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155555555555555555555 卐 श्रीमद् पंन्यास मुक्तिविमलजैनग्रन्थमाला-ग्रन्थाक १
शांतमूर्ति पंन्यास दयाविमलगणिवरपादपद्मभ्यो नमः । पण्डितपन्यासप्रवरसङ्घविजयगणिसङ्कलितकल्पप्रदीपिकाऽभिधानावृत्तियुतम
युगप्रधानपूर्वधरभद्रबाहुस्वामिविरचितम
__ कल्पसूत्रम् बालब्रह्मचारी, सकलसिद्धान्तवाचस्पति पंन्यासप्रवरमुक्तिविमलगणिवरान्तेवासि व्याख्यानवाचस्पति श्रीमत् पन्यासप्रवररङ्गविमलगणिसदुपदेशतः
स्वपुत्रसुमतिलालस्मरणार्थ स्वधनव्ययेन देवीशाहपाटकवास्तव्य श्रेष्टि वाडीलाल चकुभाई इत्यनेन इयं प्रति प्रकाश्यं नीता
पण्डित मफतलाल झवेरचन्द्रेण संशोधिता विक्रम संवत १९९१ प्रत ५०० मुक्ति संवत १७ वीर संवत २४६१ 55555555555555555555555
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कल्प
BID
IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIMILE
प्रदीपिका
प्रत-५००
सने-१९३५
रतनपोलान्तर्गत गोलवाडस्थ
जैन अभ्युदय मुद्रणालये पटेल गरबडदास पुञ्जीदासेन इयं प्रति पत्राङ्क । २४–१३० यावत् मुद्रिता, ततो रतनपोलान्तर्गत विरविजयमुद्रणालये मणीलाल छगनलालेन पत्राङ्क १-२४ तथा १३० तो सम्पूर्णा मुद्रिता
प्राप्तिस्थानम् शेठ वाडीलाल चकुभाई
ठे. देवीशाहनो पाडो-अमदावाद.
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सकलसिद्धांत वाचस्पति प्रातःस्मरणीय बालब्रह्मचारी पंन्यासप्रवर श्रीमद् मुक्तिविमलगणिवरस्य स्तुत्यष्टकम्
वसन्ततिलका वृत्तम्
अज्ञानध्वान्तकवलीकृतमानसानाम् पञ्चेन्द्रियप्रकरपोषणतत्पराणाम् । ज्ञानप्रदीपकला प्रविदारकं तत्, तनौमि मुक्तिविमलं सुगुरुं सदाऽहम्
लुप्यत्कषायतिमिफेत्कृतिभीषणेऽस्मिन् - संस्पृश्यमानतलसंसृतिवार्धिमध्ये । निमज्जतां हि भविनां सुकरावलम्बम्, तं नौमि मुक्तिविमलं सुगुरुं सदाऽहम् लोकेप्सितप्रद सुपर्वमहाद्रुमाणि पश्चोत्तमानि सुव्रतान्यनिशं धरन्तम् । सौवर्णभूषितसुमेरुवसुन्धरेव, तन्नौमिमुक्तिविमलं सुगुरूं सदाऽहम् दुर्वादिवारिदसमूहमथे समीरम्, भव्याङ्कुरप्रकरजागरणे सुनीरम् पश्चाक्षशात्रवपराजयने सुवीरम्, तन्नौमि मुक्तिविमलं सुगुरुं सुधीरम्
॥१॥
॥२॥
॥३॥
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कल्प
स्वल्पायुषाऽपि सुरवाक्प्रचुराननेकान्, ग्रन्थान्कुशाग्रधिषणा विभवेन येन सद्यः प्रणीय जिनशासन दीपकं हि तन्नौमि मुक्तिविमलं सुगुरुं सदाऽहम् | ॥५॥
यो देवमर्त्यपशुपत्रिकदम्बकेषु एकातपत्रमिव राज्यमहो करोति तं मन्मथं वचनहृत्तनुभिर्जयन्तम् तं नौमि मुक्तिविमलं सुगुरुं सदाऽहम्
रे रे कृतान्त मणिमोषक लज्जसे नो, स्तेयं सुशास्त्रनिव हा बहुगर्हयन्ति । एवं त्वया विमलगच्छमणिग्रहीतो ह्यस्माकमुत्तमधनं जिनशास्त्रकोशः सच्छास्त्रतत्त्वपरिबोधनबद्धदेहम् औदार्यधैर्यविनयादिगुणैकगेहम् पोतं भवाम्बुनिधितीरसमागमेऽहमेवं सुमुक्तिविमलं सुगुरुं स्तुवेऽहम् [ शार्दूलविक्रीडितम् ]
संवद्वाज दिगंकसोमसमिते मासे शुभे कार्त्तिके, तत्पक्षे बहुले तिथौ वसुमिते वारे वरे गीष्पतौ । स्तोत्रं स्वीयगुरोः सुमुक्तिविमलस्यानन्दतो वर्णितम्, सद्भक्तिप्रचुरेण रङ्गविमलेनैतत्सतां प्रीतये ॥
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॥८॥
प्रदीपिका
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[शार्दूलविक्रीडितम् ]
चारित्राङ्कितचित्तमुक्तिविमलं
तीर्थालयं धर्मपम् वैराग्येन सदाऽभिवासितमन:
कर्मावलीछेदकम् औदार्यादिगुणौध मूर्तिसरलम्
श्रीपूज्यभव्याकृतिम् सच्छास्त्रे रतधीरवीरविबुधं
वन्दे मुनीशं मुदा ॥१॥
बालब्रह्मचारी व्याख्यानवाचस्पति परमपूज्य अनेक संस्कृत ग्रन्थ प्रणेता
चारित्रचूडामणि पन्यास श्रीमद् मुक्तिविमलजी गणि
जन्म-१९४९ वैशाखशुक्ल ३ दीक्षा-१९६२ मार्गशीर्ष कृष्ण ३ पन्यासपद-१९७० कार्तिक कृष्णैकादश्यां
निर्वाण-१९७४ भाद्रशुक्लचतुर्थ्यां
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सद्गत
भाईश्री सुमतिलाल वाडीलाल
देहावसान
जन्म
१९८९ ज्येष्ठमासे कृष्णपञ्चन्यां
१९७७ मार्गशीर्ष शुक्सप्तभ्यां
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स्व-भाइश्री–बाबु उर्फे सुमति वाडीलाल शाहनी टुंक जीवन रेखा
जन्मः सं १९७७ मागशरसुद सातम अवसान सं १९८९ जेठ वद पांचम
देवी पुरुषोनुं यौवन देवधाममांज होय छे
पवित्र मंदिरोनी हारमाळा अने अनेक पवित्र कार्योथी पवित्रथयेल राजनगरमां आ दैवी बाळकनो जन्म थयो. ने तेथी तेमना धर्मरसिक पिता वाडीलाल अने सद्गुणमूर्ति माता बाइ गजराना हर्षनो पार न रह्यो . योग्य अवसरे सौने ग्रा एवं गुणने अनुसरतुं 'सुमति' नाम पण पाडवामां आव्युं. आ सुमति खरेखर सुमतिरुपज हतो. आ सुमति गुण अ वये जेम जेम वृद्धि पामतो गयो तेम तेम पितानी सुखसमृद्धि पण वृद्धि पामता बाळक साथे वधवा लागी.
आनंदी बालपणमां आनंद मानता अने ए आनंदना सागरने युवानीने उमरे लइने चढतामांज भाइ श्री सुमतिनी जरुर देवोने पडी अने अणचिंतव्या आणां एमने लाध्यां. मात्र बार वर्षानीज टुंक वय होवा छतां भाइश्री सुमति बालकनी निर्दोषता युवानीना उत्साह अने वयोवृद्ध मनुष्यनी शक्ति धारण करता हता. एमना सबंधमां आवनार हरकोइ व्यक्तिने सहज लागतुं के पोते एक असाधारण आत्मामाथे विनोद अनुभवी रह्यो छे एमनामां गुणनो भंडार हतो एम सर्वकाइने कबुल कर पडे छे. पण तेमांए विशेषतः आनंदी स्वभाव, हसमुखो चहेरो, उदरता अने प्रमाणीकता आदी गुणो मनामां झगझगी रह्या हता. एमनो आत्मा अत्यंत संस्कारी हतो एम हरकाइने लागे छे. दुनीआने फक्त पोतानी अद्भूत शक्तिओनुं टुंक समयमां ब्यान कराववुं एज जाणे एमनु लक्ष्यार्थ हतुं. एमनी प्रमाणीकताना, सच्चाइना अने उदारताना असंख्य दाखलाओ एमना सबंधमां आवनारने खबर छे.
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कल्प-I
प्रदीपिका
भाइश्रीनो देखाव, शारीरीक संपत्ति तथा आनंदी चहेरो जोतांज सर्व कोइने लागतुं के आ कोई भविष्यनो महान नर छे. जे बावतो उपर भलभलानां मेजां काम करी न शके तेवी बाबतो नानी उमरमां पण तेमने सहजमां समज पडती. पिताश्रीना पैसाने तथा वैभवने वृद्धी साथे शोभा आपवानुं एमनु काम हतुं. एमनी पाछळ मित्रमंडळ अने चाळकोनुं टोळं हमेशां जामी रहेतुं. एक आज्ञांकित पुत्र, आज्ञांकित शिष्य, तथा व्हालसोया मित्र अने सलाहकार तरीके एमणे टुंक पण सुन्दर जीवन पसार कर्यु हतुं. तेवूज शुद्ध अने टुंक मृत्यु पण एमने प्राप्त थयु. ___ एक दैवी जीवन जेवू एमनु टंक आदर्श विद्यार्थिजिवन विश्वने अवनवा पाठ शीखवतुं गयुं छे. एवा आत्माओ ज्वलेज पृथ्वीपर अवतरे छे अने टुंक समयमा पोतानु काम आटोपी लइ स्वधाममां विरमे छे. एमना आत्माने तो मृत्युथी हर्ष-शोक कांइ नथी. आपणा जेवा स्वजनोनी फरज छे के एमनो आत्मा आनंद अने शांति अनुभवे एवी अहर्निश प्रार्थना करवी.
एलीसन्नीज, अमदवाद १-६-३४
गोविन्द लाल देसाई बी. ए. एल. एल. बी.
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ॐ अर्हम्
-प्रकाशनने अंगेसकलसंवेगीशीरोमणि जगतपूज्य निग्रंथशिरोमणि प्रातःस्मरणीय सच्चारित्रचूडामणि सकलसिद्धांत वाचस्पति संस्कृतभाषामयानेकग्रंथरचयिता विद्वज्जनवृंदनीय बाळब्रह्मचारी विमलगच्छाधिपति विद्वद्वर्य पन्यास श्रीमद् मुक्तिविमळ महाराजना विद्वान शिष्य परममाननीय परोपकारपरायण करुणापारावारंपारीण व्याख्यानवाचस्पति जैनागम परिशीलनशाली जैनशासनप्रभावक पूज्यपाद प्रसिद्धवक्ता अनुयोगाचार्य श्रीमद् पन्यासप्रवरश्री श्रीमद् रंगविमळजी महाराजे ज्यारथी आ प्रतने जोइ त्यारथी अहर्निश तेमना हृदयनी झंखना हतीके जे आ कल्पसूत्रनी आवी सरळ टुंकी हृदयंगम पूर्वमहर्षि कृत टीका बहार पाडवामां आवेतो आजे अनेकने उपकार थइ शके कारणके अत्यार सुधीनी बहार पडेली किरणावली, सुबोधिका, संदेहविषौषधी, कल्पकलिका विगेरे करतां पण आ टीकानी पदलालित्यता, संक्षिप्तता, अने हृदयंगमता घणीज आकर्षक छे. तेमज अल्पज्ञ जीवोने पण आ प्रतथी घणोज उपकार थई शके तेम छे. साथे साथे प्राचीन महात्मानो करेलो ग्रंथपण जगतने निहाळवा मळी शके.
छता आपणे हृदयमा थनारी अनेक शुभ आशाओ साधन अने संयोगना अभावे आपोआप लीन करवी पडे छे. ते परिस्थिति आ ग्रंथ परत्वे बनवा पामी नथी कारणफे आग्रंथना प्रकाशनमां तेनी उपयोगीता अने ग्रंथकारनी जगतभरनी
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कल्प
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उपकार करवानी बुद्धिथी थयेल. रचनाने लइने सौ साधन अने सामग्री मळी आव्यां अने आजे ते ग्रंथ तेना जिज्ञासुओ आगळ मुकी. शकवा. भाग्यशाली थइ शकायु छ.
आ ग्रंथने सर्वांगसुंदर बनाववा आ ग्रंथ परत्वे आर्थिक सहाय करनार शेठ वाडीलालभाइ चकुभाइ रे. अमदावाद देवसाना पाडाना अने तेना प्रेरक अमारा गुरु पू. पं. रंगविमळजी महराज नी पूर्ण इच्छाने लइने देशी लेजरपेपरमां छपाववामां आव्यो छे छतां अहिंना प्रेसोनी अने टाइपोनी हाडमारी ने अंगे आग्रंथमां जे कांइ त्रुटिता रही होय तेनी जरुर वांचको क्षमा आपशे. ___ अन्ते आ ग्रन्थने छपावतां प्रेसदोष थवा पाम्या होय तेने लइने थयेली भूलो तेमज दृष्टिदोषने लइने थयेल भूलो बदल वांचको जरुर क्षमा.आपशे. एज.
ले. पूज्यपाद प्रसिद्धवक्ता अनुयोगाचार्य श्रीमत् पन्यासप्रवररंगविमलजीगणिवरान्तेवासी गुरुचरणसरोजमकरन्दास्वादमधुकरायमाणविद्याविभूषितमुनिश्रीकनकविमलजी.
A
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I
प्रस्तावना जगतभरना कल्याणने इच्छनारा पूर्वमहर्षिओए भिक्षामात्र उपर रही एटलुं बधुं काम करेल छ के ज्यारे आपणे ते तरफ नजर नाखीए त्यारे आपणने आश्चर्य थया वगर रहेतुं नथी. कारण के ते महापुरुषोए परिमितजीवनकाळमां ग्रामानुग्राम विचरी जगतभरने उपदेशामृत वर्षावतां छतां अने हर हमेश धार्मिकक्रियानुष्ठान अने आत्मरमणमां लीन छतां आवा महान अने गंभीर अनेक ग्रंथो क्यारे अने केवी रीते रच्या हशे ?
- श्रेत्र प्रत्ये नजर नांखीए तो आपणे जोइ शकीशं के संख्याप्रमाणमां अल्पछतां जैनोए तमाम क्षेत्रमा प्रधानपणे भाग भजवेल छे. राजद्वारी धर्म दया नीति अने बीजा तमाम सामुदायिक कार्योमा जैनश्रावकवर्ग सौनो मार्ग दर्शक रुपेज रहेल छे. ज्यारे जगतभरना तमाम व्यापारोथी पर अने आत्मध्यानमां रक्त रही स्वपर कल्याण साधता जैनमुनिओए धर्म, साहित्यविगेरे धर्मोपयोगी कार्योमा सौथी पोतानो हिस्सो मुख्यपणे आपेल छे ते निर्विवाद छे. कारणके तेमणे साहित्य, काव्य, नाटय, नीति, मंत्र, ज्योतिष, शिल्प, निमित्त विगेरे सामान्य जीवनउपयोगी वस्तुओने पण धर्मोपयोगी बनाववा पूर्णपणे प्रयत्न करेलज छे अने तेने माटे नवु ने अद्वितीय अपूर्व साहित्य जगत आगळ सज्यु छे. आ रीते जैन श्रावकवर्ग अने जैनमुनिवर्ग जगतना व्यवहार अने धर्ममां अत्यंत उपयोगी भाग भजवेल छे. ते निर्विवाद छे आ सामान्य साहित्य पछी लोकोत्तर साहित्य संबंधी आपणे विचार करशुं तो ते पण मूख्यपणे चार विभागमां व्हेचायेलुं छे अने ते द्रव्यानुयोग गणितानुयोग चरणकरणानुयोग ने
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कल्प
प्रदीपिका
कथानुयोग छे. आ चारे प्रकारना अनुयोगवाळा सकल साहित्यमा पण कल्पसूत्र अजोड छ कारण के ते कल्पसत्रनो महिमा अने परमोत्कृष्टता दर्शावनारा आ नीचेनां पद्यो यथा द्रुमेषु कल्पद्रुः इत्यादि प्राचीनने अर्वाचीन नानीमोटी | तमाम टीकाओमां नजरे पडे छे तेज तेनी उत्तमताने पूज्यतानी साबिति आपे छे.
तेमज आ कल्पसूत्रनी रचना चउदपूर्वधर जगदुपकारी युगप्रधान श्रीमान् भद्रबाहु स्वामीए प्रत्याख्यानप्रवाद नामना नवमा पूर्वमांथी दशाश्रुतस्कन्धना आठमा अध्ययन पणाए रचेल छे. ते आजे स्पष्ट छे. उपदेशक के रचयितानाजीवनचर्यानी असर तेना ग्रंथमां के उपदेशमा जरुर उतरे छे अने तेने लइनेज ते ग्रंथ के तेना उपदेशनी असर एटली बधी चिरंजीवने फळदायक नीवडे छे के तेना श्रोता के वांचक ते ग्रंथके वचनद्वारा पोताना जीवनने समृद्ध करी शके छे. अने तेथीज आवा महापुरुषना रचेला आ ग्रंथने हजारो वर्ष थया छतां बाळथी वृद्ध सुधीनो तमाम वर्ग तेना श्रवण, पूजन अने आराधना माटे हरहमेशां पर्युषणपर्वमा उद्यत रह्या करे छे...
आ पर्युषणापर्वने पर्वाधिराजना नामथी संबोधवामां आवे छे ते योग्य छे. कारणके दरेक वस्तुना पर्वनी पाछळ ते ते कार्यनी सिद्धिनो आधार होयज छे. जेम अन्यदर्शनोना तमाम पर्वनी पाछळ ते ते दर्शनोना साध्यने al जीवनमा उतारवानो आशय मूख्य होय छे तेम आपणा समाजमां तीर्थकरना कल्याणको विगेरे तमाम पर्वोमां ज्ञान
दर्शन अने चारित्रने लोकजीवनमा विशेष पुष्टचने ते मूख्य होय छे. परंतु जे पर्वमा ज्ञान दर्शन चारित्रनो वधु उत्कर्ष तमाम जनतामा जळहळे ते पूर्व तमाम पर्वमा विशिष्टपर्व लेखाय ते सहज छे.
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____ आपणा धर्मनी पाछळ त्रण तत्त्व मूख्य छे अने ते देव गुरुने धर्म छे. आ पर्युषणा पर्वमां पण त्रणेनी आराधना उत्कृष्टरीते थाय छे अने ते उत्कृष्ट आराधनामां कल्पसूत्र वांचन ए मूख्य छे. कारणके तेमांत्रण तत्वोनी आराधना पोषक कल्पश्रवण योगोद्वाही गुरुओ जिज्ञासुओने संभळावे छे. कारण के ते कल्पसूत्रमा मूख्यपणेत्रण अधिकार आवे छे. अने ते १ जिनेश्वरोनां चरित्रो, २ स्थविरावळी ३ अने समाचारी छे. अने ते त्रणे अनुक्रमे देवनां चरित्र, गुरुनां चरित्र अने धर्मकथन रुप छे. ___ आ कल्पसूत्रमा प्रथम अधिकाररूपे वर्णवेला चोविशे जिनेश्वरना चरित्रोनुं वर्णन. प्रथमथी बसो अठयावीस सूत्रमा वर्णवेल छे. स्थविरावलीरुप वीजा अधिकार वर्णन ६१ सूत्रमा करवामां आवेल छे. अने तीजा अधिकाररुप कल्पसमाचारी ६४ सूत्रमा वर्णवेल छे. जिनचरिताधिकारमा प्रथम अत्यंत आसन्न उपकारी महावीर भगवाननुं जन्म, बाल्यकाळ, युवाकाळ,, श्रमणावस्था. छग्रस्थावस्थाकाळ, कैवल्यकाळ अने छेवटे निर्वाणसुधीनुं विस्तृत जीवनचरित्र संपूर्ण शुद्ध ने सत्यरीते आपेल छे. अने त्यारवाद संक्षिप्तरीते पार्श्वचरित्र नेमिचरित्र, शांतिनाथ चरित्र, अने ऋषभचरित्र ने वर्णवी शेष जिनेश्वरोना नामनिर्देश अने अंतरोनुं वर्णन करी समाप्त करवामां आवेल छे, वीजा अधिकारमा ३३ आचार्योनी परंपरा अने ढुंकजीवन परिचयने हृदयंगमरीते वर्णनकरी पूर्ण करवामां आवेल छे. अने तीजो अधिकार साधु साध्वीओना आचार प्रायश्चित विगेरेनुं वर्णन करी समाप्त करेल छे.
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कल्प
प्रदीपिका
आ कल्पसूत्रना रचयिता चौदपूर्वधर युगप्रधान भद्रबाहु स्वामि क्यारे क्या अने तेमणे शुं शुं कर्यु तेनो विस्तृत ।। अधिकार आज ग्रंथना स्थविरावलीमां आपेल होवाथी अहिं आपवो ते तेने फरी कहेवा जे छे. तेथी तेना जिज्ञासुओए त्यांथी ते महापुरुषनो जीवनवृत्तांत जोई लेवो.
आ कल्पसूत्र आपणा तमाम साहित्यमा मुख्य अने प्रसिद्ध छे. तेमज तेना रचयिता भद्रबाहुस्वामि पण एटला बधा प्रसिद्ध छे के जेनाथी भाग्ये ज कोई अज्ञात होय धर्मानुष्ठानसूत्रो सिवाय कल्पसूत्र एकज ग्रंथ एवो छे के जे दर वर्षे सौ बालकथी वृद्ध सुधीना तमाम श्रवण करे छे तदुपरांत आ कल्पसूत्रमाथी आपणने आजथी बे हजार वर्ष पहेलांनी धर्मभावना, रीतरिवाज, पठनपाठनपद्धति ने तेना विषयो, राजा अने प्रजाओना संबंध, ऐतिहासिक स्थळोना निर्देश, विगेरे अनेक विगतोनी माहिती मळे छे.
टीका अने टीकाकार. कल्पसूत्र उपर अन्तर्वाचना, कल्पटिप्पन, किरणावली, संदेहविपोषधी, दिपिका, प्रदीपिका, सुबोधिका, कल्पकलिका, विगेरे अनेक टीकाओ आजे जुना भंडारोमां नजरे पडे छे जेमांथी अद्यावधि संदेहविषौषधि, कीरणावली, सुबोधिका, कल्पकलिका विगेरे टीकाओ छपाइ चुकी छे.
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हजी कल्पप्रदीपिका, दीपिका अने कल्पटिप्पन विगेरे कल्पसूत्रनी व्याख्यारूपे बनली टीकाओ अप्रसिद्ध छे. तेमांथी आ कल्पप्रदीपिका टीका सरळ टुंकी अने हृदयंगम प्राचीन टीका छे. जे आजे बहार पडतां अत्यंत उपयोगी थइ पडशे. कारण कल्पकीरणावली कठिन अने विद्वान माणसो वांची शके तेवी होइ तेनो लाभ सामान्य अभ्यासी ओछाज लह शके छे. सुबोधिका सरळ होवा छतां अत्यंत विस्तीर्ण होवाथी पांच दीवसमां पुरूं करवानी पद्धतिने लड़ने वांचकमुनि ने श्रोता घणा कंटाळे छे तेओने आ टुंकवखतमां पूर्णपामे तेवी होवा छतां सर्व विषयोने हृदयस्पर्शी प्रतिपादन करनारी टीका जरुर उपयोगी नीवडशे.
कल्पकीरणावलीनी रचना राधनपुरमां विक्रमसंवत १६२८ नी दीवाळीमां धर्मसागर उपाध्याए करेल छे. जेनुं टीका प्रमाण ४८१४ श्लोक अने उपर १६ अक्षर प्रमाण छे. कल्पसूत्रमूळ १२१६ श्लोकप्रमाण छे.
कल्पदीपिका टीकानी पंडित जयविजयजीए वृद्धिविजयनी प्रार्थनाथी संवत - १६७७ कारतक सुदी - ६ ना दीवसे करेल छे. अने जेने ते वखतना गणाता समर्थ विद्यान पं भावविजयजीए संशोधन करेल छे. जेनुं टीका प्रमाण ३५३२ श्लोक प्रमाण छे अने कल्पसूत्र मूळ प्रमाण १२१६ श्लोक प्रमाण छे.
कल्पसूबोधिकाटीकानी रचना सहु छेल्ले उपाध्याय विनयविजयजी ए लगभग विक्रमसंवत वि. १७१० नी सालमां रचना करी छे. जेनुं श्लोक प्रमाण लगभग ५४०० श्लोक सुधीनं विस्तीर्ण छे. आ टीकाना पण संशोधक प्रखर पंडित भावविजयजी गणि छे.
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कल्प
छेल्ली आपणी कल्पप्रदीपिकानुं प्रमाण, रचना अने संशोधन प्रशस्ति तपासीशुं तो मालम पडशे के तेनुं श्लोकप्रमाण GHदीपिका सौथी ओळुछे छतां सौने उपकारक तेवी सुंदर शैलीथी लखायेल छे. __आ कल्पप्रदीपिकानी टीकानी रचना परमपूज्य भट्टारक आचार्य प्रवर श्रीमद् विजय सेनसूरीश्वरजीना शिष्य श्रीमान् पंडित सहविजय गणिए १६७४ नी सालमा रचना करी छे जेनी ग्रंन्थने अन्ते प्रशस्ति आ प्रमाणे छे.
'वेदाद्रिरसशीतांशु १६७४ मितान्दे विक्रमार्कतः । श्रीमद्विजयसेनाख्यसरिपादाब्जसेविना ॥१॥ प्राज्ञश्रीसङ्घविजयगणिना या विनिर्मिता । विबुधैर्वाच्यमानाऽस्तु सा श्रीकल्पमदीपिका ॥२॥ युग्मम् ॥ श्रीवीरक्रमसेवापरायणः श्रीसुधर्मनामाऽऽसीत् । प्रथमो गणाधिराजस्ततः क्रमात् हीरविजयगुरुः ॥३॥ यद्वचनरञ्जितश्री अकब्बरक्षितिधरोऽखिले देशे । पप्मासावधिर्जीवाऽभयप्रदानं विधत्ते स्म ॥ ४॥ तत्पद्रोदयभूभृततरणिः श्रीविजयसेनसूरीन्द्रः । आवसुधा चन्द्रार्क यत्कीर्तिनिश्चला तस्थौ ॥ ५ ॥ तत्पट्टभालभूषणमूरिश्रीविजयदेवमुनिराजः, सम्प्रति जयति जगत्यां, जनयन्नमिवाञ्छितं वस्तु ॥ ६ ॥ अमृतोपमानवचसा सारदसंपूर्णसोमसमयशसः । तस्य भवरे राज्ये, वसुधाष्टरसेषु मितवर्षे ॥ ७॥
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श्रीमत्कल्याणविजयवाचककोटीतटीकिरीटानां । शिष्यैः श्रीधनविजयः वाचकचूडामणीमुख्यः ॥ ८॥ कल्पप्रदीपिकायाः प्रतिरेषा शोधिता चिरं जयतु । मात्सर्यमुक्तमनसा, विबुधैरपरैश्च संशोध्या ॥९॥ प्रत्यक्षरगणनया भवति कल्पप्रदीपिकाग्रन्थे । श्लोकानां द्वात्रिंशत् शतानि पञ्चाशदधिकानि ॥ १०॥
आ प्रशस्ति प्रमाणे आ ग्रंथनी रचना १६७४ नी सालमा थयेल छे. अने जेनुं संशोधन पूर्णपणे कल्याणविजयवाचकना शिष्य धनविजयवाचके १६८१ नी सालमां करेल छे. आ टीकार्नु प्रमाण ३२५० श्लोकप्रमाण छे अने मूळप्रमाण १२१६ श्लोक प्रमाण छे.
___ आ पंडितप्रवर संघविजयगणिना मातापिता जन्मभूमि दीक्षासंवत विगेरे आजे प्रसिद्ध नथी छतां एटलं तो चोक्कस छ । के तेओ आचार्य विजयसेनसूरीश्वरजीना संप्रदायमा एक अग्रगण्य अने महाविद्वान् होवा जोइए. छतां आजे अमे ते संबंधी साधन अने संयोगनो अभाव होवाथी विशेष नथी लखी शकता. तेमज आ महापुरुषने जरूर विस्तीर्ण शिष्य समुदाय पण | होवो जोइए कारणके विजयसेनप्रश्नमां पण आ महापुरुषना पुछेला प्रश्नोतुं वर्णन वारंवार आवेल छे. तेमज श्री.रा. मोहन-दा N लाल दलीचंद देसाइनी बहार पडेल जैन गुर्जर काव्यना भाग २ मां यशोविजयजी काव्य संग्रहमा "शेठ आणंदजी
कल्याणजीनी पेढीना पालीताणा भंडारमांनी शाश्वतजिनभाष नामनी प्रतमा 'किर्तिविजय उवज्झायकेरो, लहीइ पूण्यपसाय
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दीपिका
सासताजिन थुणई इणिपरि विनय विजय उवज्झाय मेरे' ए श्लोक आपी नीचे -पं श्री संघविजयगणि शिष्य पं खेमाविजय- गणिना लिखितम् गणिरुपविजयवाचनार्थ आ पंक्तिओ लखेल छे. अने जो ते संघविजयगणि आ ग्रंथकार होय तो जरूर तेमने विस्तीर्ण शिष्यसमुदाय पण होवो जोइए..
अंते आग्रंथने छापवामां अमे जे हस्त लिखित प्रतिनो उपयोग को छे ते प्रतपण ग्रंथरचाया पछी तत्कालिन अतिशुद्ध लखायेल छे जेमां प्रति अंते नीचे प्रमाणे लखेल छे. _ 'संवत १६८३ वैशाखसुदि ७ गुरुवासरे लिखितं, महिसाणापुरे लेखकपाठकयोः शुभं भवतु, श्रीमहिसाणकनगर वास्तव्य श्रीमालीज्ञातीय वृद्धशाखीय श्रेष्ठिनाकरभार्या बाइनारंगदेसुतश्रेष्ठि पुजाख्येन सवृत्तिकल्पसूत्रप्रति लिखापिता स्वश्रेयसे' ___ आ प्रत एटली बवी व्यवस्थित सुंदररीते संशोधन पूर्वक लखायेल होइ अमाराकार्यने घणी सुगमता करी आपेल छ प्रति उपर 'हस्तिविजय' ए प्रमाणे नाम लखेल छे.
. एज मफतलाल झवेरचंद गांधी अमारा तरफथी तुर्त बहार पडेल नवीन ग्रंथो
हाल छपाता ग्रथो सप्तव्यसन कथा समुच्चय-१६ फानो सरळ | भविष्यदत्त चरित्र [कर्ता उपाध्यायमेघविजयगणि] अप्रसिद्ध श्लोकबद्ध किं. २-०-०
सरळ श्लोकबद्ध कल्पदीपिका-कल्पसूत्र उपरनी ३२ फर्मानी सरळ त्रैलोक्यप्रकाश [कर्ता हेमचन्द्रसूरि] फळादेशनो अपूर्व अप्रसिद्ध टीका किं. ३-८-०
ज्योतिष ग्रंथ. .
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कल्पसूत्रविषयानुक्रमः
दारकजन्म, दारकस्य चक्रिजिनत्वे स्वमाङ्गीकारः जागरिका च, सेवकाहानं नगरशोभा, सभागमनानि, भद्रासनरचनास्वमपाठकाह्वानतदागमनैकत्रीभवनाशीर्वादद । नानि च,
प्रथमं व्याख्यानं– १ – २२
मङ्गलादि, आचेलक्यादयः कल्पाः कल्पमहिमा, पूर्वलेखने मषीमानम्, चैत्य परिपाव्यादीनि पञ्चकार्याणि, अष्टमतपसि नागकेतुकथानकम्, संक्षिप्तवाचनया वीरचरित्रम्, श्रीवीरस्य गर्भावतारः, देवानन्दायाः स्वप्नदर्शनम्, स्वप्मनिवेदनम् फलस्य पृच्छा स्वमाधिकारश्थ, इन्द्रस्वरुपं ( कार्त्तिक श्रेष्ठिकथानकम् ) इन्द्रस्य हर्षः शक्र - स्तवश्च ( मेघकुमारकथानकम् ), द्वितीयं व्याख्यानम् – २३–३८
वीरवन्दनं, अर्हदायुःपत्तौ योग्यायोग्यकुलानि, आश्चर्यदशकं सप्तविंशतिभवाः, श्रीवीरस्य गर्भान्तरसङ्क्रमः, श्रीवीरस्य सङ्क्रमज्ञानं, त्रिशलावासगृहसङ्क्रम, गजादिस्वप्नचतुष्टयवर्णनम् तृतीयं व्याख्यानम् - ३२–५३
शेषस्वमवर्णनम्, त्रिशलाकृतं सिद्धार्थजागरणम्, स्वप्नफलपृच्छा, रिकदाने, दीक्षामहोत्सवः, दीक्षा च,
चतुर्थं व्याख्यानम् — ५३–६५
स्वमपाठकसत्कारः स्वमनिवेदनम् फलपृच्छा स्वमाधिकारश्च, निधानोपसंहारो वर्द्धमाननामकरणेच्छा च, गर्भस्य निश्चलता मातुर्विलापः कम्पः हर्षः वीरस्याभिग्रहश्थ, गर्भपोषणं वीरजन्म च, पञ्चमं व्याख्यानम् - ६५–८२
वीरस्य जन्मोत्सव रत्नादिवृष्टिः सूर्यचन्द्रदर्शनं नामकरणं च वीरस्य नामत्रयं क्रीडा चामलकी, लेखशालागमनं व्याकरणोत्पत्तिश्व, पितृमातृपुत्रीपितृव्यनामानि दीक्षासंकल्पो, देवागमनं, सांवत्स
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प्रदीपिका
कल्प- | षष्ठं व्याख्यानं–८२-१०९
अष्टमं व्याख्यानम्-१३३-१४६, दीक्षानन्तरं द्वादशवर्षपर्यन्तं नानाविधोपसर्गसहनम् , तपः- एकादश गणधराः नवगणाश्च तद्धेतुः, वाचना नवकम् , वर्णनम् , केवलम् , इन्द्रभूत्यादि गणधरागमनम् शङ्कानिराक- श्रीसधर्मस्वामिजम्बुस्वामिप्रभवस्वाम्यादिस्वरूपं कुलगणशाखास्वरणम् , प्रतिबोधो दीक्षा, गणधरपदं, त्रिपदीदानं अनुज्ञा च, रूपम् , त्रैराशिकमतोत्पत्ति; पधबन्धेन फल्गुमित्रादिनतिः निर्वाण, गौतमकेवलं, अष्टाशीतिम्रहाः; कुन्थूत्पत्तिः, श्रमणश्रमणीश्रा
नवमं व्याख्यानम्-१-२६ , वकश्राविकादिपरिवारः, पर्युषणकल्पस्य पुस्तके वाचना. सप्तमं व्याख्यानं–१०९-१३२..
...पर्युषणाकालस्तद्धेतुश्च परम्परा, चूलमासगणनाखण्डनं स्था_ पार्श्वनाथारिष्टनेमिचरित्रे, (कमठोपसर्गः नेमिविवाहश्च) पना च, दानग्रहण-विकृतिवर्जनग्रहण-दत्तिग्रहणादिसमाचारीकथमम्, नम्यादीनामजितान्तानामन्तराणि, ऋषभचरित्रं, गणधरादिपरिवारः अधिकरणप्रतिषेधः (द्विजदृष्टान्तः) उदयनदृष्टान्तः मृगावतीदृष्टान्तश्च, निर्वाणं,
कल्पस्य वीरजिनोक्तता, आराधने तद्भवसिद्धिक्त्वादि; प्रशस्तिः
०
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पृष्ट लीटी पार्नु अशुद्ध शुद्ध १-१०-७ संसम्मानितः स सन्मानितः
१ - १२-७ मोदन्या १-१३–७ बहुप्रणां
१-१४-७ पश्चाभ
१-१३-८ गृहणाणान्
२--६--९ तता
मेदिन्या
बहुप्राणां
पश्चभि
गृहूणाणान्
ततो
१-७--११ तच १-२ -१२ रतिश्चः
रतिश्च १-१४-१२ दि:त दितः १-१४-१२ च्येत्यनेन चेत्यनेन २-१३ - १३ : अतीताथा अतीतार्था
शुद्धिपत्रकम्
१-१०-१४ पाड
१-११-१४ रात्र
२ - २ - १५ नारीणा
२-४-१५ या
१ - २ - १६ प्रभृता
१-३-१६ शाभन
१-१४-१६ छन्दा
२ -- ९ - १६ ज्यातिषां १-६-१७ दित।
२ - १ - १३ प्रताष्ट
१-९-१८ ता
२-१--१८ शक्रा
पडि
रात्रि
नारीणां
यो
प्रभृती
शोभन
छन्दो
ज्योतिषां
दितो
प्रतीष्टं
हतो
शक्रो
२--४ -१८ शास्ताति शास्तीति १-३-२० ऽताव ऽतीव १-७-२० दालायमानम् दोलायमानम् २-६-२० वाहयाणं बोहयाणं
२-१६-२१ रजा
रजो
१-१०-२२ तृताय
तृतीय
१-११-२२ तृषिता
तृषितो
अप्रतिहते
स्तौति :
भोगा
१-५- २३ अप्रांतहते
२-४-२३ स्तौति
१-९-२४ भागा
२-११-२४ भूयांसा २-१२-२४ कृता
भूयांसो
कृतो
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कल्प
९
२ १२ २४ सार्थ
तीर्थ
१ - २ - २७ खे
as
१-५-३० प्रजति
व्रजति
१-१२ - ३० परिशाटय परिशाव्य
२--८-३० गिणित्ता
गिण्हित्ता
पश्यतीति
२--७-- ३४ पश्तति ३६ मा अंकवाळु पृष्ठ २ जुं ते ३५
काळानुं प्रथम पृष्ठ गणवुं अने ३५ मा अंकवाळानुं प्रथम पृष्ठ ते ३६ मां अकवाळानुं बीजं पृष्ठ गणवं. १-९-३५ द्विकोश
द्विक्रोश
तावन्त्येव
१ - १५ - ३५ तावात्येव
१ - २ - ३७ नर्ऋत्यां
नैऋत्यां
११- ३ - ३७ प्रोणयन्ताति प्रीणयन्तीति
१-२ -- ३८ कण्ड
१--८--३८ कृता
२-१० - ३८ र्ण १-१०-४० मत्थत्य
मत्थय
२--६-४१ रमणिञ्ज
रमणिज्ज
१-११-४२ तीररा
तीरा
१-१-४५ शोक शोका २-११-४६ उवागमिच्ता उवागच्छित्ता १ ४ ४८ रता ४९ करे
१ ७
५० निक्वमिता निक्रवमित्ता
५० पुष्पोदकेः पुष्पोदकैः
स्नानावसरे
भूषितो
१ ४
१ ७
१
८ ५०. स्नावसरे
२ १४ ५० भूषिता
कण्ठ
कृतो
वर्ण
रत्ता करैः
१ ५ ५२ वतिनीम् वर्त्तिनीम् १४ ५३ व्याना
१ ४ ५३ इत्यादिता
१ ६ ५३ कताङ्गाः
५३ महले
१ ७ १- ११ ५४ संचाल
२ ७ ५७ प्रतिपत्या
१२ ६१ भवात्तरे
नाना
इत्यादितो
कृताङ्गाः
मङ्ग
संचालेति
प्रतिपत्त्या
भवान्तरे
२ ३ ६१ श्रत्त्वा
२ ९ ६१ र्नाटकायै
२ १३ ६२ लेस्वक
१ ११ ६४ मानानं
१ ३ ६५ योतभावात् द्योताभावात्
१ ६ ६६ बेडूर्य बैडूर्यै
श्रुत्वा
र्नाटकीयै
लेखक
मानं
प्रदीपिका
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१ १३ ६६ कृते कृतैः ११२ ८० चार चारै २६ ७० ऋद्धया ऋया २१४ ८० माण माणे २९ ७० उभयता उभयतो २ ५ ८१
त्त त्ति २८ ७१ खत्तियहिं खत्तियेहिं २६ ८१ गृह्णन गृह्णन् ११२ ७२ परिभाजयन्तौ परिभोजयन्तौ २७ ८१ यद्वा यद्वादित्रं २ ५ ७४ विच्छित्यै विच्छित्यै २ ९ ८१ वुध्यमानः बुध्यमानः ११० ७५ दिता दितो ११४ ८५ दामा दाम २ २ ७५ विदहे विदेहे २१४ ८५ खजुर्याधा खजुर्याधो २ ८ ७७ ऋच्छन्ताति ऋच्छन्तीति ११ ८६ तृताय तृतीय १ ९ ७८ तार्थ तीर्थ १११ ८६ भशं शं २ ३ ७९ स्वस्तीक स्वस्तिका ११४ ८६ खेमिला खेमिलो २ ७ ७९ तता ततो २ ७ ८६ तदेतो तदेतो २ ७ ७९ तता ततो १४ ८९ स्वर्गण स्वर्गेग | १२ ८० विशषणा विशेषणो ११४ ८९ राद्ध राई
or
२११ ८९ लोभ लोभा १ ६ ९० गोपनंव गोपेनैव १ ४ ९४ उक्कु उक्कुडुअ २१० ९४ विष्वग् विष्वग् १ ९ ९७ ब्रह्मा ब्रह्मा २ ७ ९७ गय गर्य
७ ९८ दशन दर्शन २२ ९८ मया मयो २ ७ ९९ खगादि खड्गादि २ ३ १०० इत्यदि इत्यादि २११ १०० अतां अतो १ ४ १००अ पताति प्रतीति १११ १००अ षुरुष पुरुष ११४ १००असा सो
REEEEEEEEEEE
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०
|२१ १००अ बाह बाह्य ।
२१४ १००अ देवा देवा । | १ ३ १००ब पितृणां पितॄणां १ ६ १००ब वय वेय : २ १२ १००ब कर्तव्या कर्तव्या २१४ १००ब दाशतः दर्शितः । १ ९ १०१ चक्रः चक्रुः १ १ १.२ सव सर्व १ ९ १०२ बुद्ध बुद्धे , २ ३ १०२ ससारात् संसारात् १ २ १०३ स्ताकः स्तोकः १२ १०३ तृताय तृतीय २ ४ १०४ शाक शोक' ११४ १०५ इन्द्रेण इन्द्रेण | १ १२ १०६ समणा समणो
२५ १०६ उकासिआ उक्कोसिआ २ ४ ११६प्रव्रजिष्यतातिप्रजिष्यतीति| प्रदीपिका २ १३ १०६ दंसणधाणं दंसणधराणं ११ ११७ सुपुविरे सुषुविरे ११ १०७ नाणणिं नाणीणं २१४ ११६ पई पई १ ७ १०८ तृतायतृताय तृतीयातृतीय २६ ११७ पशून पशून् २ ३ १०९ वायणंतर वायणंतरे १८ ११९ तता ततो ५ ५ ११० चुएमे चुएमि २७ ११९ अउणत्तेरि अउणत्तरि २७ ११० जसहमं जेसेहेमं २४ १२१ ससस्स सयस्स १७ १११ पञ्चो पञ्चा ११ १२२ सहस्त्र सहस्र १ १० १११ कुपा, कृपा १ ११ १२२ सागर सागरैः १ १४ १११ जनेः जनैः . २४ १२३ ब्दोन-अ ब्दोन–स्र १ ११ ११२ भक्ति भक्ति २७ १२३ सहस्त्र सहस्र २ २२ ११३ दुक्च दुक्ख २११ १२३ सहस्त्र सहस्र १ १ ११५ चवे चेव २ १२ २२३ सामर सागरैः २ २ ११६ श्नते नुते १२ १२४ माला मासा
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| १ ३ १२४ कदश दश १ २ १३० यतादि द्युतादि २ १० १४५ जहिलस्स जेहिलस्स
१ ६ १२४ चत्वारिं चत्वारि २१४ १३० विजहे "विजहें २ १३ १४५ थेर थेरे २२ १२५ अथेदृश्ये अथेदृशे २ ३ १३० एव-तस्ममेव एवं-तस्मिन्नेव १ ३ १४६ थेर थेरे २ ३ १२५ नेक नैकस्मिन् २ ३ १३० चक्र चक्र १ ३ १४६ सत्तंसजुत्तं सत्तसंजुत्तं २ ४ १२५ स्वर्ग स्वर्गे २ १४ १३० वृत्त वृत्ते । १ ६ २ पञ्चशता पश्चाशता २११ १२५ कोसालिए कोसलिए ११ १३१ देवै देव १ २ ३ सवासइ सवीसइ १ ६ १२६ क्रमणोयाज्ञो क्रमणीयाज्ञो १५ १३१ प्रभु प्रभु १ १४ ३ कहिआ कहिओ. १ १२ १२६ सङ्गह सङ्ग्रह २११ १३१ सहरसा सहस्सा ११५४ सक्राशं सक्रोशं १ ९ १२७ विणीय विणीयं . १ ७ १३२ देवाना देवान्त १ ८ ५ पश्चाहा पञ्चाहो ११४ १२८ तक्षाशला तक्षशिला १५ १३४ सच सब्वे १ १०५ मखला मेंखला १ ११ १२९ क्षुत्तुङ् क्षुत्तुड्
२४ ५ स्ताक स्तोक २ १ १२९ खड्ग खड्ग ११० १४४ गिरा-कासिय गिरी-कोसिय १ ५ ६ जघन्यता जघन्यतो २६ १२९ जायण जायाणं २१ १४४ थेर थेरे- १८६ पडिगाहिए पडिगाहित्तए २ १३ १२९ लातः लाति १५ १४५ श्रुताच्छेदं श्रुतोच्छेदं १ ५ ७ चतुर्मासां चतुर्मासी
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कल्प
१ ८ ८ मता मतो | १ ९ ८ कुता कुतो २६ ९ कप्पति कप्पंति २ ११ ९ पानेषणां पानैषणो १ ४ १० चाउला चाउलो १ ७ १० इत्यनैवोक्तं इत्यनेनैवोक्तं १ ९ १० साव सेवि २४ १० दात्त दत्तिः १४ ११ तता ततो २ १३ ११ धारिणा धारिणो १ ८ १२ गिग्गंथस्स निग्गंथस्स
२६ १२
से ११ १७ गाणनो गणिनो । प्रदीपिका १ १ १४ लाहकारादानां लोहकारादीना १६ ९७ प्रात प्रति ११ १४ सालाके सालोके २ १२ १८ दाषाः--काया दोषा:-कायो १६ १४ थेर-सं थेरे-स
२ १ २१ पज्जा पज्जो १ ९ १४ गारा गारी
२२ २१ पज्जा पज्जो २ १० १४ सिणेहं सिणेहे
२ १४ २२ वतां वर्ती । १ ८ १५ विह विहे ।
१ १२ २३ ऋतुबद्धे ऋतुबद्धे १ ९ १५ सुहुम सुहुमे
१ २ २५ शाल शील २ ३ १५ संड-अंड संडे--अडे १४ १६ तमिात तमिति
१ ३ २५ नि:-ऽमा निः-ऽमी १ ९ १६ तचा तच्चो
२४ २२ दीपिकायां प्रदीपिकायां
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॥ॐ अहम् ॥
॥ श्री वीतरागाय नमः॥ पण्डितप्रवरश्रीसङ्घविजयगणिविनिर्मितकल्पप्रदीपिकाभिधानवृत्त्युपेतं॥ श्रुतकेवलियुगप्रधानश्रीभद्रबाहुस्वामिप्रणीतम् कल्पसूत्रम्॥
श्रीवर्द्धमानमर्हन्तं नत्वा नतपुरन्दरं। . अस्मादृशां कृते कल्पव्याख्यानानुक्रमं ब्रुवे ॥१॥ पुरिमचरिमाणकप्पो मंगलं वद्धमाणतित्थंमि
इह परिकहिआ जिणगण-हराइ थेरावली चरित्तं ॥१॥ व्याख्याः| वर्षाः पततु मा वा पर्युषणा तावत् अवश्यं कर्तव्येति । प्रथमचरमयोः-ऋषभवीरयोः तीर्थे कल्पः I मलं वर्द्धमानतीर्थे यस्मात् एवं, तस्मात् इह परिकथितानि जिनानां चरितानि १ गणधरादि स्थविरावली२
चरित्रम् ३ 'अत्र चरित्रशब्देन पर्युषणासामाचारी योध्या।
।
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तत्र तावत् आयान्त्यजिनतीर्थयोः कल्पः साध्याचारः, स च दशधा तद्यथा
आचेलकु १ देसियर सिज्झायर३ रायपिंड४ किइकम्मे५
वय६ जिट्ठ७ पडिक्कमणेट मासं९ पज्जोसवण१० कप्पे ॥१॥ न विद्यते चेलं वस्त्रं यस सोऽचेलका, तद्भावः आघेलक्य, तच साधुमाश्रित्य आयान्त्यजिनतीर्थे जीर्णप्रायश्वेतमानाद्युपेतवस्त्रधारित्वेऽप्यचेला एव उच्यन्ते साधवः। यतः ताहग् विशिष्टवेषाऽभावेऽचेल| कत्वव्यवहारः सार्वजनीनो, “नम् कुत्सार्थवाची च' यथा-स्नानकरणनयागुत्तरणकृते पुमान् कुचेलकोप्यचेलक एव व्यवहियते।।
अजितादिवाविंशतितीर्थकृत्तीर्थे महामूल्यानियतवर्णाद्युपेतवस्त्रधारित्वात् सचेलाः साधवः, | केचिदचेला अपि,। यतः
आचेलुको धम्मो, पुरिमस्सय पच्छिमस्सय जिणस्स,
मज्झिमगाणं जिणाणं, होइ सचेलों अचेलो अ॥१॥ आचेलक्यकल्पः प्रथमः॥ 'उद्देसिय' साधून अङ्गीकृत्य कृतं तदौदेशिक-आधार्मिक, तबायान्त्यजिनतीर्थयोरेकं साधुमुद्दिश्य कृतं सर्वेषांसाधूनामकल्प्यम्, शेषजिनतीर्थे यं साधुमुद्दिश्य कृतं तत्तस्यैवाकल्प्यं शेषसाधूनांतुकल्प्य। यतः
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मज्झिमगाणं तु इमं, जं कडमुहिस्स तस्स चेव त्ति नो कप्पइ सेसाणं, कप्पइ तं एस मेरत्ति ॥१॥
॥ एषा मर्यादेत्यर्थ ॥ औदेशिककल्पो द्वितीयः ॥२॥ 'सिझायर' शय्यातरो-वसतिस्वामी, तस्य पिण्डोऽशन१ पानर खादिम३ खादिम४ वा पात्र कम्बल७ रजोहरण८ सूची९ नखरदन१० पिष्पलक (क्षुरम)११ कर्णशोधन१२ लक्षणो बादशविधः सर्वजिनतीर्थेषु साधूनामकल्प्यः॥ यतः
सिज्झायरो ति भण्णइ, आलयसामी य तस्स जो पिण्डो
सो सव्वेसिं न कप्पइ, पसंगगुरुदोषभावाओ॥१॥ 'पसंगेति'-प्रसङ्के-तद्ग्रहणप्रसक्ती-सन्निहितसाधुगुणरागादनेषणीयाहारनिष्पादनं, येन वसतिदेया तेनाहाराथपि देयमितिभिया वसतेौलभ्यम्, भक्तपानशिष्याचभावश्चेति, महादोषसावादित्यर्थः"
जइ जग्गति सुविहिया, करंति आवस्सयं च अन्नत्थ सिज्झायरो न होइ, सुत्तेव कए सो होइ ॥२॥
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तण,१ डगल,२ छार३ मल्लग४, सिज्झा५ संथारद पीढ७ लेवाइट सिज्झायर९. पिण्डो सो, न होई सीसो अ सोविहिओ ॥३॥
.. . शिष्यः सोपधिकश्चेत्यर्थः । शय्यातरकल्पस्तृतीयः३॥ 'रायपिंड'-राजा-सेनापति-श्रेष्ठयमात्य-सार्थवाह लक्षणैः पंचभिःसार्द्ध राज्यं भुञानश्चक्रवादिस्तस्य पिण्डोऽ शनादि चतुष्कं४ वस्त्रं पात्रंद कम्बलं७ रजोहरणं८ चेत्यष्टविधः। सचाद्यान्यजिनतीर्थयोाघातादि
दोषदृषितत्वादकल्प्यः, । व्याघातादयश्चैवं-आद्यान्त्यजिनसाधूनां भिक्षार्थ राजवेश्मनि व्रजतां युवराजेश्वराN दिभ्योऽशिवषुद्ध-या वपुः पात्रादिहननं स्यात्, गजाश्वदासदासीदर्शने दौर्मनस्यं च, राजप्रतिग्रहस्य च लोकेऽपि गहरे। यतः
राजप्रतिग्रहदग्धानां, ब्राह्मणानां युधिष्ठिर ?।
छिन्नानामिव बीजानां, पुनर्जन्म न विद्यते ॥१॥ ॥अन्येषां तीर्थेषु मुनीनां ऋजुप्राज्ञत्वात् राजपिण्डः कल्प्यः ॥ राजपिण्डकल्पश्चतुर्थः ॥ ४॥ कृतिकर्म-वंदनकं, सर्वजिनतीर्थेषु साधुभिर्यथापर्यायादिनाऽन्योऽन्य कार्य, साध्वीभिस्तु सर्वाभिरपि || N लघोरपि साधोर्विधेयं, न तु पर्यायाद्यपेक्षणीयं । यतः
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सव्वाहिं संजईहिं, किइकम्मं संजयाण कायव्वं । पुरिसुचिमुत्ति धम्मो, सव्वजिणाणं पि तित्थेषु ॥१॥ वरिससयादिक्खियाए, अजाए अजदिक्खिओ साहू। अभिगमणवंदणनमं-सणेणं विणयेण सो पुज्जो ॥२॥ धम्मो पुरिसप्पभवो, पुरिसवरदेसिओ पुरिसजिहो ।
लोपवि पहू पुरिसो, किं पुण लोयुत्तमे धम्मे ? ॥ ३॥ श्री चन्दने च बहवो दोषाः ॥ यतः- तुच्छत्वाद्र्षः, गर्वाचनीचैर्गोत्रकर्मबन्धः, लोकेऽपिस्तीवन्दनं निन्यमिति॥कृतिकर्मकल्पः पञ्चमः॥
प्रतानि-महाव्रतानि आधान्यजिनतीर्मयोः मुनीनां पञ्च, भेषाईतां तीर्थेषु चत्वारि, यतः तुर्यव्रतस्य | | स्त्रीणां परिग्रहरूपत्वेन पञ्चमव्रत एवान्तर्भावात् । यतः
पंच वओ रवल्ल धम्मो, पुरिमस्सय प्रच्छिमस्सय जिणस्स।
मज्झिमगाण जिणाणं, बब्रुओ होइ विनेओ॥१॥ व्रतकल्पः षष्ठः ॥६॥ __ ज्येष्ठत्वं-साधूनामायान्त्यजिनतीयोपस्थापनातः, शेषजिनतीर्थेषु दीक्षातः, यतः
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उवठ्ठावणाइ जिहो, विन्नेओ पुरिमपच्छिमजिणाणं।.
पबजाए उ तहा, मज्झिमगाणं निरइआरे ॥१॥ अथ पितापुत्रादीनां ब्योर्युगपदुपस्थापने कथं ज्येष्ठता व्यवहारः ? इत्याह
पितिपुत्तमाइयाणं, समगं पत्ताण जिपितिपभइ।
थेवंतरे विलंबो, पन्नवणाए उवठ्ठवणा ॥१॥ व्याख्या-'पितापुत्रादीनामिहादिशद्वाद्राजाऽमात्य-माता-दुहित्रादीनां युगपत्प्रासाना-समकालमुपस्थाNपना योग्यतामवासानां पित्रादयो ज्येष्ठाः कार्याः, स्तोकन्तरे विलम्बः, षड्वन्तरे तु पित्रादीन प्रबोध्य पुत्रायो | ज्येष्ठाः कार्याः, चेत् पित्रादयो न प्रषुध्यन्ते तदा प्रतीक्षणीय, ॥ ज्येष्ठः कल्पः सप्तमः॥ प्रतिक्रमणं-आयान्त्यजीनतीर्थयोरवश्यमुभयसन्ध्यम् कार्यम्, शेषाहतां तीर्थेषु कारणे एव, यतः
'सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्सय पच्छिमस्सय जिणस्स।
मज्झिमगाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं ॥ १॥ प्रतिक्रमणकल्पोऽष्टमः ८॥ आद्यान्त्यजिनयोस्तीर्थे प्रतिबन्ध-लघुत्वादिदोषसद्भावात् मासकल्पः स्थित एव, दुर्भिक्षग्लान्यादिकारणे च वसतिपाटकशयनभूमिपरावर्तनेनाप्ययं कार्यः, शेषाहतां तीर्थेष्वनवस्थितः। यतः
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पुरिमन्तिमतित्थगराण, मास कप्पो डिओ मुणेयहो। मज्झिमगाण जिणाणं, अट्टिअओ एस विन्नेओ ॥१॥ दोसाऽसइ मज्झिमगा, अच्छंति अज्जा य पुवकोडी वि।
इहरा उ न मासं पि हु, एवं खु विदेहजिणकप्पा ॥२॥ व्याख्या:-'दोषाऽभावेऽजितादिजिनमुनयो देशोनांपूर्वकोटि यावत् स्थितिमिच्छन्ति इतरथा न मासमपि । तिष्ठन्ति, एवं विदेहसाधवो जिनकल्पिनश्च ज्ञेयाः ॥ मासकल्पो नवमः ॥९॥ ___ परि-सामास्त्येनैकत्रवसनं पर्युषणा, एवं व्युत्पन्नोऽपि पर्युषणाशद्वः कचिश्चातुर्मासकाद्यवगृहीतप्रभूत-N कालविशेषाभिधायकः स एव कल्पः पर्युषणाकल्पः, स च वधा, सालम्बनो निरालम्बनश्च, निरालम्बनोऽपि द्विविधः जघन्योत्कृष्टभेदाभ्यांतत्र जघन्यः सांवत्सरिकप्रतिक्रमणादारभ्य कार्तिकचातुर्मासिकप्रतिक्रमणं यावत् ससतिदिनमानः। उत्कृष्टस्तु चातुर्मासकः, सोऽपि गृहिज्ञाताऽज्ञातभेदाभ्यां विभज्यमानो देधा, तत्र गृहिज्ञातस्तावत् सप्तति दिनमानोऽनन्तरोदित एव, अज्ञातस्त्वाषाढचातुर्मासिकप्रतिक्रमणादारभ्य सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं यावत् पञ्चाशदिनमानः यतः
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इत्थय अणभिरगहिरं, वीसइराइ-सवीसइ मासो ।
तेण परमभिग्गहिअं-मिहिनाअं कलि जाव ॥१॥ अयं बेधापि निरालम्बनः स्थविरकल्पिकानामेव, जिनकल्पिकानां तु चातुमासिक एवेति । यतः
चाउम्मासुक्कोसो, सत्तरि राईदिआ जहुन्नेणं।
थेराणं जिणाणं पुण, नियमा उकोसओ चेव ॥१॥ सालम्बनस्तु स्थविरकल्पिकानामेव, विहितमासकल्पानां तत्रैव चातुर्मासकानन्तरमपि मार्गशीर्ष N यावदवस्थाने पाण्मासिको बोध्यः । प्रतः
काऊण मासकप्पं, तत्थेव डिआण तीतमग्गसीरे ।
सालंबणयाणं पुण, छम्मासिओ होइ जिहुराहो ॥१॥ एवं व्यारव्यातस्वरूपः पर्युषणाकल्पः आयान्त्यजिनतीर्थे नियतः, शेषजिनतीर्थेऽवनियतः विदेहेप्यनियतः । पर्युषणाकल्पो दशमः॥
एते दशापि कल्पाः ऋषभवीरतीर्थे नियता एव, अजितादीनां तीर्थे तुआचेलक्यौ १देशिक रप्रतिक्रमण राजपिण्ड ४मास ५पर्युषणा लक्षणाः षट्कल्पा अनियताः, शेषास्तु शय्यातर १चतुर्बत २पुरुषज्येष्ठ ३कृति
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कर्म ४लक्षणाश्चत्वारो नियता एव ॥ इति दशानां कल्पानां नियतानियतविभागकरणे कारणं तत्र कालभावि मनुजा एव यतः
पुरिमाणं दुविसुज्झो, चरिमाणं दुरणुपालओ कप्पो। मज्झिमगाण जिणाणं, सुविसुज्झो सुहणुपालो अ ॥१॥ उज्जूजडा पुरिमा खलु, नडाइनायाउ हुँति नायव्वा।'
वकजडा पुण चरिमा, उजुपन्ना मज्झिमा भणिआ ॥२॥ तत्र ऋषभतीर्थे ऋजुत्वाद् व्रतादिप्रतिज्ञानिर्वाहित्वेऽपि जडत्वाविशुद्धिर्तुःसाध्या, नटनर्तकीवृत्या | लोकक साधुदृष्टान्तेन वोध्या, तथाहि:__किल केचित् आद्यजिनमुनयो विहारभूमेणुरुपार्श्वमागताः, पृष्टाश्च गुरुभिर्यथा-"कथं चिरायूयमागताः, | ऋजुत्वा से चोचुः, यथा 'नट नृत्यन्त प्रेक्षमाणाः स्थिताः ततो गुरुभिरिति शिक्षिताः पूनवं कार्य', तैस्तथेति प्रतिपन्नं पुनरप्यन्यदा तथैव पृष्टाः, ते चोधर्नटी नृत्यन्तीम् वीक्षमाणाः स्थिताः, प्रेरिताश्च गुरुभिस्ते जडत्वादूर्नटस्तदा निषिद्धो न नटीति," नटेनिषिद्धे हि नटी निषिद्वैव तैर्न ज्ञातमिति।अन्योऽपि दृष्टान्तो यथाः
एकः कुंकणदेशजो वणिग् वृद्धत्वे कुटुम्बमोहं त्यक्त्वा प्रबजितः स चैकदेर्यापथिकीकायोत्सर्गे चिरकालं NI
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तस्थौ को हेतुरिति गुरुणोक्ते जीवदया ध्यातेत्याह, कथमिति पुनः पृष्ठे “ गार्हस्थ्येऽस्माभिः क्षेत्रवृक्षनिषुदनादि पुरस्सरमुप्तानि धान्यानि भूयस्यभूवन् साम्प्रतं च मत्पुत्रा निश्चिन्ता अकुशलाश्च नैतत्करिष्यन्ति, तथा च ते वराकाः क्षुत्पाडिता मरिष्यन्तीति” ऋजुत्वात् कथिते गुरुभिरुक्तं 'जीवघातादि विना कृषिर्नोत्पद्यते इति दुर्ध्यातमित्युक्ते पुनः मिथ्यादुष्कृतं ददौ ॥ इति ककणसाधुदृष्टान्तः ॥
वीरतीर्थे तु वक्रजडत्वाद् व्रतादिपालनं तद्विशुद्धिश्वेत्युभयमपि दुःसाध्यं, अत्रापि दृष्टान्तइयं तत्रायो यथा
केचिचान्त्यजिनसाधवस्तथैव पृष्टा ऊचुः, 'नटं नृत्यन्तम् वीक्षमाणाः स्थिताः, ततो गुरुणा निषिद्धाः, पुनरन्यदा नहीं नृत्यन्तम् वीक्षमाणाः स्थिताः, पृष्टाञ्च वक्रत्वेनोत्तरान्तराणि ददुः, निर्बन्धे च नटीमुक्तवन्तः, उपालब्धाश्च सन्तो जडत्वादुचुर्यथा-नट एव न द्रष्टव्य इत्यस्माभिर्ज्ञातं । द्वितीयो यथा
कश्चित श्रेष्ठपुत्रो दुर्विनीतः पित्रादीनां प्रत्युत्तरं न देयमिति पित्रा शिक्षितः, कदाचित्सर्वेषु वहिर्गतेषु गृहद्वारं दत्वा स्थितो, द्वारागतेन श्रेष्ठिना द्वारोद्घाटनार्थ बहुशः शब्दकरणेप्यवदन् भित्तेरुपरि प्रविश्य पित्रा खट्वास्थो हसन् उपालब्धः प्राह- युष्माभिरेव शिक्षितोऽहं 'यत् प्रत्युत्तरं ना देयमिति ' ॥ श्रेष्ठिपुत्रदृष्टान्तः॥
अजितादितीर्थेषु ऋजुप्रज्ञत्वादुभयमपि सुकरं । दृष्टान्तस्तु यथा
केन्चित्साधवस्तथैव पृष्टाः, ऋजुत्वादूचुर्यथा-नटं वीक्षमाणाः स्थिताः, गुरुणा निषिद्धाः पुनरन्यदा नहीं दृष्ट्रा प्रज्ञत्वातैर्ज्ञातं नदवन्नटयपि नेक्षितव्या ।
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अथ च जडत्वादिदोषवशोत्पन्नातिचारबाहुल्याद् दुःषमासाधुषु साधुत्वं न मन्यन्ते तान् प्रत्याहपूर्वसाध्यपेक्षया वक्रजडत्वाद् हीनहीनक्रियावत्वेऽपि नृप-गोप- वृक्ष-वृष-स्वर्ण-घृत-दुग्ध-दधि- पद्मायागमोक्तदृष्टान्तेन दुःषमासाधुषु साधुत्वमेव केचन न मन्यन्ते तेषां महत्प्रायश्चितं । यतः
जो भाइ नत्थि धम्मो, न य सामाइयं न चैव य वयाई । सो समणसंघबज्झो, कायव्वो समणसंघेण ॥ १ ॥
अथ प्रकृतं । यस्तु सप्ततिदिनमानः पर्युषणाकल्पो नैयत्येनोक्तः, स चाशिवादिकारणाभावे सतीति बोध्यं, अशिवादिदोषसद्भावे तु अर्वागपि निर्गमने जिनाशेव । यतः
• असिवे ओमोअरिए रायठ्ठभए अ गेलन्ने । एएहिं कारणेहिं अप्पत्ते होइ निग्गमणं ॥ १ ॥ अभूमी संथार असंसत्तदुलह भिख्खे । एएहिं कारणेहिं अप्पत्ते होइ निग्गमणं ॥ २॥ राया सप्पे कुंथू अगणिगिलाणे अ थंडिलस्सऽ सह। एएहिं कारणेहिं अप्पत्ते होइ निग्गमणं ॥ ३॥ वर्षानतिक्रमे कालातिक्रमणेऽप्यविहारे जिनाशैव
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यतः.... वासं वा नो विरमद, पंथा वा दुग्गमा सचिक्खिल्ला। .
. एएहिं कारणेहिं, अइकते होइ निग्गमणं ॥१॥ एवं अशिवादिदोषाभावेऽपि संयमपरिपालनार्थ क्षेत्रगुणा अप्यन्वेषणीयास्तेचामी
“चिक्खिल्ल १, पाण२ थंडिल३, वसहीट गोरस५ जणाउले विजे७ ।
ओसहरू निचया९ हिवइ१० पासंडा११ भिक्ख१२ सज्झाए१३ ॥१॥ - व्याख्या:-पत्र क्षेत्रे न भूयान कर्दमः१, यत्र च न भूयांसः समुछिमाः प्राणाः२, स्थण्डिलमनापातमMसंलोकं३, वसतिनिर्दोषासुलभा च४, यत्र गोरसः प्रचुरः५, यत्र भूयान् जनः, सोप्यतीव भद्रकः६, वैद्याश्च
भद्रका:७, औषधानि निरवद्यानि सुलभानि च८, यत्र कौटुम्बिकानां धनधान्यनिचितानि बहुनि गृहाणि९, राजातीव भद्रकः१०, पाखंडैरपमानं न स्यात्११, यत्र भैक्ष्यं सुलभ१२, यत्र स्वाध्यायो वसतावन्यत्र शुद्धयति । १३, ॥ जघन्यतश्चत्वारोऽमी गुणाः
महति विहारभूमी१, विचारभूमी अ२ सुलहवत्ती३ । - सुलहावसही५ य जहिं, जहन्नयं वासखित्तं तु ॥१॥'
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- व्याख्याः-यत्र महती विहारभूमिर्भिक्षानिमित्तं परिभ्रमणभूमिः१, महती विचारभूमिः पुरीषोत्सर्गभूमिः२, सुलभा भिक्षावृत्तिः३, वसतिश्च सुलभा४, तजघन्यं वर्षायोग्यं क्षेत्रमिति। शेषं तु पञ्चादिद्वादशगुणान्वितं मध्यममिति, एवंविधगुणाभावे दोषाभावः सन्नपि मृगतृष्णावदकिश्चित्करः, तथा गुणा अपि | दोषजुषो विषमिश्रितपायसवदकिञ्चित्कराः इत्यदोषान् गुणानालोच्य साधुभिः पर्युषितव्यम् । ___ एवमुक्तस्वरूपदशकल्पान्तर्गतपर्युषणाकल्पोऽपि विशेषतस्तृतीयौषधतुल्यः, तद्यथा-केनापि राज्ञा | स्वसुतस्यानागतचिकित्सायां कार्यमाणायां त्रयो वैद्याः समाहुताः, तेष्वाद्यः तथा प्राह-मदौषधं सन्तम् व्याधिमुपशमयति, असति च नव्यं करोति, राज्ञोक्तं सुप्तसिंहोत्थापनकल्पेनानेनालं।
द्वितीयः प्राह-'संतमपनयति असति च नोपद्रवयति' राज्ञोचे भस्मनिहुतकल्पेनानेन सृतं। .
तृतीयः स्माह-संतमपहरत्यसति च सौन्दर्यवीर्यसौभाग्यतुष्टिपुष्टयाद्यनेकगुणोत्पादकं ततो राज्ञा तृतीयमौषधं स्वसुतं प्रति कारितं संसम्मानितः-तद्वदेषोऽपि कल्पः सन्तं दोषं शोषयति दोषाऽभावे तु चारित्रगुणान् पोषयति।
यद्यपि विहारे महानिर्जरा तथापि मोदन्या बहुप्राणाकुलितत्वनैकत्रावस्थानेन वर्षास्वयं कल्प आराध्यः। यतः कृष्णदेवोऽपि बहुमणां मेदिनीमधिगम्य वर्षासु स्वास्थानसभायां नागतस्तस्मात्तत्रपूर्वोक्तनिर्दोषगुणान्वितक्षेत्रे चातुर्मासकमासीना मुनयो मङ्गलाथै पञ्चाभर्दिनेः कल्पसूत्रं वाचयन्ति अन्येऽपि शृण्वन्ति।
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क. अथात्र वाचनायां श्रवणे च केऽधिकारिणः इत्याकाक्षायां मुख्यतः साधवः साध्व्यश्च, तत्रापि रात्रौ .दी.
कृतयोगानुष्ठानो वाचनोचितो वाचयति चान्ये शृण्वन्ति, साव्यस्तु निशीथचूायुक्तविधिना दिवापि तयोरधिकारः। संप्रति तु चतुर्विधसङ्घोप्यधिकारी श्रवणे, वाचनयां तूक्तलक्षणः साधुः, तबाचनं तत् 7 श्रवणं च काकदन्तपरीक्षावन्न निष्प्रयोजनं किन्तु महानन्दहेतुः, अत एव तन्माहात्म्यं कथ्यते यथा
यथाद्रुमेषु कल्पद्रुः, सर्वकामफलप्रदः । यथौषधीषु पीयूषं, सर्वरोगहरं परं ॥ १ ॥ N| रत्नेषु गरुडोद्गारो, यथा सर्वविषापहः । मन्त्राधिराजो मन्त्रेषु, यथा सर्वार्थसाधकः ॥२॥
यथा पर्वसु दीपाली, सर्वात्मसु सुखावहा । कल्पः सद्धर्मशास्त्रेषु, पापव्यापहरस्तथा ॥३॥ श्रीमद् द्वीरचरित्रबीजमभवच्छ्रीपार्श्ववृक्षाङकुरः, स्कन्धोनेमिचरित्रमादिमजिन व्याख्याचशाखाचयः ।
पुष्पाणि स्थविरव्रजस्य च कथोपादेयहेयं तथा, सौरभ्यं फलमत्र निर्वृतिमयं श्री कल्पकल्पद्रुमे ॥४॥ Mपरिवाचयन्ति ये कल्पं, ये शृण्वन्ति च भक्तितः।साहाय्यं ददते ये च, तेयान्ति त्वरितं शिवं ॥५॥ | वाचनात्साहाय्यदानात्, सर्वाक्षरश्रुतेरपि। विधिनाराधितः कल्पः, शिवदोऽन्तर्भवाष्टकम् ॥६॥
एगग्गचित्ता जिणसासणंमि, पभावणापूअपूरायणाजे। तिसत्तवारं निसुणंति कप्पं, भवण्णवं गोयम ते तरंति ॥ ७ ॥
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IN वक्त्रे जिह्वा सहस्रं स्यात्, ज्ञानं मे पंचमं यदि । कल्पश्रवणमहात्म्यं वक्तुम् नेशस्तथाप्यहं॥८॥
___ इति कल्पसूत्रश्रवणफलमव्यभिचारि महापुरुषप्रणीतत्वाद्यतः चतुर्दशपूर्ववियुगप्रधानश्रीभद्रबाहुको स्वामिना प्रत्याख्यानप्रवादाख्यनवमपूर्वादयमुद्धतस्तानि चतुर्दशपूर्वाण्येकादिद्विगुणवृद्धया षोडशसहस्रत्रिं
शतत्र्यशितिहस्तिप्रमाणमषीपुञ्जलेख्यानि ॥ स्थापनाचित्रं यथा
प्रमाण
हस्ति १ २ ४ ८ १६ ३२ ६४ १२८ २५६ ५१२ १०२४ २०४८ ४०९६ ८१९२ १६३८३/
प्राप्ते पर्युषणापर्वणि कल्पसूत्रश्रवणवञ्चैत्यपरिपाटी१ सर्वसाधुवन्दनंर सांवत्सरिकप्रतिक्रमण३ मिथः । साधर्मिकक्षामणकं४ अष्टमं तपश्चेति५ पञ्चकृत्यानि कर्तव्यानि, तत्राष्टमं तपो नागकेतुवबिधेयं तथाहि:____ चन्द्रकान्तापूर्याम् विजयसेनो राजा, श्रीकान्तः श्रेष्ठी, श्रीसखीभार्या, तयोः पुत्रः 'पर्युषणापर्वण्यष्टमं | करिष्यामः' इति कुटुम्बभाषितं श्रुत्वा जातजातिस्मृतिलिः कृताष्टमतपाः पित्रादिभिबहूपचारकरणेऽपि स्तन्यमपि नापिन् ततो मूर्छया निश्चेष्टे बाले दुःखात्पितरि हृदयस्फोटने मृते तत्स्वजना बालं भुवि चिक्षिपुः। ततो धरणेन्द्रोऽवधिना विज्ञाय तं भूस्थमेवामृतेनोज्जीच्यापुत्रत्वेन श्रेष्टिलक्ष्मी गृहणाणान् राजपुरुषान् पुरुषरूपेण वारयन राज्ञा पृष्टः श्रेष्टिपुत्रं जीवन्तम् भुवः आकृष्य दर्शयित्वा तत्माग् भवादिसम्बन्धमाहः
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"E 'अयं बालः प्राग् भवे बाल्ये मृतमातृको, विमातृकृतापमानेन नित्यं दूनः स्वमित्रश्राद्धवचसा सर्वदुःखापहारि यथाशक्ति तपः कुर्वन्नन्यदासन्ने पर्युषणादिनेऽष्टमं तपः करिष्यामि इति ध्यायन् यावता तृणगृहे सुष्वाप तावतासन्नप्रदीपने लग्ने विमात्रा तन्मारणाय तद्गृहे अग्नौ क्षिप्ते तपोध्यानैकचित्तस्तद्व्यथामविज्ञाय मृतोऽपुत्रस्य श्रीकांतस्य सुतत्वेन जज्ञे । ततः पूर्वभवसंस्कारात् पर्युषणादीनं श्रुत्वा जातजातिस्मृतिः कृताष्टमः स्तन्यमप्यपिवन् मूर्छया 'मृतो' इति ज्ञात्वा स्वजनै भूक्षिप्तो मयाऽमृतेन जीवितः " इति । ततो धरणेन्द्रो बालाय हारं दत्वा तिरोदधे इति कथया राजापि सविस्मयो यत्नेनायं शिशुः परिपाल्यः इत्युत्क्वा जनन्यै अर्पयत् । ततः स्वजनै नगकेतुः इति दत्तनामा स बाल्येप्याजन्म चतुः पर्व्या चतुर्थ, चतुर्मासके षष्ठं पर्युषणायां चाष्टमं कुर्वन्, सामायिक - पौषध-पूजादिनिष्ठो यौवनेऽपि जितेन्द्रियो जज्ञे
अन्यदा राज्ञा तेन केनापि चौरेण व्यन्तराभूतेन अदृश्येन पाणिनाहत्य भूवि पातितो राजा चक्रन्द लोकाश्चसर्वेऽपि । नगरोपरि महतीं शिलां विकुर्व्य दुर्गिरा भापयामास । ततो नागकेतुस्तु चतुर्विधश्रीसङ्घ जिनप्रासादप्रतिमारक्षायै उच्चैः प्रासादारूढस्तपःशक्त था तां पतन्तीम् करे दधौ । तत्तपसा निस्तेजा व्यन्तरः शिलां संहृत्य तं नत्वा तद्वचसा नृपं पटुकृत्य स्वस्थानमगात् । ततो नृपादिमान्यो नागकेतुरन्यदा जिनपूजां कुर्वन् पुष्पस्थसर्पेण दष्टो । ध्यानैकाय्यादुत्पन्नकेवलज्ञानः शासनसूरीदत्तवेषश्चिरं भव्यान् प्रबोधयत् । इति अष्टमतपसि नागकेतुकथा । कविघटनात्वेवं
'किं रत्नत्रयसेवनं किमथवा, शल्यत्रयोन्मूलनं । किं वा चित्तवचोवपुः कृतमल-प्रक्षालनं सर्वतः ।
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किं जन्मन्त्रयपावनं किमभवत्, विश्वत्रयायं पदं । धन्यैर्यद्विहितं कलावपि जनैः, पर्वोपवासत्रयं ॥१॥ तथैतत्कल्पसूत्रं प्रतिसूत्रं चानन्तार्थाभिधायकम् यदुक्तं
सव्वनईणं जा हुज्ज वालुआ, सव्वोदहीणं जं तोयं तत्तो अनंतगुणिओ, अत्थो इक्कस्स सुत्तस्स ॥ १॥ एवविधस्य सूत्रस्य महापुरुषप्रणीतत्वात्माकृतबन्धः कथमिति ना शङ्कनीयम् यदुक्तं:बालस्त्रीमन्दमूर्खाणां नृणां चारित्रकाङ्क्षिणां
अनुग्रहार्थे तत्त्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ॥ १ ॥
for वाच्यानि तद्यथा जिनानां चरितानि १ स्थविरावली२ पर्युषणासमाचारी ३
अस्मिन्
चेति यदुक्तम्
पुरिमरिमाण कप्पो, मंगलं वद्धमाणतित्थमि
इह परिकहिआ जिन-गण- हराइथेरावलीचरितं ॥ १॥
तत्र साम्प्रतीनतीर्थाधिपतित्वेनासन्नोपकारित्वात् आदावेव श्रीभद्रबाहुस्वामिनः श्रीवीरचरित्रं सूत्रयन्तः उद्देशनिर्देशसूचकप्रायं जघन्यमध्यमवाचनात्मकं प्रथमसूत्रमादिशन्तिः
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क.
९
ते णं काले णं ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे होत्था ॥ १ ॥
व्याख्याः- ते णं काले णंमित्यादितः परिनिबुडे भयवं इत्यन्तं । तत्र यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् यत्र स्वामी दशमदेवलोकगत पुष्पोत्तरप्रवरविमानाद्देवानन्दा कुक्षाववातरदिति, 'यत् शब्दघटितमन्वयमध्याहृत्य' ते णं ति ते-तस्मिन, णमिति - वाक्यालंकारे, काले- वर्तमानावसर्पिण्याश्चतुर्थारके लक्षणे, णंकारः पूर्ववत्, ते णं समए णं ति-तस्मिन् समये, समयः - परमनिकृष्टः कालविशेषः, 'यद्वार्षत्वात् सप्तम्यर्थे तृतीया, यहाहेतौ तृतीया', तता यौ कालसमयौ श्री ऋषभादिजिनैः श्रीवीरस्य षण्णां च्यवनादीनां वस्तुनां हेतुतया कथितौ न च च्यवनादीनां वस्तुत्वेन व्याख्यानमनागमिकं, चूर्ण्यादिषु तथैव व्याख्यानात्, यतः - " जो भगवया उसभसामिणा सेसतित्थगरेहिं भगवओ वद्धमाणसामिणो चवणाइणं छण्हं वत्थूणं कालो णातो दिट्ठो वागरीओ अ ॥
काले णं णं समए णं ति इति पर्युषणाकल्पचूर्णै तथा च तेन हेतुभूतेन कालेन समयेन च । समणे भ्रमुच् खेदतपसोरिति श्राम्यति तपस्यति इति श्रमणः - तपस्वीत्यर्थः, भगवान्समग्रैश्वर्ययुक्तः, महावीरः - कर्मशत्रुजयादन्वर्थनामान्तिमजिनः । पंचहत्युत्तरेत्ति हस्तः उत्तरो यासां ताः हस्तोत्तराः-उत्तराफाल्गुन्यः । हस्तादुत्तरस्यां दिशि वर्तमानत्वाद्वा ताः पञ्चसु स्थानेषु यस्य स हस्तोत्तर इति वीरविशेषणं । निर्वाणस्य स्वातौ जातत्वात् । होत्यत्ति-अभवत्, षण्णां वस्तुनाम् मध्ये पञ्च
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कल्याणकानि, षष्ठं तु गर्भापहाररूपं आश्चर्यभूतत्वावस्तुभूतं, न तु कल्याणकं । गर्भापहारस्य कल्याणकत्वनिषेधयुक्तयो ग्रंथान्तरादवसेया।
अथ कथं पंचहस्तोत्तरः स्वाम्यभूदिति व्यक्तयर्थ तद्यथेत्यादिना मध्यमवाचनां निर्दिशतिःतं जहा हत्युत्तराहिं चुए, चइत्ता गम्भं वकते, हत्युत्तराहिं गभाओ गम्भं साहरिए, हत्थुत्तराहिं जाए, हत्युत्तराहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिअं पवइए, हत्थुत्तराहिं अणते, अणुत्तरे, निवाघाए, निरावरणे, कसिणे, पडिपुण्णे, केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने, साइणा परिनिव्वुए भयवं ॥१॥ हत्युत्तराहिं त्ति हस्तोत्तराभिरूत्तरफाल्गुनीभिश्चन्द्रयोगे च्युतो देवभवात्, च्युत्वा गर्ने व्युत्क्रान्तः उत्पन्नः। गर्भाद्र्भ साहरिएत्ति संक्रामितः । जाए त्ति जातो-योनिवर्मना निर्गतः। मुंडेत्ति मुण्डो बाह्यतः | केशलुश्चनेनाभ्यन्तरतस्तु क्रोधादिनिग्रहेणेति द्रव्यभावाभ्यां मुण्डितो भूत्वा,आगाराद्-गृहवासान्निष्काम्येति
गम्यः,अनगारिता-साधुतां प्रबजित:-प्रकर्षण गतः। अणंतेत्तिअनन्तार्थविषयत्वादनन्तं,अनुत्तरं-सर्वोत्कृष्ट। त्वादनुत्तरं, निर्व्याघातं-कटकुट्याद्यप्रतिहतत्वात् , निरावरणं-क्षायिकभावोत्पन्नत्वेन सर्वावरणरहितं, कृत्स्न
सर्वार्थग्राहकत्वात, प्रतिपूर्ण-पूर्ण सर्वस्यांशान्वितंराकाचन्द्रवत्, केवलं-असहायं अतएव वरं-प्रधानं ज्ञानं च | दर्शनं च ज्ञानदर्शनं 'ततः प्राग् पदाभ्यां कर्मधारयः सर्वत्र प्राकृतत्वात्पुंस्त्वम्' तत्र ज्ञान-विशेषावबोध
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क.
दी.
रूपम् दर्शन-सामान्यावबोधरूपम्, समुप्पन्नेत्ति सम्यगुत्पन्नं । साइणेत्ति स्वातिनक्षत्रेण युक्ते चन्द्र परिसा- 1 मस्त्येन निर्वतः सर्वकर्माशैर्विनिर्मुक्तः ॥
अथविस्तरवाचनामधिकृत्य यतश्च्युतो भगवान् यत्रोत्पन्न इति नामग्राहं विभणिषुराहःतेणं कालेणं तेणं समए णं समणे भगवं महावीरे जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्ठमे पक्खे आसाढसुद्धे तस्स णं आसाढसुद्धस्स छट्ठी पक्खे णं महाविजयपुप्फुत्तरपवरपुण्डरीआओ महाविमाणाओवीसं सागरोवमट्टिइआओ आउक्खएणं,भवक्खएणं, ठिक्खएणं, अणंतरं चयं, चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्डभरहे इमीसे ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए विइकताए, सुसमाए समाए विइकंताए, सुसमदुस्समाए समाए विश्कताए, दुस्समसुसमाए समाए बहुविइकताए सागरोवमकोडाकोडीए बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिआए पंचहत्तरीए वासेहिं अद्धनवमेहि अ मासेहिं सेसेहिं एकवीसाए तित्थयरेहिं इक्खागकुलसमुप्पनेहिं कासवगुत्तेहिं, दोहिअ हविंसकुलसमुप्पनेहिं गोयमगुत्तेहिं, तेवीसाए तित्थयरेहि वइवंतेहिं समणे भगवं महावीरे चरमतित्थयरे पुवतित्थयरनिहिढे माहणकुंडग्गामे नयरे उसभदत्तस माहणस्स कोडालसगुत्तस्स भारिआए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए
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पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि हत्युत्तराहिं नक्सत्तेणं जोगमुवागएणं आहाखकंतीए भववकंतीए । सरीखकंतीए कुच्छिसि गब्भत्ताए वक्ते ॥२॥ तेणमित्यादितो....... गम्भत्ताए वकंते-इत्यन्तम् , तत्र तेणंति प्रागवत् तस्मिन् काले तस्मिन् समये । श्रमणो भगवान महावीरः कुक्षौ गर्भतया व्युत्क्रान्त इति संबन्धः। जे सेत्ति यः सः, गिम्हाणंति ग्रीष्मस्य । 'स्त्रीत्वं बहुत्वं चार्षत्वात् 'छट्टीपक्खेणं ति अहोरात्रस्य दिवारात्रिभ्यामुभयपक्षात्मकत्वात् षठयाः पक्षे भाषठ्यास्तिथेः रात्रौ, णमिति पूर्ववत् । [ क्वचित् छट्ठीदिवसेणंति पाठः तत्र दिवसशब्देन तिथिः]
महाविजयेत्यादिः महान् विजयो यत्र तश्च तत् पुष्पोत्तरं च पुष्पोत्तरसंशं तदेव प्रवरेषु पुंडरीकमिवोत्तमत्वात् तस्मात् । क्वचिच्चैतदनन्तरं [ दिसासोवत्थिआओ वद्धमाणाओत्ति पाठस्तत्र दिवस्थितात् |
आवलिकागतविमानमध्यस्थात् , वर्धमानाच्च सर्वप्रकारेणेत्यर्थः ] आउक्खएणमित्यादि आयुः-देवायुभवो MI-देवगतिः स्थितिराहारो वैक्रियदेहस्थितिा , तेषां क्षयेण, अनंतरम्-अव्यवहितं, चयं-च्यवनं, चित्वा
कृत्वेत्यर्थः। अथवाऽनन्तरं देवसक्तं चयं-शरीरं त्यक्त्वा-विमुच्य इहैवेति देशतः प्रत्यासन्नेन न पुनर्ज-11 Nम्बूद्वीपानामसंख्येयत्वादन्यत्रेत्यर्थः । सागरोवमकोडाकोडीए इत्यादिना चतुर्थारकस्य प्रमाणं बोध्यं ।
पंचहत्तरीए इत्यादि सार्धाष्टमासाधिकैः सप्तलावर्षःशेषैः को भावः-श्रीवीरनिर्वाणात सार्धामामा | स्त्रिभिर्वर्षेश्चतुर्थारकसमाप्तिरिति । दोहिअत्ति मुनिसुव्रतनेम्योः ‘सर्वपात्र सप्तम्यार्थे तृतीया' यावत् विइक्वं
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तेहिं ति।कोडालैः समानं गोत्रं यस्य स तथा तस्य, जालंधरैः समानं गोत्रं यस्याःसा तथा। पूर्वरात्रश्चासावपररात्रश्च स एव काललक्षणः समयो नान्यः समाचारादिरूपस्तत्र तस्याः मध्यरात्रे इत्यर्थः । आर्षत्वादेकरेफलोपः, अपरात्र शब्दो वाऽयम् 'अर्द्धगते सर्वगतं' इति न्यायादपगतरात्रिरपरात्रः क्वचित्तु 'अडरत्तावरत्तेत्ति पाठस्तत्रार्धरात्रलक्षणो योऽपररात्रस्तत्र]। हत्युत्तराहिंति बहुवचनं बहुकल्याणकापेक्षंच्यवनादिकल्याणकचतुष्टयस्योत्तरफाल्गुनीजातत्वात्। जोगमुवागएणं ति अर्थाश्चन्द्रेण सहेत्यर्थः, आहारापक्रान्त्या देवाहारपरित्यागेनाऽथवाऽऽहारव्युत्क्रान्त्या-अपूर्वाहारोत्पादेन मनुष्योचिताहारग्रहणेनेत्यर्थः, एवं अन्यदपि पदवयं । कुच्छिसित्ति कुक्षौ गर्भतया व्युत्क्रान्तः उत्पन्नः इति।
समणे भगवं महावीरे तिन्नाणोवगए आवि होत्था, चइस्सामि त्ति जाणइ, चयमाणे न याणइ, चुएमि त्ति जाणइ, जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे देवाणंदाए माहणीए जालंघरसगुत्ताए कुच्छिसि गम्भत्ताए वक्कते, तं स्यणिं च णं सा देवाणंदा माहणी सयणिज्जास सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमे एयाख्वे, उराले, कल्लाणे, सिवे, धन्ने, मंगल्ले सस्सिरीए चउद्दस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा ॥३॥ समणेत्यादित....पडिबुद्धेत्यन्तं सबन्धस्तत्र 'चइस्सामित्ति' यद्यपि देवानां षण्मासावशेषायुषां
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माल्यग्लानिः कल्पवृक्षप्रकम्पः, श्रीहीनाशो वाससां चोपरागः ।
दैन्यं तन्द्रा कामरागाङ्गभङ्गो, दृष्टे भ्रान्तिर्वेपथुश्चारतिश्चः ॥ १ ॥
इति भावाः स्युः । तथापि तीर्थकृत्सुराः पूण्योत्कर्षात् ज्ञानकान्त्यादिप्रकर्षभाजो भवन्ति इति । च्यवनभविष्यकालं जानाति, च्यवमाना न जानाति, च्यवनस्यैक सामायिकत्वेन तत् ज्ञानागम्यत्वात्, जघन्यतोऽपि छाद्मस्थिकस्य ज्ञानोपयोगस्यान्तर्मुहूर्त्तिकत्वात् च्यवनकालं भगवान् न जानाति इति । च्युतस्तु जानाति च्युतोऽस्मीति पूर्वभवायात ज्ञानत्रिकसद्भावादिति । जं स्यणि ति यस्यां रजन्यां, सुतजागर ति सुजागरा - नातिसुता नातिजाग्रती, अत एव ओहीरमाणी ओहीरमाणी- पुनः पुनः इषन्निन्द्रां गच्छन्ती, इमे इत्यादि इमान् महास्वप्नानिति सम्बन्धः । एतदेव वर्णितमेव रूपं स्वरूपं न न्युनमधिकं वा कविकृतं येषां ते तथा तान् उदारान, प्रशस्तान, कल्याणान् -कल्याणानां शुभसमृद्धिविशेषाणाम् हेतुत्वात्, या कल्यं - नीरोगतामणंति - गमयन्तीति तान, शिवानुपद्रवोपशमकत्वात्, धन्यान्-धनावहत्वात्, मङ्गल्यान्- मङ्गले दुरितोपशमे साधुत्वात्, सश्रीकान्-सशोभान् दृष्ट्वा प्रतिबुद्धा - जागरिता । तं जहा-गय-सह-सह-अभिसेय-दाम-ससि-दिणयरं झयं-कुंभं । पउमसर-सागर-विमाण-भवण-रयणुच्चय-सिहिं च ॥१॥४॥
तं जहेत्यादिःत.. . सिंहिं च्येत्यनेन सम्बन्धः, तत्राऽभिषेकः श्रियाः सत्कः, पद्मोपलक्षितं सरः
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क. पद्मसरः, विमानं-देवसम्बन्धि भवनं प्रासादः, रत्नोचयो-रत्नभृतं स्थालं, शिखी-निर्धूमाग्निः । यः दी.
स्वर्गादवतरति तन्माता विमानं । यस्तु नारकादवतरति तन्माता भवनं पश्यतीति व्योरेकतरदर्शनाच्चतुर्दशैव ॥ स्वमा इति । अथैते स्वमा फलाभावाद्विस्तरतो न वर्णिता इति ॥ ४॥ ...
तएणं सा देवाणंदा माहणी इमे एयाख्वे उराले कल्लाणे सिवे घन्ने मंगल्ले सस्सिरीए चउइस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा समाणी हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिआ पीइमणा परमसोमणसिआ हरिसवसविसप्पमाणहिअया धाराहयकयंवपुष्फगं पिव समुस्ससिअरोमकूवा सुमिगुग्गहं करेइ, सुमिगुग्गहं करित्ता संयणिज्जाओअब्भुटेइ, अब्भुट्टित्ता अतुरिअमचवलमसंभंताए अविलंबिआए रायहंससरिसीए गईए जेणेव उसभदत्ते माहणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उसमदत्तं माहणं जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावित्ता भद्दासणवरगया आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अजलिं कट्ट एवं वयासी ॥५॥
व्याख्या-तएणमित्यादितो.......वयासीत्यन्तम् तत्र हृष्टा तुष्टा-अत्यर्थ तुष्टा, यहा हृष्टा-विस्मिता, IN तुष्टा-तोषवती, चित्तेनानन्दिता-चित्तानन्दिता, यहाऽऽनन्दितं चित्तं यस्याः सा तथा 'मकारः प्राकृतत्वात् ।।१२
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अथवा हृष्ट-विस्मितं, तुष्टं-सन्तोषवचित्तं यत्र तत् यथास्यात्तथाऽनन्दिता। प्रीतिः-आप्यायनं मनसि यस्याः । सा प्रीतिमनाः । परमसौमनस्यं जातमस्याः सा परमसौमनस्थिता, हर्षवशेन विसर्पत्-विस्तारयायि हृदयं यस्याः सा । धाराभिः-मेघोद्भवाभिराहतं हतं वा यद् कदम्बपुष्पं तदिव समुच्छ्वसितानि-उधुषितानि रोमाणि कुपेषु-रोमरन्धेषु यस्याः सा। यद्यप्येतान्यर्थतो न भूयो भेदभाजि तथापि स्तुतिरूपत्वात् प्रमोदाधिक्यसूचनाच नायुक्तानीति । सुमिणुग्गहंति स्वप्नानामवग्रहं-स्मरणं करोति, विशिष्टफलं-राज्यादिकं विभावयन्तीत्यन्ये । अतुरियमित्यादि अत्वरित-मानसौत्सुक्यभावेन, अचपलं-कायतः, असम्भ्रान्ततयाअस्खलन्त्या, अविलम्बितया-अविच्छिन्नया, राजहंसेत्यादि-राजहंसगतिसदृशया गत्या। जएणमित्यादि तत्र जयः परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च। विजयः-परेषामसहमानानामभिभवनं,यद्वा जयः स्वदेशे,विजयः परदेशे।आश्वस्ता-गतिजनितश्रमाभावात्। विश्वस्ता-क्षोभाभावादनुत्सुका। सुहासणेत्यादि सुखेन सुखंसुभं | वाऽऽसनवरगता या सा । करयलेत्यादि करतलाभ्यां परिगृहीतं-आत्तं शिरस्यावर्त्त-आवर्तनं प्रादक्षिण्येन भ्रमणं यस्य स तथा तं, दशनखमञ्जलिं-मुकुलितकमलाकारं कृत्वेवमवादीत् ॥५॥
एवं खलु अहं देवाणुप्पिआ अज्ज सयणिज्जसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमे एआख्वे उराले जाव सस्सिरीए चउद्दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा ॥६॥ व्याख्या एवं खल्वित्यादितः....... पडिबुद्धेत्यन्तम् प्राग्वत् ॥ ६॥
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तं जहा गय जाव....सिंहिं च ॥७॥ व्याख्या-तं जहेत्यादितो.......गाथा प्राग्वत् ॥७॥ एएस णं देवाणुप्पिा उरालाणं जाव चउद्दसण्हं महासुमिणाणं केमण्णेकल्लाणेफलावत्तिविसेसे भविस्सइ ? तएणं से उसभदत्ते माहणे देवाणंदाए माहणीए अंतिए एअमटुं सुच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ जाव हिअए धाराहयकयंवपुष्फगं पिव समुस्ससियरोमकूवे सुमिणुग्गहं करेइ, करित्ता । ईहं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता अप्पणो साहाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविण्णाणेणं तेसिं सुमिणाणं अत्थुग्गहं करेइ, करित्ता देवाणंदं माहणिं एवं वयासी ॥ ८॥ एएसि णमित्यादितो....वयासीत्यन्तम् । तत्रमन्ये इति वितर्कार्थो निपातः। को-नु कल्याणः-फलवृत्तिविशेषो भविष्यति।सुच्चा श्रोत्रेण निशम्य, हृदयेनावधार्य, स्वमानामवग्रहमर्थावग्रहतः, तत इहा-तदर्थ| विचारणारूपामनुप्रविशति । अप्पणोत्ति आत्मसम्बन्धिना सहजेन स्वाभाविकेन-मतिपूर्वेणाभिनियोध
प्रभवेन बुद्धिविज्ञानेन मतिविशेषजातोत्पत्तिक्यादिधुद्धिरूपपरिच्छेदेन । यद्वा बुद्धिः साम्प्रतदर्शिनी, IN विज्ञानं-अतीतमनागतवस्तुविषयम्, बुद्धिश्च विज्ञानं चेति समाहारः । यतः
मतिरप्राप्तविषया, बुद्धिः साम्प्रतदार्शनी । अतीताथों स्मृतिज्ञेया, प्रज्ञा कालत्रयात्मिका ॥१॥
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तेन बुद्धिविज्ञानेन स्वमार्थावग्रहं स्वमफलनिश्चयं करोति । वयासीत्ति अवादीत् ॥ ८ ॥
उराला णं तु देवाणुपए सुमिणा दिट्ठा, कलाणा णं सिवा धन्ना मंगला सस्सिरीआ आरुग्गतुट्ठिदीहाउकल्लाण मंगल कारगा णं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणा दिट्ठा, तं जहा - अत्थलाभो देवापिए, भोगलाभ देवाणुप्पिए, पुत्तलाभो देवाणुप्पिए, सुक्खलाभो देवाणुप्पिए, एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए नवहं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अद्धट्टमाण राईदिआणं विइकंताणं सुकुमालपाणिपायं अहीणपडिपुण्णपंचिंदिअसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेअं माणुम्माणपमाणपडिपुन्नसुजायसव्वंगसुंदरंगं ससिसोमाकारं कंतं पिअदंसणं सुरूवं दारयं पयाहिसि ॥ ९ ॥
उरालाणामित्यादितो.... दारयं पयाहिसीत्यन्तम् । तत्र आरुग्गेत्यादि आरोग्यं - निरोगता, तुष्टिः- सन्तोषः, दार्घायुः - चिरजीवित्वं, अर्थलाभ इत्यादिषु भविष्य तीति शेषः । एवंरूपादुक्तफलसाधनसमर्थात् स्वमाद्दारकं प्रजनिष्यसीति सम्बन्धः । 'सोपसर्गत्वा (त्सकर्मको ) त्साप्योऽयं धातुः' । बहुपांडपुण्णाणं ति ' षष्ठयाः सप्तम्यर्थत्वात् ' प्रतिपूर्णेषु अर्द्धमष्टमं येषु तान्यर्द्धाष्टमानि तेषु राात्रदिवसेष्वहोरात्रेषु व्यतिक्रान्तेषु । अहीणेत्यादि अहीनानि - अन्यूनानि लक्षणतः, प्रतिपूर्णानि स्वरूपतः पञ्चापीन्द्रियाणि यस्मिंस्तत्तथाविधं शरीरं देहं यस्य स तथा तं । लक्षणानि छत्रचामरादानि तत्र चक्रभृत्तीर्थकृतामष्टोत्तरसहस्रं, बलदेववासुदेवानामष्टोत्तरशतं, अन्येषां बहुभाग्यभाजां द्वात्रिंशत् तानि चैतानिः -
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"छत्रंतामरसं धनू रथवरो, दंभोलि कूमा कुशा, वापी स्वस्तिक तोरणानि च सरः, पञ्चाननः पादपः। दी. चक्रं शङ्ख गजौ समुद्र कलशौ,प्रासादमत्स्या यवाः, यूप स्तूपकमण्डलू न्यवनिभृत्,सच्चामरोदर्पणः उक्षा पताका कमलाभिषेकः, सुदाम केकी ति सुलक्षणानि द्वात्रिंशदंगेषु भवन्ति येषां ज्ञेया नरास्ते बहुभाग्यभाजः ॥२॥ | यहा इह भवति सप्त रक्तः,षडुन्नतः पञ्चसूक्ष्म दीर्घश्च। त्रिविपुल लघु गम्भीरो,द्वात्रिंशल्लक्षणःस पुमान्य | नख चरण पाणि रसना दशनच्छद तालु लोचनान्तेषु। स्याद्यो रक्तःसप्तसु,सप्ताङ्गास लभते लक्ष्मीमा | षट्कंकक्षा वक्षः-कृकाटिका नासिका नखाऽऽस्य मिति । यस्येदमुन्नतं स्यादुन्नतयस्तस्य जायन्ते ॥५॥ दन्त त्वक् केशा अलि-पर्वनखं चेति पञ्चसूक्ष्माणि।धनलक्ष्माण्येतानि, प्रभवन्ति प्रायशःपुंसां ॥४॥ नयन कुचान्तर नासा-हनुभुजमिति यस्य पञ्चकं दीर्घम्।दीघायुर्वित्तपरः, पराक्रमी जायते स नरः॥ भालमुरोवदनमिति,त्रितयंभूमीश्वरस्य विपुलं स्यात् ।ग्रीवा जङ्घा मेहनमिति त्रयं लघु महीशस्यावा | यस्य स्वरोऽथ नाभिः, सत्त्वमितीदं त्रयं गभीरं स्यात्। सप्ताम्बुधिकाञ्चेरपि, भूमेःस करग्रहं कुरुते॥७॥
अन्यान्यपि लक्षणानि सामुद्रोक्तानि तद्यथा
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| मुखमद्धे शरीरस्य, सर्व वा मुखमुच्यते। ततोऽपि नासिका श्रेष्ठा, नासिकायास्तु लोचने ॥ ८॥ | यथा नेत्रे तथा शीलं, यथा नासा तथाऽऽर्जवम् । यथा रूपं तथा वित्तं, यथा शीलं तथा गुणाः॥९॥ / अस्थिष्वाः सुखं मांसे, त्वचि भोगाः स्त्रियोऽक्षिषु।गतौ यानं स्वरे चाज्ञा,सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम्॥१०॥
नासिकानेत्रदन्तौष्ठ,-करकर्णाह्रिणा नराः। समाः समेन विज्ञेया, विषमा विषमेन तु ॥ ११ ॥ पाणेस्तलेन शोणेन धनी निलेन मद्यपः । पीतेनागम्यनारीगः कल्मषेण धनोज्झितः॥ १२ ॥ अनामिकान्त्यरेखाया; कनिष्ठा स्याद् यदाधिका । धनवृद्धिस्तदा पुंसां मातृपक्षो बहुस्तथा ॥१३॥
मणिबन्धात्पितुलेखा, करभाद्विभवायुषोः। लेखे द्वे यान्ति तिस्रोऽपि, तर्जन्यङ्गुष्ठकान्तरे ॥१४॥ Lal येषां रेखा इमाः तिस्रः, संपूर्णा दोषवर्जिताः। तेषा गोत्रधनायुषि, सम्पुणान्यन्यथा न तु ॥१५॥
उल्लङ्घ्यन्ते च यावन्त्यो, ऽगुल्यो जीवितरेखया। पञ्चविंशतयो ज्ञेया तावन्त्यः शरदां बुधैः॥१६॥ यत्रैरङ्गष्टमध्यस्थै-विद्याख्यातिविभूतयः। शुक्लपक्षे तथा जन्म-दक्षिणाङ्गष्टगैश्च तैः ॥ १७॥ न श्रीः त्यजति रक्ताक्षं, नार्थः कनकपिङ्गलम्। दीर्घबाहुं न चैश्वर्य, न मांसोपचितं सुखं ॥ १८॥ | अतिमेधातिकीर्तिश्च, विख्यातोऽतिसुखी तथा। अतिस्निग्धाच दृष्टिश्च,स्तोकमायुर्विनिर्दिशेत् ॥१९॥
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चक्षुःस्नेहेन सौभाग्य, दन्तस्नेहेन भोजनं । वपुःस्नेहेन सौख्यं स्यात् पादस्नेहेन वाहनं ॥२०॥ वामभागे तु नारीणा, दक्षिणे पुरुषस्य च । विलोक्यं लक्षणं विज्ञैः पुंस्सत्वायुः पुरस्सरं ॥२१॥ | पुष्टं यदेव देहे स्यालक्षणं चाप्यलक्षणं। इतरद् बाध्यते तेन, बलवत् फलदं भवेत् ॥ २२ ॥ | व्यञ्जनानि-मषोतिलकादीनि तेषां या गुणः-प्रशस्तता तेनोपयुक्तः। उप-अप-इत-इति शब्दत्रयस्थाने शकन्ध्वादिदर्शनादुपपेत इति भवति, । यद्वा सहजं लक्षणं । पश्चाद् भवं व्यञ्जनं । गुणाः सौभाग्यादयः। माणुम्माणेत्यादि जलभूतकुण्डे यस्मिन् नरे प्रविष्टे जलस्य द्रोणो निस्सरति स मानोपेतः, यस्तुलारू| ढोऽर्द्धभारं तुलति स उन्मानोपेतः। भारमानं त्वैवंःषट् सर्पपैर्यवस्त्वेको, गुञ्जका च यवैस्त्रिभिः । गुञ्जात्रयेण वल्लः स्याद् गद्याणे तेच षोडश ॥१॥ पले च दशगद्याणास्तेषां सार्द्धशतं मणे, मणैर्दशभिरेकाच धटिका कथिता बुधैः ॥२॥
___ धटीभिर्दशभिस्ताभि-रेको भारः प्रकीर्तितः । इत्युन्मानं ___ स्वाङ्गुलेनाष्टोत्तरशताङ्गुलोच्छ्यः प्रमाणप्राप्तः, मुखात् द्वादशाङ्गुलप्रमाणादेहमानं नवगुणमुत्तम-1
पुंसाम् । यदुक्तंः2 अष्टशतं षण्णवति परिमाणं चतुरशितिरिति पुसां। उत्तम-सम-हीनानांखदेहसङ्ख्या स्वमानेन॥१॥ १५
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तिर्थकरास्तु विंशत्यधिकशताङ्गुलमाना भवन्ति यतस्तेषां शीर्षे द्वादशाङ्गुलमुष्णीषं स्यादिति प्रमाणं ततस्तैर्मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि - अन्यूनानि, सुजातानि, सुनिष्पन्नानि - सर्वाङ्गाणि - शिरःप्रभृतानि यस्मिंस्तथाविधं सुन्दरम यस्थ स तथा तं । शशिवत्सौम्यं आकारो यस्य सतं, कान्तं-कमनीयकं अत एव प्रियं द्रष्टृणां दर्शनं यस्य । अतएव सुरूपं - शाभनरूपं ॥ ९॥
से वि अ णं दारए उम्मुक्कवालभावे विन्नायपरिणयमित्ते जुव्वणगमणुष्पत्ते रिउव्वेअ जउव्वेय सामवेअ अथव्वणवेअ इतिहासपंचमाणं निग्घंटुछद्वाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चउन्हं वे आणं सारए पारए वारr धारए सडंगवी, सद्विततविसारए संखाणे सिक्खाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छंदे निरुत्ते जोइसामयणे अन्नेसु अ बहुसु बंभन्नएसु परिव्वायएसु नएसु सुपरिनिfor व भविस्स ॥ १० ॥
सेवि अणमित्यादितो..... भविस्सईत्यन्तम् तत्र सोऽपि दारको, णमित्यलङ्कारे, उन्मुक्तबालभावो - जाताष्ट वर्षो विज्ञातं - विज्ञानं परिणतमात्रं यस्य । क्वचिद्विन्नयपरिणय त्ति ' पाठस्तत्र विज्ञ एव विज्ञकः सन् चासौ परिणतमात्रश्च । कलादिष्विति गम्यं । इह मात्र शब्दो बुद्धगादिपरिणामस्याभिन्नत्वख्यापकः, यौवनमेव यौवनकमनुप्राप्तः । रिउव्वेअ इत्यादिषु 'षष्ठीबहुवचनलोपाद्वेदानामिति' दृश्यं । इतिहासः - पुराणं-निघण्टुर्ना - मसङ्ग्रहः, अङ्गानि - शिक्षाकल्प - व्याकरणं छन्दाज्योति-निरुक्तयः, षट् उपाङ्गानि तदुक्तप्रपञ्चनपराः प्रबन्धाः ।
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पारग:
‘सरहस्साणं ति’ ऐदंपर्ययुक्तानां सारकोऽध्यापनेन प्रवर्तकः स्मारको वा विस्मृतस्य स्मारणात्, पारं प्राप्तः, वारको - अशुद्धपाठनिषेधकः, धारको ऽधीतान् धारयितुं क्षमः, षडङ्गवित् - शिक्षादिविचारकःज्ञानार्थे तु पौनरुक्त्यं स्यात्, षष्टिरर्थास्तन्त्रिता अत्रेति षष्टितन्त्रं - कापीलीयशास्त्रं तत्र विशारदः । संखाणेत्ति ' सङ्कलितव्यवकलितस्कन्धे सुपरिनिष्ठित इति योगः । छायादिना नगगृहादिमानं यथा
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'अर्द्ध तोये कर्दमे द्वादशांशः, षष्ठो भागो वालुकायां निमग्नः
साद्ध हस्तो दृश्यते यस्य तस्य, स्तम्भस्याशु ब्रूहि मानं विचिन्त्य ” ॥१॥ स्तम्भो हस्ता षट् । सिकखाणेत्ति शिक्षामणति प्रतिपादयतीति शिक्षाणं आचारशास्त्रं तत्र । सिक्खाकप्पेत्ति शिक्षा च- अक्षरस्वरूपनिरूपकं शास्त्रं, कल्पश्च यज्ञादिसमाचारवाचकं चेति शिक्षाकल्पं तत्र । व्याकरणे - शब्द लक्षणशास्त्रे, छन्दसि - पद्यलक्षणनिरुपके, निरुक्ते - पदभञ्जने, ज्यातिषां अयने-ज्ञाने - ज्योति:शास्त्रे इत्यर्थः । अन्येषु बहुषु ब्राह्मणेषु वेदव्याख्यारूपेषु ब्राह्मणसबन्धिषु ब्राह्मणहितेषु, परिव्राजकदर्शनप्रसिद्धेषु नयेषु - आचारेषु न्यायशास्त्रेषु वा इति । सुपरिनिष्णातश्चापि भविष्यति भाव्यं ॥ १० ॥
तं उरालाणं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणा दिट्ठा, जाव आरुग्ग-तुट्ठि- दीहाउअ - मंगल कल्लाणकारगाणं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणा दिट्ठ त्ति कट्टु भुज्जो भुज्जो अणुवूहइ ॥ ११ ॥
क
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व्याख्याः तं उरालाणमित्यादितः....अणुव्हईवन्तम्, तत्र 'तंति' यस्मादेवं तस्माद्दारादिविशेषणाः । स्वमास्त्वया दृष्टा इति निगममं । इति कत्ति इति भणित्वा भूयो भूयो अनुवृहयति-अनुमोदयति ॥११॥
तएणं सा देवाणंदा माहणी उसभदत्तस्स माहणस्स अंतिए एअमटुं सुच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-M जावहयहिअया करयलपरिग्गहिअं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट उसमदत्तं माहणं एवं वयासी ॥ १२ ॥ तएण मित्यादिता....वयासीत्यन्तम् प्राग्वत् ॥ १२॥ एवमेअं देवाणुप्पिआ तहमेयं देवाणुप्पिा अवितहमेयं देवाणुप्पिा असंदिछमेअं देवाणुप्पिआ M इच्छिअमेअं देवाणुप्पिया पडिच्छिअमेअं देवाणुप्पिया इच्छिअपडिच्छिअमेअं देवाणुप्पिया सच्चे M णं एस मढे से जहेयं तुम्भे वयह त्ति कट्ट ते सुमिणे सम्मं पडिच्छइ पडिच्छित्ता उसभदत्तेणं । माहणेणं सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरइ ॥ १३ ॥ व्याख्याः-एवमेअमित्यादितो....विहरइ इत्यन्तम् तत्र । एवमिति पत्युर्वचने प्रत्ययाविष्करणं । तदेव स्पष्टयति तहमेर्यामत्यादि तथैतद्यथा यूयं वदथेत्यनेनान्वयतस्तद्वचने सत्यतोक्ता। अवितथमेतदनेन तद् व्यतिरेकाभावोऽसूचि, असन्दिग्धमनेन सन्देहाऽभावोऽत एव इष्टमीप्सितं चास्माकमेतत् । प्रतीष्टं-प्रतीप्सितं I
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वा युष्मन्मुखात्पतदेव गृहीतं । इष्टं प्रताष्टं धर्मद्वययोगोऽत्यन्तादरख्यापकः। सद्भ्यो हितः सत्यः प्राणिक. हितोऽयमर्थः। णं वाक्यालंकारे । भोग्यारे-भोग्या भोगभोगास्तान् 'प्राकृतत्वान्नपुंसकत्वं' भुञ्जाना १७ विहरति-तिष्ठति ॥ १३ ॥
तेणं कालेणं, तेणं समएणं, सके, देविंदे, देवराया, वज्जपाणी, पुरंदरे, सयकओ, सहस्सक्खे, मघवं, पागसासणे, दाहिणड्डुलोगाहिवई,एरावणवाहणे, सुरिंदे,बत्तीसविमाणसयसहस्साहिवई, अरयंबरखत्यधरे,आलइअमालमउडे,नवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिजमाणगले,महिड्ढीए, महज्जुईए, 1 महब्बले, महायसे, महाणुभावे, महासुक्खे, भासुरखोंदी, पलंबवणमालधरे, सोहम्मे कप्पे, सोहम्मवडिंसए विमाणे, सुहम्माए समाए, सकसि सीहासणंसि, से णं तत्थ बत्तीसाए l विमाणवाससयसाहस्सीणं, चउरासीए सामाणिअसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिहं परिसाणं, सत्तण्हं अणिआणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसिं च बहणं सोहम्मकप्पवासीणं वेमाणिआणं देवाणं देवीण य, आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरग १७
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आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे, महयाहयनट्टगीअवाइअतंतीतलतालतुडिअघणमुइंगपडपडहवाइअखेणं दिव्वाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ ॥ १४ ॥ व्याख्याः-ते णं काले णमित्यादितो-विहरतीत्यन्तम, तत्र शक्रस्यासनविशेषस्याधिष्ठाता शकः, देवानां | मध्ये इन्दनात्परमैश्वर्ययुक्तत्वाद्देवेन्द्रः, देवेषु राजा कान्त्यादिगुणैरधिकं राजमानत्वात्, वज्रं पाणावस्येति | वज्रपाणिः, असुरादिपुराणां दारणात्पुरन्दरः, शतं क्रतुनां कार्तिकभवापेक्षयाऽभिग्रहविशेषाणाम् वा यस्यासौ शतक्रतुः,। कार्तिकश्रेष्ठिभवो यथा
पृथ्वीभूषणाख्ये पूरे प्रजापालो नाम नृपः, श्रेष्ठी कार्तिकनामा महर्द्धिको राजमान्या, तेन श्राद्धप्रतिमानां शतं कृतं, ततः 'शतक्रतु'रिति ख्यातिः । एकदा गैरिकतापसो मासोपवासी तत्रागतः, एकं कार्तिकं | विना सर्वोऽपि लोकस्तदाढतो जातः । अथ ज्ञातकार्तिकवृन्तातः स सकोपो भोजनाय निमन्त्रितो राजे प्राह 'यदि श्रेष्ठी परिवेषयति तदा त्वद् गृहे आयामीति श्रुत्वाश्रेष्ठिगृहे गत्वा तं भुजे धृत्वासोऽवक्-'मद्गृहे - गैरिक भोजय, । श्रेष्ठी प्राह त्वदाज्ञाकारित्वात्करिष्ये । ततस्तेन भोज्यमानो गैरिकोऽपि धृष्टोऽसीत्यङ्गुलीचेष्टां चक्रे । दध्यौ च श्रेष्ठी यदि प्रागेव प्राब्रजिष्यं तदिदं नाभविष्यदिति विचिन्त्य नैगमाष्टसहस्रेण सम KA श्रेष्ठी श्रीसुव्रतस्वाम्यन्तिके प्रव्रज्याधीतद्वादशीको द्वादशाब्दैः सः सौधर्मेन्द्रोऽभूत्। गैरिकोऽपि स्वकर्मतस्तद्वाहनमैरावणाख्यं जातं । ततः कार्तिकोऽयमिति ज्ञात्वा पलायमानं तं धृत्वा शक्रोऽधिरूढवान् । स च
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क.
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शक्रभापनार्थ शीर्ष द्रयं चक्रे, शक्राऽपि द्विमूर्त्तिकः । पुनः स चतुशीर्षः शक्रोऽपि चतुर्मूर्तिरित्यादि, यावदवधिना ज्ञात्वा शक्रेण तर्जितो भीतः सन् मूलरूपो जातः ॥ इति कार्तिकश्रेष्ठिकथा ॥
सहस्राक्षः-पञ्चमन्त्रिशताक्ष्णामिन्द्र कार्यप्रवृत्तत्वात् । मघा - महामेघा देवविशेषा वा वशेऽस्य स मघवा, पाका - बलवन्तोऽरयस्तान् पाको दैत्य विशेषो वा तं शास्ताति पाकशासनः, दक्षिणार्द्धलोकाधिपतिदक्षिणतः सर्वस्य तदायत्सत्वात्, ऐरावणो- गजरुपः सुरो वाहनं यस्य, सुराणामिन्द्र - आह्लादकत्वात् । द्वात्रिंशद्विमानलक्षाधिपतिः, अरजांसि - रजोरहितानि अम्बरं- आकाशं तद्वत् स्वच्छतया तुल्यानि वस्त्राणि धरतीति, आलगितौ - यथास्थाने स्थापितौ मालामुकुटौ येन, नवाभ्यामिव हेम्नः सत्काभ्याम् चारूभ्याम्मनोहराभ्याम् चित्राभ्याम् आश्चर्याकृद्भ्याम् चञ्चलाभ्याम् इतस्ततश्चलनपराभ्याम् कुण्डलाभ्याम् विल्लिख्यमानौ गल्लौ यस्य, महती ऋद्धिः छत्र - चामरादिराजचिह्नरूपा यस्य, महती द्युतिः- आभरणादिसत्का युतिर्वा इष्टवस्तु प्राप्तिर्यस्य, महद्वलं यस्य, महद्यशो यस्य, महाननुभावो - महिमा यस्य, महासौख्यं यस्य, भासुरादीमिती बुन्दि - वपुर्यस्य, प्रलम्बा वनमाला - भूषणविशेषः पादान्तलम्बिनी पश्चवर्णपुष्पमाला वा यस्य, सेणंति सः–इन्द्रः, । णंवाक्यालङ्कारे, तत्र स्वर्ग विमानावासा-विमानाएव सयसाहसीणं ति लक्षाणां, 'स्त्रीत्वं चार्षत्वात्', समानया - इन्द्रतुल्यया शक्त्यायुर्ज्ञानादिऋद्धया स्युरिति सामानिकाः, त्रयस्त्रिंशता त्रयस्त्रिंशानाम् पूज्यस्थानीयानाम्, मन्त्रिकल्पानाम् वा, 'चतुर्णाम् लोकपालानाम् - सोम-यम- वरुण - कुबेराणाम्, अष्टानामग्रमहिषीणाम् - पद्मा १ शिवार शची९ अजू४ अमला५ अप्सरा६ नवमिका७ रोहीणीनां८ सपरिवाराणाम्
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| परिवारयुक्तानाम् , तिसृणाम् पर्षदाम्-बाह्यमध्यमाभ्यन्तराणाम् , ससानामनीकानाम्-सेनानाम् गन्धर्व-M | नाट्य-हये-गज-र.थ-भट-वृषभरूपाणाम् सप्तानामनीकाधिपतिनाम्-सैन्यस्वामिनामित्यर्थः, चतमृणाम् चतुरशीतीनामात्मरक्षकदेवसाहस्रीणाम्, चतुर्दिशम् भावादङ्गरक्षकाणाम् , [षत्रिंशत्सहस्राधिक लक्षत्रयं जातमिति] आहेवच्चमित्यादि आधिपत्यम्-अधिपतेः कर्म-रक्षा, एतच्च सामान्यत आरक्षकेणापि क्रियतेऽतः प्राह-पुरोवयं-सर्वषामग्रेसरत्वं, तच्च स्वामिनियुक्त जनेऽपि स्यादत आह-स्वामित्वं-नायकत्वं, तदपि पोषकत्वं विना मृगयुथाधिपस्य च अत आह-भर्तृत्वं-पोषकत्वम्, महत्तरत्वं-गुरुतरत्वम् , तदप्याज्ञाविकलस्यापि स्वदासदासीवर्ग प्रति वणिज इव स्यादत आह-आज्ञया-इश्वरः आज्ञेश्वरः सेनायाः पतिः सेनापतिः, (ततो 'विशेषणकर्मधारये) तस्य कर्म आज्ञेश्वर-सेनापत्यं-स्वसैन्यं प्रति अद्भूतमाज्ञा | प्राधान्यमित्यर्थः, कारयन् नियुक्तैस्सह पालयन् स्वयमेव, । महयाहयेत्यादि महता, 'रवेण इति योगः'
अहतम-अव्यवच्छिन्नं यन्नाटय, तत्र यद्गीतम् च यानि वादितानि-तन्त्रीतलतालत्रुटितानि, । तत्र तत्त्रीवीणा, तलतालाश्च-हस्तास्फोटरवाः, यदा तला-हस्ता, ताला:-कंसिका, त्रुटितानि-शेषतुर्याणि । यश्चघनमूदंग-मेघध्वनिः मर्दलो यश्चपटुपटहवादितमिति कर्मधारयगर्भो द्वन्द्वः ततस्तेषां यो रवस्तेन । यद्वा आहतेआख्यानकपतिबद्धे नाटयं च गीतं च नाटयगीते आहते च ते नाट्यगीते च आहतनाटयगीते तयोः वादितानि-तन्त्रीतलतालटितानि घनमृदङ्गपटुपटहवादित्राणि तेषां रवस्तेन । दिव्यान्-देवजनोचितान् भोगभोगान्-भोगभोगातिशयवभोगान 'क्लीबत्वं च प्राकृतत्वात्' विहरति-आस्ते ॥ १४ ॥
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इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे आभोएमाणे विहरइ । तत्थ णं समणं भगवं महावीरे जंबुद्दीत्रे दीवे भारहे वासे दाहिणडूभरहे माहणकुडग्गामे नयरे उस भदत्तस्स माहणस्स को डालस गुत्तस्स भारियाए देवाणंदाएं माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिसिं गन्मत्ताए वकं तं पास, पासिता हट्टतुट्ठचित्तमाणंदीए नंदिए परमाणंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवस विसप्पमाण हिअर धाराहयकयं वसुरहिकुसुमचंचुमालइ अऊसविअरोमकूत्रे विअसिअवरकमलाणणनयणे पयलिअवरकडगतु डिअकेऊरम उडकुंडल हारविरायंतवच्छे पालंबपलंबमाणघोलंत भूमणधरे ससंभ्रमं तुरिअं चवलं सूरिंदे सीहासणाओ अभुट्ठे, अभुट्टित्ता पायपीढाओ पचोरुहिता वे रुलिअवरिहरिद्वअंजणनिउणोवि अमिसिमिसिंतमणिरयणमंडिआओ पाउआओ ओमुअइ, ओमुइत्ता एगसाडिअं उत्तरासंगं करेइ, करिता अंजलिमउलिअग्गहत्थे तित्राभिमुपयाई अणुगच्छ, अणुगच्छित्ता वामं जाणं अंचेइ, अंचिता दाहिणं जाणं धरणितलंसि सानु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निवेसेइ निवेसित्ता इसिं पञ्चन्नमइ, पञ्चन्नमित्ता कडगतुडिअर्थभिआओ भुआओ साहरइ, साहरित्ता करयलपरिग्गहिअं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी ॥ १५ ॥
म.
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Lal इमंचणं इत्यादितः....एवं वयासीत्यन्तम् तत्र केवलः सम्पूर्णः स चासौ कल्पश्च कार्यकारणसमर्थः ।
यहा पूर्णता साधात् केवलकल्पः-केवलज्ञानतुल्यः। अवधिना आभोगयन्-पश्यन् । नन्दितः-समृद्धितां प्राप्तः। परमानन्दितोऽताव समृद्धितां गतः। धाराहतं यन्नीपस्य-कदम्बस्य सुरभि कुसुममिवचंचुमालइअत्ति पुलकितः । अतएव ऊप्तविअत्ति उश्वसितरोमकूपश्च यःस तथा । विकसितानि-वरकमलवदानन-नयनानि यस्य स तथा । प्रचलितानि-सम्भ्रमात्कम्पितानि वराणि ककृणानि, त्रुटिताः-याहूरक्षकाः । केयूराणि च बाहुमूलभूषणानि, मुकुटं च कुण्डले च यस्य हारविराजदक्षाः, [तदनु पदवयस्य कर्मधारयः] पालम्बोझुम्बनकं मुक्तामयं प्रलम्बमानं-घोलच्च-दोलायमानम् यद्भूषणं-आभरणम् तद्धरति यः सः। ससम्भ्रम| सादरं त्वरितम्-सौत्सुक्यम् चपलं-वेगवञ्च यथा स्यात्तथा प्रत्यवरोहति-अवतरति । वैडूर्येण मध्यवर्तिना
वरिष्ठे-प्रधाने रिष्टाञ्जने रत्नविशेषौ ययोस्ते, तथा निपुणेन शिस्पिना 'उवित्ति' परिकर्मिते, अतएव । GI मिसिमिसिंत त्ति चिकिचिकायमाने मणिभिः चन्द्रकान्तादिभिः रत्नश्च-कर्केतनादिभिः मण्डिते ये ते | तथा ततः 'पदचतुष्कस्य कर्मधारयः' इदृशे पादुके अवमुश्चति। एकखण्डशाटकमयमुत्तरासहं । अनलिना मुकुलिता-मुकुलाकृती कृतावग्रहस्ता येन । अंचेह त्ति आकुश्चयति-उत्पाटयति साहटु'त्ति संहत्य-निवेश्य त्रिःकृत्वस्त्रीन् वारान् न्यस्यति । इषन्मनाग प्रत्युन्नमति। कडग कङ्कण बाहुरक्षाभ्यां स्तम्भिते भुजे साहरइत्ति उर्ध्वं नयति स्तम्भिकोपमे करोति । करतलाभ्याम् परिगृहीतः कृतस्तं आवर्तनं आवर्तः शिरस्यावती यस्य स तं । हस्ताङ्गुलोनामन्योन्यान्तरितत्वे अनलिस्तं ॥१५॥
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नमुत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं, आइगराणं, तित्थयराणं, सयंसंबुद्धाणं, पुरिसूत्तमाणं, पुरिससीहाणं, पुरिसवरपुंडरीआणं, पुरिसवरगंधत्थीणं, लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगहिआणं, लोगपईवाणं, लोगपज्जोअगराणं, अभयदयाणं,चक्खुदयाणं,मग्गदयाणं, सरणदयाणं,जीवदयाणं, बोहिदयाणं, धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवरचाउरंत चक्कवट्टीणं, दीवो ताणं सरणं गई पइट्ठा, अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं, विअट्टच्छउम्माणं, जिणाणं जावयाणं, तिन्नाणं तारयाणं, बुद्धाणं, वोहयाणं, मुत्ताणं मोअगाणं, सबन्नूणं, सबदरिसीणं, सिवमयलमरुअमणंतमक्खयमबाबाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेअं ठाणं संपत्ताणं, नमोजिणाणं जिअभयाणं, नमुत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आदिगरस्स चरमतिस्थयरस्स पुवतित्थयरनिहिट्ठस्स जाव संपाविउकामस्स। वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इह गए, पासइ मे भगवं तत्थ गए इह गयं तिकट्ट समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसण्णे, तए णं तस्स सकस्स देविंदस्स देवरन्नो अयमेआख्वे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था ॥ १६ ॥
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नमुत्थुणमित्यादितः....समुप्पज्जित्थेत्यन्तम् । तत्र नमोऽस्त्विति सर्वत्र सम्बध्यते [ सर्वत्र चतुर्थीस्थाने Nषष्ठी प्राकृतत्वात् ] । अतिशयपूजाद्यर्हत्वादर्हन्तः। कर्मारीन् मन्तीति अरिहन्तारः। कर्मबीजाभावे भवेऽप्ररो
हणादरुहन्तस्तेभ्यः 'अत्र बहुवचनमद्वैतोच्छेदेनाऽर्हद्बहुत्वख्यापनाथै, नमस्कर्तुः फलाधिक्यज्ञापनार्थ वा। नामादीन जिनान सामान्यतो नत्वा विशेषतो भावजिनान् नमस्कर्तुमाह-भगवद्भ्यः,"भगोऽर्क-ज्ञान-माहात्म्य-यशो-वैराग्य-मुक्तिषु-रूप-वीर्य-प्रयत्ने-च्छा-श्री-धर्मेश्वर्य-योनिषु॥१॥” ___ इत्यर्कयोनिवर्जद्वादशार्थभगयुक्तेभ्यः । तत्र यशस्वी शाश्वतारिवैरोपशमनात् , वैराग्यवान्"यदा मरुन्ननरेन्द्रश्रीस्त्वया नाथोपभूज्यते यत्र तत्र रतिर्नाम विरक्तत्वं तदापि ते ॥१॥ इत्युक्तेः२ ४
वीर्यवानमितबलवत्त्वात्३ प्रयत्नः-तपः कर्मादावुत्साहः४ भवाजन्तुनामुद्धरणेच्छा५ श्रीरतिशयरूपाद ऐश्वर्यमिन्द्रादिसेव्यत्वात् ज्ञान८ माहात्म्य९ मुक्ति१० रूप११ धर्म१२ वत्त्वं च प्रतीतम् । आदिकरेभ्यः-श्रुतधर्मस्यार्थापेक्षया नित्यत्वेऽपि शब्दापेक्षया स्वस्वतीर्थेष्वादिकरणात् । तीर्थकरेभ्यः-तीर्थ सङ्घः-गणभृद्वा तत्स्थापनात् । स्वयं संबुद्धेभ्यः-परोपदेश विना स्वयं तत्त्वावबोधात् । पुरुषोत्तमेभ्यः-गाम्भीयादिबहुगुणयुक्तत्वात् । पुरुषसिंहेभ्यः-सिंह इव कर्मारिष्वतिक्रुरत्वादुपसर्गेभ्योनिर्भयत्वाद्वा । पुरुषवर पुण्डरीकेभ्यः-पुण्डरीकाणि-श्वेतपद्मानि तत्सदृशास्तेभ्यः, यतः कर्मपङ्केजाता भोगजलेन वर्द्धितास्त्यक्त्वोभयं जगल्लक्ष्मीनिवासाः सन्ति । पुरुषवरगन्धहस्तिभ्यः-ईति-मार्यादिक्षुद्रगजानां भगवद्विहारमरुद्गन्धादेव भङ्गात् । लोकोत्तमेभ्यः-लोकस्य-भव्यलोकस्योत्तमश्चतुत्रिंशदतिशयोपेतत्वात् । लोकनाथेभ्यः-लोकस्य
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क.
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भव्यलोकस्य नाथा-योगक्षेनकारिणः तत्रालब्धसम्यक्त्वादिप्रापणाद्योगस्य लब्धस्य रक्षणात्क्षेमस्य च संपादकत्वात् । लोकहितेभ्यः - लोकस्यै केन्द्रियादिप्राणिगणस्य रक्षणात् हितास्तेभ्यः । लोकप्रदीपेभ्यः -लोकस्य - विश्वस्य मिथ्यात्वध्वान्तविध्वंसेन सर्ववस्तुप्रकाशकत्वात् प्रदीपा इव प्रदीपास्तेभ्यः । लोकपद्योत - करेभ्यः-लोकस्य-लोकरूपस्य प्रवचनप्रवर्त्तनेन प्रद्योतं-प्रकाशं कुर्वन्तीति लोकप्रयोतकरास्तेभ्यः । अभयदायेभ्यः- इहलोक-परलोक - आदन- अर्कैस्मात्-आजीविका - मरंग अँश्लोकरूपससभयहरणाद्भयं दयन्ते इत्यभयदयास्तेभ्यः । चक्षुर्दयेभ्यः - चक्षुरिव चक्षुः- श्रुतज्ञानं तद् दद्यन्ते इति चक्षुर्दयास्तेभ्यः । मार्गदयेभ्यःमार्ग - सम्यक्त्वादिकं मुक्तिपथं दयन्ते इति मार्गदयास्तेभ्यः । शरणदयेभ्यः - शरणं त्राणं बहुपद्रवोपद्रुतानाम् तत्त्वतो निर्वाणं दद्यन्ते इति शरणदयास्तेभ्यः । जीवदयेभ्यः - जीवनं जीवो भावप्राणधारणममरणं दयन्ते, जीवेषु वा दया येषाम् इति जीवदयास्तेभ्यः । कचित् बोहिदयाणमितिपाठस्तत्र जिनोक्तधर्मप्राप्तिस्तां दयन्ते इति । धर्मदयेभ्यः- धर्म - देश सर्वविरतिरूपं दयन्ते इति धर्मदयास्तेभ्यः । धर्मदेशकेभ्यः धर्म-पूर्वोक्तं देशयन्ति इति धर्मदेशकास्तेभ्यः । धर्मनायकेभ्यः - धर्मस्य - क्षायिकज्ञानादेर्वशीकारात् तत्फलपरिभोगाच्च नायकास्तेभ्यः । धर्मसारथिभ्यः - धर्मरथस्य सारथ्य इव रथिकाश्वतुल्यसंयमात्मप्रवचनानाम् प्रवर्तनरक्षणाभ्याम् । यथा सारथिस्तात् प्रवर्तयति रक्षति च धर्मसारथिकतायां सम्प्रदायस्त्वेवम् ॥
एकदा श्रीवीरो विहरन् राजगृहपुरोद्याने समवसृतः । तत्र च श्रेणिकधारिण्योर्मे धकुमाराख्यः पुत्रः प्रभोगिरा विरक्तोऽष्टौ प्रियास्त्यक्त्वा प्रवजितः । प्रभुगा च ग्रहणासेवनादि शिक्षार्थं स्थविराणामर्पितस्तत्र निर्गच्छ दागच्छदनेकमुनिपादद्ममार्जन रजा गुण्डिताङ्गस्तस्याम् राम्रो क्षणमपि निद्रामप्राप्नुवत्, "क मे
म.
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सुखावासे कुसुमशय्याशयनं ? क चास्यां दुःखावासबसतो भूत्रस्तरे लुठनं ? " इति वैसदृश्येनोपमयन् । " इत्थं व्यथां सोढुमशक्तोऽहमिति प्रातः प्रभुमारच्छ ध पुनरपि गृहित्वमाश्रयिष्ये,” इति ध्यात्वोद्गते सूरे प्रभोः पार्श्वमागत्य प्रभुं प्रणतः, प्रभुणा चादित एव सुधा समगिरा वादितः-" हे वत्स ! निर्गच्छदा-1 गच्छत्साधुभिर्घटितोऽपि किं दुर्ध्यातवान् ?, यतः"को चकवट्टिरिद्धिं, चइउं दासत्तणंसमभिलसइ। को वररयणाई मोत्तुं, परिगिण्हइ उवलखण्डाइं ॥१॥ | नेरइयाण विदुक्खं, झिजइ कालेणं किं पुण नराण। ता न चिरंतुह होही, दुक्खमिणं मा समुवियसु।२॥
जीअं जलबिंदुसमं, संपत्तीओ तरंगलोलाओ। सुविणयसमं च पेम, जं जाणसु तं करिजासु ॥३॥ IN वरमग्गिमि पवेसो, वरं विसुद्धेण कम्मुणा मरणं।मा गहिअवयभंगो, माजीअं खलिअसीलस्स॥४॥" ____ इत्यादिकमुपदिश्य भगवानेव प्राग्भवौ स्मारयति । हे मेघ ? तवैव प्राग्भवौ शृणु-" यत्त्वं इतो भवात्तृतायभवे वैताख्य भूमौ श्वेतः षट्दन्तः सहस्रहस्तिनीशः सुमेरुप्रभाख्यो गजोऽभूः। अन्यदा च ग्रीष्मे दवागीतः हस्तिनीजवाद्विहाय तृषिता धावमानः पलिमेकं सरः प्राविशस्तत्र चाप्राप्तपयाः पङ्क एव निमग्नः, वैरिदन्तिना दन्ताभ्यां विद्वो महाव्यथां सहमानः सस दिनान्यस्थाः, एवं विंशत्युत्तरशतमायुः परिपाल्य मृत्वा च विन्ध्यभूमौ ससशतहस्तिनीशो रक्तश्चतुर्दन्तो दन्ती जातः। एकदा || च तथैव दवं वीक्ष्य जातजातिस्मृतिवर्षारावादिमध्यान्ते सपरिवारः समूलं वल्लयाद्युन्मूल्य योजनमानं स्थण्डिलं कृतवान् । अन्यदा वागीतः प्रागुक्ते सत्वसङ्कले स्थण्डिले गत्वा प्रविष्टः संलीनाङ्गः
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स्थितोऽप्यङ्गकण्डूयनेच्छया पादमेकमुत्क्षिप्तवान, तत्र भूम्यामन्यत्रानवाप्तावकाशः शशकः प्राविशत् । । वपुः कण्डयित्वा पादमधो मञ्चन शशकम वीक्ष्य तकपया सार्द्धदिनद्वयं तदवस्थ एव स्थितः। शान्ते च । दवे विनिर्गते च शशके गिरेः शृङ्गमिव त्वं भूव्यपतस्ततो दिनत्रयं क्षुत्तृटबाधितोऽपि कृपालुः शताब्दायुः परिपाल्य श्रेणिकधारिण्योः सुतत्वेनोत्पन्नः । तदात्वज्ञेनापि त्वया कृपालुना मनागपि पीडा नागण्यत । साम्प्रतं तु विश्ववन्यैर्मुनिभिर्घटयमानोऽपि दूयसे?" इति स्वाम्युक्तं श्रुत्वा स्मृत्वा च पूर्वभवो पुनराप्तसंवेगः प्रभुम् नत्वोचे-“हे वीर! चिरंजीयाः यदेवं मामुत्पथप्रस्थितम् रथ्यो सुसारथिरिव पुनः मार्गमानीतवान् ॥ | अतः प्रभृत्येषां पादरजोऽपि वन्द्यम् मे, आस्तामन्यत्, नेत्रे मुक्त्वा वपुरपि व्युत्सृष्टमित्यभिग्रहोऽस्तुमे"।
ततः स्थिरीकृतो मेघस्तीव्र तपस्तप्त्वा मासिकी च संलेखनां कृत्वा विजयविमाने देवो जनितः। ततश्च्युतो IN विदेहे सेत्स्यतीति । तदेवं भगवन्तो धर्मसारथयस्तेभ्यः । इति मेघकुमार निदर्शनं ॥
['प्रथमं व्याख्यानं सम्पूर्णम् ]
[अथ द्वितीयं व्याख्यानम् ] धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिभ्यः-धर्मेषु वरः-श्रेष्ठस्तेन नरकादिचतुर्गत्यन्तकरणाचतुरन्तेन मिथ्यात्वादि-का रिपुछेदकत्वाचक्रेणेव वर्तितुम् शीलं येषाम् ते, यद्वात्रया समुद्राश्चतुर्थो हिमवानिति चत्वारः क्षितेरन्तास्तेषु । प्रभुतया भवा इति चतुरन्तास्ते च ते चक्रवर्तिनश्च चातुरन्तचक्रवर्तिनः, धर्मषु वरा:-श्रेष्ठास्तेषु चातुरन्त
१ अत्र 'प्रथमं व्याख्यानं' इत्यादिकं ग्रन्थकारेण नोपन्यस्तं.
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चक्रवर्तिन इव धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिनस्तेभ्यः। दीवोत्ताणमित्यादिषु 'प्रथमा चतुर्थ्यर्पा षष्ट्यर्थतया । योज्या' तत्र दीप इव दीपः समस्तार्थप्रकाशकत्वात्, द्वीप इव द्वीपो वा भवाब्धिनिमज्जजन्तुनाम् विश्रामहेतुत्वात्, त्राणमनर्थप्रतिहननहेतुत्वात् त्राणम्, शरणमर्थसंपादनहेतुत्वाच्च शरणं। गम्यते सुस्थिलथै दुस्थितैराश्रीयत इति गतिः। प्रतिष्ठन्त्यस्यामिति प्रतिष्ठा संसारगर्त पतत्प्राणिगणस्याधारः। 'अप्रतिहतवरज्ञान दशर्नेभ्य':-अप्रातहते-कट कुट्यादिभिर्वरे क्षायिके ज्ञानदर्शने धरन्तीति तेभ्यः। 'व्यावृत्तछद्मभ्य:-व्यावृत्तं छद्म-धातिकर्माणि संसारो वा येभ्यः इति तेभ्यः। 'जिनेभ्यो-रागादीनाम् जेतृभ्यः, 'जापकेभ्य:-अन्यैरपि। तान जापयद्भयः। 'तीपणेभ्यो' भवार्णवं, 'तारकेभ्योऽन्येषामुपदेशवर्तिनः। 'बुद्धेभ्यः' स्वयमज्ञाननिद्राप्रसुप्ते विश्वे । बोधकेभ्योऽन्यानपि बोधयन्तीति तेभ्यः । 'मुक्तेभ्य:-बाह्याभ्यन्तरग्रन्थबन्धान्मुक्तास्तेभ्यः। मोचकेभ्योऽन्येषामपि एतानि विशेषणानि भवावस्थामाश्रित्योक्तानि । ___ अथ सिद्धस्थावस्थामाश्रित्योच्यन्ते-'सर्वज्ञेभ्य:-सर्व विशेषरूपं जानन्तीति सर्वज्ञास्तेभ्यः ।
र्वदर्शिभ्यो-सर्व सामान्यरूपतया च पश्यन्तीति सर्वदर्शिनस्तेभ्यः। शिव-निरुपद्रवं, अचलं-स्वभावप्रयोगचलनाभावात् । अरुजं-आधिव्याध्यभावात् । अनंतम्-अनन्तार्थविषयज्ञानरूपत्वात् अनन्तसुखादिरूपत्वादा। अक्षयम्-अनाशम् साद्यनन्तत्वात् । अव्याबाधम् पीडाकारीकर्माभावात् । अपुनरावृत्तिः-पुनर्भवेऽनवतारात् । सिद्धिः-लोकान्तक्षेत्ररूपा स चासो गतिश्च सैव नामधेयं यस्य इदृशं स्थान व्यवहारतः सिद्धक्षेत्रम् , निश्चयतो यथावस्थितं खरूपं सम्प्राप्तेभ्यः शेषकर्मक्षयेण । नमो जिनेभ्यः,
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'आद्यन्तकृतो नमस्कारो मध्यव्यापीत्यतोऽन्ते' 'नमो' इत्युक्तम् । 'जितभयेभ्य:-क्षपितभयेभ्यः न चात्र पौनरुक्त्यम् यतः| सज्झायझाणतवओ--सहेसु उवएसथुइपयाणेसु संतगुणकित्तणेसु अन हुन्ति पुणरुत्तदोसाओ॥१॥ ____ अनेनार्हजन्मादिषु शक्रः स्तौति इति शक्रस्तवः । । इत्थम् भावजिनान स्तुत्वात्वधिकृतंवीरंस्तौति नमोत्थुणं समणस्सेत्यादिना जाव संपाविउकामस्स त्ति d यावत् करणात् सयंसंबुद्धस्स-इत्यादि सिद्धिगइ नामधेयं ठाणमित्यन्तम् दृश्यम् । यद्यपि भगवतः कामो
नास्ति तथापि तदनुचेष्टनात्समाप्तुकाम इव तस्यासंप्राप्तस्येत्यर्थः। तत्र ब्राह्मणकुण्डग्रामे देवानन्दाकुक्षौ गतं IN इह-सौधर्मस्थोऽहं यतः-पश्यति माम् भगवान् तत्र गतः इहगतम् । इति कृत्वा इति हेतोः वन्दते
पूर्वोक्तयुक्त्या, नमस्यति-शिरोनमनेन, पुरत्थेत्यादि पूर्वाभिमुखो, निषण्णः-उपविष्टः, अथमेतद्रुपःसङ्कल्पः समुदपद्यते । आत्मनि अधि-अध्यात्म तत्रभवः आध्यात्मिकः-आत्मविषय इत्यर्थः। चिन्ता जाता अस्मिन्निति चिन्तितः चिन्तात्मको न ध्यानात्मकः।प्रार्थनं प्रार्थः सत्रातास्मिन्निति प्रार्थितः अभिलाषात्मकः । मनोगतो नाद्यापि वाचा प्रोक्तः ॥ १६ ॥
न खलु एअं भूअं, न एअं भव्वं, न एअं भविस्सं, जन्नं अरहंता वा चकवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंतकुलेसु वा पंतकुलेमु वा तुच्छकुलेसु वा दरिदकुलेसु वा किवणकुलेसुवा
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རྒྱུ་རྒྱུ $ རྒྱ་
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भिक्खायस्कुलेसु वा माहणकुलेसुवा, आयाइंसु वा, आयाइति वा, आयाइस्संतिवा ॥१७॥
न खलु एअमित्यादित....आयाइस्संति वेत्यन्तम् । तत्र अन्तकुलेसु इत्यादि-अन्त्या-जघन्या अन्तवर्णM त्वात् शुद्रा वा, प्रान्ता-अधमाः, तुच्छा:-कुटुम्बस्य ऋद्वेल्पित्वेन, दरिद्राः-सर्वथा निर्धनः, कृपणा:|मितम्पचाः, भिक्षाचरा:-तालचराद्या, ब्राह्मणा-दिजाः तेषां कुलानि तेषु । 'आयाति धातुरागमे-जन्मनि युज्यते'। आयासिपुः-जज्ञिरे, आयान्ति-जायन्ते, आयास्यन्ति-जनिष्यन्ति ॥ १७ ॥
एवं खलु अरिहंता वा चक्वटी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा, उग्गकुलेसु वा भोगकुलेसु वा राइनकुलेसु वा इक्खागकुलेसु वा खत्तियकुलेसु वा हखिंसकुलेसु वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु वा विसुद्धजाइकुलवंसेसु वा आयाईसु वा आयाइति वा आयाइस्संति वा ॥ १८॥ एवं खल्वित्यादितः-आइस्संति वेत्यन्तम्। तत्रोग्रा-आदिदेवेनारक्षकतया नियुक्ताः। भोगा-गुरुतया ये व्यवहृताः । राजन्या-वयस्यतया ये स्थापिताः। इक्ष्वाकव-आयवंश्याः, क्षत्रिया-ये शेषप्रकृति
तया स्थापिता राजकुलीनाः। हरिवंश-हरिवर्षक्षेत्रानीतयुगलोद्भवास्तेषाम् कुलेषु । अन्यतरेविति-ज्ञातका भट-मल्लकि-लेच्छकि कौरव्यादिकुलेषु, तत्र ज्ञाताः-श्रीऋषभस्वजनवंशजा इक्ष्वाकुवंश्या एव, भटा:-सूर्य
वन्तो योधाः, मल्लकिनोलेच्छकिनश्च राजविशेषाः, कौरव्याः-कुरुवंशजाः। विशुद्धजातिकुलवंशेषु-जातिमातृकी, कुलं पैतृकं, विशुद्धे ते येषु वंशेषु पुरुषान्वायेषु ॥ १८॥
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अत्थि पुण एसे वि भावे लोगच्छेरयभूए अनंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं विइकंताहिं समुपज्जइ । १०० । नामगुत्तस्स वा कम्मस्स अक्खीणस्स अवेइअस्स अणिज्जिण्णस्स उदएणं जन्नं अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा, अंतकुलेसु वा पंतकुलेसु वा तुच्छदरिद्द भिक्खागकिविणमाहणकुलेसु वा, आयाइंसु वा आयाइंति वा आयाइस्संति वा, च्छिसि भत्ता वक्कमिंसु वा वक्कमंति वा वक्कमिस्संति वा, नो चेव णं जोणीजम्मणनिक्खमणं निक्खमिंसु वा निक्खमन्ति वा निक्खमिस्संति वा, ॥ १९ ॥
अत्थिपुण एसे इत्यादितो.... निक्खमिस्संति वेत्यन्तम् । तत्रास्ति पुनरेषोऽपि भावो भवितव्यताख्यो लोकाश्चर्यभूतः पदार्थः कदाचित्समुपद्यतेऽस्यामवर्पिण्यां दशाश्चर्याणि जातानि तद्यथाउवसग्ग-गब्भहरणं,-इत्थितित्थं- अभाविआ परिसा, कण्हस्स अवरकङ्का,-अवयरणं चंदसूराणं । हरिवंशकुंलुप्पत्ती-चमरुप्पाउय-अठ्ठसंयसिद्धा, अस्संजयाण पूआ दस विअ अणन्तेण कालेण ॥२॥
व्याख्याः — उपसग्गेत्ति तत्र उपसर्गाः यथा - श्री वीरस्य छद्मस्थावस्थायाम् देवादिकृतोपसर्गाः भूयांसा बभूयुस्तथा च केवल्यवस्थायामपि गोशालकृतोपसर्गा, इदं किल तार्थकृतां पुण्यप्रकर्ष भाजां न कदा चिदभूद
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| पूर्वम् ॥१॥तथा 'गम्भहरणमिति' गर्भस्योदरांन्तरसङ्कमणमेतदपि तीर्थकरापेक्षया वीरस्यैव जातं इत्य|| नन्तकालभावित्वादाचयमेव ॥२॥ तथा 'इत्थतित्थ मिति स्त्री-योषित्तस्यास्तीर्थ-द्वादशाङ्गम् सो वा ] 2. स्त्रीतीर्थम्, तीर्थ हि पुरुषसिंहा एव प्रवर्तयन्ति, इहत्ववसर्पिण्याम कुम्भभूपसुता 'मल्ली' नाम्नी तीर्थ | प्रवर्तितवतीत्यनन्तकालजातत्वादाश्चर्यमेतत्॥३॥तथा 'अभाविआ परिसा त्ति'-अभव्या अयोग्या चा- IA रित्रधर्मस्य पर्षत्समवसरणश्रोतृजनः, यतः-श्रीवीरस्योत्पन्नकेवलस्याद्यसमवसरणे देशनयान केनाऽपि विरतिः प्रतिपन्ना न चैतदपि कस्यापि तीर्थकृतो जातमित्याश्चर्यमिति ॥ ४॥ तथा कृष्णस्य वासुदेवस्य अपरकङ्का राजधानीगमनम् अजातपूर्वम् जातमित्याश्चर्यम् ॥५॥ तथा श्रीवीरस्य नत्यथै मूलविमानाभ्याम् चन्द्रार्कयोरवतरणं बभूवेदमित्याश्चर्यम् ॥६॥ तथा हरेः-हरिवर्षक्षेत्रप्रागवैरिव्यन्तरानीतमिथुनकस्य यो वंशः-पुत्रपौत्रादिरूपस्तस्य यत्कुलं तस्योत्पत्तिरित्याश्चर्यम् ॥७॥ तथा चमरस्यासुरकुमारराजस्योत्पात:-उर्ध्वगमनं-चमरोत्पातः, सोप्याकस्मिकत्वादाश्चर्यम् ॥८॥ तथाऽष्टाभिरधिकं शतं अष्टशतम् , अष्टशतं च सिद्धाश्च अष्टशतसिद्धाः, इदम परमेतदुत्कृष्टावगाहनामाश्रित्य, मध्यमावगाहनायां त्यष्टोत्तरशतं सिध्यन्तीति नाश्चर्यम्रिसहो रिसहस्स सुआ,भरहेण विवज्जिआउ नवनवइ,अट्ठय भरहस्स सुआ सिद्धिगया एग समयम्मि॥१
तथाऽसंयता:-असंयमवन्तः आरम्भाब्रह्मयुक्तास्तेषां पूजासत्कारो असंयतपूजा। सर्वदा हि संयता
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एव पुजार्हा अस्यां त्ववसर्पिण्याम विपरीतं जातमित्याश्चर्य ॥१०॥ अत एवाह-दशाप्याश्चर्याण्यन- दीन्तेन कालेनास्यामवसर्पिण्याम बभुवुः। एवं च कालसाम्यात् शेषेष्वपि भरतैरावतेषु दश दशाश्चर्याणि पिकाः | प्रकारान्तरेण स्युः । यतः-सर्वत्र चमरोत्पाताभावात् दशाश्चर्याणां तीर्थव्यक्तिस्त्वेवं- . उसहे अहिअसयं, सिद्धंसिअलजिणांमि हरिवंसो। नेमिजिणे वरकंकागमणंकण्हस्स संपत्तम्॥१॥ इत्थीतित्थं मल्ली,४पुआ असंजयाण नवमजिणे५।अवसेसाअच्छेरा वीरजिणिंदस्स तित्थम्मि ॥२॥ N नामगुत्तस्स वा कम्मस्सेत्यादि नाम्नो-नामकर्मणो गोत्रकर्मणो वा, यद्वा नाम्ना-संज्ञया गोत्रस्य
नीचैर्गोत्रस्याक्षीणस्य-स्थितेरक्षयात् , अवेदितस्य तद्रसस्याननुभूतत्वात् , अनिजीर्णस्य-तत्पदेशानां 2 जीवप्रदेशेभ्योऽपरिशाटनात् तस्योदयेन प्रभुणा च नीचैर्गोत्रम् भरतसुतमरीचिजन्मनि स्थूलसप्तविंशतिभवापेक्षया तृतीयभवे निबद्धं तथाहिः
पश्चिमविदेहे नयसारो ग्रामेशः काष्ठार्थ वने गतः, ससार्थभ्रष्टान् क्षुत्तट्बाधितान मुनीन् मुदा रसवत्या प्रतिलाभयति स्म । तदनु साधुभिर्धर्मदेशनया सम्यक्त्वम् प्रापितः । ततस्तेषां मार्ग दर्शयित्वा
स ग्रामं प्राप्तः । प्रान्ते च पश्चनमस्कृति स्मरन् मृत्वा द्वितीये भवे सौधर्म सुरः, ततश्च्युतस्तृतीये भवे D| मरीचिनामा भरतसुतोऽभूत । स चैकदा श्रीऋषभान्तिके धर्म श्रुत्वा प्रवाजितः । ततः सोऽधीतकाद-I/२५
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K/ शाङ्गीकोऽन्यदा ग्रीष्मेऽस्नानादिपीडामसहमानः गृहगमनमयुक्तमिति जानंश्च त्रिदण्डी जातः । ततः
प्रभुणैव साई विहरन्ननेकभव्यजनान् प्रबोध्य प्रभोः शिष्यतयार्पयति।इतश्चायोध्यायांसमवसृतः स्वामीभरतेन पृष्टः. 'हे प्रभोऽस्यां पर्षदि भारतक्षेत्रे कोऽपि भावी तीर्थकदित्युक्ते' स्वाम्याह-मरीचिरयं वीराख्योऽन्त्यतीर्थकृद्धिदेहे मुकाराजधान्याम प्रियमित्राख्यश्चक्री, भारतेऽत्र त्रिपृष्टनामाद्यो हरिश्च भविव्यतीति प्रभूक्तं श्रुत्वा भरतो हृष्टः । ततः प्रभु नत्वा गत्वा च मरीचिं स्वाम्युक्तं वचो निवेद्य नवेत्यवदत्-'नच ते पारिप्रव्रज्यं वन्दे, किन्वन्तिमो जिनो भविष्यस्यतो वन्दे, ततो मरीचिरपि भरतवचः श्रुत्वा हर्षात्त्रिपदीमास्फोट्य नृत्यन्नित्यवोचत् । "जइ वासुदेवपढमो, मूआइविदेहचक्कवट्टित्तं। चरमो तित्थयराणं, होउ अलं इत्ति मज्झ॥१॥ | अहयं च दसाराणं, पिआ मे चक्कवहिवंसस्स । अजो तित्थयराणं, अहो कुलं उत्तम मज्झ ॥२॥ ___ इति च मदान्नीचैर्गोत्रं षबन्ध । यदुक्तं
जातिलाभकुलैश्वर्यबलरूपतप श्रुतैः । कुर्वन् मदं पुनस्तानि हीनानि लभते जनः ॥ १॥
ततो मरीचिः प्रभो निवृत्ते साधुभिः सह विहरन् प्राग्वत् साधुभ्यः शिष्यान् ददौ । एकदा चतं * ग्लानं न कोऽपि साधुः सुश्रुषति सोऽचिन्तयदेते मद्बोधिता अपि न मां सेवन्तेऽतो रोगमुक्तस्य ममै
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कः शिष्योऽस्तु । इति चिन्तापरस्य निरुजस्तस्य कपिलाख्यो राजपुत्रो मिलितः । सः तद्देशनया प्रबुडस्तेनोक्तम्'भोः कपिल ! साधुपार्श्वे गत्वा धर्मं प्रपद्यस्व' इत्युक्ते कपिलोऽवकू' किं भवन्मार्गे धर्मो नास्ति' ततो मरीचिः 'कविला इत्थं पि इयं पि त्ति' उत्सूत्रं बभाषे । ततः स तदन्तिके प्रत्रजितः । ततो मरीचिश्चतुरशीतिलक्षपूर्वायुर्भुक्त्वा चतुर्थभवे ब्रह्मलोके उत्कृष्टायुः सुरः । ततः इच्युतः पञ्चमे भवे कोल्लाकसन्निवेशेऽशीतिलक्षपूर्वायुः कौशिको द्विजः । प्रान्ते त्रिदण्डी भूत्वा मृत्वा पद्मानन्दकाव्यानु सारेण षष्ठे भवे सौधर्मे सुरः तदपेक्षया च द्वाविंशतितमो मनुजभवो न गण्यते इति न भवाधिक्य शङ्कापि । श्रीवीरचरित्राद्यनुसारेण तु तिर्यगादिभवं भ्रान्त्वा षष्ठे भवे स्थुणापूर्यौ द्वासप्तति लक्षपूर्वायुः पुष्पो द्विजः, प्रान्ते त्रिदण्डी भूत्वा मृत्वा च सप्तमे भवे सौधर्मे सुर. ॥ ७ ॥ ततः इच्युतोऽष्टमे भवे चैत्यसन्निवेशे षष्टिलक्षपूर्वायुरग्निद्योतो द्विजः ||८|| प्रान्ते च त्रिदण्डी भूत्वा मृत्वा नवमे भवे इशाने सुरः ॥ ९ ॥ ततो दशमे भवे मन्दरग्रामे षट्पञ्चाशल्लक्षपूर्वायुरग्निभूतो द्विजोऽन्ते त्रिदण्डी । चैकादशे भवे सनत्कुमारे सुरः । ततो द्वादशे भवे श्वेताम्यां पूर्वी चतुचत्वारिंशल्लक्षपूर्वायुर्भारद्वाजो द्विजोऽन्ते त्रिदण्डी च । त्रयोदशे भवे माहेन्द्रे सुरः । ततो भूयो भवं भ्रान्त्वा चतुर्दशे भवे राजगृहे चतुत्रिंशलक्षपूर्वायुः स्थावरो द्विजोऽन्ते त्रिदण्डी च मृत्वा पञ्चदशे भवे ब्रह्मलोके सुरः । ततो भूयोऽपि भवं भ्रान्त्वा षोडशे भवे विश्वभूतिर्नाम कोटिवर्षायुः क्षत्रियोऽभूत् स च सम्भूतिमुनिपार्श्वे प्रव्रज्य वर्ष
प्रदीपिकाः
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सहस्रं तपस्यन् मासोपवासपारणे मथुरां प्रविष्टः, तत्र चैकया गवा भूपातितः सन् क्षत्रियैर्हसितः । ततः क्रुधा तां गां शृगयोर्गृहीत्वा खे भ्रामयत्, तपसा चानेन भूयिष्ठवीर्यो भूयासमिति निदानं चक्रे । ततो मृत्वा सप्तदशे भवे शुक्रे सुरः । ततोऽष्टादशे भवे पोतनपुरे प्रजापते राज्ञो मृगावत्याः कुक्षौ चतुरशीतिलक्षवर्षायुस्त्रिष्टष्टाख्यो हरिस्ततो मृत्वैकोनविंशतितमे भवे सप्तमपृथिव्यां नारकः । ततो विंशतितमे भवे सिंहः । ततो एकविंशतितमे भवे चतुर्थभूवि नारकः । ततस्तिर्यगादि भवं भ्रान्त्वा द्वाविंशतितमे भवे मनुजत्वं प्राप्यार्जितशुभकर्मा त्रयोविंशतितमे भवे मुकाराजधान्यां धनञ्जयधारिण्यो गृहे चतुरशीतिलक्षपूर्वायुश्चतुर्विंशतितमे भवे शुक्रे सुरः । ततः पञ्चविंशतितमे भवे भारतेऽत्र छत्रिकापूर्वी जितशत्रो राज्ञो भद्रायाः कुक्षौ पञ्चविंशतिलक्षवर्षायुर्नदनाख्यः सुतः, स च पोहिलाचार्याsन्तिके प्रव्रज्य सततं मासोपवासैर्विंशत्या स्थानैस्तीर्थकृत् नामगोत्रं निकाचयित्वा लक्षवर्षव्रतपर्यायो माससंलेखनया षडूविंशतितमे भवे प्राणते पुष्योत्तरावतंसकविमाने उत्कृष्टायुर्देवस्ततः सप्तविंशतितमे भवे ब्राह्मणकुण्डग्रामनगरे ऋषभदत्तस्य विप्रस्य देवानन्दायाः पत्न्याः कुक्षावुत्पन्नः । यन्मरीचि भवे नीचै गोत्रकर्मबद्धं तद्वशात् प्रभुर्विप्रकुले चागात् । परं न तत्र जन्म स्यादत आह- नो चेव णं जोणी जम्मणनि क्खिमणेणं ति-योन्या जन्मार्थ निःक्रमणेन निक्खमिसु वेत्यादि निष्क्रामन् निःक्रामन्ति निष्क्रमिष्यन्ति ।। १९ ।।
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अयं च णं समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे भारहवासे माहणकुंडग्गामे नयरे उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्स भारिआए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कु
Dपिकाः च्छिसि गम्भत्ताए वकंते । २० व्याख्या-अयं च णमित्यादितो......गन्भत्ताए वक्कन्ते इत्यन्तं-सुगमम् ॥ २० ॥ __तंजीअमेअंतीअपच्चुप्पन्नमणागयाणं सकाणं देविंदाणं देवराईणं अरिहंते भगवंते तहप्पगारहितो अंतकुलेहिंतो पंतकुलेहिंतो तुच्छ० दरिद्द० भिक्खाग० किविणकुलेहिंतो वा माहणकुलेहिंतो वा तहप्पगारेसु उग्गकुलेसु वा भोगकुलेसु वा राइनकुलेसु वा नाय० खत्तिअ० हरिवंसकुलेसु वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु वा विसुद्धजाइकुलवंसेसु वा जाव रज्जसिरिं कारेमाणेसु पालेमाणेसु साहरावित्तए। तं सेअंखलु मम वि समणं भगवं महावीरं चरमतित्थयरं पुवतित्थयरं निद्दिढं माहणकुंडग्गामाओ नयराओ उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्स भारिआए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छीओ खत्तिअकुंडग्गामे नयरे नायाणं खत्तिआणं सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स कासवगोत्तस्स भारिआए IN२७
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तिसलाए खत्तिआणीए वासिट्ठसगुत्ताए कुच्छिसि गम्भत्ताए साहरावित्तए, जे वि अणं तिसलाए खत्तिआणीए वासिठ्ठसगुत्ताए गब्भे तं वि अणं देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिसि गम्भत्ताए साहरावित्तए त्ति कट्ट । एवं संपेहेइ संपोहत्ता हरिणेगमसिं पाइत्ताणिआहिवइं देवं सदावेइ सदावित्ता एवं वयास्त । २१ व्याख्या-तं जीअमेअमित्यादितो...वयासीइत्यन्तं । तत्र जीतमाचरितं कल्प इत्येकार्थिनः । तीअपच्चुपन्नत्ति 'वातीतादो' इति व्याकरणसूत्रेणाकारलोपेऽतीतवर्तमानानागतानामित्यर्थः, जातान-श्रीऋषभस्वामिवंशजानां क्षत्रियविशेषाणां मध्ये इत्यर्थः, तिसलाए खत्तिआणीए गम्भे। त्ति गर्भ:-पुत्रिकारूपः साहरावित्तए त्ति सङ्क्रमयितुं संपेहेइ त्ति पर्यालोचयति हरेः-इन्द्रस्य नैगमं -आदेशमिच्छतीति हरिनैगमेषी केचित्तु हरेरिन्द्रस्य सम्बन्धी नैगमेषीनामा देव इति तं पदात्यनीकाधिपतिं सद्दावेइ त्ति आकारयति ॥ २१ ॥
एवं खलु देवाणुप्पिआ न एअं भूअं न एअं भव्वं न एअं भविस्सं । जन्नं अरिहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंतकुलेसुपंत किवण दरिद्द० तुच्छ० भिक्खाग०
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माहणकुलेसु वा आयाइंसु वा आयाइंति वा आयाइस्संति वा । एवं खलु अरिहंता वा चकवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा उग्गकुलेसु वा भोग० राइन्न० नाय० खत्तिअ० इक्खाग० हरिशंसकुलेसु वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेषु विसुद्धजाइकुलवंसेसु आयाइंसु वा
आयाइंति वा आयाइस्सति वा ।। २२॥ व्याख्या-एवं खल्वित्यादित...आयाइस्संति वेत्यन्तम, तत्र खल्विति वाक्योपक्रमे, शेषं | प्राग्वत् ॥ २२ ॥
अस्थि पुण एसे वि भावे लोगच्छेरेयभूए अणंताहिं उस्सप्पिणीहिं ओसप्पिणीहिं विइक्कताहिं समुप्पज्जइ। नामगुत्तस्स वा कम्मस्स अक्खीणस्स अवेइअस्स अणिजिन्नस्स उदएणं। जन्नं अरिहंता वा चक्क० बल० वासुदेवा वाअंतकुलेसु वापंत० तुच्छ० किवण दरिद्द भिक्खागकुलेसु वा आयाइंसु वा आयाइंति वाआयाइस्संति वा। नोचेव णं जोणी
जम्मणनिक्खमणेणं निक्खमिंसु वा निक्खमंति वा निक्खमिस्संति वा ॥२३॥ व्याख्या-अत्थि पुणेत्यादितो...निक्खमिस्संति वेत्यन्तम् सुगमम् ॥ २३ ॥
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अयं च णं समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे माहणकुंडग्गामे नयरे उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्स भारिआए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिास गम्भत्ताए वक्कते ॥ २४ ॥ व्याख्या-अयं च णमित्यादितो...वक्ते त्ति पर्यन्तं प्राग्वत् ॥२४॥
तं जीअमेअं तीअपच्चुप्पन्नमणागयाणं सक्काणं देविंदाणं देवराईणं अरिहंते भगवते तहप्पगारेहितो अंत० पंत० तुच्छ० किवण० दरिद्द० वणीमग० जाव माहणकुलेहितो तहप्पगारेसु उग्ग० भोग० राइन्न नाय० खत्तिअ० इक्खाग० हरिवंसकुलेसु वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु विसुद्धजाइकुलवंसेसु साहरावित्तए ॥ २५॥ व्याख्या-तं जीअमेअमित्यादितः...साहरावित्तए त्ति पर्यन्तं प्राग्वत् ॥२५॥ __तं गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिआ समणं भगवं महावीरं माहणकुंडग्गामाओ नयराओ उसभदत्तस्स माहणस्ण कोडालसगुत्तस्स भारिआए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कु
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कल्प
च्छीओ खत्तिअकुंडंग्गामे नयरे नायाणं खत्तिआणं सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स कासवगुत्तस्स भारिआए तिसलाए खत्तिआणीए वासिद्धसगुत्ताए कुच्छिसि गन्भत्ताए साहराहि, जे वि अ णं से तिसलाए खत्तिआणीए गन्भे तं पि अ णं देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिसि भत्ता साहराहि, साहरित्ता मम एअमाणत्तिअं खिप्पामेव पञ्चष्पिणाहि ॥ २६ ॥ व्याख्या -- तं गच्छ णं तुममित्यादितः पञ्चष्पिणाहि त्ति पर्यन्तम्, तत्र ममेमामाज्ञप्ति - आज्ञां क्षिप्रामेव प्रत्यय-मदाज्ञां कृतार्थीकृत्यागत्य च निवेदयेत्यर्थः, शेषं सुगमम् ।। २६ ।।
तणं से हरिणेगमेसी पायत्ताणिआहिवई देवे सक्केणं देविंदेणं देवरन्ना एवं वृत्ते समाणे हट्ठे जाव हिअए करयलजाव त्ति कट्टु 'जं देवो आणवेइ' त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणे, पडिणित्ता सक्क्स्स देविंदस्स देवरन्नो अंतिआओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ अवक्कमित्ता वेडव्विअसमुग्धारणं समोहणइ वेव्विअसमुग्धाएणं समोहणित्ता संखिज्जाई जोअणाई दंडं निसिरइ, निसिरइत्ता तं जहारयणाणं वयराणं वेरुलिआणं लोहिअक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगब्भाणं पुलयाणं सोगंधि
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आणं जोईरसाणं अंजणाणं अंजणपुलयाणं जायख्वाणं सुभगाणं अंकाणं फलिहाणं रिट्ठाणं अहाबायरे पुग्गले परिसाडेइ परिसाडित्ता अहामुहुमे पुग्गले परिआएइ परिआइत्ता ॥२७॥ व्याख्या--तएण से हरिणेगमेसीत्यादितः... परिआएइत्ति यावत्, तत्र आज्ञाया- आदेशस्य वचनं विनयेन प्रतिशृणोति - कर्त्तुमभ्युपगच्छति उत्तरपुरत्थिमं त्ति ईशानकोणम्, अवक्कमइत्ति अपक्रामतिप्रजति, वेउब्वियसमुग्धाएणं ति उत्तरवैक्रियरूपकरणाय प्रयत्नविशेषेण, समोहणइति समुद्धतिआत्मप्रदेशान् विक्षिपति, [समोहण्णइ ति पाठे समुडन्यते समुद्घातवान् भवतीत्यर्थः] तत्स्वरूमाह | -संखिज्जाइमित्यादिना दंडं ति दण्ड इव दण्ड-ऊर्द्धाधिआयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशकर्म्म पुद्गलराशिस्तं निसृजति-निष्काशयतीत्यर्थः, तत्कुर्वन् विविधविशिष्टपुद्गलानादत्त इति दर्शयन्नाह सं रयणाणमित्यादि रत्नानां - कर्केतनादीनां यद्यपि रत्नादिपुद्गला औदारिका एव स्युः, वैक्रियसमुद्घा च वैक्रिया एव ग्राह्याः, तथापि तेषां रत्नादिपुद्गलानामिव सारताख्यापनार्थं रत्नानामिवेति व्याख्येयम्, अन्ये स्वाहुः औदारिका अपि गृहीताः सन्तो वैक्रियतया परिणमन्तीति तेन च दण्डेन रत्नादीनां art बादरान - असारान् गृहीतान् पुद्गलान् परिशादय यथासूक्ष्मान् - सारान् पर्यादत्ते ॥ २७ ॥
दुच्च॑पि वेउव्विअसमुग्धाएणं समोहणइ समोहणित्ता उत्तर वेउव्विअरूवं विउव्वइ उत्तर
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कल्प
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वेउव्विअरूवं विव्वित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरिआए चवलाए चंडाए जयणाए उध्धुआए सिग्घाए दिव्वाए देवगईए वीईवयमाणे वीईवयमाणे तिरिअमसंखिज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्झं मज्झेणं जेणेव जंबुद्दीवे भारहे वासे जेणेव माहणकुडग्गामे नयरे जेणेव उसभदत्तस्स माहणस्स गेहे जेणेव देवाणंदा माहणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता आलोए समणस्स भगवओ महावीरस्स पणामं करेइ, पणामं करिता देवाणंदाए माहणीए सपरिजणाए ओसोवणिं दलइ, ओसोवणिं दलित्ता असुहे पुग्गले अवहरइ, अवहरिता सुभे पुग्गले पक्खिवइ, पक्खिवित्ता 'अणुजाणउ मे भयवं' ति कट्टु समणं भगवं महावीरं अव्वावाहं अव्वाबाहे दिव्वेणं पहावेणं करयलसंपुडेणं गिण्हइ, गिणित्ता जेणेव खत्तिअकुंडग्गामे नयरे जेणेव सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स गिहे जेणेव तिसला खत्तिआणी तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता तिसलाए खत्तिआणीए सपरिजणाए ओसोवणि दलइ दलित्ता असुहे पुग्गले अवर अवहरिता हे पुग्गले पक्खिवइ पक्खिवित्ता समणं भगवं महावीरं अवाबाहं अद्यावाहेणं तिसलाए कुच्छिंसि गव्भत्ताए साहरइ, जे वि अ णं से तिसलाए गन्भे तंपि अणं
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देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिसि गन्भत्ताए साहरइ, साहरित्ता जामेव दिसं पाउएतामेव दिसिं पडिगए ॥ २८ ॥
परिआइत्तेत्यादितः पडिगए त्ति यावत्, तत्र दुञ्चपि त्ति द्वितीयमपि वारं समुद्धातं करोति । वेव्विति चिकीर्षितरूपं कर्तुमुत्तरवैक्रियरूपं तच भवधारणीयरूपादन्यदेव येन देवा मनुष्यलोके आयांति । ताए उक्कट्ठाए इत्यादि, तया - देवजनप्रसिडया, उत्कृष्टया - प्रशस्तविहायोगतिषूत्कर्षवत्या, त्वरितया - मानसौत्सुक्यात्, चपलया - कायतः, चण्डया-सम्भारवत्या, जयिन्याऽशेषकर्मगतिजैत्र्या, उध्धुतयाऽशेषशरीरावयवकंपया, शीघ्रया - परमोत्कृष्टवेगवत्या, दिव्यया- देवोचितया, देवगत्या व्यतिव्रजन् । मज्झंमज्झेणंति-मध्यभागेन । आलोके - दर्शनमात्रे । ओसोवर्णि अवस्वपानीनिद्रां दलइत्ति- ददाति । अव्याबाधमिति भगवतो विशेषणं तत्पीडापरिहारात्, अव्याबाधेन सुखेन संहतुरपि पीडाया अभावात् । यद्वा अव्यावाधमन्याबाधेन - सुखं सुखेनेत्यर्थः । यतः तादृशकरणव्यापारेण संस्पृश्य संस्पृश्य स्त्रीगर्भच्छ विच्छेदकरणेऽपि ईषदपि बाधां विनैव नखाग्ररोमकूपेव प्रवेशयितुम् निष्काशयितुम् वा समर्थो हरिणैगमेषीत्यर्थः । भगवत्यां - साहरइत्ति-संहरति योनिद्वारेण निष्काश्य गर्भ - गर्भाशयं प्रवेशयतीत्यर्थः । जामेव दिसिंत्ति यस्य दिशोऽवधेः प्रादुर्भूतः प्रकट्यभूदागत इत्यर्थः ॥ २८ ॥
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कल्प
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ताए उकिटाए, तुरिआए, चवलाए, चंडाए, जयणाए, उधुआए, सिग्घाए, दिवाए, देवगइए, तिरिअमसंखिज्जाणं दीवसमुदाणं मझमझेणं जोअणसयसाहस्सिएहिं विग्गहेहिं उप्पयमाणे उप्पयमाणे जेणामेव सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसए विमाणे, सकसि सीहासणंसि, सक्के देविंदे देवराया, तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सकस्स देविंदस्स देवरनो एअमाणत्तिअं खिप्पामव पञ्चप्पिणइ ॥ २९ ॥ ___ व्याख्याः-ताए उक्विष्टाए त्ति प्रभृति'.... पञ्चप्पिणइ ति यावत् । तत्र विग्गहेहिं त्ति वीखाभिःगतिभिः उप्पयमाणे-उत्पतन्-उज़ गच्छन् ॥ २९ ॥ । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जे से वासाणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे
आसोअबहुले तस्स णं आसोअबहुलस्स तेरसीपक्खणं वासीइ राइंदिएहिं विइकंतेहिं तेसीइमस्स राइंदिअस्स अंतरावट्टमाणे हिआणुकंपएणं देवेणं हरिणेगमेसिणा सक्कवयणसंदिटेणं माहणकुंडग्गामाओ नयराओ उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगोत्तस्स भारिआए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगोत्ताए कुच्छीओ खत्तिअकुडग्गामे नयरे नायाणं खत्तिआणं
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सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स कासवगोत्तस्स भारिआए तिसलाए खत्तिआणीए वासिंहसगोत्ताए पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं अव्वावाहं अव्वाबाहे गव्भताए साहरिए । ३०
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www.
व्याख्या:- तेणमित्यादितः 'साहरिए त्ति पर्यन्तम् । तत्र वासाणं ति श्रावणादीनां वर्षाकालमासानां मध्ये तृतीय आश्विनमासः पञ्चमः पक्षः बहुल:- कृष्णः । तेरसीपक्खेणं ति पक्ष:-पश्चा* रात्रिरित्यर्थः । अंतरत्ति अन्तरकाले रात्रौ । हिआणुकंपएणं हितः शक्रस्य स्वस्य च, अनुकम्पकस्तुभक्तो भगवतः । अनुकम्पा चात्र भक्ति: ' आयरियणुकंपाए गच्छो अणिकंपिओ त्ति वचनात् ' ॥३०॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे तिन्नाणोवगए आवि होत्था, साहरिज्जिस्सामि ति जाण, साहरिज्जमाणे नो जाणइ, साहरिएमित्ति जाणइ । जं स्यणिं च णं समणे भगवं महावीरे देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगोत्ताए कुच्छीओ तिसलाए खत्तिआणीए वासिद्धसगोत्ताए कुच्छिसि गन्भत्ताए साहरिए, तं स्यणिं च णं सा देवाणंदा माहणी सयणिज्जंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमे एआरूवे उराले कल्लाणे सिवे धन्ने मंगल्ले सस्सिरीए चउदसमहासुमिणे तिसलाए खत्तिआणीए हडे पासित्ताणं पडिबुद्धा । तं जहा - गय वसह० गाहा ॥ ३१ ॥
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व्याख्या- तरणमित्यादितो. ..गाहेत्यन्तम् । तत्र साहरिज्जिस्सामि त्ति च्यवनवत् ज्ञेयं । संहरणस्याप्येकसामयिकत्वाद्यद्यपि चाऽन्तर्मुहुर्तकालोऽत्र संभाव्यते तथापि छाद्मस्थिकोपयोगादपि संहरणकालः सुक्ष्मतरः इत्याम्नायिकाः । केचित्तु साहरिज्जमाणे वि जाणइ त्ति पठन्ति, आचाराङ्गे तथैव दर्शनात् न चायं पाठः सार्वत्रिकः ।। ३१ ।।
जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगोत्ताए कुच्छीओ तिसलाए खत्तिआणीए वासिङसगोत्ताए कुच्छिसि गन्भत्ताए साहरिए । तं स्यणिं च णं सा तिसला खत्तिआणी तंसि तारिसगंसि वासहरंसि अभितरओ सचित्तकम्मे, बाहिरओ दूमिअघट्टम, विचित्तउलोअचिल्लिअतले, मणिरयणपणासिअंध्यारे, बहुसमसुविभत्तभूमिभागे, पंचवन्नसरससुरहिमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिए, कालागुरुपवरकुंदरुक्कतुरुक्कडज्झतधूवमघमघंत— गंधुदुआभिरामे, सुगंधवरगंधिए, गंधवाट्टेभूए, तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिंगणट्टिए, उभओ विवोअणे, उभओ उन्नए, मज्झे णयगंभीरे, गंगापुलिनवालुआउद्दालसालिसए, उअविअखोमिअदुगुलपट्टपडिच्छन्ने, सुविरइअरयत्ताणे, रत्तंसुअसवुंडे, सुरम्मे, आइण गरूअबूरनवणीयतूलतुलफासे, सुगन्धवरकुसुमचुन्नसयणोवयारकलिए, पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि,
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सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमे एआरुवे ओराले कल्लाणे जाव चउद्दसमहासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा तं जहा-गय १ वसह २ सीह ३ मभिसेअ ४ दाम ५ ससि ६ दिणयरं ७ झयं ८ कुंभं९। पउमसर १० सागर ११ विमाण १२ भवण १२ रयणुच्चय १३ सिहिं च १४ ॥३२॥
व्याख्याः-जं रयणिमित्यादितः......सिंहिं चेत्यन्तम् । तत्र तंसीत्यादि-तस्मिन तादृशके वक्तु| मशक्यस्वरूपे पुण्यवतां योग्ये वासघरंसि त्ति-वासगृहे, 'अन्भितरो त्ति' अभ्यन्तरे भित्तिभागे सचित्रकर्मणि-चित्रकर्मयुक्ते । बाह्यतः 'दुमिअत्ति' धवलितं, घृष्टं-कोमलपाषाणादिनाऽत एव मृष्टं-मश्रृणं तस्मिन् । विचित्रो-विविधचित्रयुक्तः उल्लोकः-उपरिभागो यत्र, चिल्लिअं-दीप्यमानं तलमधोभागो यत्र ततः कर्मधारयः' । विचित्तउल्लोअचित्तिअतले इति पाठे विचित्रम्-आश्चर्यवहम, उल्लोचस्य वितानस्य चित्रितं विविधचित्रोपेतं तलमधोभागो यत्र तस्मिन् । बहुसमसुविभत्तभूमिभागे-बढ्वत्यर्थ पश्चवर्णमणिकुहिमतलाऽऽकलितत्वात्,समोऽनिम्नोन्नतः,सुविभक्तो-विहितविविधस्वस्तिकोभूमिभागो यत्र । पंचवण्णेत्यादि-पश्चवर्णेन सरसेन सुरभिणामुक्तेन पुष्पपुञ्जलक्षणेनोपचारेण-पुजया कलिते। कालागुरुपवरेत्यादि कालागुरु च-कृष्णागुरु, प्रवरकुन्दरुक्कं च-चीडा,तुरुष्कं च-सिल्हकं दह्यमानो धूपश्चदशाङ्गादिगन्धद्रव्यसंयोगजः इति द्वन्द्वस्तेषां यो मघमघायमानोऽतिशयगन्धवान् गन्ध उध्धुत-उद्भूतस्तेनाभिरामः। सुगन्धवरगन्धिए त्ति सुष्टु गन्धवराणां-प्रधानवासानां गन्धो यस्मिंस्तत्सुगन्धवरग
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कल्प
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न्धिकं तस्मिन्। कचित् सुगन्धवरगन्धगंधिए त्ति पाठस्तत्र सुगन्धाः - सुरभयो ये वरगन्धाः प्रधानचूर्णास्तेषां गन्धो यत्र तत् तत्र । गन्धवही भूए त्ति गन्धवन्तिः - गन्धद्रव्यगुटिका गन्धः कस्तुरिका वा तावद्भूते तत्कल्पे इत्यर्थःतस्मिँस्तादृशके-शयनीये - तल्पे । सालिंगण वहिए-सह आलिंगनव-शरीरप्रमाणगण्डोपधानेन यत्तत्सालिङ्गनवर्त्तिकं तत्र, उभयतः शिरोन्तपादान्तयोः विब्वोअणेत्ति उपधाने गण्डुके यत्र, अतएवोभयतः उन्नते मध्ये नतं च तदूगंभीरं च महत्वान्नतगंभीरे, यहा मध्यभागेन च गंभीरे अवनते । गंगापुलिने, गङ्गातटवालुकाभिर्योऽबदालः पादन्यासेऽधोगमनं तेन सालिसएत्ति सदृशके । ' या प्राकृतत्वाद्विशेषणस्य परनिपाते, ' अवदालेन पादादिन्यासेऽधोगमनेन गंगातटवालुकाभिः सदृशके । उअविअत्ति परिकर्मितं यत्क्षौमं - अतसीमयं दुकुलं-वस्त्रं तस्य पट्टेन - शाटकेन प्रतिच्छन्ने - आच्छादिते । सुष्ठु विरचितं रजस्त्राणमपरिभोगावस्थायां यत्र । रक्तांशुशुकसंवृत्ते-मशकगृहाभिधानवस्त्रावृत्ते, सुरम्ये । आइणग आजिनकं - चर्मवस्त्रं, रूतं - कर्पासपक्ष्म, बूरोवनस्पतिविशेषः नवनीतं-क्षणं, तूलम् अर्कतूलम्, एभिस्तुल्यः स्पर्शो यस्य । सुगन्धवरकुसुम - सुगन्धवरकुसुमचूर्णाभ्यां सत्पुष्पवासयोगाभ्यां शयनस्य - शय्याया उपचारपूजा तेन कलिते । पुव्वरत्ता मध्यरात्रे ।। ३२ ।
तएणं सा तिलसला खत्तिआणी तप्पटमयाए, चउद्दं तमूसिअगलिअविपुलजलहरहारानेकर
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खीरसागरससंककिरणदगरयरययमहासेलपंडुरतरं समागयमहुअरसुगंधदाणवासिअकवोलमूलं, देवरायकुंजवरप्पमाणं, पिच्छइ, सजलघणविपुलजलहरगज्जिअगंभीरचारुघासं, इभ, सुभं, सव्वलक्खणकयंबिअं वरोरुं ॥ १ ॥ ३३ ॥
तएणमित्यादितो...........वरोरुमित्यन्तम् । तत्र तए णं साततः सा प्रथमतया इभं स्वप्ने पश्यति। अत्र प्रथममिभदर्शनं सामान्यवृत्तिमाश्रित्योक्तम्, अन्यथा मरुदेवा वृषभमेव त्रिशला तु सिंहमद्राक्षीत्, चतुर्दन्तम-चत्वारो दन्ता यस्य, [ तओअचउइंतमिति पाठे, ततौजसो-महाबलाश्चत्वारो दन्ता यस्य । उसिअगलिअ उच्छ्रितस्तथा गलितविपुलजलधरः, हारनिकरः,क्षीरसागरः, शशाङ्ककिरणाः| चंद्ररश्मयः, दकरजांसि-शीकराः, रजतमहाशैलो-वैतादयः तद्वत् पाण्डुरतरस्तत उच्छ्रितश्चासौगलितादिपाण्डुतरान्तश्चेति, 'कर्मधारयः' । यद्वा ततौजश्चतुर्दतश्चासौ मुदं श्रितो मुच्छ्रितो-हर्षयुक्त-17 श्वासो गलितादिपाण्डुरतरान्तश्चेति विशेषणकर्मधारयः । उसि ति सविभक्तिकपाटे तु उच्छ्रितमुचमिति भिन्नविशेषणं । समागय० समागता मधुकरा यत्र तादृशं यत्सुगंधदानं मदस्तेन वासितं कपोलमूलं यस्य । देवरायः देवराजः-शक्रस्तस्य कुअर-ऐरावणस्तद्वद् वरं प्रमाणं-देहमानं यस्य, ।।। | सजल सजलो जलयुक्तो घनो-निबिडो विपुलो-विस्तीर्णो यो जलधरस्तस्य यदूगर्जितं तद्वद्ग
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कल्प
म्भीरश्च श्चारुश्च घोषो-शब्दो यस्य । सव्वलक्खण त्ति सर्वलक्षणकदम्ब जातमस्येति सर्वलक्षणकद- प्रदीपिका म्बितस्तं वरोरं त्ति वरः प्रधानश्वासावुरुर्विशालश्च तम् ॥ १ ॥ ३३ ॥ __तओ पुणो धवलकमलपत्तपयराइरेगख्वप्पमं, पहासमुदओवहारेहिं सबओ चेव दीवयंतं,
अइसिरिभरपिल्लणाविसप्पंतकंतसोहंतचारुककुहं, तणुसुद्धसुकुमाललोमनिद्धच्छविं, थिरसुबद्धमंसलोवचिअलट्ठसुविभत्तसुंदरंग, पिच्छइ, घणवट्टलट्ठउक्किट्ठतुप्पग्गतिक्खसिंगं, दंतं, सिवं, समाणसोभंतसुद्धदंतं, वसहं, अमिअगुणमंगलमुहं ॥ ३४॥
तओ पुणो इत्यादितो...........मंगलमुहमित्यन्तम् । तत्र ततः पुनर्वृषभं पश्तति कीदृशं ? धवल| कमलपत्रप्रकरातिरेकाऽधिका-रूपप्रभा यस्य तं । प्रभासमुदायो दीप्तिजालं तस्योपहारा-विस्ता|| रणानि तैः सर्वतः सर्वादिशो दीपयन्तम् । अइसिरि अतिश्रीभरः-उत्कृष्टशोभाभरस्तेन यत् प्रेरणं | तेनैव विसर्पत्-उल्लसत् कान्त-दीप्तं शोभमानं च चारु च ककुदं स्कन्धो यस्य । तणुसुइत्ति तनूनिसूक्ष्माणि, शुद्धानि-शुचीनि, सुकुमालानि-मृदुनि यानि रोमाणि तेषां स्निग्धा छविय॑स्य । थिरसुबद्ध स्थिरं-दृढं अतएव सुबई, तथा मांसलमतएवोपचितं-पुष्ट,लष्टं-प्रधान, सुविभक्तं यथावत्सिन्निविष्टावयवं इदृशं सुन्दरमङ्गं यस्य । घणवत्तिघने-निचिते वृत्त-वर्तुले लष्टोत्कृष्टे-लष्टादप्युत्कृष्टेऽतिश्रेष्ठे
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तओ पुणो पुन्नेत्यादितः ..........''कराभिसिच्चमाणिं ति यावत् । तत्र ततः पूर्णचंद्रवदना त्रिशला हिमवच्छैलशिखरे पाहदान्तःकमलवासिनी दिग्गजेन्द्रोरुपीवरकराभिषिच्यमानां भगवतीं श्रीदेवीं पश्यति । कीदृशीं? उच्चागय त्ति उच्चे-हिमवति आगतं-प्राप्त उच्चागतं, यहा उच्च: उन्नतोऽगः-पर्वतो हिमवांस्तत्र जातं उच्चगज एवंविधं यत्स्थानं कमलं तत्र लष्टं प्रधानं यथा स्यात्तथा संस्थितां । कमलस्वरुपं चैवम्
हिमवान्नगः स्वर्णमयो योजनशतोचो द्वादशकलान्वितः दिपश्चाशदधिकयोजनसहस्रपृथुः । तत्र दशयोजनोवेधः सहस्रयोजनदीर्घः पञ्चशतयोजनपृथुः वज्रतलः पद्महृदाख्यो हृदः । तन्मध्ये दशयोजननालं विक्रोशोच्चं एकयोजनपृथुदीर्घ, वज्रमयमूलं, रिष्टरत्नमयकंद, नीलरत्नमयनालं रक्तस्वर्णमयबाह्यपत्रं, जांबुनदमयाभ्यन्तरपत्रं पद्ममेकं । तत्र दिकोशपृथुदीर्घा क्रोशोच्चा रक्तस्वर्णमयकेसरा | स्वर्णमयीकर्णिका । तन्मध्ये क्रोशदीर्घ क्रोशार्धपृथु किश्चिदूनक्रोशोच्चं पूर्वदक्षिणोत्तरदिग्वतिपञ्चशतधनुरुच्च-तदर्धपृथुद्वारत्रयोपेतं श्रीदेवीभवनं । तन्मध्ये सार्द्धशतवयधनुर्माना मणिवेदिका तदुपरिश्रीयोग्य शयनीयं । तन्मुख्यपद्मपरितः श्रीदेव्याभरणभृतानि वलयाकाराणि तदर्धमानानि अष्टाधिकशतपद्मानि ॥१॥ .. तत्परितोद्वितीयवलये वायव्येशानोत्तरदिक्षु चतुःसहस्रसामानिकसुर्यस्तावन्त्येव तत्पद्मानिपूर्वस्यां चेत् चतखो महत्तरादेव्यस्तावत्येव तत्पमानि । आग्नेय्यामष्टसहस्रगुरुस्थानीयाभ्यन्तरपर्ष
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प्रकोष्टौ-कलाचिके यस्य,वृत्ता-वर्तुला पीवरा:-पुष्टाःसुश्लिष्टा-अन्योऽन्यं सुसम्बद्धाःविशिष्टाः-प्रधानाः
प्रदीपिका तीक्ष्णा या दाढा दंष्ट्रास्ताभिविडम्बितमलंकृतं मुखं यस्य ततः कर्मधारयः परिकम्मिअ-परिकर्मिताविव जात्यकमलवत्कोमलो प्रमाणेन-मात्रया शोभमानौ लष्टौ-प्रधानौ ओष्ठौ यस्य । रनुप्पलत्ति रक्तोपल पत्रवन्मृदुकं सुकुमालं यत्तालु तच्च,निर्लोलिता-निष्काशिता लपलपायमाना वा अग्रा अग्या वा प्रधाना या जिहवा सा च विद्यतेयस्य । मूसागयत्ति मुषा-मृन्मयभाजनविशेषः तत्र गतंयत् प्रवरं कनकं तदपितापितं आवर्तमानं तद्वद् वृत्ते विमले तडित्सदृशे नयने यस्य 'अत्र प्राकृतत्वात्तापितादिविशेषणयोः परनिपातोज्ञेयः'। विसालपीवर विशालौ-विस्तीणौँ पीवरौ पुष्टौ वरौ प्रधानौ उरू यस्य, । प्रतिपूर्णी विमल स्कन्धो यस्यामिउविसय मृदूनि-सुकुमाराणि विशदानि-निर्मलानि सूक्ष्माणि-तनूनि लक्षणैःप्रशस्तानि विस्तीर्णानि-दीर्घाणि यानि केसराणि-स्कंधरोमाणि तेषामाटोपेनोद्धततया शोभितं उसिक उच्छूितमुदग्रं सुनिर्मितं-कुण्डलीकृतं सुजातं-शोभितं संपूर्ण वा आस्फोटितं आच्छोटितं-लागलंपुच्छं । येन । सोम-सौम्यं वा मनसाऽक्रूर,सौम्याकारं-सुन्दराकृति,लीलायंत-मन्थरगतिं । गाढत्ति-गाढं अत्यर्थ ।। तीक्ष्णान्यग्राणि येषामीदृशा नखा यस्य । वयणत्ति-वदनस्य मुखविवरस्य श्रिये-रक्तत्वमृदुत्वाभ्यां शौभायै पल्लव इव पाप्ता-प्रसारिता चार्वी-जिह्वा येन। पयणसिरिपलंबपत्तचारुजीहमिति पाठे तु वदनस्य श्री शोभा यया सा बदनश्रीस्तादृशीप्रलम्बमाना पत्रवञ्चार्वी च जिह्वा यस्येति व्याख्येयम् ॥३५॥३॥
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तओ पुणो पुन्नचंदवयणा, उच्चागयट्ठाणलट्ठसंठिअं, पसत्थरूवं, सुपइटिअकणगमयकुम्मसरिसोवमाणचलणं, अच्चुन्नयपीणरइअमंसलउन्नयतणुतंबनिद्धनहं, कमलपलाससुकुमालकरचरणकोमलवरंगुलिं, कुरुविंदावत्तवट्ठाणुपुव्वजंघ, निगूढजाणु, गयवरकरसरिसपीवरारे, चामीकररइअमेहलाजुत्तकंतविच्छिन्नसोणिचकं, जचंजणभमरजलयपयरउज्जअसमसंहिअतणुअआइज्जलडहसुकुमालमउअरमणिज्जरोमराई, नाभीमंडलसुंदरविसालपसत्यजघणं, करयलमाइअपसत्थतिवलियमझं, नाणामणिरयणकणगविमलमहातवणिज्जाभरणभूसणविराइअमंगुवंगिं, हारविरायंतकुंदमालपरिणद्धजलजलितं थणजुअलविमलकलसं, आइअपत्तिअविभूसिएणं सुभगजालुज्जलणं मुत्ताकलावएणं उरत्थदीणारमालविरइएणं कंठमणिसुत्तएण य कुंडलजुअलुल्लसंतअंसोवसत्तसोभंतसप्पभेणं सोभागुणसमुदएणं आणणकुंडुबिएणं कमलामलविसालरमणिज्जलोअणं, कमलपज्जलंतकरगहिअमुक्कतोयं, लीलावायकयपक्खएणं सुविसदकसिणघणसण्हलंबंतकेसहत्थं, पउमदहकमलवासिणिं, सिरिं, भगवई पिच्छइ, हिमवंतसेलसिहरे दिसागइंदोरुपीवरकरामिसिच्चमाणिं । ४ । ३६ ॥
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कल्प
३६
तुपग्गेत्ति प्रक्षिताग्रे तीक्ष्णे शृङ्गे यस्य । दान्तं-अक्रूरं शिवं- उपद्रवोपशामकं । समाणत्ति समानास्तुल्यप्रमाणा अतएव शोभमानाः शुद्धाः-श्वेता निर्दोषा वा दंता यस्य । अमिअत्ति अमिता - मानरहिता गुणा येभ्यः, इदृशानि यानि मङ्गलानि तेषां मुखमिव मुखं द्वारं । २ । ३४ ॥
तओ पुणो हारनिकरखीरसागरससंककिरणदगरयरययमहासेलपंडुरतरं, [ग्रंथाग्र २००] रमणिज्जपिच्छणिज्जं, थिरलट्ठपट्ट्वट्टपीवरसुसिलिडविसिद्धतिक्खदाढाविडंबियमुहं, परिकम्भिअजञ्चकमल कोमलपमाणसाभंतलट्ठउट्टं,रतुप्पलपत्तमउअसुकुमालतालुनिल्लालिअग्गजीहं, मूसागयपवरकणगताविअआवत्तायंतवट्टतडिविमलसरिसनयणं, विसालपीवखरोरुं, पडिपुन्नविमलखंधं, मिउविसयसुहुमलक्खणपसत्थविच्छिन्नकेसराडोवसोहिअं, ऊसिअसुनिम्मिअसुजायअप्फोडिअलंगुलं, सोमं, सोमाकारं, लीलायंतं, नहयलाओ ओवयमाणं, नियगवयणमइवयंतं, पिच्छइ, सा गादतिखग्गनहं, सीहं, वयणसिरीपल्लवपत्तचारुजीहं | ३ | ३५ ॥
तओ पुणो इत्यादितः........ . चारुजीहमित्यन्तं । तत्र, ततः पुनर्नभस्तलादेव पतन्तम् - अवतरन्तम् निजकवदनमतिपतन्तं प्रविशन्तं सा त्रिशला सिंहं पश्यति । कीदृशं ? हारेत्यादि व्याख्या प्राग्वत् । रमणिज्जं-रमणीयमतः पिच्छणिज्जं प्रेक्षणीयं- द्रष्टुमर्ह । थिरलट्ठ-स्थिरौ-दृढो लष्टौ -श्रेष्ठो
प्रदीपिका
३६
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सुरास्तावन्त्येव तत्पमानि । दक्षिणस्यां दशसहस्रमित्रस्थानीयमध्यमपर्षत्सुरास्तावति तत्पद्मानिनर्मत्यां द्वादशसहस्रकिङ्करस्थानीयबाह्यपर्षत्सुरास्तावंति तत्पद्मानि । पश्चिमायां हस्त्य १ श्व २ रथ३ पदाति ४ महिष ५ गन्धर्व ६ नाट्यरूपसप्तसैन्यस्वामिनः सप्तसुरास्तावन्ति तत्पद्मानि॥२॥
तृतीये वलये षोडशसहस्राङ्गरक्षकसुरास्तावन्ति तत्पद्यानि [१६०००] ॥३॥ चतुर्थवलये बात्रिंशल्लक्षाभ्यन्तराभियोगिकसुरास्तावन्ति तत्पद्मानि [ ३२००००० ] ॥४॥ पञ्चमे बलये चत्वारिंशल्लक्षमध्यमाभियोगिकसुरास्तावन्ति तत्पद्मानि [४००००००] ॥५॥ षष्ठे वलये अष्टचत्वारिंशल्लक्षबाह्याभियोगिकसुरास्तावन्ति तत्पद्मानि [ ४८००००० ] ॥६॥
एवं चात्मना सह षड्भिर्वलयैः सर्वसंख्ययाएका कोटिः१ विंशतिलक्षाः२० पश्चाशत्सहस्रा:५० शत| मेकर विंशतिश्चेति२०(१२०५०१२०)पद्मानि। पुनःकीदृशीं पसत्थरूवं-प्रशस्तरूपां सुपइडिअ-सुप्रतिष्ठितौ
समतलनिवेशितौ कनकमयकुमणोन्नतत्वात् सदृशमुपमानं ययोस्तादृशौ चरणौ यस्याः। अच्चुनय| अत्युन्नतं पीनमष्ठाद्यॉतन्त्र रजिता-रश्चिता वा इव लाक्षारसेन, मांसला, उन्नता-मध्योन्नतास्तनवस्तलिनास्ताम्रा-रक्ता, स्निग्धा-अरुक्षा नखा यस्याः । यद्वाऽत्युन्नतानपि रुपादिदोध्धुरानपिप्रोणयन्तोति अत्युन्नतमीणा इति नखविशेषणं । कमलपलास-कमलस्य पलाशानि-पत्राणि तत्सुकुमालौ करचरणौ यस्याः सा चासो कोमलवराङ्गलीश्चेति, यदा कमलपलाशवत्मकुमालयोः करचर
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कल्प
दीपिका
णयोः कोमला-मृदवो वरा लक्षणोपेता अङ्गुलयो यस्याः । कुरुविंदावत्त-कुरुविंदावत-भूषणविशेष- आवर्तविशेषो वा तद्वत् वृत्तौ वृत्तानुपूर्वे च जङ्थे यस्याः। निगूढजानु गुप्तजानु, गयवरत्ति गजवरकर गजेन्द्रशुण्डा तत्सदृशे पीवरे पुष्टे उरु यस्याः । चामीकरत्ति चामीकररचितमेखलायुक्तं कान्तं विस्तीर्ण श्रोणिचक्रं यस्याः। जच्चंजण जात्याअन-भ्रमरजलप्रकर इव वर्णेन, ऋज्वी-सरला, समाs विषमा,संहिता-निरंतरा, तनुका-सूक्ष्मा, आदेया-सुभगा, लटभा-सविलासा, सुकुमालमृदुका-सुकुमारेभ्योऽपि शिरीषपुष्पादिभ्योऽपि मृदुका रमणीया-मनोज्ञा रोमराजी यस्याः । नाभीमण्डल-नाभीमण्डलेन सुन्दरं-विशालं प्रशस्तं सुलक्षणत्वाजघनं यस्याः। करयल-करतलेन-मुष्टिना माइअत्तिमेयं मानं वा प्रशस्तत्रिवलीकं मध्यं यस्याः। नाणामणि-नानाप्रकाराणि यान्याभरणानि भूषणानीति योज्यं । मणयः-चन्द्रकान्ताद्याः, रत्नानि-वैडूर्यानि, कनकं-पीतस्वर्ण, तपनीय-रक्तस्वर्ण,तच जात्यत्वाबिमलमहच्छवाभ्यां विशेषितं तेषां यान्याभराणानि-अङ्गपरिधेयानि, भूषणानि-उपाङ्गपरिधेयानि, तैर्विराजितानि यथाक्रममङ्गानि-शिरोहृदयानि उपाङ्गानि-अङ्गुल्यादीनि यस्याः । हारविरायंतहारेण विराजत्कुन्दादिपुष्पानां मालया च परिणद्धं व्याप्तं जलजलिंत त्ति जाज्वल्यमानं-देदीप्यामानं स्तनयुगलमेव विमलौ कलशौ यस्याः । आइअ आदृतैः सादरैः प्रत्ययितैविश्वस्तैर्विज्ञानकैविभूषितेन विरचितेन सुभग-सुभगेर्दृष्टिहारिभिर्जालगुच्छविशषैरुज्ज्वलेन इदृशेन मुक्ताकला
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पकेनोपलक्षितां । उरत्थदीणार - उरः स्थदीनारमालया विरचितेन विराजितेन वा कण्ठमणिसूत्रकेणकण्डस्थरत्नमयसूत्रेण वोपलक्षितां । कुण्डल आर्षत्वादंसोपसक्तं स्कन्धलग्नं यत्कुण्डलयुगलं तस्योलसन्ती - शोभमाना सती प्रशस्ता प्रभा यत्र, एवंविधेन शोभागुणसमुदयेन किंलक्षणेन आननकौदुम्बिकेन - यथा किल राजा कौटुम्बिकैः शोभते एवमाननमपि शोभागुणसमुदायेनेति मुखनृपस्य कौटुविकप्रायेणेत्यर्थः । कमलवदमले विशाले रमणीये लोचने यस्याः । कमल पज्जलंत प्राग्वत् परनिपाते प्रज्वलन्तौ दीतिमन्तौ यौ करौ तद्गृहीताभ्यां कमलाभ्यां मुक्तं-क्षरतोयं - मकरन्दरसो यस्याः । लीला लीलया न पुनः स्वेदापनोदार्थं स्वेदस्यैवाऽभावात् वातार्थ वातोत्क्षेपार्थं कृतः यः पक्षकस्तालवृन्तं तेनोपलक्षितां, यहा लीलायै शोभार्थं परैः सह स्पर्द्वया यो वादस्तत्र कृतो विहितो यः पक्षः - प्रतिज्ञापरिग्रहः कप्रत्यये तेन सुविशदः - स्पष्टो न पुनर्जटाजूटवदविवृतः कृष्णः -श्यामो घनोऽविरलः सूक्ष्मः-तलिनो लम्बमानः केशहस्तः केशपाशो यस्यास्तां ॥ ४ ॥ ३६ ॥
[ ॥ इति द्वितीयं व्याख्यानं ॥ ]
[॥ अथ तृतीयं व्याख्यानं ॥ ]
तओ पुणो सरसकुसुममंदारदामरमणिज्जभृअं, चंपगासोगपुन्नागनागपिअंगुसिरीसमुग्गरम
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कल्प
प्रदीपिका
लिआजाइजूहिअकोलकोज्जकोरिंटपत्तदमणयनवमालिअवउलतिलयवासंतिअपउमुप्पलपाडलकुंदाइमुत्तसहकारसुरभिगंधिं, अणुवममणोहरेणं गंधेणं दसदिसाओ वि वासयंतं, सव्वोउअसुरभिकुसुममल्लधवलविलसंतकंतबहुवन्नभत्तिचित्तं, छप्पयमहुअरिभमरगणगुमगुमायंतनिलिंतगुंजंतदेसभागं, दाम, पिच्छइ, नभंगणतलाओ ओवयंत । ५ ॥ ३७॥ ___ तओ पुणो सरसेत्यादितः........"ओवयंतमित्यन्तम् । तत्र ततः पुनर्नभस्तलादवपतदाम पश्यति| कीदृशं ? सरस-सरसकुसुमं यन्मन्दारदाम तेन रमणीयभूतं रम्यं जातं । चंपगासोग चम्पका-| शोकादीनां सहकारान्तानां यः सुरभिर्गन्धः सोऽस्त्यस्मिन् तत् । अणुवम-अनुपममनोहरेण गन्धेन व्यवहितस्याप्यपेः सम्बधादशापि दिशो वासयत् । सव्वोउअ-सर्वर्तुकं यत्सुरभिकुसुम- 1 माल्यं तेन धवलं तच्च तद्विलसत्कान्तबहवर्णभक्तिचित्रं चेति विशेषणकर्मधारयः, अनेनधवलर्णस्याधिक्यं लक्ष्यते । छप्पयमहुअरि-प्राकृतत्वात् प्राग्वविशेषणानां परत्वे गुमगुमायमानो
वनन् निलीयमानः-स्थानान्तरादागत्य च तत्र लीयमानो गुचन-शब्दविशेषं कुर्वश्च | षट्पदमधुकरीभ्रमराणां-वर्णादिभेदभिन्नभ्रमरजातोनां गणः देशभागे यस्य दाम्नस्तत् । ५॥ ३७॥ ससिं च गोखीरफेणदगरयरययकलसपंडुरं, सुहं, हिअयनयणकंतं, पडिपुन्नं, तिमिरनिकरघण
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गुहिरवितिमिरकर, पमाणपक्खंतरायलेहं, कुमुअवणविबोहगं, निसासोहगं, सुपरिमट्टदप्पणतलोवमं, हंसपडुवन्नं, जोइसमुहमंडगं, तमरिपुं, मयणसरापूरं, समुद्ददगपूरगं, दुम्मणं जणं दइअवज्जिअं पायएहिं सोसयंतं, पुणो सोमचारुस्वं, पिच्छइ । सा गगणमंडलविसालसोमचंक. म्ममाणतिलयं, रोहिणिमणहिअयवल्लहं, देवी पुन्नचंदं समुल्लसंतं । ६ ॥ ३८॥
व्याख्या-ससिं चेत्यादितः..........समुलसंतमित्यन्तम् । तत्र ततः पुनः शशिनं च पश्यति । कीदृशं ? गोखीर-गोक्षीरफेनदकरजोरजतकलशपाण्डुरं, सुहं-शुभं, हियनयणकतं-हृदयनयनकान्तं, पडिपुण्णं-प्रतिपूर्ण षोडशकलासंयुक्तमित्यर्थः । तिमिर-तिमिरनिकरेण घणगुहिर-धनगम्भीरस्य वननिकुञ्जादेः वितिमिरं-तिमिराभावकरणशीलं, पमाणपक्खं-प्रमाणपक्षयोर्वर्षादिप्रमाणहेत्वोः शुक्लकृष्णपक्षयोरन्तर्मध्ये राजन्ती लेखाः यस्याथवा चान्द्रमासापेक्षया प्रमाणपक्षयोरन्ते पूर्णमास्यां रागदाहर्षदायिन्यो लेखाः-कला यस्य तं परिपूर्णकलमित्यर्थः । कुमुदवनविबोधकं, निशायाः शोभकं, सुपरिमृष्टेन दर्पणतलेनोपमा यस्य तं, हंसस्येव पटुः-श्वेतवर्णो यस्य तं, ज्योतिषां मुखमण्डकं, तमोरिपं. मदनस्य शरापूरमिव-तूणीरमिव, समुद्रस्य दकं-नीरं पूरयतीति चन्द्रिकया तदुल्लासात् तं, दुर्मनस्कं, दयितवजितं जन-विरहिणीलोकं, पादकैः-किरणैः-शोषयन्तं तापातिरेककरणात, सौम्य-प्रशस्तं चारु-र
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कल्प
म्यं रूपं यस्य । गगण-प्राग्वत्परनिपाते विशालं यद्गनमण्डलं तस्मिन्, सौम्यं चङ्कम्यमाणं जङ्गमतिलक- दीपिका IN| मिव, रोहिण्याः मनसः-चित्तस्य हितदो-अनुकूलदायी वल्लभः-प्रियरत, सर्वनक्षत्राधिपत्वेऽपि यदन्न ||
रोहिणीवल्लभ इत्युक्तं तल्लोकरूढया । पूर्णा-अविकलचन्द्र-आल्हादोऽस्मादथवा पूर्णश्चन्द्रो-दिप्तिर्यस्य तं अत एव प्रतिक्षणं देदीप्यमानम् । ६।३८॥ तओ पुणो तमपडलपरिप्फुडं चेव तेअसा पज्जलंतरूवं, रत्तासोगपगासकिंसुअसुअमुहगुंजद्धरागसरिसं, कमलवणालंकरणं, अंकणं जोइसस्स, अंबरतलपईवं, हिमपडलगलग्गहं, गहगणोरुनायगं, रत्तिविणासं, उदयस्थमणेसु मुहुत्तसुहदंसणं, दुन्निरिक्खरूवं, रत्तिसुद्धंतदुप्पयारप्पमद्दणं, सीअवेगमहणं, पिच्छइ, मेरुगिरिसययपरिअट्टयं, विसालं, सूर, रस्सीसहरसपयलिअदित्तसाहं । ७॥ ३९॥
व्याख्या-तओ पुणो तमेत्यादितो.......दित्तसोहमित्यन्तम् । तत्र ततः पुनः सूर्य पश्यति।कीदृशं? | तम-तमःपटलस्याभावोऽतमःपटलं तेन परिस्फुट-प्रकटं यद्वा तमःपटलं परिस्फोटयतीति तमःपट| लपरिस्फोटस्तं । चेव तेअस-चैवोऽवधारणे व्यहितसम्बन्धात्तेजसैव प्रज्वलद्रूपं, प्रकृत्या हि तन्मण्डलपृथ्वीकायिका शीतला एव । रत्तासोग--रक्ताशोकश्च-प्रकाशकिंशुकश्च-पुष्पितपलाशः शुकमुखं || ३९
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NI च गुआर्द्धश्च तेषां रागेण सदृशम्, कमलवनम् विकाशश्रियाऽलङ्करोतीति, अंकणं-ज्योतिषां
समूहो ज्योतिष-तस्याङ्कनं-मेषादिराशिसंक्रमणादिना लक्षणज्ञापकं, अंबर-अम्बरतलप्रदीपं, | हिमपटलं गले गृह्णातीति हिमस्य गले हस्तयितेत्यर्थः, ग्रंहगणस्य उरुः-महानायकस्तं । रत्ति-रात्रिवि| नाशमिति स्पष्टं । उदय-उदयास्तमयोर्मुहूर्तसुखदर्शनं,रत्तिरेव शुद्धांता अन्तःपुरं तत्र दुःखेनः यः प्रचा
रस्तत् प्रमर्दनं यथान्तःपुरे प्रचारो दुष्करः एवं रात्रावपि, पथिकानां सूर्योदये तु सुकरः । रत्तिमुद्धत | पाठे तु रात्रौ मकास्यालाक्षणिकत्वादुद्धावत-उच्छृङ्खलान् प्रमईयति यस्तं । शीतवेगमथनं, मेरुगिरिं सततं
परिवर्तयति-प्रदक्षिणयतीति,विशालं-विपुलमण्डलं,रश्मिसहस्रेण हेतुभूतेन प्रगलिता-प्रदलिता वा दीसाना॥ मपिचन्द्रादीनां शोभा यस्मायेन वारश्मिसहस्राभिधानं रूढ्याऽवगन्तव्यम्,अन्यथाऽऽधिक्यमपि।७॥३९॥
तओ पुणो जच्चकणगलहिपइटिअं, समूहनीलरत्तपीअसुकिलसुकुमालुल्लसिअमोरपिच्छकयमुद्धयं, धयं, अहिअस्सिरीअं, फालिअसंखककुंददगरयस्ययकलसपंडुरण मत्थत्यत्थेण सीहेणरायमाणेण रायमाणं, भित्तु गगणतलमंडलं चेव ववसिएणं पिच्छइ, सिवमउअमारुअलयाहयकंपमाणं अइप्पमाणं, जणपिच्छणिज्जरुवं । ८॥४०॥ व्याख्या-तओ पुणो जच्चेत्यादित........पिच्छणिजरुवमित्यन्तम् । तत्र ततः पुनरष्टमे स्वप्ने ध्वज
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कल्प
- पश्यति, जात्यकनकलष्ठिप्रतिष्ठित, समूहोऽस्त्येषामिति समूहा अभ्रादित्वाद् अप्रत्यये समूहवद्भिः प्रचु- दीपिका
रैरित्यर्थः, नीलादि वर्णैःसुकुमारैरुल्लसद्भिर्मयूरपिच्छैः कृता मुईजा इव-केशा इव यस्य स तथा तं । अहिअ-अधिकसश्रीकमधिकसशोभं । फालिअ-स्फटिकं, शङ्खोऽङ्को-रत्नविशेषः, कुन्दं, दकरजांसि, रजत्कलशस्तद्वत् पाण्डुरेण, मस्तकस्थेन सिंहेन राजमानेन भेत्तुं गगनमण्डलं प्रति व्यवसितेनेव. कृतोद्यमेनेव अत्युच्चत्वादुत्प्रेक्षा इदृशेन सिंहेन राजमानमित्यर्थः । शिवमऊय-शिवः सौम्यो मृदुरःचण्डो यो मारुतो-वायुस्तस्य लयः-श्लेषस्तेनाहत-अन्दोलितम् अतएव कम्पमानमितस्ततो नृत्य न्तम्, यद्वा लयाहयत्ति आहतविशेषणस्य परत्वे शिवमृदुकमारुताहतलतावत्कम्पमानं । ८॥४०॥ तओ पुणो जच्चकंचगुज्जलंतख्वं, निम्मलजलपुन्नमुत्तमं, दिप्पमाणसाह, कमलकलावपरिरायमाणं, पडिपुन्नयसव्वमंगलभेअसमागम, पवररयणपरायतकमलट्ठिअं, नयणभूसणकरं, पभा
समाणं, सव्वओ चेव दीवयंतं, सोमलच्छीनिमेलणं, सव्वपावपखिज्जिअं, सुभं, भासुरं, सि| खिरं, सव्वोउअसुरभिकुसुमआसत्तमल्लदामं, पिच्छइ, सा रययपुन्नकलसं । ९ ॥ ४१॥
तओपुणो जच्चकंचणेत्यादितः.......पुण्णकलसमित्यन्तम्, । तत्र ततः पुन रजतपूर्णकलशं पश्यति, कीदृशं ? जच्च-जात्यकाञ्चनेनोत्पाबल्येन ज्वलत्-दीप्यमानं रुपं यस्य, कमल. कमलकलापेन परिसमन्तात् राजमानं, पडिपुन्नय प्रतिपूर्णकानां सर्वमङ्गलभेदानां समग्रमेलापकस्थान, पबर प्रवररत्नैः ।
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राजति कमले स्थितं यद्वा प्रवरा रचना यस्य परागो अन्तर्मध्ये यस्य एवंविधे कमले स्थितं, नयनानामानन्दकत्वाद् भूषणकरं । प्रभासमानं स्वयं दीप्यमानं प्रभया समानं वा अतः सर्वा दिशो दीपयन्तम् । सौम्यलक्ष्म्याः प्रशस्तश्रियो निभेलणं गृहं । सर्वैः पापैरशिवैः परिवर्जितं । अत एव शुभं भासुरं दीसं । श्रिया त्रिवर्गसंपच्या वरं श्रेष्ठं तत्मासिसुचकत्वात् । सव्वोउ - सर्वर्तुजानां सुरभिकुसुमानामासक्तं-कण्ठस्थं माल्यदाम प्रशस्तमाला यत्र, दामशब्दः परोऽपि प्रशस्यार्थः । रयय-रजतशब्देन रुप्यमुच्यते । तथाप्यत्र जच्चकंचणुज्जलंतरुवमित्युक्तेः कनकमेव ग्राह्यं । ९ । ४१ ॥
तओ पुण रविकिरणतरुणवोहिअसहस्सपत्तसुरभितरपिंजरजलं, जलचरपहकरपरिहत्थगमच्छपरिभुज्जमाणजलसंचयं, महंतं जलंतमिव कमलकुवलयउप्पलतामरसपुंडरी ओरुसप्पमाणसिरिस - मुदएणं रमणिज्जरूवसोभं, पमुइअंतभमरगणमत्तमहुअरिंगणुक्करोलिज्झमाणकमलं, २५० कार्यबकबलाहयचक्ककलहंससारसगव्वियसउणगणमिहुणसेविज्जमाणसलिलं, पउमिणिपत्तोवलग्गजलबिंदुनिचयचित्तं, पिच्छइ । सा हि अयनयणकंतं, पउमसरं नाम सरं, सररुहाभिरामं ॥१०॥४२॥
तओ पुणो रविकिरण इत्यादित. सररुहाभिराममित्यन्तम् । तत्र ततः पद्मसरः पश्यति । तरुणशब्दस्येह सम्बन्धात् तरुणरविकिरणैर्बोधितानि यानि सहस्रपत्राणि - पद्मानि तैः सुरभितरं
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पिञ्जरं च-पीतरक्तं जलं यस्य तत्तथा, यहा पुणरवि त्ति पुनरपि किरणः-सूर्यस्तेन तरुणेन-अभि- प्रदी नवेन बोधितानीत्यादि योज्यम् । जलचराणां पहकरत्ति-देश्यत्वात् समूहस्तेन परिहत्थगं ति परि-IN पूर्ण तच्च तन्मत्स्यपरिभुज्यमानजलसञ्चयं चेति विशेषणकर्मधारयः । महंत-महत् परिमाणं, जलंत-IN ज्वलदिव-दिप्यमानमिव कैः ? कमल-कमलं-सूर्यविकाशि, कुवलयं-नीलं, उत्पलं-रक्तं, तामरसं-1a महाम्भोज, पुण्डरीकं-श्वेतमेषामुरुभिः-विशालैः-सर्पदभिः-उल्लसभिः श्रीसमुइयैः-कान्तिवृन्दैः ।। रमणिञ्ज-रमणीयरुपशोभा यस्य । पमुइअंत-प्रमुदितमन्तः-चित्तं येषां तेच ते भ्रमरगणाश्च मत्ताःसमदा मधुकरीगणाश्च तेषामुत्कराः-समुहाः 'समूहाभिधानं बहुत्वख्यापनार्थम्' ततस्तैरवलिह्यमा | नानि-आस्वाद्यमानानि कमलानि यत्र । कार्यबक-कादंबका:-कलहंसाः,बलाहका-बलाकाः, चक्रा:चक्रवाकाः, कला-मधुरध्वनयो, हंसा-राजहंसाः, सारसा-दीर्घजानुकास्ते च ते गर्विताः-दृप्ताः । शकुनगणाश्च तेषां मिथुनैः-सेव्यमानं सलिलं यस्य तत् । परमि-'पद्मिनीपत्रोपलग्नजलबिन्दुनिचयेन | चित्रं मण्डितमिव । सररुहाभिरामं ति सरस्सु-सरसीषु अहै-पूज्यं अत एवाभिरामं 'उच्चस्तीति सूत्रेण' हकारात्पूर्वमुकारः । १० ॥४२॥ तओ पुणो चंदकिरणरासिसरिससिखिच्छसाह, चउगमणपवड्डमाणजलसंचयं, चवलचंचलुच्चायप्पमाणकल्लोललोलंततायं, पडुपवणाहयचलियचवलपागडतरंगरंगंतभंगखोखुब्ममाणसोभंत
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निम्मलउक्कडउम्मीसहसंबंधधावमाणोनियत्तभासुरतराभिरामं, महामगरमच्छतिमितिमिगिलनिरुद्धतिलितिलियाभिघायकप्पूरफेणपसरं, महानईतुरियवेगमागयभमगंगावत्तगुप्पमाणुच्चलंतपच्चोनियत्तभममाणलोलसलिलं, पिच्छइ, खीरोयसायरं, सारयरयणिकरसोमवयणा । ११ ॥ ४३ ॥
व्याख्या-तओ पुणो चंदेत्यादितः......सोमवयणेत्यन्तम् । तत्र ततः पुनः क्षीरोदसागरं पश्यति, चंद, चन्द्रकिरणराशेः सदृशा श्रीर्यस्या इदृशी वक्षःशोभा मध्ये शोभा यस्य । चउगमणचतुर्गमनेषु-चतुर्दिग्मार्गेषु प्रवर्द्धमानः जलसंचयो यस्य । चवल चपलेग्योऽपि चपलैरुच्चात्मम माणैश्चात्युन्नतस्वमानैः कल्लोलैालत्-एकीभूय विरलीभवत्तीयं यस्य । पडुपवण-पटुपवनाहतास्सन्तश्चलिताः-प्रवृत्ता अत एव चपलाः प्रकटास्तरंगा-लघु कल्लोलाः तथा रङ्गन्त-इतस्ततः प्रेसन्तो,भङ्गाः'सविच्छित्तिकल्लोलास्तथा खोखुन्भमाण-अतिक्षुभ्यन्तः, शोभमाना, निर्मला स्वच्छाः, उत्कटादुस्सहा, ऊर्मयो-महाकल्लोलाः, ततस्तरङ्गान्तभङ्गान्तोय॑न्तपदानां छन्छः तैः सह-सम्बन्धेन पूर्व । धावमानः तीरराभिमुखं सर्पन्, भासुरतरो-अतिदीप्तिमान अपनिवृत्तश्चाभिरामो-दीसिमानेव यहा धावमानोऽपनिवृत्तश्चसन् भासुरतरोऽतिदीप्तिमान् अत एवाभिरामं । केचित्तु धावमानःसन् भासुरतरो भयङ्करोऽपनिवृत्तश्चाभिरामो हृद्य इति व्याख्यान्ति, तन्नयुक्तं । यतस्तीर्थकृन्माता क्रुरमपि सिंह
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दीपिका
| सौम्यमेव पश्यन्ति, कथं पुनः क्षीरसमुद्रमतिभयङ्करमिति । लोलंततोयेति निविभक्तिकपाठे तु
तोयान्तपदेनापि सह विशेषणकर्मधारयः महामगर महान्तो मकराश्च मत्स्याश्च तिमयश्च तिमिजिलाश्च निरुडाश्च तिलितिलिकाश्च-जलजन्तुभेदास्तेषामभिघातेन-पुच्छाद्यास्फोटनेन कपुर इव उळवलत्वात् फेनप्रसरो यत्र, महानई महानदीनां-गङ्गादीनां त्वरितवेगैरागतभ्रम-उत्पन्नभ्रमणो योऽसौ गङ्गावर्ताख्य आवर्तस्तत्र गुप्यत्-व्याकुलीभवत् अत एवोच्चलत्-उच्छलत् प्रत्यनिवृत्तं च-व्यावृत्तं भ्रममाणं च लोलं-स्वाभावादस्थिरं सलिलं यस्य । शारय-शारदरजनीकरवत्सौम्यं वदनं यस्या सा अर्थात् | त्रिसला । ११ ॥ ४३ ॥
तओ पुणो तरुणसूरमंडलसमप्पभं, दिप्पमाणसोहं, उत्तमकंचणमहमणिसमूहपवरतेयअट्ठसहस्सदिपंतनहप्पईवं, कणगपयरलंबमाणमुत्तासमुज्जलं, जलंतदिव्वदामं, ईहामिगउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरसंसत्तकुंजखणलयपउमलयभत्तिचित्तं, गंधव्वोपवज्जमाणसंपुन्नघोसं, निच्चं, सजलघणविउलजलहरगज्जियसद्दाणुनाइणा देवदुंदुहिमहाखणं सयलमवि जीवलोयं पूरयंतं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकडझंतधूववासंगउत्तममघमघंतगंधुडुयाभिरामं, निचालोयं, सेयं, सेयप्पभ, सुखराभिरामं, पिच्छइ सा सातोवभोगं, वरविमाणपुंडरीयं ॥१२॥४४॥
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व्याख्या-तओ पुणो तरुणेत्यादि............पुंडरीयमित्यन्तम् । तत्र ततः पुनः सा त्रिशला विमानवरपुण्डरीकं पश्यति। 'तरुणसूर त्ति'तरुणसूरमण्डलसमप्रभं, दीप्यमानशोभ, उत्तमकंचण-उत्तमकाश्चनमहामणिसमूहैः प्रवराणां तेअ त्ति-तेकंते-गच्छन्त्याधारभाव मिति तेका यदा त्रायन्ते पतद्गृहमिति त्रेयाः,त्रेका वा श्रेया वा स्तम्भास्तेषामष्टोत्तरसहस्त्रेण दीप्यमानं सत्नभःप्रदीपयति-प्रकाशयति।कणगपयर-कनकमतरेषु-सुवर्णपत्रेषु यहा कनकप्रकरर्लम्बमानाभिः-मुक्ताभिश्च समुजवलं ज्वलदिव्यदाम, ईहामिग-ईहामृगा-वृकाः, व्यालकाः-सर्पा, किन्नराः-व्यन्तरविशेषाः रुरवो-मृगभेदाः, सरला-अष्टापदाः,चमरा-आदव्यगावः, संसक्ताः-श्वापदविशेषा,वनलता-अशोकलताद्याः, पद्मलता:पद्मिन्यः, शेषाः प्रतीताः एषां भक्तिभिः-विच्छित्तिभिश्चित्रं-नानारपं यत्र । गंधव्व गन्धर्वस्यगीतस्योपवाद्यमानस्य-वादित्रस्य च सम्पूर्णो घोषो यत्र तत्तथा, नित्यं-शाश्वतं, सजलो-जलयुक्तो घनोऽविरलः विपुल:-पृथुलो-यो जलधरो-मेघस्तस्य गर्जितशद्वस्तबदनुनादिना-प्रतिरवयुक्तेन एवंविधेन देवदुन्दुभिमहारवेण सकलमपि-जीवलोकं पूरयन्तं-आप्याययन्तं चतुर्दशरज्जुरूपं वालोकं व्याप्नुवन्तं । काल-कालागुरुप्रवरकुंदुरुक्कतुरुष्काः प्रागुक्तो दह्यमानो धूपश्च-दशाङ्गादिर्वासाङ्गानि च-सुरभीकरस्योपायभूततत्तद्रव्याणि तेषामुत्तमेन मघमघायमानेन गन्धेन उडुतेन-इतस्ततो विप्रसृतेनाभिरामं यत्तत्तथा, नित्यालोकं-नित्योद्योतयुक्तं, श्वेतं, श्वेतप्रभ, सुरवराभिरामं ति-सुरवरानभिरमयतीति यदा सुर
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वराणाम्-अभि समान्तात् रामाः-स्त्रियो यत्र सातस्य-सुखस्योपभोगो यत्र, विमानवरेषु पुण्ड-प्रदीपिका रीकमिव श्रेष्ठत्वात् । १२॥४४॥ तओ पुणो पुलगवरिंदनीलसासगककेयणलोहियक्खमरगयमसारगलपवालफलिहसोगंधियहंसगम्भअंजणचंदप्पहवररयणेहिं महियलपइट्ठियं गगनमंडलंतं पभासयंतं, तुंगं, मेरुगिरिसन्निकासं, पिच्छइ, सा रयणानिकररासिं । १३ ॥ ४५ ॥ ___ व्याख्या-तओ पुणो पुलगेत्यादितो.........रयणनिकररासिमित्यन्तम् । तत्र ततः पुनः सा | त्रिशला त्रयोदशे स्वप्ने रत्ननिकरराशिं पश्यति । पुलग त्ति पुलकाद्या-रत्नविशेषाः प्रसिद्धाः, नवरं | वेर वज्र, सासग त्ति सस्यकं, चन्द्रप्रभः चन्द्रकान्तः, महीतलप्रतिष्ठितमिति राशिविशेषणं, पुलका| दिवररत्नैर्गगनमण्डलान्तं यावत्प्रकाशयन्तं, तुझं-उच्चं, तुङ्गत्वमनियतमित्याह-मेरुगिरेः सन्निकाशं|| तुल्यं रत्ननिकराणां राशिरुच्छ्रितः समूहविशेषो वा तं । १३ । ४५॥ Ka सिहिं च सा विउलुज्जलपिंगलमहुघयपरिसच्चमाणनिद्भूमधगधगाइयजलंतजालुज्जलाभिरामं,
तरतमजोगजुत्तेहिं जालपयरेहिं अन्नुनमिव अणुप्पइन्नं. पिछइ. सा जालुज्जलणगअंबरं व कत्थइ पयंत, अइवेगचंचलं, सिहिं । १४ ॥ ४६॥ व्याख्या-सिहिं चेत्यादितः......सिहिमित्यन्तम् । तत्र सिहिं चेति गयवसह' गाथाया अन्त्यपदस्य
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ग्रहणवाक्यमत एव तत इति नाक्तम्, विशेष्यं तु स्वप्नवर्णकान्ते सिहिमिति सा शिखिनं पश्यति । | विउलुज्जल त्ति विपुला उज्ज्वलेन पिङ्गलेन च मधुघृतेन परिषिच्यमाना निघूमा धगधगायमाना| ज्वलन्त्या-दीप्यमाना या ज्वाला-ताभिरुज्ज्वलमत एवाभिरामं, तरतमयोगोऽस्ति येषु ते 'अभ्रादित्वादप्रत्ययः' एकोच्चान्योच्चतराऽपराचोच्चतमा इति तरतमयोगयुक्तैः, ज्वालानां प्रकरैः-कलापैरन्यान्यमनुप्रकीर्णमिव-मिश्रितमिव तदीया ज्वाला-स्पईया अन्योऽन्यमनुप्रविशन्तीव ज्वालानामुत-ऊद्ध ज्वलनं-ज्वालोज्ज्वलनकं तदेव विभक्तिलोपे तेन कत्थइ त्ति कचित् प्रदेशेऽम्बर
आकाशं पचन्तमिव क्वचिदभ्रंलिहाभिालाभिराकाशमिव पक्तुमुद्यतमिति भावः । अतिवेगव| चपलम् ॥ १४ ॥ ४६ ॥
इमे एयारिसे सुभे सोमे पियदंसणे सुरुवे सुमिणे दण सयणमझे पडिबुद्धा । अरविंदलोयणा हरिसपुलइअंगी, “एए चउदस सुविणे, सव्वा पासई तित्थयरमाया । जं रयणिं वक्कमई, कुच्छिासि महायसो अरहा ॥ १ ॥” ॥ ४७॥
इमे इत्यादितः.........अरहेत्यन्तम् । तत्र इमान् एतादृशान्, शुभान कल्याणहेतून, सौम्यान्| प्रियदर्शनान्,सुरुपान्-शोभनस्वभावान् स्वमान् दृष्ट्वा शयनमध्ये-निद्रान्तरे प्रतिबुद्धा-जागरिता॥४७॥
तएणं सा तिसला खत्तियाणी इमे एआरूवे उराले चउद्दसमहासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा
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कल्प
प्रदीपिका
समाणी हट्टतुट्ठ जाव हयहियया धाराहयकयंबप्पुफगंपि व समस्ससियरोमकूवा सुमिणुग्गहं करेइ, करित्ता सयणिज्जाओ अब्भुट्टेइ, अब्भुट्टित्ता पायपीढाओ पच्चारुहइ, पचोरुहित्ता अतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव सयणिज्जे जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिद्धत्थं खतियं ताहि इटाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं उरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं हिययगमणिज्जाहिं हिअयपल्हायणिज्जाहिं मियमहुरमंजुलाहिं गिराहिं संलवमाणी संलवमाणी पडिबोहेइ ॥ ४८॥ ___तएणमित्यादितः......'पडिबोहेईत्यन्तम् । तत्र, स्वप्नानां अवग्रह-स्मरणं करोति, ताहिं ताभिर्विशिष्टगुणोपेताभिः गीभिरिति सम्बन्धः । इष्टाभिस्तस्य वल्लभाभिः, कान्ताभिरभिलषिताभिस्तेन सदैव प्रियाभिरद्वेष्याभिः सर्वेषां मनोज्ञाभि-मनोरमाभिः, कथयापि मणामाहिं त्ति मनसाऽम्यन्ते गम्यन्ते सुन्दरत्वेनेति मनोऽमास्ताभिश्चिन्तयाऽपि मनः प्रियाभिरित्यर्थः । उदाराभिरुदारनादवर्णोच्चरादिना, कल्याणाभि:-समृद्धिकरीभिः, शिवाभिः-गीर्दोषानुपद्ताभिः, धन्याभि:-धनलम्भिकाभिः, माल्याभिः-मङ्गले साध्वीभिः, सश्रीकाभिरलंकारादिशोभावतीभिः ।
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हिअय हृदये या गच्छन्ति कोमलत्वात् सुवोधत्वाच्च तास्ताभिः, हृदयप्रह्लादनीयाभिः-हृद्गतशोकाच्छे| दिकाभिः, मिय मिताः पदवर्णादिभिः,मधुरा-स्वरतो मञ्जुला-मनोरमा शब्दतोयास्ताभिः संलपन्ती शेष प्राग्वत् ॥ ४८॥ तएणं सा तिसला खत्तियाणी सिद्धत्थणं रन्ना अब्भणुण्णाया समाणी नाणामणिकणगरयणभत्तिचित्तंसि भदासणंसि निसीयइ, निसीइत्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया सिद्धत्थं खत्तियं ताहिं इटाहिं जाव संलवमाणी संलवमाणी एवं वयासी ॥ ४९ ॥
तए णं सा इत्यादितो. वयासीत्यन्तम्।तत्र तए णं ततो णं वाक्यालंकारे, णाणा-नानामणिकनकरत्नानां भक्तिभिर्विच्छित्तिभिश्चित्रे-विचित्रे शेषं प्राग्वत् ॥ ४९ ॥
एवं खलु अहं सामी अज्ज तसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि वण्णओ जाव पडिबुद्धा, तं जहा'गयवसहगाहा । तं एणसं सामी उरालाणं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ॥ ५०॥
एवं खल्वित्यादितो'....."भविस्सईत्यन्तम् । तत्र वन्नओ त्ति प्रागुक्तवर्णना ज्ञेया, मन्ये इति वितर्कार्थी निपातः, को-नु कल्याणः-फलवृत्तिविशेषो भविष्यात ॥५०॥
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प्रदीपिका
तए णं से सिद्धत्थे राया तिसलाए खत्तियाणीए अंतिए एयमह्र सुच्चा निसम्म हट्ट तुट्ठ जावहियए धाराहयनीवसुरहिकुसुमचुचुमालइयरोमकूवे ते सुमिणे ओगिण्हइ, ते सुमिणे आगिण्हित्ता, ईहं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता अप्पणो साहाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविन्नाणेणं तो सुमिणाणं अत्युग्गहं करेइ, करित्ता तिसलं खत्तियाणिं ताहिं इटाहिं जाव मंगलाहिं
मियमहुरसस्सिरीयाहि वग्गूहिं संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासी ॥ ५१ ॥ न तए णं से इत्यादितः......"वयासीत्यन्तम् । तत्र, स्वप्नानवगृह्णाति अर्थावग्रहतः । इहाम| नुप्रविशति सदर्थपर्यालोचनरूपां। अत्तणो-इत्यादि प्राग्वत् ॥५१॥
उराला णं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणा दिला,कल्लाणा णं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणा दिट्ठा,एवं सिवा धन्ना मंगला सस्सिरीया आरुग्गतुठ्ठिदीहाउकल्लाण ३००मंगलकारगाणं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणा दिट्ठा, अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए ! सुखलाभो देवाणुप्पिए !रज्जलाभो देवाणुप्पिए! एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए !नवण्ह मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाणराइंदियाणं विइक्कताणं, अम्हं कुलकेउं, अम्हं कुलदीवं, कुलपव्वयं, कुलवडिंसंयं,
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कुलतिलय, कुलकित्तिकरं, कुलवित्तिकरं, कुलदिणयरं, कुलआधार, कुलनंदिकर, कुलज्सकरं, कुलपायवं, कुलविविद्धणकर, सुकुमालपाणिपायं, अहीणसंपुन्नपंचिंदियसरीरं, लक्खणवंजणगुणोववेयं, माणुम्माणप्पमाणपडिपुन्नसुजायसव्वंगसुंदरंगं, ससिसोमाकारं, कंतं, पियदंसणं, सुरुवं दारयं पयाहिसि ॥ ५२ ॥
उराला णमित्यादितः .....पयाहिसीत्यन्तम् । तत्र देवाणुप्पिए-हे सरलस्वभावे!अर्थः-वर्णादिः भोगाः-शब्दादयः,पुत्रलाभः, सौरव्यं, राज्यं स्पष्टं भविष्यतीति शेषः। कुलकेत्वादीनि प्रयोदशपदानि-10 M केतुर्ध्वजः केतुरिव केतुरभुतत्वात, पाठान्तरे कुलहेतुं वा । एवं दीप इव दीपः प्रकाशकत्वात् मङ्गल
त्वाच, पर्वतोऽनभिभवनीयः स्थिराश्रयसाधर्म्यात, अवतंसः शेखर उत्तमत्वात् , तिलको भूषकत्वात्, M कीर्तिः-स्वख्यातिः, वृत्तिनिर्वाहः, दिनकरोऽतिप्रकाशकत्वात्, आधारः पृथ्वीवत्, नन्दिः-वृद्धिः, यशः | सर्वदिग्गामि, पादपः आश्रयणीयच्छायत्वात्, विवर्धन-विविधैः प्रकारै वृद्धिरेव तत्करः॥१२॥
से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विन्नायपरिणयमित्ते जुब्वणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विइकते विच्छिन्नविउलबलवाहणे रज्जवई राया भविस्सइ ॥ ५३ ॥ से वि अ णमित्यादितो भविस्सईत्यन्तम् । तत्र सूरो-दानतोऽभ्युपेतनिर्वाहतो वा, वीरः ।
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कल्प
४६
सङ्ग्रामतः, विक्रान्तो भूमण्डलाक्रमगतः, विस्तीर्णादपि विपुलेऽतिविस्तीर्णे बलवाहने — सैन्यगवादिके यस्य राज्यपती राजा - स्वतंत्र इत्यर्थः ॥ ॥ ५३ ॥
तं उराला णं तु जाव दुचंपि तच्चपि अणुवूहइ, तए णं सा तिसला खत्तियाणी सिद्धत्थस्स रन्नो अंतिए एयम सुच्चा निसम्म हठ्ठ तुट्ठ जाव हयहियया करयलपरिग्गाहिय दस नहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी ॥ ५४ ॥
तं उराला णमित्यादितो ...वयासीत्यन्तम् । तत्र द्विरपि त्रिरपि अनुवृहति - प्रशंसति ॥ ५४ ॥ एवमेयं साम्मी ! तहमेयंसामी ! अवितहमेयं सामी ! असंदिद्धमेयं सामी ! इच्छिअमेयं सामी ! पडिच्छियमेयं सामी ! इच्छियपडिच्छियमेयं सामी ! सच्चे णं एसमट्ठे से जहेयं तुभे वयह त्ति कट्टु ते सुमिणे सम्मं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता सिद्धत्थेणं रन्ना अब्भणुन्नाया समाणी नाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अन्भुट्ठे, अन्मुट्ठित्ता अतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव सए संयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागभ्च्छित्ता एवं वयासी ।। ५५ ।।
प्रदीपिका
४६
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एवमेयमित्यादिता......वयासीत्यन्तम् । प्राग्वत् ॥ ६५ ॥
मा मे ते उत्तमा पहाणा मंगल्ला सुमिणा दिट्ठा, अन्नेहिं पावसुमिणेहिं पडिहम्मिस्संति त्तिकट्टु देवयगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं मंगलाहिं धम्मियाहिं लट्ठाहिं कहाहिं श्रुमिणजागरियं जागरमाणी पडजागरमाणी विहरइ || ५६ ॥
मा मे ते इत्यादितः.... .. विहरईत्यन्तम् । तत्र उत्तमाः - स्वरूपतः, प्रधानाः – फलतः, मङ्गल्या मङ्गले- अनर्थप्रतिघाते साधवः, सुमिणजागरिअं ति-स्वप्नसंरक्षणार्थं जागरिकं जाग्रती - विद्धती प्रतिजाग्रती तानेव स्वप्नान् संरक्षणेनोपचरन्ती ॥ ५६ ॥
तए णं सिद्धत्थे खत्तिए पच्चूसकालसमयंसि कोडबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी ॥५७॥
तए णमित्यादितो......... वयासीत्यन्तम् । तत्र प्रत्युषकालक्षणो यः समय - ऽवसरस्तस्मिन् कौटुम्बिक पुरुषान् - आदेशकारिणः सद्दावेइ-आह्वयति ॥ ५७ ॥ खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया ! अज्ज सविसेसं बाहिरियं उवद्वाणसालं गंधोदगसित्तसुइअसंमज्जिओवलित्तं सुगंधवरपंचवन्नपुप्फोवयारकलियं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडज्झतधृवमघ
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प्रदीपिका
मघंतगंधुधुआभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह, काखेह, करित्ता य कारवित्ता य सीहासणं स्यावेह, रयावित्ता मम एयमाणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिणह ॥ ५८॥
खिप्पेत्यादितः...........पञ्चप्पिणहेत्यन्तम् । तत्र उपस्थानशालां-आस्थानमण्डपं गन्धोदकेन सिक्ताशुचिका-पवित्रा, संमार्जिता-कचरापनयनेन, उपलिप्ता-छगण.दिना तां, इदं च विशेषणं गन्धोदकसिक्तसंमार्जितोपलिसशुचिकामित्येवं दृश्य, सिक्ताद्यनन्तरभावित्वात शुचेः शेषं प्राग्वत् ॥ ५८॥ तए णं ते कोडंबियपुरिसा सिद्धत्थेण रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ट तुट्ठ जाव हयहियया करयल जाव कट्ट एवं सामित्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति, पडिसुणित्ता सिद्धत्थस्स खत्तियस्स अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता खिप्पामेव सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं गंधोदयसित्तसुइअ जाव सीहासणं रयाविंति, रयावित्ता जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ठ सिद्धत्थस्स खत्तियस्स तमाणतियं पञ्चप्पिणंति ॥ ५९॥
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तए णमित्यादितः........पञ्चप्पिणतीत्यन्तम् । तत्र एवमिति-यथादेश, स्वामिन्नित्यिामन्त्रणे इति रुपदर्शने शेषं सुगमं ॥५९॥ तए णं सिद्धत्थे खतिए कलं पाउप्पभाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मीलियंमि अहापंडुरे पभाए रतासोगप्पगासकिंसुयसुगमुहगुंजद्धरागबंधुजीवगपारावयचलणनयणपरहुअसुरत्तलोअणजासुअणकुसुमरासि-हिंगुलयानिअराइरेगरहंतसरिसे कमलायरसंडविबोहए उवट्टियंमि सूरे सहस्सरसिमि दिणयरे तेयसा जलते तस्स य करपहरापरxमि अंधयारे बालायवकुंकुमणं खचियव्व जीवलोए सयणिज्जाओ अब्भुट्टेइ अब्भुद्वित्ता ॥ ६०॥
तए णं सिद्धत्थे इत्यादितः.........अब्भुडित्तेत्यन्तम्।तन्त्र कल्लंति-कल्यमितिश्वः 'प्रादुः, प्रकाशे' ततः | प्रकाशप्रभातायां प्रगटाहर्मुखायां रजन्यां फुल्लोत्पलं-विकसितपनं तच कमलश्च कृष्णसारमृगस्तयोः कोमलं अकठोरं दलानां नयनयोश्चोन्मीलितमुन्निद्रता यस्मिन्, अथ रजनीविभातानंतरं 'दीर्घत्वमार्षत्वात् पाण्डुरे शुक्लेप्रभाते, रक्ताशोकस्य प्रकाशः प्रभा, किंशुकं-पलाशपुष्पं,शुकमुखं,गुञ्जाई चेतिद्वन्धस्तेषां रागस्तथा बन्धुजीवकं च पुष्पविशेषः, पारापतस्य चरणौ नयने च, परभृतस्य-कोकिलस्य सुरक्त सुशब्देन कोपाविष्टत्वोपलक्षणात्कोपारक्त लोचने च, जपाकुसुमराशिश्च, हिंगुलकनिकरश्च ततो बन्दः । एतेभ्योऽ
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कल्प
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तिरेकेण आधिक्येन रेतत्ति राजमानः सन् सदृशः कमलाकरेषु-पद्मोत्पत्तिमत्सु हृदादिषु खंडानि पद्मवनानि तेषां विबोधके विकाशके उत्थिते-उगते सूरे-रवौ सहस्ररइमौ दिनकरे तेजसा ज्वलति सति तस्य च कराः किरणास्तेषां प्रहारोऽभिघातस्तेनापराद्धे विनाशिते अंधकारे पहरन्ति प्राकृतत्वात् ह्रस्वः । बालातपकुङ्कुमेन खचिते इव पिञ्जरिते इव जीवलोके शयनीयादभ्युतिष्ठति ॥ ६० ॥
सयणिज्जाओ अब्भुट्ठित्ता पायपीढाओ पच्चारुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव अट्टणसाला तेणेव उव - गच्छइ, उवागच्छित्ता अट्टणसालं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता अणेगवायामजोग्गवग्गणवामद्दणमलजुद्धकरणेहिं संते परिस्संते, सयपागसहस्सपागेहिं सुगंधवरतिल्लमाइएहिं पीणणिज्जेहिं दीवणिज्जहिं मयणिज्जेहि बिंहणिज्जेहिं दप्पणिज्जेहिं सविंदियगायपल्हायाणिज्जेहिं अब्भंगिए समाणे, तिल्लचम्मंसि निउणेहिं पडिपुन्नपाणिपायासु कुमालकोमलतलेहिं अभंगणपरिमद्दणुव्वलणकरणगुणनिम्माएहिं छेएहिं दक्खेहिं पट्ठेहिं कुसलेहिं मेहावीहिं जियपरिस्समेहिं पुरिसेहिं अट्ठिसुहाए मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चउब्विहाए सुहपरिक्कमणाए संवाहणाए संबाहिए समाणे, अवगयपरिस्समे अट्टणसालाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता || ६१ ॥
प्रदीपिका
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पायपीढाओ इत्यादितो..........निक्खमित्तेत्यन्तम् । तत्र अट्टण-अनशाला-व्यायामशाला,अनेकानि | व्यायामानि व्यायामनिमित्तं यानि योग्यादीनि तानि, तत्र योग्या च गुणनिका,वल्गन-चोल्ललनं, व्याम| ईन-अन्योन्यं बाहाद्यङ्गमोटनं, मल्लयुद्ध प्रतीतं, करणानि-अङ्गभङ्गविशेषास्तैः श्रान्तःसामान्येन, परिश्रान्तोऽङ्गप्रत्यङ्गापेक्षया । सयपागत्ति-शतकृत्वो यत्पक्वमपरापरौषधीरसेन सह, शतेन वा कार्षापणानां यत्पक्वं | तच्छतपाकं एवं सहस्रपाकमपि । सुगन्धवरतैलादिभिरादिशब्दात् घृतकर्पूरजलादिग्रहः किंभूतैः ? || | प्रीणनीयैः-रसरुधिरधातुसमताकारिभिः, दीपनीयैरग्निजननैः,मदनीयैः-कामवर्द्धनैः, बृहणीयैः-मांसोपचय
कारिभिः, दर्पणीयैर्वलकर, सर्वाणीन्द्रियाणि गात्राणि प्रह्लादयन्तीति तैरभ्यङ्गः क्रियते स्म यस्य सोऽभ्य| ङ्गितः सन्, ततस्तैलचर्मणि तैलाभ्यक्तस्य सम्बाधनाकरणाय यचर्मतुलिकोपरि कडनं तत्तैलचर्म तत्र | संबाधितः सन्निति योगः । कैरित्याह-पुरुषैः कथम्भूतैः? निपुणैरुपायकुशलैः, प्रेतिपूर्णानां पाणिपादानां सुकुमालकोमलान्यतिमृदूनि तलानि येषां तैः, अभ्यङ्गनपरिमईनोहलनानांप्रतीतार्थानां करणे ये गुणास्तेषु । निम्तैः सदभ्यस्तैः छेकैः-अवसरः द्विसप्ततिकलाज्ञैर्वा, दक्षैः-अविलम्बितकार्यकारिभिः, प्रष्टैर्वाग्मि-12 भिरग्रगामिभिर्वा, कुशलैः साधुभिः संबाधनाकर्मणि, मेधाविभिरपूर्वज्ञानग्रहणशक्तिनिष्ठः, जितपरिश्रमः, अन्यां सुखहेतुत्वादस्थिसुखा तया एवं शेषाण्यपि पदानि ।सुखा-सुखकारिणी परिकर्मणाशुश्रुषा तया, तस्याश्च बहुविधत्वात् कतमयेत्याह संबाधनया-संवाहनया वा विश्रामणया अपगत परिश्रमः।६१ ।
१ अत्र सुबोधिकायां 'प्रतिपूर्णस्य पाणिपादस्य' इति प्रयोगो लिखितः
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प्रदीपिका
जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपावसइ, अणुपविसित्ता समुत्तजालाकुलाभिरामे विचित्तमणिरयणकुट्टिमतले रमणिज्जे न्हाणमंडवंसि, नाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि न्हाणपीढंसि सुहनिसण्णे, पुष्फोदएहि अ गंधोदएहि अ उण्होदएहि अ सुहोदएहि अ सुद्धोदएहि अ, कल्लाणकरणपवरमज्जणविहीए मज्जिए, तत्थ कोउअसएहिं बहुविहेहिं कल्लाणगपवरमज्जणावसाणे पम्हल-सुकुमालगंधकासाइअलूहिअंगे अहयसुमहग्धदूसरयणसुसंवुडे सरससुरभिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते सुइमालावण्णगविलेवणे आविद्धमणिसुवन्ने कप्पियहार-झहार-तिसरयपालंबपलंबमाणकडिसुत्तसुकयसोहे पिणद्धगेविज्जे अंगुलिज्जगललियकयाभरणे वरकडगतुडियर्थभियभूए अहियरुवसस्सिरीए कुंडलउज्जोइआणणे मउडदित्तसिरए हारुत्थयसुकयरइयवच्छे मुद्दियापिंगलंगुलिए पालबपलबमाणसुकयपडउत्तरिज्जे नाणामणिरयणकणगविमलमहरिहनिउणोवचियमिसिमिसिंतविरइयसुसिलिट्ठविसिट्टलठ्ठआविद्धवीरखलए किं बहुणा ?कप्परुक्खएविव अलंकियविभूसिए नरिंदे, सकोरिटमलदामेणं छत्तणं धरिज्जमाणेणं सेअवरचामराहिं उद्धब्बमाणीहिं मंगलजयजयसद्दकयालोए
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अणेगगणनायगदंडनायगराईसरतलवरमाइंबियकोडबियमंतिमहामंतिगणगदोवारियअमञ्चचेडपी ढमदनगरनिगमसेडिसेणावइसत्थवाहदयसंधिवालसद्धिं संपvिडे धवलमहामेहनिग्गए इव गहगणदिपंतरिक्खतारागणाण मज्झे ससिव्व पियदंसणे नखई नरिंदे नखसहे नरसीहे अब्भहियरायतेयलच्छीए दिप्पमाणे मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमिता ॥ ६२॥
जेणे वेत्यादितो.......पडिनिक्खमित्तेत्यन्तम् । तत्र समुत्त-समुक्तेन-मुक्ताफलयुक्तेन जालेन-गवा- | | क्षेणाकुलो व्याप्तोऽभिरामश्च यः स्नानमण्डपस्तत्र, विचित्रमणिरत्नाभ्यां-कुष्टिमतलं-बद्धभूर्यत्र, पुष्पो| दक:-पुष्परसमित्रैरुदकैः,गन्धोदकैः-श्रीखंडादिरसमिः , उष्णोदकरग्निततोदकैः, शुभोदैकः-पवित्रस्थाना | नीतैः सुखोदकैर्वा नात्युप्णैः, शुद्धोदकैः-स्वभावनिर्मलैः । कथं मज्जितः ? इत्याह-तत्थत्ति-तत्र स्नावसरे | कौतुकानां रक्षादीनां शतैः कल्याणानि कायत्याकारयति कल्याणकं यत्प्रवरमज्जनं तस्यावसाने पक्ष्मला-पक्ष्म| वती अत एव सुकुमाला गन्धप्रधाना काषायिका-कषायरक्तशाटिका तया लूषितमहं यस्य । अहय-अहतं| मलमूषकाद्यनुपद्रुतं, सुमहाय-बहुमूल्यं यद् दृष्यरत्न-प्रधानवस्त्रं तेन सुसंवृतः परिगतः यहा सुष्टु | संघृतं परिहितं येन । सरससुरभिगोशीर्षचन्दनेनानुलिसं गात्रं यस्य । शुचिनी-पवित्रे माला al च-पुष्पमाला वर्णकविलेपनं च-मण्डनकृस्कुङ्कुमादिविलेपनं यस्य । आविद्यानि-परिहितानि मणिसुव
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कल्प
र्णानि येन, न धात्वन्तरमयं भूषणमस्तीत्यर्थः । कल्पितो - विन्यस्तो हारोऽष्टादशसरिकोऽर्द्धहारो - नवसरिकस्त्रिसरिकं च प्रतीतं यस्य स तथा प्रालम्बो - मुक्तामयं झुम्बनकं प्रलम्बमानो यस्य, कटिसूत्रेण कव्याभरणेन सुष्ठुकृता शोभा यस्य, ततः पदत्रयकर्मधारयः । यद्वा कल्पितहारादिभिः सुकृता शोभा यस्य, पिनद्धानि - परिहितानि ग्रैवेयकानि कण्ठकाख्य-ग्रीवाभरणानि येन, अङ्गुलीयकानि - अङ्गुल्याभरणान्युर्मिकाः ललीतानि - शोभावन्ति कचाभरणानि च पुष्पादीनि यस्य, वरकटकटिकैः प्रधानहस्ताभरण - वाह्राभरणैः स्तम्भिताविव भूजौ यस्य, अधिकरूपेण सश्रीकः - सशोभः, कुण्डलोद्योतिताननः, मुकुटदीसशिरस्कः, हारेणावस्तृतमाच्छादितं तेनैव सुष्ठुकृतरतिकं च वक्षो यस्य, मुद्रिकाः-सरत्नान्यङ्गुल्याभरणानि ताभिः पिङ्गला अङ्गुलयो यस्य, प्रलम्बेन - दीर्घेण प्रलम्बमानेन च सुकृतं पटेनोत्तरीयमुत्तरासंगो येन, नानामणिकनकरत्नैवमलानि महार्हाणि निपुणेन शिल्पिना उवियन्ति परिकर्मितानि मिसिमिसितित्ति देदीप्यमानानि विरचितानि - निर्मितानि सुश्लिष्टानि सुसन्धीनि विशिष्टान्यन्येभ्यो विशेषवन्ति लष्टानि-मनोहराणि आविद्धानि - परिहितानि वीरवलयानि येन, किंबहुना वर्णितेनेति शेषः ।
कल्पवृक्ष इवालङ्कृतो दलादिभिर्विभूषितश्च फलादिभिः कल्पवृक्षो, राजा पुनरलंकृतो मुकुटादिभिविभूषिता वस्त्रादिभिः । सकोरिंट - कोरिण्टकः - पुष्पवृक्षजातिस्तत्पुष्पाणि मालान्तेषु शोभार्थ दीयन्ते
प्रदीपिका
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इति सकोरिण्टानि माल्यदामानि - पुष्पस्रजो यत्र, माल्यानि पुष्पाणि दामानि - मालाः । छत्रेण प्रियमाणेन श्वेतचामरैरुध्यमानैः ' चामरस्य क्लीवत्वे स्त्रीत्वं गौडमतेन ' मङ्गलभूता जयशब्दः कृतो जनेनालोके-दर्शने यस्य । अनेके ये गणनायकाः- प्रकृतिमहत्तराः, दण्डनायकाः- तन्त्रपालाः, राजानो माण्डलिकाः, ईश्वरा - युवराजानोऽणिमादियुक्ता वा, तलवरा - नृपदसपट्टबन्धाः, माडम्बिका:- छिन्नमंडबाधिपाः, कौटुम्बिकाः - कतिपयकुटुम्बस्वामिनो ऽवलगकाः - ग्राममहत्तरा वा, मन्त्रिणः - सचिवाः, महामन्त्रिणो- महामात्या मन्त्रिमण्डलप्रधानाः, गणकाः- ज्योतिषिका भाण्डागारिका वा, दोवारिका:- प्रतीहाराः, अमात्या-राज्याधिष्ठायकाः, चेटा:- दासाः, पीठमर्दा-आस्थाने आसन्नासन्नसेवकाः वयस्याः इत्यर्थः वेश्याचार्या वा, नागरा - नगरवासिप्रकृतयो राजदेयविभागाः, निगमा:- कारणिका वणिजो वा, श्रेष्ठिनो-मूर्ध्नि लसल्लक्ष्मीकस्वर्णपट्टाः, सेनापतयश्चतुरङ्गसैन्येशाः, सार्थवाहादूताश्च प्रतीताः, सन्धिपाला - राज्यसन्धिरक्षकाः, एषां इन्द्रस्ततस्तैः 'इह च तृतीयाबहुवचनलोपश्चात्र' सार्द्धं न केवलं तत्सहित एव अपि तु 'सं इति' समन्तात् परिवृत्तः नरपतिर्मज्जनगृहात्प्रतिनिष्क्रामतीति सम्बन्धः । किम्भूतः ? प्रियदर्शनः क इव धवलमहामेघनिर्गत इव शशी तथा ससिव्वन्तियतोऽन्यत्र सम्बन्धाद् ग्रहगणदीप्यमानऋक्ष-तारक- गणानां मध्ये इव वर्तमान: नरपतिर्नराणां पती रक्षिता, नरेन्द्रो - नरेष्वैश्वर्यानुभवनात्, नरवृषभो - राज्यधुराधरणात्, नरसिंहः - शौर्यातिशयात्,
१ सुबोधिकायां 'युवराजा:' इति प्रयोगः
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प्रदीपिका
अभ्यधिकराजतेजोलक्ष्म्या दीप्यमानः ॥ ६२॥
जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणंसि पुरत्थाभिमुहे निसीअइ, सीहासणंसि पुरत्थाभिमुहे निसीइत्ता ॥ ६३ ॥ - जेणेव इत्यादितो...........निसीइत्तत्यन्तम् ॥ ६३॥
अप्पणो उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अट्ठ भद्दासणाई सेयवत्थपञ्चुत्थयाई सिद्धत्थयकयमंगलोवयाराई रयावेइ, रयावित्ता अप्पणो अदूरसामंते नाणामणिरयणमंडियं अहिअपिच्छणिज्ज महग्यवरपट्टणुग्गयंसण्हपट्टभत्तिसयचित्तताणं ईहामिअउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं अभिंतरिअं जवणिअं अच्छावेइ, अंच्छावित्ता
नाणामणिरयणभत्तिचित्तं अत्थरयमिउमसूरगोत्थयं सेयवत्थपन्चुत्थयं सुमउयं अंगसुहफरिसगं || विसिहं तिसलाए खत्तियाणीए भद्दासणं स्यावेइ, रयावित्ता कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी ॥ ६४ ॥ अप्पणो इत्यादितो.........वयासीत्यन्तम् । तत्र श्वेतवस्त्रेण प्रत्यवसृतान्याच्छादितानि । कृतः
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सिद्धार्थकः प्रधानो मङ्गलार्थमुपचार:-पूजा येषु 'प्राकृतत्वात् कृतशब्दस्य मध्ये निपातः। दूरं-विप्रकृष्टं सामन्त-समीपम् तयोरभावे नाऽतिदूरे नातिसमीपे इत्यर्थः यवनिकामाञ्छायतीति सम्बन्धः। नानामणिरत्न मण्डिता, अधिकं प्रेक्षणीयाम् , महर्चा चाऽसौ वरे पत्तने-वस्त्रोत्पत्तिस्थाने उद्गता च व्युता वरपहनादा-प्रधानवेष्टनकादुद्गता-निर्गता, सूक्ष्मपट्टसूत्रमयो भक्तिशतचित्रस्नानलातको यस्यां, इहामृगादि प्राग्वत् । आस्थानशालायां अभ्यन्तरभागतिनीम् यवनिकाम्-काण्डपटीम आकर्षयत्यायताम् कारयतीत्यर्थः । नाणा प्राग्वत् । आस्तरकेण प्रतीतेन मृदुमसूरकेन चावस्तृतम् , श्वेतवस्त्रेण प्रत्यवस्तृतम्-उपर्याच्छादितम् सुमृदुकम्-कोमलमतएवाङ्गस्य सुखः-सुखकारी स्पर्शो यस्य । विशिष्टं शोभनम् ॥ ६४॥ खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अढंगमहानिमित्तसुत्तत्थधारए विविहसत्थकुसले सुविणलक्खणपाढए सद्दावेह, नएणं ते कोडंबियपुरिसा सिद्धत्थेणं रना एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठ जाव हियया करयल जाव पडिसुणंति पाडसुणित्ता ॥ ६५ ॥ खिप्पामेवेत्यादितः...........पडिसुणित्तेत्यन्तम् । अष्टाङ्गमष्टावयवम्अङ्गं स्वप्नं स्वरं चैव भौमं व्यञ्जनलक्षणे, उत्पादमंतरिक्षं च निमत्तं स्मृतमष्टधा ॥१॥ इत्यङ्गायष्टधा, यन्महानिमित्तं परोक्षार्थप्रतिपत्तिकारणज्ञापकं शास्त्र तस्य यो सूत्रार्थों तो धारयन्ति
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प्रदीपिका
पठन्ति वा तयोर्वा पारगा ये ते अनेन पाठवयं व्याख्यात-धारए पाठए पारए इति । हतुवृत्ति यावत्क- रणात्...........चित्तमाणंदिआ इत्यादि दृश्यम् । करयलत्ति यावत्करणात्...........परिग्गहिअमित्यादि..........एवं देवो तहत्ति अणाए विणएणं वयणं पडिसुणति ति प्रतिशृण्वन्ति अभ्युपगच्छन्ति | शेषं प्राग्वत् ॥ ६ ॥
सिद्धत्थस्स खत्तियस्स अंतिआओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता कुंडग्गाम नगरं मज्झं मझेणं जेणेव सुविणलक्खणपाढगाणं गेहाइं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सुविणलक्खणपाढए सद्दावेति ॥ ६६ ॥
सिद्धत्थस्सेत्यादितः..........सहावेंति इत्यन्तम् । सुगम ॥६६॥ तएणं ते सुविणलक्खणपाढगा सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स कोडंबिअपुरिसेहिं सदाविया समाणा हट्टतुट्ठ जाव हयहियया पहाया कयबलिकम्मा कयकोउअमंगलपायच्छित्ता सुद्धपावेसाई मंगलाई वत्थाई पवराई परिहिआ अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा सिद्धत्थयहरिआलिया कयमंगलमुद्धाणा सएहिं सएहिं गेहेहितो निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता खत्तियकुंडग्गामं नगरं मझं मझेणं जेणेव सिद्धत्थस्स रनो भवणवस्खडिंसगपडिदुवारे तेणेव उवागच्छंति, उवा.
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गच्छित्ता भवणवरवडिंसंगपडिदुवारे एगओ मिलंति, मिलित्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवाग्गच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहिअंजाव कट्ट सिद्धत्थं खत्तियं विजएणं वदावेति ॥ ६७ ॥ तएणं ते इत्यादितो....... ...वद्धाति इत्यन्तत् । तत्र व्यानानन्तरं कृतं बलिकर्म स्वगृहे देवानां यः, कृतानि कौतुकानि-मपीतिलकादीनि मङ्गलानि तु सिद्धार्थकदधिदूर्वाक्षतादीनि तान्येव प्रायश्चित्तानि दुःस्वप्नादिविध्वंसार्थमवश्यकरणीयत्वाचैस्ते । शुद्धात्मनः स्नानशुचोकताङ्गाः वेसाइंति-वेषे साधूनि R वेष्याणि यहा शुद्धानिच तानि प्रवेश्यानि च-राजसभाप्रवेशोचितानि च मंगल्यानि-मले साधूनि वस्त्राणि, प्रवराणि परिहितानि-निवसितानि, अल्पैः स्तोकैः महाधुर्वहुमूल्यैराभरणैरलंकृतशरीराः। सिद्धार्थकाः-सर्षपाः, हरितालिका-दूर्वा कृता मङ्गलार्थ मूईनि यैः । स्वकेभ्यः स्वकेभ्यः आत्मीयेभ्यः । आत्मीयेभ्यः इत्यर्थः । भवनवरेषु-सौधेष्ववतंसक इव-शेखरक इव भवनवरावतंसकस्तस्य प्रतिबारेमूलबारे-समीपद्वारे । एगओ मिलंति त्ति समुदायीभूय सम्मतीभवन्ति न पुनरसंबद्धाः । यतःयत्र सर्वेऽपि नेतारः, सर्वे पण्डितमानिनः। सर्वे महत्वमिच्छन्ति, तवृन्दमवसदिति ॥१॥ राज्ञो-मन्त्रिपरीक्षितशय्यैकशाय्यवलगकपञ्चशतीवत्। तद्यथा-कस्यचिद्राज्ञोऽसंबद्धभटपञ्चशती
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कल्प
सेवार्थमाययो। मन्त्रिणा परीक्षार्थ शय्यैका शयनाय प्रेषिते चान्योन्यं विवदमानाः मध्ये मुक्त्वा | प्रदीपिका सुप्ताः । प्रातस्तव्यतिकरं ज्ञात्वा राज्ञा निर्भय॑ निष्कासिताः ॥ ६७॥
[इति तृतीयं व्याख्यानं ]
[अथ चतुर्थं व्याख्यानं] तएणं ते सुविणलक्खणपाढगा सिद्धत्थेण स्ना वंदिअपूइअसक्कारिअसम्माणिआ समाणा पत्ते पत्ते पुन्वन्नत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति ॥ ६८॥ ___तएणं ते इत्यादितो...........निसीयन्तीत्यन्तम् । तत्र वन्दिताः-सद्गुणोत्कीर्तनेन, पूजिता:-पुष्पफलवस्त्राभरणादिना, सत्कारिताः-अभ्युत्थानादिना, सन्मानिता-आसनदानादिना । समाण स्तिसन्तः, पूर्वन्यस्तेषु भद्रासनेषु ॥ ६८॥ तएणं सिद्धित्थे खत्तिए तिसलं खत्तियाणिं जवणियंतरियं ठावेइ, वित्ता पुष्फफलपडिपु. ण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए एवं वयासी ॥ ६९ ॥
___तएणमित्यादितो...........वयासीत्यन्तम् । तत्र पुष्पफलैः-सहस्रपत्रनालिकेरादिभिः प्रतिपूर्णी IN | हस्तौ यस्य, यतः
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रिक्तपाणिर्न पश्येच्च, राजानं दैवतं गुरुम् , निमित्तज्ञं विशेषेण फलेन फलमादिशेत् ॥१॥
शेषं सुगम ॥ ६९॥ एवं खलु देवाणुप्पिआ ! अज्ज तिसला खत्तिआणी तंसि तारिसगंसि जाव सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहरिमाणी इमे एयाख्वे उराले चउद्दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा ॥७०॥ एवं खलु इत्यादितो..........पडिबुद्धेत्यन्तम् । स्पष्टं ॥ ७० ॥ तं जहा-गयवसह' गाहा तं एएसिं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं देवाणुप्पिया ! उरालाणं के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? ॥ ७१ ॥
तंजरेत्यादितो..........भविस्सईत्यन्तम् सुगम ॥ ७१ ॥ तए ण ते सुमिणलक्खणपाढगा सिद्धत्थस्स खत्तियस्स अंतिए एयमढं सोचा निसम्म हतुट्ठ जाव हयहियया ते सुमिणे ओगिण्हति ओगिण्हित्ता ईहं अणुपविसंति, अणुपविसित्ता अन्नमन्नेण सद्धिं संचालेंति, संचालित्ता तसिं सुमिणाणं लद्धय गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अहिगयट्ठा सिद्धत्थस्स रण्णो पुरओ सुमिणसत्थाई उच्चारेमाणा उच्चारेमाणा
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दीपिका
सिद्धत्थं खतियं एवं वयासी ॥ ७२ ॥
तए ण ते इत्यादितो..........एवं वयासीत्यन्तम् । तत्र सञ्चालेति संलावेंति त्ति चोभयोरपि पाठे संवादयन्ति पर्यालोचयन्ति इत्यर्थः । लब्धार्थाः-स्वतः गृहीतार्थाः पराभिप्रायग्रहणात् । पृष्टार्थाः | संशये सति परस्परतः। तत एव विनिश्चितार्थाः अत एव चाभिगतार्थाः-सामस्त्येन ज्ञातार्थाः। | सिद्धार्थस्य राज्ञः पुरः स्वप्नशास्त्राण्युच्चरन्त उच्चरन्त एवं वदन्ति, तत्र स्वप्नशास्त्राण्येवं यथा| अनुभूतः१श्रुतोरदृष्टः३प्रकृतेश्च विकारजःस्वभावतः समुद्भूत५श्चिन्तासन्ततिसम्भवः६ ॥१॥ | देवताद्युपदेशोत्थः ७धर्मकर्मप्रभावजः ८। पापोद्रेकसमुत्थश्च ९ स्वप्नः स्यान्नवधा नृणां॥२॥युग्मं | प्रकारैरादिमैः षड्भिरशुभश्च शुभोऽपि च । दृष्टो निरर्थकः स्वप्नः, सत्यस्तु त्रिभिरुत्तरैः ॥ ३॥ | रात्रेश्चतुषु यामेषु, दृष्टः स्वप्नः फलप्रदः। मासैादशभिः षड्भि-स्त्रिभिरेकेन च क्रमात् ॥४॥
निशान्त्यघटिकायुग्मे, दशाहात् फलति ध्रुवम् । दृष्टः सूर्योदये स्वप्नः, सद्यः फलति निश्चलम्॥५॥ all मालास्वप्नोऽह्नि दृष्टश्च, तथाधिव्याधिसम्भवः । मलमूत्रादिपीडोत्थः स्वप्नः सर्वो निरर्थकः ॥६॥
धर्मरतः समधातुर्यः स्थिरचित्तो जितेन्द्रियः सदयः । प्रायस्तस्य प्रार्थितमर्थ स्वप्नः प्रसाधयति॥७॥ न श्राव्यः कुस्वप्नो, गुर्वादेस्तदितरः पुनः श्राव्यः। योग्यश्राव्याभावे,गोरपि कर्णे प्रविश्य वदेत्॥
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इष्टं दृष्ट्वा स्वप्नं, न सुप्यते नाप्यते फलं तस्य । नेया निशापि सुधिया, जिनराजस्तवन संस्तवतः॥९॥ स्वप्नमनिष्टं दृष्ट्वा,सुप्यात् पुनरपि निशामवाप्यापि नैतत् कथ्यं कथमपि, केषांचित् फलति न स तस्मात् पूर्वमनिष्टं दृष्ट्वा, स्वप्नं यः प्रेक्षते शुभं पश्चात् । स तु फलदस्तस्य भवेत्, द्रष्टव्यं तद्वादिष्टेऽपि ११ यस्तु पश्यति स्वप्नान्तर्नृपतिं कुञ्जरं हयं । स्वर्ण वृषभं गां च कुंटुम्बं तस्य वर्द्धते ॥ १२ ॥ ताम्बुलदधिवस्त्रैश्च शङ्खमौक्तिकचन्दनैः । जातिवत्कुल कुन्दैश्च दृष्टैर्धान्यधनागमः ॥ १३ ॥ आरुढः शुभ्रमिभं, नदीतटे शालिभोजनं कुरुते । भुङ्क्ते भूमीमखिलां, स जातिहीनोऽपि धर्मधनः १४ कृष्णं कृत्स्नमशस्तं मुक्त्वा गोवाजिराजगजदेवान्। सकलं शुक्लं च शुभं, त्यक्त्वा कर्पासलवणादीन् १५ देवस्य प्रतिमाया यात्रास्नपनोपहारपूजादीन् । यो विदधाति स्वप्ने तस्य भवेत् सर्वतो वृद्धिः १६ दुःस्वप्ने देवगुरून्, पूजयति करोति शक्तितश्च तपः । सततं धर्मरतानां दुःस्वप्नो भवति सुस्वप्नो १७
" इत्थी वा पुरिसो वा सुविणंते एगं महंतं खीरकुंभं वा, (दहिकुंभं वा,) घयकुंभं वा, महुकुंभं वा, पासमाणे पासह उपाडेमाणे उप्पाडेह उप्पाडिअमिति अप्पाणं मन्नह तक्खणमेव बुज्झइ, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव अंतं करेइ । इत्थी वा पुरिसो वा सुविणंते एवं हिरण्णरासिं वा सुवण्ण
२०
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कल्प-
प्रदीपिका
रासिं वा रयणरासिं वा वयररासिं वा पासमाणे पासइ दुरूहमाणे दुरूहह, दुरूदमिति अप्पाणं मन्नइ तक्खणमेव बुज्मइ तेणेव भग्गहणेणं जाव अंतं करेइ । इत्थी वा पुरिसो वा एग महंत रययरासिं वा, तउअरासिं वा, तंवरासिं वा, सीसगरासिं वा पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढं अप्पाणं मन्नड़ तक्खणमेव बुज्झइ दुच्चेणं भवग्गहणेण सिझइ बुझइ जाव अंतं करेइ । इत्थी वा पुरिसो वा जाव सुविणते एगं महंतं भवणं सव्वरयणमयं पासमाणे पासइ, अणुपविसमाणे अणुपविसइ, अणुपविलु अप्पाणं मन्नइ, तक्खणमेव बुज्झइ तेणेव भवग्गहणेणं जाव अंतं करेइ (भ ५८१) ॥७२॥ एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सुमिणसत्थे बायालीसं सुमिणा, तीसं महासुमिणा, बावत्तरि सव्वसुमिणा दिट्ठा । तत्थ णं देवाणुप्पिया ! अरहंतमायरो वा, चक्कवट्टिमायरो वा, अरहंतंसि वा, चक्कहरंसि वा, गम्भं ४०० वक्कममाणंसि एएसिं तीसाए महासुमिणाणं इमे चउ- 1 दस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुझंति ॥ ७३ ॥
एवं खलु इत्यादित.........पडिबुझंतीत्यन्तम् । तत्र सुमिणत्ति-सामान्यफला महासुमिणत्ति| महाफलाः गर्भ व्युत्क्रामति उत्पद्यमाने ॥ ७ ॥
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तं जहा-गयवसहगाहा ॥ ७४ ॥ वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गम्भं वकममाणंसि एएसिं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं अन्नयरे सत्त महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुझंति ॥ ७५ ॥ बलदेवमायरो वा बलदेवंसि गम्भं वकममाणसि एएसिं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुझंति ॥ ७६ ॥ मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गम्भं वकममाणंसि एएसिं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं अन्नयरं एगं महासुमिणं पासित्ताणं पडिबुझंति ॥ ७७॥
तं जहेत्यादितो........पडिबुज्झतीत्यन्तम् । सूत्रचतुष्टयी स्पष्टा ।। ७४ । ७५ । ७६ । ७७ ॥ इमे य णं देवाणुप्पिया ! तिसलाए खत्तिआणीए चउद्दस महासुमिणा दिट्ठा । तं उराला
णं देवाणुप्पिया ! तिसलाए खत्तियाणीए सुमिणा दिठ्ठा, जाव मंगलकारगाणं देवाणुa प्पिया ! तिसलाए खत्तियाणीए सुमिणा दिट्ठा, तं जहा-अत्थलाभो देवाणुप्पिया ! भोग
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प्रदीपिका
लाभो देवाणुप्पिया ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिया ! सुखलाभो देवणुप्पिया ! रज्जलाभो देवाणुप्पिया ! एवं खलु देवाणुप्पिया ! तिसला खत्तिआणी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अद्धट्ठमाणं राइंदियाणं विइकंताणं तुम्हें कुलकेउं, कुलदीवं, कुलपव्वयं, कुलवडिंसयं, कुलतिलयं, कुलकित्तिकरं, कुलवित्तिकर, कुलदिणयरं, कुलाधार, कुलनंदिकरं, कुलजसकर, कुलपायवं, कुलतंतुसंताणविवद्धणकर, सुकुमालपाणिपायं, अहीणपडिपुन्नपंचिंदियसरीरं, लक्खणवंजणगुणोववेयं, माणुम्माणप्पमाणपडिपुन्नसुजायसव्वंगसुंदरंग, ससिसोमाकारं, कंतं पियदंसणं, सुरूवं, दारयं पयाहिसि ॥ ७८ ॥
इमे य णमित्यादितो.....पयाहिसीत्यन्तम् प्राग्वत् ॥ ७८ ॥ से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणयमित्ते जोब्वणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विइकते ।। विच्छिन्नविपुलवलवाहणे चाउरंतचकवट्टी रज्जवई राया भविस्सइ । जिणे वा तेलुकनायगे धम्मवरचाउरंतचकवट्टी ॥ ७९ ॥
འཇཆུ་རྣམཛཇོ་ཇར་ར་ར་
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से वि य णं इत्यादितः.........चक्कवटीत्यन्तम् । तत्र जिनो वा त्रैलोक्यनायको धर्मवरचातुरन्त चक्रवर्ती । तत्र चतुर्दशस्वप्नानां पृथक फलं त्वेवं-'गजेन विश्वशौण्डीरो, धर्मे धूयों वृषेण | तु । सिंहेन निर्भयः सूरः श्रिया विश्वश्रियाश्चितः ॥१॥ सजा मूर्धापरि सतां, शशिना नयनामृतं ।। सूर्येण तमसा हर्ता, कुलोत्तसो ध्वजेन तु ॥२॥ कुंभेन गुणसंपूर्णः, सरसा विश्वतापहृत् । वार्डिनाधिक | गम्भीरो, विमानेन सुराश्रितः ॥३॥ महार्हो रत्नपुजेन, दीप्तो निघूमवह्निना । चतुर्दशरज्जुलो| कस्वामी भावी तवाङ्गजः ॥४॥७९॥
तं उराला णं देवाणुप्पिया! तिसलाए खत्तियाणीए सुमिणा दिट्ठा, जाव आरुग्ग-तुट्ठि-दीहाउकलाण-मंगल-कारगा णं देवाणुप्पिया ! तिसलाए खत्तियाणीए सुमिणा दिट्ठा ॥ ८॥ तए णं सिद्धत्थे राया तेंसि सुविणलक्खणपाढगाणं अंतिए एयमढे सोचा निसम्म हट्टतुट्ठ जाव हियए करयल जाव ते सुविणलक्खणपाढए एवं वयासी ॥ ८१॥
तं उरालाणमित्यादितो.........वयासीत्यन्तम । सूत्रद्वयं प्राग्वत् ॥ ८० ॥ ८१॥ एवमेयं देवाणुप्पिया! तहमेयं देवाणुप्पिया! अवितहमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! सच्चे णं एसमटे से जहेयं तुब्भे
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कल्प
वयह त्ति कट्ठ ते सुमिणे सम्म पडिच्छइ, पडिच्छित्ता ते सुविणलक्खणपाढए विउलेणं असणेणं पदीपिका पुष्फ-वत्थ गंध-मल्लालंकारेणं सकारई, सम्माणेइ, सकारिता सम्माणित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइ दलइत्ता पडिविसज्जेइ ॥ ८२॥ ___ एवमेयमित्यादितः.........पडिविसज्जेईत्यन्तम् । तत्र तान् स्वप्नलक्षणपाठकान् विपुलेनाश- IAS नेन-शाल्यादिना पुष्पाण्यग्रथितानि, गंधा-वासाः, माल्यानि-प्रथितपुष्पाणि, अलङ्कारो-मुकुटादिस्तेषां समाहारबन्दस्तेन सत्कारयति-प्रवरवस्त्रादिना । सन्मानयति-तथाविधवचनादिप्रति|| पत्या। जीविकाईमाजन्मनिर्वाहयोग्यं शेष सुगम ॥ ८२॥ | तएणं से सिद्धत्थे खत्तिए सीहासणाओ अब्भुटेइ, अब्भुट्टित्ता जेणेव तिसला खत्तियाणी
जवणियंतरिया तेणेव उवाग्गच्छइ, उवागच्छित्ता तिसलं खत्तियाणिं एवं वयासी ॥ ८३ ॥ एवं खलु देवाणुप्पिए ! सुविणसत्थंसि बायालीसं सुमिणा तीसं महासुमिणा जाव एगं महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुझंति ॥ ८४ ॥ इमे अ णं तुमे देवाणुप्पिए ! चउद्दस महासुमिणा दिट्ठा, तं उरालाणं तुमे जाव जिणे वा तेलुकनायगे धम्मवरचाउरंतचकवट्टी ॥ ८५॥
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तएणं सा तिसला एयमढें सोचा निसम्म हट्टतुट्ठ जाव हयहियया करयल जाव ते सुमिणे सम्म पडिच्छइ पडिच्छित्ता ॥८६॥ सिद्धत्थेणं रन्ना अन्भणुन्नाया समाणी नाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ भदासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुद्वित्ता अतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सयं भवणं अणुप्पविट्ठा ॥ ८७॥
तएणमित्यादित......अणुपविटेति यावत् । पञ्चसूत्री स्पष्टा ८३-८४-८५-८६-८७ ॥ जप्पमिइं च णं समणे भगवं महावीरे तसि रायकुलंसि साहरिए, तप्पभिई च णं बहवे वेसमणकुंडधारिणो तिरियजंभगा देवा सक्वयणेणं से जाइं इमाई पुरा पोराणाई महानिहाणाई भवंति, तं जहा-पहीणसामियाई, पहीणसेउयाई, पहीणगोत्तागाराई, उच्छिन्नसामियाई उच्छिन्नसेउयाई, उच्छिन्नगुत्तागाराई, गामा-गर-नगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणा-सम-संबाहसन्निवेसेसु, सिंघाडएसु वा, तिएसु वा, चउक्केसु वा, चच्चरेसु वा, चउम्मुहेसु वा, महापहेसु वा, गामट्ठाणेसु वा, नगरहाणेसु वा, गामनिद्धमणेसु वा, नगरनिद्धमणेसु वा,
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कल्प
५८
आवणेसुवा, देवकुलेसुवा, सभासु वा, पवासु वा, आरामेसु वा, उज्जाणेसु वा, वणेसु वा, वणसंडेसु वा, सुसाण-सुन्नागार-गिरि-कंदर संति-सेलो चट्ठाण-भवण-गिहेसु, वा संनिक्खित्ताईं चिट्ठेति ताई सिद्धत्थरायभवणंसि साहरंति ॥ ८८ ॥
जप्पभिइ च णमित्यादितो...... साहरंतीत्यन्तम् । तत्र वैश्रमणस्य कुण्डमायत्ततां धारयन्ति ये ते तिर्यग्लोकवासिनो जृम्भकास्तिर्यग्जृम्भकाः देवाः शक्रवचनेन शक्रेण वैश्रमणआदिष्टः तेन चैतेत्यर्थः । से- अथ पुरा - पूर्व प्रतिष्ठितत्वेन पुराणानि - चिरन्तनानि पुरापुराणानि महानिधानानि । प्रहीणाः स्वल्पीभूताः स्वामिनो येषां तानि।एवं सेक्तारः - सेचकाः धनक्षेसारः । प्रहीणसे तुकानि वा सेतुः मार्गः । प्रहीणं विरलीभूतं मानुषं गोत्रागारं येषां तत्र गोत्रं - धनस्वामिनोऽन्वयो, अगारं गृह, एवमुच्छिन्नाः- सर्वथाक्षीणाः स्वामिनो येषामित्यादि प्राग्वत् । ग्रामाः - कर। दिगम्याः आकराः - स्वर्णाद्युत्पत्तिभूमयः, नैतेषु करोऽस्तीति नगराणि, खेटानि - धूलोप्राकारोपेतानि, कर्बटानि-कुनगराणि, मडम्बानि - सर्वतोऽर्डयोज - नात्परातोsवस्थितग्रामाणि, द्रोणमुखानि-यत्र जलस्थलपाथौ स्तः । पत्तनानि येषु जलस्थलपथयारन्यतरेण पर्याहारप्रवेशः, आश्रमाः - तीर्थमुनिस्थानानि, संवाहाः - समभूमौ कृषिं कृत्वा येषु दुर्गभूमिषु धान्यानि कृषीबलाः संवहन्ति रक्षार्थ, सन्निवेशा:- सार्थकटकादेस्ततो द्वन्द्वस्तेषु । शृङ्गाटकं शृङ्गाटकाकारं त्रिकोणं स्थानं त्रिकं यत्र रथ्यात्रयं मिलति । चतुष्कं - पत्र रथ्याचतुष्कं मिलति । चत्वरं बहुरथ्यापातस्थानं, चतुर्मुखं
प्रदीपिका
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चतुर देवकुलादिः, महापथो राजमार्गः, ग्रामस्थानानि-शून्यप्रामा, नगरस्थानानि-नगरोदसितभुवः, ग्रामनिर्द्धमनानि-ग्रामजलनिर्गमाः खालमिति प्रसिद्धाः, एवं नगरनिईमनानि, आपणा-हटाः, देवकुलानि-यक्षादिगृहाणि, सभा-जनोपवेशस्थानानि,प्रपाः-पानीयशालाः, आरामा:-लतागृहादिक्रीडास्था| नोपेताः,उद्यानानि-येषु सच्छायपुष्पफलवृक्षेषु उद्यानिकया गम्यते, वनानि-एकजातीयवृक्षाणि,वनखण्डा| नि-अनेकजात्युत्तमवृक्षाणि,श्मशानं, शून्यागारं-शून्यगृहं, गिरिकन्दरा-गुहा, शान्तिगृहाः-शान्तिकस्था| नानि । संधि त्ति पाठे तु सन्धिगृह-भित्त्योरन्तराले प्रछन्नस्थानं, शैलगृहं-पर्वतमुत्कीर्य यत्कृतं,उपस्थानगृह-आस्थानमण्डपः, भवनगृहाः-कुटुम्बिकवसनस्थानानि ततः श्मशानादीनां द्वन्दः । संनिखित्ताई ति सम्यग् निक्षिप्तानि । साहरंति त्ति-प्रवेशयन्ति ॥ ८८॥ . जं स्यणिं च ण समणे भगवं महावीरे नायकुलंसि साहरिए तं स्यणि च णं नायकुलं हिरण्णेणं वड्डित्था, सुवण्णेणं वड्डित्था, धणेणं धन्नेणं रज्जेणं रटेणं बलेणं वाहणेणं कोसेणं कुट्ठागारणं पुरेणं अंतेउरणं जणवएणं जसवाएणं वाड्डित्था, विपुलधण-कणग-रयण-मणि-मोतिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयण-माईएणं संतसारसावइज्जणं पीइसक्कारसमुदएणं, अईव अईव अभिवड्डित्था, तएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापिऊणं अयमेया
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कल्प
रूवे अन्भथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था ॥ ८९ ॥
जं रयणिमित्यादितः...... समुप्पजित्येत्यन्तम् । तत्र, हिरण्यं रूप्यमघटितस्वर्णमित्यन्ये सुवर्णघटितं । धनं गणिमादि चतुर्द्धा, तत्र " गणिमं जाइफलपुप्फफलाई । धरिमं तु कुंकुमगुडाई । मिज्जं चोपलोणा । रयणवत्थाई परिच्छेजं" ॥ १ ॥ धान्यं चतुर्विंशतिधा यवशाल्यादि, राज्यं - सप्ताङ्ग, राष्ट्रदेशः, बलं चतुरङ्ग, वाहनं - वेसरादि, कोशो-भाण्डागारं कोष्ठागारं - धान्यगृह, पुरान्तःपुरे प्रसिद्धे, जनपदो लोकः । जसवाएणं ति यशोवादः - साधुवादः पुनर्विपुलं धनं गवांदि, कनकं घटिताघटितरूपं, रत्नानि - कर्केतनादीनि मणयः - चन्द्रकान्ताद्याः, मौक्तिकानि-शुक्त्याकाशादिप्रभवाणि, शङ्खा-दक्षिणा वर्त्ताः, शिला - राजपट्टादिकाः, प्रवालानि - विद्रुमाः, रक्तरत्नानि - पद्मरागाः, आदिशब्दाद्वस्त्रकम्बलादिपरिग्रहस्तेन, एतेन किमुक्तं भवतीत्याह- सद्विद्यमानं नत्विन्द्रजालसदृशं यत्सारस्वापतेयं-प्रधानद्रव्यं तेन । प्रीतिर्मानसी स्वेच्छा, सत्कारो - वस्त्रादिभिर्जनकृतस्ततो द्वन्द्वस्तत्समुदयस्तेन । शेषं स्पष्टं ॥ ९९ ॥ जप्पभिर्इं च णं अम्हं एस दारए कुच्छिसि गव्भत्ताए वक्कंते तप्पभिईं च णं अम्हे हिरण्णेणं वड्ढामो, सुवण्णेणं वद्वामो, धणेणं जाव संतसारसावइज्जेणं पीइसक्कारेणं अईव अईव अभिवढामो, तं जया णं अम्हं एस दारए जाए भविस्सइ तया णं अम्हे एयस्स दारगस्स
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५९
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एयाणुरुवं गुण्णं गुणनिष्फन्नं नामधिज्जं करिस्सामो वद्धमाणु त्ति ॥ ९॥
जप्पभिइमित्यादितो.........वद्धमाणु ति यावत् । तत्र गुण्णं त्ति गुणेभ्यः आगतं गौणं, गौणशब्दोऽप्राधान्येऽप्यस्तीत्याह-गुणनिष्पन्न-प्रधानं नामैव नामधेयं ॥९॥ 'तएणं समणे भगवं महावीरे माउअणुकंपणट्ठाए निचले निफंदे निरयणे अल्लीणपल्लीणगुत्ते यावि होत्था ॥ ९१ ॥
तएणमित्यादितो.........होत्थेत्यन्तम् । तत्र मातुरनुकम्पनार्थ कृपया, मातरि वाऽनुकम्पा भक्तिस्तदथै, मयि सन्दमाने मा मातुः कष्टंभूयादिति, मातरि वा भक्तिरन्येषां विधेयतया दर्शिता भवत्विति, निश्चलचलनाभावात, निस्पन्दः-किंचिचलनस्याप्यभावादतएव निरेजनो-निष्कम्पः, अत एव आ-इषल्लीनोऽङ्गसंयमनात्, प्रकर्षेण लीनः उपाङ्गसंयमनात्, अतएव गुप्तः-परिस्पन्दनाभावात्, अनोत्प्रेक्षा
"एकान्ते किमु मोहराजविजये मन्त्रं प्रकुर्वनिव,ध्यानं किश्चिदगोचरं विरचयत्येकः परब्रह्मणे.. किं कल्याणरसं प्रसाधयति वा देवो विलुप्यात्मकं, रुष कामविनिग्रहाय जननीकुक्षावसौ वः श्रिये ॥१॥ ततो विशेषणकर्मधारयः, चापीति समुचये ॥९१॥ तएणं तीसे तिसलाए खत्तियाणीए अयमेयारूवे जाव संकप्पे समुप्पज्जित्था । हडे मे से
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प्रदीपिका
गम्भे ! मडे मे से गन्भे! चुए मे से गम्भे ! गलिए में से गन्भे ! एस मे गम्भे पुब्बि एयइ, इयाणिं नो एयइ त्ति कुट्ट ओहयमणसंकप्पा चिंतासोगसागरं संप्पविट्ठा, करयलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया भूमीगयदिठिया झियायइ, तं पि य सिद्धत्थरायवरभवणं उवरयमुइंग-तंती-तलताल-नाडइज्जजणमणुज्जं दीणविमणं विहरइ ॥ ९२॥
तएणं तीसे इत्यादितो.........विहरईत्यन्तम् । तत्र हडे-हृतो मम गर्भः केनचिद्देवादिना ? मृतः कालधर्म प्राप्तः ? च्युतः-सजीवपुद्गलपिण्डतापर्यायात्परिभ्रष्टः ? गलितो-द्रवतामापयक्षरितः ? चतुर्वपि पदेषु काका विकल्पप्रतिपत्तिः । एजति-कम्पते।ओहय-उपहतः-कालुष्यकलितो मनसि सङ्कल्पो यस्याः। चिन्तया-गर्भहरणादिध्यानेन यः शोकः स एव सागरस्तत्र सम्प्रविष्टा । करतले पर्यस्तं निवेशितं मुखं यया, आर्तध्यानोपगता, भूमिगतदृष्टिका-भूमिसम्मुखमेव वीक्षमाणा, किंकर्तव्यजडतया ध्यायति । तथाहि-.
यदि सत्यमिदं जज्ञे, गर्भस्यास्य कथञ्चन । तदा नुनमभाग्याई भूमौ निःपुण्यकाऽवधिः॥१॥ यद्वानह्यभाग्यस्य भवने चिन्तारत्नं तिष्ठति, न दुःस्थस्य गेहे निधिःप्रादुर्भवति, न च कल्पतरुर्मरुभूमौ प्ररोहति, नहि नि:पुण्यतृषितपुसां सुधापानेच्छा पूर्यात् । हा घिग् दैवं ! किं चक्रे तेन वक्रेण यन्समूलमुन्मूलितो मन्मनोरथतरुः, यबदू गृहीते दत्वाऽपि नेत्रे, उहालितं निधिरत्नं प्रदाय, मेरोः
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For
a
| शृङ्गमारोप्य पातिताऽहं, परिवेष्याप्याकृष्टं भोजनभाजनं दुर्दैवेन, यहा मया किमपराद्धमस्य दैवस्यात्र भवे भवात्तरे वा।
यद्वा किं करोमि क्व गच्छामि कस्याग्रे वा वदाम्यहम् । दुर्विदग्धेन दैवेन जग्धा दग्धा च पापिना ॥२॥ . किंवाऽनेन राज्येन, किंवा कृत्रिमसुखैरमीभिः, किं वा कुसुमशय्याशयनेन, चतुर्दशस्वमसूचि| तस्त्रैलोक्यपुजितं मुतरत्नं विना । रे दैव ! मयि निरापराधायां कथं वैरं वहसि ?
.. धिक् संसारमसारं धिग् पर्यन्तासुखाभिमुखविषयान्, मधुलिप्तखड्गधारा-लेहनतुलितानहो ललितान् ॥३॥ यता, मया पूर्वभवे किं कृतं दुःकृतं, यतःपसुपक्खिमाणुसाणं, बालो जो वि हु विओयए पायो । सो अणवच्चो जायइ, अह जायइ तो विवजिजा ॥४॥ दुदैवत रे निघृण ! निष्करुणाकार्यसज्ज ! निर्लज्ज ! । विगतागसि मयि तत्कि, निष्कारणवैरितां वहसि ॥५॥ यद्वालमनृतदैवो-पलम्मनैरेवमुन्मना देवी । दृष्टा शिष्टेन सखीजनेन तत्कारणं पृष्टा ॥६॥ मोवाच साश्रुलोचनरचना, निःश्वासकलितवचनेन । किं मन्दभागधेया, वदामि यज्जीवितं मेऽगाव ॥७॥ सरव्यो जगुरथ रे सखि ! शान्तममङ्गलमशेषमन्यदिह । गर्भस्य तेऽस्ति कुशलं, नवेति वद कोविदे सपदि ॥८॥ सा मोचे गर्भस्य च, कुशले किमकुशलमस्ति मे सख्यः । इत्याद्युक्त्वा मूर्छा-मापन्ना पतति भूपीठे ॥ ९॥ शीतलवातप्रभृतिभिरुपचारैर्बहुतरैः सखीभिः । सा सम्मापितचैतन्यो-त्तिष्ठति विलपति च पुनरेवम् ॥ १०॥ "गुरुए अणोरपारे, रयणनिहाणे असायरे पत्तो । छिद्दघडो न भरिज्जइ ता किं दोषो जलनिहिस्स ?॥११॥
Wign Wari Wal
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दीपिका
अJिNOR
पत्ते वसंतमासे, रिद्धिं पावंति सयलवणराई । जन्न करीरे पत्तं, ता किं दोषो वसन्तस्स ? ॥१२॥ उत्तंगो सरलतरू, बहुफलभारेण निमिअसव्वंगो । कुज्जो फलं न पावइ ता किं दोषो तरुवरस्स?"॥१३॥ अथ मे मरणं शरणं, किं करणं विफलजीवितव्येन । तत् श्रुत्वा विललाप च, सख्यादिकसकलपरिवारः ॥ १४ ॥ यत्किं चक्रेऽस्माकं, स्वामिन्या देवतेन दुर्मतिना हा ! कुलदेव्यः क्व गता, यदुदासीनाः स्थिता युयम् ॥१५॥ इत्यादिकं प्रभूतं तथैव किल कारयन्ति कुलवृद्धाः, शान्तिकपौष्टिकमन्त्रोपयाचितादोनि कृत्यानि ॥१६॥ पृच्छति च देवज्ञान, निषेधयन्त्यपि च नाटकादीनि । अतिगाढशब्दविरचित-वचनानि निवारन्त्यपि च ॥ १७॥ राजाऽपि लोककलितः, शोकाकुलितोऽजनिष्ट शिष्टमतिः। कि कर्तव्यत्वेन च, मूढत्वं मन्त्रिणःप्रापुः॥१८॥
इत्येवं सन्ति । तं पि य सिद्धस्थ-तदपि सिद्धार्थराजभवनं उपरतं निवृनं मृदंगतन्त्रीतलतालैः, प्रागव्याख्यातैर्नाटकायैर्नाटकहितैर्जनैः-पात्रैः । मणुज्जं ति-मनोज्ञत्वं चारुता यस्मादत एव दीनविमनस्क विहरत्यास्ते ॥९॥ तएणं से समणे भगवं महावीरे माऊए अयमेयास्वं अन्भत्थियं पत्थियं मणोगयं संकप्पं समुप्पन्नं वियाणित्ता एगदेसेणं एयइ, तएणं सा तिसला खत्तियाणी हट्टतुट्ठ जाव हयहिअया एवं वयासी ॥ ९३ ॥
तएणं से इत्यादितो...........वयासीत्यन्तम् । तत्र तं तथाविधं प्रागुक्तं व्यतिकरमवधिनाऽवधार्य प्रभुश्चिन्तयति
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“किं कूर्मः कस्य वा ब्रुमो, मोहस्य गतिरिदृशी । दुषेर्धातोरिवास्माकं दोषनिष्पत्तये गुणाः ॥ १ ॥ प्रमोदाय कृतोप्यासीदयं खेदाय मे गुणः । नालिकेराम्भसि न्यस्तः कर्पूरः मृतये यथा " ॥ २ ॥
इति ज्ञात्वा प्रभुरेकदेशेनाङ्गल्यादिना एजति एतच यद्भगवता मातुरनुकम्पायै कृतमपि तस्या एवाधृतितया पर्यणसीत् । तत्त्वागामिनीकाले कालदोषाद् गुणाऽपि वैगुण्याय कल्प्स्यते इति सूचनार्थमिति वृद्धाः । ततः स्वगर्भस्य कुशलमवधार्य सहर्षा त्रिशला एवमवादीत् ।। ९३ ।
नो
मे गव्हडे, जाव नो गलिए, मे गन्भे पुव्विं नो एयइ, इयाणिं एयइ, त्ति कट्टु हट्ठ जाव हयहियया एवं वा विहरइ, तरणं समणे भगवं महावीरे गव्भत्थे चैव इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, नो खलु मे कप्पइ अम्मा पिऊहिं जीवन्तेहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ॥ ९४ ॥
नो खल्वित्यादितः. ........ पब्बइतर ति यावत् । तत्र
"प्रोल्लसितनयनयुगला, स्मेरकपोला प्रफुल्लमुखकमला । विज्ञानगर्भ कुशला रोमाश्चितकश्बुका त्रिशला ॥१॥ प्रोवाच मधुरवाचा, गर्भे मे विद्यतेऽथ कल्याणम् । हा धिग्मयकाऽनुचितं, चिन्तितमतिमोहमतिकतया ॥२॥ सन्त्यथ मम भाग्यानि त्रिभुवनमान्या तथा च धन्याऽहं । श्लाध्यं च जीवितं मे, कृतार्थतामाप मे जन्म ||३|| श्री जिनपदाः प्रसेदुः कृताः प्रसादाच गोत्रदेवीभिः फलितो जन्मावध्याराधितजिनधर्मकल्पतरुः ॥४॥
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६२
इत्यादि मुदितां त्रिशलां वीक्ष्य वृद्धस्त्रीणां जय जीव नन्देत्याद्याशिषः प्रवृत्ताः। कुलस्त्रीभिः प्रदीपिका धवलानि प्रवर्तितानि । सर्वत्रापि अष्टौ अष्टौ मङ्गलानि स्थापितानि । प्रदत्ताः कुङ्कमछटाः, उत्तम्भिताः | पताकाः, स्थाने स्थाने बद्धानि तोरणानि, कृतानि बन्दिजनमोचनानि, गायन्ति च गीतज्ञाः, नृत्यन्ति नटाः, सर्वत्रामारिपटहः प्रवृत्तः, कृता जिनपूजा, व पनागतस्वर्णकोटीभिः सम्पूर्ण राजभवनं, गृहे गृहे महानुत्सवः संपन्नः, सर्वेषां प्रमोदः सञ्जातश्चेति । गम्भत्थे चेवत्ति पक्षाधिकमासषट्के व्यतिक्रान्ते सूत्रोक्तमेव एनमभिग्रह["तिहिं नाणेहिं समग्गो देवीतिसलाइ सो उ कुच्छिसि । अह वसइ सन्निगब्भे छम्मासे अदमासं च ॥१॥ - अह सत्तमंमि मासे गब्भत्थो चेव अभिग्गहं गिण्हे, नाहं समणो होहं अम्मापियरम्मि जीवन्ते" ॥२॥] गृह्णातीत्यर्थः।।९४॥ ।
तएणं सा तिसला खत्तियाणी ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता जावसव्वालंकाविभूसिया तं गम्भं नाइसीएहिं नाइउण्हेहिं नाइतित्तेहिं नाइकडुएहिं नाइकसाएहिं नाइअंबिलेहिं नाइमहुरेहिं नाइनिद्धेहिं नाइलुक्खेहिं नाइउल्लेहिं नाइसुक्केहिं सव्वत्तुभयमाणसुहेहिं भायणच्छायणगंधमल्लेहिं ववगय-रोग-सोंग-मोह-भय-परिस्समा सा जं तस्स गन्भस्स
१ अभिग्रहसम्बन्धिनौ सोपयोगिनी एतद् द्वौ श्लोको किरणावल्यादौ दृश्येते लेखकदोषात्अत्रनोपलभ्येते इति सम्भावनया अस्माभिरेव सोपयोगिनौ इति मत्वा पृथक्त्वेनोपन्यस्तो।
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हिअं मियं पत्थं गव्भपोसणं तं देसे य काले ये आहारमाहारेमाणी विवित्तमउएहिं सयणासणेहिं पइरिक्कसुहाए मणाणुकूलाए विहारभूमीए पसत्थदोहला संपुष्णदोहला सम्मायिदोहला अविमाणियदोहला बुच्छिन्नदोहला ववणीयदोहला सुहं सुहेणं आसइ सयइ चिट्ठइ निसीया तुयट्टइ विहरइ सुहं सुहेणं तं गन्धं परिवहइ ॥ ९५ ॥
तएणं सा इत्यादितः..... परिवहईत्यन्नम् । तत्र नाइसीएहिं इत्यादि शितादिषु हि कानिचित् वातिकानि कानिचित्पैत्तिकानि कानिचित् श्लेष्मकारीणि च स्युः । उक्तं च वाग्भटेवातलैश्च भवेद्गर्भः, कुब्जान्धजडवामनः । पित्तलैः खलतिः पङ्गुश्चित्री पाण्डुः कफात्मभिः ॥१॥ तथा - अतिलवणं नेत्रहरं, अतिशीतं मारुतं प्रकोपयति । अत्युष्णं हरति बलं, अतिकामं जीवितं हरति ॥२॥ वर्षासु लवणममृतं, शरदि जलं, गोपयश्च हेमन्ते । शशिरे चामलकरसं, घृतं वसन्ते गुडश्चान्ते ॥ ३ ॥ सर्वे बुद्धिप्रदा गौल्याः सर्वे क्षारा मलापहाः । कषाया रञ्जकाः सर्वे सर्वे आम्ला विषोपमाः॥४॥
ग्राम्यधर्म १ यान २ वाहना ३ ध्वगमन ४ प्रस्खलन ५ प्रपतन ६ प्रपीडन ७ प्रधावना ८ भिघात ९ विषमशयन १० विषमासनो ११ पवास १२ वेग १३ विघाता १४ तिरक्षा १५ तिकटु १६ अति तिक्ता १७तिभोजना १८ तिरागा १९ तिशोका २० तिक्षारसेवा २१ तीसार २२वमन २३ विरेचन २४प्रेङ्खोलना
२४
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कल्प
२५ जीर्ण २६ प्रमुखैबन्धनान्मुच्यते गर्भः । सव्वत्तुभय ऋतौ ऋतौ यथायथं भज्यमानाः-सेव्यमानाः,
दीपिका सुखाः-सुखहेतेवो ये तैः भोजनाचैस्तत्र भोजनम्-आहारः, अच्छादनं-प्रावरणं, गन्धाः-पटवासादयः, माल्यानि-पुष्पमालाः । ववगयेत्यादि रोगा-ज्वरायाः, शोकः-इष्टवियोगादिजः, मोहो-मूर्छा, भयं-भीतिः, परिश्रमो-व्यायामः । क्वचिद्भयपरित्तासा इति पाठस्तत्र भयं-भीतिमात्रं परित्रासोऽकस्माद्यं । हितं गर्भस्यैव मेधायुरादिवृद्धिकारणं, तच दिवास्वापाअनाश्रुपातस्नानुलेपनान्यङ्गनछेदन | प्रधावनहसनकथनश्रवणावलेखनानिलायासान् परिहारात् । यतः____ "दिवा स्वपत्याः स्त्रियः स्वापशीलो गर्भः, अञ्जनादन्धः, रोदनाद्विकृतदृष्टिः, स्नानानुलेपनाद् दुशीलः, तैलाभ्यङ्गात्कुष्ठी, नखापकर्तनात्कुनखी, प्रधावनाच्चञ्चलः, हसनात् श्याममदन्तोष्ठतालुजिवः, अतिकथनात् प्रलापी, अतिश्रवणात् बधिरः, अवलेखनात् खलतिः, व्यजनक्षेपादिमारुताऽऽयाससेवनादुन्मत्तः स्यादिति सुश्रुते" । मितं-परिमितं नाधिक ऊनं वा, पथ्यमारोग्यकारणत्वात्, कोऽर्थो गर्भपोषणं देशे-उचितभूप्रदेशे, काले-तथाविधावसरे, विविक्तानि-दोषवियुक्तानि, लोकान्तरासङ्कीर्णानि मृदुकानि च कोमलानि तैः शयनासनैः। पइरिक-प्रतिरिक्तया-तथाविधजनापेक्षया विजनयाऽत एव सुखया शुभया वा मनोऽनुकूलया विहारभूम्या-चक्रमणाऽऽसनाविभूम्या । प्रशस्तदोहदाऽनिन्धमनोरथा, सम्पूर्णदोहदा-अभिलाषपूरणात्, समानितदोहदा-प्राप्ताभिलाषितस्य भोगात्, अविमानितदोहदा-नावज्ञातदोहदा क्षणमपि नापूर्णदोहदेयः । अतएव व्यवछिन्नदोहदा-श्रुटिताकाङ्क्षा, दोहव्यवच्छेदस्यैव प्रकर्षमाह-व्यपनीतदोहदा, सुखं सुखेन || ६३
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गर्भानावाधया आश्रयति आश्रयणीयं स्तम्भावि, शेते निद्रया, तिष्ठत्यूलस्थानेन निषीइत्यासने । | स्वग् वर्तयति निद्रां विना शय्यायां विहरति कुहिमे ॥ १५॥
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जे से गिम्हाणं पढमे मासे दुच्चे पक्खे चितसुद्धे तस्स णं चित्तसुद्धस्स तेरसीदिवसेणं नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं विइकताणं उच्चट्ठाणगएसु गहेसु पढमे चंदजोगे सोमासु दिसासु वितिमिरासु विसुद्धासु जइएसु सव्वसउणेसु पयाहिणाणुकूलंसि भूमिसप्पंसि माख्यंसि पवायंसि निष्फनमेइणीयंसि कालंसि पमुइअपकालिएसु जणवएसु पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि हत्थुत्तराहिं नक्खत्तणं जोगमुवागएणं आरोग्गारोग्गं दारयं पयया ॥ ९६ ॥
तेणमित्यादितः.............पयायेत्यन्तम् । तत्र सार्डसप्तदिनाधिका नवमासाः परिपूर्णाः उक्तंच"दुन्हं वरमहिलाणं गम्भे वसिऊण गब्भसुकुमालो। नवमासे पडिपुन्ने, सत्तय दिवसे समइरेगेत्ति नत्वेवं कालमानानं सर्वेषां यतः
दु-चउत्थ-नवम-बारस, तेरस-पन्नरस सेस गब्भठिई । मासा अड नव तदुवरि उसहाउ कमेणिमे दिवसा ॥१॥ चउ-पणवीसं छहिण, अडवीसं छच्च छच्चि-गुणवीसं संग छठवीसं छ च्छ
१३
१५
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१८. ..
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कल्प
६४
२०२१
૬
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७ ७
.
૬ ७
य, वीसिगवीसं छ छवसं ॥२॥ छ-प्पण अड सत्त हय, अट्ठ छ छ सत्त गब्भदिणत्ति ।
स्थापनात्वेवं
जिननाम रूपभ अजित संभव अभिनं- सुमति पनप्रभु सुपा- चंद्रप्रभः सुविधिः शीतलः श्रेयांसः वासु११ पूज्यः १२
- १
२
३. दन ४
६ श्वेप्र० ८
९ १०
९
९ 4-6
८
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२५
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२८
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मासाः
दिनाः.
जिननाम
९
६
मासाः
दिनाः
विमलः | अनन्तः
धर्मः शांतिः
१३
१४.
१५
१६
८
९
८
९
२१
६ २६
६
उच्चस्थानगतेषु ग्रहेषु उच्चस्थानान्येवं—
66
' अर्काद्युच्चान्यज १ वृष २ मृग ३ कन्या ४ कर्क ५ मीन ६ वणिजः ॥
दिग १० दहना ३ ष्टाविंशति २८ तिथी १५ षु ५ नक्षत्र २७ विंशतिभिः २० ॥ १ ॥ उच्चत्वं ग्रहाणामंशकाद्यपेक्षया बोध्यं । प्रथमशब्दः प्रधानार्थः
कुथः
१७
ए
५
अरः
१९
१८
९
८
८
२६
मल्ली मुनिसु नमिः नेमिः पार्श्वः वर्द्धमानः
१९
व्रतः २०
२१
२२
२३ २४
९
९
९
९
७
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६
७
९
८
२०
९
८
प्रदीपिका
६४
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प्रधाने चन्द्रबलेऽर्थान्नृपादीनां यहां तदा रविर्मेषस्थत्वात प्रभोश्च मध्यरात्रे जातत्वाच्च मकरलग्नं । प्रथमायां चान्द्रयां होरायां 'इन्डर्कयोः समे, इत्युक्तेः, अन्यथा वा प्राज्ञैर्भाव्यं । सौम्यासु रजोवृष्टाभावात् वितिमिरासु सर्वत्रोद्योत भाषांत्, ज्योत्स्नया वा, विशुद्धासु उल्कापातदिग्दाहाद्यभा वात् । जयोऽस्त्येषु इति जयिकेषु-राजादीनां जयदायिषु सर्वशकुनेषु, प्रदक्षिणश्चासावनुकूलश्च प्रभोः प्रदक्षिणवाहित्वादनुकूलः, या प्रदक्षिण:- प्रदक्षिणावर्तत्वादनुकूलः - सुरभिशीतत्वात् भूमिसप्पिणिमृदुत्वात्, तादृशे मारुते प्रवातुमारब्धे निष्पन्ना- निष्पन्नसर्वसस्या मेदीनी यत्र तादृशे काले, प्रमुदिताः सुभिक्षस्थ्यादिना प्रक्रीडिता वसन्तोत्सवादिना क्रीडितुमारब्धास्ततो विशेषणकर्मधारयः, जनपदेषु जनपदवास्तव्य लोकेषु सत्सु । अरोगा अनाबाधा माता अरोगं- अनाबाधं दारकं प्रजाता सुषुवे “अचेतना अपि दिशः प्रसेदुर्मुदिता इव, वायवोऽपि सुखस्पर्शा मन्दं मन्दं ववुस्तदा " ॥१॥ उद्योतत्रिजगत्यासीत् दध्वान दिवि दुन्दुभिः । नारका अप्यमोदन्त भूरप्युच्छ्वासमासदत् ।। २ ।। ।। ९६॥ [ इति चतुर्थ व्याख्यानं ] [ अथ पञ्चमं व्याख्यानं 1
जं स्यणिं च णं समणे भगवं महावीरे जाए सा णं रयणा बहूहिं देवेहिं देवीहि य ओवयंतेहिं उप्पयंतेहिं य उप्पिंजलमाणभुया कहकहगभूया आणि हुत्था[क्वचित् उज्जोविआवि हुत्था ]॥९७॥
२५
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___ जं रयणिमित्यादितो............हुत्थेत्यन्तम् । तत्र यस्यां रात्रौ भगवान् जातः सा रजनी बहु- प्रदीपिका भिर्देवैर्देवीभिश्चावपतद्भित्पतद्विरुध्वंगच्छभृिशमाकुलः स इवाचरतीति क्विपि प्राकृतत्वात् । माणादेशे उपिजलमाणेत्ति सिडिः तद्भूता भूतशब्दस्योपमार्थत्वादुपिजलतीव । अव्यक्तवर्णो नादस्त
द्भूता चापिहर्षाहहासादिना कहकहारवमयीव हुत्था-अभवत्। तत्रादौ सूतिकर्मकृते षट्पश्चाशदिकुमार्यो | देव्यो अभ्यायान्ति तास्त्वेवम्
दिक्कुमार्योऽष्टाधोलोक-बासिन्यः कम्पितासनाः । अर्हजन्मावधेत्विाऽभ्येयुस्तत्सतिवेश्मनि ॥ १ ॥ भोगङ्करा १ भोगवती २, सुभोगा ३ भोगमालिनी ४ । सुवत्सा ५ वत्समित्रा च ६,पुष्पमाला ७त्वनन्दिता ८२॥ नत्वा ममुं तदम्बां चे-शाने मूतिगृहं व्यधुः । संवत्तनेनाशोधयत् क्ष्मामायोजनमितो गृहात् ॥३॥ मेघकरा १ मेघवती २, सुमेघा ३ मेघमालिनी ४। तोयधारा ५ विचित्रा ६च, वारिषेणा ७ बलाहिका ८॥४॥ अष्टोद्मलोकादेत्यैता, नत्वाऽर्हन्तं समातृकम् । तत्र गन्धाम्बुपुष्पौषं-वर्ष हर्षाद्वितेनिरे ॥५॥ अथ नन्दो१त्तरानन्दे २, आनन्दा ३ नन्दिवर्द्धना ४ा विजया ५ वैजयन्ती ६च, जयन्ती ७ चापराजिता ८।६। एताः पूर्वरुचकादेत्यालोकार्थ अग्रतो दर्पणं दधुः समाहारा १ सुप्रदत्ता २, सुप्रबुद्धा ३ यशोधरा ४ । लक्ष्मीवती ५ शेषवती ६, चित्रगुप्ता ७ वसुन्धरा ८॥७॥ एता दक्षिगरुचकादेत्य स्नानार्थ करासकृतकलशा गायन्ति । इलादेवी १ सुरादेवी २, पृथिवी ३, पद्मवत्यपि ४। एकनासा ५ नवमिका ६, भद्रा ७ शीते ८ ति नामतः॥८॥
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एताः पश्चिमरुचकादेत्य वातार्थ व्यजनानि दधुः।। अलम्बुसा १ मितकेशी २,पुण्डरीका च ३ वारुणी ४। हासा ५ सर्वप्रभा ६ श्री ७ ही ८-रष्टोदग्ररुचकाद्रितः॥९॥ एताः उत्सररुचकादेत्य चामराणि वीजयन्ति चित्रा १ चित्रकनका २, शतेरा ३ वसुदामिनी ४ तथैताः।दीपहस्ता विदिश्वेत्या-स्युर्विदिगरुचकाद्रितः॥१०॥ रुचकद्वीपतोऽभ्येयु-श्चतस्रो दिक्कुमारिकाः। रूपा १ रूपासिका २ चापि, सुरूपा ३ रूपकावती ४॥११॥ चतरहगुलतो नालं छित्त्वा खातोदरेऽक्षिपत् । समापूर्य च वैड्डूयै-स्तस्योव पीठमादधुः ॥१२॥ बध्ध्वा तदूर्वया जन्म-गेहाद्रम्भागृहत्रयम् । ताः पूर्वस्यां दक्षिणस्या-मुत्तरस्यां व्यधुस्ततः ॥ १३॥ याम्यरम्भागृहे नीत्वाऽभ्यङ्गं तेनुस्तु तास्तयोः । स्नानचीशुकालङ्का-रादि पूर्वगृहे ततः ॥ १४ ॥ उत्तरेऽरणिकाष्ठाभ्या-मुत्पाद्याग्निं सुचन्दनैः । होमं कृत्वा बबन्धुस्ता, रक्षापोट्टलिका द्वयोः ॥१५॥ पर्वतायुर्भवेत्युक्त्वा, स्फालयअश्मगोलकौ । जन्मस्थाने च तौ नीत्वा, स्वस्वदिक्षु स्थिता जगुः॥१६॥ एताश्च । प्रत्येकं च सामानिकी चत्वारिंशच्छतान्विताः। महत्तराभिः प्रत्येक, तथा चतसभिर्यताः ॥१७॥
अगरौः षोडशभिः सहस्त्रैः सप्तभिस्तथा। अनीकैस्तदधीशैश्च सुरैश्वान्यैर्महर्दिभिः ॥१८॥ आभियोगिकदेवकृतेर्योजनप्रमाणविमानैरत्रायान्ति ।
॥ इति दिग् कुमारिकामहोत्सवः॥ ततः सिंहासन शाक्रं, चचालाचलनिश्चलम् । प्रयुज्याथावधि ज्ञात्वा, जन्मान्तिमजिनेशितुः ॥१॥
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कल्प
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वयैकयोजनां घण्टां सुघोषां निगमैषिणा । अवादयततो घण्टा - रेणुः सर्वविमानगाः ॥ २ ॥ शक्रादेशं ततः सोच्चैः सुरेभ्यो ज्ञापयत्स्वयम् । तेन प्रमुदिता देवाञ्चलनोपक्रमं व्यधुः ॥ ३ ॥ पालकाख्यामरकृतं लक्षयोजनसम्मितम् विमानं पालकं नामा-ध्यारोहत्रिदशेश्वरः ॥ ४ ॥ पुरतोऽग्रमहिष्योऽष्टौ वामे सामानिकाः (८४०००) सुराः । दक्षिणे त्रिसभा (४२०००) देवाः सप्तानिकानि पृष्ठतः ॥५॥ अन्यैरपि धनैर्देवै - वृतः सिंहासनस्थितः । गीयमानगुणोऽचाली-दपरेऽप्यमरास्ततः ॥ ६ ॥ देवेन्द्रशासनात्केचित्केचिन्मित्रानुवर्त्तनात् । पत्नीभिः प्रेरिताः केचित् केचिदात्मीयभावतः ॥ ७ ॥ केsपि कौतुकः केऽपि, विस्मयात्केऽपि भक्तितः । चेलुरेवं सुराः सर्वे, विविधैर्वाहनैर्युताः ॥ ८ ॥ विविधैस्तू निघोषैर्घण्टानां कणितैरपि । कोलाहलेन देवानां शब्दाद्वैतं तदाऽजनि ॥। ९ ॥ सिंहस्थो वक्ति हस्तिस्थं, दूरे स्वीयं गजं कुरु । हनिष्यत्यन्यथा नूनं, दूर्द्धरो मम केसरी ॥ १० ॥ वाजिस्थं कासरारूढो, गरुडस्यो भुजङ्गगम् । छागस्थं चित्रकस्थोऽथ, वदन्त्येवं तदादरात् ॥ ११ ॥ सुराणां कोटिकोटीभि र्विमानैर्वाहनैर्घनैः । विस्तीर्णेोऽपि नभोमार्गोऽतिसङ्कीर्णस्तदाभवत् ॥ १२ ॥ मित्रं केऽपि परित्यज्य, दक्षत्वेनाग्रतो ययुः । प्रतीक्षस्व क्षणं भ्रात-ममित्रेत्यपरेऽवदन् ॥ १३ ॥ केचिद्वदन्ति भो देवाः ! सङ्कीर्णाः पर्ववासराः । भवन्त्येवंविधा नूनं, तस्मान्मानं विधत्त भोः ॥ १४ ॥ नभस्यागच्छतां तेषां शीर्षे चन्द्रकरैः स्थितैः । शोभन्ते निर्जरास्तत्र, सजरा इव निर्भरं ॥ १५ ॥ मस्तके घटिकाकाराः, कण्ठे ग्रैवेयकोपमाः । स्वेदविन्दुसमा देहे, सुराणां तारका बभ्रुः ॥ १६ ॥
प्रदीपिका
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नन्दीश्वरे विमानानि, सक्षिप्यागात्सुराधिपः। जिनेन्द्रं च जिनाम्नां च त्रिः पादक्षिगयत्ततः ॥१७॥ वन्दित्वा नमस्यित्वा चे-त्येवं देवेश्वरोऽवदत् । नमोऽस्तु ते रत्नकुति-धारिके ! विश्वदीपिके ! ॥१८॥ अहं शक्रोऽस्मि देवेन्द्रः, कल्पादाद्यादिहागमम् । प्रभोरन्तिमदेवस्य, करिष्ये जननोत्सवम् ॥ १९ ॥ भेतव्यं देवि ! तन्नैवे-त्युक्त्वाऽवस्वापिनीं ददौ । कृत्वा जिनप्रतिविम्बं, जिनाम्बासन्निधौ न्यधात ॥२०॥ भगवन्तं तीर्थकर, गृहीत्वा करसम्पुटे । विचक्रे पञ्चधा रूपं, सर्वश्रेयोऽर्थिकः स्वयम् ॥ २१ ॥ एको गृहीततीर्थेशः, पार्थे द्वौ चात्तचामरौ । एको गृहीतातपत्रः एको वज्रधरः पुनः ॥ २२ ॥ अग्रगः पृष्ठगं स्तौति पृष्ठस्थोऽप्यग्रगं पुनः । नेत्रे पश्चात्समीहन्ते, केचनातनाः सुराः ॥२३॥ शक्रः सुमेरुश्रृगस्थं, गत्वाऽथो पाण्डुकं वनम् । मेरुचूलादक्षिणेना-तिपाण्डुकम्बलासने ॥२४॥ कृत्वोत्सङ्गे जिनं पूर्वा-भिमुखोऽसौ निषीदति । समस्ता अपि देवेन्द्राः, स्वामिपादान्तमैयरुः ॥२५॥ दश वैमानिकाः विंशतिर्भवनपतयः, द्वात्रिंशद्व्यन्तराः, द्वौ ज्योतिष्को, इति चतुःषष्टिरिन्द्राणाम् । सौवर्णा राजता रात्नाः, स्वर्णरूप्यमया अपि । स्वर्णरत्नमयाश्चापि, रूप्यरत्नमया अपि ॥२६॥ स्वर्णरूप्यरत्नमया, अपि मृत्स्नामया अपि । कुम्भाः प्रत्येकमष्टाढ्य, सहस्रं योजनाननाः ॥२७॥ पणवीसजोअणुत्तुंगो, बारस जोअणाई वित्यारो। जोअणमेगं नालुअ, एगकोडी अ सद्विलक्खाई ॥२८॥ एव भृङ्गारदर्पणरत्नकरण्डकपुष्पचङ्गेरिकादिपुजोपकरणानि प्रत्येकमष्टधा अष्टोत्तरसहस्रमानानि च कुम्भवत्.तथा-मागधादीनां मृदं,गङ्गादीनां जलं,पद्महृदादीनां जलं पद्मानि च,शुलहिमववर्षधरवैतात्य
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प्रदीपिका
भद्रशालनन्दनवनादीनां सिद्धार्थपुष्पतुम्बरगन्धान सावौषधीधाभियोगिकसुरैरच्युतेन्द्रःआनाययत् ।
"क्षीरनीरभृतैर्वक्षः-स्थलस्थैत्रिदशा बधुः । संसारौघं तरोतुं किम् , धृतकुम्भा इव स्फुटम् ॥ २९ ॥ संशयं त्रिदशेशस्य, मत्वा बीरोऽमराचलम् । वामाङ्गुष्ठाङ्गसम्पर्कात् , समन्तादप्यचीचलत् ॥ ३० ॥ कम्पमाने गिरौ तत्र, चकम्पेऽथ वसुन्धरा । श्रृङ्गाणि सर्वतः पेतु-श्रुक्षुभुः सागरा अपि ॥ ३१ ॥ ब्रह्माण्डस्फोटसदृशे, शब्दाद्वैते च विष्टपे । रुष्टः शक्रोऽवधेत्विा , क्षमयामास तीर्थपम् ॥ ३२ ॥ सङ्ख्यातीताईतां मध्ये, स्पृष्टः केनापि नाघ्रिणा । मेरुः कम्पमिषादित्या-नन्दादिव ननौं सः ॥ ३३॥ अच्युतेन्द्रस्तत्र पूर्व विदधात्यभिषेचनम् । ततोऽनुपरिपाटीतो, यावचन्द्रार्यमादयः ॥ ३४ ॥ चतुर्वृषभरूपाणि, शक्रः कृत्वा ततः स्वयम् । श्रृङ्गाष्टकक्षरत्क्षीरे-रकरोदभिषेचनम् ॥ ३५ ॥ समालपदीपं ते, विधायाऽऽरात्रिकं पुनः । सनृत्यगीतवाद्यादि, व्यधुर्विविधमुत्सवम् ॥ ३६ ॥ तथा-"उन्मृज्य गन्धकाषाय्या, दिव्यया हरिविभोः। विलिप्य चन्दनाघेश्व, पुष्पायेस्तमपूजयत् ॥ ३७॥ दर्पणो १ वर्द्धमानश्च २, कलशो ३ मीनयोयुगम् ४।श्रीवत्स ५स्वस्तिके ६ नन्या--वर्त ७ भद्रासने इति॥३८॥
शक्रः स्वामिपुरो रत्न-पट्टके रूप्यतण्डुलैः । आलिख्य मङ्गलान्यष्टा-विति स्तोतुं मचक्रमे ॥ ३९॥" इति श्लोकत्रयी त्रिषष्टीयचरित्रे
शक्रोऽथ जिनमानीय, चिमुच्याम्बान्तिके ततः। सञ्जहार प्रतिबिम्बा-वस्वापिन्यो स्वशक्तितः ॥४०॥
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कुण्डले क्षोमयुग्मं चो-च्छीर्षे मुक्त्वा हरिर्व्यधात् । श्रीदामरत्नदामाढ्य - मुल्लोचे स्वर्णकन्दुकम् ॥ ४१ ॥ द्वात्रिंशद्रत्नरैरूप्य - कोटिष्टि विरच्य सः । वाढमाघोषयामासे - ति सुरैराभियोगिकैः ॥ ४२ ॥ स्वामिनः स्वामिमातुञ्च, करिष्यत्यशुभं मनः । सप्तधाऽऽर्यमञ्जरीव, शिरस्तस्य स्फुटिष्यति ॥ ४३ ॥ स्वाम्यङ्गुष्ठेऽमृतं न्यस्य, स्वामिजन्मोत्सवं सुराः । नन्दीश्वरेऽष्टाहिकां च कृत्वा जग्मुर्यथाक्रमम् ॥ ४४ ॥ इति श्रीवीर जन्मोत्सवे देवदेवीकृते सति यज्जातं तदाह- ॥९७॥
जं स्यणि चणं समणे भगवं महावीरे जाए तं स्यणिं च णं बहवे वेसमणकुंडधारीतिरि
जंभगा देवा सिद्धत्थरायभवणंसि हिरण्णवासं च, सुवण्णवासं च, वयरवासं च, वत्थवासं च, आभरणवासं च, पत्तवासं च, पुप्फवासं च, फलवासं च, बीयवासं च, मल्लवासं च, गंधवासं च, चुन्नवासं च, वण्णवासं च, वसुहावासं च वासिं ॥ ९८ ॥
जं स्यणिमित्यादितो.. .. वासिंसुति यावत् । तत्र हिरण्यं रूप्यं, वर्षमल्पवृष्टिः, वृष्टिस्तु महती । माल्यं - प्रथितपुष्पाणि, गन्धाः - कोष्ठपुटपाकाः । चूर्णो - गन्धद्रव्यसम्बन्धी, वर्णश्चन्दनं वसूनां रत्नानां धाराः - श्रेण्यस्तासां वर्ष वर्षन्ति शेषं स्पष्टम् ।
अत्रान्तरे प्रियभाषिता चेटी नृपं वर्द्धापयति यथा - "पिअट्टयाए पिअं निवेएमो पिअं मे भवउ ।
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प्रदीपिका
मउडवलं जहामालिअं ओमयं मत्थए धोअइ” इति क्वचित्पाठः तद्व्याख्या-पिभट्टयाए-प्रीत्यर्थ प्रिय- | मिष्टं वस्तु पुत्रजन्मरुपं निवेदयामः । एतश्च प्रियनिवेदनं प्रियं च भवतां भवतु । तस्या दान-मउडवलं मुकुटवर्ज मुकुटस्य राजचिहत्वात् तस्य स्त्रीणामनहत्वात् । जहामालिअं-यथाधारितं ओमयंति-अवमुच्यते, परिधीयते यः सोऽवमोचकः आभरणं तं मत्थए अङ्गप्रतिचारकाणां मस्तकानि क्षालयन्ति । | दासत्वापनोदाय स्वामिना धौतमस्तकस्य हि दासत्वं उपयातीति लोकरूढिः ॥ ९८ | तएणं से सिद्धत्थे खत्तिए भवणवइवाणमंतरजोइसवमाणिएहिं देवेहिं तित्थयरजम्मणाभि
सेयमहिमाए कयाए समाणीए पन्चूसकालसमयंसि नगरंगुत्तिए सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी ॥ ९९॥
तएणमित्यादतो"वयासीत्यन्तम्। तत्र नगरगुत्तिए त्ति-पुरारक्षकान् ॥ ९९ ॥ खिप्पामेव भो देवणुप्पिया ! कुंडग्गामे नगरे चारगसोहणं करेह, करित्ता माणुम्माणवद्धणं करेह, करित्ता कुंडपुरं नगरं सब्भितर बाहिरियं आसिअसंमज्जिवलित्तं सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु सित्तसुइसम्मट्ठरत्यंतरावणवीहियं, मंचाइमंचकलियं, नाणाविहरागभूसियज्झयपडागमंडियं, लाउल्लोइयमहियं,गोसीस-सरस-रत्तचंदण-दहर-दिन्नपंचंगुलितलं,
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उवचियचंदणकलसं, वन्दणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं, आसत्तोसत्तविपुलवट्टवग्धारियमल्लदामकलावं,पंचवन्नसरससुरहिमुक्कपुष्फपुंजावयारकलियं, कालागुरु-पवरकुंदुरुक्क तुरुक्क-डझंतधृव-मघमघंतगंधुदुयाभिरामं सुगन्धवरंगंधियं गंधवट्टिभूयं नड-नट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-चेलंबग-कहग-पठग-लासग-आरक्खग-लख-मंख-तूणइल्ल-तुंबवीणिय-अणेगतालायराणुचरियं करेह, कारखेह, करित्ता कारवित्ता अ जूयसहस्सं मुसलसहस्सं च उस्सवेह, उस्सवित्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह ॥ १०॥
खिप्पामेवेत्यादितः ........... 'पञ्चप्पिणहेत्यन्तम् । तत्र चारकशोधन-बन्दिमोचनं, मान-रसधान्यविषयं, उन्मानं-तुलारूपं तयोर्वर्डनं । सहाभ्यन्तरेण मध्यभागेन बाहिरिका बहिर्भागो यन्त्र तत्तथा क्रियाविशेषणं चेदं। आसिक्तं-गन्धोदकसेचनात,सम्मार्जितं-कचवरशोधनात्, उवलिप्त-गोमयादिना, शृङ्गाटकाद्याः प्राग्वत् पन्थाः-सामान्यमार्गः, सिक्तानि-जलेनातएव शुचीनि-पवित्राणि, संमृष्टानि-कचवरापनयनेन समीकृतानि वा, रथ्यान्तराणि-रथ्यामध्यानि, आपणवीथयश्च हमार्गा || यत्र । मञ्चा-मालकाः प्रेक्षणकद्रष्टजनोपवेशनार्थमतिमश्चास्तेषामुपरि ये तैः कलितम् । नानाविधरागैःकुमुम्भादिभिर्विभूषिता ये ध्वजाः-सिंहगरुडादिरुपोपलक्षिता बृहत्पटरुपाः, पताकास्तदन्यास्ताभिर्म
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कालपा
ण्डितं । लाइअं-छगणादिना भूमौ लेपन, उल्लोइअं-सेटिकादिना कुटयादौ धवलनं ताभ्यां महितमिव- |
प्रदीपिका पूजितमिव ते एव वा महितं-पूजनं यत्र । गोशीर्षस्य-चन्दनविशेषस्य,सरसस्य-प्रत्यग्रस्य,रक्तचन्दनस्य- IN चन्दनविशेषस्यैव दर्दरस्य (दुर्दुरस्य) दर्दराभिधाद्रिजातश्रीखण्डस्य दत्ता-न्यस्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला हस्तका यत्राउपचिता-उपनिहिता गृहान्तः कृतचतुष्केषु चन्दनकलशा-माङ्गल्यघटा यत्राचन्दनघटा वन्दनघटाःसुकृताः तोरणानि च प्रतिद्वारं द्वारस्य द्वारस्य देशभागेषु यत्र । यदा उपचिता-निवेशिता चन्दनघटाश्च सुकततोरणानि च द्वारदेशभागं द्वारदेशभागं प्रति यत्र । देशभागश्च देश एव-आसक्तो भूमिलग्नः, उत्सक्तश्चोपरिलग्नः, विपुलो-विस्तीर्णो, वृत्तो-वर्तुलः वग्यारिअत्ति-प्रलम्वितः पुष्पगृहाकारो माल्यदाम्नां-पुष्पमालानां कलापः समूहो यत्र । पञ्चवर्णाः सरसः सुरभयो येषु मुक्ताः-करप्रेरिताः पुष्पपुत्रास्तैर्य-उपचारः पूजा भूमेस्तेन कलितं । कालेन्यादि प्राग्वत् । नटा-नाटककारः, नर्तका ये स्वयं नृत्यन्ति, जल्ला-वरत्राः खेलकाः, मल्ला-भुजयुद्धकारिणः, मुष्टिका-मल्ला एव ये मुष्ठिभिः प्रहरन्ति, विडम्बका-विदूषका वेलम्बका वाये मुखविकारमुत्प्लुत्योत्प्लुत्य नृत्यन्ति, कथका:-सरसकथावक्तारः, पठकाः-सुक्तादीनां, पवग इति पाठे तु प्लवका-ये जम्मादिना गर्तादिकं उत्प्लवन्ते नद्यादिकं तरन्तिवा, लासका-ये रासान् ददति, आरक्षकास्तलवराः, आइक्खग त्ति पाठे तु आख्यायकाः-शुभाशुभयोः कथकाः, लडा वंशानखेलकाः, (ससा) मलाः-चित्रफलकहस्ताः, भिक्षाका-गौरीपुत्रकाः
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प्रसिद्धाः, तृणइल्ला-तूणीरधराः, तूणाख्यवाद्यवन्तो वा, तुम्बवीणिका-वीणावादिनः, अनेके ये तालचराः-तालादानेन प्रेक्षाकारिणः, तालान् कुट्टयन्तो वा कथां कथयन्ति तैरनुचरितं सेवितं यत्तत्तथा । शेषं सुगमं ॥१०॥ तएणं कोडबियपुरिसा सिद्धत्थेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव हयहियया करयल जाव पडिसुणित्ता खिप्पामेव कुंडपुरे नगरे चारगसोहणं जाव उस्सवित्ता जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल जाव कट्ट सिद्धत्थस्स खत्तियस्स रण्णो एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति ॥१०१॥ .
तएणमित्यादितः.........पञ्चप्पिणन्तीत्यन्तम् सुगम ॥ १०१ ॥ तएणं से सिद्धत्थे राया जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव सव्वारोहेणं, सव्वपुप्फ-गन्ध-वत्थ-मल्ला-लंकारविभूसाए, सव्वतुडियसबनिनाएणं, महया इड्डीए, महया जुइए, महया बलेणं, महया वाहणेणं, महया समुदएणं, महया वस्तुडिय-जमग-समग-प्पवाइएणं, संख-पणव-पडह भेरि-झल्लरि-खरमुहि हुडुक्क-मुरज-मुइंग-दुंदुहि-निग्योस-नाइयरवेणं-उस्सुकं,उक्कर, उकिट्ठ, अदिज्जं,अमिज्जं,अभडप्पवसं,अदंडिमकुदण्डिमं, अधरिमं,गणियावर-नाडइज्ज-कलियं
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प्रदीपिका
अणेगतालायराणुचरियं, अणु यमुइंगं,५०० अमिलायमल्लदामं, पमुइयपक्कीलियसपुरजणजा- णवयं, दसदिवसं ठिइवडियं करेंति ॥ १०२ ॥
तएणं से इत्यादित......करेंतीत्यन्तम् । तत्र जाव सव्वारोहेणं इत्यादि,सन्तिपुरे यावत्करणात्सव्विदीए सव्वजइए इत्यादि दीक्षायां वक्ष्यमाणं सूत्रं सब्योरोहेणमित्यन्तमत्र ग्राह्यं । सर्वपुष्पगन्धवस्त्रमाल्यालङ्कारादिरूपा विभूषा तया त्रुटितानां वादित्राणां यः शब्दो निनादश्च-प्रतिरवः, महत्या ऋद्धया युक्त इति गम्यं । युक्त्या-इष्टवस्तुघटनया, युत्या वा मेलेन, द्युत्या वाऽऽभरणादीनां, बलेन-सैन्येन, वाहनेन-शिबिकादिना, समुदयेन-सङ्गताभ्युदयेन परिवारादिसमुदायेन वा, तूर्याणां यमकसमकं-युगपत् प्रवादितं ध्वनितं तेन, शङ्क:-कम्बुः पणवो-मृत्पटहः, भेरी-दुक्का, झल्लरीचतुरङ्गलनालिर्वलयाकारा उभयतो नद्धेत्यन्ये, खरमुखी-काहला, हुडुक्का-तिवलितुल्या, मुरजो-मईल: मृदङ्गो-मृन्मयः, दुन्दुभिः-देववाद्य एषां निर्घोषो महाध्वनिः नादितं च प्रतिशब्दस्तपो यो रवस्तेन ।। उच्छुल्का-उन्मुक्तशुल्का स्थितिपतितां करोतीति सम्बन्धः । शुल्क-मण्डपिकायां राजदेयं द्रव्यं. उत्करां-मुक्तगवादिकरां, उन्मुक्तं कृष्टं-कर्षणं यस्यां लभ्येऽप्याकर्षणाभावात् उत्कृष्टां प्रधानां वा, अदेयां-विक्रयनिषेधेन न केनापि कस्यापि देयं, अमेयां-क्रयविक्रयनिषेधात्, न भटानां राजाज्ञादायिनां भपुत्रादीनां प्रवेशः कुटुम्बिकगृहेषु यस्यां, दण्डो-अपराधानुसारेण राजग्राहं द्रव्यं, कुदण्डो
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महत्यपराधेऽल्पं राजग्राह्यं द्रव्यं, दण्डेन निवृत्तं दण्डिमं, कुदण्डेन निवृत्तं कुदण्डिम इषद्दण्ड इत्यर्थः || तन्नास्ति यस्यां । न धरिमंऋणं यस्यां ऋणमुत्कलनात्, गणिकावरैः-विलासिनीप्रधानैः, नाटकीयैःनाटकप्रतिवद्धपात्रः कलितां, अगणिअत्ति पाठे तु-अगणितैः-प्रतिस्थानं भावादसंख्यैर्वरैः-नाटकीयैः कलितां । अनेकतालाचरानुचरितां-प्रेक्षाकारिविशेषसेवितां । अनुध्धुता-आनुरूप्येण वादनार्थमुत्क्षिप्ता-अनुडुता वा वादनार्थमेव वादकैरत्यक्ता मृदङ्गा यस्यां । अम्लानानि-माल्यदामानि पुष्पमाला यस्यां । प्रमुदितो-हृष्टः प्रकीडितश्च-क्रीडितुमारब्धः सह पुरजनेन जानपदो-जनपदवासिलोको यस्यां । दशदिवसान यावस्थितो कुलमर्यादायां पतिता-आगता या पुत्रजन्मोत्सवसम्बन्धिनी व‘पनिका प्रक्रिया ताम् ॥ १०२ ॥ तएणं सिद्धत्थे राया दसाहियाए हिइवडियाए वट्टमाणीए, सइए असाहस्सिए अ, सयसाहस्सिए य, जाए य, दाए अ, भाए अ, दलमाणे अ, दवावमाणे अ, सइए अ, साहस्सिए अ, सयसाहस्सिए अ, लंभे पडिच्छमाणे अ पडिच्छावेमाणे अ एवं वा विहरइ ॥ १० ॥
तएणमित्यादितो..........विहरईत्यन्तम् । तत्र दशाहिकायां-दशदिवसमानायां, शतिकान्-शतप्रमाणान् एवमग्रेऽपि, यागान्-देवपूजा, अत्र देवशब्देन जिनप्रतिमा ज्ञेया, यतः प्रभुमातापित्रोः-श्रीपार्श्वनाथापत्यत्वेन श्रमणोपासकत्वादान्याभिधेयत्वासम्भवः, । दायान्-पर्वदिनादौ दानानि, भागान-लब्ध
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प्रदीपिका
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| द्रव्यविभागान्, ददन, दापयन्, लाभान् प्रतीच्छन्-गृहन् , प्रतिग्राहयन् विहरत्यास्ते ॥ १०३॥ तएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे टिइवडियं करेन्ति, तइए दिवसे चन्दसूरदंसणियं करेंति, छठे दिवसे धम्मजागरियं जागरेन्ति, एक्कारसमे दिवसे विइकंते, निव्वत्तिए असुइजम्मकम्मकरणे, संपत्ते बारसाहदिवसे, विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेन्ति, उवक्खडावित्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणं नायए खत्तिए अ आमंतेति,आमन्तित्ता तओपच्छा ण्हाया कयबकलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगलाइं, पवराई वत्थाई परिहिया अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा भोयणवेलाए भोयणमण्डवंसि सुहासणवरगया तेणं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणेणं नायएहिं खत्तियहिं सद्धिं तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभुजेमाणा परिभाएमाणा एवं वा विहरन्ति ॥ १०४ ॥
तएणमित्यादितो..........विहरतीत्यन्तम् । तत्र मातापितरौ स्थितिपतितं कुलकमान्तर्भूतं पुत्रजन्मोचितमनुष्टानं कारयतः स्म । चन्द्रसूर्यदर्शनिकां-चन्द्रसूर्यदर्शनाख्यमुत्सवविशेषं कुरुतः, तथाहि
"जन्माहादिनद्वयेऽतिक्रान्ते गृहस्थगुरुः जिनप्रतिमाग्रे स्फटिकमयी रुप्यमयीं वा चन्द्रमूर्ति प्रति
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स्थापयेत् । तत्पुरतः सपुत्रां मातरं चन्द्रोदये चन्द्रसन्मुखं 'नीत्वा "ओ अहं चन्द्रोऽसि' [निशाकरोऽसि नक्षत्रपतिरसि ] सुधाकरोऽसि [ औषधीगर्भोऽसि ] अस्य कुलस्य ऋद्धिं वृद्धिं कुरु कुरु' इत्यादि चन्द्रमन्त्रमुच्चरन् तयोश्चन्द्र दर्शयेत् । सपुत्रा माता गुरुं नमति गुरुवाशीर्वाद दत्ते । अथ तस्मिन्नेव दिने प्रातः स्वर्णमयीं ताम्रमयी वा सूर्यमूर्ति पूर्वविधिना संस्थाप्य "ओ अर्ह सूर्योऽसि दिनकरोऽसि' इत्यादिमन्त्रमुच्चरन्ति"शेषविधिः प्राग्वत् । सम्पति तत्र शिशोदर्पणो दयते । धर्मेण-कुलधर्मेण लोकधर्मण वा षष्टया रात्री जागरणं धर्मजागरिका ताम्।निवत्तितेऽतिक्रान्ते अशुचीनां-अशोचवतां जन्मकर्मणां-नालच्छेदादीनां यत्करणं । यस्मिन् सम्पाप्ते द्वादशख्ये दिवसे यहा द्वारशानामहानां समाहारो द्वादशाहं तस्य दिवसो येन द्वादशाहः पूर्यते, उपस्कारयत:-पितरौ रसवती निष्पादयतः। मित्राणिसुहृदः, ज्ञातयः-सजातीया,मातापितृभ्रात्रादयः, निजका-पुत्रादयः, स्वजनाः-पितृव्यादयः,सम्बन्धिनःसुतसुतादीनां श्वसुरादयः, परिजनो-दासदासादिः, ज्ञातक्षत्रियाः-ऋषभस्वामिसजातीयाः । आ-इषत् | स्वादयन्तौ बहुत्यजन्ताविक्षुखण्डादेरिव, विशेषेण स्वादयन्तौ अल्पं त्यजन्तौ खर्जूरादेरिव, परिसामस्त्येन भुञ्जानौ-अल्पमप्यत्यजन्तौ भोज्यम्, परिभाजयन्तौ अन्येभ्यो यच्छन्तौ स्वायविशेषं मातापितराविति प्रक्रमः ॥ १०४॥ जिमिय भुत्तुत्तरागया वि अणं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभुया तं मित्त-नाइ-नियग-सयण संबंधि-परिजणं नायए खत्तिए य विउलेणं पुष्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारणं सक्कारेन्ति सम्माणेन्ति |
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प्रदीपिका
सकारिता सम्माणित्ता तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-सयण-सबंन्धि-परिजणस्स नायाण य खत्तियाण य पुरओ एवं वयासी ॥ १०५॥
जिमिअ भुत्युत्तरेत्यादित.........वयासीत्यन्तम् । तत्र जिमिती-भुक्तो, भुक्तोत्तरं भोजनोत्तर| कालं आगताधुपवेशनस्थाने इति गम्यं । सम्माणित्तेति-आचान्तौ शुद्धोदकेन कृतशौचौ, चोक्षौ-लेपसिताचपनयनेन अत एव परमशुचिभूतौ । एवमवादिष्टं शेषं प्राग्वत् ॥ १०५॥ पुबि पि णं देवाणुप्पिया अम्हं एयंसि दारगंसि गम्भं वकंतंसि समाणंसि इमे एयारूवे अब्मथिए जाव समुप्पज्जित्था-जप्पभिई च णं अम्हं एस दारए कुच्छिसि गम्भत्ताए वकते तप्पभिई च णं अम्हे हिरण्णणं वट्ठमो, सुवण्णणं धणेणं धन्नेणं रज्जेणं जाव सावइज्जेणं पीइसक्कोरणं अईव अईव अभिवट्ठामो सामन्तरायाणो वसमागया य ॥ १०६ ॥ तं जया णं अम्हं एस दारए जाए भविस्सइ तया णं अम्हे एयस्स दारगस्स इमं एयाणुरूवं
गुण्णं गुणनिष्फन्नं नामधिज्जं करिस्सामो वद्धमाणु त्ति।ता अज्ज अम्हं मणोरहसंपत्ती जाया, | तं होउ णं अम्हे कुमारे वद्धमाणे नामेणं ॥ १०७॥
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पुस्विमित्यादितो...'नामेणमित्यन्तम् । सूत्रव्यं स्पष्टम् ॥ १०६,१०७ ॥ समणे भगवं महावीरे कासवगुत्तेणं तस्स णं तओ नामधिज्जा एवमाहिज्जति, तं जहाअम्मापिउसंतिए वद्धमाणे १ सहसमुइयाए समणे २ अयले भयभेरवाणं परीसहोवसग्गाणं खतिखमे पडिमाणं पालए धीमं अरतिरतिसहे दविए वीरियसंपन्ने देवेहिं से णामं कयं समणे भगवं महावीरे ॥ १०८ ॥ ___समणेत्यादितो...."महावीरे इत्यन्तम् । तत्र एवमाख्यायन्ते धीयन्ते वा । सह त्ति सहभाविनी समुदिता रागद्वेषाभावस्तया श्राम्यतीति श्रमणस्तपोनिधिः, 'श्रमूच् खेदतपसोः' इत्युक्तेः । भयं अकस्मात् भैरवं-सिंहादिभयं तयोर्विषयेऽचलो-निष्पकम्पस्तदगोचरत्वात्, परिषहोपसर्गाणां क्षुत्पिपासादि-दिव्यादिभेदात् बाविंशति २२ षोडश १६ विधानानां क्षान्त्या--क्षमया क्षमते न त्वसमर्थ| तया यः स क्षान्तिक्षमः । प्रतिमानां-भद्रादीनां एकरात्रिक्यादीनां वा पालकः, पारगो वा, धीमान्ज्ञानचतुष्टयवान् । अरतिरत्योः सहा-समर्थस्तन्निग्रहात्, द्रव्यं-तसद्गुणभाजनं द्रव्यं भव्यमिति व्याकरणोक्ते रागद्वेषरहितः इति वृद्धाः। वीर्यसंपन्नः-स्वस्य सिद्धिगमने निश्चितेऽपि तपश्चरणादौ
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प्रवर्तनात्, अतो महावीर इति नाम देवैः कृतं तश्चैवं-“अथ प्रभुवईमानः किश्चिदुनाष्टवार्षिकः कुमारैः | प्रदीपिका सह पुराढहिरामलकीक्रीडां चक्रे। तदा शक्रः सुरसहसीति[सुरसभायां]स्तौति स्म, यदयं बाल्ये सुरैरपि । भापयितुमशक्यः । ततः कोऽप्यश्रद्धानः सुरः सर्पोभूय क्रीडाक्षमवेष्टयत् । तदा तदर्शन भीतेष्वान्येषु कुमारेषु नष्टेषु प्रभुस्तं रज्जुमिवोत्क्षिप्य दूरे चिक्षेप । कुमाराः पुनरप्यागुः क्रीडितुम्, सोऽपि सुरो | डिम्भीभूय जिनेन सह चिक्रीडास च प्रभुणा जितः, तत्र चायं पण:-'यो जयेत् स पराजितपृष्ठमारोहति
तेन तत्पृष्ठे भगवान् आरुरोह । ततः स सुरः ससतालमानं यावत् वद्धितः, ततो जिनेन मुष्टया मुर्ध्नि हतः Ka सन् सङ्कुचितः । ततो देवेन्द्रवर्णितं जिनधैर्य सत्यं ज्ञात्वा स सुरः प्रभुं क्षामयित्वा च स्वर्ग प्राप । ततः | तुष्टः शक्रः प्रभोः 'वीर' इति नाम कृतवान् " ॥ इति आमलकीक्रीडा॥ अहतं अम्मापियरो, जाणित्ता अहिअअटुवासंतु। कयकोउअअलंकारं लेहाअरिअस्स उवणिति ॥१॥
तथाहि-"किञ्चिदधिकाष्टवर्षस्य प्रभोर्लेखशालाकरणदिने भोजनवस्त्रालङ्कारायैः स्वजनान् पितरौ || सत्कुरुतः। तथा विद्वयोग्यं वस्त्रालङ्कारनालिकेरादि, तथा लेखशालिकानां दानार्थ पुगीफल-शृङ्गाटकखर्जुर-चारुषीज-द्राक्षादि-सुखासिकावृन्दं तथा सौवर्णरत्नरौप्यादिमषीपात्रलेखनिकापट्टिकादिवस्तूनि, वाग्देवीप्रतिमां च सज्जीकुरुतः। ततः तीर्थोदकैः कुलवृद्धाः स्वजनाः प्रभु स्नपयन्ति। दिव्यवस्त्राभरणाचैरलंकुर्वन्ति, गजे समारोपयन्ति च प्रभोः शीर्षे छत्राणि धरन्ति, श्वेतचामराणि वीजयन्ति । वाद्य- ७३
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मानेषु निस्वानादिवाद्येषु, गायत्सु गायनेषु, नृत्यत्सु पात्रेसु, दानानि ददन् प्रभुः पण्डितगृहद्वारं प्राप । तदा विद्वत्परिवारोऽप्यासनादि सज्जीचक्रे । पण्डितस्तु नृपपुत्रः पाठनीयोऽस्तीति सविशेषं वस्त्राभरणादि परिधानोऽस्ति । अत्रान्तरे
“वातान्दोलितकेतुवत् जलनिधौ, सङ्क्रान्तशीतांशुवत्, प्रोद्दामद्विपकर्णवन्मृगीदृशः, स्वाभाविकस्वान्तवत् ।
मूषोत्तापितहेमवत् ध्रुवमपि, प्रौढप्रभावात् प्रभोराकम्पेन चलाचलं समभवद्देवेन्द्रसिंहासनं ॥१॥ शक्रोऽपि प्रभुसम्बन्धं वीक्ष्य सर्वसुरसमक्षं प्रोवाच
सावन्दनमालिका समधुरीकारःसुधायाः स च ब्राह्म्याः पाठविधिः स शुभ्रिमगुणारोपः सुधादीधितौ। | कल्याणे कनकच्छटाप्रकटनं पावित्र्य सम्पत्तये, शास्त्राध्यापनमर्हतोऽपियदिदं सल्लेखशालाकृतौ ॥२॥ मातुः पुरो मातुलवर्णनं तत्, लङ्कानगर्या लहरीयकं तत् । तत्प्राभृतं लावणमम्बुराशेः, प्रभोः पुरो यद्वचसां विलासः ॥३॥
अथ विप्रीभूयेन्द्रः, सम्प्राप्तस्तत्र चिन्तयामास । गाम्भीर्यमहो बाले, यदयं ज्ञाताऽपि न बुते ॥ ४ ॥
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यद्वा-गर्जति शरदि न वर्षति,वर्षति वर्षासु निस्वनो मेघः।
प्रदीपिका नीचो वदति न कुरुते,नवदति साधु करोत्येव ॥५॥ | असारस्य पदार्थस्य, प्रायेणाडम्बरो महान् । नहि स्वर्णे ध्वनिस्तादृग् यादृक् कांस्ये प्रजायते॥६॥ || ___ अथ वीरं विप्रासने निवेश्य विबन्मन: सन्देहान् हरिः प्रपच्छ, तदनु वीरस्तत्सन्देहान् वभञ्ज । | पुनरपीन्द्र प्रोवाच-मनुष्यमानं शिशुरेष विप्र ! नाशङ्कनीयो भवता स्वचित्ते ।
विश्वत्रयी नायक एष वीरो, जिनेश्वरो वाङ्मयपारदृश्वा ॥ ७॥ तदनु जैनेन्द्रं व्याकरणं जज्ञेशास्त्राण्येतावन्त्यपि लघुना वीरेणकथमधितानिाइतिजनमानससंशय-विच्छित्यै हरिरवोचदिदं ॥८॥
यद्वत्सहस्रकरशुभ्रकरप्रदीपा, ज्योतिश्चयैःप्रसृमरैःसहिताःसदैव।
आगर्भतः सततसर्वगुणस्तथैव, ज्ञानत्रयणे सहितो जिनवर्द्धमानः॥९॥ इत्यायुक्त्वा शक्रः स्वस्थानं गतः, श्रीवीरः सर्वज्ञातक्षत्रियैर्युतः स्वसौधमगात् ॥ १०८॥
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॥इति श्रीवीरलेखशालाकरणं ॥ समणस्स भगवओ महावीरस्स पिया कासवगुत्ते णं तस्स णं तओ नामधिज्जा एवमाहिज्जति, तं जहा-सिद्धत्थे इ वा सिज्जंसे इ वा जसंसे इ वा । समणस्स भगवओ महावीरस्स माया वासिट्ठसगुत्ते णं तीसे तओ नामधिज्जा एवमाहिज्जन्ति, तं जहा-तिसला इ वा, विदेहदिन्ना इवा, पीइकारिणी इ वा । समणस्स भगवओ महावीरस्स पित्तिज्जे सुपासे, जिढे भाया नंदिवद्धणे, भगिणी सुदंसणा, भारिया जसोया कोडिन्नागुत्ते णं । समणस्स भगवओ महावीरस्स धूआ कासवगुत्ते णं तीसे दो नामधिज्जा एवमाहिज्जति तं जहा-अणोज्जा इ वा पियदंसणा इ वा । समणस्स भगवओ महावीरस्स नई कासवगुत्तेणं तीसे गं दो नामधिज्जा एवमाहिज्जंति, तं जहा-सेसवई इ वा जसवई इ वा ॥ १०९॥
समणस्सेत्यादिता.........जसवई इ वेत्यन्तम् । तत्र पालभावातिक्रमे प्राप्तयौवनोऽयमिति विज्ञा| तवीरस्वरूपाभ्यां मातापितृभ्याम् सुमुहूर्ते नरवीरसुताया यशोदायाः विवाहं कारितः । तया च सह भोगान् भुजानस्य प्रभोः प्रियदर्शनाख्या सुताऽभूत । सा च प्रवरनृपसुतस्य स्वभागिनेयस्य जमाले परिणायिता, तस्या अपि शेषवती नाम्नी पुत्री सा च नत्तुईत्ति-प्रभोः दौहित्रीत्यर्थः ।१०९॥
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प्रदीपिका
समणे भगवं महावीरे दक्खे दक्खपइन्ने पडिरूवे अल्लीणे भदए विणीए नाए नायपुत्ते नायकुलचन्दे विदहे विदेहदिन्ने विदेहजच्चे विदेहसूमाले तीसं वासाई विदेहंसि कटु अम्मापिऊहिं देवत्तगएहिं गुरुमहत्तरएहिं अब्भणुण्णाए सम्मत्तपइन्ने पुणरवि लोयंतिएहिं जीयकप्पिएहिं देवहिं ताहिं इट्ठाहिं जाव वग्गृहि अणवरयं अभिनन्दमाणा य अभिथुवमाणा य एवं वयासी ॥ ११०॥
समणे इत्यादितो......वयासीत्यन्तम् । तत्र दक्षः कलासु, दक्षाः-प्रतिज्ञातनिर्वाहकतया पट्वी ४ प्रतिज्ञा यस्य । प्रतिरुपः-तत्तद्गुणसङ्क्रमणे दर्पणत्वात् विशिष्टरूपो वा, आलीनः-सर्वगुणाश्लिष्टः गुप्तेन्द्रियो वा, भद्रका-सरलः, भद्रो-वृषभस्तद्वद्गच्छतीति भद्रगो वा भद्रदो वा सर्वकल्याणदाथित्वात । विनीतो-विनयवान् सुक्षितो वा जितेन्द्रियो वा । ज्ञातः-प्रख्यातः ज्ञातो वा ज्ञातवंशत्वात्, ज्ञात:-सिद्धार्थस्तत्पुत्रः ज्ञातपुत्रः, न च पुत्रमात्रेण काचित्सिद्धिः स्यादित्याह-ज्ञातकुलचन्द्रः, विदेहो विशिष्टदेहः-आद्यसंहननसंस्थानवत्त्वात् , यहा 'दिहीक् उपलेपे' विगतो देहो लेपो अस्मान्निल्लपो भोगेष्वपि वैराग्यवत्त्वात् । विदेहदिन्ना-त्रिशला तदपत्यं विदेहदिन्न:, तस्या एवौरसपुत्रत्वमाह'विदेहजच'भीमो-भीमसेन इति न्यायात् विदेहा-त्रिसला तस्यां जाताऽर्चा वपुर्यस्य स विदह
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जार्चः, यदा विदेहोऽनङ्गः स यात्यः पीडनीयो यस्य स विदेहयात्यः । विशेषेण दिह्यते लिप्यते पापैरात्माऽत्रेति विदेहो-गृहवासस्तत्रैव सुकुमालो तित्वे तु वज्रकर्कशत्वात् । त्रिंशद्वर्षाणि विदेहे-गृहवासे कृत्वा-स्थित्वा, त्रिंशद्वर्षाणि चैवं-अष्टाविंशति वर्षातिक्रमे पित्रोस्तुर्यस्वर्गम् 'आचाराङ्गभिप्रायेण त्व| च्युतं' गतयोः व्रतार्थ प्रभुः नन्दिवर्धनमनुज्ञापितवान्, “यदार्य ! पूर्णो मेऽभिग्रहस्ततः प्रव्रजामीति"
तो भणइ जिभाया, मम जणणी-जणयविरहदुहिअस्स । तुह विरहग्गी सुंदर ! खयंमि खारोवमं होई ॥१॥ विरक्तः स्वम्याह" पिअ-माइ-भाइ-भइणी, भज्जा-पुत्तत्तणेण सव्वेवि । जीवा जाया बहुसो जीवस्स उ एगमेगस्स ॥२॥ ता किंमि किमि कीरइ पडिबंधो, कमि कमि वा नेव, इय नाऊण महायस! मा किज्जउ सोग-संतावो"॥३॥ नृपःपाह" अहमवि जाणामि इमं, किन्तु मम बन्धणा न तुटृति जीविअभूएण तए अज्जवि मुकस्स सयराहं ॥४॥ ता मह अवरोहेणं वासाई दुन्नि चिट्ठसु गिहम्मि । उत्तमपुरिसा दुहिअं, दळं करुणायरा हुँति ॥५॥" वीरःप्राह'एवं होउ नरेसर ! किन्तु ममहा न कोइ आरंभो । कायव्यो हं फासुअ-भोयणपाणेण चिहिस्सं ॥६॥ एवं चित्र पडिवन्ने, चिट्ठइ सुहझाणभावणो वीरो। विषयसुहनिप्पिवासो दयावरो सव्वजीवेसु ॥७॥
ततः समधिकाइयवस्त्रालङ्कारभूषितोऽपि प्रासुकैषणीयाहारः शीतोदकमप्यपियन् प्रभुस्तस्थौ,
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प्रदीपिका
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न च प्रासुकाम्बुनाऽपि सर्वांगस्नानं चक्रे, किन्तु लोकस्थित्या हस्ताघ्रिमुखक्षालनप्रासुकाम्भसैव चक्रे, दीक्षोत्सवे तु सचित्ताम्बुनापि सस्नौ । ततः प्रभृति ब्रह्मचर्य तु यावजीवमेव पालितवांश्च । इह ) यदा प्रभुर्जातस्तदैवं चतुर्दशस्वप्नरेष भावी चक्रीति लोकख्याति श्रुत्वा स्वस्वमातापितृभिः श्रेणिकचण्डपद्योताद्याः सुताः प्रभुसेवायै प्रेषिताः, प्रभौ च घोरानुष्ठानपरे नायं चक्रीति स्वस्वगृहं ययुः।
गुरुमहत्तरेएहित्ति गुरुणा-ज्येष्ठभ्रात्रा-नन्दिवर्डनेन महत्तरकैश्च राज्यप्रधानैरभ्यनुज्ञातो व्रतार्थ || दत्तानुमतिः प्रभुः समासप्रतिज्ञः 'नाहं समणो होहं अम्मापिरंभ जीवंते' इति गर्भस्थकृताभिग्रह- IN स्याष्टाविंशत्या वषैः नन्दिवर्द्धनोपरोधाभिग्रहस्य च वर्षद्वयेन पारगमनात् । पुणरवि लोअंत्तिएहिं पुनरपीति-विशेषद्योतने, एकं तावत्स्वयं समाप्तप्रतिज्ञो विशेषतश्च लोकान्तिकदेवबोंधित इति गम्यं, लोकान्ते भवा लोकान्तिका ब्रह्मलोकवासिन एकान्तसम्यगदृष्टयः एव, ते च नवधा, तद्यथा'सारस्सय १ माइच्चा २ वही३ वरुणाय ४ गद्दतोया य ५। तुसिआ ६ अव्वाबाहा ७ अग्गिच्चा ८चेव रिहाय९ ॥१॥
यद्यपि प्रभुः स्वयंबुद्धस्तथापि जीतं-अवश्यमाचरणीयं कल्पितं यैस्ते जीतकल्पिताः, जीतेन वाऽवश्यंभावेन कल्प-इति कर्तव्यता जीतकल्पः, स एषामस्तीति जीतकल्पिकास्तैः जीतकल्पितेर्जीत कल्पिकैर्वा विभक्तिव्यत्ययात्ते लोकान्तिकदेवाः-ताहिं इटाहिं......जाव वग्गुहिं प्राग्वत्, व्याख्याताभिर्वाग्भिः अनवरतं प्रभुं अभिनन्दयतः-समृद्धिमन्तमाचाक्षाणा अभिष्टुवन्तश्च गुणोत्कीर्तनेनैवमवादिषुर्व्यज्ञपयन् ॥११०॥
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जय जय नन्दा! जय जय भद्दा ! भदं ते जय जय खत्तियवर वसहा ! बुज्झाहि भगवं ! लोगनाहा ! सयलजगज्जीवहियं पवत्तेहिं धम्मतित्थं हिअसुहनिस्सेयसकरं सबलोंए सब्बजीवाणं भविस्सइ ति कट्ट जय जय सदं पउंजंति ॥ १११ ॥
जयेत्यादितो......पउंजंतीत्यन्तम् । तत्र जयं लभस्व, संभ्रमे द्विवचनं, नन्दति-समृद्धो भवतीति || नन्दस्तदामन्त्रण, दीर्घ तु प्राकृतत्वात् । यद्वा जय त्वं जगन्नन्द, एवं जय जय भदं ति नवरं भद्रः-कल्या
णवान् कल्याणकारी भद्रं वा ते भवत्विति शेषः । धर्मप्रधान तीर्थ प्रवचन, हितं-पथ्यान्नवत्सखं-शर्म | शुभं वा-कल्याण निश्रेयसं-मोक्षस्नत्करं । सर्वलोके सर्वजीवानां सूक्ष्मादिभेदभिन्नानां रक्षोपदेशादिना | | हितादिकारित्वात् ।१११॥
पुचि पि णं समणस्स भगवओ महावीरस्स मागुस्सगाओ गिहत्थधम्माओ अगुत्तरे आहोइए अप्पडिबाई नागदसणे हुत्था । ततेगं समणं भगवं महावीरे तेणं अगुत्तरेणं आहोइएणं
नाणदंसणेणं अप्पणो निक्खमणकालं आभोएइ, आभोइत्ता चिच्चा हिरण्णंचिचा सुवण्णं, | चिचा धणं, चिचा रज्जं, चिचा रहें, एवं बलं वाहणं कोसं कोट्ठागारं, चिचा पुरं, चिच्चा अंतेउरं,
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कल्प
प्रदीपिका
चिचा जणवयं, चिचा विपुलधग-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवाल-रत्तरयण-माइअं-संत- सारसावइज्जं, विच्छड्डइत्ता विगोवइत्ता दाणं दायारेहिं परिभाइत्ता[दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता]॥११२||
पुबि पि णमित्यादितो.......परिभाइत्तेत्यन्तम् । तत्र मनु योचिताद् गृहस्थधर्माद्विवाहादेः पूर्व-| मपि भगवतोऽनुत्तरं अभ्यन्तरावधिसद्भावात् सर्वोत्कृष्टं परमावधेः किश्चिदून, आभोगिक-आभोगःप्रयोजनं, अप्रतिपाति-अनिवर्तकमाकेवलोत्सत्तेः अवधिज्ञानं अवधिदर्शनं चासीत् । आभोगयति| विलोकयति । चिच्चा-त्यक्त्वा हिरण्यादि व्याख्या प्राग्वत् । विच्छद्य-विशेषेग त्यक्त्वा, विगोप्यN|| गुप्तं सत् प्रकाशीकृत्य दानातिशयात्, यद्वा 'गुपि कुत्सने' कुत्सीयमेतदस्थिरत्वादित्युक्त्वा, दीयंते
इति दान-धनं दायाय-दानार्थमाऋच्छन्ताति 'अचि' दायारा-याचकास्तेभ्यो दानाहेभ्यः परिभाज्यविभागान् दत्वा, परिभाव्य वा आलोच्य एतेभ्यः इदं इदं दातव्यमिति, यद्वा दातृभिः स्वपुरुषैः दान परिभाज्य-दापयित्वा, दायो-भागोऽस्त्येषामिति दायिका गोत्रिकास्तेभ्यो दानधनविभागं परिभाज्यविभागशो दत्वा । एवं दानविधानं कदा, कियत्कालं, किंप्रमाणं, किंनिर्वोषपुरस्सरं तद्यथा--
"संवच्छरेण होही, अभिनिक्खमणे तु जिणवरिंदाणं । तो अत्थसंपयाणं पवत्तए पुव्वसूरम्मि ॥१॥ एगा हिरण्णकोडी, अठेव अणूणगा सयसहस्सा । मूरोदयमाइअं, दिज्जइ जा पायरासाओ ॥२॥ वरह वरं वरह वरं, इअ घोसिज्जइ महंतसद्देणं । पुर-तिअ-चउक-चच्चर-रत्या-रायप्पहाईसु ॥३॥
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जो जं वरेइ तं तस्स, दिज्जइ हेमवत्यमाइअं । विअरति तस्थ तिअसा सकाएसेग सव्वं पि ॥४॥
तिन्नेव य कोडिसया अहासीई च हुंति कोडीओ । असीइं च सयसहस्सा एवं संवच्छरे दिन्नं॥ ५॥" । तत्तद्वार्षिकदानवर्षविरमदारियदावानलाः, सद्यः सज्जितवाजिराजिवसनालङ्कारदुर्लक्ष्यभाः।
सम्प्राप्ताःस्वगृहेऽर्थिनःसशपथं,प्रत्याययन्तोऽङ्गानाः,स्वामिन्!खिडुजनैर्निरुद्धहसितैः के यूयमित्युचिरे। ____ पुनरपि राजा वीरेणातिपृष्टः-'त्वदुक्तः अविधिः पूर्णः प्रव्रजाम्यहं । ततो राज्ञा ध्वजमश्चातिमश्चाद्यलकृतनगरं चक्रे । तद्नु नृपः शक्रादयश्च जन्माभिषेक इव निष्क्रमणाभिषेके तावत्सङ्ख्योपेतसौवर्णाद्यष्टप्रकारकलशादिसामग्री कारयन्ति । ततोऽच्युतेन्द्रायैश्चतुःषष्टया सुरेन्द्ररभिषेककृतेऽच्यु ताद्याभियोगिकसूरकृतसौवर्णादिकलशाः नृपकारितसौवर्णादिकलशेषु दिव्यानुभावात्मविष्टास्ततोऽधिकं रेजिरे।ततो नृपः प्रभुं पूर्वाभिमूखं निवेश्य देवानीतक्षीरोद्ध्यादिनीरैःसर्वतोर्थमृद्भिः सर्वकषायैश्चाभ्यषिचत् । इन्द्राः सर्वेऽपि भृङ्गारादर्शादिहस्ताः जयजयशब्दं प्रयुञ्जानाः पुरतस्तिष्ठन्ति । ततः
"सुरचंदणाणुलित्तो सुरतरुवरकुसुममालचिंचइओ सिअवस्थपाउअंगो जस्स य मुल्लं सयसहस्सं ॥१॥ भासुरकिरीडमउडो, हारविरायंतकंठवच्छयलो । केऊरकडयमंडिअ-भुअदंडो कुंडलाहरणो ॥२॥" ततो नन्दिवर्द्धनादिष्टाः कौटुम्बिकपुरुषाः बहुशतस्तम्भनिविष्टां मणिस्वर्णविचित्रां पञ्चाशद्धनु
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कालप
प्रदीपिका
दीर्घा पञ्चविंशतिधविस्तीणों षट्त्रिंशडनुरुच्चां चन्द्रप्रभाख्यां शिविकामुपस्थापयन्ति । ततो देवा अपि, परं देवानीतशिबिका नृपानीतशिविकायां दिव्यानुभावात् प्रविष्टा, ततः साधिकं रेजे ॥११२॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जेसे हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिबहुले तस्स णं मग्गसिखहुलस्स दसमी पक्खणं पाईणगामिणीए छायाए पोरिसीए अभिनिविट्टाए पमाणपत्ताए सुब्बएणं दिवसेणं विजयेणं मुहुत्तेणं चंदप्पभाए सीयाए सदेवमणुयासुराए परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे संखियचक्कियलंगलियमुहमंगलियवद्धमाणपूंसमाणघंटियगणेहिं ताहिं इटाहिं जाव वग्गृहिं अभिनंदमाणा आभिथुव्वमाणा य एवं वयासी ॥ ११३॥
तेणमित्यादितो......वयासीत्यन्तम् । तत्र ततः प्रभुर्मार्गशीर्षकृष्णदशम्या, पूर्व दिग्गामिन्यां छायायां | पाश्चात्यपौरुष्यां अभिनिवत्तायां-जातायां प्रमाणप्राप्तायां । सुव्रताख्ये दिवसे, विजयाख्ये मुहूर्त, प्रागु क्तशिबिकामारुह्य पूर्वाभिमुखं सिंहासने नीषीदति । प्रभोदक्षिणतः कुलमहत्तरिका हंसलक्षणपटशाटकमादाय, वामपाधै प्रभोरम्बधात्री उपकरगनादाय, पृष्ठे च वरतरुणी स्फारशृङ्गारा श्वेतछत्रं ईशानकोणे चैका प्रतिपूर्णभृङ्गार, अग्निकोणे चैका कनकदण्डमगिविचित्रव्यजनमादाय भद्रासने निषी
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दति । ततो नृपदिष्टाः पुरुषा यावच्छिविकामुत्पाटयन्ति, अनान्तरे शक्रः शिविकाया दाक्षिणात्यामुपरितन बाहां, ईशानेन्द्र उताराहामुपरितनीं बाहां, चमरेन्द्रो दक्षिणात्यामधस्तनीं बाहां, बलीन्द्र उत्तराहामधस्तनीं बाहां, शेषाञ्चतुर्निकायदेवेन्द्राश्च यथार्ह तां उत्पाटयन्ति, ततः शक्रेशानवर्जास्तामुहन्ति, शक्रेशानी तु चामराभ्यां वीजयतः ।
'जाव य कुंडग्गामो, जाव य देवाण भवणआवासा । देवेहिं अ देवीहि अ, अविरहिअं संचरन्तेहिं १ वणखण्डं व कुसुमिअं, पउमसरो वा जहा सरयकाले । सोहइ कुसुमभरेणं, इय गयणतलं सुरगणेहिं२ वरपड़ह-भेरि-झल्लरि-दुन्दुहि संख - सहिएहिं तूरिएहिं । धरणियले गयणयले तूरनिनाओ परमरम्मो ३ व्यवसायान् व्यापारांश्च, मुक्त्वा द्रष्टुं ययुर्नराः। स्त्रियो निजं निजं कर्म, त्यक्त्वागुः कौतुकोत्सुकाः ४ श्रुत्वा वाद्यौघनिर्घोषं, स्त्रियोऽभूवन सुविह्वलाः । चकुर्नानाविधाश्चेष्टाः सर्वेषां विस्मयप्रदाः॥५॥
यथा— कस्तुर्या नेत्रे, अञ्जनेन गण्डौ, काश्या कण्ठे, हारैः कटिं, नूपुराभ्यां करौ, कङ्कणाभ्यां पादौ, चन्दनद्रवैरङ्घ्रितले, अलक्तकरसैर्वपुभूषयन्ति । तथाग्रहणं रुदतां पथि पर - बालानां निजकसम्भ्रमाञ्चक्रुः। घाटपटीशाटकयो - र्विपरीततया च परिधानं ६ शिथिलपरिधानबन्धं, गाढं कर्तुं न शक्नुवन्त्यस्ताः । वातोड्डीनशिरोंऽशुको वधूजनोऽजनि कुमारी व७
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कल्प
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काश्चित्कृतार्द्धतिलकाः,काश्चित्कर्णैकभूषणाः काश्चित् । प्रक्षालितैकचरणा, एकाञ्जितलोचना अपि चट काश्चिदपि भोजनादा - वविहितशौचा विचित्रचित्रेण । बाह्वेकदेशपरिहित – कञ्चुक्यः कौतकादीयुः ९
तथा - शिबिकास्थप्रभोरग्रे तावद्रत्नमयानि स्वस्तीकदीन्यष्टौ मङ्गलानि प्रस्थितानि । ततः क्रमेण पूर्णकुम्भ- भृङ्गार-चामराणि ततो महती वैजयन्ती, ततो वैडूर्यदण्डस्थामलछत्रं, ततो मणिस्वर्णमयं सपादपीठं सिंहासनं, ततोऽष्टशतमारोह रहितमश्वानां, ततः १०८ करिणां, ततः १०८ सघण्टसध्वजसनन्दीघोषनानासम्भृतरथानां ततः १०८ वरपुरुषाणां ततो हयानीकं ततो गजानीकं, ततो रथानीकं, ततः पदात्यनीकं, तता लघुध्वजसहस्रमण्डितो योजनसहस्रोच्छ्रयो महेन्द्रध्वजः, तता खड्गग्रहाः, कुन्तग्रहाः, पीठफलकग्रहाः, हासकारकाः, कान्दर्थिकाः - जयजयशब्दं प्रयुञ्जानाः, ततो नेके उग्राः, भोगाः, राजन्याः, क्षत्रियाः, तलवराः, माण्डम्बिकाः, कौटुम्बिकाः, श्रेष्ठिनः, सार्थवाहाः, देवाः, देव्यश्व, प्रभोः पुरतः पृष्ठतः पार्श्वतो व्यवस्थिताः सम्प्रस्थिताः । ततः सदेवमणुआसुराए त्ति-सदेवमनुजासुरया-स्वर्गमर्त्यपातालवासिन्या पर्षदा समनुगम्यमानं, अग्रेऽग्रतश्च शाङ्खिकाद्यैः परिवृत्तं, तत्र शाङ्खिकाः-चन्दनगर्भहस्ता, मङ्गलकारिणः शङ्खवादका वा, चक्रिकाश्चक्रास्त्राः कुम्भकारा तैलिकादयो वा लाङ्गलिकागलावलम्बितस्वर्णादिमयलाङ्गलाकारधारिणो भट्टविशेषाः कर्षका वा, मुखमाङ्गलिका - मङ्गलपाठकाः, वर्द्धमाना:- स्कन्धारोपितनराः, पुसमाण त्ति पूष्यमाणा - मागधाः पुरोहितस्थानीया मान्या वा, घण्टया
प्रदीपिका
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| चरन्तीति घण्टिका राउलिआ इति रूढास्तेषां गणैः, खंडिअगणेहिंत्ति क्वचित् खण्डिकगणाः-छात्रगणाः, ताभिरिष्टादिविशेषणोपेताभिर्वा वाग्भिरभिनन्दन्तोऽभिष्ट्रवन्तश्च प्रक्रमात्कुलमहत्तरादिस्वजना एवमवादिषुः॥११३ ॥
जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! भदं ते अभग्गेहिं नाणदंसणचरित्तेहिं अजियाइं जिणाहि इंदियाई, जियं च पालेहि समणधम्मं, जियविग्यो वि य वसाहि तं देव ! सिद्धिमज्झे, निहणाहि रागदोसमल्ले, तवणं धिइधणियबद्धकच्छे, महाहि अट्ठकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं, अप्पमत्तो हराहि आराहणपडागं च वीर! तेलुकरंगमज्झे, पावय वितिमिरमणुत्तरं केवलवरनाणं, गच्छ य मुक्खं परं पयं जिणवरोवइटेणं मग्गेणं अकुडिलेणं हंता परीसहचमुं, जय जय खत्तियवरखसहा ! बहूई दिवसाई बहूई पक्खाइं बहूई मासाइं बहूई उऊइं बहूई अयणाई बहूई संवच्छराई अभीए परीसहावसग्गाणं, खंतिखमे भयभखाणं, धम्मे ते अविग्धं भवउ ति कट्ट जयजयसई पउंजंति ॥ ११४ ॥
जय जयेत्यादितः......पजंतीत्यन्तम् । तत्र जयजयेत्यादि-प्राग्वत् । अभग्ननिरतिचारआनदर्शनचारित्रैरुपलक्षितस्त्वं अजितानि-अजेयानि वा जिणाहि त्ति जय-वशीकुरु इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि,
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प्रदीपिका
जितं च-सात्म्यापन्नं पालय श्रमणधर्म। जितविनोऽपि च त्वं हे देव! वस सिद्धिमध्ये, 'अत्र सिद्धिशब्देन श्रमणधर्मस्य वशीकारस्तस्य मध्यं लक्षणयोत्कर्षस्तत्र' त्वं तिष्ठेत्यर्थः। रागद्वेषमल्लौ निजहि-निगृहाण तपसा धृतौ-सन्तोषे धैर्ये वा धणि-अत्यर्थ बद्धकक्षः सन्, मईयाष्टकर्मशत्रून् , केन? ध्यानेनोत्तमेन-प्रधानेन, उत्तमसा वा-तमोऽतीतेन शुक्लेन शुक्लाख्येन, अप्रमत्तः-प्रमादोज्झितः सन् हराहि त्ति-गृहाण आराधना पताकां, वीरेत्यामन्त्रणं त्रैलोक्यमेव रङ्गो-मल्लाक्षवाटकस्तन्मध्ये, प्राप्नुहि च वितिमिरमनुत्तरं केवलवरज्ञानं, गच्छ च मोक्षं परमपदं जिनवरोपदिष्टेन ऋषभादिजिनोक्तमार्गेण-रत्नत्रयलक्षणेन अकुटिलेनकषायादिकौटिल्यपरिहारात् अक्षेपेण मोक्षप्रापकत्वाच सरलेन हत्वा परीसहचमूं। जय जय क्षत्रियवरवृषभ! जात्यक्षत्रियो हि परचमं हन्ति । ऋतवो-दिमासा हेमन्ताद्याः, अयनानि षण्मासानि दक्षिणायनोत्तरायणरूपाणि,अभीतः परीषहोपसर्गेभ्यः, भयभैरवानां-भैरवभयानांक्षान्त्या क्षमो न त्वसामर्थ्यात्। धर्म-प्रस्तुतसंयमे ते-तव अविघ्नं भवतु इति कह-इत्युच्चार्य जयजयशब्दं प्रयुञ्जते स्वजना एव ॥११४ ॥ __ तएणं समणे भगवं महावीरे नयणमालासहस्सेहिं पिच्छिज्जमाणे पिच्छिज्जमाणे, वयणमालासहस्सेहिं अभियुबमाणे अभिथुब्बमाणे, हिययमालासहस्सहिं उन्नंदिज्जमाणे उन्नंदिज्जमाणे, मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे, कंतिरूवगुणेहिं पत्थिज्जमाणे पत्थिज्जमाण, अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइज्जमाणे दाइज्जमाणे, दाहिणहत्थेणं बहूणं नरनारिसह
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स्साणं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे, भवणपंतिसहस्साई समइच्छमाणे समइच्छमाणे, तंतीतलतालतुडियगीयवाइयरवेणं महुरेण य मणहरेणं जयजयसद्दघोसमीसिएणं मंजुमंजुणा घोसेण यपडिबुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे, सव्विड्डीए, सव्वजुईए, सब्बबलेणं, सव्ववाहणेणं, सव्वसमुदएणं, सव्वायरेणं, सब्वविभूइए, सब्वविभूसाए, सव्वसंभमेणं, सव्वसंगमेणं, सव्वपगईएहिं, सब्वनाडएहिं, सव्वतालायरेहि, सव्वावरोहेणं, सब्वपुष्पगंधवत्थमल्लालंकारविभूसाए सव्वतुडियसहसंनिनाएणं, महया इड्डीए, महया जुईए, महया बलेणं, महया वाहणेणं, महया समुदएणं, महया वस्तुडियजमगसमगप्पवाइएणं, संख-पणव-पडह-मेरि-झल्लरि-खरमुहि-हुडुक-दुंदुहि-निग्घोसनाइयवेणं, कुंडपुरं नगरं मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव नायखंडवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेइ, ठवित्ता सीयाओ पञ्चोरुहइ, पचोरहित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुअयइ, आमुइत्ता सयमेव पंच मुट्टियं लोयं करेइ, करित्ता छटेणं भत्तेणं अपाणएणं हत्युत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं एगं देवदूसमादाय एगे अबीए मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए ॥ ११५॥
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तएणमित्यादितः...........पव्वइए इत्यन्तम् । तत्र नयनमालाः-श्रेणिस्थितजननेत्रपतयस्तासांप्रदीपिका सहस्रः, एवमग्रेऽपि वचनानि वदनानि वा तैः अभिष्ट्रयमानः, हृदयमालासहस्रैरन्नन्द्यमान-उत्पाबल्येन समृद्धिमुपनीयमानो, जय जीव नन्देत्यादिपर्यालोचनात्, 'क्वचित् उन्नइज्जमाणेत्ति-तत्रोन्नति | प्राप्यमाणः', मनोरथमालासहस्रः-अस्याज्ञाकरा भवाम इत्यादिजनविकल्पैविशेषेण स्पृश्यमानः । कान्तिरुपगुणैर्हेतुभिः पार्थ्यमानो भर्तृतया स्वामितया वा स्त्रीनृजनेनाभिलष्यमाणः । दाइज्जमाणे त्तिदर्यमानः, पडिच्छमाणे त्ति-प्रतीच्छन्-गृहन, समहच्छमाणे-समतिकामन-उल्लायन । प्रागक्तार्थतत्रयादित्रुटितान्तानाम् गीते-गीतमध्ये यद्वादि वादनं तेन यो रवः शब्दस्तेन मधुरेण-मिष्टेन,मनोहरेणमनोज्ञेन, जय जय शब्दस्य घोष उच्चारस्तन्मिश्रितेन, मञ्जुमञ्जुना-न ज्ञायते कोऽपि किमपि जल्पतीति | अतिकोमलेन वा घोषेण च लोकानां स्वरेण प्रतिबुध्यमानः-सावधानीभवन् । सर्वर्या-समस्त छत्रादिराजचिह्नरुपया, सर्वगुत्या-भूषणादीनां, सर्वयुत्या वा-उचितेष्टवस्तुघटनादिरुपया, सर्वबलेनहस्त्यश्वादिरुपसैन्येन, सर्ववाहनेन-करभादिवाहनेन, सर्वसमुदयेन-पौरादिमेलापकेन, सर्वादरेणसर्वाचित्यकरणरूपेण, सर्वविभूत्या-सर्वसम्पदा, सर्वविभूषया-सर्वशोभया, सर्वसम्भ्रमेण-सर्वहर्षकृतौ । सक्येन, सर्वसमेन-सर्वस्वजनमेलापकेन, सर्वप्रकतिरष्टादशगमाटिपरवासिप्रकतिभिः सर्वनाटक
परवासिप्रकृतिभिः, सर्वनाटकै रित्यादि सुगनं । सर्वतुर्यशब्दानां मीलने यः सन्तो-निनादो-महाघोषस्तेन, अल्पेष्वपि ऋडयादिषु
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सर्वशब्दप्रवृतिर्दृष्टा इत्याह- महया इडीए इत्यादि प्राग्वत् । एवम् क्षत्रियपुरमध्ये भवनपङ्क्तिसहस्राणि समतिक्रमतः प्रभोः पृष्ठे गजारूढो घृतछत्रचामराभ्यां वीज्यमानः चतुरङ्गचमूयुक्तो नन्दिवर्द्धनो राजाऽनुगच्छति यावत् ज्ञातखण्डवनेऽशोकवरपादपो-वृक्षस्तस्याधः शिविकां-कूटाकाराच्छादितां जम्पा - विशेषां प्रभुः स्थिरीकारयति, शिविकातः प्रत्यवरोहति अवतरति । स्वयमेवाभरणान्युन्मुञ्चति-अवतारयति । तानि च कुलमहत्तरिका हंसलक्षणपटशाटकेन प्रतीच्छति, प्रतीच्छय च प्रभुं प्रत्याह
“इक्खागकुलसमुत्पन्ने सि णं तुमं जाया ! कासवगुत्ते सि णं तुमं जाया ! उदितोदितनायकुलनहयलमिअंकसिद्धत्थजञ्चखत्तिअसुत्ते सि णं तुमं जाया ! जच्चखत्तिआणीए तिसलाए सुअ सि णं तुमं जाया ! देवनरिंद पहिअकित्ती सि णं तुमं जाया ! एत्थ सिग्धं चंकमिअव्वं गुरुअं आलंबेअव्वं असिधारं महव्वयं चरिअव्वं जाया ! परिक्कमिअव्वं जाया ! अस्सि च णं अठ्ठे नो पमाइअव्वं " अणवरयपडतंसुपायनंदिवर्णमुहसयणवग्गसमेआ अंसूणि विणिम्मुअंता वंदइ नमसह, वंदित्ता नमसित्ता एगंते अवकमंति ।
ततः प्रभुरेकया मुष्टया कूर्चस्य, चतसृभिस्तु शिरसः इति पञ्चमौष्ठिकं लोचं करोति । शक्रश्च हंसलक्षणपशाटकेन केशान् प्रतीच्छ्य क्षीराब्धौ प्रवाहयति । ततञ्ध
दिल्वो मणुस्सघोसो तुरनिनाओ अ सक्कवयणेणं । खिप्पामेव तिलुको जाहे पडिवज्जइ चरितं ॥ १ ॥ araण नमुकारं, सिद्धाणमभिग्नहं तु सो मिहे । सव्वं मेऽकर णिज्जं पार्वति चरितमारूढो ॥ २ ॥
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कल्प
प्रदीपिका
स्वामी च सामायिकं कुर्वन् 'करेमिसामाइअंसव्वं सावन जोगं पञ्चक्खामी'त्याधुचरति, न 'भंते'त्ति तथाकल्पत्वात्, एवमागमोक्तविधिमा देवदूसं त्ति इन्द्रेण वामस्कन्धापितं दिव्यवस्नविशेषमादाय एकोरागद्वेषसहायविरहात, अद्वितीय-एकाकी न तु ऋषभादिवत् चतुःसहस्रादियुक्तः, मुण्डो-द्रव्यतः केशलुचनात्, भावतः-क्रोधाद्यभावात्, अगारान्निष्क्रम्येति शेषः, अनगारतां-साधुतां प्रव्रजितो गतः, विभक्तिपरिणामादा अनगारतया प्रव्रजित:-श्रमणीभूतः।
तिहिं नाणेहि समग्गा तित्थयरा जाव हुंति गिहिवासे । पडिवन्नमि चरित्ते, चउनाणी जाव छउमत्थे ॥१॥ सकाइआ देवा भयवं तं वंदिउं सपरितोसा । कयनंदीसरजत्ता, निअनिअहाणाई संपत्ता ॥२॥
[इति पञ्चमं व्याख्यानं]
[अथ षष्ठं व्याख्यानं ] वीरो वि बंधुवग्गं आपुच्छिअ, पत्थिओ विहारेण । सो वि अ विसन्नचित्तो, बंदिअ वीरं पडिनिअत्तो ॥३॥ दिवसे मुहत्तसेसे कुम्मारग्गामपवरमणुपत्तो । रयणीए तत्थ सामी पडीमाइ टिओ निकंपो ॥ ४॥ गोवनिमित्तं सक्कस्स आगमो वागरेइ देविंदो । कुल्लागबहुलछठस्स पारणे पयस वसुहारा ॥५॥
गोपः सर्वदिनं वृषान् वाहयित्वा सायं स्वामिसमीपे तान् मुक्त्वा गोदोहाय गृहं गतः। ते तु चरितुं बने गताः, सचागतोऽवीक्ष्य स्वामिनमपृच्छत्, स्वाम्यदत्तोत्तरः न वेत्तीति रात्री बने विलोकयति स्म,
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परं नाऽपश्यत्, रात्रिशेषे स्वयमेवागता वृषाः, सोऽप्यागतः, दृष्ट्वा तान् रुष्टः, प्रभु प्रति सेहकमुत्पाव्य धावितः, अवधेरागत्य शक्रेग शिक्षितः । तओ सक्को भण्णइ 'भयवं तुन्भं उवसग्गं बहुलं, अहं बारस| वरिसाणि तुम्भं वेयावच्चं करेमि। ताहे सामिणा भणिअं-'नो खलु देविंदा! एवं भूअंजन्नं अरिहंता देविंदस्स वा असुरिंदस्स वा निस्साए केवलणाणं उप्पाडिंसु वा ३ सिद्धिं वा वच्चंति, अरिहंता सएणं उठाणबलवीरियपुरिसक्कारपरक्कमेणं केवलनाणं उप्पाडिंसु ३ सिद्धिं वा वच्चंति'।
ततो मारणान्तोपसर्गवारणार्थ शक्रेण सिद्धार्थः स्वामिमातृष्वस्रयव्यन्तरः स्थापितः । ततः कोल्लाकसन्निवेशे बहुलविप्रगृहे 'सपात्रो धर्मो मया प्रज्ञापनीय' इत्याद्यपारणं गृहियात्रे पायसेन चक्रे । चेलोतक्षेपो १ गन्धोदकपुष्पवृष्टिः २ दुन्दुभिनादो ३ व्योम्न्यहोदानमिति घोषणा ४ वसुधारावृष्टिश्चेति ५ पञ्च | दिव्यानि प्रादुर्भूतानि ___अद्धत्तेरस कोडी उक्कासातत्थ होइ वसुहारा।अद्धतेरसलक्खा, जहन्निआ होइ वसुहारा॥१॥
प्रभोर्दीक्षावसरे शबैदिव्यचन्दनादिभिरर्चितस्य देहे साधिकांश्चतुरो मासान् यावत् गन्धः || स्थितः । तद्गन्धाकृष्टा भ्रमरा सुरभिपुष्पाणि त्यक्त्वा आगत्य च प्रभोदेहं विध्यन्ति, तुण्डैभित्वा च | त्वचं खादन्ति । भोगिनश्च नरास्तं गन्धमाघाय लोल्यात्तद्वन्धयुक्तिं याचमानास्तुष्णीं स्थितं स्वामिनमुपसर्गयन्ति । स्त्रियोऽपि प्रभोदेह स्वेदमलोज्झितं सुगन्धश्वासं वीक्ष्यानुलोमोपसर्गान् कुर्वन्ति, तथापि स्वामी मेरुवन्निश्चल:
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कल्प
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विहरन्नथ मोराके, सन्निवेशे प्रभुर्ययौ । प्राज्यदूइज्जंतकाख्य-तापसाश्रमशालिनि ॥ १ ॥ पितुर्मित्रं कुलपति स्तत्र प्रभुमुपस्थितः । पूर्वाभ्यासात् स्वामिनाऽपि तस्मिन् बाहुः प्रसारितः ॥ २ ॥ तस्य प्रार्थनया स्वामी, तत्रैकां रात्रिमाविशत् । स्थेयं वर्षास्विहेत्यूचे, प्रस्थितः स पुनः प्रभु ॥ ३ ॥ नीरागोऽप्युपरोधेन, प्रतिश्रुत्यान्यतो ययौ । अष्टौ मासान् विहृत्याथ, तत्र वर्षार्थमागमत् ॥ ४ ॥ कुलपत्यर्पिते वर्षा - स्तस्थौ स्वामी तृणौकसि । गावो बहिस्तृणानाप्त्या, वर्षारम्भे क्षुधातुराः ॥ ५ ॥ अधावन् खादितुं वेगात्, तापसानां तृणोटजान् । निष्कृपास्तापसास्तास्ते, ऽताडयन् यष्टिभिर्भृशं ।। ६ ।। ताडितास्तैश्वखादुस्ताः, श्रीवीरालङ्कृतोटजम् । स्थितः प्रतिमया स्वामी, नाश्नतीस्ता न्यषेधयत् ॥ ७ ॥ उटजस्वामिना रावा, चक्रे कुलपतेः पुरः । प्रभुं सोऽप्यशिषे नीडं, रक्षन्ति न वयोऽपि किम् ॥ ८ ॥ अप्रीतिर्मयि सत्येषा, तन्न स्थातुमिहोचितम् । विचिन्त्येति प्रभुः पञ्चा - भिग्रहानग्रहीदिमान् ॥ ९ ॥ नामीतिमद्गृहे वासः १, स्थेयं प्रतिमया सदा २ । न गेहिविनयः कार्यः ३, मौनं ४ पाणौ च भोजनम् ५ ॥१०॥ शुचिराका चतुर्मास्या, अर्द्धमासादनन्तरं । प्रावृष्यथास्थिकग्रामं, जगाम त्रिजगद् गुरुः । ११ ।। ' ११५ ॥ समणे भगवं महावीरे संवच्छरं साहियं मासं जाव चीवरधारी हुत्था । तेण परं अचेले पाणिपडिग्गहिए, समणे भगवं महावीरे साइरेगाईं दुवालसवासाई निचं बोसट्टकाए चियतदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जति, तं जहा दिव्वा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा अगुलोमा वा
प्रदीपिका
८३
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पडिलोमा वा, ते उप्पन्ने सम्मं सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ ॥ ११६ ।।
समणेत्यादितः.........अहियासेईत्यन्तम् । तत्र, साधिकमासवर्षादूर्ध्व देवदूष्याढे पतिते दक्षिणवाचालपुरासन्नसुवर्णवालुकानदीतटतरुकण्टके विलग्ने च स्वामी सिंहावलोकनेन तद् अद्राक्षीत्, ममत्वेनेत्येके, स्थाण्डिले पतितमस्थण्डिले वेत्येके, सहसात्कारेणेत्यन्ये, शियाणां वस्त्रपात्रादिसुलभं भाविन वेत्येके, भाविस्वसंततेः कषायबाहुल्यात्कण्टकपायतामाकलय्य निर्ममतया पुनर्न जग्राह । त? हि | प्राग्दत्तमासीत्तचैवं__ "पितृमित्रम् सोमाख्यो द्विज आजन्मतोऽपि दुस्थः, स च प्रभोर्दानावसरे देशान्तरे गतोऽभूत्, निर्धन एव गृहमागतः । भार्ययोक्तं रे निर्लज्ज ! रे निर्लक्षण ! प्रभुणा वार्षिकदानं दत्तं तदवसरे नाऽगा'। | अथ तमेव प्रभु प्रार्थय, स प्रभुमागत्येत्यवादीत्, 'हे स्वामिन्नहं दुःस्थितोऽस्मि, दीनोऽस्मि, मया देशान्तरं भ्रमता किमपि न प्राप्त, किं किंन कृतं, कः को न पार्थितः, कस्य कस्य शीर्ष ननामितं, दुर्भरोदरस्य कृते किं किं न कृतं, तेन किमप्यर्पय मे । ततः स्वामी कृपया देवदृष्यमर्कीकृत्य तस्मै ददौ, नान्यन्ममास्तीति वदन प्रभुरेव शिष्टमई यत्स्वस्कन्धे न्यस्तवांश्च, तत्पभोः सन्ततेर्वस्त्रपात्रादिषु मूर्छासूचकमिति कश्चित् १, कश्चिच कालानुभावात् ऋद्धिमानपि नोदारचित्तो भविष्यतीति २, अन्यस्तु प्रभोः विप्रकुलोत्पन्नत्वेनेत्याशयोऽभूत् कथमन्यथा वार्षिकदानदाताऽपि 'अन्यत् किञ्चिन्मे नास्ति' इत्युक्त्वाऽपि सदप्यखण्डं नादास्यदिति । ततो बिजोऽपि महाप्रसादं मन्यमानस्तदादाय चलितः, तुम्नवायाय तददर्श
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कल्प
प्रदीपिका
यत् , तेनोक्तं यदिदमखण्डं स्यात्तदाऽस्य दीनारलक्षमुत्पद्यते, ततोऽध्धमानय, योजयित्वाऽहं पूणे करि- ज्यामि, तन्मूल्याई च विभज्य आवां गृहिष्यावः । स द्विजो लजया मागयितुमशक्नुवन् प्रभोः पृष्टलग्नो वर्ष यावद् बभ्राम,” पश्चाब तेन तद? पतिते गृहीते भगवान् तेण परं ति-ततः परं यावज्जीवमचेलोऽजनि । पाणिपतग्राहिकः-पाणिपात्रः स्वामी सप्रावरणधर्मस्थापनार्थ देवदृष्यपरिग्रहं चक्रे तथा प्रथमपारणकं सपात्रधर्मज्ञापनार्थ पात्रे एव विहितवान् ततः पाणिपात्रः। निच्चं वोसट्टकाए त्ति-नित्यं व्युत्सृष्टकायः-परिकर्मणा वर्जनात, त्यक्तदेहः-परीषहसहनात, एवं पथि विहरति सति भगवति गङ्गापुलिने चकाङ्कशादिलक्षणाङ्कितं प्रभोः पादन्यासं प्रेक्ष्य पुष्पो नाम सामुद्रिकः चिन्तयति-'एषः चक्री एकाकी याति, ततो गत्वाऽहं व्याकरोमि, ममैतस्माङ्गोगा भविष्यन्ति, कुमारत्वे सेवे। स्वाम्यपि स्थुणाख्यसन्निवेशस्य बहिः प्रतिमायां स्थितः, तत्र प्रभुं दृष्टा पुष्पश्चिन्तयति-'अहो मया वृथाधीतं शास्त्रमिदं । अत्रान्तरे शक्रोऽवधिना पुष्पं प्रभुं च तत्र प्रेक्ष्यागतः, प्रभुं नत्वा च वक्ति-रे पुष्प ! त्वं लक्षणं न वेत्सि, एषोऽमितलक्षणः, तथाऽस्य प्रभोः रुधिरं मांसं च गोक्षीरगौरमित्याद्यभ्यन्तरलक्षणानि देहे सन्ति, परं शास्त्रं नालीकं, एष धर्मचक्री नरेन्द्रादिपूजितो भविष्यतीत्युक्त्वा धनस्वर्णरत्नराशिभिः शक्रेण पुष्योः पूजितो दृष्टः, जिनोऽप्यन्यत्र विहरति । जे केइ उवसग्गा उप्पज्जति त्ति-ये केचिदुपसर्गा उत्पद्यन्ते, तद्यथा-'दिव्वा वेत्यादि-देवकृता वा, मनुष्यकृता वा, तिर्यग्योनिकृता वा अनुलोमा वा-दृश्यमानवपुःखकरणाऽभावे मनःशुभपरिणामध्वंसिनः, प्रतिलोमा वा-वर्मनसोरपि दुःखदायिनः,
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तान् उत्पन्नान् सम्यक् सहते भयाऽभावात्, क्षमते क्रोधाऽभावात्, तितिक्षते - दैन्याद्यभावात्, अध्यासयति- अविचलाङ्गत्वात् । तत्र देवादिकृतोपसर्गान् सहनादित्वेन दर्शयति यथा
"स्वामी प्रथमचतुर्मासके शूलपाणियक्षायतने स्थितः, स च दुष्टः कस्यापि बहिः स्थितिं रात्रौ न सेहे । स प्राग्भवे धनदेववणिजो वृषोऽभूत्, अन्येद्युः पञ्चशतशकटानां नद्युत्तारणेन त्रुटितः, धनदेवोऽपि वर्द्धमानग्रामे ग्राम्यजनानां तत् शुश्रूषायै द्रव्यं दत्वाऽचलत्, तैस्तत् शुश्रूषा न कृता, द्रव्यं च स्वयं भक्षितं । वृषोऽपि क्षुत्तृट्पीडया मृत्वा शूलपाणिर्यक्षोऽभूत्, अवधिना स्वव्यतिकरं ज्ञात्वा रुष्टः सन् तदूग्रामजनान् अमारयत् । किश्व पदे पदे तदस्थिराशिदर्शनात् तस्य ग्रामस्य 'अस्थिकग्राम' इति नाम लोके प्रससार । ततो लोकेन विज्ञसो यक्ष इत्यवक्-मदायतनं मन्मूर्ति च कारयित्वा पूजा कार्या, तत्सर्व (लोकैः) प्रपन्नं, तत्प्रबोधाय तदायतने प्रभुः रात्रौ प्रतिमां प्रपेदे । यक्षोऽपि तत्रस्थं प्रभुं वीक्ष्य क्रुधा महाहहासं मुञ्चन् शिरःकर्णनखादिषु व्यथां कुवैश्च हस्ति-पिशाच-सर्वादिरूपैः कदर्थयामास, परं प्रभुचलत् । पश्चात् प्रबुद्धो यक्षः प्रभोर्भक्तिं चक्रे, सिद्धार्थेन तर्जितः सन् स विशेषाच्च ।
“ नाथोऽपि चतुरो यामान् किंचिदनान् कदर्थितः । श्रमान्निद्रामधिगतः पश्यत्स्वमानमून् दश ॥ १ ॥ वद्धिष्णुस्ताल पिशाचः स्वयं व्यापादितः १ किल । कोकिलौ श्वेतचित्रौ च २ - ३, सेव्यमानौ स्वसंनिधौ ॥२॥ दामादयं च गन्धाढ्यं ४, गोवर्गः सेवनोद्यतः ५ । पद्माञ्चितं पद्मसरो ६, दोर्भ्यां तीर्णश्च सागरः ७ ॥ ३ ॥
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कल्प
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उद्रम चाबिम्ब ८ मथाद्विर्मानुषोत्तरः । निजांत्रैर्वेष्टितः स्वेन ९, रुटं मेरुशिरोऽपिच १० ॥ ४ ॥ प्रातरागाज्जनः सर्वः, इन्द्रशर्मोत्पलोऽपिच । अक्षताङ्गं पूजितं च, प्रभुं प्रेक्ष्य मुदं ययुः ॥ ५ ॥ कायोत्सर्गावसाने च, प्रभुं नत्वोत्पलः पुनः । ज्ञानसामर्थ्यतो ज्ञातप्रभुस्वमो ब्रवीदिदं ॥ ६ ॥ स्वामिन्निशान्ते युष्माभिः, सुस्वमाः प्रेक्षिता दश । तत्फलानि स्वयं वेत्सि, भक्त्या रव्यामि तथाप्यहं ॥ ७ ॥ हतस्ताल पिशाचोऽयं, तन्मोहं निहनिष्यसि १ । यः श्वेतकोकिलः शुक्लध्यानं आरोक्ष्यसीत्सतत् २ ॥ ८ ॥ चित्रको किलस्तद्वत्, द्वादशाङ्गीं प्रथयिष्यसि ३ । गोवर्गेौ यत्तु तद्भावी संघस्तव चतुर्विधः ४ ॥ ९ ॥
पद्मसरो देवनिकायसेवकस्ततः ५ । यत्तु सागर सुतीर्ण, उत्तरिष्यसि तद्भवं ६ ॥ १० ॥ यच्चार्कः केवलज्ञानं, तत्समुत्पत्स्यते तत्र ७ । यच्चान्त्रैर्वेष्टितोद्रिस्तत् समतीपं यशस्तव ८ ॥ ११॥ यन्मेरुशृङ्गामारूढस्त्वं, तत्सिंहासन स्थितः । धर्मे द्रक्ष्यसि ९ यद्दाम्नी, तयोर्वेद्भि फलं नहि १० ॥ १२ ॥ अथाचचक्षे भगवान, दामद्वयफलं त्वदः । गृहस्थनां यतीनां च वक्ष्ये धर्मं द्विधाऽपि च ॥ १३ ॥ प्रथमो वर्षारात्रः ॥ १ ॥ ततः स्वामी मोराकेऽगात्, तत्र स्वामी सत्काराद्यर्थ सिद्धार्थो जनानां निमित्तं वक्ति । स्वामिशोभां वीक्ष्य कुद्धेनाछन्दकेन पाखण्डिना तृणच्छेदाच्छेदप्रश्ने कृते सिद्धार्थेन 'न छेत्स्यते' इत्युक्ते छेदोद्यतस्य तस्याङ्गुलीः शक्रः चिच्छेद । ततो रुष्टः सिद्धार्थों जनानित्याह-'अयं चौरः, यतः कर्मकरस्य वीरघोषस्य दशपलिकं वहलकं हृत्वा खर्जुर्याधा न्यस्तं एकमिदं । द्वितीयमिन्द्रशर्मणो मेषोऽनेन जग्धः, तदस्थीनि वदर्यधः सन्ति ।
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N तृतायमस्य भार्या वक्ष्यति,' पृष्टा सा आह-भगिनीपतिरयं'। लज्जितः प्रभु विजने गत्वाह-हे स्वामिन्नहम् अत्रैव जीवामि त्वं सर्वत्र पूज्यसे,'।
ततः स्वामा श्वेताम्भ्यां विहरन् जनवारितोऽपि कनकखलाख्यतापसाश्रमे चण्डकोशिकाहिः प्रबो| धायागात् । स प्रारभवे क्षपकः, क्षुल्लकेनावश्यके पारणार्थगमनजातमण्डुकीविराधनालोचनार्थ स्मारितः, क्रुधा क्षुल्लकं हन्तुं धावन स्तम्भे आस्काल्य मृतो ज्योतिष्केषूत्पन्नः । ततश्चयुतस्तत्राश्रमे पञ्चशततापसपतिश्चण्डकोशिकोऽभूत्, तत्रापि राजन्यान् स्वाश्रमफलादिगृह्णानान् वीक्ष्य परशुहस्तो धावन्नवटेऽपतत्।। परशुविद्धस्तत्रैव चण्डकोशिकेति माग्भवनामा दृग्विषोहिरभूत् । स च प्रभु प्रतिमास्थं दृष्ट्वा क्रुधा | ज्वलन् सूर्य दर्श दर्श त्रिग्ज्वालाः मुमोच । तासु विफलासु मविषाक्रान्तोऽयं पतन् मा मां मृदूनीयादिति दृष्ट्वा दृष्ट्वाऽपक्रामन् गोक्षीरधवलं प्रभुरक्तं वीक्ष्य ‘चण्डकौशिक!बुद्धयस्व बुद्धयस्व' इति स्वामिवचः श्रुत्वा च जातिस्कृतिमान् प्रभु त्रिप्रदक्षिणीकृत्य प्रपन्नानशनो मान्यत्र विषभिषणा मे दृष्टिा
सीदिति तुण्डं विले क्षिप्त्वा स्थितः । घृतविक्रायिकाभिर्भक्त्या घृतेन म्रक्षितः, पिपीलाकादिभिर्भशं 17 पीडयमानः प्रभुदृगसुधासिक्तः पक्षान्ते सहस्रारेऽगात्।। की ततः क्रमेण विहरन् स्वामी सुरभिपुरं प्रासः, तत्र गङ्गानदीसियात्रो नाविकस्तदा लोके नावमारोहति सति घृकरुतं श्रुत्वा विद्वान् खेमिलाऽवक्-'मरणान्तं विघ्नं प्राप्यम्, परमेतन्मुनिप्रभावान्मोक्ष्यामहे,'
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कल्प
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तदनु गङ्गोत्तारे प्रभोस्त्रिष्टभवविदारितसिंहजीव सुदंष्ट्रसुरविकुर्वितदुर्वातनौमज्जनाद्युपसर्गं कम्बलशम्बलाख्यौ नागकुमारौ निवारितवन्तौ तयोरुत्पत्तिस्त्वेवं
"मथुरायां जिनदासो वणिग् श्राद्धः, तद्भार्या साधुदासी, ताभ्यां परिग्रहप्रमाणे क्रियमाणे चतुष्पदप्रत्याख्यानं गृहीतं, ततो दिने दिने गोरसो गृह्यते । तत्रैका आभीरी गोरसमादायागता, साधुदासी अवादीदिति 'मान्यत्र यायाः यावन्मात्रगोरसमानयिष्यसि तावन्मात्रमादास्ये' एवं मिथः सख्यं जातं । अन्यदा भीगृहे विवाहो जातस्तदर्थे श्रेष्ठिना वस्त्रादीनि प्रेषितानि ततस्तुष्टेनाभीरेण नवौ कम्बलशम्बलाभिधौवृषौ बलात् श्रेष्ठिगृहे बडौ । श्रेष्ठिनाऽचिन्ति यदि मौनं रक्षामि तदेता धूर्वाहनादिकष्टं यास्यतः इति विचिन्त्य श्रेष्ठिप्रासुकतृणादिना तौ पुपोष । क्रमेणाष्टमीचतुर्दश्युपवासकरणपुस्तक वाचनातत्परश्रेष्ठिसङ्गाद्भद्रकौ जातौ तथाष्टमोचतुर्दश्योरूपवासं चक्रतुः । अन्यदा मित्रेण भण्डीरयक्षयात्रार्थमनापृच्छय गृहीतौ, रथे वाहितौ, सौकुमार्यात त्रुटितौ, ततस्तेनानीय श्रेष्ठिगृहे बद्धौ परं तौ न चरतः न पिवतः, ततः श्रेष्ठिना तयोरनशनं कारितं, नमस्कारश्च दत्तः, मृत्वा नागकुमारौ जातौ । तत्र अवधिना सोपसर्ग प्रभुं ज्ञात्वा प्राप्तौ तयोरेकेन नौरुत्तारिता, अन्यस्तु सुदंष्ट्रेण सह युद्धं कुर्वन्नभूत् । ततः प्रभुं निसर्ग विधाय पुष्पवृष्टिं कृत्वा नत्वा च स्वस्थाने गतौ । ततः स्वामी द्वितीयवर्षाराने राजगृहे नालन्दायां तन्तुवायशालायामाद्यं मासक्षरणं प्रपद्य तस्थौ । तत्र आगाद् गोशालस्तस्योत्पत्तिस्तेवं
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'मललाख्यो मङ्खः, तद्भार्या सुभद्रा, शरवणविषये गोबहुलदिजस्य गोशालायां प्रसुतेति गोशाल इति नाम । स च प्रभोः विजयगृहे कृत कूरादिपारणे पञ्चदिव्यानि वीक्ष्य तच्छिष्योऽस्मि इति प्रभुमाह। द्वितीयपारणे पक्वान्नादिना नन्दः, तृतीये सर्वकामगुणितपरमान्नादिना सुनन्दः प्रभु प्रतिलाभितवान् ॥२॥ ततः कोल्लाकसन्निवेशे चतुर्थ पारणं बहुलदिजगृहे पायसेन कृतवान् दिव्यानि च, गोशालस्तु तन्तुवायशालायां प्रभुमनुपलभ्य अन्तोबहिश्च रोजगृहे गवेषयन् स्वोपकरणं विप्रेभ्यो दत्वा शिरो मुण्डयित्वा कोल्लाके प्रभुं दृष्ट्वा त्वत्पव्रज्यास्तु ममेत्युक्तवान् । ततः स्वामी सगोशालः सुवर्णखल ग्रामं याति, अन्तरा च गोपैः स्थाल्यां पच्यमानं पायसं वीक्ष्य गोशालः प्रभुंग्राह-'आगम्यतांभुज्यतेऽन' सिद्धार्थेन तद्भगकथने गोपैः प्रयत्नरक्षिताऽपि स्थाली भग्ना। सतो गोशालेन 'यद्भाव्यं तदभवत्येव' इति नियतिः स्वीकृता । ततः स्वामी ब्राह्मणग्रामे नन्दपाटके नन्देन प्रतिलाभितः, गोशालस्योपनन्दपाटके उपनन्देन पर्युषितान्नं [वासीभक्तं] दत्तं । तत स रुष्टो मद्धर्माचार्यतपसाऽस्य गृहं दह्यतामिति शशाप, तत्तथैवासीत्। पश्चात् प्रभुश्चम्पायां प्राप्तः, तत्र बिमासक्षपणेन वर्षावासं तृतीयमवसत्, चरमदिमासपा| रणकं चम्पाया बहिश्चके॥३॥
॥२॥३॥ ततः स्वामी कुमारकं सन्निवेशं गत्वा उद्याने प्रतिमयाऽस्थात् । इतश्च पार्धशिष्यो भूरिशिष्ययुतो मुनिचन्द्रमुनिः कुम्भकारशालायां तस्थौ, तत्साधून वीक्ष्य गोशालः माह-के युयम् ? तैरुक्तं निर्ग्रन्थाः, पुनः
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कल्प
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प्राह- 'क्व यूयं ? क्व मे गुरुः,' तैरुचे यादृशस्त्वम् तादृशस्ते गुरुः । ततो रुष्टेन ऊचे 'मद्गुरोस्तपसा दह्यतां युष्मदाश्रयः,' तैरूचे–'नास्माकं भीतिः' पश्चात्स प्रभोः सर्व प्राह । सिद्धार्थोऽवदत् 'नैते साधवो दयन्ते । रात्रौ जिनकल्पतुलनां कुर्वन् मुनिचन्द्रः प्रतिमास्थः चौरभ्रान्त्या कुम्भकारेण हतः, जाताऽवविज्ञानश्च स्वर्ग प्राप्तः । तन्महिमार्थमायातसुरकृतोद्योतं वीक्ष्याश्रयो दह्यते तेषामित्याह प्रभुं गोशालः, सिद्धार्थेन यथावदुक्ते तत्र गत्वा तच्छिष्यान् निर्भययातः । क्रमेण प्रभुः पृष्टचम्पां प्रातस्तत्र तुर्य वर्षारात्रं ॥४॥ चतुर्मास क्षपणेनातिवाह्य बहिः पारयित्वा क्रमेण स्वामी श्रावस्त्यां वहिः प्रतिमयाऽस्थात् । तत्र सिद्धार्थोक्तमहामांस भोजन परिहाराय गोशालो वणिक्कुलेषु भ्रमन् पितृदत्तवणिग् भार्यया निन्द्रामृतापत्या श्रीभद्रया नैमित्तिकवाचाऽपत्यजीवनाय गर्भमांसमिश्रं पायसं भोजितो, अग्निभयाच्चान्यतो गृहे द्वारं चक्रे । आगतेन सिद्धार्थोक्ताप्रत्यये पायसवमने कृते मांसखंडनखवालादि दृष्ट्वा रुष्टेन तद् गृहं पश्यताऽपि न दृष्टं ततः स्वामितपसा पाटकोऽपि ज्वालितः । क्रमेण प्रभुः क्लिष्टकर्मनिर्जरार्थं लाटा (ढा) देशं प्राप, तत्र पूर्णकलशाख्ये अनार्थग्रामे प्रभोर्गच्छतोऽन्तरा द्वौ रतेनी 'अपशुकन' इति मत्वा असिमुत्पाव्य धावितौ, ज्ञातवृत्तान्तवज्रिणा हतौ । ततः स्वामी भद्रिकापूर्वी पञ्चमे वर्षांरात्रे चातुर्मास्यं तपश्च ॥ ५ ॥ ततो बहिः पारयित्वा ततः क्रमेण शालिग्रामोद्याने प्रतिमास्त्रप्रभोर्माघमासे त्रिपृष्टभवापमानितान्तःपुरी मृत्वा व्यन्तरीभूता तापसीरूपं कृत्वा जलभृतजटाभिरुपसर्ग, उपशान्ता च स्तुतिं
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चक्रे, तव्यथां सहमानस्य षष्ठेन तपसा लोकावधिरुत्पन्नः । ततः स्वामी भद्रिकां गतस्तत्र षष्ठवर्षासु चतुर्मासतपो विचित्रांश्चाभिग्रहांश्चक्रे ॥६॥
॥४॥५॥६॥ । ततः क्रमेणालम्भिकायां सप्तमवर्षासु॥७॥चतुर्मासक्षपणेन बहिःपारयित्वाविहरन् क्रमेण राजगृहेऽष्टमवर्षासु।।८॥ चतुर्मासक्षपणेन बहिः पारयित्वा क्रमेण वज्रभूम्यां बहूपसर्गा इति कृत्वा नवमं वर्षारात्रं स्वामी तत्र कृतवान्, ॥९॥ चतुर्विधाहाररहितं चतुर्मासकमपरमासदयं च तत्रैव विहृतः, इति पाण्मासिकं तपोऽभूत्। वसत्यभावाच नवमं वर्षा रात्रमनियतमकार्षीत्।
॥७॥८॥९॥ ततः कुर्मग्र मंगच्छन् अन्तरा तिलस्तम्भं दृष्ट्वा प्रभोऽयं निष्पत्स्यतेन वेति मङ्कलिराह, प्रश्नानन्तरं | 'सप्तापि तिलपुष्पजीवा मृत्वा एकस्यां शम्ब्यां तिला भविष्यन्ति' इति स्वामिवाम् अन्यथा कर्नु ।
कृतधिया तिलस्तम्भ उत्पाव्य एकान्तेऽमुश्चत् । मा प्रभुवचोऽन्यथाऽभूदिति व्यन्तरैर्वृष्टिश्चक्रे, गोखुरेण - |च क्लिनभूमौ स्थिरीचक्रे । ततः प्रभुः कूर्मग्रामे आतापनाग्रहणे मुत्कलमुक्तजटामध्ये यूकागहूल्यदर्शनात्
तरेति कथनरुष्टवैश्यायनमुक्ततेजोलेश्यातः शीतलेश्यया गोशालं रक्षितपूर्वी सिद्धार्थपुरे वजन् गोशालेन ‘स तिलस्तम्भो न निष्पन्न' 'इत्युक्ते ‘स एष तिलस्तम्भो निष्पन्न' इति प्रत्याह, गोशालोऽश्रदधत् तिलशम्बां विदार्य सप्ततिलान् दृष्ट्वा नियतिः दृढीचके । तत 'आतापनापरस्य सदा
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षष्ठतपसः सनखकुल्माषपिण्डिकया एकेनोष्णोदकचुलुकेन पारयतः षण्मास्या तेजोलेश्या उत्पद्यते' इति प्रदीपिका सिद्धार्थोक्तोपायः, क्वचित् स्वाम्युक्तोपायः, पृथग्भूतः श्रावस्त्यां कुम्भकारशालास्थः तां साधितवान् । त्यक्तवतश्रीपार्श्वशिष्यषट्कादष्टाङ्गनिमित्तं च शिक्षितवान् । ततः अहङ्कारादहं जिनोऽस्मि इति लोके । अवादीत् । ततः स्वामी श्रावस्त्यां दशमं वर्षा रात्रं ॥१०॥ विचित्रं तपोऽकरोदित्याद्यनुक्रमेण यावत् स्वामी बहुम्लेच्छां दृढभूमि गतः । तस्यां बहिः पोहालोद्याने पोलासचैत्येऽष्टमभक्तेन एकरात्रिकी प्रतिमा तस्थौ। __इतश्च सभागतः शक्रस्त्रैलोक्यजना अपि वीरचेतश्चालयितुमसमर्था इति प्रशंसां व्यधात्, तदनु शक्रामर्षेण सामानिकसङ्गमाख्यसुरः एत्य आदौ धूलिवृष्टिं चक्रे । यया पूर्णाक्षिकर्णादिश्रोताः स्वामी निरुच्यासोऽभूत् । १ ।, ततो वज्रतुण्डपिपीलिकाभिश्चालनीतुल्यश्चक्रे, ।२। तथा वज्रतुण्डोइंशाः।३।। तीक्ष्णतुण्डघृतेल्लिकाः।४। वृश्चिकाः ।५। नकुलाः ।६। सर्पाः।७। मूषकाश्च ।८। भक्षयन्ति, तथा । हस्तिनः ।९। हस्तिन्यश्च । १० । शुण्डाघातचरणमईनादिना, पिशाचोऽहासादिना । ११, व्याघ्रो दंष्ट्रानखविदारणादिना ।१२।, सिद्धार्थत्रिशले करुणविलापादिना । १३ । उपसर्गयन्ति, ततः स्कन्धावारसमीपस्थः प्रभोः पदोर्मध्येऽग्निं प्रज्वाल्य स्थालीमुपस्थाप्य पचति ।१४।, ततश्चाण्डालस्तीश्णतुण्डशकुनीनां पञराणि प्रभोः कर्णवाहुमूलादिषु लम्बयति ते च मुखैर्भक्षयन्ति ।१५, ततः खरवातो
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गिरीनपि कम्पयन् प्रभुमुत्क्षिप्य उत्क्षिप्य पातयति ।१६।, ततः कलिकावातश्चक्रवद् भ्रामयति ।१७। ततो भारसहस्रलोहमयचक्रेणाहतो भूमौ प्रभुराजानुनिमग्नो येन मेरुचूलाऽपि चूर्णीस्यात् । १८, ततः प्रभातं विकुळ वक्ति, देवार्यावापि तिष्ठसि? स्वामी ज्ञानेन रात्रिं वेत्ति । १९ ।, देवढि दर्शयित्वा | भणति, वृणीहि महर्षे ! येन तव स्वर्गग मोक्षेण वा प्रयोजनं, तथाप्यक्षुब्धं देवाङ्गना नाव्यगीतविलासादिभिरुपसर्गयति ।२०, एवमेकस्यां निशि विंशत्योपसगैर्न मनागपि चुक्षोभे भगवान् । ततः षण्मासान यावदनेषणीयाहारकरणादिना निरशनस्य प्रभोविचित्रोपसर्गान् कृत्वा “हे आर्य ! व्रज विहारादौ,
हिण्ड गोचर्यादौ नाऽहं किञ्चित् करोमि" इत्युक्त्वा प्रभुं नत्वा सङ्गमको विषष्णः सन् स्वर्गमगात, Kी स्वामी च गोकुले वत्सपाल्या स्थविरया पायसेन प्रत्यलाभि, दिव्यानि च
इतश्च कालं तावन्तं सुराः सौधर्मवासिनः । निरानन्दाः निरुत्साहाः उद्विग्नाश्चावतस्थिरे ॥१॥ - शक्रोऽपि मुक्तनेपथ्या-ङ्गरागोऽत्यन्तदुखितः । सङ्गीतकादिविमुखो, मनस्येवमचिन्तयत् ॥२॥ इयतामुपसर्गाणां निमित्तमभवं ह्यहम् । मया स्वामिप्रशंसायां, कृतायां सोऽकुपन सुरः ॥३॥ शक्रः सङ्गमकं दृष्ट्वा सद्यो भूत्वा पराङ्मुखः । इत्यूचे भोः सुराः सर्वेऽप्याकर्णयत मद्वचः॥४॥ अयं हि कर्मचाण्डालः पापः सङ्गमकाऽमरः। दृश्यमानोऽपि पापाय, तद् द्रष्टुं नैप युज्यते ॥५॥ बह्वनेनापराद्धं हि, यत् स्वामी नः कदर्थितः । अस्मनोऽपि न किं भीतो, भवानीतो न यद्ययम् ॥ ६ ॥ अर्हन्तो नान्यसाहाय्यात्, तप्यन्ते तप इत्यहम् । तथोपसर्गकालेऽपि, नामुं पापमशिक्षयम् ॥ ७॥ ३७
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ततः कोपाबजेण वामपादे हत्वा निर्वासितः । सागरोपमाशेषायुः परिवारत्यक्तः शक्रादेशाद-मदीपिका महिषीयुतो मेरुचूलां ययौ। ततः प्रभुरेकादश वर्षारानं वैशाल्यां चक्रे।
॥ ततः क्रमेण कौशाम्न्यां गतः-"तत्रः शतानीक राजा, मृगावती देवी, स्वामिना तत्र पोषबहुल| प्रतिपद्यभिग्रहो जगृहे, यथा-"द्रव्यतो राडाकुल्माषान् सूर्पकोणेन १, क्षेत्रतो देहलीवहिर्गतकपादा २, कालतो निवृत्तेषु भिक्षाचरेषु ३, भावतो राजसुता दासत्वमापन्ना निगडिता मुण्डितमस्तका रुदन्त्यष्टमभक्तिका चेदू दास्यति तदा गृहिष्यामि ४," परीषहसहनार्थ स्वामिनोऽभिग्रहस्ततो गोचर्याम् हिण्डन् पञ्चदिनोनषण्मासोपवासी दैवयोगात् धनवाहश्रेष्ठिभार्या मूलागृहस्थितया-चम्पेशदधिवाहननृपधारिणीराज्ञीसुतया वसुमत्या चन्दनवालापरनाम्या स्वामी प्रतिलाभितः । ततः पञ्चदिव्यानि-देवा नन्तुः १, केशाः शीर्षे जाताः २, निगडानि च नृपुराणि ३, देवैश्च चन्दनशीतलत्वात् चन्दनेति तस्या नामाऽकारि ४, लोभान्नृपं वसुधारां गृहानम् शक्रो निवार्य प्राह-'यस्येयं दास्यति तस्यैषा', ततः सा धनवाहश्रेष्ठिनं समर्पयामास ५ । शक्रः शतानीकं प्राह-'सङ्गोप्येषा यावत्प्रभोः केवलोत्पत्तिस्तदनन्तरं प्रभोः प्रथमशिष्यिणी भविष्यतीति । ततः स्वामी चम्पायां स्वातिदत्तदिजस्याग्निहोत्रशालायां बादशं वर्षासं चक्रे । ततः षण्मानिग्रामे प्रभोबहिः प्रतिमास्थस्य पावे गोपो गां मुक्त्वा ग्रामं प्रविष्टः, ओग
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तश्च पृच्छति 'देवार्य ! क्व गता गौः' मौने च रूष्टेन तेन स्वामिकर्णयोः काशशलाके तथा प्रक्षिसे यथा । मिथो मिलिते छिन्नाग्रत्वाददृश्ये च । एतच्च कर्मशय्यापालककर्णयोस्तप्तत्रपुप्रक्षेपयता त्रिपृष्टेन यदर्जितं तदुदीण वीरभवे । शय्यापालको भवं भ्रान्त्वा च गोपः। ततः प्रभुर्मध्यमापापायां सिद्धार्थवणिजो गृहे भिक्षार्थ गतः, तेन ज्ञात्वा खरकवैद्यात् सण्डासकाभ्यां कर्षिते ते शलाके स्वामिनाऽऽराटिर्मुक्ता तेन भैरवं वनं जातं, देवकुलं च कारितं, स्वोम्यपि संरोहणौषधेन तदैव प्रगुणीभूतः।।
एवमुपसाः गोपेनैवारब्धाः गोपेनव परिनिष्ठिताः, एतेषां जघन्यादिविभागरत्वेवं-जघन्यं कटपूतना शीतं, मध्यमं च कालचक्रं, उत्कष्टम् च श्रोत्रशल्योडरणं । गोपः सप्तमनरकातिथिः, खरक सिद्धार्थौ च स्वर्ग गतौ ॥११६॥ ___तएणं समणे भगवं महावीरे अणगारे जाए, इरियासमिए, भासासमिए, एसणासमिए,
आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए, उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपरिट्ठावणियासमिए, मणसमिए, वयसमिए, कायसमिए, मणगुत्ते, वयगुत्ते, कायगुत्ते, गुत्ते, गुत्तिदिए, गुत्तबंभयारी । अकोहे, अमाणे, अमाए, अलोहे, संते, पसंते, उपसंते, परिनिव्वुडे, अणासवे, अममे, अकिंचणे,
१ अत्र किरणावली-सुबोधिका-दीपिकादिवृत्तिग्रन्थोपदर्शितोपसर्गेभ्योऽपि अतिसंक्षेपार्थ ये केचिदुपसर्गाः न प्रदर्शितास्ते च अल्पकप्रदायित्वेन उपेक्षिताः सम्भाव्यन्ते। ...
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दीपिका
छिन्नग्गंथे निवलेवे, कंसपाइइव मुक्कतोये, संखे इव निरंजणे, जीवे इव अप्पडिहयगई, गगण- म्भिव निरालंबणे, वाउ व अपडिबद्धे, सारयसलिलं व सुद्धहियए, पुक्खरपत्तं व निस्वलेवे, कुम्मो इव गुत्तिदिए, खग्गिविसाणंव एगजाए, विहग इव विप्पमुक्के, भारंडपक्खीव अप्पमत्ते, कुंजरो इव सोंडीरे, वसहो इव जायथामे, सीहो इव दुद्धरिसे, मंदरो इव अप्पकंपे, सागरो इव सव्वगंभीरे, चंदो इव सोमलेसे, सुरो इव दित्ततेए, जच्चकणगं व्व जायस्वे, वसुंधरा इव सव्वकासविसहे, सुहुयहुयासणो इव तेयसा जलंते, [इमेसि पयाणं दुन्नि संगहिणी गाहाओ "कसे संखे जीवे, गगणे वाऊ अ सरयसालिले । पुक्खरपत्ते कुम्मे, विहगे खग्गे अ भारंडे॥१॥ कुंजखसहे सीहे, नगराया चेव सागरमखोभे। चंदे सूरे कणगे, वसुंधरा चेव हूअवहे ॥२॥]णत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधे भवइ । सेय पडिबंधे चउबिहे पन्नत्ते, तं जहा-दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ । दवओ सचित्ताचित्तमीसएसु दव्वेसु । खित्तओ गामे वा, नगरे वा, अरण्णे वा, खित्ते वा, खले वा, घरेवा, अंगणे वा, नहे वा । कालओ-समए वा, आवलियाए वा, आणापाणुए वा, थोवे वा, खणे वा, लवे वा, मुहुत्ते वा, अहोरते वा, पक्खे
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वा, मासे वा, उऊ वा, अयणे वा, संवच्छरे वा, अन्नयरे वा, दीहकालसंजोए वा । भावओकोहे वा, माणे वा, मायाए वा, लोभे वा, भए वा, हासे वा, पिज्जे वा, दोसे वा, कलहे वा, अभक्खाणे वा, पेसुन्ने वा, परपरिवाए वा, अरइरई वा, मायामोसे वा, जाव मिच्छादसणसल्ले वा, (प्र० ६००) तस्स णं भगवंतस्स नो एवं भवइ ॥ ११७॥
व्याख्या-तएणमित्यादितो......."भवईत्यन्तम् । तत्र यत एवं ततोऽनगारोजातः। अनगारस्वख्यापकविशेषणान्याह-ईर्यायां-गमनागमनादौ समितः-सम्यक् प्रवृत्तः, भाषायां भाषणे समितः, एषणायां-द्विचत्वारिंशदोषविशुद्धभिक्षाग्रहणे, आदाने-ग्रहणे उपकरणस्येति गम्यम्, भाण्डमात्रायावस्त्रायुपकरणरूपपरिच्छदस्य यद्वा भाण्डस्य वस्त्रादेम॒न्मयभाजनस्य वा मात्रस्य च-पात्रविशेषस्य निक्षेपणेविमोचने समितः-सुप्रत्युपेक्षणादिना, उच्चारो-विटू प्रश्रवणं-मूत्रं खेलो-निष्ठीवनं सिद्धानो-नासिकामलः जल्लो-देहमलः तेषां परिष्ठापनायां समितः । एतच्चान्स्य समितिद्वयं प्रभोर्भाण्डसिंङ्घानाद्यभावेऽपि नामाखण्डितार्थमित्यमुक्तम् । मनः समितः इत्यादि मनःप्रभृतीनां कुशलानां प्रवर्तकः, मनोगुप्तः इत्यादिषु तेषामशुभानां निषेधकः, यतः समितिः सत्प्रवृत्तिः, 'गुप्तिस्तु निरोधः, अत एव गुप्तः-सर्वथा गुप्तत्वादू, गुप्तेन्द्रियः-शन्दादिषु रागोचभावात, गुप्तं-नवगुप्तिमद् ब्रह्म-मिथुनविरतिरूपमाचरति इत्येवं शीलो यः सः। अक्रोध इत्यादि व्यक्तम् । अत एव शान्तोऽन्तर्वृत्त्या, प्रशान्तो-बहिर्वृत्या,
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कल्प
प्रदीपिका
उपशान्त-उभयतः, यहा मनःप्रभृत्यपेक्षया शान्तादीनि पदानि, अत एव परिनिवृत्त:-सकलसंतापोज्झितः। अनावो-हिंसादिसप्तदशविधाऽसंयमवर्जितः, अमम-आभिष्वङ्गिकममेति शब्दरहितः, अकिश्वनो-निद्रव्यः, छिन्नग्रन्थो-मुक्तहिरण्यादिग्रन्थः, निरुपलेपो-द्रव्यभावमलरहितः तत्र द्रव्यतोऽगमलो भावतो मिथ्यात्वादिमलस्ताभ्यां रहितः, निरुपलेपत्वमेवोपमानैराह-कांस्यपात्रीव मुक्तं तोयमिव तोय-बन्धहेतुत्वात् स्नेहो येन, शंख इव निरञ्जनोऽथवा रअनं-रङ्गणं रागायुपरञ्जनं तस्मान्निर्गतः, जीव इवाप्रतिहतगतिः-औचित्येनास्खलितो विहारे संयमे वा, गगनमिव निरालम्बनो-देशग्रामकुला| चाऽऽलम्पनोज्झितः, वायुरिवाप्रतिबद्धः-क्षेत्रादौ 'गामे एगराइयं' इत्यादिवचनात् । शारदसलिलमिव शुदहृदयः-कालुष्याऽभावात्, पुष्करपत्रमिव निरुपलेपः-पङ्कजलतुल्यस्वजनविषयस्नेहरहितत्वात, कूर्म इव गुप्तेन्द्रियः स हि ग्रीवापादचतुष्करूपाङ्गपञ्चकेन गुप्तः स्यादेवं स्वाम्पपीन्द्रियपञ्चकेन, खड्गी-गण्डकाख्यो जीवविशेषस्तस्य विषाणं-शृङ्गामेकमेव स्यात्तदेको जातः एकभूतो-रागादिसहाय्याऽभावात, विहग इव विप्रमुक्तो-मुक्तपरिकरत्वादनियतवासाच, भारण्डपक्षीवाऽप्रमत्तो-निद्राद्यऽभावात, भा. रण्डपक्षिणः कीदृशाः ? इत्याह
भारण्डपक्षिणःख्यातास्त्रिपदा मर्त्यभाषिणः। द्विजिह्वाः द्विमुखाश्चेकोदराऽभिन्नफलैषिणः॥१॥ ___ कुञ्जर इव सौण्डीरः-कर्मशत्रुसैन्यं प्रति शरः, वृषभ इव जातस्थामा स्वीकृतमहाव्रतभारवहनं प्रति
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जातबलो निर्वाहकत्वात्, सिंह इव दुईर्षः-परीषहमृगैरजेयः, मेरुरिवोपसर्गवातैरचाल्यः, सागर इव गम्भीरो-हर्षशोकाद्यक्षोभ्यचित्तः, चन्द्र इव सौम्यलेश्या-परोपतापकृत्मनःपरिणामरहितः, सूर इव दीप्ततेजा-द्रव्यतः कान्त्या भावतो ज्ञानेन परेषांक्षोभकत्वादा, जात्यकनकमिव जातं सम्पन्न रूपं स्वरूपं रागादिकुद्रव्यविरहाद्यस्य, वसुन्धरेव सर्वाननुकूलेनरान् शीतोष्णादिस्पर्शान् विषहते यः । महतो घृतादितर्पितः स चासो हुनाशनश्चाग्निस्तद्वत्तेजसा-ज्ञानेन तपसा वा ज्वलन्-दीप्यमानः। नास्त्ययं पक्षो | यदुत तस्य भगवनः कुत्रचित् प्रतिबन्धो भवति । क्षेत्रं-धान्यजन्मभूमिः, खलं-धान्यमलपवनादिस्थण्डिलं, नभ-आकाशं । सनयः-सर्वनिकृष्टकालः, आवलिका-असङ्ख्यातसमयरुपा, आणापाणू-उश्वास
निश्वासकालः, स्तोकः-सप्तोछासमानः, क्षगो-बहुतरोधासरुपा, लवः-स्तोकमानः, मुहूर्तः-सप्तसप्तN तिलवमानः, अन्यतरस्मिन् दीर्घकालसंयोगे युगपूर्वादौ । भये-इहलोकादिसप्तविधे, हास्ये हर्षे वा,
पिल्ले त्ति-अनभिव्यक्तमायालोभस्वभावेऽभिष्वङ्गमात्रे प्रेमणि, देषे-अनभिव्यक्तक्रोधमानस्वरुपेऽप्रीतिमात्र, यद्वा रागः-सुखाभिज्ञस्य सुखानुस्मृतिपूर्वः सुखे तत्साधनेऽप्यभिमते विषये गृद्धः प्रेम तत्र, देषो-दुःखाभिज्ञस्य दुःखानुस्मृतिपूर्वो दुःखे तत्साधने वाऽप्रीतिस्तत्र, कलहेऽसभ्यवचनराटयादी, अभ्याख्याने-असदोषाविष्करणे पैशुन्ये-प्रच्छन्नमसदोषाविष्करणे, परपरिवादे-विप्रकीर्णपरगुणदोषवचने, | अरतिश्चित्तो गरुपा, रतिश्चित्ताभिरतिः, समाहारेऽरतिरतिनि, मायामृषे मायामोषे वा-चेषानरकरणेन परवञ्चनं माया तया सह मृषा मायामृषा । मायया वा मोषः परेषां मायामोषस्तत्र मिथ्यादर्शन
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मिथ्यात्वं शल्यमिवानेकदुःखहेतुत्वात् । एवममुना प्रकारेण तस्य भगवतो न भवति प्रतिबन्धः । इति प्रकृतम् ॥ ११७ ॥
व्याख्या - से णमित्यादितो
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से भगवं वासावासवज्जं अट्ठ गिम्हहेमंतिए मासे गामे एगराइए नगरे पंचराइए। वासीचंदणसमाणकपे समतिणमणिले हुकंचणे समसुहदुक्खे इहलोगपरलोग अप्पडिबद्धे । जीवि - यमरणे निखकंखे संसारपारगामी कम्मसत्तुनिग्यायणट्ठाए अन्भट्ठिए एवं च णं विहरइ ॥ ११८ ॥ विहरईत्यन्तम् । तत्र वर्षासु प्रावृषि वासो - वर्षावासस्तद्वर्ज अष्टमासान् ग्रीष्ममन्तिकान्, ग्रामे एकरात्रो वासमानत्वेनास्ति यस्य स एकरात्रिकः, एवं नगरे पञ्चरात्रिकः, वासीचन्दनयोः प्रतीतयोः यहा वासीचन्दने इव वासीचन्दने अपकारकोपकारकौ तयोः समानो निर्देषरागत्वात् कल्पो- विकल्पः - समाचारो वा यस्य, समानि-तुल्यान्युपेक्षणीयतया तृणादीनि यस्य । समसुहदुक्खे इत्यादि व्यक्तम्, एवं च णं विहरइ त्ति एवमीर्यासमित्यादिगुणयोगेम विहरत्यास्ते ॥ ११८ ॥
तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं नाणेणं, अणुत्तरेणं दंसणेणं, अणुत्तरेणं चरित्तेणं, अणुत्तरेणं आल
१ प्र० सृतम्
प्रदीपिका
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एणं, अणुत्तरेण विहारेणं, अणुत्तरेणं वीरिएणं, अणुत्तरेणं अज्जवेणं, अणुत्तरेणं मद्दवेणं, अणुत्तरेणं लाघवेणं, अणुत्तराए खंतीए, अणुत्तराएं मुत्तीए, अणुत्तराए गुत्तीए, अणुत्तराए तुट्ठीए, अणुत्तरेणं सच्चसंजम-तव- सुचरिय- सोवचिंय- फल निव्वाणमग्गेणं, अप्पाणं भावेमाणस्स दुवालससं वच्छराईं विइक्कंताई तेरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं दुच्चे मासे चउत्थे पक्खे वइसाहसुद्धे तस्स णं वइसाहसुद्धस्स दसमी पक्खेणं पाईणगामिणीए छायाए पोरीसीए अभिनिविट्टाए पमाणपत्ताए सुव्वएणं दिवसेणं विजयेणं महुत्तणं जंभियगामस्स नयरस्स बहिया उज्जुवालियाए नईए तीरे वेयावत्तस्स चेइयस्स अदूरसामंते सामागस्स गाहावइस्स कट्ठ करणंसि सालपायवस्स अहे गोदोहियाए उक्कुडअनिसिज्जाए आयावणाए आयावेमाणस्स छट्टणं भत्तेणं अप्पाणएणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अणते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवर नाणदंसणं समुप्पन्ने ॥ ११९ ॥
व्याख्या- तस्स णमित्यादितः.......समुप्पन्ने इत्यन्तम् । तत्र ज्ञानेन-मत्यादिचतुष्टयेन, दर्शनेन - चक्षुदर्शनादिना सम्यक्त्वेन वा, चारित्रेण - महाव्रतादिना, आलयेन-ख्याद्यसंसक्तवसत्यादिना, विहारेण
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ला देशादिचत्रणादिना, वीर्यग-विशिष्टोत्साहेन, आर्जवेन-मायानिग्रहेण,मार्दवेन-माननिग्रहेण,लाघवेन- दीपिका | क्रियासु-दक्षत्वेन,यदा लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधिकत्वं भावतो गारवत्रयत्यागरतेन,क्षान्त्या-क्रोधनिग्रहेण 1 मुक्त्या-निर्लोभतया,गुप्त्या मनोगुप्त्यादिकया,तुष्टया-मनःप्रसत्या,सत्यं सुनृत,संयमः-प्राणिदया,तपो-N द्वादशविधं, तेषां सुष्टु-विधिवचरितमाचरणं, उपचयनमुपचितं सहोपचितेन-उपचयेन वर्त्तते यत् तत् । सोपचितं, सत्यसंयमतपःसुचरितेन सोपचितं-स्फीतं फलं मुक्तिलक्षणं स चासो निर्वाणमार्गश्च-रत्नत्रयरुपस्तेनात्मानं भावयतो-वासयतः अनेनात्मज्ञानमेव मोक्षस्य प्रधानसाधनमित्युक्तम् । 'दुवालससंवच्छराई' ति द्वादशसंवत्सरव्यतिक्रमणं त्वेवं-एक षण्मासक्षपणं, एकं पञ्चदिनोनषण्मासक्षपणनभिग्रह| रूप, नव चतुर्मासक्षपणानि, द्वे त्रिमासक्षपणे, हे च साईद्विमासक्षपणे, षड् द्विमासक्षपणानि, हे साईमा|| सक्षपणे दादशमासक्षपगानि, द्विसप्ततिरर्धमासक्षपणानि, एकोनत्रिंशदधिकशतद्वयसङ्ख्यामिताः षष्ठाः। Nil भदं च महाभदं, पडिमं तत्तोय सव्वओ भदं। दो चत्तारि दसेव य, दिवसे ठासीअअणुबद्धं ॥१॥
तत्र भद्रा-प्रत्येकं चतुर्दिक्षु चतुःप्रहरकायोत्सर्गात् षष्ठेन समाप्यते १। महाभद्रा-चतुर्दिक्षु अष्टप्रहरकायोत्सर्गादशमेन २॥ सर्वतोभद्रा-दशदिश्वष्टप्रहरकायोत्सर्गात् द्वाविंशतिभक्तेनोोऽघोदिशोः कायोत्सर्गस्तदिग्गतद्रव्यचिन्तनेन ज्ञेयः। एतत् प्रतिमात्रयं संलग्नमेव चक्र दस दो य किर महप्पा, ठाइ मुणी एगराइयं पडिमं । अट्टमभत्तेण जई, इक्विकं चरमराईयं ॥ २॥
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- द्वादशैकरात्रिकी प्रतिमा अकार्षीत् । याऽष्टमभक्तेन चरमनिशि रूक्षकद्रव्यदत्तदृष्टिकायोत्सर्गक. रणेन क्रियते। | बारस वासे अहिए, छटुं भत्तं जहन्नयं आसी । सव्वं च तवोकम्मं, अपाणयं आसि वीरस्स॥३॥ | तिन्नि सए दिवसाणं, अउणापन्नेव पारणाकालो। उकुडुअनिसिज्जाणं,ठिअपडिमाणं सए बहुए ४
___ उत्कटुकनिषद्यानां प्रतिमानां शतानि बहूनि स्थितः । Me पव्वजाए दिवसं, पढमं इत्थं तु पक्खिवित्ताणं । संकलियम्मि उ संते, जलद्धं तं निसामेह ॥५॥
बारस चेव य वासा, मासा छच्चेव अद्धमासं च। वीरवरस्स भगवओ,एसो छउमत्थ परियागो॥६॥ __ छाद्मस्थ्ये प्रभोः सर्वोऽपि सङ्कलितः प्रमादकालोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः।व्यावृत्त चैत्यत्वाद् व्यावृत्तं तस्य व्यावृत्तस्य जीर्णोद्यानस्येत्यर्थः, जीर्णव्यन्तरायतनस्य वा विजयावत चैत्यं तस्य अदूरसामन्ते-अदूरासन्ने श्यामाकाभिधानस्य गृहपतेः-कौटुम्बिकस्य काष्ठकरणनामक्षेत्रे, 'झाणंतरियाए' त्ति शुक्लध्यानं चतुर्दा पृथक्त्ववितर्क सविचारं १, एकत्वकुवितर्कमविचारं २, सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति ३, उच्छिन्नक्रियमनिवर्ति - ४, तेषामाद्यभेददये ध्यातेऽनेतनभेदद्वयमप्रतिपन्नस्य केवलज्ञानमुत्पन्नम् । शेषं प्राग्वत् ॥ ११९ ॥
तएणं समणे भगवं महावीरेअरहा जाए जिणे केवली सम्वन्नू सव्वदरिसी सदेवमणुआसु
Sh
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रस्स लोगस्स परियायं जाणइ पासइ, सव्वलोए सव्वजीवाणं आगई गई ठिई चवणं उववायं तकं मणो माणसियं भुत्तं कडं पडिसेवियं आवीकम्मं रहोकम्मं । अरहा अरहस्स भागी तं तं कालं मणवयणकायजोगे वट्टमाणाणंसव्वजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरइ ॥१२०॥
व्याख्या-तएणमित्यादितो...........विहरईत्यन्तम् । तत्र अर्हन्-अशोकादिमहापूजाहत्वाद्, न रहंप्रच्छन्नं वा यस्य सोऽरहा । अरिहेत्यादि क्वचित् तत्र अरीन-रागादीन् हन्तीत्यादि, पूर्वमिव जातः सम्पन्न:, जिनो-रागादिजेता, केवलानि-सम्पूर्णानि शुद्धानि अनन्तानि वा ज्ञानादीनि विद्यन्ते यस्य स केवली।सर्वज्ञः-एकस्मिन् समये विशेषावबोधवान, सर्वदर्शी-द्वितीये समये सामान्यावबोधवान, सदेव मनुजासुरस्य लोकस्य पर्यायं जातावेकवचनम्' इतिपर्यायानुत्ताव्ययरूपान् जानाति ज्ञानेन पश्यति दर्शनेन न च 'पर्यायानित्येवोक्ते द्रव्यं न जानाति' इति शङ्कोत्पत्तिः, उत्पादव्यययोनिराधारयोरनुपपत्तेस्तयोजाने तदविष्वग्भावेन वर्तमानमन्वयिद्रव्यमपि ज्ञातमेव । अत एवाह-सर्वलोके सर्वजीवानामागतियतः स्थानादागच्छन्ति,गति-यन्त्र मृत्वोत्पद्यन्ते,स्थिति-कायभवस्थितिभेदेन द्विविधामपि, च्यवनं-स्वर्गमनुष्यतिर्यरष्वतरणं,उपपाद-देवनारकारणां जन्म,तेषां जीवानामिदं तत्क-तदीयं, मन:-चित्तं,मानसिक| चित्तगतं, चिन्तारूपापन्नपुद्गलजातं, भुक्तमशनपुष्षादि, कृतं चौर्यादि, प्रतिसेवितं मैथुनादि, आवि
कर्म-प्रकटकृत, रहाकर्म-प्रच्छन्नकृतं जानाति पश्यति इत्यत्रापि सम्बध्यते। अरहा प्राग्वत् । अरहस्य
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dभागी न रहस्यमेकान्तं भजते जघन्यतोऽपि सुरकोटिसेव्यत्वात् । 'तं तं कालं' ति तत्र तत्र काले मनो-d
वचनकाययोगे वर्तमानानां सर्वलोके सर्वजीवानां सर्वभावान-गुणपर्यायान तत्र सहभाविनो ज्ञानाद्या | गुणाः, क्रमभाविनोहर्षायाः पर्यायास्तान्, अकारप्रश्लेषात् सर्वजीवानां-धर्मास्तिकायादीनां पुद्गलास्तिकायान्तानां सर्वभावान सर्वविवर्तीश्च जानन् पश्यंश्च विहरति आस्ते॥ तत्राऽऽदिश्य क्षणं धमे, देवोद्योते जगद्गुरुः । लाभाऽभावान्मध्यमायां, महासेनवनेऽगमत् ॥ १॥ | श्री अपापामहापूर्या, यज्ञार्थी सोमिलो द्विजः ।मागधागोबरादीयु-स्तत्र चैकादश द्विजाः॥२॥ इन्दभूति? रग्निभूतिरर्वायुभूतिः३ सहोद्भवाः।व्यक्तः४ सुधर्मा५ मण्डित६-मौर्यपुत्रौ सहोदरौ।३॥ अकम्पितोऽचलभ्राता९, मेतार्य१०श्च प्रभासकः११।अहंमन्याः स्वयं सर्वे, सर्वज्ञख्यातिभाजिनः४ । ते च यद्विषयकसन्देहभाजस्तानि यथाजीवे१ कम्मे२ य तजीवे३, भूअध्तारिसय ५बंधमुक्खेद य। देवा७ नेरइया८ वा, पुन्ने९ परलोय१० निव्वाणे ११ ॥५॥ पचण्हं पंचसया,अद्भुट्ठसयाय हुंति दुन्हगणाादुन्हंतु जुअलयाणं,तिसओ तिसओ हवइ गच्छो॥६॥ एवं चतुश्चत्वारिंश-च्छतानि मिलिता द्विजाः । कुर्वन्ति यज्ञकर्माणि, स्वशर्माणि प्रलिप्सवः ॥७॥
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अत्रान्तरे-तं दिव्वं देवघोस,सोऊणं माहणातहिं तुट्ठाअहो जन्निएण जुठं,देवा किर आगया इहयं ८
प्रदीषिका सोऊण कीरमाणि, महिमं देवेहिं जिणवरिंदस्स।अह एइ अहम्माणी,अमरसिओ इंदभूइ ति॥९॥ मुत्तूण ममं लोगो,किं धावइ एस तस्स पामूलं। अन्नो वि जाणइ मए, ठिआम्मि कत्तुच्चियं एअं१०। वंच्चिज्ज व मुक्खजणो, देवा कहणेण विम्हयं नीया। वंदति संथुणति अ,जेणं सव्वन्नुबुद्धीए।११। अहो! सुराः कथं भ्रान्ताः? तीर्थाम्भ इव वायसा । कमलाकरवद्रेका, मक्षिकाश्चन्दनं यथा॥१२॥ करभाइव सद्वृक्षान्,क्षीरानंशुकरा इवाअर्कस्याऽऽलोकवद् घूका-स्त्यक्त्वा-यागंप्रयान्ति यत्। युग्मम् । अहवा जारिसओचिअ,सोनाणी तारिसा सुराते विअणुसरिसो संजोगो,गामनडाणं च मुक्खाणं१४|| स्वगतं-व्योम्नि सूर्यद्वयं किं स्यात्? गुहायां केसरिद्वयोखड़ौ द्वौवाप्रतीकारे,किं सर्वज्ञावहं सच१५ | किन्विद्रजालिकः कोऽपि, कलाशाली विदेशजः। सर्वज्ञाऽऽटोपमात्रेण, जनस्वर्गिप्रतारकः ॥१६॥ | सोऽवादीद् भो!जनाः कहिग्,सर्वज्ञोऽसौ निगद्यते। जनैरूचे स्वरूपंको,वक्तुं नाऽस्य शक्नुयात्१७
स दध्यौ तीसौ नूनं, 'मायायाः कुलमन्दिरम्। कथं लोकः समस्तोऽपि, विभ्रमे पातितोऽमुना१८ । | न क्षमे क्षणमात्रं तु, तं सर्वशं कदाचन । तमस्तोममपाकर्तु, सूर्यो नैव प्रतीक्षते ॥ १९॥
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वैश्वानरः करस्पर्श, मृगेन्द्रः श्वापदस्वनम् । क्षत्रियाश्च रिपुक्षेत्रं, न सहन्ते कदाचन ॥ २० ॥
हवादीन्द्राः तूष्णीं संस्थापिताः समे । गेहे शूरतरः कोऽपि, सर्वज्ञो मत्पुरोभवेत् ॥ २१ ॥ शैला येनाऽग्निना दग्धाः, पुरः के तस्य पादपाः । उत्पाटिता गजा येन, का वायोतस्य पुम्भिका ॥ २२ ॥ अग्निभूतिरुवाचैवं, भ्रातः ! कस्तेऽत्र विक्रमः । कीटिकायां कथं पक्षी - राट् करोति पराक्रमम् ॥ २३ ॥ पद्मस्योत्पाटने हस्ती, कुठारः काशकर्त्तने । मृगस्य मारणे सिंहः, सद्भिः किं क्वापि शस्यते ॥ २४ ॥ गौतमो भ्रातरं प्राह, भो अद्याप्यवतिष्ठते । वाद्यसौ विहिते मुग-पाके कङ्कटुको यथा ॥२५॥ पीलयतस्तिलः कश्चिद्, दलतश्च यथा कणः । सूडयतस्तृणं किञ्चि- दगस्तेः पिबतः सरः ॥२६॥ मर्द्दयतस्तुषः कोऽपि, तद्वदेष ममाऽभवत् । तथापि सासहिर्नाहं, मुधा सर्वज्ञवादिनम् ॥ २७ ॥ एकस्मिन्नजिते ह्यस्मिन्, सर्वमप्यजितं भवेत् । एकदा हि सती लुप्त-शीला स्यादसती सदा२८ यतः - छिद्रे स्वल्पेऽपि पोतः किं, पथोधौ नैव मज्जति ? । न दुर्गों गृह्यते धीरै - दुर्गाशे पातितेऽपि किम् २९ - हंहो ! वादिगणा भोट- कर्णाटादिसमुद्भवाः। कस्माददृश्यतां प्राप्ता, यूयं मम पुरः सदा ॥३०॥ लाटा दूरगताः प्रवादिनिवहा मौनं श्रितामालवा, मूकाभा मगधा गता गतमदा गर्जन्ति नो गौर्जराः
यतः
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कल्प
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काश्मीराः प्रणताः पलायनपरा जातास्तिलङ्गोद्भवा, विश्वे चापि स नास्ति यो हि कुरुते वादं मया साम्प्रतम् ॥ ३१ ॥ कृष्णसर्पस्य मण्डुक-चपेटां दातुमुद्यतः । मूषो रदैश्च मार्जार- दंष्ट्रापाताय सादरः ॥ ३२ ॥ वृषभः स्वर्गजं शृङ्गैः, प्रहर्त्तु काङ्क्षति द्रुतम् । द्विपः पर्वतपाताय, दन्ताभ्यां यतते रयात् ॥३३॥ शशकः केसरिस्कन्ध-केसरां क्रष्टुमहिते । मद्द्द्दष्टौ यदसौ सर्व-वित्त्वं ख्यापयते जने ३४ त्रिभिर्विशेषकम् समीराऽभिमुखस्थेन, दावाग्निज्वलितोऽमुना। कपिकच्छूलता देह-सौख्यायाऽऽलिङ्गिता ननु ॥३५॥ शेषशीर्षमणिं लातुं, हस्तः स्वीयः प्रसारितः । सर्वज्ञाऽऽटोपतोऽनेन, यदहं परिक्रोपितः ॥३६॥ युग्मम् तावद् गर्जति खद्योत -स्तावद् गर्जति चन्द्रमाः । उदिते च सहस्रांशौ, न खद्योतो न चन्द्रमाः । ३७| तावद्गजः प्रस्नुतदानगल्लः, करोत्यकालाम्बुदगर्जितानि
यावन्न सिंहस्य गुहास्थलीषु, लाङ्गूल विस्फोटखं शृणोति ॥ ३८ ॥
मम भग्यभराद्यद्वा, वाद्ययं समुपस्थितः । दुर्भिक्षे क्षुधितस्यान्न - लाभश्चिन्ताऽतिगो यथा ॥३९॥ यमस्य मालवो दूरे, किं स्यात् को वा वचस्विनाम् । अपोषितो रसो नूनं, किमजेयं च चक्रिणः ४०
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मन का
अभेद्यं किमु वज्रस्य,किमसाध्यं महात्मनाम् ।क्षुधितस्य न किं खाद्यं, किं न वाच्यं खलस्य च॥४१॥ कल्पद्रुणामदेयं किं, निर्विण्णानां किमत्यजम्। गच्छामि तर्हि तस्यान्ते,पश्याम्येतत्पराक्रमम् ॥४२॥ लक्षणे मम दक्षत्वं, साहित्ये संहिता मतिः। तकें कर्कशताऽत्यर्थ, क्व शास्त्रे नास्ति मे श्रमः॥४३॥ इत्युदीर्य त्वरापूर्णो, ययौ वादस्य लिप्सया। पञ्चच्छात्रशतैः पठ्य-मानोऽसौ विरुदैरिति ॥४४॥ |
बिरुदानि च-सरस्तीकण्ठाभरण ! पादिविजयलक्ष्मीशरण ! विज्ञातोऽखिलपुराण ! वादिकदलीदलकृपाण ! निपुणश्रेणिशिरोमणे! कुमतान्धकारनभोमणे! ज्ञानरत्नरत्नाकर ! महाकवीश्वर ! शिष्यीकृत बृहस्पते!प्रणतानेकनरपते! वादिमुखभअन!जगजनरञ्जन! जितानेकवाद!भारतीलब्धप्रसाद! इत्यादीनि.। इअ वुत्तूणं पत्तो, दटुं तेलुकपरिवुडं वीरं। चउतीसाइसयनिहिं, ससकिओऽवढिओ पुरओ॥४५॥ वीरं निरीक्ष्य सोपान-स्थितोदध्यौस विस्मिताकिं ब्रह्मा? शङ्करः किं वा?,किं विष्णुब्रह्मवा किमु?४६ आदित्यमिव दुःप्रेक्ष्य, समुद्रमिव दुस्तरम्। बीजाक्षरमिवाऽचय॑म् , दृष्ट्वा वीरं महोदयम्॥४७॥ कथं मया महत्त्वं हा ? रक्षणायं पुरार्जितम् । प्रासादं कीलिकाहेतो-भक्तुं को नाम वाञ्छति । सूत्रार्थी पुरुषो हारं, कखोटयितुमीहते। कः कामकलशं शस्यं, स्फोटयेत् ठीकरीकृते ॥ १९॥
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कल्प
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भस्मने चन्दनं को वा, दहेद् दुःप्रापमप्यथ । लोहार्थी को महाम्भोधौ, नौभङ्गं कर्तुमिच्छति ॥५०॥ आभट्ठो अ जिणेणं, जाइजरामरण विप्पमुक्केणं । नामेण य गुत्तेण य, सव्वष्णू सव्वदरिसीणं ॥ ५१ ॥ इंदभूइ ! गोयम !, सागयमुत्ते जिणेण चिंतेइ । नामं पि मे विआणेइ, अहवा मंन याणे ५२ स्वागतप्रच्छने दध्यौ, मिष्टैर्वाक्यैः कथं प्रिये । कपित्थं तन्न यच्छीघ्रं, वातेन पतति द्रुमात् ५३ न ते गो१ मुद्गर माणिक्य३ - घट४ वल्ली ५ जना६ नु ये साध्या गोपां? बु२, मणिक्य-विद् ३ यष्टि४ कर५ वाक्चयैः ६ ॥५४॥ जइ वा हिअयगय मे, संसयमन्निज्ज अहव छिंदिज्जा । तो हुज्ज विम्हओ मे, इय चिंतंतो पुणो भणिओ५५ किं मन्नि अस्थि जीवो, उदाहु नत्थि त्ति संसओ तुज्झ । वेअपयाण य अत्थं, न याणसी सिमो अत्थो ॥ ५६ ॥ समुद्रो मध्यमानः किं !, गङ्गापूरोऽथवा किमु ? | आदिब्रह्मध्वनिः किं वा वीरवेदध्वनिर्बभौ ॥५७॥ वेदपदानि च - [ गौतमस्य जीवशङ्कोत्पादकं वे पदं ]
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१"विज्ञानघन एवैतेभ्योभूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यतिनप्रेत्यसंज्ञाऽस्ति” इति जीवाऽभावः |
१(एषां वेदपदानां यमर्थ त्वं करोषि, तं प्रथमतः श्रृणु “गमनागमनादिचेष्टावान् अयं अत्मा, मद्यद्रव्येषु यथा मदशक्तिर्जायते, तथा एतेभ्यः लोकप्रसिद्धभ्यः पृथ्वी-अप-तेजो-वायु-आंकाशेभ्यः पञ्चभ्यो भूतेभ्यः प्रकटीभूय-जले बुदबुदा यथा नाशं यान्ति, तथैव तेषु भूतेषु नष्टेषु आत्माऽपि तैः सहैव विनश्यति, अतः पञ्चभूतेभ्यः पृथग् आत्मा नास्ति, अत एव च नष्टे शरीरे आत्मनः पुनर्जन्म नास्ति, इति त्वं अर्थ करोषि, परंतु अयुक्तोऽयमर्थः, श्रृणु तावदेतेषां पदानां सम्यगर्थ___ आत्मनः सर्वेषु प्रदशेषु अनन्तज्ञानपर्यायाः सन्ति, तेन आत्मा "विज्ञानघनः" इत्युच्यते, आत्मनि ज्ञान-दशनगुणौ | मुख्यौ भवतः, तयोः प्रवृतिः उपयोगः कथ्यते, तच द्वेधा ज्ञानोपयोगः दर्शनोपयोगश्च अतः उपयोगोऽपि आत्मनः गुणः, गुणगुणिनोरभेदात-उपयोगोपि आत्मा-विज्ञानघनः कथ्यते, अतएव उपयोगस्वरूपः आत्मा, अर्थात् आमनः उपयोगगुणः-एतेभ्यः पञ्चभ्यः भूतेभ्यः, तथा तद्विकारेभ्यो घटादिपदार्थेभ्यो निमित्तभृतेभ्य आत्मनि उत्पद्यते, यदि ते पदार्था
निमित्तभूता न भवन्ति, तर्हि तस्य पदार्थस्य ज्ञानोपयोगोऽपि नैव उत्पद्यते. तस्मिन् घटादौ पदार्थे नष्टे अन्तरित वा स GI उपयोगो नश्यति, अर्थात घटोपयोगरूप आत्मा विनश्यति, अन्य पटाधुपयोगतया उत्पद्यते सामान्यरूपतया वा
तिष्ठति, अतः "तस्य प्रेत्यसंज्ञा नास्ति" एवमुच्यते, अनेनार्थेनैवं ज्ञायते-आत्मा अस्ति, स च नित्यः, तस्य पुनर्जन्म विद्यते, केवलं अन्यान् पदार्थान् निमित्तीकृत्य आत्मनः उपयोगगुणः उत्पद्यते विनश्यति च इति सारांशः)॥
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कल्प
| [जीवशङ्कानिवारकमत्रोत्तरम्]
दीपिका ‘स वै अयमात्मा-ज्ञानमयो ब्रह्मज्ञानमया मनोमयो वाग्मयः चक्षुर्मयः श्रोत्रमयः आकाश- ९८ मयः वायुमयः तेजोमयः आपोमयः पृथ्वीमयः क्रोधमयोऽक्रोधमयः धर्ममयोऽधर्ममयः हर्षमय इत्यादीनि यजुर्वेदे।
तथा च -'द द द' दमो दया दान इति दकारत्रयं यो वेत्ति स जीवः । इति जीवसत्ता। ___ तथा विद्यमानभोक्तृकमिदं शरीरं भोग्यत्वादोदनादिवत् । इत्याधनुमानेनापि । तथाक्षीरे घृतं तिले तैलं, काष्टेऽग्निःसौरभं सुमे । चन्द्रकान्ते सुधा यद्व- तथाऽऽत्माङ्गगतःपृथक् ।५८॥ ||
अतोऽस्ति जविः छिन्नम्मि संसयंमी,जिणेण जरमरणविप्पमुक्कणांसो समणो पव्वइओ,पंचहिं सहखंडियसएहिम्,५९/ ततः उप्पजए वा, विगमए वा, धुवए वा इति सत्रिपदी प्राप्य द्वादशाङ्गी व्याधात् ॥
इति प्रथमो गणधरः । तं च प्रवजितं श्रुत्वा, दध्यौ तद्बान्धवोऽपरः। अपि जातु द्रवेदद्रि-ज़लेजलमपि क्वचित्॥६०॥
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मृगाङ्कमण्डलाजातु, जायतेऽङ्गारवर्षणम् । वढेरपि भवेयुश्च, ज्वालाः प्रालेयशीतलाः ॥६१॥ | मेरुरप्युध्रियेताऽत्र, हारयेन्न तु बान्धवः। अश्रद्धया पुनर्व्यक्त्या, पप्रच्छ स स्वयं जनान् ॥६२॥ ।
तं पवइअंसोउं,बीओ आगच्छिओअमरिसेणीगच्छामिणमाणेमि,पराजिणित्ता णतं समणं॥३॥ | छलिओ छलाइणा सो, मन्ने वा इंदजालिओवा विको जाणइ कह वत्तं, इत्ताहे वट्टमाणी से।६४॥
| सो पक्खंतरमगं, पि जाइ जइ मे तओम्मि तस्सेव। सीसत्तं हुज गओ, वुच्छं पत्तो जिणसगासी६५ | IN आभट्ठो अजिणेणं, जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य, सव्वन्नू सव्वदरिसीण।६६ ।
| हे अग्गिभूइ गोयम!, सागयमुत्ते जिणेण चिंतेइ। नाम पि मे वियाणइ, अहवा को मंन याणेइ६७ । | जइ वाहिअयगय मे,संसयमन्निज अहव छिंदिजाातो हुज विह्मओ मे,इअचिंतंतो पुणो भणिओ६८ | किंगन्नि अस्थि कम्म,उदाहु नस्थित्ति संसओ तुज्झा वेयपयाण य अत्थं,न याणसी तेसिमो अत्थो६९ वेदपदानि च-[अग्निभूतिहृदयगतकर्मणोऽभावनिश्चायकम् वेदपदं]
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कल्प
“पुरुष एवेदं निं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यं, उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति, यदेजति, यन्नेजति
प्रदीपिका
मदापिका सा यहूरे यदु अन्तिके यदन्तरस्य सर्वस्य यदु सर्वस्यास्य बाह्यतः”। इति कर्माऽभावः ।
१ एतेषामर्थ त्वमेवं करोषि-"अस्मिन् जगति अतीतकाले यद् भूतं, यच्च भविष्यकाले भविष्यति, तत्सर्व इदं पुरुष एव-अर्थात-आत्मा एव, निश्चयार्थक 'एव' शब्देन कर्म-इश्वर-आदि सर्वे पदार्थानां निषेधः ज्ञायते, तेन-मनुष्य-देव-IN तिर्यग्-नारक-पर्वत-पृथ्व्यादिकं वस्तु दृश्यते, तत्सर्व आत्मा एव । ततः कर्मनिषेधः स्फुट एव सिद्धः । अस्य वाक्यस्य अनेन अर्थन प्रथमतस्तव मनसि "कर्म अस्ति, न वा ?" इति संदेहो जातः । पश्चादनेन तर्केण दृढीभूतः तद्यथा
यथा-"अमूर्तस्य आकाशस्य मूर्तेन चन्दनादिना मण्डनं, खादिना च खण्डनं न संभवति तथा-"अमूर्तस्य आत्मनो मूर्तेन कर्मणा लाभो हानिर्वा कथं भवेत् ?" तस्मात् कर्म नास्ति" इति तवचेतसि वर्तते ॥ - परंतु हे अग्निभूते ! नायमर्थो युक्तः-यतः-इमानि पदानि पुरुषस्तुतिपराणि । वेदपदानि, त्रिविधानि-कानिचिद् विधिप्रतिपादकानि, कानिचिद् स्तुतिपराणि, कानिचिद् अनुवादपराणि "स्वर्गकामो अग्निहोत्रं जुहुयात्" अर्थात्-स्वगस्य इच्छावान् अग्निहोत्रं जुहुयात् इत्यादीनि पदानि विधिप्रतिवादकानि । “द्वादश मासाः संवत्सरः" इत्यादीनि अनुवादकानि अर्थात प्रसिद्धवार्ताज्ञापकानि भवन्ति । “पुरुष एवेदं नि सर्व यद्भुतं, यच्च भाव्यं" इत्यादीनि स्तुतिपराणि भवन्ति । । तस्मात् “पुरुष एवेदं” इत्यादीनि पदानि पुरुषस्य-अर्थात् आत्मनो महिमानं वर्णयन्ति, न तु कर्मादीनामभावं | वर्णयन्ति ।
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[कर्मसत्ताप्रतिपादकं प्रभुदत्तोत्तरीभूतमेदं पदम् ]'पुण्यः पुण्येन पापः पापेन कर्मणा' इति कर्मसत्ता।
तथा भवनोदरवर्तिसौभाग्य-विरूपता-दरिद्रतादिवस्तुसमस्तमप्यविकलकारणजन्यं कार्यत्वात् ।। यद्यत् कार्य तत्तदविकलकारणजन्यं, यथा घटपटादि, एवममनुमानसिद्धाऽपि कर्मसत्ता स्फूटैव । एवं जिनमुखात् श्रुत्वा वेदार्थ द्वतीयोऽग्निभूतिः पञ्चशतच्छात्रैः सह प्रव्रजितः।
॥इति द्वितीयो गणधरः॥ ते पव्वइए सोउं, तइओ आगच्छइ जिणसगासं।वच्चामि णं वंदामी, वंदित्ता पज्जुवासामि॥१॥ सीसत्तेणोवगया, संपयमिंदग्गिभूइणो जस्त। तिहुअणकयप्पणामो, स महाभागोऽभिगमणिजो। | तदभिगमवंदण-नमंसणाइणा हुज पूअपावो हं। वुच्छिन्नसंसओ वा, वुत्तुं पत्तो जिणसगासं ॥३॥
आभट्ठो अजिणेणं,जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य, सव्वन्नूसव्वदरिसीण॥४ तञ्जीवतस्सरीरं, संसओ नवि अपुच्छसे किं चि। वेयपयाण य अत्थं, न याणसितेसिमो अत्थो५ । वेदपदानि [विपरीतार्थ करणेन वायुभूतिहृदयगत तज्जीव तच्छरीरम्' इत्यर्थनिश्चयकारकमेदवेदपदम्]
'विज्ञानघनेइत्यादितो न प्रेत्यसंज्ञाऽस्तीति' जीवाऽऽत्मैक्ये १ एतेन पदेन भूतेभ्यः जीवः पृथग् नास्ति इत्येवं वायुभूतिना परिकल्पितम्
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$ %
['जीवः शरीराद्भिन्नः' इत्यर्थप्रतिपादकं वेदपदम् इदम् -
I दीपिका 'सत्येन लभ्यस्तपसा धेष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयोहि शुद्धोऽयं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मनः ॥ इत्यादीनि [शरीरात् भिन्नात्मप्रतिपादनपराणि वेदपदानि, तथा 'विज्ञानघनः' इत्यदि पदानां योऽर्थः | पूर्ववर्णितस्तेन आत्मसत्ता सिद्ध्यति ] इति जीवः शरीराद्भिन्नः।। छिन्नम्मि संसयम्मी,जिणेण जरामरणविष्पमुक्केणासो समणो पव्वइओ,पंचहिं सह खंडियसएहिंद ।
॥इति तृतीयो वायुभुतिः॥ किं मन्नि पंचभूआ, अस्थि नत्थी तिसंसओतुज्झ।वेयपयाण य अत्यं, न याणसितेसिमो अत्यो १
वेदपदानि च-[विपरीतार्थकरणेन व्यक्तहृदयगतभूताऽभावप्रतीतिजनक वेदपदम् इदम् ]१"स्वप्नोपमं वै सकलम, इत्येष ब्रह्मविधिरञ्जसा विज्ञेय' इत्यादि। [भूतसत्ता प्रतिपादकं वेदपदम् ]-तथा 'पृथ्वीदेवता आपो देवता' इत्यादि, 'द्यावापृथिवी' इत्यादि च । अतां भूतानां सत्ता।
१ परंतु-अयुक्तमेतत्-"स्वप्नोपमं वै सकलं-" इत्यादीनि पदानि मुख्यतया आध्यात्मिकविचारनापकानि भवन्ति, एतेन-स्त्रीसुवर्णादिसंयोगाः अनित्या भवन्ति, इति सूचयन्ति, नतु पृथ्व्यादीनां निषेधं सूचयन्ति । अनेन अर्थेन पृथ्व्यादीनां सत्ता सिद्ध्यति ।
$ ག་གྱུར་དབང་
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॥चतुथों व्यक्तः॥ | किंमन्नि जारिसो इह,भवम्मि सो तारिसो परभवे विवेयपयाण य अत्थं,नयाणसितेसिमोअत्यो?
वेदपदानि च-वेदपदानां विपरीतार्थकरणेन 'इह जन्मनि यो यादृशो भवति स जन्मान्तरेऽपि | तादृशो एव भवति' एतद् सुधर्मणो हृदयगतप्रतोतिजनकमेदं वेदपदं ]
मश्नुते पशवः पशुत्वमित्यादि। [वेदपदेनैवात्रोत्तरम् ]-तथा "शृगालो वै एषजायते यः सपुरीषो दह्यते” इत्यादि। अतो न नियमेनेह । भवसदृश एव।
॥ पञ्चमः सुधर्मा ॥ किंमन्निबंधमुक्खो, अस्थि नस्थित्ति संसओ तुज्झ। वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्थो॥ .. वेदपदानि-[विपरीतार्थकरणेन बन्धे मोक्षे संशयोत्पत्तिकं वेदपदं इदम् ]- .
१ परंतु-नाऽयं सुन्दरो विचारः-यतः “पुरुष वै पुरुषत्वमश्नुते-" इत्यादीनि वाक्यानि- "मनुष्यो सरलताकोमलतादिगुणयुक्तो मनुष्यो पुनरपि मनुष्यायुःकर्म बड्वा मनुष्यो भवति" इति ज्ञापाकानि भवति, न तु मनुष्य “मनुष्य एव भवति" इति निश्चयकारकानि भवन्ति । अतः कदाचित-इह जन्मनि यादृशो भवति तादृशोऽपि जन्मान्तरे भवति, अन्यादृशोऽपि भवति इति हेतोः-"यो यारशः, सा तादृशः" इति नियमो नास्ति"
४२-अ
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प्रदीपिका
|१००-अ
स एष विगुणो विभुर्न बध्यते संसरतिवान मुच्यते मोचयति वा एष बाह्वमभ्यन्तरं वा वेद" इत्यादि १००आ
[वेदपदेनैवात्रोत्तरस्]-तथा “नह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरप्रतिहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तम् प्रियाप्रिये न स्पृशतः" इत्यादि, इति सिद्धः कर्मबन्धस्तन्मोक्षश्च।
॥षष्ठो मण्डितः॥ | किंमन्नि आत्थि देवा उदाहु नस्थित्तिसंसओतुज्झ ।वेयपयाणय अत्यं,नयाणसी तोसिमोअत्थो॥१॥
[विपरीतार्थकरणेन देवाभावप्रतीतिकं वेदपदं इदम् ]
को जानाति मायोपमान् गीर्वाणान् इन्द्र-यम-वरूण-कुबेरादीनित्यादीनि" तन्निषेधकानि १ अर्थात् स एष जीवः सत्व-रजम्-तमोगुणरहितः सर्वव्यापकः पुण्यपापाभ्यां न वध्यते, संसारे च न परिभ्रमति, बन्धाभावात न मुच्यते, अन्यं च नैव मोचयति-अनेन वाक्येन बन्धमोक्षाभावो ज्ञायते । परंतु अस्य वाक्यस्य यथा त्वया अर्थः कृतः, तथा नास्ति तस्यार्थः । तस्य वाक्यस्य सम्यगर्थ शृणु
"छद्मस्थतागुणरहितः केवलज्ञानप्रकाशेन सर्वव्यापकः आत्मा पुण्य-पापाभ्यां न बध्यते, बन्धाभावाच्च न मुच्यते, | संसारे च न परिभ्रमति" अनेन अथैन सिद्धजीवस्य बन्धो न भवति छद्मस्थस्य जीवस्य तु पुण्य-पापबन्धो भवत्येव, । NI २ परंतु अनया मया कथितया रीत्या त्वं तेषां वेदपदानामर्थ विचारय-"मायोपमान्" अनेन पदेन-देवानामपि
अनित्यत्वं बोधयति, देवा अपि आयुःक्षयेण मृत्वा जन्मान्तरं गच्छन्ति, तेऽपि न शाश्वताः, अतःमायारूपाः कथ्यन्ते, न तु देवानां सर्वथा अभावः । अतः तव संदेहो न युक्तः। तथा अस्यां-पर्षदि आगता देवास्त्वया, माया अन्यैश्च सर्वैर्दश्यन्ते"।
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वेदपदेनैवात्रोत्तरम् ] स एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलोकंगच्छतीत्यादि, ।१॥"तथा अपाम ला सोमं अमृतो अभूम अगमत् ज्योतिः अविदाम देवान् किंतु नस्मान् तृणवदरातिः किंधूर्तिरमर्त्यस्येत्यादि"
॥२॥ "अग्निमुखा वै देवा पूर्वाह्नो वै देवानां, मध्यंदिनो मनुष्याणां, अपराह्नः पितृणां । तस्मादपराह्ने ददाति"। इति देवसत्ता।
॥सप्तमो मौर्यपुत्रः ॥ | किं मन्ने नेरइया, अस्थी नस्थित्ति ससओ तुज्झ । वयपयाण य अत्थं, न याणसी तेसिमो अत्यो?
[विपरीतार्थकरणेन नरकाऽभावप्रतीतिजनकं वेदपदं इदम्]"न हवै पेत्य नरके नारकाः सन्तीत्यादि। विदपदेनैवात्रोत्तरम् -तथा 'नारको वै एष जायते यः शूद्रान्नमनातीत्यादि । अतो नारकसत्ता। |
॥अष्ठमोऽकम्पितः ॥ | किं मन्नि पुण्णपावं, अस्थी नस्थित्ति संसओ तुज्झा वेयपयाण य अत्यं, न याणसी तसिमो अस्थो?
-१ अस्य वाक्यस्य सम्यगर्थ शृणु-" कोऽपि आत्मा मृत्वा नरके मेरुरिव शाश्वतो नारको न भवति, किन्तु यः पापमाचरति स नारको भवति, सर्वे जीवा मृत्वा सदा नारका न भवन्ति । अथवा-नारका मृत्वा पुनरपि-तत्क्षणमेव नारकतया न उत्पद्यन्ते, अनेनार्थेन "प्रेत्य नारका नारका न सन्ति" इति संगतः।
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कल्प
मदीपिका
१००-ब
[विपरीतार्थकरणेन पूण्याभावप्रतीतिजनकं वेदपदं ] ''पुरुष एवेदं ग्नि सर्वमित्यादि। [अत्रोत्तरम् ]-'पुण्यः पुण्येनेत्यादि । पुण्यसत्ता।]
॥ नवमोऽचलभ्राता॥ किं मन्ने परलोगो, अस्थी नत्थि त्ति संसओ तुज्झा वेयपयाण य अत्यं, न याणसी तेसिमो अत्थो?
[विपरीतार्थकरणेन परलोकाऽभावप्रतीतिजनकं वेदपदं इदम् ]
'विज्ञानघनेत्यादि । 'सवै अयमात्मा ज्ञानमय' इत्यादि परलोकनिषेधः। _ [अनोत्तरम् ] 'नारको वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते ' इत्यादि । अतो परलोकसत्ता।
॥ दशमो मोतार्यः॥ किं मन्ने निव्वाणं, अस्थी नस्थित्ति संसओ तुज्झावयपयाण य अत्थं,न याणसी तेसिमो अत्थो।।
[विपरीतार्थकरणेन मोक्षाभावप्रतीतिजनकं वेदपदम्]- २जरामर्य वा एतत् सर्व यदग्निहोत्रं सैषा १ किन्तु तद्वाक्यं आत्मस्तुतिज्ञापकं न तु अन्यपदार्थस्य निषेधं करोति
२ अग्निहोमक्रियैव मरणपर्यन्तं कर्तव्या, नान्यत् किश्चित् । अनेन निर्वाणयोग्यक्रियाया निषेधो ज्ञायते, तस्मान्नास्ति निर्वाणं, तथा अग्निहोमक्रिया पशुनां वधरुपा केषाश्चिच्च मनुष्याणामुपकाररुपा, तेन सा विचित्रा क्रिया मोक्षदायिका न भवति, मोक्षयोग्यक्रियार्थं च समयो न दाशतः, तस्माद् मोक्षो नास्ति, इति तव चेतसि वर्तते,
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Mगुहा दुरवगाहा
वेदपदेनैवात्रोत्तरम् ] तथा 'द्रे ब्रह्मणी वेदितव्ये परमपरं च तत्र परं सत्यं ज्ञानमनन्तम् ब्रह्मेति | इत्यादि । अतोऽस्ति मोक्षः।
॥ एकादशः प्रभासः॥ KI एवं जिनमुखात् श्रुत्वा,वेदार्थमखिला अपिा द्विजोत्तमाः सर्वेऽपि, ते परिव्रज्य सम्प्रापुः परमं पदम्। ___एवं चतुश्चत्वारिंशच्छतद्विजाः प्रव्रजिताः। तत्र मुख्यानामेकादशानां त्रिपदीपूर्वकमेकादशाङ्गचतुईशपूर्वरचना गणधरपदप्रतिष्ठा च, ते चैवं-श्रीगौतमेन निषद्यात्रयेण चतुर्दशपूर्वाणि गृहीतानि । नत्वा पृच्छा च निषद्योच्यते । नत्वा पृच्छति गौतमो-'वद प्रभो तत्त्वं ततः प्रभुराचष्टे-'उपपन्नेइ वा'। तथैव च | पृष्ठे प्राह-'विगमेइ वा' । इत्युप्युक्ते-'धुवेइ वा । एता निषद्यास्तिस्रस्ते प्राप्य द्वादशाङ्गं चक्रः । ततः प्रभुस्तदनुज्ञां करोति; शक्रश्च दिव्यं स्थालं दिव्यचूर्णभृतं लात्वा स्वामिपार्श्वऽस्थात् । ततः प्रभुः सिंहासना| दुत्थाय परिपाट्या तेषां मूनि चूर्ण मूष्टिं क्षिपति। देवा अपि चूर्णपुष्पवर्ष तदुपरि चक्रुः। गणं च - स्वामी सुधर्मस्वामिनं धुरि व्यवस्थाप्यानुजानाति ॥१२०॥
(गणधरखादः) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे अट्ठियगामं नीसाए पढमं अंतरावासं वा
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कम्प
प्रदीपिका सावासं उवागए, चंपं च पिटिचंपं च नीसाए तओ अंतरावासे वासावासं उवागए, वेसालिं नगरिं वाणिअगामं च नीसाए दुवालस अंतरावासे वासावासं उवागए, रायगिहं नगरिं नालंदं च बाहिरियं नीसाए चउद्दस अंतरावासे वासावासं उवागए, छ मिहिलियाए, दो भदियाए, एगं आलंभियाए, एगं सावत्थीए, एगं पणिअभूमीए, एगं पावाए मज्झिमाए हथिवालस्स रन्नो रज्जुअसभाए अपच्छिमं अंतरावासं वासावासं उवागए ॥ १२१ ॥
व्याख्या-तेणमित्यादित उवागए......इत्यन्तम् । तत्रास्थिकग्रामनिश्रया प्रथममन्तरावासं-वर्षा| रात्रं, वासावासं ति-वर्षासु वसनमुपागतः १ अन्तरावास-वर्षा रात्रस्याख्या, उक्तं च-अंतरघणसाम-IN लो भयवंति वर्षारानघनश्यामल इत्यर्थः। ततश्चम्पांपृष्टिचम्पांच निश्रया-ऽवलम्ब्य त्रयो वर्षारात्राः३।। एवं वैश्याली वाणिज्यग्रामंच निश्रया द्वादशवर्षारात्राः१२, राजगृहादुत्तरस्यां दिशि बाहिरिका शाखापुरविशेषस्तत्र चतुर्दश १४, षट् मिथिलापुरि ६, द्वौ भद्रिकापुर्याम् २, एक आलम्भिकायाम् १, एकः श्रावस्त्याम् १, एकः प्रणितभूमौ वज्रभूम्याख्यानार्यदेशे १ इत्यर्थः, एकश्चापश्चिमो वर्षारात्रो मध्यमाऽ:पापायां हस्तिपालस्य राज्ञः रज्जुका-लेखकास्तेषां सभा-अपरिभुज्यमाना करणशाला जीर्णशुल्कशाला तत्रेत्यर्थः १, पश्चिमशब्दोऽन्तवाची मंगलार्थ चाऽपश्चिम इत्युक्तम् । प्राक् किल तस्याः पुर्याः अपापेति
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| नामासीत् देवैस्तु पापेत्युक्तम्, यतः प्रभुस्तत्र कालगतः । छानस्थ्ये कैवल्ये च सर्वसङ्ख्यया द्विच| त्वारिंशद्वर्षारात्राः ॥१२१॥
तत्थ णं जे से पावाए मज्झिमाए हत्थिवालस्स रन्नो रज्जुअसभाए अपच्छिमं अंतरावास वासावासं उवागए ॥ १२२॥
व्याख्या-तत्थ णमित्यादित...........उवागए इत्यन्तम् । तत्र “जे से" त्ति यस्मिन्नन्तरावासेवर्षा रात्रे ॥ १२२ ॥
तस्स णं अंतरावासस्स जे से वासाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे कत्तियबहुले तस्स णं कत्तियबहुलस्य पण्णरसी पक्खणं जा सा चरमा स्यणी, तं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए विइक्कते समुज्जाए छिन्नजाइजरामरणवंधणे, सिद्धे, बुद्धे, मुत्ते, अंतगडे, परिनिव्वुडे, सव्वदुक्खप्पहीणे, चंदे नाम से दोच्चे संवच्छरे, पीइवद्धणे मासे, नंदिवद्धणे पक्खे, अग्गिवेसे नाम से दिवसे उपसमित्ति पवुच्चई, देवानंदा नामं सा रयणी निरतित्ति पवुच्चई, अच्चे लवे, मुहुत्ते पाणू, थोवे सिद्धे, नागे करणे, सव्वठ्ठसिद्धे मुहुत्ते, साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं कालगए विइक्कते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे ॥ १२३ ॥
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प्रदीपिका
कल्प- || व्याख्या-तस्स णमित्यादित......सव्वदुक्खप्पहीणे इत्यन्तम् । तत्र “पक्खेणं" ति दिवसे, चरमा
रजनीदिनापेक्षया पश्चाद्भाविनी रात्रिः अमावास्यारात्रिरित्यर्थः । यद्वा चरमा रजनी अमावस्यारात्रेः पर्यन्तः, कालगतः-कायस्थितिभवस्थित्योः कालाद्गतः, व्यतिक्रान्तः-ससारात्, सम्यग् उद्-ऊच यानः
।। छिन्न जात्यादीनां बन्धनं हेतुभूतं कर्म येन, सिद्धः-साधि तार्थः, बुद्धो-ज्ञः, मुक्तो-भवोपग्राहिकमाशेभ्यः, अन्तकृत् सर्वदुःखानाम, परिनिवृत्तः-सर्वसन्तापविरहात् । किमुक्तं भवति? इत्याह-सर्वाणि दुःखानि शारीरमानसानिमहीणानि यस्य । “चदे नाम से" इत्यादि युगे हि पञ्चसंवत्सरास्तत्र तृतीयः पञ्चमश्चाभिवर्द्धिताख्यः शेषास्त्रयश्चन्द्राख्याः, चन्द्रसंवत्सरमानं ३५४ दिनानि द्वादशषष्टिभागा ३ दिनस्य च, कार्तिकस्य हि प्रीतिवर्द्धन इति नाम । यतः-अभिनन्दनः १ सुप्रतिष्टो २ विजयः ३ प्रीतिवर्द्धनः ४ श्रेयान् ५ शिशिरः ६ शोभनो७हिमवान् ८ वसन्तः ९ कुसुमसम्भवो १०निदाघो ११ वनविरोधी १२ चेति श्रावणादिद्वादशमासनामानि । नन्दिवर्द्धनः पक्षः, अग्गि| वेस' त्ति तदिनस्य नाम, ‘उवसमि' त्ति इशब्दोऽलङ्कारे उपशम इत्यपि नाम । यतः-पूर्वाङ्गसिद्धो ? मनोरमो २ मनोहरो ३ यशोभद्रो ४ यशोधरः ५ सर्वकामसमृद्धः ६ इन्द्रो ७ मूर्धाभिषेकः ८ सोमनो९ धनञ्जयो १०ऽर्थसिद्धो११ऽभिजातो १२ऽत्याशनः१३ शतञ्जयो १४ऽग्निवेश्मेति १५ पञ्चदशदिननामानि। | देवानन्दा नाम साऽमावास्या रजनी । यतः-उत्तमा १ सुनक्षत्रा २ इलापत्या ३ यशोधरा ४ सौमनसी५ श्रीसम्भूता ६ विजया ७ वैजयन्ती ८ जयन्ती९ अपराजिता १० इच्छा ११ समाहारा १२ तेजा १३
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अभिजा १४ देवानन्दा १५ चेति पञ्चदशरात्रीनामानि निर्ऋतिरप्युच्यते, यस्मिन् लवे प्रभुः सिद्धः स लवोsर्चाख्यः, स च प्राणापानी मुहूर्तो नाम, स च स्तोकः सिद्धनामा, करणं नागाख्यं शकुन्यादिषु तृतीय
मावास्योत्तरार्द्धभावि, स च मुहत्तेः सर्वार्थसिद्धनामा । यतः - रौद्रः १ श्रेयान् २ मित्रं ३ वायुः ४ सुप्रीतो ५भचन्द्र ६ महेन्द्रो ७ बलवान् ८ ब्रह्मा ९ बहुसत्यः १० ऐशानः ११ त्वष्य १२ भावितात्मा १३ वैश्रवणो १४ वारुणः १५ आनन्दो १६ विजयो १७ विजयसेनः १८ प्राजापत्य १९ उपशमो २० गन्धर्वो २१ऽग्निवैश्यः २२ शतवृषभः २३ आतपवान् २४ अर्धवान् २५ ऋणवान् २६ भौमो २७ वृषभः २८ सर्वार्थसिद्धो २९ राक्षसः ३० चेति, त्रिशन्मुहूर्तनामानि । शेषं सुगमम् ॥ १२३ ॥
चिणं समभवं महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्खप्पही साणं रयणी बहूहिं देवे देवीहि य ओवयमाणेहि य उप्पयमाणेहि य उज्जोविया यावि हुत्था || १२४॥ जं स्यणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे सा णं रयणीवहूहिं देवेहिं देवीहि य ओवयमाणेहिं उपयमाणेहि य उष्पिजलगमाणभूया कहकहगभूया यावि हुत्था ।। १२५ ।।
व्याख्या - जं रयणिमित्यादितः.
. कहकहगभूया यावि हूत्ये त्ति पर्यन्तम् । सूत्रद्वयं
स्पष्टम् ।। १२४ । १२५ ।।
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प्रदीपिका I
जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, तं स्याणं च णं जिहस्स गोयमस्स इंदभूइस्स अणगारस्स अंतेवासिस्स नायए पिज्जवंधणे वुच्छिन्ने अणंते अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने ॥ १२६ ॥
व्याख्या-जंरयणिमित्यादितः.......समुप्पन्ने इत्यन्तम्। तत्र ज्येष्टस्यान्तेवासिनो ज्ञानदर्शनसमुत्पन्ने इति योज्यम् । गोत्रेण गौतमस्य नाम्ना इन्द्रभूतेः ज्ञातजे-श्रीवीरे प्रेमबन्धने व्युच्छिन्ने-त्रुटिते सति केवलमुत्पन्नम् । तद्वयतिकरस्वेवम-स्वनिर्वाणसमये देवशर्मणः प्रतिबोधाय क्वापि ग्रामे स्वामिना प्रेषितः । तं प्रतिबोध्याऽऽगच्छन् श्रीवीरनिर्वाणं श्रुत्वा वजाहत इव शून्यः क्षणं तस्थौ, वक्ति च
पसरइ मिच्छत्ततम, गज्जति कुतित्थकोसिआ अज्ज । दुभिक्खडमरवेराई, निसिअरा हुंति सप्पसरा ॥१॥ अथमिए जह सूरे,मउलेइ तुमम्मि संघकमलवणं । उल्लसइ कुमयतारा-निअरो वि.हु अज्ज जिणवीर! ॥२॥ तमगसिअससिं च नहं, विज्झायपईवयं व निसि भवणं । भरहमिणं गयसोहं, जायमणाहं च पहु अञ्ज ॥३॥
तथ हा हा वीर! किं कृतं, यदीदृशेऽवसरेऽहं दूरीकृतः। किं केवलभागममार्गयिष्यम् ? किं बालकवत्तवाञ्चलेऽलगिष्यम् ? किंवा त्वयि कृत्रिममना अभवम ? किं मुक्तौ सङ्कीर्णम् ? किं तवाणक्खकारकोऽभवम् ? किं तव भारोऽभवम् ? हे वीर ! कथं विस्मारितोऽहम् ? कस्याग्रे सन्देहान् प्रक्ष्ये ? हा वीर! विरहं कुर्वता महान् विराम कृतः, कस्याग्रे वच्मि वीर ! वीर ! इति वी वी लग्ना । हूं! हं! ज्ञातं,
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वीतरागा निस्नेहाः स्युः, धिग् मां येन निर्वाणसमये श्रुतोपयोगोऽपि न ददे, धिग् ममैकपाक्षिक स्नेहम्, अलं स्नेहेन, एकोऽस्मि, नास्ति मे कोऽपि, एवं साम्यं दधतस्तस्य केवलमुत्पेदे। प्रातरिन्द्राद्यैर्महिमा कृतः। | सर्वेषां हर्षोऽजनि ॥१२६॥
अहङ्कारोऽपि बोधाय, रागोऽपि गुरुभक्तये। विषदो केवलायाभुच्चित्रं श्रीगौतमप्रभोः।१।॥१२६॥ ___जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सव्वक्दुखप्पहीणे तं स्यणिं च णं । नवमलई नवलेच्छइ कासीकोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो अमावासाए पाराभायं पोसहोववासं पट्टविंसु, गए से भावुज्जोए दबुज्जोयं करिस्सामो ॥ १२७ ॥ __व्याख्या-जं रयणिमित्यादितः..........करिस्सामो इत्यन्तम्। तत्र नवमल्लकिजातीयाः-काशीदेशनृपाः, नव लेच्छकिजातीयाः-कोशलदेशनृपाः, यो चेटकनृपस्य भगवत्मातुलस्य सामन्ताः श्रूयन्ते ते कार्यवशात् गणं मेलापकं कुर्वन्तीति गणराजानोऽष्टादशते तस्यामावास्यायां पारं पर्यन्तं भवस्याऽऽभोगयति-पश्यति यः सः पाराभोगः-भवाब्धिपारप्रापकः तं । यद्वा पारं-पर्यन्तं यावदाभोगो-विस्तारो यस्य स पाराभोगोऽष्टमाहरिकः प्रभातं यावत् सम्पूर्णस्तं तादृशम् पौषधोपवासम् पट्टविंसु त्ति प्रस्थापितवन्तः-कृतवन्तः । क्वचिद्वाराभोए सि पाठस्तत्र द्वारमाभोग्यते-अवलोक्यते यैस्ते द्वाराभोगा:प्रदीपास्तान् कृतवन्तः । आहारत्यागपौषधरूपमुपवासं चाकावुरिति वृद्धाः । एतदर्थानुपात्येव
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कल्प
| चोत्तरसूत्रम, गतः स भावोद्योतो ज्ञानरूपो ज्ञानमयो भगवान्, अतो द्रव्योद्योतं प्रदीपरूपं करिष्यामः लामदीपिका इति हेतोस्तैः दीपाः प्रवर्तिताः, ततः प्रभृति दीपो सवः संवृत्तः। प्रतिपदि च श्रीगौतमस्य केवलोत्सवः सुरैश्चक्रे, अतस्तत्राप्यानन्दः । नन्दिवर्द्धननृपः प्रभोर्निर्वाणं श्रुत्वा शोकात्तः सन् सुदर्शनया स्वस्रा शाकच्छिदे द्वितीयायां स्वगृहे भोजितः, ततो भ्रातृद्वितीया पर्वरूढिः ॥ १२७॥ जं रयाणं च णं समणे भगवं महावीरे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, तं रयणि चणं खुद्दाए भासरासी नाम महागहे दो वाससहस्सट्टिई समणस्स भगवओ महावीरस्स जम्मनक्खत्तं संकेते ॥१२८॥
व्याख्या-जं रयणिमित्यादितः..........संकंते इत्यन्तम् । तत्र क्षुद्रात्मा क्रुरस्वभावः भस्मराशिनामा त्रिंशत्तमो महाग्रहः. ग्रहनामानि चैवं____ अङ्गारकः १ विकालकः २ लोहिताक्षः ३ शनैश्चरः ४ आधुनिकः ५ प्राधुनिकः ६ कणः ७ कणकः ८ कणकणकः ९कणवितानकः १० कणसंतानकः११ सोमः १२ सहितः१३ अश्वसेनः १४ कार्योफ्गः १५ कर्बुरकः१६ अजकरकः १७ दुन्दुभकः १८ शङ्खः १९ शङ्खनाभः २० सङ्कवर्णाभः २१ कंसः २२ कंसनाभ:२३ कंसवर्णाभः २४ नीलः २५ नीलावभासः २६ रूपी २७ रूपावभासः २८ भस्मः २९ भस्मराशिः ३० तिल: ३१ तिलपुष्पचूर्णः ३२ दकः ३३ दकवर्णः३४ कायः३५ वन्ध्यः ३६ इन्द्राग्निः३७ धूमकेतुः ३८ हरिः ३९पिङ्गलः४० बुधः ४१ शुक्रः४२ बृहस्पतिः ४३ राहुः ४४ अगस्तिः ४५ माणवकः ४६ कामस्पर्शः ४७
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धुरः ४८ प्रमुखः ४९ विकटः ५० विसन्धिकल्पः ५१ प्रकल्पः ५२ जटालः ५३ अरुणः ५४ अग्निः५५ कालः ५६ महाकालः ५७ स्वस्तिकः ५८ सौवस्तिकः ५९ वर्द्धमानकः ६० प्रलम्बः ६१ नित्यालोकः ६२ नित्योद्योतः ६३ स्वयंप्रभः ६४ अवभासः ६५ श्रेयस्करः ६६ क्षेमङ्करः ६७ आभङ्करः ६८ प्रभङ्करः ६९ अरजा ७० विरजा ७१ अशोकः ७२ वीतशोकः ७३ विततः ७४ विवस्त्रः ७५ विशालः ७६ शालः ७७ सुव्रतः ७८ अनिवृत्तिः ७९ एकजटी ८० दिजटी ८१ करः ८२ करिकः ८३ राजा ८४ अर्गलः ८ ८६ भावः ८७ केतुः ८८ इत्याष्टशीति ग्रहाः। स च भस्मराशिरेकराशौ एकनक्षत्रे वा। स्थितिकः सम्भव्यते तत्वं तु सर्वविवेद्यम् ॥१२८ ॥ - जप्पभिई च णं से खुद्दाए भासरासी महग्गहे दो वाससहस्सठिई समणस्स भगवओ महावीरस्स जम्मनक्खत्तं संकेते, तप्पभिई च णं समणाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य नो उदिए । उदिए पूयासकारे पवर्त्तई ॥ १२९ ॥ जया णं से खुद्दाए जाव जम्मनक्खत्ताओ विइकते भवि- . स्सइ, तया णं समणाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य उदिए उदिए पूयासकारे भविस्सइ ॥१३०॥ । __ व्याख्या-जप्पभिइमित्यादितो.......भविस्सईत्यन्तम् ।सूत्रद्वयार्थमाह-तत्र ततःप्रभृति निर्ग्रन्थानाम् निग्रन्थान्तम् च उदित-उदितः-स्फीतः पूज्याऽभ्युत्थानाहारदानादिभिः सत्कारो वस्त्रादिभिर्न प्रवर्त्तते। भस्मराशौ जन्मनक्षत्रादतिक्रान्ते च पूजासत्कारी भविष्यतः। अत एव इन्द्रण 'क्षणं स्थित्वा भस्मकमुखं
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कल्प
विफलय' इति विज्ञप्तः प्रभुराह-नत्रुटितमायुः सन्धातुम् शक्यम्, अवश्य भाविनी च तीर्थयाधा कल्किनं दीपिका यावत्, तत्पुत्रे दत्ते राज्यं कुर्वाणे भस्मव्यतिक्रान्ते भविष्यतः पूजासत्कारी श्रीसङ्घस्य ॥ १२९ १३०॥ १०५
जं स्यणिं चणं समणे भगवं महावीरे जाव सव्वदूक्खप्पहीणे तं यणिं च णं कुंथू अणुद्धरी । नामं समुप्पन्ना, जा ठिया अचलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य नो चक्खुफासं हव्वमागच्छंति, जा अद्विआ चलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाण य निगंथीण चक्खुफासं हव्वमागच्छंति ॥ १३१॥
व्याख्या-जं रयणिमित्यादितो..........हव्वमागच्छन्तीत्यन्तम् । तत्र कौ-भूमौ तिष्ठतीति कुन्थुःप्राणिजातिः, नोर्तुम् शक्यते इत्यनुद्धरी 'अणु-सूक्ष्मं देहं धरतीति अणुद्धरीति' चूर्णिणः। स्थिता कोऽर्थः? अचलमाना चक्षुःस्पर्श-दृष्टिपथं हव्वं शीघ्रं नागच्छन्ति कुन्थ्वादिशब्देषु स्त्रीत्वमेकवचनं च प्राकृतत्वात् ॥ १३१॥
जं पासित्ता बहहिं निग्गंथेहिं निग्गंथीहि य भत्ताई पच्चक्खायाई, से किमाहु भंते ! अज्जप्पभिई संजमे दूराराहए भविस्सइ ॥ १३२ ॥ व्याख्या-जं पासित्तेत्यादितः...........भविस्सईत्यन्तम् । तत्र भक्तानि प्रत्याख्यातानि-अनशन |
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Mकृतमित्यर्थः । किमाहुर्भदन्ना-गुरवः, किं कारणमनुर्युत्पत्तौ भक्तप्रत्याख्याने वा इति शिष्येण पृष्टे |
गुरुराह-अयप्रभृति संयमो दुराराध्यो भविष्यतीति, जीवाकुलितत्वाद् भूम्याः संयमयोग्यक्षेत्राऽभावात् । | पाखण्डिकादिसङ्कराच ॥१३२॥
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स इंदभुइपामुक्खाओ चउद्दस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया हुत्था ॥ १३३ ॥ __ व्याख्या-तएणमित्यादितो.........हुत्थेत्यन्तम् । तत्र, साहस्सीओ त्ति आर्षत्वात् स्त्रीत्वम् ॥१३॥ समणस्स भगवओ महावीरस्स अज्जचंदणापामोक्खाओ छत्तीसं अज्जियासाहस्सीओ उक्को. सिया अज्जियासंपया हुत्था ॥१३४.॥ ___ व्याख्या-समणस्सेत्यादितो.......अजिआ संपया हुत्थेत्यन्तम् स्पष्टम् ॥ १३४॥ समणस्स णं भगवओ महावीरस्स संखसयगपामोक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सीओ
अउणाटिं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासगाणं संपया हुत्था ॥ १३५॥ ___ व्याख्या-समणस्सेत्यादितः.......समणोवासगाणं संपया हुत्थेत्यन्तम् ॥ १३५ ॥ समणस्स भगवओ महावीरस्स सुलसा खईपामोक्खाणं समणोवासियाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ
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कल्प
१०६
अट्ठारससहस्सा उक्कोसिया समणोवासियाणं संपया हुत्था ॥ १३६ ॥
व्याख्या - समणस्सेत्यादितो....... हुत्थेत्यन्तम् । तत्र सुलसा - नागभार्या द्वात्रिंशत्पुत्रजननी, रेवती तु तथाविधौषधदानेन रक्तातिसाररोगहन्त्री ॥ १३६ ॥
समणस्स भगवओ महावीरस्स तिन्नि सया चउदसपुव्वीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवाई जिणो विव अवितहं वागरमाणाणं उकासिया चउद्दसपुब्विसंपया हुत्था ॥१३७॥
व्याख्या-समणस्सेत्यादितः...... चउदसपुच्वि संपया हुत्थे त्यन्तम् । तत्र अजिनानाम् - असर्वज्ञानां सर्वज्ञतुल्यानाम् सर्वेऽक्षरसन्निपाता - वर्णसंयोगा ज्ञेयतया विद्यन्ते येषां ते तथा तेषां, जिन इव अवितथं - सद्भूतार्थं व्याकुर्वाणानां केवलिश्रुतकेवलिनो: प्रज्ञापनायाम् तुल्यत्वात् ॥ १३७ ॥ arta भगवओ महावीरस्स तेरस सया ओहिनाणीणं अइसेसपत्ताणं उक्कोसिया ओहिना - णी संपया हुत्था ।। १३८ ॥ व्याख्या- समणस्सेत्यादित. आमषषध्यादयस्तान् प्राप्तानाम् ॥
. ओहानाणीणं संपया हुत्थेत्यन्तम् । तत्र अतिशेषा-अतिशया१३८ ॥
समणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्ता सया केवलनाणीणं संभिन्नवर नाणदंसणधाणं
प्रदीपिका
१०६
१०६
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उक्कोसिया केवलनाणिं संपया हुत्था ॥ १३९ ॥
व्याख्या-समणस्सेत्यादिन........केवलनागीणं संपया हुत्थेत्यन्तम् । तत्र सम्पग्भिन्ने सिद्धसेनदिवाकरमतेनान्योन्यम् मिलते एकसमयभाविनी । जिनभद्रगण्यभिप्रायेण तु. सं-सम्यग् भिन्ने पृथग समयभाविनो सम्पूर्ण वा सम्मिन्ने वरज्ञानदर्शने धरन्ति ये ॥ १३९ ।। __ समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्तसया वेउवीणं अदेवाणं देविडिपत्ताणं उक्कोसिया वेउविअसंपया हुत्था ॥ ११०॥
व्याख्या-समणस्सेत्यादितो......विउव्वीसंग्या हुत्येत्यन्तम्, स्पष्टं ॥ १४०॥ समणस्स भगवओ महावीरस्स पंच सया विउलमईणं अड्डाइज्जेसु दीवेसु दोसु य समुद्देसु सन्नीणं पंचिंदियाणं पज्जतगाणं मणोगए भावे जाणमाणाणं उक्कोसिया विउलमईणं संपया हुत्था ॥ १४१॥
व्याख्य-समगस्सेत्यादितः......विउलमईणं संपया हुत्थेत्यन्तम् । विपुला-बहुविधविशेषणोपेतमन्यमानवस्तुग्राहित्वेन विस्तीर्णा मतिर्मनःपर्यायज्ञानं येषाम्, यथा घटोऽनेन चिन्तितः, स च सौवर्णः पाटलिपुत्रकः शारदः कृष्णवर्ण इत्यादि विपुलमतयो जानन्ति । ऋजुमतीनाम् तु सामान्यत एवं
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कल्प
१०७
तेषामतृतीयालन्यूनटक्षेत्रस्थानाम् संज्ञिनाम् मनोमात्र ग्राहकत्वम् । अन्येषां पूर्ण नृलोके, अत्र दर्शनाभावात् जाणमा णाणमित्युक्तम् न पासमाणाणमिति ॥ १४१ ॥
समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारि सया वाईणं सदेवमणुयासुराए परिसाए वाए अपराजियाणं उक्कोसिया वाइसंपया हुत्था ॥ १४२ ॥
व्याख्या- समणस्सेत्यादितो......वाईसंपया हुत्था ।। १४२ ।।
समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्त अंतेवासीसयाई सिद्धाई जाव सव्वदुक्खप्पहीणाईं चउद्दस अज्जियासयाई सिद्धाई ॥ १४३ ॥
व्याख्या - समजत्सेत्यादिनः........ चउदसअझियासयाई सिद्धाइमित्यन्तम् । स्पष्टम् ॥ १४३ ॥ समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अट्ठ सया अणुत्तरोववाइयाणं गइकलाणाणं किल्लाणाणं आगमेसिभद्दाणं उक्कोसिया अणुत्तरोववाइयाणं संपया हुत्था ॥ १४४ ॥
व्याख्या - समणस्सेव्यादिनो...... अणुत्तरोववाइयाणं संपया हुत्थेत्यन्तम् । तत्र गतिर्देवगतिरूपा कल्याणी येषां एवं स्थिति-देवायुरूपा कल्याणी येषां । यद्वा गतौ-नृगतौ कल्याणं येषाम्, स्थितौ देवras, अतएवागमिष्यद्भद्राणामागामिभवेऽपि, सेत्स्यमानत्वात् । यद्वा गतौ-प्राणत्यागेऽपि, स्थितौ
पिका.
१०७
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atest कन्याणं येषाम् । तवनियप्रसुट्ठिआणमित्याद्युक्तेः [ अभयकुमारादिवत् ] ॥ १४४ ॥ समणस्स णं भगवओ महावीरस्स दुविहा अंतगडभूमी हुत्था । तं जहा जुगंतकडभूमी य परि यायंतकडभूमीय जाव तच्चाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकडभूमी चउवासपरियाए अंतमकासी १४५
व्याख्या - समणस्सेत्यादितः...... अं नमकासीत्यन्तम् । तत्र अन्तकृतां - भावान्तकृनां निर्वाणयायिनाम् भूमिः कालः अन्तकृद्भूमिः । युगानि - कालमानविशेषास्तानि च क्रमवर्त्तीनि तत्साधर्म्याचे क्रमवर्तिनो गुरुशिष्यादिरूपाः पुरुषास्ते युगानि तैः प्रभिताः अन्तकृद्भूमिर्या सा युगान्तकृद्भूमिः, पर्याय:तीर्थकृतः केवलित्वकालः तमाश्रित्यान्तकृद्भूमिर्या सा तथा, जाव तचाओत्ति अत्र पञ्चमी द्वितीयार्थे यावत्ततीयं पुरुष एव युगं तृतीयपुरुषयुगं प्रशिष्यं जम्बुस्वामिनं यावदिति, श्रीवीरादारभ्य तृतीयपुरुषयुगं यावत्साधवः सिद्धाः । श्रीवीरः सुधर्मा जम्बुश्चेति, ततः सिद्धगतिच्छेदः । चउवासपरियाए ति चतुर्वर्षपर्याये केवलिपर्यायापेक्षया भगवति - जिने सति अन्तं भवाऽन्तमकार्षीत्, तीर्थे केवली सन्नपि साधुर्नारात् कश्चिन्मोक्षं गतः । किन्तु भगवतः केवलोत्पत्तेश्चतुर्षु वर्षेषु गतेषु सिद्धिगमनाऽऽरम्भः ॥ १४५ ॥
तेणें कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे तीसं वासई अगारवासमज्झे वसित्ता, साइरेगाईं दुवालसवासाईं छउमत्थपरियागं पाउणित्ता, देसुणाई तीसं वासाईं केवलिपरियागं
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कल्प
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पाउणित्ता, बायालीसं वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता, बावन्तरि वासाई सव्वाउयं पालइत्ता, खीणे वेयणिज्जा-उय-नाम-गुत्ते इमीसे ऊसप्पिणीए दूसमसुसमाए समाए बहुविइकताए तिहिं वासेहिं अद्धनवमेोहि य मासेहिं सेसेहिं एवाए मज्झिमाए हत्थिवालस्स रण्णो रज्जुयसभाए एगे अबीए छट्ठणं भत्तेणं अपाणएणं साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पच्चूसकालसमयस संपलिअकं निसणे पणपन्नं अज्झयणाई कलाणफलविवागाईं, पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाईं, छत्तीसं च अपुवागरणाई वागरिता पहाणं नाम अज्झयणं विभावेमाणे विभावेमाणे कालगए, विइकंते समुज्जाए छिन्नजाइ - जरा - मरणबंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परनिव्वडे सव्वदुक्खपहीणे ॥ १४६ ॥
व्याख्या - तेणमित्यादितः सव्वदुक्खप्प होणेत्यन्तम् । तत्र छद्मस्थपर्याय - छद्मस्थस्वं पालयित्वा पूरयित्वेत्यर्थः । देगा इति सार्द्धपश्चमासोनानि क्वचित् पक्षाधिकषण्मासोनानि वा । एकः कर्मसहाविरहात, अद्वितीय - एकाकी, न तु वृषभादिवद्दशसहस्रादियुतः । पच्चूष - प्रत्यूषकालरूपो यः समयोऽ सरस्तत्र सङ्गतः, पर्यङ्कः- पद्मासनं तेन, निषण्णः - उपविष्टः । पञ्चपञ्चाशदध्ययनानि कल्याणफलविषा
प्रदीपिका
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M कानि, पारफलविपाकानि च षट्त्रिंशदष्टव्याकरणानि च व्याकृत्य-व्याख्याय प्रधानं नामाध्ययनं मरुदे. वाऽध्ययनम् विभावयन्-प्ररूपयन् शेषं प्राग्वत् ॥ १४६ ॥
समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव सव्वदुक्खपहीणस्स नव वाससयाई विइकताई, दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ, वायणंतरे पुण अयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छइ इइ दीसइ ॥ १४७॥
व्याख्या-सनणस्सेन्यादित.........इइ दोसईत्यन्तम् । तत्र इतः सूत्रादारभ्यान्तरालकालाऽभिधायकत्रेषु सर्वत्र षष्ठयाः पश्चम्यर्थत्वेन निर्वाणादित्यध्याहारेण वा व्याख्येयम् । ततश्च श्रीवीरस्य निर्वाणानववर्षशतानि व्यतिक्रान्तानि दशमस्य वर्षशतस्याऽस्याः वाचनाया इति हिप्पनकवचनादस्याः पुस्तकवाचनायाः पर्षवाचनाया वाऽयमशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छतीत्यक्षरार्थ:
तात्पर्यास्त्वयम्-वीरनिर्वाणान्नवशताऽशीतिवर्षाऽतिक्रमे पुस्तके न्यसद्धिः श्रीदेवर्डिंगणिक्षमाश्रमणैः श्रीपयुष गाकल्पस्याऽपि वाचना पुस्तके न्यस्ता । एतव्यञ्जिका चेयम् सम्प्रदायगाथावलहिपुरंमि नयरे, देवडिपमुहसयलसंघेहि। पुत्थे आगमलिहिओ, नवसयसीयाओ वीराओ॥१॥ केचित्तु नवशतअशीतिवर्षे वीरात्सेनाङ्गजार्थमानन्दे ।संघसमक्षं समहं,प्रारब्धं वाचितुम् विज्ञैः।।
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कल्प
• इति अन्तर्वाच्यवचनान्नवशताऽशीति ९८० वर्षाऽतिक्रमे पुत्रमरणातस्य ध्रुवसेननृपस्य समाधि
प्रदीपिका १०९ ॥ मधातुमानन्दपुरे सभासनक्षं श्रीपर्युष गाकल्यो वाचयितुमारब्ध इति वदन्ति । तदसङ्गतं सम्भाव्यते
यतः वायणंतरे इत्यादि । नवशनाऽशीतिवर्षाऽतिक्रमेऽयम् कन्यः पुस्तके न्यस्तः । पुस्तकवाचनाऽपेक्षया अन्या पर्षदाचना वाचनान्तरम्, तस्मिन् वाचनान्तरे तु नवशत-त्रिनवतिवर्षाऽतिक्रमे श्रीपर्युष गाकल्पः सभायां वाचितः, यदुक्तम्वीरात्रिनन्दाङ्क९९३शरद्यचीकरस्त्वच्चेत्यपूते ध्रुव-सेन भूपतिःयस्मिन् महैःसंसदि कल्पवाचनामाद्या तदानन्दपुरं न कः स्तुते॥ १ |
इति मुनिचन्द्र सूरिकृतस्तोत्ररत्नकोशे । केचित्तु नवशत्रिनवतिवर्षाऽतिक्रमे श्रीकालिकाचायः पञ्चमीतः चतुर्थ्या पर्युष गापर्वाऽऽनीतभिति जगुः । यदुक्तम्-[सन्देह विषौषध्याम्] तेणउअनवसपहिं, समइकंतेहिं वद्धमाणाओ। पजोसवणचउत्थी, कालगसुरीहिंतो ठविआ ॥१॥ वीसहिं दीणेहिं कप्पो, पञ्चगहाणीइ कप्पट्ठवणाय। नवसयतेणउएहिं, वुच्छिन्ना संघआणाए ॥२॥
सालाहणेण रण्णा, संघाएसेण कारिओ भयवं । पज्जोवसवणचउत्थी, चाउम्मासं चउद्दसीए ॥३॥ | चाउम्मासपडिक्कमणं,पक्खिअदिवसम्मिचउब्विहो संघो।नवसयतेणउपहिं,आयरणं तं पमाणं तिथान
तीर्थोद्गालादिषु भणनात् तथा चैतच्चर्चा तु ग्रन्थगौरवभयान्नात्र लिखिता, किन्तु शास्त्रान्तरादवसेया॥१४७॥
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॥ इति श्रीवीर चरित्रम् ॥ [इति षष्ठं व्याख्यानम्]
[अथ सप्तमं व्याख्यानम् ] भय जघन्यमध्यमोत्कृष्टवाचनाभिः श्रीपार्श्वनाथचरित्रमाह
तेणं कालेणं तेणं समएणं पासेणं अरहा पुरिसादाणीए पंच विसाह होत्था, तंजहा-विसाहाहिं चुए, चइत्ता गम्भं वकंते, विसाहाहिं जाए, विसाहाहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिअं पदइए, विसाहाहिं अगंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुन्ने केवलवरणाणदसणे समुप्पण्णे, विसाहाहिं परिनिव्वुडे ॥ १८ ॥
व्याख्या-तेणं कालेणमित्यादितो......परिनिव्वुडे इत्यन्तम् । तत्र, पुरुषादानीयः-पुरुषाणां प्रधानः पुरुषाणां वा मध्ये पुरुषैर्वा आदानीयः, आदेयो-ग्राथनामा ॥१४८॥
तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्स णं चित्तबहुलस्स चउत्थीपक्खणं पाणयाओ कप्पाओ वीसं साग-
IM
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विका
११०
कल्पना रोवमट्ठिइआओ अणंतरं चयं चइत्ता, इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वाणारसीनयरीए आससे
णस्स रन्नो वामाए देवीए पुब्वरत्तावरत्तकालसमयांस विसाहाहिं नक्खत्तेणं जागमुवागएणं आहारवकंतीए ७०० भववकतीए सरीखकंतीए कुच्छिसि गम्भत्ताए वकते ॥ १४९ ॥ पासे णं अरहा पुरिसादाणीए तिण्णाणावगए आवि हुत्था, तं जहा-चइस्सामि त्ति जाणइ. चयमाणे न जाणइ, चुणमे त्ति जाणइ, तेणं चेव अभिलावेणं सुविणदंसणविहाणेणं सव्वं जाव नियगं गिहं अणुपविट्ठा जाव सुहंसुहेगं तं गम्भं परिवहइ ॥ १५० ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे
अरहा पुरिसादाणीए जे से हमंताणं दुच्चे मासे तचे पक्खे पोसबहुले तस्स णं पोसबहुलस्स । दसमीपक्खे णं नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं विइकंताणं पुनरत्तावर
त्तकालसमयंसि विसाहाहिं नक्खत्तेगं जोगमुवागएणं आरोग्गारोग्गं दास्यं पयाया ॥१५१॥ जं स्यणिं च णं पासे अरहा पुरिसादाणीए जाए, तं रणिं च णं बहुहिं देवहिं देवीहि य जाव उपिंजलगभूआ कहकहगभूआ याविहुत्था ॥ १५२ ॥
व्याख्या-तेगमित्यादित........कहकहगभूया यावि हुत्थेति यावच्चतुसूत्रीस्पष्टा ॥ १४९-१५०१५१-१५२॥
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से तहेव, नवरं पासाभिलावेणं भाणियव्वं, जाव तं होउ णं कुमारे पासेनामेणं ॥ १५१ ॥ व्याख्या - सेसं तहेवेत्यादितः पासेनामेणमित्यन्तम् । तत्रास्मिन गर्भस्थे सति शयनस्था माता ध्वान्ते सर्पन्त कृष्णसर्प ददर्शेति पार्श्व इति नाम । स चेन्द्रादिष्टधात्रीभिर्लाल्यमानो नवहस्तोछ्रयः क्रमाद्योवनम् प्राप । ततः कुशलस्थलेश प्रसेनजित् पुत्रीं प्रभावतीनाम्नीं कन्यामागृह्य पित्रोद्वाहितः । अन्येद्युर्गवास्थः स्वामी पुरीं पश्यन् बहिर्गच्छतः पौरजनान् पुष्पाहारभृतो दृष्ट्वा कश्चित् पृष्टवान् । स प्राह-रोरद्विजसुतः कृपया लोकैर्जीवितः कमडाख्योऽन्येयुरलङ्कृतेश्वरान् वीक्ष्य प्रागू जन्मतपःफलमिति तपस्वी जातः पश्चग्न्यादितपस्तपन, कन्दमूलादिभोजी सोऽयं पुर्या बहिरागतः । तमर्चितुं जना यान्ति, स्वाम्यपि सपरिच्छदस्तं द्रष्टुमगात् । दृष्ट्वा ज्वलन्तं सर्प कृपया स्वाम्याह- 'अहो तपस्विन् ! अज्ञानतया त्वं धर्मतस्वं न वेत्सि, किं दयां विना वृथा तपस्यसि, यतः—कुपानदीमहातीरे, सर्वे धर्मास्तृणाङ्कुराः । तस्यां शोषमुपेतायां, कियन्नन्दति ते पुनः ॥१॥
इत्याकor hidisa 'राजपुत्रा हि गजाश्वादिक्रीडां कर्तु जानन्ति, धर्म तु तपोधना एव जान'न्ति । ततः स्वामिन्नतऽग्निकुण्डात् काष्ठनाकृष्य कुठारेण द्वैधीकृत्य ज्वलन्नहिर्निष्काशितः स च प्रभुनियुक्त नरमुखान्नमस्कारान् प्रत्याख्यानं चाकर्ण्य तत्क्षणादेव विपद्य च धरणेन्द्रोऽभूत् । 'अहो ज्ञानवान स्वामीति जनैः स्तुतः स्वगृहं ययौ, कमठस्तु मृत्वा मेघकुमारेषु मेघमाली सरोऽभूत् ॥ १५३ ॥
४८
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नामदीपिका
བྱ་བ་བསྒྲུབ་ གནས་དང་།
... पासे णं अरहा पुरिसादाणीए दक्खे दक्खपइन्ने पडिरूवे अल्लीणे भद्दए विणीए, तीसं वासाइं अगावासमझे वसित्ता पुणरवि लोयंतिएंहिं जियकप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इटाहिं जाव एवं वयासी ॥१५४॥ जय जय नंदा, जय जय भद्दा, जाव जय जय सदं पज्जति ॥१५५॥ पुबि पि णं पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स माणुस्सगाओ गिहत्थधम्माओ अणुत्तरे आहोइए, तं चेव सव्वं जाव दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता, जे से हेमंताणं दुच्चे मासे तच्चे पक्खे पोसबहुले, तस्स णं पोसबहुलस्त इक्कारसीदिवसे णं पुवण्हकालसमयंसि विसालाए सिबियाए सदेवमणुयासुराए परिसाए, तं चे सव्वं नवरं वाणारसिं नगरिमझमज्झणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव आसमपए उज्जाणे जेगेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेइ, ठावित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरहित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुठ्ठियं लोयं करेइ, करित्ता अट्ठमणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेगं जोगमुवागएणं एगं देवदूसमादाय तिहिं पुरिससहि सद्धिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए ॥ १५६॥ ...
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व्याख्या-पासेणमित्यादितः.......अणगारियं पव्वइए सि यावत्त्रिमन्त्री प्राग्वत्॥१५४।१५५।१५६॥1
पासे णं अरहा पुरिसादाणीए तसीइं राइंदियाई निच्चं वोसहकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जति तं जहा-दिव्वा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा अणुलोमा वा पडि
लोमा वा ते उप्पन्ने सम्मं सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ ॥ १५७ ॥ ___ व्याख्या पासेणमित्यादितः....अहियासेईत्यन्तम् । तत्र, देवोपसर्गः स चैव-"स्वामी प्रव्रज्यैकदा । तापसाश्रमे कूपसमीपे वटाधो निशि प्रतिमया अस्थात, इतः स मेघमाली सुराधमः श्रीपार्श्वमुपद्रोतुमेत्य वेताल शार्दुल-वृश्चिकादिभिरक्षुब्धं प्रभुं वीक्ष्य व्योम्नि तमस्तुल्यान् मेघान विकृत्य कल्पान्तमेघवदर्षितुमारेभे, विद्युच्च ब्रह्माण्ड स्कोटयन्तीव दिशो व्यानशे, क्षणादेव नासाग्रे प्राप्ते जले आसनकम्पेन धरणेन्द्रो महिषिभीः सहेत्य फणैः प्रभुमाच्छादितवान्, अवधिना मेघमालिनं दृष्ट्वा रे किमि दमारब्धमिति तर्जितो भीतः प्रभु शरणं प्रपद्य प्रणम्य च स्वस्थानं स ययौ। धरणेन्द्रोऽपि नृत्यादिभक्ति कृत्वा अगादिति ॥१५७॥
तएणं से पासे भगवं अणगारे जाए इरियासमिए जाव अप्पाणं भावमाणस्म तेसीइं राईd दियाई विइकताई चउरासीइमस्स राइंदियस्स अंतरा वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं पढमे मासे
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कल्प-17 पढमे पकखे चित्तबहुले तस्स णं चित्तबहुलस्स चउत्थीपखेणं पुव्वण्हकालसमयसि नदी ११२ धायइपायवस्स अहे छटेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहि नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं झाणं
तरियाए वट्टमाणस्म अणते जाव जाणमाणे पासमाणे विहरइ ॥१५८।। M व्याख्या-तएणमित्यादितो......विहरईत्यन्तम् । तत्र केवलोत्पत्तौ षष्ठस्थाने क्वचिदष्टमोऽपि दृश्यते, शेषं प्राग्वत् ॥ १५८ ॥
पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अट्ट गणा अट्ट गणहरा हुत्था, तं जहा-'सुभे य १, M अज्जघोसे- य २, वसिढे ३ बंभयारि य ४ । सोमे ५ सिरिहरे चेव ६, वीरभद्दे ७ जसे
वि य ८॥ १॥ ॥ १५९ ॥ ..
व्याख्या-पासस्सेत्यादितो......जसे विअइत्यन्तम् । तत्र एकवाचनिका-यतिसङ्घा गणाः, गणधरास्तन्नाथाः, सूरयोऽष्टौ, आवश्यके तु दश गणा दश गणधराश्चोक्ताः, तस्मादिह स्थानाङ्गे च द्वावल्पाIN युष्कत्वादिहेतुना नोक्ताविति टिप्पनकेप्येवं व्याख्यानात् ॥१५९॥,
पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अज्जदिन्नपामुक्खाओ सोलससमणसाहस्सीमो
REAKCE
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उक्कोमिया समणसंपया हुत्था॥१६०|पासस्स णं अरहओ पुपचूलापामुक्खाओ अट्टतीसं आज्जियासाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपया हुत्था ॥१६१।। पासस्स णं० सुव्वयपामुक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सीओ चउसद्धिं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासगसंपया हुत्था ॥१६२॥ पासस्स णं० सुनंदापामुक्खाणे समणोवासियाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ सत्तावीसं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासियाणं संपया हुत्था ॥१६३॥ पासस्स णं० अद्भुट्ठसया चउदसपुवीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्वरसन्निवाईणं जाव चउद्दसपुवीणं संपया हुत्था ॥१६४॥ पासस्स णं० चउद्दससया ओहिनाणीणं, दससया केवलनाणीणं, एकारससया वेउव्वीणं, छस्प्तया रिउमईणं, दससमणसया सिद्धा, वीसं अज्जियासया सिद्धा, अछुट्टमसया विउलमईणं, छस्सया वाईणं, बारससया अणुत्तरोववाइयाणं ॥१६५॥ व्याख्या-पासस्स णमित्यादितो.........बारससया अणुत्तरोववाईयाणमिति यावत्। परिवारसत्का मत्री स्पष्टा ॥१६०।१६१३१६२।१६३।१६४।१६६॥ पासस्स. णं अस्हओ पुरिसादाणीयस्स दुविहा अंतगडभूमी हुत्था, तं जहा-जुगंतगडभूमी
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कल्प
११३
य परियायंतगडभूमी य, जाव चउत्थाओ पुरिसजुगाओ जुगंतगडभूमी, तिवासपरियाए अंतमकासी ॥१६६॥
व्याख्या- पासस्सेत्यादितः.
..अंतमकासीत्यन्तम् । तत्र युगान्तरभूमौ श्रीपादारभ्य चतुर्थ पुरुषयुगं यावत् सिद्धिगमः प्रवृत्तः, पर्यायान्तकरभूमौ तु केवलोत्पादात् त्रिषु वर्षेषु गतेषु सिद्धिगमारम्भ ।। १६६ ॥
तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए तीसं वासाई अगाखासमझे वसित्ता, तेसी राईदियाई छउमत्थपरियायं पाउणित्ता, देसूणाई सत्तरि वासाई केवलिपरियायं पाउणित्ता, पडिपुन्नाई सत्ताविसाई सामन्नपरियायं पाउणित्ता, एकं वाससयं सव्वाउयं पालइत्ता, खीणे वेयणिज्जाउयणामगुत्ते इमीसे ओसप्पिणीए दूसमसुसमाए समाए बहुविइकंताए जे से वासाणं पढमे मासे दुच्चे पक्खे सावणसुद्धे, तस्स णं सावणसुद्धस्स अट्ठमीपक्खेणं उप्पिं सम्मेयसेलसिहरंसि अप्पचउतीसइमे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पुत्रहकालसमय से वग्वारियपाणी कालगए विइते जाव सव्वदुक्चपही ।। १६७ ॥
प्रदीपिका
११३
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न
व्याख्या-तेगमित्यादित........सव्वदुक्खप्पहीणे इत्यन्तम् । तत्र, मोक्षगमने पूर्वाह्न एव कालः, पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि त्ति क्वचित्लाठस्तु लेखकदोषान्मतभेदादा, वग्यारिअपाणि त्ति कायोत्सगस्थितत्वात् प्रलम्बितभुजः ॥१६॥
पासस्स णं अरहओ जाव सव्वदूक्खप्पहीणस्स दूवालसवाससयाई विइकताइं तेरसमस्स णं अयं तीसइमे संवच्छरे काले गच्छइ ॥ १६८ ॥ ___ व्याख्या-पासस्सेत्यादितः.......काले गच्छइत्यन्तम् । तन्त्र पार्श्वनिर्वाणात् त्रिंशदधिकद्वादशशतवर्षांते पुस्तकवाचनादि यतः-श्रीपार्श्वमोक्षात्साईद्विशतवर्षान्ते श्रीवीरमोक्षः ततो नवशताशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचना ॥ १६८॥
॥इति श्रीपार्श्वचरित्रम् ॥ अथ नेमिचरित्रमाह--
तेणं कालणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठनेमी पंच चित्ते हुत्था, तं जहा-चित्ताहिं चुए, । चइत्ता गम्भं वकंते, तहेव उवक्खेवो, जाव चित्ताहिं परिनिव्वुए ॥१६९॥ व्याख्या-तणमित्यादितो....परिनि ए इत्यन्तम् । तत्र उवक्खेवो सि प्रागुक्तालापकोचारणं
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कल्प- चित्राऽभिलापेनेत्यर्थः ॥ १६९ ॥
प्रदीपिका तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिहनेमी जे से वासाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे कत्तियबहुले, तस्स णं कत्तियबहुलस्स बारसीपक्वेणं अपराजियाओ महाविमाणाओ बत्तीसं सागरोवमट्टिइयाओ अणंतरं चयं चइत्ता, इहेव जंबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे सोरियपुरे नयरे, समुद्दविजयस्स रन्नो भारियाए सिवादेवीए, पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि, जाव
चित्ताहिं गन्भत्ताए वकंते, सव्वं तहेव सुविणदसण-दविणसंहरणाई भाणियव्वं ॥१७०॥ | व्याख्या-तेणमित्यादितो.......भागियव्वमित्यन्तम् । तत्र क्वचित् तित्तीसं सागरोवमाईत्ति दृश्यते, | दविणसंहरणाइ ति पितुवैश्मनि निधाननिक्षेपादि ॥१७०॥
तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिहनेमि जे से वासाणं पढमे मासे दुच्चे पक्खे सावणसुद्धे, तस्स णं सावणसुद्धस्स पंचभीपक्खेणं नवण्डं मासाणं बहूपडिपुण्णाणं जाव चित्ताहिं नक्खत्तेणं जोगुमुवागएणं आरोग्गा । आरोग्गं दारयं पयाया । जम्मणं समुद्दविजयाभिलावेणं नेयव्वं जाव तं होउ णं कुमारे 'अरिट्ठनमि', नामेणं अरहा अरिट्ठनेमी दक्खे जाव तिण्णि वाससयाई ।।
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कुमारे अगाखासमझे वासित्ता णं पुणरवि लोगतिएहिं जिअकप्पिएहिं देवेहिं तं चवे सब् भाणियव्वं जाव दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता ॥ १७१ ।।
व्याख्या-तेणंकाले गमित्यारितो........परिभाइत्तेत्यन्तम् तत्र रिष्टरत्नमयं नेमि दिवि उत्पतन्तं माता स्वप्नेऽद्राक्षीदिति अपश्चिमशब्दवत् नपूर्वत्वे अरिष्टनेमिः कुमारे त्ति-अपरिणीतत्वात्, अपरिणयनं त्वेवं
"अन्येार्वयस्थं नेमिं वीक्ष्य शिवादेव्यवदत 'वत्स! अनुमन्यस्वोदाह, पुरय चास्मद्वाच्छां' । स्वा-17 म्याह-'योग्यां कन्यां दृष्ट्वा करिष्येऽहमुद्राहमिति प्रत्युदतरत्' । ततश्चकदाकौतुकरहितोऽपि प्रभुरनेकराजपुत्रपरिवृत्तः कृष्गायुधशालां प्राप । तत्र कोतुकोत्सुकैमित्रैर्विज्ञप्तोऽगुल्यग्रे कुलालचक्रवच्चक्रम- | भ्रामयद्, मृणालवत् शार्ङ्गधनुरनामयच्च, यष्टिवत् कौमोदिकों गदामुदपाटयत्, पद्मवदादाय शङ्खमवाद- | यत्, तच्छब्देन शब्दाद्वैतं विश्वनभूत् । गजाश्चाद्यास्त्रोटितबन्धनास्तत्रसुः, कृष्णस्तूत्पन्नः कोऽपि रिपुरिति शङ्कया शीघ्रमस्त्रशालां प्राप्तः, दृष्ट्वा नेमि चकितः, स्ववलपरीक्षायै नेमि हरिराह-"आवाभ्यां | मिथो बलं परीक्ष्यते ततौ तो दौ मलाक्षवाटके प्राप्तौ,' नेम्याह-'अनुचितं भूलठनादि आवयोवलपरीक्षाकृते भुजनामनमस्तु' द्वाभ्यां तथैव स्वीकृत्य आदौ हरिः स्वभुजं प्रसारितवान्, नामितवाश्च नेमिः । मृणालवत् तद् भूजं, स्वबाहुलग्नं च कोपात्ताम्रास्य कृष्णं शाखावलम्बिकपिमिवान्दोलितवान्, ततो
पत्तद्धाभ्यां तलवाटके
पात:, स्वयलासुः, क
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।
कृष्णो मद्राज्यं अयं लीलया लास्यति इति विषण्णो हृयचिन्तयत्क्लिश्यन्ते केवलं स्थूलाः, सुधीस्तु फलमन्नते। ममन्थ शङ्करः सिन्धुम्, रत्नान्यादुर्दिवौकसः॥१॥
ततो रामेण सहालोचयत, किं करिष्यावो राज्यलिप्सुस्तु नेमिबलवान्। ततो व्योमगीरभू "हे हरे ! श्रीनमिजिनेनोक्तं-“यदसौ नेमिरपरिणीत एव प्रजिष्यताति न भेतव्य" । ततश्च हरिरित्याकर्ण्य निश्चितुं वसन्ते जलक्रीडार्थ नेमिना सह रैवताद्रिसरसि सान्तःपुरः प्राप्तः, तत्र सरसि नेमिकृष्णोऽवेशयत् । तं चासिञ्चत स्वर्गशृङ्गजलैः, तथा रुक्मिण्यादिगोपीगणमपि संज्ञितवान् यदसौ प्रभुनिःशङ्कः क्रीडया विवाहाभिमुखीकार्यः । ततस्ताः सर्वा गोयः स्वर्णशृङ्गाजलैः प्रभोराकुलस्वं चक्रुः । तावघ्योम्नि गिरीत्यभूत-- मुग्धाःस्थाप्रमदा यतोऽमरगिरौ,गीर्वाणनाथैश्चतुःषघ्यायोजनमानवक्त्र कुहरैः कुम्भैः सहस्राधिका बाल्येऽपि स्नपितो य एष भगवान्नाभून्मनागाकुलः, कर्तु तस्य सुयलतोऽपि किमहो युष्माभिरी
शिष्यते ॥ १॥ ततो नेमि काश्चित् सलिलैः सिचन्ति, काश्चित् लीलाब्जेनोरसि नन्ति, इत्यादि सविस्तरां जलकेलिं विधाय स्त्रीसखः नेमिना सह हरिः सरोवरान्निरगात् । तमो रुक्मिगी स्ववाससा स्वाम्या
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निरमार्जयत् । स्वर्णविष्टरे निवेश्य च सत्यभामा नेमिमित्युचे । “भो देवर ! ज्ञातं गृहनिर्वाहकातरस्त्वं स्त्रीपरिग्रहं न करोषि, परं तदयुक्तं यतो भ्राता ते समर्थः, यथास्माकं द्वात्रिंशत्सहस्रसङ्ख्याकानां | निर्वाहं कुरुते, तथा किमेकस्या भातृजायाया निर्वाहं कर्तुमक्षमः । तथाऋषभमुख्यजिनाः करपीडनं विदघिरे दधिरे च महीशतां । बुभुजीरे विषयाश्च बहून्सुतान्, सुपुविरे शिवमप्यथ लेमिरे २ त्वमसि किं नु नवोध शिवङ्गमी, भृशमरीष्टकुमारगरिष्टधीः। विमृश देव गृहाण गृहस्थतां, कुरु सुवन्धुमनस्सु च सुस्थतां ३ अथ जगाद च जाम्बवती जवात,शृणु पुराहरिवंशविभूषण?।स मुनिसुव्रततीर्थपतिगृही, शिवमगादिह,जातसुतोऽपि हि ।।।
वण्ढमात्रइवैकाङ्गो विना पत्नीपरिग्रहम्, कालं कियन्तं नेताऽसि, विमृश स्वयमप्यहो॥५॥ किमशो नीरसो वाऽसि, क्लीयो वाऽसीति शंस नः । स्वीभोगेन विनाऽसि त्वं, महाकान्तारपुष्पवद् ॥ ६ ॥ एवं ताभिः कृष्णेन अन्यैर्यदुभिः विवाहार्थमुपरुडो नेमिरचिन्तयदिति"न केवलं स्वयममी, पतन्ति भवसागरे । आवध्य स्नेहशिलया, पातयन्ति परानपि ॥७॥ वाङ्मात्रेणानुमन्तव्यममीषामधुना वचः । आत्मनीनं विधातव्यमवश्यं समये मया ॥८॥ ततः कृष्णेन मार्गितोग्रसेन सुताराजिमती, कोष्ठुकर्लग्नं प्रपच्छे च प्रोवाच क्रोष्टुकैश्चैवं शुभारम्भास्तपात्यये । न खल्वन्येऽपि युज्यन्ते, विवाहस्य च का कया ॥९॥ समुद्रस्तं वभाषेऽथ, कालक्षेपोत्र नाईति । नेमिः कथंचित कृष्णेन, विवाहाय प्रवर्तितः॥१०॥
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कल्प
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मा भूद्विवाहप्रत्यूहं नेदीयस्तद्दिनं वदः । गाधर्व इव विवाहो, भूयाद्भवदनुज्ञया ॥ ११ ॥ विमृश्य क्रोष्टु किवाख्यद्य द्यैवं तद्यदूद्वह । श्रावणस्य सितपष्ठयां, कार्यमेतत् प्रयोजनम् ।। १२ ।।
ततः समुद्रविजयाने कनृपयुतः शिवादेव्यादिस्त्रीजनगीयमानो नेमि कुमारो रथस्थो धृतछत्रो विवाहाय व्रजन्नग्रतो वीक्ष्य सारथिं प्रति कस्येदं कृतमङ्गलभरं धवलगृहमिति पृष्टवान्, ततः सोङ्गुल्याऽदर्शयत् उग्रसेननृपस्य तव श्वसुरस्यायं प्रासादः स्मितास्ये च राजीमतीसरच्यौ मृगलोचनचन्द्राननाख्ये त्वां पश्यतः । तत्र मृगलोचना नेमिं वीक्ष्याह हे चन्द्रानने?
"इक्कुच्चिय त्यमई, वणियावग्गंमि वण्णणिज्जगुणा । जीसे नेमि करिस्सइ, लायन्ननिही करगहणं ॥ १ ॥ चन्द्राननाऽपि मृगलोचनामाह
“रायमईए रूवं विहिनिम्मविअं च रंभरुवहरं । न करिज्जइ दइअमिअसिं, हविज्ज ता नूणमजसभरं ॥ १ ॥
इतश्च सूर्यरवं श्रुत्वा राजीमती सखीमध्ये प्राप्ता, हे सख्यौ भवतीभ्यामेव यथा साडम्बरमागच्छन् hist वरो वीक्ष्यते तथाहमपि द्रष्टुं न लभेयमिति बलात्तदन्तरे स्थित्वा नेमिं वीक्ष्य साञ्चर्यं स्वगतं -
'किं पाताल कुमारः ! किंवा कन्दर्पः ! किं वा सुरेन्द्रः ! किं वा मूर्तिमान् पुण्यभरः ! |
किं तस्स करेमि अहं, अप्पाणं वि हु निउँछणं विहिणो । “निरुवमसोहग्गनिही, एस पई जेण मह विहिओ" ॥ १ ॥ इति राजीमत्यभिप्रायं ज्ञात्वा सहासं संख्यावाहतुः । भो राजिमति ! वरे गौरत्वमेवादौ गुणो
प्रदीपिका
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| युज्यते । गौरत्वं चास्य कलाभं पश्यावः । तच्च दृश्यमानं प्रायः कस्याऽपि न रोचते । तदनु राजीमती साऽसूयं सख्यौ प्रत्याह
श्यामलत्वे श्यामलवस्त्वाश्रयणेच ये गुणाः। केवलगौरत्वे च येऽपगुणास्तान् श्रुणुतम् युवाम् । तद्यथाभूचित्तवल्लि २ अगुरू ३ कच्छूरी४ घण५ कणीणिगा६ केसाकसपट्ट८मिसी ९रयणी१०कसिणा एए अणग्धफला॥१॥ । इति कृष्णत्वे गुणाः, | "कंपुरे अंगारे १ चंदे चिंधं २ कणीणिगा नयणे ३ भुजे मरीयं ४ चित्ते, रेहा ५ कसिणा वि गुणहेऊ" ॥१॥ इति कृष्णवस्त्वाश्रयणे गुणाः
खारं लवणं १ दहण हिमं २ च अइगोरविग्गहो रोगी ३ । परवसगुणो अ चुण्णो, केवल गोरत्तणेऽवगुणाः । a इति केवलगौरत्वेऽपगुणाः
एवं तासु मिथो जल्पन्तीषु श्रीनेमिना पशुनामार्तस्वरं श्रुत्वा पृष्टः सारथिः प्राह-युष्मद्विवाहार्थमानी
तपशूनामयं स्वरः । इत्युक्ते स्वाम्यचिन्तयद् धिगविवाहोत्सवं, यदनुत्सवोऽमीषां, इतश्च 'हल्ली सहिओ ताकिंमे दाहिणं चक्ख परिप्फुरई' ति वदन्ती राजीमती प्रति सख्यौ प्रतिहतमङ्गलं ते इत्युक्त्वा थुत्युत्कारं
कुरुतः । नेमिस्तु हे सारथे! रथमितो निवर्तय, तदा नेमि पश्यन्नेको मृगः स्वग्रीवया मृगीग्रीवां पिधाया स्थितः । अत्र कविः-प्रभुं वीक्ष्य मृगीऽवक- .
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प्रदीपीका
मा पहरसु मा पहरसु एवं मह हिंअयहारिणि हरिणि । सामी अम्हं मरणा वि दुस्सहो पिअतमा विरहो ॥७॥ ततो मृगं प्रति मृग्याह
एसो पसनवयणो, तिहूअणसामी अकारणो बन्धू । ता विष्णवेसु वल्लह !, रक्खत्थं सव्वजीवाणं ॥ १॥ 7 मृगोऽपि स्त्रीप्रेरितो नेमि ब्रुते
"निज्झरणनीरपाणी अरण्णतणभक्खणं च वणवासो। अम्हाण निरवराहाण जीविकं रक्ख रक्ख पहो ॥१॥ एवं पुत्कुर्वतः सर्वान् पशून मोचयामास, स्वामी च रथं वालयामास । अत्र कविः
हेतुरिन्दोः कलके यो, विरहे रामसीतयोः । नेमिराजीमतीत्यागे कुरङ्गः सत्यमेव सः ॥१०॥ समुद्रविजयशिवादेव्यादि स्वजना रथं स्खलन्ति, शिवा च साश्रुश्रुते'पत्थेमि जणणिवच्छल ! वच्छ तुमं पढमपत्वणं किं पि । काऊण पाणिगहणं, मह दंसे निअवहूवयणं ॥११॥
नेमिराह-मुशाग्रहमिमं मात-र्मानुषीषु न मे मनः । मुक्तिस्त्रीसङ्गमोत्कण्ठ-मकुण्ठमवतिष्ठते ॥ १२ ॥ वतः-या रागिणि विरागिण्यस्ताः स्त्रियः को निषेवते । अतोऽहं कामये मुक्तिं, या विरागिणि रागिणी ॥ १३ ॥ । अथ राजीमती-हा देव ! किमुपस्थितमित्युक्त्वा मुमूर्छ । सखीभ्यां चन्दनद्रबैराश्वासिता राजी-
मती व्यलपत्NI "हा जायवालदिणयर! हा निरुवमंनाण! हा जंगसरण! | हा करुणायर सामी म मुत्तणं कहं चलिजो॥१४॥
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सोपालम्भ चाह-- "जइ संयलसिद्धभुत्ताई धुत्वरतासि (मुत्ति) गणियाए । ता एवं परिणयणारम्भेण विडम्बिया किमहं" ॥ १५ ॥
सख्यौ सरोवं यथा"लोअपसिद्धी वत्तडी, सहीए एक सुणिज्ज । सरलं विरलं सामलं, चुकिा वीहि करिज्ज १६॥ पिम्मरहिमि पिइसहि, एमि वि किं करेसि पिअभावं । पिम्मपरं किंपि वर, अनयरं ते करिसामो ॥१७॥ 'राजीमती की पिघाय अश्राव्यं किं श्रावयथ:“जई कहवि पच्छिमाए, उदयं पावेद दिणयरो तह वि । मुत्तुण नेमिनाहं, करेमि नाहं वरं अन्नं ॥१८॥
पुनमि प्रत्याहतिव्रतेच्छुरिच्छाऽधिकमेव दत्से,त्वं यावकेभ्यो गृहमागतेभ्यः। मयाऽर्थयन्त्या जगतामधीशो,हस्तोऽपि हस्तोपरि नैवलब्धः१९ ।
अथ विरक्ता राजीमती पाहN“जइ वि हु एअस्स करो मज्झ करे नो अ आसि परिणयणे । तहवि सिरे मह सुच्चिय, दिक्खासमये करो होही" ॥२०॥
अब समुद्रविजयादिस्वजनो नेमि ब्रूतेनामेयाद्याः कृतोद्वाहा, मुक्तिं जग्मुर्जिनेश्वराः । ततोऽप्युचैः पदं ते स्यात, कुमार ! ब्रह्मचारिणः ॥२१॥ म्याह-कस्त्रीसद्महेऽनन्त-जन्तुसहातपातके । भवतां भवतां तस्मिन् विवाहे कोऽयमाप्रहः ॥ २२ ॥
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किश्चाऽहं क्षीणभोगकर्मा, अत्रान्तरे लाकान्तिकदेवाः
प्रदीपीका "जय निर्जितकन्दर्प ! जन्तुजाताभयमद ! । नित्योत्सवावतारार्थ, नाथ ! तीर्थ प्रवर्त्तय ॥ २३ ॥
इति प्रभु प्रोच्य, स्वामी वार्षिकदानानन्तरं त्रिभुवनमानन्दयिष्यतीति समुद्रविजयादीन प्रोत्साह-12 | यन्ति । ततः सर्वेऽपि सन्तुष्टाः दानविधिस्तु वीरवत् ॥ १७१ ॥
जे से वासाणं पढमे मासे दुचे पक्खे सावणसुद्धे, तस्स णं सावणसुद्धस्स छट्ठीपक्खणं पुव्वKM हकालसमयंसि उत्तरकुराए सीयाए सदेवमगुयासुराए परिसाए अणुगम्ममाणमग्गे जाव बार
वईए णयरीए मज्झं मझेणं निग्गच्छइ, निगच्छित्ता, जेगेव खयए उज्जाणे तेणेव उवागच्छाइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे मीयं ठावेई, अवित्ता सीयाओ पचोरुहइ, पचोरहित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करित्ता छटेणं भत्तेणं अपाणएणं चित्ताहिं नक्खत्तेणं जोंगमुवागएणं एगं देवदूसमादाय एगेणं पुरिससहस्सेणं सद्धिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइए ॥ १७२ ॥ व्याख्या-जे से इत्यादितः............ पवइए इत्यन्नम् स्पष्टम् ।। १७२ ॥
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अरहओ णं अरिहनेमी चउपन्नं राइंदियाई निच्चं वोसट्टकाए चियत्तदेहे, तं चेक सव्वं जाव पणपन्नगस्स राइंदियस्म अंतरा वट्टमाणस्स जे से वासाणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे आसोयबहुले, तस्स णं आसोयबहुलस्स पण्णरसीपक्खणं दिवसस्स पच्छिमे भागे उजितसेलसिहरे वेडसपायवस्स अहे अट्ठमणं भत्तेणं अपाणएणं चित्ताहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं झागंत- H रियाए वट्टमाणस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने
जाव सव्वलोए सव्वजीवाणं भावे जाणमाणे पासमाणे विहरइ ॥ १७३ ॥ M व्याख्या-अरहेत्यादि.तो..........विहरईत्यन्नम् । तत्र रैवताद्रिशृङ्गे वेतसवृक्षाधः केवलज्ञानमुत्पेदे ।
तता वनपालेन कृष्णो विज्ञप्तस्तस्मै साईद्वादशरूप्यकोटीदत्वा सपरिच्छदः प्रभु नन्तुमगात् । स्वामिरा देशनां श्रुत्वा द्विसहस्रनृपान्वितो वरदत्तनृपो दीक्षामादात् । प्रभोः दृढरागां राजीमतीं वीक्ष्य हरिः स्नेह
कारणं प्रपच्छ, ततो धन-धनवतीभवादारभ्याष्टभवावधिं यावत् तया सह सम्बन्ध स्वाम्याह, ततोऽन्यत्र विहत्य पुनः समवमृतस्य प्रभोः पाश्य रथनेमिः बहुकन्याऽन्विता राजीमती च प्रनवाज, अन्यदा सा व्रजती वृष्टिबाधिता गिरिगृहां प्राविशत् । प्राप्रविष्टो रथनेमिनिवस्त्रां तां वीक्ष्य क्षुभितो भोगार्थ प्राधि
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तवान् । ततोऽगन्धनकुलाहिदृष्टान्तादिना तं प्रबोध्य सा क्रमेण केवलज्ञानं प्राप्य च शिवमगात् । प्रदीपीका
रथनेमिरपि दुवर्णमालोच्य मुक्तिं प्राप ।। १७३ ।।
अरहओ णं अरिट्ठनेमिस्स अट्ठारस गणा अट्ठारस गणहरा हुत्था || १७४ | अरहओ अरिट्ठनेमिस्स वरदत्तपामुक्खाओ अट्ठारस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया हुत्था । १७५| अरहओ णं अरिट्ठनेमिस्स अज्जजक्खिणिपामुक्खाओ चत्तालीसं अज्जियासाहस्मीओ उक्को - सिया अज्जिया संपया हुत्था ॥ १७६ ॥ अरहओ गं अरिट्ठनेमिस्स नंदपामुक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहसीओ अउणत्तीरे च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासगाणं संपया हुत्था || १७७ || अरहओ णं अरिट्ठनेमिस्स महासुख्वयापामुक्खाणं समणोवासियाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ छत्तीसं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासियाणं संपया हुत्था ॥ १७८ ॥ अरहओ णं अरिट्ठनेमिस्स चत्तारिसया चउदस्सपुवीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खर जाव संपया हुत्था ॥ १७९ ॥ पण्णरसंसया ओहिनाणीणं, पन्नरससया केवलनाणीणं, पन्नरस - सया वेउव्वियाणं, दससया विउलमईणं, अट्ठसया वाईणं, सोलससया अणुत्तरोववाइयाणं,
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पण्णरस समणसया सिद्धा, तीसं आज्जियासयाई सिद्धाई, अरहओ णं अरिटनोमिस्स दुविहा अंतगडभूमी हुत्था, तं जहा जुगंतकडभूमी य परियायंतकडभूमी य, जाव अट्ठमाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकडभूमी, दुवालसपरियाए अंतमकासी ॥ १८०॥
व्याख्या-अरहओ णमित्यादितो.........दुवालसपरियाए अंतमकासीति यावत् परिवारसक्ता सससूत्रीस्पष्टा ॥ १७४ । १७५ । १७६ । १७७ । १७८ । १७९ ॥ १८०। । तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अस्टिनेमि तिन्नि वाससयाई कुमाखासमझे वसित्ता, चउप्पन्नं राइंदियाई छउमत्थपरियायं पाउणित्ता, देसुणाई सत्तवाससयाइं केवलिपरियायं पाउणित्ता, पडिपुन्नाइं सत्तवाससयाइं सामण्णपरियायं पाउणित्ता, एगं वाससहस्सं सव्वाउयं पालइत्ता, खीणे वेयणिज्जाउयणामगुत्ते, इमीसे ओसप्पिणीए दूसमसुसमाए बहुविइकताए जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्ठमे पक्खे आसाढसुद्धे,तस्स णं आसाढसुद्धस्स अट्ठमीपक्खेणं उप्पि उज्जितसेलसिहरंसि पंचहिं छत्तीसेहिं अणगारसएहिं सद्धिं मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं
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चित्ता नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पुवरत्तावरत्तकालसमर्थसि नेसज्जिए कालगए ( ग्र८००) जाव सव्वदुक्खप्पहीणे ॥ १८२ ॥
व्याख्या- तेणमित्यादितः. . सव्वदुक्खप्पहीणे इत्यन्तम् । तत्र पंचहिं छत्तीसेहि ति पदत्रिशदधिकैः पञ्चशतैः निसज्झिए सि निषण्णः ।। १८१ ।।
अरहओ णं अरिट्ठनेमिस्स कालगयस्स जाव सवदुक्खप्पहीणस्स चउरासीइं वाससहस्साई विइक्ताई पंचासीइमस्स वाससहस्सस्स नव वाससयाई विइक्कंताई दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ ॥ १८२ ॥
व्याख्या - अरहओ णमित्यादितः... ..काले गच्छईयन्तं सष्टुं परं श्रीनेमिनिर्वाणात् त्र्यशीतिसहस्रसाईसप्तशतवर्षान्ते श्रीपार्श्वमोक्षः, ततः सार्द्धद्विशत वर्षान्ते श्रीवीरमोक्षः, ततो नवशताशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि व्याख्या प्राग्वत् ॥ १८२ ।। इति श्रीनेमिचरित्रं ।
अतः परं ग्रन्थगौरव भयान्नम्याद्यजितान्तानां पञ्चानुपूर्व्या अन्तरकालमेवाहनमिस्स णं अरहओ कालगयस्स जाव सङ्घदुक्खप्पहीणस्स पंच वाससयसहस्साइं चउरासीई च वाससहस्साइं नव वाससयाई विइकंताई दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे
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काले गच्छ २१ ।। १८३ ॥
व्याख्या - नमिस्स णं अरहओ इत्यादितः. .....इच्चाइअमिति यावत् विंशति सूत्राणि व्यक्तानि तथायतिस्पष्टार्थं किञ्चित्समुदायार्थी लिख्यते - श्रीनमिनिर्वाणात् पञ्चलक्षवर्षेः [ ५००००० ] नेमिर्मोक्षः । ततश्चतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षान्ते [ ८४९८० ] पुस्तक वाचनादि । २१ ॥१८३॥
मुणिसुव्वयस्स णं अरहओ जाव सव्वदुक्खपहीणस्स इक्कारस वाससयसहस्साइं चउरासी च वाससहस्साई नव वाससयाई विइक्कंताई, दसमस्स य वासस्यस्स अयं असीइमे संवच्छ काले गच्छइ २० ॥ १८४॥
श्रीमुनिसुव्रतमोक्षात् षड्लक्षवर्षेः [ ६००००० ] नमिमोक्षः, ततः पञ्चलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षाते [ ५८४९८० ] पुस्तकवाचनादि ।। २० ।। १८४ ।।
मल्लिस णं अरहओ जाव सव्वदुक्ख पहीणस्स पण्णडिं वाससयसहस्साइं चउरासीइं च वाससहस्साई नव वाससयाई विकताई, दसमस् य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छ १९ ॥१८५॥
श्रीमल्लिमोक्षाच्चतुःपञ्चाशल्लक्षवर्षे [ ५४००००० ] र्मुनिसुव्रतमोक्षः । ततश्चैकादशलक्षचतुरशीति
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सहस्रनवशताशीतिवर्षान्ते [११८४९८०] पुस्तकवाचनादि ॥ १९ ॥१८५॥
प्रदीपिका अरस्स णं अरहओ जाव पहीणस्स एगे वासकोडीसहस्से विइक्कते, सेसं जहा मल्लिस्स तं च एवं पंचसटिं लक्खा चउरासीइं वाससहस्साई विइकताई, तम्मि समए महावीरो निव्वुओ, तओ परं नव वाससयाई विइकताई, दसमस्स य वासससस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले
गच्छइ । एवं अगओ जाव सेयंसो ताव दट्टव्वं १८ ॥ १८६ ___ श्रीअरमोक्षादेकाकोटिसहस्रवर्षेमल्लिमोक्षस्ततः पञ्चषष्ठिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षान्ते । [६९८४९८०] पुस्तकवाचनादि ॥ १८॥१८॥ कुंथुस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स एगे चउभागपलिओवमे विइकते, पंचसटिं च सयसहस्सा, सेसं जहा मल्लिस्स १७॥ १८७ ॥ __ श्री कुन्थुमोक्षादेकाकोटिसहस्रवर्षोंन-पल्योपमचतुर्थाशेन श्रीअरमोक्षः, तत एकसहस्रकोरिपञ्चषष्टिलक्ष-चतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ॥ १७ ॥ १८७॥ संतिस्स णं जाव प्पहीणस्स एगे चउभागूणे पलिओवमे विइकते पन्नहिँ च, सेसं जहामालिस्स १६ ॥१८८॥
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___ श्रीशान्तिमोक्षात् पल्योपमाडेन कुन्थुमोक्षः, ततः पल्यचतुर्थीश-पञ्चषष्टिलक्ष-चतुरशीतिसहस्त्रHd नवशताशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ॥ १६ ॥१८॥ | धम्मस्स णं जाव प्पहीणस्स तिन्नि सागरोवमाइं पन्नहिँ च, सेसं जहा मलिस्स १५ ॥१८९॥ । | श्रीधर्ममोक्षात् पादोनपल्योनैत्रिसागरैः शान्तिमोक्षः, ततः पादोनपल्य-पञ्चषष्टिलक्ष-चतुरशीति| सहस्र-नवशताशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ॥ १५ ॥॥१८९॥ Lal अणंतस्स णं जावप्पहीणस्स सत्त सागरोवमाइं पन्नढि च, सेसं जहा मल्लिस्स १४ ॥१९० | श्रीअनन्तमोक्षाच्चतुःसागरैः धर्ममोक्षः, ततश्च त्रिसागर-पञ्चषष्टिलक्ष-चतुरशीतिसहस्र-नवशताशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ॥१४॥ १९० ॥ विमलस्स णं जावप्पहीणस्स सोलस सागरोवमाइं विइकताइं पन्नटिं च सेसं जहा
३ ॥ १९१ ॥ __ श्रीविमलमोक्षान्नवसागरः श्रीअनन्तमोक्षः, ततः सप्तसागर-पञ्चपष्टिलक्ष-चतुरशीतिसहस्र-नव| शताशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ॥ १३ ॥१९१ ।।
वासुपुज्जस्स णं जावप्पहीणस्स छायालीसं सागरोवमाई पन्नटिं च सेसं जहा मल्लिस्स १२॥१९२
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श्री वासुपूज्यमोक्षात् त्रिंशत्सागरैर्विमल मोक्षः, ततः षोडशसागर - पञ्चषष्टिलक्ष- चतुरशीति सहस्र - नवशताशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ॥ १२ ॥ १९२॥
सिज्जंसस्स णं जाव पहीणस्स एगे सागरोवमसए विइकंते एन्नद्धिं च सयसहस्सा सेसं जहा
मल्लिस्स ११ ॥१९३॥
श्रीश्रेयांसमोक्षाच्चतुःपञ्चाशत्सागरैर्वासुपूज्यमोक्षः, ततः षट्चत्वारिंशत्सागर - पञ्चलक्ष-चतुर शीतिसहस्र-नवशताऽशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि || १३ || १९३॥
सीयलस्स णं जावप्पहीणस्स एगा सागरोवमकोडी तिवासअद्धनवमासाहियवायालीसवाससहस्सेहिं ऊणिया विइकंता एयंमि समए महावीरो निव्वुओ तओ परं नव वाससयाई विकताई दसमस् य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ १० ॥ १९४ ॥
श्रीशीतलमोक्षात् षष्टिलक्ष- षडूविंशतिसहस्र-त्रिवर्ष- साष्टमासाधिकसागरशतोनैकसागरकोट्या श्रेयांसमोक्षः, ततः शतसागर - पञ्चषष्टिलक्ष - चतुरशीतिसहस्र-नवशताशीति वर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ।। १० ।।१९४ ।।
सुविहिस्स णं अरहओ जाव पहीणस्स दस सागरोवमकोडिओ विइकंताओ सेसं जहा
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सीयलस्स तं च इमं तिवासअनवमासाहियवायालीसवाससहस्सेहिं ऊणिया विइकता इच्चाइ ९ ॥ १९५ ॥
श्रीसुविधिमोक्षान्नवकोटिसागरैः शीतलमोक्षः, ततः त्रिवर्षसार्द्धाष्टमासाधिकद्विचत्वारिंशत्४ सहस्राब्दोनैककोटिसागरान्ते वीरमुक्तिः, ततो नवशताशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ॥९॥१९५॥
चंदप्पहस्स णं अरहओ जावप्पहीणस्स एगं सागरोवमकोडिसयं विइकंतं सेसं जहा सीयलस्स तं च इमं तिवासअद्वनवमासाहियवायालीमवाससहस्सहिं ऊणगमिच्चाइ ८ ॥१९६॥ ।
चन्द्रप्रभमोक्षात् नवतिकोटिसागरैः सुविधिमोक्षः, ततः त्रिवर्षसाष्टिमासाधिक-द्विचत्वारिं| शत्सहस्राब्दोन-दशकोटिसागरान्ते वीरमुक्तिः, ततो नवशताशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ॥८॥१९॥
सुपासस्स णं अरहओ जावप्पहीणस्स एगे सागरोवमकोडिसहस्से विइकते सेसं जहा सीय- लस्स तं च इमं तिवामअद्धनवमासाहियवायालीसवाससहस्मोहिं ऊणिया विइकंता इच्चाइ ७ ॥ १९७ ॥
श्रीसुपार्श्वमोक्षान्नवशतकोटिसागरश्चन्द्रप्रभोमोक्षस्ततस्त्रिवर्ष-सार्धाष्टमासाधिक-द्विचत्वारिंशत्सहस्राब्दोनैक-शतकोटि सागरान्ते वीरमुक्तिः, ततो नवशताऽशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ॥७॥१९७॥
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कल्प
१२३
उपहस्स णं अरहओ जावप्पहीणस्स दस सागरोवम कोडिसहस्सा विइकंता तिवासअद्ध- प्रदीपिका नवमासाहियवायालीसवाससहस्सेहिं इच्चाइयं सेसं जहा सीअलस्स ६ ।। १९८ ॥
श्रीपद्मप्रभमोक्षान्नवसहस्रकोटिसागरैः सुपार्श्वमोक्षः, ततः त्रिवर्ष-सार्द्धाष्टमासाधिकद्विचत्वारिंशत्सहस्राब्दोनैकसहस्त्र कोटिसागरान्ते वीरमुक्तिः, ततो नवशताशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ॥ ६ ॥१९८॥ सुमइस्सं अरहओ जावप्पहीणस्स एगे सागरोव मकोडिसयसहस्से विइकंते सेसं जहा सीयलस्स तिवासअद्धनवमासाहियवायालीसवास स हस्सेहिं इच्चाइयं ५ ॥ १९९ ॥
श्रीसुमतिमोक्षान्नवतिसहस्त्र कोटिसागरैः पद्मप्रभमोक्षः, ततस्त्रिवर्षसार्द्धाष्टमासाधिक-द्विचत्वारिंशत्सहस्राब्दोन दशसहस्र कोटिसागरैर्वीरमुक्तिः, ततो नवशताशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ॥५॥ अभिनंदणस्स णं अरहओ जाव सव्वदुक्खपहीणस्स दस सागरोवम कोडिसय सहस्सा विइक्कता सेसं जहा सीयलस्स तिवास-अद्धनवमासाहिय बायालीस सहस्सेहि य इच्चाइयं ४ ॥ २०० ॥ अभिनन्दनमोक्षान्नवलक्ष कोटिसागरैः सुमतिमोक्षस्ततः त्रवर्षसार्द्धाष्टमासाधिक- द्विचत्वारिंशत्सहस्राब्दोनैकलक्ष कोटिसागर वरमुक्तिः, ततो नवशताशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ॥ ४ ॥ २०० संभवस्स णं अरहओ जाव प्पहीणस्स वीसं सागरोवमकोडिसयसहस्सा विक्कता सेसं जहा
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सीयलस्स तिवासअद्धनवमासाहियवायालीसवाससहस्सेहिं इच्चाइयं ३ ॥ २०१॥
श्रीसंभवमोक्षाद्दशलक्षकोटिसागरैरभिनन्दनमोक्षः, ततस्त्रिवर्षसा ष्टमालाधिक-द्विचत्वारिंशत्स| हस्राब्दोन-कदशलक्षकोटिसागरैवीरमूक्तिः, ततो नवशताशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ॥ ३ ॥ २०१ ।। NT अजियस्स णं अरहओ जावप्पहीणस्स पन्नासं सागरोवमकोडिसयसहस्सा विइकता सेसं
जहा सीअलस्स तिवासअद्धनवमासाहियवायालीसवाससहस्सेहिं इच्चाइयं २ ॥ २०२ ।। ____ अजितमोक्षास्त्रिशल्लक्षकोटिसागरैः सम्भवमोक्षः, ततस्त्रिवर्षसा ष्टमासाधिक-द्विचत्वारिंशत्सहस्राब्दोन-विंशतिलक्षकोटिसागरैर्वीरमुक्तिः, ततो नवशताशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ॥२॥२०२
श्रीऋषभमोक्षात् त्रिवर्षसा ष्टमासाधिक पश्चाशल्लक्षकोटिसागरैरजितमोक्षस्ततस्त्रिवर्षसा - ष्टमासाधिक-द्विचत्वारिंशत्सहस्राब्दोन पश्चाल्लक्षकोटिसागरैर्वीरमुक्तिः, ततः नवशताऽशीतिवर्षान्ते पुस्तकवाचनादि ॥ १॥ १८३-१८४-१८५-१८६-१८७-१८८-१८९-१९०-१९१-१९२-१९३-१९४१९५-१९६-१९७-१९८-१९९-२००-२०१-२०२। तेणं कालेणं तेणं समएणं उसभे अरहा कोसलिए चउ उत्तरासाढे अभीइपंचमे हुत्था ॥२०३।। व्याख्या-तेणमित्यादितः..........हुत्थेत्यन्तम् । तत्र कोशलायां भवः कौशलिकः ॥२०३॥ तं जहा उत्तरासाढाहिं चुए, चइत्ता गम्भं वक्ते, जाव अभीइणा परिनिव्वुए ॥ २०४ ॥
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प्रदीपीका
कल्पी १२४
तेणं कालेणं तेणं समएणं उसमे णं अरहा कोसलिए जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे आसाढबहुले तस्स णं असाढबहुलस्स चउत्थीपक्खणं सब्वट्ठसिद्धाओ महाविमाणाओ तित्तीस सागरोवमट्टिइयाओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेब जंबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे इक्खागभूमीए नाभिकुलगरस्स मरुदेवाए भारियाए पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि आहारवकंतीए जाव गभत्ताए वक्ते ॥२०५ ॥
व्याख्या-तं जहेत्यादितो...........गम्भत्ताए वक्वन्ते त्ति यावत् सूत्रद्वयं स्पष्टम् ॥२०४-२०५॥ उसभे णं अरहा कोसलिए तिण्णाणोवगया आवि हुत्था तं जहा-चइस्सामि त्ति जाणइ जाव सुविणे पासइ, तं जहा-गयवसह गाहा, सव्वं तहेव नवरं पढमं उसमें मुहेण अइंतं पासइ, सेसाओ गयं, नाभिकुलगरस्स साहेइ, सुविणपाढगा नस्थि, नाभीकुलगरो सयमेव वागरेइ ।। २०६॥
व्याख्या-उसभेगमित्यादितो ...वागरेइत्यन्तम् । तत्र मरुदेवी प्रथम मुखेन अइंतं प्रविशन्तं वृषभ पश्यति, शेषा जन्ययः प्रथमं गजं पश्यन्ति । वीरमाता तु सिंहमद्राक्षीत् ॥ २० ॥
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तेणं कालेणं तेणं समएणं उसभे णं अरहा कोसलिए जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्स णं चित्तबहुलस्स अट्ठमीपक्खणं नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाणं जाव आसाढाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं आरोग्गारोग्गंदारयं पयाया ॥ २०७॥
व्याख्या तेणमित्यादितो......दारयं पयायेत्यन्तम्, प्राग्वत् ॥२०७॥ तं चेव सव्वं जाव देवा देवीओ य वसुहाखासं वासिंसु सेसं तहेव चारगसोहणं माणुम्माणवद्धणं उस्सुकमाइय ठिइवडियं जूयवज्जं सबं भाणियव्वं ॥ २०८ ॥
व्याख्या-तं चेव सव्वमित्यादितो...भाणियध्वमित्यन्तम् तत्र,अथ स्वर्गच्युतः प्रभुरप्रतिपातिज्ञानत्रयो, 0 जातिस्मरो, अनेकदेवदेवीयुतः, क्रमेण प्रवर्द्धमानः सन् आहाराभिलाषे सुरसञ्चारिताऽमृतरसामलिं मुखे क्षिपति । एवमन्येऽपि अन्तिो बाल्ये ज्ञेया, बाल्यातिक्रमे अग्निपक्वाहारभुजः, रूषभस्त्वाव तं सुरानीतोत्तरकुरुकल्पद्रुफलाहारं कृतवान्। किश्चिदनसातवर्षे प्रभोः प्रथमतीर्थकृवंशस्थापनं 'शक्रजीतं' इति विमृश्य कथं रिक्तपाणिः प्रभोः पुरो यामीति महतीमिक्षुयष्टिमादायानेकदेवयुतः शक्रो नाभिकु लकराङ्कस्थितस्य प्रभोः पुरस्तस्थौ । दृष्ट्वा इक्षुयष्टिम् प्रभुणा पाणौ प्रसारिते 'भक्षयसीक्षुम्' इत्युक्त्वा दत्वा च ताम् इक्ष्वभिलाषात् प्रभोवंश 'इक्ष्वाकु' नामाऽस्तु, गोत्रमप्यस्यैतत्पूर्वजानामिक्ष्वभिलाषात्
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मदीपिका
'काश्यपनामेति शक्रो वंशस्थापनां चक्रे । ___ अदृश्थे चावसरे किञ्चिन्मिथुनकं जाताऽपत्यं सदपत्यमिथुनकं तालवृक्षाऽधो विमुच्याऽन्यत्र रन्तुमगात्, ततो वातप्रेरितपतत्तालेनकस्मिन् दारके व्यापादिते तत्पितृमिथुनकं तां सुतां दृष्ट्वा संवृद्धय कियता कालेन मृत्वा स्वर्ग समुत्पन्नं, सा रुपवती एकाकिनी वने विचचार ।
दृष्ट्वा च तां रम्भातुल्यां युगलिकनरा नाभिकुलकराय न्यवेदयन् नाभिरपि शिष्टेयं सुनन्दाख्या ऋषपभपत्नी भविष्यतीति लोकज्ञापनपूर्वकं तां जग्राह । ततः सुनन्दासुमङ्गलाभ्यां सह प्रवईमानः प्रभुयौवनं
प्राप्तः । शक्रोऽपि प्रथमतीर्थकृद्धिवाहकृत्यमस्माकं जीतमित्यनेकदेवदेवीयुतः आगत्य प्रभोर्वरकृत्यं । स्वयमेव चक्रे, वधूकृत्यं च द्वयो कन्ययोर्देव्यश्चक्रुः । ततस्ताभ्यां भोगान् भुञानस्य प्रभोः षट्लक्षपूर्वेषु गतेषु भरतत्राह्मी युगलमन्यानि चैकोनपश्चाशत्पुत्रयुगलानि सुमङ्गला प्रासूत । बाहुबलिसुन्दरी युगलं सुनन्देति ॥ २०८ ॥ उसमे णं अरहा कोसालिए कासवगुत्ते णं तस्स णं पंच नामधिज्जा एवमाहिज्जति तं जहाउसमे इ वा १ पढमराया इ वा २ पढमभिक्खायरे इ वा ३ पढमजिणे इ वा ४ पढमतित्थंक d १२५ इवा ५॥ २०९॥ व्याख्या-उसभेणमित्यादितः.........पढमतित्थंकरे इ वेत्यन्तम्। तत्र इकारः सर्वत्र वाक्यालङ्कारे।।
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पदमराया इत्ति प्रथमराजा स चैवं - "कालानुभावात् क्रमेण तीव्रतीव्रतर कषायोदयान्मिथो विवदमानानां युगलिकानां दण्डनीतिस्तावद्विमलवाहनचक्षुष्मत्कुलकरकालेऽल्पापराधित्वात् हकाररुपैवासीत्, यशस्विनोऽभिचन्द्रस्य च कालेऽल्पेऽनल्पे वाऽपराधे हकारमकारावभूताम्, प्रसेनजिन्मरुदेवनाभीनां काले च जघन्याय पराधिनां हकारमकारधिक्कारा आसन् । इत्यपि नीतिलोपे नाभिप्रेषितयुग लिकनरैर्विज्ञप्तः स्वामीत्याह - 'यन्नी तिलोपिनां दण्डं सर्व रांजा करोति स चामात्याऽऽरक्षकादिवलयुतोऽनतिक्रमणोयाज्ञो स्यात्, ततस्तैरुचेऽस्माकमीदृग् राजाऽस्तु । स्वाम्याह 'याचध्वं राजानं नाभिं प्रति तैर्याचितो नाभिभ भवतां ऋषभ एव राजेत्युक्तवान् । ततस्ते राज्याऽभिषेककृते जलानयनाय सरसि जग्मुः । तदा कम्पितासनः शक्रो 'जीत' इति धिया आगत्य छत्रचामरमुकुटभूषणादिविधिपूर्वकं राज्येSभ्यषिञ्चत् । युगलिकास्तु पद्मपत्रस्थिताम्बुहस्ता भूषितं प्रभुं वीक्ष्य सविस्मया कियत्कालं विलम्ब्य प्रभुपादयोर्जलं, चिक्षिपुः । इति दक्षांस्तान् वीक्ष्य तुष्टः शक्रोऽचिन्तयदहो विनीता अमी इति धनदमाज्ञापितवान् " यदत्र द्वादशयोजनदीर्घा नवयोजनपृथुलां विनीताख्यां पुरीं कुरु" इत्याज्ञानन्तरमेव दिव्यगृहपक्तिप्रशोभितां पुरीमवासयत् । ततो स्वामी राज्य-गज-वाजि - गवादीनां सङ्ग्रहपूर्वकमुग्र भोग - राजन्य-क्षत्रियरुपचतुः कुलानि स्थापयामास । तत्रोङ्ग्रदण्डकारित्वादुग्रा - आरक्षकस्थानीयाः १, भोगाईत्वाद् भोगा - गुरुस्थानीयाः २, समानवयस इति कृत्वा राजन्या - वयस्यस्थानीयाः ३ शेषप्रधानप्रकृतितया क्षत्रियाश्च ४ | तदानीं कालहान्या कल्पद्रुफलाऽभावे ये इक्ष्वाकास्ते इक्षुभोजिनः, शेषास्तु प्रायः
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कल्प
१२६
पत्रपुष्पफल भोजिनोऽग्नेर भावाच्चाऽपक्वशाल्याद्यौषधिभोजिनश्चासन् । कालानुभावात्तदजीर्णे स्वपं स्वल्पतरं चखादुः, तस्याऽप्यजीर्णे तैर्विज्ञप्तः स्वाम्याह- 'हस्ताभ्यां दृष्ट्वा त्वचं चापनीयभुङ्क्ष्व मित्याकर्ण्य तथैव कृते कियत्कालेन ता अपि ते न जीर्णवन्तः । एवं पुनर्विज्ञप्तः स्वाम्युक्ततथाविधानेकोपायैस्ते ता कथञ्चिज्जीर्णवन्तः एवं च सत्येकदा वंशघर्षणादुत्थितज्वलन्तमग्निं दृष्ट्वा रत्नबुया ग्रहणाय प्रसारितकरा दह्यमाना भीताः सन्तो यथावद् व्यतिकरकथनेन विज्ञपयामासुः । स्वामिना चान्युत्पत्तिं ज्ञात्वा भो ! नरा ! उत्पन्नोऽग्निः अत्र च शाल्याद्योषधीर्निधाय भुङ्गध्वम्, यतः - ताः सुखेन जीर्यन्तीत्युक्तोपायेनाऽप्यनाभ्यासात्सम्यगुपायमजानान्तस्ता औषधीरग्नौ क्षित्वा कल्पद्रोरिव फललिप्सया पुरः स्थित्वा पश्यन्ति । अग्निना ताः सर्वादयमाना दृष्ट्वा अहो एष दुरात्मा वेताल इवाऽतृप्तः स्वयं सर्वम् चखाद,नोऽस्माकम् किमपि दत्ते, अतोऽस्यापराधं स्वामिने विज्ञप्य शिक्षां दापयिष्यामः इति धिया गच्छन्तः पथि प्रभुमपि गजारूढं संमुखमायान्तं वीक्ष्य तदुदन्तं स्वामिने व्यवेदयन्। स्वाम्याह— 'अत्र कुम्भादिव्यवधानेन शाल्यादि प्रक्षेपः कार्यः, इति तैरेव सार्द्धं मृत्पिण्डमानाय्य विधाय च हस्तिकुम्भे कुम्भं मिण्टेन कुम्भकारं न्यदर्शयत्, ऊचे चेदृशानि भाण्डानि कृत्वा तेषु पाकं कुरुध्वमिति स्वाम्युक्तमुपायं लब्धास्ते तथैव चकुः । अतः प्रथमं कुम्भकार शिल्पं प्रवर्तितं, ततो लोह -चित्र-तन्तुवायनापितरूपचतुः शिल्पैः सह मूलशिल्पानि पञ्चैव तान्यपि प्रत्येकं विंशत्या भेदैः शिल्पशतं तचाऽऽ चार्योपदेशजमिति ॥ २०९ ॥
प्रदीपिका
१२६
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उसमे णं अरहा कोसलिए दक्खे दक्खपइण्णे पडिरूवे अल्लीणे भद्दए विणीए वीसं पुवसयसहस्साई कुमाखासमझे वसइ, वसित्ता तेवढिं पुव्वसयसहस्साइं रज्जवासमझे वसइ, तेवद्धिं च पुव्वसयसहस्साई रज्जवासमझे वसमाणे लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ बावत्तरि कलाओ, चउसडिं महिलागुणे, सिप्पसयं च कम्माणं, तिन्निवि पयाहिआए उवदिमइ, उवदिसित्ता पुत्तमयं रज्जसए अभिसिंचइ अभिसिंचित्ता पुणरवि लोअंतिएहिं जिअकप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इट्ठाहिं जाव वग्गृहि, सेसं तं चेव सव्वं भाणियव्वं, जाव दाणं दाइआणं परिभाइत्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे-चित्तबहुले तस्स णं चित्तबहुलस्स अट्टमीपक्खे णं दिवसस्स पच्छिमे भागे सुदंसणाए सबियाए सदेवमणुआसुराए परिमाए ममणुगम्ममाणमग्गे जाव विपीय रायहाणं मज्झं मज्झणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सिद्धत्थवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे जाव सयमेव चउमुट्ठिअं लोअंकरेइ,करित्ता छटेणं भत्तेणं अपाणएणं आसादाहिं नक्खत्तणं जोगमुवागएणं उगाणं भोगाणं राइण्णाणं खत्तियाणं
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कल्प
प्रदीपिका
१२७
चउहिं पुरिससहस्सेहिं सद्धिं एगंदेवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए ॥२११॥
व्याख्या-उसभेगमित्यादितः...पव्वइए इत्यन्तम् । तत्र लेहाइयाओ त्ति लेखादिका दासप्तति कलाः ताश्चमाः
"लिखितं १ गणितं २ गीतं ३ नृत्यं ४ वाद्यं ५ च पठित ६ शिक्षे च७ ज्योति ८च्छन्दोऽ९ लकृति १०व्याकरण ११ निरुक्ति १२ काव्यानि १३ ॥१॥ कात्यायनं १४ निघण्टु १५ गज १६ तुरगारोहणं १७ तयोः शिक्षा १८ शस्त्राभ्यासो १९ रस २० मन्त्र २१ यन्त्र २२ विषय २२ खन्य २४ गन्धवादाश्च ।। २५ ॥ २॥ प्राकृत २६ संस्कृत २७ पैशाचिका २८ पभ्रंशाः २९ स्मृति ३० पुराण ३१ विद्या ३२ सिद्धांत ३३ तर्क ३४ वैद्यक ३५ वेदाऽऽ ३६ गम ३७ संहिते ३८ तिहासाश्च ३९ ॥३॥ सामुद्रिक ४० विज्ञानाऽऽ ४१ चार्यकविद्य ४२ रसायन ४३ कपट ४४ विद्यानुवाद ४५ दर्शनसंस्कारौ ४६ धूर्तशम्बलकं ४७ ॥ ४ ॥ मणिकर्म ४८ तरुचित्सा ४९ खेचर्य ५० मरी ५१ किलेन्द्रजालं ५२ च पातालसिद्धि ५३ यन्त्रकरसवत्य ५४ सर्वकरणी ५५ ॥ ५॥ प्रासादलक्षण ५६ पण ५७-चित्रो ५८ पल ५९ लेप ६० चर्म ६१ कर्माणि । पत्रच्छेद्य ६२ नखच्छेद्यं ६३-पत्रपरीक्षा ६४ वशीकरणं च ६५ ॥ ६॥ काष्ठघटन ६६ देशभाषा ६७-गारुड६८योगाङ्ग६९धातुकर्माणि ७० । केवलिविधि ७१शकुनरुते,७२ इति पुरुषकलाद्विसप्ततिज्ञेयाः ॥७॥ ___अत्र लिखितं हंसलिप्याद्यष्टादशलिपिविधानं, तच्च प्रभुणा दक्षिणकरेण ब्राहया उपदिष्टं, गणित त्वेकादि पराद्धान्तम् तच्च सुन्दर्या वामकरण । काष्टकर्मादिरूपकर्म भरतस्य, पुरुषादिलक्षणं च बाहुबलिनः-उपदिष्टमिति।
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चउसद्रि महिलागुणे त्ति-नृत्य १ औचित्य२ चित्र ३ वादित्र ४ मन्त्र५ तन्त्र ६ ज्ञान विज्ञान ८ दम्भ ९ जलस्तम्भ १० गीतगान ११ लालसा १२ मेघवृष्टि १३ फलाकृष्टि १४ आरामरोपण १५ आकारगोपन १६ धर्माचार १७ शकुनविचार १८ क्रियाकल्प १९ संस्कृतजल्प २० प्रासादनीति २१ धर्मनीति २२ वर्णिकावृद्धि २३ सुवर्णसिद्धि २४ सुरभितैलकरण २५ लीलासश्चरण २६ वैद्यकक्रिया २७ कामविक्रिया २८ गजवाजिपरीक्षण २९ पुरुषस्त्रीलक्षण ३० मणिरत्नभेद३१ अष्टादशलिपिपरिच्छेद ३२ तक्षालबुद्धि ३३ वास्तुसिद्धि ३४ घटभ्रम ३५ सारिपरिभ्रम ३६ अञ्जनयोग ३७ हस्तलाघव ३९ वचनपाटव ४० भोज्यविधि ४१ वाणिज्यविधि ४२ मुखमण्डन ४३ शालिखण्डन ४४ कथाकथन ४५ पुष्पग्रन्थन ४६ वक्त्रोक्ति ४७ काव्यशक्ति ४८ स्फारवेष ४९ सर्वभाषाविशेष ५० अभिधानज्ञान ५१ आभरणपरिधान ५२ भृत्योपचार ५३ गृहाचार ५४ काव्यकरण ५५ परनिराकरण ५६ रन्धन ५७ केशबन्धन ५८ वीणाभिनाद ५९ वितण्डावाद ६० अङ्कविचार ६१ लोकव्यवहार ६२ अन्त्याक्षरिका ६३ प्रश्नप्रहेलिका ६४ ॥ इति स्त्रीकलाचतुःषष्टिः।।
सिप्पसयं च कम्माणं नि कर्मणां कृषिवाणिज्यादीनां मध्ये कुम्भकारशिल्पादिकं प्रागुक्तं शिल्पशतमेवोपदिष्टम् । अत एवनाचार्योपदेश कर्म आचार्योपदेशजं च शिल्पमिति कर्मशिल्पयोर्विशेषमामनन्ति । कर्माणि च क्रमेग स्वयमेवोत्पन्नानि । तिन्नि वि पयाहिआए त्ति त्रिण्येतानि ७२ (पुरुष) कलाः, १४ महिलागुणाः, शिल्पशताख्यानि वस्तूनि प्रजाहिताय प्रभुरुपदिशति स्मेत्यर्थः। पुत्तसयं रजसए अभिसिंचइ अभिसिचित्ता त्ति तत्र भरतस्यायोध्याराज्यं, बाहुबलेखहलीदेशे तक्षांशलाराज्य दत्त्वा शेषाऽष्टनवतिपुत्राणां पृथग् पृथग् देशराज्यं च ददौ । पुत्रनामानि त्वेवं--
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कल्प
प्र दीपिका
१२८
-"संखो १ य विस्स विम्मो २, विमल ३ सुभक्खण य ४ अमल ५ चित्तंगो ६ । तह खायकित्ति ७ वरदत्त दत्त ९ सागर १० जसहरो अ११ ॥ १॥ वर १२ थावर १३ कामदेवो १४, धुव १५ वच्छो १६ नंद १७ सूरय १८ सुनंदो १९ । कुरु २० अंग २१ वंग २२ कोसल २३-वीर २४ कलिंगे अ २५ मागह २६ विदेहे २७ ॥२॥ संगम २८ दसन्न २९ गंभिव ३०-वसुवम्म ३२ रह ३३ य सुरढे ३४ । वुइढिकरे ३५ विविहकरे, ३६ सुजसे ३७ जसकित्ति ३८ जसकरए ३९॥ ३ ॥ कित्तिकर ४० सुसेणे ४१ बंभसेण ४२ विकंतओ ४३ नरुत्तमओ ४४। तह |
चंदसेण ४५ महसेण ४६ सुसेण ४७ भाणु ४८ कंते ४९ अ ॥ ४ ॥ पुप्फुजओ ५० सिरिहरो ५१, दुद्धरिसो ५२सुसुमार | | ५३ दुजओ ५४ अ । जयमाण ५५ सुधम्मे ५६ धम्मसेण ५७ आणंदणा २८ णंदे ५९।५॥ नंदो ६० अवराजिअ ६१ विस्ससेण ६२ हरिसेणओ ६३ जओ ६४ विजओ ६५ । विजयंत ६६ पहाकरओ ६७ अरिदमणो ६८ माण ६९ महा
बाहू ७०॥६॥ तह दीहबाहु ७१ मेहे ७२, सुघोस ७३ तह विस ७४ वराह ७५ वसु ७६ सेणे ७७। कविले ७८ | | सेलविआरी७९ अरिंजओ ८० कुंजरबलोअ ८१ ॥७॥ जयदेव ८२ नागदत्तो ८३, कासव ८४ बल ८५ वीर ८६ |
सुहमई ८७ सुमइ ८८ । तह पउमनाह ८९ सीहो ९० सयाइ ९१ संजय ९२ सुनाहो ९३१ ॥८॥ नरदेव ९४ चित्तहर९५ सुरवरो९६३ दढरह ९७ पभंजणो ९८ एए । अडनवइभरहमाया, संखाइपभंजणवसाणा ९॥
चउमुठ्ठियं त्ति एका मुष्टि केशानामवशिष्यमाणां वातान्दोलितां सती स्वर्णकुम्भोपरि नीलोत्पलधानतुल्यामुभयतः स्कन्धोपरिलठन्तों वोक्ष्य हृष्टशक्रण साग्रहं विज्ञप्तः,प्रभूरक्षितवान् शेषं प्राग्वत।।२१०
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उसभे णं अरहा कोतलिए एगं वासससहस्सं निचं वोसट्टकाए चियत्तदेहे जाव अप्पाणं भावमाणस्स एगं वाससहस्सं विइक्कतं, तओ णं जे से हेमंताणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे फग्गुणवहुले, तस्स णं फग्गुणवहूलस्स एकारसीपक्खे णं पुवण्हकालसमयसि पुरिमतालस्स नगरस्स बहिया सगडमुहंसि उज्जाणंसि नग्गोहवरपायवस्स अहे अष्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं असादाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अणंते जाव जाणमाणे पासमाणे विहरइ ॥ २१२ ॥ व्याख्या-उसभेणमित्यादितो....विहरईत्यन्तम्। तत्र एगं वाससहस्सं निच्चं वोसट्टकाए त्ति।अथ यथा प्रभुः करिष्यति तथा वयमिति कृतप्रतिज्ञैः स्वयंकृतचतुर्मुष्ठिकलोचैः क्वचित्कृतपञ्चमुष्टिकलोचैरुग्रादिकुलोद्भवैश्चतुसहस्रनृपः साई प्रभुः प्रवजितः सन् विहरति । तदानीं कीदृशी भिक्षा कीदृशा वा भिक्षाचराः इति जना न जानन्ति, तेन तेभिक्षामलभमानाःक्षुधार्ताःमौनिनःप्रभोरुपदेशमप्राप्नुवन्तः कच्छमहाकच्छौ न्यवेदयन् 'अथास्माभिः क्षुतृवाधितैः कियत्कालं स्थेयं' ताभ्यामुक्तं आवामपि न विद्वः । सम्प्रति अयुक्तो गृहवासः, किन्तु परिणत-शटितपत्रफलादिभक्षणेन वनवास एव श्रेयानिति विमृश्य गङ्गातटे वद्धितासंस्कृतालकत्वाजटिलास्तापसाः बभुवुः। कच्छमहाकच्छसुतौ नमिविनमी देशान्तरायातौ भरतेऽवहीलनां कृत्वा पितृपार्श्व प्राप्तौ, पितृभ्यां बोधितौ तौ प्रभुसेवार्थमागतौ ।
SH
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कल्प
१२९
यत्र प्रभुः पादौ धत्ते तत्र कण्टकाद्युदधरताम्, देशाद्यरक्षताम्, खङ्गधरौ त्रिकालं प्रभुं पद्मः पूजयित्वा राज्यप्रदो भवेत्युक्त्वा नमोऽकाम् । अन्यदा कम्पितासनः प्रभु नन्तुमागतो धरणेन्द्रस्तौ प्रत्यूचे, 'निर्ममो निःसङ्गः स्वामी युवयोर्न दास्यति' ततस्तै घरणेन्द्रं प्रत्युत्तरताम् निःसङ्गो स्वाम्येव दास्यति । ततस्तुष्टो धरणेन्द्रः स्वाभिरूपं कृत्वाऽष्टचत्वारिंशत्सहस्रविद्याः पठितसिद्धाः वैतादयराज्यं च यो ददौ यतः
नमिविनमीण जायण, नागिंदो विज्झदाणवेयङ्के, उत्तरदाहिणसेढी, सही पन्नासनयराई ॥ १॥
इतः प्रभुः अन्नपानदानाऽनिपुणैर्जनैः कनकमणिवनकन्या दिवस्तुभिनिमन्त्र्यमानोऽपि योग्यभिक्षामलभमानोऽदीनमनाः सन् भिक्षार्थ भ्रमन् कुरुदेशे गजपुरपुरे प्राविशत् ।
तस्मिन् गजपुरे बाहु-बलेः सोमयशा सुतः । श्रेयांस (स्तत्सुतः) स्वप्ने मेरुं सुधोज्वलं व्यधात् ॥ १ ॥ aise यांस साहाय्यात् शत्रुक्रान्तो महाभटः । जयी जात इति स्वप्ने, पश्यत्सोमयशा नृपः ॥ २ ॥ रवीमण्डलतः स्रस्तो करौघो घटितः पुनः । श्री श्रेयांसकुमारेण स्वप्नं श्रेष्ठीति लब्धवान् ॥ ३ ॥ प्रातरन्तः सर्भ भावी श्रेयांसस्योदयो महान् । कोऽपीति मन्त्रयित्वा ते, स्वस्ववेश्म त्रयोऽप्यगुः ॥ ४ ॥ लातः श्रीरूषभः किंञ्चिन्नेति कोलाहलं नृणां । श्रुत्वा गवाक्षतो धावद्युवराजः प्रभुं प्रति ॥ ५ ॥ प्रभोर्दशन तो जाति - स्मृतिं प्राप स भाग्यतः । तस्येक्षुरसकुम्भौघं, ढोकयामास कोऽप्यथ ॥ ६ ॥ स प्राह- 'भगवन् ! प्रसारय करौ, निस्तारय मां गृहाण योग्यमिक्षुरसममुं । अत्र कविघटनास्वाम्याह दक्षिण हस्तं कथं भिक्षां न लासि भोः । स प्राह दातृहस्तस्याऽधो भवामि कथं यतः ॥ ७ ॥
प्रदीपिका
१२९
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पूजाभोजनदानशान्तिककला-पाणिग्रहस्थापना । चोक्षप्रेक्षणहस्तकार्पणमुखव्यापारबद्धस्त्वहम् । अथ वामो ब्रूते- | वामोऽहं रणसंमुखाङ्कगणनावामाङ्गशय्यादिकृत् द्यतादिव्यसनी त्वसौ स तु जगौ चोक्षोऽस्मि न त्वं शुचिः॥८॥ राज्यश्रीभवतार्जितार्थिनिवहस्त्यागः कृतार्थीकृतः, सन्तुष्टोऽस्मि गृहाण दानमधुना तन्वन् दयां दानिषु इत्यब्दं प्रतिबोध्य दक्षिणकरं श्रेयांसतः कारयन् । प्रत्यग्रेक्षुरसेन पूर्णऋषभः पायात्स वः श्रीजिनः ॥९॥
तेनेचरसेन प्रभुः वार्षेकतपः पारणं चक्रे । तत्र पञ्चदिव्यानि प्रादुरभूवन् । तानि दिव्यानि दृष्ट्वा तत्राऽऽयातैलीकैरिहर दानं कथं वेत्सीति पृष्टः श्रेयांसः स्वामिना सह स्वस्य अष्टभवसम्बन्धं प्राह
स्वामिनो ललिताङ्गदेवस्य भवेऽहं स्वयंप्रभा देवी ।शा वज्रजङ्घस्य भवेऽहं श्रीमती भार्या ॥२॥ युगलिकस्य भवेऽहं युगलिनी ॥३॥ सौधर्मदेवस्याऽहं मित्रं ॥४॥वैद्यपुत्रस्य भवे केशवाख्यो मित्रं ।। वज्रनाभचक्रिणो भवेऽहं सारथिः।। सर्वार्थसिद्धिदेवस्य मित्रं ।८। तेषां अष्टानां मध्ये सप्तमे भवे चक्रिणा सह प्रवजितोऽहं । तत्र वज्रसेनतीर्थपं प्रभुतुल्यवेषं दृष्टपूर्वी प्रभुं वीक्ष्य जातजातिस्मृतिरिद वेद्मि,
श्रेयांसेन स्वामिपारणस्थाने रत्नमयपीठं चक्रे, एवं रूषभेणाब्देनेचरसभिक्षा लब्धा । शे द्वितीयदिने एव पायसभिक्षा च, ततो लोकेनाऽपि यत्र यत्र स्वामी स्थितः, तत्र तत्र पीठं कृतं।
अन्यदा विहरन् स्वामी बहलीदेशे तक्षशिलांपाप्तः, सायं चोद्यानपालकेन बाहुबले निवेदने कृते प्रातः सर्वर्या तातं वन्दिष्ये इति रात्रि व्यतिक्रम्य प्रातस्तत्राऽऽगतः।प्रभुश्चान्यत्र विजहेऽदृष्ट्वा च तातं महतीमवृति कृत्वा यत्र प्रभुः प्रतिमयाऽस्थात्तत्राष्टयोजनपरिमण्डलपञ्चयोजनोच्छ्रयं रत्नमयं धर्मचक्रं चिन्हं चकार, निर्यामकानां च सहस्रं तत्र मुमोच । एवं क्रमेण विहरन विनीतां प्राप्तः कियता कालेनत्याह
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कल्प
दीपिका
___ एगं वाससहस्सं ति-दीक्षादिनादारभ्य वर्षसहस्रं यावच्छद्मस्थकालस्तत्र प्रमादकालः सर्वसङ्किलि- तोऽप्यहोरात्रमेव, एव एकवर्षसहस्रेऽतिक्रान्ते तत्राऽऽगतस्य प्रभोः केवलज्ञानं उत्पन्नं । तस्मनेव दिने भरतस्याऽऽयुधशालायां चक्रोत्पत्तिः युगपद द्वयोनिवेदने विषमविषयाकुलितो भरत इत्यचिन्तयत् 'प्रथमं कि तातं चक्र वार्चयामि इति ध्यायन् चक्रं तावदेहिकसुखदं तातस्तु परलोकानन्तानन्दहेतुरतस्तातं पूजयामीति ध्यात्वा भरतः प्रभु नन्तुम् प्रवृत्तः। मरुदेवी तावत्प्रभोः प्रवजिते भरतराज्यश्रियं वीक्ष्येति प्रत्यहं भरतं प्राह-'भो भरत ! त्वमीदृशी राज्यश्रियं धत्से मत्सुत्रस्त्वेकाकी वनवासादिकष्टं सहते' इत्याधुद्वेगं गताऽर्हद्विभूति वर्णयन्तमपि भरतं न प्रत्येति । ततः तस्याः पुत्रशोकेन तेजोहीने नेत्रे जातेऽतो भरतेन गच्छता पितामही विज्ञप्ताहे अम्ब ! एहि येन प्रभोर्विभूति दर्शयामि।
ततः भरतेन समं हस्त्याऽऽरुदा देवजयध्वनि, दुन्दुभिदेशनां श्रुत्वा हृष्टा मरुदेव्यभूत् ॥१॥ हर्षाऽश्रुभिः समं नील-पटलं क्षयतः क्षणात् । वपछत्रत्रयादिश्रीदर्शनादित्यचिन्तयत् ॥ २॥ धिग मोहविह्वलान् जीवान्, स्वार्थे स्निह्यन्ति जन्तवः । मोहो हि दुःखहेतुः स्यान्मोहः संसारवृद्धिकृत् ॥३॥
अहह शीनाऽऽतवर्षापीडासह अनोपानहं-पादत्राणरहितं निर्यानं निरशन वनवासिनं एकाकिन गिरिकन्दरादिष्वदन्तं मत्पुत्रं सन्नान्यानयेति प्रत्यहं भरतं भणामि । शोकेन मे दृशौ पटलावृत्ते, एष इदृशीमृद्धि प्राप्तो मे नामानिन पृच्छति, मे दुःखं च न वेत्ति । स्वास्थ्यहेतुसन्देशकमपि न प्रयच्छति । अहो वीतरागत्वनस्य, वोतरागे कः प्रतियन्धः, एवं सर्वत्र निर्मप्रत्वं गता शुभध्यानेन केवलज्ञान प्राप्य तत्क्ष
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णादेव सिद्धा महदेवी ततो भरतक्षेत्रे प्रथमसिद्ध इति कृत्वा देवैः पूजा कृता, शरीरं च क्षीराब्धौ क्षिप्तं । अत्र कविः-
सूनुर्युगादिसमो न विश्वे, भ्रान्त्वा क्षितौ येन शरत्सहस्रम् यदर्जितं केवलरत्नमग्र्यं, स्नेहात्तदैवार्पयत् मातुराशु || १ ॥ मरुदेवासमानाम्बा - याऽगात् पूर्वं किलेक्षितुम् मुक्तिकन्यां तनुजार्थं, शैत्रमार्ग खिलं चिरात् ॥ २ ॥
ततो भरतः शोकहर्षाकुलः समवसरणस्थं प्रभु नत्वोपविशत् । स्वाम्यपि सदेवमनुजायां सदसि धर्ममुपदिशति । तत रूषभसेनो नाम भरतपुत्रः पूर्वभवनिबद्धगणधरनामसत्ताकः सञ्जातसंवेगः प्रव्रजितः, वाक्यपि, भरतः श्राडो जातः, स्त्रीरत्नं सुन्दरी भविष्यतीति भरतनिरुद्धा सुन्दर्यपि श्राविका जातेति चतुर्विधसङ्घस्थापना । ते च कच्छमहाकच्छवज्र्जाः सर्वेऽपि तापसाः प्रभोर्ज्ञानोत्पत्तिं श्रुत्वाऽऽगत्य प्रत्रजिताः । एवं मरीचिप्रमुखा बहवः कुमाराः प्रव्रजिताः । यतः-
पंच य पुत्तसयाई भरहस्स य सत्त नुत्तअसयाई, सयराई पव्वइया तंमि कुमार समोसरणेति ॥ १ ॥ भरतस्तु शक्रनिवारितस्वामिनीमरणशोकः प्रभुं नत्वा स्वस्थानं गत इति ।। २११ ।। 'उसभस्स णं अरहओ कोसलियम्स चउरासीई गणा चउरासीई गणहरा हुत्था || २१३ ॥ उसभस्त णं अरहओ कोसलियस्स उसभसेणपामुक्खाओ चउरासीओ समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया हुत्था ॥ २१४ ॥ उसभस्स णं अरहओ भी सुंदरिया मोक्खाणं अज्जियाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ उक्कासिया अज्जियासंपया हुत्था ॥ २१५ ॥ उसभस्सणं अरहओ सिज्जंसपा
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कल्प
प्रदीपिका
मोक्खाणं समणोवासगाणं तिन्नि संयसाहस्सीओ पंचसहस्सा उक्कोसिया समणोवासगाणं संपया हुत्था ॥२१६।। उसभस्स णं ३ सुभद्दापामोक्खाणं समणोवासियाणं पंचसयसाहस्सीओं चउप्पन्नं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासियाणं संपया हुत्था ॥२१७॥ उसमस्स णं ३ चत्तारि सहस्सा सत्त मया पन्नासा चउद्दसपब्विसंपया हत्था ॥ २१८॥ उसभस्म णं३ । नवसहस्सा ओहिनाणीणं जाव उक्कोसिया ओहिनाणिसंपया हुत्था ॥ २१९ ॥ उसभस्स णं ३ वीससहस्सा केवलनाणीणं उक्कोसिया केवल नाणिसंपया हुत्था ॥ २२० ॥ उसमस्स णं ३ वीससहस्सा छच्च सया वेउविआणं उकासिया वेगवसंपया हुत्था ॥ २२१ ॥ उसभस्स णं ३ वारस सहस्सा छच्च सया पन्नासा विउलमइणं अड्राइज्जेसु दीवेसु दोसु य समुद्देसु सन्नीणं पंचिंदियाणं पज्जत्तगाणं मणोगए भावे जाणमाणाणं उक्कोसिया विमलमई संपया हत्था ॥ २२२ ।। उसभस्स णं ५ बारस सहस्सा छच्च सया पन्नासा वाणं उक्कोसिया वाइसंपया हुत्था ॥ २२३ ॥ उसभस्सणं ४ वीसं अंतेवासिसहरसा सिद्धा चत्तालीसं अज्जिया साहस्सीओ सिद्धाओ ॥२२४॥ उसभस्स णं ५ बावीस सहस्सा नव सया अणुत्तरोववाइसंपया हुत्था ॥ २२५ ।।
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व्याख्या-उसभस्सणं अरहओ कोसलिअस्स चउरासिइ गणा इत्यादितो.......जाव भदाणं | उक्कोसिया संग्या हुन्थति यावत् त्रयोदश सूत्री स्पष्टा–२१२-२१२-२१३-२१४-२१५-२१६-२१७ २१८-२१९-२२०-२२१-२२२-२२३-२२४-२२५ उसभस्स ण अरहओ दुविहा अंतगडभुमी हुत्था, तं जहा-जुगंतगंडभुमी य परियायंतगडभुमी य जाव असंखिज्जाओ पुरिसजुगाओ जुगतगडभुमी अंतोमुहुत्तपारयाए अंतमकासी ॥२२६॥
व्याख्या-उसभस्स णमित्यादित अंतमकासीत्यन्तम् तत्र युगान्तकृभूमिरसङ्खयेयपुरुषयुगानि,भगवन्तोऽन्वयेन सिद्धानि पर्यायान्तकृभूमिस्तु प्रभो केवले उत्पन्ने अन्तर्मुहूर्तेनमरुदेवानाकृत्केवलितां प्राप्तेति
तेणं कालेणं तेणं समएणं उसभे अरहा कोसलिए वीसं पुब्बसयसहस्साई कुमाखासमझे वसित्ता, तेवृष्टिं पुब्बसयसहस्लाइं रज्जवासमझे वसित्ता, तेसिइं पुव्वसयसहस्साई अगारवासमझे मित्ता, एगं वाससहस्सं छउमत्थपरियागं पाउणित्ता, एगं पुव्वसयसहस्सं वाससहस्ससुणं केवलिपरियागं पाउणित्ता, संपुन्नं पुवसयसहस्सं सामन्नपरियागं पाउणित्ता, चउरासीई पुव्वसयहसस्साई सव्वाउयं पालइत्ता, खीणे वेयणिज्जाउयणामगुत्ते इमीसे
ओसप्पिणीए सुसमदुस्समाए समाए बहुविइकताए तिहिं वासेहिं अद्धनवमेहि य मासेहिं सेसेहिं जे से हेमंताणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे माहबहुले ( ग्रं. ९००) तस्स णं माहबहुलस्स तेरसी
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जामदीपिका
पखणं उप्पिं अट्ठावयसेलसिहरंसि दसहिं अणगारसहस्सेहिं सद्धिं चउद्दसमेणं भत्तेणं अपाणएणं अभीइणा नक्खनेणं जोगमुवागएणं पुव्वण्हकालसमयसि सपलियंकनिसन्ने कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे ॥ २२६ ॥
व्याख्या तेणमित्यादितः....सव्वदुक्खपहीणे इत्यन्तम्।तत्र तृतीयारके नवाशितिपक्षावशेषे उम्पिति उपरि अष्टापदशैलशिखरस्य चउद्दसमेणं-उपवासषट्केन ॥ २२६ ॥ उसभस्म णं अरहओ जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स तिन्नि वासा अद्धनवमासा विइकता तओवि परं एगा सागरोवमकोडाकोट तिवासअद्धनवमासाहियबायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिया विइकंता एयमि समए समणे भगवं महावीरे परिनिव्वुए, तओवि परं नववाससया विइकंता दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइम संवच्छरे काले गच्छइ ॥ २२७॥ व्याख्या-उसभस्सेत्यादित...काले गच्छईत्यन्तम्, प्राग्वत् ॥ २२७॥
। इति श्रीऋषभचरित्रं । इति श्रीत्तपागणगगनविकाशनभोमणिभट्टारकश्रीविजयसेनसूरीश्वरशिष्यपण्डित | श्रीसङ्घविजयगणिविरचितायां श्रीकल्पप्रदीपिकायां जिनचरित्ररूपप्रथमवाच्यव्याख्यानुक्रमः सम्पूर्णः ॥ श्री ॥
[इति सप्तम व्याख्यानं ]
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अथाऽष्टमं व्याख्यानं] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स नवगणा इकारस गणहरा हुत्था ॥१॥
व्याख्या-तेणमित्यादितो........हुत्थेत्यन्तम् स्पष्टम् ॥ १॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा इकारस गणहरा । हुत्था ? ॥२॥ *व्याख्या-से केणेतुणमित्यादितो....हुत्थेत्यन्तम् । तत्र से शब्दोऽथशब्दार्थः प्रश्नयितुरयमभिप्रायः "किल जाव जावइया जस्स गणा तावइया गणहरा तस्स” इति वचनाद्गणधरसङ्ख्याका गणाः सर्वजिनानां, श्रीवीरस्य तु किमर्थ नवगणा एकादश गणधरा इति ॥ २॥ आचार्यः प्राहसमणस्स भगवओ महावीरस्स जिढे इंदभूई अणगारे गोयमसगुत्ते णं पंचसमणसयाई वाएइ, मज्झिमए अग्गिभूई अणगारे गोयमसगुत्ते णं पंचसमणसयाई वाएइ, कणीयसे अणगारे वाउभूई नामणं गोयमसगुत्तेणं पंचसमणसयाई वाएइ, थेरै अज्जवियत्ते भारदाए गुत्ते णं पंचसमणसयाई वाएइ, थेरे अज्जसुहम्मे अग्गिवसायणगुत्ते णं पंचसमणसयाई वाएइ,
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कल्प 'दोपिका ॥१३३||
स्थविरापली
थेरे मंडियपुत्ते वासिट्ठसयुत्ते णं अद्भुट्ठाई समणसयाई वाएइ, थेरे मोरियपुत्ते कासवगुत्ते णं अद्भुट्ठाई समणसयाई वाएइ, थेरे अकपिए गोयमसगुत्ते णं थेरे अयलभाया हारियायणगुत्ते णं ते दुन्नि वि थेरा तिन्नि तिन्नि समणसयाई वाइंति, थेरे मेयज्जे, थेरे अज्जपभासे एएदुन्निवि थेरा कोडिन्नागुत्ते णं तिनि तिनि समणसयाई वाएंति । से तेणद्वेणं अज्जो एवं वुच्चइ समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा इक्कारस गणहरा हुत्था ॥३॥
व्याख्या-समणस्सेत्यादितो....हुत्थेत्यन्तम् । तत्र अकम्पिताचलभ्रात्रोरेकैव वाचना जाता, एवं मेतार्यप्रभासयोरपीति युक्तं नव गणा एकादश गणधरा इति, यस्मादिहैकवाचनिकः साधुसमुदायो गणः मण्डिकश्चासौ नाना पुत्रश्च धनदेवस्य मण्डिकपुत्रः, केचित्तु मण्डित इति नाम प्राहुः, अन्ये तुमण्डितस्य | पुत्रो मण्डितपुत्र इत्यूचुस्तत्र मण्डित इति धनदेवस्य नामान्तरं ज्ञेयं । मण्डिकमौर्यपुत्रयोरेकमातृकत्वेन भ्रात्रोरपि यद्भिन्नगोत्राऽभिधानं तत्पृथग् जनकाऽपेक्षया । तत्र अण्डिकस्य पिता धनदेवो, मौर्यपुत्रस्य तु मौर्यः, माता तु विजयादेव्येका, अविरोधश्च तत्र देशे एकस्मिन् पत्यो मृते द्वितीयपति वरणस्येति वृद्धाः। अन्जो इति हे आर्य ? नोदक ? ॥३॥ सव्वे एए समणस्स भगवओ महावीरस्स इक्कारस गगहरा दुवालसंगिणो चउद्दसपुषिणो
॥१३३॥
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सम्मत्तगणिपिडगधारणा रायगिहे नगरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं कालगया जाव सव्वदुक्खप्पहीणा, थेरे इंदभूई थेरे अज्जसुहुम्मे य सिद्धिं गए महावीरे पच्छा दुन्नि वि थेरा परि निव्वुया । जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरत, एए णं सवे अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स आवन्विज्जा अवसेसा गणहरा निखच्चा वुच्छिन्ना ॥ ४॥
व्याख्या-सव्व एए इत्यादितो....निरवच्चा चुच्छिन्नेत्यन्तम् । तत्र इन्द्रभूत्यादयः सर्वेऽपि गणधरा | द्वादशाङ्गिनः आचाराङ्गादिदृष्टिवादान्तश्रुतवन्तः चतुर्दशपूर्विणश्च द्वादशाङ्गान्तर्गतत्वेऽपि पूर्व प्रणयनादनेक विद्यामन्त्रमयत्वात् महाप्रमाणत्वाच्च प्राधान्यख्यापनार्थ तेषां पृथगुपादानम्, द्वादशाङ्गित्वं चतुर्दशपूर्वित्वं च सूत्रमात्रग्रहणेऽपि स्यादत आह-समस्तगणिपिटकधारकाः-गणोऽस्थाऽस्तीति गणी भावाचार्यस्तस्य पिटकमिव रत्नादिकरण्डकमिव गणिपिटकं द्वादशाङ्गी । तदपि न देशतः स्थूलभद्रस्येव किन्तु समस्तं सर्वाक्षरसन्निपातित्वात् तद्वारयन्ति सूत्रतोऽर्थतश्च ये ते । तथा तत्र नवगणधरा श्रीवीरे जीवति सिद्धाः। इन्द्रभूतिसुधर्माणौ पश्चारिसद्धौ । 'अन्जत्ताए' त्ति आर्यतया अद्यत्वे वा अद्यतन युगे वा, 'आवविज्झा' अपत्यानि-तत्संतानजा इत्यर्थः । निरपत्याः-शिष्यसंतानरहिताः स्वस्वमरणकाले स्वस्वगणस्य सुधर्मास्वामिनि निसर्गात् । सर्वेऽपि गणधराः पादपोपगमनेन सिद्धाः । यतः
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कल्प
दीपिका
॥१३४॥
गणधरनामानि
श्रीगोतमः
ग्रामनामानि पितृनामानि मातृनामानि गोवरग्राम वसुभूति: पृथिवी
अग्निभूतिः गोबरग्राम
वायुभूतिः गोबरग्राम
गोत्राणि
मेतार्यः वच्छपुरि
प्रभासः
राजगृह
गौतमः
गौतमः
गौतमः
वसुभूतिः पृथिवी
वसुभूतिः
पृथिवी
व्यक्तः
कुल्लाग
धर्ममित्र
वारुणी
भारद्वाजः
सुधर्मः
कुल्लाग
धम्मिल्लः
महिला
आग्नवैश्यः
मण्डितः मौर्यग्राम धनदेवः
विजयादेवी वाशिष्ठ:
मौर्यपुत्रः मौर्यग्राम मौर्यः
विजयादेवी काश्यपः
अकम्पितः मिथिला देवः
जयन्ती
गौतमः
अचलभ्राताः कोशल: वसुः
नन्दा
हार्यः
दत्तः
वरुणदेवी
बल:
अतिभद्रा
कौण्डिन्यः
कौण्डिन्यः
गृहस्थ छद्मस्थ केवल पर्यायः पर्यायः पर्यायः ५० ३० १२
४६
१२
१६
કર
१०
१८
१२
૨૮
५०
५०
५३
६५
૪૮
४६
३६
१६
४२
१४
१४
१६
१६
९ २१
१२
१०
८
८
सर्वायुः
९२
७४
७०
८०
१००
८३
९५
है
७८
१४ ७२
१६
६२
१६
४०
मासं पाओवगया, सव्वे वि अ सव्वलद्धिसंपन्ना । वज्जरिसहसंघयणा, समचउरंसा य संद्वाणा ॥ १ ॥ जन्मभूम्यादिकं च तथन्त्रतो ज्ञेयम् ॥ ४ ॥
स्थविरा बलो
॥ १३४ ॥
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समणे भगवं महावीरे कासवगुत्ते णं, समणस्स भगवओ महावीरस्स कासवगुत्तस्स अज्जसुहम्मे थेरे अंतेवासी अग्गिवेसायणसगुत्ते । थेरस्स णं अजसुहम्मस्स अग्गिवसायणगुत्तस्स अज्जजंबुनामे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते ।। थेरस्स णं अज्जजंबुनामस्स कासवगुत्तस्स अज्जपभवे थेरे अंतेवासी कच्चायणसगात्ते । थेरस्स णं अज्जप्पभवस्स कच्चायणगोत्तस्स अज्जसिज्जंभवे थेरे अंतेवासी मणगपिया वच्छसगोत्ते, थेरस्स णं अज्जसिज्जंभवस्स मणगपिउणो वच्छसगात्तस्स
अज्जजसभद्दे थेरे अंतेवासी तुंगियायणसगात्ते । संखित्तवायणाए ॥५॥ व व्याख्या-समणे इत्यादितः....संखित्तवायणाए इत्यन्तम् । तत्र श्रीवीरपट्टे सुधर्मस्वामी पश्चमो -
गणधरः, तत्स्वरूपं सझेपेणेदम्-"कुल्लागसन्निवेशे धम्मिल्लविप्रस्य भहिला भार्याकुक्षिजः ५० वर्षान्ते दीक्षा, ३० वर्षाणि यावत्वीरसेवा, वीरमोक्षात् १२ वर्षाणि छानस्थ्यं, ९२ वर्षान्ते केवलोत्पत्तिस्ततोऽष्टौ वर्षाणि केवल्यवस्थायां । भुक्त्वा सर्व शतवर्षायुर्जम्बूस्वामिनं स्वपदे न्यस्य सिद्धः।
श्रीजम्बूस्वरूपं चेदम्-"राज्यगृहे ऋषभधारिण्योः पुत्रः पश्चमस्वर्गादवतीर्णः जम्बूनामा,ौशवाऽतिक्रमे श्रीसुधर्मस्वामिपाचे वैराग्यादात्तशीलसम्यक्त्वोऽपि पित्रोराग्रहादष्टौ कन्याः परिणीता, रात्रौ ताः चौर्यार्थाऽऽगतं च चतुःशतनवनवतिचौरपुत्तं प्रभवं च प्रयोध्य, नवनवतिस्वर्णकोटीस्त्यक्त्वा प्रव्रज्य,क्रमात्
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प्रदापिका
स्थविरा
केवलज्ञानं प्राप्य च षोडशवर्षाणि गृहे, विंशतिः छाद्मस्थ्ये, चतुश्चत्वारिंशत् केवलित्वे, सर्वायुरशीति- वर्षाणि परिपाल्य च श्रीप्रभवं स्वपदे न्यस्य सिद्धस्तत्रबारस वरिसेहिं गोयमु, सिद्धो वीराउ वीसहि मुहुम्मो । चउसठ्ठीए जम्बू, वुच्छिन्ना तत्थ दस टाणा ॥१॥ .
मण १ परमोहि २ पुलाए ३, आहारग ४ खवग ५ उवसमे ६ कप्पे ७।
संजमतिम ८ केवल ९ सिज्झणा १० य जंबूमि खुच्छिन्ना ॥२॥ जम्बूस्वरूपम् ॥ अथ प्रभवस्वामिना गणे सो च शिष्यार्थमुपयोगे दत्ते तत्र तादृशशिष्याऽदर्शने परतीर्थे तदुपयोगे 'राजगृहे यज्ञं यजन् शय्यंभवनामा भट्टो दृष्टः। ततस्तत्र गत्वा साधुभ्यां ' अहो कष्टमहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते परं' इति वचः श्रावितः, प्रतिमया प्रबोध्य दीक्षितः । तदनु त्रिंशद्वर्षाणि गृहे, पञ्चपञ्चाशद् व्रते, पञ्चाशीतिवर्षाणि प्रपूर्य, श्रीशय्यंभवं स्वपदे न्यस्य स्वर्गमगात् । इति प्रभवस्वरूपं ।। __ शय्यंभवोऽपि साधानमुक्तस्वस्त्रीजातमनकाख्यपुत्रहिताय श्रीदशवैकालिकं कृतवान् । क्रमेण श्रीयशोभद्रं स्वपदे न्यस्य स्वर्जगाम ॥ ५ ॥ अथ मध्यमवाचनया स्थविरावलीमाह
अज्जजसभद्दाओ अग्गओएवं थेरावली भणिया, तंजहा-थेरेस्स णंअज्जजसभहस्स तुंगियायणसगुत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा, थेरे अज्जसंभूइविजए माढरसगुत्ते थेरे अज्जभद्दबाहु पाईणसगुत्ते। व्याख्या-अजजसभद्दाओ अग्गओइत्यादितो....अज्जतावसी साहा निग्गया इत्यन्तम् ।तत्र अज्जभद्द
N|१३५॥
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बाहुत्ति "प्रतिष्ठानपुरे वराहमिहिरभद्रयाहुद्विजौ बान्धवौ प्रबजितौ, भद्रबाहोराचार्यपददाने रुष्टः सन् वराहो द्विजवेषभाग् वराहीसंहितां कृत्वा निमित्तैर्जीवति, वक्ति च लोके काऽप्यरण्ये शिलायामहं सिंहलग्नममण्डयं शयनाऽवसरे तभञ्जनस्मृत्या लग्नभक्त्या तत्र गमने सिंहं दृष्ट्वा तस्याऽधो हस्तक्षेपेण लग्नभङ्गे तुष्टः सूर्यः प्रत्यक्षीभूय स्वमण्डले नीत्वा सर्वग्रहचारं ममाऽदर्शयदिति। अन्यदाराज्ञोऽग्रे लिखितकुण्डालके वातप्रयोगात्पलार्द्धत्रुटिमज्ञात्वा द्विपञ्चाशत्पलमानमत्स्यपातकथने श्रीभद्रयाहुभिस्तदन्ते पातः साकपश्चाशत्पलमान चाऽवादि।तथाऽन्यदा स्वपुत्रस्य कचिन्नृपपुत्रस्य तेन शतवर्षायुर्वर्तते, “एते न व्यवहारज्ञा" इतिजैननिन्दायां च क्रियमाणायां गुरुभिः सप्तदिनैर्बिडालिकातो मृतिरुचे । तदनु तेन पुरात् सर्वबिडालिकाकर्षणे सप्तमे दिने स्तन्यं पिबतो बालस्योपरि बिडालिकाऽऽकारवक्त्रार्गलापातेन मृत्यौ गुरूणां स्तुतिः तस्य च निन्दा। ततो मृत्वा व्यन्तरीभूय अशिवोत्पादनादिना श्रीसङ्घमुपसर्गयन् श्रीगुरुभिरुपसर्गहरस्तोत्रं कृत्वा न्यवारि ॥ |
थेरस्स णं अजसंभूइविजयस्स माढरसगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अजथूलभद्दे गोयमसगुत्ते ___ व्याख्या-अज्जथुलभद्दे त्ति-पाटलीपुरे शकडाललक्ष्मीवत्योः पुत्रः स्थूलभद्रो, द्वादशवर्षाणि कोशागृहे । स्थितो, वररुचिप्रयोगात्पितरि मृते नन्दराज्ञा मन्त्रिमुद्राऽऽदानायाऽभ्यर्थितः सन् पितृमृत्युं ध्यायन स्वयं प्राव्रजत् , पश्चाच्च सम्भूतिविजयान्तिके प्रव्रज्य तदाज्ञया कोशागृहे चतुर्मासकमस्थात् , ततो निर्लेपःसन् तां | प्रबोध्य गुरुन्नतवान् । तैः 'दुष्करकारकः'२इति सासमक्ष प्रोचे,तद्वाग्भिः पूर्वायातसिंहगुहाविलकूपकाष्ठस्थमु
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कल्प प्रदीपिका ॥१३६॥
नित्रयी दूना । तेषु सिंहगुहास्थायी मुनिः स्पर्द्धया गुरुनिषिद्धोऽपि द्वितीयचतुर्मास्या कोशागृहे गतो,
स्थविरादृष्ट्वा च तां दिव्यरूपां चलचित्तोऽजनि।ततस्तया नेपालदेशाऽऽनायितरत्नकम्बलंक्षाले क्षिप्त्वा प्रबोधितः वली सन्नाऽऽगत्याऽऽह
स्थूलभद्रः स्थूलभद्रः स एकोऽखिलसाधुषु । युक्तं दुष्करदुष्कर-कारको गुरुणा जगे॥१॥ ___ स स्थूलभद्रः भद्रबाहुस्वामिपाच दशपूर्वाणि सूत्रार्थाभ्यां जग्राह, शेषाणि चत्वारि सूत्रतश्च, केचि- 1 याहुः-'चतुर्दशपूर्वाणि सूत्रार्थाभ्यां गृहीतवान् । थेरस्स णं अज्जथूलभदस्स गोयमसगुत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा, थेरे अज्जमहागिरी एलावच्चसगोत्ते,
थेरे अज्जसुहत्थी वासिट्ठसगोत्ते ॥ ८॥ अज्जमहागिरित्ति-"च्छिन्ने जिणकप्पे, काही जिणकप्पतुलणमिह धीरो। तं वन्दे मुणिवसह, महागिरिपरमचरणधरं ॥१॥ अज्जमहागिरित्ति-"वुच्छिन्ने जिणकप्पे, काही जिणकप्पतुलणामह घाdemyागरिं वन्दे ॥२॥
"जिणकप्पपरीकम्मं जो कासी तस्स संथवमकासी। सिद्विधरंमि सुहत्थी, अज्जमहागिरिं वन्दे ॥२॥" अज्जसुहस्थित्ति-चन्दे अज्जमुहत्थि, मुणिपवरं जेण संपई राया । रिद्धिं सव्वपसिद्धिं चारित्ता पाविभो परमं ॥१॥ । तथाहि-दुर्भिक्षे काऽपीभ्यगृहे विविधां भिक्षा साधुभ्यो दीयमानां वीक्ष्य कश्चिद्रमकः सुहस्तिशिष्य| साधुभ्यो भिक्षा मार्गयन् गुरवो जानन्ति इति तैरुक्ते सति गुरुपाचे प्राप्तस्तथैव याचमानो लाभं ज्ञात्वा दसदीक्षो यथेच्छ भोजितो, विसूचिकया दीक्षानुमोदनान्मृत्वोज्जयिन्यां त्रिखण्डभोक्ता सम्प्रतिनामा नृ
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पोऽभूत्। सोऽन्येद्युः रथयात्राऽऽगतः श्रीसुहस्तिसूरीन् दृष्ट्वा जातजातिस्मृतिरव्यक्तचारित्रस्य किं फलमिति पृच्छन् गुरुभिस्तत्फलं राज्यादीत्युक्ते जातप्रत्ययो दत्तोपयोगैस्तैः प्रतिबोधितः सन् सपादकोटिबिम्ब- सपादलक्ष [सपाद कोटि ] नव्याऽऽर्हतप्रासाद - षत्रिंशत्सहस्रजीर्णप्रासादोद्धार -- पञ्चनवतिसहस्रपित्तलमयविम्बाऽनेकशतसहस्रसत्रशालादिमण्डितां त्रिखण्डामपि महीं चक्रे । अनार्यदेशानपि करं मुक्त्वा पूर्व साधुवेषभृत्स्ववण्ठप्रेषणादिना साधुविहारयोग्यान् स्वसेवकनृपान् जैनधर्मरतांश्चक्रे । तथा
वस्त्रपात्राऽन्नदध्यादि - मासु कद्रव्यविक्रयं । ये कुर्वन्त्यथ तानुर्वी - पतिः सम्प्रतिरूचिवान् ॥ १ ॥ साधुभ्यः सञ्चरद्भ्यो ढौकनीयं स्ववस्तु भोः । ते यदाददते पूज्या - स्तेभ्यो दातव्यमेव तत् ॥ २ ॥ अस्मत्कोशाऽधिकारी च, छन्नं दास्यति याचितम् । मूल्यमभ्युल्लसल्लाभं, समस्तं तस्य वस्तुनः ॥ ३ ॥ अथ ते पृथिवीभर्तु राज्ञया तद्व्यधुर्मुदा । अशुद्धमपि तच्छुद्ध - बुद्धया त्वादायि साधुभिः ॥ ४ ॥ थेरस्स णं अज्जसुहत्थिस्स वासिसगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा सुट्ठियसुप्पडिबुद्धा कोडियकाकंदा वावचसत्ता | राणं सुट्टियसुपडिबुद्धाणं कोडियकाकंद गाणं वग्घावञ्चसगोताणं अंतेवासी थेरे अज्जइंददिन्ने कोसियगुत्ते । थेरस्स णं अज्जइंददिन्नस्स कोसियगुत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जदिने गोअमसगुत्ते । थेरस्स णं अज्जदिण्णस्स गोयमसगुत्तस्स अंतेवासी
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स्थविरा
प्रदीपिका ॥१३७१
थेरे अज्जसीहगिरी जाईसरे कोसियगुत्ते। थेरस्स णं अज्जसीहगिरिस्स जाईसरस्स कोसिय- वली गुत्तस्स अंतवासी थेरे अजवइरे गोयमसगुत्ते । थेरस्स णं अज्जवयरस्स गोयमसगुत्तस्स अंतवासी थेरे अज्जवयरसेणे उक्कोसियगुत्ते । थेरस्स णं अज्जवयरसेणस्स उक्कोसियगुत्तस्स अंतेवासी चत्तारि थेरा-थेरे अज्जनाइले १, थेरे अज्जपोमिले २ थेरे अज्जजयंते ३, थेरे अज्जतावसे ४, थेराओ
अज्जनाइलाओ अज्जनाइला साहा निग्गया, थेराओ अज्जपोमिलाओ अज्जपोमिली साहा । NI निग्गया, थेराओ अज्जनयंताओ अज्जजयंती साहा निग्गया, थेराओ अज्जतावसाओ | अज्जतावसी साहा निग्गया इति ॥ ६॥. ___ व्याख्या-सुष्टिअप्पडिबुद्ध 'त्ति-तुस्थितौ-पुविहितक्रियानिष्ठौ सुप्रतिबद्धौ-सुज्ञाततत्त्वौ ततो विशेषणकर्मधारयः कोटिककाकन्दिकाविति नाम, अन्ये तु सुस्थितसुप्रतिबद्वाविति नाम, कोटिशः सूरिमन्त्रजापपरिज्ञानादिना कोटिको, काकन्यां नगया जातत्वात्काकन्दिकौ इति बिरुदप्राये विशेषणे। त्रिषष्टिकारस्तु सुस्थितसुप्रतिबद इत्येकमेव नामाऽऽहुः । तदाशयं वृद्धा वदन्ति-येन द्वित्वव्याघातः स्याद्यदि परं मधुकैटभन्यायेन सुस्थितेन सह सहचरितः सुप्रतिबुद्धः सुस्थितसुप्रतिबद्ध, इति पक्षाऽऽश्रयणं । तत्र पूज्यत्वाद् बहुवचनमिति ॥६॥ अथ विस्तरणवाचनया स्थविरावलीमाह
॥१३७॥
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वित्थरखायणाए पुण अज्जजसभद्दाओ पुरओ थेरावली एवं पलोइज्जइ, तं जहा-थेरस्स णं अज्जजस्सभहस्स तुंगियायणसगुत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया हुत्या, तं जहा-थेरे अज्जभद्दबाहू पाईण्सगुत्ते, थेरे अज्जसंभूइविजए माढरसगुत्ते । थेरस्स णं अज्जभद्दबाहुस्स पाईणसगुत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया हुत्था, तं जहा--थेरे गोदासे १, थेरे अग्गिदत्ते २, थेरे जन्नदत्ते ३, थेरे सोमदत्ते ४, कासवगुत्ते णं थेरेहिंतो गोदासहिंतो कासवगुत्तेहिंतो इत्थ णं गोदासे नाम गणे निग्गए, तस्स् णं इमाओ चत्तारि साहाओ एवमाहिज्जति, तं जहा-तामलित्तिआ १, कोडीवरिसिया २, पोंडवद्धणिया ३, दासी खब्बडिया ४ । थेरस्स णं अज्जसंभूइविजयस्स माढरसगुत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया हुत्था, तं जहानंदणभद्दे थेर, उवणंदे तीसभद्दजसभद्दे । थेरे अ सुमिणभद्दे, गणिभद्दे पुन्नभद्दे अ॥१॥ थेरै अ थूलभद्दे, उज्जुमई जंबुनामधिज्जे अ।धेरै अ दीहभदे, थेरे तह पुडभद्दे अ ॥२॥ थेरस्स णं अज्जसंभूइविजयस्स माढरसगुत्तस्स इमाओ सत्त अंतेवासिणीओ अहावच्चा अभिन्नाया हुत्या, तं जहा
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कल्प प्रदीपिका ॥१३८।।
जक्खा य जक्खदिन्ना, भूआ तह होइ भूअदिना य । सेणा वेणा रेणा,भगिणीओ थूलभदस्स॥१॥
स्थिविरा
वली थेरस्स णं अज्जथूलभद्दस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया हुत्था, तं जहा-थेरे अज्जमहागिरी एलावच्चसगुत्ते, थेरे अज्जसुहत्थी वासिट्ठसगुत्ते । थेरस्स णं अज्जमहागिरिस्स एलावच्चसगुत्तस्स इमे अट्ठ थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हुत्था, तं जहा-थेरे उत्तरे १, थेरे वलिसहे २, थेरे धणड्ढे ३, थेरे सिरिड्डे, ४, थेरे कोडिन्ने ५, थेरे नागे ६, थेरे नागमित्ते ७, थेरे छलुए रोहगुत्ते कोसियगुत्ते णं ८, थेरोहतो णं छलुएहितो रोहगुत्तेहिंतो कोसियगुत्तेहिंतो तत्थ णं तेरासिया निग्गया। ___ व्याख्या-वित्थरवायणाए पुणेत्यादित....कासवगुत्ते पणिवयामीति पर्यन्तम् । तत्राऽस्यां वाचनायां बहवो वाचना भेदा लेखकवैगुण्याज्जाताः । तत्रस्थविराणां च शाखाः कुलानि च साम्प्रतं प्रायोऽना वसीयन्ते नामान्तरतिरोहितानि वा भविष्यत्यतो निर्णयं कत्तुं न पार्यते । पाटे तु तस्मादिह बहुश्रुता एव प्रमाणं ॥ तत्र कुलमेकाचार्यसन्ततिः, शाखास्तु तस्यामेव सन्ततो पुरुषविशेषाणां पृथग् पृथग् अन्वयाः, एकवाचनाचारमुनिसमुदायो गणः । यतःतत्य कुलं विन्नेअं, एगायरिअस्स संतति जा ओ । दुन्दं कुलाणमिहो पुण, साविक्खाणं गणो होइ ॥ १ ॥
NI ॥१३८॥
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विवक्षिता पुरुषसन्ततिः शाखा यथाऽस्मदीया वैरनाम्ना वैरीशाखा । कुलानि - तत्र तत्तच्छि ष्याणां पृथग् पृथग् अन्वयाः यथा चान्द्रकुलं नागेन्द्रकुलमित्यादि । अहावच्चा इति यथार्थान्यपत्यानि यथार्थतामाह-न पतन्ति यस्मिन्नुत्पन्ने दुर्गतौ अयशः पङ्के वा पूर्वजास्तदपत्यं सदाचारिणश्च सुशिष्याः पूर्वजान् गुरुन्नोभयत्रापि पातयन्ति प्रत्युत प्रभासयन्तीति यथापत्यानि यतश्चैव मतएवाऽभिज्ञाताः - सर्वत्र ख्यातिभाज इत्यर्थः । सेणास्थाने बहुष्वादर्शेषु एणा इत्यपि । छलूए रोहगुत्तेत्ति विवादाऽवसरे द्रव्य १ गुण २ कर्म ३ सामान्य ४ विशेष ५ समवाया ६ ख्य षट्पदार्थप्ररूपत्वात् षट् उलुकगोत्रोत्पन्नत्वेनोलूकः, षट् चासावुलूकञ्च, उलूकत्वमेव व्यनक्ति-कोसियगोत्तेणं त्ति कौशिकोलूकशब्दयोर्नाऽर्थभिन्नत्वं । तेरासियतत्रैराशिकाः - जीवाs१ जीव २ नोजीवाऽऽ३ ख्यराशित्रयप्ररूपिणस्तच्छिष्यप्रशिष्याः तदुत्पत्तिस्त्वेवं
" श्रीवीरात् पञ्चशतचतुश्चत्वारिंशत्तमे वर्षे अन्तरञ्जिकापुया भूतमहोद्यानस्थश्रीगुप्ताचार्यशिष्यो रोहतोऽन्यदा विद्ययोदरं स्फुटतीति बद्धोदरप वृश्चिक १ सर्प २ मूषक ३ मृगी ४ वराही ५ काकी ६ शकुनिका ७ रूपसप्तविद्या कुशल पोहशालाऽभिध परिव्राजक प्रवादिवाद्यमान पटहं पस्पर्श । तदनु गुरुभ्यः पठितसिद्धतत्प्रतिपक्ष मयूरी १ नकुली २ बिडाली ३ व्याघ्री ४ सिंही ५ उलूकी ६ उलावकी ७ तिससविद्याः शेषोपद्रवे इदं त्वया भ्राम्यं यथाऽजेयो भवसीत्युक्त्वाऽभिमन्त्रयाऽर्पितं रजोहरणं च प्राप्य ताभिर्विद्याभिर्विजितेन तेन सौख्या सौख्ये, नीचोच्चौ, मुक्तिसंसारौ, पुण्यपापे, शुभाशुभे, संपदाऽऽपदौ, जीवितमरणे,
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कल्प प्रदीपिका ॥१३९||
स्थविरा
जीवाऽजीवादिराशिद्वयस्थापिते।तत्प्रतिभा निराकर्तुं विश्वत्रयी,कालत्रयी, सन्ध्यात्रयी, वचस्त्रयी, वेदत्रयी, पुरुषत्रयी तथा जीवाऽजीवनोजीवराशिवयं संस्थाप्य तं जित्वा महामहपूर्व पश्चादेत्य गुरुभ्यः सर्व वृत्तान्तं व्यज्ञपयत् । गुरुभिरूचे 'वत्स वरं चक्रे, परं जीवाऽजीवनोजीवेति राशित्रयस्थापनं उत्सूत्रमिति तत्र गत्वा दस्व मिथ्यादुष्कृतं' ततः कथं पर्षदि स्वयं प्रज्ञाप्य स्वयमप्रमाणयामि इति जाताऽहङ्कारेण तेन न तथा चक्रे । ततः षण्मासी यावद् राजसभायां वादमासूत्र्य कुत्रिकापणजीवाऽजीवनोजीवमार्गणादियुक्त्या चतुश्चत्वारिंशेन पृच्छाशतेन निर्लोठितः, कथमपि स्वाग्रहमत्यजन् गुरुभिः क्रुधा खेलमात्रभस्मक्षेपेण शिरोमुण्डनपूर्व सङ्घबाह्यश्चक्रे । ततस्ततः षष्ठनिलवास्त्रैराशिकाः क्रमेण वैशेषिकदर्शनप्रकटितमिति। थेरेहितो णं उत्तखलिस्सहेहिंतो तत्थ णं उत्तरबलिस्सहे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चत्वारि साहाओ एवमाहिज्जति, तं जहा-कोसंविआ १, सुत्तिवत्तिआ २, कोडंबाणी ३, चंदनागरी ४। थेरस्स णं अज्जसुहत्थिस्स वासिट्ठसगुत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावचा अभिण्णाया हुत्था, तं जहा-थेरे अज्जरोहणे १, भदजसे २ मेहगणी अ ३ कामिड्डी ४। सुट्ठिअ ५ सुप्पडिबुद्धे ६, रक्खिअ ७ तह रोहगुत्ते य ८॥१॥ इसिगुत्ते ९ सिरिगुत्ते १०, गणी य बंभे ११ गणी य तह सोमे १२। दस दो य गणहरा खलु, एए सीसा सुहत्थिस्स ॥२॥
N
ustaw
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व्याख्या-अञ्जरोहेणेत्यादि आर्यरोहणो १ भद्रयशा २ मेघः ३ कामर्द्विः ४ सुस्थितः ५ सुप्रतिबद्धो ६ | रक्षितो ७ रोहगुप्तः ८ ऋषिगुप्तः ९श्रीगुप्तः १० ब्रह्मा ११ सोम १२ इति द्वादशगणधारिणः सुहस्तिशिष्याः।
थेरेहितो णं अज्जरोहणेहितो कासवगुत्तेहितो तत्थ णं उद्देहगणे नामं गणे निग्गए, तस्सिमाओ चत्तारि साहाओ निग्गयाओ, छच्च कुलाई एवमाहिज्जति,से किं तं साहाओ ? साहाओ एवमाहिज्जंति तं जहा- उर्दुवरिज्जिआ १. मासपूरिआ २, मइपत्तिआ ३, पन्नपत्तिआ ४, से तं साहाओ, से किं तं कुलाइं? कुलाइं एवमाहिज्जंति, तं जहापढमं च नागभूअं, बीअं पुणसोमभूइअं होइ । अह उल्लगच्छ तइअं, चउत्थयं हत्थलिज्जं तु ॥१॥ पंचमगं नंदिज्जं, छठं पुण पारिहासयं होइ । उद्देहगणस्सेए, छच्च कुला हुंति नायव्वा ॥२॥ थेरोहितो णं सिरिगुत्तेहिंतो हारियसगुत्तेहिंतो इत्थ णं चारगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चारि साहाओ, सत्त य कुलाई एवमाहिज्जति, से किं तं साहाओ ? साहाओ एवमाहिज्जंति, तं जहा-हारिअमालागारी ?, संकासिआ २, गवेधुआ ३, विज्जनागरी ४, से तं साहाओ, से किंतंकुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जति, तं जहा
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स्थविरा
कल्प प्रदीपिका ॥१४०॥
पला
शिक्षा का
पढमित्थ वत्थलिज्जं, बीअंपुण पीइधम्मिश्र होइ। तइअंपुण हालिज्जं,चउत्थगंपूसमित्तिज्जं ॥१॥ पंचमगं मालिज्जं, छठें पुण अज्जवेडयं होइ । सत्तमगं कन्हसहं, सत्त कुला चारणगणस्स।। थे रेहितो भद्दजसेहितो भारदायसगुत्तेहिंतो इत्थ णं उड्डवालियगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ तिन्नि अ कुलाई एवमाहिज्जति, से किं तं साहाओ? साहाओ एवमाहिंज्जति, तं जहा-चंपिज्जिआ १, भदिज्जिआ२, काकंदिआ ३, मेहलिज्जिआ४, से तं साहाओ, से किं तंकुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जति, तं जहाभदजसिअंतह भद्द-गुत्तिअंतइअंच होइ जसभदं। एयाइं उडवालिअ-गणस्स तिन्नेव य कुलाइं॥१॥ थेरोहितो णं कामिडीहितो कोडालसगुत्तेहिंतो इत्थ णं वेसवाडिअगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ चत्तारि कुलाई एवमाहिज्जंति, से किं तं साहाओ ? साहाओ एवमाहिज्जंति तं जहा--सावत्थिआ १, रज्जपालिआ २, अंतरिज्जिआ ३, खेमलिज्जिआ ४, से तं साहाओ, से किं तं कुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जति, तं जहागणिअं मेहलिअकाम-द्विअं च तह होइ इंदपुरगंच । एयाई वेसवाडिअ-गणस्सचत्तारिउ कुलाइं॥१॥
Migration
॥१४॥
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थेरेहितो णं इसिगुत्तेहिंतो कार्कदिएहिती वासिंद्वसगुत्तेहिंतो इत्थ णं माणवगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ तिन्निओकुलाई एवमाहिज्जंति, से किंतं साहाओ? साहाओ एवमाहिज्जति, तंजहा-कासविज्जिया १, गोअमिज्जिआ२, वासिट्ठिआ३, सोरद्विआ ४, से तं साहाओ, से किं तं कुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जंति, तं जहाइसियत्ति इत्थ पढम, बिइअं च इसिदत्तिअं मुणेयव्वं । तइअं च अभिजयंतं, तिन्नि कुला माणवगणस्स ॥१॥ थेरोहितो सुट्ठिअसुप्पडिबुद्धोहितो कोडिअकाकंदरोहितो वग्यावच्चसगुत्तेहितो इत्थ णं कोडिअगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ चत्तारि कुलाई एवमाहिज्जति, से किं तं साहाओ? साहाओ एवमाहिज्जति, तं जहा-उच्चानागरिविज्जा-हरी अ वयरी अ मज्झिमिल्ला य । कोडिअगणस्स एआ, हवंति चत्तारि साहाओ॥१॥ से तं साहाओ, से किं तं कुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जंति, तं जहा-पढमित्थ बंभलिज्जं; बिइअं नामेण वत्थलिज्जं तु । तइअं पुण वाणिज्जं, चउत्थयं पन्हवाहणयं ॥२॥ थेराणं सुट्ठिअसुप्पडिबुद्धाणं कोडिअकाकंदगाणं वग्यावच्चसगुत्ताणं इमे पंच थेरा अंतेवासी
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कल्प
प्रदीपिका ॥ १४१ ॥
अहावच्चा अभिन्नाया हुत्थातं जहा - थेरे अज्जइंददिन्ने १, थेरे पियगंथे २, थेरे विज्जाहरगोवाले कासवगुत्ते णं ३, थेरे इसिदत्ते ४, थेरे अरिहदत्ते ५, थेरोहितो णं पियगंथेहिंतो इत्थ णं मज्झिमा साहा निग्गया ।
व्याख्या- पियगंथे त्ति एकदा त्रिशत ३०० जिनभवन - चतुःशत ४०० लौकिकप्रासादा -ऽष्टादशशत १८०० विप्रगृह - षत्रिंशच्छत ३६०० वणिग्गेह-नवशताऽऽराम ९०० - सप्तशत ७०० वापी - द्विशत २०० कूप - सप्तशत ७०० सत्रागार विराजमानेऽजमेरुनिकटवर्त्तिनि सुभटपालराजसम्बधिनि हर्षपुरे श्रीप्रियग्रन्थसूरयोऽभ्येयुः । तत्रान्येद्युः विप्रैर्यांगे छागो हन्तुमारेभे, तैः श्राद्धकरार्पितवासक्षेपात् तं छागमागत्याऽम्बिnister । ततः स छागो व्योम्नि भूत्वोवाच
हनिष्यथ तु मां हुत्यै, बध्नीताायत मा हत । युष्मद्वनिर्दयः स्यां चेत्, तदा हन्मि क्षणेन वः ॥ १ ॥ यत्कृतं रक्षसां द्रङ्गे, कुपितेन हनूमता । तत्करोम्येव वः स्वस्थः, कृपां चेन्नान्तरा भवेत् ॥ २ ॥ यावन्ति रोमकूपाणि, पशुगात्रेषु भारत । तावद्वर्षसहस्राणि पच्यन्ते पशुघातकाः ॥ ३ ॥ यो दद्यात्काञ्चनं मेरुं, कृत्स्नं चैव वमुन्धरां । एकस्य जीवितं दद्यात्, न च मूल्यं युधिष्ठिर ! ॥ ४ ॥ महतामपि दानानां कालेन क्षीयते फलम् । भीताऽभयप्रदानस्य, क्षय एव न विद्यते ॥ ५ ॥ कस्त्वं प्रकाशयात्मानं, तेनोक्तं पावकोऽस्म्यहम् । ममैनं वाहनं कस्मात् जिघांसथ पशुं वृथा ॥ ६ ॥
स्थविरावली
11 282 11
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इहाऽस्ति श्रीमियग्रन्थः सूरीन्द्रः समुपागतः । तं पृच्छत शुचिं धर्म, समाचरत शुद्धितः ॥ ७ ॥ यथा चक्री नरेन्द्राणां, धानुष्काणां धनञ्जयः । तथा धुरि स्थितः साधुः, स एकः सत्यवादिनाम् ॥ ८ ॥ ततस्ते तथा चक्रुरिति थेरेहितो णं विज्जाहरगोवालेहिंतो कासवगोत्तेहिंतो इत्थ णं विज्जाहरी साहा निग्गया,थेरस्स णं अज्जइंददिन्नस्स कासवगोत्तस्स अज्जदिन्ने थेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते, थेरस्स णं अज्जादिनस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावच्चा, अभिण्णाया हुत्था, तं जहा-(अं० १०००) थेरे अज्जसंतिसेणिए माढरसगुत्ते १, थेरे अज्जसीहगिरी जाईसरे कोसियगुत्ते २, थेहितो
णं अज्जसंतिसेणिएहितो माढरसगुत्तेहिंतो इत्थ णं उच्चनागरी साहा निग्गया । थेरस्स | णं अज्जसंतिसेणियस्स माढरसगुत्तस्स इमे चत्वारि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया हुत्था,
तं जहा थेरे अज्जसणिए, थेरे अज्जतावसे, थेरे अज्जकुबेरे, थेरे अज्जइसिपालिए। थेरेहितो णं अज्जसणिएहितो इत्थ णं अज्जसणिया साहा निग्गया, थेरोहितो णं अज्जतावसेहिंतो इत्य णं अज्जतावसी साहा निग्गया, थेरेहितो णं अज्जकुबेरहितो अज्जकुवेरी
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।
स्थबिरा
मदीपिका ॥१४२॥
Lal वली
साहा निग्गया, थेरेहितो णं अज्जइसिपालिएहितो अज्जइसिपालिया साहा निम्गया । थेरस्स णं अज्जसीहगिरिस्स जाईसरस्स कोसियगुत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया हुत्था तं जहा-थेरे धणगिरी, थेरे अज्जवइरे, थेरे अज्जसमिए, थेरे अरिहदिन्ने । व्याख्या-अजवइरेत्ति-"तुम्बवनग्रामे सुनन्दां साधानांभायो मुक्त्वा धनगिरिः प्रावजत् । सुनन्दासुतस्तु स्वजन्मसमये एव पितुर्दीक्षां श्रुत्वा जातजातिस्मृतिः मातुः खेदाय नित्यं रोदिति । ततस्तया षण्मासवया धनगिरेर्दत्तः, तेन गोचरसमये 'अद्य त्वया सचित्तं अचित्तं वा यल्लभ्यते तद्ग्राह्यम्' इति गुरुवचः स्मृत्वा जगृहे । ततो वज्रवद्भरिभारान्वितत्वावज्रेति दत्तनामा साध्व्युपाश्रये शध्यातरीभिर्वर्द्धमानः पालनकस्थ एवैकादशाङ्गान्यध्यैष्ट, ततस्त्रिवार्षिकः सन मात्रा राजसमक्षं विवादेऽनेकसुखभक्षिकादिभिर्लोभ्यमानोऽपि पितृसावर्पितं रजोहरणमेवाग्रहीत्, ततो माताऽपि प्रवव्राज शिशुरप्य ष्टवर्षान्ते । एकदा तस्य पूर्वभवमिर्ज़म्भिकैः कूष्माण्डे दीयमानेऽनिमेषत्वादिना देवपिण्डनिश्चयादग्रहणे तुष्टैस्तै_क्रियलब्धिर्दत्ता । तथा चाऽन्यदा घृतपूरैः परीक्षायां नभोगविद्याऽपि, अन्यदा वज्रमुनि रुषु बहि मौ साधुषु तु विहन्तुं गतेषु साधुवेष्टिकानां मध्यस्थितस्तासां वाचनां ददौ, गुरुस्तद्वयतिकरं ज्ञात्वाऽन्येषां तद्ज्ञापनाय वो वज्रो वाचनाचार्य इत्यादिश्य ग्राम जग्मुः । ततस्ते वज्रान्तिके पठन्त इत्यन्योन्यं प्रोचुः 'यदि गुरवस्तत्र विलम्बन्ते तदा श्रुतस्कन्धः शीघ्र समाप्यते' ततो गुरुव्वागतेषु स प्रागपठिते च श्रुतेऽध्यापिते श्रीभद्रगुप्ताचा
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र्याऽन्तिके दशपूर्वाणि अध्यष्टां । ततः प्राप्तसूरिपदः पाटलीपुरप्रवेशे मा भूत् दिव्यरूपाक्षेपात् पुरक्षोभेति शङ्कया संहृत्य क्षीराश्रवलब्ध्या राजादीनुपदिदेश । द्वितीयेऽह्नि न प्रभोर्गुणानुरूपं रूपमिति पौरालापं श्रुत्वा विकुर्वितसहस्राब्जस्थः स्वाभाविकरूपेण धर्म दिशन् सर्वान् व्यस्मापयत् । तत्र च धनश्रेष्ठिसुता रुक्मिण्याख्या साध्वीभ्यः प्राग ज्ञातगुणानुरागिणी सती कोटिधनोपेता पित्रा दीयमानाऽपि प्रयोध्य दीक्षिता । ततः स्वामिना पदानुसारिलब्ध्या श्रीआचाराङ्गमहापरिज्ञाऽध्ययनान्नभोगविद्या उद्दधे । अन्यदोत्तरस्यां दुर्भिक्षे श्रीसङ्घ पट्टे संस्थाप्य चारिग्रहणार्थ गतशय्यातरमपि लोचकरणेन साधर्मिकत्वं ख्यापयन्तं तत्रारोप्य स सुभिक्षां पुरिकापुरी प्राप। तत्र च बौद्धराज्ञा जिनचैत्येषु पुष्पप्रतिषेधे कृते पर्युषणापर्वणि सखेदं श्राद्ध| विज्ञप्तो व्योम्नोत्पत्य माहेश्वयां पुर्या हुताशनाख्यदेवस्य बने पितृमित्रमारामिकं पुष्पानयनार्थमादिश्य
हिमवद्रिं गतः।तत्र श्रीदेव्या नतः , तदनु प्राग् देवार्चार्थानीतं महापद्मं तदर्पितं, हुतशनवनाविंशतिलक्षNI पुष्पाणि चादाय विकुऱ्या विमानं प्रागमित्रजम्भिकामरक्तगीतवाद्याद्युत्सवरेत्याहन्मतं प्राभाव
नृपोऽपि श्राद्धोऽभूत्, अन्यदा दक्षिणापथे विहरन् श्लेष्मप्रकोपे भोजनादनुग्रहणाय कर्णे स्थापितशुष्ठयाः प्रतिक्रान्तिमुखपोतिकातिलेखनावसरे पतने स्वप्रमादं मत्वा अनशनार्थी सन् द्वादशाब्दं दुर्भिक्षं ज्ञात्वा
लक्षमूल्यौदनादिक्षां यत्राहि त्वमाप्नुयाः। सुभिक्षमवबुद्धयेथा-स्तदुत्तरदिनोषसि ॥१॥
इत्युक्त्वा वज्रसेनाख्यं स्वशिष्यं अन्यत्र व्यहारयत्, स्वान्तिकसाधूंश्च दुर्भिक्षे भिक्षामलभमानान् विद्यापिण्डेन कियदिनानि भोजयित्वा संविग्नान् पञ्चशतशिष्यान् सहाऽऽद्याऽनशनार्थ वार्यमाणमप्यति
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कल्प
दीपिका ॥१४३॥
तं कथमपि विप्रार्य गिरिंमारोहत् । स च मा भूद् गुरूणामप्रीतिरिति गिरिमूल एव तप्तशिलातले अनशनं कृत्वा स्वरगात् । देवैस्तु तन्महिमानं क्रियमाणं वीक्ष्य मुनयो दृढस्थिरीभूतास्तत्र च मोदकादिभिर्निमन्त्रयन्त्या मिथ्यादृग्देव्या अप्रीतिं ज्ञात्वा अन्याऽऽसन्नगिरौ गत्वा अनशनेन दिवं प्रापत् । ततः शक्रेण सरथेन गिरेः प्रदक्षिणीकरणात् रथावर्त्तेति नामाऽजनि वृक्षाणां नमनादद्यापि तत्र वृक्षा नम्रा एव जायन्ते । तत्र च दशमपूर्व तूर्यसंहननं च व्युच्छिन्नं, तदनु च वज्रसेनः सोपारके जिनदत्तश्राद्ध भार्येश्वरीगृहे गतः तथा च लक्ष मूल्यमन्नं पक्त्वा प्रक्षिप्यमाणं विषं गुरुवचः प्रोच्य न्यवारयत्, प्रातः पोतैः प्रचुरधान्याssगमने जाते सुभिक्षे जिनदत्तो भार्या नागेन्द्रचन्द्रादिसुतयुक्तः प्रावाजीत्, ततस्तेभ्यो शाखा चतस्रो जाता हात थेरेहिंतो णं अज्जसमिएहिंतो गोयमसगुत्तेहिंतो इत्थ णं बंभदीविया साहा निग्गया ।
स्थविरावली
व्याख्या -- बंभदीविया साहा निग्गय त्ति - आभीरदेशेऽचलपुरासन्ने कन्ना बेन्नानयोर्मध्ये ब्रह्मदीपे पञ्चशततापसास्तेष्वेको पादले पेन बेन्नामुत्तीर्य पारणार्थ याति, ततस्तवशक्तिं वीक्ष्य घनो जनस्तद्भक्तोऽभूत्, श्राद्धान् निन्दति च ' यद्भवद्गुरूणां न कोऽपि प्रभावः' ततस्तैः श्रीवज्रस्वामी मातुलार्यसमित सूरय आहूतास्तैरुक्तं स्तोकमिदं यतः पादलेपशक्तिरिति, श्राद्वैस्ते स्वगृहे पादपादुकाधावनपुरस्सरं भोजिताः ततस्तैः सहैव सर्वेऽपि श्राद्धाः नदीतटे प्राप्तास्ते च तत्र प्रविशन्त एव बुडितुम् लग्नास्ततस्तेषां सर्वत्राऽपभ्राजनाssसीत् । इतश्च तत्राऽर्यसमिताचार्या आजग्मुः तत्र ते लोकबोधार्थ चप्पडिकां दत्त्वोचुः 'बेन्ने परं
| ॥१४३॥
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परं यास्यामः' इत्युक्ते कूले मिलिते, जनो विस्मितः ततस्तद्युताः सूरयः तापसाश्रमे गत्वा धर्मोपदेश। बुद्धानां तेषां दीक्षां ददुः, जाता च प्रवचनोन्नतिः । तेभ्यो ब्रह्मदीपिका शाखा निर्गता इति। तत्र च| "महागिरिः १ सुहस्ती २ च, मूरिः श्रीगुणसुन्दरः ३ । श्यामार्यः ४ स्कन्दिलाचार्यो ५, रेवतीमित्रमूरिराट् ६ ॥१॥ श्रीधर्मो ७ भद्रगुप्तश्च ८, श्रीगुप्तो ९ वज्रमूरिराट् १० । युगप्रधानप्रवरा, दशैते दशपूर्विणः ॥ २॥ ६॥ थेरेहितो णं अजवयरोहतो गोयमसगुत्तेहिंतो इत्य णं अजवइरी साहा निग्गया । थेरस्त णं अज्जवयरस्स गोयमसगुत्तस्स इमे तिन्नि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया हुत्था, तं जहाथेरे अज्जवइरसेणिए थेरेअज्जपउमे, थेरे अज्जरहे। थे हितो णं अज्जवइरसेणिएहितो इत्थ णं अजनाइलीसाहा निग्गया, थेरेहितो णं अज्जपउमहिंतो इत्थणं अज्जपउमा साहा निग्गया, थेरोहितो णं अज्जरहहिंतो इत्थ णं अज्जजयंती साहा निग्गया, थेरस्स णं अज्जरहस्स वच्छसगुत्तस्स अज्जपूसगिरा थेरे अंतवासी कोसियगुत्ते १, थेरस्त णं अज्जपूसगिरिस्स कोसियगुतस्स अज्जफग्गुमित्ते थेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते २, थेरस्स णं अज्जफग्मुमित्तस्स गोयमसगुतस्स अज्जधणगिरी थेरे अंतेवासी वासिट्ठसगुत्ते ३, थेरस्स णं अज्जधणगिरिस्स वासिट्ठसगुतस्स अज्जसिवभूई थेरे अंतवासी कुच्छसगुत्ते ४, थेरस्स णं अज्जसिवभूइस्स कुच्छसगुत्तस्स
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कल्प प्रदिपीका
॥ १४४ ॥
अज्जभद्दे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते ५, थेरस्स णं अज्जभद्दस्स कासवगुत्तस्स अज्जनक्खते थे रे अंतेवासी कासवगुत्ते ६, थेरस्स णं अज्जनक्खत्तस्स कासवगुत्तस्स अज्जरक्खे थेरे अंतेवासी व्याख्या-अज्जरक्खेति—दशपुरे नगरे पुरोहितः सोमदेवस्तद्भार्या सोमवा, तस्याः सूनुरार्यरक्षितः, विदेशे चतुर्दशविद्या अधीत्याऽऽगतो करिस्कन्धाऽऽरूढो राजादिकृतसन्मानो मातुः प्रणामक्षणे विशेषहर्षमदृष्ट्वा तद्धेतुं प्रपच्छ । तया परमाहत्योचे 'किंमनेन नरकहेतुनाऽधीतेन' यदिमां मन्यसे तदा दृष्टिवादमधीष्व । ततस्तं विभणिषुर्दष्टीनां दर्शनानां वादो वादो- विचार इति नामाप्यस्य शोभनमिति निशि ध्यात्वा प्रातरम्बां पृष्ट्वा इक्षुवाटकस्थस्व मातुलतोसलिपुत्राचार्य समीपे गच्छन् स्वमिलनार्थमागच्छन् मित्रह सार्द्धनवेक्षुयष्टीः सार्द्धनवपूर्वाध्ययन सूचिका दृष्ट्वा शकुनं मत्वा स्वमातुरर्पणायाऽऽदिश्योपाश्रयद्वारं प्राप्तो, ढदृरश्राद्धकृतविधिना स गुरून् मुनीन् नत्वोपविष्टः । श्राद्धवदनाद् गुरुभिरभिनवश्राद्धं इत्युक्तः साधुभिरुपलक्षितः स्वस्वरूपं प्रोचे । गुरुभिर्योग्यं ज्ञात्वा स्वजनाद्युत्प्रवाजन भीत्याऽन्यत्र गत्वा दीक्षितः, स्वपार्श्वस्थं श्रुतमध्यापितं । ततः पूर्वाऽध्ययनार्थ श्रीवज्रपार्श्वे गच्छन्नुज्जयिन्यां श्रीभद्रगुप्ताचार्यमनशनिनं निरयामयत्
यो हि सोपक्रमायुष्को, वज्रेण सह यामिनीं । एकामपि वसेत्सोऽनु - म्रियतेऽत्र न संशयः ॥ १ ॥
इति विचिन्त्य स्वया भिन्नाऽऽलये स्थित्वा अध्येयम् इत्युक्तः, सोऽन्याऽऽलये उपर्धि मुक्त्वा श्रीवज्रमवन्दत । अचाऽस्मत्पायस पतद्ग्रहः केनाप्यागन्तुकेन पीतः किञ्चिचास्थादिति निशि दृष्टस्वप्नानुसारेण तं किच
स्थविरावली
॥ १४४ ॥
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न्यूनदशपूर्वाध्येतारं मत्वा स्वरूपं च पृष्ट्वा पृथगालयस्थमध्यापयत् । दशमपूर्वयमकेषु पठयमानेषु पितृभिः सन्देशकैराकरणेप्यगमने तल्लघुभ्राता फल्गुरक्षितः प्रेषि, तेन प्रबोध्य सोऽपि दीक्षितः, ततः स्वजनान् प्रबोधयितुमुत्सुकोऽध्ययनपराजितश्चेदं पूर्वमद्यापि कियदवशिष्यते इति गुरून प्रपच्छ, विन्दुमात्रमधी तमन्धितुल्यं चाऽवशिष्यते तैरित्युक्ते भग्नोत्साहोऽपि गुरुगिरा कियध्यैष्ट, ततो गुरुभिरुपयोगास्वस्मिन् शेषश्रुताच्छेदं ज्ञात्वाऽनुज्ञातः सन् सफल्गुरक्षितो दशपुरं प्राप। तत्र राजादिकृतप्रवेशोत्सवो मातृभगिन्यादिस्वजनान् प्रात्राजयत, पिता तु पुत्रादिस्नेहेन दीक्षितोऽपि स्नुषादिहिया धौतिक-यज्ञोपवीत-छत्रिको-पानह-कमण्डलुनि न मुमोचत् । ततो गुरुशिक्षया बालैः सर्वसाधुवन्द भवन्तं छत्रिकावन्तं न वदामहे इत्युक्ते छत्रिकां मुमोच, क्रमेण तथैव कुण्डिकां यज्ञोपवीतमुपानहौ च । अन्यदा अनशनिनि साधौ मृते गुरुशिक्षया साधुषु वैयावृत्त्यकृते मिथः कलहायमानेषु किमत्र महती निर्जरेति गुरुं प्रपच्छ । गुरुभिरोमित्युक्तेऽहं वहामीत्यूचेऽत्रोपसर्गान् सोढुं शक्नुथास्तदानीं वहत अन्यथाऽस्माकमरिष्टमिति गुरूक्ते स तमुक्षिप्य व्रजन् गुरुशिक्षया बालैध/तिकमाकृष्य चोलपट्टः परिधापितः। पश्चास्थितस्नुषादिदर्शनालजितोऽप्येष उपसर्गः सोढव्य इति तस्कृत्यं कृत्वा । पश्चादागात् ततः किमेतद् आनय धौतिकमिति गुरूक्ते किमथ धौतिकेन यत् द्रष्टव्यं तत्तदृष्टमिति चोलपट्ट एवाऽस्तु । तथा हिया भिक्षामहिण्डमाने तस्मिन् गुरवः साधून शिक्षयित्वा गुरुष्वन्यत्र विहृतेषु साधवः स्वं स्वं विहृत्य भुक्ताः स तु क्षुधित एवाऽस्थात, द्वितीय दिने आगतगुरुभिः कृत्रिमकोपकरणे तेषु किमेष स्वयं न यातीतिप्रतिवदत्सु गुरुभिर्विहत्तुं गच्छति स एवाऽगात्, क्वाऽपि इभ्यगहेऽज्ञानादपरद्वारेण व्रजेस्तेन
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कल्प
प्रदीपिका
॥ १४५ ॥
द्वारेणैहीत्युक्तः श्रीर्यतस्तत आयान्ती सुन्दति वदंस्तत्र द्वात्रिंशन् मोदकान् लब्ध्वाऽऽगतः, द्वात्रिंशच्छिष्याः अस्माकम् परम्परया भविष्यन्तीति गुरुरपि निमित्तमग्रहीत् । प्रथमलाभत्वाद् गुरुक्त्या तेषु साधूनां दत्तेषु पुनः परमान्नमानीय स्वयं बुभुजे, लब्धिसंपन्नत्वात् बालग्लानादीनामाधारश्च जज्ञे । ततस्तस्य गच्छे त्रयः पुष्पमित्राः दुर्बलिकापुष्प १ घृतपुष्प २ वस्त्रपुष्प ३ मित्राश्चत्वारश्च महाप्रज्ञा दुबेलिकापुष्पमित्र १ वन्ध्य २ फल्गुरक्षित ३ गोष्ठामाहिलाः ४ बभूवुः । एकदा चेन्द्रः श्रीसीमन्धरवचसा कालकसूरिवत् श्रीआरक्षितसूरीन परीक्ष्य नत्त्वा शालाद्वारं पराव गतः ततस्तैर्मेधाहानिं विभाव्य सूत्रस्य चतुर्द्धाप्यनुयोगः पृथग् पृथग् व्यवस्थापित इत्यार्थरक्षितसूरिस्वरूपं ॥
थेरस्स णं अज्जरक्वस्स कासवगुत्तस्स अज्जनागे येरे अंतेवासी गोअमसगुत्ते ८, थेरस्सणं अज्जनागस्स गोधूमसगुत्तस्स अज्जजेहिले धेरे अंतेवासी वासिसगुत्ते ९, थेरस्स णं अज्जजेहिलस्स वासिट्ठसगुत्तस्स अज्जविन्हू थेरे अंतेवासी माढरसगुत्ते १०, थेरस्स णं अज्ज - विन्हुस्स माढरसगुत्तस्स अज्जकालए थेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते ११, थेरस्स णं अज्जकाल -
गोमत इमे दुवे थेरा अंतेवासी गोयमसगुत्ता धेरै अज्जसंपलिए १२, धेरै अज्जभद्दे, एएसिं दुन्हवि थेराणं गोयमसगुत्ताणं अज्जबुड़े थेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते १३, थेरस्स णं अज्जवुस्स गोयमसगुत्तस्स अज्जसंघपालिए थेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते १४, थेरस्स णं
स्थविरा. वली
॥ १४५ ॥
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अज्जसंघपालियस्स गोयमसगुत्तस्स अज्जहत्थी थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते १५, थेरस्स णं अज्जहत्थिस्स कासव त्तस्स अज्जधम्मे थेरे अंतेवासी सावयगुत्ते १६, थेरस्स णं अज्जधम्मस्स सावयगुत्तस्स अज्जती र अंतेवासी का सवगु ते १७, थेरस्स णं अज्जसीहस्स कासवगुत्तस्स अज्जम्मे थे अंतेवासी कासवगत्ते १८ थेरस्स णं अज्जधम्मस्स कासवगुत्तस्स अज्जसं डिल्ले थेरे अंतेवासी १९ | वंदामि फग्गुमित्तं च, गोयमं धणगिरिं च वासिद्धं । कुच्छं सिवभूई पि अ, कोसिअदुज्जंत कन्हे अ ॥ १ तं वंदिऊण सिरसा, भदं वंदामि कासवं गुत्तं । नक्खं कासव - गुत्तं, रक्खंपि य कासवं वंदे ॥ २ ॥ वंदामि अज्जनागं च, गोयमं जेहिलं च वासिद्धं । विन्हुं माढरउत्तं, कालगभवि गोयमं वंदे || ३ || गोअमगुत्तकुमारं संपलियं तह य भद्दयं वंदे । थेरं च अज्जवुड, गोअमगुत्तं नम॑सामि ॥ ४ ॥ तं वंदिऊण सिरसा, थिरसत्तचरित्तनाणसपन्नं । थेरं च संघवालिय, कासवगुत्तं पणिवयामि ॥ ५॥ वंदामि अज्जहत्थिं च, कासवगुत्तं च सागरं धीरं । गिम्हाण पढममासे, कालगयं चेव सुद्धस्स ॥ ६ ॥ वंदामि अज्जधम्मं च, सुवयं सीललद्धिसंपन्नं । जस्स निक्खमणे देवो, छत्तं वरमुत्तमं वहइ ॥ ७ ॥ हत्थिं कासवगुत्तं, धम्मं सिवसाहगं पणिवयामि | सीहं कासवगुत्तं, धम्मं पि अ कासवं वंदे ॥ ८ ॥ तं वंदि -
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कल्प
प्रदीपिका
वली
ऊण सिरसा, थिरसत्तचरित्तणाणसंपन्नं । थेरं च अज्जजंबू, गोअमगुत्तं नमसामि ॥९॥
स्थधिरामिउमद्दवसंपन्नं, उवउत्तं नाणदंसणचरित्ते । थेरं च नंदिअं पि अ, कासवगुत्तं पणिवयामि ॥ १०॥ ततो अथिरचरित्तं, उत्तमसम्मत्तसत्तंसजुत्तं । देसिगणिखमासमणं, माढरगुत्तं नमसामि ॥ ११ ॥ तत्तो अणुओगधरं, धीरं भइसागरं महासत्तं । थिरगुत्तखमासमणं, वच्छसगुत्तं पणिवयामि ॥ १२ ॥ तत्तो अ नाणदंसण-चरित्ततवसुट्ठिअं गुणमहंतं । थेरं कुमारधम्मं, वंदामि गाणं गुणोववयं ॥ १२ ॥ सुत्तत्थरयणभरिए, खमदममद्दवगुणेहिँ संपन्ने । देवढिखमासमणे, कासवगुत्ते पणिवयामि ॥१४॥
व्याख्या-बंदामि फग्गुमित्तमित्यादि चतुर्दशगाथाभिर्गद्योक्तोऽर्थ एव पुनः पद्यैः सङ्ग्रहीत इति न पौन- NT रुक्त्यं । कुच्छं-कुत्सगोत्रं, गिम्हाणंति-ग्रीष्मस्य, प्रथममासे-चैत्रे, सुद्धस्सत्ति-शुक्लपक्ष।। देवः पूर्वसङ्गतिका कोऽपि वरमुत्तम-वरा मा-लक्ष्मीस्तयोत्तमं छत्रं धारयतीति ॥ ७॥ मिउमद्दवसंपन्नं त्ति मृदुना-मधुरेण | | माईवेन-मानत्यागेन सम्पन्नमथवा मृदु-करुणाद्रदयं अद्रवेण नर्मणाऽसम्पन्न अद्रवसम्पन्नं ॥ १० ॥७॥ | इति श्रीमत्तपागणगगनविकाशननभोमणि-भट्टारकश्रीविजयसेनसूरीश्वरशिष्यपण्डितश्रीसङ्घ| विजयगणिविरचितायां श्रीकल्पप्रदीपिकायां समाचारीरूपतृतीयवाच्यव्याख्यानानुक्रमः सम्पूर्णः।
[ इति अष्टमं व्याख्यानं ] [ अथ नवमं व्याख्यानं ]
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ནང་ཚུར་ནས
अथ पर्युषणासमाचारीरूपततीयवाच्यं विचक्षुरादौ पर्युषणा कदा विधेया इति शिष्यप्रशिष्यादिदृष्टान्तेन आहतेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे विइकते वासावासं पज्जोसवेइ, से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ समणे मगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे विइकते वासावासं पज्जोसवेइ ? ॥१॥
व्याख्या-तेणं कालेणमित्यादितो.......वासावासं पजोसवेइ इत्यन्तम् , तत्र आषाढचतुर्मासक| दिनादारम्य सविंशतिरात्रे मासे व्यतिक्रान्ते भगवान् पजोसवेह त्ति पर्युषणामकार्षीत्। से केणड्डेणं भंते इत्यादिप्रश्नवाक्यम् ॥ १॥ निर्वचनवाक्यमाह
जओ णं पाएणं अगारीणं अगाराइं कडियाई उकंपियाई छनाई लित्ताई गुत्ताई घट्ठाई मट्ठाई | संपधूमिआई खाओदगाइं खायनिद्धमणाई अप्पणो अट्ठाए कडाइं परिभुत्ताइं परिणमियाई
भवंति, से तेणटेणं एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे विइकते वासावासं पज्जोसवेइ ॥२॥
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कल० प्रदीपिका
याल्या आणमित्यादित.......पज्जोसवेइ इत्यन्तम् , तत्र यतो णं-वाक्यालङ्कारे प्रायेणागारिणां- समाचारी गृहस्थानामगाराणि-गृहाणि कडिआई कटयुक्तानि, उत्कंपिआई ध्वलितनि, छन्नाई तृणादिभिः, लित्साई, छगणाय गुत्ताई वृत्तिकरणद्वारपिधानादिभिः,घटाई विषमभूमिभञ्जनात्,मट्ठाई श्लक्ष्णीकृतानि,कचित् समहाई तिसमन्तान्मृष्टानि-ममृणीकृतानि, संपधूमिआई सौगन्ध्यापादनार्थ-धूपनैर्वासितानि, खाओदगाइं कृतप्रणालीरुपजलमार्गाणि, खायनिद्धमणाई ति निद्धमणं खालं येन गृहाज्जलं निर्गच्छति, अप्पणो अट्ठाए त्ति
आत्मार्थ-गहस्थैरित्यर्थः, कृतानि-करोतेः परिकार्थत्वात्परिकर्मितानि, परिभुक्तानि-तैः स्वयं परि17 ज्यमानत्वात, अत एव परिणीमितानि-अचित्तीकृतानि भवन्ति ततः संविंशतिरात्रिमासे गत इति ॥२॥
जहाँ णं समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे विइकंते वासावासं पजोसवेइ तहा गं । गहरा वि वासाणं सवीसइराए मासे विइकंते वासावासं पज्जोसविंति ॥३॥ जहा णं गणहरा । वासाणं जाव पज्जोसविंति तहा णं गणहरसीसा वि वासाणं जाव पज्जोसविंति ॥ ४॥ जा में गणहरसीसा वासाणं जाव पज्जोसर्विति तहा णं थेरा वि वासावासं पज्जोसविंति ॥५॥
व्याख्या-जहा णमित्यादितः.......थेरा वि वासावासं पज्जोसविंती यावत् , त्रीणि सूत्राणि स्पष्टानि, पर स्थविराः स्थविरकल्पिकाः ॥ ३ ॥ ४ ॥५॥
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जहा of थेरा वासाण जाव पज्जोसविंति तहा णं जे इमे अज्जताए समणा निग्गया विहरति, विणं वासाणं जावज्जोसविंति ॥६॥
व्याख्या - जहा णमित्यादितः. . पज्जोसवितीत्यन्तम्, तत्र अज्जताए ति अथकालीना आर्यतया व्रतस्थविरत्वेनेत्येके, यदि पुनः प्रथममेव स्थिताः स्म इति साधवों ब्रूयुस्तदा ते गृहस्थाः प्रब्रजितानां सुभिक्षं सम्भाव्य तप्तायोगोलकल्पा दन्तालक्षेत्रकर्षण गृहाच्छादनादीनि कुर्युस्तथा चाधिकरणदोषाः अतस्तत्परिहाराय पञ्चशता दिनैः स्थिताः स्म इति वाच्यम् ॥ ६ ॥
जहा णं जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा वासाणं सवीसइराए मासे विकते वासावासं पज्जोसविंति तहा णं अहं पि आयरिया उवज्झाया वासाणं जाव पज्जोसविंति ॥ ७ ॥ जहा of अहं पि आयरिया उवज्झाया वासाणं जाव पज्जोसविंति तहा णं अम्हे वि वासाणं स्वीसइराए मासे विइकंते वासावासं पज्जोसवेमो अंतरा वि अ से कप्पइ पज्जोसवित्तए नो से कप्पइतं स्यणि उवायणावित्त ॥ ८ ॥
व्याख्या - जहा णमित्यादिता........नों से कप्पड़ तं रयार्ण उवायणावित्तए त्ति इत्यन्तं सूत्रवर्य, तत्र
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समाचार
कूल०.अन्तराऽपि च-अर्वागपि च कल्पते पर्युषितुं, न कल्पते तां रजनी-भाद्रपदशुक्लपञ्चमी उवायणावित्तए प्रदीपिका ॥२॥ त्ति अतिक्रमितुं 'उष निवासे' इत्यागमिको 'वसं निवासे' इति गणसक्तो वा धातुः, इह हि पर्युषणा
द्विविधा गृहिज्ञाताज्ञातभेदात् , तत्र गृहिणामज्ञाता यस्यां वर्षायोग्यपीठफलकादि द्रव्यक्षेत्रकालभावस्थापना क्रियते, सा चाषाढपूर्णिमास्यां योग्यक्षेत्राऽभावे तु पञ्चपञ्चदिनवृद्धद्या दशपर्वतिथिक्रमेण यावत् भाद्रपदकृष्णपञ्चदश्यामेवेति । गृहिज्ञाता तु बेधा सांवत्सरिककृत्यविशिष्टागृहिज्ञातमात्रा च,सांवत्सरिककृत्यानि___ सांवत्सरमतिक्रान्ति १ लञ्चनं २ चाष्टमं तपः ३॥ सार्हद्भक्तिपूजा च ४, सङ्घस्य क्षामणं मिथः ५॥१॥ - एतत्कृत्यविशिष्टा च भाद्रसितपश्चभ्यां कालकाचार्यादेशाच्च चतुर्थ्यामेव जनप्रकटं कार्या, अन्यात्वभिवदितवर्षे चतर्मासकदिनादारभ्य विंशत्या दिनैर्वयमत्र स्थिताः स्म इति पृच्छता गृहस्थानां पुरो वदन्ति तत्तु गृहिज्ञातमात्रमेव, तदपि जैनटिप्पनकानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पोषो युगान्ते चाषाढो एव वर्दते नान्ये मासाः, तच्चाधुना सम्यग् न ज्ञायतेऽतः पश्चाशत् दिनैः पर्युषणा सातेति वृद्धाः, अधिक मासे सत्येवं वाच्यं, यद्यपि श्रावणादि वृद्धौ अशितिदिनैः पर्युषणापर्व क्रियते। तथापि तत्पश्चाशत् दिनैरेव ज्ञेयं अधिकमाससत्कत्रिंशद्दिनानां कालचूलत्वेनागणनात् । यथाहि-अधिकमासवर्षेऽपि 'बारसहं' मासाणं, चउवीसण्हं पक्खाणं तिन्निसय सहिराइंदियाणं' तथा 'चउण्हं मासाणं अट्ठण्हं पक्खाणं वीसुतरसय राईदियाणं' इत्यादि चालापकेष्वधिकमासो न गण्यते । यतः-'तेरसणं मासाणां छव्वीसहं
॥
२
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पक्खाणं तिन्निसय नेउ राइंदियाणं' तथा 'पञ्चण्हं मासाणं दसण्हं पक्खाणं पंचसुत्तरसय राइंदियाणं' इति पाठस्य काप्यकथनात् । एवं 'सवोसइ राए मासे विइकते पजोसवेइ' इति पश्चाशत् दिनैः श्रीपर्युष| णापर्वकरणालापकेऽप्यधिकमासो न गण्यते, लोकेऽपि शुद्धवर्षान्तरभाविषु दीपोत्सवबलिपक्षित तृतीयाश्राद्धपक्षविजयदशम्यादिष्वधिकमासो न गण्यते। ज्योतिःशास्त्रेच-'यात्राविवाहमण्डनमन्यान्यपि शोभनानि कर्माणि परिहर्तव्यानि बुधैः सर्वाणि नपुंसके मासे' ॥१॥ लोकोत्तरेऽपि दीक्षा-प्रतिष्ठापदस्थापनादिष्वधिकमासस्त्याज्यः । अधिकमासं चाचेतनावनस्पतयोऽपि न गणयन्ति यदुक्तं आवश्यके____ जइ फुल्ला कणिआरया, चुअग अहिमासयंति घुटुंमि । तुह न खमं फुल्लेलं, जह पचंता करंति डमराई ॥१॥
इति हेतोः श्रावणादिवृद्धावपि प्रथमं भाद्रमुक्त्वा वितीयभाद्रसितपञ्चम्यां पर्युषणापर्वकृत्यानि | कर्तव्यानि कालकाचार्यादेशाच्चतुझं । तथाहि " सीसो पुच्छइ इआणि कहं चउत्थीए | अपव्वे पज्जोसविजति ? आयरिओ भणति कारणिआ चउत्थी अज्जकालगायरिएण
पवत्तिआ, कहं भण्यंते कारणं, कालगायरिओ विहरंतो उज्जेणिं गओ, तत्थ वासावासं ठिओ, तत्थ नगरीए बलमित्तो राया, तस्स कणिट्ठा भाया भाणुमित्तो जुवराया, तेसिं भगिणी भाणुसिरी नाम, तस्स पुत्तो बलभाणू णाम, सो अ पगिइभद्दविणीययाए साहणं पज्जुवासति, आयरिएहिं से धम्मो कहिआ, पडिबुद्धो पव्वाविओ अ, तेहिं अ बलमित्तभाणुमित्तेहि रुडेहिं कालगज्जो
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प्रदीपिका
| अपज्जोसविओ निव्विसओ कओ। केइ आयरिआ भणति-जहा बलमित्तभाणुमित्सा कालगायरिमाणे समाचारी भागिणेजा भवंति, माउलो त्ति काउं महंतं आयरं करेंति अब्भुट्ठाणाइअं, तं च पुरोहिअस्स अप्पत्ति भणइ एसो सुद्धपासंडो वेदाइबाहिरो, रण्णो अंतो पुणो पुणो उल्लवंतो आयरिएण णिप्पट्टप्पसिणवागरणो कओ, ताहे सो पुरोहिओ आयरिअस्स पदुट्ठो रायाणं अणुलोमेहिं विप्परिणामेति-एए रिसियो महाणुभावा एते जेणं पहेणं गच्छंति तेणं पहेणं जइ रण्णो गच्छइ पयाणि वा अक्कमह तो असिवं भवइ तम्हा विसजेह ताहे विसजिआ । अण्णे भणंति रण्णा उवाएणं विसजिया, कहं ? सव्वंमि गरे रण्णा असणा कराविआ ताहे णिग्गया, एवमादिआण कारणाणं अण्णतमेण निग्गया, विहरंतापतिवाणं नगरं ते पहिआ, पतिद्वाणसमणसंघस्स य अन्जकालगज्जेहिं संदिटुं-जावाहं आगच्छामि ताव तुम्भेहिं णो पज्जासविअव्वं । तत्थ य सालवाहणो राया सो अ सावओ सो अ कालगज्जं इंतं सोऊण निग्गओ अभिमुहो समणसंघो अ महाविभूईए पविठ्ठो कालगज्जो, पविटेहि अ भणिअं भवयसुद्धपंचमीए पज्जोसविज्जइ समणसंघेण पडिवणं, ताहे रण्णा भणिअंतदिवसं मम लोगाणुवत्तीए इंदो अणुजाएअव्यो होहि त्ति साह चेहए अ ण पज्जुवासेस्सं, तो छडीए पज्जोसवणा किज्जइ, आयरिएहिं भणिअं ण वदति अतिकमिउं, ताहे रण्णा भणियं ता अणागयचउत्थीए पज्जोसविज्जति, आयरिएहिं भणि 'एवं भवताहे चउत्थीए पज्जोसविअं, एवं जुगप्पहाणेहिं कारणे चउत्थी पवत्तिआ सा चेवाणुमतासव्वसाहणं" इत्यादि श्रीनिशीथर्णिदशमोद्देशके ।
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SH
तथा-"अण्णया पजोसवणादिवसे आगए अजकालगणं सालवाहणो भणिओ भद्दवयजुणहपंचमीए पजोसवणा, रण्णा भणिओ" इत्यादि श्रीपर्युषणाचूौँ । तथा तत्र च कषायविषये 'गच्छो अ दुन्निमासे' इत्यादिगाथाव्याख्यानेऽप्युक्तम् “भद्दवयसुद्धपंचमीए अहिगरणे उप्पण्णे संवच्छरो भवइ, छट्ठीए एगदिणूणो संवच्छरो भवइ एषमिक्विक्कदिणं परिहरंतेण ताव आणेअव्वं जाव ठषणदिणु " त्ति । तथा " वासावासं पज्जोसवियाणं निग्गंधाण वा निग्गंथीणं वा नो से कप्पइ, परं पज्झोसवणाओ गोलोमपमाणमित्त वि किसे तं रयणि उवायणा वित्तए" त्ति कल्पस्तत्रैतवृतौ तां रजनीं भाद्रपद सितपञ्चमी रात्रिं नाऽतिक्रमयेत् । पञ्चम्याः रात्रेः प्रागेव कारयेदित्यर्थः।
पर्युषणाकल्पटिप्पनकेऽप्युक्तं “नो से कप्पइ तं रयणि" ति भाद्रसितपञ्चमीमतिक्रामयितुमिति। इति पर्युषणाकृत्यानि श्रावणे काऽपि न दृश्यन्ते, यदि श्रावणे स्युस्तदा पुनः पुनः वर्षात्रयाऽनन्तरे भाविन्यभिवर्द्धितवर्षे श्रावणेऽप्युक्तनाऽभविष्यत् । सिद्धान्तेन तुक्तानि यदि च 'अभिवढियंमि बीसाइअरेसु सवीसइ मासो” तिअक्षरयलेन विंशत्याऽपि दिनैर्लोचादिपञ्चकृत्यविशिष्टं यत्पर्युषणापर्वकरणं तदयुक्तं, यतः-तदधिकरणादिदोषाद्यभावेन गृहिज्ञातमात्राऽपेक्षया पर्युषणाकरणं । ननु सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादिविशिष्टं पर्वाऽपि अन्यथा “आसाढी पुण्णिमाए पज्जोसविंति, एसो उस्सग्गो सेसकालं पज्जोसवंताणं सव्वो अववाओ ति" श्रीनिशीथचूर्णिदशमोद्देशकवचनादाषाढपूर्णिमायामेचोत्सर्गिक पर्व विधेयं । माऽपधादिकानि अन्यानि यदा
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कल०
प्रदीपिका
इत्थय पणगं पणगं, काराणि जा सवीसइ मासो । सुद्धदसमीठिआणं आसाढीपुण्णिमो सरणं ॥१॥ ॥४॥ इति श्रीपर्युषणाकल्पनियुक्त्यादिवाक्यादाषाढशुद्धदशम्या आरभ्य पञ्चसु पञ्चसु दिनेषु गतेषु ।
पर्युषणा कृता युज्यते । तथाविधाने च पर्वणोऽनयत्यात् “ तत्थणं बहवे भवणवइ-वाणमंतर-जोइसियवेमाणिआ देवा तिहिं चउमासिएहिं पज्जोवसवणाएहिं अट्ठाहियाओ महामहिमं करिति" त्ति श्रीजीवाऽभिगमोक्तमष्टाह्निकां व कुर्युः ? ततो भाद्रसितपञ्चम्या अर्वाग् आषाढपूर्णिमाया आरभ्य " ये ये पर्युषणाप्रकारास्ते सर्वेऽपि श्रीपयुषणाकल्पकर्षणपूर्वकवर्षासमाचारीस्थापनरूपा एव, न तु सांवत्सरिकप्रतिक्रमणादि विशिष्टाः । नन्वते पर्युषणाप्रकाराः साम्प्रतं कथं न क्रियन्ते ? उच्यते व्यच्छिन्नत्वात् तथाऽभिवर्द्धितवर्षे विंशत्यादिदिनैः क्रियमाणगृहिज्ञातावस्थानरुपपर्युषणाप्रकारस्याऽपि व्यवच्छिन्नत्वात् । सम्प्रति तदपि कर्तुमयुक्तं प्रतिक्रमणादि कृत्यानि तु दुरापास्तानीत्यत्र बहुवक्तव्यं ग्रन्थगौरवभयान्नाऽत्र लिख्यते। अत एव कालावग्रहो जघन्यतः सप्ततिऽदीनमानः उत्कर्षतो वर्षायोग्यक्षेत्राऽन्ताराभावे आषाढमासकल्पेन
सह पाश्चात्यवृष्टिसद्भावान्मार्गशीर्षेणाऽपि सह पाण्मासिक इति । तत्र द्रव्य१ क्षेत्रर काल३ भावस्थापना का चैवं । द्रव्यस्थापना-तृण-डगल-छार-मल्लगादि परिभोगः सचित्तादीनां परिहारः। तत्र च सचित्तद्रव्यं
शैक्षो न प्रवाज्यते अतिश्रद्धौ नृपाऽमात्यो विना । अचित्तद्रव्यं वस्त्रादि नगृह्यते, मिश्रद्रव्यं सोपाधिक: शैक्षः एवमाहारविकृतिसंस्तारकादिद्रव्येषु परिभोगपरिहारौ योज्यौ ॥१॥ क्षेत्रस्थापना-सक्रोशं योजन कारणे वा ग्लानवैद्योषधादौ चत्वारि पश्च योजनानि ॥२॥ कालस्थापना-चत्वारो मासास्तत्र कल्पन्ते ॥३॥
॥४॥
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भावस्थापना-क्रोधादीनां विवेकः इर्याभाषा समित्यादिषु चापयोगः ॥७॥८॥ वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निगंथाण वा निग्गंथीण वा सवओ समंता सकोसं जोअणं
ओग्गहं ओगिण्हिता णं चिट्ठिउ अहालंदमवि ओग्गहे ॥९॥ __ व्याख्या-वासवासमित्यादितः......अहालंदमवि ओग्गहे त्ति इत्यन्तम्, तत्र वर्षावासं पर्युषितानांस्थितानां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा सर्वतः-चतमूषु दिक्षु विदिक्षु च सक्रोशं योजनमवग्रहमवगृह्य अथालंदमपीति अथेत्ययं निपातः, लन्दमिति कालस्याख्या,ततो लन्दमपि स्तोककालमप्यवग्रहे स्थातुं कल्पते, न बहिर्लन्दकालमपि स्थातुं कल्पते, तत्र यावत्कालेनोदकाः करः शुष्यति तावान् कालो जघन्य लन्द, उत्कृष्टं पश्चाहारावास्तयोरन्तरे मध्यं, यथा-रेफप्रकृतिरप्यरेफप्रकृतिरपीति, एवं लन्दमप्यवग्रहे स्थातुं कल्पते अलन्दमपि यावत् षण्मासानेकत्रावग्रहे स्थातुं कल्पते, ऊर्ध्वाधोमध्यग्रामान् विना चतमषु दिक्ष गजेन्द्रपदादिगिरेमखलाग्रामस्थितानांतु षट्सु दिक्षु उपाश्रयात्सार्द्धकोशद्वयं गमागमेन पञ्चक्रोशावग्रहः । यच्च विदिक्षु इत्युक्तं तद् व्यावहारिकविदिगपेक्षया, यतो विदिक्षु, चैकप्रदेशात्मकत्वाद् गमनाद्यसम्भवः, | अटवीजलादि व्याघाते तु त्रिदिक्को द्विदिक्क एकदिको वाऽवग्रहो भाव्यः ॥९॥
वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाणा वा निग्गंथीण वा सव्वओसमंता सकोसं जोअणं भिक्खायरियाए गंतु पडिनियत्तए ॥ १० ॥
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समाचारी
पदीपिका
व्याख्या-घासावासमित्यादितो......गंतु पडिनिअत्तए इत्यन्तम् सुगमम् ॥ १०॥ जत्य नई निचोयगा निश्चसंदणा नो से कप्पइ सवओ समंता सकोसं जोअणं मिक्खायरियाए गंतु पडिनियत्तए ॥ ११ ॥
व्याख्या-जत्थ नई इत्यादितो.......निअत्तए इत्यन्तम्, तत्र यत्र नदी नित्योदका-नित्यमस्ता| कजला नित्यस्यन्दना सततवाहिनी ॥ ११ ॥
एरावई कुणालाए, जत्थ चकिआ सिआ, एगं पायं जले किच्चा, एगं पायं थले किच्चा, एवं । चकिआ एवन्हें कप्पइ सव्वओ समंता सकोसं जोयणं गंतुं पडिनियत्तए ॥ १२ ॥ - व्याख्या-एरावई इत्यादितो....निअत्तए इत्यन्तम् , तत्र एरावती नाम नदी कुणालापुर्या सदा विक्रोशबाहिनी तादृशी नदी लंघयितुं कल्पते स्तोकजलत्वात्, कल्पटिप्पनके त्वेरावती नदी वर्षासु अकल्प्यत्वेनोक्ताऽस्ति, परं बृहत्कल्पादिभिर्विसंवादित्वाद्विचार्यमेतद् । जत्थ चकिा ति यत्र शक्नुयात् सिआ यदि एक पादं जले जलान्तः क्षिप्त्वा द्वितीयं च स्थले-व्योम्नि कृत्वा द्वाभ्यां पादाभ्यामविलोडयन् गन्तुं शक्मुयात् तदा तत्पुरतः स्थितग्रामादौ भिक्षाचर्या कल्प्या नान्यथा ॥१२॥ एवं च नो चकिआ एवं से नो कप्पइ सघओ समंता सकोसं जोयणं गंतुं पडिनिअत्तए ॥१३॥
॥५॥
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व्याख्या एवं चेत्यादितो... .निअतए इत्यन्तम्, तत्र एवं च यत्र न शक्नुयात् गत्वा प्रत्यागन्तुं तत्र न गच्छेत् । यत्र च जङ्घार्षं यावदुदकं स दकसङ्घः नाभि याबल्लेपा तत्परतो लेपोपरि, तंत्र ऋतुबद्धे काले भिक्षाचर्यायां यत्र त्रयो दकसङ्घहाः वर्षासु च सप्त स्युस्तत्र क्षेत्रं नोपहन्यते चतुरादिभिरष्टादिभिश्च तैरुपहन्यते, ते च गतागतेन द्विगुणाः स्युः, पचैोऽपि हन्ति, पुनर्लेपोपरि तु किं वाच्यं, यदि चतुरो मासान् एकद्वित्र्यादिदिनान् वा उपोषितः स्थातुमशक्तः तदा जघन्यताऽपि पूर्वक्रियमाणनमस्कारसहितादेः पौरुष्यादितपोवृद्धिं कुर्यादिति ॥ १३ ॥
वासावासं पज्जोसवियाणं अत्थेगइयाणं एवं वुत्तपुव्वं भवs, दावे भंते ! एवं से कप्पइ दावित्तए नो से कप्प पडगाहिए ॥ १४ ॥
व्याख्या - वासावासमित्यादितः.... पडिगाहित्तए इत्यन्तम्, तत्र अत्थेगइआणं त्ति अस्स्येतद्यदेकेषां साधूनां पुरत एवमुक्तपूर्व भवति गुरुभिरिति गम्यं, हे भदन्त ! - कल्याणिन् ! साधो ! दावे इतिग्लानाय दद्याः अन्नाद्यानीयेति गम्यम्, एवमुक्ते मे तस्या साधोः ग्लानाय दातुं कल्पते न स्वयं प्रतिगृहीतुं गुरुणाऽननुज्ञातत्वात् ॥ १४ ॥
वासावासं पज्जोसवियाणं अत्थेगइयाणं एवं वुत्तपुव्वं भवइ, पडिगाहेहि भंते ! एवं से कप्पइ
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कल०
दीपिका
॥ ६॥
डिगाहित्तए नो से कप्प दावित्त ॥ १५ ॥
व्याख्या – बासावासमित्यादित.....नो से कप्पर दावित्तए इत्यन्तम्, तत्र गुरुणोक्तं स्वयं प्रतिगृहीयाः ग्लानायान्यो दास्यति नायं वाऽथ भोक्ष्यते ततः प्रतिगृहीतुं कल्पते न ग्लानाय दातुम् ॥ १५ ॥ वासावासं पज्जोसवियाणं अत्थेगइयाणं एवं वुत्तपुव्वं भवइ, दावे भंते पडिग्गाहेहि भंते ! एवं से कप्प दावित्तए वि डिग्गाहित्तए वि ।। १६ ।।
व्याख्या- वासावासमित्यादितः.... पडिग्गाहित्तए इत्यन्तम्, तत्र अथ गुरुणोक्तं स्याद् भदन्त ! दद्याच ग्लानाय प्रतिगृहीयाश्च यदद्य त्वमक्षमोऽसीति ततो द्वयं कल्पते ॥ १६ ॥
वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा हट्टाणं आरुग्गाणं बलिअसरीराणं इमाओ नवरसविगईओ अभिक्खणं अभिक्खणं आहारितए तं जहा खीरं १ दहिं २ णवणीअं३ सप्पि ४ तिल्लं ५ गुडं ६ महुं ७ मज्जं ८ मंसं ९ ॥ १७ ॥
व्याख्या – वासावासमित्यादितो....मंसं इत्यन्तम् तत्र हृष्टानां - तरुणत्वेन समर्थानां युवानोऽपि केचि - त्सरोगाः स्युरित्याह-आरोग्यमस्त्येषामित्यप्रत्यये आरोग्यास्त्येषां एतेऽपि केचित् कृशाङ्गाः स्युरित्याह
समाचारी
॥ ६॥
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बलिकशरीरिणां, रसप्रधाना विकृतयो रसविकृतयस्ता अभीक्ष्णं अभीक्ष्णं-पुनः पुनर्न कल्पन्ते, रसग्रहणं | तासां मोहोद्भवहेतुत्वख्यापनार्थ, अभीक्षणग्रहणं पुष्टालम्बने कदाचित्तासां परिभोगानुज्ञार्थ, नवग्रहणात्कदाचित् पक्कान्नं गृह्यते । विकृतयो विधा सञ्चयिका असञ्चयिकाश्च, तत्रासश्चयिकाः दुग्धदधिपक्कान्नाख्या ग्लानाद्यर्थ श्राद्धादरपूर्व ग्राह्याः, सञ्चयिकास्तु घृततैलगुडाख्यास्तिस्रस्ताश्च प्रतिलाभयन् गृही वाच्यः महान कालोऽस्ति ग्लानाद्यर्थ ग्रहीष्यामः, स वदेत् गृहीत चतुर्मासा यावत्प्रचूराः सन्ति ततो ग्राह्याः बोलाय। यद्यपि मद्यादिवर्जनं यावज्जीवमस्त्येव तथाप्यत्यन्तापवाददशायां ग्रहणेऽपि कृतपर्युषणानां सर्वथा निषेधः ॥ १७ ॥ वासावासं पज्जोसवियाणं अत्थेगइयाणं एवं वृत्तपुव्वं भवइ, अट्ठो भंते ! गिलाणस्स, से अ वइज्जा अट्ठो, से अ पुच्छेअव्वे केवइएणं अठो ? से य वइजा एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स, जं से पमाणं वयइ से पमाणओ घित्तव्ये, से अ विनविजा, से अ विन्नवेमाणे लभेज्जा, से अ पमाणपत्ते होउ अलाहि इअ वत्तव्वं सिआ, से किमाहु भंते ! एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स, सिया णं एवं वयंतं परो वइज्जा पडिगाहेहि अज्जो तुमं पच्छा भुक्खसि वा पाहिसि वा, एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए, नो से कप्पइ गिलाणनीसाए पडिगाहित्तए ॥ १८ ॥
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समाचारी
कल० प्रदीपिका
व्याख्या-वासावासमित्यादितो........नो से कप्पइ गिलाणनीसाए पाडिगाहित्तए इत्यन्तम् । तत्र । अस्त्येकेषां वैयावृत्त्यकरादीनामेवमुक्तपूर्व भवति गुरुं प्रतीति शेषः । अर्थो भदन्त ! ग्लानस्य विकृत्येति काका प्रश्नाऽवगतिः । वैयावृत्त्यकृता पृष्ठे स यं वइज्झा स च गुरुर्वदेत् अर्थः से अ पुच्छेअव्वो से ग्लान: पृष्टव्यः । केवइएणं अट्ठो कियता विकृतिजातेन वाऽर्थः, तेन ग्लानेन स्वप्रमाणे उक्त स वैयावृत्त्यकरो गुरूं ब्रुयात् । एवइयेणं अट्ठो गिलाणस्स इयताऽर्थो ग्लानस्य ततो गुरुराह-जं से इति यत्स ग्लानः प्रमाणं वदति तत्प्रमाणेन मे इति तद्विकृतिजातं ग्राह्य त्वया । से अ विण्णविज्जा स च वैयावृत्त्यः ज्ञापयेत्याचेत् । स च याचमानो लभेत तद्वस्तु तच्च प्रमाणप्राप्तं पर्याप्तं जातं ततश्च होउ अलाहि साधुप्रसिद्धा | इत्थमिति शब्दस्याऽर्थो भवत्विति पदं अलाहित्ति मृतमिति वाच्यं । गृहस्थं प्रति ततो गृही प्राह-अथ
किमाहुर्भदन्ताः किमर्थ मृतमिति ब्रुवते भवन्तः इत्यर्थः। साधुराह-एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स ग्लानस्य | सिआ-कदाचित् एनं साधुमेवं वदन्तं परो दाता वदेत् । हे आर्ये! प्रतिगृहाण त्वं पश्चाद्यधिक तत्त्वं | भोक्ष्यसे-भुञ्जीथाः पक्कान्नादि, पास्यसि पिबेः क्षीरादि दाहिसित्ति पाठे तु दद्या वाऽन्यसाधोः । एवमुक्ते | गृहिणा से तस्य साधोः कल्पते प्रतिगृहीतुं न पुनर्लानिनिया गार्द्धयात्स्वयं गृहीतुं ग्लानार्थ याचितं मण्डल्यां नानेयमित्याकूतम् [ इति तात्पर्यम् ] ॥ १८॥
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वासावासं पज्जोसवियाणं अत्थि णं थेराणं तहप्पगाराइं कुलाई कडाइं पत्तियाई थिज्जाई वेसासियाई संमयाइं बहुमयाइं अणुमयाइं भवंति, तत्थ से नो कप्पइ अदक्खुवइत्तए अत्थि ते
आउसो ! इमं वा इमं वा से किमाहु भंते ! सड्ढी गिही गिन्हइ वा तेणि पि कुज्जा ॥१९॥ N] व्याख्या-वासावासमित्यादितः....तेणिअं पि कुज्ज त्ति पर्यन्तम्, तत्र तथाप्रकाराणि-अजुगुप्सितानि ।
कुलानि-गृहाणि कडाइं श्रावकीकृतानि,पत्तिआइंप्रत्ययितानि प्रीतिकराणि वा, स्थैर्यमस्त्येष्विति स्थैर्याणि प्रीतौ दाने वा, ध्रुवं लप्सेऽहमत्रेति विश्वासो येषु तानि वैश्वासिकानि, सम्मयाई ति सम्मतयतिप्रवेशानि, बहवोऽपि साधवो मता येषु बहूनां गृहिमानुषाणां मतः साधुप्रवेशो येषु तानि बहुमतानि, अनुमतानिदातुमनुज्ञातानि अणुरपि-क्षुल्लकोऽपि मता येषु न तु मुखं दृष्ट्वा तिलकं कर्षयन्तीति वा, येषु कुलेषु तस्य साधोः अदक्खु इति वस्त्वदृष्ट्वा न कल्पते वक्तुं यथाऽस्ति ते आयुष्मन् अमुकममुकं वा वस्त्विति, कुता यतः सड्ढी त्ति श्रद्धावान् गृही साधुयाचितं वस्तु मूल्येन गृहीत, मूल्याऽभावे स्तैन्यमपि कुर्यात् कृपणगृहेत्वदृष्ट्वाऽपि याचनेन तथा दोषः ॥ १९ ॥ वासावासं पज्जोसवियस्स निच्चभत्तिअस्स भिक्खुस्स कप्पति एगं गोयरकालं गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, णण्णत्थायरिअवेआवचेण वा एवं
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कल प्रदीपिका
समाचारी
॥८॥
उवज्झायवेयावच्चेण वा तवस्सिवेआवच्चेण वा गिलाणवेआवच्चेण वा खुड्डएण वा' खुडिआए वा । अर्वजणजायएण वा ॥ २० ॥ व्याख्या-वासावासमित्यादितो....अव्वंजणजाएण वेत्यन्तम् , तत्र नित्यमेकाशनिनः एगं गोअरकालं एकस्मिन् गोचरचर्याकाले सूत्रार्थपौरुष्यनन्तरमित्यर्थः, गाहावइकुलं गृहस्थवेश्म भक्तार्थ णण्णल्थेत्यादि, | ण अलङ्कारे अन्यत्राचार्यवैयावृत्त्यात् तबर्जयित्वेत्यर्थः, यद्वा एकवारभुक्तेन यदि तत्कर्तुं न पारयति तदा विरपिं भुङ्क्ते, तपसा वैयावृत्त्यं गरीयः एवमुपाध्यायादिष्वपि वाच्यम् , अव्वंजणजायएणं तिन व्यञ्जनानि कूर्चकक्षादिरोमाणि जातानि यस्यासावव्यञ्जनजातस्ततः स्वार्थे कस्तस्मात् क्षुल्लकादन्यत्र द्विरपि भुञानस्य न दोषः, यदा वैयावृत्त्यमस्यास्तीत्यभ्रादित्वादप्रत्वये वैयावृत्त्यः आचार्यश्च वैयावृत्त्यश्चाचार्यवैयावृत्यौ ताभ्यामन्यत्र एवमुपाध्यापादिष्वपि आचार्यादीना विभॊजनस्याऽपि आज्ञा ॥ २० ॥ वासावास पज्जोसवियस्स चउत्थभत्तिअस्स भिक्खुस्स अयं एवइए विसेसे जं से पाओनिक्खम्म पुवामेव वियडगं भुचा पिच्चा पडिग्गहगं संलिहिअ संपमज्जिय से य संथरिज्जा कप्पा से
तदिवसं तेणेव भत्तह्रण पज्जोसवित्तए से अ नो संथरिज्जा एवं से कप्पइ दुचंपि गाहवाकुलं | भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥ २१ ॥
॥८॥
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व्याख्या-वासावासमित्यादितः....पविसित्तए वेत्यन्तम्, तत्र अयमेवइए इत्यादि, अयं वक्ष्यमाप्रा एतावान् विशेषः यत्स आचार्यादिभ्योऽन्यः साधुश्चतुर्थभोजी प्रातर्निक्रम्य-उपाश्रयान्निर्गत्य पूर्वमेव बिकटकं-उद्गमादिशुद्धं प्रासुकाहारं भुक्त्वा पीत्वा च तक्रादिकं संसृष्टकल्पं वा पतद्ग्रह-पात्रं संलिख्यनिर्लेपी कृत्य संमृज्य च-प्रक्षाल्य से अत्ति यदि संस्तरेत्-निर्वहेत् तदा तत्र दिने तेनैव भक्तार्थेन-भोजनेन परिवसेत् , अथ न संस्तरेत् स्तोकत्वात् तदा द्वितीयवेलायामपि भिक्षेतेत्यर्थः ॥ २१॥ वासावासं पज्जोसवियस्स छट्ठभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति दो गायरकाला गाहावइ कुलं भत्ताए । वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ॥२२॥ व्याख्या-वासावासमित्यादितः....पविसित्तए त्ति पर्यन्तम्, तत्र षष्ठभक्तिकस्य दौगोचरकालौ ॥२२॥ वासावासं प० अट्ठमभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पति तओगोयरकालागाहा० भ० पानि०प०॥२३॥
व्याख्या-वासावासमित्यादितः ...पविसित्तए ति यावत्, तत्र अष्टमभक्तिकस्य त्रयः गोचरकालाः, न च प्रातहीतमेव धारयेत् , सञ्चयसंसक्तिसाधाणादिदोप्रसङ्गात् ॥ २३ ॥ वासावासं प० विगिट्ठभत्तिअस्स भिक्खुस्स कप्पंति सव्वे वि गोयरकाला गाहा० भ० पा नि० प० ॥ २४ ॥
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कल. दीपिका
___ व्याख्या-वासा पवि० तत्र अष्टमादूर्ध्वं यत्तपस्तविकृष्टभक्तं सर्वे गांचरकालाः चतुरोऽपि प्रहरान समाचारी ॥ २४ ॥ इत्याहारविधिमुक्त्वा पानकविधिमाहवासावासं प० निच्चभत्तिअस्स भिक्खुस्स कप्पति सव्वाइं पाणगाइं पडिगाहित्तए, वासावासं प० चउत्थभत्तिअस्स भिक्खुस्स कप्पति तओ पाणगाइं पडिगाहित्तए, तं जहा-उस्सेइमं संसेइमं चाउलोदगं । वासावासं प० छट्ठभत्तिअस्स भिखुस्स कप्पंति तओ पाणगाइं पडिगाहित्तए, तं जहा-तिलोदगं तुसोदगं जवोदगं । वासावासं प० अट्ठमभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंतिं तओ. पाणगाइं पडिगाहित्तए तं जहा-आयामं सोवीरं सुद्धवियडं । वासावासं प० विकिट्ठभतियस्स भिक्खुस्स कप्पति एगे उसिणवियडे पडिगाहित्तए, से वि अणं असित्थे नो चेव णं ससित्थे,
से वि य णं परिपूए नो चेव णं अपरिपूए, से वि य णं परिमिए नो चेव णं अपरिमिए, से वि | य णं बहुसंपुन्ने नो चेव णं अबहुसंपुन्ने ॥ २५ ॥
व्याख्या-वासावासमित्यादितो....नो चेव णंअबहुसंपुन्ने इत्यन्तम् तत्र सव्वाइं पाणगाई ति पानैषणाक्तानि । वक्ष्यमाणानि वोत्स्वेदिमादीमि आगमोक्तानि त्वेवं-"उस्सेइमं १ संसेइमं २-तंदुल ३ तिल ४ तुस ५ जवोदगा ..
पा
॥९
॥
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६ यामं ७ सोवीर ८ सुद्धविअडं ९, अंबय १० अंबाडग ११ कविहं १२ ॥ १ ॥ मउलिंग १३ दक्ख १४ दाडिम १५ खज्जुर १६ नालिअर १७ कइर १८ बोर १९ जलं । आमलगं २० चंचा पाणगाई २१, पढमंगभणिआई || २ ||" अत्र ग्रन्थे च तत्र उत्स्वेदिमं - पिष्टजलं पिष्टभृतहस्तादिक्षालनजलं वा १, संस्वेदिमं संसेकिमं वा यत् पर्णाद्युत्काल्य शीतोदकेन सिच्यते २, चाउलोद्गं - तंदुलधावनं ३, तिलोदकं - महाराष्ट्रादिषु नित्वचिततिलधावनं जलं ४, तुषोदकं - व्रीह्यादिधावनं ५, यवोदकं - यवधावनं ६, आयामको -ऽवश्रावण ७, सोवीरं काञ्जिकं ८ शुद्धविकटं- उष्णोदकं, वर्णान्तरादिप्राप्तं शुद्धजलं वा ९ केवलोष्णं तु उसिणवियडे इत्यनैवोक्तं एगे उसिण वियडेत्ति एकमुष्णजलं तदप्यसिक्तं यतः प्रायेणाष्टमोर्ध्व तपस्विनः शरीरं देवताऽधितिष्ठति, भत्तपडिआइक्खिअस्स प्रत्याख्यातभक्तस्यानशनिन इत्यर्थः, परिपूत्ति वस्त्रगलितं अपरिपूते तृणकाष्ठादेर्गले लगनात् अपरिमितेऽजीर्ण स्यात्, सेविअ णं बहुसंपुण्णेनोः वि अ बहुसंपुणे इति तत्र ईषदपरिसमाप्तं सम्पूर्ण - बहुसम्पूर्ण अतिस्तोकतरेण तृण्मात्रस्यापि नोपशमः ॥ २५ ॥
वासावासं प० संखादत्तिअस्स भिक्खुस्स कप्पंति पंचदत्तीओ भोअणस्स पडिगाहित्तए पंच पाणगस्स, अहवा चत्तारि भोयणस्स पंच पाणगस्स, अहवा पंच भोयणस्स चत्तारि पाणगस्स, तत्थ णं एगा दत्ती लोणासायण मित्तमवि पडिगहिया सिया कप्पड़ से तद्दिवसं तेणेव भत्तट्टणं
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समाचरी
प्रदीपिका ॥१०॥
पज्जोसवित्तए, नो से कप्पइ दुचंपि गा० भ० पा०नि०प०॥ २६ ॥
व्याख्या-वासावासं० पविसत्तए इत्यन्तम् , तत्र सङ्ख्यया उपलक्षिता दत्तयो ग्रस्येति सङ्ख्यादत्तिकस्तस्य लोणासायण त्ति लवणं किल स्लोकं दीयते तावन्मानं भक्तपानस्य गृहाति साऽपि दत्तिर्गफ्यते
अतो लवणास्वादनमात्रमपि प्रतिगृहीता दात्तः स्यात्, पञ्चेत्युपलक्षणं तेन चतस्रस्तिस्रो हे एका षट् वा || सप्त वा यथाऽभिग्रहं वाच्याः, पानकस्य भोजने भोजनस्य पानके न क्षेप्याः ॥२६॥
वासावासं पज्जोसविआणं नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा जाव उवस्सयाओ सत्तघरंतरं संखडिं संनियट्टचारिस्सइत्तए, एगे पुण एवमाहंसु नो कप्पइ जाव उवस्सयाओ परेणं संखडिं सनिअट्टचारिस्सइत्तए, एगे पुण एवमाहंसु नो कप्पइ जाव उवस्सयाओ परंपरणे संखडिं संनियट्टचारिस्सइत्तए ॥ २७ ॥ व्याख्या-वासावासमित्यादितः....संनिअट्टचारिस्सइत्तए इत्यन्तम् तत्र उपाश्रयात्-शय्यातरगृहादारभ्य यावत्सप्तगृहान्तरं-सप्तगृहमध्ये संखडिं ति संस्क्रियते इति संस्कृतिः-ओदनपाकस्तां गन्तुं न कल्पतेभिक्षार्थ तत्र न गच्छेदित्यर्थः, तेषां गृहाणां सन्निहिततया साधुगुणहतहृदयत्वेनोद्गमादिदोषसम्भवात् एतावता-शय्यातरगृहमन्यानि च षडासन्नगृहाणि वर्जयेदित्युक्तं, कस्य न कल्पते इत्याह-सन्निअट्टचारिस्स
॥ १० ॥
.
A
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त्ति निषिद्धगृहेभ्यः सन्निवृत्तश्चरति विहरतीति सन्निवृत्तचारी-प्रतिषिद्धवजकः साधुस्तस्य, बहवस्त्वेवं व्याचक्षते सप्तगृहान्तरं संखडिं-जनसङ्कुलजेमनवारलक्षणां गन्तुं न कल्पते इति, द्वितीयमते शय्यातरगृहमन्यानि च सप्त गृहाणि वर्जयेदित्युक्तं, तृतीयमते परंपरेणं ति परंपरया व्यवधानेन सप्तगृहान्तरंगन्तुं न कल्पते, परंपरता च शय्यातरगृहं तदनन्तरमेकं गृहं तताऽपि सप्तगृहाणीति ॥ २७॥ वासावास प० नो कप्पइ पाणिपडिग्गहिअस्स भिक्खुस्स कणगफुसिअमित्तमवि वुट्टिकायांस निवयमाणंसि गाहावइकुलं भ० पा०नि०प० ॥ २८॥ व्याख्या-वासावासमित्यादितः....पविसित्तए त्ति पर्यन्तम् , तत्र पाणिपडिग्गहिअस्स त्तिजिनकल्पिकादेः कणगफुसिआ फुसारमात्रमवश्यायो-मिहिका वर्षे वा घृष्टिकायो-ऽप्कायवृष्टिः ॥ २८ ॥ वासावासं प० पाणिपडिग्गहिअस्स भिक्खुस्स नो कप्पइ अगिहंसि पिंडवायं पडिगाहित्ता पज्जोसवित्तए, पज्जोसवेमाणस्स सहसा बुट्टिकाए निवइज्जा देसं भुच्चा देसमादाय से पाणिणा पाणिं परिपिहिता उरांस वाणं निलिज्जिज्जा, कक्खांस वाणं समाहडिज्जा, अहाछ्नाणि वा लेणाणि वा उवागच्छिज्जा, रुक्खमूलाणि वा उगगच्छिज्जा, जहासे पाणिंसि दए वा दगरए वा दंगफुसिया वा णो परियावज्जइ ॥ २९ ॥
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कल० प्रदीपिका
व्याख्या-वासावासमित्यादितो... दगफुसिआ वा णो परिआवजा इत्यन्तम् , तत्र अगिर्हसि सि | समाचारो अनाच्छादिते आकाशे, पिण्डपातं-आहारं प्रतिगृह्य पजोसवित्तए आहारयितुंन कल्पते, पजोसवेमाणस्स कदाचिदाकाशे भुञानस्य यदि वर्षेत् तदा पिण्डस्य देशं भुक्त्वा देश चादाय पाणिमाहारैकदेशसहितं पाणिना-द्वितीयहस्तेन परिधाय-आछाद्य उरसि-हृदये निलीयते-निक्षिप्येत् वाणमिति तंसाहारं पाणिं कक्षायां वा समाहरेत-अन्तर्हितं कुर्यात् , एवं च कृत्वा यथाछन्नानि-गृहिभिः स्वनिमित्तमाच्छादितानि लयनानि-गृहाणि उपागच्छेत् वृक्षमूलानि वा, यथा मे तस्य पाणौ दकादीनिन पर्यापद्यन्तेन विराध्यन्तेन पतन्ति वा, तत्र दकं-बहवो बिन्दवः, दकरजो-बिन्दुमात्रं, दगफुसिआ फुसारं-अवश्याय इत्यर्थः । ॥ २९॥ उक्तमेवार्थ निगमयन्नाहवासावासं प० पाणिपडिग्गाहअस्स भिक्खुस्स जं किंचि कणगफुसिअमित्तं पि निवडइ नो से कप्पइ गाहा० भ० पा०नि०प०॥ ३०॥
व्याख्या-वासावासमित्यादितः पविसित्तए वेत्यन्तम् तत्र कणगफुसिअमित्तं पित्ति कणो-लेशस्तन्मात्रकं जलकणकं तस्य फुसिआ-फुसारमात्रम् ॥ ३० ॥ उक्तः पाणिपात्रविधिः । अथ पतद्ग्रहधारिणा विधिमाह
वा॥ ११ ॥
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वासावासं प० पडिग्गहधारिस्स भिक्खुस्स नो कप्पइ वग्धारिअवुट्टिकायांस गाहावइकुलं भत्ता० पा० नि० प०, कप्पड़ से अप्पवुट्टिकायंसि गाहा० भ० पा० नि० प० ॥ ३१ ॥ ( ग्रंथाग्रं० ११०० )
व्याख्या - वासावासमित्यादित..... पविसित्तए ति यावत्, तत्र पतद्ग्रहधारिणः स्थविरकल्पिकस्य aratअट्टिकासित अच्छिन्नधारा वृष्टिः यस्यां वा वर्षा कल्पो तीव्रं वा श्योतति वर्षाकल्पं वा भित्त्वाऽन्तः कायमार्द्रयति या वृष्टिस्तत्र विहर्त्तु न कल्पते, अपवादे त्वशिवादिकारणैः श्रुतपाठकास्तपखिनः क्षुदसहाश्च और्णिकाजीर्णसौत्रकल्पतालपत्र पलाशछत्राद्यैर्वा प्रावृता विहरन्ति, संतरुत्तरसित्ति आन्तरः rane fताभ्यां प्रावृतस्याल्पवृष्टौ गन्तुं कल्पते ॥ ३१ ॥
वासावासं प० गिग्गंथस्स निग्गंथीए वा गाहा • पिंडवायपडिआए अणुपविट्ठस्स निग्गिज्झिअ निग्गिज्झिय वुट्टिकाए निवइज्जा कप्पइ से अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अहे वियडगहंसि वा अहे रुक्खमूलंसि वा उवागच्छित्तए ॥ ३२ ॥
व्याख्या – बासावासमित्यादितो... उवागच्छित्तए इत्यन्तम्, तत्र निग्गिज्झिअ निग्गिज्झिअति स्थित्वा स्थित्वा वर्षति अहे उवस्सयंसि वा आत्मनः साम्भोगिकानामितरेषां वोपाश्रयस्याधः तद्भावे
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कल० प्रदीपिका । १२ ॥
विकटगृहे-आस्थानमण्डपिकायां यत्र ग्राम्याः तिष्ठन्ति तत्रस्थो वृष्टिस्थितामस्थितां वेत्ति यथाऽशङ्कनीयश्च समाचारो स्यात् , वृक्षमूलं"उवागच्छित्तए उपागन्तुम् ॥ ३२॥ तत्थ से पुद्गगमणेणं पुव्वाउत्ते चाउलोदणे पच्छादत्ते भिलिंगसूवे कप्पइ से चाउलोदणे पडिगाहित्तए, नो कप्पइ से भिलिंगसूवे पडिगाहित्तए ॥ ३३ ॥ तत्थ से पुव्वागमणेणं पुवाउत्ते भिलिंगसूवे पच्छाउत्ते चाउलोदणे कप्पइ से मिलिंगसूवे पडिगाहित्तए नो से कप्पइ चाउलोदणे पडिगाहित्तए ॥३४॥ तत्थ पुवागमणेणं दोवि पुव्वाउत्ताइं कप्पति से दोवि पडिगाहित्तए, तत्थ से पुव्वागमणेणं दोवि पच्छाउत्ताइं एवं नो से कप्पंति दोवि पडिगाहित्तए, जे से । तत्थपुव्वागमणेणं पुव्वाउत्ते से कप्पइ पडिगाहित्तए, जे से तत्थ पुव्वागमणेणं पच्छाउत्ते नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥ ३५॥
व्याख्या-तत्थ से पुव्वेत्यादित.....पडिगाहित्तए इत्यन्तम् सूत्रत्रयेण सम्बन्धः, तत्र तत्थ त्ति विकटगृहवृक्षमूलादौ स्थितस्य तस्य साधोः पुव्वागमणेणं आगमनात् पूर्व यद्वा पूर्व साधुरागतः पश्चादायको राद्धं । की प्रवृत्त इति पूर्वागमनेन हेतुना पूर्वायुक्तस्तन्दुलोदनः कल्पते, पश्चादायुक्तोऽभिलिङ्गसूपो-मसूरदालिर्माषिक
दालिर्वा सस्नेहसूपो वा न कल्पते, तत्र पूर्वायुक्तः-साध्वांगमनात् पूर्वमेव स्वार्थ गृहस्थैः पक्तुमारब्धः ॥ १२ ॥
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साधावागते च यः पक्तुमारब्धः स पश्चादायुक्तः स च न कल्पते, उद्गमादिदोषसम्भवात् , पूर्वायुक्तस्तु कल्पते तदभावात्, एवं शेषसूत्रव्यमपि भाव्यम् , सङ्ग्रहमाह-जेसे तस्थेत्यादि स्पष्टम् ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ वासवासं प०निग्गंथस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडिआए अणुपविट्ठस्स निग्गिज्झिअनिग्गिझिअ वुट्टिकाए निवइज्जा कप्पइ से अहे आरामंसि वा जाव रुक्खमूलंसि वा उवागच्छित्तए, नो से कप्पइ पुव्वगहिएणं भत्तपाणेणं वेलं उवायणावित्तए, कप्पइ से पुव्वामेव वियडगं भुच्चा पिच्चा पडिग्गहगं संलिहिअ संलिहिअ संपमज्जिअ संपमज्जिअ एगाययं भंडगं कट्ट सावससे सूरिए जेणेव उवस्सए तेणेव उवागच्छित्तए, नो से कप्पइ तं स्यणिं तत्थेव उवायणावित्तए ॥ ३६ ॥ __ व्याख्या-वासावासमित्यादितो नो से कप्पइ तं रयणिं तत्थेव उवायणावित्तए इत्यन्तम् तत्र वेलं उवायणावित्तए त्ति वेलामतिक्रामयितुं, तत्र च तिष्ठतः कदाचिद्वर्ष नोपरमति तत्र का मेरेत्याह विअडगं इत्यादि विकटकं-उद्गमादिशुद्धं भुक्त्वा पीत्वा च एकत्राऽऽयतं-सुबद्धं भाण्डकं-पात्रद्युपकरणं कृत्वा वपुषा सह प्रावृत्य वर्षत्यप्यनस्तमिते सूर्ये वसतावागम्यमेव, बहिर्वसतस्त्वेकाकिनः आत्मपरोभयोत्थ बहवोदोषाः वसतिस्थाः साधवश्वाधृतिं कुर्युः ॥ ३६॥
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कल्प
प्रदीपिका
॥ १३ ॥
7
वासवासं पज्जोसवियस्स निग्गंथस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडिआए अणुपविट्ठस्स निग्गिज्जिअ निग्गिज्जिअ वुट्टिका निवइज्जा कप्पड़ से अहे आरामंसि वा जाव उवागच्छित्तए ॥ ३७ ॥ व्याख्या - वासावा समित्यादित..... उवागच्छित्तए इत्यन्तं स्पष्टम् ॥ ३७ ॥ अथ कथं विकगृहवृक्षमूलादौ स्थेयमित्याह
तत्थ नो कप्पइ एगस्स निग्गंथस्स एगाए निग्गंथीए एगओ चिट्ठित्तए १, तत्थ नो कप्पइ एगस्स निग्गंथस्स दुन्हं निग्गंधीणं एगओ चिट्ठित्तए २, तत्थ नो कप्पइ दुन्हं निग्गंथाणं एगए निग्गंथीए एगओ चिट्ठित्तए ३, तत्थ नो कप्पइ दुन्हं निग्गंथाणं दुन्हं निग्गंथीणं एगओ चिट्ठित्तए ४, अत्थि अ इत्थ केइ पंचमे. खुड्डए वा खुड्डिआए वा अन्नेसिं वा संलोए सपदुिवारे एवं न्हं कप्पइ एगओ चिट्ठित्तए ॥ ३८ ॥
व्याख्या - तत्थ नो कप्पइ एगस्सेत्यादित... एगओ चिट्ठित्तए इत्यन्तम् स्पष्टम् परं एकाकित्वं तस्य सङ्घाटिके उपाषितेऽसुखिते वा कारणविशेषादा अत्थि अ इत्थ केइ त्ति अस्ति चात्र कश्चित्पञ्चमः क्षुल्लकः साधूनां क्षुल्लिका साध्वीनां, उत्सर्गतः साधुरात्मना द्वितीयः, संयत्यस्तु त्र्यादयः अन्नेसिं वा
समाचारी
॥ १३ ॥
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संलोए त्ति क्षुल्लाद्यभावेऽन्येषांलाहकारादानां वर्षत्यप्यमुक्तस्वकर्मणां सालाके दृग्पथे तत्रापि सप्रतिद्वारे । सर्वगृहाणां वा दारे एवं ण्हं ति एवं कल्पते स्थातुं एहमित्यलङ्कारे ॥ ३८॥ । । वासावासं प० निग्गंथस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडिआए अणुप्पविट्ठस्स निग्गिज्झअ निग्गि
झिअ वुट्टिकाए निवइज्जा कप्पइ से अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वाजाव उवागच्छित्तए, तत्थ नो कप्पइ एगस्स निग्गंथस्स य एगाए अगारीए एगओ चिट्ठित्तए एवं चउभंगो, अत्थि अ इत्थ केइ पंचमे थेरे वा थेरिया वा अन्नेसिं वा संलोए संपडिदुवारे एवं कप्पइ एगओ चिद्वित्तए एवं चेव निग्गंथीए अगारस्स य भाणियव् ॥ ३९ ॥ - व्याख्या-वासावासमित्यादितो....भाणियव्वं इत्यन्तम् , तत्र निर्ग्रन्थस्यागारीसूत्रे निर्ग्रन्थ्याश्चा| गारसूत्रे प्रागुक्तरीतिरेव, अगारमस्यास्तीत्यभ्रादित्वादप्रत्ययेऽगारो-गृही ॥ ३९ ॥ वासावासं प० नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अपरिन्नएणं अपरिन्नयस्स अट्ठाए असणं वा १ पाणं वा २ खाइमं वा ३ साइमं वा ४ जाव पडिग्गहित्तए ॥ ४०॥ से किमाहु भंते | इच्छापरो अपरिनए भुंजिज्जा इच्छापरो न भुंजिज्जा ॥ १ ॥
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समाचारी
कल्प का प्रदीपिका ॥ १४ ॥
व्याख्या-वासावासमित्यादित....इच्छापरो नः जिलेत्यन्तम् सूत्रवयम् , तत्र अपरिण्णएणंति मम | | योग्यमशनाद्यानयेरित्यपरिज्ञप्तेन-अभणितेन अहं तव योग्यमशनाद्यानेष्ये इत्यपरिज्ञसस्यार्थाय-कृतेऽ
शनादि परिगृहीतुं न कल्पते, अत्र प्रश्न:-से किमाहु भंते त्ति अत्र किं कारणम् भदन्त आहुः ? गुरुराहइच्छेत्यादि इच्छा चेदस्ति तदा परो-भुञ्जीत, इच्छा-अभोजनरुचिश्चेत् तदा न भुञ्जीत, यदि च परोऽ निच्छन् दाक्षिण्याद् भुङ्क्ते ततो ग्लानिस्तस्याऽजीर्णादिना, न भुङ्क्ते चेत् तदा वर्षासु स्थण्डिलदौर्ल यात् परिष्ठापनादोषः तस्मात् पृष्ट्वाऽऽनेयमिति ॥ ४० ॥ ४१ ॥ वासावासं० प० नो कप्पइ निग्गंथाण वा २ उदउल्लेण वा ससिणिद्वेण वा कारणं असणं वा १ पा. २ खा० ३ सा० ४ आहारित्तए ॥ ४२ ॥ से किमाहु भंते ! सत्त सिणेहाययणा पन्नत्ता तं जहा पाणी १, पाणिलेहा २, नहा ३, नहसिहा ४, भमुहा ५, अहरुट्ठा ६, उत्तरुट्ठा ७। अह पुण एवं जाणिज्जा विगओदए मे काए छिनसिणेहे एवं से कप्पइ असणं वा ४ आहारित्तए ॥ ४३ ॥ वासावासं प० इह खलु निग्गंथाण वा २ इमाइं अट्ठ सुटुमाइं जाई छउमत्थेणं निग्गंथेण वा २ अभिक्खणं २ जाणियवाई पासियव्वाइं पडिलेहियवाई भवंति, तं जहा-पाणसुहुमं १, पणगसुहुमं २, बीअसुहुमं ३, हरियसुहुमं ४, पुप्फसुहुमं ५, अंडसुहुमं ६, .
Al॥१४॥
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लेणसुहमं ७, सिणेहसुहमं ८॥ ४४ ॥ से किं तं पाणसुहमे ? पाणसुहमे पंचविहे पन्नत्ते तं जहा किन्हे १, नीले २, लोहिए ३, हालिद्दे ४, सुकिले ५, अस्थि कुंथू अणुद्धरी नाम समुप्पन्ना जा ठिआ अचलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाण वा २ नो चक्खुफासं हवमागच्छइ, जा द्विआ चलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चक्खुफासं हवमागच्छइ, जाव छउमत्थेणं निग्गंथेण वा २ अभिक्खणं २ जाणिअव्वा पासिअव्वा पडिलेहियव्वा भवइ, से तं पाणसुहुमे १ ।से किं तं पणगसुहुमे ? पणगसुहुमे पंचविहे पन्नत्ते तंजहा-किन्हे जाव सुकिले। अत्थि पणगसुहुमे तदवसमाणवन्नए नाम पन्नत्ते, जे छउमत्थेणं जाव पडिलेहियव्वे भवइ, से तं पणगसुहमे २।से किं तं बीअसुहमे ? बीअसुहुमे पंचविहे पन्नत्ते तं जहा-किन्हे जाव . सुकिल्ले, अस्थि बीअसुहुमे कणियासमाणवन्नए नाम पन्नत्ते, जे छउमत्थेणं जाव पडिलेहिअव्वे भवइ, से तं बीअसुहुमे ३ । से किं तं हरिअसुहुने ? हरिअसुहुमे पंचविहे पन्नत्ते तं० किन्हे जाव सुकिले, अस्थि हरिअसुहुमे पुढवीसमाणवन्नए नामं पन्नत्ते, जे छउमत्थेणं जाव पडिलेहिअवे भवइ, से तं हरिअसुहुमे ४ । से किं तं पुष्फसुहुमे ? पुष्फसुहुमे पंचविहे
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। कल्प प्रदीपिका
समाचारी पन्नत्ते तं० किन्हे जाव सुकिल्ले, अत्थि पुष्फसुहुमे रुक्खसमाणवन्नए नाम पन्नत्ते, जे । छउमत्थेणं जाव पडिलेहिअन्वे भवइ, से तं पुष्फसुहुमे ५ । से किं तं अंडसुहुने ? अंडसुहुमे पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा-उद्दसंडे १, उक्कलिअंडे २, पिपीलिअंडे ३, हलिअंडे ४, हलोहलिअंडे ६, जे छउमत्थेण वा जाव पडिलेहिअवे भवइ, से तं अंडसुहुमे ६ । से किं तं लेणसुहुने ? लेणसुहुमे पंचविहे पन्नत्ते तं० उत्तिंगलेणे १, भिंगुलणे २, उज्जुए ३, तालमूलए ४, संबुकावट्टे ६, नामं पंचमे जे छउमत्थेण जाव पडिलेहिअन्वे भवइ, से तं लेणसुहुमे ७ । से किं तं सिणेहसुहुने ? सिणेहसुहुमे पंचविहे पन्नत्ते तं० उस्सा १, हिमए २, महिआ ३, करए ४, हरतणुए ६, जे छउमत्थेणं जाव पडिलेहिअव्वे भवइ, से तं सिणेहसुहुमे ८॥४५॥
व्याख्या-वासावासमित्यादितः... से तं सिणेहसुहुमे इत्यन्तम् सूत्रचतुष्टयं, तत्र उदउल्लेणेत्यादि उदकाट्टैण-गलद्विन्दुयुक्तेन सलिग्धेन-ईषद्विन्दुयुक्तेन । से किमाहु भंते ! स भगवान् तीर्थकरः किमत्र कारणं गुरुराह-सत्तेत्यादि सस स्नेहायतनानि-जलस्थानानि येषु जलं चिरेण शुष्यति, पाणी-हस्तौ पाणिरेखा-आयूरेखादयः, नखा-अखण्डाः, नखशिखाः-तद्ग्रभागाः, भूः, अहरुट्ठा दाढिका, उत्तरुट्ठा । ॥ १५ ॥
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श्मश्रूणि, विगतोदको-विन्दुरहितः छिन्नस्नेहः-सर्वथा उद्धानः ॥ अट्ठ सुहुमाइं इत्यादि, सूक्ष्मत्वादल्पाधारत्वाच्च सूक्ष्माणि अभीक्षणं-पनः पनयंत्र स्थाननिषीदनादाननिषादिकं करोति तानि ज्ञातव्यानिसूत्रोपदेशेन द्रष्टव्यानि च-चक्षुषा ज्ञात्वा दृष्ट्वा च प्रतिलेखितव्यानि-परिहर्त्तव्यतया विचारणीयानि तमिात तद्यथा ॥ प्राणसूक्ष्मं पञ्चविधं प्रज्ञप्तं तीर्थकरगणधरैः, एकैकवणे सहस्रशो भेदा बहुप्रकाराश्च संयोगाः ते सर्वेऽपि पञ्चसु अवतरन्ति । प्राणा तु द्वीन्द्रियादयः, यथा-ऽनुद्धरी कुन्थुः चलन्नेव दृश्यते न स्थितः सूक्ष्मत्वात् ॥ १॥ पनक-उल्लिः स च प्रायः प्रावृषि भूकाष्ठभाण्डादिषु जायते, यत्रोत्पद्यते तद्र | व्यसमानवर्णश्च, नामं पन्नत्ते नामेति प्रसिद्धौ ।॥२॥ बीजसूक्ष्मं कणिका-शाल्यादिवीजानांमुखमूले नखिका| नहीति लोकरूढिः ॥ ३॥ हरितसूक्ष्मं नवोद्भिन्नं पृथिवीसमवर्ण हरितं तच्चाल्पसंहननत्वात् स्तोकेनापि N/ विनश्यति ॥ ४ ॥ पुष्पसूक्ष्मं वटोदुम्बरादीनां तत्समवर्णत्वादलक्ष्यं तचात्स्वा ( च्छ्वा ) सेनापि विराध्यते | ॥ ५॥ अण्डसूक्ष्मं उद्देशा-मधुमक्षिकामत्कुणाद्याः उत्कलिका-लूतापुटं, पिपीलिका-कीटिका, हलिकागृहगोधा ब्राह्मणी वा, हल्लोहलिआ ककिण्डी-तासामण्डानि एतानि हि सूक्ष्माणि स्युः ॥६॥ लयनं आश्रयः | सत्वानां यत्र कीटिकाद्यनेकसूक्ष्मसत्त्वाः स्युरिति लयनसूक्ष्म, यथा उतिङ्गा-भूअका गर्दभाकृतयो जीवा| स्तेषां लयनं भूमावुत्कीर्ण गृहं उत्तिालयनं, भृङ्गः-शुष्कभूराजी जलशोषानन्तरं केदारादिषु स्फुटिता । दालिरित्यर्थः, उज्जुए त्ति बिलं तालमूलक-तालमूलाकार अधः पृथु उपरि च सूक्ष्म विवरं, शम्बूकावर्त
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कल्प प्रदीपिका
च-भ्रमरगृहं ॥७॥ स्नेहसूक्ष्म उस्स सि अवश्यायो यो व्योम्नः पतति, हिम-स्त्यानोदविन्दुः, पिहिका-घूमरी, | समाचारी | करका-घनोपला, हरतनुः-भूमिनिःसृततृणाग्रबिन्दुः ॥ ८ ॥ अष्टास्वपि से तं ति तदेतत्॥४२॥४३॥४४॥४५॥
वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा गाहावइकुलं भ० पा०नि० पविसित्तए वा, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा थेरं पवत्तिं गणिं गणहरं गणावच्छेयं वा जं वा
पुरओ काउं विहरइ, कप्पइ से आपुच्छिउं आयरियं वा जाव जं वा पुरओ काउं विहरइ, * इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए संमाणे गा० भत्त० पा०नि०प० तेय से वियरिज्जा,
एवं से कप्पइ गाहा० भ० पा०नि० प०, ते य से नो वियरिज्जा एवं से नो कप्पइ भ० पा० नि० प० से किमाहु भंते ! आयरिया पञ्चवायं जाणंति ॥ ४६॥
व्याख्या-वासवास प० इत्यादित....आयरिआ पच्चवायं जाणंतीत्यन्तम् तत्र एतत्सूत्रादारभ्य वक्ष्यमाणानि षट् सूत्राणि यद्यपि ऋतुबद्धवर्षातुल्यकालद्वयसामाचारीविषयाणि तथापि वर्षासु विशेषेणोच्यन्ते आयरियं वेत्यादि आचार्य:-सूत्रार्थदाता दिगाचार्यो वा, उपाध्यायः-सूत्राध्यापकः, | स्थविरो-ज्ञानादिषु सीदतां स्थिरीकर्ता प्रवर्तको-ज्ञानादिषु प्रवर्त्तयिता, गणी-यस्य पार्श्वे आचार्याः
॥१६॥
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सूत्राद्यभ्यस्यन्ति गाणमो वाऽन्ये आचार्याः सूत्राद्यर्थमुपसम्पन्नाः, गणधरः - तीर्थ कुच्छिष्यादिः, गणावच्छेदको यः साधून गृहीत्वा बहिःक्षेत्रे आस्ते, गच्छार्थ क्षेत्रोपधिमार्गणादौ प्रधावनादिकर्त्ता सूत्रार्थोभयक्ति यं चान्यं सामान्यसाधुमपि वयःपर्यायाभ्यां हीनमपि गीतार्थतया गुरुत्वेन पुरस्कृत्य विहरति, ते असे विअरिजा ते चाचार्यादयः से तस्य वितरेयुः -अनुर्ज्ञा दद्युः, से किमाहु भंते त्ति गुरुः आह-आयरिया पचवायं जाणंति त्ति 'बहुवचनान्ता गणस्य सूचका, भवन्ती' ति न्यायात्, आचार्या इति आचार्यादयः प्रत्यपायं अपायं तत्परिहारं च जानन्ति, प्रातकूलोऽपायस्य प्रत्यपाय इति विग्रहेण अपायपरिहारेऽपि प्रत्यपायशदो ज्ञेयः, अनापृच्छय गतानां दृष्टिर्वा पतेत् प्रत्यनीकाः उपद्रवेयुः कलहो वा केनचित् आचार्यबालग्लानादि प्रायोग्यं ग्राह्यं वाऽभविष्यत् ते चातिशयवन्तस्तत्सर्वं ज्ञात्वा तस्मै अदापयिष्यन् ॥ ४६ ॥
एवं बिहारभूमिं वा विआरभूमिं वा अन्नं वा जं किंचि पओयणं एवं गामाणुगामं दूइज्जत् ॥ ४७ ॥
व्याख्या - एवं विहारेत्यादितो.... दूइजित्तए इत्यन्तम् तत्र विहारभूमिः - चैत्यादिगमनं, विचारभूमिः शरीरचिन्ताद्यर्थगमनं, अन्यद्वा प्रयोजनं लेपादिकमुत्स्वा (च्छ्वा) सादिवर्ज सर्व्वे पृष्ट्वैव कर्त्तव्यं गुरुपारतन्त्र्यस्यैव ज्ञानादिरूपत्वात् गामाणुगामं दूइज्जित्तए त्ति हिण्डितुं भिक्षाद्यर्थ कारणे वा ग्लानादौ अन्यथा हि वर्षा ग्रामानुग्रामं हिण्डनमयुक्तमेव ॥ ४७ ॥
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समाचारो
कल्प प्रदीपिका १७॥
वासावासं प० भिक्खू इच्छिज्जा अन्नयरिं विगई आहारित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरिअंवा जाव गणावच्छेअयं वा जं वा पुरओ काउं विहरइ, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव आहारित्तए, इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भगुण्णाए समाणे अण्णयरिं विगई आहारितए तं एवइअं वा एवइक्खुत्तो वा ते य से वियरिज्जा, एवं से कप्पइ अन्नयरिं विगई आहारित्तए, ते य से नो वियरिज्जा एवं से नो कप्पइ अन्नयरिं विगई आहारित्तए, से किमाहु भंते ! आयरिया पञ्चवायं जाणंति ॥ ४८॥
व्याख्या-वासावासमित्यादितो....जाणंतीत्यन्तम्, तत्र एवइअं वा इयती वा एवइक्खुत्तो एतावतो वारान् वा अत्र प्रत्यपाया अस्य विकृतेस्रहणेऽस्यायमपायो मोहोद्भवादिः ग्लानत्वादस्य गुणा वा ॥ ४८ ॥ वासावासं प० भिक्खू इच्छिज्जा अन्नयरिं तेगिच्छिअं आउट्टित्तए तं चैवं सत्वं भाणियवं ॥४९॥ वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा अन्नयरं उरालं कल्लाणं सिवं धनं मंगलं सस्सिरीयं महाणुभावं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहिरित्तए, तं चेव सवं भाणियवं ॥ ५० ॥ वासावासं प० भिक्खु इच्छिज्जा अपच्छिममारणंतिअसलेहणाजूसणाझसिए भत्तपाणपडिआइ.
॥१७॥
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mara
क्खिइ पाओवगइए कालं अणवकंखमाणे विहिरित्तए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, असणं वा ४ आहारित्तए, उच्चारं वा पासवणं वा परिठ्ठावित्तए; सज्झायं वा करित्तए; धम्मजागरियं वा जागरित्तए; नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता; तं चेव ॥ ५१ ॥ व्याख्या-वासवासामित्यादितः....तं चेवेत्यन्तम् सूत्रदयं तत्र तिगिच्छिअंति चिकित्सा वातादिरोगाणां आउहित्तए त्ति कारयितुं आउद्विधातुरागमिकः करणार्थे ॥ ४९ ॥ तवोकम्मं तितपःकर्म अर्द्धमासिकादि अत्र प्रत्यपायान-समर्थोऽसमर्थोवाऽयं वैयावृत्त्यकरो वाऽयं अन्योऽस्ति वा नवापारणयोग्यं क्षेत्रमस्ति नास्ति बेति ॥५०॥ अपश्चिम-चरमं मरणं न पुनः प्रतिक्षणमायुर्दलिकानुभवलक्षणावीचिमरणं तदेवान्तोऽपश्चिममरणान्तस्तत्रभवा आर्षत्वादुत्तरपदवृद्धावपश्चिममारणान्तिका सा चासौ संलेखनाच संलिख्यते-कृशीक्रियते वपुःकषायाद्यनयेति सा च द्रव्यभावभेदभिन्ना'चत्तारि विचित्ताई' इत्यादिकाऽपश्चिममारणान्तिकसंलेखना तस्या जुसणे त्ति जोषणं-सेवा तया झूसिए त्ति क्षपितशरीरः अत एव प्रत्याख्यातभक्तपानः पादपोपगतःकृतपादपोपगमनेऽतएव कालं-जीवितकालं मरणकालं वाऽनवकाङ्क्षन्-अनभिलषन् विहाँ गच्छेत् , अत्र प्रत्यपाया अयं निस्तारको न वा निर्यापका वा सन्ति न वेत्यादयः, धर्मजागरिकां-आज्ञा १ऽपाय २ विपाक ३ संस्थानविचय ४ भेदधर्मध्यानविधानादिना जागरणं धर्मजागरिका तां जागरयितुंअनुष्ठातुमिति ॥५१॥
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कल्प प्रदीपिका
वासावास प० भिक्खू इच्छिज्जा वत्थं वा पडिग्गरं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अन्नयरं वा समाचारी
खहिं आयावित्तए वा पयावित्तए वा नो से कप्पइ एगं वा अणेगं वा अप्पडिनवित्ता गाहावइकुलं भत्ता पानि०प० असणं वा ४ आहारित्तए; बहिआ विहारभूमि वा विआरभूमि वा सज्झायं वा करित्तए काउस्सग्गं वा ठाणं वा गइत्तए; अस्थि अ इत्थ केइ अभिसमण्णागए अहासंनिहिए एगे वा अणेगे वा, कप्पइ से एवं वइत्तए इमं ता अज्जो ! तुम मुहुत्तगं जाणाहि जाव ताव अहं गाहावइकुलं जाव काउस्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए, से अ से पडिसुणिज्जा एवं से कप्पइ गाहावइकुलं तं चेव सवं भाणियवं, से य से नो पडिमुणिज्जा एवं से नो कप्पइ गाहावइकुलं जाव काउस्सगं वा ठाणं वा ठाइत्तए ।। ५२ ॥
व्याख्या-वासावासमिल्यादितः....ठाणं वा ठाइत्तए इत्यन्तम् तत्र पादप्रोञ्छनं-रजोहरणं,आतापयितुंएकवारमातपे दातुं, प्रतापयितुं-पुनः पुनः अनातापने कुत्सापनकादयो दोषाः, वस्त्राद्युपधावातपे दत्ते बहिर्गन्तुं यावत्कायोत्सर्गेऽपि स्थातुं न कल्पते वृष्टिचौरभयात् , सन्निहितयतिस्तिम्यन्तमुपधि चिन्तयति || तदा कस्पते चिम्लकामावे तु जलविराधनादि दाषाः । स्थानं-ऊर्ध्वस्थानं तच्च कायोत्सर्गरूपं इस ता इत्यादि ।
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इदं वस्त्रादि तावत् मूहूर्तकं मुहूर्त्तमात्रं जानीहि - विभावय जावताव ति यावदर्थे स च सन्निहितसाधुः से तस्य कथयतः प्रतिशृणुयाद्-अङ्गीकुर्यात् वचनमिति शेषः । शेषं स्पष्टम् ॥ ५२ ॥
वासावासं प० नो कप्पइ निग्गंथाण वा निम्गंथीण वा अणभिग्गहिअसिज्जासणिएणं हुत्तए, आयाणमेयं अणभिग्गहि असिज्जासणियस्स अणुच्चा कुइअस्स अण्डाबांधिअस्स अमिआसणिअस्स अणाताविअस्स असमियस्स अभिक्खणं अभिक्खणं अपडिलेहणास लस्स अपमज्जणासीलस्स तहा तहा णं संजमे दुराराहए भवइ ॥ ५३ ॥
व्याख्या--वासावासमित्यादित..... संजमे दुराराहए भवईत्यन्तम्, तत्र अनभिगृहीतशय्यासन - केन भवितुं न कल्पते, वर्षासु साधुना मणिकुट्टिमेऽपि पीठफलकाभिग्रहवत्तैव भाव्यं, अन्यथा शीतलभूमौ शयने चासने कुन्ध्वादिप्राणविराधनाऽजीर्णादिदोषाः स्युः, आयाणमेअं ति कर्म्मणां दोषाणां वा आदानं— उपादानकारणं एतदनभिगृहीतशय्यासनिकत्वं यदाऽभिग्रहो निश्चयः स्वपरिगृहीतमेव शय्यासनं मया भोक्तव्यं नान्यपरिगृहीतम्, आदानत्वमेव दृढयति- अणभिग्गहिअ इत्यादि स्पष्टम् । अणुचा अस्स अनुचा कुचिकस्य 'कुच परिस्पन्दे' अकुचा -ऽपरिस्पन्दा निश्चला यस्याः कम्बा न
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कल्प। चलन्ति, अदृढबन्धने हि सङ्घर्षान्मत्कुणादिवधः स्यात् , उच्चा हस्तादि यावत् येन पिपीलिकादिवधो । प्रदीपिका Rथ न स्यात् सर्पादिर्वा न दशेत् , उच्चा चासौ अकुचा च उच्चाकुचा कम्बादिमयी शय्या, विद्यते
यस्या सावुच्चाकुचिकः, न उच्चाकुचिकोऽनुच्चाकुचिकः-नीचसपरिस्पन्दशय्याकस्तस्य अणट्ठावंधिस्स अनर्थवन्धिनः-पक्षमध्येऽनर्थक-एकवारोपरि यादिवारान् कंबासु बन्धान् ददाति चतुरुपरि बहूनि वाडकानि बध्नाति, तथा च स्वाध्यायव्याधातादि दोषाः, यदि चैकाङ्गिक चम्पकादिपट्ट लभ्यते तदा तदेव ग्राह्यम्, बन्धनादिप्रक्रियापरिहारात् अमिआसणिअस्स त्ति अमित्तासनिकस्य-अबद्धासनस्य स्थानात् | स्थानान्तरं हि मुहुर्मुहुः सङ्क्रामन् सत्त्ववधे प्रवर्तितः अनेकानि आसनानि सेवमानस्य अणाताविअस्स त्ति अनातापिनः-संस्तारकपात्रादीनामातपेऽदातुः तत्र च पनकसंसक्त्यादयो दोषाः, उपभोगे च जीववधः, असमि असमितस्य ईर्यादिषु तत्राद्यतुर्यपञ्चमसमितिष्वसमितो जोवान् हन्ति, भाषाऽसमितः सम्पातिमान् , एषणाऽसमितो हस्तमात्रादावप्कायः परिणतो नवेति, नवेत्ति अभीक्ष्णं अभीक्ष्णं-पुनः पुनरप्रतिलेखनाशीलस्य-चक्षुषाऽदृष्ट्वा अप्रमार्जनाशीलस्य-रजोहरणादिनाऽप्रमृज्य स्थानादिकर्तुः आभ्यां च दुःप्रतिलेखिते दुःप्रमार्जिते वाभ्यां गृहीते नमः कुत्सार्थत्वात् तथा तथा-तेन तेन अनभिगृहीतशय्याशनिकत्वादिप्रकारेण संयमो दुराराध्यो-दुष्पतिपाल्यो भवति, ॥ ५३ ॥ आदानमुक्त्वाऽनादानमाहअणायाणमेअं अभिग्गहिअसिज्जासणिअस्स उच्चाकुइअस्स अट्ठाबंधिस्स मियासणिअस्स आ
॥ १९॥
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याविअस्स समियस्स अभिक्खणं अभिक्खणं पडिलेहणासीलस्स पमज्जणासीलस्स तहा तहा णं सुआराहए संजमे भवइ ॥ ५४ ॥
व्याख्या-अणायाणमित्यादितः...सुआराहए संजमेभवईत्यन्तम् ,तत्र कर्मणामसंयमस्य वाऽनादान- मेतत् शय्यासनाभिग्रहवता भाव्यम् , इत्यादि ॥ ५४॥
वासावासं प० कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा तओ उच्चारपासवणभूमीओ पडिलेहित्तए, न तहा हेमंतगिम्हासु जहा णं वासासु, से किमाहु भंते ! वासासु णं ओसन्नं पाणा य तणा य बीआ य पणगा य हरिआणि य भवंति ॥ ५५ ॥ वासावासं प० कप्पइ निग्गंथाण वा
२ तओ मत्तगाई गिन्हित्तए १ तं जहा-उच्चारमत्तए १, पासवणमत्तए २; खेलमत्तए ३ ॥५६॥ ___ व्याख्या-वासावासमित्यादितः ...खेलमत्तए इत्यन्तं सूत्रदयी, तत्र तओ उच्चारपासवणभूमिओ त्ति अनधिसहिष्णोस्तिस्रोऽन्तः अधिसहिष्णोश्च बहिस्तिस्रः दूरव्याघाते मध्या भूमिस्तव्याघाते चासन्नेति दूरमध्यासन्नभेदात् तिस्रः ओसन्नंति प्रायेण, प्राणाश्च शङ्खनकेन्द्रगोपकृम्यादयः, तृणानि-घासाः, बीजानितत्तबनस्पतीनां नवोद्भिन्नकिशलयानि, पनका-उल्लयः, हरितानि-बीजेभ्यो जातानि, यदा पाणायतणा य
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कल्प
प्रदीपिका
॥२०
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| ति प्राणानां जीवानामायतनानि स्थानभूतानि बीजादीनि इति योज्यम् ॥५५॥ तओ मलगाई ति त्रीणि ||
समाचारी मात्रकाणि तदभावे वेलातिक्रमणे वेगधारणे आत्मविराधना वर्षति च बहिर्गमने संयमविराधना ॥५६॥ वासावासं प० नो कप्पइ निरगंथाण वा २ परं पज्जोसवणाओ गोलोमप्पमाणमित्ते वि केसे तं स्याणं उवायणावित्तए, अजेणं खुरमुंडेण वा लुक्कसिरएण वा होयत्वं सिया; पक्खिया आरोवणा; मासिए खुरमुंडे; अद्धमासिए कत्तरिमुंडे; छम्मासिएलोए;संवच्छरिए वा थेरकप्पे॥५७॥
व्याख्या-वासावासमित्यादितः....संवच्छरिए थेरकप्पे इत्यन्तम्, तत्र पर्युषणातः परं आषाढचतुर्मासकादनन्तरमासतां दीर्घा 'धुवलोओ उ जिणाणं निच्च थेराण वासासु'त्ति वचनात् गोलोमप्रमाणा अपि केशा न स्थाप्याः यावत्तां रजनीं भाद्रसितपश्चमी रजनी, इदानीं तु भाद्रसितचतुर्थीरजनी उवायणावित्तए त्ति अतिक्रामयितुं न कल्पते, अयं भावः- समर्थो वर्षासु नित्यं लोचं कारयेत् असमर्थोऽपि तां रात्रि नोल्लङ्घयेत् , लोचं विना वार्षिकप्रतिकान्तेरकल्प्यत्वात्, केशेषु हि अप्कायविराधना तत्संसर्गाच्च
यूकाः सम्मूर्च्छन्ति, ताश्च कण्डूयमानो हन्ति, क्षुरकर्तरीभ्यां मुण्डने आज्ञाभङ्ग संयमात्मविराधना | यूकाच्छेद-नापितपश्चात्कर्म-शासनापभ्राजनादिदोषाः तस्मात् लोच एव श्रेयान् , यदि वाऽसहि| ष्णोर्लोचे कृते ज्वरादिः स्याद्वालो वा रुथात् धर्म वा त्यजेत् ततो न तस्य लोचः कार्य इत्याह-14॥ २० ॥
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अज्जेणमित्यादि आर्येण-साधुना क्षुरमुण्डेन वा लुचितशिरोजेन-लुश्चितकेशेन वा भवितव्यं लकति लुश्चिताः शिरोजाः-केशा यस्य अपवादतो बालग्लानादिना क्षुमुण्डनोत्सर्गतो लुचितशिरोजेनेत्यर्थः, यस्तु क्षुरेणाऽपि कारयितुमक्षमः व्रणादिमच्छिरो वा तस्य केशाः कर्तर्या कर्त्तनीयाः। पक्खिा आरोवण त्ति पाक्षिकं बन्धदानं संस्तारकदवरकाणां पक्षे पक्षे बन्धा मोक्तव्याः प्रतिलेखितव्याश्चेत्यर्थः यद्वारोपणाप्रायश्चित्तं पक्षे पक्षे ग्राह्य सर्वकालं वर्षासु विशेषतः। मासिए खुरमुंडे त्ति मासे मासे असहिष्णुना मुण्डनं
करणीयम् , अद्धमासिए कत्तरिमुंडे ति यदि कर्तर्या कारयति तदा पक्षे पक्षे गुप्तं कारणीयं, क्षुरेण ककार्या वालोचे प्रायश्चित्तं क्रमात लघुगुरुमासलक्षणं नीशीथोक्तमा पाण्मासिको लोचःसंवच्छरिए वारकप्पे
त्ति स्थविराणां-वृद्धानां जराजर्जरत्वेनासामर्थ्यात् दृष्टिरक्षार्थ वा अर्थात्तरुणानां चातुर्मासिकः, अत्र संवत्सरो-वर्षा रात्रः तत्र भवः सांवत्सरिको वा लोचः स्थविरकल्पे स्थविरकल्पस्थितानां ध्रुवो लोच इति, वा शब्दो विकल्पार्थः । अपवादतो नित्यलोचाऽकरणेऽपि पर्युषणापर्वण्यवश्यं लोचः कार्य इति सूचयति, यद्वा एष सर्व आपृच्छय भिक्षाचर्यागमनादिर्मात्रकावसानः सांवत्सरिको-वर्षावाससम्बन्धी स्थविरकल्पः स्थविरमर्यादा वाशब्दात्किञ्चिजिनकल्पिकानामपि सामान्यमिति सूचयति ॥ ५७ ॥ वासावासं पज्जोसवियाणंनो निग्गंधाण वारपरंपज्जोसवणाओअहिगरणं वइत्तए,जेणंनिग्गंथो वा
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प्रदीपिका
समाचारी
॥ २१ ॥
| २ परं पज्जासवणाओ अहिगरणं वयइ से णं अकप्पेणं अज्जो वयसीति वत्तव्वं सिया; जे णं निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परं पज्जासवणाओ अहिगरणं वयइ से निजूहियचे सिया ॥५॥
व्याख्या-वासावासमित्यादितः....से निज्जूहियव्वे सिआ इत्यन्तम् , तत्र अधिकरणं-राटिस्तत्करं वचोप्यधिकरणं वइत्तए त्ति वदितुं अकप्पेणं ति हे आर्य ! अकल्पेन-अनाचारेण वदसीति वक्तव्यः, यतः पर्युषणायाः पूर्व पर्युषणादिने वा यदधिकरणमुत्पन्नं तत्पर्युषणायां क्षामितं यच्च त्वं पर्युषणांतः परमधिकरणं वदसि सोऽयमकल्प्य इति भावः, निज्जूहियव्वे सिआ इति निहितव्यः-ताम्बूलिकपत्रदृष्टान्तेन सङ्घावहिः कर्त्तव्यः, यतः ताम्बुलिकेन विनष्टंपत्रमन्यपत्रं विनाशयेद्वहिः क्रियते तद्वयमपि । तथा अन्योऽपि द्विजदृष्टान्ता यथा-खेवास्तव्या रुद्राख्यो द्विजो वर्षाकाले केदारान् ऋष्टुं हलं लात्वा क्षेत्रं गतो हलं वाहयतस्तस्य गलि रुपविष्टस्तोत्रेण ताड्यमानोऽपि यावन्नोत्तिष्ठति तदा क्रुधाकुलेन केदारघ्रय मृत्स्वण्डैरेवाहन्यमानो निश्वासरोधान्मृतः, ततः स पश्चात्तापं कुर्वाणो महास्थाने गत्वा स्ववृत्तान्त | कथयन्नुपशान्तोऽनुपशान्तो वेति महास्थानस्थैः पुरुषैः पृष्ट नाद्यापि ममोपशान्तिरित्युक्तेऽयोग्योऽयमनुपशान्तकषायत्वादपांक्तयो द्विजैश्चक्रे, एवं वार्षिकपण्यपि 'साहम्मिए अहिगरणं करेमाणे'त्ति वचनात्साधम्मिकैः सममधिकरणं कुर्वन् सङ्घबाह्यः स्यादत एव सापराधोऽपि चण्डप्रद्यातः साधम्भिक इति कृत्वा | उदयननृपेण मुक्तः। तत्सम्बन्धस्त्वेवम्-सिन्धुदेशे महसेनप्रभृतिदशमुकुटबद्धनृपसेव्यमानो वीतभ
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यपुराधिपतिरुदयननृपः, स हि विद्युन्माल्यर्पितदेवाधिदेवप्रतिमार्चकगान्धारश्राद्धार्पितगुटिकाजाताऽद्भुतरूपाया देवदत्ताया दास्या हर्तारं चतुर्दशमुकुटबद्धनृपसेव्यं मालवाधिपं चण्डप्रद्योतं रणे बवा पश्चादागच्छन् दशपुरस्थाने पर्युषणायां कृतोपवासः सूपैः पृथग्भोजनाय पृष्टे विषभ्रान्त्या ममाप्यद्योपवासोऽस्तीति वदति, धूर्तसाधर्मिकेऽप्यस्मिन् वः मम कथं प्रतिक्रान्तिशुद्धिरिति ज्ञात्वातं मुक्त्वा क्षमायत्वा च मम दासीपतिरिति पूर्वलिखिताक्षरस्थगनार्थ भाले पट्टबन्धं दत्त्वा मालवदेशं दत्तवानिति । न पुनः कुम्भकारक्षुल्लकदृष्टान्तेन द्रव्यत एव क्षामणकं विधेयम् , स चैवम्-कश्चित् क्षुल्लकः कुम्भकारभाण्डानि कर्करैः सच्छिद्रीकुर्वन् मा कुर्वित्थं कुलालेन निवारितो 'मिच्छामि दुक्कडं' इति वाङमात्रेण वदन्नपि पुनः पुनः तथा कुर्वन् एकदा कुलालेन कर्णमोटनपूर्वकं कथमहं पीडये त्वयेति भणन् ‘मिच्छामि दुक्कडं ' इति क्षुल्लकवत्पाठमात्रमुच्चरन शिक्षितः, एवं मिथ्यादुष्कृतं न देयम् , उपशान्तोपस्थितस्य चमूलं दातव्यम् ॥१८॥ वासावासं प० इह खलु निग्गंथाण वा २ अज्जेव कक्खडे कडुए विग्गहे समुप्पज्जिज्जा; सेहे राइणियं खामिज्जा राइणिए वि सेहं खामिज्जा; (ग्रं० १२०० ) खमियवं खमावियत्वं उवसमियत्वं उवसमावियवं संमुइसंपुच्छणाबहुलण होयवं; जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा; . जो उन उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा; तम्हा अप्पणा चेव उवसमियवं; से किमाहू भंते ! उवसमसारं खु सामन्नं ॥ ५९ ॥
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समाचारो
कल्प प्रदीपिका ॥ २२॥
व्याख्या-वासावासमित्यादितः....उवसमसारंखु सामण्णमित्यन्तम्, तत्र इह प्रवचने अथैव पर्युषणादिने कक्खड:-उच्चैः शब्दः कटुको-जकारमकारादिरूपो विग्रहः-कलहः समुत्पद्यते, शैक्षोऽवमरात्रिका रात्निकं-रत्नाधिकं, यद्यपि रानिकः प्रथमं सामाचारीवितथकरणेऽपराद्धस्तथापि शैक्षेण रात्निकः क्षामणीयः, अथ शैक्षोऽपुष्टधर्मा तदा रात्निकस्तं प्रथम क्षामयति, तस्मात् क्षमितव्यं स्वयमेव क्षामयितव्यः परः अव्यक्तत्वान्नपुंसकत्वं । तथा उपशमयितव्यं-आत्माना उपशमः कर्तव्यः, उपशामयितव्यः परः-जं अजिअंचरितं, देसूणाए विपुव्वकोडीए । तं पि कसाइअमित्तो, हारेइ नरो मुहुत्तेणं ॥१॥” इत्याद्युपदेशः सम्मुइ त्ति रागद्वेषरहितता तत्पूर्व या सम्पृच्छना सूत्रार्थेषु ग्लानाः ग्लानानां वा तहहुलेन भवितव्यं, रागद्वेषौ विहाय येन सहाऽधिकरणमासीत् तेन सह सूत्रार्थेषु सम्प्रश्नः कार्यः तदुदन्तश्च सोढव्या, यद्येकतरस्य क्षमयतोऽपि यद्यको नोपशाम्यति तदा किमित्याह-जो उवसमइ इत्यादि यः उपशाम्यति उपशमयति वा कषायान् तस्याऽस्त्याराधना ज्ञानादीनां, विपर्ययः स्पष्ट एव, सामन्नं ति श्रमणभावः उपशमसारं-उपशमप्रधानं खु-निश्चये उपशमे मृगावत्युदाहरणं तच्चैवम्-एकदा श्रीवीरः कौशाम्ब्यां समवमृतः तत्र सविमानौ चन्द्राकौं नन्तुं प्राप्तो, चन्दना च दक्षत्वादस्तसमयं ज्ञात्वा स्वस्थाने गता, मृगावती तु चन्द्रार्कयोर्गतयोः ध्वान्ते विस्तृते बिभ्यती साव्यालयेऽगात् । तत्रेर्यापथिकी प्रतिक्रम्य तदनु शयनस्थां प्रवर्तिनीं नत्वा क्षम्यतामयमपराधः इत्युक्तवता प्रति चन्दनाऽपि मृदु वाग्भिराह
| ૨
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भद्रे ! तवेदृशं न युक्तम्, साप्यूचे 'नेदृशं पापं भूयः करिष्ये' इत्युक्त्वा पादयोः पतिता, तावता प्रवर्तिन्या निद्राऽऽगात्, तया च तथैव स्थितया शुभभावतः क्षामणेन केवलज्ञान प्राप्तम्, सर्पव्यतिकरेण प्रबुद्धा सती कथं सर्पोऽज्ञायीति प्रश्नेन केवलज्ञानं ज्ञात्वा मृगावती क्षमयन्ती चन्दनाऽपि केवलज्ञानमापेति ॥ ५९॥ वासावासं प० कप्पइ निग्गंथाण वा २ तओ उवस्सया गिन्हित्तए तं वेउविया पडिलेहा साइज्जिया पमजणा ॥ ६०॥
व्याख्या-वासवासमित्यादितः....पमज्जणा इत्यन्तम्, तत्र वर्षासु उपाश्रयास्त्रयो ग्राह्याः संसक्तिजलप्लावनादिभयात्, तमितिपदं तत्रार्थे सम्भाव्यं वेउब्विया क्वाऽपि विउद्विआ उभयत्राऽपि पुनः पुनरित्यर्थः, साइज्झिआ पमज्जण त्ति आर्षे 'साइज्ज धातुरास्वादनेऽस्ति, तत्र उपभुज्यमानो य उपाश्रयः तत्सम्बन्धिनी प्रमार्जनाऽपि साइझिया अयं भावः-यस्मिन्नुपाश्रये स्थिता साधवस्तं प्रातः प्रमार्जयन्ति १, पुनर्भिक्षागतेषु साधुषु २ पुनः पुनः प्रतिलेखनाकाले तृतीयप्रहरान्ते ३ चेति वारत्रयं प्रमार्जयन्ति वर्षासु, ऋतुवद्धे तु दिः, अयं च विधिरसंसक्ते संसक्ते पुनः पुनः प्रमार्जयन्ति शेषोपाश्रयद्वयं प्रत्यहं प्रतिलिखन्ति-प्रत्यवेक्षन्ते, मा कोऽपि तत्र स्थास्यति ममत्वं वा करिष्यतीति तृतीयदिने प्रमार्जयन्ति अत उक्तं वेउब्विआ पडिलेह त्ति ॥ ६ ॥
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समाचारी
कल्प प्रदीपिका ॥२३ ॥
वासावासं प० निग्गंथाणं वा २ कप्पइ अन्नयरिं दिसि वा अणुदिसि वा अवगिज्झिय २ ।। भत्तपाणं गवेसित्तए; से किमाहु मंते ! ओसन्नं समणा भगवंतो वासासु तवसंपउत्ता भवंति तवस्सी दुब्बले किलंते मुच्छिज्ज वा पवडिज्ज वा तामेव दिसिं वा अणुदिसिं वा समणा भगवंतो पडिजागरंति ॥ ६१ ॥ ___व्याख्या-वासावासमित्यादितः....पडिजागरंतीत्यन्तम्, तत्र अन्नयरिं ति अन्यतरां दिशं अनुदिश | विदिशं अवगृह्य-अन्यसाधुभ्यो दिशं कथयित्वा भक्तपानं गवेषयितुं विह कल्पते । यतः ओसन्नं प्रायः | श्रमणा भगवन्तो वर्षासु तपःसंप्रयुक्ताः भवन्ति, ते च तपस्विनो दुर्बलाः क्लान्ताः सन्तो मूर्छयेयुः प्रपतेया, तत्र मूर्छा-इन्द्रियमनोवैकल्यं प्रपतनं-दौर्बल्यात्, तामेव दिशमनुदिशं वा श्रमणा भगवन्तः । प्रतिजाग्रति -गवेषयन्ति, मूञ्छितादेः साधोः सारां कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ ६१॥ वासावासं प० कप्पइ निग्गंथाण वा २ जाव चत्तारि पंच जोयणाइं गंतुं पडिनियत्तए अंतरा वि अ से कप्पइ वत्थवए; नो से कप्पइ तं स्यणिं तत्थेव उवायणावित्तए । ६२ ॥ __ व्याख्या-वासावासमित्यादितः....उवायणावित्तए इत्यन्तम् तत्र वर्षाकल्पौषधवैद्यार्थ ग्लानसाराक|| रणार्थ वा चत्वारि पञ्च वा योजनानि गत्वा प्रतिनिवर्तेत-स्वस्थान प्राप्तुमक्षमः चान्तरापि वसेन्न ।
॥ २३ ॥
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तु तत्रान्तां रात्रि निःकारणं वसेत्, तद्दिनरात्रिं तत्रैव नातिक्रमेत्, यदा लब्धं तदैव निर्गन्तव्यमित्यर्थः ॥ ६२ ॥ इति पर्युषणासामाचारीमभिधाय तत्पालनफलमाह
sari संवच्छरिअं थेरकप्पं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातचं सम्मं कारणं फासित्ता पालित्ता सोभित्ता तीरित्ता किट्टित्ता आराहित्ता आणाए अणुपालित्ता अत्थेगइआ समणा निग्गंथा तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति बुज्झति मुच्चंति परिनिवाइति सङ्घदुक्खाणमंतं करेंति, अत्थेगइआ दुच्चेणं भवग्गहणणं सिज्यंति जाव सङ्घदुरकाणमंतं करेति, अत्येगइया तच्चेणं भवग्गहणेणं जाव अंतं करेंति, सत्तट्ठभवग्गहणाईं नाइकमति ॥ ६३ ॥
व्याख्या – इच्चेइअमित्यादित.....पुण नाइक्कमंतीत्यन्तम्, तत्र इतिः उपदर्शने एनं - पूर्वोक्तं सांवत्सरिकंवर्षारात्रिकं स्थविराणां कल्पं समाचारी यद्यपि किञ्चिजिनकल्पिकानामपि यथा सूत्रेण भणितं, तथा कुर्वतः कल्पो भवति अन्यथा त्वकल्प इति यथाकल्पं एवं कुर्वतश्च ज्ञानादिरुप मार्ग इति यथामार्ग, यथातथ्यं यथैव सत्यमुपदिष्टं जिनैरिति यथातथ्यं, यथा सम्यक् कायेनोपलक्षणत्वान्मनोवचोभ्यां च फासित्वा-स्पृष्ट्वा सेव्य, पालयित्वा रक्षित्वाऽतिचारेभ्यः, शोधयित्वा शोभयित्वा विधिवत्करणेन, तीरयित्वा यावज्जीवमाराध्य, कीर्त्तयित्वाऽन्येभ्यः उपदिश्य, आराध्य यथावत्करणेन, न विराध्य - आज्ञया जिनोपदेशे
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कल्प प्रदीपिका
समाचारी
नानुपाल्याऽन्यैः पूर्व पालितस्य पश्चात्पालनेन, तस्यैव पालितस्य फलमाह-अत्थेगइअत्ति सन्त्येकेऽत्युत्तमया । || पालनया तस्मिन्नेव भवग्रहणे भवे सिद्धयन्ति निष्ठितार्था भवन्ति, बुद्धयन्ते-केवलज्ञानेन, मुच्यन्ते
भवोपग्राहिकर्माशेभ्यः, परिनिर्वाति-कर्मकृतसन्तापविरहाच्छीती भवन्ति। किमुक्तं भवन्ति? सर्वदुःखाना| शरीरमानसानामन्तं-विनाशं कुर्वन्ति, दुच्चेणं उत्तमयाऽऽराधनया द्वितीये भवे, तच्चेणं तृतीयभवे,जघन्य | याऽप्याराधनया सप्ताष्टौ भवान्नातिक्रमति ॥ ६३ ।। न चैतत्स्वबुद्धयोच्यते किन्तु जिनोपदेशादित्याह
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए, बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूणं देवाणं बहूणं देवीणं मज्झगए चेव एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परुवेइ, पञ्जोसवणाकप्पो नामं अज्झयणं सअटुं सहेउअं सकारणं ससुत्तं सअत्थं सउभयं सवागरणं भुजो भुजो उवदंसेइ ति बेमि।।६४॥ पज्जोसवणाकप्पो नाम दसासुअक्खंधस्स अट्ठमं अज्झयणं समत्तं (ग्रं० १२१५) श्री रस्तुः . व्याख्या-तेणं कालेणमित्यादिता.बेमित्ति यावत् तत्र तस्मिन् काले चतुर्थारकान्ते तस्मिन् समये । राजगृहसमवसरणाऽवसरे मध्यगतः-श्रमणादिदेव्यन्तपर्षन्मध्यवर्ती चेव त्ति अवधारणे ततो मध्यगत एवन पुनरेकान्ते, एवमाख्याति यथोक्तं कथयति, भाषते-वाग्योगेन, प्रज्ञापयति पालितस्य फलं
॥ २४ ॥
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ज्ञापयति, प्ररुपयति दर्पणतल एव प्रतिरुपां श्रोतृहृदि सङ्क्रामयति, इदानीमाख्येयस्याऽभिधानमाहपर्युषणाकल्पनामाऽध्ययनं भूयो भूयो विस्मरणशालश्रोत्राऽनुग्रहार्थमुपदर्शयति-अनेकशः प्रदर्शयति ।
नयुक्तं न पुनः कण्टकमईनवनिःप्रयोजनं, सहेतुकं अननुपालयतोऽमा दोषाः इति दोषदर्शनं, यहा 'सवीसइ राइएमासे' इत्याद्युक्ते को हेतुः ' पाएणं अगारीणं अगाराई ' इत्यादिको हेतुस्तेन सहितः । सकारणं-कारणमपवादो यथा 'आरेणावि कप्पइ पज्जोसवित्तए' इति, ससूत्रं सार्थ सोभयमिति । प्रतीतं, अथ सार्थत्वं कथमध्ययनस्य ? नह्यत्र टीकादाविवार्थः पृथग् व्याख्यातोऽस्ति ? सत्यं सूत्रस्यार्थानान्तरीयकत्वाददोषः। सव्याकरणं-पृष्टापृष्टार्थकथनं व्याकरणं तत्सहितमिति । इति ब्रवीमीति । श्रीभद्रपाहुस्वामी स्वशिष्यान् ब्रुते नेदं स्वघुया किन्तु तीर्थकरगणधरोपदेशेनेति अनेन पारतन्यं अभिहितं ।। इतेः 'स्वरातश्च विः' इति इ लोपे तकारस्य च द्वित्वे उवदंसेइत्ति रूपम् ॥६४॥
पजोसवणाकप्पो त्ति पर्युषणा-वर्षास्वेकक्षेत्रनिवासः तत्सम्बन्धी कल्पः-समाचारी साधून साध्वीः प्रतीत्य विधिनिषेधरूपेति कर्तव्या, सद्भिधेययोगाध्ययनमपि पर्युषणाकल्पः, स च दशाश्रुतस्कन्धसिद्वान्तस्याऽष्टमध्ययनं समाप्तं ॥
वेदाऽदिरसंशातांशु १६७४ मिताब्दे विक्रमार्कतः। श्रीमद्विजयसेनाख्यसूरिपादाब्जसेविना ॥१॥ * प्राज्ञश्रीसङ्घ विजयगणिना या विनिर्मिता । विबुधैर्वाच्यमानाऽस्तु सा श्रीकल्पप्रदीपिका ॥२॥
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इति श्रीमत्पागणगगन विकाशननभोमणि - निखिलजननिकर मनीषितार्थप्रदानसुरमणि - श्रीमत्साहिअकब्बर वसुमतीवल्लभसभाप्राप्तजयवादप्राप्तिसमुद्भवयशः-सुधासमुदय रजनिमणि- श्रीमत्साहक माकुलसद्नप्रकाशन सदनमणि भट्टारकपुरन्दरश्रीविजयसेनसूरीश्वरशिष्यपण्डितश्रीसङ्घविजयगणिविरचितायां श्रीकल्पदीपिकायां समाचारीरूपतृतीयवाच्यव्याख्यानानुक्रमे सम्पूर्णे सति श्रीपर्युषणाकल्पनामाध्ययनं सम्पूर्ण श्रीरस्तु ॥
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因因因因因凶凶凶因因因迷因凶
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[अथ प्रशस्तिः ] श्रीवीरक्रमसेवापरायणः श्रीसुधर्मनामाऽऽसीत् । प्रथमो गणाधिराजः, ततः क्रमात् हीरविजयगुरुः ॥ ३ ॥ यद्वचनरञ्जितश्रीअकब्बरक्षितिधरोऽखिले देशे । षण्मासाऽवधि जीवाऽभयप्रदानं विधत्ते स्म ॥ ४॥ तत्पट्टोदयभूभृततरणिः श्रीविजयसेनसूरीन्द्रः । आवसुधाचन्द्रार्क, यत्कीर्तिनिश्चला तस्थौ ॥५॥ तत्पट्टभालभूषण-सूरिश्रीविजयदेवमुनिराजः। सम्पति जयति जगत्यां जनयनभिवाञ्छित वस्तु ॥ ६ ॥
संशोधनकालः-संशोधकनिर्देशश्वअमृतोपमानवचसा, शारदसम्पूर्णसोमसमयशसः । तस्य प्रवरे राज्ये, वसुधाऽष्टरसेन्दुमितवर्षे [१६८१] ॥ ७॥ श्रीमत्कल्याणविजयवाचककोटीतटीकिरीटानाम् । शिष्यैः श्रीधनविजयैः वाचकचूडामणिमुख्यैः ॥ ८॥ कल्पप्रदीपिकायाः पतिरेषा शोधिता चिरं जयतु । मात्सर्यमुक्तमनसा विबुधेरपरैश्च संशोध्या ॥९॥ ___ कल्पवृत्तिमानम्| प्रत्यक्षरगणनया, भवति कल्पप्रदीपिकाग्रन्थे । श्लोकानां द्वात्रिंशत् , शतानि पञ्चाशदधिकानि [३२५० ] ॥ १०॥
संवत् १६८३ वर्षे वैशाख सुदि ७ गुरुवासरे लिखिता महिसाणपुरे लेखकपाठकयोः शुभं भवतु। श्रीमहिसाणकनगरवास्तव्यतश्रीमालिज्ञातीय-वृद्धशाखीय-श्रेष्ठिनाकरभार्यावाईमारंगदेसुतश्रेष्ठिपुनाख्येन सवृत्तिकल्पसूत्रप्रति लिखापिता स्वश्रेयसे ।
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________________ - - इति श्रीकल्पसूत्रं प्रदीपिकावृत्तिसहितम् SUSISISISISISI ISIC