्वितीये काण्डे - दंसणणाणावरणक्खए समाणम्मि कस्स पुव्वअरं । होज समं उप्पाओ हंदि दुए णत्थि उवओगा ॥ ९ ॥ २० [ केवलज्ञान-दर्शनयोरभेदपक्ष एव सर्वज्ञत्व सर्वदर्शित्वोपपत्तिरिति प्रकटनम् ] यदेव ज्ञानं तदेव दर्शन मित्यस्मिन्नेव वादे सर्वज्ञतासंभव इत्याह जइ सव्वं सायारं जाणइ एक्कसमएण सत्र्वण्णू । जुज्जइ सावि एवं अहवा सव्वं ण याणाइ ॥ १० ॥ यदि आकारात्मकं वस्तु भवनं भवनात्मकं वा आकारात्मकं सामान्यविशेषयोरविनिर्भार्गवृत्तित्वात् सर्वं साकारं जानंस्तदात्मकं सामान्यं तदैव पश्यति तत् पश्यन् वा तदव्यतिरिक्तं विशेषं तदैव जानाति उभयात्मकवस्त्ववबोधैकरूपत्वात् सर्वज्ञोपयोगस्य तदा सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शित्वं च १५ तस्य सर्वकालं युज्यते प्रतिक्षणमुभयात्मकैकरूपत्वात् तस्य । अथवा सर्वं सामान्यं साकारं वा वस्तु न पश्यति न जानाति च तथाभूतयोस्तयोरसत्त्वात् जात्यन्धवत् आकाशवद्वा । अथवा सर्व न जानात्येकदेशोपयोगवृत्तित्वाद् मतिज्ञानिवत् । युगपत् क्रमेण चैकन्तभिन्नोपयोगद्वयवादिमते न सर्वज्ञता सर्वदर्शिता चेत्याशय आचार्यस्य । [ क्रमाक्रमामेदपक्षत्रयग्राहिण आचार्यान् नामग्राहं निर्दिश्य तैः स्वस्वपक्षपोषकतया व्याख्यातानां सूत्राणां संसूचनम् ] अत्र च जिन भद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यानामयुगपद्भाव्युपयोगद्वयमभिमतम् । मल्लवादिनस्तु युगपद्भावि तद्वयमिति । सिद्धान्तवाक्यान्यपि "सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं" [ प्रशाप० द्विती० प० सू० ५४ गा० १६० ] । तथा "केवलणाणुवउत्ता जाणंति” [ प्रज्ञाप० द्विती० प० सू० ५४ गा० १६१ ] इत्यादीनि युगपदुपयोगवादिना स्वमतसंवादकत्वेन व्याख्यातानि । क्रमोपयोगवादिना २५ तु "सव्वाओ लद्धीओ” [ विशेषावभा० गा० ३०८९ ] इत्यादीनि स्वमतसंवादकत्वेन । प्रकरणकारोपि स्वमतसंवादकान्येतान्यन्यानि च व्याख्यातवान् ॥ १० ॥ १ एकस-वा० वा० आ० । २ - गवर्तित्वा-वा० बा० । ४- कान्तरितोप- बृ० । ५ “असरीरा जीवघणा उवउत्ता य दंसणे य नाणे य" । इति पूर्वार्धम् प्रज्ञाप० पृ० १०६ द्वि० । ६ “केवलनाणुवउत्ता जाणंता सव्वभावगुणभावे । पासंता सव्वओ खलु केवलदिट्ठीहिऽणंताहिं” ॥ - प्रज्ञाप० पृ० १०६ द्वि० । ७ इदं गाथाद्वयमौपपातिके आवश्यक निर्युक्त्यन्तर्गतनमस्कारनिर्युक्तो विशेषावश्यक माध्यटीकायां च वर्तते - पृ० ११६ प्र०गा० ११-१२ | पृ० १७५ गा० ९१-९२ | पृ० ११९८, ११९९ । ८ “सव्वाओ लद्धीओ जं सागारोवओगलाभाओ । तेणेह सिद्धलद्धी उप्पज्जइ तदुवउत्तस्स” ॥ इति संपूर्ण गाथा । ३- कारं ज्ञानं तदा - बृ० आ० हा० वि० । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०९ ज्ञानमीमांसा । [साकारानाकारोपयोगयोरेकान्तिकभेदासंभवप्रदर्शनेन अनेकान्तस्य समर्थनम् ] साकारानाकारोपयोगयो.कान्ततो भेद इति दर्शयन्नाह सूरिः परिसुद्धं सायारं अवियत्तं दंसणं अणायारं । ण य खीणावरणिजे जुन्जइ सुवियत्तमवियत्तं ॥ ११ ॥ ज्ञानस्य हि व्यक्तता रूपं दर्शनस्य पुनरव्यक्तता न च क्षीणावरणे अर्हति व्यक्तताव्य-५ क्तते युज्यते । ततः सामान्यविशेषज्ञेयसंस्पर्शी उभयैकस्वभाव एवायं केवलिप्रत्ययः । न च ग्राह्यद्वित्वाद् ग्राहकद्वित्वमिति तत्र संभावना युक्ता केवलज्ञानस्य ग्राह्यानन्त्येनानन्ततापत्तेः । अन्योन्यानुविद्धग्राह्यांशद्वयभेदाद् ग्राहकस्य तथात्वकल्पने एकत्वानतिकमान्न दोष इति । सूरेरयमभिप्रायः-न चैकस्वभावस्य प्रत्ययस्य शीतोष्णस्पर्शवत् परस्परविभिन्नस्वभावद्वयवि. रोधो दर्शनस्पर्शनशक्तिद्वयात्मकैकदेवदत्तवत् स्वभावद्वयात्मकैकप्रत्ययस्य केवलिन्यविरोधात् अनेका-१० न्तवादस्य प्रमाणोपपन्नत्वात् ॥ ११॥ [ क्रमाक्रमोपयोगद्वयपक्षे शास्त्रसिद्धं ज्ञात-दृष्टभाषित्वं भगवतो न घटते इत्यभिधानम् ] क्रमाक्रमोपयोगद्वयाभ्युपगमे तु भगवत इदमापन्नमिति दर्शयति अद्दिढे अण्णायं च केवली एव भासइ सया वि। एगसमयम्मि हंदी वयणवियप्पो न संभवइ ॥१२॥ अदृष्टमेव ज्ञातं जात्यन्धहस्तिपरिज्ञानवत् अज्ञातमेव च दृष्टमलातचक्रदर्शनवत् । सर्वकालमेव केवली भाषत इत्येतदापन्नमक्रमोपयोगपक्षे । क्रमवय॒पयोगपेक्षे तु एकस्मिन् समये जानाति यत् तदेव भाषते ज्ञातं न च दृष्टम् समयान्तरे तु यदा पश्यति तदापि दृष्टं भापते न ज्ञातम् बोधानुरूप्येण वाचः प्रवर्तनात्। बोधस्य चैकांशावलम्बित्वादक्रमोपयोगपक्षे, क्रमोपयोगपक्षेतु तत्त्वाद् भिन्नसमयत्वाच्च तत एकस्मिन् समये शातं दृष्टं च भाषत इत्येष वचनविशेषो भवदर्शने न२० संभवतीति गृह्यताम् ॥ १२ ॥ [ क्रमाक्रमपक्षद्वये भगवतः अज्ञातदर्शितया अदृष्टज्ञायितया च सर्वज्ञत्वासंभवप्रदर्शनम् ] तथा च सर्वज्ञत्वं न संभवतीत्याह अण्णायं पासंतो अद्दिष्टं च अरहा वियाणंतो। किं जाणइ किं पासइ कह सव्वण्णु त्ति वा होइ ॥ १३ ॥ २५ अज्ञातं पश्यन्नदृष्टं च जानानः किं जानाति किंवा पश्यति न किञ्चिदपीति भावः। कथं वा तस्य सर्वज्ञता भवेत् ? ॥ १३॥ [ आगमसिद्धसमसंख्यकविषयावगाहित्वयुक्त्या केवलज्ञानदर्शनयोरभेदसमर्थनम् ] ज्ञानदर्शनयोरेकसंख्या(ख्य)त्वादप्येकत्वमित्याहकेवलणाणमणंतं जहेव तह दसणं पि पण्णत्तं । ३० सागारग्गहणाहि य णियमपरित्तं अणागारं ॥ १४ ॥ १“जुजइ सवियत्तमविअत्त"-ज्ञानबिं० पृ० १५८ प्र० पं० ९। २-पक्षे चैक-हा०। ३-दाह-वा० बा० । ४-स्वाभि-वा० बा० । ५“एकांशावलम्बिलात्"-बृ० टि०। ६ “एकसंख्याशालिखात्"-ज्ञानबिं० पृ० १५९प्र.पं. १॥ ७० स० त. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० द्वितीये काण्डेअत्र तात्पर्यार्थः-यद्येकत्वं ज्ञान-दर्शनयोर्न स्यात् ततोऽल्पविषयत्वाद् दर्शनमनन्तं न स्यादिति "अणन्ते केवलणाणे अणंते केवलदसणे” [ ] इत्यागमविरोधः प्रसज्येत । दर्शनस्य हि ज्ञानाद् भेदे साकारग्रहणादनन्तविशेषवर्तिज्ञानादनाकारं सामान्यमात्रावलम्बि केवलदर्शनं यतो नियमेनैकान्तेनैव परीतमल्पं भवतीति कुतो विषयमेदादनन्तता ? ५ युगपदुपयोगद्वयवादी अनन्तं दर्शनं प्रज्ञप्तमित्यस्यां प्रतिज्ञायां 'साकारग्गहणाहि य णिय मऽपरित्तं' इत्यकारप्रश्लेषात् साकोरे विशेषे गतं यत् सामान्यं तस्य यद् ग्रहणं दर्शनं तस्य नियमोऽवश्यंभावस्तेनापरीतमपरिमाणमिति साकारगतग्रहणनियमेनापरीतत्वादिति हेतुमभिधत्ते। यच्चापरीतं तदनन्तं यथा केवलज्ञानम् अपरीतता च दर्शनस्य द्रव्य-गुण-कर्मादेः साकारस्य च सकलँस्य द्रव्यत्व-गुणत्व-कर्मत्वादिना स्वसामान्येन तावत्परिमाणेनाशून्यत्वात् सामान्यविकलस्य पर्यायस्यासंभ१० वात् । विशेषतादात्म्यव्यवस्थितसामान्यस्य दर्शनविषयस्यानन्त्येन दर्शनस्यापरीतत्वं नासिद्धमिति भवति तस्यानन्त्यसिद्धिरिति व्यवस्थितः ॥ १४ ॥ [ अभेदवाद्युक्तस्य केवले अपर्यवसितत्वादिदोषस्य क्रमवादिना समुद्धरणम् तस्य च . पुनरभेदवादिना प्रतिसमाधानम् ] क्रमवादिदर्शने ज्ञानदर्शनयोरपर्यवसितत्वादिकं नोपपद्यत इति यत् प्रेरितमेकत्ववादिना १५ तत्परिहारार्थमाह भण्णइ जह चउणाणी जुज्जइ णियमा तहेव एयं पि। भण्णइ ण पंचणाणी जहेव अरहा तहेयं पि ॥१५॥ यथा क्रमोपयोगप्रवृत्तोऽपि मत्यादिचतुर्ज्ञानी अपर्यवसितचतुर्ज्ञान उत्पद्यमानतज्ज्ञानसर्वदोपलब्धिको व्यक्तबोधो शांतदृष्टभाषी शाता द्रष्टा संज्ञेयवर्ती चावश्यमेव युज्यते तच्छक्तिसम२० न्वयात् तथैतदपि एकत्ववादिना यदपर्यवसितादि केवलिनि प्रेर्यते तद् युज्यत एव । __ अत्रैकत्ववादिना प्रतिसमाधानं भण्यते यथैवाहन्न पञ्चज्ञानी भवति तथैतदपि क्रमवादिना यदुच्यते भेदतो ज्ञानवान् दर्शनवानिति च तदपि न भवतीति सूत्रकृतोऽभिप्रायः। [ भुक्ति-क्रमोपयोगयोश्छद्मना व्याप्तिं स्वीकुर्वतां केषांचिन्मतस्य व्यावर्णनम् ] अत्र च छद्मस्थे किलोपयोगक्रमस्य दृष्टत्वात केवलिनि च छद्माभावान्न क्रमवान ज्ञानदर्शनोप२५योग इत्ययमत्रार्थो विवक्षित इति केचित् प्रतिपन्नाः न हि यो यज्जातीये दृष्टः सोऽतज्जातीयेऽपि भवति अतिप्रसङ्गात् अन्यथा छद्मस्था अपि केवलिवत् क्रमोपयोगित्वात् सर्वज्ञाः स्युः सोऽपि वा न त् तत एव सर्वज्ञवन्निरावरणास्ते सोऽपि वा सावरणः तत एव एकज्ञानिनो वा ते सोऽपि वा चतुर्ज्ञानी स्यात् । [केवलिकवलाहारचर्चा ] [ कवलाहारनिषेधवादस्य पूर्वपक्षतयोपन्यासः ] अत एव छद्मस्थे भुजिक्रियादर्शनात् केवलिनि तद्विजातीये भुजिक्रियाकल्पना न युक्ता-अन्यथा चतुर्तानित्वाऽकेवलित्व-संसारित्वादयोऽपि तत्रै स्युः-न देहित्वं तद्भुक्तिकारणं तथाभूतशक्त्यायु: १"अणंते नाणे केवलिस्स, अणंते दंसणे केवलिस्स, निव्वुडे नाणे केवलिस्स, निव्वुडे दंसणे केवलिस्स"-भगवतीसू० श० ५ उ० ४ सू० १८५ पृ. २१६। २-कार वि-बृ० वा. बा. विना। ३-हणे नि-बृ.। ४-लद्र-बृ० । ५-स्थितिसा-हा० वि०। ६-स्थिती। क्र-वा. बा०। ७-तमनेकत्व-बृ. आ. हा० वि०। ८ "युगपदुपयोगवादी"-बृ० टि०। ९ "ज्ञातदृष्टभाषी ज्ञाता दृष्टा च नियमेन"-ज्ञानबिं० पृ० १५९ प्र०५० १२। १०ी वावबृ० वा. बा. मां. विना। ११ “यदपर्यवसितत्वादि क्रमोपयोगे केवलिनि"-ज्ञानबि. पृ० १५९ प्र. पं० १३ १२-पक्षा न हि आ० हा० वि०। १३ इयं चर्चा स्याद्वादरत्नाकरे भन्यन्तरेण चर्चिता विद्यते-परि० २ सू० २७ पृ० ४५७-४८३। १४ "केवलिनि"-बृ.टि.) ३० Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प कवलाहार एव५ भावादिति' तदपि न रणीदारिकशरीरस्थित ज्ञानमीमांसा। एककर्मणोस्तद्धेतुत्वादेकवैकल्ये तदभावात् । औदारिकव्यपदेशोऽप्युदारत्वान्न भुक्तेः । यदपि 'एकेन्द्रियादीनामयोगिपर्यन्तानामाहारिणां सूत्रोपदेशात् केवलिनः कवलाहारित्वं केचित् प्रतिपन्नाः' तदपि सूत्रार्थापरिज्ञानात् तत्र ह्येकेन्द्रियादिभिः सह भगवतो निर्देशान्निरन्तराहारोपदेशाच्च शरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमाहारत्वेन विवक्षितमन्यथा क्षणत्रयमात्रमपहाय समुद्धातावस्थायां निरन्तराहारो भगवांस्तेनाहारेण भवेत् । यदपि 'यथासंभवमाहारव्यवस्थितेः सह निर्देशेऽपि कवलाहार एव५ केवलिनो व्यवस्थाप्यते युक्त्या अन्यथा तच्छरीरस्थितेरभावादिति तदपि न युक्तिक्षमम् यतो यदि नामास्मदादेः प्रकृताहारमन्तरेणौदारिकशरीरस्थितेःप्रभूतकालमभावात् केवलिनोऽपि तथाऽनुमीयते तर्हि सर्वज्ञतापि तस्य कथमवसातुं शक्या दृष्टव्यतिक्रमप्रकल्पनायोगात् श्रूयते च प्रकृताहारमन्तरेणाप्यौदारिकशरीरस्थितिश्चिरतरकाला प्रथमतीर्थकृत्प्रभृतीनाम् । न च तदियत्तानियमप्रतिपादकं प्रमाणमस्तीति सूत्रभेदकरणनिमित्तासंभवात् यथान्यासमेव सूत्रार्थपरिकल्पनमस्तु एवं च निरन्तरा-१० हारवचनमप्यनुल्लचितं भवेत् । अथापि स्यादतिशयदर्शनान्निरवशेषदोषावरणहानेरत्यन्तशुद्धात्मस्वभावप्रतिपत्तिवत् प्रकृताहारविकला औदारिकशरीरस्थितिरात्यन्तिकी क्वचिद् यदि भवेत् तदाऽसंभवन्मुक्तीनां केवलिनां प्रमाणतः प्रतिपत्तेः “असरीरा जीवघणा" इत्याद्यागमविरोधः प्रसज्येत, असदेतत् यतः किमेवं सर्वज्ञस्यासत्त्वं प्रतिपादयितुमभिप्रेतम् उतातिशयदर्शनस्य तदहेतुत्वम् ? न तावदाद्यः पक्षः धर्मिणोऽभावे तद्धर्मस्य प्रस्तुतस्य साधयितुमशक्तेः । नापि १५ द्वितीयः औदारिकशरीरस्य चिरतरकालावस्थायित्वस्याविरोधात् । न चातिशयदर्शनस्य तदहे. तुत्वे केवलिभुक्तिसिद्धिः । न च यदतिशयवत् तदात्यन्तिकमतिशयमनुभवतीति सर्वत्र साध्यते किन्तु व्याप्तिदर्शनमात्रमेतत् अतः कियत्कालावस्थितिमात्र केवलिनां शरीरस्थितेरिष्ट नात्यन्तिकम् । न च संयोगस्यात्यन्तिकी स्थितिः संभवति सत्यपि प्रकर्षदर्शने जीवकर्मणोरनादित्वेऽपि विश्लेषप्रतिपत्तेः संश्लेषस्थितिनियमस्य चानिष्टेरसंख्येयकालादूचं पुद्गलपरिणतेः सर्वस्या अन्यथाभवनाद् औदारि-२० कशरीरस्य च निराहारस्य चिरतरकालस्थायिन उत्तरकालमशेषकर्मक्षयाद् विनिवृत्तावस्ति साधनं सुनिश्चितासंभवद्वाधकप्रमाणत्वम् इदमेव च तत्त्वव्यवस्थायां सर्वत्राभ्युपगन्तव्यम् न ह्यध्यक्षाद्यवगतस्याप्यर्थस्यैतदन्तरेण तत्त्वव्यवस्थितिः अनुभूतस्यापि बाधकप्रत्ययप्रवृत्तौ मिथ्यात्वरूपतया व्यव. स्थापनात् । ततः सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणत्वादेव प्रमाणप्रमेयतत्त्वसिद्धिः बाधकप्रमाणनिश्चयात् तद्विपरीतार्थप्रतिपत्तिः उभयोरनिश्चये दृष्टश्रुतयोरर्थयोः संशीतिरिति व्यवस्था सुनिश्चितासंभवद्वाध-२५ कप्रमाणत्वं च प्रकृताहारवैकल्येऽपि सर्वज्ञौदारिकशरीरचिरस्थायित्वप्रतिपादकागमस्य समस्त्येवेति न किञ्चित् तस्य कवलाहारपरिकल्पनया। केवली च कवलाहारमनन् किं बुभुक्षया उत शरीरस्थित्यन्यथाऽनुपपत्त्या आहोस्वित् स्वभावतोऽश्नातीति वक्तव्यम् ? न तावदाद्यः पक्षः बुभुक्षाया दुःखरूपत्वात् तन्मूलदोषराशिनिवृत्तौ तस्या असंभवात् अनिवृत्तौ वा तत्प्रभवस्य दुःखसमूहस्य सद्भावे आत्यन्तिकसौख्यानुपपत्तिर्भगवति स्यात् । न च क्षुत्तुल्या शरीरवेदनेत्युक्तम् । बुभुक्षामन्तरेणापि ३० शरीरं स्थापयितुमिच्छुरश्नातीति चेत्, न; अनन्तवीर्यस्य भगवतः शरीरस्थितिमिच्छोः प्रकृताहारमन्तरेणापि तत्स्थापनासामर्थ्याविरोधात् शरीरतिष्ठापयिषाऽपि बुभुक्षावत् क्लेश एवेति न प्रथमपक्षादस्य विशेष इति न द्वितीयः पक्षोऽपि । नापि तृतीयपक्षाभ्युपगमोऽपि युक्तः प्रकृताहारविकलस्यैव विवक्षितकालभाविशरीरस्थितिखभावकल्पनयैव दोषाभावाद् अन्यथाऽशिष्टव्यवहारेष्वपि तत्स्वभावकल्पनायाः प्रसङ्गात् । तीर्थप्रवर्तनस्य तु व्यापारव्याहारलक्षणस्य तत्कालभाविविवक्षाचिकीर्षाऽभा-३५ वेऽपि सद्भावो न विरुध्यते तीर्थप्रवर्तनस्य सद्भावनाविशेषोत्पन्नविशिष्टफलरूपत्वात् । सकलक्लेशोपरमेऽपि च तीर्थप्रवर्तनं स्वयमभ्युपगतं परेण प्रकृताहारादिकं तु क्लेशोपशमनार्थ कथं तत्स्वभावतः कल्पयितुं युक्तम् ? न च भगवति क्लेशः नापि तदुपशमनवाञ्छा तस्येति कवलाहारपरिकल्पनायां भगवति पक्षत्रयेऽपि दोषानतिवृत्तेः प्रकारान्तरस्य चासंभवान्न तत्र प्रकृताहारकल्पना युक्तिसंगता। १ स्याद्वादर० पृ० ४५८ पं० ४-५। २ पृ. ६०८ पं० २२ टि० ५। ३ “शरीरस्थितेरहेतुरतिशयदर्शनमिति भावः"-६० टि०। ४-भययोर-आ० हा०वि०। ५“पंथसमा नत्थि जरा खुहासमा वेयणा नत्थि" इति जैनागमे विश्रुतं सुभाषितम् । ६-पिबुद्धिबुभुक्षा-भां० मां०। ७-स्य तद्भा-वा० बा• विना । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ द्वितीये काण्डे [ पूर्वपक्षं प्रतिविधातुमुपयोगक्रमसामान्यस्य छद्मना व्याप्तिं निरस्य भुक्तेरपि तेन सह व्याप्यभावे तात्पर्यख्यापनम् ] अत्र प्रतिविधीयते यदुक्तम् 'छद्मस्थे उपयोगक्रमस्य दृष्टत्वात् केवलिनि च छद्माभावादुपयोगक्रमाभावः तत्र क्रमोपयोगस्य क्षयोपशमकार्यत्वात् केवलिनि च तदभावात् क्रमोपयोगस्यापि ५ तत्कार्यस्याभावः । तथाहि यत् यत्कारणं तत् तदभावे न भवति यथा चक्षुरभावे चक्षुर्ज्ञानम् क्षयो 'पशमकारणश्च क्रमोपयोग इति क्षायिकोपयोगवति केवलिनि क्रमोपयोगाभावः । अथ क्षयोपशमाभावे भवतु तत्र मतिज्ञानादिक्रमवदुपयोगाभावः केवलज्ञानदर्शनयोस्तु क्षायिकत्वात् कथं क्षयोपशमाभावे तयोः क्रमाभावः ? उच्यते, यद् यदाऽविकलकारणं तत् तदाऽवश्यंतया प्रादुर्भवति यथा अन्त्यावस्थाप्राप्तक्षित्यादिसामग्रीसमयेऽङ्कुरः अविकलकारणं च केवलज्ञानोपयोगकाले केवलदर्श१० नम् स्वावरणक्षयलक्षणाविकलकारण सद्भावेऽपि तदा तस्यानुत्पत्तावतद्धेतुकताप्रसक्तेर्देशकालाकारनियमो न भवेत् । अनायत्तस्य तदसंभवात् इति प्रतिपादितत्वात् । ऋमोत्पत्तिस्वभावप्रकल्पनायां क्षायिकत्वं तस्य परित्यक्तं स्यात् अध्यक्षसिद्धे च क्रमे तत्स्वभावप्रकल्पना युक्तिसंगता अन्यथातिप्रसङ्गः सर्वभावव्यवस्थाविलोपप्रसक्तेः । न च यो यज्जातीये दृष्टः सोऽन्यंत्रातजातीये न भवति इत्येतदत्र विवक्षितं किं तर्हि कारणाभावे कार्य न भवति अविकलकारणं चाविलम्बितोत्पत्तिकमे१५ तदत्र प्रतिपादयितुमभिप्रेतमाचार्यस्य । [ केवलिनि कवलाहारमुपपादयितुं बाधकप्रमाणनिरासपूर्वकं साधकप्रमाणप्रदर्शनम् ] तेन यदि केवलिनो भुक्तिकारणाभावः सिद्धो भवेत् प्रतिबद्धत्वं वा स्वकार्यकरणे कारणस्यावगतं भवेत् तदा तदभावनिश्चयः स्यात् न चैतदुभयमपि भवस्थकेवलिनि सिद्धम् अप्रतिबद्धसामर्थ्यस्य क्षुद्वेदनीयकर्मोदयस्य तत्र सद्भावात् । तेनातज्जातीयत्वेऽपि केवलिनि भुक्तिप्रकल्पनायां चतु२० र्ज्ञानत्वाऽकेवलित्वापत्त्यादेर्दूषणस्यानवकाशो भुक्तिकारणस्येव तत्कारणस्य तत्राभावान्निर्निमित्तस्य च चतुर्ज्ञानित्वादेः कार्यस्यासंभवात् । यच्च अतज्जातीयत्वं केवलिनः प्रतिपादितं तत् किमस्मदाद्यपेक्षया आहोस्विदात्मीयच्छद्मस्थावस्थापेक्षया ? तत्राद्यै विकल्पे सिद्धसाध्यता । द्वितीयपक्षेऽपि किं घातिकर्मक्षयापेक्षया तत् तस्याभ्युपगम्यते आहोस्विद् भुक्तिनिमित्तकर्मक्षयापेक्षया ? प्रथमपक्षे सिद्धं विजातीयत्वम् न तु तावता तस्य भुक्तिप्रतिषेधः अप्रतिबद्धसामर्थ्यस्य भुक्तिकारणस्य तथा२५ विजातीयत्वेऽपि स्वकार्यनिर्वर्तकत्वात् । द्वितीयपक्षोऽप्ययुक्तः अतजातीयत्वस्यैवासिद्धत्वात् तन्निमित्तस्य कर्मणो भवस्थकेवलिनि पर्यन्तसमयं यावदनुवृत्तेः । यदपि 'न देहित्वं भुक्तिकारणं तथाभूतशक्त्यायुष्ककर्मणोस्तद्धेतुकत्वादेकवैकल्ये तदभावात्' इति तदप्यसंगतम् यतो न देहित्वमात्रं प्रकृतभुक्तिकारणमपि तु विशिष्टकर्मोदयादिसामग्री तस्याश्च ततोऽद्याप्यव्यावृत्तेः कुतस्तदभावः ? तथाभूतशक्त्यायुष्ककर्मणोश्चैकस्यापि वैकल्यासिद्धेरेकवैकल्ये तदभावादित्यसिद्धम् । येच्च 'औदारि३० कव्यपदेशो ऽप्युदारत्वान्न भुक्तेः' इति, तदपि न दोषावहम् औदारिकशरीरित्वे स्वकारणाधीनाया भुक्तेरप्रतिषेधात् । व्यपदेशस्योदारत्वनिमित्तत्वेऽपि स्वकारणनिमित्तप्रकृतभुक्तिसिद्धेः । यर्देपि 'एकेन्द्रियादीनामयोगिपर्यन्तानामाहारिणां सूत्र उपदेश:' इत्याद्यभिधानम्, तदप्यसंगतम् ; एके १ श्वेताम्बर मार्गानुयायिनः केवलिनः ( सर्वज्ञस्य ) कवलाहारकत्वं स्वीकुर्वते । दिगम्बरा अपि ये यापनीयसंघानुयायिनस्तेषामेव तद् अभिप्रेतम् नान्येषां दिगम्बराणाम् । अत्र विषये यापनीयसंघाग्रगामिना श्रीमता शाकटायनेन रचितं सप्तत्रिंशत्कारिकामयं केवलिभुक्तिप्रकरणमवबोद्धव्यम् । इतरदिगम्बराणां च मतमवबोद्धु प्रमेयकमलमार्तण्डगता सा केवलिकवलाहारचर्चाऽपि अत्रानुसन्धेया — पृ० ८४ द्वि० पं० १६ – पृ० ८७ द्वि० पं० ५ । २ पृ० ६१० पं० २४ । ३ भवति त - वा० बा० । ४ " देशकालप्रतिनियम " - बृ० टि० । ५ पृ० ५६८ पं० २१ तथा टि० ८ । ६- स्थालो - भ० मां० । ७- न्यत्र त-आ० हा ० वि० । पृ० ६१० पं० २५। ८- रणं वा बृ० वा० बा० । ९ " वैधर्म्येण निदर्शनमुक्तम् - " बृ० टि० । १० पृ० ६१० पं० २५ । ११ द्ये क भां० मां० विना । १२ पृ० ६१० पं० ३२ । १३ पृ० ६११ पं० १ । १४ पृ० ६११ पं० २ । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । ६१३ न्द्रियादिसहचरितत्वनिरन्तराहारोपदेशत्वाद्यन्तरेणापि “विग्गहगइमावण्णा"[ इत्यादि सूत्रसंदर्भस्य केवलिभुक्तिप्रतिपादकस्यागमे सद्भावात् । न च तस्याप्रामाण्यम् सर्वज्ञप्रणीतत्वेनाभ्युपगतसूत्रस्येव प्रामाण्योपपत्तेः । न च तत्प्रणीतागमैकवाक्यतया प्रतीयमानस्याप्यस्यातत्प्रणीतत्वम् अन्यत्रापि तत्प्रसक्तेः । यदपि 'शरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमाहारत्वेनाभिमतमत्र' इत्यभिधानम् तदप्यसंगतम्; विग्रहगत्यापनसमवहतकेवल्ययोगिसिद्धव्यतिरिक्ताशेषप्राणिगणस्य शरीर-५ प्रायोग्यपुद्गलग्रहणमेवाहारशब्दवाच्यमिह सूत्रेऽभिप्रेतमिति कोऽन्यः सामयिकशब्दार्थविदो भवतोऽभिधातुं समर्थः? यदपि 'निरन्तराहारत्वं केवलिनस्तेनाहारेण समुद्धातक्षणत्रयमपहाय भवेत्' इत्युक्तम् तदप्यसंगतम् विशिष्टाहारस्य विशिष्टकारणप्रभवत्वात् तस्य च प्रतिक्षणमसंभवात् यस्तु पुद्गलादानलक्षणो लोमाद्याहारस्तस्य प्रतिक्षणं सद्भावेऽप्यदोषात् । यदपि 'यथासंभवमाहारव्यवस्थितेः केवलिनः कवलाहारः अन्यथा शरीरस्थितेरभावात् व्यवस्थाप्यते' इत्यभिधानम् तद्युक्तमेव न १० हि देशोनपूर्वकोटिं यावद विशिष्टाहारमन्तरेण विशिष्टौदारिकशरीरस्थितिः संभविनी । न च तच्छद्मस्थावस्थातः केवल्यवस्थायामात्यन्तिकं तच्छरीरस्य विजातीयत्वं येन प्रकृताहारविरहेऽपि तच्छरीरस्थितेरविरोधो भवेत् ज्ञानाद्यतिशयेऽपि प्राक्तनसंहननाद्यधिष्ठितस्य तस्यैवापातमनुवृत्तेः । अस्मदाद्यौदारिकशरीरविशिष्टस्थितेर्विशिष्टाहारनिमित्तत्वं प्रत्यक्षानुपलम्भप्रभवप्रमाणेन सर्वत्राधिगतमिति विशिष्टाहारमन्तरेण तत्स्थितेरन्यत्र सद्भावे सकृदपि तत्स्थितिस्तन्निमित्ता न भवेत् १५ अहेतोः सकृदपि सद्भावाभावात् । यदि पुनर्विशिष्टाहारनिमित्ताप्यस्मदादिषु विशिष्टशरीरस्थितिः पुरुषान्तरे तद्यतिरेकेणापि भवेत् तर्हि महानसादौ धूमध्वजप्रभवोऽपि धूमः पर्वतादौ तमन्तरे णापि भवेदिति धूमादेरग्न्याद्यनुमानमसङ्गतं भवेद् व्यभिचारात् । अर्थतज्जातीयो धूम एतजातीयाग्निप्रभवः सर्वत्र सकृत्प्रवृत्तेनैव प्रमाणेन व्यवस्थाप्यते तत्कार्यताप्रतिपत्तिबलादग्निस्वभावादन्यत्र तस्य भावे सकृदप्यग्नेर्न भावः स्याद् अग्निस्वभावाजन्यत्वात् तस्य भवति चाग्निस्वभावान्महानसादौ २० धूम इति सर्वत्र सर्वदा तत्स्वभावादेव तस्योत्पादे तदुत्पत्तिकस्याधूमस्वभावत्वादिति न धूमादेरग्याद्यनुमाने व्यभिचारस्तीयं प्रकारः प्रकृतेऽपि समानः विशिष्टौदारिकशरीरस्थितेर्विशिष्टाहारमन्तरेणापि भावे तच्छरीरस्थितिरेवासौ न भवेत् । न चात्यन्तविजातीयत्वं तस्या इति प्रतिपादितम् । सर्वथा समानजातीयत्वं तु महानसपर्वतोपलब्धधूमयोरप्यसंभवि । ततोऽस्मदादेरिव केवलिनोऽपि प्रकृताहारमन्तरेणौदारिकशरीरस्थितिश्चिरतरकाला न संभवतीत्यनुमान प्रवर्तत एव अन्यथा धूमा-२५ देरन्याद्यनुमानमपि न स्यात् । यदपि 'कुतस्तस्यैवं सर्वज्ञतादिसिद्धिः' इत्यभिधानम् तदप्यसङ्गतम् घातिकर्मक्षयप्रभवसर्वज्ञतादेः प्रकृताहारेण तत्कार्येण वा चिरकालभाव्यौदारिकशरीरस्थित्यादिना विरोधासंभवात् सर्वज्ञतासिद्धिनिबन्धनस्य च प्रमाणस्य प्रतिपादितत्वात् प्रकृताहारप्रतिपादकस्य च । यदपि 'निराहारौदारिकशरीरस्थितेः प्रथमतीर्थकरप्रभृतीनामतिशयश्रवणात् तदियत्तानियमप्रतिपादकप्रमाणाभावाच्च' इति तदप्यपर्यालोचिताभिधानम् तस्य प्रामाण्ये तदियत्तानियमस्यापि ३० तत एव सिद्धेः तद्धिकनिराहारतच्छरीरस्थितेः सूत्रे निषेधान्निरशनकालस्य तावत एवोत्कृष्टताप्रतिपादनात् । यदपि 'सूत्रभेदकरणकारणासंभवात्' इत्यादि तदप्यसंगतम् चिरतरकालस्थितिरेव तच्छरीरस्य सूत्रभेदकरणकारणं प्रकृताहारमन्तरेण तत्स्थितेरसंभवस्य प्रतिपादनात् । भूयांसि च प्रकृताहारप्रतिपादकानि केवलिनः सूत्राण्यागमै उपलभ्यन्ते प्रतिनियतकालप्रकृताहारनिषेधकानि १“विग्गहगइमावन्ना केवलिणो समुहया अयोगी या । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा" ॥ इत्येषा गाथा सूत्रकृताङ्गसूत्रटीकाकृता श्रीशीलाकेन तत्सूत्रद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य आहारपरिज्ञानानि तृतीयेऽध्ययने व्याख्यायामुद्धृताऽस्तिपृ. ३४४ द्वि. पं० १-२ । तस्या विशदा व्याख्याऽपि तत्स्थानत एव बोद्धव्या । प्रमेयकमलमार्तण्डेऽपि एषा उद्धृताऽस्तिपृ. ८५प्र.पं. १२ । स्याद्वादर० पृ० ४६२५० २४ । २ पृ. ६११ पं०४ । ३-रप्रयो-बृ० । ४ पृ०६११५०४ । ५ पृ० ६११ पं० ५। ६ तस्या भा-ल० सं०। ७ अत्र-'त्पादेऽतदुत्पत्ति'-इति सावग्रहः पाठो युज्यते अन्यथा 'स्याधूम' इति असंगतं स्यात् । ८ प्र० पृ. पं० १२ । ९पृ० ६११ पं० ८। १०-स्तस्यैव स-भां• मां० विना । ११ पृ. ५३-६९ । १२ पृ० ६११ पं० ९ । १३-माण्यात्तदिय-बृ० ।-माण्यं तर्हि तदिय-आ० । १४ पृ० ६११ पं०१०। १५ सूत्राणि चैतानि सूत्रकृताङ्गसूत्रान्तर्गतद्वितीयश्रुतस्कन्धे आहारपरिज्ञानाम्नि तृतीयेऽध्ययने, भगवतीसूत्रे प्रथमशतकीयप्रथमोद्देशके, प्रज्ञापनासूत्रे च आहारपदे लभ्यन्ते-पृ० ३४२..३६० । पृ० १९-३० । पृ० ४९८-५२४ । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये काण्डेच । यथा प्रथमतीर्थकृत एव चतुर्दशभक्तनिषेधेनाष्टापदनगे दशसहस्रकेवलिसहितस्य निर्वाणगतिप्रतिपादकानि सूत्राणि । यदपि 'अतिशयदर्शनान्निरवशेषदोषावरणहानेः' इत्याद्याशङ्कय विकल्पद्वैयमुत्थाप्य परिहृतम् तत्रापि नास्माभिः सर्वज्ञत्वादेरभावः साध्यते येन धर्मिणोऽभावात् प्रकृतसाध्यसिद्धिर्न भवेत् किन्तु यद्यतिशयदर्शनान्नैर्मल्यप्रतिपत्तिवद् आत्यन्तिकी शरीरस्थितिस्तस्य ५साध्येत तदा मुक्तेरभावः प्रसज्यते एवेति प्रसङ्गसाधनं भवदभिप्रेतव्याप्तिबलात् क्रियत इति न प्रामुक्तदोषावकाशः । द्वितीयपक्षेऽपि 'न केवलिभुक्तिः सिध्यति नाप्यनाहारौदारिकशरीरस्य चिरतरकालस्थायित्वं विरुध्यते' इति यद्दूषणमुक्तंम् तदनुक्तोपालम्भरूपम् न ह्येवं केवलिभुत्यादिकमस्माभिः साध्यते किन्तु प्रदर्शितप्रमाणात् सर्वज्ञप्रणीतागमाच्च । 'न च यदतिशय॑वत्' इत्याद्यप्य सङ्गतम् संवत्सरमात्रशरीरस्थितिसिद्धावपि केवलिनामतोऽतिशयात् प्रभूततरकालस्थित्यसिद्धेः। १० न च तावत्कालप्रकृताहारविरहप्रतिपादकमपि केवलिनां सूत्रमुपलभ्यते । यच्चं 'संयोगस्यावस्थान मात्यन्तिकं न भवति' इत्यादि तत् सिद्धमेव साधितम् । यच्च 'सुनिश्चितासंभवद्वाधकप्रमाणत्वं प्रकृताहारविरहेऽपि चिरतरमौदारिकशरीरस्थितेः प्रतिपादकस्य सूत्रस्यास्त्येव' इत्युक्तम् तदपि प्रकृताहारविरहे केवलिप्रकृतशरीरस्थितेः प्रतिपादकस्य सूत्रस्यैवाभावादयुक्तम् । यदपि 'आहारविरहातिशयप्रतिपादकं सूत्रं प्रथमतीर्थकृदादेः' तदपि तच्छद्मस्थावस्थायां न पुनः केवल्यवस्थायाम् १५असंभवद्वाधकप्रमाणत्वं चासिद्धमनुमानस्य तदाहारप्रतिपादकस्य बाधकस्य प्रदर्शितत्वात् सूत्रसमूहस्य च व्याख्याप्रज्ञप्त्याद्यङ्गेषु तद्वाधकस्योपलम्भात् । किञ्च, सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणत्वं न प्रमाणलक्षणं तस्य ज्ञातुमशक्यत्वात् । तथाहि-बाधकप्रमाणाभावो यद्यन्यतः प्रमाणादवसीयते तर्हि तत्रापि बाधकप्रमाणाभावनिश्चयात् प्रामाण्यनिश्चयस्तदभावनिश्चयश्चान्यतोऽबाधितप्रमाणादित्यनवस्थाप्रसक्तिः। अथ बाधानुपलम्भाद् बाधकामाव२० निश्चयः, न; उत्पत्स्यमानबाधकेऽपि बाधकोत्पत्तेः प्राग बाधानुपलब्धिसंभान्न बाधकानुपलम्भाद् बाधाभावनिश्चयः । न चानिश्चितलक्षणं प्रमाण प्रमेयव्यवस्थानिबन्धनम् अतिप्रसङ्गात्। अथ संवादादसंभवद्वाधकप्रमाणत्वनिश्चयस्तर्हि संवादित्वमेव प्रमाणलक्षणमभ्युपगमार्ह किमबाधितत्वलक्षणप्रतिज्ञानेन तच्च संवादित्वमतीन्द्रियार्थविषयस्यागमस्याप्तप्रणीतत्वान्निश्चीयते तत्प्रणीतत्वनिश्चयश्चागमैकवाक्यतया व्यवस्थितस्य केवलिभुक्तिप्रतिपादकसूत्रसमूहस्य सिद्ध एवेति भवत्यागमादपि केवलिभु १-दनादिसूत्राणि ल० भां० मां० विना। २ तचेत्थम् "ते णं काले णं ते णं समए णं उसमे अरहा कोसलिए वीस पुव्वसयसहस्साई कुमारवासमझे वसित्ता णं तेवढेि पुष्वसयसहस्साई रजवासमझे वसित्ता णं तेसीई पुव्वसयसहस्साई अगारवासमझे वसित्ता णं एगं वाससहस्सं छउमत्थपरिआयं पाउणित्ता एगं पुव्वसयसहस्सं वाससहस्सूणं केवलिपरिआय पाउणित्ता पडिपुण्णं पुव्वसयसहस्सं सामण्णपरियागं पाउणित्ता चउरासीई पुवसयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता खीणे वेयणिजाउयनामगुत्ते इमीसे ओसप्पिणीए सुसमदुसमाए समाए बहुविइकंताए तिहिं वासेहिं अद्धनवमेहि य मासेहिं सेसेहिं जे से हेमंताणं तचे मासे पञ्चमे पक्खे माहबहुले तस्स णं माहबहुलस्स तेरसीपक्खे णं उप्पिं अट्ठावयसेलसिहरंसि दसहिं अणगारसहस्सेहिं सद्धिं चोद्दसमेणं भत्तेणं अपाणएणं अभीइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पुव्वण्हकालसमयंसि संपलियंकनिसणे कालगए विइकते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे"मू० कल्पसू० सू० २२७ पृ. ४९ द्वि०। । ३ पृ०६११ पं० ११। ४ पृ. ६११५० १४-१६। ५-त इति ल. वा. बा. भां० मा. विना । ६ पृ. ६११५० १३। पृ. ६११ पं० १६। ८पृ०६११५० १७। ९पृ. ६११ पं० १९। १० पृ० ६११ पं० २१। ११ पृ. ६११ पं०९। १२ पृ. ६१३ पं० ३४ तथा टि. १५।। १३ भगवतीतिनाम्ना प्रसिद्ध व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रे द्वितीयशतकीयप्रथमोद्देशके स्कन्दकतापसाधिकारे सर्वज्ञस्य भगवतो महावीरस्य शरीरं वर्णयता सूत्रकारेण तस्य नित्यभोजिलमपि 'वियडभोती' इति विशेषणेन सूचितम् । तच्चेत्थम् "तेणं कालेणं तेणं समयेणं समणे भगवं महावीरे वियडभोती या वि होत्था । तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स वियभोगियस्स सरीर ओरालं सिंगार कल्लाणं सिवं धनं मंगलं सस्सिरीयं अणलंकियविभूसियं xxx सिरीए अतीव अतीव उवसोभमाणे चिट्ठई"-पृ० ११७ प्र० तथा पृ० ६१३ टि. १५। १४ “यावद् भाविन्या बाधाया अभावः”-बृ. ल. टि.। १५ “अनिश्चित एव बाधकामावो मानलक्षणं भविष्यतीत्याहन चेति"-बृ. ल.टि.। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा ६१५ तिसिद्धिः। तेन 'सूत्रभेदप्रक्लप्तिः कवलाहारपरिकल्पनायां केवलिनः' इति दोषाभावः यथोक्तन्यायात् तत्सिद्धः। यदपि केवली प्रकृतमाहारमश्नन्' इत्यादिपक्षत्रयमुत्थाप्य तत्र दोषाभिधानम् तदप्यसंगतम् यतःप्रथमपक्षे वुभुक्षयाऽश्नतो दुःखिताप्रसक्तिर्दोष उद्भावितः स चादोष एव असातानुभवस्य वेदनीयकर्मप्रभवस्यायोग्यवस्थाचरमक्षणं यावत् संभवात् तत्कारणस्यासातवेदनीयकर्मोदयस्याप्रतिबद्धत्वात् अविकलकारणस्य च कार्यस्योत्पत्त्यप्रतिषेधात् अन्यथा तस्य तन्कारणत्वायोगात्, न च दग्धरज्जुसं.५ स्थानीयत्वात् तस्य स्वकार्याजनकत्वम् तत एव सातवेदनीयस्यापि स्वकार्याजनकत्वप्रसक्तः सुखानुभवस्यापि भगवत्यभावप्रसङ्गात् । यथा च दग्धरज्जुसंस्थानीयायुष्ककर्मोदयकार्य प्राणादिधारणं भगवति तथा प्रकृतमप्यभ्युपगम्यतां विशेषाभावात् । न च वुभुक्षाया दुःखरूपत्वाद् भगवत्यसंभवः प्रतिपादयितुं शक्यः "एकादश जिने" [ तत्त्वार्थ० अ० ९, सू० ११] इति सूत्रात् क्षुदादिपरिपहैकादशकस्य केवलिनि सिद्धेः । यदपि 'अनन्तवीर्यत्वं प्रकृताहारमन्तरेणापि शरीरस्थितिकारणमभिधीयते' तदपि १० छद्मस्थावस्थायां भगवत्यपरिमितबलश्रवणात् समस्त्येव न च प्रकृताहारमन्तरेण तत् तस्यामवस्थायां शरीरस्थितिकारणम् अन्यथा कर्मक्षयार्थमनशनादितपस्युद्यमवतः प्राणवृत्तिप्रय॑यं तस्यामवस्थायामशनाद्यभ्यवहरणमसङ्गतं स्यात् । न च प्राक् क्षायोपशमिकं तस्य वीर्य कैवल्यावस्थायां तु क्षायिकं तदिति विशिष्टाहारमन्तरेणापि शरीरस्थितिनिबन्धनम् तत्सद्भावेऽपि शरीरस्थितिनिमित्तशयनोपवेशादिवत् प्रकृताहारस्याप्यविरोधात् । न चोपवेशादिकमपि शरीरस्थित्यर्थ तत्रासिद्धम् समुद्धाता-१५ वस्थानन्तरकालं पीठफलकादिप्रत्यर्पणश्रुतेस्तद्ब्रहणमन्तरेण तत्प्रत्यर्पणस्यासंभवात् तद्हणस्य च यथोक्तप्रयोजनमन्तरेणाभावात् अन्यथाऽप्रेक्षापूर्वकारितापत्तेः । यदपि 'बुभुक्षया देहं तिष्ठापयिपोः क्लेशवत्त्वे न कश्चिद् विशेषः' तदप्यसारम् क्लेशस्य भगवत्यद्याप्यामुक्तिगमनात् सर्वथा अनिवृत्तेः । तत्स्वभावपरिकल्पनया दोषप्रसञ्जनमभ्युपगमादेव निरस्तम् । तदेवं बाधकप्रमाणाभावात् साधकस्य च सद्भावात् सिद्धा केवलिभुक्तिरित्यलं प्रसक्तानुप्रसक्त्या।॥ १५ ॥ २० [मत्यादिज्ञानचतुष्करूपे दृष्टान्ते यत्र यत्रोपयोगे विषयभेदस्तत्र तत्रासर्वार्थत्वमिति व्याप्तेर्भावनम् ] क्रमेण युगपद्वा परस्परनिरपेक्षस्वविषयपर्यवसितज्ञानदर्शनोपयोगी केवलिन्यसर्वार्थत्वान्मत्यादि शानचतुष्टयवन्न स्त इति दृष्टान्तभावनायाह पण्णवणिजा भावा समत्तसुयणाणदंसणाविसओ। ओहिमणपजवाण उ अण्णोण्णविलक्खणा विसओ ॥१६॥ मतिश्रुतयोरसर्वपर्यायसर्वद्रव्यविषयतयाऽभिन्नार्थत्वे श्रुतस्यासर्वार्थग्रहणात्मकन्वभावनया मतिरपि तथा भावितैवेति श्रुतज्ञानस्यैव गाथायामसर्वार्थत्वभावना प्रदर्शिता । प्रज्ञापनीयाः शब्दाभिलाप्या भावा द्रव्यादयः समस्तश्रुतज्ञानस्य द्वादशाङ्गवाक्यात्मकस्य दर्शनाया दर्शनप्रयोजिकायास्तद्वाक्योपजाताया बुद्धेविषय आलम्बनम् मतेरपि त एव शब्दानभिधेया विषयः शब्दपरि-३० कर्मणांनपेक्षस्य शानस्य यथोक्तभावविषयस्य मतित्वात् । अवधिमनःपर्याययोः पुनरन्योन्यविलक्षणा भावा विषयः अवधेः पुद्गलाः मनःपर्यायज्ञानस्य मन्यमानानि द्रव्यमनांसि विषयः इति असर्वार्थान्येतानि मत्यादिज्ञानानि परस्परविलक्षणविषयाणि च अत एव भिन्नोपयोगरूपाणि ॥ १६ ॥ १पृ.६११५०१०। २ पृ. ६११५०२७-३९। ३“कार्यस्य"-वृ० ल.टि.। ४ "असातावेदनीयस्य"-बृ० ल. टि.। ५ पृ. ६११ पं०३१। ६"प्राणवृत्ती प्रत्ययं कारणभूतम्"-बृ० ल. टि० । ७“छद्मस्थावस्थायाम्"-बृ० ल.टि.। ८ पृ. ६११ पं०३२। ९पृ. ६११५० ३३। १०-णानापेआ० हा.वि. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ द्वितीये काण्डे[मत्यादिवैधर्येण कैवलोपयोगस्य असर्वार्थत्वाभावेन विषयभेदाभावादक्रमोपयोगद्वया मकैकरूपत्वसाधनम् ] एवमसकलार्थत्वं भिन्नोपयोगपक्षे दृष्टान्तसमर्थनद्वारेण प्रदोपसंहारद्वारेणाक्रमोपयोगद्वयात्मकमेकं केवलमन्यथा सकलार्थता तस्यानुपपन्नेति दर्शयितुमाह तम्हा चउविभागो जुज्जइ ण उ णाणदंसणजिणाणं । सयलमणावरणमणंतमक्खयं केवलं जम्हा ॥ १७॥ यस्मात् केवलं सकलं सकलविषयं तस्मान्न तु नैव ज्ञानदर्शनप्रधानानां निर्मूलिताशेषघातिकर्मणां जिनानां छद्मस्थावस्थोपलब्धतत्तदावरणक्षयोपशमकारणभेदप्रभवमत्यादिचतुर्मानेविव ज्ञानदर्शनयोः पृथक् क्रमाक्रमविभागो युज्यते । कुतः पुनः सकलविषयत्वं भगवति केव१० लस्यानावरणत्वात् न ह्यनावृतमसकलविषयं भवति । न च प्रदीपादिना व्यभिचारोऽनन्तत्वात् अनन्तत्वं च द्रव्यपर्यायात्मकानन्तार्थग्रहणप्रवृत्तोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकोपयोगवृत्तत्वेनाक्षयत्वात् । यथा च सकलपदार्थविषयं सर्वज्ञज्ञान तथा प्राक् प्रदर्शितम् । ततोऽक्रमोपयोगद्वयात्मकमेकमिति स्थितम् न चाक्रमोपयोगद्वयात्मकत्वे कथं तस्य केवलव्यपदेश इति क्रमाक्रमभिन्नोपयोगवादिना प्रेर्यम् इन्द्रियालोकमनोव्यापारनिरपेक्षनिरावरणात्मसत्तामात्रनिबन्धनतथाविधार्थविषयप्रतिभासस्य १५ तथाविधव्यपदेशविषयत्वात् । अद्वैतैकान्तात्मकं तु तेन्न भवति सामान्यविशेषोभयानुभयविकल्पचतुष्टयेऽपि दोषानतिक्रमात् । तथाहि-न तावत् सामान्यरूपतया तदद्वयं सामान्यस्य विशेषनिबन्धनत्वात् तदभावे तस्याप्यभावात् नापि विशेषमात्रत्वात् तदद्वयम् अवयवावयविविकल्पद्वयानतिक्रमात् न तावत् तदवयवरूपम् अवयव्यभावे तदपेक्षावयवरूपताऽसंभवात् । न चावयविरूपम् अवयवाभावे तद्रूपस्यासंभवात् न च तद्वयातिरिक्तविशेषरूपम् असदविशेषप्रसङ्गात् न चैकान्तव्यावृत्तोभयरूपम् २० उभयदोषानतिक्रमात् । न चानुभयस्वभावम् असत्त्वप्रसक्तेः । न च ग्राह्यग्राहकविनिर्मुक्ताऽद्वर्यस्वरूपम् तथाभूतस्यात्मनः कदाचिदप्यननुभवात् सुषुप्तावस्थायामपि न ग्राह्यग्राहकवरूपविकलमद्वयं ज्ञानमनुभूयते ॥ १७॥ [अभिन्नोपयोगवादिना स्वपक्षे समापतत आगमविरोधस्यार्थगत्या व्याख्यान्तरमाश्रित्य परिहरणम् ] २५ ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयात्मकैककेवलोपयोगवादी स्वपक्षे आगमविरोधं परिहरन्नाह परवत्तव्वयपक्खाअविसिट्ठा तेसु तेसु सुत्तेसु । अत्थगईअ उ तेसिं वियंजणं जाणओ कुणइ ॥१८॥ परैवैशेषिकादिभिर्यानि वक्तव्यानि प्रतिपाद्यानि तेषां पक्षा अभ्युपगमाः “युगपद् शानानुत्पत्तिः” [ ] "नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः" [ ] इत्यादयः तैरविशिष्टा अभिन्ना ३० भगवन्मुखाम्भोजनिर्गतेषु तेषु तेषु सूत्रेषु “जं समयं पासइ णो तं समयं जाणइ” [ ] इत्यादिषु अभ्युपगमाः प्रतिभासन्ते । न च ते तथैव व्याख्येयाः प्रमाणबाधनात् । तस्मात् अर्थगत्यैव सामर्थ्येनैव तेषां व्यक्तिं सकलवस्तुव्याप्यनेकान्तात्मकैककेवलावबोधप्रभवद्वादशाजैकश्रुतस्कन्धाविरोधेन व्यायां ज्ञको शाता करोति । श्रुतावधिमनःपर्यायकेवली त्रिविधो "जं समयं पासह नो तं समयं जाण"।[ ] न त्वेवं केवलकेवली तस्यासर्वक्षता३५प्राप्तेरिति सूरेरभिप्रायः॥१८॥ १-दश्योपसंहारिणामो-वा० बा० ।-दश्योपयोगद्वारेणाक्रमो-बृ• आ० हा० वि० । २ तन्त्र सा-आ. हा• वि० । ३-पक्रममा-भा. मां०। ४-यरू-आ. हा० वि०। ५-लख-वा. बा०। ६-वलं के-आ• वि.। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा | [ अक्रमोपयोगद्वयात्मकमेकं चेत् केवलं किमिति मनःपर्यायवदागमे तस्य ज्ञानमात्रतया न कथनम् किमिति च ज्ञान-दर्शनरूपतया द्वैविध्येन वर्णनमिति चोद्ये मर्मोद्घाटनम् ] यद्यक्रमोपयोगद्वयात्मकमेकं केवलं किमिति मनःपर्यायज्ञानवत् तद् ज्ञानत्वेनैव न निर्दिष्टम् ? तस्मात् "केवलनाणे केवलदंसणे" ] इति भेदेन सूत्रनिर्देशात् क्रमेण युगपद्वा भिन्नमुपयोगद्वयं केवलावबोधरूपमित्याशङ्कयाह ५ जेण मणोविसयगयाण दंसणं णत्थि दव्वजायाण । तो मणपज्जवणाणं णियमा णाणं तु णिद्दिहं ॥ १९ ॥ यतो मन:पर्ययज्ञानविषयगतानां परमनोद्रव्यविशेषाणां विशेषरूपतया बाह्यस्य चिन्त्य - मानस्य घटादेर्लिङ्गिनो गमकतोपपत्तेः दर्शनं सामान्यरूपं नास्ति द्रव्यरूपाणां चिन्त्यमानालम्बनपरमनोद्रव्यगतानां चिन्त्याविशेषाणां विशेषरूपतया वाह्यार्थगमकत्वात् तद्राहि मनःपर्याय- १० ज्ञानं विशेषाकारत्वाद् ज्ञानमेव ग्राह्यदर्शनाभावाद् ग्राहकेऽपि तदभावः ततो मनःपर्यायाख्यो बोधो नियमाद् ज्ञानमेवागमे निर्दिष्टो न तु दर्शनम् । केवलं तु सामान्यविशेषोपयोगैकरूपत्वात् केवलं ज्ञानं केवलं दर्शनं चेत्यागमे निर्दिष्टम् ॥ १९ ॥ ६१७ [ एकत्वेऽपि केवलस्य ज्ञान-दर्शनोभयरूपतया शास्त्रे पाठात् तस्य कथंचिदनेकरूपत्वाभ्युपगमनम् ] तथा पुनरप्येक रूपानुविद्धामनेकरूपतां दर्शयन्नाह - १५ चक्खु अचक्खुअवाहिकेवलाण समयम्मि दंसणविअप्पा । परिपढिया केवलणाणदंसणा तेण ते अण्णा ॥ २० ॥ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां स्वसमये दर्शनविकल्पा भेदाः परिपठितास्तेन दर्शनमध्ये पाठाद् दर्शनमपि केवलम् ज्ञानमध्ये पाठाद् ज्ञानमपि अतो भिन्ने एव केवलज्ञानदर्शने न चात्यन्तं तयोर्भेद एव केवलान्तर्भूतत्वेन तयोरभेदात् न चैवमभेदाद्वैतमेव सूत्रयुक्तिविरोधात् २० तत्परिच्छेदकस्वभावतया कथंचिदेकत्वेऽपि तथा तद्व्यपदेशात् ॥ २० ॥ [ एकदेशिना मत्युपयोगं दृष्टान्तीकृत्य एकस्यापि केवलोपयोगस्य द्विरूपत्वसमर्थनम् ] एतदेव दृष्टान्तद्वारेणाह - दंसणमोग्गहमेत्तं 'घडो' ति णिव्वण्णणा हवइ णाणं । जह एत्थ केवलाण वि विसेसणं एत्तियं चैव ॥ २१ ॥ अवग्रहमात्रं मतिरूपे बोधे दर्शनम् 'इदम्' 'तत्' इत्यव्यपदेश्यम् 'घट:' इति निश्चयेन वर्णना निश्चयात्मिका मंतिज्ञानं यथेह तथेहापीति दान्तिकं योजयति जह एत्थ इत्यादिना केवलयोरप्येतन्मात्रेणैव विशेषः एकान्तभेदाभेदपक्षे तत्स्वभावयोः पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गाद् अजहृद्वृत्त्यैकरूपयोरेवाभिनिबोधिकरूपयोस्तत्तद्रूपतया तथाव्यपदेशसमासादनात् कथंचिदेकानेकात्मकत्वोपपत्तेर्भेदैकान्ते तयोरप्यभावापत्तेः ॥ २१ ॥ २५ ३० १ चिन्त्यतावि - भ० मां० । चितितावि - वा० बा० । चित्यावि - हा० वि० । २ मतिर्ज्ञा-आ० । “घट इति निश्चयेन वर्णना तदाकाराभिलाप इति यावत् । कारणे कार्योपचाराच्च घटाकाराभिलापजनकं घटे मतिज्ञानमित्यर्थः यथाऽत्रैवं तथा केवलयोरप्येतावन्मात्रेण विशेषः " - ज्ञानबिं० पृ० १६० द्वि० पं० १३ । ३ प्र० पृ० पं० २० ॥ ७९ स० त० Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ द्वितीये काण्डे - [ पुनरप्येकदेशिना क्रमिकभेदं दूषयितुं शास्त्रीययुक्त्या ज्ञान-दर्शनयोः कथंचिदन्यत्वव्यवस्थापनम् ] इतश्च कथञ्चिद् भेदः - दर्शनपूर्वं ज्ञानम्, ज्ञाननिमित्तं तु दर्शनं नास्तीत्युक्तं यतः सामान्यमुपलभ्य पञ्चाद् विशेषमुपलभते न विपर्ययेणेत्येवं छद्मस्थावस्थायां हेतुहेतुमद्भावक्रमः । तेनाप्यवगच्छामः कथञ्चित् तयोर्भेद् इति । अयं च क्षयोपशमनिबन्धनः क्रमः केवलिनि च तद्भावादक्रम इत्युक्तम् ॥२२॥ दंसणपुव्वं णाणं णाणणिमित्तं तु दंसणं णत्थि । तेण सुविणिच्छियामो दंसणणाणाण अण्णत्तं ॥ २२ ॥ १० [ एकदेशीये अवग्रहमात्रमतिज्ञानस्य दर्शनत्वाभ्युपगमे समापततो दोषस्याभिधानं तत्समर्थनं च ] यदुक्तम् 'अवग्रहमात्रं मतिज्ञानं दर्शनम्' इत्यादि तदयुक्तम् अतिव्याप्तेरित्याहजइ ओग्गहमेत्तं दंसणं ति मण्णसि विसेसिअं णाणं । मइणाणमेव दंसणमेवं सइ होइ निष्फण्णं ॥ २३ ॥ एवं सेसिंदियदंसणम्मि नियमेण होइ ण य जुत्तं । अह तत्थ णाणमेत्तं घेप्पइ चक्खुम्मि वि तहेव ॥ २४ ॥ २५ १५ यदि मत्यवबोधे अवग्रहमात्रं दर्शनं विशेषितं ज्ञानमिति मन्यसे मतिज्ञानमेव दर्शनमित्येवं सति प्राप्तम् न चैतद् युक्तम् । “स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः” [ तत्त्वार्थ० अ० २०९ ] इति सूत्रविरोधात् ॥ २३ ॥ एवं शेषेन्द्रियदर्शनेष्वप्यवग्रह एव दर्शनमित्यभ्युपगमेन मतिज्ञानमेव तदिति । न च तद् युक्तं पूर्वोक्तदोषानतिवृत्तेः । अथ तेषु श्रोत्रादिष्विन्द्रियेषु दर्शनमपि भवत् तद् ज्ञानमेव, २० मात्रशब्दस्य दर्शनव्यवच्छेदकत्वात् । अत एव तत्र 'श्रोत्रज्ञानम्' इत्यादिव्यपदेश उपलभ्यते 'श्रोत्रदर्शनम्' ' घ्राणदर्शनम्' इत्यादिव्यपदेशस्तु नागमे क्वचित् प्रसिद्धस्तर्हि चक्षुष्यपि तथैव गृह्यतां 'चक्षुर्ज्ञानम्' इति न तु 'चक्षुर्दर्शनम्' इति । अथ तत्र दर्शनम् इतरत्रापि तथैव गृह्यताम् । ज्ञानदर्शनयोरुपलम्भरूपत्वे अविशेषप्रसङ्गस्तयोरिति चेत् एवैमेतद्रूपतया स्वभावभेदात् तु भेद इति ॥२४॥ [ज्ञान एव चक्षुरचक्षुर्दर्शनप्रवादसमर्थनाय दर्शनपदस्य अर्थाभिधानम् ] नन्ववग्रहस्य मतिभेदत्वाद् मतेश्च ज्ञानरूपत्वाद् अवग्रहरूपस्य दर्शनस्याभाव एव भवेत् उच्यते णा अपुट्ठे अविसए य अत्थम्मि दंसणं होइ । मोत्तूण लिंगओ जं अणागयाईयविसएस ॥ २५ ॥ अस्प (स्पृष्टेऽर्थरूपे चक्षुषा य उदेति प्रत्ययः स चक्षुर्दर्शनं ज्ञानमेव सत् इन्द्रियाणाम३० विषये च परमाण्वादौ अर्थे मनसा ज्ञानमेव सद् अचक्षुर्दर्शनम्, मुक्त्वा मेघोन्नतिरूपा १ ० ६१२ पं० ३ । २ पृ० ६१७० २१ पं० २६ । ५- वमेतत्तरूप - वा० वा० । ६ "अस्पृष्टेऽर्थे " -- ज्ञानबिं० पृ० १६१ ३ - णमित्तं वृ० । द्वि० पं० १३ । ४ प्र० प्र० पं० १५ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा | ६१९ लिङ्गाद् भविष्यदृष्टौ नदीपूराद् वोपर्यतीतवृष्टौ वा लिङ्गिविषयं यद् ज्ञानं तस्यारूप (स्पू) ष्टाविपयार्थस्याप्यदर्शनत्वात् ॥ २५ ॥ [ अस्पृष्टाविषयावगाहित्वेऽपि न मनःपर्यायबोधस्य दर्शनत्वप्रसङ्ग इति सयुक्तिकं प्रतिपादनम् ] यद्यस्पृष्टाऽविषयार्थज्ञानं दर्शनमभिधीयते ततः मणपज्जवणाणं दंसणं ति तेणेह होइ ण य जुत्तं । भण्णइ णाणं णोइंदियम्मि ण घडादओ जम्हा ॥ २६ ॥ एतेन लक्षणेन मनःपर्यायज्ञानमपि दर्शनं प्राप्तं परकीयमनोगतानां घटादीनामालम्व्यानां तत्रासत्त्वेनास्पृष्टेऽविषये च घटादावर्थे तस्य भावात् न चैतद् युक्तम् आगमे तस्य दर्शनत्वेनापाठात्। भण्यते अत्रोत्तरम (म्) णो इंद्रियम्मि मनोवर्गणाख्ये मनोविशेषे प्रवर्तमानं मनःपर्यायबोधरूपं ज्ञानमेव न दर्शनं यस्मादस्पृश घटादयो नास्य विषयो लिङ्गानुमेयत्वात् तेषाम् । १० तथा चागमः " जाणइ वज्झेऽणुमाणओ" [ विशेषा० भा० गा० ८१४ ] । ननु च परकीयमनोगतार्थाकारविकल्पस्योभयरूपत्वात् किमिति तद्राहिणो मनः पर्यायाववोधस्य न दर्शनरूपता ? न, मनोविकल्पस्य बाह्यार्थचिन्तनरूपस्य विकल्पात्मकत्वेन ज्ञानरूपत्वात् तद्राहिणो मनःपर्यायज्ञानस्यापि तद्रूपतैव घटादेस्तु तत्र परोक्षतैवेति दर्शनस्याभाव एव मनोविकल्पाकारस्योभयरूपत्वेऽपि छानस्थिकोपयोगस्य परिपूर्णवस्तुग्राहकत्वासंभवाञ्च न मनःपर्यायज्ञाने दर्शनोपयोगसंभवः ॥ २६ ॥ १५ [ अस्पृष्टाविपयावगाहिज्ञानमेव दर्शनम् न ततः पृथगिति प्रतिपादनम् ] किञ्च, महसुयणाणणिमित्तो छउमत्थे होइ अत्थउवलंभो । एयरम्मि वि तेसिं ण दंसणं दंसणं कत्तो ? ॥ २७ ॥ मतिश्रुतज्ञाननिमित्तश्छद्मस्थानामर्थोपलम्भ उक्त आगमे । तयोरेकतरस्मिन्नपि २० न दर्शनं संभवति न तावदवग्रहो दर्शनं तस्य ज्ञानात्मकत्वात् ततः कुतो दर्शनम् ? नास्तीत्यर्थः । अस्पृष्टेऽविषये चार्थे ज्ञानमेव दर्शनं नान्यदिति प्रसक्तम् ॥ २७ ॥ [ अस्पृष्टार्थावगाहित्वेऽपि श्रुतज्ञानस्य दर्शनत्वाभावप्रतिपादनम् ] ननु श्रुतमस्पृष्ठे विषये किमिति दर्शनं न भवेत् ? इत्याह जं पञ्चवग्गणं ण इन्ति सुग्रणाणसम्मिया अत्था । तम्हा दंसणसद्दो ण होइ सयले वि सुयणाणे ॥ २८ ॥ यस्मात् श्रुतज्ञानप्रमिताः पदार्था उपयुक्ताध्ययनविपयास्तथाभूतार्थवाचकस्यात् श्रुतशब्दस्य प्रत्यक्षं न गृह्यन्ते अतो न श्रुतं चक्षुर्दर्शनसंज्ञम् मानसमचक्षुर्दर्शनं श्रुतं भविष्यतीत्येतदपि नास्ति अवग्रहस्य मतित्वेन पूर्वमेव दर्शनतया निरस्तत्वात् ॥ २८ ॥ १ " तस्यास्पृष्टाविषयार्थस्यापि दर्शनत्वेनाव्यवहारात् " - ज्ञानबिं० पृ० १६२ प्र० पं० ३ । २-त्तरं मनो-भां० मां० । ३ - इंद्रियम्मि भ० मां० विना । ४ " दव्वमणोपजाए जाणइ पासइ य तग्गएऽणंते । तेणावभासिए उण जाणइ बज्झेऽणुमाणेणं" ॥— विशेषा० भा० पृ० ८१४ द्वि० । ५- गस्यो परिपू - हा० बि० । ६ न चाव-बृ० आ० हा ० वि० । ७-दार्थ उ-भां० मां० विना । ८ - थते अ-पृ० वा० वा० विना । ९० पृ० पं० २० २५ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० द्वितीये काण्डे[अवधिज्ञान एवं प्रवृत्तिनिमित्तवशेन दर्शनशब्दस्यापि लब्धावकाशत्वसमर्थनम् ] नन्वेवमवधिदर्शनस्याप्यभावः स्यादित्याह जं अप्पुट्ठा भावा ओहिण्णाणस्स होंति पञ्चक्खा । तम्हा ओहिण्णाणे दंसणसदो वि उवउत्तो ॥२९॥ ५ यस्मादस्पृष्टा भावा अण्वादयोऽवधिज्ञानस्य प्रत्यक्षा भवन्ति चक्षुर्दर्शनस्येव रूप. सामान्यम् ततस्तत्रैव दर्शनशब्दोऽप्युपयुक्तः ॥ २९ ॥ [सिद्धान्तिना एकस्यैव केवलोपयोगस्य ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयरूपत्वव्यावर्णनम् ] केवलावबोधस्तु शानदर्शनोपयोगद्वयात्मको शानमेव सन् दर्शनमप्युच्यत इत्याह जं अप्पुढे भावे जाणइ पासइ य केवली णियमा । तम्हा तं गाणं दंसणं च अविसेसओ सिद्धं ॥ ३०॥ यतोऽस्पृष्टान् भावानियमेनावश्यंतया केवली चक्षुष्मानिव पुरःस्थितं चक्षुषा पश्यति जानाति चोभयप्राधान्येन । तस्मात् नत् केवलावयोधस्वरूपं ज्ञानमप्युच्यते दर्शनमप्यविशेषत उभयाभिधाननिमित्तस्याविशेषात् न पुननिमेव सदविशेषतोऽमेदतो दर्शनमिति सिद्धम् । यतो न ज्ञानमात्रमेव तत् नापि दर्शनमात्र केवलम् नाप्युभयाक्रमरूपं परस्पर१५ विविक्तम् नापि क्रमस्वभावम् अपि तु ज्ञानदर्शनात्मकमेकं प्रमाणमन्यथोक्तवत् तदभावप्रसङ्गात् । [सूर्यभिप्रायेण ज्ञानपश्चक-दर्शनचतुष्कयोः स्वरूपविभजनम् ] छद्मस्थावस्थायां तु प्रमाणप्रमेययोः सामान्यविशेषात्मकत्वेऽप्यनपगतावरणस्यात्मनो दर्शनोपयोगसमये ज्ञानोपयोगस्यासम्भवाद् अप्राप्यकारिनयन-मनःप्रभवार्थावग्रहादिमतिज्ञानोपयोगप्राक्तनी अवस्था अस्प(स्पृ)टावभासिग्राह्यग्राहकत्वपरिणत्यवस्था व्यवस्थितात्मप्रबोधरूपा चारचक्षुर्दर्शनव्यपदे२० शमासादयति । द्रव्यभावेन्द्रियालोकमतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमादिसामग्रीप्रभवरूपादिविषयग्रह णपरिणतिश्चात्मनोऽवग्रहादिरूपा मतिज्ञानशब्दवाच्यतामथते । श्रुतज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमवाक्यश्रवणादिसामग्रीविशेषनिमित्तप्रादुर्भूतो वाक्यार्थग्रहणपरिणतिस्वभावो वाक्यश्रवणानिमित्तो वा आत्मनःश्रुतज्ञानमिति शब्दाभिधेयतामाप्नोति। रूपिद्रव्यग्रहणपरिणतिविशेषस्तु जीवस्य भवगुणप्रत्यया वधिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमप्रादुर्भूतो लोचनादिवाह्यनिमित्तनिरपेक्षः अवधिज्ञानमिति व्यपदिश्यते २५ तज्ज्ञैः अवधिदर्शनावरणकर्मक्षयोपशमप्रादुर्भूतस्तु स एव तद्रव्यसामान्यपर्यालोचनस्वभावोऽवधिदर्शनत्यपदेशभाग भवति । अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वतिसकलमनोविकल्पग्रहणपरिणतिर्मनःपर्यायज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमादिविशिष्टसामग्रीसमुत्पादिता चक्षुरादिकरणनिरपेक्षस्यात्मनः मनःपर्यायज्ञानमिति वदन्ति विद्वांसः । छाद्मस्थिकोपयोगं चात्मा स्वप्रदेशावरणक्षयोपशमद्वारेण प्रतिपद्यते १ प्रस्तुतगाथासंवादकमेकं पद्यं मलधारिहेमचन्द्रसूरिणा स्वकीयायां विशेषावश्यकभाष्यवृत्तौ स्तुतिकारकर्तृकलेन समुदृतं वर्तते । तद्यथा“यदपि केवलज्ञानं केवलदर्शनं च तस्योच्यते तत्रापि तयोर्न विशेष इत्यभिप्रायवता प्रोकं स्तुतिकारेण एवं कल्पितभेदमप्रतिहतं सर्वज्ञतालाञ्छनं सर्वेषां तमसां निहन्तु जगतामालोकनं शाश्वतम् । नित्यं पश्यति बुध्यते च युगपद् नानाविधानि प्रभो ! स्थित्युत्पत्तिविनाशवन्ति विमलद्रव्याणि ते केवलम्" ॥ -पृ. ११९८५०१०। यद्यपि इदं पद्यं लभ्यासु एकविंशतो सिद्धसेनीयद्वात्रिंशिकासु न दृश्यते तथापि तत् सिद्धसेनप्रणीतमेवाऽवसीयते समन्तभद्रवत् तस्यैव स्तुतिकारलेन प्रसिद्धत्वात् तस्यैव अभिन्नकेवलज्ञानदर्शनोपयोगद्वयमतप्रस्थापकलेन विश्रुतलाच । २-मात्र के-भां० मां० हा०। ३-पाच्चक्षु-बृ• हा० वि०। सबलाद तस्सव अभिजलेवलशानद Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा । ६२१ न त्वनन्तशेयज्ञानस्वभावस्थात्मन एतदेव खण्डशः प्रतिपत्तिलक्षणं पारमार्थिक रूपं सामान्यविशेषात्मकवस्तुविस्तरव्यापि युगपत्परिच्छेदस्वभावद्वयात्मकैककेवलावबोधतात्त्विकरूपत्वात् तस्य । तच्च तस्य खरूपं केवलज्ञानदर्शनावरणकर्मक्षयाविर्भूतं करणक्रमव्यवधानातिवर्तिसकललोकालोकविषयत्रिकालखभावपरिणामभेदानन्तपदार्थयुगपत्सामान्यविशेषसाक्षात्करणप्रवृत्तं केवलज्ञानं केवलदर्शनमिति च व्यपदिश्यते । तेन 'अवग्रहरूप आभिनिबोधो दर्शनम् स एव चेहादिरूपो विशेषग्राहको शानं ५ तद्व्यतिरिक्तस्यापरस्य ग्राहकस्याभावात् तस्यैवैकस्य तथाग्रहणात् तथाव्यपदेशादुत्फणविफणावस्थासर्पद्रव्यवत् ततस्तयोरवस्योरव्यतिरेकात् तस्य च तद्रूपत्वादेक एवाभिनिबोधो दर्शनं मतिज्ञानं चाभिधीयत इति सूत्रकृतोऽभिप्रायः' इति यत् कैश्चिद् व्याख्यातं तदसङ्गतं लक्ष्यते आगमविरोधात् युक्तिविरोधाच्च न ह्येकान्ततोऽभेदे पूर्वमवग्रहो दर्शनं पश्चाद् ईहादिकं ज्ञानं तयोश्च तत्रान्तर्भाव इति शक्यमभिधातुम् कथंचिद्भेदनिबन्धनत्वादस्य आत्मरूपतया तु तयोरभेदोऽभ्युपगम्यत एव ।१० न चैकस्यैव मतिज्ञानस्योभयमध्यपातादुभयव्यपदेशः अवग्रहस्य दर्शनत्वे 'अवग्रहादिधारणापर्यन्तं मतिज्ञानम्' इत्यस्य व्याहतेः तस्य वाऽदर्शनत्वे 'अवग्रहमानं दर्शनम्' इत्यस्य विरोधात् आगमविरोधश्च तद्व्यतिरेकेण दर्शनानभ्युपगमे तदभ्युपगमे वाऽष्टाविंशतिभेदमतिज्ञानव्यतिरिक्तदर्शनाभ्युपगमात् कुतो ज्ञानमेव दर्शनं छद्मस्थावस्थायाम् ? केवल्यवस्थायां तु क्षीणावरणस्याऽऽत्मनो नित्योपयुक्तत्वात् सदैव दर्शनावस्था वर्तमानपरिणतेर्वस्तुनोऽवगमरूपायाः प्राक् तथाभूतानवबोध-१५ रूपत्वासंभवात् तथाभूतज्ञानविकलावस्थासंभवे वा प्रागितरपुरुषाविशेषप्रसङ्गात् । ततो युगपज्ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयात्मकैकोपयोगरूपः केवलावबोधोऽभ्युपगन्तव्य इति सूरेरभिप्रायः॥ ३०॥ [एक एव केवलोपयोगो यात्मक इति स्वसिद्धान्तः समयान्तरोत्पादवचनं तु परतीर्थि कमतकथनमिति विभजनम् ] व्यात्मक एक एव केवलावबोध इति दर्शयन्नाह साई अपज्जवसियं ति दो वि ते ससमयओ हवइ एवं । परतित्थियवत्तव्वं च एगसमयंतरुप्पाओ ॥ ३१॥ द्वे अपि ते शानदर्शने यदि युगपद् न नाना भवतस्तदा स्वसमयः स्वसिद्धान्तः ‘साद्यपर्यवसिते' इति घटते यस्त्वेकसमयान्तरोत्पादस्तयोः ‘यदा जानाति तदा न पश्यति' इत्येवमभिधीयते स परतीर्थिकशास्त्रं नार्हद्वचनम् नयाभिप्रायेण प्रवृत्तत्वादिति सूरेरभि-२५ प्रायः॥३१॥ [एवंभूततत्त्वश्रद्धानरूपस्य सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानरूपत्वमेव इति वर्णनम् ] एवंभूतं वस्तुतत्त्वं श्रद्दधानः सम्यग्ज्ञानवानेव पुरुषः सम्यग्दृष्टिरित्याह एवं जिणपण्णत्ते सद्दहमाणस्स भावओ भावे । पुरिसस्साभिणिबोहे दंसणसद्दो हवइ जुत्तो ॥ ३२॥ एवमनन्तरोक्तविधिना जिनप्रज्ञप्तान भावान् श्रद्दधानस्य पुरुषस्य यदाभिनिवोधिकं ज्ञानं तदेव सम्यग्दर्शनम् विशिष्टावबोधरूपाया रुचेः सम्यग्दर्शनशब्दवाच्यत्वादिति भावः॥ ३२॥ ३० १-र्थिकरू-हा०वि०। २-नानति-बृ० सं०। ३ एवेहा-भां. मांविना। ४-स्थयोर्व्यति-बृ० । ५दर्शनत्वेन अ-वा. बा० । दर्शने अ-वृ०। ६-पर्यन्त म-बृ० वा. बा. मा. विना। ७ पृ. ६१७ गा० २१ पं० २६। ८-गमे वाष्टा-बृ० । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ द्वितीये काण्डे [सम्यग्ज्ञाने दर्शनवस्य नियततया दर्शने सम्यग्ज्ञानवस्य विकल्पनीयतया सम्यग्दर्शनं विशिष्टज्ञानरूपमेव इति फलिताभिधानम् ] ननु यदि सम्यग्ज्ञाने सम्यग्दर्शनं नियमेन दर्शनेऽपि रुचिलक्षणे सम्यग्ज्ञानं किमिति न स्यात् ? न, एकान्तरुचावपि सम्यग्ज्ञानप्रसक्तेरित्याह सम्मण्णाणे णियमेण दंसणं दसणे उ भयणिज्जं । सम्मण्णाणं च इमं ति अत्थओ होइ उववण्णं ॥ ३३ ॥ सम्यगज्ञाने नियमेन सम्यगदर्शनं दर्शने पुनर्भजनीयं विकल्पनीयं सम्यग्नानम् एकान्तरुचौ न संभवति अनेकान्तरुचौ तु सम्यग्दर्शने समस्ति । यतश्चैवमतः सम्यग्ज्ञानं चेदं सम्यग्दर्शनं च विशिष्टरुचिस्वभावमवबोधरूपमर्थतः सामर्थ्यादुपपन्नं भवति ॥ ३३॥ १० [सूत्रोक्तं साद्यपर्यवसितत्वं शब्दशः स्पृशता केपांचिदाचार्याणां गर्विष्ठतया सम्यग्वादि खाभावप्रतिपादनम् ] _ अत्र साद्यपर्यवसितं केवलज्ञानं सूत्रे प्रदर्शितम् अनुमानं च तथाभूतस्य तस्य प्रतिपादकं संभवति । तथाहि-घातिकर्मचतुष्टयप्रक्षयाविर्भतत्वात् केवलं सादि न च तथोत्पन्नस्य पश्चात्तस्यावरणमस्ति अतोऽनन्तमिति न पुनरुत्पद्यते विनाशपूर्वकत्वादुत्पादस्य न हि घटस्याविनाशे कपालानामु. १५त्पादो दृष्ट इत्यनुत्पाव्ययात्मकं केवलमित्यभ्युपगमवतो निराकर्तुमाह केवलणाणं साई अपज्जवसियं ति दाइयं सुत्ते । तेत्तियमित्तोत्तूणा केइ विसेसं ण इच्छंति ॥ ३४ ॥ केवलज्ञानं साद्यपर्यवसितमिति दर्शितं सूत्रे इत्येतावन्मात्रेण गर्विताः केचन विशेषं पर्यायं पर्यवसितत्वस्वभावं विद्यमानमपि नेच्छंति ते न च सम्यग्वादिनः ॥ ३४ ॥ [सिद्धान्तिना केवलस्य पर्यवसितत्वप्रदर्शनम् ] यतः जे संघयणाईया भवत्थकेवलिविसेसपज्जाया। ते सिज्झमाणसमये ण होति विगयं तओ होइ ॥ ३५ ॥ ये वज्रऋषभनाराचसंहननादयो भवस्थस्य केवलिनः आत्मपुद्गलप्रदेशयोरन्योन्यानुवे२५धाद् व्यवस्थितेः-विशेषपर्यायास्ते सिध्यत्समयेऽपगच्छन्ति तदपगमे तदव्यतिरिक्तस्य केवलज्ञानस्याप्यात्मद्रव्यद्वारेण विगमात् अन्यथाऽवस्थातुरवस्थानामात्यन्तिकभेदप्रसक्तेः केवलज्ञानं ततो विगतं भवतीति सूत्रकृतोऽभिप्रायः ॥ ३५ ॥ १-स्य प्रति-बृ० आ० हा० वि०। २-यमेत्तो-बृ० आ० हा० वि०। ३-मित्तोत्तणा आ०।-मित्तो. मूणा वि०।-मित्तोपूणा हा० । 'उत्तूण' शब्दो दृप्तवाची देश्यः । “दरिए उत्तुण-उम्मुह-उच्चुचु-च्छुच्छु-उत्तुरिद्धीओ"देशीना• प्रथ. व. गा० ९९ पृ० ४१। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२३ ज्ञानमीमांसा। [सिध्यत्समये केवलस्य विनाशवद् उत्पादस्यापि प्रदर्शनम् अपर्यवसितत्वविषयक सूत्रोक्तेरपेक्षाविशेषेण समर्थनं च] विनाशवत् केवलज्ञानस्योत्पादोऽपि सिध्यत्समय इत्याह सिद्धत्तणेण य पुणो उप्पण्णो एस अत्थपजाओ। । केवलभावं तु पडुच्च केवलं दाइयं सुत्ते ॥ ३६॥ सिद्धत्वेनाशेषकर्मविगमस्वरूपेण पुनः पूर्ववदुत्पन्न एष केवलज्ञानाख्योऽर्थपर्याय उत्पादविगमनौव्यात्मकत्वाद् वस्तुनः अन्यथा वस्तुत्वहानेः । यत् त्वपर्यवसितत्वं सूत्रे केवलस्य दर्शितं तत् तस्य केवलभावं सत्तामात्रमाश्रित्य कथंचिदात्माव्यतिरिक्तत्वात् तस्य आत्मनश्च द्रव्यरूपतया नित्यत्वात् ॥ ३६॥ [स्वरूप-लक्षणाभ्यां जीव-केवलयोर्भेदे सत्यपि कथं तयोरेकत्वमित्यस्याः केषां- १० चिदाशङ्काया उल्लेखः] ननु केवलज्ञानस्यात्मरूपतामाश्रित्य तस्योत्पादविनाशाभ्यां केवलस्य तौ भवतः न चात्मनः केवलरूपतेति कुतस्तद्वारेण तस्य ताविल्याह जीवो अणाइणिहणो केवलणाणं तु साइयमणंतं । इअ थोरम्मि विसेसे कह जीवो केवलं होइ ॥ ३७॥ तम्हा अण्णो जीवो अण्णे णाणाइपजवा तस्स । उवसमियाईलक्खणविसेसओ केइ इच्छन्ति ॥ ३८॥ जीवोऽनादिनिधनः केवलज्ञानं तु साद्यपर्यवसितमिति स्थूरे विरुद्धधर्माध्यासलक्षणे विशेषे छायातपवदत्यन्तभेदात् कथं जीवः केवलं भवेत् ? जीवस्यैव तावत् केवलरूपता असंगता दूरतः संहननादेरिति भावः ॥ ३७॥ तस्माद् विरुद्धधर्माध्यासतोऽन्यो जीवो ज्ञानादिपर्यायेभ्यः अन्ये च ततो ज्ञानादिपर्याया लक्षणमेदाच्च तयोर्भेदः। तथाहि-ज्ञान-दर्शनयोः क्षायिकः क्षायोपशमिको वा भावो लक्षणम् जीवस्य तु पारिणामिकादि वो लक्षणमिति केचित् व्याख्यातारः प्रतिपन्नाः ॥ ३८ ॥ २० [प्रागुक्तामाशङ्का निरसितुमुपक्रमः ] एतनिषेधायाह अह पुण पुवपयुत्तो अत्थो एगंतपक्वपडिसेहे । तह वि उयाहरणमिणं ति हेउपडिजोअणं वोच्छं ॥ ३९॥ यद्यप्ययं पूर्वमेव द्रव्यपर्याययोर्भेदाभेदैकान्तपक्षप्रतिषेधलक्षणोऽर्थः प्रयुक्तो योजितः 'उप्पाय-टिइ-भंगा' [प्र० का० गा० १२] इत्यादिना अनेकान्तव्यवस्थापनात् तथापि केवलशाने अनेकान्तात्मकैकरूपप्रसाधकस्य हेतोः साध्येनानुगमप्रदर्शकप्रमाणविषयमुदाहरणमिवमुत्त-३० रगाथया वक्ष्ये ॥ ३९॥ १इअ घोर-भां• मां० । एत्थोर-बृ. आ. हा० वि.। ३पृ. ४१०५०५। २-पर्याय ल-बृ० वा. बा. विना । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ द्वितीये काण्डे - [ अनेकान्तात्मकैकरूपत्वेन साध्येन सच्चस्य हेतोर्व्याप्तिं प्रसाधयितुं दृष्टान्तोपन्यासः ] तदेवाह ५ यथा कश्चित् पुरुषः षष्टिवर्षः सर्वायुष्कमाश्रित्य त्रिंशद्वर्षः सन्नराधिपो जात उभयत्र मनुष्ये राजनि च जातशब्दोऽयं प्रयुक्तो वर्षविभागमेवास्य दर्शयति । षष्टिवर्षायुष्कस्य पुरुषसामान्यस्य नराधिपंपर्यायोऽयं जातः अभेदाध्यासितभेदात्मकत्वात् पर्यायस्य नराधिपपर्यायात्मकत्वेन चायं पुरुषः पुनर्जातो भेदानुषक्ता भेदात्मकत्वात् सामान्यस्य एकान्त मेदेऽमेदे वा तयोरभावप्रसङ्गान्निराश्रयस्य पर्यायप्रादुर्भावस्य तद्विर्कलस्य वा सामान्यस्यासंभवात् संशयविरोधवै१० यधिकरण्याऽनवस्थोभयदोपादीनामनेकान्तवादे च प्रागेव निरस्तत्वात् ॥ ४० ॥ १५ जह कोइ सट्टिवरिसो तीसइवरिसो णराहिवो जाओ । उभयत्थ जीयसद्दो वरिसविभागं विसेसेइ ॥ ४० ॥ [ दृष्टान्तगृहीतव्याप्तेः सच्वहेतोर्दान्ति के केवले उपनयनम् ] टान्तं प्रसाध्य दान्तिकयोर्जनायाह एवं जीवद्दव्वं अणाइणिहणमविसेसियं जम्हा । रायसरिस उ केवलिपज्जाओ तस्स सविसेसो ॥ ४१ ॥ एवमनन्तरोक्तदृष्टान्तवज्जीवद्रव्यमनादिनिधनमविशेषितभव्यजीवरूपं सामान्यं यतो राजत्वपर्यासदृशः केवलित्व पर्यायस्तस्य तथाभूतजीवद्रव्यस्य विशेषस्तस्मात् तेन रूपेण जीवद्रव्यसामान्यस्यापि कथंचिदुत्पत्तेः सामान्यमप्युत्पन्नं प्राक्तनरूपस्य विगमात् सामान्यमपि तदभिन्नं कथंचिद् विगतं पूर्वोत्तरपिण्डघटपर्यायपरित्यागोपादानप्रवृत्तैकमृद्रव्यवत् केवलरूपतया जीवरूपतया वा अनादिनिधनत्वान्नित्यं द्रव्यमभ्युपगन्तव्यम् प्रतिक्षणभाविपर्यायानुस्यूतस्य च २० मृद्रव्यस्याध्यक्षतोऽनुभूतेर्न दृष्टान्तासिद्धिस्तस्मात् केवलं कथंचित् सादि कथंचिदनादि कथंचित् सपर्यवसानं कथंचिदपर्यवसानं सत्वादात्मवदिति स्थितम् ॥ ४१ ॥ २५ [ जीव-तत्पर्यायगतं प्रामाणिकं व्यवहारमाश्रित्य द्रव्यपर्याययोरेकान्त भेदनिराकरणम् ] न द्रव्यं पर्यायेभ्यो भिन्नमेवेत्याह जीवो अणाइनिहणो 'जीव' त्ति य नियमओ ण वक्तव्वो । जं पुरिसाउयजीवो देवाउयजीवियविसिट्ठी ॥ ४२ ॥ जीवोsनादिनिधनो जीव एव विशेषविकल इति नियमतो न वक्तव्यम् यतः पुरुषायुष्कजीवो देवायुष्कजीवाद विशिष्टो जीव एव इति त्वभेदे पुरुषजीव इत्यादिभेदो भवेत् केवलस्य सामान्यस्य विशेषप्रत्ययाभिधानानिबन्धनत्वान्निर्निमित्तस्यापि विशेषप्रत्ययाभिधानस्य संभवे सामान्यप्रत्ययाभिधानस्यापि निर्निमित्तस्यैव भावात् तन्निबन्धनसामान्याभ्युपग३० मोऽप्ययुक्तः स्यादिति सर्वाभावः । न च विशेषप्रत्ययस्य बाधारहितस्यापि मिथ्यात्वमितरत्रापि तत्प्रसक्तेरिति प्रतिपादनात् ॥ ४२ ॥ १ जाइस - बृ० । २-पशब्दोऽ- भ० मां० । ३ - दाध्यवसि वा० बा० । ४-कल्पस्य वृ० आ० विना । ५ पृ० ४५१ पं० ३३ टि० ७ । ६- जनामाह भां०] मां० । ७ एव्वं वृ० वा० बा० विना । ८-ण्डद्रव्यघ - बृ० मा० वा० बिना । ९ सादिकं क - वा० वा० भ० मां० । १० - न्यस्यावि - वा० बा० बिना । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानमीमांसा। [ आत्मद्रव्यस्य स्वाभाविकैर्वैभाविकैश्च पर्यायैः कथंचिदेकानेकखप्रदर्शनम् ] केवलज्ञानस्य कथंचिदात्माऽव्यतिरेकादात्मनो वा केवलशानाव्यतिरेकात् कथञ्चिदेकत्वं तयोरित्याह संखेज्जमसंखेज्जं अणंतकप्पं च केवलं णाणं । तह रागदोसमोहा अण्णे वि य जीवपज्जाया ॥४३॥ आत्मन एकत्वात् कथञ्चित् तदव्यतिरिक्तं केवलमप्येकम् केवलस्य वा ज्ञानदर्शनरूपतया द्विरूपत्वात् तदव्यतिरिक्त आत्माऽपि द्विरूपः असंख्येयप्रदेशात्मकत्वादात्मनः केवलमप्यसंख्येयम् अनन्तार्थविषयतया केवलस्यानन्तत्वादात्माऽप्यनन्तः । एवं रागद्वेषमोहा अन्येऽपि जीवपर्यायाश्छद्मस्थावस्थाभाविनः संख्येयाऽसंख्येयानन्तप्रकारा आलम्ब्यभेदात् तदात्मकत्वात् संसार्यात्माऽपि तद्वत् तथैव स्यात् । सोमिलव्राह्मणप्रश्नप्रतिवचने चागमे एतदर्थप्रतिपादकं च सूत्रम्-"एंगे १० भवं दुवे भवं" इत्यादि "जाव अणेगभूयभावभविए भवं" इति प्रश्ने उत्तरं-"सोमिला! एगे वि अहं जाव अणेगभूयभावभविए य अहं । से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ ? एगे वि अहं" इत्याद्युत्तरहेतुप्रश्ने हेतुप्रतिपादनम् । “सोमिला ! दव्वट्ठयाए एगे अहं, णाणदसणट्ठयाए दुवे अहं” [भगवती० श० १८ उ० १० सू० ६४७ ] इत्यादि प्रकृतार्थसंवादि सिद्धम् । रागादीनां चैकाद्यनन्तभेदत्वमात्मपर्यायत्वात् यो ह्यात्मपर्यायः स एकाद्यनन्तभेदो यथा केवलावबोधस्तथा च रागादय इति स्थित्युत्पत्तिनिरोधा-१५ त्मकत्वमहत्यपि सिद्धमिति यत् परेणोक्तम् -"अनेकान्तात्मकत्वाभावेऽपि केवलिनि सत्त्वात् यत् सत् तत् सर्वमनेकान्तात्मकमिति प्रतिपादकस्य शासनस्याव्यापकत्वात् कुसमयविशासित्वं तस्यासिद्धम्” [ ] इति तत् प्रत्युक्तं द्रष्टव्यम् ॥४३॥ तत्त्वबोधविधायिन्यां सम्मतिटीकायां द्वितीयं काण्डम् । १ “एगे भवं दुवे भवं अक्खए भवं अव्वए भवं अवट्ठिए भवं अणेगभूयभावभविए भवं? सोमिला ! एगे वि अहं जाव अणेगभूयभावभविए वि अहं । से केणटेणं भंते । एवं वुच्चइ जाव-भविए वि अहं ? सोमिला ! दव्वट्ठयाए एगे अहं, नाण-दसणट्ठयाए दुविहे अहं, पएसट्टयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं अवविए वि अहं, उवयोगट्टयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं । से तेणटेणं जाव-भविए वि अहं"-इति संपूर्ण भगवतीसू० पृ. ७६० प्र०। २-त्तितिरो-आ. हा०वि०। त्तिविरो-भां. मां। ३-त् प्रयुक्तं द्र-भां० मां०।-त् प्रत्यक्षं द्र-बृ० आ० हा० वि०। ४ (ग्रन्थानम् ) ७२५० बृ० । ८० स० त० Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिः शैल्या प्रशस्त० कं० तत्त्वार्थश्लो० शुद्धिपत्रम् 100 पृष्ठे ४९९ ५३९ ५५३ पौ ३५ ३४ ३९ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूजरात पुरातत्त्वमन्दिर ग्रन्थावली POSOLAN चापाकि साविद्या PRADESH HARYANA ग्रन्थाङ्क २१ Page #197 --------------------------------------------------------------------------  Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूजरातपुरातत्त्वमन्दिरग्रन्थावली आचार्यश्रीसिद्धसेनदिवाकरप्रणीतं सन्मतितर्क-प्रकरणम्। जैनश्वेताम्बर-राजगच्छीय-प्रद्युम्नमुरिशिष्य-तर्कपश्चाननश्रीमद्-अभयदेवसरिनिर्मितया तत्त्वबोधविधायिन्या व्याख्यया विभूषितम् । पञ्चमो विभागः। (तृतीयं काण्डम् ) गूजरातविद्यापीठप्रतिष्ठितपुरातत्त्वमन्दिरस्थेन संस्कृतसाहित्य-दर्शनशास्त्राध्यापकेन पं० सुखलालसंघविना प्राकृतवाङ्मयाध्यापकेन जैनन्याय-व्याकरणतीर्थ पं० बेचरदासदोशिना च पाठान्तर-टिप्पण्यादिभिः परिष्कृत्य संशोधितम् । गूजरात विद्यापीठ अमदावाद प्रथमावृत्तिः, प्रतिसं० ५..] संवत् १९८७ [ मूल्यम्-१.रूप्यकाणि. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक:-नरहरि द्वारकादास परीख महामात्र, गूजरात विद्यापीठ, अमदावाद मुद्रका-रामचंद्र येसू शेडगे, निर्णयसागर प्रेस, नं. २६-२८, कोलभाट लेन, मुंबई. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका-टिप्पण्युपयुक्तग्रन्थसंकेतस्पष्टीकरणम् । अनुयोगद्वारवृत्तिः आचारा० सू० आवश्यकनि० उवग्घायनिक पढमाव० सामायिकनि० उत्तरा० ओघनि० का० आचाराङ्गसूत्रम् आवश्यकनियुक्ती उपोद्घातनियुक्तिः, प्रथमावश्यकनियुक्तिः, सामायिकनियुक्तिः उत्तराध्ययनसूत्रम् । ओघनियुक्तिः। कारिका। गुलाबविजयसत्का सन्मतिसूत्रमूलप्रतिः। जीवविचारप्रकरणम् । जीवाजीवाभिगमसूत्रे प्रतिपत्तिः। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ वक्षस्कारः। तत्त्वार्थसूत्रम्। तत्त्वार्थभाष्यम्। तत्त्वार्थराजवार्तिकम्। गु० मू० जीवविचा० जीवाजीवाभि० प्रतिप० जम्बूद्वीपप्र०वक्ष तत्वार्थ तत्त्वार्थसू० तत्त्वार्थ० भा० तत्त्वार्थराजवा० द्रव्यगुणपर्यायरासः धर्मसं० नवत० नैषध० न्यायकुमुद० लि. पराशरमाधवः पातञ्जलद० पश्चाध्या० पञ्चाश० पञ्चाशकटी० पश्वास्तिक प्रवचन प्रवचनसा प्रवचनसारो० द्वा० बृहत्सं० वृक्ष धर्मसङ्ग्रहणीसूत्रम्। नवतत्त्वप्रकरणम्। नैषधकाव्यम्। न्यायकुमुदचन्द्रोदयः लिखितः। पातञ्जलदर्शनम् । पञ्चाध्यायी अमृतचन्द्रीया पश्चाशकम्। पञ्चाशकटीका। पश्चास्तिकायः। प्रवचनसारः। प्रवचनसारोद्धारे द्वारम् । बृहत्संहिता (वाराही संहिता) वृक्षायुर्वेदप्रकरणम् ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्यम् । भगवतीसूत्रम् । ब्रह्मसू० शां० भगव०॥ भगवतीसू० मनु० । मनुस्मृ० महाभा० शान्ति मो०प० अ० महाव्युत्पत्तिः यास्कनि० मनुस्मृतिः। महाभारतम् शान्तिपर्वणि मोक्षपर्व अध्यायः। बौद्धग्रन्थः। यास्कनिरुक्तम्। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचस्पत्य। विशेषावश्यकभाष्यम् । वैद्यकशब्दसिन्धुः। वाच० वायुपुराणम् विशेषाव० वैद्यक० सिं० वैशेषिकद्वात्रिंशिका श०। शत० शास्त्रदी० शास्त्रवा० समु० स्तब० श्लो० वा वाक्याधि० , औत्पत्तिकसू० षड्द० स० षड्द० बृ० सनातन प्र० गु० सनातन प्र० गु० स्वयंभूस्तो० अर० सूर्यसिद्धान्तः स्वयंभू । स्वयंभूस्तो० शतकम्। शास्त्रदीपिका। शास्त्रवार्तासमुच्चये स्तबकः । श्लोकवार्तिके वाक्याधिकारः। ,, औत्पत्तिकसूत्रम् । षड्दर्शनसमुच्चयः। षड्दर्शनसमुच्चयस्य बृहद्वृत्तिः। सनातनजैनग्रन्थमाला प्रथमो गुच्छकः । ,, अरनाथस्तोत्रम् । स्वयंभूस्तोत्रम् । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः। विषयः प्रथमगाथाव्याख्या। सामान्यविशेषयोरन्योन्यानुविद्धखरूपत्वकथनम् । २ गाथाव्याख्या। सामान्यविशेषयोरेकान्तमेदं वदतो दोषापत्तिप्रकटनम् । ३गाथाव्याख्या। आप्तवचनस्यानेकान्तात्मकवस्तुबोधकत्वेन वरूपकथनम् । ४ गाथाव्याख्या। आप्तवचने समुपतिष्ठमानाया एकान्तपक्षाश्रिताया आशङ्काया अनेकान्तपक्षाश्रयणेन निराकरणम्। ५गाथाव्याख्या। संभवद्भिः पर्यायैर्घटादेर्वस्तुनः अस्तित्व-नास्तित्वप्ररूपणम् । ६ गाथाव्याख्या। वर्तमानपर्यायेऽपि द्रव्यस्यानेकान्तात्मकत्वसमर्थनम् । ७गाथाव्याख्या। आत्मनोऽनेकान्तात्मकत्वस्य बुद्धिगम्य ८गाथाव्याख्या। द्रव्य-गुणयोः कथञ्चिदभेदमनिच्छतां केषाञ्चित् तयोर्भेदविषयाऽऽशङ्का । ९गाथाव्याख्या। द्रव्यगुणयोरेकान्तभेदाशङ्कां निराकर्तुं गुणशब्दस्यार्थपरीक्षा । १० गाथाव्याख्या। गुणस्य पर्यायाद् भेदे तृतीयस्य गुणार्थिकनयस्यापि वचनीयत्वप्रसञ्जनम् । ११ गाथाव्याख्या। तृतीयस्य गुणार्थिकनयस्य भगवदनुक्तत्वोपपादनम् । १२ गाथाव्याख्या। तुल्यार्थत्वाद् आगमाञ्च पर्यायशब्देन गुणस्यैवाभिधानमिति कथनम् । १३ गाथाव्याख्या। भगवतो गुणद्वारेणापि देशनादर्शनान गुणाभाव इति पूर्वपक्षः । १४ गाथाव्याख्या। उक्तस्य पूर्वपक्षस्य सिद्धान्तवादिना निराकरणम् । १५ गाथाव्याख्या। सिद्धान्तिना वोक्तस्यार्थस्य दृढीकरणम् । १६-१७-१८ गाथाव्याख्या। मेदस्य निरासेनामेदस्य फलितत्वेऽप्येकान्तिना तस्य दााय सोपनयमुदाहरणम् । १९ गाथाव्याख्या। कश्चिद् मेदामेदं मिथ्या वदतोऽमेदैकान्तपक्षस्य निराकरणम् । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः २० गाथाव्याख्या। अमेदैकान्तवादिन आशङ्का । २१ गाथाव्याख्या। सिद्धान्तवादिनाऽऽशङ्कानिरसनम् । २२ गाथाव्याख्या। अनेकान्तवादे अनन्तद्विगुणादिवैषम्यपरिणतिः कथं घटते ? इत्याशङ्का तन्निरासश्च । २३-२४ गाथाव्याख्या। ६३७-६३८ प्रागुक्तस्य लक्षणस्य बाधाद् भेदैकान्तवादिना द्रव्य-गुणयोर्लक्षणान्तराभिधानम् । अभेदैकान्तवादिना च विकल्प्य तद्दूषणम् । ६३७ २५ गाथाव्याख्या।। ६३८ प्रस्तुतप्रपञ्चस्य शिष्यबुद्धिवैशद्यमात्रप्रयोजनकत्वकथनम् । ६३८ २६ गाथाव्याख्या। ६३८ वस्तुत्वे कथश्चिद् भेदाभेदात्मके व्यवस्थितेऽपि तदन्यथावादिनां मिथ्यादृष्टित्वकथनम् । , २७ गाथाव्याख्या। अनेकान्तस्य व्यापकतां प्रदर्शयितुमनेकान्तेऽप्यनेकान्ताभ्युपगमनम् । २८ गाथाव्याख्या। षड्जीवनिकायास्तदधाते च धर्म इत्यत्राप्यनेकान्तव्यवस्थापनम् । २९ गाथाव्याख्या। गतिमत्यपि द्रव्ये अपेक्षाविशेषेण गत्यगती प्रदानेकान्तस्य व्यापकत्वोपपादनम् । ३० गाथाव्याख्या। दहनादावपेक्षाविशेषेणादहनत्वादिकं निरूप्यानेकान्तस्य व्यापकत्वसमर्थनम् । ३१ गाथाव्याख्या। खस्यापि वस्तुनः प्रतिनियतस्वरूपान्यथानुपपत्त्या स्वरूपास्तित्व-पररूपनास्तित्वाभ्युपगमेनानेकान्तात्मकत्वप्रदर्शनम् । ३२ गाथाव्याख्या। उत्पादपर्यायस्य प्रयोग-विस्रसाजन्यत्वेन द्वैविध्यकथनम् । ३३ गाथाव्याख्या। विस्मसाजन्यस्याप्युत्पादस्य द्वैविध्यवर्णनम् । आकाशादिद्रव्यत्रयस्य कथञ्चित् सावयवत्वसाधनम् सामयिकीनामाकाशादिसंज्ञानामुपपादनं च। ३४ गाथाव्याख्या। उत्पादवद् विगमस्यापि द्वैविध्यवर्णनम् । ३५ गाथाव्याख्या। उत्पाद-विनाश-ध्रौव्याणां भिन्नाभिन्नकालत्वस्यार्थान्तरानान्तरत्वस्य चाभिधानम् । ३६ गाथाव्याख्या। उक्तस्यार्थस्य प्रत्यक्षसिद्धेनोदाहरणेनोपोद्वलनम् । ३७ गाथाव्याख्या। उत्पादादित्रयं प्रत्येकं व्यात्मकवत् कालिकमप्यस्ति इति वदत एव यथार्थवफ्तृत्वा भिधानम्। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१-६५५ विषयः पृष्ठम् ३८ गाथाव्याख्या। विभागजन्यमुत्पाद्मनिच्छतां केषाञ्चिद् उत्पादार्थानभिज्ञत्वख्यापनम् । ३९ गाथाव्याख्या। ६४६-६४९ प्रतिवादिसम्मतोत्पादप्रक्रियाकथनपूर्वकं सिद्धान्तसम्मतस्य विभागजन्योत्पादस्य समर्थनम्। ६४६ ४० गाथाव्याख्या। प्रतिवादिमतमाक्षिप्य प्रतिबन्दीतया वेष्टस्य विभागजन्योत्पादस्य समर्थनम् । ४१ गाथाव्याख्या। एकस्मिन्नपि समये प्रत्येकं द्रव्यमनन्तपर्यायात्मकं प्रागुक्तरीत्या सिध्यति इत्यभिधानम्। , ४२ गाथाव्याख्या। एकस्मिन् द्रव्ये एकसमयेऽनन्तधर्मात्मकत्वस्य दृष्टान्तेन साधनम् । ४३ गाथाव्याख्या। आगमस्य हेतुवादाहेतुवादाभ्यां द्वैविध्येन विभजनम् । ४४ गाथाव्याख्या। ६५१ आगमोक्तस्य वस्तुनो हेतुद्वारा वास्तविकत्वसाधनमेव हेतुवादस्य लक्षणमिति सूचनम्। ,, ४५ गाथाव्याख्या। जीवादितत्त्वं कथं प्रतिपादयन् सिद्धान्तस्य आराधकः कथं वा प्रतिपादयन् तस्य विरा धक इत्यभिधानम्। ४६ गाथाव्याख्या। ६५५ हेतुसाध्यमर्थ हेतोरेव इतरं चागमत एव साधयतो नयवादः शुद्धो नान्यस्य इति । कथनम्। ४७ गाथाव्याख्या। ६५५ अपरिशुद्धनयवादरूपपरसमयानां संख्यानम् । ४८ गाथाव्याख्या। कं कं नयमाश्रित्य कस्कः समयः प्रस्थित इति प्रश्नस्य व्याकरणम् । ४९ गाथाव्याख्या। ६५६-७०४ द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकोभयाश्रितस्यापि वैशेषिकसमयस्य कथं मिथ्यात्वमिति प्रश्नस्य प्रतिवचनम्। कणादोक्तषट्पदा व्यवस्थाया उपन्यासः कणादोक्तां तत्त्वव्यवस्था निरसि पदार्थस्य खण्डनम् । क्रमशो रूपादिगुणानां प्रक्रियामपन्यस्य तेषां खण्डनम् । ६७२ निरूपणपुरस्सरं कर्मपदार्थस्य खण्डनम् । , सामान्यपदार्थस्य ६८७ विशेषपदार्थस्य ,। " समवायपदार्थस्य ,,। ५० गाथाव्याख्या। ७०४-७०९ अन्योन्यनिरपेक्षनयाश्रितानां वादानां मिथ्यात्वराहित्याभावप्रतिपादनम् । न्याय-वैशेषिकसम्मतस्यासत्कार्यरूपस्यासद्वादस्य सदोषत्वप्रदर्शनम् । ७०५ बौद्धसम्मतस्यासत्कारणरूपस्यासद्वादस्य सदोषत्वदर्शनम् । ७०० ७०४ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठम् विषयः साङ्ख्यसम्मतस्य सत्कार्यरूपस्य सद्वादस्य सदोषत्वख्यापनम् ७०६ सत्कारणककार्यरूपस्य सद्वादस्य सदोषत्वप्रकटनम् । ७०७ कथञ्चित् सदसद्वादस्य निर्दोषत्वसमर्थनम् । प्रसङ्गात् चित्ररूपचर्चा।। ७०८ ५१ गाथाव्याख्या। अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां निरपेक्षनयद्वये मिथ्याज्ञानरूपत्वस्य दृढीकरणम् । ५२ गाथाव्याख्या। ७१० कार्य-कारणयोर्भेदाभेदरूपत्वदर्शनेनानेकान्तरूपत्वोपपादनम् । ५३ गाथाव्याख्या। ७१०-७१७ सदायेकान्तवत् कालायेकान्तेऽपि मिथ्यात्वख्यापनम् । कालैककारणवादमुपन्यस्य तस्यैकान्तिकत्वनिरासः। स्वभावैककारणवादमुपन्यस्य तस्यैकान्तिकत्वनिरासः। नियत्येककारणवादमुपन्यस्य ७१४ कमैककारणवादमुपन्यस्य पुरुषैककारणवादमुपन्यस्य ५४ गाथाव्याख्या। ७१७-७१८ आत्मन्येकान्तरूपस्य नास्तित्वादिवादषदस्य मिथ्यारूपत्वकथनम् । ५५ गाथाव्याख्या। ७१८ आत्मन्येकान्तरूपस्यास्तित्वादिवादषट्रस्य मिथ्यारूपत्वकथनम् । ५६ गाथाव्याख्या। ७१९-७२५ एकान्तवादिनः साधर्येण वा वैधयेण वैकान्तधर्मयुक्तधर्मिसाधनाशक्तत्वाभिधानम्। , प्रसङ्गाद् हेत्वाभाससङ्ख्याविषया चर्चा । ५७ गाथाव्याख्या। परस्परभिन्नं सामान्य-विशेषयोः स्वरूपमनूद्य तस्य निराकरणम् । ५८ गाथाव्याख्या। अनेकान्तरूपतया वस्तु साधयतो वादिनोऽजेयत्वाभिधानम् । ५९ गाथाव्याख्या। ७२६ एकान्तानिश्चितरूपाभ्यां वस्तु वदतो लौकिकपरीक्षकाग्राह्यवचनत्वकथनम् । ७२७ ६० गाथाव्याख्या। ७२७-७३१ निर्दोषभावप्ररूपणाया मार्गप्रकाशनम् । ७२७ एकान्तक्षणिकाक्षणिकत्वे निरस्य तदुभयात्मकत्वसाधनम् । ७२८ ६१ गाथाव्याख्या। ७३१ विवेचनविकलामागमस्य प्रतिपत्तिमाश्रयतां तत्त्वानभिज्ञत्वख्यापनम् । ६२ गाथाव्याख्या। ७३२ निरपेक्षकनयप्रवृत्तानां दोषोद्भावनम् । ६३ गाथाव्याख्या। ७३२-७४५ न शासनभक्तिमात्रेण नाप्यांशिकज्ञानमात्रेणानेकान्तप्ररूपणाकुशल इति कथनम्। . ७३२ तत्त्वसप्तके निरूप्ये पूर्व जीवाजीवौ निरूप्य तत्र कणादादिसम्मततत्त्वानामन्तर्भावप्रदर्शनम् ।, ध्यानचतुष्कस्य सभेदप्रभेदं व्यावर्णनम् । ७३४ ऐकान्तिकं वाच्यखरूपं निरसितं लडादेरर्थविचारपक्षाः। " ७३७ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः पृष्ठम् ६४ गाथाव्याख्या। ७४५ अर्थवशात् सूत्रस्य निष्पत्तिर्न तु निरपेक्षसूत्रमात्रेणार्थस्येति कथनम् । ६५ गाथाव्याख्या । ७४६-७५५ अधीतसूत्रस्यार्थसंपादने प्रयत्नाभावे शासनविडम्बकत्वकथनम् । ७४६ निर्ग्रन्थानां वस्त्रपात्रादिनिषेधकस्य दिगम्बरीयमतस्य पूर्वपक्षतयोपन्यासः। सिद्धान्तिना प्रर्वपक्षं प्रतिविधाय निर्ग्रन्थानां धर्मोपकरणतया वस्त्रपात्रादिधारणस्य समर्थनम्। ७४७ प्रतिमाभूषाया आगमविहितत्वसमर्थनम् ७५४ ६६ गाथाव्याख्या । बहुश्रुतत्वादिदर्पात् तात्पर्यापरिज्ञानाच्चानिश्चितशास्त्रार्थस्य सिद्धान्तप्रत्यनीकत्वकथनम्। , ६७ गाथाव्याख्या। क्रियाप्रधानानां ज्ञानयोगमसाधयतां क्रियाफलानुभवाभावकथनम् । ६८ गाथाव्याख्या। शानक्रिययोरन्यतरवैकल्ये मोक्षफलवन्ध्यत्वकथनम् । ६९ गाथाव्याख्या। अनेकान्तमयत्वेन जिनवचनस्य स्तवनं पार्यन्तिकमङ्गलविधानं च । सप्तभङ्गयादिप्रदर्शनेनानेकान्तसमर्थनम् । प्रासङ्गिकी निग्रहस्थानस्वरूपपर्यालोचना। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय निवेदन। सन्मतिना पांचमा भागमां त्रीजु कांड पूरूं आवी गयुं छे. अने ए रीते त्रिकांडी आ आखो ग्रंथ मूळ अने टीका साथे पांच भागोमां पूरो थाय छे. १९८६ नी शरुआतमां ज छपाई गयेलं आखं त्री काण्ड तैयार हतुं एथी मात्र मूळ अने टीकाटिप्पणी पूरतो पांचमो भाग बीजा भागोनी जेम प्रगट करी शकाय तेम तो हतो पण एमां केटलांक आवश्यक परिशिष्टो उमेरवानां होवाथी तेनुं प्रकाशन लंबाववामां आव्युं छे. आ पांचमा भागने अंगे अमारुं निवेदन नीचेना मुद्दा परत्वे छे. १ त्रीजा कांडना मूळ अने टीकार्नु परिमाण. २ मूळनो विषय अने मूळकारनी तेजखिता. ३ टीकाना स्वरूपनी चर्चा अने टीकाकारना समयनुं वातावरण. ४ कांडनां नामो अने ग्रंथना पूर्वमुद्रित नामर्नु परिवर्तन. ५ प्रतिओनो उपयोग अने परिशिष्टोनो परिचय. (१) आ कांडनी मूळ गाथाओ मात्र मूळवाळा लिखित पुस्तकमा ७० छे अने मूळसहित टीकावाळां लिखित पुस्तकोमा एक गाथा ओछी छे-६९ छे. मूळवाळा लिखित पुस्तकमा जे गाथा ७० मी छे ते गाथाने टीकावाळां पुस्तकोमा छेल्ली एटले ६९ मी गणवामां आवी छे. एटले मूळवाळा पुस्तकमा जे गाथा ६९ मी छे ते गाथाने टीकावाळां पुस्तकोमा स्थान आपवामां नथी आव्यु. अमारा मुद्रणमां अमे ए गाथाने पाठांतर तरीके पृ. ७५७ मां नोंधेली छे. सन्मति प्रकरणनी छेल्ली गाथा आशीर्वादात्मक मंगळ सूचवे छे. अने आ वधारानी गाथा नमस्कारात्मक मंगळरूप छे. कहेवाय छे के शास्त्रना आदि, मध्य अने अंतमां मंगळ होवां जोइए, ते प्रमाणे आ प्रकरणमां पण आदि अने अंतमां मंगलात्मक शब्दनो निर्देश मळे छे. ए रीते विचार करीए अने आ वधारानी गाथाने वधारानी न मानीए तो अंते बे मंगळ थई जाय छे जेनो खास कई उपयोग जणातो नथी. तेथी एम कल्पी शकाय छे के कदाच आ नमस्कारात्मक मंगळने सूचवती गाथा वधारानी ज होय अने मूळग्रंथकारनी कृति न होय. आ एक वात. बीजी वात ए छे के टीकाकारे आ प्रकरणनी बधी गाथाओनी व्याख्या करेली छे. जे गाथा सहजमां समजाय एवी छे तेनी पण व्याख्या करवी छोडी नथी. जो आ गाथा मूळनी ज होत तो टीकाकारे पोतानी शैली प्रमाणे जरूर तेनी व्याख्या करी होत. छेवटे काई नहि तो आ गाथा लखीने 'सुगमार्था' के 'स्पष्टार्थी' आq पण लख्यु होत. पण टीकानी कोई प्रतिओमां-जेमांनी केटलीक आजथी ५०० वर्ष जेटली जूनी छे तेमां-एकेमां आ गाथानो उल्लेख ज नथी. आ बन्ने कारणोथी अमारी कल्पना एवी थाय छे के अनेकांतवादना कोई भक्ते आ गाथाद्वारा अनेकांतवादनुं खरुं महत्त्व बतावी अनेकांतवादना आ प्रतिष्ठित प्रकरणमा एने उमेरेली होवी जोईए. बृहट्टिप्पनीकारे आ प्रकरणनी १७० गाथा नोंधेली छे. अने जैनग्रंथावलीमा ए १६८ नोंधायेली छे. पण अमारी सामेनी टीकावाळी बधी प्रतिओमा १६६ थी वधारे गाथाओ क्यांये मळती नथी. तेथी वधारानी गाथानो खुलासो अमे उपर प्रमाणे करीए छीए, अने एथी आ त्रीजा कांडनी ६९ गाथाओ होवानुं प्रमाणित करीए छीए. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगळना भागो-कांडो-नी जेम आ भागमा पण टीकाकारे पोतानी टीकाने केटलेक स्थळे विस्तारेली छे अने केटलेक स्थळे ढूंकावी छे. एकंदर जोतां कोई पण भाग करतां आ भागमा टीकार्नु परिमाण खास ओर्छ जणाशे नहि. आ भागमां द्वितीय भागनी अपोहचर्चानी जेम कणादमतनी परीक्षाना प्रकरणमा श्रीशांतरक्षितना तत्त्वसंग्रहर्नु पूरेपूरुं प्रतिबिंब छे, जे अमे टिप्पणमा एनी कारिकाओ वगेरे मूकीने जणाव्युं छे. (२) न्यायना कोई पण ग्रंथमां प्रमाण अने प्रमेय ए वे तत्त्वनी चर्चा प्रस्तुत होय छे ज्यारे जैनन्यायना ग्रंथमा ए बे उपरांत त्रीजी नयनी चर्चा पण होय छे. प्रस्तुत प्रकरणमा पहेलामां नयनी, वीजामां ज्ञान वा प्रमाणनी अने त्रीजा कांडमां ज्ञेय के प्रमेयनी चर्चा करेली छे. गौतम के दिमागनी प्रमेयनी चर्चाओनी जेम आ प्रकरणनी प्रमेयनी चर्चामां पदार्थना स्वरूप विषे एटले के संसारमा मुख्य तत्त्वो अमुक अमुक छे. तेना भेदो प्रभेदो अमुक छे अने ते प्रत्येकनुं खरूप अमुक जातनुं छे, एवी खास कंई चची करवामां नी आवी. परंतु पदार्थना स्वरूपने कई गते समजवं जोईए अने पदार्थने कई गते जोडए नो वरावर समजाय एवी समजण वधु वीगती आपवामां आवी छे, अने विचारना जगतमां जीव अने जगन विषे जे जे विरोधी मान्यताओ चाली आवे छे तेनो समन्वय करवानी दृष्टि पण आ प्रकरणमां ग्वाम मूकवामां आवी छे. ____एक अनुभवी कहे छे के दृश्य अने अदृश्य वधु निन्य छ. अने बीजो अनुभत्री कहे छे के ए वधु अनित्य छे. आ मान्यताओ जे वे दृष्टिकोण उपर रहीने स्थिर करवामां आवी छे ते दृष्टिकोण जिज्ञासुओना म्ब्यालमा आवी जाय तो ए वे वच्चनो विरोध तुग्न टळी जाय. ए विगेव टाळनारी सरळ अने समाधायक पद्धति आ ग्रंथमां खाम भष्ट करवामां आवी छ. एक द्रष्टा एम कहे छ के अमुक पदार्थ मने तो लांबो देवाय छे, बीजो कोई एम कहे के मने तो ए ज पदार्थ हूंको देखाय छे अने त्रीजो एम कहे के ए त्रिकोण देवाय छे; त्यारे आ बवाना दृष्टिकोणने समजनागे वैज्ञानिक एम कहे के ए पदार्थ लांबो, हूंको अने त्रिकोण देवाय छे ए बधुं सापेक्ष भावे वरावर छे. कारण के जोनाराओनी निर्दोष दृष्टिओ अने पदार्थ वच्चेनो संबंध जुदी जुदी जातना छे. आ समाधानकारी दृष्टिनुं नाम अनेकांतवाद विभन्यवाद के न्यावाद छे. जैन आगमोमां आ दृष्टिनुं दिगदर्शन तो छ ज पण आ ग्रंथकारे आ प्रकरणमा ए दृष्टिने एक वैज्ञानिकनी रीते समजावेली छे. एटले के जेम कोई वैज्ञानिक कोई तत्त्वर्नु पृथक्करण करीने तेमांना प्रत्येक अंशने स्पष्ट करी वतावे छे तेम आचार्य सिद्धसेन दिवाकरे आ कांडमां अनेकांतवादनी बधी बाजुओने खुल्ली रीते समजावली छे. एम अनेकांतवादनुं शास्त्रीय पृथक्करण आ पुस्तकमां ज पहेलु थयु छे. आ प्रकरणना प्रांत भागमां केटलीक गाथाओ एवी पण छे जे उपरथी आपणे तेना कर्नानी तेना पोताना युगमां व्यापेली मंदताने तोडनारी तेजस्विता अने रुढ विचारधारानी सामे स्थापेला रचनात्मक विचारप्रवाहने पण जोई शकीए छीए. केटलीक वार एवं बने छे के पोताने सत्यद्रष्टा माननारा भलभला मोटा माणसो पण मात्र शब्दस्पर्शी होय छे, जे शब्दम्पर्शथी पोतानुं जीवन अने सामाजिक जीवन छिन्नभिन्न यतुं होय छे. ज्यारे वघी बाजी हाथमाथी जवानो वखत आवे छे त्यारे पण ए शब्दम्पर्श नी मूकातो. आचार्य सिद्धसेनना जमानामां आवु आq होवानुं झांबुं झां दर्शन थाय छे. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ तेओ कहे छे के ६३). "कांई शासन उपरना मात्र रागने लीधे कोई सिद्धांतनो ज्ञाता एटले सिद्धांतनो बधी रीते तलस्पर्शी अभ्यासी थई शकतो नथी. तेम ज कोई अमुक अमुक ज दृष्टिकोण उपर रहीने शास्त्रने समजावतो होय ते पण तेनी प्ररूपणामां निश्चित होई शकतो नथी" ( गाथा. “सूत्र अर्थना आधाररूप छे. माटे सूत्रने ज वळगी रहेवामां आवे अने तेना व्यापक अर्थनो विचार न करवामां आवे तो कदी पण अर्थनी प्रतिपत्ति थई शकती नथी. ए अर्थनुं भान तो तेने ज थई शके छे जे दुर्गम एवा नयवादना गहन वनमां प्रवेश करवाने उत्साही होय." ( गा० ६४ ) आवुं छे माटे आचार्यश्री कहे छे के " सूत्रना भणनाराए अर्थसंपादनमां खूब यत्न करवो जोईए. ते न करनारा केटलाक धृष्ट अने अशिक्षित आचार्यो महापुरुषोनी आज्ञानी फजेती करे छे." ( गा० ६५ ) “जेने अज्ञ लोको बहु ज्ञानी समजता होय, जे एवा ज लोकोमां पूजातो होय अने जेनो शिष्य - परिवार कांई ठीक ठीक होय तेवो आचार्य जो अनेकांतना स्वरूपने निश्चितपणे न समजतो होय तो ते आचार्य सिद्धांतनो द्रोही छे." ( गा० ६६ ) आजना क्रांतदर्शी संतनी जेम आचार्य सिद्धसेन आटलेथी न अटकतां वधुमां जगावे छे के:“जेओ पोताना क्रियाकांडमां कुशळ छे अने ए क्रियाकांडने ज प्रधानपणे वळगीने चाले छे तेओ जो पोताना सिद्धांतनुं अने परसमयनुं विशाळ ज्ञान न धरावता होय तो तेओ ए क्रियाकांडना भारनो कशो उद्देश ज समजता नथी. " ( गा० ६७ ) आचार्यश्रीनां आ वचनो उपरथी तेमना समयना तमोमय वातावरणनो ख्याल आववा साथे ते वातावरणने भेदवानुं सामर्थ्य धरावनारुं तेमनुं तेज पण प्रगट थाय छे. (३) टीकाकारश्रीए पोतानी शैली जेवी बीजा बे कांडोमां एकसरखी राखी छे तेवी आमां पण राखी छे. तेमनो उद्देश तो ए लागे छे के मूळ ग्रंथने आश्रीने तेमना पोताना समय सुधी स्थिर थयेलां बघां तत्त्वचिंतनो आ टीकामां गोठवी देवां जे बधां कांडोमां एकसरखी रीते जळवाई रहेलो देखाय छे. आ कांडनी टीकामां एक स्थळे ब्राह्मणत्व विषे ( गाथा ४९ पृष्ठ ६९९ ) चर्चा छे अने एक स्थळे मूर्तिना शृंगार ( भूषा) विषे ( गा० ६५. पृ० ७५४ ) चर्चा छे. ते बन्ने चर्चाओ टीकाकारना समयना वातावरणनो ख्याल आपवाने पूरती छे. जातिवाद विषे जैनोनो अने बौद्धोनो एकसरखो मत ए छे के कोई जाति मात्र जातिने ली मान्य के पूज्य गणाती नथी जो तेमां लायकात न होय तो. आ वस्तु भगवान महावीर पछी जैनोना जीवनमा घणा वखत सुधी टकी रहेली हती, आजे तो ते नथी. तेने लोपावानो प्रसंग ब्राह्मणोना नातिप्रधान बंधारणना सामर्थ्यनी असर सिवाय बीजो कल्पी शकातो नथी, पण ते लोपावानी तारीखनो निर्णय करवो कठण छे. छतां य टीकाकार अभयदेवे आ टीकामां ए जातिवादनी सामे थवाने बौद्धाचार्य शांतरक्षित जेवो ज प्रयास करेलो छे, तेथी कदाच एम कल्पी शकाय छे के एना जमाना सुधी श्वेतांबर जैनोमा ए जातिवादनी असर न होय अथवा टीकाकारे आ वात मात्र चर्चा तरीके ज लखेली होय. बीए के टीकाकारना जमानामां मूर्तिनो शृंगार करवा न करवानी चर्चा वधु पडती चालती हशे जेथी एमणे आ टीकामां पोतानो शृंगार करवानो पक्ष स्थापित करेलो जणाय छे. वस्तुतत्त्ववि - चारना ग्रंथोमां आवी चर्चाओने अवकाश न होवो जोईए छतां ते ते समयनुं सांप्रदायिक वातावरण ज आवी चर्चाओने छेडी दे छे. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) टीकावाळी कोई प्रतिमां कांडनां खास नामो लखवामां आव्यां नथी. मात्र मूळनी प्रतिमां पहेला कांड- नाम 'नयकांड' छे, अने बीजानुं नाम 'जीवकांड' छे. त्रीजानु कशुं नाम नथी आप्यु. अमे अहीं कांडोनां जे नामो राखेलां छे ते मूळना विषयने अनुसरीने राखेलां छे. मूळनी प्रतिमां जे बीजा कांडनुं नाम 'जीवकांड' लखेलं छे तेना करतां मूळनो विषय जोतां तेनुं 'ज्ञानकांड' नाम वधारे बंधबेसतुं लागे छे. तेथी ज अमे ए प्रतिमांगें पहेलु नाम कायम राख्युं छे. बीजा कांडर्नु नाम बदल्युं छे अने त्रीजा कांडनुं नाम तो अमारे विषय प्रमाणे नवं कल्पवू पड्युं छे. आगळना चारे भागोमां परंपराप्रसिद्ध एवं 'सम्मति' नाम कायम राखेलं पण ए विषे विशेष ऊहापोह करीने अमे आ भागमा 'सन्मति' एवं नाम राखेखें छे. ए विषे अमे तेम करवाना कारणनी सप्रमाण चर्चा छट्टा भागमा प्रस्तावनामां करेली छे. (५) पाठांतरोनी पद्धति आ भागमां बीजा भागोना जेवी ज राखी छे अने बीजा भागोमां वपरायेली प्रतिओनो उपयोग पण तेटलो ज थयो छे. कोई खास नवी प्रति उमेराणी नथी पण ताडपत्रनी बे प्रतिमांनी ल० संज्ञावाळी प्रतिनो अंतनो घणो भाग अधूरो होवाथी तेनो उपयोग अमे आमां करी शक्या नथी. परिशिष्टोनो परिचय. ग्रंथर्नु रहस्य, संशोधकोने उपयोगी एवी ऐतिहासिक वस्तु अने संपादनशैली वगेरेने समजवा माटे ग्रंथने अंते नीचे जणावेला खरूपवाळां १३ परिशिष्टो अकारादि क्रममा आपवामां आव्यां छे. १. पहेला परिशिष्टमां सन्मतिनी मूळ गाथाओ तेना कांडना अने गाथाना अंक साथे मूकवामां आवी छे. २. जे जे श्वेताम्बरीय के दिगम्बरीय न्यायग्रंथो प्रस्तुत संपादनने अंगे अमारा जोवामां आवेला, तेमां ज्या ज्या सन्मतिसूत्रनी मूळ गाथाओ उद्धृत करायेली छे, तेने लगतुं बीजं परिशिष्ट छे. एमां नयचक्र अने सिद्धिविनिश्चय जेवा केटलाक हस्तलिखित दुर्लभ ग्रंथोनी पण नोंध छे. ३. त्रीजु परिशिष्ट पण बीजाना जेवू ज छे, मात्र तेमां सन्मतिना रहस्यने पूरेपूरुं पामी पोतानी कृतिमा परिणमावनाराओमां विरल एवा श्रीमान् यशोविजय उपाध्यायजीना लगभग बधा मुद्रित ग्रंथोनो उपयोग करेलो छे. श्रीमान् यशोविजयजीए पोताना ग्रंथमां ज्यां ज्यां सन्मतिसूत्रनी गाथाओ उद्धरेली छे त्यां त्यां बधे तेमणे विवरण पण करेलुं छे. एमांनु केटलुक विवरण तो खतंत्र छे, जे प्रस्तुत टीकाने अनुसरतुं पण नथी. अमे एम धारेलु के श्रीमान् यशोविजयजीना विवरणवाळी बधी गाथाओनो एक संग्रह करवो, जे सन्मतिनी लघु टीका जेवो बनी जाय; पण ए माटे एक खास जुदो बीजो भाग ज तैयार करवो पडत जेथी ग्रंथ प्रकाशनमा घणो वधारे विलंब थात, तेथी ए संग्रह न करतां अहिं आ परिशिष्ट ज एवं आपलं छे के तेने वांचनारो कोई व्युत्पन्न विद्यार्थी पण ए संग्रहने सुखेथी करी शके. ४. परिशिष्ट चोथामां कांडना अने गाथाना अंक साथे तथा गाथानी व्याख्याना पृष्ठांक साथे मूळगाथागत शब्दोनो कोश आपेलो छे. जे एक ज शब्द ज्यां ज्यां जेटली वार वपरायो छे, तेना पण उपर लख्या प्रमाणेना बधा अंको आपी दीधा छे. ५. पांचमा परिशिष्टमां पूर्वपक्ष दर्शाववा के संवाद माटे टीकाकारे उद्धरेलां अन्यग्रंथगत सघळां गद्य के पद्य अवतरणोनो ग्रंथना पृष्ठांक साथे उतारो छे. तथा जे अवतरणो उपर विशेष टिप्पणी Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ करवामां आव्यां छे, ते अवतरणो पासे कोष्ठकमां टिप्पणीना अंको पण मूकवामां आव्या छे. (आ प्रत्येक अवतरणोनां टीकाकारे नहिं दर्शावेलां मूळ स्थानो मळ्यां त्यां सुधी शोधी शोधीने मूकेला छे. जे मूळ स्थानो मळी शक्यां नथी ते अवतरणो पासे ग्रंथमां खाली [ ] आवं निशान मूकेलं छे. ६. परिशिष्ट छट्ठामा टीकाकारे नोंधेला ग्रंथकारो अने ग्रंथोनां नामोनो उल्लेख छे. ७. सातमा परिशिष्टमां टीकाकारे चर्चेला वादो अने वादीओनां नामोनो निर्देश छे. ८. परिशिष्ट आठमामां दर्शनशास्त्र अने खास तो जैनदर्शनने लगता अने टीकाकारे निर्देशेला विशिष्ट शब्दोनो कोश ग्रंथना पृष्ठांक साथे आपवामां आव्यो छे. जे शब्दो उपर खास टिप्पणो करवामां आव्यां छे ते शब्दोनी पासे कोष्ठकमां टिप्पणीना अंको पण जणाव वामां आव्या छे. ९. नवमा परिशिष्टमां समग्र ग्रंथमा टीकामां वपरायेला देशसूचक, स्थळसूचक, आचाररूढिसूचक, वस्तुसंज्ञासूचक अने ग्रन्थान्तर विषय वगेरेना सूचक एवा खास ऐतिहासिक विशिष्ट शब्दोने प्रष्टना अने पंक्तिना अंको साथे मूकवामां आव्या छे. अने जे शब्दो उपर टिप्पणो करेलां छे तेओ पासे कोष्ठकमां टिप्पणीना अंको पण आपेला छे. १०. टीकाकारे जेनां स्थळोनो निर्देश नथी कर्यो एवां अवतरणोनां अमोए शोधेला स्थळोनां नामोनो आ दशमा परिशिष्टमां निर्देश छे. ११. परिशिष्ट अगीआरमामा प्रतिओमां मळी आवेलां टिप्पणोनो ते ते प्रतिना नाम साथे अने अमे करेलां टिप्पणोनो ग्रंथ-पृष्ठ अने टिप्पणना अंक साथे संग्रह करेलो छे. १२. परिशिष्ट बारमामां संपादन माटे एटले विवेचन, तुलना, टिप्पण के अवतरण वगेरे माटे संपादकोए निर्देशेला ग्रंथकारो अने ग्रंथोनां नामोनो ग्रंथना पृष्ठ अने टिप्पणना अंक साथे निर्देश करेलो छे. १३. परिशिष्ट तेरमामा संपादनने अंगे वपरायेला ग्रंथमात्रनां मुद्रण स्थान, संपादक अने मुद्रणसमय वगेरेनो उल्लेख छे. श्रीमान् प्रवर्तक कान्तिविजयजीना शिष्य श्रीमान् चतुरविजयजी अने पुण्यविजयजीना आभारनो उल्लेख अमे प्रत्येक भागमां करता आव्या छीए, पण आ भागमां तो अमारा उपर एमनु ऋण निःसीम छे, एम कहेवामां कांई उपचार करवा जेवू नथी. कारण के आ भागमां आपेलां बधां परिशिष्टोनां तथा छद्रा भागमां आवनार गुजराती अनुवाद अने प्रस्तावनानां बधां प्रफो तेमणे घणी काळजीथी तपासी आपवानी कृपा करी छे. जो तेमनी आ कृपानो लाभ अमे न मेळवी शक्या होत तो अमारी शारीरिक अगवडोने लीधे आ भाग कोण जाणे क्यारे बहार पडत अने समग्र ग्रंथ प्रकाशमां पण क्यारे आवत ए कही शकात नहि. आ साथे जैनसाहित्यप्रेमी श्रीकेशवलालभाई प्रेमचंद मोदीना पण अमे कृतज्ञ छीए, जेमना तरफथी आ प्रवृत्तिने अंगे अनेक वार उपयोगी सहायता अमे मेळवेली छे. परिशिष्टना विधानमा खास सहायक एवा सहृदय विद्वान् मित्र श्रीमान् रसिकलाल भाईनो आभार पण भूली शकाय तेम नथी. सुखलाल अने बेचरदास. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीयं निवेदनम् । -ALI सन्मतेरस्मिन् पञ्चमे भागे तृतीयं काण्डं समाप्तम् । एवं च काण्डत्रयमितः सटीकोऽयं समग्रः समूल ग्रन्थः पञ्चसु भागेषु पूर्णो जातः । गतवर्षारम्भ एव तृतीयं काण्डं मुद्रितमासीत् । ततश्च अन्यभागवदयमपि मूलटीकाटिप्पणियुक्तः पञ्चमो भागः प्राकाश्यं नेतुं योग्योऽभवत् परन्तु अनेन भागेन सह मुद्रणीयानि उपयोगीनि आवश्यकानि च परिशिष्टानि क्रियमाणानि आसन्, अत एवायं भागो विलम्बेन विदुषां करतलमागतः । अस्य भागस्य संबन्धे निवेदनीयानि मुख्यानि वस्तूनि इमानि । (१) तृतीयस्य काण्डस्य मूलटीकयोः परिमाणम् । (२) मूलस्य विषयो मूलकारस्य च तेजस्विता । (३) टीकावरूपचर्चा टीकाकारसमयस्य च परिस्थितिः । (४) काण्डानां नामानि पूर्वमुद्रितस्य च ग्रन्थनाम्नः परिवर्तनम् । (५) प्रतीनामुपयोगः परिशिष्टानां च परिचयः । (१) मूलमात्रे लिखित पुस्तकेऽस्य भागस्य सप्ततिर्गाथाः प्राप्यन्ते । मूलसहिते च तादृशे टीकापुस्तके गाथानामेकोनसप्ततिर्लभ्यते । मूलमात्रपुस्तके या सप्ततितमी गाथा सैव सटीके पुस्त अन्तिमा अर्थादेकोनसप्ततितमी गणिता । या गाथा मूलपुस्तके एकोनसप्ततितमी सा टीकापुस्तकेषु कापि न दृश्यते । अतश्च सा मूलपुस्तकगता गाथा ७५७ पृष्ठे पाठान्तरत्वेनास्माभिर्निर्दिष्टा । 1 सन्मतिप्रकरणस्यान्तिमा गाथा आशीर्वादरूपं मङ्गलं सूचयति । इयं च मूलपुस्तकगता अन्तिमा विवादग्रस्ता गाथा नमस्कारात्मकमङ्गलरूपा । शास्त्रस्यादौ मध्येऽन्ते च मङ्गलमावश्यकमिति प्राचीनः प्रवादः । प्रवादानुसारेण चास्मिन् प्रकरणे आदावन्ते च मङ्गलात्मकता व्यक्ता । यदि मूलपुस्तकगता अन्तिमा गाथा प्रक्षिप्ता नावधार्येत तदा प्रकरणस्यान्ते मङ्गलद्वयापत्तिजयेत । न चान्ते मङ्गलद्वयस्य कश्चिदुपयोगः । अतो मूलपुस्तकगता अन्तिमा नमस्कारात्मकमङ्गलसूचिका गाथा अधिकैव भवेत् मूलकारकृतिरिति । अन्यच्चास्य प्रकरणस्य सर्वा अपि गाथाः टीकाकारेण व्याख्याताः । या गाथा श्रवणमात्रेणैव गतार्था साऽपि टीकाकृता खव्याख्यया नास्पृष्टा रक्षिता । इयं च गाथा यदि मूलकारकृतिरेवाभविष्यत् तदा टीकाकारस्तामवश्यं व्याख्यास्यदेव । अन्ततो नान्यत्किमपि किन्तु इमां गाथां निर्दिश्य 'सुगमार्थी' 'स्पष्टार्था' वेत्युल्लेखं तु सोऽकरिष्यदेव । परन्तु टीकायाः कस्मिंश्चित् प्राचीनतमे एकस्मिन्नपि पुस्तके नेयं गाथा उल्लिखिता दृश्यते । अतो विवादाध्यासिता सा गाथा अनेकान्तवादस्य केनचिद्भक्तेन तन्माहात्म्यदर्शनाय अस्मिन् प्रतिष्ठिते अनेकान्तवादप्रकरणे प्रक्षिप्ता भवेदिति अस्मन्मतम् । 1 बृहट्टिप्पणिकृता अस्य प्रकरणस्य गाथानां सप्तत्यधिकं शतं निर्दिष्टम् | जैनग्रन्थावल्यां तु अष्टषष्ट्यधिकं शतं प्राप्यते । उपयुज्यमानासु सर्वास्खपि सटीक प्रतिषु कापि षट्षष्ट्यधिकशतादतिरिक्ता एकाऽपि गाथा न लभ्यते । अतस्तस्या अधिकाया गाथायाः पूर्वोक्तमेव निराकरणं स्थिरीकृतमस्माभिः । ततश्चास्य काण्डस्य एकोनसप्ततिर्गाथाः प्रमाण्यन्ते । ३ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अस्मिन्नपि काण्डे टीका कियत्सु स्थलेषु विस्तारिता कियत्सु च संक्षेपिता । प्रमाणतोऽस्य काण्डस्यापि व्याख्यामानं न न्यूनं प्रतिभाति । अस्मिन्भागेऽपि कणादमतपरीक्षाप्रकरणं सर्वथा शान्तरक्षितकृततत्त्वसङ्ग्रहप्रतिच्छायैव । तच्चास्माभिस्तत्त्वसङ्ग्रहकारिकाः पञ्जिकां च टिप्पणे उपन्यस्य सुस्पष्टितम् । (२) न्यायविषयके ग्रन्थे सर्वत्रापि प्रमाणं च प्रमेयं चेति तत्त्वद्वयी एव प्रस्तुता । जैनन्यायग्रन्थे तु सैव नयतत्त्वाधिका तत्त्वत्रयी चर्च्यते । प्रस्तुते प्रकरणे प्रथमे नयो द्वितीये प्रमाणम् तृतीये च काण्डे प्रमेयमिति तत्त्वत्रयी चर्चिताऽस्ति । गौतमो दिग्नागो वा स्वीये स्वीये प्रकरणे 'जगति प्रधानानि तत्त्वानि इमानि, तेषां भेदाः प्रभेदा एते, तेषु एकैकस्य खरूपमेतत्' इत्यादिपद्धत्या यथा प्रमेयं चर्चयाञ्चकार तथा नायमाचार्योऽस्मिन् प्रकरणे किमपि तादृशं चर्चयामास । किन्तु पदार्थखरूपं कया रीत्या बोद्धव्यं कया रीत्या च पदार्थों दर्शनीयो येन सुज्ञानः स्यादित्येतादृशी बोधसरणी सविस्तरमत्र प्रकरणे ग्रन्थकृता निरूपिता । यच्च संसारे जीवजडविषया या या विरोधिन्यः परम्पराः परम्परातः प्रचलिताः कर्णोपकर्णमायाताश्च सन्ति तासां सर्वासां समन्वयबीजमपि अत्र प्रकरणे प्रतिष्ठापितमाचार्येण । एकः कश्चिदनुभवी कथयति 'यदिदं दृश्यमदृश्यं वा तत्सर्वं नित्यम्' । द्वितीयश्च महानुभावः कथयति 'यदिदं सत् तत्सर्वमनित्यम्' इति । यां मूलदृष्टिमालम्ब्य एते विरुद्ध मते तैस्तैरनुभविभिः स्थिरीकृते सा दृष्टिर्यदि तत्त्वजिज्ञासुभि येत-विचारगोचरं प्राप्येत तदा तयोविरुद्धयोर्मतयोर्विरोधस्तूर्णमुपशान्तः स्यात् । या च तद्विरोधशमनी सरला समाधायिका पद्धतिः सैवास्मिन्प्रन्थे सुस्पष्टिता । सा दृष्टिरनेकान्तवादो विभज्यवादः स्याद्वादो वा इति नाम्ना जैनशास्त्रे विश्रुता। जैनागमेषु तस्या दृष्टेबीजं विद्यत एव परन्तु वैज्ञानिकेन इव मूलकृता सिद्धसेनाचार्येण प्रस्तुते प्रकरणे सा दृष्टिस्तदीयांशान् पृथक् पृथक् कृत्वा विशदीकृत्य च दर्शिता । अनेकान्तवाददृष्टेरेतादृशं शास्त्रीय पृथक्करणमस्मिन् पुस्तक एव प्रथमं प्राप्यते । अयं महावादी सिद्धसेनाचार्यों रूढमार्गानुगामी नासीत् किन्तु स्वयुगव्याप्तं सामाजिकाज्ञानान्धतमसं दूरीकर्तुं स दिवाकरो दिवाकर एव जातः । एतच्चास्य प्रकरणस्य प्रान्तस्थिताभिर्गाथाभिः स्पष्टमवगम्यते । इतरेषां सत्प्रवृत्ति तिरस्कुर्वन्तः खप्रवृत्तिमेव सत्यशोधिकां च मन्यमानाः सूरयो न सत्याचारपराः किन्तु केवलं शब्दग्रहाविष्टा वाक्पटव एव इत्यपि जगति दृश्यते । ततश्च निखिलः समाजोऽपि उत्पथानुगो भवति । तादृशं समाजं पश्यन्तोऽपि ते शब्दस्पर्शपरा गुरवः कुनृपा इव खसत्तासाधकं दुराग्रहं न त्यजन्ति । एतादृशान् सिद्धान्तपण्डितंमन्यमानान् सूरीन् सिद्धसेनाचार्या एवं शिक्षयन्ति "जिनशासनरागमात्रेण कश्चित् सिद्धान्तज्ञो न हि भवितुमर्हति । शास्त्रज्ञोऽपि कश्चिदेकान्तग्रहण तत्त्वनिरूपणायां निश्चितो न भवति ।" (गाथा ६३ ) "सूत्रमेवार्थस्य मूलम् अतस्तद्रटनमेव श्रेय इति मन्यमानाः सूत्रगतं व्यापकमर्थ न विचारयेयुः तदा कदाऽपि ते न सूत्रार्थ प्रतिपत्तुं समर्थाः । सूत्रार्थ सम्यक्तया त एव प्रतिपद्यन्ते ये दुर्गमं नयवादगहनवनमवगाहितुमुत्साहिन इति ।" (गा० ६४) सूत्रं रटद्भिस्तद्रटनापेक्षया तदर्थसंपादने भूरि भूरि यतितव्यम् । तदकुर्वन्तः कियन्तो धृष्टा अशिक्षिताश्चाचार्या महापुरुषाज्ञां विडम्बयन्ति ।" (गा० ६५) ___"यमज्ञा ज्ञानिनं मन्यन्ते पूजयन्ति च यस्य च शिष्यपरिवारो गणनाकोटिमागत एतादृश आचार्यो यद्यनेकान्तस्वरूपं सम्यग् नावगच्छेत् तर्हि स जिनसिद्धान्तद्रोही बोध्यः ।" (गा० ६६) । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्यतनः क्रान्तदर्शीव सिद्धसेनाचार्यों न इयतैव कथनेन विरमति किन्तु किञ्चिदधिकमपि उद्घोषयति । "खसिद्धान्तं परसमयं च गभीरतया अजानन्तः क्रियाकाण्डमेव च प्रधानया अवलगन्तस्ते कमपि क्रियाकाण्डमारोद्देशमेव नावबुध्यन्ते ।" ( गा० ६७) उपर्युक्तगाथागतैराचार्यवचनैस्तत्समयतमोमयपरिस्थितिभेदकमाचार्यतेजः सुस्पष्टतया प्रकटीभवति । (३) टीकाकृता काण्डद्वये या टीकाशैली योजिता सैवास्मिन्काण्डेऽपि दृश्यते । मूलग्रन्थमाश्रित्य खसमयं यावत् स्थिरीभूतानि सर्वाणि तत्त्वचिन्तनानि अस्यां टीकायां योजनीयानीत्युद्देशेनेयं टीका कृता इत्यवभाति । स चोद्देशस्त्रिष्वपि काण्डेषु समान एव व्यवस्थितो दृश्यते । ब्राह्मणत्वं नित्यमनित्यं वेति जिनमूर्तिराभूषणैराभूषणीया न वेति च चर्चाद्वयं टीकाकृता अस्य काण्डस्य टीकायां प्रक्रान्तम् । तदेतत् टीकाकृत्समयस्थितिं संसूचयितुमलम् । "कम्मुणा बम्भणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ" ( उत्तराध्ययन अध्ययन २५ गाथा ३२) इत्यागमवचनाद् जिनशासनप्रवराः कामपि जातिं जातित्वेनैव न उत्कर्षयन्ति किन्तु गुणैः प्रधानामेव प्रधानां मन्यन्ते । बौद्धानामपि जातिवादविषये ईदृशमेव मतम् । तच्च आचार्यशान्तरक्षितेन तत्त्वसङ्घहे सुसमर्थितम् । गुणप्रधानामेव जातिं सुजातिं मन्वानः श्रीज्ञातपुत्रीयः सिद्धान्तो ज्ञातपुत्रजिननिर्वाणानन्तरमपि तदनुयायिभिश्चिरमाचरितः, परन्तु अधुनातनजैनेषु तदाचरणा न दृश्यते । ते तु केवलं जातिमेव प्रधानां मन्वाना अधुनातनब्राह्मणा इव दृश्यन्ते । एतादृशविपरीताचारप्रसरणे जातिप्रधानब्राह्मणसमाजप्रबलसंसर्गमन्तरा नान्यत्किमपि प्रबलं कारणमवभाति । यच्च मूर्तिभूषाविषयो विवादोऽत्र टीकाकृता उदलेखि स तु साम्प्रदायिक एव । वस्तुतस्तु एतादृशेषु तत्त्वविचारग्रन्थेषु एते साम्प्रदायिका विवादा न स्थानमर्हन्ति । किन्तु "तत्त्वादूढिर्बलीयसी" इति न्यायेन तत्त्वविचारेष्वपि अहो! रूढिसाम्राज्यं सुदुर्निवारम् । (४) टीकाप्रतिषु कापि काण्डनाम्नामुल्लेखो न विद्यते । केवलं मूलप्रतौ नयकाण्डेति नाम्ना प्रथम काण्डं जीवकाण्ड इति नाम्ना च द्वितीयं काण्डमभिहितं तृतीयस्य तु किमपि नाम न निर्दिष्टम् । अत्र तु मूलग्रन्थविषयमनुसृत्य काण्डनामानि अस्माभिः परिवर्तितानि प्रकल्पितानि च । पूर्वमुद्रितेषु चतुर्षु अपि भागेषु मुखपृष्ठे परम्पराप्रसिद्धं 'सम्मति' इति नाम मुद्रितम् । अस्मिन् भागे तु तत्स्थाने 'सन्मति' इति नाम सविशेषं विचार्य योजितम् । एतद्विषया सप्रमाणा चर्चा षष्ठे भागे प्रस्तावनायामस्माभिः कृता । (५) पाठान्तरयोजनपद्धतिः प्रतीनामुपयोगश्च पूर्वमुद्रितभागवदत्रापि अवगन्तव्यः । केवलं 'ल' संज्ञिका ताडपत्रप्रतिः प्रान्ते त्रुटिताऽऽसीत् । परिशिष्टानां परिचयः। ___ ग्रन्थरहस्यं संशोधकोपयोगि ऐतिहासिक वस्तु सम्पादनशैलीं चावगन्तुं ग्रन्थान्ते त्रयोदश परिशिष्टानि अकारादिक्रमेण योजितानि । तत्स्वरूपं यथा (१) सन्मतेः सर्वा मूलगाथाः काण्डाकेन गाथाकेन च सह प्रथमपरिशिष्टे दर्शिताः । (२) श्वेताम्बरीया दिगम्बरीयाश्च ये ये न्यायग्रन्थाः प्रस्तुतसम्पादनाय अस्माभिरवलोकितास्तेषु यत्र यत्र सन्मतिसूत्रमूलगाथा उद्धृतास्तत्तद्गाथास्थलदर्शकं द्वितीयं परिशिष्टम् । नयचक्र-सिद्धिविनिश्वयप्रमुखा हस्तलिखिता दुर्लभा ग्रन्था अपि अत्र परिशिष्टे उपयुक्ताः । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) तृतीयमपि परिशिष्टं द्वितीयपरिशिष्टमिव ज्ञेयम् , नवरम् सन्मतिसूत्ररहस्यं यथार्थ प्राप्य वकृतौ तदवतारयत्सु प्रधानानां श्रीमतां यशोविजयोपाध्यायानां प्रायस्सर्वे मुद्रिता अन्था अत्र परिशिष्टे उपयुक्ताः। __ श्रीमता उपाध्यायेन स्वकृतौ यत्र या गाथा उद्धृता तत्र तस्या विवरणमपि कृतम् । तच्च विवरणं क्वचित् कचित् खतन्त्रम्-प्रस्तुतां टीकां नानुसरति । एकस्मिन् परिशिष्टे ताः सर्वाः सविवरणा गाथाः संयोज्य मुद्रणीया येन तत्संग्रहः सन्मतिलघुटीकेव स्यादित्यासीदस्माकं भावना । परन्तु तदर्थ पृथगेवैको भागो मुद्रणीयो भवेत् तत्र च स्यादसह्यः कालविलम्बः इति न तत्करणे प्रयत्नं कृतवन्तः, किन्तु इदं परिशिष्टमेवैतादृशं व्यधायि यत् केनचित् व्युत्पन्नेन च्छात्रेणापि तद्दर्शनमात्रेणैव स संग्रहः सुकरः । (४) काण्डस्य गाथायाश्चाङ्केन तव्याख्यायाश्च पृष्ठाकेन सह मूलगाथागतशब्दानां कोशो दर्शितश्चतुर्थे परिशिष्टे । यः शब्दो यत्र यत्र यतिकृत्वः समागतस्तस्य तानि सर्वाणि स्थलानि दर्शितानि । (५) पूर्वपक्षं दर्शयितुं खमतं संवदितुं च टीकाकृता यानि अन्यग्रन्थगतानि गद्यपद्यानि अवतरणानि उद्धृतानि तानि सपृष्ठाकं दर्शितानि पञ्चमे परिशिष्टे । तथा यानि अवतरणानि सटिप्पणानि तेषां पाश्चे कोष्ठके टिप्पणाङ्कोऽपि निहितः । (तेषां च टीकाकारादर्शितानि मूलस्थलान्यपि संशोध्य संशोध्य दर्शितानि यथासम्भवम् , येषाञ्च मूलस्थानानि न प्राप्तानि तेषां पार्श्व ग्रन्थे [ ] एतादृशं रिक्तं चिदं विहितम) (६) टीकाकारेण दर्शितानां ग्रन्थकाराणां ग्रन्थानां च नामानि स्थापितानि षष्ठे परिशिष्टे । (७) टीकाकृता चर्चितानां वादानां वादिनां च नामानि निर्दिष्टानि सप्तमे परिशिष्टे । (८) दर्शनशास्त्रगोचरा मुख्यतया तु जैनपरिभाषाविषयाः टीकाकारनिर्दिष्टा विशिष्टाः शब्दाः सपृष्ठाकं दर्शिता अष्टमे परिशिष्टे । तथा ये शब्दाः सविवेचनास्तेषां पार्श्वे कोष्ठके तट्टिप्पणाङ्कोऽपि दर्शितः । (९) समग्रे ग्रन्थे टीकोपयुक्ता देश-स्थल-रूढाचार-पदार्थसंज्ञासूचका ग्रन्थान्तरविषयबोधकाश्च ऐतियप्रधानाः शब्दाः सूचिता नवमे परिशिष्टे । तथा तेषु ये शब्दा विवेचितास्तेषां पार्श्वे कोष्ठके टिप्पणा. कोऽपि निक्षिप्तः। (१०) टीकाकारानिर्दिष्टस्थलेष्ववतरणेषु येषां स्थलानि अस्माभिरुपलब्धानि तानि नामग्राहं निर्दिष्टानि दशमे परिशिष्टे । (११) प्रतिप्राप्तानि टिप्पणानि तत्तत्प्रतिनामग्राहमस्मत्सन्निवेशितानि टिप्पणानि च सपृष्ठावं निवेशितानि एकादशे परिशिष्टे । (१२) सम्पादनप्रवृत्तौ उपयुक्तानां ग्रन्थानां ग्रन्थकाराणां च नामानि सपृष्ठाई सटिप्पणाकं च निर्दिष्टानि द्वादशे परिशिष्टे । (१३) सम्पादनोपयुक्तानां ग्रन्थानां मुद्रणस्थानानि सम्पादकनिर्देशो मुद्रणसमयादिकं च निर्दिष्टं त्रयोदशे परिशिष्ट । ____ श्रीमत्प्रवर्तकश्रीकान्तिविजयशिष्याणां तत्रभवतां श्रीचतुरविजय-पुण्यविजयानामामारं प्रतिभागं समुल्लिखन्तो वयमस्मिन्भागेऽपि तान्भूरि भूरि स्मरामः । अस्य भागस्य परिशिष्टसंबन्धि षष्ठभागगतानुवादसंबन्धि च सर्वं प्रूफशोधनादिकं तैरेव महानुभावैर्व्यधायि । यदि ते एतन्नाकरिष्यन् तर्हि शरीरव्यथाबाधिता वयं किमपि कर्तुं समर्था न अभविष्याम । परिशिष्टविधाने सहायकानां सहृदयविद्वन्मित्राणां रसिकलालानामपि सादरं नामस्मरणमावश्यकम् । सम्पादनप्रवृत्तौ धनपुस्तकादिसाहाय्यकर्तृणों जैनसाहित्यरसिकानां श्रीमोदीकेशवलालानामपि नाम न विस्मयते । सुखलाल: बेचरदासश्च । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति -प्रकरणम् । पञ्चमो विभागः । तृतीयः काण्डः । [ सामान्यविशेषयोरन्योन्यानुविद्धस्वरूपत्वप्रदर्शनम् ] एवं दर्शन - ज्ञानात्मनोः परस्पराविनिर्भागरूपतां प्रतिपाद्य इदानीं सामान्य-विशेषयोरन्योन्यानुविद्धं स्वरूपमुपदर्शयन्नाह - सामण्णम्मि विसेसो विसेसपक्खे य वयणविणिवेसो । दव्वपरिणाममण्णं दाएइ तयं च णियमेइ ॥ १ ॥ ५ सामान्ये 'अस्ति' इत्येतस्मिन् विशेषो द्रव्यमित्ययम्; तथा विशेषपक्षे च घटादौ, ‘अस्ति' इत्येतस्य वचनस्य - नाम - नामवतोरभेदात्- सत्तासामान्यस्य, विनिवेशः प्रदर्शनम्, द्रव्य परिणतिमन्यां सत्ताख्यस्य द्रव्यस्य पृथिव्याख्यां परिणतिमन्यां सत्तारूपापरित्यागेनैव वृत्तां दर्शयति विशेषाभावे सामान्यस्याप्यन्यथाभावप्रसक्तेः - यद् यदात्मकं तत् तदभावे न भवति, घटाद्यन्यतमविशेषाभावे मृद्वत् विशेषात्मकं च सामान्यमिति तदभावे तस्याप्यभावः । तथा, १० तकं च विशेषम्, द्वितीयपक्षे सामान्यात्मनि नियमयति विशेषः सामान्यात्मक एव तदभावे तस्याप्यभावप्रसङ्गात् यतः सामान्यात्मकस्य विशेषस्य सामान्याभावे घटादेरिव मृदभावे न भावो युक्तः ॥ १ ॥ [ सामान्यविशेषयोरेकान्तभेदं वदतो दोषापत्तिप्रकटनम् ] न च विशेषाद् व्यतिरिक्तं सामान्यमेकान्ततः, तस्माद् वा विशेषा नियमतो भिन्ना इत्यभ्यु-१५ पगन्तव्यम् अध्यक्षादिप्रमाणविरोधात् इत्याह एतणिव्विसेसं एयंत विसेसियं च वयमाणो । दव्वस्स पज्जवे, पज्जवाहि दवियं णियत्तेइ ॥ २ ॥ एकान्तेन निर्गता विशेषा यस्मात् सामान्यात् तद् विशेषविकलं सामान्यं वदन् द्रव्यस्य पर्यायान् ऋजुत्वादीन् निवर्तयति ऋजु - वक्रतापर्यायात्मि(त्म) काङ्गुल्यादिद्रव्यस्य २० १ श्रीहरिभद्रेण ईदृशमङ्गुल्युदाहरणमित्थं स्पष्टितं धर्मसंग्रहण्याम् “दीसइ पच्चक्खं चिय एयं वक्कम्मि उज्जुए होंते । अंगुलिदव्वम्मि परं भावेतव्वं इहेकेण ॥ वक्कत्तमंगुलीओ कहंचि अभिन्नं ति तीए जोगाओ । भिन्नं पि अवत्थंतरभावे ततो नियत्तीओ ॥ तं चि कहूं चवत्थंतरे वि तं तुलबुद्धितो हंदि । एतेऽन्नते भिजेज इमी वि तह चेव" ॥ - गा० ३४८-३५० पृ० १५२-१५३ । “सेणूणं भंते! अत्थितं अत्थित्ते परिणमइ नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ ? -[ भगवतीसू० श० १ उ० ३ सू० ३२] इत्यादि सूत्रं विवृण्वन् श्रीअभयदेवसूरिरीदृशमङ्गुलिदृष्टान्तं दर्शितवान् । ८१ स० प्र० Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे - अध्यक्षादिप्रमाणप्रतीयमानस्य विनिवृत्तिप्रसक्तेरध्यक्षादिप्रमाणबाधापत्तिः । तथा, एकान्तविशेषं सामान्यरहितं वदन् पर्यायेभ्यो विशेषेभ्यो द्रव्यं निवर्तयति, एवं चाङ्गुल्यादिद्रव्याऽव्यतिरिक्तऋजु-वक्रतादिविशेषस्य प्रत्यक्षाद्यवगतस्य निवृत्तिप्रसक्तिः । न चाऽबाधित प्रमाणविषयीकृतस्य तथाभूतस्य तस्य निवृत्तिर्युक्ता, सर्वभावनिवृत्तिप्रसक्तेः अन्यभावाभ्युपगमस्यापि तन्निबन्धनत्वात् ५ तत्प्रतीतस्याप्यभावे सर्वव्यवहाराभाव इति प्रतिपादितम् । ६२८ अत्राह - 'सामण्णम्मि' इत्यादिकाण्डं नाऽऽरब्धव्यम् उक्तार्थत्वात् यतो न तावदनेन यस्तु अनेकान्तात्मकं प्रतिपाद्यते 'एगदवियम्मि' [ प्र० का० गा० ३१] इत्यादिना 'इहरा समूहसिद्ध’– [प्र० का० गा० २७] इत्यादिना च तस्य प्रतिपादितत्वात् । तथा, 'उप्पायट्ठिइ-भंगा हंदि दवियलक्खणं एये' [ प्र० का० गा० १२] इत्यनेन लक्षणद्वारेण सर्वस्य सतः १० अनेकान्तात्मकत्वं प्रदर्शितमेव । अथ प्रमाणविषयवाक्यनिरूपणार्थमिदं प्रस्तूयते, तदपि न सम्यक्; 'सवियप्प - णिब्वियेप्पं' [ प्र० का० गा० ३५ ] इत्यादिना तस्यापि निरूपितत्वात् वाक्यस्य च वस्तुत्वात् तन्निरूपणे तस्यापि निरूपितत्वान्न तन्निरूपणार्थमप्येतदपुनरुक्तम्, एवमेतत्; किन्तु प्रमेयप्राधान्येन तड्राहकस्य प्रमाणस्यापि निरूपणमित्येतत्प्रदर्शनद्वारेण तत्प्रतिपादकवाक्यावतारः प्राग् विहितः, इह त्वविद्यमानप्रमेयस्य प्रमाणस्य प्रमाणत्वासंभवात् प्रमाणनिरूपणद्वारेण प्रमेय१५ निरूपणमिति प्रदर्शनद्वारेणैतद्वाक्यावतार इत्यदोषः । यद्वा अनेकान्तपक्षोक्तदोषपरिहारोऽनेकधा व्यवस्थाप्यत इति न कश्चिद् दोषः 'सामण्णम्मि' इत्यादि सूत्रसंदर्भविरचने ॥ २ ॥ २० [ आप्तवचनस्यानेकान्तात्मकवस्तुबोधकत्वेन स्वरूपकथनम् ] सामान्य-विशेषानेकान्तात्मकवस्तुप्रतिपादकं वचनमाप्तस्य, इतरदितरस्येत्येतदेव दर्शयन्नाहपशुपपन्नं भावं विगय-भविस्सेहिं जं समण्णेइ । एयं पडुच्चवयणं दव्वंतरणिस्सियं जं च ॥ ३ ॥ प्रत्युत्पन्नं भावं - वस्तुनो वर्तमानपरिणामम् विगत-भविष्यद्भ्यां पर्यायाभ्यां यत् समानरूपतया नयति प्रतिपादयति वचः तत् प्रतीत्यवचनं समीक्षितार्थवचनं सर्वज्ञवचनमित्यर्थः, अन्यच्चानाप्तवचनम् । ननु वर्तमानपर्यायस्य प्रागपि सद्भावे कारकव्यापारवैफल्यम् क्रिया-गुण-व्यपदेशानां च २५ प्रागप्युपलम्भप्रसङ्गश्च । उत्तरकालं च सद्भावे विनाशहेतुव्यापारनैरर्थक्यम् उपलब्ध्यादिप्रसङ्गश्च । ततो यद् यदैवोपलम्भादिकार्यकृत् तत् तदैव न प्राक् न पश्चात् अर्थक्रियालक्षणसत्त्वविरहे वस्तुनोभावात्, असदेतत्; तस्य प्रागसत्त्वेऽदलस्योत्पत्त्ययोगात् । न चात्मादिद्रव्यं विज्ञानादिपर्यायोत्पत्तौ दलम् तस्य निष्पन्नत्वात् । न च निष्पन्नस्यैव पुनर्निष्पत्तिः अनवस्थाप्रसङ्गात् । न च तत्र विद्यमान एव ज्ञानादिकार्योत्पत्तिः 'तत्र' इति संबन्धाभावतो व्यपदेशाभावप्रसङ्गात्, समवाय३० संबन्धप्रकल्पनायां तस्य सर्वत्राविशेषात् तद्वद् आकाशादावपि तत् स्यात् । अथात्मादिद्रव्यमेव तेनाssकारेणोत्पद्यत इति नाऽदलोत्पत्तिः कार्यस्य भवत्येवमुत्पत्तिः किन्त्वात्मद्रव्यं पूर्वमप्यासीत् पश्चादपि भविष्यति तत्सर्वावस्थासु तादात्म्यप्रतीतेः अन्यथा पूर्वोत्तरावस्थयोस्तत्प्रतिभासो न भवेत् । न चैकत्वप्रतिभासो भ्रान्तः, बाधकाभावे भ्रान्त्यसिद्धेः । न चार्थक्रियाविरोधो नित्यत्वे १ पृ० ६२७ गा० १ । ५ पृ० ४४१ गा० ३५ । २ पृ० ४३० गा० ३१ । ३ पृ० ४२२ गा० २७ । ४ पृ० ४१० गा० १२ । ६ पृ० ६२७ गा० १ । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झयमीमांसा। ६२९ बाधकः, अनित्यत्वे एव तस्य बाधकत्वेन प्रतिपादनात् । न चोत्पाद-विनाशयोरपि तत्र प्रतिपत्तावेकान्ततो नित्यत्वमेव, परिणामनित्यतया तस्य नित्यत्वात्; अन्यथा खरविषाणवत् तस्याऽभावप्रसङ्गात् । न चैवं तस्य विकारित्वप्रसङ्गो दोषाय, अभीष्टत्वात् । न च नित्यत्वविरोधस्तथैव तत्तत्त्वप्रतीतेः । न च तस्य तथात्वप्रतिपत्तिर्धान्तिः, बाधकाभावादित्युक्तत्वात् । अथ ज्ञानपर्यायादात्मनो व्यतिरेके भेदेनोपलम्भः स्यात् अव्यतिरेके पर्यायमात्रम् द्रव्यमानं वा भवेत् व्यतिरेकाव्यतिरेक-५ पक्षस्तु विरोधाघ्रातः अनुभयपक्षस्त्वन्योऽन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकनिषेधेनाऽपरविधानादसंगतः, असदेतत्। व्यतिरेकाऽव्यतिरेकपक्षस्याऽभ्युपगमात् । न च व्यतिरेकपक्षभावी तद्व्यतिरेकेणो. पलब्धिप्रसङ्गो दोषः, एकज्ञानव्यतिरेकेण ज्ञानान्तरेऽपि तस्य प्रतीतेर्व्यतिरेकोपलम्भस्य सद्भावात् अव्यतिरेकोऽपि, ज्ञानात्मकत्वेन तस्य प्रतीतेः । न च व्यतिरेकाऽव्यतिरेकयोरन्योऽन्यपरिहारेणावस्थानाद् विरोधः अबाधितप्रमाणविषयीकृते वस्तुतत्त्वे विरोधाऽसंभवात्; अन्यथा संशयज्ञानस्यै-१० कानेकरूपस्य वैशेषिकेण, ग्राह्य-ग्राहकसंवित्तिरूपस्य बुद्ध्यात्मनश्चैकानेकस्वभावस्य सौगतेन कथं प्रतिपादनमुपपत्तिमद् भवेत् यदि प्रमाणप्रतिपन्ने वस्तुतत्त्वे बिरोधः संगच्छेतेत्यादि पूर्वमेव प्रति. पादितम् । वर्तमानपर्यायस्यान्वयिद्रव्यद्वारेण त्रिकालास्तित्वप्रतिपादकं प्रतीत्यवचनमिति सिद्धम् । परमाण्वारम्भकद्रव्यात् कार्यद्रव्यं व्यणुकादि द्रव्यान्तरं वैशेषिकाभिप्रायतः तेन निःसृतं संबद्धं कारणं परमाण्वादि यत् प्रतिपादयति तदपि प्रतीत्यवचनम् । तथाहि-त्र्यणुकरूपतया १५ परमाणवः प्रादुर्भूताः व्यणुकतया प्रच्युताः परमाणुरूपतया अविचलितस्वरूपा अभ्युपगन्तव्याः अन्यथा तद्रूपतयाऽनुत्पादे प्राक्तनरूपताऽपगमो न स्यात् परमाण्ववस्थावत् प्राक्तनरूपानपगमे वा नोत्तररूपतयोत्पत्तिस्तदवस्थावत् । परमाणुरूपतयाऽपि विनाशोत्पत्यभ्युपगमे पूर्वोत्तरावस्थयोर्निराधारविगम-प्रादुर्भावप्रसक्तिः । न च तदवस्थयोरेवाऽऽधारत्वम् , तयोस्तदानीमसत्त्वात् । न च पूर्वोत्तरकार्यद्रव्यविनाश-प्रादुर्भावयोः कारणस्याविनाश-प्रादुर्भावौ, ततस्तस्यैकान्ततो हिमवद्-२० विन्ध्ययोरिव भेदप्रसक्तेः । न च कारणाश्रितस्य कार्यद्रव्यस्योत्पत्तेर्नायं दोषः, तयोर्युतसिद्धितः कुण्ड-बदरवत् पृथगुपलब्धिप्रसक्तेः । अयुतसिद्धावपि कार्योत्पत्तौ कारणस्याऽप्युत्पत्तिप्रसक्तिः अन्यथाऽयुतसिद्ध्यनुपपत्तेः । अथाऽयुताश्रयसमवायित्वमयुतसिद्धिः, सा च कार्योत्पत्तौ कारणानुत्पत्तावपि भवत्येव, न; समवायासिद्धावयुतसिद्ध्यसिद्धेः । न चायुतसिद्धित एव समवायसिद्धिः, इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । न चाध्यक्षतः समवायसिद्धेर्नायं दोषः, तन्त्वात्मकपटप्रतिभासमन्तरेणा-२५ ध्यक्षप्रतिपत्तावपरसमवायाप्रतीते:-'इह तन्तुषु पटः' इत्यत्रापि प्रत्यये 'इह तन्तुषु' इति प्रतिपत्तिस्तन्त्वालम्बना, 'पटः' इति प्रतिपत्तिः पटालम्बना संवेद्यत इति नापरः समवायप्रतिभासः। न च 'इह तन्तुषु पटः' इति लौकिकी प्रतिपत्तिः, किन्तु 'पटे तन्तवः' इति । न चान्यथाभूतप्रतिपस्याऽन्यथाभूतार्थव्यवस्था । न चानुमानादपि समवायप्रसिद्धिः, प्रत्यक्षाभावे तत्पूर्वकस्य तस्य तत्राऽप्रवृत्तेः । अनुमानपूर्वकस्य तु तस्यानवस्थादिदोषाघ्रातत्वात् तत्राप्रवृत्तिरित्यनेकशः प्रति-३० पादितं न पुनरुच्यत इति व्यवस्थितमेतत् तथाभूतवस्तुप्रतिपादकमेवाऽऽप्तवचनम् एकान्तप्रतिपादकं तु नाप्तवचनम्। - अथवा एकद्रव्यादन्यद् द्रव्यं द्रव्यान्तरं तस्मिन् निःसृतं संबद्धं यत् तदपि प्रतीत्यवचनम् । यथा-दीर्घतरं मध्यमिकाङ्गुलिद्रव्यमपेक्ष्य इस्खतरमङ्गुष्ठकद्रव्यमिति वचः । इस्व-दीर्घादिकस्तु वधर्म एव द्रव्यान्तरविशेषाभिव्यङ्गयः पितेव पुत्रादिना। यहा गोत्वसहशपरिणतियुक्ताच्छाबलेयद्रव्यात् तत्सदृशपरिणतियुक्तं बाहुलेयादि द्रव्यान्तरं तस्मिन् नि:श्रितं संबद्धं वाचकत्वेन 'गौः' इति यद वचनं तदपि प्रतीत्यवचनम्। न पुनः केवलतिर्यक्सामान्य-विशेष-तद्वदुभयादिप्रतिपादकम् असद्भूतार्थप्रतिपादकत्वाद् उन्मत्तवाक्यवत् ॥३॥ _ [आप्तवचने समुपतिष्ठमानाया एकान्तपक्षाश्रिताया आशङ्काया अनेकान्तपक्षाश्रयणेन निराकरणम् ] ननु प्रत्युत्पन्नपर्यायस्य स्वकालवदतीताऽनागतकालयोः सत्त्वे अतीताऽनागतकालयोर्वर्तमान. कालतापत्तेः-अन्यथा तद्रूपतया तयोस्तत्सत्त्वासंभवात्-त्रैकाल्यायोगात् तस्य तद्विशिष्टतानुपपत्तेस्तथाभूतार्थप्रतिपादकं वचनमप्रतीत्यवचनमेवेत्याशङ्कयाऽऽह Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० तृतीये काण्डेव्वं जहा परिणयं तहेव अत्थि त्ति तम्मि समयम्मि । विगय-भविस्सेहि उ पन्जएहिं भयणा विभयणा वा ॥४॥ द्रव्यं चेतनाचेतनम् , यथा तदाकारार्थग्रहणरूपतया, घटादिरूपतया वा परिणतं वर्तमानसमये तथैव अस्ति । विगत-भविष्यद्भिस्तु पर्यायैर्भजना कथंचित् तैस्तस्यैकत्वम्, ५विभजना विगतभजना नानात्वं कथंचित् , 'वा' शब्दस्य कथंचिदर्थत्वात् । ततः प्रत्युत्पन्नपर्यायस्य विगत-भविष्यङ्ग्यां न सर्वथैकत्वमिति कथं तत्प्रतिपादकवचनस्याप्रतीत्यवचनतेति भावः ॥४॥ [संभवद्भिः पर्यायैर्घटादेर्वस्तुनः अस्तित्व-नास्तित्वप्ररूपणम् ] ननु घटादेरर्थस्य कैः पर्यायैरस्तित्वम् अनस्तित्वं वा ? इत्याह परपजवेहिं असरिसगमेहिं णियमेण णिचमवि नत्थि । सरिसेहिं पि वंजणओ अत्थि ण पुणऽत्थपजाए ॥५॥ वर्तमानपर्यायव्यतिरिक्तभूत-भविष्यत्पर्यायाः परपर्यायास्तैर्विसदृशगमैर्विजातीयज्ञानग्रा. बैर्नियमेन निश्चयेन नित्यं सर्वदा नास्ति तद् द्रव्यम्, तैरपि तदा तस्य सद्भावे अवस्थासंकीर्णताप्रसक्तेः । सहशैस्तु व्यञ्जनतः सामान्यधर्मैः सत्-द्रव्य पृथिवीत्वादिभिः विशेषा मकैश्च शब्दप्रतिपाद्यैरस्ति, सामान्य विशेषात्मकस्य शब्दवाच्यत्वात् । सामान्यमात्रस्य तद्वाच्यत्वे १५शब्दादप्रवृत्तिप्रसक्तेरर्थक्रियासमर्थस्य तेनानुक्तत्वात् सामान्यमात्रस्य च तदुक्तस्यार्थक्रियाऽनिर्वर्त कत्वात्, विशेषमन्तरेण सामान्यस्यासंभवात् सामान्यप्रतिपादनद्वारेण लक्षणया विशेषप्रतिपादनमपि शब्दान्न संभवति, क्रमप्रतिपत्तेरसंवेदनात्; विशेषाणां त्वानन्त्यात् संकेतासंभवतः शब्दावाच्यत्वम् । परस्परव्यावृत्तसामान्य-विशेषयोरप्यवाच्यत्वम् उभयदोषप्रसङ्गात् । तत उभयात्मकं वस्तु गुण-प्रधानभावेन शब्देनाभिधीयत इति सदृशैर्व्यञ्जनतोऽस्तीत्युपपन्नम् । न पुनर्नैव अर्थ२० पर्यायैः ऋजुसूत्राभिमतार्थपर्यायेण तद् अस्ति, अन्योन्यव्यावृत्तवस्तुखलक्षणग्राहकत्वात् तस्य । अयं चार्थः पर्वसत्र एव प्रदर्शित इत्यन्यथा गाथासूत्रं व्याख्येयम-अन्यवस्तुगताः पर्याया विसदृशसदृशतया द्विप्रकाराः, तत्र विसदृशैर्विवक्षितो घटादिवास्ति । सदृशैस्तु कैश्चिदुक्तवदस्ति, कैश्चिन्नेति तात्पर्यार्थः ॥५॥ [वर्तमानपर्यायेऽपि द्रव्यस्यानेकान्तात्मकत्वसमर्थनम् ] २५ ननु प्रत्युत्पन्नपर्यायेण भावस्यास्तित्वनियमे एकान्तवादापत्तिरित्याशङ्कयाह पञ्चुप्पण्णम्मि वि पन्जयम्मि भयणागई पडइ दव्वं । जं एगगुणाईया अणंतकप्पा गमविसेसा ॥६॥ वर्तमानेऽपि परिणाम स्व-पररूपतया सदसदात्मरूपताम्, अधो-मध्योर्ध्वादिरूपेण च भेदाऽभेदात्मकतां च भजनागतिमासादयति द्रव्यम्, यत एकगुणकृष्णत्वादयोऽनन्त३० प्रकारास्तत्र गुणविशेषास्तेषां च मध्ये केनचिद् गुणविशेषेण युक्तं तत् । तथाहि-कृष्णं द्रव्यं तद्रव्यान्तरेण तुल्यम् अधिकम् ऊनं वा भवेत् प्रकारान्तराभावात्, प्रथमपक्षे सर्वथा तुल्यत्वे तदेकत्वापत्तिः, उत्तरपक्षयोः संख्येयादिभागगुणवृद्धि-हानिभ्यां षट्स्थानकप्रतिपत्तिरवश्यंभाविनी। १-दृशैकस्तु बृ० आ० । २-त्मकां च बृ० आ० हा०वि०। ३षदस्थानकखरूपमित्थमवगन्तव्यम्"वुड्डी वा हाणी वा अणंत-असंख-संखभागेहिं । वत्थूण संख-ऽसंख-ऽणतगुणणेण य विहेआ॥ अनन्ताऽसंख्यात-संख्यातभागैः संख्याताऽसंख्याताऽनन्तगुणनेन च वस्तूनां पदार्थानां वृद्धिर्वा हानिर्वा विधेया। इह हि पदस्थानके त्रीणि स्थानानि भागेन भागाहारेण वृद्धानि हीनानि वा भवन्ति, त्रीणि च स्थानानि गुणनेन गुणकारेणxxx। तत्र भागाहारे अनन्ताऽसंख्यात-संख्यातलक्षणः क्रमः, गुणकारे च संख्याताऽसंख्याताऽनन्तलक्षण इति"।-प्रवचनसारो• गा० ४३२ द्वा० २६० । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ६३१ स्यादेतत् पुद्गलद्रव्यस्य तादृग्भूतापरपुद्गलद्रव्यापेक्षया अनेकान्तरूपता युक्ता, प्रत्युत्पन्ने त्वात्मद्रव्यपर्याये कथमनेकान्तरूपता? न, आत्मपर्यायस्यापि ज्ञानादेस्तत्तद्राह्यार्थापेक्षयाऽनेकान्तरूपता पुद्गलवन्न विरुध्यते। तथा द्रव्य-कषाय-योगोपयोग-ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वीर्यप्रभेदात्मकत्वा. दात्मनःपुद्गलवदनेकान्तरूपता आर्षे प्रतिपादितैव "कइविहे णं भंते ! आया पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्ठविहे । तं जहा-दविए आयो” [भगवतीसू० शत० १२, उ० १०] इत्यादौ ॥६॥ [आत्मनोऽनेकान्तात्मकत्वस्य बुद्धिगम्यतया प्रदर्शनम् ] इतश्चामेकान्तात्मकता आत्मनः प्रतिपत्तव्येत्याह कोवं उप्पायंतो पुरिसो जीवस्स कारओ होइ । तत्तो 'विभएयव्वो परम्मि सयमेव भइयव्वो ॥७॥ १० कोपपरिणतिमुपनयन् पुरुषो जीवस्य परभवप्रादुर्भावे निर्वतको भवति, तन्निमित्तस्य कर्मण उपादानात् । कोपपरिणाममापद्यमानश्च पुरुषस्ततः परभवजीवाद् विभजनीयो भिन्नो व्यवस्थापनीयः, कार्य-कारणयोर्मुत्पिण्ड-घटवत् कथंचिद् भेदात्; अन्यथा कार्य-कारणभावाभावप्रसङ्गात् । न चासौ ततो भिन्न एव परस्मिन् भवे स्वयमेव पुरुषो भजनीयः आत्मरूपतया अभेदेन व्यवस्थाप्यत इति भावः घटाद्याकारपरिणतमृद्रव्यवत् कथंचिदभिन्न इत्यनेकान्तः।१५ यद्वा कोपपरिणतिमन्यस्मिन् जीवे उत्पादयन् पुरुषः कारको भवति। ततोऽसौ कोपकारकत्वेन विभजनीयः-कोपपरिणतियोग्ये जीवे कारकः, अन्यत्राकारक इति ॥ ७॥ [द्रव्य-गुणयोः कथंचिदभेदमनिच्छता केषांचित् तयोर्भेदविषयाऽऽशङ्का] द्रव्यं गुणादिभ्योऽनन्यत् तेऽपि द्रव्यादनन्य एवेत्येतदनेकान्तममृष्यमाणा आहुः रूव-रस-गंध-फासा असमाणग्गहण-लक्खणा जम्हा । तम्हा वाणुगया [ण त्ति ते केइ इच्छंति ॥ ८॥ १“कइविहा णं भंते ! आया पण्णता ? गोयमा ! अट्टविहा आया पण्णत्ता । तं जहा-दवियाया कसायाया जोगाया उवओगाथा णाणाया दंसणाया चरित्ताया वीरियाया" इत्यादि संपूर्ण सूत्रम्-भगवतीसू० पृ. ५८८ सू० ४६७ । २ वियभइयव्वो गु० मू० विना। ३ रूप-रस-आ० हा० वि० । ४ 'गुण'शब्दस्य वैशेषिकादिदर्शनेषु प्रतिनियतार्थखेन अतिप्रसिद्धखात् केषुचित् उत्तराध्ययन-तत्त्वार्थादिप्रन्थेषु च तस्य विशिष्टार्थत्वेन निर्देशात् भगवत्यादिषु चागमेषु गुण-पर्यायशब्दयोयोरपि प्रयोगदर्शनात् जैनमते उपतिष्ठमानाम् 'किं गुणशब्दः पर्यायशब्दसमानार्थक एव उत भिन्नार्थकः' इति विप्रतिपत्तिं निराकर्तुकामेन श्रीसिद्धसेनदिवाकरेण गुणशब्दस्य पर्यायशब्दसमानार्थकत्वपरं खकीयं मतमाविष्कृतं मूलगाथायाम् । परन्तु तयोर्द्वयोरपि शब्दयोरर्थमर्यादामवगन्तुमपरेषामपि अनेकेषामाचार्याणां तद्विषयाणि विविधानि मतानि परिज्ञातव्यानि सन्ति । तानि चेत्थम्उत्तराध्ययनसूत्रे गुण-पर्यायशब्दयोः पृथक् पृथग निर्देशः तल्लक्षणं चेत्थं निरूपितमस्ति । तथाहि "गुणाणमासओ दव्वं एगदव्वस्सिआ गुणा । लक्खणं पजवाणं तु उभओअस्सिआ भवे ॥ एगत्तं च पुहत्तं च संखा संठाणमेव य । संजोगा य विभागा य पजवाणं तु लक्खणं ॥ गुणानां तु रूपादीनामतिप्रतीतत्वाल्लक्षणं नोक्तमिति"-अ० २८ गा. ६ तथा १३ । श्रीमदुमास्वातिना सूत्रे भाष्ये च पृथक् पृथक् प्रयुक्ती लक्षितौ च गुण-पर्यायशब्दो तयोविभिन्नार्थलपरं तदीयं तात्पर्य सूचयतः । तथाहि "गुण-पर्यायवद् द्रव्यम्"-तत्त्वार्थ० ५,३७ ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ तृतीये काण्डे __ "सर्वं त्रित्वं द्रव्य-गुण-पर्यायावरोधात्"-१, ३५ तत्त्वार्थ. भा०। “गुणान् लक्षणतो वक्ष्यामः । भावान्तर संज्ञान्तर च पर्यायः । तदुभयं यत्र विद्यते तद् द्रव्यम्"-५, ३७ तत्त्वार्थ. भा० । श्रीकुन्दकुन्देन पृथक्तया प्रयुक्त-लक्षितौ अमृतचन्द्रेण च भिन्नार्थतया स्पष्टमेव व्याख्यातौ गुण-पर्यायशब्दौ विभिन्नार्थत्वपरमेव तदीयं तात्पर्य ज्ञापयतः । तद्यथा"अत्थो खलु दवमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि । तेहिं पुणो पजाया पजयमूढा हि परसमया" ॥१॥ -प्रवचन० पृ०११९। "लिंगेहिं जेहिं दव्वं जीवमजीवं च हवदि विण्णादं। ते तब्भावविसिट्टा मुत्तामुत्ता गुणा णेया" ॥ ३८॥ प्रवचन० पृ० १८२। "दव्वेण विणा ण गुणा गुणेहिं दव्वं विणा ण संभवदि । अव्वदिरित्तो भावो दव्वगुणाणं हवदि तम्हा" ॥ १३ ॥ पञ्चास्ति० पृ. २९। अस्य गाथात्रयस्य अमृतचन्द्रीया व्याख्यापि अत्रानुसंधेया। श्रीराजमल्लेन तु अमृतचन्द्रवत् तो द्वावपि शब्दौ भिन्नार्थतया स्पष्टमेव परिभाषितौ । यथा"द्रव्याश्रया गुणाः स्युर्विशेषमात्रास्तु निर्विशेषाश्च । करतलगतं यदेतैर्व्यक्तमिवालक्ष्यते वस्तु" ॥ १०४॥ "क्रमवर्तिनो ह्यनित्या अथ च व्यतिरे किणश्च पर्यायाः । उत्पाद-व्ययरूपा अपि च ध्रौव्यात्मकाः कथंचिच्च" ॥१५॥ -पञ्चाध्या० पृ० ३७, ५४ । पूज्यपादेन तु अन्वयिल-व्यतिरेकिवरूपेण गुण-पर्याययोः स्पष्टमेव भेदं प्रतिपाद्य तद्वाचकयोयोः शब्दयोर्विमिन्नार्थत्वं तत्त्वार्थसूत्रव्याख्यायां प्रदर्शितम् । तथाहि "के गुणाः ? के पर्यायाः? अन्वयिनो गुणाः व्यतिरेकिणः पर्यायाः। उभयैरुपेतं द्रव्यमिति । उक्तं च गुण इदि दव्वविहाणं दयविकारो हि पज्जवो भणिदो । तेहिं अणूणं दव्वं अजुदपसिद्ध हवे णिच्चं ॥ ततः सामान्यापेक्षया अन्वयिनो ज्ञानादयो जीवस्य गुणाः, पुद्गलादीनां च रूपादयः । तेषां विकारा विशेषात्मना भिद्यमानाः पर्यायाः। घटज्ञानम् पटज्ञानम् क्रोधः मानः गन्धः वर्णः तीव्रः मन्द इत्येवमादयः"-५, ३८ सर्वार्थसिद्धिः पृ० १७९ । श्रीमदकलङ्केन गुण-पर्याययोः द्वयोरपि शब्दयोरेकार्थवम् विभिन्नार्थत्वं च द्वयमपि तत्त्वार्थसूत्रव्याख्यायां समर्थितम् । तचैवम् ___ "गुणा एव पर्याया इति वा निर्देशः । अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्याणि न (1) पर्यायाः न तेभ्योऽन्ये गुणाः सन्ति ततो गुणा एव पर्याया इति सति सामानाधिकरण्ये मतौ सति गुण-पर्यायवदिति निर्देशो युज्यते"-५, ३७ तत्त्वार्थराजवा० वा० २ पृ. २४३ । "नित्यं द्रव्यमाश्रित्य ये वर्तन्ते ते गुणा इति । पर्यायाः पुनः कादाचित्का इति न तेषां ग्रहणम् तेन अन्वयिनो धर्मी गुणा इत्युक्तं भवति तद्यथा जीवस्यास्तित्वादयः ज्ञान-दर्शनादयश्च पुद्गलस्य अचेतनवादयः रूपादयश्च । पर्यायाः पुनः घटज्ञानादयः कपालादिविकाराश्च"-५, ४० तत्त्वार्थराजवा० वा० ४ पृ. २४४ । प्रस्तुतविषये विशिष्टचर्चा विदधता विद्यानन्दिना पूज्यपादसरणिरेव अनुसृता । तथाहि "गुणाः वक्ष्यमाणलक्षणाः पर्यायाश्च तत्सामान्यापेक्षया xxx विशेषापेक्षया पर्यायाणां नित्ययोगाभावात् कादाचित्कखसिद्धेः"-५, ३८ तत्त्वार्थश्लो० वा० पृ० ४३८ । "कः पुनरसौ पर्यायः? इत्याह तद्भावः परिणामोऽत्र पर्यायः प्रतिवर्णितः । गुणाच्च सहभुवो भिन्नः क्रमवान् द्रव्यलक्षणम्" ॥-५, ४२ तत्त्वार्थश्लो. वा०पृ०४४०। गुण-पर्यायशब्दयोर्व्याख्यां विदधता श्रीअमृतचन्द्रसूरिणा खीये तत्त्वार्थसारे अकलङ्कमतमेव समाश्रितम् । तथाहि"गुणो द्रव्यविधानं स्यात् पर्यायो द्रव्यविक्रिया । द्रव्यं ह्ययुतसिद्ध स्यात् समुदायस्तयोर्द्वयोः॥९॥ सामान्यमन्वयोत्सर्गौ शब्दाः स्युर्गुणवाचकाः । व्यतिरेको विशेषश्च भेदः पर्यायवाचकाः॥१०॥ गुणैर्विना न च द्रव्यं विना द्रव्याच नो गुणाः । द्रव्यस्य च गुणानां च तस्मादव्यतिरिक्तता ॥११॥ न पर्यायाद् विना द्रव्यं विना द्रव्यान्न पर्ययः । वदन्यनन्यभूतलं द्वयोरपि महर्षयः" ॥१२॥ सनातन०प्र० गु०पृ० १२१॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ६३३ रूप-रस-गन्ध-स्पर्शाः असमानग्रहण-लक्षणा यस्मात् ततो द्रव्याश्रिता गुणा इति केचन वैशेषिकाद्याः, स्वयूथ्या वा सिद्धान्तानभिशा अभ्युपगच्छन्ति । तथाहि-गुणा द्रव्याद भिन्नाः, भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वात् भिन्नलक्षणत्वाञ्च; स्तम्भात् कुम्भवत् । न चासिद्धौ हेतू, द्रव्यस्य 'यमहमद्राक्षं तमेव स्पृशामि' इत्यनुसंधानाध्यक्षग्राह्यत्वात् रूपादीनां च प्रतिनियतेन्द्रियप्रभवप्रत्ययावसेयत्वात् 'दार्शनं स्पार्शनं च द्रव्यम्' इत्याद्यभिधानादसमानग्रहणता द्रव्य-गुणयोः५ सिद्धा । तथा, विभिन्नलक्षणत्वमपि"क्रियावद् गुणवत् समवायिकारणं द्रव्यम्” [वैशेषिकद० १-१-१५] "द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्षा" [वैशेषिकद०१-१-१६] इति वचनात् सिद्धम् ॥ ८॥ श्रीसिद्धसेनसूरिणाऽपि एकार्थत्वम् विभिन्नार्थवं च द्वयमपि नयभेदेन व्यवस्थाप्य अकलङ्कीय एव पन्थास्तत्त्वार्थभाष्यवृत्ती स्पष्टमनुसृतः । तद् यथा “गुणाः शक्तिविशेषाः त एव क्रमेण सह च भवन्तः सर्वतोमुखत्वाद् भेदाः पर्यायास्तान् गुणान् पिण्ड घटकपालादीन् रूपादींश्च xxx व्यवहारनयसमाश्रयणेन तु गुणाः पर्याया इति वा भेदेन व्यवहारः प्रवचने । युगपदवस्थायिनो गुणा रूपादयः, अयुगपदवस्थायिनः पर्यायाः । वस्तुतः पर्याया गुणा इति ऐकात्म्यम्"-५, ३७ तत्त्वार्थ० व्या० पृ. ४२८ । उक्तयोर्द्वयोरपि शब्दयोरेकार्थवं हृदि संमन्यमानेनापि वादिदेवसूरिणा प्राक्तनतर्कग्रन्थेषु तयोविभिन्नार्थखेन प्रयोगपरिपार्टि पश्यता खीये प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारग्रन्थे पर्यायशब्दस्य अर्थ संकोच्य विभिन्नार्थत्वं तयोर्द्वयोः शब्दयोावर्णितम् उपपादितं च स्याद्वादरत्नाकरे । तच्चैवम् "विशेषोऽपि द्विरूपः-गुणः पर्यायश्चेति ॥ ६ ॥ गुणः सहभावी धर्मः यथा आत्मनि विज्ञानव्यक्ति-शक्त्यादिरिति ॥७॥ पर्यायस्तु क्रमभावी यथा तत्रैव सुख-दुःखादिरिति ॥ ८॥"-परि० ५ पृ० ७३५ । श्रीमता हरिभद्रेण तु प्रस्तुते विषये सिद्धसेनदिवाकरीय एव पन्था अनुसृतः प्रतिभासते, स एव च मार्ग उपाध्याययशोविजयेन अनुधावितः सविस्तरमुपपादितश्च"अन्वयो व्यतिरेकश्च द्रव्य-पर्यायसंहितौ । अन्योन्यव्याप्तितो भेदाभेदवृत्त्यैव वस्तु तौ” ॥ ३१ ॥ -शास्त्रवा० समु० स्तब० ७ पृ० प्र० २६१ । "अन्वयो व्यतिरेकश्चेत्येतावंशौ द्रव्य-पर्यायसंज्ञितौ-द्रव्यं पर्यायश्चति द्रव्य-पर्यायपदवाच्यौ। एतेन 'द्रव्यं गुणाः पर्यायाश्च' इति विभागः केषांचिद् अनभिज्ञखयूथ्यानाम् परयूथ्यानां वा निरस्तः, विभिन्ननयग्राह्याभ्यां द्रव्य-पर्यायत्वाभ्यामेव विभागात् । यदि च गुणोऽप्यतिरिक्तः स्यात् तदा तद्ब्रहार्थ द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकवद् गुणार्थिकनयमपि भगवानुपादेक्ष्यत्, न चैवमस्ति; रूपरस-गन्ध-स्पर्शानामर्हता तेषु तेषु सूत्रेषु “वण्णपजवेहिं” इत्यादिना पर्यायसंज्ञयैव नियमनात् । गुण एव तत्र पर्यायशब्देन उक्त इति चेत्, नन्वेवं गुण-पर्यायशब्दयोरेकार्थत्वेऽपि पर्यायशब्देनैव भगवतो देशना इति न गुणशब्देन पर्यायस्य तदतिरिक्तस्य वा गुणस्य विभागौचित्यम् । 'एकगुणकालः' 'दशगुणकालः' इत्यादौ गुणशब्देनापि भगवतो देशना अस्त्येवेति चेत्, अस्त्येव संख्यानशास्त्रधर्मवाचकगुणशब्देन, न तु गुणार्थिकनयप्रतिपादनाभिप्रायेण" इत्यादि-शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ०प्र० २६१। १रूप-रसादीनामसमानग्रहण-लक्षणता वैशेषिकैरित्थं वर्णिताऽस्ति-"रूपं चक्षुर्ग्राह्यम्"। "रसो रसनग्राह्यः"। "गन्धो घ्राणग्राह्यः"1x “स्पर्शस्वगिन्द्रियग्राह्यः"।-प्रशस्त० के० पृ० १०४-१०५-१०६ । २ एतद् वाक्यमेव श्रीयशोविजयोपाध्यायः खीये गूर्जरभाषानिबद्धे सस्तबके द्रव्यगुणपर्यायरासे इत्थमनूदितवान्___“शक्तिरूप गुण कोइक भाषइ ते नही मारगि निरतई रे. जिन०"। "कोइक दिगंबरानुसारी शक्तिरूप गुण भाषइ छइ, जे माटई ते इम कहइ छइ जे जिम द्रव्यपर्यायर्नु कारण द्रव्य तिम गुणपर्यायर्नु कारण गुण"इत्यादि-ढा० २ दो० १०॥ ३ मुद्रिते वैशेषिकदर्शने तु एवं पाठो दृश्यते"क्रियागुणवतू समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्"। "द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम्"। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ तृतीये काण्डे[द्रव्य-गुणयोरेकान्तमेदाशङ्का निराकर्तुं गुणशब्दस्वार्थपरीक्षा] एतत्परिहारायाह दूरे ता अण्णत्तं गुणसद्दे चेव ताव पारिच्छं। किं पजवाहिओ होज पनवे चेव गुणसण्णा ॥९॥ ५ दूरे तावद् गुण-गुणिनोरेकान्तेनान्यत्वम्-असंभावनीयमिति यावत्-गुणात्मकद्रव्यप्र. त्ययबाधितत्वाद् एकान्तगुणगुणिभेदस्य । न च समवायनिमित्तोऽयममेदप्रत्ययः, तस्य निषिद्धत्वात् । न चैकत्वप्रत्ययस्य प्रागुपन्यस्तानुमानबाधा, एकत्वप्रत्ययाध्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेनैकशाखाप्रभवत्वानुमानस्येव तस्य कालात्ययापदिष्टत्वात् । ततो गुण-गुणिनोरेकान्तान्यत्वस्यासंभवात् गुणशब्दे एव तावत् पारीक्ष्यमस्ति-किं पर्यायादधिके गुणशब्दः? उत पर्याय एव १० प्रयुक्त इति ? अभिप्रायश्च न पर्यायादन्यो गुणः, पर्यायश्च कथंचिद्रव्यात्मक इति विकल्पः कृतः ॥९॥ [गुणस्य पर्यायाद् भेदे तृतीयस्य गुणार्थिकनयस्यापि वचनीयत्वप्रसञ्जनम् ] यदि पर्यायादन्यो गुणः स्यात् पर्यायार्थिकवद् गुणार्थिकोऽपि नयो वचनीयः स्यादित्याह दो उण णया भगवया वढिय-पज्जवट्ठिया नियया । __ एत्तो य गुणविसेसे गुणट्ठियणओ वि जुजंतो ॥१०॥ १५ दावेव मूलनयौ भगवता द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिको नियमितौ, तत्रातः पर्यायादधिके गुणविशेषे ग्राह्ये सति तद्राहकगुणास्तिकनयोऽपि नियमितुं युज्यमानकः स्यात् अन्यथा अव्यापकत्वं नयानां भवेत् अर्हतो वा तदपरिज्ञानं प्रसज्येत ॥ १०॥ [तृतीयस्य गुणार्थिकनयस्य भगवदनुक्तत्वोपपादनम् ] न च भगवताऽसावुक्त इत्याह जं च पुण अरिहया तेसु तेसु सुत्तेसु गोयमाईणं । पज्जवसण्णा णियया वागरिया तेण पज्जाया ॥११॥ १ अत्र टीकानुरोधेन 'पजवाहिए' इति पाठः संभाव्यते अथवा सप्तम्यर्थे प्रथमा समर्थनीया। २ पृ. १०६ पं. १०। ३ पृ. ६३३ पं. ३ । ४ 'गुण-पर्याययोर्वि भिन्नत्वे पर्यायप्रतिपादकपर्यायार्थिकवद् गुणप्रतिपादको गुणार्थिकोऽपि खतरो नयः कथमागमे नोक्तः' इत्याशङ्कया प्रेरितेन दिवाकरेण उक्तयोर्द्वयोः शब्दयोरेकार्थत्वं वर्णितं परंतु तयोविभिन्नार्थत्वं मन्यमानाभ्यामकलङ्कविद्यानन्दिभ्यां सा शङ्का प्रकारान्तरेणैव अपाकृता, तदपाकरणयुक्तिरपि तयोर्द्वयोर्विभिद्यते, अकलङ्कीया युक्तिर्वस्तुस्थितिस्पर्शिनी विद्यानन्दीया च तर्कानुगामिनी इति द्वयोर्भेदः प्रतिभाति । तद्यथा "द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिक इति द्वावेव मूलनयौ। यदि गुणोऽपि कश्चित् स्यात् तद्विषयेण मूलनयेन तृतीयेन भवितव्यम् न चास्ति असौ इत्यतो गुणाभावाद् गुण-पर्यायवदिति निर्देशो न युज्यते, तन्न; किं कारणम् ? अर्हत्प्रवचनहृदयादिषु गुणोपदेशात् । उकं हि अर्हत्प्रवचने-'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' इति । अन्यत्र चोक्तम् गुण इति दव्वविधाणं दव्ववियारो य पजवो भणिदो । तेहि अणूणं दव्वं अजुदवसिद्ध हवदि णिचं॥ यदि गुणोऽपि विद्यते ननु चोकं तद्विषयस्तृतीयो मूलनयः प्राप्नोति, नैष दोषः; द्रव्यस्य द्वावात्मायो सामान्यम् विशेषश्चति । तत्र सामान्यमुत्सर्गोऽन्वयः गुण इत्यनर्थान्तरम् । विशेषो भेदः पर्याय इति पर्यायशब्दः । तत्र सामान्यविषयो नयो द्रव्यार्थिकः, विशेषविषयः पर्यायार्थिकः । तदुभयं समुदितमयुतसिद्धरूपं द्रव्यमित्युच्यते न तद्विषयस्तृतीयो नयो भवितुमर्हति विकलादेशत्वानयानाम् तत्समुदायोऽपि प्रमाणगोचरः सकलादेशत्वात् प्रमाणस्य" इत्यादि ५,३७ तत्त्वार्थराजवा. वा० २ पृ. २४३ । "गुणवद् द्रव्यमित्युकं सहानेकान्तसिद्धये । तथा पर्यायवद् द्रव्यं क्रमानेकान्तवित्तये" ॥२॥ -तत्त्वार्थश्लो. वा. पृ. ४३८ । ५ इदमन्तर्भूतण्यर्थक बोध्यम् सेट्त्वं च बहुलाधिकारात् समर्थनीयम् । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। यतः पुनर्भगवता तस्मिंस्तस्मिन् सूत्रे “वण्णपजवेहि, गंधपजवेहि" [भगवतीसू० शत० १४, उ० ४ सू० ५१३] इत्यादिना पर्यायसंज्ञा नियमिता वर्णादिषु गौतमादिभ्यः व्याकृतास्ततः पर्याया एव वर्णादयो न गुणा इत्यभिप्रायः ॥ ११ ॥ [तुल्यार्थत्वाद् आगमाच पर्यायशब्देन गुणस्यैवाभिधानमिति कथनम् ] अथ तत्र गुण एव पर्यायशब्देनोक्तः तुल्यार्थत्वात् आगमाच्च“य एव पर्यायः स एव गुणः” [ ] इत्यादिकात् । एतदेवाहपरिगमणं पजाओ अणेगकरणं गुण त्ति तुल्लत्था । तह वि ण 'गुण' त्ति भण्णइ पजवणयदेसणा जम्हा ॥१२॥ परि समन्तात् सहभाविभिः क्रमभाविभिश्च भेदैर्वस्तुनः परिणतस्य गमनं परिच्छेदो यः स पर्यायः विषय-विषयिणोरभेदात् ; अनेकरूपतया वस्तुनः करणं-करोतेर्सानार्थत्वात्-ज्ञानम्-१० विषय-विषयिणोरभेदादेव-गुणः इति तुल्यार्थी गुण-पर्यायशब्दौ, तथापि न 'गुणार्थिकः' इत्यभिहितस्तीर्थकृता पर्यायनयद्वारेणैव देशना यस्मात् कृता भगवतेति ॥ १२ ॥ [भगवतो गुणद्वारेणापि देशनादर्शनान्न गुणाभाव इति पूर्वपक्षा] गुणद्वारेणापि देशनायां भगवतः प्रवृत्तिरुपलभ्यते इति न गुणाभाव इत्याह जंपन्ति अस्थि समये एगगुणो दसगुणो अणंतगुणो । रूवाई परिणामो भण्णइ तम्हा गुणविसेसो ॥ १३ ॥ जल्पन्ति द्रव्य-गुणान्यत्ववादिनः-विद्यते एव सिद्धान्ते “एगगुणकालए दुगुणकालए" [भंगवतीसू० शत० ५, उ० ७ सू० २१७] इत्यादि रूपादौ व्यपदेशस्तस्माद् रूपादिर्गुणविशेष एवेत्यस्ति गुणार्थिको नयः उपदिष्टश्च भगवतेति ॥ १३ ॥ [उक्तस्य पूर्वपक्षस्य सिद्धान्तवादिना निराकरणम् ] अत्राह सिद्धान्तवादी गुणसहमंतरेणावि तं तु पज्जवविसेससंखाणं । सिज्झइ णवरं संखाणसत्थधम्मो 'तइगुणो' त्ति ॥१४॥ रूपाद्यभिधायिगुणर्शब्दव्यतिरेकेणापि एकगुणकालः' इत्यादिकं पर्यायविशेषसंख्यावाचकं वचः सिध्यति न पुनर्गुणास्तिकनयप्रतिपादकत्वेन, यतः संख्यानं गणितशास्त्रधर्मः-२५ 'अयं तावद्गुण इति एतावताऽधिको न्यूनो वा भावः' इति गणितशास्त्रधर्मत्वादस्येत्यर्थः ॥ १४॥ [सिद्धान्तिना स्त्रोक्तस्यार्थस्य दृढीकरणम् ] दृष्टान्तद्वारेणामुमेवार्थ दृढीकर्तुमाह जह दससु दसगुणम्मि य एगम्मि दसत्तणं समं चेव । अहियम्मि वि गुणसद्दे तहेय एवं पि दहव्वं ॥ १५ ॥ १ जीवाजीवाभि० प्रतिप० ३ स. ७८ पृ. ९८ प्र. । जम्बूद्वीपप्र. वक्ष. २ सू० ३६ पृ. १६४ द्वि०। २ भगवतीसू० पृ. ६४० प्र० । ३ मलयगिरीयायां धर्मसंग्रहणिटीकायां शाकटायन सम्मतं पर्यायलक्षणभित्थमुपन्य स्तं वर्तते "यदाह शाकटायन:-क्रमेण पदार्थानां क्रियाभिसंवन्धः पर्याय इति"-पृ. १४४ प्र. पं० १२ । ४ भगवतीसू. पृ. २३५ प्र०। ५ "संखाणे xxx सुपरिनिट्ठिए" । "संखाणे त्ति गणितस्कन्धे सुपरिनिष्ठित इति योगः”-[भगवतीसू० श. २ उ० १ सू० ९० पृ० ११२ द्वि० तथा पृ० ११४ प्र०] इत्येवं गणितार्थवाचकः 'संख्यान'शब्दः भगवतीप्रभूतिसूत्रेषु विद्यते। ६ शब्दस्य व्य-भां० मां। ८२ स.प्र. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे यथा दशसु द्रव्येषु, एकस्मिन् वा द्रव्ये दशगुणिते दशशब्दातिरेकेऽपि दशत्वं सममेव तथैव एतदपि न भिद्यते-'परमाणुरेकगुणकृष्णादिः' इति । एकादिशब्दाधिक्ये गुण-पर्यायशब्दयोर्भेदः वस्तु पुनस्तयोस्तुल्यमिति भावः। न च गुणानां पर्यायत्वे वाचकमुख्यसूत्रम्"गुण-पर्यायवद् द्रव्यम्" [तत्त्वार्थ० अ० ५, सू० ३७] इति विरुध्यते, युगपदयुगपद्भावि५पर्यायविशेषप्रतिपादनार्थत्वात् तस्य । न चैवमपि मतुप्प्रयोगाद् द्रव्यविभिन्नपर्यायसिद्धिः, नित्ययोगेऽत्र मतुविधानात् द्रव्य-पर्याययोस्तादात्म्यात् सदाऽविनिर्भागवर्तित्वात् अन्यथा प्रमाणबाधोपपत्तेः । संज्ञा-संख्या-स्वलक्षणाऽर्थक्रियाभेदाद् वा कथंचित् तयोरमेदेऽपि मेदसिद्धेर्न मतुबनुपपत्तिः ॥ १५॥ [भेदस्य निरासेनाभेदस्य फलितत्वेऽप्येकान्तिना तस्य दााय सोपनयमुदाहरणम् ] १० एवं द्रव्य-पर्याययोभैदैकान्तप्रतिषेधे अभेदैकान्तवाद्याह एयंतपक्खवाओ जो उण दव-गुण-जाइभेयम्मि । अह पुज्वपडिकुट्ठो उआहरणमित्तमेयं तु ॥ १६ ॥ पिउ-पुत्त-णत्तु-भव्वय-भाऊणं एगपुरिससंबंधो। ण य सो एगस्स पिय त्ति सेसयाणं पिया होइ ॥ १७॥ जह संबन्धविसिट्ठो सो पुरिसो पुरिसभावणिरइसओ। तह दब्वमिंदियगयं स्वाइविसेसणं लहइ ॥ १८॥ एकान्तव्यतिरिक्ताभ्युपगमवादो यः पुनद्रव्य-गुण-क्रियाभेदेषु स-यद्यपि पूर्वमेव प्रतिक्षिप्तः मेदैकान्तग्राहकप्रमाणाभावात् अभेदग्राहकस्य च 'सर्वमेकं सद्विशेषात् विशेषे वा वियत्कुसुमवदसत्त्वप्रसङ्गात्' इति प्रदर्शितत्वात् । २० तथापि तत्स्वरूपे दायोत्पादनार्थमुदाहरणमात्रमभिधीयते पितृ-पुत्र-नप्तृ-भाग्नेय-भ्रातृभिर्य एकस्य पुरुषस्य संबन्धस्तेनासावेक एव पित्रादिव्यपदेशमासादयति । न चासावेकस्य पिता-पुत्रसंबन्धतः-इति शेषाणामपि पिता भवति । __ यथा प्रदर्शितसंबन्धविशिष्टः पित्रादिव्यपदेशमाश्रित्यासी पुरुषरूपतया निरतिशयोऽपि सन् तथा द्रव्यमपि घाण-रसन चक्षुस्-त्वक् श्रोत्रसंवन्धमवाप्य रूप-रस-गन्ध-स्पर्श२५ शब्दव्यपदेशमात्रं लभते द्रव्यखरूपेणाविशिष्टमपि नहि शकेन्द्रादिशब्दभेदाद् गीर्वाणनाथस्येव रूपादिशब्दभेदाद् वस्तुभेदो युक्तस्तदा द्रव्याद्वैतैकान्तस्थितेः कथंचिद् भेदामेदवादो द्रव्य-गुणयोमिथ्यावाद इति ॥ १६ ॥ १७ ॥ १८॥ [कथंचिद् भेदाभेदं मिथ्या वदतोऽभेदैकान्तपक्षस्य निराकरणम् ] अस्य निराकरणायाह होजाहि दुगुणमहुरं अणंतगुणकालयं तु जं व्वं । ण उ डहरओ महल्लो वा होइ संबंधओ पुरिसो॥१९॥ १"ववदेसा संठाणा संखा विसया य होंति ते बहुगा। ते तेसिमणण्णत्ते अण्णत्ते चावि विजंते"॥४६॥-पञ्चास्ति । २ "भव्वो बहिणीतणए" "भव्वो भागिनेयः"-देशीना. व. ६ गा.१००। तत्रैव च "भचो" इति पाठान्तरम् । ३ पृ. २७२६० १७। ४ भगिनीवद् भनीशब्दोऽपि विद्यते ततो भन्या अपत्यं भाग्नेयः-वाच । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । यदि नाम आम्रादिद्रव्यमेव रसनसंबन्धाद् 'रसः' इति व्यपदेशमात्रमासादयेत् द्विगुणमधुरं रसतः कुतो भवेत् तथा नयनसंबन्धाद् यदि नाम 'कृष्णम्' इति भवेत् अनन्तगुणकृष्णं तत् कुतः स्यात् वैषम्यमेदावगतेनयनादिसंबन्धमात्रादसंभवात् । तथा, पुत्रादिसंबन्धद्वारेण पित्रादिरेव पुरुषो भवेत् न त्वल्पो महान् वेति युक्तः । विशेषप्रतिपत्तेरुपचरितत्वे मिथ्यात्वे वा सामान्यप्रतिपत्तावपि तथाप्रसक्तेरिति भावः ॥ १९॥ [अभेदैकान्तवादिन आशङ्का ] अत्राहाभेदैकान्तवादी भण्णइ संबंधवसा जइ संबंधित्तणं अणुमयं ते । णणु संबंधविसेसे संबंधिविसेसणं सिद्धं ॥२०॥ संबन्धसामान्यवशाद् यदि संबन्धित्वसामान्यम् अनुमतं तव, ननु संबन्ध-१० विशेषद्वारेण तथैव संबन्धिविशेषोऽपि किं नाभ्युपगम्यते ? ॥ २० ॥ [सिद्धान्तवादिनाऽऽशङ्कानिरसनम् ] सिद्धान्तवाद्याह जुज्जइ संबंधवसा संबंधिविसेसणं ण उण एयं । णयणाइविसेसगओ रूवाइविसेसपरिणामो ॥ २१॥ संबन्धविशेषवशाद् युज्यते संबन्धिविशेषः यथा दण्डादिसंबन्धिविशेषजनितसंबन्धविशेषसमासादितसंबन्धिविशेषोऽवगतः। द्रव्याद्वैतवादिनस्तु न संबन्धिविशेषः नापि संबन्धविशेषः संगच्छत इति कुतो रसनादिविशेषसंबन्धजनितो रसादिविशेषपरिणामः ? ॥ २१ ॥ [अनेकान्तवादे अनन्त-द्विगुणादिवैषम्यपरिणतिः कथं घटते इत्याशङ्का तन्निरासश्च ] नन्वनेकान्तवादिनोऽपि रूप-रसादेरनन्त-द्विगुणादिवैपम्यपरिणतिः कथमुपपन्ना? इत्याह-२० भण्णइ विसमपरिणयं कह एयं होहिइ त्ति उवणीयं । तं होइ परणिमित्तं ण व त्ति एत्थऽत्थि एगंतो ॥ २२॥ शीतोष्णस्पर्शवदेकत्रैकदा विरोधाद् भण्यते 'एकत्र आम्रफलादौ विषमपरिणतिः कथं भवति' इति परेण प्रेरिते उपनीतं प्रदर्शितमाप्तेन-तद् भवति परनिमित्तम्-द्रव्यक्षेत्र-काल-भावानां सहकारिणां वैचिच्यात कार्यमपि वैचित्र्यमासादयति तद आम्रादि वस्त विषमरूपतया परनिमित्तं भवति, ने वा 'परनिमित्तमेव' इत्यत्राप्येकान्तोऽस्ति, स्वरूपस्यापि कथंचिन्निमित्तत्वात् । तन्न द्रव्याद्वैतैकान्तः संभवी ॥ २२ ॥ [प्रागुक्तस्य लक्षणस्य बाधाद् भेदैकान्तवादिना द्रव्य-गुणयोर्लक्षणान्तराभिधानम् अभेदैकान्तवादिना च विकल्प्य तक्षणम् ] द्रव्य-गुणयोर्भदैकान्तवादिना प्राक् प्रदर्शिततल्लक्षणस्यैकत्वप्रतिपस्यध्यक्षबाधितत्वाद् लक्ष-३० णान्तरं वैक्तव्यम् तदाह दव्वस्स ठिई जम्म-विगमा य गुणलक्खणं ति वत्तव्वं । एवं सइ केवलिणो जुजइ तं णो उ दवियस्स ॥ २३ ॥ अत्राह भेदै-वा. बा. भा. मां० । २ न चाप-वा. बा. भां० मां। ३ वक्तव्यं छ दव्वस्स बृ० आ• हा०वि०। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ तृतीये काण्डे - द्रव्यस्य लक्षणं स्थिति: जन्म - विगमौ लक्षणं गुणानाम्, एवं सति केवलिनो युज्यत एतल्लक्षणम् -तत्र किल केवलात्मना स्थिते एव चेतनाचेतनरूपा अन्ये अर्था ज्ञेयभावेनोत्पद्यन्ते, अज्ञेयरूपतया च नश्यन्ति । न तु द्रव्यस्याण्वादेर्लक्षणमिदं युज्यते, न हि रूपा जायन्ते अत्यन्तभिन्नत्वात् गव्यश्वादिवत् । अथवा केवलिनोऽपि सकलज्ञेयग्राहिणो नैतल्लक्षणं ५ युज्यते । न चापि द्रव्यस्य अचेतनस्य गुण-गुणिनोरत्यन्तभेदे असत्त्वापत्तेः - असतोश्च खरविषाणादेरिव लक्षणासंभवादिति ॥ २३ ॥ द्रव्यार्थान्तरभूतगुणवादिनः द्रव्यादर्थान्तरभूतगुणा मूर्त:, अमूर्ता वा भवेयुः ? १० यदि मूर्ताः परमाणवो न तर्हि परमाणवो भवन्ति, मूर्तिमद्रूपाद्याधारत्वात् अनेकप्रदेशिक स्कधद्रव्यवत् । अथामूर्ताः, अग्रहणं तेषाम् अमूर्तत्वात् आकाशवत् । ततो द्रव्य-गुणयोः कथंचिद् भेदाभेदावभ्युपगमनीयौ अन्यथोक्तदोषप्रसक्तेः । तथाहि - द्रव्य - गुणयोः कथंचिद् भेदः यथाक्रममेकानेकप्रत्ययावसेयत्वात्, कथंचिदभेदोऽपि रूपाद्यात्मना द्रव्यस्वरूपस्य रूपादीनां च द्रव्यात्मकतया प्रतीतेः; अन्यथा तदभावापत्तेः ॥ २४ ॥ १५ [ प्रस्तुतप्रपश्चस्य शिष्यबुद्धिवैशद्यमात्रप्रयोजनकत्वकथनम् ] २५ दव्वत्थंतरभूया मुत्ताप्रमुत्ता य ते गुणा होज । जइ मुत्ता परमाणू णत्थि अमुत्तेसु अग्गहणं ॥ २४ ॥ ततः सीसमईविष्कारणमेत्तत्थोऽयं कओ समुल्लावो । इहरा कहामुहं चेव णत्थि एवं ससमयम्मि ॥ २५ ॥ शिष्यबुद्धिविकाशनमात्रार्थोऽयं कृतः प्रबन्धः; इतरथा कथैवैषा नास्ति २० खसिद्धान्ते 'किमेते गुणा गुणिनो भिन्नाः, आहोस्विद् अभिन्नाः' इति, अनेकान्तात्मकत्वात् सकलवस्तुनः ॥ २५ ॥ [ वस्तुत्वे कथंचिद् भेदाभेदात्मके व्यवस्थितेऽपि तदन्यथावादिनां मिथ्यादृष्टित्वकथनम् ] एवंरूपे च वस्तुतत्त्वे अन्यथारूपं तत् प्रतिपादयन्तो मिथ्यावादिनो भवन्तीत्याह - वि अस्थि अण्णवादो ण वि तव्वाओ जिणोवएसम्म । तं चैव य मण्णता अवमण्णंता ण याणंति ॥ २६ ॥ ३० नैवास्ति अन्यवादो गुण-गुणिनोः, नाप्यनन्यवादो जिनोपदेशे द्वादशाङ्गे प्रवचने सर्वत्र कथंचिदित्याश्रयणात् । तदेव अन्यदेवेति वा मन्यमानाः मननीयमेव अवमन्यमाना घादिनोऽभ्युपगतविषयावज्ञाविधायित्वाद् अज्ञा भवन्ति अभ्युपगमनीयवस्त्वस्तित्वप्रतिपादको पायनिमित्तापरिज्ञानाद् मृषावादिवदिति तात्पर्यार्थः । ततोऽनेकान्तवाद एव व्यवस्थितः ॥ २६ ॥ [ अनेकान्तस्य व्यापकतां प्रदर्शयितुमनेकान्तेऽप्यनेकान्ताभ्युपगमनम् ] ननु 'सर्वत्रानेकान्तः' इति नियमे अनेकान्तेऽप्यनेकान्ताद् एकान्तप्रसक्तिः । अथ नानेकान्ते अनेकान्तवादस्तर्हि अव्यापकोऽनेकान्तवाद इत्यत्राह - भयणा विहु भइयव्वा जह भयणा भयइ सव्वदव्वाई । एवं भयणा नियमो वि होइ समयाविरोहेण ॥ २७ ॥ ३५ यथा भजना अनेकान्तो भजते सर्ववस्तूनि तद्तत्स्वभावतया ज्ञापयति तथा भजrsप अनेकान्तोऽपि भजनीयः -- अनेकान्तोऽप्यनेकान्त इत्यर्थः -- नय - प्रमाणापेक्षया 'एकान्त Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झेयमीमांमा। ६३९ १० भाऽनेकान्तश्च' इत्येवं ज्ञापनीयः । एवं च भजनाऽनेकान्तः संभवति, नियमश्च एकान्तश्च सिद्धान्तस्य "रेयणप्पभा सिआ सासया सियाऽसासया' [जीवाजीवाभि० प्रतिप० ३ उ० १ सू० ७८] इत्यवमनेकान्तप्रतिपादकम्य “दबट्टयाए सासया, पजवट्ठयाए असामया" [ इत्येवं चैकान्ताभिधायकाविरोधेन । ने चैवमव्यापकोऽनेकान्तवादः, 'स्यात्'पदसंसृचितानेकान्तगर्भम्यैकान्तम्य तत्त्वान् अनेकान्त-५ स्थापि 'स्यात्'कारलाञ्छनैकान्तगर्भस्य अनेकान्तस्वभावत्वात् । न चानवस्था, अन्यनिरपेक्षस्वस्वरूपन एव तथात्वोपपत्तेः यद्वा स्वरूपत एवानेकान्तस्यैकान्तप्रतिपधेनानेकान्तरूपत्वात् 'स्यादेकान्तः' 'स्यादनेकान्तः' इति कथं नानेकान्तेऽनेकान्तोऽपि । अनेकान्तात्मकवस्तुव्यवस्थापकस्य तंव्यवस्थापकत्वं स्वयमनेकान्तात्मकत्वमन्तरेणाऽनेकान्तस्याऽनुपपन्नमिति न तत्राऽव्यापकत्वादिदोप इत्यसकदावेदितमेव ॥ २७॥ [पड् जीवनिकायास्तदघाते च धर्म इत्यत्राप्यनेकान्तव्यवस्थापनम् ] नन्वनेकान्तस्य व्यापकत्वे 'पद् जीवनिकायाः' 'तयाते वा धर्मः' इत्यत्राप्यनेकान्त एव स्यादित्याशङ्ख्याऽऽह णियमेण सद्दहंतो छक्काए भावओ न सद्दहइ । हंदी अपज्जवेसु वि सद्दहणा होइ अविभत्ता ॥ २८ ॥ नियमेनाऽवधारणेन ‘पडेवते जीवाः कायाश्च' इत्येवं श्रद्दधानः पट्कायान् भावतः परमार्थतो न श्रद्वत्ते जीवराश्यपेक्षया तेपामेकत्वात् कायानामपि पुद्गलतयैकत्वात् जीव-पुद्गलप्रदेशानां परस्पराविनिर्भागवृत्तित्वाच्च जीवप्रदेशानां स्याद् अजीवत्वम् प्रत्येकं प्राधान्यविवक्षया स्याद् अनिकायत्वम् सूत्रविहितन्यायेन प्रवृत्तस्याऽप्रमत्तस्य 'हिंसाऽप्यहिंसा' इति तद्धाते स्यादधर्मः' इति । न भावसम्यग्दृष्टिरसौ स्यात्, द्रव्यसम्यग्दृष्टिस्तु स्यात् 'भगवतैवमुक्तम्' इति जिनवचनरुचि-२० १"इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी कि सासया? असासया ? गोयमा। सिय सासना सिय असासया । से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ-सिय सासया सिय असासया ! गोयमा | दव्वट्ठयाए राासता, वण्णपजवेहिं गंधपजवेहिं रसपजवेहि फामपजवेहिं असासता से तेणदेणं गोयमा ! एवं वुचति-तं चेव जाव सिय असासता । एवं जाव अधेसत्तमा"-जीवाजीवाभि० पृ० ९८ प्र. पं० ११-१४ । २"अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाण-नयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात् ते तदेकान्तोऽपितानयात्"॥-सनातन प्र० गु० स्वयंभूस्तो० अर०लो१८ । ___“अनेकान्ते तदभावादव्याप्तिरिति चेत् , न; तत्रापि तदुपपत्तेः। ६ । स्यादेत अनेकान्त मा विधि-प्रतिषेधविकल्पना नास्ति । यदि स्याद् यदाऽनेकान्तो न भवति तदैकान्तदोषानुपझो भवेत् अनवस्थाप्रसङ्गश्च । ततम्नत्रानेकान्तत्वमेव इति सा सप्तभनी व्याप्तिमती न भवतीति, तन्न; किं कारणम् ! तत्रापि तदुपपत्तेः 'स्याद् एकान्तः' 'स्याद् अनेकान्तः' 'स्याद् उभयः' 'स्याद् अवक्तव्यः' 'स्याद् एकान्तश्च अवकव्यश्च' 'स्या अनेकान्तश्च अवतव्यश्च' 'स्याद् एकान्तश्च अनेकान्तश्च अवक्तव्यश्च' इति । तत् कथमिति चेत् ! उच्यते-प्रमाण-नयार्पणाभेदादेकान्तो द्विविधः-सम्यगेकान्तः मिथ्यकान्त इति । अनेकान्तो द्विविधः सम्यगनेकान्तः मिथ्यानेकान्त इति । तत्र सम्यगेकान्तो हे तुविशेषमामापेक्षः प्रमाणप्ररूपितार्थ कदेशादेशः, एका. त्मावधारणेन अन्याशेषनिराकरणप्रवणप्रणिधिमिध्येकान्तः । एकत्र सप्रतिपक्षानेकधर्मस्वरूपनिरूपणो युक्त्यागमाभ्यामविरुद्धः सम्यगनेकान्तः, तदतत्वभाववस्तुशून्यं परिकल्पितानेकात्मकं केवलं वाग्विज्ञानं मिथ्यानेकन्तः । तत्र सम्यगेकान्तो नय उच्यते, सम्यगनेकान्तः प्रमाणम् । नयार्पणादेकान्तो भवत्येकनिश्चयप्रवणलान् । प्रमाणार्पणादने कान्तो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणलात् । यद् यदि अनेकान्तोऽनेकान्त एवं स्यात् नैकान्तो भवेत् एकान्ताभावात् तत्समूहात्मकस्य तस्याप्यभावः स्यात् शाखाद्यभावे वृक्षाद्यभाववत् तदविनाभाविविशेषनिराकरणादात्मलोपे सर्वलोपः स्यात् । एवमुत्तरे च भगा योजयितव्याः"तत्त्वार्थराजवा० १-६-६ पृ. २५-२६ । शास्त्रवा० स्याद्वादक. पृ. २२३ द्वि. पं०१-१०। ३"भनेकान्ततो"-बृ.टि. ४ "एकान्तोऽपीति"-वृ.टि.। ५ "वस्तु-" वृ.टि.। ६-कायित्व-वृ.। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० तृतीये काण्डेस्वभावत्वात् । ततोऽपर्यायेष्वपि न विद्यन्ते अर्चि-मुर्मुरादयो विवक्षितपर्याया येषु पुद्गलेषु तेष्वपि अविभक्तश्रद्धानं यत् तदपि भावत एव भवेत्-‘अर्चिष्मानयं भावो भूतो भावी वा' इति । तन्नाऽव्यापकोऽनेकान्तवादः ॥ २८॥ [गतिमत्यपि द्रव्ये अपेक्षाविशेषेण गत्यगती प्रदानेकान्तस्य व्यापकत्वोपपादनम् ] ५ नन्वनेकान्तस्य व्यापकत्वे 'गच्छति तिष्ठति' इत्यत्राऽप्यनेकान्तः स्यात्, तथाभ्युपगमे च तयोरभावप्रसक्तिरित्येतदेवाऽऽह गइपरिगयं गई चेव केइ णियमेण दवियमिच्छंति । तं पि य उड्डगईयं तहा गई अन्नहा अगई ॥ २९॥ 'गतिक्रियापरिणामवद् द्रव्यं गतिमदेव' इति केचिद् मन्यन्ते, तदपि गति१० क्रियापरिणतं जीवद्रव्यं सर्वतो गमनाऽयोगाद् ऊर्ध्वादिप्रतिनियतदिग्गतिकं तैर्वादिभिरभ्युप गन्तव्यम्; एवं च तत् तथा प्रतिनियतदिग्गमनेनैव गतिमत्; अन्यथाऽपि गतिमत् स्यात् तदाऽभिप्रेतदेशप्राप्तिवद् अनभिप्रेतदेशप्राप्तिरपि तस्य भवेदित्यनुपलभ्यमानयुगपद्विरुद्धोभयदेशप्राप्तिप्रसक्तेरत्राप्यनेकान्तो नाऽव्यापकः । अभिप्रेतगतिरेव तत्राऽनभिप्रेताऽगतिरिति चेत्, न; अनभिप्रेतगत्यभावाभावे प्रतिनियतगतिभाव एव न भवेत् तत्सद्भावे वा तदवस्थोऽनेकान्तः ॥ २९॥ १५ [दहनादावपेक्षाविशेषेणादहनत्वादिकं निरूप्यानेकान्तस्य व्यापकत्वसमर्थनम् ] स्यादेतत् 'दहनाद् दहनः, पवनात् पवनः' इत्यत्राप्यनेकान्ते दहनादावदहनादेविरुद्धरूपस्य संभवात् स्वरूपाभावः स्यादित्यत्राह गुणणिव्वत्तियसण्णा एवं दहणादओ वि दट्ठव्वा । जं तु जहा पडिसिद्धं व्वमव्वं तहा होइ ॥ ३०॥ २० गुणेन दहनादिना निर्वर्तितोत्पादिता संज्ञाऽभिधानं येषां तेऽपि दहन-पवनादय एवमेवाऽनेकान्तात्मका द्रष्टव्याः । तथाहि-दाह्यपरिणामयोग्यं तृणादिकं दहतीति दहनः तदपरिणतिखभावं खात्माकाशाऽप्राप्त-वज्राऽण्वादिकं न दहतीति । तेन यद् द्रव्यं यथा दहनरूपतया प्रतिषिद्धं तद् अद्रव्यमदहनादिरूपम् तथा भजनाप्रकारेण स्याद् दहनः स्यान्नेति भवति ततो नाऽव्यापी अनेकान्तः। २५ तथा, 'अदहनः' इत्यत्राप्यनेकान्तः। तथाहि-यद् उदकद्रव्यं यथा दहनरूपेण प्रतिषिद्ध-दहनो न भवतीति ‘अदहनः' इति तदपि न सर्वथा अदहनद्रव्यं भवति, पृथिव्यादेरदहनरूपाद् व्यावृत्तत्वात् अन्यथा दहनव्यतिरिक्तभूतैकत्वप्रसङ्ग इत्यनेकान्त एव अदहेनव्यावृत्तस्य तद्रव्यत्वात् ॥ ३०॥ [सर्वस्यापि वस्तुनः प्रतिनियतस्वरूपान्यथानुपपच्या स्वरूपास्तित्व-पररूपनास्तित्वाभ्युप __ गमेनानेकान्तात्मकत्वप्रदर्शनम् ] ३० नन्वेवं तदतद्रव्यत्वाद् जीवद्रव्यमजीवद्रव्यम् अजीवद्रव्यं च जीवद्रव्यं स्यादित्याशङ्कयाऽऽह कुंभो ण जीववियं जीवो वि ण होइ कुंभदवियं ति। तम्हा दो वि अदवियं अण्णोण्णविसेसिया होंति ॥ ३१॥ कुम्भो जीवद्रव्यं न भवतीति जीवोऽपि न भवति घटद्रव्यम् । तस्माद् द्वावपि अद्रव्यमन्योन्यविशेषितौ परस्पराभावात्मकौ । १-दयोऽवि-आ० हा० वि• विना । २-नस्य त-वृ०। ३ "दहनद्रव्यलात् ततोऽनेकान्तो दहनादहनयोः"वृ.टि.। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। यतोऽयमभिप्राय:-जीवद्रव्यं कुम्भादेरजीवद्रव्याद् व्यावृत्तम् अव्यावृत्तं वा? प्रथमपक्षे स्वरूपापेक्षया जीवो जीवद्रव्यम्, कुम्भाद्यजीवद्रव्यापेक्षया तु न जीवद्रव्यमित्युभयरूपत्वादनेकान्त तीयविकल्पे तु सर्वस्य सवोत्मकतापत्तेः प्रतिनियतरूपाभावतस्तयोरभाव: खरांवषाणवत् । ततः सर्वमनेकान्तात्मकम्-अन्यथा प्रतिनियतरूपताऽनुपपत्तेः-इति व्यवस्थितम् ॥ ३१ ॥ [उत्पादपर्यायस्य प्रयोग-विस्रसाजन्यत्वेन द्वैविध्यकथनम् ] अत्र प्रागुंक्तम्-'प्रत्युत्पन्नं पर्यायं विगतभविष्यङ्ग्यां यत् समानयति वचनं तत् प्रतीत्यवचनम्' इति, तत्र वचनादिकोऽपि पर्यायः, स चाऽप्रयत्नानन्तरीयको वचनविशेषलक्षणः घटादिकस्तु प्रयत्नानन्तरीयक इति केचित् संप्रतिपन्नास्तन्निराकरणाय 'यद् यतोऽन्वय-व्यतिरेकाभ्यां प्रतीयते तत् तत एवाऽभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा कार्यकारणभावाभावप्रसक्तिः' इत्याह उप्पाओ दुवियप्पो पओगजणिओ य वीससा चेव । तत्थ उ पओगजणिओ समुदयवायो अपरिसुद्धो ॥ ३२॥ द्विभेद उत्पादः-पुरुषतरकारकव्यापारजन्यतया अध्यक्षाऽनुमानाभ्यां तथा तस्य प्रतीतेः। पुरुषव्यापारान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वेऽपि शब्दविशेषस्य तदजन्यत्वे घटादेरपि तदजन्यताप्रसक्तेविशेषाभावात् प्रत्यभिज्ञानादेश्च विशेषस्य प्रागेव निरस्तत्वात् तत्र प्रयोगेण यो जनित उत्पादः-मूर्तिमद्रव्यारब्धावयवकृतत्वात्-स समुदायवादः, तथाभूताऽऽरब्धस्य समुदायात्म १५ कत्वात् । तत एवाऽसावपरिशुद्धः, सावयवात्मकस्य तच्छब्दवाच्यत्वेन अभिप्रेतत्वात् ॥ ३२॥ [विलसाजन्यस्याप्युत्पादस्य द्वैविध्यवर्णनम् ] विस्रसाजनितोऽप्युत्पादो द्विविध इत्याहसाभाविओ वि समुदयकओ व्व एगंतिओ (एगत्तिओ) व्व होजाहि । आगासाईआणं तिण्हं परपच्चओऽणियमा ॥ ३३ ॥ खाभाविकश्च द्विविध उत्पादः-एकः समुदयकृतः प्रोक्प्रतिपादितावयवारब्धो घटादिवत् । अपरश्चैकत्विकोऽनुत्पादिताऽमूर्तिमद्रव्यावयवारब्ध आकाशादिवत् । आकाशादीनां च त्रयाणां द्रव्याणामवगाहकादिघटादिपरद्रव्यनिमित्तोऽवगाहनादिक्रियोत्पादोऽनियमाद् अनेकान्ताद् भवेत्-अवगाहक-गन्तृ-स्थातृद्रव्यसन्निधानतोऽम्बर-धर्मा-ऽधर्मेष्ववगाहुन-गतिस्थितिक्रियोत्पत्तिनिमित्तभावोत्पत्तिरित्यभिप्रायः । [आकाशादिद्व्यत्रयस्य कथंचित् सावयवत्वसाधनम् सामयिकीनामाकाशादिसंज्ञाना मुपपादनं च] नन्वनारब्धाऽमूर्तिमद्रव्यावयवत्वे गगनादीनां निरवयवत्वप्रसक्तेरनेकान्तात्मकत्वव्याघातः, न; मूर्तिमव्याऽनारब्धानामपि तेषां सावयवत्वात् । न च सावयवत्वमसिद्धम् प्रदेशव्यवहारस्याऽऽकाशे दर्शनात् । न च 'आकाशस्य प्रदेशाः' इति व्यवहारो मिथ्या, मिथ्यात्वनिमित्ताभावात् । न च ३० संयोगस्याऽव्याप्यवृत्तित्वनिमित्तः सावयवत्वाध्यारोपो मिथ्यात्वकारणम् निरवयवेऽव्याप्यवृत्तिसंयोगाधारत्वस्याऽध्यारोपनिमित्तस्यैवाऽनुपपत्तेः। यदि च सावयवं नमो न भवेत् तदा श्रोत्राकाशसमवेतस्येव शब्दस्य ब्रह्मभाषितस्याऽप्यपलम्भोऽस्मदादि(दे)भवेत निरवयवैकाकाशश्रोत्रसमवेतत्वात् । अथ धर्माधर्माभिसंस्कृतकर्णशष्कुल्यवरुद्धाकाशदेश एव श्रोत्रं तत्र च ब्रह्मभाषितस्याऽसमवायान्नास्मदादिभिः श्रवणम् । नन्वेवं सैव सावयवत्वप्रसक्तिः श्रोत्राकाशप्रदेशाद् ब्रह्मशब्दाधारा-३५ काशंदेशस्यान्यत्वात् । यदि च सावयवमाकाशं न भवेत्, शब्दस्य नित्यत्वं सर्वगतत्वं च स्यात् आकाशैकगुणत्वात् तन्महत्त्ववत् । अथ क्षणिकैकदेशवत्तिविशेषगुणत्वस्य शब्दे प्रमाणतःप्रसिद्ध यं दोषः । नन्वेवमेकदेशवृत्तिविशेषगुणत्वाभ्युपगमे कथं न शब्दाधारस्याऽऽकाशस्य सावयवत्व १ पृ. ६२८ गा. ३। २ प्र. पृ० गा० ३२ । ३-शप्रदेश-भां. मां०। ४ प्रस्तुतचर्चागतः कश्चित् कथिदंशः प्रायेण शब्दशः प्रमेयकमलमार्तण्डे वर्तते-पृ. १६८ प्र. पं०१०- ५-तः सि-भां० मां। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ हतीये काण्डेप्रसिद्धिः १ न हि निरवयवत्वे 'तस्यैकदेशे एव शब्दो वर्तते न सर्वत्र' इति व्यपदेशः संगच्छते । न च संयोगस्याऽव्याप्यवृत्तित्वनिबन्धनोऽयम् यत आकाशं व्याप्य संयोगो न वर्तते इति तदेकदेशे वर्तते इत्यभ्युपगमप्रसक्तिः व्याप्यवृत्तित्वं हि सामस्त्यवृत्तित्वम्, तत्प्रतिषेधश्च पर्युदासपक्षे एकदेशवृत्तित्वमेव, प्रसज्यपक्षे तु वृत्तिप्रतिषेध एव; न चासी युक्तः संयोगस्य गुणन्वेन द्रव्याश्रितत्वात ५ तदभावे च तदभावात् । न च निरवयवत्वे आकाशस्य संतानवृत्त्या आगतस्य शब्दस्य श्रोत्रेणाप्यपलब्धिः संभवति अन्यान्याकाशदेशोत्पत्तिद्वारेण तस्य श्रोत्रसमवेतत्वानुपपत्तेः । जलतरङ्गन्यायेनापरापराकाशदेशादावपरापरशब्दोत्पत्तिप्रकल्पनायां कथं नाकाशस्य सावयवत्वम् ? किञ्च, आकाशं शब्दोत्पत्ती समवायिकारणमभ्युपगम्यते, यश्च समवायिकारणं तत् सावयवम्, यथा तन्त्वादि, समवायिकारणं च परेण शब्दोत्पत्तावाकाशमभ्युपगतम् । न च परमाण्वाऽऽत्मा१०दिना व्यभिचारः तस्यापि सावयवत्वात्अन्यथा व्यणुक-वुड्यादेस्तत्कार्यस्य सावयवत्वं न स्यात् । न च बुद्ध्यादेः सावयवत्वमसिद्धम् आत्मनः सावयवत्वेन साधितत्वात् तद्विशेषगुणत्वेन वुड्यादेः कथंचित् तादात्म्यसिद्धितः सावयवत्वोपपत्तः । न च यत एव प्रमाणादणवः सिद्धास्तेषां निरवयवत्वमपि तत एव सिद्धमिति तद्राहकप्रमाणवाधितत्वात् सावयवत्वानुमानस्याऽग्रामाण्यम् प्रमाणतः परमाणूनामसिद्धावाश्रयासिद्धितः सावयवत्वानुमानम्याऽप्रवृत्तिरिति वाच्यम्, यतः सावयवकार्यस्य १५सावयवकारणपूर्वकत्वे साध्ये न पूर्वोक्तदोपावकाशः । न च कार्यकारणयोरात्यन्तिको मेदः, समवायनिषेधे हि हिमवद-विन्ध्ययोरिव मेटे विशिष्टकार्यकारणरूपतानुपपत्तेः । ततो व्यणुकादेः परमाणुकार्यस्य सावयवत्वात् तदात्मभूताः परमाणवः कथं न सावयवाः इति न परमाण्वादिभिर्व्यभिचारः। अपि च, सावयवमाकाशं तद्विनाशान्यथानुपपत्तेः। न चाऽऽकाशस्य विनाशित्वमसिद्धम्। तथाहि-अनित्यमाकाशम्, तद्विशेषगुणाभिमतशब्दविनाशान्यथानुपपत्तेः । यतो न तावदाश्रय२० विनाशाच्छन्दविनाशोऽभ्युपगतस्तन्नित्यत्वाभ्युपगमविरोधात्; न विरोधिगुणप्रादुर्भावात्, तन्महत्त्वादेरेकार्थसमवायित्वेन रूप-रसयोरिव विरोधिताऽसिद्धः । विरोधित्वे वा श्रवणसमयेऽपि तदभावप्रसङ्गः तदाऽपि तन्महत्त्वस्य सद्भावात् । नापि संयोगादिविरोधिगुणः तस्य तत्कारणत्वात् । नापि संस्कारः तस्य गुणत्वेन शब्देऽसंभवात् संभवे वा शब्दस्य द्रव्यत्वप्रसक्तिः । आकाशस्य द्रव्यत्वेन तत्संभवेऽपि तस्याभावे आकाशस्याऽप्यभावप्रसक्तिः तस्य तदव्यतिरेकात् । व्यतिरेके वा २५ तस्य' इति संबन्धाऽयोगात् । नापि शब्दोपलब्धिप्रापकधर्माद्यभावात् तदभावः तस्य विभिन्नाश्रयस्थानेन विनाशयितुमशक्यत्वात् । शक्यत्वे वा तदाधारस्यापि विनाशप्रसङ्गः तस्य तदव्यतिरेकात् । ततोऽम्बरविशेषगुणत्वे शब्दस्य तद्विनाशान्यथानुपपत्त्या तस्यापि विनाशित्वम्, ततोऽपि सावयवत्वम् । न च वुझ्यादिभिर्व्यभिचारः उक्तोत्तरत्वात् । किंच, आश्रितविनाशे आश्रयत्वस्यापि विनाशः आश्रितत्वनिबन्धनत्वात् तस्य धर्मस्य च धर्मिणः कथंचिदव्यतिरेकात् तथाऽऽकाशस्य विनाशित्वात् ३० सावयवत्वं घटादेरिवोपपन्नम् । किंच, सावयवमाकाशम्, हिमवद्-विन्ध्यावरुद्धविभिन्नदेशत्वात्, तदवष्टब्धदेशभूभागवत् । अन्यथा तयो रूप-रसयोरिवैकदेशाकाशस्थितिप्रसक्तिः, न चैतद् दृष्टमिति सर्व वस्तूत्पाद-विनाश-स्थित्यात्मकत्वात् कथंचित् सावयवं सिद्धम् । ततः प्रयोग-विनसात्मकमूर्तिमव्यानारब्धत्वेनाऽऽकाशादेरुत्पाद ऐकत्विकोऽभिधीयते; न पुनर्निरवयवकृतत्वादैकत्विकः। अयमपि स्यादैकत्विकः स्यादनकत्विकः; न त्वैकत्विक एव । एवं मूर्तिमदमूर्तिमदवयवद्रव्यद्वयो३५त्पाद्याऽवगाह-गति-स्थितीनां यथोक्तप्रकारेण तत्रोत्पत्तेः अवगाह-गति-स्थितिखभावस्य च विशिष्टकार्यत्वाद् विशिष्टकारणपूर्वकत्वसिद्धेस्तत्कारणे आकाशादिसंज्ञाः समयनिबन्धनाः सिद्धाः ॥ ३३॥ [उत्पादवद् विगमस्यापि द्वैविध्यवर्णनम् ] उत्पादवद विगमोऽपि तथाविध एवेत्याह विगमस्स वि एस विही समुदयजणियम्मि सो उ दुवियप्पो। समुदयविभागमेत्तं अत्यंतरभावगमणं च ॥ ३४ ॥ तः, ननदशवान पदम् । १ पृ. १४९ पं० १९- पृ० १६८ प्र. पं० १२-1 २ प्रमेयक० पृ. १६८ प्र. पं० १३। ३ प्र. पृ० पं० ११। ४ प्रमेयक. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । ६४३ विगमस्याप्येष एव द्विरूपो भेदः - स्वाभाविकः प्रयोगजनितश्चेति तद्वयातिरिक्तस्य वस्तुनोऽभावात् पूर्वावस्थाविगमव्यतिरेकेणोत्तरावस्थोत्पत्त्यनुपपत्तेः न हि बीजादीनामविनाशेऽङ्कुरादिकार्यप्रादुर्भावो दृष्टः । न चाऽवगाह - गति - स्थित्याधारत्वं तद्नाधारत्वस्वभावप्राक्तनावस्थाध्वंसमन्तरेण संभवति तत्र समुदयजनिते यो विनाशः स उभयत्रापि द्विविधः एकः समुदयविभागमात्र प्रकारो विनाशः यथा पटादेः कार्यस्य तत्कारणपृथक्करणे तन्तुविभागमात्रम्, द्वितीयप्रकार - ५ स्त्वर्थान्तरभावगमनं विनाशः यथा मृत्पिण्डस्य घटार्थान्तरभावेनोत्पादो विनाशः । न चार्थान्तररूपविनाशविनाशे मृत्पिण्डप्रादुर्भावप्रसक्तिरिति वक्तव्यम्, पूर्वोत्तरकालावस्थयोरसंकीर्णत्वात् - अतीततरत्वेन प्राक्तनावस्थाया उत्पत्तेः अतीतस्य च वर्तमानताऽयोगात् - तयोः स्वस्वभावापरित्यागतस्तथानियतत्वात् तुच्छरूपस्य ह्यभावस्याऽभावः स्यादपि तदभावरूपः, न तु वस्त्वन्तरादुपजायमानं वस्त्वन्तरमतीततरावस्थारूपं भवितुमर्हति तर तमप्रत्ययार्थव्यवहाराभावप्रसक्तेः । प्रति १० पादितं च कस्यचिद् रूपस्य निवृत्त्या रूपान्तरगमनं वस्तुनः प्रागिति न पुनरभिधीयते ॥ ३४ ॥ [ उत्पाद - विनाश-धौव्याणां भिन्नाभिन्नकालत्वस्यार्थान्तरानर्थान्तरत्वस्य चाभिधानम् ] न चोत्पाद - विनाशयोरैकान्तिकतद्रूपताऽभ्युपगमे अनेकान्तवादव्याघातः, कथंचित् तयोस्तद्रूपताऽभ्युपगमात् । तदाह तिणि वि उप्पायाई अभिण्णकाला य भिण्णकाला य । अत्यंतरं अणत्थंतरं च दवियाहि णायव्वा ॥ ३५ ॥ १५ userपाद - विगम-स्थितिस्वभावाः परस्परतो ऽन्यकालाः यतो न पटादेरुत्पाद समय एव विनाशः तस्यानुत्पत्तिप्रसक्तेः । नाऽपि तद्विनाशसमये तस्यैवोत्पत्तिः अविनाशापत्तेः । न च तत्प्रादुर्भाव समय एव तत्स्थितिः तद्रूपेणैवावस्थितस्यानवस्थाप्रसक्तितः प्रादुर्भावाऽयोगात् । न च घटरूपमृत्स्थितिकाले तस्या विनाशः तद्रूपेणावस्थितस्य विनाशानुपपत्तेः । न च घटविनाशविशिष्ट - २० मृत्काले तस्या एवोत्पादो दृष्टः । नाऽपि तदुत्पादविशिष्टमृत्समये तस्या एव ध्वंसोऽनुत्पत्तिप्रसङ्गत एव युक्तः । ततस्त्रयाणामपि भिन्नकालत्वात् तद् द्रव्यमर्थान्तरं नानास्वभावम् न ह्यन्योन्यव्यतिरिक्तकालोत्पाद - विगम-धौव्याऽव्यतिरिक्त मेकस्वरूपं द्रव्यमुपपद्यते तस्य तेभ्यो भेदप्रसक्तेः । न च तद् भिन्नमेवास्तु तत्रितयविकलस्य तस्य तथाऽनुपलब्धितोऽसैवात् । न चैकस्य द्रव्यस्याभावादने कान्ताभावप्रसक्तिः यतोऽभिन्नकालाश्चोत्पादादयः । नहि कुशूलविनाशघटोत्पादयोर्भिन्नकालता; अन्यथा २५ विनाशात् कार्योत्पत्तिः स्यात् घटाद्युत्तरपर्यायानुत्पत्तावपि प्राक्तनपर्यायध्वंसप्रसक्तिश्च स्यात् । पूर्वोत्तरपर्याय विनाशोत्पादक्रियाया निराधाराया अयोगात् तदाधारभूतद्रव्यस्थितिरपि तदाऽभ्युपगन्तव्या । न च क्रियाफलमेव क्रियाधारः तस्य प्रागसत्त्वात्; सत्त्वे वा क्रियावैफल्यात् । ततस्त्रयाणामभिन्नकालत्वात् तदव्यतिरिक्तं द्रव्यमभिन्नं न नाना । न च घटोत्पाद - विनाशापेक्षया भिन्नकालतयाऽर्थान्तरत्वम् कुसूल - घटविनाशोत्पादापेक्षया अभिन्नकालत्वेनानर्थान्तरत्वादेकान्त इति ३० वक्तव्यम्, द्रव्यस्य पूर्वावस्थायां भिन्नाभिन्नतया प्रतीयमानस्योत्तरावस्थायामपि भिन्नाभिन्नतया तस्यैव प्रतीतेरनेकान्ताऽव्याहतेः । न चाऽबाधिताऽध्यक्षादिप्रतिपत्तिविषयस्य तस्य विरोधाद्युद्भावनं युक्तिसंगतम् सर्वप्रमाण - प्रमेयव्यवहारविलोपप्रसङ्गात् । अत एव अर्थान्तरमनर्थान्तरं चोत्पादादयो द्रव्यात्, तद्वा तेभ्यस्तथेति प्रतिज्ञेयम् द्रव्यात् तथाभूततग्राहकत्वपरिणतादात्मलक्षणात् प्रमाणादित्यपि व्याख्येयम् नहि तथाभूतप्रमाणप्रवृत्तिस्तथाभूतार्थमन्तरेणोपपन्ना धूम इव ३५ धूमध्वजमन्तरेण, संवेद्यते च तथाभूतग्राह्य ग्राहकरूपतया अनेकान्तात्मकं स्वसंवेदनतः प्रमाणमिति न तदपलापः कर्तुं शक्यः; अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । १ " तुच्छस्य हि अभावस्याभावे मृत्पिण्डोत्पादो भवेत् न तु” – बृ० टि० । २ " मृत्पिण्डरूपम् " - बृ० टि० । ३ “यस्मिन्नेव समये उत्पादस्तस्मिन्नेव यदा विनाशस्तस्य तदा कमु ( कथमु ) - त्पत्तिः ? " - बृ० टि० । ४ - नाशोत्पत्तेः घृ० विना । ५ " मृदः " - बृ० टि० । ६ न चैक ( चैव ) मेकस्य बृ० । ७ " घटादि" - बृ० टि० । ८३ स० प्र० Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ तृतीये काण्डेयद्वा देशादिविप्रकृया उत्पत्ति-विनाश-स्थितिखभावा भिन्नाभिन्नकाला अर्थान्तरानर्थान्तररूपाः, द्रव्यत्वात-द्रव्याव्यतिरिक्तत्वादित्यर्थः-अन्यथोत्पादादीनामभावप्रसक्तेः । तेभ्यो वा द्रव्यमर्थान्तरानान्तरम्, द्रव्यत्वात् । प्रतिज्ञार्थंकदेशता च हेतो शङ्कनीया द्रव्यविशेषे साध्ये द्रव्यसामान्यस्य हेतुत्वेनोपन्यासात् ॥ ३५॥ [उक्तस्वार्थस्य प्रत्यक्षसिद्धेनोदाहरणेनोपोगलनम् ] अत्रैवार्थे प्रत्यक्षप्रतीतमुदाहरणमाह जो आउंचणकालो सो चेव पसारियस्स वि ण जुत्तो। तेसिं पुण पडिवत्ती-विगमे कालंतरं णत्थि ॥ ३६॥ य आकुश्चनकालोऽङ्गुल्यादेव्यस्य स एव तत्प्रसारणस्य न युक्तः भिन्नकालतया १० आकुञ्चन-प्रसारणयोः प्रतीतेस्तयोर्भेदः, अन्यथा तयोः स्वरूपाभावापत्तेरित्युक्तम् तत्तत्पर्यायाभिन्नस्याङ्गुल्यादिद्रव्यस्यापि तथाविधत्वात् तदपि भिन्नमभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा तदनुपलम्भात् अभिन्नं च तदवस्थयोस्तस्यैव प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् । तयोः पुनरुत्पाद-विनाशयोः-प्रतिपत्तिश्च प्रादुर्भावः, विगमश्च विपत्तिः-प्रतिपत्ति-विगमं तत्र कालान्तरं भिन्नकालत्वमङ्गुलिद्रव्यस्य च नास्ति । पूर्वपर्यायविनाशोत्तरपर्यायोत्पत्त्यङ्गुलिद्रव्यावस्थितीनामभिन्नकालता अभिन्नरूपता च प्रतीयते एक१५स्यैव द्रव्यस्य तथाविवर्तात्मकस्याध्यक्षतः प्रतीतेः। . अथवा 'कालान्तरं नास्ति' इत्यत्र 'अ'कारप्रश्लेषाद् नत्रश्चोपादानात् प्रतिषेधद्वयेन प्रकृतार्थगतेः कालान्तरं कालभेद उत्पादादेव्यस्य चास्तीति कथंचिद् भेद इत्यर्थः-कथंचिद् भेदेनाऽपि प्रतिपत्तेः । तेनोत्पत्ति-विनाश-स्थितीनां परस्पररूपपरित्यागाऽपरित्यागप्रवृत्तप्रत्येक व्यात्मकैकरूपत्वेऽपि न वर्तमानपर्यायात्मकस्यैवाऽतीताऽनागतकालयोः सत्त्वम् वस्तुनख्यात्मकत्वा२० भ्युपगमात् । अतीताऽनागतकालयोरपि तद्रूपेण सत्त्वे उत्पादविनाशयोरभावेन कथं यात्मकत्वं तस्य भवेत् द्रव्यस्योत्पत्ति-विनाशनिमित्तत्वादतीतादितायाः अन्यथा वर्तमानवत् तदभावात् ? न च तत्पर्यायस्याऽतीताऽनागतकालयोरभावे कथं नित्यत्वमिति वाच्यम् , कथंचित् तस्याभ्युपगमात् परित्यतोपादित्स्यमानपूर्वोत्तरपर्यायस्यान्यान्यवेषपरित्यागोपादानैकनटपुरुषवद् द्रव्यस्य विवर्तात्मकत्वात् । सर्वथा नित्यत्वे पूर्वोत्तरव्यपदेशाभावप्रसक्तेः । सर्वथाऽनित्यत्वेऽप्युभयत्रैकप्रतिभासव्यपदेशादिव्य२५वहाराभावश्च स्यात् । न चैकानेकत्वप्रतिभासो मिथ्या । ततो यदेव विनष्टं शिवकरूपतया तदेवोत्पन्नं मृद्रव्यं घटादिरूपतया अवस्थितं च मृत्त्वेनेति यात्मकं तत् सर्वदा द्रव्यमिति व्यवस्थितम् ॥३६॥ १ अर्थानुसारेण-गमेऽकालंतरं इत्यपि पाठः। २-रूपपरित्यागप्रवृ-वा. वा० आ० । ३ "न सामान्यात्मनोदेति न व्यति व्यक्तमन्वयात् । व्यत्युदेति विशेषात् ते सहैकत्रोदयादि सत् ॥ कार्योत्पादः क्षयो हेतोर्नियमाल्लक्षणात् पृथक् । न तो जात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत् ॥ घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिवतः । अगोरसवतो नोभे तस्मात् तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥ -आप्तमी० श्लो०५७-६०। अत्रत्या अष्टशती अष्टसहस्री च विलोकनीया। शास्त्रवा० स्त० ७ श्लो. १-३ । तथा, “तयाहुर्मुकुटोत्पादो न घटानाशधर्मकः । स्वर्णान्न चान्य एवेति न विरुद्धं मिथस्त्रयम् ॥ न चोत्पाद-व्ययौ न स्तो ध्रौव्यवत् तद्धिया गतेः । नास्तिले तु तयोध्रौव्यं तत्त्वतोऽस्तीति न प्रमा ॥ न नास्ति ध्रौव्यमप्येवमविगानेन तद्गतेः । अस्याश्च भ्रान्ततायां न जगत्यभ्रान्ततागतिः ॥ उत्पादोऽभूतभवनं खहेवन्तरधर्मकम् । तथाप्रतीतियोगेन विनाशस्तद्विपर्ययः॥ तथैतदुभयाधारखभावं ध्रौव्यमित्यपि । अन्यथा त्रितयाभाव एकदैकत्र किं न तत् ॥ एकत्रेवैकदेवैतदित्थं त्रयमपि स्थितम् । न्याय्यं भिन्ननिमित्तवात् तदभेदे न युज्यते" ॥ -शास्त्रवा० स्त० ७ श्लो०९-१४ । जैनवत् सांख्य-मीमांसकाभ्यामपि वस्तुनख्यात्मकता स्वीक्रियते-पातजलद. पा० ३ सू० १३-1 श्लो० वा. वनवा० श्लो० २०-२३ । ____ स्याद्वादं परीक्षमाणेन शान्तरक्षितेन एषा त्र्यात्मकता विप्र(मीमांसक)-निर्ग्रन्थ(जैन)-कापिल(सांख्य)संमतलेन परीक्षिता-तत्त्वसं. का. १७७६-७९ पृ. ५०१-५०२। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । ६४५ [ उत्पादादित्रयं प्रत्येकं त्र्यात्मकवत् कालिकमप्यस्ति इति वदत एव यथार्थवक्तृत्वाभिधानम् ] __ यथोत्पाद-व्यय-स्थितीनां प्रत्येकमेकैकं रूपं त्र्यात्मकं तथा भूत-वर्तमान-भविष्यद्भिरप्येकैकं रूपं त्रिकालतामासादयतीत्येतदेवाह उप्पजमाणकालं उप्पण्णं ति विगयं विगच्छंतं । दवियं पण्णवयंतो तिकालविसयं विसेसेइ ॥ ३७॥ उत्पद्यमानसमये एव किञ्चित् पटद्रव्यं तावत्पन्नम् यद्येकतन्तुप्रवेशक्रियासमये तद् द्रव्यं तेन रूपेण नोत्पन्नं तर्युत्तरत्रापि तन्नोत्पन्नमित्यत्यन्तानुत्पत्तिप्रसक्तिस्तस्य स्यात् । न चोत्पन्नांशेन तेनैव पुनस्तदुत्पद्यते तावन्मात्रपटादिद्रव्योत्पत्तिप्रेसक्तरुत्तरोत्तरक्रियाक्षणस्य तावन्मात्रफलोत्पादने एव प्रक्षयाद् अपरस्य फलान्तरस्याऽनुत्पत्तिप्रसक्तेः । यदि च विद्यमाना एकतन्तुप्रवेशक्रिया न फलोत्पादिका, विनष्टा सुतरां न भवेत् असत्त्वात् अनुत्पत्त्यवस्थावत् न ह्यनुत्पन्नविनष्टयोरसत्वे १० कश्चिद् विशेषः । ततः प्रथमक्रियाक्षणः केनचिद् रूपेण द्रव्यमुत्पादयति, द्वितीयस्त्वसौ तदेव अंशान्तरेणोत्पादयति अन्यथा क्रियाक्षणान्तरस्य वैफल्यप्रसक्तेः । एकेनांशेनोत्पन्नं सद् उत्तरक्रियाक्षणफलांशेन यद्यपूर्वमपूर्वं तद् उत्पद्येत तदोत्पन्नं भवेद् नान्यथेति प्रथमतन्तुप्रवेशादारभ्यान्त्यतन्तुसंयोगावधिं यावद् उत्पद्यमानं प्रबन्धेन तद्रूपतयोत्पन्नम् , अभिप्रेतनिष्ठारूपतया चोत्पत्स्यत इत्युत्पद्य मानम् उत्पन्नमुत्पत्स्यमानं च भवति, एवमुत्पन्नमपि उत्पद्यमानमुत्पत्स्यमानं च भवति, तथोत्पत्स्य-१५ मानमपि उत्पद्यमानमुत्पन्नं चेत्येकैकमुत्पन्नादिकालत्रयेण यथा त्रैकाल्यं प्रतिपद्यते तथा विगच्छदादिकालत्रयेणाप्युत्पादादिरेकैकः त्रैकाल्यं प्रतिपद्यते । तथाहि-यथा यद् यदैवोत्पद्यते तत् तदैवोत्पन्नम् उत्पत्स्यते च । यद् यदैवोत्पन्नं तत् तदैव उत्पद्यते उत्पत्स्यते च । यद् यदैवोत्पत्स्यते तत् तदैवोत्पद्यते उत्पन्नं च । ता, तदेव तदेव यदुत्पद्यते तत् तदैव विगतं विगच्छद् विगमिष्यच्च । तथा, यदेव यदैवोत्पन्नं तदेव तदैव विगतं विगच्छद् विगमिष्यञ्च । तथा, यदेव २० यदेवोत्पत्स्यते तदेव तदैव विगतं विगच्छद विगमिष्यञ्च । एवं विगमोऽपि त्रिकाल उत्पादादिना दर्शनीयः, तथा स्थित्याऽपि त्रिकाल एव सप्रपञ्चः प्रदर्शनीयः । एवं स्थितिरपि उत्पाद-विनाशाभ्यां सप्रपश्चाभ्यामेकैकाभ्यां त्रिकाला प्रदर्शनीयेति द्रव्यमन्योन्यात्मकतथाभूतकालत्रयात्मकोत्पादविनाश-स्थित्यात्मकं प्रज्ञापयंस्त्रिकालविषयप्रादुर्भवद्धर्माधारतया तद् विशिनष्टि । अनेन प्रकारेण त्रिकालविषयं द्रव्यस्वरूपं प्रतिपादितं भवति; अन्यथा द्रव्यस्याभावात् तवचनस्य २५ मिथ्यात्वप्रसक्तिरिति भावः॥ ३७॥ १-प्रसक्तिरुत्तरो-भां० विना। २-णान्तरवै-बृ० । ३ "ण भवो भंगविहीणो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो। उप्पादो पि य भंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण" ॥८॥ -प्रवचनसा० पृ. १३६ । _ "एतेन कालत्रयापेक्षयाऽपि त्रिलक्षणमुपदर्शितम् तस्य अन्वितेन रूपेण कालत्रयव्यापिलात् अन्यथा त्रुट्यत्तैकान्ते सर्वथाऽर्थकियाविरोधात् कूटस्थैकान्तवत् । ततो द्रव्यपर्यायात्मकं जीवादि वस्तु क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियान्यथानुपपत्तेरिति प्रमाणोपपन्नम् । तथा च स्थितिरेव स्थास्यति उत्पत्स्यते विनक्ष्यति सामर्थ्यात् स्थिता उत्पन्ना विनष्टेति गम्यते । विनाश एव स्थास्यति उत्पत्स्यते विनत्यति स्थित उत्पनो विनट इति च गम्यते । उत्पत्तिरेव उत्पत्स्यते विनक्ष्यति स्थास्यतीति न कुतश्चिद् उपरमति सोत्पन्ना विनष्टा स्थितेति गम्यते । स्थित्याद्याश्रयस्य वस्तुनो अनाद्यनन्तत्वादू अनुपरमसिद्धेः स्थित्यादिपर्यायाणां कालत्रयापेक्षिणामनुपरमसिद्धिः अन्यथा तस्यातल्लक्षणलप्रसङ्गात् सत्त्वविरोधात् । एतेन जीवादि वस्तु तिष्टति स्थितम् स्थास्यति, विनश्यति विनष्टम् विनक्ष्यति, उत्पद्यते उत्पन्नम् उत्पत्स्यते चेति प्रदार्शतम् कथंचित् तदभिन्नस्थित्यादीनामन्यथा स्थास्यत्यादिव्यवस्थानुपपत्तेः"-अष्टस० पृ० ११३ पं०२-१०। ४ अत्र 'तथा यदैव यदुत्पद्यते तत् तदैव' इति पाठः सम्यग् भाति ।' “यदैवोत्पद्यमानं तदैव विगतं विगच्छत विगमिष्यच"-नयोप० पृ. ४३ द्वि. पं०८। ५-मन्यान्यात्म-बृ० आ० हा०वि०। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ तृतीये काण्डे - [ विभागजन्यमुत्पादमनिच्छतां केषांचिद् उत्पादार्थानभिज्ञखख्यापनम् ] नन्वर्थान्तरगमनलक्षणस्य विनाशस्यासंभवात् विभागजस्य चोत्पादस्य तद्वयाभावे स्थितेरप्यभावात् तत् त्रैकाल्यं दूरोत्सारितमेवेति मन्यमानान् वादिनः प्रति तदभ्युपगमप्रदर्शनपूर्वकमाहदव्वंतरसंजोगाहि केचि दवियस्स बेंति उप्पायं । उपायत्थाsकुसला विभागजायं ण इच्छंति ॥ ३८ ॥ ५ १० समानजातीय द्रव्यान्तरादेव समवायिकारणात् तत्संयोगासमवायिकारण-निमित्तकारणादिसव्यपेक्षाद् अवयव कार्यद्रव्यं भिन्नं कारणद्रव्येभ्य उत्पद्यत इति द्रव्यस्योत्पादं केचन ध्रुवते । ते चोत्पादार्थानभिज्ञा विभागजातं नेच्छन्ति ॥ ३८ ॥ [प्रतिवादिसंमतोत्पादप्रक्रियाकथनपूर्वकं सिद्धान्तसंमतस्य विभागजन्योत्पादस्य समर्थनम् ] कुतः पुनर्विभागजोत्पादानभ्युपगमवादिन उत्पादार्थानभिज्ञाः ? यतः अणु दुअणुहिं दवे आरद्धे 'तिअणुयं' ति ववएसो । तत्तोय पुणे विभत्तो अणु त्ति जाओ अँणू होइ ॥ ३९ ॥ द्वाभ्यां परमाणुभ्यां कार्यद्रव्ये आरब्धे 'अणुः' इति व्यपदेशः परमाणुयारब्धस्य द्व्यणुकस्याणुपरिमाणत्वात् । त्रिभिर्ह्यणुकैश्चतुर्भिर्वाऽऽरुधे 'त्र्यणुकम्' इति व्यपदेश:; १५ अन्यथोत्पत्तावुपलब्धिनिमित्तस्य महत्त्वस्याभावप्रसक्तेः । अकिल त्रिभिश्चतुर्भिर्वा प्रत्येकं परमाणुभिरारब्धमणुपरिमाणमेव कार्यमिति व्यादिपरमाणूनामारम्भकत्वे आरम्भवैयर्थ्यप्रसक्तिरिति द्वाभ्यां परमाणुभ्यां द्व्यणुकमारभ्यते । व्यणुक्रमपि न द्वाभ्यामणुभ्यामारभ्यते कारणविशेषपरिमाणतोऽनुपभोग्यत्वप्रसक्तेः यतो महत्त्वपरिमाणयुक्तं तद् १ अणुअत्तएहिं आरहृदव्वे तियणुयं ति निद्देसो । तत्तो य पुण विभत्ते अणु त्ति जाओ अणू होइ ॥ गु० मु० मू० । व्याख्याकारकृतार्थानुसारेण 'दुअणुए हि' इति पदं 'दोहि अणु एहिं' 'बहुएहिं दुअणुए हिं' चेत्यर्थद्वयबोधकं श्लिष्टं प्रतिभाति । अतो मूलगाथाया अन्वयद्वयमेवं विधातव्यम् - दु- अणुएहिं दव्वे आरद्धे अणु त्ति ववएसो अर्थात् द्वाभ्यां परमाणुभ्यां कार्यद्रव्ये आरब्धे 'अणुः' इति व्यपदेशः । पुनश्च दुअणुएहिं दव्वे आरद्धे तिअणुयं ति ववएसो अर्थात् द्व्यणुकैः -- त्रिभिद्वणुकैः चतुर्भिर्वा कार्यद्रव्ये आरब्धे 'त्र्यणुकम्' इति व्यपदेशः । २- एहिं आरद्धदव्वेति मु० मू० । ३ अणुं होइ बृ० भ० मां० । - ४ “यदापि द्वे द्वे द्व्यणुके चतुरणुकमारभेते तदापि समानं द्व्यणुकसमवायिनां शुक्लादीनामारम्भकत्वम् Xxxxx यदापि बहवः परमाणवो बहूनि वा द्व्यणुकानि द्व्यकसहितो वा परमाणुः कार्यमारभते XXX - २-२-११ ब्रह्मसू० शां० पृ० ५०५-५०६ । “द्व्यणुकैर्बहुभिरारभ्यते इत्यपि नियमः न द्वाभ्याम् तस्याणुपरिमाणोत्पत्तौ कारणसद्भावेनाणुत्वोत्पत्त वारम्भवैयर्थ्यात् बहुषु त्वनियमः । कदाचित् त्रिभिरारभ्यते इति त्र्यणुकमित्युच्यते कदाचिच्चतुर्भिरारभ्यते कदाचित् पञ्चभिरिति यथेष्टं कल्पना" - प्रशस्त० कं० पृ० ३२- पं० ६-९ । “तेभ्यस्तेषां परमाणूनां परस्परसंयोगाः ततश्च द्वाभ्यां द्व्यणुकम् त्रिभिद्वर्यणुकैरूयणुकमित्यनेन क्रमेण कार्यद्रव्यं घटादिकमुत्पद्यते इति” - प्रशस्त० कं० पृ० १०८ पं० १५ । '' द्व्यणुकस्य अणुपरिमाणं तु परमाणावणुत्वापेक्षया नोत्कृष्टम् त्रसरेणुपरिमाणं तु न सजातीयम् अतः परमाणौ द्वित्वसंख्या द्व्यणुकपरिमाणस्य द्व्यणुके त्रित्वसंख्या च त्रसरेणुपरिमाणस्य असमवायिकारणमित्यर्थः ” - कारिका ० सिद्धान्तमु० गुणनिरू० का० १११-११२ पृ० ४२९४३० । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा | ६४७ उपलब्धियोग्यं स्यात् तथा चोपभोग्यं कारणबहुत्वमहत्त्वप्रचयजन्यं च महत्त्वम् । न व द्वि- त्रिपरमाण्वारब्धे कार्ये महत्त्वम्, तत्र महत्परिमाणाभावात् तेषामणुपरिमाणत्वात्ः प्रचयोऽप्यवयवाभावान्न संभवति तेषाम् । नापि द्वाभ्यामणुभ्याम् कारणबहुत्वाभावात् न प्रचयोऽपि प्रशिथिलावयवसंयोगाभावात् । उपलभ्यते च समानपरिमाणैस्त्रिभिः पिण्डैरारब्धे कार्ये महत्त्वम् न द्वाभ्यामिति महत्परिमाणाभ्यां ताभ्यामेवारब्धे महत्त्वम् न त्रिभिरल्पपरिमाणैरारब्ध इति समानसंख्या - तुला- ५ परिमाणाभ्यां तन्तुपिण्डाभ्यामारब्धे पटादिकार्ये प्रशिथिलावयवतन्तु संयोगकृतं महस्वमुपलभ्यते न तद् इतरत्रेति । नन्वेवं यदि कार्यारम्भस्तदा 'द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्ते द्वे बहूनि वा समानजातीयानि' इत्यभ्युपगमः परित्यज्यताम् यतो न परमाणु द्व्यणुकादीनामपरित्यक्ताजनकावस्थानामनङ्गीकृतस्वकार्यजननस्वभावानां च द्व्यणुक - व्यणुकादिकार्यनिर्वर्तकत्वम्; अन्यथा प्रागपि तत्कार्यप्रसङ्गात् । १० अथ न तेषामजनका स्थात्यागतो जनकस्वभावान्तरोत्पत्तौ कार्यजनकत्वं किन्तु पूर्वस्वभाव - व्यवस्थितानामेव संयोगलक्षण सहकारिशक्तिसद्भावात् तदा कार्यनिर्वर्तकत्वम् प्राक् तु तदभावान्न कार्योत्पत्तिः कारणानामविचलित स्वरूपत्वेऽपि न च संयोगेन तेषामनतिशयो व्यावर्त्यते अतिशयो वा कश्चिदुत्पाद्यते अभिन्नो भिन्नो वा संयोगस्यैवाऽतिशयत्वात् । न च कथमन्यः संयोगस्तेपामतिशय इति वाच्यम् अनन्यस्याप्यतिशयत्वायोगात् न हि स एव तस्यातिशय इत्युपलब्धम् तस्मात् तत्संयोगे १५ सति कार्यमुपलभ्यते तदभावे तु नोपलभ्यत इति संयोग एव कार्योत्पादने तेपामतिशय इति न तदुत्पत्तौ तेषां स्वभावान्तरोत्पत्तिः संयोगातिशयस्य तेभ्यो भिन्नत्वादिति, असदेतत् यतः कार्योत्पत्तौ तेपां संयोगोऽतिशयो भवतु संयोगोत्पत्तौ तु तेषां कोऽतिशय इति वाच्यम्, न तावत् स एव संयोगः तस्याद्याप्यनुत्पत्तेः, नापि संयोगान्तरम् तस्यानभ्युपगमात्; अभ्युपगमेऽपि तदुत्पत्तावत्यपरसंयोगातिशयप्रकल्पनायामनवस्थाप्रसक्तेः । न च क्रिया अतिशयः तदुत्पत्तावपि पूर्वोक्तदोष- २० प्रसङ्गात् । किञ्च, अदृष्टापेक्षादात्माऽणु संयोगात् परमाणुषु क्रियोत्पद्यत इत्यभ्युपगमादात्म-परमाणुसंयोगोत्पत्तावप्यपरोऽतिशयो वाच्यः तत्र च तदेव दूपणम् । किंञ्चासौ संयोगो द्व्यणुकादिनिर्वर्तकः किं परमाण्वाद्याश्रितः उत तदन्याश्रितः, आहोस्विद् अनाश्रित इति ? यद्याद्यः पक्षस्तदा तदुत्पत्तावाश्रय उत्पद्यते नवेति ? यद्युत्पद्यते तदा परमाणूनामपि कार्यत्वप्रसक्तिस्तत्संयोगवत् । अथ नोत्पद्यते तदा संयोगस्तदाश्रितो न स्यात्, समवायस्याभावात् तेषां च तं प्रत्यकारकत्वात् तदकारकत्वं तु २५ तत्र तस्य प्रागभावानिवृत्तेस्तदन्यगुणान्तरवत् । ततस्तेषां कार्यरूपतया परिणतिरभ्युपगन्तव्याः अन्यथा तदाश्रितत्वं संयोगस्य न स्यात् । अन्याश्रितत्वेऽपि पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गः । अनाश्रितत्वपक्षे तु निर्हेतुकोत्पत्तिप्रसक्तिः । अथ संयोगो नोत्पद्यत इत्यभ्युपगमस्तदा वक्तव्यम् - किमसौ सन्, उताऽसन् ? यदि संस्तदा तन्नित्यत्वप्रसक्तिः - “सदकारणवन्नित्यम्" [ वैशेषिकद० ४-१-१] इति भवतोऽभ्युपगमात् तथा चासौ गुणो न भवेत् नित्यत्वेनाऽनाश्रितत्वाद् अनाश्रितस्य च पारतन्त्र्यायोगाद् ३० अपरतन्त्रस्य चाऽगुणत्वात् । अथाऽसन्निति पक्षस्तदा कार्यानुत्पत्तिप्रसङ्गः तदभावे प्राग्वद् विशि ष्टपरिमाणोपेतकार्यद्रव्योत्पत्त्यभावात् तथा च जगतोऽदृश्यताप्रसक्तिरिति संयोगैकत्वसंख्यापरिमाण - महत्त्व - परत्वाद्यनेकगुणानां तत्रोत्पत्तिरभ्युपेया कारणगुणपूर्वप्रक्रमेण कार्योत्पत्यभ्युपगमात् । इष्टमेवैतदिति चेत्, ननु तेषां क आश्रय इति वक्तव्यम्, न तावत् कार्यम् तदुत्पत्तेः प्राक् तस्याऽसत्वात्; सत्त्वे वोत्पत्तिविरोधात् न च प्रथमक्षणे निर्गुणमेव कार्य गुणोत्पत्तेः प्रागस्तीति ३५ १ न च प्र-भां० म० । २ किञ्च असौ संयोगो द्व्यणुकादिनिर्वर्तकः किं परमाण्वायाश्रितः तदन्याश्रितः अनाश्रितो वा ? प्रथमपक्षे तदुत्पत्तावाश्रय उत्पद्यते नवा ? यद्युत्पद्यते तदाणूनामपि कार्यतानुषङ्गः । अथ नोत्पद्यते तर्हि संयोगस्तदाश्रितो न स्यात् समवायप्रतिषेधात् तेषां च तं प्रत्यकारकत्वात् । तदकारकत्वं चानतिरायत्वात् । अनतिशयानामपि कार्यजनकत्वे सर्वदा कार्यजनकत्वप्रसङ्गोऽविशेषात् । अतिशयान्तरकल्पने चानवस्था -- तदुत्पत्तावप्यपरातिशयान्तरपरिकल्पनात् । ततस्तेषामसंयोगरूपतापरित्यागेन संयोगरूपतया परिणतिरभ्युपगन्तव्या इति सिद्धं तेषां कथंचिदनित्यत्वम् । अन्याश्रितलेऽपि पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गः । अनाश्रितत्वे तु निर्हेतुकोत्पत्तिप्रसः सदा सत्त्वप्रसङ्गतः कार्यस्यापि सर्वदा भावानुषङ्गः " - प्रमेयक० पृ० १६० प्र० पं० ६-११ । ३ - पूर्वक्रमे - बृ० आ० हा०वि० । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ तृतीये काण्डेवक्तव्यम् गुणसंबन्धवत् सत्तासंबन्धस्याप्याद्यक्षणे अभावतस्तत्सत्त्वासंभवात् । न चोत्पत्ति-सत्तासंबन्धयोरेककालतयाऽऽद्यक्षण एव सत्त्वम् तदा रूपादिगुणसमवायाभावतोऽनुपलम्मे ततस्तत्सत्ता संबन्धव्यवस्थापनाऽसंभवात् । न हि 'सत्' इत्युपलम्भमन्तरेण तदा तस्य सत्तासंबन्धः सत्त्वं वा व्यवस्थापयितुं शक्यम् । न च महत्त्वादेर्गुणस्य द्रव्येण सहोत्पादे तद्रव्याधेयता तव्यस्य वा तदा५धारता अकारणस्याश्रयत्वायोगात् । न चैककालयोः कार्यकारणभावः सव्येतरगोविषाणयोरिव भवत्पक्षे युक्तः। तन्न कार्य तदाश्रयः। अथाऽणवस्तदाश्रयस्तर्हि कार्यद्रव्यस्यापि त एवाश्रयः इत्येकाश्रयौ कार्य-गुणौ प्राप्तौ । तथाऽभ्युपगमेपि न तावद् युतसिद्धयोस्तयोः कुण्ड बदरवद् आश्रयाऽऽश्रयिभावः अकार्यकारणप्रसङ्गात् । नाऽयुतसिद्धयोः, अयुतसिद्ध्याऽऽश्रयाश्रयिभावविरोधात् । तथाहि-'अपृथक्सिद्धः' इत्यनेन भेदनिषेधः प्रतिपाद्यते समवायाभावे अन्यस्यार्थस्यात्रासंभवात्, १०'आधाराधेयभावः' इत्यनेन चैकत्वनिषेधः क्रियते इति कथमनयोरेकत्र सद्भावः? अथ नात्राधाराधेयभावस्तर्हि तेषां सत्त्वम् , उत असत्त्वमिति वक्तव्यम् । यद्याद्यः पक्षस्तदा 'संयोगादिगुणात्मकाः परमाणव एव तथाभूतं कार्यम्' इति जैनपक्ष एव समाश्रितः स्यात् । द्वितीयपक्षे तु सर्वानुपलब्धिप्रसक्तिः। यदि च परमाणवः स्वरूपापरित्यागतः कार्यद्रव्यमारभन्ते स्वात्मनोऽव्यतिरिक्तं तदा कार्य१५ द्रव्यानुत्पत्तिप्रसक्तिः। न हि कार्यद्रव्ये परमाणुस्वरूपापरित्यागे स्थूलत्वस्य सद्भावः तस्य तदभावात्मकत्वात् । तस्मात् परमाणुरूपतापरित्यागेन मृद्रव्यं स्थूलकार्यखरूपमासादयतीति तद्रूपतापरित्यागेन च पुनरपि परमाणुरूपतामनुभवतीति वलयवत् पुद्गलद्रव्यपरिणतेरादिरन्तो वा न विद्यते इति न कार्यद्रव्यं कारणेभ्यो भिन्नम् । न चार्थान्तरभावगमनं विनाशोऽयुक्त इति तद्रूपपरित्यागोपादानात्मकस्थितिखभावस्य द्रव्यस्य त्रैकाल्यं नानुपपन्नम् । यथा च एकसंख्या-संयोग-महत्त्वाऽपर२० त्वादिपर्यायैः परमाणूनामुत्पत्तेः कार्यरूपाः परमाणवस्तथा बहुत्वसंख्या-विभागाऽल्पपरिमाण परत्वात्मकत्वेन प्रादुर्भावात् परमाणवः कार्यद्रव्यवत् तथोत्पन्नाश्चाभ्युपगन्तव्याः, कारणान्वयव्यतिरेकानुविधानोपलम्भस्य कार्यताव्यवस्थानिबन्धनस्यात्रापि सद्भावादिति अयमर्थः 'तत्तो य' इत्यादिना गाथापश्चार्धेन प्रदर्शितः । तस्माद् एकपरिमाणाद् द्रव्याद् विभक्तः विभागात्मकत्वेनोत्पन्नः अणुरिति अणुर्जातो भवति एतदवस्थायाः प्राक् तदसत्त्वात्; सत्त्वे वा इदानी२५ मिव प्रागपि स्थूलरूपकार्याभावप्रसङ्गात् इदानीं वा तद्रूपता तद्रूपाविशेपात् प्राक्तनावस्थायामिव स्यात् । एवं चतुर्विधकार्यद्रव्याभ्युपगमोऽसंगतः । न च य एव कार्यद्रव्यारम्भकाः परमाणवस्त एव तद्रव्यविनाशोत्तरकालं स्वरूपेण व्यवस्थिताः कार्यद्रव्यप्रागभाव-प्रध्वंसाभावयोरेकत्वविरोधात् घटद्रव्यप्रागभाव-प्रध्वंसाभावमृत्पिण्ड-कपालवत् । न च प्रागभाव-प्रध्वंसाभावयोस्तुच्छरूपतया मृत्पिण्ड-कपालरूपत्वमसिद्धम् तुच्छरूपस्याभावस्य प्रमाणाजनकत्वेन तदविषयत्वतो व्यवस्थापयितु. ३० मशक्यत्वादिति प्रतिपादनात् । न च कपालसंयोगाद् घटद्रव्यमुपजायते तद्विभागाच्च विनश्यतीति मृत्पिण्डस्य घटद्रव्यं प्रति समवायिकारणत्वमयुक्तमिति वक्तव्यम् अध्यक्षत एव मृत्पिण्डोपादानत्वेन तस्य प्रतीतेः अत एव घटस्य कपालसमवायिकारणत्वानुमानमध्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टम् । न चाल्पपरिमाणतन्तुप्रभवं महत्परिमाणं पटकार्यमुपलब्धमिति घटादिक मपि तदल्पपरिमाणानेककारणप्रभवं कल्पयितुं युक्तम् विपर्ययेणापि कल्पनायाः प्रवृत्तिप्रसङ्गात्, ३५ अध्यक्षबाधस्तु तदितरत्रापि समानः । किञ्च, परमाणूनां सर्वदैकं रूपमभ्युपगच्छन्नभावमेव तेषामभ्युपगच्छेत् अकारकत्वप्रसङ्गात्-तच्च प्रागभाव-प्रध्वंसाभावविकलत्वेनानाधेयातिशयत्वाद् वियत्कु. सुमवत् । तदसत्त्वे च कार्यद्रव्यस्याप्यभावः अहेतोस्तस्यासत्त्वात् । तदभावे च परापरत्वादिप्रत्ययादेरयोगात् कालादेरप्यमूर्तद्रव्यस्याभाव इति सर्वाभावप्रसक्तिः। __यदपि 'अर्थान्तरगमनलक्षणो विनाशोऽसंभवी परमाणुपर्यन्तत्वात् सर्वविनाशानाम्' इत्य४० भिधानम् , तदप्यसंगतम्; तथाभूतविनाशे प्रमाणाभावात् । तथाहि-न तावदध्यक्षं तत्प्रतिपादने १-त्रा अभ्यु-भां० मा०। २ तद्वि-वा० बा०। ३ "तेषामापरमाण्वन्तो विनाशः" । "तेषां शरीरेन्द्रियाणां व्यणुकादिविनाशकमेण तावद् विनाशो यावत् परमाणुरिति"-प्रशस्त. कं० पृ. ५१५० १२-१३ । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा व्याप्रियते कपालपर्यन्तघटविनाशोपलम्भे तस्य व्यापारोपलब्धेः । नानुमानमपि, प्रत्यक्षाप्रवृत्तौ तत्र तस्याप्यप्रवृत्तेः-अध्यक्षपूर्वकत्वेन तस्य व्यावर्णनात् । आगमस्य चात्रार्थे अनुपयोगात् । परमाणुपर्यन्ते च विनाशे घटादिध्वंसे न किंचिदप्युपलभ्येत परमाणूनामदृश्यत्वेनाभ्युपगमात् । छिद्र घटेनापाकनिक्षिप्तेन वा तेनानेकान्त इति चेत्, न; सर्वस्य पक्षीकृतत्वात् अवयविनि च छिद्रस्योत्पन्नत्वात् तस्य च निरवयवत्वान्नावयवे तदुत्पत्तिः परमाणुषु तदसंभवात् । पाकान्यथानुपपत्त्या परमाणु-५ पर्यन्तो विनाशः परिकल्प्यत इति चेत्, न; विशिष्टसामग्रीवशाद् विशिष्टवर्णस्य घटादेव्यस्य कथंचिदविनाशेऽप्युत्पत्तिसंभवात् । परमाणुपर्यन्तविनाशाभ्युपगमे च तद्देशत्व-तत्संख्यात्व-तत्परिमाणत्वोपर्यवस्थापितकपरोद्यपातप्रत्यक्षोपलभ्यत्वादीनि पच्यमाने घटे न स्युः । शूच्यग्रविद्धघटे. नानेकान्तश्च परिहृत एव । न च कपालार्थी घटं भिन्द्यादापरमाण्वन्ते विनाशे। ततः प्रतीतिविरुद्धत्वान्नासावभ्युपगन्तव्य इति ॥ ३९॥ [प्रतिवादिमतमाक्षिप्य प्रतिबन्दीतया स्वेष्टस्य विभागजन्योत्पादस्य समर्थनम् ] प्रस्तुतमेवाक्षेपद्वारेणोपसंहरत्याचार्यः बहुयाण एगसद्दे जइ संजोगाहि होइ उप्पाओ। णणु एगविभागम्मि वि जुज्जइ बहुयाण उप्पाओ॥ ४०॥ व्यणुकादीनां सति संयोगे यद्येकस्य व्यणुकादेः कार्यद्रव्यस्योत्पादो भवति–अन्यथैका-१५ भिधानप्रत्ययव्यवहारायोगात् नहि बहुषु ‘एको घट उत्पन्नः' इत्यादिव्यवहारो युक्तः-'ननु' इत्यक्षमायाम् । एकस्य कार्यद्रव्यस्य विनाशेऽपि युज्यत एव बहनां समानजातीयानां तत्कार्यद्रव्यविनाशात्मकानां प्रभूततया विभक्तात्मनामुत्पाद इति । तथाहि-घटविनाशाद् बहूनि कपालानि उत्पन्नानीत्यनेकाभिधानप्रत्ययव्यवहारो युक्तः, अन्यथा तदसंभवात् । ततः प्रत्येकं यात्मकास्त्रिकालाश्चोत्पादादयो व्यवस्थिता इत्यनन्तपर्यायात्मकमेकं द्रव्यम् ॥ ४०॥ [एकस्मिन्नपि समये प्रत्येकं द्रव्यमनन्तपर्यायात्मकं प्रागुक्तरीत्या सिध्यति इत्यभिधानम् ] नन्वनन्ते काले भवत्वनन्तपर्यायात्मकमेकं द्रव्यम्, एकसमये तु कथं तत् तदात्मकमवसीयते? प्रदर्शितदिशा तदात्मकं तदवसीयत इत्याह एगसमयम्मि एगदवियस्स बहुया वि होंति उप्पाया। उप्पायसमा विगमा ठिईउ उस्सग्गओ णियमा ॥ ४१॥ एकस्मिन् समये एकद्रव्यस्य बहव उत्पादा भवन्ति, उत्पादसमानसंख्या विगमा अपि तस्यैव तदैवोत्पद्यन्ते विनाशमन्तरेणोत्पादस्यासंभवात् नहि पूर्वपर्यायाविनाशे उत्तरपर्यायः प्रादुर्भवितुमर्हति प्रादुर्भावे वा सर्वस्य सर्वकार्यताप्रसक्तिः, तदकार्यन्वं वा कार्यान्तरस्येव स्यात् । स्थितिरपि सामान्यरूपतया तथैव नियता स्थितिरहितस्योत्पादस्याभावात् भावे वा शशशृङ्गादेरप्युत्पत्तिप्रसङ्गात् ॥ ४१॥ [एकसिन् द्रव्ये एकसमयेऽनन्तधर्मात्मकखस्य दृष्टान्तेन साधनम् ] एतदेव दृष्टान्तद्वारेण समर्थयन्नाह काय-मण-वयण-किरिया-रूवाइ-गईविसेसओ वावि । संजोयभेयओ जाणणा य दवियस्स उप्पाओ॥४२॥ यदैवानन्तानन्तप्रदेशिकाहारभावपरिणतपुद्गलोपयोगोपजातरस-रुधिरादिपरिणतवशाविर्भूत- ३५ १-राद्यापात-भा० मा० आ०। २-रस्य च स्या-भां० मा• आ० । २० ३० Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे - शिरोऽङ्गुल्याद्यङ्गोपाङ्गभावपरिणतस्थू रसूक्ष्म सूक्ष्मतरादिभेदभिन्नावयवात्मकस्य कायस्योत्पत्तिस्तदै - वानन्तानन्तपरमाणू पचितमनोवर्गणापरिणतिप्रतिलभ्यमन उत्पादोऽपि तदैवं वचनस्यापि कायोत्कृष्टतरवर्गणोत्पत्तिप्रतिलब्धवृत्तिरुत्पादः, तदैव च कायाऽऽत्मनोरन्योन्यानुप्रवेशाद् विषमीकृताऽसंख्यातात्मप्रदेशे काय क्रियोत्पत्तिः, तदैव च रूपादीनामपि प्रतिक्षणोत्पत्तिविनश्वराणामुत्पत्तिः, ५ तदैव च मिथ्यात्वाऽविरति प्रमाद-कपायादिपरिणति समुत्पादितकर्मबन्धनिमित्ताऽऽगामिगतिविशेषाणामप्युत्पत्तिः, तदैव चोत्सृज्यमानोपादीयमांनानन्तानन्त परमाण्वापादिततत्प्रमाण संयोग- विभागानामुत्पत्तिः । ६५० यद्वा यदैव शरीरादेर्द्रव्यस्योत्पत्तिस्तदैव त्रैलोक्यान्तर्गत समस्तद्रव्यैः सह साक्षात् पारंपर्येण वा संबन्धानामुत्पत्तिः सर्वद्रव्यव्याप्तिव्यवस्थिताकाश-धर्माधर्मादिद्रव्यसंबन्धात्, तदैव च भावि - १० स्वपर्याय- परज्ञानविषयत्वादीनां चोत्पादनशक्तीनामप्युत्पादः शिरो-ग्रीवा-चक्षु-नेत्र - पिच्छोदरचरणाद्यनेकावयवान्तर्भावकमयूराण्डकरसशक्तीनामिवः अन्यथा तत्र तेषामुत्तरकालमप्यनुत्पत्तिप्रसङ्गात् । उत्पाद - विनाश-स्थित्यात्मकाश्च प्रतिक्षणं भावाः शीतोष्णसंपर्कादिव शादवान्तरसूक्ष्मतर- तमादिभेदेन तथैव स्व- परापेक्षया युगपत् क्रमेण चोपलब्धेः । न च तर तमादिभेदेन नवपुराणतया क्रमेणोपलब्धिः प्रतिक्षणं तथोत्पत्तिमन्तरेण संभवति । न चास्मदाद्यध्यक्षं निरवशेष१५ धर्मात्मकवस्तुग्राहकं येनानन्तधर्माणामेकदा वस्तुन्यप्रतिपत्तेरभाव इत्युच्येत अनुमानतः प्रतिक्षणमनन्तधर्मात्मकस्य तस्य प्रदर्शितन्यायेन प्रतिपत्तेः । सकलत्रैलोक्यव्यावृत्तस्य च वस्तुनोऽध्यक्षेण ग्रहणे- तद्व्यावृत्तीनां पारमार्थिकतद्धर्मरूपतया अन्यथा तस्य तद्व्यावृत्तताऽयोगात् - कथं नानन्तधर्माणां वस्तुन्यध्यक्षेण ग्रहणम् ? ॥ ४२ ॥ २० [आगमस्य हेतुवादाहेतुवादाभ्यां द्वैविध्येन विभजनम् ] इदानीं विदितनयत्वाद् विशिष्प्रज्ञः शिष्यो विगृह्य कथनयोग्यः संपन्न इति तस्य विग्रहकथनोपदेशमाह - दुविहो इत्यादि । अथवा प्रत्यक्ष-परोक्षरूपः संक्षेपतो द्विविध उपयोग आत्मनः । तत्र प्रत्यक्षोपयोगस्त्रिविधः अवधि - मनःपर्याय- केवलभेदेन । तत्र केवलोपयोगः सकलविषयः प्राक् प्रतिपादितः । अवधि - मनः२५ पर्यायोपयोगस्त्वसकलविषयोऽस्मदादिभिरागमगम्यः । परोक्षोपयोगस्तु मति - श्रुतरूपो द्विविधः । तत्राक्ष-लिङ्गप्रभवमत्युपयोगस्य स्वरूपमावेदितम् । श्रुतोपयोगस्य त्वाचार्यस्तद्धेतुभूतहेत्व हेतुवादभेदभिन्नागमप्रतिपादनद्वारेण स्वरूपमाह - दुविहो धम्मावाओ अहेउवाओ य हेउवाओ य । तत्थ उ अहेउवाओ भवियाऽभवियादओ भावा ॥ ४३ ॥ ३० वस्तुधर्माणामस्तित्वादीनामा समन्ताद् वादस्तत्प्रतिपादक आगमः अहेतु हेतुवादमेदेन द्वैविध्यं प्रतिपद्यते । प्रमाणान्तरानवगतवस्तुप्रतिपादक आगमोऽहेतुवादः । तद्विपरीतस्त्वसौ हेतुवादः - हिनोति गमयत्यर्थमिति हेतुस्तत्परिच्छिन्नोऽर्थोऽपि हेतुः, तं वदति य आगमः स हेतुवादः । यस्तु वस्तुस्वरूपप्रतिपादकत्वेऽपि तद्विपरीतोऽसावहेतुवादो दृष्टिवादात् प्रायेणान्यः । तत्र त्वहेतुवादो भव्या भव्य स्वरूपप्रतिपादक आगमः तद्विभागप्रतिपादनेऽध्यक्षादेः प्रमाणा३५न्तरस्याप्रवृत्तेः-नहि ‘अयं भव्यः, अयं त्वभव्यः' इत्यत्रागममन्तरेण प्रमाणान्तरप्रवृत्तिसंभवोऽस्मदाद्यपेक्षया । १- व च व-बृ० । २- मानानन्तपर-वा० बा० भ० मां० । ३- ग्यसं- भ० मां० विना । ४ १० ५३ पं २३ । ५ गा० ३० द्वितीयकां० पृ० ६२० । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ६५१ ननु 'तद्विभागप्रतिपादकं वचो यथार्थम् अर्हद्वचनत्वात् अनेकान्तात्मकवस्तुप्रतिपादकवचोवत्' इत्यनुमानात् तद्विभागप्रतिपत्तौ कथं न तस्यानुमानविषयता? न; एवमप्यागमादेव तद्विभागप्रतिपत्तेः-तद्व्यतिरेकेण प्रमाणान्तरस्य तत्प्रतिपत्तिनिबन्धनस्याभावात् । अर्हदागमस्य च प्रधानार्थसंवादनिबन्धनतत्प्रणीतत्वनिश्चयेऽनुमानतोऽतीन्द्रियार्थविषये प्रामाण्यं निश्चीयत इत्यभ्युपगम्यत आगमनिरपेक्षस्य तु प्रमाणान्तरस्यास्मदादेस्तत्र प्रवृत्तिने विद्यत इत्येतावताऽहेतुवादत्वमेत-५ द्विषयागमस्योच्यत इति ॥४३॥ [आगमोक्तस्य वस्तुनो हेतुद्वारा वास्तविकत्वसाधनमेव हेतुवादस्य लक्षणमिति सूचनम् ] वचनव्यापार केवलमपेक्ष्यायं क्रमः । यदा तु ज्ञान-दर्शन-चारित्रत्रितये यथावदनुष्ठानप्रवणः तद्विकलश्च पुरुषः प्रतीयते तदा अनुमानगम्योऽपि तांद्वभागो भवति, यथा-भव्यः अभव्य पुरुषः, सम्यग्ज्ञानादिपरिपूर्णाऽपरिपूर्णत्वाभ्याम् , लोकप्रसिद्धभव्याऽभव्यपुरुषवत् । अहेतुवादागमा-१० वगते वा धर्मिणि भव्याऽभव्यखरूपे तद्वि(तदविपरीतनिर्णयफलो हेतुवादः प्रवर्तते । योऽयमागमे भव्यादिरभिहितः स तथैव, यथोक्तहेतुसद्भावात् इत्याह भविओ सम्मइंसण-णाण-चरित्तपडिवत्तिसंपन्नो। णियमा दुक्खंतकडो त्ति लक्खणं हेउवायस्स ॥ ४४ ॥ भव्योऽयम्, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रप्रतिपत्तिसंपूर्णत्वात् उक्तपुरुषवत् । तत्परि-१५ पूर्णत्वादेव नियमात् संसारदुःखान्तं करिष्यति कर्मव्याधेरात्यन्तिकं विनाशमनुभविष्यति, तन्निवन्धनमिथ्यात्वादिप्रतिपक्षाभ्याससात्मीभावात्, व्याधिनिदानप्रतिकूलाचरणप्रवृत्ततथाविधातुरवत् । यः पुनर्न तत्प्रतिपक्षाभ्याससात्म्यवान् नासौ दुःखान्तकृद् भविष्यति तन्निदानानुष्ठानप्रवृत्त. तथाविधातुरवत् इति हेतुवादस्य लक्षणम् । हेतुवादश्च प्रायो दृष्टिवादः तस्य द्रव्यानुयोगत्वात् , "सम्यग्दर्शन-शान चारित्राणि मोक्षमार्गः" [ तत्त्वार्थसू०१-१] इत्यादेरनुमानादिगम्यस्यार्थस्य तत्र २० प्रतिपादनात् । यथा चात्रानुमानादिगम्यता तथा गन्धहस्तिप्रभृतिभिर्विक्रान्तमिति नेह प्रदर्श्यते ग्रन्थविस्तरभयात् ॥४४॥ [जीवादितत्त्वं कथं प्रतिपादयन् सिद्धान्तस्य आराधकः कथं वा प्रतिपादयन् तस्य विराधक इत्यभिधानम् ] "जीवाऽजीवाऽऽश्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्त्वम्" [ तत्त्वार्थसू०१-४] इत्युभयवादा-२५ गमप्रतिपाद्यान् भावांस्तथैवाऽसंकीर्णरूपान् प्रतिपादयन् सैद्धान्तिकः पुरुषः इतरस्तु तद्विराधक इत्याह जो हेउवायपक्खम्मि हेउओ आगमे य आगमिओ। सो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविराहओ अन्नो ॥४५॥ यो हेतुवादागमविषयमर्थ हेतुवादागमेन, तद्विपरीतागमविषयं चार्थमागममात्रेण प्रदर्श-३० यति वक्ता स खसिद्धान्तस्य द्वादशाङ्गस्य प्रतिपादनकुशलः, अन्यथा प्रतिपादयंश्च-तदर्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् तत्प्रतिपादके वचस्यनास्थादिदोषमुत्पादयन्-सिद्धान्तविराधको भवति सर्वज्ञप्रणीतागमस्य निस्सारताप्रदर्शनात् तत्प्रत्यनीको भवतीति यावत् । तथाहि-पृथिव्यादेर्मनुष्यपर्यन्तस्य षड्डिधजीवनिकायस्य जीवत्वमागमेन अनुमानादिना च प्रमाणेन सिद्धं तथैव प्रतिपादयन् खसमयप्रज्ञापकः, अन्यथा तद्विराधकः । यतःप्रव्यक्तचेतने त्रसनि-३५ काये चैतन्यलक्षणं जीवत्वं स्वसंवेदनाध्यक्षतः स्वात्मनि प्रतीयते, परत्र त्वपरेणानुमानतः । १ तत्तद्विपरीत-वा. बा. विना। ८४ स०प्र० Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ तृतीये काण्डेवनस्पतिपर्यन्तेषु पृथिव्यादिषु स्थावरेषु अनुमानतश्चैतन्यप्रतिपत्तिः । तथाहि-वनस्पतयश्चेतना, १“साम्प्रतं वनस्पतिजीवास्तिले लिङ्गमाह से बेमि-इमं पि जाइधम्मयं एयं पिजाइधम्मय; इमं पिवुद्दिधम्मयं एवं पि वुद्दिधम्मयं; इमं पि चित्तमंतयं एयं पि चित्तमन्तयं; इमं पि छिण्णं मिलाइ एयं पि छिगं मिलाइ; इमं पि आहारगं एवं पि आहारग; इमं पि अणिच्चयं एवं पि अणिचयं; इमं पि असासयं एवं पि असासयं; इमं पि चओवचइयं एवं पि चओव. चइयं; इमं पि विपरिणामधम्मयं एयं पि विपरिणामधम्मयं"-आचारा. सू० अ० १ उ. ५ सू० ४६ पृ०६५। महाभारत-मनुस्मृत्योरपि वनस्पत्यादीनां सचेतनत्वमित्थं समर्थितं दृश्यते"भरद्वाज उवाचपञ्चभिर्यदि भूतैस्तु युक्ताः स्थावर-जङ्गमाः । स्थावराणां न दृश्यन्ते शरीरे पञ्च धातवः॥ अनूष्मणामचेष्टानां घनानां चैव तत्त्वतः । वृक्षाणां नोपलभ्यन्ते शरीरे पञ्च धातवः॥ न शृण्वन्ति न पश्यन्ति न गन्ध-रसवेदिनः । न च स्पर्श विजानन्ति ते कथं पाञ्चभौतिकाः?॥ अद्रवत्वादनग्नित्वादभूमित्वादवायुतः । आकाशस्याप्रमेयत्वाद् वृक्षाणां नास्ति भौतिकम् ॥ भृगुरुवाचघनानामपि वृक्षाणामाकाशोऽस्ति न संशयः । तेषां पुष्प-फलव्यक्तिनित्यं समुपपद्यते ॥ ऊष्मतो म्लायते वर्ण खक फलं पुष्पमेव च । म्लायते शीर्यते चापि स्पर्शस्तेनात्र विद्यते ॥ वाय्वग्न्यशनिनिष्पेषैः फलं पुष्पं विशीर्यते । श्रोत्रेण गृह्यते शब्दस्तस्माच्छण्वन्ति पादपाः ॥ वल्ली वेष्टयते वृक्षं सर्वतश्चैव गच्छति । न ह्यदृष्टेश्च मार्गोऽस्ति तस्मात् पश्यन्ति पादपाः ॥ पुण्यापुण्यैस्तथा गन्धैधूपैश्च विविधैरपि । अरोगाः पुष्पिताः सन्ति तस्माजिघ्रन्ति पादपाः ॥ पादैः सलिलपानाच व्याधीनां चापि दर्शनात् । व्याधिप्रतिक्रियत्वाच्च विद्यते रसनं द्रुमे ॥ वक्त्रेणोत्पलनालेन यथोर्च जलमाददेत् । तथा पवनसंयुक्तः पादैः पिबति पादपः ॥ सुख-दुःखयोश्च प्रहणात् छिन्नस्य च विरोहणात् । जीवं पश्यामि वृक्षाणामचैतन्यं न विद्यते ॥ तेन तजलमादत्तं जरयत्यग्निमारुतौ । आहारपरिणामाच्च नेहो वृद्धिश्च जायते"॥ महाभा० शान्ति० मो०प०अ० १८२ श्लो०६-१८ पृ० २९१ । "उद्भिजाः स्थावराः सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः । ओषध्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः ॥ अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः । पुष्पिणः फलिनश्चैव वृक्षास्तूभयतः स्मृताः॥ गुच्छगुल्मं तु विविधं तथैव तृणजातयः । बीजकाण्डरुहाण्येव प्रताना वल्य एव च ॥ तमसा बहुरूपेण वेष्टिताः कर्महेतुना । अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुख-दुःखसमन्विताः" । मनु० अ० १ श्लो० ४६-४९ पृ० १४-१५ । 'भक्षयति बलीवान् यवान्' 'भक्षयति बलीवर्दान् सस्यम्' वा इत्यत्र भक्षेहिंसाथ मन्यमानाः पतञ्जलि-चन्द्रगोमि-देव. नन्दि-कैयट-हेमचन्द्र-नागेश-ज्ञानेन्द्रसरस्वतीप्रमुखवैयाकरणा अपि वनस्पतेः सचेतनत्वं प्रतिपन्नाः। यथाक्रम तद्यथा "अहिंसार्थस्येति किमर्थम् ? भक्षयन्ति यवान् बलीवर्दाः भक्षयति बलीवर्दान् यवान्"१-४-५२ इत्यकस्य सूत्रस्य "भरहिंसार्थस्य" इति वार्तिके-महाभाष्ये पृ० २७५। "अहिंसायामिति किम् ? भक्षयति बलीवान सस्यम्"-२-१-४९-चान्द्रे। "अहिंसार्थस्येति किम् ? भक्षयति बलीवर्दो यवम् भक्षयति बलीवद यवम्-अत्र हिंसाऽस्ति वनस्पतिकायानां प्राणि. लात्"-१-२-१२१-पृ. १०१ जैनेन्द्रे । ___"भक्षयन्ति यवानिति । क्षेत्रस्थानां प्ररोहाद्यवस्थायां यवानां भक्षणाद् हिंसा भवति, तदवस्थायां कैश्चिञ्चैतन्यस्याभ्युप. गमात् । परकीययवभक्षणे वा परो हिंसितो भवति । हिंसाले भक्षणेऽत्र भक्षिवर्तते"-१-४-५२ इति सूत्रस्य वार्तिकं स्पष्टयन् प्रदीपः । "वनस्पतीनां प्रसव-प्ररोह-वृद्ध्यादिमत्त्वेन चेतनखाद् तद्विशेषस्य सस्यस्य प्राणवियोगस्तद्भक्षणात् खाम्युपघातो वाऽत्र हिंसेति भहिंसार्थता"-२-२-६ हैमशब्दा०। __ "पिण्ड्या अप्राणित्वाद् उदाहरणे भक्षेरहिंसार्थत्वम् । ननु यवानामपि अचेतनत्वात् तद्विषयस्यापि कथं हिंसार्थत्वम् ! अत आह-क्षेत्रस्थानामिति । इदमुपलक्षणम् बीजावस्थानामपि भक्षणे हिंसासत्त्वात् । हिंसाने इति । इदमुभयसाधारणम् तत्र आये यवान् हिंसन् भक्षयतीत्यर्थः द्वितीये तु 'परान्' इत्यध्याहार्यम्-परान् हिंसन् यवान् भक्षयतीत्यर्थः । अत्र आद्यमेव युकं भाष्यखरसादित्याहुः"-१-४-५२ इति पाणिनीयसूत्रस्य उपर्युक्तमेव वार्तिकं समुद्योतयन् उद्योतः। ___"अहिंसार्थस्य किम् । भक्षयति बलीवर्दान् सस्यम् । xxx बलीवर्दाः सस्यं भक्षयन्ति तान् भक्षयतीत्यर्थः । क्षेत्रस्थानो यवाना भक्ष्यमाणानां हिंसा झेया तस्यामवस्थायां तेषां चेतनलात्"-१-४-५२ सिद्धान्तको• तत्त्वबोधि। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा | वृक्षायुर्वेदाभिहितप्रतिनियतकालायुष्कविशिष्टशैषधप्रयोगसंपादितवृद्धि - हानि-क्षत- भग्नसंरोहण-प्रतिनियतवृद्धिषड्भावविकांरोत्पादनाशावस्थानियतविशिष्टशरीरस्निग्धत्व- रूक्षत्व - विशिष्टदौहृद - बाल कुमार - वृद्धावस्था - प्रतिनियतविशिष्टरसवीर्यविपाक-प्रतिनियतप्रदेशाहारग्रहणादिमत्त्वान्यथानुपपतेः, विशिष्टस्त्रीशरीरवत् इत्याद्यनुमानं भाष्यकृत्प्रभृतिभिर्विस्तरतः प्रतिपादितं तच्चैतन्यप्रसाधक १ वराहमिहिराचार्यप्रणीतायां बृहत् ( वाराही ) संहितायां वृक्षायुर्वेदविषय इत्थं वर्णितो वर्तते— "अथ तेषां रोगज्ञानमाह - १४ ॥ शीतवातातपै रोगो जायते पाण्डुपत्रता । अवृद्धिश्च प्रवालानां शाखाशोषो रसस्रुतिः ॥ चिकित्सितमथैतेषां शस्त्रेणादौ विशोधनम् । विडङ्गघृतपङ्काक्तान् सेचयेत् क्षीरवारिणा ॥ १५ ॥ तथा च काश्यपः - शाखाविटपपत्रैश्च छायया विहिताश्च ये । येऽपि पर्ण- फलैर्हीना रूक्षाः पत्रैश्च पाण्डुरैः ॥ शीतोष्णवर्षवाताद्यैर्मूलैर्व्यामिश्रितैरपि । शाखिनां तु भवेद् रोगो द्विपानां लेखनेन च ॥ चिकित्सैतेषु कर्तव्या ये च भूयः पुनर्नवाः । शोधयेत् प्रथमं शस्त्रैः प्रलेपं दापयेत् ततः ॥ कर्दमेन विडङ्गैश्व घृतमित्रैश्च लेपयेत् । क्षीरतोयेन सेकः स्याद् रोहणं सर्वशाखिनाम् ॥ अथ फलनाशचिकित्सितमाह - फलनाशे कुलत्थैश्च माषैर्मुनैस्तिलैर्यवैः । शृतशीतपयःसेकः फलपुष्पसमृद्धये ॥ १६ ॥ अथ वृद्धयर्थप्रयोगमाह - ६५३ “अविकाजशकृच्चूर्णस्याढके द्वे तिलाढकम् । सक्तुप्रस्थो जलद्रोणो गोमांसतुलया सह ॥ १७ ॥ सप्तरात्रोषितैरेतैः सेकः कार्यों वनस्पतेः । वल्लीगुल्मलतानां च फलपुष्पाय सर्वदा ॥ १८ ॥ - बृहत्सं०] वृक्षायुर्वेदाध्या० ५४ पृ० ७४६ - ७४७ । २ षड्भावविकारा इत्थमवगन्तव्याः “ षड्भावविकारा भवन्तीति वार्ष्यायणिः - जायते अस्ति विपरिणमते वर्धते अपक्षीयते विनश्यतीति” — यास्कनि ० पृ० ४४ पं० १३ । एतदेव विकारषङ्कपरिगणनं महाभाष्ये “भूवादयो धातवः” १-३ - १ इति सूत्रे, वाक्यपदीये तृतीयकाण्डे प्रथमजातिसमुद्देशीयषट्त्रिंशश्लोकव्याख्यायाम् (तृ० कां० पृ० ३१) हेमचन्द्रशब्दानुशासने “क्रियार्थो धातुः” ३-३-३ इति सूत्रे च विद्यते । ३ भाष्यकृता श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन वनस्पतिपर्यन्तेषु पृथिव्यादिषु स्थावेरषु अनुमानतश्चैतन्यमित्थं साधितं वर्तते - " जम्म- जरा - जीवण - मरण - रोहणा - SSहार- दोहला - ssमयओ । रोग-तिगिच्छाईहि य नारि व्व सचेयणा तरवो ॥ सचेतनास्तरवः इति प्रतिज्ञा, जन्म- जरा - जीवन-मरण-क्षतसंरोहणा -ऽऽहार- दौहृदा-ऽऽमय-तश्चिकित्सादिसद्भावात् इति हेतु:, नारीवत् इति दृष्टान्तः । X X X X X छिकपरोइया छिक्कमेत्तसंकोयओ कुलिंगो व्व । आसयसंचाराओ वियत्त ! वल्लीवियाणाईं ॥ सम्मादयो य साव- पबोह - संकोयणाइओऽभिमया । वउलादओ य सद्दाइ विसयकालोवलंभाओ ॥ सचेतनाः स्पृष्टप्ररोदिकादयो वनस्पतयः स्पृष्टमात्र संकोचात् कुलिङ्गः कीटादिः - तद्वत् । तथा सचेतना वल्यादयः खरक्षार्थं वृति-वृक्ष-वरण्डकाद्याश्रयं प्रति संचरणात् । तथा, शम्यादयश्चेतनत्वेन अभिमताः स्वाप - प्रबोध-संकोचादिमत्त्वात् देवदत्तवत् । तथा सचेतना बकुला - शोक - कुरुबक - विरहक - चम्पक - तिलकादयः शब्दादिविषय कालोपलम्भात्-शब्दरूप-गन्ध-रस-स्पर्शविषयाणां काले प्रस्तावे उपभोगस्य यथासंख्यमुपलम्भादित्यर्थः यज्ञदत्तवदिति । एवं पूर्वमपि दौहृदादिलिङ्गेषु कूष्माण्डी - बीजपूरकादयो वनस्पतिविशेषाः पक्षीकर्तव्या इति । अथ सामान्येन तरूणाम् पृथ्वीविशेषाणां च विद्रुमादीनां सचेतनत्वसाधनायाह मंसंकुरो व्व समाणजाइरूवंकुरोवलंभाओ । तरुगण - विद्दुम- लवणो- वलादओ सासयावत्था ॥ तरुगणः तथा विद्रुम - लवणो - पलादयश्च खाश्रयावस्थाः स्वजन्मस्थानगताः सन्तश्चेतनाः छिन्नानामप्यमीषां पुनस्तत्स्थान एव समानजातीयाङ्कुरोत्थानात् अर्शोमांसाङ्कुरवत् । X X अथोदकस्य सचेतनत्वं साधयितुमाह भूमिक्खयसाभावियसंभवओ दहुरो व्व जलमुत्तं । अहवा मच्छो व सभाववोमसंभूयपायाओ ॥ X Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ तृतीये काण्डेमित्यनुमानतस्तेषां चैतन्यमानं सिध्यति । साधारण प्रत्येकशरीरत्वादिकंस्तु भेदः"गूढसिर-संधि-पव्वं समभंगमहीरगं च छिण्णरुहं । साहारणं सरीरं तव्विवरीयं च पत्तेयं ॥" [जीवविचा० गा० १२] इत्याद्यागमप्रतिपाद्य एव । ५ जीवलक्षणव्यतिरिक्तलक्षणास्त्वजीवा धर्माऽधर्माऽऽकाश-काल-पुद्गलमेदेन पञ्चविधाः । तत्र पुद्गलास्तिकायव्यतिरिक्तानां खतो मूर्तिमन्यसम्बन्धमन्तरेणात्मद्रव्यवदमूर्तत्वाद् अनुमानप्रत्ययावसेयता । तथाहि-गति-स्थित्यवगाहलक्षणं पुद्गलास्तिकायादिकार्य विशिष्टकारणप्रभवम् , विशिष्टका भौममम्भः सचेतनमुक्तम् क्षतभूमिसजातीयस्वाभाविकस्य तस्य संभवात् दर्दुरवत् । अथवा, सचेतनमन्तरिक्षमम्भः अभ्रादिविकारखभावसंभूतपातात् मत्स्यवदिति । तेजोऽनिलावधिकृत्याह अपरप्पेरियतिरियानियमियदिग्गमणओऽणिलो गो व्य । अनलो आहाराओ विद्धि-विगारोवलम्भाओ॥ सात्मको वायुः अपरप्रेरिततिर्यगनियमितदिग्गमनात् गोवत् । तथा, सात्मकं तेजः आहारोपादानात् तदृद्धौ विकारविशेषोपलम्भाच्च नरवत्"-विशेषा० भा० गा० १७५३-१७५८ पृ. ७४४-७४६। तथा, पृथिव्यादिवनस्पत्यन्तानां स्थावराणां स्पष्टतया श्रोत्रादीन्द्रियरहितवेऽपि श्रोत्रादीन्द्रियजोऽनुभवो विलोक्यत एव अत एव वनस्पत्यन्तानां तेषां सचेतनवं साधितं पुरातनैः । स्थूलतया इन्द्रियरहितलेऽपि वनस्पतिषु केषां केषां वृक्षाणामस्मदादिवत् कीदृशः कीदृशोऽनुभवो जायते तदेतत् सर्व सविस्तरं तेनैव भाष्यकृता भाष्यटीकाकृता चेत्थमुपवर्णितम् "जह सुहुमं भाविंदियनाणं दबिंदियावरोहे वि । तह दव्वसुयाभावे भावसुयं पत्थिवाईणं ॥ इह केवलिनो विहाय शेषसंसारिजीवानां सर्वेषामप्यतिस्तोक-बहु-बहुतर-बहुतमादितारतम्यभावेन द्रव्येन्द्रियेष्वसत्खपि लब्धीन्द्रियपञ्चकावरणक्षयोपशमः समस्त्येवेति परममुनिवचनम् । ततश्च यथा येन प्रकारेण पृथिव्यादीनामेकेन्द्रियाणां श्रोत्र-चक्षु -ओण-रसनलक्षणानां प्रत्येकं निर्वृत्युपकरणरूपाणां द्रव्येन्द्रियाणां तत्प्रतिबन्धककर्मावृतबादवरोधेऽप्यभावेऽपि सूक्ष्ममव्यक्तं लब्ध्युपयोगरूपं श्रोत्रादिभावेन्द्रियज्ञानं भवति लब्धीन्द्रियावरणक्षयोपशमसंभूताऽणीयसी ज्ञानशक्तिर्भवतीत्यर्थः । तथा तेनैव प्रकारेण द्रव्यश्रुतस्य द्रव्येन्द्रियस्थानीयस्याभावेऽपि भावश्रुतं भावेन्द्रियज्ञानकल्लं पृथिव्यादीनां भवतीति प्रतिपत्तव्यमेव । इदमुक्तं भवति–एकेन्द्रियाणां तावत् श्रोत्रादिद्रव्येन्द्रियाभावेऽपि भावेन्द्रियज्ञानं किञ्चिद् दृश्यत एव वनस्पत्यादिषु स्पष्टतल्लिङ्गोपलम्भात् । तथाहि-कलकण्ठोद्गीर्णमधुरपञ्चमोद्गारश्रवणात् सद्यः कुसुम-पल्लवादिप्रसरो विरहकवृक्षादिषु श्रवणेन्द्रियज्ञानस्य व्यक्त लिङ्गमवलोक्यते । तिलकादितरुषु पुनः कमनीयकामिनीकमलदलदीर्घशरदिन्दुधवललोचनकटाक्षविक्षेपात् कुसुमाद्याविर्भावश्चक्षुरिन्द्रियज्ञानस्य । चम्पकाद्यहिपेषु तु विविधसुगन्धिगन्धवस्तुनिकुरम्बोन्मिश्रविमलशीतलसलिलसेकात् तत्प्रकटनं घ्राणेन्द्रियज्ञानस्य । बकुला दिभूरुहेषु तु रम्भातिशायिप्रवररूपवरतरुणभामिनीमुखप्रदत्तस्वच्छसुस्वादुसुरभिवारुणीगण्डूषास्वादनात् तदाविष्करणं रसनेन्द्रियज्ञानस्य । कुरबकादिविटपिषु अशोकादिद्रुमेषु च घनपीनोन्नतकठिनकुचकुम्भविभ्रमापभ्राजितकुम्भीनकुम्भरणन्मणिवलयक्वणत्कङ्कणाभरणभूषितभव्यभामिनीभुजलताऽवगृहनसुखाद् निष्पिष्टपद्मरागचूर्णशोणतल. तत्पादकमलपाणिप्रहाराच झगिति प्रसून-पल्लवादिप्रभवः स्पर्शनेन्द्रियज्ञानस्य स्पष्टं लिङ्गमभिवीक्ष्यते । ततश्च यथैतेषु द्रव्येन्द्रियासत्त्वेऽप्येतद् भावेन्द्रियजन्यं ज्ञानं सकलजनप्रसिद्धमस्ति तथा द्रव्यश्रुताभावे भावश्रुतमपि भविष्यति । दृश्यते हि जलाद्याहारोपजीवनाद् वनस्पत्यादीनामाहारसंज्ञा, संकोचनवल्यादीनां तु हस्तस्पर्शादिभीत्या अवयवसंकोचनादिभ्यो भयसंज्ञा, विरहक-तिलक-चम्पक-केशराऽशोकादीनां तु मैथुनसंज्ञा दर्शितैव, बिल्व-पलाशादीनां तु निधानीकृतद्रविणोपरिपादमोचनादिभ्यः परिग्रहसंज्ञा । न चैताः संज्ञा भावश्रुतमन्तरेणोपपद्यन्ते । तस्माद् भावेन्द्रियपञ्चकावरणक्षयोपशमाद् भावेन्द्रियपञ्चकज्ञानवद् भावश्रुतावरणक्षयोपशमसद्भावाद् द्रव्यश्रुताभावेऽपि यच यावच्च भावश्रुतमस्त्येव एकेन्द्रियाणामित्यलं विस्तरेण"विशेषा० भा० गा० १०३ पृ० ६८-६९ ।। १ साधारण-प्रत्येकशरीरधारिणां वनस्पतीनां सलक्षणं सविस्तर विवेचनं प्रज्ञापना(पन्नवणा)सूत्रतोऽववोद्धव्यम्प०१ सू० २२-२६ पृ. ३०-३९ । २ "अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः। १। कालश्चेत्येके"।३८-तत्त्वार्थ० अ० ५। ३ "गति-स्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः । १७ । आकाशस्यावगाहः" । १।-तत्त्वार्थ० अ०५। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। यंत्वात, शाल्यकुरादिकार्यवत्, यश्चासौ कारणविशेषः स धर्माऽधर्माऽऽकाशलक्षणो यथासंख्यमवसेयः। कालेस्तु विशिष्टपरापरप्रत्ययादिलिङ्गानुमेयः । पुद्गलास्तिकायस्तु प्रत्यक्षाऽनुमानलक्षणप्रमाणद्वयगम्यः । यस्तेषां धर्मादीनामसंख्येयप्रदेशात्मकत्वादिको विशेषः तत्प्रदेशानां च सूक्ष्म-सूक्ष्मतरत्वादिको विभागः स "कालो य होइ सुहुमो” [ ] इत्याद्यागमप्रतिपाद्य एव, नागमनिरपेक्षयुक्त्यवसेयः । एवमाश्रवादिष्वपि तत्त्वेषु युक्त्याऽऽगमगम्येषु युक्तिगम्यमंशं युक्तित५ एव, आगमगम्यं तु केवलागमत एव प्रतिपादयन् स्वसमयप्रज्ञापकः, इतरस्तु तद्विराधक इति प्रशापकलक्षणमवगन्तव्यम् ॥ ४५ ॥ [हेतुसाध्यमर्थ हेतोरेव इतरं चागमत एव साधयतो नयवादः शुद्धो नान्यस्य इति कथनम् ] यो हेतुसाध्यमर्थ हेतुना साधयति आगमसिद्धं च आगमेन, तस्य नयवादः परिशुद्धः नान्यस्येत्येतदेवाऽऽह-'परिसुद्ध' इत्यादि। ___ यद्वा वस्तुधर्मप्रतिपादकोऽहेतु-हेतुवादप्रभेद् आगमो वाक्य-नयरूपः परिशुद्धतरभेदेन द्विरूपतां प्रतिपद्यते इत्याह परिसुद्धो नयवाओ आगममेत्तत्थसाहओ होइ। सो चेव दुण्णिगिण्णो दोणि वि पक्खे 'विधम्मेइ ॥ ४६॥ परि समन्तात् शुद्धो नयवादः यदा विवक्षिताऽविवक्षितानन्तरूपात्मकवस्तुप्रतिपादकं १५ नयवाक्यं प्रवर्तते 'स्यान्नित्यम्' इत्यादिकं तदा भवति, प्रमाणपरिशुद्धागमार्थमात्रस्य न्यूनाधिकव्यवच्छेदेन प्रतिपादनात् अधिकस्याऽसंभवेन न्यून स्यच नयानामसर्वार्थत्वप्रसङ्गतोऽर्थस्य परिशुद्धागमविषयत्वायोगात् । स एव नयवादः इतररूपनिरपेक्षैकरूपप्रतिपादकत्वेन यदा दुर्निक्षिप्तः प्रमाणविरुद्धार्थप्रतिपादकत्वेनाऽवतारितस्तदा द्वितीयधर्मनिरपेक्षस्य प्रतिपाद्यधर्मस्याऽप्यभावतोऽप्रतिपादनाद् अपरिशुद्धो भवति, प्रमाणविरुद्धस्य तथातदर्थस्य व्यवस्थापयितुमशक्यत्वात् ॥ ४६॥ २० [अपरिशुद्धनयवादरूपपरसमयानां संख्यानम् ] अपरिशुद्धश्च नयवादः परसमयः स किय दो भवति ? इत्याह जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया। जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया ॥४७॥ अनेकान्तात्मकस्य वस्तुन एकदेशस्य यद् अन्यनिरपेक्षस्याऽवधारणम् अपरिशुद्धो नयः, ताव २५ न्मात्रार्थस्य वाचकानां शब्दानां यावन्तो मागाः-हेतवो नयाः-तावन्त एव भवन्ति नयवादास्तत्प्रतिपादकाः शब्दाः । यावन्तो नयवादास्तावन्त एव परसमया भवन्ति खेच्छाप्रकल्पितविकल्पनिबन्धनत्वात् परसमयानां परिमितिर्न विद्यते । ननु यद्यपरिमिताः परसमयाः कथं तनिबन्धनभूतानां नयानां संख्यानियमः "नैगम-संग्रह-व्यवहारर्जुसूत्र-शब्द-समभिरूढेवंभूता नयाः" १ "वर्तना परिणामः क्रिया परवापरले च कालस्य" । २२।-तत्त्वार्थ० अ०५। २-गलादिका-६० आ० हा० वि० । "रूपिणः पुद्गलाः । ४ । शरीरवाड्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् । १९ । सुख-दुःख-जीवित-मरणोपग्रहाश्च" । २० । -तत्त्वार्थ० अ०५।। ३ "नित्यावस्थितानि अरूपाणि । ३ । आऽऽकाशादेकद्रव्याणि । ५। निष्क्रियाणि च । ६ । असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मयोः । ७ । जीवस्य च । ८ । आकाशस्याऽनन्ताः । ९ । संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानाम् । १० । लोकाकाशेऽवगाहः । १२ । धर्माधर्मयोः कृत्स्ने । १३ । एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् । १४ । असंख्येयभागादिषु जीवानाम्"। १५। -तत्त्वार्थ० अ०५। ४ विहम्मेवि गु० मू० मु० मू। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे[तत्त्वार्थसू० १-३३] इति श्रूयते ? न; स्थूलतस्तच्छुतेः, अवान्तरमेदेन तु तेषामपरिमितत्वमेव स्वकल्पनाशिल्पिघटितविकल्पानामनियतत्वात् तदुत्थप्रवादानामपि तत्संख्यापरिमाणत्वात् ॥४७॥ [कं कं नयमाश्रित्य कस्कः समयः प्रस्थित इति प्रश्नस्य व्याकरणम् ] ननु के नयमाश्रित्य कः परसमयः प्रवृत्तः ? को वा कस्य विषयः ? इत्याह जं काविलं दरिसणं एयं वढियस्स वत्तव्वं ।। सुद्धोअणतणअस्स उ परिसुद्धो पज्जवविअप्पो ॥४८॥ यत् कापिलं दर्शनं सांख्यमतम् एतद् द्रव्यास्तिकनयस्य वक्तव्यम्-तद्विषयविषयम् तदुत्थापितं चेति भावः-शौद्धोदनेस्तु परिशुद्धः पर्यायविशेष एव वक्तव्यः-परिशुद्धपर्यायास्तिकनयविशेषविषयं तदुत्थापितं च सौगतमतमित्यभिप्रायः । मिथ्याखरूपनयप्रभवत्वाद् अनयो. १० मिथ्यात्वं प्राक् प्रदर्शितमेव ॥ ४८॥ [ द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकोभयाश्रितस्यापि वैशेषिकसमयस्य कथं मिथ्यात्रमिति __ प्रश्नस्य प्रतिवचनम् ] ननु भवतु परस्परनिरपेक्षैकैकनयावलम्बिनोः साङ्ख्य-सौगतमतयोमिथ्यात्वम्, कणभुग्मतस्य तु द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनयद्वयावलम्बिनः कथं मिथ्यात्वम् ? इत्यत्राह दोहि वि णएहि णीअं सत्थमुलूएण तह वि मिच्छत्तं । जं सविसअप्पहाणत्तणेण अण्णोण्णनिरवेक्खा ॥४९॥ __ द्वाभ्यामपि द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनयाभ्यां प्रणीतं शास्त्रम् उलूकेन वैशेषिकशास्त्रप्रणेत्रा, द्रव्य-गुणादेः पदार्थषट्कस्य नित्यानित्यैकान्तरूपस्य तत्र प्रतिपादनात् । [कणादोक्तषट्पदा व्यवस्थाया उपन्यासः] २० तथाहि-द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेष-समवायाख्याः षडेव पदार्थाः, न्यूनाऽधिकप्रतिपाद कप्रमाणाभावे परस्परविविक्तस्वरूपषट्पदार्थव्यवस्थापकप्रमाणविषयत्वात्, उभयाभिमतघटादिषट्पदार्थवत् । तत्र पृथिव्यप्-तेजो-वाय्वाकाश-काल-दिगात्म-मनांसि नवैव द्रव्याणि । 'पृथिवी आपः तेजो वायुः' इत्येतत् चतुःसंख्यं नित्याऽनित्यमेदाद् द्विप्रकारं द्रव्यम्। तत्र परमाणुरूपं नित्यम् "सदकारणवन्नित्यम्" [वैशेषिकद०४-१-१] इति वचनात्, तदारब्धं तु व्यणुकादि कार्यद्रव्य२५मनित्यम् । आकाशादिकं तु नित्यमेव, अनुत्पत्तिमत्त्वात् । एषां च द्रव्यत्वाभिसंबन्धाद् द्रव्यरूपता, द्रव्यत्वाभिसंबन्धश्च द्रव्यत्वसामान्योपलक्षितसमवायः, तत्समवेतं वा सामान्यम्, एतच्चेतरव्यवच्छेदकमेषां लक्षणम् । तथाहि-पृथिव्यादीनि मनःपर्यन्तानि इतरेभ्यो भिद्यन्ते 'द्रव्याणि' इति वा व्यवहर्तव्यानि द्रव्यत्वाभिसंबन्धात्, यानि तु नैवम् न च तानि द्रव्यत्वाभिसंबन्धवन्ति, यथा गुणादिवस्तूनि, इति केवलव्यतिरेकिहेतुबलात् पृथिव्यादीनि द्रव्याणि गुणादिभ्यो व्यावृत्तरूपाणि ३० सिद्धानि । पृथिव्यादीनामपि भेदवतां पृथिवीत्वाभिसंबन्धादिकं लक्षणमितरेभ्यो मेदव्यवहारे तच्छब्दवाच्यत्वे वा साध्ये केवलव्यतिरेकिरूपं द्रष्टव्यम् । अभेदवतां त्वाकाश-काल-दिगद्रव्याणामनादिसिद्धतच्छब्दवाच्यता द्रष्टव्या । नवैव चैतानि द्रव्याणि, न्यूनाधिकत्वप्रतिपादकप्रमाणाभावे १ पृ० २९६ पं० ८ तथा पृ० ३८७ पं० १८। २ दोहिं वि णएहिं गु० मू० । ३ कणादापरनाम्न उलूकमहर्षवृत्तान्तावबोधाय वायुपुराणमिहानुसंधेयम्-अ० २३ श्लो. २०३। ४ मूलप्रन्यकृता दिवाकरेण वैशेषिकशास्त्रनिःष्यन्दभता वैशेषिकद्वात्रिंशिकाऽपि रचिताऽस्ति सा च तदचितास द्वात्रिंशति द्वात्रिंत्रिकासु चतुर्दशी वर्तते एषाऽपि प्रस्तुतविषयसादृश्यावबोधाय बुभुत्सुभिरत्रावगन्तव्या भवेत्-द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका पृ० १८-१९ । अत्र द्रव्यादिपदार्थस्वरूपं सविस्तरमवबोद्धुकामेन समग्र वैशेषिकदर्शनं सभाध्यं सकन्दलिकं चानुसंधेयम् । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ६५७ परस्परव्यावृत्तनवलक्षणयोगित्वात् , उभयाभिमतनवघटादिवत् । एवं रूपादयश्चतुर्विंशतिर्गुणाः। उत्क्षेपणादीनि पञ्च कर्माणि । पराऽपरभेदभिन्नं द्विविधं सामान्यमनुगतज्ञानकारणम् । नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषा अत्यन्तव्यावृत्तबुद्धिहेतवः । अयुतसिद्धानामाधार्याऽऽधारभूतानाम् 'इह' इतिप्रत्ययहेतुर्यः संबन्धः स समवाय एको व्यापकश्च । अत्र च पदार्थषटके द्रव्याणि गुणाश्च केचिन्नित्या एव, केचित् त्वनित्या एव । कर्म अनित्यमेव । सामान्य-विशेष-समवायास्तु नित्या५ एवेति पदार्थव्यवस्था । ततश्चैतत् शास्त्रं तथापि मिथ्यात्वम्, तत्प्रदर्शितपदार्थषट्कस्य प्रमाणबाधितत्वात् । [कणादोक्तां तत्त्वव्यवस्थां निरसितुं पूर्व द्रव्यपदार्थस्य खण्डनम् ] यतश्चतुःसंख्यं पृथिव्यादिद्रव्यं परमाणुरूपं यन्नित्यमुपवर्णितम् , तदसंगतम्; एकान्ताऽक्षणिकत्वे क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् तल्लक्षणं सत्त्वं ततो व्यावर्तते, ततश्च असत्त्वमेव तस्य । १० येदि च स्थूलकार्यद्रव्यकारणभूतानामणूनां तजनकैकस्वभावता तदा तत्कार्याणां सकृदेव सर्वेषामुत्पत्तिप्रसक्तिः अविकलकारणत्वात् । तथा च प्रयोगः-येऽविकलकारणास्ते सकृदेवोत्पद्यन्ते, यथा समानोत्पादा बहवोऽङ्कुराः, अविकलकारणाश्च परमाणुकार्यत्वेनाऽभिमता भावा इति स्वभावहेतुः। अविकलकारणस्याप्यनुत्पादे सर्वदाऽनुत्पत्तिप्रसक्तिः विशेषाभावात् इति विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । स्यादेतत्, समवाय्यसमवायि-निमित्तभेदात् त्रिविधं कारणम्, यत्र हि कार्य समवैति तत् समवा-१५ यिकारणम् यथा-व्यणुकस्य अणुद्वयम् । यच्च कार्यैकार्थसमवेतम् कार्यकारणैकार्थसमवेतं वा कार्य मुत्पादयति तद् असमवायि कारणम् यथा-पटावयविद्रव्यारम्भे तन्तुसंयोगः, पटसमवेतरूपाद्यारम्भे पटोत्पादकतन्तुरूपादि च । शेषं तु उत्पादकं निमित्तकारणम् यथा-अदृष्टाऽऽकाशादि । तत्र संयोगादेरपेक्षणीयस्य असंनिधेरविकलकारणत्वमसिद्धम् , असदेतत्; संयोगादिनाऽनाधेयातिशयत्वात् १-शतिगु-बृ. विना। २ पृ. ६५६ पं० २३ । ३ प्रस्तूयमानैषा सपूर्वपक्षा समग्राऽपि वैशेषिकाभिमतद्रव्य-गुणादितत्त्वपरीक्षणचर्चाऽविकलतया तत्त्वसंग्रहपनिकायां विद्यते-पृ० १८५ का० ५४७-पृ. २७४ का० ८६६ । सैव च क्वचित् क्वचित् शब्दसाम्येन क्वचिच्चान्ययाऽपि भझ्या अर्थसाम्यमजहती न्यायकुमुदचन्द्रोदये, प्रमेयकमलमातण्डे स्याद्वादरत्नाकरे च विद्यते-लि. पृ० ११६ द्वि० पं०३-पृ० १७४ द्वि०५० १० । पृ० १५६ प्र०पं०८-पृ० १८८ द्वि. पं० १३ । पृ० ८३७ पं० २०-पृ. ९७० पं० १५। ४ "तत्र नित्याणुरूपाणामसत्त्वमुपपादितम् । निःशेषवस्तुविषयक्षणभङ्गप्रसाधनात्" ॥ -तत्त्वसं० का० ५५१ पृ० १८६ । ५ "नित्यले सकलाः स्थूला जायेरन् सकृदेव हि । संयोगादि न चापेक्ष्यं तेषामस्त्य विशेषतः" । -तत्त्वसं० का० ५५२ पृ० १८६ । ६ बाधक प्र-वृ. आ. हा०वि० । “समग्रकारणस्याप्यनुत्पादे सर्वदैवानुत्पादप्रसङ्गो विशेषाभावादिति बाधक प्रमाणम्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० १८६ पं० २०।। "ननु समवायि-असमवायि-निमित्तभेदात् त्रिविधं कारणं कार्यजन्मनि व्याप्रियते । यत्र हि कार्य समवैति तत् समवायि कारणम् यथा व्यणुकस्य अणुद्वयम् । यच्च कार्यकार्थसमवेतं कार्यकारणैकार्थसमवेतं वा कार्य समुत्पादयति तद् असमवायि कारणम् यथा पटारम्भे तन्तुसंयोगः पटसमवेतरूपाद्यारम्भे पटोत्पादकतन्तुरूपादि च शेषं तु उत्पादक निमित्तकारणम् यथा अदृष्टाकाशादि" इत्यादि-न्यायकुमुद० लि. पृ० ११८ प्र. पं० १२-द्वि. पं० १-२ । प्रमेयक. पृ० १५९ द्वि. पं०१५-1 ८"असमवेतं तु यद् यस्य कारणभावं प्रतिपद्यते तद् असमवायिकारणम् यथा अवयविद्रव्यारम्मेऽवयवसंयोगः" -तत्त्वसं० पजि. पृ० १८६ पं० २२ । ९"परिशेषं तु कारणं निमित्तकारणम् तद्यथा धर्मादय इत्ययमेषां विभागः”-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. १८६५०२४॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डेनित्यतया अणूनां तदपेक्षत्वायोगात् । न च तेर्नु-करणादीनां कार्याणां सकृत् प्रादुर्भाव उपलभ्यते तस्माद् विपर्ययः । तथा च प्रयोगः-ये क्रमवत्कार्यहेतवस्तेऽनित्याः, यथा-क्रमवदडरादिनिर्वर्तका बीजादयः, तथा च परमाणव इति स्वभावहेतुः । यदपि विद्धकर्णोक्तमणूनां नित्यत्वसाधकं प्रमाणम्-"परमाणूत्पादकाभिमतं कारणं सद्धर्मोपेतं न भवति, सत्त्वप्रतिपादकप्रमाणाविषयत्वात्, ५शशशृङ्गवत्" [ ] इति । तत्र कुविन्दादेरणत्पादककारणस्य सत्त्वप्रतिपादकप्रमाणविषयत्वाद् असिद्धो हेतुः । यथा च पटादयः परमाण्वात्मकाः कुविन्दोत्पाद्यास्तथा प्रदर्शयिष्यामः । देश-काल-स्वभावविप्रकृष्टानां च भावानां सदुपलम्भकप्रमाणनिवृत्तावपि सत्त्वाविरोधाद् अनैकान्तिकश्च हेतुः । ततो न अण्वनित्यत्वप्रसाधकानुमानप्रतिज्ञाया अनुमानबाधा । न च 'यत एव प्रमाणात् परमाणवः प्रसिद्धाः तत एव नित्यत्वधर्मोपेता अपि ते' इति तद्राहकप्रमाणबाधितत्वात् तदनित्यत्व१० प्रसाधकानुमानस्याऽनुत्थानम् प्रमाणतोऽप्रसिद्धौ चाणूनामाश्रयाऽसिद्धतया तत् इति वाच्यम्, सर्वस्य प्रमाणविषयस्य अनित्यत्वधर्मोपेतस्यैव तद्विपयत्वात् अन्यथाभूतस्य तदजनकत्वे तद्विषयत्वानुपपत्तेः “नाऽकारणं विषयः" [ ] इति प्रसाधितत्वात् । नित्यस्य चाऽकारणत्वात् । तन्न चतुःसंख्यं परमाण्वात्मकं नित्यद्रव्यं संभवति ।। नापि तदारब्धमवयवि द्रव्यं संभवति, गुणावयवव्यतिरिक्तस्य तस्याऽनुपलम्भात् न हि शुक्ला१५दिगुणेभ्यः तन्त्वाद्यवयवेभ्यश्च अर्थान्तरभूतं पटादि द्रव्यं चक्षुरादिज्ञानेऽवभासते । न द्व्यणुकादेरनुपलम्भे परमाणूनां विविक्तस्वरूपाणामुपलम्भाऽविषयत्वात् प्रतिभासाऽभावप्रसक्तः आश्रयाऽसिद्धतया अवयव्यादिनिषेधकप्रसङ्गसाधनप्रयोगानुपपत्तिः इति वक्तव्यम्, परमाणूनामेव विशिष्णाकारतयोत्पन्नानां प्रतिभासविषयतया आश्रयासिद्धताद्यनुपपत्तेर्न प्रयोगानुपपत्तिः । एवं च यद् उपलब्धिलक्षणप्राप्तं सद् यत्र नोपलभ्यते तत् तत्र नास्ति, यथा-क्वचित् प्रदेशविशेषे घटादिरनु२० पलम्भविषयः, गुणाऽवयवार्थान्तरभूतो गुण्यवयवी च दृश्यत्वेनाऽभिमतः नोपलभ्यते च तत्रैव देशे इति स्वभावानुपलब्धिः । न च हेतोर्विशेषणमसिद्धम्, “महति अनेकद्रव्यवत्त्वात् रूपाञ्चोपलब्धिः" [वैशेषिकद०४-१-६] इति वचनात् तयोदश्यत्वेनाऽभ्युपगमात् । नर्नु गुणव्यतिरिक्तो गुणी उपलभ्यत एव तद्रूपादिगुणाग्रहणेऽपि तस्य ग्रहणात् । तथाहिमन्दमन्दप्रकाशे तद्गतसितादिरूपानुपलम्भेऽपि उपलभ्यते बलाकादिः, स्वगतशुक्लगुणाग्रहणेऽपि च २५ सन्निहितोपधानावस्थायां गृह्यते स्फटिकोपलः, तथाऽऽप्रपदीनकञ्चकावच्छन्नशरीरः पुमांस्तद्गतश्या १ "न च सकृदेव स्थूलानां तनुभवनादीनामुदयोऽस्ति क्रमेण तन्वादीनामुत्पत्तिदर्शनात् तस्माद् विपर्ययः"-तत्त्वसं० पजि० पृ. १८७ पं०१। २ तन्तुक-भां० मां०। ३-नुकार-भां० मां० विना । ४ "अविद्धकर्णस्त्वणूनां नित्यत्वप्रसाधनाय प्रमाणमाह-परमाणूनामुत्पादकाभिमतं सद्धर्मोपगतं न भवति सत्त्वप्रतिपादकप्रमाणाविषयत्वात् खरविषाणवदिति"-तत्त्वसं० पजि० पृ. १८७ पं० ४ । ५ "सद्धर्मोपगतं नो चेदणूत्पादकमिष्यते । विद्यमानोपलम्भार्थप्रमाणाविषयवतः" ॥ -तत्त्वसं० का० ५५३ पृ० १८७। ६ "नासिद्धेदृश्यते येन कुविन्दाद्यणुकारणम् । परमाण्वात्मका एव येन सर्वे पटादयः"॥ -तत्त्वसं० का० ५५४ पृ. १८७ । ७ “सद्भाहकप्रमाभावान्न वा सत्ता प्रसिध्यति । प्रमाणविनिवृत्तौ हि नार्थाभावेऽस्ति निश्चयः" ॥ -तत्त्वसं० का० ५५५ पृ. १८७ । ८"तदारब्धस्ववयवी गुणावयवमेदवान् । नैवोपलभ्यते तेन न सिध्यत्यप्रमाणकः "॥ -तत्त्वसं० का० ५५६ पृ० १८७॥ ९ "नन्वित्यादिना उद्योतकर-भाविविकादयो हेतोरसिद्धतामुद्भावयन्ति ननूपधानसंपर्के दृश्यते स्फटिकोपलः । तद्रूपाग्रहणेऽप्येवं बलाकादिश्च दृश्यते ॥ कञ्चकान्तरिते पुंसि तद्रूपाधगतावपि । पुरुषप्रत्ययो दृष्टो रके वाससि वस्त्रधीः"॥ -तत्त्वसं० का० ५५७-५५८ पृ. १८८॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ननु तद्विभागप्रतिपादकं वचो यथार्थम् अर्हद्वचनत्वात् अनेकान्तात्मकवस्तुप्रतिपादकवचोपत्' इत्यनुमानात् तद्विभागप्रतिपत्तौ कथं न तस्यानुमानविषयता? न; एवमप्यागमादेव तद्विभागप्रतिपत्तेः-तव्यतिरेकेण प्रमाणान्तरस्य तत्प्रतिपत्तिनिबन्धनस्याभावात् । अर्हदागमस्य च प्रधानार्थसंवादनिबन्धनतत्प्रणीतत्वनिश्चयेऽनुमानतोऽतीन्द्रियार्थविषये प्रामाण्यं निश्चीयत इत्यभ्युपगम्यत एव । आगमनिरपेक्षस्य तु प्रमाणान्तरस्यास्मदादेस्तत्र प्रवृत्तिर्न विद्यत इत्येतावताऽहेतुवादत्वमेत-५ द्विषयागमस्योच्यत इति ॥४३॥ [आगमोक्तस्य वस्तुनो हेतुद्वारा वास्तविकत्वसाधनमेव हेतुवादस्य लक्षणमिति सूचनम् ] वचनव्यापार केवलमपेक्ष्यायं क्रमः । यदा तु ज्ञान-दर्शन-चारित्रत्रितये यथावदनुष्ठानप्रवणः तद्विकलश्च पुरुषः प्रतीयते तदा अनुमानगम्योऽपि तद्विभागो भवति, यथा-भव्यः अभव्यो वाऽयं पुरुषः, सम्यग्ज्ञानादिपरिपूर्णाऽपरिपूर्णत्वाभ्याम्, लोकप्रसिद्धभव्याऽभव्यपुरुषवत् । अहेतुवादागमा-१० वगते वा धर्मिणि भव्याऽभव्यस्वरूपे तद्वि(तद्वि)परीतनिर्णयफलो हेतुवादः प्रवर्तते । योऽयमागमे भव्यादिरभिहितः स तथैव, यथोक्तहेतुसद्भावात् इत्याह भविओ सम्मइंसण-णाण-चरित्तपडिवत्तिसंपन्नो। णियमा दुक्खंतकडो त्ति लक्खणं हेउवायस्स ॥ ४४ ॥ भव्योऽयम्, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रप्रतिपत्तिसंपूर्णत्वात् उक्तपुरुषवत् । तत्परि-१५ पूर्णत्वादेव नियमात् संसारदुःखान्तं करिष्यति कर्मव्याधेरात्यन्तिकं विनाशमनुभविष्यति, तन्निवन्धनमिथ्यात्वादिप्रतिपक्षाभ्याससात्मीभावात् , व्याधिनिदानप्रतिकूलाचरणप्रवृत्ततथाविधातुरवत् । यः पुनर्न तत्प्रतिपक्षाभ्याससात्म्यवान् नासौ दुःखान्तकृद् भविष्यति तन्निदानानुष्ठानप्रवृत्त तथाविधातुरवत् इति हेतुवादस्य लक्षणम् । हेतुवादश्च प्रायो दृष्टिवादः तस्य द्रव्यानुयोगत्वात्, “सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः" [ तत्त्वार्थसू० १-१] इत्यादेरनुमानादिगम्यस्यार्थस्य तत्र २० प्रतिपादनात् । यथा चात्रानुमानादिगम्यता तथा गन्धहस्तिप्रभृतिभिर्विक्रान्तमिति नेह प्रदर्श्यते ग्रन्थविस्तरभयात् ॥४४॥ [जीवादितत्वं कथं प्रतिपादयन् सिद्धान्तस्य आराधकः कथं वा प्रतिपादयन् तस्य विराधक इत्यभिधानम् ] "जीवाऽजीवाऽऽश्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्त्वम्" [ तत्त्वार्थसू०१-४] इत्युभयवादा-२५ गमप्रतिपाद्यान् भावांस्तथैवाऽसंकीर्णरूपान् प्रतिपादयन् सैद्धान्तिकः पुरुषः इतरस्तु तद्विराधक इत्याह जो हेउवायपक्खम्मि हेउओ आगमे य आगमिओ। सो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविराहओ अन्नो ॥४५॥ यो हेतुवादागमविषयमर्थ हेतुवादागमेन, तद्विपरीतागमविषयं चार्थमागममात्रेण प्रदर्श-३० यति वक्ता स स्वसिद्धान्तस्य द्वादशाङ्गस्य प्रतिपादनकुशलः, अन्यथा प्रतिपादयंश्च तदर्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् तत्प्रतिपादके वचस्यनास्थादिदोषमुत्पादयन्-सिद्धान्तविराधको भवति सर्वज्ञप्रणीतागमस्य निस्सारताप्रदर्शनात् तत्प्रत्यनीको भवतीति यावत् । तथाहि-पृथिव्यादेर्मनुष्यपर्यन्तस्य षड्विधजीवनिकायस्य जीवत्वमागमेन अनुमानादिना च प्रमाणेन सिद्धं तथैव प्रतिपादयन् स्खसमयप्रज्ञापकः, अन्यथा तद्विराधकः । यतः प्रव्यक्तचेतने त्रसनि-३५ काये चैतन्यलक्षणं जीवत्वं स्वसंवेदनाध्यक्षतः स्वात्मनि प्रतीयते, परत्र त्वपरेणानुमानतः । १ तत्तद्विपरीत-वा. बा. विना। ८४ स०प्र० Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० तृतीये काण्डे - रसविषयताप्रसक्तेः अविशेषात् । न चे अन्याकारस्य अन्यविषयव्यवस्थापकत्वेऽपि तस्य परस्येष्टसिद्धिः, यतः शुक्लादय एव श्यामादिरूपेण प्रतिभान्ति तज्ज्ञानस्य भ्रान्तत्वात् न पुनस्तद्व्यतिरिक्तस्य गुणिनस्ततः सिद्धिर्भवेत् । यश्चं 'कञ्चुकावच्छन्ने पुंसि 'पुमान्' इति ज्ञानमध्यक्षम् अवयविव्यवस्थापकम् उक्तम्, तद् अध्यक्षमेव न भवतिः शब्दानुविद्धत्वात् अस्पष्टाकारत्वाच्च अपि तु रूपादिसंहतिमात्र५ लक्षणपुरुषविषयमनुमानमेतत् इति नातोऽवयविसिद्धिः । तथाहि - रूपादिप्रचयात्मकपुरुषहेतुकः कञ्चुकसंनिवेश उपलभ्यमानः स्वकारणमनुमापयति धूम इवाग्निम् । यच्च 'कुङ्कुमादिरक्ते वस्त्रे तद्रूपाप्रतिपत्तावपि 'वस्त्रम्' इति ज्ञानम्' तदपि प्राक्तनशुक्लरूपविनाशे सामग्र्यन्तरोपजातरूपान्तरस्य अध्यक्षेण ग्रहणे सति उत्तरकालं तत्पृष्ठभाविसमयवशात् 'वस्त्रम्' इति समुदायविषयं सांवृतं परमार्थतो निर्विषयमेव प्रत्यवमर्शज्ञानम् इत्यसिद्धमस्य प्रत्यक्षत्वम् । न चैतद् अनुमानम् पूर्वाध्यक्ष गृहीतवि१० षयत्वात् अलि (लै)ङ्गिकत्वाच्च । तन्नात्र अभिभूतं किञ्चिद् रूपं विद्यते । न चाभिभूतवस्त्ररूपस्य तदवस्थायामभावे धातवस्त्रावस्थायां पुनः शुक्लरूपानुपलब्धिः स्यादिति वक्तव्यम्, यतः अन्यादिसामग्रीप्रादुर्भूतभास्वररूपस्य लोहादेः पुनः श्यामादिरूपान्तरोत्पत्तिवत् तत्रापि सामग्र्यन्तरात् शुक्लरूपोत्पत्तेरविरोधात् । न च 'प्राक्तनमेवं रूपमभिभूतत्वात् तदानुपलब्धम् पश्चाद् अभिभवाभावाद् उपलभ्यते' इत्यस्य प्रतिषेधेन 'रूपान्तरमेव प्राक्तनरूपविनाशेनोपजातमत्रोपलभ्यते' इति भवतोऽपि १५ किं प्रमाणमिति वक्तव्यम्, अनुमानस्य सद्भावात् । तथाहि - यद् अपरित्यक्ताऽनभिभूतस्वभावं तस्य न परेणाऽभिभवः, यथा पूर्वावस्थायां तस्यैव अपरित्यक्ताऽनभिभूतस्वभावं चाभिभवावस्थायां रूपमिति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः । परित्यक्ताऽनभिभूतस्वभावत्वाभ्युपगमेऽपि सिद्धमस्याऽन्यत्वम् स्वभावमेदस्य भावभेदलक्षणत्वात् अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । नैं च स्वतन्त्रेच्छामात्र भाविनः पष्ठीवचनभेदादेर्वाह्यवस्तुगत भेदाऽव्यभिचारित्वम् येन ततो २० गुण- गुणिनोर्भेदसिद्धिः स्यात् । तेन 'यद् यद्व्यवच्छिन्नम् इत्यादिप्रयोगानुपपत्तिः । यदि तु वस्तुगत - भेदमन्तरेण षष्ठ्यादिवृत्तिर्न भवेत् ' स्वस्य भावः' 'पण्णां पदार्थानामस्तित्वम्', 'दाराः' 'सिकताः ' इत्यादौ पष्ट्यादेर्वृत्तिर्न स्यात् भावादेरत्र व्यतिरिक्तस्य तन्निबन्धनस्याभावात् । अथै सदुपलम्भकप्रमाणविषयत्वं धर्मान्तरं षण्णामस्तित्वमिष्यत इति न हेतोर्व्यभिचारः, नः सप्तमपदार्थप्रसक्तेः षट्पदा १ “शुक्लादयस्तथा वेद्या इत्येवं चापि संभवेत् । तस्माद् भ्रान्तमिदं ज्ञानं कम्बुपीतादिबुद्धिवत्" ॥ - तत्त्वसं० का० ५६६ पृ० १९० । २ पृ० ६५८ पं० २५ । ३ “कञ्चुकान्तर्गते पुंसि न ज्ञानं त्वानुमानिकम् । तद्धेतुसन्निवेशस्य कञ्चुकस्योपलम्भनात्” ॥ - तत्त्वसं० का० ५६७ पृ० १९० । ४ " कषाय कुङ्कुमादिभ्यो वस्त्रे रूपान्तरोदयः । पूर्वरूपविनाशे हि वाससः क्षणिकत्वतः " ॥ -तत्त्वसं० का० ५६८ पृ० १९१ । ५ “नाप्येतदनुमानं पूर्वप्रत्यक्षगृहीतविषयत्वादलैङ्गिकत्वाच्च " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० १९१ पं० १० । ६ "पुनर्जलादिसापेक्षात् तस्मादेवोपजायते । रूपाद् रूपान्तरं शुक्लं लोहादेः श्यामतादिवत्" ॥ - तत्त्वसं० का० ५६९ पृ० १९१ । ७ “तादवस्थ्ये तु रूपस्य नान्येनाभिभवो भवेत् । प्राक्तनानभिभूतस्य स्वरूपस्यानुवर्तनात् ” ॥ — तत्त्वसं० का० ५७० पृ० १९१ । ८- श्चादनभिभवादुप-भां० म० । “स्यादेतत् कथमिदमवगम्यते रूपान्तरमेवोपजायते न पुनः प्राक्तनं रूपमभिभूतत्वात् प्रागनुपलब्धं सत् पश्चादभिभवाभावादुपलभ्यत इत्याह ” - तत्त्वसं० प०ि पृ० १९१ पं० १८ । ९-स्थायास्त- बृ० । “यथा तस्यैव प्राक्तनावस्थायाम् ” - तत्त्वसं ० पञ्जि० पृ० १९१ पं० २२ । १० “षष्ठीवचनभेदादि विवक्षामात्र संभवि । ततो न युक्ता वस्तूनां तत्खरूपव्यवस्थितिः ॥ तथाहि भिन्नं नैवान्यैः षण्णामस्तित्वमिष्यते । तेषां वर्गश्च नैवैकः कश्चिदर्थोऽभ्युपेयते” ॥ तत्त्वसं ० का ० ५७१-५७२ पृ० १९१-१९२ । ११ पृ० ६५९ पं० ५ । १२ पृ० ६५९ पं० ३ । १३ “संज्ञापकप्रमाणस्य विषये तत्त्वमिष्यते । षण्णामस्तित्वमिति चेत् षड्भ्योऽन्यस्ते प्रसज्यते” ॥ - तत्त्वसं० का० ५७३ पृ० १९२ । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । भ्युपगमो हीयेत । अथ षट्पदार्थव्यतिरिक्तानामपि धर्माणामभ्युपगमान्नायं दोषः । तथा च पदार्थप्रवेशके ग्रन्थे-"ऐवं धर्मैर्विना धर्मिणामुद्देशः कृतः" [प्रशस्तपादभा० पृ० २६ पं० १] इति, असदेतत् ; तैस्तेषां संबन्धानुपपत्तेः तमन्तरेण च धर्म-धर्मिभावायोगात् अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । न च संयोगलक्षणोऽत्र संवन्धः, संयोगस्य गुणत्वेन द्रव्येष्वेव भावात् । नापि समवायस्वरूपः, सत्तावत् तस्य सर्वत्रैकत्वाभ्युपगमात्, समवायेन च सह समवायसंबन्धे द्वितीयसमवायाभ्युपगमः स्यात्५ तत्र चानवस्था । न च षभिः पदार्थैर्धर्माणामुत्पादनात् 'तेषां ते' इति व्यपदेशः, तथाभ्युपगमे बदरायोऽपि कुण्डादिसंबन्धिनस्तथैव स्युः इति संयोगसमवायाख्यसंवन्धान्तरकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तिः । भवेतु वा षण्णामस्तित्वं धर्मान्तरम् तथापि व्यभिचार एव, तदस्तित्वे अपरास्तित्वाद्यभावेऽपि तदस्तित्वस्य अस्तित्व-प्रमेयत्व-अभिधेयत्वानि' इति षष्ठ्यादिप्रवृत्तेः । अथ तत्रापि अपरास्तित्वाभ्युपगमस्तदाऽनवस्थाप्रसक्तिः । न चेष्टत्वाद् अदोषः, सर्वेषामपि उत्तरोत्तरधर्माधारत्वाद् धर्मित्वप्रसक्तेः१० "डेव धर्मिणः प्रोक्ताः" [ ] इत्येतस्याऽनुपपत्तिः षट्पदार्थव्यतिरिक्तानामन्येषामपि वा धर्मिणामस्तित्वादीनां विशिष्टधर्माधाराणां संभवात् । न च धर्मिरूपा एव ये ते एव षट्वेन अवधारिता इति वक्तव्यम् , गुणादीनामनिर्देशप्रसङ्गात् न हि गुणादीनां धर्मिरूपतैव किन्तु द्रव्याश्रितत्वात् धर्मरूपत्वमपि । यस्त्वांह-"सदुपलम्भकप्रमाणगम्यत्वं षण्णामस्तित्वमभिधीयते, तच्च षट्पदार्थविषयं ज्ञानम् तस्मिन् सति 'सत्' इति व्यवहारप्रवृत्तेः । एवं 'ज्ञानजनितं ज्ञानज्ञेयत्वम्' 'अभिधा-१५ नजनितम् अभिधेयत्वम्' इत्येवं व्यतिरेकनिबन्धना षष्ठी सिद्धा, न चाऽनवस्था, न च षट्पदार्थव्यतिरिक्तपदार्थान्तरप्रसक्तिः ज्ञानस्य गुणपदार्थेऽन्तर्भावात" [ 1 सोऽप्ययुक्तवादी एवमपि अस्तित्वादेः षट्पदार्थाव्यतिरेके व्यभिचारस्य तदवस्थत्वात् , व्यतिरेके सप्तमपदार्थप्रसक्तेाय १ "षडेते धर्मिणः प्रोक्ता धर्मास्तेभ्योऽतिरेकिणः । इष्टा एवेति चेत् कोऽयं संबन्धस्तस्य तैर्मतः ॥ द्रव्येषु नियमाद् युक्ता न संयोगो न चापरः । समवायोऽस्ति नान्यश्च संबन्धोऽजीकृतः परैः" ॥ -तत्त्वसं० का० ५७४-५७५ पृ० १९२ । २ 'पदार्थधर्मसंग्रह' नामैको ग्रन्थः प्रशस्तपादापरनाम्ना प्रशस्तदेवेन रचितो विद्यते । तथाहि"प्रणम्य हेतुमीश्वरं मुनि कणादमन्वतः । पदार्थधर्मसंग्रहः प्रवक्ष्यते महोदयः"-प्रशस्त० कं. पृ० १ । अस्मिन्नेव प्रन्थे च ‘एवं धर्मविना' इत्यादि उपरि निर्दिष्टं वाक्यं विद्यते । पत्रिकाकृता कमलशीलेन टीकाकृता चाभयदेवेन स संग्रह एव पदार्थप्रवेशक इति नाम्नाऽत्र निर्दिष्टः प्रतिभाति । स च संग्रहः 'प्रशस्तपादभाष्यम्' इत्यपि प्रख्यातिं गतः। ३ एव ध-आ० विना । तथाहि पदार्थप्रवेशके ग्रन्थः(न्थे) “एवं धमैर्विना धर्मिणामेष निर्देशः कृत इति" -तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० १९२ पं० २६ । "तथा च पदार्थप्रवेशकग्रन्थः एवं धर्मविना धर्मिणामेव निर्देशः कृतः"-प्रमेयक. पृ० १५७ द्वि०५०८। "तथा च पदार्थप्रवेशकग्रन्थः-एवं धर्मविना धर्मिणामुद्देशः कृतः"-स्याद्वादर० पृ० ८७८ पं० १०।। ४ “संबन्धानुपपत्तौ च तेषां धर्मों भवेत् कथम् । तदुत्पादनमात्राच्चेदन्येऽपि स्युस्तथाविधाः" ॥ -तत्त्वसं० का० ५७६ पृ० १९३ । ५ "तस्याप्यस्तित्वमित्येवं वर्तते व्यतिरेकिणी । विभक्तिस्तस्य चान्यस्य भावेऽनिष्ठा प्रसज्यते” ॥ -तत्त्वसं० का० ५७७ पृ० १९३ । "अन्यधर्मसमावेशे प्राप्ता तत्र च धर्मिता । द्रव्यादेरपि धर्मिलमस्मादेव च संमतम्" ॥ -तत्त्वसं० का० ५७८ पृ० १९३ । ७ “ततश्च षडेते धर्मिण एव प्रोक्ता इत्येतन्नोपपद्यते"-तत्त्वसं० पजि. पृ० १९३ पं० २२ । पृ० ६६० टि०१३। ८ "षण्णामपि पदार्थानामस्तित्वाऽभिधेयत्वज्ञेयवानि” इत्यादि-प्रशस्त० के० पृ० १६ पं० १ । ९"अन्यः पुनराह-षण्णामस्तित्वं हि सदुपलम्भकप्रमाणगम्यत्वम् । गम्यत्वं च षदपदार्थविषयं विज्ञानम् तस्मिन् सति सद्व्यवहारप्रवर्तनात् । तथा ज्ञानजनितं ज्ञेयत्वम् अभिधानजनितमभिधेयत्वमिति । अतो व्यतिरेकनिबन्धना षष्ठी भवत्येव । न चाप्यनवस्था, नापि षट्पदार्थान्तरप्रसङ्ग इति । तस्यापीदं कल्पनामात्रमेव"-तत्त्वसं० पजि. पृ० १९३ पं. २७-पृ० १९४ पं०३। १. ज्ञानजनितं ज्ञानं शेयत्वम् बृ०। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे - प्राप्तत्वात् । किंच, यदि षण्णां पदार्थानामर्थक्रियासमर्थपदार्थस्वरूपं स्वतत्त्वं न स्यात् तदा शशशृङ्गरूपता तेषां भवेत् अर्थक्रियाऽसामर्थ्यात्, ततश्च कथं सदुपलम्भकप्रमाणगम्यता तेषाम् । अथ अर्थक्रियासमर्थ रूपं तेषां विद्यते तदा ते तद्रूपा एव, भेदान्तरप्रतिक्षेपमात्र जिज्ञासायां 'तेषामस्तित्वम्' इत्येवं यदि व्यपदेशं व्यतिरेकविभक्त्या समासादयन्ति तदा न कश्चिद् विरोधः । न हि तदव्यतिरिक्त५ मपि स्वरूपं बुद्ध्याऽपकृष्य ततो व्यतिरिक्तमिव अभिधीयमानं विरोधभाग भवति, इच्छामात्रानुवि. धायित्वाद् वाच उत्पाद्यकथाश्रयाति सुन्दरपदार्थवचनवत् । ६६२ भिन्नकर्तृकत्वाद्यनुमानमपि असंगतम्, यतो यदि अप्राप्तपटव्यपदेशेभ्यस्तन्तुभ्यः प्राक्तनावस्थेभ्यो भेदः पटस्यात्र साध्यते तदा सिद्धसाध्यताप्रसक्तिः सर्वभावानां क्षणिकत्वेन तद्विलक्षणपटाख्यपदार्थानुत्पादे ऽपि प्रतिक्षणं भिन्नत्वात् । अर्थे पटावस्थायां ये तन्तवस्तेभ्यः पटस्य भेदः साध्यस्तदा हेतू१० नामसिद्धता न हि तदवस्थाभावितन्तुभ्यः पटस्य भेदाप्रसिद्धौ भिन्नकर्तृकत्वादयो धर्माः सिद्धिमासादयन्ति । न च तत्सिद्धिः इदानीमेव तत्सिद्धये साधनस्योपन्यासात् । न च 'तन्तवः' 'पटः ' इति च संज्ञामात्रात् पदार्थानां भेदसिद्धिः, संज्ञान्तरस्य प्रयोजनान्तरवशेनापि संकेतनात् । तथाहियोषित्कर्तृकास्तन्तवः शीतापनोदाद्यर्थाऽसमर्थाः तन्तुशब्द समावेशभाजः, कुविन्दकर्तृका विशिष्टावस्थाप्राप्ताः प्रावरणाद्यर्थक्रियासमर्थाः पटव्यपदेश समावेशिनस्तदर्थक्रियाप्रतिपादनाय व्यवहारि१५ भिस्तथा तत्र संकेतकरणात् अन्यथा गौरवाऽशक्ति-वैफल्यदोषप्रसङ्गात् । तथाँहि-यदि यावन्तो भावा विवक्षितैककार्यनिर्वर्तनसमर्थास्तेषु तावन्तः शब्दा निवेश्यन्ते तदा गौरवदोषः, न चैषामसाधारणं रूपं निर्देष्टुं शक्यमिति अशक्तिदोषः, उत्प्रेक्षितसामान्याकारेण निर्देशे वरं 'पटः' इत्येकयैव श्रुत्या प्रतिपादनं कृतम् न च किञ्चित् फलमस्य प्रत्येकं पृथगभिधानप्रयासस्य पश्याम इति वैफल्यदोषः । समस्त्येन त्वभिधाने सति व्यवहारलाघवादिर्गुण इत्येकार्थक्रियाकारिषु अनेकेषु एकशब्द२० संकेत उपपन्नः सकलवस्तुविवक्षायां 'जगत्' 'त्रिभुवन' 'विश्व' आदिशब्दवत् । एवम् एकवचनादिकं सांकेतिकं व्यवहारलाघवार्थमुपादीयमानं न वास्तवं तयोर्भेदं प्रसाधयति । विशिष्टावस्था प्राप्तानां चाणूनामिन्द्रियग्राह्यत्वाद् अतीन्द्रियत्वमसिद्धमिति न अवयव्यभावे प्रतिभासविरतिप्रसक्तिर्दूषणम् न हि सर्वदैव इन्द्रियातिक्रान्तस्वरूपाः परमाणवः क्षणिकवादिभिरभ्युपगम्यन्ते तेषां सर्वदैक १ पृ० ६५९ पं० ७। २ "प्रथमेभ्यश्च तन्तुभ्यः पटस्य यदि साध्यते । मेदः साधनवैफल्यं दुर्निवारं तदा भवेत् ॥ प्राप्तावस्थाविशेषा हि ये जातास्तन्तवोऽपरे । विशिष्टार्थक्रियासक्ताः प्रथमेभ्योऽविलक्षणाः" ॥ - तत्त्वसं० का० ५७९-५८० पृ० १९४ । ३ - ध्यते तत् सि - भ० मां० । “यदि प्रथमावस्थाभाविभ्योऽसमधिगतपटाख्यानेभ्यस्तन्तुभ्यः पटस्य भेदः साध्यते तदा सिद्धं साध्यते” – तत्त्वसं० पक्षि० पृ० १९४ पं० १४ । ४ “एककार्योपयोगित्वज्ञापनाय पृथक् श्रुतौ । गौरवाऽशक्तिवैफल्य दोषत्यागाभिवाञ्छया ॥ साकल्येनाभिधानेन व्यवहारस्य लाघवम् । मन्यमानैः कृता येषु वागेका व्यवहर्तृभिः ॥ तेभ्यः समानकाल पटो नैव प्रसिध्यति । विभिन्नकर्तृसामर्थ्यपरिमाणादिधर्मवान् ॥ - तत्त्वसं० का० ५८१-५८३ १० १९४ । ५ “यावता स एवायं तन्तुव्यतिरेकी पटो न सिद्धः तद्भेदस्यैव प्रसाधयितुं प्रस्तुतत्वात् " - तत्त्वसं० पक्षि० पृ० १९४ पं० २७ – ६ “न च 'पटः' 'तन्तवः' इति संज्ञामात्राद् वस्तूनां भेदः " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० १९५ पं० १ । ७ " तथाहि - तत्र यावन्तः पदार्था विवक्षितैककार्यसाधनयोग्यास्तावन्त एव शब्दाः प्रयोक्तव्या इति गौरवदोषः । न चाप्येषामसाधारणं रूपं शक्यं निर्देष्टुमित्यशक्तिदोषः । उत्प्रेक्षितसामान्याकारेण च निर्देशे क्रमेकयैव श्रुत्या प्रतिपादनम् न चास्य पृथक्पृथक्प्रतिपादनप्रयासस्य किञ्चित् फलमुपलभ्यते इति वैफल्यदोषः " - तत्त्वसं ० पञ्जि० पृ० १९५०७-१०। ८ "सामस्त्येन त्वभिधाने कृते सति व्यवहारलाघवं गुणः " - तत्त्वसं० पजि० पृ० १९५ पं० ११ । ९० ६५९० १२ टि० ७ । १० “अन्योन्याभिसराश्चैवं ये जाताः परमाणवः । नैवातीन्द्रियता तेषामन्यानां ( मन्येषां ) मोचरत्वतः ॥ नीलादिः परमाणूनामाकारः कल्पितो निजः । नीलादिप्रतिभासा च वेद्यते चक्षुरादिधीः" ॥ - तत्त्वसं० का० ५८४-५८५ पृ० १९५ । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । ६६३ स्वभावताविरहात् । ततः परस्पराविनिर्भागवर्तितया सहकारिवशादुत्पन्नाः परमाणव एव अध्यक्षविषयतामुपयान्तीत्यभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा विजातीयानां द्रव्याऽनारम्भकत्वात् पविकतप्तोपल - हेमसूतादेरुपलम्भो न स्यात् । न च तत्र संयोगस्योपलभ्यता, अदृष्टाश्रयस्य तस्यापि उपलम्भाविषयत्वात् वाय्वाकाशसंयोगवत् । ननु पौर्वापर्यादिदिग्भेदेन परमाणवो व्यवस्थिताः न च ते तद्रूपेण उपलभ्यन्त इति कथमध्यक्षतैषाम् ? नः सर्वैकारानुभवेऽपि यत्रैवांशे अभ्यासादिकारणसद्भावान्नि- ५ श्चयस्तत्रैवाध्यक्षविषयताव्यवस्थापनात् अन्यत्र तु गृहीतस्यापि व्यवहारायोग्यत्वेन निश्चयानुत्पत्तेरगृहीतकल्पत्वात् । ननुं अवयव्यभावे बहुषु परमाणुषु अक्षव्यापारेण 'एकः पटः' इति कथं प्रत्ययः ? न; अनेकसूक्ष्मतरपदार्थसंवेदनतः 'एकः' इति विभ्रमोत्पत्तेः प्रदीपादौ नैरन्तर्योत्पन्नसदृशापरापरज्वालादिपदार्थसंवेदनेऽपि एकत्वविभ्रमवत् । ननु भेदेन अनुपलक्ष्यमाणाः परमाणवः कथमध्यक्षाः ? न; विवेकेन अनवधार्यमाणस्य अनध्यक्षत्वे प्रदीपादौ पूर्वापरविभागेन अनुपलक्ष्यमाणे अनध्यक्षता - १० प्रसक्तेः अवयवविवेकेन वाऽगृह्यमाणोऽपि अवयवी कथं तथाप्रत्यक्षत्वेनेष्टः ? यदि च नीलादिनिर्भासे नाऽणवः प्रतिभान्ति तदा वाह्यार्थवादिना नीलादिज्ञानं निर्विषयं वाऽभ्युपगम्येत, सविषयं वा ? न तावन्निर्विषयम्, विज्ञानमात्रताप्रसक्तेः । सविषयत्वेऽपि नात्ममात्रविषयम्, विज्ञानवादप्रसक्तेरेव । बाह्यविषयत्वेऽपि नीलादिर्विषयः स्थूलरूपतया प्रतिभासमान एकः, अनेको वा ? एकोऽपि अवयवैरारब्धः, अनारब्धो वा ? तत्र न तावत् अयमुभयरूपोऽपि एको १५ युक्तः, स्थूलस्य एकस्वभावत्वविरोधात् । तथाहि यदि स्थूलमेकं स्यात् तदा एकदेशरागे सर्वस्य रागः प्रसज्येत, एकदेशाऽऽवरणे च सर्वस्य आवरणं भवेत् रक्ताऽरक्तयोः आवृताऽनावृतयोश्च भवदभ्युपगमेन एकत्वात् । न च परस्परविरुद्धधर्माध्यासेऽपि एकत्वं युक्तम् अतिप्रसङ्गात्, तथाऽभ्युपगमे वा विश्वमेकं द्रव्यं स्यात् ततश्च सहोत्पत्त्यादिप्रसङ्गः । न चैकदेशावरणे सर्वमावृतमुपलभ्यते इत्यध्यक्षविरोधः । अनुमानविरोधोऽपि । तथाहि यद् विरुद्धधर्माध्यासितं न तद् एकम्, २० यथा अश्व - महिषादिकमुपलभ्यमानाऽनुपलभ्यमानस्वरूपम्, आवृताऽनावृतस्वरूपेण च विरुद्धधर्माध्यासितं स्थूलमिति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः । सर्वस्य एकत्वप्रसङ्गो विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । “एकस्मिन् भेदाभावात् सर्वशब्दप्रयोगानुपपत्तिः " [ ] इति उद्यो १ “पौर्वापर्य विवेकेन यद्यप्येषामलक्षणम् । तथाऽप्यध्यक्षताऽबाधा पानकादाविव स्थिता " ॥ - तत्त्वसं० का० ५८६ पृ० १९५ । २ " तथाहि-- पानके तप्तोपले सूतहेमादौ च मित्रे परमाणव एव तथोपलभ्यन्ते " - तत्त्वसं० पजि० पृ० १९६ २ । ३ " सर्वेषामेव वस्तूनां सर्वव्यावृत्तिरूपिणाम् । दृष्टावपि तथैवेति न सर्वाकारनिश्चयः ॥ अकल्पनाक्षगम्येऽपि निरंशेऽर्थस्य लक्षणे । यद्भेदव्यवसायेऽस्ति कारणं स प्रतीयते" ॥ - तत्त्वसं० का० ५८७-५८८ पृ० १९६ । ४ “समान ज्वालासंभूतेर्यथा दीपेन विभ्रमः । नैरन्तर्य स्थितानेकसूक्ष्मवित्तौ तथैकधा " ॥ - तत्त्वसं० का० ५८९ पृ० १९७ । ५ " विवेकालक्षणात् तेषां नो चेत् प्रत्यक्षतेष्यते । दीपादौ सा कथं दृष्टा किं वेष्टोऽवयवी तथा" ॥ — तत्त्वसं० का० ५९० पृ० १९७ । ६ " एतावत्तु भवेदत्र कथमेषां न निश्चये । नीलादिपरमाणूनामाकार इति गम्यते ॥ तदप्यकारणं यस्मान्नैव ज्ञानमगोचरम् । न चैकस्थूलविषयं स्थौल्यैकत्वविरोधतः " ॥ - तत्त्वसं० का० ५९१-५९२ पृ० १९७ । ७ " स्थूलस्यैकस्वभावले मक्षिकापदमात्रतः । पिधाने पिहितं सर्वमासज्येताऽविभागतः ॥ रके च भाग एकस्मिन् सर्वं रज्येत रक्तवत् । विरुद्धधर्मभावे वा नानात्वमनुषज्यते " ॥ - तत्त्वसं ० का ० ५९३ - ५९४ पृ० १९८ । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ तृतीये काण्डे - करः । तथाहि - सर्वशब्दोऽनेकार्थविषयः, न च अवयवी नानात्मा इति कथं तत्र सर्वशब्दप्रयोगः येन एकदेशावरणे सर्वावरणप्रसक्तिरित्युच्येत ? असदेतत्; यतो य एव वस्त्रादयो भावा लोके प्रसिद्धास्त एव भवद्भिरपि अवयवित्वेन कल्पिताः, तंत्र च 'सर्व वस्त्रं रक्तम्' इत्यादिको लोके सर्वैकशब्दप्रयोगः प्रसिद्ध एवेति कथं तत्र तत्प्रयोगानुपपत्तिः ? यदर्थविवक्षायां रक्तादिशब्दप्रयोगो लोके तस्यामेव ५ अस्माभिरपि तत्प्रतीतिमनुसृत्य भवतां विरोधप्रतिपादनाय 'सर्व' आदिशब्दप्रयोगः क्रियते इति कथमस्यानुपपत्तिः ? किञ्च, स्थूलस्य एकत्वमभ्युपगच्छतो भवत एव अयं दोषः नास्माकम् तदनभ्युपगमात् । न च पटकारणेषु तन्तुषु उपचारतः पटाभिधानप्रवृत्तेः 'सर्व' आदि शब्दप्रयोगानुपपत्तिर्दोषः परस्यापि न भविष्यतीति वक्तव्यम्, एवं सर्वदैव बहुवचनप्रयोगापत्तेः । न हि भवदभ्युपगमेन बहुषु एकवचनमुपपत्तिमत् । न च अवयविगतां संख्यामादाय पटादिशब्दस्तदवयवेषु १० तन्त्वादिषु अपरित्यक्तात्माभिधेयगतलिङ्गादिर्वर्तत इति वाच्यम्, अस्य व्यपदेशस्य गौणत्वे स्खलवृत्तितयाऽगौणाद् भेदप्रसक्तेः न चासावस्ति । तथाहि - 'रक्तं सर्व वस्त्रम्' इत्यत्र नैवं बुद्धि: - 'न वस्त्रं रक्तम्, किन्तु तत्कारणभूतास्तन्तवः' इति । किञ्च भेदेनोपलब्धयोग- वाहीकयोर्मुख्योप चरितशब्दद्विषयता संभवति । न च अवयवाऽवयविनोः कदाचिद् भेदेनोपलब्धिरिति नात्रोपचरितशब्दप्रयोगो युक्तः । १५ शंकरस्वामी अत्राह — “ 'वस्त्रस्य रागः' कुङ्कुमादिद्रव्येण संयोग उच्यते, स च अव्याप्यवृत्तिः तत एकत्र रक्तेन सर्वस्य रागः न च शरीरादेरेकदेशावरणे सर्वस्य आवरणं युक्तम्" [ इति, असदेतत्ः यतो यदि पंटादिर्निरंशमेकं द्रव्यम् तदा किं कुङ्कुमादिना तत्र अव्याप्तम् येन ] १ एतदुद्योतकरमतं वार्तिके शब्दान्तरेणेत्थं प्रतिभाति - " यत् पुनरेतद् अवयवी अवयवेषु वर्तमान एकदेशेन वर्तते कृत्स्नो वा वर्तत इति ? तन्न एकस्मिन् भेदाभावाद् भेदशब्दप्रयोगानुपपत्तेरप्रश्नः ॥ ११ ॥ एकस्मिन् भेदाभावाद् भेदशब्दप्रयोगानुपपत्तेरप्रश्नः । कृत्स्नमिति च एकदेश इति च भेदविषयावेतौ शब्दौ न चैता - वेकस्मिन्नुपपन्नौ—अनेकस्याशेषता कृत्स्नशब्दस्यार्थः अशेषस्य कस्यचिदभिधानमेकदेशशब्दस्य । न चैतद् इहोपपद्यते इति । तस्मान्नावयविनि कृत्स्नशब्दो नाप्येकदेशशब्द इति” – ४ - २ - ११ न्यायवा० पृ० ५०५ पं० ४-१२ । " एकस्मिन् कृत्स्नैकदेशशब्दासंभवादप्रश्नः” इत्याद्यपि अवयवसाधनवार्तिकमत्रावगन्तव्यम् - न्यायवा० पृ० २१४ पं० १३ । “उद्योतकरस्त्वाह – एकस्मिन् भेदाभावात् सर्वशब्दप्रयोगानुपपत्तिरिति ” - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० १९८० १४ । २ “ननु चैकखभावत्वात् सर्वशब्दोऽत्र किंकृतः । स ह्यनेकार्थविषयो नानात्मावयवी न च " ॥ — तत्त्वसं० का० ५९५ पृ० १९८ । ३ " ननु ये लोकतः सिद्धा वासो - देह - नगादयः । त एवावयविवेन भवद्भिरुपवर्णिताः ॥ रक्तं वासोऽखिलं सर्वं निःशेषं निखिलं तथा । तत्रेच्छामात्र संभूतमिति सर्वे प्रयुञ्जते ॥ तथाविधविवक्षायामस्माभिरपि वर्ण्यते । सर्वं स्याद् रक्तमित्यादि निर्निबन्धा हि वाचकाः " ॥ — तत्त्वसं० का० ५९६-५९८ पृ० १९८ । ४ “तत्र च लोके सर्वैकदेशशब्दयोः प्रवृत्तिः प्रसिद्धैव । तथा च वक्तारो भवन्ति - सर्वं वासो रक्तमित्यादेः” - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० १९९ पं० १ । नास्माकम् न हि अस्माभिः स्थूलस्यैकत्वमिष्यते” - तत्त्वसं० पक्षि० पृ० १९९ पं० ४-५ । ५ “अपि च भवत एवायं स्थूलस्यैकत्वमभ्युपगच्छतो दोषः ६ “भाक्तं तदभिधानं चेद् वचोमेदः प्रसज्यते । न च बुद्धेर्विभेदोस्ति गौण - मुख्यतयेष्टयोः” ॥ - तत्त्वसं० का० ५९९ - पृ० १९९ / ७ " ननु चेत्यादिना शंकरखामिनः परिहारमाशङ्कते - ce ननु चाव्याप्यवृत्तित्वात् संयोगस्य न रक्तता । सर्वस्यासज्यते नापि सर्वमावृतमीक्ष्यते” ॥ — तत्त्वसं० का० ६०० पृ० १९९ । ८ " ननु चानंशके द्रव्ये किमव्याप्तं व्यवस्थितम् । स्वरूपं तदवस्थाने भेदः सिद्धोऽत एव वा ॥ बहुदेशस्थितिस्तेन नैवैकस्मिन् कृतास्पदा । ततः सिद्धा पटादीनामणुभ्योऽनेकरूपता" ॥ - तत्त्वसं का० ६०१-२ पृ० १९९-२०० । ९ पटादि नि - वा० बा० । “यदि हि पटादिरेकमेव द्रव्यम्" - तत्त्वसं० पजि० पृ० २०० पं० ३ । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । संयोगोऽव्याप्यवृत्तिर्भवेत् ? अथ अव्याप्तमपि किञ्चिद् रूपं तत्रावस्थितं तदा तयोर्भेदः व्याप्ताऽव्याप्तयोर्विरुद्धधर्माध्यासत एकस्वभावत्वायोगात् । न च पृथुतरदेशावस्थानमेकस्य युक्तम् निरंशत्वात्, अन्यथा सर्वत्र स्थूलसूक्ष्मादिभेदो न स्यात् एकत्वेन अविशेषात् । न चाल्पबह्ववयवा - रम्भादिकृतोऽसौ विशेषोऽवयवानाम् तथाभेदेऽपि अवयविनां निरंशतया परस्परं विशेषाभावात्, अवयवाल्पबहुत्वग्रहणकृते च स्थूलादिव्यवहारे अवयवमात्रमेव अभ्युपगतं दृश्यत्वेन स्यात् ५ स्थूलादिव्यतिरेकेण अन्यस्य अदृश्यमानत्वात् । किञ्च, अवयवाल्पबहुत्वकृते तथाभेदे अवयवा एव तथा तथा उत्पद्यमाना अल्पबहुतराः स्थूलसूक्ष्मादिव्यवस्थानिबन्धनं भविष्यन्ति किं तदारब्धावयविकल्पनया तस्य कदाचिदपि अदृष्टसामर्थ्यत्वात् ? किञ्च, अव्याप्यवृत्तिः संयोग इति यदि 'सर्व द्रव्यं न व्याप्नोति' इत्ययमर्थस्तदा द्रव्यस्य 'सर्व' शब्दाविषयत्वाभ्युपगमाद् अयुक्तः । अथ तदेकदेशवृत्तिः, तदसंगतम् ; तस्य एकदेशासंभवात् । न च 'तदारम्भके अवयवे वर्तते' इत्यर्थप्रकल्पना, १० अवयवानामेव रक्तत्वात् तदवयविरूपस्य अरक्तत्वप्रसक्तेर्युगपद् रक्ताऽरक्तरूपद्वयोपलब्धिः प्रसज्येत । किञ्च तदारम्भकोऽपि अवयवो यदि अवयविरूपस्तदा संयोगस्य अव्याप्यवृत्तितया तत्रापि एकदेशवृत्तित्वमिति तुल्यः पर्यनुयोगः । अथ अणुरूपस्तदा अणूनामतीन्द्रियत्वात् तदाश्रितः संयोगोऽयतीन्द्रिय एवेति न रक्तोपलम्भो भवेत् । न च यथा अङ्गुलिरूपस्य आश्रयोपलब्धावेवोपलब्धिर्व्याप्तिस्तथा संयोगस्य आश्रयोपलब्धावेवोपलब्धिर्न विद्यते इति अव्याप्यवृत्तिरसावुच्यते इति १५ वक्तव्यम्, संयोगस्यापि आश्रयानुपलब्धावनुपलब्धेः अन्यथा घट-पिशाचसंयोगस्यापि उपलब्धिः स्यात् । एवं च अङ्गुलिरूपवद् रागस्यापि अदृष्ट्राश्रयस्य अनुपलब्धेराश्रयोपलब्धावेवोपलब्धिरिति व्याप्यवृत्तिरसावपि स्यात् । अथ अरक्तेष्ववयवेषु समवेतस्य द्रव्यस्योपलब्धावपि न रागस्य संयोगस्वभावस्योपलब्धिरित्याश्रयोपलब्धौ नास्योपलब्धिरित्यव्याप्यवृत्तित्त्वम् नः रक्तारक्तावयवसमवेतस्य अवयविन एकत्वात् रक्तेऽप्यवयवे रागस्य तद्वारेण अनुपलब्धिप्रसङ्गात् आश्रयोपलम्भेऽपि तस्या - २० ऽनुपलम्भात् । न चान्यः संयोगग्रहणोपायः आश्रयोपलम्भात् समस्ति ततो नैकरूपो विषयो युक्तः । अनेकरूपोऽपि अणुसंचयात्मक एवं सामर्थ्यात् सिद्ध: विद्यमानावयवस्य एकत्वायोगात् । ततः पटादीनां परमाणुरूपत्वाद् नीलादिः परमाणूनामाकारः सिद्धः स्थूलरूपस्यैकस्य अपरस्य विषयस्यासंभवात् । नै च 'परमाणु' इति व्यपदेशः स्थूलस्यैकस्याऽभावे अयुक्तः, कल्पितस्थूलापेक्षयाऽपि तद्व्यपदेशस्य संभवात् । ततो न स्थूलमेकं द्रव्यमवयवाऽनारब्धमपि घटते तदारब्धं तु सुतराम - २५ संभवि । तथा च यद् अनेकम् न तद् एकद्रव्यानुगतम्, यथा घट- कुट्यादयः, अनेके च तन्त्वादयः इति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः । यद्वा-येद् एकम् न तद् अनेकद्रव्याश्रितम्, यथा एकपरमाणुः, एकं च अवयविसंज्ञितं द्रव्यमिति व्यापकविरुद्धोपलब्धिप्रयोगः प्रसङ्गसाधनरूपः । प्रयोगद्वयेऽपि अवयविनोऽवयवेषु वृत्त्यनुपपत्तिर्विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । स च एकावयवक्रोडीकृतेन वा स्वभावेन १ " तेषामवयवाल्पबहुत्वग्रहणकृते विशेषेऽवयवमात्रमेवाभ्युपगतं स्यात् तत्रैव स्थूलादिव्यवहारात् ततश्चाणुमात्रमेव दृश्यत्वेनाभ्युपेतं स्यात् । स्थूलसूक्ष्मा (क्ष्म ?) व्यतिरेकेणान्यस्य (स्या ? ) दृश्यमानत्वात् " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० २०० पं० ११-१३ । २- लब्धिव्या - वा० वा० आ० | " स्यान्मतं यथा व्याप्तिरङ्गुलिरूपस्याश्रयोपलब्धावेवोपलब्धिरुच्यते” - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० २०० पं० १९-२० । ३ पृ० ६५९ पं० १२ टि० ७ । ४ "अविज्ञातार्थतत्त्वस्तु पिण्डमेकं च मन्यते । लोकस्तत्कल्पितापेक्षः परमाणुरिहोच्यते ॥ निमित्तनिरपेक्षा वा संज्ञेयं तादृशि स्थिता । सङ्केतान्वयिनी यद्वन्निर्वित्तेऽपीश्वरश्रुतिः” ॥ तत्त्वसं० का० ६०३-६०४ पृ० २०१ । ५ " एकावयव्यनुगता नैव तन्तु करादयः । अनेकत्वाद् यथा सिद्धाः कट-कुट्य-कुटादयः ॥ यदि वाभिमतं द्रव्यं नानेकावयवाश्रितम् । एकत्वादणुवद् वृत्तेरयुक्तिर्बाधिका प्रमा” ॥ - तत्त्वसं० का० ६०५-६०६० २०१ । ६ " तद्धकवृत्तिभाजैव रूपेणावयवान्तरे । वर्तेत यदि वाऽन्येन न प्रकारान्तरं यतः ॥ तत्र तेनैव नान्यत्र वृत्तिरस्यावकल्पते । तेन क्रोडीकृतलेन नान्यथा तत्र वृत्तिमत्" ॥ ६६५ ----तत्त्वसं० का० ६०७-६०८ ५० २०१-२०२ । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डेअवयवी अवयवान्तरे वर्तते, उत स्वभावान्तरेण प्रकारान्तरासंभवात् ? यदि तेनैव इति पक्षः, सन युक्तः; तस्य तेनैव अवयवेन क्रोडीकृतत्वात् अन्यत्र वर्तितुमशक्तेः, शक्तौ वा तत्राऽवयवे तस्य सर्वात्मना वृत्त्यनुपपत्तिः अपरस्वभावाभावान्न तस्य अपरावयववृत्तिखभावः, तद्भावे वा एकत्वहानिप्रसक्तेः । तथाहि-यत् एककोडीकृतम् न तत् तदैव अन्यत्र प्रवर्तते, यथा एकभाजनक्रोडी५ कृतमाम्रादि न तदैव भाजनान्तरमध्यमध्यास्ते, एकावयवक्रोडीकृतं च अवयविखरूपम् इति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः । एकावयवसंबद्धखभावस्य अतद्देशावयवान्तरसंबद्धखभावताऽभ्युपगमे तदवयवानामेकदेशताप्रसक्तिर्विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । एकदेशतायां च ऐकात्म्यम् अविभक्तरूपत्वात्, विभक्तरूपावस्थितौ च एकदेशत्वं न स्यात् । अथ स्वभावान्तरेण अवयवान्तरे वृत्तिस्तदा एकोऽनेकवृत्तिर्न स्यात् स्वभावभेदात्मकत्वाद् वस्तुभेदस्य अन्यथा तदयोगात् । १० “'अवयवी अवयवेषु वर्तते' इति समवायरूपा प्राप्तिरुच्यते" [ ] इति उद्द्योतकराऽभ्युपगमेऽपि 'किमेकावयवसमवेतेनैव स्वभावेन अवयवान्तरेषु वर्तते, अथ अन्येन' इति विचारः समान एवेति कृत्स्नैकदेशशब्दानुच्चारणेऽपि वृत्त्यनुपपत्तिर्युक्ता, तदुच्चारणेऽपि सा युक्तैव । तथाहि-यदि सर्वात्मना प्रत्येकमवयवेषु अवयवी वर्तेत तदा यावन्तोऽवयवास्तावन्त एव १ "नैव धात्र्यन्तरकोडमध्यास्ते हि यथा शिशुः । एककोडीकृतं द्रव्यं नाश्रयेत तथाऽपरम्" ॥ -तत्त्वसं० का०६०९ पृ. २०२। २ “तत्संबद्धखभावस्य ह्यतद्देशेऽपि वृत्तितः । प्राप्तं तदेकदेशवमैकात्म्यं चाविभागतः ॥ अन्येनैवात्मना वृत्तौ नैकोऽनेकव्यवस्थितः । सिध्येत् खभावभेदस्य वस्तुभेदात्मकत्वतः" ॥ -तत्त्वसं० का०६१०-६११ पृ. २०२ । ३ "तस्माद् आश्रयाश्रितधर्मिनिर्देशमात्रमवयव्यवयवेषु वर्तत इति । का पुनरियं वृत्तिः? एकस्यानेकत्राश्रयाश्रितभावलक्षणा प्राप्तिः"-न्यायवा० पृ. २१४ पं० २२-तथा पृ० ५०५ पं० २० । "उद्योतकरस्वाह-आश्रयाश्रितधर्मनिर्देशमात्रमेतत् अवयव्यवयवेषु प्रवर्तत इति । आश्रितभावलक्षणा हि समवायरूपा प्राप्तिरुच्यत इति ।"-तत्त्वसं० पजि० पृ. २०२ पं० २६-। ४ “समवायात्मिका वृत्तिस्तस्य तेष्विति चेन्ननु । तस्यामपि विचारोऽयं कोपेनैव प्रधावति"॥ -तत्त्वसं० का० ६१२ पृ. २०३ । ५ “यद्वा सर्वात्मना वृत्तावनेकत्वं प्रसज्यते । एकदेशेन चानिष्टा नैको वा न क्वचिच्च सः॥ -तत्त्वसं० का० ६१३ पृ. २०३ । “अपि चैकोऽनेकत्र वर्तत इति प्रतिजानानो नानुयोक्तव्यः कस्मात् ? उभयेन व्याघातात्-एकमनेकत्र वर्तते इति ब्रुवाणः किमेकदेशेन वर्तते उत सर्वात्मना इति नानुयोक्तव्यः । कस्मात् ? उभयेन व्याघातात् यदि एकमनेकत्र वर्तमानं प्रत्यवयवं सर्वात्मना वर्तते नैकमनेकत्र वर्तते अनेकमनेकत्र वर्तत इत्यापन्नम् । एवं चानुयोगेऽधिकरणव्याघातः । अथैकमनेकत्र वर्तमान प्रत्यवयवमेकदेशेन वर्तते तथापि नैकमनेकत्र वर्तत इति प्राप्तम् अनेकमनेकत्र वर्तत इत्यापन्नम् । ये च त(त्र) एकदेशाः प्रत्येकमवयवेषु वर्तन्ते तेऽवयविन इति प्राप्तम् । एतस्मिन् पक्षे नैकमनेकत्र वर्तते किं तर्हि ? अनेकमनेकत्रेति । अथ प्रत्येक परिसमाप्या वर्तत इति अयमर्थोऽनेकमनेकत्र वर्तत इति" इत्यादि-न्यायवा० पृ. २१५५०३-१३। तथा "कृत्स्नैकदेशावृत्तिखादवयवानामवयव्यभावः ॥ ७ ॥ अवयवा अवयविनि वर्तमानाः कृत्स्नेन वर्तन्ते एकदेशेन वा ? तत्र तावदवयवा अवयविनि कृत्स्ने न वर्तन्ते अवयवावयविनोः परिमाणभेदात् । अल्पपरिमाणोऽवयवो महापरिमाणश्चावयवीति अल्पपरिमाणेन महापरिमाणस्याव्याप्तिः एकद्रव्यश्च अवयवः प्राप्नोति एकावयविवृत्तित्वात् । न चैकद्रव्यं द्रव्यमविनश्यदाधारमस्ति । नापि अवयव्येकदेशेन वर्तते न हि अस्यान्ये अवयवा एकदेशभूताः सन्ति । तस्मिन्नपि चैकदेशेन वर्तमानोऽवयवः किमेकदेशेन वर्तते कृत्स्नेन वेति पूर्ववत् प्रसङ्गः" इत्यादि -न्यायवा० पृ० ५०३ पं. ९-१९ । अवयविनः प्रत्यवयवमेकदेशेन वृत्तिः कासयेन वा प्रकारान्तराभावात् ? न तावदेकदेशेन वृत्तिः अवयवव्यतिरेकेणास्यैकदेशाभावात् । कार्येन वृत्तौ वा अवयवान्तरे वृत्त्यभावः एकावयवसंसर्गावच्छिन्ने खरूपे अवयवान्तराणामनवकाशात तत्स्वरूपव्यतिरेकेण चास्य खरूपान्तराभावात्" इत्यादि-प्रशस्त. कं० पृ. ४२ पं० १७-२० । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ६६७ अवयविनः स्युः स्वभावमेदमन्तरेण प्रत्यवयवं तस्य सर्वात्मना वृत्त्यनुपपत्तेः । एवं च युगपदनेककुण्डादिव्यवस्थितबिल्वादिवद् अनेकावयव्युपलब्धिप्रसक्तिः । अथ एकदेशेन असौ तेषु वर्तते इति नवस्थाप्रसक्तिः तेषु अपि अवयवेषु वृत्तौ अपरैकदेशवत्तिकल्पनया । अथ यैरेकदेशैरवयवी अवयवेषु वर्तते ते तस्य स्वात्मभूता इति नानवस्था तर्हि तद्वत् पाण्यादयोऽपि अवयवास्तस्य खात्मभूताः किं नाऽभ्युपगम्यन्ते ? तथाऽभ्युपगमे चापरावयवप्रकल्पना न स्यात् अवयवप्रचया-५ त्मकत्वात् तस्य। नन्विदं प्रसङ्गसाधनम्, खतन्त्रसाधनं वा? स्वतन्त्रसाधने अवयविनोऽप्रसिद्धराश्रयासिद्धत्वादिदोषः । न च वृत्या परस्य सत्त्वं व्याप्तम् येन तन्निवृत्तौ तत्सत्त्वव्यावृत्तिर्भवेत् वृत्त्यभावेऽपि रूपादेः परेण सत्त्वाभ्युपगमात् । एकदेशेन सर्वात्मना वा अवयविनो वृत्तिप्रतिषेधे विशेषप्रतिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञानलक्षणत्वात् प्रकारान्तरेण वृत्तिरभ्युपगता स्यात् । यथा च वृत्तिद्वयमुपलम्भादभ्युप-१० गम्यते तथा अवयविनि वृत्तेरुपलम्भात् प्रकारान्तरेण असो किं नाभ्युपगम्यते? वृत्तिश्च समवायः तस्य सर्वत्रैकत्वात् निरवयवत्वाच्च कृत्स्नैकदेशशब्दाविषयत्वम् । अथ प्रसङ्गसाधनम् तदपि अवयविनः वृत्तेश्च अनुपलम्भेऽयुक्तम् । न च परस्य भवतो वा कारुयैकदेशाभ्यामनेकस्मिन् एकस्य वृत्तिरुपलब्धिगोचरः यस्या असंभवाद् अवयविद्रव्यमसत् स्यात् । अथ एवंभूता वृत्तिः क्वचिद् उपलब्धा तदा अवयविन्यपि सा भविष्यतीति न तत्प्रतिषेधो युक्तः, वृत्तिमात्रस्य चानुपलम्भे १५ 'एकदेशेन सर्वात्मना वा' इति विशेषप्रतिषेधोऽनुपपन्नः सिद्ध धर्मिणि तस्योपपत्तेः धर्म्यसिद्धौ च तस्यैव प्रतिषेधो विधेयः तेनैतावदेव वक्तव्यम् 'वृत्तिरेव नास्ति' इति, न चैतदपि युक्तम् । अध्यक्षत एव अवयवेषु अवयविनो वृत्तिसिद्धेः । तथाहि-इन्द्रियव्यापारे सति 'इह तन्तुषु पटः' इति बुद्धिरबाधितरूपोपजायत एव । न च अबाधितरूपाया अस्या अप्रत्यक्षत्वं युक्तम् रूपादिस्खलक्षणग्राहिणोऽप्यध्यक्षस्य अनध्यक्षताप्रसक्तेः-अविशेषात् , असदेतत् ; यतो नेमस्माभिः स्वतन्त्रसाधनमभिधी-२० यते किन्तु प्रसङ्गसाधनम् , तस्य च 'व्याप्यव्यापकभावसिद्धौ व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयकः व्यापकनिवृत्तिर्वा व्याप्यनिवृत्त्यविनाभाविनी' इत्येतत्प्रदर्शनफलस्य प्रवृत्तियुक्तैव । व्याप्यव्यापकभावसिद्धिश्चात्र लोकप्रसिद्धैव भवताऽभ्युपगमनीया । लोकश्च कस्यचित् सर्वात्मना वृत्ति कुत्रचिभ्युपगच्छति, यथा-श्रीफलस्य कुण्डादौ, क्वचिच्च कस्यचिद् एकदेशेन, यथा-अनेकपीठाधिशयितस्य चैत्रादेः। यत्र च प्रकारद्वयं वृत्तावृत्तं तत्र वृत्तेरभाव एव कथं न व्याप्तिसिद्धिर्येनात्र २५ प्रसङ्गसाधनस्यावकाशो न स्यात् ? निरस्ता च प्रागेव अनेकस्मिन् एकस्य वृत्तिः न पुनः प्रतिपाद्यते । यच्च अध्यक्षत एव वृत्तिः सिद्धा 'इह इदम्' इति अक्षानुसारिबुद्धयुत्पत्तेः, तदप्यसंगतम्। यतो न 'इह तन्तुषु पटः' इतिविकल्पिकाऽपि लोके बुद्धिः प्रवर्तते किं तर्हि ? 'पटे तन्तवः' इति । न चाऽध्यक्षे तन्तुसमवेतं व्यतिरिक्तं पटादिद्रव्यमवभासते । न च विवेकेन अप्रतिभासमानस्य 'इद्द १-मे वाप-वा० बा० । “एवं हि सति एकोऽवयवी न स्याद् अवयवप्रचयमात्ररूपत्वात् तस्य तथा च सति दृष्टपाण्यादिसमुदायमात्रात्मक एवास्ता वस्तु किमपरस्तस्य खात्मभूतैरवयवैः परिकल्पितैः"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २.३ पं०१८-1 २“ “खातब्येण' इत्यादिना शङ्करस्वामिनः परिहारमाशङ्कते खातच्येण प्रसङ्गेन साधनं यत् प्रवर्तते । स्वयं तदुपलब्धौ हि सत्यां संगच्छते न तु ॥ न च कालर्यैकदेशाभ्यां वृत्तिः क्वचन लक्षिता। यस्या असंभवाद् द्रव्यमसत् स्यादपरोऽपि च ॥ दृष्टौ वा क्वचिदेतस्या द्रव्यादावनिवारणम् । अथ तस्मिन्नदृष्टौ तु भेदे प्रश्नो न युज्यते ॥ एतावत् तु भवेद् वाच्यं वृत्तिनास्तीति तच्च न । युक्तं प्रत्यक्षतः सिद्धेरिहेदमिति बुद्धितः ॥ प्रत्यक्षं न तदिष्टं चेद् बाधकं किञ्चिदुच्यताम् । रूपादिचेतसोऽपि स्यान्नैव प्रत्यक्षताऽन्यथा" ॥ -तत्त्वसं. का. ६१४-६१८ पृ. २०३-२०४ । ३-दिदोषः वृ. आ० । “स ह्याह-खातव्येण प्रसङ्गमुखेन वा यत् साधनं क्रियते तत् खयमुपलब्धौ सत्यां संग. च्छते अन्यथा ह्यसिद्धता दोषः स्यात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २०४ पं० ७-८।। ४ “तदत्र वृत्तिर्नास्तीति प्रागभेदेन साधितम् । इहेत्यस्ति न च ज्ञानं तद्रूपाप्रतिभासनात्" ॥ -तत्त्वसं• का० ६१९ पृ. २०४। ५ पृ० ६६६ पं० १३ । ६० पृ. पं० १८॥ ८६ स०प्र० Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ तृतीये काण्डेइदं वर्तते' इति बुद्धिविषयता न हि विवेकेन अप्रतिभासमाने कुण्डादौ बदरादिके 'इह कुण्डे बदराणि' इति प्रत्ययः प्रादुर्भवति । यदपि 'कात्म्यैकदेशाभ्यां वृत्तिन क्वचिदुपलक्षिता' इति, तदप्यसंगतम् ; बैदरादेः कुण्डादौ सर्वात्मना, वंशादेरेकदेशेन स्तम्भादौ वृत्तेरुपलक्षणात् । यदपि उक्तमुद्द्योतकरेण-"एकस्मिन् अवयविनि कृत्स्नैकदेशशब्दप्रवृत्त्यसंभवात् अयुक्तोऽयं प्रश्नः-'किमेक५ देशेन वर्तते, अथ कृत्स्नो वर्तते' इति । 'कृत्स्नम्' इति हि खल्वेकस्य अशेषाभिधानम्, 'एकदेशः' इति च अनेकत्वे सति कस्यचिदभिधानम् , ताविमौ कृत्स्नैकदेशशब्दौ एकस्मिन्नवयविनि अनुपपन्नौ" [२-१-३२ न्यायवा०1 इति, तदपि प्रत्यक्तं प्राक्तनन्यायेनैव । तथा च 'कृत्स्नः पटः कुण्डे वर्तते, एकदेशेन वा' इत्येवं पटादिषु कृत्स्नैकदेशशब्दप्रवृत्तिदृश्यत एव । न चेयमुपचरिता, अस्खलदृत्तित्वात् । न च शब्दप्रवृत्त्यनुपपत्तिमात्रप्रेरणया वस्त्वर्थस्य प्रतिषेधः शक्यते विधातुम् , तत्र तच्छब्दा१० प्रवृत्तावपि व्याप्त्यव्याप्तिशब्दयोः प्रवृत्त्युपपत्तेः । तथाहि-'अवयवी अवयवेषु वर्तमानः प्रत्यवयवं किं व्यात्या वर्तते, उत अव्यात्या' इत्येवं विवक्षितार्थाभिधाने न कंचिद् दोषमुत्पश्यामः । तन्न नित्यानित्यरूपपृथिव्यादिचतुःसंख्यं द्रव्यमुपपत्तिमत् । __ आकाशाख्यैकनित्यद्रव्यप्रसिद्धये शब्दं गुणत्वाल्लिङ्गत्वेन प्रतिपादयन्ति । तथा च परेषां प्रयोगः-ये विनाशित्वोत्पत्तिमत्त्वादिधर्माध्यासिताः ते क्वचिद् आश्रिताः, यथा घटादयः, तथा च १५शब्दाः, तस्मादेभिराश्रितैः क्वचिद् भवितव्यम्, यश्चैषामाश्रयः स पारिशेष्याद् आका नायं शब्दः पृथिव्यादीनां वायुपर्यन्तानां गुणः, अध्यक्षग्राह्यत्वे सति अकारणगुणपूर्वकत्वात् , ये तु पृथिव्यादीनां चतुर्णा गुणास्ते बाह्येन्द्रियाध्यक्षत्वे सति अकारणगुणपूर्वका न भवन्ति, यथा रूपादयः, न च तथा शब्दः । एवम् 'अयावद्रव्यभावित्वात्' 'आश्रयाद् भेर्यादेरन्यत्रोपलब्धेश्च' इत्यादयो हेतवो द्रष्टव्याः । स्पर्शवतां यथोक्तविपरीता गुणा उपलब्धाः। 'प्रत्यक्षत्वे सति' इति च २० विशेषणं परमाणुगतैः पाकजैः अनैकान्तिकत्वं मा भूत् इत्युपात्तम् । न च आत्मगुणः अहंकारेण विभक्तग्रहणात् बाह्येन्द्रियाध्यक्षत्वात् आत्मान्तरग्राह्यत्वाच्च, बुद्ध्यादीनामात्मगुणानां तद्वैपरीत्योपलब्धेः । न दिक्-काल-मनसाम् श्रोत्रग्राह्यत्वात् । अतः पारिशेष्याद् गुणो भूत्वा आकाशस्य लिङ्गम् । आकाशं च शब्दलिङ्गाविशेषात् विशेषलिङ्गाभावाच्च एकम् विभु च सर्वत्रोपलभ्यमानगुण त्वात् समवायित्वे सति अनाश्रितत्वाच्च द्रव्यम्, अकृतकत्वान्नित्यम् । २५ परांऽपरव्यतिकर-योगपद्याऽयोगपद्य-चिर-क्षिप्रप्रत्ययलिङ्गः कालो द्रव्यान्तरम् । तथाहि १ पृ. ६६७ पं० १३ तथा पं. ९ टि. २॥ २ "कृत्स्नैकदेशशब्दाभ्यामयं चार्थः प्रकाश्यते । नैरंश्येनास्य किं वृत्तिः किं वा तस्यान्यथैव सा ॥ यथा पात्रादिसंस्थस्य श्रीफलादेर्यथाऽथवा । अनेकासनसंस्थस्य चैत्रादेरुपलक्षिता" ॥ -तत्त्वसं० का० ६२०-६२१-पृ० २०५। ३"एकस्मिन् कृत्स्नैकदेशशब्दासंभवादप्रश्नः-किमवयव्येकदेशेन वर्तते अथ कृत्स्नेनैव वर्तत इति न युक्तः प्रश्नः-नाव. यवी कृत्स्नो नैकदेशः । कृत्स्नमिति खलु अनेकस्याशेषस्याभिधानम् । एकदेश इति चानेकले सति कस्यचिदभिधानम् । ताविमौ कृत्स्नैकदेशशब्दावेकस्मिन्ननुपपन्नौ" इत्यादि-न्यायवा० पृ. २१४ पं० १३-। तथा पृ० ५०५५०६-१२ । "वृत्त्यनुपपत्तेश्च नैकत्रावयवे कासयेनावयवी वर्तते । तेष्वपि कथं वर्तते ? अन्यैरेकदेशैः तेष्वपि अन्यैरिति नास्त्यन्यः" इत्यादि-न्यायमज आ० ९ पृ. ५४९ पं० १२-१३ । ४"एवं वायुपर्यन्तं चतुर्विधं द्रव्यमपास्तम् आत्माख्यं तु प्रागेवात्मपरीक्षायां निरस्तम् । इदानीमाकाश-काल-दिगमनसा प्रतिषेधार्थमाह-"तत्त्वसं० पजि. पृ. २०५५० २० । ५ "समाश्रिताः क्वचिच्छब्दा विनाशिवादिहेतुतः । घठ-दीपादिवत् तच किल व्योम भविष्यति"॥ -तत्त्वसं. का. ६२२ पृ. २०५। "आदित्यादिक्रियाद्रव्यव्यतिरेकनिबन्धनम् । परापरादिविज्ञानं घटादिप्रत्ययो यथा ॥ वलीपलितकार्कश्यगत्यादिप्रत्ययादिदम् । यतो विलक्षणं हेतुः स च कालः किलेष्यते" ॥ -तत्त्वसे० का० ६२३-६२४ पृ. २०६। "द्रव्यशब्देन वलीपलितादयो ग्रहीतव्याः । परः पिता अपरः पुत्रः युगपत् चिरम् क्षिप्रम् क्रियते कृतं करिष्यते चेति यदेतत् परापराविज्ञानम्" इत्यादि-तत्त्वसं० पजि० पृ० २०६ पं० १४-१५ । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ६६९ 'परः पिता' 'अपरः पुत्रः' 'युगपत्' 'अयुगपत्' वा तथा, 'चिरम्' 'क्षिप्रम्' वा 'कृतम्' 'करिष्यते' वा इति यत् पराऽपरादिज्ञानम् तत् आदित्यादिक्रिया-द्रव्यव्यतिरिक्तपदार्थनिबन्धनम्, तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात् , घटादिप्रत्ययवत् । योऽस्य हेतुः स पारिशेष्यात् कालः। यतः न तावत् पराऽपरादिप्रत्ययः दिग्देशकृतोऽयम्, स्थविरे अपरदिग्भागावस्थितेऽपि 'परोऽयम्' इति प्रत्ययोत्पत्तेः । तथा, यूनि परदिग्भागावस्थितेऽपि 'अपरोऽयम्' इति ज्ञानप्रादुर्भावात् । न च वली-पलितादिकृतोऽयं ५ प्रत्ययः, तत्कृतप्रत्ययवैलक्षण्येन उत्पत्तेः । नापि क्रियानिर्वर्तितः, तत्प्रतिभावितज्ञानवैलक्षण्येन संवेदनात् । तथा च सूत्रम्-"अपरस्मिन् परं युगपद् अयुगपत् चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि" [वैशेषिकद० २-२-६] इति । आकाशवदेव अस्यापि विभुत्व-नित्यत्वैकत्वादयो धर्मा अवगन्तव्याः। ___दिगैपि एकादिधर्मोपेतं द्रव्यं प्रमाणतः सिद्धम् । तथाहि-मूर्तेष्वेव द्रव्येषु मूर्तं द्रव्यमवधि कृत्वा 'इदमस्मात् पूर्वेण दक्षिणेन पश्चिमेन उत्तरेण पूर्वदक्षिणेन दक्षिणापरेण अपरोत्तरेण उत्तरपूर्वेण १० अधस्तात् उपरिष्टात्' अमी दश प्रत्यया यतो भवन्ति सा दिग इति । तथा च सूत्रम्-"'अत इदम्' इति यतस्तद् दिशो लिङ्गम्" [वैशेषिकद० २-२-१०] इति । एते हि विशेषप्रत्यया न आकस्मिकाः संभवन्ति । न च परस्परापेक्षमूर्तद्रव्यनिमित्ताः, इतरेतराश्रयत्वेन उभयप्रत्ययाभावप्रसक्तेः । ततोऽन्यनिमित्तोत्पाद्यत्वासंभवाद् एते दिशो लिङ्गभूताः । दिशश्च विभुत्वैकत्व-नित्यत्वादयो धर्माः कालवद् अवगन्तव्याः। एतस्याश्च एकत्वेऽपि प्राच्यादिभेदेन नानात्वं कार्यविशेषाद् व्यवस्थितम् । १५ प्रयोगश्चात्र-यदेतत् पूर्वाऽपरादिज्ञानम् तद् मूर्तद्रव्यव्यतिरिक्तपदार्थ निबन्धनम्, तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात्, सुखादिज्ञानवत् इति । ___आत्मद्रव्यस्य च विभुत्वादिधर्मोपेतस्य पराऽभ्युपगतस्य प्रागेव प्रतिषेधः कृतः इति न तत्पूर्वपक्षः पुनः प्रदर्श्यते। मनोद्रव्यस्य तु युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्लिङ्गम् । तथा च सूत्रम्-"युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो२० लिङ्गम्" [ न्यायद० १-१-१६ ] इति । अनेकेन्द्रियार्थसन्निधाने सत्यपि एकदा क्रमेण ज्ञानोत्पत्युप १ अपरं परं आ० हा० वि० । अपरमपरं वा० बा० । "तथा च सूत्रम्-अपरं परं युगपदयुगपचिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २०६० २० । "तथा सूत्रम्-अपरस्मिन् परं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि"-न्यायकु. लि. पृ. १३९ द्वि. पं० १२ । "तथा च सूत्रम्-अपरस्मिन् परं युगपद् अयुगपत् चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि"-प्रमेयक० पृ० १६९प्र.पं०७॥ गूजरातीप्रेस-बनारससंस्कृतसिरीझसत्कयोवैशेषिकदर्शनसंस्करणयोः चोखम्बासंस्कृतसिरीझगते च वैशेषिकसूत्रपाठे समान एव पाठो मुद्रितो दृश्यते । यथा-"अपरस्मिन्नपर युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि"-२-२-६ । गूजरातीप्रेसप्रकाशितानि तदुपस्कार-विवृति-भाष्याण्यपि तमेव पाठमनुसरन्ति । तत्र च पाठान्तरसूचिका टिप्पणी इत्थं दृश्यते"बॉम्बेरायलआशिआटिकसोसाइटीसंज्ञकग्रन्थसंग्रहालयस्थलिखितप्राचीनपुस्तके तु 'अपरस्मिन् परम्' इति पाठः सूत्र उपलभ्यते । उपस्कारे च 'अपरस्मिन् परम्' इत्यनेन 'परस्मिन् परम्' इत्यपि द्रष्टव्यमिति"-गू. वै० पृ. ९८ । २"पूर्वापरादिबुद्धिभ्यो दिगेवमनुमीयते।"-तत्त्वसं० का० ६२५ पृ. २०६। ३ "तथा च सूत्रम्-इत इदमिति यतस्तद् दिशो लिङ्गम्-इति"-तत्त्वसं० पजि.पृ० २०७५०३। "तथा च सूत्रम्-अत इदमिति यतस्तद् दिशो लिङ्गम्"-न्यायकु. लि. पृ. १४३ प्र.पं. १३ । प्रमेयक. पृ० १७० प्र० पं० १३। । गूजरातीप्रेस-बनारससंस्कृतसिरीझ-चोखम्बासिरीझसत्केषु संस्करणेषु तु "इत इदमिति यतस्तद् दिश्यं लिङ्गम्" इति मुद्रितं दृश्यते। ४ पृ. १३४ पं०३१ ५ "क्रमेण ज्ञानजात्या च मनसोऽनुमितिर्मता ॥ चक्षुरादिविभिनं च कारणं समपेक्षते । क्रमेण जाता रूपादिप्रतिपत्ती रथादिवत्"। -तत्त्वसं० का० ६२५-६२६ पृ० २०६। ६"तथा च सूत्रम्-युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्-इति-तत्त्वसं० पजि० पृ. २०७पं० १२। एतस्य न्यायदर्शनीयसूत्रस्य भाष्यम् , वार्तिकम् न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका चात्रानुसंधानीया। मनोनिरूपणपर प्रशस्तपादभाष्यम् तत्कन्दल्यपि चात्रावबोद्धव्या-प्रशस्त. कं० पृ. ८९-९४ । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० तृतीये काण्डेलम्भाद् अनुमीयते इन्द्रियार्थव्यतिरिक्तं हेत्वन्तरमस्ति इति यत्सन्निधानाऽसन्निधानाभ्यां ज्ञानस्य उत्पत्त्यनुत्पत्ती भवतः । तथा च प्रयोगः-रूपाद्युपलब्धिः आत्मबाह्येन्द्रियार्थव्यतिरिक्तहेत्वन्तरा. पेक्षा, क्रमेण उपजायमानत्वात्, रथादिवत्। __ अत्र प्रतिविधीयते-यदि सामान्येन आश्रितत्वमात्रं शब्दानां साध्यते तदा सिद्धसाध्यता तेषां ५भूतकार्यतया तदाश्रितत्वात् कार्यस्य कारणप्रतिबद्धात्मलाभतया तदाश्रितत्वाभ्युपगमात् । अर्थ एक-नित्याऽमूर्त-विभुद्रव्यसमवेतत्वेन एषामाश्रितत्वं साध्यते तदा तथाभूतसाध्यान्वितत्वस्य दृष्टान्ते हेतोरभावात अनैकान्तिकता हेतोः, प्रतिज्ञायाश्च अनुमानविरोधित्वम् । तथाहि-यदि नित्यैकव्यापिनभोद्रव्यसमवेताः शब्दा भवेयुस्तदा एकदोत्पन्नानेकशब्दवद् अन्यकाला अपि ते तदैव स्युः अविकलकारणत्वात् एकाश्रयत्वाच्च । न च सहकार्यपेक्षा नित्यस्य संभवति इति प्रतिपादितम् । १० नापि समवायित्वमनुपकारिणो युक्तम् अतिप्रसङ्गात् । ततोऽक्रमभावित्वप्रसङ्गो व्यवस्थितः । तत्कारणस्य नित्यत्वे व्यापित्वे च शब्दानां सर्वपुरुषैर्ग्रहणप्रसङ्गः । तथाहि-आकाशात्मकं श्रोत्रम् आकाशं च एकमेव इति तत्प्राप्तानां सर्वेषामपि श्रवणं स्यात् । न च निरवयवाकाशे अयं विभाग:'इदमात्मीयं श्रोत्रम्' 'इदं च परकीयम्' इति । अथ यदीयधर्माऽधर्माभिसंस्कृतकर्णशष्कुल्यवरुद्धं नभः तत् तस्य श्रोत्रमिति विभागः, अत एव नासिकादिरन्ध्रान्तरेण न शब्दोपलम्भः संजायते, १५ तत्कर्णशष्कुलीविघाताद् बाधिर्यादिकं च व्यवस्थाप्यते इति, असदेतत्; अनंशस्य नभस एवंविधविभागानुपपत्तेः । न च पारमार्थिकविभागनिष्पाद्यं फलं परिकल्पितावयवविभागो निर्वर्तयितुं क्षमः अतिप्रसङ्गात् अन्यथा मलयजरसादिकमपि पावकप्रकल्पनया प्लोषादिकार्य विदध्यात् । न च कल्पिततदवयववशादपि प्रतिनियतशब्दोपलम्भदर्शनान्नायं दोषः, शब्दोपलम्भकार्यस्य अन्यथा सिद्धत्वात् । न च 'संयोगस्य अव्याप्यवृत्तित्वकृता आकाशस्य देशाः' इति व्यपदेशः, प्रागेव अस्य २० प्रतिषिद्धत्वात् । अपि च, अनल-कर्णशष्कुल्यादयोऽपि समानदेशाः स्युः अभिन्नैकनभः-संसर्गित्वात् । तथाहि-येन एको वियत्स्वभावेन संयुक्तस्तेनैव अपरोऽपीति तद्देशभावी सोऽपि स्यात् तत्संयुक्तखभाववियत्संसर्गित्वात् तद्देशावस्थिताऽनलवत् । शब्दानामपि अत एव एकदेशत्वात् एकोपलम्मे सर्वोपलब्धिश्च स्यात् । दूरासन्नाद्यवस्थायिता तु भावानां प्रतीतिगोचरा विरोधिनी च भवेत्। २५. . दिक्-कालसाधनप्रयोगेष्वपि एते दोषाः-सामान्येन साधने सिद्धसाध्यता । विशेषसाधने हेतोरन्वयाद्यसिद्धिः अनुमानबाधितत्वं च प्रतिज्ञायाः इति-समानाः । तथाहि-पूर्वापरोत्पन्नपदार्थविषयपूर्वापरशब्दसंकेतवशोद्भूतसंस्कारनिबन्धनत्वात् प्रकृतप्रत्ययस्य कारणमात्रे साध्ये कथं न सिद्धसाध्यता? विशेषे च कथं नान्वयासिद्धिः? अनुमानबाधा च प्रतिज्ञायाः पूर्ववद भावनीया। अत एव नेतरेतराश्रयदोषोऽपि पूर्वपक्षोदितो विशिष्टपदार्थसंकेतप्रभवत्वेऽस्य प्रत्ययस्य । किञ्च, ३० निरंशैकदिक्-कालाख्यपदार्थनिमित्तत्वं पराऽपरादिप्रत्ययस्य प्रसाधयितुमभ्युपगतम्, तच्चायुक्तम्। १ "उपात्तादिमहाभूतहेतुखाङ्गीकृतेव॑नेः । सिद्धा एवाश्रिताः शब्दास्तेष्वित्याद्यमसाधनम्॥ -तत्त्वसं० का० ६२७ पृ. २०७। २ “एकव्यापिधुवव्योमसमवायस्तु सिध्यति । नैषामन्वयवैकल्यादक्रमाद्याप्तितस्तथा" ॥ -तत्त्वसं० का० ६२८ पृ. २०७॥ ३ "काल-दिक्साधनयोरपि सामान्येन सिद्धसाध्यता विशेषेणान्वयासिद्धिहेतोः प्रतिज्ञायाश्च अनुमानबाधेति" -तत्त्वसं० पजि. पृ० २०८पं० २१ । ४ प्र. पृ० पं०४-1 ५ "विशिष्टसमयोद्भूतमनस्कारनिबन्धनम् । परापरादिविज्ञानं न कालान्न दिशश्च तत् ॥ निरंशैकखभावलात् पौर्वापर्याद्यसंभवः । तयोः संबन्धिमेदाच्चेदेवं तौ निष्फलौ ननु" ॥ -तत्त्वसं० का० ६२९-६३० पृ० २०८ । ६ पृ. ६६९ पं०१३। ७ परादिन-भां. मां. आ० । “परापरादिज्ञानस्य निरंशैकदिक्कालाख्यपदार्थनिबन्धनखं साधयितुमिष्टम्" -तत्त्वसं० पजि. पृ. २०९५०४-५ । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ६७१ खाकारानुकारिप्रत्ययजनकस्य तद्विषयत्वात् निरंशस्य च पौर्वापर्यादिविभागाभावतस्तथाभूतप्रत्ययोत्पादकत्वासंभवात् । तथाभूतप्रत्ययाद् विपरीतार्थसिद्धेः इष्टविपर्ययसाधनात् विरुद्धश्चैवं हेतुः स्यात् । अथ बाह्याऽऽध्यात्मिकभावपौर्वापर्यनिबन्धनस्य दिक्-कालयोः पौर्वापर्यव्यपदेशस्य भावान हेतो. विरुद्धता । नन्वेवं दिक्-कालपरिकल्पना व्यर्था तत्साध्याभिमतस्य कार्यस्य बाह्याऽऽध्यात्मिकैः संबन्धिभिरेव निर्वर्तितत्वात् । तथाहि-दिक् पूर्वापरादिव्यवस्थाहेतुरिष्यते कालश्च पूर्वापरक्षण-लव-५ निमेष-कला-मुहूर्त-प्रहर-दिवस-अहोरात्र-पक्ष-मास-ऋतु-अयन-संवत्सरादिप्रत्ययप्रसवनिमित्तोऽभ्युपगतः, अयं च स्वरूपभेदः स्वात्मनि तयोः समस्तोऽप्यसंभवी तत्संबन्धिषु पुनर्भावेषु विद्यमानस्तत्र प्रत्ययहेतुरिति व्यर्था तत्प्रकल्पना । अथ तत्संबन्धिष्वपि अयं भेदः अपरक्रियादिभेदनिमित्तस्तर्हि तत्रापि एवम् इति अनवस्थाप्रसक्तिः । अथ पदार्थेषु पूर्वापरभेदः कालनिमित्तः ननु कालोऽप्यसौ न स्वतः इति अपरकालनिमित्तो यद्यभ्युपगम्यते तदा अनवस्था । अथ पदार्थभेद-१० निमित्तस्तदा इतरेतराश्रयत्वप्रसङ्गः । अथ तत्र स्वत एव अयं भेदः पदार्थेष्वपि स्वत एव अयं किं नाभ्युपगम्यते? ततश्च पुनरपि दिक्-कालप्रकल्पनं व्यर्थम् । मनःसांधनेऽपि हेतौ कारणमात्रे साध्ये सिद्धसाध्यता मनस्कारादेश्चक्षुरादिव्यतिरिक्तस्य कारणमात्रस्येष्टेः । विशेषेण तु नित्यैकमनःसाधने अनन्वयदोषः प्रतिज्ञायाश्च अनुमानबाधा इष्टविपर्ययसाधनाद् विरुद्धश्च हेतुः इति दोषाः पूर्ववद् वाच्याः । चक्षुरादिव्यतिरिक्ताऽनित्यकारण-१५ सापेक्षत्वस्य साधनाद् विरुद्धता प्रकटैव अन्यथा हि अत्रापि नित्यकारणत्वे चेतसामविकलकारणत्वात् क्रमोत्पत्तिर्विरुद्धैव भवेत् । तन्न पृथिव्यादेर्मनःपर्यन्तस्य द्रव्यनवकस्य प्रमाणतः सिद्धिः । ततः 'पृथिव्यादीनि द्रव्याणि इतरेभ्यो भिद्यन्ते, द्रव्यत्वाभिसंबन्धात्' इत्यादिहेतूपन्यासोऽयुक्त एव, तत्स्वरूपासिद्धौ हेतोराश्रयासिद्धत्वदोषात्, स्वरूपासिद्धश्च अयं हेतुः द्रव्यत्वाभिसंबन्धस्य समवायलक्षणस्य असिद्धेः, विशेषणासिद्धश्च द्रव्यत्वसामान्यस्य निषिद्धत्वात् निषेत्स्यमानत्वाच्च । न चात्र २० अन्वयः सिद्धः, साधर्म्यदृष्टान्तस्य अभावात् । न च सपक्षाभावे केवलव्यतिरेकी हेतुर्गमकः, प्रतिबन्धप्रसाधकप्रमाणविषयसाधर्म्यदृष्टान्ताभावे सर्वत्र साध्याभावात् साधनस्य व्यावृत्त्यसिद्धेः । ""साध्यसद्भावे एव सर्वत्र साधनसद्भावः' इत्येवंभूतान्वयाऽप्रसिद्धौ ‘साध्याभावे सर्वत्र साधनस्य अभावः' इति सकलाक्षेपेण व्यतिरेकस्यासंभवात्” [ ] इत्यादेायस्य असकृत् प्रतिपादितत्वात् । यदपि 'नवैव द्रव्याणि' इत्यादिप्रयोगप्रतिपादनम्, तदप्यसंगतमेव; तत्स्वरूपा-२५ सिद्धौ तत्संख्यासिद्धेर्दुरापास्तत्वात् । न च लक्षणयोगित्वमपि तेपाम् असिद्धपृथिवीत्वाभिसंबन्धादेर्लक्षणस्य अनुपपत्तेः । अत एव अन्योन्यव्यावृत्तादेर्विशेषणस्यानुपपत्तिः विशेष्याभावे विशेषणस्याप्यसंभवात् । 'न्यूनाधिक-' इत्याद्यपि तद्विशेषणमसंगतम्, प्रमाण-प्रमेय-संशय-प्रयोजनदृष्टान्त-सिद्धान्त अवयव-तर्क-निर्णय-वाद-जल्प-वितण्डा-हेत्वाभासच्छल-जाति-निग्रहस्थानानां नैयायिकाभ्युपगतपदार्थानां षट्पदार्थाधिकानाम् तमश्छायादीनां च नवद्रव्याधिकानां सद्भावात् । न च ३० १"तथाहि-कालः पूर्वापरक्षणलवनिमेषकाष्ठाकलामुहूर्ताहोरात्राऽर्धमासादिप्रत्ययप्रसवहेतुः दिक् च पूर्वोत्तरादिव्यवस्थाहेतुरिष्यते"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २०९ पं० १३। २ "चक्षुराद्यतिरिक्तं तु मनोऽस्माभिरपीष्यते । षण्णामनन्तरोद्भूतप्रत्ययो यो हि तन्मनः" ॥ -तत्त्वसं० का० ६३१ पृ० २०९। ३ "नित्ये तु मनसि प्राप्ताः प्रत्यया योगपद्यतः। तेन हेतुरिह प्रोक्तो भवतीष्टविघातकृत् ॥ सौगतापरनिर्दिष्टमनःसंसिद्धपसिद्धये । साकारमन्यथाऽऽवृत्तं मन्ये सूत्रमिदं कृतम्" ॥ -तत्त्वसं• का० ६३२-६३३ पृ. २०९-२१० । ४ पृ. ६५६ पं० २७। ५पृ. ६५६ पं. ३२॥ ६ न्यायद० १-१-१। ७ पृ. ५४३ टि. १३ । "से पूणं भंते ! दिया उज्जोए राति अंधयारे ? हंता, गोयमा | जाव-अंधयारे । से केणटेणं? गोयमा ! दिया सुभा पोग्गला सुमे पोग्गलपरिणामे, राति असुभा पोग्गला असुमे पोग्गलपरिणामे । से तेणढण."। -भगव० श. ५ उ०९ सू० २२४ पृ०२४६ । "सइंधयारउजोओ पहा छायाऽऽतवे इ वा । वण्ण-रस-गंध-फासा पुग्गलाणं तु लक्खणं" ॥ -उत्तरा० अ०२८ गा० १२ । नवत. गा०९। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ तृतीये काण्डे पदार्थषोडशकस्य षट्स्वेव अन्तर्भावात् तमश्छायादीनां च तेजोऽभावरूपत्वात् न तदधिकपदार्थसद्भाव इति वक्तव्यम्, द्रव्यादीनामपि षण्णां प्रमाणप्रमेयरूपपदार्थद्वयेऽन्तर्भावात् पदार्थषट्कस्याऽपि अनुपपत्तेः । अथ तदन्तर्भावेऽपि अवान्तरविभिन्नलक्षणवशात् प्रयोजनवशाद् वा द्रव्यादिषट्कव्यवस्था तर्हि तत एव प्रमाणादिषोडशकव्यवस्था तमश्छायादिद्रव्यान्तरव्यवस्थाऽपि भवि. ५ष्यति इति 'न्यूनाधिक'-इत्यादिविशेषणानुपपत्तिरेव । न च तमश्छायादेहलत्वादितरतमविशेषयोगिनः विशिष्टार्थक्रियानिर्वर्तनसमर्थस्य च भासामभावरूपतेति वक्तव्यम्, भासामप्येवं तमश्छायाऽभावरूपताप्रसक्तेः । न च आवारकद्रव्यसन्निधानापेक्षतेजोऽभावरूपता तयोः, स्वसामग्रीतो विशिष्टपदार्थोत्पत्तौ प्रतियोग्यभावरूपत्वे भासामपि तथात्वोपपत्तेः । यदपि मधुर-शीतद्रव्योप योगाद् ये गुणाः समुपजायन्ते छायादिसेवनादपि ते प्रादुर्भवन्तीत्युपचारात् 'छाया मधुर-शीतला' १० इत्युच्यते तत् तेजस्यपि समानम् । यथा च छाया-तमसोः पुद्गलद्रव्यात्मकत्वं तथा प्राक् प्रति. पादितमिति न पुनरुच्यते । तदेवं 'पृथिव्यादीनि नव द्रव्याणि' इत्यनुपपन्नम् तत्सद्भावप्रतिपादकप्रमाणाभावात् बाधकस्य च प्रदर्शितत्वात् । द्रव्याभावाच्च गुणादयो विशेषपर्यन्ताः असन्त एव, तेषां तदाश्रितत्वाभ्युपगमात् आश्रयाभावे च तदाश्रितानां तत्परतन्त्रतयाऽवस्थानासंभवात् । गुण-कर्मणां च साक्षाद्रव्याश्रितत्वं परैरभ्युप१५ गतम् । तथा च सूत्रम्-"द्रव्याश्रयी अगुणवान् संयोग-विभागेष्वकारणम् अनपेक्ष इति गुण लक्षणम्"। [वैशेषिकद० १-१-१६ ] "एकद्रव्यम् अगुणम् संयोग-विभागेष्वनपेक्षम् कारणम् इति कर्मलक्षणम्" । [वैशेषिकद० १-१-१७] एकमेव एकस्मिन्नेव च द्रव्ये आश्रितमेकद्रव्यं कर्म । गुणास्तु केचिद् अनेकस्मिन् वर्तन्ते संख्या-संयोगादयः, अनेके वा एकदा एकत्र वर्तन्ते रूपरसादयः । सामान्यविशेषाश्च केचिद् द्रव्यत्व-पृथिवीत्वादयो द्रव्यवृत्तय एव गुणत्व-कर्मत्वादयस्तु २० द्रव्यसंबन्ध(बद्ध)गुण-कर्माश्रिताः । सत्तासामान्यं तु द्रव्य-गुण-कर्मवृत्ति । विशेषास्तु नित्यद्रव्येष्वेव वर्तन्त इति द्रव्यप्रतिषेधे गुणादिप्रतिषेधः प्रसिद्ध एव । समायस्तु पञ्चपदार्थवृत्तिरूपः पञ्चपदार्थनिषेधे निषिद्ध एव, सर्वाश्रयाश्रिताभावे तस्याऽभावात । ततो ढव्यनिषेधादेव अशेषपदा सिद्धावपि विशेषतो गुणादिप्रतिषेधः प्रदर्श्यते परदर्शनस्य सर्वथाऽयुक्तताप्रदर्शनात् । [क्रमशो रूपादिगुणानां प्रक्रियामपन्यस्य तेषां खण्डनम् ] २५ तत्र "रूप-रस-गन्ध-स्पर्शाः संख्याः परिमाणानि पृथक्त्वम् संयोग-विभागौ परत्वाऽपरत्वे बुद्धयः सुखदुःखे इच्छा-द्वेषौ प्रयत्नश्च गुणाः”। [वैशेषिकद०१-१-६] इति सूत्रसंगृहीताः सप्तदश, 'च'शब्दसमुच्चिताः-गुरुत्व-द्रवत्व-स्नेह-संस्कार-धर्माऽधर्म-शब्दाश्च सप्त गृह्यन्ते इति चतुर्विंशतिर्गुणाः । तत्र चक्षुाचं रूपं पृथिव्युदकज्वलनवृत्ति । रसो रसनेन्द्रियग्राह्यः पृथिव्युदकवृत्तिः । गन्धो १ पृ. ५४३ पं० १४-टि. १३ । २"द्रव्याणां प्रतिषेधेन सर्व एव तदाश्रिताः । गुण-कर्मादयोऽपास्ता भवन्त्येव तथा मताः"॥ -तत्त्वसं० का० ६३४ पृ० २१०। १"गुणव-कर्मलादयश्च द्रव्यसंबद्धगुण-कर्मपदार्थवृत्तयः"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २१० पं० २३ । "क कस्य समवायश्च संबन्धिन्यपहस्तिते । विशेषप्रतिषेधोऽयं तथापि पुनरुच्यते" ॥ -तत्त्वसं० का०६३५पृ० २११ ५"तत्र 'रूप-रस-गन्ध-स्पर्शाः सङ्ख्या-परिमाणानि पृथक्त्वम् संयोग-विभागौ परवापरले बुद्धयः सुख-दुःखे इच्छाद्वेषो प्रयत्नश्च गुणाः' इति सूत्रम् । चशब्दाद् गुरुख-द्रवत्व-स्नेह-संस्कार-धर्माधर्म-शब्दाश्च परिगृह्यन्ते"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २११५०६-1 "गुणाश्च रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-साया-परिमाण-पृथक्व-संयोग-विभाग-परखाऽपरत्व-बुद्धि-सुख-दुःखेच्छा-द्वेषप्रयत्नाश्चेति कण्ठोक्काः सप्तदश । चशब्दसमुच्चिताश्च गुरुत्व-द्रवल-स्नेह-संस्काराऽदृष्टशब्दाः सप्तैव इत्येवं चतुर्विंशतिर्गुणाः" -प्रशस्त. कं० पृ० १० पं० ११-1 ६ तत्त्वसं० पजि.पृ. २११५०८-1 "तत्र रूपं चक्षुर्माह्यम् पृथिव्युदकज्वलनवृत्ति xxxरसो रसनग्राह्यः पृथिव्युदकवृत्तिःxxxगन्धो घ्राणग्राह्यः पृथिवीवृत्तिः" इत्यादि गुणग्रन्थगतं समग्रं गुणनिरूपणमत्रावगन्तव्यं सविस्तरं विज्ञातुकामेन-प्रशस्त० के० पृ. १०४-२८९. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेयमीमांसा। ६.३ प्राणप्रायः पृथिवीवृत्तिः । स्पर्शस्त्वगिन्द्रियग्राह्यः पृथिव्युदकज्वलनपवनवृत्तिः । रूपादेव गुणत्वे सति चक्षु यत्वादिकं लक्षणमितरव्यवच्छेदकम् । एषां च मध्ये रूपस्य महत्त्वाद्युपेतद्रव्यसमवेतस्य शलादेर्निरवयवस्य यदि ग्रहणमिष्यते तदा कुञ्चिकादिविवरवर्तिसूक्ष्मप्रदीपाद्यालोकोद्योतिताऽपवरकादिव्यवस्थितपृथुतरघटादिद्रव्यसमवेतशुक्लादिरूपाभिव्यक्तौ सकलस्यैव यावद्व्यवर्तिन उपसन्धिः स्यात निरवयवत्वात् न हि एकस्य तस्य अवयवा विद्यन्ते येन एकदेशाभिव्यक्तिर्भवेत । एवं '५ गध-रस-स्पर्शानामपि तदाधारैकदेशस्थानामभिव्यक्ती यावद्दव्यभाविनामपलब्धिप्रसङ्गः । अथ भवत्येव सकलस्य नीलादेरुपलब्धिः नेनु तेन आलोकादिना नीलादेरणुशो भेदाभ्युपगमे पृथिव्यादिपरमाणुद्रव्यवद् अणुपरिमाणयोगित्वेन गुणवत्त्वाद् द्रव्यताप्रसक्तिर्भवेत् । न चैवमपि गुणसंशाकरणे कश्चिद् गुणः अविवादप्रसक्तेः । न च अणुत्वेऽपि आश्रितत्वाद् गुणत्वमुपपन्नम् सदसतोराश्रयानुपपत्तेः, अतिप्रसङ्गाश्च-अवयविद्रव्यस्यापि अवयवद्रव्याश्रितत्वाद् गुणत्वापत्तेः। संख्या तु एकादिव्यवहारहेतुः एकत्वादिलक्षणा परैरभ्युपगता । सा पुनः एकद्रव्या च अनेका द्रव्या च । तत्र एकसंख्या एकद्रव्या, अनेकद्रव्या तु द्वित्वादिसंख्या । तत्र एकद्रव्यायाः सलिलादिपरमाण्वादिगतरूपादीनामिव नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः अनेकद्रव्यायास्तु एकत्वेभ्योऽनेकविषयबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिः अपेक्षाबुद्धिविनाशाद् विनाशः क्वचिद् आश्रयविनाशादिति । इयं च द्विविधाऽपि संख्या प्रत्यक्षत एव सिद्धा, विशेषबुद्धश्च निमित्तान्तरापेक्षत्वाद् अनुमानतोऽपि सिद्धिः इति परे १५ मन्यन्ते । अत्र समुदायव्यावृत्तैकत्वादिसंज्ञाविषयपदार्थव्यतिरेकेण उपलब्धिलक्षणप्राप्तायाः संख्याय अनुपलब्धेरसत्त्वं शशविषाणवत् । न च विशेषणमसिद्धम् तस्या दृश्यत्वेन इष्टेः । तथा च सूत्रम्"संख्या-परिमाणानि पृथक्त्वम् संयोग-विभागौ परत्वाऽपरत्वे कर्म च रूपिसमवायाचाक्षुषाणि" [वैशेषिकद०४-१-११] न च विशेषबुद्धितोऽनुमानतोऽपि संख्यासिद्धिः यतो यथा 'एको गुणः' 'बहवो गुणाः' इत्यादौ संख्यामन्तरेणापि एकादिबुद्धिस्तथा घटादिप्वपि असहायादिषु स्वेच्छाविर-२० चितैकत्वादिसंकेताहितमनस्कारप्रभवमेकादिज्ञानं भविष्यतीति किमेकादिसंख्यया? न च गुणेषु १ "द्रव्ये महति नीलादिरेक एव यदीष्यते । रन्ध्रालोकेन तव्यक्तो व्यक्तिदृष्टिश्च नास्य किम् ?" ॥ -तत्त्वसं० का० ६३६ पृ. २११ । २"तत्र च द्रव्ये यद्येकमेवानवयवं नीलादि चतुर्विधमिध्यते तदा सूक्ष्मेणापि कुञ्चिकादिविवरवर्तिना प्रदीपाद्यालोकेन त्वपवरकादिस्थितपृथुतरघटादिद्रव्यसमवेतस्य नीलादिरूपस्याभिव्यक्तौ सत्यां सकलस्यैव यावद्र्व्यवर्तिनो रूपादेरभिव्यक्तिरुपल. ब्धिश्च प्राप्नोति निरवयवत्वात्"-तत्त्वसं० पजि० पृ० २११५० १५-1 ३"न च देशविभागेन स्थितो नीलादिरिष्यते । व्यज्यते यस्तदा तेन तस्य भेदोऽणुशस्ततः" । -तत्त्वसं. का. ६३७ पृ० १११। ४ "तत्र एकादिव्यवहारहेतुरेकलादिलक्षणा सङ्ख्या सा पुनरेकद्रव्या चानेकद्रव्या च" इत्यादि-तत्त्वसं० पजि. पृ. २१२ पं० ४-1 "एकादिव्यवहारहेतुः संख्या । सा पुनरेकद्रव्या चानेकद्रव्या च । तत्रैकद्रव्यायाः सलिलादिपरमाणु-रूपादीनामिव नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः । अनेकद्रव्या तु द्विवादिका परार्धान्ता । तस्याः खलु एकवेभ्योऽनेकविषयबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिः अपेक्षाबुद्धिविनाशाद् विनाश इति"-प्रशस्त० के० पृ. १११ पं०३-1 ५ "विशेषबुद्धेश्च निमित्तान्तरापेक्षवादनुमानतोऽपीति परो मन्यते"-तत्त्वसं० पनि पृ० २१२ पं० ८-। ६ संख्याः मु. वै० द० मू० । गू० वै० द० । “ 'संख्याः ' इति बहुवचनमेकवादिकाः सर्वा एव संख्याः संगृह्णाति" इति-गू. वै. द. पृ. १८२ पं० १३ उपस्कारवचनाद् मूलसूत्रस्थं बहुवचनमेवोचितं भाति" । पञिकायां तु “संख्या-परिमाणानि" इत्यादिपाठः-पृ० २१२ पं० १५। "अतद्रूपपरावृत्तगजादिव्यतिरेकिणी । न सङ्ख्या भासते ज्ञाने दृश्येष्टा नैव सास्ति तत्"।-तत्त्वसं० का० ६३८ पृ० २१२। ७ "इच्छारचितसंकेतमनस्कारान्वयं खिदम् । घटेष्वेकादिविज्ञानं ज्ञानादाविव वर्तते ॥ अद्रव्यत्वाच संख्यास्ति तेषु काचिद् विमेदिनी । तज्ज्ञानं नैव युक्तं तु भाक्तमस्खलितत्वतः" ॥ -तत्त्वसं० का०६३९-६४० पृ. २१२ । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ तृतीये काण्डेसंख्या संभवति अद्रव्यत्वात् तेषाम् संख्यायाश्च गुणत्वेन द्रव्याश्रितत्वात् । न च गुणेषु उपचरितमेकत्वादि शानम् अस्खलदृत्तित्वात् । न च गुणेषु संख्यासद्भावे अनवस्थादिबाधकप्रमाणोपपत्ते. रुपचरितमेकत्वादिज्ञानम् घटादिष्वपि वृत्ति-विकल्पादेर्द्धित्वादिसंख्यायां बाधकस्य सद्भावात् तद्विज्ञानस्य तथात्वप्रसक्तेः । न च वृत्ति-विकल्पादेर्बाधकस्य अबाधकत्वम् तस्य निरस्तत्वात् । न च ५ क्वचिद् मुख्यसंख्याभावे गौणप्रत्ययस्य तद्विषयस्याऽभाव इति घटादौ मुख्यसंख्यायोगोऽभ्युपगन्तव्य इति वाच्यम्, मुख्यपूर्वकत्वेन गौणप्रत्ययस्य एवंविधे विषये बौद्धं प्रति क्वचिदपि असिद्धेः नै हि गवादिष्वपि 'गौः' इति ज्ञानं पारमार्थिकगोत्वनिवन्धनतया मुंख्यं सिद्धम् नापि वाहीके तद् शानं वस्तुभूतगोत्वाध्यारोपाद् उपचरितम् । किञ्च, यथा वाहीके गौरिव अयम् न तु गौरेव सास्नाद्य भावात् स्खलति प्रत्ययः इति गौणः न एवम् एक इव एको गुणः न तु एक एव इति प्रत्ययः किन्तु १० यादृशी घटादिषु अस्खलिता बुद्धिर्भवति तादृशी गुणादिष्वपि । अथ न सादृश्यापेक्षमेतद् ज्ञानम् किन्तु यत् तदाश्रयभूतं द्रव्यं तद्गतैकत्वादिसंख्यातःगुणादीनां तदेकार्थसमवायात्, नन्वेवम् 'एकस्मिन् द्रव्ये रूपादयो बहवो गुणाः' इति ज्ञानोत्पत्तिर्न स्यात् तदाश्रयद्रव्ये बहुत्वसंख्याया अभावात्। 'षट् पदार्थाः' 'सुख-दुःखे' 'इच्छा-द्वेषौ' 'पञ्चविधं कर्म' 'परमपरं च द्विविधं सामान्यम्' 'एको भावः' 'एकः समवायः' इति व्यपदेशेषु च किं निमित्तमिति वक्तव्यम्, न ह्यत्र एकार्थसमवायिनी १५संख्या विद्यते इति अव्यापिनी इयमपि कल्पना न युक्तिसंगता। भवतु वा एकार्थसमवायाद् अन्यतो वा स्वप्रकल्पिताद् हेतोरयं प्रत्ययस्तथापि गुणादिगतमुख्यसंख्याऽभावतः स्खलढत्तिः स्यात् माणवके सिंहप्रत्ययवत्, न चैवमुपलभ्यते इति संकेतमात्रनिबन्धन एव सर्वत्र अभ्युपगन्तव्यः । यदपि 'गजतुरग-स्यन्दनादिव्यतिरिक्तनिमित्तप्रभवः सेनाप्रत्ययः, गजादिप्रत्ययविलक्षणत्वात्, वस्त्र-चर्मकम्बलेषु नीलप्रत्ययवत्' इति संख्यासिद्धये यद् अविद्धकर्णोक्तं प्रमाणम् , तदप्ययुक्तम्। गाँदि२० व्यतिरिक्तसंकेतादिप्रभवत्वेन इष्टत्वात् सिद्धसाध्यतादोषाघ्रातत्वात् । अथ विशिष्टसंख्यानिमित्त प्रभवत्वमस्य साध्यत्वेन अभिप्रेतम् तदा अनैकान्तिको हेतुः बुद्ध्यादौ 'एका बुद्धिः' इत्यादिविशिष्टप्रत्ययस्य संख्यामन्तरेणापि भावात् । 'अनेकद्रव्या च द्वित्वादिसंख्या, एकत्वेभ्योऽनेकविषयैकबुद्धिसहितेभ्य उत्पद्यते' इत्यभ्युपगमश्च अनुपपन्नः, संकेताभोगमात्रेण संख्येयेषु 'डे' 'त्रीणि द्रव्याणि' १-संख्यायाः बा-वा० बा। २ मुख्यसंख्याऽभावे गौणप्रत्ययस्य तद्विषयस्य भाव इति-भां० मा० । मुख्यपूर्वकत्वेन संख्याभावे गौणप्रत्ययस्य तद्विषयस्याभाव इति-आ० हा० वि० । ३"न हि यथा वाहीको गौरिति स्खलति प्रत्ययः गौरिव गौतु गौरेव सास्नाद्यभावादिति न तथायं स्खलति एकमिवैक ज्ञानादि न त्वेकमेवेति किं तर्हि यादृशी घटादिष्वस्खलिता बुद्धिर्भवति तादृशी ज्ञानादिष्वपि"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २१२ पं० २७ ४ मुख्यसि-बृ• विना। ५ "तव्यसमवेताचेदेकत्वात् परिकल्प्यते । गुणादिष्वेकविज्ञानमेकार्थसमवायतः"॥ -तत्त्वसं० का०६४१ पृ. २१३ । ६ "अस्तु नामैवमेकत्र ज्ञाने व्याप्ति(व्यादि)मतिस्तु कम् । एतेष्वपेक्षते हेतुं षट्पदार्थादिकेषु वा॥ एकार्थसमवायादेर्गीणोऽयं प्रत्ययो भवन् । तथा च स्खलितो यस्मान्माणवेऽनलबुद्धिवत्"॥ -तत्त्वसं. का. ६४२-६४३ पृ. २१३ । ७ “गजादीत्यादिना अविद्धकर्णो संख्यासिद्धये प्रमाणमाशङ्कतेगजादिप्रत्ययेभ्यश्च वैलक्षण्यातू प्रसाध्यते । संख्याबुद्धिस्तदन्योत्था नीलवस्त्रादिबुद्धिवत्" -तत्त्वसं. का. ६४४ पृ. २१३ । ८ "इच्छारचितसंकेतमनस्काराद्युपायतः । तत्रेष्टसिद्धिर्बुद्धपादौ संख्यैतेनैव वा भवेत्" ॥ -तत्त्वसं. का. ६४५पृ. २१४ । ९"बुद्धपपेक्षा च संख्याया निष्पत्तिर्यदि वर्ण्यते । संकेताभोगमात्रेण तदुद्धिः किं न संमता" ॥ -तत्त्वस० का० ६४६ पृ. २१४ । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । इत्यादिबुद्धरुपपत्तेः तथापि अदृष्टसामर्थ्यस्य अन्यस्य तद्धेतुत्वकल्पने हेत्वनवस्थाप्रसक्तिः । किञ्च, अपेक्षाबुद्ध्यन्वय-व्यतिरेकानुविधायित्वे द्वित्वादिप्रत्ययस्य व्यादिसंख्याप्रभवत्वाभ्युपगमे तद्धेतुभूतसंख्याया एकस्या अनेकवृत्तित्वमभ्युपगतं भवति, तच्च प्रमाणबाधितमिति असकृद आवेदितम् । अतोऽपेक्षाबुद्धिरेव व्यादिवुद्धिनिमित्तभूता वरमभ्युपगन्तव्येति स्थितम् । __ "परिमाणव्यवहारकारणं परिमाणं महद् अणु दीर्घम् इस्वमिति चतुर्विधम्”[ ]५ इति परैरभ्युपगतम् । “तत्र महद् द्विविधम्-नित्यम् अनित्यं च । नित्यम् आकाश-काल-दिगात्मसु महत्त्वम्, अनित्यम् ज्यणुकादिषु द्रव्येषु । अणु आप नित्यानित्यभेदात् द्विविधम्-परमाणुमनस्सु पारिमाण्डल्यलक्षणं नित्यम्, अनित्यं व्यणुक एव । कुवलाऽऽ-मलक-बिल्वादिषु तु महत्स्वपि तत्प्रकर्षाभावमपेक्ष्य भाक्तोऽणुव्यवहारः। तथाहि-यादृशं बिल्वे महत् परिमाणम तादृशं न आमलके यादृशं च तत् तत्र न तादृशं कुवल इति । ननु महद्-दीर्घयोख्यणुकादिषु वर्तमानयोः व्यणुके च १० अणुत्व-इस्वत्वयोः को विशेषः? महत्सु 'दीर्घमानीयताम्' दीर्धेषु 'महद् आनीयताम्' इति व्यवहारभेदप्रतीतेरस्ति तयोः परस्परतो भेदः । अणुत्व-हस्वत्वयोस्तु विशेषो योगिनां तद्दर्शिनामध्यक्ष एव" [ ] महदादि च परिमाणं रूपादिभ्योऽर्थान्तरम्, तत्प्रत्ययविलक्षणबुद्धिग्राह्यत्वात् , सुखादिवत् । अत्र यदि 'रूपादिविषयेन्द्रियबुद्धिविलक्षणबुद्धिग्राह्यत्वात्' इति हेत्वर्थस्तदा हेतुरसिद्धः तथाव्यवस्थितरूपादिव्यतिरेकेण महदादिपरिमाणस्य अध्यक्षप्रत्ययग्राह्यत्वेन असंवेदनात् । अथ १५ ''अणु' 'महत्' इत्याकारतत्प्रत्ययविलक्षणकल्पनाबुद्धिग्राह्यत्वात् इति हेतुस्तदा विपर्यये बाधकप्रमाणाभावाद् अनैकान्तिकः । न ह्यस्याः किश्चिदपि परमार्थतो ग्राह्यमस्ति कल्पनाबुद्धित्वात् । एकदिग्मुखादिप्रवृत्तेषु विशिष्टरूपादिषु उपलब्धेषु तद्विलक्षणरूपादिभेदप्रकाशनाय समयवशात् 'महत्' इत्यादि अध्यवस्यन्ती बुद्धिःप्रवर्तते इति नातो वस्तुव्यवस्था । न च रूपादिव्यतिरिक्तं ग्राह्यमप्यस्या अस्तीति असिद्धता हेतोः । प्रत्यक्षबाधा च प्रतिज्ञायाः अध्यक्षत्वेन अभ्युपगतस्य महदादे रूपादि-२० व्यतिरेकेण अनुपलब्धेः । ततो दृष्टे स्पृष्टे वा एकदिङ्मुखप्रवृत्ते रूपादौ भूयसि अतद्रूपपरावृत्ते 'दीर्घम्' इति व्यवहारः प्रवर्तते परिमाणाभावेऽपि तदपेक्षया चाल्पीयसि रूपादौ समुत्पन्ने 'हस्वम्' इति व्यवहारः । एवं महदादौ अपि योज्यम् । एकाऽनेकविकल्पाभ्यां रूपादिवद् महदाद्यनुपपत्तेश्च अभावः । अविद्यमानेऽपि महदादौ भवत्प्रकल्पिते प्रासादमालादिषु महदादिप्रत्ययप्रादुर्भूतेरनुभवाद् १ "एवं ह्यदृष्टसामर्थ्यस्य हेतुत्वं न कल्पितं स्यादन्यथा हि हेतूनामनवस्था भवेत्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २१४ पं० १६ । २"महद्दीर्घादिभेदेन परिमाणं यदुच्यते । तदप्यर्थे तथारूपमेदादेव न किं मतम् ?" ॥-तत्त्वसं. का. ६४७ पृ० २१४ । ___ “परिमाणं मानव्यवहारकारणम् । तच्चतुर्विधम् अणु महद् दीर्घ ह्रखं चेति । तत्र महद् द्विविधम् नित्यमनित्यं च । नित्यमाकाशकालदिगात्मसु परममहत्त्वम् अनित्यं व्यणुकादावेव । तथा चावपि द्विविधम् नित्यमनित्यं च । नित्यं परमाणुमनस्सु तत् पारिमाण्डल्यम् । अनित्यं व्यणुक एव"-प्रशस्त. कं० पृ० १३० पं० २० ३ "कुवलयामलकबिल्वादिषु महत्खपि तत्प्रकर्षभावाभावमपेक्ष्य भाक्तोऽणुत्वव्यवहारः”-प्रशस्त. कं० पृ. १३० पं० २५। "कुवलामलबिल्वादिषु च महत्खपि तत्प्रकर्षाभावमपेक्ष्य भाक्तोऽयं व्यवहारः"-तत्त्वसं० पजि० पृ. २१५५०१। “अनित्यमणुपरिमाणं व्यणुक एवेत्ययुक्तम् कुवलयामलकबिल्वादिषु परस्परापेक्षयाणुव्यवहारदर्शनादत आह-कुवलयामलकबिल्वादिष्विति । बिल्वे यः प्रकर्षभावो महत्परिमाणातिशययोगित्वं तस्यामलकेऽभावमपेक्ष्याणुव्यवहारो भाक्तः। उभाभ्यां भज्यते इति भक्तिः सादृश्यं तस्यायमिति भाक्तः सादृश्यमात्रनिबन्धनो गौण इत्यर्थः एवमामलकपरिमाणातिशयाभावं कुवलयेऽपेक्ष्याणुव्यवहारः । यत्र हि मुख्यमणुत्वं व्यणुके तत्र महत्परिमाणस्याभावो दृष्टः आमलकेऽपि यादृशं बिल्वे महत्परिमाणं तादृशं नास्तीत्येतावता साधय॑णोपचारप्रवृत्तिः"-प्रशस्त० के० पृ. १३४ पं० १ ४“दीर्घा प्रासादमालेति महती वेद्यते यथा । न हि तत्र यथारूपं परिमाणं प्रकल्पितम् ॥ एकार्थसमवायेन तथा चेद् व्यपदिश्यते । न महत्त्वं न देयं च धामखस्ति विवक्षितम्" ॥-तत्त्वसं० का. ६४८६४९ पृ. २१५। ८७ स.प्र. Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ तृतीये काण्डेअनैकान्तिकश्च हेतुः । न च यत्रैव प्रासादादौ समवेतो मालाख्यो गुणः तत्रैव महत्त्वादिकमपीत्येकार्थसमवायवशात् 'महती प्रासादमाला' इति प्रत्ययोत्पत्तेर्न अनैकान्तिकत्वम् , स्वसमयविरोधात् । तथाहि-न प्रासादो भवद्भिरवयविद्रव्यमभ्युपगम्यते विजातीयानां द्रव्यानारम्भात् किं तर्हि ? संयोगात्मको गुणः । न च गुणः परिमाणवान् “निर्गुणा गुणोंः" [ ] इति वचनात् । ५ततो मालाख्यस्य गुणस्य प्रासादादिष्वभावात् 'प्रासादमाला' इत्ययमेव प्रत्ययस्तावद् अयुक्तःदूरत एव 'सा महती इखा वा' इत्यादिप्रत्ययव्यपदेशसंभवो मालायाः संख्यात्वेन प्रासादादीनां च संयोगत्वेन महत्त्वादेश्च परिमाणत्वेन परैरभ्युपगमात् त्रयाणामपि गुणत्वाद गुणेषु च गुणासंभवात् प्रासादमाला' इति नैकार्थसमवायात् प्रत्ययोत्पत्तिः । अथापि अवयविस्वभावा माला इष्यते तथापि द्रव्यस्य द्रव्याश्रयत्वान्न मालायाः संयोगस्वरूपप्रासादाश्रयत्वं युक्तम् । अथ माला जाति१० स्वभावा अभ्युपगम्यते तथापि जातेः प्रत्याश्रयं परिसमाप्तत्वात् एकस्मिन्नपि प्रासादे 'माला' इति प्रत्ययोत्पत्तिर्भवेत् । 'एका प्रासादमाला महती दीर्घा इस्वा वा' इत्यादिप्रत्ययानुपपत्तिस्तदवस्थैव स्यात् मालायाम् तदाश्रये च प्रासादादौ एकत्वादेर्गुणस्य असंभवात् काष्ठादिषु च प्रासादाश्रयेषु विवक्षितदीर्घाद्ययोगात् बह्रीषु च प्रासादमालासु 'माला' 'माला' इति अनुगतप्रत्ययोत्पत्तिर्न स्यात् जातावपरजातेरनुपपत्तेः । न च तदाश्रयजातिनिबन्धन औपचारिकोऽयं प्रत्ययोऽस्खलदृत्तित्वात् । १५न हि मुख्यप्रत्ययाऽविशिष्टो गाणो युक्तोऽतिप्रसङ्गात् । अत एव मालादिषु महत्त्वादिप्रत्ययोऽपि नौपचारिकः । उक्तं च "मालादौ च महत्त्वादिरिष्टो यश्चौपचारिकः। __ मुख्याऽविशिष्टविज्ञानग्राह्यत्वान्नौपचारिकः" ॥ [ ] इति । तन्न परिमाणं रूपादिषु पृथग गुण इति स्थितम् । २० संयुक्तमपि द्रव्यं यद्वशात् 'अत्रेदं पृथक्' इत्यपोड्रियते तदपोद्धारव्यवहारकारणं पृथक्त्वं नाम गुणः इति काणादाः 'घटादिभ्योऽर्थान्तरम्, तत्प्रत्ययविलक्षणज्ञानग्राह्यत्वात्, सुखादिवत्' इति १“प्रासादश्वेष्यते योगो गुणः सोऽपरिमाणवान् । न तस्यास्यपरा माला नोपचारस्य चाश्रयः" ॥-तत्त्वसं. का० ६५० पृ. २१६ । २"विजातीयद्रव्यानारम्भात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २१६५०९ । "विजातीयानां द्रव्यानारम्भकत्वात्"प्रमेयक० पृ० १७८ प्र. पं० १४ । ३“स च गुणः परिमाणवान भवति “निर्गुणा गुणाः" इति समयात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २१६ पं० १०। "न च गुणः परिमाणवान् निर्गुणा गुणा इत्यभिधानात्"-प्रमेयक. पृ. १७८ प्र. पं० १४ । ४ "द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम्"-वैशेषिकद. १-१-१६। "रूपादीनां गुणानां सर्वेषां गुणत्वाभिसंबन्धो द्रव्याश्रितत्वं निर्गुणत्वम् निष्क्रियत्वम्"-प्रशस्त. कं० पृ. ९४ पं. ६। "अथ द्रव्यात्रिता ज्ञेया निर्गुणा निष्क्रिया गुणाः"-न्यायसि० मु० का० ८६। "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः"-तत्त्वार्थसू० ५-४० । ५ “अथ जातिखभावा मालाऽजीक्रियते एवमपि जातेस्सर्वात्मना प्रत्याश्रयपरिसमाप्तखादेकोऽपि प्रासादो मालेत्युच्येत वृक्षवत् । यथोक्तम्-गेहो यद्यपि संयोगस्तन्माला किन्नु तद् भवेत् । जातिश्चेदू गेह एकोऽपि मालेत्युच्येत वृक्षवत्" ॥तत्त्वसं० पजि. पृ. २१६ पं० १४-। "बहीषु च प्रासादमालासु माला माला इत्यनुगामी व्यपदेशो न स्यात् जातेरजातितः । यदाह-मालाबहुले तच्छब्दः कथं जातेरजातितः"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २१६ पं० १९७ "नहि मुख्यप्रत्ययाविशिष्टो गौणो युक्तोऽतिप्रसङ्गात् यदाहमालादौ च महत्त्वादिरिष्टो यश्चौपचारिकः । मुख्याविशिष्टविज्ञानग्राह्यलानौपचारिकः"॥ -तत्त्वसं० पजि. पृ० २१६ पं० २३ -1 ८"तत्र इदमस्मात् पृथगिति यदशात् संयुक्तमपि द्रव्यमपोद्भियते तदपोद्धारकारणं पृथक्वं नाम, तच्च घटादिभ्योऽर्थान्तरं तत्प्रत्ययविलक्षणबुद्धिग्राह्यलादिति पूर्ववत् परस्याभिप्रायः"-तत्त्वसं० पञ्जि० पृ. २१६ पं० २६ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। व्यवस्थिताः । अत्र तावद् हेतोरसिद्धता, परस्परस्वरूपव्यावृत्तरूपादिव्यतिरेकेण अर्थान्तरभूतस्य पृथक्त्वगुणस्य अध्यक्षे अप्रतिभासनेन घटादिविलक्षणज्ञानग्राह्यत्वस्यासिद्धेः । अत एव उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वेन अभ्युपगतस्य तस्य अनुपलम्भाद् असत्त्वम् । न च 'पृथक' इति विकल्पप्रत्ययावसेयत्वेन तस्य सत्त्वम् सजातीय-विजातीयव्यावृत्तरूपाद्यनुभवनिबन्धनत्वात् तत्प्रत्ययस्य । व्यावृत्तता च भावानां स्वस्वभावव्यवस्थितेः अन्यथा स्वत एव अव्यावृत्तरूपाणां पृथक्त्वादिवशात् तेषां पृथग्रुप-५ ताऽसिद्धेः पृथक्त्वादेर्भिन्नाऽभिन्नपृथग्रूपभावकरणे अकिञ्चित्करत्वात्-भेदपक्षे संवन्धासिद्धेः, अभेदपक्षे तु पृथग्रूपस्य भावस्यैव उत्पत्तेरर्थान्तरभूतपृथक्त्वगुणकल्पनावैयर्थ्यात् तत एव 'पृथक्' व्यवहारसिद्धेहेतोरनैकान्तिकत्वम् । किश्च, यथा परस्परव्यावृत्तात्मतया सुख-दुःखादिगुणेषु 'पृथक्' इति प्रत्ययविषयता पृथक्त्वगुणाभावेऽपि-गुणेषु गुणासंभवात्-तथा घटादिष्वपि भविष्यतीति हेतोरनैकान्तिकता परिस्फुटैव । न च गुणेषु 'पृथक्' इति प्रत्ययो भाक्तः मुख्य-१० प्रत्ययाऽविशिष्टत्वात् । 'पृथक्' इत्यपोद्धारव्यवहारस्य स्वरूपविभिन्नपदार्थनिबन्धनत्वात् परोपन्यस्तानुमाने प्रतिज्ञाया अनुमानवाधा । तथा च प्रयोगः-ये परस्परव्यावृत्तात्मानः ते खव्यतिरिक्तपृथक्त्वानाधाराः, यथा सुखादयः, परस्परव्यावृत्तात्मानश्च घटादयः इति स्वभावहेतुः । एकस्य अनेकवृत्त्यनुपपत्तिः संबन्धाभावश्च समवायस्य प्रतिषेत्स्यमानत्वात् सुखादिषु तद्व्यवहाराभावप्रसक्तिश्च विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । तन्न पृथक्त्वं गुणः तत्साधकप्रमाणाभावाद् बाधकोपपत्तेश्चेति १५ व्यवस्थितम् । अप्राप्तिपूर्विका प्राप्तिः संयोगः प्राप्तिपूर्विका च अप्राप्तिर्विभागः । एतौ च द्रव्येषु यथाक्रम 'संयुक्त'-'विभक्त'-प्रत्ययहेतू अन्यतरोभयकर्मजौ संयोग-विभागजौ च यथाक्रमम् । न च संयोगविभागयोः सत्त्वप्रतिपादकप्रमाणाविषयत्वात् सद्व्यवहाराविषयता शशविषाणवत् इति वाच्यम्, "संयोगस्य द्रव्ययोर्विशेषणत्वेन अध्यक्षतःप्रतीयमानत्वात् । तथाहि-कश्चित् केनचित् 'संयुक्ते द्रव्ये २० आहर' इत्युक्तो ययोरेव द्रव्ययोः संयोगमुपलभ्य(भ)ते ते एव आहरति न द्रव्यमात्रम् अन्यथा हि यत् १“अपोद्धारव्यवहृतिः पृथक्वाद् या तु कल्प्यते । कारणात् सा विभिन्नात्मभावनिष्ठा न किंमता" ?॥ -तत्त्वसं. का. ६५१ पृ. २१७ । २ "परस्परबिभिन्ना हि यथा युद्धि-सुखादयः । पृथग्वाच्यास्तदङ्गं च विनाऽन्येन तथाऽपरे" ॥-तत्त्वसं. का० ६५२ पृ. २१७॥ ३ “यो संयोगविभागौ च द्रव्येषु नियती परैः । संयुक्तादिधियो हेतू कल्पिती तावनर्थको" ॥-तत्त्वसं. का. ६५३ पृ० २१८। ४ "संयुक्त आहरेत्युक्ते संयोग प्रेक्षते ययोः । तदन्यपरिहारेण ते एवाहरति ह्ययम्"॥-तत्त्वसं. का. ६५७ पृ० २१८॥ ५"तथाहि-कश्चित् केनचित् संयुक्त द्रव्ये आहरेत्युक्ते ययोरेव द्रव्ययोः संयोगमुपलभते ते एव आहरति न द्रव्यमात्रम्" इत्यादि-तत्त्वसं० पत्रि० पृ० २१८ पं० २३-1 संयोगसमर्थनपरमेतद् उद्योतकरमतं न्यायवार्तिके इत्थमुपलभ्यते "विशेषणभावाच्ार्थान्तरं संयोगः-संयुक्त द्रव्ये आहरेत्युक्ते ययोई व्ययोः संयोगं पश्यति ते इतरेभ्यो विशिष्य संयुक्त आहरति । ४ ४ ४ यदि चार्थान्तरं संयोगो न स्यात् क्षेत्रोदकबीजानीन्धनादीनि सर्वत्रावस्थितानि सर्वत्राङ्गुरपाकादिकार्य कुर्युः तान्येव तानीति । तस्माद् यस्तैरपेक्ष्यते सोऽर्थोऽन्यस्तस्मिन् संयोग इति संज्ञेति । क्षेत्रोदकबीजानीन्धनानि अङ्गुरपाकादिकार्योत्पत्ती सापेक्षाणि सर्वदा तत्कार्यानारम्भाद् दण्डादिवत्-यथा दण्डाद्यनेक कारणं संयोगादिनिमित्तान्तरापेक्ष सर्वदा न घट-पटादिकार्य करोति तथा बीजाद्यपि तस्मात् तदपि सापेक्षम् ।xxx सान्तरनिरन्तरबुद्धयोश्च निमित्त वक्तव्यम् । यदि संयोग विभागं निमित्तान्तरं न प्रतिपद्यसे सान्तरमितिबुद्धेर्निरन्तरमिति च बुद्ध दहेतुर्वक्तव्यः । न हि निमित्तभेदमन्तरेण बुद्धीनां भेदो दृष्टो रूपादिवदिति-या चेयमचलति चलतीति बुद्धिर्या असंयुक्त संयुक्तमिति अविभक्के विभक्तमिति च सा च प्रधानमन्तरेण न भवति । सर्वा एता मिथ्याबुद्धयः प्रधानानुकारेण भवन्तीति प्रधानं वक्तव्यम् । न हि निष्प्रधानं भाक्तं दृटम् स्थाणु-पुरुषवदिति । यथा स्थाणौ सति पुरुष स्थाणुरिति बुद्धिः पुरुष वाऽसति स्थाणौ पुरुषबुद्धिरिति । यदि चार्थान्तरं संयोगो न स्यात् कुण्डलीत्यस्या बुद्धेः किचिनिमित्तमवश्यं विधीयमानं प्रतिषिध्यमानं वा निमित्तान्तर Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डेकिञ्चिद् आहरेत् । एतद् विभागसाधनेऽपि विपर्ययेण सर्व समानम् । किञ्च, यदि अर्थान्तरभृतौ संयोग-विभागौ वस्तुनो न स्याताम् तदा वस्तुमात्रनिबन्धनौ 'सान्तरमिदम्' 'निरन्तरम्' इति च प्रत्ययौ नोत्पद्येयाताम् न हि विशेषप्रत्ययौ वस्तुविशेषमन्तरेण संभविनौ सर्वदा सर्वत्र भावप्रसङ्गात्। अपि च, दूरदेशवर्तिनः प्रमातुः सान्तरावस्थितेऽपि धव-खदिरादौ निरन्तरावसायिनी बुद्धिर्योत्पद्यते ५यो च शाखिशिखरावसक्ते बलाकादौ सान्तरत्वाध्यवसायिनी समुपजायते; द्विविधाऽपि इयम 'अतस्मिंस्तत्' इति प्रवृत्तेर्मिथ्याबुद्धिः। न च असौ मुख्यपदार्थानुभवमन्तरेण क्वचिद् उपजायमाना संलक्ष्यते न हि अननुभूतरजतस्य शुक्तिकायाम् 'रजतम्' इति विभ्रमः इति कश्चित् मुख्यो भावो विभ्रमधियो निमित्तमभ्युपगन्तव्यः; तदभ्युपगमे च संयोग-विभागसिद्धिः तद्व्यतिरेकेण अन्यस्य एतद्बुद्धेर्निबन्धनस्य असंभवात् । तथा, 'कुण्डली देवदत्तः' इति मतिः किंनिबन्धना उपजायते इति १०वक्तव्यम् । न पुरुष-कुण्डलमात्रनिबन्धना, सर्वदा तयोस्तस्या उत्पत्तिप्रसङ्गात् । अपि च, यदेव क्वचित् केनचित् उपलब्धं सत्त्वेन; तस्यैव अन्यत्र विधिः प्रतिषेधो वा दृष्टः । यदि च संयोगो न कदाचिद् उपलब्धः कथं विभागेन अस्य 'चैत्रोऽकुण्डलः कुण्डली वा' इत्येवं प्रतिषेधः विधिश्च मुपादेयम् । न तावत् कुण्डलनिमित्ता नापि देवदत्तनिमित्ता। न च भवता निमित्तान्तरं प्रतिपाद्यते, निमितान्तरं चान्तरेण यथा कथंचिद् व्यवस्थिताभ्यां देवदत्त-कुण्डलाभ्यां कुण्डलीति बुद्ध्या भवितव्यम् । तस्मादवश्यं विधीयमानं प्रतिषिध्यमानं वा निमित्तान्तरमभ्युपगन्तव्यम् । यदि प्रतिषिध्यमानं यदन्यत्र भवति तदन्यत्र प्रतिषिध्यत इति प्रतिषिध्यमानस्य विषयो वक्तव्यः । तस्मान्न कथञ्चन संयोगः प्रतिषेढुं शक्यते । इहबुद्धिनिमित्तवाच्च-इयमिहबुद्धिः प्रवर्तमाना नर्ते संबन्धात् प्रवतते-यथेह कुण्डे बदराणीति-नेयं बदरमात्रनिमित्ता न कुण्डमात्रनिमित्तेति । यदस्या निमित्तं स संयोग इति। x x x तस्माद् उपपन्नमर्थान्तरं संयोग इति"-पृ० २१९ पं० १-पृ० २२५ पं० १। प्रमेयकमलमार्तण्डे तु तत् तन्मतमित्थं वर्तते "ननु संयोगो नामार्थान्तरं न स्यात् तदा क्षेत्रे बीजादयो निर्विशिष्टत्वात् सर्वदैवानुरादिकार्यं कुर्युः न चैवम् तस्मात् सर्वदा कार्यानारम्भात् तेऽङ्कुरादिकार्योत्पत्तौ कारणान्तरसापेक्षा यथा मृत्पिण्डदण्डादयो घटकरणे कुम्भकारादिसापेक्षाः योऽसावपेक्ष्यः स संयोग इति । किञ्च, द्रव्ययोर्विशेषणभावेनाध्यक्षत एवासौ प्रतीयते । तथाहि-कश्चित् केनचित् संयुक्त द्रव्ये आहरेत्युक्त ययोरेव द्रव्ययोः संयोगमुपलभते ते एवाहरति न द्रव्यमात्रम् । किञ्च, कुण्डली देवदत्त इत्यादि मतिरुपजायमाना किंनिबन्धनेति अभिधातव्यम् ? न तावत् पुरुषकुण्डलमात्रनिबन्धना सर्वदा तस्याः सद्भावप्रसङ्गात् । किञ्च, यदेव केनचित् क्वचिदुपलब्धसत्त्वं तस्यैवान्यत्र विधिप्रतिषेधमुखेन लोके व्यवहारप्रवृत्तिदृष्टा । यदि तु संयोगो न कदाचिदुपलब्धस्तत् कथमस्य चैत्रोऽकुण्डली कुण्डली वेत्येवं विभागेन व्यवहारो भवेत् । चैत्रोऽकुण्डलीत्यत्र हि न कुण्डलं चैत्रो वा प्रतिषिध्यते देशादिभेदेनानयोः सतोः प्रतिषेधायोगात् । तस्माच्चैत्रस्य कुण्डलसंयोगः प्रतिषिध्यते । तथा चैत्रः कुण्डलीत्यनेनापि विधिवाक्येन चैत्र-कुण्डलयोर्नान्यतरस्य विधानं तयोः सिद्धत्वात् । पारिशेष्यात् संयोगस्यैव विधियिते इत्यप्युयोतकरस्य मनोरथमात्रम्"-पृ. १८५ द्वि. पं. १०-पृ० १८६ प्र. पं० २। तत्त्वसंग्रहे खेतदुद्द्योतकरमतं समग्रं वर्तते परंतु न प्रस्तुतटीकाक्रमेण अत एव यत्र यत्र तत्त्वसंग्रहानुसारिणी टीका समायाता तत्र तत्र तास्ताः कारिकाः क्रमव्यत्यासेनापि उद्धृताः । १ निरन्तरमिदं वस्तु सान्तरं चेदमित्ययम् । बुद्धिभेदश्च केनैष विद्यते तौ च चेदिह" ॥-तत्त्वसं. का. ६५८ पृ. २१८। २"या चेयं सान्तरे बुद्धिनैरन्तर्यावसायिनी। निरन्तरेऽपि या चान्या मिथ्याबुद्धिरियं द्विधा ॥ मिथ्याबुद्धिश्च सर्वैव प्रधानार्थानुकारिणी । प्रधानं चेह वक्तव्यं तदुक्तौ तौ च सिद्धयतः" ।-तत्त्वसं. का. ६५९६६. पृ. २१९ । ३"या चेयमीषत्तरुशिखरावलग्ने बलाकादौ निरन्तरेऽपि सान्तरत्वमिवावस्यन्ती जायतेऽन्या"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २१९ पं०९ ४ "कुण्डलीति मतिश्चेयं किंनिमित्तोपजायते । नरकुण्डलभावान्नो सर्वदा तत्प्रसङ्गतः॥ अन्यत्र दृष्टभावस्य निषेधोऽन्यत्र युज्यते । संयोगश्च भवेद् दृष्टः स कथं प्रतिषिध्यते ॥ चैत्रोऽकुण्डल इत्येवं तस्मादस्त्येव वास्तवः । यनिषेधविधानादि विभागेन प्रवर्तते" ॥-तत्त्वसं. का. ६६१-६६३ पृ० २१९। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। मवेत् ? यतः 'अकुण्डलश्चैत्रः' इति न कुण्डलं प्रतिषिध्यते तस्य अन्यदेशादौ विद्यमानस्य प्रतिषेद्धमशक्यत्वात्, अत एव न चैत्रः ततश्चैत्रस्य कुण्डलसंयोगः प्रतिषिध्यते । एवं 'कुण्डली चैत्रः' इत्यत्रापि चैत्र-कुण्डलयोर्नान्यतरस्य विधिः तयोः सिद्धत्वात् । ततः पारिशेष्याद् अप्रतीतस्य तत्संयोगस्यैव विधिरिति संयोगादिर्वास्तवः समस्त्येव यद्वशाद् विभक्तविधि-प्रतिषेधप्रवृत्तिः 'चैत्रः कुण्डली' इत्यादिप्रयोगेषु । किञ्च, यदि संयोगः अर्थान्तरं न भवेत् तदा बीजादयः-अविशिष्टत्वात् ५ -सर्वदैव स्वकार्यमङ्कुरादिकं विदध्युः न चैवम् सर्वदा तेषां कार्यानारम्भात् ; अतो बीजादयः स्वकार्यनिर्वर्तने कारणान्तरसव्यपेक्षाः मृत्पिण्ड-दण्ड-चक्र-सूत्रादय इव घटादिकरणे; योऽसौ अपेक्ष्यः स संयोगः" [ ] इति उद्योतकरः। ___ अत्र प्रतिविधीयते-यत् तावदुक्तम् ‘पदार्थविशेषणभावेन संयोगोऽध्यक्षतः प्रतीयते' इति, तदयुक्तम्; यतः न संयुक्तपदार्थार्थान्तरभूतः संयोगः कदाचित् प्रतिपत्तुर्दर्शनपथमवतरति, न १० तदर्शनाद विशिष्टे द्रव्येऽसावाहरति किं तर्हि ? प्राग्भाविसान्तरावस्थातो विशिष्टे निरन्तरावस्थे ये समुत्पन्ने वस्तुनी; ते एव 'संयुक्त'प्रत्ययविषये तच्छब्दवाच्ये, अवस्थाविशेषे संकेतितत्वात् 'संयुक्त'शब्दस्य । ततो यत्र तथाविधे वस्तुनी 'संयोग'शब्दविषयतामुपगते निश्चिनोति तत्र ते एव आहरति नान्ये न हि प्रेक्षावान् शब्दात् तदप्रेरिते अर्थे प्रवृत्तिमारचयति । वस्त्वन्तरमेव च तथा तथोत्पद्यमानं 'निरन्तरमिदं वस्तु' 'सान्तरमिदम्' इति च बुद्धिभेदनिबन्धनं भविष्यति संयोग-विभागयोव्यार्था-१५ न्तरभूतयोरभावेऽपि इति अनैकान्तिको 'विशेषप्रत्ययत्वात्' इति हेतुः । तथाहि-विच्छिन्नं यदुत्पन्नं वस्तु तत् सान्तरबुद्धेनिमित्तभावमुपयात्येव हिमवत्-विन्ध्याद्रिवत् , अविच्छिन्नोत्पत्तिकं च निरन्तरबुद्धिविषयः निरन्तरोपरचितदेवदत्त-यज्ञदत्तगृहवत् न हि गृहयोः परेणापि संयोगगुणाश्रयत्वमभ्युपगम्यते निर्गुणत्वाद् गुणानाम् तयोश्च संयोगात्मकत्वेन गुणत्वात् । नापि हिमवत्-विन्ध्ययोविभागाश्रयत्वम् प्राप्तिपूर्विकाया अप्राप्तेर्विभागलक्षणायास्तयोरभावात् । न च सर्वा मिथ्याबुद्धिः२० १“पारिशेष्यात् संयोगस्यैवाप्रतीतस्य विधेञ्जयते तस्मादस्त्येव संयोगादिर्वास्तवः यशाच्चैत्रः कुण्डली न भवतीयादिनिषेधविधानादि प्रविभक्कमेव प्रतीयते । आदिशब्देन विशेषणवेनोपादानमित्यादिपूर्वोक्तपरिग्रहः"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० २२० पं०३ २ "बीजोदकेत्यादिना उद्योतकरमतोपदर्शनाद हेतोरसिद्धतामाशङ्कतेबीजोदकपृथिव्यादि सर्वदा कार्यकारकम् । प्रसक्तं निर्विशेषलात् संयोगासंभवेन तु ॥ क्षेत्र-बीज-जलादीनि सापेक्षाणीति गम्यते । खकार्यकरणान्नित्यं दण्डचक्रोदकादिवत् ॥ यस्तैरपेक्ष्यते भावः स संयोगो भविष्यति । सविशेषणभावाच भिन्न एवेति गम्यते" ॥-तत्त्वसं• का०६५४६५६ पृ० २१८ । ३ पृ. ६७७ पं० २०। ४ "प्राप्तावस्थाविशेषे हि नैरन्तर्येण जातितः । ये पश्यत्याहरत्येष वस्तुनी ते तथाविधे" ॥-तत्त्वसं० का० ६६६ पृ० २२१ । ५अत्र द्वितीयाद्विवचनस्य समुचितलेन प्रकृतिभावस्य साधुवात् 'द्रव्ये असा'-इत्येव पाठः सुचारुः । “नहि संयुक्तपदार्थान्तरभूतः संयोगः प्रतिपत्तुर्दर्शनपथमवतरति येन तद्दर्शना(त)द्विशिष्टे द्रव्ये आहरति"-तत्त्वसं. पत्रि. पृ. २२१५० १५। विच्छिन्नमन्यथा चैव जातमेति निमित्तताम् । सान्तरानन्तरज्ञाने गेह-विन्ध्य-हिमाद्रिवत्" ॥-तत्त्वसं. का० ६६७ पृ० २२१ । "गेह-विन्ध्य-हिमाद्रिवत् इति । अनयोरेव यथायोगमुदाहरणम् । न हि अविच्छेदेनोत्पन्नयोः खयं संयोगात्मनोर्गेहयोरपरः संयोगो निरन्तरबुद्धेर्निबन्धनमस्ति परमतेऽपि, नापि विच्छेदेनोत्पन्नयोस्तयोरेव विभागः सान्तरप्रत्ययनिमित्तमस्ति निर्गुणत्वाद् गुणानामित्युक्तमेतत् । न हि हिम-विन्ध्ययोरपि विभागः सान्तरबुद्धेहेतुरस्ति प्राप्तिपूर्विका ह्यप्राप्तिर्विभाग इति समयात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २२१ पं० २५-। ८ "मिथ्याबुद्धिर्न सर्वैव प्रधानार्थानुसारिणी। साधर्म्यनिरपेक्षाऽपि काचिदन्तरुपप्लवात् ॥ अन्यत्र गतचित्तस्य द्विचन्द्रादिमतिर्यथा। अविच्छिन्नादिजातं वा प्रधानमिह विद्यते"॥-तत्त्वसं. का. ६६८-६६९ पृ. २२२। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० तृतीये काण्डे - साधर्म्यग्रहणादुत्पद्यते कस्याश्चित् तदन्तरेणापि इन्द्रियवैगुण्यमात्रादेव उत्पत्त्युपलब्धेः अन्यगतचेतसस्तैमिरिकस्य द्विचन्द्राद्यविकल्पबुद्धिवत् । न च प्रधानार्थानुसारित्वेऽपि मिथ्याबुद्धेः परस्य इष्टसिद्धिः विच्छिन्नाऽविच्छिन्नरूपतया उपजातस्य वस्तुनः प्रधानभूतस्य तद्बुद्धि निबन्धनस्य सिद्धावपि तदर्थान्तरभूतसंयोग-विभागलक्षणगुणाप्रसिद्धेः, यथा च चैत्र - कुण्डलयोर्विशिष्टावस्थाप्राप्तौ ५ संयोगः प्रादुर्भवति न सर्वदा तथा 'चैत्रः कुण्डली' इति मतिरपि तदवस्थाविशेषनिबन्धना कदाचिदेव भविष्यति न सर्वदा इति किमर्थान्तरभूतसंयोगकल्पनया ? यदपि 'यदेव क्वचिद् उपलब्धम्' इत्याद्यभिधानम्, तदपि असंगतम् ; विशिष्टावस्थायाः प्रदर्शितमिति निबन्धनाया उपलभ्यस्वभावायाः अन्यत्रानुपलम्भतः प्रतिषेधोपपत्तेः परपरिकल्पितस्य च संयोगस्य संयोगिपदार्थविवेकेन क्वचिदपि प्रत्यये अप्रतिभासनात् कुतः प्रतिषेधः विधिर्वा संभवी ? यदि च देवदत्त कुण्डलयोदेशान्तरादौ १० सत्त्वान्न निषेधः असत्त्वेऽपि तदानर्थक्यम् तदा नञर्थाभाव एव स्यात् । संयोगप्रतिषेधेऽपि चैतद् दूषणं समानम् तस्यापि विद्यमानत्वे प्रतिषेधानुपपत्तेः अविद्यमानत्वे तदानर्थक्यात् । यदपि 'बीजादयोऽविशिष्टत्वात् सर्वदैव कार्य विदध्युः' इत्याद्युक्तम् तंत्र बीजादीनामविशिष्टत्वमसिद्धम् सर्वभावानां प्रतिक्षणविशरारुतया विशिष्टावस्थाप्राप्तौ जनकत्वात् बीजादीनां स्वकार्यजनने सापेक्षत्वमात्रसाधने च सिद्धसाध्यता अव्यवधानाद्यवस्थान्तरसापेक्षाणां वीजादीनामङ्करादिखकार्य निर्वर्तनस्य १५ अस्माभिरभ्युपगमात् । अथ संयोगाख्यपदार्थान्तरसापेक्षत्वं तेषां साध्यते तदा तथाविधेन धर्मेण तोरन्वयासिद्धेरनैकान्तिकता दृष्टान्तस्य च साध्यविकलताप्रसक्तिः । अथ अवस्थान्तरविशेषापेक्षा बीजादयः स्वकार्योत्पत्तिहेतवः न पुनरर्थान्तरभूतसंयोगापेक्षा इति कुतः सिद्धं येन सापेक्षत्वमात्रे साध्ये सामान्येन सिद्धसाध्यतादोष उद्भाव्यते ? यदि हि संयोगमात्र सापेक्षा एव ते तदारम्भकस्तदा प्रथमोपनिपात एव अङ्कुरादिकार्यप्रसवो बीजादिभ्यो भवेत् पश्चाद्वद् अविकलकारणत्वात् । अथ २० प्रथमोपनिपाते न तदुदयः पश्चादपि न स्यात् पूर्ववद् विकलकारणत्वाविशिष्टत्वात् । न च बीजादेः संयोगे अनुपकारिणि अपेक्षा युक्ता अतिप्रसङ्गात् । न च तत्कारणानां क्षिति-बीजादीनामेकस्वभावतया नित्यसन्निहितत्वात् संयोगानां कादाचित्कत्वं युक्तम् । अथ क्षित्यादीनां संयोगेऽपि जन्ये कर्मादिसापेक्षत्वात् संयोगस्य कादाचित्कत्वम् नः तत्रापि तुल्यपर्यनुयोगत्वात् । तथाहि कर्मापि कस्मात् सर्वदा न जनयति ? इति पर्यनुयोगस्य अव्यावृत्तिरेव । न च तत्कारणाभावात् इत्युत्तरं २५ संगतम् नित्यकारणाभ्युपगमे तस्यापि नित्यभावः इति पर्यनुयोगस्य सर्वत्र तुल्यत्वात् । क्षणिकवादिनस्तु नायं दोषः पूर्वपूर्वहेतु प्रतिबद्धत्वात् तदुत्तरोत्तरकार्याणां युगपत् कारणवैकल्येन सर्वे - षामसन्निधानात्, अतः परेषामङ्कुरादिकार्यहेतुत्वं बीजादीनां न सर्वदा प्रसज्यत इति नार्थान्तरसंयोगसापेक्षास्ते इति व्यवस्थितम् । संयोगसद्भावबाधकं च प्रमाणं प्रत्यक्षवद् अनुमानमपि विद्यत १ “कुण्डलीति मतिश्चेयं जातावस्थाविशेषयोः । चैत्र कुण्डलयोरेव संयोग इव जायते " ॥ - तत्त्वसं ० का ० ६७० पृ० २२२ । २ पृ० ६७८ पं० ९ टि० ४ । ३ पृ० ६७८ पं० ११। ४ “सोऽवस्थातिशयस्तादृग् दृष्टोऽन्यत्र निषिध्यते । चैत्रे कुण्डल इत्यादौ न संयोगस्त्वदृष्टितः” ॥—तत्त्वसं० का० ६७१ पृ० २२२ । ५- तमतिबन्ध - भ० मां० । “यदवस्थाविशेषनिबन्धनेयं मतिरुपवर्णिता तस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य " - तत्त्वसं ० पञ्जि० पृ० २२३ पं० १ ६ पृ० ६७९ पं० १। ७ पृ० ६७९ पं० ५ । ८ “उच्यते क्षणिकत्वेन नाविशेषा जलादयः । सत्त्वेऽप्यव्यवधानादि तेऽपेक्षन्ते दशान्तरम् ” ॥ - तत्त्वसं ० का ० ६६४ पू० २२० । ९ “संयोगमात्रसापेक्षा यदि तु स्युर्जलादयः । योगानन्तरमेव स्यात् कार्यमेतेन वा भवेत् " ॥ - तत्त्वसं ० का ० ६६५ पृ० २२० । १० " तस्माद्भवत एव दर्शनेऽङ्कुरादिकार्यप्रसवहेतुत्वं क्षित्यादीनां सर्वदा प्रसज्यत इति न संयोगार्थान्तरसापेक्षाः क्षित्यादय इति सिद्धम् " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० २२१ पं० ९- । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । ६८१ एव । तथाहि-यो संयुक्ताकारा बुद्धिः सा भवत्परिकल्पितसंयोगानास्पदवस्तुविशेषमात्रप्रभवा, 'संयुक्तौ प्रासादौ' इति बुद्धिवत् , संयुक्ताकारा च 'चैत्रः कुण्डली' इत्यादिवुद्धिः इति स्वभावहेतुः । यद्वा-या अनेकवस्तुसन्निपाते सति समुत्पद्यते सा भवत्परिकल्पितसंयोगविकलानेकवस्तुविशेषमात्रभाविनी, यथा विरलावस्थितानेकतन्तुविषया वुद्धिः, तथा च विमत्यधिकरणभावापन्ना संयुक्तबुद्धिः इति स्वभावहेतुः। एतदेव प्रयोगद्वयं विभागप्रतिषेधेऽपि वाच्यम् । तथाहि-मेषादिषु विभक्त-५ बुद्धिः विभागरहितपदार्थविषयमात्रनिबन्धना, विभक्तबुद्धित्वात् अनेकपदार्थाऽसन्निधानायत्तोदयत्वाद् वा, देवदत्तयज्ञदत्तगृहविभागबुद्धिवत् हिमवत्-विन्ध्यविभागबुद्धिवद्वा । साध्यविपर्यये हेतोर्बाधकं प्रमाणम्-एकस्यानेकवृत्त्यनुपपत्तिः इति ज संयोग-विभागगुणद्वयसद्भावः। ___'इदं परम्' 'इदमपरम्' इति यतोऽभिधानप्रत्ययौ भवतः तद् यथाक्रमं परत्वम् अपरत्वं च सिद्धम् । प्रयोगश्चात्र-योऽयं 'परम्' 'अपरम्' इति च प्रत्ययः स घटादिव्यतिरिक्तार्थान्तरनिबन्धनः, १० तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात् , सुखादिप्रत्ययवत् । तथाहि-एकस्यां दिशि स्थितयोः ‘परम्' 'अपरम्' इति च प्रत्ययोत्पत्तेन तावदयं दिग्निबन्धनः, एकस्मिन्नपि वर्तमानकाले वर्तमानयोर्युव-स्थविरयोरनियतदिग्देशसंयुक्तयोः 'परम्' 'अपरम्' इति च प्रत्ययोत्पत्ते प्ययं कालनिबन्धनः तदविशेषेऽपि प्रत्ययविशेषात् । न चान्यद् अस्य निबन्धनमभिधातुं शक्यम् तस्माद् यन्निबन्धनोऽयं प्रत्ययः तत् परत्वम् अपरत्वं चाभ्युपगन्तव्यम् । एतच्च द्वितयमपि दिकृतम् कालकृतं च । दिकृतस्य तावदि-१५ यमुत्पत्तिः-एकस्यां दिश्यवस्थितयोः पिण्डयोरेकस्य द्रष्टुः संनिकृष्टमवधिं कृत्वा एतस्माद् विप्रकृष्टोऽयम्' इति परत्वाधारे बुद्धिरुत्पद्यते ततस्तामपेक्ष्य परेण दिक्प्रदेशेन योगात् परत्वमुत्पद्यते; विप्रकृष्टं वाऽवधिं कृत्वा एतस्मात् संनिकृष्टोऽयम्' इत्यपरत्वाधारे बुद्धिरुत्पद्यते तामपेक्षा(क्ष्या परेण दिक्प्रदेशेन योगाद् अपरत्वस्य उत्पत्तिः। कालकृतयोस्तु अयमुत्पत्तिक्रमः । तथाहि-वर्तमानकालयोः अनियतदिग्देशसंयुक्तयोर्युव-स्थविरयोर्मध्ये यस्य वली-पलित-रूढश्मश्रुतादिना अनुमितमादित्यो-२० दयानां भूयस्त्वम् तत्रैकस्य द्रष्टुर्युवानमवधिं कृत्वा स्थविरे विप्रकृष्टबुद्धिरुत्पद्यते तामपेक्ष्य परेण कालप्रदेशेन योगात् परत्वस्योत्पत्तिः, स्थविरं चावधिं कृत्वा यस्य अरूढश्मश्रुतादिना अनुमितमादित्योदयाऽस्तमयानामल्पत्वम् तत्र यूनि संनिकृष्टबुद्धिरुत्पद्यते तामपेक्ष्य अपरेण कालप्रदेशेन योगात् अपरत्वस्योत्पत्तिरिति । . अत्र च परत्वसाधनमनैकान्तिकम् साध्यविपक्षेऽपि हेतोवृत्तेः । तथाहि-यथा क्रमेण उत्पादाद २५ नीलादिषु कालोपाधिः क्रमेण च व्यवस्थानाद् दिगुपाधिश्च 'परं नीलम् अपरं च' इति प्रत्ययोत्पत्तिः असत्यपि परत्वापरत्वलक्षणे गुणे-गुणानां निर्गुणत्वात्-तथा पटादिष्वपि भविष्यतीति यद्यर्थान्तरनिमित्तत्वमात्रं परेण इह साधयितुमिष्टं तदा कथं न अनैकान्तिकता हेतोः ? अथ नित्यदिक्-कालपदार्थहेतुकगुणविशेषनिबन्धनत्वं प्रकृतप्रत्ययस्य तदा दृष्टान्ताभावः अनुमानबाधा च प्रतिज्ञायाः। तथाहि-यः पराऽपरादिप्रत्ययः स परपरिकल्पितगुणरहितार्थमात्रकृतक्रमोत्पादव्यवस्थानिबन्धनः,३० परापरप्रत्ययत्वात् , रूपादिषु परापरप्रत्ययवत्, परापरप्रत्ययश्चायं घटादिषु इति स्वभावहेतुः । न च १ "न पराभिमताद् योगाजायते युक्तवस्तुधीः । युक्तबुद्धितया यद्वत् प्रासादादिषु युक्तधीः ॥ अनेकवस्तुसद्भावे जायमानतयाऽथवा । विभक्तानेकतन्त्वादिविषया इव बुद्धयः ॥ विभागेऽपि यथायोगं वाच्यमेतत् प्रमाद्वयम् । एकस्यानेकवृत्तिश्च न युक्तेति प्रवाधकम्” ॥-तत्वसं. का. ६७२६७४ पृ. २२३ । २ "परापराभिधानादिनिमित्तं यच्च कल्प्यते । परखमपरत्वं च दिकालावधिक न तत्" ॥-तत्त्वसं० का० ६७५ १२२३ । ' ३ "एकस्यां दिश्यवस्थितयोः पिण्डयोरेकस्य द्रष्टुः संनिकृष्टमवधिं कृला एतस्माद विप्रकृष्टोऽयमिति परत्वाधारे बुद्धिरुत्पद्यते ततस्तामपेक्ष्य परेण दिकप्रदेशेन संयोगात् परलमुपजायते । विप्रकृष्टं चावधिं कृत्वा एतस्मात् सन्निकृष्टोऽयमित्यपरखाधारे बुद्धिरुत्पद्यते तामपेक्ष्यापरेण दिक्प्रदेशेन संयोगादपरत्वस्योत्पत्तिः"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २२४ पं० ११ ४ “यस्य वलीपलितरूढश्मश्रुतादिनाऽनुमितमादित्योदयास्तमयानां बहुवम्”-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० २२४ पं० १६॥ ५ "यथा नीलादिरूपाणि क्रमभावव्यवस्थितेः। अन्योपाधिविवेकेऽपि तथोच्यन्ते तथापरे (परापरे)"॥ -तत्त्वसं० का० ६७६ पृ० २२३ । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ तृतीये काण्डे नीलादिकेषु एकार्थसमवायाद् उपचरितोऽयं परापरत्वादिप्रत्ययः इति अनैकान्तिकता भवत्प्रयुक्तस्यापि हेतोः पारंपर्येण च नीलादिष्वपि परत्वादेनिमित्तभावोपगमात् साध्यविकलता च दृष्टान्तस्येति वक्तव्यम् , अस्खलढत्तित्वेन अस्य उपचरितत्वाभावात् स्वाश्रयेऽपि च तयोरुपलब्ध्यभावाद् न तद्बलेन प्रत्ययो युक्त इति कुतो रूपादिषु तन्निवन्धनो भविष्यति ? सुखादिषु वा पूर्वोत्तरकालभाविषु ५ किंनिबन्धनोऽयं भवेत् ? न चैवं तत्रैकार्थसमवायादेस्तन्निबन्धनस्याभावात् । किञ्च, दिक्-कालयोः पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वात् तद्धेतुकयोः परत्वाऽपरत्वयोरभाव इति कुतस्तन्निमित्तत्वाशङ्का येन हेतोरनैकान्तिकता स्यात् ? न च परमार्थतो दिक्-कालयोः प्रदेशाः सन्ति यतस्तत्संयोगादपेक्षाबुद्धिसहिताद् उत्पत्तिस्तयोर्भवेत् । दिक्-कालयोरेकात्मकत्वेन निरवयवत्वाद् न चार्थक्रियानिबन्धन उपचरितोऽवयवभेदो युक्तः अर्थक्रियाया वस्तुखभावप्रतिबद्धत्वात् उपचारस्य च अपारमार्थिकत्वात्। १० तत् कुतः अनैकान्तिकता प्रकृतहेतोः? असिद्धता च परोपन्यस्तहेतोः पूर्ववद् वाच्या। 'ने संख्यादयो गुणा द्रव्याद् अव्यतिरेकिणः, तेषां तद्व्यवच्छेदहेतुत्वात् , यो हि यद्यवच्छेदकः नासौ तव्यतिरेकी देवदत्तव्यवच्छेदकदण्डादिवत्, तथा च संख्यादयो द्रव्यव्यवच्छेदकाः, तस्माद् न तदव्यतिरेकिणः' इत्यत्र प्रयोगे यदि द्रव्याद् अव्यतिरेकत्वनिषेधमात्रं साध्यं तदा सिद्धसाध्यता सर्वसंवृतिमतामवस्तुतया तत्त्वाऽन्यत्ववाच्यत्वेन अनिष्टेः । अर्थ 'समूह-संतानादयः तत्त्वाऽन्यत्वा१५भ्यामवचनीया न भवन्ति, प्रतिनियतधर्मयोगित्वात् , रूपादिवत्' अत्रापि यदि पारमार्थिकनियत धर्मत्वं हेतुत्वेनेष्टं तदा असिद्धो हेतुः, न हि संतानादीनां पारमार्थिकनियतधर्मयोगित्वं सौगतं प्रति सिद्धम् । अथ सामान्येन हेतुः तदा शशशृङ्गादावपि कल्पितनियतधर्मयोगित्वस्य अभावत्वाऽमूर्तत्वादेः सद्भावाद् अनैकान्तिकः । अथ न द्रव्यादव्यतिरेकप्रतिषेधमात्रं साध्यम् किं तर्हि ? ,व्या(व्याद्) व्यतिरेकित्वम् प्रतिषेधद्वयेन प्रकृतार्थगतेः, असदेतत्; संख्यादेव्याद् व्यतिरेकेण अनुपलम्भाद् २० अभावतो हेतोराश्रयासिद्धत्वप्रसक्तेः । न च द्रव्यात्मकत्वेन प्रतीयमानस्यापि संख्यादेर्भेदः साधयितुं शक्यः तदात्मनस्ततो भेदे तस्य निःस्वभावताप्रसक्तेः । तन्न संख्यादयः परत्वाऽपरत्वपर्यन्ता द्रव्याद् व्यतिरेकिणः कुतश्चित् प्रमाणादवसीयन्ते इति न तथा ते सद्व्यवहारविषयाः। १-भाविषु तन्निबन्धनोऽयं भवेत् तत्रैकार्थसमवायादेस्तन्निबन्धनस्याभावात् वा० बा० । "सुखादिषु वा पूर्वोत्तरकालभाविषु किं कल्प्येत, न हि तत्रैकार्थसमवायोऽस्ति"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २२५ पं०७॥ २ “सङ्ख्यायोगादयः सर्वे न द्रव्याव्यतिरेकिणः । तस्यवच्छेदकलेन दण्डादिरिव चेन्मतम् ॥ तेषां संवृतिसत्त्वेन वर्णनादिष्टसाधनम् । तत्त्वान्यखेन निर्वाच्यं नैव संवृतिसद् यतः"॥-तत्त्वसं. का. ६७७-६७८ पृ० २२५। ३ द्रव्या व्यति-वा. बा. भां० मां० । “तदत्र द्रव्यादव्यतिरेकित्खनिषेधमात्रे साध्ये सिद्धसाध्यता दोषः प्रतिज्ञायाः"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० २२५५० २१ । ४ “अथेत्यादिनानाविद्धकर्णस्योत्तरमाशङ्कतेअथानिर्वचनीयवं समूहादेनिषिध्यते । यस्मानियतधर्मलं रूप-शब्द-रसादिवत्"॥-तत्त्वसं. का०६७९ पृ०२२५। ५ "निःस्वभावतया तस्य तत्त्वतोऽम्बरपद्मवत् । न सिद्धा नियता धर्माः कल्पनारोपितास्तु ते ॥ तथैवोक्तावनेकान्तो वियत्पद्मादिभिर्यतः । अमेदो व्यतिरेकश्च वस्तुन्येव व्यवस्थितः"॥-तत्त्वसं. का० ६८०-६८१ पृ० २२६ । ६ "संख्यादेव्यतोऽन्यखमेवं चेत् प्रतिपाद्यते । आश्रयासिद्धता हेतोः संख्यादीनामसिद्धितः ॥ समुच्चयादिभिन्नं तु द्रव्यमेव तथोच्यते । खरूपादेव भेदश्च व्याहतः साधितो भवेत्" ॥-तत्त्वसं० का० ६८२-६८३ पृ० २२६। ___“किं तर्हि द्वौ प्रतिषेधौ विधिमेव गमयत इति प्रतिषेधद्वयेन द्रव्याद् व्यतिरेकित्वमेव साध्यत इति"-तत्त्वसं० पजि० पृ. २२६ पं० १७ ॥ • "एवं तावत् परत्वान्ता गुणाः प्रतिषिद्धाः"-तत्त्वसं० पनि पृ० २२६ पं० २७ । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेयमीमांसा। ६८३ ये चै बुद्ध्यादयः प्रयत्नान्ता आत्मसमवेतत्वेन तहुणा अभ्युपगताः ते तथाभूतात्मनिषेधादेव प्रतिषिद्धाः । तथाहि-आत्मा एषामुत्पत्तिकारणत्वेन वा आश्रयोऽभ्युपगम्येत, स्थितिनि वा ? न तावद् आद्यः पक्षः, अविकलकारणतया वुद्ध्यादेः सर्वदैव सर्वस्योत्पत्तिप्रसक्तः अनाधेयातिशयस्य सहकार्यपेक्षाऽयोगात् । न च क्रम-योगपद्यव्याप्तकार्योत्पादनसामर्थ्यस्य नित्ये संभवः तत्र क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधस्य प्रतिपादितत्वात् । न च द्वितीयोऽपि पक्षो युक्तः, स्थितेः५ स्थातुरव्यतिरेकात् तस्य तद्धेतुत्वे तहेतुत्वमेव स्यात् तच्च प्राक्तनन्यायेन असंगतम् । न च परिनिष्ठितात्मरूपत्वात् स्थातुः कश्चिद्धेतुः संभवी, तत्र तस्य अकिञ्चित्करत्वात् । व्यतिरेकेऽपि स्थितेः स्थातुर्न तेन किञ्चित् कृतं स्यात् स्थितेरर्थान्तरभूतायाः करणात् । एवं च अकिञ्चित्करः कथमाश्रयो बुद्ध्यादेरसौ भवेत् ? न च स्थितेस्तत्संबन्धितया करणात् तस्याऽसावुपकारकत्वाद् आश्रयः तस्यास्तत्संबन्धित्वासिद्धेः भिन्नायास्तदुपकागभावे संवन्धायोगात् तत उपकारकल्पनायामनवस्थाप्रसक्तेः१० समवायसंवन्धस्य च असिद्धेः । न च तस्य स्थितिं प्रति हेतुत्वमपि युक्तम् नित्यस्य क्वचिदपि सामर्थ्यायोगात् । किञ्च, स्थाप्यमानो वुढ्यादिः स्थितिस्वभावो वा नेन स्थाप्येत, अस्थितिस्वभावो वा? यदि अस्थितिस्वभावः नासो केनचित् स्थापयितुं शक्यः तत्स्वभावाव्यतिक्रमात् । अथ स्थितिस्वभावः तदा तत्स्वभावस्य स्वयमेव तत्स्वभावतया तस्य स्थितिसिद्धः किमकिश्चित्करस्थापक कल्पनया? अथ स्थातुः पाताभावं कुर्वन् म्थापकः न अकिञ्चित्करः, न; पाताभावस्व प्रसज्यप्रतिषेध-१५ रूपत्वे कारकव्यापाराविषयत्वान्, पर्युदासम्पन्वेऽपि किमसी पात एव, उत पाताद् अन्यत् पदार्थान्तरम् ? यदि पात एव तदा 'स्थापकः स्थातुः पानं करोति' इति प्राप्तम् तथा च कथमसौ स्थापको भवेत् ? अथ पदार्थान्तरं पाताद अन्यद अमा करोतिः नन्वेवं पदार्थान्तरकरणेऽपि स्थाता पतेदेव पदार्थान्तरोत्पादेऽपि तस्य त्राणासंभवात् । न च पदार्थान्तरेण स्थापकोत्पादितेन स्थातुः पातप्रतिबन्धः क्रियत इति वक्तव्यम, तम्याऽपि पातादनन्यत्वे पात एव कृतः स्यात्, अन्यत्वे तेन २० तत्संबन्धासिद्धेस्तत्करणेऽपि स्थातुस्तदवस्थ एव पातो भवेतः तेनापि अपरपातप्रतिवन्धकरणे तद्धिभाऽभिन्नविकल्पद्वयानतिवृत्तिद्वारेण अनवस्थादिप्रसक्तिः । नन्न कश्चित् कस्यचित् स्थापकः । किञ्च, भवेन्नाम बदरादेर्मूर्तद्रव्यस्य अधोगमनप्रतिवन्धकत्वेन कुण्डादिगश्रयः । वुझ्यादेस्तु अमूर्तस्य अधोगत्यभावात् किं कुर्वाण आत्मादिगश्रयो भवेत् ? अपि च, नोत्पन्नानां वुढ्यादीनां कश्चिद् आश्रयः, संतां निराशंसतया आश्रितत्यानुपपत्तः । नापि अनुत्पन्नानाम् निरुपाख्यतया तेषां तत्त्वा-२५ योगात् । किञ्च, "बुद्धिः उपलब्धिः शानम् इति अनर्थान्तरम्" [ न्यायद० १-१-१५] इति वचनाद् बुद्धानरूपता परैरभ्युपगता । न च तम्याः स्वसंविदितत्वमभ्युपगतम् वुढ्यन्तरग्राह्यतयाऽभ्युपगमात् । न च तथाभूनायास्तस्या रूपादिवद् बुद्धित्वं युक्तमिति प्राक् प्रतिपादितम् । सुख-दुःखेच्छा-द्वेषादीनां च अज्ञानरूपत्वे रूपादिवन्नात्मविशेषगुणता अभ्युपगन्तुं युक्ता । ज्ञानरूपत्वे बुद्धे देन अभिधानमसंगतमेव, कश्चिद् विशपमुपादाय शानात्मकानामपि ततो भेदेन अभिधाने ३० अभिमानादीनामपि मेदेन अभिधानं कार्यमित्यलमतिजल्पितेन । गुरुत्व-द्रवत्व-स्नेहानां तु रूपादिवद् गुणरूपता प्रतिपेध्या । 'गुरुत्वं हि पृथिव्युदकवृत्ति १"बुद्धयादयस्तु प्रयत्नान्ता आत्माधितखेन तद्गणा इटाः। ते चात्मनिषेधादेव निषिद्धा द्रष्टव्याः। न चैषामात्माऽऽश्रयो युक्तः । तथाहि-उत्पत्तिहेतुतया चामीषामात्माऽऽश्रयो भवेत् स्थितिहेतुनया वा! न तावदुत्पत्तिहेतुतया सर्व. देवाविकलकारणतया सुखादीनामुत्पत्तिप्रमहात्" इत्यादि । “नापि स्थितिहेतुनया युक्तः स्थितेः स्थातुरव्यतिरिच्यमानरूपलात्" इत्यादि-तत्त्वसं० पजि. पृ. २२७ पं०१ २"सदसतोश्च निराशंसत(या)नुपाख्यखेन चाश्रयणानुपपत्तिरिति"-तत्त्वसं० पजि० पृ. २२७ पं० १८। ३ “यथोक्तम्-बुद्धिरुपलब्धिनिमित्यनथीन्तरमिति"-तत्त्वसं० पजि.पृ. २२७ पं० २० । "बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानं प्रत्यय इति पर्यायाः"-प्रशस्त. कं० पृ. १७१ पं० १६ । ४ "गुरुख-द्रवल-स्नेहानां तु रूपादिवत् प्रतिषेधो विधेयः"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २२७ पं० २५। ५ "गुरुलं जल-भूम्योः पतनकर्मकारणम् । x x x द्रवलं स्यन्दनकर्मकारणम् विद्रव्यवृत्ति । तत् तु द्विविधम् सांसिद्धिकम् नैमित्तिकं च । सांसिद्धिकमपां विशेषगुणः नैमित्तिकं पृथिवी-तेजसोः सामान्यगुणः । xxx बेहोऽपां विशेषगुणः संग्रह-मृजादिहेतुः"-प्रशस्त. क. पृ. २६३ पं० २५-पृ. २६६ । ८८ स.प्र. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डेपतनक्रियानिबन्धनम्, द्रवत्वं तु पृथिव्युदक-ज्वलनवृत्ति स्प(स्य)न्दनहेतुः पृथिव्यनलयोनैमित्तिकम् अपां सांसिद्धिकम् , स्नेहस्तु अम्भसि एव स्निग्धप्रत्ययहेतुः' इत्यादिप्रक्रिया पृथिव्यादीनामाधारत्वनिषेधात् तद्गतरूपादिनिषेधाच्च निषिद्धैव, तन्न्यायस्य अत्रापि समानत्वात्।। संस्कारस्तु त्रिविधः-वेगः भावना स्थितस्थापकश्चेति-अभ्युपगतः। तत्र वेगाख्यः पृथिव्यप्५ तेजो-वायु-मनस्सु मूर्तिमद्रव्येषु प्रयत्नाभिघातविशेषापेक्षात् कर्मणः समुत्पद्यते नियतदिक्रियाप्रबन्धहेतुः स्पर्शवद्रव्यसंयोगविरोधी च, तत्र शरीरादिप्रयत्नविशेषाविर्भूतकर्मविशेषनिमित्तःयद्धशाद् इषोः अन्तराले अपातः स च नियतदिक्रियाकार्यसंबन्धोन्नीयमानसद्भावः लोष्टाद्यभिघातोत्पन्नकर्मोत्पाद्यस्तु शाखादी वेगाख्यः संस्कारः। भावनासंज्ञः पुनः आत्मगुणः शानजः ज्ञानहेतुश्च दृष्टाऽनुभूतश्रुतेष्वर्थेषु स्मृति-प्रत्यभिज्ञानकार्योन्नीयमानसद्भावः । मूर्तिमद्रव्यगुणः स्थित१० स्थापको घनावयवसंनिवेशविशिष्टं स्वमाश्रयं कालान्तरस्थायिनमन्यथा व्यवस्थितमपि प्रयत्नतः पूर्ववद् यथावस्थितं स्थापयतीति कृत्वा, दृश्यते च तालपत्रादेः प्रभूततरकालसंवेष्टितस्य प्रसार्यमुक्तस्य पुनस्तथैव अवस्थानं संस्कारवशात् एवं धनुः-शाखा-शृङ्ग-दन्तादिषु भुग्नापवर्तितेषु च वस्त्रादिषु तस्य कार्य परिस्फुटमुपलभ्यत एवेति ततस्तत्सद्भावः सिद्धः । असदेतत् , क्षण भङ्गसिद्धौ वेगाख्यसंस्कारकार्यस्य कर्मप्रवन्धस्य असिद्धेः । न हि उत्पत्त्यनन्तरं भावानां नाशे नियत१५दिक्रियाप्रबन्धस्य तद्धेतोश्च संस्कारस्य उत्पत्तिः । न च खोपादानदेशाऽनन्तरदेशोत्पाद एव भावानां क्रियाप्रबन्धः, हेतोरनैकान्तिकत्वप्रसक्तः । तथाहि-ततःप्राक्तनस्वहेतव एव सिद्धिमासादयन्ति न यथोक्तः संस्कारः तेन सह क्वचिदपि अन्वयासिद्धेः । यदि च तथाविधसंस्कारवशाद् इष्वादीनामपातस्तदा च न कदाचिदपि पातः स्यात् पातप्रतिबन्धकस्य वेगस्य सर्वदा अवस्थानात् । एवं च आकाशप्रसर्पिणः शरस्य अकस्मात् पातोपलब्धिर्न स्याद् भवदभ्युपगमेन । न च मूर्तिमद्वा२० य्वादिसंयोगाद्युपहतशक्तित्वाद् वेगस्य पतनम् प्रथममेव पातप्रसक्तेः वाय्वादिसंयोगस्य तद्विरोधिनस्तदैव सद्भावात् । न च प्राग वेगस्य बलीयस्त्वाद् विरोधिनमपि मूर्तद्रव्यसंयोगमपास्य स्वाधारं देशान्तरं प्रापयति, पश्चादपि तस्य बलीयस्त्वात् तथैव तत्प्रापकत्वप्रसक्तेः । न हि वेगस्य पश्चाद् अन्यथात्वम् अन्यथोत्पत्तिकारणाभावात् तत्समवायिकारणस्य इष्वादेः सर्वत्र अविशिष्टत्वात् । न च कर्माख्यं कारणं पश्चाद् विशिष्यत इति वक्तव्यम् तस्यापि तुल्यपर्यनुयोगत्वात्, अन्यत्वेऽपि च २५प्रतिक्षणं कर्मणः वेगस्य प्राक्तनस्यैव अवस्थानाद विनाशकारणाभावात् शरस्य अपात एव स्यात् । न च वायुसंयोगस्तस्य विनाशकारणम् प्रथममेव तत्संयोगाद् वेगविनाशाद् इषोः पातप्रसङ्गात् सर्वत्र वायोरविशेषेण तत्संयोगस्यापि अविशेषात् । न च प्रभूताकाशदेशसंयोगोत्पादनात् संस्कारप्रक्षयाद् इषोः पातः, संस्कारस्यैकस्वभावत्वेन अवस्थितस्य प्रागिव पश्चादपि प्रक्षयानुपपत्तेः । न च आकाशदेशाः परेणाऽभ्युपगम्यन्ते येन तत्संयोगानां भूयस्त्वं संस्कारक्षयहेतुत्वं वा युक्तियुक्तं ३०भवेत् । कल्पनाशिल्पिघटितानां तु आकाशदेशानां संयोगभेदकत्वमनुपपन्नम् तदायत्तभेदानां च संयोगानां संस्कारक्षयहेतुत्वं दूरोत्सारितमेव इषोस्तु पातोऽन्यथासिद्ध इत्यलमतिप्रपञ्चेन। स्मृत्यादिकार्यात् तु सामान्येन यदि भावनामात्रं साध्यते तदा सिद्धसाध्यता पूर्वानुभवाऽऽहितसामर्थ्यलक्षणाया ज्ञानस्यात्मभूतायास्तस्याः स्मृतिहेतुत्वेन अस्माभिरपि अभ्युपगमात् । अथ आत्मगुणस्वरूपा भावना साधयितुमभिप्रेता तदा तया तथाभूतया स्मृत्यादेः क्वचिदपि अन्वयासिद्धे३५ रनैकान्तिकता हेतोः, प्रतिज्ञायाश्च अनुमानबाधितत्वम् तदाधारस्य आत्मनः पूर्वमेव निराकृतत्वात् १ "वेगाख्यो भावनासंज्ञः स्थितस्थापकलक्षणः । संस्कारनिविधः प्रोक्तः"-तत्त्वसं. का. ६८४ पृ० २२७ । "त्रिविधः संस्कारो वेगो भावना स्थितस्थापकश्चेति"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २२८ पं०३ । “संस्कारनिविधो वेगो भावना" स्थितिस्थापकश्च "स्थितस्थापकः-पा० पु.।"-प्रशस्त० के० पृ० २६६ पं० २३-1 २"नासौ संगच्छतेऽखिलः॥ क्षणिकखात् पदार्थानां न काचिद् विद्यते क्रिया। यत्प्रबन्धस्य हेतुः स्यात् संस्कारो वेगसंज्ञकः" ॥ -तत्त्वसं० का० ६८४-६८५ पृ० २२७-२२८ । ३ "भावनाख्यस्तु संस्कारश्चेतसो वासनात्मकः । युक्तो नारमगुणश्चेदं युज्यते तन्निराकृतेः" ॥-तत्त्वसं० का० ६८६ पृ० २२९ । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । तदभावे तस्या अपि अभावात् । तथाहि-ये यदाश्रितास्ते तस्याऽभावे अवस्थितिं न प्रतिलभन्ते, यथा कुड्याभावे चित्रादयः, आश्रिताश्च परेण आत्मनि संस्कारादयोऽभ्युपगम्यन्ते इति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः। स्थितंस्थापकस्तु संस्कारः अत्यन्तमसंगत एव । तथाहि-असौ किं खयमस्थिरस्वभावं भावं स्थापयति, उत स्थिरस्वभावमिति पक्षद्वयम् । यदि अस्थिरस्वभावम् तदा क्षणादूर्ध्वं तस्य स्वयमेव अभावात् कस्य असौ स्थापकः स्यात् ? अथ द्वितीयः पक्षः तदा स्थिरे स्वभावेऽवस्थितानां भावानां ५ ताद्रुप्यादेव अवस्थानात् किमकिञ्चित्करस्थापकप्रकल्पनया? न च क्षणिकत्वेऽपि भावानामेकक्षणावस्थितानु(बु)त्तरकालं स्थापकस्य सामर्थ्यमङ्गीक्रियते यतः स्वरूपप्रतिलम्भलक्षणैव भावानां स्थितिरुच्यते न पुनर्लब्धात्मसत्ताकानाम् आत्मरूपसंधारणलक्षणोत्तरकालं स्वयं चलात्मन उत्तरकालमवस्थानासंभवात् संभवे वा न कदाचिदपि निवृत्तिः स्यात् पूर्ववत पश्चादपि अविशिष्टत्वात् अतः त्स्वभावत्वप्रसङ्गाच्च । न च क्षणस्थितिप्रवन्धेऽपि स्थापकस्य सामर्थ्य सिद्धिः, पूर्वपूर्वकारणसामर्थ्य-१० कृतस्य उत्तरोत्तरकार्यप्रसवस्य संस्कारमन्तरेणापि सिद्धः, अक्षणिकस्य तु अन्यथात्वासंभवात् स्वत एव स्थितिरिति न तत्रापि स्थापकोपयोगः । न च संस्कारस्य क्षणोत्पादनेऽपि सामर्थ्यम् प्राक्तनक्षणमन्तरेण अपरस्य तत्राऽपि सामर्थ्यानवधारणात् । तथाहि-प्रमाणाधीना प्रमेयव्यवस्था । न च प्रसिद्धकारणव्यतिरेकेण वस्त्रादिषु प्रत्यक्षाऽनुपलम्भाभ्यां चक्षुरादिवद वा कार्यव्यतिरेकतोऽपरस्य सामर्थ्यावधारणम् । न च अदृष्टसामर्थ्यस्यापि हेतुत्वकल्पना अतिप्रसङ्गात् तदपरापरहेतुप्रकल्पनाया १५ अनिवृत्तेः । न च संस्कार उत्पादकहेतुरिष्टः परैः किन्तु उत्पन्नस्य वस्त्रादेरुत्तरकालं स्थापको गुणः, तत्र च अस्य अकिञ्चित्करत्वमेवेति प्राग व्यवस्थापितम्। "कर्तृफलदायी आत्मगुण आत्म-मनःसंयोगजः स्वकार्यविरोधी धर्माऽधर्मरूपतया भेदवान् अदृष्टाख्यो गुणः” [ ] इति वैशेषिकैः परोक्षाऽदृष्टस्वरूपमुपवर्णितम् । कर्तुः प्रियहित-मोक्षहेतुर्धर्मः अधर्मस्तु अप्रिय-प्रत्यवायहेतुः" [प्रशस्तपा० भा० पृ० २७२ पं० ८ तथा २० पृ० २८० पं० ४] इति, एतच्च तत्समवायिकारणस्य आत्मनो मनसः आत्म-मनःसंयोगस्य च निमित्ताऽसमवायिकारणत्वेन अभ्युपगतस्य निषेधात् कारणाभावे कार्यस्यापि अभावात् सर्वमनुपपन्नम् । शब्दस्तु आकाशगुणत्वेन अभिमतः तस्य च आकाशगुणत्वं प्रार निषिद्धमिति न चतुर्विंशतिरपि गुणाः प्रमाणोपपत्तिकाः॥ [निरूपणपुरस्सरं कर्मपदार्थस्य खण्डनम् ] उत्क्षेपणादीनि पञ्च कर्माणि । तथा च सूत्रम्-"उत्क्षेपणम् अपक्षेपणम् आकुञ्चनम् प्रसारणम् १ “स्थितस्थापकरूपस्तु न युक्तः क्षणभङ्गतः। स्थितार्थासंभवाद् भावे ताद्रूप्यादेव संस्थितिः" ॥ -तत्त्वसं० का० ६८७ पृ० २२९ । २-तानामुत्तरका-आ० हा० वि० । “अथापि स्यात् क्षणिकलेऽपि सर्वभावानामेकक्षणावस्थितौ प्रबन्धेन चानुवृत्तौ तस्य सामर्थ्यमुच्यत इति"-तत्त्वसं० पजि० पृ. २३० पं० १। ३"क्षणं खेकमवस्थानं खहेतोरेव जातितः। पूर्वपूर्वप्रभावाच प्रबन्धेनानुवर्तनम्"।-तत्त्वसं० का०६८८पृ०२३०। ४ "नान्यथोदयवानेष कस्यासौ स्थापकस्ततः । न चास्य दृष्टं हेतुलं संस्कारोऽन्योऽपि वा भवेत् ॥ उत्पन्नस्यैव चेष्टोऽयं वस्त्रादेः स्थापको गुणः । गुणसंस्कारनामैवं सर्वथापि न संभवी"।-तत्त्वसं० का० ६८९-६९० पृ. २३० । ५“अथ अदृष्टसामर्थ्यस्यापि हेतुवं कल्प्यते तदा संस्कारः अन्योऽपि वा शुक-बकादिरुत्पत्तेर्हेतुर्भवेत्" इत्यादि-- तत्त्वसं० पञ्जि.पृ. २३. पं० २० । ६"कर्तृफलदाय्यात्मगुण आत्ममनःसंयोगजः खकार्यविरोध्यदृष्टम् । तच्च द्विविधं धर्माऽधर्मभेदात् । तत्र धर्मः कर्तुः प्रियहितमोक्षहेतुः अधर्मस्वप्रियाहितप्रत्यवायहेतुरिति परोक्कादृष्टलक्षणम्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २३१ पं०५-1 ७ “मनोयोगात्मनां पूर्व विस्तरेण निबन्धनात् । परोक्कलक्षणोपेतं नादृष्टमुपपद्यते" ॥-तत्त्वसं. का० ६.१ पृ० २३१। ८पृ० १३६ पं० १३। ९ “उत्क्षेपणमपक्षेपणमाकुच्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणीति सूत्रम्" इत्यादितत्त्वसं० पजि. पृ०२३१ पं० १४ । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे - गमनमिति कर्माणि " [ वैशेषिकद० १-१-७] इति । तंत्र उत्क्षेपणं यद् ऊर्ध्वाधः प्रदेशाभ्यां संयोगविभागकारणं कर्म उत्पद्यते । यथा - शरीरावयवे तत्संबन्धे वा मूर्तिमति मुशलादौ द्रव्ये ऊर्ध्वभाग्भिः आकाशदेशाद्यैः संयोगकारणम् अधोदिग्भागावच्छिन्नैश्च तैर्विभागकारणं प्रयत्नादिवशात् कर्म तद् उत्क्षेपणमुच्यते, एतद्विपरीतसंयोग-विभागकारणं च कर्म अपक्षेपणम्, ऋजुद्रव्यस्य कुटिलत्वकारणं ५ च कर्म आकुञ्चनम् यथा - ऋजुनोऽङ्गुल्यादिद्रव्यस्य ये अग्रावयवास्तेषामाकाशादिभिः स्वसंयोगिभिर्विभागे सति मूलप्रदेशैश्च संयोगे सति येन कर्मणा अङ्गुल्यादिरवयवी कुटिलः संपद्यते तद् आकुञ्चनम्, एतद्विपर्ययेण तु संयोग-विभागोत्पत्तौ येन अवयवी ऋजुः संपद्यते तत् कर्म प्रसारणम्, अनियत दिग्देशैर्यत् संयोग-विभागकारणं तद् गमनम् । चतुष्प्रकारमपि उत्क्षेपणादिकं कर्म नियतदिग्देशसंयोग-विभागकारणम् । अनियत दिग्भिस्तु भावैः संयोग-विभागकारणं तु कर्म गमनम् तेन १० भ्रमण - स्पन्दन - रेचनादीनामपि गमन एव अन्तर्भावात् पञ्चैव कर्माणि । मूर्तिमन्द्रव्यसंयोग-विभागकार्योपलम्भात् पञ्चविधस्यापि कर्मणोऽनुमानात् प्रसिद्धिः । तथा, अध्यक्षतोऽपि उत्क्षेपणादेः कर्मणः प्रतिपत्तिः इन्द्रिय व्यापारेण 'गच्छति' इत्यादिप्रतिपत्युत्पत्तेः । तथाच - "संख्याः परिमाणानि पृथक्त्वम् संयोग-विभागौ परत्वापरत्वे कर्म च रूपिसमवायाच्चाक्षुपाणि” [ वैशेषिकद० ४-१-११] इति सूत्रमपि उपपन्नम् । १५ ६८६ अत्र संयोग - विभागलक्षणं तावत् तत्कार्यम सिद्धम् तयोः पूर्वमेव निषेधात् । न च नैरन्तर्योत्पादादिमात्र लक्षणो तत्कार्यतया संयोग विभागौ हेतुत्वेन वाच्यौ, तथाविधेन कर्मणा तयोः क्वचिद् अन्वयासिद्धेः अनैकान्तिकताप्रसक्तेः । साध्यविपर्ययेण च हेतोर्व्याप्तेर्विरुद्धताऽपि वक्तव्या । सिद्धसाध्यता च कारणमात्राऽस्तित्वे साध्ये तथाविधसंयोग-विभागकारणत्वेन वाय्वादेरभीष्टेः । कारणविशेषास्तित्वे च साध्ये अनुमानबाधः प्रतिज्ञायाः । तथाहि पदार्थानां क्रिया भवन्ती क्षणिकानां २० भवेत्, अक्षणिकानां वा ? नं तावत् क्षणिकानाम् उत्पत्तिदेशे एव तेषां ध्वंसाद् देशान्तरप्राप्त्यसंभवात् । तथाहि यो यत्र देशे ध्वंसते स न तदन्यदेशमाक्रामति, यथा प्रदीपादिः, जन्मदेशे एव च ध्वंसन्ते सर्वभावा इति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः । न च असिद्धताऽस्य हेतोः अन्यस्य क्षणिकत्वायोगात् । अथ यदि नाम भावानां क्षणिकता इष्यते तथापि उत्पत्तिकाल एव किं नैषां क्रिया भवति ? नैतत् । यतः पाश्चात्यदेशविश्लेषे पुरोवर्तिदेशश्लेषे च सति गन्ता भावो भवति नाकाशादिः । न च एकः २५ क्षणमात्रभाविनः क्रियाकालविलम्बः संभवति येन प्राक्तनदेशपरिहारेण अपरदेशमाक्रामेत् सत्ताकाल एव ध्वंसवशीकृतत्वात् । तन्न जन्मकालभाविनी क्रिया, नाऽपि पूर्वोत्तरयोः कोट्योः, तस्यैव तदानीमभावात् । अतः उत्पत्तिक्षणात् परतः क्षणमपि यो न व्यवतिष्ठेत तस्य आस्तां विदूरतरदेशवक्रमणसंभवः परमाणुमात्र प्रदेश संक्रमणमपि नास्तीति कुतः क्षणिकस्य क्रिया । नाँपि अक्षणिकस्य १ “तत्रोत्क्षेपणं शरीरावयवेषु तत्संबद्धेषु च यदूर्ध्वभाग्भिः प्रदेशैः संयोगकारणमघोभाग्भिश्च प्रदेशैः विभागकारणं कर्म उत्पद्यते गुरुत्व-प्रयत्न - संयोगेभ्यस्तदुत्क्षेपणम्" इत्यादि - प्रशस्त० कं० पृ० २९१ पं० १० पृ० २९२ । २ “तत्संबद्धे वा”—–तत्त्वसं० प० पृ० २३१ पं० १५ । ३ “रूपिद्रव्यसमवायाच्चा” — वैशेषिकद० ४-१-११ । ४ पृ० ६७९ पं० १० ५ " क्षणक्षयिषु भावेषु कर्मोत्क्षेपाय संभवि । जातदेशे च्युतेरेव तदन्यप्राप्त्यसंभवात् ॥ जन्मातिरिक्तकालं हि क्रियाकालं परे जगुः । इष्टाशुतरनाशेषु दीपादिष्वपि वस्तुषु ॥ तथाहि कारण श्लेषः सामान्यस्याभिव्यञ्जनम् । खावयवे ततः कर्म विभागस्तदनन्तरम् ॥ संयोगस्य विनाशश्च ततो द्रव्यस्य संक्षयः । षट्क्षणस्थायितैवेष्टा दीपादावपि वस्तुनि ॥ पश्चिमाग्रिमदेशाभ्यां विश्लेषाऽऽश्लेषसंभवे । गन्ताऽपरो वा सर्वश्व कर्माधारः प्रकल्पितः ॥ यो जनः क्षणमध्यास्ते नैव जातु चलात्मकः । तस्याण्वन्तरमात्रेऽपि देश संक्रान्त्यसंभवः” ॥ - तत्त्वसं० का० ६९२-६९७ पृ० २३१-२३२-२३३ । ६- शाचंक्रम - वा० बा० आ० । “अतो यः क्षणमपि नास्ते तस्यास्तां तावद् विदूरतर देशान्तरावक्रमण (णा)संभवः " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० २३३ पं० ११। ७ " स्थैर्ये तु वस्तुनः सर्वे दुर्घटा गमनादयः । सुतरामेव सर्वासु दशाखस्याविशेषतः " ॥ - तत्त्वसं ० का ० ६९८ पृ० २३३ ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। असौ युक्ता, यत एकरूपं हि सर्वदा वस्तु अक्षणिकमुच्यते न च तस्य आकाशवत् सर्वदाऽविशिष्टत्वात् क्रियासमावेशो युक्तः । तथाहि-यत् सर्वदा अविशिष्टं न तस्य क्रियासंभवः, यथा आकाशस्य, अविशिष्टं च वस्तु अक्षणिकाभिमतं सर्वदा इति व्यापकविरुद्धोपलब्धिप्रसङ्गः । न च अक्षणिकस्य अविशिष्टत्वेऽपि प्रकृत्यैव गन्तरूपत्वात् क्रियावत्त्वं भविष्यतीत्यनैकान्तिकता हेतोराशङ्कनीया, येतो यदि प्रकृत्यैव उत्क्षेपणादिक्रियायोगिनो भावा भवेयुस्तदा नैषां कदाचिन्निश्चलता भवेत् सर्वदा एक-५ रूपत्वात् । अथ अगन्तुरूपताऽप्येषामङ्गीक्रियते तथासति सर्वदा एकरूपत्वाद् आकाशवद् अगन्तारो भवेयः । एवं च गत्यवस्थायामपि अचलत्वमेषां प्रसक्तम् अपरित्यक्ताऽगतिरूपत्वात निश्चलावस्थावत् । अथ उभयरूपत्वाद् एषामयमदोषः, नैवम् ; गन्तृत्वाऽगन्तृत्वविरुद्धधर्माध्यासादेकत्वव्याहतिप्रसक्तेः क्षणिकतैव आपद्येत भिन्नखभावयोरचलाऽनिलयोरिव अत्यन्तभेदात् । अनुमानविरोधवद् अध्यक्षविरोधोऽपि प्रतिज्ञायाः। तथाहि-यद् उपलब्धिलक्षणप्राप्तं सद् नोपलभ्यते न तत् १० प्रेक्षावता 'सत्' इति व्यवहर्तव्यम्, यथा क्वचित् प्रदेशविशेषेऽनुपलभ्यमानो घटः, नोपलभ्यते च विशिष्टरूपादिव्यतिरेकेण कर्मेति खभावानुपलब्धिः । तेथा, तथादेशान्तरावष्टम्भोत्पादिरूपादिव्यतिरेकेण इन्द्रियज्ञाने कर्मणः प्रतिभासानुपलक्षणात् उत्क्षेपणादिबुद्धस्तु साभिजल्पत्वात् अनध्यक्षत्वम् । नचेयं कर्मपदार्थानुभवसामर्थ्यभाविनी, यथासंकेतं तथोत्पद्यमानरूपादिवशेन उत्पत्तेः 'नित्याऽनित्ययोर्गत्ययोगात्' इति प्रतिपादनात्, गतिव्यवहारस्तु लोके अपरापरनैरन्तर्योत्पत्तिमत्पदार्थोपलब्धेः१५ 'स एवायं गच्छति' इति भ्रान्त्युत्पत्तेः प्रदीपादौ गमनव्यवहारवद् उपपद्यत एव न हि प्रदीपादिः स एव देशान्तरमाकामति षट्रक्षणस्थायित्वेन तस्य परैरभ्युपगमात् "स्वकारणसंबन्धकालः प्रथमः ततः स्वसामान्याभिव्यक्तिकालः ततः अवयवकर्मकालः ततः अवयवविभागकालः ततः स्वारम्भकावयवसंयोगविनाशकालः ततः द्रव्यविनाशकालः" [ ] इति प्रक्रियोपवर्णनात् । अथ च तत्रापि स एव प्रदीपादिर्गच्छति' इति व्यवहारप्रवृत्तिरिति नान्यथासिद्धाद् व्यवहारमात्राद् द्रव्य-२० व्यतिरिक्तकर्माभ्युपगमः श्रेयानिति स्थितम् ॥ [निरूपणपुरस्सरं सामान्यपदार्थस्य खण्डनम् ] पराऽपरभेदभिन्नं सामान्यमपि द्रव्य-गुण-कर्मात्मकपदार्थत्रयाश्रितत्वाभ्यपगमात तन्निरा. सान्निरस्तमेव आश्रयमन्तरेण आश्रितानां सद्भावेऽनाश्रितत्वप्रसङ्गात् । तथापि परेषां त १ "यदि गन्त्रादिरूपं तत्प्रकृत्या गमनादयः । सदा स्युः क्षणमप्येवं नावतिष्ठेत निश्चलम् ॥ यस्माद् गत्याद्यसत्त्वेऽपि प्राप्नुवन्त्यस्य ते ध्रुवम् । अत्यतपूर्वरूपत्वाद् गत्याद्युदयकालवत्" ॥ -तत्त्वसं० का० ६९९-७०० पृ० २३३ । २“अथागन्त्रादिरूपं तत्प्रकृत्याऽगमनादयः। सदा स्युः क्षणमप्येकं नैव प्रस्सन्दवद् भवेत् ॥ यस्माद् गत्यादिभावेऽपि निश्चलात्मकमेव तत् । अत्यतपूर्वरूपत्वाद् निश्चलात्मककालवत्" ॥ -तत्त्वसं० का० ७०१-७०२ पृ. २३४ । ३“यदि तु स्यादगन्ताऽयमेकदा चान्यथा पुनः । परस्परविभिन्नात्मसंगतेर्मिनता भवेत् ॥ अत्यन्तभिन्नावात्मानौ ताविति व्यवसीयते । विरुद्धधर्मवृत्तित्वात् चलनिश्चलवस्तुवत्" ॥ -तत्त्वसं० का० ७०३-७०४ पृ० २३४ । ४ "दृश्यवाभिमतं कर्म न वस्तुव्यतिरेकि च । दृश्यते सोऽपि नैवास्य सत्ता युक्त्यनुपातिनी ॥ अस्थिरे वा स्थिरे वैवं गत्यादीनामसंभवः । प्राक्तनाऽपरदेशाभ्यां विभागप्राप्ययोगतः” ॥ -तत्त्वसं० का० ७०५-७०६ पृ० २३४-२३५। ५ तथा देशा-भां• मां० । “न हि रूपादेस्तथादेशान्तरावष्टम्भेनोत्पद्यमानस्य व्यतिरेकेण"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २३५ पं०३। ६ "देशान्तरोपलब्धेस्तु नैरन्तर्येण जन्मनः । समानापरवस्तूनां गतिभ्रान्तिः प्रदीपवत्" ॥ -तत्त्वसं० का० ७०७ पृ. २३५ । ७“द्रव्यादिषु निषिद्धेषु जातयोऽपि निराकृताः। पदार्थत्रयवृत्ता हि सर्वास्ताः परिकल्पिताः"॥ -तत्त्वसं० का० ७०८पृ० २३६ । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० तृतीये काण्डेइति पराभ्युपगमप्रदर्शनपूर्वकः तद्विशेषप्रतिषेधप्रदर्शनमार्गः प्रदर्श्यते-तंत्र सामान्यं द्विविधम्-परम् अपरं च । परं सत्ताख्यम् तच्च त्रिषु द्रव्य-गुण-कर्मसु पदार्थेषु अनुवृत्तिप्रत्ययस्यैव कारणत्वात् सामान्यमेव न विशेषः । अपरं तु द्रव्यत्व-गुणत्व-कर्मत्वादिलक्षणम् तच्च स्वाश्रयेषु द्रव्यादिषु अनुवृत्तिप्रत्ययहेतुत्वात् सामान्यमित्युच्यते, स्वाश्रयस्य च विजातीयेभ्यो व्यावृत्तप्रत्ययहेतुतया ५विशेषणात् सामान्यमपि सद् विशेषसंज्ञां लभते । तथाहि-द्रव्यादिषु 'अगुणः' इत्यादिका या इयं व्यावृत्तबुद्धिरुत्पद्यते तां प्रति एषामेव हेतुत्वं नान्यस्य न हि अगुणत्वादिकमपरमस्ति, अपेक्षाभेदाच एकस्य सामान्यविशेषभावो न विरुध्यते यद्वा सामान्यरूपता मुख्यतः विशेषसंशा तु उपचारतः विशेषाणामिव द्रव्यत्वादीनामपि व्यावृत्तबुद्धिनिवन्धनत्वात् । सामान्यस्य चेन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधाय्यनुगताकारप्रत्ययग्राह्यत्वाद अध्यक्षतः प्रसिद्धिः । तथा, अनुमानाच्च । तथाहि-व्यावृत्तेषु १० खण्ड-मुण्ड-शावलेयादिषु अनुगताकारः प्रत्ययः तद्व्यतिरिक्तानुगताकारनिमित्तनिवन्धनः, व्यावृ. त्तेषु अनुगताकारप्रत्ययत्वात्, यो यो व्यावृत्तेषु अनुगताकारः प्रत्ययः स स तद्व्यतिरिक्तानुगत यथा चम-चीर-कम्बलेषु नीलप्रत्ययः, तथा चायं शाबलेयादिषु 'गौः' 'गौः' इति प्रत्ययः, तस्मात् तद्व्यतिरिक्तानुगत निमित्तनिवन्धन इति । तथाहि-नेदमनुस्यूताकारज्ञानं पिण्डेषु निर्हेतुकम् , कादाचित्कत्वात् । न शाबलेयादिपिण्डनिवन्धनम् , तेषां व्यावृत्तरूपत्वात् अस्य च अनु. १५ गतरूपत्वात् । यदि चेदं पिण्डमात्रप्रभवं स्यात् तदा शावलेयादिग्विव कर्कादिष्वपि 'गौः' 'गौः' इति उलेखेन उत्पद्येत पिण्डरूपतायास्तप्वपि अविशेषात । अथ वाह-दोहाद्यर्थक्रियानिबन्धनेष्वेव तेषु 'गौः' 'गौः' इतिप्रत्ययहेतुता, न; तदर्थक्रियाऽभावेऽपि वत्सादौ गोबुद्धिप्रवृत्तेः महिष्यादौ तत्सद्भावेऽपि च अप्रवृत्तेः । किञ्च, अर्थक्रियाया अपि प्रतिव्यक्तिभेदे कुतोऽनुगताकारज्ञानहेतुता? अभेदे सिद्धमनुगतनिमित्तनिवन्धनत्वमस्य ज्ञानस्य । न चास्य बाधितत्वम्, सर्वदा सर्वत्र सर्वप्रमातॄणां २० शाबलेयादिषु अनुस्यूतप्रत्ययोत्पत्तेः । न च दुटकारणप्रभवत्वम्, विशदनेत्राणामप्यनुस्यूताकारस्य अक्षजप्रत्यये प्रतिभासनात् । न च संशय-विपर्ययाऽनध्यवसायरूपतयाऽस्योत्पत्तिः, तद्वैपरीत्येन अस्य प्रतिभासनात् । न चैवंभूतस्याऽपि प्रत्ययस्य अप्रमाणता स्वलक्षणविषयस्यापि तस्य अप्रमाणताप्रसक्तेः। न च प्रतीयमानस्यापि अनुगतप्रत्ययस्य अपलापः शक्यते कर्तुम् , सर्वप्रत्ययापलापप्रसक्तेः। तस्माद् अनुगतप्रत्ययनिमित्तत्वात् सामान्यसद्भावः सिद्धः। २५ अत्र प्रतिविधीयते-यत तावदक्तम 'अध्यक्षप्रत्ययादेव सामान्यं प्रतीयते इति तदयुक्तमः शाबलेयादिव्यतिरेकेण अपरस्य अनुगताकारस्य अक्षजप्रत्यये सामान्यस्य अप्रतिभासनात् । न हि अक्षव्यापारेण शाबलेयादिषु व्यवस्थितं सूत्रकण्ठे गुण इव भिन्नमनुगताकारं सामान्यं केनचिल्लक्ष्यते १ "तत्रेयं द्विविधा जातिः परैरभ्युपगम्यते । सामान्यमेव सत्ताख्यं समस्तेष्वनुवृत्तितः ॥ द्रव्यत्वादि तु सामान्यं सदुविशेषोऽभिधीयते । खाश्रयेष्वनुवृत्तस्य चेतसो हेतुभावतः ॥ विजातिभ्यश्च सर्वेभ्यः खाश्रयस्य विशेषणात् । व्यावृत्तिबुद्धिहेतुलं तेषामेव ततः स्थितम्" ॥ -तत्त्वसं० का० ७०९-७११ पृ० २३६ । "प्रत्यक्षतः प्रसिद्धास्तु सत्त्व-गोलादिजातयः । अक्षव्यापारसद्भावे सदादिप्रत्ययोदयात् ॥" -तत्त्वसं. का० ७१४ पृ० २३७ ॥ ३ "अनुमानबलेनापि सत्त्वमासां प्रतीयते । विशेषप्रत्ययो येन निमित्तान्तरभाविकः" । -तत्त्वसं० का० ७१५पृ० २३७ । ४ अतः परं भाविविक्तोद्योदकरादिमतमालम्ब्य तत्त्वसंग्रहकारिकाभिः (का० ७१६-८१२ पृ०२३८-२६२) तत्पञ्जिकया च विहितया समग्रया सामान्यपदार्थपरीक्षया नैषा टीका सर्वशः साम्यं बिभर्ति तथापि अन्तराऽन्तरा साम्यं वर्तते तच्च यथास्थानं निर्देक्ष्यते, भावार्थस्तु समानो भाति । सविस्तर विज्ञातुकामैस्तु ताः सर्वा अपि कारिका विलोकनीयाः। ५ कर्मादि-भां० मां०।६ प्र. पृ. पं. ९। ७-तं भूतकण्ठे भां० मा० विना । श्लोकवार्तिकमूलेऽपि अयं 'भूतकण्ठ'-शब्दः प्रयुकः । तद्यथा"भूतकण्ठंगुणादेश्च प्रतिपिण्डं समाप्तितः"।"कण्ठगुणः कण्ठभूषणं हारादि"-श्लो. वा. वनवा० श्लो. ३५ पृ० ६२२। "भूतकण्ठगुणवत् सक्सूत्रवद् वा"-श्लो० वा. पार्थ० व्या० पृ. ६२१५० २२ । स्याद्वादरत्नाकरे तु सामान्यविचार एव एष शब्दो बहुशः प्रयुको दृश्यते । तद्यथा “भूतकण्ठे गुण इव" इत्यादि पृ० ९५१५० २०-२१-२२,२४ ॥ "सूत्रकण्ठः खजरीटे द्विजन्मनि कपोतके"-है. अनेका० ४-७०। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झेयपीमांसा। ६८९ 'गौः' 'गौः' इति विकल्पज्ञानेनापि त एव समानाकाराः शाबलेयादयो बहिर्व्यवस्थिता अवसीयन्ते अन्तश्च शब्दोल्लेखः; न पुनस्तद्भिन्नमपरं गोत्वम् । तन्न निर्विकल्पकेन सविकल्पकेन वाऽध्यक्षेण सामान्य व्यवस्थापयितुं शक्यम् । यदपि 'कार्यभूतानुगतप्रत्ययेन अनुमानतः सामान्यव्यवस्थापनम् , तदप्यसंगतम्। तस्य प्रत्ययहेतुत्वेन प्रमाणतोऽनिश्चयात्, तथा हि अनुगताकारज्ञानस्य निर्निमित्तस्य असंभवात् केनचिन्निमित्तेन भाव्यम् इत्येतावन्मात्रं सिध्यति । तच्च सामान्यम् अन्यद् वेति न निश्चयो५ भवताम् । कार्यान्वय-व्यतिरेकाभ्यां च कारणत्वावधारणम्, पिण्डानां च विज्ञानजन्मनि ततः सामर्थ्य विशेषप्रत्यये सिद्धमिति इहापि तेषामेव सामर्थ्यप्रकल्पनम् , न; सामान्यस्य तस्य क्वचिदपि सामर्थ्यानवधारणात् । तथाहि-पिण्डसद्भावे अनुगताकारं ज्ञानमुपलभ्यते तदभावे न इति वरमध्यक्षप्रत्ययावसेयानां तेषामेव तन्निमित्तता कल्पनीया । यदपि पिण्डानामविशिष्टत्वात् प्रतिनियमो न स्यात् तज्जन्मनि' इत्यभिधानम् , तदपि असंगतम् । यतो यथा पिंडादिरूपतयाऽविशेषेऽपि तन्तू-१० नामेव पटजन्मनि हेतुत्वम् न कपालादीनाम् तथा शावलेयादीनामेव 'गौः' 'गौः' इति ज्ञानोत्पादने सामर्थ्य भविष्यति कयाचिद् युक्त्या न कर्कादीनाम् , यथा वा गुडूच्यादेरेव ज्वरादिशमने सामर्थ्य प्रतीयते न दध्यादेर्वस्तुरूपतयाऽविशेषेऽपि तथा प्रकृतेऽपि भविष्यतीति न पर्यनुयोगो युक्तः। किञ्च; सामान्यं परेण मूर्तमभ्युपगम्यते, अमूर्त वा ? यदि अमूर्तम् न सामान्यं स्याद् रूपवत् । अथ मूर्तम् तथा च न सामान्यं घटादिवत् । तथा, यदि अनंशं सामान्यमभ्युपगम्यते तर्हि न सामान्यम् अनंश-१५ त्वात् परमाणुवत्, सांशत्वेऽपि न सामान्यम् घटवत् । किञ्च, यदि पिण्डेभ्यो भिन्नं सामान्यम भेदेन एव उपलभ्येत घटादिभ्य इव पटः । न च एकान्ततो व्यक्तिभ्यः सामान्यस्य भेदे 'गोर्गोत्वम्' इति व्यपदेशोपपत्तिः संवन्धाभावात्, समवायस्य तत्संवन्धत्वेन निषेत्स्यमानत्वात् । व्यक्तिभ्यस्तस्थाऽभेदे अन्यत्राऽननुयायित्वाद न सामान्यरूपता पिण्डस्वरूपवत् । न च भेदेन व्यक्तिभ्यस नुपलक्षणं भिन्नप्रतिभासविषयत्वाद असिद्धम् , वुद्धिभेदस्य व्यक्तिनिमित्तत्वेन प्रतिपादनात् । किञ्च,२० यदि सामान्यबुद्धिर्व्यक्तिभिन्नसामान्यनिवन्धना भवेत् तदा व्यक्त्यग्रहणेऽपि भवेत् अश्वबुद्धिवद् गोपिण्डाग्रहणे, न च कदाचित् तथा भवेत् । ततो न व्यक्तिव्यतिरिक्तसामान्यसद्भावः। अथ आधारप्रतिपत्तिमन्तरेण आधेयप्रतिपत्तिर्न भवतीति तनहे एव तहहः नाऽभावात् अन्यथा कुण्डाद्याधारप्रतिपत्तिमन्तरेण बदराधेयस्य अप्रतिपत्तेः तस्याप्यभाव एव स्यात्, न; बदरादेः प्रतिनियता. धारमन्तरेणापि स्वरूपेणोपलब्धेर्नाभावः गोत्वादेस्तु प्रतिनियतपिण्डोपलम्भमन्तरेण स्वरूपेण कदा-२५ चनाऽपि अनुपलब्धेरभाव एव, तेन 'तदग्रहे तद्वद्ध्यभावात् इत्यत्र सामान्याभिव्यञ्जकपिण्डग्रहण एव तदभिव्यङ्ग्यसामान्यबुद्धिसद्भावात्-प्रकाशग्रहण एव गृह्यमाणघटादिसत्त्ववत्-सामान्यस्यापि सत्त्वम्' इति यदुक्तम् तन्निरस्तं भवति घटनिमित्तघटवुद्धिवत् सामान्यनिबन्धनत्वेन तद्बुद्धेरसिद्धेः । किञ्च, सामान्यं निराधारं वा अभ्युपगम्येत, आधारवद् वा ? यदि निराधारम् न सामान्यं स्यात् अनाधारत्वात् शशशृङ्गवत् । आधारवत्त्वेऽपि तस्य तत्र वृत्त्यनुपपत्तिः तथाहि-तस्य एकदेशेन वा ३० तत्र वृत्तिर्भवेत् सर्वात्मना वा ? सर्वात्मना वृत्तौ एकस्मिन्नेव पिण्डे सर्वात्मना परिसमाप्तत्वाद् यावन्तः पिण्डाः तावन्ति सामान्यानि स्युः, न वा सामान्यम् एकपिण्डवृत्तित्वाद रूपादिवत् । एकदेशवृत्तावपिन सामान्यं स्यात् सामान्यस्य निरंशत्वेन एकदेशासंभवात् संभवेऽपि ते ततो भिन्ना वा स्युः, अभिन्ना वा ? यदि भिन्नास्तदा तेषु सामान्यं वर्तते, उत नेति ? यदि वर्तते तदा किं सर्वात्मना, उत एकदेशेन ? यदि सर्वात्मना तावत्सामान्यप्रसक्तिः प्रत्येकमेकदेशे तस्य परिसमाप्तत्वात् , ३५ न वा सामान्यम् प्रदेशवृत्तित्वाद घटवत् । अथ एकदेशेन, एकदेशेषु वृत्तिस्तदा तेऽपि एकदेशा यदि ततो भिन्नास्तदा तेष्वपि अपरैकदेशवशाद् वृत्तिरिति अनवस्थाप्रसक्तिः । अथ अभिन्नास्तदा तेषां सामान्यरूपत्वात् तावन्ति सामान्यानि स्युः । न च सामान्यात्मकानां तेषां करणरूपता युक्ता येन तैः पिण्डेषु सामान्य वर्तेत नहि घटत्वादिसामान्यं गोत्वस्य पिण्डवृत्ती करणत्वेन उपलब्धम् । १ अतश्च बृ. आ० । २ पृ. ६८८ पं० १०। ३ पृ. ६८८ पं० १५-१६ । ४ यथा घटादि-भां. मां०। यथा यदि रू-वृ० आ. हा०वि०। ५ वा गडू-वा० बा०। ६ “यद्यनेकानुवृत्ति गोलं तत् किं प्रतिपिण्डं परिसमाप्त्या वर्तते अथैकदेशेनेति?" इत्यादि सामान्यविषयिणी चर्चा न्यायवार्तिकतोऽवबोद्धव्या-२-२-६५ पृ. ३१७-३१९ । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डेन च सामान्यस्य अनुवृत्त्येकरूपत्वात् कालर्यैकदेशशब्दयोस्तत्राऽप्रवृत्तिः, निरवयवैकरूपेऽपि व्याप्त्यव्याप्तिशब्दयोर्भवतैव प्रवृत्त्यभ्युपगमात् तत्र च कृत्स्नैकदेशवृत्तिपक्षोक्तदोषाणां समानत्वात् अपरस्य चात्र वक्तव्यस्य पूर्वमेव निषिद्धत्वात् । तन्न वृत्त्यनुपपत्तेः सामान्यस्य सत्त्वमभ्युपगन्तुं युक्तम्। किञ्च, पिण्डोत्पत्तिकाले किं गवात्मकेन पिण्डेन गोत्वं संबंध्यते, उत अगवात्मकेन ? यदि ५आद्यः पक्षस्तदा गोत्वसंबन्धात् प्राक् पिण्डस्य यद्यपरगोत्वसंबन्धाद् गोरूपता तदा अनवस्थाप्रसक्तिः । अथ तत्संबन्धमन्तरेणाऽपि तस्य गोरूपता तदा गोत्वसंवन्धवैयर्थ्यम् तमन्तरेणापि गोपिण्डस्य प्रागेव गोरूपत्वात् । अथ अगोरूपेण तदाऽगोरूपत्वाविशेषात् अश्वादिपिण्डैरपि गोत्वसंबन्धप्रसक्तिः इति अश्वादयोऽपि गोरूपाः स्युः । न च अगोरूपत्वाविशेषेऽपि गोत्वसंबन्धात् प्राक् शाबलेयादिभिरेव गोत्वं संबध्यते न कर्कादिभिरिति वक्तव्यम् , नियमहेतोरभावात् । अथ उप१० लक्षणभेदो नियमहेतुः । तथाहि-यत्र ककुदादीनि उपलक्षणानि पिण्डे तत्रैव गोत्वं वर्तते न केसराधुपलक्षणवति, असदेतत् ; गोत्वादेरचेतनत्वेन निरभिप्रायस्य प्रदर्शितोपलक्षणप्रत्यभिज्ञानवशाद् अन्यपरिहारेण प्रतिनियताधारवृत्तित्वानुपपत्तेः । न च ककुदाधुपलक्षणयोगिनः पिण्डादेः स्वात्मनि गोत्वाधारसामर्थ्य प्रतिनियतं निमित्तं कल्पयितुं युक्तम् , यतो यया शक्त्या ककुदादिमन्तः पिण्डविशेषा गोत्वसामान्य विजातीयपिण्डव्यवच्छेदेन खात्मनि व्यवस्थापयन्ति तयैव 'गौः' 'गौः' इत्यनु. १५ गताकारज्ञानहेतवोऽपि भविष्यन्तीति किमन्तर्गडुसामान्यप्रकल्पनया। न च अदृष्टं गोत्वादेः सामान्यस्य प्रतिनियतव्यक्तिवृत्तिनिमित्तं कल्पनीयम्, तत्रापि अस्य दूषणस्य समानत्वात् । यदपि 'अनु. गताकारं ज्ञानं सामान्यमन्तरेण असंभव' इति, तत्रापि किं यत्रानुगतं ज्ञानं तत्र सामान्यसंभवः प्रतिपाद्यते, आहोवित् यत्र सामान्यसंभवस्तत्र अनुगतं ज्ञानमिति ? तत्र यदि आद्यः पक्षः, स न युक्तः, यतो गोत्वादिसामान्येषु बहुषु 'सामान्यम्' 'सामान्यम्' इति अनुगताकारप्रत्ययप्रवृत्तेः अपर२० सामान्यप्रकल्पनाप्रसक्तिः स्यात् । तथा, प्रागभावादिष्वपि अभावेषु 'अभावः' 'अभावः' इत्यनुगत प्रत्ययप्रवृत्तिरस्ति, न च परैः अभावसामान्यमभ्युपगतमिति व्यभिचारः । न च सामान्यादिषु अनुगतप्रत्ययस्य गौणत्वान्न व्यभिचारः, अस्खलवृत्तित्वेन गौणत्वस्य असिद्धेरित्युक्तत्वात् । अथ यत्र सामान्यं तत्रानुगतप्रत्ययकल्पना, न; पाचकादिषु तद्भावेऽपि अनुगतप्रत्ययप्रवृत्तेः । न च तत्रापि पचनक्रियानिमित्तोऽयं प्रत्ययः तस्याः प्रतिव्यक्ति भिन्नत्वात् तत्सामान्यनिमित्तत्वे प्रागेव तत्प्रत्यय२५प्रसूतिर्भवेत् सामान्यस्य नित्यत्वेन तदापि तद्धेतो वात् । अभिव्यञ्जकक्रियाभावात् प्राक् अनभिव्यक्तत्वात् तत्सामान्यस्य न तत्प्रत्ययोत्पत्तिरिति चेत्, पचनक्रियानिवृत्तावपि अभिव्यञ्जकाभावेन अनभिव्यक्तात् तत्सामान्यात् तत्प्रत्ययोत्पत्तिर्न स्यात् अनुत्पन्नवद् विनष्टस्यापि अभिव्यञ्जकस्य अभिव्यञ्जकत्वायोगात् । अथ एकदा अभिव्यक्तस्य तत्सामान्यस्य नित्यत्वेन सर्वदा अभिव्यक्तत्वाद् उत्तर कालं तत्प्रत्ययोत्पत्तिस्तर्हि पचनक्रियायाः प्रागपि तत्सामान्यस्य एकरूपतया अभिव्यक्तत्वात् ततस्त३० त्प्रत्ययोत्पत्तिः स्यात् । अथ प्राग न तस्याऽभिव्यक्तिस्तर्हि अभिव्यक्ताऽनभिव्यक्तस्वभावद्वययोगात् तस्य नैकत्वम् स्वभावभेदलक्षणत्वाद् वस्तुमेदस्य । अथ व्यक्तिप्रतिभाससमय एव सामान्यस्य प्रतिभास इति न ततःप्राक् पश्चाद् वा अभिव्यक्तैकरूपस्यापि तस्य ग्रहणं तर्हि व्यक्तिप्रतिभासकाले अपरप्रतिभासस्याऽसंवेदनाद् अनुगतप्रतिभासस्य च तदा व्यक्तिनिबन्धनत्वात् सामान्यस्य अभाव एवेति प्राप्तम्। तेन 'यत्र सामान्यसद्भावाद् अनुगताकारं ज्ञानं प्रवर्तते तत्र तद् मुख्यम् यत्र तु तदभावात् तत् तद् ३५गौणम्' इत्येतदपि निरस्तम् सामान्यनिबन्धनत्वेन अनुगतज्ञानस्य क्वचिदपि असिद्धेः मुख्याभावे गौणकल्पनाया दुरापास्तत्वात् । यदपि 'किमनेन प्रसङ्ग आपाद्यते परस्य, आहोस्वित् स्वतन्त्रसाधनमिति, न तावत् प्रसङ्गसाधनम् पराभ्युपगमेनैव तस्य वृत्तेः, न च परस्य कायेन एकदेशेन वा निरंशस्य वृत्तिः सिद्धा किन्तु वृत्तिमात्रं समवायखरूपं सिद्धम् तच्च विद्यत एव समवायस्य प्रमाणतः सिद्धेः । तन्न प्रसङ्गसाधनमेतत् । स्वतन्त्रं तु साधनं न भवति सामान्यलक्षणस्य धर्मिणोऽसिद्धेर्हेतोरा४० श्रयासिद्धिप्रसङ्गात्, धर्मिसिद्धौ वा तत्प्रतिपादकप्रमाणबाधितत्वात् तदभावसाधकप्रमाणस्य अप्रवृत्तिरेव' इत्यभिधानम्, तदप्यसंगतम् ; यतो नास्माभिः किञ्चिदत्र सामान्यस्य साध्यते किन्तु येन सामान्य व्यक्त्याश्रितमभ्युपगम्यते तेन तत्र तस्य एकदेशेन सर्वात्मना वा-अन्यथा वृत्तेरसंभवात् १-बन्ध्यते भा० मा० । २ पृ० ६८८ पं० १३-१४ । ३-चनादि-भां. मां० । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । ६९१ वृत्तिर्वाच्या । अथ समवाथलक्षणा वृत्तिस्तत्र तस्य उक्तैव, न; तस्याः स्वरूपानिर्देशात् । अथ आश्रयाऽऽश्रयिभावस्तस्याः स्वरूपम्, न; अस्य पर्यायमात्रत्वात्-वृत्तिमात्रम् समवायः आश्रयाश्रयिभावः इति च पर्यायशब्दाः । एतेन तु कात्रुयैकदेशवृत्तिव्यतिरेकेण लोकप्रसिद्धाऽपरवृत्तिप्रदर्शनं कृतम् । या तु समवायलक्षणा स्वशास्त्रपरिभाषिता वृत्तिः सा तु तद्राहकप्रमाणाभावात् सामान्यवद् असिद्धस्वरूपैव यदि च पिण्डेभ्यो व्यतिरिक्तम्-कुण्डव्यतिरिक्तबदरवत्-सामान्यं प्रमाणत उपलभ्येत५ तदा तेषु तस्य वृत्तिप्रकल्पना स्यात् न च तत् तथोपलभ्यत इत्युक्तं प्राक् । अपि च, उत्पन्ने पिण्डे सामान्यं वर्तते, आहोखिद् अनुत्पन्ने, उत उत्पद्यमाने इति विकल्पाः । न तावद् अनुत्पन्ने, तदा पिण्डस्याऽसत्त्वात् । नापि उत्पन्ने, अगोरूपे अश्वपिण्ड इव तत्र तस्य वृत्त्ययोगात् इत्युक्तत्वात् । नापि उत्पद्यमाने, अनिष्पन्नस्य आधारत्वायोगात् विद्यमानस्वरूपाणामेव कुण्डबदाणामाश्रयाश्रयिभावदर्शनात् अतः 'य एव पिण्डोत्पत्तिकालः स एव तत्सामान्यसंबन्धसमयः' इति अयुक्तम्, १० अन्यत्र एवमदर्शनात् । किञ्च, उत्पद्यमानेन पिण्डेन सह सामान्यं संवन्ध्यमानं किमन्यत आगत्य संबध्यते उत पिण्डेन सह उत्पादात्, आहोस्वित् पिण्डोत्पत्तेः प्रागेव तद्देशावस्थानात् इति विकल्पाः । तत्र न तावद अन्यत आगत्य संबध्यत इति पक्ष आश्रयितुं युक्तः यतः प्राक्तनपिण्डपरित्यागेन तत् तत्र आगच्छति, उत अपरित्यागेन इति वाच्यम् । यदि परित्यागेन इति पक्षः स न युक्तः प्राक्तनपिण्डस्य गोत्वपरि-१५ त्यक्तस्य अगोरूपताप्रसक्तेः। अथ अपरित्यागेन तदा अपरित्यक्तप्राक्तनपिण्डस्य निरंशस्य रूपादेरिव गमनासंभवः न हि अपरित्यक्तप्राक्तनाधाराणां रूपादीनामाधारान्तरसंक्रान्तिः क्वचिदपि उपलब्धा, न च प्राक्तनाधारापरित्यागेऽपि आधारान्तरसंक्रमः सादेरिव सामान्यस्य भविष्यतीति वक्तव्यम् , सामान्यस्य अमूर्तत्वाभ्युपगमात् अमूर्तस्य च रूपादिवद् गमनासंभवात् । न च सर्पवत् पूर्वाधारापरित्यागेन आधारान्तरकोडीकरणे सामान्यरूपता, सदेशस्य घटवत् सामान्यरूपतानुपपत्तेः । न च २० पिण्डोत्पत्तेः प्राक् तद्देशे तस्य अवस्थानाद उत्पद्यमाने पिण्डे तस्य वृत्तिरित्यभ्युपगमोऽपि युक्तः निराधारस्य सामान्यस्य तत्र अवस्थानासंभवात् अवस्थाने वा आकाशवत् सामान्यरूपताविरहात् । न च पिण्डेनैव सह उत्पद्यत इति पक्षप्रकल्पनाऽपि संगता, उत्पत्तिमत्त्वेन तस्य अनित्यताप्रसक्तः अनित्यस्य च ज्वालादिवत् सामान्यरूपताऽयोगात् । न च शाबलेयादिपिण्डस्य सामान्यसंबन्धविकलस्यैव परेण अवस्थानमभ्युपगतमिति सामान्यप्रकल्पना अनेकदोषदुष्टत्वाद् असंगतैव । तदुक्तम्-२५ "न याति न च तत्रासीदस्ति पश्चान्न वांऽशवत् । जहाति पूर्व नाधारमहो! व्यसनसंततिः" ॥ [ तथा “यत्रासौ वर्तते भावस्तेन संबध्यते न च । तद्देशिनं च व्याप्नोति किमप्येतद् महाद्भुतम्" ॥ [ न च गमनादिधर्मविकलस्यापि सामान्यस्य उत्पद्यमानपिण्डसंबन्धो 'गौः' 'गौः' इत्यनुस्यूताकारप्रत्ययात् प्रतीयत एवेति प्रमाणप्रतिपन्ने वस्तुनि विरोधाद्युद्भावनमसंगतमेवेति वाच्यम् , 'गौः' 'गौः' इत्यनुगताकारप्रत्ययस्य प्रागभावादिषु अभावप्रत्ययवत सामान्यसंबन्धमन्तरेणाऽपि सिद्धत्वात । किञ्च, पिण्डेभ्यो व्यतिरिक्तं यदि अनुस्यूतमेकं सामान्यमभ्युपगम्येत तदा एकपिण्डोपलम्मे तस्य अविभक्तत्वात् पिण्डान्तरालेऽपि उपलब्धिः स्यात् न हि तस्य एकत्राभिव्यक्तस्य अन्यत्र अनभिव्यक्त-३५ खरूपता विरुद्धधर्माध्यासतो भेदप्रसक्तेः तथापि अभेदे न किञ्चिद् भिन्नं स्याद् इति सर्वत्र भेदव्यवहारनिवृत्तेः तदपेक्षस्य अमेदव्यवहारस्याऽपि विरहात् सर्वाभावप्रसक्तिः। अथ अन्तराले संयुक्तसमवायसंबन्धस्य उपलम्भहेतोश्चक्षुषोऽभावाद् अनुपलम्भः, असदेतत् तत्र तत्सद्भावे प्रमाणाभावात्-यदि हि पिण्डद्वयान्तराले सामान्यस्य कुतश्चित् प्रमाणात् सद्भावः सिद्धः स्यात् तदा ग्रहण १-अत्र सामान्यगोचरा चर्चाऽवगन्तव्या-पृ० २३९ पं० ३-पृ० २४१ पं० १ । हेतुबिन्दुतोऽप्येषाऽवधारणीया लि. पृ० ३१ ब०-३५ अ०।। २'तदुक्तम्' इत्युल्लिख्यायं श्लोकः स्याद्वादरत्नाकरे उद्धृतो वर्तते-पृ. ९५५ पं० १८। ८९स०प्र० Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डेनिमित्तं यथोपवर्णितमुपपद्येताऽपि, न च तत्सद्भावः सिद्ध इति असकृद् आवेदितम् । नच खव्यक्तिसर्वगतत्वात् सामान्यस्य अयमदोषः, अन्तराले तस्य अभावे स्वव्यक्तिषु च सद्भावे अनेकत्वप्रसक्तेः तदन्तरेण अन्तराले विच्छिन्नस्य सकलखव्यक्तिसंबद्धत्वानुपपत्तेः । यदपि 'अत्र 'अन्तराल' शब्देन किं पिण्डान्तरमश्वादिरूपमभिधीयते, आहोस्विद् मूर्तद्रव्याभावः, उत आकाशादिप्रदेश इति ५विकल्पाः । यदि अश्वादिपिण्डान्तराभिधानं तदा तत्र गोत्वसामान्यस्य अवृत्तेरग्रहणमुपपन्नमेव न हि यद् यत्र नास्ति तत् तत्र गृह्यत इति परस्याभ्युपगमः अथ आकाशादिदेशस्तदा तत्रापि सामान्यस्य वृत्तेरग्रहणमेव । एवं मूर्तद्रव्याभावेऽपि अग्रहणमभावादेव' इति दूषणाभिधानम्, तदपि असंगतमेव । एवं दूषणाभिधाने सर्वत्र तदभिधानानिवृत्तेः । तथाहि-'घटद्वयान्तराले पटादि द्रव्यस्य अग्रहणाद् अभावः' इत्यत्रापि विकल्पौत(कल्प्यैत)दोषाभिधानस्य अभिधातुं शक्यत्वात् । १० अथ अत्र 'अन्तराल'शब्दस्य लोकप्रसिद्ध एवार्थः प्रकल्प्यते तर्हि एतद् अन्यत्रापि समानमिति न पर्यनुयोगावकाशः। किञ्च, यदि उपलभ्यस्वभावं सामान्यमभ्युपगम्यते तदा सास्नाद्यवयवानामिव शाबलेयादौ तद्रुझ्या ग्रहणं स्यात्, अग्रहणात् तद् असदित्यत्र किं सास्नादिबुद्ध्याऽग्रहणात् सामान्यस्य असत्त्वम्, आहोस्वित् स्वबुद्ध्या इति कल्पनाद्वयम् । न तावत् सानादिबुद्ध्या अगृह्यमाणत्वात् तस्य असत्त्वम् १५ रूपादेरपि रसादिबुद्ध्यग्रहणाद असत्त्वप्रसक्तेः। अथ स्वबुद्ध्या अगृह्यमाणत्वाद् असत्त्वम्, तदयुक्तम्। विरोधात्-न हि 'सामान्यबुद्धिः सामान्यस्य च अग्राहिका' इत्यभिधानमविरुद्धम् 'माता च मे वन्ध्या च' इत्यभिधानवत् । न च अनुगताकारबुद्ध्या सामान्यं न गृह्यते, व्यावृत्तबुद्धेरपि विशेष प्रत्यग्राहकत्वप्रसक्तेः । अतः 'तद्बुद्ध्या अगृह्यमाणत्वात् असत् सामान्यमित्ययुक्तम्' इत्यपि अभिधानम संगतम् यतो भवद्भिप्रायेण समानाकारशावलेयादिबुद्धिः सामान्यबुद्धिः तया च देश-कालव्यापि २० सामान्यं न गृह्यते तथाभूतस्य वुद्ध्यजनकत्वेन तबाह्यत्वायोगात् अत एव अनुगताकारबुद्धेरव्यापक क्षणिकशाबलेयादिपदार्थप्रभवत्वात् तद्राहकत्वमेव न सामान्यग्राहकत्वम् । किञ्च, अक्षणिक-व्यापकैकस्वभावत्वे सामान्यस्य किं येनैव स्वभावेन एकस्मिन् पिण्डे वर्तते सामान्यं तेनैव पिण्डान्तरे, आहोस्वित् स्वभावान्तरेण? यदि तेनैव ततः सर्वपिण्डानामेकत्वप्रसक्तिः एकदेश-काल-स्वभावनियतपिण्डवृत्त्यभिन्नसामान्यस्वभावक्रोडीकृतत्वात् सर्वपिण्डानाम् प्रतिनियतदेश-काल-स्वभावैक२५पिण्डवत् । अथ स्वभावान्तरेण, तदा अनेकस्वभावयोगात् सामान्यस्य अनेकत्वप्रसक्तिः स्वभावभेदस्य भावभेदकत्वात् अन्यथा भेदायोगात् । न च एकस्य अनेकवृत्तित्वं रूपादेरिव युक्तम् । अथ यथा एकस्य रूपादेरेकवृत्तित्वं-तथैवोपलम्भात्-अभ्युपगम्यते तथा एकस्य सामान्यस्य अनेकवृत्तित्वमनेकत्रोपलम्भात् किं नाऽभ्युपगम्यते अबाधितोपलम्भस्य भावरूपव्यवस्थानिबन्धनत्वात् ? भवेद् एतत् यदि अनेकवृत्तितया एकं सामान्यं स्वरूपतोऽध्यक्षे प्रतिभासेत न चैवम् व्यक्तिव्यवस्थितस्य एकस्य ३० व्यक्तिभ्यो भिन्नस्य कुत्रचित् प्रत्यये अप्रतिभासनात् । न च देशव्याप्तिः कालव्याप्तिर्वा कस्यचिद् भावस्य केनचित् प्रमाणेन प्रतिपत्तुं शक्येति प्राक् प्रतिपादितम् । न च परस्परव्यावृत्तात्मानो भावा अनगतनिमित्तमन्तरेण कथमभिन्नाकारप्रत्ययनिबन्धनं भवन्तीति वक्तव्यम् यतो यथा गुडच्यादयो भावाः परस्परविविक्ता अपि सह प्रत्येकं च एकसामान्यमन्तरेणापि एकं ज्वरादिशमनलक्षणं कार्य निर्वर्तयन्ति-न हि तत्र एकं सामान्यं तदर्थक्रियासंपादनसमर्थमस्ति अन्यथा तेषां चिर-क्षिप्रादिभेदेन ३५व्याध्युपशमसामथ्यापलीब्धन स्यात् सामान्यस्य सर्वत्र एकरूपत्वात्, न च सरस संपाद्यशीघ्रव्याध्युपशमादिभेदोपलब्धिश्च स्यात् सामान्यस्य नित्यस्वभावतया परैरनाधेयातिशयस्य सर्वत्र सर्वदा एकरूपत्वात् । गुडूच्यादिभावनिबन्धनत्वे तु नायं दोषः तस्य प्रतिक्षणं भिन्नत्वे भिन्नशक्तित्वात्-तथा इहापि केचिद् भावाः प्रकृत्यैव एकाकारपरामर्शहेतवो भविष्यन्तीति न तदर्थ सामान्यप्रकल्पनं युक्तम् । यदपि 'अनुगतप्रत्ययः पिण्डव्यतिरिक्तानुगतनिमित्तनिबन्धनः' इत्याद्य४० नुमानम् तत्र प्रतिज्ञाया अनुमानबाधा । तथाहि-अनुगतप्रत्ययानां पिण्डव्यतिरिक्तमनुगतं निमित्तमालम्बनभूतं साधयितुमभिप्रेतम् तच्चायुक्तम् तस्य तत्र अप्रतिभासनात् वर्णाऽऽकृत्यक्षराकारस्यैव १२-२-६५ न्यायवा० पृ. ३१५ पं० २१-। २-कल्पैत-बृ० । ३-मित्यभिधान-वा. बा० । ४-क्षणिकाव्या-वा० बा०।-क्षणिके व्या-बृ०। ५०६८८ पं०१०। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झयमीमामा। ६९३ मर्यस्य तत्र प्रतिभामनाच तदुपविकलनया मामान्यम्य परेरभ्युपगमान कथं तन्प्रनिभासे तम्य प्रति भासः अन्याकारस्य विज्ञानस्य अन्यालम्बनन्ये अतिप्रमान? नथाहि-यो हिलक्षणार्थप्रतिभामः प्रत्ययःसहाहको न भवति, यथा मपप्रत्ययो न रमादिग्राहकः, जातिविलक्षणवादिप्रतिभासश्च अन्वयी प्रत्यय इति व्यापकविरुद्धोपलन्धिः। योऽपि शंकरस्वामी अत्राह- सामान्यमपि नीलल्यादि नीलाद्याकारमेव अन्यथा 'नीलम्'५ 'नीलम्' इति अनुवृत्तिप्रत्ययो न स्यात इति हेतोगसिद्ववान नानुमानयाधा" [ इति, सोऽपि अयुक्तकारी: नीलादेर्गुणाद् नीलवादः मामान्यम्य एवमभेदप्रसद्गात । अथ गुणम्य व्यावृत्तत्वात् तत्सामान्यम्य तु अनुगतन्वान् आकारमेदाद भेदः. नः व्यावृननीलादिगुणव्यतिरिका नुगतनीलत्वादिसामान्यम्य नीलाद्याकारस्य अप्रतिभासनाद अध्यक्ष अमाधारणम्य नीलादेरेकम्यैव प्रतिभासनात् विकल्पशानेऽपि यथाटम्यव निर्णयात द्वितीयम्य सामान्याकारम्य तत्रापि अनिश्च-१० यात् । न च क्षणिकन्ववत् प्रतिभासमानमपि सामान्य व्यकिभेदेन नोपन्दश्यत इति वनव्यम्अनुपलक्षितस्य व्यक्तिप्वभिन्नधी-ध्वनिनिमित्तन्वायोगान् न हि विशेषणानपलक्षणे विशेष्ये वृद्धि. रुपजायते दण्डानुपलक्षणे दण्डिबुद्धिवत् तथा च "समवायिनः श्वैत्यान् चैत्यबुद्धेः वने बुद्धिः" [वैशेषिकद०८-१-९] इति वचनं निरवकाशं भवेत् । किञ्च. अविकल्पविज्ञानवादिनः प्रतिभातानुः पलक्षणं युज्येतापि भवतस्तु सविकल्पकाध्यक्षवादिनो गृहीताऽनुपलक्षणमयुक्तम् निश्चयानामुप-१५ लक्षणमन्तरेण अपरग्रहणासंभवात् न हि निश्चयगनिश्चितं गृहीतं नाम । किच, यदि अत्र अनुगनं निमित्तं नित्यं साध्यते तदा तस्य असिद्धिः विपर्ययसिद्धः । तथाहि-अनुगताभिधानप्रत्ययाः क्रमव. कारणप्रभवाः, क्रमेण उपजायमानत्वात्, प्रदीपज्वालाप्रभवक्रमभाविप्रत्ययवत् । यदि तु अक्रमसामान्यहेतुका एते अभविष्यन्न क्रमेण उत्पत्तिमामादयिष्यन् अविकलकारणत्वान् तथापि नेपां तद्धेतुकत्वे सर्व सर्वहेतुकं स्यात् इति प्रतिनियतकार्यकारणभावव्यवस्थाविलोपप्रसक्ति । अनै-२० कान्तिकश्च हेतुः पट्सु पदार्थेषु अपरानुगतनिमित्ताभावेऽपि 'पदार्थाः' 'पदार्थाः' इत्यनुगतप्रत्ययो. पलब्धेः । न च सदुपलम्भकप्रमाणविषयत्वादिकमनुगतं निमिनमत्रापि अस्ति इत्यव्यभिचारः, प्रागुक्तोत्तरत्वाद् अस्य । न च विपक्षे वृत्ती अस्य वाधकं प्रमाणमम्ति इति संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वाद् अनैकान्तिकः । न च अनुगतनिमित्ताभावेऽपि अम्य भावे प्रत्ययभेदकता विषयमेदव्यवस्था न स्यादिति रूपादिप्रत्ययानामपि न स्वविषयव्यवस्थापकत्वं भवेदिति वक्तव्यम्, अनुगतप्रत्ययस्या-२५ विशिष्टाभिलापत्वेन स्वलक्षणाविषयीकरणात् तव्यवस्थापकन्वायोगात् यथासंकेतं तत्तद्यावृत्ति "शङ्करस्वामी वाह-सामान्यमपि नीलबादि नीलाद्याकारमेव अन्यथा हि नील इत्येवमनुवृत्तिप्रत्ययो न स्यान्" इत्यादि-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ. २४३ पं० २७। "सामान्यस्यापि नीलादिरूपले गुणतोऽस्य कः । मेदो नानुगतधको नालादिरूपलक्ष्यते ॥ भासमानोऽपि चेदेष न विवेकेन लक्ष्यते । तत्कथं धीध्वनी व्यक्ती वतेने नट्टलेन तो ॥ निश्चयात्मक एवायं सामान्यप्रत्ययः परैः । इष्टश्चाग्रहणे प्राप्ते युक्तं नानुपलक्षणम्" ।। -तत्त्वसं• का० ७४०-७४२ पृ० ०४४ । २ मुद्रितेषु वशे. द. पुस्तकेषु "समवायिनः श्रेत्याच त्यवद्धच श्वने बुद्धिम् एते कार्यकारणभूते"-८-१-९ इति सूत्रं वर्तते, केवलं गू. वे. पुस्तके इत्थं टिप्पणी दृश्यते-"त एते' इत्यादि पृथक् सूत्रं चन्द्रकान्तमने-पृ. ३०३। ३ "सिद्धेऽप्यन्यनिमित्तवे न सामान्य प्रसिध्यति । अनुगाम्येकमधीव्यविविक्तं च क्रमोदयन्" ॥ -तत्त्वमं० का. ७४३ पृ. २४४ । ४ "पदार्थशब्दः कं हेतुमपरं षट्खपेक्षते । अस्तीति प्रचयो यत्र सनादिष्वनुवर्तते ॥ अन्यधर्मनिमित्तवेत् तत्राप्यस्त्यस्तितामतिः। तदन्यधर्म हेतुवेऽनिष्टामक्तरधर्मिना ।। व्यभिचारी ततो हेतुरमीभिरयमिष्यते । न च सर्वोपसंहाराद् व्यापिरम्य प्रमाधिता" ॥ -तत्त्वमं. का. 30४-४ पृ. २४५ । ५-स्थाविष्टाभि-पृ. । “न हि सामान्य प्रत्ययो वस्तुस्खलक्षणविषयः परमार्थतो युक्तः आविष्टाभिलापेन प्रत्ययेन खलक्षणस्याविषयीकारणात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० १४६ पं० २। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ तृतीये काण्डेमादाय एकत्रापि अनेकविरुद्धधर्माध्यवसायिविकल्पसूतेरविरोधात् । यदि च अनुगतनिमित्त मन्तरेण अनुगतप्रत्ययो न भवेत् इच्छाविरचितरूपेषु 'चन्द्रापीडादि'भावेषु नष्टाऽजातेषु च महासम्मत-शङ्खचक्रवर्तिप्रभृतिषु कथं भवेत् ? न हि तत्रापि सामान्यसद्भावः तस्य व्यक्त्याश्रितत्वात् तदभावे तस्याप्यभावात् न हि आश्रितानामयं धर्म:-यदत आश्रयाभावेऽपि केवलानामव५स्थानम् अनाधितत्वप्रसङ्गात् केवलस्य वा अवस्थाने ग्रहणप्रसक्तिरेव इति न नष्टाऽजातेषु अनुगताकारः प्रत्ययः सामान्यनिबन्धनः स्यात् इति अनेकान्त एव हेतोः । न च परेणापि केवलस्य सामान्यस्य ग्रहणमभ्युपगम्यते । तथा चोक्तम्-"स्वाश्रयेन्द्रियसंनिकर्षापेक्षप्रतिपत्तिकं सामान्यम्" [ ] इति । केवलस्यापि च सामान्यस्य ग्रहणाभ्युपगमे सामान्यप्रत्ययस्य व्यक्त्यध्यवसायो न प्राप्नोति व्यक्तेस्तदानीमभावाद् 'व्यक्तीनामिदं सामान्यम्' इति संबन्धश्च न १० स्यात् निमित्ताभावात् । तथाहि-संबन्धस्य निमित्तं भवत् तद्यङ्गयत्वं वा सामान्यस्य भवेत्, तजन्यता वा, तहणापेक्षग्रहणता वा? तत्र न तावद् व्यक्ति भिर्व्यङ्गयत्वात् सामान्य ताभिः संबद्धम् परैरनुपकार्यस्य नित्यत्वात् सामान्यस्य अविशेषतो व्यङ्ग्यत्वानुपपत्तेः यो हि यस्य अनुपकार्यः स तस्य अभिव्यङ्गयो न भवति, यथा हिमवान् विन्ध्यस्य, अनुपकार्य च सामान्य व्यक्तिभिः इत्यनुपकार्यस्यापि व्यङ्ग्यत्वे सर्वः सर्वस्य व्यङ्ग्यः स्यात् इत्यतिप्रसङ्गः । नापि तजन्यता १५ तन्निबन्धनम् नित्यतया अभ्युपगतस्य तजन्यत्वायोगात् केवलस्यापि ग्रहणाभ्युपगमाच्च । नापि तज्ज्ञानपारतन्यमपि तस्य संभवति तेन “स्वाश्रयेन्द्रियसन्निकर्षापेक्षप्रतिपत्तिकं सामान्यम्” इति अयुक्तमभिधानम् आश्रयस्यायोगात् तद्गतेन्द्रियसन्निकर्षाद्यपेक्षाया दूरोत्सारितत्वात् न चास्य नित्यतया परैरनाधेयविशेषत्वात् क्वचिदपि अपेक्षा अतो यदि तत्स्वविषयज्ञानोत्पादनसमर्थं तदा सर्वदैव तद् जनयेत् अथ असमर्थम् न कदाचिदपि जनयेत् न हि समर्थम् असमर्थ वा तस्य तद्रूपं २०तत् केनचिद् अन्यथा कर्तुं शक्यम् नित्यत्वहानिप्रसङ्गात् । यदुक्तम् "तस्य शक्तिरशक्तिर्वा या स्वभावेन संस्थिता। नित्यत्वादचिकित्स्यस्य कस्तां क्षपयितुं क्षमः ?” ॥ [ ] इति । अत एव अस्य व्यक्तिषु वृत्तिरपि अनुपपन्ना । तथाहि-वृतिरस्य भवन्ती स्थितिलक्षणा वा भवेत्, १-प्रसृते-बृ० आ० हा०वि०।। २ “इच्छारचितरूपेषु नष्टाजातेषु वा ततः । अनैकान्तिकता हेतोः सर्वैरेभिर्यथोदितैः"॥ -तत्त्वसं० का० ७४९ पृ. २४६ । ३ महाव्युत्पत्तिनामके बौद्धग्रन्थे चक्रवर्तिनां षष्टिर्नामानि परिगणितानि विद्यन्ते, तेषु 'महासंमत' इत्याचं नाम वर्तते-पृ. ५२ अं० १८० । ४-चक्रप्र-बृ. आ. हा. वि.। "इच्छारचितरूपेषु चन्द्रापीडादिषु नभस्तलोपकल्पितधवलगृहादिषु नष्टाजातेषु च महासम्मत-शङ्खप्रभृतिषु"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २४६ पं० २१। ५प्र० पृ. पं० ७॥ न हि समर्थमसमर्थ वा तस्य तत्स्वविषयज्ञानोत्पादरूपं तत् केनचिदन्यथा कर्तुं शक्यं नित्यत्व-आ० हा०वि० । अस्मिन् पाठान्तरे 'खविषयज्ञानोत्पाद' इत्यंशोऽधिको भाति स च यदि 'तत्' इत्यस्य टिप्प. णात्मकलेन अन्तःप्रविष्टो न स्यात् तर्हि पाठान्तरलेन समर्थनीयः । वस्तुतः 'तद्रूपम्' इत्यस्य स्थाने 'यद्रूपम्' इति सम्यग् भाति परामर्शकस्य 'तत्'-पदस्याग्रे सत्त्वेन तत्संबन्धितया 'यत्' पदस्यैवापेक्षणात् । अत्रार्थे संवादो यथा"तस्य योग्यमयोग्यं वा रूपं यत् प्रकृतिस्थितम् । तद् ध्रौव्यादप्रकम्प्यं हि को नाम चलयिष्यति ॥ -तत्त्वसं० का० ७९५ पृ० २५६ । अस्याः कारिकायाः पन्जिका तु इत्थं वर्तते-"न हि तस्य तद्रूपं समर्थमसमर्थ वा तत् क्वचिद् अन्यथाकर्तुमीशते नित्यबहानिप्रसङ्गात्"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २५७ पं०४। ७ पृ० ४८२ पं० २२ टि०६। ८"अपि चानेकवृत्तिवं सामान्यस्य यदुच्यते । तत्र केयं मता वृत्तिः स्थितिः किं व्यक्तिरेव वा ॥ खरूपाप्रच्युतिस्तावत् स्थितिरस्य खभावतः । नाधारस्तस्कृतौ शक्तो येन स्थापकता भवेत् ॥ गमनप्रतिबन्धोऽपि न तस्य बदरादिवत् । विद्यते निष्क्रियखेन नाधारोऽतः प्रकल्प्यते ॥ स्थितिस्तत्समवायश्चेन तथैव विचार्यते । सोऽभीष्टोऽयुतसिद्धानामाश्रयाश्रयितात्मकः"॥ -तत्त्वसं० का० ७९८-८०१पृ० २५९ । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । अभिव्यक्तिलक्षणा वा ? स्थितिरपि निःस्वभावताप्रच्युतिरभ्युपगम्यते, आहोस्विद् अधोगतिप्रतिबन्धस्वरूपा ? तत्र न तावद् आद्यः पक्षः, सामान्यस्य नित्यतया स्वभावाऽप्रच्युतेः स्वतः सिद्धत्वात् । नापि अधोगति प्रतिबन्धस्वरूपा स्थितिस्तत्र संभविनी, अमूर्त- सर्वगतत्वाभ्यां निष्क्रियत्वात् स्वत एव अधोगमनासंभवात् प्रतिबन्धकानां वैयर्थ्यात् । न च सामान्यस्य स्वव्यक्तिषु समवायः स्थितिरभ्युपगन्तव्या, तस्यैव विचार्यमाणत्वात् । तथाहि अयुतसिद्धानामाश्रयाश्रयिभावो यः संबन्धः 'इह' ५ इति प्रत्ययहेतुः स समवायः परैरभ्युपगतः । 'आश्रितत्वं च सामान्यस्य व्यक्तिप्रतिबद्धस्थितित्वेन वा, तदभिव्यङ्ग्यतया वा' इत्येतदेव पर्यालोचयितुं प्रक्रान्तम् परस्परासंकीर्णरूपाणां भावानामकिञ्चित्करार्थान्तरसमवायायोगात् योगे वा सर्वः सर्वस्य समवायः प्रसज्येत । तथाहि - व्यावृत्तस्वरूपान् भावान् संश्लेषयन् पदार्थः समवायः प्रकल्पितः । न च अर्थान्तरभावेऽपि स्वात्मव्यवस्थिता भावाः परस्परस्य स्वभावमात्मसात्कुर्वन्ति । न च अर्थान्तराश्लेषकारिणो भावान्तरस्य 'समवायः' १० इति नामकरणेऽपि काचित् क्षतिः । न च श्लेषकरणात् समवायरूपत्वं संश्लेषस्य, संश्लिष्यमाणपदार्थेभ्यो भिन्नस्य करणे तैस्तस्य संबन्धासिद्धेः; अभिन्नस्य करणे सामान्यादेः कार्यत्वेन अनित्यत्वप्रसक्तेः । तन्न सामान्यस्य व्यक्तिषु स्थितिर्वृत्तिः । नापि तद्भिव्यक्तिलक्षणाऽसौ युक्ता । तथाहितद्विषयविज्ञानोत्पादनलक्षणा वा तदभिव्यक्तिः, स्वरूपपरिपोषलक्षणा वा ? न तावत् स्वभावपरिपोपलक्षणा, नित्यस्य स्वभावान्यथाकरणासंभवात् । नापि तद्विषयविज्ञानोत्पादनस्वरूपा असौ युक्ता, १५ सामान्यस्य स्वत एव विज्ञानोत्पादनसामर्थ्य अभिव्यक्तिकारणापेक्षाऽयोगात् असामर्थ्येऽपि परैरनाधेयविशेषत्वात् सामान्यस्य तदपेक्षत्वानुपपत्तेः परैराधेयविशेषत्वाभ्युपगमेऽपि अनित्यत्वप्रसतितो व्यक्तिवद् असाधारणत्वात् सामान्यरूपताऽनुपपत्तेः तेन सामान्यस्य व्यक्तिषु वृत्तिनिबन्धनाभावाद् अवृत्तिः । तथा च प्रयोगः - यस्मिन् यस्य वृत्तिनिबन्धनं नास्ति न तत्र तद् वर्तते, विन्ध्ये इव हिमवान्, नास्ति च भेदेषु वृत्तिनिबन्धनं सामान्यस्य इति व्यापकानुपलब्धिः । सर्वेऽपि च पर- २० प्रकल्पिताः सामान्य साधनाय हेतवः अनया दिशा प्रतिषेद्धव्याः । कुमारिलप्रकल्पितास्तु-गोपिण्डभेदेषु गोबुद्धिः एकगोत्वनिबन्धना, गवाभासत्वात् एकाकारत्वाच्च, एकगोपिण्डविषयबुद्धिवत् । अथवा येयं गोबुद्धिः सा शाबलेयान्न भवति तद्व्यतिरिक्तार्थान्तलम्वना वा, तदभावेऽपि भावात्, घटे पार्थिवबुद्धिवत् । सर्वगतत्वं च सामान्यस्य प्रमाणान्तरात् सिद्धम् । तथाहि - येयं गोमतिः सा प्रत्येकसमवेतार्थविषया, प्रतिपिण्डं कृत्स्नस्वरूपपदार्थाकारत्वात्, २५ प्रत्येक व्यक्तिविषयबुद्धिवत् । एकत्वमपि सामान्यस्य प्रमाणोपपन्नमेव । तथाहि यद्यपि सामान्यं सर्वात्मना प्रतिव्यक्ति परिसमाप्तं तथापि एकमेव तत्, एकाकारबुद्धिग्राह्यत्वात्, यथा 'नञ्' - युक्तेषु वाक्येषु ब्राह्मणादिनिवर्तनम् । न चैतत् शक्यं वक्तुम्- 'भिन्नेषु अभिन्नाकारः प्रत्ययो भ्रान्त इति न तद्बलाद् वस्तुतत्त्वव्यवस्था' इति, यतो नास्य दुष्टकारणप्रभवत्वमस्ति, नापि बाधकप्रत्ययसद्भावः ततो मिथ्यात्वनिबन्धनाभावात् कथं भ्रान्तता ! तदुक्तम् “पिण्डभेदेषु गोबुद्धिरेकगोत्वनिबन्धना । गवाभासैकरूपाभ्यामेकगोपिण्डबुद्धिवत् ॥ न शाबलेयाद् गोबुद्धिः ततोऽन्यालम्बनाऽपि वा । तद्भावेऽपि सद्भावादु घटे पार्थिवबुद्धिवत् ॥ प्रत्येकसमवेतार्थविषयैवाथ गोमतिः । प्रत्येकं कृत्स्नरूपत्वात् प्रत्येकव्यक्तिबुद्धिवत् ॥ १ " स्यादाधारो जलादीनां गमनप्रतिबन्धकः । अगतीनां किमाधारैः सामान्यानां प्रकल्पितैः ॥ स्वज्ञानोत्पत्तियोग्यत्वे किमभिव्यक्तिकारणैः । खज्ञानोत्पत्त्ययोग्यत्वे किमभिव्यक्तिकारणैः ॥ यः समर्थः समर्थात्मा व्यञ्जकैः क्रियते यदि । भावोऽस्थिरो भवेदेवं दीपव्यय घटादिवत् " ॥ - तत्त्वसं० का० ८०२-८०४ पृ० २६० । ६९५ ३० २ " अनया च दिशाऽन्येऽपि सर्वे दूष्याः कुहेतवः” । “अन्येऽपि कुहेतव इति कुमारिलगदिताः तत्राभी तेन कुहेतव उक्ताः " -- तत्त्वसं० का० ७९७ तथा पञ्जि० पृ० २५७ पं० १६-१ ३ " तस्मात् पिण्डेषु गोबुद्धि" - लो० वा० । खात्" - हो० वा० । ३५ ४ “गवाभासैकरूप्याभ्या" - लो० वा० । ५ " प्रत्येकं कृत्स्रबुद्धि Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ तृतीये काण्डे-- प्रत्यकसमवेताऽपि जातिरेकैव बुद्धितः। 'नयुक्तेष्विव वाक्येषु ब्राह्मणादिनिवर्तनम् ॥ नैकरूपा मतिर्गोत्वे मिथ्या वक्तुं च शक्यते । नात्र कारणदोषोऽस्ति बाधकः प्रत्ययोऽपि वा" ॥ [श्लो० वा० वन० श्लो० ४४-४७-४९] इति । अत्र प्रथमसाधने साध्यविकलमुदाहरणम् गोत्वस्य एकस्य तत्रासिद्धेस्तैन्निबन्धनत्वस्यैकगोपिण्डविषयबुद्धेरप्यसिद्धत्वात् । अथ सामान्येन एकनिबन्धनत्वमात्रं साध्यते तदा सिद्धसाध्यता विजातीयव्यवच्छेदेन कल्पितैकाऽगोव्यावृत्तिनिबन्धनत्वस्य इष्टत्वात् । न 'शाबलेयाद् गोबुद्धि' इत्यत्रापि साक्षात् तदुत्पत्तिनिषेधे साध्ये सिद्धसाध्यता तत्स्वलक्षणानुभवाहितसंस्कारसंकेतादि १० व्यवहितत्वात् तस्याः । अथ परंपरयाऽपि 'ततो न भवति' इति साध्यते तदा अनुमानबाधः प्रतिज्ञायाः साध्यविकलता च दृष्टान्तस्य । अन्यालम्बनत्वेऽपि साध्ये सन्निहितशाबलेय-गोबुद्धर्यदि ततोऽर्थान्तरालम्बनत्वं साध्यते तदा अनुभवविरोधः सन्निहितशाबलेयादिपिण्डाध्यवसायित्वेन तस्याः संवेदनात दृष्टान्तस्य च साध्यविकलता पूर्ववत् । अथ शाबलेयाऽसन्निधौ बाहलेयादिसन्नि धानप्रवृत्ता या बुद्धिः सा ततोऽन्यालम्बनेति पक्षः तदा सिद्धसाध्यता । अथ साक्षात् वस्तुसदा१५ लम्बनेति साध्यते तदा अनैकान्तिकता हेतोः न हि परमार्थतोऽस्या वस्तुसदालम्बनमस्तीति प्रसाधितत्वात् । यदपि 'प्रत्येकपरिसमाप्तार्थविषयत्वसाधनम्' तत्रापि सामान्येन साध्ये सिद्धसाध्यता प्रतिपदार्थमतद्रूपपरावृत्तवस्तुरूपाध्यवसायेन अस्याः प्रवृत्तेः । अथ वस्तुभूत-प्रत्येकपरिसमाप्त-नित्यैकसामान्याख्यपदार्थविषयत्वं साध्यते तदा दृष्टान्तस्य साध्यविकलता अनैकान्तिकता चहेतोः तथाविधेन साध्येन हेतोः क्वचिदपि अन्वयासिद्धेः। एकस्य च क्रमवत्सु बहुषु सर्वात्मना २० परिसमाप्तत्वे सर्वव्यक्ति मेदानामन्योन्यमेकरूपताप्रसक्तिः एकव्यक्तिपरिनिष्ठितस्वभावसामान्यसंस टत्वात् एकव्यक्तिरूपवत्, सामान्यस्य वा अनेकरूपतापत्तिः युगपदनेकवस्तुपरिसमाप्तात्मरूपत्वात् अतिदूरदेशावस्थितानेकभाजनव्यवस्थितानेकाम्रादिफलवत् इत्यनुमानबाधः । अत एव 'न चात्र बाधकः प्रत्ययोऽस्ति' इति यदुक्तम् तदपास्तम् बाधकस्य प्रदर्शितत्वात् । यदपि 'एकत्वसाधनं सामान्यस्य,' तत्रापि तस्य प्रत्येकसमवेतत्वासिद्धेः आश्रयासिद्धो हेतुः । स्वरूपा२५ सिद्धश्च-एकबुद्धिग्राह्यत्वस्य परमार्थतस्तत्रासिद्धेः शाबलेयादिषु 'समानाः' इति बुद्धयुत्पत्तेः । ब्राह्मणादिनिवर्तनं च परमार्थतो नैकमस्ति, तस्याऽवस्तुत्वात् अतः साध्यविकलमुदाहरणम् । कल्पनाशिल्पिघटिते चैकत्वे साध्ये सिद्धसाध्यता अपोहस्य कल्पनानिमित्तस्य एकत्वेन इष्टेः । 'न चात्र कारणदोषोऽस्ति' इत्येतदपि असिद्धम्, अनाद्यविद्यावासनास्वरूपस्य कारणदोषस्य सद्भावात् । बाधकसद्भावश्च 'न च याति' इत्यादिना प्रदर्शितः । तथाहि-ये यत्र नोत्पन्नाः ३० नापि प्रागवस्थायिनः नापि पश्चात् अन्यतो देशादागतिमन्तस्ते तत्र न वर्तन्ते नापि उपलभ्यन्ते, यथा रासभशिरसि तद्विषाणादयः, तथा च सामान्यं तच्छून्यदेशोत्पादवति शाबलेयादिके वस्तुनि इति व्यापकानुपलब्धिः। न चायमनैकान्तिको हेतुः तत्र वृत्युपलम्भयोः प्रकारान्तरासंभवात् तञ्च खाश्रयमात्रव्यापित्वाऽभ्युपगमे गोत्वादिजातेर्बाधकं प्रमाणं प्रदर्शितम् । सर्वसर्वगतत्वाऽभ्युप गमे तु तस्या एकस्मिन् व्यक्तिभेदे ग्रहणे विजातीयव्यक्तिभेदे व्यक्त्यन्तराले चोपलम्भः स्यात् अनुप३५लम्भात् तु तदभाव इति दृश्यानुपलम्भो बाधकं प्रमाणम् । तथाहि-उपलब्धव्यक्तिसमवेतसामान्यस्वरूपाद उपलब्धाद् अव्यतिरिक्तंचेद् व्यक्त्यन्तरालवति सामान्यरूपम् तदा तस्यापि ग्रहणं भवेत गृहीतादभिन्नत्वात् गृहीतस्वरूपवत् । अथ न तस्य उपलम्भस्तथासति अनुपलब्धरूपाव्यतिरेकात् तद्वद् उपलब्धव्यक्तिसमवायिनोऽपि रूपस्योपलम्भो न स्यात् । अथ उभयरूपताऽभ्युपगम्यते तदा रूपमेदात् तद्वस्तुभेदः परस्परविरुद्धधर्माध्यासात् न हि अन्योन्यविरुद्धरूपग्रहणाग्रहणधर्माध्यासि. १.तमपि वस्तु एकं युक्तम् अतिप्रसङ्गात्-विश्वस्यैवमेकद्रव्यताप्रसक्तेः सहोत्पाद-विनाशाद्यपपत्ति स्यात् अन्यथा 'एकम्' इति नाममात्रमेव भवेत् न च तत्र विवादः । नित्यत्वैकत्वरूपाभ्युपगमे च "-स्तनिबन्धनलमेकगोबुद्धेरप्यसिद्धमेव"-तत्त्वसं. पजि. पृ. २५८ पं०५२ पृ. ६९५ पं० २५- ३ पृ. ६९५ पं० २९। ४ पृ. ६९५ पं० २६। ५ पृ. ६९५५० २९ । पृ.६९१५० २६। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । ६९७ सामान्यस्य अनेकशो बाधकं प्रतिपादितमेवानुमानम्-ये ऋमित्वाऽनुगामित्व-वस्तुत्वोत्पत्तिमत्वादिधर्मोपेतास्ते परपरिकल्पितनित्यैकसर्वगतसामान्यतो नात्मलाभमासादयन्ति, यथा पाचकादिप्रत्ययाः, तथा चामी गवादिप्रत्यया इति विरुद्धव्याप्तोपलब्धिः नित्यभावविरुद्धाऽनित्यताभावेन ऋमित्वादेर्व्याप्तत्वात् नित्यस्य च क्रमाऽक्रमाभ्यामर्थक्रियाविरोधाद् नानैकान्तिकता हेतोः दृष्टान्तस्य च साध्यान्वितत्वेन पूर्व प्रसाधितत्वान्नासिद्धो दृष्टान्तः। तदेवं बाधकप्रत्ययस्य अभावोऽसिद्धः अनेक-५ प्रकारस्य बाधकस्य प्रदर्शितत्वात्।। भवतु वा गोत्वादि सामान्यम् कर्कादिविलक्षणत्वेन शाबलेयादीनां प्रतिपत्तेः, ब्राह्मणत्वादि सामान्यं तु उपदेशमात्रव्यङ्ग्यम् गवाश्वादिवद् ब्राह्मणेतरविशेषप्रतिपत्त्यभावात् । न च उपदेशसहायाध्यक्षगम्यं तत् अध्यक्षविषये उपदेशापेक्षाऽयोगात् , तद्योगे वा उपदेशस्यैव केवलस्य व्यापार इति उपदेशमात्रव्यङ्ग्यतैव । अथ 'वर्णविशेषाऽध्ययनाऽऽचार-यज्ञोपवीतादिव्यतिरिक्तनिमित्तनिबन्धनं १० 'ब्राह्मणः' इति ज्ञानम्, तन्निमित्तबुद्धिविलक्षणत्वात्, गवाश्वादिज्ञानवत्' इति लिङ्गात् प्रतिपत्तेः ब्राह्मणत्वादिसामान्यस्य नागममात्रव्यङ्गयत्वमिति, असदेतत् ; नगरादिज्ञानवद् व्यतिरिक्तनिबन्धनाभावेऽपि तथाभूतज्ञानस्य कथंचिद् उपपत्तेः । न हि नगरादिज्ञानेऽपि व्यतिरिक्तं द्रव्यान्तरमस्ति यद् एकाकारज्ञाननिबन्धनं भवेत् काष्ठादीनामेव प्रत्यासत्या कयाचित् प्रासादादिव्यवहारनिबन्धनानां नगरादिव्यवहारनिबन्धनत्वोपपत्तेः अन्यथा 'पण्णगरी' इत्यादिष्वपि वस्त्वन्तरकल्पनाप्रसक्तेः । न १५ च तत्रापि तथाऽस्तु इति वक्तव्यम् , वस्त्वन्तरस्य तन्निवन्धनस्य तत्र निषिद्धत्वात् । अतोऽनैकान्तिको हेतुः सिद्धसाध्यता च समुदायिभ्योऽन्यत्वाङ्गीकरणे समुदायस्य तन्निवन्धनत्वाद् ब्राह्मणबुद्धेः तदग्रहे तद्रुद्ध्यभावात् पानकवत् इति न वर्णादिभ्यो व्यतिरिक्तम् । तस्मात् शरीरोत्पत्तिकारणं श्रुतं तपो वा ब्राह्मणत्वं परिकल्पनीयं स्यात् । तत्र व्राह्मणशुक्रशोणितसंभूते शरीरविशेषे यदि ब्राह्मणत्वजातिः समवेता भवेत ततः संस्कारभ्रंशेऽपि न ततो व्यावर्तत तेन संस्काराभावात् व्रात्यो नाऽब्राह्मणो २० भवेत् । अथ संस्काररहितोऽपि व्रात्यो ब्राह्मण एव केवलं ब्राह्मणक्रियामकुर्वाणस्य भवति अब्राह्मणव्यपदेशस्तत्र पुत्रस्येव पुत्रक्रियामकुर्वतः। तथाहि-'अयमगौः' 'अयमनश्वः' 'अयममनुष्यः' इत्यादिव्यवहारो लोके सुप्रसिद्ध एव । न चैतावता तक्रियावैकल्येऽपि परमार्थतस्तस्य तथाभावः, प्रत्यक्षादिविरोधात । एतस्यां च वस्तुव्यवस्थायां ब्राह्मणमातापित्रुत्पाद्यत्वस्य प्राधान्यात् गजादीनां शिक्षेव केवलमध्ययनादिका क्रिया संपद्यते, तथाऽभ्युपगमे च ब्रह्म-व्यास-मतङ्ग-विश्वामित्रप्रभृतीनां२५ १ प्रमेयकमलमार्तण्डे स्याद्वादरत्नाकरे च ब्राह्मणवस्य नित्यजातिरूपत्वनिषेधपरा विस्तृता रुच्या च चर्चा वर्तते-पृ. १४१ प्र.-पृ. १४३ प्र० । पृ० ९५८ पं० ९-पृ० ९६३ पं० १० । तत्त्वसंग्रहे तु जातिमदनिषेधव्याजेन ब्राह्मणवस्य नित्यप्रतिष्ठानता निरस्ता । सा चेत्थम् "शतशः प्रतिषिद्धायां जाती जातिमदश्च किम् । तदन्यातिशयासिद्धौ विशिष्टा सा च किं मता ॥ वशिलादिगुणाधाराः प्रक्षीणाशेषकल्मषाः । सर्वेऽप्यत्राविशेषेण तद्योगे च विजातयः॥ भवेयुर्यदि सियन्ति विशिष्टास्तत्समाश्रयाः । वैशिष्ट्यमन्यथा नैव लुब्धकद्विजजातिवत् ॥ जातकर्मादयो ये च प्रसिद्धास्ते तदन्यवत् । आचाराः सांवृतास्ते हि कृत्रिमेष्वपि भाविनः ॥ अतीतश्च महान् कालो योषितां चातिचापलम् । तद् भवत्यपि निश्चेतुं ब्राह्मणत्वं न शक्यते ॥ अतीन्द्रियपदार्थज्ञो न हि कश्चित् समस्ति वः । खदन्वयविशुद्धिं च नित्यो वेदोऽपि नोक्तवान्" ॥ -तत्त्वसं० का० ३५७५-३५८० पृ. ९२०-२१ । अयं भावो हर्षेणापि दर्शितः"शुद्धिर्वशद्वयीशुद्धौ पित्रोः पित्रोर्यदेकशः । तदानन्तकुलादोषाददोषा जातिरस्ति का ॥ कामिनीवर्गसंसगैर्न कः संक्रान्तपातकः"। नैषध. स. १७ श्लो. ४०-४१ पृ. ३६९ । तट्टीकायां च “यदाहुः" इत्यादिना "अप्येकपङ्कयां नाश्नीयात्संयतैः खजनैरपि । को हि जानाति किं कस्य प्रच्छन्नं पातकं भवेत्" । इति । तथा"अनादाविह संसारे दुर्वारे मकरध्वजे । कुले च कामिनीमूले का जातिपरिकल्पना"। इति पद्यद्वयं उद्धृतं दृश्यते तत्रत्यं प्रथमं पद्यं पराशरमाधवे बृहस्पत्युक्तत्वेन समुद्धृतम् अ. १ आचारका०पृ०३७६। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ तृतीये काण्डेब्राह्मणत्वं न स्यात् । न च अदृश्ये वस्तुनि निर्णयो विधातुं शक्यः 'शूद्राद्युत्पाद्यत्वमस्य नास्ति' इति, अनादिगोत्रपद्धतौ च कामार्तत्वात् सर्वदा प्रमदानां कस्याश्चिद् व्यभिचारसंभवात् कुतो योनिनिबन्धनब्राह्मण्यनिश्चयात् संस्कारस्य अध्ययनादेश्च अविपर्ययस्तत्त्वनिश्चयः? आगमस्य च तन्निश्चयनिवन्धनत्वेन कल्पितस्य रागादियुक्तपुरुषप्रणीतत्वेन अप्रामाण्यात् न निश्चयहेतुता अपौरुषेयस्य च ५ प्रतिव्यक्ति एवंभूतार्थप्रतिपादनपरस्य अनुपलम्भान्न ततोऽपि तन्निश्चयः । न च अविगानतस्त्रै वर्णिकप्रवादोऽत्र वस्तुनि प्रमाणम् तस्यापि व्यभिचारित्वोपलब्धेः-दृश्यन्ते च बहवस्त्रैवर्णिकरविगानेन ब्राह्मणत्वेन व्यवहियमाणा विपर्ययभाजः इत्यलमतिनिर्बन्धेन वचनमात्रगम्येऽर्थे । इति व्यवस्थितमेतत्-असत् सामान्यम्, तत्साधकप्रमाणाभावात् बाधकोपपत्तश्च । [निरूपणपुरस्सरं विशेषपदार्थस्य खण्डनम् ] १० नित्यद्रव्यवृत्तयः परमाण्वाकाश-काल-दिगात्ममनस्सु वृत्तेः अत्यन्तव्यावृत्तबुद्धिहेतवो वि शेषाः ते च-परमाणूनां जगद्विनाशारम्भकोटिभूतत्वात् मुक्तात्मनाम् मुक्तमनसां च संसारपर्यन्तरूपत्वाद् अन्तत्वं तेषु भवा-अन्त्या इत्युच्यन्ते तेषु स्फुटतरमालक्ष्यमाणत्वात्, वृत्तिस्त्वेषां सर्वस्मिन्नेव परमाण्वादौ नित्ये द्रव्ये विद्यत एव अत एव 'नित्यद्रव्यवृत्तयः' 'अन्त्याः' इत्युभयपदोपादा नम् । अपरे तु उत्पाद-विनाशलक्षणान्तरहितेषु द्रव्येषु भवा अन्त्या इत्यस्य व्याख्यानं 'नित्यद्रव्य. १५वृत्तयः' इति पदं वर्णयन्ति । व्यावृत्तबुद्धिहेतुत्वं च विशेषाणां सद्भावप्रतिपादकं प्रमाणम् । यथा हि अस्मदादीनां गवादिषु आकृति-गुण-क्रियाऽवयव-संयोगनिमित्तोऽश्वादिभ्यो व्यावृत्तः प्रत्ययो दृष्टःतद्यथा-'गौः' 'शुक्लः' 'शीघ्रगतिः' 'पीनककुदः' 'महाघण्टः' इति यथाक्रमम् -तथास्मद्विशिष्टानां योगिनां नित्येषु तुल्याऽऽकृति-गुण-क्रियेषु परमाणुषु मुक्तात्म-मनस्सु च अन्यनिमित्ताभावे प्रत्या धारं यद्बलाद् 'विलक्षणोऽयम्' 'विलक्षणोऽयम्' इति प्रत्ययवृत्तिः देश-कालविप्रकर्षापलब्धे च 'स २० एवायम्' इति प्रत्यभिज्ञानं च यतो भवति ते योगिनां विशेषप्रत्ययोनीतसत्त्वा अन्त्या विशेषाः सिद्धाः । योगिनां तु एते प्रत्यक्षत एव सिद्धाः। ____एते च लक्षणासंभवादेव असन्तः। तथाहि-यद् एषां नित्यद्रव्यवृत्तित्वादिकं लक्षणमभिहितम्, तत् असंभवदोषदुष्टत्वाद् अलक्षणमेव । यतः न किञ्चिन्नित्यं द्रव्यमस्ति, तस्य पूर्वमेव निरस्तत्वात् । तभावे च तद्वृत्तित्वं लक्षणमेषां दूरोत्सारितमेव । यच्च योगिप्रभवविशेषप्रत्ययबलाद् एषां सत्त्वं २५साध्यते, तद् असंगतमेव; हेतोरनैकान्तिकत्वात् । तथाहि-परमाण्वादीनां स्वस्वभावव्यवस्थितेः स्वरूपं परस्परासंकीर्णरूपं वा भवेत्, संकीर्णस्वभावं वेति कल्पनाद्वयम् । आद्यकल्पनायां स्वत एव असंकीर्णपरमाण्वादिरूपोपलम्भात् योगिनां तेषु वैलक्षण्यप्रत्ययोत्पत्तिर्भविष्यतीति व्यर्थमपरविशेषपदार्थकल्पनम् । द्वितीयायामपि विशेषाख्यपदार्थान्तरसन्निधानेऽपि परस्परव्यतिमिश्रेषु परमाण्वादिषु तद्बलाद् व्यावृत्तप्रत्ययो योगिनां प्रवर्तमानः कथमभ्रान्तो भवेत् स्वरूपतोऽव्यावृत्तखरूपेषु १ "नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषाः। ते खल्वत्यन्तव्यावृत्तिहेतुत्वाद् विशेषा एवं"-प्रशस्त. कं० पृ. १३ पं०२०। "विशेषा एव केचित्तु व्यावृत्तेरेव हेतवः । नित्यद्रव्यस्थिता येऽन्त्या विशेषा इति वर्णिताः"॥ -तत्त्वसं० का० ७१२ पृ० २३६ । २“अन्तेषु भवा अन्त्याः खाश्रयविशेषकखाद विशेषाः। विनाशारम्भरहितेषु नित्यद्रव्येष्वण्वाकाशकालदिगात्ममनस्सु प्रतिद्रव्यमेकैकशो वर्तमानाः अत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतवः"-इत्यादि-प्रशस्त० के० पृ. ३२१ पं० १२-1 ३ यद्वर्णाद् बृ० आ० हा० वि० । “यद्वलात् परमाण्वादौ जायन्ते योगिनां धियः । विलक्षणोऽयमेतस्मादिति प्रत्येकमाश्रिताः" ॥ -तत्त्वसं० का० ७१३ पृ० २३७ । ४ "ये पुनः कल्पिता एते विशेषा अन्त्यभाविनः । नित्यद्रव्यव्यपोहेन तेऽप्यसंभविताः क्षणाः ॥ अण्वाकाशदिगादीनामसंकीर्ण यदा स्थितम् । वरूपं च तदैतस्माद् वैलक्षण्योपलक्षणम् ॥ मिश्रीभूतापरात्मानो भवेयुर्यदि ते पुनः । नान्यभावेऽप्यविभ्रान्तं वैलक्षण्योपलक्षणम् ॥ कथं तेषु विशेषेषु वैलक्षण्योपलक्षणम् । खत एवेति चेन्नैवमण्वादावपि किं मतम्"। -तत्त्वसं० का०८१३-८१६ पृ. २६३॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ६९९ अण्वादिषु व्यावृत्ताकारतया प्रवर्तमानस्य तस्य अतस्मिंस्तब्रहणरूपतया भ्रान्तत्वाऽनतिक्रमात् ? एवमेतत्प्रत्यययोगिनस्तेऽयोगिन एव स्युः। किञ्च, यदि विशेषाख्यपदार्थान्तरव्यतिरेकेण विलक्षणप्रत्ययोत्पत्तिर्न भवेत् कथं विशेषेषु तस्योत्पत्तिर्भवेत् तेषु अपरविशेषाभावात् ? भावे वा अनवस्थाप्रसक्तेः 'नित्यद्रव्यवृत्तयः' इति च अभ्युपगमक्षतिः स्यात् विशेषेषु अपि विशेषाणां वृत्तेः । अथ खत एव तेषु परस्परवैलक्षण्यमिति अपरविशेषमन्तरेणापि वैलक्षण्यबुद्धिविषयता तर्हि परमाण्वादी-५ नामपि तत एव तद्बुद्धिप्रवृत्तिर्भविष्यतीति व्यर्थ विशेषाख्यपदार्थपरिकल्पनम् । अथ विशेषेषु अपरविशेषयोगाद् व्यावृत्तबुद्धिपरिकल्पनायामनवस्थादिबाधकोपपत्तेः उपचारात् तेषु तद्बुद्धिः, न; तथाभूतविज्ञानाधाराणां योगिनामयोगित्वप्रसक्तेः-तबुद्धेः 'विशेषा इव' इति स्खलद्रूपतया प्रवृत्ती अनिर्णयबुद्ध्यधिकरणत्वात् तेषां 'विशेषा एव' इत्यस्खलद्रूपबुझ्यधिकरणत्वे अपरविशेषविकलानां विशेषाणां परमाण्वादीनामिव अविशेषरूपतया तद्बुद्धेर्विपर्यस्तरूपत्वेन तदाधाराणां कथं न अयोगि-१० त्वम् ? यदि च वाधकोपपत्तेर्विशेषेषु व्यावृत्तबुद्धिर्न अपरविशेषनिबन्धना तर्हि परमाण्वादिष्वपि भिन्नविशेषनिबन्धना नासावभ्युपगन्तव्या, तेषां तत्र भिन्नाभिन्नव्यावृत्तरूपकरणानुपपत्तेर्बाधकस्य सद्भावात् । येदप्यत्र अध्ययनायुक्तं प्रतिसमाधानम् –“यथा श्वमांसाशुच्यादीनां स्वत एव अशुचित्वम् अन्येषां च भावानां तद्योगात् तत् तथेहापि तादात्म्यात् विशेषेषु स्वत एव व्यावृत्तप्रत्ययहेतुत्वम् परमाण्वादिषु तु तद्योगात् । किञ्च, अतदात्मकेष्वपि अन्यनिमित्तः प्रत्ययो भवत्येव यथा प्रदीपात् १५ पटादिषु न पुनः पटादिभ्यः प्रदीपे एवं विशेषेभ्य एव अण्वादौ विशिष्टप्रत्ययः न अण्वादिभ्य इत्यादिकम्" [ ], तदपि असंगतम्; यतोऽशुचित्वं भावानां कल्पनासमारोपितम् न पारमार्थिकम् अव्यवस्थितेस्तस्य । तथाहि-यदेव कस्यचित् श्रोत्रियादेव्यमशुचित्वेन प्रतिभाति तदेव कापालिकादेः शुचित्वेन । न च एकस्य परस्परविरुद्धानेकरूपसमावेशो युक्तः एकत्वहानिप्रसक्तेः । भवतु वा पारमार्थिकं पदार्थानामशुचित्वं तथापि न दृष्टान्त-दार्टान्तिकयोः साम्यम् यतः २० खे(श्व)मांसाद्यशुचिद्रव्यसंसर्गाद् मोदकादयो भावाः प्रच्युतप्राक्तनशुचिस्वभावा अपर एव अशुचि. रूपा उत्पद्यन्ते इति युक्तमेषामन्यसंसर्गजमशुचित्वम् न तु परमाण्वादिषु एतत् संभवति तेषां नित्यत्वादेव प्राक्तनाऽविविक्तस्वरूपपरित्यागेन अपरविविक्तस्वरूपतयाऽनुपपत्तेः अत एव प्रदीपपटदृष्टान्तोऽपि असंगतः पटादीनां प्रदीपादिपदार्थान्तरोपाधिकस्य रूपान्तरस्य उत्पत्तः प्रकृते च तदसंभवात् इति । अनुमानबाधितश्च विशेषसद्भावाभ्युपगमः । तथाहि-विवादाधिकरणेषु भावेषु २५ विलक्षणप्रत्ययः तद्व्यतिरिक्तविशेषनिबन्धनोन भवति, व्यावृत्तप्रत्ययत्वात् , विशेषेषु व्यावृत्तप्रत्ययवत् इति । पूर्ववद् अस्य हेतोः प्रतिबन्धादिकं वाच्यम् । तन्न विशेषपदार्थसद्भावः तत्साधकप्रमाणाभावात् बाधकोपपत्तेश्चेति स्थितम् । १ "नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या इति चाभ्युपगमहानिप्रसङ्गाच"-तत्त्वसं० पजि. पृ० २६३ पं० २२ । २“यथा गवाश्वमांसादीनां खत एवाशुचित्वं तद्योगादन्येषां तथेहापि तादात्म्यादन्त्यविशेषेषु खत एव प्रत्ययव्यावृत्तिः तद्योगात् परमाण्वादिष्विति"-प्रशस्त. कं. पृ. ३२२ पं० १३ । “'खत एव' इत्यादिना प्रशस्तमतेरत्रोत्तरमाशङ्कते खत एवाशुचित्वं हि श्वांसादेर्यथा स्थितम् । तद्योगादपरेषां तु तथेहापि यदीष्यते ॥ यथा प्रकाशको दीपो घटादेश्च खतः स्थितः । तत्प्रकाशात्मतायां च नियतोऽयमिदं तथा ॥" -तत्त्वसं० का० ८१५-८१८ पृ. २६४ । ३ यथा स्वमांसा-वा. बा. भा. मा० । “स वाह यथा श्वमांसा"-तत्त्वसं० पजि. पृ. २६४५.६। ४ "मनु चाशुचिभावोऽयं सांवृतो न तु तात्त्विकः । तत् स्वयं परतो वाऽयं कथं नाम भविष्यति ॥ अथवा भाविकत्वेऽपि श्वांसादिवशादिमे । जायन्तेऽशुचयो भावा नैव नित्या अजन्मतः ॥ प्रदीपादिप्रभावाच्च ज्ञानोत्पादखरूपताम् । लभन्ते क्षणिका ह्यर्थाः कलशाभरणादयः॥ न विवादास्पदीभूतविशेषबलभाविनी । वैलक्षण्यमतिस्तेषु क्रमोत्पत्तेः सुखादिवत्" ॥ -तत्त्वसं० का० ८१९-८२२ पृ. २६४ । ५ "तथाहि-श्वमांसादिकाशुचिद्रव्यसंपर्कादनादयो भावाः"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० २६४ पं० २५ । ९.स.प्र. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे [निरूपणपुरस्सरं समवायपदार्थस्य खण्डनम् ] समवायस्तु 'इह तन्तुषु पटः' इत्यादीहबुद्धिविशेषाद् द्रव्यादिभ्यो अर्थान्तरत्वेन अभ्युपगम्यते "अयुतसिद्ध"-[प्रशस्त० कं० पृ० १४ तथा ३२४ ] इत्यादिलक्षणोपेतः । यथा हि सत्ता-द्रव्यत्वादीनामात्मानुरूपप्रत्ययकर्तृत्वात् स्वाधारेषु तेभ्यः परस्परतश्च अर्थान्तरभावस्तथा समवायस्यापि ५पञ्चसु पदार्थेषु 'इह तन्तुषु पटः' 'इह पटद्रव्ये गुण-कर्मणी' 'इह द्रव्य-गुण-कर्मसु सत्ता' 'इह द्रव्ये द्रव्यत्वम्' 'इह गुणे गुणत्वम्' 'इह कर्मणि कर्मत्वम्' 'इह द्रव्येषु अन्त्या विशेषाः' इत्यादिविशेषप्रत्ययदर्शनात् पञ्चभ्यः पदार्थभ्य अन्तिरता तस्य अवसीयते । तथा च प्रयोग:-येपु यदाका विलक्षणो यः प्रत्ययः तद्व्यतिरिक्तार्थान्तरनिवन्धनः सोऽभ्युपगन्तव्यः, यथा 'पुरुषे दण्डी इति प्रत्ययः, तथा चायं पञ्चसु पदार्थेषु 'इह' प्रत्यय इति स्वभावहेतुप्रतिरूपकः प्रयोगः । निवन्धनमन्तरेण अस्य १० सद्भावे नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा स्यादिति विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । एवम् 'इह' वुद्धिलिङ्गावसेयः समवायः। अध्यक्षबुद्ध्यवसेयत्वमपि तस्य केचन मन्यन्ते । तथाहि-अक्षव्यापारे सति 'इह तन्तुषु पटः' इत्यादिप्रत्ययोत्पत्तेर्विशेषा भूतस्य तस्य 'इह' बुझ्यध्यक्षावसेयता । समवायश्च न संयोगवद् भिन्नः किन्तु तल्लिङ्गाविशेषाद् विशेषलिङ्गाभावाञ्च सत्तावत् सर्वत्र एक एव, अकारणत्वाच्च तद्वदेव नित्यः । अकारणत्वं च तत्कारणानुपलब्धेः सिद्धम् । १५ . अत्र प्रतिविधीयते-'इंह तन्तुषु पटः' इत्यादिका बुद्धिः स्खसमयाहितवासनाप्रकल्पितैव न तु लोके तथोत्पद्यमानत्वेन सिद्धेति धर्म्यसिद्धराश्रयासिद्धो हेतुः । ताहि-यत्र नानात्वमुपलक्षित भवेत् तत्र आधाराधेयभावे सति 'इह' बुद्धिरुत्पद्यमाना लोके संवेद्यते, यथा 'इह कुण्डे दधि' इति । न च नानात्वं तन्तु-पटयोरुपलब्धिगोचरः इति कथं तत्र 'इह'बुद्धयुत्पादः ? न च खमतिप्रकल्पि तस्य कार्यस्य कारणपर्यनुयोगः परं प्रति विधेयः। न चेच्छायाः पदार्थरूपानुरोधः तस्याः स्वातव्य२० वृत्तित्वात् ततोऽपि वस्तुव्यवस्थापने तेषामव्यवस्थाप्रसक्तेः भवत्परिकल्पितस्यापि वस्तुनोऽन्यथाऽ. न्यस्य प्रकल्पयितुं शक्यत्वात् न केवलम् 'इह तन्तुषु पटः' इत्यादिका बुद्धिर्लोके न संवेद्यते किन्तु विपर्ययेणैव तस्या उत्पादानुभवः । तथाहि-'वृक्षे शाखा' 'पर्वते शिला' इत्यादिका बुद्धिलॊके उत्प. १"तन्तुष्वेव पटोऽमीषु वीरणेषु कटः पुनः । इत्यादीहमतेर्भावात् समवायोऽवगम्यते" ॥-तत्त्वसं. का. ८२३ पृ. २६५। २"अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां यः संबन्ध इहप्रत्ययहेतुः स समवायः"-प्रशस्त० के० । ३ "तस्याभावे स चेत् किं हि मतेरस्या निबन्धनम् । न विशेषमतिदृष्टा निमित्तान्तरवर्जिता ॥ इहबुद्धय विशेषाच योगवन्न विभिद्यते । सर्वस्मिन् भाववत्त्वेष एक एव प्रतीयते ॥ कारणानुपलब्धेश्च नित्यो भाववदेव सः। न ह्यस्य कारणं किश्चित् प्रमाणेनोपलभ्यते"॥ -तत्त्वसं० का० ८२४-८२६ पृ. २६५ । "एवं तावद् वैशेषिकाणां मतेन इहबुद्धिलिङ्गानुमेयः समवायः । नैयायिकमतेन तु इहबुद्धिप्रत्यक्षगम्य एवं" -तत्त्वसं० पजि० पृ. २६५ पं० २४-। ५ "तदेतदिहविज्ञानं परेषामेव वर्तते । खसिद्धान्तानुरागेण न दृष्टं लौकिकं तु तत्" ॥ -तत्त्वसं० का० ८२७ पृ. २६६। ६ "नानात्वलक्षणे हि स्यादाधाराधेयभूतयोः । इदमत्रेति विज्ञानं कुण्डादौ श्रीफलादिवत् ॥ नैव तन्तुपटादीनां नानात्वेनोपलक्षणम् । विद्यते येन तेषु स्युरिदमत्रेति बुद्धयः" ॥ -तत्त्वसं• का० ८२८-२९ पृ. २६६ । ७ "खेच्छया रचिते वाऽस्मिन् कल्पितेष्विव वस्तुषु । न कारणनियोगोऽयं परं प्रत्युपपद्यते"॥ -तत्त्वसं. का. ८३० पृ. २६६। ८ "वृक्षे शाखाः शिलाश्चाग इत्येषा लौकिकी मतिः। अगाख्यपरिशिष्टाङ्गनरन्तर्योपलम्भनात् ॥ तौ पुनस्ताखिति ज्ञानं लोकातिक्रान्तमुच्यते । घटे रूपं क्रियादीति तादात्म्यं ववगच्छति ॥ रूपकुम्भादिशब्दा हि सर्वावस्थाभिधायकाः । तद्विशेषाभिधानाय तथा ते विनिवेशिताः ॥ तानाश्रित्यैषु विज्ञानं तेनाकारेण वर्तते । समवायान्न भेदस्य सर्वेषामप्यनीक्षणात्"॥ -तत्त्वसं. का. ८३१-८३४ पृ. २६७ । उत्पाघ-बा.बा. भ. मा Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झयमीमांसा। धमानत्वेन संवेद्यते । न च 'वृक्षे शाखा' इत्यादिकाऽपि मतिः समवायनि बन्धना किन्तु विवक्षितशाखाव्यतिरिक्तस्कन्धादिविशिष्टसमुदायनिबन्धनैव । एवम् 'इह घटे रूप-रस-गन्ध-स्पर्शाः' इत्यादिबुद्धेरपि घटस्वभावत्वं रूपादीनां निबन्धनत्वेन प्रतिपद्यते लोकः । तथाहि-घटे रूपादिकं घटखभावमेव एतद्रूपादिकं न पटादिखभावम् वहुषु रूपादिषु साधारणशक्तिविशेषप्रतिपादनाभिप्रायेण तदन्यरूपादिव्यवच्छेदेन घटादिश्रुतेः संकेतः रूपादिश्रुतेस्तु प्रत्येकमसाधारणचक्षुर्सानादिकार्योत्पा-५ दनशक्तिप्रकाशनाय समयकरणम् अत एव घटादिश्रुतिर्न रूपादीन् भेदान् आक्षिपति तत्सामाना धिकरण्याभावात् रूपादिशब्दाश्च घट-पटादिसर्वावस्थरूपादिवाचका इति रूपादिशब्देभ्यः केवलेभ्यो न तद्विशेषप्रतीतिस्तेन विशिष्टावस्थरूपादिप्रतिपादनाय 'घटे रूपादयः' इत्येवमुभयपदप्रयोगः क्रियते ततोऽपि घटात्मका रूपादयः पटात्मकरूपादिव्यवच्छेदेन प्रतीयन्ते घटशब्दस्तु सर्वावस्थं चलनादिस्वभावान्वितं घटं ब्रूत इति केवलान्न विशेषप्रतीतिः 'रूपम्' इत्यादिशब्दप्रयोगे तु तदन्य-१० व्यवच्छेदेन विशेषप्रतिपत्तिरुपजायते इति तत्प्रयोगः । तस्मात् संकेतवशात् 'इह घटे रूपादयः' इत्यादि ज्ञानं तथाभूतपदार्थनिबन्धनम् न समवायनिवन्धनम् यतो न घटरूपादिसमवायानां भेदः परस्परतः क्वचिदपि उपलब्धिगोचरः तत् कथमेतद् ज्ञानं समवायनिवन्धनं भवेत् ? तेन परोपन्यस्तहेतोरनैकान्तिकत्वात् उक्तन्यायेन प्रतिज्ञायाश्च अनुमानवाधितत्वान्न समवायसिद्धिः । यदपि 'इह बुद्ध्यविशेषात्' इत्याद्यभिधानम् तदपि असंगतम्, यतो यदि एकः समवायः स्यात् तदा तन्तुषु १५ घटः' इत्यादिबुद्धरपि उत्पत्तिः स्यात् । तथाहि-यत एव समवायात् 'कपालेषु घटः' इति प्रत्ययोत्पत्तिरभ्युपगता स एव समवायः तन्तुषु घटस्य इति किमिति तथाप्रत्ययोत्पत्तिन भवेत? अथ न तन्तुषु घट आश्रितः इति तत्र तथाप्रत्ययो नोत्पद्यते, असदेतत् यतः 'कपालेषु घट आश्रितः' इति समवायबलाद् भवद्भिरभिधीयते; स च समवायः किं तन्तुषु नास्ति येन 'इह तन्तुषु घटोऽस्ति' इति प्रत्ययो न भवेत समवायस्य एकत्वेन सर्वत्र अविशेषात् ? एवं च द्रव्य-गुण-कर्मणां द्रव्यत्व-गुणत्व-२० कर्मत्वादिविशेषणैः संबन्धस्य एकत्वात् पदार्थपञ्चकस्य विभागो न भवेत् । अथ समवायस्य एकत्वेऽपि न पदार्थसंकरः, आधाराधेयनियमात् । तथाहि-'द्रव्येष्वेव द्रव्यत्वम्' 'गुणेष्वेव गुणत्वम्' 'कर्मखेव कर्मत्वम्' इत्येवं द्रव्यत्वादीनां प्रतिनियताधारावच्छेदेन प्रतिपत्तेः सद्भावः, न; एवं समवायस्य प्रतिपदार्थ भिन्नत्वोपपत्तेः। अर्थं 'इह' इति समवायनिमित्ताया बुद्धरभिन्नाकारतया सर्वत्र अनुगमाद् एकः समवायः सर्वत्रावसीयते, तदेकत्वेऽपि द्रव्यत्वादिनिमित्तानां प्रत्ययानां प्रतिनियताधारावच्छेदेनाऽ २५ १ "अतो घटादिश्रुती रूपादिभेदानाक्षिपतीति सामानाधिकरण्याभावाद वेयधिकरण्यनैव तादात्म्यं प्रतिपाद्यते" -तत्त्वसं० पञ्जि. पृ० २६७ पं० १९ । २-सर्वावस्तुरू-बृ. आ. हा. वि. । “रूपादिशब्दा हि सर्वावस्थस्य रूपादेर्वाचकाः"-तत्त्वसं. पञ्जि. पृ० २६७ पं० २१।। ३ पृ. ७०० ५० १० टि. ३ । ४ “ययेकः समवायः स्यात् सर्वेष्वेव च वस्तुषु । कपालादिष्वपि ज्ञानं पटादीति प्रसज्यते ॥ गजादिष्वपि गोखादि समस्तीत्यनुषज्यते । ततो गवादिरूपत्वममीषां शावलेयवत् ॥ पटस्तन्तुषु योऽस्तीति समवायात् प्रतीयते । अस्ति चासौ कपालेषु तस्येति न तथेति किम् ॥ नाश्रितः स कपाले चेन्ननु तन्तुष्वपीष्यते । आश्रितः समवायेन स कपालेऽपि नास्ति किम् ? ॥ तन्तोर्यः समवायो हि पटस्येत्यभिधीयते । स घटस्य कपालेषु तद्धीरनवधिर्भवेत् ॥ एवं यश्च गजलादिसमवायो गजादिषु । गोलादिजातिभेदानां स एव खाश्रयेष्वपि" ॥ -तत्त्वसं० का० ८३५-८४० पृ० २६८-२६१। ५ भवतु अ-वा. बा. भ. मां । "किमिति तथाप्रतीतिर्न भवेत्”-तत्त्वसं० पजि० पृ. २६८ पं० २० । ६ “ 'आधार' इत्यादिनाऽत्र प्रशस्तमतेरुत्तरमाशङ्कतेआधाराधेयनियमः स चैकत्वेऽपि विद्यते । द्रव्येष्विव हि तजातिकर्मखेव च कर्मता"॥ -तत्त्वसं० का० ८४१ पृ. २६९ । ७ "इहेति समवायोत्थविज्ञानान्वयदर्शनात् । सर्वत्र समवायोऽयमेक एवेति गम्यते ॥ द्रव्यलादिनिमित्तानां व्यतिरेकस्य दर्शनात् । धियां द्रव्यादिजातीनां नियमस्ववसीयते"॥ -तत्त्वसं० का० ८४२-८४३ पृ. २६९ । ८-वच्छेदेनानुया-वा. बा० । “प्रतिनियताधारावच्छेदेनोत्पत्तेर्व्यतिरेकस्यानन्वयलक्षणस्य दर्शनात्" -तत्त्वसं० पजि० पृ. २६९ पं०१६। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ तृतीये काण्डेननुयायितयोत्पत्तेर्द्रव्यत्वादीनां भेद इति न पदार्थपञ्चकस्य संकीर्णताप्रसक्तिः, यथा हि दधि-कुण्डयोः संयोगैकत्वेऽपि आधार्याधारप्रतिनियम उपपत्तिमान तथा समवायैकत्वेऽपि द्रव्यत्वादीनां व्यङ्ग्यव्यः अकशक्तिभेदोधा(दादाधा)राधेयप्रतिनियमोपपत्तेः असंकीर्णपदार्थव्यवस्था संगतैव प्रमाणनिबन्धनत्वात् प्रमेयव्यवस्थायाः इति, असदेतत्; यतो नास्माकं रूपत्वादीनां रूपादिषु आधेयनियमः सिद्धः ५भवतां पुनः समवायमेकं सर्वत्राऽभ्युपगच्छतां प्रतिनियमो दुर्घटः प्रसज्येत । तथाहि-'द्रव्ये एव द्रव्यत्वम्' इत्येवं नियमः समवायनिबन्धनो भवद्भिरभ्युपगम्यते, द्रव्यत्वादेः समवायस्य च गुणादि. प्वपि एकस्यैव सद्भावात् कथं न पदार्थसंकरप्रसङ्गः द्रव्यत्वाद्याधेयत्वस्य अभिन्ननिमित्तत्वात् ? अथ द्रव्ये द्रव्यत्वस्य यः समवायः न स एव गुणादिषु गुणत्वादेस्तर्हि संयोगवत् समवायस्य प्रत्याधारं भेदः स्यात् । अथ स्वरूपेण अभिन्नस्यापि समवायस्य द्रव्यत्वादिविशेषणमेदाद् भेद इति न पदा१०र्थसंकरः; ननु द्रव्यत्वादेर्विशेषणस्य समवायाभेदे कुतो भेदः? यदि स्वत एव आधेयतानियमोऽपि तेषां स्वत एच भविष्यतीति समवायप्रकल्पना व्यर्था । अथ प्रतिनियताधारसंबन्धवशात् तेषां प्रतिनियतरूपता तर्हि 'समवायस्य विशेषणभेदाद भिन्नता विशेषणानां च समवायात् सा' इत्यन्योन्यसंश्रयः । यदपि 'द्रव्यत्वादिनिमित्तानाम्' इत्याद्यभिहितम् तदपि असंबद्धम् न हि अविकले निमित्ते सति कार्यस्य अनन्वयित्वं युक्तम् तस्य अतत्कार्यत्वप्रसक्तेः । एवं च बुद्धिव्यतिरेकासंभवात् तद्वशाद् १५ आधाराधेयभावनियमव्यवस्था न युक्तिसंगता। न च 'द्रव्य एव द्रव्यत्वमाश्रितम्' इति व्यपदेशात् तनियमः समवायवशादेव आश्रितत्वादिव्यवस्थोपवर्णनात्, तस्य च सर्वत्राऽविशिष्टत्वात् तथाव्यपदेशस्यापि भवदभ्युपगमेनायोगात् । न च व्यङ्ग्यव्यञ्जकशक्तिप्रतिनियमाद् आधाराधेयप्रतिनियमः, व्यङ्यादिप्रतिनियमस्यापि समवायनिमित्तत्वात् । तथाहि-द्रव्यादीनां द्रव्यत्वादिसामान्यव्यञ्जकत्वं तत्समवायवलादेव परैरभ्युपगम्यते यतः द्रव्य एव द्रव्यत्वं समवेतम् ततस्तेनैव तद् व्यज्यते न पुन२० झनोत्पादनयोग्यस्वभावोत्पादनात् नित्ये सत्तादौ तदयोगात् स च समवायः सर्वत्राऽविशिष्ट इति न तद्बलाद् व्यङ्ग्यव्यञ्जकशक्तिप्रतिनियम इति न ततोऽपि आधाराधेयप्रतिनियमः। योऽपि दधि-कुण्डसंयोगो दृष्टान्तत्वेन उपात्तः सोऽपि अस्मान् प्रत्यसिद्धः पूर्वमेव संयोगस्य १ "तद्यथा कुण्ड-दनोश्च संयोगैक्येऽपि दृश्यते । आधाराधेयनियमस्तथेह नियमो मतः ॥ व्यङ्ग्यव्यञ्जकसामर्थ्य भेदाद् द्रव्यादिजातिषु । समवायैकभावेऽपि नैव चेत् स विरुध्यते" ॥ -तत्त्वसं• का० ८४४-८४५ पृ. २६९ । २ "व्यङ्ग्यव्यञ्जकशक्तिमेदादाधाराधेयप्रतिनियम इति"-तत्त्वसं० पञ्जि० पृ. २६९ पं० २६ । ३ "आधाराधेयनियमो नन्वेकलेऽस्य दुर्घटः । द्रव्यत्वं द्रव्य एवेष्टं कथं तत्समवायतः॥ तस्यासौ समवायश्च गुणादिष्वपि विद्यते । गुणजात्यादिसंबन्धादेक एव ह्ययं तयोः" ॥ -तत्त्वसं. का.८४६-८४७ पृ. २७०। ४"अन्यथा गुणजात्यादिभिन्न एव भवेदयम् । योगिमेदात् प्रतिव्यक्ति यथा योगो विभिद्यते॥ -तत्त्वसं० का० ८४८ पृ० २७० । ५ पृ० ७.१ पं० २५ टि० ७ । ६ "द्रव्यलादिनिमित्तानां व्यतिरेको न युज्यते । धिया निमित्तसद्भावादतस्तनियमोऽपि न" ॥ -तत्त्वसं. का. ८४९ पृ. २७० । ७ “तदाश्रितत्वस्थानादि तस्मादेवाभिधीयते । रामवायादतश्चैतन्न युक्तं तन्नियामकम्" । -तत्त्वसं० का० ८५० पृ. २७० । ८ "व्यायव्यञ्जकसामर्थ्यभेदोऽपि समवायतः । नान्यतस्तु स नित्यानामुत्पादानुपपत्तितः॥ न हि दीपादिसद्भावाजायन्ते यादृशा इमे । विज्ञानजनने योग्या घटाद्या जातयस्तथा" ॥ -तत्त्वसं० का० ८५१-८५२ पृ. २७१। ९ "कुण्ड-दनोश्च संयोग एकः पूर्व निराकृतः । न चासौ नियतस्तस्माद् युज्यते (तिप्रसङ्गतः )" ॥ -तत्त्वसं० का०८५१ पृ. २७१। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ७०३ प्रतिषिद्धत्वात् , तत्सद्भावेऽपि चायं पर्यनुयोगस्तत्रापि तुल्यः । तथाहि-यदि 'इह कुण्डे दधि' इति बुद्धिः संयोगनिमित्ता तस्य च एकत्वम् तदा निमित्तत्वाविशेषात् यथा 'कुण्डे दधि' इति प्रत्ययः तथा 'दनि कुण्डम्' इत्यपि स्यात् दधि-कुण्डसंयोगस्याविशेषे तजन्यप्रत्ययस्यापि अविशेषप्रसक्तेः अन्यथा तस्य तन्निमित्तत्वायोगात् अतिप्रसङ्गात् । किञ्च, यदि 'इह तन्तुषु पटः' इति प्रत्ययः तन्तु. पटव्यतिरिक्तनिमित्तमन्तरेण न स्यात् 'इह समवायिषु समवायः' इत्यपि प्रत्ययः अपरसमवाय-५ निमित्तमन्तरेण न स्यात् । अथापरसमवायप्रकल्पनायामनवस्थाप्रसक्तेस्तमन्तरेणापि अस्य प्रत्ययस्योत्पत्तिस्तर्हि अनेनैव हेतुरनैकान्तिकः स्यात् इति न 'इह' प्रत्ययात् समवायसिद्धिः । यच्च 'कारणानुपलब्धेर्नित्यः समवायः' इत्यभिधानम् , तदप्यसंगतम्, यतो यद्यसौ नित्यः स्यात् तदा घटादीनामपि नित्यत्वं प्रसज्येत स्वाधारेषु तेषां सर्वदाऽवस्थानात् । तथाहि-एषां समवायवशात् स्वाधारेषु अवस्थानमिष्यते स च नित्य इति किमिति सदैते न संतिष्ठेरन् ? अथ स्वारम्भकावयवविनाशाद् १० विभागाद् वा घटादीनां विनाशः सत्यपि समवायेऽवस्थितिहेतौ सहकारिकारणान्तराभावाद विरोधि प्रत्ययोपनिपाताच्च ततो न घटादीनां नित्यत्वप्रसङ्ग इति, असदेतत् । यतः कपालादीनां घटाद्यारम्भकावयवानामपि स्वारम्भकावयवेषु समवायोऽभ्युपगम्यते तेषामपि स्वारम्भकावयवेषु यावत् परमाणुः तस्य च नित्यत्वाद नान्यथात्वसद्भाव इति सर्वेषां सर्वदा स्वारम्भकावयवेषु समवायसद्भावात् कुतो विभागो विनाशोवा-येन कारणविभागादिसद्भावात् घटादेविनाशोत्पत्तिर्भवेत्-विरोधि.१५ समवायसद्भावे विभागादेरनुत्पत्ते (?) यदि च स्वारम्भकावयवानां विनाशोऽभ्युपगम्येत तदा समवायस्यापि विनाशाभ्युपगमोऽवश्यंभावी संबन्धिनिवृत्तौ संबन्धनिवृत्तेरवश्यंभावित्वात् कुण्ड-बदरसंयोगिविनाशे तत्संयोगवत् , संबन्धिनां वा अविनाशप्रसङ्गः अविनष्टसंबन्धत्वात् अनुपरतसंयोगद्रव्यद्वयवत् अन्यथा उभयेषामपि तत्संबद्धस्वभावहानिप्रसक्तिः स्यात् । अर्थं यदि निवृत्ताशेषसंबन्धित्वात् समवायविनाश इति प्रथमप्रयोगार्थस्तदा हेतोः पौकदेशासिद्धताप्रसक्तिः न हि अशेषाणां २० संवन्धिनां प्रलयेऽपि विनाशः परमाण्वादीनां तत्रापि अवस्थानात् । अथ 'विनष्टकतिपयसंबन्धित्वात् इति हेतुर्विवक्षितस्तदा अनैकान्तिकः यतः यदि नाम कश्चित् संबन्धी विनष्टस्तथापि अपरसंबन्धिनिबन्धना संबन्धस्य अवस्थितिर्यक्तैव । न च संयोगस्यापि कतिपयसंयोगिविनाशेऽपि अपरसंयोग्यः वस्थानात् अनेनैव न्यायेन अवस्थानप्रसक्तिः, संयोगस्य प्रतिसंयोगि भिन्नत्वात् तद्विनाशे विनाशोपपत्तेः समवायस्य तु सर्वत्र एकत्वात् नैकसंबन्धिविनाशे विनाशः 'इह' प्रत्ययस्य अन्यत्रापि अविशे-२५ पात् तन्निबन्धनस्य समवायस्यापि अभेद इति नान्यसंवन्धिसद्भावेतद्विनाशप्रसक्तिः, असदेतत् ; यतः १ पृ० ६७९ पं० ९ तथा पृ० ११३ ६ ४२-1 २ पृ. ७०० ५० १४ । ३ “नित्यत्वेनास्य सर्वेऽपि नित्याः प्राप्ताः (घटादयः)। आधारेषु सदा तेषां समवायेन संस्थितेः" ॥ -तत्त्वसं० का० ८५४ पृ. २७१। ४ "स्वारम्भकविभागाद्वा यदि वा तद्विनाशतः । ते नश्यन्ति क्रियाद्या (दीव) योगादेरिति चेन्न तत् ॥ खाधारैस्समवायो हि तेषामपि सदा मतः । तेषां विनाशभावे तु नियताऽस्यापि नाशिता" ॥ -तत्त्वसं० का०८५५-८५६ पृ. २७१ । ५ “संबन्धिनो निवृत्तौ हि संबन्धोऽस्तीति दुर्घटम् । न हि संयुक्तनाशेऽपि संयोगो नोपतिष्ठते ॥ यथा संयोगभावे तु संयुक्तानामवस्थितिः । समवायस्य सद्भावे तथा स्यात् समवायिनाम्" ॥ -तत्त्वसं० का० ८५६-८५८ पृ. २७२ । ६ तत्संबन्धख-आ० । “अन्यथा तत्संबन्धखभावहानिरुभयेषामपि प्रसज्येत"-तत्त्वसं० पञ्जि. पृ०२७२ पं०१८॥ ७ "एकसंबन्धिनाशेऽपि समवायोऽवतिष्ठते । अन्यसंबन्धिसद्भावाद् योगो नो चेन्न भेदतः" ॥ -तत्त्वसं० का० ८५९ पृ. २७२ । ८ "यद्येवं ये विनश्यन्ति घटाद्याः समवायिनः । तेषां वृत्त्यात्मको योऽसौ समवायः प्रकल्पितः॥ स एव व्यवतिष्ठेत किं संबन्ध्यन्तरस्थितेः । अथान्य एव संयोगविभागबहुतादिवत् ॥ नाद्यस्तल्लक्षणस्यैव समवायस्य संस्थितौ । पूर्ववत् ते स्थिता एव प्राप्नुवन्ति घटादयः॥ न तेषामनवस्थाने तेषां (वृत्त्यात्मकः क्वचित् )। सम( वायो )वतिष्ठत संज्ञामात्रेण वा तथा । अतः प्रागपि सद्भावान ते वृत्ताः स्युराश्रये । पश्चादिव तथा ह्येषा वृत्तिस्तेषामवस्तुतः" ॥ -तस्वस० का०८६०-८६४ पृ.१७ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ तृतीये काण्डे - किं य एव घटादयो विनाशमनुभवन्ति स्वकारणादिसमवायिनः तद्वृत्यात्मक एवं समवायः अविनष्टे पटादिसंवन्ध्यन्तरेऽवतिष्ठते, आहोखित् अन्य एव असौ इति कल्पनाद्वयम् । यदि आद्यः पक्षस्तदा प्रागवस्थावद् अप्रच्युतवृत्तित्वाद् घटादयोऽवस्थिता एव स्युः तदनवस्थाने वा अनवस्थितवृत्तित्वात् समवायस्यापि विनाशः तस्य वृत्त्यात्मकत्वात् अन्यथा तस्य तद्रूपतानुपपत्तेः । स्वतन्त्रस्य च ५ तदनुपकारिणस्तद्वृत्तिः 'समवायः' इति नामकरणे संज्ञामात्रमेव भवेत् न वस्तुतथाभावः तथा च अविनष्टसंवन्ध्यवस्थायामपि घटाद्यो न स्वाश्रयवृत्ताः समवायसद्भावबलात् सिध्येयुः विनष्टसमवायिकारणावस्थायामिव परमार्थतो वृत्त्यभावात् एकरूपवृत्तिसद्भावेऽपि तेषां विनाशाभ्युपगमात् न तन्निमित्ता स्वकारणेषु तेषां स्थितिर्भवेत् तत्सद्भावेऽपि कथं तद्भावनिमित्तस्तद्भाव इति स्वयमेव चिन्त्यम् । अथं द्वितीयः पक्षस्तदा संयोगादिवत् समवायबहुत्वप्राप्तेः 'समवायोऽभेदवान्' इत्यभ्युप१० गमव्याहतिः नित्यत्वे च समवायस्य अभ्युपगम्यमाने स्वकारणसमवायस्य स्वसत्तासमवायस्य च जन्मशब्दवाच्यस्य सर्वदा सद्भावात् कार्यजन्मनि क्वचिदपि कारणानां साफल्यं न स्यात् तथा च अध्यक्षादिविरोधः तन्त्वादेः पटादिकार्यजनकत्वेन अध्यक्षादिना प्रतीतेः “अन्यतरकर्मजः उभयकैर्मजः संयोगजश्च संयोगः” [ वैशेषिकद० ७-२-९] “विभागोऽपि अन्यतरोभयकर्म - विभागजः” [ ] “इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न ज्ञानम्" [ न्यायद० १-१-४] इत्यादिजन्मप्रतिपादकसूत्रसमूहविरोधश्च । १५ समवायलक्षणस्य च जन्मनो नित्यतया क्रमासंभवाद् भावानां क्रमोत्पत्तिरुपलभ्यमाना विरुद्धा च स्यात् । समवाय लक्षणजन्मनित्यतया च 'जगद् अनुपकार्योपकारकभूतम्' इति शास्त्रप्रणयनमनर्थकं भवेत् । बुद्धिजन्मनोऽपि समवायस्वभावतया क्रमाभावात् “युगपद् ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्” [ न्यायद० १-१-१६] इत्यादि सर्वमपि विरुद्धं स्यात् इति नित्यसमवाय प्रकल्पनमसमञ्जसमिति स्थितम् । तदेवमुलूक प्रतिपादितशास्त्रस्य मिथ्यात्वम् तदभिहितपदार्थानामप्रमाणत्वात् प्रमाण२० बाधितत्वाच्च । आचार्यस्तु एतत् सर्व हृदि कृत्वा तन्मिथ्यात्वाऽविनाभूतं प्रतिपादितसकलन्यायव्यापकम् ‘जं सविसय-' इत्यादिना गौथापश्चार्धेन हेतुमाह यस्मात् स्वविषयप्रधानताव्यवस्थिताऽन्योन्यनिरपेक्षोभयन्याश्रितं तत् अन्योन्यनिरपेक्षनयाश्रितत्वस्य मिथ्यात्वादिनाविनाभूतत्वात् ॥ ४९ ॥ [ अन्योन्यनिरपेक्षनयाश्रितानां वादानां मिथ्यात्वराहित्याभावप्रतिपादनम् ] अन्योन्यनिरपेक्षनयाश्रितस्य मिथ्यात्वाऽविनाभूतत्वमेव दर्शयन्नाह - जे संतवायदो से सक्कोलूया भणति संखाणं । संखा य असव्वाए तेसिं सव्वे वि ते सच्चा ॥ ५० ॥ यान् एकान्तसद्वादपक्षे द्रव्यास्तिकाभ्युपगतपदार्थाभ्युपगमे शाक्यौलूक्या दोषान् वदन्ति साङ्ख्यानां क्रिया - गुणव्यपदेशोपलब्ध्यादिप्रसङ्गादिलक्षणान् ते सर्वेऽपि तेषां सत्या ३० इत्येवं संबन्धः कार्यः । ते च दोषाः एवं सत्याः स्युः यद्यन्यनिरपेक्षनयाभ्युपगतपदार्थप्रतिपादकं तत् २५ १ - त् न तत्स - वा० बा० । २ “अथान्य एव संयोगविभाग बहुतादिवत् । संबन्ध्यन्तरसद्भावे समवायोऽवतिष्ठते ॥ संयोगादिवदेवं हि नन्वस्य बहुता भवेत् । एवमाद्यस्य सद्भावे बहु स्यादसमञ्जसम्” ॥ - तत्त्वसं ० का ० ८६५-८६६ पृ० २७३ - २७४ । ३- कर्मसं - बृ० भ० मां० । “अप्राप्तयोः प्राप्तिः संयोगः स च त्रिविधः - अन्यतरकर्मजः उभयकर्मजः संयोगजश्च " - प्रशस्त० कं० पृ० १३९ पं० १८ ।तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० २७४ पं० ९ । ४ “एतेन विभागो व्याख्यातः” — वैशेषिकद० ७-२-१०। “प्राप्तिपूर्विकाऽप्राप्तिर्विभागः स च त्रिविधः - अन्यतरकर्मजः उभयकर्मजः विभागजश्च " - प्रशस्त० कं० पृ० १५१ पं० ५ । ५ पृ० ६५६ गा० ४९ । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। शास्त्रं मिथ्या स्यात् नान्यथा प्रागपि कार्यावस्थात एकान्तेन तत्सत्त्वनिबन्धनत्वात् तेषाम् अन्यथा कथंचित् सत्त्वे अनेकान्तवादापत्तेर्दोषाभाव एव स्यात् । साङ्या अपि असत्कार्यवाददोषान् असदकरणादीन् यान् वदन्ति ते सर्वे तेषां सत्या एव एकान्ताऽसति कारणव्यापारासंभवात् अन्यथा शशशृङ्गादेरपि कारणव्यापारादुत्पत्तिः स्यात् ।। [न्याय-वैशेषिकसम्मतस्यासत्कार्यरूपस्यासद्वादस्य सदोषत्वप्रदर्शनम्] ५ अथ शशशृङ्गस्य न कारणावस्थायामसत्त्वादनुत्पत्तिः किन्तु कारणाभावात् घटादेस्तु मृत्पि. ण्डावस्थायामसतोऽपि कारणसद्भावादुत्पत्तिः । ननु कुतः शशशृङ्गस्य कारणाभावः ? अत्यन्ताभाव. रूपत्वात् तस्येति चेत् तदेव कुतः? कारणाभावात् इति चेत् सोऽयमितरेतराश्रयदोषः । घटादी. नामपि च मृत्पिण्डावस्थायामसत्त्वे कुतः कारणसद्भावः ? प्रागसत्त्वादेव तत्र कारणसद्भावः सति कारणव्यापारासंभवादिति चेत्, असदेतत् घटस्य मृत्पिण्डावस्थायां सत्त्वे प्रागनवस्थायोगाद-१० सत्त्वेऽपि शशशृङ्गस्येव तदनुपपत्तेः । अथास्य उत्पत्तिदर्शनात् प्रागभावः न शशशृङ्गस्य, न; इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । तथाहि-यावदस्य प्रागभावित्वं न तावदुत्पत्तिसिद्धिः यावच्च नोत्पत्तिसिद्धिर्न तावत् प्रागभावित्वसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । अथ कारणस्य कार्यशून्यता प्रागभावः प्रागेव सिद्धः, असदेतत्; अकारणस्यापि कार्यशून्यतोपलम्भात् तत्संबन्धाद् घटस्य तत्कार्यताप्रसक्तेः। तथाहि-यस्य प्रागभावित्वं तस्य कार्यता तच्च कार्यशून्यं पदार्थान्तरं कारकाभिमताद् अन्यदपि च १५ तत्प्रागभावखभावं प्राप्तम् तत्संवन्धेन च घटादेः शशशङ्गादिव्यवच्छेदेन कार्यता अभ्युपगतेति सुत्रपिण्डकार्यताऽपि घटस्यैवं भवेत् । न च तदन्वय-व्यतिरेकाभावान्न तत्कार्यता, अन्वय-व्यतिरेकाभावस्य तत्राऽसत्त्वनिबन्धनत्वात् । न च प्रागभावो नाम प्रत्यक्षादिप्रमाणग्राह्यः, मृत्पिण्डस्वरूप मात्रस्यैव तत्र प्रतिभासनात् । न च कारणस्वरूपमेव प्रागभावः, निर्विशेषणस्य स्वरूपमात्रस्य कार्येऽपि सद्भावात् तस्यापि प्रागभावरूपताप्रसक्तेः । अथ कार्यान्तरापेक्षया तस्यापि प्रागभावरूपता कारण-२० खभावाऽभ्युपगम्यत एव, न; कारणाभिमतापेक्षयाऽपि तद्रूपताप्रसक्तेः । तथाप्रतीत्यभावान्न तद्रूपतेति चेत्, न; प्रतीतिमात्रादनपेक्षितवस्तुस्वरूपाद् वस्तुव्यवस्थाऽयोगात् । ततो मृत्पिण्डादिरूपतया वस्तु गृह्यतेऽध्यक्षादिना न पुनस्तद्व्यतिरिक्तकारणादिरूपतया तस्यास्तत्राऽप्रतिभासनात्, प्रतिभासनेऽपि विशिष्टकार्यापेक्षया कारणत्वस्य प्रतिपत्ती कार्यप्रतिभासमन्तरेण तत्कारणत्वस्याऽप्रतीतेरसतस्तदानीं कार्यस्याप्रतिभासनात् प्रत्यक्षस्य असदर्थग्राहकत्वेन भ्रान्तताप्रसक्तेः तदा २५ तत्कार्यस्य सत्त्वप्रसक्तिः स्यादिति कथमसति कारणव्यापारः प्रतीयेत? तन्न असतः कार्यत्वं युक्तम् ॥ [बौद्धसम्मतस्यासत्कारणरूपस्यासद्वादस्य सदोषत्वदर्शनम् ] नापि असत्कारणं कार्यम् तदानीमसति कारणे तस्य तत्कृतत्वायोगात् क्षणमात्रावस्थायिनः कारणस्य खभावमात्रव्यवस्थितेरन्यत्र व्यापारायोगात् । अथ तदनन्तरं कार्यस्य भावात् प्रोग्भावित्वमात्रमेव कारणस्य व्यापारः, असदेतत् समस्तभावक्षणानन्तरं विवक्षितकार्यस्य सद्भावात् सर्वेषां ३० तत्पूर्वकालभावित्वस्य भावात् तत्कारणताप्रसक्तेः । अथ सर्वभावक्षणाभावेऽपि तद्भाव इति न तस्य तत्कार्यता, न; क्षणिकेषु भावेषु विवक्षितक्षणाभाव एव सर्वत्र विवादाध्यासितकार्यसद्भावान तदपेक्षयाऽपि तस्य कार्यता भवेत् । न च क्षणिकस्य कार्यस्य तदभावेऽपि पुनर्भवनसंभवः तस्य तदैव भावाद् अन्यदा कदाचिदप्यभावात् । न च विशिष्टभावक्षणधर्मानुविधानात् तस्य तत्कार्यताव्यवस्था, सर्वथा तद्धर्मानुविधाने तस्य कारणरूपतापत्तेस्तत्प्राक्कालभावितया तत्कार्यताव्यतिक्रमात्, कथं-३५ चित् तद्धर्मानुविधाने अनेकान्तवादापत्तः 'असत्कारणं कार्यम्' इत्यभ्युपगमव्याघातात् । अथ १पृ. २८२ पं० १८। २ उत्पत्तिस्थितिज्ञप्तीनां मध्याद् ज्ञप्तिसापेक्षस्यैव इतरेतराश्रयस्यात्र सुघटत्वेन 'यावदस्य न प्रागभावित्वम्' इत्येव पाठो ज्यायान् भाति । ३-पि तत्प्रा-आ० । ४ "यद्यसत् सर्वथा कार्य तन्मा जनि खपुष्पवत् । मोपादाननियामो भून्माऽऽश्वासः कार्यजन्मनि" ॥-आप्तमी० का. ४२ पृ. २४ । कारिकेषाऽत्र साष्टशतिका सवृत्तिका चावबोद्धव्या । ५प्रागभा-वा. बा. विना। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डेसंतानापेक्षः कार्यकारणभाव इत्ययमदोषः, न; संतानस्य पूर्वापरक्षणव्यतिरेकेणाभावात् भावे वा तस्यैव कार्यकारणरूपस्य अर्थक्रियासामर्थ्यात् सत्त्वं स्यात् न क्षणानामर्थक्रियासामर्थ्य विकलतया भवेत् । अथ तत्संबन्धिनः संतानस्य कार्यकारणत्वे तेषामपि कार्यकारणभावः, न; भिन्नयोः कार्यकारणभावादपरस्य संबन्धस्य अभावात् संतानस्य च सर्वजगत्क्षणानन्तरभावित्वेन सर्वसंतान५ताप्रसक्तिः स्यात् । किञ्च, तस्यापि नित्यत्वे क्षणकार्यत्वे च सत्कार्यवादप्रसक्तिः, क्षणिकत्वे च अन्वयाऽप्रसिद्धस्तस्य तत्कार्यताऽप्रसिद्धिः, व्यतिरेकश्च कार्यतानिवन्धनं क्षणिकपक्षे न संभवतीति प्रतिपादितमेव । न च अत्रापि अपरसंतानप्रकल्पनया कार्यकारणभावप्रकल्पनं युक्तम् अनवस्थाप्रसक्तेः । तथाहि-संतानस्यापि कार्यताऽभ्युपगमे क्षणिकत्वान्न कार्यरूपता अतः संतानान्तरमत्रापि कार्यतानिबन्धनमभ्युपगन्तव्यम् तत्रापि च क्षणिकत्वे कार्यताऽप्रसिद्धेस्तन्निबन्धनमपरं संतानान्तर१० मभ्युपगमनीयमित्यनवस्था परिस्फुटैव । किञ्च, क्षणिकभावाभ्युपगमवादिनो यदि भिन्नकार्योदया. खेतोः सत्त्वमभिमतं तदा तत्कार्यस्यापि अपरकार्योदयात् सत्त्वसिद्धिरित्यनवस्थाप्रसक्तेर्न क्वचित् सत्त्वव्यवस्था स्यात् इति कुतस्तद्व्यवच्छेदेन 'असत् कार्यम्' इति व्यपदेशः । अथ ज्ञानलक्षणकार्यसद्भावाद्धेतोः सत्त्वव्यवस्थितिः, ननु ज्ञानस्यापि कथं शेयसत्ताव्यवस्थापकत्वम् ? ज्ञेयकार्यत्वात् इति चेत्, ननु किं तेनैव ज्ञानेन शेयकार्यता स्वात्मनः प्रतीयते, उत ज्ञानान्तरेण ? न तावत् तेनैव, तस्य १५प्रागसत्त्वाभ्युपगमादप्रवृत्तेः प्रवृत्तौ वा तत्कार्यतावगतिः पुनः प्राक् प्रवर्तने संगच्छते तत्रापि पुनः प्राक् प्रवृत्ताविति अनवस्थाप्रसक्तेः कुतस्तस्य तत्कार्यतावगतिः ? अथ समानकालत्वेऽपि ज्ञानस्य शेयकार्यता, ननु एवमविशेषाद् शेयस्यापि ज्ञानकार्यतावगतिः स्यादिति तदपि तद्व्यवस्थापकं प्रसज्येत । न च समानकालयोः स्तम्भ-कुम्भयोः कार्यकारणतोपलब्धेति प्रकृतेऽपि सा न स्यात् । अथ केवलस्यापि कुम्भस्य दृष्टरकार्यता, ज्ञानस्यापि केवलस्य दृष्टरकार्यताप्रसक्तिः । तस्य ततोऽन्यः २० स्वान्न व्यभिचार इति चेत्, ननु कुम्भोऽपि कुतोऽन्यः स न भवेत् ? प्रत्यभिज्ञानान्नान्य इति चेत्, एतद् शानेऽपि समानम्, नित्यता च कुम्भस्यैवं भवेदिति कुतोऽसत्कार्यवादः ? न च प्रत्यभिज्ञानं भवतः प्रमाणम पूर्वापररूपाधिकरणस्यैकतयाऽप्रतीतेः न हि पूर्वापरप्रत्ययाभ्यामपरपूर्वरूपताग्रहः। नापि एकप्रत्ययेन पूर्वापररूपद्वयस्य क्रमेण ग्रहः एकस्य अक्रमस्य क्रमवद्रूपग्राहकतयाऽप्रवृत्तेः । न च स्मरणस्य द्वयोवृत्तिः संभवति । न चास्य प्रमाणता । न च पूर्वापरप्रत्यययोः परस्परपरिहारेण वृत्तौ २५ तत उत्पद्यमानं स्मरणमेकत्वस्य वेदकं युक्तम् अगृहीतग्राहितया अस्मरणरूपताप्रसक्तेः। न च आत्मापि एकत्वमवैति प्रत्यक्षादिप्रमाणवशेन अर्थावेदकत्वात् तस्य चैकत्वे अप्रवृत्तेः । न च प्रमाणनिरपेक्ष एव आत्मा एकत्वग्राहकः स्वाप-मद-मूच्छोद्यवस्थायामपि तस्य तदाहकत्वोपपत्तेः । न च तस्यापि एकत्वं कुतश्चित् प्रमाणात् प्रसिद्धम् तदाहकत्वेन तस्याऽप्रतीतेः । न च बौद्धस्य आत्मा अन्यद् वा घस्तु नित्यमस्ति "क्षणिकाः सर्वसंस्काराः" [ ] इति वचनात् । तन्न तेनैव आत्मनः ३० प्रमेयकार्यताऽवगतिः । नापि अन्येन तस्यापि स्वप्रमेयकार्यावगतौ प्रागवृत्तितयाऽसामर्थ्यात् । तन्न शानलक्षणमपि कार्य हेतोः सत्तां व्यवस्थापयितुं समर्थ क्षणिकैकान्तवादे । अध्यक्षस्य यथोक्तंन्यायेन पौर्वापर्येऽप्रवृत्तेः, अत एव नानुमानस्यापि पौर्वापर्ये प्रवृत्तिः तस्य तत्पूर्वकत्वात् प्रत्यक्षाऽप्रतिपन्नेऽर्थे परलोकादाविवार्थविकल्पनमात्रत्वेन सर्वज्ञानस्य अभ्युपगमात् । तन्न असत्कार्यवादः प्रमाणसंगतः। [सांख्यसम्मतस्य सत्कार्यरूपस्य सद्वादस्य सदोषत्वख्यापनम् ] ३५ सत्कार्यवादस्तु प्रागेव निरस्तत्वाद् अयुक्त एव । तथाहि--नित्यस्य कार्यकारित्वं तत्र स्यात्, तञ्च अयुक्तम् ; नित्यस्य व्यतिरेकाप्रसिद्धितः कार्यकरणे सामर्थ्याप्रसिद्धः, न हि नित्यस्य सर्वदेशका. १-वर्तते सं-बृ० हा०। २-कत्ववेद-बृ० ।-कत्वेवेद-आ०। ३ पृ० ४२४ पं० १ । ४ "यदि सत् सर्वथा कार्य पुंवन्नोत्पत्तुमर्हति।परिणामप्रक्लप्तिश्च नित्यत्वैकान्तबाधिनी"॥-आप्तमी० का.३९ पृ. २३॥ एषाप्यत्र सविषरणाऽवगन्तव्या । सत्कार्यवादनिरसनं प्रमेयकमलमार्तण्डतोऽप्यवधारणीयम्-पृ० ८२ प्र०पं०११। ५पृ. २९७ पं. ३१ तथा पृ. ४२३ पं०५। "इदं लिह निरूप्यते किं सत् क्रियते असदेव वा" इत्यादिना सत्कार्यवादः प्रतिक्षिप्तः श्रीधरेण न्यायकन्दल्याम्पृ. १४३ ५.५-1 "सत्कार्यवादश्च विचार्यमाणो न समस्त्येवेति कुतस्त्या हेतु सिद्धिः" इत्यादिना सत्कार्यवादो निरस्तो जयन्तमहेन म्यायमञ्जर्याम्-पृ० ४९२ पं० २२ । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेयमीमांसा । लव्यापिनः क्वचित् कार्यव्यापारविरहिणः सामर्थ्यमवगन्तुं शक्यम् । अथ सर्वदेशाव्यापिनस्तस्य तत्र सामर्थ्य भविष्यति, तद् असत् ; यतः सर्वदेशाव्याप्तिस्तस्य तथाप्रतीतेर्यद्यवसीयते सर्वकालाव्याप्तिरपि तस्य तत एव अभ्युपगमनीया स्यात् । अभ्युपगम्यत एवेति चेत्, नन्वेवं कतिपयदेशकालव्यातिरप्यप्रतिपत्तेरेव अनुपपन्नेति निरंशैकक्षणरूपता भावानां समायाता । न च तदेकान्तपक्षेऽपि कार्यजनकता, प्राक प्रतिक्षिप्तत्वात् । न चैकान्तनित्यव्यापकत्वपक्षे प्रमाणप्रवृत्तिः इत्यसकृत प्रतिपा-५ दितम् । न चासति कार्य निर्विषयत्वात् कारणव्यापारासंभवात् सत्येव तत्र तेषां व्यापारः, यतो न दृष्टा श्रुत्वा ज्ञात्वा वा हेतूनां कार्य व्यापारः तेषां जडत्वेन तदसंभवात् । न चादृश्यमानाऽजडेश्वरादिहेतुकमकृष्टोत्पत्तिकं भूरुहादि संभवतीति प्रांक प्रतिपादितम् । न चाऽसतः कार्यस्य विज्ञानं न ग्राहकम असत्यप्यक्षादिबुद्धेः प्रवृत्तेः अन्यथा कथं कार्यार्थप्रतिपादिका चोदना भवेत? किच. यदि सत्येव कार्ये कारणव्यापारस्तदा उत्पन्नेऽपि घटादिकार्ये कारणव्यापारादनवरतं तदुत्पत्तिप्रसक्तिः१० तत्सत्त्वाविशेषात् । अथाभिव्यक्तत्वान्नोत्पन्ने पुनरुत्पत्तिः उत्पत्तेरभिव्यक्तिस्वरूपत्वात् तस्याश्च प्रथमकारणव्यापारादेव निर्वृत्तत्वात् ननु अभिव्यक्तिरपि यदि विद्यमानैव उत्पद्यते उत्पन्नाऽपि पुनः पुनरुत्पद्येत । अथ अविद्यमाना तदाऽसदुत्पत्तिप्रसक्तिः । न चाभिव्यक्तावप्यसत्यां कार्य इव कारणव्यापारोऽभ्युपगन्तुं युक्तः स्वसिद्धान्तप्रकोपप्रसङ्गात्। [सत्कारणककार्यरूपस्य सद्वादस्य सदोषत्वप्रकटनम् ] अथ सतः कारणाद् कार्यमिति सत्कार्यवादः असतो हेतुत्वायोगात् तथाभ्युपगमे वा शशश. गादेरपि पदार्थोत्पत्तिप्रसक्तिः । अत्यन्ताभाव-प्रागभावयोः असत्त्वेनाविशेषात् न च प्रारभावी आसीदिति हेतु त्यन्ताभावीति वक्तव्यम् यतो यदा आसीत् तदा न हेतुः अन्यदा हेतुरिति प्रसक्तेः। ततश्च इदं प्रसक्तम्-असन् हेतुः संश्च अहेतुरिति । ततः सन्नेव हेतुः तस्य कार्ये व्यापारात् नासन् तत्र तदयोगात्, एतदप्यसत्; यतः सतोऽपि कारणस्य प्राक्तनरूपापरित्यागान्न कार्य प्रति हेतुता २० प्राक्तनावस्थावत् । अथ तदा व्यापारयोगाद् हेतुता, असदेतत् ; व्यापारेण कार्य प्रति तस्य हेतुत्वे 'सोऽपि व्यापारः कुतस्तस्य ?' इति पर्यनुयोगसंभवाद् व्यापारवत्पदार्थाच्चेत्, ननु तत्रापि व्यापारो यद्यपरव्यापारात् तदा व्यापारपरंपराव्यवहितत्वात् कारणस्य न कदाचित् कार्योत्पादने प्रवृत्तिः स्यात् अनन्तव्यापारपरंपरापर्यवसानं यावत् कस्यचिदनवस्थानादसतः कारणात् कार्योत्पत्तिश्च स्यात्। अथ कारणस्वरूपमेव व्यापारः तत्काल एव च कार्यम् तेन नानवस्था, नापि असतः कारणात् कार्यो-२५ त्पत्तिः, नन्वेवं कारणसमानकालं कार्य स्यात् तथा च सव्येतरगोविषाणवत् कुतः कार्यकारणभावः? अथ कार्यभावकाले कारणस्य न सद्भावस्तर्हि चिरतरनटादिव तत्कालध्वंसिनोऽपि कुतः कार्यसद्भावः ? कार्योत्पत्तिकाले तदनन्तरभाविनः सत्ता चेत्, तर्हि कार्योत्पत्तिः कार्यान्न भिन्नेति कार्यकारणयोः समानकालतैव स्यात् तथा च कुतः कार्यकारणभावः ? न च 'सतः कारणात् कार्योत्पत्तिः' इत्यभ्युपगमवादिनः कार्योत्पत्तिकाले कारणेस्यासत्त्वं बौद्धस्येव सिद्धम् । अविचलितरूपस्य च तस्य ३० सद्भावे तदापि न कार्यवत्ता विकलकारणत्वात् प्राग्वत्, तदा तद्वत्त्वे वा पूर्वमपि तद्वत्त्वं स्यात् अविकलकारणत्वात् तद्वस्थावत् । तन्नैकान्तसत्कार्यवादः असत्कार्यवादो वा युक्तः अनेकदोषदुष्टत्वात् । [कथंचित् सदसद्वादस्य निर्दोषखसमर्थनम् ] अथ एकान्तेन सदसतोरजन्यत्वात् अजनकत्वाच्च कार्यकारणभावाभावात् सर्वशून्यतैव । तदुतम् 'अशक्तं सर्वमिति चेत्' इत्यादि, न; कथंचित् सदसतोर्जन्यत्वात् जनकत्वाच्च । न चैकस्य सद-३५ सदूपत्वं विरुद्धम्, कथंचिद् भिन्ननिमित्तापेक्षस्य सदसत्त्वस्य एकदा एकत्र अबाधिताध्यक्षतः प्रतिपत्तेः । न च अध्यक्षप्रतिपन्ने वस्तुनि विरोधः अन्यथा एकचित्रपटाने चित्ररूपतायाः चित्रपटे च चित्रैकरूपस्य विरोधः स्यात् । तथा च 'शुक्लाद्यनेकप्रकारं पृथिव्या रूपम्' इति वैशेषिकस्य विरुद्धाभिधानं भवेत्। १पृ. १०२। २-गादथा-बृ. आ. हा०वि०। ३ प्रागभा-वा. बा. भां० मा०। ४-नन्तरव्या-वा. बा. भां० मा० । 'नन्तरव्या-'इत्यत्र '२' इत्यस्य द्विखसंख्यासूचकाङ्कस्य रेफतया भ्रान्तेः पुस्तकलेखकैः-'नन्तरव्या'इति लिपिकरणेन-'नन्तरव्या'-इति पाठान्तरं जातमिति प्रतिभाति । ततश्च 'अनन्तानन्तव्यापार'-इत्येव पाठः सम्यक् स्यात् । ५-णस्य स-वा० बा। १स०प्र० Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे [प्रसङ्गात् चित्ररूपचर्चा ] अथ तदवयवानां शुक्लाद्यनेकरूपयोगिता अवयविनस्तु एकमेव रूपम्, न; तदवयवानामपि अवयवित्वेनानेकप्रकारैकरूपयोगित्वविरोधात । अथ प्रत्येकमवयवेषु शुक्लादिकमेकैकं रूपम् तर्हि तदव यवादिष्वपि एकैकमेव रूपं यावत् परमाणव इति विभिन्नघट-पटादिपदार्थेष्विव चित्रपटेऽपि नील५पीत-शुक्लरूपा एते भावाः' इति प्रतिपत्तिः स्यात् न पुनः 'चित्ररूपः पटः' इति, अवयवाऽवयविनोरन्यत्वात् अवयवानामनेकरूपा(प)संबन्धित्वेऽपि अवयविनस्तथाभावाभावात् । अथावयविनोऽपि विभिन्नानेकरूपसंबन्धित्वमभ्युपगम्यते तथापि चित्रैकरूपप्रतिभासानुपपत्तिः अनेकरूपसंबन्धित्वस्यैव तत्र सद्भावात् सूत्रव्याघातश्चैवं स्यात् "अविभुनि द्रव्ये समानेन्द्रियग्राह्याणां विशेषगुणानामसंभवात्”[ ] इति सूत्रेणाभिधानात् अव्यापके पटादिद्रव्ये एकेन्द्रियग्राह्याणां शुक्लादीनां विशेषगुणा१० नामसंभवोऽनेन सूत्रेण प्रतिपादितः स च व्याहन्येत । किञ्च, शुक्लादीनामेकत्र पटादावनेकखरूपाणां सद्भावाभ्युपगमे व्याप्यवृत्तित्वम्, अव्याप्यवृत्तित्वं वा? अव्याप्यवृत्तित्वे "शेषाणामाश्रयव्यापित्वम् [प्रशस्त० कं० पृ० १०३ पं०८] इति विरुध्येत । आश्रयव्यापित्वेऽप्येकावयवसहितेऽपि अवयविनि उपलभ्यमाने अपरावयवाऽनुपलब्धावपि अनेकरूपप्रतिपत्तिः स्यात् सर्वरूपाणामाश्रयव्यापित्वात् । अथ शुक्लाद्यनेकाकारं चित्रमेकं तद्रूपं यथा शुक्लादिको रूपविशेषः कथं तर्हि अनेकाकारमेक रूपम१५ विरुद्धं भवेत् चित्रैकरूपाभ्युपगमस्य चित्रतरत्वात् । अथ चित्रैकरूपस्य तस्य प्रत्यक्षेण प्रतीतेन विरो धस्तर्हि सदसद्रूपैकरूपतया कार्यकारणरूपस्य वस्तुनःप्रतिपत्तौ विरोधः कथं भवेत् ? न च चित्रपटादावपास्तशुक्लादिविशेष रूपमात्रं तदुपलम्भान्यथानुपपत्त्याऽस्तीति अभ्युपगन्तव्यम् 'चित्ररूपः पटः' इति प्रतिभासाभावप्रसक्तेः। अथ परस्परविरुद्धानां शुक्लादिरूपाणां चित्रैकरूपानारम्भकत्वात् शुक्ला दीनां रूपाणां समानरूपारम्भकत्वोपलम्भान्न तत्र चित्रैकरूपोत्पत्तिः । नन्वयमपरो वैशेषिकस्येव २० दोषोऽस्तु असमानजातीयगुणानारम्भवादिनः । किञ्च, यदि समानजातीयगुणारम्भकत्वमेव कारण गुणानामित्यभ्युपगमः 'शुक्लात् शुक्लम्' इत्यादिप्रतीतेः कथं तर्हि कारणगतशुक्लादिरूपविशेषेभ्यः कार्य रूपमात्रस्य अपास्ततद्विशेषस्य उत्पत्तिर्भवेत् तेभ्यस्तस्यासमानत्वात् । अथ तद्गतरूपमात्रेभ्यस्तद्रूपमात्रस्य उत्पत्तेर्न दोषः, असदेतत् शुक्लादिरूपविशेषव्यतिरेकेण रूपत्वादिसामान्यमपहाय रूपमात्रस्याभावात् सामान्यस्य च नित्यत्वेन अजन्यत्वात् । न च रूपमात्रनिबन्धनः 'चित्ररूपः २५ पटः' इति प्रतिभासो युक्तः, शुक्लादिप्रत्ययस्यापि तन्निबन्धनत्वेन शुक्लादिरूपविशेषस्याऽप्यभावप्रसक्तेः । न चावयवगतचित्ररूपात् पटे चित्रप्रतिभासः अवयवेष्वपि तद्रूपासंभवात् । न च अन्यरूपस्यान्यत्र विशिष्टप्रतिपत्तिजनकत्वम् पृथिवीगतचित्ररूपाद् वायौ चित्ररूपप्रतिपत्तिप्रसक्तेः भेदश्चावयवावयविनोर्भवद्भिप्रायेणे यदि च रूपमात्रमेव तत्र स्यात् 'क्षितौ रूपमनेकप्रकारम्' इति विरुध्यते-अनेकप्रकारं हि शुक्लत्वादि मेदभिन्नमुच्यते रूपमात्रं च शुक्लादि विशेषरहितम् तस्य ३० शुक्लादिविशेषेष्वनन्तर्भावात् कथं न विरोधः ? यदपि शुक्लाद्यनेकप्रकाररूपाभ्युपगमे क्षितौ सूत्रवि रोधपरिहाराभिधानं किल अविभुनि द्रव्ये समानेन्द्रियग्राह्याणां विशेषगुणानामेकाकाराणामसंभवः न तु अनेकाकाराणाम् क्षितौ 'शुक्लाद्यनेकाकाराणां तेषामुपलम्भात् एकाकाराणामेकत्र बहूनां सद्भावे एकेनैव शुक्लादिप्रतिपत्तेजेनितत्वाद् अपरतद्भेदकल्पनायथ्येप्रसङ्गान्न तद्भ्युपगमः न चैवमनेकाकाराणाम्' इति, तदपि असंगतम्: व्याप्याऽव्याप्यवृत्तित्वविकल्पद्वयेऽपि दोषप्रतिपादनात् अथ ३५ अव्याप्यवृत्तित्वे न विरोधदोषः शेषाणामाश्रयव्यापित्वमेव इत्यवधारणानभ्युपगमात् नन्वेवं सूक्ष्मविवरप्रविष्टालोकोद्योतिताल्पतरपटविभागवृत्तिरूपदेशस्य प्रतिपत्तौ यदि तदाधारस्य पटावयविनः प्रतिपत्तिस्तदा तदाधेयाशेषशुक्लादिरूपप्रतिपत्तिरपि भवेत् आधेयप्रतिपत्तिमन्तरेण तदाधारत्वस्य प्रतिपत्तुमशक्तेः । न चाल्पतरौल्पतमरूपाधारत्वव्यतिरिक्तं तस्य तदन्यरूपाधारत्वैमनेकम् अनेकखभावयोगिनः पटस्य अनेकत्वप्रसक्तेः स्वभावमेदलक्षणत्वाद् वस्तुमेदस्य अन्यथा तदयोगात् १-वे विशेषाणा-बृ. आ. हा० वि० । “शेषास्त्वेकैकद्रव्यवृत्तयः"-प्रशस्त. के. पृ. ९५ पं० २११ २-मेकर-वा. बा. भा. मां०। ३-ण यदि चित्ररूप-भां० ।-ण च यदि चित्ररूप-मां० । -ण चित्ररूप-वा. बा. आ०। ४-रान्यतम-वा० बा. भां० मा०। ५-त्वमनेकख-वा० बा० विना। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ७०९ रूपस्यब्दवाच्याच वस्तुना उपल तदनेकत्वेऽपि तस्यैकत्वे कथं न अनेकाकारमेकं स्यात् ? अथ तत्प्रतिपत्तौ नावयविप्रतिपत्तिस्तर्हि निराधारस्य रूपस्य प्रतिपत्तौ गुणरूपता विशीर्यंत द्रव्याश्रयादिलक्षणयोगित्वात् तस्य । न च तद्रूपता(ताऽ)प्रतिपत्तौ तल्लक्षणयोगिता तस्य अवगन्तुं शक्या प्रमेयव्यवस्थायाः प्रमाणाधीनत्वात् । अणुपरिमाणयोगित्वे च अल्पतरपटादिरूपस्य परमाणोरिव द्रव्यरूपताप्रसक्तिः तस्यैव तद्योगित्वात् अत एव 'एकावयवसहितस्य पटस्योपलम्भात् एकरूपोपलम्मेऽपि आश्रयाव्यापितया शेषरूपाणामनु-५ पलम्भाच्चित्रप्रतिभासाभावः' इति यदुक्तम् तदपि निरस्तम्, एकरूपोपाध्युपकाराङ्गशत्यभिन्नस्य पटद्रव्यस्य निश्चयात्मना अध्यक्षेण ग्रहणे अशेषरूपोपाध्युपकारकशक्त्यभिन्नात्मनस्तस्य एकरूपतया ग्रहणात् उपकार्यग्रहणमन्तरेण उपकारकत्वग्रहणस्यासंभवात् शक्तीनां ततो भेदे संबन्धासिद्धरपरोपकारकशक्तिप्रकल्पनायामनवस्थाप्रसक्तेः कथं नाशेषोपकार्यरूपप्रतिभासाच्चित्रप्रतिभासप्रसक्तिः? एतेन तन्तूनां नीलाद्यनेकरूपसंबन्धित्वात् पटेऽपि अनेकरूपारम्भकत्वे न किञ्चिद् बाधकं प्रमाण १० कारणगुणपूर्वक्रमेण तथाविधस्य रूपस्य उत्पादात्' इत्यपि प्रत्युक्तम् एकावयवप्रतिभासे चित्रप्रतिभासोत्पत्तिप्रसङ्गस्यैव बाधकत्वात् । यदपि भवतु वा एकं पटे चित्रं रूपम् नीलादिरूपैरेकरूपारम्भात् यथा हि शुक्लादिर्विशेषो रूपस्य तथा चित्रमपि रूपविशेष एव चित्रशब्दवाच्यः' इति, तदपि असंगतमेव; अनेकाकारस्य एकत्वे चित्रैकशब्दवाच्यत्वे वाभ्युपगम्यमाने सदसदनेकाकारानुगतस्य एकस्य कारणादिशब्दवाच्यत्वेनाभ्युपगमाविरोधात् । यथा च बहूनां तन्त्वादिगतनीलादिरूपाणां १५ पटगतैकचित्ररूपारम्भकत्वं दृष्टत्वादविरुद्धं तथानेकाकारस्य एकरूपत्वं वस्तुनो दृष्टत्वादेवाविरुद्धमभ्युपगन्तव्यम् अत एव एकानेकरूपत्वात् चित्ररूपस्य एकावयवसहितेऽवयविनि उपलभ्यमाने शेषावयवावरणे चित्रप्रतिभासाभाव उपपत्तिमान् । सर्वथा त्वेकरूपत्वे तत्रापि चित्रप्रतिभासः स्यात् अवयविव्याप्त्या तद्रूपस्य वृत्तेः । न चावयवनानारूपोपलम्भसहकारीन्द्रियमवयविनि चित्रप्रतिभासं जनयतीति तत्र सहकार्यभावात् चित्रप्रतिभासानुत्पत्तिरिति वाच्यम्, अवयविनोऽप्यनुपलब्धि-२० प्रसङ्गात् न हि चाक्षुषप्रतिपत्त्याऽगृह्यमाणरूपस्यावयविनो वायोरिव ग्रहणं दृष्टम् । न च चित्ररूपव्यतिरेकेणापरं तत्र रूपमात्रमस्ति यतस्तत्प्रतिपत्त्या पटग्रहणं भवेत् । न चावयवरूपोपलम्भोऽवयविरूपप्रतिपत्तौ अक्षसहकारी, तद्भावे वा तदवयवरूपोपलम्भोऽपि स्वावयवरूपोपलम्भाक्षसहकारी इति तमन्तरेण स न स्यादिति पूर्वपूर्वावयवरूपोपलम्भापेक्षया परमाणुरूपोपलम्भाभावात् तजन्य व्यणुकाद्यवयविरूपोपलम्भासंभवान्न क्वचिदपि रूपोपलब्धिः स्यात् । तद्भावे च नावयव्युपलब्धि-२५ रिति तदाश्रितपदार्थानामप्युपलम्भाभावात् सर्वप्रतिभासाभावः स्यात् । तत एकानेकखभावं चित्रपटरूपवद्वस्तु अभ्युपगन्तव्यं वैशेषिकेण। ___ बौद्धनापि चित्रपटप्रतिभासस्य एकानेकरूपतामभ्युपगच्छता एकानेकरूपं वस्तु अभ्युपगतमेव । अथ प्रतिभासोऽपि एकानेकरूपो नाभ्युपगम्यते तर्हि सर्वथा प्रतिभासाभावः स्यात् इति असकृद् आवेदितम् । तत एकान्ततोऽसति कार्ये न कारणव्यापारस्तेनाभ्युपगन्तव्यः असति तत्र ३० तद्भावात् । नापि सति, मृत्पिण्डे तस्य तमन्तरेणापि ततः प्रागेव निष्पन्नत्वात् । न च मूत्पिण्डे कारकव्यापारः पृथुबुनोदराद्याकारस्तत्फलम् अन्यत्र व्यापारे अन्यत्र फलासंभवात् स एव मृत्पिण्डः कारकव्यापारात् पृथुबुध्नोदराद्याकारतां प्रतिपद्यते इति कारकव्यापार-फलयोरैक्यविषयत्वे अनेकान्तवादसिद्धिः । तस्माद् द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिकाभ्यां केवलाभ्यां सहिताभ्यामन्योन्यनिरपेक्षाभ्यां व्यवस्थापितं वस्तु असत्यमिति तत्प्रतिपादकं शास्त्रं सर्व मिथ्येति व्यवस्थितम् ॥ ५० ॥ [अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां निरपेक्षनयद्वये मिथ्याज्ञानरूपत्वस्य दृढीकरणम् ] अमुमेवार्थमन्वय-व्यतिरेकाभ्यां दृढीकर्तुमाह ते उ भयणोवणीया सम्मइंसणमणुत्तरं होति । जं भवदुक्खविमोक्खं दो वि न पूरेंति पाडिकं ॥५१॥ तौ द्रव्य-पर्यायास्तिकनयौ भजनया परस्परस्वभावाऽविनाभूततया उपनीतौ सदसद्रूपैका-४० न्तव्यवच्छेदेन तदात्मकैककार्यकारणादिवस्तुप्रतिपादकत्वेन उपयोजितौ यदा भवतस्तदा सम्यग्दर्शनमनुत्तरं-नास्ति अस्माद् अन्यद् उत्तरं प्रधानं यस्मिंस्तत् तथाभूतं-भवतः परस्पराविनिर्भाग १अत्र कन्दलीगतं चित्ररूपसमर्थकं युक्तिकथनमवबोद्धव्यम्-प्रशस्त. क. पृ. ३०५०३ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डेवर्तिद्रव्यपर्यायात्मकैकवस्तुतत्त्वविषयरुच्यात्मकाऽबाधिताऽवबोधस्वभावत्वात् । यदा तु अन्योन्यनिरपेक्षद्रव्य-पर्यायप्रतिपादनत्वेन उपनीतौ भवतो न तदा सम्यक्त्वं प्रतिपद्येते यस्मात् संसारमा. विजन्मादिदुःखविमोक्षमात्यन्तिकं विश्लेषं द्वावपि तौ प्रत्येकं न विधत्तः मिथ्याज्ञानात् सम्यकियानङ्गतया आत्यन्तिकभवोपद्रवानिवृत्त्यसिद्धेः तद्विपर्ययकारणत्वात् तच्चासकृत् प्राक् प्रति. ५पादितमिति न पुनः प्रतन्यते । ततः कारणात् कार्य कथंचिद् अन्यत् कथंचिदनन्यत् अत एव तदतद्रूपतया 'सच्च असच्च' इति ॥५१॥ [ कार्य-कारणयोर्भेदाभेदरूपत्वदर्शनेनानेकान्तरूपखोपपादनम् ] अमुमेव अर्थमुपसंहारद्वारेण उपदर्शयन्नाह नत्थि पुढवीविसिट्ठो घडोत्ति जं तेण जुज्जइ अणण्णो। जं पुण घडो'त्ति पुवं ण आसि पुढवी तओ अण्णो ॥५२॥ नास्ति सद्रव्यमृत्पृथिवीत्वादिभ्यो विश्लिष्टो भिन्नो घटः सदादिव्यतिरिक्तस्वभावतया तस्यानुपलम्भात् । किञ्च, यदि सत्त्वादयो धर्मा घटाद् एकान्ततो भिन्नाः सोऽपि वा तेभ्यो भिन्नः स्यात् तदा न घटस्य सदादित्वं स्यात् खतोऽसदादेरन्यधर्मयोगेऽपि शशशृङ्गादेरिव तत्तत्वा(तथात्वा) योगात् सदादेरपि घटाद्याकाराद् अत्यन्तभेदे निराकारतया अत्यन्ताभावस्येव उपलम्भविषयत्वायो. १५ गाद् ज्ञेयत्व-प्रमेयत्वादिधर्माणामपि सदादिधर्मेभ्यो मेदे असत्त्वम् सदादेस्तु तेभ्यो भेदे अज्ञेयत्वाद् असत्त्वमेव "उपलम्भः सत्ता" [ ] इति वचनात् । ततः सदादिरूपतया उपलभ्यमानत्वाद् घटस्य तेभ्योऽभिन्नरूपताऽभ्युपगन्तव्या प्रमेयव्यवस्थितेः प्रमाणनिबन्धनत्वात् । यत् पुन: पृथुबुधोदराद्याकारतया पूर्व सदादिर्न आसीत् ततोऽसौ अन्यस्तेभ्यो घटरूपतया प्राक् सदा देरनुपलम्भात् प्रागपि तद्रूपस्य सदादौ सत्त्वे अनुपलम्भायोगात् दृश्याऽनुपलम्भस्य च अभावाव्य२० भिचारित्वात् तदतद्रूपतायां च विरोधाभावात् प्रतीयमानायां तदयोगात् अबाधितप्रत्ययस्य च मिथ्यात्वासंभवाद् बाधाविरहस्य च प्रागेव उपपादितत्वात् ॥५२॥ [सदायेकान्तवत् कालायेकान्तेऽपि मिथ्यात्वख्यापनम् ] सदायेकान्तवादवत् कालाकान्तवादेऽपि मिथ्यात्वमेव इत्याह कालो सहाव णियई पुवकयं पुरिस कारणेगंता। २५ मिच्छत्तं ते चेवा(व) समासओ होंति सम्मत्तं ॥५३ ॥ कोल-खभाव-नियति-पूर्वकृत-पुरुषकारणरूपा एकान्ताः सर्वेऽपि एकका मिथ्यात्वम् त एव समुदिताः परस्पराऽजहहृत्तयः सम्यक्त्वरूपतां प्रतिपद्यन्ते इति तात्पर्यार्थः । १-तत्तथात्वयो-आ० हा० वि० । २-न्ताभावादस्यैव वोपल-बृ. आ० हा० वि०। ३-वादोऽपि वा. बा. भां० मा०। ४ चेव उ स-गु० मू. मु. मू०। ५ श्वेताश्वतरोपनिषदि ब्रह्मकारणताप्रश्नविचारे काल-खभावादीनामपि कारणता चर्चिता निरस्ता च विद्यते । तद्यथा"ॐ ब्रह्मवादिनो वदन्ति किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क च संप्रतिष्ठाः । अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम् ॥ काल-खभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम् । संयोग एषां न खात्मभावादात्माप्यनीशः सुख-दुःखहेतोः" ।-१-२ इत्यादि-1 अ० १॥ माठरेण सांख्यकारिकावृत्ती, क्रियाऽक्रियावादादिमतं विवेचयता शीलाङ्केन सूत्रकृताङ्गसूत्रटीकायाम् हरिभद्रेण शास्त्रवार्तासमुच्चये च काल-खभावादिवादा भड्यन्तरेण उपन्यस्ता निरस्ताश्च विद्यन्ते । तद्यथा का० ६१ पृ० ७५-७६ । समवस० अ० १२ पृ० २१० प्र०-२११ प्र. शास्त्रवा० समु. स्तब० २ श्लो० ५२८१ पृ० ७९-८९। क्रियाऽक्रियावादादिखरूपं निरूपयन् गुणरत्नः षड्दर्शनसमुच्चयबृहट्टीकायां काल-खभावादिवादानां खरूपमात्रं प्ररूपि. तवान् । तच्च-पृ० १० पं. १५-पृ. १६ पं०५। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । [ कालै कारणवादमुपन्यस्य तस्यैकान्तिकत्वनिरासः ] तत्र काल एव एकान्तेन जगतः कारणमिति कालवादिनः प्राहुः । तथाहि - सर्वस्य शीतोष्णवर्ष-वनस्पति- पुरुषादेर्जगतः प्रभव-स्थिति- विनाशेषु ग्रहोपरागयुतियुद्धोदयास्तमयगतिगमनागमनादौ च कालः कारणम् तमन्तरेण सर्वस्यास्याऽन्यकारणत्वाभिमतभावसद्भावेऽप्यभावात् तत्सद्भावे च भावात् । तदुक्तम् "कालः पचति भूतानि कालः संहरति प्रजाः । कालः सुतेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः” ॥ ७११ ५ [ महाभा० आदिप० अ० १ श्लो० २७३, २७५ ], असदेतत्; तत्कालसद्भावेऽपि वृष्ट्यादेः कदाचिददर्शनात् । न च तदभवनमपि तद्विशेषकृतमेव, नित्यैकरूपतया तस्य विशेषाभावात् । विशेषे वा तज्जननाऽजननस्वभावतया तस्य नित्यत्वव्य- १० तिक्रमात् स्वभावभेदाद् भेदसिद्धेः । न च ग्रहमण्डलादिकृतो वर्षादेर्विशेषः तस्यापि अहेतुकतयाऽभावात् । न च काल एव तस्य हेतुः इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः - सति कालभेदे वर्षादिभेद हेतोर्ग्रहमण्डलादेर्भेदः तद्भेदाच्च कालभेद इति परिस्फुटमितरेतराश्रयत्वम् । अन्यतः कारणाद् वर्षादिभेदे न 'काल एव एकः कारणं भवेत्' इत्यभ्युपगमविरोधः । कालस्य च कुतश्चिद् भेदाभ्युपगमे अनित्यत्वमित्युक्तम् । तत्र च प्रभव- स्थिति - विनाशेषु यद्यपुरः कालः कारणम्, तदा तत्रापि स एव पर्यनुयोग १५ इत्यनवस्थानान्न वर्षादिकार्योत्पत्तिः स्यात् । न चैकस्य कारणत्वं युक्तम् क्रम- यौगपद्याभ्यां तद्विरोधात् । तन्न काल एव एकः कारणं जगतः । [ स्वभावैककारणवादमुपन्यस्य तस्यैकान्तिकत्वनिरास: ] अपरे तु 'स्वभावत एव भावा जायन्ते' इति वर्णयन्ति । अत्र यदि 'स्वभावकारणा भावाः' इति तेषामभ्युपगमस्तदा स्वात्मनि क्रियाविरोधो दोषः न हि अनुत्पन्नानां तेषां स्वभावः समस्ति उत्पन्नानां २० तु स्वभावसंगतावपि प्राक् स्वभावाभावेऽपि उत्पत्तेर्निर्वृत्तत्वान्न स्वभावस्तत्र कारणं भवेत् । अथ कारणमन्तरेण भावा भवन्ति स्व-परकारणनिमित्तजन्मनिरपेक्षतया सर्वहेतुनिराशंसस्वभावा भावाः । तथा चात्र स्वभाववादिभिर्युक्तिः प्रदर्श्यते यद् अनुपलभ्यमानसत्ताकं तत् प्रेक्षावतामसद्व्यवहारविषयः, यथा शशशृङ्गम्, अनुपलभ्यमानसत्ताकं च भावानां कारणमिति स्वभावानुपलब्धिः । न च अयमसिद्धो हेतुः कण्टकादितैक्ष्ण्यादेर्निमित्तभूतस्य कस्यचिद् अध्यक्षादिना असंवेदनात् । तदुक्तम् - २५ १ अत्र प्रहीयविविधदशायाः प्रस्तुतत्वेन उपराग - युति - युद्धादयः सर्वेऽपि शब्दा प्रहेण योज्याः तदर्थंच सूर्यसिद्धान्तादिज्योतिषग्रन्थेभ्योऽवसेयः । २- मयगमन - बृ० आ० हा० वि० । ३- त् न तत्स - बु० आ० हा० वि० । मित्थं वर्णितं विद्यते ४ महाभारते कालमाहात्म्य “विधातृविहितं मार्ग न कश्चिदतिवर्तते । कालमूलमिदं सर्वं भावाभावौ सुखासुखे ॥ कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः । संहरन्तं प्रजाः कालं कालः शमयते पुनः ॥ कालो विकुरुते भावान् सर्वालोके शुभाशुभान् । कालः संक्षिपते सर्वाः प्रजा विसृजते पुनः ॥ कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः । कालः सर्वेषु भूतेषु चरत्यविधृतः समः ॥ अतीतानागता भावा ये च वर्तन्ति साम्प्रतम् । तान् कालनिर्मितान् बुद्धा न संज्ञां हातुमर्हसि " ॥ - महाभा० आदिप० अ० १० २७२-२७६ । ५ सांख्यकारिकावृत्तौ, शास्त्रवार्तासमुच्चये षड्दर्शनसमुच्चयबृहट्टीकायां च अयमीदृश एव श्लोको वर्तते पृ० ७६ । पु० ८० लो० ५४ । पृ० ११ पं० १२-१३ । ६ स्वभाववादनिरूपण-तन्निरसनपरा प्रस्तुता टीका तत्त्व संग्रहीय खाभावि कवादपरीक्षयाऽक्षरशः साम्यं भजते । तथाहि"सर्वहेतुनिराशंसं भावानां जन्म वर्ण्यते । स्वभाववादिभिस्ते हि नाहुः खमपि कारणम्" ॥ -तत्त्वसं० का० ११० पृ० ६२ । ७- दा स्यादात्म-भां० मां० । “ ते खक्रियाया विरोधत इत्यादिना निरस्ताः " - तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ६२ पं० ९ । ८ " राजीव केसरादीनां वैचित्र्यं कः करोति हि । मयूरचन्द्र कादिर्वा विचित्रः केन निर्मितः " ॥ -तत्त्वसं० का० १११ पृ० ६२ । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ तृतीये काण्डे - "कैः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां वा । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ?” ॥ [ 1 अथापि स्यात् भवतु बाह्यानां भावानां कारणानुपलब्धेरहेतुकत्वम् आध्यात्मिकानां तु कुतो निर्हेतुकत्वसिद्धिः ? असदेतत्; यतो यदि नाम दुःखादीनामध्यक्षतो निर्हेतुकत्वमसिद्धं तथापि अनुमान५ तस्तत् तेषां सिद्धमेव । तथाहि - यत् कादाचित्कं तद् निर्हेतुकम्, यथा कण्टकादेस्तैक्ष्ण्यम्, कादाचित्कं च सुखादिकमिति स्वभावहेतुः । न च यस्य भावाभावयोर्नियमेन यस्य भावाभावी तत् तस्य कारणम्, व्यभिचारात् । तथाहि - स्पर्शसद्भाव एव चक्षुर्विज्ञानम् तदभावे न तत् कदाचित्, न च स्पर्शः तत्कारणम् । तन्नैतत् कारणभावलक्षणम् व्यभिचारित्वात् । अतः सर्वहेतु निराशंसं जन्म भावानामिति सिद्धम्, १० असदेतत् कैण्टकादितैक्ष्ण्यादेरपि निर्हेतुकत्वासिद्धेः । तथाहि - अध्यक्षाऽनुपलम्भाभ्यामन्वयव्यतिरेकतो बीजादिकं तत्कारणत्वेन निश्चितमेव । येस्य हि यस्मिन् सत्येव यस्य भावः यस्य च विकाराद् यस्य विकारः तत् तस्य कारणमुच्यते । उत्सूनादिविशिष्टावस्थाप्राप्तं च बीजं कण्टकादितैक्ष्ण्यादेरन्वयव्यतिरेकवत् अध्यक्षाऽनुपलम्भाभ्यां कारणतया निश्चितमिति 'अनुपलभ्यमानसत्ताक च कारणम्' इति असिद्धो हेतुः । यदपि 'कार्यकारणभावलक्षणं व्यभिचारि' इत्युक्तम्, तदपि असि१५द्धम् ; स्पर्शस्यापि रूपहेतुतया चक्षुर्विज्ञाने निमित्ततया इष्टत्वात् तमन्तरेण रूपेस्यैव विशिष्टावस्थस्यासंभवात् । न च व्यतिरेकमात्र कार्यकारणभावनिबन्धनत्वेन अभ्युपगम्यते तद्वादिभिः किन्तु तद्विशेष एव । तथाहि - समर्थेषु सत्सु येषु कार्य भवद् उपलब्धम् तेषां मध्ये अन्यतमस्यापि अभावे तद् अभवत् तत्कारणं तद् इति व्यवस्थाप्यते न तु यस्याभावे यन्न भवतीति व्यतिरेकमात्रतः; अन्यथा मातृविवाहोचितपारशीकदेशप्रभवस्य पिण्डखर्जूरस्य तद्विवाहाभावे अभावाद् अव्यभिचारः स्यात् । २० न चैवंभूतस्य व्यतिरेकस्य स्पर्शेन व्यभिचारः न हि रूपादिसंनिधानमुपदर्श्य स्पर्शस्य एकस्याभावात् चक्षुर्विज्ञानं न भवतीति शक्यं दर्शयितुमिति कुतो व्यभिचारः कार्यकारणभावलक्षणस्य ? न १ अयं श्लोकः शास्त्रवा० स्याद्वादक० टीकायाम् षड्द० बृ० टीकायां च विद्यते - पृ० ८३ प्र० । पृ० १३ । माठरवृत्ती तु "येन शुक्लीकृता हंसाः शुकाश्च हरितीकृताः । मयूराश्चित्रिता येन स नो वृत्तिं विधास्यति ॥ इति भावार्थकः श्लोको वर्तते पृ० ७५ । २ “यथैव कण्टकादीनां तैक्ष्ण्यादिकमहेतुकम् । कादाचित्कतया तद्वद् दुःखादीनामहेतुता” ॥ - तत्त्वसं० का० ११२ पृ० ६२ । बोधिचर्यावतारपत्रिकायां तत्त्वसंप्रहीयकारिकाभिरेव स्वभाववादः स्थापितः निरस्तव प्रकारान्तरेण परि० ९ पृ० ५४१ । धर्मसंग्रहण्यां तु केवलं स्वभाववादस्थापनं तनिरसनं चोभयमन्यया भन्या वर्णितं विद्यते । तथाहि तदाद्यान्त्यभागौ — " किन्न सहावो त्ति मई भावो वा होज जं अभावो वा । जइ भावो किं चित्तो किंवा सो एगरूवो त्ति ॥ xxx एवं नियइ जइच्छा कालो दिव्वं पधाणमादी वि । सव्वे वि असव्वाया एगंतेणं मुणेयव्वा" ॥ - धर्मसं० गा० ५४९-५६६ पृ० २११-२१६ । ३ “सरोज केसरादीनामन्वयव्यतिरेकवत् । अवस्थातिशयाक्रान्तं बीजपङ्कजलादिकम् ॥ प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां निश्चितं कारणं यदा । किमित्यन्यस्तदा हेतुरमीषां परिपृच्छयते ॥ - तत्त्वसं० का० ११३-११४ पृ० ६३ । ४ अत्र वाक्ये द्वयोः 'यस्य' पदयोः निष्प्रयोजनकत्वेन 'यस्य हि यस्मिन् सत्येव भावः' इत्येव पाठः समीचीनः संभाव्यते । “तथाहि–यस्मिन् सत्येव यस्य जन्म भवति यस्य च विकाराद् यस्य विकारस्तत् तस्य कारणमुच्यते । तच्चैवंभूतं बीजादिकमुच्छूनादिविशिष्टावस्थाप्राप्तं राजीव केसरादीनामन्वयव्यतिरेकवत् " - तत्त्वसं० प० पृ० ६३ पं० १५ । ५-पस्यैवं वि-बृ० । “स्पर्शस्यापि रूपहेतुतया चक्षुर्विज्ञानेऽपि निमित्तभावस्येष्टत्वात् । तथाहि - स्पर्श इति भूतान्युच्यन्ते । तानि चोपादायोपादाय रूपं वर्तते ततश्चक्षुर्विज्ञानं प्रति स्पर्शस्य निमित्तभावोऽस्त्येव केवलं साक्षात्पारंपर्यकृतो विशेषः " - तत्त्वसं० पक्षि० पृ० ६३ पं० १९ । ६ “नियतौ देश - कालौ च भावानां भवतः कथम् । यदि तद्धेतुता नैषां स्युस्ते सर्वत्र सर्वदा ॥ कश्चित् कदाचित् कस्मिंश्चिद् भवन्तो नियताः पुनः । तत्सापेक्षा भवन्त्येते तदन्यपरिहारतः” ॥ - तत्त्वसं० का० ११५-११६ पृ० ६४ । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१३ आयमीमांसा। केवलं बीजादिः कारणत्वेन भावानां निश्चितः किन्तु देश-कालादिरपि । तथाहि-यदि प्रतिनियतदेश-कालहेतुता कण्टकादेस्तैण्यादेन स्यात् तदा येयमतद्देश-कालपरिहारेण प्रतिनियतदेश-कालता तेषामुपलम्भगोचरचारिणी सा न स्यात् तन्निरपेक्षत्वात् तद्वद् अन्यदेशकाला अपि ते भवेयुः न चैवम् अतः प्रतिनियतदेशादौ वर्तमानास्तदपेक्षास्त इति सिद्धम् तथा च तत्कार्या अपेक्षालक्षणत्वात् तत्कार्यत्वस्य नियतदेशतया च तेषां वृत्तिरध्यक्षत एव सिद्धेति कथं न तत्कार्यतावगतिः ? यदपि ५ 'कादाचित्कत्वात्' इति साधनम् , तदपि विरुद्धम् ; साध्यविपर्ययसाधनाद् अहेतोः कादाचित्कत्वानुपपत्तेः । साध्यविकलश्च दृष्टान्तः अहेतुकत्वस्य तत्राप्यभावात् । एवमनुपलभ्यमानसत्ताकं भावानां कारणमिति हेतोरसिद्धता प्रतिज्ञायाश्च प्रत्यक्षविरोधो व्यवस्थितः । सिद्धत्वेऽपि चास्य हेतोरनैकान्तिकत्वम् । तथाहि-यदि अनुपलम्भमात्रं हेतुत्वेन उपादीयते तदा प्रमाणाभावात् कारणसत्ताभावासिद्धः कथं नानैकान्तिकता ? तथाहि-कारणम् व्यापकं वा निवर्तमान कार्यम् व्याप्यं वा १० आदाय निवर्तते । न च प्रमाणमर्थसत्ताया व्यापकं वृक्षत्ववत् शिंशपायाः अभिन्नस्यैव व्यापकत्वात् । न च प्रमाण-प्रमेययोरमेदः भिन्नप्रतिभासविषयत्वात् । नापि प्रमाणं कारणमर्थस्य व्यभिचारात् देश-कालादिविप्रकृष्टानां भावानां प्रमाणाविषयीकरणेऽपि सत्ताऽविरोधात् । न च यदन्तरेणापि यद् भवति तत् तस्य कारणम् अतिप्रसङ्गात् कारणत्वाभ्युपगमे स्वाभ्युपगमव्याघातात् । न च प्रमा. णात् प्रमेयप्रभवः अपि तु प्रमेयात् प्रमाणस्य अन्यथा तेन तद्हणाऽयोगात् । न च प्रमाणमप्रतिबद्धमपि १५ अर्थसत्तानिवर्तकम् अतिप्रसङ्गात्-गोनिवृत्तौ अश्वनिवृत्तिप्रसक्तेः। किञ्च, अनुपलब्धिर्हेतुत्वेन उपादीयमाना खोपलम्भनिवृत्तिरूपा वा उपादीयेत, सर्वपुरुषोपलम्भनिवृत्तिस्वभावा वा? तत्र न तावद् आद्यः पक्षः खल-बिलाद्यन्तर्गतस्य बीजादेः स्वोपलम्भनिवृत्तावपि सत्ताअनिवृत्तेर्हेतोरनैकान्तिकत्वात् । अथ द्वितीयः पक्षः सोऽपि न युक्तः; हेतोरसिद्धेः न हि मयूरचन्द्रकादेः सर्वपुरुषैरदृष्टं कारणं नोपलभ्यते इत्यर्वाग्दशा निश्चेतुं शक्यम् । किञ्च, 'निर्हेतुका भावाः' इत्यत्र हेतुरुपादीयते, आहो-२० खित् नेति ? यदि नोपादीयते तदा न स्वपक्षसिद्धिः प्रमाणमन्तरेण तस्या अयोगात् । अथ हेतुरुपादीयते तदा स्वाभ्युपगमविरोधः प्रमाणजन्यतया स्वपक्षसिद्धेरभ्युपगमात् । तदुक्तम् _ "न हेतुरस्तीति वदन् सहेतुकं ननु प्रतिज्ञां स्वयमेव बाधते । १ "तदपेक्षा तथावृत्तिरपेक्षा कार्यतोच्यते । प्रत्यक्षा च तथा वृत्तिः सिद्धास्तेनेह हेतवः" ॥ -तत्त्वसं० का० ११७ पृ. ६४ । -कार्यापे-बृ० आ. हा. वि.। "तदन्यदेशादिपरिहारेण नियते देशादौ या वृत्तिरियमेवापेक्षेत्युच्यते न खभिप्रायात्मिका । स्यादेतद् यदि नाम तदपेक्षा तेषाम् तथापि तत्कार्यता कथमवसितेत्याह-अपेक्षा कार्यतोच्यत इति" -तत्त्वसं० पजि. पृ. ६४ पं. १७॥ २-षामवृ-भा. मा. विना। ३ "तत्वाभाविकवादोऽयं प्रत्यक्षेण प्रबाध्यते । प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां हेतुरूपस्य निश्चयात्"। -तत्त्वसं० का० ११८ पृ. ६४। ४ "मा वा प्रमाणसत्ता भूद्धेतुसद्भावसिद्धये । तथापि मानाभावेन नैवार्थासत्त्वनिश्चयः" ॥ -तत्त्वसं० का० ११९ पृ. ६५ । ५ “यस्मादर्थस्य सत्ताया व्यापकं न च कारणम् । प्रमाणं भेदसद्भावाझ्यभिचारात् तदुद्भवात्" ॥ -तत्त्वसं० का० १२० पृ० ६५। ६यमन्त-बृ. आ. हा.वि.। "कारणलाभ्युपगमे वा"-तत्त्वसं० पजि. पृ. ६५५० १५॥ ८ "यश्च नैवंविधो भावस्तस्य नैव निवृत्तितः । ऐकान्तिकमसंबन्धाद् गम्यतेऽन्यनिवर्तनम्" ॥ -तत्त्वसं० का० १२१ पृ. ६५॥ ९ "सर्वा दृष्टिश्च संदिग्धा खा दृष्टिर्व्यभिचारिणी। विन्ध्यादिरन्ध्रदूर्वादेरदृष्टावपि सत्त्वतः" । -तत्त्वसं. का० १२२ पृ०६५। १० धुस्तूरे तमाले च खलशब्दः बिलस्त वेतसवृक्षे-वैद्यक. सिं०। ११ “अहेतुकबसिद्धयर्थ न चेद्धेतुः प्रयुज्यते । न चाप्रमाणिकी सिद्धिरतः पक्षो न सिद्धयति ॥ तत्सिद्धये च हेतुश्चेत् प्रयुज्येत तथापि न । सिद्धेस्तद्धेतुजन्यत्वात् पक्षस्ते संप्रसिद्धयति" ॥ -तत्त्वसं० का० १२३-१२४ पृ.६६। १२ तत्त्वसं० पत्रिकायाम् "तथा चोकमाचार्यसरिपादैः" इति निर्दिश्य पद्यमिदमुपनिबद्धम् तत्र च "खयमेव सादयेत्" इति पाठो मुद्रितः-पृ.६६५० १४ । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे अथापि हेतुप्रणयालसो भवेत् प्रतिज्ञया केवलयाऽस्य किं भवेत् ?"॥ ] इति । न च शापकहेतूपन्यासेऽपि कारकहेतुप्रतिक्षेपवादिनो न स्वपक्षबाधा इति वक्तव्यम् यतो लिङ्ग तत्प्रतिपादकं वा वचो यदि पक्षसिद्धरुत्पादकं न भवेत् कथं तस्य ज्ञापकहेतुता स्यात् अन्यथा सर्वस्य ५सर्व प्रति ज्ञापकता प्रसज्येत । न चैवं कारक-ज्ञापकहेत्वोरविशेषः साध्यानुत्पादकस्य ज्ञापकहेतुत्वात् तदुत्पादकस्य तु कारकहेतुशब्दवाच्यत्वात् अनुमानबाधितत्वं च प्रतिक्षायाः स्पष्टमेव । तथाहिप्रतिनियतभावसंनिधौ ये प्रतिनियतजन्मानस्ते सहेतुकाः यथा भवत्प्रयुक्तसाधनसंनिधिभावि तत्साध्यार्थज्ञानम् तथा च मयूरचन्द्रकादयो भावाः इति स्वभावहेतुः । तन्न स्वभावैकान्तवादाभ्युपगमो युक्तिसंगतः। [नियत्येककारणवादमुपन्यस्य तस्यैकान्तिकखनिरासः] सर्वस्य वस्तु स्तथातथानियतरूपेण भवनाद् नियतिरेव कारणमिति केचित् । तथाहितीक्ष्णशस्त्राद्युपहता अपि तथामरणनियतताऽभावे जीवन्त एव दृश्यन्ते नियते च मरणकाले शस्त्रादिघातमन्तरेणापि मृत्युभाज उपलभ्यन्ते, न च नियतिमन्तरेण स्वभावः कालो वा कश्चिद् हेतुः यतः कण्टकादयोऽपि नियत्यैव तीक्ष्णादितया नियताः समुपजायन्ते न कुण्ठादितया कालोऽपि देर्भावस्य तथानियततयैव तदा तदा तत्र तत्र तथा तथा निर्वर्तकम्(कः)। तथा चोक्तम्"प्राप्तव्यो नियतिवलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने नाऽभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः" ॥[ ] इत्यादि। असदेतत् शास्त्रोपदेशवैयर्थ्यप्रसक्तेः तदुपदेशमन्तरेणापि अर्थेषु नियतिकृतत्वबुद्धेर्नियत्यैव भावाद् दृष्टादृष्टफलशास्त्रप्रतिपादितशुभाशुभक्रियाफलनियमाभावश्च । अथ तथैव नियतिः कारणमिति २० नायं दोषः, न; नियतेरेकखभावत्वाभ्युपगमे विसंवादाऽविसंवादादिमेदाभावप्रसक्तेः अनियमेन नियतेः कारणत्वाद अयमदोष इति चेत, नः अनियमे कारणाभावान्न नियतिरेव कारणम नियतेनित्यत्वे कारकत्वायोगात् अनित्यत्वेऽपि तद्योग एव । किञ्च, नियतेरनित्यत्वे कार्यत्वम् कार्य च कारणादुत्पत्तिमदिति तदुत्पत्तौ कारणं वाच्यम् । न च नियतिरेव कारणम् तत्रापि पूर्ववत् पर्यनुयोगानिवृत्तेः । न च नियतिरात्मानमुत्पादयितुं समर्था स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । न च काला२५ दिकं नियतेः कारणम् तस्य निषिद्धत्वात् । न च अहेतुका सा युक्ता नियतरूपताऽनुपपत्तेः । न च खतोऽनियता अन्यभावनियतत्वकारणम् शशशृङ्गादेस्तद्रूपतानुपलम्भात् । तन्न नियतिरपि प्रतिनियतभावोत्पत्तिहेतुः। [कर्मैककारणवादमुपन्यस्य तस्यैकान्तिकखनिरासः] जन्मान्तरोपात्तमिष्टाऽनिष्टफलदं कर्म सर्वजगद्वैचित्र्यकारणमिति कर्मवादिनः। तथा चाहुः३० "यथा यथा पूर्वकृतस्य कर्मणः फलं निधानस्थमिवाऽवतिष्ठते । तथा तथा तत्प्रतिपादनोद्यता प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्तते ॥" [ १ “तथाहि ज्ञापको हेतुर्वचो वा तत्प्रकाशकम् । सिद्धेनिमित्ततां गच्छन् साध्यज्ञापकमुच्यते" ॥ -तत्त्वसं० का० १२५ पृ. ६६। २१"अतः कारक एवायं ज्ञापको हेतुरुच्यते । साध्यानुत्पादकत्वात् तु कारको न प्रकाश्यते"॥ -तत्त्वसं० का० १२६ पृ०६६। ३ "तस्मात् सहेतवोऽन्येऽपि भावा नियतजन्मतः। साध्यार्थविषयं यदज्ज्ञानं साधनमावि ते"॥ -तत्त्वसं० का. १२७ पृ० ६७ ॥ ४-नस्तथानि-बृ. आ० हा० वि०। ५नियतिवादस्य प्ररूपको मस्करी गोशालक इति जैनागमानामभिप्रायः। गोशालकचरितं च भगवतीसूत्रीयपञ्चदशशतकादवसेयमत्र । ६-दा तत्र तथा आ० भां०। ७ अयं श्लोकः शास्त्रवा० स्याद्वादक. टीकायामुद्धृतो वर्तते-पृ० ८३ द्वि०। ८ शास्त्रवा० स्याद्वादक० पृ.८५प्र.पं. ५। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झयमीमांसा। ७१५ तथाच "स्वकर्मणा युक्त एव सर्वो ह्युत्पद्यते नरः। __ स तथाऽऽकृष्यते तेन न यथा स्वयमिच्छति" ॥ [ तथाहि-समानमीहमानानां समानदेश-काल-कुलाऽऽकागदिमतामर्थप्रात्यप्राप्ती नाऽनिमित्ते युक्ते अनिमित्तस्य देशादिप्रतिनियमायोगात् । न च परिदृश्यमानकारणप्रभवे तस्य समानतयोपल-५ म्भात् न चैकरूपात् कारणात् कार्यभेदः तस्याहेतुकत्वप्रसक्तः अहेतुकन्वे च तस्य कार्यस्यापि तद्रूपतापत्तेः मेदाऽमेदव्यतिरिक्तस्य तस्यासत्त्वात् । ततो यन्निमित्ते एते तद् दृष्टकारणव्यतिरिक्तमदृष्टं कारणं कर्म इति, ___ असदेतत् कुलालादेर्घटादिकारणत्वेनाध्यक्षतः प्रतीयमानस्य परिहारेणापराऽदृष्टकारणप्रकल्पनायां तत्परिहारेणापराऽपराऽदृष्टकारणकल्पनयाऽनवस्थाप्रसङ्गतः क्वचिदपि कारणप्रतिनियमाऽनुप-१० पत्तेः । न च स्वतन्त्रं कर्म जगद्वैचित्र्यकारणमुपपद्यते तस्य कर्बधीनत्वात् । न चैकस्वभावात् ततो जगद्वैचित्र्यमुपपत्तिमत् कारणवैचित्र्यमन्तरेण कार्यवैचित्र्यायोगात् वैचित्र्ये वा तदेककार्यताप्रच्युतेः अनेकस्वभावत्वे च कर्मणः नाममात्रनिवन्धनैव विप्रतिपत्तिः पुरुष-काल-स्वभावादेरपि जगद्वैचित्र्यकारणत्वेन अर्थतोऽभ्युपगमात् । न च तेन चेतनवताऽनधिष्ठितमचेतनत्वाद् वास्यादिवत् कर्म प्रवर्तते । अथ तदधिष्ठायकः पुरुषोऽभ्युपगम्यते न तर्हि कर्मकान्तवादः पुरुपस्यापि तदधिष्ठायक-१५ त्वेन जगद्वैचित्र्यकारणत्वोपपत्तेः। न च केवलं किञ्चिद् वस्तु नित्यमनित्यं वा कार्यकृत् संभवतीति असकृत् प्रतिपादितम् । तन्न कमैकान्तवादोऽपि युक्तिसंगतः । [पुरुषककारणवादमुपन्यस्य तस्यैकान्तिकत्वनिरासः ] अन्यस्त्वाह-"पुरुष एवैकः सकललोकस्थिति-सर्ग-प्रलयहेतुः प्रलयेऽपि अलुप्तज्ञानातिशयशक्तिः" [ ] इति । तथा चोक्तम् २० "ऊर्णनाभ इवांऽशूनां चन्द्रकान्त इवाऽम्भसाम् । प्ररोहाणामिव प्लक्षः स हेतुः सर्वजन्मिनाम्" ॥ [ ] इति । तथा, “पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्” [ ] इत्यादि । ऊर्णनाभोऽत्र मर्कटको व्याख्यातः । अत्र सकललोकस्थिति-सर्ग-प्रलयहेतुता ईश्वरस्येव पुरुषवादिभिः पुरुषस्य इष्टा । जगद निवर्तयति अयं तु केवल एव ।। अस्यं च ईश्वरस्येव जगद्धेतुता असंगता । तथाहि यो जन्मिनां हेतुर्नोत्पत्तिविकलत्वतः। गगनाम्भोजवत् सर्वमन्यथा युगपद् भवेत्” ॥ [ किञ्च, प्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्तिः प्रयोजनवत्तया व्याप्तेति किं प्रयोजनमुद्दिश्य अयं जगत्करणे प्रवर्तते ? १ "देवादेवार्थसिद्धिश्वेद् दैवं पौरुषतः कथम् । दैवतश्चेदनिर्मोक्षः पौरुषं निष्फलं भवेत्" ॥ इत्यादिर्दैवविचारोऽत्रानुसंधेयः-आप्तमी. परि. ८ श्लो०८८-1 २ “अन्ये खीशसधर्माणं पुरुष लोककारणम् । कल्पयन्ति दुराख्यातसिद्धान्तानुगवुद्धयः॥ समस्तवस्तुप्रलयेऽप्यलुप्तज्ञानशक्तिमान् । ऊर्णनाभ इवांऽशूनां स हेतुः किल जन्मिनाम्" ॥ -तत्त्वसं. का. १५३-१५४ पृ०७५-७६ । ३ अयं भावो भङ्गयन्तरेण बृहदारण्यकाद्युपनिषत्सु वर्णितः-बृहदा० उ० २-१-२० । श्वेताश्वत• उ० ६-१०। ब्रह्मोप० पृ. १५२ पं०५। तत्त्वसं० पजि. पृ. ७६ पं० ४। ४ पृ. २७३ पं० १३ टि. १.। ५-त्र कर्मटको वा. बा."ऊर्णनाभो मर्कटकः"-तत्त्वसं० पञ्जि० पृ. ७६ पं० १०। ६"अस्यापीश्वरवत् सर्व वचनीयं निषेधनम् । किमर्थ च करोत्येष व्यापारमिममीदृशम् ॥ -तत्त्वसं० का० १५५पृ०७६ । ७ तत्त्वसं० पजि. पृ० ७६ पं०१४।। ८ "यद्यन्येन प्रयुक्तखान स्यादस्य स्वतन्त्रता । अथानुकम्पया कुर्यादेकान्तसुखितं जगत् ॥ आधिदारिद्यशोकादिविविधायासपीडितम् । जनं तु सृजतस्तस्य कानुकम्पा प्रतीयते" ॥ -तत्त्वसं. का. १५६-१५७ पृ. ७६ १२स.प्र. विशेषस्तु २५ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे - नेश्वरादिप्रेरणात् अस्वातन्यप्रसक्तेः । न परानुग्रहार्थमनुकम्पया दुःखितसत्त्वनिर्वर्तनानुपपत्तेः । न तत्कर्मप्रक्षयार्थे दुःखितसत्त्वनिर्माणे प्रवृत्तिः तत्कर्मणोऽपि तत्कृतत्वेन तत्प्रक्षयार्थं तन्निर्माणप्रवृत्तौ अप्रेक्षापूर्वकारितापत्तेः । न चं प्राक् सृष्टेः अनुकम्पनीयसत्त्वसद्भाव इति निरालम्बनाया अनुकम्पाया अयोगात् नातोऽपि जगत्करणे प्रवृत्तिर्युक्ता । नं च अनुकम्पातः प्रवृत्तौ सुखि सत्त्व५ प्रक्षयार्थ प्रवृत्तिर्युक्तेति देवादीनां प्रलयानुपपत्तिर्भवेत् । न च संमर्थस्य दुःखकारणमधर्मादिकमपेक्ष्य कृपालोर्दुःखितसत्त्वनिर्वर्तनं युक्तम् कृपापरतन्त्रतया दुःखप्रदे कर्मण्यवधा (घी) रणोपपत्तेः न हि कृपालवः परदुःखहेतुत्वमेव इच्छन्ति परदुःखवियोगेच्छयैव तेषां सर्वदा प्रवृत्तेः । न क्रीडा अपि तत्र तस्य प्रवृत्तिर्युक्ता क्रीडोत्पादेऽपि जगदुत्पादापेक्षया तस्यास्वातन्योपपत्तेः जगदुत्पत्ति-स्थिति-प्रलयात्मकस्य विचित्रक्रीडोपायस्य तदुत्पत्तौ अपेक्षणात् । यदि विचित्र१० क्रीडोपायोत्पादने तस्य प्रागेव शक्तिः तदा युगपद् अशेषजगदुत्पत्ति-स्थिति- प्रलयान् विदध्यात् । अथ आदौ न तत्र शक्तिस्तदा अशक्तावस्थाया अविशिष्टत्वात् क्रमेणापि न तान् विदध्यात् एकत्र एकस्य शक्ताऽशक्तत्वलक्षणविरुद्धधर्मद्वयायोगात् । अयं च दोष ईश्वरवादिनामपि समान इति । "परानुग्रहार्थमीश्वरः प्रवर्तते यथा कश्चित् कृतार्थो मुनिरात्महिताऽहितप्राप्ति - परिहारार्थासंभवेऽपि परहितार्थमुपदेशादिकं करोति तथा ईश्वरोऽपि आत्मीयामैश्वर्यविभूर्ति विख्याप्य १५ प्राणिनोऽनुग्रहीष्यन् प्रवर्तत इति अथवा शक्तिस्वाभाव्यात् यथा कालस्य वसन्तादीनां पर्यायेण अभिव्यक्तौ स्थावर-जङ्गमविकारोत्पत्तिः स्वभावतः तथैव ईश्वरस्यापि आविर्भावाऽनुग्रहसंहारशक्तीनां पर्यायेण अभिव्यक्तौ प्राणिनामुत्पत्ति-स्थिति- प्रलयहेतुत्वम्" - [ 1 इति यदुक्तं प्रशस्तमतिना तदपि प्रतिक्षिप्तं द्रष्टव्यम् । तथाहि - यदि असौ अनुग्रहप्रवृत्तस्तदा सर्वमेकान्तसुखिनं प्राणिगणं विदध्यात् इत्युक्तम् । शक्तिस्वाभाव्यात् करणे उत्पत्ति-स्थित्युपसंहारान् २० जगतो युगपत् कुर्यात् इत्यादिकमपि उक्तमेव दूषणम् । तथा चाह ७१६ “सर्ग-स्थित्युपसंहारान् युगपद् व्यक्तशक्तितः । युगपच्च जगत् कुर्यात् नो चेत् सोऽव्यक्तशक्तिकः” ॥ १ "सृष्टेः प्रागनुकम्पा ( प्या) नामसत्वे नोपपद्यते । अनुकम्पाऽपि यद्योगाद्धाताऽयं परिकल्प्यते” ॥ - तत्त्वसं० का० १५८ पृ० ७६ । २ " न चायं प्रलयं कुर्यात् सदाऽभ्युदययोगिनाम् । तददृष्टव्यपेक्षायां स्वातत्र्यमवहीयते” ॥ - तत्त्वसं० का० १५९ पृ० ७७ । ३ " पीडाहेतुमदृष्टं च किमर्थ स व्यपेक्षते । उपेक्षैव पुनस्तत्र दयायोगेऽस्य युज्यते” ॥ - तत्त्वसं० का० १६० पृ० ७७ । ४ “किन्त्ववधीरणमेव तत्र तस्य कृपापरतन्त्रतया युक्तं कर्तुम्” – तत्त्वसं० पञ्जि० पृ० ७७ पं० १४ । ५ " क्रीडार्था तस्य वृत्तिश्चेत् क्रीडायां न प्रभुर्भवेत् । विचित्रक्रीडनोपायव्यपेक्षातः शिशुर्यथा " ॥ - तत्त्वसं० का० १६१ पृ० ७७ । ६ “क्रीडासाध्या च या प्रीतिस्तस्या यदपि साधनम् । तत्सर्वं युगपत् कुर्याद् यदि तत्कृतिशक्तिमान् ॥ क्रमेणाऽपि न शक्तः स्यानो चेदादौ स शक्तिमान् । नाऽविभक्तस्य युज्येते शक्त्यशक्ती हि वस्तुनः” ॥ - तत्त्वसं ० का ० १६२ - १६३ पृ० ७७ । ७ " यदाह प्रशस्तमतिः" इत्यादि -- तत्त्वसं० पजि० पृ० ७८ पं० २ ८ न्यायवार्तिके ईश्वरोपादानताप्रकरणे उद्योतकरः “ अथायमीश्वरः कुर्वाणः किमर्थं करोति" इति ईश्वर विषयं प्रश्नमुत्थाप्य तद्विषये इमानि मतान्तराणि समुपन्यस्यति - “क्रीडार्थमित्येके” x x x “विभूतिख्यापनार्थमित्यपरे - जगतो वैश्वरूप्यं ख्यापनीयमित्यपरे मन्यन्ते " -४-१२१ पृ० ४६२ पं० १७ - ४६३ पं० १ । ९- “ शक्तिकः " - तत्त्व० प० पृ०७८ पं० ९ । १० - शक्तितः हा० । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ७१७ "न व्यक्तशक्तिरीशोऽयं क्रमेणाप्युपपद्यते। व्यक्तशक्तिरतोऽन्यश्चेत् भावो होकः कथं भवेत्" ॥[ एवं कालस्यापि पर्यायेण वसन्ताद्यभिव्यक्तिप्रवृत्तौ अयमेव दोषः । भावास्तु शीतोष्णादिपरिणतिभाजः प्रतिक्षणविशरारवः कथंचित् काल इत्यभिधानाभिधेयाः प्राग व्यवस्थापिताः। अथ ने क्रीडाद्यर्था भगवतःप्रवृत्तिः किन्तु पृथिव्यादिमहाभूतानां यथा स्वकार्येषु स्वभावत एव प्रवृत्तिस्तथा ईश्व ५ रस्यापि इति, अयुक्तमेतत् एवं हि तद्व्यापारमात्रभाविनामशेषभावानां युगपद् भावो भवेत् अविकलकारणत्वात् सहकार्यपेक्षाऽपि न नित्यस्य संगता इत्युक्तम् । पुरुपवादिनां तु केवलस्यैव पुरुषस्य जगत्कारणत्वेन अभ्युपगमात् तदपेक्षा दुरापास्तैव । पृथिव्यादिमहाभूतानां तु स्वहेतुबलायाताऽपरापरस्वभावसद्भावान्न तदुत्पाद्यकार्यस्य युगपदुत्पत्त्यादिदोषः संभवी । न च यथा ऊर्णनाभः स्वभावतः प्रवृत्तोऽपि न खकार्याणि युगपद् निर्वर्तयति तथा पुरुषोऽपीति वाच्यम् , यत ऊर्णनाभस्यापि प्राणि-१० भक्षणलाम्पट्यात् स्वकार्ये प्रवृत्तिर्न स्वभावतः अन्यथा तत्राप्यस्य दोषस्य समानत्वात् न ह्यसौ नित्यैकस्वभावः अपि तु स्वहेतुबलभाव्यपरापरकादाचित्कशक्तिमानिति तद्भाविनः कार्यस्य क्रमप्रवृत्तिरुपपन्चैव । न च यथा कथंचिद् अबुद्धिपूर्वकमेव पुरुषो जगनिर्वर्तने प्रवर्तते, प्राकृतपुरुषादप्ये हीनतया प्रेक्षापूर्वकारिणामनवधेयवचनताप्रसक्तेः। एवं प्रजापतिप्रभृतीनामपि जगत्कारणत्वेनाभीष्टानां निरासो द्रष्टव्यः न्यायस्य समानत्वात् । तन्न कालाधकान्ताः प्रमाणतः संभवन्तीति तद्वादो १५ मिथ्यावाद इति स्थितम् । त एव अन्योन्यसव्यपेक्षा नित्यायेकान्तव्यपोहेन एकानेकस्वभावाः कार्यनिर्वर्तनपटवः प्रमाणविषयतया परमार्थसन्त इति तत्प्रतिपादकस्य शास्त्रस्यापि सम्यक्त्वमिति तद्वादः सम्यग्वादतया व्यवस्थितः॥५३॥ __ [आत्मन्येकान्तरूपस्य नास्तित्वादिवादषट्स्य मिथ्यारूपत्वकथनम् ] यथैते कालाद्येकान्ता मिथ्यात्वमनुभवन्ति स्याद्वादोपग्रहात् तु त एव सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते २० तथा आत्माऽपि एकान्तनित्यानित्यत्वादिधर्माध्यासितो मिथ्यात्वम् अनेकान्तरूपतया तु अभ्युपगम्यमानः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यत इत्याह णत्थि ण णिचो ण कुणइ कयं ण वेएइ णत्थि णिव्वाणं । णत्थि य मोक्खोवाओ छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई ॥५४॥ १ तत्त्वसं० पजि. पृ. ७८५० १०-1 २ “अथ खभावतो वृत्तिरित्यादिना उद्योतकरमतमाशङ्कते अथ खभावतो वृत्तिः सर्गादावस्य वर्ण्यते । पावकादेः प्रकृत्यैव यथा दाहादिकर्मणि ॥ यद्येवमखिला भावा भवेयुर्युगपत् ततः । तदुत्पादनसामर्थ्ययोगिकारणसन्निधेः" ॥ -तत्त्वसं० का. १६४-१६५-पृ. ७८ । एतदेवोद्योतकरीयं मतं न्यायवार्तिके इत्थमुपन्यस्तमस्ति "किमर्थं तर्हि करोति तत्वाभाव्यात् प्रवर्तते इत्यदुष्टम्-यथा भूम्यादीनि धारणादिक्रियां तत्खाभाव्यात् कुर्वन्ति तथेश्वरोऽपि तत्स्वाभाव्यात् प्रवर्तत इति प्रवृत्तिस्वभावकं तत् तत्त्वमिति" इत्यादि-४-१-२१ पृ. ४६३ पं०४-1 ३ "खहेतुबलसंभूता नियता एव शक्तयः। असर्वकालभाविन्यो ज्वलनादिषु वस्तुषु ॥ अन्यथा यौगपर्धन सर्व कार्य समुद्भवेत् । तेषामपि न चेदेष नियमोऽभ्युपगम्यते" ॥ -तत्त्वसं० का० १६६-१६७ पृ० ७८-७९ । ४ "प्रकृत्यैवांशुहेतुखमूर्णनामेऽपि नेष्यते । प्राणिभक्षणलाम्पट्याल्लालाजालं करोति यत्" ॥ -तत्त्वसं० का० १६८० ७९ । ५ “यथाकथंचिवृत्तिश्चेद् बुद्धिमत्ताऽस्य कीदृशी । नासमीक्ष्य यतः कार्य शनकोऽपि प्रवर्तते" ॥ -तत्त्वसं० का० १६९ पृ० ७९ । ६ "शौर्यात्मजादयो येऽपि धातारः परिकल्पिताः। एतेनैव प्रकारेण निरस्तास्तेऽपि वस्तुतः" ॥ -तत्त्वसं० का० १७० पृ. ७९ । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ तृतीये काण्डेनास्ति आत्मा एकान्तत इति बृहस्पतिमतानुसारी । अस्ति आत्मा किन्तु प्रतिक्षणविशरारुतया चित्तसंततेन नित्य इति बौद्धाः । अस्ति आत्मा नित्यो भोक्ता न तु करोति इति सांख्याः त एव प्राहुः कर्ता असौ न भोक्ता प्रकृतिवत् कर्तुर्भोक्तृत्वानुपपत्तेः । यद्वा येन कृतं कर्म नासौ तद् भुक्ते क्षणिकत्वाद् चित्तसंततेः इति बौद्धाः क्षणिकत्वात् चित्तसंततेः कृतं न वेदयते इति बौद्ध ५एव आह । कर्ता भोक्ता च आत्मा किन्तु न मुच्यतेऽसौ चेतनत्वात् अभव्यवत्-रागादीनामात्मखरूपाऽव्यतिरेकात् तदक्षये तेषामपि अक्षयात् इति याज्ञिकः । निर्हेतुक एवासौ मुच्यते तत्स्वभावताव्यतिरेकेण अपरस्य तत्र उपायस्य अभावात् इति मण्डली प्राह । एतानि षड् मिथ्यात्वस्य स्थानानि षण्णामप्येषां पक्षाणां मिथ्यात्वाधारतया व्यवस्थितेः। तथाहि-एतानि नास्तित्वादिविशेषणानि साध्यधर्मिविशेषणतया उपादीयमानानि किं प्रतिष १०क्षव्युदासेन उपादीयन्ते, आहोस्वित् कथंचित् तत्संग्रहेण इति कल्पनाद्वयम् । प्रथमपक्षे अध्यक्षवि. रोधः स्वसंवेदनाध्यक्षतश्चैतन्यस्य आत्मरूपस्य प्रतीतेः कथंचित् तस्य परिणामनित्यताप्रतीतेश्च शरीरादिव्यापारतः कर्तृत्वोपलब्धेश्च स्वव्यापारनिर्वर्तितभक्त-सूपादिभोक्तत्वसंवेदनाच्च पुद्गललक्षणविलक्षणतया रागादिविविक्ततया च शमसुखरसावस्थायां कथंचित् तस्य उपलब्धेश्च स्वोत्कर्षतरतमादि तो रागाद्यपचयतरतमभावविधायिसम्यग्ज्ञान-दर्शनादेरुपलम्भाच्च । अनुमानतोऽपि विरोधः १५ तथाभूतज्ञानकार्यान्यथानुपपत्तितः चैतन्यलक्षणस्य आत्मनः सिद्धिः घटादिवद् रूपादिगुणतः ज्ञानस्वरूपगुणोपलम्भात् कथंचित् तदभिन्नस्य आत्मलक्षणस्य गुणिनः सिद्धिरिति कथं नानुमानविरोधः? इतरधर्मनिरपेक्षधर्मलक्षणस्य विशेषणस्य तदाधारभूतस्य च विशेष्यस्य अप्रसिद्धेः अप्रसिद्ध विशेषणविशेष्योभयदोषैर्दुष्टश्च पक्षः। 'आत्मा' इति वचनेन तत्सत्ताभिधानम् 'नास्ति'इत्यनेन च तत्प्रतिषेधाभिधानमिति पदयोः प्रतिज्ञावाक्ये व्याघातः लोकविरोधश्च तथाभूतविशेषणविशिष्टतया धर्मिणो २० लोकेन व्यवह्रियमाणत्वात् स्ववचनविरोधश्च तत्प्रतिपादकवचनस्य इतरधर्मसापेक्षतया प्रवृत्तेः । हेतु रपि इतरनिरपेक्षकधर्मरूपोऽसिद्धः तथाभूतस्य तस्य क्वचिद् अनुपलब्धेः सर्वत्र तद्विपरीत एव भावाद् विरुद्धश्च । दृष्टान्तश्च साध्यसाधनधर्मविकलः तथाभूतसाध्यसाधनधर्माधिकरणतया कस्यचिद् धर्मिणः अप्रसिद्धः। तन्न प्रथमः पक्षः। नापि द्वितीयः स्वाभ्युपगमविरोधप्रसङ्गात् साधनवैफल्यापत्तेश्च तथाभूतस्य अनेकान्तरूपतया अस्माभिरप्यभ्युपगमात् । तस्माद् व्यवस्थितमेतद् एकान्तरूपतया २५ षडपि एतानि मिथ्यात्वस्य स्थानानि ॥ ५४॥ [आत्मन्येकान्तरूपस्यास्तित्वादिवादषट्स्य मिथ्यारूपत्वकथनम् ] न केवलं 'नास्ति' इत्यादिषणमिथ्यात्वस्थानानि तद्विपर्ययेणापि एकान्तवादे तथैव तानीति दर्शयन्नाह अत्थि अविणासधम्मी करेइ वेएइ अत्थि णिव्वाणं । अस्थि य मोक्खोवाओ छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई ॥५५॥ ___ 'अस्ति आत्मा' इति पक्षः पूरणादेर्वादिनः । स च अविनाशधर्मी'इत्येषा प्रतिज्ञा कपिलमतानुसारिणः । 'कर्तृ-भोक्तस्वभावोऽसौ' इति मतं जैमिनेः । 'तथाभूत एवासौ जडस्वरूपः' इति अक्षपादकणभुग्मतानुसारिणः । 'अस्ति निर्वाणम्' 'अस्ति च मोक्षोपायः' इत्यामनन्ति नास्तिक-याज्ञिकव्यतिरिक्ताः पाण्डिनः । एते च अभ्युपगमा एकान्ताभ्युपगमत्वाद् मिथ्यास्थानानि, एष्वपि पूर्ववद ३५ विकल्पद्वयेऽपि तद्दोषानतिकान्तेः एकान्तेन तदस्तित्वादेरध्यक्षाऽनुमानाभ्यामप्रतीतेः तथाभ्युपगमे व स्वास्तित्वेनेवान्यभावास्तित्वेनापि तस्य भावात् सर्वभावसंकीर्णताप्रसक्तेः स्वखरूपाऽव्यवस्थितेः खपुष्पवत् असत्त्वमेव स्यात् इत्यादिदूषणमसकृत् प्रतिपादितम् । हेतु-दृष्टान्तदोषाश्च पूर्ववद् अत्रापि वाच्याः । चतर्थपादं तु गाथायाः केचिद अन्यथा पठन्ति-"छस्सम्मत्तस्स ठाणाई"ति । अत्र तु १-ण्डलीक प्रा-आ० । २-भक्तरूपादि-बृ० विना। ३-षणविशिष्टोभ-बृ. आ. हा० वि० । ४ प्र० पृ. पं०९। ५-स्तिकत्वेनैवा-बृ० आ० हा० वि०। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेयमीमांसा। ७१९ २० पाठे इतरधर्माऽजहवृत्त्या प्रवर्तमाना पते पट् पक्षाः सम्यक्त्यम्य आधारतां प्रतिपद्यन्ते इति व्यायेयम् न च 'स्यादस्ति आत्मा' 'म्यान्नित्यः' इत्यादिप्रतिज्ञावाक्यम अध्यक्षादिना प्रमाणन वाध्यते ख-परभायाभावोभयात्मकभावावभासकाध्यक्षादिप्रमाणव्यतिरेकेण अन्यथाभूतम्य अध्यक्षादेग्प्रतीतेः तेन अनुमानाऽभ्युपगम-स्ववचन-लोकव्यवहारविरोधोऽपि न प्रतिक्षायाः अध्यक्षादिप्रमाणावसेये सदसत्तात्मके वस्तुनि कस्यचिद विरोधस्यासंभवात् । न चाप्रसिद्धविशपणः पक्षः लौकिक-परीक्षक-५ स्तथाभूतविशेषणस्याविप्रतिपत्त्या सर्वत्र प्रतीतेः अन्यथा विशेषणव्यवहारम्य उच्छेदप्रसङ्गान् अन्यथाभूतस्य तस्य क्वचिदपि असंभवात् नथाभूतविशंपणान्मकम्य धर्मिणः सर्वत्र प्रतीतेनीप्रसिद्धविशप्यतादोषः । नापि अप्रसिद्धोभयता दृपणम् तथाभृतद्वयव्यतिरेकेणान्यम्यासत्त्वतः प्रमाणाविषयत्वात् । हेतुरपि नाऽप्रसिद्धः तत्र तस्य सत्त्वप्रतीतेः, विपक्ष सत्त्वासंभवाद नापि विरुद्धः अनेकान्तिकताऽपि अत एवायुक्ता । दृशान्तदोषा अपि साध्यादिविकलत्वादयो नात्र संभविनः असिद्धन्वादि-१० दोषवत्येव साधने तेषां भावात् । न च अनुमानतः अनेकान्तात्मकं वस्तु तद्वादिभिः प्रतीयते अध्यक्षसिद्धत्वात् यस्तु प्रतिपन्नेऽपि ततस्तस्मिन् विप्रतिपद्यते तं प्रति तत्प्रसिद्धनैव न्यायेन अनुमानोपन्यासेन विप्रतिपत्तिनिराकरणमात्रमेव विधीयते इति न अप्रसिद्धविशेषणत्वादेदीपम्यावकाशः । प्रतिक्षणपरिणाम-परभागादीनां तु उत्तरविकाराऽर्वाग्भागदर्शनान्यथानुपपत्त्या अनुमाने न अध्यक्षादियाधा अस्मदाद्यध्यक्षस्य सर्वात्मना वस्तुग्रहणाऽसामर्थ्यात् स्फटिकादौ च अर्वाग्भाग-पग्भागयो-१५ रध्यक्षत एवैकदा प्रतिपत्तेः । न च स्थैर्य ग्राह्यध्यक्ष प्रतिक्षणपरिणामानुमानेन विरुध्यते अस्य तदनुग्राहकत्वात् कथंचित् प्रतिक्षणपरिणामस्य तत्प्रतीतस्यैव अनुमानतोऽपि निश्चयात् ॥ ५५ ॥ [एकान्तवादिनः साधर्मेण वा वेधर्मेण वैकान्तधर्मयुक्तधर्मिसाधनाशक्तवाभिधानम् ] अनेकान्तव्यवच्छेदेन एकान्तावधारितधर्माधिकरणत्वेन धर्मिणं साधयन्नकान्तवादी न साधHतः साधयितुं प्रभुः नापि वैधर्म्यतः इति प्रतिपादयन्नाह साहम्मउ व्व अत्थं साहेज परो विहम्मओ वा वि । अण्णोण्णं पडिकुट्ठा दोषणवि एए असव्वाया ॥५६॥ समानस्तुल्यः साध्यसामान्यान्वितः साधनधर्मा यस्य असौ सधर्मा साधर्म्यदृशान्तापेक्षया साध्यधर्मी तस्य भावः साधर्म्यम् ततो वा अर्थ साध्यधर्माधिकरणतया धर्मिणं साधयेत् परः अन्वयिहेतुप्रदर्शनात् साध्यधर्मिणि विवक्षितं साध्यं यदि वैशेषिकादिः साधयेत् तदा तत्पुत्रत्वादे-२५ रपि गमकत्वं स्यात् अन्वयमात्रस्य तत्रापि भावात् । अथ वैधाद् विगतस्तथाभूतः साधनधर्मो यस्माद असौ विधर्मा तस्य भावो वैधर्म्यम् ततो वा व्यतिरेकिणो हेतोः प्रकृतं साध्यं साधयेत् उभाभ्यां वा-'वा' शब्दस्य समुच्चयार्थत्वात्-तथापि तत्पुत्रत्वादेरेव गमकत्वप्रसक्तिः श्यामत्वाभावे तत्पुत्रत्वादेरन्यत्र गौरपुरुषेऽभावाद् उभाभ्यामपि तत्साधने अत एव साध्यसिद्धिप्रसक्तिः स्यात् । [प्रसङ्गाद् हेखाभाससंख्याविषया चर्चा ] ३० अथात्र कालात्ययापदिएत्वादिदोषसद्भावाद् न साध्यसाधकताप्रमक्तिः, नः असिद्ध-विरुद्धाऽनैकान्तिकहेत्वाभासमन्तरेणापरहेत्वाभासासंभवात् । न च रूप्यलक्षणयोगिनोऽसिद्धत्वादिहेन्वाभासता कृतकत्वादेरिव अनित्यत्वसाधने संभवति, अस्ति च भवदभिप्रायेण त्रैरूप्यं प्रकृतहेताविति कुतोऽस्य हेत्वाभासता? अथ भवतु अयं दोषः येषां त्रैरूप्येऽविनाभावपरिसमाप्तिः नास्माकं पञ्चलक्षणहेतुवादिनाम् ३५ प्रकरणसमादेरपि हेत्वाभासत्वोपपत्तेः त्रैलक्षण्यसद्भावेऽपि अपरस्यासत्प्रतिपक्षत्वादेर्हेतुलक्षणस्यासंभवेन तदाभासत्वसंभवात् । “यस्मात् प्रकरणचिन्ता स प्रकरणसमः" [ न्यायद० १-२-७] इति प्रकरणसमस्य लक्षणाभिधानात्-प्रक्रियेते साध्यत्वेनाधिक्रियेते निश्चिती पक्ष-प्रतिपक्षी यौ तौ प्रकरणम् तस्य चिन्ता संशयात् प्रभृत्यानिश्चयाद् आलोचनखभावा यतो भवति स एव तन्निश्चयार्थ १ “यस्मात् प्रकरणचिन्ता स निर्णयार्थमपदिष्टः प्रकरणसमः” इति पाठो न्यायदर्शने । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे प्रयुक्तः प्रकरणसमः पक्षद्वयेऽपि तस्य समानत्वात् उभयत्रापि अन्वयादिसद्भावात् । तथाहितस्योदाहरणम्-अनित्यः शब्दः नित्यधर्मानुपलब्धेः अनुपलभ्यमाननित्यधर्मकं घटादि अनित्यं दृष्टम् यत् पुनर्नित्यं न तद् अनुपलभ्यमाननित्यधर्मकम् यथा आत्मादि । एवं चिन्तासंबन्धिपुरुषेण तत्त्वानुपलब्धेरेकदेशभूताया अन्यतरानुपलब्धेः अनित्यत्वसिद्धौ साधनत्वेन उपन्यासे सति द्वितीय५श्चिन्तासंबन्धी पुरुष आह-यदि अनेन प्रकारेण अनित्यत्वं साध्यते तर्हि नित्यतासिद्धिरपि अन्यतरानुपलब्धेस्तत्रापि सद्भावात् । तथाहि-नित्यः शब्दः अनित्यधर्मानुपलब्धः अनुपलभ्यमानानित्यधर्मकं नित्यं दृष्टम् आत्मादि यत् पुनर्न नित्यं तत् नानुपलभ्यमानाऽनित्यधर्मकम् यथा घटादि। एवमन्यतरानुपलब्धेरुभयपक्षसाधारणत्वात् प्रकरणानतिवृत्तेर्हेत्वाभासत्वम् न च निश्चितयोः पक्ष-प्रतिपक्षपरिग्रहेऽधिकारात् कथं चिन्तायुक्त एवं साधनोपन्यासं विदध्यात् इति वक्तव्यम् १० यतोऽन्यदा संदेहेऽपि चिन्तासंबन्धी पुरुषः अन्यतरानुपलब्धेः पक्षधर्मान्वय-व्यतिरेकान् अवगच्छन् तद्बलात् स्वसाध्यं यदा निश्चिनोति तदा द्वितीयस्तामेव खसाध्यसाधनाय हेतुत्वेन अभिधत्ते । यदि अतः त्वत्पक्षसिद्धिः अत एव मत्पक्षसिद्धिः किं न भवेत् त्रैरूप्यस्य पक्षद्वयेऽपि अत्र तुल्यत्वात् । अथ नित्यत्वाऽनित्यत्वैकान्तविपर्ययेणापि अस्याः प्रवृत्तेः अनैकान्तिकता उभयवृत्तिर्हि अनैकान्तिकः न प्रकरणसमः, न; यत्र पक्ष-सपक्ष-विपक्षाणां तुल्यो धर्मो हेतुत्वेन उपादीयते तत्र संशयहेतुता १५साधारणत्वेन तस्य विरुद्धविशेषानुस्मारकत्वात् न तु प्रकृत एवंविधः यतः नित्यधर्मानुपलब्धेरनित्य एव भावः न नित्ये एवम् अनित्यधर्मानुपलब्धेर्नित्य एव भावः नाऽनित्ये एवं च एकत्र साध्ये विपक्षव्यावृत्तेः प्रकरणसमता न अनैकान्तिकता पक्षद्वयवृत्तितया तस्याभावात् । ननु यदि अयं पक्षद्वये वर्तते तदा साधारणानैकान्तिकः अथ न प्रवर्तते कथमयं पक्षद्वयसाधकः स्यात् अतद्वत्तेः अतत्सा धकत्वात, न; पक्षद्वये प्रकृतस्य वृत्त्यभ्युपगमात् । तथाहि-साधनकाले अनित्यपक्ष एव नित्यधर्मा२० नुपलब्धिर्वर्तते न नित्ये, यदाऽपि नित्यत्वं साध्यं तदापि नित्यपक्ष एव अनित्यधर्मानुपलब्धिर्वर्तते नाऽनित्ये, ततश्च सपक्षे एव प्रकरणसमस्य वृत्तिः सपक्ष-विपक्षयोश्च अनैकान्तिकस्य; साध्यापेक्षया च पक्ष-सपक्ष-विपक्षव्यवहारः नान्यथा तेन साध्यद्वयवृत्तिः उभयसाध्यसपक्ष-वृत्तिश्च प्रकरणसमः नतु कदाचित् साध्यापेक्षया विपक्षवृत्तिः अनैकान्तिकस्तु विपक्षवृत्तिरपि इत्यस्मात् अस्य भेदः । न च रूपत्रययोगेऽपि अस्य हेतुत्वम् सप्रतिपक्षत्वात् यस्य तु प्रतिबन्धपरिसमाप्ती रूपत्रययोगे तेन २५ प्रकरणसमस्य नाहेतुत्वमुपदर्शयितुं शक्यम् । न चास्य कालात्ययापदिष्टत्वम् अबाधितविषयत्वात् ययोहि प्रकरणचिन्ता तयोरयं हेतुः न च तो संदिग्धत्वात् वाधामस्योपदर्शयितुं क्षमौ । न च हेतुद्वयसंनिपातात् एकत्र धर्मिणि संशयोत्पत्तेस्तजनकत्वेनास्य अनैकान्तिकता यतो न संशयहे. तुत्वेन अनैकान्तिकत्वम् इन्द्रियसंनिकर्षादेरपि तथात्वप्रसक्तेः। न च तत्त्वानुपलब्धिर्विशेषस्मृत्यादि शून्या संशयकारणम् न च तत्सहिताया अस्या हेतुत्वम् केवलाया एव तत्त्वेन उपन्यासात् । न च २०संदिग्धे विषये भ्रान्तपुरुषेण निश्चयार्थमुपादीयमानाया अस्याः संदेहहेतुता युक्ता । भवतु वा कथंचिद् अतस्संशयोत्पत्तिस्तथापि अनैकान्तिकाद् अस्य विशेषः स हि सपक्ष-विपक्षयोः समानः अयं तु तद्विपरीतः साध्यद्वयवृत्तित्वात् तु प्रकरणसमःन चासंभवः अस्यैवंविधसाधनप्रयोगस्य भ्रान्तेः सद्भावात् । अथास्यासिद्ध अन्तर्भावः नित्यवादिनो नित्यधर्मानुपलब्धेः इतरस्य च इतरधर्मानुपलब्धेरसि. द्धत्वात, असदेतत् यतश्चिन्तासंबन्धिपुरुषेण प्रकरणसमस्य हेतुत्वेन उपन्यासः तस्य च तत्संबन्धि३५ नैव कथमितरेण असिद्धतोद्भावनं विधातुं शक्यम् ? यस्य हि अनुपलब्धिनिमित्तसंशयोत्पत्तौ शब्दे नित्यत्वाऽनित्यत्वजिज्ञासा स कथमन्यतरानुपलब्धेहेतुत्वप्रयोगे असिद्धतां ब्रूयात् अत एव सूत्रकारेण “यस्मात् प्रकरणचिन्ता" [ न्यायद० १-२-७] इति असिद्धतादोषपरिहारार्थमुपातम् । एवम् 'अनित्यः शब्दः, पक्ष-सपक्षयोः अन्यतरत्वात्, घटवत्' इति चिन्तासंबन्धिना पुरुषेण उक्ते अपरस्त संवन्धी 'नित्यः शब्दः, पक्ष-सपक्षयोः अन्यतरत्वात्, आकाशवत्' यदाह तदा प्रकरणसम एव । ४० अत्र प्रेरयन्ति-पक्ष-सपक्षयोः अन्यतरः पक्षः सपक्षो वा ? यदि पक्षः तदा न हेतोः सपक्षवृ. त्तिता न हि शब्दस्य धर्म्यन्तरे वृत्तिः संभवतीति असाधारणतैवास्य हेतोः स्यात् । अथ सपक्षः अनकान्तिकत २०संदिग्धेशरणम् न च तत्ससिप तथात्वास १-टादिः ए-आ० हा० वि० विना। २ -वृत्तिःप्र-वा० बा० । ३-शब्दे नित्यत्वजि-वा० बा० आ०। ४ पृ. ७१९ पं० ३७। ५ शब्दः सपक्षपक्षयोरन्य-भां० मा० विना । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ७२१ अन्यतरशब्दवाच्यस्तदा हेतोरसिद्धता सपक्षयोघंटाऽऽकाशयोः शब्दाख्ये धर्मिणि अप्रवृत्तेः असिद्धे अन्तर्भूतस्य अस्य न प्रकरणसमता । न च पक्ष-सपक्षयोर्व्यतिरिक्तः कश्चिद् अन्यतरशब्दवाच्यः यस्य पक्षधर्मता अन्वयश्च भवेत् । तन्नायं हेतुः। ____अत्र प्रतिविदधति-भवेदेष दोषः यदि पक्ष-सपक्षयोर्विशेषशब्दवाच्ययोर्हेतुत्वं विवक्षितं भवेत्। तच्च न, अन्यतरशब्दाभिधेयस्यैव हेतुत्वेन विवक्षितत्वात्। स च पक्ष-सपक्षयोः साधारणः तस्यैव५ साधारणशब्दाभिधेयत्वात् । यदि च अनुगतो द्वयोर्धर्मः कश्चित् शब्दवाच्यो न भवेत् तदा 'विशेष'शब्दवत् 'अन्यतर'शब्दोऽपि न तत्र प्रवर्तेत । नापि तच्छब्दात् उभयत्र प्रतीतिर्भवेत् दृश्यते च तस्मात् पक्षताम् सपक्षती चासाधारणरूपत्वेन कल्पितां परित्यज्य अन्यतरशब्दो द्वयोरपि वाचकत्वेन योग्यः ततो या विशेषप्रतीतिः सा पुरुषविवक्षानिबन्धना यदा हि साधनप्रयोक्ता पक्षधर्मत्वमस्य विवक्षति तदा 'अन्यतर'शब्दवाच्यः पक्षः सपक्षे अनुगमविवक्षायां तु सपक्षस्तच्छब्दवाच्यः१० एतदभिप्रायवांश्च 'अन्यतर'शब्दवाच्यं हेतुत्वेन प्रतिपादयति न 'विशेष'शब्दवाच्यम् । न च विवक्षानिवन्धनशब्दप्रवृत्तौ पक्षादिशब्दवत् अन्यतर'शब्दोऽपि विशेषाभिधायी स्यात् यतो लोकव्यवहाराच्छब्दार्थसंबन्धव्युत्पत्तिः तत्र च 'पक्ष'शब्दस्य न सपक्षे प्रवृत्तिः नापि 'सपक्ष'शब्दस्य पक्षे यथा च अनयोः संकेतादपि नान्यत्र वृत्तिः एवम् 'अन्यतर'शब्दस्य सामान्ये संकेतितस्य न विशेष एव वृत्तिः उभयाभिधायकत्वे तु विवक्षावशेन अन्यतरत्र नियमः । न चैवमपि विशेषे तस्य वृत्तौ दूषणं तद्वस्थ. १५ मेव, एवंदोषोद्भावने कस्यचित् सम्यग्घेतुत्वानुपपत्तेः कृतकत्वादेरपि पक्षधर्मत्वविवक्षायां विशेषरूपत्वात् अनुगमाभावात् सपक्षविशेषितस्य पक्षधर्मत्वायोगात् । अथ कृतकत्वमात्रस्य हेतुत्वेन विवक्षातो न दोषस्तर्हि तत् प्रकृतेऽपि तुल्यम् 'अन्यतर'शब्दस्यापि अनङ्गीकृतविशेषस्य द्वयाभिधाने सामोपपत्तेः। एतेन यदुक्तं न्यायविदा-"अनर्थः खल्वपि कल्पनासमारोपितो न लिङ्गम् तथा पक्ष एवायं पक्ष-सपक्षयोरन्यतरः" [ ] इत्यादि तदपि निरस्तम् त्रैरूप्यसद्भावेऽपि २० प्रकरणसमत्वेनास्यागमकत्वात् । प्रत्यक्षाऽऽगमबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तः कालात्ययापदिष्टोऽपि हेत्वाभासोऽपरोऽभ्युपगतः यथा 'पक्कानि एतानि आम्रफलानि, एकशाखाप्रभवत्वात् , उपयुक्तफलवत्' अस्य हि रूपत्रययोगिनोऽपि प्रत्यक्षबाधितकर्मानन्तरप्रयोगात् कालात्ययापदिष्टता अगमकत्वे निवन्धनम् हेतोः कालः अदुष्टकर्मानन्तरं प्रयोगः प्रत्यक्षादिविरुद्धस्य तु दुष्टकर्मानन्तरं प्रयोगात् हेतु. कालव्यतिक्रमेण प्रयोगः तस्माच्च कालात्ययापदिष्टशब्दाभिधेयता हेत्वाभासता च । तदुक्तं न्यायभा-२५ ष्यकृता-“यत् पुनरनुमानं प्रत्यक्षाऽऽगमविरुद्ध न्यायाभासः स इति"[वात्स्यायनभा० पृ०४ पं०५] तदेवं पञ्चलक्षणयोगिनि हेतौ अविनाभावपरिसमाप्तेः तत्पुत्रत्वादौ तु त्रैलक्षण्येऽपि कालात्ययापदिष्टत्वान्न गमकत्वम् इति नैयायिकाः। असदेतत्, असिद्धादिव्यतिरेकेण अपरस्य प्रकरणसमादेः हेत्वाभासस्यायोगात् । यच्च प्रकरणसमस्य 'अनित्यः शब्दः अनुपलभ्यमाननित्यधर्मकत्वात्' इति उदाहरणं प्रदर्शितम् तद् असंगतमेव, ३० यतः अनुपलभ्यमाननित्यधर्मकत्वं यदि शब्दे न तत्त्वतः सिद्धं तदा पक्षवृत्तितयास्यासिद्धेः कथं नासिद्धः? अथ तत् तत्र सिद्धम् तदा किं साध्यधर्मान्विते धर्मिणि तत् सिद्धम्, उत तद्विकल इति वक्तव्यम् । यदि तदन्विते तदा साध्यवत्येव धर्मिणि तस्य सद्भावसिद्धेः कथमगमकता न हि साध्यधर्ममन्तरेण धर्मिण्यभवनं विहाय अपरं हेतोः अविनाभावित्वम् तच्चेत् समस्ति कथं न गमकता अविनाभावनिबन्धनत्वात् तस्याः? अथ तद्विकले तत् तत्र सिद्धं तदा तत्र वर्तमानो हेतुः कथं न ३५ विरुद्धः विपक्ष एव वर्तमानस्य विरुद्धत्वात् ? भवति च साध्यधर्मविकल एव धर्मिणि वर्तमानो विपक्षवृत्तिः। अथ संदिग्धसाध्यधर्मवति तत् तत्र वर्तते तदा संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वाद् अनैकान्तिकः। अथ साध्यधर्मिव्यतिरिक्ते धर्म्यन्तरे यस्य साध्याभाव एव दर्शनं स विरुद्धः यस्य च तदभावेऽपि असौ अनैकान्तिकः न हि धर्मिण एव विपक्षता तस्य हि विपक्षत्वे सर्वस्य हेतोः अहेतुत्वप्र. सक्तेः यतः साध्यधर्मी साध्यधर्मसदसत्त्वाश्रयत्वेन सर्वदा संदिग्ध एव साध्यसिद्धेः प्राय अन्यथा४० साध्याभावे निश्चिते साध्याभावनिश्चायकेन प्रमाणेन बाधितत्वात् हेतोरप्रवृत्तिरेव स्यात् । प्रत्यक्षादिप्रमाणेन च साध्यधर्मयुक्ततया धर्मिणो निश्चये हेतोर्वैयर्थ्यप्रसक्तिः प्रत्यक्षादित एव हेतुसाध्यस्य १-तां वा सा-भां०। २ पृ० ७२० पं० २। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ तृतीये काण्डेसिद्धेः तस्मात् संदिग्धसाध्यधर्मा धर्मी हेतोराश्रयत्वेन एष्टव्य इति यदि अनैकान्तिकस्तत्र वर्तमानो हेतु—मादिरपि तर्हि तथाविध एव स्यात् तस्यापि एवं संदिग्धव्यतिरेकित्वात् यदि हि विपक्षवृत्तित्वेन निश्चितो यथाऽगमकस्तथा संदिग्धव्यतिरेक्यपि अनुमानप्रामाण्यं परित्यक्तमेव भवेत् ततोऽनुमेय व्यतिरिक्ते साध्यधर्मवति वर्तमानः साध्याभावे चानैकान्तिको हेतुः साध्याभाववत्येव तु वर्तमानः ५पक्षधर्मत्वे सति विरुद्ध इत्यभ्युपगन्तव्यम् । यश्च विपक्षाद् व्यावृत्तः सपक्षे च अनुगतः पक्षधर्मो निश्चितः स स्वसाध्यं गमयति प्रकृतस्तु यद्यपि विपक्षाद् व्यावृत्तस्तथापि न स्वसाध्यसाधकः प्रतिबन्धस्य स्वसाध्येनानिश्चयात् तदनिश्चयश्च न विपक्षवृत्तित्वेन किन्तु प्रकरणसमत्वेन एकशाखाप्रभवत्वादेस्तु कालात्ययापदिष्टत्वेन इति, असदेतत्; यतो यदि धर्मिव्यतिरिक्ते धर्म्यन्तरे हेतोः स्वसाध्येन प्रतिबन्धोऽभ्युपगम्यते तदा धर्मिण्युपादीयमानोऽपि हेतुः साध्यस्योपस्थापको न स्यात् साध्यधर्मिणि १० सांध्यमन्तरेणापि हेतोः सद्भावाभ्युपगमात् तद्व्यतिरिक्त एव धर्म्यन्तरे तस्य साध्येन प्रतिवन्धग्रहणात् । न चान्यत्र स्वसाध्याविनाभावित्वेन निश्चितः अन्यत्र साध्यं गमयेत् अतिप्रसङ्गात् । अथ यदि साध्यधर्मान्वितत्वेन साध्यधर्मिण्यपि हेतुरन्वयप्रदर्शनकाल एव निश्चितस्तदा पूर्वमेव साध्यधर्मस्य साध्यधर्मिणि निश्चयात् पक्षधर्मताग्रहणस्य वैयर्थ्यम् , असदेतत्; यतः प्रतिबन्धप्रसाधकेन प्रमाणेन सर्वोपसंहारेण साधनधर्मः साध्यधर्माभावे क्वचिदपि न भवतीति सामान्येन प्रतिबन्धनिश्चये १५ पक्षधर्मताग्रहणकाले यत्रैव धर्मिण्युपलभ्यते हेतुस्तत्रैव स्वसाध्यं निश्चाययतीति पक्षधर्मताग्रहणस्य विशेषविषयप्रतिपत्तिनिवन्धनत्वान्नानुमानस्य वैयर्थ्यम् न हि विशिष्टधर्मिण्युपलभ्यमानो हेतुस्तद्तसाध्यमन्तरेण उपपत्तिमान् अन्यथा तस्य स्वसाध्यव्याप्तत्वायोगात् । न चैवं तत्र हेतूपलम्भेऽपि साध्यविषयसदसत्त्वानिश्चयः येन संदिग्धव्यतिरेकिता हेतोः सर्वत्र भवेत् निश्चितस्वसाध्याविनाभूत. हेतूपलम्भस्यैव साध्यधर्मिणि साध्यप्रतिपत्तिरूपत्वात् न हि तत्र तथाभूतहेतुनिश्चयात् अपरस्तस्य २० स्वसाध्यप्रतिपादनव्यापारः अत एव निश्चितप्रतिबन्धैकहेतुसद्भावे धर्मिणि न विपरीतसाध्योपस्थाप कस्य तल्लक्षणयोगिनो हेत्वन्तरस्य सद्भावः तयोर्द्वयोरपि स्वसाध्याविनाभूतत्वात् नित्याऽनित्यत्वयोश्च एकत्र एकदा एकान्तवादिमतेन विरोधात् असंभवात् तद्व्यवस्थापकहेत्वोरपि असंभवस्य न्यायप्रातत्वात् संभवे वा तयोः स्वसाध्याविनाभूतत्वात् नित्याऽनित्यत्वधर्मयुक्तत्वं धर्मिणः स्यादिति कुतः प्रकरणसमस्यागमकता? अथान्यतरस्यात्र स्वसाध्याविनाभावविकलता तर्हि तत एव तस्यागमकता २५ इति किमसत्प्रतिपक्षतारूपप्रतिपादनप्रयासेन ? किञ्च, नित्यधर्मानुपलब्धिः प्रसज्यप्रतिषेधरूपा, पर्युदासरूपा वा शब्दानित्यत्वे हेतुः ? न तावत् आद्यः पक्षः अनुपलब्धिमात्रस्य तुच्छस्य साध्यासाधकत्वात् । अथ द्वितीयः तदा अनित्यधर्मोपलब्धिरेव हेतुरिति यद्यसौ शब्दे सिद्धा कथं नानित्यतासिद्धिः ? अथ चिन्तासंबन्धिना पुरुषेणासौ प्रयुज्यत इति न तत्र निश्चिता तर्हि कथं न संदिग्धासिद्धो हेतु,दिनं प्रति प्रतिवादिनस्तु असौ स्वरूपासिद्ध एव नित्यधर्मोपलब्धेस्तत्र तस्य सिद्धेः । यदपि ३० 'उभयानुपलब्धिनिवन्धना यदा द्वयोरपि चिन्ता तदैकदेशोपलब्धेरन्यतरेण हेतुत्वेन उपादाने कथं चिन्तासंबन्ध्येव द्वितीयः तस्याऽसिद्धतां वक्तुं पारयति' इत्याद्यभिधानम् , तदपि असंगतम् ; यतो यदि द्वितीयः संशयापन्नत्वात् तत्रासिद्धतां नोद्भावयितुं समर्थः प्रथमोऽपि तर्हि कथं संशयितत्वादेव तस्य हेतुतामभिधातुं शक्तो भवेत् । अथ संशयितोऽपि तत्र हेतुतामभिध्यात् तर्हि असिद्धतामप्यभिदध्यात् भ्रान्तेरुभयत्राविशेषात् । यदपि 'साधनकाले नित्यधर्मानुपलब्धिः अनित्यपक्ष एव वर्तते न ३५ विपक्षे' इत्याद्यभिधानम् तदपि असंगतम् ; विपक्षाद् एकान्ततोऽस्य व्यावृत्तौ पक्षधर्मत्वे च खसा. ध्यसाधकत्वमेव अन्योन्यव्यवच्छेदपाणामेकव्यवच्छेदेन अपरत्र वृत्तिनिश्चये गत्यन्तराभावात् न हि योऽनित्यपक्ष एव वर्तमानो निश्चितो वस्तुधर्मः स तन्न साधयतीति वक्तुं युक्तम् । अथ द्वितीयोऽपि वस्तुधर्मस्तत्र तथैव निश्चितः, न; परस्परविरुद्धधर्मयोस्तदविनाभूतयोर्वा एकत्र धर्मिण्ययोगात् योगे वा नित्यानित्यत्वयोः शब्दाख्ये धर्मिणि एकदा सद्भावाद् अनेकान्तरूपवस्तुसद्भावोऽभ्युपगतः स्यात् ४० तमन्तरेण तद्धत्वोः स्वसाध्याविनाभूतयोस्तत्रायोगात् । अथ द्वयोस्तुल्यबलयोरेकत्र प्रवृत्तौ परस्परविषयप्रतिबन्धान्न स्वसाध्यसाधकत्वम्, असदेतत्; खसाध्याविनाभूतयोर्धर्मिणि तयोरुपलब्धिरेव स्वसाध्यसाधकत्वमिति कुतस्तत्सद्भावे परस्परविषयप्रतिबन्धः? तत्प्रतिबन्धो हि तयोस्तथाभूतयो. १ साध्यधर्ममन्तरे-वा. बा०। २ पृ. ७२० पं० १९। ३-च्छेद्यरूवा . बा। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेयमीमांसा। ७२३ स्तत्राप्रवृत्तिः सा च त्रैरूप्याभ्युपगमे विरोधाद् अयुक्ता भावाऽभावयोः परस्परपरिहार-स्थितलक्षणतया एकत्रायोगात् । अथ द्वयोरन्योन्यव्यवच्छेदरूपयोः एकत्रायोगाद् अनित्यधर्मानुपलब्धेर्नित्यधमानुपलब्धेर्वा वाधा, न; अनुमानस्यानुमानान्तरेण वाधाऽयोगात् । तथाहि-तुल्यवलयोर्वा तयोर्बाध्यवाधकभावः अतुल्यबलयोर्वा ? न तावत् आद्यः पक्षः द्वयोस्तुल्यत्वे एकस्य बाधकत्वम् अपरस्य च वाध्यत्वमिति विशेषानुपपत्तेः । न च पक्षधर्मत्वाद्यभावादिरेकस्य विशेषः तस्यानभ्युपगमात्५ अभ्युपगमे वा तत एव एकस्य दुष्टत्वान्न किञ्चिद् अनुमानवाधया । तन्न पूर्वः पक्षः । नापि द्वितीयः यतः अतुल्यबलत्वं तयोः पक्षधर्मत्वादिभावाभावकृतम्, अनुमानवाधाजनितं वा? न तावत् आद्यः पक्षा तस्यानभ्युपगमात् अभ्युपगमे वाऽनुमानबाधावैयर्थ्यप्रसक्तेः । नापि द्वितीयः तस्याद्यापि विचारास्पदत्वात् न हि द्वयोस्त्रैरूप्यात् तुल्यत्वे एकस्य वाध्यत्वम् अपरस्य च बाधकत्वम् इति व्यवस्थापयितुं शक्यम् । तन्न अनुमानवाधाकृतमपि अतुल्यवलत्वम् इतरेतराश्रयदोषापत्तेः परिस्फुटत्वात् । एतेन १० पक्ष-सपक्षान्यतरत्वादेरपि प्रकरणसमस्य व्युदासः कृतो द्रष्टव्यः न्यायस्य समानत्वात् । यदपि 'अत्र असाधारणत्वाऽसिद्धत्वदोषद्वयनिरासार्थमन्यतरशब्दाभिधेयत्वं पक्ष-सपक्षयोः साधारणं हेतुत्वेन विवक्षितम् अन्यतरशब्दात् तथाविधार्थप्रतिपत्तेः तस्य तत्र योग्यत्वात्' इत्यभिधानम्, तदपि असंगतम् । यतः यत्रानियमेन फलसंवन्धो विवक्षितो भवति तत्रैव लोके 'अन्यतर'शब्दप्रयोगो दृष्टः यथा 'देवदत्त-यज्ञदत्तयोरन्यतरं भोजय' इत्यत्र अनियमेन देवदत्तः यज्ञदत्तो वा भोजनक्रियया संबध्यते १५ इति अन्यतर'शब्दप्रयोगः न चैवं शब्दः पक्ष-सपक्षयोरन्यतरः तस्य पक्षत्वेन 'अन्यतर'शब्दवाच्यत्वाऽयोगात् । यदपि 'यदा पक्षधर्मत्वं प्रयोक्ता विवक्षति तदा 'अन्यतर'शब्दवाच्यः पक्षः' इत्याद्यभिधानम्, तदपि असंगतम् एवंविवक्षायामस्य कल्पनासमारोपितत्वे अनर्थरूपतया लिङ्गत्वानुपपत्तेः न हि कल्पनाविरचितस्यार्थत्वम् त्रैरूप्यं वा उपपत्तिमत् अतिप्रसङ्गात् तत्त्वे वा अन्यस्य गमकतानिबन्धनस्याभावात् सम्यग्धेतुत्वं स्यात् इति उक्तं प्राक् । कालात्ययापदिष्टस्य तु लक्षणमसंगतमेव न हि २० प्रमाणप्रसिद्धत्रैरूप्यसद्भावे हेतोर्विषयबाधा संभविनी तयोर्विरोधात् साध्यसद्भाव एव हेतोधर्मिणि सद्भावस्त्रैरूप्यम् तदभाव एव च तत्र तत्सद्भावो वाधा भावाभावयोश्च एकत्र एकस्य विरोधः। किञ्च, अध्यक्षाऽऽगमयोः कुतो हेतुविषयबाधकत्वमिति वक्तव्यम् , स्वार्थासंभवे तयोरभावात् इति चेत् हेतावपि सति त्रैरूप्ये तत् समानमित्यसावपि तयोर्विपये बाधकः स्यात् दृश्यते हि चन्द्रार्कादिस्थैर्यग्राहि अध्यक्षं देशान्तरप्राप्तिलिङ्गप्रभवतद्गत्यनुमानेन बाध्यमानम् । अथ तत्स्थैर्यग्राह्यध्यक्षस्य तदा-२५ ऽऽभासत्वाद बाध्यत्वं तर्हि एकशाखाप्रभवत्वानुमानस्यापि तदाभासत्वाद् बाध्यत्वमित्यभ्युपगन्तव्यम् । न चैवमस्त्विति वक्तव्यम् यतस्तस्य तदाभासत्वं कि मध्यक्षबाध्यत्वात् , उत त्रैरूप्यवैकल्यात्? न तावत् आद्यः पक्षः इतरेतराश्रयदोषसद्भावात्-तदाभासत्वे अध्यक्षबाध्यत्वम् ततश्च तदाभासत्वमिति एकाऽसिद्धौ अन्यतराऽप्रसिद्धेः । नापि द्वितीयः त्रैरूप्यसद्भावस्य तत्र परेणाभ्युपगमात् अनभ्युपगमे वा तत एव तस्यागमकतोपपत्तेरध्यक्षबाधाभ्युपगमवैयर्थ्यात् । न चाबाधितविषयत्वं ३० हेतुलक्षणमुपपन्नम् त्रैरूप्यवनिश्चितस्यैव तस्य गमकाङ्गतोपपत्तेः । न च तस्य निश्चयः संभवति, खसंबन्धिनोऽबाधितत्वनिश्चयस्य तत्कालभाविनः असम्यगनुमानेऽपि सद्भावात् उत्तरकालभाविनः असिद्धत्वात् , सर्वसंबन्धिनस्तादात्विकस्य उत्तरकालभाविनश्चासिद्धत्वात् । न हि अर्वाग्हशा 'सर्वत्र सर्वदा सर्वेषामत्र वाधकस्याभावः' इति निश्चेतुं शक्यम्, तन्निश्चयनिवन्धनस्याभावात् नानुपलम्भस्तनिवन्धनः सर्वसंबन्धिनस्तस्यासिद्धत्वात् , आन्मसंवन्धिनः अनैकान्तिकत्वान्न संवादस्तन्निब-३५ न्धनः प्राग अनुमानप्रवृत्तेस्तस्यासिद्धेः अनुमानोत्तरकालं तन्सिङ्ख्यभ्युपगमे इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तः। तथाहि-अनुमानात् प्रवृत्तौ संवादनिश्चयः ततश्चावाधितत्वावगमे अनुमानप्रवृत्तिरिति परिस्फुटमितरेतराश्रयत्वम् । न चाविनाभावनिश्चयादपि अवाधितविषयत्वनिश्चयः, पञ्चलक्षणयोग्यविनाभावपरिसमाप्तिवादिनामबाधितविषयत्वानिश्चये अविनाभावनिश्चयस्यैव असंभवात् । यदि च प्रत्यक्षाऽऽगमबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तस्यैव कालात्ययापदिष्टत्वम् तर्हि 'मूोऽयं देवदत्तः, त्वत्पुत्र-४० त्वात् , उभयाभिमतत्वत्पुत्रवत्' इत्यस्यापि गमकता स्यात् । न हि सकलशास्त्रव्याख्यातृत्वलिङ्गजनितानुमानबाधितविषयत्वमन्तरेण अन्यद अध्यक्षवाधितविपयत्वम् आगमवाधितविषयत्वं वा अगम १-प्यातु-भां० मां० विना। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ तृतीये काण्डेकतानिबन्धनमस्यास्ति । न चानुमानस्य तुल्यबलत्वान्नानुमानं प्रति बाधकता संभविनी इति वक्तव्यम् , निश्चितप्रतिबन्धलिङ्गसमुत्थस्यानुमानस्यानिश्चितप्रतिबन्धलिङ्गसमुत्थेन अतुल्यबलत्वात् अत एव न साधर्म्यमात्राद् हेतुर्गमकः अपि तु आक्षिप्तव्यतिरेकात् साधर्म्यविशेषात् । नापि व्यतिरेकमात्रात् किन्तु अङ्गीकृतान्वयात् तद्विशेषात् । न च परस्पराननुविद्धोभयमात्रादपि अपि तु परस्परख५ रूपाजहद्वृत्तिसाधर्म्य-वैधर्म्यरूपवत्त्वात् । न च प्रकृतहेतौ प्रतिबन्धनिश्चायकप्रमाणनिबन्धनं त्रैरूप्यं निश्चितमिति, तदभावादेव अस्य हेत्वाभासत्वम् न पुनरसत्प्रतिपक्षत्वाऽबाधितविषयत्वापररूपविरहात् । यदा च पक्षधर्मत्वाद्यनेकवास्तवरूपात्मकमेकं लिङ्गमभ्युपगमविषयस्तदा तत् तथाभूतमेव वस्तु प्रसाधयतीति कथं न विपर्ययसिद्धिः? न च साध्यसाधनयोः परस्परतो धर्मिणश्च एकान्तमेदे पक्षधर्मत्वादिधर्मयोगो लिङ्गस्य उपपत्तिमान् , संबन्धासिद्धः। न च समवायादे: सबन्धस्य निषध १० एकार्थसमवायादिः साध्य-साधनयोः धर्मिणश्च सम्बन्धः संभवी, एकान्तपक्षे तादात्म्य-तदुत्पत्तिल क्षणोऽप्यसौ अयुक्त एव इति पक्षधर्मत्वम्'इत्यादि हेतुलक्षणमसंगतमेव स्यात् । यदि च पक्षधर्मत्वादिकं हेतोस्रूप्यमभ्युपगम्यते कथं न परवादाश्रयणम् एकस्य हेतोरनेकधर्मात्मकस्य अभ्युपगमात् । न च यदेव पक्षधर्मस्य सपक्ष एव सत्त्वम् तदेव विपक्षात् सर्वतो व्यावृत्तत्वमिति वाच्यम् , अन्वयव्यतिरेकयोर्भावाभावरूपयोः सर्वथा तादात्म्यायोगात् तत्त्वे वा केवलान्वयी केवलव्यतिरेकी वा १५ सर्वो हेतुः स्यात् न त्रिरूपवान् व्यतिरेकस्य च अभावरूपत्वात् हेतोस्तद्रूपत्वे अभावरूपो हेतुः स्यात् । न चाभावस्य तुच्छरूपत्वात् स्वसाध्येन, धर्मिणा वा संबन्ध उपपत्तिमान् । न च विपक्षे सर्वत्रासत्त्वमेव हेतोः स्वकीयं रूपं व्यतिरेकः न तुच्छाभावमात्रमिति वक्तव्यम्, यतो यदि सपक्ष एव सत्त्वं विपक्षाद् व्यावृत्तत्वम् न ततो भिन्नमस्ति तदा तस्य तदेव सावधारणं नोपपत्तिमत् वस्तुभू. तान्याभावमन्तरेण प्रतिनियतस्य तस्य तत्राऽसंभवात् । अथ ततः तद् अन्यद् धर्मान्तरम् तर्हि एक धर्मात्मकस्य हेतोस्तथाभूतस्थ साध्याविनाभूतत्वेन निश्चितस्य अनेकान्तात्मकवस्तुप्रतिपादनात् कथं न परोपन्यस्तहेतूनां सर्वेषां विरुद्धता एकान्तविरुद्धेनानेकान्तेन व्याप्तत्वात् ? किञ्च, हेतुः सामान्यरूपो वा उपादीयेत परैः, विशेषरूपो वा ? यदि सामान्यरूपस्तदा तद् व्यक्तिभ्यो भिन्नम्, अभिन्नं वा ? न तावद् भिन्नम् 'इदं सामान्यम् अयं विशेषः, अयं तद्वान्' इति वस्तुत्रयोपलम्मानुपलक्षणात् तथा च सामान्यस्य भेदेन अभ्युपगन्तुमशक्यत्वात् । न च समवाय२५वशात् परस्परं तेषां भेदेन अनुपलक्षणम् यतः समवायस्य 'इह'बुद्धिहेतुत्वमुपगीयते, न च भेदग्रहणमन्तरेण 'इह इदमवस्थितम्'इति बुद्धयुत्पत्तिसंभवः । किञ्च, "नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः" ] इति काणादानां सिद्धान्तः न च सामान्यनिश्चयः संस्थानभेदावसायमन्तरेण उपपद्यते यतः दूरात् पदार्थखरूपमुपलभमानो नागृहीतसंस्थानभेदः अश्वत्वादिसामान्यमुपलब्धं शक्नोति, न च संस्थानभेदावगमस्तदाधारोपलम्भमन्तरेण संभवतीति कथं नेतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः। ३० तथाहि-पदार्थग्रहगे सति संस्थानभेदावगमः तत्र च सामान्य-विशेषावबोधः तस्मिंश्च सति पदार्थस्वरूपावगतिः इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् चक्रकप्रसङ्गो वा । किञ्च, अश्वत्वादेः सामान्यभेदस्य स्वाश्रयसर्वगतत्वे कर्कादिव्यक्तिशून्ये देशे प्रथमतरमुपजायमानाया व्यक्तेः अश्वत्वादिसामान्येन योगो न भवेत् व्यक्तिशून्ये देशे सामान्यस्य अनवस्थानात् व्यत्यन्तरादनागमनाच्च ततः सर्वसर्वगतं तद् अभ्युपगन्तव्यम् एवं च कर्कादिभिरिव शाबलेयादिभिरपि तद् अभिव्यज्येत । न च कांद्यानामेव ३५ तदभिव्यक्तौ सामर्थ्यम् न शावलेयादीनामिति वाच्यम् , यतः यया प्रत्यासत्त्या ता एव तद् आत्मनि अवस्थापयन्ति तयैव ता एव 'अश्वः अश्वः' इति एकाकारपरामर्शप्रत्ययमुपजनयिष्यन्तीति किमपरतद्भिन्नसामान्यप्रकल्पनया? न च स्वाश्रयेन्द्रियसंयोगात् प्राक वशानजनने असमर्थ सामान्यं तदा परैरनाधेयातिशयम् तमपेक्ष्य स्वावभासि ज्ञानं जनयति, प्राक्तनाऽसमर्थस्वभावाऽपरित्यागे स्वभावान्तरानुत्पादे च तदयोगात् तथाभ्युपगमे च क्षणिकताप्रसक्तेः । न च स्वभावान्तरस्योपजायमानस्य ४० ततो भेदः संबन्धासिद्धितः तत्सद्भावेऽपि प्रग्वत् तस्य स्वावभासिज्ञानजननायोगान्न प्रतिभासः स्यात् । तथा च सामान्यस्य व्यक्तिभ्यो भेदेन अप्रतिभासमानस्य असिद्धत्वात कथं हेतुत्वम्? किञ्च, प्रतिव्यक्ति सामान्यस्य सर्वात्मना परिसमाप्तत्वाभ्युपगमात् एकस्यां व्यक्तौ विनिवेशितस्वरूपस्य तदैव १ साधारणं वा. बा. भां० मा विना। २-यतस्य तत्रा-वा. बा. भां० मा० । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा ७२५ व्यत्यन्तरे वृत्त्यनुपपत्तेस्तदनुरूपप्रत्ययस्य तत्रासंभवात् असाधारणता च हेतोः स्यात् । यदि च असाधारणरूपा व्यक्तयः स्वरूपतः तदा परसामान्ययोगादपि न साधारणतां प्रतिपद्यन्त इति व्यर्था सामान्यप्रकल्पना स्वतः असाधारणस्य अन्ययोगादपि साधारणरूपत्वानुपपत्तेः स्वतस्तद्रपत्वेऽपि निष्फला सामान्यकल्पना इति व्यक्तिव्यतिरिक्तस्य सामान्यस्य अभावात् असिद्धस्तल्लक्षणो हेतुः इति कथं ततः साध्यसिद्धिः? अथ व्यक्त्यव्यतिरिक्तं सामान्यं हेतुः तदपि असंगतमेव व्यक्त्यव्यतिरिक्तस्य५ व्यक्तिस्वरूपवद् व्यक्त्यन्तराननुगमात् सामान्यरूपतानुपपत्तेः व्यत्तयन्तरसाधारणस्यैव वस्तुनः सामान्यम्' इत्यभिधानात् तत्साधारणत्वे वा न तस्य व्यक्तिस्वरूपाऽव्यतिरिच्यमानमूर्तिता सामान्यरूपतया भेदाव्यतिरिच्यमानस्वरूपस्य विरोधात् । तन्न व्यत्त्यव्यतिरिक्तमपि सामान्यं हेतुः व्यक्तिस्वरूपवत् असाधारणत्वेन गमकत्वायोगात् अत एव न व्यक्तिरूपमपि हेतुः । न चोभयं परस्पराननुविद्धं हेतुः उभयदोषप्रसङ्गात् । न अनुभयम् अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकाभावे द्वितीयविधानात् अनुभयस्य १० असत्त्वेन हेतुत्वायोगात् बुद्धिप्रकल्पितं च सामान्यम् अवस्तुरूपत्वात् साध्येन अप्रतिबद्धत्वात् असिद्धत्वाच्च न हेतुः । तस्मात् पदार्थान्तरानुवृत्तव्यावृत्तरूपमात्मानं बिभ्रद् एकमेव पदार्थस्वरूपं प्रतिपत्तुर्भेदाभेदप्रत्ययप्रसूतिनिबन्धनं हेतुत्वेन उपादीयमानं तथाभूतसाध्यसिद्धिनिवन्धनमभ्युपगन्तव्यम् । न च यदेव रूपं रूपान्तराद् व्यावर्तते तदेव कथमनुवृत्तिमासादयति, यच्च अनुवर्तते तत् कथं व्यावृत्तिरूपतामात्मसात्करोति इति वक्तव्यम् भेदाभेदरूपतया अध्यक्षतः प्रतीयमाने वस्तु-१५ स्वरूपे विरोधासिद्धेरिति असकृद् आवेदितत्वात् । किञ्च, एकान्तवाद्युपन्यस्तहेतोः किं सामान्य साध्यम्, आहोविद विशेषः, उत उभयं परस्परविविक्तम्, उतस्विद् अनुभयमिति विकल्पाः । तत्र न तावत् सामान्यम् केवलस्य तस्य असंभवात् अर्थक्रियाकारित्वविकलत्वाच्च । नापि विशेपः तस्य अननुयायित्वेन साधयितुमशक्यत्वात् । नापि उभयम् उभयदोषानतिवृत्तेः । नापि अनुभयम् तस्य असतो हेत्वव्यापकत्वेन साध्यत्वायोगात् ।२० एतदेव आह गाथापश्चार्धेन अन्योन्यप्रतिक्रष्टौ प्रतिक्षिप्तौ द्वावपि एती सामान्य-विशेषैकान्तौ असद्वादाविति । इतरविनिर्मुक्तस्य एकस्य शशशृङ्गादेरिव साधयितुमशक्यत्वात् ॥ ५६ ॥ [ परस्परभिन्न सामान्य-विशेषयोः स्वरूपमनूद्य तस्य निराकरणम् ] सामान्य-विशेषयोः स्वरूपं परस्परविविक्तमनूद्य निराकुर्वन् आह वट्टियवत्तव्वं सामण्णं पजवस्स य विसेसो। एए समोवणीआ विभजवायं विसेसेंति ॥ ५७ ॥ द्रव्यास्तिकस्य वक्तव्यं वाच्यम् विशेषनिरपेक्षं सामान्यमात्रम्, पर्यायास्तिकस्य पुनः अनुस्यूताकारविविक्तो विशेष एव वाच्यः एतौ च सामान्यविशेषौ अन्योन्यनिरपेक्षौ एकैकरूपतया परस्परप्राधान्येन वा एकत्र उपनीती प्रदर्शितौ विभज्यवादम् अनेकान्तवादं सत्यवादस्वरूपम् अतिशयाते असत्यरूपतया ततः तौ अतिशयं लभेते इति यावत्-विशेषे साध्ये अनुगमाभा-३० वतः, सामान्ये साध्ये सिद्धसाधनतया साधनवैफल्यतः, प्रधानोभयरूपे साध्ये उभयदोषापत्तितः, अनुभयरूपे साध्ये उभयाभावतः साध्यत्वायोगात् । तस्माद् विवादास्पदीभूतसामान्य विशेषोभयात्मकसाध्यधर्माधारसाध्यधर्मिणि अन्योन्यानुविद्धसाधर्म्यवैधर्म्यस्वभावद्वयात्मकैकहेतुप्रदर्शनतो नैकान्तवादपक्षोक्तदोपावकाशः संभवी, अत एव गाथापश्चाधन-एती सामान्य-विशेषौ समुपनीती परस्परसव्यपेक्षतया 'स्यात्'पदप्रयोगतो धर्मिणि अवस्थापितो विभज्यवादम् एकान्तवादम् ३५ विशेषयतः निराकुरुतः एवमेव तयोरात्मलाभात् अन्यथा अनुमानविषयस्य उक्तन्यायतः असत्त्वात् इत्यपि दर्शयति ॥५७॥ [अनेकान्तरूपतया वस्तु साधयतो वादिनोजेयत्वाभिधानम् ] यत्र अनुमानविषयतया अभ्युपगम्यमाने साध्ये दूषणवादिनः अवकाश एव न भवति तदेव । साध्यं हेतुविषयतया अभ्युपगन्तव्यमिति दर्शयन्नाह १-सेसंति भां० मा० आ० हा० वि० । ४० Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ तृतीये काण्डेहेउविसओवणीयं जह वयणिजं परो नियत्तेइ । जइ तं तहा पुरिल्लो दाइंतो केण जिव्वंतो॥५८॥ हेतुविषयतया उपनीतम् उपदर्शितं साध्यधर्मिलक्षणं वस्तु पूर्वपक्षवादिना 'अनित्यः शब्दः' इत्येवं यथा वचनीयं परो दूपणवादी निवर्तयति सिद्धसाध्यताऽननुगमदोषाधुपन्या५सेन एकान्तवचनीयस्य तदितरधर्माननुपक्तस्य अनेकदोषदुष्टतया निवर्तयितुं शक्यत्वात् । यदि तत् तथा द्वितीयधर्माकान्तं 'स्यात्'शब्दयोजनेन पुरिल्लः पूर्वपक्षवादी अदर्शयिष्यत ततोऽसौ नैव केनचिद् अजेष्यत । जितश्चासौ तथाभूतस्य साध्यधर्मिणोऽप्रदर्शनात् प्रदर्शितस्य च एकान्तरूपस्य असत्त्वात् तत्प्रदर्शकोऽसत्यवादितया निग्रहार्ह इति ॥ ५८ ॥ [एकान्तानिश्चितरूपाभ्यां वस्तु वदतो लौकिकपरीक्षकाग्राह्यवचनत्वकथनम् ] १० एतदेव दर्शयन्नाह एयन्ताऽसन्भूयं सन्भूयमणिच्छियं च वयमाणो। लोइय-परिच्छियाणं वयणिजपहे पडइ वादी ॥ ५९॥ आस्तां तावत् एकान्तेन असद्भतम् असत्यम्, सद्भतमपि अनिश्चितं वदन वादी लौकिकानाम् परीक्षकाणां च वचनीयमार्ग पतति । ततः अनेकान्तात्मकाद् हेतोः तथा१५ भूतमेव साध्यधर्मिणं साधयन् वादी सद्वादी स्यादिति तथैव साध्याऽविनाभूतो हेतुर्धर्मिणि तेन प्रदर्शनीयः तत्प्रदर्शने च 'हेतोः सपक्ष-विपक्षयोः सदसत्त्वमवश्यं प्रदर्शनीयम्' इति यदुच्यते परैः तद् अपास्तं भवति तावन्मात्रादेव साध्यप्रतिपत्तेः । न च ततस्तत्प्रतिपत्तावपि विद्यमानत्वाद् रूपान्तरमपि तत्रावश्यं प्रदर्शनीयम् , ज्ञातत्वादेरपि तत्र प्रदर्शनप्रसक्तेः । अथ सामर्थ्यात् तत् प्रती यत इति न वचनेन प्रदर्श्यते तर्हि अन्वय-व्यतिरेकावपि तत एव नावश्यं प्रदर्शनीयौ । अत एव २० दृष्टान्तोऽपि नावश्यं वाच्यः साधर्म्य-वैधर्म्यप्रदर्शनपरत्वात् तस्य । उपनय-निगमनवचनयोस्तु दुरापास्तता तदन्तरेणापि साध्याविनाभूतहेतुप्रदर्शनमात्रात् साध्यप्रतिपत्त्युत्पत्तेः अन्यथा तदयो. गात् । त्रिलक्षणहेतुप्रदर्शनवादिनस्तु निरंशवस्त्वभ्युपगमविरोधः निरंशे त्रैलक्षण्यविरोधात् परिकल्पितस्वरूपत्रैरूप्याभ्युपगमोऽप्यसंगतः परिकल्पितस्य परमार्थसत्त्वे तद्दोषानतिक्रमात् अपरमार्थ सत्त्वे तल्लक्षणत्वायोगात् असतः सल्लक्षणत्वविरोधात् । न च कल्पनाव्यवस्थापितलक्षणभेदालक्ष्य२५ भेद उपपत्तिमान् इति लिङ्गस्य निरंशस्वभावस्य किञ्चिद् रूपं वाच्यम् । न च साधादिव्यतिरेकेण तस्य स्वरूपं प्रदर्शयितुं शक्यत इति तस्य निस्वभावताप्रसक्तिः । न चैकलक्षणहेतुवादिनोऽपि अनेकान्तात्मकवस्त्वभ्युपगमाद् दर्शनव्याघात इति वाच्यम् "प्रयोगनियम एव एकलक्षणो हेतुः" [ ] इति अभिधानात् । न च स्वभावनियमे तथाभूतस्य शशशृङ्गादेरिव निःस्वभावत्वात् । 'गमकाङ्गनिरूपणया एकलक्षणो हेतुः' इति व्यवस्थापितत्वात् । न च एकान्तवादिनां प्रतिबन्धग्रहणमपि ३० युक्तिसंगतम् अविचलितरूपे आत्मनि ज्ञानपौर्वापर्याऽभावात् प्रतिक्षणध्वंसिन्यपि उभयग्रहणानुवृ तकचैतन्याभावात् 'कारणस्वरूपग्राहिणा ज्ञानेन कार्यस्य तत्वरूपग्राहिणा च कारणस्य ग्रहणासंभवात् एकेन च द्वयोरग्रहणे कार्यकारणभावादेः प्रतिबन्धस्य ग्रहणायोगात् कारणादिवरूपाव्यतिरेकेऽपि कारणत्वादेर्न तत्स्वरूपग्राहिणा कार्यकारणभावादेर्ग्रहः एकसंबन्धिस्वरूपग्रहणेऽपि तद्रहणप्रसक्तेः । न च तद्हेऽपि निश्चयानुत्पत्तेर्न दोषः सविकल्पकत्वेन प्रथमाक्षसन्निपातजस्य अध्यक्षस्य ३५व्यवस्थापनात् । न च कार्यानुभवानन्तरभाविना स्मरणेन कार्यकारणभावोऽनुसंधीयत इति वक्तव्यम् अनुभूत एव स्मरणप्रादुर्भावात् न च प्रतिबन्धः केनचिदनुभूतः तस्य उभयनिष्ठत्वात् उभयस्य च पूर्वापरकालभाविनः एकेन अग्रहणात् । न च कार्यानुभवानन्तरभाविनः स्मरणस्य १ जिप्पंतो गु० मू० मु० मू०। २-त्येव य-वा० बा० । ३-परिच्छया-गु० मू० मु० मू० । ४ न ख-बृ०। ५-त्पत्तेरदो-वा० बा० भां० मा० । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ७२७ कार्यानुभवो जनकः तदनन्तरं स्मरणस्य अभावात् । न च क्षणिकैकान्तवादे कार्यकारणभाव उपपत्तिमान् इत्युक्तम् । न च संतानादिकल्पनाप्यत्रोपयोगिनी । न च स्मरणकाले अतीततद्विषयस्मरणमात्रं प्रतीयते अपि तु तदनुभविताऽपि 'अहमेवमिदमनुभूतवान्' इति अनुभवित्राधारानुभूतविषयस्मृत्यध्यवसायात् एकाधारे अनुभव-सरणे अभ्युपगन्तव्ये तदभावे तथाऽध्यवसायानुपपत्तेः। न चानुभव-स्मरणयोः अनुगतचैतन्याभावे तद्धर्मतया प्रतिपत्तिर्युक्ता, न हि यत्प्रतिपत्तिकाले यद् ५ नास्ति तत् तद्धर्मतया प्रतिपत्तुं युक्तम् , वोधाभावे ग्राह्य-ग्राहक-संवित्तित्रितयप्रतिपत्तिवत्, अस्ति च तद्धर्मतया अनुभव-स्मरणयोस्तदा प्रतिपत्तिरिति कथं क्षणिकैकान्तवादः तत्र वा प्रतिबन्धनिश्चय इति ? न चैकान्तवादिनः सामान्यादिकं साध्यं संभवतीति प्रतिपादितम् । तस्मात् अनेकान्तात्मकं वस्तु अभ्युपगन्तव्यम् अध्यक्षादेः प्रमाणस्य तत्प्रतिपादकत्वेन प्रवृत्तेः ॥ ५९॥ [निर्दोषभावप्ररूपणाया मार्गप्रकाशनम् ] स एव च सन्मार्गः इति उपसंहरन्नाह दव्वं खित्तं कालं भावं पज्जाय-देस संजोगे। भेदं च पडुच समा भावाणं पण्णवणपज्जा ॥ ६॥ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-पर्याय-देश-संयोगान् भेदं चेत्यष्टौ भावान आश्रित्य वस्तुनो भेदे सति समा सर्ववस्तुविषयायाः प्रज्ञापनायाः स्याद्वादरूपायाः पर्या पन्था मार्ग १५ इति यावत् । ___ तत्र द्रव्यं पृथिव्यादि, क्षेत्रं स्वारम्भकावयवस्वरूपम् तदाश्रयं वा आकाशम्, कालं युगपदयुगपच्चिरक्षिप्रप्रत्ययलिङ्गलक्षणम् वर्तनात्मकं वा नव पुराणादिलक्षणम्, भावं मूलाङ्कुरादिलक्षणम् , पर्यायं रूपादिखभावम् , देशं मूलाङ्करपत्रकाण्डादिक्रमभाविविभागम्, संयोग भूम्यादिप्रत्येकसमुदायं द्रव्य-पर्यायलक्षणम् , भेदं प्रतिक्षणविवर्तात्मकं वा जीवाजीवादिभावानां प्रतीत्य २० समानतया तदतदात्मकत्वेन प्रज्ञापना निरूपणा या सा सत्पथ इति न हि तदतदात्मकैकद्रव्यत्वादिभेदाभावे खरविषाणादेर्जीवादिद्रव्यस्य विशेषः यतो न द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव-पर्याय-देश-संयोगभेदरहितं वस्तु केनचित् प्रत्यक्षाद्यन्यतमप्रमाणेन अवगन्तुं शक्यम् । न च प्रमाणागोचरस्य सद्व्यवहारगोचरता संभविनीति तदतदात्मकं तद् अभ्युपगन्तव्यम् । न हि एकान्ततः अतदात्मकं द्रव्यादिभेदभिन्नम् व्यतिरिक्तरूपं च प्रमाणतस्तद् निरूपयितुं शक्यम् द्रव्यादिव्यतिरिक्तस्य शश-२५ शृङ्गवत् कुतश्चित् प्रमाणाद् अप्रतीतेः न हि ततो द्रव्यादीनां भेदेऽपि समवायसंवन्धवशात् तत्संबद्धताप्रसङ्गः संवन्धिभेदेन तद्भेदाभेदकल्पनाद्वयानतिवृत्तेः । प्रथमविकल्पे समवायानेकत्वप्रसक्तिः संवन्धि भेदतो भेदात् संयोगवद् अनित्यत्वप्रसक्तिश्च । द्वितीयकल्पनायामपि संबन्धिसंकरप्रसक्तिः। न चैवं छत्र-दण्ड-कुण्डलादिसंबन्धविशेषविशिष्टदेवदत्तादेरिव समवायिनो जाति गुणत्वादे देन उपलब्धेन(ब्धिन)हि य एव दण्ड-देवदत्तयोः संवन्धः स एव छत्रादिभिरपि तत्संवन्धाविशेषे तद्विशेषणविशेष्यवैफल्यप्रसक्तेः न हि विशेपणं विशष्यं धर्मान्तराद व्यवच्छिद्य आत्मन्यव्यवस्थापयद विशेषणरूपतां प्रतिपद्यते एवं समवायसंवन्धस्याविशेषे द्रव्यत्वादीनामपि विशेषणानामविशेषान्न जीवाजीवादिद्रव्यव्यवच्छेदकता स्यात् इति समवोयिसंकरप्रसक्तिः कथं नासज्येत? न च समवायः तह्राहकप्रमाणाभावात् संभवति तदभावे न वस्तुनो वस्तुत्वयोगो भवेदिति तद् अनेकान्तात्मकैकः रूपमभ्युपगन्तव्यम् । न चैकानेकात्मकत्वं वस्तुनो विरुद्धम् प्रमाणप्रतिपन्ने वस्तुनि विरोधायोगात । ३५ तथाहि-एकानेकात्मकम् आत्मादि वस्तु, प्रमेयत्वात् , चित्रपटरूपवत् ग्राह्यग्राहकाकारसंवित्तिरूपैकविज्ञानवद् वा । न च वैशेषिकं प्रति चित्रपटरूपस्य एकानेकत्वमसिद्धम् प्राक् प्रसाधितत्वात् । नापि ग्राह्यग्राहकसंवित्तिलक्षणरूपत्रयात्मकमेकं विज्ञानं वौद्धं प्रत्यसिद्धम् तथाभूतविज्ञानस्य प्रत्यात्मसंवेदनीयस्य प्रतिक्षेपे सर्वप्रमाण-प्रमेयप्रतिक्षेपप्रसक्तेः । स्वार्थाकारयोर्विज्ञानमभिन्नस्वरूपम्, विज्ञा १ “पद्येत्यर्थः" बृ.टि.। २ वर्तमानात्म-भां० मा० आ०। ३-त्येकं स-वा० बा०। ४-त्मनि अनवस्था-वा. बा. भां० मा०। ५-वायसं-वृ० आ० हा० वि.। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को ७२८ तृतीये काण्डेनस्य च वेद्य-वेदकाकारौ भिन्नात्मानौ कथञ्चिद् अनुभवगोचरापन्नी, एतच्च प्रतिक्षणं स्वभावमेवमनुभवदपि न सर्वथा भेदवत् संवेद्यते इति संविदात्मनः स्वयमेकस्य क्रमवय॑नेकात्मकत्वं न विरोध मनुभवतीति कथमध्यक्षादिविरुद्ध निरन्वयविनाशित्वमभ्युपगन्तुं युक्तम् ? न हि कदाचित् क्वचित् क्षणिकत्वमन्तर्वहिर् वा अध्यक्षतोऽनुभूयते 'तथैव' इति निर्णयानुत्पत्तेः भेदात्मन एव अन्तर्विज्ञानस्य ५बहिर्घटादेश्च अभिन्नस्य निश्चयात् । तथाभूतस्यापि अनुभवस्य भ्रान्तिकल्पनायां न किञ्चिद् अध्यक्ष मभ्रान्तलक्षणभार भवेत् न हि ज्ञानं वेद्य-वेदकाकारशून्यं स्थूलाकारविविक्तम् परमाणुरूपं वा घटादिकमेकं निरीक्षामहे यतः वाह्याध्यात्मिकं भेदाभेदरूपतया अनुभूयमानं भ्रान्त विज्ञानविषयतया व्यवस्थाप्येत । अतः "यथादर्शनमेव इयं मानमेयव्यवस्थितिः न पुनर्यथा इत्येतद् अनिश्चितार्थाभिधानम् । न हि क्वचित् केनचित् प्रमाणेन एकान्तरूपं वस्तुतत्त्वमयं प्रतिपन्न. १० वान् यत एवं वदन् शोभेत । यदा च अध्यक्षविरुद्धः निरंशक्षणिकैकान्तः ततो नानुमानमपि अत्र प्रवर्तितुमुत्सहते अध्यक्षबाधितविषयत्वात् तस्य । तेन "निरन्वयविनश्वरं वस्तु प्रतिक्षणमवेक्षमाणोऽपि नावधारयति" [ ] इत्येतदपि असदभिधानम्, प्रतिक्षणविशरारुतायाः कुतश्चिदपि अनीक्षणात्।। [एकान्तक्षणिकाक्षणिकत्वे निरस्य तदुभयात्मकत्वसाधनम् ] १५ अत एव क्षणिकत्वैकान्ते सत्त्वादिहेतुरुपादीयमानः सर्व एव विरुद्धः अनेकान्त एव तस्य संभवात । तथाहि-अर्थक्रियालक्षणं सत्त्वम् न चासौ तदेकान्ते क्रम-योगपद्याभ्यां संभवति, यतः 'यस्मिन् सत्येव यद् भवति तत् तस्य कारणम् इतरच्च कार्यम्' इति कार्यकारणलक्षणम् क्षणिके च कारणे सति यदि कार्योत्पत्तिर्भवेत् तदा कार्य-कारणयोः सहोत्पत्तेः किं कस्य कारणम् किं वा कार्य व्यवस्थाप्येत त्रैलोक्यस्य च एकक्षणवर्तिता प्रसज्येत । 'यदनन्तरं यद् भवति तत् तस्य कार्यम् २० इतरत् कारणम्' इति व्यवस्थायां कारणाभिमते वस्तुनि असत्येव भवतस्तदनन्तरभावित्वस्य दुर्घटत्वात् चिरतरविनष्टादपि च तस्य भावो भवेत् तदभावाविशेषात् । न च अनन्तरस्यापि कार्योत्पत्तिकालमप्राप्य विनाशमनुभवतश्चिरातीतस्येव कारणता यतः अर्थक्रिया क्षणक्षयेण विरुध्येत प्राक्कालभावित्वेन कारणत्वे सर्व प्रति सर्वस्य कारणता प्रसज्येत सर्ववस्तुक्षणानां विवक्षितकार्य प्रति प्राग्भावित्वाविशेषात् तथा च स्वपरसंतानव्यवस्थाऽपि अनुपपन्नैव स्यात् । न च सादृश्यात् तद्व्य२५वस्था सर्वथा सादृश्ये कार्यस्य कारणरूपताप्रसक्तेरेकक्षणमात्रं संतानः प्रसज्येत, कथंचित्सादृश्ये ऽनेकान्तवादप्रसक्तिः न च सादृश्यं भवदभिप्रायेण अस्ति सर्वत्र वैलक्षण्याविशेषात् अन्यथा स्वकृतान्तप्रकोपात् । न च क्षणिकैकान्तवादिनः अन्वय-व्यतिरेकप्रतिपत्तिः संभवतीति साध्यसाधनयोस्त्रिकालविषययोः साकल्येन व्याप्तेरसिद्धेः यत् सत् तत् सर्व क्षणिकम् संश्च शब्द इत्याद्यनु. मानप्रवृत्तिः कथं भवेत् ? अकारणस्य च प्रमाणविषयत्वानभ्युपगमे साध्य-साधनयोस्त्रिकालविषय३० व्याप्तिग्रहणस्य दूरोत्सारितत्वात् “नाननुकृतान्वयव्यतिरेकं कारणम् नाकारणं विषयः" [ ] इति वचनमनुमानोच्छेदकं च प्रसक्तम् ग्राह्यग्राहकाकारज्ञानैकत्ववद् ग्राह्याकारस्यापि युगपदनेकार्थावभासिनश्चित्रैकरूपता एकान्तवादं प्रतिक्षिपत्येव भ्रान्त्यात्मनश्च दर्शनस्य अन्तर् बहिश्च अभ्रान्तात्मकत्वं कथंचिद अभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा कथं स्वसंवेदनाध्यक्षता तस्य भवेत् तदभावेच कथं तत्स्वभावसिद्धिर्युक्ता? कथं च भ्रान्तज्ञानं भ्रान्तिरूपतया आत्मानमसंविदद् ज्ञानरूपतयाँ वा ३५ अवगच्छद् बहिस्तथा नावगच्छेत् यतो भ्रान्तैकान्तरूपता तिमिराद्युपप्लुतदृशां भवेत् ? कथं च भ्रान्तविकल्पज्ञानयोः स्वसंवेदनमभ्रान्तमविकल्पं वा अभ्युपगच्छन् अनेकान्तं नाभ्युपगच्छेत् ? ग्राह्यग्राहकसंवित्त्याकारविवेकं संविदः स्वसंवेदनेनासंवेदयन् संविद्रूपतां च अनुभवन् कथं क्रमभाविनो. र्विकल्पेतरात्मनोरनुगतसंवेदनात्मानमनुभवप्रसिद्धं प्रतिक्षिपेत् ? ततः क्रम-सहभाविनः परस्पर १ तथैव नि-बृ० वा. बा० । तथेति नि-आ० वि० । तथैति नि-हा० । २"अयं सोगतः 'यथादर्शनमेव मानमेयफलस्थितिः क्रियते न पुनर्यथातत्त्वं सा क्रियते' इत्येवं ब्रूयात्"-सिद्धिवि. टि० लि. पृ० १२२ पं० २२। ३-श्ये नैका-वृ. विना। ४ कथं न भ-वा. बा. भा. मा०। ५-या चाव-वा. बा. भां० मा० । भ्रान्तावि-भां० मा०। -वेकसं-वा. बा. भा. मा. विना । ------- - -------- --- --- - - - Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ७२९ विलक्षणान् स्वभावान् यथावस्थितरूपतया व्यानुवत् सकललोकप्रतीतं स्वसंवेदनम् अनेकान्ततत्त्वव्यवस्थापकमेकान्तवादप्रतिक्षेपि प्रतिष्ठितमिति 'निरंशक्षणिकस्वलक्षणमन्तर्बहिश्चानिश्चितमपि संवित्तिविषयीकरोति' इति कल्पना अयुक्तिसंगतैव अप्रमाणप्रसिद्धकल्पनायाः सर्वत्र निरङ्कशत्वात सकलसर्वज्ञताकल्पनप्रसक्तेः न हि एकस्य संवित्तिः अपरस्य असंवित्तिः सर्वत्र संवन्धाभावाविशेषात् न हि वास्तवसंबन्धाभावे परिकल्पितस्य तस्य नियामकत्वं युक्तम् अतिप्रसङ्गात् । न च ५ वास्तवः संबन्धः परस्य सिद्धः इति तादात्म्य-तदुत्पत्त्योरभावात् साध्य-साधनयोः प्रतिबन्ध नियमाभावे अनुमानप्रवृत्तिर्दूरोत्सारितैव । ___अथ क्षणिकान्निवर्तमानमपि अर्थक्रियालक्षणं सत्त्वमक्षणिके अवस्थास्यतीति न ततोऽनेकान्तात्मकवस्तुसिद्धिः, न; अक्षणिकेऽपि क्रमयोगपद्याभ्यां तस्य विरोधात् । तथाहि-न तावद् अक्षणिकस्य क्रमवत् कार्यकरणम् प्राक् तत्करणसमर्थस्य अभिमतक्षणवत् तदकरणविरोधात् । प्राक् तदसा-१० मर्थ्य पश्चादपि न तत्सामर्थ्यम् अपरिणामिनोऽनाधेयाऽप्रहेयातिशयत्वात् स्वभावोत्पत्तिविनाशाभ्युपगमेऽपि नित्यैकान्तवादविरोधात् । ततो व्यतिरिक्तस्य अतिशयस्य करणे अनतिशयस्य तस्य प्रागिव पश्चादपि तत्करणासंभवात् । सहकारिकारणापेक्षाऽपि तस्य अयुक्तैव यतोऽसहायस्य प्रागकरणवभावस्य पुनः ससहायस्य कार्यकरणं भवेत् न हि सहकारिकृतमतिशयमनङ्गीकुर्वतस्तदपेक्षा उपपत्तिमती । तन्न क्रमेण अपरिणामी भावः कार्य निर्वर्तयति । नापि योगपद्येन, कालान्तरे तस्याकिञ्चित्क-१५ रत्वेनावस्तुत्वापपत्तेः क्षणमात्रावस्थायित्वप्रसक्तेः । न च क्रम-योगपद्यव्यतिरिक्तं प्रकारान्तरं संभवतीति अर्थक्रिया व्यापिका निवर्तमाना व्याप्यां सत्तां नित्यादपि आदाय निवर्तते इति यत् सत् तत् सर्वमनेकान्तात्मकं सिद्धम् अन्यथा प्रत्यक्षादिविरोधप्रसक्तेः न हि भेदमन्तरेण कदाचित् कस्यचिद अमेदोपलब्धिःहर्ष-विषादाद्यनेकाकारविवर्तात्मकस्य अन्तश्चैतन्यस्य स्वसंवेदनाध्यक्षतः वर्ण-संस्थानसदाद्यनेकाकारस्य स्थूलस्य पूर्वापरस्वभावपरित्यागोपादानात्मकस्य घटादेवहिरेकस्य इन्द्रियजाध्य-२० क्षतः संवेदनात् मुखादि-रूपादिभेदविकलतया चैतन्य-घटादेः कदाचिदपि उपलम्भागोचरत्वात् महासामान्यस्य अवान्तरसामान्यस्य वा सर्वगताऽसर्वगतधर्मात्मकस्य व्यक्तिव्यतिरिक्तस्वभावतया कदाचित् क्वचिद अनुपलब्धेः द्रव्य-गुण-कर्मणां कथं तद्विशिष्टतया प्रतिपत्तिर्भवेत् ? समवायस्य च अनवस्थादोषतः संवन्धान्तराभावाद् द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेषाणामन्योन्यं तादात्म्यानिष्टौ तेषु अवृत्तेः सर्वपदार्थस्वरूपाऽप्रसिद्धिः स्यात् । स्वत एव समवायस्य द्रव्यादिषु वृत्तौ समवायमन्तरे-२५ णापि द्रव्यादयोऽपि स्वाधारेषु वृत्तिं स्वत एव आत्मसात्करिष्यन्तीति समवायकल्पनावैयर्थ्यप्र. सक्तिः। अवयविनोऽपि स्वारम्भकावयवेषु तादात्म्यानभ्युपगमे सामान्यस्येव तद्वत्सु वृत्तिविकल्पानः वस्था दिदोपप्रसङ्गान्न वृत्तिर्भवेत् वृत्तौ वा साकल्येन प्रत्याधारं ग्रहणासंभवात् व्यक्तिवद् भेदप्रसक्तिः खण्डशः प्रतिपत्तेः अगृहीतस्वभावाद् गृहीतस्वभावस्य भेदात् तथा च सामान्यादिरूपताहा. निप्रसक्तिः। ३० किञ्च, सर्वसाधारव्यापिनः सामान्यस्य द्रव्यस्य वा तद्वतां सामस्त्येन ग्रहणासंभवात् कथं तदग्रहे तब्रहणं भवेत् आधाराप्रतिपत्तौ तदाधेयस्य तत्त्वेनाप्रतिपत्तेः सामान्यायंशेषु गृहीतेष्वपि सामान्यादेवृत्तिविकल्पादिदोषस्तेष्वपि पूर्ववत् समानः तदंशग्रहणेऽपि च सामान्यस्य व्यापिनः कदाचिद अपि अप्रतिपत्तेः 'सद् द्रव्यम्' इत्यादिप्रतिपत्तिस्तद्वत्सु न कदाचिद् भवेत् तदंशानां सामान्यादेरत्यन्तभेदात् अत एव द्रव्यादिषट्पदार्थव्यवस्थाऽपि अनुपपन्ना भवेत् प्रतिभासगोचरचारिणां ३५ सामान्यायंशानां पदार्थान्तरताप्रसक्तेः । अथ निरंशं सामान्यमभ्युपगम्यत इति नायं दोषस्तर्हि सकलस्वाश्रयप्रतिपत्त्यभावतो मनागपि न सामान्य प्रतिपत्तिरिति 'सद द्रव्यं पृथिवी' इत्यादिप्रतिपत्तेनितरामभावः स्यात् । तदंशानां सामान्याद् भेदाभेदकल्पनायां द्रव्यादय एव भेदाभेदात्मकाकिं नाभ्युपगम्यन्ते इति सामान्यादिप्रकल्पना दूरोत्सारितैव इति कुतस्तद्भेदैकान्तकल्पना? ततः सामान्यविशेषात्मकं सर्व वस्तु सत्त्वात् न हि विशेषरहितं सामान्यमात्रम् सामान्यरहितं वा विशेष-४० मात्र संभवति । तादृशः क्वचिदपि वृत्तिविरोधात वृत्त्या हि सत्त्वं व्याप्तं स्खलक्षणात् सामान्यलक्षणाद वा तादृशाद् वृत्तिनिवृत्त्या निवर्तत एव यतः क्वचिद् वृत्तिमतोऽपि स्खलक्षणस्य न देशान्तरवर्तिना १-वानन्यथा-वा. बा. भा. मां। २ अत्र लिपिकारभ्रमः आत्मनेपदमनित्यमिति न्यायादा समर्थनीयम् । ३ तत्कार-भां० मा०। ४ वृत्तिः खतोपि बृ० आ० । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० तृतीये काण्डेअन्येन संयोगः तत्संसर्गाव्यवच्छिन्नस्वभावान्तरविरहाद् विशेषविकलसामान्यवत् एकस्य प्रतिसंवन्धि संबन्धस्वभावविशेषाभ्युपगमे विशेषाणां तत्स्वलक्षणं सामान्यलक्षणमेव स्यात् । न च विशेषैरन्यदेशस्थितैरसंयुक्तस्यैकत्र तस्य वृत्तिः अव्यवधानाविशेषात् एवं च स्वभावविशेषाणां सामान्य रूपाः सर्व एव भावाः विशेषरूपाश्च । तत्र देश-कालावस्थाविशेषनियतानां सर्वेषामपि सत्त्वं ५सामान्यमेकरूपम् अव्यवधानात् तस्य च ते विशेषा एव अनेक रूपम् यतः तदेव सत्त्वं परिणामविशेषापेक्षया गोत्व-ब्राह्मणत्वादिलक्षणा जातिः परिणामविशेषाश्च तदात्मका व्यक्तयः इति परस्परव्यावृत्तानेकपरिणामयोगाद् एकस्य एकानेकपरिणतिरूपता संशयज्ञानस्येव अविरुद्धा व्यक्तिव्यति. रिक्तस्य सामान्यस्य उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य अनुपलब्धेः शशशृङ्गवत् असत्त्वात् 'सन् घटः' इत्यादि. प्रत्ययः सामान्यविशेषात्मकवस्त्वभावे अबाधितरूपो न स्यात् । न च चक्षुरादिबुद्धौ वर्णाकृत्यक्षराका१० रशून्यं सामान्यं परव्यावर्णितखरूपमवभासते प्रतिभासभेदप्रसङ्गात् । यदि च तत् सर्वगतम् पिण्डान्तरालेऽपि उपलभ्येत स्वभावाविशेषात् । आश्रयाभावात् अनभिव्यक्त्यभ्युपगमे अभिव्यक्ताद् अनभिव्यक्तस्वरूपस्य भेदात् सामान्यरूपता न स्यात् । न च आश्रयभावाभावी अभिव्यक्त्यनभिव्यक्ती सत्प्रत्ययकर्तृत्वाऽकर्तृत्वे नित्यैकस्वभावस्य युज्येते, तद्रूपयोगिनोऽप्येकत्वे कथं नानेका न्तसिद्धिः? स्वाश्रयसर्वगतत्वेऽपि सत्ताया आश्रयेण एकेन एकदा प्रकाशितायाः सर्वदा सर्वत्र प्रका१५ शितत्वात् सकलवस्तुप्रपञ्चस्य सकृद् उपलब्धिप्रसङ्गः न वा कस्यचिद् उपलब्धिः स्यात् अविशेषात् । प्रकारान्तरेण प्रतीत्यभ्युपगमे अनेकान्तवाद एव । स्वतः सतां विशेषाणां सत्तासंबन्धानर्थक्यम् असतां तत्संबन्धानुपपत्तिः अतिप्रसक्तेः। अक्रियसामान्यसंवन्धान व्यक्तीनामक्रियत्वम् सामान्यस्य वा क्रिया. वत्त्वाद् अव्यापकत्वं स्यात् । व्यत्यव्यतिरेके व्यक्तिस्वलक्षणवत् तत् सामान्यमेव न भवेत् व्यक्तीनां वा सामान्याव्यतिरेका व्यक्तिस्वरूपहानेः सामान्यस्य तदुपता न भवेत् । न च व्यतिरेकाव्यतिरेक २० पक्षेऽपि अनवस्थोभयपक्षदोष-वैयधिकरण्य-संशयविरोधादिदोषप्रसङ्गात् सर्वथा तदभावः, अनवस्थादिदोषस्य प्राक् प्रतिषिद्धत्वात् प्रतीयमानेऽपि तथाभूते वस्तुनि विरोधादिदोषासञ्जने प्रकारान्तरेण प्रतिभासासंभवात् सर्वशून्यताप्रसङ्गः । न च सैवास्तु इति वक्तव्यम् स्वसंवेदनमात्रस्यापि अभावप्रसङ्गतः निष्प्रमाणिकायाः तस्या अपि अभ्युपगन्तुमशक्यत्वात् तथापि तस्या अभ्यु. पगमे वरमनेकान्तात्मकं वस्तु अभ्युपगन्तव्यम् तस्य अबाधितप्रतीतिगोचरत्वात् । २५ तेन रूपादिक्षणिकविज्ञानमात्र-शून्यवादाभ्युपगमः तथा पृथिव्यायेकान्तनित्यत्वाभ्युपगमः तथा आत्माद्यद्वैताङ्गीकरणम् तथा परलोकाभावनिरूपणम् द्रव्य-गुणादेरत्यन्तभेदप्रतिज्ञानं च तथा हिंसातो धर्माभ्युपगमः दीक्षातो मुक्तिप्रतिपादनम् इत्याद्येकान्तवादिप्रसिद्धं सर्वमसत् प्रतिपत्तव्यम् तत्प्रतिपादनहेतूनां प्रदर्शितनीत्या अनेकान्तव्याप्तत्वेन विरोधात् इतरधर्मसव्यपेक्षस्यैकान्तवाद्यभ्युपगतस्य सर्वस्य पारमार्थिकत्वात् अभिष्वङ्गादिप्रतिषेधार्थ विज्ञानमात्राद्यभिधानस्य सार्थकत्वात् । ३० तथाहि-'अहमस्यैव अहमेवास्य' इति एकान्तनित्यत्ववस्वामिसंबन्धाभिनिवेशप्रभवरागादिप्रतिषे. धपरं क्षणिकरूपादिप्रतिपादनं युक्तमेव । सालम्वनज्ञानकान्तप्रतिषेधपरं विज्ञानमात्राभिधानम् । सर्वविषयाभिष्वङ्गनिषेधप्रवणं शून्यताप्रकाशनम् । 'क्षणिक एवायं पृथिव्यादिः' इति एकान्ताभिनिवेशमूलद्वेपादिनिपेधपरं तन्नित्यत्वप्रणयनम् । जात्यादिमदोन्मूलतानुगुगमात्माद्यद्वैतप्रकाशनम् । 'जन्मान्तरजनितकर्मफलभोक्तृत्वमेव धर्मानुष्ठानम्' इति एकान्तनिरासप्रयोजनं परलोकाभावाववो३५ धनम् । द्रव्याद्यव्यतिरेकैकान्तप्रतिषेधाभिप्रायं तद्भेदाख्यानम् । अप्रमत्तस्य योगनिबन्धनप्राणव्यपरोपणस्य अहिंसात्वप्रतिपादनार्थ 'हिंसातो धर्मः' इति वचनम्, राग-द्वेष-मोह-तृष्णादिनिबन्धनस्य प्राणव्यपरोपणस्य दुःखसंवेदनीयफलनिर्वर्तकत्वेन हिंसात्वोपपत्तेः अत एव वैदिकहिंसाया अपि तन्निमित्तत्वे अपायहेतुत्वमन्यहिंसावत् प्रसक्तम् न च तस्या अतन्निमित्तत्वम् , “चित्रया यजेत पशुकामः" [ ] इति तृष्णानिमित्तश्रवणात् । न चैवंविधस्य वाक्यस्य प्रमाणताऽपि ४० उपपत्तिमती तत्प्राप्तिनिमित्ततद्धिंसोपदेशकत्वात् तृष्णादिवृद्धिनिमित्ततदन्यतद्विघातोपदेशवाक्य १-ति संबन्धे सं-बृ० ।-ति संबन्ध-वा० बा०। २-तो युक्ति-भां० मा० । ३ "चित्रया यजेत पशुकामः"-१-४-३ शाबरभा० पृ. ६. पं०९ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। वत् । न च अपौरुषेयत्वादस्य प्रामाण्यम् तस्य निषिद्धत्वात् । न च पुरुषप्रणीतस्य हिंसाविधायकस्य तस्य प्रामाण्यम् 'ब्राह्मणो हन्तव्यः' इति वाक्यवत् । न च वेदविहितत्वात् तद्धिंसाया अहिंसात्वम् प्रकृतहिंसाया अपि तत्त्वोपपत्तेः । न च "ब्राह्मणो न हन्तव्यः" [ ] इति तद्वाक्यबाधितत्वान्न प्रकृतहिंसायास्तद्विहितत्वम् “न वै हिंस्रो भवेत्" [ ] इति वेदवाक्यबाधितचित्रादियजनवाक्यविहितहिंसावत् प्रकृतहिंसायास्तद्विहितत्वोपपत्तेः । अथ 'ब्राह्मणो हन्तव्यः'५ इति वाक्यं न क्वचिद् वेदे श्रूयते, न; उत्सन्नानेकशाखानां तत्राभ्युपगमात् तथा च "सहस्रवर्मा सामवेदः”[ ] इत्यादिश्रुतिः । अथ यज्ञाद् अन्यत्र हिंसाप्रतिषेधः तत्र च तद्विधानम् यथा च "अन्यत्र हिंसा अपायहेतुः" [ ] इत्यागमात् सिद्धम् तथा तत एव तत्र स्वर्गहेतुः इत्यपि सिद्धम् न च यद् एकदा एकत्र अपायहेतुः तत् सर्वदा सर्वत्र तथेत्यभ्युपगन्तव्यम् आतुर-वस्थभुजिक्रियावत् अवस्थादिभेदेन भावानां परस्परविरुद्धफलकर्तृत्वोपलम्भात्, असम्यगे-१० ततः तृष्णादिनिमित्तहिंसाया अपायहेतुत्वेन सर्वशास्त्रेषु प्रसिद्धः तृष्णादिनिमित्ता च प्रकृतहिंसेति प्रतिपादितत्वात् । न च यन्निमित्तत्वेन यत् प्रसिद्धम् तत् फलान्तरार्थित्वेन विधीयमानमौत्सर्गिक दोषं न निर्वर्तयति, यथा आयुर्वेदप्रसिद्ध दाहादिकं रुगपगमार्थितया विधीयमानं स्वनिमित्तं दुःखं क्लिष्टकर्मसंबन्धहेतुतया च मखविधानाद् अन्यत्र हिंसादिकं शास्त्रे प्रसिद्धमिति सप्ततन्तावपि तद् विधीयमानं काम्यमानफलसद्भावेऽपि तत्कर्मनिमित्तं तद भवत्येव । न च हिंसातः स्वर्गादिसुखप्राप्तौ १५ असुखनिवर्तकक्लिष्टकर्महेतुता असंगता नरेश्वराराधननिमित्तब्राह्मणादिवधानन्तरावाप्तग्रामादिलाभजनितसुखसंप्राप्तौ तद्वधस्यापि तथात्वोपपत्तेः । अथ ग्रामादिलाभो ब्राह्मणादिवधनिर्वर्तितादृष्टनिमित्तो न भवति तर्हि स्वर्गादिप्राप्तिरपि अध्वरविहितहिंसानिर्वर्तिता न भवतीति समानम् । अथ अश्वमेधादौ आलभ्यमानानां छागादीनां स्वर्गप्राप्तेर्न तद्धिंसा हिंसेति तर्हि संसारमोचकविरचिताऽपि तत एव हिंसा न हिंसा स्यात् देवतोद्देशतो म्लेच्छादिविरचिता च ब्राह्मण-गवादिहिंसा च न हिंसा २० स्यात् । अथ तदागमस्य अप्रमाणत्वान्न तदुपदेशजनिता हिंसा अहिंसेति, ननु वेदस्य कुतः प्रामाण्यसिद्धिः ? न गुणवत्पुरुषप्रणीतत्वात् , परैस्तस्य तथाऽनभ्युपगमात् । न अपौरुषेयत्वात्, तस्य असंभवात् । तन्न प्रदर्शिताभिप्रायाद् विना हिंसातो धर्मावाप्तिर्युक्ता। परमप्रकर्षावस्थज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मकमुक्तिमार्गस्य 'दीक्षा'शब्देन अभिधाने दीक्षातो मुक्तिरुपपन्नैव अविकलकारणस्य कार्यनिर्वर्तकत्वात् अन्यथा कारणत्वायोगात् । तत्र तद्भत्युत्पादनार्थ २५ चैवमभिधानाद् अदोषः न हि तद्भक्त्यभावे उपादेयफलप्राप्तिनिमित्तसम्यग्ज्ञानादिपुष्टिनिमित्तदीक्षाप्रवृत्तिप्रवणो भवेत् । तन्न अन्यपरत्वं प्रदर्शितवचसामभ्युपगन्तव्यम् तथाऽभ्युपगमे वा अनाप्तत्वं तद्वादिनां प्रसज्येत तत्र पूर्वोक्तदोषानतिवृत्तेः ॥ ६ ॥ [विवेचनविकलामागमस्य प्रतिपत्तिमाश्रयतां तत्त्वानभिज्ञत्वख्यापनम् ] ये तु अविवेचितागमप्रतिपत्तिमात्रमाश्रयन्ते ते अनवगतपरमार्था एव इति प्रतिपादयन्नाह- ३० पाडेक्कनयपहगयं सुत्तं सुत्तहरसद्दसंतुट्ठा। अविकोवियसामत्था जहागमविभत्तपडिवत्ती ॥ ६१॥ प्रत्येकनयमार्गगतं सूत्रम्-"क्षणिकाः सर्वसंस्काराः विज्ञानमात्रमेवेदं भो जिनपुत्राः! यद् इदं त्रैधातुकम्" । ] इति, "ग्राह्यग्राहकोभयशून्यं तत्त्वम्” इति, "नित्यमेकमण्डव्यापि निष्क्रियम्" [ ] इत्यादि, "सदकारणवद् नित्यम्" ३५ [वैशेषिकद०४-१-१] इति, "आत्मा रे श्रोतव्यो ज्ञातव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" [ बृहदा० उ०२-४-५] इत्यादि, “सत्ता-द्रव्यत्वसंबन्धात् सद्रव्यं वस्तु" [ ] इति, “परलोकिनोऽभावात् परलोकाभावः" [ ]"चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः" [मीमांसाद०१-१-२] १“न जातु ब्राह्मणं हन्यात्"-अ० ८ श्लो. ३८० मनुस्मृ०। २न च हिं-वा० बा०। ३ "सहस्रवर्मा सामवेदः"-१-१-१ महाभा० पृ० ६५ पं० १। ४-स्वस्थसुभु-भां० मा०। ५पृ० १५० २९ । १४ स०प्र० Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे - इति, “धर्माधर्मक्षयंकरी दीक्षा" [ ] इत्यादिकमधीत्य 'सूत्रधरा वयम्' इति शब्दमात्र संतुष्टा गर्ववन्तः अविकोविदसामर्थ्याः अविकोविदम् अशं सामर्थ्य येषां ते तथाऽविदितसूत्रव्यापारविषया इति यावत् । किमित्येवं ते ? इत्याह-यथाश्रुतमेव अविभक्ता अविवेकेन प्रतिपत्तिरेषामिति कृत्वा सूत्राभिप्रायव्यतिरिक्तविषयविप्रतिपत्तित्वात् इतरजनवद् अज्ञा इत्यभि५ प्रायः । अथवा स्वयूथ्या एव एकनयदर्शनेन कतिचित् सूत्राणि अधीत्य केचित् 'सूत्रधरा वयम्' इति गर्विता यथावस्थितान्यनयसव्यपेक्षसूत्रार्थापरिज्ञानाद् अविदितात्मविद्वत्स्वरूपा इति गाथाभिप्रायः ॥ ६१ ॥ ७३२ १० [ निरपेक्षैकनयप्रवृत्तानां दोषोद्भावनम् ] अथ एषामेकनयदर्शनेन प्रवृत्तानां यो दोषस्तमुद्भावयितुमाहसम्मर्द्दसणमिणमो सयलसमत्तवयणिज्जणिद्दोसं । अत्तुको विट्ठा सलाहमाणा विणासेंति ॥ ६२ ॥ सम्यग्दर्शनमेतत् परस्परविषयाऽपरित्यागप्रवृत्तानेकनयात्मकम् तच्च 'स्यान्नित्यः' इत्यादि सकलधर्मपरिसमाप्तवचनीयतया निर्दोषम्, एकनयवादिनस्त्वविषये सूत्रव्यवस्थापनेन आत्मोत्कर्षेण विनष्टाः स्याद्वादाभिगमं प्रति अनाद्रियमाणा 'वयं सूत्रधराः' इत्यात्मानं १५श्लाघमानाः सम्यग्दर्शनं विनाशयन्ति - तदात्मनि न व्यवस्थापयन्तीति यावत् ॥ ६२ ॥ २० [न शासनभक्तिमात्रेण नाप्यांशिक ज्ञानमात्रेणानेकान्तप्ररूपण कुशल इति कथनम् ] अथ न ते आगमप्रत्यनीकाः तद्भक्तत्वात् तद्देशपरिज्ञानवन्तश्चेति कथं तद् विनाशयन्तीति ? अत्राह ण हु सासणभत्तीमेत्तएण सिद्धंतजाणओ होइ । ण विजाणओ विणियमा पण्णवणाणिच्छिओ णामं ॥ ६३ ॥ न च शासनभक्तिमात्रेणैव सिद्धान्तज्ञाता भवति-न च तदज्ञानवान् भावसम्यक्त्ववान् भवति अज्ञातस्य अर्थस्य विशिष्टरुचिविषयत्वानुपपत्तेः तद्भक्तिमात्रेण श्रद्धानुसारितया द्रव्यसम्यक्त्वम् । मार्गानुसार्यवबोधमात्रानुषक्तरुचिस्वभावं तु सदपि न भावसम्यक्त्व साध्यफलनिर्वर्तकम् भावसम्यक्त्वनिमित्तत्वेनैव तस्य द्रव्यसम्यक्त्वरूपत्वोपपत्तेः । न च जीवादितस्यैकदेशज्ञाताऽपि २५ नियमतोऽनेकान्तात्मकवस्तुस्वरूपप्रज्ञापनायां निश्चितो भवति एकदेशज्ञानवतः सकलधर्मात्मक वस्तुज्ञानविकलतया सम्यक् तत्प्ररूपणाऽसंभवात् । तथाहि - सर्वज्ञो यथावस्थितैकदेशशः जीवादिसकलतत्त्वज्ञता तु आगमविदः सामान्यरूपतया अभिधीयते "मति श्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु" [ तत्त्वार्थ० १-२७] इति वचनात् । [तसप्तके निरूप्ये पूर्व जीवाजीवौ निरूप्य तत्र कणादादि संमततच्चानामन्तर्भाव प्रदर्शनम् ] ३० तत्त्वं तु जीवा जीवाव-बन्ध-संवर- निर्जरा-मोक्षाख्याः सप्त पदार्थाः । तत्र चेतनालक्षणोऽर्थो जीवः, तद्विपरीतलक्षणस्तु अजीवः, धर्माधर्माकाशकालपुद्गलभेदेन त्वसौ पञ्चधा व्यवस्थापितः । एतत्पदार्थद्वयान्तर्वर्तिनश्च सर्वेऽपि भावाः न हि रूप-रस- गन्ध-स्पर्शादयः साधारणासाधारणरूपा मूर्त १ - जनपदवज्ञानिन इत्य-भां० मां० । जनपदवदज्ञान इत्य बृ० आ० हा०वि० । 9 २ णाम मु० मू० ३ प्रायो बहुषु आदर्शेषु तत्र च बहुषु स्थलेषु तालव्यशकारस्योपलम्भेऽपि क्वचित् क्वचिद् दन्त्यसकारस्य दर्शनात् तस्यैव च प्रकृते शुद्धतरत्वात् तथैव च प्रन्थान्तर संवाददर्शनात् पाठान्तरवैषम्यपरिहाराय लाघवाय एकविधपाठपरिग्रहाय च सर्वत्र दन्त्यसकार विशिष्टं रूपमङ्गीकृत्य 'आस्रव' पदमेव उपयुक्तमत्रास्माभिः न तु 'आश्रव' पदम् । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ऽमूर्तचेतनाऽचेतनद्रव्यगुणाः, उत्क्षेपणाऽपक्षेपणादीनि च कर्माणि, सामान्य-विशेष-समवायाश्च जीवाऽजीवव्यतिरेकेण आत्मस्थितिं लभन्ते तद्भेदेन एकान्ततस्तेपामनुपलम्भात् तेषां तदात्मकत्वेन प्रतिपत्तेः अन्यथा तदसत्त्वप्रसक्तेः । ततो जीवाजीवाभ्यां पृथक जात्यन्तरत्वेन द्रव्य-गुण-कर्मसामान्य-विशेष-समवायो न वाच्याः। एवम् प्रमाण-प्रमेय-संशय-प्रयोजन-दृष्टान्त-सिद्धान्तावयव-तर्क-निर्णय वाद-जल्प-वितण्डा-हेत्वाभास-च्छल-जाति-निग्रहस्थानौनि च न पृथर अभिधानी-५ यानि । तथा, "प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः। तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि" ॥ [ सांख्यका० का० २२] इति चतुर्विशतिः पदार्थाः पुरुषश्चेति न वक्तव्यम् । तथा, दुःख-समुदा(द)य-मार्ग-निरोधाश्चत्वारि आर्यसत्यानि इति न वक्तव्यम् । तथा पृथिवी आपः तेजः वायुः इति तत्वानि इति न वक्तव्यम् । तत्प्रभेद १० रूपतया अभिधानेऽपि न दोषः जात्यन्तरकल्पनाया एव अघटमानत्वात् राशिद्वयेन सकलस्य जगतो व्याप्तत्वात् तदव्याप्तस्य शशशृङ्गतुल्यत्वात् । शब्दब्रह्माद्यकान्तस्य च प्राक प्रतिषिद्धत्वात् अबाधित. रूपोभयप्रतिभासस्य तथाभूतवस्तुव्यवस्थापकस्य प्रसाधितत्वात् विद्याऽविद्याद्वयभेदाद् द्वैतकल्पनायामपि त्रित्वप्रसक्तेः । बाह्यालम्बनभूतभावापेक्षया विद्यात्वोपपत्तेः अन्यथा निर्विषयत्वेन उभयोरविशेषात् तत्प्रतिभागस्य अघटमानत्वात् न हि द्वयोर्निरालम्बनत्वे विपर्यस्ताऽविपर्यस्तज्ञानयोरिव १५ विद्याविद्यात्वमेदः ततो नाद्वयं वस्तु, नापि तद्व्यतिरिक्तमस्ति । ___अथ आस्रवादीनामपि अनुपपत्तिः राशिद्वयेन सकलस्य व्याप्तत्वात्, न; ततस्तेषां कथंचिद् मेदप्रतिपादनार्थत्वात् अनयोरेव तथापरिणतयोः सकारणसंसार-मुक्तिप्रतिपादनपरत्वात् तथाभिधानस्य अनेन वा क्रमेण तज्ज्ञानस्य मुक्तिहेतुत्वप्रदर्शनार्थत्वात् विप्रतिपत्तिनिरासार्थत्वाद् वा तदभिधानस्य अदुष्टता । तथाहि-आँस्रवति कर्म यतः स आस्रवः काय-वार-मनोव्यापारः स च २० जीवाजीवाभ्यां कथंचिद् भिन्नः तथैव प्रतीतिविषयत्वात् । अथ बन्धाभावे कथं तस्योपपत्तिः! प्राक् तत्सद्भावे वा न तस्य बन्धहेतुता न हि यद यद्धेतुकं तत् तदभावेऽपि भवति अतिप्रसङ्गात्, असदे तत् पूर्वोत्तरापेक्षया अन्योन्य कार्यकारणभावनियमात् । न च इतरेतराश्रयदोषः प्रवाहापेक्षया अनादित्वात् । पुण्यापुण्यबन्धहेतुतया चासौ द्विविधः उत्कर्षाऽपकर्षभेदेन अनेकप्रकारोऽपि दण्डगुप्त्यादित्रित्वादिसंख्याभेदमासादयन् फलानुबन्ध्यननुवन्धिभेदतः अनेकशब्दविशेषवाच्यतामनु-२५ भवति एकान्तवादिनां च नायं संभवतीति कम्मं जोगनिमित्तं [प्र० का० गा० १९] इति गाथार्थ प्रदर्शयद्भिः प्राक प्रतिपादितत्वात् । तन्निमित्तः सकषायस्य आत्मनः कर्मवर्गणापुद्गलैः संश्लेषविशेषो बन्धः स च सामान्येन एकविधोऽपि प्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेशभेदेन चतुर्धा पुनः एकैको ज्ञानावरणीयादि-मूलप्रकृतिभेदादष्टविधः पुनरपि मत्यावरणाद्युत्तरप्रकृतिभेदाद् अनेकविधः अयं च कश्चित् तीर्थकरत्वादिफलनिर्वर्तकत्वात प्रशस्तः अपरश्च नारकादिफलनिर्वर्तकत्वाद३० अप्रशस्तः प्रशस्ताऽप्रशस्तात्मपरिणामोद्भूतस्य कर्मणः सुख-दुःखसंवेदनीयफलनिर्वर्तकत्वात् । १ कणादमतमेतत् , अस्य स्थापन-निरसने पूर्व समायाते द्रष्टव्ये । २ अक्षपादमतमेतत् । ३ न्यायद० १-१-१। ४ “प्रकृतेर्महान् ततोहंकार"-सांख्यका० । ५ बौद्धमते दुःखकारणभूतद्वितीयार्यसत्यपरत्वं समुदयपदस्य प्रसिद्धम् । तद्यथा“समुदेति यतो लोके रागादीनां गणोऽखिलः । आत्मात्मीयभावाख्यः समुदयः स उदाहृतः" ॥६॥-पइद० स० । ६ आश्रव-बृ. विना। अत्र आस्रवस्य निरूपणीयखेन तत्र च मनोदण्डादित्रिविधदण्डस्य समावेशेऽपि त्रिविधाया गुप्तेः संवररूपलेन आस्रवविरोधितया आस्रवे समावेशाभावात् 'दण्डागुप्त्यादि' इति पाठं कल्पयिखा अर्थसंगतिः कर्तुमुचिता। ८पृ. ४१८ गा० १९ । ९ "ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययादिष्यते बन्धः"-सांख्यका० ४४ । “ज्ञानस्य विपर्ययोऽज्ञानं तेनाज्ञानेन x x x मात्मानं निबध्नाति-न मोक्षं गच्छतीत्यर्थः x x x स च बन्धस्त्रिविधः प्रकृतिबन्धः वैकारिकबन्धः दक्षिणाबन्धश्चति । तत्र प्रकृतिबन्धो नाम अष्टासु प्रकृतिषु परखेनाभिमानः" [का० ४४ माठरवृ० पृ. ६२] इत्यादिना सांख्या अपि बन्धं प्रतिपन्नाः। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ तृतीये काण्डे [ ध्यानचतुष्कस्य सभेदप्रभेदं व्यावर्णनम् ] अप्रशस्तश्च आत्मपरिणामो द्विविधः आर्त-रौद्रभेदात् आमुहूर्तस्थायी आक्रन्दन-विलपनपरिदेवन-शोचन-परविभवविस्मय-विषयसंगादिकश्च स्वसंवेद्य आत्मनः अनुमेयश्च परेषाम् क्लिष्टः परिणामविशेष आर्तध्यानशब्दवाच्यो बाह्यः आभ्यन्तरश्च अमनोज्ञसंप्रयोगानुत्पत्त्यध्यवसानम् ५ उत्पन्नस्य च विनाशाध्यवसायः मनोज्ञसंप्रयोगस्य उत्पत्तिकल्पनाध्यवसायः उत्पन्नस्य अविनाश. संकल्पाध्यवसानम् इत्येतत् चतुर्विधमार्तध्यानम् अमनोज्ञसंप्रयोगश्च बाह्याध्यात्मजत्वेन द्विधाशीताऽऽतप-व्यालादिजनितो बाह्यः वात-पित्त-श्लेष्मादिप्रादुर्भूतोऽभ्यन्तरः शारीरः भय-विषादाऽरति-शोक-जुगुप्सा-दौर्मनस्यादिप्रभवो मानसः अयममनोसंप्रयोगः कथं नाम मे न संपद्यत इति संकल्पप्रबन्ध आर्तध्यानम् कृष्ण-नील-कापोतलेश्याबलाधायकं प्रमादाधिष्ठानम् आप्रमत्त१० गुणस्थानात् तिर्यग-मनुष्यगतिनिर्वर्तकम् उत्कर्षाऽपकर्षभेदात् क्षायोपशमिकभावरूपं परोक्षज्ञानरूपत्वात् । एवं रुद्रे भवं रौद्रं हिंसाऽनृत-स्तेय-संरक्षणाऽऽनन्दभेदेन चतुर्विधम् तत्र हिंसायामानन्दो रुचिर्यस्मिन् तद् हिंसानन्दम् एवमुत्तरत्रापि योज्यम् एतदपि बाह्याध्यात्ममेदाद् द्विविधम् परुषनिष्ठुरवचनाक्रोशनिर्भर्त्सनताडनपरदारातिकमाभिनिवेशादिरूपं बाह्यम्-खपराभ्यां स्वसंवेदना ऽनुमानगम्यं बाह्यम् । आध्यात्मिकं हिंसायां संरम्भ-समारम्भादिलक्षणायां नैघृण्येन प्रवर्तमानस्य १५संकल्पाध्यवसानम्-संकल्पश्चिन्ताप्रबन्धस्तस्याध्यवसानम्-तीवकषायानुषक्तत्वं प्रथमं हिंसानन्दं नाम । परेषामनेकप्रकारैमिथ्यावचनैर्वञ्चनं प्रति संकल्पाध्यवसानं मृषानन्दं नाम । परद्रव्यापहरणं प्रति अनेकोपायैर्यत् तत् स्तेयानन्दम् । परिग्रहे 'मम एव इदं स्वम् अहमेव अस्य स्वामी' इति अभिनिवेशः तदपहर्तृविघातेन संरक्षणं प्रति संकल्पाध्यवसानं संरक्षणानन्दम् । चतुर्विधमप्येतत् कृष्णादिलेश्याबलाधायकं प्राक् प्रमत्तगुणस्थानात् प्रमादाधिष्ठानं कषायप्राधान्यादौदयिकभावरूपं २० नरकगतिफलनिर्वर्तकं पापध्यानद्वयमपि हेयम् ।। उपादेयं तु प्रशस्तं धर्म-शुक्लध्यानद्वयम् । तत्र पर्वतगुहा-जीर्णोद्यान-शून्यागारादौ मनुष्याद्यापातविकले अवकाशे मनोविक्षेपनिमित्तशून्ये सत्त्वोपघातरहिते उचिते शिलातलादौ यथासमाधानं विहितपर्यङ्कासन ऊर्ध्वस्थानस्थो वा मन्दमन्दप्राणाऽपानप्रचारः-अतिप्राणनिरोधे चेतसो व्याकुलत्वेन एकाग्रतानुपपत्तेः-निरुद्धलोचनादिकरणप्रचारो हृदि ललाटे मस्तके अन्यत्र वा यथापरिचयं २५मनोवृत्तिं प्रणिधाय मुमुक्षुर्ध्यायेत् प्रशस्तं ध्यानम् । तत्र बाह्याध्यात्मिकभावानां याथात्म्यं धर्मः तस्माद् अनपेतं धर्म्यम् । तच्च द्विविधम् बाह्यम् आध्यात्मिकं च । सूत्रार्थपर्यालोचनम् दृढव्रतता शीलगुणानुरागः निभृतकायवाग्व्यापारादिरूपं बाह्यम् आत्मनः स्वसंवेदनग्राह्यमन्येषामनुमेयमाध्यात्मिकं तत्त्वार्थसंग्रहादौ चातुर्विध्येन प्रदर्शितं संक्षेपतः अन्यत्र दशविधम् । तद्यथा-अपायोपायजीवाऽजीवविपाकविरागभवसंस्थानाज्ञाहेतुविचयानि चेति । लोक-संसारविचययोः संस्थान३०भवविचययोरन्तर्भावान्नोद्दिष्टदशमेदेभ्यः पृथगभिधानम् । तत्र अपाये विचयो विचारो यस्मिन् तद् अपायविचयम् । एवम् अन्यत्रापि योज्यम् । 'दुष्टमनो-वाक्-कायव्यापारविशेषाणामपायः कथं नु नाम स्यात्' इत्येवंभूतः संकल्पप्रबन्धो दोषपरिवर्जनस्य कुशलप्रवृत्तित्वाद् अपायविचयम् । 'तेषामेव कुशलानां स्वीकरणमुपायः स कथं नु मे स्यात्' इति संकल्पप्रबन्ध उपायविचयम् । असंख्ये यप्रदेशात्मकसाकाराऽनाकारोपयोगलक्षणाऽनादिस्वकृतकर्मफलोपभोगित्वादिजीवस्वरूपानुचिन्तनं ३५जीवविचयम् । धर्माधर्माकाशकालपुद्गलानामनन्तपर्यायात्मकानामजीवानामनुचिन्तनमजीवविचयम् मूलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्नस्य पुद्गलात्मकस्य मधुरकटुफलस्य कर्मणः संसारिसत्त्वविषयविपाकविशेषानुचिन्तनं विपाकविचयम् । 'कुत्सितमिदं शरीरकम् शुक्रशोणितसमुद्भूतम् अशुचिभृतघटोपमम् अनित्यम् अपरित्राणम् गलदशुचिनवच्छिद्रतया अशुचि आधेयशौचम् न किञ्चिदत्र कमनीयतरं समस्ति किंपाकफलोपभोगोपमाः प्रमुखरसिका विपाककटवः प्रकृत्या भङ्गुराः पराधीनाः संतोषा४० मृतास्वादपरिपन्थिनः सद्भिर्निन्दिता विषयाः तदुद्भवं च सुखं दुःखानुषङ्गि दुःखजनकं च नातो देहिनां तृप्तिः न च एतद् आत्यन्तिकमिति नात्र आस्था विवेकिना आधातुं युक्तेति विरतिरेव अतः १ आर्तध्यानादिध्यानचतुष्टयस्य विशेषस्वरूपं भगवतीसूत्र-स्थानाङ्गसूत्र-आवश्यकसूत्रेभ्योऽवसेयं भवेत्-श० २५ उद्दे, ७ । स्था० ४ उद्दे० १। ध्यानशतकम् पृ० ५८२-६०२।२-यमनोश-बृ० वा. बा०।३-नैर्वचनं वा० बा० विना। ४ वाचकउमाखातिप्रणीततत्त्वार्थसू० अ० ९ । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । श्रेयस्कारिणी' इत्यादिरागहेतुविरोधानुचिन्तनं वैराग्यविचयम् । प्रेत्य स्वकृतकर्मफलोपभोगार्थ पुनः प्रादुर्भावो भवः स च अरघट्टघटीयन्त्रवद् मूत्र-पुरीषाऽन्त्रतन्त्रनिबद्धदुर्गन्धजठरपुटकोटरादिषु अजस्रमावर्तनम् न चात्र किञ्चिद् जन्तोः स्वकृतकर्मफलमनुभवतः चेतनमचेतनं वा सहायभूतं शरणतां प्रतिपद्यते' इत्यादि भवसंक्रान्तिदोषपर्यालोचनं भवविचयम् । 'भवन-नग-सरित्-समुद्रभूरुहादयः पृथिवीव्यवस्थिताः साऽपि घनोदधि-घनवात-तनुवातप्रतिष्ठा तेऽपि आकाशप्रतिष्ठाः५ तदपि खात्मप्रतिष्ठम् तत्र अधोमुखमल्लकसंस्थानं वर्णयन्ति अधोलोकम्' इत्यादि च संस्थानानुचिन्तनं संस्थानविचयम् । अतीन्द्रियत्वाद् हेतूदाहरणादिसद्भावेऽपि बुद्ध्यतिशयशक्तिविकलैः परलोक-बन्ध-मोक्ष-धर्माऽधर्मादिभावेषु अत्यन्त दुःखबोधेषु आप्तप्रामाण्यात् तद्विषयं तद्वचनं तथैवेति आशाविचयम् । आगमविषयविप्रतिपत्तौ तर्कानुसारिबुद्धेः पुंसः स्याद्वादप्ररूपकागमस्य कष-च्छेदतापशुद्धितः समाश्रयणीयत्वगुणानुचिन्तनं हेतुविचयम् । एतच्च सर्व धर्मध्यानम् श्रेयोहेतुत्वात् १० एतच्च संवररूपम् अशुभास्रवप्रत्यनीकत्वात् "आस्रवनिरोधः संवरः" [ तस्वार्थ० ९-१] इति वचनात् । गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षादीनां चास्रवप्रतिबन्धकारित्वात् । अयमपि जीवाऽजीवाभ्यां कथंचिदभिन्नः भेदाभेदैकान्ते दोषोपपत्तेः । न चायमेकान्तवादिनां घटते मिथ्याशानाद् मिथ्याज्ञानस्य निरोधानुपपत्तेः । संवरश्च द्विविधः सर्व-देशभेदात् । पीत-पद्मलेश्याबलाधानमप्रमत्तसंयतस्य अन्तर्मुहूर्तकालप्रमाणं स्वर्गसुखनिवन्धनमेतद् धर्मध्यानं प्रतिपत्तव्यम् । __ कषायदोषमलापगमात् शुचित्वम् तदनुषङ्गात् शुक्लं ध्यानम् । तच्च द्विविधम्-शुक्ल-परमशुक्लभेदात् । तत्र पृथक्त्ववितर्कवीचारम् एकत्ववितर्कावीचारं चेति शुक्लं द्विधा । परमशुक्लमपि सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्युपरतक्रियानिर्ति चेति द्विधा । बाह्याध्यात्मिकभेदाच्च एतदपि द्विविधम्-गात्र-दृष्टिपरिस्पन्दाभावः जृम्भोद्गारक्षवथुविरहः अनभिव्यक्तप्राणाऽपानप्रचारत्वमित्यादिगुणयोगि बाह्यम् परेषामनुमेयम् आत्मनश्च स्वसंवेद्यम्-आध्यात्मिकं तु पृथग्भावः पृथक्त्वम्-नानात्वम्, वितर्कः-श्रुत-२० ज्ञानम्-द्वादशाङ्गम् , वीचारः-अर्थ-व्यञ्जन-योगसंक्रान्तिः-व्यञ्जनम्-अभिधानम् तद्विषयोऽर्थः मनोवाक्-कायलक्षणो योगः संक्रान्तिः परस्परतः परिवर्तनम् पृथक्त्वेन वितर्कस्य अर्थ-व्यञ्जन-योगेषु संक्रान्तिर्वीचारः यस्मिन् अस्ति तत् पृथक्त्ववितर्कवीचारम् । तथाहि-असावुत्तमसंहननो भावयति विजृम्भितपुरुषकारवीर्यसामर्थ्यः संहृताशेषचित्तव्याक्षेपः कर्मप्रकृतीः स्थित्यनुभागादिभिर्हासयन् महासंवरसामर्थ्यतो मोहनीयमचिन्त्यसामर्थ्यमशेषमुपशमयन् क्षपयन् वा द्रव्यपरमाणुम् भावपर-२५ माणुं चैकमवलम्ब्य द्रव्य-पर्यायार्थाद् व्यञ्जनम् व्यञ्जनाद् वा अर्थम् योगाद् योगान्तरम् व्यञ्जनाद् व्यञ्जनान्तरं च संक्रामन् पृथक्त्ववितर्कवीचारं शुक्लतरलेश्यमुपशमक-क्षपकगुणस्थानभूमिकमन्तमुहूर्ता(द्धं) क्षायोपशमिकभूमिकं प्रायः पूर्वधरनिषेव्यमाश्रितार्थ व्यञ्जनयोगसंक्रमणं श्रेणिभेदात् स्वर्गापवर्गफलप्रदमाद्यं शुक्लध्यानमवलम्बते एतच्च निर्जरात्मकम् आत्मस्थितकर्मक्षयकारणत्वात् तस्याः “तपसा निर्जरा च" [ तत्त्वार्थ० ९-३] इति वचनात् ध्यानस्य चान्तरोत्कृष्टतपोरूपत्वाद् ३० जीवाजीवाभ्यां कथंचिदसावभिन्ना व्यङ्गुलवियोगवत् वियुक्तात्मनो वियोगस्य कथंचिद् अभेदात् एकान्तवादे तु पूर्ववत् पश्चादपि अवियोगः अतद्धर्मत्वात् वियोगे वा पूर्वमपि तत्स्वभावत्वाद् अयु. क्तस्य वियोगाभाव एव न हि बन्धाभावे तद्विनाशः संभवी तस्य वस्तुधर्मत्वात् न हि अङ्गुल्योः संयोगाभावे तद्वियोग इति व्यवहारः । तस्माद् निर्जराया अपि एकान्तवादे अनुपपत्तिः । एकत्वेन वितर्को यस्मिन् तद् एकत्ववितर्कम् विगतार्थ-व्यञ्जन-योगसंक्रमत्वाद् अवीचारं द्वितीयं शुक्लध्यानम् । ३५ तथाहि-एकपरमाणौ एकमेव पर्यायमालम्ब्यत्वेन आदाय अन्यतरैकयोगबलाधानमाश्रितव्यतिरि ताशेषार्थव्यञ्जनयोगसंक्रमविषयचिन्ताविक्षेपरहितं बहुतरकर्मनिर्जरारूपं निश्शेषमोहनीयक्षयानन्तरं । युगपद्भाविघातिकर्मत्रयध्वंसनसमर्थमकषायच्छद्मस्थवीतरागगुणस्थानभूमिकं क्षपको द्वितीयं शुक्ल १पीत-पद्मादिकानां षण्णां लेश्यानां सविस्तर वरूपं प्रज्ञापनासूत्रीयलेश्यापदतोऽवगन्तव्यम्-प. १७ पृ०३३०३७३। २ अत्र मूलतत्त्वार्थे तदीये भाष्ये च 'क्रियानिवृत्ति' इत्येव पाठो मुद्रितो दृश्यते-अ० ९-४१। सर्वार्थसिद्धि-राजबार्तिक-श्लोकवार्तिकेषु तु 'क्रियानिवर्ति' इत्येव पाठो मुद्रितो वर्तते परन्तु सर्वार्थसिद्धौ तालपत्रगतपाठान्तरलेन 'क्रियानिवृत्ति' इति पाठोऽधस्तादुपन्यस्तः-अ० ९-३९ । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ तृतीये काण्डेध्यानमासादयति । प्रायः पूर्व विदेव तदनन्तरं ध्यानान्तरे वर्तमानः क्षायिकक्षान-दर्शन-चारित्र-वी. र्यातिशयसंपत्समन्वितो भगवान् केवली जायत इति स च अत्यन्तापुनर्भवसंपदङ्गनासमालिङ्गिततनुः कृतकृत्यः अचिन्त्यज्ञानाद्यैश्वर्यमाहात्म्यातिशयपरमभक्तिनम्रामरेश्वरादिवन्द्यचरणः अन्तर्मुहूर्तम् देशोनां वा पूर्वकोटिं भवोपग्राहिकर्मवशाद् विहरन् यदा अन्तर्मुहूर्तपरिशेषायुष्कस्तत्तुल्यस्थितिनाम५गोत्र वेदनीयश्च भवति तदा मनो-वार-बादरकाययोगं निरुध्य सूक्ष्मकाययोगोपगः सूक्ष्मक्रियाऽप्र. तिपाति शुक्लध्यानं तृतीयमध्यास्ते यदा पुनरन्तर्मुहूर्तस्थितिकायुष्ककर्माधिकतरस्थितिशेषकर्मत्रयो भवत्यसौ तदा आयुष्ककर्मस्थितिसमानस्थितिशेषकर्मसंपादनार्थ समुद्धातमाश्रित्य दण्ड-कपाटमन्थलोकापूरणानि स्वात्मप्रदेशविसरणतश्चतुर्भिः समयैर्विधाय तावद्भिरेव तैः पुनस्तान् उपसंहृत्य स्वप्रदेशविश(स)रणसमीकृतभवोपग्राहिकर्मा स्वशरीरपरिमाणो भूत्वा ततः तृतीयं शुक्लध्यानभेदं परिस१०मापय्य पुनश्चतुर्थ शुक्लध्यानमारभते तत् पुनर्विगतप्राणापानप्रचाराशेषकाय-वार-मनोयोगसर्वदेश परिस्पन्दत्वाद् विगतक्रियानिवर्ति इत्युच्यते तत्र च सर्वबन्धास्रवनिरोधः अशेषकर्मपरिक्षयसामोपपत्तेः तदेव च निश्शेषभवदुःखविटपिदावानलकल्पं साक्षाद् मोक्षकारणम् तद्ध्यानवांश्च अयोगिकेघली निःशेषितमलकलङ्कोऽवाप्तशुद्धनिजस्वभाव ऊर्ध्वगतिपरिणामस्वाभाव्यात् निवातप्रदेशप्रदीपशि खावद ऊध्र्व गच्छति एकसमयेन आलोकान्तात् विनिमुक्ताशेषबन्धनस्य प्राप्तनिजस्वरूपस्य आत्मनो १५ लोकान्ते अवस्थानं मोक्षः “बन्धवियोगो मोक्षः" [ ] इति वचनात् । अत्र च जीवाजीवयोः आगमादिव अध्यक्षाऽनुमानतोऽपि सिद्धिः प्रदर्शिता आस्रवस्यापि तथैव, कर्मयोग्यपुद्गलात्मप्रदेशानां परस्परानुप्रवेशस्वभावस्य तु बन्धस्य अनुपलब्धावपि अध्यक्षतः अनुमानात् प्रतिपत्तिः । तथाहि-अशेषज्ञेयज्ञानस्वभावस्य आत्मनः स्वविषयेऽप्रवृत्तिर्विशिष्टद्रव्यसंवम्धनिमित्ता, पीतहापूरपुरुषस्वविषयज्ञानाऽप्रवृत्तिवत्, यञ्च ज्ञानस्य स्खविषयप्रतिबन्धकं द्रव्यं तद् २० ज्ञानावरणादि वस्तुसत् पुद्गलरूपं कर्म, आत्मनश्च सकलशेयज्ञानस्वभावता स्वविषयाप्रवृत्तिश्च छद्म स्थावस्थायां प्राक् प्रदर्शितैव । औदारिकाद्यशेषशरीरनिबन्धनस्य अनेकाऽवान्तरभेदभिन्नाष्टविधकर्मात्मकस्य कार्मणशरीरस्य सर्वज्ञप्रणीतागमात् सिद्धेः कथं न ततो बन्धसिद्धिः ? न च कार्मणशरीरस्य मूर्तिमत्त्वात् सत्त्वे उपलब्धिः स्यात् अनुपलम्भाच्च तद् असत् इति वाच्यम् यतः न सर्व मूर्तिमद् उपलभ्यते सौम्यात् पिशाचादिशरीरस्येव औदारिकादिशरीरनिमित्ततयोपकल्पितस्य अनुपल२५म्मेऽपि अपह्नोतुमशक्यत्वात् । कथमनुपलभ्यमानस्य अस्तित्वं तस्येति चेत्, न; आप्तवादात् तस्य सिद्धेः । न च तदभाव औदारिकाद्यपूर्वशरीरयोग आत्मनः स्यात् । न हि रजवाकाशयोरिव मूर्तामूर्त योर्बन्धविशेषयोगः कार्मणशरीराविनाभूतश्चामुक्तेः सदात्मा इति तस्य कथंचिद् मूर्तत्वम् ततश्च औदारिकादिशरीरसंबन्धो रजु-घटयोरिव उपपत्तिमान् । अथ सूक्ष्मशरीरसिद्धावपि आस्रवनिरपेक्षाः परमाणवो वाय्वादिसूक्ष्मद्रव्यनिमित्तपरमाणुद्रव्यवद् भविष्यन्तीति न बन्धहेत्वास्रवसिद्धिः, नैतत्; ३० क्रोडीकृतचैतन्यप्रयोजनस्य अचेतनस्य आस्रवनिरपेक्षपरमाणुहेतुत्वानुपपत्तेः न हि अभ्यन्तरीकृतचैतन्यप्रयोजनस्य आकाशद्रव्यादेार-बुद्धि-शरीरारम्भादिनिरपेक्षपरमाणुजन्यता परस्यापि सिद्धा अतः तृष्णानुबद्धस्य चैतन्यस्य मनो-वाक्-कायव्यापारवतः कर्मवर्गणापुद्गलसचिवस्य कार्मणशरीरा. नुविद्धस्य तथाविधतच्छरीरनिर्वर्तकत्वम् अन्यथा तथाविधकारणप्रभवतच्छरीराभावे आत्मनो बन्धा. भावतः संसारिसत्त्वविकलं जगत् स्यादेव । तीर्थान्तरीयैरपि आतिवाहिकादिशब्दवाच्यतया अभ्युप३५ गम्यमानं कार्मणशरीरं सकलदृष्टपदार्थाविसंवाद्यहंदुक्तागमप्रतिपाद्यमवश्यमभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा सकलदृष्टाऽदृष्टव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः । न च अचेतनस्य तस्य कथं भवान्तरप्रापकत्वम् ? चेतनाधि. प्ठितस्य अचेतनस्यापि देवदत्तव्यापारप्रयुक्तदेशान्तरप्रापणशक्तिमन्नौद्रव्यवद अचेतनस्यापि तत्प्रापक. त्वाविरोधात् । न च सदा चैतन्यानुषक्तस्य तस्य अचेतनव्यपदेशयोगितेति प्राक प्रतिपादितत्वात् । तदेवम् अनुमानाऽऽगमाभ्यां बन्धस्य प्रसिद्धिः । संवरस्य तु अध्यक्षाऽनुमानाऽऽगमप्रसिद्धता १ "कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः" तत्त्वार्थसू० अ० १०-३। २-णुवृत्त्यवद भ-वृ. आ. हा० वि० । ३-तस्यपि देव-बृ० आ० हा० वि०।-तस्यापि चेतस्यापि देव-वा.बा. । पुरस्ताद 'अचेतनस्यापि' इति पदस्य सत्त्वेन वाक्यसामजस्याय चेतनाधिष्ठितस्य देवदत्तव्यापारप्रयुक्तदेशान्तरप्रापणशक्तिमत्रौद्रव्यवद् भचेतनस्यापि तत्प्रापकत्वाविरोधात' इत्येव पाठः कल्पयितुं समुचितः प्रतिभाति । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। न्यायानुगतैव चैतन्यपरिणतेः स्वात्मनि स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धत्वात् अन्यत्र तु तत्प्रभवकार्यानुमेयत्वात् आगमस्य च तत्प्रतिपादकस्य प्रदर्शितत्वात् । निर्जरा तु ज्ञानावरणीयादेः कर्मणः केवलज्ञानसद्भावान्यथानुपपत्त्या अनुमानतः । “तपसा निर्जरा च" [ तत्त्वार्थ०९-३] इति आप्तागमतश्च अस्सदादिभिः प्रतीयते सर्वकर्मनिर्जरावद्भिस्तु स्वसंवेदनाध्यक्षतः परमपदप्राप्तिहेतोः सम्यगशानादेः खसंविदितत्वात् सर्वकर्मापगमाविर्भूतचैतन्यसुखस्वभावात्मस्वरूपस्य मोक्षस्यापि अनन्तरोक्तन्यायतः५ प्रतिपत्तिः । तथाहि-'यदुत्कर्षतारतम्याद् यस्य अपचयतारतम्यं तत्प्रकर्षनिष्ठागमने भवति तस्य आत्यन्तिकः क्षयः, यथा उष्णस्पर्शतारतम्यात् शीतस्पर्शस्य, भवति च ज्ञान-वैराग्यादेरुत्कर्षतारतम्याद् अशान-रागादेरपचयतारतम्यम्' इति अनुमानतः भगवदागमतश्च अस्मदादेरपवर्गसिद्धिः भगवतां तु केवलाध्यक्षतः इति जीवाऽजीवपदार्थद्वयाऽव्यतिरिक्तास्रवादिप्रतिपत्तिर्मुमुक्षुभिर्विधेया। तथाहि-मोक्षार्थिभिरवश्यं मोक्षः प्रमाणतः प्रतिपत्तव्यः अन्यथा तदुपायप्रवृत्त्यनुपपत्तेः न हि १० अनवगतसस्यादिसद्भावस्तदर्थी तत्प्राप्त्युपाये कृष्यादौ प्रवर्तितुमुत्सहते तदुपायप्रवृत्तिरपि उपायखरूपसंवर-निर्जरालक्षणपदार्थद्वयप्रतिपत्तिमन्तरेण अनुपपन्ना अज्ञातस्य प्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्तिविषयत्वानुपपत्तेः । तथाहि-अशेषकर्मवियोगलक्षणो मोक्षः संवर-निर्जराफलः तदभावे अनुपपद्यमानस्तत्प्रवृत्ति तज्ज्ञानपूर्विकामाक्षिपति । न हि अभिनवकर्मोत्पत्तौ प्राक्तनाशेषकर्मसंयोगाभावो भावे वा आत्यन्तिकः तद्वियोगः संभवतीति संवर-निर्जराज्ञानं मुमुक्षुभिरवश्यं विधातव्यम् । कर्म-१५ बन्धोऽपि संवर-निर्जरानिवर्तनीयः संसारसरित्स्रोतःप्रवर्तको ज्ञातव्यः अज्ञातस्य उपायनिवर्तनीयत्वायोगात् । अयमपि आस्रवफलत्वेन ज्ञातव्यः अन्यथा तदनुत्पत्तेः । यथा हि घटादेः स्नेहाभावे रजःसंबन्धो न घटते तथा कषायस्नेहाभावे नात्मनः कर्मरजःसंबन्ध उपपत्तिमान् । आस्रवोऽपि बन्धहेतुर्जीवाऽजीवकारणतया ज्ञातव्यः अन्यथा कारणस्य तस्य असंभवात् । न हि अज्ञातकारणं तत्कार्यतया शाल्यकुरादिवज् ज्ञातुं शक्यम् । न च जीवाजीवबहिर्भूतमास्रवस्य कारणं भवति २० तद्ध्यतिरेकेण पदार्थान्तरस्याऽसत्त्वात् जीवाजीवयोश्च परिणामित्वे सति आस्रवादिहेतुत्वम् एकान्तनित्यस्य अनित्यस्य वार्थक्रियाऽनिर्वर्तकत्वेन असत्त्वात् । तस्मात् परिणामिजीवाजीवपदार्थद्वयाव्यतिरिक्तौ कथंचित् सकारणौ हेयोपादेयरूपौ बन्ध-मोक्षौ प्रतिपत्तव्याविति सप्त पदार्थाः प्रमाणतोऽभ्युपगन्तव्याः। यथा च संवर-निर्जरयोर्मोक्षहेतुता आस्रवस्य च बन्धनिमित्तत्वम् तथा आगमात् प्रति-२५ पत्तव्यम् तस्य च जीवाजीवादिलक्षणे दृष्टविषये वस्तुतत्त्वे सर्वदाऽविसंवादात् अदृष्टविषयेऽपि एकवाक्यतया प्रवर्तमानस्य प्रामाण्यं प्रतिपत्तव्यम् । न च वक्रधीनत्वात् तस्य अप्रामाण्यम् वक्रधीनत्वप्रमाणत्वयोर्विरोधाभावात् वक्रधीनस्यापि प्रत्यक्षस्य प्रामाण्योपलब्धेः । न च अक्षजत्वाद वस्तुप्रतिबद्धत्वेन तत्र प्रामाण्यम् न शाब्दस्य विपर्ययादिति वक्तव्यम् शाब्दस्य अत एव प्रमाणान्तरत्वो. पपत्तेः अन्यथा अनुमानादविशेषप्रसङ्गात् । तथाहि-गुणवद्वक्तप्रयुक्तशब्दप्रभवत्वादेव शाब्दम् ३० अनुमानज्ञानाद् विशिष्यते अन्यथा बाह्यार्थप्रतिबन्धस्य अत्रापि सद्भावादु नानुमानादस्य विशेषः स्यात् । यदा च परोक्षेऽपि विषये अस्य प्रामाण्यमुक्तन्यायात् तदा गुणवद्वक्तप्रयुक्तत्वेन अस्य प्रामाण्यम् अतश्च गुणवद्वक्तप्रयुक्तत्वमितीतरेतराश्रयदोषोऽपि नात्र अवकाशं लभते यथोक्तसंवादाद् अस्य प्रामाण्यनिश्चये । 'कुतोऽयमस्यात्र संवादः' इति अपेक्षायाम् 'आप्तप्रणीतत्वात्' इत्यवगमो न पुनः प्रथममेव तत्प्रणीतत्वनिश्चयाद् अस्य अर्थप्रतिपादकत्वम् प्रतिबन्धनिश्चयाद् अनुमान-३५ स्येव नापि दृष्टविषयाविसंवादिवाक्यैकवाक्यतां विरहय्य अदृष्टार्थवाक्यैकदेशस्य अन्यतः कुतश्चित् प्राक्संवादित्वनिबन्धनस्य प्रामाण्यस्य निश्चयः अभ्यासावस्थायां तु आप्तप्रणीतत्वनिश्चयात् प्रवृत्तिरदृष्टार्थवाक्यान्न वार्यत इति कुत इतरेतराश्रयावकाशः? [ऐकान्तिकं वाच्यस्वरूपं निरसितुं लडादेरर्थविचारपक्षाः ] एकान्तवादिवाक्यात् तु दृष्टार्थेऽपि विसंवादिनः सर्वथा अप्रवृत्तिरेव निश्चितविसंवादाङ्गुल्य ४० ग्रहस्तियूथशतप्रतिपादकवाक्यादिवद् न हि एकान्तवादिवचनानां वाच्यं संभवि इत्युक्तम् । यतः सामान्यं वा तद्वाच्यं भवेत् , विशेषो वा, उभयम् , अनुभयं वेति विकल्पाः । { न तावत् सामान्यम् तस्येतरव्यावृत्तप्रतिनियतैकवस्तुरूपत्वायोगात् शब्दवाच्यत्वे घटाद्यानयनाय प्रेरितः सर्वत्र प्रवर्तेत Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ तृतीये काण्डेन वा क्वचित् भेदनिबन्धनत्वात् प्रवृत्तेः सामान्यस्य अनर्थक्रियाकारितया च प्रवृत्तिनिबन्धनत्वायोगात् । अथापि स्यात् यदाऽयं प्रतिपत्ता वाक्यमश्रुतपूर्व शृणोति तदा पदानां संकेतकालानुभतानामर्थ सामान्यलक्षणमेव प्रतिपद्यते या तु वाक्यार्थप्रतिपत्तिः सा अपेक्षा-सन्निधानाभ्यां विशेषणविशेष्यभावात् पदार्थप्रतिपत्तिनिबन्धना न पुनस्ततो वाक्यात् तथाविधस्य तस्य स्वार्थेन सह संब५न्धाप्रतिपत्तेः वाक्यमेव च प्रवृत्ति-निवृत्तिव्यवहारक्षमम् न पदम् तस्य अनर्थक्रियाकारिसामान्यप्रतिपादकत्वेनाप्रवृत्त्यङ्गत्वात् । अत एव न विवक्षाप्रतिभासिनमर्थ प्रतिपादयन्तः शब्दा अनुमानतामासादयन्ति अगृहीतप्रतिबन्धादपि वाक्यविशेषाद् यथोक्तन्यायतो वाक्यार्थप्रतिपत्तेः । अनेनैव अमिप्रायेण सौगता वाक्यगतां चिन्तामनाहत्य पदमेव अनुमानेऽन्तर्भावितवन्तः । उक्तं च मीमांसकैः "वाक्यार्थे तु पदार्थेभ्यः संबन्धानुगमाद् ऋते । बुद्धिरुत्पद्यते तस्माद् भिन्ना साऽप्यक्षबुद्धिवत्" ॥ [ श्लो० वा० शब्दप० श्लो० १०९] तथा, "वाक्येष्वदृष्टेष्वपि सार्थकेषु पदार्थचिन्मात्रतया प्रतीतिम् ।। दृष्ट्वानुमानव्यतिरेकभीताः क्लिष्टाः पदाभेदविचारणायाम्" ॥ [श्लो० वा० शब्दप० श्लो० १११ ] इति, १५असदेतत् ; एवंकल्पनायां पदार्थानामपि वाक्यार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वासंभवात् । तथाहि-'घटः पटः कुम्भः' इत्यादिपदेभ्यः यथा अन्योन्याननुषक्त स्वतन्त्रसामान्यात्मकार्थप्रतिपत्तिस्तथा संबद्धपदसमूहश्रवणादपि किं न तथाभूतसामान्यप्रतिपत्तिर्भवेत् ? न हि ततः सामान्यमात्राधिगमे तत्परित्यागतो विशिष्टार्थप्रतिपत्तौ निमित्तमस्ति न वापेक्षा-सन्निधानादिकं पदार्थानां तत्प्रतिपत्तौ निमित्तम पदा र्थस्य पदार्थान्तरं प्रत्युत्पत्तौ प्रतिपत्तौ वा अपेक्षादेरयोगात् तस्य सामान्यात्मकत्वेन उत्पत्तेरसंभ२० वात् स्वपदेभ्य एव प्रतिपत्तेः तत्रापि पदार्थान्तरापेक्षाद्यनुपपत्तेः । अर्थशक्तित एव ततो विशेषप्रति पत्तिरिति चेत् तर्हि पदार्थानामेकार्थसंभवा प्रतिपत्तिर्यस्य तस्यापि ततस्तत्प्रतिपत्तिर्भवेत् । न च सामान्यत्यागे किश्चिन्निबन्धनम् बाधकाभावात् सति अर्थित्वे उभयप्रतिपत्ति-प्रवृत्ती स्याताम् । न च वाक्यार्थप्रत्यय एव बाधकः तेन तस्य विरोधाभावात् सामान्य-विशेषयोः साहचर्यात् सामान्यप्रत्ययस्य च विशेषप्रतिपत्ति प्रति निमित्तत्वाभ्युपगमात् निमित्तस्य च निमित्तिना अबाध्यत्वात् २५ अन्यथा तस्य तन्निमित्तत्वायोगात् । अथ प्रागपि एवमयं व्यत्पादितः-यत्र पदार्थानामेकढव्यसंभव स्तत्र पदार्थसामान्यत्यागाद् विशेषः प्रतिपत्तव्यः यथा नीलोत्पलादी, नन्वेवं सर्ववाक्यानि अस्य व्युत्पादितान्येव भवन्ति । तथाहि-यः कश्चित् संभवदेकद्रव्यार्थनिवेशः पदसमूहः स संकेतसमया. वगतसामान्यात्मकावयवार्थपरित्यागतस्तेषामेव विशेषणविशेष्यभावेन विशिष्टार्थगोचरःप्रतिपत्तव्यः, यथा 'नीलोत्पलं पश्य' इत्यादिपदसंघातः, तथा चायमपूर्ववाक्यात्मकः पदसमुदायः इति संकेतमनु३० सृत्य यदा ततस्तथाभूतमर्थ प्रत्येति तदा कथं न विशिष्टार्थवाचकं वाक्यम् ? अनेनैव च क्रमेण शब्दविदां समयव्यवहार उपलभ्यते । यथा 'धात्वादिः क्रियादिवचनः कादिवचनश्च लडादिः' इति समयपूर्वकं प्रकृति-प्रत्ययौ प्रत्ययार्थ सह ब्रूत इति व्युत्पादितोऽनर्थक्रियाकारित्वेन सामान्यमात्रस्य विशेषनिरपेक्षस्य प्रतिपादयितुमनिष्टेः तत्परित्यागेन व्यवहारकाले विशेषमवगच्छति व्यवहारी । नच प्रकृति-प्रत्ययार्थावेव अत्र पदार्थ प्रतिपादयतः न पदमिति मन्तव्यम्, "अशाब्दे वापि वाक्यार्थे न पदार्थेष्वशाब्दता। वाक्यार्थस्येव नैतेषां निमित्तान्तरसंभवः" ॥ [श्लो० वा. वाक्याधि० श्लो० २३०] इत्यस्य विरोधप्रसक्तेः । न च वाक्यस्य वाक्यार्थे संकेतकरणे अनुमानात् शाब्दस्य अविशेषप्रतिपत्तिः, विशेषस्य प्राक् प्रतिपादितत्वात् केवलस्य च पदस्य प्रयोगानर्हत्वात् वाक्यस्य तु प्रयोगा. हस्य सामान्यानभिधायकत्वात् कथं सामान्यं शब्दार्थः स्यात् ? १ लगडादिः आ० हा० वि० । लगुडादिः बृ० । नियोगखरूपप्रतिपादन-निरसनपरा अष्टसहस्रीगता चर्चाऽत्रा. नुसंधेया-पृ. ५५० १७-पृ.१०। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ज्ञेयमीमांसा । ७३९ यैस्तु पूर्वपदानुरञ्जितं पदमेव वाक्यम् पदार्थ एव पदार्थान्तरविशेषितो वाक्यार्थोऽभ्युपगतः । तथाहि-'दण्डी' 'छत्री' इत्यादिव्यपदेशं यथा पुरुष एव समासादयति नान्यस्तद्व्यतिरिक्तः तथा 'अपाक्षीत्' 'पचति' 'पक्ष्यति' इत्याद्यतीतकालाद्यवच्छिन्नः क्रियाविशिष्टश्च देवदत्त एव प्रतीयते'अपाक्षीत्' इत्यादिशब्दानां देवदत्तशब्देन सामानाधिकरण्यात्-न तु तद्व्यतिरिक्तोऽर्थः। अथ यद्यत्र कालाद्यवच्छिन्नपुरुष एव प्रतीयते तदा 'अग्निहोत्रं जहयात' 'ग्रामं गच्छ' 'स्वाध्यायः कर्तव्यः' इति ५ लिट्-लोट-कृत्यप्रयोगेषु कस्यार्थस्य प्रतीतिः? अत्रापि कर्मणि नियुक्तः क्रियाविशिष्टोऽध्येषणादि विशिष्टश्च देवदत्त एव प्रतीयते केवलं वर्तमानादिः कालो न विशेषणत्वेन अत्र अवतिष्ठते । अथ यदि नात्रार्थातिरेकावगतिर्भावसंपादने कथं पुरुषः प्रवर्तते? यथा हि देवदत्तः 'पचति' इत्यादिवाक्यान्न प्रवर्तते तथा 'जुहुयात्' इत्यस्मादपि नैव प्रवर्तेत प्रवृत्तिनिमित्तस्य अनवबोधात् , असदेतत्; 'जुहुयात्' इत्यादिवाक्यजनितविज्ञानस्यैव प्रवर्तकत्वात् प्रवृत्तेस्तद्भावभावित्वेन उपलम्भात् १० एतद्वाक्यसमुत्थं ज्ञानं पुरुषं स्वर्गादिसाधने नियोजयद उपलभ्यते न 'पचति' आदिवाक्यसमुत्थम् । तथाहि-विध्यादिवाक्यजनितज्ञानानन्तरमिच्छा तदनन्तरं प्रयत्नः तदनन्तरं च पुरुषस्य वर्गादिफलार्थः परिस्पन्दः ततोऽपि फलपर्यन्तात् स्वर्गफलावाप्तिः इत्यभिधानात् । तेऽपि अयुक्तिकारिणः एकान्तपक्षे विशेषण-विशेष्ययोरत्यन्तभेदे अभेदे वा विशेषणानुरागस्य पद-पदार्थेष्वसंभवात् वाक्यार्थकल्पनादेरनुपपत्तेः अत एव 'अपाक्षीद् देवदत्तः' इत्यादौ न कालक्रियाविशिष्टपुरुषप्रतिपत्तिः १५ क्रियादेः पुरुषाद् भेदे संबन्धासिद्धितो व्यवच्छेदकत्वानुपपत्तेः अभेदेऽपि एकस्य तात्त्विकविशेषणविशेष्यरूपताऽसंगतेः अन्यथा अतिप्रसङ्गात् कल्पनारचितस्य तद्रूपत्वस्य सर्वत्राविशेषात् विशिष्टप्रत्ययोत्पत्तेश्च अन्यनिमित्तत्वात विरोधादिदोषस्य च तत्र प्रागेव प्रतिविहितत्वात् । एतेन लिडादियुतवाक्यजनितविज्ञानस्य प्रवर्तकत्वमेकान्तवादिप्रकल्पितं प्रतिक्षिप्तम् तद्भावभावित्वस्य अन्यथासिद्धत्वप्रतिपादनात् । यदपि अत्र "संसर्गमोहितधियो विविक्तं धातुगोचरात् । भावात्मानं न पश्यन्ति ये तेभ्यः स विविच्यते" ॥ [ इत्यादिना ग्रन्थसंदर्भेण प्रतिपादयन्ति-भाव एव साध्यतया लिडादिभिरभिधीयते न कर्ता "पूर्वापरीभूतं भावमाख्यातमाचष्टे" [ ] इति वचनाद् भाव एव च कालत्रयशून्यः साध्यतया प्रतीयमानो विधिरिति अभिधीयते स च आत्मलाभाय प्रेरयन् पुरुषं लिडर्थः' इति, तदपि२५ अनुपपन्नम् ; भावस्य फलसापेक्षत्व-निरपेक्षत्वविकल्पद्वयेऽपि साध्यत्वानुपपत्तेः । न तावत् फलनिरपेक्षो भाव आत्मविषयसाध्यतायां पुरुषं प्रेरयितुं समर्थः, प्रेक्षापूर्वकारिणः फलविकले कर्मणि कुतश्चिदप्रवृत्तेः । अपि च, असौ भावः स्वात्मनिष्पादनाय पुरुषं प्रेरयन् निष्पन्नः अनिष्पन्नो वा प्रेरयेत् ? न तावद् निष्पन्नः तत्सद्भावस्य सिद्धत्वात् । नापि अनिष्पन्नः अविद्यमानस्य अतिप्रसङ्गतः प्रेरकत्वायोगात् । न च सामान्याकारेण विद्यमानो विशेषाकारसंपादनाय भावः पुरुषं प्रेरयतीति ३० वक्तव्यम् सामान्याकारेण विद्यमानतया तस्य साध्यत्वानुपपत्तेः विद्यमानस्य च वर्तमानत्वेन लिडर्थत्वानुपपत्तेः त्रिकालशून्यस्य लिडर्थत्वाभ्युपगमाद विशेषाकारतायाश्च संपाद्यत्वेऽपि प्रेरकत्वानुपपत्तिरित्युक्तम् । अथ फलापेक्षो भावः स्वात्मसंपादनाय पुरुषं प्रेरयतीत्यभ्युपगमस्तर्हि फलस्यैव प्रेरकत्वम् न भावस्य स्यात् तथाभ्युपगमेऽपि दोष एव-तत्रापि विद्यमानाविद्यमानविकल्पद्वयानतिवृत्तेः । तथाहि-यद्यपि सर्वाः क्रियाः प्रयोजनवत्त्वेन व्याप्ता इति तदेव भावसंपादने पुरुषं प्रेरयति ३५ तथापि तत् एकान्ततो विद्यमानं कथं पुरुषं प्रेरयेत् ? न हि यद् यस्यास्ति स तदर्थमेव लोके प्रवर्तमानो दृष्टः प्रयोजनमनुद्दिश्य प्रेरकसद्भावेऽपि कस्यचित् प्रवृत्त्यनुपलब्धेः। न च प्रयोजनस्य आत्मसंबन्धितामुत्पादयितुमसौ प्रवर्तते, आत्मसंबन्धिताया अपि विद्यमानत्वेन प्रवृत्तिविषयत्वानुपपत्तेः। किञ्च, दुःखविरहसुखस्वभावलक्षणं प्रयोजनमुपजायमानमात्मसंबन्धितयैव उपजायत इति न तदथोऽपि प्रयासः सफलः। न च प्रयोजनमविद्यमानं पुरुष प्रेरयति अविद्यमानस्य कारकत्वायोगात् ।४० कार्यतया तत् तत्र प्रेरयतीति चेत, नन साऽपि यदि भावरूपान तर्हि विद्यमानत्वात् पुरुषप्रवर्तिका भवेत् । न च विद्यमानस्य कार्यरूपता संभवति तस्य कार्यताविरोधात् । अथ अभावरूपा तथापि १-वर्तेत वृ०। २-वर्तेत बृ० । ३-वर्तते वा० बा०। ४ अयुक्तका-वा० बा० । ५-सुख भा-भां० । १५स०प्र० Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० तृतीये काण्डे न प्रेरकत्वम् अभावस्यापि स्वरूपेण विद्यमानत्वात् । न च स्वर्गाभावः पुरुषार्थत्वेन अभ्युपगतः । न च परस्परविविक्तोभयरूपतयाऽपि कार्यतायाः प्रेरकत्वम् उभयदोषानुषङ्गात् अन्योन्यानुषक्तोभयरूपताऽभ्युपगमे परपक्षाभ्युपगमप्रसक्तिः फलानुभवपर्यायाव्यतिरिक्तस्य कारणपर्यायात्मकस्य आत्मनः फलात्मतया परिणामात् कारण-फलपर्याययोः कथंचिद् अमेदात् एकस्यैव आत्मद्रव्यस्य तत्तद्रूपतया ५विवृत्तेः फलस्य भावाभावरूपतया प्रवर्तकत्वात् अन्यथा सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसक्तेः। अन्ये तु विधेः प्रवर्तकत्वमभ्युपपन्नाः त्रिकालशून्यो विधिरेव प्रवर्तकैकस्वभावः लिडोपदिश्यमानः कर्मणि पुरुषं नियोजयति स च प्रेषणाऽध्येषणादिव्यतिरिक्तस्तदनुगतश्च गोव्यक्तिषु गोत्ववत् । अध्येषणा सत्कारपूर्वको नियोगः प्रेपणा तु न्यत्कारपूर्वको नियोग एव पुरुषगताशयविशेषः प्रेषणा ऽध्येषणाशब्दवाच्यः । न चास्य प्रेरकत्वम् व्यभिचारात् । तथाहि-अध्येषणाऽभावेऽपि प्रेषणातः १० पुरुषप्रवृत्तिरुपलभ्यते तदभावेऽपि चाध्येपणातः इति न प्रेषणादेः पुरुषप्रवर्तकत्वम् किन्तु यथोक्तो विधिर्भाव्यनिष्ठभावकव्यापारस्वभावभावनानुगते स्वर्गादिफलसंपादके धात्वर्थे पुरुषं नियोजयति । तदुक्तम् "विधावनाश्रिते साध्यः पुरुषार्थो न लभ्यते । श्रुतः स्वर्गादिवाक्येन धात्वर्थः साध्यतां व्रजेत्” ॥ [श्लो० वा० औत्पत्तिकसू० श्लो० १४] अपरे तु मन्यन्ते धात्वर्थमात्रे फलपर्यालोचनानिरपेक्षो विधिः पुरुषं प्रेरयति स तथाभूतो लिडादिप्रत्ययाभिधेयः इति । सर्व एते अयुक्तवादिनः यतः विधिन अलन्धसत्ताकः पुरुषं प्रेरयति अविद्यमानस्य गगनकुसुमादेरिव प्रेरकत्वासंभवात् संभवे वा विद्यमानताप्रसक्तेः । न च अविद्यमानविध्यर्थं प्रेरणा २० प्रतिपादयितुं प्रभवति प्रतिपादने वा अविद्यमानविषयत्वेन केशोण्डुकादिज्ञानवद् न प्रमाणं भवेत् । न च अविद्यमानेन सह लिट्प्रत्ययस्य संबन्धः तदभावात् तस्य अवाचकत्वं स्यात् । अथ लब्धसत्ताको विधिःप्रेरकस्तदा त्रिकालशून्यता तस्य व्यावर्तेत वर्तमानकालताप्राप्तः लिट्प्रत्ययगम्यता च न स्यात् सांप्रतकाले च तस्मिन् प्रत्यक्षादेरप्यवतारात् चोदनैव धर्मे प्रमाणम् प्रमाणमेव चोदना इति न वक्तव्यं स्यात् प्रत्यक्षादेस्तत्र प्रवृत्तौ अवधारणद्वयस्यापि अनुपपत्तेः । न च सामान्याभिधायि पदं २५ विशेषाभिधायि युक्तम् औत्पत्तिकश्च शब्दस्य संबन्धः सामान्यलक्षणेन अर्थेन न विशेषेण । न च असंबद्धपदं विशेषे विज्ञानं विधातुं समर्थम् । न च अनवगतो विधिः प्रवर्तको युक्तः । किञ्च, विधेरपि निष्पाद्यत्वात् तन्निष्पत्तये पुरुषः केन प्रेर्येत इति वक्तव्यम् । यदि विध्यन्तरेण तथा तत्रापि तदन्तरेण इति अनवस्था । अथ इच्छातः तत्रासौ प्रवर्तते तर्हि सर्वत्र तथैव प्रवर्तताम् किमप्रमाणकविधिकल्पनया? अथ नित्यो विध्यर्थः पुरुषं प्रेरयतीत्यभ्युपगमस्तर्हि तस्य लिट्प्रत्ययवाच्यता ३० व्यावर्तेत लिडस्त्रिकालशून्यार्थविषयत्वात् विध्यर्थस्य तु नित्यतया वर्तमानकालत्वात् वर्तमानकालत्वे च तत्र अध्यक्षादेरपि अवतारात् प्रतीतार्थानुवादकत्वेन न तत्र प्रेरणा प्रमाणं स्यात् । किञ्च, नित्यत्वे लिडर्थस्य धर्मरूपता व्यावर्तेत कार्यरूपस्य अर्थस्य धर्मरूपताभ्युपगमात् चोदनैकगम्यस्य तु विध्यर्थस्य लिडा संबन्धानवगमात् न ततस्तत्प्रतिपत्तिः स्यात् । अथ अनवधारितनित्यसंबन्धमपि शब्द शक्तिस्वाभाव्यात् तत्पदं तमर्थमेव बोधयति तर्हि गवादिपदानामपि शब्दशक्त्यैव अनवगतसंबन्धानां ३५ स्वार्थप्रत्यायकत्वं भवेत् । अथ तेषां तथाभूतानां न तत्त्वम् तर्हि विधिपदस्यापि तन्न स्यात् अत एव न पदाद् वाक्यम् पदार्थाद् वा वाक्यार्थ एकान्ततो भिन्नः अभिन्नो वा अभ्युपगन्तव्यः अन्यथा उक्तदोषानतिवृत्तेः । किञ्च, अयं विधिर्वाक्यश्रवणानन्तरं किं प्रतिभाति, उत पुरुषव्यापारान्यथानुपपत्त्या प्रतीयते? न तावद् आद्यः पक्षः वाक्यश्रवणानन्तरं पुरुषस्यैव अध्येषणादिविशिष्टतया प्रतीतेः पुरुषश्च आत्मानमेव वाक्यात् कर्मणि नियुज्यमानमवगच्छति तदवगमाच्च इच्छयैव प्रवर्तते अतः ४०प्रवृत्तिरपि अन्यथासिद्धेति नासो लिडर्थमवगमयति । किञ्च, प्रवृत्त्यन्यथानुपपत्त्या निमित्तमात्रस्यैव अवगतिर्न विध्यर्थस्य प्रत्यक्षादेरपि हेयम् उपादेयं चार्थमवगत्य निवर्तन्ते प्रवर्तन्ते वा जन्तवः । न १ "श्रुतस्वर्गादिबाधेन"-श्लो. वा। २-ण तत्रापि वा. बा० । अत्र 'विध्यन्तरेण तदा तत्रापि' इति पाठः सुचारुः। ३-ब्दव्यक्ति-वृ. । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा | ७४१ तत्र विधेर्निवर्तकत्वम् प्रवर्तकत्वं वेष्यते एवमिहापि अभिप्रेतफलार्थी अध्येषणादेः इच्छातो वा प्रवर्तेत । न च अध्येषणादेर्व्यभिचारात् प्रवर्तकत्वमयुक्तम् यथासंभवं प्रवर्तकत्वोपपत्तेः यदा अध्ये षणा तदा तस्या एव प्रवर्तकत्वम् यदा तु प्रेषणा तदा तस्या एव । न हि रक्ततन्त्वभावेऽपि शुक्लेभ्यस्तेभ्यः पटोत्पत्तौ रक्ततन्तवो न खोत्पाद्यपटोत्पत्तौ परिणामिकारणतां प्रतिपद्यन्ते न च तद्व्यतिरिक्तोऽन्यः कश्चित् तत्र परिणामिकारणत्वमासादयति । किञ्च धात्वर्थोऽपि यदि धातुना परिनिष्पन्नोऽभिधीयते ५ तदा न विधेः पुरुषप्रेरकत्वमभ्युपगन्तव्यम् धात्वर्थस्य निष्पन्नत्वात् । सामान्यपदार्थवादिनां तु धात्वभिधेयस्य कथं पुरुषव्यापारसाध्यत्वम् सामान्यस्य नित्यतया साध्यत्वानुपपत्तेः ? न च विशेष उत्पाद्यो धातुवाच्यः तेन सह नित्यतया संबन्धायोगात् न हि अनित्येन नित्यः संबन्धो घटते अभ्युपेयते वा वाच्यवाचकतत्संबन्धानां परेण नित्यत्वाभ्युपगमात् । अपि च, विधेः प्रवर्तकत्वे कारकत्वं स्यात् न प्रामाण्यम् इच्छा प्रयत्नादेरिव तथात्वे तदनुपपत्तेः प्रवर्तकत्वं च १० यथोक्तन्यायाद् अनुपपन्नम् । एवं 'ब्राह्मणं न हन्यात्' इति प्रतिषेधविधिरपि प्रतिक्षिप्तो द्रष्टव्यः । तथाहि - अयं पुरुषं क्व प्रेरयतीति वक्तव्यम् नञर्थे, भावनायाम्, धात्वर्थे वा ? तत्र यदि नञर्थे विधिः पुरुषं प्रवर्तयति, तदयुक्तम्; नञर्थस्य अभावरूपत्वात् तत्र विधेः प्रेरकत्वासंभवात् । न हि क्रियात्मके नञर्थे कस्यचित् प्रेरकत्वमुपपत्तिमत् । अथ वधप्रवृत्तं पुरुषं निवर्तयति प्रतिषेधविधिः, अयुक्तमेतत् प्रतिषेधेनैव निवर्तित्वाद् विधेस्तत्र नैरर्थक्यात् । अथ प्रतिषेधनिषिद्धस्य अनिवृत्तेस्तत्र १५ विधीयते विधिनिषिद्धोऽपि यदि न निवर्तते तदा किमाश्रयणीयम् ? अथ भावनायां विधेः प्रवर्तकत्वम्, अयुक्तमेतत्; रागत एव तस्यामस्य प्रवृत्तेः विधेर्वैयर्थ्यात् । न च धात्वर्थेऽपि तमसौ प्रवर्तयति, तत्रापि रागादेवास्य प्रवृत्तेः । विधिर्हि अप्रवृत्तप्रवर्तकः रागात् प्रवृत्तस्य च प्रवर्तने विधित्वायोगात् । अथ नञ्संबद्धभावनायां विधिः प्रवर्तयति, नः नञर्थसंबद्धायास्तस्या अभावरूप• त्वेन प्रवृत्तिविषयत्वानुपपत्तेः । अथ नञर्थविशिष्टधात्वर्थे प्रतिषेधविधिना पुरुषः प्रवर्त्यते, नैतत् २० सारम् ; तस्यापि नञर्थविशिष्टस्य अभावरूपत्वात् प्रवृत्तिविषयत्वायोगात् । न च भावनायां हनन - विशिष्टायां रागात् प्रवर्तमानः पुरुषः प्रतिषेधपर्युदस्तायां विधिना नियुज्यते, अभावविशिष्टाया भावनाया विधिविषयत्वायोगात् । न चासौ हननाभावविशिष्टा विधिविषयतां प्रतिपद्यते, अभावस्य अव्यापाररूपतया भावनां प्रति व्यवच्छेदकत्वायोगात् । न च हन्तिर्नत्रुपहितः । अभक्ष्याऽस्पर्शनीयन्यायेन हननव्यतिरिक्तधात्वर्थान्तराभिधायकत्वात् तदवच्छिन्नां भावनां प्रकाशयति सा च विधेर्गो - २५ चरतां प्रतिपद्यते इति वक्तव्यम्, यतो भावनायां हननव्यतिरिक्तधात्वर्थमात्रविशिष्टायां विधेः प्रवर्तकत्वमेव न निवर्तकत्वम् प्रवर्तकत्वैकरूपत्वेन तस्याऽभ्युपगमात् तच्च यथा तस्य न संभवति तथा प्रतिपादितमेव । तन्न मीमांसकाभिप्रायेण विधेः प्रवर्तकत्वम् निवर्तकत्वं वा संभवति । तेन"साधने पुरुषार्थस्य संगिरन्ते त्रयीविदः । बोधविधौ समायत्तम्” ] इत्याद्यसंगतार्थाभिधानम् । ३० ये तु भावनां वाक्यार्थत्वेन प्रतिपादयन्ति भावना हि भाव्येऽर्थे स्वर्गादिके पुरुषस्य व्यापारः "भाव्यनिष्ठो भावकव्यापारो भावना" [ [] इति वचनात् सा च 'किं केन कथम् ' इति त्र्यंशपरिपूर्णा - किम् इति स्वर्गम्, केन इति दर्श- पूर्णमास्यादिना भावयन् कथम् इति इतिकर्तव्यतां दर्शयति प्रयोगादिव्यापाररूपाम् - इयमित्थंभूता भावना पदार्थप्रतिपाद्या पदानां वाक्यार्थप्र तिपादने सामर्थ्याभावात् तानि हि स्वार्थप्रतिपादनमात्रेण निवृत्तव्यापाराणि न वाक्यार्थबोधक्षमाणि ३५ आकाङ्क्षासन्निधियोग्यतावच्छिन्नानां पदार्थानामेव अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां वाक्यार्थवेदकत्वप्रतिपत्तेः । तथाहि - पदश्रवणाभावेऽपि यदा श्वेतगुणं द्रव्यं पश्यति अश्वजातिं च 'हेषा' शब्दाद् अनुमिनोति क्रियां च खुरविक्षेपादिशब्देन च बुध्यते तदा'श्वेतोऽश्वो धावति' इति अवगच्छति । उक्तं च"पश्यतः श्वेतमारूपं 'हेषा' शब्दं च शृण्वतः । पदविक्षेपशब्दं च श्वेताश्वो धावतीति धीः” ॥ [ श्लो० वा० वाक्याधि० श्लो० ३५८ ] १ अत्र 'निवर्तितत्वाद विधेस्तत्र' इति पाठः संभाव्यते । २ विधेवि - (-घेर्वि ) - बृ०। ३ अत्र 'श्वेतता' इत्यपि संभाव्येत । “श्वेतिमा " - छो० वा० । ४० Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ तृतीये काण्डेयंत्र चापचारात् मानसात् शृण्वन्नपि पदानि पदार्थान् नावधारयति तत्र न भवति वाक्यार्थप्रत्यय इति व्यतिरेकबलात् पदार्थानां वाक्यार्थावेदकत्वमवसीयते । उक्तं च "भावनैव हि वाक्यार्थः सर्वत्राख्यातवत्तया" ॥ "अनेकगुणजात्यादिविकारार्थानुरञ्जिता"। [श्लो० वा० वाक्याधि० श्लो० ३३०-३३१] एतेऽपि अयुक्तवादिन एव, पुरुषव्यापारस्य तद्व्यतिरिक्तस्य प्राक् प्रतिषिद्धत्वात् वाक्यार्थानुपपत्तेः । तत्सत्त्वेऽपि यदि असौ पदार्थाद् अभिन्नस्तदा पदार्थ एव स्यात् न वाक्यार्थः तथा च कुतः पदार्थगम्यता । न च पदार्थस्य सामान्यात्मकत्वात् कार्यता ततो न धर्मरूपता तथा च प्रत्यक्षादिगोचरत्वात् चोदनायास्तदनुवादकत्वेन तद्विषयत्वेन प्रवर्तमानाया न प्रामाण्यं स्यात् इत्युक्तं प्राक् । न च पदाना१० मपि प्रामाण्यं स्मृत्युत्पादकत्वेन भवद्भिरभ्युपगम्यते “पदमप्यधिकाभावात् स्मारकान्न विशिष्यते" [श्लो० वा० शब्दप० श्लो० १०७] इति अभिधानात् । तथा च न कचिदर्थे शाब्दस्य प्रामाण्यं भवेत् । अथ क्रियाकारकसंसर्गरूपः पदार्थादर्थान्तरं वाक्यार्थः ननु असावपि यदि अनित्यस्तदा कारकसंपाद्यः, पदार्थसंपाद्यो वा ? न कारक संपाद्यः स्वकृतान्तप्रकोपात् । पदार्थोत्पाद्यत्वेऽपि य एव पदार्थास्तस्योत्पादकास्त एव यदि ज्ञापका१५ स्तदा पूर्व किं ज्ञापकाः, उत उत्पादका इति वक्तव्यम् । यदि प्राक् ज्ञापकास्तदा तदुत्पादितं ज्ञानमवि द्यमानवाक्यार्थविषयत्वात् केशोन्दुकादिज्ञानवत् अप्रमाणं स्यात् कर्तव्यतया ते तं ज्ञापयन्तीति चेत्, न; तस्यामपि भावाभावोभयानुभयविकल्पानतिक्रमात् । आद्यविकल्पे तत्कर्तव्यताया भावस्वभावतया विद्यमानवाक्यार्थविषया चोदना स्यात् तथा च विद्यमानोपलम्भनत्व-तत्संप्रयोगजत्वोपपत्तेः अध्य क्षवन्न भावना अर्थविषया स्यात् । अथ अभावस्वभावा कर्तव्यता, न; अभावस्य तुच्छतया कर्तुम२०शक्तेः। अतुच्छत्वेऽपि स्खेन रूपेण विद्यमानत्वात् कर्तव्यताऽसंभवात् । न च अभावविषयं चोदनायाः परैः प्रामाण्यमभ्युपगम्यते अभावप्रमाणविषयत्वाच्च अभावस्य तद्विषयत्वे चोदनाया अनुवादकत्वाद् अप्रामाण्यप्रसङ्गश्च । न च उभयाकारताऽपि, उभयदोषप्रसक्तेः । अनुभयविकल्पेऽपि चोदनाजनितज्ञानस्य निर्विषयताप्रसक्तिः । अथ ते तं प्राग उत्पादयन्ति पश्चाद् ज्ञापयन्ति इत्यभ्युपगमः सोऽपि अनुपपन्नः विद्यमानार्थविषयत्वेन चोदनायाः प्रत्यक्षाद्यवगतार्थगोचरत्वाद् अप्रामाण्यप्रसक्तेः । अथ २५ नित्यो वाक्यार्थः पदार्थैः प्रतिपाद्यते नन्वेवं विद्यमानार्थगोचरत्वं चोदनायाः स्यात् तथा च 'त्रिकालशून्यकार्यरूपार्थविषयविज्ञानोत्पादिका चोदना इत्यभ्युपगमव्याघातः। अपि च, वाक्यार्थमवबोधयन्तः पदार्थाः किं शब्दप्रमाणतया अवबोधयन्ति, उत अनुमानत्वेन, आहोस्वित् अर्थापत्तितः, उतस्वित् प्रमाणान्तरत्वेन इति विकल्पाः । यद्याद्यो विकल्पः स न युक्तः, पदार्थानामशब्दात्मकत्वात् । अथ द्वितीयः सोऽपि न युक्तः, पदार्थानां वाक्यार्थाविनामावित्वेन प्रार ३० अप्रतिपत्तेः अनुमानानवतारात् । न च वाक्यार्थस्य प्रमाणान्तरागोचरत्वात् पदार्थव्यापकताऽनवगता अनुमानगोचरः अन्यत्रापि तथाभावप्रसक्तेः वाक्यार्थाविनाभावित्वावगमे वा पदार्थानां चोदनाया अनुवादरूपताप्रसक्तेरप्रामाण्यानुषङ्गः। न च पदार्थानां पक्षधर्मता क्वचिद् अवगम्यते । न च तद्वगमव्यतिरेकेण अनुमानप्रवृत्तिः । न च अर्थापत्तिरूपत्वेन पदार्था वाक्यार्थमवबोधयन्ति 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः' इत्यभ्युपगमव्याघातप्रसक्तः। न च अर्थापत्तिरनुमानाद् विशिष्यते इति १ यत्र चापचारात् मानसाच्छ-वा० बा. भा० म०। यत्र चापरात् मानसाच्छु-बृ० आ० हा. वि०। यत्र चापरात्मा न स्याच्छु-वृ० सं० । पार्थसारथिमिश्रेण शाबरवचनमित्थमुद्धतम् "मानसादपचारादुचरितेभ्योऽपि पदेभ्य." श्लो० वा. पार्थ० व्या. पृ० ९४६ पं० १५। मुद्रिते शाबरे तु इत्थं पाठो दृश्यते-"मानमादप्याघाताद् यदुच्चरितेभ्यः पदेभ्यः"-पृ० २५ पं० १७ । “यत्रापि मानसापचारादग्रहणं तत्रापि" -श्लो. वा. पार्थ० व्या० पृ. ९४७ पं. १०। "मानसेनापराधेन पदार्थान् ये न गृह्णते"-श्लो० वा. वाक्याधि० श्लो० ३६० । "किञ्च, अन्वयव्यतिरेकाभ्यामपि पदार्थानां निमित्तत्वमवसीयते । उच्चरितेभ्योऽपि पदेभ्यः कदाचिद् मानसादपचारात् पदार्थाग्रहणे वाक्यार्थाग्रहणात्"-शास्त्रदी० युक्तिस्नेहप्रपूरणी सिद्धान्तचन्द्रिका पृ० १६० पं० २६ । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । ७४३ प्राक् प्रतिपादितत्वात् । न च प्रमाणान्तरात्मकाः सन्तः पदार्था वाक्यार्थं गमयन्ति, तृतीयविकल्पोक्तदोषप्रसक्तेः । अथ 'पदेभ्यः पदार्थाः तेभ्यश्च वाक्यार्थः प्रतीयते' इति पारम्पर्यण चोदनाया धर्म प्रति निमित्तता तर्हि श्रोत्रात् पदज्ञानम् ततोऽपि पदार्थविज्ञानम् तस्माच्च धर्मज्ञानम् इति प्रत्यक्ष. लक्षणोऽर्थो धर्मः प्रसक्तः । अथ साक्षाद् धर्म प्रत्यक्षस्य व्यापाराभावान्न प्रत्यक्षलक्षणता धर्मस्य तर्हि चोदनाया अपि साक्षात् तत्र व्यापाराभावान्न चोदनालक्षणोऽपि धर्मः स्यात् । पदं च५ पदार्थस्यापि स्मारकत्वाद् न वाचकम् । न च वाक्यार्थे स्मर्यमाणपदार्थसंबद्धतयाऽविज्ञाते पदार्थस्मरणान्यथानुपपत्त्या प्रतिपत्तिर्युक्ता । न च संबन्धो वाक्यार्थेन सह कस्यचिद् अवगन्तुं शक्यः संबन्ध्यवगमपुरस्सरत्वात् संबन्धप्रतिपत्तेः स्मर्यमाणपदार्थप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्तिं च विना नान्यतो वाक्यार्थप्रतिपत्तिः तामन्तरेण च नान्यथानुपपत्तेः प्रवृत्तिः इति इतरेतराश्रयप्रवृत्तेर्न कथंचिद् वाक्यार्थप्रतिपत्तिः स्यात् । संबन्धावगममन्तरेण अपि पदार्थानां वाक्यार्थावेदकत्वे एकपदार्थसमु.१० दायस्य सर्ववाक्यार्थावेदकत्वप्रसक्तिः। यदपि मानसाद अपचारात् पदश्रवणेऽपि पदार्थानवगमाद न वाक्यार्थज्ञानं दृष्टमिति पदार्थानामेव वाक्यार्थावबोधकत्वमवसीयत इत्युक्तम् तदपि अचारु; विशिष्टपदसमुदायात् कथंचिद् अभिन्नस्य वाक्यस्यैव अनवबोधात् तत्र वाक्यार्थप्रतिपत्त्यनुत्पत्तेन पुनः पदार्थानवगमात् । न हि उपहतमनसो वाक्यात्मकपदानां श्रोत्रसंबन्धमात्रेण अवगमः न चानवगतं स्वरूपेण वाक्यं वाक्यार्थसंबद्धत्वेन वा स्वार्थ प्रतिपादयति अतिप्रसङ्गात् । यदि च उपहतमनाः १५ पदानि शृणोति तदर्थान् किमिति नावधारयति ? अथ परामर्शरूपं तदर्थावधारणं तर्हि पदश्रवणमपि निश्चयात्मकमेव अभ्युपगन्तव्यम् अतदात्मकस्य तच्छ्रवणस्य स्वाप-मद-मूर्छादिष्विव परमार्थतोऽश्रवणरूपत्वात् अविकल्पज्ञानस्य अज्ञानरूपतया व्यवस्थापितत्वात् । पूर्वपदानुविद्धं चान्त्यपदं यदा वाक्यम् पूर्वपदानि च स्वाभिधेयविशिष्टतया अन्त्यपदप्रतिपत्तिकाले परामृश्यमानानि वाक्यार्थप्रतिपत्तिजनकानि तदा पदार्थानवगमे वाक्यस्यैव स्वार्थाभिसंबद्धतया अनवगमात् कथं ततो२० वाक्यार्थप्रतिपत्तिर्भवेत् ? तथाहि-'गौर्गच्छति' इति वाक्यप्रयोगे गोशब्दात् सामान्यविशेषात्मक गवार्थ गच्छत्याद्यन्यतमक्रियासापेक्षं प्राक् प्रतिपद्यते 'गच्छति' इत्येतस्माच्च तमेव प्रति नियतगमिक्रियावच्छिन्नमवगच्छति ततः क्रियाद्यवच्छिन्नः सामान्यविशेषात्मको वाक्यार्थो व्यवतिष्ठते पदसमुदायात्मका वाक्यात् पदार्थात्मकस्यैव तस्य प्रतिपत्तेः । यस्मिन्नुच्चरिते यः प्रतीयते स एव तस्यार्थः इति शाब्दिकानां व्यवहारात् । यश्च शब्दमन्तरेणापि अध्यक्षादेरर्थः प्रतीयते न स शब्दार्थः २५ तेन 'पश्यतः श्वेतमारूपम्' इत्याद्यभिधानं प्रकृतानुपयोग्येव अतः पदानि हि खं स्वमर्थमभिधाय निवृत्तव्यापाराणि । अथेदानी पदार्थाः प्रागवगताः सन्तो वाक्यार्थ गमयन्ति तस्मात् पदेभ्यः पदार्थप्रत्ययः पदार्थेभ्यो वाक्यार्थप्रत्ययः “पदार्थानां तु मूलत्वमिष्टं तद्भावभावतः"। "पदार्थपूर्वकस्तस्माद् वाक्यार्थोऽयमवस्थितः”। [श्लो० वा० वाक्याधि० श्लो० १११,३३६ ] इत्यादि यत् परैरुक्तम् तत् अपास्तं भवति अतो नाभिहितान्वयः नापि अन्वितानां क्रिया-कारकादीनामकान्ततोभिधानम् यतः पदार्थः पदार्थान्तरसंसक्त एव यदि पदेन अभिधीयते तदा प्रथमपदेनैव वाक्यार्थस्य अभिहितत्वात् शेषपदोच्चारणमनर्थकमासज्येत पदस्य च वाक्यरूपताप्रसक्तिः विशेषाभिधायित्वात् यावन्ति च वाक्ये पदानि तावन्ति वाक्यानि स्युः यावन्तश्च पदार्था वाक्यार्था अपि ३५ तावन्त एव प्रसज्येरन् । यदि च पदार्थानेकत्वेऽपि एक एव वाक्यार्थस्तदा प्रतिपादितार्थप्रतिपादकत्वात् शेषपदार्थपदानां पौनरुक्त्यमासज्येत । अन्वितार्थाभिधायकत्वे च पदस्य 'गौः' इत्युक्ते 'गच्छति'आदिक्रियाविशेषाकाङ्क्षा न स्यात् तत एव क्रियाविशेषसंसर्गस्य अवगतत्वात् । न च विशेषाणामानन्त्यात् समयकरणाशक्तेरसंकेतितस्य च अतिप्रसङ्गतः प्रतिपादनसामर्थ्यायोगात् पदानां विशेषप्रत्यायनसामर्थ्य स्यात् । न च केवलसामान्याभिधायि पदं संभवति सामान्यस्य अर्थक्रियाऽनिर्वर्तक-४० त्वेन व्यापित्वेन चानयनादिक्रियासंसर्गाभावात् ततश्च सामान्य-विशेषयोरन्यतरस्यापि पदेन अनभिधानात् कथमन्विताभिधानम् ? सामान्यस्य नित्यत्वात् एकत्वाच्च पदेन सह संकेतसद्भावात् १ प्रत्यध्यक्षमा बृ० । २-णाप्यक्षादे-भा० मा० । ३ पृ० ७४१ पं० ३९ । ४-शेषणानामा-बृ. । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ तृतीये काण्डेपदार्थत्वेऽपि वाक्यार्थस्य तत्संबद्धत्वेन अग्रहणात् कुतस्तत्प्रतिपत्तिरित्युक्तं प्राक। यदि च पदात पदार्थ उत्पन्नं ज्ञानं वाक्यार्थपर्यवसायि अभ्युपगम्येत चक्षुरादिप्रभवं रूपादिज्ञानं गन्धादिपर्यवसितं तदा प्रसज्येत । अथ चक्षुरादिप्रभवं रूपादिज्ञानं न गन्धादिसाक्षात्कारि इति नायं दोषस्तर्हि पदप्रभवं पदार्थज्ञानमपि न वाक्यार्थावभासि इति न तत्पर्यवसितमभ्युपगन्तव्यम् । चक्षुरादेर्गन्धादाविव पद५स्यापि वाक्यार्थसंबन्धानवगमात् सामथ्यानुपपत्तेः। न च पदात् सामान्यमात्रपदार्थप्रातपत्तावाप तद्विशेषप्रतिपत्तिः स्यात् विशेषरूपेण तु प्रवृत्त्या दिव्यवहारसमर्थो वाक्यार्थो न संसर्गमात्रम् तस्य अर्थक्रियाऽक्षमस्य श्रोत्रनभिवाञ्छितत्वात् अनभिवाञ्छितार्थप्रतिपादकस्य च वचस उन्मत्तकविरुतस्येवाप्रमाणत्वात् । न च विशेषमन्तरेण सामान्यमनुपपद्यमानं संसर्गविशेषमवबोधयतीति शक्यं वक्तुम् आधारप्रतिपत्तावपि तद्विशेषप्रतिपत्तेरयोगात् न हि 'पय आनीयताम्' इत्युक्ते तदाधारपात्र१. मात्रप्रतिपत्तावपि कुटादिविशेषप्रतिपत्तिः संभविनी । तन्न अन्विताभिधानम् अभिहितान्वयो वा एकान्तवादिमतेन संभवी । विधिवाक्यस्य च प्रामाण्यनिरासे अर्थवादादिवाक्यानां प्रामाण्यमपास्तमेव क्रियाङ्गत्वेन तेषां परैः प्रामाण्याभ्युपगमात् अन्यथा तदयोगात् । तदुक्तम्-"आम्नायस्य क्रियार्थत्वाद् आनर्थक्यमतदर्थानाम्" [ मीमांसाद०१-२-१] इति । न च विध्यङ्गताऽपि अर्थवादादिवा क्यानां पराभ्युपगमेन संभवति सामान्यादेस्तदर्थस्य असंभवेन विध्यर्थोपकारकत्वायोगतोऽर्थद्वारेण १५ तेषां तदङ्गत्वानुपपत्तेः। न च अर्थकृतं संबन्धमपहाय शब्दः शब्दान्तरस्य अङ्गभावमासादयतीत्यति प्रसङ्गात् । तन्न सामान्यशब्दार्थवादिप्रकल्पितं तत् तदभिधेयं संभवतीति न प्रथमपक्षाभ्युपगमः श्रेयान् । द्वितीयविकल्पाभ्युपगमेऽपि विशेषाः किं समुच्चिताः शब्दवाच्याः, उत विकल्पिताः इति वक्तव्यम् । यदि विकल्पिता इति पक्षस्तदा एकविशेषव्यतिरेकेण अन्येषां विशेषाणां न विवक्षित२० दुग्धशब्दवाच्यता स्यात् ततश्च एकपयःपरमाणोरन्यत्र तत्परमाण्वादौ न दुग्धशब्दात् प्रतिपत्तिप्रवृत्ती स्याताम् । समुच्चितानामपि तेषां तच्छब्दवाच्यत्वे एकस्मिन्नपि पयसि तद्बहुत्वप्रसङ्गः परस्परविविक्तपयःपरमाणूनां तत्र अनेकत्वात् । न च तत्समुच्चयेऽपि पयः तद्व्यतिरेकेण तदनभ्युपगमात् तथा तस्याप्रतीतेश्च । न च एककार्यकारितया तथा व्यपदेशः तस्यापि वस्तुत्वे तद्रूपत्वात् अवस्तुत्वे कार्यविरोधात् । तेषां च एकत्रैव सामर्थ्य तस्य एकस्य एकपरमाणुरूपत्वे अनुपलभ्यता२५ प्रसक्तिः अनेकाणुरूपत्वे एककार्यत्वविरोधः एकस्य तत्कर्तृकत्वविरोधश्च स्थूलैकवस्तुनस्तदेककार्यत्वे तस्य समानरूपताप्रसङ्गः स्वारम्भावयवद्रव्यव्यापकैकरूपत्वात् । एवं च विशेषमात्रवादत्यागः। स्वावयवसाधारणैकरूपवस्त्वनभ्युपगमेऽपि च प्रतिनियतविषयप्रतिपत्त्यभावप्रसक्तिः । अनेकावयवात्मकैकस्थूलवस्त्वभावे तदाकारप्रतिपत्तरभावात् सर्वदा सर्वस्यास्तस्यास्तदाकारतयैव संवेदनात् अन्योन्यानुविद्धाननुविद्धवस्तुव्यवस्थापकप्रमाणाभावे च प्रमाणान्तरप्रतिपन्नतथाभूतवस्तुप्रतिपाद: ३० काभिधानस्यापि असंभवात् प्रतिनियतप्रवृत्तिहेतुशाब्दव्यवहाराभावप्रसक्तिश्च अत एव तथाभूतविकल्पजननात् 'शब्दः प्रमाणमसत्यपि बाह्यस्खलक्षणविषयत्वे' इत्ययुक्तम् । 'पयः पीयताम्' इत्यभिधानोत्थापितविकल्पाकारस्य खरविषाणशब्दोत्थापितविकल्पाकाराद् अभेदप्रसक्तेः सर्वत्र तथाभूतवस्त्वनुभवाभाव एव विकल्पाकारप्रवृत्तबेहिष्प्रवृत्त्यभावश्च । न च तदध्यवसायेन तत्र प्रवृत्तिः सर्वदा तत्तत्त्वाग्रहणे अतत्त्वस्य तत्त्वरूपतया तत्राध्यारोपासंभवात् । न चैवं मृगतृष्णिकासु अध्यारोपितो३५दकाकारस्येव तस्य प्राप्तिर्भवेत् । न च स्वलक्षणानुभवद्वारायातविकल्पप्रभवशब्दस्य संवादित्व कल्पनाऽपि भवन्मतेन संगता निरंशक्षणिकपरमाणुवलक्षणानुभवस्याभावात् अन्यस्य चानभ्युपगमात् अभ्युपगमे वा शब्दस्य अनेकान्तवस्तुविषयप्रामाण्यप्रसङ्गः त्रिरूपलिङ्गप्रतिपादकवाक्यवत् पारम्पर्येण तस्य तत्र प्रतिबन्धात् न चैवमपि विशेषैकान्तसिद्धिः उभयवादप्राप्तिप्रसङ्गात् । तन्न द्वितीयविकल्पस्यापि संभवः। ४० तृतीयविकल्पोऽपि प्रत्येकपक्षभाविदोषप्रसङ्गतोऽनभ्युपगमविषयः न च परस्परनिरपेक्षयो। १उन्मत्तकविरुद्धतस्ये-आ० हा०वि०। उन्मत्तकमविरुतस्ये-वा. बा। उत्तमकविरुतस्ये-भा०मा०। २-लस्वभावे भां० मा० ।-लवस्तुभावे आ० हा०वि०। ३ इत्युक्तम् वा. बा. भां० मां०। ४-वृत्ताभाबृ० आ० हा. वि.। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । सामान्यविशेषयोरसत्त्वे तदारब्धोभयवादो युक्तः अङ्गुलिद्वयाभावे तत्संयोगवत् । अनुभयविकल्पाभ्युपगमोऽपि असंगतः प्रतिनियतसामान्यविशेषयोरनभिधाने प्रवृत्त्यादिव्यवहाराभावप्रसक्तेः । न च अनुभयपक्षः संभवति अन्योन्यव्यवच्छेदरूपयोरन्यतरनिषेधस्य तदपरविधिनान्तरीयकत्वात् परस्परापेक्षया द्वयोरपि उपसर्जनत्वे निरपेक्षत्वे च असत्त्वमेव सापेक्षत्वे च इतरेतराश्रयदोषानुषङ्गः द्वयोरपि प्राधान्ये सापेक्षत्वानुपपत्तेरसत्त्वमेव अन्यतरस्यैव उपसर्जनत्वे निमित्तानुपपत्तिः द्वयोरपि ५ औदासीन्याभ्युपगमे अव्यवहार्यतोपपत्तिः तदतदात्मकैकवस्तुनो यथाक्षयोपशमं प्रमाणतः प्रधानोपसर्जनरूपतया प्रतिपत्त्यभ्युपगमे 'स्यात् सामान्य विशेषात्मकं वस्तु' इति अशेषरूपात्मकवस्तुप्रतिपादकत्वेन शब्दादेः प्रमाणभूतप्रतिपत्तिनिबन्धनस्य अभ्युपगमात् अनेकान्तमतानुप्रवेशः समानासमानपरिणामात्मकैकवस्तुप्रतिपादकत्वेन शब्दादेरभ्युपगमात् तस्मात् अनुगत - व्यावृत्तात्मकैकप्रतिभासजनकस्वभावं तथाभूतधर्मद्वयात्मकमेकं वस्तु अभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा तथाभूतप्रतिभासस्य १० हेत्वभावतोऽभावप्रसक्तेः अन्यादृशस्य च तस्याऽसंवेदनात् सर्वप्रतिभासविरतिप्रसङ्ग इत्युक्तं प्राकू । न च अनादितथाभूतविकल्पप्रसववासनातस्तथाभूतप्रतिभाससद्भावात् अयमदोषः तस्या अपि अनन्तधर्मात्मकरूपताऽनभ्युपगमे तथाविधविज्ञानजनकत्वायोगात् इति असकृदावेदितत्वात् । न च सर्व एवायं प्रमाण- प्रमेयव्यवहारो भ्रान्तिरूप इति वक्तव्यम् अपरस्य अभ्रान्तरूपस्य अभावात् । न च सुगतज्ञानमभ्रान्तम् तस्य उत्पत्तिकारणाभावतोऽभावात् । न नैरात्म्यादिभावना तत्कारणम् तस्या १५ मिथ्यारूपतया अमिथ्या रूपतज्ज्ञानहेतुत्वायोगात् । न च तस्य सद्भावः सिद्धः अध्यक्षतोऽनधिगमात् । न च अनुमानतोऽपि तत्सिद्धिः तत्प्रतिवद्ध लिङ्गाप्रतिपत्तेः । न च लोकप्रसिद्धप्रमाणस्य प्रमाणता अभ्युपगता 'सर्व एवायं प्रमाण' - इत्याद्यभिधानात् । न चाप्रमाणक वस्तुभावनाप्रकर्षजं ज्ञानमभ्रान्तम् काम-शोक-भयादिज्ञानस्य भावनाप्रकर्षजस्यापि भ्रान्तत्वोपलब्धेः नैरात्म्यादेश्व वस्तुनः अप्रमाणोपपन्नत्वप्रतिपादनात् । न च सत्यभयादिज्ञानपूर्वकस्यापि भावनोत्थभयज्ञानस्य सत्यतोप - २० लब्धा इति अस्यापि असत्यताप्रसक्तिः अध्यारोपात् कामादिज्ञानस्य असत्यतेति चेत् अत्रापि अध्यारोपः समानः इन्द्रियज्ञानग्राह्यवस्तुनस्तद्विषयत्वेन अभावात् निर्विकल्पकविषयस्य विकल्पज्ञानविषयत्वविरोधात् । न च 'भावनाजमविकल्पम् विशदत्वात्' इति वाच्यम् तथात्वेऽपि तत्प्रतिभासस्य अभ्यासकृतत्वेन तत्र मिथ्यात्वोपपत्तेः । न च तत्प्रतिभासः वस्तुकृत एव न भावनाकृत इति वाच्यम् इतरत्रापि तथा प्रसक्तेः । न च प्रमाणान्तरबाधातः तत्रासौ न तत्कृतः अत्रापि तद्वाधासं- २५ भवात् क्षणिकस्य अर्थस्य प्रमाणान्तरतः प्राग् उपलब्धस्य भावनाप्रकर्षजे ज्ञाने असंभवात् अविकल्पविषयस्य भावनाविकल्पविषयत्वायोगात् तत्प्रकर्षजेऽपि तस्याऽप्रतिभासनात् । न च अन्यदा तस्य दृष्टत्वाद् न प्रमाणबाधा इतरत्रापि अस्य तुल्यत्वात् । न च निरन्वयविनाशसंगते चेतसि भावनादेः संभव इति प्रतिपादितमनेकशः । न च सौगतं ज्ञानं कथंचिदपि प्रमाणतामासादयति तन्निबन्धनत दाकारोत्पत्त्यादेर्निरस्तत्वात् 'अज्ञातार्थप्रकाशो वा' इत्यस्यापि पारमार्थिकप्रमाणलक्षणस्य प्रतिक्षिप्त ३० त्वात् । तदेवमेकान्तवादिप्रकल्पितस्य प्रमाण- प्रमेयादेः सर्वस्य अघटमानत्वात् तच्छासनं दृष्टवत् अदृष्टार्थेऽपि विसंवादित्वाद् अप्रमाणम् । तत्प्रतिपक्षभूतं च यथोक्तजीवादितत्त्वप्रकाशकं सर्वत्र दृष्टार्थे अव्यभिचारित्वात् अदृष्टार्थेऽपि सहेतुके हेयोपादेयस्वरूपे बन्ध-मोक्षलक्षणे वस्तुतत्त्वे प्रमाणमिति स्थितम् । अतः पूर्वापरैकवाक्यतया सकलानन्तधर्मात्मकजीवादितत्त्वप्रतिपादक सूत्रसंदर्भस्य नय - प्रमाणद्वारेण प्रवृत्तस्य तात्पर्यार्थज्ञाता सिद्धान्तज्ञाता न पुनरपरिहृतविरोधतदेकदेशज्ञाता । म३५ चैकदेशशः स्याद्वादप्ररूपणायाः सम्यक् समर्थ इति व्यवस्थितम् ॥ ६३ ॥ [ अर्थवशात् सूत्रस्य निष्पत्तिर्न तु निरपेक्षसूत्रमात्रेणार्थस्येति कथनम् ] सूत्रस्य सूचनार्थत्वात् अर्थवशात् तस्य निष्पत्तिः न पुनः सूत्रमात्रेणैव अन्यनिरपेक्षेण अर्थनिष्पत्तिः इत्याह सुत्तं अत्थनिमेणं न सुत्तमेत्तेण अत्थपडिवत्ती । अत्थगई उण णयवायगहणलीणा दुरभिगम्मा ॥ ६४ ॥ ७४५ १ - निगेणं वा० बा० भ० मां० ।-नियेणं आ० हा०वि० । ४० Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे_अनेकार्थराशिसूचनात् सूते वा अस्माद् अर्थराशिः शेते वा अस्मिन् अर्थसमूहः श्रूयते वा अस्माद् अनेकोऽर्थ इति निरुक्तवशात् सूत्रम् । अर्यत इति अर्थः साक्षात् तस्याभिधेयः गम्यश्च सामर्थ्यात् तस्य स्थानमेव सूत्रम् यथार्थ सूत्रार्थव्यवस्थापनात् सूत्रान्तरनिरपेक्षस्य तस्य अर्थव्यवस्थापने प्रमाणान्तरबाधया तदर्थस्य तत्सूत्रस्य उन्मत्तकवाक्यवत् असूत्रत्वापत्तेः । अत एव नियु५क्त्याद्यपेक्षत्वात् सूत्रार्थस्य न सूत्रमात्रेणैव अर्थस्य पौर्वापर्येण अविरुद्धस्य प्रतिपत्तिः अयथार्थतयाऽपि अविवृतस्य तस्य श्रुतेः । अर्थस्य तु यथाव्यवस्थितस्य गतिः प्रतिपत्तिः पुनद्रव्यार्थ-पर्यायार्थलक्षणनयवादावेव गहनं विपिनम् तत्र लीना तथा च दुरधिगम्या दुरवबोधा सकलनयसम्मता. र्थस्य प्रतिपादकं सूत्रम्-"जीवो अणाइणिहणो" [ ] इत्यादिवाक्यवद् न प्रमाणार्थसूचकं स्यात् प्रवृत्तानि च नयवादेन सूत्राणि । तथा च आगमः "णस्थि णएण विहूणं सुत्तं अत्थो य जिणमए किश्चि । आसज्ज उ सोआरं णए णअविसारओ बूआ" ॥ _ [आवश्यकनि० उवग्घायनि० गा० ३८ ] इति ॥ ६४ ॥ [अधीतसूत्रस्यार्थसंपादने प्रयत्नाभावे शासनविडम्बकत्वकथनम् ] यत एवम् अनेकान्तात्मकार्थप्रतिपादकत्वेन सूत्रं व्याख्येयम् तम्हा अहिगयसुत्तेण अत्थसंपायणम्मि जइयव्वं । आयरियधीरहत्था हंदि महाणं विलंबेन्ति ॥ ६५ ॥ तस्मात् इति पूर्वोक्तार्थप्रत्यवमर्शार्थः अधिगतम् अधीतम् अशेषं सूत्रं येन असौ तथाअधीततत्कालव्यावहारिकाशेषसिद्धान्तेन इति यावत् अर्थसंपादने तद्विषयप्रमाण-नय-स्वरूपावधारणे यतितव्यम् । अधीत्य सूत्रं श्रोतव्यम् श्रुत्वा च नयसर्वसंवादविनिश्चयपरिशुद्धं भाव२० नीयम् अन्यथा आचार्या धीरहस्ता अशिक्षितशास्त्रार्था अनभ्यस्तकर्माऽपि कर्मणि धृष्टतया व्याप्रियते येषां हस्तस्ते धीरहस्ता आचार्याश्च ते अशिक्षितधृष्टाश्च इति यावत् हंदि गृह्यताम् ते तादृशा महाज्ञाम् आप्तशासनं विगोपयन्ति विडम्बयन्ति इति यावत् । [निर्ग्रन्थानां वस्त्रपात्रादिनिषेधकस्य दिगम्बरीयमतस्य पूर्वपक्षतयोपन्यासः] तथा च दृश्यन्त एव सर्वज्ञवचनं यथावस्थितमनवगच्छन्तो दिग्वाससो वस्त्र-पात्रादिधर्मोप२५करणसमन्वितानां यतीनां नैर्ग्रन्थ्याभावाद् न सम्यग्व्रतानि तीर्थकृद्भिः प्रतिपादितानीति प्रतिपादयन्तः। तथाहि-यद रागाद्यपचयनिमित्तनैर्ग्रन्थ्य विपक्षरूपं तत् तदुपचयहेतः यथा विशिष्टशृङ्गारानुषक्ताङ्गनाङ्गसंगादिकम् यथोक्तनैर्ग्रन्थ्यविपक्षभूतं च वस्त्रादिग्रहणं श्वेतवाससामिति । तथा, यः स्वीकृतग्रन्थः सोऽध्वनि संचरन् न अभीष्टस्थानप्राप्तिमान् भवति, यथा चौरौद्युपद्रुते पथि संचरन् असहायः स्वीकृतग्रन्थोऽध्वगः, स्वीकृतग्रन्थश्च मोक्षाध्वनि संचरन् वस्त्राद्युपकरणवान् सितपट इति। ३० तथा, यो यद्विनेयः स तल्लिङ्गानुकारी, यथा चीवरादिलिङ्गधारिसुगतविनेयो रक्तपटः व्युत्सृष्टत्यक्त देहतीर्थकृद्विनेयाश्च भिक्षव इति । न च वस्त्राद्युपकरणाऽऽग्रहवत्सु प्रव्रज्यापरिणामः संभवी मिथ्याइष्टिष्वपि परिग्रहाग्रहवत्सु अन्यथा तत्प्रसक्तेः। तथा च प्रयोगः-श्वेतभिक्षवो महावतपरिणामवन्तो न भवन्ति न वा तत्फलसाधकाः, वस्त्र-पात्रादिपरिग्रहाग्रहयोगित्वात्, महारम्भगृहस्थवत् । न च भगवद्भिः वस्त्रग्रहणं यतीनामुपदिष्टम् तदागमे वस्त्रग्रहणप्रतिषेधस्य श्रवणात् । तथाहि३५ स्थितकल्प "आचेलक(कु)देसिय"-[ इत्यादिसूत्रेचेलग्रहणप्रतिषेधः आचेलक्यपदेन १ पृ. १३६ । विशेषाव. गा० २२७७ । २ दिगम्बरीयमतमेतत् प्रमेयकमलमार्तण्डतोऽवगन्तव्यम्-पृ. ९५ प्र. पं. ५-द्वि. पं. ९। ३-राद्युपहते आ० । ४ स्थितकल्पा आ-बृ० आ० हा० वि०। ४ स्थितिकल्पे आ-वा. बा० । ५-चेलक्कदेसि-भा० मा० ।-चेलकेदेसि-आ० हा० वि० ।-चेल्लकहेसि-वा० बा। "आचेलकुदेसियसिज्जायरराय पिंडकिइकम्मे । वयजेठपडिक्कमणे मार्स पजोसवणकप्पो" ॥ -पञ्चाश.पृ०२६४ गा०६। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा | कृत एव । तथा, परीषहेषु अचेलपरीषहस्य यतेरुपदेशात् । तथा, " णगिणस्स वा वि मुण्डस्स" [ ] इत्याद्यागमे बहुशो यतेर्वस्त्रादिपरित्यागो भगवद्भिः प्रतिपादित इति । तत् प्रतिषिद्धं वस्त्रादिग्रहणमाचरन्तः परतीर्थिका इव कथं सम्यग्ज्ञान-दर्शन- चारित्रलक्षणमुक्तिमार्गसमन्विताः श्वेताम्बरा इति । ७४७ [ सिद्धान्तिना पूर्वपक्षं प्रतिविधाय निर्ग्रन्थानां धर्मोपकरणतया वस्त्रपात्रादिधारणस्य संमर्थनम् ] ५ अत्र प्रतिविधीयते - 'यत् तावद् रागाद्यपचयनिमित्त इत्यादिप्रयोगोपादानम्, तत्र रागाद्यपचयनिमित्तं किमेकदेशनैर्ग्रन्थ्यम्, आहोखित् सर्वथा नैर्ग्रन्थ्यम् इति ? यदि सर्वथा नैर्ग्रन्ध्यं रागाद्यपचयनिमित्तम् तत्र तथाभूतनैर्ग्रन्ध्यस्य मुक्तव्यतिरेकेण असंभवात् मिथ्यात्वाऽविरति प्रमाद - कषाययोग - बलप्रवृत्ताष्टविधकर्मसंबन्धस्य ग्रन्थत्वात् तदभावस्य च आत्यन्तिकस्य निश्शेषतो मुक्तेषु एव संभवात् ततश्च कथं तस्य रागाद्यपचयहेतुतेति कथं न विशेषणासिद्धो हेतुः । अथ देशनैर्ग्रन्थ्यं १० रागाद्यपचयनिमित्ततयाऽत्र विवक्षितं तदाऽत्रापि वक्तव्यम् - किं तत् सम्यग्ज्ञानादितारतम्येन उपचीयमानम् आहोखिद् बाह्यवस्त्राद्यभावरूपम् ? तत्र यदि आद्यः पक्षः स न युक्तः तथाभूतस्य सम्यग्ज्ञानादिविपक्षत्वेन वस्त्रादिग्रहणस्य असिद्धेः हेतोर्विशेष्यासिद्धताप्रसक्तेः । नापि द्वितीयः वस्त्राद्यभावस्य रागाद्यपचयनिमित्तत्वासिद्धेः हेतोर्विशेषणासिद्धतादोषात् । न च वस्त्राद्यभावो रागाद्यपचयहेतुत्वेन सिद्ध इति वक्तव्यम् अतिशय रागवद्भिः पारापतादिभिर्व्यभिचारात् । न च १५ पुरुषत्वे सति वस्त्राभावो रागाद्यपचय हेतुः वस्त्रविकलनाहलैर्व्यभिचारात् । न च आर्यदेशोत्पत्तिमत्पुरुषत्वे सति असौ तद्धेतुरिति वक्तव्यम् तथाभूतकामुक पुरुषैर्व्यभिचारात् । न च व्रतधारितथाभूतपुरुषत्वे सति असौ तन्निमित्तम् तथाभूतपाशुपतैर्व्यभिचारात् । न च 'जैनशासनप्रतिपत्तिमत्तथाभूतपुरुषत्वे सति' इति विशेषणोपादानात् अदोषः, उन्मत्तदिगम्बरैर्व्यभिचारात् । न च 'अनुन्मत्तत्वे सति' इत्यपरविशेषणाद् दोषाभावः मिथ्यात्वोपेतद्रव्यलिङ्गावलम्बिदिग्वाससा व्यभि - २० चारात् । न च सम्यग्दर्शनादिसमन्वितपुरुपत्वे सति असौ तद्धेतुः विशेषणस्यैव तत्र सामर्थ्येन विशेष्यस्या सामर्थ्यतोऽनुपादानप्रसक्तेः । न च विशिष्टश्रुतसंहननविकलानामर्वाक् कालभाविपुरुषाणां वस्त्रादिधर्मोपकरणाभावे यतियोग्याहारविरह इव विशिष्टशरीरस्थितेरभावतः सम्यग्दर्शनादिसमन्वितत्व विशेषणोपपत्तिरिति विशेष्यसद्भावो विशेषणस्य बाधक एव । अथ वस्त्रादिपरिग्रहस्य तृष्णापूर्वकत्वात् तस्यां च रागादेरवश्यंभावित्वात् सम्यग्दर्शनादेश्च तद्विपक्षत्वात् तृष्णाप्रभववस्त्र - २५ ग्रहणाभावः स्वकारणनिवृत्तिमन्तरेण अनुपपद्यमानो रागादिविपक्षभूतसम्यग्ज्ञानाद्युत्कर्षविधायकत्वात् कथं तद्भावबाधकत्वेन उपदिश्यत इति न; वस्त्रादिपरिग्रहस्य तृष्णानिमित्तत्वे आहारग्रहणस्यापि तथात्वप्रसक्तेः । न च आहारग्रहणस्य परिग्रहव्यवहाराविषयत्वात् न तृष्णापूर्वकत्वमिति वाच्यम् मूर्छाविषयत्वे तस्य 'परिग्रह' शब्दवाच्यत्वोपपत्तेः "मूर्छा परिग्रहः” [ तत्त्वार्थ० ७-१२] इति वचनात् । अथ नक्- चन्दनादिवद् उपभोगार्थम् मांसादिभक्षणवत् शरीरबृंहणार्थं वा नासौ ३० गृह्यते किन्तु ज्ञानाद्युपष्टम्भनिमित्तशरीरस्थित्यादिहेतुतया अतो न तृष्णापूर्वकः नापि 'परिग्रह'शब्दवाच्यः तर्हि वस्त्रादिधर्मोपकरणग्रहणेऽपि समानमेतत् । अथ वस्त्राद्यभावेऽपि शरीरस्थितिसंभवात् तृष्णापूर्वकमेव तग्रहणम्, नः आहारेऽप्यस्य समानत्वात् । अथ तमन्तरेण चिरतरकालशरीरस्थितेरस्मदादेरदर्शनात् वेदनोपशमादिभिः षद्भिर्निमित्तैस्तस्य ग्रहणं तर्हि अनुत्तमसंहननस्य विशिष्टश्रुताऽपरिकर्मितचित्तवृत्तेः कालातिक्रान्ता दिवसतिपरिहारकृतप्रयत्नस्य षड्विधजीवनिकाय - ३५ विध्वंसविधाय्यग्न्याद्यनारम्भिणः शीताद्युपद्रवाद् वस्त्रादिग्रहणमन्तरेण शरीरस्थितेरभावात् तग्रहणमपि न्याय्यम् तथा, वाय्वादिनिमित्तप्रादुर्भूतविक्रियावल्लिङ्गसंवरणप्रयोजनपटलाद्युपधिविशेषस्य च ग्रहणं किं नाभ्युपगम्यते शीतादिबाधोपजायमानार्तध्यानप्रतिषेधार्थं युक्तकल्पादेश्चादानं किमिति १ सविस्तरमेतत् समर्थनं विशेषावश्यकभाष्य - उत्तराध्ययनपाइअटीका - शास्त्रवार्तास मुश्चयटीकातोऽवगन्तव्यम्मा० २५५०-२६०९ । अ० २ । पृ० ३१७ द्वि०-३२५ द्वि० । २- णस्यास्य बा-आ० हा० वि० । ९६ स० प्र० Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४८ तृतीये काण्डेनेष्यते ? न च स्त्री-स्रक्चन्दनाद्यभावोपजायमानसंक्लेशपरिणामनिबर्हणार्थ ख्यादेरपि ग्रहणं प्रसज्यत इति वक्तव्यम् क्षुद्वेदनाप्रशमनिमित्तत्रिकोटीपरिशुद्धाहारग्रहणवद् अङ्गनासंप्रयोगसंकल्पप्रभववेदनापरिणामोपशमार्थ वृष्यतरमांसाद्याहारग्रहणस्यापि प्रसक्तेः । अथ तथाभूताहारग्रहणे सुतरां क्लिष्टाध्यवसायोत्पत्तिप्राबल्यमिति न तद्ब्रहणम् तत् ख्यादिग्रहणेऽपि समानम् । यदपि ५वस्त्राद्यभावे संक्लेशपरिणामोत्पत्तिः कातराणाम् न स्वशरीरमपि काष्ठवद् मन्यमानानां दिग्वाससाम् तथादर्शनात् इति, तदपि अनुभवविरुद्धम्। आर्तध्यानोपगतानामनन्तसत्त्वोपमर्दविधाय्यनलार म्भादिप्रतिषिद्धाचरणवत्तया तेषामुपलम्भात् तदनाचरणवतस्तु आत्महिंसकत्वेन अविरत्याश्रयणाद् अयतित्वं न्यायतः प्रसक्तम् । अथ गण्डच्छेदनादिप्रादुर्भवदुःखातिशयमसहमानकातरातुरवैत् तहुःखान्तं न शीतादिदुःखमसहमानः संसारवाधान्तमुपयातुं क्षमः तर्हि क्षुद्वेदनादुःखासहनेऽपि १० एतत् समानम् । अथ मुक्तिमार्गाविरोधित्वाद् आहारग्रहणमदुष्टम् वस्त्रादिग्रहणमपि अत एव किं नादुष्टम् ? अथ वस्त्रादेर्मलादिदिग्धस्य यूकादिसन्मू(सम्म)छनानेकसत्त्वहेतुतया तद्ब्रहणे तद्व्यापत्तेरवश्यंभावित्वात् मुक्तिमार्गाविरोधित्वं तस्यासिद्धम् तार्ह आहारग्रहणेऽपे एतत् समानम्सम्मूर्छनाद्यनेकजन्तुसंपातहेतुत्वस्य तत्परिभोगनिमित्ततद्विनाशस्य च तत्रापि संभवात् । तथाहिसंभवन्त्येव आगन्तुकाः सम्मूर्छनजाश्च अनेकप्रकारास्तत्र जन्तवः तत्परिभोगे च अवश्यंभावी तेषां १५ विनाशः भुक्तस्य च तस्य कोष्ठगतस्य संसक्तिमत्त्वात् तदुत्सर्गे अनेककृम्यादिसत्त्वव्यापत्तिरवश्य भाविनी । अथ विधानेन तत्परिभोगादिकं विद्धतो न सत्त्वव्यापत्तिः व्यापत्तौ वा शुद्धाशयस्य तद्रक्षादौ यत्नवतो गीतार्थस्य ज्ञानादिपुष्टालम्बनप्रवृत्तेः अहिंसकत्वाद् न तद्ब्रहणं मुक्तिमार्गविरोधि तर्हि वस्त्रादिग्रहणमपि एवं क्रियमाणं कथं मुक्तिमागविरोधि स्यात् ? अथ वस्त्रादेर्मलदिग्धस्य क्षालने अप्कायादिविनाशः बाकुशिकत्वं च अक्षालने संसक्तिदोष इति उभयतः पाशारजरिति तद्ब्रहणं २० मुक्तिमार्गविरोधि, न; आहारादिग्रहणेऽपि अस्य समानत्वात् । तथाहि-तद्दिग्धस्य आस्यादेः प्रक्षालनादौ अप्कायादिविनाशः अक्षालने प्रवचनोपघात इति तद्ब्रहणस्य मुक्तिमार्गविरोधित्वं कथं न समानम् ? अथ प्रासुकोदकादिना यत्नतस्तदिग्धाऽऽस्यादिप्रक्षालने नायं दोषः वस्त्रादिशोधनेऽपि यत्नतः क्रियमाणे अदोष एव । तेन 'न साक्षाद् वस्त्रग्रहणस्य मुक्तिसाधनत्वम् रत्नत्रयस्यैव साक्षात् तत्साधनत्वात् । नापि परम्परया रत्नत्रयकारणत्वेन तगहणस्य रत्नत्रयविरोधित्वात्-निष्परिग्रह२५विरोधि सपरिग्रहत्वमिति सकललोकप्रसिद्धम् रूपज्ञानोत्पत्तेस्तम इव । न च रत्नत्रयहेतुशरीरस्थिति कारणत्वेन वस्त्रादिग्रहणं परम्परया मुक्तिसाधनम् तदन्तरेणापि रत्नत्रयनिमित्तशरीरस्थितिसंभवात्' इति यदुक्तम् तत् प्रदर्शितन्यायेन प्रतिक्षिप्तं द्रष्टव्यम् । आहारग्रहणेऽपि अस्य समानत्वेन प्रदर्शितत्वात् । अत एव 'साक्षात् पारम्पर्येण वा मुक्त्यनुपयोगिवस्त्रादिग्रहणं रागाद्युपचयहेतुः तत् स्वीकुर्वस्तृष्णायुक्तत्वात् यत्याभासो गृहस्थं नातिशेते' इत्यादि अपकर्णनीयम् आगमोक्तविधिना ३०वस्त्रादिग्रहणस्य हिसाद्यपायरक्षणानामत्ततया मुक्तिमागसम्यग्ज्ञानाद्युपबृहकत्वात् तत्परित्यागस्यत अर्वाकालीनयत्यपेक्षया तदाधकत्वात् । ततो विशेष्यसद्भावे 'सम्यग्ज्ञानाद्यन्वितत्वे सति' इति विशेषणमसिद्धम् सति च अस्मिन् विशेष्यमसिद्धम् इति व्यवस्थितम् । तन्न रागाद्यपचयनिमित्तता परव्यावर्णितस्वरूपस्य नैर्ग्रन्थ्यस्य सिद्धा । अत एव व्यावर्णितखरूपनैर्ग्रन्थ्यविपक्षभूतत्वेऽपि वस्त्रादि ग्रहणस्य न रागाद्युपचयं प्रति गमकत्वम् तद्विरुद्धेन सम्यग्दर्शनाद्युपचयेन यथोक्तवस्त्रादिग्रहणस्य १५व्याप्तत्वेन तद्विरुद्धसाधकत्वात् । दृष्टान्तस्यापि परव्यावर्णितनेग्रेन्थ्यविपक्षभूतत्वासिद्धः साधनविकलता । न च यथोक्ताङ्गनासंगादिरपि उपसर्गसहिष्णोराग्यभावनावशीकृतचेतसो योगिनो रागायुपचयहेतुः भरतेश्वरप्रभृतिषु तस्य तत्प्रक्षयहेतुत्वेन शास्त्रे श्रवणात् “जे जत्तिआ रहेज भवस्स" [ ] इत्याद्यागमप्रामाण्यात् । रागाद्यपचयनिमित्तनैर्ग्रन्थ्यविपक्षभूतत्वं च १-मार्थ रप्यतरमां-वा. बा० ।-मार्थ वृषस्यतरमां-आ• हा० वि०।-मार्थ वृषस्यत्तरमां-भा० मा० । २-वत्तदुः-आ. हा. वि.। ३ भा. मा० ।-म्मूर्छजाश्च वा.बा.। ४ संसक्किदो-वा. बा। ५जेजेतिमाए.भा. हा. वि.। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ७४९ वस्त्राद्युपादानस्य असिद्धम् धर्मोपकरणत्वेन तस्य ग्रन्थत्वानुपपत्तेः । तथा च प्रयोगः-अर्हन्मार्गोक्तक्रियाव्यवस्थितानां सम्यग्दर्शनादिसंपयुक्तानां यतीनां वस्त्रादिकं न ग्रन्थः, धर्मोपकरणत्वात्, प्रमार्जनादिनिमित्तोपादीयमानपिन्छिकादिवत्, यत् तु कर्मबन्धहेतुतया ग्रन्थत्वेन प्रसिद्धं तत् धर्मोपकरणमपि न भवति, यथा लुब्धकादेम॒गादिबन्धनिमित्तं वागुरादिकम् । न च धर्मोपकरणत्वं वस्त्रादेरसिद्धम् वस्त्राद्यन्तरेण यतीनामुक्तलक्षणानामहत्प्रणीताऽब्रह्मपरित्यागादिलक्षणस्य व्रतसमू-५ हस्य सर्वथा संरक्षणहेतुत्वानुपपत्तेः । यच्च व्रतसंरक्षणहेतुः तद् धर्मोपकरणत्वेन परस्यापि सिद्धम् यथा पिञ्छिकादि वैधhण वागुरादि । न च पिन्छिकादेरभिष्वङ्गहेतुत्वानुपपत्तेर्धर्मोपकरणत्वं युक्तम् न वस्त्रादेः तद्विपर्ययात् इति वाच्यम् अनभिष्वङ्गनिमित्तस्यैव तस्यापि धर्मोपकरणत्वाभ्युपगमात् अभिष्वङ्गनिबन्धनस्य शरीरादेरपि अधर्मोपकरणत्वात् । न च शरीरेऽपि अप्रतिबद्धानां विदितवेद्यानां साधूनां वस्त्रादिषु 'मम इदम्' इति अभिनिवेशः । उक्तं च तत्त्वार्थसूत्रकृता १० वाचकमुख्येन "यद्वत् तुरगः सत्स्वप्याभरणविभूषणेष्वनभिषक्तः।। तद्वद् उपग्रहवानपि न संगमुपयाति निर्ग्रन्थः" ॥ [प्रशमर० का० १४१] अभ्युपगमनीयं चैतत् परेणापि अन्यथा शुक्लध्यानाग्निना कर्मेन्धनं भस्मसात् कुर्वतः परित्यक्ताशेषसंगस्य केनचित् तदुपसर्गकरणबुड्या भक्त्या वा वस्त्राद्यावृतशरीरस्य ग्रन्थत्वात् परमयोगिनो मुक्ति-१५ साधकत्वं न स्यात् । अथ यत् स्वयमादत्तं वस्त्रादि तद् अभिष्वङ्गनिमित्तत्वाद् न धर्मोपकरणम्, न; स्वयं गृहीतपिछिकादिना व्यभिचारात् । अथ पिच्छिकाद्यग्रहे अप्रमार्जितासनाद्युपवेशनादिसंभवतः सूक्ष्मसत्त्वव्यापत्तिसद्भावे प्राणातिपातविरमणादिमहाव्रतधारणानुपपत्तेः तदर्थं तद्ब्रहणम् धर्मोपकरणत्वं च पिंछिकादेः अत एव उपपन्नम् तर्हि अत एव पात्रस्यापि धर्मोपकरणत्वम् तद्रहणं च उपपनम् तदन्तरेण एकत्रैव भुजिक्रियां हस्त एव विदधतामारम्भदोषतः कर-चरणक्षालने च.जलगतासं-२० ख्येयादिसत्त्वव्यापत्तितो महाव्रतधारणानुपपत्तेः । न च प्रतिगृहम् ओदनस्य भिक्षामात्रस्य उपभोगाद् वस्त्रपूतोदकाङ्गीकरणाच्चायमदोषः तथाभूतप्रवृत्तेर्युष्मासु अनुपलम्भात् प्रवृत्तावपि प्रवचनोपघातप्रसक्तेः तस्य च अबोधिबीजत्वात् - "छक्कायदयावंतो वि संजओ दुल्लहं कुणइ बोहिं । आहार" [ ] इत्याद्यागमप्रामाण्यात् । न च गृहस्थवाससा पूतमपि उदकं निर्जन्तुकं सर्व संपद्यते तजन्तूनां सूक्ष्मत्वात् वस्त्रस्य चाघनत्वाद् गृहिणां तच्छोधने अतिशयप्रयत्नानुपपत्तेश्च । न च कर एव प्रत्युपेक्ष्यतत्सत्त्वानुपलब्धौ तदुपभोगाद् न पूर्वोक्तो दोषः तथा अनिरीक्षणात् तदनुपलब्धावपि तदभावनिश्चयायोगात् । न च यत्ननिरीक्षणानुपलब्धा व्यापाद्यमाना अपि सत्त्वा न व्रतातिचारकारिणः विषचूर्णादेरनुपलब्धभुक्तस्य प्राणनाशहेतुत्वोपलब्धेः । न च चतुर्थरसादेः प्रासुको-३० दकस्य उपभोगाद् अयमदोषः तत्रापि सत्त्वसंसक्तिसंभवात्-करप्रक्षिप्ते तस्मिन् तन्निरीक्षणे पानोज्झनयोस्तव्यापत्तिदोषस्य अपरिहार्यत्वात् पात्रादिग्रहणे तु तत्प्रत्युपेक्षणस्य तद्रक्षणस्य च सुकरत्वात् न व्रतातिचारदोषापत्तिः । न च त्रिवारोवृत्तोष्णोदकस्यैव परिभोगात् अयमदोषः तथाभूतस्य प्रतिगृहं तत्कालोपस्थायिनः तस्य अप्राप्तेः प्राप्तावपि तस्य तृडपनोदाक्षमत्वात् तदयक्तस्य च अनुत्तमसंहननस्य इदानींतनयतेः आर्तध्यानोपपत्तेः तस्य च दुर्गतिनिबन्धनत्वात् । न च ३५ तृडादेर्दुःखस्य तपोरूपत्वेन आश्रयणीयत्वात् अयमदोषः अनशनादेर्बाह्यतपस आन्तरतपउपचयहे. तुत्वेन आश्रीयमाणत्वात् अन्यादृग्भूतस्य च अतपस्त्वात् __“सो य तवो कायव्वो जेण मणो मंगुलं न चिंतेई"। [ पञ्चव० पृ० ३५ गा०२१४] १-त्युपेक्षतत्सत्वा-बृ० वा. बा. भां० मा० ।-त्युपेक्षितसत्वा-आ० । २"जेण न इंदिअहाणी जेण य जोगा ण हायंति" इत्युत्तरार्धम् । हरिभद्रः खीयेऽष्टकप्रकरणे यशोविजयः ज्ञानसारे च एनामेव गाथामनुसरतः । तथाहि "मनइन्द्रिययोगानामहानिश्वोदिता जिनैः । यतोऽत्र तत् कथं न्वस्य युक्ता स्याद् दुःखरूपता"?॥५॥-तपोऽष्टकम् । "तदेव हि तपः कार्य दानं यत्र नो भवेत् । येन योगान हीयन्ते क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि वा"-अष्ट.३१॥७॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० तृतीये काण्डेइत्याचागमप्रामाण्यात् । स्तुतिकृताऽपि उक्तम् ___ “बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचर त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम्” [ स्वयंभूस्तो० ८३] इति । तन्न वस्त्र-पात्रादिविकलस्येदानींतनयतेः सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानं संभवतीति कथं न तस्य धर्मोपकरणत्वम् ? एवं 'यः स्वीकृतग्रन्थः' इत्यादिप्रयोगेऽपि वस्त्रादिधर्मोपकरणस्याग्रन्थ. ५त्वप्रतिपादनात् 'स्वीकृतग्रन्थश्च मोक्षाध्वनि संचरन् वस्त्राद्युपकरणवान्' इति हेतुरसिद्धः । न च तथाविधवस्त्राद्यपकरणधारिणां चौरादिभ्य उपद्रवः संभवति, तद्वत्रादेरशोभनत्वाऽल्पमूल्यत्वाभ्यां चौराग्राह्यत्वात् । अथ अधमचौरास्तथाभूतमपि गृह्णन्तीति तदग्राह्यत्वं तस्यासिद्धम्, नन्वेवं पुस्तकाद्यपि मोक्षाध्वसंचारिणा न ग्राह्यं स्यात् तत्रापि अस्य दोषस्य समानत्वात् । अथ तदपि भगवता प्रतिषिद्धम्, न; तत्प्रतिषिद्धपुस्तकादिग्राहिणामिदानींतनऋषीणां तदाज्ञाविलोपकारित्वेन १० अयतित्वप्रसक्तेः । ज्ञानाद्युपष्टम्भहेतुत्वेन तद्हणे पात्रादावपि तत एव ग्रहणप्रसक्तिः । न च पाथेयाधुपकरणरहितस्य अध्वगस्यापि अभीष्टस्थानप्राप्तिः संभविनी इति दृष्टान्तोऽपि असंगत एव सर्वस्य विशिष्टफलारम्भिणस्तदुपकरणरहितस्य तत्फलाऽप्रसाधकत्वात् । तथाहि-यो यत्रोपायविकलो नासौ तत् साधयति, यथा कृष्याधुपायविकलः तत्फलम् , अशेषकर्मविगमखभावमुक्तिफलवस्त्रादिधर्मोपकरणोपायविकलश्च मुनिर्भवद्भिरभ्युपगम्यत इति । न च क्षायिकज्ञान-दर्शन१५ चारित्राण्येव तदुपाय इति वक्तव्यम् , 'वस्त्रादिधर्मापकरणविकलस्य क्षायिकज्ञानादेरेव असंभवात् त्वात । 'यो यद्रिनेयः' इत्यादिकोऽपि प्रयोगोऽनपपन्नः, 'सर्वथा परित्यक्तवस्त्रतीर्थकृद्विनेयत्वात्' इत्यस्य हेतोरसिद्धत्वात् भगवत एव परित्यक्तवस्त्रत्वानुपपत्तेः “सव्वे वि एगदूसेण णिग्गया जिणवरा" [आवश्यकसू० गा० २२७] इत्याद्यागमप्रामाण्यात् । न च अस्यान्यार्थत्वम्, आचाराद्यङ्गेषु तैस्तैः सूत्रैर्भगवत्येकवस्त्रग्रहणस्य २० श्रामण्यप्रतिपत्तिसमये प्रतिपादितत्वात् । न चैवं तदा सर्ववस्त्रपरित्यागावेदकस्तत्र कश्चिदागमः श्रूयते । योऽपि-. "वोसट्टचत्तदेहो विहरइ गामाणुगामं तु" [ इत्यागमः सोऽपि न श्रामण्यप्रतिपत्तिसमयभाविभगवन्नग्नत्वावेदकः किन्तु तदुत्तरकालं रागादिविप्रमुक्तत्वं भगवति आवेदयति न हि अनेन आगमेन भगवतो वस्त्रवैकल्यमावेद्यते। किञ्च, यदि यो यद्विनेयः स तल्लिङ्गधारी तदा भवतामिव भगवतोऽपि कमण्डलु-टट्टिकादिलिगधारित्वप्रसक्तिः। अथ ने देवचरितमाचरितुं शक्यत इति तदगृहीतटट्टिकादिग्रहः अस्माभिः तद्व्यतिरेकेण महाव्रतधारणं कर्तुमशक्तकैराश्रीयते तर्हि “जारिसयं गुरुलिङ्गं सीसेण वि तारिसेण होयवं" [ इत्याद्यभिनिवेशस्त्यज्यताम् । यदपि न च वस्त्राद्युपकरणाग्रहवत्सु प्रव्रज्यापरिणामः संभवति' इत्या३० द्यभिधानम् तदपि असंगतम् ; परिग्रहाग्रहवत्सु प्रव्रज्यापरिणामस्य अस्माभिरपि अनिष्टेः । न च सर्व सावद्ययोगविरतिप्रतिज्ञानिर्वाहनिमित्तवस्त्रादिधर्मोपकरणयोगिषु परिग्रहाग्रहवत्त्वम् अन्यथा शरीरयोगिष्वपि परिग्रहाग्रहवत्त्वं स्यात् । अथ तन्न परित्यक्तुं शक्यत इति, अविधानेन तत्परित्यागे अनेकभवानुबन्धितदनुषक्तिप्रसक्तिः विधानपरित्यागस्तु तस्य प्रस्तुतविधिनैव तर्हि वस्त्राद्युपकरणत्यागेऽपि अयमेव विधिः अन्यथा प्रव्रज्यापरिणामस्य प्रकृष्टफलनिर्वर्तकस्य वस्त्राद्युपादानमन्तरेण ३५ असंभवात् तत्संभवे च शरीरत्यागवद् वस्त्रादित्यागस्यापि स्वतः सिद्धत्वात् उत्तीर्णमहार्णवपुरुषया. नपरित्यागस्येव प्राक् तु तत्परित्यागो महार्णवयानमध्यासीनयानपरित्यागवद अपायहेतुरेव । तेन 'श्वेतभिक्षवो महाव्रतपरिणामवन्तो न भवन्ति' इत्यादिप्रयोगे 'परिग्रहाग्रहयोगित्वात्' इत्यस्य १-चार (चरे) स्त्व-भां० मां० ।-चरस्त्व-बृ० वा. बा० । २“चउव्वीसं । न य नाम अण्णलिंगे नो गिहिलिंगे कुलिंगे वा"-आवश्यकसू. पृ. १३७ । विशेषाव. टी. पृ० १०२२, १०३२।। ३ न देव-भा० मां। ४"न हि होइ बुद्धसीसो सेयवडो नग्गखवणो वा" ॥ इत्युत्तरार्धम् ।-विशेषा व.टी. पृ० १०३२ । ५-यानमध्यमध्यासीन-आ. हा. वि. विना। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। हेतोरसिद्धतैव । यदपि न च भगवद्भिर्वस्त्रग्रहणं यतीनामुपदिष्टम्' तदपि अनधीतागमस्याभिधानम्, आचाराद्यङ्गेषु वस्त्र-पात्रैषणाध्ययनादिषु तद्हणस्य यतीनां विस्तरतो भगवता प्रतिपादनात् । तथा च औधिकोपधिर्जिनकल्पिकानां द्वादशविधः स्थविरकल्पिकानां चतुर्दशविधः निर्ग्रन्थीनां पञ्चविंशतिविधो भगवद्भिरनुज्ञातः “जिणा बारसरूवा ओ थेरा चोहसरूविणो। अजाणं पणवीसं तु अओ उद्दमुंवग्गहो" ॥ [ पञ्चव० गा० ७७१ ] इत्याद्यर्हदुक्तागमप्रामाण्यात् । यदपि 'स्थितकल्पे आचेलक्यम् परीषहेषु वा अचेलत्वं यतेरुपदिष्टम्' तदपि शुक्लाऽकृत्स्नवस्त्रग्रहणापेक्षया वस्त्राभावेऽपि अनेषणीयतदग्रहणापेक्षया च अन्यथा वस्त्रादिग्रहणाभिधायकस्य अनेकस्य आगमस्य एतदागमबाधितत्वेन अप्रामाण्यप्रसक्तेः यथा च भुञ्जानोऽपि एषणीयमाहारम् क्षुत्परीषहजेता यतिः अनेषणीयाहारपरित्यागात तथा वस्त्रैषणा ग्रहणात् शुक्लजीर्णवस्त्रवानपि मुनिः अचेलपरीषहजेता किं न स्यात् ? "णगिणस्स वा वि" [ इत्योद्यपि आगमः तथाविधवस्त्रवतोऽपि नग्नत्वमाह उक्तन्यायात् दृश्यन्ते हि लोके तथाविधवस्त्रवन्तोऽपि 'नग्ना वयम्' इत्यात्मानं व्यपदिशन्तः। "जे भिक्खू कसिणं वत्थं पड़िगाहेइ" [ इत्यादेः प्रमाण-मूल्याधिकवस्त्रग्रहणप्रतिषेधविधायिनः योग्यायोग्य-तद्ब्रहण-प्रतिषेधविधायिनश्च आगमस्य "पिण्डं सेजं च वत्थं च चउत्थं पायमेव य। __ अकप्पियं ण इच्छेजा पडिगाहेज कप्पियं" ॥ [ इत्यादेख्दशाड्यन्तर्गतस्य अनेकस्य सद्भावान्न गौणार्थवृत्तेरुत्तमसंहननपुरुषविशेषविषयप्रतिनियता-२० वस्थागोचरवस्त्रमोक्षप्रतिपादकतया मुख्यवृत्तेर्वा आगमलेशंस्य श्रवणमात्राद भगवत्प्रतिपादितं यतीनां वस्त्रादिग्रहणं प्रतिक्षेप्तुं युक्तम् । तत्प्रतिक्षेपकारिणो बृहस्पतिमतानुसारिण इव मिथ्यादृष्टित्वप्रसक्तेः। अतो वस्त्राद्युपकरणसमन्विताः श्वेतभिक्षवो निर्वाणफलहेतुसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रयुक्ताः, अविकलार्हत्प्रणीतमहाव्रतसंपन्नत्वात्, गणधरादिवत् । तदेवं धर्मोपकरणयुक्तस्य महाव्रतधारिणो निर्ग्रन्थत्वाद् आर्यिकाणामपि मुक्तिप्राप्त्यविरोधः। - [स्त्रीणां मोक्षाधिकारसमर्थनपरा चर्चा ] अथ स्त्रियो मुक्तिभाजो न भवन्ति, स्त्रीत्वात् , चतुर्दशपूर्वसंविद्भागिन्य इव । अत्र यदि 'सर्वाः स्त्रियो मुक्तिभाजो न भवन्ति' इति साध्येत तदा सिद्धसाध्यता अभव्यस्त्रीणां मुक्तिसद्भावानभ्युपगमात् । अथ 'भव्या अपि तास्तद्भाजो न भवन्ति' इति साध्यते तदा अत्रापि सिद्धसाध्यता भव्यानामपि सर्वासां मुक्तिसंगानिष्टः "भव्वा वि ते अणंता सिद्धिपहं जे ण पावेति" [ इति वचनप्रामाण्यात् । अथ अवाप्तसम्यग्दर्शना अपि ता न तद्भाजः इति पक्षः अत्रापि सिद्धसाध्यता तवस्थैव प्राप्तोज्झितसम्यग्दर्शनानां तासां तद्भाक्त्वानिष्टेः । अथ अपरित्यक्तसम्यग्दर्शना अपि न तास्तद्भाजः तथापि सिद्धसाध्यता अप्राप्ताऽविकलचारित्राणां सम्यग्दर्शनसद्भावेऽपि तत्प्रात्यनभ्युपगमात् । अथ अविकलचारित्रप्राप्तिरेव तासां न भवति, कुत एतत् ? यदि स्त्रीत्वात परुष-३५ स्यापि सा न स्यात् पुरुषत्वात् । अथ पुरुषे सकलसावद्ययोगनिवृत्तिरूपा चित्तपरिणतिः खसंवेदना. १-मुयग्गहो वा० बा०। २ पञ्चव० पृ. १२१ । ३-वस्त्रादिग्रहणावानपि मुनिः आ० हा. वि.। वस्त्राग्रहणात् शुक्लजीर्णवानपि मुनिः बृ०। ४ पृ. ७४७ पं० १। ५-शस्याश्रवमा-आ० । ६ दिगम्बरमार्गानुयायिनः स्त्रीमोक्षं न संमन्यन्ते तन्मतं प्रमेयकमलमार्तण्डतोऽवबोद्धव्यम्-पृ. ९४ प्र. पं० १०-९६ । सविस्तर स्त्रीमोक्षसमर्थनं च उत्तराध्ययनपाइअटीका-प्रज्ञापनाटीका-शास्त्रवार्तासमुचयटीकातोऽवगन्तव्यम्-अ०३६। पृ. २०-२२ । पृ. ४२४-४३०। -पूर्वविद्भा-बु० आ० हा० वि०। ८ साध्ये तदा बृ० सं० विना । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे - ध्यक्षसिद्धा स्वात्मनि अन्यैरनुमानादवसीयतेः ननु सा स्त्रियां तथैव किं नावसीयते येन तत्र तस्याः स्वाग्रहावेशवशादभावः प्रतिपाद्यते । अथ तासां भगवता नैर्ग्रन्थ्यस्य अनभिधानाद् न तत्प्राप्तिः, असदेतत्; तासां तस्य भगवता - ७५२ "णो कप्पइ निग्गंथस्स णिग्गंधीए वा अभिन्नतालपलंबे पडिगाहित्तंए” [ कप्पसु० उ० १ सू० १] ५ इत्याद्यागमेन बहुशः प्रतिपादनात् अयोग्यायाश्च प्रव्रज्याप्रतिपत्तिप्रतिषेधस्य - “अट्ठारस पुरिसेसुं वीसं इत्थीसु" [ 1 इत्याद्यागमेन विधानाच्च । विशेषप्रतिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञापरत्वाच्च न तासां भगवत्प्रतिपादितनैर्ग्रन्थ्यनिमित्ताऽविकलचारित्रप्राप्यनुपपत्तिः । अथ तथाभूतचारित्रवत्त्वेऽपि न तासां तद्भाक्त्वमिति साध्यार्थः तथापि अनुमानबाधितत्वं पक्षस्य दोषः । तथाहि - यद् अविकलकारणं तद् अवश्य१० मुत्पत्तिमत् यथा अन्त्यावस्थाप्राप्तबीजादिसामग्रीकोऽङ्कुरः अविकलकारणश्च तस्यामवस्थायां सीमतिनीमुत्याविर्भावः इति कथं न पक्षस्य अनुमानबाधा ? अथ स्त्रीवेदपरिक्षयाभावात् न अविकलचारित्रप्राप्तिस्तासामिति न मुक्तिभाक्त्वम् तर्हि पुरुषस्यापि पुरुषवेदापरिक्षयात् न अविकलचारित्रप्राप्तिरिति न मुक्तिप्राप्तिर्भवेत् । अथ तत्परिक्षये शैलेश्यवस्थाभाविचारित्रप्राप्तिमतः पुरुषस्य मुक्तिप्राप्तिर्न प्राक् तर्हि सीमन्तिन्या अपि एवं मुक्तिप्राप्तौ न कश्चिद् दोषः संभाव्यते । अथ अस्याः १५ स्त्रीवेदपरिक्षय सामर्थ्यानुपपत्तेर्नायं दोषः ननु तत्परिक्षयसामर्थ्याभावस्तस्याः कुतः सिद्धः ? आगमात् इति चेत्, न तस्य तथाभूतस्य द्वादशाङ्ग्यामनुपलब्धेः । तत्परिक्षय सामर्थ्यप्रतिपादकस्यापि तस्य अनुपलब्धिरिति चेत्, नः " सव्वत्थोवा तित्थयरिसिद्धा तित्थयरितित्थे अतित्थयरिसिद्धा असंखेजगुणा" [ 1 इत्यादिसिद्धप्राभृतागमस्याने कैस्य सामर्थ्यवृत्त्या सीमन्तिनीनां स्त्रीवेदपरिक्षयसामर्थ्यप्रतिपादकस्य २० उपलम्भात् न हि सर्वकर्मानीकनायकरूपमोहनीय कर्माङ्गभूतस्त्रीवेदपरिक्षयमन्तरेण तासां मुक्तिप्राप्तिरिति मुक्तिसद्भावावेदकमेव वचस्तासां सामर्थ्यावेदकं सिद्धम् । अथ स्त्रीत्वादेव न तासां तत्परिक्षयसामर्थ्यम्, नः स्त्रीत्वस्य तत्परिक्षयसामर्थ्येन विरोधासिद्धेः न हि अविकलकारणस्य तत्परिक्षयसामर्थ्यस्य स्त्रीत्वसद्भावादभावः क्वचिदपि निश्चितः येन अग्नि- शीतयोरिव सहानवस्थान - विरोधस्तयोः सिद्धो भवेत् । नापि भावाभावयोरिव अनयोरन्योन्यव्यवच्छेदरूपता अवगता येन २५ परस्पर परिहारस्थितलक्षणविरोधसिद्धिर्भवेत् । न चाविरुद्ध विधिरन्यस्याभावावेदकः अतिप्रसङ्गात् । तन्न स्त्रीत्वादपि तासां तत्परिक्षयसामर्थ्यानुपपत्तिसिद्धिः । प्रत्यक्षस्य तु इन्द्रियजस्य अतीन्द्रियपदार्थभावाभावविवेचने अनधिकार एवेति नातोऽपि तत्परिक्षयसामर्थ्यानुपपत्तिसिद्धिस्तासाम् । अतोऽनेकदोषदुष्टत्वान्न प्रकृतपक्षः साधनमर्हति । 'स्त्रीत्वात्' इति हेतुरपि यदि 'उदितस्त्री वेदत्वात्' इति उपात्तस्तदाऽसिद्धः मुक्तिप्राप्तिप्राक्तनसमयादिषु स्त्रीवेदोदयस्य तासामसंभवात् अनिवृत्ति गुणस्थान ३० एव तस्य परिक्षयात् । 'परिक्षीणस्त्री वेदत्वात्' इति च हेतुर्विपर्ययव्याप्तत्वाद् विरुद्धः । न च 'स्त्रीत्वात्' इत्यस्य 'परिक्षीणस्त्री वेदत्वात्' इत्ययमर्थः अत्रार्थे प्रकृतशब्दस्य अरूढत्वात् । अथ 'ख्याकारयोगित्वात् स्त्रीत्वात्' इति हेत्वर्थस्तदा विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वाद् अनैकान्तिको हेतुः । चतुर्दशपूर्व संवित्संबन्धित्वाभावोऽपि तासां कुतः सिद्धः येन साध्यविकलो ष्टान्तो न स्यात् ? सर्वज्ञप्रणीतागमात् इति चेत्, तत एव मुक्तिभाक्त्वस्यापि तासां सिद्धिरस्तु न ३५ हि एकवाक्यतया व्यवस्थितः दृष्टेष्टादिषु बाधामननुभवन् आप्तागमः क्वचित् प्रमाणं कचिन्नेति अभ्युपगन्तुं प्रेक्षापूर्व कारिणा शक्यः । अथ विवादगोचरापन्नाऽबला अशेषकर्मक्षयनिबन्धनाध्यवसायविकला, अविद्यमानाऽधः सप्तमनरकप्रात्यविकलकारणकर्म बीजभूताध्यवसानत्वात्, यस्तु अशेष १ स्त्रिया त वा० वा० भ० मां० । २ "नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहेत्तए - कप्पसु० पृ० १ ३ वीसुं इ - बृ० सं विना । ४- रित्रयप्रा- वा० बा० भ० मां० । ५- कस्या सा-आ० । विरुद्धवि - वा० वा० आ०हा०वि० । ७- न्यस्य भा-भां० मां० । ८-णधर्म - भां०] मां० । ० १ । ६ - विरुद्ध Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा । कर्मपरिक्षयनिबन्धनाध्यवसायविकलो न भवति नासौ अविद्यमानाधः सप्तमनरकप्राप्त्यविकलकारणकर्मबीजभूताध्यवसानः, यथोभयसंप्रतिपत्तिविषयः पुरुष इति वैधर्म्यदृष्टान्तः । असदेतत् यतोऽत्रापि प्रयोगे साध्य - साधनयोः प्रतिबन्धाभावान्नातो हेतोर्विवक्षितसाध्यसिद्धिः । तथाहियथोक्ताध्यवसानं निवर्तमानमबलातः अशेषकर्मक्षयाध्यवसायनिवर्तकं कारणं वा भवद् भवेत् व्यापकं वा ? अन्यस्य निवृत्तावपि अपरनिवृत्तेरवश्यभावाभावात् अन्यथा अश्वनिवृत्तावपि गवादे-५ नियमेन निवृत्तिप्रसक्तेः । आह च न्यायवादी " तस्मात् तन्मात्रसंबन्धः स्वभावो भावमेव वा । निवर्तयेत् कारणं वा कार्यमव्यभिचारतः " ॥ [ ७५३ ] इति । तत्र न तावत् कारणं यथोक्ताध्यवसानमशेषकर्मक्षयाध्यवसानस्य येन तन्निवृत्त्या तस्यापि निवृत्तिः स्यात् । कारणत्वे वा यत्र अशेषकर्मक्षयाध्यवसानं योगिनि संभवति तत्र अधः सप्तमनरकपृथिवीप्राध्यव - १० न्ध्यकारणस्य बीजभूताध्यवसान सद्भावात् कार्यस्य कारणाव्यभिचारित्वात् तस्य नरकप्राप्तिसद्भाव इति अनिष्टापत्तिः । न च योगिनि अशेषकर्मक्षयनिबन्धनमध्यवसानं जनयदपि नरकप्राप्तिनिबन्धनकर्मबीजभूतमध्यवसानं नरकप्राप्तिलक्षणं स्वकार्य न जनयतीति वाच्यम्, अविकलकारणस्य अवश्यंतया स्वकार्यनिर्वर्तकत्वात् अन्यथा अविकलकारणत्वायोगात् । न च यदेव तथाभूतकर्मनिर्वर्तनसमर्थ तदेव तत्क्षयहेत्वध्यवसायनिबन्धनं भवांत, भावाभावयोरेकस्मिन्नेकदा विरोधात् तन्निर्वर्तकस्य हेतोः १५ स्वभावान्तरमप्राप्नुवतस्तन्निर्व (न्निवर्त) ते कत्वविरोधात् न हि यदेव यदेवाङ्गुलिद्रव्यस्य ऋजुत्वोत्पादकम् तदेव तदैव तस्य विनाशकं संभवति एकनिमित्तयोरेकदा भावाभावयोविरोधात् । नापि तत् तस्य व्यापकम् येन ततस्तन्निवर्तमानं तदपि आदाय निवर्तेत, व्यापकत्वे वा यत्र अशेषकर्मक्षयनिबन्धनाध्यवसायसद्भावस्तत्र व्यापकस्य अवश्यभावित्वात् अन्यथा तस्य तद्व्यापकत्वायोगात् योगिनस्तद्ध्यवसायवतोऽधः सप्तमनरकप्राप्तिप्रसङ्गोऽनिष्टस्तदवस्थ एव स्यात् । न च यत्र क्लिष्टतराध्यवसायसगा- २० चस्तत्र अतिशुभतराध्यवसायेन भाव्यमिति प्रतिबन्धसंभवः तन्दुलमत्स्येन व्यभिचारात् । न च मनुष्यजातियोगित्वे सति अव्यभिचारः उत्तमसंहननेन चारित्रप्राप्तिकालार्वाक् समयभाविना सर्वपयोप्तिसंपन्नेन तथाविधक्लिष्टपरिणामवता पुरुषेण व्यभिचारात् । न च यत्र अतिशुभतरः परिणामस्तत्रापि अशुभतर परिणामेन भाव्यमित्यत्रापि प्रांतबन्धः तथाविधयोगिना व्यभिचारात् । २५ किञ्च, स्त्रीणां सप्तमनरकपृथ्वीप्रातिनिबन्धनकर्म बीजाध्यवसायाभावः कुतः प्रतिपन्नः ? आप्ता-: गमात् इति चेत् अशेषकर्म शैलवज्राशनिभूतशुभाध्यवसायसद्भावोऽपि तत एव अभ्युपगन्तव्यः । न हि अतीन्द्रिये एवविधेऽर्थे अस्मदादरवग्दशः आप्तागमाद् ऋत अन्यत् प्रमाणमस्ति । न च दृष्टेष्टाविरोव्याप्तवचनमसत्तकानुसारिजात विकल्पेबधामनुभवति तेषां प्राप्ताऽप्राप्त व्यापादक मतंगजविकल्पवद् श्रवस्तुसंस्पर्शित्वात् । उक्त च भर्तृहरिणा "अतीन्द्रियानसंवेद्यान् पश्यन्त्यार्पण चक्षुषा । ये भावान् वचनं तेषां नानुमानेन बाध्यते” ॥ [ ३० 1 ३५ न च अत्र वस्तुनि आगमनिरपेक्षमनुमानं प्रवर्तितुमुत्सहते, पक्षधर्मादेर्लिङ्गरूपस्य प्रमाणान्तरतः प्रतिपत्तुमशक्तेः प्रातपत्तौ वा साध्यस्यापि प्रतिबन्धग्राहिणा प्रमाणेन प्रतिपत्तेनैकान्ततोऽतीन्द्रियता भवेत् । आगमानुसार चानुमानं प्रकृते वस्तुनि संवादकृदव न बाधकमितेि प्रदर्शितम् । न च आप्तवचनं स्त्री व प्रतिपादकमप्रमाणम् सप्तमनरकप्राप्तिप्रतिषेधकं प्रमाणामाते वक्तव्यम् उभयत्र आप्तप्रणीतत्वादेः प्रामाण्यनिबन्धनस्य अविशेषात् । न च एकमाप्तप्रणीतमेव न भवाते, इतरत्रापि अस्य समानस्वात् पूर्वापरोपनिबद्धाशेषदृष्टादृष्टप्रयोजनार्थ प्रतिपादकाऽवान्तरवाक्य समूहात्मकै कमहावाक्यरूपतया अर्हदागमस्य एकत्वात् तथा चान्तरवाक्यानां केषांचिद् अप्रामाण्ये सर्वस्यापि आगमस्य अप्रामाण्यप्रसक्तेः अङ्गदुष्टत्वे तदात्मकाङ्गिनोपि दुष्टत्वापत्तेः । न च प्रदर्शितवाक्यात्मकः सर्वज्ञप्रणीतागमत्वेन अस्मान् प्रति असिद्ध इति वक्तव्यम् नास्तिक-मीमांसकान् प्रति पुरुषनिर्वाणावेदकस्यापि ४० तत्प्रणीतत्वेन असिद्धेः । या च तान् प्रति तस्य तत्प्रणीतत्वावेदिका युक्तिः सा इतरत्रापि समाना Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे - पूर्वापरैकवाक्यत्व- दृष्टादृष्टाबाधितार्थत्वादेरविशेषात् । अथ स्त्रीणां घातिकर्मक्षयनिमित्ताद्यशुक्लध्यानद्वयस्यासंभवाद् न निर्वाणप्राप्तिः संभविनी; ननु कुतस्तद्वयस्य तत्राभावगतिः ? पूर्वधरस्यैव तयोः सद्भावात् “आद्ये पूर्वविदः” [ तत्त्वार्थ० ९ ३९ ] इति वचनप्रामाण्यात् । न च पूर्वधरत्वं तासां तदनधिकारित्वादिति चेत् तर्हि प्राक्तनभवानधीतपूर्वाणां वर्तमानतीर्थाधिपत्यादीनामपि ५ न तद् भवेत् तदध्ययनासंभवात् आद्यशुक्लध्यानद्वयासंभवतः तन्निमित्तघातिकर्मक्षयसमुद्भूताशेषतत्वावबोधस्वभावकेवलज्ञानाभावे न मुक्तिश्रीसंगतिः स्यादिति अनिष्टापत्तिः । अथ शास्त्रयोगागम्यसामर्थ्ययोगावसेयभावेषु अतिसूक्ष्मेष्वपि तेषां विशिष्टक्षयोपशम-वीर्यविशेषप्रभवप्रभावयोगात् पूर्वधरस्येव बोधातिरेकसद्भावाद् आद्यशुक्लध्यानद्वयप्राप्तेः कैवल्यावाप्तिक्रमेण मुख्यवाप्तिरिति न दोषः तदध्ययनमन्तरेणापि विशिष्टक्षयोपशमसमुद्भूतज्ञानात् पूर्ववित्त्वसंभवात् तर्हि १० निर्ग्रन्थीनामपि एवं द्वितयसंभवे न कञ्चिद् दोषमुत्पश्यामः अभ्युपगमनीयं चैतत् अन्यथा मरुदेवीस्वामिनीप्रभृतीनां जन्मान्तरेऽपि अनधीतपूर्वाणां न मुक्तिप्राप्तिर्भवेत् । न चासौ तेषामसिद्धा सिद्धप्राभृतादिग्रन्थेषु गृहिलिङ्गसिद्धानां प्रतिपादनात् । न च ते अप्रमाणम् सर्वज्ञप्रणीतत्वेन तेषां प्रामाण्यस्य साधितत्वात् । अथ मायागारवादिभूयस्त्वाद् अबलानां न मुक्तिप्राप्तिः, न; तदा तासां तद्भूयस्त्वासंभवात् प्राक् तु पुरुषाणामपि तत्संभवोऽविरुद्धः । अथ अल्पसत्त्वाः क्रूरा१५ ध्यवसायाश्च ताः इति न मुक्तिभाजः, न सत्त्वस्य कार्य गम्यत्वात् तस्य च तासु दर्शनात् अल्पसत्वत्वासिद्धिः । दृश्यन्ते हि असदभियोगादौ तृणवत् ताः प्राणपरीत्यागं कुर्वाणाः परीषहोपसर्गाभिभवं चाङ्गीकृतमहाव्रता विदधानाः क्रूराध्यवसायत्वं दृढप्रहारिप्रभृतीनां प्रागवस्थायां तद्भवे विद्यमानमपि न मुक्तिप्राप्तिप्रतिबन्धकम् तदवस्थायां तु तस्य तावपि अभाव एव । ७५४ अथ लोकवद् लोकोत्तरेऽपि धर्मे पुरुषस्य उत्तमत्वात् मुक्तिप्राप्तिः न स्त्रीणाम् अनुत्तमत्वात्, २० न; अन्यगुणापेक्षाऽनुत्तमत्वस्य मुक्तिप्रायप्रतिबन्धकत्वात् अन्यथा तीर्थकगुणापेक्षया गणधरादेरपि अनुत्तमत्वात् मुक्तिप्रात्यभावो भवेत् । अथ अशेषकर्मक्षयनिबन्धनस्य अध्यवसायस्य गणधरादिषु तीर्थकृदपेक्षया तुल्यत्वात् अयमदोषः, समानमेतद् अबलाखपि तथाविधयोग्यतामापन्नासु । अथ महाव्रतस्थपुरुषावन्द्यत्वात् न तासां मुक्त्यवाप्तिस्तर्हि गणधरादेरपि अर्हदवन्द्यत्वात् न मुक्त्यवाप्तिः स्यात् । अथ “तित्थपणामं काउं” [ आवश्यकनि० समवस० गा० ४५ इत्याद्यागमप्रामाण्यात् प्रथमगणधरस्य 'तीर्थ' शब्दाभिधेयत्वात् तदवन्द्यत्वं तस्यासिद्धं तर्हि चातुवर्ण्यश्रमणसंघस्यापि 'तीर्थ' शब्दवाच्यत्वात् तत्र तु तासामन्तर्भावात् महाव्रतस्थपुरुषावन्द्यत्वं तासामपि असिद्धम् । तन्न युक्तयागमाभ्यां तासां मुक्तिप्राप्त्यभावः प्रतिपत्तुं शक्यः । तत्सद्भावस्तु प्रदर्शितागमात् युक्तितश्च प्रतीयत एव । तथाहि - विमत्यधिकरणभावापन्नाः स्त्रियो मुक्तिभाजः, ३० अवाप्ताशेषकर्मक्षयनिबन्धनाध्यवसायत्वात्, उभयाभिमतगणधरादिपुरुषवत् इत्याद्यागम-युक्तिगर्भमनुमानं निर्दोषं युक्तिशब्दवाच्यं समस्त्येव । २५ [ प्रतिमाभूषाया आगमविहितत्वसमर्थनम् ] यदपि 'भगवत्प्रतिमाया न भूषा आभरणादिभिर्विधेया' इति स्वाग्रहावष्टब्धचेतोभिर्दिगंम्बरैरुच्यते तदपि अर्हत्प्रणीतागमापरिज्ञानस्य विजृम्भितमुपलक्ष्यते तत्करणस्य शुभभावनिमित्ततया ३५ कर्मक्षयाऽवन्ध्यकारणत्वात् । तथाहि - भगवत्प्रतिमाया भूषणाद्यारोपणं कर्मक्षयकारणम्, कर्तुर्मनःप्रसादजनकत्वात्, कुङ्कुमाद्यालेपनवत् । न च व्रतावस्थायां भगवता भूषणादेरनङ्गीकृतत्वात् न तत्प्रतिकृतौ तद् विधेयम् संमज्जनाङ्गरागपुष्पादिधारणस्यापि तदवस्थायां भगवताऽनाश्रितत्वात् न तत् १ पूर्ण सूत्रं तु " शुक्ले चाद्यं पूर्वविदः" इत्येव । २ द्वितीय - भां० मां० । ३ " कहेइ साहारणेण सद्देण । सव्वेसिं संनीणं जोअणनीहारिणा भयवं” ॥ - आवश्यकनि० पृ० १०६ । ४ तत्कार-भां० । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। तत्र विधेयं स्यात् । अथ मेरुमस्तकादिषु तदभिषेकादौ इन्द्रादिभिस्तस्य विहितत्वात् अस्मदादिभिरपि कृतानुकरणादिभिः प्रयोजनैस्तत् तत्र विधीयते तर्हि तत एव आभरणादिभिर्विभूषादिकमपि विधेयम् कृतानुकरणादेः समानत्वात् । एवमन्यदपि आगमबाह्यं स्वमनीषिकया परपरिकल्पितमागम-युक्तिप्रदर्शनेन प्रतिषेद्धव्यम् न्यायदिशः प्रदर्शितत्वात् । तदेवम् अनधीताऽश्रुतयथावदपरिभावितागमतात्पर्या दिग्वासस इव आप्ताज्ञां विगोपयन्तीति व्यवस्थितम ॥६५॥ [बहुश्रुतत्वादिदर्पात् तात्पर्यापरिज्ञानाचानिश्चितशास्त्रार्थस्य सिद्धान्तप्रत्यनीकत्वकथनम् ] यत एवं ततः जह जह बहुस्सुओ संमओ य सिस्सगणसंपरिवुडो य । अविणिच्छिओ य समए तह तह सिद्धंतपडिणीओ ॥६६॥ यथा यथा बहुश्रुतः सम्यगपरिभावितार्थानेकशास्त्रश्रवणमात्रतः तथाविधाऽपराऽविदित-१० शास्त्राभिप्रायजनसंमतश्च शास्त्रज्ञत्वेन अत एव श्रुतविशेषानभिज्ञैः शिष्यगणैः समंतात् परिवृतश्च अविनिश्चितश्च समये तथाविधपरिवारदीत् समयपर्यालोचनेऽनाहतत्वात् तथा तथा सिद्धान्तप्रत्यनीकः यथावस्थितवस्तुस्वरूपप्रकाशकाहदागमप्रतिपक्षः निस्सारप्ररूपणया अन्यागमेभ्योऽपि भगवदागममधः करोतीति यावत् ॥६६॥ [क्रियाप्रधानानां ज्ञानयोगमसाधयतां क्रियाफलानुभवाभावकथनम्] १५ तस्मात् शास्त्रमधीत्य तदर्थावधारणं विधेयम् अवधृतश्च तदर्थो नय-प्रमाणाभिप्रायतो यथावत् परिभावनीयः अन्यथा तत्फलपरिज्ञानविकलताप्रसक्तिरित्याह चरण-करणप्पहाणा ससमय-परसमयमुकवावारा। चरण-करणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण याणंति ॥ ६७॥ चरणं श्रमणधर्म: "वय-समणधम्म-संजम-वेयावञ्च बंभगत्तीओ। णाणाइतियं तव-कोहणिग्गहाई चरणमेयं ॥ [ओघनि० गा०२] इति वचनात् । व्रतानि हिंसाविरमणादीनि पञ्च, श्रमणधर्मः क्षान्त्यादिर्दशधा, संयमः पञ्चानवविरमणादिः सप्तदशभेदः, वैयावृत्त्यं दशधा आचार्याराधनादि, ब्रह्मगुप्तयो नव वसत्यादयः, शानादित्रितयं ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि, तपो द्वादशधा अनशनादि, क्रोधादिकषायषोडशकस्य २५ निग्रहश्च इति अष्टधा चरणम् । करणं पिण्डविशुद्ध्यादिः "पिंडविसोही समिई भावण-पडिमाइ-इंदियनिरोहो। पडिलेहण-गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु" ॥ [ ओघनि० गा०३] इति वचनात् । तत्र पिण्डविशुद्धिः त्रिकोटिपरिशुद्धिराहारस्य "संसट्टमसंसट्ठा उद्धड तह अप्पलेविया चेव । उग्गहिया पग्गहिया उज्झियहम्माय सत्तमिया"॥ इति सप्तधा वा, समितिः ईर्यासमित्यादिः पञ्चधा, भावना अनित्यत्वादिका द्वादश, प्रतिमा मासादिका द्वादश भिक्षूणाम् दर्शनादिका एकादश उपासकानाम्, इन्द्रियनिरोधः चक्षुरादिकरणपञ्चकसंयमः प्रतिलेखनं मुखवस्त्रिकाद्युपकरणप्रत्युपेक्षणमनेकविधम्, गुप्तिः मनो-वाक्-कायसंवरणलक्षणा विधा, अभिग्रहा वसतिप्रमार्जनादयोऽनेकविधाः-एतयोश्चरण-करणयोः प्रधानास्तदनुष्ठान-३५ तत्पराः खसमय-परसमयमुक्तव्यापारा: अयं खसमयः अनेकान्तात्मकवस्तुप्ररूपणात् अयं च परसमयः केवलनयाभिप्रायप्रतिपादनात् इत्येतस्मिन् परिशानेऽनादृता अनेकान्तात्मकवस्तुतत्त्वं यथावत् अनवबुद्ध्यमानाः तदितरव्यवच्छेदेन इति यावत् । चरणकरणयोः सारं फलम् निश्च १-म्यकप-भां० मां० । २ ओघनि० पृ० ५। ३ ओघनि० पृ०६। ४ उव्वड आ. हा. वि.। ५ पञ्चाशकटी० पृ. २७९ द्वि. पं. ४ । ६ भिक्षुणां द्वादशानामपि प्रतिमानां स्वरूपनिरूपणं पञ्चाशकमूलतोऽवगन्तव्यम्पृ० २७७-२९१ गा० १--५०। ९७स०प्र० Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डे - शुद्धं निश्चयश्च तत् शुद्धं च ज्ञान दर्शनोपयोगात्मकं निष्कलङ्कम् न जानन्ति न अनुभवन्ति ज्ञान-दर्शन- चारित्रात्मककारणप्रभवत्वात् तस्य कारणाभावे च कार्यस्य असंभवात् अन्यथा तस्य निर्हेतुकत्वापत्तेः चरण-करणयोश्च चारित्रात्मकत्वात् द्रव्य-पर्यायात्मकजीवादितत्त्वावगमस्वभावरुच्यभावेऽभावात् । ७५६ अथवा चरण- करणयोः सारं निश्चयेन शुद्धं सम्यग्दर्शनं ते न जानन्ति न हि यथावस्थितवस्तुतत्त्वावचो धमन्तरेण तद्रुचिः न च स्वसमय पर समयतात्पर्यार्थानवगमे तदवबोधः बोटिकादेखि संभव । अथ जीवादिद्रव्यार्थ - पर्यायार्थापरिज्ञानेऽपि यद् अर्हद्भिरुक्तं तदेव एकं सत्यमित्येतावतैव सम्यग्दर्शनसद्भावः 1 " मण्णइ तमेव सच्चं णिस्संकं जं जिणेहिं पन्नत्तं" [ १० इत्याद्यागमप्रामाण्यात्, नः स्वसमयपरसमयपरमार्थानभिज्ञैर्निरावरणज्ञान-दर्शनात्मकजिनस्वरूपाऽज्ञानवद्भिस्तदभिहितभावानां सामान्यरूपतयाऽपि अन्यव्यवच्छेदेन सत्यस्वरूपत्वेन ज्ञातुमशक्यत्वात्; नन्वेवमागमविरोधः सामायिकमात्रपदविदो माष तुषादेर्यथोक्तचारित्रिणस्तत्र मुक्तिप्रतिपादनात् सकलशास्त्रार्थज्ञताविकलव्रतस्य व्रताद्याचरणनैरर्थक्यापत्तिश्च तत्साध्यफलानवाप्तेः । न च यथोपवर्णितचरण-करणसम्यग्दर्शनैवैफल्ये भवतः ज्ञानादित्रितयस्यापि तत्र पाठात् । न, ये यथोदि१५ तचरण-करणप्ररूपणासेवनद्वारेण प्रधानात् आचार्यात् स्वसमयपरसमयमुक्तव्यापारा न भवन्तीतिनञोऽत्र संबन्धात्-ते चरण- करणस्य सारं निश्चयशुद्धं जानन्त्येव गुर्वाज्ञया प्रवृत्तेः चरणगुणस्थितस्य साधोः सर्वनयविशुद्धतया अभ्युपगमात् ५ "तं सव्वणयविसुद्धं जं चरणगुणडिओ साहूँ" [ आवश्यकनि० सामाइअनि० गा० १०२ ] इत्याद्यागमप्रामाण्यात् अगीतार्थस्य तु स्वतन्त्रचरण-करणप्रवृत्तेः व्रताद्यनुष्ठानस्य वैफल्यमभ्युप २० गम्यत एव --- “गीयत्थो य विहारो बीओ गीयत्थमीसओ भणिओ ।" [ ] [ ज्ञानक्रिययोरन्यतरवैकल्ये मोक्षफलवन्ध्यत्वकथनम् ] अत्र च सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानादभेदाशा ( दाद् ज्ञा) न - क्रिययोरन्यतरवि कलयोर्नाशेषकर्मक्ष२५ यलक्षणफलनिर्वर्तकत्वं संभवतीति प्रतिपादयन्नाह - इत्याद्यागमप्रामाण्यात् ॥ ६७ ॥ ३५ णाणं किरियारहियं किरियामेत्तं च दो वि एगंता । असमत्था दाएउ जम्म-मरणदुक्ख मा भाईं ॥ ६८ ॥ ज्ञायते यथावद् जीवाजीवादितत्त्वमनेनेति ज्ञानम् क्रियत इति क्रिया यथोक्तानुष्ठानम् तया रहितम् 'जन्म-मरण - दुःखेभ्यो मा भैषीः' इति दर्शयितुं दातुं वा असमर्थम् न हि ३० ज्ञानमात्रेणैव पुरुषो भयेभ्यो मुच्यते क्रियारहितत्वात् दृष्टप्रदीपनकपलायन मार्गपङ्गवत् । क्रियामात्रं वा ज्ञानरहितम् न 'तेभ्यो मा भैषीः' इति दर्शयितुम् दातुं वा समर्थम् न हि क्रियामात्रात् पुरुषो भयेभ्यो मुच्यते संज्ज्ञानविकलत्वात् प्रदीपनकभयप्रपलायमानान्धवत् । तथा चागमः - "हयं णाणं कियाहीणं हया अण्णाणओ किया । पासंतो पंगुलो डड्डो धावमाणो य अंधओ” ॥ [ आवश्यकनि० पढमाव० गा० २२ ] १ स्वसमयपरमा-वा० बा० भ० मां० आ० । २- रणे नै मां० । ३- नवैकल्ये भां० मां० । नविकल्पे भ वा० बा० । ४ " सव्वेसि पि नयाणं बहुविहवत्तव्त्रयं निसामित्ता" । इति पूर्वार्धम् । - आवश्यकनि० पृ० १९७ । ५ " तो तइयविहारो णाणुण्णाओ जिणवरेहिं” इत्युत्तरार्ध हरिभद्रीयानुयोगद्वारवृत्ती पृ० १२६ । ६ अस्मदीयायां मूलप्रतौ इतोऽनन्तरमेका गाथा अधिका विद्यते । सा चेयम् जेण विणा लोगस्सवि ववहारो सव्वहा न निव्वडर । तस्स भुवणेक्कगुरुणो नमो अणेगंतवायस्स ॥ इयं च गाथा टीकाप्रतिषु न क्वापि उपलभ्यते । ७ सज्ञान बृ० सं० विना । ८ आवश्यकनि० पृ० १५ । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। उभयसद्भावस्तु तेभ्यो मा भैषीः' इति दर्शयितुं समर्थः । तथाहि-सम्यग्ज्ञान-क्रियावान् भयेभ्यो मुच्यते उभयसंयोगवत्त्वात् प्रदीपनकभयान्धस्कन्धारूढपङ्गुवत् । उक्तं च __ "संजोगसिद्धीए. फलं वयंति" [ आवश्यकनि० पढमाव० गा० २३] इत्यादि । तस्मात् सम्यग्ज्ञानादित्रितयनयसमूहाद् मुक्तिः नयसमूहविषयं च सम्यग्ज्ञानम् श्रद्धानं च तद्विषयं सम्यग्दर्शनम् तत्पूर्व च अशेषपापक्रियानिवृत्तिलक्षणं चारित्रम्-प्रधानोपसर्जनभावेन मुख्यवृत्त्या ५ वा-तत त्रितयप्रदर्शकं च वाक्यमागमः नान्यः एकान्तप्रतिपादकस्य असदर्थत्वेन विसंवादकतया तस्य प्राधान्यानुपपत्तेः जिनवचनस्य तु तद्विपर्ययेण दृष्टवद् अदृष्टार्थेऽपि प्रामाण्यसंगतेः॥ ६८ ॥ [अनेकान्तमयत्वेन जिनवचनस्य स्तवनं पार्यन्तिकमङ्गलविधानं च] तस्य तथाभूतस्य स्तुतिप्रतिपादनाय मङ्गलार्थत्वात् प्रकरणपरिसमाप्तौ गाथासूत्रमाहभई मिच्छादसणसमूहमइयरस अमयसारस्स। १० जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥ ६९॥ भद्रं कल्याणम् जिनवचनस्य अस्तु इति संबन्धः मिथ्यादर्शनसमूहमयस्य; ननु यद् मिथ्यादर्शनसमूहमयं तत् कथं सम्यग्रूपतामासादयति ? न हि विषकणिकासमूहमयस्य अमृतरूपतापत्तिःप्रसिद्धा, नः परस्परनिरपेक्षसंग्रहादिनयरूपापन्नसांख्यादिमिथ्यादर्शनानां परस्परसव्यपेक्षतासमासादितानेकान्तरूपाणां विषकणिकासमूहविशेषमयस्य अमृतसंदोहस्येव सम्यक्त्वापत्तेः।१५ दृश्यन्ते हि विषादयोऽपि भावाः परस्परसंयोगविशेषसमासादितपरिणत्यन्तरा अगदरूपतामात्मसास्कुर्वाणाः मध्वाज्यप्रभृतयस्तु विशिष्टसंयोगावाप्तद्रव्यान्तरस्वभावा मृतिप्राप्तिनिमित्तविषयरूपतामासादयन्तः। न च अध्यक्षप्रसिद्धार्थस्य पर्यनुयोगविषयता अन्यथा अग्न्यादेरपि दाह्यदहनशक्त्यादिपर्यनुयोगोपपत्तेः । अत एव निरपेक्षा नैगमादयो दुर्नयाः सापेक्षास्तु सुनया उच्यन्ते । अभिहितार्थसंवादि चेदं वादिवृषभस्तुतिकृत्सिद्धसेनाचार्यवचनम् - २० "नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः। __ भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः" ॥[ ] इति । अथवा सांख्यायेकान्तवादिदर्शनसमूहमयैकस्य चूर्णनस्वभावस्य मिथ्यादृष्टिपुरुषसमूहविघटनसमर्थस्य वा यद्वा मिथ्यादर्शनसमूहा नैगमादयः-एकैकस्य नैगमादेर्नयस्य शतविधत्वात्___"एकेको वि सयविहो” [आवश्यकनि० उवग्घायनि० गा० ३६] २५ इत्याद्यागमप्रामाण्यात्-अवयवा यस्य तद् मिथ्यादर्शनसमूहमयम् जिनवचनस्य मैगमादयः सापेक्षाः सप्त अवयवाः तेषामपि एकैकः शतधा व्यवस्थितः इत्यभिप्रायः। [सप्तभङ्गयादिप्रदर्शनेनानेकान्तसमर्थनम् ] समूहरूपसप्तनयावयवोदाहरणापेक्षया च सप्तभङ्गीप्रदर्शनमागमज्ञा विद्धति सामान्यविशेषात्मकत्वाद् वस्तुतत्त्वस्य १"न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो अपंगू अ वणे समिच्चा ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥” इति संपूर्णा गाथा आवश्यकनि० पृ० १५। २ सिद्धसेनीयत्वेन प्रसिद्धायां लभ्यायां च क्वापि स्तुतौ नेदं पद्यमुपलभ्यते । समन्तभद्रकृतित्वेन प्रसिद्ध स्वयंभूस्तोत्रे पञ्चषष्टितमत्वेन इदं पद्यं 'नयास्तव स्यात्पदसत्यलाञ्छिता' इति भवन्त्यभिप्रेतगुणा यतस्ततो' इति च पाठान्तरेण सहितं दृश्यते । हरिभद्रेण अनुयोगद्वारवृत्तौ “तदुक्तं च” इति निर्दिश्य 'भवन्त्यभिप्रेतगुणा' इति पाठसहितं पद्यमिदं समुद्धृतम् पृ० ११८ । आचाराङ्गटीकायां शीलाङ्काचार्येण एतादृशमेव एतत् पद्यं "खयूथ्यैरत्र बहु विजृम्भितम्" इति कृला उद्धृतम् पृ० ८५। हेमचन्द्रेण पुनः खोपज्ञशब्दानुशासनबृहद्वृत्तौ "स्तुतिकारोप्याह" इत्युक्त्वा इदं पद्यं उद्धृतम् खकीये च न्यासे विशेषनामग्रहणं विनैव "परोक्तेनापि द्रढयति" इत्युक्त्वा व्याख्यातम् १-१-२।। ३-मयिक-वा० बा० विना । ४ “सत्त नयसया हवंति एवं तु । अन्नो वि य आएसो पञ्चसया हुँति उ नयाणं" - आवश्यकनि० पृ. १३६ । विशेषाव. गा० २२६४ । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ तृतीये काण्डेसामान्यस्य एकत्वात् तद्विवक्षायां यदेव घटादिद्रव्यम् 'स्याद् एकम्' इति प्रथमभङ्गविषयः। तदेव देश-काल-प्रयोजनभेदात् नानात्वं प्रतिपद्यमानं तद्विवक्षया 'स्याद् अनेकम्' इति द्वितीयभङ्गविषयः। तदेव उभयात्मकमेकदा एकशब्देन यदा अभिधातुं न शक्यते तदा 'स्याद् अवक्तव्यम्' इति ५तृतीयभङ्गविषयः। यदेच चावकाशदातृत्वेन असाधारणेन एकमाकाशम् तदेव अवगाह्यावगाहकावगाहनक्रियाभेदाद् अनेकं भवति तद्रूपैर्विना तस्य अवस्तुत्वापत्तेः प्रदेशभेदापेक्षयाऽपि च तद् अनेकम् अन्यथा हिमवत्-विन्ध्ययोरपि एकदेशताप्राप्तेः तस्य च तथाविवक्षायाम् 'स्याद् एकं च अनेकं च' इति चतुर्थभङ्गविषयता। १० यदेव चैकमाकाशं भवतः प्रसिद्धं तद् एकस्मिन् अवयवे विवक्षिते एकम् अवयवस्य अवयवान्तराद् भिन्नत्वात् भिन्नानां च अवयवानां वाचकस्य शब्दस्य अभावात् अवक्तव्यं चेति तथाविवक्षायाम् 'स्याद् एकम् अवक्तव्यं च' इति पञ्चमभङ्गविषयस्तत् । यठेव एकमाकाशं प्रसिद्धं भवतः तत अवगाहाऽवगाहकाऽवगाहनक्रियामेदाद अनेकम एकानेकत्वप्रतिपादकशब्दाभावात् अवक्तव्यं च अतः 'स्याद अनेकम् अवक्तव्यं च' इति पष्ठभङ्गविषयः। १५ यदेव एकमाकाशात्मकतया आकाशं भवतः प्रसिद्धं तदेव तथैकम् अवगाह्याऽवगाहकाऽवगा हनक्रियापेक्षया अनेकं च युगपत्प्रतिपादनापेक्षया अवक्तव्यं चेति 'स्याद् एकम् अनेकम् अवक्तव्यं च' इति सप्तमभङ्गविषयः। ___एवं 'स्यात् सर्वगतः' 'स्याद् असर्वगतो घटादिः' इत्यादिकाऽपि सप्तभङ्गी वक्तव्या। यतः य एव पार्थिवाः परमाणवो घटः त एव विस्रसादिपरिणतिवशात् जलानिलानलावन्यादिरूपतामात्मसात्कु२० र्वाणाः 'स्यात् सर्वगतो घटः' इत्यादिसप्तभङ्गविषयतां यथोक्तन्यायात् कथं नासादयन्ति ? न च घट परमाणूनां पुद्गलरूपतापरित्यागे पूर्वपर्यायापरित्यागे च घटपर्यायापत्तिः क्षणिकाक्षणिकैकान्तयोरर्थक्रियानुपपत्तरसत्त्वापत्तेः परिणामिन एव सुवर्णात्मना व्यवस्थितस्य केयूरात्मना विनाशमनुभवतः कटकाद्यात्मना उत्पद्यमानस्य वस्तुनः सत्त्वात् अन्यथा क्वचित् कस्यचित् कदाचित् अनुपलब्धेः । न च अध्यक्षाद् अन्यद् गरिष्ठं प्रमाणान्तरमस्ति यतस्तद्विपरीतभावाभ्युपगमः क्रियते अन्तर्बहिश्च हर्ष२५ विषादाधनेकाकारवितर्कात्म( विवर्तात्म )कैक चैतन्य-स्थास-कोश-कुशूलाद्यनेकाकारस्वीकृतैकमृत्पि ण्डादेः स्वसंवेदनाक्षजाध्यक्षतः प्रतिपत्तेः । सर्वथोपलभ्यमध्यरूपं पूर्वापरकोट्योरसत् इति वदतः सर्वप्रमाणविरोधात् कुण्डलाऽङ्गदादिषु पर्यायेषु तादृग्भूतसुवर्णद्रव्योपलब्धेः कार्योत्पत्तौ कारणस्य सर्वथा निवृत्त्यनुपलब्धेः। न च सादृश्यविप्रलम्भात् तदध्यवसायकल्पनेति वक्तव्यम् तदेकान्तभेदसा धकप्रमाणस्यापास्तत्वात् । न च कथंचित् स्वभावभेदेऽपि तादात्म्यक्षि(क्ष)तिः ग्राह्यग्राहकाकार३०संविद्वत् विविक्तपरमाणुषु स्थूलैकघटादिप्रतिभासवद्वा ग्राह्यग्राहकाकारविविक्तसंवित्प्रकल्पने अध्य क्षधियोऽपि विवक्षिताकारविवेकानुपलब्धेरध्यक्षेतरस्वभावाभ्यां विरोधस्वरूपासिद्धौ अन्यत्राऽपिका प्रद्वेषः? तथाहि-शक्यमन्यत्रापि एवमभिधातुम्-एकमेव पार्थिवद्रव्यं लोचनादिसामग्रीविशेषात् वर्णादिप्रतिपत्तिभेदेऽपि भिन्नमिव प्रतिभाति प्रत्यासन्नेतररूपताव्यवस्थितैकविषयवत् । न हि स्पष्टा स्पष्टमिर्भासमेदेऽपि तदेकत्वैक्षितिस्तत्र तद्वद् इहापि रूपादिप्रतिभासभेदेऽपि एकत्वं किं न स्यात् ३५प्रतीतेरविशेषात् । एवं च स्याद्वादिनः अग्नेरपि अनुष्णत्वप्रसक्तिरिति असंगतमभिधानम् यतस्तत्रापि स्यात् 'उष्णोऽग्निः' इति स्पर्शविशेषेण उष्णस्य भास्वराकारेण पुनरनुष्णस्य तस्यैकस्य नानास्वभाव शक्तरबाधितप्रमाणविषयस्यैवं वचने दोषासंगासंभवात् । तस्मात् एकस्यैव सामग्रीमेदवशात् तथाप्रतिभासाविरोधः। कारणस्य च कार्यात्मनोत्पत्तौ न किश्चिद् अपेक्षणीयमस्ति यतस्तथोत्पित्सुस्वभा. वता न भवेत् । अत एव मृदादिभावो घटस्वभावेन नश्वरः कपालस्वरूपेण चोत्पत्तौ तिष्ठतीति स्वभा४० वत एव नश्वरः उत्पित्सुः स्थास्तुश्च अन्यतमापाये पदार्थस्यैव असंभवात् त्रितयभावं प्रत्यनपेक्षत्वाच्च न हि उत्पन्नः पदार्थः किश्चित् स्थितिं प्रत्यपेक्षते स्थित्यात्मकत्वात् उत्पादस्य, न च अवस्थित उत्पत्ती १ यदैव ६० आ० हा० वि० । २ तदैव बृ० आ० हा० वि०। ३ विवक्षितं । ऐ-बृ०। ४-त्वमिति तत्र भा० मा०। ५-स्तद्वद्वा० बा० आ० हा० वि०। ६-त् तृतीय-बृ० आ• हा० वि० । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा। ७५९ किञ्चिद् अपेक्षते उत्पत्तिस्वभावत्वात् स्थितेः, न च विनष्ट उत्पत्ति प्रति हेत्वन्तरापेक्षः विनाशस्य उत्पत्त्यात्मकत्वात् ततः पूर्वापरखभावपरित्यागावाप्तिलक्षणं परिणाममासादयन् भावो व्यवतिष्ठते इति प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरमेतत् । अतः शब्द-विद्युत्-प्रदीपादेरपि निरन्वयविनाशकल्पना असंगतैन तेपामादौ स्थितिदर्शनात् अन्तेऽपि तत्स्वभावानतिक्रमात् न हि भावः स्वं स्वभावं परित्यजति प्रागपि तत्स्वभावपरित्यागप्रसक्तः अन्ते च क्षयदर्शनात् प्रागपि नश्वरस्वभाववत् आदौ उत्पत्तिसमये ५ स्थितिदर्शनात् अन्ते स्थितिः किं नाभ्युपेयते ? न च विद्युत्-प्रदीपादेस्तैजसरूपपरित्यागात् तामसरू. पस्वीकरणे किञ्चिद् विरुद्धं भवेत् । न च स्वभावभेदस्तदेकत्वविघातकृत् ग्राह्यग्राहकाकारसंवेदनवत् वेद्यवेदकाकारविवेकपरोक्षापरोक्षसंवित्तिवद्वा । यथा च ध्वंसहेतोस्तदतदकरणविरोधात् अकिञ्चिकरत्वम् तथा स्थित्युत्पादहेत्वोर्विशरारुधर्मणः स्थास्नुताकरणाभावात् स्वत एव स्थितिस्वभावस्य स्थितिहेतोरानर्थक्यात् । अथ स्थितिहेतुः अपातं करोतीत्युच्यते तर्हि पातं न करोतीति प्रसक्तम् एवं १० च अकिञ्चित्करत्वमेव तस्य । यदि वा अर्थान्तरं ततोऽपातः तर्हि तस्य करणे विनश्वरस्वभावः किं न विनश्येत् ? अथासौ स्थास्तुस्तथापि स्थितिहेतोरानर्थक्यम् स्वत एव तस्य स्थितेः। तथा उत्पत्तिहेतुरपि यदि भावं करोति तदा तस्य अकिञ्चित्करत्वमेव भावस्य स्वयमेव भावरूपत्वात् । अथ अभावं भावरूपतांनयति तर्हि नाशहेतरपि भावमभावीकरोतीति कथमकिञ्चित्करः स्यात् ? न हि अभावस्य भावीकरणे भावस्य वा अभावीकरणे कश्चिद विशेषः संभवी अत एव तेषामन्यतमस्य सहेतुकत्वमहेतु-१५ कत्वं वा अभ्युपगच्छन् सर्वेषां तद् अभ्युपगन्तुमर्हति अविशेषात्। न च भिन्नयोगक्षेमत्वात् कार्य-कारणयोरेकत्वमनुपपन्नम् स्वभावभेदेऽपि एकत्वप्रतिपत्तेः सर्वसंवित्क्षणानामेकदोत्पत्तिविनाशवतामभिनयोगक्षेमत्वेऽपि च परस्परतः पृथग्भावसिद्धेः। अथ अत्र अभिन्नयोगक्षेमपक्षेऽपि प्रतिभासमेदाद भेदस्तर्हि यत्र प्रतिभासाभेदस्तत्र भिन्नयोगक्षेमत्वेऽपि अभेदः प्रतिभासभेदाभेदयोर्वस्तुभेदाभेदव्यवस्थापकत्वात् समुदायस्यच देश-कालभेदाभावात् सकृदेव संवित्त्यात्मनोत्पत्तरेकत्वंच प्रसज्येत । यदि २० च स्वभावभेदो वस्तुभेदलक्षणम् तदा संतानान्तरयोरिव विषयविषयिरूपायाः संवित्तेरेकत्वेऽपि प्रत्यक्षेतरयोर्वा असौ विद्यत इति नानात्वं भवेत् । यदि पुनः स्वभावभेदाविशेषेऽपि विवक्षितज्ञानक्षणाकारयोरेव तादात्म्यम् न पुनः संतानान्तरसंवित्तीनामिति प्रत्यासत्तेः कुतश्चिद् व्यवस्थाप्यते तर्हि परस्यापि विवक्षितैकार्थोपादानोपादेयभूतयोरेव अवस्थयोस्तादात्म्यं कथंचिद् वदतो न कश्चिद् दोषः प्रसक्तिमान् । निराकृतश्च अनेकश एकान्तवादः तत्प्रसाधकहेतूनां सर्वेषामनेकान्तव्याप्ततया २५ विरुद्धताप्रदर्शनात् तत्प्रदर्शनं च एकान्तवादिनिग्रहस्थानमनेकान्तवादिविजयस्यैवेतरपराजयाधिकरणप्राप्तिलक्षणत्वात् "विरुद्धं हेतुमुद्भाव्य वादिनं जयतीतरः” [ इत्यस्य वचसो न्यायानुगतत्वात् ।। [प्रासङ्गिकी निग्रहस्थानस्वरूपपर्यालोचना] यदि पुनः असाधनाङ्गवचनं वादिनः पराजयाधिकरणमभ्युपगम्येत तदा वादाभ्युपगमं विधाय तूष्णींभावमात्रेण असाधनाङ्गस्य अवचनात् वादिनो विजयः किं न स्यात् ? प्रतिवादिनोऽपि स्वपक्षसिद्धिमकुर्वतः कथं न विजयस्तत एव भवेत । अथ साधनाङ्गावचनमपि निग्रहस्थानं तर्हि वादिप्रतिवादिनोयोगपद्येन निग्रहाधिकरणता भवेत् तूष्णीभावाविशेषात् । तूष्णींभावोपलम्मेन इतरो विजयवानिति चेतः नन्वेवमितरजयस्य अन्यतरपराजयाधिकरणतैव प्राप्ता । न च स्वपक्षसिद्धिम ३५ कुर्वत इतरोपलम्भमात्रेण जयप्राप्तिः तदप्राप्तौ च कथं तदितरस्य पराजयः? यदपि 'इष्टस्यार्थस्य सिद्धि(द्धिः) साधनं तस्याङ्गं स्वभाव-कार्याऽनुपलम्भलक्षणं हेतुत्रयं पक्षधर्मत्वादि वा त्रैरूप्यं तस्य अवचनं निग्रहस्थानं वादिनः' इत्युक्तम्, तदपि अचारु, प्रतिवादिनोऽपि पक्षधर्मत्वादेरन्यतमस्य अनुक्ती असमर्थने वा विजयाप्राप्तेः तदप्राप्तौ च वादिनो निग्रहस्थानानुपपत्तेः इतरजयनान्तरीय. कत्वात् इतरपराजयस्य । एवं हेत्वाभासादेरसाधनाङ्गस्य वचनं वादिनो निग्रहस्थानमिति प्रतिक्षिप्त-४० मुक्तन्यायाद् द्रष्टव्यम् । अथ ततः साध्यसिद्धेरभावात् । तस्य निग्रहस्थानमेव न भूविक्षेपादेर १ स्थाणुता-भा० मा० विना। २-यस्येवे-वा० था. आ० । ३ विजयप्रा-वृ० । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीये काण्डेसाधनाङ्गकरणस्य तत एव तत्प्राप्तेः। ततो वादिनमसाधनाङ्गमभिधानम् कुर्वाणं वा स्वपक्षसिदि विदधदेव प्रतिवादी तत्पक्षप्रतिक्षेपेण निगृह्णाति इत्येतदेव न्यायोपेतमुत्पश्यामः । एवं प्रतिवादिनो दोषमनुद्भावयतो न निग्रहस्थानम् तावता स्वपक्षसिद्धिमकुर्वाणस्य वादिनो विजयपाल्ययोगात् तत्साधनस्य सदोषत्वसंभवात् तस्य सदोषत्वेऽपि तदुद्भावनासमर्थत्वात् प्रतिवादिनो निग्रहस्थानं ५ तदिति चेत्, न; दोषवत्साधनाभिधानाद् वादिनोऽपि पराजयाधिकरणत्वात् द्वयोरपि युगपत् पराजयप्राप्तः अत एव प्रतिवादिनो दोषस्यानुद्भावनमपि न निग्रहस्थानम् । यश्च वादिपक्षसिद्धरप्रतिबन्धकं पक्षादिवचनाधिक्योद्भावनं प्रतिवादिपक्षसिद्धौ असाधकतमम् तत् सर्व न वादिनः पराजयाधिकरणम् अन्यथा तत्पादप्रसारिकाद्युद्भावनमपि तस्य पराजयाधिकरणं स्यात् । अथ पक्षादि वचनस्य असाधनाङ्गत्वात् तदुद्भावने वादिनस्तदपरिज्ञाननिबन्धनपराजयाधिकरणता तर्हि 'यत् १० सत् तत् सर्व क्षणिकम्' इति व्याप्तिवचनादेव शब्दस्यापि क्षणिकत्वसिद्धौ 'संश्च शब्दः' इत्यभिधानं तत एव तस्य पराजयाधिकरणं भवेत् । न च शब्दे शब्दविप्रतिपत्तिर्येन तन्निरासाय सत्त्वाभिधानं तत्र अपुनरुक्तं भवेत् तद्विप्रतिपत्तौ वा तत्साधकहेतु(तो)रसिद्धत्वादिदोषत्रयानतिवृत्तेर्भवतैव अभ्युपगमात् तत्साध्यत्वानुपपत्तिः । यदि च संक्षिप्तवचनात् साध्यसिद्धौ तद्विस्तराभिधानं निग्रहस्थानं तर्हि सत्त्वात् क्षणक्षयसिद्धौ कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वाद्यभिधानं कथं न निग्रहस्थानं स्यात् ! १. कथं वा 'कृतक'-'प्रयत्नानन्तरीयक आदिषु स्वार्थिकस्य तस्योपादानं तत्र स्यात् ? 'यत् सत् तत् सर्व क्षणिकम्' इत्यादिसाधनवाक्यमभिधाय पक्षादिवचनवत् तत्समर्थनमपि निग्रहस्थानं प्रसक्तम् असमर्थितमपि स्वत एव तत्त्वेनोक्तमेव स्वसाध्याविनाभूतस्य हेतोः प्रदर्शनमात्रात् साध्यसिद्धेः सद्भावात् स्वभावकार्याऽनुपलम्भप्रकल्पनया तद्वचनं निग्रहस्थानं परस्य प्रसक्तम् अनुपलब्धौ ‘उप लब्धिलक्षणप्राप्तस्य' इति विशेषणोपादानं निग्रहस्थानम् अदृश्यानामपि व्याधि-भूत-ग्रहादीनां २० कुतश्चिद् व्यावृत्तिसिद्धेः । यदि तु उपलभ्यानुपलब्धेरेव अभावसिद्धिः तदा 'नेदं निरात्मकं जीवच्छ रीरम् प्राणादिमत्त्वात्' इत्यत्र घटादेरात्मनोऽक्षणिकस्यादृश्यानुपलम्भात् अभावासिद्धेः 'यत् सत् तत् सर्व क्षणिकम्' इति सामस्त्येन व्याप्त्यसिद्धितः क्षणक्षयानुमानं नानवद्यं स्यात् । किञ्च, देश-काल-स्वभाव-विप्रकृष्टभावानुपलब्धेरभावासिद्धौ ‘सर्वत्र सर्वदा सर्वो धूमोऽग्निमन्तरेण अनुपपत्तिमान्' इति व्याप्तेरसिद्धर्न ततस्तत्सिद्धिः स्यात् । न च अध्यक्षाऽनुपलम्भौ २५ तत्कार्यकारणभावप्रसाधको अभ्युपगम्यमानौ सन्निहितविषयवलोत्पत्तेरविचारकत्वाच्च इयतो व्यापा रान् विधातुं क्षमौ तत्पृष्ठभाविविकल्पस्य निर्वर्तनसामर्थ्याभ्युपगमे सविकल्पकस्यानिष्टं प्रामाण्यं प्रसज्येत अनधिगतार्थाविगन्तृत्वात् अविसंवादित्वाच्च तस्य अविकल्पकस्य तु हिंसाविरति-दानचेतसां स्वर्गादिफलनिव(निर्व)र्तनसामर्थ्य स्वभावसंवेदनस्येव सर्वात्मना वस्तुसंवेदनेऽपि निर्णयवशादेव प्रामाण्योपपत्तेः अन्यथा 'अनुमानस्य अप्रामाण्यप्रसक्तेः तद्गृहीतग्राहितया' इत्युक्तं प्राक् । ३० अदृश्यानामनुपलम्भात् अभावासिद्धौ अर्थक्रियया सत्ता भावानां व्याप्तेत्येतद् अपि परस्य निग्रहस्थानमेव ततः स्वपक्षसिद्धिः इतरस्य पराजयाधिकरणम् सा च परोपन्यस्तहेतोर्विरुद्धताप्रदर्शनेन स्वतन्त्र निर्दोषहेतुसमर्थनेन वा परोपन्यस्तहेत्वसिद्धतादिदोषप्रतिपादनपुरस्सरा कर्तव्या अन्यथा परपराजयनिबन्धनस्वविजयायोगात् । यदा च विजिगीषुणा खपक्षस्थापनेन परपक्षनिराकरणेन च सभाप्रत्यायनं विधेयम् अन्यथा जयपराजयानुपपत्तेः तदा असिद्धाऽनैकान्तिकत्वसाधनदोषोद्भाव३५ नेऽपि न वादिप्रतिवादिनोर्जय-पराजयौ प्रकृतार्थापरिसमाप्तेः । अथ खपक्षसिद्धेरीवात् हेत्वा. भासात् असाधनाङ्गवचनं वादिनो निग्रहस्थानम्, न; इतरत्रापि तत्प्रसङ्गात् । अथ वादिनः साधनत्वेन अभिमतस्य असाधनत्वप्रदर्शनेन प्रतिवादिकृतेन पराजयः प्रतिवादिनस्तु संभूतदोषोद्भावनाद् जयः, न; यदि स्वपक्षसिद्धिमकुर्वता प्रतिवादिना स्व-परोत्कर्षापकर्षप्रत्यायनमात्रेण वादी १-सिद्धिः य-भां० मा० विना । २ तन्निवर्तन-भां० मां० विना। ३-नस्यैव वा० बा०। ४-माण्याप्रबृ. आ. हा०वि०। ५-भावसि-बृ० आ० हा० वि०। ६ व्याप्ते तदपि आ० हा० वि० । व्याप्तेरित्येतदपि भां. मां०। ७-प्रवादि-बृ. भां• मां। ८-भावात् हेत्वाभावादसाध-बृ. आ० हा० वि० । भावात् हेत्वाभावात् हेत्वाभासादसाध-वा० बा०। ९ सद्भूतासद्भूतदो-बृ० आ० हा वि० । १०-त्कर्षाप्रक Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयमीमांसा | ७६१ निगृह्यते इत्यभ्युपगमस्तर्हि असद्भूतदोषोद्भावनेनापि निरुत्तरीकरणात् आत्मोत्कर्षसंभवात् प्रतिवादिनो विजयप्राप्तेः वादिनो निर्दोषसाधनाभिधायिनोऽपि पराजयप्रसक्तिः । अथ समर्थस्यापि साधनस्य असमर्थनेन स्वपक्षसिद्धेरभावात् वादिनोऽपराजयो न्यायप्राप्त एव नः उभयत्र पराजयप्रसक्तेः । न हि अभूतदोषपक्षोपनयनिगमनाद्युद्भावनमात्रेण प्रतिवादिना प्रकृतं वस्तुतत्त्वं प्रसाधयन् स्वपक्षसाधनसामर्थ्य विकलेन वादी निगृह्यते इति न्यायोपपन्नम् । अथ प्रतिवादी अपि असाधनाङ्गस्य ५ साधनाङ्गत्वेन उपादानात् स्वपक्षसिद्धिमकुर्वन् मिथ्याभिनिवेशी निगृह्यते इति चेत्, नः उभयोर्निग्रहप्राप्तेरित्युक्तत्वात् । तस्माद् “असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः । निग्रहस्थानमन्यद्धि न युक्तमिति नेष्यते " ॥ [ 1 इत्यादिवादन्यायलक्षणमेकान्तवादिनां सर्वमसंगतमुक्तन्यायात् सर्वस्य चैकान्तसाधनाङ्गत्वात् तस्य असत्त्वेन साधयितुमशक्यत्वात् अनेकान्तस्य च निर्दोषत्वेन तत्र दोषोद्भावनस्य अदोषोद्भावन- १० रूपत्वात् दोषानुद्भावनस्य च निर्दोषे पराजयानधिकरणत्वात् तदुद्भावनस्यैव तत्र ग्रा इत्यलं पिष्टपेषणेन इति व्यवस्थितम् मिथ्यादर्शन समूहमयत्वं मयिकत्वं वा । न विद्यते मृतं मरणं यस्मिन् असौ अमृतो मोक्षः तं सारयति गमयति प्रापयतीति वा तस्य अवन्ध्यमोक्षकारणस्वात् मोक्षप्रतिपादकत्वाच्च । 'अमयसायस्स' वा इति पाठे अमृतवत् स्वाद्यते इति अमृतस्वादम् अमृततुल्यमिति यावत् । तथा रागाद्यशेषशत्रु जेतृपुरुषविशेषैरुच्यत इति जिनवचनम् तस्य अनेन १९५ विशिष्ट पुरुषप्रणीतत्वनिबन्धनं प्रामाण्यं निगमयति । क्षीराश्रवाद्यनेक लब्ध्याद्यैश्वर्यादिमतो भगवत इत्यनेनापि विशेषणेन तस्य ऐहिकसंपद्विशेषजनकत्वमाह । संविग्नैः संसारभयोगाविर्भूतमोक्षाभिलाबै: अपकृष्यमाणराग-द्वेषाऽहंकार कालुष्यैः 'इदमेव जिनवचनं तत्त्वम्' इत्येवं सुखेन अवगम्यते यत् तत् संविग्नसुखाभिगम्यम् । एतेनापि विशिष्टयुद्ध्यतिशयसंवित्समन्वितयतिवृषनिषेव्यत्वमस्य प्रतिपादयति । एवंविधगुणाध्यासितस्य जिनवचनस्य सामायिका दिबिन्दुसारपर्यन्तश्रुताम्भोधेः २० कल्याणमस्तु इति प्रकरणसमाप्तौ अन्त्यमङ्गलसंपादनार्थं विशिष्टां स्तुतिमाह । ॥ इति तत्त्वबोधविधायिन्यां सन्मतिटीकायां तृतीय काण्डं समाप्तम् ॥ इति कतिपयसूत्रव्याख्यया यद् मयाऽऽप्तं कुशलम तुलमस्मात् सैन्मतेर्भ व्यसार्थैः । भवभयमभिभूय प्राप्यतां ज्ञानगर्भ विमलमभयदेवस्थानमानन्दसारम् ॥ पुष्यद्वाग्दानवादिद्विरदधनघटा कुण्ठधी कुम्भपीठ प्रध्वंसोद्भूतमुक्ताफलविशदयशोराशिभिर्यस्य तूर्णम् । गन्तुं दिग्दन्तिदन्तच्छलनिहितपदं व्योमपर्यन्तभागान् स्वल्पब्रह्माण्डभाण्डोदरनिविडभरोत्पिण्डितैः संप्रतस्थे ॥ प्रद्युम्नसूरेः शिष्येण तत्त्वबोधविधायिनी । तस्यैषाऽभयदेवेन सैन्मतेर्विवृतिः कृता ॥ अङ्कतो ग्रन्थप्रमाणं २५००० । प्रवादिमदमर्दनप्रकटसन्मतिव्याजतो निवेशितजगत्रयस्फुरितसान्द्रकीर्तिद्रुमः । समस्तजगतीतले गुणवतां शिरःशेखरो जयत्यतुलवाग (?) भयदेवसूरिः प्रभुः ॥ । ६ १- न्यद्धि यु- बृ० आ० हा ० वि० । २- कान्ते सा वृ० हा० बृ० । ५ - णीततत्त्व - वृ० वा २ बा० ।-णीततत्वतत्व - भ० मां० । आ० हा० वि० । ८ प्रतिक्रमण वा० वा० । ९ सम्मति - वा० बा० । सम्मति-भां० मां० आ० हा ० वि० । १० -- तीयका - बृ० भ० मां० । ११ सम्मते - भ० मां० । १२ - मतिभू - बृ० । १३ सम्म भ० मां० आ० । १४ इदं पद्यं आ० हा ० वि० प्रतिषु नास्ति । । २५ ३० ३- पोद्भव - बृ० हा० । ४- निर्दोष प इत्येव सु- बृ० सं० । ७-गम्यं तेना Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा अदुअणुहिं दवे अण्णायं पासंतो अग्गोम्णाणुगया अस्थि अविणासधम्मी अस्थि ति णिब्जिय अत्यंतर भूएहि य अहि अण्णायं च अह देसो सम्भावे अह पुणे पुण्यपयुक्तो आटोsभावे इहरा समूहसिद्धो उप्पज्ज माणकालं उपपतिवियंतिय उपाओ दुवियप्पो एए पुर्ण सहओ एगदवियम्मि जे अत्थएगसमयम्मि एगदवियस्स एतणि व्विसेसं एयंत पक्वाओ एयंताऽसन्भूयं एवं एगे आया एवं जिणप एवं जीवद्द एवं सत्तवियप्पो एवं सेसिंदियदंसणम्मि कम्मं जोगनिमित्तं काय मण वयण किरिया कालो सहाब मिय कुंभो ण जीवदवियं केई भणति जड्या केवलमाणम केवलवाणायरणक्य केवलणार्ण साई कोवं उप्पायंतो गइपरिगये गई व गुणणिव्वत्तियसणा ९८ [सं० प० परिशिष्टानि सम्मतिमूलगाथानामकारानुक्रमः । गाथांक गाथा ३- ३९ गुणसद्द मंतरेणा वि २-१३ चक्चक्अवहि१-४७ चरण-करणप्पहाणा २-५५ ज ओग्गहमेतं १-३३ जसवं सायारं १- ३५ जह एए तह अण्णे २१२ ज को सट्टियरिसो १- ३७ २- ३९ जहणेयलक्खणगुणा १ ३९ जह दवियमधियं तं १ - २७ जह दससु दसगुणम्मि य जण ते पेय मणी जहसंबन्धविसिद्धो १ - १५ २-४० ज ज बहुओं संमओ य ३-६६ ३३७ १ ११ ३-३२ जाइ-कुल- रूव - लक्खण१- १३ | जावइया वयणवहा १- ३१ जीवो अणाइणिहृणो केवल३-४१ जीवो अणाइहिणो जीव३-२ जुज्जर संबन्धवसा ३-१६ जेण मणोविसयगदाण ३-५९ जेण विना लोगस्स (पाठान्तर) १-४९ जे वणिजनियप्पा २ ३२ जे संतबाब दोखे २-४१ जे संघयणाई या १-४१ जो आउंचणकालो २-१४ पक्खम्मि जो १-१९ अप्पुट्ठा भावा अप्पु भावे ३-४२ जं का विलं दरिसणं गाथांक ३-१४ २-२० ३-५३ ३-३१ पुण अरिया जं च २-४ जं पचखग्गणं २-१४ जपन्ति अस्थि समये २- ५ | जं सामण्णग्गहणं २- ३४ णत्थि न गियो ण कुणइ ३-७ ण य तहओ अधि ओ २ २९ यदम्बडिय ३-३० ण य बाहिरओ भावो गाथा ण य होइ जोम्यणत्थो ण वि अस्थि अग्नवादो ३-६७ २- २३ | णाणं अपुढे अविसये २-१० णानं किरियारहिये णियमेण सद्दहंतो निवयवयणिजराचा तम्हा अण्गो जीवो १- २२ | तम्हा अहिगयसुतेण १-४२ म्हाभागो ३ - १५ तम्हा सव्वे वि णया १-२४ तह विवि ३ - १८ | तह सव्वे णयवाया १-४५ तिणि वि उप्पायाई ३-४७ |तित्वयरवयणसंगह२-३७ ते उ भयणोवणीया २-४२ | तेहिं अतीताणागय३-२१ दव्यडिओ सि तम्हा दम्बडिओ बि होऊन ण हु सासणमसीमेत्तएण २१९ पृ० ७५६ दव्वडिवनयपयडी १५३ दव्ववितव्यं भवत्यु ३-५० दव्त्रद्वियवत्तव्यं सव्वं २- ३५ दव्वद्वियवत्तव्यं सामण्णं ३ - ३६ | दव्वद्वियस्स आया ३-४५ दव्ययिस्स जो चेन २- २९ | दव्वत्थंतरभूया २- ३० दतरसंजोगा हि ३-४८ ३-११ २२८ दजा परिण ३-१३ | दव्वं पज्जव विजयं २१ दुबो धम्माबाओ ३-५४ दूरे ता अण्णतं १- १४ दो उण णया भगवया १ - १७ | दोहि वि एहि णीअं १-५० दंसणणाणावरणक्लए दव्वस्स ठिई जम्म - विगमा दखितं कालं गाथांक १-४४ ३-२५ ३-६३ २-२५ ३-६८ ३-१८ १-२८ २-१८ २-६५ २-१७ १-२१ १-२३ १-२५ ३-३५ १-३ ३-५१ १-४६ १-९ २-२ १-४ १-१० १-२९ ३-५७ १-५१ १-५२ ३-२४ ३-३८ ३-२३ ३-६० ३-४ १-१२ ३-४३ ३-९ 7-90 ३-४९ 3-5 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिमूलगाथानामकाराद्यनुक्रमः । गार्थाक १-२ २-३३ ३-६२ १-३५ १-१६ २-३१ १-६ गाथा दंसणपुव्वं गाणं दसणमोग्गहमेतं नत्थि पुढवी विसिट्ठो नाम ठवणा दविए ति पञ्चप्पण्णम्मि वि पजयम्मि पञ्चुप्पन्नं भावं पजवणयवोकंतं पज्जवणिस्सामणं पडिपुण्णजोव्वणगुणो पण्णवणिजा भावा परपजवेहिं असरिसगमेहिं परवत्तव्ययपक्खा परिगमणं पजाओ परिसुद्धो नयवाओ परिसुद्धं सायारे पाडेक्कनयपहगयं पिउ-पुत्त-णत्तु-भव्ययपुरिसजायं तु पडुच पुरिसम्मि पुरिससद्दो बहुयाण एगसद्दे गाथांक | गाथा २-२२ बंधम्मि अपूरन्ते २-२१ भण्णइ खीणावरणे भण्णइ जह चउणाणी भण्णइ विसमपरिणयं भण्णइ संबंधवसा ३-३ भई मिच्छईसणसमूह१-८ भयणा वि हु भइयव्वा भविओ सम्मइंसण१-४३ मइसुयणाणणि मित्तो मणपजवणाणतो मणपज्जवणाणं दसणं २-१८ मूलणिमेणं पजव३-१२ रूआइपजवा जे देहे २-११ रूव-रस-गंध-फासा ३-६१ लोइयपरिच्छयसुहो वंजणपजायस्स उ | विगमस्स वि एस विही १-३२ सब्भावाऽसब्भावे ३-४० सम्भावे आइट्ठो गाांक गाथा १-२० समयपरमत्थवित्थर २-६ सम्मण्णाणे णियमेण २-१५ सम्मइंसणमिणमो ३-२२ सवियप्प-णिवियपं ३-२० । सव्वणयसमूहम्मि वि साई अपजवसियं ३-२७ साभाविओ वि समुदयकओ ३-४४ सामण्णम्मि विसेसो साहम्मउ व्ब अत्थं २-२७ सिद्धत्तणेण य पुणो सिद्धं सिद्धत्थाणं सीसमई विष्फारण मुत्तं अस्थनिमेणं १-४८ सुनम्मि चव साई सुह-दुक्खसम्पओगो सो उण समासओ च्चिय १-३४ संखेजमसंखेनं ३-३४ | संतम्मि केवले दसणम्मि १-४० हेउविसओवणीअं १-३८ | होजाहि दुगुणमहुरं २-२ २-३६ १-१ ३-२५ ३-६४ २-७ १-१८ १-३० २-४३ ३-५८ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-दिगम्बरजैनाचार्यैः खे खे ग्रन्थे समुद्धृतानां यथोपलब्धानां च सन्मतिगाथानां सूचिः । पञ्चवस्तु सन्मति जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण सन्मतिप्रकरण विशेषावश्यक सन्मति. १,११ गाथा २५४८, ३,५३ १,१९ १९३५ २९४० १५ २,१५ २,४३ ७७४. २२६५ । ३,५२ हरिभद्र हेमचन्द्र प्रमाणमीमांसा गाथा १०४९ पृ० ४० उपदेशपद पृ० १४० मलधारी हेमचन्द्र दशवै. टीका सन्मति विशेषाव. टीका पृ० ३२ ३,५२ पृ० ३३ १,४७ १३४६ शीलाङ्क आचारागटीका। मल्लिषेण पृ० ८० स्याद्वादमञ्जरी पृ० २११ ३,५२ २१०४, १,१८ ३,४९ २१९५ ८५ सन्मति सिंहक्षमाश्रमण सन्मति. सन्मति. नयचक्रटीका १,२१ (लिखित प्रेसकोपी) १,१२ १,३१ पृ० २ ३,४५ १,४७ ८ १,३१ १,२८ ३,६९ १२. अने १०३२ ३,५३ १,३ १,२२ ६६० ७४८ १,२३ १७१ सत्रकृतागटीका पृ. २११ सन्मति. विद्यानन्दी तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ०३ 3 १,४७ ७६० १,२४ ९२८ । १,२५ सन्मति अनन्तवीर्य सिद्धिविनिश्चयटीका (लिखित) पृ. ३२४ ३,५० १,५ १,५ अने ३,४५ ९०१ । वादिवेताल शान्तिसूरि सिद्धसेनगणी (गन्धहस्ती) सन्मति उत्तराध्ययनपाइअटीका सन्मति तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति १,३ अने १,६ पृ० २१ १,२८ अने १,२० अ० १ सू० ७ पृ०५३ | ३,४७ सन्मति. अमृतचन्द्र पञ्चास्तिकायटीका पृ० २५० Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयोपाध्यायैः स्वरचिता अनेके ग्रन्थाः सन्मतिप्रकरणमाश्रित्यैव कृता इति सूचनाय तत्तद्वन्थोद्धृतानां सन्मतिगाथानां सूचिः । २५६ प्र० | १,३५ सन्मति १,९ १,४७ १,३७ १,३९ १,११ १,४९ १,१२ ३६ प्र. १,८ २६१ द्वि. " १,१० २७४ प्र. २५ प्र० २६१ द्वि० २३५ प्र० | १,१४ २२३ द्वि. १,१५ ५८ प्र० १,१६ २६१ प्र. २२१ द्वि० १,२२ २२० द्वि. १,५३ शास्त्रवार्तास० टीका | ३,५७ पृ. २५२ द्वि०३,३८ ११५ प्र. २५३ प्र. ३,१० ३,३९ २३१ द्वि०३,३ ११५ द्वि०३,१२ ११६ प्र. ३,४० ११५ द्वि० ३,२७ २५८ प्र०३,४४ २४२ प्र० ३,८ २३० द्वि० ३,३४ २४३ , ३,३३ २३० प्र०३,५६ ११६ प्र. सन्मति. २३१ द्वि. | १,१३ ११६ प्र. १,३१ २३१प्र० १,४१ २२४ प्र. १,१५ २५८ प्र. १,५३ ११६ प्र. ११५ प्र० १५३ द्वि० १,५० १,४४ १,६ १,२८ २५६ प्र. १,२१ १,५२ १,१० १,५१ १,९ १,१२ १,४३ १,५४ १,४८ १,४० १,४८ २,३५ १२३ , द्वि० नयोपदेश | १,२५ पृ० ३५ द्वि. ३ द्वि० १,२७ १३ द्वि० | १,२८ ३६ द्वि० १,५ ८८ प्र. १,४१ ३५ द्वि०१,५३-५४ २८ द्वि० १,३६ | १,३७-३८ | १,३९ १,४० ३५ द्वि० १,४१ ३० द्वि०३,४९ १५ द्वि०३,५-६ १२ प्र० ३,७ ३,८-१५ ३६ प्र. ३,३९ ४३ द्वि. ३,३३ ९२ द्वि० ३,१२ ८९ प्र० | ३,१९-२० १३० १३२ १३३ १३४ १३५ ३,३९ ३,३२ ३,५३ ३,३१ ३,२९ ३४२ प्र० , द्वि. ३६ प्र. २१९ ७९ द्वि० १,३४ २६० प्र० २५९ द्वि० १४० १४१-१४३ १५३ १५३ ३,४७ १५४ ८९ द्वि०३,२१ ३,१४ ३,१५ ३,४७ ३,५० ३,४८ ३,११ ३,१३ ३,२८ ३,३५ २६१ द्वि. २६१ द्वि. २७४ प्र०३,५४ २४ द्वि० ३,२८ २७४ प्र. ३,६ २६१ द्वि० ३,२५ सन्मति. २५९ प्र० ३५ प्र० | १,४ १५६ १५७ ३,२२-२३ १९ द्वि. ३,२४-२५-२६ १५ द्वि० अनेकान्तव्यवस्था ३,२८-२९ (लिखित प्रेसकोपी) पृ० २० । ३,६७ १५८ सततकासा) ३.३०-३१ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति. १८ १,३५ २,१२ , २ २,३ २११ २,३२ २,३२ ३ १६ दि. ३.३४ २,२४ ९ २०-२३ महावीरस्तव पृ० ५४ प्र. ४२ द्वि. १६ द्वि. १,८ यशोविजयोपाध्यायैः स्वमन्येषूद्धृतानां सन्मतिगाथानां सूचिः । ज्ञानबिन्दु | २,११ १५८ प्र. ३,१३ पृ० १५२ द्वि० | २,१५ १५९ प्र. | ३,३८ २,२७ १६२ प्र. । ३,१० १५८ द्वि० १५४ द्वि० २,२६ १६२ प्र० ३,१२ १६३ द्वि० १६१ द्वि० ३,३३ १५५ प्र० १५६ द्वि० सन्मति. १५९ प्र० १५७ प्र. १,२८ १५६ प्र. सन्मति. द्रव्यगुणपर्यायनो रास १६० द्वि० ढा० १३ गा० १० ३,२९ १६१ द्वि० १५८ प्र. १६२ द्वि. २,३५ १४-१५ ३,२५ २,३६ १६२ द्वि० सन्मति. १४-१५ १,३ १६२ प्र. १६१ द्वि० ३,३७ १२ ३,४८ १५७ प्र. ३,३२ ३,२७ १६१ प्र. सन्मति. १६. द्वि. ३,६७ १५९ प्र. ३,१५ ३,५४ १६० प्र० ३,११ ३,२७ २,२० २,२३ १,४७ १.४१ ५६ प्र. ५४ द्वि. धर्मपरीक्षा २,१९ २,२८ २,३० २,२९ २,२५ २१ २४० १,२८ गुरुतत्वविनिश्चय पृ.१२ द्वि. १८०प्र० १७ द्वि० २,१६ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः । ന ന ६१६ अगई ന ६४० - ന ന س ന ന س ६१८ ന س م ६३४ ന ٹی ന س ന مه له ന میں م ന م ന ന काण्ड गाथा शब्द व्या. पृ. शब्द काण्ड गाथा व्या. पृ. अणेग ३ १२ अंतरेण अणेगकरणं ३ १२ ६४५ अकुसला अणेगन्ते १ १४ अक्खर्य २ १७ अणेय १ ४२१ २२ अणेयलक्खणगुणा १ २२ ४२१ अग्गहणं २४ अणोवम अबक्खु अणोवमसुहं १३३,१५. अजुतं १ १८,४७ ४१७,४५२ अणण्णो अण्णं अणत्थंतरं ६३५ अण्णत्तं अर्णत २ ४३ ६२५ अण्णयरे ४५६ अणंतकप्पं ६२५ अण्णवादो ६३८ अणंतकप्पा ६३० अण्णा अणंतगुणकालयं २० ६१७ अणंतगुणो ३ १३ अण्णायं १२,१३ अणंतं १४,१७,३७ ६१६,६२३ अण्णे १ १५ ४१६ अणाइ ३७,४१,४२ ६२३,६२५ अणाइणिहण ६२४ अण्णो १,३ ४४,५२ ४५०,४५५ अणाइणिहणो ६२३ ६२३ अणाइनिङ्गो २ ४२ ६२४ ३ ५२ ७१० अणागयाईयविसयेसु २ २५ अण्णोण्ण ७२५ अणागय १ ३१,४३,४४, ४४९,४५० अण्णोण्ण १ २,३,२१,२३, ४६ ४७,४८ अणागयवयगुणपसाहणं १ ४४ ४५० २ १६ अणागयसुहुवहाणत्थं १ ३ ३१,४९ अणागारं २ १४ अण्णोण्णणिस्सिआ १ २१ ४१९ अणायार अण्णोण्गनिरवेक्खा ३ अणावरणं ६१६ अण्णोण्णपक्खणिरवेक्खा १ २३ अणिच्छियं ७२६ अण्णोण्णविलक्खणा २ १६ अणियमा ६४१ अणु ६४६,४८ अण्णोण्णविसे सिया ३ ३१ अणुगया अण्णोण्णाणुगया अण्णोण्णाणुगयाणं १ ४७ ४५२ अणुगयाणं अतीत अणुत्तरं अतीताणागयदोसगुणोअणुप्पन ४०९ दुगुंछ गऽम्भुवगमेहि ४५० अणुमयं अत्तुकोस ७३२ अणू | अत्तुकोसविणट्ठा ന ന awr or ४४९ ६४० २१० ४२१ ६४० ४५३ 10mmm amom orma ६४८ ३ ७३२ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः। शब्द व्या.. अत्थ काण्ड गाथा व्या. पृ. १ ३०,३१,३४,४१ । २ १,२७,३६ ६२३,६३०, ७४६ शब्द काण्ड गाथा अपच्छिम अपच्छिमवियप्पनिव्वयणो १ ८ अपज्जवसियं ७,३१,३४ ६०७,६२१ ന २ ന Gr ४१८ ४१८ ६४१ ६२२ ന अत्थउवलंभो अत्यं अत्थओ अत्थगई अत्थगई अत्थगओ अत्यणिअओ भत्थंतर ന ന ६१८ . ന " M " ന ४४९ ६२० ന or morama orarror or or mamm or ६२० ന ३ अत्यंत अत्यंतरभावगमणं अत्यंतरभूएहि ന ४५३ ന ന अत्थनिमेणं अत्थपज्जया अत्थपजाए ३२ ന ന ६४३ ന ന अत्थपज्जाओ ४४० به هم . ന भत्थपडिवत्ती २७ ६१९ अपनवेसु १७३ अपरिणअ अपरिणउच्छिण्णेसु अपरिसुद्धो १८ अपुढे अपूरन्ते अप्पियं अप्पुट्ठा अप्पुढे ३५ अभंतर अभंतरओ ४४१,४४२ | अभंतरविसेसो ४४६ अब्भुवगमेहिं ७४५ अभविया अभिणियोहे ४४४ अभिण्णकाला ६३० अभिणं अभिण्णो ४५७,६२३ अभीरू अमयसारस्स अमुत्ता ६१८ अमुत्तेसु ७४६ अयं २८ ६१९ अरहा ७,१४,३३४०७,४१६ अरिहया ३७,३८,४० ४४०,४४६ अलक्खणं ४२,५० ४४७,४४९ अलिए ४५३ अवत्तव्वं ४,५,१३,२२, ६३०,६३५ अवत्तव्वयं २६,५५ अवत्थु ७१८,७१९ अवमणता ४२३ अवलंबमाणा अवसेसो ३१ अवहि ३० ६४० अवि १२,१३ अविकोविय ६४० अविकोवियसामत्था अविणटुं ६५१ अविणास ന २४ ६३८ ന ന अथम्मि अत्थसंपायणम्मि ६३८ ന २५ १३,१५ ११ अत्था २ भत्थि ६३५ ४१५ ३८,३९ normorarororormarwaror ४४७ ४४२,४४७ ४०९ ६३८ ६०५ ४०७ अत्यो ६२३ ६३०,६३५ अदवियं अदव्वं अदिळं अन्नहा अन्तो अन्नो armernaror ७१८ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिमूलगाथागताः शब्दाः। काण्ड गाथा व्या.पृ. व्या. पृ. ७१८ للع سم १७३ ६४० ६०९ ४२९,४४१ ४४० م م ६५१ ६५३ ६४१ س ६३९ [ शब्द आएस आएसविसे सियं आगम आगममेत्तत्थ आगममेत्तत्थसाहओ आगमिओ आगमे आगासाईआणं आणं आयरिय आयरियधीरहत्था आया आरद्धे आरद्धो आवरण आसायणा س ६१८ ६१६ ६२० س س शब्द काण्ड गाथा अविणासधम्मी अविणिच्छओ अविभत्ता ३ २८ अवियत्तं २ ११ भवियप्पं १ २९,३५ अवियप्पो अविरुद्धा अविरोहण अविसए अविसिट्ठा २ १८ अविसेसओ अविसे सियं असंखेनं असम्भाव असम्भावपजवे असम्भावे असन्भूयं असमत्था असमाण असमाणग्गहणलक्खणा ३ असरिस असरिसगमेहि असवाए असचाया भह २६,३७ २४,३९ ६२४ س ६२५ مم १ २९ مم ६०६ مم ४४७ ७२६ आसि سم سم سم اسم لم इअ ६२३ इच्छंति २ ३ ६३० ३४,३६ ६२२,६२३ ८,२९,३८ ६३३,६४० له له س له م ७२५ ४२२,४४६ ६१८ इणमो इन्ति ६२३ ७३२ ६१९ م سه له س س २८ __ १८ س इंदिय इंदियगयं م १० ६०८ م ع ४५२ ६२२ م अहवा अहिगम्मस्स अहिगय अहियम्मि अहिगयसुत्तण अहिगयस्स अहेउवाभो ه م س इय س ६३६ ७४६ ४५० ص ه م م س ४२२ ६३८ اس ६५० ४३ आ __ २५ م १ ५,६,९,१६, ३४९,३७९, ३२,३४४०८,४१६, ४४६,४४७ १ ३ ३८,३९ ११ ६३० २ भाई आइट्ठो आईणं आईया आईहिं आउंचण आउंचणकालो आउय nama २,१६,१७, ६१६,६२२, १८,३३,४१ २३,३२,३४, ६३८,६४३ ४३,४८,५१ ६४०,६५६ ६३६ ६४४ ६२४ | उाहरणमित्तं Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द उच्छिष्णेसु उच्छेअ उच्छेअवाईआ उत्सु उज्जुसुयवयणविच्छेदो १ ५ ३ २९ ३ २९ १ २१,२८,३०, ४१ ३१०,१६,२१, ૪ ३४ २ ११ ३७ ३७ उ उण उसूणा उ उप्पनंति उप्पज्जमाण उप्पजमाणकाल उप्पण्णं उप्पण्णो उप्पाओ उप्पाय उपायइभंगा उप्पायत्था उप्पायत्था कुसला उप्पायंतो उपायं उप्पायसमा उप्पाया उप्पायाई उभय उभयत्थ उभयवायपण्णवओ उभयहा उयाहरणं उलूएण उलूया उपउतो काण्ड गाथा १ १९ १ १७ १ १७ १ उपएसम्मि उवओगा उवओगो १ ' ३ ३ vorm m ३ २ २ ३ mr mar १ १ १२ ३ ३ ३ ३ ३ ३८ m m mov ३ १ २ avor or or or চr ३८ ४१ ३ ४१ १ २ ३ ३ ३७ ३६ ९,३१ २ ३ १ ९९ सं० १० 2 2 १२ રૂઢ 6 w ६०८,६२१ ३२,४०,४२ ६४१,६४९ ६५० ३५ १६ ४० १६ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः । व्या. पृ. ४१८ ५० २९ २६ ३१७,३१८, ३४९,३६६, રૂપક ઢ ३१७ ६४० ६४० ४१९, ४२९, ४३० ६२४,६३६० ६३७,७४६ ६२२ १७३ ४०९ ६४५ ६४५ ६४५ ६२३ ४१०,४१५ ६४६ ६३१ ६४६ ६४९ ६४९ ६४३ ६२४ ४१६ ३८,३९,४० ४४६, ४४७ ३९ ६२३ ६५६ ६२० ૬ ६०८ शब्द उवगयाणं उवणीओ वणी उवणीया उवलंभो उववणं १ ३ ३ २ २ उदसमियाई २ २ उपसमिया भावं उपसमिबाईलक्खणवि २ सेसओ उवाओ उस्सग्गओ एए एएस एकसम एण एग एगगुण गगुणाईया एगगुणो एगदवियम्मि एमदवियस्स एगंत एतणि व्विसेसं एतपक्पडिसे एगंता काण्ड गाथा १ १ एगयरम्मि एगविभागम्मि एगसद्दे एग समयं तरुप्पाओ एमसमयमि mm ३ २ ३ ३ २ ' ३ ३ एगंतिओ ( एगत्तिओ ) ३ १ एगं तुच्छेयम्मि एगंतो ३ एग पुरिससंबंधो ३ २ ३ ३ ५५ ४१ R ३ १ २ १ २ ३ ३ ३ ३. ' ३ ३ २ २ ३ २६ २२,५८ ए ५१ २७ ३३ ३६ २ ३६ १२.१५ ५५,५७ ५३ १० ३१ ६ ६ १३ ३१ ४१ ३९ ३९ १४ ५३ ६८ ३३ १८ २२ १७ २७ ४० ३१ १२ व्या. पृ. १३३,१५० १६६ ६०८,६२१ १२,३१ १७,४०, ४१६३६,६४९ ૬૦ ४१ ६३७,७१६ ७०९ ६२२ ६२३ ५९६ ६२३ ६४९ ४१५,४१६ ७२५ ४५५ ६०८ ४३० * ६३५ ४३० ६४९ ६२७ ६२७ ६२३ ४१६ ७१० ६४१ ४१७ ६३१ ६३५ ६१९ Ers ६४९ ६२१ ६०९ ६४९ ९ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः। शब्द व्या. पृ. হাৰ काण्ड गाथा व्या. पृ. काण्ड गाथा ३ १७ एगस्स कप्पा एगे कम्म ४५३ १ १९,५१ م ४१८,४५५ ७१८ س २ २ ६१८ २४ २१ १० एत्तियं एत्तो एत्थ مه ६१७ ६३४ ६१७ कयं करण करणं करणविसेसेण ३ १२ ع ع ४५३ م करेइ مم ع एयंत ३ २,१६ ur ७१८ ع س سم م ७२६ १ १९ ४१८ कसायवसा कस्स कह م ६०८ एयंतपक्खवाओ एयंतविसे सियं एयंतासम्भूयं ع س १३,३७ ६०९,६२३ م س ع س ६३८ एवं مم ४१० ६२८ ७२६ १२ १,१५ ४५७,६१० ३,१५,१६, ६२८,६३६ २१,२२ ६३७,६५६ २५ २५ س له س ६५० سه س س १ १०,२४,३५ ४०९,४२१ ७१० कहा कहामुहं काय कायमणवयणकिरियारूवाइगई विसेसओ कारओ कारण कारणं कारणेगंता काल कालंतरं कालं कालम्मि कालयं काला कालो काविलं سر مهم س ७१० م १२,२३ ६३१ ४१,४९ ४४८,४५३ १०,२३,२४ ६०८,६१८ ३१,३२,४१ ६२१,६२४ २३,२५,२७ ६३८,६३९ ६४० १६ ३७९ ६२३ اس مد سع ع س ६४४ ७४५,७२७ س س * १९ س * س هه ३६,५३ ७११,७१७ س م ४८ له و एसो ४५७ س ओ २१,२३ س २ ६७,६१८ س مم किरिआ किरिआमित्तं किरिआरहिअं किरिया سم ओग्गहमेत्तं ओघ ओहि ओहिण्णाणस्स ओहिण्णाणे ओहिमणपजवाण له مع ४५३,६५० سه २९ ६२० السلع ى ६२० कुण ४२ ४३,५२ १८ ४४९,४५५ १ २ له ر س कओ ७१८ سه २५ ६३८ ३ ३१ اس कडो ४४ ६५१ कत्तो कुंभदवियं कुंभो कुल कुसमय ام २७ ع مم ممر اس कप्पं ६२५ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द कुसमय विसासणं केद केई केचि केण केवलगाण केवलणापदंसणा केवळणा केवलभाव केवलं केवलाण केवलि केवलिणो केवलिपज्जाओ केवली केवले कोई कोवं क्सए क्खय खितं खीणावर णिज्जे वीणावरणे गई मपरिग गभ गण काण्ड गाथा १ १ २ केवलणाणम्मि केवलणाणावरणक्खय २ केवलणाणावरणक्खयजायं २ २ २ गमविसेसा २ ३ २ ३ الله ل ل له ३ २ २ २ WWWWW २ २ 'rm rrrrr mor ३ २ २ २ १ २ ३ २ २ ३ ३ ३ ३ १ ३ AAAA ३ 쇠 ३ ३ ६ २ २ ३४,३६ ८, १९ ४ ३८ ५८ ग २० ३,१४,३४ ३७ ३६ ६१७ ५९६, १२२ ६२३ ६४७ ६०६ ६०६ ६२३ ५,७,१७,३६६००,६१६ ६२३ ६१७ ६२२ * ६२४ ६०९,६२० ६०७ ४०८, ४५५ ६२४ ६३१ ३७ २०, २१ ३५१ २३ ४१ १२,३० ८ ९,११ ४० ६,११ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः । २९ ३० ६६ व्या. पृ. ६५,६६,६७ ६८,६९,७७ ६२२,६२३ ६३३,६४० ६ ६०५ ६४६ ७२६ ७२ ६,२९ ६३० २९ ६४० २९, ४२, ६४ ६४०, ६५० ७४६ ६४० ६०७,६०९ ६०७ ६३० | गुण -- शब्द गये गण गुणडिव गुट्टियणओ गुणणिव्वत्तिय सण्णा गुणपविद्वाणं गुणलवणं 1 गुणविसेसे गुणविसेसो गुणमण्णा गुणस गुणस | गुणा | गुणो गोयम गोयमाणं गहण B गुणविसेमभागपडिबद्धा १ ३ हाह घडादओ घटो वेण्यइ च चणाणि काण्ड गाथा ३ विभागो ३ १ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ १ ३ १ ३ ३ २ ३ २ २ २ ३ २ १ २ ३ २ २ घ च १८,६१ ६४ २४,४३, ४४,४६ ६,८,९ 3* १० १० ३० ४३ २३ २४ १० १०,१२,१३६३५,६३० १६,१९,२३६४० १३ ९ १४ ९,१५ २२ २४ * ११ ११ १ ८ १४ २४ २१ ५२ २४ व्या. पृ. ६३६ ૪૬ ४४९ ૩,૬૨૪ १५ १७ * ** ६४० ११ ४४९ ६३८ ४२१ * ६३५ ૬૨૪ ६३५ ६२४,६२६ ४२१ * ६३५ ६३५ ४५७ ६११ ६०९ ६१९ ६१७ ७१० ૬૧૮ २४,२७,१८ ४४७, ४५५ ३९,५१ ७,१२,१३, १०९,६२०, ३०,३१,३३, ६२२ ૪૩ १,२,३,११ ६२७,६२९ ३४,३५,५९ ६३५,७१६ ६०,६८ ७२७ ६१० ६१६ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः। काण्ड गाथा व्या. पृ. | शब्द २ २० ६१७ जह २ २० २ काण्ड गाथा व्या. पृ. १ २,१५,२२, १७३,४१६, २४,४२,४३, ४२१,४४९, ४५,४७, ४५०,४५२ २ ६,१५,२१, ६०७,६१०, ४०, ६१७,६२४, ३ १५,१८,२७,६३६,६३८, ६१७ ६१८ २४ चक्खु चक्खुअचक्खुअवहिके. वलाण चक्खुम्मि चरणकरण चरणकरणप्पहाणा चरणकरणस्स चरिएण चेव जहंति २४ ४२१, ४,३०,६१ ६३७,६४०, ७३२ ६१ २५ س चेवा(व) च्चिय س २५ ४२१ १ १ २४,२७,५२ ४२८,४५५ २ ७,२१६१७ जहा ३ ३ ९,१५,२५,२६ ६३४,६३६ २९,३२,३६ ६३८,६४० । जहागमविभत्तपडिवत्ती ३ जहाणुरूव १ जहाणुरूवविणिउत्तवत्तव्या १ जहिं ५४,५५ ७१८ जहेव २ २ २७ ६१९ ३ २८ ६३९ जाइकुलरूवलक्खणसण्णा२ १०,२३, ६०८,६१८, संबंधओ ३ २०,२४,४०, ६३७,६३८, १७.६३८, जाओ २ ५८, ६४९,७२६, जाणइ २ س १४,१५ ४२३ ६१० ४५० छउमत्थे छक्काए orrorm जाइ जइ م ४५० ४० ع س ६४८ سه जइयव्वं जइया ४,१०,१३, ६०५,६०८, ३० ६०९,६२० ر له जाणओ مم १८ م س م ३५० م १,२५,२८, ६१९,६२० २९,३०,४२, ६२४ ३,६,११,१९, ६२८,६२९, ३०,४८,४९, ६३०,६३५, ५१,५२, ६४०,६५६, ७०४,७१०, ३ १३६३५ २,३२, १७३,६४१ ३ ३२ ६४१ जाणणा जाय जायं م م ي س مم لم ४० ६२४ م م لسع जंपन्ति जण जणिओ जणियम्मि जम्म जम्ममरणदुक्खं जम्माई जम्हा ४०८ जायसद्धो जाव जावइया जावंत السلع ६३८ ३ २३,६८, ३६८ س م مم ६५५ ४५२ ६३८ ६२१ १ ३ २ जिण ४. २६,६९ ३२ مم २ १७,३७ ४४६ १७,२६,४१, ६१६,६१९, जिणपण्णते जिणवयणस्से जिणाणं م س م ३ १ ८,५,२६, २९,४३, ६८,६९ ८,१२ ६३३,६३५ ३८,३९,४०, ४४६,४४७, जस्स Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द जिसे जिणो जिणोवएसम्मि जिव्वंतो जीव जीवदवियं जीवदवियम्मि जीवद्दव्वं जीवपज्जाया जीवरस जीविय जीवो जुबइ जुजए जुजंतो जुतं जुतो जे जेण जो जोग जोगनिमित्तं जोगसिद्धी जोया जोव्वण जोम्बगत्थो काण्ड गाथा २ १७ २ २ ३ ३ १ २ ३ ३ १ moro or २ २ ३ २ AA २ ३ १ २ १ ३ २ २ ३ * २ ३ २ १ ३ २६ ५८ ૪૮ १ 31 ३१ ४८ ४१ *? ४६ ४१,४२,४३ ६२४ fro ६४० ४५३ ६२४ ६२५ ४५० ६३१ ६२४ ६२३, ६२४ Evo ४५० ४२ ३७, ४२ 21 ४४ ५,१०,११, ६१६ ३ २१,२२,४०, ६३७,६३८, ५२ ६४९ १८ १० २४,२६ ३२ ३६ ३५ ५० १४ १९ 2 x x x x x १९ ३१,४८,५३४५२, ४५५ ६२२ ७०४ P १ ४९ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः । १९ व्या. पृ. ६१६ ६०७ ६०५ * ७२६ ६०६.६०८, १५,१७ ६०९,६१०, ४१६ ६१७ २७,३२,३५, ४२३, ४४० ५२ ४४१,४५५ १६,३६,४५ ६२६,६४४ ६५१ ३२ १ ४३ १ ४४ ४१७ ६३४ ६१८,६१९ ६२१ ६४४ ४१८ ४५० शब्द डि ch ठवणा ठाणं ठाणाई ठिई ठिईउ ठिई जम्मवियमा डहरओ ण एहि ओ णणु णतु परिष वाण्ड गाथा १ ' १ १ ३ १ २ ३ ५४,५५ ३ २३ ३ ४१ ३ २३ ३ ३ १ ३ ३ ३ १ २ ट ३ 5 ड १२,१९ १९ ण ६ १ १९ व्या. पृ. ४१८ ४१८ १० २०,४० १७ ३७९, ३८७ १३३,१५०, १६६ ७१८ ઢ ६४९ * १३ ६३७ ९,१४,१७ ४०८, ४१६ १८,२२,२५४१७, ४२१ २७, २८, ३५ ४२८, ४२९ ४२,४४,५० ४४१, ४४९ ५१ ४५०, ४५३ ४५५ ४० ४,६,१०,११६०५,६०७ १५, १७, २४ ६०८,६०९ २६, २७, २८ ६१०, ६१६ ३४,३५,४२ ६१८, ६१९ ६२२,६२४ ६३०,६३६ ५, १०, १७ १९,२१,२२ ६३७,६३८ १६,३१,३६ ६४०, ६४४ ३८,५२,५४ ६४६, ७१० ६३ ७१८,७३२ ६५६ ४९ ३,९,१४,१६४०८, ४१६ ६३४ ६३७,६४९ १२,१६,१९४१०, ४१६ २०,३७,३९ ४१९, ४४६ ४४७ ८,९,१९,२२६०७, १०८ ६१७ २४,२५,३६ ६२५,६३०, ५४ ६४४,७१८ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः । शब्द काण्ड गाथा व्या, पृ. काण्ड गाथा व्या.पृ. णय १ ८,१६,२५ ४२ ७१८ ४४१ | शब्द णिच्चो णिच्छएण णिच्छिओ णि द्दिढे णिहोस णिमित्तं ന ७३२ २१ २ १९ ६१७ णययाइ णययाइविसेसगओ णयवाय णयवायगहणलीणा णयवाया ७४६ ന ന mmmmmorror ന ६१७ ന २ २७ णयस्स ന ७४६ ४२१ ४७ ५,१०,११ १७,४२,५२ १३,१५,२१ ४१९,४२१ २३ १० ന णया or ന ३ णयाण مم णि मित्तो णिमेणं णिय णियआवरणक्खय णियआवरणक्खयस्संते २ णियई णियएहि १ णियओ णियत्तेइ णियम २ णियमओ णियमपरित्तं २ णियमा १ ४४२ ४५७ ه २ १ १ १५ णयाणं णराहिवो णवरे णाण २१० ६०६ ५ ६०६ ७१० ३६ ४४६ ६२८ १० ६२४ १४ २१० ५२, १५,१९,३० ६१०,६१५, ६२०, ४१,४४,६३ ६४९,६५१, م س م ६३५ ९,१६,१७ ६१५,६१६ २२,२७ ६१७ morormato w morn णाणणिमित्तं णाणदसण णाणदंसणजिणाणं २ २२६१७ २१७६१६ ३ णा - mror २ - १,३,५,१९ ४५७,४५८ |णियमेइ २१,२२ थी५९५,५९६ णियमेण २३,२४,२५६०६,६१७ २ ३३ ६२२, २६,३० ६१८,६१९ ३ ५,२८,२९ ६३०,६३९, ६२० ६४० ५९६,६०७ णियमो १३९ णियय २३,२८४२१ २२ ६१८ णिययवयणिज २८ ५९६ णिययवयणिजसच्चा १ ४२९ ४०८ णिययवायसुविणिच्छिया १ २३ ४२१ ७३२ णियया ३ ११ ६३५ णिरयिसओ जिरवेक्खा १ २३ णिवण्णणा २ २१ २९,३४४२९,४४० णिव्वत्तिय णिव्वाणं ३ ५४,५५ ७१८ १८ णिवियप्पं ३३,३५ णिवियप्पो १ ४१ ४४८ णाणस्स णाणाइपजवा णाणाण णाणे णाम णाम णायव्वा णिअओ णिच णिचं - س ബ Urm س ബ - م - ه - س - سه مم - १ णिचवाय णित्रवायपक्खम्मि १८ ४१७ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः। काण्ड गाथा व्या. पृ. शब्द ६२७ ४०७ काण्ड गाथा व्या. पृ. ३ १८,४६९,६६ ६३६,६५७, १५६१० ३ २९,३०,५८ ६४०,७२६ तहा - - م निव्विसेसं हिस्सामण मिस्सिा णिस्सियं णिहणं णिहणो णी س - तहेय तहेव - - ് १५,२४६१०,६१८ م م س مه س जेव ന ताव ന ६३४ तावइयं ६३८ ४५३ ६१९ णोइंदियं णोइंदियम्मि ന مه له ന त ന ४१६, तइओ तइगुणो तइआ तओ ३,७,२३, ५९६,६०७, २६,३१, ६१८,६२१, ३३,३४,३९ ६२२ २३,३१, ६४०,६४५, ३७,३९ ६४६ ६४६ ന م سه ر له س س ६२२, ന तत्तो ७,३९, ६३१,६४७, ३ ന ३७ तिअणुयं तिकाल तिकालविसयं तिण्णि ന तत्थ २४ ع سم ന तिण्हं ന तित्थयर ६४१ २७१,४५५ ന २७१ तित्थयरवयणसंगहविसे- १ सपत्थारमूलवागरणी तित्थयरासायणा तम्मि तम्हा arma. a ३२,४३ ६५० २,२७,३१, १७३,४२८, ३७,३८, ४४६,४४७, ३९,४०, ४४९,४५२, ४२,४७, ७,३० ६२०, १४,२२,२३,६३७,६३८, २६,२९,५८ ६४०,७२६ ४ ९,१३,२१ ४०८,४१५, ४१९ ८,१७,२८, ६०७,६१६, २९,३०,३८ ६१९,६२०, ६२०,६२३ ८,१३,३१, ६३३,६३५, ६५ ६ ४०,७४६ ६०५ ६२१ तित्थयरासायणाभीरू २ तिस्थिय ति विह ४९ तिविहजोगसिद्धी तीय __३१ तीयाणागयभूया तीसइ तीसइवरिसो ४० ४३० ३ or orarorm ६२४ तयं तव्वाओ तस्स mm or १९,२२,३६ ६१७,६२३ २ तह ४,५,३२,४५ ३४९,४३१, ४४०,४५०, ३६,४१ ६२३,६२४ १०,१५,२३, ४१६,४२१, २५,४६ ४५० ५,६,१४, ६०६,६०७, ३९,४३ ६२३,६२५ ! or १४,१६, ६४० १९,३० ३३ ४४० १५,२४,२७,४१६,४२१, २८,४८४२३,४२९, or ४५३ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः । काण्ड गाथा व्या.पृ. शब्द दसणसद्दो २ काण्ड गाथा व्या. पृ. २ २०,३१,३५ ६१७,६२१, ६२२ ३ ८,२०,२४, ६३७,६३८, ५०,५१,५३ ७०४,७०९ ७१० २६,४४ ४५० २ २०,२२,२६६१७,६१९ ११,५२ ६३५,७१० ६२२ दंसणस्स दंसणा दसणे २ २८,२९,३२ ६१९,६२०, ६२१ ६०७ १६ ६१५ ५९६,६२२ ६३६ ६.७ तेण दट्ठवं दट्ठव्वयं दट्ठया ६४० तेत्तियमित्त तेत्तियमित्तोत्तणा तेसिं . . mmm . ६१६,६१९ ६४४,७०४ ora Mrmarrm oraram १८,२७ ३६,५० १ १४ २१८ दरिसणं दरिसणस्स दवि दवि दविए दविओवओगो दविय दवियं mom ormronorroror orm ४६ ४५०,४५२ TEE ६,७,९,२४, ३७९,४०७, २६,२७,३३, ४०८,४२१, ३४,४२,४७ ४२८,४४०, ४४७ ३८७,४०६ ४०८ १२ ३७,३९,४०,४४६,४४७, ४२ ४४९ २,२९,३१, ६२८,६४०, ३७६४५ ३१,४८ १२ ४१५ २३,३८,४१, ६३८,६४६ ४२ दवियम्मि दवियलक्खणं दवियस्स ror ४,१३,२१, ६०५,६१७, ४,८,१२,१४६३३,६३५, १७,२२,३९, ६३६,६३७, ४४,५२६४८,६५१ दवियाहि दव्य Morn १,८,१६,२४ त्थंतरभूया ३ २४ व्वगुणजाइमेयम्मि दव्वजायाण दव्वडिओ थोरम्मि ३७६२३ दंसण or orrormorarror ६१७ २७१,२७२, २८५,४०८ २ २ १०,१७,२९ ४०९,४२९ १०,५७ ६३४,७२५ ३१५ ३१५ १ १०४०९ १ १७४१७ दसणणाणाण दंसणणाणावरणक्खए दसणपुव्वं दसणं २ ९,१७,२०, ६१६,६१८, दव्वट्ठिय २२,२८,३२६१९,६२१ ६१७ दव्ववियनय दव्वट्ठियनयपयडी २ २२ दव्वट्ठियनयस्स १ २ ४१९ दव्वट्ठियपक्खे १,३,५,६, ४५७,५९६, | दवट्ठियपज्जवट्ठिया ११,१४,१९, ६०६,६०७, दव्ववियवत्तव्वं २१,२२,२३, ६०९,६१७, २५,२६,२७, ६१८,६१९, । दवट्ठियस्स ३०,३३ ६.०,६२२, । २८ २ २० m ormar १०,२९ ४०९,४२९ ७२५ ६,७,८,११, ३७२,३८६, ५१,५२ ३८७,४०७, ४०८,४०९, दसणम्मि दंसणविअप्पा Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द दव्यत्यंतरभ्या दष्वं दव्यंतर दव्वंतर णिस्सियं दबंतर संजोगा हि दव्वपरिणामं दव्यवित्ता दव्वस्स दव्वाई दव्वाणुगया दब्बे दसगुणम्मि दसगुणो दत्तणं दसमु दहगाद दातो दाइयं दाएइ दाएही दिट्ठ दिसमओ दिट्ठी दुअणुए हिं दुए दुक्ख ● दुक्खंत दुक्तकडो दुक्खं ● दुर्गुछण ● दुगुण दुगु महुरं दुष्णया दुष्णगो दुद्ध दुद्धपाणियाणं दुरभिगम्मा दुवियपो काण्ड गाथा ३ ૪૮ ३ २४ १ ३ ३ ४,६,१८, १९,३०, ६० ૩,૮ ३ ३८ १ १२ २,२३ २७ ८ ३९ १५ १३ ३ १५ ३ १५ ३ ३० ५८ ३४,३६ १ ५४ २८,४५ २८ r or m ३ ३ ३ I or m १ ३ ३ ३ ३ ३ r চম মm ३ ३ २ ३ १ १ १ १ ३ १ ३ ३ ३ ३ ३ ३ १ ३ १ १ व्या. पृ. ६५६ ६३८ १२,३१,३६ ४१०, ४३०, ४४२ ३ ३ १०० सं० ० १३,२१ ३९ ९ १८, ४६ ५१ 56 x ur ४४ ४४ ६८ ४६ १९ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः । १९. १५ vf ४७ ६४ ३२.३४ ६३०,६३६, ६४०, ७२७ ६४६ ६२९ ** ६२७ ४१० ६२७,६३८ ६३३ ६४६ ६३६ ६३६ ६३६ ६४० ७२६ ६२९,६२३ ६२७ ४५६ ४२९,४५० ४२९ ૬૪૬ ६०८ ४१७ ७१० ६५१ ६५१ ६३७ ६३७ ४१६ ६५५ ४५२ ७४६ ९४१.६४२ शब्द दुविहो दुवे दुवेहं दूरे देवाय देवाउयजीविय विसिद्धो देस देखणा देसो देहे दो दोष्णवि दोण्णि दोन्ह दोस दोसे दोहि धम्म धम्मावाओ धम्मी धम्गो धीरहत्या न नरिव नय नवपद नयवाओ नयस्स काण्ड गाथा ४३ १४ १३ ९ ४२ ४२ ६० १२ wo to t १ ३ ∞ or or or २ ३ ३ १ one or m १ T २ ३ mr or a strom r ३ १ ३ २ ३ २ १ १ ३ ३ ४६ २ ४३ ३ ५० ३६ سم سلم سلم سلم ३ ३ ३ १ २ AWA ३ १ Mov mr mov १ . ३ ४० ४८ १३ ३१ १ न ६८ ५६ ४६ ध ६३५ ३७,३८,३९ ४४६, ४४० १०,३१,५१६२४, ६४० ४९ ४१ व्या. पृ. ६५० ४१६ ૪૨ ४३ ५५ १४ ६५ २२,३३ ४२१,४४० १२ ६०९ २८,५१,६४ ६३९,७१० ६७ sri ९ ४०८ ६ ६०७ ६३०,७१० ३ ५,५२ ४१५ ६३४ ६२४ ६२४ ७२७ ६१ rf १० ४५३ ४१५ ६२१ ७१० ७२५ ६५५ ४५७ ७०४ ४४२ ६५६ ६५० ६५० ७१८ १७ L ६५५ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः। शब्द व्या. पृ. शब्द काण्ड गाथा व्या. पृ. नया काण्ड गाथा १ २८ ३ ६८ ३ ११,१४,४८ ४३१,४४० नाणं नामं निक्खेवो पजवजोया पजवटिअस्स पजवट्ठिओ ३७९,३८६ Mornmol ४०८ ५९५ २ निच्छओ निच्छय °पज्जवट्टिया पजवणओ اس ا ام اس م اس निच्छयवयणपडिवत्ति मग्गो निच्छयसुद्धं निच्छिओ निप्फण्णं निमित्तं पजवणय ३ पजवणयदेसणा ३ पज्जवणयमेत्तपडिपुण्णा १ पजवणयवोकंतं १ पजवणयस्स مم ४४१ २ २३ नियत्तेइ مه لسه مه नियम नियमेण २७१,२८५, ३१० ४०८ १२ १२ ६३५ ४२ ८ ४०८ ५,१०,११ ३१७,३४९ १७,४२,५२ ४०९,४१७ ४४९,४५५ ४०७ ४०७ ४२९ ४०९ ४८ १२ ४१० ६३५ ११ ६३५ ११,२७ ४०८ ४०९,४२९ ६१८ ६३४ مه له ه ه नियया निरवेक्खा निव्वयणो निहणो ه ه पज्जवणिस्सामण्णं पजवभयणा पजववत्तव्वमग्गो पज्जववत्थु पज्जवविअप्पो पज्जवविउयं पज्जवविसेससंखाणं पजवसण्या पज्जवस्स ०पजवा س ६४१ पओग पओगजणिओ पक्ख س ६४१ م १२.४८ ४१०,४५३ س س पक्खम्मि १ १८ س ६२८ س ६३६ पजवाहि पजवाहिओ पजवे पक्खवाओ पक्खा ०पक्खे orror orm or mmm oramm ormanormorrnmororr س س ६२७,६३४ س , पजवेहि पज्जा س ६४१ ७२७ س २८ 'पजाए س ६२० ६३० س पच्चओ पच्चक्खरगहणं पच्चक्खा पञ्चुप्पण्णम्मि पचुपन्नं पज्जएहि पजन्तो पजयम्मि पजया पजाओ س ६२८ ६३० ६२३ ع १ ३२ س पजाय पजायस्स पज्जाया ७२७ ४४० مم पजव مم ७,१२,२९, ४०७,४२९ ३२,४२ ३५,४३ ६२२ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः। शब्द काण्ड गाथा व्या. पृ. काण्ड गाथा ३ ११ व्या. पृ. ६३५ १७३ ६१० ' शब्द पत्थार पन्नवणा مم १ ४२ °पज्जुवासण पंचणाणी पडइ २७१ ४४९ ३१५ °पयडी م °पयुत्तो م पर ६३०,७२६ ७२५ २ ३ १८,३१, ६१६,६२१, ५,२२,३३,४७, ६३७,६४१, ६२१ पडिकुट्ठा पडिकुट्ठो पडिजोअणं 'पडिणीओ 'पडिपुण्ण पडिपुण्णं पडिपुण्णजोधणगुणो °पडिपुण्णा °पडिबद्धा पडिरूवे 'पडिवत्ति سم له سم سم ४१६ ६३० مم مم س २१,२४ ४२१ ६३८ س س س ३६,४६,६१ ७४६,७२२ ४२९ س पडिवत्ती पडिवत्तीविगमे पडि सिद्ध पडिसेहे ६४४ س ३० ६४० م ord ormmmom or or or or or or ormmmm orm marr mmm ormmonorram narar ५०,५४ २,३५, ४५३,४५६, ५९६,६२३, م ५४ س ६३५ س ६२८,६२९, ४४९ पडुच्चवयणं पणिहाणं पण्णत्तं पण्णवओ ३ ४३ १४ س परणिमित्तं परतित्थियवत्तव्वं परपच्चओ परपनवेहि °परमत्थ परमत्थो परमाणु परम्मि परवत्तव्वयपक्खाअविसिट्ठा परवियालणे परसमय परसमया परिकम्मणा परिकम्मणाणिमित्तं परिगमणं परिगयं परिच्छय परिच्छयाणं परिणयं परिणाम परिणाम परिणामकओ परिणामो परितं परिपढिया परिभुजइ परिसुद्ध परिसुद्धो पख्वणः परो पसारियस्स पसाहणं °पसाहा °पहे س ७२६ س ६५१ ३ १ ३ १ س ७२७ °पण्णवण पण्णवणपजा ०पण्णवणा س ४,२२ २७ १ २७ १३,२१ १४ २० ४२२,४२३ س २६,५३, س २१० ७३२ ७३२ س २ س पण्णवणाणिच्छिओ पण्णवणाविसउ पण्णवणिजा س س ६१५ ४५,४८ س ६५५,६५६ ३१५,३७९ ७१९,७२६ س ६४५ س ६४४ पण्णवणे पण्णवयंतो पण्णवेज पत्तेय पत्तेयं पत्थणा م م ४१५,४१६ १ १३,१५ २०४६ ३ १५९ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः। शब्द काण्ड गाथा व्या. पृ. शब्द काण्ड गाथा व्या. पृ. مم مم १ 'पहो °पाडिक पाडिकं ३२ पुरिसम्मि पुरिससद्दो पुरिसस्स पुरिसाउयजीवो مم ४१५ ४३१,४४० ६२१ ६२४ م ७१० ४२१ م पुरिसो م س م ३ ७,१८,१९, ६३१,६३६ م سم ७३१ पुव्व २ ३९ पाडिकसण्णाउ पाडेक्क पाडेवं पाडेक्कनयपहगयं पाणियाणं पारिच्छं पावेजा पावेंति पास ه س ६३५ مه سهم مم ه ६०८ ४४० ७१० مم २३ ع س ७१०,७१४ مم له ४२१ ४४० ४,१३,३०, ६०५,६०९ पुव्वअरं पुत्वं पुवकयं पुव्वपडिक्कुट्ठो पुव्वपयुत्तो पूरेंति पहाणतणेण पहाणा ६२० ه ه س س س ७१० पासंतो له مه له س १३ १३,५४ ४५६ ५,१४,१५ ६०६,६१० ५,१५,२९ ६३०,६३६, ६४० फलं م पिउ س ३ १७० °फासा ع पिउपुत्तणत्तुभव्ययभाउणं س बज्झइ १ ४१८ १९ १९,४६ पिय °बंध م م م ४१८ बंध पिया "पुढवी पुढवीविसिट्ठो पुण ३ ३ ३ ३ १ १७ १७ ५२ ७१० ५२ ४,१३,२४, ३१६,४२१ ३४,५० ४४० ४५५ ४१८ ४१८ ४१९ बंधदिइकारणं बन्धट्टिई बन्धं बन्धमोक्खसुहदुक्ख पत्थणा बंधम्मि ७१० ४५०,४५१ १ २० ४१९ ५,११,३५, ६३०,६३५ ३९,५२ ६४४ ०बहु पुणो पुत्त ३ १७ ४१ ६४९ ६४९ ४३१,४४० पुरिल्लो वहुयाण बहुया बहुवियप्पा बहुस्सुओ बालभाव बालभावचरिएण पुरिस ४३ ४४९ ४५ °बालाइ ३३,३४ पुरिस ३२,३३,५४, ४२ ६२४ १७,५३, ६३६,७१० ७१५ ३३,३५ ४४०,४४१ ४४० ४५६ १८ १८ ४५ पुरिसकालम्मि पुरिसज्जायं पुरिसभाव पुरिसभावणिरइसओ °बालाइभाव वालाइभावदिविगयस्स १ बालाइविय बालाईया बालो ४५० ४५० ४४० ४३१,४४० ४५० ३ ३ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः। काण्ड गाथा व्या. पृ. काण्ड गाथा व्या.पृ. बाहिरओ विति शब्द भविस्से हिं भव्यय भाइ भाऊणं "भाग سه س مه बीयस्स बेति ४५५ ६४६ س ३ १७ २४ भभ भाव م م س भावओ ६३८ س ६२१ भइयव्वा भइयव्यो س م २८ भावगमणं س ६३१ س १३४ भावं س 'भओघ भगवओ भगवया م س م भावमेत्तं भावा ११ ६२८,७२७ ४५५ ४०९ ६१५,६२० س م भंगा भणइ م س ४४० ४३ مه مه مه له भण्ण भावाणं भावे २४ ४२१ ६,१५,२६ ६०७,६१०, ६१९ १२,१३,२०, ६३५,६३७ س له مه ३०,३२ भावो ६२०,६२१ ३७९,४०६, لم ४५३ १२ ६०९ भासइ भिण्ण भिण्णकाला سر اس भणति ६०५ ال س भणेज भत्तीमत्तएण ३५ ६३ ७०४ ४४१ ७३२ भीरूहि भूएहि भूया मेयं له له مه سه سه له مه سم ३५ م م भई Gr س भयह भयणा س भेयओ भेयम्मि س ६३८ ४०१ ४,६,२७,५१ ६३०,६३८, ७०९ ६३० मेया مه भयणागई भयणाय भयणिज्ज भयणोवणीया سم مه له لم ६२२ मइणाणं मइसुयणाणणिमित्तो . भव मई मग्गो २७ ६,२३६०७,६१८ २७ ६१९ २५ २६,२९ ४२९ ४२ १९ ३,१९,२६ ५९६,६१७ ६१९ °मण ६९,१०२ ६२२ ! "मणपजव मणपजवणाणं MNormxxxnx भवजिणाणं भवत्थ भवत्थकेवलिविसेस पज्जाया भवत्थम्मि भवदुक्खविमोक्खं भविओ भविय भवियाभनियादओ ६२२ १ ४८ ४५३ ७१० ३ ४४ ६५१ मणपजवणाणतो मणपजवाण मणी "मणो । मणोविसयगयाण २२,२४ १९ ६१५ ४२१ ६१७ ६१७ ३ ४३ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः। काण्ड गाथा ! शब्द काण्ड गाथा व्या. पृ. व्या. पृ. ६३८ शब्द मण्णता मण्णसि °मरण س ६१८ १ س ६८ ३,९,११, ४०८,४१०, १२,१४,१७, ४१६,४१७, १८,१९,२०,४१८,४१९, २५,२९,३०,४२९,४३०, ३५,३७,३८,४४६,४४९, ३९,४०,४१, ४५०,४५५ ४३१ १७३ له २२ मरणकालपज्जन्तो मलार महग्य महग्घमुल्ला महलो महाणं महुरं ४२१ rumororor ormmmmornmorror ६३७ ૭૪૬ ६३७ मा ०मिच्छ मिच्छत्तं १३ ४२९ ६५७,७१० ४१५ ४९,५०,५१ २ ३,८,११, ५९५,६०९ १४,२४,२५, २१०,६१८, २६,३०,३६, ६१९,६२०, ४२,४३ ६२५ १,१०,१५, ६२७,६३४, १७,२३,२४, ६३६,६३८, २६,२९,३२, ६४३,६५१, ३५,३९,४२,७१८,७२५ ४३,४५,५०, ५४,५५,५७ ३ २५,२७ ६३८ २ १०६०८ मिच्छा २१ २१ ४१९ मिच्छट्ठिी १ मिच्छादिट्ठी १ मिच्छइंसण मिच्छदसणसमूहमइअस्स ३ मिच्छत्तस्स मुकवावारा ३ १ ३ याणंति याणाइ mar ५४,५५ ७१८ मुत्ता ६३८ श्यणावलि रयणावलिववएसं २२,२४ २२ ४२१ mm orm or मुल्ला °मुहं ४२१ २४ २२ २५ ३,५,१३ स मूल ३१७ १५,१६ १३ ४१५ ६२५ aormmar roorMMm रहिअं राग रागदोसमोहा रायसरिसो रूआइ रूआइपज्जवा रूव मूलणया मूलणयाण मूलणयाणं मूलणिमेणं °मूलवागरणी मेतं मेत्तत्थो ६२४ ४५३ ४५३ ३१७ २७१,२७२ ४२ २५ २०,४६ रूवरसगंधफासा रूवाइ मोक्ख or oraror orarmarmornmorror ५३३ १८,२१,४२ ६३६,६३७, ६५० 20 स्वाइविसेसणं ३ रूवाइविसेसणपरिणामो ३ २१ मोक्खसुहपत्थणा मोक्खो मोक्खोवाओ मोज्झं मोत्तूण ४१९ ४१९ ७१८ ४१९ रूवाई ६१८ २२,४५ २५ २८ rm orarm ४२१,४५० लक्खण लक्खणं मोहा ४२९ २३,४४ ६३८,६५१ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द 'लक्खणविसेसओ 'लक्खणा लज्ज‍ लहइ ति लिंगओ "लीण छोइय व ● वंजण बंजणओ बंजगनिअओ वंजणपज्जाए बंजणपजायस्स वंजणवियप्पो "वक्तव्य वस वितव्यय २६ ३ ५९ लोइयपरिच्छयसुहो १ २६ लोइयपरिच्छियाणं ३ ५९ बत्तम्बो वत्थं श्वय श्रवण वयणं वयणत्थनिच्छओ वयणपज्जया वयणपो काण्ड गाथा २ ३६ ३ १ वयणवहा वयणविणिवेसो वयणवियो ४३,४४ ३३ १८ १ २२,१५ २ २५ ३ ૬૪ १ १ or mor ३ १ ३ १ ३ १ १ १ १ ' २ ३ २ ' २ १. १ १ ३ १ ३ ८ १ १ ३ ३ व ४३ ४१ ३४ ३० २९ २०, २७, २८, ४२०, ४४०, ३३,४७ ४५२ २२ १०,२९ ३१ ६३७ ३०,३४,४१ ४४० ६३० ४३० ४४८ ४४० ४३० ४२९ १८ २५ ४२ ४४ सम्मतिमूलगाथागताः शब्दाः | व्या. पृ. ६२३ ४२९ ६२१ २३,४८,५७ ६५६, ७२५ ६१६ ३ ४४९, ४५० ४४० 626 ४२१ ६१८ ૪ ३१ ४१ ७२६ ४२२ ७२६ १ १२ ३,५,७,२६, २७१,३१७ ३१,३६,४१ १०,४२,४७ ६२७,६५०, ६२४ ४०८ ६५५ ४०७ ३१६ ४३० ૪૪૮ ६५५ ६२७ ६०९ शब्द वयणविसेसाई वयणविही वयणस्स वयणिज ययणिप वयणिज्जं वयणिजवियप्पा वयमाणो वरिस वरिस विभागं "दरियो वसं एसो ववहारो "यसा वहा वा बादआ वाएउं "वाओ वागरणी वागरिया वादी वाय 'वायस्स वाया 'वायी वायो वावडा बाबि वि काण्ड गाथा १ ३६ १ ३ ६९ १ २८,५३ ५९,६२ ५९ ८ ५८ ५३ २,५९ mor ३ ३ १ ३ १ ३ २ २ २ ४० ४० ४० १ २२ ४९ stor ३ १ Com १ ३ ३ १ २ ३ m mov ३ १ ३ ३ १ ३ ३ १ ३ ror or on ३ ३ ३८,३९,४० २०,२१ ४७ ३ १ १३ ४,१९,५६ १७ ६८ ४३ व्या. पृ. ४४ २५ ४०७ ६३७ ६५५ २०,२१,३५ ४२०, ४४१ ६०९ ६३०,६३७, ७१९ १७ ३२ १५ ४२ ७३२ ૨૬ ४०८ ७२६ ४५५ ६२७,६२८, ७२६ ६२४ ४४६ २१६ ६५० ११ ५९ १६, १८, २३४२१ ६३५ ७२६ २३ ६५५ ४१६ १३,१५,१६४१५,४१६ २१,२२,२३ ४१९ ३१,४४,४९ ४२१,४५० ४५३ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः। शब्द काण्ड गाथा काण्ड गाथा व्या. पृ. २ १,२,२१,२४ ४५७,५९६ २७,२८,२९ ६१७,६१८ ३१,३९,४३ ६१९,६२० ६२१,६२३ له سه به व्या. पृ. ६३० ६४६ ३८ س शब्द विभयणा विभाग विभागं विभागजायं विभागमेतं विभागम्मि विभागो विमोक्खं वियंजणं °वियत्ति वियंति वियप्प له سم م س ४. ६४९ ४२९ ७१० ६,१०,१५ ६३०,६३४ २६,२७,२८ ६३६,६३८ ३०,३१,३३ ६४०,६४१ ३४,३५,३६ ६४३,६४९ ४०,४१,४६ ६५५,६५६ ४९,५०,५१ ७०४,७१० ५६,६३,६८ ७१९,७३२ २० ४८ ع مم ६१६ ४१७ ४०९ مم ११ مم ८,३८,३९, ४० لم اسم مم م مم مم م विअप्पा विअप्पो विउत्ता विउयं विगच्छतं विगमस्स विगमा विगमे विगय विगयं १८४१७ ३८,३९,४० ४४७ ३,३२,५३ २७२,४५५ ३०,४१ اس اس २७ ६४३ २३,४१६३८,६४९ ام اس वियप्पं वियप्पणं वियप्पवसा वियप्पा "वियप्पो वियाणतो विराहओ विलंबेन्ति विवरीयं विसउ विसओ اس س ام اس ६२२ ६४५ اس ३,४ ६२८,६३० विगयभविस्सेहि विगयस्स विच्छेदो विजाणओ ي م م نه م س ४५० १५,१६ ६१५ ا विसंजुत्ता م اس ७३२ विसम २२ ४२१ ६३७ ६३७ विट्ठा اس २२ س س ام ४१९ ७३२ विसमपरिणयं विसयं विसयगयाण विसासणं विणा विणासेति विणि उत्त विणिवेसो A اس २ १९६१७ ع م ام اس विसिट्ठो م س वित्थर विधम्मेइ विप्फारण ६२७ १७३ ६५५ ६३६,७१० ام اس ४२ १८,५२ ३,२४,२५, | वेसेस م اس اس ६३१ س १०,१४,२१ विभएयव्यो विभजमाणा विभजवायं विसेसओ مم سم سم م ي س م विभत्त विभते ६५० ४५६ विसेसं १ ४४ ७२५ ७३२ ४५० ६४८ ४२९ २ ३ ३४ २१ س विसेसगओ विसेसणं विभत्तो विभयइ विभयणं ६३७ ६१७ م م १८ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द "बिसेस विसेसपकखे विसेसपनाया 'विसेसपरिणामो ३ विसेससण्णाओ १ "विसेसा ३ • विसेसाईयं १ विसेसिअं *विसेसिय ● विसे सिया • विसेसे विसेसेइ विसेसेण विसेर्से ति ● बिसेसो विहम्मओ • विहाड ● विही वीसत्थं वीससा तं बेएर बेयए बेलियाई *वोकंत वोच्छं न्व स सइ व.ण्डि गाथा ३ ऐसा ● संखाण www ३ २ १ २ ३ mr ३ २ ३ ३ १ ३ १ २ ३ ३ १ १ WWW. ३ mo ३ १ ३ १ १ १ २०, २१ १ ४७ २१ २५ ६ ३६ २३ १६,३७ १ ३१ ३७ १०, २० ४० ३७ ४९ ५७ ९,५० ३ १,१३,५७ ५६ २० ३४ २६ ३२ ५१ ५४ ५२ २२ ८ २ ३९ १ २७ स ३३,५६ १ ३५, ४२ २ २३ B २३ ३ ५० ३ ૧૪ १०१ सं० प० सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः । व्या. पृ. ६२७ ४५२ ६३७ ४२१ ६१८ ४५७, ४५८, ५९५ ६४० ६२३ ६२४,६३७ ६२४ ६४५ ७२५ ४०८ ५९६ ६२७,७१५ ७१९ १७३ ६४३ ४५५ ७१८ ४५५ ४२१ ४०८ ६२३ ४२२ ६४१,७१९ ४४१, ४४९ ६१८ ६३८ ७०४ शब्द संखाणं संखाण सत्यधम्मो संखेजं ● संगह संगहओ संगहरूवणाविसओ "संगदविसेस संघयणाई आ जु संजोग ह ● संजोगे "संजोय संजोय भेयओ संतम्मि संतवाय संतवायदो से तुट्ठा संपओगो ● संपन्नो रिडो संपायणम्मि संबंध संबं संवसा संबंध विसिहो संबंधविसेसे संबंधि संबंधित्तर्ण संबंधिविसेस ● संबंधो संभवइ संभवो सम्मओ सम्भण्णार्ण सम्मण्णा सम्मत्त सम्मत्तं सम्मत्तसम्भावा सम्मत्तस्स (पाठान्तर अभयदेव) काण्ड ३ ३ २ १ १ २ ३ 2 ३ ३ ३ ३ ३ ३ २ २ ३ ५० ५० ६१ १ १८ ३ ૪૪ ३ ६६ ३ ६५ ३ १ ३ ३ ३ ३. ३ ३ ३ १ २ २ १ गाथा ३ १ ३ १४.५० १४ ४३ ३,४ १३ ४ ३ ३५ ५३ २८,४० ६ ૪૨ ४२ ४५ १९ २० १८ २० २०,२१ २० २०,२१ ४५ १७ ६,१२ . ६६ व्या. पृ. '' २१ १४ ५३ २१ ५५ १८,२०,२१६३६,६३७ ४५० ६३७ ६३७ ६३६ ६२७ ७०४ ६३५ ६२५ ३१५ ४१५ ३१५ २७१ ६२२ ४५५ ६४६, ६४९ ७२७ ६५० ६०७ ७०४ ७०४ ७३२ ४१७ २५ * ६३७ ४५० ६३६ ६०७,६०९ ६०७ ૨ ६२२ ४१६ ७१०,७१७ ४१९ ७१८ (१.३९) Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः । व्या. पृ. काण्ड गाथा व्या. पृ. शब्द °सम्भावा सब्भावासम्भावे सम्भावे सन्भूयं समए ४४७ ४४६ ७०९,७३२ ३७,३८ ५९ शब्द काण्ड गाथा °सम्मइंसण १ २५ °सम्मइंसणं ३ ५१,६२ समइंसणणाणचरित्त ३ सम्मईसणणाणचरित्तपडिवत्तिसंपन्नो सम्मईसणसई सम्मिया २ २८ संविग्ग संविग्गसुहाहिगम्मस्स ४४ ४४१ ४४ २३,२५ समओ ४२९ ४२१ ६१९ सम romanorammar समण्णेह समत्त ६२८ ६१५ संसार ४१८ ४१९ ४१७ संसारभओघदनसणं संसारो °सक सक्कोलूया °सचा مہ س १६ س م २७ ६३९ ع مم س समत्तसुयणाण समत्तसुयणाणदंसणावि-२ सओ °समय ३ समयं समयंतर २ समयपन्नवणा °समयपरमत्थ समयपरमत्थवित्थर विद्दा-१ डजणपजुवासणस यन्नो समयमाई हिं समयम्मि २ सच्चे °सद्वि सटिवरिसो सणि हणाद सण्णा ३१ २ ४० ६२४ २ ८ २ १६९,१७२ १५३,२७० ६४० १,११,३० २४,२५ सण्याओ مم مم مم °सत्त مم १२,२०६०९,६१७ ६३०,६४९ س مم ४४८ س س सत्तवियप्पो °सत्थ सत्थं س ३ समया समयाविरोहण समये ४१ س ع °सद्द सई ७३२ ६२२ ६३५ س م २३,२५ س س २८ س ع २८ २८ س समा समाणं समाणम्मि समामओ सद्दहइ सदहतो सद्दहणा सद्दहमाणस्स सद्दाइआ °सद्दे ३ م س ६२१ ३४९,३७८ ५९६ ६०८ ४३० ७१० ३२,३३,३४ ६४३ ६४१ ६४३ ३२ م س م س सद्दो مم س ل س ३२,४० ६१८,६२१ ३ °समुदय समुदयकओ समुदयजणियम्मि समुदयवायो समुदयविभागमेत्तं समुल्लावो °समूह °समूहमइअस्स مم २१ س مه सपक्ख सपक्खपडिबद्धा सपडिवक्खो सब्भाव س ४१९ ४०७ ४४७ ४२२ ४० م سے Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिमूलगाथागता: शब्दाः। काण्ड गाथा व्या. पृ. काण्ड गाथा २ १४ समूहम्मि व्या. पृ. ६१० ६४१ समूहसिद्धो ४२२,४२३ | शब्द सागारग्गहणाहि साभाविओ सामण्ण सामण्णग्गहणं समोवणीआ س ام सयं onorm ormer سم १७३ ७३२ ६१९ ६१६ ७३२ ४०९ ६०८,६०९ سم سم سم ५९५ ७२५ ६२७ ७३२ सामणं सामण्णम्मि सामत्था साया सार सासणं ६२ ३६१ २ १०,११ ३ ६३,६७ ११ १०,१२ م सयनो सयल सयले सयलं सयलसमत्तवयणिजणिदोसं३ सया १ सयावि २ सरिसेहिं सलाहमाणा सवियप्प सवियप्पं सवियप्पणिवियप्पं सवियप्पो °विस सविसअप्पहाणतणेण ३ सविसेसो सव्व ७३२ १,८,२९,४,३ ६८,१०२, (पं० ३०) ७३२ xmmonoronorm ३ ६३ م ४४१ ४४१ ४४८ सासणभत्तीमेत्तएण सासय सासयवियत्तिवायी 'साहओ م ४१७ ६५५ साह م مم ७०४ ६२४ م س साहपसाहा साहम्मउ साहेज ३४९,३७८ ७१९ ३ ५६ س م सवं ४०९,४२९ س ११,२९ १० ६०८ १६ ४१६ ६०९ सिज्झइ सिज्झमाण सिज्झमाणसमये सिद्ध ي م م २ ३५ सवणयसमूहम्मि सवण्णु सव्वण्णू सव्वदव्वाई सबनया ६३५ ६२२ ६२२ १ (पं० ३०) ८,४३ ६०८ س rndramoror moramm س ६३८ ४२९ १५,२१,२३ ४१९,४२१ २८ २० س सब्वे س ७३२ ५० س س सम्वेण ससमय ६५१ ا ३ सिद्धत सिद्धंतजाणओ सिद्धतपडिणीओ सिद्धतविराहओ सिद्धत्तणेण सिद्धत्थाणं सिद्धी सिद्धो °सीस सीसगणसंपरिवुडो ३ सीसमई विप्फारणमेत्तत्थो ३ ७०४ ४२९ ४५५ ६५१ ६३८ ६२१ ६२३ مم ६८ २५ مم २७ ससमयम्मि ससमयओ ससमयपण्णवणा १ ससमयपरसमयमुकवावारा३ सहाव مم س ५३ ७१०,७११ س س ل सा सुत्त सुत्तं साइयं साई moran . م س س ६१,६४ ६२३ ५,३१,३४ ६०७,६२१, ६२२ १४ ७३१,७४६ सागार सुत्तमेत्तेण सुत्तम्मि س २ ६०७ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिमूलगाथागताः शब्दाः। काण्ड गाथा व्या. पृ. काण्ड गाथा व्या. पृ. : ७३२ مم १२,१५ ७ शब्द सुत्तहर सुत्तहरसहसंतुट्ठा सुत्तासायणभीरूहि सुत्तासायणा सुत्ते सुत्तेण सुत्तेसु ६०७ ४१०,४१६ ६०८ م س ६२२,६२३ हंदी २ ३ १२ २८ १८ م ६३५ م २१,३१,३२ ६१७,६२१ ४१९ °हियओ م م م सुद्धम्मि सुद्धजाइओ सुद्धा सुद्धोअणतणअस्स ४१६ س ७३२ सुय २७.६३ ३९ ४४ ४५ २ ३ ३ ६२३ س ४०८ ३१५ ४८ १६,२७ २१५ २८ २८ २८ ४२१ ६१८ ११ १८,२०,४६ ४१७ mardmammorrormanardornamororm oronorarorm or °सुयणाण सुयणाणसम्मिया सुयणाणे °सुविणिच्छिया सुविणिच्छियामो सुवियत्तं ६५१ ६२३ ६५० س س ६५१ हे उओ हे उपडिजोअणं हेउमाओ हे उवाय हेउवायपक्खम्मि हेउवायस्स हेउविसओवणीयं हेउविसय होइ س س सुह س س हं م १८ १८ ४१७ सुहदुक्खवियप्पणं सुहदुक्खसम्पओगो सुहुम सुहममेया सुहो सुहोवहाणत्थं م ६५१ ४४ ७२६ ५८ २,३८,३९ १७३,४४७ ४१,४४,४६ ४४८,४५० ४९,५० ४५३ २,७,१३ ५९६,६०७ २३,२४,२५६०९,६१८ २६,२७,२८ ६१९,६२२ ३३,३५,३७ ६२३ ७,१७,१९ ६३१,६३६ २२,२७,२८ ६३७,६३९ ३०,३१,३९ ६४०,६४८ ४०,४६,६३ ६४९,६५५ ३४९,३७८ २६ ४३ ३४ ४४९ ४४० ६३६ सेसयाणं सेसा (संग्रह-नैगमौ) (व्यवहारः) (ऋजुसूत्र) (शब्दनयः) (समभिरूढं) (एवंभूतं) सेसिंदियदंसणम्मि २७३ ३१० ३१०,३११ ३११,३१२ ७३२ होऊण ३१२ ३१३ २ ९ ९,२४ १९,३१ ५९६ ६०८ ६३४,६३८ ६३७,६८१ २ rammar ३१४ २४ ६१८ ३०,३३,५२ ४३०,४८० ५४ ४५५,४५६ १८,३४,३६ ६३६,६४३ सो होजाहि होंति २९,३५ ६२०,६२२ ३१,४१,४७ ६४०,६४९ ५१,५३६५५,७०९ ७१० २२ ६३७ ६५५ संते Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । coccccccc अतीतानागतो कालो वेदकार विवर्जिनौ । अगृहीतविशेषणा च विशेष्ये बुद्धिर्नोपजायते । कालत्वात् तद्यथा कालो वर्तमानः समीक्ष्यते ॥ ] पृ. ४७९ (४)* ] पृ. ३१ अगृहीतान्न चाभावात् प्रमेयाभावनिर्णयः । अतीन्द्रियानसंवेद्यान् पश्यन्त्यारेण चक्षुपा । तद्भहोऽप्यन्यतो भावादनवस्था दुरुत्तरा ॥ ये भावान् वचनं तेषां नानुमानेन बाध्यते ॥ पृ. ५८७ पृ. ७५३ अगोतो विनिवृत्तश्च गौर्विलक्षण इष्यते । अत्यन्तासम्भविनो न विरोधगतिः । [ ] पृ. ५५८ भाव एव ततो नायं गौरगौमें प्रसज्यते ॥ अत्र द्वौ वस्तुसाधनौ [न्यायबिन्दु० परि० २ सू० १९] [तत्त्वसं० का० १०८५] पृ. २१५ (५,८) पृ. ३५२ (२) अगोनिवृत्तिः सामान्यं वाच्यं यैः परिकल्पितम् । अथान्यथा विशेध्येऽपि स्याद् विशेषणकल्पना । गोलं वस्त्वेव तैरुक्तमगोपोहगिरा स्फुटम् ॥ [श्लो. वा. अपो० श्लो. १] पृ. १८७ ( तथासति हि यत् किञ्चित् प्रसज्येत विशेषणम् ॥ [श्लो० वा० अपो० श्लो० ९.] पृ. १९३. अमिस्वभावः शक्रस्य मूर्द्धा यद्यग्निरेव सः । अथानग्निस्वभावोऽसौ धूमस्तत्र कथं भवेत् ॥ अथान्यदप्रयत्नन सम्यगन्वेषणे कृते। ] पृ. ५० मूलाभावान विज्ञानं भवेद् बाधकबाधनम् ॥ अमिहोत्रं जुहुयात् । [ ] पृ. १९ [तत्त्वसं. का० २८६९] पृ. १९ अनेरूज़ज्वलनम् , वायोस्तिर्यपवनम् , अथासत्यपि सारूप्ये स्यादपोहस्य कल्पना । अणुमनसोश्चाद्यं कर्मादृष्ट कारितम् । गवाश्वयोरयं कस्मादगोपोहो न कल्प्यते ॥ [वैशेषिकद० अ०५-२-१३] पृ. १०५ [श्लो० वा० अपो० श्लो० ७६ ] पृ. १९० (6) अचेतनः कथं भावस्तदिच्छामनुवर्तते।। ] पृ. ९६,१२१ अथास्त्यतिशयः कश्चिद् येन भेदेन वर्तते ।। स एव दधि सोऽन्यत्र नास्तीत्यनुभयं परम् ॥ अज्ञातस्यापि चाक्षस्य प्रमाहेतोः प्रमाणता । प्रमाभावस्त्वसामर्थ्यान्न ज्ञातोऽभाववेदकः॥ [ ] पृ. २४२ (३४) ] पृ. ५८७ अदृष्टं स्वाश्रयसंयुक्त आश्रयान्तरे कर्म आरभते, एकदअज्ञेयं कल्पितं कृत्वा तव्यवच्छेदेन ज्ञेयेऽनुमानम् । व्यत्वे सति क्रियाहेतुगुणत्वात् , यो य एकद्रव्यत्वे सति क्रिया [हेतु.] पृ. १९९ (५), २२८ (२०,२१) हेतुगुणः स स स्वाथ्यसंयुक्त आश्रयान्तरे कर्म आरभते, यथा अट्ठारस पुरिसेसुं वीसं इत्थीसु। वेगः तथा चादृष्टम् , तस्मात् तदपि खाश्रयसंयुक्त आश्रयान्तरे [ओघनि० गा० ४४३ ] पृ. ७५२ (३) कर्म आरभते इति । न चासिद्ध क्रियाहेनुगुणत्वम् , 'अग्नरूध. अणते केवलणाणे अणंते केवलदंसणे। ज्वलनम् , वायोस्तिर्यपवनम् , अणु-मनसोश्चाद्यं कर्म देवदत्त ] पृ. ६१० (१) विशेषगुणकारितम् , कार्यत्वे सति देवदत्तस्योपकारकखात्, 'अत इदम्' इति यतस्तद् दिशो लिङ्गम् ।। पाण्यादिपरिस्पन्दवन्, एकदव्यत्वं चैक स्यात्मनस्तदाश्रयत्वात्, (वैशेषिकद० २-२-१०] पृ. ६६९ (३) एकद्रव्यमदृष्टम् , विशेषगुण वात् , शब्दवत्' । अतद्रूपपरावृत्तवस्तुमात्रप्रसाधनात् । सामान्य विषयं प्रोक लिङ्गं भेदाप्रतिष्टितेः॥ 'एकदव्यत्वान्' इत्युच्यमाने रूपादिभिव्यभिचारस्तनिवृत्त्य] पृ. २११ (६,७,८) र्धम् 'क्रियाहेतुगुणवात्' इत्युक्तम् । 'क्रियाहेतुगुणवात्' इत्युअतीतानागताकारकालसंस्पर्शवर्जितम् । च्यनाने मुशलहस्तसंयोगेन खाश्रयाऽसंयुक्तस्तम्भादिचलनहेवर्तमानतया सर्वमृजुसूत्रेण सूयते ॥ । तुना व्यभिचारः, तन्निवृत्त्यर्थम् ‘एकदव्यत्वे सति' इति विशेष ] पृ. ३१२ णम् । “एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुखात्' इत्युच्य प्राने खाश्रया*परिशिष्टेऽस्मिन् कोष्ठकान्तर्गता अवास्तत्तत्पृष्ठगतटिप- संयुक्तलोहादिक्रियाहेतुनाऽयस्कान्तेन व्यभिचारः । तन्निवृत्त्यव्यहसूचकाः॥ र्थम् 'गुणत्वात्' इत्यभिधानम् । [ पृ. १४२ (२) । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । अदृष्टमेवायस्कान्तेनाकृष्यमाणलोहदर्शने अनेकान्तात्मकलाभावेऽपि केवलिनि सत्त्वात् यत् सत् तत् सुखवत्पुंसो निःशल्यत्वेन तक्रियाहेतुः । सर्वमनेकान्तात्मकमिति प्रतिपादकस्य शासनस्याव्यापकत्वात् पृ. १४४ कुसमयविशासित्वं तस्यासिद्धम् । [ पृ. ६२५ अदृष्टेरन्यशब्दार्थ स्वार्थस्यांशेऽपि दर्शनात् । अन्तरग-बहिरङ्गयोरन्तरङ्गस्यैव बलीयस्वात् । श्रुतेः सम्बन्धसौकर्यं न चास्ति व्यभिचारिता॥ [ ] पृ. ४७९ (५) पृ. १९६ (४,५,६) अन्यतरकर्मजः उभयकर्मजः संभोगजश्च संयोगः। अष्टेऽर्थेऽर्थ विकल्पनमात्रम् । [ ] पृ. ३८८ [वैशेषिकद०७-२-९] ७०४ (३) अधिकारोऽनुपायत्वात् न वादे शून्यवादिनः ।। अन्यत्र दृष्टो धर्मः क्वचिद्धर्मिणि विधीयते निषिध्यते च । [श्लो० वा. निरालम्ब० श्लो० १२९] ] पृ. १०९ पृ. ३७७ (४) अन्यत्र हिंसा अपायहेतुः।। ] पृ. ७३१ अनधिगतार्थपरिच्छितिः प्रमाणम् । [ ] पृ. ५५४ अन्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । अनर्थः खल्वपि कल्पनासमारोपितो न लिङ्गम, नान्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ तथा पक्ष एवायं पक्षसपक्षयोरन्यतरः।[ ] पृ. ७२१ ___] पृ. ६९,५६९ (७) अनलार्यनलं पश्यन्नपि न तिष्ठेत् नापि प्रतिष्ठेत । अन्यथैकेन शब्देन व्याप्त एकत्र वस्तुनि । पृ. २८५ बुद्ध्या वा नान्यविषय इति पर्यायता भवेत् ॥ अनष्टाजायते कार्य हेतुश्चान्येपि तत्क्षणम् । [ ] पृ. २२० (७,८,९) क्षणिकलात् खभावेन तेन नास्ति सहस्थितिः ॥ अन्यथैवाग्निसम्बन्धाद् दाहं दग्धोऽभिमन्यते । ] पृ. ३३२ (१९,२०) अन्यथा दाहशब्देन दाहार्थः सम्प्रतीयते ॥ अनादिखात् मायायाः जीवविभागस्य च बीजाङ्करसन्तान वाक्य० प० द्वि० का० श्लो. ४२५] योरिव नेतरेतराश्रयदोषप्रसक्तिरत्र । तथा चाहुः-“अनादिर. पृ. १७७ (४), २६० (१०) प्रयोजनाऽविद्या अनादिखादितरेतराश्रयदोषपरिहारः, निष्प्रयो- अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । जनत्वेन भेदप्रपञ्चसंसर्गप्रयोजनपर्यनुयोगावकाशः । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते निगमो जयः॥ ] पृ. २७८ (२,३,४) ] पृ. ३११ (३) अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । अन्यदेवेन्द्रियग्राह्यं अन्यच्छब्दस्य गोचरः। विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः॥ शब्दात् प्रत्येति भिन्नाक्षो न तु प्रत्यक्षमीक्षते ॥ [वाक्यप० श्लो० १ प्रथमका०] पृ. ३७९ (१२) ] पृ. २६०(८,९) अनिर्दिष्टफलं सर्वं न प्रेक्षापूर्वकारिभिः । अन्यान्यनेन ये भावा हेतुना करणेन वा। शास्त्रमाद्रियते तेन वाच्यमग्रे प्रयोजनम् ॥ विशिष्टा भिन्नजातीयैरसङ्कीर्णा विनिश्चिताः ॥ [ ] पृ.१६९ (९) [तत्त्वसं. का. १०६९] पृ. २१२ (२३) अनुत्पन्नाश्च महामते सर्वधर्म (माः)सदसतोरनुत्पन्नत्वात् । अन्ये लाहु:-क्षेत्रज्ञानां नियतार्थविषयग्रहणं सर्वविद. [ ]३०३ (२,३) धिष्ठितानाम् । यथाप्रतिनियतशब्दादिविषयग्राहकाणामिन्द्रियाअनुपलब्धिरसत्ता। [ पृ. २८८ णामनियतविषयसर्व विदधिष्ठितानां जीवच्छरीरे । तथा च अनुपलब्धिः खभावः कार्य च। [ध. न्या. सू. ११-१२. पृ.३. इन्द्रियवृत्त्युच्छेदलक्षणं केचिद् मरणमाहुश्चेतनानधिष्ठितानाम् । अनुमातुरयमपराधो नानुमानस्य । [२-१-३८ वात्स्या० भा०] | अस्ति च क्षेत्रज्ञानां प्रतिनियतविषयग्रहणम् तेनाप्यनियतविषय पृ. ५६३ (५) सर्वविदधिष्ठितेन भाव्यम् । योऽसौ क्षेत्रज्ञाधिष्ठायकोऽनियतअनुमानं विवक्षायाः शब्दादन्यन्न विद्यते । [ ] विषयः स सर्वविदीश्वरः । नन्वेवं तस्यैव सकलक्षेत्रेष्वधिष्ठाय पृ. १८५ (२,३) कत्वात् किमन्तर्गडुस्थानीयैः क्षेत्रज्ञैः कृत्यम् ? न किञ्चित् प्रमाअनुमानमप्रमाणम् । [ ] पृ. ७० णसिद्धतां मुक्वा । नन्वेवमनिष्ठा-यथेन्द्रियाधिष्ठायकः क्षेत्रअनेकगुणजात्यादिविकारार्थानुरजिता। ज्ञस्तदधिष्ठायकश्वेश्वरः एवमन्योऽपि तदधिष्ठायकोऽस्तु, भवज[श्लो. वा. वाक्याधि. श्लो०३३१] निष्ठा यदि तत्साधकं प्रमाण किश्चिदस्ति; न खनिष्ठासाधक पृ. ७४२ किञ्चित् प्रमाणमुत्लश्यामः तावत एवानुमानसिद्धत्वात् । आगअनेकपरमाणूपादानमनेकं चेद् विज्ञानं सन्तानान्तरवदेवपरा- मोऽप्यस्मिन् वस्तुनि विद्यते-तथा च भगवान् व्यासःमर्शाभावः। [ पृ. १४९ द्वाविमौ पुरुषी लोके क्षरश्चाक्षर एव च । अनेकान्तभावनातो विशिष्टप्रदेशे क्षयशरीरादिलाभो निःश्रेय. क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ सम्। ] पृ. १५५ [भग. गी० अ० १५ श्लो. १६] 1८८ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । ३१ उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । अप णिपादो जवनो प्रहीता पश्यत्यचक्षु. स शुगोत्यकर्णः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ स वेत्ति विश्वं नहि तस्य वेत्ता तमाहुरग्यं पुरुषं महान्तम् ॥ [भग० गी० अ० १५ श्लो० १५] श्वेताश्वत०३-१९] पृ. ४६ तथा श्रुतिश्च तत्प्रतिपादिका उपलभ्यते अपि चैकत्व-नित्यत्व-प्रत्ये कसमवायिलाः(ताः)। विश्वतश्चक्षुस्त विश्वतो मुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात् । निरूपाख्येष्वपोहेषु कुर्वतोऽसूत्रकः पटः ॥ सं बाहभ्यां धमति सं पतत्रै-वाभूमी जनयन् देव एक आस्ते ॥ श्लो. वा. अपो० श्लो. १६३] पृ. २०१ (१०,११) श्वेताश्वत० उ० अ० ३,२] अपोद्धारसदस्यायं वाक्यादर्थो विवेचितः। न च खरूपप्रतिपादकानामप्रामाण्यम्, प्रमाणजनकत्वस्य वाक्यार्थः प्रतिभाख्योऽयं तेनादावपजन्यते ॥ सद्भावात् । तथाहि-प्रमाजनकत्वेन प्रमाणस्य प्रामाण्यं न [ ] पृ. १८८ (६) प्रवृत्तिजनकत्वेन तचेहास्त्येव । प्रवृत्ति-निवृत्ती तु पुरुषस्य अपोहः शब्दार्थ इत्ययुक्तम् अव्यापकलात् । यत्र द्वैराश्यं भसुख-दुःखसाधनखाध्यवसाये समर्थस्यार्थिवाद भवत इति । वति तत्रेतरप्रतिषेधादितरः प्रतीयते, यथा-'गौः' इति पदाद् गौः अथ विधावाखादमीषां प्रामाण्यं न स्वरूपार्थवादिति प्रतीयमानः अगौनिषिध्यमानः; न पुनः सर्वपद एतदस्ति, न ह्यसर्व चेत्, तदसत् ; खार्थप्रतिपादकत्वेन विध्यङ्गखात् । तथाहि- | नाम किञ्चिदस्ति यत् सर्वशब्देन निवर्तेत । अथ मन्यसे एकादि स्तुतेः खार्थप्रतिपादकलेन प्रवर्तकत्रम्, निन्दायास्तु निवर्त असर्व तत् सर्वशब्देन निवर्तत इति, तन्नो स्वार्थापवाददोषप्रसकखमिति । अन्यथा हि तदर्थापरिज्ञाने विहित-प्रतिषिद्धेष्व. ङ्गात् । एवं ह्येकादिव्युदासेन प्रवर्त्तमानः सर्वशब्दोऽङ्गप्रतिषेविशेषेण प्रवृत्तिनिवृत्तिर्वा स्यात् । तथा विधिवाक्यस्यापि स्वार्थ- धादङ्गव्यतिरिक्तस्याङ्गिनोऽनभ्युपगमादनर्थकः स्यात् । अङ्गशप्रतिपादनद्वारेणैव पुरुषप्रेरकलं दृष्टम्, एवं खरूपपरेष्वपि ब्देन ह्येकदेश उच्यते; एवं सति सर्वे समुदायशब्दा एकदेशप्रतिवाक्येषु स्यात्, वाक्यस्वरूपताया अविशेषात् विशेषहेतोश्चा- षेवरूपेण प्रवर्तमानाः समुदायिव्यतिरिक्तस्यान्यस्य समुदायस्याभावादिति । तथा खरूपार्थानामप्रामाण्ये "मेध्या आपः, नभ्युपगमादनर्थकाः प्राप्नुवन्ति । आद्यादिशब्दानां तु समुच्चयदर्भाः पवित्रम, अमेध्यमशुचि" इत्येवंखरूपापरिज्ञाने विध्य विषयलादेकादिप्रतिषेधे प्रतिषिध्यमानार्थानामसमुचयखादनर्थझतायामप्यविशेषेण प्रवृत्ति-निवृत्तिप्रसङ्गः, न चैतदस्ति; मेध्ये- कत्वं स्यात् । [अ० २ आ० २ सू० ६७ न्यायवा० पृ. ३२९ वेव प्रवर्तते अमेध्येषु च निवर्तत इत्युपलम्भात् । तदेवं स्वरू पं० १२-२३ ] पृ. २०० (१,२,३,४,५) पार्थेभ्यो वाक्येभ्योऽर्थस्वरूपावबोधे सति इष्टे प्रवृतिदर्शनात् | अपोद्यभेदा भिन्नार्था खार्थमेदगती जडा। अनिष्टे च निवृत्तरिति ज्ञायते-खरूपार्थानां प्रमाजनकलेन | एकलाभिन्नकार्यत्वाद् विशेषणविशेष्यता ॥ प्रवृत्ती निवृत्ती वा विधिसहकारित्वमिति, अपरिज्ञानात्तु प्रवृत्ता- [ ] पृ. १९६ (९,१०,११) बतिप्रसङ्गः । अथ खरूपार्थानां प्रामाण्ये "ग्रावाणः प्लवन्ते" | अपोयैः स बहिःसंस्थितैर्भिद्यते।। इत्येवमादीनामपि यथार्थता स्यात्, न; मुख्य बाधकोपपत्तेः । [ पृ. १९४ यत्र हि मुख्य बाधकं प्रमाणमस्ति तत्रोपचारकल्पना, तदभावे तु अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थदृष्टिः प्रसिध्यति । प्रामाण्यमेव । न चेश्वरसद्भावप्रतिपादनेषु किञ्चिदस्ति बाधक पृ ८१ मिति खरूपे प्रामाण्यमभ्युपगन्तव्यमित्यागमादपि सिद्धप्रामा- अप्रामाण्यकारित्वे चक्षुषो दूरव्यवस्थितस्यापि ग्रहणप्रसङ्गः । ण्यात् तदवगमः । ईश्वरस्य च सत्तामात्रेण स्खविषयग्रहणप्र. ] पृ. १४३ (३) तानां क्षेत्रज्ञानामधिष्ठायकता यथा स्फटिकादीनामुपधानाकार. | अप्सु गन्धो रसश्चाग्नौ वायौ रूपेण तो सह । ग्रहणप्रवृत्तानां सवितृप्रकाशः । यथा तेषां सावित्रं प्रकाशं | व्योनि सस्पर्शता ते च न चेदस्य प्रमाणता ॥ विना नोपधानाकारग्रहणसामर्थ्य तथेश्वरं विना क्षेत्रविदां न [श्लो. वा० अभावप० श्लो० ६] पृ० ५८१ (३,४,५) खविषयग्रहणसामर्थ्यमित्यस्ति भगवानीश्वरः सर्ववित् । अभावगम्यरूपे च न विशेष्येऽस्ति वस्तुता । ] पृ. ९८-९९ (१,२) विशेषितमपोहेन वस्तु वाच्यं न तेऽस्त्यतः ॥ अन्वयेन विना तस्मान्यतिरेकः कथं भवेत् ।। [श्लो. वा. अपो० श्लो. ९१] पृ. १९३ ] पृ. ५७५ अभावोऽपि प्रमाणाभावः 'नास्ति' इत्यर्थस्यासनिकृष्टस्य । अन्वयो न च शब्दस्य प्रमेयेण निरूप्यते। [१-१-५ शाबरभा०] पृ. ५८० व्यापारेण हि सर्वेषामन्वेतृत्वं प्रतीयते ॥ अभिघाताग्निसंयोगनाशप्रत्ययसन्निधिम् । [श्लो. वा० शब्दप० ८५] पृ. ५७५ (३) विना संसर्गितो याति न विनाशो घटादिभिः॥ अपक्षधर्मस्यापि हेतोर्गमकले चाक्षुपवमपि शब्दे नित्यत्तस्य | ] पृ. ३२० (२२,२३,२४) गमकं स्यात् ।। पृ. ५९३ (६) अभिधानप्रसिद्ध्यर्थमर्थापत्त्यावबोधितात् । अपरस्मिन् परं युगपद् अयुगपत् चिर क्षिप्रमिति काललिङ्गानि । शब्दे वाचकसामर्थ्यात् तन्नित्यत्वप्रमेयता ॥ वैशेषिकद० २-२-६] पृ. ६६९ (१) । [लो० वा० अर्थाप० श्लो० ५] पृ. ५७९ दर्शनात् अपायकत्वादु विश१९६ (९,१०, . न सह ।। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । अभ्यासात् पक्वविज्ञानः कैवल्यं लभते नरः । | अर्थेन घट पसेना नहि मुक्कार्थरूपताम् । केवलं काम्ये निषिद्धे च प्रवृत्तिप्रतिषेधतः ॥ | तस्मात् प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ॥ [ ] पृ. १५१ (१) पृ. ३१२ (२)५१० अभ्यासात् प्रतिभाहेतुः शब्दः न तु बाह्यार्थप्रत्यायकः"। । अर्थोपयोगेऽपि पुनः स्मार्त शब्दानुयोजनम् । ] पृ. १८२ (४) अक्षधीयद्यपेक्षेत सोऽर्थो व्यवहितो भवेत् ॥ अयं चापोहः प्रतिवस्त्वेकः, अनेको वेति वक्तव्यम् । यद्ये ] पृ. ५२५ (१) कस्तदाऽनेकगोद्रव्यसम्बन्धी गोत्वमेवासी भवेत् । अथानेक अवधीनामनिष्पत्तेनियतास्ते न शक्तयः। स्ततः पिण्डवदानन्त्यादाख्यानानुपपत्तेरवाच्य एव स्यात् । सत्त्वे च नियमस्तासां (युक्तः) सावधिको ननु ॥ [न्यायवा० पृ० ३३० पं. १५-१७] पृ. २०१ (५) [तत्त्वसं० का० २] पृ. ३०२ (१) अयमेव भेदो भेदहेतुर्वा, यदुत विरुद्धधर्माध्यासः कारण- 'अवयवी अवयवेषु वर्तते' इति समवायरूपा प्राप्तिरुच्यते । भेदश्व, स चेन्न भेदको विश्वमेकं स्यात् ॥ [ ] पृ. ३ पृ. ६६६ अयमेव हि मेदो भेदे हेतुर्वा विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्च । अवयवेषु क्रिया, क्रियातो विभागः, ततः संयोगविनाशः, [ ] पृ. ३२७. ततोऽपि द्रव्यविनाशः। [ ] पृ. १४९ अयमेवेति यो ह्येष भावे भवति निर्णयः। अवश्यं भावनियमः कः परस्यान्यथा परैः । नैष वस्त्वन्तराभावसं वित्त्यनुगमाइते ॥ [श्लो० वा० अभाव० | अर्थान्तरनिमित्ते वा धर्मे वाससि रागवत् ॥ श्लो. १५] पृ. ३४९ (२५) ५५८ ]७६ (४,५) पृ. ५५९ (१) अर्थक्रियाधिगतिलक्षणफलविशेषहेतुर्ज्ञानं प्रमाणम् । ! अवश्यं भाविनं नाशं विद्धि सम्प्रत्युपस्थितम् । ] पृ. १५ । अयमेव हि ते कालः पूर्वमासीदनागतः ॥ अर्थजात्यभिधानेऽपि सर्वे जाति विधायिनः।। पृ. ५३९ व्यापारलक्षणा यस्मात् पदार्थाः समवस्थिताः ॥ अवस्तुलादपोहानां नैव भेदः । [ ] पृ. १९४ [वाक्यप० तृ• का० श्लो० ११] पृ. २२२ (७,८) अवस्तुविषयेऽप्यस्ति चेतोमात्रविनिर्मिता । अर्थवत् प्रमाणम् । [वात्स्या० भा० अ० १ आ० १ सू०१] विचित्रकल्पनाभेदरचितेष्विव वासना ॥ पृ. १०९,१२६,१६१,५४१,५४२,५५० [तत्त्वसं• का० १०८६] पृ. २१५ (१४) अर्थविवक्षां शब्दोऽनुमापयति । अवस्था-देश-कालानाम् । [वाक्यप० प्र० का० श्लो. ३२] ] पृ. १८५ (१) पृ. ७० (५) अथ शब्दोऽर्थवत्त्वेन पक्षः कस्मान कल्प्यते ॥ अवाचकले शब्दानां प्रतिज्ञाहेखोळघातः । [श्लो० वा. शब्दप० ६२] पृ. ५७५ [अ० २ आ. २ सू० ६७ न्यायवा० पृ. ३२७ पं. ६-७] अर्थस्यासनिकृष्टस्य प्रसिद्ध्यर्थं प्रमान्तरम् । पृ. १७५ (१) प्रमाभावमभावाख्यं वर्णयन्ति तथाऽपरे ॥ अविनाभावसम्बन्धस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात् । [ ] पृ... [ पृ. ५७९ (५) अविनाभाविता चात्र तदेष परिगृह्यते । अर्थस्यासम्भवेऽभावात् प्रत्यक्षे:पि प्रमाणता । न प्रागवगतेत्येवं सत्यप्येषा न कारणम् ॥ प्रतिबद्धखभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम् ॥ [लोवा. सू. ५ अर्थापत्ति. श्लो३] पृ. ४७ [ ] पृ. १७ (२),७३,५५५ (१,२) अविभागोऽपि बुद्ध्यात्मा विपर्यासितदर्शनैः । अर्थः सहकारी यस्य विशिष्टप्रमिती प्रमातृप्रमेयाभ्यामर्थान्तर ग्राह्यग्राहकसंवित्तिमेदवानिव लक्ष्यते ॥ तदर्थवत् प्रमाणम् । [ ] पृ. ५४१ ] पृ. ४१४ (६) अर्थानर्थविवेचनस्यानुमानायत्तत्वात् [ ] पृ. ४६९. | अविभुनि द्रव्ये समानेन्द्रियप्राह्याणां विशेषगुणानामसम्भवात् । अर्थान्तरनिवृत्त्या कश्चिदेव वस्तुनो भागो गम्यते । ] पृ. ७०८ ] पृ. २१३ अवेतविषयस्मृतिहेतुस्तदनन्तरं धारणा। अर्थान्तरनिवृत्त्याह विशिष्टानिति यत्पुनः। ] पृ. ५५३ (६) प्रोक्तं लक्षणकारेण तत्रार्थोऽयं विवक्षितः ॥ अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनिका सामग्री प्रमा[तत्त्वसं. का. १०६८] पृ. २१२ (२२) णम्। [ ] पृ. ४७१ अर्थापत्तिरपि दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यदृष्टार्थ- अशक्यसमयो ह्यात्मा नामादीनामनन्यभाक् । ___ कल्पना । [१-१-५ शाबरभा] पृ. ५७८ (११) । तेषामतो न चान्यवं कथञ्चिदुपपद्यते ॥ अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेयाः। [ ] पृ. ४०७ , ] पृ. १८५ (११,१२) [ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि | [ अशान्दे वापि वाक्याथै न पदार्थेष्वशाब्दता। | आये पूर्व विदः । [ तत्त्वार्थ. ९-३९ पृ. ७५४ (१) बाक्यार्थ स्येव नेतेषां निमित्तान्तरसम्भवः ॥ | आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षेऽभिव्यज्यते। [ो. वा. वाक्याधि० श्लो. २३०] पृ. ७३८ ] पृ. १५१ अशेषशक्तिप्रचितात् प्रधानादेव केवलात् । आप्ताभिहितवासिद्धरविसंवादकवायोगादप्रमाणवाभावनिकार्यमेदाः प्रवर्तन्ते तद्रूपा एव भावतः ॥ श्चयनिमित्ताभावादप्रवर्तकत्वं प्रयोजनवाक्यस्य प्रेक्षापूर्वकारिणः [तत्त्वसं• का० ७ ] पृ. २८० (१२) प्रति। [ ] पृ. १७२ (१२) अश्रावणं यथा रूपं विद्युद्वाऽयत्नजा यथा। आम्नाय स्य क्रियार्धत्वाद् आनर्थक्यमतदर्थानाम् । तत्त्वसं. का. १०४२] पृ. २०८(२६) [जैमि० १-२-१] पृ. ९२, ७४४ अश्वं विकल्पयतो गोदर्शनात् न तदा गोशब्दसंयोजना तस्या- आशङ्केत हि यो मोहादजातमपि बाधकम् । स्तदाननुभवात् , युगपद्विकल्पद्वयानुत्पत्तेश्च निर्विकल्पकगोदर्शन- | स सर्वव्याहारेषु संशयात्मा क्षयं व्रजेत् ॥ सद्भावस्तदा। [ ]पृ. ५०४ (५,६,७) [तत्त्वसं० का० २८७२] पृ. ८ असंस्कार्यतया पुम्भिः सर्वथा स्यानिरर्थता। | आ सर्गप्रलयादेका बुद्धिः । [ ] पृ. ३०० (९) संस्कारोपगमं व्यक्तं गजनानमिदं भवेत् ॥ आस्रवनिरोधः संवरः । तत्वार्थ. ९-१] पृ. ७३५ पृ.११ आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निषेद्ध विपश्चितः। असतः सत्त्वेन प्रतिभासनमस्य । नैकत्वे आगमस्तेन प्रयक्षेण विरुध्यते ॥ ] पृ. २७३ (१३) पृ. ४८६ (१३,१४) असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । इतरेतरभेदोऽस्य बीजं चेत् पक्ष एष नः ॥ शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत् कार्यम् ॥ [तत्त्वसं० का० ९०५] पृ. १८१ ( १९,२०) [साङ्ख्यका० ९] पृ. २८२ इतश्चायुक्तोऽपोहः विकल्पानुपपत्तेः । तथाहि-योऽयमगोअसम्भवो विधिः । [हेतु. ] पृ. २१७ (८) रपोहो गवि स कि गोव्यतिरिक्तः आहोखिदव्यतिरिक्तः ? । यदि असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः। व्यतिरिक्तः स किमाश्रितः अथानाश्रितः? । यद्याश्रितस्तदाऽऽनिग्रहस्थानमन्यद्धि न युक्तमिति नेष्यते ॥ श्रितवाद् गुणः प्राप्त ; ततश्च गोशब्देन गुणोऽभिधीयते 'न ] पृ. ७६१ (१) गौः' इति-गौस्तिष्ठति' 'गौर्गच्छति' इति न सामानाधिकरण्यं अस्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् । प्राप्नोतीति । अथानाश्रितस्तदा केनार्थेन 'गोरगोपोहः' इति षष्टी अपूर्वदेवताशब्दैः समप्रा(मा)हर्गवादिषु ॥ स्यात् । 'अथाव्यतिरिक्तस्तदा गोरेवासाविति न किञ्चित् कृतं वाक्यप० द्वि.० का० श्लो० १२१ पृ. ३१५ (१५) भवति'। पृ. २०१(१,२,३,४) आकृतिर्जातिलिजाख्या। [न्यायद० अ० २ ० २ सू०६७] [न्यायवा० पृ. ३३, पं०८-१४] पृ. १७८ इत्यादिना प्रभेदेन विभिन्नार्थ निबन्धनाः। अचेलक (कु)द्दे सिय। व्यावृत्तयः प्रकल्प्यन्ते तन्निष्टाः (छाः) श्रुतयस्तथा ॥ [जीतकल्पभाष्य गाथा १९७२] पृ. ७४६ (४,५) [तत्त्वसं० का १०४३] पृ. २०८ (२७), २०९ (१) आत्मलाभे हि भावानां कारणापेक्षिता भवेत् । 'इदं तावत् प्रष्टव्यो भवति भवान्-किमपोहो वाच्यः अथालब्धात्मना खकार्येषु प्रवृत्तिः खयमेव तु ॥ वाच्य इति । वाच्यत्वे विधिरूपेण वाच्यः स्यात् अन्य[श्लो० वा० सू० २ श्लो० ४८] पृ. ४ व्यावृत्त्या वा । तत्र यदि विधिरूपेण तदा नैकान्तिकः आत्मा रे श्रोतव्यो ज्ञातव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः । शब्दार्थः 'अन्यापोहः शब्दार्थः' इति । अथान्यव्यावृत्त्येति पक्ष [बृहदा० उ० २-४-५] पृ. ७३१ स्तदा तस्याप्यन्यव्यवच्छेदम्यापरेणान्यव्यवच्छेदरूपेणाभिधानम् आत्मैकवज्ञानात् परमात्मनि लयः सम्पद्यते इति ब्रुवते । तस्याप्यपरेणेत्यव्यवस्था स्यात् । अथावाच्य स्तदा 'अन्यशब्दार्थातथाहि-आत्मैव परमार्थसन् , ततोऽन्येषां भेदे प्रमाणाभावात् | पोहं शब्दः करोति' इति व्याहृन्यत । प्रत्यक्षं हि पदार्थानां सद्भावग्राहकमेव न भेदस्य इत्यविद्यास- [न्यायवा० पृ. ३३० पं०१८-२२] पृ. २०१(७) मारोपित एवायं भेदः। [ पृ. १५५ - इदानींतनमस्तित्वं नहि पूर्वधिया गतम् । आदावन्ते च यत्नास्ति वर्तमानेऽपि तत् तथा । [श्लो० वा. सू. ४ श्लो० २३४ ] पृ. ५६,३१९ वितथैः सदृशाः सन्तोऽवितथा इव लक्षिताः ॥ इन्द्रियाणां ससम्प्रयोगे बुद्धिजन्म प्रत्यक्षम् । [गौडपा. का. ६ पृ०७० वैतथ्याख्यप्र. [जैमि० अ० १-१-४] पृ. ७ पृ. २७३ (१) इन्द्रियाणि अतीन्द्रियाणि खविषयग्रहणलक्षणानि । आये परोक्षम् । [ तत्त्वार्थ० १-११] पृ. ५९५ (४) 1पृ. ५२८ १०२सं. प. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नम् [न्यायद० १-१-४] पृ. ५५० इन्द्रियार्थसन्निकर्षोंत्पन्नं ज्ञानम् । [न्यायद० १-१-४] ऋषीणामपि यज्ज्ञानं तदप्यागमपूर्वकम् । पृ. ७०४ [वाक्यप० प्र० का० श्लो० ३०] पृ.५३८ (6) इन्द्रियार्थसन्निकर्षीत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् । [न्यायद० १-१-४] पृ. ११९,५१८ एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः। इन्द्रो मायाभिः पर(पुरु)रूप ईयते [ऋग्वे. मण्ड० ५ सू० [अमृतबिन्दु उपनि० ५० १२ पृ० १५] पृ. ३७ __ ४७ ऋ० १८] पृ. २७३ (५) । एकद्रव्यम् अगुणम् संयोग-विभागेष्वनपेक्षम् कारणम् इति इयती च सामग्री प्रमाणोत्पादिका। [ ] पृ. ३ कर्मलक्षणम् । [वैशेषिकद. १-१-१७] पृ. ६७२ इष्टानिष्टार्थसाधनयोग्यतालक्षणौ धर्माधर्मों। | एकधर्मान्वयासत्त्वेऽप्यपोह्यापोहगोचराः । ] पृ. ५०५ (८) वैलक्षण्येन गम्यन्तेऽभित्रप्रत्यवमर्शकाः ॥ इहरा समूहसिद्ध-[प्र. का. गा० २७] पृ. ६२८ (३) [तत्त्वसं० का० १०५०] पृ. २१० एकप्रत्यवमर्श हि केचिदेवोपयोगिनः। उत्क्षेपणम् , अपक्षेपणम् , आकुञ्चनम् , प्रसारणम् , गमन- प्रकृत्या मेदवन्तोऽपि नान्य इत्युपपादितम् ॥ मिति कर्माणि। [वैशेषिकद०१-१-७] पृ.६८६ [तत्त्वसं० का० १०५१] पृ. २१० (१०,११) उत्तमः पुरुषस्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। | एकमेवाद्वितीयम् । [छान्दो० उ० अ० ६ खं० २ म० १] यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥ पृ. २७३ (९) [भग० गी० अ० १५ श्लो० १७ ] पृ. ९८ एक: संविद्रूपं हर्ष-विषादाद्यनेकाकारविवर्त समुत्पउत्तरकालभाविनः संवादप्रत्ययान्न जन्म प्रतिपद्यते शक्तिः | शक्तिः श्यामः तत्र यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम् । [ ] पृ. २७ लक्षणं प्रामाण्यमिति खत उच्यते न पुनर्विज्ञानकारणान्नोपजा- | एकयोनयश्च पाकजाः । [४-१-५ वात्स्या० भा०] यते। पृ. १० पृ. ५२१ (१) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् । एकश्रोत्रप्रवेशे च नान्येषां च पुनः श्रुतिः। तत्त्वार्थ० अ० ५ सू० २९] पृ. ५९, ३२३, ४१२ न चावान्तरवर्णानां नानात्वस्यास्ति कारणम् ॥ उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्वयि नाथ दृष्टयः । [ श्लो० वा. सू०६ श्लो० ११२] पृ. ३८ न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरित्विवोदधिः॥ | एकसामग्यधीनत्वाद रूपादे रसतो गतिः। [चतुर्थद्वात्रिशिकायां श्लो. १५] पृ. २९ हेतुधर्मानुमानेन धूमेन्धनविकारवत् ॥ उपमानमपि सादृश्यादसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिमुत्पादयति यथा पृ. ५५९ (५) गवयदर्शनं गोस्मरणस्य [१-१-५ शाबरभा०] पृ. ५७६ (१)| एकस्मिन्नपि दृष्टेऽर्थे द्वितीयं पश्यतो वने। उपयुक्तोपमानस्तु तुल्यार्थग्रहणे सति । सादृश्येन सहेका मस्तदेवोत्पद्यते मतिः॥ विशिष्टविषयलेन सम्बन्ध प्रतिपद्यते॥ [श्लो० वा. उपमान० श्लो० ४६ ] पृ. ५७७ (५,६) पृ. ५८४ (८) एकस्मिन्नवयविनि कृत्स्नैकदेशशब्दप्रवृत्त्यसम्भवात् अयुक्तोऽयं उपलब्धिः सत्ता। [ ] पृ. २९३ प्रश्नः-'किमेकदेशेन वर्तते, अथ कृत्स्नो वर्तते' इति । उपलब्धिः सत्ता सा चोपलभ्यमानवस्तुयोग्यता तदाश्रया 'कृत्स्नम्' इति हि खल्वेकस्य अशेषाभिधानम् । 'एकदेशः' वा ज्ञानवृत्तिः ।[ ] पृ. २९१ इति च अनेकत्वे सति कस्यचिदभिधानम्, ताविमौ कृत्स्नैकउपलम्भः सत्ता। [ पृ. ७१० देशशब्दी एकस्मिन्नवयविनि अनुपपन्नौ । उपोढरागेण-1 [ध्व. लो. उ. १ पृ. ३५] पृ. १३३ [२-१-३२ न्यायवा०] पृ. ६६८ उप्पाय-ट्ठिइ-भंगा हंदि दवियलक्खणं एयं । एकस्मिन् भेदाभावात् सर्वशब्दप्रयोगानुपपत्तिः । [प्र. का. गा० १२] पृ. ६२३, ६२८ (४) पृ. ६६३ उभयम् । [पाणिनि०] पृ. १७९ (४) एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नोपपद्यते । ऊर्णनाभ इवांऽशूनां चन्द्रकान्त इवाऽम्भसाम् । क्रियाभेदेन भिन्नखादेवम्भूतोऽभिमन्यते ॥ प्ररोहाणामिव प्लक्षः स हेतुः सर्वजन्मिनाम् ॥ पृ. ३१४ (५) [ ] पृ. ७१५ (३) एकस्यार्थखभावस्य प्रत्यक्षस्य सतः खयम् । ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । कोऽन्यो न दृष्टो भागः स्यात् यः प्रमाणैः परीक्ष्यते ॥ छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ [ ] पृ. ५०७ (६) [गीता अ० १५ श्लो०१] पृ. ३१० | एकादश जिने । [तत्त्वार्थ० अ० ९ सू० ११] पृ. ६१५ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । ३५ कतम [ एकादिव्यवहारहेतुः सङ्ख्या । [प्रशस्त. भा० पृ० १११५०३] पृ. ५१९ | कइविहे णं भंते ! आया पण्णते? एकेन तु प्रमाणेन सर्वज्ञो येन कल्प्यते । गोयमा ! अट्ठविहे । तं जहा-दविए आया । नूनं स चक्षुषा सर्वत्रसादीन् (सर्वान् रसादीन् ) प्रतिपद्यते ॥ [भगवतीसू० शत. १२ उ० १०] पृ. ६३१ (१) [श्लो. वा. सू. २ श्लो. ११२] पृ. ४३ कतमत् संवृतिसत्त्वं यावलोकव्यवहारः। एको भावस्तत्त्वतो येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । पृ. ३७८ सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा एको भावस्तत्त्वतस्तेन दृष्टः ॥ कम्मं जोगनिमित्तं । [प्र. का. गा० १९] पृ. ७३३ (८) ] पृ. ६३ (७) कर्तुः कार्योपादानोपकरणप्रयोजनसम्प्रदानपरिज्ञानात् । एकेको वि सयविहो। पृ. १०१ __ [आवश्यकनि० उवग्घायनि० गा० ३६ ] पृ. ७५७ (४) कर्तुः प्रियहितमोक्षहेतुर्धर्मः, अधर्मस्तु अप्रियप्रत्यवायहेतुः । एकगुणकालए दुगुणकालए [प्रशस्तपा० भा० पृ० २७२ पं० ८ तथा पृ० २८० पं०४] [भगवतीसू० शत, ५ उ० ७ सू० २१७ ] पृ. ६३५ (४) एगदवियम्मि- [प्र. का. गा० ३१] पृ. ६२८ (२) । कर्तृफलदायी आत्मगुण आत्म-मनःसंयोगजः खकार्यविरोधी एगमेगेणं जीवस्स पएसे अणंतेहिं णाणावरणिजपोग्गले हिं | धर्माधर्मरूपतया भेदवान् अदृष्टाख्यो गुणः । आवेढियपवेढिए।[ पृ. ४५५-४५६ (२) ] पृ. ६८५ (६) एगे आया। [स्थाना० प्रथमस्था० सू० १] कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् । [न्यायबि०१-४] पृ.५०८ (१) पृ. ९३,४५३ (२) कल्पनीयास्तु सर्वज्ञा भवेयुर्बहवस्तव ।। एगे भवं दुवे भवं । [भगवतीसूत्र शतक १८ उ० १.] य एव स्यादसर्वज्ञः स सर्वज्ञं न बुध्यते ॥ पृ. ६२५ (१) [श्लो० वा. सू. २ श्लो० १३५] पृ. ५३ एते च त्रयो भङ्गा गुण-प्रधानभावेन सकलधर्मात्मकैक कस्मात् सानादिमत्खेवं गोवं यस्मात् तदात्मकम् । वस्तुप्रतिपादकाः वयं तथाभूताः सन्तो निरवयवप्रतिपत्तिद्वारेण तादात्म्यमस्य कस्मात् चेत् स्वभावादिति गम्यताम् ॥ सकलादेशाः, वक्ष्यमाणास्तु चत्वारः सावयवप्रतिपत्तिद्वारेणाशे- | षधर्माकान्तं वस्तु प्रतिपादयन्तोऽपि विकलादेशाः । [ श्लो० वा० आकृ० श्लो० ४७ ] पृ. २४० (६) कस्यचित्तु यदीष्येत खत एव प्रमाणता । [ ] पृ. ४४५ (११,१२) प्रथमस्य तथाभावे प्रद्वेषः केन हेतुना ॥ एवं त्रिचतुरज्ञानजन्मनो नाधिका मतिः । [श्लो० वा. सू. २ श्लो० ७६ ] पृ. ६ प्रार्थते तावतैवैकं खतः प्रामाण्यमश्नुते ॥ कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्षण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां वा । [श्लो० घा० सू० २ श्लो. ६१] पृ.८ खभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ॥ एवं धमैर्विना धर्मिणामुद्देशः कृतः । ] पृ. ७१२ (१) [प्रशस्तपादभा० पृ० २६ पं०१] पृ. ६६१ (३) कः शोभेत वदन्नेवं यदि न स्यादहीकता। एवं परीक्षकज्ञानत्रितयं नातिवर्तते।। अज्ञा(s)ता वा यतः सर्व क्षणिकेष्वपि तत्समम् ॥ ततश्चाजातबाधेन नाशक्ष्यं बाधकं पुनः ॥ [हे. वि० पृ० १२९ ] पृ. ३२९ (१७) [तत्त्वसं० का० २८७१] पृ. १९ कारणमस्त्यव्यकम् । [ साङ्ख्यका० १६ ] पृ. २८४ एवं परोक्तसम्बन्धप्रत्याख्याने कृते सति । कारणसंयोगिना कार्यमवश्यं संयुज्यते । नियमो नाम सम्बन्धः खमतेनोच्यतेऽधुना ॥ ] पृ. १४९ [ पृ. २० कारुण्याद् भगवतः प्रवृत्तिः । नन्वेवं केवलः सुखरूपः प्राणिएवं यत् पक्षधर्मत्वं ज्येष्ठं हेवामिष्यते। तत् पूर्वोक्तान्यधर्मवदर्शनाद् व्यभिचार्यते ॥ सर्गोऽस्तु, नैवम् ; निरपेक्षस्य कर्तृवेऽयं दोषः सापेक्षले तु कथ. मेकरूपः सर्गः ? यस्य यथाविधः कर्माशयः पुण्यरूपोऽपुण्यरूपो एष प्रत्यक्षधर्मश्च वर्तमानार्थतैव या ॥ वा तस्य तथाविधफलोपभोगाय तत्साधनान् शरीरादींस्तथावि[श्लो० वा. निरा० श्लो० ११४ ] पृ. ५३७ (१०) धांस्तत्सापेक्षः सृजति ।। एषामैन्द्रियकलेऽपि न तादूप्येण धर्मता । कार्य धूमो हुतभुजः कार्ये धर्मानुवृत्तितः।। [श्लो० वा. सू. २ श्लो० १३] पृ. ५०५ (१०) पृ. ५७ (४) ५८ कार्य धूमो हुतभुजः, कार्यधर्मानुवृत्तितः। औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धः। स तदभावेऽपि भवन् कार्यमेव न स्यात् ॥ [मीमा० १-१-५ पृ०५] पृ. ३८६ पृ.२० Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । कार्य धूमो हुतभुजः कार्यधर्मानुवृत्तितः। | को हि भावधर्म हेतुमिच्छन् भावं नेच्छेत् । सम्भवंस्तदभावेऽपि हेतुमत्तां विलङ्घयेत् ॥ ] पृ. ४८० (४) ] पृ. ३२२ (१,२,३), ५६९ (३) | क्रमेण युगपञ्चैव यतस्तेऽर्थक्रियाकृतः । कार्यकारणभावादिसम्बन्धानां द्वयी गतिः । न भवन्ति ततस्तेषां व्यर्थः क्षणिकताश्रमः ॥ नियमानियमाभ्यां स्यादनियमादतद्गता ॥ ] पृ. ३२९ ] पृ. २१ क्रियारूपत्वादपोहस्य विषयो वक्तव्यः । तत्र 'अगौर्न भवति' कार्यकारणभावाद्वा खभावाद्वा नियामकात् । इत्ययमपोहः किं गोविषयः अथागोविषयः ? यदि गोविषयः अविनाभावनियमोऽदर्शनान्न न दर्शनात् ॥ कथं गोर्गव्येवाभावः? अथागोविषयः कथमन्यविषयादपोहाद] पृ. ७६, ५५८ (१४) न्यत्र प्रतिपत्तिः, नहि खदिरे छिद्यमाने पलाशे छिदा भवति । कार्यखान्यखलेशेन यत् साध्यासिद्धिदर्शनं तत् कार्यसमम् । अथागोर्गवि प्रतिषेधो 'गौरगौर्न भवति' इति, केनागोवं प्रसक्तं ___] पृ. ११५ (६) यत् प्रतिषिध्यत इति । [न्यायवा० पृ० ३२९ पं० २४-१० कार्यस्यैवमयोगाच्च किं कुर्वत् कारणं भवेत् । ३३० पं० ४ ] पृ. २०० (११,१२) ततः कारणभावोऽपि बीजादे वकल्पते ॥ क्रियावद् गुणवत् समवायिकारणं द्रव्यम्। [तत्त्वसं० का० १३ ] पृ. २८३ (१४) 1 [वैशेषिकद. १-१-१५] पृ. ६३३ (३) कालः पचति भूतानि कालः संहरति प्रजाः । क्रीडा हि रतिम विन्दताम् , न च रत्यर्थी भगवान् दुःखाभाकालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः॥ वात् । [न्यायवा, पृ० ४६२] पृ. ९९ [महाभा० आदिप० अ० १ श्लो० २७३,२७५] क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः। पृ ७११ (४,५) [ योगद० पा० १ सू० २४ ] पृ. ६९,१३३. क्लेशेन पक्षधर्मलं यस्तत्रापि प्रकल्पयेत् । कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे। [पा० २-३-५ ] पृ. ६०५ ( न सङ्गच्छेत तस्यैतल्लक्ष्येण सह लक्षणम् ॥ कालो य होइ सुहुमो। [ ] पृ. ६५५ पृ. ५७० किं स्यात् सा चित्रकस्यां न स्यात् तस्यां मतावपि । क्वचित् तदपरिज्ञानं सदृशापरसम्भवात् । ] पृ. २४१ (१४) भ्रान्तेरपश्यत (1) भेदं मायागोलकमेदवत् ॥ किन्तु गौर्गवयो हस्ती वृक्ष इत्यादिशब्दतः । विधिरूपावसायेन मतिः शाब्दी प्रवर्तते ॥ __] पृ. ३१८ (३) [तत्त्वसं. का. ९११] पृ. १८६ (१) क्व वा श्रुतिः । [ तत्त्वसं० का० ९०७ ] पृ. १८५ किन्तु विध्यवसाय्यस्माद् विकल्पो जायते ध्वनेः । क्षणिकाः सर्वसंस्काराः । [ पृ.७०६ पश्चादपोहशब्दार्थनिषेधे जायते मतिः ॥ क्षणिकाः सर्वसंस्काराः विज्ञानमात्रमेवेदं भो जिनपुत्राः । यद् [ तत्त्वसं० का० ११६४ ] पृ. २२७ (४) इदं त्रैधातुकम् । [ ] पृ. ७३१ किल सामग्री करणं तच्च कर्तृकर्मापेक्षम् सामग्रीजनकत्वेन क्षणिका हि सा न कालान्तरमवतिष्ठते। पृ. २५ तयोर्ध्या तेरर्थान्तरभूतयोरभावात् किमपेक्ष्य साधकतमत्वमा क्षणिका हि सा न कालान्तरमास्ते ।। सादयेत् ।। पृ. ४७२ (९,१०) पृ. ५४ (१) केचिदेव निरात्मानो बाह्या इष्टा घटादयः । क्षीरे दधि भवेदेव दनि क्षीरं घटे पटः। गमनं कस्यचिच्चैव भ्रान्तैस्तद्विनिवर्त्यते ॥ शशे शृङ्गं पृथिव्यादौ चैतन्यं मूर्तिरात्मनि ॥ [तत्त्वसं. का. ११८७ ] पृ. २२९ (१७-१८) केवल एव धर्मो धर्मिणि साध्यस्तथेष्टसमुदायस्य सिद्धिः [श्लो० वा० अभावप० श्लो० ५] पृ. ५८१ (२) क्षीरे दध्यादि यन्नास्ति प्रागभावः स उच्यते ॥ कृता भवति। [ ] पृ. ५५४ केवलणाणुवउत्ता जाणंति । | [ श्लो० वा० अभावप० श्लो० २] पृ. १८६ (११) ५८१ (१) [प्रज्ञाप० द्विती० प० सू० ५४ गा० १६१] पृ.६०८ (६,७) गतोदके कः खलु सेतुबन्धः ।। पृ. ३७० केवलनाणे केवलदसणे।[ ] पृ. ६१७ गला गवा च तान् देशान् यद्यर्थों नोपलभ्यते। केवलणाणे णं भंते![ पृ. ६०७ (२)| तदान्यकारणाभावादसन्नित्यवगम्यते ॥ ___ केवली णं भंते ! इमं रयणप्पमं पुढविं आयारेहिं पमाणे हिं| [श्लो. वा. अर्था० श्लो०३८] पृ. २३,३२१ हेऊहिं संठाणेहिं परिवारेहिं जं समयं जाणइ नो तं समयं गम्भीरध्वानवत्त्वे सति ।[१-१-५ न्यायवा० पृ. ४७] पासइ? हंता गोयमा ! केवली णं।[ ] ६०५ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । गवयश्चाप्यसम्बन्धान गोलिङ्गलमृच्छति । ग्राह्यप्राहकोभयशून्यं तत्त्वम् ।। ___] पृ. ७३१ सादृश्यं न च पूर्वेण पूर्व दृष्टं तदन्वयि ॥ [लो. वा. उपमान० श्लो. ४५] पृ. ५७७ (6) घटादिषु (१) यथा हेतवो ध्वंसकारिणः । गवये गृह्यमाणं च न गवार्थानुमापकम् । नैवं नाशस्य सो हेतुम्तस्य सजायते कयम् ॥ प्रतिज्ञार्थंकदेशलाद् गोगतस्य न लिङ्गता ॥ [ ] पृ. ३४६ (८,९,१०) [श्लो० वा. उपमान० श्लो० ४ ४ ] पृ. ५७७ (२,३) घटादीनां न वाकारात् (न्) प्रत्यापयति वाचकः । गवयोपमिताया गोस्तज्ज्ञानग्राह्यशक्तिता ॥ | वस्तुमात्रनिवेशिवात् तद्गतिनीन्तरीयकै. ॥ [श्लो.वा. अर्धाप० श्लो. ४] पृ. ५७९ (३) [वाक्यप० द्वि. का. श्लो. १२५] पृ. ३१६ (१,२) गवाश्वप्रभृतीनि च । [पाणि० २-४-११] पृ. १९० (९) गव्यसिद्धे खगौनास्ति तदभावेऽपि गौः कुतः। चक्षुः प्रतीय रूपादि चोत्पद्यते चक्षुर्विज्ञानम् । _[श्लो० वा० अपो० श्लो० ८५] पृ. १९१ (१२,१३) z.३०९ (५) गामहं ज्ञातवान् पूर्वमश्वं जानाम्यहं पुनः। चक्षु.श्रवसो भुजङ्गाः।। ] पृ. ५७ [श्लो. वा. सू० ५ आत्म० श्लो. १२२] पृ.८८ |चक्षुः-श्रोत्र-मनसामप्राप्तार्थकारित्वम् । गीयत्यो य विहारो बीओ गीयत्थमीसओ भणिओ। ] पृ. ५४५ [ओघनियुक्ति गा० १२१] पृ. ७५६ (५) । चक्षुपो घटेन संयोग । युतसि द्वखान् द्रव्यममवेतानां गुणपर्यायवद् द्रव्यम् । [तत्त्वार्थ० अ० ५ सू० ३७] | गुणादीनां संयुक्तसमवाय एव । [ ] पृ. ५४५ चतसृषु भेदविधासु तत्त्वं परिसमाप्यते यदुन प्रमाता प्रमे. गुणविशेषाणां रूप-रस-गन्ध-स्पीनाम् गुरुत्व-द्रवख-घनव- | यम् प्रमाणम् प्रमितिः । [ पृ. २९५ (४) संस्काराणाम् अव्यापिनश्च परिमाणविशेषस्याश्रयो यथासम्भवं चतुरश्छयती आद्यक्षरलोपश्च । तद् द्रव्यं मूर्ति (मूर्तिः) मूर्चिछतावयवत्वात् । [पाणि० अ० ५ पा० २ सू० ५१ वार्ति०] पृ. २२५ (२४) [न्यायद० वात्स्या० भा० पृ० २२४ ] पृ. १७८ चित्रप्रतिभासाऽयेकैव बुद्धिः, बाह्यचित्र विलक्षणत्वात् । गुणाः सन्ति न सन्तीति पौरुषेयेषु चिन्त्यते । ] पृ. २४१ वेदे कर्तुरभावात्तु गुणाशदैव नास्ति नः ॥ चित्रया यजेत पशुकामः ।। पृ. ७३० (३) ] पृ. ११ चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम् । गुणे भावाद् गुणवमुक्तम् । पृ.३०७ (८),५८८ (२) [वैशेषिकद० अ० १ आ० २ सू० १३] पृ. १४०चत्रस्य व्रगरोहणे । [ ] पृ. ९५ गुणेभ्यो दोषाणामभावस्तदभावादू अत्रामाण्यवयासत्त्वेनो- चोदनाजनिता वुद्धिः प्रमाणं दोषवर्जितः।। सोऽनपोदित एवास्ते । [ पृ. १० (३) कारणैर्जन्यमानताल्लिङ्गाऽऽतोक्ताक्षबुद्धिवत् ॥ गूढसिर संधि-पब्वं समभंगमहीरगं च छिण्णरुहं । [श्लो० वा. सू. २ श्लो. १८४] पृ.८ साहारणं सरीरं तबिवरीयं च पत्तेयं ॥ चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः । [ मीमांसाद० १-१-२] पृ. ७३१ [जीवविचा० गा० १२] पृ. ६५४ छक्कायदयावंतो वि संजओ दुलहं कुणइ बोहिं । गृहीतमपि गोलादि स्मृतिस्पृष्टं च यद्यपि । आहारे- [ओघनियुक्ति गा० ४४१] पृ. ७४९ तथापि व्यतिरेकेण पूर्वबोधात् प्रतीयते ॥ [श्लो० वा. प्रत्यक्ष० श्लो०२३२] पृ. ३१९ जंकयमुक्यं । [ पृ. ६.६ गृहीला वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । जं काविलं दरिसणं एवं दवट्टियस्म वतव्वं । [लो. वा० अभावप० श्लो० २७] पृ गृहीखा वस्तुसद्भाव स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । [तृ• का० गा० ४८ ] पृ. २८५ मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया ॥ । समयं च णं समणे भगवं महावीरे । [श्लो० वा. सू. ५ अभावप० श्लो. २७ ] पृ. २३,२७६, [ ] पृ.६०५ गोलसम्बन्धात् प्राग् न गौः नाप्यगौः, गोलयोगाद् गौः। जं समयं पासइ णो तं समयं जाण । [न्य यवा० पृ. ३१८ पं० २१] पृ. १०६ ] पृ. ६१६ गोमानित्येव मान भाव्यमश्ववताऽपि किम् । समय पासइ नो तं समयं जाणइ । ] पृ. ७० ] पृ. ६१६ प्राह्यप्राहकसंवित्तिमेदवानिव लक्ष्यते ॥ 'जाणइ बज्झेऽणुमाणाओ। [विशेषा० भा० गा० ८१४ ] ] पृ. ४०१ (२) पृ. ६१९ (४) साकाक्ष चोदनाललो . Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । जातिमेदश्च तेनैव संस्कारो व्यवतिष्ठते।। ज्ञानमप्रतिघं यस्य ऐश्वर्य च जगत्पतेः । अन्यार्थप्रेरितो वायुर्यथाऽन्यं न करोति वः ॥ वैसग्यं चैव धर्मश्च सहसिद्धं चतुष्टयम् ॥ [श्लो० वा० सू० ६ श्लो० ८] पृ. ३६ (१) ] पृ. ५९ जातिः पदार्थः । [वाजध्यायनः] पृ. १७९ (१,२) ज्ञानमात्रार्थकरणेऽप्ययोग्यं ब्रह्म चामृतम् । जातेऽपि यदि विज्ञाने तावन्नार्थोऽवधार्यते ।। तदयोग्यतयाऽरूपं तद्वा वस्तुषु (2) लक्षणम् ॥ [ ] पृ. १३ (२) पृ. ३८४ (८,९,१०) जातेऽपि यदि विज्ञाने तावन्नार्थोऽवधार्यते।। ज्ञानवान् मृग्यते कश्चित् तदुकप्रतिपत्तये। यावत् कारणशुद्धत्वं न प्रमाणान्तराद्गतम् ॥ अज्ञोपदेशकरणे विप्रलम्भनशङ्किभिः ॥ [श्लो. वा० सू० २ श्लो. ४९] पृ. ५ पृ. १२८ जारिसयं गुरुलिंगं सीसेण वि तारिसेण होयव्वं । ज्ञानादव्यतिरिक्तं च कथमर्थान्तरं व्रजेत् । [धर्मसङ्ग्रहणी गा० ११०८,११११] पृ. ७५० (४) पृ. १८४ (९) जाव अणेगभूयभावभविए भवं । क्षे( अज्ञे )यं कल्पितं कृत्वा तव्यवच्छेदेन ज्ञेयेऽनुमानम् । [भगवतीसूत्र श. १८ उ० १.] पृ. ६२५ [हेतु.] पृ. २२८ (२०,२१) जिज्ञासितविशेषो धर्मी पक्षः। [न्यायबिं० २,८] ५९२ ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्याद् असति प्रतिबन्धरि । जिणा बारसरूवा उ थेरा चोद्दसरूविणो। सत्येव दाह्ये नाग्निः क्वचिद् दृष्टो न दाहकः ॥ अजाणं पण्णवीसं तु अओ उडमुवग्गहो ॥ ] पृ. ६३ [ओघनियुक्ति गा० ६७१] [पञ्चव० गा० ७७१] पृ. ७५१ (१,२) णगिणस्स वा वि । [दशवकालिक गा० २७३ ] पृ. ३५१ जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरामरक्षास्तत्त्वम् । [तत्त्वार्थसू०१-४] पृ. ६५१ णगिणस्स वा वि मुण्डस्स । [दशवैकालिक गा० २७३ ] पृ. ७४७ जीवानामविद्यासम्बन्धः न परात्मनः असौ सदा प्रबुद्धो णत्थि णएण विहूणं सुत्तं अत्थो य जिणमये किंचि। नित्यप्रकाशो नागन्तुकार्थः अन्यथा मुक्त्यवस्थायामपि नावि आसज उ सोआरं णए णयविसारओ बूआ ॥ द्यानिवृत्तिः । यतोऽस्मिन् दर्शने ब्रह्मैव संसरति मुच्यते च । [आवश्यकनि० उवग्यायनि० गा० ३८] पृ. ७४६ (१) अत्रैकमुक्ती सर्वमुक्तिप्रसङ्ग अभेदात् परमात्मनः, यतस्तस्य णीया लोवमभूया आणीया दो वि बिंदु-दुब्भावा । भेददर्शनेन संसारः अभेददर्शनेन च मुक्तिः अत एकस्यैव अत्थं वहति तं चिय जो चिय सिं पुबनिद्दिटो ॥ परमात्मनः परमस्वास्थ्यमापतितम् तस्मान्न ब्रह्मणः संसारः । ]पृ. ६०६ (२) जीवात्मान एवाऽनाद्यविद्यायोगिनः संसारिणः कथञ्चिद् विद्यो ___णो कप्पइ निग्गंथस्स णिग्गंथीए वा अभिन्ने तालपलंबे दये विमुच्यन्ते तेषां खाभाविकाविद्याकलुषीकृतानां विलक्षण पडिगाहित्तए। [कप्पसू. उ. १ सू०१] पृ. ७५२ (२) प्रत्ययविद्योदये नाविद्यानिवृत्तेरनुपपतिः यतो न तेषु स्वाभाविकी विद्या अविद्यावत् अतस्तया निवृत्तिः खाभाविक्या | | तं सव्वणयविसुद्धं जं चरणगुणहिओ साहू। अप्यविद्यायाः।। पृ. २७८ (२१,२२,२३) | [आवश्यकनि० सामाइअनि० गा० १०२ ] पृ. ७५६ (४) जीवो अणाइणिणो। [धर्मसङ्ग्रहणी गा० ३५] पृ. ७४६ ततश्च वासनाभेदाद् भेदः सद्रूपतापि वा। जुगवं दो णत्थि उवओगा। [आवश्यकनि० गा० ९७९] प्रकल्प्यतेऽप्यपोहानां कल्पनारचितेष्विव ॥ पृ. ४७८ (२) जे एर्ग जाणई। [तत्त्वसं० का० १०८७] पृ. २१५ (१५,१६) [आचा० प्र० श्रु० अध्य० ३ उ० ४ सू० १२२] पृ. ६३ | ततः परं पुनर्वस्तुधमैः । जे जत्तिआ इ हेऊ भवस्स । [श्लो० वा० सू० ४ श्लो० १२० ] पृ. ७४ ] पृ. ७४८ (५) ततो निरपवादलात् तेनैवाद्यं बलीयसा । जे भिक्खू कसिणं वत्थं पडिगाहेइ। | बाध्यते तेन तस्यैव प्रमाणवमपोद्यते ॥ पृ. ७५१ [तत्त्वसं० का० २८७० ] पृ. १९ ज्ञातसम्बन्धस्यैकदेशदर्शनादसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिः। ततोऽपि विकल्पात् तदध्यवसायेन वस्तुन्येव प्रवृत्तेः प्रवृत्ती ] पृ. २० (३,४,५) च प्रत्यक्षेणाभिन्नयोगक्षेमलात् । ज्ञातसम्बन्धस्यैकदेशदर्शनादसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिरनुमानम् । पृ. ४६८ (५८) [१-१-५ शाबरभा०] पृ. ५७२ (४) ततो भवत्प्रयुकेऽस्मिन् साधने यावदुच्यते । ज्ञान-चिकीर्षा-प्रयत्नानां समवायः कर्तृता। सर्वत्रोत्पद्यते बुद्धिरिति दूषणता भवेत् ॥ पृ.९८ [श्लो० वा. निरा० श्लो० १७२] पृ. ५६४ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । १. ३१३ (१५) तत्त्वदर्शनं प्रत्यक्षतोऽनुमानतो था। | तथा ध्वन्यन्तराक्षेपो न ध्वन्यन्तरसारिभिः । [ पृ. ९४ (७) तस्मादुत्पत्त्यभिव्यक्त्योः कार्यार्थापत्तितः समः॥ तत् परिच्छिनत्ति अन्य व्यवच्छिनत्ति प्रकारान्तराभावं [ श्लो० वा. सू० ६ श्लो० ८२ ] पृ. ३६ च सूचयति। [ पृ. २८५ (११) तथाऽन्यवर्णसंस्कारशक्तो नान्यं करिष्यति। तत्पूर्वकमनुमानम् ।। ] पृ. ५६० अन्य स्तावादिसंयोगर्नान्यो वर्णी यथैव हि ॥ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानम् । ] पृ.५६० [श्लो० वा. सू० ६ श्लो० ८१] पृ. ३६ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतोदृष्टं च । | तथाविधस्य तस्यापि वस्तुनः क्षणवृत्तिनः। [न्यायद.१-१-५] पृ. ५५९ (१०) ब्रूते समभिरूढस्तु संज्ञामेदेन भिन्नताम् ॥ तत् प्रमाणे । [तत्त्वार्थ० १,१०] पृ. ५९५ तत्र ज्ञानान्तरोत्पादः प्रतीक्ष्यः कारणान्तरात् । तथाहि-पचतीत्युक्त नोदासीनोऽवतिष्ठते। यावद्धि न परिच्छिन्ना शुद्धिस्तावदसत्समा ॥ भुक्ने दीव्यति वा नेति गम्यतेऽन्यनिवर्तनम् ॥ [श्लो० वा० सू० २ श्लो०५०] पृ. ५ [तत्त्वसं० का० ११४६] पृ. २२४ (१४,१५,१६) तत्र प्रत्यक्षतो ज्ञातात् दाहाद्दहनशक्तिता। तदनन्तरं तदीहितविशेषनिर्णयोऽवायः। वहेरनुमितात् सूर्ये यानात् तच्छतियोगिता ॥ [ ] पृ. ५५३ (५) [श्लो० वा. अर्थाप० श्लो० ३] पृ. ५७९ (२) | तदा प्रवर्तने चक्षुषो न दोषः। तत्र महद् द्विविधम्-नित्यम् अनित्यं च । नित्यम् आकाश ] पृ. ४९६ काल-दिगात्मसु परममहत्त्वम् , अनित्यम् ज्यणुकादिषु द्रव्येषु । तद इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । अणु अपि नित्यानित्यभेदात् द्विविधम्-परमाणु-मनस्सु पारि- | [तत्त्वार्थ० अ० १ सू० १४ ] पृ.८० माण्डल्यलक्षगं नित्यम् , अनित्यम् व्यणुक एव । कुवला- तदेवममृतं (तथेदममलं) ब्रह्म निर्विकारमविद्यया। ऽऽमलक-बिल्वादिषु तु महत्खपि तत्प्रकर्षाभावमपेक्ष्य भाक्तो. कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं विवर्तते ॥ ऽणुखव्यवहारः । तथाहि-यादृशं बिल्वे महत् परिमाणम् तादृशं [ ] पृ. ३८३ (१०,११,१२) न आमलके यादृशं च तत् तत्र न तादृशं कुवल इति। तद्गुणैरपकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्यसम्भवात् । ननु महद् दीर्घयोख्यणुकादिषु वर्तमानयोः व्यणु के च यद्वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोषा निराश्रयाः॥ अणुव-हखखयोः को विशेषः । महत्सु 'दीर्घमानीयताम्' [श्लो० वा. सू. २ श्लो०६३] पृ. १९ दीर्घषु 'महद् आनीयताम्' इति व्यवहारभेदप्रतीतेरस्ति तगोः । तदृष्टावेव दृष्टेषु संवित्सामर्थ्यभाविनः । परस्परतो भेदः । अणुखहखखयोस्तु विशेषो योगिनां तद्दर्शि- स्मरणादभिलाषेण व्यवहारः प्रवर्तते ॥ नामध्यक्ष एव । [ ] पृ. ६७५ (३) पृ.१५(११) ४९८ (६) तत्रर्जुसूत्रनीतिः स्यात् शुद्धपर्यायसंश्रिताः (ता)। तद्रूपारोपमन्यान्यव्यावृत्त्याऽधिगतैः पुनः। नश्वरस्यैव भावस्य भावा(वात् )स्थिति वियोगतः ॥ शब्दार्थोऽर्थः स एवेति वचनेन विरुध्यते ॥ ] पृ. ३११ (७,८,९) पृ. १८१ (११) तत्र शब्दान्तरापोहे सामान्य परिकल्पिते। तद्वतो न वाचकः शब्दः, अखतन्त्रवात् । तथैवावस्तुरूपत्वाच्छब्दभेदो न कल्प्यते ॥ पृ. १९७ (१२) [श्लो० वा. अपो० श्लो. १०४ ] पृ. १९५ (१६) तन्मात्राकावणाद् भेदः खसामान्येन नोज्झितः। तत्रात्मनि सुखादीनां यथा वित्तिः फलान्तरम् । नोपात्तः संशयोत्पत्तेः सैव चैकार्थता तयोः॥ तथा सर्वत्र संयोज्या मानमेयफलस्थितिः ॥ पृ. १९६ (१२,१३,१४,१५,१६) ] पृ. ३६५ (२२,२३) तपसा निर्जरा च। [तत्त्वार्थ० ९-३] पृ. ७३५,७३७ तत्रापवादनिर्मुक्तिर्वक्रभावालघीयसी। तमोनिरोधे वीक्षन्ते तमसाऽनावृत्तं(वृतं) परम् । वेदे तेनाप्रमाणलं नाशङ्कामपि गच्छति ॥ घटादिकम्-[ ] पृ. ५४४ (१) [श्लो० वा० सू० २ श्लो० ६८] पृ. १९ (५) तल्लिङ्ग-लिनिपूर्वकम् । [साङ्ख्यका०५] पृ. ५७२ (३) तत्रापि खपवादस्य स्यादपेक्षा क्वचित् पुनः। तस्मात् तद् द्वयमेष्टव्यं प्रतिबिम्बादि सांवृतम् । जाताशङ्कस्य पूर्वेण साऽप्यन्येन निवर्तते॥ तेषु तद् व्यभिचारिलं दुर्निवारमतः स्थितम् ॥ [तत्त्वसं० का० २८६७] पृ. १९ (१) [तत्त्वसं• का० १०९४ ] पृ. २१६ (२२) तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम् । तस्मात् तन्मात्रसम्बन्धः खभावो भावमेव वा। अदुष्टकारणारब्धं प्रमाण लोकसम्मतम् ॥ निवर्तयेत् कारणं वा कार्यमव्यभिचारतः॥ ] पृ. १३,३१८ (१८), ३९४' ] पृ. ५५९ (७) तेषु तवा तत्त्वर: खभावो भावन Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । तस्मात् सर्वेषु यद्रूपं प्रत्येकं परिनिष्ठितम् । तादृक् प्रत्यवमर्शश्च यत्र नैवास्ति वस्तुनि । गोबुद्धिस्तन्निमित्ता स्याद् गोखादन्यच्च नास्ति तत् ॥ अगोशब्दाभिधेयवं विस्पष्टं तत्र गम्यते ॥ [श्लो० वा. अपो० श्लो. १०] पृ. १८७ (१९) [तत्त्वसं० का० १०६३ ] पृ. २१२ तस्मात् खतः प्रमाण सर्वत्रौत्सर्गिकं स्थितम् । तादृक् प्रत्यवमर्शश्च विद्यते यत्र वस्तुनि । बाधकारणदुष्टत्वज्ञानाभ्यां तदपोद्यते ॥ तत्राभावेऽपि गोजातेरगोपोहः प्रवर्तते ॥ [तत्त्वसं० का० २८६२] पृ. १८ [तत्त्वसं० का० १०६०] पृ. २११ (१५) तस्मादननुमानखं शाब्दे प्रत्यक्षवद् भवेत् । तामभावोत्थितामन्यामपत्तिमुदाहरेत्। त्रैरूप्यरहितत्वेन तारग्विषयवर्जनात् ॥ [श्लो. वा० अर्याप० श्लो०९] पृ.५७९ श्लो० वा० शब्दप० श्लो० १८] पृ. ५७४ (७) | ताश्च व्यावृत्तयोऽर्थानां कलनाशिल्पिनिर्मिताः। तस्माद् यतो यतोऽर्थानां व्यावृत्तिस्तन्निबन्धनाः । नापोह्याधारनेदेन भिद्यन्ते परमार्थतः ॥ जातिभेदाः प्रकल्प्यन्ते तद्विशेषावगाहिनः ॥ [तत्त्वसं० का १०४६ ] पृ. २०९ ] पृ. २४३ (२३,२४) तासां हि बाह्यरूपलं कल्पितं न तु वास्तवन् । तस्माद् यत् स्मर्यते तत् स्यात् सादृश्येन विशेषितम् । भेदाभेदी च तत्त्वेन वस्तुन्यत्र व्यवस्थितौ ॥ प्रमेयमुपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम् ॥ [तत्त्वसं. का. १०४७] पृ. २०९ [श्ले. वा० सू० ६ उपमान० श्लो० ३७] पृ. ४६,५७६ (५) ता हि तेन विनोत्पन्ना मिथ्याः स्युर्विषयाहते। तस्माद्यस्यैव संस्कार नियमेनानुवर्तते। न खन्येन विना वृत्तिः सामान्यस्येह दुष्यति ॥ तन्नान्तरीयकं चित्तमतश्चित्तसमाश्रितम् ॥ [श्लो० वा. आकृ० श्लो० ३८ ] पृ. २४० ] पृ. ७७,१५९ (४) तित्थपणाम काउं। तस्माद् यस्यैव संस्कार नियमेनानुवर्तते । [अवश्यकनि० समवस० गा० ४५] पृ. ७५४ (३) शरीरं पूर्वदेहस्य तत् तदन्वयि युक्तिमत् ॥ तुर्ये तु तद्विविक्तोऽसौ पचतीत्यवसीयते । [ ] पृ. ९२ तेनात्र विधिवाक्येन सममन्यनिवर्तनम् ॥ तस्माद् येष्वेव शब्देषु नञ्योगस्तेषु केवलम् । [तत्त्वसं. का. ११५८] पृ. २२५ ( भवेदन्यनिवृत्त्यंशः खात्मैवान्यत्र गम्यते ॥ तेन जन्मैव विषये बुद्धापार उच्यते । [श्लो० वा० अपो० श्लो० १६४ ] पृ. २०१(१२) तदेव च प्रमारू तद्वती करणं च धीः॥ तस्माद् व्याख्याङ्गमिच्छद्भिः सहेतुः सप्रयोजनः। [श्लो० वा० सू० ४ श्लो० ५६ पृ. १० शास्त्रावतारसम्बन्धो वाच्यो नान्यस्तु निष्फलः ॥ | तेन यत्राप्युभी धर्मों । [श्लो. वा० सू० १ श्लो० २५] पृ. १६९ (११) [श्लो. वा० अनु० श्लो० ४] पृ. ९४ तस्य शक्तिरशक्तिर्वा या स्वभावेन संस्थिता । तेन सम्बन्धवेलायां सम्बन्ध्यन्यतरो ध्रुवम् । नित्यवादचिकित्सस्य कस्तां क्षपयितुं क्षमः ॥ अर्थापत्त्यैव मन्तव्यः पश्चादस्वनुमानता ॥ [ ] पृ. ४८२ (६),६८४ (७) [श्लो० वा. सू. ५ अर्थापत्ति० श्लो० ३३] पृ. ४७ (२) तस्यापि कारणाशुद्धेर्न ज्ञानस्य प्रमाणता। तेन सर्वत्र दृष्टवाव्यतिरेकस्य च गतेः। तस्याप्येवमितीत्थं तु न क्वचिद्व्यवतिष्ठते । सर्वशब्देरशेषार्थप्रतिपत्तिः प्रसज्यते ॥ [श्लो० वा० सू० २ श्लो० ५१] पृ. ५ [श्लो० वा० शब्दप० श्लो०८८] पृ. ५७५ तस्यैव चैतानि निःश्वसितानि । तेनायमपि शब्दस्य खार्थ इत्युपचर्यते। [बृह० उ० अ० २ ब्रा० ४ सू० १.] पृ. ३२ न च साक्षादयं शब्दै द्वि(ब्दे)िविधोऽपोह उच्यते॥ तस्यैव व्यभिचारादौ शब्देऽप्यन्यभिचारिणि । [तत्त्वसं० का० १०१५] पृ. २०३ (२७,२८) दोषवत् साधनं शेयं वस्तुनो वस्तुसिद्धितः॥ तेषामदृश्यमानानां कथं च रचनाक्रमः । पृ. ३०९ कीदृशाद् रचनामेदाद् वर्णभेदश्च जायताम् ॥ तस्योपकारकलेन वर्ततेऽशस्तदेतरः। [श्लो० वा. सू. ६ श्लो. १०९१] पृ.३८ उभयोरपि संवित्त्योरुभयानुगमोऽस्ति तु ॥ तेषामेवानेन रूपेण व्यवस्थितत्वात् तदव्यतिरिक्त विकारमात्र [श्लो. वा० अभावप० श्लो. १४१] पृ. ५८१ (७) पृ. ४२२ तादात्म्यं चेद् मतं जातेळफिजन्मन्यजातता। तैरेव गृह्यते शब्दो न दूरस्थैः कथश्चन । नावेऽनाशश्च केनेष्टस्तद्वत्त्वा न त्वयो न किम् (1)॥ [श्लो. वा० सू० ६ श्लो०८६] पृ. ३५ 1 पृ. २४० (१०) । तौ सत् । [पा० सू० ३-२-१२७ । ] पृ. ४४३ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । ४१ त्रिगुणमविवेकिविषयः सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मि । ___ दृष्ट. श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यते इत्यदृष्टार्थकल्पनाऽर्थाव्यक्त तथा प्रधानं तद्विपरीतस्तथा च पुमान् ॥ पत्तिः। [मीमां० शाबर० सू० ५ पृ. ८ पं०१७] पृ. ४६ [साङ्ख्यका० ११] पृ. २८१ देवदत्तोपकरणभूतानि मणिमुक्ताफलादीनि द्वीपान्तरसम्भू. त्रिधैव सः।। ] पृ. ५५८,५५९, तानि देवदत्तगुगकृतानि, कार्यले सति देवदत्तोपकारकखात्, त्रिरूपाणि च त्रीण्येव लिड्नानि ।[ध० न्या० सू० ११] पृ. ३ शकटादिवत् । न च तद्दशेऽसन्निहिता एव तद्गुणास्तान् त्रिरूपालिङ्गादर्थदृग् । [ पृ. ४८० व्युत्पादयितुं समर्थाः, नहि पटदेशेऽसन्निधानवन्तस्तन्तु-तुरित्रिरूपालिङ्गाल्लिशिनि ज्ञानमनुमानम् ।। कुविन्दादयः पटमुत्पादयितुं क्षमाः । आत्मगुणानां च तद्देश. पृ. ५७२ (६) सन्निधानं न तद्दणिसन्निधिमन्तरेण सम्भवि अगुणवप्राप्तेः त्रिरूपालिङ्गाल्लिशिविज्ञानमनुमानम् । ततस्तस्यापि तद्देशवम्। [ ] पृ. १४६ ] पृ. ३ देशकालखभावनियमो न स्यात् । त्रैगुण्यस्याविशेषेऽपि न सर्व सर्वकारकम् । ] पृ. ८ [तत्वसं. का. २८] पृ. ३०१ (११) देशकालादिभेदेन तदाऽस्त्यवसरो मितेः। [श्लो० वा० सू० ४ श्लो० २३३] पृ. ५६ (४) दर्शनेन क्षणिकाक्षणिक साधारणस्यार्थस्य विषयीकरणात् | देश-कालादिभेदेन तत्रास्त्यवसरो मितेः । कुतश्चिद् भ्रमनिमित्तादक्षणिकत्वारोपेऽपि न दर्शनमक्षणिकले | यः पूर्वमवगतो नाशः (नांशः) स च नाम प्रतीयते ॥ प्रमाणम् किन्तु प्रत्युताप्रमाणम् विपरीतावसायाक्रान्तत्वात् [श्लो० वा. प्रत्यक्ष० श्लो० २३३ ] पृ. ३१९ (६,७,८) क्षणिकवेऽपि न तत् प्रमाणं अनुरूपाध्यवसायाजननात् नील- देवरक्ता हि किंशुकाः। [ पृ. १२ (५) रूपे तु तथाविधनिश्चयकरणात् प्रमाणम् । दोषाः सन्ति न सन्तीति पौरुषेयेषु चिन्त्यते। ] पृ. ४७१ वेदे कर्तुरभावातु दोषाशद्वैव नास्ति नः ॥ दव्वट्ठयाए सासया, पजवट्टयाए असासया। [तत्त्वसं• का० २८९५] पृ. ११ (२) पृ. ६३९ द्रवखेन विना चैषां संश्लेपः कल्प्यतां कथम् । दिग्देशाद्यविभागेन सर्वान् प्रति भवन्नपि । आगच्छतां च विश्लेषो न भवेद् वायुना कथम् ॥ तथैव यत्समीपस्थैर्नादैः स्याद् यस्य संस्कृतिः ॥ [श्लो. वा. सू० ६ श्लो० ११.] पृ. ३८ [श्लो० वा० सू० ६ श्लो० ८६ ] पृ. ३५ | द्रव्यलादिमिरनिर्धारितरूपैर्यः सम्बन्धो द्रव्यादीनां स दुःखरूपत्वान्नानुकम्पया प्रवृत्तिः अवाप्तकामखान्न क्रीडार्था शब्दार्थः; स च सम्बन्धिनां शब्दार्थवेनासत्यवादसत्य इत्युइत्येतदपि परिहृतमविद्याखेन, यतो नासौ प्रयोजनमपेक्ष्य प्रव- च्यते । यद्वा तपः श्रुतादीनां मेचकवर्णवदैक्येन भासनादेषामेव तते, नहि गन्धर्वनगरादिविभ्रमाः समुद्दिष्टप्रयोजनानां प्रादुर्भ- परस्परमसत्यः संसर्गः ।[ ] पृ. १८० (६) वन्ति । [ ] पृ. २७८ (५) द्रव्यम् । 1 [व्याडिः] पृ. १७९ (३) दुःखे विपर्यासमतिस्तृष्णा वाऽवन्ध्यकारणम् ।। द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्षः। जन्मिनो यस्य ते न स्तो न स जन्माधिगच्छति ॥ [वैशेषिकद० १-२-२६ ] पृ. ६३३,६७२ [ पृ. १४८ द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । दृश्यमानव्यपेक्षं चेद् दृष्टज्ञानं प्रमान्तरम् । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ तत्पूर्वमस्मादित्यादि प्रमाणान्तरमिष्यताम् ॥ [भग० गी० अ० १५ श्लो. १५] पृ. ९८ पृ.५८३ द्विष्ठसम्बन्धसंवित्तिनैकरूपप्रवेदनात् । दृश्यमानाद् यद्यन्यत्र विज्ञानमुपजायते। पृ. २ (७), २६५ सादृश्योपाधितत्त्वज्ञैरुपमानमिति स्मृतम् ॥ द्विष्ठसम्बन्धसंवित्तिकरूपप्रवेदनात् । ] पृ. ५७५ द्वयस्वरूपग्रहणे सति सम्बन्धवेदनम् ॥ दृश्यात् परोक्षे सादृश्यधीः प्रमाणान्तरं यदि । पृ. ४८३ (११) वैधर्म्यमतिरप्येवं प्रमाणं किं न सप्तमम् ॥ द्वीन्द्रियग्राह्याग्राह्यं विमत्यधिकरणभावापन्नं बुद्धिमत्कारण पृ. ५८३ दृष्टः पञ्चभिरप्यस्माद् भेदेनोक्ता श्रुतोद्भवा । पूर्वकम् , खारम्भकावयवसनिवेशविशिष्ट वात् , घटादिवत् वैध. प्रमाणग्राहिणीत्वेन यस्मात् पूर्व विलक्षणा ॥ | र्येण परमाणवः। [श्लो. वा. अर्थाप० श्लो. २] पृ. ५७८ पृ. १००(४,५) दृष्टः श्रुतो वार्थोऽन्यथा नोपपद्यते। द्वौ प्रतिषेधौ प्रकृतमर्थ गमयतः। [मीमांसाद० अ०१ पा० १ सू०५शाबरभा०] पृ.७१ ] पृ. १०९ १०३ सं० ५० Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । घ धर्मयोर्भेद इष्टो हि धर्नामेदेऽपि नः स्थिते । उद्भवाभिभवात्मत्वाद् ग्रहणं चावतिष्ठते ॥ [श्लो. वा० अभावप० १-२०] पृ. ५८१ (१२ धर्मस्याव्यभिचारस्तु धर्मणान्यत्र दर्श्यते । तत्र प्रसिद्धं तद्युक्तं धर्मिण गमयिष्यति ॥ [ ] पृ. ५५४ (८) धर्माधर्मक्षयंकरी दीक्षा। [ ] पृ. ७३२ धमी धर्मविशिष्टश्च लिङ्गीत्येतच साधितम् । न तावदनुमानं हि यावत्तद्विषयं न तत् ॥ __ [श्लो० वा० शब्दप० ५६] पृ. ५७५ (१) न चावस्तुन एते स्युभेदास्तेनाऽस्य वस्तुनि ( वस्तुता) [श्लो. वा० अभा० परि० श्लो० ८] पृ. १८६ न चावस्तुन एते स्युर्भेदास्तेनास्य वस्तुता। कार्यादीनामभावः को भावो यः कारणादि न ॥ [श्लो० वा० अभावप० श्लो. ८] पृ. ५८० (८) न चासाधारणं वस्तु गम्यतेऽपोहबत्तया। कथं वा परिकल्प्येत सम्बन्धो वस्त्ववस्तुनोः ॥ [श्लो. वा. अपो० श्लो. ८६] पृ. १९२ (१३,१४) न चेश्वरत्वव्याघातः सापेक्षत्वेऽपि, यथा सवितृप्रकाशस्य स्फटिशद्यपेक्षस्य, यथा वा करणाधिष्ठायकस्य क्षेत्रज्ञस्य, सापेक्षत्वेऽपि तेषु तस्येश्वरता द्वदत्रापि ( तद्वदत्रापि ) नेश्वरताविष( विसं) घातः ।। न चैकस्यैव सर्वासु गमनं दिक्षु युज्यते । [ श्लो० वा० सू० ६ श्लो० ११३ ] पृ. ३८ न चैतस्यानुमानत्वं पक्षधर्माद्यसम्भवात् । प्राक् प्रमेयस्य सादृश्यं न धर्मत्वेन गृह्यते ॥ [श्लो० वा. उपमान श्लो. ४३ ] पृ. ५७७ (१) न जातिशब्दो भेदानां वाचकः आनन्यात् । पृ. १७५ (६) न कार्य कारणे विद्यते इति तेभ्यस्तत् पृथग्भूतम् नहि कारणमेव कार्यरूपेण व्यवतिष्ठते परिणमते वा। पृ. ४२२ नक्षत्र-प्रहपजरमहर्निशं लोककर्मविक्षिप्तम् ।। भ्रमति शुभाशुभमखिलं प्रकाशयत् पूर्वजन्मकृतम् ॥ पृ. ६६ न च कार्यम् कारणं वास्ति द्रव्यमात्रमेव तत्त्वम् ॥ ] पृ. ४२२ न च स्मरणतः पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्तनम् ॥ [श्लो. वा. प्रत्यक्ष श्लो. २३५] पृ. ४९६ । न च स्याद् व्यवहारोऽयं कारणादिविभागतः । प्रागभावादिभेदेन नाभावो यदि भिद्यते ॥ [श्लो. वा० अभावप० श्लो. ७ ] पृ. ५८० (६,७) न चागमविधिः कश्चिन्नित्यः सर्वज्ञबोधकः।। न च मन्त्रार्थवादानां तात्पर्यमवकल्पते ॥ [श्लो० वा० सू० २ श्लो० ११८] पृ. ४५ न चागमेन सर्वज्ञस्तदीयेऽन्योन्यसंश्रयात् । नरान्तरप्रणीतस्य प्रामाण्यं गम्यते कथम् ॥ [लो. वा० सू० २ श्लो. ११९] पृ. ४५ न चात्रान्यतरा भ्रान्तिरुपचारेण वेष्यते । दृढखात् सर्वथा बुद्धेन्तिस्तद् भ्रान्तिवादिनाम् ॥ [श्लो० वा. आकृ० श्लो० ७ ] पृ. २३३ (७) न चान्यरूपमन्यादृक् कुर्याज्ज्ञानं विशेषणम् । कथं चान्यादृशे ज्ञाने तदुच्येत विशेषणम् ॥ [श्लो० वा. अपो० श्लो० ८९] पृ. १९२ (१५) न चान्वयविनिर्मुक्ता प्रवृत्तिः शब्द-लिङ्गयोः। पृ. १९० न चापि लिङ्गतः पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्तनम् । वाते केनचिन्नापि तदिदानी प्रदुष्यति ॥ ] पृ. ४९६ न चाप्यश्वादिशब्देभ्यो जायतेऽमोहबोधनम् । विशेष्यबुद्धिरिटेह न चाज्ञातविशेषणा ॥ [लो० वा. अपो० श्लो. ८८] पृ. १९२ न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ [महाभा. आदिप० अ० ७८ श्लो. १२] पृ. १५३ न तदात्मा परात्मेति सम्बन्धे सति वस्तुभिः । व्यावृत्तवस्त्वधिगमोऽप्यर्थादेव भवत्यतः ॥ [तत्त्वसं० का० १०१४ ] पृ. २०३ (२५,२६) न तावदिन्द्रियेणैषा नास्तीत्युत्पाद्यते मतिः। भावांशेनैव संयोगे योग्यत्वादिन्द्रियस्य हि ॥ [श्लो० वा० अभावप० श्लो० १८ ] पृ. ३५१,५८० (५) न तावद्यत्र देशेऽसौ न तत्कालेऽवगम्यते । भवेन्नित्यविभुखाचेत् सर्वार्थेष्वपि तत्समम् ॥ [श्लो० वा० शब्दप० ८७] पृ. ५७५ (४) न त्वेकात्मन्युपेयानां हेतुरस्ति विलक्षणः ॥ [श्लो० वा० सू० ५ श्लो० ८६ ] पृ. २७८ नदीपूरोऽप्यधोदेशे दृष्टः सन्नुपरिस्थिताम् । नियम्यो गमयत्येव वृत्तां वृष्टिं नियामिकाम् ॥ ] पृ. ५५० (३) ननु गुणव्यतिरिक्तो गुणी उपलभ्यत एव तद्रूपादिगुणाग्रहणेऽपि तस्य ग्रहणात् । तथाहि मन्दमन्दप्रकाशे तद्गतसितादिरूपानुपलम्भेऽपि उपलभ्यते बलाकादिः, खगतशुक्ल गुणाग्रहणेऽपि च सन्निहितोपधानावस्थायां गृह्यते स्फटिकोपलः, तथाऽऽप्रपदीनकञ्चकावच्छ शरीरः पुमास्तगतश्यामादिरूपाप्रतिभासेऽपि 'पुमान्' इति प्रत्ययोत्पत्तः प्रतिभात्येव, कुखमादिरकं च वस्त्रं तद्रूपस्य संसर्गिरूपेणाऽभिभूतस्य अप्रकाशेऽपि Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । प्रकाशत एव 'वस्त्रम्' इति प्रत्ययोत्पत्तेः अध्यक्षत एव गुण- | न रेखाकादयः कादित्वेन कादीनां गमकाः, एवं रेखागवगुणिनोर्मेंदः सिद्धः । तथा, अनुमानतोऽपि तयोर्भेदः । यादयोऽपि न गवयत्वेन सत्यगवयादीनाम् ; अपि तु सारूप्यात् तथाहि-यद् यद्यवच्छेद्यत्वेन प्रतीयते तत् ततो भिन्नम् , एवंरूपा गवयादयः सत्याः, वर्णप्रतिपत्त्युपाया अपि रेखाकायथा देवदत्ताद् अश्वः, गुणिव्यवच्छेद्यत्वेन प्रतीयन्ते च नीलो- दयः पुरुषसमयात् वर्णानां स्मारकाः न तु तेषां वर्णत्वेन त्पलस्य रूपादय इति । तथा, पृथिव्यप्-तेजो-वायवो द्रव्याणि वर्णप्रतिपादकत्वम् , रेखादिरूपेण च सत्त्वाद् गृहीतसमयानां रूप-रस-गन्ध-स्पर्शेभ्यो भिन्नानि, एकवचन-बहुवचन विषय- पुनरुपलभ्यमानाः समयं स्मारयन्ति समयग्रहणाद् यथैव लात्, यथा 'चन्द्रः' 'नक्षत्राणि' इति, तथा च 'पृथिवी' इति | व्युत्पन्नानां बालादिषु प्रवृत्तिः । [ ] एकवचनम् 'रूप-रस-गन्ध-स्पर्शाः' बहुवचनमुपलभ्यते इति पृ. २७९ (१८,१९,२०) तयोर्भेदः । अवयवाऽवयविनोरप्यनुमानतः सिद्धो भेदः । नर्ते तदागमात् सिध्येद् न च तेनागमो विना । तथाहि-विवादाधिकरणभ्यस्तन्तुभ्या मिन्नः पटः भिन्नक-| [श्लोक वा० सू० २ श्लो० १४२] पृ.५१ कलात् घटादिवत् , भिन्नशक्तिकत्वाद् वा विषागदवत्, न वाच्यं वाचकं चास्ति परमार्थेन किञ्चन । पूर्वोत्तरकालभावित्वादु वा पितापुत्रवत् , विभिन्नपरिमाणत्वाद् क्षणभगिषु भावेषु व्यापकत्ल वियोगतः॥ वा कुवल-बिल्ववत् इति । विरुद्धधर्माध्यासनिबन्धनो तित्त्वसं० का. १०९०] पृ. २१६ (९,१०) धन्यत्रापि भावानां भेदः, स च अप्यस्ति इति कथं न मेदः ? न विकल्पानुबद्धस्य स्पष्टार्थप्रतिभासिता । यदि चावयवी अवयवेभ्यो भिन्नो न भवेत् स्थूलप्रतिभासो | स्वप्नेऽपि स्मर्यते स्मार्त न च तत् तादृगर्थदृग् ॥ न स्यात् , परमाणूनां सूक्ष्मत्वात् । न च अन्यादृग्भूतः प्रति ] पृ. ५०२ (१४) भासः अन्याहगर्थव्यवस्थापकः अतिप्रसङ्गात् । न च स्थूला- | न वै किञ्चिदेकं जनकम् ।। भावे 'परमाणुः' इति व्यपदेशोऽपि सम्भवी, स्थूलापेक्षिवाद् पृ. ४०० (१०), ५२७ (४) अणुवस्य । [ ] न वै हिंस्रो भवेत् ।। पृ. ६५८(९), ६५९ (१,२,३,४,५,६,७,८.) ननु ज्ञानफलाः शब्दाः।[ न व्यक्तशक्तिरीशोऽयं क्रमेणाप्युपपद्यते । पृ. २०४ (१८) व्यक्तशक्तिरतोऽन्यश्चेत् भावो अंकः कथं भवेत् ॥ ननु ज्ञानफलाः शब्दा न चैकस्य फलद्वयम् । ] पृ. ७१७ (१) अपवाद-विधिज्ञानं फलमेकस्य वः कथम् ॥ न शाबलेयाद् गोबुद्धिः ततोऽन्यालम्बनापि वा। [भामहालं. परि० ६ श्लो० १८] पृ. १८६ (४,५) तदभावेऽपि सद्भावाद् घटे पार्थिवबुद्धिवत् ॥ ननु भावादभिन्नत्वात् सम्प्रयोगोऽस्ति तेन च । [श्लो० वा. वन० श्लो० ४] पृ. ६९५ न ह्यत्यन्तममेदोस्ति रूपादिवदिहापि नः ॥ न स त्रिविधाद्धेतोरन्यत्रास्तीत्यत्रैव नियत उच्यते । [श्लो० वा० अभावप० १९] पृ. ५८१ (११) ] पृ. ५५८ (९) न नैवमिति निर्देशे निषेधस्य निषेधनम् । एवमित्यनिषेध्यं तु खरूपेणैव तिष्ठति ॥ न सदकरणादुपादानप्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच सत् कार्यम् ॥ पृ. १९९ [सा० का० ९] पृ. २७ (११) नन्वन्यापोह कृच्छब्दो युष्मत्पक्षेनुवर्णितः। निषेधमात्रं नैवेह प्रतिभासैव (सेज ) गम्यते ॥ |न सर्वलोकसाक्षिकं सुखं प्रत्याख्यातुं शक्यम् । [तत्त्वस. का. १० ] पृ. १८५ (१४,१५,१६) ] पृ. १५३ (४) न प्रत्यक्षपराक्षाभ्यां मेयस्यान्यस्य सम्भवः । न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते। तस्मात् प्रमयद्विलेन प्रमाणद्वित्वमिष्यते ॥ अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वशब्देन भासते ॥ पृ. ५७४ [वाक्यप० श्लो० १२४ प्रथमका०] पृ. ३८० (९,१०) न प्रत्यात्मवेदनीयस्य सुखस्य प्रतीतेः प्रत्याख्यानम् । न हि तत् केवलं नीलं न च केवलमुत्पलम् । पृ. १५३ समुदायाभिधेयखात् ।। न याति न च तत्रासीदस्ति पश्चान्न वांशवत् । पृ १९६ (२१) जहाति पूर्व नाधारमहो व्यसनसन्ततिः ॥ नहि तत् क्षणमप्यास्ते जायते वा प्रमात्मकम् । पृ. ६९१ (२) येनार्थग्रहणे पश्चाद्याप्रियेतेन्द्रियादिवत् ॥ नयास्तव स्यात्पदलाच्छना इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः । [श्लो० वा० सू०४ श्लो०५५] पृ. १. भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः॥ नहि दृष्टऽनुपपन्नम् ।। [वृहत्खयम्भूस्तोत्रम् ६५] पृ. ७५७ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति टीकागतान्यवतरणानि । ४४ नहि भिन्नावभासित्वेऽप्यर्थान्तरमेव रूपं नीलस्यानुभवात् । [ ] पृ. ३६४ न हि स्मरणतो यत् प्राक् तत् प्रत्यक्षमितीदृशम् ॥ [ श्लो० वा० प्रत्यक्ष० श्लो० २३४] पृ. ३१९ न हेतुरस्तीति वदन् सहेतुकं ननु प्रतिज्ञां स्वयमेव बाधते । अथापि हेतु प्रणयासो भवेत् प्रतिज्ञया केवलयाऽस्य किं भवेत् ॥ [ ] पृ. ७१३-१४ प्रत्यक्ष कार्य कारणभावगतिः । मह्यवश्यं कारणानि फलवन्ति । [ न ह्यस्य द्रष्टुर्यदेतद् मम गौरं रूपं सोऽहमिति भवति प्रत्ययः, केवलं मतुब्लोपं कृत्वैवं निर्दिशति । नाकारणं विषयः । [ नाक्रमात् क्रमिणो भावः । [ न्यायवा० पृ० ३४१ पं० २३] पृ. ८० नाभ्यामर्थं परिच्छिद्य प्रवर्तमानोऽर्थक्रियायां विसंवाद्यते । ] पृ. ४६८ न येकं किञ्चिज्जनकम्, सामग्री वै जनिका । ] पृ. १४ नामूर्त मूर्त्ततामेति मूर्त्तं नायात्यमूर्तताम् । ] पृ. ३४६ | द्रव्यं कालत्रयेऽपीत्थं च्यवते नात्मरूपतः ॥ ] पृ. १२ ] पृ. ६५८ [ ] पृ. १८४ (१५) नाक्रमात् क्रमिणो भावो नाप्यपेक्षा विशेषिणः । क्रमाद्भवन्ती धीर्ज्ञेयात् क्रमं तस्यापि सेत्स्यति ॥ ] पृ. ३३६ (२२,२३) नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः । [ ] पृ. ८४, ५७४ (७), ६१६, ७२४, नातीन्द्रियार्थप्रतिषेधो विशेषस्य कस्यचित् साधनेन निराकरणेन वा कार्य :- तदभावे विशेषसाधनस्य तन्निराकरण हेतोर्वाऽऽश्रयासिद्धत्वात् किन्त्वतीन्द्रियमर्थमभ्युपगच्छंस्तत्सिद्धौ प्रमाणं प्रष्टव्यः । स चेत् तत्सिद्धौ प्रयोजकं हेतुं दर्शयति 'ओम्' इति कृत्वाऽसौ प्रतिपत्तव्यः । अथ न दर्शयति प्रमाणाभावादेवासौ नास्ति, नतु विशेषाभावात् । [ ] पृ. ९८ तोऽतोऽपि भावत्वमिति क्लेशो न कश्चन । [ तत्त्वसं० का ० १०८४ ] पृ. २१४ (२४) ना देनाssहित बीजायामन्त्येन ध्वनिना सह । आवृत्तपरिपाकायां बुद्धौ शब्दोऽवभासते ॥ [ वाक्यप० प्र० का० लो० ८५] पृ. ४३५ (२) नाधाराधेयवृत्त्यादिसम्बन्धश्चाप्यभावयोः ॥ नापोत्यत्वमभावानामभावाभाववर्जनात् । व्यक्तोऽपोहान्तरेऽपोहस्तस्मात् सामान्यवस्तुनः ॥ [ श्लो० वा० अपो० लो० ९५] पृ. १९४ नाभावोऽपोह्यते ह्येवं नाभावो भाव इत्ययम् । भावस्तु न तदात्मेति तस्येष्टैवमपोह्यता ॥ [ श्लो० वा० अपो० श्लो० ८५] पृ. १९१ (१६) माननुकृतान्वयव्यतिरेकं कारणं नाका (नाक) रणं विषयः । [ ] पृ. ३१२,५१० (१) ५७३ (६) ७२८ नान्योऽनुभाव्यो बुद्धयास्ति तस्या नानुभवोऽपरः । प्रायप्राहक वैधुर्यात् स्वयं सैव प्रकाशते ॥ [ ] १. ४८३ (७,८,९) [ तत्त्वसं ० का ० १०८१ ] पृ. २१४ नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि । ] पृ. १५० ] पृ. ४५६ (१) नार्थशब्दविशेषस्य वाच्यवाचकतेष्यते । तस्य पूर्वमदृष्टत्वात् सामान्यं तूपदेक्ष्यते ॥ ] पृ. १९५ (१३,१४) नावश्यं कारणानि तद्वन्ति भवन्ति । [ नासिद्धे भावधर्मोऽस्ति । ] पृ. ५६२ ] पृ. ४८० (३), ५६२ (९) नासौ न पचतीत्युके गम्यते पचतीति हि । औदासीन्यादियोगश्च तृतीये नञि गम्यते ॥ [ तत्त्वसं ० का ० ११५७ ] पृ. २२५ नास्तिता पयसो दनि प्रध्वंसाभावलक्षणम् । वि यश्वाद्यभावस्तु सोऽन्योन्याभाव उच्यते ॥ [ श्लो० वा० अभावप० श्लो० ३] १८६ (१२), ५८१ नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वसम्भवः ॥ [ ] पृ. ६९, ७४ नित्य नैमित्तिके कुर्यात् प्रत्यवायजिहासया । मोक्षार्थी न प्रवर्त्तेत तत्र काम्य निषिद्धयोः ॥ ] पृ. १५१ [ नित्य - नैमित्तिकैरेव कुर्वाणो दुरितक्षयम् । ज्ञानं च विमलीकुर्वन्नभ्यासेन तु पाचयेत् ॥ [ नित्यमेकमण्डव्यापि निष्क्रियम् । [ ] पृ. १५० ] पृ. ७३१ नित्यानुमेयत्वात् समवायस्यानुमानगोचरता, तेनायमदोष इति । तच्चानुमानम् -' इह तन्तुषु पटः' इति बुद्धिस्तन्तु पटव्यतिरिक्त सम्बन्धपूर्विका 'इह इति बुद्धित्वात्' इह कंसपात्र्यां जलबुद्धिवत् । [ ] पृ. १०७ 'निरंशं वस्तु सर्वात्मना विषयीकृतं नांशेन' इत्येवं विकल्पो नावतरति, सर्वशब्दस्याने कार्य विषयत्वात् एकशब्दस्य चावयववृत्तित्वात् । [ ] पृ. २२० निरन्वयविनश्वरं वस्तु प्रतिक्षणमवेक्षमाणोऽपि नावधारयति । पृ. ७२८ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । निराकारमेव ज्ञानमन्मुिखमुपलभ्यमानं प्रतिनियमेन कथं नो चेटु भ्रान्ति निमित्तेन संयोज्यन गुणान्तरम् । सर्वसाधारणमिति सिद्धः प्रतिकर्मप्रत्ययः। शुक्तौ वा रजताकारो रूपसाधर्म्यदर्शनात् ॥ ] पृ. ४६३ पृ. ५०७ निराकारा नो बुद्धिः।। पृ. ४६२ नोभयमनर्थकम् ।। ] पृ. १५२ (२) निराकारो बोधोऽर्थसहभाव्ये कसामध्यधीनस्तत्रार्थे प्रमाण ।। पक्षधर्मतानिश्चयः प्रत्यक्षतः क्वचित् । निर्गुणा गुणाः। [ ] ६७६ (४) ] पृ. ५१२ (१२) निर्विशेष हि सामान्यं भवेच्छ रा विषाणवत् ॥ पक्षधर्मतानिश्चयः प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा। [श्लो. वा. आकृति० श्लो. १०] पृ. ४०७ ] पृ. ७६ यन्न निश्चीयते रूपं तत् तेषां विषयः कथम् ॥ पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुस्त्रिधैव सः। पृ. ३८२ (२) अविनाभावनियमाद्धेवाभासास्ततोऽपरे ॥ निश्चीयमानानिश्चीयमानयोभैदान्निश्चायकं वाध्यक्षं पररक्षे। ] पृ. ५५६ (२) ] पृ. ३८६ (२,३) पञ्चविशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे रतः। निषेधमात्रं नैवेह शाब्दे ज्ञानेऽवभासते । शिखी मुण्डी जटी वाऽपि मुच्यते नात्र संशयः॥ [तत्त्वसं० का० १०१३] पृ. २०३ (१३) ] पृ. २८१ (८) निष्पत्तेरपराधीनमपि कार्य स्खहेतुना । पदमप्यधिकाभावात् स्मारकान्न विशिष्यते । सम्बध्यते कल्पनया किमकार्य कथञ्चन ॥ [श्लो. वा० शब्दप० श्लो. १०७] पृ. ७४२ ] पृ. ६३ पदं वभ्यधिकाभावात् स्मारकान विशिष्यते। निःसामान्यानि सामान्यानि। अथाधिक्यं भवेत् किश्चित् स पदस्य न गोचरः॥ [ ] पृ. २२२ (६), ५६६ [श्लो० वा० शब्दप० श्लो० १०७] पृ. ४३९ (८,९,१०) नीलोत्पलादिशब्दा अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानांनाहः । पदार्थपूर्वकस्तस्माद् वाक्यार्थोऽयमवस्थितः । ] पृ. १९१, २१२ (२०,२१) [श्लो. वा. वाक्याधि० श्ले० ३३६ ] पृ. ७४३ नेदं प्रत्यक्षलक्षणविधानं किन्तु लोकप्रसिद्धप्रत्यक्षानुवादेन | पदार्थानां तु मूलचमिष्टं तद्भावभावतः। प्रत्यक्षस्य धर्म प्रत्यनिमित्तखविधानम् । [श्लो० वा. वाक्यावि० श्लो० १११] पृ. ७४३ [ ] पृ. ५३५ (३) परमाणूत्पादकामिमतं कारणं सद्धर्मोपेतं न भवति, सत्त्वनेष्टोऽसाधारणस्तावद् विशेषो निर्विकल्पनात् । प्रतिपादकप्रमाणाविषयत्वात् , शशशगवत् । तथा च शाबलेयादिरसामान्यप्रसङ्गतः ॥ [ पृ. ६५८ [श्लो० वा. अपो० श्लो०३] पृ. १८७ (१५,१६,१७,१८) परमात्माऽविभागोऽप्यविद्याविप्लुतमानसैः । नेह नानास्ति किञ्चन । सुख-दुःखादिभिर्भागैर्मेदवानिव लक्ष्यते॥ . [बृहदा० उ० अ० ४ ब्रा० ४ मं० १९] पृ. २७३ (७) पृ. ४१४ नैकदेशवाससादृश्येभ्योऽर्थान्तरभावात् । परलोकिनोऽभावात् परलोकाभावः।। [न्यायद० २-1-३८] पृ. ५६३ [ ] पृ. ७३१ (५) नैकरूपा मति गोखे मिथ्या वक्तुं च शक्यते । पराधीनेऽपि चतस्मिन्नानवस्था प्रसज्यते । नात्र कारणदोषोऽस्ति बाधकः प्रत्ययोऽपि वा । प्रमाणाधीनमेतद्धि खतस्तच प्रतिष्टितम् ॥ [श्लो० वा. वन० श्लो० ४९] पृ. ६९६ [तत्त्वसं० का० २८५३] पृ. १८ नैकात्मतां प्रपद्यन्ते न भियन्ते च खण्डशः । परानुग्रहार्थमीश्वरः प्रवर्तते यथा कश्चित् कृतार्थों मुनिरात्मस्खलक्षणात्मका अर्था विकल्पः प्लाते खसौ॥ हिताऽहितप्राप्ति-परिहारार्थासम्भवेऽपि परहितार्थमुपदेशादिक [तत्त्वसं० का० १०४९] पृ. २०९ (१६,१७) करोति, तथा ईश्वरोऽपि आत्मीयामैश्वर्यविभूतिं विख्याप्य नैगम-सङ्ग्रह-व्यवहारर्जुसूत्र-शब्द-समभिरूढेवम्भूता नयाः । । प्राणिनोऽनुग्रहीष्यन् प्रवर्तत इति अथवा शक्तिखाभाव्यात् यथा [तत्त्वार्थ० १-३३] पृ. ६५५,६५६ ! कालय वसन्तादीनां पर्यायेण अभिव्यक्तौ स्थावर-जगमवि. नैव दानादिचित्तात् स्वर्गः यदि ततो भवेत् तदनन्तरमेवासौ कारोत्पत्तिः स्वभावतः तथैव ईश्वरस्यापि आविर्भावाऽनुग्रह भवेत् अन्यथा मृताच्छिखिनः केकायितं भवेत् तस्मात् ततो संहारशक्तीनां पर्यायेण अभिव्यक्ती प्राणिनामुत्पत्ति-स्थितिधर्मस्तस्माच स्वर्गः। प्रलयहेतुलम् । [ ] पृ. ७१६ (७,८) पृ. ५०५ (७) | परार्थाश्चक्षुरादयः।। पृ. ३०९ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । परार्थ प्रयुज्यमानाः शब्दा वतिमन्तरेणापि तमर्थ गमयन्ति। पुरुषस्य दर्शनार्थ कैवल्यार्थ तथा प्रधानस्य । __] पृ. १३३ पङ्ग्वन्धवदुभयोरभिसंयोगात् तत्कृतः सर्गः ॥ परिणामवर्तना-विधिपराऽपरखे। [साङ्ख्यका० २१] पृ. ३०७ (१६) [प्रशमर० प्र० श्लो० २१८] पृ. ६४ (५,६) | पुरुषो जन्मिनां हेतुर्नोत्पत्तिविकलखतः। परिमाणव्यवहारकारणं परिमाणं महदु, अणु, दीर्घम् , हव- गगनाम्भोजवत् सर्वमन्यथा युगपद् भवेत् ॥ मिति चतुर्विधम् । [ ] पृ. ६७५ (२) ] पृ. ७१५ (५) परोऽप्येवं ततश्चास्य सम्बन्धवदनादिता। पुब्बि दुचिण्णाणं दुप्पडिकंताणं कडाणं कम्माणं । तेनेयं व्यवहारात् स्यादकौटस्थ्येऽपि नित्यता॥ ] पृ. ९३ (३) [श्लो० वा. सू०६ श्लो. २८९] पृ. ३९ पूर्वरूपसाधात् तत् तथाप्रसाधितं नानुमेयतामतिपतति । पलालं न दहत्यग्निर्दह्यते न गिरिः क्वचित् । पृ. ७५ (२) नासंयतः प्रव्रजति भव्यजीवो न सिद्धयति ॥ पूर्वापरीभूतं भावमाख्यातमाचष्टे । [ ] पृ. ३१७ (११,१२) [नि० अ० १ ख० १] पृ. ७३९ पश्चादुपलभ्यते बुद्धिः [ ]पृ. ३६३ (६)| पृथिव्यादिगुणा रूपादयस्तदर्थाः ।। पश्यतः श्वेलमारूपं हेषाशब्दं च शृण्वतः। [ ] पृ. ५१९ (१६) पदविक्षेपशब्दं च श्वेताश्वो धावतीति धीः॥ दिव्यादिग्रहणेन त्रिविधं द्रव्यमुपलब्धिलक्षणप्राप्तं गृह्यते [लो. वा. वाक्याधि० श्लो० ३५८] पृ. ७४१ (३) गुणग्रहणेन सर्वो गुणोऽस्मदाद्युपलब्धिलक्षणप्राप्त आश्रितलपश्यन्नपि न पश्यति । [ ] पृ. २४५,५०६ | विशेषणवाभ्याम् । [ ] पृ. ५१९ पिण्ड सेज्जं च वत्थं च च उत्थं पायमेव य । प्रकृतीशादिजन्यत्वं न हि वस्तु प्रसिद्धयति । अकप्पियं ण इच्छेज्जा पडिगाहेज कप्पियं ॥ [तत्त्वसं० का० १०८३] पृ. २१४ (२३) [दशवै० अ० ६ गा० ४७] पृ. ७५१ प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः । पिंडविसोही समिई भावण-पडिमाइ इंदिय निरोहो। तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥ पडिलेहण-गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ॥ [सांख्यका० का० २२ ] पृ. २८१ (१) ७३३ (४) [ओघनि० गा० ३] पृ. ७५५ (३) प्रतिज्ञार्थंकदेशो हि हेतुस्तत्र प्रसज्यते। पिण्डभेदेषु गोबुद्धिरेकगोखनिबन्धना। पक्षे धूमविशेषे हि सामान्यं हेतुरिष्यते ॥ गवाभासैकरूपाभ्यामेकगोपिण्डबुद्धिवत् ॥ [ श्लो० वा० शब्दप० ६३] पृ. ५७५ __ [ श्लो० वा. वन० श्लो० ४४ ] पृ. ६९५ (३,४) प्रतिपिपादयिषितविशेषो धर्मी। पित्रोश्च ब्राह्मणखेन पुत्र ब्राह्मणतानुमा। पृ. ५९२ सर्वलोकप्रसिद्धा न पक्षधर्ममपेक्षते ॥ प्रतिभासतोऽध्यक्षतः।। ] पृ. ३७१ (६) ] पृ. ५५, ५७० (४) प्रतिभासोपमाः सर्वे धर्माः। पीनो दिवा न भुते इत्येवमादिवचःश्रुतौ । ] पृ. ३७१ (८) रात्रिभोजन विज्ञानं श्रुतार्थापत्तिरुच्यते ॥ प्रतिसूर्यश्च काल्पनिकः प्रकाशक्रियां कुर्वन् दृष्ट एव । [श्लो. वा. अर्थाप० श्लो.५१] पृ. ५७९ पृ. २८०(८) पुनरवगृहीतविषयाकाङ्क्षणमीहा । प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम् । ] पृ. ५५३ (४) ___] पृ. ५१८ (१५) पुरुष एवेदं सर्वम् । प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति ॥ [श्वेताश्वत० उ० अ० ३, १५] पृ. ३१० । पृ. ५०३ पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतम् । प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा।। [ऋक्सं० मण्ड० १० सू० ९० ऋ० २] पृ. २७३ (१०) पृ. ३१८ पुरुष एवेदं सर्व यद् भूतं यच्च भाव्यम् । प्रत्यक्षनिराकृतो न पक्षः।। [ऋ० वे० म० १० सू० ९०] पृ. ७१५ (४) पृ. ३५१ (६) पुरुष एवैकः सकललोकस्थिति-सर्ग-प्रलयहेतुः प्रलयेऽपि अलुप्त- प्रत्यक्षमन्यत् । [तत्वार्थ. १-१२] पृ. ५९५ ज्ञानातिशयशक्तिः। प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणम् । [ ] पृ. ७१५ (२) । ] Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । ५७ प्रत्यक्षम्याभावविषयलविरोधान ततः प्रमाणान्तराभावो- | प्रमाणमविसंवादि। [ ऽवसातुं शक्यः नापि कार्यस्वभावलक्षणादनुमानात् कार्य पृ. ४६५ (६) खभावयोर्विधिसाधकत्वेनाभावसाधने व्यापारानभ्युपगमात् प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् । [ कारणव्यापकानुपलब्ध्योस्तु असन्तासत्तयोपगते प्रमाणान्त. पृ. १४,१५ रेऽभावसाधकत्वेन व्यापार एव न सङ्गच्छते अत्यन्तासतस्तस्य प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् अर्थक्रियास्थितिरविसंवादनम् । कार्यत्वेन व्याप्यत्वेन वा कस्यचिदसिद्धेः । तयोश्च कार्यकारण ] पृ. १५,५१३ (५) व्याप्यव्यापकभावसिद्धावेव व्यापाराद् विरुद्ध विधिरप्यत्रासम्भवी | प्रमाणषटकविज्ञातो यत्रार्थों नान्यथा भवेत् । महानवस्थानलक्षणस्य विरोधस्यात्यन्तासत्यसिद्धेः । अदृष्टं कल्पयत्यन्यं साऽर्थापत्तिरुदाहृता ॥ ] पृ. ५७३ (४) | [ श्लो० वा. अर्थाप० श्लो० १] पृ. ५७८ (१२,१३,१४) प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः प्रमाणाभाव उच्यते। प्रमाणस्य प्रमाणेन न बाधा नाप्यनुग्रहः । सात्मनोऽपरिणामो वा विज्ञानं वान्यवस्तुनि ॥ बाधायामप्रमाणसमानर्थक्यमनुग्रहः ॥ [श्लो० वा० अभावप० श्लो० ११] पृ. २२,५८० (३) ] पृ. ४५९ (११,१२) प्रत्यक्षाद्यवतारश्च भावांशो गृह्यते यदा । प्रमाणस्य सतोऽत्रैवान्तर्भावाद् द्वे एव प्रमाणे । व्यापारस्तदनुत्पत्तेरभावांशे जिघृक्षित ॥ ] पृ. ५९. [श्लो० वा० अभावप० श्लो० १७ ] पृ. ५८१ (८,९,१०) | प्रमाणस्यागौणखादनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभः । प्रत्यक्षाऽनुपलम्भसाधनं कार्यकारणभावम् । ] पृ. ७० (२) पृ. ९५ प्रमाणाधीना हि प्रमेयव्यवस्था। पृ. ३८४ (१) प्रत्यक्षेणावबुद्धेऽपि सादृश्ये गवि च स्मृते । प्रमाणाभावनिर्णीतचैत्राभावविशेषितात् । विशिष्टस्यान्यतोऽसिद्धरुपमानप्रमाणता ॥ गेहाचैत्रबहिर्भावसिद्धिर्या विह दर्शिता ॥ [श्लो. वा० उपमान० श्लो, ३८] पृ. ५७६ श्लो० वा. अर्थाप० श्लो०८] पृ. ५७९ प्रत्यक्षेऽपि यथा देशे स्मर्यमाणे च पावके । प्रमातृ-प्रमेयाभ्यामर्थान्तरमव्यादेश्याव्यभिचारिव्यवसायाविशिष्टविषयत्वेन नानुमानाप्रमाणता ॥ त्मकज्ञाने कर्त्तव्येऽर्थः सहकारी विद्यते यस्य तद् अर्थवत् [श्लो० वा. उपमान. श्लो० ३९] पृ. ५७६ प्रमाणम् । [ ] पृ० १०९ प्रत्येकसमवेताऽपि जातिरेकैव बुद्धितः । प्रमेया च तुलाप्रामाण्यवत् । [ न्यायद० २,१,१५ ] 'नयुक्तेष्विव वाक्येषु ब्राह्मणादिनिवर्तनम् ॥ पृ. ५२२,५२८ (३) [श्लो० वा. वन० श्लो० ४७ ] पृ. ६९६ प्रयोगनियम एव एकलक्षणो हेतुः । प्रत्येकसमवेतार्थ विषयैवाथ गोमतिः। ] पृ. ७२६ प्रत्येक कृत्स्नरूपलात् प्रत्येकव्यक्तिबुद्धिवत् ॥ प्रसज्यप्रतिषेधस्तु गौरगौन भवत्ययम् । [ श्लो० वा. वन० श्लो० ४६ ] पृ. ६९५ (५) इति विस्पष्ट एवायमन्यापोहोऽवगम्यते॥ प्रमाणं हि प्रमाणेन यथा नान्येन साध्यते । [तत्त्वसं० का० १.१०] पृ. २०२ (१७,१८) न सिध्यत्यप्रमाणखमप्रमाणात् तथैव हि ॥ प्रसिद्धसाधात् साध्यसाधनमुपमानम् । [तत्त्वसं० का० २८६४ ] पृ १८ [न्यायद० १,१,६] पृ. ५७७ (८) प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः-[ न्यायद. १,२,1] पृ. ५६० (२) प्रहाणे नित्यसुखरागस्याप्रतिकूलत्वम् । नास्य नित्यसुखाप्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तौ प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत् प्रमाणम् । भावः (नित्य सुखभावः) प्रतिकूल इत्यर्थः । यद्येवं मुक्तस्य [वात्स्या० भा० अ० १ सू० १] पृ. १२०, ५०९ नित्यं सुखं भवति, अथापि न भवति नास्योभयोः पक्षयोर्मोप्रमाण-नयैरधिगमः। [तत्त्वार्थ० अ० १ सू०६। क्षाधिगमाभावः। पृ. ४२० [ वात्स्या० भा० अ० १ आ० १ सूत्र २२] प्रमाणनिबन्धना प्रमेयव्यवस्थितिः।। पृ. १४४,१५४ (७) [ तत्त्वोपप्लव ] पृ. ७३-७४ प्राक शब्दयोजनात् मतिज्ञानमेतत् शेषमनेकप्रमेद (दं ) प्रमाणपञ्चकं यत्र । शब्दयोजनादुपजायमानमविशदं ज्ञानं श्रुतम् । [श्लो० वा. सू० ५ अभाव० श्लो. १] पृ. ४१ ] पृ. ५५३ प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते। प्रागगौरिति विज्ञानं गोर्शब्दश्राविणो भवेत् । वस्तुसत्तावबोधार्थ तत्राभावप्रमाणता ॥ येनागोः प्रतिषेवाय प्रवृतो गौरिति ध्वनिः॥ [श्लो० वा० सू० ५ अभावप० श्लो० १] पृ. २३,५८० [भामहालं० परि० ६ श्लो० १९] पृ. १८६ (६,७) Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । प्रापणशक्तिः प्रामाण्यम् तदेव च प्रापकलम् अन्यथा | बाधकान्तरमुत्पन्नं यद्यस्यान्विच्छतोऽपरम् । ज्ञानान्तरखभावत्वेन व्यवस्थितायाः प्राप्तः कथं प्रवर्तकज्ञान- ततो मध्यमबाधेन पूर्वस्यैव प्रमाणता ॥ शक्तिखभावता? तत्र यद्यपि प्रत्यक्षं वस्तुक्षणग्राहि तबाह-| [तत्त्वसं० का० २८६८] पृ. १९ कत्वं च तस्य प्रदर्शकत्वं तथापि क्षणिकत्वेन तस्याप्राप्तेः | बाधाज्ञाने खनुत्पन्ने का शङ्का निष्प्रमाणका । तत्सन्तान एवं प्राप्यत इति सन्तानाध्यवसायोऽध्यक्षस्य प्रद पृ. ३४१ (९) शकव्यापारो द्रष्टव्यः, अनुमानस्य तु वस्त्वग्राहकत्वात् तत्प्राप-| | बाह्यं तपः परमदुश्वरमाचरस्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिकत्वं यद्यपि न सम्भवति तथापि खाकारम्य बाह्यवस्वध्यवसा बूंदणार्थम् । [खयंभूस्तो० ८३ ] पृ. ७५० (१) येन पुरुषप्रवृत्ती निमित्तभावोऽस्तीति तस्य तत्यापकमुच्यते। बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितं महाभूतादिकं व्यकं सुख-दुःखपृ. ४६८ (२,३,४,५) निमित्तं भवति, अचेतनखात्, कार्यवात्, विनाशिखात्, प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योर्थः रूपादिमत्त्वात् , वास्यादिवत् । सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा। [न्यायवा० पृ० ४५९ ] पृ. १०१ भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने बुद्धिरुपलब्धिनिमित्यनर्थान्तरम् । नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः॥ [न्यायद० १-१-१५] पृ. ४६२,६८३ (२) पृ. ७१४ (७) प्रामाण्य व्यवहारेण । [ बुद्धौ येऽर्था विवर्तन्ते तानाह जननादयम् । ]पृ.१११,४९७ (१२) निवृत्त्या च विशिष्टत्वमुक्तमेषामनन्तरम् ॥ प्रामाण्यं व्यवहारेण शास्त्रं मोहनिवर्तनम् । [तत्त्वसं० का० १०७१] पृ. २१२ (२५) पृ. ५०८ (३) बुद्ध्यादीनां नवानां विशेषगुणानामात्यन्तिकः क्षय आत्मनो प्रामाण्यं व्यवहारेणार्थक्रियालक्षणेन।। मुक्तिः । [ ] पृ. १३३ पृ. १५ बुद्ध्यारूढमेवाकारं बाह्यवस्तुविषयं बाह्यवस्तुतया गृहीतं प्रामाण्यग्रहणात् पूर्व स्वरूपेणैव संस्थितम् । बुद्धिरूपत्वेनाविभावितं शब्दार्थम् । निरपेक्षं वकार्ये च । [ श्लो०वा. सू. २ श्लो० ८३] ___] पृ. १८१ (२,३) पृ. ७ (७,८) ब्रह्म-जीवात्मनामभेदेऽपि बिम्ब-प्रतिबिम्बवत् विद्याऽविप्रेरणाजनिता बुद्धिर्न प्रमाणं न चाप्रमा। द्याव्यवस्था वर्णयन्ति । कथं पुनः संसारिषु विद्याया आगगुण-दोषविनिर्मुक्तकारणेभ्यः समुद्भवात् ॥ न्तुक्याः सम्भवः श्रवण-मनन-ध्यानाभ्यास-तत्साधनयम ] पृ. ११ नियम-ब्रह्मचर्यादिसाधनलात्, तस्य पूर्वमसत्त्वादविद्यावत् । प्रेरणाजनिता बुद्धिरप्रमा गुणवर्जितैः। स च श्रवण-मनन-पूर्वकध्यानाभ्यासोऽखिलभेदप्रतियोगी कारणैर्जन्यमानत्वादलिगाऽऽप्तोक्तबुद्धिवत् ॥ सुव्यक्तमेव वेदे दर्शितः-'स एष नेति न' [बृहदा० उ० अ०३ पृ. ११ ब्रा० ९ म० २६] इत्यादिना सप्रतियोगिखाद् भेदप्रपञ्चं प्रेरणाजनिता बुद्धिः प्रमाण दोषवर्जितैः । निवर्तयताऽऽत्मनापि प्रलीयते, यतः श्रोतव्यादीनामभावे न कारणैर्जन्यमानखालिङ्गाऽऽतोक्ताक्षबुद्धिवत् ॥ श्रवणादीनामुपपत्तिः, स तु तथाभूतोऽभ्यस्यमानः खविषयं [श्लो० वा० सू० २ श्लो. १८४ ] पृ. ११ प्रविलापयन्नात्मोपघाताय कल्पते तदभ्यासस्य परिशुद्धात्मप्र. प्रेरणव धर्म प्रमाणम् । [ 1पृ. ४१ काशफलखात् यथा रजःसम्पर्ककलुषे उदके द्रव्यविशेषचूर्ण. रजः प्रक्षिप्तं रजोऽन्तराणि संहरत् स्वयमपि संहियमाणं बन्धवियोगो मोक्षः।। ] पृ. ७३६ (१) खस्थां खरूपावस्थामुपनयति एवं श्रवणादिभिर्भेदतिरस्कारबहुवयणेण दुवयणं । [ पृ. २७२ (८) विशेषात् खगतेऽपि भेदे समुच्छिने खरूपे संसार्यवतिष्ठते बह्वल्पविषयलेन तत्सङ्केतानुसारतः। यतोऽविद्ययैव परमात्मनः संसार्यात्मा भिद्यते तन्निवृत्ती कथं न सामान्य-मेदवाच्यखमप्येषां न विरुध्यते ॥ परमात्मस्वरूपता यथा घटादिमेदे व्योम्नः परमाकाशतैव भव[तत्त्वसं० का० १०४५] पृ. २०९ त्यवच्छेदकव्यावृत्तौ ? तत्रैतत् स्यात्-श्रवणादिभेदविषयवाद. बह्वारम्भपरिग्रहवं च नारकस्य । विद्याखभावः कथं वा अविद्यैव अविद्या निवर्तयति ! उकमत्र [तत्त्वा० अ० ६ सू० १६] पृ. ९३ (२) यथा रजसा रजसः प्रशमः एवं भेदातीतब्रह्मश्रवणमननबाधकप्रत्ययस्तावदान्यत्वावधारणम् । ध्यानाऽभ्यासानां भेददर्शनविरोधिखादविद्याया अप्य विद्यानिवसोऽनपेक्षप्रमाणलातू पूर्वज्ञानमपोहते ॥ तकत्वम् । तथा च तत्त्वविद्भिरत्रार्थे निदर्शनान्युक्तानि-यथा [तत्त्वसं० का० २८६६] पृ. १९ | पयः पयो जरयति खयं च जीर्यति, यथा विषं विषान्तर Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । शमयति स्वयं च शाम्यति । एवं श्रव- भुवनहेतवःप्रधान-परमाण्वदृष्टाः खकार्योत्पत्तावतिशयबुद्धिणादिषु द्रष्टव्यम् । [ मन्तमधिष्ठातारमपेक्षन्ते; स्थित्वा प्रवृतेः, तन्तु-तुर्यादिवत् । पृ.२७८,२७९ (१,२,३,४,५,६,७,८,९,१०,११,१२) [न्यायवा० पृ. ४५७] पृ. १०१ ब्राह्मणादिशब्दैस्तपो-जाति-श्रुतादिसमुदायो विना विकल्प- भूतिर्येषां क्रिया सैव कारक सैव वोच्यते । समुच्चयाभ्यामभिधीयते, यथा वनादिशब्दैर्धवादयः। [ ] पृ. ४५५ (१) पृ. १८० (२,३) भूतेभ्यः । [न्यायद. १-१-१२] पृ. ५३१ ब्राह्मणो न हन्तव्यः ।। भेदानां परिमाणात् समन्वयात् शक्तितः प्रवृत्तश्च । पृ. ७३१ (१) कारणकार्य विभागादविभागाद् वैश्वरूपस्य ॥ __[साङ्ख्यका० १५] पृ. २८४ (१) भई मिच्छ इंसण समूहमइयस्स अमयसारस्स । भेदे हि कारणं किञ्चिद् वस्तुधर्मतया भवेत् । जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥ अभेदे तु विरुध्येते तस्यैकस्य क्रियाऽक्रिये ॥ [स० त० का० ३ गा० ६९] पृ. २९ ] पृ. ३०१ (१४) भवतु सांव्यवहारिक विशदमध्यक्षम् अनुमानादिकं तूपच- भोगाभ्यासमनुवर्धन्ते रागाः, कौशलानि चेन्द्रियाणाम् । रितरूपवाद्विषयाभावाच्च प्रमाणमनुपपन्न मिति कथं शब्दसंयो- [पात. यो० पा० २ सू० १५ व्यासभा०] पृ. १५३ जनात् श्रुतं स्मृत्याद्युपपत्तिमत् ? तदुक्तम्-प्रमाणस्यागौणला- | श्रान्तिरपि सम्बन्धतः प्रमा। दनुमानादर्थनिर्णयो दुर्लभः । [ ] पृ. ४८१ (५), ५०८ (१८) [चार्वाकाः ] पृ. ५५४ (१,२) भ्रान्तिसंवृतिसंज्ञानमनुमानानुमानिकम् । भविष्यंश्चैषोऽर्थो न ज्ञानकालेऽस्तीति न प्रतिभाति ।। स्मार्ताभिलाषिकं चेति प्रत्यक्षाभं सतैमिरम् ॥ [ ] पृ. ४९६ (५) ] पृ. ५२७ भविष्यति न दृष्टं च, प्रत्यक्षस्य मनागपि । सामर्थ्यम् ॥ [ ० वा. सू. २ श्लो. १३५] पृ. ३१ (२) मण्णइ तमेव सचं णिस्संकं जं जिणे हिं पन्नतं । भव्वा वि ते अणंता सिद्धिपहं जे ण पावेंति । [धर्मसं० ८१२] पृ. ७५६ ] पृ. ७५१ मति-श्रुतयोर्निबन्धो द्रव्यष्वसर्वपर्यायेषु। भारतेऽपि भवेदेवं कर्तृस्मृया तु बाध्यते । वेदे तु तत्स्मृतिर्या तु साऽर्थवादनिवन्धना ॥ [तत्त्वार्थ० अ० १सू०२७] पृ. २६१ (१),७३२ मति-श्रुताऽवधि-मनःपर्याय-केवलानि ज्ञानम् । [श्लो० वा० सू० ७ श्लो० ३६७ ] पृ. ४० [तत्त्वार्य. १,९] पृ. ५९५ भावतस्तु न पर्याया नापर्या पाश्च वाचकाः । न ह्येकं वाच्यमेतेषामने चेति वर्णितम् ॥ मतिस्मृतिसंज्ञाचिन्ताऽभिनिबोध इत्यनन्तरम् । [तत्त्वार्थ० १-१३] पृ. ५५३ (८) [तत्त्वसं० का० १०३३] पृ. २००(७,८,९,१०) भावनैव हि वाक्यार्थः सर्वत्राख्यातवत्तया ॥ ममवं प्रतिभासो यो न संस्थानवर्जितः (१)। [श्लो० वा. वाक्याधि० श्लो० ३३०] पृ. ७४२ एवमन्यत्र दृष्टवादनुमानं तथा सति ॥ भावान्तरविनिर्मुक्तो भावोऽत्रानुपलम्भवत् । [ ] पृ. २५९ (१८) अभावः सम्मतस्तस्य हेतोः किं न समुद्भवः ॥ महत्यनेकद्रव्यवत्त्वाद् रूपाचोपलब्धिः । ] पृ. १० (४), ३२० (१६) [वशेषिकद० अ० ४-१-६] पृ. १००,१०३,६५८ भावान्तरात्मकोऽभावो येन सर्वो व्यास्थितः । महाभूतादिव्यकं चेतनाधिष्टितं प्राणिनां सुख-दुःखनिमित्तम्, तत्रावादिनिवृत्त्यात्माऽभावः क इति कथ्यताम् ॥ रूपादिमत्त्वात् , तुर्यादिवत् । तथा पृथिव्यादीने महाभूतानि [श्लो० वा. अपो० श्लो. २] पृ. १८७ (१३,१४) 'बुद्धिमत्कारणाविष्ठितानि खासु धारणाद्यासु क्रियासु प्रवर्तन्ते, भावा येन निरूप्यन्ते तद्रूपं नास्ति तत्त्वतः । | अनित्यत्वात् वास्यादिवत् । यस्मादेकमनेकं वा रूपं तेषां न विद्यते ॥ [न्यायवा० पृ० ४६७] पृ. १०० ] पृ. ३७६ (१५) मायोपमाः सर्वे धर्नाः। भावे ह्येष विकल्पः स्याद् विधेस्खनुरोधतः। ] पृ. ३७७, ४८८ (6) पृ. ३३३ (११) मालादौ च महत्त्वादिरिटो यश्चौपचारिकः । भाव्यनिष्ठो भावकव्यापारो भावना। मुख्याऽविशिष्टविज्ञानग्राह्यलानौपचारिकः॥ पृ ७४१ ] पृ. ६७६ १०४ सं०प० Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । मिथ्याऽध्यारोपहानार्थ यनोऽसत्यपि मोक्तरि । | यत्नतः प्रतिषेध्या नः पुरुषाणां स्वतन्त्रता। ] पृ. १६२,४१८ [श्लो० वा० सू० ६ श्लो० २९.] पृ. ३९ मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति व्योमवत् तापवर्जिताः। यत् पुनरनुमानं प्रत्यक्षाऽऽगमविरुद्ध न्यायाभासः स इति । [वात्स्यायनभा• पृ० ४ पं० ५] पृ. ७२१ मुख्यसंव्यवहारेण संवादि विशदं मतम् । यत्र खल्वाप्तः 'इदं कर्तव्यम्' इति पुरुषाः प्रतीततदाप्तभाज्ञानमध्यक्षमन्यद्धि परोक्षमिति सङ्ग्रहः ॥ वा नियुज्यन्ते तत्रावधीरिततत्प्रेरणाऽतथाभावविषयविचाराखद ] पृ. ५९५ भिहितं वाक्यमेव बहु मन्यमाना अनाहतप्रयोजनपरिप्रश्ना मुर्छा परिग्रहः । [तत्त्वार्थ ७-१२ ] पृ. ७४७ एव प्रवर्त्तन्ते, विनिश्चिततदाप्तभावानां प्रत्यवस्थानासम्भवात् । मूर्ति-स्पर्शादिमत्त्वं च तेषामभिभवः सताम् । ] पृ. १७२ (७) खगग्राह्यत्वमन्ये च सूक्ष्ना भागाः प्रकल्पिताः ॥ यत्र धूमोऽस्ति तत्र 'मेरस्तित्वेनान्वयः स्फुटः। [श्लो. वा० सू० ६ श्लो० १०८] पृ. ३८ न खेवं यत्र शब्दोऽस्ति तत्रार्थोऽस्तीति निश्चयः ॥ मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृति-विकृतयः सप्त । [श्लो० वा० शब्द प० ८६ ] पृ. ५७५ षोडश फस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥ यत्र विशेषक्रिया नैव श्रूयते तत्रास्तिर्भवन्तीपरः प्रथम[साङ्ख्यका० ३] पृ. २६ मूलप्रकृतेः कारणवमेव, भूतेन्द्रियलक्षणस्य षोडशकगणस्य पुरुषेऽप्रयुज्यमानोऽप्यस्तीति गम्यते।। ] पृ. ३१६ (३) कार्यत्वमेव, महदहङ्कारतन्म त्राणां च पूर्वोत्तरापेक्षया कार्यलकारणत्वे च ।। पृ. २९६ (५) यत्राप्यतिशयो दृष्टः । [ ] पृ. ५३७ (१) मृत्पिण्ड-दण्ड-चक्रादि घटो जन्मन्यपेक्षते । यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलङ्घनात् । उदकाहरणे तस्य तदपेक्षा न विद्यते ॥ दूर-सूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तितः ॥ [तत्त्वसं० का० २८५१ ] पृ. ४ (६) [श्लो० वा. सू. २ श्लो. ११४] पृ. ४९ (१) मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नाने। पश्यति ।। यत्रासौ वर्तते भावत्तेन सम्बध्यते न च । [बृहदा० उ० अ० ४ ब्रा० ४ मं० १९] पृ. २७३ (८) तद्देशिनं च व्याप्नोति किमप्येतद् महाद्भुतम् ॥ मेयादिना सवितृप्रकाशः सविता वा खप्रकाश एवाच्छाद्यते। । पृ. ६९१ [ पृ. १५३ यत्रैव जनयेदेनां तत्रवास्य प्रमागता । मेयाभावात् प्रमाभावनिर्णयेऽन्योन्यसंश्रयः । मेयाभावात् प्रमाणस्य तस्मात् तस्य विनिर्णयात् ॥ यत्सन्निधाने यो दृष्टस्तदृष्टेस्तद्धनौ स्मृतिः। पृ. ५८७ ] पृ. ५२३ (४,५) मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनि उत्तमः ।। यथा तुल्येऽपि भिन्नले केषुचिद् वृत्त्यवृत्तिता। ] पृ. १६३ गोत्वादेरनिमित्ताऽपि तथा बुद्धर्भविष्यति ॥ [लो० वा० आकृ० ल.० ३६ ] पृ. २४० (१७,१८,१९) “य एव पर्यायः स एव गुणः" [ ] पृ. ६३५ यथादर्शनमेव इयं मानमेयव्यवस्थितिः न पुनर्यथातत्त्वम् । य एव लौकिकाः शब्दास्त एव वैदिकाः। ] पृ. ७२८ (२) ] पृ. ३९ यथा पयः पयो जरयति स्वयं च जीर्यति, यथा विषं विषाय एव व्यावृत्तः सेव व्यावृत्तिः। [ ] पृ. २३६ स्तरं शमयति स्वयं च शाम्यति एवं श्रवणादिषु द्रष्टव्यम् । य एव श्रेयस्करः स एव धर्मशब्देनोच्यते। पृ. २७१ (११,१२) [ मीमांसाद. १-१-२ शाब० पृ. ४ पं० १५]पृ ५०५ ___ यथा प्रभुः सेवाभेदानुरोधेन फलभेदप्रदो नाप्रभुस्तथेश्वरोयच्छरीरसमीपस्थैर्नादैः स्याद् यस्य संस्कृतिः । ऽपि कर्माशयापेक्षः फलं जनयतीति 'अनीश्वरः' इति न तैर्यथा श्रूयते शब्दस्तथा दूरगतेन किम् ॥ युज्यते वक्तुम् । [ पृ. ९९ पृ. ३५ यजातीयैः प्रमाणैस्तु यजातीयार्थदर्शनम् । ___ यथा बुद्धिमत्तायामीश्वरस्य प्रमाणसम्भवः, नैवं धर्मादिनिदृष्टं सम्प्रति लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत् ॥ त्यले प्रमाणमस्ति । [श्लो० वा. सू. २ श्लो. ११३ ] पृ. ४६,४९।। [न्यायवा० पृ० ४६४ पं० १४ ] पृ. १३२ यत् क्वचिद् दृष्टान्तस्य (दृष्टं तस्य) यत्र प्रतिबिम्बः तद्विदः | यथा महानसे वेह विद्यतेऽधूममेदि तत् । तस्य तद् गमकं तत्रेति वस्तुगतिः । तस्मादनग्नितो भिन्न विद्यतेऽत्र स्खलक्षणम् ॥ ] पृ. ३२२ (३१) [तत्त्वसं० का० १०५४ ] पृ. २१० (१८,१९) पृ. ५१२ (५) य Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा यथा पूर्वकृतस्य कर्मणः फलं निधानस्थमिवावतिष्ठते । तथा तथा तत्प्रतिपादनोद्यता प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्तते ॥ [ ] पृ. ७१४ (८) यथा लोकप्रसिद्धं च लक्षणैरनुगम्यते । लक्ष्यं हि लक्षणेनैतदपूर्व न प्रसाध्यते ॥ [ सन्मति टीकागतान्यवतरणानि । यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपतो जनः । सङ्कीर्णमिव मात्राभिश्चित्राभिरभिमन्यते ॥ ] पृ. ५७० ] पृ. ३८३ (९) [ यथा श्वमांसाशुच्यादीनां स्वत एव अशुचित्वम् अन्येषां च भावानां तद्योगात् तत् तथेहापि तादात्म्यात् विशेषेषु स्वत एव व्यावृत्प्रत्यय हेतुत्वम् परमाण्वादिषु तु तद्योगात् । किश्च अतदात्मकेष्वपि अन्यनिमित्तः प्रत्ययो भवत्यैव यथा प्रदीपात् पटादिषु न पुनः पटादिभ्यः प्रदीपे एवं विशेषेभ्य एव अण्वादी विशिष्टप्रत्ययः न अण्वादिभ्य इत्यादिकम् । [ यथासङ्केतमेवातोऽसङ्कणीर्थाभिधायिनः । शब्दा विवेकतो वृत्ताः पर्याया न भवन्ति नः ॥ [ तत्त्वसं ० का ० १०४४ ] पृ. २०९ (२, ३, ४ ) यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुते क्षणात् । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ [ भग० गी० अ० ४ श्लो० ३७] पृ. १५० यथैव प्रथमं ज्ञानं तत्संवादमपेक्षते । संवादेनापि संवादः पुनर्मृग्यस्तथैव हि ॥ [ तत्त्वसं ० का ० २८५४ ] पृ. ६ (५) यथैवोत्पद्यमानोऽयं न सर्वैरवगम्यते ॥ [ श्लो० वा०सु० ६ श्लो० ८४ ] पृ. ३५ यदसत्योपाधि सत्यं स शब्दार्थः । [ ] पृ. १८० (८,९) यदा ज्ञानं प्रमाणं तदा हानादिबुद्धयः फलम् । [ १-१-३ वात्स्या० भा० ] पृ. ५३० यदाऽपि पूर्वं दुःखं नास्ति तदाप्यभिलाषस्य दुःखखभावत्वात् तन्निबर्हणस्वभावं सुखम् । [ ] पृ. १५३ (२) यदा वा शब्दवाच्यत्वान्न व्यक्तीनामपोह्यता । तदाऽपोह्येत सामान्यं तस्यापोहाच्च वस्तुता ॥ [ श्लो० वा० अपो० श्लो० ९५] पृ. १९४ (१) । यदा स्वतः प्रमाणत्वं तदाऽन्यत्रैव मृग्यते । निवर्तते हि मिथ्यात्वं दोषाज्ञानादयत्नतः ॥ ] पृ. ६९९ (३) [ श्लो० वा० सू० २ श्लो० ५२] १. १८ यदि गौरित्ययं शब्दः समर्थोऽन्यनिवर्तने । जनको गवि गोबुद्धेर्मृग्यतामपरो ध्वनिः ॥ [ भामहालं० परि० ६ श्लो० १७]. १८६ (२३) ५१ यदि चाविद्यमानोऽपि भेदो बुद्धिप्रकल्पितः । साध्यसाधनधमीदेर्व्यवहाराय कल्पते ॥ [ श्लो० वा० निरा० श्लो० १७१] पृ. ५६४ (१०) यदि प्रतीतिरन्यथा न स्यात् सर्वं शोभेत, दृष्टा च पक्षधर्मसम्बन्धवचनमात्रात् प्रतिज्ञावचनमन्तरेणापि प्रतीतिरिति कस्तस्योपयोगः । [ धर्मकीर्तिः ] पृ. ६७ यदि विरुद्धधर्माध्यासः पदार्थानां भेदको न स्यात् तदाऽन्यस्य तद्भेदकस्याभावाद् विश्वमेकं स्यात् । [ ] पृ. १०२ यदि शब्दस्यापोहोऽभिधेयोऽर्थस्तदाऽभिधेयार्थ व्यतिरेकेणास्य स्वार्थो वक्तव्यः, अथ स एव स्वार्थस्तथापि व्याहतमेतत् अन्यशब्दार्थापोहं हि स्वार्थे कुर्वती श्रुतिरभिधत्त इत्युच्यते इति, अस्य हि वाक्यस्यायमर्थस्तदानीं भवत्यभिदधानाभिधत्त इति । [ न्यायवा० अ० २ आ० २ सू० ६७ पृ० ३३० पं० २२-पृ० ३३१ पं० ३ ] पृ. २०४ (१,२) यदि शब्दान् पक्षयसि तदा 'आनन्त्यात्' इत्यस्य वस्तुध त्वाद् व्यधिकरणो हेतुः, अथ भेदा एव पक्षी क्रियन्ते तदा नान्वयी न व्यतिरेकी दृष्टान्तोऽस्तीत्य हेतुरानन्त्यम् । [ न्या० वा० अ० २ आ० २ सू० ६७ पृ० ३२३ पं० १६ ] पृ. १७५ (८,९) यदि षड्भिः प्रमाणैः स्यात् सर्वज्ञः । [ श्लो० वा० सू० २ श्लो० १११] पृ. ५७ यदि षड्भिः प्रमाणैः स्यात् सर्वज्ञः केन वार्यते । [ श्लो० वा० सू० २ श्लो० १११] पृ. ४९ यदि संयोगो नार्थान्तरं भवेत् तदा क्षेत्रबीजोदकादयो निर्विशिष्टत्वात् सर्वदेवाङ्कुरादिकार्यं कुर्युः, न चैवम्, तस्मात् सर्वदा कार्यानारम्भात् क्षेत्रादीन्यङ्करोत्पत्तौ कारणान्तरसापेक्षाणि यथा मृत्पिडा दिसामग्री घटादिकरणे कुलालादिसापेक्षा; योऽसौ क्षेत्रादिभिरपेक्ष्यः स संयोग इति सिद्धम् । किव, असौ संयोगो द्रव्ययोर्विशेषणभावेन प्रतीयमानत्वात् ततोऽर्थान्तरवेन प्रत्यक्षसिद्ध एव । तथाहि - कश्चित् केनचित् 'संयुक्ते द्रव्ये आहर' इत्युक्तो ययोरेव द्रव्ययोः संयोगमुपलभते ते एवाहरति न द्रव्यमात्रम् । किश्च दूरतरवर्त्तिनः पुंसः सान्तरेऽपि वने निरन्तररूपावमायिनी बुद्धिरुदयमासादयति, सेयं मिथ्याबुद्धिः मुख्यपदार्थानुभवमन्तरेण न क्वचिदुपजायते । न धननुभूतगोदर्शनस्य गवये 'गौः' इति विभ्रमो भवति । तस्मादवश्यं संयोगो मुख्योऽभ्युपगन्तव्यः । तथा, 'न चैत्रः कुण्डली' इत्यनेन प्रतिषेधवाक्येन न कुण्डलं प्रतिषिध्यते, नापि चैत्रः, तयोरन्यत्र देशादौ सत्त्वात् । तस्माचैत्रस्य कुण्डल संयोगः प्रतिषिध्यते । तथा, 'चैत्रः कुण्डली' इत्यनेनापि विधिवाक्येन न चैत्र कुण्डलयोरन्यतरविधानम्, तयोः सिद्धत्वात् पारिशेध्यात् संयोगविधानम् । तस्मादस्त्येव संयोगः । [ न्यायवा० पृ० २१९]g. ११४ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । यदेव दधि तत् क्षीरं यत् क्षीरं तद् दधीति च। । यस्मात् प्रकरणचिन्ता स प्रकरणसमः। वदता विन्ध्यवासित्वं ख्यापितं विन्ध्यवासिना ॥ [न्यायद. १-२-७] पृ. ७१९ (१) पृ. २९६ (८) यस्माद् उच्चरितात् ककुदादिमदर्थप्रतिपत्तिः स शब्दः । यद् यथेवा विसंवादि प्रमाणं तत् तथा मतम् । ] पृ. ४३१ (६) विसंवाद्यप्रमाणं च तदध्यक्ष-परोक्षयोः ॥ यस्मिन्नधूमतो भिन्न विद्यते हि खलक्षणम् । ] पृ. ५९५ (१,२) तस्मिन्ननमितोऽप्यस्ति परावृत्तं खलक्षणम् ॥ यद् यदा कार्यमुत्पित्सु तत् तदोत्पादनात्मकम् । [तत्त्वसं• का० १०५३ ] पृ. २१० कारणं शक्तिमेदेऽपि न भिन्न क्षणिकं यथा ॥ यस्य ज्ञाने प्रतिभासस्तस्य तत्र तत्कारणत्वं निमित्तमभिधीयते पृ. २५७ न खप्रतिभासमानस्य समवायादेस्तन्निमित्तः प्रतिभासो भवतु यद्यपि नित्यमीश्वराख्यं कारणमविकलं भावानां सन्निहितं | इत्यासजयितुं युक्तम् ।। पृ. ५०९ तथापि न युगपदुत्पत्तिः ईश्वरस्य बुद्धिपूर्वकारिखात् । यदि यस्य तत्र यदोतिर्जिघृक्षा चोपजायते। हीश्वरः सत्तामात्रेणैवाऽबुद्धिपूर्व भावानामुत्पादकः स्यात् तदा चेत्यतेऽनुभवस्तस्य तेन च व्यादिश्यते ॥ सादेतचोद्यम् यदा तु बुद्धिपूर्व करोति तदा न दोषः तस्य [श्लो० वा. अभावप० श्लो. १३ ] पृ. ५८१ खेच्छया कार्येषु प्रवृत्तेः अतोऽनैकान्तिकतैव हेतोः । यस्य निर्विशेषणा भेदाः शब्दरभिधीयन्ते तस्याऽयं दोषः पृ. १२७ अस्माकं तु सत्ताविशेषणानि द्रव्य-गुण-कर्माण्यभिधीयन्ते । यद्यप्यव्यतिरिक्तोऽयमाकारो बुद्धिरूपतः। तथाहि-यत्र यत्र सत्तादिकं सामान्य पश्यति तत्र तत्र सदादि. तथापि बाह्यरूपत्वं भ्रान्तैस्तस्यावसीयते ॥ शब्दं प्रयुङ्के, एकमेव च सत्तादिकं सामान्यम् , अतः सामा[तत्त्वसं० का० १०२६ ] पृ. २०६ न्योपलक्षितेषु भेदेषु समयक्रियासम्भवादकारणमानन्त्यम्। यद् यस्यैव गुण-दोषान् नियमेनानुवर्तते। [न्या. वा० अ० २ आ० २ सू० ६७ पृ. ३२३ पं. सन्नान्तरीयकं तत् स्यादतो ज्ञानोद्भवं वचः ॥ ११] पृ० १७५ ] पृ. ५८ यस्य यावती मात्रा।[ पृ. ९. यद्वत् तुरगः सत्खप्याभरण विभूषणेष्वन भिषक्तः। याज्ञवल्क्य इति होवाच । तद्वदुपग्रहवानपि न सहमुपयाति निर्ग्रन्थः॥ [बृह. उ० अ० २ ब्रा० ४ सू०१] पृ. ३२ [प्रशमर० का० १४१] पृ. ७४९ यादशोऽर्थान्तरापोहः प्रतिबिम्बात्मको वाच्योऽयं प्रतिपादितः। यद्वाऽनुवृत्तिव्यावृत्तिबुद्धिग्राह्यो यतस्वयम् । शब्दान्तरव्यपोहोऽपि तागेव प्रतिबिम्बात्मक एवावगम्यते ॥ तस्माद् गवादिवद् वस्तु प्रमेयलाच गृह्यताम् ॥ [ तत्त्वसं० का० १०८८ ] पृ. २१५ (२६) २१६ (१,२) [श्लो. वा० अभावप० श्लो. ९] पृ. ५८० (९) यावज्जीवेत् सुखं जीव ।[ ] पृ. ५०५ (६) यया जातिर्जातिलिङ्गानि च व्याख्यायन्ते तामाकृतिं विद्यात् यावत् प्रयोजनेनास्य सम्बन्धो नाभिधीयते । सा च सरवावयवानाम् । तदवयवानां च नियतो व्यूहः । असम्बद्धवलापिखाद् भवेत् तावदसतिः॥ [वात्स्या० भा० पृ० २२५] पृ. १७८ [श्लो० वा. सू. १ श्लो० २०] पृ. १६९ यश्चायमगोऽपोहोऽगौर्न भवतीति गोशब्दस्यार्थः स किञ्चिद् यावदर्या वै नामधेयशब्दाः। [१-१-४ वात्स्या. भा०] भावः, अथाभावः? भावोऽपि सन् किं गोः, अथागौरिति । पृ. ५२२ (२) यदि गैरिति नास्ति विवादः । अथागौः, गोशब्दस्यागौरर्थ | यावन्तो याशा ये च यदर्थप्रतिपादकाः । इत्यतिशब्दार्थ कौशलम् । अथाभावः, तन्न युक्तम् , प्रैष | वर्गाः प्रज्ञातसामर्थ्यास्ते तथैवावबोबकाः ॥ सम्प्रतिपत्त्योरविषयत्वात् ; नहि शब्दश्रवणादभावे प्रेषः-प्रति | [श्लो० वा. स्फोटवा० श्लो० ६९] पृ. ४३५ (४) पादकेन श्रोतुरर्थे विनियोगः-प्रतिपादकधर्मः, सम्प्रतिपत्ता (त्ति)श्च श्रोतृधम्मो-भवेत् । अपि च. शब्दार्थ: प्रतीया युगपद् ज्ञानानुत्पत्तिः न्या. सू० १-१-१५1 पृ.६१६ प्रतीयते, न च गोशब्दादभावं कश्चित् प्रतिपद्यते। युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम् । [न्यायवा० पृ. ३२९ पं०५-११] [न्यायद०१-१-१६] पृ. ४७७,५३१, ६६९ (६), ७०४ पृ. २०० (६,७,८,९,१०) येन येन हि नाम्ना वै यो यो धर्मोऽभिलप्यते । यः प्रागजनको बुद्धरुपयोगाविशेषतः । न स संविद्यते तत्र धर्माणां सा हि धर्मता ॥ स पश्चादपि तेन स्यादपायेऽपि नेत्रधीः॥ [ ] पृ. १७४ (५,६,७,८) [ ] पृ. ५२५ (२) येऽपि सातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधादिभिर्नराः । यस्मात् प्रकरणचिन्ता । [ न्यायद. १-२-७] पृ. ७२० । 1 पृ. ५३७ (२) Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । येऽपि सातिशया दृष्टाः प्रज्ञा-मेधादिभिर्नराः। लिखितं साक्षिणो मुक्तिः प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम् । स्तोकस्तोकान्तरलेन न खतीन्द्रियदर्शनात् ॥ पृ. ४५९ (०) ४७५ [ ] पृ. ४९ लिङ्ग-लिनिधियोरेवं पारमर्येण वस्तुनि। येषामप्यनवगतोत्पत्तीनां भावाना रूपमुपलभ्यते तेषां तन्तु- प्रतिबन्धात् तदाभासशून्ययोरप्यबन्धनम् ॥ व्यतिषाजनितं रूपं दृष्ट्वा तद्व्यतिषड्गविमोचनात् तद्विनाशाद् पृ. ३०५ (१) वा विनक्ष्यतीत्यनुमीयते। [ ] पृ. ९४ (६) वक्ता नहि क्रम कश्चित् स्वातन्येण प्रपद्यते । योगिप्रत्यक्ष सम्बन्धग्राहकमाहुः व्याप्तेः सकलाक्षेपेणावगमात् । [श्लो. वा० शब्दनित्य० श्लो० २८८] पृ. ४३५ (७) ] पृ. ७५-७६ वक्ता नहि क्रम कश्चित् स्वातव्येण प्रपद्यते । यो ज्ञानप्रतिभासमन्वयव्यतिरेकावनुकारयति । यथैवास्य परैरुक्तः तथैवेनं विवक्षति ॥ पृ. ५२४ [श्लो० वा० सू० ६ श्लो० २८८ ] पृ. ३९ यो नाम न यदात्मा हि स तस्यापोह्य उच्यते । | वचनं राजकीयं वा लौकिकं नापि विद्यते । न भावोऽभावरूपश्च तदपोहे न वस्तुता ॥ न चाऽपि स्मरणात् पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्तनम् ॥ [तत्त्वसं• का० १०२] पृ. २१४ (१७,१८) [ श्लो० वा. प्रत्यक्ष० श्लो. २३५] पृ. ३१९ (३) यो ह्यन्यरूपसंवेद्यः संवेद्येतान्यथाऽपि वा। वण्णपजवेहिं गंधपजवेहिं । [भगवतीसू० शत. १४ उ०४ स भ्रान्तो न तु तेनैव यो नित्यमुपलभ्यते ॥ सू० ५१३ ] पृ. ६३५ (१,२) वत्सविवृद्धिनिमित्तं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य । पुरुषविमोक्षनिमित्तं तथा प्रवृत्तिः प्रधानस्य ॥ रजतं गृह्यमाणं हि चिरस्थायीति गृह्यते । [साङ्ख्यका० ५७ ] पृ. ३०९ पृ. ५३९ (२) वय-समणधम्म-संजम-वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। रत्नादिकारणेष्वावल्यादिकार्य सदेव । जाणाइतियं तव-कोहणिग्गहाई चरणमेयं ॥ [सांख्यः] पृ. ४२२ [ओघनि० गा० २] ७५५ (२) रयणप्पभा सिआ सासया सियाऽसासया । वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यं गोत्वं हि गीयते। ] पृ. २४३ (२) [जीवाजीवाभि० प्रतिप० ३ उ०१ सू० ७८] पृ. ६३९(१) वर्तमानावभासि सर्व प्रत्यक्षम् ।[ ] पृ. ५९३ रूप-रस-गन्ध स्पर्शाः संख्याः परिमाणानि पृथक्वम् वस्तुवाद् द्विविधस्यात्र सम्भवो दुष्टकारणात् । संयोग-विभागौ परखाऽपरले बुद्धयः सुख-दुःखे इच्छा-द्वेषा [श्लो० वा० सू० २ श्लो० ६४ ] पृ. ८ (७-८) प्रयत्नश्च गुणाः। [वैशेषिकद.१-१-६] पृ.६७२ (५) वस्तुले सत्येष दोषः स्यात् नासिद्ध वस्तु वस्त्वन्तरसिद्धये रूपासंस्काराभावाद् वायावनुपलब्धिः। सामर्थ्यमासादयतीति, मायामात्रे तु नेतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः। [वैशेषिकद० अ० ४-१-७] पृ. १०० नहि मायायाः कथञ्चिदनुपपत्ति.--अनुपपद्यमानार्थव हि माया रूपादिखलक्षणविषयमिन्द्रियज्ञानम् आर्यसत्यचतुष्टयगोचरं | लोके प्रसिद्धा उपपद्यमानार्थले तु यथार्थभावान्न माया । योगिज्ञानम् । । ] पृ. ४९९ पृ. २७७ (२३) २७८(१) रूपभावेऽपि चैकवं कल्पनानिर्मितं यथा। वस्तुभेदप्रसिद्धस्य शब्दसाम्यादभेदिनः । विभेदोऽपि तथैवेति कुतः पर्यायता ततः॥ पृ. ४३ [तत्त्वसं० का० १०३२] पृ. २०७ (५) वस्तुमेदे प्रसिद्धस्य । [ ] पृ. ४८४ रूवं पुण पासइ अपुढे तु । 'वस्त्रस्य रागः' कुट्ठमादिद्रव्येग संयोग उच्यते, स च अव्या[आवश्यकनि० गा०५] पृ. ५४५ (५) प्यवृत्तिः तत एकत्र रक्त न सर्वत्य रागः न च शरीरादेरेकदे. शावरणे सर्वस्य आवरणं युक्तम् । [ ] पृ. ६६४ लक्षणयुक्त बाधासम्भवे तल्लक्षणमेव दूषितं स्यात् । वस्वमङ्करसिद्धिश्च त प्रामाण्यसमाश्रया ॥ ] पृ. ३७५ (६) [श्लो. वा. सू. ५ अभावप० श्लो. २] पृ. २४ लघवोऽवयवा ह्ये ते निबद्धा न च केनचित् । वस्वसङ्करसिद्धिश्च तत्त्रामण्यसमाश्रिता । वृक्षाद्यभिहतानां तु विश्लेषो लोटवद् भवेत् ॥ पृ. १६५ [श्लो० वा. सू० ६ श्लो० १११] पृ. ३८ । बाक्यार्थ तु पदार्थभ्यः सम्पन्धानुगमाद् ऋते। लब्धात्मनां वकार्येषु प्रवृत्तिः स्वयमेव तु। बुद्धि रुत्पद्यते तस्माद् भिजा सऽप्यक्षवुद्धिवत् ॥ पृ.१० । [लो. घा० शब्दप० श्लो० १०९] पृ. ७३८ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । वाक्येष्वष्टेष्वपि सार्थकेषु पदार्थचिन्मात्रतया प्रतीतिन् । दृष्ट्वानुमानव्यतिरेकभीताः क्लिष्टाः पदाभेदविचारणायाम् ॥ [ श्लो० वा० शब्दप० श्लो० १११ ] पृ० ७३८ वाघूरता चेद् व्युत्क्रामेदवबोधस्य शाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी ॥ [ वाक्यप० प्र० का ० ० १२५ ] पृ. ३८० (१३), ४८९ (३) वार्यते केनचिन्नापि तदिदानीं प्रदुष्यति । [ श्लो० वा० प्रत्यक्ष० छो० २३६ ] पृ. ४९६ (६) वार्यते केनचिन्नापि तत् तदानीं प्रदुष्यति । तेनेन्द्रियार्थसम्बन्धात् प्रागूर्ध वापि यत् स्मृतेः ॥ [ श्लो० वा० प्रत्यक्ष० श्लो० २३६ ] पृ. ३१९ (४) विकल्पप्रतिबिम्बमेव सर्वशब्दानामर्थः, तदेव चाभिधीयते व्यवच्छिद्यत इति च । [ ] पृ. १९९ (११,१२) विकल्पोऽवनिर्भासाद् विसंवादादुपलत्रः । ] पृ. ५०० (८), ५११ (१०) विग्गगमावण्णा । [ ] पु. ६१३ (१) विज्ञप्तिमात्रमेव नार्थव्यवस्था । [ ] पृ. ४६१ विज्ञानं जायते सर्वं प्रत्यक्षमिति गम्यताम् । [ श्लो० वा० प्रत्यक्ष० श्लो० २३७ ] पृ. ३१९ विज्ञानमानन्दं ब्रह्म । [ बृहदा० उ० अ० ३ ब्रा० ९ मं० २८ ] पृ. १५१ विधावनाश्रिते साध्यः पुरुषार्थो न लभ्यते । श्रुतः स्वर्ग' दिवाक्येन धात्वर्थः साध्यतां व्रजेत् ॥ [ श्लो० वा० औत्पत्तिकसू० श्लो० १४] पृ. ७४० (१) विधिरूपश्च शब्दार्थो येन नाभ्युपगम्यते । न भवेद् व्यतिरेकोऽपि तस्य तत्पूर्वको यसौ ॥ [ श्लो० वा० अपो० श्लो० ११०] पृ. १९६ (७,८) विनाशकाले न तस्य किञ्चिद् भवति, न भवत्येव केवलम्, अन्यथा कस्यचिद् विधाने न भावो निवर्त्तितः स्यात् । [ ] पृ. ३४६-३४७ (१,२) विभागोऽपि अन्यतरोभयकर्म - विभागजः । [ ] पृ. ७०४ (४) विभाषाग्रहः । [ पा० सू० ३।१।१४३ सिद्धान्तकौ ० अं० २९०५]पृ. ४०६ विरुद्धं हेतुमुद्भाव्य वादिनं जयतीतरः । [ विरोधिलिङ्ग - सङ्ख्यादिभेदाद् भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं शब्दः प्रत्यवतिष्ठते ॥ ] पृ. ७५ [ ] पृ. ३१३ विलक्षणोपपाते हि नश्येत् स्वाभाविकं क्वचित् । [ विवक्षातः कारकाणि भवन्ति । [ ] पृ. २७८ ] पृ. ४७१ (१०) विशिष्टरूपानुभवान्नान्यतोऽपि निराकिया । [ ] पृ. २७४ (६,७) विशिष्यत इति विशेषः गुणेभ्यो विशेषो गुणविशेषः कर्म्माभिधीयते, द्वितीयश्चात्र गुणविशेषशब्द एकशेषं कृत्वा निर्दिष्टः तेन गुणपदार्थो गृह्यते - गुणाश्च ते विशेषाश्च गुणविशेषाः -- विशेषग्रहणमा कृति निरासार्थम् । तथाहि आकृतिः संयोगविशेषखभावा, संयोगश्च गुणपदार्थान्तर्गतः ततश्चासति विशेष - ग्रहणे आकृतेरपि ग्रहणं स्यात् न च तस्या व्यक्तावन्तर्भाव इष्यते पृथक् स्वशब्देन तस्या उपादानात् । आश्रयशब्देन द्रव्यमभिधीयते - तेषां गुणविशेषाणामाश्रयस्तदाश्रयो द्रव्यमित्यर्थः । सूत्रे 'तत्' शब्दलोपं कृत्वा निर्देशः कृतः एवं च विग्रहः कर्तव्यः — गुणविशेषाश्च गुणविशेषाश्चेति गुणविशेषाः तदाश्रयश्चेति गुणविशेषाश्रयः, समाहारद्वन्द्वश्चायम् लोकाश्रयत्वात् लिङ्गस्य [अ० २ पा० २ सू० २९ महाभाष्ये पृ० ४७१ पं० ८ ] इति नपुंसकलिङ्गाऽनिर्देशः । तेनायमर्थों भवति - योऽयं गुणविशेषाश्रयः सा व्यक्तिश्वोच्यते मूर्तिश्चेति । तत्र यदा द्रव्ये मूर्तिशब्दस्तदाऽधिकरणसाधनो द्रष्टव्यः -- मूर्च्छन्त्यस्मिन्नवयवा इति मूर्तिः, यदा तु रूपादिषु तदा कर्तृसाधनः- मूच्छन्ति द्रव्ये समवयन्तीति रूपादयो मूर्तिः । व्यक्तिशब्दस्तु द्रव्ये कर्म्मसाधनः रूपादिषु करणसाधनः । [ न्या० वा० अ० २ आ० २ सू० ६८ पृ० ३३२ पं० ३-२४ ] पृ. १७७ (९, १०, ११) - १७८ (१,२ ) विशेषणं विशेष्यं च सम्बन्धं लौकिकीं स्थितिम् । गृहीत्वा सङ्कलय्यैतत् तथा प्रत्येति नान्यथा ॥ ] पृ. ५१५ (१), ५२५ (४) विशेष हेतवस्तेषां प्रत्यया न कथञ्चन । नित्यानामिव युज्यन्ते क्षणानामविवेकता ॥ [ ] पृ.३२९ (१८) विशेषेऽनुगमाभावः सामान्ये सिद्धसाधनम् । [ ] पृ. ५५४ विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात् । बाहुभ्यां धमति संपतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन् देव एक आस्ते [ श्वेताश्वत० उ० अ० ३,३ ] पृ. ९८ विषयविषयिसन्निपातानन्तरमाद्यं ग्रहणमवग्रहः । ] पृ. ५५२ (७) [ विषयेण हि बुद्धीनां विना नोत्पत्तिरिष्यते । विशेषादन्यदिच्छन्ति सामान्यं तेन तद् ध्रुवम् ॥ [ श्लो० वा० आकृ० श्लो० ३७] पृ. २४० वृक्षादिना हतान् ध्वानस्तद्भावाध्यवसायिनः । ज्ञानस्योत्पादन देतज्जात्यादेः प्रतिषेधनम् ॥ [ तत्त्वसं ० का ० १०७० ] पृ. २१२ (२४) वेदाध्ययनं सर्वं तदध्ययन पूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यवादधुनाध्ययनं यथा ॥ [ श्लो० वा० अ० ७ श्लो० ३५५ ] पृ. १३७ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । वेदाध्ययनमखिलं गुर्वध्ययनपूर्वकम् । | शब्दस्यागमनं तावददृष्टं परिकल्प्यते ॥ वेदाध्ययनवाच्यवादधुनाऽध्ययनं यथा ॥ [श्लो० वा० सू० ६ श्लो० १०७ ] पृ. ३८ [श्लो० वा. सू. ७ श्लो० ३६६] पृ. ४० शब्दादुदेति यद् ज्ञानमप्रत्यक्षेऽपि वस्तुनि । वोसट्टचत्तदेहो विहरइ गामाणुगामं तु। शाब्दं तदिति मन्यन्ते प्रमाणान्तरवादिनः ॥ [आव• नि० गा० ३१६ ] पृ. ७५० ] पृ. ५७४ (४) व्यक्तिजन्मन्यजाता चेदागता नाश्रयान्तरात् । शब्दे दोषोद्भवस्तावद् वक्त्रधीन इति स्थितम् । प्रागासीद् न च तद्देशे सा तया सङ्गता कथम् ॥ तदभावः क्वचित् तावद् गुणवद्वक्तृकत्वतः॥ [ ] पृ. २४० (११) [श्लो० वा. सू० २ श्लो० ६२] पृ. १९ व्यक्तिनाशेन चेनष्टा गता व्यक्त्यन्तरं न च । शब्दे नागम्यमानं च विशेष्यमिति साहसम् । तत् शून्ये न स्थिता देशे सा जातिः क्वति कथ्यताम् ॥ तेन सामान्यमेष्टव्यं विषयो बुद्धि-शब्दयोः॥ ] पृ. २४० (१२) [श्लो० वा० अपो० श्लो. ९४] पृ. १९३ (६) व्यक्तिरूपावसायेन यदि वाऽपोह उच्यते। शब्देनाव्यापृताक्षस्य वुद्धावप्रतिभासनात् । तल्लिमाद्यभिसम्बन्धो व्यक्तिद्वारोऽस्य विद्यते ॥ अर्थस्य दृष्टाविव तदनिर्देशस्य वेदकम् ॥ [तत्त्वसं. का० ११४३ ] पृ. २२४ ] पृ. २५० (११,१२) ५२५ (७) व्यक्तिर्गुणविशेषाश्रयो मूर्तिः। शरीरान्तरेऽपि तदङ्गनासम्बन्धिनि तद्गुणा उपलभ्यन्ते [न्यायप० अ० २ आ० २ सू० ६६ ] पृ. १७७ इत्यभिदधति । तथाहि-'देवदत्तानाझं देवदत्तगुणपूर्वकम. व्यक्तर्जात्यादियोगेऽपि यदि जातेः स नेष्यते। कार्यले सति तदुपकारकला, ग्रासादिवत् । कार्यदेशे च सन्नितादात्म्यं कथमिष्टं स्यादनुपप्लुतचेतसाम् ॥ हितं कारणं तननने व्याप्रियतेऽन्यथाऽतिप्रसङ्गादिति तदङ्गनाङ्ग[ ] पृ. २४० (१३,१४) प्रादुर्भावदेशे तत्कारणनद्गुणसिद्धिः । तथा तदन्तराले च प्रतीव्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थः । यन्ते तथाहि-अग्नरूज्वलनम्, वायोतिर्यक् पवनं तद्गुण[न्यायद० अ० २ आ० २ सू० ६५] पृ. १७७ पूर्वकम् , कार्यले सति तदुपकारकखात् , वस्त्रादिवत् । यत्र च व्यजकानां हि वायूनां भिन्नावयवदेशता ॥ तद्गास्तत्र तद्गुण्यप्यनुमीयत इति 'खदेह एव देवदत्तात्मा' इति [ श्लो० वा. सू. ६ श्लो० ७९-८] पृ. ३६ प्रतिज्ञा अनुमानबाधिता । ततोऽनुमानवाधितकर्मनिर्देशानन्तरव्यवहारस्तु तामेव प्रतिवस्तुव्यवस्थिताम् । प्रयुक्तलेन कालात्ययापदिष्टो हेतुः। तथैव दृश्यमानवाद् व्यवहारयति देहिनः॥ [ ] पृ. १४६-१४७ (१) [ ] पृ. ३११ (५,६) शावलेयाच्च भिन्नखं बाहुलेयाश्वयोः समम् । व्यापकलं च तस्यदमिष्टमाध्यवसायिकम् । सामान्यं नान्यदिष्टं चेत् क्वागोऽपोहः प्रवर्तताम् ॥ मिथ्यावभासिनो ह्यते प्रत्ययाः शब्दनिर्मिताः ॥ [श्लो० वा० अपो० श्लो० ७७ ] पृ. १९० (१०) [तत्त्वसं० का० १२१२] पृ. २३२ (२१,२२) व्यावहारिकस्य चैतत् प्रमाणस्य लक्षणमुक्तम् । शास्त्रस्य तु फले दृष्टे तत्प्राप्याशावशी कृताः । प्रेक्षावन्तः प्रवर्तन्ते तेन वाच्यं प्रयोजनम् ॥ ] पृ. ४९७ ] पृ. १६९ (१०) शास्त्रार्थप्रतिज्ञाप्रतिपादनपर आदिवाक्योपन्यासः । शक्तयः सर्वभावानां कार्यार्थापत्तिगोचराः । ] पृ. १७२ (१) [श्लो. वा. सू. ५ शून्य० श्लो० २५४] पृ. ५४ । शिरसोऽवयवा निम्ना वृद्धि -काठिन्यवर्जिताः । शब्द एवाभिजल्पसमागतः शब्दार्थः । शशशृङ्गादिरूपेण सोऽत्यन्ताभाव उच्यते ॥ [ ] पृ. १८० (११) [लो. वा० अभा० परि० श्लो० ४] पृ. १८६,५८१ शब्दज्ञानादसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिः शाब्दम् । शिष्टाः क्वचिदभीष्टे वस्तुनि प्रवर्तमाना अभीष्टदेवताविशे१-५ शाबरभा०] पृ. ५७४ (३) शब्दवं गमक नात्र गोशब्दत्वं निषेत्स्यते । पस्तव विधान पुरस्सरं प्रवर्तन्ते। [ व्यक्तिरेव विशेष्याऽतो हेतुश्चैका प्रसज्यते ॥ । शुद्धं द्रव्यं समाश्रित्य सङ्ग्रहस्तदशुद्धितः। [श्लो० वा० शब्दप० ६४] पृ. ५७५ नैगमव्यवहारो स्तां शेषाः पर्यायमाश्रिताः ॥ शब्दस्य वृत्तेः सर्वत्र पञ्चानामपि न क्वचित् । ___] पृ. ३११ (२) प्रमाणानामभावोऽतो नार्थाभावविनिश्चयः॥ | शेषाणामाश्रयव्यापितम् । पृ.५८७ ! [प्रशस्त. क० १० १०३ पं० ८ ] पृ. ७०८ (१) Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । ___] पृ. १०५, ३७६ (९) श्रेयःसाधनता ह्येषां नित्यं वेदात् प्रतीयते । क्यत्वात् , अत एव न चैत्रः ततश्चैत्रस्य कुण्डलसंयोगः प्रतिषितादूप्येण च धर्मखं तस्मान्नेन्द्रियगोचरः ॥ ध्यते । एवं 'कुण्डली चैत्रः' इत्यत्रापि चैत्र-कुण्डलयो न्य[श्लो० वा० सू० २ श्लो. १४] पृ. ५०५ तरस्य विधिः तयो. सिद्धलात् । ततः पारिशेष्याद् अप्रतीतस्य श्रेयो हि पुरुषप्रीतिः सा द्रव्यगुणकर्मभिः। तत्-संयोगस्यैव विधिरिति संयोगादिर्वास्तवः समस्त्येव यदचोदनालक्षणैः साध्या तस्मादेष्वेव धर्मता ॥ शाद् विभक्तविधि-प्रतिषेधप्रवृत्तिः 'चैत्रः कुण्डली' इत्यादि[श्लो. वा० सू० २ श्लो. १९१] पृ. ५०५ प्रयोगेषु । किच्च, यदि संयोगः अर्थान्तरं न भवेत् तदा बीजाश्रोत्रधीरप्रमाणं स्यादितराभिरसङ्गतेः। दयः-अविशिष्टत्वात्-सर्वदैव स्वकार्यमङ्कुरादिकं विदभ्युः न [श्लो० सू० २ श्लो० ७७ ] पृ. १६ चैवम् सर्वदा तेषां कार्यानारम्भात् ; अतो बीजादयः खकार्यधोत्रादिवृत्तिरविकल्पिका। निर्वर्तने कारणान्तरसव्यपेक्षाः मृत्तिण्ड-दण्ड-चक्र-सूत्रादर | इव घटादिकरणे; योऽसौ अपेक्ष्यः स संयोगः । [ ] पृ. ५३३ (१) [ ] पृ. ६७७(४,५)-६७८(१,२,३,४)-६७९(१,२) षट्केन युगपद्योगात् परमाणोः षडंशता । | संयोग्यादिषु येष्वस्ति प्रतिबन्धो न तादृशः। न ते हेतव इत्युक्तं व्यभिचारस्य सम्भवात् ॥ ] पृ. ५५९ षडेव धर्मिणः प्रोक्ताः । [ ] पृ. ६६१ (७) संवादस्याथ पूर्वेण संवादित्वात् प्रमाणता । अन्योऽन्याश्रयभावेन न प्रामाण्यं प्रकल्पते ॥ स एवाविनाभावो दृष्टान्ताभ्यां दयते । ] पृ.६ [ ] पृ. ३९४ संवित्तिः संवित्तितयैव संवेद्या न संवेद्यतया। संजोगसिद्धीए फलं वयंति । ] पृ. ७९ [आवश्यकनि पढमाव. गा० २३ ] पृ. ७५७ (१) गंवित्याख्यं फलं ज्ञातृव्यापारसद्भावे सामान्यतो दृष्टं लिङ्गम् । संयोगस्य द्रव्ययोर्विशेषणलेन अध्यक्षतः प्रतीयमानलात् । पृ. २७ तथाहि-कश्चित् केनचित् 'संयुक्त द्रव्ये आहर' इत्युक्तो ययोरेव ययारव | संसट्रमसंसट्टा उद्धड तह अप्पलेविया चेव । द्रव्ययोः संयोगमुपलभ्य(भ)ते, ते एव आहरति न द्रव्यमात्रम् | साटिया पहिया उमियहम्मा य सत्तमिया ॥ अन्यथा हि यत् किञ्चिद् आहरेत् । एतद् विभागसाधनेऽपि ] पृ. ७५५ (४,५) विपर्ययेण सर्व समानम् । किञ्च, यदि अर्थान्तरभूतौ संयोग | संसरति निरुपभोगं भावरधिवासित लिङ्गम् । विभागौ वस्तुनो न स्याताम् तदा वस्तुमात्र निबन्धनौ 'सान्तर [ साङ्ख्यका० ४०] पृ. ४१७ (८) मिदम्' 'निरन्तरम्' इति च प्रत्ययों नोत्पद्ययाताम् न हि संसर्गमोहितधियो विविक्तं धातुगोचरात् । विशेषप्रत्ययो वस्तुविशेषमन्तरेण सम्भविनौ सर्वदा सर्वत्र भाव भावात्मानं न पश्यन्ति ये तेभ्यः स विविच्यते ॥ प्रसङ्गात् । अपि च दूरदेशवर्तिनः प्रमातुः सान्तरावस्थितेऽपि धव-खदिरादौ निरन्तरावसायिनी वुद्धिोत्पद्यते या च शाखि [ ] पृ. ७३९ शिखरावसक्ते बलाकादौ सान्तरत्वाध्यवसायिनी समुपजायते; संसृजेत् शुभमेवैकमनुकम्पाप्रयोजितः । द्विविधाऽपि इयम् 'अतस्मिस्तत्' इति प्रवृते मिथ्याबुद्धिः । न [श्लो० वा. सू० ५ सम्बन्धा श्लो० ५२] च असौ मुख्यपदार्यानुभवमन्तरेण क्वचिदू उपजायमाना संल पृ. १०० क्ष्यते न हि अननुभूतरजतस्य शुकिकायाम् 'रजतम्' इति विभ्रमः | ससूज्य नवजानिकायमा संमृज्यन्ते न मिद्यन्ते खतोऽर्थाः पारमार्थिकाः। इति कश्चित् मुख्यो भावो विभ्रमधियो निमितमभ्युपगन्तव्यः | | रूममेकमने कं वा तेषु बुद्धरुपप्लवः । तदभ्युपगमे च संयोग-विभागसिद्धिः तन्य त रेकेण अन्यस्य पृ. २१० (१,२,३,४) एतदुद्धेर्निबन्धनस्य असम्भवात् । तथा 'कुण्डली देवदत्तः' इति संस्त्यान-प्रसव-स्थितिषु यथाक्रमं स्त्री-पुं-नपुंसकव्यवमतिः किंनिबन्धना उपजायते इति वक्तव्यम् । न पुरुष-कुण्डल- ' स्थाति (स्था । इति) [ ] पृ. २२१ (११) मात्रनिबन्धना, सर्वदा तयोस्तस्या उत्पतिप्रसङ्गात् । अपि च । संहृत्य सर्वतश्चिन्तां स्तिमितेनान्तरात्मना । यदेव क्वचित् केनचित् उपलब्धं सत्त्वेन; तस्यैव अन्यत्र स्थितोऽपि चक्षुश रूपं वीक्षते साक्षजा मतिः॥ विधिः प्रतिषेधो वा दृष्टः । यदि च संयोगो न कदाचिद् उप ५०३ (८) लब्धः कथं विभागेन अस्य 'चैत्रोऽकुण्डलः कुण्डली वा' इत्येवं सङ्केतस्मरणोपायं दृष्टसङ्कलनात्मकम् । प्रतिषेधः विधिश्च भवेत् ? यतः 'अकुण्डलश्चैत्रः' इति न । पूर्वापरपरामर्शशून्ये तचाक्षुषे कथम् ॥ कुण्डलं प्रतिषिध्यते तस्य अन्यदेशादौ विद्यमानस्य प्रतिषेधुमश । [ ] पृ.५१५ (३) ५२५ (५) Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । सङ्ख्या-परिमाणानि पृथक्त्वम् संयोग-विभागौ परखाऽपरत्वे | सन् बोधगोचरप्राप्तस्तद्भावेनोपलभ्यते । कर्म च रूपि(द्रव्य)समवायाञ्चाक्षुषाणि । | नश्यन् भावः कथं तस्य न नाशः कार्यतामियात् ॥ [वैशेषिकद०४-१-११] पृ. ११३,६७३ (३) ६ ] पृ. ३२१ (५,६) स चेदगोनिवृत्त्यात्मा भवेदन्योन्यसंश्रयः । सप्त भुवनान्येकबुद्धिनिर्मितानि, एकवस्त्वन्तर्गतखात् , एका. सिद्धश्चेद् गौरपोहार्थ वृथापोहप्रकल्पनम् ॥ वसथान्तर्गतानेकापवरकवत् ; यथैकावसथान्तर्गतानामपवरकाणां [श्लो० वा० अपो० श्लो० ८४ ] पृ. १९१ (११) सूत्रधारकबुद्धिनिर्मितवं दृष्टं तथैकस्मिन्नेव भुवनेऽन्तर्गतानि सत्ता-द्रव्यवसम्बन्धात् सद्रव्यं वस्तु । सप्त भुवनानि, तस्मात् तेषामप्येकबुद्धिनिर्मितवं निश्चीयते; पृ. ७३१ यद्बुद्धिनिर्मितानि चैतानि स भगवान् महेश्वरः सकलभुवनैकसत्ता-खकारणाऽऽश्लेषकरणात् कारणं किल । सूत्रधारः। [ ] पृ. १३२ सा सत्ता स च सम्बन्धो नित्यौ कार्यमथेह किम् ॥ स बहिर्देशसम्बन्धो विस्पष्टमुपलभ्यते। ] पृ. ३०३ (७) ] पृ. १९९ स खसम्पादकस्तादृग्वस्तुसम्बन्धहानितः। समवायिनः श्वैत्यात् श्वैत्यबुद्धेः श्वेते बुद्धिः। न शब्दाः प्रत्ययाः सर्वे भूतार्थाध्यवसायिनः ॥ [वैशेषिकद०८-१-९] पृ. ६९३ (२) [तत्त्वसं० का० ११६५] पृ. २२७ (६) समानप्रत्ययप्रसवात्मिका जातिः। सत्सम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षम् । [न्यायद० अ० २ आ० २ सू०६८] पृ. १७८ (७) [जैमि० सू० १-१-४] पृ. ४८,८०,५३४(८) समाना इति तद्ग्रहात् । सत्सम्प्रयोगे पुरुषस्य इन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षमनि __] पृ. २४२ (२०) मित्तम् , विद्यमानोपलम्भनत्वात् । समुच्चयादिर्यश्चार्थः कश्चिच्चादेरभीप्सितः । [जैमिनीयसू. १-१-४] पृ. ३१ तदन्यस्य विकल्पादेर्भवेत् तेन व्यपोहनम् ॥ सदकारणवन्नित्यम् । [तत्त्वसं० का० ११५९] पृ. २२६ (५) [वशेषिकद०४-१-१] पृ. ६४७,६५६,७३१ | सम्बद्धं वर्तमानं च गृश्यते चक्षुरादिना । सदुपलम्भकप्रमाणगम्यवं षण्णामस्तित्वमधीयते, तच्च षद- | [लो० वा. प्रत्यक्ष० श्लो० ८४ ] पृ ५६,५३७ (९) पदार्थविषयं ज्ञानम् तस्मिन् सति 'सत्' इति व्यवहारप्रवृत्तः । सम्बद्धबुद्धिजननं तेषां सम्बन्ध एव च । एवं 'ज्ञानजनितं ज्ञानज्ञेयत्वम्' 'अभिधानजनितम् अभिधेयखम्' [ ] पृ. १०७ (५,६) इत्येवं व्यतिरेकनिबन्धना षष्टी सिद्धा, न चाऽनवस्था, न च पक्षदायव्यातारकपदाथान्तरप्रसक्तिः ज्ञानस्य गणपदार्थ मी. सम्यगथ च सशब्दो दुष्प्रयोगनिवारणः [श्लो. वा० सू० ४ प्रत्यक्ष० श्लो० ३८ ] पृ. ५३५ (१) वात् ।। पृ. ६६१ (१०) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः।। सदेव न जन्यते। [ ] पृ. ५७ सद्गुणद्रव्यरूपेण रूपादेरेकतेष्यते। [तत्त्वार्थसू० १-१] पृ. ६५१ खरूपापेक्षया चैषां परस्परं विभिन्नता ॥ सर्ग-स्थित्युपसंहारान् युगपद् व्यक्तशक्तितः। [श्लो० वा० अभावप० श्लो० २४ ] पृ. ५८८ (१३) युगपच जगत् कुर्यात् नो चेत् सोऽव्यक्तशक्तिकः ॥ सद्रूपतानतिक्रान्तखस्वभावमिदं जगत् । पृ. ७१६ (९,१०) सत्तारूपतया सर्व संगृह्णन् संग्रहो मतः॥ ___सर्गादौ पुरुषाणां व्यवहारोऽन्योपदेशपूर्वकः, उत्तरकालं प्रबु] पृ. ३११ (४) द्धानां प्रत्यर्थनियतत्वात् , अप्रसिद्धवारव्यवहाराणां कुमाराणां स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः। गवादिषु प्रत्यर्थनियतो वाग्व्यवहारो यथा मात्राद्युपदेशपूर्वकः । [तत्त्वार्थ० अ० २ सू० ९] पृ. ६१८ ] पृ. १०१ (३) सन्तान विषयखेन वस्तुविषयलं द्वयोरुक्तम् । सर्व एवायमनुमानानुमेयव्यवहारः सांवृतः। ] पृ. ४६८ (९) ] पृ. ३७७ सन्ति पञ्च महन्भूया। सर्व एवायमनुमानानुमेयव्यवहारो बुद्धयारूढेन धर्मधर्मिभेदेन । [सूत्रकृ० प्र० श्रु० प्र० अ० प्र० उ० गा० ७] पृ. ५९ [ ] पृ. ५६४ (8) सन्निकर्ष विशेषात् तद्ब्रहणम् । सर्वचित्त-चैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम् । ] पृ. ५२८ [न्या. बि० १-१० ] पृ. ५०१ (३) ५०८ (१६) सनिकृष्टार्थवृत्तिलं न तु ज्ञानान्तरेष्षयम् ।। सर्वचितचैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षमविकल्पम् । [श्लो. वा. निरा. श्लो. ११५] पृ. ५३७ (११,१ 1 पृ. ५०६, (१,२) १०५ सं० प. [ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । [ सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीम् सव्यापारप्रतीतखात् प्रमाणं फलमेव सत् । [श्लो. वा. सू. २ श्लो. ११७] पृ. ५५ [ ] पृ. ५२९ (११) सर्वज्ञो दृश्यते तावनेदानीमस्मदादिभिः। सव्यापारमिवाभाति व्यापारेण स्वकर्मणि । दृष्टो न चैकदेशोऽस्ति लिङ्गं वा योऽनुमापयेत ॥ पृ. ४५९ (७) ५२९ [श्लो. वा. सू. २ श्लो. ११७] पृ. ४५ सव्वत्थोवा तित्थयरिसिद्धा तित्थयरितित्थे अतित्थयरिसिद्धा सर्वज्ञो नावबुद्धश्चेद् येनैव स्यान तं प्रति । असंखेजगुणा। [ पृ. ७५२ तद्वाक्यानां प्रमाणलं मूलाज्ञानेन वाक्यवत् ॥ सव्वाओ लद्धीओ।[विशेषाव. भा० गा. ३०८९ ] [श्लो० वा. सू. २ श्लो० १३५] पृ. ५३ (२) पृ. ६०८ (८) सर्वज्ञोऽयमिति ह्येतत् तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः । सव्वे वि एगदूसेण णिग्गया जिणवरा। तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ॥ [ आवश्यकसू० गा० २२७ ] पृ. ७५० (२) [श्लो. वा. सू० २ श्लो० १३४] पृ.५३ स सर्वो (सर्वो) मिथ्यावभासोऽयमर्थ इतीष्यत एव यथोसर्वत्र पर्यनुयोगपराण्येव सूत्राणि बृहस्पतेः । तेष्वेका (मर्थेष्वेकात्मकग्रहः । इतरेतरभेदोऽस्य बीजं संज्ञा ] पृ.६९,७४ यदर्थिका ॥ [ ] पृ. १८१ (१६,१७,१८) सर्वत्राभेदादाश्रयस्यानुच्छेदात् कृत्स्नार्थपरिसमाप्तेश्च यथाक्रम सहभाविनो गुणाः क्रमभाविनः पर्यायाः। जातिधर्मा एकत्व-नित्यव-प्रत्येकपरिसमाप्तिलक्षणा अपोह ] ४७८ (५) एवावतिष्ठन्ते; तस्माद् गुणोत्कर्षादर्थान्तरापोह एव शब्दार्थः सहवर्तिनो गुणाः। [ ] पृ. १४७ साधुः। [ ] पृ. २०१ (८) सह सुपा। [अ० २ पा० १ सू० ४ पाणि• व्या० पृ. सर्वदा सदुपायानां वादमार्गः प्रवर्तते॥ १६. अं० ६४९ ] पृ. २७१ [श्लो० वा. निरालम्ब० श्लो० १२८] पृ. ३७७ सहस्रवत सामवेदः । [ ] पृ. ७३१ (३) सर्वभावाः खभावेन स्वस्वभावव्यवस्थितेः । सांव्यवहारिकस्य च प्रमाणस्यैतल्लक्षणम् । खभाव-परभावाभ्यां यस्माद् व्यावृत्तिभागिनः ॥ ] पृ. ४७० __] पृ. २४३ (२०,२१,२२) साकारे से णाणे अणागारे दंसणे। सर्वमालम्बने भ्रान्तम् । ] पृ. ६०५ __] पृ. ५१२ (२) साक्षादपि च एकस्मिन्नेवं च प्रतिपादिते। सर्वमेकं सल्लक्षणं च ब्रह्म । प्रसज्यप्रतिषेधोऽपि सामर्थ्येन प्रतीयते ॥ ] पृ. २७३ (३) __ [ तत्त्वसं• का० १०१३] पृ. २०३ (१६,१७,१८,१९) सर्ववस्तुषु बुद्धिश्च व्यावृत्त्यनुगमात्मिका। सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं । जायते व्यात्मकत्वेन विना सा च न युज्यते ॥ [प्रज्ञाप० द्विती०प० सू० ५४ गा० १६.] [श्लो. वा० आकृ० श्लो० ५] पृ. २३३ पृ. ६०८ (५) सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य कर्मणो वाऽपि कस्यचित् । सादृश्यस्य च वस्तुलं न शक्यमवबाधितुम् । यावत् प्रयोजनं नोक्तं तावत् तत् केन गृह्यते ॥ भूयोऽवयवसामान्ययोगो जात्यन्तरस्य तत् ॥ [श्लो० वा० सू० १ श्लो० १२] पृ. १६९ (५,८) [श्लो० वा. उपमान० श्लो. १८] पृ. ५७६ सर्वस्योभयरूपले तद्विशेषनिराकृतेः । साधने पुरुपार्थस्य सनिरन्ते त्रयी विदः। चोदितो दधि खादेति किमुष्टुं नाभिधावति ॥ बोधविधौ समायत्तम्-॥[ ] पृ. ७४१ [ ] पृ. २४२ (३३) 'साध्यसद्भावे एव सर्वत्र साधनसद्भावः' इत्येवं भूतान्वयाडसर्वे धर्मा निरात्मानः सर्वे वा पुरुषा गताः। प्रसिद्धौ ‘साध्याभावे सर्वत्र साधनस्य अभावः' इति सकलासामस्त्यं गम्यते तत्र कश्चिदंशस्वपोह्यते ॥ क्षेपेण व्यतिरेकस्यासम्भवात् । [ ] पृ. ६७१ [तत्त्वसं० का० ११८६] पृ. २२९ साध्यसाधनम् । [न्यायद० १-१-६] पृ. ५७८ () सर्वेऽप्यनियमा ह्येते नानुमोत्पत्तिकारणम् । सामर्थ्यभेदः सर्वत्र स्यात् प्रयत्नविवक्षयोः । नियमात् केवलादेव न किञ्चिन्नानुमीयते ॥ [श्लो० वा. सू. ६ श्लो० ८३] पृ. ३६ पृ. ११ सामान्यं नान्यदिष्टं चेत् तस्य वृत्तर्नियामकम् । सवियप्प-णिव्वियप्पं । [प्र. का. गा० ३५] गोलेनापि विना कस्माद् गोबुद्धिर्न नियम्यते ॥ पृ. ६२८ (५) [श्लो. वा. आकृ. श्लो. ३५] पृ २४० (१५, Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागतान्यवतरणानि । मामान्यतस्तु दृष्टादतीन्द्रियाणां प्रसिद्धिरनुमानात् । स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्य मिति गम्यताम् । [सासयका० ६] पृ. ५६६ नहि स्वतोऽसनी शक्तिः कनुमन्य न पायते ॥ सामान्य प्रत्यक्षात् विशेषाप्रत्यक्षात् विशेषस्मृतेश्र संशयः । । श्री. वा. मृ. २०४७] पृ. ४ [वैशेषिकद० २,२, १७ ] पृ. ४५२ (१) स्वबीजानेकविश्विस्तुसवेनशक्तितः । सामान्यमपि नीलवादि नीलाद्याकारमेव अन्यथा 'नीलम्' विकल्पास्तु विभिद्यन्ते नद्रूपाध्यवमायिनः ॥ 'नीलम्' इति अनुवृत्तिप्रत्ययो न स्यात् इति हेनोरसिद्धखात् [ तत्त्वसं० का० १०४८ ] पृ. २०९ (१४,१५) नानुमानबाधा।[ ] पृ. ६९३ , स्वभावेऽध्यक्षतः सिद्ध यदि पर्यनुयुज्यते। सामान्यविषयत्वं हि पदस्य स्थापयिष्यते ॥ तत्रोत्तरमिदं युक्तं न दृष्टेऽनुपपत्रता ।। [श्लो. वा० शब्दप० ५५] पृ. ५७५ , ] पृ. २६ सिद्धश्चागौरपोह्येत गोनिषेधात्मकश्च सः। खभावेऽप्यविनाभावो भावमात्रानुरोधिनि । तत्र गोरेव वक्तव्यो नत्रा यः प्रतिषिध्यते ॥ तदभावे स्वयं भावस्याभावः स्यादभेदनः ॥ [श्लो० वा. अपो० श्लो० ८३ ] पृ. १९१ (१०) [ ] पृ. ३२१ (२९) ५६९ (४) सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्धः। स्वभावोऽपि स तस्येत्थं येनापेक्ष (!) निवर्तते। [न्यायद० अ० १ आ० २ सू०६] पृ. ९७ (3) विरोधिनं यथाऽन्येषां प्रवाहा मुद्गदिकम् ॥ सुखमाहादनाकार विज्ञानं मेयबोधनम् । ] पृ. ३४८ शकिः क्रियानुमेया स्यात् यूनः कान्तासमागमे ॥ स्वयमेव भावो न भवेत् । [ ] पृ. ४२५ ]४७८ (६) सुविवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचरति । खरूप-पररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके। पृ. ११८,२६६,५६३, । | वस्तुनि ज्ञायते किञ्चिद् रूपं कश्चित् कदाचन ॥ सुविवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचरति अतस्तदवधारणे यत्रो [श्लो० वा० अभाव प० लो० १२] पृ. ५८१ (६) विधेयः। ] पृ. ९० स्वरूपसत्त्वमात्रेण न स्यात् किञ्चिद् विशेषणम् । सोमिला! एगे वि अहं जाव अणेगभूयभावभविए य अहं। स्वबुद्ध्या रज्यते येन विशेष्यं तद् विशेषण [ ॥ से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ ? एगे वि अहं । [श्लो. वा० अरो० नो० ८७] पृ. १९२ [भग० श० १८ उ० १० सू० ६४७ ] पृ. ६२५ स्वरूपस्य स्खतो गतिः । [ ] पृ. १५,४६५,४८३, ५१३ सोमिला ! दव्वट्ठयाए एगे अहं, णाणदसणट्टयाए दुवे अहं। स्वरूपेणैव निर्देश्यः।। ] ५९२ [भगवती० श. १८ उ० १० सू. ६४७ ] पृ. ६२५ स्वसंवेद्यमनिर्देश्य रूपमिन्द्रियगोचरः। सोऽयं प्रमाणार्थोऽपरिसङ्ख्येयः। ] पृ. १८७ (५) [वात्स्या० भा० पृ० १५० १२] पृ. ५२४ खाभाविकीम विद्यां तु नोच्छेत्तुं कश्चिदहति । सो य तवो कायव्वो जेण मणो मंगुलं न चिंतेइ । [श्लो. वार्तिक. सू. ५] पृ. २७८ [पञ्चव० पृ. ३५ गा० २१४ ] पृ. ७४९ (२) स्वाश्रयेन्द्रियसन्निकर्षापेक्षप्रतिपत्तिकं सामान्यम् । स्त्रीवादयो गोखादय इव सामान्य विशेषाः। पृ. ६९४ ] पृ. २२२ (३) हयं णाणं कियाहीणं हया अण्णाणओ किया। स्मृत्यनुमानागमसंशयप्रतिभास्वप्नज्ञानोहाः सुखादिप्रत्यक्ष- पासंतो पंगुलो डड्डो धावमाणो य अंधओ ॥ मिच्छादयश्च मनसो लिङ्गानि । [१-१-१६ वात्स्या० भा०] [आवश्यकनि पढमाव. गा० २२] पृ. ७५६ (८) पृ. ५६२ हिताहितप्राप्ति-परिहारयोः । [ पृ. ४६९ खकर्मणा युक्त एव सर्वो ह्युत्पद्यते नरः। सर्वज्ञःस तथाऽऽकृष्यते तेन न यथा खय मिच्छति ॥ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे। [ ऋग्वेद अष्ट. ८ मं० १. सू. ] पृ. ७१५ १२१] पृ. ३२,४०, ४२ खकारणसम्बन्धकालः प्रथमः ततः खसामान्याभिव्यक्ति. कालः ततः अवयवकर्मकालः ततः अवयव विभागकालः ततः हेनुना यः समग्रण कार्योत्पादोऽनुमीयते। अर्थान्तरानपेक्षवात् स खभावोऽनुवर्णितः ॥ खारम्भकावयवसंयोगविनाशकालः ततः द्रव्यविनाशकालः। पृ. ५६३ [ ] पृ. ६८७ खकीयरूपानुभावामान्यतोऽन्यनिराक्रिया । हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमने कमाधिनं लिङ्गम् । ] पृ. १६६ (१) सावयवं परतत्रं व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम् ॥ खगृहानिर्गतो भूयो न तदाऽऽगन्तुमर्हति । [सायका० १०] पृ. २८१ (१८) पृ. ७५ । खाद्यर्थे टच । [ ] पृ. २७१ (४) पृ. ४६ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *सन्मतिटीकानिर्दिष्टा ग्रन्था ग्रन्थकृतश्च । आचाीय ( दिग्नागीय)२०४-८ अक्षपाद ५३९-२९ आम्नाय २७३-१४ अक्षपादकणभुग्मतानुसारिन् ४७५-१७,७१८-३२ आयुर्वेद ७३१-१३ भा६१४-१६ आहेत २९-२४ अत्राहुः ९३-३२,९५-२४ अध्ययन ३३२-१५,४७१-२८,५०९-३२,५६७-१७, इन्द्रियसूत्र (न्या. सू.) ५३१-५ ६९९-१३ (२) अन्य ९७-२२,९८,९९,१०९,१५५,१८०-२२ (८,११), १८२ (२), १८२ (४), १८५ (१), २२२-४ (३), ईश्वरकृष्ण २८०-३४,२८२-१९,२९६-१६,५६६-२६ २७८,३५३,५६२ (५),७१५ (२),७४०-६ अपर १६-२८,१४६,१८० (२०), २३२,२३३,२७८, उद्योतकर (जुओ वार्तिककार अने वार्तिककृत् ) १०१३१०,३४०,४२२,४२८,५२३,५३१,५६०,५६२-१०(२), ५६५-२६,५६६-३२,६९८-१४ (२) १६,१०६-२३,११४-५,१३२-१९,१२७-१३,१७४-२८, अभयदेव ७६१-२४ १७५-१५,२००-२(१),२०४-२,२२०-४,२२९-१४, अर्हत् १-२०,५४,६३४-१७ ३३२-१५,४७१,५१९-३,६५९-१३,६६३-२३ (३), अर्हत्प्रणीतशासन ४५३-३० ६६८-४ (३), ६१९-८,६६६-११ अर्हत्-सर्वज्ञशासन ६८-२६ उद्योतकरादि २०१-२१,६५९-१३ भदागम ६५१-३,७५३-३८ उद्द्योतकराध्ययनप्रभृति ४७१-२८ अर्हद्वचन ६२१-२५,६५१-१ उलूक ६५६-१७ (३),७०४-२८ अर्हन्मतानुसारिन् ४४१-२१ अविद्धकर्ण १००-३३,३३२-१५,६५८-३ (४), ६७५-१९ एक ९६-२३,३४०-३१,५६०-२ (१) अष्टकादि ४०-३३,४२-५ औ आगम ९३-२,२७३-४,२९५-१०,६१३-३४,६१९-११, औलुक्य १४०-४ ७४६-९,७५१-१३,७५६-३२ आगमविद् ७३२-२७ कणभुग्मत ६५६-१३ आचारायंग ७५०-१९,७५१-२ कणभुग्मतानुसारिन् ३९०-१३ आचार्य २७-२८,६८-१९,२८४-३३,३१६-११ कणभुज् (जुओ वैशेषिकशास्त्रप्रणेतृ) ४४१-२१,४७५, आचार्य (विज्ञप्तिमात्रतासिद्धिकार) ३७६-३० ७१८-३३ आचार्य ( दिग्नाग ) २०४-१०,२१२-१९ (१९),२१३-1 कपिलमतानुसारिन् ७१८-३१ १०,२१७-१२,२२८-२०,२३१-८,३६५-२२,३७७-१९, कपिलादि १३३-११ ३८८-२२ कपिलादिप्रणीतसिद्धान्त ६९-५ आचार्य (सिद्धसेन दिवाकर ) १-१६,२९-२५,४३-२१, काणाद ६७६-२१,७२४-२७ ६७-३९,६८-१८,६९-३,१३३-२८,३७९-७,४४८-२८, कादम्बर्यादि ४०-३०,४२-६,५३६-२८ ४५५-१९,४५७,६१२-१५,६४२-१२,६५०,७०४-२० कापिल २८०-२७,२८२-२६,२९६-९,३००-२३,६५६-७ * परिशिष्टेऽस्मिन् स्थूला अङ्काः पृष्ठाङ्कसूचकाः, सूक्ष्मा कालिदासकृतख ४०-३१ अङ्काः पतयङ्कावेदकाः, कोष्ठकान्तर्गताश्चाङ्काष्टिप्पण्यङ्कनिवेदका ज्ञेया इति ॥ कुमारसम्भवादि ४०-३१ आ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकानिर्दिष्टा ग्रन्था ग्रन्थकृतश्च । कुमारिल १८७-१२,१९०-९,२०४-१९,२२३-१,२२९- जैनपक्ष ६४८-१२ ११,२४०-२५,५६४-१४,५७०-१४,५७८-३३,६९५- जैनमत ४७८-१३,५२४-२१,५५१-८ २२ (२) जैमिनि ४८-१५,५६-२,६५-१३,५३४-१९,७१८ कुमारिलवचन २०४-१९ (१९) जेमिनीय ८०-२३,९४-३६,१३२-४१,४६६-९,४६७केचित् ७५-४०,९१-६,९७-२१,१०९-२४,१४६-१८ (९,१०),५५२-२३ ४१,१६८-२६,२७८-३१,३२४-१८,४०५-१०,४४०.२९, २१-१४४०५-१०.४४०.२९, जमिनीयम् ५३९-२८ ४४५-३१,५२२-१८,५३१,५३८-४,५५३-१४ (९), ६११-२,६४०-९,७१४-११ (५) तत्त्वचिन्तक ५६८-२२ कैश्चित् ३६-१४,७९-३५,१४२-१५,३१०-१९,३४१ तत्त्वबोधविधायिनी ७६१-२९ तत्त्वविद् २७२-२६,२७९-१०,२८०-१ केषांचित् ५६६-३१,५९७-२ (१) तत्त्वार्थसूत्रकृत् ( उमास्वाति) २६१,७४२-१० तद्वादिन् ( अनेकव्यक्तिव्यापिसामान्यवादिन् ) ११२-२० गणधरादि ७५२-२४,७५४-२३ तान्त्रिकलक्षण ७३-१५,७५-२२,७६-४ गन्धहस्तिप्रभृति ५९५-२४,६५१-२१ तार्किक ७६-३,८९-३० गोगाचार्य ५६४-३४ (१७) तीर्थकर २७१-१२,४५५-३१,६०५-२४ गोयम ६०५-३ तीर्थकृत् १-२३,६३५-१२,७४६-२५ गौतम (इन्द्रभूति) ६०५-१० | नीर्थकृद्वचन ४५६-१ गौतमादि (इन्द्रभूति आदि) ६३५-२ तीर्थकृन्मत ४५६-५ । तीर्थान्तरीय ७३६-३४ । तृतीयसूत्र (न्या. सू.) ५६७-१५ चतुर्थाध्याय (वा. भा.) ५२१-२ तृतीया.कस्थान (स्थानासूत्र)४५३-१७ चतुर्दशपूर्व ७५२-३३ त्रयी ४४-८ चतुर्दशपूर्व विपद् १७३-६ त्रयी विद् ७४१-२९ चतुर्दशपूर्वसंविदागिनी ७५१-२७ चार्वाक ४३-२६,६९-३९,७३-५,९३-३९,९४-२६, ९५-३२,११७-८,१२८-१६,१३२-४१,१४२-१३,५०५. दिगम्बर ७४७-१९,७५४-३३ ६,५३२-२८,५४६-१,५५४-1 दिग्नग (जुओ आचार्य) १७५-१३,१९१-२०,२०१-१३, चार्वाकमत ९४-३७,५५६-२,१६३-१६ २०४-२ चार्वाकमीमांसकदृष्टि ९४-२६ दिग्वासस् ७४६-२४,७५५-५ चार्वाकादि ५०५-५ दृष्टिवाद ६५१-१९ चिकित्साशास्त्र ६१-३७,१७०-२३ द्वात्रिशिका २९-३१ द्वादशान १-३०,६८-३०,६९-७,२७१-१०,६१५-२९, जिन ८-२६,२९-२०,४३-२२,६८-३०,६९-८,१३३- । ६३८-२६ १२ द्वादशाङ्गवाक्य ६१५-२९ जिनपुत्र (बौद्ध) ७३१-३३ द्वादशानी ७५१-२०,७५२-१६ जिनप्रणीत ४३-२२ द्वादशाकथुतस्कन्ध ६१६-३३ जिनप्रणीतल १६९-५ जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्य ६०८-२१ धर्मकीति (जुओ कीति)६७-३०,६९-२९,७६-३३,१४९जिनमतानुसारिन् ८०-२५ जिनवचन ७५७-७,७६१-१५ १५,२४२-३१,२४५-१५,४६५-११ धर्मोत्तर ४७१-१५ जिनवचनमहोदधि १-१४ जिनशासन ६९-८ जिनोपदेश ६३८-२६ नास्तिक-मीमांसक ७५३-४० जैन ५८-४३,६९-३३,९०...४,१०७-८,२६५-२०,४६५. नास्तिक-याज्ञिक ७१८-३३ २५,४७४-७,४७८-१४,४८५-१५ । निर्ग्रन्थी ७५१-२५,७५४-१० Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ सन्मतिटीकानिर्दिष्टा ग्रन्था ग्रन्थकृतश्च । नैयायिक ८४-३३,९३-१३,१०९-२,१२६-३०,१३८-[बृहस्पतिसूत्र ७०-१८ २,१५९-२०,१६१-४१,१६२-३९,१७७-१९,४७१-१८ | बोटिकादि ७५६-६ (७),४७५-२३,५०९-१९,५१८-३२,५२२-२२,५२५- बौद्ध १५,५४,७६,७७-९,८४,८६,९३,११५,११७,१६१, २६,५२९-३३,५३६-१३,५३८-२२,५३९-१२,५५२- १७३,३०८-१०,३०९,३६३,४७०,४७५-२२,४८६,५०१, १३,५५९-२६,५६५-३४,५८४-१,५८९-२९,६७१-२९, ५२९,५४६-२,६७४-६,७०६,७०७,७०९,७१८-२,७२७ ७२१-२८ बौद्धदृष्टि ८४-८ नैयायिकल १५९ बौद्धमतानुसारिन् ८६-२२ नैयायिकदृष्टि ५६५-३४ ब्रह्मभाषित ६४१-३३ नैयायिकादि ७५-२७,४७५-२२,४८४-३३,४८५-८, ब्राह्मण (बृहदारण्यक)२७३-६ ५०५-८ न्यायभाष्यकृत् ७२१-२५ भगवत् (जैनतीर्थकर) ६११,६१६-३०,६३४,६३५,६३९, न्यायवादिन् ७५३-६ ७५१-४,७५२,७५४,७६१-१६ न्यायविद् ९४-३३,११६-१७,२७०-७,२७१,३९५-४ भगवत् (बुद्ध) ३७७-१,३७८-२ भट्ट (कुमारिल)१८-२८,१९१-२०,२०१-२१,५०५-११ पतञ्जलि ६९-१३,१५३-१८ भट्टोद्योतकरादि २०१-२१ पदार्थप्रवेशकग्रन्थ ६६१-१ (२) भर्तृहरि ३७९-२३,७५३-२९ पर ३०८-२९,३२५-२९,३३६-११,४५५-२० भर्तृहरिवचस् ४३५-८ पाणिनि १७९-२ (४) भारत ५६-१०,५३६-२८ (७) पाणिन्यादिकम् ४३-१३ भारतादि ४०-३३,४१-२,४२-१३ पाणिन्यादिकप्रणीतव्याकरण ४३-११ भाष्य (वा. भा.) १०९-३,१२०-२,५०९-१८ पाशुपत ७४७-१८ भाष्यकार (वात्स्यायन) (जुओ न्यायभाष्यकृत् अने भाष्यपूरण ७१८-३१ कृत् ) ९९-४०,७८-५ पूर्वाचार्य (जैन) ६३-१७,६८-३८ भाष्यकार (शबर) (जुओ भाष्यकृत् )३५८-१८ प्रकरणकार (जुओ आचार्य अने सिद्धसेन दिवाकर) ६०७- भाष्यकारमत (वा. भा.) १७८-५ ३१,६०८-२५ भाष्यकृत् ( वात्स्यायन ) १५३-२६,५२२-१५,५२४-८ प्रकृतिकारणिक २९६-१३ भाष्यकृत् (शबर)९४-२८ प्रज्ञाकर २६५-२६ भाष्यकृत् प्रभृति (जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृति)६५३-४ (३) प्रज्ञाकरमतानुसारिन् २६५-२६ भाष्यवचन (शाबरभाष्य) ५७८-३३ प्रज्ञाकराभिप्राय ५००-१८,५०१-१०,५१२-१२ भाष्यवाक्य (वात्स्यायनभाष्य)१५४-२० प्रत्यक्षसूत्र ५३१-११,५६७-२० भाष्यविरोध (वा. भा०)५६३-१० प्रथमसूत्रव्याख्यान (न्या. सू.)५६७-१७ भिक्षु ७४६-३१ प्रद्युम्नसूरि ७६१-२९ भुवनगुरु (तीर्थकर ) १-२२ प्रमाणवार्तिक ५७१-२१ प्रशस्तमति १०१-१९,१३२-५,७१६-१८ मण्डलिन् ७१८-७ प्रशस्तमतिप्रभृति १०१-२९,१३२-२८ मन्त्रब्राझणरूप २९५-१० प्राभाकर २९-१३ मन्त्रार्थवाद ४०-३६,४२-२५ मल्लवादिन् ४४७-२३,६०-२१ बाण ४०-३१ माध्यमिक ३७८-९ युद्ध ४४-१६,६८-२१ माध्यमिकदर्शनावलम्बिन् ३६६-१३ बुद्धादिशासन ६८-२६,६९-४ माहेश्वर ११९-२६ बुद्धादिसर्वज्ञपूर्वकल ६८-२१ मीमांसक २-२,१३-३७,४२,४८,५०-४१,६८-३६,७४, बृहस्पति ७४-११,५५५-१४ १२७,२१५,२६७,३८६-१३,४३५,५०५-१,५५२,५७४, बृहस्पतिमतानुसारिन् ६९-३२,७३-३९,७७-१७,७१८-१/७३८-८,७४१ ७५१-२३ | मीमासकमत २९-१४,३५२-१४,५१३-५ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीमांसकादिप्रसिद्ध ७५-४० मीमांसकाभिप्राय ७४१-२८ य यदप्यत्राहुः ७९-४ यदाह १४ - २१,१८५-६ यः ७८-१०, १०७ - २० याहिक ७१८-६ ये १०-८,९६-२८,१५३, १९९-१२ ( १२,१३,१६ ), ६७९-११ वैः २४०-६,५३५-४ (१) योगाचार ३७८-८, ४६३-१९ लक्षणकार २९७-९ लोकायतशास्त्र ३९-२३ र रक्तपट ७४६-३० रामायण ५६-१० रामायणादि ५३६-१८ (६) ਨ सम्मतिटीका निर्दिष्टा प्रन्था प्रन्थकृता । वैभाषिक ४५९-१२ वैयाकरण १०९-२१,२२२-९, ३८०-१९,४३१-१५,४८९२,५६६-६ वैशेषिक व वाचकमुख्यसूत्र (उ० खा० कृत त० सू०) ६३६-२ वाजध्यायन ( जुओ अध्ययन ) १७२ - २ ( २ ) वादिवृषभस्तुतिकृत् ७५७-२० (२) श शङ्करखामिन् ६६४-१५ (७), ६९३-५ (१) शबरखामिन् (जुओ भाष्यकार अने भाष्यकृत् ) ५०५-११ शाक्य ८९ १७,९४ १६, १००-२७ वाचकमुख्य ( उमाखाति) ८०-२७,९३ - ४,५९५-१९, शाक्यदृष्टि ९४ २४,५३३-३ शक्योक्य ७०४-२८ वर्धमाना १-८ - ७४९-११ शावर (लुओ भाग्यवचन ) ५०५-९ शास्त्र ६५७-६, ७०९-३५ वार्तिक (वार्तिक) ३१-१६ वार्तिककार (न्या० वा० उद्योतकर) १०० २९,५३४ - २० (१) वार्तिककार प्रकृति (म्या० वा० उद्योतकर) ५३४-२० (९) वार्तिककारमत (न्या० वा० उ०) १९७७-२२ वार्तिककारीय ( छो० वा० कारीयकुमारिल ) ९९-४० वार्तिककारीयदूषण ( श्रो० वा० ) १३०-३१ वार्तिककृत् (कुमारिल १) ८-१२,४९-२५७-१० वार्तिककृत् (न्या० वा० उ० ) ८० - १०, ९९ - २९,१३० १५,५६३-२१ वेदवच ३२-२ वेदार्थज्ञ ६५-१३ वैदिक ३९-२३ वैदिकी ४२-१८,९४-४०, ९५-१ १८५-१६,३७८-६, ३९७-३२,४५८-१४, १२९, १३३, १३८, ३२१-४, ४३२-३०, ४३९, ४७२, ५२९, ५५२, ५७१, ६२९,६८५ (६) ७०७-३८, ७०८,७०९, ७२७-३७ वैशेषिकमत ५१९ - १० वैशेषिकशास्त्रप्रणेतृ ( कणाद ) ६५६-१७ वैशेषिकसिद्धान्त २२२-८ वैशेषिकादि ३०३ - ५,४००-६,५५२-२३,४२२-१६,६१६ २८, ६३३-२ (१), ७१९-२५ वैशेषिकाभिप्रायतः ६२९-१४ व्याकरणप्रणेतृ ४३-१२ व्याख्यास्याय ६१४-१६ व्याडि १७९-३ (३) व्यास ९८-३०, ६९७-२५ ६३ शास्त्रकृत् ३६४-१३ शास्त्रान्तर ४५९-२ शीद्धोदन ६५६-८ श्रुति ९८-३६ धनमि ७४६-२२,७५०- ३७,७५१-११ श्वेतवास ७४६-२७ श्वेताम्बर ७४७-४ विन्ध्यवासि २९६-१२, ५३३-२ विश्वामित्र ६९७-२५ सम्मतिटीका १-९ वेद ३०, ३२-९, ३९ २६, ४०-८, ४१, ४२-२,४३,११७, सम्मतिवृत्ति १-८ ३८०-४,७३१-६ स सकलशास्त्रव्याख्यात् ५८-१२ सन्मति ७६१ - २३ ( ११ ) सन्मतिटीका ७६१-२२ ( ९ ) सम्बन्धवादिन् २६४-२२ सन्मत्याख्यप्रकरण १-१७ राहस्रवर्त्मन् ( सामवेद ) ७३१-६ १०१-७,२८०-११, २९७ २९, ३०८-३३, ३०९, ४२२,४८६,५१२-१७, ५४६, ५७२, ६५६, ७०४-२९, ७८५० २,७१८-२ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ सन्मतिटीकानिर्दिष्टा ग्रन्था ग्रन्थकृतश्च । साङ्ख्यज्ञान ६०६-५ | सूत्र निर्देश (जैनसूत्र ) ६१७-४ साजयदर्शन १११-४०,१३५-२७,२८०-२३,३१०-६, | सूत्रपञ्चक (न्या० सू०)५३१-१७ ५३४-१ सूत्रयुक्तिविरोध (जै० सू०) ६१७-२० साङ्ख्यबौद्धकणभुज् ४४१-२१ सूत्रविरोध (तत्त्वार्थसूत्र) ६१८-१७ सायमत ४१७-३०,५००-३,५०७-२८,६५६-७ सूत्रसमूह (आगमनां सूत्र) ६१४-१५ साङ्ख्यमतप्रतिक्षेपक २९६-९ सूत्रसमूह (तत्त्वार्थसूत्र) ५९५-२४ सायमतानुसारिन् ५३४-१६ सूत्रसमूह (न्या० सू०) ५३१-१३ साङ्ख्य विशेष ४२२-१४ सूत्रसंदर्भ ६१३-२(१) साङ्ख्यसौगतमत ६५६-१३ सूरयः ९७-३६ साङ्ख्यायेकान्तवादिदर्शनसमूहमय ७५७-२३ सूरि (सिद्धसेन दिवाकर) ६५-२५,६८-२३,१३३-११, सामवेद ७३१-७ १६९-५,३१५-४,५९६-२२,६०९,६१५,६२१.-२५ सितपट ७४६-२९ सेश्वरसावय २८०-२८ सिद्धसेनदिवाकर (जुओ आचार्य प्रकरणकार,अने सूरि)१-१७ सैद्धान्तिक ५५३-१४ (१०),६५१-२६ सिद्धसेनाचार्यवचन ७५७-२० (२) सौगत ३-१,४२-११,८१-१३,९०-४,१३८-३८,१४५सिद्धान्त (जैन)६३५-१७ ३,१४८-१२,१४२,२०२,२६८-१६,३१८,३२०,३४९सुगत ५०२-२६ २०,३८४-९,३८७-२१,३८८-२२,३८९-१६,३९९-३२, सुगतज्ञान ६०६-७ ४००-४,४३९-४,४६७-२०,४८०-३,४८३-२२,४८४सुगतसुत ११८-३८,१३२-३८ ७,४८६-२३,४८८-२१,५१८-२७,५४५-२२,५५२-२१ सुगतसुताभ्युपगम ३३३-२१ ५५४-१४,५६३-१,५६५-३४,५६६-२,५६७-२९,५७२. सुरगुरुमतानुप्रवेश २८०-८ ३६,५९१-३१,६२९-९,६८२-८,७३८-८,७४५-२९ सूत्र (मीमांसासूत्र) ३१-१३,४८-१५,१०६-१ सौगतदर्शन २७०-११ सूत्र ६१३-३४ सौगतपक्ष ५११-१२ सूत्र (आयारंगादिसुत्त) ७३२-५ सौगतप्रसिद्ध १३८-४१ सूत्र (न्या० सू०)९७-७,१७८-१०,५२८-१९,५३०- सौगतमत ४७८-१२,५१०-२,५४३-६ १४,५६०-२ (१), ६६९-२० सौत्रान्तिकमत ४०१-८ सूत्र (पन्नवणासुत्त) ६०५-१ (१) सौत्रान्तिकयोगाचार ४६३-१९ सूत्र (पाणि निसूत्र) ४०६-७ सौत्रान्तिकवैभाषिक ३७८-६ सूत्र (बृहस्पतिसूत्र )५५५-१४ (९) सौत्रान्तिकवैभाषिकमत ४००-३६ सूत्र (भगवतीसूत्र)६२५-१० स्फटिकसूत्र (न्या०६) ५२७-१३ (५) सूत्र (वैशे० सू०) ६६९-७,६७२-१५,६७३-१७,६८५ स्तुतिकृत् ७५०-१ २६,६८६-१४ खयूथ्य (जैन) ६३३-२ (२), ७३२-५ सूत्रकार (न्या० सू० अक्षपाद ) ५२८-३,५६३-२०,५७८२६,७२०-३६ सूत्रकृत् (न्या० सू० अक्षपाद ) ५२८-१३,६२१-८ हेतुमुख १९९-८,२१७-९ सूत्रधर ७३२-१४ हेतुलक्षणप्रणेतृ ६८-३८ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *सन्मतिटीकागता वादिनो वादाश्च । ईश्वरवादिन् ७१६ ईश्वरसिद्धि १०५,१२९ ईश्वरखरूपवाद] ६९-१३३ अमेदवादिन् २७९,२९४ अमेदाद्वैत ६१७ (अभेदैकान्तवाद) ६३७ अमेदैकान्तवादिन् ६३६,६३७ अभ्युपगमवाद ४९,९१,२६०,३०१ अभ्युपगमवादिन् ७०७ अर्थवादिन् ३७७,४६६ अव्यभिचारवादिन् ५४७ अशुद्धद्रव्यास्तिकप्रकृतिव्यवहारमतावल म्बिन् ३८६ असत्कार्यवाद २९७,३०२,७०६(३), अकृतसम्बन्धवादिन् ३८६ अक्रमोपयोगवादिन् ६०८ अक्षणिकवादमत ४२८ अक्षणिकवादिन् २५३ अद्वैत ७४,२७६ अद्वैतपक्ष २८० अद्वैतप्रतिपादक २७३ अद्वैतवाद ४१९ [अद्वैतवाद ] ४२८ अद्वैतवादावतार २९५ अद्वैतवादिन् ३७,२७६ अद्वैतैकान्त ६१६ अनर्थान्तरभूतपरिणामवाद ४२३ अनुमानवादिन् ७२,७३ अनेकधर्मात्मकैकवस्तुवादिन् २६५ अनेकान्त ६४० अनेकान्तपक्ष ४४५ अनेकान्त(वाद) १०७,२६२,४१४, ४४५,६०९,६३८,६३९,७२५, उत्पत्तिवादिन ३५ [उपयोगवाद ] ५९६-६१० एकसम्बन्धानभ्युपगमवादिन् २६४ एकज्ञानिन् ६१० एकखवादिन् ३७१-६१० एकनयवादिन् ७३२ एकलक्षणहेतुवादिन् ७२६ एकात्मवादिन् २७८ एकान्तनित्यवाद ४७४ एकान्तवाद ४४४,५१५,५९२,७१८, असत्कार्यवादिन् २९७,३०१ [असत्यसम्बन्धपदार्थवाद] १८०, १८३ [असत्योपाधिसत्यपदार्थवाद] १८०, १८३ [असद्वाद] ७०५ असमानजातीयगुणानारम्भवादिन् ७०८ असम्बन्धवादिन् २५३ असर्वगतात्मवादिन् १४५ [अस्तित्वादिवादषट्क] ७१८-१९ अस्त्यर्थपदार्थवाद १७९,१८३ अखसंविदितविज्ञानाभ्युपगमवादिन्५६८ [अहेतुवाद ] ६५०,६५१ अहेतुहेतुवाद ६५० आ आगमप्रमाणवादिन् २९५ आगमप्रामाण्यवादिन् ९२ [आत्मपरिमाणवाद ] १३३-१४९ आत्मप्रत्यक्षवादिन् ५२८ एकान्तवादिन् २६२,४१८,४२२,५०९, ५२४,५५२,५९२,७१९,७२५, ७२६,७२७,७३३,७३५,७३९, ७४५,७६१ एकान्तवादिवाक्य ७३७ एकान्तसत्कार्यवाद ७०७ अनेकान्तवादव्याघात ६४३ अनेकान्तवादापत्ति ४७३,७०५ अनेकान्तवादाभ्युपगम ४७१ अनेकान्तवादिन् २६१,४१३,४२४, ४७४,६३७ अन्यापोहवादिन् २६३ अपोह (वाद) १७३,१७४,१८५, २००,२०२ अपोहवादिन् १८१,१९४,१९६ अप्रामाण्यवादिन् ४३ अभाववादिन् ५० अभिजल्पपक्ष १८४ (१) [अभिजल्पपदार्थवाद] १८०,१८४ अभेदपक्ष ६०८ कथात्रय ५६२ कमण्डलुटट्टिकादिलिङ्गधारिन् ७५० कर्मवादिन् ७१४ [कमैककारणवाद] ७१४-१५ कर्मैकान्तवाद ७१५ [कवलाहारवाद] ६१०-६१५ कारकहेतुप्रतिक्षेपवादिन् ७१४ कारणभिन्नं कार्य तत्रासद्वाद ४२४ कारणात्मकपरिणामवाद १२३ [कार्योत्पत्तिवाद] ४२४ कालवादिन् ७११ कालायेकान्तवाद ७१० इन्द्रियार्थसन्निकर्षवादिन् २४४ ईश्वरकृतजगद्वादिन् ६९ ] एतच्चि. * परिशिष्टेऽस्मिन् सर्वेऽप्यङ्काः पृष्टाई सूचयन्ति,( ) एतच्चिह्नान्तर्गता अङ्काटिप्पण्यई सूचयन्ति,[ हान्तर्गताः शब्दाः ग्रन्थाभिप्रायं समीक्ष्य सम्पादकैयोजिताः॥ १०६ सं०प० Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ सन्मतिटीकागता वादिनो वादाश्च । प्रतिवादिन् ३०,१५६,७५९,७६१ प्रत्यक्षानुमानप्रमाणद्वयवादिन् ५५४ प्रत्यक्षकप्रमाणवादिन् ७३ [प्रधानाद्वैत ] ४२८ प्रधानाद्वैतवाद ४२८ प्रमाणव्यवहारिन् २६७ प्रमाणषटुवाद ४७ प्रमाणसप्तवादिन् ८४ [शमाण्यवाद] २-२९ प्रेरणाप्रामाण्यवादिन् ४३ बहिरर्थवादिन् ४८५ बाह्यार्थवाद ३६५,४०१ बाह्यार्थवादिन् २७७,३०४,३९७,४६३, कालाभ्युपगमवादिन् ३२४ द्रव्याद्वैतवादिन् ६३७ कृतकसम्बन्धवादिन् ३८६ द्रव्यार्थान्तरभूनगुणवादिन् ६३८ क्रमवादिदर्शन ६१० द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयद्वयावलम्बिन् [क्रमोपयोगद्वयवाद ] ६०७ क्रमोपयोगवादिन् ६०७,६०८ द्रव्यार्थिकमतावलम्बिन् ३७९ [क्षणभङ्गवाद] ३१८-३४९,३८७ क्षणभजवादिन् ३४४ [नयवाद ] २७१-३१४,३१५-३१६ क्षणिकभावाभ्युपगमवादिन् ७०६ नयवाद ४२१,६५५,७४६ क्षणिकवाद ४७० [नास्तिखादिवादषट्क] ७२७-७२४ क्षणिकवादहानिप्रसक्ति ४७० [निग्रहस्थानचर्चा ] ७५९ क्षणिकवादिन् २५५,४२७,६६२ नित्यवादिन् ७२० क्षणिकैकान्तवाद ७०६,७२, नित्यसम्बन्धवादिन् ४३६ क्षणिकैकान्तवादिन् ७२८ नित्यसुखाभ्युपगम १५३ निन्दार्थवाद २७३ गणितशास्त्र ६३५ नियति ७१४ नियत्येककारणवाद ७१४ चार्वाकमत ९४ निराकारज्ञानवादिन् ४६० चार्वाकमतप्रसक्ति १६३ [ निराकारविज्ञानवाद ] ४५८-४६३ चार्वाकमीमांसकदृष्टि ९४ निर्णयात्मकानुभववादिन् ५०६ चार्वाकाभिमतैकशरीरव्यपदेशभागनेकप- | निर्विकल्पकप्रत्यक्षवादिन् २६५ रमाणूपादानानेकविज्ञानभाव १४९ निश्चयात्मकाध्यक्षवादिन् ५०७ [निषेधमात्रान्यापोवाद] १८५,२०३ ज्ञानप्रमाणवादिन् ५२९ ज्ञानप्रामाण्यवादिन् ५२८ पञ्चलक्षणयोग्यविनाभावपरिसमाप्तिवाज्ञानमात्रवादिन् २७७ दिन् ७२३ ज्ञानवाद ३६५ पञ्चलक्षणहेतुवादिन् ७१९ ज्ञानाद्वैतवाद २९४ पञ्चविंशतितत्त्वज्ञ २८१ [ज्ञानानेकान्तवाद] ४०८ परतःप्रामाण्यवादिन् २,१५ ज्ञानान्तरप्रत्यक्षवादिन् १६१,२५५ परतीर्थिक ७४७ परलोकवादिन् ७५ [तत्त्वाद्वैत ] ४२८ परस्परनिरपेक्षकनयावलम्बिन् ६५६ तिर्यक्सामान्यवादिन् ५८ परोक्षज्ञानवादिन् १२ (४) त्रिलक्षणहेतुप्रदर्शनवादिन् ७२६ पर्यायास्तिकमतानुसारिन् २९५ त्रैवर्णिकप्रवाद ६९८ पाषण्डिन् ७१८ पुरुषवादिन् ७१५,७१७ दूषणवादिन् ७२५,७२६ पुरुषाद्वैतवाद ३८५ दृष्टिवाद ६५१ पुरुषाद्वैतसिद्धि ३७ द्वैतप्रसङ्ग २७७ [पुरुषैककारणवाद] ७१५-७१७ द्वैतवाद ४२८ पूर्वपक्षवादिन् ७२६ द्वैतापत्ति २७८ प्रकृतीश्वरकालादिकृतब २१५ द्वैतिन् २८. प्रतिभापक्ष १८४ (१०) द्रव्यगुणान्यत्ववादिन् ६३५ [प्रतिभापदार्थवाद] १८२,१८४ द्रव्यवाद १०५ प्रतिभासाद्वैतवाद ५१३ [द्रव्याद्वैत] ४२८ [प्रतिमावाद] ७५४ बुद्धिक्षणिकलवादिन् १३९ बुद्ध्याकारवादिन् १८१,१८२ [बुद्ध्यबुद्ध्यारूढाकारपदार्थवाद] १८१, १८४ बैद्धदृष्टि १४७ बौद्धपक्ष ५२९ बौद्धयुक्ति २९ बौद्धाभिमतसंवेदनाद्वैत ७४ बौद्धाभ्युपगम ४०१ ब्रह्मवादिन् २७७ ब्रह्माद्वैतवाद ७७,४२८ भावविक्षेपवादिन् ३८६ भेदवादिन् २७६,२८६,२९३,२९६ भेदाभेदवाद ६३६ [ मेदैकान्तवाद] ६३७ भेदकान्तवादिन् ६३७ मिथ्यावाद ४२९,६३६ मिथ्यावादिन् ६३८ [मुक्तिखरूपवाद] १५०-१६६ यथाप्रदर्शितवस्वभ्युपगमवादिन् २६६ युगपदुपयोगवादिन ६०८ युगपदुपयोगद्वयवादिन ६१० रूपादिक्षणिकविज्ञानमात्रशून्यवाद ७३. ल लोकप्रवाद ५७ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागता वादिनो वादाश्च । लौकिक ३९,१५३,२३६,३१९,४५८, ४६८ लौकिकी ६२९ वाद ३७७,६५० वादमार्गप्रवृत्ति ३७७ वादिन् ३०,८९,४८४,४८७,६४६, ७२६,७५९,७६० वादिप्रतिवादिन् १४२,५३७,५५५,७६० वादिप्रतिवादिप्राश्निक २९५,३७७ [विकल्पप्रतिबिम्बपदार्थवाद] १९९ [विज्ञप्तिमात्रवाद] ३४९-३६६ विज्ञानवाद ३६५,३७२,३७६,४६३ विज्ञानवादप्रसक्ति ६६३ विज्ञानवादिन् ४०० (११), ४६१, विज्ञानशून्यतावाद ४८८ विज्ञानशून्यवाद १०५ विज्ञानशून्यवादानुकूलता २९४ विज्ञानात ५१४ [विधिवाद] १७४-१७५ ई. विधिवादिन् १७३ विपक्षवादिन् २६८ विभज्यवाद ७२५ विभागजोत्पादानभ्युपगमवादिन् ६४६ विवक्षा (वाद) १८५ (१) [विवक्षापदार्थवाद] १८५ विशेषगुणोच्छेदविशिष्टात्मखरूपमुक्त्य भ्युपगम १५१ विशेषणविशेष्यालम्बनभिन्नज्ञानवादिन वैशेषिकप्रक्रिया २२३ | [ सर्वज्ञवाद ] ४३-६९ व्यावृत्तवस्तुवादिन् २५४ सर्वज्ञप्रतिक्षेपवादिन् ६८ सर्वज्ञवादिन् ४८,५० [शब्दब्रह्मवाद] ३७९ सर्वज्ञापवादिन् १३२ शब्दब्रह्मवादिन् ३७९ सर्वप्रवादिन् २७७ [शब्दब्रह्माद्वैतवाद ] ४२८ सविकल्पप्रत्यक्षवादिन् २६५ शब्दसमयवेदिन ३१६ [सहोपयोगद्वयवाद] ६०७ शब्दाद्वैत ४२८ साकारज्ञानप्रमाणवाद ४६६ [शब्दार्थतत्सम्बन्धवाद] १७३-२७० [साकारज्ञानवाद ] ४५८-४६३ शाक्यदृष्टि ९४ साकारज्ञानवादिन् ४६०,४६५ शून्यतावाद ४२८ [सामग्रीप्रामाण्यवाद ] ४७१-७२ शून्यवाद २७,२८,३३५ सामान्यज्ञानापकारकसामान्यवादिन् २५९ [शून्यवाद ] ३६६-३७४ सामान्यवादप्रसक्ति २६३ शून्यवादिन् ३७२,३७७ [सामान्यविशेषात्मकशब्दार्थवाद] २३७ साश्रवचित्तसन्ताननिरोधलक्षणमुक्तिवा[षट्पदार्थचर्चा ] ६५६-७०४ दिन् १६१ सिद्धान्तवादिन् ६३५,६३७ [संविद्वपुरन्यापोहपदार्थवाद] २३३, सुगतविनेय ७४६ (चीवरादिलिंगधारिन् ) संवृतिपक्ष २२४ स्थिरग्रहणवादिन् ५३९ संसारमोचक ७३१ स्याद्वाद ७३२,७३५ [संकेतविधि-तद्विषयवाद ] ३७९ स्याद्वादप्ररूपणा ७४५ सत्कार्यवाद २९७,२९८,२९९,३००, स्याद्वादरूपा ७२७ ३०१,४२३,५३४,७०६(४), स्याद्वादिन् ७५८ ७०७,७२५ खभावकालयदृच्छादिवाद ३१० [सत्कार्यवाद] ४२३ सत्कार्यवादप्रसक्ति ७०६ खभावैकान्तवाद ७१४ [खभावककारणवाद] ७११-७१४ सत्कार्यवादाभ्युपगम ३०१ खरूपविशेषणवादिन् ५६२ सत्यवादस्वरूप ७२५ [सद्वाद] ७०७ खलक्षण (वाद) १०७ स्वसंवित्तिमात्रवाद ८२ सद्वादिन् ७२६ स्वसंविदितज्ञानवाद ४७९ [समुदायपदार्थवाद] १८०,१८३ खसंविदितविज्ञानवादिन् ९० समुदायवाद ६४१ समुदायाभिधानपक्ष १८३ सम्बन्धाभाववादिन् २६४ [हेतुवाद ] ६५०-६५१ सम्यग्वाद ४२९ हेतुवाद ६५०,६५१ सामयिकशब्दार्थचिद् ६१३ [हेत्वाभाससंख्यावाद ] ७१९ वेदान्तवादिन् ३२१ [ वेदापौरुषेयत्ववाद] २९-४३ वैदिकहिंसा ७३० [ वेभाषिकमत] १८५ वैभाषिकमत ४०१ वैयाकरणन्याय १०९ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाश्च शब्दाः । अध्यक्षप्रमाण ५५२ अनुभूयमानता २६ अनुमान २,१७,४३,३३४,३५२,३८४, ५५४,५५५,५६१,५६७,५६९, ५७०,५७२, ( ६ ), ५९०,५९२ अनुमानतः ३४८, ३४९ अनुमान पूर्विका - अर्थापत्ति ५७९ अनुमानप्रवृत्ति २६८ अनुमानबुद्धि ४ अनुमानलक्षण ५६०,५६७, ५७१ (३) अक्षर ३७९ अगीतार्थ ७५६ अचेतन ३८७ अचेतनपदार्थाधिष्ठात्री १२७ अचेतन - सत्त्व १४१ अचेतनाधिष्ठायकत्व १२८ अचेलपरिषद ७४७ अचेल परीषहजेतृ ७५१ अजीव ६५४,७३२, ७३३ अजीवद्रव्य ६४०,६४१ अजीवविचय ७३४ अणु ६४६,६४८ अतात्त्विकानाद्य विद्योच्छेदार्थमुमुक्षु ht अध्यक्षमति ५३३ (१,२ ) अध्यवसाय २६१ अध्यवसायवश ३४० अध्यारोप ३६१ अध्येषणादि ७४१ अध्येषणाभाव ७४० अनधिगतार्थाधिगन्तृता ५७६ अनधिगतार्थाधिगन्तृत्व ४६६, ४६७ अनन्तधर्माध्यासित-वस्तुखरूप १६६ अनन्तपरमाणुपचितमनोवर्गणापरिणतिप्रतिलभ्य - मनउत्पाद ६५० अनन्तपर्याय-वस्तु ४१४ अनन्तपर्यायात्मक - द्रव्य ६४९ अनन्तवीर्य ६११ अनन्तवीर्यत्व ६१५ अनन्तसुखखभाव १३३ अनभिहितप्रयोजन - शास्त्र १६९ अनवस्था २,६,१३, १५, १८,५०,५४, ५८, ११४, १२२, १२९,१३२,१३८, अनुसंधानप्रत्यय ३२० अनुसंधानप्रत्ययलक्षण हेतु ८७ अनुसंधानप्रत्ययलिङ्ग ९० अनुस्मरण ४६२ अनेकात्मक सत् ४४५ अनेकान्त १०७, १६६,४१६,७६१ अनेकान्तज्ञान १५५ अनेकान्ततत्त्वव्यवस्थापक ७२९ अनेकान्तपक्ष १६४ अनेकान्तभावभावन ४०८ अनेकान्तमतानुप्रवेश ७४५ अनेकान्तरूपता ६३१ यत्न २७६ अतीतानागतपर्यायाधार ४०५ अत्यन्ताभाव ५८१ अदृष्ट- कारण ७१५ अदृष्ट- कारणत्व ९५ अदृष्टपरिकल्पनावैफल्यापत्ति ४७६ (९) अनशनादि ७५५ १४३, १६५ अदृष्टप्रेरित ४७६ अनेकान्तरूपवस्तुराद्भाव ७२२ अनेकान्तवाद ६२४,६३८, ७२५ अदृष्ट-सत्त्व ११९ अदृष्टाख्य-गुण ६८५ अनाकार ६१० अनाकार - दर्शन ४५८ अनादिकाला - भ्रान्ति ३४४ अनेकान्तवादप्रसक्ति २६२ अनादिवासनासमुत्थ ३७६ अनिकायत्व ६३९ अनित्य ३४१ अष्टाध्यारोप १९९ अद्वैत ३७१, ४२८ (६) अद्वैतमात्र तत्त्व ४२८ अद्वैतापत्ति ३७१, ३७४ अधर्म-अधर्मनिमित्तविपर्यास १३०, ६४१,६५४,७३२, ७३४ अधः सप्तमनरकप्राप्ति-प्रसङ्ग ७५३ अनित्यत्वादिक ७५५ अनिर्वचनीया २७७ अनुत्तम संहनन ७४७ अनुप देशपूर्वकत्व विशेषणासिद्धि ६६ अनेकान्तवादव्याघात ६४३ अनेकान्तवादसिद्धि ७०९ अनेकान्तवादापत्ति ४२५, ४६४,४७३ अनेकान्तवादाभ्युपगम ४७१ अनेकान्तवादिमतानुप्रवेश ४७४ अनेकान्तसिद्धि २५५, ४१४,४२४ अनेकान्तात्मक ५९,६०,६८ अनेकान्तात्मकता ६३१ अनेकान्तात्मकत्व ४५५,६२८ अनेकान्तात्मकवस्तु २६१,५२४,६५५, अधिकरण ४२५ अधिष्ठातृ १०१ अध्यक्ष ५०९ अनुपलब्धिप्रसूत ३५२ अनुपलब्धिलिङ्गप्रभव २. अनुपलब्धि हेतु ३३३ अनुपलम्भ २१ अध्यक्ष-प्रहण व्यवस्था ३४० अ अकारणा- कार्योत्पत्ति ४२४ अक्ष-प्रभव- उपयोग ६५० * मध्ये - एतचिह्नभाजः शब्दा प्रन्थाभिप्रायानुसारेण निदर्शिताः । ( टिप्पण्यङ्कं सूचयन्ति ॥ ७१९,७२६,७३०,७३२ ) एतचिहान्तर्गता अङ्काः Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाच शब्दाः । अनेकान्तात्मकवस्तुमाहिनय ४२० । अपोहकल्पना १८९ | अर्थक्रियाकारिन् ३२५ अनेकान्तात्मक-वस्तुतत्त्व ४२८ अपोहल २६१ अर्थक्रियाज्ञान ६,७,१४ अनेकान्तात्मक सत् ४१४ अपोह-शब्दार्थ १७३,२२७ अर्थक्रियाज्ञानसंवाद ४ अनेकान्तात्मकार्थप्रतिपादकल ७४६ अपौरुषेय ६६ अर्थक्रियादि ४५४ अनेकान्तिक ७२० अपौरुषेयल ८,११,२९,३२,४०,११, अर्थक्रियानिबन्धन-भावसत्त्व ३५० अनैकान्तिक-हेतु ७२२,७२३ अर्थक्रियाकारिलक्षणसत्त्व ३९९ अनैकान्तिकहेवाभास ५५८ अपौरुषेयविधिवाक्यप्रभवा ४ अर्थक्रियार्था ७ अन्तर्जल्पावसानप्रबोध १७४ अपौरुषेयशब्दार्थ-सम्बन्ध २६७ अर्थक्रियार्थिन् ४ अन्य ५८. अप्रत्यक्षार्थविषयप्रमाण ५७३ अर्थक्रियालक्षण-सत्त्व ४०२, (१४), अन्यत्व ६३४ अप्रशस्त-आत्मपरिणाम ७३४ ७२८,७२९ अन्यापोह १९९ (२),२३१,२३६, अबोधिवीजल ७४९ अर्थक्रियालक्षणसत्त्व-विशिष्टकृतकल २३७,२६१ अभाव २८८,५८०,५८१ २५५,२५८ अन्यापोहप्रतिपत्ति १९८ अभावज्ञान ३० अर्थक्रियाविरोध १५८,४१३ अन्यापोह-रूपपदार्थ १६६ अभावपूर्विका-अर्थापत्ति ५७९ अर्थ-संविद्-सहोपलम्भ ३५२ अन्यापोह-शब्दार्थ १७३ अभावसिद्धि ३५२ अर्थक्रियासाधन ४६८ अन्यावृत्ति २१३ (२१) अभावाकार ३६९ अर्थक्रियासामर्थ्य ३२३,३२७ अन्योन्यनिश्रित ४२० अभावाख्यप्रमाण २२,२४,३६९,५.०, अर्थक्रियास्थिति ५१३ अन्योन्यविशेषित ६४० ५८७ (५) अर्थचिहरूप १८५ अन्योन्यव्यतिरिक्तकालोलाद-विगम-ध्री- | अभिग्रह ७५५ अर्थतथालपरिच्छेदरूप ४ व्याव्यतिरिक्त-एकवरूप-द्रव्य ६४३ अभिजल्प १८० (११), १८३ अर्थतथालप्रकाशक २,८ अन्योन्याभाव १८७ अभिजल्यपक्ष १८४ (१) अर्थनय ३१२,४४८ अन्योन्याश्रय ६,१३८ अभिधानोपलब्धि ३८६ अर्थनियत ४३० अन्वयव्यतिरेकनिबन्धन-कार्यकारणभाव अभिधेयप्रयोजन प्रतिपादकल १७२ अर्थपर्याय ४३०,४४०,४५७ अभिनवकर्मोत्पत्ति ७३७ अर्थप्रकटता १४ अन्वयव्यतिरेकानुविधान-कार्यकारणभाअभिमान ५२९,५५२ अर्थप्रकटतालक्षणहेतु २२ व-व्यवस्थानिबन्धन १२४ अभिमानमात्र २३७ अर्थप्रकाशता २६ अन्वितक्रिया ७४३ अभिलाप ३८४ अर्थराशि ७४६ अन्विताभिधान ७४३,७४४ अभिव्यक्ति ३४,३०० अर्थवादकल्पना ३६५ अन्वितार्थाभिधायकल ७३४ अभिसमयसंवृति ३७८ अर्थवादादिवाक्य ७४४ अपक्षधर्म-हेतु ५९३ अभिहितान्वय ७४३,७४४ अर्थविवक्षा १८५ (१) अपक्षेपण ६८५,६८६ अभेद ३६३ अर्थव्यञ्जनपर्याय ४३१ अपरख ६८१ (२) अभेद-तात्त्विकत्व २७९ अर्थव्यतिरिक्तज्ञानाकार-अनुपपत्ति ४६५ अपरसमवायनिमित्त ७०३ अमेदपक्ष २८० अर्थव्यवस्था ४६६ अपरिशुद्धनयवाद ६५५ अमेदाध्यवसायि-शाब्दप्रत्यय १७४ अर्थशून्याभिजल्प २३१ अपरीतता ६१० अभ्यास १८२ (४), २६४ अर्थशून्याभिजल्यवापना-प्रबोध २३२ अपरोक्षप्रकाशस्वभावता ३६६ अर्थमवेदन १४ अपवर्ग १३३ अभ्यासावस्था १७ अपायविचय ७३४ अर्थसत्ता २९१,३६८ अमरपर्याय ९३ अर्थसाक्षात्करण ४९० (१०) अपोह १८५,१८६,१८८,(८),१८९, अमूर्त ६३८ १९०,१९२,१९३,१९४, (२)१९५ , अयतिल ७४८ अर्थानपेक्ष २०६ अथान्तर्भूत ४४२ (२) १९६,१९७,१९८,२००,२०१, अयोगिकेवलिन् ७३६ अर्थान्तरानान्तररूप ६४४ २०२ (१)२०३,२०४,(१), अर्थ ३६५ २०९,२१०,२११,२१२,२१४, अर्थक्रिया १६,२३४,२७२,३३५, अथापत्ति २७,४६२,५७८,५७९,५८६ अर्यापत्तिपूर्विका-अथ शनि ५७९ २१५,२२४,२२५ (३) २३०, ३५०,३६७,३९९,४००,४०३, अथाभिधानरूपझेय-द्वयात्मकल ४५७ २३१,२३२ ४२७,४९८ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाच शब्दाः। अर्थोपलम्भ ६१९ अव्याप्ति ५३१ (९) आकारभेद २७३,२७४ (१३) अर्थोपलब्धि ३८६ अव्याप्ति-लक्षणदोष ४५९ आकारलक्षणल ३४३ अलिङ्गपूर्वकल ६६ अशुद्धद्रव्यार्थिक २८०,४०७ आकाश ६५४,७३२,७३४ अवक्तव्य ४४५ अशुद्धद्रव्यास्तिकप्रकृति ३८६ आकाशादि ६५६ अवक्तव्यभङ्ग ४४२ अशुद्धद्रव्यास्तिकसांख्यमतप्रतिक्षेपक आकुञ्चन ६८५,६८६ अवक्तव्यखभाव ४४६ पर्यायास्तिक २९६,३१० आकृति १७७,१७८ अवग्रह ५५२ (७),५५३,६१७, अशुभास्रव ७३५ आख्यात ७३९ ६१८,६१९,६२१ अशेषकर्मक्षय ६११ आगम ५७८ अवग्रहादि ६२० अशेषकर्मक्षयनिबन्धनाध्यवसाय ७५१ आगमपूर्विकाप्रसिद्धि ५७८ अवग्रहादिमतिज्ञान ६२० अशेषकर्मक्षयलक्षणफल ७५६ आगमप्रतिपाद्य ६५५ अवधि ६१५,६५० अशेषकर्मक्षयाध्यवसायनिवर्तक ७५३ आगमसर्वज्ञपरम्परा ६. अवधिज्ञान ६२० अशेषकर्मनिर्जरणरूप १६० आगामिगतिविशेष-उत्पति ६५० अवधिज्ञानावरणकर्म-क्षयोपशम ६२० अशेषकर्मपरिक्षयसामर्थ्य-उपपति ७३६ | आचार्याराधनादि ७५५ अवभासशून्यता ३७१ अशेषकर्मविगमस्वरूपसिद्धल ६२३ आचेलक्य ७५१ अवयव १०५,६७१,७३३ अशेषकर्मवियोगलक्षण-मोक्ष ७३७ आचेलक्यपद ७४६ अवयवसन्निवेश ११३ अष्टधाचरण ७५५ आज्ञाविचय ७३५ अवयवावयवि-समानदेशव १०३ अष्टविधकर्मात्मककार्मणशरीर ७३६ आतिवाहिकादि ७३६ अवयवि-द्रव्य १५८ (८) अष्टविव-पारमार्थिक-कर्मप्रवाहरूपाना. आत्म-अन्तःकरणसम्बन्ध ५२० अवयविन् १०५ द्य-विद्यात्यन्तिकनिवृत्ति १६० आत्मकर्मन् ४५२ अवाच्य ४४४ अष्टविध-बन्ध ७३३ आत्मगुण-बुद्धि १३५ अवान्तरसामान्य ११० असत्कारण-कारण ७०५ आत्मचैतन्यलक्षण-भाव ४१८ अवाप्तकामव-ईश्वरत्व १३० असत्कार्यवाद २८३ आत्मद्रव्य ६६९ अवाय ५५२,५५३ (५) असत्ख्याति ३७३ आत्मद्रव्यपर्याय ६३१ अविकलचारित्रप्राप्ति ७५१,७५२ असत्यसम्बन्ध १८३ (१८) आत्मन् ७१,८५,११३,१३३,१३५, अविद्या १५४,२७६,२७७,२७८,२७९, असत्यसंसर्ग १८० (७) १४४,१५०,२७८,३१०,३४२, २९५,३८५,४१९ असत्योप.धिसत्य १८३ (१९) ६२०,६२३,६२५,६३१,७१७, अविद्यानुबद्ध २७९ असत्योपाधि-शब्दप्रति-निमित्त १८० ७१८,७३१,७३३ अविद्यासंसर्ग १५१ आत्मपर्याय ६३१ अविद्यास्वभाव ४१४ असदकरण २८२ (११) आत्म-पुद्गल ४५३,६२२ अविनाभाव ५५८,५५९,५९ २ असमानग्रहणलक्षण-गुण ६३३ आत्मप्रच्युतिलक्षणधर्म ३९३ अविनाभावपरिसमाप्ति ५६९ असिद्धविरुद्धानकान्तिकहेवाभास ७१९ आत्म-विभुख १३३ अविनाभाववैकल्य ५५० असिद्ध-हेवाभास ५५८ आत्मविभुवप्रसाधक १४५ अविनाभावसम्बन्ध ५६१ अस्ति ४४१ आत्मविभुखसिद्धि १४२,१४६, अविनाभावसम्बन्ध-स्मृति विभाग ५६३ | अस्ति च अवक्तव्य ४४७ आत्मविशेषगुण-सन्तान १५० अस्ति च नास्ति च अवक्तव्य ४४७ आत्मसिद्धि ९१ अविनाभावानन्यापेक्षलिङ्ग ४ अस्मर्यमाणकर्तृकब ४१,४२,४३ आत्मखरूपवत् १५३ अविनाशधर्मिन् ७१८ अहङ्कार ८०,२८१,(४),२८२ आत्मानन्द-रूपता १६१ अविभक्त-ब्रह्मात्मक-तत्त्व ३८३ (६) अहंप्रत्यय ८६,२७४ आत्मैकज्ञानव १५५ अविरति ७४७ अहमितिप्रत्यय ८० आदिवाक्य १६९,१७२ अविवेकिन् २८१ (११) अहमिति प्रत्ययानपहव ८. आदिवाक्योपन्यास १७०,१७२ अविसंवादकल ४६९ अहेतुवाद ६५० आद्यशुक्लध्यानद्वय ७५४ अविसंवादन ५१३ (५) अहेतुवादख ६५१ आधाराधेयप्रतिनियम ७०२ अविसंवादिल ६६,७२ आ आध्यात्मिक-धर्मध्यान ७३४ अवीत ५९४ आकार २२९ आध्यात्मिकभाव ७१२ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाच शब्दाः। आध्यात्मिक-रूप ३७७ ईश्वर-निमित्तकारण ११९ 1 उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकोपयोग ६१६ आध्यात्मिकशुक्लध्यान ७३५ ईश्वरपरिकल्पनावैयर्यप्रसक्ति ४७६ | उत्पादव्ययस्थिति ६४५ आनन्दरूपात्मखरूप १६० ईश्वरप्रेरित ४७६ उत्पाद-स्थिति-भङ्ग ४१०,४१५ आभिनिबोधिकज्ञान ६२१ ईश्वरबुद्धि १२७ उदयव्ययवती-अर्थमात्रा ३८१ आयुष्ककर्मन् ६१२ ईश्वरसाधक ११७ उदयवतीस्मृति ३४३ आर्तध्यान ७३४ ईश्वरसाधक-प्रमाणाभाव १३३ उपप्लव ५११ (१०) आर्तध्यानोपगत ७४८ ईश्वरसिद्धि ९५,१०५,१२९ उपयोग ४५७ आर्यसत्य ७३३ ईश्वराख्य-कारण १२७ उपयोग-अनाकारता-साकारता ४५८ आर्यसत्यचतुष्टय ४९९ ईश्वराख्य-सर्वज्ञ १३३ उपमान ५७५ (६), ५७६,५७८, आर्ष ७३१ ईश्वरादि ४७९ आलम्बन ५१२ (२) ईश्वरादिप्रेरणा ७१६ उपमानपूर्विका-अर्थापत्ति ५७९ आवरण ३०० ईश्वरादिविकल्प ५०० उपमानलक्षण ५७७ आवरणविनाश ४२३ ईश्वराद्यनुमान ४८६ उपलब्धि २९१,२९३,३६२, आवरणापगम ६७८ ईश्वरानेकत्व प्रसङ्ग १०० उपलब्धिलक्षणप्राप्तखभाव ३२५ आवारक ३५,३८,५१ ईश्वरावगम ९३ उपलब्ध्याख्य ३ उपलम्मे २८७ आवारकख ५१,६०,१६१ ईश्वरावगम-प्रमाणाभाव १२४ आवृति १५३ ईश्वरोपदेष्तृत्व १३२ उपशमकक्षपकगुणस्थानभूमि ७३५ उपशमनवाञ्छा ६११ आस्रव ७३२ (३),७३३,७३६,७३७ | ईहा ५५२,५५३ (४) आस्रवादि-प्रतिपत्ति ७३७ ईहादिक ६२१ उपादानकारण ८८ आहारविरह ६१४ उपादानग्रहण २८२ (१५) आहारव्यवस्थिति ६१३ उपादानल ८८,८९ उन्क्षेपण ६८५ (१), ६८६ (२) उपादान-सहकारिवलक्षणशक्ति ४०१ उत्तमसंहनन ७५३ उपादानादि १०१ इच्छातः ७४१ उत्तरपर्यायोत्पादात्मक-पूर्वपर्यायांवनाश उपादानाद्यधिष्ठान ९६ इतरेतराभाव ५८१ ४२६ उपाधि-तद्वत् २६४ इतरेतराश्रय २,५.३१,३२,४४,४६, उत्पत्ति ४८१ उपाधिविशिष्ट-उपाधिमत् २६५ ५०,५२,५४,७०,११८,१२३, उत्पत्तिविनाशस्थितिस्वभाव ६४४ उपाय विचय ७३४ १२९,१४१,१६४,७३३ उत्पत्तिसत्तासम्बन्ध ६४८ उभय १७९ इदानीन्तनयति ७५० उत्पत्ति-स्थिति-निरोध ४५१ उभयवाक्यप्ररूपक-नयाभाव ४१६ इन्द्रियज्ञान ४९९ उत्पत्तिस्थितिप्रलयात्मक-विचित्र-क्रीडो उभयात्मकवस्तु ४१६,४१७ इन्द्रियवृत्ति १२२ पाय ७१६ इन्द्रियव्यापार ५३९ उत्पत्तौ परतःप्रामाण्य ११ इन्द्रियार्थसन्निकर्ष ५२३ ऊर्ध्वगतिपरिणामखाभाव्य ७३६ उत्पत्तो खतःप्रामाण्य ९ इहजन्ममरणचित्त ८९ ऊह ५९४ (४) उत्पत्त्यभिव्यक्तिपक्ष ३६ इहबुद्धयावसेयसमवाय १५६ ऊहाख्यप्रमाण ७७,३९७ उत्पन्नप्रतीतिप्रामाण्य ७६ उत्पन्नादिकालत्रय ६४५ (३) ऋ ईर्यासमित्यादि ७५५ उत्पाद ६०८,६४१,६४९ ऋजुसूत्र २८५,३१०,३११,३१२,३१४, ईश्वर ३१,६९,९५,९६,९९,१२२, उत्पादविगमध्रौव्य ६२३ ३६६,३७८ १२५,१२६,१२७,१२८,१३१, उत्पाद-विनाश ६२३ ऋजुसूत्रनय ४०७,४३०,४४०,४४८ १३२,४७६,५०६,७१५,७१६, उत्पाद विनाश स्थित्यान्मकल ६४२ ऋजुमूत्रवचन विच्छेद ३४९ उत्पाद विनाशस्थित्यात्मकभाव ६५० ईश्वरकल्पनावैयर्थ्य १२९ उत्पाद-विनाशखभावभाव ४०९ एक आत्मन् ४५३ ईश्वरज्ञान १२५,४७९ उत्पादव्ययध्रौव्य ३२३,३६७,४१२, एककार्यकारिख २५५ ईश्वरज्ञानलासिद्धि ४७९ (१) ४२८,४२९,४५१ एक-क्रिया ४५३ ईश्वरज्ञानादिहेतुक-जगत् १२६ उत्पादव्ययध्रौव्य-लक्षण ९२ | एकज्ञानिन् ६१० Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाच शब्दाः । एकत्वग्राहिन् ३४१ | कर्तृता ९८,११२,४७३ कारणत्रयाभाव १२६ एकलप्रतिपत्ति ३४२ कर्तृ-भोक्त-स्वभाव ७१८ कारणल ५४ एकल वितर्काविचार ७३५ कर्म-उपभोग १५९ कारणनिवृत्ति ४२४ एकलव्यवहारभ्रान्तता ४०४ कर्मकर्तृक्रियाव्यवस्था ३५५ कारणभेद ३,७७ एकवसिद्धि ८७ कर्मकर्तृरूपलासिद्धि ४६१ कारणव्यापार ४२३ एकदण्ड ४५३ कर्मक्षय १००,१३३ कारणसमवाय १०८ एकरूपोपलम्भ ३६३ कर्मक्षयकारण ७५४ कारणसामग्री ४१४,५३० एकविज्ञानजनक-क्षण २६३ कर्मक्षयार्थ ६१५ कारणस्वरूप-प्रागभाव ३४५ एकसन्तान ३६७ कर्मव ४७३ (४) कारणात्मिकाशक्ति ३८५ एकसन्तानसमाश्रय २४७ कर्मन् १०२,१३०,१५०,४१८,६८६ | कारणानुपलम्भ २१ एक-समवाय ६५७ (१),७१४,७१५,७३३ कारणायत्त-कार्यखभाव ४०१ एकसामग्र्यधीनस १२२ कर्मपरतन्त्र १३० कारुण्यप्रेरित ९९ एकसूत्रधारनियमित-अनेकस्थपत्यादिनि- कर्मप्रकृति ७३५ कार्मणशरीर ९२,७३६ वर्त्य १३१ कर्म-प्रक्षय १५९ कार्य ३,२८१ एकाकारप्रत्ययगोचर ३४१ कर्मफल ३०७ कार्यकारण ८९ एकाकारासंविद् ३०५ कर्मबन्ध ७३७ कार्यकारणभाव ४९,५७,८७,९२,२६८, एकादश-इन्द्रिय २८०,२८२ कर्मबन्धहेतुता ७४९ __३३२,३३३,७२७ एकान्त निर्गत विशेष ६२७ कर्मयोग्यपुद्गलात्मकप्रदेश ७३६ कार्यकारणव्यवस्था १२४ एकान्तविशेष ६२८ कर्मलक्षण १५० कार्यकारणव्यवस्थानिबन्धन १२४ एकान्तोच्छेद ४१७ कर्मवर्गणापुद्गल ७३३ कार्यक्रमाभ्युपगम ४०० एवम्भूत २८५,३१०,३१४,३४९,३७८ कर्मविनाश १५० कार्य क्रिया-अयोग ४२६ एषणीय ७५१ कर्मादि-सामय्यभाव १३१ कार्यगम्य-नियतल २७० कर्माशय ९९,१०० कार्यता ४८१ ऐकलिकउत्पाद ६४१,६४२ कर्मेन्धन ७४९ कार्यभेद ४७४ ऐकमत्य १००,१३१ कमैकान्तवाद ७१५ कार्यवलक्षण-हेतु १२४ ऐश्वर्य ९ कर्मोत्पत्ति ११४ कार्यलिङ्गप्रभव ३५२ ओ कल्पना २७० कार्यशून्यता ७०५ औघिकोपाधि ७५१ कल्पनाविरचितलिङ्गप्रभवत्व ५६४ कार्य हेतुसमुत्थ २,३ औत्पत्तिक ३८६ कवलाहार ६११,६१३ कार्यात्मा-ध्वंसाभाव ३४५ औदारिकव्यपदेश ६११ कवलाहारपरिकल्पना ६१५ कार्याभिव्यक्त ४२३ (६) औदारिकशरीरख ६१२ कवलाहरिख ६११ कार्यासत्त्व २८३ औदारिकाद्यशेषशरीर ७३६ कषाय ७४७ कार्यात्पादन ४२३ औपचारिक ८०,२६१ काकतालीयन्याय ५७ कार्योत्पादानुमान ५६२ औपशमिकभाव ५९६ कादाचित्कता ४०५ काल २५७,५७१,६५४,६५५ (१), कायक्रियोत्पत्ति ६५० ६६८ (६) ७११,७१४,७१६, कथञ्चित्प्रतिपक्षसङ्ग्रह ७१८ काय-विज्ञानवैलक्षण्य ९० ७१७,७३२,७३४ कथञ्चित्सादृश्य २५५ कायोत्पत्ति ६५० कालकृतपरखापरख ६८१ कथा ४०५ कारक २५ कालत्रयप्रदर्शिप्रत्यक्ष ३३८ कथात्रय ५६२ कारकव्यापारसाफल्य ४२३ कालत्रयशून्य ७३९ करण ७५५ कारकसाकल्य ४७२,४७३ कालमेद २७३,२७४,२८७,२९४ करणल ४७३ कारण ११८,२५४,२८१,७१४ कालव्यतिरेक २५८ करुणा १०० कारणकलाप ४७१ कालखभाव-नियति-पूर्वकृतं-पुरुषचारकरुणाप्रवृत्त १३० कारणकार्यविभाग २८४ (८) णरूप ७१०(५) कर्तृ ९७,१०१,७१८ कारणजातिमेद ४७४ कालात्ययापदिष्टल ७२३ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाच शब्दाः । कालात्ययापदिष्टत्वादिदोष ७१९ क्रियारहिन ज्ञान ५ 'शायोपशमिकभाव ५९६ कालात्ययापदिष्टहेत्वाभास ७२१ 'क्रीडा ७१६ भायोपश मिकभुमि ५ कालाद्यकान्त ७१७ क्रीडाद्यथा-भगवत्प्रवृत्ति ७१७ (२) ओणावरणअन्मन् ६२१ कालामेद २९४ काडा प्रवृत्ति २७८ श्रीणावरण व ६०६ कालाभ्युपगम ४०० कोधादिकायषोडशकनिग्रह ७५. अदादिपरिषहै कादशक ६१५ काल्पनिक १४५ क्लिष्टकर्मन् १ क्षेत्रज्ञ ९८ कृतसमयध्वनि २५० । किटकमसम्बन्धहेनुना ७३१ कृपापरतन्त्रता ७१६ | क्लिष्टकर्मान्तराय १६९ ख्याति ३६१ केवलकेवलिन् ६१६ क्लिष्टपरिणामवत् पुरुष ७५३ केवलज्ञान ५९५,६०७,६१७,६२१, केश १५२ गच्छत्तणस्पर्शज्ञानतुल्य १६३ ६२२ क्षण २५. गतिक्रियापरिणतजीवद्रव्य ६४० केवलज्ञानदर्शन ६०७ क्षणक्षयसिद्धि ३९८ गतिक्रियापरिणामवय ६४० केवलज्ञानसम्पद् १,१३३ क्षणक्षयाधिगम ३४९ गमन ६८६ केवलज्ञानाख्य-अर्थपर्याय ६२३ क्षणक्षयावभास ३९८ गुण ६३१ (४), ६३३,६३५,६७२ केवलज्ञानावरणक्षय ६०६ क्षणक्षयिख ३८८ (५) ६७६ (३,४) केवलज्ञानोत्पत्ति १६० क्षणपरम्परा २९२ गुणरूपता ६८३ केवलज्ञानोपयोगकाल ६१२ क्षणभप्रमा ३३२ गुणशब्द ६३४ केवलदर्शन ६०७,६१२,६१७,६२१ क्षणभङ्गमङ्ग ५२७ गुणार्थिकनय ६३४ (४), ६३५ केवलव्यतिरेकिन ७२४ क्षणमात्रवृत्नि-वस्तु ३४९ गुणास्तिकनय ६३४,६३५ केवलान्वयिन् ७२४ क्षणविशरारुता ३२१ गुप्ति ७३५ केवलावबोध ६१७,६२१ क्षणविशरारुख ५६६ । गुरुल ६८३ (४,५) केवलित्वपर्याय ६२४ क्षणस्थिति ४११ । गृहीतसम्बन्धलिङ्गप्रभव २ केवलिन् ६१३,६२०,७३६ क्षणिक ९१,७३३ ग्रहणव्यवस्था ३४० केवलिभुक्ति ६१४ क्षणिकता ३२९,३९२ ग्राह्यग्राहकभावव्यवस्था ४६१ केवलिभुक्तिसिद्धि ६११,६१४ क्षणिकताव्याप्त ३९९ केवलोपयोग ६०६,६५० क्षणिकत्व ४०३,७१८ घातिकर्मक्षय ७५४ कोपपरिणति ६३१ क्षणिकलव्यवस्थिति ३४९ : घातिकर्मक्षयप्रभवसर्वज्ञतादि ६१३ क्रम ३२४,३३६ क्षणिकविज्ञप्तिमात्रावलम्बिन् ३६६ घातिकर्मचतुष्टय ६२२ क्रमभाविन् ६३५ क्षणिकाभिव्यक्ति ३१९ क्रमयोग ३२९ क्षयोपशम ५९,५१७,७४५ चक्रक ४,५,६,१३,१६,४१,५५,१३८, क्रम-योगपद्य १५८,२९६,३९८,४००, क्षयोपशमकार्य ६१२ । १४० ४१२,४१३ क्षयोपशमनिबन्धनक्रम ६१८ चक्षुरादिकरणपञ्चकसंयमप्रतिलेखन ७५५ क्रमवत् ३३१ क्षयोपशमलक्षण-अभ्यास ६३ चतुर्झनिन् ६१० क्रमवत् ज्ञानदर्शनोपयोग ६१० क्षयोपशमविशेषाविभूतज्ञान २६८ चतुर्थभग ४४६,७५८ क्रमवयुपयोगपक्ष ६०९ क्षयोपशम विशेपाविभूतप्राक्प्रदर्शिनव्या. चतुर्दशभक्तनिषेध ६१४ (२) क्रमसंवेदन ३३६ प्ति-ग्रहणखरूपज्ञान- २५० चतुलक्षणलिङ्ग ५५५ क्रमाक्रमविभाग ६१६ योपशमिकभाव ६२३ चतुर्विधकार्यव्याभ्युपगम ६४८ क्रमाक्रमोपयोगद्याभ्युपगम ६०९ क्षायिक ६१५ चतुर्विधमति ज्ञान ५५३ क्रमोत्पाद ६०७ शायिक-ज्ञानदान ५१६ चतुःसंख्य-परमाण्वात्मक-नित्यद्रव्य क्रमोपयोग ६०७,६१२ सायिक ज्ञानदर्गनचारित्र ७५० क्रमोपयोगद्वयात्मक ६१६ क्षायिकज्ञानदर्शनचारित्रवीर्य तिशयसम्प. चरण ७५. क्रमोपयोगप्रवृत्त ६१० समन्वित ७३६ चरणकरण ७५६ क्रिया २५ क्षाविकच ६१२ चरण-करणप्रधान ७५५ कियानुमेय-शक्ति १४७ क्षायिकभाव ५९६,६२३ चातुर्वर्ण्य श्रमणसङ्घ ७५४ क्रियामात्र ७५६ क्षायोग्रामिक ६५ चारित्र ७५७ १०७ सं.प. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ चित्तवेतनानाला २६२ चित्तपरिणति ७५१ चिसन्तति १२ चित्ताचैत्त - स्वसंविद्रूपता ३६४ चित्खभावता १५१, १६० चिन्ता ५५३ चिन्मात्रपरिज्ञान ११९ चेतन ३८७ चेतनत्व ११९ चेतन वनस्पति ६५२ (१) चेतन सत्व १४१ चेतनाचेतन - द्रव्य ६३० चेतनाधिष्ठातृव्यतिरेक १२६ चेतना - लक्षण ७३२ चेतनालक्षण आत्मन् ४५४ चेलग्रहणप्रतिषेध ७४६ चैतन्य १५१,२९६,२९८, ३०७ चैतन्यपरिणति ७३७ चैतन्यप्रतिपत्ति ६५२ चैतन्यमात्र ६५४ चैतन्यलक्षण ६५१ चैतन्यलक्षणआत्मन् ७१८ चैतन्योच्छेद १६० चोदना ४१, ४३,६२,५३९,७३१,७४०, _८४२,७४३ चोदनाप्रभव १९ चोदना ५१ चोदना सदृशवाक्य ३२ छ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाच शब्दाः । ६१०, ६१२ (१), ६१९ उद्यस्थावस्था ६१६, ६१८,६२० छद्मस्थावस्थाभाविन् ६१५ छल ७७१,७३३ छान ५२ (४) ६४ छद्मस्थिकोपयोग ६२० ज अगत् ८९ जगत्-अदृश्यताप्रसक्ति ६४० जगत्-एकल २७६ जगत् कारण ७११ जगत् कारणत्व ७१७ जगत्कर्तृत्वानुपपत्ति ११९ जगत्कर्तृलाभ्युपगम १२० जगद्विधातृत्व १२८ जगद्वेचिश्य ९५,११८ अडवरूप ७१८ जन्मान्तरशरीरसञ्चार ७१ जय-पराजय ७६० जल्प ६७१,७३३ जाति १११,११२,११३, १७४, १७८, १७९ (१) २०७, २२३, २३३, २३४, २३८,६७१,७३३ जातिमत् १७४ जातिरूप ११३ जातिव्यक्ति १११ जातिव्यवस्था २२२ जिन १३२,६१६ जिनकल्पिक ७५१ जीव ६२०,६२४,६३१, ७३२,७३३ जीव-कर्मन् ४५३ जीवकर्मप्रदेश ४५२ जीवद्रव्य ४५१, ४५२, ६४०,६४१ जीवत्व ६५१ जीव- प्रदेश ३९ जीवबन्धमोक्ष १६२ जीवविचय ७३४ जीवाजीवपदार्थद्वय ७३७ जीवात्मन् २७८ जीवादितत्व ६५१ जीवादितश्वप्रकाशक ७४५ जीवादिद्रव्य ४३० जैनमतानुप्रवेश ५५१ ज्ञप्ति ७ 1 ज्ञातृव्यापार २,८,२०,२१,२२,२५ ज्ञातृव्यापार लक्षण प्रमाणसिद्धि २५ ज्ञान ३४३, ४५७,४८०, ६०६, ६१८ ज्ञानग्रहण ५२० (६) ज्ञानचिकीषधारता ४७३ ज्ञानचिकीर्षाय समवाय ९८,१२५ ज्ञान- दर्शन ६२३ ज्ञानदर्शनएल ६०९,६१० ज्ञानदर्शनचारित्र ७५५ ज्ञानदर्शचारित्रत्रितय ६५१ ज्ञानदर्शनचारित्रात्मक ७५६ ज्ञान- दर्शन - चारित्रात्मक मुक्तिमार्ग ७३१ ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयात्नक ६२१ ज्ञानपरमाणु १०५, २६९, ४२७ ज्ञानप्रकर्षतारतम्य ५८ ज्ञानप्रयत्न चिकीषसमवाय ११९,१२२ ज्ञानरूप १४ ज्ञानरूपता ४८० ज्ञानवाद ४६६ ज्ञानसन्तति ८९ ज्ञानाकार २३२,३५१, ४६०, ४६१, ज्ञानाकारनिबन्धना - वस्तुप्रज्ञप्ति ३८० ज्ञानादि - उत्पत्ति - समवायिकारण, अस मवायिकारण- निमित्तकारण १२६ ज्ञानादित्रितय ७५५ ज्ञानाद्यावारकघातिकर्मचतुष्टय ६२ ज्ञानाद्युपष्ठम्भ निमित्तशरीरस्थित्यादिहेतु. ता ७४७ ज्ञानावरणादि ७३६ ज्ञानावरणीयादि ७३३ ज्ञानावरणीयादिकर्मन् ७३७ ज्ञानोपयोग ६२० त तव ३४२,७३२,७१३ तत्त्वचिन्तक ५६८ तत्त्वव्यवस्था २६६ तत्त्वसंवृति ३७७ तथाख्याति ३८५ तदुत्पत्ति २०,५९४ तदुत्पत्ति - तादात्म्य लक्षणसम्बन्ध २६६ तद्योग (जातियोग) १७४ तन्त्रयुक्ति ५३१ तमश्छायादि ६७१ (७) तमस् ५४३ तर्क ६७१,७३३ तात्पर्यज्ञा ७४५ तात्त्विक ८० ताविक २१६ विविनाश २३३ (६) तादात्म्य २०, २४१, १६८,५६४,५९४ तादात्म्य तदुत्पत्ति ५५८ तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणप्रतिबन्ध ३२१, ५६८ तादात्म्य - तदुत्पत्तिव्यवस्थापक प्रमाण ५६९ तार्किक ८९ तिर्यक्-पर्याय ९३ तिर्यक्सामान्य २६७ तीर्थ २७१,७५४ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाश्च शब्दाः। ७५ तीर्थकृदासादना ४५७ दर्शनपर्याय ४५२ द्रव्यनय ४४९ तीर्थप्रवर्तन ६११ दर्शनस्मरणएकाधिकरणता ३४२ द्रव्यपरमाणु ७३५ तुच्छरूप-अर्थसत्त्व ३६८ दर्शनावरणक्षय ६०६ द्रव्यपरिणति ६२७ तुलाप्रामाण्य ५२२ (३) दर्शनावस्था ३४३ द्रव्य-पर्याय २७१,६२३ तृतीयनयाभाव ४१६ दर्शनोपयोग ६२० द्रव्यपर्यायरूप ३८६ तृतीयभङ्ग ४४२,७५८ दशधाक्षान्त्यादि ७५५ द्रव्यपर्यायात्म-अर्थ ५५३ तैमिरिकज्ञान ५०९ दशधावैयावृत्य ७५५ द्रव्यपर्यायात्मकानन्तार्थग्रहण ६१६ त्रिंशदधिकशतपरिमाणभङ्ग ४४७ दानहिंसाविरतचेतस् ३८८ द्रव्यपर्यायात्मकैकवस्तुतत्त्व ७१० त्रिकालता ६४५ दिक्कालसाधन ६७० (३) द्रव्यप्रतिपादकनयप्रत्ययराशिमूलव्याकरत्रिकालशून्यविधि ७४० दिकृत-परवापरख ६८१ __णिन् २८५ त्रिगुणात्मक १४ दिश ६६९ (२) द्रव्यभावेन्द्रिय ६२० त्रिगुणात्मकपुरुष ३०५ दीक्षा ७३०,७३१,७३२ द्रव्यमनस् ६१५ त्रिगुणात्मकवस्तु ३०४ दुःख ७३३ द्रव्यरूपता ६२३ त्रितय ३५४ दुर्नय ४१६,४४६,७५७ द्रव्यलक्षण ४१०,४१५ त्रिधागुप्ति ७५५ दृश्यानुपलम्भ २१ द्रव्यवस्तु ४०५ त्रिधाहेतु ५५६ (२), ५५७ दृष्टसाहचर्यव्यभिचार ७० द्रव्यसम्यक्त ७३२ त्रिप्रकारपक्षधर्म ५५९ दृष्टान्त ६७१,७३३ द्रव्यखरूप ६४५ त्रिप्रकारलिङ्गालम्बन ५६७ दृष्टान्त-दार्शन्तिकसाम्य ४२२ द्रव्यादि ११०,१५३,६१५ त्रि-भङ्ग ४४५ दृष्टापलाप १९९ द्रव्यादिषट्पदार्थव्यवस्था ७२९ त्रिरूपवत् ७२४ देवायुष्कजीव ६२४ द्रव्याद्वैत ४२८ त्रिलक्षणलिङ्ग ५५५ देश-कालाभेद २७४ द्रव्यान्तर ६२९ त्रिलक्षणहेतु ५६९ देशकालसन्तानाकार २७६ द्रव्याभाव ६७२ (२) त्रिविधअनुमान ५५९,५६०,५६२ देशकालाकारभेद २८६,४७० द्रव्यार्थपर्यायार्थलक्षणनयवाद ७४६ त्रिविधयोगसिद्धि ४५३ देशकालावस्थाभेद ७० द्रव्यार्थिक २८४, (१५) ३७९,४०६, त्रिविधसंस्कार ६८४ (१) देशनैरन्तर्य-सादृश्य २६३ ४०७,४०८,४०९,४१०,४१५, त्रिविधहेतु ५५८ देशभेद २७३ ४१७,४४८,४४९,४५७ त्रैगुण्य २८१,२८२ देशव्यतिरेक २५८ द्रव्यार्थिकनय ६३४,६५६ धातुक ७३१ देहमात्रव्यापक १३५ द्रव्यार्थिकनिक्षेप ३८७,४०५,४०६ त्रैरूप्य ४३७, (७), ७२०,७२४,७५९ दोषाभाव १० द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक २७२ त्रैरूप्य-अविनाभावपरिसमाप्ति ७१९ द्रवल ६८३ (४) द्रव्याविरहि-पर्याय ४०७ त्रैरूप्यसद्भाव ७२१ द्रव्य १३६,१७९,२८४,३८७,४०५, द्रव्यास्तिक २७२,२८५,३४९,४०७, ४०६,४०९,४१०,४४७,४४९, त्रैरूप्याभ्युपगम ७२३ ४०८,४०९,४१५,४१७,४५५, ४५६,५१९,६२७,६२८,६३०, त्रैलक्षण्य ५९१ ६३१,६३६,६३८,६४३,६५६, ४५७,५९५ त्रैलक्षण्यसद्भाव ७१९ द्रव्यक्षेत्रकालभाव ४४६,६३७, | द्रव्यास्तिकनय ३१०,३११,३१५,६५६, ध्यणुक ६४६ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-पर्याय-देश- ७०४,७०९,७२५ ज्यणुकादि ६४९ ___ संयोग-भेद ७२७ | द्रव्यास्तिकपर्यायनय २७२ त्र्यात्मक ६४४ (३) द्रव्य-गुण-कर्मन् ७०१ द्रव्यास्तिकप्रकृति ३१६ द्रव्यगुणकर्मवृत्ति-सत्तासामान्य ६७२। | द्रव्येन्द्रिय ५५३ (१) दर्शनस्मरणरूपा-सामग्री २७६ द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेष-समवा- द्रव्योपयोग ४०८ देशकालाकारवस्तु ४६९ याख्यषट्पदार्य ६५७ द्वयसंवेदन २७५ दर्शन २९३,४५७,५५३,६१८ द्रव्यगुणकर्मवरूप १५६ द्वादशधा-तपस् ७५५ दर्शनज्ञानस्वरूपद्रव्य-पर्याय ५९६ द्रव्यगुणकर्मात्मकपदार्थत्रय ६८७ द्वादशभावना ७५५ दर्शन-ज्ञानात्मन् ६२७ द्रव्य-त्रैकाल्य ६४५ द्वादशायतन ३२३ दर्शनज्ञानोपयोग ५९६ द्रव्यख ६४४ द्वितीयमा ४४३,७५८ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाच शब्दाः । द्विप्रमाण ५९५ | निक्षेप ३७९ पक्ष-सपक्ष-विपक्ष-व्यवहार ७२० द्विरूप ६२५ निग्रहस्थान ६७१,७३३, (३) पञ्चकर्मन् ६५७,६८५, (१) द्विविध-उपयोग ६५० नित्यद्रव्यवृत्ति ६९८, (१),६९९, (१) | पञ्चज्ञानिन् ६१० द्विविधसामान्य ६५७,६८८ (१) नित्यसुखसंवित्ति १५४ पञ्च-तन्मात्र २८०,२८२ द्विष्ठख ५९ नियति ७१४ पञ्चधा-समिति ७५५ द्विष्ठ-मेद २७५ निरंशक्षणिकैकान्त ७२८ पञ्चपदार्थवृत्तिरूपसमवाय ६७२ (४) द्वैराश्य २००,२५५ निरंशक्षणिकैकपरमाणुसंवेदन ५१५ पञ्चमभङ्ग ४४६,७५८ द्वैराश्यव्यवस्थापन ३२६ (४) निराकार ८४ पञ्चलक्षणलिङ्गप्राप्ति ५६२ द्वैराश्यव्यवस्थिति ३२२ निराकार-ज्ञान ४०५,४६१,४६२,४६४ पञ्चविंशति-तत्त्व २८१ व्यणुक ६४६ निराकारबोध ४५९ पञ्चव्रत २८०,७५५ व्यणुकादि ६४९,६५६ निराकारविज्ञान ४६० पञ्चास्रवविरमणादिसंयम ७५५ धर्म ४१,५०५,६६१, (१),५३१,७४० निराकारा अर्थवुद्धि ४६२ पदार्थ १७४, (१५),१७७,२०६,३२५, __७४२,७४३,७५४ निरोध ७३३ ५२२,७४३ धर्मकल्पद्रुम १ निर्जरा ७३२,७३५,७३७ पदार्थकादाचित्कल ७४ धर्मध्यान ७३४,७३५ निर्णय ६७१,७३३ पदार्थपञ्चक ७०२ धर्मानुप्रेक्षा ७३५ निर्वाण ७१८ पदार्थप्रवेशकग्रन्थ ६६१ (२) धर्मायतन ३२३ निर्वाणप्राप्ति ७५४ पदार्थभेदक ७७ धर्मास्तिकाय ६४१,६५४,६५५, (३), निर्वाणफलहेतुसम्यग्दर्शनचारित्र ७५१ पदार्थव्यवस्था ६५७ ७३२,७३४ निर्विकल्प ४३१ पदार्थषदक ६५७ धर्मिन् ५९२ निर्विकल्पकखसंवेदनवादिन् २५० पदार्थसङ्करप्रसङ्ग ७०२ धावर्थमात्र ७४० निर्विकल्पज्ञान ३४१ पद्मलेश्या ७३५ धारणा ५५२,५५३ (६) निश्चितप्रामाण्य १ परतन्त्र २८२ ध्रौव्य ४१० निषेध १९८ परतः-अप्रामाण्य ८,१०,११ ध्वस ३८९ नील-तद्धी ३६२,३६३,३६४ परतःप्रामाण्य १७,१९,२८,७३ नैगम ३१०,३११,३८६ परतःप्रामाण्यनिश्चय ७,१८ नमल ७५१ नैगमनय २८५ परपक्ष ७६० नय २७२,३१०,४२०,४२९,४५७ नैगम-सङ्ग्रह-व्यवहारर्जुसूत्र-शब्द-सम-परपर्याय ६३० नयद्वय ४०९ भिरूढवम्भूतनय ६५५ परप्रकर्षप्राप्ति ६१ नयप्रमाणाभिप्राय ७५५ नैगमादि २७२,७५७ परभवप्रादुर्भाव ६३१ नयराशि २७१ नैयायिकाभ्युपगतपदार्थ ६७१ (६) परमशुक्लध्यान ७३५ नयवाद ४२१,६५५,७४६ नैरात्म्य ११० परमाणु १०५,१३५,१४५,२५२,२८७, नय-शतविधल ७५७ नैरात्म्यनिषेध १०९ ४११,६४६,६४७,६५६,६९८, नयसमूहविषयसम्यग्ज्ञान ७५७ नैरात्म्यप्रतिपादन ३६६ नयखरूप ४०० नैर्ग्रन्थ्य ७४७,७४८ परमाणुपर्यन्तख ६४८ (३) नवद्रव्य ६७२ नैर्ग्रन्थ्याभाव ७४६ परमाणुपर्यन्तविनाश ६४९ नवपुराणाद्यनेकक्रमभाविपर्यायाक्रान्त- नोइन्द्रिय ६१९ परमाणुपारिमाण्डल्यादि २७० घट २६० परमाणुप्रभवल ३१० नव-ब्रह्मगुप्ति ७५५ पक्ष ३५१, (६),५९२ परमाणुरूपादि १३५ नानाभूत-एकखग्राहिप्रमाण ३९६ पक्षधर्म ५५६ (२) परमाणुषकसम्बन्ध २५२ नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव ३७९,४४३ (६) पक्षधर्मता ५७० परमाणुसमूहात्मक १४ नामाख्य १८५ पक्षधर्मतानिश्चयहेलङ्ग ५७१ परमाणुखलक्षण ३८८ नारकपर्याय ९३ पक्षधर्मलादित्रिलक्षणयोगिन् ५९० (३) परमाण्वादि १२४ नास्ति ४४२ पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षण ५६२ परमाण्वादिखखभावव्यवस्थिति ६९० नास्ति च अवक्तव्य ४४७ | पक्ष-सपक्ष ७२१ परमानन्दखभावता १५१ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाच शब्दाः। परमार्थ ४०६ | पर्यायार्थिकनय ६३४,६५६ | पुरुष ११२,२८२, (१६),३०६,३१०, परमार्थसत् ३६७,४१४ पर्यायाशून्य-द्रव्य ४०७ ६३१,७१५ परमाहादरूपानुभव १६१ पर्यायास्तिक २८५,३१४,३४९,८०, | पुरुषजीव ६२४ परलोक ७१,७५ पुरुषविशेष-ईश्वर १३३ परलोकव्यवस्था ७४ पर्यायास्तिकनय ३८६,४०७,४०९, पुरुषवेदापरिक्षय ७५२ परलोकसद्भाव ६९ ४१५,४५५,६५६,७०९,७२५ पुरुषाद्वैतसिद्धि ३७ परलोक-सिद्धि ७७ पर्यायास्तिकाभिमतपूर्वापरक्षणविविक्तम- पुरुषायुष्कजीव ६२४ परस्परपरिहारस्थितिलक्षण २४१ ___ध्यक्षणमात्रवस्तु ४०५ पुरुषेच्छा ३९ परस्परखरूपोपादान ४१५ पर्युदास २९,४२८ पुरुषेच्छानिबन्धनख ४७१ परामर्शज्ञान २३८,५६३, (१२),५७८ पर्युदासरूपनिषेध्य २२४ पूर्वजन्मसिद्धि ९२ परामर्शप्रत्यय २०८ पर्युदासलक्षणअपोह २०२, (१) पूर्वधर ७५४ परिच्छित्ति ५२२ पर्युदासवृत्ति १० पूर्ववत् ५५९,५६०,५६४,५६७,५९४ परिणति २९६,३९३,४५१,५३४ पश्यन्तीवाच् ४९३ पूर्वविद् ७३६ परिणाम २९७,३८३,७५९ पापध्यान ७३४ पूर्वापरदर्शनावसेय-वस्तु ३७३ परिणामकृत-अर्थ ४२३ पारतन्त्र्य १० पूर्वापरैकखग्राहिदर्शन ३४० परिणामकृतसमूह ४२२,४२३ पारमार्थिक १४५ पृथक्ववितर्कवीचार ७३५ परिणामप्रसाधकप्रमाण २९, पारमार्थिक-प्रमाणलक्षण ४६५ पृथगुपलम्भ ३६३ परिणामसामान्य १६४ पारमार्थिक-ब्रह्मस्वरूप-साधन ३८४ पृथिव्यादि-मनःपर्यन्त-द्रव्यनवक ६७१ परिणामिकारणता ७४१ पारमार्थिकस्तव १ पृथिव्यादि-मनुष्यपर्यन्त-षद्विधजीवनिपरिमण्डलादि ६०५ पारमार्थिकाद्वैतसिद्धि २९५ __ काय ६५१ परिभाषा ५२५ पारमार्थिकानेकाकार-ज्ञानाभ्युपगम पृथिव्यादिस्थावर ६५२ परिशेष ५६६ (१०),५७१ २६२ पौद्गलिक ६० परीषह ७४७,७५१ पारिणामिकादि ६२३ पौद्गलिकल ३८,३९ परीषहोपसर्गामिभव ७५४ पारिभाषिक १०३,५२५ पौगलिकल विचारणा १०८ परोक्ष ५९५ पारिमाण्डल्य ४११ प्रकरण ७१९ परोक्षा ३५८ पारिमाण्डल्यलक्षण-नित्यख ६७५ प्रकरणसम ७२० परोक्षोपयोग ६५० पारिशेष्य २४६,२५६,४०५,४१२, प्रकरणसमता ७२१ पर्यनुयोग ७०,७२,७३ ५१९,५२२,५४१,६७९ (१) प्रकरणादि २३६ पर्यनुयोगमात्र ६९ पिण्ड विशुद्धयादि ७५५ प्रकाशता ४६३,४६४,४८० पर्यवनय २७१ पीतलेश्या ७३५ प्रकाशतानुप्रविष्टता ४६६ पर्याय ३१२,४०९,४१०,४४०,४५३, पुण्यापुण्यबन्धहेतुता ७३३ प्रकाशाख्याभेदोल्लेख ३६५ ४५६,६२४,६२७,६२८,६३०, पुद्गल ३७८,४५४,४५५,६१५,६४०, प्रकृति ३०७ ६३५ (३),६४०,६४१ ६५४,७३२,७३४ प्रकृति-ईश्वर-कालादि-कृतल २१५(१) पर्यायनय ३१७,३४९,४०७,४०८, पुद्गलता ६३९ प्रकृतिविकारभेद २८२ (४) ४०९,४४८,४५५ पुद्गलद्रव्य ४३०,६३१ प्रक्रिया ३८० (१) पर्यायनयभेद २८८,३१०,३११,३१७, पर्याययोग ४३१,४४० प्रचय ६४७ पुद्गलद्रव्यात्मकल ६७२, (१) प्रच्युति ३८९,३९१,३९२ पुद्गलधर्मल ८६ पर्यायवक्तव्यमार्ग ४२९ पर्यायविशेष ६५६ प्रच्युतिमात्र-प्रध्वंसाभाव ३२१ गुद्गलपरिणति ६११ पुद्गलपरिणामख ७८ पर्यायसंज्ञा ६३५ प्रज्ञामेधा ७१,७४,७७,७८ पुद्रलरूप-कर्मन् ७३६ पर्यायाक्रान्तवस्तु ४०८ प्रणवस्वरूप ३८० प्रतिक्षणभावित ३८९ पुद्गललक्षणविलक्षणता ७१८ पर्यायाभिमत ४१० पर्यायार्थिक ३७९,४०६,४०८,४१५, प्रतिक्षणविशरारु ८७,८९,३३१,७१८ पुद्गल विकारख ९० प्रतिनियतदेशकालहेतुता ७१३ ४१७,४३०,४४८,४४९,४५५, पुद्गलात्मककर्मन् ७३४ | पुद्गलास्तिकाय ६५४,६५५, (२) प्रतिपक्षव्युदास ७१८ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाच शब्दाः। प्रतिपत्ति ४८९ प्रत्यभिज्ञादि ६४१ | प्रमेयव्यवस्था ३८४,७०९ प्रतिपत्तिप्रमोषकल्पना ३७२ | प्रत्यभिज्ञान ७८,८६,९२,१३६,२८६, प्रमेयव्यवस्थिति ७३,७४,७१० प्रयोगजनितविगम ६४३ ३३५,३४३,३७३,३९४,३९६, प्रतिपत्ति-प्रवृत्ति-प्राप्ति-लक्षणव्यव प्रयोजन १७१,६७१,७३३ प्रतिपत्ति-विगम ६४४ प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्ष ५६,३३७ प्रलयकाल १३२ प्रतिबिम्बक २०९,२१७,२३० प्रत्यभिज्ञाप्रमाण ३३४ प्रवाहरूपसन्तानल १५७ प्रतिबिम्बात्मक-अपोह २०६, (१६) प्रत्यय ३१९,३८०,६१८ प्रव्यक्तचेतनत्रसनिकाय ६५१ प्रतिबिम्बात्मन् २०३ (११) प्रत्ययत्व ८९ प्रव्रज्यापरिणाम ७५० प्रतिबिम्बोदयन्याय ३०८ प्रत्ययहेतुल १५६ प्रसज्यप्रतिषेध २९,२०३,४२८ प्रतिभा १८२ (४),३५० प्रत्युत्पन्नभाव ६२८ प्रसज्यप्रतिषेधलक्षण अपोह २०२(१६) प्रतिभाख्य-अपोह २०६ प्रथमभङ्ग ४४२,४४३,७५८ प्रसज्यप्रतिषेधवृत्ति ५० प्रतिभातः ५४७ प्रधान २८०,२८१,२८४, (३),२९६, प्रसज्यरूप-प्रतिषेध्य १९९ (१७) प्रतिभापक्ष १८४ (१०) प्रसज्यलक्षण १८७ प्रतिभास ३७१,३७६ प्रधानकारणिक-जगत् ३१० प्रसवधर्मिन् २८१ प्रतिभासन २७४ प्रसह्यप्रतिषेधलक्षण-अपोह २०२ (२) प्रधान-पुरुष २८२ प्रतिभासभेद ८३,३६४ प्रधानाद्वैत ४२८ प्रसारण ६८५,६८६ प्रतिभासमानता २९१ प्रध्वंस ३८९ प्राक्तनाशेषकर्म-संयोगाभाव ७३७ प्रतिभासवपुस् ३७१ प्रध्वंसाभाव ५८१ प्रागभाव ३८९,५८१,७०५ प्रतिभाससंवेदन ३८७ (१३,१४) प्रमा ४६६,४८१, (५) ५०८ (१८) प्राणातिपातविरमणादिमहाव्रत ७४९ प्रतिभासाद्वैत ४८७ प्रमाण २,५,८,१२,१५,२०,३९,४१, प्रातिभ ५३७ (४),५३८ (१३),५५२ प्रतिभासोपमत्व ३७१,४८८ प्रापकल ४६९ १२०,२८५,३३९,४२१,४५८, प्रतिभासोपलब्धि ३८८ प्राप्तार्थप्रकाशकत्व ५४५ ४६५, (६) ४६६ (७),४६७ (११) प्रतिमा ७५५ प्रामाण्य २,४,९,१४,४६६,४६८,४७१, ४७१,४७२,४७५,४८८,५०९, प्रतियोगिगुणात्मक १० ५१३,५३७,५५४,५५५,५८४, प्रामाण्यप्रज्ञप्ति ५ प्रतिरूप ३१६ ६७१,७३३, (२) प्रेक्षापूर्वकारित्व १५२ प्रतिषेध ७४१ प्रमाणता ५५३ प्रेरकत्वानुपपत्ति ७३९ प्रतीति १११ प्रमाणत्रयसम्पाद्य-सत्यवगम ३२ प्रेरणा ११,१९,४१,७४० प्रतीत्यवचन ६२८,६२९,६४१ प्रमाणद्वयनिबन्धन ३१८ प्रेरणाजनितज्ञान ६० प्रत्यक्ष १३,११९,२४५,२८७,३३४, प्रमाण-नय ४२० प्रेरणाजनिता बुद्धि ३४३,५०८ (१),५१८,५२०, प्रमाणनयप्रमाणद्वार ७४५ ५२४,५३१,५९५,६२० प्रेरणाबुद्धि ४,१९ प्रमाणनयखरूपावधारण ७४६ प्रत्यक्षतः ३४९ प्रेरणावाक्य ११ प्रत्यक्ष निराकृत ३५१ (६) प्रमाणनिबन्धनख ७१० प्रमाणनिबन्धना ७३,७४ प्रत्यक्षपूर्विकार्थापत्ति ५७९ फल १३,२५,५३१,५६७ प्रमाणपञ्चक २३,४१ प्रत्यक्षप्रतीति ११३ फलता ५५३ प्रमाणलक्षण १४,४६७ (११) ४६९, फलवत्-कारण ३४६ प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्षण ७२,५३४ (९) ४७१ फलविशेषणपक्ष ५३०(४,६) ५३९ प्रत्यक्षानुमानप्रतीतिभेद ५६६ प्रमाणशब्द ४५९ प्रत्यक्षानुमानभेद ५१८ प्रमाणसामान्यलक्षणप्रस्ताव ५५१ (१०) बद्धमुक्तव्यवस्था २८० प्रमाणादिव्यवस्था ३६५ प्रत्यक्षानुमानलक्षणद्विप्रमाण ५७३ बन्ध ४१८,४१९,७३२ (३), ७३३ प्रमाणाधीन ३८४ बन्धमोक्षलक्षणवस्तुतत्त्व ७४५ प्रत्यक्षानुमानादि भेद २८५ प्रमाणाधीनल ७०९ बन्धमोक्षव्यवस्थिति ३८५ प्रत्यक्षोपयोग ६५० प्रमाद ७४७ बन्धमोक्षसुखदुःखप्रार्थना ४५१ प्रत्यभिज्ञा ३३,३४,३७,१०४,११२, २८६,२८९,२९०,२९१,३१८, प्रमितिक्रिया ३६५ बन्धहेतुल १५२ ३१९,३४४,३९४ प्रमेय ६७१,७३३ बहिरर्थसंस्पर्शरहित ३६६ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाच शब्दाः। बाधकप्रत्यय १८ भवजिन १३३ भोक्तृ ३०७,७१८ बाध्यबाधकभाव ४८८ भवविचय ७३५ भोकृत २८०,३०८ बाह्य-अर्थ २१३ भवस्थकेवलिन् ६१२ भोग्यत्व २८१ बाह्यधर्मध्यान ७३४ भवोपग्राहिकर्मन् १६०,५३६ श्रान्त ५१२ (२) बाह्य-रूप ३७७ भवोपग्राहिन् १३३ भ्रान्ति २६३,४८१,(५),५०८ बाह्यशुक्लध्यान ७३५ भव्य ६५१ बाह्याभाव ३५१ भव्याभव्यखरूप ६५० मति ५५३,६१५ बाह्यार्थव्यवस्था ३७७ भाव ८९,३७९,४०६,६२१ मतिज्ञान ५५३,५९५,६१५, (२), बाह्यार्थावभासिन् ३६२ भाव-क्षणक्षय ३४९ ६१८,६२१ बिम्बप्रतिबिम्बवत्-विद्या-अविद्याव्य- भावना ४०७,६८४,७४१ । मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमादिसामग्रीवस्था २७८ भावनाप्रकर्षपर्यन्त ५१ प्रभव ६२० बुद्धि ८,८४,२३७,२८०,२८१(३) भावनिक्षेपप्रतिपादकपर्यायास्तिकाभिप्राय मतिमेद-प्रत्यक्षता ५९५ २८२,३५८,३५९,४६२ मतिरूप ६५० बुद्धि-चैतन्याभेद ३०९ भावनोपनेयजन्मसुखादि ४६३ मतिरूपबोध ६१७ बुद्धिदर्पणसंक्रान्त ३०८(२) भावपरमाणु ७३५ मति-श्रुत ६१५ बुद्धिपूर्विका-ईश्वरप्रवृत्ति १३० भावप्रसक्ति ३६८ मतिश्रुतज्ञाननिमित्त ६१९ बुद्धिप्रतिबिम्बक २१३ भावरूप-पदार्थ १६५ मत्यावरणादि ७३३ बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितपृथिव्यादिमहाभूत भावसम्यक्ल ७३२ मनस् २८१ (६) १३१. भाविजन्मचित्तोपादानल ८९ मनस्कार २५४,२६३,४०१,४०२ बुद्धिमात्र १०८ भाविपरलोकसिद्धि ९२ मनस्कारक्षण ४०१,४०२ बुद्धि-षटक्षणस्थायित्व १३९ भावेन्द्रिय ५५३ मनःपर्याय ६५० बुद्ध्यधिकरण-द्रव्य १३३ भाषावगेणारूपपरिणतपद्ल-परिणाम मनःपयोयज्ञान ५९५,५९६,६१५,१७, बुद्ध्याकार १७४,१८१,१८२,२०५ ६१९,६२० बुद्ध्याकारालम्बनाबुद्धि १८८ भिन्नरूपसंवेदन ३५४ मनःपर्यायज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम ६२० बुद्ध्यादिसन्तान १५९ भिन्नसन्तान ८९ मनोद्रव्य ६६९ (५) बुद्ध्यारूढ-अर्थ २१३ भिन्नाभिन्नकाल ६४४ मनोधर्मायतन ३२३ बुद्ध्यारूढाकार १८१ (२) भिन्नोपयोगपक्षि ६१६ मनोवर्गणाख्य ६१९ बोध ८१,८२,८३,८४,८८,१९३, भिन्नोपयोगरूप ६१५ मनो-वाक्-कायदव्य ४५३ ३५५,३६४,३८०,४६२ बोधमात्र ४५८,४५९ मनोवाकायसंवरण ७५५ भुक्तिप्रकल्पना ६१२ बोधरूपता ४९३ (१) भुजिक्रियाकल्पना ६१० मनोवागूबादरकाययोग ७३६ भुवनहेतु-प्रधानपरमाण्वदृष्ट १०१ बोधात्मकता ३५८ मनोव्यापारज-प्रत्यक्ष १४ भूतभाविपर्यायकारणव ३८७ | महत् २८१ (२) बोधात्मन् २७५ भेद ३,१०२,१८९ ब्रह्मन् २७७,२७८,२७९,३८०,३८२ | महत्त्व ६४७ (७),३८३,३८५,४१९ भेदपरिमाण २८४ (४) महदादि २८० ब्रह्मादिवरूप २३८ महदादिरूप २९६ भेदप्रपञ्च २७९ महदादि-लिङ्ग ३०७ (१४) भेदवेदनाख्यकार्य २७६ ब्रह्माद्वैत ४२८ भेदव्यवस्था ३१० महाव्रतपरिणामवत् ७५० भजन ६३९ भेदसिद्धि २८३ महाव्रतसम्पन्नल ७५१ भजना ४०८ भेदहेतु ३ महासंवरसामर्थ्य ७३५ भजनाप्रकार ६४० भेदान्वयदर्शन २८४ (५) महेश ११८,१३१ भयोघ ४१९ | भेदाभेदरूपवस्तु ४४० महेशज्ञान १२६ भव ७२,९३,६३१ भेदामेदव्यवहारव्यवस्था २४२ महेशबुद्धि १३१ भवगुणप्रत्ययावधिज्ञानावरणकर्मक्षयोप- मेदाभेदशून्य ३७१ महेश्वर १२०,१२१,१३०,१३१,१३२ शम ६२. मेदासत्यता २७९ । महेश्वरवपुस् ११९ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाश्च शब्दाः । मानस् ६१९ मानसप्रत्यक्ष १३८,५६९ मानसी अक्षणिकलभ्रान्ति २४५ माया २७८ मायागारवादिभूयस्व ७५४ मायोपम ४८८ मायोपम-धर्म ३७७(१) मार्ग ७३३ मिथ्यात्व ४१६ मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद-कषायादिपरि णति ६५० मिथ्यावादिप्रवृत्ताष्टविध-कर्मसम्बन्ध ६२१ ७४७ मिथ्यादृष्टि नय ४१९ मिथ्याप्रतिपत्ति ८ मिथ्यार्थज्ञान ३७६ मिथ्यावाद ४२४,४२९ मिथ्यास्थान ७१८ मुक्तमनस् ६९८ मुक्तात्मन् १०७,११९,६९८ मुक्ति १५५,१६२,७३१,७५७ मुक्तिप्राप्ति ७५२ मुक्तिभाक्व ७५२ मुक्तिभाक् स्त्री ७५१ मुक्त्यवस्था १६१ मुखवत्रिकाद्युपकरणप्रत्युपेक्षण ७५५ मुमुक्षु १२८,१५२,१६०,७३४ मुमुक्षुप्रवृत्ति १५२ मुमुक्षुबन्ध-प्रसङ्ग १५४ मुमुक्षुयत्न १५१ मूर्त ६३८ मूर्तल ७३६ मूर्तलप्रसङ्ग १४५ मूर्ति १४५,१७८ मूलनय ४१५, ४१६ मूलप्रकृत्यवस्था ३०६ मूलव्याकरणिन् २७१,२७२,३१५,३ मृषानन्द ७३४ मोक्ष १५४,१६०,४१९,७३२,७३६, मोक्षावाप्ति १५२ [ लिट्प्रत्यय ७४० मोक्षोपाय ७१८ लिडादियुक्तवाक्यजनितविज्ञान ७३९ मोह ४२९ लोकप्रतीति ४३४,४६७,४७६ मोहनीय ७३५ लोकप्रतीतिबाधा ५५५ लोकप्रसिद्धव्यवहारानुसरण ८९ यति ७४७,७४९,७५१ लोकव्यवहारसमाश्रय ९ यथानुरूपविनिर्युक्तवक्तव्यनयवाद ४२१ लोकसंवृति ३७७ यथार्थत्वलक्षण ३ लौकिक १०३,१५३,४६८ यावत्-नयवाद, तावत्-परसमय ६५५ लौकिक-परीक्षक १४७,७१९ युगपज्ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयात्मककोपयोग लौकिकपरीक्षकादि ११५ लौकिकवाक्य ४३६ युगपदयुगपद्भाविपर्याय ६३६ लौकिक-वैदिकीरचना ११८ योग ७३५ लौकिकशब्द ३९ योग-कषाय ४१९ योगज-ज्ञान ३८४ वचनपर्याय ४३० योगनिमित्त ४१८ वचनविनिवेश ६२७ योगिज्ञान ४९९,५०९ वचन विधि ४०७ योगिन् ३८४,४७६,६९८,७५३ वचनार्थनिश्चय ३१६ योगिप्रतिपत्ति ३७८ वनस्पतिपर्यन्त ६५२ योगिप्रत्यक्ष ७५,५३६,५६८ वर्ण ३५,३६,४३१,४३२ योगिप्रभवविशेषप्रत्ययबल ६९८ वर्णक्रमापौरुषेयत्व ३९ योग्यता २४६,५३९ वर्तमानपरिणाम ६३० योग्यतानुमान ५६३ वर्तमानविज्ञप्तिक्षण २५३ योगपद्य ३२४,३२९ वसतिप्रमार्जनादि ७५५ वसत्यादि ७५५ रचना ११३ वस्तु ४०५,५५२ रत्नत्रय ७४८ वस्तुखहानि ६२३ रसादिविशेषपरिणाम ६३७ वस्तुरूपाबुद्धि २०६ रागादि ५१ वस्तुव्यवस्थिति ४५२ रागादिसंवेदन ५२ वस्तुखरूप-वाच्य १७३ रागाद्यावरण ९९ वस्त्रादिग्रहण ७४६ राशिद्वय ४६९ (६) वाक्यनय ४३०,४४८ रूपादिभावग्रामपरिणाम ३८० वाक्यार्थ २२६ रूपादि-विंशति-गुण ६५७ वाग्रूपता ४८९ रूपादिविषयग्रहणपरिणति ६२० वाचकल २६८ | रूपालोकमनस्कार २६३ वाचिकाशक्ति ३२ | रूपालोकमनस्कारसाकल्य १२१ वाच्यवाचकभाव २३७ रौद्रध्यान ७३४ वाद ६७१,७३३ वादकथा ६७ लय १५५ वादमार्गप्रवृत्ति ३७७ लिङ्ग २९,२८२,३३३,४८१,५६२, वादिनिग्रहस्थान ७६० ५६३,५६५,५६८, वादिप्रतिवादिप्राश्निक २९५ लिङ्गप्रभव-उपयोग ६५० वासना १९५,३८५ लिनिन् ५६५ । वासनाप्रतिबद्धल ३७६ मोक्षकारण ७३६ मोक्षमार्ग ६५१ मोक्षाध्वन् ७५० मोक्षावस्था १५१,१६० Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाच शब्दाः । ८१ पासनारूप ४३३ विभु १३३,१३६ | वैधय॑ ७१९ वासीचन्दनकल्प १६१ विभुत्व १३५ वैराग्यविचय ७३५ वास्तव ५२५,५२६ विभुखसाधन १४२ वैश्वरूप्याविभाग २८४ (११) विकलादेशमा ४४६ विभुखादिधर्म ६६९ व्यक्त २८१,२८२ विकल्प ४८९,४९४,५०३,५११,५२५ विरुद्धधर्माध्यास ३,७७,६२३ व्यक्ति ३८,३९,७६,१७७,१७८,२२३, विकल्पज्ञान ४९३ विरुद्धधर्माध्यासव्यापक १०२ २३३,२३५,२३९,२५९ विकल्पल ५२५ विरुद्धविधि २१ व्यक्तिखभाव २४० विकल्पप्रतिबिम्ब १९९ विरुद्धहेत्वाभास ५५८ व्यङ्ग्यव्यजकशक्तिप्रतिनियम ७०२ विकल्पप्रतिबिम्बकमात्र २६१ विवक्षा १८५ व्यजक ३५,३६,३७ विकल्पमात्र ५७३ विवर्त ३७९,३८०,३८३ व्यञ्जन ७३५ विकल्पखरूप ५०३ विशिष्टकर्मोदयादिसामग्री ६१२ व्यजनतः ६३० विगम ६४२ विशिष्टक्षयोपशमवीर्यविशेषप्रभवप्रभाव- व्यजननियत ४३० विजिगीषु ७६० योग ७५४ व्यन्जनपर्याय ४४०,४४५,४४८, विज्ञप्ति ८४,४६२ विशिष्टधर्माधर्माद्युपदेशविधायीश्वर- व्यजनविकल्प ४३० विज्ञप्तिपरमाणुपक्ष ४२७ सर्वज्ञ-उपासना १२८ व्यभिचार ५२४ विज्ञप्तिमात्र ३४९,३५४,३७२,४६१ विशिष्टपुद्गलपरिणतिरूप-अर्थ ५५३ व्यभिचारिन् ५२३ विज्ञप्तिमात्रक ३६६ विशेष ६२७,६५७,६९८,६९९,७२५ व्यवहार २८६,३१०,४९८ (५),५६५ विज्ञप्तिमात्रता ३६२,३६५ विशेषणविशेष्यभाव १९६,१९७,२६५ व्यवहारकाल २३२,२३६ विज्ञप्तिमात्रसिद्धि ३५२,३५४ विशेषपक्ष ६२७ व्यवहारनय २८४,२८५,३१०,३११, विज्ञान १५२,३६४,३६६,३६७,४०१, विशेषपर्याय ४५२ ३१५,३१६,४३०,४४८ ५११ (१) विशेषप्रस्तार ३१७ व्यवहारनयमतावलम्बिन २८० विज्ञानमात्र ३५२,३७८,४१३,७३०, विशेषविरहिणी सत्ता ४०८ व्यवहारमात्रक ३७६ विषयाकारपरिणति ५३४ व्यवहारविलोप ३६५ विज्ञानाद्वैत ५१४ विसंवाद ४१३ व्यापकानुपलम्भ २१ वितण्डा ७३३ विसदृशगम ६३० व्यापार १२२ विद्याखभाव २७६ विसदृशपरिणतिलक्षणविशेष २४१ व्याप्ति ७,५५९ विद्याखभावल २७८ विस्रसाजनित उत्पाद ६४१ व्याप्तिग्रहण ५६९ विधि १८८,१९१,१९८,१९९,२१७, विहितपर्यङ्कासन ७३४ व्याप्तिव्यवस्थापकप्रमाण ५६९ २३०,७३९,७४०,७४१ वीचार ७३५ व्यावहारिकप्रमाणलक्षण ४६५ विधिप्रतिषेधरूपविरुद्धधर्मसंसर्ग ४०२ वीत ५९४ व्यावृत्तबुद्धिहेतुख ६९८ विधिरूप १८८ वीतप्रयोग २८४ (२) व्युपरतक्रियानिर्वर्तिन् ७३५ (२) विधिरूप-शब्दार्थ २१७,२२७ वीतावीत ५९४ (३) व्रतसमूह ७४९ विधिवाक्य ३२,९९,७४४ वीर्य १४७,६१५ व्रताद्याचरणनैरर्थक्यापत्ति ७५६ विनाश ६४३,६४९ वृक्षायुर्वेद ६५३ (१) विपरीतख्याति २७,२८,६४,११३, वृत्तिलक्षण-परिणाम ४२३ शक्ति ९,३४,३५,५४,२८३,२८४, ३६०,३६१, ३७२,३७३ वृद्धव्यवहार ४३६ ३०१,३४८,५२७ विपरीतख्यातिता ३७४ वेग ६८४ (१) शक्तितः प्रवृत्ति २८४ (५) विपरीतख्यातिल ३६१ वेगाख्यसंस्कार ४३३ शक्तिमत् ३४८ विपर्यय ५२३ वेदनीयकर्मप्रभवअसातानुभव ६१५ शक्ति-व्यक्तिरूप ४३१ विपर्ययज्ञान ५२८ वेदनोपशमादि ७४७ शब्द ३२,३९,४४,३८६,३८७,४३७ विपर्यासकारण-रागादि १३० वैखरी ४९१ (३) (६)६६८ (५) विपाकविचय ७३४ वैदिकशब्द ३९ शब्दनय२८५,३१०,३१२,३१७,३७८, विभजन ४५२ वैदिकहिंसा ७३० ४३० विभज्यवाद ७२५ |वैदिकानुपूर्वी ४३५ शब्दनित्यत्व ३३ १०८ सं०प० श Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ शब्दपरिकर्मणा ६१५ शब्दपरिणामरूपा ३८० शब्दपर्याय ४४० शब्दप्रवृत्ति ७५ शब्दबुद्धि १७७ शब्दब्रह्मन् ३८१, ३८२, ३८४,५२२ (५) शब्दमयत्व ३८१ शब्दमय ब्रह्मन् ३८० (३) शब्दसंकेत १७६ शब्दात्मता ३८२ शब्दादिनय ३१७,३४९ शब्दाद्वैत ४२८ शब्दाद्वैतज्ञान १५५ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाश्च शब्दाः । शास्त्रविरचन ३८८ शुक्लतरलेश्या ७३५ शुक्लध्यान ७३४,७३५, ७३६ शुक्लध्यानामि ७४९ शुद्धतरपर्यायास्तिक ४०५ शुद्धतरपर्यायास्तिक मतावलम्बिन् ३७८ शुद्धद्रव्यास्तिक मत - प्रतिक्षेपिपर्यायास्तिकाभिप्राय २९६ शुद्धद्रव्यास्तिकाभिमतनाम-निक्षेप ३८६ संवररूप ७३५ शब्दार्थ १८२, २०१,२०६ (२), २३६ शब्दार्थ - तादात्म्य ३८६ शब्दार्थत्व १७४, (१४), १७८ शब्दार्थप्रतिभासिल ५२४ शब्दार्थवास्तव संबन्ध १७३ शब्दार्थव्यवस्था १९८, (२०),२१९ शब्दार्थसंबन्ध ३८६,४३६ शमसुखरसावस्था ७१८ शरीर परिणाम - आत्मन् शरीरप्रायोग्यपुगलग्रहण ६१३ शरीरव्यपदेशभागने क - परमाणुपादानाने कविज्ञानभाव १४९ शरीरसंबद्ध-ईश्वर- कार्यकर्तृत्व १२५ शरीरसंयुक्त- आत्मप्रदेश १४५ शरीरान्तर्गतसंवेदन ९१ शरीरारम्भकपरमाणु १४४ शाब्द ५७४ (३), ५८२ शाब्दप्रतिभास २७० शाब्दप्रत्यय १७३ शाब्दप्रमाणान्तर ४३७,५७५, (५) शाब्दिक ७४३ शाब्दीप्रतीति ३७९ शाब्दबुद्धि २१२ शासन १ शासनप्रामाण्यप्रतिपादन ६५ शासनभक्तिमात्र ७३२ शासनार्थाभिव्यक्ति १ शास्त्र १७०,१७१ शाखपरमहृदय- नयद्वय ४०७ शास्त्रप्रयोजन १७१ शुद्धपर्यायास्तिकभेद ३६६ शुद्धबोध - अप्रतिभासन २७४ शुद्धात्मन् १३३ शून्यता २६७,३७१, ३७७, ३७८, ४१२ ४८८ शून्यताप्रसक्ति ४२६ शून्यत्व ३७१, ३७६ शून्यप्रतिभास २७७ शून्यरूप ३६६ शेषवत् ५५९,५६०,५६५,५६६,५६७ ५९४ शैलेश्यवस्था १३३,१६०,७५२ श्रद्धान ७५७ श्रमण ७५५ श्रुत ५५३, (१३),५५४, ६१५ श्रुतज्ञान ५९५, ६१९, ७३५ श्रुतज्ञानावरण कर्मक्षयोपशम ६२० श्रुतरूप ६५० श्रुताद्यावरणक्षयोपशम ६०६ श्रुतार्थापत्ति ५७९ श्रुतावधिमनःपर्यायकेवलिन् ६०६ श्रुतोपयोग ६५० श्रोतृसन्तान २६६ प षटुकाय ६३९ षट्क्षणावस्थायित्वलक्षण ४३९ षड्जीवनिकाय ६३९ षट्पक्ष ७१९ पदपदार्थाभ्युपगम ६६० (१३) षट्प्रकारा - अर्थापत्ति ५७९, ५८५ षद प्रमाणवादाभ्युपगम २७ षड्भावविकार ६५३ (२) षड्विधजीव निकाय ७४७ षड्विंशत्यधिकचतुर्दशशतपरिमाणभङ्ग ४४७ षट्स्थानकप्रतिपत्ति ४३० (३) षष्ठभङ्गक ४४७, ७५८ स संयोग ११४,६७७(५),७०३, ७०४ संयोगविभाग उत्पत्ति ६५० संरक्षणानन्द ७३४ संवर ७३६ संवरनिर्जरा ७३७ संवरनिर्जरालक्षणपदार्थद्वय ७३७ संवाद ४, ५, १३, ३७०, ७२३ संवादक ६ संवादकत्व ४७१ संवादप्रत्यय १०, १४ संवित्ति २४१,३००,३०४,४१४ संविरयाख्यलिङ्ग २७ संविद् ३१२ संविदाकार ४१५ संविद्रूप २७ संविद्वपुरन्यापोह २३३ संविद्वैचित्र्य ८२ संवेदन २४१,३६४ संवेदनमेद ३६४ संवेदनाख्यलिङ्ग १४ संवृतत्व ४०१ संवृति २९५,३७६,४७० (२) संवृतिपक्ष २२४ संवृतिरूप १४,४१४ संवृतिसत् ४०१ संशय १७०, ४५२,६७१,७३३ संशयज्ञान ५२४ संशीति ६११ संसार २७८,४१७,४१९ संसारकाल २८२ संसारानुच्छेद १५० संसारापवर्ग ३८५ संसारावस्था १५१,१६१ संसारित्व १०७ संसारिन् २७८,२७९ संस्कारस्कन्ध ३२३ संस्थानवत्त्व ९४ संस्थान विचय ७३५ सकलजगत्कर्तृत्वसिद्धि ११८ सकलज्ञ ६० Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाच शब्दाः । सकलदेशमा ४४६ | सत्त्वक्षणिकखतादात्म्य ५५५ समवायबुद्धि १५७ सकलधर्मात्मकैकवस्तुप्रतिपादक ४४५ सत्त्व-रजसू-तमस् २८०,२८२, (६) समवायलक्षणवृत्ति ६९१ सकलनयसमूह ४१९ समवायितादूप्यसमवाय १६४ सकलभुवनैकसूत्रधार १३२ सत्त्व-रजस्-तमोलक्षणगुण ३०६ (८) समवायिन् १०६ सकललोकस्थितिसर्गप्रलयहेतुता ७१५ सत्त्वलक्षण-खभाव हेतु ३२९ समस्तसंस्कारप्रभवास्मृति ४३२ सकलशास्त्रार्थज्ञताविकलव्रत ७५६ सदसत्य ४४१,४४२ समानपरिणतिरूपता २६१ सकलशून्यताप्रसक्ति ४८३ सदसदनेकाकारानुगत ७०९ समानासमानाकारपरिणतात्मकवस्तु ३७९ सकलसन्तानशून्य ८९ सदसदात्मकवस्तु ५८१ समानासमानपरिणामात्मकघट २६० संकल्प ७३४ सदसदात्मकवस्तुप्रतिभास १६६ समानासमानपरिणामात्मकैकवस्तुप्रतिपासंकल्पवृत्ति-मनस् २८१ सदसद्रूपख ७०७ दकख ७४५ सकषाय ७३३ सदसद्विशेषात्मकख ४२९ समासषक ४४३ (१) संकीर्णासत्ता ३१६ सदृशपरिणामलक्षणसामान्य ३८,१४१ समिति ७३५ संकेत १९१,२६१,२६७,३७९,३८६, २४१,२४२,२४३ समुच्चय १८० सन्ततिविच्छित्ति ४१२ समुच्चयात्मक-प्रत्यय १६४ संकेतकाल २३२ सन्तान ८७,३६७,४७०,५१० समुदय ७३३ (५) संकेतवैकल्य २३२ सन्तानकल्पना ४०४ समुदयकृत उत्पाद ६४१ संकेताभिव्यक्तसंबन्ध ४३६ सन्तानल १५२,१५६ समुदायाभिधानपक्ष १८३ (१७) संकेतासम्भव १९० सन्ताननिवृत्ति ८८ समूहकृत-अर्थ ४२३ संख्या ६७३ (४) सन्तानभेद ८३ समूह-संतानादि ६८२ (४) संगत्यवगम ३२ सम्प्रयोग १३ सन्तानशब्दोक्तआत्मन् १६२ संग्रह ४१६,४२९,४३०,४४८ सम्बन्ध ५९,१५६,१९२ सन्तानादि ६८२ संग्रहतः ४१५ सम्बन्धवेदन २३६ सन्तानादिकल्पना ७२७ संग्रहनय २७२,३११,३१०,३१५, सम्मूर्छनज-जन्तु ७४८ सन्तानाध्यवसाय ४६८ सम्यक्त ४१६,४१९,४२०,७१०, सन्तानापेक्ष-कार्यकारणभाव ७०६ संग्रह-विशेष २७१ ७१७,७१९ सन्तानोच्छित्तिरूपनिःश्रेयस १५५ संग्रह-व्यवहार २७१ सम्यग्ज्ञान ६२२ सन्निकर्ष ४७५,५२९,५४० संघ २७१ सम्यग्ज्ञान-क्रियावत् ७५७ सप्तदशमेद-श्रमणधर्म ७५५ संघातरूप ३०७ सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मक-परमरत्नत्र. सप्तभङ्ग ४४६,४४७ संचितकर्मक्षय १५९ सप्तभङ्गी ४४७,४४८,७५७,७५८ संज्ञा ५५३,६४० सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मकहेतु १६० सप्तविकल्पवचनपथ ४४८ संज्ञा-संख्या-खलक्षण-अर्थक्रियाभेद सम्यग्ज्ञानवत् ६२१ सप्तविकल्पोत्थाननिमित्त ४४१ सम्यग्ज्ञानवैराग्य ६१,६२ संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञान ५७८ सप्तविध ४४७ सम्यग्ज्ञानादि ७३७ सत्ता ११०,१११,२८७,२९१,२९३ सप्रतिघाकारता ४६२ सम्यग्ज्ञानादित्रितयनयसमूह ७५७ ३८९,३९९,४०३ समग्रहेतु ५६२ सम्यग्दर्शन ६२१,६२२,७३२ सत्ता-क्षणिकल-अविनाभावसिद्धि ३९७ समनन्तरप्रत्ययख ८८ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रप्रतिपत्ति ६५१ सत्ताख्यपरसामान्य ६८८ समभिरूढ २८५,३१०,३१३,३१७, सम्यग्दर्शनशब्द ४२१,६२० सत्तामात्र १२९ ३४९,३७८,४३० सम्यग्वाद ४२९ सत्ताविकलविशेष ४०० समय १७५,१७६,१७७,१७९,१९० सर्गवैचित्र्य २८२ सत्ता-समवाय ११३ २५०,४२९ सर्वकर्मनिर्जरावतू७३७ सत्यता ३७० समयनिबन्धना-आकाशादिसंज्ञा ६४२ सर्वगत-आत्मन् २८० सत्यवाद ७२५ समयपर्यालोचन ७५५ सर्वजगत्कर्तृ ३१ सत्यखप्रज्ञान ५४३,५५२ समवाय १०६,१०७,११०,१५६,७०० सर्वजगज्ज्ञातृ ३१ सत्त्व ९२,३६२,३९८,३९५,४१२, (१),७०१, (६)७०२,७०३,७०४ सर्वज्ञ ४५,४६,५२,५३,५५,६२,६५ ७२९,७३३ य १ ४२८ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ सम्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाच शब्दाः । सर्वज्ञताप्रतिबन्धिघातिकर्म-चतुष्टयक्षय | साकार ६०८ सामान्यविशेषोपयोगकरूपल ६१७ साकारग्रहण ६१० सामान्याकार २४३ सर्वज्ञव ४५,६२,१२८,६०९ साकार-ज्ञान ४५८, ४६१ सामान्यालम्बिदर्शन ६०५ सर्वज्ञप्रणीतल ४३ साकारज्ञानवादिन् २६२ सामायिकमात्रपदविद् ०५६ सर्वज्ञप्रणीतशासन ६९ साकारज्ञानाभ्युपगम ४६५ साम्यावस्था २८० सर्वज्ञ-वीतराग ५० साकारबोध ४५८, ४५९ सारूप्यज्ञान ५२८ सर्वज्ञत्वसिद्धि ४५,६५ साकारविज्ञान ४६०,४६३ सावयव २८२ सर्वज्ञमात्रसिद्धि ६८ साङ्केतिक ३० साश्रवचित्तसन्तान-निरोधलक्षण १६२ सर्वज्ञवचन ६२८ सातजनक १६. सिद्ध १ सर्वज्ञसत्ता ४४ सातवेदनीय ६१५ सिद्ध-समूह ४२२,४२३ सर्वज्ञसत्त्वप्रतिपादक-हेतु ६५ सादृश्य २६३,२७३,४१३ सिद्धान्त ६७१,७३३ सर्वज्ञसिद्धि ४४,५३९ (३), ५५२ सादृश्यज्ञान ५७६ सिद्धान्तज्ञातृ ७३२,७४५ सर्वधर्मविरह ३७८ साद्यपर्यवसान ६०७ सुख १५३,५२३ सर्वनयवाद ४०६ साद्यपर्यवसित ६२२ सुखदुःखमोहावेदकल २८१ (१४), सर्वबन्धास्रवनिरोध ७३६ साधन २९९ (३) सुखदुःखसम्प्रयोग ४१७ सर्वभाव-प्रतिभासोपमख २६७ साधर्म्य २५४,७१९ सुखदुःखोपलम्भव्यवस्था २८० सर्वलोकसाक्षिक ८० साधारणानकान्तिक ७२० सुखादिवेदन ४६३ सर्वविद् ९९ सान्वया चित्तसंतति १६१,१६२ सुनय ७५७ सर्वविद्विज्ञान ६५ सामग्री १२,११३,४००,४७२,४७४, सुनय-दुर्नय-प्रमाणरूपता ४४१ सर्वसंस्कार ७३१ ४७५ (१), ५२३ सुविवेचितकार्य ११८,५६३ सर्वसमयसमूहात्मक २९ सामग्रीतः ४२७ सुषुप्ताद्यवस्था १६३ सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यान ७५० सामग्रीवश ३५१ सुषुप्तावस्था १५५,५०९,५२९,६१६ सर्वानुपलब्धिप्रसक्ति ६४८ सामग्रीविशेषणपक्ष ५३० (२) सूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिन् ७३५ सर्वार्थक्षणिकता ३१८ (४) सामर्थ्य २५६,२५८ सेनाप्रत्यय ६७४ सर्वोपसंहार ५६९ सामर्थ्यमेद ३६ सेश्वरनिरीश्वरमेद ३१० सर्वोपाख्याविरहलक्षण-दुःखाभाव १५३ | सामानाधिकरण्य १९६,१९७,२२० स्कन्ध ६०५ सर्वोपाधिनिरपेक्षवस्तुखरूप ३०२ सामान्य ११२,२०५,२२२,२३७,२४२, स्कन्धत्रय ३२३ सल्लक्षण-एक-ब्रह्मन् २७६ (१३) २५८,२५९,२८१,२८४,४१५, स्कन्धसन्तानादि ४९७ सविकल्प ४३१ ५५४,६२७,६५६,६८७ (५), स्तेयानन्द ७३४ सविकल्प-प्रमाण ३४१ ७२५,७३०,७३३ स्त्रीख ७५१,७५२ सहकारिकारण ८८ सामान्यग्रहण ४५७ स्त्रीनिर्वाणप्रतिपादक ७५३ सहभाविचित्तचैत २६२ सामान्यतोदृष्ट ७०,५५९,५६०,५६२, स्त्रीवेदपरिक्षय ७५२ सहभाविन् ६३५ ५६७,५६८,५९४ स्त्रीवेदपरिक्षयाभाव ७५२ सहानवस्थानलक्षणविरोध २४१ सामान्य-अनुमान ५६६ स्त्रीवेदोदय ७५२ सहोपलम्भ ३५३,३६३ सामान्य विशेषज्ञेयसंस्पर्शिन् ६०९ स्थविरकल्पिक ७५१ सहोपलम्भनियम ३६२,३६४ सामान्यविशेषरूपता ४५७ स्थाणु (जुओ ईश्वर)६९ सांवृत ८९,१७४,२१६,२१७,२२०, सामान्यविशेषशब्द-वाच्य-संग्रह-विशेष | स्थापना ३७९,३८७ २९५,३७७ स्थावरजङ्गमविकारोत्पत्ति ७१६ सांवृतत्व ९०,२१६ सामान्यविशेषात्मक ५९६,६०५ | स्थिति ४१० सांव्यवहारिक १५ सामान्यविशेषात्मक-वस्तु २६५,७२९ स्थितिस्थापक ६८४ सांव्यवहारिक-अध्यक्ष ५५४ सामान्यविशेषात्मकवस्तुग्राहिन् ५०७ | स्थित्युत्पत्तिनिरोध ६२५ सांव्यवहारिक-प्रमाण ४७० सामान्यविशेषात्मकवस्तुतत्त्व ४०८, स्नेह ६८३ (४) सांव्यवहार्यविनाश ३३३ (६) स्फोट ४३१,४३२,४३३,४३४,४३५, साकल्य ४७४ सामान्यविशेषकान्त ७२५ २७१ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागता दार्शनिकाः पारिभाषिकाच शब्दाः । ८५ स्फोटपरिकल्पना ४३३ | खकृतकर्मसापेक्षत्वअनपेक्षत्र ३१० । २११, (१७), २१२,२१६,२३४, स्फोटप्रतिभासबुद्धि ४३५ खचित्त ३६३ २६२,२६३,२६४,२६५,४१४ स्फोटसंस्कार ४३४ खतन्त्रचरणकरणप्रवृत्ति ७५६ स्खलक्षण-संकेत २५० स्फोटाख्यशब्द ४३२ खतन्त्रेच्छाविरचितसंकेतमात्रभावित खलक्षणादि १९० (१२) स्फोटात्मा शब्द ४३२,४३५ २२० खसन्तति ८९ स्फोटाभिव्यक्ति ४३३ खतः (उत्पत्ती, खकार्ये, ज्ञातेः) २,५ | खसमयपरसमयमुक्तव्यापार ७५५ स्मरण २८७ खतःप्रामाण्य ८ खसमयप्रज्ञापना ४५७ स्मरणसमवायिनी ११२ खतःप्रामाण्यनिरास २९ खसंवित्प्रतिभासमानविज्ञप्तिस्वरूप ३५० स्मर्तृरूप ११३ खतःप्रामाण्यव्याहति ७ खसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धव १३५ स्मृति ११३,२७४,२८८,२८९,२९०, खपक्षस्थापन ७६० खसंवेदनमात्रपरमार्थसत्त्व २३७ २९४,३२२,३४३,३७२,४३३, . खपरभावाभावोभयात्मकभावावभासका- खातब्य ११,३०९,४७३, ४९४,४९५,५२०,५२३,५५३ ( ध्यक्षादिप्रमाण ७१९ खाभाविकउत्पाद ६४१ स्मृति-प्रत्यभिज्ञावासना-सन्तानादिव्यवखप्न १४०,४६२ खाभाविकविगम ६४३ हार ४१४ खनजाग्रद्दशाभाविज्ञान ३७० स्वाभाविकसंबन्ध ४३६ स्मृतिप्रमोष १४,२८,२९,३७२ स्मृतिरूपता ३७२ खप्नावस्था ५०३ स्वारम्भकावयवसन्निवेश १०१ खोत्पत्तिहेतु-पदार्थध्वंस ३८९ (१०) स्मृतिरूपत्व ५८६ खप्नोपलब्धि ४८८ (२) स्मृतिसंवेदन ७५ स्वप्रकाशसुखसंवित्ति १५३ हर्षविषादाद्यनेकविवर्तात्मकआत्मन् १३५ खभाव ७११,७१४ स्मृतिसमवायिन् ११३ हर्षविषादाद्यनेकविवर्तात्मकचैतन्य २६० खभावकारण ७११ स्मृत्यादि ५६२ स्यात्कारपदलाञ्छित ४४१,४४६ खभावकार्यानुपलम्भाख्यपक्षधर्म ५५९ । हर्ष-शोक-भय-करुणौदासीन्याद्यनेकास्यात्कारलाञ्छन ६३९ खभावभेद २७४ कारविवर्तात्मकैकचेतनास्वरूप ४१७ स्यात्पदप्रयोग ७२५ खभावहेतु ३,१७४,१८८ हिंसाविधायक ७३१ स्यातूशब्दयोजन ७२६ खभावहेतुप्रभावित २ हिंसाविरति-दानचेतस् ७६० स्याद्वादप्ररूपकागम ७३५ खभावहेतुसमुत्थ ३५२ हिंसाविरमणादि ७५५ स्याद्वादप्ररूपणा ७४५ खभावानुपलम्भ २१ हेतु ५५९,५६८,५९० स्थाद्वादरूपाप्रज्ञापना ७२७ खरूपप्रतिभास-प्रत्यय ३६२ हेतुत्रय ७५९ स्याद्वादविद् ४५६ खरूपविशेषणपक्ष ५३० (१) हेतु-त्रैलक्षण्य ५९२ स्थाद्वादाभिगम ७३२ वर्ग ५०५ हेतुधर्मानुमान ५९३ स्याद्वादाभिज्ञ ४५६ वर्गप्रापणशक्ति ३८८ हेतुवाद ६५० स्याद्वादिन् ७५८ खलक्षण १०७,१६४,१७४,१७५,१७६. हेतुविचय ७३५ स्याद्वादोपग्रह ७१७ १७७,१७८,१८३,१९४,१९५, हेखाभास ५५८,६७१,७३३ खकारणगुण ५ १९७,२०४ (४), २०७,२१०, हेखाभासल ७२४ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सन्मतिटीकागताः केचिद् विशिष्टाः शब्दाः । अडल्यग्र ५३-२० कोद्रवबीज २८२-२९,२८३-१,३३४-२४ अजनादि-ख्याकर्षण १४४-२७ कोवाङ्कुर २३९-८ अयःशलाका २५२-२० खण्डमुण्डादि ५१४-१५ अरघट्टघटीयन्त्र ७३५-२ खलबिलाद्यन्तर्गतबीजादि ७१३-१८ (१०) अरणितः ५०-१५ चक्षुःश्रवस् भुजङ्ग ५७-४ अष्टापदनग ६१४-१ गजनान ११-३४ आढकमाहिन् २८४-६ गडूची २३८-७,४९७-१० (५)६८९,१२ आदर्श ३७-२३ गीतादिविषया १६-२ आमलकीफल ११२-११ गीर्वाणनाथ ६३६-२५ आम्रबकुलादि ४९७-२ गृध्रराज ५६-१०,५३६-२७ आम्ररस ४८९-१९ गोत्रामन्त्रण ६०५-११ आर्य २३६-१० गोपालघटिका ५०-१५,५८-३५,१२०-१३ आलदान ६०५-२५ चक्रवर्तिन् २५९-२७ ऊर्णनाभ ७१५-२३,७१७-१ चतुर्थरसादि ७४९-३० एक-चित्रपटज्ञान ७०७-३७ चन्द्रग्रहण ५०७-२९,५०८-२ एकाभिप्रायनियमितस्थपत्यादि-ऐकमत्य १३१-१४ चन्द्रापीड ६९४-२ कंसपात्री १०७-२१ चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघ ७५४-२७ कमण्डलुटट्टिकादिलिङ्गधारिन् ७५०-२५ चित्रगतरूपबुद्धि १६-३ करियूथादि ५३-२० चित्रज्ञान २४१-१४ कर्क ४४-३२ (३), जाति ११२-१७ कलिमार्यादि २३६-१०(९) जीर्णकूपप्रासादादि ३१-२३ कल्पनारचित २१६-१५ जीर्णप्रासादादि १२५-४ कल्पनाशिल्पिविरचितख ४२८-११ ज्वरादिशमन ४२७-११ काकतालीयन्याय ५७-३९ तन्दुलमत्स्य ७५३-२१ काकदन्तपरीक्षा १६९-११,१७०-२४,१७१-५ त्रैवर्णिक ४२-३९,४३,९ काकभक्षित १३५-२८ दीर्घशष्कुली २४७-१८ काचकूपिकान्तर्गत ५४१-५ दैवरक्त-किंशुक १२-३५ कामलादि-दोष ३-२१,१७-२१,५४५-१५ द्रविड २३६-१० किंशुक १२-३५ धूपघटिका ११६-१८ कुवलामलकबिल्वादि ६७५-८ (३) नवलोदक ४७५-९ (४) कृत्तिकोदय ५१०-६ नराधिप ६२४-५ कृत्योत्थापन १३-१६ नालिकेरद्वीपवासिन् ७२-१२,४३९-१२,५६१-९ केशोण्डुक १२-२१,१११-७,११२-२,३६१-२८ निम्बादि ६१-३४,६४-१४ केशोन्दुक४८५-३५,५१०-१५,५४८-९,५४९-२८,५७३. नीलकाच ३७-२३ २२,५८९-१ परयोषित् ५२४-१ ___ *परिशिष्टेऽस्मिन् स्थूला अडाः पृष्ठाई सूचयन्ति, सूक्ष्मा | पादप्रसारिका ५६८-२३, (१२) अङ्काः परयकं सूचयन्ति, कोष्ठकान्तर्गता अङ्काश्च टिप्पण्यकं पादरोग ४७५-९ (४) सूचयन्ति। पाशारजु ७४८-१९ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटीकागताः केचिद् विशिष्टाः शब्दाः। पिच्छिकादि ७४९-७ विशिष्टौषधोपयोगावाप्तअक्षिनर्मल्य ९-१३ पिण्डखर्जूर ७१२-१९ विषचूर्णादि ७४९-३० प्रजापति ७१७-१४ (६) वीणा १६-९ प्राकृतशैली २७२-५ वीरणादि ४३७-३ प्रासुकोदक ७४९-३० वेदव्याख्यान ३९-२७ बकुलोत्पल २१८-२१ वैद्योपदेश १५०-३१ ब्रह्मन् ६९७-२५ वाय ६९७-२१ भरण्युदय ५१०-९ शकटोदय ५१०-१० भरतेश्वरप्रभृति ७४८-३७ शकेन्द्रादि ६३६-२५ भित्तिचित्र ३-३३ शङ्ख २५९-२७ मण्यादि ५०-१५ शङ्खचक्रवर्तिन् ६९४-३(४) मतङ्ग ६९७-२५ शालिबीज ३५-८,२३९-८,२८२-२८,२८३-१,३०१,३२, मन्त्राविष्टकुमारिका ६४-१ ३३४-२२ मरुजलादि ५२३-१५ शिंशपा ३-४ मरुदेवीखा मिनी ७५४-११ शिल्पकलादि ५१-९ मलयगिरिशिखर ३२०-१५ श्रीहर्ष २५९-२७ महाप्रासादादिकरण १००-२१,१३१-१४ पण्णगरी २२२-२३ महाश्वेता २१६-१५ समुद्रोदकपलपरिमाण २२-३२ महासम्मत ६९४-३ (३) सम्पात्यादि ५३६-२७ मातृविवाहोचितपारशीकदेश ७१२-१९ सरित्तटपर्यस्तगुडशकट १७२-१३ मूषिकालर्कविषविकार १४७-२७ सहा २३-४ मेरुमस्तक ७५५-१ सार्वभौमनरपति १३२-३३ यवाङ्कुर ३५-८ सिद्धान्तानभिज्ञ ६३३-२ रथ्यापुरुष ४५-३४,४६-१०,४८,४ मुवर्णकार १४९-३४ राजकीय ३१९-५ मत्रधारकबुद्धिनिर्मितख १३२-२६ राजन् २५९-२७ सेतुबन्ध ३७७-१९ रोहिण्युदय ५१०-६ सोमिल ६२५-१० लतात्मक-आम्र२६६-२२ स्थपति १००-२१,१३१-१४,५३९-२(१) वज्रऋषभनाराचसंहनन ६२२-२४ हिमवत् ६९४-८,६९५-२० वलातैल ३६-२८ हिमवद्विन्ध्य ११४-२५,२४२-९,६२९-२०,६४२-१६ वाहीक ३७-१०,६६४-१२,६७४-७, विट ५२-१० हिमाचलादि १७६-७,२५०-१९ विन्ध्य २३-४,६९४-१३,६९५,१९ हिरण्यगर्भ ४०-३३,४२-५,४६-२३ विशिष्टमन्त्रसंस्कृतचक्षुस् १५-१ होढदान ६०५-१७(१),६०६-८ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकायामनिर्दिष्टस्थलानामवतरणानां सम्पादकैः संशोधितानि स्थलानि । अमृतबिन्दु-उपनिषद् ३७ प्रशस्तपादभाष्यकन्दली ७००,७०८ आचाराङ्गसूत्र ६३ बृहदारण्यक उपनिषद् ३२,२७३,२७९,७३१ आवश्यकसूत्र ७५० भगवतीसूत्र ६२५,६३१,६३५ आवश्यकसूत्र नियुक्ति ४७८,५४५,७४६,७५४,७५६,७५७ भगवद्गीता ९८,१५०,३१० ऋग्वेद ३२,२७३ भामहालंकार १८६ ओघनियुक्ति ७५५ महाभारत-आदिपर्वन् १५३,७११ कप्पसुत्त ७५२ *याज्ञवल्क्यस्मृति ४५९,४७५ गौडपादकारिका २७३ वाक्यपदीय ७०,१७७,२२२,३१५,३१६,३७९,३८०,४३५, चतुर्थद्वात्रिंशिका २९ ४८९,५३८ जीवविचार ६५४ वात्स्यायनन्यायभाष्य १२०,१२६,१६१,१७८,५२१,५२२, जीवाजीवाभिगमसूत्र ६३९ ५४१,५६२,५६३,७२१ जैमिनीयमीमांसासूत्र ४८,७९,८०,९२,७३१,७४४. *विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि १०५,३७६ *तत्त्वसंग्रहकारिका ६,११,१८,१९ विशेषावश्यकभाष्य ६०८ तत्त्वसंग्रहकारिका १८१,१८५,१८६,२०२,२०३,२०६,२०७ यशाप | वैशेषिकदर्शनसूत्र १००,१०३,१०५,११३,१४०,४५२,६३३, २०८,२०९,२१०,२११,२१२,२१४,२१५,२१६,२२४, ६४७,६५६,६५८,६६९,६७२,६८६,७०४,७३१ २२५,२२६,२२७,२२९,२३२,२८०,२८३,३०१,३०२ व्याकरणमहाभाष्य १७. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ५९,८०,९३,४१२,५५२,५५३,५९५, शाबरभाष्य ७१,५०५,५७४,५८० ६३६,६५१,६५६,७३२,७३५,७३७,७४७ श्लोकवार्तिक ४,५,६,७,८,१०,१६,१८,१९,२२,२३,२४, *ध्वन्यालोक १३३ ३१,३५,३६,३८,३९,४०,४१,४५,४६,४७,४९,५१,५३, न्यायदर्शनसूत्र ९७,११९,१७७,१७८,४७७,५१८,५२२, ५४,५५,५६,६०,८८,९४,१००,१३७,१६९,१८६,१८७ ५३१,५६०,५७८,६६९,६८३,७०४,७२० १९०,१९१,१९३,१९४,१९५,१९६,२०१,२२३,२४०, २७६,२७८,३१९,३२१,३४९,३५१,३६९,३७७,४०७, न्यायबिन्दु ३,३५२,५०८,५९२ न्यायवार्तिक ८०,९९,१००,१०१,१०६,११४,१३२,१७८, ४३५,४३९,४९६,५०५,५३५,५३७,५६४,५७४,५७५, ५७६,५७७,५७८,५७९,५८०,५८१,५८८,६९६,७३८, २००,२०१,२०४,६६८ पञ्चवस्तु ७४९,७५१ ७४०,७४१,७४२,७४३ पाणिनीयसूत्र १९०,२२५,४०६,४२१ श्वेताश्वतर-उपनिषद् ४६,९८,३१० सन्मतितर्क २९,२८५,६२८ पातञ्जलसूत्र ६९,१३३ सांख्यकारिका २८१,२८२,२८४,२९६,३०७,३०९,४१७, प्रज्ञापनासूत्र ६०८ ५७२,७३३ प्रशमरतिप्रकरण ६४,७४९ प्रशस्तपादभाष्य ६६१,६८५ स्थानाजसूत्र ९३,४५३ स्वयम्भूस्तोत्र ७५० [परिशिष्टेऽस्मिन् *एतचित्राङ्कितानि स्थलानि परिशिष्टसमये | *हेतुबिन्दु (हस्तलिखित) ३२९ लब्धानि ॥] | हेतुमुख (अनुपलब्ध) २१७,२२८ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ सम्मत्वादर्शगतानि सम्पादकीयानि च टिप्पणानि । आ आ० टिप्पण २-३, ४, ५,३-१२ ग गु० टि० २-२३-८, ४-४९ - २१; १०-४, ५:१२-४, ५० १५- ६:१७- १, २, १९-५:२०-४, ८:२१-६:२२-६६ २४-११२८-४३१-७५३३-१, ७३७- २:४२-६६४८ ६. ब बृ० टि० ३९४-८, ९, १५:३९५-८, १०, १५, १८, २०, २३३ ३९६ - १, ३, ६, ७, ८, १६:३९७-४, ५, ७, ११,३९८-१ ४००-५, ७, ११:४०१-२४०२७, १०, १५:४०३-४, ८,१०४०४ ६, ७, १६:४०५-५, ९४०६-०:४१०-८, ११:४१२-६:४१४-२४१५-२४२९८४२०-१२ ४२१- ४, ६, ७,४२२ - १, ३, ४२३-१, ५, १०, १६, १७; ४२५-१,२,६,८,९, १५, १६, १७, १८:४२६-२, ४, १४, १५:४२७-६,४३० ७, ८, ४३१-१, ४३२ ५, ८, १०, ११,१३:४३३ - २, ४, ८, ९,४३४ - ६, ८, ११, १२,४३५६:४३६-४, ७, ११, १२, १४,४३७- ५४३८-१, १३ ४३९-१,२,१२,१५, १६, १७४४०-७, ८, ९, ११, ४४१६,४४५-२४४७- १, २, ४,४४८ - १,४६६-२, ६, ४६७५,६:४६८-१, ४, ६, ८, ४७१-६, ८६४७२-२, ४, ६, ११३ ४७४-२५:४७६-३:४७७-२, १०, ११, १३:४७९-१ ४८०-८४८१-१९४८२- १, २, ३, ४८३ - १, २, ३, ४, १२; ४८४-१, ३, ५, ८, १०, ११:४८५-१, २, ७, ८, ९, १०, ४८६ - २,४,५,८,९,१३,१४,१५,४८७-१,२,३,४, ४८८-२, ५:४९०-३, ५,४९३ - २, ८, १०, १२, १३, ४९४-५,४९६- १, २,२, ७, ८:४१७- २,७,९,१२,४९८१,३,४,५,५००-७,९, ५०१ - १, २, ४, ५, ८,५०२-५, ६, ७,९,१२,५०३-२, ३, ७,५०४ - १, २, १३-५०५- ३, ४, ५,१०,५०६-४,५,६,७,८,५०७-१,२,२,५,७,१०,११ ५०८-२,७,९,१०,११,१२,१३,१४,१५,१९,५०९२,३,४,७,८,१०,११:५१० - ४५११-२, ३,४,५,६० ५१२-४,५,६,८,१०, १३, १४, १७, १८, २०,५१३-१,६, ८,९,११,१२,१५,५१४-१,३,९,१०,११, १७:५१५-२, ७,११,५१६-७; ५१७-३, ७, ११, १४, १५:५१८-२, ३ ५१९-६,९,१०, ११, १२, १३,५२०-२,५०५२१-२२ ५२२ - १, ३, ४, ८, १,५२३- ,४,५,९,१०,११ १०९ सं० प० ५२४-३, ६, ७, १०,५२५-२५२६-१, ७, ९,५२७-२, ९,१२,१३,१४,५२८- १,२,३,४,७,१०,५२९-३,८,९, १०,१२,१४,५३१-६,५३४-३,५३७-७, १२,५३८१,५,७,९,१०,५३९-१, ७, ८, १२, १३,५४०-१, २० ५४१-४, ५, ७, ८, ५४२-२, ४, ५, ६, १०, ११,१२,१३, १४:५४३- १, २, ५, ६, ७, ९, १०, १४, १५, १६,५४४-१, ५,९,१०,१२,५४५-६,७,८,९,१०, ११, १३:५४६-२, १२,१३,५४७-१, ३, ४, ७, ९, १२, १५, १६, १७,५४८-१, २, ४, ५, ८, ९, ५४९-४, ५, ७, ९, १०, ११, १२, १४,५५०३,४,७,९,५५३ - १,७, १२,५५४ - ८,५५५-१, ४, १०, १३:५५८- ६, ७, ९,११,१२,५५९-२, २,५६०-५ ५६१-३, ९,५६२-६, ७,५६३ - ३, ४, १०, १२, १४, १५; ५६४ - १, २, ५०५६५- १,२,३,८,१०,११,१२, १४, १७, १८, २०, ५६६-५, ६, ७,५६७- १, २, ५,८,१२,१६६ ५६९-१, ६५७०- १,५७१-२५७३-३, ७,५७४-८, १३:५७७-६, ५७८-१, १२, १४,५८०२, ५,५८१-३, ५,९,११,१३,५८२ - ४, ६,५८३ - ३, ९,५८४- १०, ११; ५०५-२, ३, ४, ७,५८७-२, ९,५८८-६, १५, १०,५९०४,५,६,७,५९१-१,२,११,१२,१३,५९२२-६, १०३ ५९३ - २, ४, ७, ८, १०, ११, १३, ५९४ - २,५९५-४; ५९६-२,६०५-५, ६, ७,६०६- १, २, ६०९-५,६१०-८, १४:६११- २,६१२-४, ९,६१४- १४, १५६१५-३, ४, ६, ७,६३९- १, ४, ५,६४०-२६४३-१,२,३,५,७, ७२७-१. भ मां०] टिप्पण २-२७,९:३-२, १०,७-५८-२, ७, ८,३३-७ ४२-६:४८-६, १०,६४-५६७२-६३९८-३३९४-०१ ३९५-८,१३,१८:३९७- ४, १४:४०१ -२, ४२२-३; ४२३-१९. म मो० टिप्पण १८-१०:४८-५६४-५७०-५:७२-६३ ९८- ३, ४, १०२-४, ५:३९४-१५,३९५-८,९,१०, १८, २०, २३, ३९६ - १,६,१६,३९७ ४, ५, ७, १४, १५० ४००-११;४०१-२४०२ - १०, ११, १५:४०३-४,८, १०:४०४-५,६,८,११,४०५ - ५, ९,४०६ - ५,४१०-८, ११:४१२-६४१४-८, १२:४१५- ३, ४, ५,४१७-८ ४१९-८, १२, ४२० २,६,७,१२,१३,१५,४२१-४,६, ७:४२२-१,३:४२३- १,२,३,५,७,९,१०,११,१२,१३, Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सन्मत्यादर्शगतानि सम्पादकीयानि च टिप्पणानि । १४,१६,१७,१९,४२४-५,८,१४,४२५-६,८,९,१५, ५,७,८५४२-२,४,५,६,१०,११,१२,१३,१४,५४३१६,१७,१८,४२६-२,४,४२७-१६४२८-९:४२९-२; १,२,५,६,७,९,१०,११,१२,१५,१६५४४-१,५,१०, ४३०-७,८,४३१-१,२,३,४३२-५,८,१०,११,१३, १२:५५५-६,७,८,९,१०,११,१४,५४६-२,१२,१३, ४३३-२,४,८,९,४३४-८,११,१२. ५४७-१,३,४,७,९,१२,१७:५४८-२,४,५,८,९,१०, ५४९-४,५,७,९,१०,११,१२,१४,५५०-३,४,९% ५५३-१,७,१२,५५८-६,७,९,१३:५६०-५:५६१-३, ल• टि० ४०६-५,४१०-८,११,४१२-६,४१४-२,४१५ ९,५६२-६,७५६६-५,६:५६७-१,२,५६९-२,६; ३,४१९-८,४२०-१२,१३,४२१-४,६,७,४२२-१, ५७०-१,५७३-३,५७८-१,१२,५८०-५,५८१-३,५, ३,४२३-१,५,१०,१६,४२४-१३,४२५-६,८,९,१५, ९,११,५८३-९,५८८-१५,१७:५९१-२,३,१३, १६,१७,१८:४२६-२,४,१४,१५,४२७-६,४३०-७; ५९४-२,५९७-१,६०५-४,५,६१४-१४,१५६१५४३१-१,४३२-५,८,१०,११:४३४-३,६,८,११,१२; ४३५-६,४३७-५,४३८-१,३,४३९-१,३,१३,१५, १६,१७४४०-७,८,९,४४१-६४४५-२,४४७-१,२, ४,४४८-१,४६६-२,६४६७-५,६,९४६८-१,४,६, | वि. टिप्पण ९५-५,९७-३,१०६-२,६:१०७-४,१७८४७१-६,८४७२-२,४,६,११,१२,४७४-२,५:४७६३,९४७७-२,१०,११,१३,४७९-१,४८१-१,३, ४८२-१,२,३,४८३-१,२,३,४,१२,४८४-१,३,५,८, संपादक टिपण ७-१०९-१२,१२-६:१६-९,१९-३,४, १०,११,४८५-१,२,७,८,९,१०,४८६-३,४,५,८,९, २०-३,२२-४,२४-४,५:२८-३,२९-५,३०-५,११, १३,१४,१५,४८७-१,२,३,४,४८८-२,५,४८९-५; १४,३१-२,३,४,५,८७३२-३,५,९,३३-४,३९-९; ५००-७,९,५०१-१,२,४,५,५०२-५,६,७,९,१२, ४१-१,४४-३,४६-१,५२-७;७०-५,८७-१,११०५०३-२,३,४,५०४-१,२,५०५-३,४,५,१०,५०६-४, ७११४-२,१९८-४११९-९,१२०-११४२-२, ५,६,७,८,५०७-१,३,७,१०,११,५०८-७,९,१०,११, १४३-७,९१६९-३,१७७-११,१७९-२,२०७-३,४, १२,१३,१५,१९, ५०९-२,३,४,७,८,१०,११,५१०- २२१-७२४८-१,२५०-३,२७६-१४,२८०-६; ४:५११-२,६:५१२-४,५,६,१०,१३,१४,१७,१८,२०; ३३८-१५,१९,३४२-२१,३४३-७,३४५-५,३४९-१७ ५१३-१,६,८,९,११,१३,१५:५१४-१,३,९,१०,११, ३५७-३८,३७०-२१,३९६-४,४००-९:४१६-१,२७ १७५१५-२,७,११:५१६-७,५१७-३,७,११,१४,१५, ४२१-३,४२३-६:४३२-४,९,४३३-३,४९८-६ ५१८-२,३:५१९-६,९,१०,११,१२,१३:५२१-२० ५०२-१,५१९-१४:५२९-१३,५४५-५:५५९-२, ५२२-१,३,४,८,९,५२३-१,२,३,४,५,१०,११; ५६१-१७,५७२-३:५७३-४५८८-७,५९१-४,७,८ ५२४-३,५२५-३:५२६-१,७,९५२७-२,९,१२,१३, ५९२-३,६:५९३-१४,१५,६०६-१,३,६०८-७, १४:५२८-१,२,३,४,७,१०,५२९-३,८,९,१०,१२, ६११-५,६३४-५,७०५-२,७०७-४७१९-939 १४:५३१-६:५३४-३:५३७-७१२:५३८-१,५,७,९, ७२९-२,७३२-३७३३-७,९७३६-३७५४-१3 १०:५३९-१,७,८,१२,१३:५४०-१,२,४,५४१-४, . ७५६-६७६१-१४. Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटिप्पणीनिर्दिष्टा ग्रन्थकृतो ग्रन्थाश्च । आ अकलङ्क ५९५-१,६३१-३२-४,६३४-४. आचाराङ्गसूत्र २७१-५:२७३-१,६५२-१. अकलङ्कीय ६३१-३३-४. आचाराङ्गटीका ७५७-२. अक्षपाद ७३३-२. आदिपर्वन् ७११-२. अध्ययन ३३२-२१. आप्तपरीक्षा ५६९-७०-७. अनन्तवीर्य ५६९-७. आप्तमीमांसा ३३३-११,३४७-१,४१७-१,४२८-५,६; अनीश्वरवादिन् ५९७-२. ४४२-२,४६५-११,४७०-१:५९५-१,६४४-३; अनुत्तरौपपातिकदशाङ्ग २७१-५. ७०५-४;७०६-४,७१५-१. अनुयोगद्वारवृत्ति ७५७-२. आर्यसमितीय ४५८-६. अनुयोगद्वारसूत्र ४०६-१४४१-४२-१०,५५९-६०-१०. आवश्यकनियुक्ति ४७८-२,५४०-३,६०८-७;७५४-३, अनेकान्तजयपताका १७७-४,२४२-३३:२४८-१९:२६०- ७५६-४;७५७-१,३. ९,१०,३८०-१०,१३,४३१-६:५०३-७:५६४-९. । आवश्यकसूत्र ७३४-१,७५०-२ अनेकान्तजयपताकाटीका (लिखिता) २४३-२०,२१,२४६- आवश्यकहारिभद्रीटीका २७२-८,४७८-२ २६:२४८-१९,२६०-९,१०,५०३-७:५१०-१. आश्वमेधिकपर्वन् ४९१-३. अन्तकृद्दशाङ्ग २७१-५. अन्नंभट्टमिताक्षरा २७१-४. ईश्वरकृष्ण ५३३-१,५५९-१०. अपोहसिद्धि २४३-२ ईश्वरवादिन् ५९७-२. अपोहसिद्धिप्रकरण २६०-११,१२. अभयदेवसूरि ५९७-६०४-२,६२७-१. उत्तराध्ययनसूत्र ६३१-४;६७१-७; अभिधानचिन्तामणि ५३६-९,५३३-३४-२. उत्तराध्ययनपाइअटीका ७४७-१७५१-६. अभिधानप्रदीपिका ३५३-११. उद्द्योत ६५२-१. अमरकोश २२६-९,५३६-९. उद्द्योतकर ३३२-२१,६५९-८६६४-१,६६८-४, अमृतचन्द्र ६३१-३२-४. ७१६-८७१७-२. अमृतचन्द्रीयव्याख्या ६३१-३२-४. उपवर्ष ४३१-७. अर्हतप्रवचनहृदय ६३४-४. उपाध्याययशोविजय २६०-९,२६१-१. अविद्धकर्ण १००-४,३३२-२१,५८४-५,६८२-४. उपासकदशाङ्ग २७१-५. अष्टकप्रकरण ७४९-२. उमास्वाति ६३१-४. अष्टशती २६६-१०,३३३-११,३४७-१,४६५-११ उलूकमहर्षि ६५६-३. ४२७-१,४८७-५:५९५-१,५९७-६०४-२,६४४-३. अष्टसहस्री २११-६:२४३-२०,२५७-२७,२६६-१०, | ओघनियुक्ति ७५५-२,३. ३३२-२२,३३३-११,३४७-१,३५३-१,३७६-१५; ३८३-९,१०,११,१२,३८८-९४०१-२,४१४-६ औपनिषद् ५९७-२. ४१७-१,४२७-१,४२८-५,६,४६०-७,४६५-११ औपपातिकसूत्र ६०८-७. ४७०-२,४७८-६४८०-३,४,४८५-१२,४८७-५, ५१५-१,५२५-१,२,५५२-४:५९५-१,५२७- कठोपनिषद् २७३-७. ६०४-२,६४४-३,६४५-३, कणाद ६५६-३,७३३-१. ७३८-१. कन्दली ४६९-६,५३८-१३:५५९-१० अष्टसहस्रीटीका (यशोविजयीया लिखिता) २११-६. (जुओ प्र. पा. भा. कन्दली) Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटिप्पणीनिर्दिष्टा ग्रन्थकृतो प्रन्थाश्च । कप्पसुत्त ७५२-२. कमलशील २०४-१९,५३३-२,५६९-७६६१-२. कातन्त्रव्याकरण २७१-४, कापिल ६४४-३. काशिका १७२-२,२२६-९,४०६-३. कीर्ति ४८७-५,५५८-१४,५६९-३; (जुओ धर्मकीर्ति) कुन्दकुन्द ६३१-४. कुमारसम्भव ४९१-३. कुमारिल १८५-१४,१९९-१९:२०४-१९:५३३-२, ५५९-१०:५८०-१. कुमारिलभट्ट ६-५,५७४-२, केवलज्ञानकेवलदर्शनोपयोगचर्चा ५९७ थी६०४-२. कैयट ६५२-१. कौमारिल ५७८-१४. जैनागम ५५९-१०. जैनाचार्य ५५९-१०. जैनेन्द्रव्याकरण ४६१-२,६५२-१. जैमिनि ५३४-९. जैमिनीय ५४०-३:५९७-२. ज्ञातधर्मकथासूत्र ९३-३:२७१-५. ज्ञानबिन्दु ५५३-१३-५९७ थी ६०४-२,६०९-१,६ ६१०-९,११,६१७-२,६१८-६,६१९-१. ज्ञानसार ७४९-२. ज्ञानेन्द्रसरस्वती ६५२-१. टीकाकृत् ३१५-२. गणरत्नमहोदधि १७२-२. गुणरत्नसूरि ५०५-६७१०-५. गोगाचार्य ५६५-३. गोशालकचरित ७१४-४. गौडपादकारिका २७३-१,५,८२७९-३,५:३८३-९. गौतम ६५९-८. प्रन्थकार (सि. दि.)४२२-१. चन्द्रकान्तमत ६९३-२. चन्द्रगोमिन् ६५२-१. चरकसंहिता ५५९-१०. चरकाचार्य ५५९-१०. चान्द्रव्याकरण १७९-२,२७१-४,६५२-१. चार्वाक ५९७-२. चार्वाकमत ५५४-१. चित्सुखी ५५८-१४. तत्त्वबोधिनी ६५२-१. तत्त्वसंग्रहकारिका १००-४,१७३-९,१७४-१,८,१४; १७५-३,४,१७६-५,६,८,९,९७७-२,५७१७८-८,९, १०,१७९-५,८,१८०-२,६,८,११,१८१-२,१८२-४, १८३-३,८,१०,१७,१८,१९:१८४-१,१०,१२, १८५-४,७,८,१५,१६,१८६-१,२,३,४,५,६,९,१०, ११,१२,१८७-३,६,९,१२,१४,१५,१८,१९,२१,२२, १८८-४,७,९,१२,१५,१८,१८९-१,३,५,१२,१६,१०० १९०-२,३,८,१०,१३,१५,१८,१९१-१,३,४,१०,११, १३,१६:१९२-१,३,५,७,१०,१२,१४,१९३-१,४,५, ७,१०,१९४-१,२,५,८,१९५-१०,१६,१८,२३, १९६-१,८,१७१९७-२,७,८,१४,१९८-२,४,५,७, १५:१९९-१,८,१३,१६,२००-१,१२:२०१-१,५,६, ११,१२:२०२-१,५,९,१८,२०३-१,७,१६,२७,२०४४,८,९,१४,२०,२०५-१,४,५,१०,१७,२०६-३,१६, २४,३०,३२,२०७-७,८,१३,१८,२६,२०८-८,९,१५, २४,२६:२१०-१०,१२,१३,१६,१८,२०,२११-३,१०, १४,१७,२१२-८,१६,१८,२२,२५,२१३-११,२०, २१४-७,१३,१७,२३,२४,२१५-७,१५:२१६-२,६, १४,१७,२१७-३,९,१२,१५:२१८-४,१०,१३,१६, २१९-१,१४,१५,२२०-२,४,६,१२,१३,१८:२२११,८,१२,१५,१९:२२२-३,५,१४,१७,२२३-१,५,८, १३.१८१२२४-१,१०,११,१६,२०,२२५-३,५,११, १७,२२,२२६-१२,१४,२२७-१,१२,१६,२३,२२८३,७,११,१८:२२९-३,११,१५,२०,२३०-१,८,१६, २०,२३१-६,९,१२,१३,१६,१८,२०,२३२-२,१०, २३६-९:२३९-१४,१५,१७,१९,२०,२४३-२,२८२१२,१६,२८३-२,८,९,१६:२९६-२,४,२९७-१३, २९८-१,६,१७,१९:२९९-१,३,६,८,३००-५,३०१११,३०२-२,६।३०३-४,९,११,१४,१७,३०४-६,८, १०,३०५-१४,३०६-२,५,७,९,३२३-१२:३२६-१ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ६३५-१. जयन्तभट्ट ५२१-४,५७४-१५७८-१४,६५९-८) ७०६-५. जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ५९७ थी ६०४-२६५३-३. जीवाजीवाभिगमसूत्र ६३५-१,६३९-१. जैन ५४०-३५४३-१३:५९७-२,६४४-३. जैनतर्कपरिभाषा ४८०-३. जैनतार्किक ५५९-१०. जैनबौद्धस्मृत्यादिशास्त्रान्तर ३०-१. जैनशास्त्र ३०-१२. Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटिप्पणीनिर्दिष्टा ग्रन्थकृतो ग्रन्थाश्च । ९३ ३३२-२१,३३३-६,३३७-२९,३१,३२,३५८-२३; । २३०-४,८,१२,१७,२२,२३१-१;२३२-४,१५,१९; ३७९-११,३८१-२,३,४,९,११,३८२-६,९,१०,१२, २३६-९,२८०-१३,१४,१५,२८१-७,८,१०,११,१२, १३,१५,३८३-५,६,३८४-१,२,६,११,१४,३८५- १३,१६,१७,१८:२८२-१,३,४,५,६,१३,२८३-५, १७:४३५-१,२,४३७-७,४८८-९,४२७-५,५३३- २८४-४,६,११,२९६-७,८,९,११,२९७-२,३,६,११, २,५३७-१,२,५५९-१०,५६९-७५७४-६,७; १२,२९८-२,४,५,२३,२९९-४,९,३००-१,७,८,१०, ५७५-१,३,४,५७६-१,४,५,६,७,८,५७७-१,३,८; ११,१४,१५,१६,१७,३०१-२,४,५,१२,१३,१४,३०२५७८-१४,५७९-२,३,५,५८०-३,७,८,९,५८१ ९,१२,१३,२१,३०३-३,५,६,७,८,१३,३०४-४,५,७, ६,८,९,१०,५८२-३,७,८,१०,११,५८३-२,४,६, ९,३०५-२,३,११,१५,१६,३०६-८;३०७-२,३,४, ७,५८४-२,४,५,८५८५-११,९८६-१०,१३,१५; ३२४-२,३२६-४,३३२-२१,३५८-२३,३७९-११, ५८७-१,५,५९०-२,६४४-३६५७-४,५,६५८ १२,३८०-१,२,३,४,६,१०,३८१-५,११,१३,१४,१५, ५,६,७,८,९,६५२-२,६,७,१०,११,६६०-१,३,४,६, १७,१८,३८२-२,४,७,१६,३८३-१,५,८,३८४-३, ७,१०,१३,६६१-१,४,५,६६६२-२,४,१०,६६३ १०,११,३८५-४,५,७,८,९,१०,१५,४००-१०,४२७१,३,४,५,६,७६६४-२,३,६,७,८,६६५-४,५,६; ९:४३५-२,४६५-६,४८०-३,४८२-६,५०५-९; ५३३-२,५३८-१३:५५५-२,५५८-१४,५५९-५, ६६६-१,२,४,५,६६७-२,४,६६८-२,५,६,६६९ १०:५७४-३,५७६-१,५७७-८५७८-११,५८०-१, २,५,६७०-१,२,५,६७१-२,३,६७२-२,४,६७३-१, २:५८१-२,४,९,१०,६५७-३,६,८,९,६५८-१,४; ३,६,७,६७४-५,६,७,८,९,६७५-२,४,६७६-१७ ६५९-१,३,६६०-५,८,९,६६१-३,७,९,६६२-३,५, ६७७-१,२,३,४,६७८-१,२,४,६७९ २,४,६,८; ६,७,८,६६३-२,६६४-१,४,५,९,६६५-१,२,६६७६८०-१,४,८,९,६८१-१,२,५,६८२-२,४,५,६,६८४ १,३,६६८-४,७,६६९-१,३,६:६७०-३,५,६७१-१; १,२,३,६८५-१,३,४,७,६८६-४,७६८७-१,२,३,४, ६७२-३,५,६,६७३-२,४,५,६,६७४-३,६७५-१,३; ६,७,६८८-१,२,३,४,६९३-१,३,४,६९४-२,६,८% ६७६-२,३,५,६,७,८६७७-५,६७८-३,६७९-१,५, ६९५-१,२,६९७-१,६९८-१,३,४,६९९-२,४; ७६८०-५,१०,६८१-३,४,६८२-१,३,७,८,६८३-१, ७००-१,३,५,६,७,८७०१-४,६,७,७०२-१,३,४,६, २,३,४,६८४-१,६८५-५,६,८,६८६-२,६,६८७-५ ७,८,९,७०३-३,४,५,७,८,७०४-२७११-६,८; ६८८-४६९३-१,५,६९४-४,६,६९५-२,६९६-१; ७१२-२,३,६,७१३-१,३,४,५,८,९,११,७१४-१,२, ६९९-१,३,५,७००-४,७०१-१,२,५,८७०२-२; ३,७१५.२,६,८७१६-१,२,३,५,६,७१७-२,३,४,५,६. ७०३-६७०४-३,७११-७,७१२-४,५,७१३-१,१२, तत्त्वसंग्रहपत्रिका १७१-१,१७३-५:१७४-२,५,१२,१५, | ७१५-३,५,७१६-४,७,९;७१७-१. १७१७५-६६९७६-२,१७७-८,१०,१७८-७१७९-तत्त्वार्थभाष्य २६१-१,४४२-३:५५२-७,६३१-४, २,९,१८०-४,५,१०,१८१-३,१०,११,१२,१६,१७, ७३५-२. १८२-६,८,१८४-२,५,९,११,१५,१८५-१,२,११, तत्त्वार्थटीका ३१७-११. १२:१८६-२,११,१८७-४,५,८,१८८-१,३,६,८,१०, तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति । २६१-१:५४०-३:५४३-१३, १३:१८९-७,१४,१९०-१४,१९१-५,६,७,९,१४, तत्त्वार्थभाष्यव्याख्या ५९७-२:६३१ थी ३३-४. १९२-२,८७१९३-२,५:१९४-३,४,१०,१६,१९५- | तत्त्वार्थराजवार्तिक ४४२-२,४४३-६,६३११३,१४,१९६-२,६,११,१६,१९,२०,२१,१९७-१, ६३४-४. ५१,१२,१३,१९८-३,६,८,१०,१२,१६,१८,२० तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १७१-१,२६१-१,३०५-१,३१८-१८७ १९९-३,१२,१९,२००-१,२,३,५,९,११,२०१-७,९; ४४२-२,४८३-११७९०-१०,४९१-३,५०३२०२-४,६,७,१०,१३,२०३-४,५,११,१४,२१:२०४- ८:५०८-३:५३३-१,५३४-९,५४०-३,५५३-९, १६:२०५-७,२०६-११,१९,२२,२०७-१,१४,२०८- ५६९-७,६३१-४६३४-४७३५-२. ३,१२,२५,२०९-६,१९,२१०-४,१७,२११-५,६ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालङ्कार ४९१-३. २१२-१,२१३-७,८,२१,२२,२७,२१४-२०,२१५-६, तत्त्वार्थसार ६३१-४. १८,२०,२१६-१२,१८,२१७-१,४,६,८,१०,१३,१५, तत्त्वार्थसूत्र ६४-५:२६१-१,४५४-४,५,६३१-४,६५४२१८-१४,१५,२०,२१,२१९-३,४,८,१३,१६,१७, २,३६५५-१,२,३,६७६-४;७३४-४;७३५-२, १९,२२०-२,९:२२१-३,१०,११,१६,२२२-४,९, ७३६-१. २२४-३,१०,१२,२२५-८,९,१०,१२,१८,२२६-६, तत्त्वोपप्लव (लि) ३२६-८,४६५-६:५२५-१,२,५३४-१%8 १,१०,१३:२२७-५,२२८-५,१२,१५,२२९-११, । ५४७-६,५४८-३,५४९-९,५५०-१. Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ सन्मतिटिप्पणीनिर्दिष्टा ग्रन्थकृतो प्रन्याश्च । तन्त्रवार्तिक ३१५-१५. न्यायदर्शन ९९-५,११५-६:१५०-४१७८-७,३४६-३०, तायिन् १७४-५. ४५२-१,४८७-५:५१८-१६:५२७-५:५३०-१७ त्रिंशिकाविज्ञप्ति ५९७-२. ५४०-३,५५१-६,५९७-२,६५९-८६७१-६; ७३३-३. दार्शनिकग्रंथ ४६९-६. न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्य ४२२-१. दिमाग १७५-६,१९९-७,५३१-९. न्यायप्रवेश ३१८-४,३५१-६४८८-९. दिवाकर ६५६-४. न्यायप्रवेशकार ४८८-९. दृष्टिवादाङ्ग २७१-५. न्यायबिन्दुसूत्र ३१८-४,६,१३,१४,३५१-६,३५२-१; देवनन्दिन ६५२-१. ४८८-९,५०१-३,५०६-२,५७२-६,५९२-१. देशीनाममाला १७३-१,३१७-२,६२२-३,६३६-२. न्यायबिन्दुटीका ४६५-६. द्रव्यगुणपर्यायरास (लि) ६३३-२. न्यायबिन्दुवृत्ति ४६७-११. द्वादशारनयचक्र (लि) १९५-१३,३७९-१२. न्यायबिन्दुटीकाटिप्पणी (लिखित) ४६९-६,४८९-३; ४९८-६,५०६-२. धर्मकीर्ति (जुओ कीर्ति)१५-१२,२११-६:२४३-२१,४६५- | १२:२११-६:२४३-२१,४६५- | न्यायमकरन्द ३६६-२. ६:४६७-११,४८८-९,५०६-२,३,५०८-१,५५४-४. | न्यायमअरी ४६५-६,४६६-५,७,४६९-६:४७१-७; धर्मकीर्तिकृतन्यायबिन्दुटीकाटिप्पणी ४६९-६. ४८०-३,४८३-९,४८७-५,४८९-३,५०५-६:५०७धर्मकीर्तिवार्तिक ५०३-७. ६:५०८-१,५१९-९,५२०-६:५२१-४,५२२-८; धर्मकीर्तिसूरि ३३३-११. ५२३-११,५२४-४,५२५-१,२,४,५,६,५२९-११; धर्मसंग्रहणी ४९८-६,५००-८५१०-१;५९७ थी ६०३- ५३०-१,२,४,६:५६१-७:५३३-१,५३४-९,५३५२,६२७-१;७१२-२. १,४,५३६-४,९:५३७-१,२,४,५३८-२,८५३९-२; धर्मसंग्रहणीवृत्ति २७२-८. ५४०-३,५५४-२,३,५६०-१,३,५६१-१२:५६२धर्मोत्तरीया ४६७-११. २,५:५६३-५,९,५६५-५:५७४-१,५७५-५,५७७ध्यानशतक ७३४-१. ७,८,५७८-१४:५७२-५,५८७-५:५९७-२,६५९ ८,६६८-३,७०६-५. नन्दिसूत्रचूणी (लिखित) ५९७ थी ६०४-२. न्यायवार्तिक १२७-१,१४३-२,१५३-४,१७५-६,१७८नन्दिसूत्रटीका ४७८-२. २,५२००-७;२०४-१,२,३३२-२२,३४६-३०% नन्दिसूत्रलधुवृत्ति (लिखित) ५९७ थी ६०३-२. ३७६-९,४२२-१,४७१-११,५१९-४,९,५२०-६; नयचक्र (हस्तलिखित )६३-७,२७१-९,४४१-१०% ५२१-१,४,५२२-३,८,५२४-४,५२८-५,५३०-६; ४४१-१०. ५३१-७,९,५३३-१,५३४-९,५४०-३:५५९-१०; नयनप्रसादिनी ५५८-१४. ५६०-३,५,५६१-१२:५६२-२,५,५६३-६,५६६नयोपदेश २७३-१,३१७-१२,३१८-१७,३१९-१३,१५; | १०,५७७-७:५९७-२,६५९-८६६४-१,६६६-३, ४४२-३,६४५-४. ५६६८-३६६९-६,६७७-५,६८९-६,६९२-१; नयोपदेशवृत्ति ३७९-१२,३८०-१,१३,३८३-९,१०, ७१६-८७१७-२. ११. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका ३४६-३०,३६६-२,३७६-९; नागेश ६५२-१. निग्रंथ ६४४-३. ४२२-१,४६९-६,४७१-११,४९९-१,५०३-७, नियुक्तिकार (भद्रबाहु) ४२२-१. ५१९-२,४,५,९:५२०-६:५२१-१,४,५२२-२,५,८७ नैयायिक ९८-३,५४०-३५४३-१३:५७७-७:५९७-२. ५२४-४५२५-१,२,४,५२८-५:५३०-६,५३१-७७ नैषधीय महाकाव्य ६९७-१. ५३३-१,५३४-९,५४०-३,५४३-१३,५५४-८ न्याय १८३-२१. ५५८-१४:५५९-५,१०,५६०-५:५६१-१२:५६२न्यायकर्णिका ३६६-२. २,५:५६६-३,१०:५७७.७:५९७-२,६५९.८,६६९.६. न्यायकन्दली ७०६-५. न्यायवादिन् २४३-२१,५०३-७. न्यायकुमुदचन्द्रोदय (लिखित) १७४-११,२६०-९,१०० | न्यायसिद्धान्तमुक्तावली ५०९-१२,६७६-४. ४७१-७५३७-९:५४०-३६५७-३,६६९-१,३. न्यायसूत्र १७८-७,५६०-२, Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटिप्पणीनिर्दिष्टा ग्रन्थकृतो प्रन्याश्च । ९५ न्यायसूत्रभाष्यकार ४६९-६. ४,१५४-१०,११,१५९-७१६०-१,१६२-३:१६४न्यायागमानुसारिणीटीका ४४१-१०. १,१६९-१०,११,१७३-१०,१२,१७६-२,१७७-४, न्यायावतार ३५१-६,४२२-१,५९२-२,५. ७,१८१-१०,१८५-१४,१६,१८९-४,७,१९१-७,१२, न्यायावतारटिप्पण २८१-८,३०८-२,३११-३,४,५,७,९, १४,१९,१९२-१३:१९३-८,१९४-३,१९५-६,१३, ३१४-५. १९६-२,१९९-२,४,२०२-७,२३७-१९,२२,२३, न्यायावतारटीका ४६५-६. २६:२३८-४,५,६,१२,२३९-६,७,१०,१४,२४०-३, न्यास ७५७-२. १०,१३,२४३-२०,२५१-१४:२५२-२४,२५,२५३ १०:२६१-८,१३,१७,१९,२०,२२,२४,२७३-१३,१४१ पञ्चाध्यायी ६३१-४. २७४-१,१३,१५,२७६-१३,१६:२७७-९,२८५-३, पञ्चाशक ७४६-५,७५५-६. ३१८-१८,३१९-१,३२१-२९,३२२-१,२,३२७पञ्चाशकटीका ७५५-५. १९,२६,३२८-१,३,५,६,९,१०,१३,१७,१८,३२९पञ्चास्तिकाय ४४२-३,६३१-४,६३६-१. ३,३३०-१०,३३२-२२,३४९-२३,२५,२७,३५१-६, पण्डितरत्नकीर्ति २६०-११. ७,३५२-१,४,८,९,१५,३५३-११,३६९-४,३७९पतञ्जलि ६५२-१. १२:३८०-१,९,३८१-११,३८२-५,१४,१६,३८३-२, पदार्थधर्मसंग्रह ६६१-२. ८,९,१०,१२,३८६-७,१३,१४,३८७-९,१३,१४,१५, पदार्थप्रवेशक ६६१-२,३. ३८८-९,११,१४,१८,१९,३८९-८,९,१०,११,१४, पराशरमाधव ६९७-१. ३९०-१,१०,३९१-२०,२२,२९,३९२-१०,११,२९; पल्लव ४७१-७. ३९३-१,११,३९५-६,३९८-१,१२,४०२-१४; पाइअलच्छीनाममाला १७३-१. ४०३-३,४३१-७,८,४३३-१,४३५-२,४५१-७; पाणिनि १७९-४,२२६-९,२७२-८५६६-४. ४५४-२,४५८-९:४५९-३,४६०-५,७,४६५-११; पाणिनिव्याकरण २७१-४,११,३१३-१,४,६. ४६६-५:४६७-८,४६९-१,४७१-७,४७३-३,४, पाणिनिसूत्र ६५२-१. ८४७६-१,९,४७७-६,७,४८०-२,४,४८३-६,९,१०% पातजल ५९७-२. ४८४-१३,४८५-४,४८९-१,४९१-३,४९३-१; पातजलदर्शन । ४९६-६,४९९-१,५००-३,८,१४,५०३-७,८,५१०पातञ्जलयोगदर्शन ३१६-३,६४४-३. २,८५१२-७,११,५१३-७:५३३-१,५३४-२,५३५पात्रकेसरिन् ५६९-७. २,५४०-३,५४३-१३,५४४-८५५४-१,४,५७०-३; पात्रखामिन् ५६९-७. ५७४-४,५७५-६:५७७-४,५७८-१४:५७९-५, पार्थसारथिमिश्र १५-१२,१७५-६४६५-६७४२-१. ५८३-१२:५८५-४,५८७-४,५,५९०-३५९४-४, पुण्यराजटीका १८२-४,६. ६१२-१,६१३-१,६४१-४६४२-२,४,६४७-२, पूज्यपाद ६३१-४. ६५७-३,७,६६१-३,६६९-१,३,६७६-२,३,६७७पूर्वमीमांसक ५७७-८. । ५६९७-१;७४६-२,७५१-६. प्रकरणपजिका ३६६-२. । प्रमेयकमलमार्तण्डटिप्पण ५६-७,२४०-१०,१३:२४३प्रज्ञाकरगुप्त ४६५-६. प्रज्ञापनाटीका। २३:२६१-२४,३१८-१८:३८६-७,१३,१४,३८८-% ३९१-२२,३९२-११,४५९-३,४७७-६:४८३-. प्रज्ञापनासूत्र ५४०-३,६०५-१,६०७-२,६०८-५,६५४ प्रमेयरत्नकोश ३०९-१,४४२-२,४४३-६. १७३५-१. प्रवचनसार ४४२-३,६३१-४६४५-३. प्रदीप ६५२-१. प्रवचनसारटीका ४४२-३. प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार ४४२-३४७८-५,५५२-७. प्रवचनसारोद्धार ६३०-३. प्रमाणपरीक्षा ३१८-१८५५२-४,५५४-४५५५-९. प्रशमरतिप्रकरण ६४-५. प्रमाणमीमांसा ४६५-६४६९-६,४८०-३,४८७-५, प्रशस्तदेव ६६१-२. ५१०-८५३३-१,५३५-१,९५५२-७:५५४-४, प्रशस्तपाद ६६१-२. ५५५-२,५६९-३:५७०-४. प्रशस्तपादभाष्य १४९-७,५३८-१३:५५९-१05 प्रमेयकमलमार्तण्ड २९-१,३१-१०,३९-८४४-१:५२- ५९७-२,६६१-२. ३:५६-६,७.१०१-२,१०६-७७१२६-१,१४३-६,१४९- प्रशस्तपादभाष्यकन्दली ४३१-८४३३-१,६४३५-४, प्रज्ञापनावृत्ति । ५९७-२.७५१-६. Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ४६९-६:५००-८:५०७-६, ५०९ - १२:५१९-९१ ५३८- ९,५४० - ३५४३ - १३, ५४४ - १४;५५१-६; ५५८-१४,५७७-८०५७८ - १४:५७९ - ५,५९७-२ ६३३-१.६४६-४:६४८-३,६५९-८:६६१- २,०३ ६६६-५,६६९-६/६७२- २, ६, ६७५-२, १६७६-४ ६८३-३, ५:६८४- १६८६- १,६९८- १, २,६९९-२ ७००-२७०४- ३, ४,७०८ - १,७०९-१. प्रशस्तमति ६९९-२,७०१-६. प्रश्नव्याकरणाङ्ग २७१-५. प्राकृतपिल २७१-२२. सन्मतिटिप्पणीनिर्दिष्टश प्रन्थकृतो मन्धाश्च । 1 भाष्यटीकाकृत् ६५३ - ३. भिक्षु १७५-६. भृगु ६५२-१. प्राकृतप्रकाश २७२ - ७, ८. प्राकृतमञ्जरी २७२ - ८. प्राकृतरूपावतार २७२-८. व बीय विश्वकोश १७९ - २,२२६-९. बृहत्संहिता ६५३ - १. बृहदारण्य उपनिषद् २७९-३,२७३-५, ७,३८३-९, १०, १२:७१५-३. बृहद्दव्यसंग्रह ४५७-३:४७८-२. बृहस्पति ५०५- ६,६९७- १. बोधिचर्यावतार ३६६-२,३७६-९, ५१०- १. बोधिचर्यावतारपत्रिका ३७७-८०४५५- १,७१२-२. बौद्ध १९४-१६,५४०-२,५९७ २. ब्रह्मसूत्र ४६१-२, ५९७ २. ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य २७९ - १४:२८०-१६४६-४. ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्यभामती २७८- ६:४५५-२. ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य आनन्द गिरीयटीका ४७१-५. भ भगवती सूत्र (जुओ व्याख्याप्रज्ञप्ति ) २७१ - ५४४१ - १०; ४५५ - २,५५९-१०,६१०-१६१३१५:६२५-१ ६३१-१, ४,६३५ - २, ४, ५, ६७१-७७१४-४; ७३४-१. भगवतीसूत्रटीका ३१७-११. भट्ट (जुओ कुमारिल ) ६-५:४६६-५:५७०-३. भट्टजयन्त ४७१-७. भद्रबाहु खामिन् ४२२ – १,४७८-२. भरद्वाज ६५२-१. भर्तृहरि ४६१-२५४३-१२. भामतीकृत् ४६१ - २. भामह १८६ - २२०४-१९. भामहालङ्कार १८६-२, ४, ५, ६, ७,२०४-१९. भारतीयदर्शन ५९७ १. भाष्यकार ५२२ - ५,५३५-३. भाष्यकृत् ६५३ - १. म मज्झिमनिकाय ३५३-११. मध्यमक वृत्ति ३०९ - ५, ३६६-२, ३७७-८ : ४५५- १. मनुस्मृति ६५२ - १,७३१-१. मलधारिहेमचन्द्रसूरि ६२० - १. मलयगिरीयन दिसूत्रवृत्ति ५९७ थी ६०४ २. मलयगिरीवा ६३५-३. महनादिन ४४११०१५९७ थी ६०४-२. मषेण ३०८-२. मस्करीगोशालक ७१४-४. महाभारत ४९१-३, ५३६ - ७, ६५२ - १,७११-२; ७३१-३. महाभाष्य १७९ १,३,४,२२६-९,३१६-३:४३१-६० ४७५-४; ६५२ - १,६५३-२. महायानसूत्रालंकार ३७१-८३७७-१. माठर ७९०-५. माठरवृत्ति २८९ १,२,४,५,८,९,११,१३,१४,१८,१९; २८२ - ३, ११, १५,२८३- १,२८४- ३, ४,५,७,८,१०, ११,१२,१३;२९६-५, ३०५ - ८,३०७-९, १४,३०९४:५३३-१,७११-५,७१२-१७३३-९. माध्यमिक ४५८-६. मीमांसक ५४३-१३५५९ - १०:६४४-३. मीमांसादर्शन ४३१-७४६०-४४७९ - ४,५५९-१०. मीमांसाशावर भाष्य ४३-४. मीमांसासूत्र ५९७ २. मुक्तावली ५४०-३. मूलकल्पसूत्र ६१४-२. य यशोविजय १८५- १४; २११ - ६; २६०-९, १०;२६१-१; ३०८- २,४८० - २५०७-६,६३१-४,६३३-२० ७४९-२. यशोविजयतस्वार्थ मायव्याख्या २६१-१. यादवप्रकाश ५३३-२. यापनीयसंघाप्रगामिन् ६१२-१. यास्कनिरुक्त ६५३-२. योगदर्शन ३०७-८ ५९७ २. योगाचार ४५८-६. प्रसूरि ५७०-४. रत्नाकरावतारिका १७०-४३२०-२६, ३७६- ९,४४२-२ ४५४-२; ४५५- १,४७८- ५,४८३ - ११४८८-७; ५४०-३, ५४३ - १३,५७०-४. Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटिप्पणीनिर्दिष्टा ग्रन्थकृतो ग्रन्थाश्च । २. रविभद्र ५६९-७. विपाकसूत्र ९३-३. राजमल्ल ६३१-४. विशेषणवती ५९७-२. राजवार्तिक २६१-१,५४०-३:५४३-१३:५५२-७,७३५- विशेषावश्यकबृहवृत्ति ४०६-१. विशेषावश्यकभाष्य ४४२-२; ४७८-२, ५४०-३; ५५३राजशेखर ३०८-२. ९,१०,१३, ५९७ थी ६०४-२, ६१९-४, ६५३-३; रुद्रिल २९६-८. ७४६-१; ७४७-१; ७५७-३. विशेषावश्यकभाष्यटीका.. विशेषावश्यकभाष्यवृत्ति ६०८-७; ६२०-१; ७५०-२,४. लङ्कावतारसूत्र ३०३-३,३७७-१. वैद्यकसिन्धु ७१३-१०. लघीयत्रय ५५२-४,५५३-८,९. वैभाषिक ४५८-६. लघीयत्रयबृहद्वृत्ति ५५२-७५५३-४,५,९. वैशेषिक ५४०-३, ५४३-१३, ५५९-१०; ५७४-२ ललितविस्तरावृत्ति २७२-८. ५९७-२, ६३१-४६३३-१; ६५७-३. लौकिकन्यायाञ्जलि ३६६-२,४७५-४,४७९-४,५:५६८ वैशेषिकदर्शन ५५१-६६३३-३, ६५६-४, ६७६-४; १२:५९२-९. ६८६-३; ७०४-४. घ वैशेषिकद्वात्रिशिका ६५६-४. वराहमिहिराचार्य ६५३-१. व्याख्याप्रज्ञप्ति भगवतीअङ्ग (जुओ भगवती) २७१-५. वाक्यपदीय १७९-१,३,८,१८०-१,२,६,८,११,१८१-२; व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ६१४-१३. १८२-४,६,२२२-६,७,१५:२३६-११,३१६-१,२, व्याडि १७९-३. ४३५-२,४६१-२,४९१-३,५३८-८५४३-१३, वृद्वसांख्य ५३३-१. ६५३-२. वृद्धाचार्य ५२.७ थी ६०४-२. वाक्यपदीयटीका ३१६-२,४९१-३. श वाचकउमाखाति ७३५-४. शङ्करखामिन् ६६७-२, ६९३-१. वाचस्पति मिश्र ४७१-११,५०३-७,५२२-५,५५९-१०; शङ्कराचार्य ४६१-२. ६५९-८. शबरखामिन ५७४-३, ५७७-८. वाचस्पति मिश्रटीका ३१६-३. शब्दानुशासन ४८-५. वाचस्पत्यकोष ६३६-४. शाकटायन ६१२-१; ६३५-३. वाजध्यायन १७९-१,२. शाकटायनव्याकरण २७१-४. वार्तिक ६५२-१. शाक्य ५७४-२. वार्तिककार ४६९-६:४९८-६. शाङ्करभाष्य ५९७-२. वात्स्यायन ६५९-८. शान्तरक्षित ४८८-९, ५३३-२, ५७४-६, ५७६-१७ वात्स्यायनन्यायभाष्य ९९-५:१५३-४:१५४-७,२९५-४; । ५७८-१४; ६४४-३. ४२२-१,४६९-६,५२१-४,५२२-२,८,५२४-४, शान्तिपर्वन् ६५२-१. ५२८-५,५३०-६,५३१-९,५५९-१०,५६३-१,५; शाबरभाष्य २०-५, ५४-१; ५४०-३, ५५९-१०; ५६६-३,१०,५७७-७,५९७-२;६५९-८६६९-६. ५७२-४, ५७४-३, ५७६-१; ५९७-२; ७३०-३. वादमहार्णव ३०८-२. शाबरवचन ७४२-१. वादिदेवसूरि ५६९-७,५७०-३. । शाश्वतकोश २२६-९. वायुपुराण ६५६-३. शास्त्रदीपिका ५०५-९,५३४-८५४०-३, ५५४-३. वार्षगण्य ५३३-१, शास्त्रदीपिकायुक्तिनहप्रपूरणी ५०५-९; ५३५-३; ७४२-१. विज्ञप्तिमात्रतापिद्धिवृत्ति ५९७-२. शास्त्रदीपिकायुक्तिनहपूरणीसिद्धान्त चन्द्रिका व्याख्या ३६१विद्यानन्दिन् ६३१-३२-४,६३४-४. ३१; ७४२-१. विद्यानन्दिस्वामिन् ४९१-३, ५६९-७. शास्त्रवातीसमुच्चय १७७-४, २६०-९,१०, ३३१-११%B विनिश्चय ३२२-३१. ३७७-२, ३८३-९,१०,११,१२, ४५६-१; ५३३विन्ध्यवासिन् ५३३-२, ५३४-२. २,६३१ थी ३३-४, ६४४-३; ७१०-५,७११-५. विप्र ६४४-३. शास्त्रवातासमुच्चयटीका ( लिखित) ४४३-६, ५०७-६, विपाकश्रुताङ्ग २७१-५. ७४७-१; ७५१-६. ११० सं०प० Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ सन्मतिटिप्पणीनिर्दिष्टा प्रन्थकृतो प्रन्याश्च । शास्त्रपातसमुच्चयव्याख्या २६१-१. शास्त्रवार्तासमुच्चयस्याद्वादका १७५-६ १७१-५,०० १८०-२, ४, ८, ११, १८१-२, १९१८२-४,६१८४११ १८५- १, २, १४; १९०-१२, १९१-१२,१४,१९, १९२-१३ : १९६-२१: १९८- १०, १२, १८, १९,१९९२, ४,५३२०२२, ७, १६, २०३-२६० २०७-१०:२०९ ८, १७, २१०-४२११-४२१२-२०१३ २१४-१८, २३; २१५- १, ७, १५, १६, १८, २१६ - १०,१५,२२; २१८ - ४, १०, १४, २२०-२, ४, ९, १८, २२१-११,१२, १६:२२२- ३,८,२१, २२४-१५३२२५-२३ २२६५,१३, १४, २२७ ९, १०, २२८-५, ९, १३:२६०-१५, १९, २८१-८; ३०८-२, ३३२-२१, ३३३-६, ११ ३७१-८; ३७६-१५; ३७७ - २, ४, ६, ८, ३७९-१, २,१२ ३८०- १,१० ४०९-२, ४४३-१४४४-२, ४ ४४५१, ४, १० ४४९५ ४५०१ ४७८-२ ४८२-६ ४९१-३ ४९७३ ४९९-१, २, ५०२१४; ५०३-४,७,८, ५०४-३,५०६-२, ५०८-३,०३ ५१०-१, ७, ५११-१ ५१२-७, ११, १५: ५३३-२३ ६३१ थी ३३-४ ६३९-२, ७१२-१३ ७१४७८. शिक्षासमुच्चय ३६६-२. शीला ६१३-१, ७१०-५. शीलाचार्य ७५७-२. श्रीधर ५७७-८ ५७८-१४ ६५९-८ ७०६-५. श्रीधरीयकन्दली ४६९-६. श्रीभाष्य ३६६-२, ५९७-१. श्वेताश्वतरोपनिषद् ७१०-५; ७१५-३. लोकवार्तिक ६-५७-८:१०-२०११-२१८६ - ९, १०, १२ १८७ - ३,६,९,१३,१६, १७, २१, २२, १८८ - ४, ७, ९, १२; १५,१८; १८९-१,३,५,१२, १६, १८, १९० - २, ३, १०, १२,१५,१८ १९१-१, ३, ४, १९२-१,२,५,७,१०,१२३ १९३ - १, ४, ७, १०, १९४ - २, ५, ८, १९५-५, १०, १८, २३ १९६१,१७, १९७-२, ७, ८, १४ १९८-२, ४, ५ ७,८,१५० १९९- १,८,१२, १४, १६, २०४-१९, २१११३; २२३-१; २४०-१७, १८, ३१९-३, ६, ८, ३५१५; ३५८-२३ ४३३-७; ४९९-१, ५३३-२३५१४८; ५३५- १; ५३७–९, १०, ११; ५४०-३: ५५९१०: ५६४-१०, ५७०३ ५७४- २, ५७५-३ ५७६ ४ ५७७-४, ५० ५७८-१२, १४, ५७९ - २, ३, ५० ५८०-३, ४, ७, ८, ५८१-४, ७, ९, ५९७ - २६४४-२३ ६८८-७ ६९५-१, ४, ५, ७४०-१. श्रीवार्तिकीका ४-६ १५-१२ ४६५-६. श्लोकवार्तिकपार्थसारथिभिधयाख्या १९६-१६० १९७-१२ १९८-८; १९९-७,१७ २०१, ८, ९; २४३ - २०, २३; ३१९-८, ३६६-२४०१-२४१४६ ४३१-०१ ४३७-६, ७ ४८३-९: ५०५-९ ५३५-३: ५७७४५७४२-१. पभाषाचन्द्रिका २७२-८०. पददर्शनसमुच्चयगृहट्टीका ४५८-६ ४५९-२३४६७-११३ ४७५-७६ ४८१-५३ ४८३-९, ५०५-६८ ५१०-१ ७१०-५; ७११-५,७१२-१; ७३३-५. स संयुत्तनिकाय ३०९-५. संक्षेपशारीरक २७३-५. सप्तभङ्गीतरङ्गिणी ४४२-२३ ४५१-७. समन्तभद्र ५१९ - १०; ५९५ - १; ६२०-१; ७५७–२. रामवायाङ्ग २७१-५. सम्मति ३३२-२१. सम्मतिटीकाकार १८५-१४ ४७८-२. सर्वदर्शनसंग्रह १७९-१, ३, ४, ३७६-९, ४०१ -२, ४१४६ ४३५-१, ४ ४५८-६ ४८३-९, ५०५-६. सर्वार्थसिद्धि २६१-१, ३६६-२ ५५२-७३ ६३१-४१ ७३५-२. सांख्य ४-४; १८३-२०; ५४०-३; ५४३-१३; ५९७-२; ६४४-३. सांख्यकारिका २८१-३, ५, ६०५३३ - १, ५५९-१०; ७३३४, ९. सांख्यकारिकावृत्ति ७११-५. | सांख्यकौमुदी २८४-२३०७-१९, १६५३३ १. | सांख्यतत्वकौमुदी ५५९-१०, ५६६-१०. | सांख्यतत्त्वविवेचन ५३३- १. सांख्यदर्शन ३०९-४ ५३३-१, ५४०-२. सांख्यप्रवचनभाष्य २७७-१६; ५३३-१. सांख्यवेदान्तप्रक्रिया ५४० -३. सांख्य संग्रह २८१-८. सांख्यसप्तति ४२३-१९. सांख्याचार्य ५५९-१०. सायणमाचव ५०५-६. सारखतव्याकरण २७१-४. विप्रेनर २६१-१, ५५९-१०; ६२० - १ ६३१-४६ ७५७-२. शिसेनदिवाकर ५९७ थी ६०४-२३६३१-४. विसेनदिवाकरीय ६३१ श्री ३३-४. सिद्धसेनी यद्वात्रिंशिका ६२० १. सिद्धान्तकौमुदी १७९-२ ३१३-१,६०३८१-१ ३८७२४०६-३; ४४१-५; ६५२-१. सिद्धान्तमुकाव५३६-४. सिद्धिविनिश्चयटीका ( लिखित ) ३२६-८; ४६५-६; ४७८ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिटिप्पणीनिर्दिष्टा ग्रन्थकृतो ग्रन्थाश्च । ५, ६, ४७९-४ ४८०-२, ४८१-५३ ४८२-६, ४८३११ ४८८-९ ४९८-६: ५००-८ ५०३-७,८३ ५०६-२; ५१०-८; ५१२ - २, ७, ५२५ - १, २, ४, ५३७९:५५३-० ५६९-७ ७२८-२. सिंह सूरिवादिगणिक्षमाश्रमण ४४१-१०. सीमन्धर ५६९-७. सुत्तनिपात ३५३-११. सुमङ्गलविलासिनी ३६६-२. सूत्रकृताङ्ग २७१-५ ६१३-१५. सूत्रकृतीका ३३२-२२, ७१०-५. सूत्रकृताङ्गटीकाकृत् ६१३-१. सूर्यसिद्धान्त ७११-१. सोगत ५७४-१. सौत्रान्तिक ४५८- ६. स्तुतिकार ६२० - १, ७५७–२० स्थानासूत्र २७१-५४५३-१ ७३४-१. स्फुटार्थाभिधानकोश ५४० -१. स्फोटसिद्धि ४३१८,९,१०, ४३२-२४३५-३. स्याद्वादकारिका ( अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिशिका ४८३ - ११६ ४८८-७ ५४३-१३. स्याद्वादमञ्जरी ३०८-२४४२२ ४५१-७० ४५४-२० ४५५-१. स्याद्वादरत्नाकर ६-५; ७० - २; १६९-१०; १७०-४,७, १७१ १,२,२, १२, १७२-१३ १७७-४ ७ २०२४ १०,१६, २०३४९, २४८-१९ ३२०-२६, ३७६१५ ३७९-१२ ३८०-१, ५, १०, ११, १३:१८१११ २८३-८, ९, १०, १२, ४०१ २ ४१४-६ ४३१-५१ ४३५-२, ३, ४३७-७ ४६५-६, ४६६-५; ४६७८, ४६९-६, ४७१-७१ ४८३-१, ४८८-७१ ४९१-३३ ४९९-१; ५००-३, ८, १४; ५०३ - ७, ८, १५१०-१,८३ ९९ ५१२-११, ५३३-१, ५३४-२३ ५३५-१, ९ ५४०३ ५४५-१२, ५६२-२, ५६९-३, ७ ५७०-३ ५८७-४, ५, ५९४ ४ ६१०-१३ ६११-१, ६१३१ ६६१-२ ६९१-२ ६९७-१. स्वयंभू स्तोत्र ६३९ - २; ७५७–२. हरिभद्र २६०-९५३३-१; ६२७-१ ६३१ थी ३३-४; ७१०-५ ७४९-९ ७५७-२. हरिभद्रीयनन्दिसूत्रवृत्ति ५९७ थी ६०४ हरिभद्रयानुयोगद्वारवृत्ति ७५६-५. हर्ष ६९७- १. हेतु बिन्दु ६९१-१. हेतुबिन्दुतर्कटीका (लिखित ) १६९-७ १७९-१, ३१८ १७ ३२०-२४, २६ ३२१-५, २९, ३२२-११३५६८ हेतुमुख १९९-६. हेमचन्द्र ३१३-६; ४६१-२, ४८७-५, ५३३-२, ५७०४ ६५२-१ ७५७ २. हेलाराजटीका ( वाक्यपदीय ) १७९ - १, ३. हैम अनेकार्थकोश २२६-९, ५२३-६; ६८८-०. हेमच्छन्दोनुशासन २७१-१३. हैमतत्त्वप्रकाशिकावृहन्यास २२६-९. हैमधातुपाठ ३१६-३. देवापारायण १७३-२. प्राकृतव्याकरण २७२-७०. हेमशब्दानुशासन ४८-५६ १७३-२ १७९-२, १९०-९ २२५-२४; ३१३-१, ४, ६, ३१६-३, ३८१-२; ३८७२, ४२१-५ ४४९-५ ५६६-४ ६०५-२ ६५२-१ ६५३-२. शब्दानुशासनवृत्ति ४६२-२४७१-१०३ ४७९-५. Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसम्पादने उपयुक्तानां ग्रन्थानां सूचिः। 200000wwx अनुयोगद्वारसूत्र (सुरत-आगमोदय समिति) जीवविचारप्रकरण ( मेसाणा) अनुयोगद्वारवृत्ति हरिभद्रीय ( रतलाम आवृत्ति) जीवाजीवाभिगमसूत्र ( सुरत आगमोदयसमिति) अनेकान्तजयपताका (अमदावाद) जैनतर्कपरिभाषा ( भावनगर जैनधर्मप्रसारक सभा) अनेकान्तजयपताकाटीका (काशी यशोविजय ग्रंथमाला) जैनेन्द्रव्याकरण ( काशी-सं. विन्ध्येश्वरी प्रसाद ) अनेकान्तजयपताकाटीका (लिखिता) जैमिनिसूत्र ( काशी-विद्याविलास प्रेस) अन्नंभटमिताक्षरा ( काशी-विद्याविलास प्रेस) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ( सुरत आगमोदयसमिति) अपोहसिद्धिप्रकरण ( सिक्स बुद्धिस्ट न्याय टेक्स्ट बिब्लि- ज्ञानबिन्दु (भावनगर जैनधर्मप्रसारक सभा) ओथेका इंडिका नं. १२२६ सं. हरप्रसादशास्त्री) तत्त्वार्थव्याख्या ( अमदावाद पोथी आकार ) अभिधानचिन्तामणिकोश ( काशी-यशोविजय ग्रंथमाला) तत्त्वार्थटीका (सुरत देवचंद लालभाई पुस्तकाकार ) अभिधानप्पदीपिका (अमदावाद गूजरात पुरातत्त्व मंदिर ) | तत्त्वार्थभाष्य (पूना आहेतमत प्रभाकर, कलकत्ता रॉयल एशिअमरकोश ( मुंबई राजकीय ग्रंथमाला निर्णयसागर प्रेस) । __ याटिक सोसायटी बेंगाल) अष्टशती (मुंबई निर्णयसागर प्रेस) | तत्त्वार्थराजबार्तिक ( काशी-सनातनजैन ग्रंथमाला) अष्टसहस्री (मुंबई निर्णयसागर प्रेस) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ( मुंबई निर्णयसागर आवृत्ति) अष्टसहस्रीटीका (लिखिता पूना भांडारकर प्राच्य विद्यासंशो- तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकाल कार ( मुंबई निर्णयसागर आवृत्ति) धनमंदिर) तत्त्वार्थसूत्र (मेसाणा) आचारागसूत्र (सुरत आगमोदय समिति ) तत्त्वसंग्रहकारिका (वडोदरा गायकवाड ग्रंथमाला) आचारागसूत्रटीका (सुरत आगमोदयसमिति) तत्त्वसंग्रह पञ्जिका ( वडोदरा गायकवाड ग्रंथमाला ) आप्तपरीक्षा ( काशी-सनातन जैनग्रंथमाला) तत्त्वोपप्लव ( लिखित गूजरात पुरातत्त्व मंदिर) आप्तमीमांसा ( काशी-सनातन जैनग्रंथमाला) तन्त्रवार्तिक (काशी) आवश्यकनियुक्ति ( काशी-यशोविजय ग्रंथमाला अपूर्ण) त्रिशिकाविज्ञप्ति (सं. प्रॉ. सिल्वन् लेवी पेरिस ) आवश्यक हरिभद्रीय (सुरत आगमोदयसमिति) त्रिंशिकाविज्ञप्तिभाष्य (सं. प्रॉ. सिल्वन लेवी पेरिस) उत्तराध्ययनसूत्र (सुरत देवचंद लालभाइ) दशवैकालि कसूत्र ( सुरत देवनंद लालभाई ) ऋग्वेद दशवैकालिकसूत्रनियुक्ति (सुरत देवचंद लालभाई) ऋक्संहिता देशीनाममाला ( मुंबई राजकीय ग्रंथमाला ) ओघनियुक्ति ( सुरत आगमोदयसमिति) द्रव्यगुणपर्यायरास (लिखित ) कठोपनिषद् ( ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषद् मुंबई निर्णयसागर प्रेस) द्वादशारनयचक्र (लिखित) कल्पसूत्र मूल (सुरत देवचंद लालभाई) धर्मसंग्रह (बौद्ध) (ऑक्स्फर्ड युनिवर्सिटि प्रेस १८८५) कातन्त्रव्याकरण (बिब्लिओथेका इंडिका नं. ८१) धर्मसंग्रहणी ( सुरत देवचंद लालभाई) काशिकावृत्ति ( काशी-विद्याविलास प्रेस) धर्मसंग्रहणीवृत्ति (सुरत देवचंद लालभाई) कुमारसंभव (मुंबई निर्णयसागर प्रेस) नयनप्रसादिनी चित्सुखी (मुंबई निर्णयसागर प्रेस ) केवलीभुक्तिप्रकरण ( अमदावाद जैन साहित्यसंशोधक) नयोपदेशवृत्ति (भावनगर आत्मानंदसभा) गणरत्नमहोदधि ( प्रयाग सरखती प्रेस संपादक भीम- | नवतत्त्व नाथ शर्मा) नियमसार (मुंबई जैन ग्रंथरत्नाकर कार्यालय) गोमटसार ( मुंबई निर्णयसागर प्रेस) नैषधकाव्य ( मुंबई निर्णयसागर प्रेस) गौडपादकारिका (पूना आनंदाश्रम ग्रंथमाला) नन्दिसूत्रचूर्णिः ( रतलामनी आवृत्ति) गङ्गानाथ झा अनुवादित बिब्लिओथेका इंडिका नं. ९८६) नन्दिसूत्र मलयगिरिटीका (सुरत देवचंद लालभाई) श्लोकवार्तिक नन्दिसूत्रलघुटीका ( लिखित) चरकसंहिता (कलकत्ता सं. योगेंद्रनाथ सेन) न्यायकुमुदचन्द्रोदय (लिखित) चान्द्रव्याकरण (लिप्जीक १९०२ संपा० ई. विन्डीश) न्यायदर्शन ( काशी-विद्याविलास प्रेस) Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | १५०) सन्मतिसम्पादने उपयुक्तानां ग्रन्थानां सूचिः। १०१ न्यायदर्शनवात्स्यायनभाष्य ( काशी-विद्याविलास प्रेस) बृहत्संहिता (काशी-पं. सुधाकर द्विवेदी संपादित) न्यायप्रवेशसूत्र ( वडोदरा गायकवाड ग्रंथमाला) बोधिचर्यावतार प्रज्ञापारमितापन्जिका (बिब्लिओथेका इंडिका न्यायप्रवेशसूत्रवृत्ति ( वडोदरा गायकवाड ग्रंथमाला ) न्यायबिन्दुप्रकरण (बिब्लिओथेका बुद्धिका नं. ७,१९१८) बजीयविश्वकोश (कलकत्ता आवृत्ति) न्यायबिन्दुप्रकरणटीका (बिब्लिओथेका बुद्धिका नं.७,१९१८) ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य (मुंबई निर्णयसागरप्रेस) न्यायमजरी (सं. गंगाधरशास्त्री विजयनगर ग्रंथमाला) ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्यभामतीटीका (मुंबई निर्णयसागरप्रेस) न्यायवार्तिक ( काशी-विद्याविलास प्रेस) भगवद्गीता (मुंबई निर्णयसागर प्रेस) न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका (काशी-विद्याविलासप्रेस) भगवतीसूत्र (रायचंद जिनागमसंग्रह) न्यायसिद्धान्तमुक्तावली (मुंबई निर्णयसागरप्रेस) भगवतीसूत्रटीका (सुरत आगमोदयसमिति) न्यायावतार (पाटण हेमचंद्राचार्य ग्रंथमाला ) भामहालकार (मुंबई राजकीय ग्रंथमाला) न्यायावतारटिप्पण (पाटण हेमचंद्राचार्य ग्रंथमाला ) मज्झिमनिकाय ( सी. वि. राजवाडे संपादित) पश्चाध्यायी (सुरत जैनविजयप्रेस) मध्यमकवृत्ति (बिब्लिओथेका बुद्धिका नं. ४) पञ्चाशकटीका (भावनगर जैनधर्मप्रसारक सभा) मनुस्मृति ( मुंबई निर्णयसागरप्रेस ) पञ्चास्तिकाय (मुंबई रायचंद जैन ग्रंथमाला) महाभारत आदिपर्व ( मुंबई निर्णयसागरप्रेस ) पराशरमाधव (बिब्लिओथेका इन्डिका प्रथमभाग) महाभारत वनपर्व (मुंबई निर्णयसागरप्रेस) परीक्षामुख (सं० घनश्यामदास जैन) महाभारत शान्तिपर्व (मुंबई निर्णयसागरप्रेस) पाइअलच्छीनाममाला (भावनगर सं० बेचरदास जीवराज दोसी) महायानसूत्रालङ्कार (पेरिस १९०७ सं० सिल्वन लेवी) पाणिनीयव्याकरण (मुंबई निर्णयसागरप्रेस) महाव्युत्पत्ति (बिब्लिओथेका बुद्धिका नं. १३) पाणिनीयमहाभाष्य (मुंबई निर्णयसागरप्रेस) माठरवृत्ति (साङ्ख्यकारिका) (काशी-चोखंबा ग्रंथमाला) पाणिनीयव्याकरणवार्तिक ( मुंबई निर्णयसागरप्रेस) मीमांसादर्शन ( काशी-विद्याविलासप्रेस) पातजलयोगदर्शनवाचस्पति मिश्रटीका (काशी-विद्याविलासप्रेस) | यास्कनिरुक्त ( मुंबई राजकीय ग्रंथमाला) प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारसूत्र ( काशी-यशोविजय ग्रंथमाला) | योगदर्शन ( काशी-विद्याविलासप्रेस ) प्रमाणपरीक्षा ( काशी-सनातन जैनग्रंथमाला) पातजलदर्शन ( काशी-विद्याविलासप्रेस) प्रमाणमीमांजा (पूना आर्हतमत प्रभाकर पुस्तकाकार, अमदा- रत्नाकरावतारिका ( काशी-यशोविजय ग्रंथमाला) ___ वाद पोथीआकार) रामायणअरण्यकाण्ड (मुंबई निर्णयसागरप्रेस) प्रमेयकमलमार्तण्ड (मुंबई निर्णयसागरप्रेस) लघीयत्रय (मुंबई माणेकचंद दिगंबर जैनग्रंथमाला ) प्रमेयकमलमार्तण्डटिप्पण (मुंबई निर्णयसागरप्रेस) लघीयत्रय खोपज्ञ बृहद्वृत्ति ( लिखित ) प्रमेयरत्नकोश (भावनगर जैन धर्मप्रसारक सभा) ललितविस्तरा (सुरत देवचंद लालभाई) प्रवचनसार (मुंबई रायचंद जैन शास्त्रमाला) लौकिकन्यायाञ्जलि (मुंबई निर्णयसागरप्रेस) प्रवचनसारोद्धार (सुरत देवचंद लालभाई ) लङ्कावतारसूत्र (कलकत्ता सं. शरच्चंद्रदास अने विद्याभूषण) प्रशमरतिप्रकरण ( कलकत्ता रॉयल एशियाटिक सोसायटी वाक्यपदीयमूल ( काशी-चोखंबा ग्रंथमाला) बेंगाल तत्त्वार्थभाष्यपुस्तकान्तः) वाक्यपदीयटीका हेलाराजकृता (काशी-चोखंबा ग्रंथमाला) प्रशस्तकन्दली ( विजयनगर ग्रंथमाला सं० विंध्येश्वरीप्रसाद | वाक्यपदीयटीका पुण्यराजकृता (काशी-चोखंबा ग्रंथमाला) द्विवेदी) वाचस्पत्यकोश (कलकत्ता) प्रज्ञापनासूत्र (सुरत देवचंद लालभाई) वात्स्यायनभाष्य ( काशी विद्याविलासप्रेस) प्राकृतपिङ्गल (कलकत्ता सं. चंद्रमोहन घोष) व्यासभाष्य (पूना आनंदाश्रमग्रंथमाला) प्राकृतप्रकाश ( काशी-विद्याविलास प्रेस) वायुपुराण (बिब्लिओथेका इंडिका नं. ८५) प्राकृतमञ्जरी (मुंबई निर्णयसागर प्रेस) विशेषणवती (लिखित) प्राकृतरूपावतार (सं. ई. हुल्श-रॉयल एशियाटिक सोसायटी)। विशेषावश्यकबृहदृत्ति (काशी-यशोविजय ग्रंथमाला) बृहदारण्यकोपनिषत् (पूना आनंदाश्रम संस्कृत ग्रंथमाला) | विशेषावश्यकभाष्य ( काशी-यशोविजय ग्रंथमाला) बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्य (पूना आनंदाश्रम संस्कृत ग्रंथमाला)। विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि (सं. प्रॉ. सिल्वन् लेवी पेरिस) बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक ( पूना आनंदाश्रम संस्कृत | वैजयन्तीकोश (मद्रास सहकारीप्रेस) ग्रंथमाला) वैद्यकसिन्धु (कविरत्न उमेशचंद्र गुप्त कलकत्ता) बृहद्व्यसंग्रह (मुंबई रायचंद जैन शास्त्रमाला) । वैशेषिकदर्शन (मुंबई गूजरातीप्रेस, काशी-विद्याविलासप्रेस) Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसम्पादने उपयुक्तानां ग्रन्थानां सूचिः। वैशेषिकद्वात्रिंशिका ( भावनगर जैनधर्मप्रसारक सभा) सुमङ्गलविलासिनी (पालिटेक्स्ट सोसायटी १८८६) शाकटायनव्याकरण (मद्रास १८९३ नी आवृत्ति) सूर्यसिद्धान्त ( उदयनारायणसिंह आर्यनो हिंदी अनुवाद) शाबरभाष्य ( काशी-विद्याविलासप्रेस) संक्षेपशारीरक ( काशी-विद्याविलास प्रेस) शाश्वतकोश (पूना सं. कृष्णाजी गोविंद ओक ) संयुत्तनिकाय (पालिटेक्स्ट सोसायटी १८९८) शास्त्रदीपिका युक्तिस्नेहप्रपूरणी सिद्धान्तचन्द्रिकाव्याख्यायुता साङ्ख्यकारिका ( काशी-विद्याविलास प्रेस) ( मुंबई निर्णयसागरप्रेस) साङ्ख्यतत्त्वकौमुदी ( काशी-विद्याविलास प्रेस) शास्त्रवार्तासमुच्चय (सुरत देवचंदलालभाई ) साङ्ख्यदर्शन ( काशी-विद्याविलास प्रेस) शास्त्रवार्तासमुच्चयस्याद्वादकल्पलताटीका (सुरत देवचंदलालभाई) साङ्ख्यप्रवचनभाष्य ( काशी-विद्याविलास प्रेस) शिक्षासमुच्चय (बिब्लिओथेका बुद्धिका नं. १. १९०२ नी साङ्ख्यसंग्रह (काशी-विद्याविलास प्रेस) आवृत्ति स्थानाङ्गसूत्र ( सुरत आगमोदयसमिति ) श्रीभाष्य ( मुंबई राजकीय ग्रंथमाला ) स्थानाङ्गटीका (सुरत आगमोदयसमिति ) श्वेताश्वतरोपनिषत् ( मुंबई निर्णयसागरप्रेस) स्फुटार्थअभिधर्मकोशव्याख्या (बिब्लिओथेका बुद्धिका नं २१) श्लोकवार्तिक ( काशी-चोखंबा ग्रंथमाला ) स्फोटसिद्धिन्यायविचार ( त्रिवेन्द्र-संस्कृतग्रंथमाला) श्लोकवार्तिकपार्थसारथिमिश्रव्याख्या (काशी-चोखंबा ग्रंथमाला) स्याद्वादमजरी (पूना-आर्हतमतप्रभाकर) षड्दर्शनसमुच्चय ( भावनगर आत्मानंद सभा) स्याद्वादरत्नाकर (पूना-आर्हतमतप्रभाकर पुस्तकाकार, अमदाषड्दर्शनसमुच्चयबृहदत्ति (बिब्लिओथेका इंडिका नं. १६७) वाद पोथी आकार ) षड्भाषाचन्द्रिका (सं. कमलाशंकर प्राणशंकर त्रिवेदी) वयंभूस्तोत्र (श्रीधर प्रेस सोलापुर) (मुंबई राजकीय ग्रंथमाला) हेतुमुख सनातन जैनग्रन्थमाला प्रथमगुच्छक हेतुबिन्दुतर्कटीका (अमदावाद गूजरातपुरातत्वमंदिर लिखित) सन्मतितर्कप्रकरण (अमदावाद गूजरातपुरातत्त्वमंदिर ) हैमअनेकार्थकोश ( सं. थीयोडोर जचेरी एज्युकेशन सोसा. सप्तभङ्गीतरङ्गिणी (मुंबई रायचंद जैनग्रंथमाला ) ___यटी प्रेस) सर्वदर्शनसंग्रह (पूना भांडारकर प्राच्यविद्यासंशोधनमंदिर) | हैमच्छन्दोऽनुशासन ( मुंबई निर्णयसागर आवृत्ति ) सर्वार्थ सिद्धि (कोल्हापुर जैनेंद्र मुद्रणालय) हेमतत्त्वप्रकाशिका बृहन्यास (हेमचंद्राचार्य ग्रंथमाला पाटण) सारखतव्याकरण (मुंबई निर्णयसागरप्रेस) हैमधातुपारायण (मुंबई सं. जोह. किर्स्ट एज्युकेशन सोसासिद्धिविनिश्चय (लिखित) ___यटी प्रेस) सुत्तनिपात (पूना-पि. वि. बापट ) हैमप्राकृतव्याकरण (मुंबई राजकीय आवृत्ति) सूत्रकृताङ्गसूत्र (सुरत आगमोदयसमिति) हैमव्याकरणबृहद्वृत्ति (अमदावाद आवृत्ति) सूत्रकृताइटीका ( , ) हैमव्याकरण (अमदावाद आवृत्ति) Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूजरात विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित पुरातत्त्व मंदिर ग्रन्थावली आर्यविद्यापाठावली १७ वैदिक पाठावली – सं० श्री० रसिकलाल छोटालाल परीख. ५ उपनिषत्पाठावली - सं० श्री० दत्तात्रेय बाळकृष्ण कालेलकर. १ पालीपाठावली -सं० श्री० जिनविजयजी. २ प्राकृतकथासंग्रह - 33 ६ अभिधम्मत्थसंगहो - ( बौद्ध तत्त्वज्ञाननो प्राथमिक ग्रंथ ) सं० अ० धर्मानंद कोसम्बी. ९ अभिधानप्पदीपिका - ( पाली भाषानो शब्दकोष ) सं० श्री० जिनविजयजी गूजराती भाषामा बौद्ध ग्रन्थो -99 १२ धम्मपद - सं० अ० धर्मानंद कोसम्बी. १३ समाधिमार्ग१४ बौद्धसंघनो परिचय —,, ७ बुद्धलीलासारसंग्रह — ले० 27 " " मूळ पाली ग्रन्थ १० सन्मतितर्क भाग १ २ ३ 11 " --- " 53 "3 "7 जैन तत्त्वज्ञानना ग्रन्थो १६ 77 १८ " १९ " ४ – " २० तच्चार्थसूत्र (गुजराती) वि० पं० सुखलालजी २१ सम्मतितर्क भाग ५ - सं० पं० सुखलालजी तथा पं० बेचरदास दोशी 11 व्याकरणग्रन्थ 12 ?? > सं० पं० सुखलालजी तथा पं० बेचरदास दोशी किं० १०-०-० 19 12 " किं० ३-८-० किं० ० -१२-० किं००-१४-० किं००- १२-० १५ प्राकृत व्याकरण -- ( गूजराती भाषामां प्राकृतभाषानुं व्याकरण ) ले० पं० बे० जी० दोशी अलंकारग्रन्थ किं०२-०-० किं०५-०-० 119091 ११ काव्यप्रकाश -- अनु० श्री० रामनारायण विश्वनाथ पाठक अने श्री० र छो. परीख. किं० १-०-० किं००-८-० किं० २-०-० किं० २८-० " 17 " 27 " " 17 " " " " " २-४-० ܐܐ १०-०-० किं० ४-०-० किं० १-८-० Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Secs गूजराती साहित्यने दीपावनारा ग्रन्थो ३ आर्यविद्याव्याख्यानमाळा-छींटनी पट्टी. किं० २-०-० चामडानी पट्टी. किं० २-८-० ४ प्राचीन साहित्य-(श्रीरवीन्द्रनाथ टागोरना पुस्तकनो अनुवाद) किं० ०-७-० ८ आर्योना तहेवारोनो इतिहास-ले० ऋग्वेदी. किं० ३-८-० प्राचीन गूजरातीगद्यसंदर्भ-सं० श्री० जिनविजयजी. किं०३-०-० गूजरात विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित श्रीरायचन्द्र जिनागमसंग्रह भगवतीसूत्र भाग १- (मूल अने टीकाना गूजराती अनुवाद सहित) अनु० पं० बे. जी. दोशी किं०९-०-० , २,, ,,३- अनु० पं० भगवानदास दोशी.,, १०-०-. ,, ४ ___ श्रीपूजाभाई जैन ग्रंथमाला १ सुत्तनिपात (बौद्ध ग्रंथ ) ___ गूजरातीमां अनुवादकः-अध्यापक धर्मानन्द कोसम्बी २ भगवान महावीरनी धर्मकथाओ (नायाधम्मकहाओनो अनुवाद) - अनुवादकः-पंडित बेचरदास दोशी छपाता ग्रंथो ३ मज्झिमनिकाय (बौद्ध ग्रंथ ) । गूजरातीमा अनुवादक:-अध्यापक धर्मानंद कोसम्बी ४ भगवान महावीरना दश श्रावको ( उपासकदशानो अनुवाद ) अनुवादकः-पंडित बेचरदास दोशी ५ सन्मति प्रकरण (गूजराती व्याख्या विवेचन अने विस्तृत प्रस्तावना सहित ) वि० पं० सुखलालजी तथा पं० बेचरदास दोशी पुरातत्त्व प्रकाशित भाग १-२-३-४-५, पुरातत्त्व त्रैमासिकना आज सुधीमां प्रकट थइ चुकेलां १,२,३,४ अने ५ पुस्तकोनी बांधेली थोडी नकलो तैयार छ. ए दरेक पुस्तकमां जैन, बौद्ध अने हिंदु साहित्यने लगता अनेक प्रकारना अने उच्च कोटिना अनेक लेखोनो उत्तम संग्रह थयेलो छ. प्रत्येक पुस्तकभंडारमा अने विद्वान् अभ्यासिओए गृहसंग्रहमां ए पुस्तको अवश्य संग्रहवा योग्य छे. मूल्य दरेक पुस्तकनुं रू०५-१२-० टपाल खर्च जुदो. प्राप्तिस्थानमंत्री-गूजरात पुरातत्त्वमंदिर, अमदावाद Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "Aho Shrut Gyanam" Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી જિનશાસના જય હો !!! || શ્રી ગૌતમસ્વામીન નમ: || || શ્રી સુધમસ્વિામીને નમ: II ! Tii > રે જિનશાસનના અણગાર, કલિકાલના શણગારા પૂજ્ય ભગવંતો અને જ્ઞાની પંડિતોએ શ્રુતભક્તિથી પ્રેરાઈને વિવિધ હસ્તલિખિત ગ્રંથો પરથી સંશોધન-સંપાદન કરીને અપૂર્વજહેમતથી ઘણાગ્રંથોનું વર્ષો પૂર્વે સર્જનકરેલછે અને પોતાની શક્તિ, સમય અને દ્રવ્યનો સવ્યય કરીને પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય ઉપાર્જન કરેલ છે. કાળના પ્રભાવે જીણી અને લુપ્ત થઈ રહેલા અને અલભ્ય બની જતા મુદ્રિત ગ્રંથો પૈકી પૂજ્ય ગુરુદેવોની પ્રેરણા અને આશીર્વાદથી 5//ww2. સ.૨૦૦૫માં 54 ગ્રંથોનો સેટ ની-૧ તથા સ.૨૦૦૬માં 36 ગ્રંથોનો સેટ ની 2 સ્કેન કરાવીને મર્યાદિત નકલ પ્રીન્ટ કરાવી હતી. જેથી આપણો શ્રુતવારસો બીજા અનેક વર્ષો સુધી ટકી રહે અને અભ્યાસુ મહાત્માઓને ઉપયોગી ગ્રંથો સરળતાથી ઉપલબ્ધ થાય. પૂજ્ય સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રેરણાથી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી તૈયાર કરવામાં આવેલ પુસ્તકોનો સેટ ભિન્ન-ભિન્ના શહેરોમાં આવેલા વિશિષ્ટ ઉત્તમ જ્ઞાનભંડારોની ભેટ મોકલવામાં આવ્યા હતા. આ બધાજપુસ્તકો પૂજ્યગુરુભગવંતોને વિશિષ્ટ અભ્યાસ-સંશોધન માટે ખGUજરુરી છે અને પ્રાયઃ અપ્રાપ્ય છે. અભ્યાસ-સંશોધનાર્થે જરૂરી પુસ્તકો સહેલાઈથી ઉપલબનતીમજ પ્રાચીન મુદ્રિત પુસ્તકોનો ક્યુત વારસો જળવાઇ રહે તે શુભ આશયથી આ ગ્રંથોનો જીર્ણોદ્ધાર કરેલ છે. જુદા જુદા વિષયોના વિશિષ્ટ કક્ષાના પુસ્તકોની જીર્ણોદ્ધાર પૂજ્ય ગુરૂભગવતીની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી અમો કરી રહ્યા છીએ. તો આશાએ તથા સંશોધના માટેવઘુમાં વઘુઉપયોગ કરીને શ્રુતભક્તિના કાર્યને પ્રોત્સાહન આપશો. લી.શાહ બાબુલાલ સરેમલ વોડાવાળાની વેદના મંદિરો જીર્ણ થતાં આજકાલના સોમપુરા દ્વારા પણ ઊભા કરી શકાશે....! પણ એકાદ ગ્રંથ નષ્ટ થતા બીજા કલિકાલસર્વજ્ઞ કે. મહોપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી ક્યાંથી લાવીશું...???