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श्री भंवरलाल नाहटा
अभिनन्दन ग्रन्थ
व्यक्तित्व कृतित्व
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श्री भंवरलाल नाहटा
अभिनन्दन ग्रन्थ
व्यक्तित्व कृतित्व
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दिसम्बर, १९८६
प्रकाशक
श्री मँवरलाल नाहटा अभिनन्दन समारोह समिति ८६ कैनिंग स्ट्रीट कलकत्ता ७००००१
सम्पादक
श्री गणेश ललवानी
मुद्रक राज प्रोसेस प्रिन्टर्स ८ ब्रजदुलाल स्ट्रीट कलकत्ता ७००००६
सुराना प्रिन्टिंग वर्क्स २०५ रवीन्द्र सरणी कलकत्ता ७००००६
मूल्य एक सौ एक रुपये
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शुभाशंसा
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शुभाशंसा
नाहटाजी की विद्वता. नई-नई सृजन शक्ति, कवित्व शक्ति. संशोधन दृष्टि, स्वाध्याय वाचन, वृद्धावस्था में युवा जसा उत्साह. देवगुरु प्रत्ये की श्रद्धा आदि सद्गुण सचमुच प्रेरक एवं प्रशंसनीय है ।
नाहटा जी और ज्यादा काम करते रहें. दीर्घायुषी बने ।
-विजययशोदेव सूरि
मानव अपने प्रमादवश उन्नत शक्ति को नष्ट करता है। श्रीयुत् भंवरलालजी नाहटा ने ज्ञानोपासना से अज्ञान की परिस्थिति से ऊपर उठकर जैन साहित्य का प्रकाश जनता को प्रदान किया । जैन शासन में खरतरगच्छ की महान सेवा से अत्यन्त प्रसन्नता हुई। शासन सेवा कर मानव भव सफल बनावें, यही पवित्र भावना ।
-जिनउदय सूरि
सुश्रावक श्री भंवरलालजी सा० नाहटा ने संघ, समाज व साहित्य की जो दीर्घ काल तक सेवा की है, वह अभिनन्दन के योग्य है ।
मेरी शुभकामना के साथ हार्दिक आशीर्वाद है।
-पद्मसागर सूरि
श्रीयुत भंवरलालजी नाहटा का व्यक्तित्व, महामेघ की घटाओं में अपनी अद्भुत छवि प्रकीर्ण करने वाले इन्द्रधनुष की भाँति है। उनका कर्म-क्षेत्र सहस्रधारा तीर्थ के समान बहु-आयामी एवं बहु-विस्तृत है। वे आशुकवि हैं। हिन्दी, राजस्थानो आदि भाषाओं के साथ प्राकृत पद्यरचना में उनका चमत्कारिक नैपुण्य है। सामाजिक, धार्मिक, नैतिक, आध्यात्मिक एवं इतिहास आदि के संबंध में लिखे गये इनके अनेक-अनेक शोधलेख विद्वत्समाज में आदरास्पद हुए हैं।
योगेन्द्र श्री सहजानन्दजी ने परम्परा प्राप्त श्री श्वेताम्बर परम्परा से कुछ भिन्न रेखा पर अपनी साधना को गतिशील किया । फिर भी श्री नाहटाजी का उनके प्रति श्रद्धा-भाव क्षीण न होकर निरन्तर बढ़ता ही रहा । यह उनके अन्तहदय में सहजभाव से उल्लसित होने वाली "गुगिषु प्रमोदम्" की उदात्त भावना है, जो एक प्रकार से सर्वोच्च मानवता का पवित्र अमृत निष्यन्द है ।
प्रसन्नता है. कलकत्ता महानगर में उनका अभिनन्दन-समारोह का आयोजन किया गया है। मैं अन्तहृदय से नाहटाजी के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के हेतु प्रभु-चरणों में सद्भावना रखता हूँ ।
- उपाध्याय अमर मुनि
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सुश्रावक श्री भँवरलालजी से शिखरजी में परिचय हुआ। जैन साहित्य और संशोधन में इनका योगदान प्रशंसनीय है । आज जब श्रुतज्ञान और उसकी रुचि कम होती जाती है तः श्रुतज्ञान की सुरक्षा के लिये, अध्ययन और संशोधन के लिये इनका प्रयत्न सराहनीय है।
__ इनकी साहित्य प्रतिभा और भी आगे बढ़े यह मंगलकामना है । जेन साहित्य में खूब आगे बढ़ें ऐसे मंगल आशीर्वाद ।
-गुनसागर सूरि दो साल से ही श्री भंवरलालजी नाहटा के साथ परिचय हुआ है। आप वयोवृद्ध होते हुए भी साहित्य के कार्य के लिये अप्रमत्त हैं । प्रथम शासन सम्राट अंचलगच्छाधिपति, तपोमूर्ति पू० गुरुदेव आचार्य भगवंत श्री गुणसागर सूरीश्वरजी म० सा० रचित "विविध पूजा संग्रह" ग्रन्थ आपको भिजवाया गया तब तुरन्त ही आपने सविस्तार जवाब दिया। तब बम्बई से जन महासघ का श्री सम्मेतशिखरजी महातीर्थ के लिए छरीपालित पद-यात्रा का प्रयाण हो गया था । शिखरजी तीर्थ में गत साल चातुर्मास में आप दो बार हमारे पास दर्शनार्थ आये थे। पत्राचार अतिरिक्त प्रत्यक्ष परिचय से आपकी साहित्योपासना एवं कार्य-शक्ति से मैं प्रभावित हुआ।
पिछले कितने वर्षों से मेरे मन में भगवान श्री महावीर देव की जन्मभूमि का विवाद समाप्त करने की तीव्र मनोकामना थी। शिखरजी तीर्थ में बहुत-सा साहित्य का अध्ययन किया एवं जब इस विाय पर "अखिल भारतीय इतिहासविद् विद्वद् सम्मेलन" कराने का निर्णय हुआ तब अपने ही वल दिया कि "इस सम्मेलन से भ० मह व र देव को जन्मभूमि के लिये कुछ तथ्य प्रकाश में आयेंगे हो"। इसलिए सम्मेलन रखा गया ।
इस सम्मेलन में भारत के कोने-कोने से कई विद्वान् आये। उनमें जेन एवं जनेतर विद्वान् भी थे। बिहार के पुरातत्व विभाग के अधिकारी भी थे । सम्मेलन के दूसरे दिन पू० जनाचार्य श्री अंचलगच्छाधिपति श्री की अध्यक्षता में आप ही मुख्य अतिथि थे। भ० महावीर देव की जन्मभूमि क्षत्रियकुण्ड तीर्थ है वेशाली नहीं है-इस विषय पर आपने अपना जाहिर प्रवचन दिया। उसका बहुत ही प्रभाव पड़ा। तीसरे दिन भारत एवं बिहार के सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ विद्वान् डा० राधाकृष्ण चौधरी ने सर्वानुमत से प्रस्ताव पारित किया कि बिहार के मुगेर जिले में स्थित लछुवाड के पास क्षत्रियकुण्ड में भगवान महावीर देव का जन्म हुआ था। विशेष के लिये इस सम्मेलन की स्मारिका दृष्टव्य है। इस समय बम्बई युनिवर्सिटी के गुजराती विभाग के अध्यक्ष डा. रमणलाल शाह एवं दिल्ली के बहुश्रुत विद्वान् हीरालालजी दुगड़ भी आपकी साहित्यकीय प्रतिभा से प्रभावित हुए थे।
श्री भंवरलालजी नाहटा का सम्मान करते समय यह बात ध्यान में रखें कि श्री भंवरलालजी नाहटा एवं स्व० अगरचन्दजी नाहटा के आज दिन तक विविध सामयिकों अखबारों में जो लेख प्रकाशित हुये हैं उन सबका शीघ्र ही संचय ग्रन्थ प्रकाशित हो । कई स्मृति ग्रन्थों में भी आपके लेख बिखरे हुए पड़े हैं। इन सबका भी उस संग्रह में संकलन हो जाए, ताकि आनेवाली पीढ़ी के लिये वह लेख-संग्रह ज्ञानमाता रूप प्रतीत हो एवं शोधकार्य में सहायक बने ।
श्री भंवरलालजी नाहटा दीर्घायु निरामय स्वस्थ प्रसन्न रह कर बहुत दिनों तक जैन साहित्य की सेवा करें ।
-कलाप्रभसागर गणि
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श्रीमान् नाहटाजी जैन समाज के गोरव हैं, खरतरगच्छ के रत्न हैं ।
नाहटाजी जैसे बहुत कम विद्वान और शास्त्र के ज्ञाता अपने समाज में हैं अतः उनका अभिनन्दन जैन समाज के लिये गौरव का विषय है। नाहटाजी जब-जब मुझे मिलते तब अवश्य उनसे मुझे शास्त्र, इतिहास आदि के विषय में कई विशेषताएँ जानने को मिलती और इससे नाहटाजी के विशाल ज्ञान का परिचय मिलता है।
जिश्वर भगवान एवं दादा गुरुदेव से प्रार्थना करता हूँ कि नाहटाजो को साहित्य सेवा करने का अधिकाधिक बल प्राप्त हो।
-जयानंद मुनि
श्री भंवरलालजी नाहटा ने अपना जीवन इतिहास, पुरातत्व, शोध, सर्जन के माध्यम से अपनी आत्मा को समर्पित किया है । यह उनके जीवन की मौलिक विशेषता है।
ज्ञानी होने के कारण निश्चित ही इनके जीवन को कीति, यश. मान-सम्मान की सौरभ मिली है, फिर भी ये स्वयं उस हवा से अपरिचित/अछूते रहे हैं। यही कारण है कि आज वे विद्वानों की दुनिया के चमकते होरे हैं ।
ऐसे विद्वानों का अभिनन्दन करना, समाज का कर्तव्य है । निश्चित ही उनका अभिनन्दन प्रेरणा का दीपस्तंभ बनकर दिशा बोध देगा।
मैं उन्हें धर्मलाभ की शुभाशीष प्रदान करता हूँ।
मुनि मणिप्रभसागर
भारत के माने हुए विद्वानों की दृष्टि में आप अवश्य मां सरस्वती के वरद पुत्र हैं।
आपकी प्रज्ञा सहज सरल ग्राहय और अनुकरणीय है। आपकी प्रकृति में स्वाभाविक रूप से ही सुजनता कुलीनता व निरभिमानता विराजित है।
आप में परंपरा निर्वाह और कर्तव्य-निष्ठा दोनों का अद्भुत संमिश्रण है।
आपकी जागरूकवृत्ति वैयक्तिक मतमतान्तरों, दार्शनिक विवादों और स्वैच्छिक विधिनिषेधों से परे रही है।
अध्ययन चिन्तन मनन और निदिध्यासन आपका जीवन का स्थिर चित्र है।
आपमें धर्म का जो गौरव है वह श्री जैन शासन का अपना, गुरुदेव का. सुयोग्य परिवार का एवं पूर्वजन्म के पुण्य का ही फल है। आप आशुकवि व पुरातत्वप्रेमी भी हैं।
आपकी अधिकतर अभिरुचि भाषाशास्त्र और लिपि विज्ञान में है। आप आधुनिक और प्राचीन परंपरागत भाषाओं व लिपिओं को पढ़ने, समझने में बहुत माने हुए विद्वान हैं ।
पुरानी अनेक प्रतिमा, चित्र-वस्तु और अति मूल्यवान् प्राचीन ग्रन्थ आपके बीकानेर के संग्रहालय में है।
आपका प्राचीन शिलालेखों से इतिहास संशोधन प्रेन भी बहुत प्रशंसनीय है।
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आपमें जो अदभुत सूझ अपूर्व लिपिविज्ञता और गहरी साहित्यप्रियता पाई जाती है वह नीतिशास्त्र में दिखाए हुए "विविध देशाटन, अधिकाधिक विद्वानों से परिचय व मित्रता एवं अनेकानेक शास्त्रों का चिन्तन मनन व परिशीलन का" स्थिर परिपाक है।
चरमतीर्थपति भगवान महावीर देव का अनुशासन ने ही आपको आत्मबल. आत्मबोध व आत्मनिष्ठा दी है और दे रहा है।
सबसे बढ़कर आपकी श्री जैनशासन में गहरी निष्ठा है उसका एवं आपके सभी गुणों का मैं गुणानुराग रूप से अनुमोदन करता हूँ और साथ ही धर्मलाम रूप आर्शर्वाद देता हूँ।
-विजयकनकरत्न सूरि
श्री भंवरलाल जी नाहटा व्यक्ति नहीं. अपने आप में एक संस्था हैं। उनकी बहुमुखी मांगलिक प्रवृत्तियों से समाज और राष्ट्र "सत्यं शिवं-सुन्दरम्" से समलंकृत हुआ है। सरस्वती और लक्ष्मी के वरदान से अभिषिक्त श्री नाहटाजी के इन्द्रधनुषो व्यक्तित्व में कवि की कल्पना, इतिहासकार की अनुसंधान प्रवृत्ति, पुरातत्ववेत्ता की सूक्ष्म दृष्टि, लिपि पण्डित की कुशाग्रता, चित्रकार की सौन्दर्य-परख, दार्शनिक की चिन्तनशीलता एवं समाज सुधारक की सेवा-भावना के सप्तरंग जग-मगा रहे हैं जिनकी समुज्व ल प्रमा मानव को उद्यमशील बनने की प्ररेणा देती है। ये महाशय किसी महाविद्यालय में नहीं पढ़े, फिर भी ये अपने उद्यम से इतनी ऊँचाई को छू सके। इनका जीवन नवपीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
प्रतिमा जन्मजात होतो है, वह सुअवसर पाकर प्रकट होती है। पुण्योदयवेला में मानव की प्रतिमा श्रम साधना से प्रकट होकर सृष्टि का मंगल विधान करती है। श्री भंवरलाल जी नाहटा के विकास का भी यही रहस्य है। इसलिए पुण्य-संचय हेतु शुभकर्म करना चाहिए। यही वह सम्पत्ति है जो मानव जीवन को प्रतिभा सम्पन्न बनाती है।
श्री भंवरलालजी नाहटा का जीवन-दुकूल दो सुन्दर धागों से बुना हुआ है । एक धागा है विनम्रता, और दूसरा है श्रम । विनय और श्रम से जीवन सार्थक सफल और सुखी बनता है।
जीवन एक कला है। जीवन को सफल बनाने के लिए विवेक रूपी कला को आवश्यकता है। श्री भंवरलाल जी नाहटा ने विवेक-पट पर प्रतिभा की तूलिका से मानवता का चित्र अंकित करके यह बता दिया है कि जीवन में धन वैभव का महत्व नहीं, जीवन तो श्रम से सिंचित विनय और अकिंचनता के रजकणों में फूल के समान खिलकर ही मानवता की सुगंध बिखेरता है। इससे जगत् का प्रांगण महकता है
उनके द्वारा अनेक मंगल
श्रावक रत्न श्री भंवरलालजी नाहटा की दीर्घायु के लिए हमारी शुभकामना। कार्य सम्पन्न हों, यही शुभाशीष ।
-विजय इन्द्रदिन्न सूरि
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विद्वानों के अभिनन्दन की प्रणाली प्राचीन काल से ही चली आ रही है. तथा यह प्रणाली भारतीय संस्कृति का अंग रही है।
श्री भंवरलाल जी नाहटा के ७५ वें वर्षगाँठ के सुअवसर पर वे चिरायु हों ऐसी गुरुदेव से प्रार्थना है।
-जिनचन्द्र सूरि
प्रतिभा की विलक्षणता के उदाहरण शताब्दियों में भी विरल रूप से सामने आते हैं। इस वर्तमान शताब्दी के ऐसे ही एक विरल उदारहण श्री भंवरलालजी नाहटा हैं। विश्वविद्यालय की डिग्रियों व उपाधियों के मार्ग से ये आगे नहीं बढ़े। फिर भी संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश आदि प्राचीन भाषाओं तथा हिन्दी गुजराती आदि अर्वाचीन भाषाओं में आप उनसे कुछ भी पढ़वा लीजिए, बुलवा लीजिए एवं श्लोक छन्द आदि रचवा लीजिए। लिपियों में ब्राह्मी, खरोष्ठी आदि प्राचीन से प्राचीन लिपि भी इनके लिए देवनागरी है। इस स्थिति में मानना पड़ता है-श्री नाहटा जी 'सिद्ध सारस्वत हैं। सारस्वत मंत्र के सिद्ध किए जाने का इतिहास मिलता है। इनके लिए वह सहज सिद्ध है।
इतिहास पुरातत्त्व साहित्य संस्कृति को आपने सहस्रों लेखों से, शतशः ग्रन्थों के लेखन व सम्पादन से साधा है। सम्बन्धित विषयों में आप किसी पर बात करिए. आपको लगेगा कम्प्यूटराइज्ड विश्व कोश है और वह बोल रहा है। अस्तु. यह सब कुछ मैंने पढ़कर या दूसरों से सुनकर नहीं लिखा है, लगभग १० वर्षों के अपने सतत् सम्पर्क की साक्षात् अनुभूतियों के आधार से लिखा है। श्री नाहटाजी जैन समाज के ही नहीं. अपितु समग्र देश के एक अप्रतिम गौरव हैं।
उनके ७५ वें वर्ष के उपलक्ष में उनका अभिनन्दन किया जा रहा है, यह जानकर प्रसन्नता हुई । वास्तव में ऐसे लोगों का अभिनन्दन ही अभिनन्दन शब्द को सार्थकता व्यक्त करता है। इसी बात को दूसरे शब्दों में कहें तो इस पुनीत अनुष्ठान में अभिनन्दन ही अभिनन्दित हो रहा है।
अस्तु. मैं मंगल कामना करता हूँ. श्री नाहटाजी चिरकाल तक अपनी अनुपम सेवाएं समाज को देते रहें।
-मुनि नगराज
श्रावक-रत्न श्री भंवरलालजी नाहटा के अभिनन्दन का संवाद पढ़कर मन प्रसन्नता से पुलकित हो उठा। श्री नाहटाजी का व्यक्तित्व बहु-आयामी है। और हर आयाम अपने में विलक्षण है। विषय चाहे भाषा-ज्ञान का हो या काव्य रचना का. इतिहास का हो या पुरातत्त्व का, श्री नाहटाजी ने इन सबमें जो महारत हासिल की है, वह अपने में विस्मयजनक है। श्रेष्ठी तो वे जन्म से ही हैं। पर इन सबसे ऊपर है उनकी धर्म-निष्ठा, जिनेश्वर देव के प्रति अटूट आस्था तथा जीवन के व्यवहारों में धर्म की आराधना ।
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जहाँ तक मुझे खयाल आता है श्री नाहटाजी के साथ मेरा पहला परिचय भगवान महावीर की पचीसवीं निर्वाण-शती के अवसर पर पावापुरी में हुआ। पावापुरी के उस पावन प्रसंग पर श्री नाहटाजी के मक्ति-भावनामय व्यक्तित्व के साथ-साथ उनकी सहृदयता- सरलता का भी परिचय मिला। उसके वाद कलकता प्रवास में उनके व्यक्तित्व के कई और पहलू भी सामने आए इतिहास के प्रति उनका दृष्टिकोण अपनी मौलिक पकड़ रखता है। प्राचीन शिलालेखों तथा पांडुलिपियों का गहरा अध्ययन जैन इतिहास का तलस्पर्शी विवेचन, समाज सेवा. सादगी. पूर्ण जीवन सिद्धान्तवादिता आदि विशेषताओं से मैं अपने कलकत्ता-प्रवास में ही अवगत हुआ।
उसके पश्चात् वह परिचय प्रगाढ़तर होता गया। अक्टूबर १९८१ में हमने तेरापंथ से त्याग पत्र देकर नव-तेरापंथ की घोषणा की । इस विचार क्रान्ति का उद्देश्य जैन धर्म को व्यापक भूमिका पर प्रतिष्ठित करना था । इसीलिये अब वह नव तेरापंथ से आगे बढ़ती हुई जैन संगम के रूप में प्रवाहित हो रही है। इतना ही नहीं. नवकार महामन्त्र को आधार शिला बनाकर मानव मन्दिर के रूप में यह तेजी से विस्तार पा रही है । इस विचार क्रान्ति की घोषणा के अवसर पर श्री नाहटाजी जयपुर स्थित दादावाड़ी में उपस्थित होकर अपनी मंगल कामनाएँ प्राकृत भाषा में प्रकट की । उस अवसर पर उनके आशु कवित्व से मेरा परिचय हुआ । उसके पश्चात् अपने पिछले चातुर्मास में श्री नाहटाजी से पूज्य दादा गुरुदेव के जीवन तथा साधना पर कुछ दुर्लभ जानकारी मिली ।
इन सारे सन्दर्भों के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि श्री नाहटाजी गुदड़ी में छुपे हुए लाल हैं। समाज ने इस लाल के मूल्य को समझा है और अभिनन्दन करने का निर्णय लिया है. हार्दिक प्रसन्नता का विषय है। वे इसी प्रकार जिन शासन धर्म साहित्य तथा समाज की सदा सेवा करते रहें, यही मंगल कामना है।
-मुनि रूपचन्द्र
श्री नाहटाजी जैन समाज के गणमान्य विद्वान सज्जन हैं, ऐसे विद्वज्जन का अभिनन्दन व बहुमान करके वस्तुतः आप विद्वता एवं पाण्डित्य का ही अभिनन्दन कर रहे हैं।
मुनि शीलचन्द्र विजय
वैसे तो नाहटा परिवार और खासकर श्री अगरचन्दजी नाहटा से मैं बचपन से ही बीकानेर में जब सेठिया विद्यालय में पढ़ता था, तभी से परिचित था परन्तु उनके निकट सम्पर्क में आने का अवसर सन् १९५३ में जब मेरा बीकानेर चातुर्मास था, तभी से मिला। उनके भतीजे श्री भंवरलालजी नाहटा से प्रथम परिचय कलकत्ता में हुआ जब वे जीवदया प्रकरण का हिन्दी पद्य-गद्यानुवाद कर रहे थे । मेरा चातुर्मास मुनि श्री संतवालजी के साथ कलकत्ता शहर में था । बहुत ही विनम्रनाव से वे प्राकृत पद्यों का अर्थ पूछते, स्वयं-स्फुरणा से उन उन पद्यों का उपर्युक्त अर्थ लगाते । मैंने देखा कि उनकी बौद्धिक चेतना प्राकृत पद्यों का अर्थ लगाने में कितनी पैनो थी । बहुधा वे स्वयं कहा करते हैं, मैं विशेष पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, किन्तु जब उनकी प्रखर और स्वयं स्फूर्त बौद्धिक प्रतिमा देखते हैं, तव आश्चर्यमुग्ध होना पड़ता है।
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सन् १९७५ में होली के अवसर पर हम शिखरजी (मधुवन) आए हुए थे और कलकत्ता चातुर्मास के लिये जा रहे थे।
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श्रीयुत् मँवरलालजी नाहटा ने जब मुझे देखा तो उन्हें बहुत ही प्रसन्नता हुई। वे उस समय 'विविध तीर्थकल्प' नामक ग्रन्थ का सम्पादन कर रहे थे । परिशिष्ट गत तित्थकप्प ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति में कई जगह अक्षर लुप्त थे, कई स्थलों पर अशुद्ध पाठ था. मेरे पास वे उस ग्रन्थ को लेकर आए । उस दिन मेरे स-मौन उपवास था । परन्तु उनकी जिज्ञासा बुद्धि और विनम्रता देखकर मैं मौन में ही लिख कर उक्त ग्रन्थ के संशोधन में प्रवृत्त हो गया । मगर एक दिन में कितना संशोधन होता । दूसरे दिन उनको कलकत्ता जाना था। इसलिये वे उक्त ग्रन्थ के पन्ने मेरे पास संशोधनार्थ रख कर चले गए। मैंने दो-तीन दिन में उक्त पन्नों को देख कर जहाँ तक मेरी बुद्धि पहुँची. उन पन्नों का संशोधन किया और उन्हें कलकत्ता भेज दिया ।
एक व्यापारी का, ऐतिहासज्ञ एवं शोधकार होना आश्चर्यजनक लगता है। जिसमें राजस्थान का व्यापारी. प्राचीन युग में दो-तीन कक्षा तक पढ़ा हुआ होता था, अधिक से अधिक हुआ तो मेट्रिक तक पढ़ लिया । इससे आगे विरानचिह्न लग जाता था। परन्तु श्री भंवरलालजी नाहटा इतने पढ़े-लिखे न होने पर भी बी० ए०. एम०ए० पढ़े हुए आधनिक सुशिक्षितों से आगे थे । आप पढ़े हुए अधिक नहीं. पर गुने हुए अधिक हैं। संस्कृत
और प्राकृत जैसी दुरुह भाषा आपने स्कूल में नहीं पढ़ी. परन्तु शोध-कार्य करते-करते आप संस्कृत और प्राकृत के विद्वानों से भी आगे बढ़ गए। आपकी इस प्रकार स्फुरणाशक्ति और प्रतिमा देखकर आश्चर्यचकित होना पड़ता है।
विद्वता के साथ विनम्रता एवं चारित्र शीलता उनके जीवन में सोने में सुगन्ध का कार्य करती है। वे अपनी दनिक चर्या में प्रभु-पूजा-भक्ति में तल्लीन हो जाते हैं। अकसर देखा गया है कि विद्वता के साथ चारित्रशीलता कम हो जाती है, परन्तु नाहटाजी में ये दोनों चीजें साथ-साथ चलती हैं। देव गुरु और धर्म के प्रति उनकी श्रद्धाभक्ति जितनी गहरी है, उतनी ही धर्माचरण के प्रति उनकी लगन है । उनमें साम्प्रदायिक कट्टरता नाम मात्र को भी नहीं है। खरतरगच्छय परम्परा के होते हुए भी वे, प्रत्येक गच्छ और संघ की परम्परा के साधु-सन्तों के पास जाते हैं। उनके गुणों को ग्रहण करते हैं। गुगग्राहकता उनमें कूट-कूट कर भरी है।
गत वर्ष शिखरजी में अञ्चलगच्छीय आचार्य सम्राट श्री गुणसागरसूरिजी का चातुर्मास था । भगवान् महावीर की जन्मभूमि के स्थल का निर्णय करने हेतु उन्होंने तथा गणिवर्य श्री कलाप्रभसागर जी ने इतिहास विदों के सम्मेलन का आयोजन कराया था। उस सम्मेलन में मैं भी आमंत्रित था। आपश्री ने अपना विद्वतापूर्ण शोधपत्र भगवान महावीर की जन्मभूमि के विषय में अकाटय प्रमाण प्रस्तुत करते हुए तेयार किया था। उसमें एक से बढ़कर एक युक्तियाँ और प्रमाण प्रस्तुत किये गए थे कि सबको मानना पड़ा कि भगवान् महावीर की वास्तविक जन्मभूमि वा स्थल क्षत्रियकुण्ड लछुवाड़ ही है।
सचमुच आपको देवी सरस्वती का कोई अपूर्व वरदान है कि कठिन से कठिन और किसी के सहसा समझ में न आने वाली लिपि को भी आप पढ़ लेते हैं। नन्दीसूत्र में उक्त चार प्रकार की बुद्धियों में से औत्पातिकी बुद्धि का आप में प्रत्यक्ष चमत्कार देखा जा सकता है।
मैं आप जैसे गुणवान और प्रतिभाशाली व्यक्तियों का आदर करता हूँ। और मंगल भावना करता हूँ कि आप दीर्घायु और स्वस्थ रहें और साहित्य-सेवा के माध्यम से जिन शासन की सेवा करें।
-मुनि नेमिचन्द्र
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विद्रदर्य श्री भँवरलालजी नाहटा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को मैंने निकटता से देखा और समझा है । ज्ञान, श्रद्धा तथा चारित्र की समन्वित त्रिवेणी का उनके जीवन में सहज दर्शन होता है । उनकी ज्ञान शारदा तो सर्वविदित है, किन्तु श्रद्धा-गंगा एवं चारित्र यमुना का दर्शन तो उसी ने किया है, जिसने उनका सामीप्य ग्रहण किया हो। वस्तुतः नाहटाजी श्रद्धाभिभूत हैं, किन्तु उनकी श्रद्धाभिभूतता उसी के प्रति प्रगट होती है, जिसमें सत्य का प्रतिविम्ब हो । वे धर्म गुरुओं के प्रति भी नतमस्तक रहते हैं। मैंने उनकी सर्वाधिक आस्था मुनि सहजानन्दघन जी के प्रति पायी, जो कि एक निष्पृह एवं अध्यात्मयोगी थे। श्री नाहटाजी का चारित्र श्रावकोचित् है । वे खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ की निम्न भौतिक भूमिका एवं बाह्य जीवन से ऊपर हुए हैं । उनमें क्रोध, मान, माया व लोभ के स्थान पर क्षमा, मार्दव, सरलता तथा सन्तोष परिलक्षित होते हैं। वे सांसारिक अवश्य हैं, किन्तु उनके हृदय में संसार नहीं है, जल में कमल पुष्प हैं वे । इसीलिये मुझे उनके जीवन में ज्ञान, श्रद्धा और चारित्र का त्रिवेणी संगम दृष्टिगोचर होता है । उनका अभिनन्दन करना इस संगम के प्रति हमारी आस्था का आयाम है ।
श्री नाहटाजी से मेरा सम्पर्क बाल्यकाल से ही है । विक्रम संवत् २०३६ माघ शुक्ल पक्ष ११वें के दिन अभि निष्क्रमण करने के पश्चात् मेरा उनके साथ पूर्व का सम्बन्ध बौद्धिक सम्बन्ध में रूपान्तरित हो गया। श्री नाहटाजी हमारे पास अनेक बार पधारे। उनके आगमन पर हमारा लक्ष्य केवल एक ही रहता कि इस ज्ञान- शारदा से जैसेतैसे दो-चार चुल्लू भर लें । जव में वाराणसी में 'महोपाध्याय समयसुन्दरः व्यक्तित्व एवं कृतित्व' विषय पर शोध कर रहा था उस समय तो उनकी इतिहासज्ञता आदि से भी मैंने यथावश्यक लाभ उठाया था और वह मेरे लिये उपादेय भी बनी।
श्री नाहटाजी से आगमिक एवं साहित्यिक असंगतिपूर्ण बातों को लेकर अनेकशः पत्रव्यवहार हुए। वस्तुतः धर्म-शास्त्रों में परस्पर अनेक विसंवादित् बातें प्राप्त होती हैं, जिन्हें पढ़कर प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं। नाहटाजी से हम ऐसे प्रश्नों का उत्तर प्रत्यक्ष अथवा पत्र के माध्यम से पूछा करते थे। प्रसगतः श्री नाहटाजी का एक पत्र यहाँ प्रस्तुत करता हूँ। जिनका सम्बन्ध मेरे शोध-प्रबन्ध से रहा है
सादर वंदन ! आपका ता० ११-२-८४ का कार्ड मिला। आपका प्रश्न महत्वपूर्ण है कि समयसुंदर जी महाराज यति थे या मुनि। उसके समाधान के लिए हमें इतिहास पर दृष्टिपात करना होगा । वास्तव में शास्त्रों में जैन साधुओं के लिए कई नाम आयें हैं, यतः यति साधु, मुनि, श्रमण, निर्ग्रन्थ, ऋषि, भिक्षु, संयती - ये सब पंच महाव्रतधारी अपरिग्रही, त्यागी साधुओं के लिए ही व्यवहृत हुए हैं। चतुर्विध संघ में साधु साध्वी श्रावक, श्राविका ही शास्त्रों में आये हुए नाम हैं। अतः पाँचवीं कोई श्रेणी संघ में नहीं थी। संवेगपक्षी या सिद्धपुत्र आदि जो नाम हैं, विशिष्ट श्रावक ही थे आज तेरापंथी आचार्य श्री तुलसी ने समणी वर्ग खड़ा किया है । वह वस्तुतः श्रावक ही है। दिगम्बरों में प्रतिमाधारी श्रावक होते हैं। एलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी आदि श्रेणियाँ हैं। वे मुनि तो नग्न को ही मानते हैं। अपने यहाँ श्रावक की ११ प्रतिमाएँ हैं पर अब वह प्रथा उठ गई है। मेरे अनुदित 'जीवदया प्रकरण काव्य त्रयी' में एक गाथा है-आखीए मयण मतार सेविओं वण जो साध्वाचार में नहीं हैं, वे न श्रावक हैं न साधु । मंदिरों में निवास, गद्दी तकियों का उपभोग, पान- चर्वण,
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कुक्कडो तेण सो पिल्लओ आओ न आखीन च कुक्कडो । चैत्यवास के युग में शिथिलाचार की पराकाष्ठा हो गई। रात्रि में अभिषेक नाटक आदि होते. मंदिरों में वेश्या नृत्य
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होता। संबोध-प्रकरण में हरिभद्रसू रेजो ने लिखा है-यतिजन गंडे-ताबीज करते. अपने शिथिलाचारी गुरुओं के चरण आदि प्रतिष्ठित करते. साध्वाचार के विपरीत आचरण करते-मैं अपने शिर की शूल किसके आगे कहूँ।
जब शिथिलता बढ़ी गुजरात में मठाधीश हो गये । राजस्थान तथा दिल्ली प्रदेश में भी हुए, पर गुजरात में, उनका साम्राज्य था, वे राजगुरु थे। सुविहित मुनिजन का वहाँ प्रवेश ही नहीं था । ऐसे समय में बौद्धधर्म जिस प्रकार हीनयान, महायान, वज्रयान आदि में विभक्त होकर भारत भूमि से लुप्त हो गया, उसी प्रकार जैनधर्म की दशा होती । यद्यपि चैत्यवासियों में विद्वान तो थे पर बिना चारित्रबल के पतनोन्मुखता थी । खरतरगच्छ के सुविहित आचार्यों के प्रताप से जैन शासन वच पाया । वर्द्धमान जिनेश्वर सूरिजी ने पाटण में दुर्लभराज की सभा में उन मठाधीशौं को हराकर गुजरात में वसतिवास-सुविहित और त्याग • मार्ग की परम्परा कायम की । चैत्यवास में जो आत्मार्थी यतिजन थे, खरतरगच्छ की सुविहित परम्परा में आकर. उपसंपदा ग्रहण की। कुछ त्यागी दूसरे गच्छों में भी गए, पर उन्होंने सुविहित मार्ग में उपसंपदा नहीं ली थी। हम जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि के चरित्र में देखते हैं, कितना त्यागमय जीवन था । उनके पास आकर जो चैत्यवासी दीक्षित हुए, उन्हें स्पष्ट कह दिया हमारे यहाँ तुम्हारे निमित्त-शास्त्रादि के विविध प्रयोग नहीं चलेंगे । उनके तो सूरिमंत्रादि के प्रभाव से ही वचन सिद्धि थी। इसीसे स्तोत्रादि का प्रभाव चरित्रादि में देखा जाता है । युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में विस्तृत जीवनियाँ है जो प्रामाणिक है और खरतरगच्छाचार्यों के चरित्र पर विशद प्रकाश डालती है। जो लोग दादा साहब को यति कहते हैं, वे भ्रान्ति फैलाते हैं। यदि उपर्युक्त दस नाम श्रमण-पर्याय के कहें तो हम उन्हें उसी प्रकार यति मान सकते हैं । वैसे सभी गच्छ के त्यागी आचार्य यति कहलाते थे, श्रीपूज्य कहलाते थे। अकबर के फरमान में हीरविजय सूरिजो को भी यति कहा है। श्री पूज्य' शब्द उस काल में सर्वोच्च पद था । गच्छ में उनके नीचे कई आचार्य उपाध्याय होते । श्री पूज्य एक तरह से युगप्रधान पद था। इसी आशय से युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में सबको श्री पूज्य लिखा है पर भ्रान्ति न हो। वर्तमान के पदगत आचार में वह गरिमा नहीं। इसलिए हमने इतिहास में 'श्री पूज्य' का 'पूज्य श्री शब्द प्रयोग किया है। मुसलमानो काल में कारण वश यतिजनों में शिथिलता आई. पर तपागच्छ और खरतरगच्छ में क्रियोद्धार का अर्थ वही है त्याग प्रधान मार्ग स्वीकार, शिथिलाचार का परिहार
ओर यत्किचित परिग्रहादि से सर्वथा मुक्ति । उनके साध्वाचार के नियम युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ग्रन्थ में हमने प्रकाशित किया है, जिन्हें देखने से सब कुछ स्पष्ट हो जायेगा। जिनमाणिक्यसूरिजी ने दादा साहब की देरावर यात्रान्तर के वाद क्रिया-उदार करने का संकल्प किया था। पर उनके पदयात्रा, चौविहार आदि सभी साध्वाचार की ही क्रियाएँ थीं। पिपासा-परिषह से ही उनका देह-विलय हुआ। क्योंकि रात्रि में पानी मिलने पर भी उन्होंने चौविहार-व्रत भंग नहीं किया। उनके स्वर्गवास के अनंतर आचार्यपदारुढ़ होकर श्री जिनचन्द्रसूरिजी जैसलमेर से बीकानेर पधारे । तब ३०० यतियों में से त्याग-वैराग्य वाले १६ शिष्य उनके साथ आये। बाकी को यति नाम रखने का भी अधिकार नहीं रहा। वे मथेरण ( माथे पर ऋण-पगड़ी पहनाकर ) गृहस्थ बना दिये गए। यह घटना उनके साध्वाचार के लिए अच्छा उदाहरण है।
चौथे पाट पर जिनचंद्रसरिजी नाम देने की परिपाटी त्यागमार्ग की ही परम्परा थी। हाथी, घोड़ा. चामर, छत्र आदि का लिखा सो वह तो श्रावक लोग उनसे 'सामेले' में ले जाते थे। उनका उनसे कोई संबंध नहीं था। अकबर
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की प्रार्थना से महिमराज ( मानसिंह) वाचक को काश्मीर विजय-यात्रा में साथ भेजा तो कर्मचन्द्रादि श्रावक भो साथ थे। कर्मचन्द्र मंत्री-वंश-प्रबन्ध में लिखा है कि
शाहि निर्दिष्ट सावध व्यापार परिशीलनात् । मुनीनामावताचार विलोपो भवतादिति ।।
औषधिमंत्र तंत्रादि निपुणं दत्तवान समं ।
पंचाननं महात्मानां विनेयं मेधमालिनः ।। साध्वाचार की रक्षा के लिए ही महात्मा मेघमाली के शिष्य पंचानन को साथ में दिया था जो वादशाह की सावद्य-संभव आज्ञा को परिशीलन कर सके ।
जब वे काश्मीर यात्रा से लौटे तो बादशाह ने कहा--काश्मीर के शीत प्रधान पथरीले पहाड़ी मार्ग में नंगे पाँव पैदल यात्रा में इनका कठिन चारित्र देखकर मैं वड़ा प्रभावित हुआ हूँ-ये चारित्र पालन में दुर्द्धर्ष सिंह सदृश शूरवीर हैं। अतः इन्हें आचार्य-पद देकर इनका नाम जिनसिंहसूरि रखिए। ये सब बातें युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ग्रन्थ को पढ़ने से ध्यान में आ जाएंगी। तत्कालीन काव्य-गीतादि में सर्वत्र उन्हें पंच महाव्रतधारी और शुद्ध साधुचर्या वाले लिखा है। श्री पूज्य और यति शब्द का प्रयोग उस काल की चर्यानुसार सही था। आज की बात छोड़िए। उस समय तो 'करेमि भंते जावज्जीव' ही उच्चारण करते थे। आज के श्रावकों की भाँति 'जावनियम' नहीं । समयसुन्दर जी शुद्ध साध्वाचार में थे । सं० १६८७ में गुजरात के दुःकाल में थोड़ा पिण्डविशुद्धि आदि में दोप लगने के कारण उन्होंने १६९१ में क्रियोद्धार किया था । जिसका वर्णन उनके गीत में मिलता है। आप समयसुन्दर जी को निःसंकोच पंचमहाव्रतधारी साधु लिखिए । उनकी शिष्य परम्परा भी त्यागी थी। उनके सौ सवा सौ वर्ष बाद शिथिलता क्रमशः आई । एकाएक तो आई नहीं थी । आप ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह आदि ध्यान से देखेंगे तो सर्द वृतान्त स्पष्ट हो जायेंगे।
तपागच्छ में सत्यविजयजी पन्यास, विनयविजय जी, यशोविजय जो, पद्मविजय जी, उत्तमविजय जी आदि सधचर्या में थे। उन्होंने क्रियोद्धार किया। उस समय स्वरता में भी देवचंद्र जी, जिनहर्षजी आदि तथा समयसन्दर जी के शिष्य परम्परा के साध विनयचन्दजी आदि अहमदावाद में विचरण करते थे। सं० १८०० के बाद भो जिनलाभसरि जी आदि का पेदल विहार अधिकतर था। जिनभक्तिसूरिजी के शिष्य प्रीतिसागर, अमृतधर्म, क्षमाकल्याणजी आदि हुर जो साध्वाचार का पालन, क्रियोहार आदि करते रहे। समय-समय पर यद्यपि शैथिल्य आया पर त्याग वैराग्य वाले क्रियोद्धारी भी हुये। भिन्न-भिन्न शाखाओं में सभी क्रियोद्धारक शुद्ध साध्वाचार वाले रहे हैं। देवचन्द्रजी आदि आचार्य-शाखा में तो पिप्पलक में शिवचन्द्रसूरि (जिनचन्द्रसूरि ) हुए जिनका रास ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में देखिये। खंधकमुनि की तरह उनकी शरीर की चली एमात के नवाव ने उतार दी पर कितनी समता से परिषह सहा । वे शुद्ध पंचमहाव्रतधारी ही थे।
आपने चौथे पाट जिनचंद्रसूरि नाम देने आदि को परम्पर। का लिखा है। उन शुद्ध पंचमहाव्रतधारियों में ही इन दो सौ ढाई सौ वर्षों में कुछ शिथिल होने पर भी तपागच्छ और खरतरगच्छ में भी श्री पूज्य ही गच्छ१०]
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नायक होते थे। उनका प्रभाव और आतंक इतना था कि क्रियोद्धारकों को भी उनसे सम्बन्ध रखना पड़ता। तभी तो यशोविजयजी जैसे या देवचन्द्रजी क्षमाकल्याग जी जैसे भी उपाध्याय ही रहे । उन्हें आचार्य पद नहीं मिला । आचार्य तो तपागच्छ में आत्माराम जी ही हुए जो कि पहले खरतरगच्छ में आये पर जाट जाति के होने से उन्हें आचार्य पद देने का प्रश्न नहीं था । वे लखनऊ शाखा के जिनकल्याणसूरि जी महाराज के पास आने को तैयार थे, फिर तपागच्छ में गए। उनका उदय था अन्यथा उस समय तक खरतर/तपागच्छ में एक समान ही साधु संख्या थी। खरतरगच्छ में जिनयशःसूरि और जिनकृपाचंद्रसूरि आचार्य हुए। बाद में अन्य साधुओं में आचार्य पद की परम्परा चली। असल में यतियों में से बहुतों ने त्याग वैराग्य वाले होने से क्रियोद्धार किया है।
मोहनलाल जी महाराज, कृपाचंद्रसूरि. चिदानंदजी आदि शिवजीरामजी पायचंद्रगच्छ में भ्रातृचन्द्रसूरि तथा त्रिस्तुतिक आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी आदि भी तो यति ही थे, क्रियोद्धार ही किया है। पर आजकल तो शादीशुदा भी तथाकथित यति होने लगे। वे किसी प्रकार में यति नहीं हो सकते । अगर चार महावूत ठीक है. परिग्रह त्यागा तो पंचमहाव्रत धारी साधु हो गए । वर्तमान के साधुओं से दौ सौ वर्ष पूर्व के यति लोग कोई कम नहीं थे। परिग्रह अत्यल्प था। जमाने के अनुसार वे वैद्यक ज्योतिष अध्यापनादि करने लगे। उनके शिष्य इधर सौ अस्सी वर्षों में बिल्कुल अयोग्य हो गए। इसीलिए थली प्रान्त में सब तेरापन्थी हुए । क्षेत्र न संभालने के कारण हो गए क्योंकि साधओं की संख्या नगण्य थी।
राजस्थान-मारवाड़ के सैकड़ों गाँव खरतरगच्छ के थे। वे आज स्थानकवासी, तेरापंथी या अन्य गच्छ के हो गए। त्रिस्तुतिक भी कहाँ से आयें ? तथा अन्य गच्छ भी कहाँ से आए? गुजरात में भी खरतरगच्छ के हजारों घर थे पर सभी तपा हो गये । खरतरगच्छ की ११ शाखाएँ थी, उनके यति मुनि शेष हो गए । खरतर गच्छादि के यतिजन भी अपने को साध और मुनि लिखते थे यह अनेक ग्रन्थों तथा पत्रों से प्रमाणित है। अतः पत्र में कितना लिखा जाय. मौखिक चर्चा में एक-एक बात स-प्रमाण कही जा सकती है।
आचार दिनकर, जिनपतिसूरि समाचारी, विधिमार्ग प्रथा विधिकंदली. समाचारी शतक तथा क्षमाकल्याण जी के, मणिसागरजी महाराज के व बुद्धिमुनि जी आदि के ग्रन्थों के अध्ययन करने पर आपको खरतरगच्छ परम्परा व मर्यादाओं आदि का ज्ञान पर्याप्त हो जाएगा। आज अपने खरतरगच्छ वाले श्रावक भी दादासाहब को यति मान बैठे हैं ये सारी भ्रान्तियाँ दूर करने की है। यति समाज सौ वर्ष पहले तक जिस रूप में था, संघ को संभाला तथा उपकार भी किया पर उनके शिथिल होने पर ही इतर सम्प्रदाय बढ़े-इस बात को तो मानना ही पड़ेगा। विद्वता
और चारित्रबल दोनों की आवश्यकता है। यति समाज में विद्वता उस समय तक थी, आज तो वे भी निरक्षर भट्टाचार्य रह गये हैं। खरतरगच्छ की गाड़ी कैसे चले? आजकल जो श्रीपूज्यों की गद्दी कहते हैं पर वास्तव में गद्दी जैसी चीज खरतरगच्छ में तो थी ही नहीं. वह तौ चैत्यवासी परम्परा में थी। शाखा भेद को ही गद्दी-भेद कहने लगे। यह केवल १५०-२०० वर्ष के बीच में रूढ़ हुआ है। बीकानेर बड़ा उपाश्रय कोई श्री पूज्यों की गद्दी रूप में नहीं था । पौषधशालाउपाश्रय शुद्ध साध्वाचार वालों के लिए ही थी। भंडार आदि सब श्रावकों के हाथ में थे। श्री पूज्य तो अन्य स्थान की भाँति वर्षों से कभी-कभी आकर चातुर्मास करते थे। जिनलाभसूरिजी तक बिल्कुल यही बात थी। वे अपने जीवन में प्रायः बीकानेर से बाहर ही विचरे और गुढा में स्वर्गवासी हुए । दादा साहब के प्रभाव से ही जो कुछ है बचा है। साध्वियों की संख्या फिर भी ठीक है अतः क्षेत्र सम्भालती हैं। साधु संख्या बढ़े, त्याग, वैराग्य, क्रिया पात्रता हो
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जाय तो आज दूसरों में जितनी दीक्षाएं हो रही हैं अपने में भी हो सके । इन सब बातों को लिखना व्यर्थ है। आप लोग अच्छी तरह जानते हैं |"सं० २०४० का माघ सुदी १४ ।
उपर्युक्त पत्र श्री नाहटा जी की विस्तृत इतिहासज्ञता पर संक्षेप में अच्छा प्रकाश डालता है। इसी ढंग के मेरे पास उनके और भी पत्र संग्रहित हैं। स्थानाभाव के कारण उन्हें प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है।
इसी तरह नाहटा जी का प्राचीन लिपि ज्ञान भी अत्यन्त विस्तृत है। इतिहास आदि के ज्ञाता तो बहुत ' मिल जाते हैं किन्तु प्राचीन लिपियों के ज्ञाता अल्प ही हैं। इसीलिए मैं नाहटा जी के विस्तृत ज्ञान में लिपि पक्ष का ज्ञान विशेष महत्वपूर्ग समझता हूँ। वस्तुतः अन्य तथ्यों का ज्ञान तो अनेक माध्यमों से प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु विभिन्न लिपियों का ज्ञान तो शास्त्रों के मन्थन से ही होता है जो कि अत्यन्त श्रमसाध्य कार्य है। नाइटा जी तो किशोरावस्था से ही इस ओर दिलचस्प रहे, उन्होंने अनेक प्राचीन ग्रन्थों की देवनागरी लिपि में पांडुलिपियाँ की, अनेक स्थानों में जाकर पुरातात्विक शिला-लेखों आदि को पढ़ा। यही नहीं, उन्होंने उन्हें पत्रपत्रिकाओं. पुस्तकों आदि के माध्यम से प्रकाशित भी किया ।
श्री नाहटा जी के जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग आये, जब उन्होंने अपने कुशाग्र लिपि ज्ञान के द्वारा बड़ेबड़े भाषा वैज्ञानिकों को आश्चर्यचकित कर दिया । डा० सुनीतिकुमार चटर्जी, पुरातत्वाचार्य मुनि जिन विजय, पं० राहुल सांकृत्यायन, पं० गौरी शंकर ओझा, पुरातत्व वेत्ता अगरचन्द नाहटा प्रभृति विद्वान आपके इस ज्ञान के सदा प्रशंसक रहे। जिन लिपियों को अन्य विद्वान पढ़ने में शक्य न हो सके उनको श्री नाहटा जी ने एक सुदीर्घ सीमा तक पढ़ने में सफलता प्राप्त की। स्थान परिवर्तन, सनय परिवर्तन और लिपि लेखक परिवर्तन होते हुये भी अवैज्ञानिक वर्णमाला को वैज्ञानिक वर्गमाला की तरह नाहटा जी द्वार। पढ़ लेना उनके गम्भीर ज्ञान एवं चिर अभ्यास का सूचक है । मुझे भी प्राचीन लिपियों का जो यत् किंचित ज्ञान है वह वास्तव में श्री नाहटा जी की ही देन है । यहाँ मैं श्री नाहटा जी के द्वारा ही उनके हाथों से लिखित प्राचीन लिपियों का अभिलेख प्रस्तुत कर रहा हूँ
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उपर्युक्त लिपियों में प्रारम्भिक पंक्तित्रय मौर्यकालीन हैं । अर्थात् विक्रम संवत् २०० वर्ज पूर्ववर्ती हैं। अन्तिम पंक्तिद्वय पालकालीन है अर्थात् लगभग यह १००० वर्ग प्राचीन लिपि है। प्रारम्भिक पंक्तियों में प्रथम पंक्ति में अ आ इ उ ए ओ अं है और द्वितीय पंक्ति में क ख ग घ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म तृतीय पंक्ति य र ल व सह है । अन्तिम पंक्तियों में निम्नांकित श्लोक है
ये धम्मा हेतु पभवा हेतु तेषा तथा गतो आह । तेषा च यो निरोधो एवं वादी महाश्रमणः ॥
इसी प्रकार के श्री नाहटा जी के द्वारा स्वहस्तलिखित प्राचीन शिला लेखों के एक दो उदाहरण और प्रस्तुत है
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उक्त अभिलेखों में प्रथम लेख उदयगिरि की हाथी गुफा पर सम्राट खारवेल का है जो कि ईसा से ३०० वर्ण पूर्व का है। इसमें निम्नांकित लेख है
नमो अरहान नमो सव सिधानं वेरेन महाराजेन महामेघ वाहनेन चेतराज वसवधनेन पसथ सुभलखने (न) चतुरंत लठान गुनोपगतेन कलिंगाधिपतिना सिरि खारवेलेन ।
द्वितीय लेख मथुरा का सींहनादिक प्रतिष्ठापित आयागपट का है। इसमें जिस वात का उल्लेख है, वह इस प्रकार हैनमो अरहंताणं सिकस वानीकस पुत्रेन कोसिको पुत्रेन सीहनादिकेन आयागपटो प्रतिठापितो अरहंत पूजाये ।
श्री नाहटा जी लिपि-विज्ञान ही नहीं, पुरातत्व सम्बन्धी ज्ञान के भी धनी हैं। उन्होंने मूर्तियों, चित्रों, वास्तुकला तथा ललितकला से सम्बन्धित अनेक चीजों का संग्रह किया है जो कि श्री अभय जैन संग्रहालय. बीकानेर में संग्रहित हैं ।
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श्री नाहटा जी वस्तुतः एक चलता-फिरता पुस्तकालय हैं। उनकी स्मरण शक्ति तो अत्यन्त विलक्षण है। वर्षों पूर्व देखी. पढ़ी हुई सामग्री उनके मस्तिष्क में सम्प्रतिपर्यन्त ज्यों की त्यों है। उनके पास कोई निजी पुस्तकालय नहीं है, और न ही वे सामान्यतया पुस्तकालय का उपयोग करते हैं। उनका पुस्तकालय निजी है जो कि उन्होंने अपने मस्तिष्क में संजो रखा है।
सचमुच श्री भंवरलाल जी नाहटा का ज्ञान-गांभीर्य अद्भुत है । यद्यपि उनके पास किसी विश्वविद्यालय की उपाधि / डिग्री नहीं है किन्तु उनकी तुलना महान् शिक्षाविदों से की जा सकती है। उनके ज्ञान को किसी उपाधि के अन्तर्गत आबद्ध नहीं किया जा सकता । सागर की अथाहता को थाहबद्ध करना अशक्य है। इतिहास हो या साहित्य, दर्शन हो या भाषा विज्ञान, पुरातत्व हो या अन्य कोई विषय-समग्रता का पुंज है नाहटा जी के व्यक्तित्व में । उनके ज्ञान-गाम्भीर्य तथा प्रज्ञा-प्रावीण्य को देखकर मैं तो सदैव उन्हें महापण्डित महोपाध्याय समझता हूँ । एक व्यवसायी होकर भी इतने विपुल ज्ञान के धनी होना उनके व्यक्तित्व की सर्वोच्च विशेषता है।
-मुनि चन्द्रप्रभसागर
श्री देवगुरु धर्म के अनन्य उपासक, जैन शासन-प्रभावक सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी, संस्कृत, प्राकृत, बंग, प्राचीन गुजराती, राजस्थानी भाषाओं के ज्ञाता, गुणानुरागी, जैन साहित्य की आध्यात्मिक, धार्मिक और ऐतिहासिक ज्ञान-धारा की त्रिवेणी के संगम, साथ ही उदात्त विचारों की निधि की खान, आदर्श श्रावक का प्रत्यक्ष जंगम बिम्ब, विनय की साक्षात् साकार प्रतिमा, सरलता का जीवित स्वरूप. निरभिमानता के मूर्तरूप, श्रीमान भंवरलालजी नाहटा का अभिनन्दन कर रहे हैं यह जानकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है । आपके इस आयोजन का भूरि-भूरि अनुमोदन करते हुये मैं भी मेरे इन धर्मस्नेही बन्धुवर के चिरायु होने की श्री गुरुदेव व शासनदेव से प्रार्थना करती हूँ कि श्रावकरत्न श्री नाहटा जी दीर्घायु हों और वे बचपन से जो साहित्य सेवा करते आ रहे हैं, उसमें विशेष संलग्न रह कर अप्रकाशित साहित्य का युगानुरूप संशोधनयुक्त प्रणयन अनुवाद करके भावी पीढ़ी को जैन साहित्य की ओर अभिमुख करें ।
उनकी सेवा का मूल्यांकन करना मेरी शक्ति के तो बाहर है। उन्होंने जो दुर्लभ ग्रन्थों की खोज कर विद्वत्समूह के सम्मुख रखा है और उन्हें सर्व साधारण के योग्य बनाया है. उसके लिये जैन समाज विशेषकर खरतरगच्छ तो कभी उऋण हो ही नहीं सकता। नाहटा बन्धओं का यह कार्य सदा के लिये विश्व में अमर रहेगा और स्वर्ण लिपि में निरन्तर लिपिबद्ध होता रहेगा ।
-प्रवत्तिनी आर्या सज्जनश्री
साहित्य और कला के लिये राजस्थान प्रदेश का बीकानेर नगर विख्यात है। जिसकी गोद में एक नहीं अनेकों सरस्वती पुत्रों ने साहित्य साधना कर अपने नाम के साथ इस मरूभूमि को भी गौरवान्वित किया है। ऐसे ही साहित्यकारों की श्रेणी में नाहटा बन्धुओं का नाम बड़े ही आदर एवं सम्मान के साथ लिया जाता है। स्वर्गीय साहित्य शिरोमणि अगरचन्दजी नाहटा की साहित्य, कला, पुरातत्व सम्बन्धी सेवाएँ युग - युगान्तर प्रेरणादायक बनी रहेगी। वहीं इनके भतीजे परम सम्माननीय साहित्य सेवी, कला उपासक, पुरातत्व प्रेमी श्री भंवरलाल जी नाहटा ने भी साहित्य, कला एवं पुरातत्व सम्बन्धी क्षेत्र में अपनी लेखनी के माध्यम से बड़ी सेवा की है।
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पांचवी श्रेणी तक शिक्षा प्राप्त करने वाले साहित्य साधक श्री भंवरलालजी नाहटा ने अब तक हजारों शोधपूर्ण ऐतिहासिक, साहित्यिक. धर्म, दर्शन आदि सम्बन्धी रचनाएँ केवल लिखी ही नहीं है अपित भारत की उच्च कोटि को पत्र-पत्रिकाओं में विशिष्ट स्थान भी पा चुकी है। आपने इतिहास की गहराइयों को जहां छआ है वहां पुरातत्व की बारीकी से भी अछूते नहीं रहे। जिसके कारण आपने इतिहास एवं पुरातत्व के क्षेत्र में जो कार्य किया वह निश्चित रूप से संग्रहणीय एवं अनूठा ही है।
श्री भंवरलाल जी नाहटा द्वारा प्रकाशित, सम्पादित पुस्तकों व ग्रन्थों की लम्बी सूची भी है। अनेकों दुर्लभ ग्रन्थों का अनुवाद भी आपने किया है। कई पुस्तकों का आपने स्वर्गीय साहित्य तपस्वी नररत्न अगरचन्द जी नाहटा के साथ सम्पादन, अनुवाद एवं प्रकाशन भी किया है । साधारण शिक्षाप्राप्त धर्मप्रेमी श्री भंवरलाल जी नाहटा के पास विद्यालय की कोई डिग्री नहीं है लेकिन वे हिन्दी. गुजराती, बंगाली, राजस्थानी भाषा के साथ-साथ संस्कृत, पाली. प्राकृत. अपभ्रंश आदि भाषाओं के ज्ञाता भी हैं। जिसके कारण आपने अपनी लेखनी से जैन साहित्य की अमूल्य सेवा की है। प्राचीन कलात्मक दुर्लभ सामग्री को संग्रहित कर आपने प्राचीन ऐतिहासिक वैभव का अनूठा संग्रहालय खड़ा कर दिया है जो भारतीय कला एवं संस्कृति के नये आयाम लिये हुये हैं।
शांत स्वभावी, मधुरभाषी श्री भंवरलाल जी नाहटा पर लक्ष्मी का प्यार त है, सरस्वतो का दुलार भी है। धर्म आराधना एवं उपासना आपने अपने पूर्वजों से अर्जित कर रखी है। बीकानेर के नाहटा परिवार में साहित्य
और कला उपासकों ने अपना नाम जगत - विव्यात कर रखा है साथ ही इसी गोत्र में धर्म आराधना, उपासना के लिये संसार के मोह माया के जाल से हटकर श्रमण संयम जीवन प्राप्त करने वालों को भी संख्या कमा नहीं है। यह मेरा मो सौभाग्य ही रहा है कि मैंने भी धर्मनिष्ठ परम आदरणीय श्री भंवरलाल जी नाहटा की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन में विश्व-प्रेम प्रचारिका, समन्वय साधिका, जैन कोकिला, व्याख्यान मारती. जिनशासन प्रमाविका, समभाव धारिका प्रवत्तिनी स्वर्गीया विचक्षण जी म० सा० की शिष्या बनने का गौरव प्राप्त किया।
मैं धर्म आराधक. साहित्य उपासक, कला प्रेमी, संस्कृति रक्षक, इतिहास के रचयिता, पुरातत्व के पंडित. आशुकवि श्री भंवरलालजी नाहटा को उनकी ७५ वीं वर्षगांठ पर किये जाने वाले अभिनन्दन पर उनके चिराय की मंगल कामना करती हुई जिनशासन देव से प्रार्थना करती हूँ कि आप साहित्य एवं सांस्कृतिक सेवा के साथ-साथ जैन शासन की अधिक से अधिक सेवा कर जन-जन में यशस्वी बनें।
-चन्द्रप्रभाश्री एक प्रसिद्ध व्यवसायी होने पर भी आपके द्वारा जो साहित्य सेवा, समाज सेवा की गई है एवं की जा रही है वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आप का वाह्य परवेश-सादगी से परिपूर्ण किन्तु ज्ञान-साधना अति ऐश्वर्यपूर्ण है । निःसंकोच कहा जा सकता है-विद्वता के आप मूर्तरूप हैं। आपकी विद्वता को किसी प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है वह तो आप के सहस्रों लेखों, कविताओं, कहानियों में बिखरी पड़ी है-जिन्हें पाठक सहज अनुभव करते हैं। लिविज्ञान, भाषाशास्त्र में तो आप पारंगत हैं ही, किन्तु मूर्तिकला, चित्रकला. वास्तुकला. ललितकलाओं के भो पारखी हैं। इतिहास में विशेष गति तथा अनेक भाषाओं के ज्ञाता हैं। अपने जीवनकाल में आपके द्वारा जो विशाल अध्ययन एवं ज्ञान सम्पदा से समाज को विभिन्न दिशाओं में मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है-वह सदैव अविस्मरणीय रहेगा।
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ज्ञानपक्ष के साथ-साथ क्रियात्मक आचरण में भी आप नियमित अप्रमत्त हैं । धार्मिक आस्था का परिचय आपकी दैनिक प्रवृति देती है। इस समय स्व० अगरचन्द जी नाहटा जो आपके काकाजी थे उन्हें स्मरण किए बिना नहीं रह सकते । नाहटा परिवार में नाहटा बन्धद्रय ने जीवन में ज्ञान व आचरण का समन्वय रूप आदर्श उपस्थित किया है।
-मणिप्रभा श्री आज से ११ वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ के पंडरिया तहसील में संपन्न ग्रीष्मकालीन प्रांतीय जैन शिक्षण शिविर के समापन समारोह का श्री अगर चन्द जी नाहटा की अध्यक्षता व श्री भंवरलाल जी का मुख्य आतिथ्य पिला था। पश्चात् पिछले वर्ष दिल्ली वर्षावास के मध्य कुछ समय मुलाकात-वार्ता हुई।
उक्त अल्पकालीन सम्पर्क में यह अन्देशा किया कि आप वित्त व विद्या की संपन्नता के साथ-साथ विनम्रता विवेक, विश्वास, विलक्षणता की साकार प्रतिमा हैं। व्यवहार की सरलता है, वाणी में दृढ़ता है. वृद्धावस्था के बावजूद आपकी नशों में युवकों सी प्राणवत्ता है । यद्यपि युगप्रधान प्रथम दादा गुरुदेव जिनदत्तसू गोत्र नाहटा ही ना-हटा ( कत्र्तव्य के प्रति दृढ़ संकल्पी) का द्योतक है वही शोणित आपकी रग-रग में समाहित है।
निष्कर्षतः आपके अथक प्रयत्नों से विश्वसाहित्य को महत्वपूर्ण उपलब्धि हुई है। आपकी बुद्धि सरिता के मुहाने पर ज्ञान एवं कला का अद्वितीय संगम है फलस्वरूप वस्तु, शिल्प, मूर्ति, ललित चित्रकला के साथ ही इतिहास विज्ञान, अन्वेषणरुचिता, दुर्लभ भाषा, साहित्य तथा प्राचीन लिपियों के सहस्रोसहस्र गूढ़तम तथ्यों का रहस्योद्घाटन कर अनुपम अमूल्य निधि समर्पित की है जो पुश्त-दर-पुश्त आपकी चिर-स्मृति लिये साहित्य प्रेमियों को दिशाबोध कराती रहेगी। अभिनन्दन के इन क्षणों में शासनेश से प्रार्थना है कि श्रीयुत् नाहटा जी दीर्घ अवधि तक अपनी ज्ञान-प्रभा से जनमानस को आलोकित करते रहें। समाज पूर्वापक्षा उनसे अधिक लाभान्वित होकर एक दीप से हजारों दीप ज्योतित करे । यही मंगलकामना ।
-मनोहर श्री
' श्री नाहटाजी सा० पूर्वापेक्षा अधिक जिन साहित्य सेवा में अग्रसर हों और उन्हें गुरुदेव खूब सुयश प्रदान करें, यही शुभकामना है।
-साध्वी प्रधान अविचल श्री. विनीलाश्री. सुरंजनाश्रीआदि
संवत् १०८० से चला आ रहा खरतरगच्छीय वाङ्मय जो ज्ञान भंडारों में संग्रहित था, जिसकी जानकारी भी विद्वानों को नहीं थी उन ग्रंथों को प्रकाशन में लाने का कार्य श्रीमान् श्रेष्ठीवर्य अगरचंद जी नाहटा एवं भंवरलाल जी सा० नाहटा ने किया। हालांकि ये व्यावसायिक वणिक हैं , व्यापार धंधा इनके जीवन निर्वाह का साधन है फिर भी साहित्यिक रुचि अनुकरणीय, अनुमोदनीय व प्रशंसनीय है। इनकी साहित्य सेवा खरतरगच्छ जैन समाज के लिए अविस्मरणीय है। ये संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, मारवाड़ी आदि के ज्ञाता तो हैं ही साथ ही कवि भी हैं । महामहो. पाध्याय समयसुंदर जी, जिनहर्षगणि, जिनभद्र गणि, जिनप्रभसूरि, ज्ञान सागर उपाध्याय, जिनवर्धनसूरि आदि अनेकशः विद्वानों पर आपने शोधपूर्ण कार्य किये । जैन संस्कृति की सुरक्षा के लिए आप हमेशा तैयार रहे हैं । यहाँ तक कि मुझे भी शोध कार्य में निरन्तर प्रेरणा देते रहे हैं। आपके निर्देशन में 'खरतरगच्छीय साहित्य कोश' बनाने का संकल्प किया है। गुरुदेव से यही कामना है कि ऐसे साहित्य सेवी, कर्मठ कार्यकर्ता को दीर्णयु प्रदान करें।
-सुरेखाश्री
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I am glad to learn on Shri Bianwarlal Nahata's reaching the age of Seventyfive, his friends in Calcutta are feiicitatiag him through an Abhinandan Granth. I have pleasure in extending my felicitations to him on this occasion, together with my best wishes for his good health and continued service to the many public causes with jwhich he is associated.
-R. Venkataraman Vice-President of India
The Prime Minister Shri Rajiv Gandhi is pleased to know that Shri Bhanwarlal Nahata Abhinandan Samaroh Samity will be publishing the Abhinandan Grantha in honour of Shri Nahata on his 75th birth anniversary. He sends his good wishes to the Samity on this occasion.
-Rajeshwari Tandon Social Secretary to PM, Govt of India
श्री नाहटा जो राजस्थान के साहित्य जगत की विभूति हैं। उनका सम्मान प्रदेश का सम्मान है।
: - PART 4 सदस्या, राजस्थान विधान सभा, जयपुर
I am delighted to know that Shri Bhanwarlal Nahata Abhinandan Samaroh Samiiy has decided to felicitate Shri Bhanwarlal Nahata, an eminent linguist on his 75th Birth Anniversary. I send my good wishes for this noble endeavour.
-Kalpana Dasgupta Librarian, National Library, Calcutta.
Shri Bhanwarlal Nahata is well known for his rich and valuable contribution as a Scholar of various oriental languages and possessing deep insight for old scripts, as also, for his historical knowledge and as an expert on antiquities. During the course of several years he has studied thousands of old manuscripts in various languages and scripts and by translating them has brought tɔ light many hidden treasures from old literature of various languages and scripts adding to the cultural heritage of the country and establishing himself as a scholar of his own kind.
a long life to continue to be of valuable
I take this opportunity of wishing him service to the community as a whole.
Sawai Bhawani Singh of Jaipur MVC
City Palace, Jaipur
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श्री अगरचन्दजी एवं श्री भंवरलाल जी नाहटा दोनों बन्धुओं ने जैन साहित्य को जन-साधारण की भाषा में गद्य-पद्य के रूप में लिखकर, इतिहास का शोधन कर समाज पर बहुत बड़ा उपकार किया है।
गत वर्ष अनायास ही उनसे पालीताना में मेंट हो गई थी। उनकी बड़ी कृपा थी कि उनके अमूल्य समय में से लगभग शा-२ घंटे का समय मुझे मिला और पालीताना में खरतरगच्छ के पूर्व काल के प्रभाव का और प्रसंगानुसार भारतवर्ष में खरतरगच्छ के प्रभाव का रोचक एवं तथ्यपूर्ण इतिहास जाना। उन्होंने इसको लेखबद्ध किया या नहीं नहीं जानता पर ऐसी कई बातें जो उनकी जानकारी में हैं उन्हें लिपिबद्ध किया जाना आवश्यक है ।
श्री भंवरलाल जी नाहटा उत्तम पुरुष हैं। उनके मन में जैन धर्म का जैसे भी हो पोषण, रक्षण, प्रसार हो यह भावना बनी रहती है। उनके जीवन के प्रत्येक कार्य में उनका यह भाव प्रगट होता है। इसीलिये उनके जीवन में स्वार्थ गौण है। उनकी क्रियाए उचित हैं। हमेशा अदीन भाव से रहते हैं। कोई भी कार्य प्रारंभ करने के पूर्व उसके परिणाम का आकलन कर लेते हैं, अपने आशय के प्रति दृढ़ हैं, उनका कोई छोटा-सा भो उपकार करे तो वे उसको भूलते नहीं ।
ऐसे गुणवान, गुणानुरागी महानुभाव का आपने अभिनन्दन समारोह के रूप में गुणानुवाद किया और मुझे भी उनके आंशिक गुणों का वर्णन करने का अवसर दिया. इसके लिये मैं आपका आभारी हूँ।
-विमलकुमार चौरड़िया प्रान्त संघ चालक, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भानपुरा. म० प्र०
श्री नाहटाजी अपने आपमें एक वृहद् मानवज्ञानकोश हैं और उनके कार्यों ने विश्व साहित्य समाज में कीर्तिमान स्थापित किये हैं। इस प्रकार की विश्व द्य विभूति का जितना सम्मान किया जाय कम है।
-अनिल शर्मा काउन्सिलर, कलकत्ता म्युनिसिपल कापोरेशन
श्री नाहटाजी हमारे समाज एवं देश के गौरव हैं और वे केवल व्यक्ति ही नहीं, एक महत् संस्थान हैं । हमारे अनेक दुर्लभ प्राचीन प्रयों को, जिन्हें पढ़ पाना दुष्कर था, उन्होंने अपनी प्रतिभा से उनकी स्वतन्त्र वर्णमाला तैयार कर उस धरोहर को देशवासियों के लिये सुलभ कर दिया । इस कार्य के लिये वर्तमान ही नहीं, भविष्य की भी सारी पीढ़ियां इनकी चिर ऋणी रहेगी।
-शान्तिलाल जैन काउन्सिलर, कलकत्ता म्युनिसिपल कार्पोरेशन
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पितामह स्वरूप नाहटाजी हम सबके प्रेरणा स्रोत हैं। उनकी बहुआयामी प्रतिमा की महासागरीय विशालता एवं गहनता साधारण व्यक्ति की कल्पना क्षमता में नहीं सना सकती । हम तो तटवर्ती लहरों के स्पर्श-सुख में ही जीवन की अलौकिक सम्पन्नता एवं आनन्द की अनुभूति से अभिभूत हो उठते हैं । अतीत की दिव्य अनुभूतियों को अतिमानवीय चेतना से सम्पृक्त कर वर्तमान का अभिषेक करने वाले महान पुरोधा की साधना के शाश्वत आलोक की प्रभा का अभिनन्दन कर भावी पीढ़ियाँ अपनी पहचान को अधिकाधिक सशक्त एवं समुज्ज्वल बना सकेगी-इसी विश्वास के साथ नाहटाजी के त्रिकाल व्यापी व्यक्तित्व के प्रति खड़गपुर जैन समाज अपना शत-शत प्रणाम निवेदन करता है।
-भीखमचंद कोचर मंत्री. श्री जैन श्वेताम्बर संघ, खड़गपुर
इस मंगल कार्य हेतु स्वयं मेरी तथा श्री अ० भ० साधुमार्गी जैन संघ की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं स्वीकारें। मै शासनदेव से उनके शतायु होने की प्रार्थना करता हूँ।
-चम्पालाल डागा कोषाध्यक्ष, श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ, बीकानेर
अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद् परिवार की तरफ से श्रीमान् नाहटा जी के चिरायु होने की मंगल कामना करता है। श्री नाहटा जी की अनुपम सेवायें दीर्घकाल तक साहित्य जगत को प्राप्त होती रहे, ऐसी प्रभु से कामना है।
-मेवालाल डागा सहमंत्री, अखिल भारतीय तेरापन्थ युवक परिषद्, गंगाशहर (बीकानेर)
धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में श्री नाहटाजी सा० का विशाल योगदान रहा है. वो भी अखिल भारतीय स्तर पर | श्री नाहटा जी सा० मेरे पूज्य पिताश्री रामलालजी सा० लुणिया के समकक्षी सहयोगी रहे हैं। हमारे यहाँ उनके काकाजी साहित्य-वारिधि श्री अगरचन्दजी नाहटा का बहुत आना-जाना रहा था तथा श्री भंवरलालजी सा० नाहटा भी यदाकदा उनके साथ ही पधारते थे, किसी न किसी संस्था के सन्दर्भ में सलाह मशविरा करने के लिये । मेरा जब भी उनके साथ साक्षात्कार हुआ मैंने उन्हें गम्भीर. चिन्तनशील विद्वान की छवि आलोकित करते पाया। उनके सुलझे हुए विचारों की क्रियान्विति रचनात्मक रूप से हो, समय से हो, यही उनकी विशेषता रही, जिससे श्री नाहटा जी सफलता के चरम शिखर पर पहुंचे हैं।
धर्म और समाज-सेवा के कतिपय कार्य जो ऐतिहासिक महत्व के लिये गिने जाते हैं, उनमें श्री जिनदत्तसूरि सेवा संघ के मंत्री के रूप में विभिन्न स्मारकों का निर्माण है जैसे आचार्य श्री हरिभद्रसूरि स्मृति मन्दिर, चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) एवं मुगल शहंशाह अकबर प्रतिबोधक दादा गुरुदेव १००८ श्री जिनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के स्वर्ग-स्थली, बिलाड़ा (राजस्थान) में भव्य दादाबाडी। इन्हें बनाने की योजना के विचार-विमर्श एवं समाज के अग्रजों से सम्पर्क हेतु आपका अजमेर आगमन होता ही रहता था। आप ही की देखरेख में हरिभद्रसूर स्मृति मन्दिर का भव्य स्मारक बना व श्री जिनदत्तसरि सेवा संघ ने प्रतिष्ठा कराने का श्रेय लिया तथा स्मारिका भी छपाई । श्री जिनचन्द्रसूरि दादाबाड़ी एवं देरासर का भव्य
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निर्माग, १० पू० स्व० महाराज श्री १०५ श्री विचक्षणश्रीजी म० सा० की प्रेरणा से श्री रामलालजी सा० लुणिया ने अपने हाथों में लिया। जयपुर के प्रसिद्ध रत्न-पारखी समाज-सेवी श्री राजरूपजो सा० टांक व बिलाड़ा, जोधपुर, पिपाडसिटी आदि स्थानों के आगेवानों को साथ लेकर अखिल भारत के सहयोग ये चर्थ दादा गुरुदेव की भव्य दादाबाड़ी का निर्माण हुआ व प्रतिष्ठा हुई । उस दिन सकल श्वेताम्बर श्री संघ ने हमारे नायक श्री संवरलाल जी नाहटा के सुदृढ़ हाथों में इसकी प्रबन्ध व्यवस्था सौंप दी थी। आज थोड़े से समय में यह दादाबाड़ी अखिल भारतीय । स्तर पर गुरुदेव-भक्तों के दर्शन, पूजन का श्रद्धापूर्ण तीर्थ बन गया है। इसका श्रेय श्री भंवरलाल जी नाहटा की दूरदर्शिता पूर्ण मार्गदर्शन को ही है। रतलाम में प० पू० महाराज श्री १०५ श्री विचक्षणश्री जी म० सा० की चिर-वांछित संस्था "श्री सुखसागर गुरुकुल" की स्थापना का श्रेय भी श्री भंवरलालजी सा० नाहटा को दिया जाएगा। इस संस्था से जन छात्रों को आधनिक शिक्षा के साथ रचनात्मक कार्यों एवं धार्मिक क्रिया-कलापों के साथ जीवन सफल बनाने का मार्ग-दर्शन मिलता रहा है। शिक्षा प्रेम का इससे बढ़िया उदाहरण और क्या हो सकता है।
साहित्य के द्वारा जैन समाज को आपकी देन, "कुशल निर्देश" मासिक-पत्र है जिसका वर्णन करना भी अतिआवश्यक है। आप ही के विद्वतापूर्ण सम्पादन एवं कुश व्यवस्था से यह पत्र समाज में अपना उच्च स्तर कायम रखते हुए वौँ से सेवारत है। मूलतः बीकानेर (राजस्थान) के वासी होते हुए तथा व्यापारिक व्यस्त जीवन का कलकत्ता महानगर में निर्वाह करते हुए आपने लक्ष्मी एवं माँ सरस्वती की आराधना में अपना जीवन लगाया यह स्तुत्य है। सबसे बड़ी बात है इन सभी व्यस्ततापूर्ण स्थिति में भी आपकी समाज सेवा एवं धर्म में गहरी निष्ठा जाग्रत रही है। आपका सक्रिय सहयोग समाज के हर वर्ग एवं हर संस्था को मिला और आपके औदार्यपूर्ण व्यक्तित्व से संब्ल भी मिला।
भाषा-शास्त्र, लिपि-विज्ञान, चित्रकला एवं ललितकलाओं के पारखी, विलक्षण प्रतिभा के धनी श्री भंवरलालजी सा० नाहटा के समन्वय प्रेम, कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तित्व को दृष्टिमान रखते हुए कतिपय उद्गार, श्रद्धा-सुमन के रूप में अर्पित करते हुए हम आज हमारी संस्था की ओर से श्री भंवरलालजी सा० नाहटा का हार्दिक बहुमान करते हैं तथा परम पूज्य गुरुदेव महाराज से प्रार्थना करते हैं कि धर्मनिष्ठ नाहटा जी सा० शतायु हों व समाज उनकी प्रतिभा एवं मार्गदर्शन से लाभान्वित होकर प्रगति करता रहे।
-अमरचन्द लुणिया अध्यक्ष, श्री जिनदत्तसूरि मण्डल. अजमेर
भंवरलाल जी नाहटा सं म्हारौ मिलग रौ मोकौ कदेई पड्यौ कोनी, नी कोई जोग कदै मिलण रौ हुयौ हां वारा स्वर्गीय काका श्री अगरचन्दजी नाहटा सू केई बार मिलणौ भी हुयौ और केई विषयां माथै पत्र व्यवहार भी पण वारे भतीजे भंवरलालजी रौ नांव म्हारै वास्ते असेंधौ हुवै आ बात नीं। म्है तो कांई' राजस्थानी रो सायद ही कोई अड़ो सजग पाठक हुवैला जो मैंवरलाल जी नाहटा रो नांव नी सुण्यौ हुवे। मिलण रौ जोग तो हुवे भी कियां वे राजस्थान सं कारूप देस में, कलकत्ता नगर में आपरौ वोपार संभालै। आपरी जलमभोम बीकानेर सू अता दूर रहता थकां भी वे आपरी मायड़ भाषा खातर आपरै हिय में पूरी पीड़-पाळ राखी अर राजस्थानी साहित्य रौ सिरजण करयौ अर उणरी
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अंवेरभी करी। भंवरलालजी नाहटा राजस्थानी रे आपूनिक साहित्य रे सिरजग रे साथै राजस्थानी रै पुरांण साहित्य रौ संग्रह अर संरक्षण रो मेहताऊ काम करयौ। मैंवरलालजी अर आरा काका अगरचन्दजी नाहटा औ दोनूं मिळ'र पाण्डलिपियाँ रौ जे संग्रह करयौ वो आज भी "अभय जैन ग्रन्थालय वीकानेर" में सुरक्षित है। इयै ग्रन्थ में कोई ५६-५७ हजार नैड़ी हस्तलिखित पोथियाँ भेळी करीजी जिको अपणे आप में वोत बडौ काम है ।
अक बात अठै म्है आ भी कैवगी चावं के भंवरलालजी नाहटा साहित्य सिरजण अर ग्रन्थसंग्रह रै साथै आपरौ पुश्तैनी धंधौ भो अठै ढंग सं संभाळियौ। मैंवरलालजी इण काम धंधा अर आपरा वोपार ने जे नी संभाळता तो अगरचन्दजी नाहटा सायद ही इतौ साहित्य लेखन रौ काम कर सकता । क्युकै अगरचन्दजी नाहटा ने साहित्य लेखन रौ इतौ अवसर नी मिळतौ। इण भांत भँवरलालजी आपरै काकाजी अगरचन्दजी न साहित्य सिरजण सारू पूरौ अवसर देय जो अमोलो सेयोग दियो वो भी सरावग जोग जिग री वजह सूं है। अरचन्दजी नाहटा आपरौ पूरौ जीवण साहित्य रै नाम समर्पित कर सक्या । काका रे खातर भतोज रौ और त्याग अर माव बखांणण जोग । राजस्थानी रा लाडेसर आं दोनूं काका भतीज रा वखांग करां जिता ही थोड़ा।
भँवरलालजी नाहटा रे इण अभिनन्दन अवसर माथै म्है मायड़भाषा रा हेताळ सपूत री इस सबदां में अभिनन्दन करु
समझगहार सुजाण, बीकाणै रौ ६ांकुरौ । धना'र विद्या र पांण, ओळख वणाइ आपरी ।। १।।
गरवी घणै गुमेज. गुवाड़ ज नाहटां तणी। भंवर अगर रै काज, अंजसै रजथांनी अजै ।। २ ।।
भँवर जिसौ भतरीज. हरख्यौ अगर रो हिवडौ।। रूड़ी बणी आ रीझ, काका नै भतीज तणी ॥ ३ ॥
भँवर भरिया भण्डार, पूर पुरांणी पोथियां । सिरजण रौ सुअधार, रजथानी नै थें दियौ ।।४।।
भंवर पगां रौ भेस, भँवर पदै न धारियौ। मुळके मरूधर देश, नर नाहट तुझ कारणे ॥ ५॥
सुरसत लिक्षमी दोय, अकण साथ अराधणौ । कसर न रखो कोय, सांचे मन सेवा करी ॥ ६ ॥
-विक्रमसिंह गून्दोज राजस्थानी शोध संस्थान, जोधपुर
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श्री भँवरलालजी नाहटा से मेरी मुलाकात केवल एक बार की है । सामान्य से मारवाड़ी पहनावे में वे एक सेठ तो लग सकते हैं. पर वे इतने बड़े सरस्वती पुत्र हैं, यह कल्पना ही दुरुह है। लगता है स्वयं सरस्वती ने आश्रय खोजते खोजते थककर श्री भँवरलालजी को ही अपना आश्रय स्थल बना लिया है। उनके पास अकादमीक शिक्षा की कोई डिग्री नहीं है, इसके बावजूद वे हिन्दी संस्कृत, प्राकृत, बंगला तथा राजस्थानी के उद्भट विद्वान हैं।
उन्होंने बहुत लिखा, विभिन्न विधाओं में लिखा
कहानी, संस्मरण, शोध-प्रबन्ध और कविता में उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। उन्होंने जितना लिखा वह व्यक्ति के रूप में नहीं, एक नाहटा वन्धु के रूप में लिखा और इसीलिये श्री अगरचन्दजी नाहटा के नाम से जाने-पहचाने प्रचुर साहित्य में उनका वहुत बड़ा भाग है। यह अलग नहीं किया जा सकता है यानि जितना साहित्य उनके नाम से जाना जाता है वे उससे कहीं अधिक के लेखक हैं।
भी हैं। उनका लेखन
यद्यपि बीसवीं सदी के
श्री नाहटा जी जितने बड़े विद्वान हैं, उतने ही विनम्र और समर्पित-वृत्ति वाले आर्थिक अर्जन के लिये तो हुआ ही नहीं है. यश प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी नहीं हुआ है। इस नौवें दशक में यह तथ्य स्वीकार करने को मन नहीं मानता है, पर यह सर्वथा सत्य है समर्पित साहित्यकारों की उस कड़ी में अग्रणी हैं, जो समय की परतले आच्छादित नहीं होंगे। अवसर पर मेरी कानना है कि हमें उनकी शताब्दी मनाने का भी अवसर प्राप्त हो ।
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श्री भँवरलालजी नाहटा उनके ७५वें जन्मदिवस के
श्री भँवरलाल नाहटा की समाज सेवा से परिचित है। उन्होंने सभी समुदायों के हित के लिए कार्य किया है । ऐसे प्रतिभाशाली और क्षमतावान व्यक्ति का अभिनन्दन करना ही चाहिए। मेरी शुभकामनाएं ।
- हर्षचन्द्र संपादक, कथालोक, दिल्ली
श्री नाता जी ने अपनी प्रतिभा, अध्ययन, चिन्तन तथा मनन द्वारा तथा अज्ञात ग्रन्थों की खोज संपादन तथा अनुवाद द्वारा जिन शासन का गौरव बढ़ाया है। मैं उनकी हीरक जयन्ती के अवसर पर हार्दिक मंगल कामना करता हूँ। -ज्ञानचन्द जैन सम्पादक तारणबंध. भोपाल
-राजेन्द्र अवस्थी कादंविनि, नई दिल्ली
श्री भंवरलालजी नाहटा एक प्रतिभावान भाई हैं। आप संस्कृत प्राकृत, पाली, हिन्दी, बंगला, गुजराती और राजस्थानी भाषाओं के अच्छे जानकार हैं। साथ ही आपका लिपि ज्ञान भी अद्भुत है । आपने अनेकों लेख और कई पुस्तकें भी लिखी हैं इतिहास की खोज में भी आपकी अधिक रुचि है।
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इस मंगलमय अवसर पर हम नी नाहटाजी के दोर्घजीवी होने की प्रार्थना करते हैं । साथ ही नाहटा जी को 'जैन रत्न' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव पेश करते हैं ।
-जवाहरलाल लोढ़ा सम्पादक, श्वेताम्बर जैन, आगरा
श्री भंवरलाल नाहटा जसे कम ही व्यक्तियों को वैश्य समाज में सरस्वती का सौभाग्यशाली पुत्र बनने का शुभावसर मिलता है । वे अपना कार्य करते हैं, सम्मान या यश के लिये नहीं, अपितु साहित्य के विकास के लिए. वो भी आंतरिक भूख और दृढ़ संकल्प के साथ । स्वयं सरस्वती साधना से प्रसन्न होकर ऐसे व्यक्तियों की मार्ग-प्रदर्शिका बन जाती है। धनिक, उद्योगपति, व्यवसायी गली-गली में मिलते हैं, किन्तु सरस्वती के सच्चे साधक दुर्लभ होते हैं।
हमें उनका सम्मान कर नयी पीढ़ी को उनकी तेजस्विता एवं साधना से परिचित कराना है। सरस्वती की उपासना करने वाले के अभिनन्दन में मेरा भी स्वर साथ है ।
-कृष्णचन्द्र अग्रवाल सम्पादक, दैनिक विश्वमित्र, कलकत्ता
यह सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि पूज्य भाईजी श्री भंवरलाल जी नाहटा की ७५वीं वर्षगांठ 'अमृत-महोत्सव के रूप में कलकत्ता के प्रबुद्ध नागरिकों की ओर से मनायी जा रही है । वैसे सन् १९७६ ई० में स्वनामधन्य स्व० आगरचन्द जी नाहटा को अभिनन्दन ग्रन्थ सेंट किया गया था-संयुक्त रूप से आपका भी अभिनन्दन "नाहटा बन्ध अभिनंदन ग्रन्थ" के रूप में किया गया था।
हमारे नाहटा परिवार में दूसरी पीढ़ी में भंवरलालजी ही उम्र में सबसे बड़े हैं इसलिये सभी भाई जी के नाम से इन्हें पुकारते हैं। जिस वर्ष मेरा जन्म हुआ उसी वर्ष माईजी का विवाह छोटा देवी से हुआ था। इनकी गोद में मैं पला हूँ-और बचपन से ही न जाने क्यों मेरे मन में इनके प्रति श्रद्धा, प्रेम एवं अटूट विश्वास रहा है।
म ईजी गृहस्थ में होते हुए भी संत पुरुष हैं। इनके चेहरे पर कमी क्रोध की लालिमा नहीं देखी। जो कुछ भी साहित्य, इतिहास, पुरातत्त्व का काम किया अपने चाचा अगरचन्दजी नाहटा के साथ संयुक्त रूप से किया किन्तु स्वयं निलिप्त भाव से रहे, सभी चाचाजी के चरगों में समर्पित कर रखा था। इनकी कभी भी यह आकांक्षा नहीं रही कि इनका नाम हो, इन्हें यश मिले। यह एक ऐसा मानवीय गुग भाईजी में है, जिसकी कोई दूसरी मिशाल नहीं।
भाईजी का सारा जीवन सत्य-निष्ठा से ओत-प्रोत है, कभी झूठ या गलत वात का सहारा नहीं लिया । या तो मौन रहे या स्पष्ट रूप से खुल्लम-खुला कहा । आपने मुझे एक दिन एकान्त में बताया-मैंने जीवन में कोई गलत काम नहीं किया। एक-दो वातें अनजाने में हो गई, उसका अभो भी मैं पश्चात्ताप कर रहा हूँ।
भ ईजी का अनेक संस्थाओं से सम्बन्ध है। जो पद भार ग्रहण करते हैं उसको कर्तव्यनिष्ठा से निभाते हैं । कलकत्ता जैन समाज के ही नहीं. भारतीय जन समाज के साहित्यसेवी. समाजसेवो. धनिष्ठ श्रावक हैं । अपने निकटतम लोगों के विषय में कलम से लिखना बड़ा दुष्कर कार्य है, इसलिये कलम को यहीं विश्राम देता है। प्र है-आपका सान्निध्य, वरद हस्त युगों-युगों तक हम सब पर छत्र छाया बनाये रखे ।
-हजारीमल बाँठिया. कानपुर
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जानकर अत्यन्त आनन्द हुआ कि श्री भंवरलालजी नाहटा का अभिनन्दन हो रहा है।
श्री नाहटाजी ने जो साहित्यसेवा की है वह बहुत काल तक याद रखने वाली है। न मालूम कितने नये ग्रंथों के ऊपर लेखकों की खोज उन्होंने अपने व्यापारी जीवन में व्यस्त रहकर भी की है. उसका अंदाजा लगाना भी कठिन है। कई भण्डारों को उन्होंने टटोला और उनमें से रत्नों की खोज की है। आनेवाली पीढ़ी के लिये जो सामग्री उन्होंने जुटाई वह इतनी है कि उस पर कई विद्वान शोध करने जुट जाए फिर भी उसका अन्त आने वाला । नहीं है। एक ही व्यक्ति के इतने शोध-प्रबन्ध अन्यत्र दुर्लभ हैं। मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।।
-पं० दलसुख मालवणिया, अहमदाबाद
श्री भंवरलाल नाहटा की सेवाए बड़ी व्यापक है। उन्होंने जेन साहित्य को ही नहीं, जैन संस्कृति और जैन दर्शन को भी समृद्ध किया है। उनकी लेखनी बराबर गतिशील रहती है. कभी विश्राम नहीं लेती। उन्होंने अनेक विषयों पर साहित्य की रचना की है. आज भी कर रहे हैं ।
वस्तुतः वे मानते हैं कि व्यक्ति सामाजिक प्राणी है । आत्मोन्नति के साथ-साथ लोक-मंगल के लिये भी उसे कुछ करना चाहिये। यही कारण है कि वे समाज की चेतना को जागृत करने के लिये अपने सारगर्मित विचार अपनी विशिष्ट शैली में देते रहे हैं।
मुझे यह जानकर आश्चर्य-मिश्रित हर्ष हुआ कि प्राचीन लिपियों को पढ़ने की उनमें विलक्षण क्षमता है । इससे उनकी मौलिक सूझबूझ का स्पष्ट पता चलता है।
श्री नाहटाजी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे असामान्य होने पर भी सापान्य हैं । वे निरभिमानी । हैं. विनम्र हैं, सादगी-प्रिय हैं और मधुर-भाषी हैं। अपनी विद्वता को उन्होंने कभी भार नहीं बनने दिया। सहज जीवन जिया है, आज भी वैसा हो जी रहे हैं।
-यशपाल जैन सस्ता साहित्य मंडल, नयी दिल्ली
संसार में अधिकतर व्यक्ति ऐसे हैं जिनपर न सरस्वती की कृपा है और न लक्ष्मी की। कुछ एक सरस्वती के कृपापात्र होते हैं तो लक्ष्मी उसे विमुख रहती है. और जो लक्ष्मी के कृपापात्र होते हैं उनपर सरस्वती की कृपा नहीं होती। ऐसे उदाहरण अत्यन्त विरल होते हैं जब कोई व्यक्ति सरस्वती एवं लक्ष्मी दोनों का एक साथ कृपापात्र हो। ऐसे ही विरले महाभाग सज्जनों में श्रेष्ठिवर्य भंवरलाल नाहटा तथा उनके अनन्य सहयोगी एवं सगे चाचा स्व० अगरचन्द नाहटा रहे। दोनों को ही शिक्षा-दीक्षा अतिसाधारण, स्थानीय शाला की पांचवी कक्षा तक ही रही । पारिवारिक व्यापार व्यवसाय जन्मस्थान बीकानेर में ही सीमित नहीं था, बंगाल व आसाम पर्यन्त विस्तृत एवं पर्याप्त उन्नत रहता आया। दोनों ही उक्त व्यापारिक संस्थान के कर्मठ एवं सफल संचालक रहे । प्रायः नगण्य-सी शैक्षणिक पृष्ठ-भूमि और गार्हस्थिक एवं व्यवसायी व्यस्तताओं के रहते विविधरूपा एवं विपुल साहित्य-साधना के लिये अवकाश निकाल लेना
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धर्मपत्नी श्रीमती जतनदेवी के साथ श्री नाहटाजी
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उनकी उत्कट जिज्ञासा, अद्भुत प्रतिभा और स्वान्तःसुखाय विद्याव्यसन में अथक अध्यवसाय का ही परिणाम था । फलतः ये नाहटा बन्धु शीघ्र ही विद्वद्गजगत के प्रकाशमान नक्षत्र बनकर चमक उठे।
बन्धुवर स्व० अगरचन्द नाहटा के साथ हमारा सम्पर्क, पत्राचार तथा विचारों आदि का आदान-प्रदान सन् १९४० के कुछ पूर्व ही प्रारंभ हो गया था। उन्हीं के माध्यम से शनेः-शनैः उनकी साहित्यिक एवं शोध-खोज विषयक प्रवृत्तियों में उनके निकट सहयोगी श्री भंवरलाल नाहटा के साथ भी परोक्ष सम्पर्क वृद्धिगत हुआ। प्रारम्भ में हम उन दोनों को सहोदर समझते रहे-कई वर्ष बाद रहस्य खुला कि वे चाचा-भतीजे हैं। अगरचन्दजी यात्रा बहुत करते थे, अतएव अनेक जैनाजेन विद्वानों के साथ उनके साक्षात् सम्पर्क रहे-हमें भी दो-तन वार उनके दर्शन एवं चर्चावार्ता का लाभ मिला। वह पत्राचार में भी बड़े तत्पर थे। नित्यप्रति दर्जनों पत्र लिखते थे। स्वयं हमें मास में, कभी-कभी एक सप्ताह में ही उनके दो-तीन पत्र मिल जाते थे। इन दोनों ही दिशाओं में भंवरलालजी उनसे बंहत पीछे रहे, किन्तु गंभीर अध्ययन तथा तलस्पर्शी सूक्ष्म शोध-खोज में वह काकाजी से कुछ आगे ही रहे । प्रायः सभी साहित्यिक प्रवृत्तियों में दोनों का परस्पर सहयोग, बहुधा संयुक्त प्रयास रहता रहा । वस्तुतः दोनों एक दूसरे के पूरक थे। शास्त्र-भंडारों आदि में प्राप्त और मध्यकालीन विविध-लिपियों में लिखित पुरानी हस्तलिखित ग्रन्थ प्रतियों व अन्य दस्तावेजों को पढ़ने. उनका पाठ संशोधनादि करने और ठीक-ठीक पाठार्थ लगाने में भंवरलालजो अत्यन्त दक्ष हैं। आप सुलेखक और आशुकवि भी हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी आदि में सरलता से उत्तम कविता कर लेते हैं, और गुजराती बंगला, असमी, मराठी आदि कई अन्य भाषाएं भी जनते हैं । इतिहास एवं पुरातत्व में भी उनकी अभिरूचि है, और चित्रकला का भी शौक है। गत १४ वर्षों से आप हिन्दी मासिक 'कुशल-निर्देश' का नियमित सुष्ठ सम्पादन करते आ रहे हैं। श्वे० खरतरगच्छ के आप अनुयायी हैं, आध्यात्मिक सन्त स्व० सहजा. नन्दजी महाराज के शिष्य एवं अनन्य भक्त हैं. और आस्थावान जिनधर्मी हैं, तथापि साम्प्रदायिक व्यामोह अथवा स्व-मत के कदाग्रह से ग्रस्त प्रतीत नहीं होते।
१९७४ के पर्यषण पर्व पर हमें कलकत्ता जैन समाज द्वारा आमन्त्रित होकर जब वहां जाने का अवसर मिला तो वहां जैन भवन में आयोजित संयुक्त जैन क्षमापना समारोह में श्री भंवरलालजी से हमारी सर्वप्रथम भेंट हुई। सभारंभ से कुछ पूर्व पांच-सात बन्धुओं के साथ हम सभाभवन में बैठे थे कि पास ही बैठे, भरी हुई खड़ी श्वेत मंछों वाले. ऊँचे कद-काठी के एक श्यामवर्ण मारवाड़ी सज्जन खिसककर निकट आये और धीरे से कहा 'मैं भंवरलाल'इतना ही पर्याप्त था, किन्तु बिना इस संकेत के हमारे लिये उन्हें चीन्हना कठिन था। उनसे मिलने की उत्सुकता तो थी, किन्त उनकी जो अनुमानाधारित छवि हमारे मस्तिष्क में थो, उसके साथ यथार्थ का कोई सादृश्य नहीं था। निस्सन्देह उनसे मिलकर अतीव आनन्द हुआ, बात-चीत भी हुई। ऐसा लगा कि बहुत कम, और नपे तुले शब्द बोलने का अभ्यास है । अनावश्यक या निरर्थक नहीं बोलते । उनके कृतित्व से तो पूर्व परिचय था, व्यक्तित्त्व की भी हृदय पर अच्छी छाप लगी। उनके साथ पत्राचार तो पहिले से ही यदा-कदा होता रहा, उनके आदेश पर कभी-कभी कुशल-निर्देश में प्रकाशनार्थ लेखादि भी भेजे हैं ।
यह ज्ञात करके कि साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में निष्पन्न उनकी अमूल्य सेवाओं के लिये उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया जा रहा है तथा उन्हें एक उपर्युक्त अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया जा रहा है अतीव प्रसन्नता हुई।
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श्री वाक-युत इन स्वान्तः सुखाय साहित्य-साधक बन्धुवर सेठ भंवरलालजी नाहटा के उक्त अभिनन्दन में हमारा हार्दिक सहयोग है। उनके प्रति हार्दिक स्नेहांजलि अर्पित करते हुए हम उनके सुस्वास्थ्य एवं सफल चिरायुष्य की कामना करते हैं।
-डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ
मेरे मन में श्रद्धेय भंवरलालजी नाहटा के प्रति अगाध श्रद्धा और सम्मान है। इनके प्रेरक व्यक्तित्व का मैं सदैव प्रशंसक रहा हूँ। प्रचार और आडम्बर से रहित इस विद्वान ने अपने वैदुष्य से श्रमण संस्कृति और साहित्य के अनेक अघते संदर्भो' को उजागर किया है। इनका अभिनन्दन एक स्तुत्य प्रयास है।
-प्रो० कल्याणमल लोढ़ा भूतपूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय
मैं नाहटा बन्धुओं के कार्यों से चिरकाल से परिचित हूँ। श्री भंवरलालजी नाहटा ने विद्या के अनेक क्षेत्रों में कार्य किया है। लिपिशास्त्र के भी वे निष्णात है। ७५ वर्ष की उम्र में भी वे अविरल कार्यलग्न हैं यह हर्ष की बात है। जैन साहित्य को अधिक समृद्ध करने के लिये वे दीर्घकालपर्यन्त तन्दुरुस्ती भरा आयुष्य के उपभोक्ता हों ऐसी शुभकामना करता हूँ।
- रतिलाल दीपचंद देसाई आमूल सोसाइटी. अहमदाबाद
श्री भंवरलालजी नाहटा माटे जे उपमा आपीये ते ओछी छ। जुदी जुदी भाषा नां अनेक ग्रन्थों नो अनुवाद करी. प्रकाशित करी जैन समाज नी तेमने अनुपम सेवा बजावी छ ।
आवो हीरो जे पाणी मां तरे अने अनुपम प्रकाश फेलावे । ७५मां जन्म दिन प्रसंगे प्रभु आ अमूल्य हीरा ने हर हमेश जैन समाज माँ तरतो राखे ।
-कान्तिलाल नेमचंद शाह, बम्बई
श्री नाहटाजी जैसे अप्रतिम विद्यापुरुष का अभिनन्दन प्रज्ञा एवं पुरुषार्थ का अभिनन्दन है। ऐसे प्रज्ञापुरुष जैन समाज में ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय समाज में विरल हैं। उनकी विद्योपासना एवं सरस्वती-साधना भारतीय मनीषा का एक उदाहरण है।
-डॉ० मोहनलाल मेहता अध्यापक, दर्शन विभाग, पूना विश्वविद्यालय
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आदरणीय भवरलालजी नाहटा के अभिनन्दन के शुभ अवसर पर मुझे ऋग्वेद के उस सुपर्ण युगल की याद आ जाती है जो एक साथ जन्में. जीवन भर सखा रहे और समान शाखा का अवलम्बन लिया । मेरे जैसे कतिपय आत्मीय-जन ही जानते होंगे कि आ० अगरचन्दजी नाहटा तथा आ० भंवरलालजी नाहटा में पारिवारिक दृष्टि से चाचा-भतीजे का सम्बन्ध था । विद्वज्जगत उन्हें सुपर्ण युगल की तरह ही जानता है। हमलोग उन्हें जीवित विश्वकोश मानते हैं। जैन विद्या के लिये ही नहीं समग्र प्राचीन भारतीय वाङ्गमय के इतिहास में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान हमेशा स्मरण किया जाएगा ।
भंवरलाल जी सा० से सबसे पहले अनेक वर्ष पूर्व कलकत्ता में उनकी गद्दी पर मिला था । अगरचन्दजी सा० उस समय वहीं थे। परिचय के वे अपूर्व क्षण स्मरण आते हैं। भंवरलाल जी पर अब अगरचन्द जी सा० का भी दायित्व आ गया है।
भंवरलाल जी नाइटा जैसे मनीषी का अभिनन्दन विद्या के लिये समर्पित एक वरद-पुत्र का अभिनन्दन है। इस अवसर पर उन्हें हमारे अनेकों प्रणाम ।
-डॉ० गोकुलचन्द्र जैन अध्यक्ष, प्राकृत एवं जैनागम विभाग. सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी
राजस्थान के बीकानेर नगर ने वर्तमान युग में अनेक साहित्यिक प्रतिमाओं को जन्म दिया। इनमें सर्वश्री अगरचन्द जी और उनके भतीजे श्री भंवरलाल नाहटा जी के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन दोनों महानुभावों ने अपनी विविध उपलब्धियों से न केवल राजस्थान को धन्य किया, अपित इस देश की शोधपरक साहित्य साधना को गौरवान्वित किया। स्कूल, कॉलेज की औपचारिक उच्च शिक्षा दोनों को प्राप्त नही हुई थी, पर देवी वरदान तथा अपने विशद् अनुभव से इन्होंने साहित्यिक जगत् को वहुमूल्य रत्नों से विभूषित कर दिया ।
श्रद्धेय भाई अगरचन्द जी के बारे में मैंने एक बार लिखा था कि 'नाहटाजी ने जितना जोड़ा है उससे कहीं अधिक लुटाया है ।' दानवीरता की यह भावना भंवरलाल जी पर भी खरी उतरती है। उनका दान साहित्यिक क्षेत्र में उसी प्रकार व्याप्त है जिस तरह देश के अनेक प्राचीन साहित्यकारों का अवदान विकीर्ण है । सौभाग्य से भंवरलाल जी को भी आर्थिक सम्पन्नता प्राप्त रही है। इससे उन्हें जीविकार्थ अनेक कठिनाइयों से आहत नहीं होना पड़ा । जिनके कारण साहित्यकारों की क्रियाशीलता कुंठित हो जाती है और वे अपने कर्तव्य का निर्वाह सम्यक् ढंग से नहीं कर पाते।
श्री भंवरलाल जी के एक समृद्ध पुस्तकालय अध्ययन हेतु उनके यहां सुलभ था, उसका उपयोग तो उन्होंने किया ही साथ ही कलकत्ता. दिल्ली, प्रयाग, वाराणसी, ग्वालियर आदि केन्द्रों में उपलब्ध सामग्री का भी उन्होंने गहन अध्ययन किया। पुरातत्त्व. इतिहास, साहित्य, कला और लोक-जीवन में उपलब्ध मूल-स्रोतों के विवेचन की असाधारण शक्ति उनमें है। 'नामूल लिख्यते किंचित' मंत्र का उन्होंने आस्था के साथ पालन किया है। चाहे उनकी मूल रचनाएं हों अथवा अनुदित-संपादित कृतियाँ सब में एक वैज्ञानिक तर्क-सम्मत मीमांसा देखने को मिलती
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हैं। प्राचीन लिपियों का ज्ञान, व्याकरण एवं साहित्य में वैदुष्य तथा प्राचीन रचनाओं की पृष्ठभूमि की पकड़-इन गुणों के कारण श्री भंवरलाल जी को अपनी साहित्यिक साधना में वड़ा लाभ मिला । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, हिन्दी,
और राजस्थानी के साथ उन्होंने दंगला. गुजराती आदि अन्य कई वर्तमान भारतीय भाषाओं में दक्षता प्राप्त की। इससे अनेक भाषात्मक, साहित्यिक और सांस्कृतिक समस्याओं को सुलझाने में तथा तुलनात्मक अध्ययन में उन्हें बड़ी सहायता मिली।
माँ भारती के एक महान् पुत्र श्री भंवरलाल जी नाहटा शतायु हों और साहित्य को भविष्य में नयी कृतियों से अलंकृत करते रहें, यही मेरी कामना है ।
-डा० कृष्णदत्त वाजपेयी सागर विश्वविद्यालय, सगर, मध्य प्रदेश
श्री भंवरलाल जी नाहटा जैन साहित्य, इतिहास तथा प्राचीन लिपि के विद्वान हैं। विद्वान किसी विद्यालय या पाठशाला में पढ़ कर नहीं वने, यह उनकी विशेषता है। वर्षों इस दिशा में कार्य करने से अनुभवी जैन-साहित्य के ज्ञाता बन गये। दीर्घकाल तक आप जैन साहित्य, इतिहासों और लिपि की विशेष सेवा करते रहें यही शुभ कामना है।
-गुलाबचन्द जैन, दिल्ली
श्री नाहटाजी साहित्य-साधना की विरल विभूति हैं। महापंडित किन्तु अत्यन्त विनम्र स्वभाव वाले श्री नाहटाजी भाषा एवम् लिपि के अतिरिक्त पुरातन मूर्ति एवम् चित्रकला के भी पारखी हैं। साहित्य की विविध विधाओं में आपने काफी लिखा है। सरस्वती के ऐसे वरद् पुत्र का अभिनन्दन करना हमारा कर्तव्य है। मैं व्यक्तिगत एवम् भारत जैन महामण्डल परिवार की ओर से श्री नाहटाजी के अमृत महोत्सव पर हार्दिक शुभकामना करता हूं कि वे इसी प्रकार युगों-युगों तक साहित्य सेवा करते रहें।
-चंदनमल चाँद मंत्री, भारत जैन महामण्डल, बम्बई
श्री भंवरलालजी नाहटा साहित्य के वातायन से मेरे परिचय में आए और जीवन का वह क्षण बड़े मूल्य का रहा है जब मैं आज से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व आदरणीय प्रिय भाई अगरचन्द जी नाहटा के पास बीकानेर अपने एक शोधार्थी के साथ हाजिर हुआ। मुनि शलजी भी श्रावकी वेश में मौजूद थे। एक साधारण साहित्यिक गोष्ठी का भी आयोजन हुआ था। तब कदाचित परिचय कराते हुए मेरे स्थायी भ्रम का निवारण किया था नाहटा जी ने। वोले आप हैं श्री भंवरलालजी नाहटा, मेरे भतीजे । लगभग समवयस्क-से मिलते-जुलते व्यक्तित्व के सुधी साहित्यिक साधक भाई भंवरलालजी को साक्षात् देखकर मैं दंग रह गया । भतीजा और वह भी समवयस्क । मेरे
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आश्चर्य को देखकर चक्षुपाठी नाहटा जी ने कहा मंदरलालजी जिसने मुझसे आयु में छोटे हैं उतने ही ज्ञान और साहित्य-साधना में वृद्ध है। बात आज प्रमाणित हो गई है। पिछले दिनों इस महारथी से मेरा पत्राचार हुआ। पहली बार पत्राचार में कोई औपचारिकता नहीं । तुरन्त उत्तर । वे शतायु हों और सहस्रवर्षीय आयु जीवें साहित्यायु की ।
आधुनिक काल के द्विवेदी युगीन कवियों में जिस प्रकार श्री मैथिली शरण गुप्त और सियारामशरण गुप्त, गुलबन्धु के रूप में प्रसिद्ध हैं, उसी प्रकार प्राचीन भाषा और साहित्य के अनुसंधान अनुशीलन में भी अगरचन्द नाहटा एवं भंवरलाल नाहटा, नाहटा बन्धु के रूप में जाने-पहचाने जाते हैं। ये पारिवारिक रिश्ते की दृष्टि से काका भतीजे हैं। आ० अगरचन्द नाहटा पार्थिव रूप से अब इस संसार में नहीं हैं पर प्राचीन भाषा, साहित्य, इतिहास, कला और पुरातत्त्व के क्षेत्र में शोध सर्वेक्षण की जो लौ उन्होने प्रज्ज्वलित की, उसे उनके भतीजे श्री भंवरलालजी नाहटा ७५ वर्ष की अवस्था में भी पूरी निष्ठा और सजगता के साथ अमंद किये हुए हैं। बीकानेर स्थित श्री अभय जैन ग्रन्थालय प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों और कलात्मक नमूनों की तीर्थ भूमि है। इसे नाहटा बन्धुओं ने अपने तन, मन, धन से समृद्ध किया है। इसी तीर्थ-भूमि में आज से लगभग ३२-३३ वर्ष पूर्व मेरा नाहटा बंधुओं से परिचय और संपर्क हुआ था। तब से आज तक किसी न किसी रूप में मेरे साहित्यिक संबंध उनसे और इस तीर्थ भूमि से बने हुए हैं।
-डा० महेन्द्रसागर प्रचंडिया, अलीगढ़
श्री भंवरलालजी नाहटा बुहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। एक ओर आपमें मारवाड़ी सेठ और कुशल व्यापारी की प्रबंध संचालन क्षमता, प्रामाणिकता, लगन, व्यावहारिकता, परिश्रमशीलता है तो दूसरी ओर एक सिद्धहस्त अनुसंधाता को तथ्य भेदिनी दृष्टि और सूक्ष्म पकड़ है । अपने पहनावे, रहन-सहन, चाल-ढाल और वाणी व्यवहार में आप ठेठ राजस्थानी संस्कृति के प्रतीक हैं ।
कुशल व्यापारी होने के कारण आप सुख-समृद्धि रूप लक्ष्मी के उपासक तो हैं ही । कलकत्ता को केन्द्र बनाकर आप अपने विभिन्न व्यापारिक प्रतिष्ठानों का संचालन करते हैं। व्यापारिक प्रबंध कौशल और संग्रह-संचय वृत्ति का सदुपयोग आपने ज्ञान स्वरूपा लक्ष्मी के सात्विक रूप की उपासना में भी किया। आपका यह अभिनन्दन आपके इसी उपासक स्वरूप का अभिनन्दन है।
नाहटा जी बहुश्रुत और बहुभाषाविद् हैं। संस्कृत, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश बंगला, राजस्थानी, गुजराती, हिन्दी आदि भाषाओं पर आपका अच्छा अधिकार है। भाषाशास्त्र के साथ-साथ आप लिपि-विज्ञानवेत्ता भी हैं। । प्राचीन ब्राह्मी और कुटिल लिपि के आप विशेष अध्येता और अर्थ विवेचक हैं। आपका अध्ययन विशाल और गंभीर है। प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों के संग्रह, संपादन और अर्थ- विवेचना में आपने जीवन का अधिकांश समय समर्पित किया है। आपके द्वारा जैन साहित्य-कृतियों का संपादन हुआ है, विषय व शैली की दृष्टि से वे वैविध्यपूर्ण हैं । धर्म, दर्शन, इतिहास, साहित्य काव्य रूप लोकाचार की दृष्टि से उनका विशेष महत्त्व है । आपके द्वारा प्रकाश में लायी गयी कृतियों न केवल हिन्दी साहित्य के इतिहास में नवीन तथ्यों का उद्घाटन करती हैं वरन् साहित्यिक प्रवृत्तियों को नया मोड़ भी देती हैं। उनके द्वारा इतिहास, घटनाओं और पात्रों पर नया प्रकाश पड़ा है।
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नाहटा जी की रूचि साहित्य और इतिहास तक ही सीमित नहीं है । पुरातत्त्व. चित्रकला और सर्जनात्मक साहित्य में भी आपने गहरी रूचि ली है। जहाँ एक ओर आपने हस्तलिखित ग्रन्थों के माध्यम से कई अघते. अज्ञात सन्दर्भ साहित्य-संसार के समक्ष प्रस्तुत किये हैं वहीं विस्मृति की परतों से जुड़े अनेक शिलालेखों को संग्रहित प्रकाशित कर भारतीय संस्कृति के विविध पहलुओं को उद्गटित किया है। चित्रकला एवं काव्यकला के क्षेत्र में भी आपका महती योगदान है। आपकी काव्य-सृजन का धरातल मूलतः अध्यात्म-प्रधान है। उसमें आत्मदर्शन एवं परमात्मा-दर्शन की विशिष्ट घटा है। राजस्थानी भाषा में लिखी गई आपकी कहानियाँ, रेखांकित और संस्मरण बड़े रोचक, प्रेरणादायी और मार्मिक बन पड़े हैं । इनमें घरेलुपन और मिठास के साथ व्यापक जीवन अनुभव संचित है।
व्यापारिक एवं साहित्यिक व्यक्तित्व के साथ-साथ आपका सामाजिक एवं धार्मिक व्यक्तित्व भी प्रभावपूर्ण है । आप अनेक धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं से सक्रिय रूप से जुड़े हैं। 'कुशल निर्देश' के सम्पादक के रूप में आप सम-सामयिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना को प्रबुद्ध करने में प्रभावकारी भूमिका निभा रहे हैं। समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और रूढ़ियों के प्रति आप कड़ा प्रहार करते हैं । आपकी वाणो और लेखनी में ओज और तेज है। गत वर्ष जनवरी १९८४ में जैन विद्यालय, कलकत्ता, के स्वर्ण जयन्ती महोत्सव पर अ० मा० जैन विद्वत् परिषद के तत्त्वावधान में आयोजित अ०भा० जैन पत्रकारिता संगोष्ठी में आपने जैन पत्रकारिता और पत्रकारों की भूमिका और दायित्व पर जो समीक्षात्मक विचार प्रकट किये थे. वे बड़े उत्प्रेरक थे। उनसे उनके जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव प्रगट हुए थे।
श्री नाहटा जी के हृदय में प्राचीन साहित्य और विशेषकर जैन साहित्य और संस्कृति की अमोल विरासत को सही परिप्रेक्ष्य में विश्व के सामने प्रस्तुत करने की अगाध निष्ठा और तड़प है। फरवरी १९८५ में श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई व खंभात तालुका सार्वजनिक केलवगी मंडल के तत्वावधान में खंभात में आयोजित छठे जैन साहित्य समारोह के प्रमुख पद से बोलते हुए आपने साहित्यकारों एवं अध्येताओं को एकजुट होकर मनोयोगपूर्वक कार्य करने का जो आह्वान किया, वह आपके सतत् साधनाशील. जागरूक, कर्मठ जीवन का उद्घोष था।
नाहटा जी से मुझे कई बार मिलने का अवसर मिला। मैंने उन्हें सदैव विनम्र, सहज और व्यस्त पाया । आप यश-लिप्सा, पूजा-प्रतिष्ठा और मान-सम्मान से कोसों दूर हैं | 'नच्चा नमई मेहावी' अर्थात् मेधावी पुरुष नम्र होता है। यह उक्ति नाहटा जी के व्यक्तित्व पर चरितार्थ होती है। नाहटा जी की प्रतिभा नव-नवोन्मेषशालिनी है। शब्द और अर्थ के सम्बन्धों को पकड़ने में आप सिद्धहस्त हैं । प्राचीन ग्रन्थों के अर्थ-विश्लेषण में आपकी मौलिक मेधा-शक्ति प्रगट हुई है। ७५ वर्ष की अवस्था में भी आप साहित्य-साधना में पूरे जोश-खरोश के साथ तल्लीन हैं । किसी तरह का प्रमाद और आलस नहीं है। 'नाणी नो पमायए' आचारांग की यह सूक्ति 'ज्ञानी कमी प्रमाद नहीं करता नाहटा जी पर लागू होती है ।
-डा० नरेन्द्र भानावत मंत्री, अखिल भारतीय विद्वत् परिषद, जयपुर
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भंवरलाल जी नाहटा थे पंडित सरनाल थां रै अमरित बरस पर सादर करू प्रणाम, कवि, लेखक, इतिहासविद् बहु भाषा रो ज्ञान, जिन साहित रा थां जिस्या विरला ही विद्वान, शोध-ग्रन्थ केई लिख्या लिख्या कथा, आख्यान, कलावन्त थे पारखी संवेदनमय प्राण, लिप्यां पुरातन थे पढी खुल्या भेद अज्ञात, सदा गुणीजन बीच में चाले थां री बात. करू कामना नित भरो सुरसत रो भंडार, सरधा रा औ सबद दो करो सहज स्वीकार। -कन्हैयालाल सेठिया
कलकत्ता
भंवरलाल जी नाहटा का विचित्र व्यक्तित्व, कैसे हम वर्णन करें, साहित्यिक कृतित्व । साहित्यिक कृतित्व, चित्र-कविता व कहानी. वैज्ञानिक, प्राचीन शिला - लेखों के ज्ञानी। कहँ काका, दिन-दूनी प्रतिभा बढ़े तुम्हारी, हों शतायु, स्वीकारो शुभकामना हमारी।
-काका हाथरसी हाथरस, उ०प्र०
बीकानेर सुहावणो. मारू धर सिणगार । सम्पत साथै सुरसती. विलसै मोद अपार ॥१॥ बड़ा-बड़ा ग्यानी गुणी, कविजन संधी अनेक । पूरातण रा सेवरा. पाली निरमल टेक ॥२॥ अगरचन्द संचित करयो, विद्या · धन अणपार । बांटयो चित रै चावसू, दोनूं हाथ उदार ||३|| इण ही मारग रो पथिक, भंवरलाल दिन-रात । करचो नाहटा नांव नै, भारत में विख्यात ।।४।।
जनै जुग रो च्यानणो. परगट करचो प्रवीण। दीपायो निज देस ने, ले सुरसत री वीण ||५|| मरुवाणी साहित्य री, सेवा करी अनूप। सोध्या रतन अनेक विध, जन · हित सार सरूप ।।६।। कला - पारखी, गुण - रसिक, माया • मद सं दूर । भंवरलाल थिर जस लियो, भगती रस भरपूर ॥७॥
-मनोहर शर्मा
बीकानेर
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भंवरलाल जी का अभिनन्दन, शतशः बार प्रणाम है।
जैन-जगत की अविरल सेवा, जो करते निष्काम हैं । भरत-भूमि की अप्रतिम प्रतिमा. प्रज्ञा पुरुष प्रकर्ष से। यह अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित, पुलक उठे हम हर्ष से। युग की अमर विभूति "नाहटा', सरस्वत शृगार हैं। पचहत्तरवाँ वर्ष वरद हो. खुशियाँ अपरंपार है ।।
वर्तमान आलोकित उनसे, बना देश अभिराम है।
भंवरलाल जी का अभिनन्दन. शतशः बार प्रणाम है ।। हे युग के इतिहास | अमर हो. यही कामना है मेरी। पंडित नहीं. महापंडित हो. धन्य हुई जननी तेरी ।। संस्कृत - प्राकृत - अवहट्टी, गुजराती - बंगाली - अपभ्रंश । पाली- राजस्थानी - हिन्दी, आदि आपके प्रतिभा-अंश ।
भंवरलाल नाहटा, उसी प्रज्ञा - प्रतिभा का नाम है।
जैन जगत की अविरल सेवा, जो करते निष्काम हैं ।। पुरातत्व के प्रमुख पारखी. मूर्तिकला अनुपम मर्मज्ञ । वास्तु-चित्र औ ललितकलाओं के विद्वान, श्रेष्ठ धर्मज्ञ ।। अग्रगण्य अनुसंधानों में, भाषा · शास्त्र संवारे हैं। ज्ञानोदधि की भंवर' भंवर जी. प्रतिपल पूज्य हमारे हैं।
मातृभूमि की गोद धन्य है. धन्य धरा यह धाम है।
भंवरलाल जी का अभिनन्दन, शतशः बार प्रणाम है। अध्यवसाय-मनन-चिंतन में, अविरल जिनकी निष्ठा है। अजर-अमर इतिहास पुरुष जो, प्रतिपल प्रचुर प्रतिष्ठा है ।। चित्रांकन में चतुर-चारुता, आशु कवि की उत्तमता । शोध लेख में अधिक लोकप्रिय, नहीं विद्वता में समता ।।
गहरी पैठ, धर्म-दर्शन में, लेखन आठो याम है।
भंवरलाल जी का अभिनन्दन, शतशः बार प्रणाम है। यह अभिनन्दन समारोह, दो अक्टूबर को आयोजित । जैन समाज, शहर कलकत्ता, से इस दिन पंडित पूजित ।। ग्रन्थ भेंट शुभ जन्म दिवस पर, हों शतायु नाहटा महान । है कृतित्व-व्यक्तित्व अनूठा, अंतस मन करता गुणगान ।।
दो अक्टूबर इस दुनियाँ में, अमर अलौकिक नाम है। भंवरलाल जी का अभिनन्दन, शतशः बार प्रणाम है।
-डा० शोभानाथ पाठक, भोपाल, मध्य प्रदेश
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आज से चालीस वर्ष पूर्व मैंने लछुआड़ जैन मंदिर में एक लम्बे कदवाले व्यक्ति को देखा जिसके भरा ओर स्वस्थ चेहरे पर शांति विराज रही थी और जो चिन्तन-मनन की मुद्रा में मंदिर के पीछे भाग के चबूतरे पर बैठा था। मेरा ध्यान आकृष्ट हुआ। फिर क्या था ? मैंने उससे बातें शुरू की। मालूम हुआ कि यही भंवरलालजी नाहटा हैं। जन्मस्थान के संबंध में काफी देर तक उनसे बातें होती रही। सिकन्दरा के इर्द-गिर्द प्राचीन स्थानों को देखने के लिये मैंने इन्हें आमंत्रित किया। दूसरे दिन निश्चित समय पर पूरे परिवार के साथ अपनी छोटी हवागाड़ी से मेरे निवासस्थान सिकन्दरा पर वे पहुंच गये । इनके साथ इनके अनुज हरखचंद जी भी थे। उसी दिन मैं सबों को लेकर कुमार गांव चल पड़ा। उसी गांव के एक किसान श्री विशेश्वर सिंह को लेकर वहाँ के पुरातत्व अवशेषों को देखने के लिये हमलोगों ने गांव की परिक्रमा की। वहां के खण्डहरों-अवशेषों को देखकर नाहटा जी विस्मित हो गये। उन्होंने महावीर की जन्मभूमि संबंधी साक्ष्य जुटाने और इस संबंध में शोध कार्य करने की प्रेरणा दी। नाहटा जी के रूप में मैंने प्रथम जैन विद्वान का दर्शन किया जिन्होंने मुझे इस काम में लगे रहने के लिये प्रोत्साहित किया।
तभी से मैं इस कार्य में लगा हुआ हूँ। मैंने महावीर की जन्मभूमि संबंधी बहुत सारे साक्ष्य जुटाये हैं। मुझे आश्चर्य है कि आजतक इनकी जन्मभूमि विवादास्पद बनी हुई है जबकि सारे साक्ष्य क्षत्रियकुण्ड के पक्ष में ही ठहरते हैं। आदरणीय नाहटा जी इन्हीं स्थानों को महावीर की जन्मभूमि की मान्यता दिलाने के लिये सजग और प्रयत्नशील हैं। इनके सारे प्रमाण मेरे पास मौजूद हैं।
कलकत्ते में जब भी नाहटा जी से साक्षात् होता. इनका पहला प्रश्न होता क्या लिख रहे हैं? आज से ४० वर्ष पर्व इन्होंने मझे अपने छोटे भाई की तरह जो प्यार दिया था, आज वह मेरे पूरे परिवार का प्यार और स्नेह बन गया है। कलकत्ता जाने पर बड़े भाई आदरणीय भंवरलाल जी से मिले बिना में लौटता नहीं है। मैं जो कुछ लिख रहा हूँ वह इन्हीं की प्रेरणा का श्रेय है : भाई साहब एक व्यक्ति नहीं. वरन् एक संस्था हैं-एक विशाल पुस्तकालय, जिसमें ज्ञान का असीम भण्डार भरा पड़ा है। ये एक ही साथ इतिहासकार, साहित्यकार एवं शोधकर्ता हैं। इनका प्रशस्ति-गान मुझ जैसे अल्पज्ञ से संभव नहीं। मैं बड़ा गौरवशाली और भाग्यशाली हैं जो मैं इनके सान्निध्य और सम्पर्क में हैं।
-डॉ० भगवानदास केसरी. सिकन्दरा, मुंगेर
सन् १९७६ में मेरी पुस्तक "भगवान महावीर का जन्मस्थान : क्षत्रियकुंडग्राम, जमुई" के प्रकाशन के पश्चात् बड़े आह्लाद से भरकर, बधाई और आशीर्वाद का संदेश भेजकर हिन्दी साहित्य के अविस्मरणीय अनुसंधायक प्रणम्य विद्वान, पंडित अगरचन्द नाहटा जी ने मुझे पंडित भंवरलाल नाहटा जी से संपर्क स्थापित करने का स्नेहसिक्त आदेश दिया। उनकी यह प्रबल आकांक्षा थी कि मेरी इस पुस्तक को समीक्षा मँवरलाल जी की पत्रिका "कुशल निर्देश" में अवश्य प्रकाशित होनी चाहिए। आदेशानुसार मैंने इन्हें अपनी वह पुस्तक समीक्षार्थ भेज दी। "कुशल-निर्देश" (फरवरी १९८१ ) में भंवरलालजी नाहटा ने उसकी विशद, सुविचारित समीक्षा तो की ही अपने बहुकोणिक सुझावों से भी मेरी शोध-साधना को एक नया आलोक दिया । यह मेरा सौभाग्य था तथा मन ही मन मैं अपनो
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इस सारस्वत साधना की सिद्धि पर इसलिए भी प्रसन्न था कि जैन साहित्य और इतिहास के अधिकारी विद्वान भंवरलाल जी का आशीर्वाद प्राप्त हो गया था।
फिर तो पत्र-सम्पर्क बढ़ते ही गए और मैं उनका स्नेह भाजन बनता गया। उनके शीघ्र प्रत्यक्ष दर्शन की आकांक्षा बलवती हो गई। भगवान महावीर देव मेरी इस प्रार्थना को सुन रहे थे। मेरी उक्त पुस्तक के प्रकाशन ने इतिहास के विद्वानों को एक बार फिर से महावीर के जन्म स्थान की वास्तविक पहचान के सन्दर्भ में सोचने-विचारने को मजबूर कर दिया । वैशाली के पक्षधरों के लिये सचमुच एक प्रश्नवाचक चिन्ह बन गया । पक्ष और विपक्ष के विवाद से मैं आवृत्त हो गया। मैं चाहने लगा कि इस विवाद को समाप्त करने के लिये देश के समी विद्वानों को एक मंच पर लाया जाना चाहिए । भगवान की असीम अनुकम्पा से मेरी यह इच्छा भी पूरी हो गई । मुझे परमपूज्य अंचलगच्छाधिपति युगप्रभावक आचार्य भगवन्त श्री गुणसागर सूरीश्वर जी महाराज साहब एवं विद्वद्वर गणिवर्य पूज्य श्री कलाप्रभसागर जी महाराज की अशेष कृपा प्राप्त हो गई और उनकी असीम अनुकम्पा से मैं मधुवन (गिरिडीह) में "अखिल भारतीय इतिहास विद्वत् सम्मेलन" का आयोजन सम्पन्न कर सका। देश के कोने-कोने से विद्वान, इतिहासकार एवं आचार्यों ने पधार कर महावीर के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में मेरी शोधपूर्ण स्थापना पर अधिवेशन के अनेक सत्रों में विचार-विमर्श किया । निष्कर्णतः उन्होंने इस पर प्रामाणिकता की मुहर लगायी तथा सहमति के हस्ताक्षर भी दिये । यह सम्मेलन सन् १९८४ के नवम्बर माह में २४. २५ और २६ तारीख को, तीन दिनों तक चलाया गया। यहीं पहली बार मुझे पंडित श्री भंवरलाल जी नाहटा के पुण्य दर्शन हुए थे। मेरा सौभाग्य है कि मेरे इस इतिहास सम्मेलन के प्रथम सत्र की अध्यक्षता भी उन्होंने ही की थी, और उनके ही श्री चरणों में बैठकर मैंने स्वागताध्यक्ष की हैसियत से अपना लिखित शोधपूर्ण स्वागत भाषण का पाठ किया था ।
पंडित भंवरलाल जी कलकत्त से चलकर मधुवन पधारे थे। उस समय मैं किसी कार्यवश कच्छी भवन से बाहर था । आते ही उन्होंने मेरी तलाश की। हम दोनों एक-दूसरे के लिये प्रत्यक्षतः अपरिचित थे। सूचना मिलते ही मैं भागता हुआ के कमरे में दाखिल हुआ। मुझे पहचानने में कोई कठिनाई नहीं हुई. क्योंकि वर्षों पूर्व पंडित श्रो अगचन्द नाहटा जी को देखने और उनके पास बैठकर घंटों बातें करने का अवसर प्राप्त कर चुका था। उनके व्यक्तित्व की छाया ने मुझे भंवरलाल जी को पहचानने में सहायता दी। इन्हें देखते ही मैं अभिभूत हो गया । गांधार शैली की किसी सुडौल भव्य मूर्ति की तरह आकर्षक इतिहास पुरुष, संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी. राजस्थानी आदि भाषाओं के मर्मज्ञ. इतिहास और पुरातत्त्व के अधिकारी, प्रगम्य पंडित की आभा से देदीप्यमान विशाल व्यक्तित्व. जिनकी आँखों से स्नेह की शीतल ज्योति निकल रही थी. घनी मूंछों से झाँकते अधरों में एक अमन्द मुस्कान तेर रही थी, जिसके भव्य ललाट पर ज्ञान की पंक्तियां रेखाएं बनकर उभर रही थीं, चौथे वय में भो जिनकी आवाज में पंचम सुर का निनाद था, तन से विशाल और ज्ञान से गहरे, ऐसे प्रज्ञा-पुरुष पंडित श्री भंवरलाल जी नाहटा को देखकर मुझे तुरंत ही यह लगा कि मैं सचमुच सरस्वती के किसी प्रणम्य वरद्गपूत के सामने एक बौना की तरह खड़ा हूँ। मेरा मन बार-बार उन्हें प्रणाम कर रहा था और मेरे शब्द उन्हें उतने ही वार प्रणाम निवेदित कर रहे थे। मेरे उस भाषण के बाद उन्होंने अध्यक्ष-पद से बड़ा गम्भीर भाषण दिया था । उनकी आवाज में एक खनक थी और विचारों में विद्वता के सागर की गहराई थी। उन्होंने महावीर के जन्म स्थान से सम्बन्धित मेरी शोध-साधना और भाषण की भूरिशः प्रशंसा की।
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प्रतिभा के धनी पंडित जी किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय की शैक्षणिक उपाधियों से अलंकृत भले न हों परंतु विश्वविद्यालय के पंडितों के लिये अधिकारी विद्वान अवश्य हैं। तत्र भवान् आचार्यों की श्रेणी में पांक्तेय मदरलालजी के विलक्षण भाषाज्ञान, लिपिज्ञान, पुरावशेष की पहचान का ज्ञान का प्रातिम वैदुष्य, ततोऽधिक प्रशंसाह है। जैन साहित्य और इतिहास के सन्दर्भ में तो उनके प्रत्येक शब्द प्रामाणिक संदर्भ सिद्ध होते हैं ।
विद्वान और देवता किसी जाति-धर्म सम्प्रदाय की सीमाओं में नहीं बंधते । पंडित श्री भंवरलाल जी नाहटा न केवल जैन समाज के बल्कि सम्पूर्ण इतिहास और साहित्य जगत के अध्येताओं के नमस्य विद्वान हैं । सारस्वत क्षितिज के इन ज्योतिपुंज प्रगम्य पुरुष को, उनकी ७५वीं जन्मतिथि पर मेरा कोटिशः प्रणाम निवेदित है।
—डा० श्यामानन्द प्रसाद रीडर, के० के० एम० कालेज, जमुई, बिहार
पू० श्री भंवरलाल नाहटा जो साथे नो मारो परिचय लगभग पंदरेक वर्ष थी छ । परन्तु छल्ला बे-त्रण वर्ष थी तेमनी साथे वधु निकट ना परिचय मां आववानुं सद्भाग्य सांपड्य छ।
मध्यकालीन जैन साहित्य ना संशोधन-संपादन नी प्रवृत्तिना कारणे लगभग त्रण दायका थी हुं स्व० अगरचंदजी नाहटा ना सतत संपर्क मां हतो । पू० अगरचन्द जी नाहटा ए न्यारे पोताना भतिजा श्री भंवरलाल नाहटा नो परोक्ष परिचय कर वेलो । श्री अगरचन्दजी नाहटाए तो पोतार्नु समग जीवन जैन साहित्य समर्पित करी दीधुं हतुं-दिवस रात तेओ लेखन संशोधन नी प्रवृत्ति मां रोकायेला रहेता, परन्तु श्री भंवरलाल नाहटा तो व्यवसा मां पण समय आपता अने लेखन वांचन मां पण समय आपता रह्या छ ।
केटलाक वर्ष पहेला "मृगावती चरित्र चौपाई" ना संपादन अंगे श्री भंवरलाल नाहटा मुंबईमां अमारा घरे मलवा । पधार्या त्य रे तेमनी विद्वता थी हु बहु प्रभावित थयो हतो, राजस्थानी पहेरवेश अने माथे बीकानेरी केसरी साफो धारण कर्यो होय अवी व्यक्ति ने रस्ता मां चाली जती जोई ने कोई ने ख्याल न आवे के एमनी विद्वता केटली हो। श्री भंवरलाल नाहटा ना संपर्क मां जेम जेम अववानुं थयु तेम तेम एमनी विद्वत् प्रतिभा नो विशेष परिचय थतो गयो । जैन साहित्य नी सैंकड़ो पंक्तियों एमने कंठस्थ छे। वली ग्रन्थों मां ना सन्दर्भो नी तथा ऐतिहासिक बाबतो नी सरस जानकारी तेओ धरावे छे। संस्कृत, प्राकृत अने जूनी राजस्थानी भाषा न तेओ सारा मर्मज्ञ छ। अनेक पारिभाषिक शब्दोना अर्थ तेओ जागे छे । तेमनी विचार धारा पुरन्त, प्रमाणयुक्त अने स्पष्ट छ। स्तवनों अने सज्झायो ने बुलंद कंठे गवानी तेमनी रुचि अने शक्ति पण मुग्ध करे तेवी छे। वली तेमना हस्ताक्षर पण सरस, सुवाच्य अने मरोड़दार छे । हस्तप्रत उपरथी तेओ मोती ना दाणा जेवा अक्षरे नकल उतारे, परन्तु सेंकड़ो पंक्तिओ मां एक अक्षर नी पण छेक छाल जीवा न मले। प्रथम दृष्टिए ज प्रसन्न धवाय एवं एमर्नु लखाण होय छ।
मध्यकालीन जैन साहित्य माटे स्व० अगरचंद जी नाहटा न अवसान पछी मारे जो कोई पूधवा योग्य मुख्य व्यक्ति होय ते ते श्री भंवरलाल नाहटा छ। एमनी साथे बे एक कृतिओर्नु सह-संपादन पण में कर्यु छे । आटली बधी विद्वत्ता अने उभरे मारा पिता तुल्य एवा श्री भंवरलाल नाहटा ज्यारे मले त्यारे एक मित्र अने मार्ग दर्शक जेवा लागे। एमनी उपस्थिति मां हमेशा प्रसन्नता, पवित्रता अने प्रेरकता अनुभवाय । पहेरवेश अने प्रकृति बने मां
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तैओ सादा सरल अने निराभिमानी कोई वस्तु के मत ना आग्रही नहि सदा स्वस्थ अने उदारचित्त जनाय । ।
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कोई नी भूल होय तो ते सूरत जती करी दे। कोई पण प्रकार नो पूर्वाग्रह राखे नहि
औपचारिकता ना पण
आग्रही नहिं अमनी हाजरी मां सतत वात्सल्य अनुभवाय
खंभात मुकामे छट्टो जैन साहित्य समारोह योजायो त्यारे प्रमुख तरीके श्री भंवरलाल नाहटा पधाय हता । ए वखते एमता सतत सान्निध्यमां रहेवानुं सद्भाग्य सांपड्य हतुं । ते पहेलां शिखरजी मां क्षत्रियकुंड विषे योजाएली विद्वत् परिपद मां पग तेननो साथै रहेनुं वन्युं हतुं आ ने प्रसंगे मोटा माणसो पण केटला सादा अने सरल होय । छे तनो प्रत्यक्ष स्वानुभव श्री नाहटाजी नी बाबत मांथघो हतो ।
एमनी लघु पद्य रचनाओं धर्मं मर्म युक्त अने तत्व ज्ञान थी
श्री भँवरलाल नाहटा अच्छा कविपण छे गर्भित होय छे ।
श्री भँवरलाल नाहटा ७५ वर्ग प्रवेश करे छे। ए आपणा सौना माटे आनंद अने गौरव नो प्रसंग छे ए प्रसंगे हूं अमनुं अभिवादन करू छं अने तेओ शतायु थाय तथा जैन शास्त्र नी उज्ज्वल सेवा करे ओवी अन्तर नो अभिलाषा व्यक्त करू छु ।
-डॉ० रमणलाल ची० शाह अध्यक्ष, गुजराती विभाग, बम्बई विश्वविद्यालय
एक समस्वभावी सहधर्मी के नाते, एक गुगज्ञ विद्वत् पुरुष के नाते एवं सबसे अधिक एक परम आत्मीय 'गुरु बंधु के नाते श्रीयुत् भंवरलालजी नाहटा से हमारा अंतरंग सम्बन्ध कई वर्षों से रहा है. उनके दिवंगत विद्वत्वर्य चाचा स्व० अगरचन्दजी के ही समान स्तर पर हमारा परम पावन सम्पर्क- आधार रहा है सद्गुरु देव श्री योगीन्द्र युग-प्रधान श्री सहजानन्दघनजी का जीवन और साहित्य |
वैसे तो समग्र नाहटा परिवार की हमारे परमोपकारक गुरुदेव के प्रति अनन्य निष्ठा और समर्पण युक्त भक्तिभावना रही है, परन्तु अपनी अन्य व्यावसायिक से इस विद्वत्-द्वय श्री भंवरलालजी एवं स्वर्गीय अनुमोदनीय एवं परम उपादेय है । इन श्री सहजानन्दघनजी के साहित्य के लिये भी है। दीर्घकाल से जो धन्य सद्गुरु परिचय पाया है, रूप से सफल रहे हैं। क्या 'कुशल निर्देश' गुरुभक्ति-लसित लेखनी ने एक गुप्त रहे हुए
साहित्यिक एवं जैन दार्शनिक धार्मिक प्रवृत्तियों के मध्य से भी ध्रुवरूप अगरचन्दजी की जो गुरुभक्ति की धारा बहती रही है वह विरल, दोनों का प्रदान जितना जैन साहित्य को है उतना ही गुरुदेव सत्संग एवं प्रत्यक्ष निश्रा सेवा भक्ति के द्वारा श्री भंवरलाल जी ने उसे अनेक रूपों में बृहत् जगत तक पहुँचाने में वे बड़े सार्थक क्या 'सहजानन्द सुधा' क्या 'जीवनी' अनेक रूपों में श्री भंवरलालजी को युग-पुरुष को सत्यशोधक जनों के मानस पटल पर खड़ा कर दिया है।
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आज का जगत एवं वर्तमान काल कितना विक्षुब्ध, विच्छिन्न, विशृंखलित एवं अशांत है। क्षुब्धता छिन्न-भिन्नता एवं अशांति के बीच वास्तविक शान्ति और समाधि का अन्तपंथ युग पुरुष जी की, समर्पित शिशुभाव से अंगुलि पकड़कर स्वानुभूति द्वारा योगीन्द्र युग-प्रधान गुरुदेव श्री सहजानन्दघनजीने दृढ़
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युग की इस श्रीमद राजचन्द्र
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रूप से प्रतिपादित किया। इस पंचतकाल की यह कोई छोटी उपलब्धि या छोटी घटना नहीं है। यह एक दुर्लभ घटना है कि श्रीमद्रजी एवं सहजानन्दघनजी जैसे दो-दो महापुरुष इस काल में प्रत्यक्ष निकट रूप से उत्पन्न हुए । कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य युग-प्रधान दादा श्री जिनदत्तसूरीश्वरजी एवं महायोगी श्री आनन्दघनजी को ही मानों अन्तचेतना धारण कर अईधर्म की वीतरागमार्ग को उन्होंने अपने परिशुद्ध मूल रूप में जो प्रतिपादित और परिदर्शित किया उसे शांतिकामी जैन जगत् एवं बृहत् जगत् के समक्ष लाने में स्व० अगरचन्दजी एवं श्री भंवरलाल जी का योगदान कम नहीं है।
संस्कृत, प्राकृत. हिन्दी सभी अधिकारपूर्ण भाषाओं में श्री भवरलालजी ने तो अपनी कलम की धारा मुक्तरूप से बहायी है। इन सभी भाषाओं में उनकी गुरुभक्ति भरी लेखनी माधुर्य एवं आल्हाद से पूर्ण है। संस्कृत में दृष्टव्य है उनके द्वारा रचित "श्री सहजानन्दघन गुरुदेवाष्टकम्" का यह प्रथम चरण
भद्रः सद्गुरुवर्य पूज्य सहजानन्दः सदा राजत । आत्मज्ञो निखिलार्थबोध निपुणः कारुण्यत्तिमहान् ॥ देवैः पूजित पादपद्म विमलश्चन्द्रादिभिः सर्वशों। वन्देऽहं विनयेने तं गुरुवर श्री भावितीर्थङ्करम् ॥
-सहजानन्द सुधा, पृष्ठ २०
संस्कृत से भी अधिक उनकी लेखनी का प्रांजल पुरुषार्थ उनकी प्राकृत रचना में दिखाई देता है। वही गुरुभक्ति. वही गुरुगुणगान, पर बड़ी विरल है उनकी यह अभिव्यक्ति
अज्झत्त ततस्स सुपारगामी एगावयारी पूईय सुरिंदो । मुणींद मउडो सुजुगप्पहाणो गुरुवरो सहजाणंद णामों ||१|| निव्वाणपत्तो सुसमाहिजुत्तो कत्तीय धवले बीया निहीए । निच्छत्त जाओ इय भरहखित्तो धम्मस्सएगो सायार रूपो ॥२॥ खेयेण खिन्नो अमुमुक्खु संघो जाओ निरालंब समग्ग लोओ। विदेह वित्तट्ठिय ते महप्पा भत्ताण देहि निव्वुइ सुसत्ती ॥३।।
वही, पृष्ठ २९
और हिन्दी में तो उनकी लेखनी की यह गुरुभक्ति शासन का धन्यभाग्य दर्शित करने के साथ-साथ गुरु. विरह की अन्तर्वेदना भी सक्षम रूप से प्रतिपादित करती है -
हम्पी के योगी । कहाँ तुम गये हो ?
आत्मा का दर्शन कराते कराते ।। क्रिया जड़ बना जो तीर्थप का शासन । मार्ग से कोशों भटक के विपथग ॥
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उन्हें राह सम्यक दिखाने के हेतु | हुए अवतीर्ण हैं युग के प्रवर्तक ।। करी दीर्घ साधना गिरि कन्दरा में। आत्मा की ज्योति जगाते-जगाते ||१||
न सोचा था इतनी जल्दी करोगे महाविदेह जाने की तैयारी, पंचमकाल के हम हैं अभागे, पाया न तुमको हे आत्म-विहारी, समता से कष्ट सहे आत्मानंदी, विदेही गुणों में समाते-समाते ।।५।।
-वही, पृष्ठ २३
इन पंक्तियों को पढ़कर प्रतीत होता है कि श्री भंवरलालजी की लेखनी गुरुभक्ति से कितनी ओतप्रोत है एवं गुरु विरह से कितनो व्याकुल। ओर सच ही उनकी इस लेखनी को और जैन दर्शन की भी लेखन-प्रवृत्ति में, उतना 'स्वान्तः सुख' शायद ही मिलेगा जितना गुरुभक्तिपूर्ण आलेखन में । अन्ततोगत्वा गुरुमहिमागान में, वह भी एक अनन्य अनुभूत पुरुष के, जैन दर्शन और शासन की सेवा भी आ ही जाती है। उनकी अन्तर्मुखकामी लेखनी से अब यह अपेक्षा की जाए कि उनके इस जीवन के उत्तरार्द्ध का शेष सारा समय ऐसे विरल सद्गुरु की गुप्त महिमा के प्राकट्य में ही लगे तो वह अनुचित नहीं होगी। ऐसे अनन्य गुरुभक्त से और आशा भी क्या हो सकती है। सर्व परम शक्तियाँ श्री भवरलालजी की लेखनी को ऐसी शक्ति प्रदान करे कि वह एक अद्वितीय एवं चिरंतन गुरुगाथा इस अशांत और आत्मभ्रान्त जगत पर छोड़ जाय ।
-प्रो० प्रतापकुमार टोलिया वर्धमान भारती, बंगलोर
श्री भंवरलालजी नाहटा ने धर्म और भाषा आदि के लिये जो कार्य किया है वह अभिनंदन के योग्य है।
-भंवरमलसिंधी. कलकत्ता
अज्ञात ग्रन्थों की खोज करने वाले समाज-सेवी के अभिनन्दन में मेरा सहयोग अवश्य ही रहेगा। ऐसे विदान को में आशीर्वाद कैसे दू, मैं अपनी शुभकामनाए भेज रहा हूँ कि ईश्वर उन्हें दीर्घायु करें. पूर्ण स्वस्थ रखें ताकि सभी लोगों को उनसे प्रेरणा प्राप्त होती रहे।
-प्रभुदयाल हिम्मतसिंहका, कलकत्ता
श्री भंवरलालजी नाहटा ने समाज-सेवा, साहित्य-सर्जन, धार्मिक व आध्यात्मिक क्षेत्र में सराहनीय एवं प्रेरणादायी कार्य किया है। श्री नाहटा के लेखन में भारतीय संस्कृति एवं जैन दर्शन का विश्लेषण (दिग्दर्शन ) एक नई शैली से किया गया है. जो अनूठा एवं अनुपम है ।
-प्रो० बुलाकी दास कल्ला. जयपुर
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श्री नाहटाजी के बारे में मेरे लिये कुछ कहना बहुत कठिन है क्योंकि इतने विशाल व्यक्तित्व के सामने हमलोगों का व्यक्तित्व उनके आशीर्वाद में ही है । उनके ७५ जन्म-दिवस के अवसर पर मैं उनकी दीर्घायु, प्रसन्नचित्त सुखी जीवन एवं संचित शक्ति के लिये भगवान से प्रार्थना करता हूँ एवं उनके चरण में अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करता हूँ । उनका आशीर्वाद हम सबके समाज पर जितना अधिक बना रहेगा उतना ही अधिक हमें मार्गदर्शन प्राप्त होता रहेगा।
- आनंदकुमार अग्रवाल उप-निदेशक, राजस्थान सरकार सूचना केंद्र, कलकत्ता
श्री नाहटाजी ने जैन साहित्य के लिए बहुत सेवा की है। श्री नाहटा जी को बहुत-बहुत बधाई।
-मोहनचंद ढढा अध्यक्ष, अखिल भारतीय श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ महासंघ, मद्रास
राजस्थानी भाषा और साहित्य को जिन साधकों ने उन्नति के शिखर पर आसीन किया है उनमें बीकानेर का नाहटा परिवार पक्तिय है। पुण्यश्लोक स्व० अगरचंद नाहटा की साहित्य सेवा के साथ भंवरलाल जी की साहित्य सेवा चिरस्तरणीय है। यह सौभाग्य की बात है कि इस परिवार पर लक्ष्मी और सरस्वती की समान कृपा रही है।
स्व० अगरचंदजी की साहित्य साधना से सब परिचित हैं। भारत की ऐसी कोई पत्रिका नहीं है जो उनकी साहित्यसर्जना से धन्य न हुई हो किंतु भंवरलाल जी भी उनसे पीछे नहीं रहे।
आप जिस कुलपरम्परा में अवतरित हुए उसमें आचरण की पवित्रता, भगवान महावीर की शिक्षाओं का पालन, शास्त्र व्यसन और कर्मठता सदा से श्लाघ्य रही है। आपके पूर्वजों के आवास को 'शुचीनां श्रीमतां गृहें' की विमल संज्ञा से विभूषित किया जा सकता है।
स्व० अगरचंद नाहटा की तरह श्री भंवरलाल जी की स्कूली शिक्षा मात्र कक्षा ५ तक हुई थी। किंतु अपने स्वाध्याय जल से निरन्तर सींचकर आपने अपने ज्ञान की परिधि खूब विस्तृत कर ली है। धर्म, साधना, साहित्य, कला, भाषा एवं पुरालिपियों में आपकी विशेष रुचि है । पुरातत्व एवं चित्रकला के आप विशेष विद्वान हैं। प्राचीन एवं देशी भाषाओं में आप विशेष निष्णात हैं। आपके विद्याव्यसन से प्रसन्न होकर पुरातत्व वेत्ता मुनि जिनविजयजी ने आपको आशीर्वाद दिया था और मुनि कान्तिसागर जी आपसे सदा स्नेह करते रहे। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन, प्राच्यविद्याविद्व महामति श्री सुनीतिकुमार चटर्जी, डॉ० सुकुमार सेन, भाषाशास्त्री डॉ० गौरी शंकर हीराचंद ओझा, डॉ० मोतीचंद तथा डॉ० बासुदेव शरण अग्रवाल का आपको निरन्तर साहचर्य मिलता रहा। आपकी रचनाओं की भूमिका, उनका सम्पादन तथा उनमें प्रतिपादित विचारों को देखकर आपकी विद्वत्ता और विचार विश्लेषण क्षमता के प्रति सहज ही आश्चर्य होता है। ऐसा लगता है कि काव्य-मीमांसाकार की यह उक्ति सार्थक है कि प्राक्तनाद्यन संस्कार परिपाकप्रौढ़ा प्रतिभा ही ऋतम्भरा प्रज्ञा होती है जिसे किसी बाह्य उपाधियों या प्रमाण पत्रों की अपेक्षा नहीं होती। ऐसा व्यक्तित्व सदा अक्षय स्रोत से अपना पाथेय जुटाता है। शायद विद्वानों को मेरा यह कथन अतिशयोक्ति लगे कि श्री भंवरलाल नाहटा जैसे विश्रुत मनीषियों के रूप में आज भी प्राचीन ऋषियों या गृहस्थ योगियों की परम्परा जीवित है।
-डॉ० रामशंकर द्विवेदी डी० वी० कॉलेज, उरई
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श्री भंवरलाल जी नाहटा का व्यक्तित्व अपने आप में अनूठा है। वे जैन साहित्य और इतिहास के मर्मज्ञ विद्वान् हैं। इतिहास-खोजबीन के लिए उनकी प्रतिभा का चमत्कार ही माना जा सकता है। असहज गुत्थियों को भी वे सरलता से प्रामाणिक आधार पर सुलझा लेते हैं। यह भी उनकी विशेषता है कि कैसी भी दुलर्भ पांडुलिपि हो उसे पढ़ने व समझने के लिए रात-दिन एक कर देते हैं। और जब तक सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंच जाते विश्राम नहीं लेते।
वे बहुत ही मिलनसार तथा सहृदय व्यक्ति हैं। जब भी मैंने उन्हें किसी विषय पर लेख के लिए पत्र लिखा उन्होंने तत्काल उसकी पूत्ति की। उनकी लेखनी सदैव चिन्तनशील रहती है और उनका ज्ञान अगाध है। वे जन्मना व्यवसायी होते हुए भी जेन साहित्य व इतिहास का कितना बड़ा कार्य कर लेते हैं-यह कम आश्चर्य की बात नहीं।
उनके अभिनन्दन के अवसर पर मैं कामना करता हूँ कि वे शतायु हों और इसी तरह साहित्य व समाज की सेवा करते रहें।
-बाबूलाल जैन, वाराणसी
कोई भी देश अपनी भौतिक उपलब्धियों से नहीं. अपने महान पुरुषों के कृतित्व से जीवित रहता है। मेरे हृदय में ऐसे ही महान पुरुष की भावना राजस्थान के बीकानेर निवासी नाहटा बन्धुओं स्व० अगरचन्द एवं श्री भंवरलालजी नाहटा के प्रति प्रस्फुटित होती है । ज्ञानालोक श्री भंवरलालजी नाहटा का सम्मान वस्तुतः ज्ञान-साधना का सम्मान है। जिस प्रकार फूलों की सुगन्ध छिप नहीं सकती. उसी प्रकार भंवरलाल जा की भो प्रतिभा छिपी नहीं रही। एक आदर्श गृहस्थ का जीवन यापन करते हुए भी अपने चाचा स्व० अगरचन्द जी नाहटा के आशीष प्रकाश में उनकी प्रतिभा विकसित होती रही।
श्रीभंवरलाल जी के व्यक्तित्व की भव्यता शब्दों की परिधि में नहीं बाँधो जा सकती। इनके व्यक्तित्व के सौन्दर्य की घोषणा तो निःशब्दता ही कर सकती है। इनके जीवन के व्यक्तिगत, सामाजिक, साहित्यिक व आध्यात्मिक सभी पक्षों में अद्भुत सामंजस्य है। ये नितान्त अन्तरमुखी हैं फिर भी इनका सहयोग सामाजिक जीवन में परिव्याप्त है। इनके जीवन का प्रत्येक पहलू प्रेरणाप्रद है। सौभाग्यशाली नाहटा जी अभावों की दुनिया से दूर रहे हैं। लक्ष्मी और सरस्वती दोनों महाशक्तियों की इन पर सहज कृपा है। इसीलिए इनकी क्रियाशीलता को संपीड़न के काले मेघ आच्छादित नहीं कर सके अस्तु सूर्य के समान इनकी प्रतिभा और ज्ञान-रूपी रश्मियाँ प्रकीर्णित होती रहीं।
कक्षा पाँच तक पढ़े इस मनीषी ने संसार की समस्त शिक्षण-संस्थाओं की सार्थकता को चुनौती दी है। इनका लिपिज्ञान धन्य है जिसने पुरातत्व अनुसंधान के अनेक आयामों को प्रेत्साहन दिया । ब्राह्मी, कुटिल, गुप्त आदि भारतीय लिपियों की वैज्ञानिक व्याख्या कर इन्होंने अनेक क्लिष्ट प्राचीन शिलालेखों को सहज और बोधगम्य बनाया
| प्रकार भारतीय इतिहासाकाश के एक झिलमिलाते हए नक्षत्र हैं श्री भंवरलालजी नाहटा। उनकी स्तत्य रचनाओं के कारण भारतीय इतिहास सदैव इनका ऋणी रहेगा। लिपिज्ञान के साथ ही आपका भाषाज्ञान भी असीम और अद्भुत है। ये प्रायः समस्त भारतीय भाषाओं के ज्ञाता हैं। संस्कृत, प्राकृत, पाली. अपभ्रश, अवहट्टी, बंगाली, गुजराती, राजस्थानी तथा हिन्दी के तो ये पंडित हैं ही साथ ही उच्च-कोटि के कला-मर्मज्ञ भी हैं। इनकी संवेदनशीलता कला की विभिन्न
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विधाओं में मुखरित हुई है। मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला एवं ललितकला में इनको विशेष रुचि है। वस्तुतः ज्ञान को दिशा में भंवरलालजी का हर प्रयास महान है। इन्होंने अपनो साहित्यिक कृतियों, लेखों, निबन्धों और पुरातात्विक गतिविधियों द्वारा विचारों को व्यवस्था, इतिहास को दिशा एवं लिपि को नव नता दी।
- भंवरलालजी जैन-धर्म के अनुयायी हैं । भाग्यवश इन्हें मुनि जिनविजय, मुनि कान्तिसागर, कृपाचन्द्रसूरि और सुखसागरजी जैसे महान जैन आचार्यों का सामीप्य प्राप्त हुआ । नाहटा जी जैसी धार्मिक प्रतिभा के लिये यह एक ईश्वरीय वरदान के समान है। फलतः इनके हृदय में धर्म-ज्योति के अंकुर फूरे और इन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व में जैन धर्म को साकार किया। सद्गुरु श्री सहजानन्द जी के प्रति इनकी अगाध भक्ति है । इस प्रकार इनके व्यक्तित्व को ज्ञान के साथ-साथ भक्ति ने भी वैभवशाली बनाया। भंवरलालजी ने जैन-इतिहास के अनेक दुर्बोध रहस्यों को बोधगम्य किया और उनके लिये सटीक प्रमाण भी प्रस्तुत किये। जैन परम्परा से सम्बद्ध किसी भी जटिल प्रश्न को हल करने में नाइटा जी सदैव प्रस्तुत रहते हैं
गौरवान्वित है नाहटा परिवार जहाँ ऐसे विद्या-रत्न उत्पन्न हुए जिन्होंने अपने विकास में संस्कार, वातावरण, परिवेश और पूर्वजों के आशीष, सभी को सहयोगी बनाया।
-अर्चना त्रिपाठी शोधधात्रा, पांचाल शोध संस्थान, कानपुर
ईश्वर श्री नाहटा जी को स्वस्थ एवम् दीर्घ उम्र प्रदान करें ताकि वे राजस्थानी भाषा. साहित्य व संस्कृति की और भी सेवा करते रहे।
-रतन शाह मानद मंत्री, राजस्थानी प्रचारिणी सभा. कलकत्ता
कलकत्ता संघ अति भाग्यशाली है जिनको श्री नाहटाजी जैसे समाज-सेवी, कर्मठ. अद्वितीय विद्वान व किसी भी लिपि को पढ़ने में सक्षम व्यक्ति प्राप्त है। इतने प्रकांड विद्वान होते हुए भी आपमें जो नम्रता व सहनशीलता विद्यमान है उन विशेषताओं का वर्णन करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। दादा गुरुदेव से बारंबार प्रार्थना है कि आपकी समाज-सेवाओं के भावनाओं को दिन-ब-दिन उन्नत बनाये।
-कपूरचंद श्रीमाल, हैदराबाद
नाहटा सा०विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं। अनेक भाषाओं का आपका विलक्षण ज्ञान आपकी विभिन्न कृतियों से झलकता है। आपका मातृभूमि, मातृभाषा एवं भारतीय वेषभूषा से अटूट लगाव है जो आपकी दिनचर्या से स्पष्टतः परिलक्षित होता है। राजस्थानी भाषा व साहित्य के लिये आपके योगदान को भला कौन भुला सकता है। वेषभूषा व व्यवहार इतना सामान्य है कि प्रायः व्यक्ति आश्चर्यचकित रह जाते हैं इतने उच्च कोटि के विद्वान, तत्त्ववेत्ता
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एवं परदुःख कतर को देखकर। आपको भाषण शैली बड़ी नधुर व तथ्यों से परिपूर्ण रहती है जो श्रोतागण पर अपनी अमिट छाप छोडे बिन नहीं रइत । आपके द्वारा लिखित कहानियाँ सरल भाषा में व शिक्षाप्रद होती हैं। आपके द्वारा सम्पादित नासिक-पत्र 'कुशल निर्देश' समाज व देश की बड़ी सेवा कर रहा है ।
-देवेन्द्रकुमार कोचर
हिन्दी साहित्य-सेवियों में यह प्रथा रही है कि यदि कोई निबंध, कविता या पुस्तक का प्रणयन उनके ही परिवार के किन्ही दो या अधिक सदस्यों, विशेष कर दो या तीन सगे या नजदीकी रिश्ते के भाइयों द्वारा हुआ हो तो उसमें लेखक के रूप में इन प्रणेताओं के नाम न देकर कुलनाम का उल्लेख कर उसके साथ बंधु या त्रयी जैसे शब्द को जोड़ कर उसका प्रयोग कर लिया जाता है । हिन्दी में ऐसे कई युग्म शब्द देखने में आये हैं । यथा मिश्रबंधु. याज्ञिकवंधु आदि। मिश्रबंधु से तो हिंदी साहित्य का प्रत्येक पाठक भली-भांति परिचित होगा। निबंधु से तात्पर्य मुख्यतः चोटी के दो विद्वान् भाइयों से है-श्री श्यामबिहारी मिश्र एवं श्री शुकदेवबिहारी मिश्र । कमी-कभी ग्रन्थ-प्रणयन में इनके एक और भाई श्री गणेशबिहारी मिश्र का भी योगदान पाया जाता है। इसी प्रकार याज्ञिक बन्धु से तात्पर्य श्री भवानीशंकर याज्ञिक, श्री जीवनशंकर याज्ञिक एवं श्री मायाशंकर याज्ञिक से है।
राजस्थान में और विशेषकर बीकानेर में राजस्थानी साहित्य के प्रणयन में लगे विद्वानों के लिये भी इस प्रथा का व्यापक अर्थ में प्रयोग हुआ है । राजस्थानी-त्रयी शब्द का जब भी और जहाँ कहीं भी प्रयोग होता है उससे तात्पर्य ठाकुर रामसिंह, पं० सूर्यकरण पारीक एवं पं० नरोत्तमदास स्वामी से होता है। इसमें एक विशेषता यह है कि ये तीनों विद्वान् लेखक अलग-अलग परिवार के थे। यद्यपि राजस्थानी के उन्नयन कार्य में वे इस तरह लगे थे कि तीन देह एक प्राण से प्रतीत होते थे। राजस्थानी व जैन साहित्य की सेवा एक अन्य परिवार की भी अनुपमेय रही है। वह परिवार है नाहटा परिवार । प्राचीन राजस्थानी व जैन साहित्य-ग्रन्थों की खोज और उनके शोध में लगे नाहटाबन्धु की सेवा इस कोटि की है कि ऐसा परिश्रमी और अपनी धन में लगे इन महानुभावों के कार्य की गहराई में पहुंचना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। नाहटाबन्धुओं से मेरा तात्पर्य स्वर्गीय अगरचन्दजी नाहटा और उनके बड़े भाई के पुत्र तथा इस लेख के चरितनायक श्री भंवरलालजी नाहटा से है। श्री भंवरलालजी के पूज्य पिताजी का नाम श्री भैरूदान जी नाहटा था। चाचा श्री अभयराज जी का निधन काफी छोटी आयु में हो गया था । भंवरलालजी आयु में अपने पितृतुल्य स्व० अगरचन्दजी नाहटा से केवल छः महीने ही छोटे हैं। इसी कारण अगरचन्दजी नाहटा को अपने शोध कार्य में व पुराने हस्तलिखित ग्रन्थों को एकत्र करने में श्री भंवरलालजी का अनुपम सहयोग प्राप्त हुआ।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक भ्रांति बहुत समय से चली आ रही थी। हिन्दी साहित्य के विद्वान जिनमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल एवं डा० श्यामसुन्दरदास शामिल थे जटमल नाहर की गोरा-बादल की कथा को हिन्दी की प्रथम गद्य रचना मानते थे। वास्तव में यह एक गद्य-रचना न होकर पद्य रचना थी। इस भ्रांति के निराकरण में स्व० नरोत्तमदास जी स्वामी को भंवरलाल जी नाहटा ने अपना पूरा सहयोग प्रदान किया। स्व० पूरणचन्द जी नाहर के
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संग्रह में जटमल को गोरा-बादल की कथा की पुरानी प्रति थी ऐसा मालूम पड़ा। अंततः भवरलालजी व पूरणचन्दजी नाहर ने अथक प्रयत्नों से बड़ी दौड़-धूप के बाद रॉयल ऐसियाटिक सोसायटी, बंगाल, के पुस्तकालय में इस पुरानी प्रति को खोज निकाला। इस प्रति के अवलोकन से यह सिद्ध हो गया कि यह रचना गद्य में न होकर पद्य में है। इस भ्रान्ति के निराकरण का अधिकतर श्रेय भंवरलाल जी को जाता है।
श्री भंवरलालजी नाहटा से मेरा परिचय बहुत पुराना है। उस वक्त जब गुणप्रकाशक सज्जनालय, बीकानेर की छत पर साहित्यगोष्ठियां हुआ करती थीं उसमें नाहटाजी (दोनों), नरोत्तमदासजी स्वामी, नाथरामजी खड़गावत आदि प्रख्यात विद्वान् भाग लेते थे। मैं भी यदा-कदा वहाँ जाया करता था। वहीं पर मैंने खड़गावतजी के मुंह से उनकी राजस्थानी रचना लाभूबाबा (नौकर री) सुनी थी। वह बहुत पसंद की गई।
भंवरलालजी में परिश्रम, लगन, निष्ठा जैसे दुर्लभ गुण प्रचुर मात्रा में हैं। इसके साथ-साथ उनमें मानवीय गुणों की भी कोई कमी नहीं है।
आप पर भगवती सरस्वती के साथ-साथ लक्ष्मी का भी वरद हस्त रहा है । साहित्य-सेवा तो आपकी प्रशंसनीय है ही व्यवसाय के क्षेत्र में भी आपने कौशल का परिचय दिया है जो किसी के लिये भी अनुकरणीय है।
-पुरुषोत्तमदास स्वामी, बीकानेर
साहित्य-जगत के अनुपम एवं बहुमुखी विद्वान, सरस्वती के लाडले व पूर्व जन्म के शुभ एवं संचित संस्कारों से ओतप्रोत नाहटाजी पर श्रुतदेवी की अपरंपार कृपा है। न जाने कितने जन्मों की साधना व पुण्यानु धी पुण्य हैं जो सिर्फ एक ही देवी नहीं साथ में लक्ष्मी देवी की भी सतत् कृपादृष्टि है जो कि इस प्रमाण में कठिनाई से दृष्टिगोचर होती हैं । इतनो विद्वता होते हुए भी अहम् प्रहार तो क्या छ भी न सका। शायद ही किसी विज्ञान में इतनी सरलता, स्थिरता उपलब्ध होती है । बिना प्रसिद्धि की आशा, लालसा व कामना किये अडिग हैं। स्वयम् में एक अनुकरण योग्य उदाहरण हैं जिसे समय में नहीं बांधा जा सकता है ।
ऐसी विरल आत्माओं की प्रतिभा-विलक्षणता विज्ञापन-रहित साहित्य-साधना के माध्यम से विश्व में इत्रवत् सर्वत्र प्रसारित हो जाती है, क्योंकि साधना अपने आप में खुशबु है। आपश्री के परिवार वाले भी आपश्री की तरह ही सरल व अहम् रहित हैं ।
-डा० पुष्पा जैन, बम्दई
स्वर्गीय अगरचन्द जी नाहटा सौभाग्यशाली थे कि उन्हें घर में ही एक प्रतिभाशाली एवं अनुपम सहायक व साथी श्री भंवरलाल जी उपलब्ध हो गये।
राजस्थान समाज प्रकाशन समिति के मंत्री के रूप में मैं उनसे दो-तीन वर्ष पहले मिला था। उस समय इनकी पुस्तकों की प्रतियाँ देखी, संपादित पत्रिकायें देखी. और देखा एक सरल व्यक्तित्व के पीछे प्रतिभा संपन्न आत्मा एवं सरस्वती की प्रतिमा ।
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प्राकृत, पाली, संस्कृत, अपभ्रश, बंगला. हिन्दी, राजस्थानी, ब्राह्मी, गुप्त आदि लिपियों के कम्प्युटर भाषाविद्ग को शतशः नमन ! अभिनन्दन ।
-गोविन्द अग्रवाल
वे ज्ञान के कोष हैं, यह बात जितनी सच है उससे अधिक कठोर सत्य यह है कि उनका ज्ञान आच्छादित रहा है। उनकी उपादेय और गरिमामय साहित्य-सेवा एक उपलब्धि है।
जहाँ तक मेरा अनुभव है भाई अगर चन्दजी, भंवरलालजी नाहटा को लोग दो नहीं एक व्यक्ति मानते थे । यह भ्रम तो धीरे-धीरे दूर हुआ।
भाई अगरचन्दजी का नाम लेने से श्री भंवरलालजी का नाम स्वतः आ जाता था और इसी तरह वे एक दूसरे के पूरक थे। लेकिन सत्य यह है कि दोनों ने ही साहित्य की विशेषकर इतिहास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण सेवाएं दी हैं।
-पन्नालाल नाहटा. दिल्ली
आधुनिक युग में प्राचीन संतों की-सी भारतीय मनीषा को विश्व के सामने उजागर करने में जिन साधकों के नाम अग्रपंक्ति में सादर प्रतिष्ठित हैं, उनमें श्रद्धेय नाहटा जी का नाम कुछ अधिक आकर्षण के साथ उभर कर आया है। भारतीय वाङमय में आपकी महिमा इसलिये नहीं है कि आप अपने में एक विश्व-कोष हैं बल्कि इसलिए है कि हमारी विजुत सांस्कृतिक विरासत जो कि पांडुलिपियों में कैद है. जिसकी लिपि को जानने वाले नहीं रह गए हैं, को आपने मुक्त किया । ज्ञान का अगाध स्रोत जो अनजाने शिलाखण्डों से रुद्ध रहा. उसे आपने अपनी वज्रवृत्ति से उन्मुक्त किया, सर्व-साधारण के लिये बोधगम्य बनाया ।
-अरुणप्रकाश अवस्थी, कलकत्ता
स्व० अगरचंदजी नाहटा ( आपके काकाजी) एवं आपका समाज के प्रति उपकार का मूल्यांकन करना कठिन है। आप इस वृद्धावस्था में भी साहित्योपासना एवं समाज-सेवा में कार्यरत हैं एवं युवकों के लिये प्रेरणास्रोत हैं।
-धनसुख छाजेड़, डहाणु, महाराष्ट्र
नहीं हटा सो नाहटा, भँवरलाल श्री नाहटा, निज धर्म औ स्वकर्म पे हरदम रहा डंटा। पाया गुरु परसाद, निरंतर करतब रत है, जिन शासन से प्यार व सेवा जिसका व्रत है ।।
-प्यारेलाल मूथा, अमरावती
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गुणी जनों के गुग याद करना मानव का फर्ज है। नाहटाजी श्रीमान भँवरलालजी का अभिनन्दन समारोह मनाया जा रहा है सो अति ही आवश्यक कार्य होगा। नाहटाजी के लेख व कई एक प्रतियां पढ़ी जिससे यह अनुभव होता है कि ऐसे भौतिक समय में भी अध्यात्न- ज्ञान के लेख व कृतियां जादू-सा ही काम करके मानव जीवन को सफल बनाने के लिये अति उपयोगी होते हैं। नाहटाजी की सरलता व सादगी व प्रेमभरा व्यवहार हमें हमेशा याद रहता है। - मोतीलाल लछमनदास जैन, तलोदा, महाराष्ट्र
परमार्हत श्रेष्ठी आदरणीय भँवरलालजी नाहटा एवं उनके परिवार के साथ हमलोगों के सम्बन्ध सदा से अत्यन्त आत्मीय और मधुर रहे हैं। स्वर्गीय अगरचन्दजी नाहटा की भाँति श्री भंवरलालजी नाहटा को यदि धर्म, संस्कृति और साहित्य के महासागर में प्रकाश स्तम्भ की संज्ञा दें तो कदाचित् अत्युक्ति न होगी । निस्सन्देह वे इस क्षेत्र में एक निष्ठापूर्वक समर्पित व्यक्तित्व हैं। यदि इस तथ्य को यूं स्पष्ट करें कि भारत के धर्म, संस्कृति और साहित्य के इतिहास में यदि किसी एक ही ऐसे नाम की गवेषणा करें जो अपने आप में एक पूरा अध्याय बन कर जुड़ गया हो तो श्री भंवरलालजी साहब के नाम पर आकर ठिठक जाना पड़ेगा। सुज्ञजनों से परिचय प्राप्त करना मुझे प्रिय रहा है, पर आप जैसे मर्मज्ञ कभी-कभार ही मिल पाये हैं। उनके समीप बैठने का मुझे जितना बार भी अवसर पड़ा, यही अनुभूति हुई मानों मैं किसी व्यक्ति के समक्ष न होकर किसी शब्दकोश के सामने बैठा हूँ । मेरी निजी मान्यता है कि ज्ञानसाधना शुद्ध स्वार्थ है, और शुद्ध स्वार्थ ही जब सम्यक विस्तार करता है तो परमार्थ में परिवर्तित हो जाता है, इसी समीकरण से सिद्ध होकर श्री नाहटाजी समाज हेतु एक रत्न हो गये हैं। यद्यपि हमलंग अपने को परम्परागत जौहरी बताते हैं, पर ऐसे अनमोल समाज-रश्न का सही मोल ऑक पाना तो सम्भवतः मेरी सामर्थ्य से परे है । उनकी ज्ञानगरिमा हार कर रह गई पर उनकी सहज सरल शालीनता पर किञ्चित भी हावी नहीं हो पाई. इसे भी एक दुर्लभ संयोग मान लेना पड़ेगा हमलोग कर्तव्य मात्र कर रहे हैं. वस्तुतः यह आयोजन यदि प्रतिदिन भी किया जाता रहे
उनका अभिनन्दन करके तो भी अल्प ही रहेगा।
अभिनन्दन समारोह के शुभावसर पर हम आपके प्रति श्रद्धा के सुमन अर्पित करते हैं ।
--जयचन्द्र कोठारी, बीकानेर
-शैलेश डी० कापडिया, संपादक, जैनमित्र, सूरत
स्व० अगरचन्दजी नाहटा से मेरा परिचय था और मैं ३/४ बार सार्वजनिक समारोह के अवसर पर मिला भी । पर श्री भंवरलाल जी नाहटा तो मुझे गुदड़ी में छिपे हुए लाल की तरह प्रतीत होते हैं। पांचवी कक्षा तक पढ़ा हुआ व्यक्ति इतना अप्रतिम प्रतिभा संपन्न कुशाग्र बुद्धि वाला ऐसा बेजोड़ ऐतिहासिक विद्वान एवं धार्मिक वृत्तिवाला होगा. ऐसी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है ।
ऐसी योग्यता यूनिवर्सिटी के प्रमाण पत्रों से नहीं आयी, बल्कि यह पूर्वोपार्जित संस्कारवश जन्म से ही आयी है। श्री नाहटा जी दिव्य पुरुष दिव्यात्मा ज्ञात होते हैं।
- ज्ञानचंद्र जैन, सह संपादक, जैनमित्र सूरत
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कोई पचास से अधिक वर्ष पूर्व जब मैं हिन्दी मासिक पत्रों को पढ़ने लगा, तब से ही अनेकानेक हस्तलिखित जैन ग्रन्थों तथा अन्य हस्तलिपियों की जानकारीपूर्ण लेखों के लेखक के रूप में श्री अगरचन्दजी के साथ श्री भंवर लालजी नाहटा का भी नाम जुड़ा देखता आया हूँ। राजस्थान से प्रकाशित होने वाले मासिक पत्र-पत्रिकाओं में तो अनिवार्य रूपेण उनके लेख देखने को मिलते रहते हैं। स्वतन्त्र रूप से उन्होंने एकाकी भी बहुत कुछ लिखा और कई ग्रन्थों का सम्पादन किया है। पुनः जनवरी १२, १९८३ ई० को उनके काका श्री अगरचन्द नाहटा के देहान्त के बाद तो यह सारा कार्यभार एकमात्र श्री भंवरलाल नाहटा के ही कन्धों पर आ गया है, जिसे वे पूरी साधना और लगन के साथ निबाह रहे हैं । ईश्वर से प्रार्थना है कि वे उन्हें शतायु करें ताकि शासन की सेवा करते हुए वे भारतीय इतिहास और साहित्य के संरक्षण और अध्ययन-विवेचन के इस कार्य को आगे भी सतत् करते रहें।
-रघुबीरसिंह. सीतामऊ
श्री भंवरलालजी नाहटा का व्यक्तित्व अथाह सागर जैसा है। वे वर्तमान युग के महान दृष्टा, ज्ञाता, विचारक और जीवन-सर्जक हैं। वैसे तो धर्म, अध्यात्म व साधना में ही उनका जीवन प्रवाह है. लेकिन कला. साहित्य, दर्शन में भी वे अनूठे और अद्वितीय हैं। उनका लेखन जीवन की गम्भीर गहराइयों व अनुभूतियों से उद्भुत है।
बीकानेरवासी श्री नाहटा न केवल राजस्थान के गौरव हैं अपितु विश्व के उन गिने-चुने व्यक्तियों में से हैं जिन पर माँ सरस्वती की अनुपम कृपा रही है। किसी स्कूल कॉलेज में नहीं पढ़ने के बावजूद भी उन-सा लिपिज्ञान विरलों को ही नसीब होता है।
स्व० अगरचंदजी नाहटा व श्री भंवरलालजी नाहटा से मेरा परिचय काफी पहले से रहा है। समय-समय पर धार्मिक मसलों पर विचार-विमर्श पत्र व्यवहार होता रहा है। ऐसे महान व्यक्ति के बारे में जितना लिखा जाए थोड़ा है। वय में बड़ा होने के नाते मैं उनके शतायु होने की कामना करता हूँ।
-मानचन्द भंडारी, जोधपुर
महापुरुष श्री भंवरलालजी नाहटा से मेरी मुलाकात कलकत्ता में जब ४ दिन रहना हुआ था तब तीन बार हुई। इसके बाद नाहटाजी अपने परिवार सहित एवं काका श्री अगरचन्दजी नाहटा (प्रसिद्ध पुरुष) सहित प्रतिष्ठा के समय पालीताना पधारे थे । मैं पालिताने में रहता था। तब ३/४ बार दोनों से भेंट हुई। उन्होंने उन्हीं द्वारा प्रकाशित दो पुस्तकें मुझे भेंट में दों। मैंने श्री भंवरलालजी नाहटा में सादगी, सरलता, गंभीरता, 'विनय, सन्तोष एवं परोपकार भाव और ज्ञान अध्ययन गुण देखे, यह भी देखा कि कोई उनसे प्रश्न करे तो वे निष्पक्षता से सही उत्तर देते हैं।
ज्ञान की विशेषता के साथ-साथ आपश्री व्रतधारी भी हैं। ज्ञान के साथ-साथ धार्मिक चारित्र. दोनों बातें. एक साथ किन्हीं विरले पुरुषों में ही देखने को मिलती हैं।
-एस० सोहनलाल गोलछा, कटनी
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It is with great eclat, alacrity and enthusiasm that I write about Shri Bhanwarlal Nahata, a savant and sage, and a store-house of knowledge on Jainism. Shri Nahata has the history about himself by his sheer study and critical acumen and honesty, and by his industry, perseverance and achievements. But the fame of Shri Bhanwarlal Nahata is not confined to the above things alone, he is also credited with a number of works and articles amounting to nearly 3000 composed by him for the scholarly world. He is a great connoisseur of art and culture and has an unbounded interest in creative activities.
I met Shri Bhanwarlal Nahata more than 35 years ago in his gaddi'. A tall, bald-headed man of mid-century with bright eyes and sharp looks, but gentle and sobre, received me well with his ever smiling face that tells the personality of a man. Being enchanted and bewildered by his demeanour which is inundated with commanding beauty of person and great vigour of mind, we began to talk on a subject which he handled so easily that he could be compared with any master-minded scholars of the world. I was working then on a Rajasthani manuscript, entitled 'Kanhada Kathiyara-ri Caupai'. He helped me so much in editing and getting the meaning of text that I could not express his decuman knowledge of the subject in eloquent terms. I discovered that he was a good manuscriptologist. He reads manuscripts faster than a printed book. He is a good calligraphist as well. If one has not seen him reading manuscripts, one cannot believe it. He has contributed so much from manuscripts that Jainism owes its indebtedness to him for centuries more. He has done the works of hundred scholars by himself alone.
I have been to his place thousand times for acquiring knowledge on Jainism and I have learned so much from him that I do not hesitate to call him my Jaina-siksa-guru'. It is said
ekam apy aksaram yastu guruh sesye nivedayet prthivyam nasti tad dravyam yad datva so'nrni bhavet
He is out and out a businessman and studies are his pastime pleasure job: abeunt studia in mores ( studies become ways of life ). He used to say to me that he had no formal education. By that he meant that he had no University degrees. I found him more than that. Gradually I have also discovered that a man like him does not need any University degrees. Though, it is true, he has no formal education in the University sense of the term, he has combined in himself the learning of an oriental pandit with the argus-eyed critical faculty of a modern scholar. I have seen that the University degree-holders have studied under him for solving various problems.
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His knowledge on Jainism is superb and unsurpassed, beyond the cognizance of an ordinary student. He is, in fact, a self-made scholar and reads voraciously. He peruses and writes, and he writes faster than one can read them. When any idea is dawned in his mind, he sinks deep into it, till he reaches the end of the problem.
He has written nearly three thousand papers on Jaina religion and philosophy, culture and history, art and architecture, folk-lore and tradition, language and literature. There is hardly any branch on Jainism which is not touched by him : nullum quod tetigit non ornavit.
He is a polyglot. He knows Sanskrit, Prakrit, Pali, Apabhramsa, Bengali, Hindi, Rajasthani, Gujarati and several other languages. He has helped innumerable scholars in this line.
As far as I know he has no enemy; and he does not live in the realm of hostility. He is very courteous and bountiful, and is sympathetic towards young learners and scholars. He is a man of extremely simple and unostentatious habits and his attitude towards life and world is intensely religious.
Shri Nahata, a scholar and virtuoso, is an embodiment of the revival of Jaina glory, culture and history which he has unfurled for over fifty years of his life. With his unbounded zeal and inexhaustible fund of energy and unsurpassed skill, he has made himself a ‘moving encyclopaedia on Jainism, a rare honour which a non-academician can ever attain. His ideas are lofty and sacred in nature. He has an unquenchable thirst for knowledge. He is by nature taciturn, and values what is useful and seeks, what is worthy. His contributions are more thana. D. Litt.
On this solemn occasion I pray to God for his hundred active life:
pasyema saradah satam, jivema saradah satam, srnuyama saradah satam,
--Dr. Satyaranjan Banerjee Dept. of Comparative Philology and Linguistics, University of Calcutta
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उदयपुर के महाराणा श्री भगवतसिंहजी को माल्यदान करते हुए श्री नाहटाजी
समवयस्क मित्र व आत्मियों के साथ-बाएँ से श्री नाहटाजी, स्व० हीरालालजी लूणिया, स्व० भैरुदानजी सुराणा, श्री मेघराजजी नाहटा, श्री दीपचन्दजी भूरा
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BRAddhe
धार्मिक शिक्षण शिविर, कलकत्ता, के समापन-समारोह में श्री नाहटाजी को माल्यदान करते हुए
जैन भवन के कर्मठ कार्यकर्ता श्री मोतिचन्दजी भरा
श्री जैन भवन पुस्तकालय, कलकत्ता, के उद्घाटन समारोह पर आयोजित पुस्तक-प्रदर्शनी में
डा० सुनीतिकुमार चटजी, श्री विजयसिंहजी नाहर आदि के साथ श्री नाहटाजी
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श्री अगर चन्द
दिन 2 पल 180
श्री अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन समारोह पर नाहटाजी को अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करते हुए
तत्कालीन संसद सदस्य मुहम्मद उस्मान आरिफ
कम्पिल महोत्सव पर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल डा० एम० चेन्ना रेड्डी को मंदिर का
इतिहास बताते हुए श्री नाहटाजी
For Private & Personal use only
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मधुबन (शिखरजी) में समायोजित अखिल भारतीय इतिहासज्ञ विद्वत सम्मेलन के
सभापति रूप में श्री नाहटाजी
अग्रगामी युवक परिषद् के अधिवेशन में श्री नाहटाजी
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माँ सरस्वती के वरदपुत्र, महान ज्ञानोपासक श्री भंवरलालजी नाहटा की जीवन-झांकी के दर्शन पाकर ऐसा लगा कि केवल पांचवीं कक्षा पास विद्यार्थी श्री नाहटाजी वास्तव में जन्म-जात स्वयंबुद्ध हैं, अपूर्व आमा-युक्त महापंडित हैं। आप संस्कृत, प्राकृत आदि अनेक भाषाओं; चित्रकला, मूर्तिकला आदि अनेक कलाओं; ब्राह्मी-गुप्त आदि अनेक लिपियों के पूर्ण ज्ञाता हैं. महान साहित्यकार हैं, तत्ववेत्ता, इतिहासवेत्ता, महान् चिंतक. महाकवि हैं। जिनशासन के रसिया हैं, सच्चे पुजारी हैं।
-शांतिलाल जैन 'नाहर', होशियारपुर, पंजाब
आप साहित्यिक एवं इतिहासज्ञ तो हैं ही. आपको कई लिपियों का भी ज्ञान है। जो लिपि पढ़ने में विज्ञ अपने को असमर्थ पाते हैं उसे आप उस लिपि के संकेत तैयार कर इतना स्पष्ट पढ़ देते हैं जैसे कोई अपनी मातृभाषा (लिपि) पढ़ता हो।
आपमें मैंने एक विशेषता यह देखो कि आपको मातृभूमि का अधिक गौरव है। मारवाड़ से जब कोई बाहर अर्थ उपार्जन के लिये जाता था, तब बुजुर्ग यह हितशिक्षा देते थे--भाया देश छोड़े पण, वाणी, पाणी (गौरव), रहेणो (वेषभूषा) मत छोड़े। यह तीनों बातें आपके जीवन में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है। इस दिशा में मातृभूमि का गौरव रखने वाले विरले ही मिलेंगे।
-भीखमचंद मुणोत
श्रीमान् नाहटाजी से मेरा घनिष्ठ पारिवारिक सम्बन्ध होने के साथ-साथ व्यक्तिगत भी घनिष्ठ सम्बन्ध है। किसी भी साहित्यिक एवं सामाजिक कार्य के लिये मैंने आज तक आपके मुंह से 'नहीं' शब्द नहीं सुना । क्योंकि आपके शब्दकोष में नहीं अथवा असम्भव शब्द है ही नहीं। जिस किसी भी कार्य को आपने हाथ में लिया उसे निष्ठापूर्वक पूरा किया । आपको अनेकों भाषाओं का ज्ञान है। अभी कुछ दिन पूर्व की बात है कि श्रद्धेय मुनिवर महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर जी म० सा० अपनी एक काव्य-पुस्तिका का आद्योपान्त हिन्दी से राजस्थानी में अनुवाद करवाना चाहते थे । इसके लिए उन्हें श्री नाहटाजी से उपयुक्त कोई व्यक्ति न लगा। संयोग की बात है कि पूज्य मुनिवर ने मुझे यह पुस्तक नाहटाजी से अनुवाद करवाने के लिये दी। श्री नाहटाजी ने सहर्ष पुस्तक ले ली। एक सप्ताह के उपरान्त मने श्री नाहटाजी को याद दिलाया। तब उन्होंने कहा कि अनुवाद आज कर दूंगा। मैंने सोचा कि १०० पृ काव्य-पुस्तिका के अनुवाद में एक सप्ताह का समय अवश्य लगेगा। अतः एक सप्ताह बाद पुनः श्री नाहटा कहँगा। किन्तु अगले ही दिन प्रातः श्री नाहटाजो ने मुझे मूलकाव्य पुस्तिका व उसका राजस्थानी भाषा में एक डायरी में लिखकर मेरे हाथ पर दिया। मैं आश्चर्य के साथ सोचने लगा कि इतनी वृद्धावस्था में कर्तव्य निष्ठा है इनमें ? विनम्र, शान्त-स्वभावी, सहिष्णु और मृदुभाषी श्री नाहटाजी गुण-रत्नों श्रीमान नाहटाजी के विषय में साधारण सा व्यक्ति भी एक स्वतन्त्र ग्रंथ लिख सकता है। श्री नाहटाजी अनेक दशकों तक समाज, देश. साहित्य, धर्म की सेवा करते हुए हम सबके बीच रहें इस शुभ मंगल कामना के साथ मैं श्री नाहटाजी का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।
-प्रकाशकुमार दफ्तरी, कलकत्ता
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प्रतिभासम्पन्न, आशुकवि, बहुविध व्यक्तित्व एवं कृतित्व के धारक, कलाविद्, परमधर्मिष्ठ श्री भंवरलालजी नाहटा का अभिनन्दन शीघ्र ही किया जाएगा-संवाद से मेरा मन-मयर थिरक उठा। क्यों न थिरके। किसी बहुश्रुत और उपकारक विद्वान् का अभिनन्दन हो तो थिरकना स्वाभाविक है ।
नाहटा बन्धुओं-१० आरचन्दजी ए श्री भंवरलालजी नाहटा से मेरा सम्पर्क आज का नहीं है । चार दशाब्दियों से भी अधिक समय से सम्पर्क रहा है, जो अब घनीभूत हो चुका है । इन दोनों के ही मेरे जीवन पर परम उपकार रहे हैं। इनके सम्बन्ध में पूर्व में भी मैं 'प्रतिष्ठा लेख संग्रह' एवं 'अगर चन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ' में अपने भावोद्गगारों को प्रकट कर चुका हूँ, तदपि उन स्मृतियों का अव भी मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूँ, अतएव पुनः अंकन कर रहा हूँ।
वि० सं० २००० में मेरे परमाराध्य सद्ज्ञान चूड़ामणि परमक्रियापात्र पूज्य गुरुदेव श्री जिनमणिसागरसूरिजी महाराज के सान्निध्य में मेरा चातुर्मास शुभविलास, बीकानेर में था। उस समय मेरी अवस्था १५ वर्ष की थी। यहीं से मैं इनके सम्पर्क में आया, नहीं-नहीं, इन्होंने मुझे अपने सम्पर्क में लिया और कुशल शिल्पी की तरह मेरे जीवन का निर्माण करने की ठान ली। अपने पुत्र पारस के समान ही मुझ पर वात्सल्य/धर्मस्नेह रखते हुए, मेरी जीवन की गति/प्रवाह को मोड़ देना प्रारम्भ कर दिया।
सर्वप्रथम इन्होंने हस्तलिखित ग्रन्थों की लिपि को पढ़ने की ओर मुझे प्रेरित किया। अभ्यास बढ़ने पर पडि. मात्राओं का ज्ञान कराया । इसमें गति होने पर इन्होंने मूत्तिलेखों की लिपि का ज्ञान कराया और साथ में बैठकर अभ्यास करवाया। जब इसमें भी मेरी गति बढने लगी. तो मझे प्रोत्साहित करते हुए पाण्डुलिपि करने की कला भी सिखाई। प्रेरणा, परामर्श, सहयोग और प्रोत्साहन दे-देकर इन्होंने मेरी गतिविधि को साहित्य-सेवा की ओर उन्मुख कर दिया. सूत्रधार की तरह संचालन कर दिया । फलस्वरूप मेरे जीवन का लक्ष्य बदला और प्रयत्न करते हुए मैं कुछ बन गया । आज मैं जिस रूप में भी हूँ और जो कुछ भी हूँ. उसकी नींव इन्होंने ही डाली ।
मेरे जीवन का निर्माण करने में, योग्य बनाने में इनकी प्रबलतम् महती अभिलाषा थी कि मैं खरतरगच्छ का एक असाधारण विद्वान, लेखक और गच्छ का अभ्युदय करने वाला बनं । पर काश ! मैं ने उनकी अभिलाषा को पूर्ण करने के स्थान पर उसे आच्छन्न ही नहीं, बल्कि तहस-नहस भी कर डाला। इसमें मेरी ही त्रुटियां, दुर्बलतायें. आचरण और आवेश मुख्यतः दोषी हैं।
इतना सब कुछ घटित हो जाने पर भी मेरे प्रति तो उनका वात्सल्यवत् असीम स्नेह. गुरुतुल्य श्रद्धाभाव, सौहार्द और सन्मित्रभाव पूर्ववत् आज भी सुरक्षित है। इसमें तनिक भी कमी नहीं आने पाई है। इसे मैं इनकी महानता ही कह सकता हूँ। यह हुई आप बीती ।
वि० सं० १९८४ में सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी महाराज एवं उपाध्याय श्री सुखसागरजी म० के बीकानेर चातुर्मास में नाहटा-बन्धु अगरचन्दजी भंवरलालजी उनके घनिष्ठ संपर्क में आए । उनके संसर्ग में आने से इन दोनों की जीवनधारा में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ और तभी से ये दोनों श्रेष्ठीपुत्र से सरस्वतीपुत्र बनते हुए महान से महानतम् बनते चले गये।
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इन दोनों काका-भतीजों का साहित्यिक-जगत् की प्रत्येक गति-विधि में इतना अधिक सामञ्जस्य रहा है कि ये परस्पर एक-दूसरे के पूरक बन कर अभिन्न/अद्वैत रूप में आगे बढ़ते ही रहे। इन दोनों के कार्यों का विभागीकरण करना वस्तुतः टेढ़ी खीर है। किन्तु इनकी वह अजस्रधारा भी कुछ वर्षों से नान और अर्थ को दृष्टि से एक पक्ष की ओर से खण्डित होती हुई-सी दृष्टिपथ में आती है।
इन दोनों के सम्मिलित एवं सक्रिय प्रयत्नों से दो वैशिष्ट्यपूर्ण एवं चिरस्थायी कार्य सम्पन्न हुए थे:
१. अभय जैन ग्रन्थालय (बीकानेर) जैसा विशालतम संग्रहालय स्थापित हुआ। जिसमें ७० हजार हस्तलिखित ग्रन्थ, लगभग ४० हजार मुद्रित पुस्तकें. शताधिक पत्र-पत्रिकाओं की फाइलें, राजाओं, आचार्यों आदि की पत्रावलियां
और सहस्राधिक ग्रन्थों की पाण्डुलिपियां सुरक्षित हैं। संग्रहालय की सामग्री का उपयोग कर शताधिक शोधार्थी पी० एच० डी० कर चुके हैं ।
२. शंकरदान नाहटा कला भवन की स्थापना। इसमें प्राचीन चित्र, चित्रपट्ट, पुरातात्विक अवशेष, मुद्राए', सचित्र ग्रन्थ, काष्ठ-पट्टिकाएं एवं विविध प्रकार की सामग्री प्रचुर परिमाण में संग्रहीत है।
श्री भंवरलालजी के कलकत्ता रहने के कारण एवं श्री अगरचन्दजी के स्वर्गवास के पश्चात् ये दोनों संस्थायें दुर्व्यवस्था के चंगुल में जकड़ती जा रही है।
यहाँ पर यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि भवरलालजी के शताधिक लेख अगरचन्दजी के नाम से भी छपे हैं । सर्वदा अगरचन्दजी के वशंवद होकर चलने में ही इन्होंने अपनी गरिमा समझी है।
४२ वर्षों के सतत् सम्पर्क में मैंने श्री मँवरलालजी में जो कुछ वैशिष्ट्य देखा, उसका संक्षिप्त लेखा-जोखा अब प्रस्तुत करता हूँ।
१. आशुकवि हैं । कविपदधारक न होते हुए भी, प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी और राजस्थानी भाषा में तत्क्षण छन्दो. बद्ध रचना कर लेते हैं। रचना में यत्र-तत्र व्याकरण की दृष्टि से स्खलना अवश्य हो जाती है, किन्तु भावों की दृष्टि से रचना प्रशस्त हो होती है। भक्तामर स्तोत्र का हिन्दी पद्यानुवाद तो एक रात्रि में ही पूर्ण कर दिया था।
२. विधिवत् क्रमिक अध्ययन के अभाव में भी प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश, राजस्थानी, गुजराती भाषाओं का अच्छा ज्ञान है। पढ़ने और अर्थ करने में भी पूर्ण दक्ष हैं।
३. ग्रन्थों की पडिलिपि मात्रा के अतिरिक्त प्राचीन मूर्तिलेखों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों की उत्तर भारत य लिपि पढ़ने में सिद्धहस्त हैं। यही नहीं. ब्राह्मी और कुटिल लिपि के लेखों को भी दक्षतापूर्वक पढ़ लेते हैं।
४. मूर्तिकला और चित्रकला की सूक्ष्नताओं का विशिष्ट ज्ञान है और उसमें अच्छी पैठ है। कालानुसार उसका निरूपण भी गहराई के साथ कर लेते हैं।
५. अक्षर सुवाच्य, सुन्दर एवं मनमोहक हैं। साथ ही सूक्ष्म अक्षर लिखने में भी सिद्धहस्त हैं। मेरे जैसा तो उसे आईग्लास बिना पढ़ नहीं पाता।
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६. रेखाचित्र, संस्मरण और कहानियाँ लिखने में अत्यन्त निष्णात हैं। राजस्थानी और हिन्दी दोनों में लिखते हैं। पात्र का चित्रण अत्यन्त सजोव और मार्मिक होता है। पुस्तक पठनीय है।
७. लगभग दस वर्षों से एकाकी हो 'कुशल निर्देश' मासिक पत्रिका का सम्पादन सफलता पूर्वक कर रहे हैं।
८. स्वतन्त्र रूप से लिखित, अनुदित, संपादित, संशोधित पुस्तकें एवं शताधिक लेख भी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, अभिनन्दन स्मृति ग्रन्थों में प्रकाशित हो चुके हैं। और अब भी निरन्तर लिखते रहते हैं।
९. आज मी खरतरगच्छ का इतिहास, बच्छावत वंश का इतिहास, विचाररत्नसार का अनुवाद, सहजानन्द पत्रावली आदि के कार्य भी उती मनोवृत्ति और लगन के साथ पूर्ण करने में संलग्न हैं ।
१०. इतने अधिक निःस्पृह हैं कि कोई भी कलात्मक वस्तु ग्रन्थ या मुद्रित पुस्तकें प्राप्त होती तो तत्काल ही उन्हें काकाजी के पास संग्रहालय हेतु भिजवा देते थे। अपनी कहकर अपने पास नहीं रखते थे ।
११. पारिवारिक सम्बन्धों में अंग्रजों के कारण आर्थिक हानि भी उठानी पड़ी तो उसे मूक दर्शक की तरह सहते रहे। बड़ों के प्रति उनके हृदय में आदर- बहुमान होने के कारण कभी मुंह नहीं खोल सके। सम्पत्ति को कर्माधीन ही समझ कर शान्ति धारण कर ली। इससे अधिक समत्व मिलना भी दुष्कर है ।
१२. धर्म आगम, साहित्य, कला, इतिहास और पुरातत्व के अधिकृत विद्वान हैं। इस सम्बन्ध में कोई लेखक तथ्यविरुद्ध लिखता है, तो तत्काल ही पत्राचार द्वारा या लेख द्वारा शालीनता के साथ वस्तुस्थिति का दिग्दर्शन करा देते हैं। यदि कोई भाषण के मध्य में मनमाने ढंग से विपरीत प्ररूपणा करता है, तो तत्क्षण ही जोशीली वाणी में प्रामाणिकता के साथ निराकरण कर देते हैं ।
१३. जिस कार्य को कृत संकल्प होकर हाथ में ले लेते हैं, तो खान-पान आराम को भूलकर साहसपूर्वक एक आसन से घंटों तक बैठकर उसे पूर्ण करके ही विश्राम करते हैं । चाहे प्रतिदिन १५-१६ घंटे भी काम क्यों न करना पड़े। आज भी ढलती अवस्था में भी इनकी यही मनोवृति है।
१४. नाम लिप्सा रखे बिना आज भी अन्य लेखकों और सम्पादकों की पुस्तकों के संशोधन और प्रूफ आदि रात्रि में देखते ही रहते हैं।
१५. एक समय जयन्ती के अवसर पर प्रसिद्ध विद्वान् मुनि श्री नगराजजी ने श्री पूज्य जिनचन्द्रसूरिजी को 'युगप्रवान' और श्री पूज्यजी ने उन्हें 'राष्ट्रसन्त' की उपाधि से अलंकृत किया, तो इन्होंने उसी समय 'दासानुदासा इव चाटुकारा... पद्य बनाकर, मुनिश्री को सम्बोधित कर दिया था। निर्भयतापूर्वक विरोध करने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते हैं ।
१६. विनम्रता और शिष्टता की प्रतिमूर्ति है अशिष्ट वाक्यों का प्रयोग यहाँ तक कि उपहास में भी अशा लीनता इनको किंचित भी रुचिकर नहीं हैं । एक संस्मरण स्मृतिपटल पर उभर रहा है :
वि० सं० २००१ में ये कटिदर्द से अत्यधिक पीड़ित थे। फिर भी ये उल्टे लेटकर घण्टों तक प्रतिलिपि करते रहते थे।
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बैठना या बैठकर काम करना इनके लिये दूभर था। श्री जिनपालोपाध्याय की सरतरगच्छ गुर्वावली के
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अनुवाद की मैंने प्रतिलिपि करवाई थी। व्याधिग्रस्त अवस्था में भी लेटे-लेटे उसका मिलान करवा रहे थे। मिलान करते समय प्रसंग आया-"जिनपतिसूरिजी के साथ शास्त्रार्थ में निरुत्तरित हो जाने से आ० पद्मप्रभ की नानी मर गई।" मुझमें बचपना तो था ही। मैंने उसी समय जोर से आवाज दी- "देख पारस, नानी मर गई।" पारस भंवरलालजी का ही सुपुत्र है। समवयस्क होने के कारण हम साथ में खेला भी करते थे। उक्त शब्दों को सुनते ही इन्होंने अक्रोश और विनम्रतापूर्वक मुझे डाँटा और समझाया भी। "आप क्या बोल गये हैं, आपको ध्यान भी है? इन शब्दों का अर्थ क्या होता है? आप साधु हैं. अतः आपको सोच-विचारपूर्वक भाषा का उपयोग करना चाहिए । आपको पारस को बुलाकर कहना ही था, तो 'पारस ! शास्त्रार्थ में पद्मप्रभ की नानी मर गई' कहना था । आगे-पीछ के वाक्यांशों को छोड़कर, बीच के वाक्यों को पकड़ने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। आप जानते हैं न ? मतमतान्तरों के उद्भव भी अपूर्ण वाक्यावलियों से हुए हैं और होते हैं। मूर्तिपूजा के विरोध के रूप में स्थानकवासी और तेरह पंथ का उद्गभव भी अपूर्ण वाक्यांशों का ही परिणाम है।"
उस समय यह फटकार मुझे अखरी भी. किन्तु मेरे लिये वरदायी बन गई।
१७. ज्ञान और अर्थ समृद्ध होते हुए भी इनके जीवन में निरभिमानता, निश्च्छलता और निःस्पृहत्व है। इसका प्रमुख कारण है जीवन में धार्मिक संस्कारों की परिपूर्णता । परमधर्मनिष्ठ होने के कारण ४७ वर्ष की दीर्घ पर्याय एवं चरण में तकलीफ होते हुए भी नियमित रूप से देव-पूजन करने मंदिर जाते हैं। गुरु विद्यमान हों तो वहाँ भी जाते हैं। प्रातः सामायिक करते हैं। रात्रि भोजन कदापि नहीं करते हैं । तपश्चर्या भी करते हैं। पर्युषण में तेला करते हैं। इनकी धर्मनिष्ठा के कारण परिवार में भी धार्मिक संस्कार दृष्टिगत होते हैं। परनिन्दा में भाग/रस नहीं लेते हैं और गुग ग्रहण करने में पीछे नहीं रहते हैं। किसी में गुणों को देखकर उसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हुए अघाते नहीं हैं।
१८. खरतरगच्छ के सुदृढ़ स्तम्न और अनन्य भक्त हैं। इन ज्ञानवृद्ध की समानता में बैठने वाला खरतरगच्छ के चसुर्विध संघ में आज कोई भी दृष्टिगोचर नहीं होता है।
१९. बड़ा मंदिर और जैन भवन, कलकत्ता, सम्मेतशिखर तीर्थ कमेटी आदि बीसों संस्थाओं से सम्बद्ध हैं । उनकी व्यवस्था में अपने तन एवं समय से योग भी देते हैं।
काकाजी श्री अगरचन्दजो नाहटा के स्वर्गवास के पश्चात् भंवरलालजी साहव हतोत्साहित नजर आते हैं । ये मानते हैं कि 'मुझे निर्देश और सक्रिय प्रेरणा देने वाला साथी नहीं रहा' । इस कारण इनका मन उचाट-सा भी रहने लगा है।
अन्त में गुरुदेव से मैं यही प्रार्थना करता हूँ कि वे श्री भंवरलालजी साहब में आन्तरिक शक्ति स्फुरित करें जिससे कि यह ज्ञानवृद्ध दीर्घकाल तक स्वस्थ रहता हुआ पूर्ववत् साहित्य-सेवा में तन्मय रहे और धर्मिष्ठों एवं साहित्य-सेवियों का मार्गदर्शक बना रहे। इसी शुभाशंसा के साथ श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ।
-महोपाध्याय विनयसागर
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रानभकोमोन रमनिया प्रभावित चरण।
सविभिअंगनारदिक हराया, मादिन्सियलमपिनाशकनमनमशरण करण आधारभवमलयाने एकहारो प्रभू
अञ्चलमाली निर्विकारी रया छो।' प्रलयकालवायुभाखरीने चलाये।
मगि किरा निचित्रचित्रित राजता सिंहासने। सम्यकप्रकार मनामकारे गाणेदार विभाग पणूनिष्प्रकनिकचुला रहे स्थिर (१५॥
भगवान श्रीऋषभदेवस्वामी बनायनमापनि विमलगायोगयो।
Xउदमाचलेनिन अंगमाली भासता कपिजरमते॥
कनकर्मा आदि जितनी कामकाता देख मजनामा दुऊत्यो।
मिबिल पूरायेदरोडा. नयी पालो पण मंकारा पगोकना
महिमामयी। मेलोन्ज न प्रकार जवनी मालदार देखिने।... स्वपरकाशीज्ञान ज्योतीतमास..
प्रति हामीलगाय जानने त्वरित करत निर्भया ॥२९॥ स्तगास्नाभहुंभयोग्यता स्वउपेखिने २॥
स्वान समेाटक मामे जेश जनमरणाचा ज्ञमानजेमजनमानेयस्यामधे। असमर्यकावागराडालना।।१६॥
Xय पो तेम मनुनेगुज-यामर दुलिराचा धनःनिर्लजमममाया गुजाकिंचित्कये।
सदोस्तिप्रकाशीसूर्य तोअस्त याने,
शाश-समन्वनमारिधारतमी परे सुशोभतो। Jआजनिशय-गरिकार्ये आननत्परययो। प्रसेाहनेने मेषमान्त पणा
जातिहर्थतीमुंवर्णव्यो आकाव्य मनमोस्तो ॥३॥ मिठोसनगोआनासमोइननक्षमाच्च रक्षयो।।३॥ क्षेत्र सीमा प्रकाशी सूर्यनीआमा!
शिसमुचल पत्रं त्रय रवितापसर्व निवारता । गुणरत्नमीरियाभमाले कोणगर्णन करि राया।
नुअमीन महिना ओपना नयो जेनी १७n
K
मोतियोनीलडोभावेजोऽशोभायाता, असमय सुरगुतापपुणज्ञानगरिमा सूजन
जगत स्वामी नायनी ऐश्वर्यता प्रगानता।
इरेगी ॥ करमान्तजापामोडमनीयसागर आणतो।
Kमतिहार्यचौमुंआदि जिननुमानतुंग बतपता ॥३१॥
मोहमहाअंधकार नाराक प्रभु श्रीआभूरा। निलभुलाओधोतरी मुखवीरीते मागतो।
भदोस्ति अज्ञानवारकभुजकमलकातिनीधरा।।
kीदेवोतणावाचे गंभीरसर मसंगनती। हमपनमारोभक्तिधोउचथयो मुनिनाधनो।
दिशामादिगिननीबसोमया गान तारसपायन गुभोगायधीशक्ति जो सापजी। शामिलतेधन भयोमीरजापरितजा....सभनीजयघोषणा सारततीसरानी मोतिशाजरातिणनात्यांना गोगई।
उपमानछाजें प्रअनंत गुणअघि अदीरानो प्रातराय पंचन सुरो सरेरामा (३२॥ शिशुमचानाने सौरसाने हिम्मतकरीशियथई ।
हलिशमुख चंद्रहारो प्निमयूजनवरतन.. DXमेचवरणी सन्नद्राष्ट्र महापारिजातादिनी। भूत ज्ञानाने मुकाबलेपरिकामपावना भने ।
त्या रातिमाशशिहरअन्नलिरिक्तरोतव्यनिनननादिमेक गिरिउपनेल वृरिवारिभी। भको तभारी स्तवन करना मानगोभिरकरणे पानेलशालित मा ज्यान मेघु नासुकाम
म मीशरणातुशोभती निमपंचागीबाणा खिरी। विसंत तुमभंगरी मुकुरित तणा परतापंथी। मायलटकाकरीजन मतमोजी आवाजयो। कारोकरेजावपि रण सिमशीततामधेका (17SIKातंहायबर सुगंधितममुस्सुजन
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Kng " स्वपर सकाराक जानभानु:आपण मरत्व। अंधकार सविना जगतेन न सोहामा
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स्वपन बतानारोधनूतत्व कधगो दिमरानतुलना कमाँ वीतरामारसायक देवाय तिनलीगध म्हारा निरसने अणगमा
वीविकट मामिदुर्जेयमापजपलहे। न मानसशभाषाकलनासरलताको।
भलु गुणत-गाटजोनम प्रतेजनाभ भुलाम गुणपरतापथो सुजनगणोनामना
भरणनीआसरोले दुखकदोपणनाव १४३ उत्कृष्ट रचना पति मी आभावशेषमना खरेदी भवभनांतर अन्य निोनुसादीश.शेती सवभावात्रा
सर्व भाषात्पर्शलारो जिनोपदराहियेरे॥३५॥ मोटा मगरमादिम्याव लापरयामा विरोहजारोस्त मसूतापर्णसमाराधना. Bधार भगनानन्याव्या स्वणकमलासबरे नबासिनोमयअनेनानाकोडागवान किरणउषाकालनी पडताकमत निकसितधया!
नियो जन्ममाप्यो अन्यस्त जोतीरत्यक्ष गोवा एली व्यनस्पित सतदेवानकारे । गमग करनालाहगोजाता सरसप्ताTिM
शिविदिशिमाज्याधणानारायर नहानाति न राज एक अतिशा नरवकातितधारना नुनामशरणज्यटन तरल निम्माvिidall पणसूर्य ने उफनावनाची दिशीज समर्याKM.
रागभागनलदरादिना महाविकरालामा म
सीधेशपत्नीपरम गरिमामयधमग निवारती सामुनीजन मुभीमनमोआपने रम्तमानाघरा
समनमा सनौशरणेमे विभूति'विराजत" "47
२१ पारणे विभूति'विराम
मारसहपीडाजीनित पहाना भज्ञानत्मनेशनकारीमानता सूरजला
शनानीपण रिस्राहिभारि प्रतिभाव
आहीशप्रभुपरमाता
, रशनानीपण रिस्रादिभार प्रतिभानवता आपले नाभी मामय मृत्यु नुस्खाया.
भक्तिप्रयोगथी
मदन तुल्यसम्पमान ईजागत रोगयाँumal य नोअन्याभाव पदमार्गपणअनेरी थAMतारागों मीचमकरांनी
तारागो मीचमक परमातुनीशीबराबरीपगहाय वीमा कलमधलीकरना। मिली जनतमारागुण गावाहनिराधम करे।
" करिताकेनकाशनेअंधकार ननित शरी13000चसीजायजयाजोगाने निविडहेलीबंधना।। अनिममनयना दलिने प्ररूपीजा नाममा अध्ययनअनृपआपआर्थियमसरव्य प्रसारमा कारवरना कपले विरेक मग मला
स्वोमनुज मशहारोनाम जाप करे सहा। निरंकअनेकवमन.मामवतुयोग वापत थातऐरावतबहाचा सिनता जानकालपतभयराहतजामको तदा अमलातअप अयश्रीनिन TXएता भयानक स्थान मानव भक्तजननियरहे।
भानमतसिंहदावाजलारिजागकणचारीलणा। बबीमारीबापदायकतम निचलनुदा
संग्रामदारेपनिमारोमोजदरादिना वणकलाकल्याणकर शंकर तम पण
कारगयअपना अम्तमान स्थिर रह॥३0 टकारामारना पग-अष्टप्परकहना। शिवमानाचिनाविभाना सरीरीतेमाप
LXOमोनभस्थलाक्षणमात मानविदारता। लिताथी सरडेल मकान
करता स्तरनआदीरानाभतोबधानभयधयाani लिथी सरडेल मुक्ता भूनिमा विरवरावता। |उतमोहमपुकमजनम कपात्तनपूर्ण आप२५॥Vासवानगपतियुण लोभ
विपित्रजित रणसुमन थी विकरावनीशा मही। जगदनना चिंता निवारक नायलने जाना
आकमननरभरण युगिनीस जेशरणता॥३९॥ अतिपरिचरनानिनरानजाकरठया. सफल भूतल रणजितराजताने जमन । Kाप्रलयवाना प्रेरित अखि माशोलाउडे।
मालतुंगसुभ रचना प्रभावककल प्रहा। त्रिजग ना रेश्मयस्लामीयतनाम
दानामगसर्वस्वभक्षीकहातेधीकुणभिड। जलाशेक्षक भार नारक जनश्रननमन KHAल वारिसीयामलजननिभयर। नमामातानापसप्यपदकनभंगरकहना निशाहाराहत्यमा गुणस्को मानीवस्या Xआदीराजनुना नाममोतमानिशीतलताला॥४.11.
किलरा भिमानीकन यस्मा DXपिक कण्ठ जनो नायकलें फग उडान आवलो!" दिसहसमऽतिसर्षमातिकतदिनीयादिसप्तli उपजाति ,
Kफकारकरतोलात और भयंकणभानतो विमल गुतमारा रामचन्द्रज्योत्स्ना..
णिसहजानंस्वत जिन भक्तिनाआवेशा॥
स्तोत्र भक्तामर लणीगुजरारा मतपय
Xनीस्तोमरक्ततार-चाणररवानाधस्य जनमानाम लोकना। ज्याप्त 12434रगोउचोअगाकरोनितस्दा।
माभ्यासस्सलनाबंधाविनक्षत्म्य/07 निर्माबविचरनाकार अटकावतारा... कालीबा मांबिसुरतजमनियरसर्वत।।
Xम्यूबा अवतीभोजराजमणी
PANनवताता अनेमारकरमसाहचवमाशिभक्तामर गुर्जर भाषाबकायं संपूर्ण विरचित आश्रयस्थल एक आदीशस्वामी । नपा निकसाबबादेराना किरणोआपता।
Kग्राम भामेनरोनासह
चालरिक्तनाहटानादालनमाकाकतानगर, प्रतिसय मत मुमुक्षोनाकर्मदलनेकाप २६
पापा नारि सकतेतविही॥४२॥
स.२.३०मितीमारीकष्णहतियोकजाताई भमेन कल्माणमस्तुदेव गुरुप्रसाद श्री
करारीसका नासुप्रभाasnet Panायावतानाना शरद SHALIमाधादातामा त्रिभुवनस्स
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तिमनावहारीसत्करथीपाप जसंहदराजका दरीतायोजनसहलीसूर्यनासुप्रभाव।
भगवनयापनाराक स्नोन निरनयमाव९॥ त्रिणभुवन नाभूषणसमानायजाप शरमप्रदा। शुगप्रशंसकमत नेवसमान पदातासदा।। पणनमारीकियइच्छन कमसमकक्षता। अनंतगुण ऐश्नयालीआदिनाय जां ?ot निमलोशक संतुगिजंतर टरेअभिरामना। क्षीरसागर नीरामूलपान करिकुलवणभया जतपाजनीनांछाकरेजमा समाचाभय। परमाणुजी उतनराज सकलचउदर राजा वीजनियाकोज शुरूपवान निशसम्म नदीधईबेनोइस्चांदा-श्रीजिनराज नयामले निरक्षरोभष्टयायायमम १२५ सुरनगरमांजदलातमात मुखर नागलोक अनुपम वस्ने सहप्रतियोगिता मानला शाशकलंकिनान मुखमदिवसमा देखग्य। पोतयण पलाश समविहीन जिमतेनाय 3720
अवशष्कार नरहनाभिमानभीकर अन्यदेमामाचगा आसयोममनमरिधा।
बीसबनोभावना बामसालिमार मुखमान॥
नागभनी नरनावनेचसे 1810 प्रथमान्यास स
काच्यं संपूर्ण विरचित,
'श्री भक्तामर गूर्जर भाषाबद्ध काव्यम्'-श्री भंवरलालजी की सूक्ष्न अक्षर लेखन-कला का नमूना
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P.L. Nahatay
तीर्थकर भूत्ति, श्री सूरजपहाड़, ग्वालपाड़ा, असम
श्री भंवरलालजी कृते रेखा-चित्र
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BALAMA
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BHARATI
श्री भवरलालजी नाहटा अपने सुपुत्र पारसकुमारजी व पदमचन्दजी के साथ
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श्री भँवरलाल नाहटा
-शास्त्री शिवशंकर मिश्र
जीवन स्वयं एक साधना है और सिद्धि की प्रतीति भी। जीना, जीने की कामना और जीनेको जीवन का लक्ष्य बनाये रखना, तीनों ही चेष्टायें साधारण मानव-जीवन में सभीष्ट होती है। पर महापुरुषों, चिन्तकों व मनीषियों के जीवन की कलायें इनसे सर्वथा भिन्न होती हैं। वस्तुतः अन्तर लक्ष्य में है। जीने के लिये जीना एक अलग चीज है, जीने को शाश्वत बनाये रखने की साधना अलग है। इसी प्रवृत्तिगत भेद में मानवजीवन की साधनाविधाओं में भी अन्तर हो जाता है। भौतिक सुख की खोज में व्यस्त जीवन के क्रियाकलाप और आध्यात्मिक सुख की सिद्धि की साधना तथा सामाजिक सुख-समृद्धि की कामना को प्रतिफलित करने की रससाधनाओं में पर्याप्त अन्तराल होता है, परन्तु कुछेक कर्मयोगी ऐसे भी होते हैं, जो भौतिक, आध्यात्मिक व सामाजिक सभी सुखों के प्रयास में सामंजस्य बनाये रखने में सफल होते हैं । ऐसे महामानव प्रायः विरले ही होते हैं । प्रारब्ध इनके लिये हस्ताम्लकवत् होता है। ये संचित कर्म के प्रातिमज्ञान के धनी होते हैं और इसीलिये इनके क्रियमाण कर्म इन्हें सशक्त बनाये रखने में समर्थ होते हैं। ऐसे विरल कर्मठ व्यक्तियों का जीवन प्रायः आत्मोन्मुख ही होता है क्योंकि आसक्ति में इनकी आस्था नहीं होती, केवल कर्म ही अथ होता है और वही इति भी। सम्मान, यश और प्रतिष्ठा इनके मोग्य नहीं। श्रद्धा और आदर इनको देय है. ग्राहय नहीं । सम्भवतया इसीलिये श्रेय और प्रेम दोनों ही इन्हें ढंढ़ते फिरते हैं। समाज की सजग चेतनायें इनके समक्ष स्वयं श्रद्धावनत होती हैं और इन्हें अपनी कृति का सुयश प्राप्त करने का सहसा अवसर प्राप्त हो जाता है।
अपनी स्वाभाविक अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का जो मुझे अवसर मिला है, उसकी प्रतीति के आधार 'श्री नाहटा-बन्धु हैं।
डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने श्री अगरचन्द नाहटा और श्री भंवरलाल नाहटा को इसी नाम से पुकारा है और इनकी देन को विज्ञापनरहित साहित्य-साधना की अमर प्रवृत्ति की संज्ञा दी है। मेरा अपना सम्पर्क दोनों ही चिन्तकों से रहा है। आप दोनों चाचा और भतीजे हैं। एक साधना है तो दूसरा सिद्धि । इनके पूरक प्रयत्न इतने मिश्रित हैं कि "को बड़ छाट कहत अपराध. गणि गुण दोष समुझिहहिं साधू". महात्मा तुलसीदास की विनम्र प्रार्थना ही सहायक हो पाती है। वैसे एक कारण है तो दूसरा कार्य, एक प्रतीति है तो दूसरा प्रतिफलन, एक ज्ञान है तो दूसरा भक्ति या महाप्राण निराला के शब्दों में एक विमल हृदय उच्वास है तो दूसरा कान्तकामिनी कविता का प्रतीक । फलतः जीवन, जीवन की विधि, उसकी गति व जीवन की समस्त सारभूत प्रक्रियाओं में अभेद समानता इन्हें पृथक् रूप में नहीं देख सकती। वैसे सेव्य-सेवक भावनाओं में जो एकरसता है. वह अनिवार्य रूप से इनमें अंत-प्रोत है।
श्री भंवरलालजी नाहटा के व्यक्तिगत, सामाजिक, साहित्यिक व आध्यात्मिक जीवन की झाँकी यह मैं प्रस्तत करने जा रहा है। प्रस्तुत आकलन अंतरंग साहचर्य को कहाँ तक सजीव बना सकेगा. सहदय पाठकों की
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प्रज्ञाचक्षु ही इसे विश्वास दे सकेगी। इस गम्भीर चेतना पुंज, सरस्वती के वरद्र-पुत्र के जीवन का जितना भी अंश साकार हो सकेगा. उतनी अपनी समझ, शेप अपनी अल्पज्ञता की विवशता ही होगी। शास्त्र कहता है--- "क्वचित्-सल्वाट निर्धनम्" यह धन-सम्पत्ति भोगोपकरण भी हो सकते हैं और विद्या-बुद्धि, यश, मान, ज्ञान और भक्ति भी प्रशस्त ललाट, मांसल स्कंध, विस्तृत वक्षस्थल, घनी मूंछें निर्मल दृष्टि तथा चिन्तन शील मुकुटि विलास आपके प्रभावशाली व्यक्तित्व के प्रतीक हैं. रीति-नीति परम्परा के परिवेश में अतीत के उज्ज्वल व तपस्यारत महर्षि के ओजसे आमासित भव्यरूप सहज आकर्षक बन जाता है । लक्ष्मी आपको प्यार देती है और सरस्वती प्रातःकालीन सनीर के समान दुलार तथा शक्ति स्वयं अनवरत अध्यवसाय की सतत् प्रेरणा में दत्तचित्त रहती है । भगवान् महावीर का अनुशासन आपको आत्मबोध देता है और सद्गुरु सहजानन्दघन की दीक्षा आपको आत्नबल । संयन आपका आचरण है और अध्ययन आपको आत्मनिष्ठा निष्काम कर्म आपने साकार हुआ है और ध्यान व धारनाओं की संगति ने आपके भीतर और बाहर की अनुभूति और कृतिको समन्वित कर रखा है। निर्मल चित्त, विमल मानस तथा तपःपूत आचरण जिस दुर्लभ व्यक्तित्व का निर्माण कर सके हैं. वह अन्यत्र दुर्लभ है । आश्चर्य यह है कि नितान्त आत्मोन्मुख होकर भी आपका सामाजिक जीवन इतना व्यस्त है कि अन्तर्विरोध के कारण भी कारणों का आधार चाहते हैं। सम्भवतया दोध की स्थिति में व्यक्ति व्यक्ति न रहकर समाज हो जाता है। समरसता शायद समदृष्टि की अमर साधना का ही फल होती है । कहते हैं कि अनुभूति की तीव्रता ही अभिव्यक्ति की आधारशिला होती है और इसीलिये संवेदनशील प्रकृति साधारणीकरण के आवेग के प्रबल प्रवाह को रोक नहीं पाती. और इसीलिये आपमें अवरोध नहीं अस्वीकार नहीं । जो कुछ है सहज है, सरल है, ग्राहय है और
अनुकरणीय है ।
एक धनीमानी और समृद्ध परिवार ने आपको जन्म दिया है । अभाव के संसार से दूर, भावनाओं के संसार में आत्मविश्वास के चरण सतत् गतिशील रहे हैं। इसका प्रधान कारण एक वृहत् परिवार की संयुक्त व समन्वित पवित्र प्रेरणा, परिचर्या तथा पावन परम्परा ही रही है । अर्थ, धर्म और काम के लिये जीवन कभी व्यग्र नहीं हुआ। पूर्वज कर्मठ थे। पिता श्री भैरुदानजी तथा पितृव्य श्री शुमराजजी मेघराजजी व अगरचन्दजी की छत्र-छाया में साधना और सिद्धि को भौतिक संतुष्टि आपको तीनों ही पुरुषार्थों को सुलभ बना रखी थी । आज भी वही वातावरण बना रहा है। पितामह श्री शंकरदानजी की व्यावहारिक एवं व्यापारिक कुशलता आपको निद्वंद्र, निर्भीक एवं निरापद बनाने में सहायक हुईं है यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता । इतने बड़े कुटुम्ब में व्याप्त पूज्य पूजक भावनाओं की धार्मिक हित आज के वेयक्ति परिवारों की दुनिया में अम्मर नहीं तो दुर्जन अवश्य है । अर्थोपार्जन व कर्मभोग की स्वाभाविक गति में धर्म-साधना का मणिकांचन संयोग भी आपके परिवार की ही विशेषता रही है । साधु-समागम, तीर्थाटन, जप, तप, दान व मन्दिर निर्माण, धार्मिक उत्सवों के अवसर पर सक्रिय धार्मिक कृत्य आदि त्याग, संयम व अपरिग्रह की मनोवृत्ति परिवार के प्रत्येक प्राणी के लिए अभीष्ट है । फलतः कर्तव्य निष्ठा के साथ-साथ आपकी प्रकृति में सौजन्य, कुलीनता तथा निरभिमानी व्यावहारिक, सामाजिक व धार्मिक चेतना का समन्वय मिलता है तो आश्चर्य नहीं, वरन् संतोष ही होता है। आप कुलदीपक हैं, परिवार की मर्यादा हैं, अपने समाज के प्रकाश स्तम्भ हैं और अपने जीवन की ज्योति है जो अनेक जन्म-संसिद्धि के रूप में आपको अनायास सलम
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वस्तुतः मेरा अपना परिचय सर्वप्रथम श्री पारसकुमार से हुआ था । ये पूर्णतया आपकी प्रतिकृति हैं। "आत्मा व जायते पुत्रः" की प्रतीति तो मुझे आपके सान्नध्य से हो प्राप्त हुई है। परम सुशील, संयमी, सम्य व पूर्ण व्यावहारिक पुत्र, जो सम्पतिशाली कहे व माने जाने वाले वर्ग के परिवारों में खोजने से ही प्राप्त हो सकते हैं. मुझे यह आभास दे दिया था कि धन की परिधि में भी धर्म के केन्द्र बिन्दु, मानवता, सज्जनता, सहृदयता का अभाव नहीं है। ठीक यही भाव मुझे प्रिय अनुज श्री हरखचन्द के साहचर्य से ज्ञात हुआ । मुझे वे आपके पूरक प्रतीत हुए । भौतिक एवं आध्यात्तिक प्रकृति के अद्वितीय समन्वय, जहाँ आँसुओं की कीमत है, विराग का राग है और है अनुराग में विग की अद्भुत झलक । हाखचन्दजी सम्भवतया आंसू और मुस्कान के बीच की कड़ी हैं। धर्म उनका सहायक है, अर्थ उनकी प्रेरणा है और काम उनकी सृष्टि का संस्थान । शील और संकोच जो आदर और सम्मान की भूमिका अदा करते हैं, आप दोनों भाइयों को ईश्वरप्रदत्त हैं । मेरा तात्पर्य मात्र इतना ही है कि श्री भंवरलाल जी की परिधि इतनी शान्त व मनोहर है, इतनी सर्जनशील व प्रभुताविहीन है कि ऐसी परिस्थिति में ही उनके सम्पूर्ण गुणों को परख हो सकती है ।
सत्य, अहिंसा, अस्तेय व अपरिग्रह आदि जैनधर्म के मूल-भूत सिद्धान्तों की विस्तत व्याख्यायें हैं. विविध परिणतियाँ हैं । साध व गृहस्थ-धर्मों के पृथक्-पृथक आचरण भी हैं। विधि-निषेध की विभिन्न मर्यादाओं की भी सीमाय नहीं हैं। लेकिन सतत् जागरूक व्यक्ति मत-मतान्तरों, दार्शनिक-विवादों एवं विधि-निषेधों से ऊपर होता है। सिद्धान्त वस्तुतः आचरण की मर्यादा निर्धारण करने में सहायक होते हैं । वे स्वयं आचरण नहीं होते फलतः विश्वासों में तर्क, सिद्धान्त के निर्णय के लिए गौण बन जाते हैं। कर्तव्य श्रद्धा चाहता है और आचरण सामाजिक विश्वास। या थोड़ा ऊपर उठने पर हम कहेंगे कि आचरण आत्मविश्वास चाहता है जिसमें पर का भी समान अस्तित्व होता है। वस्तुतः परम्परा निर्वाह अन्य वस्तु होती है और कर्तव्यनिष्ठा अलग । यदि कहीं दोनों का सम्मिश्रण उपलब्ध होता है तो वह अद्भुत होता है। इसीलिये साधारण व्यक्तत्व से वह व्यक्तित्व विशेष हो जाता है और उसे हम महान आत्मा कहने को बाध्य होते हैं। श्री भँवरलालजी में जैनधर्म साकार दृष्टिगोचर होता है । जहाँ जो कुछ है. मनसा-वाचा-कर्मणा है, द्विधा नहीं और इसीलिये द्विधा के प्रति आवेश भी नहीं । आक्रोश नहीं
और न ही शिकायत ही है क्योंकि आचरण में किफायत नजर नहीं आती। यहाँ परम्परा है । परम्परा की आनुभूतिक धरोहर है। तर्क और सिद्धान्तों के मनन की चिन्तनधारा है. विश्वास और श्रद्धा है। तेरापंथ भी उनके लिये उतना ही सहज वोध्य है, जितना मन्दिर मार्ग। यहाँ धर्म बाह्याडम्बर नहीं जितना दिखावा है. वह लोकाचार है। फलतः आपकी साधना एकांगी नहीं, सर्वागीण है । मुनि जिनविजय तथा मुनि कांतिसागर, कृपाचन्दसूरि और श्री सुखसागरजी. मुनि पुण्यविजय, श्री हरिसागरसूरि, मणिसागरसूरि, कवीन्द्रसागरसूरि के सत्संग ने आपको धर्म-चेतना दी है तो मुनि नगरराज, मुनि महेन्द्रकुमार 'प्रथम', जैसे व्यक्तित्व ने आपको अपना स्नेह दिया है। बुद्धिगम्य-ग्रहण आपकी मानसिक पुकार है, संस्कार-जन्य स्वीकार आपके हृदय की । नयन की भीख भंवरलालजी को अनुकूल है. पर अन्तश्चेतना की पावन धारा, जिसमें आपका मन अवभृथ स्नान करता है, वहाँ आपका एक अलग अस्तित्व भी है। उस मानसतीर्थ में सबके लिये समान स्थान है। अनेकान्तवादी विचारधारा ही आपके एकान्त व सार्वज नक चिन्तन का मार्ग प्रशस्त कर सकी है। सद्गुरु श्री सहजानन्दजी, जिन्हें देखने व सनने का एकबार मझे और जो आपके दीक्षागुरु भी हैं। मुझे यह लिखने का साहस देते हैं कि भंवरलालजी मन और वाणी से अपने गुरु
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की मुक्त अनुभूति के कायल हैं। श्री सहजानन्दजी शुद्ध बुद्ध अनुभूत योग के प्रतीक श्रमग रहे हैं। उनमें धर्मों का, भारतीय दर्शनों की, और भारतीय नैतिक जीवन मूल्यों की अदभुत समन्विति रही है। भँवरलालजी में जो गौरव है, वह गुरु का है. परिवार का है, पूर्वजों का है और है लोकाचार का मर्यादित व स्वीकृत संयोग। स्पष्टतः यह मनीषी महामानव समुद्र की तरह गुरु-गम्भार है। समस्त संसार की विचार-सरिता इस महासागर में निमज्जित होकर इसमें एकरस हो चुकी है। लगता है, भगवान महावीर की वाणी "मित्तो मे सव्वभूएसु वैरं मज्झं न केणई" ने ही आपको आतिथ्य की कामना दी है। अत्नकल्याण, लोक मंगल तथा विश्वजन हिताय के जैनानुशासन का सार्वभौम उद्घोष आपका अभीष्ट है, इसीलिये आपकी धर्नदृष्टि उदार है। करुणा और दया आपके उपजीव्य आधार हैं। धर्म यद्यपि शोध-विश्य नहीं है, मात्र विश्वास ही उसका शोध है जिसे अत्तनिरीक्षण या आत्मविश्लेषण कहा जाता है, फिर भी आपको सजग चेतना परम्परा और सत्य के बीच सामंजस्य स्थापित करने में सतत् संलग्न रही है। सत्य यह है कि कालभेद से मतभेद होता है और मतभेद से मनभेद । यही मनभेद विकल्प को जन्म देता है और विकल्प असमंजस की स्थिति में मानव चेतना को अस्थिर बना देता है जिसे क्रान्ति का धरातल कह लेते हैं। यहीं द्विधा उत्पन्न होती है। फलतः विचारों में संतुलन रह नहीं पाता और वाद-विवाद की स्थिति व्यक्ति, समाज, राष्ट्र व अन्तर्राष्ट्र-मन को विचलित कर देती है। यह सारी स्थिति कालभेद को लेकर चलती है। काल स्वयं बंधता है क्षणों में, घंटों और दिनों में, मास और वर्षों में और फिर युगों और शताब्दियों में। शायद इसीलिये सामाजिक चेतना के प्रतीक धर्म के अविरल विभाज्य-विन्दुओं के प्रवाह को काल भी नहीं पचा पाता है क्योंकि महापुरुषों और कालपुरुप के इसी अन्तर्द्वन्द्व के शोधन की आवश्यकता मनीषियों व चिन्तकों की कालजयी मेधा, सदा अनुभव करती रही है। अतीत को वर्तमान और भविष्य को भी सजग वर्तमान बनाने की साधना कितनी स्तुत्य है, यह मनीषी पाठक ही विचार करेंगे। मैंने तो इस व्यक्तित्व की चेष्टाओं की प्रतीति के लिये अपनी अनुभूति भर व्यक्त की है। भंवरलालजी की अन्तष्टि इतनी सूक्ष्म रही है, जितनी काल की गति। इसीलिये इस मौनचिन्तक की प्रज्ञा सदा वातावरण-सापेक्ष्य होते हुए भी बिखरी हुई धर्म की कड़ियों में व्यामोहरहित गांठ बांधती चली आयी है। वे कहा करते हैं कि
वेदा विभिन्नाः स्मृतयो विभिन्नाः नैको मुनिय॑स्य मतिर्न भिन्ना। धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ।।
आप अडिग हैं, निश्चल हैं। सचमुच विज्ञापन-रहित हैं। अपने विश्वासों को ही जीवन के नैतिक मूल्यों का आधार मानते आए हैं। यदा-कदा ऐसे अवसरों पर जब वे आलोच्य बने हैं, इन्होंने कहा है कि भतृहरि ठीक कहते हैं :
निन्दतु नीति-निपुणा, यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् । अद्यव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्याय्यात् पथः प्रविचलन्तिपदं न धीराः ।।
अध्ययन, चिन्तन, मनन, अध्यवसाय व निदिध्यासन, आपके जीवन के स्थिर चित्र हैं। सद्गुरु साथ हैं. जैनानुशासन पास में है. अविचल निष्ठा है. फलतः इनमें विकल्प नहीं, द्विधा नहीं, एक बोध है। प्राणवान् विश्वास है। क्योंकि आपके लिए धर्म साधन और सिद्धि दोनों ही है । प्रमाण के लिए अभी-अभी एक जीवन्त प्रश्न पर आके विचार देखने को मिले हैं। भगवान् महावीर के दिव्य प्रयाण के पावन स्थल पावापुरी को लेकर एक
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विवाद उठ खड़ा हुआ है । कन्हैयालालजी सरावगी की इस विषय में एक पुस्तक मुझे भी पढ़ने को मिली थी। मैंने भवरलालजी से प्रश्न किया था कि आपको इस विषय में क्या सम्मति है? आपने स्पष्ट उत्तर दिया-"भाई भगवान महावीर की २५००वीं जयंती मनाने का भारत सरकार ने निश्चय किया है। युगपुरुष एकदेशीय नहीं होते. उनका आदेश समस्त संसार के लिए होता है। उनके जन्न और निर्वाण के स्थान के निर्णय. विशुद्ध ऐति. हासिक व पुरातात्त्विक प्रश्न हैं। इस पर एकान्तिक विचार करना किसी भी सम्प्रदाय के लिये उचित नहीं। मेरा तो अपना ख्याल है कि हजारों वर्षों से लोक-श्रद्धा मध्यम पावा, जो बिहार प्रान्त में स्थित है. को ही प्रभु का प्रयाणस्थल समझकर अपनी भक्ति प्रकट करती आ रही है। इसलिए राजनैतिक या निहित स्वार्थ में लिप्त कुछेक वर्ग या सम्प्रदाय की तात्त्विक व्याख्या सामयिक लाभ के लिये ही है। विदेशो विद्वानों ने प्रायः बौद्ध त्रिपिटकों ही को अपने इतिहास-लेखन में सहायक माना है। जेन-सिद्धान्त व जेनागमों में व्यक्त विचार उन्हें एकांगी नजर आये हैं, फलतः उनका निर्णय स्पष्ट नहीं हो सकता क्योंकि सम्प्रदायगत विद्वेष एक दूसरे को हेय समझने को बाध्य हैं। मेरा अपना विचार है कि यद्यपि लोक-परम्परा लोकाचार के द्वारा बिहार स्थित मध्यम पावा की युगपुरुष की निर्वाणभूमि को अपने विश्वास का केन्द्र मानती आयी है सो हम उस लोक मंगलमयी लोकभावना के समक्ष नत होने को बाध्य हैं. हमारा इतिहास इसके विरूद्ध नहीं है। आपने 'जैन भारती' में एक निबंध लिखकर इस भ्रम को असामयिक, अतात्विक तथा अनैतिहासिक प्रमाणित करने का प्रयास किया है। तात्पर्य यह कि यह मनीषी सत्य और आचार में सामंजस्य का समर्थक है।
भंवरलालजी शिक्षित और दीक्षित दोनों ही हैं। पर शिक्षा, जिस रूप में आधुनिक युग द्वारा प्रमाणित किया । जाता है, मात्र ५वीं क्लास तक की है। इसे हर प्रारंभिक या प्राइमरी एजुकेशन कहा करते हैं। अंग्रेजी में एक मुहावरा है द थी आर्स ( The three R's ): लिखना, पढ़ना और हिसाब-किताब ( रीडिंग, राइटिंग तथा रिथमेटिक ) नितान्त अपर्याप्त । पर प्रतिमा स्कूल, कालेज व युनिवर्सिटियों में निर्मित नहीं होती। वह जन्मजात होती है। इनके तो पेट में ही दाढ़ी थी। पूर्व जन्न के पूत संस्कारों ने इस महान् व्यक्तित्व को देश की समस्त भाषाएँ विस्तृत संसार की मुक्त पाठशाला में सहज में ही, समय और अभ्यास के अभ्यस्त अध्यापकों द्वारा पढ़ा दी हैं । वस्तुतः प्रातिभज्ञान स्वयंभू होते हैं। प्रारब्ध और क्रियमाण कर्म जिन संस्कारों को जन्म देते हैं वे संचित होते रहते हैं। उसी संचय की सिद्धि एक 'जीनियस' के रूप में प्रगट होती है। कुछ तो संस्कार, कुछ व्यक्तित्व की अभिरूचि और कुछ वातावरण, सभी के पारस्परिक सहयोग को परिणति एक ऐसे विवेक का सृजन करती है, जिसे हम मानसिक शक्ति कहते हैं । यही मानसिक शक्ति प्रतिभा के नाम से जानी जाती है। इसे प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होती। यह स्वयंसिद्ध प्रमाणपत्र होती है । संसार की शिक्षण संस्थाएँ इनकी कायल होती है। विद्वत् समाज इनका सम्मान करता है। इसलिए कि प्रतिभा स्वयं शुद्ध-बुद्धज्ञान की अधिष्ठात्री होती है। वह सामाजिक स्वीकृति की अपेक्षा नहीं रखती. प्रत्युत स्वीकार हो स्वयं उसकी योग्यता स्वीकार करने को बाध्य होता है। संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, अवधी, बंगला, गुजराती, राजस्थानी तथा हिन्दी आदि समस्त भाषाओं में पारंगत. प्राचीन, ब्राह्मी, कुटिल आदि युग की भाषाओं की सतत् परिवर्तित लिपियों की वैज्ञानिक वर्णमाला के अदभुत ज्ञान के अभ्यस्त श्री भंवरलालजी की प्रतिभा के कायल, प्रायः इनके सभी अन्तरंग विद्वान् मित्र हैं। मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला तथा ललितकलाओं की आपमें परख है। आपकी अभिरुचि प्रायः भाषाशास्त्र, लिपि-ज्ञान में है ।
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फलतः पुरातात्त्विक अनुसंधान की ओर अग्रसर होने में आपका लिंग्विस्टिक एप्रोच पर्याप्त सहायक हुआ है। न जाने कितने ज्ञात-अज्ञात ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ जो विशिष्ट विद्वानों से लौटकर आयीं, बीकानेर के अपने संग्रहालय में उपस्थित हैं। अनुसंधान और शोध हेतु अनेकानेक दुर्लभ चित्रकलाओं के नमूने, वास्तु व मूर्तिकला की प्रामाणिक प्रतिमाएँ, अमूल्य प्राचीन ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ आपने संग्रह की हैं, देखने मात्र से इस नर-रत्न की प्रकृति का परिचय प्राप्त हो जाता है। पुरातत्त्व व नृतत्त्व-विज्ञान के अतिरिक्त इतिहास-शोधन की प्रकृति ने भी आपका झुकाव शिला. लेखों की ओर उन्मुख किया है। प्रायः सभी शिलालेखों की, चाहे प्राचीनतम् ही क्यों न हों, लिपि पढ़ने व उसका उचित अर्थ लगाने में आपको किंचित् मात्र भी कठिनाई नहीं पड़ती। अतीत के गर्भ में मानव अजित ज्ञान की संचित राशि को ढूंढ़ कर बाहर निकालने में आपने जो समय-समय पर सहायता की है. वह स्तुत्य है। प्राचीन संस्कृति व सभ्यता के विस्त तथ्यों के संग्रह करने की इनकी प्रबल आकांक्षा ने इन्हें गहन अध्ययन की अभिरुचि प्रदान की है। राजनीतिज्ञ, सामाजिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों की समाजशास्त्रीय विश्लेषणात्मक चिन्तन-धाराने ही आपके अतीत और वर्तमान के बीच सामंजस्य-संस्थापन में योगदान किया है ।
पाठक लोग जिज्ञासु अवश्य होंगे कि आखिर इस अपरिचित ज्ञान के उपजीव्य स्रोत क्या हैं? आपकी बहुज्ञता व तथ्य-संग्रहकारिणी प्रवृत्ति के मूल स्रोत क्या हैं ? प्रश्न स्वाभाविक होगा। निश्चय ही व्यक्तित्व व्यक्तिगत और वातावरण की शक्ति के संतुलन का परिणाम होता है। वस्तुतः भंवरलालजी पितृव्य श्री अगरचन्दजी के आग्रह के परिणाम हैं। उनके आज्ञापालन की उत्कट अभिलाषा के क्रियान्वयन में अपनी शक्ति का उपयोग कर आपने अपना स्वतःनिर्माण किया है। जिज्ञासा उनकी, कार्य इनका | विचार उनके और लेखनी इनकी । भावना उनकी और प्रतीति इनको। इसप्रकार भक्ति. श्रद्धा, विनरा, आज्ञाकारिता तथा अपनी स्वाभाविक रुचि की सम्मिलित-साधना के परिणामस्वरूप श्री भंवरलालजी व श्री अगरचन्दजी ज्ञान की अभीष्ट प्यास के सरोवर बनते गये हैं । विषयवस्तु के भावपक्ष के जिज्ञासु काकाजी के कलापक्ष और कभी भावपक्ष के रूप में. आपने कला की साकार प्रतिमा का निर्माण अपनी अनवरत लेखनी से किया है। कहते हैं वेदव्यासजी की अभिव्यक्ति को लि.पबद्ध करने की शक्ति किसी देव. शक्ति को नहीं हुई। केवल गणेशजी ने यह भार ग्रहण किया। लेकिन गणेशजी ने यह स्पष्ट कर दिया था कि यदि आप (वेदव्यासजी) कहीं रुकेंगे तो उनकी लेखनी भी बंद हो जाएगी। वेदव्यासजी ने हाँ भर ली। उन्होंने कुछ श्लोकों के पश्चात् एकाध श्लोक गूढ़ अर्थवाला बोलना प्रारम्भ किया और श्री गणेशजी से मात्र इतना ही कहा कि आप अर्थ समझ कर ही लिखेंगे। गणेशजी गूढार्थ-श्लोकों पर रुक जाते और तब तक कृष्णद्वैपायन श्री वेदव्यास की चिन्तनधारा नवीन श्लोकों का निर्माण कर लेती। यह क्रम चलता रहा और एक अद्भुत वाङ्मय का निर्माण होता रहा । कथा के अंश में कितनी सत्यता है. आजका वैज्ञानिक व्यक्ति शायद न समझ पाये पर फलितार्थ समझने में वह भी भूल नहीं करेगा कि दोनों महान् थे, दोनों में ही दैवी शक्तियाँ थीं। यहां भी भावपक्ष जितना अभिव्यक्ति के लिये व्याकुल है तो कलापक्ष भी उतना ही आतुर | दोनों की इन्टेन्शिटी समान है और तभी सवाङ मय की सृष्टि सम्भव हो सकी है। राजस्थान के ये दो सजग प्रहरी कला, ज्ञान, विज्ञान, सभ्यता, संस्कृति, धर्म, नीति और व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन के मूल्यों की खोज में सतत् व्यस्त रहे हैं। यह तृष्णा बुरी नहीं है। ये अध्यवसायी, स्वाध्यायी, कालक्षेप के प्रमाद से रहित हैं। इनके समक्ष :
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भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः, तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । कालो न यातो वयमेव याताः, तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।।
एक वरदान है, निराशामय अभिशाप नहीं, क्योंकि ये स्रष्टा के शोधक हैं तथा नवीन सर्जन के कारण और कार्य दोनों ही हैं। मध्यदेशीय संस्कृति के संरक्षण, पोषण में किसी प्रकार की बाधा इन्हें प्रिय नहीं हुई है। जब कभी किसी प्रकार का आक्षेप आया है, बीकानेर की दृष्टि इस व्यस्त नगरी की ओर उठी है और संकेत मात्र ने भंवरलालजी के रोम-रोम को जागृत किया है । इतिहास जागृत हुआ है. लिपि नवीन हुई है. विचार व्यवस्थित हुए हैं। विद्वत्-समाज कृतार्थ हुआ है । तात्पर्य यह कि अगरचन्द के भंवर, अगर के सुगंध का आभासमात्र पाकर गुनगुनाने लगे हैं। भंवरलालजी पराग के प्रेमी हैं। इनका स्रोत बीकानेर के पुष्पराज श्री अगरचन्द हैं, इनमें दो मत नहीं हो सकते । काका और भतीजे की यही दैवी-शक्ति इनके वाङ्मय की सृष्टि करती रही है। ऐसा ही हुआ है और इसी वातावरण ने इनके एक पृथक् व्यक्तित्व का निर्माण किया है। देश, काल, परिस्थिति और वातावरण प्रायः अपना सभी अलग अस्तित्व रखते हैं पर जगत् की गति में वे सामूहिक योगदान देते हैं। राजस्थान, बंगाल, आसाम, मणिपुर आदि पूर्व से लेकर पश्चिम पर्यन्त तथा हम्पी से लेकर आबू पर्वत तथा दक्षिणी व पश्चिमी प्रान्तों के धार्मिक व साहित्यिक संस्थान इनके विचार-बिन्दुओं के अविरल प्रवाह में अपने पद-चिह छोड़ते गये हैं। गणमान्य विद्वानों के सामयिक सहयोग, सम्पर्क व साहचर्य ने इन्हें समुत्सुक किया है. कर्तव्य की प्रेरणा दी है. अध्ययन की विधा दी है । जो विद्वान् आपके सम्पर्क व सान्निध्य में आये हैं पाठक स्वयं विचार करेंगे कि इस मनीषी का अक्षर-ज्ञान कितना अ-क्षर होता गया होगा। प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता मुनि जिनविजय के आप कृपापात्र हैं। मुनि कान्तिसागरजी का कर्मठ जीवन इन्हें दुलार दे सका है। त्रिपिटकाचार्य महापंडित राहुल सांकृत्यायन इनके निकट सम्पर्क में रहे हैं। ओरियन्टल लैंग्वेजेज के प्रसिद्ध विद्वान डॉ० सुनीतिकुमार चटर्जी. डॉ० सुकुनार सेन, डॉ० गौरीशंकर ओझा जैसे भाषा-शास्त्री लिपि विशेषज्ञों का सान्निध्य आपको सम्बल देता रहा है। प्रिंस आफ वेल्स म्यूजियम के डायरेक्टर डॉ० मोतीचन्द आपके मित्रों में हैं। प्रसिद्ध विद्वान डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल से आपका सम्बन्ध एक अविदित कहानी बन गया है। प्रसंगवश उसका उल्लेख किया जायेगा। हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् व आलोचक डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी. डॉ० दशरथ शर्मा तथा अन्य समसामयिक मनीषी-वर्ग का स्नेह व सौहार्द आपको अनायास उपलब्ध होता आया है। अब हम अनुमान कर सकते हैं कि प्राइमरी शिक्षा समाप्त करने वाला यह भारतीय चिन्तक कितना शिक्षित. दीक्षित व प्रामाणिक ज्ञान का स्वाध्यायी धनी है और इस धन की धरोहर का उद्गम स्थान कहाँ है ? प्रकाशित पुस्तकों की भूमिका में अंकित विद्वानों की सम्मतियाँ उक्त कथन की साक्षी हैं। स्थान विशेषपर इनकी चर्चा पाठकों को इस विषय की प्रतीति दे सकेगी। विश्वास है प्रसंगात आपके लिपि ज्ञान के बारे में डा० सुनीति कुमार चटर्जी के उद्गार पर्याप्त होंगे। महानुभावी संप्रदाय का एक ग्रन्थ है "पावापाठ"। ग्रन्थ प्राचीन नहीं. प्रत्युत ३०० वर्ष पहले की कृति है। ग्रन्थ मराठी में लिखा गया है पर लिपि उसको सांकेतिक है। अगरचंदजी ने उस पुस्तक को देश के जानेमाने विद्वानों के पास पढ़ने तथा उसका अर्थ करने सानुरोध भेजा था पर पुस्तक वेरंग वापस लौट आयी। अब बीकानेर की प्रतिभाने कलकत्ता स्थित अपनी शक्तिका स्मरण किया। भंवरलालजी ने लिपि की एक वर्गमाला तैयार की और ग्रन्थ आद्योपान्त पद डाला। आवश्यकता हुई कि वैज्ञानिक पद्धति पर लिपि विज्ञान के मार्गदर्शक, भाषावैज्ञानिकों द्वारा अपने पठन
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के औचित्य को विश्लेषित किया जाए। भंवरलालजी ने सुनीति बाबूको वह ग्रन्थ दिखाया और पढ़कर सुनाया। सुनीति बाबू ने आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और कहा-"आपनी चमत्कार काज करेछन ।" सुनीति बाबू के हाथों पर शब्द खेलते हैं. भाषाएं उनकी चेरी हैं, विश्रुत विद्वान् हैं। उनकी यह आश्चर्य भरी स्वीकृति इस मूक सधक के ज्ञान की अविदित कथा है। ऐसे ही एकवार श्री जिनदत्तसूरिकृत 'अपभ्रश-काव्यत्रयी" की व्याख्या में आये एक प्रसंग पर भंवरलालजी ने आपत्ति की और महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी मनःस्थिति ठीक की। प्रसंग था 'वज्जो करइ बुहारी बुड्ढी'। महापण्डित ने अर्थ किया था 'घर में बुड्ढी औरतें झारू देने का काम करती हैं।' आपने लिखा कि-'पता नहीं भाषा-मर्मज्ञ और समाज-मनोवैज्ञानिक तथा प्रसिद्ध समाजश.स्त्री ने ऐसा क्यों लिखा । पद्य तो कहता है कि कज्जो (कूड़ाकरकट) बुड्डी (बद्ध, संगठित बंधे हुए) बुहारी (झाडू ) से ही सम्भव है।' कुछ ऐसी ही पचासों आनुमानिक व्याख्याओं का प्रत्याखान इस प्राचीन भाषा-नर्मज्ञ ने किया है। 'ढोलामारू दोहा के कई स्थलों पर की गई उचित आपत्ति नागरी-प्रचारिणी पत्रिका में अंकित है। डॉ० माताप्रसाद गुप्त जो इलाहाबाद युनिवर्सिटी के एक इने - गिने प्राध्यापकों में रहे हैं, उन्होंने हिन्दी के आदिकालीन ग्रन्थों, जो विश्वविद्यालयीय उच्च कक्षाओं में पाठ्य थे, की व्याख्याएं प्रस्तुत की, जैसे हम्मीरायण तथा वसंतविलास जोकि इनकी आलोचना के केन्द्र बन गये हैं। वस्तुस्थिति यह है कि हिन्दी साहित्य का आदिकाल जैन व बौद्ध महात्माओं, साधकों व सिद्धों की पृष्ठभूमि पर खड़ा है। नाथपंथ की साहित्यिक देन भी हिन्दी के लिये एक स्तम्भ है, जिसने मध्यकालीन साहित्य को पूर्ण रूप से प्रभावित किया है। फलतः अपभ्रंश साहित्य की वैज्ञानिक विधाओं की जान कारी के अभाव में वस्तुस्थिति का ज्ञान असम्भव है। शौरसेनी प्राकृत में उपलब्ध समस्त ज्ञान-गरिमा अपभ्रंश भाषा में लिपिबद्ध हैं और यह सारा वाङ्गमय देश के पश्चिमोत्तर भाग में लिखा गया है। फलतः आंचलिक भाषाओं की वास्तविक परख किये बिना हम तत्कालीन साहित्य के प्रति न्याय नहीं कर सकेंगे । राजस्थान की समस्त आंचलिक भाषा, लोक-संस्कृति तथा लोक-भावनाओं के क्रमिक विकास के लिए यदि हम विज्ञान के घिसेपीटे नियमों व सिद्धांतों की कसौटी पर कसते रहे तो वह हमारे अज्ञान के प्रयास का विकल्प ही होगा । १००० से लेकर १३७५ तक सम्पूर्ण वाङ्गमय के सुचारु रूप से अध्ययन के लिए तत्तद्देशीय प्रतिभाओं को ही अधिकारी निर्देशक स्वीकार करना पडेगा. अन्यथा विश्वविद्यालयीय अध्यापनशैली व शोध-प्रणाली केवल सिद्धान्त बन कर रह जायेगी और हम अज्ञानान्धकार में आँख मूंद कर टटोलने की मान्य प्रणाली पर चलने के अभ्यस्त हो जायेंगे । लोकभाषा, लोकाचार की भावनाओं से ओतप्रोत होती है, चारणों की कृतियों को मात्र भाषा-वैज्ञानिक ही निर्णय कर पाये, यह तात्विक दृष्टि से असम्भव है। यही बात सिद्धों व योगियों की अभिव्यक्तियों के प्रति लागू है। मेरा आग्रह मात्र इतना ही है साहित्य जनमानस का संचित प्रतिबिम्ब होता है, फलतः जनमानस की भावना जो सामयिक रससाधना का वर्चस्व पाकर अभिव्यक्त होती है उसकी अभिव्यक्ति को विधा उसके सम्पर्क व सान्निध्य में रहने वाले विद्वान ही कर सकते हैं और वही मान्य भी होना चाहिये।
दशवीं शताब्दी के पश्चात् का पश्चिमी भारत विशेषतया राजस्थान और उत्तरी भारत (पंजाब, उत्तरप्रदेश, बिहार तथा बंगाल ) ऐतिहासिक दृष्टिकोण से उतना भ्रामक नहीं होना चाहिये । तत्कालीन सामाजिक व सांस्कृ. तिक परिवेश भी उतने घंधले नहीं हैं। फिर भाषा के प्रश्न को लेकर १०वीं से १४वीं शताब्दी तक साहित्य-सजन के प्रति भ्रामक विचारों की आवश्यकता ही क्या है? शौरसेनी, मागधी तथा अर्द्धमागधी प्राकृत से निःसृत क्षेत्रीय भाषाओं
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विशेष मुद्रा में लेखन-रत श्री नाहटाजी
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सपरिवार श्री नाहटाजी
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की बदलती हुई व्यंजनाशक्ति, ध्वनि, शब्द तथा वाक्यांशो में अंतर को स्थिति तत्तद्देशीय विद्वानों द्वारा निर्णति होनी चाहिए। रासो ग्रन्थों के विषय में रामचन्द्र शुक्ल, श्यामसुन्दर दास, राहुल सांकृत्यायन, डॉ० रामकुमार वर्मा, डॉ० धीरेन्द्र वर्मा तथा डॉ० भोलानाथजी के विचार असमंजस की स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं पर डॉ० मोतीलाल मेनारिया, गौरीशंकर ओझा तथा अन्ततः डॉ० दशरथ शर्मा आदि विद्वानों की सम्मति क्यों न निर्णायक मानो जाय । नाहटा-बन्धुओं ने इस दिशा में प्राचीनतम प्रतियों की अनेकानेक प्रतिलिपियाँ तैयार करके जो स्तुत्य काम किया है. इनका यह प्रयास इस दिशा में विशेष सहायक हुआ है। अन्तः और बाह्य-साक्ष्य की प्रामाणिक स्थिति के लिए इनका अमूल्य सहयोग हिन्दी साहित्य के आदिकाल के लेखकों, आलोचकों व मनोवैज्ञानिकों के लिये वरदान सिद्ध हुआ है और होता रहेगा। उक्त विचार श्री भंवरलालजी ने अनेकों बार व्यक्त किया है. मैंने तो प्रसंगवश उनकी चर्चा की है। बंगला और मागधी को लेकर भी यही विवाद विद्यापति के विषय में चर्चा का विषय बनता रहा है। मेरी समझ में दोष Methodist Scholars के मानस की विकल्प स्थिति का है। किसी विषय का प्रारम्भ ही वस्तुतः विवादग्रस्त होता है. पर उसकी अक्षुण्ण परम्परा विवादों को वाग्जाल समझ कर त्यागती रही है। नाहटावन्धुओं ने आलोचना की भूमि दी है, आलोचनाएं कम की हैं। साहित्य का उद्धार किया है, निर्णय की पृष्ठभूमि दी है: यह निर्विवाद सत्य है।
साहित्य-साधना कर्म और ज्ञान-साधना से पृथक् नहीं रखी जा सकती क्योंकि साहित्य-साधना के साथ कर्म और ज्ञान का पूरा सम्मिश्रग होता है। फलतः अभिव्यक्ति चाहे स्वान्तः सुखाय हो या बहुजन हिताय, दोनों में अन्तर नहीं होता। इसलिये कि जो स्वान्तःसुखाय है. वह बहुजन के परिवेश का ही परिणाम है। व्यक्ति और समाज की आवश्यकताओं से सम्बन्धित भावनायें ही अभिव्यक्ति के माध्यम से साहित्य की संज्ञा पाती है। अतः 'स्व' और 'पर' के ज्ञान की प्रेरणा का फल कर्म यदि भावानुभूति की तीव्रता के प्रवाह को साहित्य की विधा देता है तो सृजन को प्रकृति तीनों ही मनःप्रवृत्तियों की प्रकृति स्वीकार की जानी चाहिये अन्यथा कर्मयोग व ज्ञानयोग दोनों ही भावयोग से पृथक केवल एक शास्त्रीय मर्यादा बन कर रह जायेंगे। यदि मनेन रागात्मिका वृत्ति ही काव्य के आधार माने जायेंगे तो विरागजन्य भावाभिव्यक्तियों को नोटिस मात्र समझ कर हम तिरस्कृत करते रहेंगे और भक्तिरस साधकों की विशाल कृतियाँ साहित्य की श्रेणी से अलग पुस्तकालयों की निधि बन कर ही रह जायेंगी। मेरा तात्पर्य यह है कि मन की समस्त स्थितियों व प्रकृतियों को राग-विराग किसी भी स्थिति में यदि रसानुभूति होती है और वह अभिव्यक्ति पाने के आवेग से व्याकुल होकर, विमल उच्छवास हे.कर, व्यक्त होती है तो आलोचकों की रसव्यंजना की श्रेणी में गिनी जानी चाहिये अन्यथा हम मानव मन के प्रति न्याय नहीं कर सकेंगे और अनेकानेक प्रतिभाएं विलुप्त हो जायेंगी। नाहटा-बन्धुओं के सृजन स्वान्तःसुखाय व बहुजनहिताय दोनों ही है। भंवरलालजी ने प्रायः स्वान्तःसुखाय रचनायें ही की है और जहाँ ज्ञान और कार्य दोनों का ही समवेत सृजन हुआ है वहाँ सामाजिक चेतना का प्रतिफल ही स्वीकार करना पड़ेगा।
इनकी कृतियों की महत्ता प्रायः विशिष्ट विद्वानों की प्रज्ञाचक्षु से परीक्षित हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन, डॉ० हीरालाल जैन, डॉ० गौरीशंकर ओझा, डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ० मोतीचन्द, मुनि कान्तिसागर तथा मुनि जिनविजयजी आदि जैन साहित्य के मर्मज्ञ, पुरातत्त्ववेत्ता, प्रकाण्ड आलोचक व इतिहास-विशेषज्ञों की दृष्टि में इनके कार्य
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स्तुत्य तथा महत्त्वपूर्ण हैं। कार्य या कृतित्व प्रयास को कसौटी चाहते हैं और उनकी सफलता या असफलता पंडितों पर निर्भर करती है। व्यक्तित्व की परख के लिए वस्तुतः व्यक्तित्व की अन्तर्दृष्टि के ज्ञान की आवश्यकता होतो है पर आज तक मानवमनीषा सतत अभ्यास के बावजूद भी किसी भी व्यक्तित्व की सही परख करने में असमर्थ हो रही है। इसलिये कि समय. समाज. परिस्थिति और व्यक्ति की चित्तवृत्ति के जितने अध्ययन हो सके हैं, सभी अध्ययन के प्रोसेस में हैं। फलतः प्रोसेस से संतुष्ट होकर अन्तिमेत्थम की बात पर बल देना हास्यास्पद ही हुआ है। विज्ञान की कसौटी के लिये तो स्थिर मानदंड हैं। इसीलिये उनके सिद्धान्त कथन में बहुधा एक्युरेसी देखी जाती है पर पदार्थ के गुणात्मक परिवर्तन की परिणति जिस चेतना को जन्म देती हैं उसके गुणात्मक तथ्य के गुणात्मक अन्तर्द्वन्द्व से उनकी चेतना विधाओं का आकलन आज भी अधरमें लटका हुआ है। अतः मानव अन्तरात्मा की ग्रंथि खोलने के प्रयत्न मात्र वाग्विलास होकर निर्णय के लिये किसी स्वस्थ मानदंड की खोज में अब भी व्यस्त हैं। किन्तु सामाजिक चेतना का यह अस्थिर मानदंड ही श्रेयस्कर है। इसलिये कि इसमें चेतना की स्वतन्त्रता का आभास मिलता रहा है जिसे एंगिल आफ थाट्स कहते हैं । नाहटा-बन्धुओं की कृति भी एमिल आफ थाट्स् से द्रष्टव्य है क्योंकि रुचि विशेष की विभिन्नता ही एकता की कड़ी होती है। अतः समग्र रूप से उद्देश्य के धरातल का मूल्यांकन करने वाले रस-साधकों व रसज्ञ आलोचकों से मेरा यही आत्मनिवेदन होगा, वैसे कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं है. मात्र सदाग्रह है जो अमान्य नहीं ही होगा। ऐसा विश्वास पालने में मुझे रत्ती भर भी संदेह नहीं दृष्टिगोचर होता। अन्यथा ये महाकवि भवभूति की मार्मिक उक्ति को ही दुहराकर संतोष रखेंगे कि
उत्पत्स्यते च मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिः विपुला च पृथ्वी।
इस "सादा जीवन उच्च विचार" के प्रतीक शान्त व गम्भीर व्यक्तित्व में कितनी वाक्यपटुता है. प्रत्युत्पन्न मति है, आशुकाव्य-स्फुरण के बीज हैं। इनके कुछ संस्मरणों के उद्धरण इसे प्रमाणित करेंगे
बात बहुत पुरानी है। एकबार बीकानेर में सर मनू भाई मेहता के भाई श्री वी० एम० मेहता, जो महाराजा के प्रधानमन्त्री थे. की अध्यक्षता में एक कवि सम्मेलन का आयोजन था। श्री भंवरलालजी वहाँ उपस्थित थे। अध्यक्ष ने आपसे भी कुछ सुनाने के लिये कहा। आप उठे और एक आशुकवि की भाँति आठ भाषाओं में. जिनमें संस्कृत, अपभ्रंश, अंग्रेजी, बंगला, हिन्दी भाषायें भी सम्मिलित थीं. एक कविता पढ़कर सुनायी। कविता में भगवान महावीर की स्तुति थी जिसका संकलन इस प्रकार हुआ है
अष्ट भाषा मयैषा वर्द्धमान प्रभुस्तुतिः । स्वभक्त्या सकौतुकेन विक्रमाख्यपुरे कृतः ॥
. एकबार आप श्री अगरचन्दजी के साथ, राजस्थान हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर (रतनगढ़ में) उपस्थित थे। वहाँ पुस्तकों की प्रदर्शनी में आप दोनों महानुभाव अपनी रुचि के अनुसार पुस्तके उलट-पलट रहे थे। अगरचन्दजी के हाथ नेवारी लिपि की कई प्रतियाँ आयीं। आपने देखा और समझने की भी चेष्टा की। किन्त लिपि का कोई ओर छोर न मिला। आपने श्री भंवरलालजी से उन्हें देखने को कहा। आपने पुस्तकें ली और वर्णमाला बनाने में व्यस्त हो गये। दूसरे दिन सारी प्रतियां पढ़कर चाचाजी को सुना दी तथा उसके सम्बन्ध में एक लेख भी प्रकाशित किया ।
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ऐसे ही एकबार आप बीकानेर जैन संघ की ओर से श्री हरिसागरजी के पास उन्हें बीकानेर ले आने के उद्देश्य से नागौर पधारे। आपके साथ बीकानेर के कुछ सम्भ्रान्त व्यक्ति भी थे। श्री हरिसागरजी नागौर में ही चातुर्मास बिताने के लिये वचनबद्ध थे। अनुनय, विनय के पश्चात् भी कुछ हल नहीं निकला। अन्त में श्री भंवरलालजी की काव्य-चेतना प्रस्फुटित हुई और आपने श्री गुरु के चरणों में निवेदनार्थ अपनी विवशता व्यक्त की, जो द्रष्टव्य है
कुत्वानेक परिश्रमोऽपि गुरुवः
न स्वीकृता वीनती । श्रीमन्नागपुरीयसंघविदिता
हृदयेन कृपणा महा ॥ गच्छन्नति च शासनस्य शोभा
सम्मान संघस्य च । न श्रुत्वा विभर्षिता कथंचित्
कलयामि कथयामि किम् ।। श्री ताजमलजी बोथरा कलकत्ते के एक विशिष्ट समाजसेवी, धनी मानी व्यक्ति हैं । आपने एक दिन भंवरलालजी से आग्रह किया कि बंगाल में सराक जाति लाखों की संख्या में निवास करती है। ये जैन श्रावक जाति के बंगज हैं। उनके लिये बंगला में श्रावककृत्य की विशेष आवश्यकता है । यदि ऐसा ही कुछ हो जाय तो बड़ा उपकार होगा। भावक श्री भंवरलालजी को यह बात मन में बैठ गई और बात ही बात में इस कविमनीषी ने बंगला भाषा में २७ पद्यों में श्रावककृत्य लिख डाला
श्रावक तुमि उठे पड़ो अत्यन्त सकाले । दुइ दण्डो थाकिते उषार अन्तराले ॥ अल्पो लाभे अल्पारम्भ हय जे व्यापार । शोषण दूषण रहित नीतिश्रम आधार ।। नदी पुकुर वन ठीका हिंसामय व्यापार । लोहारस बीज अस्थि आदि परिहार ।। जल दुग्ध घृत तेल छाकना दिया राखो । प्रमार्जन आदि काजे जीव यत देखो।।
जैन भवन में वैद्य जसवंतरायजी के अनुरोध पर श्री विजयबल्लभसूरिजी जयन्ती में आपको जब कुछ कहने के लिए कहा गया तो तत्काल आपने प्राकृत में गाथायें बनाकर सुनायी और सभी सम्भ्रान्त व्यक्तियों को आश्चर्य में डाल दिया। गाथायें इसप्रकार थीं
सिरीवल्लह सुगुरुणं तवगच्छायण सूर चंदाणं । वंदामि भत्ति-भावेण सग्गारोहण दिणो अज्ज ||२|| आसोय कण्ह पक्खे इक्कारसी राइय तइय पहरे । मुंबाणामा णयरी बहु सड्ढ समाकुले दीवे ॥२॥
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सावय जण उवयारो किच्चा संठावियोऽणेगे। विज्जालयादि पवरा सव्वपिओ भूय कय अत्थो ।।३।। पत्तो सुरालयम्मि इंदादि पडिबोहणा कज्जे। भारहवासी भत्ताण पूरिज्जंतु सयलमण इच्छा ।।४।।
इसी प्रसंगमें आपकी आत्माभिव्यक्ति का एक नमूना उपस्थित करने के लोभका संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। आपके दीक्षागुरु श्री सहजानंदजीके निधनका समाचार आपको अजमेरसे बीकानेर जाते समय ट्रेनमें मिला ओर आपने पूज्य श्रीपादके प्रति अपनी भावनाओंको प्रकृतका यह रूप दिया
अज्झत तत्तस्स सुपारगामी एगावयारी पूइय सुरिन्दो । मुगीन्द मउड़ो सुजुगप्पहाण गुरुवरो सहजाणंद णामो ||१||
निव्वाणवत्तो सुसमाहिजत्तो कत्तीय धवले तइयातिहीए । निच्छत्त जाओ इह भरहखित्तो धम्मस्स एगो सायार रूवो ॥२॥
खेयेण खिन्नो सुमुमुक्खु संघो जाओ निरालंब समग्गलोओ। विदेह खित्तट्ठिय ते महप्पा भत्ताण देहिं निव्वुइ सुसत्तो ॥३।।
प्राकृतके एक ग्रन्थ जीवदया प्रकरणकी प्राचीन प्रति उपलब्ध होनेपर जब आपने उसे श्री हरखचंदजी बोथराको दिखायी थी, आपने आग्रह किया कि प्राकृत पद्योंका हिन्दी पद्यानुवाद भी प्रस्तुत करनेका प्रयास करें तो ग्रन्थ अधिक मूल्यवान हो जायगा। आपने अनुरोध स्वीकार कर लिया और प्रायः चार-पाँच दिनोंमें ही गद्य-पद्यानुवाद हरिगीतिका चंदमें कर डाली! काव्य-प्रतिभाके धनी आपकी सहज अनुवादकी शैलो मूलभावोंकी कितनी अंतरंगिणी बन सकी है एक-आध उदाहरण पाठकों के लिए पर्याप्त होंगे
संशय तिमिर पयंगं भवियायण कुभय पुन्निमा इंदं । काम गईद सइंदं जग जीव हियं जिणं नमिउ ||१||
संशय तिमिरहर तरणि सम जिनका परम बिज्ञान है, भविजन कुमुद सुविकास कारक चंद्रसम छविमान है। करिवर्य मकरध्वज बिदारण सिंहसम उपमान है. जग के हितकर तीर्थपति को नमन मंगल खान है ॥१॥
दियहं करेह कम्मं दारिद्द हएहिं पुट्ठ भरणत्थं । रयणीसु गेय गिद्दा चिंताए धम्म रहियाणं ॥३८॥
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लाया नहीं है पूर्व के सत्कर्म अपने साथ में तो पेट भरने के लिये कैसे बचेगा हाथ में? दिवस भर है कष्ट करता कठिन श्रम बिन धर्म के रात में निद्रा न पता, फल मिले दुष्कर्म के ॥३८॥
और अन्तमें प्राकृत भाषाके एकमात्र अलंकार शास्त्र : 'अलंकार दप्पण' नामक-ग्रन्थ जैसलमेरके भंडारसे ताडपत्रीय प्रतिलिपि में प्राप्त हुआ था। श्री अगरचन्दजी के अनुरोध पर प्रतिभाशाली शारदा के वरदपुत्र ने हिन्दी अनुवाद के साथ-साथ संस्कृत छायानुवाद कर इस दुर्लभ ग्रन्थ की महत्ता पर चार चाँद लगा दिया जो विद्वानों के लिये स्पर्धा की वस्तु है। एक उदाहरण इस प्रकार है
संखलवमा सगस्स व कणअ-गिरी कंचन-गिरिण महिअलं होउ। महि बीढ़स्सवि भरधरणपच्चलो तह तुमं चेअ॥
शृंखलोपमा स्वर्गस्ववकनकगिरि कंचनगिरिणैव इव महीतलं भवतु । महीपीठस्यापि भारधरणणप्रक्तस्तथा त्वं चैव ।।
(यह) भूतल स्वर्ग की तरह कनकगिरि और कंचनगिरि का-सा (पीला) हो जाय। (क्योंकि ) तुम ही महीपीठ के भू-भार को धारण करने में समर्थ हो ।
इस प्रकार अनेकानेक संस्मरण आपके सान्निध्य में मुझे सुनने को मिले हैं जिन्हें अंकित कर अपने विषय को बढ़ाना उचित नहीं समझता। गद्दी पर बैठकर क्षण में पुस्तकावलोकन, प्रतिलिपिकरण, निवन्धलेखन तथा क्षण में व्यापारिक सम्बन्धों का रक्षण व पोषण न जाने कितनी बार देखा है। कोई आयाम नहीं. प्रयास नहीं, स्वाभाविक गति से लेखनी बही-खातों पर चलते चलते साहित्य लेखन में व्यस्त हो जाया करती है। धन भी है धर्म भी, ज्ञान भी है विवेक भी, राग भी है विराग भी, कितनी समरसता है एक रसता में भी, आश्चर्य होता है। नाम की भूख नहीं, केवल कर्तव्य की प्रेरणा है। सम्भवतया इसीलिये इनकी सज्जनता का फायदा उठाने वाले कितने ही मान्य विद्वानों ने इनकी कितनी अज्ञात कृतियों को अपने सन्मान का विषय बनाया है । प्रसंगवश एक उदाहरण देने में मुझे संकोच नहीं है। प्रसिद्ध प्राच्य विद्या विशारद पुरातत्त्ववेत्ता डॉ० बासुदेवरशरण अग्रवाल. जो इनके साहित्य के समर्थक व सहायक भी थे. श्री भंवरलालजी की दो कृतियाँ-कीतिलता' तथा 'द्रव्य परीक्षा' के साथ न्याय नहीं कर सके । अवधी भाषा की कृति, कीर्तिलता का अनुवादक भंवरलालजी ने डॉ० साहब को वह ग्रन्थ देखने के लिये भेजा था, पर अग्रवाल साहब ने इनका नाम वहां से लोप कर दिया। यही बात पुरातत्त्वसम्बन्धी द्रव्यपरीक्षा के विषय में भी कथ्य है । इस अमूल्य ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद का उन्होंने अंग्रेजी में अनुवाद कर अपने नाम से छपा डाला। उनके दिवंगत होने पर शायद ये दोनों पुस्तकें बीकानेर संग्रहालय में सुरक्षित
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रखी गई हैं, जिसे उनके पुत्र ने लौटाई है। शायद विज्ञापन ही व्यक्तित्व की सच्ची परख है और इनके पास विज्ञापन नहीं। आप अगरचन्दजो के अनुरोध के वशवद रहें ।
भंवरलालजी का जीवन सीधासादा है। आपका अन्तर जितना निर्मल व पवित्र है उतना ही व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन भी। धोती, कुर्ता तथा पगड़ी यहो सामान्य परिधान है। व्यवहार कुशल, वाणी सुखद, जीवन . कर्मठ और कृति सुन्दर । यही कारण है कि सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक सभाओं, सभ्य व संस्कृत विचारगोष्ठियों व अन्यान्य संस्थाओं से आपका जीवन सम्बन्ध है। ऐसे ही पुरुषों के लिये शायद यह उक्ति चरितार्थ है--
काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम् ।
विषम परिस्थिति में धैर्य आपकी विशेषता है। धन है. यश है, पर अभिमान नहीं, अभिरुचि नहीं, कोई व्यसन नहीं, भाषणपटुता और लेखन सिद्धि का विचित्र समायोग है। अतः भतृहरिजी के शब्दों में आप महान् आत्माओं की सिद्ध प्रकृति के प्रतीक हैं। लोकमंगल को लालसा है और पर-जन्म को कृतार्थ करने की कामना । हृदय में विश्वास है और परमशक्तिमान में श्रद्धा तथा भक्ति । व्यतीत आपकी स्मृति में है और सजग वर्तमान हाथों में, फिर नियति के लिए अधिक चिन्ता नहीं । जैन धर्म, जैन साहित्य, जैन सभा, जैन सम्मेलन आपके बिना अपूर्ण हैं । आपके सार्वजनिक जीवन के लिये इतना ही कहना पर्याप्त है।
अन्त में जैसा मैंने लिखा है किसी भी व्यक्तित्व के मूल्यांकन के लिये जितनी दृष्टि अपेक्षित है उसके मानदण्ड की उतनी विभिन्न विधायें हैं। मेरा अपना आकलन पूर्ण है, मैं स्वीकार नहीं कर सकता। वशिष्ठजी की बुद्धि महासागर के समान भरतजी के व्यक्तित्व की महिमा के तौर पर अबला की तरह खड़ी जैसे नौके व तट का चिन्ह नहीं पा सकी उसी प्रकार कोई भी चिन्तक इस महान् गम्भीर व्यक्तित्व की थाह नहीं पा सकता। मैंने तो न्यूटन की तरह इस ज्ञान-गरिमा के सागर तट पर बच्चों की तरह खेलते हुए कुछ कंकड़िया ही बटोरी हैं। हर तरंगों को पहचानने की शक्ति भला तट पर खड़े रहने वाले कायरों को कैसे सुलभ हो सकती है ? मैं तो मात्र सीपी से सन्तुष्ट हूँ. डूबने की शक्ति नहीं, फलतः मोती के आबका दर्शन ही कैसे होगा? यह भार तो मैंने सक्षम व साहसी व्यक्तियों पर ही छोड़ दिया है। पाठकों की जिज्ञासायें और अधिक जानने की होंगी पर उनसे मेरा विनम्र निवेदन होगा कि इनकी कृतियों के माध्यम से इन्हें जानने का प्रयास करें: एक बात मैं अवश्य कहूँगा कि भंवरलालजी ने वही किया है जो इनकी चेतना ने स्वीकृति दी है और वह करगे जिसे इनका अपना निर्मल मन स्वीकार करेगा। - इनमें अब भी कुछ कर गुजरने की साध है और ७५ वर्ष की अवस्था में भी इनमें जीवनशक्ति का अभाव नहीं है । अतः कुछ नवीन, कुछ सुन्दर, कुछ सत्य तथा कुछ शिव देखने, समझने व ग्रहण करने की हमारी कामनायें प्रतीति अवश्य चाहेंगी। परमात्मा आपको चिरायुष्य करें | जैन समाज कृतज्ञ होगा, सृजन को गति मिलेगी और साहित्य व समाज आपकी अमरता पर गर्व करेगा। शेष अचिन्त्य है. और शास्त्र कहता है "अचिन्त्या खलु ये भावाः न तांस्तकेंण योजयेत् । सुतराम् !
ज्ञाने गतिर्मतिवि बुद्धिोकारंजने । संसिद्धिस्तेन श्रीवृद्धिरायुर्विद्या यशो बलम् ।।" इत्यलम्
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संक्षिप्त जीवन परिचय
भवरलालजी का जन्म संवत् १९६८के आश्विन महीने के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को हआ है।। सुशीला, श्रीमती तीजावाई की गोद में इनका लालन-पालन हुआ। पिता श्री भैरूदानजी एक कर्मठ व्यवसायी, लोकप्रिय तथा धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे। अध्यवसाय उनका लक्ष्य था और जीवन पवित्र । फलतः पुत्र की भावनाओं में कभी अन्तर नहीं आ पाया । वैसे पूरा का पूरा नाहटा परिवार अपनी एक पूज्य परम्परा रखता है। केवल उदरपूर्ति व भोग-विलास की कामना से धनोपार्जन इस परि ।र की चेष्टा नहीं रही। तपःपूत चरित्र, धार्मिक निष्ठा तथा सतत् प्रयास जिनका विकास श्री भंवरलालजी में क्रमशः हुआ इनके व्यक्तित्व को समय-शिलापर चित्र बनता गया । जेन शिक्षालय, बीकानेर में ही आपका विद्यारम्भ मुहूर्त हुआ पर शिक्षा इन्हें मात्र ५वीं कक्षा तक मिली। चाचा अभय राजजी, जिन्हें संसार प्रिय नहीं लगा. स्वर्ग सिधार गये, आपको संयम व व्रत की शिक्षा दे गये । फलतः होश संभालने के साथ ही जैनशासन की विभिन्न साधनाओं में आपका मन रमने लगा. जिसका क्रम हम आज मी यथावत् पाते हैं। अध्ययन की रुचि आपको श्री अगरचन्दजी काकाजी से मिली। दोनों ही महानुभाव प्रायः हमउम्र रहे हैं लेकिन पूज्य-पूजक की भावना यथावत् है। मर्यादा ने आँख की शर्म का शान बनाये रक्खा है। व्यापारिक उत्थान-पतन की चिन्ता से दूर. भावनाओं के संसार में खुले पंख उड़ने की अनन्त कामना वरदपुत्रों के रखे हैं। पूज्य माताजी का प्यार कुछ समय तक हो मिल पाया था क्योंकि उनकी पुकार आ गयी थी। पिताश्री ने
वाह किये थे। आप उनकी द्वितीय पत्नी की देन हैं | माताजी की मृत्यु के १० वर्ष पश्चात् आप श्री लक्ष्मीचन्द जी की गोद में चले गये । आपको पूरे परिवार का स्नेह सुलभ रहा । १४ वर्ष की अवस्था में आपका शुभ पाणिग्रहण संस्कार सं० १९८३ की मिती आषाढ़ बदी १२ को श्री रावतमल सुराणा की सौभाग्यवती कन्या श्रीमती जतनदेवी के साथ सम्पन्न हुआ। आपके दो पुत्ररत्न श्री पारसकुमार और पदमचन्द तथा दो सुशीला पुत्रियाँ श्रीकान्ता तथा चन्द्रकान्ता हैं। पुत्रियाँ अपने सम्पन्न घरों में पुत्र. धन-धान्य पूर्ण सुखमय जीवन व्यतीत कर रही हैं
और प्रथम पुत्र श्री पारसकुमार कुशल व्यवसायी, शुद्ध व्यावहारिक, शान्त पर गम्भीर व्यक्तित्व से समन्वित तथा वर्तमान युग की उच्चतम शिक्षा, एम० काम०, एल० एल० बी० की रपाधि से विभूषित योग्य नवयुवक हैं। इनमें सामाजिक व नैतिक मर्यादा है. व्यक्तित्व को परखने की अपनी दृष्टि है । समय, समाज व परिस्थितियों के साथ गतिशील होने की शक्ति है । साहस है और है एक आत्मबोध, जिसमें संतुष्टी के समापन की विचित्र शक्ति संनिहित है। कर्तव्य इनका लक्ष्य है और सिद्धि इनकी प्रेरणा। वर्तमान इनसे संतुष्ट है और ये वर्तमान से संतुष्ट । फलतः भविष्य इनका अपना है। इनकी आकांक्षायें इनके प्रयत्न की सीमाओं में ही शरण पाती हैं। आप अपनी प्रिय पत्नी और अपने चार पुत्रों तथा एक पुत्री के साथ सुखी हैं। द्वितीयपुत्र श्री पद्गम ने बी० एस-सी० तक अध्ययन क्रम जारी रखा, आजकल पिताजी के साथ व्यवसाय में संलग्न हैं। नितान्त इन्टोवर्टी कर्मठ शान्त व सशील परिवार की मर्यादा के अनुकूल इनका जीवन है। आपका विवाह एक सुशिक्षित व धर्मशीला महिला से सम्पन्न हुआ है । एक सुन्दर-सा पुत्र आपकी गोदका श्रृंगार है । इसी छोटे से परिवार के साथ भवरलालजी पर्याप्त संतुष्ट रहते हैं। भाग्य की बिडम्बना ने कभी भी इन्हें निराश नहीं किया।
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श्री मँवरलाल नाहटा : एक विहंगम दृष्टि
जन्म
: सं० १९६८ आश्विन कृष्ण १२
सन् १९११. २ अक्टूबर
कोचरों का मोहल्ला, बीकानेर पिता का नाम : श्री भैरुदानजी नाहटा माता का नाम : श्रीमती तीजाबाई गोत्र
: नाहटा ( ओसवाल) अध्ययन : जैन पाठशाला, बीकानेर से ५वीं कक्षा में उत्तीर्ण विवाह : सं० १९८३ आषाढ वदी १२ धर्मपत्नी : श्रीमती जतनदेवी (सुपुत्री : स्व० रावतमलजी सुराणा)
: पितामह के ज्येष्ठ भ्राता स्व० लक्ष्मीचन्दजी नाहटा के, सं० १९८९ अभ्यास :: संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी, हिन्दी, बंगला, गुजराती. प्राचीन लिपि, भाषा विज्ञान, इतिहास, ब्राह्मो,
अपभ्रंश, अवहट्टी. कला. पुरातत्व संग्रह : लगभग ९० हजार हस्तलिखित ग्रन्थ, ७५ हजार मुद्रित पुस्तकें, पुराने सिक्के, मूर्तियाँ, चित्र, हथियार
आदि अनेक दुर्लभ सामग्री सद्गुरु : श्री सुखसागरजी महाराज. श्री कृपाचन्द्र सूरिजी महाराज, श्री सहजानन्दघनजी महाराज.
माताजी धनदेवी जी पहली रचना : सती मृगावती सं० १९८७ प्रेरणा स्रोत : श्री सुखसागरजी, श्री कृपाचन्द्र सूरिजी व श्री पूरनचन्दजी नाहर अध्यक्ष एवं दृष्टी : श्री जैन श्वेताम्बर पंचायती मन्दिर, कलकत्ता उपाध्यक्ष एवं दृष्टी : श्री जैन भवन, कलकत्ता भतपर्व अध्यक्ष : श्री जैन श्वेताम्बर सेवा समिति, कलकत्ता, वर्तमान में कार्यकारिणी सदस्य दृष्टी : श्री जैन भवन, पालीताना संग्राहक व टुष्टी : श्री अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर
: श्री शंकरदान नाहटा कला भवन, बीकानेर कोषाध्यक्ष : श्री जिनदत्त सूरै सेवा संघ, मू० पू० मंत्री सदस्य : श्री अखिल भारतीय खरतरगच्छ महासंघ, दिल्ली मत पर्व मंत्री : राजस्थानी साहित्य परिषद, श्री जैन श्वे० उपाश्रय कमिटि, श्रीमद देवचन्द्र ग्रन्थमाला
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सहजानन्दघन-पत्रावली का विमोचन करते हुए मुनिश्री महिमाप्रभसागरजी म० के साथ श्री नाहटाजी
A HICSHATRA THROUGH THE AGES
प्राहच्छत्रमहोत्सव व्याजक-बाव मानन्ट कमार जैनें संस्थान,रामपुर योजक- पंचाल या संस्थान, कानपुर 5.67प्रक
1986
লন্ত ব্রাহ স.
अहिच्छत्रा सेमिनारकी अध्यक्षता करते हुए श्रीनाहटाजी। उनके दाहिनी ओर हैं उड़ीसाके राज्यपाल श्री विश्वम्भरनाथ पाण्डेय, बायीं ओर सागर विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ० के० डी० बाजपेयी
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अष्टाह्निका महोत्सव पर स्नानाभिषेक करते हुए श्री नाहटाजी
प्रफ पढ़कर कुछ समझाते हुए श्री नाहटाजी
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सदस्य
भूतपूर्व कोषाध्यक्ष
संयोजक व ट्रष्टी
अध्यक्ष
कार्यालय
निवास
व्यावसायिक प्रतिष्ठान नाहटा ब्रदर्स, कलकत्ता, सिल्चर
सम्पादक
शार्दूल राजस्थान रिसर्च इन्स्टिट्यूट, बीकानेर
एल० डी० इन्स्टिट्यूट आफ इन्डोलॉजी, अहमदाबाद
श्री जैन साहित्य प्रकाशन समिति, कलकत्ता
श्री नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी
श्री जैनसभा, कलकत्ता
ओसवाल नवयुवक समिति, कलकत्ता
श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम हम्पी
: श्री जैन सभा, कलकत्ता
: श्री जोगी पहाड़ी तीर्थं
श्री चातुर्मास प्रबन्ध कमेटी, कलकत्ता
शंकरदान शुभेराज, कलकत्ता, करीमगंज, अगरतला, बोकाने ओसवाल टेक्सटाईल इन्डस्ट्रीज, कलकत्ता
: ४ जगमोहन मल्लिक लेन, कलकत्ता ७ फोन ३३-४७५५
: २२ राजा बृजेन्द्र स्ट्रीट, कलकत्ता-७
फोन ३२-२१४२
'कुशल निर्देश' मासिक पत्र ( १९७२ से)
रचनाएँ
१. सती मृगावती
२. राजगृह
३. समयसुन्दर रास पंचक
४. हम्मीरायण
५. उदारता अपनाईये
६. पद्मिनीचरित चौपाई
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७. सीताराम चरित्र
८ विनयचन्द्र कृति कुसुमांजलि
९. जीवदया प्रकरण काव्यत्रयी
१०. सहजानन्द संकीर्तन ११. बानगी
१२. महातीर्थ पावापुरी
१३. जैन श्वे० पं० मन्दिर सार्द्धं शताब्दी स्मृति ग्रन्थ
१४. जिनदत्त सूरि सेवा संघ स्मारिका
१५. जिनदत सूरि सेवा संघ स्मारिका
१६. नालन्दा ( कुण्डलपुर )
१७. चम्पापुरी
१५. वाराणसी
१९. कंपिल्यपुर
२०. अहिच्छत्ता
२१. विविध तीर्थंकल्प
२२. जैन कथा संचय, भाग १ व २ २३. द्रव्य परीक्षा
२४. तरंगवती
२५. सहजानन्द सुधा
२६. सती मृगावती रास सार
२७. भक्तामरस्तोत्र, कल्याणमंदिर स्तोत्र (हिन्दी पद्यानुवाद)
२५. युग प्रधान श्री जिनचन्द्र सूरि चरित
२९. चार प्रत्येकबुद्ध
३०. क्षणिकाएँ
३१. सहजानन्दघन पत्रावली
३२. निन्हववाद
३३. जेसलमेर के कलापूर्ण जैन मन्दिर
३४. कलकते का कार्त्तिक महोत्सव
३५. विचार रत्नसार
३६. जैन मुनियों के नामान्त पद
३७. अनुभूति की आवाज ३८. आत्मसिद्धि
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३९ बीकानेर जैन लेख संग्रह* ४८. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि* ४१. युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि* ४२ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह १३ मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि* 38 दादा जिनकुशलसूरि* ४५ युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि* ४६. बम्बई चिन्तामणि स्तवन संग्रह ४७. ज्ञानसार ग्रन्थावली* ४५ सीताराम चौपाईं* १२. रत्न परीक्षादि सप्त ग्रन्थ संग्रह* ५०. रत्न परीक्षा* ५१. क्यामखाँ रासो ५२. मणिधारी अष्टम शताब्दी ग्रन्थ* ५३. क्षत्रियकुण्ड ५४. खरतरगच्छाचार्य प्रतिबोधित जाति व गौत्र* ५५. कान्हड कठियारा की चौपाई* * ५६. थावच्चा पुत्र ऋषि चौपाई* * *
* स्व० अगरचन्द नाहटा के साथ सह सम्पादित * * श्री सत्यरजन बनर्जी के साथ सह सम्पादित *. -श्री रमणलाल साह के साथ सह सम्पादित
अप्रकाशित १ आत्मदृष्टा धनदेवी माताजी ३ खरतरगच्छ इतिहास ३ दोलामारू रा दूहा * नगरकोट कॉगड़ा का इतिहास ५ जालोर स्वर्ण गिरि तीर्थ ६ सागर सैठ चौपाई ७ मंत्रीश्वर कर्मचन्द वंश इतिहास
आगरे के लोगों का सम्मेतशिखर संघ वर्णन ९ विज्ञप्ति पत्र संग्रह १० शाम्ब प्रद्य म्न कथा
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सम्बन्धित पत्र-पत्रिकाएं
कुशल-निर्देश आकृति तेरापंथ भारती कल्पना नागरी प्रचारिणी पत्रिका राजस्थान भारती श्वेताम्बर जैन धर्मदूत जैन सत्य प्रकाश आत्मानन्द राजस्थानी जैन ध्वज भारती विद्या
ओसवाल नवयुवक हिन्दुस्तानी जैन जगत वीर संदेश विकाश कथालोक साधना स्वाध्याय Jain Journal विशाल मरुधर श्वेताम्बर जैन जैन युग उत्थान चक्र नैणसी राजस्थली दैनिक विश्वमित्र कादम्बिनी
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पत्र-मित्र राजस्थान क्षितिज जैन ज्योति अवन्तिका तित्शयर जैन सिद्धान्त मास्कर विश्व वाणी विशाल भारत अनेकान्त मरुवाणी जिनवाणी जीवन साहित्य मरु भारती राष्ट्र भारती अमर भारती
ज्ञानोदय श्रमण भारती विश्वम्भरा
परम्परा
भास्कर
श्रमण
वरदा तुलसी प्रज्ञा जैन संदेश ओलभो शाश्वत धर्म माणक नवनीत जैन भारती
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संबंधित महत्वपूर्ण ग्रन्थ १ श्री विजयबल्लभसूरि स्मारक ग्रन्थ २ श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ ३ श्री महावीर जैन सुवर्ण महोत्सव ग्रन्थ ४ कर्मयोगी केशरीमलजी सुराणा स्मृति ग्रन्थ ५ श्री सोहनलाल दूगड़ स्मृति ग्रन्थ ६ श्री आर्य कल्याण गौतम स्मृति ग्रन्थ ७ मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ ८ आचार्य राधेश्याम मिश्र अभिनन्दन ग्रन्थ ९ श्री छोटेलाल जेन स्मृति ग्रन्थ १० श्री विजयसिंह नाहर अभिनन्दन ग्रन्थ ११ श्री अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ १२ श्री गणेश ललवानी अभिनन्दन ग्रन्थ १३ माहेश्वरी महासभा अमृत वल्लरी १४ दादा जिनकुशल सरि जन्म सनम शताब्दी स्मृति ग्रन्थ
भूमिकाएँ १ महावीर षट कल्याणक पूजा २ सम्मेत शिखर तीर्थ ३ शान्तिपथ ४ श्रीपाल चरित्र ५ कल्पसूत्र (हिन्दी अनुवाद) ६ अनोखी आन 19 राजस्थानी कहावता ५ सबड़का १ इक्केवाला १० नव स्मरण आदि स्तोत्र संग्रह ११ चारों दादा साहब का चरित्र १२ मजन मंजुषा १३ सहजानन्द विलास १४ जैन धर्म प्रवेशिका १५ उत्तमकुमार चरित्र १६ वहद, पूजा संग्रह
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प्रमुख कार्यकर्ता एवं सम्मानित सदस्य १ श्री जैन श्वे० सुरक्षा कमेटी, महत्तियाण पाड़ा. बिहार शरीफ २ श्री जैन श्वे० पंचायती मन्दिर, कलकत्ता सार्द्ध शताब्दी समारोह ३ श्री मणिधारी अष्टम शताब्दी समारोह. दिल्ली ४ श्री जिनचन्द्रसूरि दादाबाड़ी प्रतिष्ठा महोत्सव, बीलाड़ा ५ श्री हरिभद्रसूरि स्मृति मन्दिर प्रतिष्ठा महोत्सव, चित्तौड़ ६ भगवान महावीर २५वाँ निर्वाण शताब्दी समारोह. कलकत्ता. पावापुरी
जैन धार्मिक शिक्षण शिविर, कलकत्ता ८ अखिल भारतीय ऐतिहासिक विद्वत् सम्मेलन, मधुवन २ छठा जेन साहित्य समारोह, खंभात १० श्री गौतम स्वामी २५वा निर्वाण शताब्दी समारोह ११ अहिच्छत्रा महोत्सव, रामपुर
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श्री अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर
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-श्रीलाल नथमल जोशी
स
पुस्तकालयों व ग्रंथागारों की उपादेयता आज इतनी सुविदित है कि इस विषय में कुछ भी कहने की आवश्यवता नहीं। इन संस्थाओं की स्थापना तो सरल है किन्तु संचालन कठिन। देश में जितने ग्रन्थागार हैं उनमें से अधिकांश राजकीय संरक्षण प्राप्त हैं. कुछ का संचालन विविध संस्थाओं द्वारा होता है और इने-गिने भण्डार ऐसे हैं जो व्यक्तिगत प्रयासों के परिणाम हैं। श्रीअभय जैन ग्रंथालय व्यक्तिगत प्रयास का सुन्दर प्रतिफल है जिसने देश-विदेश के दिग्गजों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है।
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HERE
S
अनुकूल धरती मिलने पर बीज के प्रस्फुटित एवं फलित होने में देर नहीं लगती। बात वि० सं० १९८४ की है जब श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी जैसलमेर के प्राचीन ज्ञान भंडार का जीर्णोद्धार करके चातुर्मास के लिए बीकानेर पधारे और अपने प्रवचन में उन्होंने प्राचीन ग्रन्थों एवं पाण्डुलिपियों के संरक्षण पर बल दिया ताकि मनीषियों द्वारा समाज को समर्पित ज्ञान-राशि का लोप न हो जाय। आचार्यश्री के श्रोता तो सहस्रों थे. पर उनके वचनों को सहेज कर हृदयंगम करने वाले केवल दो ही व्यक्ति थे-एक चाचा, दूसरा भतीजा । ये चाचा-भतीजा कांधलजी-वीकोजी के समान किसी भू-खण्ड पर आधिपत्य जमाकर वहां अपना राज्य स्थापित करने के अभिलाषी नहीं. प्रत्युत तीव्र गति से निरन्तर काल-कवलित हो रही ग्रंथ-राशि को संरक्षण देकर उसके दिवंगत स्रष्टाओं को अमरत्व प्रदान करने को आतुर थे: चाचा-अगरचन्द नाहटा. भत.जा-भंवरलाल नाहटा।
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उस समय इस नाहटा युगल की आयु साढ़े सोलहसत्रह वर्ष थी-एक ऐसी आयु जिसमें समस्त उमंगों के साथ गाईस्थ्य जीवन में प्रवेश की तैयारी करते हुए स्वर्गिन स्वप्नों का संसार बसाया जाना था. पर इसके सर्वथा
MIRE
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विपरीत, सांसारिक सुखों को गौण समझते हुए ये दोनों युवक प्राचीन ग्रंथों के संरक्षण कार्य में मिशनरी उत्साह एवं जोश-खरोश के साथ जुट गए-एक ऐसी रुचि, जिसके कारण इनके साथी लोग इन्हें संसार से उपराम, साधु-सन्तों के समान समझकर अपनी मित्रता के अनुपयुक्त समझने लगे।
अब समस्या थी ग्रन्थ-संग्रह के श्रीगणेश की। ग्रंथ उपलब्ध कहां से होंगे? संयोगवश बम्बई हाईकोर्ट के एक वकील मोहनलाल दलीचन्द का 'कविवर समय सुन्दर' निबन्ध नाहटों ने देखा । आश्चर्य हुआ-एक वकील बम्बई में बैठकर समयसुन्दर पर इतनी विस्तृत जानकारी दे सकता है, तो हम पीछे क्यों रहेंगे। प्रोत्साहन का कारण था-रांगड़ी चौक में एक उपाश्रय का खुलना जो बड़ा खरतरगच्छ उपासरा कहलाता है. जिसके ट्रस्टी दानमलजी नाहटा व पूनमचन्दजी कोठारी थे। इससे प्राचीन ग्रन्थों के अवलोकन का सुयोग सहज था। बीकानेर के महावीर जैन मण्डल के ग्रंथालय का अवलोकन करते समय सं० १८०४ में लिखित एक गुटका मिला जिसमें समयसुन्दर की अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएं उपलब्ध थीं। युवकों का हौसला बढ़ा और वे द्विगुण उत्साह के साथ अपने कार्य में तल्लीन हो गए। समयसुन्दर की खोज करते समय अनेक ग्रन्थों को देखा। जिन कवियों की रचनाएँ श्रेष्ठ लगतीं उनकी नकल करके अपने संग्रह के लिए तैयार कर लेते। कवि के संबंध में देनेवाली आवश्यक टिप्पणियों को अपनी नोटबुकों में उतार लेते।
उन्हीं दिनों नाहटा बंधुओं ने देखा कि बड़े उपासरे में प्राचीन ग्रंथों के खंतड़ रखे हुए थे और उनका उपयोग ठाठे बनाने को किया जाने वाला था। यति मुकनचन्दजो आदि ने उस ढेर में से काम के कागज छांटकर अपने अधिकार में रख लिए थे। नाहटों ने उनको क्रय कर लिया। परिणाम सुखद निकला | काफी सामग्री उस ढेर में से प्राप्त हो गई। उसके बाद जहां कहीं भी ऐसी सामग्री की जानकारी मिलती, वे उसे लेने का प्रयत्न करते. निःशुल्क अथवा खरीदकर । बीकानेर से बाहर जाना पड़ता तो वहाँ भी जाने पर हर हालत में प्राचीन पांडुलिपियों की रक्षा का प्रयत्न करते। इस प्रकार की सामग्री में ग्रन्थों के बिखरे हुए पन्ने ही अधिकांश में होते थे । उन्हें ये दोनों अध्यवसायी युवक तरतीबवार रखकर ग्रन्थ को पूरा बनाने की कोशिश करते । जब ग्रन्थ पूरा हो जाता तो इनके हर्ष का पारावार नहीं रहता। इस प्रकार से पन्ने जोड-जोड़ कर इन्होंने अनेक बहुमूल्य ग्रन्थों की रक्षा कर उन्हें अपने संग्रह में सुरक्षित रख लिया।
यह ज्ञातव्य है कि प्राचीन पाण्डुलिपियों को पढ़ने व उनका अर्थ लगाने में भी भंवरलालजी का अभ्यास स्व० अगरचन्दजी से भी अधिक है । रामचरितमानस में सीता अपने पति के साथ जाकर भी राम के साथ पूजी जाती है, जबकि उमिला सर्वथा अनबूझ पड़ी है। प्रायः उर्मिला जैसी स्थिति भंवरलाल नाहटा की है. पर चाचा-भतीजे में इतना स्नेह रहा कि भंवरलालजी को कभी इस बात का ध्यान ही नहीं आया कि उनका नाम अगरचन्दजी के बराबर चल रहा है या नहीं । अगरचन्दजी का नाम अधिक चलने का कारण संभवतः यही है कि भंवरलालजी अपने पारिवारिक व्यवसाय के साथ-साथ प्रेस कापी, प्रफ पठन, अनुवाद, नकलें, शब्दकोश सम्पादनादि तथा ग्रन्थ-संग्रह-कार्य दोनों ही सम्हालते थे, जबकि अगरचन्दजी व्यावसायिक कार्यों से लगभग पराङ्मुख हो गए थे।
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जब इनका संग्रह विस्तृत होने लगा. तो प्रारंभ में उसे तीन आलमारियों में रखा जा सका, परन्तु वह तो निरन्तर वृद्धि की ओर अग्रसर था और उसे व्यवस्थित रूप देने के लिये किसी उचित स्थान की आवश्यकता का अनुभव होने लगा।
इस प्रसंग को बीच में छोड़कर अब हम संस्था के नामकरण की चर्चा करेंगे। अगरचन्दजी के पिता थे शंकरदानजी नाहटा । अगरचन्दजी से ठीक बारह वर्ष बड़े भाई थे अभयराज नाहटा जिनका जन्म वि० सं० १९५५ की चैत्र कृष्ण षष्ठी को बीकानेर में हुआ था । समस्त मानवीय गुणों से सम्पन्न यह वैश्य-वालक छोटी आयु में ही अपने से बड़ों के सम्मान का माजन बन गया था । साहित्य और धर्म में इसकी अपार रुचि और विलक्षण गति थी । परन्तु सुसंपन्न नाहटा परिवार भो इस अलौकिक सम्पदा को अपने पास अधिक समय तक नहीं रख सका। अभयराज रुग्ण हो गये। चिकित्सा के लिए उन्हें जयपुर ले जाया गया । डाक्टरों ने इनकी व्याधि को असाध्य घोषित कर दिया । सम्पूर्ण नाहटा परिवार पर विषाद के घनघोर बादल छा गये। गीता में अर्जुन ने दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ के लक्षण पूछे हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं—'दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृह' । सारा परिवार शोक-सागर में निमग्न है. पर स्थितप्रज्ञ अभयराज को विचलित करने की क्षमता किसमें थी? उनके लिये काल विकराल नहीं था। शरीर त्याग केवल वस्त्र बदलने के समान था । अभयराज जानते थे कि वे आसन्नमृत्यु हैं, पर उनके स्वाध्याय में, चिन्तन में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आया । भीष्म पितामह शरशैया पर अविचलित थे. तो समझ में आता है कि उनके पास दीर्घायुष्य का अथाह अनुभव था, पर वाईस वर्ष का अभयराज यदि योगियों के समान देह त्याग करते हुए सबको अन्तिम प्रणाम कर जाये तो निःसन्देह विलक्षण, परम विलक्षण है ।
यह वज्रपात हुआ वैशाख कृष्णा सप्तमी वि० सं० १९७७ को जिसने नाहटा परिवार का न केवल कलेजा ही निकाल लिया. कुछ समय के लिये उसका विवेक भी छीन लिया ! बालक अगरचन्द, भंवरलाल जो उस समय लगभग दस वर्ष के थे. विद्याध्ययन से वंचित कर दिये गये । परिवार में अभयराज सर्वाधिक शिक्षित थे और वे इस प्रकार असमय में चले गये, तो परिवार में एक धारणा बन गई कि-पढ़ाई में आपां ने लैणियों कोनी।
सेठ शंकरदान इस पुत्र-रत्न के लिये कोई अनुपम स्मारक बनवाना चाहते थे, इधर अगरचन्द-भंवरलाल अपनी पांडुलिपियों को व्यवस्था करना चाहते थे अतः स्व० अभयराज नाहटा की स्मृति में अभय जैन ग्रंथालय की स्थापना की गई। ग्रंथालय पर लगे हुए शिलालेख में स्थापना का वर्ण १९७७ वि० सं० अंकित है, फिर भी यह वर्ष विचारणीय है । सं० १९८४ की बसन्त पंचमी पर जैन मुनि का बीकानेर में चातुर्मास हुआ और तभी नाहटा बन्धुओं को पाण्डुलिपि-संग्रह की प्रेरणा मिली थी। कुछ वर्ष ग्रन्थों के संग्रह में भी लगे तब कहीं ग्रन्थालय स्थापित करने की बात उत्पन्न हुई. अतः वि० सं० १९७७ को इस ग्रंथालय का स्थापना वर्ष नहीं माना जा सकता । यह हो सकता है कि सं० १९७७ में जब अभयराज की मृत्यु हुई तो सेठ शंकरदान नाहटा ने उनकी पुण्य स्मृति में कोई स्मारक स्थापित करने का संकल्प लिया होगा, अतः १९७७ को हम स्थापना वर्ष के स्थान पर संकल्प वर्ष कहेंगे तो समीचीन होगा । हाँ. श्री अभयराजजी की स्मृति में अभय जैन ग्रन्थमाला का प्रथम पुष्प सं० १९८२ में अभयरत्नसार प्रकाशित हुआ जिसका सम्पादन पं० काशीनाथ जैन ने किया था। इसके अतिरिक्त अगरचन्दजी के अग्रज मेघराजजी नाहटा के पुत्र केसरीचन्द नाहटा तथा अगरचन्दजी के ज्येष्ठपुत्र धर्मचन्द नाहटा
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से प्राप्त जानकारी के अनुसार जिस भवन में यह ग्रंथालय अवस्थित है, उसका निर्माण वि० सं० २००० में ही हुआ था, उससे पहले ग्रंथों को आलमारियां पिरोल के ऊपरवाले कमरे में थीं और बाद में शुभ विलास में भी पुस्तकालय रहा। वर्तमान भवन के निर्माण से पहले तो वह स्थान मात्र गार्यो का एक बाड़ा था। इसके अतिरिक्त भवन की पहली मंजिल पर जो शिलालेख लगा हुआ है, उस पर शंकरदान नाहटा कला भवन अंकित है और उसका स्थापना व वि० सं० २००० लिखा गया है। स्पष्ट है कि जब वि० सं० १९९९ में शंकरदानजी का स्वर्गवास हुआ. तो उनके पुत्र भैरूदान, सुभैराज, मेघराज, अगरचन्द नाहटा ने तत्काल इस भवन का निर्माण करवाकर अपने पिता की स्मृति में कला भवन स्थापित किया और घरातल मंजिल (ग्राउन्ड फ्लोर) पर अभय जैन ग्रंथालय की स्थापना की इस प्रकार वि० सं० १९७७ में जिस ग्रंथालय का संकल्प किया गया था. उसे मूर्तरूप वि० सं० २००० में ही दिया जा सका । भवन निर्माण में सुभैराजजी का विशेष योगदान रहा ।
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जिस समय प्रधालय को स्थापना हुई, केवल घरात मंजिल में ही पांडुलिपियों के बस्ते रखे गये पर उत्साही नाहटा वन्धुओं की अदम्य लगन के कारण शीघ्र ही धरातल मंजिल की सारी आलमारियां ग्रन्थों से भर गयीं और जो कलाभवन प्रथम मंजिल में अवस्थित था उसे दूसरी मंजिल में सरकाना पड़ा। यही नहीं, जो अंतर्भोम मंजिल ( तलघर ) कबाड़खाना बना हुआ था, उसका भी भाग्योदय हुआ और अभय जैन ग्रन्थालय की पाण्डुलिपियां उसमें भी रखी गर्यो इस प्रकार तीन मंजिलों में तो अभय जैन ग्रन्थालय अवस्थित है और ऊपरी एक मंजिल में शंकरदान नाहटा कला भवन ।
इस ग्रन्थालय में सुरक्षित पांडुलिपियों की संख्या में ४०-४५ हजार सुनता आ रहा था जो मुझे अत्युक्तिपूर्ण लग रही थी। अभी तीन दिन पहले जब मैंने ग्रन्थालय के सूची पंजिका का अवलोकन किया तो पता चला कि वह संख्या भी वास्तव में त्रुटिपूर्ण थी क्योंकि रजिस्टर में चढ़ी हुई अन्तिम पांड़लिपि का क्रमांक है ५६२३४ (छप्पन हजार नौ सौ चौतीस ) तथा पुस्तक का नाम है 'नख शिख वर्णन रचयिता है-बलभद्र कवि ।
क्रमांक २४६ पर 'जम्बूदीप पण्णति चूर्णि दर्ज है जिसका लेखन समय वि० सं० १४८० और लेखन स्थान डूंगरपुर है । पुस्तक में ३१ पत्र हैं, जिनका आकार २९.६४१०.८ से० मी० है । प्रत्येक पत्र में १५ पंक्तियाँ व प्रत्येक पंक्ति में ६६ अक्षर हैं। इसी प्रकार क्रमांक ५८९ पर 'उत्तराध्ययन सूत्र दर्ज है जिसकी भाषा प्राकृत है। यह ३९ पत्रों में है, पत्रों का आकार ३०x६ से० मी० है । प्रत्येक पत्र में १५ पंक्तियाँ व प्रत्येक पंक्ति में ६३ अक्षर है। इसका लेखन समय १५१७ वि० सं० है क्रमांक १३४ पर 'उपासक दशांग सूत्र-वृति ग्रंथ है जिसके लेखक अभयदेव सूरि हैं और लेखन समय वि० सं० १५३२ है। यह वेल-बूटेदार है और इसमें १३ पत्र है। पत्रों का आकार २९.२११.२ से० मी० है । प्रत्येक पत्र में १७ पंक्तियाँ व प्रत्येक पंक्ति में ७१ अक्षर हैं । लेखन समय है- १५३२ वि० सं० मूल ग्रंथ प्राकृत में है व टीका संस्कृत में।
लगभग सात हजार पांडुलिपियां ऐसी हैं जो अभी रजिस्टरों में दर्ज नहीं हुई हैं । इस समय श्री दाऊदयाल शर्मा इन ग्रन्थों का परिचय एक नये रजिस्टर में लिख रहे हैं। अधिकांश पांडुलिपियां सत्रहवीं शती की है।
अगरचन्द नाहटा पर लक्ष्मी से भी अधिक सरस्वती की कृपा थी वे इतनी प्रवल धारणाशक्ति के धनी थे कि अपने संग्रह के सभी ग्रन्थ उनके लिये हस्तामलकवत् थे। उनके रहते किसी शोध छात्र को ग्रन्थोपलब्धि में
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कोई कष्ट नहीं होता था, पर अब उनके स्वर्गारोहण के पश्चात् स्थिति बदल गई है। अब किसी ग्रन्थ को ढूंद निकालना आसान काम नहीं रह गया है क्योंकि न तो ग्रन्थ भाषावार दर्ज हैं, न विषयवार तथा अकारादिक्रम का तो प्रश्न हो नहीं है। यद्यपि ग्रन्यालय के लिये एक न्यास बना हुआ है. पर वह संभवतः आर्थिक पहलू की
ओर ही जागरूक प्रतीत होता है । अभी-अभी 'अगरचंद-भंवरलाल नाहटा शोध संस्थान' की स्थापना की गई है। आशा है यह संस्थान शीघ्र ही प्रत्येक भाषा के लिये अकारादिक्रम से विषयवार रजिस्टर तैयार कराएगा . ताकि आने वाले शोधार्थी इस दुर्लभ सम्पदा से लाभान्वित हो सकें और यह सम्पदा केवल बस्तों-बुगचों की सम्पत्ति न रहे।
शोध संग्राहकों में कितनी तल्लीनता अपेक्षित है, यह भंवरलाल नाहटा के शब्दों में पढ़िये : "उन दिनों हमें एक ही धुन सवार थी कि संग्रह कैसे हो? रात में सोते हुए स्वप्न मी ऐसे ही आते. कभी तो किसी ऐतिहासिक स्थान के दर्शन होते, कभी हस्तलिखित ग्रन्थ-चित्रादि दीखते। आश्चर्य की बात है कि हरे रंग का एक चित्र स्वप्न में दिखाई दिया जिसमें भगवान ऋषभदेव अपनी पुत्रियों ब्राह्मी व सुन्दरी को लिपि सिखा रहे हैं और सामने पूरी वर्णमाला (ब्राह्मीलिपि) लिखी हुई है । श्री देवचंदजी महाराज के जन्मस्थान के सम्बन्ध की ऊहापोह में स्वयं देवचंद जी महाराज ऋषभदेवजी के मन्दिर (नाहटों की गवाढ़) के सामने मिलते हैं और अपना जन्मग्राम बतलाते हैं जो कि बीकानेर रियासत या जोधपुर रियासत में है इस ऊहापोह में विस्मृत हो जाता है। समयसुन्दरजी के माता-पिता के नाम की खोज में दूसरे ही दिन बड़े उपाश्रय के एक संग्रह के पत्रों में उन्हीं के शिष्यों द्वारा निर्मित गीत मिल जाते हैं और स्वप्न साकार हो जाता है। चित्त की एकाग्रता और संग्रह की अभिलाषा हो इसके मुख्य कारण हैं।"
प्राचीन सामग्री का एक-एक पन्ना और उसका एक-एक टुकड़ा भी कितना महत्त्वपूर्ण हो सकता है, यह चौंकाने वाली घटना भी भंवरलालजी से सुनिए :
- "दो इंच के एक पन्ने में हमें कुछ बारीक अक्षरों में लिखे दोहे मिले, जिसमें ज्ञानसागरजी के माता-पिता का नाम, जन्म-स्थान, संवत्, दीक्षाकाल, गृह नाम, राज्य-सम्बन्ध आदि प्राप्त हो गए।"
अगरचन्दजी नाहटा का अभिनन्दन ग्रन्थ सन् १९७६ में प्रकाशित हुआ था। उसमें श्री भंवरलालजी नाहटा के लेख से पता चलता है कि इस संस्था ने इन वर्षों में किस प्रकार प्रगति की:
"गत ४२ वर्षों से हस्तलिखित प्रतियों के संग्रह का प्रयत्न निरन्तर चालू है। पर गत २५ वर्षों में इस दिशा में जितना अधिक कार्य हुआ है उतना पहले नहीं हो सका था क्योंकि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद हस्तलिखित प्रतियाँ बिकने के लिए जितनी बाहर से आई हैं, इससे पहले कभी नहीं आई। मुद्रण-युग में हस्तलिखित प्रतियों का पठन-पाठन बन्द-सा हो गया । अतः जिनके पास भी हस्तलिखित प्रतियों का संग्रह था वे अब उनकी उपयोगिता नहीं रहने से बेचने को तैयार हो गये । राजा-महाराजाओं, ठाकुरों, यतियों, विद्वानों और कवियों के वंशजों ने अपने संग्रह बेचने प्रारम्भ कर दिये। जब ऐसे संग्रह उचित मूल्य में मिलने की खबर पहुंचतो तो काका श्री अगरचन्दजी बाहर जा करके भी और लोगों को पत्र लिखकर भी ऐसे संग्रह खरीदने प्रारंभ कर दिये । स्व० मुनि कांतिसागरजी का जब ग्वालियर में चौमासा था, तो उन्होंने सूचना दी कि जैनेतर, वेद आदि, ग्रन्थों का एक अच्छा संग्रह बिक
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रहा है, तो अगरचन्दजी वहां पहुंचे और उसे खरीद लिया । इसी तरह जयपुर के कबाड़ियों से अच्छा संग्रह बिकने की सूचना मिली ता वहाँ पर जाकर ले लिया गया।
"भारत का विभाजन होने पर पंजाब का ग्रन्थ-संग्रह भी खूब बिकने लगा । हमारे मित्र स्वर्गीय डॉ० बनारसी दास जैन ने एक कबाड़ी को कह दिया था कि नाहटाजी हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह कर रहे हैं उन्हें तुम प्रतियों का बन्डल मेजते रहो, वे उनका उचित दाम लगाकर भेजते रहेंगे। फलतः उस पंजाबी कबाड़ी ने कई वर्षों तक बड़ेबड़े पुलिन्दे पार्सल करके भेजे इस तरह इधर-उधर से प्रयत्नपूर्वक संग्रह करते करते हो इतना बड़ा संग्रह हो सका है ।
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"हस्तलिखित ग्रंथों की खोज के लिये अनेक जैन-जेनेतर ज्ञान भण्डारों में जाना पड़ा है और लाखों हस्तलिखित प्रतियाँ देखकर उनमें से जो-जो महत्वपूर्ण एवं अमूल्य तथा दुर्लभ प्रतियाँ देखने व जानने में आई, उनके नोट्स ले रखे हैं। जहां तक सम्भव हुआ अन्यत्र के महत्वपूर्ण दुर्लभ ग्रन्थों को जो अपने संग्रह में भी रखना आवश्यक समझा ऐसे सैकड़ों रचनाओं की नकलें करवाई हैं और बहुत-सी प्रतियों के तो काफी खर्च करके फोटो और माइक्रोफिल्म करवा ली गई हैं। इस तरह जो महत्वपूर्ण ग्रंथ मूल हस्तलिखित प्रति के रूप में प्राप्त नहीं किया जा सका. उसकी प्रतिलिपि करवा कर अभय जैन ग्रंथालय में संग्रहीत की गई है।"
हिन्दी, संस्कृत, राजस्थानी, गुजराती प्राकृत, अपभ्रंश के अतिरिक्त इस ग्रंथालय में उत्कल, शारदा, ठाकरी. कन्नड़, तमिल बंगला, पंजाबी सिन्धी, उर्दू फारसी, कश्मीरी आदि भाषाओं की पांडुलिपियां भी विद्यमान हैं।
हस्तलिखित ग्रन्थों के समान ही मुद्रित पुस्तकें भी यहां उपलब्ध हैं जिनकी संख्या ५०,००० के आस-पास है। पांडुलिपियां और छपी हुई पुस्तकें प्रायः सभी विषयों पर पायी जाती हैं । पुस्तकों के अलावा अगरचन्दजी के समय में यहां पत्रिकाएँ बहुत बड़ी संख्या में आती थीं और विशेष बात यह है कि कोई भी पत्रिका रद्दी में नहीं फेंकी जाती थी। सारी पत्रिकाओं की व्यवस्थित फाइलें इस प्रन्थालय में विद्यमान हैं। एक उल्लेखनीय बात और अन्य विद्वानों के जितने भी पत्र नाहटाजी को प्राप्त होते, उन्हें वे नष्ट नहीं करते थे। ये पत्र आज भी बोरों में भरे हुए हैं।
इस ग्रन्थालय के सम्बन्ध में विद्वानों की सम्मतियां भी ज्ञातव्य है : बासुदेवशरण अग्रवाल के विचार से "नाहटाजी ने अकेले एक संस्था का काम पूरा किया है। आगे आने वाली पीढ़ियां इसके लिये उनकी आभारी रहेंगी।" वाडिया कॉलेज, पूना में संस्कृत के प्रोफेसर पी० एल० वैद्य ने अंकित किया- "I am pleased to see the wonderful and valuable collection of Nahata family at Bikaner.” डॉ० भोगीलाल जे० सडिसरा के शब्दों में- " Any person interested in Indological research and Indian art coming to Bikaner will be immensely benefited if he pays a visit to Shri Abhaya Library and the Museum located in it, so ably and efficiently managed by Shri Nahata" अहमदाबाद के जितेन्द्र जेटली के शब्दों में, "यह संग्रह देखकर मुझे विशेष प्रसन्नता इसलिए हुई कि इस जमाने में भी उच्च अभ्यास और संशोधनों के योग्य प्राचीन ग्रन्थों का और कलाकृतियों का ऐसा संग्रह इतने व्यवस्थित रूप से, किसी संस्था ने नहीं, वरन् एक व्यक्ति ने किया है। भारत के प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास, साहित्य और संस्कृति
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के अभ्यासकों को जब भी अवसर मिले, यह संग्रह अवश्य देखना चाहिए।" राजस्थान पुरातत्त्व संग्रहालय विभाग के ड० सत्यप्रकाश के अनुसार, "जो अब तक राज्याश्रय द्वारा न हो सका, वह श्री नाहटाजी अपने अथक परिश्रम से पूरा करने की चेष्टा कर रहे हैं और बहुत अंश तक सफल भी हुए हैं । आपके भतीजे श्री भंवरलाल जी का योग सोने में सुहागे का कार्य कर रहा है। भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान में और विशेषतया राजस्थानी संस्कृति को जीवित रखने एवं गौरवान्वित करने में आपके सदृश कलाप्रेमियों की स्वतन्त्र भारत को आवश्यकता है।" हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी के उदयशंकर शास्त्री के अनुसार "इस अद्भुत संग्रह में इतने रत्न भरे पड़े हैं कि युगों तक उनका मूल्य बढ़ता ही जायेगा।" लन्दन विश्वविद्यालय के डब्ल्यू० एस० कुला के अनुसार “This has been a most interesting collection. It is truly a great credit that one has organised so fine a collection of books, manuscripts and objects of art."
इस प्रकार हम देखते हैं कि अपने विद्या-व्यसनी पुत्र अभयराज नाहटा की स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए उनके यशस्वी पिता शंकरदान नाहटा ने जिस अभय जैन ग्रन्थालय की स्थापना का संकल्प किया और जिसे उनके पुत्रों, पौत्रों ने मूर्त रूप दिया, उस अभय जैन ग्रन्थालय की देश-विदेश के पण्डितों एवं कला-मर्मज्ञों ने मुक्त. कण्ठ से प्रशंसा की है। एक समय आ गया था जब इस अद्वितीय संग्रह का स्थानान्तरण दिल्ली में करने की चर्चा चली थी। राजस्थान के सौभाग्य से यह संग्रह अभी तक बीकानेर में बना हुआ है और विश्वास है कि अब यहीं बना रहेगा। जिस भावना के साथ स्वर्गीय शंकरदानजी ने इनकी स्थापना का संकल्प लिया, जिस अदम्य उत्साह के साथ अगरचन्दजी, भंवरलालजी आदि ने उसे स्थापित किया और जिस लगन के साथ अगरचन्दजी नाहटा ने इसे पनपाया उसी का फल है कि यह संस्था अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर सको। आवश्यकता इस बात की है कि इसके सम्बंध में व्यक्ति पूर्णतया जागरूक रहे ताकि जिस उद्देश्य से इसकी स्थापना की गई है, उसका निर्वाह निरन्तर होता रहे।
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कृतित्व
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अपने पुस्तकालय में ग्रन्थ देखते हुए श्री नाहटाजी
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मदर टेरेसा के साथ श्री नाहटाजी
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PRIVUning
GOOSE
श्रमण भगवान महावीर
वीर प्रभु जग-तारक की पद-धूलि धार हुई धन्य धरा क्षत्रियकुण्ड नरेश्वर का घर धान्य-स्वर्ण से खूब भरा । धन्य धन्य त्रिशला माता जिसने जाया तीर्थंकर को शरण-स्थल मात्र मुमुक्षु के वे वर्तमान जग हितकर जो ।।१।। चैत सुदी तेरस जन्मे छप्पन दिशिकुमरी मिल आई चौसठ इन्द्रों ने मेरु शिखर ले जाकर पाण्डुशिला ठाई। अभिषेक सहन कैसे होगा शक्रन्द्र चित्त में है शंकित जान प्रभु ने वाम पैर अंगुष्ठ चाँप गिरि कृत कम्पित ।। २।। आमल क्रीड़ा में जीत देव महावीर नाम संप्राप्त किया चटशाला में शक्रेन्द्र प्रश्न जैनेन्द्र व्याकरण नाम दिया। मातपिता के भक्त आप करुणामूर्ति संकल्प किया विद्यमानता में इनके नहीं गृह त्यागू अहो धन्य हिया ।। ३ ।। भ्राता नन्दिवर्द्धन आग्रह दो वर्ष और गृहवास रहे देकर संवत्सर दान अनर्गल लो इच्छित ये शब्द कहे। अगहन दशमी था कृष्णपक्ष हो श्रमण शीघ्र वनवास लिया बन दीर्घ तपस्वी और अकिंचन योग ध्यान में चित्त दिया ।। ४ ।।
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खीर पकाई ग्वाले ने प्रक्षेप कूप में चोर बना संगम ने चिर कष्ट दिए पर अडिग मेरू सम धीर धना । चण्ड दृष्टि-विषधर कौशिक का दंश दुग्धधारा प्रवही बुज्झ ! बुज्झ ! इन शब्दों से प्रतिबोधित अष्टम स्वर्ग लही ॥ ५ ॥ शूलपाणि देवगृह में सह परिषह प्रभु उत्तीर्ण बने कानों में कीलें ग्वाले ने ठोके तो भी समभाव घने । तेजोलेश्या से दग्धमान संरक्षण कृत गोशालक के दुष्टों पर भी करुणा करते प्रभु भावदया के धारक थे ।। ६ ।। छ: चार मास दो एक मास पक्षक्षमणादिक उपवासी अभिग्रह धरके विचरे चन्दनबाला ने पारे कुल्माषी। वैशाख शुक्ल दश रिजुवालु तटिनी तट में श्यामाक खेत गोदोहन मुद्रा में बैठे कर गति कर्म क्षय ध्यान श्वेत !॥ ७॥
आ महासेन वन पावा में प्रभु तीर्थ प्रवर्तन आप किया ग्यारह गणधर को चार हजार चारसौ सह चारित्र दिया । इन्द्रभूति गौतम स्वामी थे लब्धिवंत गुरु भक्त गुणी चन्दनबाला छत्तीस सहस आर्यागण में थी मुख्य सुणी ॥ ८॥ साद्धलक्ष नव सहस श्राद्ध आनंद कामदेव पुणिया थे लख तीन अठारह सहस संख्य सुलसा जयन्ती श्राविकाएँ । दशार्ण-शालिभद्रादिक ने दीक्षित हो आत्मोद्धार किया लघुवय अतिमुक्तक ने भी पा कैवल्य चमत्कृत लोक किया ॥९॥ कोणिक श्रेणिक चेडाराजा उदयन नन्दिवद्धन भ्राता भक्त अनेकों नरपति गग थे भारत भू के विख्याता। स्याद्वाद कर्म सिद्धान्त अहिंसा अध्यात्म रस से पूरित वाणी जिनकी फैली जग में दर्शन ज्ञान चरण संयुत ।। १०॥ द्विसप्तति वर्षायु में चौमास अपापा में आये हस्तिपाल रज्जुगशाला अष्टादश नृप पौषध ठाये । दो दिन व्यापी उपदेश दिया कात्तिक अमावस रात्रि में प्रहरान्तिम में प्रभु मोक्ष गए नाग करण अरु स्वाती में || ११ ।। प्रवचन प्रभु का विस्तार जगत में इस शुभअवसर पर होवे साद्धद्वय सहस संवत्सर का उत्सव सब पापों को धोवे। सुखी बने सब ही प्राणी प्रभु नाम हमें सुखदायक हो भँवर' कामना मात्र यही जय जय जय शासन नायक हो ॥ १२ ॥
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तोरण दृष्टिगोचर हुआ। उसका मध्यवर्ती घबनां टूटकर गिरा हुआ था। शिल्पकला को देखने पर मंदिर १०००. १२०० वर्ष प्राचीन प्रतीत हुआ, अतः कोई शिलालेख प्राप्त होने की आशा से मैं मंदिर में गया। इस मंदिर के गर्भगृह के दाहिनी ओर एक स्तंभ पर खुदे हुए कई लेख मिले जो शुद्ध और सुवाच्य नहीं थे। उनमें से एक की लिपि बहुत पुरानी थी। उस लिपि का पर्याप्त ज्ञान न होने से अपनी नोटबुक में उसकी नकल न कर, एक ऐसे मुद्रित विज्ञापन पर, जो दूसरी तरफ खाली था, कुछ समय के परिश्रम द्वारा पेंसिल से मैंने धीरे-धीरे अविकल नकल कर डाली। उसी स्तंभ पर जो दूसरे लेख उत्कीर्ण थे वे संवत् १४६०,१५३५. १५५१ और १५७९ के थे जिनमें संवत् १५३५ चत्र शुक्ला १५ वाले लेख में प्रासादोद्धार का वर्णन था।
फलौधी की कुटिल लिपि
फलौधी अर्थात् मेड़तार ड मारवाड़ का सुप्रसिद्ध प्राचीन जैन तीर्थ है। वहाँ आश्विन और पौष कृष्णा १० के दिन वर्ष में दो बार मेला लगता है, जिसमें सहस्रों की संख्या में जैन और जेनेतर जनता एकत्र होती है। विगत आश्विन के मेले में सौभाग्यवश मैं भी वहाँ गया । तेइसवें जैन तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ भगवान् की सप्रभाव श्यामवर्ण प्रतिमा लगभग ८०० वर्ष पूर्व भूमि में से निकली हुई है। मंदिर भी १२ वीं शताब्दी का बना हुआ है। इस तीर्थ की उत्पत्ति चमत्कारमय होने के कारण यह मारवाड़ का मुख्य जैन तीर्थ कहलाता है। प्राचीन और अर्वाचीन सभी तीर्थमालाओं में इस तीर्थ का नाम स्मरण किया गया है।
बीकानेर आकर उस लेख को कुछ तो मैंने स्वयं पढ़ा और कुछ माननीय डा० दशरथ शर्मा एम० ए० महोदय ने। अंत में जो अक्षर अस्पष्ट रह गये उनका, बीकानेरनरेश की गोल्डन-जुबिली पर महामहोपाध्याय राय बहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के पधारने पर उनसे पूछ कर, जो नागरी अक्षरांतर हुआ वह इस प्रकार है:
दशमी के मध्याह्न में मंदिर से पार्श्वनाथजी की रथयात्रा निकालकर निकटवर्ती तालाब पर ले जाते हैं। इस उत्सव में गायन-वाद्यादि द्वारा प्रभु-भक्ति करने के हेतु सभी यात्री सम्मिलित हुआ करते हैं। मैं इसके कुछ आगे बढ़कर एक विशाल मंदिर की शोभा देखने के लिए चल पड़ा। वह मंदिर ब्रह्माणी माता का था। उसके आस-पास कुछ मूर्तियाँ और प्राचीन देवलिये भी पडो हुई थीं, परन्तु उन पर कोई लेख नहीं था। मंदिर के समक्ष एक पीले पाषाण का विशाल और सुन्दर उत्तुंग
७ औं नम श्री फलवद्धिका दे वि। श्री पुष्कर गांक वारी वासी सूत्रधार बाहुक । तस्य समुत्पनी भद्रादित्य । तत्र च जातो मचारवि । तस्य पुत्रोत्पन सिसुरवि सूत्रधार । अण्डज स्वेदजौ वापि । उद्विजं च ज
(र) युज। यह लेख कुटिल लिपि का है। ईसवी सन् की छठी शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी पर्यन्त अर्थात् गुप्त लिपि के पश्चात् और नागरी लिपि से पूर्व इस लिपि का प्रचार था। इसके अक्षर बहुधा प्रतिहार राजा बाउक
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के जोधपुर के शिलालेख से विशेष मिलते हैं जो कि 'भारतीय प्राचीन लिपिमाला' के २३वें लिपि-पत्र में प्रकाशित है। वह लेख वि० सं० ८९४ का होने से इस लेख का समय भी विक्रम की नवीं शताब्दी समझा जा सकता है।
इस शिलालेख के नीचे आठवीं पंक्ति के रूप में नागरी लिपि में 'उ० सनाढा कापड़ी' खुदा हुआ है। इन शब्दों की लिपि देखने से ज्ञात होता है कि कई शताब्दियाँ व्यतीत हो जाने पर किसी ने पीछे से लिखा होगा, क्योंकि यह लिपि उससे बहुत अर्वाचीन है।
ब्रह्माणी माता का मन्दिर सेवगों (भोजक, सेवक या शाकद्वीपीय ब्राह्मणों) का है। सुना है कि ग्राम भी इसी मंदिर के लिए राज्य की ओर से भेंट है।
श्रीयुक्त जगदीशसिंह गहलोत अपने 'मारवाड़ राज्य के इतिहास के पृष्ठ ३१२ में इस मंदिर के बारे में इस प्रकार लिखते हैं:
इस शिलालेख का पहला अक्षर ७ गुप्तकालीन ओंकार का तत्समय प्रचलित प्राचीन रूप है। उसके पश्चात 'ॐ' से कुटिल लिपि प्रारंभ होती है। इस लिपि में ह नागरी 'ड' के सदृश और 'ड' वर्तमान 'र' के सदृश है जैसे छठी पंक्ति के दूसरे अक्षर में 'अंडज' लिखा गया है। 'ज' वंगला लिपि 'ज' से और 'स' मारवाड़ी के 'स' से खूब मिलता है। इसके विरुद्ध प्रतिहार बाउक के लेख का 'स' नागरी के वर्तमान 'भ' से विशेष मिलता-जुलता है।
इस लेख की प्रथम पंक्ति का 'फ' और 'ल' अक्षर प्रतिहार राजा बाउक के लेख के अक्षरों से अधिक विकसित रूप में है। दीर्घ ईकारान्त की मात्रा जिनजिन अक्षरों में है. पूरी दी गई है । परन्तु दूसरी पंक्ति के अंतिम अक्षर 'सी' लिखने में मात्रा को सामान्यसा टानकर छोड़ दिया है। तीसरी और पाँचवी पंक्ति में सूत्रधार लिखने में दीर्घ ऊकार की मात्रा को लंबी न खींचकर 'स' के नीचे 'त' की भाँति लगा दिया है, जैसा कि कुछ प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों में भी देखा जाता है । इसके विरुद्ध प्रतिहार वाउक वाले शिलालेख में मात्रा के स्थान में 'ऊ' को ही संयोजित कर दिया है। तीसरी, चौथी
और पाँचवी पंक्ति में जो 'त्र' लिखा है उसे 'त' के नीचे । 'र' लिखकर संयुक्त कर दिया गया है।
"फलोदी गाँव में (जो मेड़ता रोड कहलाता है) ब्रह्माणी माता और पार्श्वनाथ का जैन मंदिर है। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि ब्रह्माणी माता का मंदिर सं० १०८८ में या उसके पहिले बना था। फिर मुसलमानों द्वारा तोड़े जाने पर जब-जब अवसर मिला, उसकी मरम्मत की गई। पहली मरम्मत सं०१४६५ में गहलोत दूढा ने की। उस समय गहलोतों का राज्य मेड़ते में था, जिनका नाम इस परगनें के और भी शिलालेखों में मिलता है। बाद में सं० १४५५, १५३५ और १५५१ में इसकी मरम्मत हुई। यह मंदिर पुराने शिल्प और पत्थर के काम का अच्छा नमूना है। इसका बहुत-सा भाग मुसलमानी राज्यों में मुसलमानों के मूर्ति तोड़नेवाले प्रबल हाथों से नष्ट हो चुका है। तो भी जितना कुछ बाकी है वह अब इस गिरी हुई दशा में भी अपनी झीनी और अनोखी कारीगरी की वारीकी और सुन्दरता का चमत्कार दिखाने के लिए बहुत है।"
यह लेख बड़े-बड़े अक्षरों की सात पंक्तियों में उत्कीर्ण है जिनमें क्रमशः ११, ११, १३, १३, १४, १३ और अंतिम पंक्ति में केवल दो अक्षर ही हैं। अंतिम पंक्ति में 'युजं ।' में संबंध देखते 'र' अक्षर छुट गया प्रतीत होता है. क्योंकि इसका पूरा शब्द 'जरायुज' होना चाहिए।
श्री गहलोतजी ने जो बातें लिखी हैं उससे अधिक मैं कुछ नहीं कह सकता। संभव है, उन्हें वहाँ कोई सं० १०८८ का लेख प्राप्त हुआ हो। मेरे पास जो ३-४ अन्य लेख हैं वे अशुद्ध हैं. अतः पढ़े नहीं जा सकते।
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सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री जिनप्रभसूरिजी अपने 'विविध तीर्थ कल्प' नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ में भी इस मंदिर का उल्लेख इस प्रकार करते हैं :
"अस्थि सवालक्ख देशे मेड़त्तय नगर समीवठिओ वीर भवणाइनाणाविह देवालयाभिरामो फलवदी नाम गामी। तत्थ फलवद्धि नामधिज्जाए देवीए भवणमुत्तुंग सिहरं चिह्न । सोअ रिद्धिसमिद्धोवि कालक्कमेण उव्वसपाओ संजाओ। तहावि तत्त्थ कित्ति आ वि वाणिअगा आगंतून अवसिंसु ।" अर्थात् सपादलक्ष ( सवा लख ) देश मेड़ता नगर के निकट वीर मंदिर* आदि देवालयों से सुंदर फलवद्धि ( फलोदी ) नाम का गाँव है। वहाँ फलवर्द्धि नाम की देवी का ऊंचे शिखरांवाला मंदिर प्रतिष्ठित है। वह गाँव ऋद्धि से समृद्ध होने पर भी कालक्रम से उजाड़ हो गया। फिर भी वहाँ कितने ही व्यापारी आकर बसे ।
इस अवतरण से यह स्पष्ट है कि यह मंदिर चौदहवीं शताब्दी तक तो फलवर्द्धिका देवी के नाम से ही पहिचाना जाता था, क्योंकि श्री जिनप्रभसूरिजी का समय चौदहवीं शताब्दी है। फलवद्विका देवी का नाम ब्रह्माणी माता कब से प्रसिद्ध हुआ ? या ब्रह्माणी का अपर नाम फलवद्धिका देवी है, यह बात विचारणीय है। दूसरा प्रश्न यह है कि ब्रह्माणी
माता का नाम फलवद्धिका देवी, फलौदी गाँव के नाम से हुआ या देवीजी के नाम से गाँव का नाम फलवद्धि ( फलौधी ) प्रसिद्ध हुआ? पार्श्वनाथ भगवान का जैन तीर्थ होने से पीछे से पारसनाथ फलोधी' प्रसिद्ध हो जाने के कारण नाम में भ्रम न हो, इस से माताजी का नाम 'ब्रह्माणी देवी' कहने लग गये हों, यह भी संभव है।
इस शिलालेख में मंदिर के निर्माण करने वाले सूत्र - धारों के वंश - पुरुषों के नामों के अतिरिक्त 'पुष्करणांक वारी' जो नगर का नाम आया है वह वर्तमान 'पुहकरण' का ही नाम है या दूसरा ? और अन्त में अण्डज, स्वेदज, उद्भिज और जरायुज जीवोत्पत्ति संस्थान का जो नाम आया है उसका क्या कारण है ? विद्वान लोग खुलासा करें।
इस लेख में संवत् या ऐतिहासिक घटना का उल्लेख नहीं है, फिर भी लिपि की दृष्टि से यह महत्व का है।
मैं लिख चुका हूँ कि मंदिर के समक्ष एक सुन्दर उत्तुंग तोरण गजराज की भाँति अवस्थित है। उस तोरण का टूटा हुआ विशाल पत्थर सामनेवाले तालाब के नाले में पड़ा हुआ है। व्यवस्थापकों को चाहिए कि वहाँ से उठाकर उसे यथास्थान लगवा दें अथवा संभालकर रख दें जिससे भग्नावशिष्ट प्राचीन शिल्प का नाश न हो।
* इससे वहाँ महावीर जिनालय की भी सत्ता मालूम होती है जो अभी नहीं है ।
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होनी चाहिए. संस्कृत उसका संस्कारित रूप है। संस्कृत भाषा तो व्याकरण के कारण बहुत कुछ नियमबद्ध तथा एक से रूप में रही पर प्राकृत तो जन-साधारण की बोलचाल की भाषा थी उसपर व्याकरण का बंधन लागू नहीं हो सकता था। इसलिये प्रकृति से ही देश-काल-भेद से उसमें परिवर्तन होता ही रहा, और वह परिवर्तन इतना अधिक हो गया कि संस्कृत वैयाकरणिक भी बहुत से जनप्रचलित शब्दों की व्युत्पत्ति ठीक से नहीं कर पाए । इसलिये उन्होंने उन शब्दों को देशी और अपभ्रंश के नाम से अलग वर्ग में रखकर ही छुट्टो ले ली। ऐसे शब्द हजारों हैं जिनमें से कुछ का संग्रह आचार्य हेमचंद्र ने 'देशी नाम माला' में किया है पर उसमें नहीं आए हुए तथा साहित्य में व्यवहृत और भी हजारों देशी शब्द मिलते हैं जिनके संग्रह का प्रयत्न अभी तक नहीं हुआ. जिसका होना नितांत आवश्यक है। इस महत्वपूर्ण और उपयोगी कार्य में सबसे अधिक सहायक जैन साहित्य एवं लोकभाषाओं में निर्मित साहित्य ही हो सकता है।
'ढोलामारू रा दूहा' के
अर्थसंशोधन पर विचार
शब्द शास्त्र अनंत है। एक-एक शब्द के अनेक पर्याय एवं रूप मिलते हैं और एक-एक शब्द के अनेक अर्थ हैं। देश और काल के भेद से शब्द रूपों में इतना अधिक परिवर्तन आ जाता है कि मूल शब्द की खोज का काम बड़ा विकट हो जाता है। एक ही शब्द का अर्थ किसी एक प्रदेश में कुछ किया जाता है तो अन्य प्रदेश में उससे भिन्न-सर्वथा विपरीत ही । वैयाकरणों ने भी एक शब्द की व्युत्पत्ति कई प्रकार से बतलाई है और उससे उसके अर्थ में बहुत भिन्नता आ जाती है। इसलिये सही अर्थ को प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई होती है। बहुत से प्राचीन शब्द भुला दिए जाते हैं कुछ नए गढ़ दिए जाते हैं, कुछ का अर्थ विकृत हो जाता है अर्थात् दीर्घकाल के बाद शब्दों का रूप ही परिवर्तित हो जाता है अतः अर्थानुसंधान में बड़े-बड़े विद्वान भी पूर्ण सफल नहीं हो पाते।
प्राचीनकाल से व्याकरण तथा कोशग्रथ समय-समय पर निर्मित होते रहे हैं जिनसे अर्थानुसंधान में पर्याप्त साहाय्य मिला है पर अधिकांश व्याकरण कोश संस्कृत के विद्वानों ने ही बनाए. इसलिये प्राकृत, अपभ्रश और लोकभाषाओं में प्रचलित हजारों शब्द उनमें प्रविष्ट न हो सके और बहुत से शब्दों की व्युत्पत्तियाँ भ्रांत रूप में पाई जाती हैं। प्रचीन काल में समस्त ग्रंथों की प्राप्ति सुलभ नहीं थी। बड़े-बड़े संग्रहालय भी इतने नहीं थे और जिज्ञासुओं की पहुँच भी सर्वत्र संभव नहीं थी। ऐसी स्थिति में हमारे व्याकरण और कोशकार जितना भी कर पाए. वह भी बहुत है और हमारे लिये वह अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है पर आज के युग में उन कोशों या नाममालाओं से ही काम नहीं चल सकता । मुद्रणयुग में हजारों ग्रंथ प्रकाशित होकर सर्वसुलभ हो गए हैं। सारा विश्व यातायात के साधनों की सुलभता से एक दूसरे से संबद्ध हो गया है।
उत्तर भारत की सबसे प्राचीन भाषा कौन सी थी, यह तो नहीं कहा जा सकता पर उपलब्ध साहित्य में 'वेद' ही सबसे प्राचीन हैं और उनकी भाषा संस्कृत है, इसलिये विद्वानों की राय है कि संस्कृत से प्राकृत का विकास हुआ है पर प्राकृत एवं संस्कृत दोनों शब्दों पर विचारने पर यह सहज ही में पता चल जाता है कि प्राकृत ही मूल भाषा
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हजारों मील दूर पड़े ग्रंथों को भी हम माइक्रोफिल्म, फोटोस्टेट आदि के द्वारा सहज प्राप्त कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में वैज्ञानिक ढंग से संपादित विशाल कोशन'थों का निर्माण होना परमावश्यक है।
भारतवर्ष में प्रधानतया तीन संस्कृतियों का विशेष प्रभाव रहा है-वैदिक संस्कृति, श्रमण संस्कृति और द्रविड़ संस्कृति । इनमें से द्रविड़ संस्कृति का प्रसार तो दक्षिण भारत में रहा और इन द्रविड़ों की अपनी स्वतंत्र भाषाएँ हैं। यों तो श्रमण व वैदिक संस्कृति का उधर भी प्रचार रहा ही है पर उत्तर भारत तो इन दोनों संस्कृतियों की भूमि रहा है। विदेशों के संपर्क से उनकी संस्कृति का भी भारत पर प्रभाव पड़ा । उनके हजारों शब्द और अनेक रीति-रिवाज भारतीय जनजीवन में घुल-मिल से गए। इसलिये आज के युग में कोशकार का दायित्व वहुत बढ़ जाता है। उसका अध्ययन अत्यंत विशाल
और विश्वसाहित्य का विशाल भंडार उसके लिये सुलभ होना चाहिए। आयु बहुत सीमित और यह कार्य विशाल होने से चिरकालापेक्षित है। किसी एक ही व्यक्ति का अध्ययन और चिंतन एकांगी या सीमित ही हो सकता है अतः कई विद्वानों का सामूहिक प्रयत्न वर्षों तक चालू रहे तभी इच्छित फल प्राप्त हो सकता है।
प्राप्य हैं । वीकानेर के ठाकुर रामसिंह, स्वर्गीय सूर्यकरण पारीक और नरोत्तमदास स्वामी विदत्रयी का ध्यान उस ढोलामारू रा दूहा के महत्व की ओर गया और उन्होंने सन् १९३१ में इसका सुसंपादित संस्करण नागरीप्रचारिणी सभा से प्रकाशित कराया। जैसा कि डा० माताप्रसाद गुप्त ने लिखा है-"वस्तुतः इतने परिश्रम और योग्यता के साथ हिन्दी की कम ही रचनाओं का संपादन और अर्थ-स्पष्टीकरण हुआ है।" इसके कतिपय दोहों के संबंध में गुप्त जी ने 'संशोधन विषयक कुछ सुझाव नामक लेख ना० प्र० पत्रिका वर्ष ६५ अंक १ में प्रकाशित किया है। यद्यपि उन्होंने इसके लिये काफी श्रम किया है. पर संशोधन की जगह बहुत से शब्दों के अर्थ भ्रमोत्पादक हो गए हैं इसलिये यहाँ उनमें से कुछ शब्दों के अर्थों पर हम विचार करेंगे।
स कुछ
राजस्थान में प्राचीन साहित्य अधिक सुरक्षित रहा है। विशेषतः जैन मंडारों में आदिकालीन राजस्थानी रचनाओं की अनेकों प्राचीन हस्तलिखित प्रतियाँ मिलती है। प्राचीन लोकगाथाओं या कथाओं पर जैन विद्वानों ने बहुत-सी रचनाएं की हैं । 'ढोलामारू रा दूहा' प्राचीन राजस्थानी लोकगाथा है जो पहले दोहों में किसी जैनेतर कवि ने गुंफित की थी। जैन कवि कुशललाम ने अपनी 'ढोला मारू की चौपाई' में 'दूहा घणा पुराणा अछइ चौपई बंध कियो मैं पछई. द्वारा उन प्राचीन दोहों का उल्लेख किया है। उन प्राचीन दोहों की पचासों हस्तलिखित प्रतियाँ राजस्थान के जैनेतर ग्रथ-संग्रहालयों में
१. जिम जिम मन अमले किअइ तार चढती जाइ।
तिम तिम मारवणी-तणइ तन तरणापउ थाइ ।।१२.
डा० गुप्त ने 'तार चढंती जाई' के अर्थ के संबंध में लिखा है कि "चढती" क्रिया स्त्रीलिंग की है। अर्थ कदाचित् होना चाहिए तारकमाला चढ़ती जाती थी' अर्थात् उसके नक्षत्र अपने उच्च स्थानों पर होते जाते थे", पर वास्तव में 'तार' का अर्थ यहाँ 'तारकमाला' नहीं. तरंग है। राजस्थान में तार इसी अर्थ में आज भी प्रयुक्त है। इससे पूर्व अमले कियइ' शब्द से एसका सीधा संबन्ध है। यहाँ 'अमल' शब्द अफीम के लिये प्रयुक्त हुआ है-अधिकार के लिये नहीं। इसी ग्रंथ के ६२८ वें दोहे में अमल का अर्थ अफीम ही किया गया है और वही अर्थ यहाँ भी होना चाहिए । सामंती युग में राजस्थान में अमल अर्थात् अफीम का प्रचार बहुत ही अधिक था। युद्धादि के समय अफीम गाला जाता था और पिया जाता था। राजपूतों में तो विशिष्ट मनुहार इसी की होती थी। अतः इस पंक्ति का अर्थ इस प्रकार का होना चाहिए-अमल
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का नशा करने पर ज्यों ज्यों मन में तार-तरंगें चढ़ती जाती हैं। यहाँ तार शब्द का अर्थ तरंग या लहरें ही है। आज भी 'अमल रै तार में बकै है' इत्यादि कहा जाता है। तार' या तरंगें स्त्रीलिंग 'चढ़ती' के साथ प्रयुक्त होना यहाँ उपयुक्त ही है। २. बाबहिया तर' पंखिया तइँ किउँ दीन्ही लोर ।
मई जाण्यउ पिउ आवियउ ससहर चंद चकोर । ३२
यहाँ 'तर' का अर्थ 'गहरे रंग का पर आपत्ति करते हुए. पपीहे का रंग लाल होता है और ४५१वें दोहे में 'रत्तड़ा बिबीह एवं ३४वें दोहे में 'रत-पंखिया' होने के कारण यहाँ भी तर की जगह पाठ रत और अर्थ रत्त-लाल होना चाहिए, ऐसी संभावना की है। पर तर शब्द गहरे रंग के अर्थ में आज भी प्रयुक्त है. भले ही वह हरा रंग न होकर लाल रंग आदि हो. जैसे गुलाबी रंग में हल्का गुलाबी और तर गुलाबी । वैसे 'तर' शब्द 'तरु' के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है और तब इसका अर्थ होगा 'तर-पक्षी' अर्थात् पेड़ का पक्षी।
गृहस्थी जमाई है और मुझे उसने मन से विस्मृत कर छोड़ दिया है" बतलाया है। पर यह अर्थ सर्वथा गलत
और हास्यास्पद है। ढोला नरवर का अधिवासी था, अतः दिल्ली में घर करने का अर्थ नहीं जंचता। 'ढीली' का अर्थ 'शिथिल', सर्वथा ठीक है और हर शब्द का प्रयोग राजस्थान । में 'प्रेमस्मृति' के लिये प्रसिद्ध है अतः 'ढोलामारू रा दूहा' के संपादकों ने प्रेम को शिथिल कर दिया जो अर्थ दिया है वही सही है। गुप्त जी ने 'ढीली' स्त्रीलिंग सकर्मक क्रिया के 'स्मर' पुलिंग कर्म के साथ लगने में आपत्ति उठाई है। पर हर' देशी शब्द है और उसका अर्थ 'प्रेम-स्मृति' या 'ओलू होता है जिसका स्त्रीलिंग ढीली के साथ भी प्रयोग आपत्तिजनक नहीं है।
५. ढोला 'ढीली हर मुझ' दीठउ घणे जणेह ।
चोल-बरन्ने कप्पड़े सावर धन अणेह ||१३९
३. ढाढी गुणी बोलाविया राका तिणही ताल ।
नरवर गढ ढोलइ-कन्हइ जावउ 'वागरवाल' ||१०५
इस दोहे का अर्थ 'ढोलामारू र दूहा' के संपादकों ने 'मेरी प्रेम स्मृति को शिथिल कर' किया है। किंतु गुप्तजी ने न जाने कहाँ से 'मुझ' का मुझे कर दिया
और उसका अर्थ 'मेरी' की जगह 'मुझको कर दिया है। दोहा नं० १३८ की भाँति 'ढोली हर' का अर्थ 'दिल्ली में घर' न कर यहाँ 'ढोली हर' स्पष्ट ही ढीली धरा-दिल्ली प्रदेश है लिखा है। उपर्युक्त दोहे की भाँति इस दोहे का अर्थ भी संपादकों ने ठीक किया था पर गुप्तजी ने गलत अर्थकल्पना की है।
इस दोहे की संख्या १०६ लिखकर गुप्त जी ने आलोचना की है पर दोहा नं० १०५ ही है। अतः मुद्रण दोष होना संभव है। इसमें गुप्त जी ने 'वागरवाल' का अर्थ वागड़' प्रदेश का निवासी बतलाया है। पर वागड़ का प्रयोग कहीं भी राजस्थानी में वागर नहीं मिलता। ४. ढोला 'ढीली हर किया मुक्या मनह विसारि ।
संदेसउ इन पाठवइ जीवां किसइअधारि ।।१३८
"यहाँ 'ढीली' और 'हर' स्पष्ट ही क्रमशः 'दिल्ली' और सं० 'गृह' है" लिखकर गुप्तजी ने प्रथम चरण का आशय "ढोला ने दिल्ली में घर किया है-विवाह कर
६. बीजुलियाँ 'जालउमिल्याँ' ढोला हूँ न सहेसि । जउ आसादि न आवियउ सावण चमकि मरेसि ।।१५१
गुप्तजी ने 'जालउ मिल्याँ' को 'जाल उमिल्यो' करके उमिल्ल < उन्मील=प्रकाशमान, उल्लसित अर्थ दिया है पर हमें उसकी कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती ! जालउ शब्द ज्वाला के लिये प्रयुक्त हो सकता है और तब उसका अर्थ होगा - "यदि तुम आषाढ़ में न आए
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तो विद्युत् ज्वाला के प्रकाशमान होने पर हे ढोला. वह मैं नहीं सह सकूगी और श्रावण में ( उस बिजली की चमक से) चौंक कर मर जाऊँगी।"
जोडणीकोश के पृ० ८९० पर महेराण (डि० महेराण) सं० महार्णव-समुद्र लिखा है।
९. अति घण ऊनिमि आवियउ 'झाझी रिठि' झड़वाइ ।
बग ही भला त बप्पड़ा धरणि न मुक्का पाइ ।। २५७
७. वीजुलियाँ 'पारोकियाँ नीठ ज नोगमियाँह ।
अजइ न सज्जन बाहुड़े वलि पाछीवलियाँह ।। १५३
यहाँ गुप्तजी ने 'पारोकियों' का अर्थ 'परकीया न.यिकाओं की भाँति' को असंभव बतल ते हुए 'परोक्ष हुई और कठिनता से गई लिखा है। पर परोक्ष होना
और निर्गमन करना दोनों एक ही अर्थ के द्योतक हैं जिसे स्वीकार करने पर दोहे में पुनरुक्तिदोष आ जाता है पर संपादकों का उपर्युक्त अर्थ आलंकारिक होने के साथ-साथ राजस्थानी भाषा-पद्धति से भी विपरीत नहीं
इस दोहे के दूसरे पद का अर्थ 'अत्यंत शीत झड़ी की वायु चल रही है' लिखा हुआ है, जिसकी व्युत्पत्ति पर आपत्ति करते हुए गुप्तजी ने 'झाझी' [ झंझ-क्लेश ] = क्लेशपूर्ण तथा 'रिठि' रिष्टि= तलवार] से "झड़ीवाली वायु कष्टप्रद तलवार [ जैसी ] हो रही है" लिखा है। पर झाझी शब्द गुजरात और राजस्थान में पर्याप्त प्रसिद्ध है। इसका अर्थ अत्यंत व बहुत के रूप में व्यवहृत होता है। जोडणी कोश में झाझं का अर्थ ज्यादा व पुष्कल लिखा है यही अर्थ गुजराती-इंगलिश डिक्शनरी में ( मोर, ग्रेटर ) किया गया है। एवं 'रिठि' का अर्थ अधिक शीत का पर्यायवाची है। अधिक ठंड पड़ने पर कहते हैं—'सी कई पडै रिठ्ठ पड़े हैं। अतः संपादकों का अर्थ . ठीक लगता है।
जाता।
८. मन सींचाणउ जइ हुवइ. पाँखाँ हुवइ त प्राण ।
जाइ मिलीजइ साजणाँ डोहीजइ 'महिराँण || २११
इस दोहे के 'महिराँण' शब्द का अर्थ महारण्य और उसकी व्युत्पत्ति संस्कृत महार्णव से संपादकों ने बतलाई है। पर गुप्तजी ने दोनों को संभव न मानते हुए "वह तो मही+राण है. यह राण है< प्रा० रण< सं० अरण्य" लिखा है, पर यहाँ पाठ के 'महि' को 'मही' कर दिया है जिसका कोई कारण नहीं बतलाया। आगे फिर अर्थ अरण्य कर दिया है जो संपादकों ने लिखा ही था फिर उसे संभव नहीं लिखना कहाँ तक ठीक है? मही+राण का अर्थ स्पष्ट नहीं किया।
१०. वीछुड़तां ई सज्जणाँ राता किया रतन्न ।
वाराँ विहुँ चिहुँ नांखीया आँसू मोती-व्रन्न ।। ३६९
इसके तृतीय चरण का अर्थ संपदकों ने 'दिन रात लगातार गिराए' किया था। गुप्तजी ने दोनों दिन मैंने चारों ( ओर ) गिराये किया है। यहाँ 'दिन' और 'ओर' शब्द अपनी तरफ से लगाने की आवश्यकता नहीं थी। यदि वाराँ शब्द का अर्थ दिन' और ओर किया हो तो सर्वथा असंगत है क्योंकि दो दिन चारों ओर आँसू गिराने का कोई अर्थ नहीं। हमारी राय में यहाँ वारों का अर्थ कुएं से पानी निकालने का 'वारा होना चाहिए जो कि राजस्थान में पर्याप्त प्रसिद्ध है। यह झोलीनुमा बड़ा-सा डोल होता है । मुहावरा भी प्रसिद्ध है कि आख्यांसु आँसू रा वारा रा वारा नाँदै है अतः इसका अर्थ होना चाहिए-नेत्र-कूप से मोती-वरणे अश्रुओं के दो चार वारे गिराए ।
महिरोंण राजस्थानी और गुजराती साहित्य में अति प्रसिद्ध शब्द है और उसे कोशकारों और विद्वानों ने महार्णव से ही व्युत्पन्न माना है। प्राचीन फागुसंग्रह
पृ० २७६ पर महिराण पु० महासागर ३२-९ [सं० महार्णव 'सर० गुज० महेराण, महेरामण ] लिखा है तथा गुजराती
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११. सज्जणियाँ वउलाइ का मंदिर बइठी आइ ।
मंदिर कालउ नागजिउँ 'हेलउ दे दे खाइ' ।। ३७१
होगा-भरे हुए कटोरे के उलट जाने की तरह नेत्र (उभर कर आँसू ) छलक.ने लगे।
१३. बर मेहाँ पवनाहँ ज्यउँ करह उडंदउ जाइ ।
पूगल जाइ प्रगडउ करइ मारवणि दाइ ॥ ३८७
'हेलउ दे दें' का अर्थ संपदकों ने 'पुकार पुकार कर' किया था पर गुप्तजी, "हेला का अर्थ अनादर, उपेक्षा होता है। इसलिए 'हेलउ दे दें' का अर्थ होगा अनादर या उपेक्षा करते हुए" लिखते हैं। पर महल क्या अनादर-उपेक्षा करेगा? और काला नाग भी, जिसकी यहाँ उपमा है. उपेक्षा से नहीं काटता, क्रोध से काटता है। अतः यहाँ हेला शब्द का अर्थ पुकारना ही होगा जो राजस्थान में अत्यधिक प्रयुक्त होता है। यहाँ कवि का अभिप्राय है-प्रियतमा के चले जाने पर सूने महल की प्रतिध्वनि का गुंजार ऐसा लगता है मानो काला नाग पुकार-पुकार कर खाने को उद्यत हो।
न मालूम क्यों गुप्तजी ने इस दोहे के 'उडदउ' शब्द को 'उदंडउ' लिखकर एक गंभीर भूल की है। संपादकों ने जैसा कि उन्होंने लिखा है 'उदंडां' का अर्थ 'उड़ता हुआ किया है पर मूल पाठ में 'उडंदउ' है और उसका अर्थ उड़ता हुआ करना सर्वथा उपयुक्त ही है। गुप्तजी ने भ्रांतिवश पाठ 'उदंड' को "किंतु यह प्रगट ही उद्दड है". बतलाया है। 'उडतउ' या 'उडंदउ' राजस्थानी उच्चारण का भेद है-करंत करंदा, लहंता लहंदा आदि उच्चारण उत्तर राजस्थानी और पंजाब में पर्याप्त प्रचलित हैं।
१२. सज्जणिया ववलाइ कइ गउखे चढी लहक्क ।
भरिया नयण कटोर ज्यउँ, मुँधा हुई 'डहक्क' ॥३७२
१४. करहा इण 'कुलि गाँमडइकिहाँ स नागरवेलि ।
करि कइराँ' ही पारणउ अइ दिन यू ही ठेलि ।। ४३०
यहाँ संपादकों ने 'कुलि गाँमड़ई का अर्थ छोटा-सा गाँव किया है। राजस्थानी में कहावत 'कुल गाँव में इरंडियो ई रूख' (सं० निरस्तपादपेदेशे एरण्डोपिद्र मायते ) प्रसिद्ध हैं। इसमें छोटे से गाँव से ही राजस्थानी कहावत का अभिप्राय है। गुप्तजी ने कुलिगाम < प्रा० कुडयगाम < सं० कुटजग्राम-झोपड़ियों का गाँव, बतलाया है. यह व्युत्पत्ति विचारणीय है। दोनों का आशय एक हो है।
इस दोहे के 'डहक्क' शब्द का अर्थ संपादकों ने बिलखना किया है, पर : गुप्तजी उसे अनुमानिक अर्थ बतलाते हैं, किंतु बात ऐसी नहीं है। प्रामाणिक हिंदी कोश में भी डहकने का अर्थ बिलखना, विलाप करना, दहाड़ मारना पाया जाता है और मुँधा हुई डहक्क पूरे वाक्य पर विचार करने से गुप्तजी ने जो हुई डहक्क का अर्थ 'दग्ध हुई किया है वह समीचीन नहीं लगता। दोहा सं० ४७६ में भी डहक शब्द आता है. वहाँ 'दग्ध' अर्थ की किसी तरह संगति नहीं बैठती। संभव है इसीलिये उपयुक्त दोहे की आलोचना करते हुए आगे गुप्तजी ने 'डहक्क' को 'हडक्क' लिखकर उसकी कोई आलोचना नहीं की है। हमारे ख्याल से मुंधा शब्द का अर्थ यहाँ मुग्धा न होकर ऊंधा ( उलटा) होगा। राजस्थान में आज भी यह शब्द इसी अर्थ में पर्याप्त प्रचलित है। डहकने का अर्थ गुजरातो जोडणी कोश में उभरना या छलकना किया गया है। इन दोनों शब्दों के इन अर्थों के प्रकाश में इस पंक्ति का अर्थ
तीसरे चरण में कह" शब्द के करीर अर्थ पर आपत्ति करते हुए "कहर (सं० कदर नाम का वृक्ष) जिसे श्वेत खदिर भी कहा जाता है तथा सं० करीर, प्रा० करील ही हो गया है 'कहर' नहीं" लिखा है। पर राजस्थान में कैर का वृक्ष बहुतायत से होता है। कवि बद्रीदान जी ने 'कैरसतसई बनाई है जिसमें ७०० दोहे कैर वृक्ष पर लिखे हैं। प्रा० कयर पुं० [क्रकर ] १. वृक्ष विशेष करीर, करील : (सं० २५६)। २. करीर
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का फल ( पभा० १४ ) - पाइयसद्द महाण्णवो', पृ० २८४ । कयर कइर में कोई अंतर नहीं व्रजभूमि में भी कैर ( करीर ) वृक्ष होता है यथा-"कोटिन हूँ कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारों" ( रसखान ) । अतः खदीर वृक्ष गुप्तजी की कल्पना मात्र है। इसी पाइयसद्द महाण्णवों के पृ० ३३७ में सहर को खदिर वृक्ष बतलाया है जो कहर वृक्ष से अलग है।
१५. सुणि ढोला करहउ कहइ, मो मनि मोटी आस । "करों" कंपल नवि चरू, लंघण पड़ई पचास ॥ ४३१ इस दोहे के अर्थ में भी गुप्तजी ने कइर को कदर वृक्ष बतलाते हुए उपर्युक्त दोहे के विवेचन में "करीर में ऐसी कँपलें होती भी नहीं जिन्हें ऊँट चर सकें" लिखकर नई आपत्ति उठाई है पर कैर वृक्ष में कू पलें, फूल, 'वाटा' तथा 'कैर', फल आदि सभी होते हैं। ऊँट कैर को खाता है। राजस्थान में कहावत प्रसिद्ध है कि 'ऊँट छोडे आक, बकरी छोड़े ढाक' |
१६. ढोलह करइ विमासियउ देखे बीस वसाल
ऊँचे थलइ ज एकलो. 'वच्चालइ' एवाल ॥ ४३५ यहाँ 'वचाल' शब्द का अर्थ संपादकों ने 'बीच में किया है। राजस्थानी में आज भी इसके 'विचाले' रूप का प्रयोग इसी अर्थ में पर्याप्त प्रचलित है। गुप्तजी इसे वच, धातु से वच्चालइ = 'कहा' लिखते हैं, पर यह कष्ट कल्पना और अव्यावहारिक है। अब तक कहीं यह शब्द कहा' के अर्थ में प्रयुक्त नहीं देखा गया है।
१७. दुरजण केरा बोलड़ा मत 'पाँतरजउ' कोय । अगती हंती कलइ खगझी साच न होय ॥ ४४६
इस दोहे के 'पतिरजउ' का अथ" "धोखा साना किया गया है जो 'प्रतारणा से व्युत्पन्न होना संभव है। गुप्तजी "प्रा० पत्तिज्ज < सं० प्रति + इ ( विश्वास करना, प्रतीति करना) से बना हुआ ज्ञात होता है" लिखते हैं।
पर
यह कष्ट कल्पन' है। धोखा न खाना या प्रतीति न करना दोनों का फलितार्थ तो एक ही है ।
१८. आदीता हूँ ऊजलो, मारवणी मुख व्रन्न । झीणां कप्पड़ पहिरणइ 'जॉणि सह' सोवन्न ॥४६३
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यहाँ 'झखड़' का अर्थ संपादकों ने झलक रहा है किया है पर गुप्तजी ने "प्रा० झख का अर्थ 'संतप्त होना है अतः 'जानि झसइ सोवन्न का अर्थ हांगा 'मानो सोना तप रहा हो लिखा है। पर झाँखना क्रिया प्रसिद्ध है और जैसे झरोखे में से झाँकते हैं उसी प्रकार झीने वस्त्रों में से स्वर्णवर्णी देह झाँकती है या झलकती है, अर्थ समीचीन है। प्रामाणिक हिंदी कोश आदि से मी आड़ में से झुककर देखने का अर्थ समर्थित है। झीने वस्त्रों में से 'मानो सोना तप रहा हो' लिखना कोई अथ नहीं रखता।
१९. दोहा ४६४ में 'झाँस' शब्द आया है जिसके लिये गुप्तजी ने दोहा सं० ४६३ का विवेचन देखने की सूचना की है अतः यहाँ भी उपर्युक्त दोहे का विवेचन देखना चाहिए।
२०. डींभू लंक. मरालि गय, पिक-सर एही वाँणि ।
ढोला यही मारुई, जेह 'हंझ निर्वाणि ॥ ४६०
इस दोहे में 'हंझ निवणि' का अर्थ संपादकों ने 'सरोवर में स्थित हंस किया है जिसपर आपत्ति करते हुए गुप्तजी हंझ ८ कन्या व निर्वाण'परम सुख' से 'निर्वाण कन्या' अथ होना चाहिए लिखते हैं, पर हमें यह अर्थ असंगत लगता है। निर्वाण मोक्ष को कहते हैं राजस्थानी में निर्वाण नीचे स्थान के लिये प्रयुक्त होता है। 'नीर निवणे-धरम ठिकाणै' कहावत प्रचलित है कविवर समयसुंदर जिनसिंह सूरि चौमासा गीत में भाद्रव मास के वर्णन में लिखते हैं 'भलइ आयउ भाइबउ' नीर भरया नीवाणो जी यहाँ निवाण का अथ
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जलाशय स्पष्ट है। अतः संपादकों का अथ अधिक ठीक लगता है।
यह शब्द इसी अर्थ में राजस्थान में पर्याप्त प्रसिद्ध है। इसी ग्रथ के पृ० ५२९ पर 'प्रेयसी से रंग करो न।' एवं पृष्ठ ६१५ (शब्दकोश) पर 'उपभोग करो न!' स्पष्ट लिखा है। गुप्तजी ने 'रंग कर। न' शब्द को सर्वथा कल्पित बतलाया है पर राजस्थान के लोकगीत आदि में . रंग माणना शब्द 'भोगने के अर्थ में सर्वविदित है।
२१. उरि गयवर नइ पग भमर, हालंती गय हंझ'। __ मारू पारेवाह ज्यू, अंसी रत्ता मंझ ॥ ४७४
इस दोहे में हालंतो गय हंझ' के अर्थ 'हंस की चाल से चलती हैं पर आपत्ति दर्शाते हुए गुप्तजी 'गय हंझ' का अर्थ 'गजकन्या होना चाहिए' बतलाते हैं पर इसके लिये उपर्युक्त दोहा सं०४६० देखना चाहिए ।
२४. दंत जिसा दाड़म-'कुली' सीस फूल सिणगार ।
काने कुंडल मलहलइ कंठ टैंकावल हार ।। ४८०
२२. कसतूरी कडि केवड़ो, 'मसकत' जाय महक ।
मारू दाड़म फूल जिम, दिन दिन नवी डहक्क ॥४७६
यहाँ संपादकों के किए हुए 'महक उड़ती जा रही हो अर्थ को निराधार बतलाते हुए गुप्त जी ने जाय को जाती-पुष्प
और मसकत शब्द के लिये"किसी विदेशी पुष्प का नाम लगता है. जो कभी 'मसकत' नाम के नगर से इस देश में आया हुआ होगा" की निराधार कल्पना की है। जाय का अर्थ जाही पुष्प होना असंभव नहीं पर यहाँ 'मसकत' शब्द मस्तक का विपर्यय लगता है क्योंकि राजस्थानी बोलचाल में ऐसा विपर्यय व्यवहृत है। अतः 'उसके मस्तक से उपर्युक्त फूलों की सौरभ उड़ रही थी' के भाव से लिखा जाना संभव है।
गुप्तजी ने लिखा है कि "कुली का अर्थ कली किया गया है ( पृ० १५८)" पर वास्तव में कली' अर्थ किया ही नहीं, कुली का अर्थ 'दाना' किया है जिसे गुप्तज. ने दाडिम बीज लिखा है अतः सपादकों की कोई गलती नहीं है। गुप्तजी ने न मालूम कहाँ से कली शब्द लिखकर आलोचना की है। आगे वे 'कुली' का अर्थ 'कुल का है' करते हैं, अतः चरण के पूर्वार्द्ध का अर्थ होगा, 'उसके दाँत मानों दाडिमकुल के हैं' पर दाडिमकुल का क्या आशय है ? दाडिम कुली से जो उपमा दी जाती है वह दाडिम के दानों ( बीजों) से ही संबंधित है।
२५. डेडरिया खिण-मइ हुवइ. घण बूठइ'सरजित्त' ।।५४८
२३. ढोला. सायधण 'माँणने झीणी पाँसलियाँह ।
कइ लामे हर पूजियाँ. हेमाले गलियाँह ।। ४७७
इस दोहे के 'माँणने' शब्द के अर्थ पर आपत्ति करते हुए गुप्तजी ने लिखा है कि संपादकों ने 'माणने' का अर्थ बड़ी किया है पर वास्तव में उन्होंने 'माणने' का अर्थ बड़ी नहीं किया है। उन्होंने तो 'झीणी पाँसलियाँह का अर्थ 'पंसुलियाँ बड़ी सुकुमार है'. किया है और माँणने का अर्थ रंग (प्रेम) करने के लिये किया है।
यहाँ 'सरजित' शब्द का अर्थ संजीवित किया गया है, किन्तु गुप्तजी लिखते हैं-"किंतु यह स्पष्ट ही < सं० सर्जित ( = बनाया हुआ) है।'' यह वास्तव में गलत है। राजस्थान में संजीवन को सरजीवण कहते हैं जिसकी भूतकालिक क्रिया सरजित्त का यहां प्रयोग हुआ है। मेंढक के लिये तो यह प्रसिद्ध ही है कि यदि उसके शरीर को चूर्ण करके बरसाती पानी में डाल दिया जाय तो वह पुनर्जीवित हो उठता है। वर्षा के अभाव में जो मर जाते हैं वे वर्षा होते ही संजीवित हो जाते हैं। मेंढक बनाए या सर्जित किए नहीं जाते. बल्कि वर्षा में अपने आप संजीवित हो उठते हैं ।
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२६. जिण भुइ पन्नग पीयणा 'कयर'-कंटाला रूख ॥६६१
यहाँ कयर' शब्द का अर्थ गुप्तजी सं० कदर क्तलाते हैं। इसका अर्थ कैर ही होता है। दोहा सं० ४३० में इसका विवेचन किया जा चुका है।
यहाँ कतिपय दोहों के अर्थसंशोधन पर ही प्रकाश डाला गया है। इसके अतिरिक्त और भी उनके किए हुए बहुत से शब्दों के अर्थ विचारणीय हैं। तीस वर्ष पूर्व स्वामी जी आदि ने अनुसंधान का जितना सुंदर प्रयत्न किया था वह अवश्य ही सराहनीय है। गुप्तजी जैसे विद्वान ने अर्थ संशोधन करते हुये कितनी अधिक भूलें को हैं यह उपर्युक्त विचारणा से पाठकगण स्वयं समझ लेंगे।
होते हैं, यह जान लेना भी अत्यंत आवश्यक होता है क्योंकि वहीं उसके अर्थ की परंपरा सही रूप में प्राप्त हो सकती है। केवल एक ग्रथ में ही नहीं, अनेकों ग्रंथों व बोलचाल में भी वे शब्द व्यवहृत होते हैं इसलिये कहाँ और किस अर्थ में कौन-सा शब्द प्रयुक्त हुआ है. इसे ध्यान में रखते हुए अर्थसंगति ठीक से बैठाई जा सकती है। उपर्युक्त विचारणा से विद्वान एवं पाठकगण इस बात को अच्छी तरह अनुभव कर सकेंगे कि 'ढोला मारू रा दूहा' में प्रयुक्त शब्द आज भी राजस्थान में पर्याप्त प्रसिद्ध
और व्यवहत हैं। गुप्त जी के किये हुए कई अर्थ तो बड़े विचित्र से लगते हैं। अस्तु, अन्य विद्वान भी इस संबंध में विशेष प्रकाश डालेंगे, ऐसी आशा है। अभी बहुत से शब्दों के अर्थ विचारणीय हैं।
शब्दों का सही अर्थ जानने के लिये जो रचना जिस प्रांत की हो, उस प्रांत में वे शब्द किस अर्थ में प्रयुक्त
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संख्या न्यूनाधिक होने पर भी लोकप्रियता के कारण "चौरासी" ही बताई गई हैं। इस निबन्ध में हमें चौरासी संख्या वाली जितनी बातें ज्ञात हुई हैं. बतलाने का प्रयत्न करते हैं। सर्वप्रथम २५०० वर्ष प्राचीन जैन समवायांग सूत्र के ८४ बें समवाय में इस संख्या के विषय में जितनी बातें मिलती हैं, उनका निर्देश, मूल पाठ के साथ किया जाता है:
चौरासी संख्यात्मक बातें
भारतीय साहित्य में कई-कई संख्याओं का अत्यधिक प्रचार देखने में आता है। कई संख्याओं की ओर जनता की विशेष अभिरुचि पाई जाती है, जिस प्रकार ९, ११, २१. ८४.१०८ इत्यादि। जब किसी वस्तु के भेद, प्रभेद के नाम निर्देश किये जाते हैं तो कुछ हीनाधिक होते हुए भी खींच-तानकर उनकी संख्या को अपनी अभीष्ट और लोकप्रिय निकटवर्ती किसी संख्या तक पहुँचाने का प्रयत्न किया जाता है। जिस प्रकार किसी वस्तु को संख्या १९, २० होती हो तो उसे २१ कर दिया जाता है। क्योंकि १९. २० से २१ की संख्या को लोग अधिक अच्छी मानते हैं।
"चउरासीइ निरयवासंसहस्सा, पन्नता। उसमेणं अरहा कोसलिए चउरासीइ पुव्व सया-सहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध वुद्धे जाव प्पहीणे. एवं भरहो वाहुबलो वंभी सुन्दरी। सिज्जंसेण अरहा चउरासीइ वास सय सहस्साई सव्वाउयं पालयित्ता सिद्धे जाव प्पहीणे । तिविट्ठण वासुदेवे चउरासीई वास सय-सहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता अप्पइट्ठाणे नरइ नेरइयत्ताए उववन्ने। सक्कस्सणं देविंदस्स देवरन्नो चउरासीइ सामणिय साहस्सीओ पं० । सव्वेविणं वाहिरया मंदरा चउरासीइं२ जोयण सहस्साई उड्ड उच्चतेणं पं०, सव्वेविणिं अंजिण पव्वया चउरासीइं २ जोयण सहस्साई उड्ड उच्चतेणं पं०, हरिवास रम्मय वासियाणं जीवाणं धणुपिट्ठा चउरासी जोयण सहस्साइ सोलस जोयणाइ चत्तारिय भागा जोयणस्स परिक्खेवेणं पं०। पंक बहुलस्सण कंडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ हेट्ठिले चरमंते एसणं चउरासीइ जोयण सहस्साइ अबाहाए अंतरे पं०. विवाहपन्नतीएण भगवतीए चउरासीइ पय सहस्सा पदग्गेणं पं० चउरासीइ नागकुमारा वास सय सहस्सा पं०. चउरासीइ पइन्नग सहस्साइ पं०. चउरासीई जोणि पमुह सयसहरस पं० पुव्वाइयाणं सीस-पहेलिया पज्जवसाणाणं चउरा. सीए गुणकारे पं०. उसमस्सणं अरहओ चउरासीइ समण साहस्सीओ होत्था। सव्वेवि चउरासीइ विमाणा वास सहस्सा सत्ताणउइंच सहस्सा तेवीसंच विमाणा भवतीति मक्खायं ।।" सूत्र ८४
अर्थात्-चौरासी लाख नरकावास. अर्हन्त श्री ऋषभदेव की आयु भी ८४ लक्ष पूर्व. ब्राह्मी, सुन्दरी और भरत
काव्यग्रन्थों में कई अक्षरों को दग्धाक्षर बता कर काव्यरचना में उनका प्रयोग निषिद्ध किया गया है। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिनमें उनके प्रयोग से बहुत अनिष्ट होना पाया जाता है । इसीप्रकार लिपिलेखक लोग भी कई अक्षरों को अशुभ समझ कर लिख कर उठते समय प्रति में उन अक्षरों को अन्त में लाकर नहीं छोड़ते। संख्याओं में भी तीन. तेरह आदि संख्याएँ कई बातों में अच्छी नहीं समझी जातीं। कई संख्याओं को उत्तम समझ कर उनका अधिकाधिक प्रयोग किया जाता है।
चौरासी संख्या का व्यवहार भी बहुत स्थानों में मिलता है, जिनमें से कई सार्थक भी हैं, और कइयों की
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शीर्षप्रहेलिकांग
शीर्षप्रहेलिका
चूलिकांग, चूलिका, कहते हैं। **
बाहुबली की भी इतनी ही आयु, श्रेयांसनाथ अरिहंत की ८४ लक्ष वर्षों की आयु. त्रिपृष्ट वासुदेव की आयु भी ८४ लक्ष वर्षों की थी। देवेन्द्र शक्र के ८४ हजार सामानिक देव हैं। वाहर के सब मेरु पर्वत ८४००० योजन ऊंचे हैं, इसी प्रकार समस्त अंजनगिरि भी हरिवास और रम्यक क्षेत्र के जीवों की धनुपृष्ट का विस्तार ८४४१६ योजन का है। पंकबहुल नामक पृथ्व कांड के ऊपर के चरमान्त से नीचे के चरमान्त तक ८४ लाख योजन का अबाधित अन्तर है। पंचमाङ्ग भगवती सूत्र के ८४ हजार पद हैं। नागकुमारों के चौरासी लाख आवास कहे हैं। ८४ हजार प्रकीर्णक, ८४ लक्ष जीवा योनि* पूर्व से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक पहले से पीछे तक चौरासी लाख का गुणाकार कहा है। श्री ऋषभदेव भगवान की साधुसम्पदा भी ८४००० की थी । सब मिलकर वैमानिक देवों के विमान ८४ लाख ९७ हजार और २३ हैं ऐसा श्री भगवान ने फरमाया है।
ऊपर जो पूर्व से लेकर शीर्षप्रहेलिका की गणना का उल्लेख किया गया है उसका विस्तृत खुलासा पंचम अंग भगवती सूत्र में इस प्रकार किया है
चौरासी की संख्या हमारे साहित्य एवं दैनिक व्यवहार में इतनी व्यापक हो गई है कि धर्म, समाज, वैद्यक, ज्योतिष, तंत्र, संगीत. छन्द, योग, भोग ( कामशास्त्र) आदि अनेक विषयों में इसकी प्रधानता के दर्शन होते हैं। पाठकों की जानकारी के लिये ज्ञात ८४ बातों की सूची नीचे दी जा रही है। इसमें जैनागम समवायांग सूत्र के ८४ समवाय को पहले उद्धृत करने के कारण जैन सम्बन्धित ८४ बातों का परिचय पहले देकर फिर सार्वजनिक ८४ बातों का परिचय कराया जायगा।
१. जैन मुनियों का दीक्षित होते समय नाम बदल दिया जाता है तब जेसे संन्यासियों में गिरी, पुरी, भारती
आदि १० नामान्त पद वाले नाम रक्खे जाते हैं, उसी प्रकार खरतरगच्छ में मुनियों के ८४ नामान्त पदों को 'नंदी' कहा जाता है। हमारे अन्वेषण से यद्यपि ऐसे नामान्त पद ८४ से अधिक मिले हैं। मुनियों की भाँति साध्वियों के भी ८४ नामान्त पद कहे जाते हैं।
२. जैनधर्म के दो प्रधान सम्प्रदाय हैं-दिगम्बर एवं श्वेताम्बर । इन दोनों सम्प्रदायों में मान्यता भेद ८४ माने जाते हैं जिनके सम्बन्ध में हेमराज का हिन्दी पद्यात्मक ग्रन्थ एवं उसके प्रत्युत्तर में उपाध्याय यशोविजय जी का "दिगंबर ८४ बोल ' ग्रन्थ उपलब्ध है। इन
भेटों की सची को भी अनेकांत वर्ष २ अंक २ में
८४ लाख वर्ष का १ पूर्वाङ्ग, ८४ लाख पूर्वाङ्ग का ? पूर्व, इसी प्रकार प्रत्येक संख्या को ८४ से गुणन करने से जो संख्या आती है उसे अनुक्रम से त्रुटितांग, त्रुटित, अडडांग. अडड, अववाँग. अवव. हूहूआंग. हूहूअ. उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म. नलिनांग. नलिन, अर्थ- निउरांग, अर्थ निउर. अयुतांग, अयुत. नयुतांग नयुत,
*जैन शास्त्रानुसार ७ लाख पृथ्वीकाय. ७ लाख अपकाय, ७ लाख तेजकाय, ७ लाख वायुकाय, १० लाख प्रत्येक वनस्पति काय, १४ लाख साधारण वनस्पति काय.२ लाख दो इन्द्रिय.२ लाख तीन इन्द्रिय, २ लाख चार इन्द्रिय.४ लाख देवता, ४ लाख नारकी. ४ लाख तिर्यंच पंचेन्द्री. १४ लाख मनुष्य इस प्रकार ८४ लक्ष जीवयोनि की संख्या मानी जाती है तब जैनेतर ग्रन्थों में जलचर ९ लाख. मनुष्य ४ लाख. स्थावर २७ लाख, कृमि ११ लाख, पक्षी १० लाख. चतुष्पद २३ लाख इस प्रकार ८४ लाख जीवयोनि कही जाती है ।
** अनेकांत, वर्ष ३ अंक ९, "जैनग्रन्थों में समयगणना" शीर्षक लेख ।
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प्रकाशित कर चुका हूँ। वैसे दिगम्बर श्वेताम्बर के ७१६ भेद भी कहे जाते हैं पर वे प्राप्त नहीं हुए।
३. भगवान ऋषभदेव के पुण्डरीकादि ८४ गणधर थे।
४. आचार्य स्थूलिभद्र का नाम ८४ चौवीशी तक प्रसिद्ध रहने का कहा जाता है।
५. जैन मंदिरों में ८४ कार्य निषिद्ध हैं जिन्हें 'आशातना' कहते हैं। हमारे प्रकाशित 'जिनराज-भक्ति आदर्श' में ८४ आशातनाओं की सूची प्रकाशित है।
६. १४वीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध जैन श्रेष्ठी पेथड़शाह ने ८४ स्थानों पर जैन मंदिर बनाये थे। सोमतिलकसूरि के 'चैत्य-स्तोत्र' में उनके नामों की सूची प्राप्त है।
७. पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध पोरवाड वंशीय धरणाशाह ने राणकपुरमें कलापूर्ण त्रैलोक्यदीपक जैन मंदिर बनाया जिसमें ८४ देहरियों के होने का उल्लेख महोपाध्याय समयसुन्दर जी ने किया है-"देहरी चौरासी दीपती रे लाल ।"
८ वैसे जैनागमों की संख्या ४५ कही जाती है पर 'जैन ग्रन्थावली' में आगमों की संख्या ८४ बतलाते हुए उनके नामों की तालिका प्रकाशित की गई है। 'जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास' एवं 'शीघ्रबोध' में ये नाम भिन्न प्रकार से दिये गये हैं।
९. जैनागम 'सूत्र कृताङ्ग सूत्र में तत्कालीन ३६३ पाखंडियों-मतवादों का उल्लेख है उसमें अक्रियावादी के ८४ भेद बतलाये गये हैं।
१०. दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रधान एवं प्राचीन आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के नाम 'पाहुड़, (प्राभूत) संज्ञक कहे जाते हैं एवं उनकी संख्या भी ८४ होने का प्रेमी जी आदि ने उल्लेख किया है. पर सूची अभी तक ५२ पाहुड़ों की ही ज्ञात है, एवं उनमें से उपलब्ध तो बहुत थोड़े से ही हैं। (दे० परिशिष्ट )
११. अंचलगच्छ की बड़ी पट्टावली में ८४ गच्छ स्थापक ८४ आचार्यों के नाम दिये हैं।
१२. उपकेशगच्छ के ८४ आचार्य परंपरा की नामावलि 'जैनजातिमहोदय' में प्रकाशित है । (देखो परिशिष्ट)
१३. बीकानेर के वृहद् जैन ज्ञान भंडार में ८४ विरुद छंद हैं जिनमें ८४ विरुदों के नाम हैं।
१४. 'प्रभावक - चरित्रानुसार' शांतिसूरिजी ने ८४ . वादों में विजय प्राप्त को थी एवं राजा भोज से उन्हें ८४ लाख रुपयों की प्राप्ति हुई थी।
१५. पत्तन मंडार सूची के पृ० २४५ के अनुसार अभयदेवसूरिजी भी ८४ वादविजेता थे। 'भरतबाहुबलिरास' की प्रस्तावनानुसार राजगच्छ के प्रद्युम्नसूरि भी ८४ वाद-विजेता थे।
१६. 'उपदेशतरंगिनी' एवं 'पट्टावली समुच्चय' के पृ० २४५ में वादिदेवसूरि को भी ८४ वादविजेता बतलाया गया है ।
१७. सुप्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचंद्रसूरि की आयु ८४ वर्ष की थी।
१८. 'प्रभावकचरित्रा' नुसार ८४ श्रावकों ने नवाङ्ग टीकाओं की ८४ प्रतिलिपियें करवा के आचार्यों को मेंट की।
१९. गणधर सार्धशतक वृहद्वृति' के अनुसार वर्द्धमानसरि जी के गुरु जिनचंद्राचार्य ८४ देवगृहों के नायक थे। 'प्रभावकचरित्रा'नुसार वर्द्धमानसूरि भी ८४ चैत्यों के नायक थे।
२०. उपर्युक्त ग्रन्थ में पाटण में सूराचार्यादि ८४ चैत्यवासी आचार्य थे, लिखा है।
२१. वादिदेवसूरि के 'स्यादवादरत्नाकर' ग्रन्थ का परिमाण ८४ हजार श्लोक प्रमाण है ।
२२. चौरासी संख्यासूचक वर्षों में जो-जो प्रधान घटनायें हुई उनमें से कतिपय ये हैं। (१) वीरात् ८४ अजमेर म्यूजियम का सबसे प्राचीन
जैन लेख । (२) वीरात् १८४ में चंद्रगुप्त का स्वर्गवास । बिन्दुसार
का राज्यारोहण। (३) वीरनिर्वाण सं०४८४ में आर्य खपुट जैनाचार्य
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का स्वर्गवास हुआ। (8) वी० नि० सं० ५८४ में आर्य वज्र का
स्वर्गवास हुआ। (५) वी०नि० सं०५८४ में सप्त निन्हव उत्पत्ति ।। (६) वी०नि० सं०५८४ में आर्यरक्षित का युगप्रधान
पद या मतान्तर से स्वर्गवास हुआ। (७) वी० नि० सं० ५८४ में मल्लवादी ने बौद्धों
को जीता। (८) वी०नि० सं० १२८४ में महेन्द्रसूरि ने 'मन
स्थिरीकरण प्रकरण' एवं 'सारसंग्रह ग्रन्थ बनाया । (९) वि० सं०१६८४ में विजयसिंहसूरि का गणानुज्ञा
पद का महोत्सव हुआ। २३. स्व० पूर्णचंद्र जी नाहर ने ८४ तीर्थ कहे जाने का प्रवाद मात्र लिखा है. वास्तव में उसका आधार जिनप्रभसूरि रचित 'चतुराशीति महातीर्थ कल्प' है । इसमें उल्लिखित स्थानों की संख्या अधिक है पर चौरासी संख्या के महत्व के कारण ही उसका नाम 'चतुराशीति महातीर्थ नामसंग्रहकल्प' रखा प्रतीत होता है।
२४. चौरासी गच्छों की नामावलि भी कई प्रकार की मिलती है। किसी-किसी सूची में नाम न्यूनाधिक भी हैं।
अब सार्वजनिक बातों का निर्देश किया जाता है
२५. हमारे संग्रह के 'रत्नकोष' नामक ग्रन्थ में एक ही संख्यात्मक वस्तुओं के प्रकारों की सूची है । उनमें ८४ प्रकार के विज्ञान की सूची है जो इसी लेख के परिशिष्ट में जा रही है।
२६. भुवनभक्ति एवं महिमाभक्ति भंडार. बीकानेर की एक प्रति में ८४ तंत्रों की तालिका है।
२७. रामविनोद वैद्यक ग्रन्थों में ८४ प्रकार के वाय के नाम हैं जिन्हें अन्य ग्रन्थानुसार परिशिष्ट में दिया जा रहा है।
२८. हमारे संग्रह के ज्योतिष संबंधी पत्रों में ८४ योगों के नाम दिये हैं। उन्हें भी परिशिष्ट में दिया जा रहा है।
२९. कतिपय छन्द ग्रन्थों में ८४ रूपकों के नाम हैं जिनमें से दो ग्रन्थों की नामावलि परिशिष्ट में दे रहे हैं । 'चतुराशीतिरूपक' नामक छन्दग्रन्थ भी उपलब्ध है। कवि केशवदास की 'धन्दमाला' में भी ८४ छन्दों के लक्षण एवं उदाहरण हैं।
३०. गंगा के पुरातत्त्वांक में ८४ सिद्धों की नामावलि प्रकाशित हैं। 'वर्णरत्नाकर' में भी ८४ सिद्धों के नाम हैं। ( देखो परिशिष्ट )
३१. वैष्णवों की संख्या भी ८४ प्रसिद्ध है, जिनका परिचय 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में पाया जाता है। राजसी, तामसी. सात्विकी ८४/८४/८४ वैष्णवों को मिलाने पर २५२ वैष्णव होते हैं. जिनका परिचय 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता में पाया जाता है ।
३२. श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञानभण्डार की एक प्रति में मूरों के भी ८४ लक्षण बतलाये हैं।
३३. बीकानेर की अनूप संस्कृत लाइब्रेरी की १ प्रति में ८४ मुद्राओं का भी उल्लेख है।
३४. महिमामक्ति भंडार में 'राग चौरासी' नामक संगीत . का ग्रन्थ है जिसका परिचय मेरे सम्पादित 'हिन्दी ग्रन्थविवरण' भा०२ में प्रकाशित हो चुका है।
३५. विद्याविभाग काँकरोली से प्रकाशित 'प्राचीनवार्तारहस्य' के पृ०२१/२२ में ८४ कंजों की नामावलि दी गई है। (देखो परिशिष्ट )
३६. सं० १२८५ के लगभग रचित विनयचन्द्र के 'कविशिक्षा' नामक ग्रन्थ में ८४ देशों का उल्लेख है पर नाम ७१ ही दिये हैं। हमारे संग्रह के रत्नकोष में उससे भिन्न प्रकार के ८४ देशों की नामावलि है. अतः दोनों को परिशिष्ट में दिया जा रहा है।
३७. चौरासी जातियों की सूची भी ग्रन्थान्तरों में भिन्न-भिन्न प्रकार की पाई जाती है जिनमें से सं०१४७८ के 'पृथ्वीचन्द्र चरित्र' आदि में जो नामावलि है वह परिशिष्ट में दे रहे हैं। सं०१९५० में शिवकरण रामरतन दरक ने 'इतिहासकल्पद्रम माहेश्वरी कुलशुद्धदर्पण' नामक ग्रन्थ
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प्रकाशित किया है, उसमें ८४ संख्या वाली कई जातियों ... प्रसंगवश चौरासी संख्या जिन-जिन अंकों के गुणन की सूचियां हैं।
द्वारा बनती है उनमें से कुछ संख्यायें बड़ी प्रसिद्ध हैं. (१) गुजरात देश की ८४ जातियाँ
अतः उनका भी उल्लेख कर दिया जाता है। (२) दक्षिण देश की ८४ जातियाँ
८४४१-८४ (३) दक्षिण देश की ८४ जाति कवित्त
४२४२८४ (४) मध्यदेश की ८४ न्यात
२८४३८७ (५) खंडेलवाल के ८४ गोत्र
२१४४८४ (६) खंडेल नगर के ८४ गाँव
१४४६-८४ (७) चौरासी गच्छ
१२४७=८४ (८) दत्तक पुत्र विषयक ८४ प्रश्न
इनमें से जैनधर्म में मुनियों के आहार सम्बन्धी ४२ इनमें से खंडेलवाल के ८४ गोत्रों के सम्बन्ध में कवि
दोष, पुण्य की ४२ प्रकृतियें, नामकर्म की ४२ प्रकृतियें वखतराम रचित 'बुद्धिविलास ग्रन्थ में विशेष परिचय पाया
___ एवं अश्व के ४२ भेद प्रसिद्ध हैं। जाता है।*
इसी प्रकार २८ संख्यक लब्धियें, मोहनीय कर्म की ३८. चौरासी चोहट्टों की एक सूची नाहर जी ने प्रकृतियें, नक्षत्र, अनुयोग, दाता के २८ गुण, मतिज्ञ न के प्रकाठित की है पर माणिक्य-सन्दर सरि के पश्वीचन्द्रचरित्र' २८ भेदों का विवेचन 'जैनसिद्धान्तबोलसंग्रह' भ०६ में है। ( सं० १४७८) में भिन्न प्रकार की है। अतः उससे २१ संख्यावाली बातों में श्रावकों के गुण, प्रासुक जल, उद्धत कर परिशिष्ट में दी जा रही है।
पारिणामिकी बुद्धि के दृष्टांत, सबल दोषादि का विवेचन भी ३९. जगन्नाथ कवि की 'चौरासी-शिक्षा' नामक उक्त ग्रन्थ में है। इक्कीस की संख्या बहुत शुभ मानी हिन्दी भाषा की रचना अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में है। जाती है। ४०. चौरासी संग भी हमारे संग्रह की प्रति में नाहर
चौरासी की भांति १४ की संख्या भी बहुत प्रसिद्ध जी द्वारा प्रकाशित से भिन्न प्रकार के हैं।
है । इस संख्या वाली अनेक बातों का उल्लेख यत्र-तत्र पाया ४१. महिमाभक्ति भंडार में ८४ 'त' कार वाले एक जाता है जिनमें से कुछ ये हैंकाव्य वृत्ति सहित उपलब्ध है । ४२-४३-४४ ग्रन्थांतरों में १४ राजलोक, पूर्व, गुण-स्थान, स्वप्न, चक्री-रत्न ८४ रत्न. ८४ नरक, ८४ दोषों का भी उल्लेख है। हमारे नियम, उपकरण, अजीव भेद, परिग्रह. महानदियां आदि, संग्रह के 'रत्न-परीक्षा' (तत्वकुमार रचित) नामक ग्रन्थ जैन ग्रन्थोक्त १४ संख्यक २५ बातों का विवेचन 'जैनमें ८४ रनों का उल्लेख है, पर सूची में नाम ६० ही प्राप्त । सिद्धान्त बोलसंग्रह' में प्रकाशित है। हुए हैं। वे एवं अन्य ग्रंथों की नामावलि परिशिष्ट में वैसे १४ स्वर, विद्या, रत्न, यम, इंद्रियाँ, मनु आदि दी गई हैं।
प्रसिद्ध ही हैं। ४२. रामदास वैरावत की ८४ आखडी (नियम ग्रहण)
वारह संख्यावाली उल्लेखनीय बातें इस प्रकार है: हमारे संग्रह में हैं।
१२ उपांग, चक्रवर्ती, भावना, अरिहंत-गुण, तप, श्रावक व्रत ४३. मारवाड़ में कहावत प्रसिद्ध है--
भिक्षु-प्रतिमा आदि जैन धर्म विषयक बातों का विवेचन "चार चोर चौरासी वाणिया. एके के इकीस इकीस 'जैनसिद्धान्त बोलसंग्रह भा०४ में प्रकाशित है। ताणिया"
१२ मास आदि सर्वत्र प्रसिद्ध हैं। * देखें हमारा लेख कवि बखत राम रचित 'बुद्धिविलास' (जैन सिद्धान्तभास्कर )। १८]
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पुरातत्व एवं कला के महान प्रेमी स्व० पूरनचन्दजो नाहर ने 'विशालभारत' ( सितम्बर १९३०) में चौरासी शीर्षक लेख प्रकाशित किया था । उसमें आपने कई ज्ञातव्य बातों की जानकारी उपस्थित की है एवं १ चौरासी आसन. २ चौरासी संग, ३ चौरासी ज्ञाति, ४-५ चौरासी चौहट्टे, ६ चौरासी गच्छों की सूची भी प्रकाशित की है । नाहरजी के उक्त लेख से यहाँ पाठकों की ज्ञानवृद्धि के लिये कतिपय बातें उद्धत की जा रही हैं
(१) चतुर्दश राजलोक के जीव-भेद की संख्या चौरासी लक्ष के ८४ अङ्कको महत्वपूर्ण समझ कर बहुत सी जगह इसका व्यवहार प्रचलित होना संभव ज्ञात होता है।
(२) 'घेरंड संहिता' के मत से जीव-जंतुओं की संख्या जितनी हंती है आसन की गणना भी उतनी ही निकली है। शिवजी के आसनों की संख्या वही चौरासी लक्ष कही गई है। उसमें ८४ प्रकार के प्रधान आसन बताये गये हैं। शिव संहिता' के मत से भी चौरासी प्रकार के आसन है ।
.
'कामशास्त्र' के अनुसार चौरासी प्रकार के आसनों की संख्या भी प्रसिद्ध है। पूना से चौरासी आसन' नामक जो मराठी भाषा की सचित्र पुस्तक प्रकाशित हुई है उसमें ९३ आसनों के नाम और चित्र पाये जाते हैं।
(३) जौहरी लोग जिन रत्नों को संग कहते हैं उनकी संख्या भी वे चौरासी बताते हैं परन्तु यह संख्या कल्पित मालूम होती है । पाठकों को यहाँ एक और वात की ओर ध्यान दिलाता हूँ कि जोहरी लोग चौरासी के फेर में पड़ जाने के भय से इस चौरासी संख्या से इतने सशंकित रहते हैं कि अपने व्यापारादि में इस संख्या का व्यवहार कदापि नहीं करते अर्थात् यदि चौरासी रुपये के भाव में उन लोगों से कोई सौदा मांगा जाय तो स्वीकार नहीं करते पीने चौरसी में बेचने को सहर्ष तैयार हो जाते हैं। इसी प्रकार वे न तो वजन में कदापि ८४ रतो माल बेचते हैं और न किसी पुड़िये में ८४ नगीने रखते हैं।
(४) भारतवर्ष के कई देशों में ऐसे नाम के परगने और तालुके मिलते हैं जिनकी सृष्टि चौरासी ग्रामों को लेकर हुई होगी।
(५) नृत्य के समय पैरों में वहुत से घुंघरु बांधे जाते हैं, सख्याधिक्य के कारण उनको भी चौरासी कहते हैं।
(६) चौरासिया - यह गौड़ ब्राह्मणान्तर्गत एक ब्राह्मणसमुदाय है। इनकी बस्ती जयपुर या जोधपुर राज्य में है। किसी समय चौरासी ग्रामों की वृति इनके यहाँ थी. अतः ये चौरासियै ब्राह्मण कहलाये ।
(७) ब्राह्मणों की तरह जैनियों में भी श्रावकों की जाति की संख्या चौरासी कही जाती है। इन श्रावकों की जातियों के नाम वही चौरासी अंक के महत्व के लिये एकत्रित किये गये होगें ।
(८) इसीप्रकार जैनियों के आचार्यों में जो गच्छ भेद हैं उनकी संख्या भी प्रसिद्धि में चौरासी बतलाई जाती है परन्तु वास्तव में चौरासी से भी अधिक मिलते हैं। (९) कई स्थानों में जैन तीर्थों की संख्या भी चौरासी देखने में आई है।
(१०) दिगम्बर जैन लोग मथुरा के पास वृन्दावन के रास्ते में एक स्थान को भी चौरासी कहते हैं और वहाँ अन्तिम केवली श्री जंबू स्वामी का निर्वाण मानते हैं। परन्तु वे लोग स्थान का नाम चोरासी होने का कुछ कारण नहीं बताते हैं।
अपनी साहित्य प्रवृति के प्रारंभिक काल से स्वर्गीय नाहर जी से हमारा उनके जीवन पर्यन्त वड़ा मधुर सम्बन्ध रहा है, अतः जब उन्होंने अपने 'चौरासी वाले लेख की प्रति हमें दी तो हमने कतिपय नवीन सूचनायें उन्हें दीं पर वे प्रकाशित न हो सकीं। इधर हमने उसी समय से चौरासी संख्या वाली जितनी भी बालों का जहाँ कहीं उल्लेख देखा, नोट करते गये। कई वर्षों से उनके प्रकाशन का विचार हो रहा था। पर अन्य साहित्यिक कार्यों में लगे रहने से वह कार्य न हो सका। सुयोगवश
[ १९
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अब वह पाठकों के समक्ष आ रहा है। इसी बीच कई अन्य बातों के उल्लेख भी नजरों से गुजरे पर नोट न करने से वे विस्मृति में विलीन हो गये।
हमारा अध्ययन जैनसाहित्य का अधिक होने से संभवतः सर्व जन प्रसिद्ध ८४ संख्यात्मक बहुत-सी वातों
का हम इस लेख में उल्लेख न कर सके हों। खोज करने पर ग्रंथान्तरों में अन्य ऐसे अनेक उल्लेख प्राप्त होने की सम्भावना है. अतः पाठकों को जो कोई भी संख्यात्मक वात जानने में आवे उन्हें प्रकाशित करें।
परिशिष्ट
(१) चौरासी देश ( विनयचंद्र कृत 'कविशिक्षा से)
१ गौड़ २ कान्यकुब्ज ३ कौल्लाक ४ कलिंग ५ अंग
दबंग
७ कुरंग ८ आचाल्य ९ कामाक्ष १० ओड्र ११ पुंड्र १२ उड़ीसा १३ मालव १४ लोहित १५ पश्चिम १६ काछ १७ वालम १८ सौराष्ट्र
१९ कुंकण २० लाट २१ श्रीमाल २२ अर्बुद २३ मेदपाट २४ मरुवरेंद्र २५ यमुना २६ गङ्गातीर २७ अंतर्वेदि २८ मागध २९ मध्यकुख ३० डाहता ३१ कामरूप ३२ कांची ३३ अवंती ३४ पापांतक ३५ किरात ३६ सौवीर
३७ औसीर ३८ वाकाण ३९ उत्तरापथ ४० गूर्जर ४१ सिंधु ४२ केकाण ४३ नेपाल ४४ टक्क ४५ तुरुष्क ४६ ताइकार ४७ बर्बर ४८ जर्जर ४९ कौर ५० काश्मीर ५१ हिमालय ५२ लोहपुरुष ५३ श्रीराष्ट्र ५४ दक्षिणापथ
५५ सिंघल ५६ चौड ५७ कौशल ५८ पांडु ५९ अंध्र ६० विंध्य ६१ कर्णाट ६२ द्रविड़ ६३ श्रीपर्वत ६४ विदर्भ ६५ धाराउर ६६ लाजी ६७ तापी ६८ महाराष्ट्र ६९ आभीर ७० नर्मदातट ७१ द्वीप देशश्च
* विनयचंद्र का समय सं०१२८५ के लगभग है ( पत्तन जैन भाण्डागारीण ग्रन्थ सूची. पृ०४८)।
२०]
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१ पूर्व देश २ अंग देश ३ वंगदेश ४ गौड़ ५ कान्यकुब्ज ६ कलिंग ७ गोष्ट देश ८ वंगाला ९ कुरङ्ग १० सरठ ११ वारंडी १२ यामुन ( यमुना) १३ सरयूपार १४ अंतर्वेद १५ मगध १६ कुरु १७ डाहल १८ कामरू १९ (ठड) पांचाल २० सोरसेन २१ मध्य
(२) चौरासी देश (रित्नकोश' से ) २२ जालंधर
४३ वीणक्काण २३ लोहपाद (लोहव) ४४ उत्तराय २४ पश्चिम
४५ गूर्जर २५ स्थल
४६ सिंधु ( सैंधव) २६ बालंभ
४७ केकाण २७ सौराष्ट्र
४८ नेप २८ कुंकण ( कोंकण ) ४९ रथ २९ लाट
५० ताजिक ३० श्रीमाल
५१ वर्बर ३१ द
५२ खस ३२ मेदपाट
५३ कीर (कीरक) ३३ मरुमंडल
५४ काश्मीर ३४ कच्छ
५५ वजुल ३५ मालव
५६ हिमालय ३६ अवंती
५७ लोहपुर ३७ पारियात्रपारिजात
५८ श्रीराष्ट्र ३८ कंकोज
५९ दक्षिणापथ ३९ ताम्रलिप्त
६० मलय ४० किरात
६१ शीघल ४१ सेरटक
६२ पांडू ४२ सौवीर
६३ कौशल
६४ अंध्र ६५ विंध्य ६६ ड ६७ श्री पर्वत ६८ वैदर्भ ६९ विराट ७० ओरलांजी ७१ महाराष्ट्र ७२ आभीर ७३ नार्मद ७४ कामाक्ष ७५ कंडु ७६ पापण ७७ चोड ७८ आराध्य ७९ वरेंद्र ८० गङ्गापार ८१ सौसष
२ का ८३ तापीतट ८४ द्वीप
प्रत्यंतर में निनोक्त देशों के नाम हैं
१ अंजन देश २ कथा ३ कुराष्ट ४ जहर ५ दंड पउण ६ बाहल ७ रङ्ग देश ८ कवर
९ मालवदेश १० परित्व ११ भोजदेश १२ रावदेश १३ रामलिह देश १४ स्त्रीराज्य देश १५ धारावर देश १६ उत्तरापथ
१७ बर्बर १८ कैलाश १९ पुराजिकर २० कैरुष २१ कर्ण २२ उदीश २३ कणविरण
२५ करण २६ इदिड २७ विषलंधिक देश २८ कर्णाट २९ गोलदेश ३० बलावद्र देश ३१ अधंक देश ३२ पाट देश
२४ तासल
[ २१
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(३) चौरासी चौहट्टे (माणिक्यसुन्दरसूरिकृत पृथ्वीचंद्र-चरित्र* से ) १ सोनीहटी २२ त्रांबहटा
४३ कागलिया
६४ साथूआ २ नाणावटहटी २३ सांख हटा
४४ मंघपहटी
६५ पेरुआ ३ जवहरी हटी २४ पीतलगरा
४५ वेश्या
६६ आटीआ ४ सौगंधीया हटी २५ सोनार
४६ पणगोला
६७ दालीया ५ फोफलिया २६ सीसाहडा
४७ गांछा
६८ दउढीया ६ सूजिया २७ मोतो प्रोया
४८ भाडभुजा
६९ मुंजकूटा ७ पडसूत्रिया २८ सालवी
४९ वीबाहटा
७० सरगरा ८ घीया २९ मीणारा
५० त्रांबडीया
७१ भरथाहा ९ तेलहरा ३० कुआरा
५१ मइंसायत
७२ पीतलहडा १० दंतारा ३१ चूनारा
५२ मलिनानापित ७३ कंसारा ११ वलीयार ३२ तूनारा
५३ चोखानापित ७४ पदत्रसागीया १२ मणीयार हटी ३३ कूटारा
५४ पाटीवणा
७५ खासरीया ३४ गुलीयारा
५५ त्रांगडीया
७६ मजीठीया १४ नेस्ती ३५ परीयटा
५६ वाहीना
७७ साकरीया १५ गाँधी ३६ घांची
५७ काठवीठीया ७८ सबूगर १६ कपासी ३७ मोची
५८ चोखावीठीया ७९ लोहार १७ फडीया ३८ सुई
५९ सूखडीया
८० सूत्रहार १८ फड़ोहटी ३९ लोहटिया
६० साथरीया
८१ वजकर १९ एरंडिया ४० लोढ़ारा
६१ तेरमा
८२ तंबोली २० रसणीया ४१ चित्राहरा
६२ वेगडीया
८३ कंदोई २१ प्रवालिया ४२ सतूआरा
६३ वसाह
८४ बुद्धिहटी
कुत्रिक पणहटी (४) चौरासी छंद ( कवि केशवदास के 'छंदमाला** से )
१३ दोसी
१ श्री - ६ माया
११ विज्जहा
१६ नगस्वरूपिणी २ नारायण -:७ मालती
१२ मंथान
१७ मदनमोहन ३रमण. ८ सोमराजी
१३ ललिता
१८ बोधक ४ तरणिजा ९ शंकर १४ प्रमाणिका
१९ तुरंगम ५ मदन - १० सुखकर
१५ मल्लिका
२० नागस्वरूपिणी * रचनाकाल सं०१४७८ ( प्राचीन गुजरातीगद्यसंदर्भ से)। ** इस ग्रंथ का विशेष परिचय 'हिंदुस्त नी' पत्रिका के भाग १७ में प्रकाशित है।
२२ ]
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२१ तोमर
२२ हरिणी
२३ अतिगति
२४ तोमर
२५ संजुती
२६ अनुकूल
२७ सुवण प्रयात
२८ इंद्रवज्रा
२९ उपेंद्र
३० मौक्तिकदाम
३१ त्रोटक
३२ सुन्दरी
३३ मोदक
३४ भुजंगप्रयात
३५ तामरस ३६ द्र ुतविलंबित
१ सादा २ डिका
३ गाहाणी
४ गाहा
५ विग्गाहा
६ सीहानी
७ जग्गाट्ठो
गाही
९ गंधाणा
१० वत्थूवा ११ दोहा
१२ गणा
१३ उकिहा
३७ कुसुमविचित्र
३८ चंदवत्न
३९ मताती
४० वंसस्वनित
४१ प्रमिताहर
४२ सग्विनी
४३ पंकज कपरका
४४ तारक
४५ कलहंस
४६ हरिलीला
४७ वसंततिलक
४८ मनोरमा
४९ मालती
५० सुप्रिय
५१ निसपालिका
५२ चामर
१४ रोडा
१५ ललाए
१६ रंगिला
१७ विज्जूमाला
१८ चउपाईंया
१९ पोमावती ए
२० रुपामाला संजुत्तीए
२१ घत्ता
२२ गीतिका
२३ डिल्लाए
२४ पदडिया
५३ नाराच
५४ ब्रह्मरूपक
५५ रूपमाला
५६ पृथ्वी छंद
५७ चंचरी
२५ डिल्ल
२६ मडिल्लाए
५८ करुना
५९ गीतिका
६० मूल
६१ धर्म
(५) चौरासी रुपक (छंद )
२७ वत्थू
२८ वहरत्था
२९ दुमिल्लाए
३० गयणगु
३१ परवमु
३२ तिन्नाए
६२ मदिरा
६३ विजय
६४ सुधा
६५ वसुधा
६६ माधवी
६७
६८ अमलक माल
-
३३ नाराइ
३४ दुवई
३५ पाठनी
३६ वलरिया
३७ चामर
३८ सामाणी
३९ धारीसा
६९ मकरंद ७० गंगोदक
७१ तन्वी
७२ विजया
७३ मदन मनोहर
७४ मानिनी
७५ हार
७६ रोला
७७ घत्ता
७८ मरहरा
७९ सोरठा
५० सिंहावलोकन
८१ अनंगशेखर
८२ जमुन
८३ रूपमाला
८४ छलना
४० खंजा
४१ तुगाए
४२ सिक्खा
४३ तटिक
४४ भुयंगाए
४५ लीला
४६ लग्गणी
४७ अमक्काणा
४५ फारी
४९ मोदका
५० चदागा
५१ चुलियारा
५२ चामर
[ २३
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५३ कमताणि ५४ दीपक्की ५५ मुतीदम्मारा ५६ सारंगा ५७ वंधा ५८ बिज्जोहा ५९ करहेवा
६१ सम्मोहा ६२ चाउरंसी ६३ हंसा ६४ खडा ६५ खंदा ६६ मंथाण ६७ हरसंखाणा ६८ पाईका
६९ पंका ७० वाणीए ७१ सालुरा ७२ रासात्तणीए ७३ साचंदमाला ७४ चक्काए ७५ हाट्टका ७६ धूया
७७/ तक्काए ७८ खगा
७९ खंडलाया |८० -
८१ कवलाया ८२ धउलंगा ८३ विवा ८४ डंवालया
६० पंचा
(बीकानेर की अनूप संस्कृत लाइब्रेरी की प्रति से, सं०१६६९)
१ हेतु विज्ञान २ तत्व .. ३ मोहन .. ४ कर्म .. ५ मर्म ६ शंख ७ दंत , ८काच .. ९ गुटिका १० योग ११ रसायन १२ वचना १३ कवित्व १४ नेपथ्य १५ यंत्र १६ मन १७ पत्रक .. १८ धर्म १९ वृस्टिक २० लेपकर्म २१ सूत्र ..
(६) चौरासी विज्ञान २२ चित्र विज्ञान
४३ अध्यात्म विज्ञान २३ रंग ..
४४ अग्नि २४ सूचीकर्म,
४५ जल .. २५ शकुन ,
४६ विद्वेषण २६ छद्म .
४७ उच्चारण.. २७ नैर्मल्य ..
४८ स्तंभन . २८ गंधयुक्ति .. ४९ वशीकरण ,, २९ आशन .
५० हस्तिशिक्षा (गज) .. ३० शोल
५१ अश्व ( अश्ववाहन),, ३१ कासृ कर्म .. ५२ पक्षि ३२ कुंभ
५३ स्त्री ३३ लौह
५४ काम ३४ मंत्र
५५ रत्न ३५ वश
५६ वस्त्रकार (वस्त्र).. ३६ नख
५७ पशुपाल्य .. ३७ तृण
५८ - ३८ प्रसाद
५९ वाणिज्य .. ३९ धातु (धातुमुष्टि) .. ६० लक्षण .. ४० विभूषण .
६१ काल शास्त्र ., ४१ स्वरोदय , ६२ शास्त्र बंध .. ४२ द्यत
६३ आयुध कार ..
६४ नियुधकार विज्ञान ६५ आक्षेटक ६६ कुतुहल ६७ केश ६८ पुष्प ६९ इन्द्रजाल ७० पानविधि ७१ विनोद ७२ सौजन्य ७३ शौच ७४ विनय ७५ नीति ७६ आयुर्वेद ७७ व्यापार ७८ धारणा ( रत्नकोश. हस्तलिखित प्रति से प्रतिलिपि हमारे संग्रह में है। इसी की अन्य प्रति श्री मोतीचंद्र जो खजांची के संग्रह में है)।
२४]
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१ वस्तुविज्ञान
२ व स्व
३ वयस्य
४ कांस्य
५ केश प्रसादन
६ माला
७ खड़
छूरिका
९ वाहन
१० शुद्ध
११ शास्त्र
१ वला
२ सुंदर
३ छत्र
४ चतुः सागर
५] सिंहासन
६ हंस
७ ध्वज
पकारिका
९ नदी
१० एकावली
११ तारण
१२ दरिद्र
१३ जव
१४ शत्रुंजय
१५ रज्जु
१६ मुशल १७ नल
प्रत्यंतर में निम्नोक्त अन्य नाम पाठान्तर रूप से मिलते हैं
२३ पूजारंभ
३४ नम्
२४ रत्न
२५ रस
३५ आपण ३६ भोजन
२६ वृत्त
३७ दिरंग
१८ गदा
१९ विहंग
२० शृङ्गारक
२१ हल
१२ युद्ध
१३ नम्
१४ मद्दन
१५ गुणिका
१६ फल
१७ आराम
१५ अंजन
१९ तर्जन
२० शैल
२१ पशु
२२ क्रीडन
२२ वज्र
२३ यव
२४ वाणी
२५ कमल
२६ नौ
२७ कामुक
२८ कूट
२९ छन
३० चक्र
३१ समुद्र
३२ गेल
३३ केदार
३४ दाम
३५ वीणा
२३ लूक
२८ वृष्टि
२९ देव
३० ज्योति
३१ इंद्रलेख
३२ लाभकंत
३३ आकृष्टि
(७) चौरासी ज्योतिष योग
३६ दरिद्र
३७ पाश
३८ शूल
३२ सर्प
४० मालादल
४१ चतुश्चक्र
४२ कनकदंड
४३ षोडशावर्त
४४ डोला छत्र
४५ राजहंस
४६ पुच्छ
४७ सिंह पुच्छ
४८ हेयनाम
४९ एकावली
५० इभ
५१ कनक छत्र
५२ ध्वज
५३ भूपति
५४ ऐरावति
५५ विश्व
५६ खेल
५७ कतक
५८ इंद्रकनक
५९ इन्द्रधनुष
६० इन्द्रासन
६१ नृपसन
६२ पद्मपत्र
६३ क्रॉच
३८ वाद
३९ संस्कार
४० शृंगार
४१ तेल
४२ शव
४३ अग्नि
६४ इंद्रयुद्ध
६५ तालाट
६६ प्रव्रज्या
६७ छद
६८ फणमुख्य
६९ काक
७० हुताशन
७१ ललाट
७२ यूप
७३ इषु
७४ शक्ति
७५ दंड
७६ कोरा
७७ व्याघ्रतुंड ७८ केमदुम
[ २५
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(८) चौरासी वायु
१ आक्षेपक २ हनुस्तम्भ ३ उरुस्तम्भ ४ शिरोग्रह ५ बाह्यायाम ६ आभ्यन्तरायाम ७ पावशूल ८ करीग्रह ९ दण्डापतानक १० खल्ली ११ जिह्वास्तम्भ १२ अदित १३ पक्षाघात १४ क्रोष्टशीर्ष १५ मान्यास्तम्भ १६ पंगु वायु १७ कलाय खंज १८ तूनी १९ प्रतीतूनी २० खंज
२१ पादहष
४१ रूक्ष २२ गृध्रसी
४२ अंगभंग २३ विश्वाची
४३ विडग्रह २४ अपबाहक
४४ बद्ध विट्कता २५ अपतानक
४५ मूकत्व २६ प्राणायाम
४६ अति जम्मा २७ वातकंटक
४७ अत्युद्धार २८ अपतन्त्रक (हिस्टिरिया) ४८ आन्त्रकूजन २९ अंगभेद
४९ वातप्रवृत्ति ३० अंगशोज
५० स्फुरण 1३१ मिणनिण
५१ अंगविभ्रश ३२ कल्लुता
५२ शिरापूरण ३३ अष्ठीलिका
५३ कंप ३४ प्रत्यष्ठिला
५४ कार्यः ३५ वामनत्व
५५ श्यावता ३६ कुब्जत्व
५६ प्रलाप ३७ अंगपीठ
५७ क्षिप्रमूत्रता ३८ अंगशूल
५८ निद्रानाश ३९ संकोच
५९ स्वेदनाश ४० स्तम्भ
६० दुर्बलत्व (९) चौरासी कुञ्ज
६१ बलक्षय ६२ शुक्रातीप्रवृत्ती ६३ शुक्रकार्य ६४ शुक्रनाश ६५ अनवस्थित चित्तत्व ६६ काठिन्य ६७ विरसता ६८ कपायवक्रता ६९ आध्मान ७० प्रत्याघ्मान ७१ शीतता ७२ रोमहर्ष ७३ भीरूत्व ७४ भेदवायु ७५ कण्डू ७६ रसज्ञता ७७ शब्दाज्ञता ७८ प्रसुप्ति ७९ गन्धाज्ञत्व ८० दृष्टिक्षय
१ प्रीति २ प्रेम ३ कंदर्प ४ लीला ५ मज्जन ६ बिहार ७ उत्कण्ठ ८ मोहन ९ युगल
१० हाव ११ भाव १२ कटाक्ष १३ अलक १४ मुक्ता १५ भ्र १६ वेणी १७ रोमराजि १८ नीवी
१९ कटिक्षीण २० मान २१ भ्रमन २२ तिष्ठन २३ सङ्गीत २४ आलस्य २५ कलकूजित २६ विविधाकार २७ दुकूल
२८ नेत्र २९ कुण्डल ३० हार ३१ ताम्बूल ३२ आड ३३ लावण्य ३४ हास्य ३५ उत्साह ३६ उग्रता
२६]
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________________
३७ कोकिलालाप ३८ ग्रीव ३९ आलिंगन ४० चुम्न ४१ अधरपान ४२ दर्शन ४३ दर्पन ४४ प्रलाप ४५ उन्माद ४६ दर्प ४७ उत्साहन ४५ उत्कर्ष ४९ दीन
५० अधीन ५१ सुरत ५२ आकर्षण ५३ उच्चाटन ५४ मूच्र्छा ५५ बलीकरण ५६ स्तम्भन ५७ प्रिया स्वधारोहण ५८ आवेश ५९ वार्तालाप ६० पर्यङ्क ६१ प्रिया चरण तडकाल ६२ नखक्षत
६३ दन्त क्षत ६४क्ष पतरंग ६५ विगताभरण ६६ भूषण ६७ कम्प ६८ रति प्रलाप ६९ तुत्तल गिर ७० प्रिया वास भवन ७१ मान गुह्य ७२ आसक्त पुञ्ज ७३ परमरस ७४ पीड़ाबाहा ७५ सुरतश्रमनिषेध
७६ ठुनुक ७७ वाग्विभ्रम ७८ व्यवस्त भाव ७९ कामक ८० किकिनिरव ८१ वीरविपरीत (सुरतांत) ८२ कालिकाकौतुक ८३ सुरत ८४ सहज प्रेम
(विद्याविभाग, काँकरोली से प्रकाशित 'प्राचीनवार्तारहस्य', पृ०२१-२२)
(१०) चौरासी बौद्ध सिद्ध
१ लूहिपा २ लीलापा
३ विरूपा
४ डोम्भिपा ५ शबरीपा ६ सरहपा ७ कंकालोपा ८ मीनपा ९गोरक्षपा १० चोरङ्गिपा ११ वीणपा १२ शान्तिपा १३ तन्तिपा १४ चमरिपा १५ खड्गपा १६ नागार्जुन
१७ कण्हपा १८ कर्गरिपा १९ थगनपा २० नारोपा २१ शालीपा २२ तिलोपा २३ छत्रपा २४ भद्रपा २५ दो खंधि २६ अजोगिपा २७ कालपा २८ धौम्मिपा २९ कंकणपा ३० कमरिपा ३१ डोंगिपा ३२ भेदपा
३३ तंधेपा ३४ कुकुरिपा ३५ कुचिपा ३६ धर्मपा ३७ महीपा ३८ अचिंतिपा ३९ मलहपा ४० नलिनपा ४१ भूसकुपा ४२ इन्द्रभूत ४३ मेकोपा ४४ कुठालिपा ४५ कुमारि ४६ जालन्धरपा ४७ राहलपा ४८ घरिपा
४९ धोकरिपा ५० मंदनीपा ५१ पंकजपा ५२ घंटापा ५३ जोगीपा ५४ चेलुकपा ५५ गुंडरिपा ५६ लुचिकपा ५७ निर्गुणपा ५८ जयानन्त ५९ चर्पटीपा ६० चम्पकपा ६१ भिखनपा ६२ मलिपा ६३ कुमरिपा ६४ चवरिपा
[ २७
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६५ मणिभद्रा ६६ मेखलापा ६७ कनखलापा ६८ कलकलपा ६९ कन्तालीपा
७० धहुलिपा ७१ उधलिपा ७२ कपालपा ७३ किलपा ७४ सागरपा
७५ सर्वभक्षपा ७६ नगोधिपा ७७दारिकपा ७८ पुतुलिपा ७९ पनमा
८० कोकालिपा ८१ अनंगपा ५२ लक्ष्मीकरा ८३ समुद्रपा ८४ मालिपा ( 'गंगा' के पुरातत्वक, पृ०२२१)
(११) चौरासी सिद्ध
१ सीलनाथ २ गोरक्षनाथ ३ चौरङ्गीनाथ ४ चामारीनाथ ५ तन्तिपा ६ हलिपा ७ केदारिपा ८ ढोङ्गपा ९ दारिपा १० विरुपा ११ कपाली १२ कमारी १३ कान्हकन १४ खल १५ मेखल १६ उन्मन १७ कान्तलि १८ धोबी १९ जालन्धर २० जेङ्गी २१ मरह ( सरह)
२२ नागाज्जुन २३ दौली २४ भिषणि २५ अचिति २६ चम्पक २७ मेटिली २८ चेण्टस २९ भूसुरी ३० धाकलि ३१ कूनजी ३२ चर्पटि ३३ भादे ३४ चान्दून ३५ कामरि ३६ कश्वत ३७ धम्मपा ३८ पतङ्गभद्र ३९ पातलिभद्र ४० पालिहित ४१ भाण्ड ४२ मीनी
४३ निर्दय ४४ सबर ४५ सान्ति ४६ भर्तृहरि ४७ मीसन ४८ मटी ४९ गगगपा ५० गमार ५१ मेण्डरा ५२ कुमारी ५३ जीवन ५४ अघोसाधर ५५ गिरिवर ५६ सीयारी ५७ नागवालि ५८ धिमरह ५९ सारङ्ग ६० विविकिधज ६१ मगरधज ६२ अचित ६३ विचित
६४ नेवक ६५ चाटल ६६ नायन ६७ मीली ६८ पाहिल ६९ पासल ७० कमल ७१ कंगारी ७२ चिपिल ७३ गोविन्द ७४ भीम ७५ भैरव ७६ भद्र ७७ भमरी ७८ भूरुकुटि
( रॉयल एशियेटिक सोसायटो कलकत्ता से प्रकाशित १४वीं शताब्दी के 'वर्णरत्नाकर', पृ० ५७-५८)
२९]
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(१२) चौरासी जाति ( पृथ्वीचन्द्रचरित्र, सं० १४७८)
१ श्री श्रीमाली २ उसवाल ३ वाघेरवाल ४ ड डू ५ पुष्करवाल ६ डीसावाल ७ मेडतवाल ८ भाभू ९ सूराणा १० छत्रवाल ११ दोहिल १२ सोली १३ खडवड १४ खंडेरवाल १५ पोरू आड १६ गूजर १७ मोद १८ नागर १९ जालहरा २० खडाइता २१ कपोल २२ जाम्बू
२३ वायडा २४ वाब २५ दसउरा २६ करहीया २७ नागद्रहा २८ मेवाडा २९ भटेउरा ३० कथरा ३१ नरसिंहउरा ३२ हारल ३३ पंचम वंश ३४ सिर खडला ३५ कमोह ३६ रोतकी ३७ अगरवाल १ ३८ जिणाणी ३९ बांभ ४० घांघ ४१ पातहाउत ४२ उचित ४३ वसाडू ४४ अहिछत्रवाल
४५ श्रीगउड ४६ वाल्मीकि ४७ टाकी ४८ तलटा ४९ तिसउरा ५० अठवग्री ५१ लाडीसाखा ५२ बधनउरा ५३ सुहउवाल ५४ बीघ ५५ पद्मावती ५६ नीमा ५७ जेहराणा ५८ माथुर ५९ धाकड़ ६० पल्लीबाल ६१ हरसउरा ६२ चित्रउडा ६३ गोला ६४ गहिबरिया ६५ लोहाणा ६६ भाटीया
६७ नागउरा ६८ सतला ६९ कडकोलापुरी ७० रायकवाल ७१ पेसीपा ७२ पेरूया ७३ गोमित्री ७४ नारायण ७५ टीटू ७६ गजउडा ७७ गोखरूआ ७८ अजयमेरा ७९ कंडोलीया ८० कायस्थ ८१ आणन्दउरा ८२ सगउडा ८३ सीहउरा ८४ जेसवाल ८५ नादेवा ८६ जाइलवाल ८७ चापेल
(१३) चौरासी जाति ( सं० १५०० पूर्व मोहम्मद शाह के समय में)
१ श्री श्रीमाल २ पोरुआड ३ ओसवाल ४ डीसावाला
७ वघेरवाल ८ भामु खण्ड ९ मेडतावाल १० दाहिण ११ सुराणा १२ खण्डेरवाल
१३ कथरुटिया १४ कोरंटवाल १५ जोधसोन १६ जाइल वाल १७ नागर १८ नाणावाल
१९ खडायता २० पल्लीवाल २१ जालहरा २२ वापडा २३ चित्रवाल २४ छांया
६हासुरा
[ २९
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२५ कपोल २६ पुष्करवाल २७ जंबूहरा २८ नागद्रहा २९ सुडवाल ३० मुढेरा ३१ करहिया ३२ उग्रवाल ३३ वांभण ३४ अच्चितवाल ३५ श्रीगुड ३६ गूजर ३७ श्रीमालप्रौढ ३८ अडालिजा ३९ माडलिआ ४० गांभूआ
४१ मोढ ४२ लाडूआ श्रीमाली ४३ लाड ४४ जागड ४५ सोरठिआ ४६ पोरू आड
( नयसरुस्तकी) ४७ नरसींघउरा ४८ हालर ४९ पञ्चम ५० काथउरा ५१ वाल्मीक ५२ कम्बोतिसुरा ५३ तेलुहटा ५४ अटवग्री ५५ वघपुरा
५६ सिरिखंडेरा ५७ मेवाडा ५८ भोडिआडा ५९ कारजिण्णडा ६० जेहराना ६१ सोहरिआ ६२ धावड़ा ६३ मुहवरवा ६४ भडिया ६५ भुंगडिया ६६ कुंवड ६७ नीमा ६८ मडाहटा ६९ ब्राह्मण ७० वागडु ७१ चीलउडा
७२ वीघु ७३ माथर ७४ नाउरा ७५ पदमावती ७६ काकली ७७ आणदुरा ७८ सांडर ७९ साचुरा ८० गोलावाल ८१ राजउरा ५२ वाडीसखा ८३ छोसखा ८४ चउसखा ('श्रीमालीज्ञातिवर्णभेद', पृ. २३३)
(१४) चौरासी जाति (विमल प्रबन्ध, सं० १५६२)
१ श्रीमाल २ पोरवाड़ ३ ओसवाल ४ गूजर ५ डीडू ६ दीसावाल ७ खडायता ८ स्त्रंडेर ९ खंडोल १० कठिणुरा ११ काकिला १२ कपोल १३ नाइल १४ नागर
१५ नाणावाल १६ प्रौढ़लाड १७ लाडुआ श्रीमाल १८ हालर १९ हरसुरा २० डंबडा २१ श्रीगुड़ २२ जालुहरा २३ जागड २४ धाकडिया २५ भूड़या २६ भूगड़ २७ ब्राह्मण २८ वीधू
२९ वायड ३० शांभू ३१ अड लिजा ३२ मोढ ३३ मांडलिया ३४ पंचम ३५ पुस्कर ३६ जम्बूसरा ३७ सुहटवाल ३८ मंडोवरा ३९ अच्छति ४० अच्छतिवाल ४१ सुरहिया ४२ माथर
४३ कम्बोजा ४४ करहिया ४५ पोरुआड ४६ सोरठिया ४७ पल्लीवाल ४८ मडाहड ४९ मंडोरा ५० मेवाडा ५१ वाल्मीक ५२ धावा ५३ चित्रावाल ५४ वघेर ५५ नरसंगरा ५६ हारखंडेर
३० ]
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५७ भूमा ५८ नाग्रद्रह ५९ उग्रवाल ६० वाबर ६१ बधणुरा (धीणोज) ६२ वसुर ६३ अस्थिको ६४ अस्टवग्री
६५ पद्मोदकी ६६ गोलवाल ६७ नागुरा (नगौरी) ६८ तेराटा ६९ साचोरा ७० भोडेरा ७१ जेराणा ७२ नीभानी
७३ वरठीया ७४ कारटावाल ७५ दाहिध ७६ सोन साथ ७७ मपाल ७८ राजगाखा ७९ लघशाखा ८० वड़ी शाखा
८१ वेशाखा २ चोशाखा ३ सुराणा ८४ राजुरा ८५ मेलितवाल ८६ मुड़ेरा ८७ आणंदुरा ८८ वांगलीम
(१५) चौरासी ज्ञाति
१ श्रीमाली २ ओसवाल ३ गुजर ४ अरवाल ५ ऊँचवाल ६ भटनागरा ७ चीत्रोडा ८ धूसड़ा ९ भटेरा १० नीमा ११ धाकड़ १२ वीज १३ नागर १४ नागरीआ १५ गोडोया १६ गोहरीया १७ मायर १८ उम्बड १९ सीवाणा २० आगरीआ २१ सूरवाल .२२ सष्टेम
२३ डीलावाल २४ मोढ २५ वलहीया २६ वायडा २७ कन्हड २८ टाक २९ पवई ३० मढेशा ३१ कायस्त ३२ सांम वाचना ३३ गांगराडा ३४ छापणीया ३५ पोखाड ३६ जागडा पोखाड ३७ भइसिराअ ३८ सोरठीया ३९ मढकेशरा ४० पोगड
(मुकुटेश्वर जाता ) ४१ पौरुआड धनेरा
(धनाकर नगरे जाता) ४२ कम्बना
४३ नागरहा ४४ सरसईया ४५ गूजर गोड ४६ श्रीगउड ४७ मेवाडा ४८ खडायता ४९ कपोल ५० जालेरा ५१ वीतू ५२ करहीया ५३ गालागा ५४ लाड ५५ सेहरा ५६ जयवाल ५७ पद्मावती मेखाड़ ५८ लम्बेचा ५९ गोलराडा ६० गौलसिंगारा ६१ कांथर ६२ पूर्वा ६३ गोला ६४ अवधपुरीया
६५ पद्मावतीसुत ६६ मरहठा ६७ पंचम ६८ हलहर ६९ नरसाघोर ७० सोरोहीया ७१ गयवरा ७२ दसवापोखाड ७३ गूजर पोखाड ७४ अणदोरा ७५ कुंकण ७६ कपोलवाल ७७ कषेला ७८ कयरवाल ७९ करणूसीया ५० कलंसीया ८१ दट्ठर ८२ कुण्डलपुरी ८३ से रडवाल ८४ अमदामना (सौभाग्यनंदी सूरिरचित 'विमलचरित्र' . सं०५१७८)
[ ३१
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(१६) चौरासी ज्ञाति (वस्तराम रचित बुद्धिविलास से) १ गोलापूर्व २३ गोरीवाड
४५ नलमा
६७ नखपापन २ गोलाराडा २४ कठनेरी
४६ हूँनरा
६८ सिरवायल ३ लुम्बेचू २५ घीडला साणी
४७ दहवड
६९ काफडवाल ४ गोलसिंगारा २६ मसराहेरा
४८ रायकडा
७० जेनसंगवाल ५ खण्डेलवाल २७ धकडा
४९ चतुरथ पंचम ७१ श्रवणपगा ६ जेसलवाल २८ गूजरवालीया
५० वनचोडा
७२ हुमंड ७ बघेरवाल २९ मारगडा
५१ चंचलवाल
७३ लित्रिया ८ अगरवाल ३० वेरवडा
५२ गोरा
७४ वोसवाल ९ सहिलवाल ३१ पल्लीवाल
५३ करमगौत
७५ वुदोजिया १० खांप-पुखार ३२ गगरिकए
५४ श्रीमाल
७६ पोसव ११ अठ सखा ३३ सेतरिया
५५ चिडकरा
७७ कछर जनडा १२ चउसखा ३४ निगमा
५६ विकोरा
७८ कोरड वाल १३ सहसरडा ३५ गुजराती
५७ मदवेवाल
७९ खंड दूता १४ दो सखा ३६ मेवाडा
५८ लीगरा
८० मेडतवाल १५ सोरठिया ३७ सरुछपा
५९ कमटी
८१ अहिछत्र १६ जाँगड ३८ खखाखंडावता
६० नुतपा
८२ दोहला १७ पद्मावत्या ३९ नागद्रहा
६१ तुस्नासिरी ८३ हरासूरा १८ ढसर १० नरप घोड़ा
६२ कचगार
८४ डीडूहा १९ वरहासेणी ४१ बेपानश्रा
६३ हपगार
८५ वसीठ २० खंथडवाल ४२ चितौडा
६४ ब्राह्मना
८६ लरीगुल २१ सचाणा ४३ तेतरधरा
६५ लौगार
८७ पहकरवाल २२ अयोध्यापुरी ४४ सीदरा
६६ द्रावड
(१७) चौरासी जैन आगम (जैन ग्रन्थावली से ) १ आचारांग ८ अन्तगड दशा
१५ पन्नवगा
२२ पुष्पचूलिया २ सूयगडांग ९ अनुत्तरोवबाई
१६ जम्बूद्वीपपन्नति २३ वन्हिदआ ३ अणांग १० प्रश्न व्याकरण
१७ चन्द पन्नति २४ निशीथ ४ समवायांग ११ विपाक
१८ सूर्य पन्नति २५ महानिशीथ ५ भगवती १२ उबवाई
१९ कप्पिया
२६ वृहत्कल्प ६ ज्ञाताधर्मकथा १३ रायप्पसेणीय
२० कप्पवडंसिया २७ व्यवहार ७ उपाशक दशा १४ जीवाभिगम
२१ पुप्फिया
२८ दशाश्रुतस्कन्ध * इस ग्रन्थ का विशेष परिचय जैन सिद्धांतभास्कर में प्रकाशित मेरे लेख में देखें ।
३२ ]
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२९ आवश्यक ३० दशवैकालिक ३१ उत्तराध्ययन ३२ नन्दी ३३ अनुयोगद्वार ३४ कल्प ३५ जीतकल्प ३६ श्राद्धजोत कल्प ३७ पाक्षिक ३८ क्षामणा ३९ वदितु ४० ऋषिभाषित ४१ यतिजीत कल्प ४२ विशेषावश्यक
४३ चउशरण ४४ आउरपच्चकरण वाल ४५ भक्त परिज्ञा ४६ संथार पयन्ना ४७ तन्दुलवेयालीय ४८ चन्दाविज्जय ४९ देविदत्थओ ५० गणिविज्जा ५१ महापच्चवखाण ५२ मरणसमाधि ५३ वीरस्तव ५४ अजीवकल्प ५५ गच्छाचार ५६ सिद्धप्रामृत
५७ तीर्थोद्गार ५८ आराधनापताका ५९ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ६० ज्योतिषकरण्डक ६१ अङ्गविद्या ६२ तिथि प्रकीर्णक ६३ सारावली ६४ पर्यन्ताराधना ६५ जीवविभक्ति ६६ कवच ६७ योनिप्राभूत ६८ अङ्गचूलिया ६९ वङ्गचूलिया ७० वृद्धचतुःशरण
७१ जम्बूपयन्ना ७२ आवश्यक नियुक्ति ७३ दशवकालिक . ७४ उत्तराध्ययन .. ७५ आचाराङ्ग ७६ सुयगडांग ७७ वृहतकल्प ७८ दशाश्रुत ७९ कल्प ८० पिण्ड ८१ ओध
२ संसक्त ८३ व्यवहार ८४ पिण्डविशुद्धि
(१८) कुन्दकुन्दाचायं कृत चौरासी पाहुड"
१ समयसार २ पंचास्तिकाय ३ प्रवचनसार ४ अष्ट ५ लब्धि ६ बन्ध ७ नियमसार ८ जेणीसार ९ क्रियासार १० आहारणा ११ रयणसार १२ पट १३ तत्वसार
१४ भावसार १५ अगल १६ क्षपण १७ द्रव्य १८ बोधि १९ क्रम २० पुय २१ विद्या २२ उद्यात २३ दृष्टि २४ सिद्धान्त २५ लोय २६ चरण
२७ समवाय २८ नय २९ प्रकृति ३० चूर्णी ३१ पंच वर्ग ३२ एयंम ३३ कर्मविपाय ३४ विहिया ३५ वस्तु ३६ सूत्र ३७ बुद्धि ३८ पयद्ध ३९ उत्पाद
४० दिव्व ४१ सिक्खा ४२ जीव १३ आचार ४४ स्थान ४५ प्रमाण ४६ आलाप ४७ चूली ४८ परदर्शन ४९ नौकम्मा ५० संठाक्ष ५१ निताय ५२ सालमी इत्यादि
- *हि० जैनग्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ से उद्धत।
३३]
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(१९) चौरासी रत्न
१ पदमराग २ पुष्पराग ३ पन्ना ४ कर्केतन ५ बज्र ६ बैडर्य ७ चन्द्रकान्त ८ सूर्यकान्त ९ क्रान्ति १० नील ११ महानील १२ इन्दुनील १३ रोगहार १४ ज्वरहार १५ विभवक
१६ विपहर १७ शूलहर १८ शत्रहरन १९ रुचक २० राग २१ कार लोहिताक्ष २२ विद्रम २३ मसाल २४ हंसगर्म २५ विमर २६ अम्ब ( अंबू) २७ अंजन २८ अरिष्ट २९ शुद्धामुक्ता ३० कान्त
३१ शिवकर ३२ कौस्तुभ ३३ प्रमानाथ ३४ शिवकन्त ३५ वीतसोग ३६ महाभाग ३७ सोगन्ध ३८ रत्नगंमोदमणि ३९ प्रभंकर ४० सौभाग ४१ अपराजित ४२ कोटीय ४३ पुलक ४४ सुभग ४५ धृतिकरि
४६ ज्योतिसार ४७ गुजरात ४८ स्वेतरुचि ४९ पुष्टिकर ५० हंसमाल ५१ अंसमालि ५२ देवानंद ५३ फाटिकखीर ५४ तेलफाटिक ५५ चंदह ५६ नरमेंडकमणि ५७ गरुडोद्धार ५८ भुयंगमणि ५९ चिन्तामणि (तत्वकुमार रचित रत्नपरीक्षा से)
(२०) चौरासी रत्न
१ हीरा २ मोती ३ माणक ४ पन्ना ५ नीलम ६ लहसूनिया ७ मूंगा ८ पुखराज ९ गोमेदक १० लालडी ११ पिरोजा १२ एमेनी
१३ जदर जद १४ अपिल १५ तुरमली १६ नर्म १७ सुनेला १८ घुनेला १९ कटेला २० सितारा २१ स्फटिक २२ गोदन्त २३ नामडा २४ लुधिया
२५ मरियन २६ मकनातीस २७ सिंदुरिया २८ लिलि २९ बेरूज ३० मरगज ३१ पितोनिया ३२ देसी ३३ पुरैनफज ३४ सुलेमानी ३५ अलेमानी ३६ जजेमानी
३७ सांवोर ३८ तुरसावा ३९ अहवा ४० लाजावर्त ४१ कुदूएत ४२ आवरी ४३ चीती ४४ संगेसम ४५ मारवर ४६ लाँस ४७ दानाफिरंग ४८ कसौटी
३४]
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४९ दारचना ५० हकीकुलबहार ५१ हालन ५२ सिजरी ५३ मुर्वनज्म ५४ कहरवा ५५ झरना ५६ संगेबसरी ५७ दांतला
५८ मकडी ५९ संखिया ६० गुदङी ६१ कांसला ६२ सिफरी ६३ हदीद ६४ सीगली ६५ हवास ६६ ढेङी
६७ हक़ीक ६८ गौरी ६९ सीया ७० सीमाक ७१ मूसा ७२ पनधन ७३ आमलिया ७४ डूर ७५ तिलवर
७६ खारा ७७ सीरखडी ७८ जहरीमोरा ७९ रात ८० सोहन मक्खी ८१ हज़रते ऊह ८२ सुरमा ८३ पाय ज़हर ८४ पारस
(श्री सूर्य नारायण जी व्यास के विक्रम ( अगस्त १९४४ ) में प्रकाशित 'रत्नों की वैज्ञानिक उपादेयता और परिचय' शीर्षक लेख से उद्ध त । आपका उक्त लेख कुछ संशोधन परिवर्तन के साथ पारिजात के द्वितीय अंक में 'रत्न-परिचय के नाम से प्रकाशित हुआ है।)
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वगेरा शास्त्रांरा मोटा पिंडत हा। लाभू वा टावरपणांमें उगां कन शास्त्रांरो ग्यान सीखियो । टावरपणांमें सीखियोड़ा इग ग्यानसं लाभू व.वो बिना पढियाँ हीज पिंडत हुग्यो हो। उगनै शास्त्रां और पुराणां तथा इतिहासरी कुण जग कित्ती वातां याद ही। लाभू वावो मणियोड़ो . कोनी हो पण ग्यानमें वडा-वडा भणिंयोड़ान छेड़े वैसाणतो। लाभू बाबो कह्या करतो-नाणों अंटरो. विद्या कंठरी।
लाभू बाबो
लाभू-वाबो म्हारा घर में चाळीस वरसांसं कम को रह्यो नी। दो अकेलो जको काम करतो वो आज चार आदमियांसू कोनी हुदै। झांझरके च्यार बज्यां उठतो। उठनै भजन करतो। पर्छ सगळा घरमें बुवारी देतो. पाणी छाणतो, बिलोवणो करतो पोटा थापतो, ठाणारी सफई करतो, गायां-भैस्यां नै पागी पांवतो अर नीरो नाखतो। पछै दूजा काम करतो।
लाभू बाबो ठेटू वासिंदो किसे गांवरो हो आ तो मालम कोनी पण म्हारा बापोतो रा गांव डांडूसरमें परणियो हो जिणसुं म्हे तो उणने उठारो ही समझता। धोला मूंढारो छोरो, जवान, हो जदसं ही म्हारा घर में रेवतो आयो हो। हो तो बो दो रुपियाँरी महीनदार
पण म्हारा घररा लोगां उणने कदेई नौकर को समझियोनी। . कांई छोटा अर कांई वडा-सगला उगरो आदर करता ।
बड़ा लोग लाभू. लुगायां लाभूजी और म्हे टावर लाभू वाबो कर बतलावता। बाररा लोग लाभू वावे ने म्हारा ही घर रो आदमी समझता। लाभू बावो आप म्हारा घरनै ही आपरो घर समझतो। टावरपणां में म्हे उगरे सागै जीमियोड़ा हां।
म्हारै हुँडी-चिठ्ठीरो काम हुतो। लोट चाळिया कोनो हा. हजार रूपिया रोकड़ी लावण-लेज्यावण रो काम पड़तो। ओ सगलो काम लाभू बाबो करतो । भणियोड़ो अंक आखर को हो नी पण लावू रूपियांरो काम भुगता देतो और कदेई-अंक पईसारी ही भूल को पड़ी नी।
लाभू बाबो गोरा रंग रो, तकड़ा शरीर रो अर सपेत दाड़ीरो पैसो जवान हो। दोवटीरी जाडी धोती
और बंडी पैरतो। माथा माथे मुलमुल री पाग बाँधी राखतो। गळामें हरद्वारी कंठी और हाथमें काठरा मिणियारी माळा हर दम रेवती। सीयाळामें देसी जनरी कामळ ओढतो। ओ लाभू बाबारो पैरेस हो।
गांव-गोठरी बोरगत हुणैसू म्हारै अठे वारलो फेटो घणो हो। रोज दस-पांच आदमी आया-गया रैवता। उग दिनांमें कळरी चक्की तो ही कोनी. हाथरूं आटो पीसणो पड़तो। पीसारगियां आटो पीसती। लाभू बावे थकां ऐन मौके आटारा फोड़ा कदेई को देखणा पड़ता नी। बिना कह्यां आधी रातरा उठ-नै घमड़-धमड़ दंदां नाखतो दिन जगतो जद आधमण आटो त्यार ।
लाभू बाबो जातरो मंडीवाळ धनावंसी साध हो। बापरो नांव श्रीकिसनदास. काकारो बुद्धरदास अर भाईरो नांव आणदो हो। काको बुद्धरदासजी रामायण, महाभारत
लाभू बाबो काम करणनं सदा जाणे त्यार होज रेवतो। हरेक आदमीरो काम निःस्वार्थ भावसं करतो । घररो तो कांई, गवाड़रो भी कोई जणो काम वास्सै बकारतो तो उत्तर को देतो नी। हेलो सुणता पाण झट वोलतो
[३६
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जवानी में लाभू बाबो धणो तागतवर हो। एक वार बडा दादाजी दानमलजी री हवेली चिणीजती ही जद पथरांरी रांस चढ़ावगवासतै हमालांनै बुलाया। दस-दस मणर भारी एकलिया देखने हमालां जीभ काढ दी। जद सेठां लभू बाबा नै बकारियो। लाभू बाबै अकेले वै दस-दस मगरा अॅकलिया चढा दिया। जतियांरी हालत देखरै लाभू बाबो कह्या करतो
केइ जती सेवड़ा सिर मंडा । करमां-री गतसू हुआ मुंडा ॥
आयो । जीमतो हुतो तो थाळी छोड किनारे हाथ धोयनं जा हाजर हुतो। कैई काममें रूधियोड़ो हुतो तोई आ कदेई का कैवतो नी कै फलाणो काम करू' हूँ। एक 'आयो' शब्द हीज सदा मूंढासू नीकालतो। लाभू वावो कैंवतो-'हं फलाणो काम करूहूं' इयांन कणो एक तरांसं उत्तर देणो है। काम रो उत्तर देणो लाभू बावो जाणतो ही कोनी हो।
टावरांनै, विशेषकर म्हां तीनांनै-काकोजी मेघराजजी, काकोजी अगरचंदजो और मनै, बड़ी हीयालीसं राखतो। एकने गोदीमें, दूजानै खांधा माथै अर तीजानै मगरां माथै राखियां काम करतो तो। म्हांन घणा ओखाणा अर दुहा सुणावतो। सिंझ्या पड़ती जद म्हे लाभ वावान वात केवण वासतै पकड़न वैठाय लेता। बाबो म्हारी फरमास अर रूचि मुजव वातां सुणावतो-कदे रामायणरी, कदेई महाभारतरी, कदेई इतिहासरी, कदेई धूजीपी, कदेई प्रहलादरी. कदेई नरसीजीरा माहेरारी।
लाभू बाबो रामरो भगत, कर्तव्यशील और निर्लोभी हो। शास्त्रां कथावारा आदर्श बाबै आपरा जीवण में उतारिया । दिन-रात, काम करतां बखत भी. मूंढामें राम रौ नाव हरदम रैवतो काम करतो जांवतो अर भजन गावतो जातो। म्हारा घरसूं लाभू बावाने दो रुपिया महीनो मिलतो। भला-भला साहूकारां पनरै रुपिया महीनों नै रोटी-कपड़ो धामियो पण लाभू बाबै दूजै घर नौकरी नहीं करी स नहीं करी। लाभू बाबो प्रेम रोमखो हो, टकारो लोभी को हो नी।
लाभू बाबो कई भेख, जीमण, जीवतखर्च आपरा नै आपरी सामणरा करिया। हिन्दू और जैन तीरथारी जात्रावां करी । और मरतो सईकडू रुपिया आपरी लुगाई मोलार वासतै छोडग्यो । दो-च्यार रुपिया कमावण आळो आदमी किण भाँत सुखी जीवण विता सके. लाभ बाबो इणरो प्रतख उदाहरण हो।
लाभू वावै आपरा जीवणरा शेष दिन गांव में गालिया। माँचा माथै बैठो-सूतो हरदम भजन करतो रैवतो। म्हों टाबरौं नै देखण सिवाय कैई वात-री मन में ई कोनी ही । पिताजी मिलण वासतै गाँव गया जद उणाने आया सुणताँ पाण उभाणे पगाँ सौ पाँवडाँ साम्हो आयो। लोगाँने घणो अचरज हुयो के आज बाबारा बूढा पगाँमें इती शक्ति कठासू आयगी।
लाम बाबोन स्वर्गवासी हुयाँ आज घणा वरस हुग्या है पण म्हारा मनमें बाबारी अर बाबारा गुगाँरी याद आज ताणी ताजी है।
३७]
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में राजा विट्ठलदास गौड़को यह जागीर में मिला पर
औरङ्गजेब ने वापिस ले लिया। तत्पश्चात् मुगल सल्तनत की कमजोर हालत में मराठों के आक्रमण से रक्षा करने में असमर्थ हो किलेदार ने जयपुर वालों को बिना शर्त दुर्ग सुपुर्द कर दिया और मराठों से रक्षा पायी। तवसे यह अजेय दुर्ग जयपुर राज्य के आधीन है।
मेरी रणथंभौर यात्रा
जैन साहित्य से रणथंभौर का पुरना सम्बन्ध है। १२ वीं शती में हरिसउरगच्छीय राजा कर्ण से मलधारिविरुद-प्रप्त श्री अभयदेवसूरि के आणा लेख से प्रथम
पृथ्वीराज ने अत्रस्थ जिनालयपर स्वर्णमयध्वजदण्ड चढ़ाये भारतवर्ष के सुदृढ़ और अत्यन्त सुरक्षित प्राचीन
थे जिसका उल्लेख पत्तनभाण्डागारीय ताड़पत्रीय दुर्गों में रणथंभौर एक विशिष्ट, महत्वपूर्ण एवं इतिहास
पद्मदेवकृत 'सद्गुरू पद्धति में इस प्रकार है प्रसिद्ध दुर्ग है। दूसरे अनेक दुर्गों की भाँति इसका रणथंभपुरे आणालेहेणं जस्स संभरिंदेग। निर्माण भी चौहानों ने करवाया था। शरणागत-प्रति
हेमधयदंडमिसओ निच्च नच्चाविया कित्ती ||३|| पालक राव हमीर का हठ * प्रसिद्ध है। उस प्रतापी
श्री चन्द्रसूरि-कृत 'मुनिसुव्रतचरित्र' में निम्नोक्त गाथा और शक्तिसम्पन्न नरेश्वर ने अपनी राज्य, ऋद्धि
इसी वृतान्त की पुष्टि करती है एवं प्राण तक गंवाये परन्तु शरणागत चार मुगलोको
पुहवीरायेण सयंभरी नरिंदेण जस्स लेहेण । सुलतान के सुपुर्द न कर आर्य संस्कृति के गौरव की
रणखंभउरजिणाहरे चडाविया कणयकलसा ॥ सुरक्षा की। हमीर ने सुलतान को परास्त कर दिया पर यवनों के भावी उत्कर्ष-योग से रानियाँ जलकर
इसी प्रकार विजयसिंहसूरि ने 'धर्मोपदेश विवरण' में भस्म हो गयीं, तथा हमीर का सारा उत्साह-शौर्य
उल्लेख किया है किअस्तंगत हो गया। वीरभूमि रणथंभौर पर यवनों का
यस्य संदेसकेनापि पृथ्वीराजेन भूभुजा। अधिकार हो गया। तदनन्तर मालवा मेवाड़ के शासकों
रणस्तंभपुरे न्यस्तः स्वर्णकभो जिनालये ।। के अधिकार में रहने के अनन्तर फिर मुसलमानों के इन अवतरणों में जिस जिनालय का उल्लेख है, अधिकार में आ गया। बादको चौहानों की सहायता से सम्भवतः मुसलमानी शासन में वह नष्ट हो चुका होगा। हाडा राजपूतोंने मुगल किलेदार जुझारखाँ से किला इसके बाद भी रणथंभौर से जैनाचार्यों का सम्बन्ध बराबर छीनकर राव सुर्जन हाडा को सौंपा। सम्राट अकबर रहा है और श्री नयचन्द्रसूरिजो ने हम्मीर महाकाव्य ** ने इसे युद्ध में विजय न कर सकने पर ५२ परगनों की रचना की, जिसके वर्णनों से ग्रन्थकार का रणथंभौर के बदले राव सुर्जन से रणथंभौर ले लिया। सं०१६८८ से सम्बन्ध होना फलित है। * "सिंह-विषय सत्पुरूष वचन फेल फलै इकबार । तिरिया तेल हमीर हठ चढ़े न दूजी बार ॥" ** देखिये नागरी प्रचारिणी पत्रिका वर्ष १२ अङ्क ३ और वर्ष १३ अंक ३ में "हमीर काव्य" नामक जगनलाल गुप्त का लेख ।
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सम्राट अकबर के अधिकार में आनेके पश्चात् सम्राद् अकबर के कृपापात्र कछवाहा वंशीय महाराजाधिराज जगन्नाथ के अधिकार में रणथंभौर होने का उल्लेख जेन कवि रत्नकुश जंगणि कृत 'लीमसीभाग्याभ्युदय में आता है। इस महाकाव्य के अनुसार महाराजा जगन्नाथ ने तोडानगर निवासी अग्रवाल गर्गगोत्रीय श्वेताम्बर जैन मन्त्रीश्वर खीनसी को बुलाकर सं० १६४६ पौष शुक्ला हेलि तिथि पुष्य नक्षत्र के दिन उसे "मन्त्रीश्वर" पदारूढ़ किया था इन्हीं मन्त्रीश्वर ने रणथंभौर दुर्ग में कीर्तिस्तम्भ के सदृश्य जिनालय कराके उसमें बड़े समारोह के साथ १९ वें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ प्रभु को भव्य प्रतिमः प्रतिष्ठित करायी थी । अभी रणस्तंभपुर में दुर्ग पर केवल एक जैन मन्दिर है जिसमें श्री सुमतिनाथ जी की प्रतिमा विराजमान है जो श्वेताम्बराचार्यप्रतिष्ठित है। प्रतिमा पची की हुई नहीं है। नहीं कहा जा सकता कि यह मन्दिर वही सीमसी मन्त्रीश्वर कारित है या अन्य है। किले ( पहाड़ी ) के निम्नभाग में भी जैन मन्दिर था जो अब खण्डहर होगया है । वहाँ जंगली पशुओं का अड्डा होने की सूचना भी वहाँ वालों से मिली थी।
सतरहवीं शती के जैन कवि कनकसोम, जो अकबर आमन्त्रित खरतरगच्छाचार्य युगप्रधान श्री जिनचन्द्र सूरिजी के साथ सं० १६४८ में लाहौर गये थे, भी रणथंभौर पधारे थे और उन्होंने 'नेमिफाग' नामक रचना भी यहीं की थी, जैसा कि उसके निम्न अंश से प्रकट है
नेमि चले अविचल पदइ हो धन-धन प्रीतम राग । कनकसोम इण परिरच्यो, गढ़-गिणथंभर फाग ||३०||
इसी प्रकार एक अज्ञात जैन कवि ने सं० १६२५ में साह चोखा के अनुरोध से 'सीताप्रबन्ध' की रचना की थी, जिसकी अन्तिम गाथा इस प्रकार है
संवत सोल अठवीस वर्षे. गढ रिणथंभर अति ही जगीसह ।
साह चोखा कहन थी कीयउ सेवक जननि सिवसुस दीयउ ||३४९||
सं० १६६७ में आगरा से श्री विजयसेनसूरिजी को भेजे गये विज्ञप्तिपत्र से प्रमाणित है कि उपर्युक्त संवत् में १२ दिन की पर्युषण पर्व सम्बन्धी अमारि दूसरे देशों की भाँति रणथंभौर में भी पालन की गई थी ।
श्रीयुत् मेरुदानजी साहव हाकिम कोठारी के यहाँ १० सुन्दर विशाल चित्र अकबरनामा से सम्बन्धित लगे हुए हैं, जिनमें रणथंभौर से सम्बन्धित ४ चित्र हैं जो बड़े ही सुन्दर और महत्वपूर्ण है। इनका साईज २०×१० इंच है। इन चित्रों के नीचे निम्नोक्त परिचय लिखा हुआ है
१) अकबर की फौजें सन् १५६८ में रणथंभौर किले में राव सरजन को घेर रही हैं।
२) रणथंभौर किले पर अकबर धावे के समय तोपों को वेलों द्वारा पहाड़ी पर ले जा रहा है।
३) सन् १५६८ में रणथंभौर किले पर अकबर राव सरजनहारा के विरुद्ध धावा कर रहे हैं।
४) सन् १५६८ में राय सरजनहारा की अधीनता स्वीकार करने के बाद अकबर रणथंभौर किले में प्रवेश कर रहा है।
इन चित्रों में रणथंभौर दुर्ग का जैसा तत्कालीन दृश्य दिखाया गया है. दुर्ग की वर्तमान परिस्थिति से तुलना करने पर बड़ा ही परिताप होता है। जहाँ मीलों की दूरी में ऊपर और दुर्ग के नीचे हजारों घरों की बस्ती थी वहाँ आज जनशून्य प्रदेश ही दृष्टिगोचर होता है. जंगल की अधिकता से प्रतिदिन पचासों ऊँटों से लकड़ी के कोयले बनाकर सवाई माधोपुर लाये जाते हैं। और बिक्री किये जाते हैं तथा बाहर चालान किये जाते हैं । वहाँ जलाशयों को बाँधकर विद्युत उत्पन्न करने की
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जयपुर राज्य की स्कीम है, जिसके फलीभूत होने से बने हुए हैं। चार-चार दरवाजों को पार करने पर दुर्गखेती-बाड़ी तथा इतर उद्योग - धन्धों में उन्नति हो। प्रवेश होता है। प्रत्येक प्रतोली का द्वार लोहे के मोटे सकती है।
पतरों से जड़ा हुआ है. जिन पर ताम्र लेख खुदे हुए हैं। उपर्युक्त रणथंभौर दुर्ग देखने की अभिलाषा कुछ ताम्रपत्रों में प्रतोली के भव्य द्वार बनाने वाले शासकदिन पूर्व कोटा में विराजित जैनाचार्य श्री जिनरत्न किलेदार आदि एवं कारीगरों के नाम हैं. जिनमें क्लेिदारों सूरिजी. श्रीमणिसागरसूरिजी महाराज के वन्दनार्थ जाकर
के नाम प्रायः दिगम्बर जैन धर्मावलम्बी श्रावकों के हैं ।* आते हुए पूर्ण हुई। सवाई माधोपुर से ४ कोस ताँगे किले में आजकल कुल ५-१० घरों की बस्ती है । कुछ में जाने पर 'मिसरदरा' के पास हमें ताँगा छोड़ कर पैदल
महलाने, तरिये, मन्दिर, खण्डहरादि के अतिरिक्त अव जाना पड़ा। पहाड़ी रास्ता बड़ा सुन्दर है। उपर्युक्त बाजार इत्यादि कुछ भी नहीं रहे। बाजार का स्थान जहाँ दरवाजे में प्रवेश करते ही बड़े-बड़े जलाशय आते हैं. फिर बतलाया गया वहाँ सकड़ी ग़ली के उभय पक्ष में पत्थरों के ऊँचे-नीचे पहाड़ी रास्ते को तै करने पर मार्ग के बाँयी तरफ ढेर के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं है। एक अत्यन्त प्राचीन मुगलकालीन मस्जिद आती है, जिस पर लोहे विशाल और ऊँची छतरी के पास से है कर जाने से दाहिनी के पात पर पारसी अभिलेख उभरे हुए अक्षरों में उत्कीणित
ओर दो मन्दिर और वायें तरफ महलातों में जाने का मार्ग हैं। आगे जाने पर एक 'दरवाजा आता है। मसरदरे है, जहाँ सिपाही पहरेदार खड़े रहते है और दर्शनीय कुछ के मार्ग में भी कुछ कब्रिस्तान 'आदि बने हुए हैं। यहाँ भी नहीं है। रणथंभौर में श्री गणेशजी का मन्दिर अत्यन्त के पत्थर चित्र-विचित्रित नाना रंग के हैं। हरे रंग के बड़े प्रसिद्ध है। सारे राजस्थान में विवाहादि के अवसर पर जो सुन्दर पाषाण दृष्टिगोचर हुए जो बड़े चिकने हैं। कहा विनायक का गीत प्रारम्भ में गाया जाता है—'रणतभंवर जाता है कि मुगसिलिया पाषाण (मूंग के रङ्ग का ) यहीं सुआयो विनायक' यह इसी रणथंभौर से सम्बन्धित है। है जिसे पुष्करावर्त मेघधारा भी जलाद्र नहीं कर सकती। 'रणतभंवर गढ़ राजस्थानी में अपभ्रष्ट है और संस्कृत में यहाँ के पत्थरों की सवाई माधोपुर में खरल बनती है उसे 'रणस्तंम्भपुर-दुर्ग' कहते हैं। जो बड़ी सुदृढ़ होती है। रणथंभौर दुर्ग पहाड़ी के ऊपर गणेशजी का मन्दिर विशाल सादा और अच्छि स्थिति और नीचे दो भागों में बसा हुआ है । इस दरवाजे में प्रवेश में है। प्राचीन कहलाने पर भी शिल्पकोरणी का नामों करने के पश्चात् पहाड़ी के नीचे की बस्ती आती है। रास्ते निशान भी नहीं है। देखने में बिल्कुल नवीन प्रतीत होता के वायीं ओर जोगी का महल और २-३ छतरियाँ व खण्डहर है। गणेशजी की मूर्ति अवश्य प्राचीन है जो पहाड़ में आते हैं | आगे जाने पर दुर्ग-द्वार के बाहर कुछ मकानों वना हुआ केवल गणेशजी का मस्तक मात्र है। के खण्डहर, कुंआ, गरुड़जी की मूर्ति आदि दृष्टिगोचर होते उसी के सन्मुख मन्दिर निर्माण कर दिया गया है। हैं। किले के मकानात प्रतोली और प्राचीर बड़े ही सुदृढ़ आगे जाने पर और गुफामें उतरने पर गुप्त गङ्गा, हम्मीर के *इन लेखों में से एक लेख नोलखा दरवाजा का यहाँ दिया जाता है: श्रीरामजी श्रीगणेशायनमः ॥ श्री महाराजाधिराज महाराजा श्री श्री श्री श्री श्री सवाई जगत सिंहजी औहचेयत माम समस्त किलेदार साह ज्ञानचन्द कासलीवाल साहालि छै श्री राम खीदुका मुत्सदी किला रणथंभोर का दरवाजा नोलखानीचला कै किवाड़ा की जोड़ी नई वणाय चढ़ाई मिती फागण सुदि ५ शनीश्चरवार संवत् १८६४ काम उसतो खाती खांडे ।
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भांडागार तहखाने बैठने की उतरी आदि चीजें आती है । किले में स्थान-स्थान पर तोपें पड़ी हुई हैं। गुप्त गंगा जिसे कहते हैं गुफा के अन्दर खूब नीचे उतरने पर एक गज लम्बा चौड़ा खड्डा है, जिसका जल अज्ञात मार्ग से परिपूरित रहता है। जल व स्वादिष्ट और स्वच्छ है । गुफा में हिन्दु धर्म मान्य देव मूर्तियाँ भी प्रतिष्ठित हैं । गणेशजी के मन्दिर के पास से एक दूसरा मार्ग जाता है। तीन दरवाजों से निकलने पर बाहर पहाड़ी के ऊपर एक महादेवजी का मन्दिर है जहाँ शिवलिंग के ऊपर निरन्तर पहाड़ झरने का स्वच्छ जल टपकता रहता है। इसके सन्मुख एक पाषाण का मस्तक रखा हुआ है । कहा जाता है कि यह हम्मीर का मस्तक है। प्रवाद है कि हम्मीर जब सारी सेना को परास्त कर उनके झण्डों को छीन कर ला रहा था तब उसकी ५०० रानियाँ शत्रु के झण्डों को दूर से देखकर अपनी पराजय के भ्रम से दारू विछे स्थान में आगी लगाकर भस्म हो गयीं। इस घटना से विजय का हर्प शोक रूप में परिणत हो गया और दुःखी हमीर ने महादेवजी के सम्मुख जाकर तलवार से अपना मस्तक उड़ा दिया। तीन बार मस्तक वापिस जुड़ गया। चौथी वार फिर काटने पर शान्त हो गया । हमीर की मृत्यु ज्ञातकर शाही सेना ने दुर्ग को तहस-नहस कर अधिकृत कर लिया। कह जाता है कि हमीर के पास पारस पत्थर ( मणि ) था जिसके प्रताप से वह लोहे का सोना बना लेता और धन, धान्य, सेना से समृद्ध और शत्रुओं द्वारा अजेय रहता था।
दुर्ग पर इतस्ततः घूमते-फिरते हम लोग जैन मन्दिर में पहुँचे । मन्दिर खूब विशाल है। वाह्य भाग के चौक में कुछ कोठरियां बनी हुई हैं एवं दीवाल में एक श्वेताम्बर मूर्ति भी श्वेत पाषाण की खड़ी हुई लगी है। उसी के पास एक परिकरका ऊपरी हिस्सा तोरण रखा हुआ था मूल मन्दिर विशाल और पापाण निर्मित शिखर वृद्ध है। गर्भगृह में तीन मूर्तियों श्वेताम्बर हैं. अवशिष्ट पापान व धातु की सभी दिगम्बर है। यह मन्दिर
दिगम्बर जनों के अधिकार में है। यद्यपि यहाँ जैनों की बस्ती नहीं हैं परन्तु सेरपुर, जो मिसरदरा से १ मील की दूरी पर है, से पुजारी आकर पूजा कर जाता है। मन्दिर अच्छी हालत में है। मन्दिर के बाह्यभाग में एक कोठरी में तलघर-सा बना हुआ है, कूड़ा कर्कट निकाल कर देखने से पता लगे कि इसमें क्या है ? इस मन्दिर के निर्माता का कोई शिलालेख दृष्टिगोचर नहीं होता अतः निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि यह मन्दिर किसने बनाया है । साधन एवं अवकाशाभाव से प्रतिमाओं के समस्त लेख नहीं लिये जा सके। जो लिये गये, यहाँ प्रकाशित किये जाते हैं
१ - श्री सुमतिनाथ जी
क. सं० १४९४ श्रीमाल ज्ञातीय सा० वीसल मा० रमणा पुत्र सं० महणसिंहेन भा० भूतसिकि पुत्र तिहुणावाला हिमा तोलादि कुटुम्व युतेन स्वकारिसप्रासादे श्री सुमतिनाथ वित्र का प्र० तपः गच्छे श्री सोम सुन्दर सूरिभिः ।
ख.
श्री सुमति सा० महणसी.
२ - श्री शीतलनाथजी
क. संवत् १६६७ वर्षे माधरित ६ गुरौ सङ्घपति भला तस्य भार्या मेलसिरि तत्पुत्र धर्मदासादौ गोत्र तस्य भारज्या धरमसिरी तत्पुत्र सोमजी शिवजी प्रतिष्ठापित श्री शीतलनाथ दिवं महोपाध्याय श्रीविवेक गणीनामपदेशात् कारितं प्रतिष्ठित श्री तपागच्छाधिराज भट्टारक श्री विजयसेन सूरिभिः आचार्य श्री विजयदेव सूरि प्रभृति साधसंसेदित चरण कमलेः पं० महान गणिना लेखि ख. श्री आगरानगर वास्तव्य सङ्घपति श्री चण्डपालेन प्रतिष्ठा कारित ।
३-धातु की पचतीर्थी पर
सं० १४०४ उपकेशगच्छे ककुहाचार्य संताने चिंचटगोत्रे वेसटान्वये सा० श्रीसूरा भा० सलखणदे पु० समुद्रसीहेन पितृश्रेय से श्री आदिनाथ का० प्र० श्री कक्कसूरिभिः ।
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४-दिगम्बर जैन धातुप्रतिमा के नीचे
चौकीपर चारों तरफ संवत् १५३० वर्षे माघ सुदि ११ शुक्र श्री गोपाचल दुर्गे महाराजा श्री की निसिंघदेव काष्टासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे मट्टारक श्री हेमकीर्ति तत्प? भट्टारक कमलकीर्ति देवा तत्पट्टे भ० शुभचन्द्रदेव तवाम्नाए अग्रोतकान्वये गर्गगोत्रे सं० दो १ भार्या लाति तत्पुत्राः पञ्च समनाजी कृताजी दे"मनसिरि कर्मणि नाम्ने तत्पुत्र पुः सं० नराजतद्यार्या घनसिरि तत्पुत्रो द्वितीय ( इत्यादि )
कतिपय मूर्तियाँ सं० १५४७ ज.वराज पापरीवाल प्रतिष्ठापित एवं अन्य दिगम्बर लेखों वाली हैं जिनके लेख अवकाशाभाव से नहीं लिये जा सके। धूप काफी चढ़ चुकी थी, गरमी की अधिकता के कारण हमलोग शीघ्रता से निकल कर जिस मार्ग से गये, वापिस मसरदरा आ पहुंचे। यहाँ हमारा ताँगेवाला तैयार था और वह सेरपुर के मन्दिर का, जो सड़क से थोड़ी ही दूर पर है. मार्ग बतलाकर छाया में ठहर गया। सेरपुर का मन्दिर भी जंगल में ही है। 'खीमसी भाग्योदय काव्य' ( कविरत्न कुशल कृत) के अनुसार यह रणथंभौर का शाखापुर था जहाँ मन्त्रीश्वर खीमसी ने नन्दनवन के सदृश सुन्दर बगीचा बनवा कर उसमें स्वच्छ जल का कुँआ निर्माण कराया था। यहाँ के मन्दिर पर "दिगम्बर जैन अतिशयक्षेत्र सेरपुर" का पाटीया
लगा हुआ था। मन्दिर के दर्शनार्थ कतिपय यात्री आये हुए थे, जो बाहर बनी हुई कोठरियों में ठहरे हुए थे। मन्दिरजी में बहुत-सी सुन्दर दिगम्बर जैन प्रतिमाएँ विराजमान हैं, पर आश्चर्य है कि प्रवेश करते ही सामने की ओर चौकी पर महादेवजी, गणेशजो, माताजी, सतीजी आदि । सभी जैनेत्तर हिन्दू देव-देवियाँ विराजमान हैं। यह बात मेरी समझ में नहीं आई कि कट्टर दिगम्वर बन्धुओं ने इन्हें कैसे निमन्त्रण दिया? यदि ये बिना निमन्त्रण ही पुजारो आदि के दिये हुए मार्ग से आ गये हों तो इनकी सभा को विसर्जित कर अपने अपने मुकाम भेज देना चाहिए, अन्यथा कभी साम्प्रदायिक समस्या उपस्थित होने का अवसर आ सकता है।
हमारी रणथंभौर-यात्रा राह चलते घन्टे दो घन्टे की थी। अतः न तो सब दर्शनीय स्थान देखे गये और न साधनाभाव से लेखों की ही नकल की जा सकी। दिगम्वर समाज का तोर्थ अतिशयक्षेत्र सेरपुर है अतः वहाँ जाने वाले इतिहास प्रेमी यात्रीगण जिनमन्दिरस्थ समस्त लेखों का संग्रह प्रकाशित करने के साथ-साथ किले के द्वारों पर लगे लेखों को जो खास दिगम्बर श्रावकों से सम्बन्धित हैंअवश्य संग्रह करें एवं दिगम्बर जैन साहित्य में रणथंभौर के जो विवरण प्राप्त हों उन्हें प्रकाश में लाने के लिए विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया जाता है।
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क्ला के हजारों प्रतीक भारतीय चित्रकला के इतिवृत्त में अपना स्वर्णिम पृष्ठ अंकित करने को सर्वदा प्रस्तुत हैं। संप्रति 'उत्तराध्ययन' एवं 'ज्ञातासूत्र' की कुछ सचित्र प्रतियाँ प्राप्त हैं। पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी से भाषा-ग्रंथों-रास, चौपई आदिका प्रचुरता से प्रचार हो जाने से वे ग्रंथ भी सचित्र बने। भक्तामर काव्य कथा, कल्याणमंदिर कथा. ढोलामारू चौपाई. चंद राजा नो रास. प्रियमेलक (सिंहलसुत) रास आदि ग्रंथों की प्रतियाँ भी चित्रों से अलंकृत होकर जनता के सामने आई और इस प्रकार
उदयपुर का सचित्र विज्ञप्तिपत्र चित्रकला को अधिकाधिक प्रश्रय मिलने लगा।
प्राचीन भारतीय चित्रकला में जैन चित्रकला अपना एक स्वतंत्र स्थान रखती है। अतः भारतीय चित्रकला के अध्ययन के हेतु जैन चित्रकला का सम्यक परिज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है। भारत में मुसलमानी काल के पूर्व के संधिकालीन चित्रों का प्रायः अभाव ही पाया जाता है, परंतु जैन चित्रकला हमारे समक्ष उस काल की ताड़पत्र, वस्त्र एवं काष्ठफलकों पर चित्रित अनुपम सामग्री प्रस्तुत करती है। खेद है कि जैन समाज की संकुचित मनोवृत्ति एवं उपेक्षावृत्ति के कारण इस चित्रकला को उचित न्याय नहीं मिल सका है। इसी से यद्यपि पाटण, खंभात
और जैसलमेर के ज्ञानभंडारों से 'कल्पसूत्र', 'उत्तराध्ययन' 'कालकाचार्य कथा' आदि पर चित्रित अनेक चित्र प्राप्य हैं और कालकाचार्य कथा' एवं 'कल्पसूत्र' के चित्र अमरीका से तथा देवचंद लालभाई पुस्तकोद्धार फंड एवं साराभाई नवाब द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं तथापि जैनेतर विद्वानों का उधर ध्यान नहीं गया है।
कथा-साहित्य की ही भाँति. बल्कि उससे भी अधिक, चित्रांकन की आवश्यकता भौगोलिक साहित्य में रहती है. क्योंकि उसकी सहायता से सुदूर और परोक्ष क्षेत्रों को भी हृदयंगम किया जा सकता है। क्षेत्रसमास, संग्रहणी.. लोकनाल इत्यादि के चित्र इस विषय के तथा कर्मग्रंथादि की सारणी आदि तत्वज्ञान के परिशीलन के लिये अनन्य सहायक हैं। वस्त्रपटों के चित्र भी इसी प्रकार भावपूर्ण, ज्ञानवर्धक और कलापूर्ण रहे हैं। पंचतीर्थी पट, शत्रुजय तीर्थादि पट. वर्धमान विद्या पट, सूरिमंत्र पट, ढाईद्वीप
और जं द्वीप पट तथा चित्रकाव्य पटों के अतिरिक्त पूठे. पटड़ी एवं डाबड़ों की सुंदर कलाभिव्यक्ति भी अत्यंत आकर्षक है।
जैनों ने शिल्पकला की भाँति चित्रकला में भी मुक्तहस्त होकर धन का सद्व्यय किया है। आज भी देवसापाड़ा-अहमदाबाद में स्थित जैन-ज्ञानभंडार के एक सचित्र कल्पसूत्र का मूल्य एक लाख रुपया आंका जाता - है। इसी प्रकार विभिन्न ज्ञानभंडारों में प्राप्य जैन चित्र-
टिप्पणाकार लंवे चित्र और विशेषतः विज्ञप्तिपत्र अपना अलग वैशिष्ट्य रखते हैं। इनका अस्तित्व जैनों के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता । बौद्धपरंपरा में अवश्य इस प्रकार के कतिपय महत्त्वपूर्ण अंग विद्यमान हैं जो कथावस्तु को चित्रों द्वारा सरलता से व्यक्त कर देते हैं, परंतु विज्ञप्तिपत्रों की ऐतिहासिक परिपाटी का उसमें सर्वथा अभाव है। यह परिपाटी श्वेतांबर जैन संघ से संबंधित है और पचासौं विज्ञप्तिपत्र आज भी ज्ञानभंडारों में सुरक्षित पाए जाते हैं। इन कला पूर्ण विज्ञप्तिपत्रों में से कुछ का परिचय महाराजा गाय
. [४३
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कवाड़ की राज्याभिषेक ग्रंथमाला के प्रथम पुष्प के रूप सबसे प्राचीन है ।* इसके पश्चात् सं०१४६६ में श्री देवमें प्रकाशित 'एशंट विज्ञप्तिपत्राज' नामक ग्रंथ में कराया सुंदरसूरि को प्रेषित विज्ञप्तिपत्र आता है जिसका अब गया है। अन्य संग्रहालयों में और भी बहुत विज्ञप्तिपत्र केवल गुर्वावली खंड ही अवशिष्ट है, जो प्रकाशित हो हैं जिनका परिचय प्राप्त होने से इस विषय एवं कला का चुका है । तीसरा महत्वपूर्ण विज्ञप्तित्र है 'विज्ञप्तित्रिवेणी' सांगोपांग इतिहास प्रकाश में आ सकता है ।
जो संवत् १४८४ में खरतरगच्छोय उपाध्याय जयसागर गणि जैन समाज के साध. साध्वी, श्रावक, श्राविका संज्ञक
द्वारा श्री जिनभद्रसूरि के प्रति प्रेषित किया गया था । चतुर्विध संघ में आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। उनके
इसमें सिंध प्रांत के मलिकाहणपुर से नगरकोट-काँगड़ा आज्ञानुवर्ती नाना-स्थान - स्थित मुनिगण पर्यपणा
महातीर्थ की यात्रा का विद्वत्तापूर्ण एवं मनोमुग्धकारी सांवत्सरिक महापर्व की आराधना के अनंतर आचार्य की
वर्णन है। इस प्रकार पंद्रहवीं शती के तीन विशिष्ट सेवामें एक विज्ञाप्तपत्र भेजते थे, जिसमें स्थानीय धर्मकृत्यों
विज्ञप्तिपत्र उपलब्ध हैं। ** सोलहवीं शतो में इस धारा के संवाद, तपश्चर्या, प्रभावना, सूत्र-व्याख्यान-श्रवण तथा
के प्रवाह को बल नहीं मिला, फलस्वरूप उस समय की क्षमापनादि विन त भाव (साध एवं श्रावकों द्वारा) व्यक्त
कोई विस्तृत रचना नहीं पाई जाती । किए जाते थे। इस विज्ञप्तिपत्र द्वारा आचार्य को अपने
सत्रहवीं शती के प्रारंभ की एक रचना (सं०१६नगर में पधारने के लिये आमंत्रित किया जाता था। ०४.१६१२) नाहटा-कला-भवन (बीकानेर) में अपूर्ण विद्यमान मुनिगण द्वारा प्रेषित पत्र पांण्डित्यपूर्ण संस्कृत, प्राकृत है । यह गद्य-पद्यात्मक चित्रकाव्यमय पत्र बीकानेर से आदि भाषाओं में लिखे जाते थे और गद्य-पद्यमय श्री जिनमाणिक्यसूरि जी को जैसलमेर भेजा गया था।*** एवं काव्यगुणों से पूर्ण होते थे तथा श्रावकसंघ द्वारा इसके पश्चात् तो गद्य-पद्यात्मक विज्ञप्तिपत्रों की परंपरा प्रेषित पत्र सचित्र होते थे और संस्कृतमिश्रित लोकभाषा चल पड़ी और दूत-काव्य, खंड काव्य, पादपूर्ति काव्य अथवा केवल लोकभाषा में लिखे जाते थे।
आदि विशिष्ट कृतियों का निर्माण होने लगा, जिनका इस प्रकार के विज्ञप्तिपत्रों की परंपरा बहुत प्राचीन प्रचार अठारहवीं शती तक रहा । **** उन्नीसवीं शती ज्ञात होती है। पाटण मंडार से प्राप्त ताड़पत्र में संस्कृत प्राकृत का स्थान देशभाषाओं ने ले लिया . 'पर लिखित प्रति के प्राप्त मध्य पत्र का उल्लेख पुरातत्त्वविद् जिसके फलस्वरूप विज्ञप्तिपत्र भी गद्य-पद्यमय एवं मिश्रित
श्री जिनविजय जी ने 'विज्ञप्तित्रिवेणी' के पृष्ठ ३२ पर किया । भाषा में लिखे जाने लगे। सत्ररहवीं से उन्नीसवीं शती है। अब तक प्राप्त विस्तृत विज्ञप्तिपत्रों में सं०१४३१ को तक नगर-वर्णनात्मक गजल शैली को प्रोत्साहन देने में मौन-एकादशी के दिन पाटण नगर से श्री जिनोदयसूरि द्वारा यह पद्धति विशेष सहायक हुई और कतिपय गजलें तो अयोध्या - स्थित श्री लोकहिताचार्य को प्रेषित पत्र इसी उद्देश्य से निर्मित हुई। * इसका ऐतिहासिक सार कोटा से प्रकाशित विकास, वर्ष १ सं०१ में लेखक द्वारा दिया जा चुका है। ** जोधपुर के राजकीय संग्रहालय में लगभग हजार श्लोकों का विज्ञप्ति-संग्रह प्राप्त है, उसके प्रारम्भ और अंत के कई पत्र
प्राप्त नहीं हैं। *** 'राजस्थान भारती वर्ष २ अंक १ में प्रकाशित । **** विज्ञप्तिपत्रों का एक विशिष्ट संग्रह मुनि जिनविजय जी द्वारा संपादित सिंघी जैन ग्रंथ माला में शीघ्र प्रकाशित होने
वाला है। इसके अतिरिक्त नाहटा कलाभवन (बीकानेर ) में चित्रकोष रूप विज्ञप्तिलेख, पाणिनीय द्वयाश्रय विज्ञप्तिलेख आदि अनेकों विशिष्ट लेख विद्यमान है ।
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विज्ञप्तिपत्रों की दूसरी विशेषता थी उनका सचित्र सं० १९१६ में खरतरगच्छाचार्य श्री जिनमुक्तिसूरि जी को निर्माण । इस शैली का विकास सत्रहवीं शती से हुआ । दिए गए विज्ञप्तिपत्र के पश्चात् अन्य किसी विज्ञप्तिपत्र का ऐसे पत्रों में आगरा-नगरस्थ संघ द्वारा तपागच्छाचार्य पता नहीं लगा है ! श्री विजयसेन सूरि को प्रेषित विज्ञप्तिपत्र का स्थान सर्व
प्रस्तुत उदयपुरीय विज्ञप्तिपत्र ७० फुट लंबा है और परि है। यह सचित्र विज्ञप्तिपत्र कलापूर्ण होने के साथ
१ फुट २ इंच चौड़ा। दोनों किनारों पर बेल-पत्तियाँ बनी साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। इसमें शाही
हुई हैं। इसके चित्र तत्कालीन चित्रकला के महत्त्वपूर्ण चित्रकार श्री शालिवाहन ने वादशाह जहाँगीर द्वारा वारह
निदर्शन हैं और उदयपुर नगर की उस समय की स्थिति, सूबों के अमारि-उद्घोषणा का फरमान दिए जाने तथा
ऐतिहासिक स्थान, सामाजिक अवस्था, धार्मिक उत्साह राजा रामदास द्वारा उसके प्रस्तुत होने के भाव सहित
आदि चित्रित करते हैं। अन्य विज्ञप्तिपत्रों से इसमें अपनी आँखों-देखा दृश्य चित्रित किया है। चित्रों के
विशेषता यह है कि चित्र के नीचे नामोल्लेख करके प्रत्येक . नीचे लिखे परिचय से तत्कालीन भौगोलिक, राजनैतिक ,
स्थान का परिचय करा दिया गया है। इससे धर्मस्थान, एवं सामाजिक स्थिति का पता चलता है। इसमें आगरा
राजकीय भवन, व्यक्तिगत गृहों और दूकानों आदि सबकी का शाही दरबार, साधुओं का आगमन, दुर्गद्वारस्थित
जानकारी हो जाती है। चित्रों की समाप्ति के पश्चात् जयमल पत्ता का चित्र आदि पर्याप्त आकर्षक सामग्री
लिखी हुई वीनति' (विनती) भी महत्त्वपूर्ण है। इस विद्यमान है। चित्रपट के नीचे श्रावक की ओर से
विज्ञप्तिपत्र से निम्नलिखित बातें ज्ञात होती हैंवंदन , तपश्चर्या, धर्म-ध्यान आदि के संवाद तथा स०
(१) इसकी भाषा मेवाड़ी न हाकर मारवाड़ी है.. चंदू द्वारा निर्मापित नवीन जिन चैत्य की प्रतिष्ठा के हेतु
जिसका कारण यह हो सकता है कि लेखक पं० ऋषभदास. पधारने के लिये सूरि जी से नम्र प्रार्थना आदि वृत्तांत
पं० कुशलचंद मारवाड़ी प्रतीत होते हैं। इसमें मेवाड़ अंकित हैं।
के मक्की-जौ के खाद्य का निर्देश है। इसी शताब्दी में दूसरे भी इसी प्रकार के महत्त्वपूर्ण विज्ञप्तिपत्र अवश्य निर्मित हुए किंतु दुर्भाग्यवश वे सुरक्षित
(२) सेठ जोरावरमल जी बाफगा के वहाँ न होने नहीं रहे। इसके पश्चात् अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी
तथा बच्छावत मेहता शेरसिंह के काम पर न होने से विज्ञप्ति. में पचासों वहुमूल्य एवं कलापूर्ण विज्ञप्तिपत्र तैयार हुए थे,
पत्र भेजने में विलंब हुआ। वैशाख सुदी २ को राणाजी जिनमें कुछ तो नट हो गए और कुछ ज्ञानभंडारों अथवा
की कृपा से मेहता जो कार्य पर संलग्न हुए। व्यक्तिगत संग्रहालयों में अज्ञात पड़े हैं। बड़ौदा से प्रका
(३) यह चित्र-लेख लेकर श्रीहजूर ( महाराणा जी) शित 'एंशंट विज्ञप्तिपत्राज' में चौबीस विज्ञप्तिपत्रों का परि- का हरकारा वीकानेर आया था। चय छपा है जिनमें लगभग आधे सचित्र होंगे। उनके (४) इस विज्ञप्तिपत्र पर मेहता शेरसिंह, नगरसेठ अतिरिक्त एक दर्जन से ऊपर सचित्र विज्ञप्तिपत्र हमारी वेणीदास, बाफगा जोरावरमल सुलतानचन्द चनणमल जानकारी में हैं जिनमें से सं० १८८७ के उदयपुर के ( कोटा के दीवान बहादुर सेठ केसरीसिंहके पूर्वज ) इत्यादि सचित्र विज्ञप्तिपत्र का परिचय यहाँ दिया जा रहा है। इसके तत्कालीन प्रतिष्ठित एवं राजमान्य श्रावकों के हस्ताक्षर पश्चात् भी यह परंपरा कुछ वर्षों तक चलती रही. * परंतु हैं।
* सं०१८९८ का सचित्र बीकानेरीय विज्ञप्तलेख बीकानेर के बड़े उपाश्रय के ज्ञानभंडार में है, जिसका परिचय 'राजस्थान भारती'. वर्ष १ अंक ४ में प्रकाशित हो चुका है।
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(५) चित्रों की दृष्टि से भी यह विज्ञप्तिपत्र मूल्यवान् है। इसमें उदयपुर के तत्कालीन महाराणा का चित्र चार बार आया है-(१) पोछोला तालाव के नौका-विहार में, जिसमें वे खास मुसाहबों के साथ विराजमान हैं. (२) पाकशाला में, (३) दरीखाने में, उमराव सहित, (४) हाथी पर हौदे में, सेना एवं अंग्रेजों के प्रतिनिधि काप साहब के साथ । दिल्ली दरवाजे के बाह्यवर्ती दादावाड़ी में सूरि महाराज बहुत से श्रावकों से परिवृत दिखाए गये हैं । तत्कालीन स्थान और दृश्य सूक्ष्म ब्यौरे के साथ दिखाए गए हैं।
सर्वप्रथम बेल-पत्तियों से आवृत्त पुष्पों का गमला है जिसके उभय पक्ष में शुक अवस्थित हैं। फिर मंगलकलश, युगल चामरधारी युक्त शय्यासनोंके तीन चित्र तथा तीर्थंकर माता के चतुर्दश स्वप्न (गज. वृषभ, सिंह.लक्ष्मी, पुष्प ला.चंद्र, सूर्य,ध्वज,पूर्णकलश, सरोवर, क्षीरसमुद्र, देवविमान, रत्नराशि, निधूम अग्नि), परिचारिका-चतुष्क सहित शय्यासन-सुप्त तीर्थकर-माता. जिन-मंदिर, एवं अष्टमांगलीक ( दर्पण. भद्रासन, नंद्यावर्त, कलश, मत्स्ययुगल, शराव-संपुट, श्रीवत्स, स्वस्तिक ) के जैन चित्रकला संबंधी चित्र १४| फुट की लम्बाई में विविध रंगों में चारों ओर बेल-पत्तियों के चित्र सहित अंकित हैं।
स्थानों के चित्र ७ फुट १० इच की लंबाई में फैले हैं । तदनंतर राजप्रासादों के चित्र प्रारंभ होते हैं । जिन स्थानों के नीचे चित्रकार ने नामोल्लेख किया है उनका ब्यौरा इस प्रकार है
महाराणा रसोईघर में विराज रहे हैं ( 'रसोड़ विरा- . ज्या दरबार'), दाहिनी ओर दमामः वाणनाथ जी के मंदिर में दरवार प्रातःकालीन पूजन कर रहे हैं: सूर्य गौखड़ा ( गवाक्ष ), जनानी पोल, तोरण पोल, जनानी ड्योढ़ी, मोती महल, चीनी गोखड़ा. अमर म(होल । फिर लिखा है-'बड़े दरीखाना री बैठक विराज्या उमराव १६ पासवान नीज सूधी। इसमें महाराणा के समक्ष आठ व्यक्ति वैठे हैं. चार व्यक्ति पृष्ठ भाग में खड़े हैं और आठ उमरराव बैठे हुए हैं। इसके आगे दस व्यक्ति खड़े हैं तथा चार स्त्रियाँ बैठी हुई हैं । खुले चौक में घुड़सवार घोडे फेर रहे हैं। हाथी और सेना भी उपस्थित है । मध्य में स्थित त्रिपोल्या के उभय पक्ष में ग्यारह द्वारपाल बैठे हैं। बाह्य भाग में दाहिनी ओर घंटाघर है। मध्यवर्ती चौक में घुड़सवार. प्यादे. पालकी.भारवाही मजदूर, काँवरधारी ग्वाले दिखाये गये हैं। फिर बड़ी पोल का द्वार हैं जिसके मध्य में एक पहरेदार खड़ा है और सात बैठे हैं । बाएं किनारे जंजीर में बंधा मदोन्मत्त हाथ खड़ा है जिसके सामने कोठार है
और दाहिनी ओर धर्मखाते का कोठार है। यह दाहिनी ओर के स्थानों का परिचय हुआ, अब बाँई ओर का विवरण दिया जाता है।
धर्मखाते के कोठार के बाद कई मकानों के चित्र हैं। तदनंतर श्रीकृष्ण जी का शिखरबद्ध मंदिर है जिसमें 'वावायरों मंदिर' लिखा है। फिर कई मकान हैं जिनके गवाक्षों में महिलाए तथा वैठकों में पुरुष बैठे हैं। फिर बाफणों का एवं कसौटी का जैनमन्दिर है। इसके आगे प्रधान गलूडया शिवलाल जी अपने मकान में कई व्यक्तियों के साथ बैठे हैं । तत्पश्चात् बाजार आरम्भ होता है जिसमें दूकानदार अपनी-अपनी दूकानों में बैठ हैं। सर्बप्रथम मारवाड़ी चौक है जिसमें जोरावरमलजी की दूकान, पन्नालालजी
इसके पश्चात् उदयपुर नगर के ऐतिहासिक चित्र हैं। सर्वप्रथम पीछोला तालाब है जिसमें मीन, मकर, कच्छप, कमल एवं तैरती हुई नौकाएं चित्रित हैं। इसके उभय पक्ष में जंगल-पहाड़ है । वाम पार्श्व में सीतादेरी तथा बैजनाथ के देवालय हैं । तालाब के मध्य में वाटिका के बीच जगमंदिर, जगनिवास, महाराणा का नौका-विहार ('मीजलस की असवारी नाव की दरवार' ) तथा 'मोहनमंदिर के चित्र हैं । दाहिनी ओर वृक्षों के बीच शिवालय, बड़ीपाल ( घाट ). भीमनिवास, नजरबाग और रूपघाट तथा बाँयीं ओर तीन शिवालय, जिनमें एक का नाम भीमपदमेसर लिखा है और अमरकुण्ड आदि चित्रित हैं। यहाँ तक तालाब और उसके उभय पक्ष में स्थित
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महाराणा का चित्र पीछोला तालाब के नौका विहार में
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की दूकान, 'कोटवाली चौतरो बड़ो', बौहरां रो बाजार, मणियारी वाजार, पंसारी बाजार, हुँबड़ों का दिगम्बर जैन मंदिर खरतगरच्छीय वासुपूज्यजी का प्राचीन मंदिर, इकलिंग दास चोल्या की वैठक, बजाजी बाजार, 'मंदिर तलारी माता रो'. दिगंबरी मन्दिर, मोची बाजार, जोशी चतुर्भुज जी का घर, सोना रो वाजार, अग्रवालों का जैन मन्दिर, ताँबा री टकसाल ( पइसा पडै छे ). 'कुंड बहाँ जी राजा रौ' हैं । फिर
फौज, मुसाहित, गजारूढ़ काप साहब आदि साथ चल रहे हैं। आगे कोटवाली का चोतरा और मंडही (चुंगी) का चौक दिखाया गया है। पुरुपों और स्त्रियों का समूह नगर में पधारने के लिये प्रस्तुत सूरि महाराज के स्वागत.र्थ जा रहा है। वीच में फूटा दरवाजा मी आया । है । वड़ो पोल से दिल्ली दरवाजे तक के चित्र ३२।। फुट में बने हैं।
कई दूकानों के बाद दिल्ली दरवाजा आ गया है।
अब वड़ो पोल की बाईं ओर के स्थानों में से जिनका नामोल्लेख चित्र में हुआ है उनका निर्देश किया जाता है। कोठार, राजपूजनीक जगन्नाथराय मंदिर, नीरूघाट का रास्ता, फिर कई मकानों के बाद चंद्रप्रभु जी का जैन मंदिर, कुऔर पदे के नए महल, टकसाल रूप्यारी' ( रुपयों की टकसाल ), शतलनाथ जी का मंदिर, तपों का उपाश्रय, जगरूपदास कांकरिया की दूकान, आणंदराम नाहटा, माण(क) चौक में नगरसेठ वेणीदासजी की दूकान, 'वहोतणी (?) चोतरो सायर', पसारी बजार, बजाजी बाजार, रंगरेजी बाजार, 'मसीत खेराखाँ री', मंदिर संडेरगच्छ रो, जैनमंदिर ( नाम घिसा), मोची बाजार, 'मंदिर जोसी.जी रो, दुढियों की उपाधशाला (स्थानक ), खंडेलवालों का मंदिर, सायर, महेश्व रयों का मंदिर, भैरू स्थान, खरतर भट्टारक शाखा का उपाश्रय (मंडी में), ऋषभदेवजी का मंदिर' खरतरगच्छ का (मंडी में). 'सहेल्या-दरोगां-पंचोल्यां रो मंदिर'.मेससज रो मन्दिर (?)। इसके पास ज्वालामुखो तोप लगी हुई है। सामनेवाली सड़क के किनारे भी तोप है । यहाँ फिर दिल्ली दरवाजा आ गया है।
अब मध्यवर्ती भाग का संक्षिप्त विवरण दिया जाता है। हाथी, घोड़े, ऊँट, घुड़सवार, पैदल, पालकी, रथ, पनिहारी, मजदूर, संन्यासी, पथिक इत्यादि सर्वत्र दिखाए गए हैं। साग बाजार में बैठी हुई मालिने सब्जी बेच रही हैं। महाराणा की लंबी सवारी दिखाई गई है जिसमें महाराणा हाथी के हौदे पर विराजमान हैं। आगे-पीछे
दरव जे के वाहरी भाग में उसकी दाहिनी ओर भट्टारक जी की वाड़ी. साजी फकीर का तकिया, 'वालकदास री जागा' (हनुमान मन्दिर ). 'तालाई भिखारी नाथ री', 'छावणी फिरंगी री', 'साहब रो दंगलो' हैं। वाई ओरउ (?) जागर जी को मंदिर, चेलां रो मंदिर, दादू पंथियों री जागा. मंदिर पंहड़ो रो, तथा दादावाड़ी नवी है ! संलग्न दादावाड़ी के वाग में सूरि महाराज पधारे हैं और बहुत से श्रावक एवं श्राविकाएँ वैठी हुई दर्शन-पूजन वदंनादि कर रही हैं। बाग के वाहर रथ. पालकी आदि वाहन खड़े हुए हैं। दिल्ली दरवाजे के बाहर रास्ते में बहुत से यति. श्रावक, वाजिव वजानेवाले, सिंगारे हुये घोड़े, हाशी, राजकीय सेना, नागरिक इत्यदि सूरिजी के स्वागतार्थ उपस्थित हैं। यहाँ ७ फुट तक विज्ञप्तिपत्र समाप्त हो जाते है !
इसके पश्चात् ४||! फुट में विज्ञप्तिलेख और ३ फुट में उदयपुर के प्रतिष्ठित श्रावक-समुदाय के वंदना-निर्देशात्मक हस्ताक्षर है । विस्तारभय से समग्र लेख उदधृत न कर यहाँ केवल अवश्यक अंश दिया जाता है।
....श्रीमद्विक्रमपुर नगरे सुस्थाने पूज्याराध्य .... श्री श्री जिनहर्ष सूरिश्वरान् श्री उदयपुर थी सदासेवग आज्ञाकारी लिखतं समस्त श्री संघ की त्रिकाल वंदना अवधारसी जी । अत्र श्री केशरियानाथ जी महाराज प्रसादे सुख शांति छै । श्री जी महाराज रा सदा सुख आणंद री घड़ी सदा सर्वदा चाहीजै जी । आप मोटा हो बड़ा हो उदयपुर नः श्रीसंघ माथै सदा कृपा सुदृष्टि रखावो जिण
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महाराणा की सवारी में गजारूढ़ काप साहब आदि
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सं विशेष रखावसी जी अत्र नो श्री संघ रात्रि दिन स्मरण कर तो घणो आछो, जिण सं ढील हुई सो तकसीरी माफ करारेयो छै ज्यु चातक मोर रात दिन वर्षा नै रटै ज्यं श्री संघ रट वसी आप कृपा करके वेगा पधारसी ढील करावसी नहीं मोटो रेया छ। सो श्री संघ माथै कृपा करकै अव के चौमास लाभालाभरो कारण घगां जीवां ने सम्यक्त्व रो उदै होसी थोड़े उदयपुर नो करावसी आपरै तो बड़ा-बड़ा श्राबक वाट देख लिख्यौ घणो कर मानसी श्री हजूर रो हरकारा नै चित्रलेख रेया छै श्री संघ माथै पूर्ण कृपा हुवै आछौ पुण्य हुवै जिणी ले करके भेज्यो है सो वेग पधारसी श्री जी महाराज रौ. दरसन ठिकाण श्री जी महाराज रौ पधारणौ हुवै फेर मेवाड़ देश में हुसी सो दिन सोनै रूपै रो ऊगसी श्री संघ लायक सेवा मक्की जव रो खांत छै जिगी सामौ देखावसी नहीं दिन संक- चाकरी हमेशा लिखावसी अत्र श्री जी महाराज रै हुकम री डाइ आया है सो जिगो सामो देखावसी नहीं घणा भव्य वात छै सर्व साधुनंडली सपरिवार सं त्रिकाल वंदना अवधाजीवां नै सम्यक्त्व रो लाभ होसी जिन शासन री घणी रसी जी सं०१८८७ राजेठ वद १३ अक्खर ओधो अधिक महिमा होसी श्री गणधर महाराज पधारसी जठे सर्व वात रो। लिखाणौ हुवे सो तकसीरी माफ करावसी आप मोटा हौ ।। कल्याण होसी फेर इतरा दिन री ढील हुई सो सेठ जी लिखतं सदा सेवक आज्ञाकारी हुकमी पं० ऋषभदास । जोरावरमल जी अठै नहीं नै बच्छावत म्हेता श्री शेरसिंह पं० कुशलचन्द री त्रिकाल वंदना १०८ वार नित्यप्रत्ये जी रै काम नहीं हतो सो दादा साहब री कृपा नै श्री द्वादशावर्त वंदना सदैव अवधारसी श्री संघ री वीनती जी हजूर री कृपा सुदृष्टि सुं करके श्री हजूर सुं खुसी प्रमाण करके वेगा पधारसी ढील करावसो नहीं--- होय के वैसाख सुदि २रै दिन काम संप्यो जठा पछै ऋष ऊंकार की वंदना १०८ अवधारसी जी आप म्हेते जी राजी खुसी होय के कह्यौ श्री जी महाराज पधार वेगा पधारसी दील करसी नहीं।
इसके पश्चात् निम्नलिखित प्रकार से श्रावकों के हस्ताक्षर हैंम्हेता सैरसिंह की वंदना अवधारसी कृपा है ज्यु इ रखासी। सा० वेणीदास बापणा की वंदना दिनप्रत १०८ अवधारसी जी वेगा पधारसी दर्शन वेगा देसी। सा० रूपचंद चमना वेलावत री वंदना मालूम हुवै आप वेगा पधारसी दर्शन वेगा देसी। लिखतु जोरावरमल सुलतानचन्द चनणमल वाफगा का वंदना वचीजो १०८ करने वंदना अवधारीजो धर्मस्नेह राखो छो जिण सं ज्यादा रखावजो आपरा गुण तो अनेक छ इण मध्ये कठै सं लिखीया जावै आप वेगा पधारसी। लि0 पन्नालाल श्रीचंद सुखलाल फलोधियै री वंदना लि० जगरूपदास तिलोकचन्द कांकरियै री वंदना १०८ दिन प्रते अवधारसी। लि० आणंदराम मगनीराम नाहटा री वंदनालि० हेमराज मआचन्दाणी भणसाली की वंदना १०८ वार अवधारसी दर्शन वेगा दीजो... लि० जेठमल ताराचन्द कोठारी की वंदना १०८ अवधारसी जी ..." लि० गुलाबचन्द जोरावरमल दूगड़ री वंदना अवधारसी जी. लि० रामदान मेघराज गोलछ री वंदना ... लि० मु० हिंदुमल की वंदना अवधारसी। साह जेठमल वरठिया ऋषभदास वरठिया की वंदना ....
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लिखतु टीकमदास महसींघ सेरसींघ चत्रभुज चोपड़ा की वंदना .. सा० एकलिंगदास श्रीमाल री तरफ री वंदना संगवी सुखनरचा (?) नंदराम जोरावर समस्त पंचागमल चाहका (?) की १०८ वार वंदना पंचावसी... सा० चत्रभुज बच्छराज हींगड़ री त्रिकाल वंदना १०८ बाचसी। मुहणोत दिलीचन्द घासीराम भैरू दास की वंदना १०८ वर घणे मान करने अवधारसी वेगा पधारसी । सोहनलाल जी ताराचन्द डागा री वंदना वारंवार वंच.जो । साह ॐकारलाल की वंदना... साह डंगरसी काटड़े री त्रिकालवंदन,... साह जयचन्द वरचन्द छाजेड़ री १०८ वार वंदना'' सा० ईसरदास भगजी कवड़ (कावड़िया) री वंदना सा० टेकचन्द गंगवाल री वंदना बांचसी। सा० गुलाव जी मं० अमरदास जी री वंदना वांचसी। चितोड़ा वेणीचन्द मयाचन्द अमरचन्द सिवदासरी १०८ वंदना वणागीया सरावगी दयाचन्द दौलतराम री वंदना १०८ वार वेगा पधारसी । सा० रतना रूपचन्द सवलदास मुणौत री त्रिकाल वंदना सा० दौलतराम सरीपार चितौड़ा री १०८ वार वंदना" लि० दुलीचन्द जोतराज पनाचन्द मालु री त्रिकाल वंदना" सा० ऊद जी ताराचन्द नेमचन्द पोरवाड़ री वंदना सा० खेमचन्द खंडेलवाल सोनी री वंदना लिखतु मूलचन्द वीराणी री वंदना मुखपृष्ठ पर निम्नलिखित लेख है
सकल भट्टारक शिरोमणीय चौरासी गण गच्छनायक जंगम युगप्रधान भट्टारक पुरंदर मट्टारक प्रभु श्री १०८ श्री ( २१ वार ) श्री १०८ श्री जिनहर्षसूरि जी सूरीश्वरान् चरणकमलान् चित्रलेख बीकानेर नै राँगड़ी में खरतर भट्टारक उपासरै पहोंचै ।। श्रीरस्तु ।।
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धातुमय जैन प्रतिमाएं
थीं। गृह चैत्यालयों में सुरक्षा का प्रबन्ध अधिक था. अतः सोने-चाँदी आदि धातुमय विम्व वहीं अधिकतर पूजे जाते थे। काल के प्रभाव से अधिकांश गृह-चैत्यालयों की प्रतिमाएं सार्वजनिक मन्दिरों में आ गई और थोड़े से घर देहरासर रह गये । राजस्थान के घरों में 'मन्दिरी' संज्ञक कक्ष जो आंगन के कोने में शाल के पास में बनता था, वह उसी प्रथा का स्मारक है। आज भी कुछ लोग उसमें चित्र, गट्टाज एवं कुलदेवियों की स्थापना रखते हैं परन्तु वह
उपासना-गृह की उपयोगी पद्धति अब प्रायः लुप्त हो जैनागम, इतिहास और कथा साहित्य के परिशीलन
गई है। से स्पष्ट फलित होता है कि आत्म-कल्याण के हेतुभूत
जिन-प्रतिमाएं जो लेप्यमय, पापाणमय. रत्नमय प्रबल निमित्त कारण जिन-प्रतिमादि का वन्दन -पूजन वनती थीं उनमें विविध प्रकार के प्रस्तर उपयोग में लिये अनादिकाल से होता आया है । देवलोक एवं नन्दीश्वर द्वीप
जाते थे। जहाँ जिस जाति के पत्थरों की खाने निकट थीं आदि के शाश्वत चैत्य इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । जिनेश्वरों उन्हीं पत्थरों की शिल्पियों ने सुकुमार हाथों द्वारा छेनी से में ऋषभानन, चन्द्रानन, वारिपेग और वर्द्धमान चार नाम घटित कर हृदय की भाव-उर्मियों की अभिव्यक्ति करके शाश्वत हैं जो हर चौबीसी में एकाधिक अभिहित होते हैं। अपनी साधना व्यक्त–साकार की। किसी-किसी शिल्पी ने भरतक्षेत्र में कालचक्र के आरों के परिवर्तन से कृत्रिम अपने जीवन में केवल इनी-गिनी प्रतिमाएं ही निर्माण की (अशाश्वत) जिनालय-जिनविम्ब सीमित काल तक ही परन्तु उनमें अपने हृदयगत भाव-धन को इतना उड़ेल टिक सकते हैं, पर देवलोक व इतर क्षेत्रों में असंख्य वर्ष दिया है कि दर्शक मुग्ध होकर बाह्य भाव विस्मृत कर प्राचीन जिन-विम्बों की अवस्थिति सर्वविदित है । वाङ्मय अन्तलीक में विचरण करने लगता है । कई स्थानों की में वर्णित परम्परागत प्रवादानुसार वर्तमान में भी चतुर्थकाल प्रतिमाओं में इस प्रकार का आकर्षण और सातिशयता हम की प्रतिमाएं अनेक स्थानों में संप्राप्त हैं। जिन-प्रतिमाएं प्रत्यक्ष देख पाते हैं । वस्तुतः पाषाण खण्ड के अन्दर प्रतिमा पाषाणमय. मृण्मय, स्वर्ग-रजत-पित्तलादि अष्ट धातुमय, तो छिपी पड़ी है. शिल्पी उसके बाहरी स्तर को हटा कर काष्ठमय और रत्नमय आज भी पायी जाती हैं। राजा- सही रूप का प्रगटीकरण करता है। जैसे हृदयगत भावों को महाराजाओं* और सम्पन्न श्रावकों के घरों में ही नहीं प्रायः ग्रन्थकार शब्द देह में ढालकर, चित्रकार अपनी मनोगत हर श्रावक के घरों में गृह-चैत्यालय होते थे और उनमें कल्पना को चित्ररूप में साकार करने का उपक्रम करता है. अधिकांश प्रतिमाएँ धातुपय एवं रत्नमय ही रहती थीं। वही वात प्रतिमा शिल्पी की शिल्प साधना में है। यही वस्तु सार्वजनिक जिनालयों के द्वार खुले रहते हैं। उनमें पाषाण- हम पाते हैं अनेक प्राचीन प्रतीकों में, परन्तु आज के यंत्र. मय प्रतिमाओं का आधिक्य था। आभूषण, मुकुट, कुण्डलादि युग की भाँति मध्यकाल में भी जहाँ कलाकार का हृदय और वस्तुएं विशेष पवौं में धारण कराये जाते थे और भण्डार मस्तिष्क भावों की गहराई में न उतर कर केवल हाथ ही की चाबियाँ कुंचिक, गोष्टिक आदि श्रावकों के घरों में रहती काम करने लगे, वहाँ कारखानों के उत्पादन की भाँति बाह्य * नगरकोट-कांगड़ा के राजमहलों में गृह-चैत्यालय था जिसमें स्थित रत्न-प्रतिमाओं के दर्शन करने का उल्लेख
जयसागरोपाध्याय ने 'विज्ञप्तित्रिवेणी' में किया है। मैसूर नरेश के यहाँ भी गृह-चैत्यालय था। ५२]
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रूप वाली प्रतिमाओं की फसल उतरने लगीं और वह सजीवता और भाव वैभव धारा जो गुप्तकाल में प्रवहमान हो अपने उन्नति के शिखर पर आरूढ़ हुयी थी, क्रमशः ह्रास की ओर गतिशील हो गई ।
मथुरा की प्राचीन कला में हम जहाँ अनेक विधाएँ प्रतिमाओं को आयागपट्टों की, परिकरों की व प्रतीक शिल्प आदि की पाते हैं हमारा हृदय मयूर उन्हें देखकर नाचने लगता है । गुप्तकाल में आकर उनमें और उन्मेष जुड़े । शालीनता, सुकुनारता, सुघड़ता, प्रमाणोपेत लचक व भावमंगिया और वैभवशाली साज-सज्जा प्रकृति प्रेरित दृश्यावली जो इस काल में पारण खण्डों में उत्तरी सदा के लिए अपना वैशिष्ट्य जन-मानस के हृदय पर इतिहास के पृष्ठों पर मुद्राङ्कित कर गईं।
कला- विकास की प्रवहमान साधना ने वास्तुविद्यातक्षणकला की प्राशलता में निखार ला दिया । समग्र देश में वह कला अपने उन्नत शिखर पर आरूढ़ हुई पर प्रांतीय विशेषताओं ने, रूढ़ियों ने उस सुकुमारता में ह्रास लाकर क्रमशः वने शास्त्र नियमों के अनुकरण करते हुए भी नवीन शैली प्रविष्ट कर रही। पात्राण-प्रतिमाओं, परिकरादि विधाओं में जो परिवर्तन, विकास हुआ वह धातु प्रतिमादि में भी आना स्वाभाविक था । अलग-अलग प्रान्तों से प्राप्त प्रतिमाओं में इतना अधिक वैविध्य आया और निर्देशकों की सूचनानुसार, रुचि अनुसार प्रकारों का प्राचर्य जो दृष्टिगोचर होता है, आश्चर्यकारी है।
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धातु प्रतिनाओं में चौवीसी ही लें तो उनके क्रम में अनेक विधाएँ आई केन्द्रीय प्रतिमा के अतिरिक्त अन्य प्रतिमाएँ कहीं द्वितीय पंक्ति में कहीं तोरण पट्ट के ऊपरी भाग में, कहीं कक्ष में, कहीं सीधी सरल पंक्ति में, कहीं गोलाकार में निर्मित हुईं। पंचतीर्थी, त्रितीर्थी, इकतीर्थी, सपरिकर आदि प्रतिमाओं में कितने ही प्रकार के प्रतिहार्यो के प्रकार भेद, गगनस्थित गन्धर्वों, किन्नरियों, पार्श्वस्थित इन्द्रादि, चामरधारी पुरुष, स्त्रियों में शासनदेवियों और
यक्षों के विभिन्न प्रवेश ने नवग्रह अष्टग्रह के पूर्ण विक सित और संक्षिप्त रूप और स्थान परिवर्तन में प्रतिमा के पद्मासन, सिंहासन, लांछन, देवी-देवताओं के अलंकारआयुध आसन मुद्रा आदि के परिवर्तन और स्तम्भों, तोरण, पाये, आधार, प्रभामण्डल सम्पूर्ण प्रतिमा के आकार-प्रकार और अंग-विन्यास में जो समय-समय पर परिवर्तन आये और देश में सर्वत्र वह शिल्प अपनी-अपनी क्षेत्र मर्यादा के अनुसार पल्लवित पुष्पित हुआ और उसमें असंख्य उन्मेष जुड़ते गये ।
लेप्यमय वालुकामय प्रतिओं के निर्माण का हम अनेक कथानकों में उल्लेख पाते हैं । रामायण काल में बनी वालुका की प्रतिमा भी सप्रभाव होकर चिरस्थायी हो गई। तथा ओसियाँ आदि की प्रतिमा के वालुकामय होने की प्रसिद्धि है । इन्हीं विधाओं को हम धातु के माध्यम से साकार हुआ पाते हैं पर धातुमय वस्तुएँ भी अनेक वार मट्टी में गलकर नूतन पर्याय में परिणत हो गई। इतिहास के पृष्ठों में जितनी सोना, चाँदी, पीतल आदि की प्रतिमाएँ निर्मित होने का हवाला पाते हैं, वे अब कहाँ उपलब्ध हैं । उन्हें अवश्य ही गला कर ठिकाने लगा दिया गया. इसमें • दो मत नहीं है ।
पाषाण-प्रतिमाओं को यवनों ने तोड़ा और उनके टुकड़े गल नहीं सकने के कारण मस्जिदों मकानों में चिन दिये गए, चूर-चूर कण-कण हो गए, सड़कें विछा दी गई फिर भी जो खण्ड वचे आज भी खुदाई में या खण्डहरों में प्रत्यक्ष दीख पड़ते हैं । मालदा ( बंगाल ) की आदीना मस्जिद जो कभी आदिनाथ भगवान का वाचन जिनालय था की दिवालों में अखण्ड जिन प्रतिमाओं को उल्टा चिन कर कुरान की आयातें लिख दो गई उनके प्राचीन मस्जिदों में लगे उपदान इसके साक्ष्य हैं।
मथुरा तीर्थ कल्प से विदित होता है कि वहाँ का बौद्ध स्तूप कुबेरादेवी ने मेरु पर्वत की स्थापन स्वरूप स्वर्ग और मणिरत्नों से निर्माण किया । कालान्तर में श्री पार्श्वनाथ
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स्वामी के समय भी जब राजा की नियत बिगड़ गई तो पंचम काल के भावी दृश्य को लक्ष कर देवी ने उसे प्रस्तरमय कर दिया । यहाँ भी पूर्वकाल के धातु शिल्प की बात स्पष्ट है।
अभयकुमार ने मगध के परम्परागत मित्र आद्रक देश के युवराज आद्र कुमार को प्रतिबोध देने के लिये जिस प्रतिमा को भेजा था, वह भी अवश्य स्वर्णमय और रत्नजटित थी उसे गले, मस्तकादि पर धारण करने की चेष्टा व उहापोह में ही आद्रककुमार को जातिस्मरण होकर बोध प्राप्त हुआ था।
धातु-प्रतिमाओं के सहस्रों की संख्या में प्रतिष्ठित होने के उल्लेख प्राचीन गुर्वावलियों एवं प्रवन्ध ग्रन्थादि में पाये जाते हैं। मुसलमानी काल में बहुत-सी प्रतिमाएं यवनों द्वारा नष्ट कर दी गई । चिन्तामणि जी के मन्दिर ( बीकानेर ) की आदिनाथ चौबीसी का परिकर कामरां ने नष्ट कर दिया, जिसका उल्लेख उक्त प्रतिमा के परिकर पर पाया जाता है । यवनों के भय से कुछ प्रतिमाएं मिट्टी में गाड़ दी गई । आज भी स्थान-स्थान पर खुदाई में प्राचीन प्रतिमाएं प्राप्त होती है । अमरसर के धोरे में प्राप्त प्रतिमाएं बीकानेर के म्यूजियम में प्रदर्शित हैं। अकबर का अधिकारी तुरसमखान सहस्राधिक प्रतिमाएं सं० १६३३ में सिरोही की लूट में लाया था जिन्हें वह गला कर सोना निकालना चाहता था। सौभाग्यवश अकबर ने गलाना मना कर उसे अपने खजाने फतेहपुर सीकरी में रख दी जिन्हें सं० १६३९ में मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र बच्छावत राजा रायसिंह के सहयोग से प्राप्त कर बीकानेर ले आये जो आज भी चिन्तामणिजी के मन्दिर में विद्यमान हैं ।
धातु-प्रतिमाएं न केवल गुजरात, राजस्थान में ही अपितु सारे भारत में संप्राप्त हैं । श्वेताम्बर, दिगम्बर उभय परम्पराओं में धातु-प्रतिमाएं निर्मित होती थीं । दक्षिणभारत में तो आज भी पर्याप्त परिमाण में जैन-जैनेतर धातु प्रतिमाएं उपलब्ध हैं । कहा जाता है कि बीकानेर महाराजा
अनूपसिंह भी बहुत-सी धातु-प्रतिमाएं प्राप्त करके बीकानेर लाये थे जो बीकानेर के पुराने किले के बड़े कारखाने में स्थित तैंतीस करोड़ देवताओं के मन्दिर में देखी गई थीं। हमारे संग्रह में भी ऐसी विविध प्रतिमाएं विद्यमान हैं । बंगाल में मृण्मय मूर्तिकला तो दिनों-दिन विकसित होती जा रही है किन्तु धातुमय प्राचीन जैन-जैनेतर प्रतिमाएं भी पायो जाती हैं । जैन-प्रतिमाएं सहस्राब्दि पूर्व की अनेक सम्प्राप्त है । नेपाल और तिब्बत की कलापूर्ण बौद्ध प्रतिमाएँ तो प्रचुर परिमाण में पायी जाती हैं । प्राचीन काल से ही तीर्थयात्री संघों के साथ जो चैत्यालय-रथ रहते थे उनमें सुविधा की दृष्टि से अधिक धातु-प्रतिमाएं ही ले जायी जाती थीं। आज तो विदेशों में सैकड़ों जैन प्रतिमाएं सरकारी संग्रहालय में चली गई हैं पर प्राचीन काल में भी गई हुई प्रतिमाएं संप्राप्त हैं। आस्ट्रिया के हंगरी प्रान्त में एक खेत में जिन प्रतिमा व नवपद यंत्र निकले थे । दशवीं शती की एक जिन प्रतिमा केमला ( बुल्गेरिया) के राजग्राद म्यूजियम में सुरक्षित है, जो कभी किसी भारतीय समुद्र यात्री द्वारा वहाँ ले जायी गई प्रतीत होती है। यह प्रतिमा सिंहासन पर अकेली बैठी है । इसमें सिंहासन के स्तर व बीच में एक व नीचे वाले सिंहासन पर तीन आकृतियाँ हैं, नवग्रह नहीं। चीन के किसी बौद्धायतन में जिन-प्रतिमा पूजी जाने का उल्लेख मोतीशाह सेठ के समय का प्राप्त है । सत्रहवीं शतब्दी के वर्द्धमान पद्मसिंह चरित्र में उनके चीन से व्यापार का विशद् वर्णन मिलता है । धर्मप्राण साहसी जैन व्यापारी अपने आराध्य देव की प्रतिमाएं उपासना के हेतु साथ ले जाया करते थे।
प्राचीनकाल से धातु-प्रतिमाओं के निर्माण होने की प्रथा सार्वत्रिक थी। न केवल भारत में ही बल्कि विदेशों में भी प्रतिमा निर्माण में मिश्रित धातुओं से प्रतिमाएं निर्मित होती थीं। ईसा से पूर्व चतुर्थ शताब्दी में ब्रटस की कांस्यप्रतिमा का मस्तक रोम में प्राप्त हुआ था। भारत में तो लाखों वर्ष पूर्व भी मल्लिनाथ चरित्र में पूर्वजन्म के मित्रों के
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प्रतिबोधार्थ उनकी तदाकार स्वर्णमूर्ति बनवाये जाने का वृत्तान्त पाया जाता है ।
खंडगिरि -उदयगिरि में हाथी गुम्फा के सुप्रसिद्ध शिलालेख में वर्णित कलिंगजिन आदिनाथ भगवान की जिस प्रतिमा को राजा नंद ले गया था. महामेघवाहन चक्रवर्ती सम्राट खारवेल मगध देश को जीत कर उस प्रतिमा को पुनः कलिंग में लाया । वह प्रतिमा अति प्राचीन और स्वर्णमय थी. ऐसा कई विद्वानों का मत है।
परिलक्षित हैं। चौथी प्रतिमा पार्श्वनाथ भगवान की फणा मंडित है। जिसके नीचे द्विस्तरीय सिंहासन है। देह की ऊँचाई और मुखमंडल की सौम्यता देखते भ० ऋषभदेव और पार्श्वनाथ प्रतिमाएं चन्द्रप्रभ प्रतिमाओं से प्राचीन प्रतीत होती है। यहाँ एक और ऋषभदेव भगवान की प्रतिमा है जो प्रथम के सदृश हो है । इन प्रतिमाओं में श्रीवत्स चिन्ह बने हुये हैं। भगवान ऋषभदेव की एक खङ्गासन प्रतिमा है जिसके स्कन्ध प्रदेशों पर केश-राशि फैली हुई है। मस्तक के पृष्ठ भाग में वृक्ष जैसा बना हुआ प्रतीत होता है ।
वम्बई के प्रिंस आफ वेल्स म्यूजियम में भ० पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़ी हुई कांस्य-प्रतिमा है जिसका दाहिना हाथ खण्डित है। प्रभु के दोनों पैरों के बीच पृष्ठ भाग में रहा साँप मस्तक पर फण किये अवस्थित है। इस प्रतिमा का निर्माण काल ईसा के एक शताब्दी पूर्व होने का अनुमान किया जाता है । इसका प्राप्तिस्थान अज्ञात है । विद्वानों ने इसकी हड़प्पा और मौर्यकाल की कला से तुलना की है। यह प्रतिमा मोम साँचा विधि से ढली हुई हल्की प्रतिमा है। जैन साहित्य में प्रतिमा निर्माण के लिये बिंब भराना शब्द प्रचलित है जो धातु रस को साँचे में ढालने-भरने की प्रक्रिया से संबंधित हैं।
नालन्दा के राष्ट्रीय संग्रहालय में एक अम्बिका की कांस्य-मूर्ति उपलब्ध हुई है, जो नौवीं-दसवीं शती की सुन्दर कृति है। देवी का दाहिना गोड़ा नीचे पादपीठ पर ... रखा हुआ है और वांये गोड़े पर बालक बैठा हुआ है। सिंह पर विराजमान देवी के पृष्ठ भाग में चतु. कोण पट्टिका लगी है। जिसके ऊपर उभय पक्ष में मकरमुख निकले हुए हैं । देवी के गले में हार-कुण्डल और एक शृंखला यज्ञोपवीत की भाँति दाहिने गोड़े पर आयी हुई है । मुखकमल के पृष्ठ भाग में प्रभामण्डल सुशोभित है, जो लंबगोल है।
पटना म्यूजियम में चौसा से प्राप्त कतिपय कांस्य निर्मित जिन-प्रतिमाएं एवं एक अशोक वृक्ष और धर्मचक्र है। ये गुप्त और गुप्तोत्तर काल की मगध मूर्तिकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं । दो चन्द्रप्रभ प्रतिमाएं सिंहासन पर स्थित हैं जिनके सिंहासन के ऊपर प्रभु के पृष्ठ भाग में अलंकृत स्तम्भ व अर्द्ध गोलाकार प्रभामण्डल है। स्तम्भों पर मकरमुख है जिनकी मुड़ी हुई जिह वा पूँछ की तरह वृत्ताकार हो गयी है। इस प्रभामण्डल पर चन्द्रलांछन बना हुआ है । प्रतिमा के ऊपरी भाग में लांघन इन्हीं प्रतिमाओं में देखा गया है। तीसरी प्रतिमा भगवान ऋषभदेव की है जिसके स्कन्धों पर केश-राशि स्पष्ट है। प्रभु के नीचे पब्बासन या सिंहासन न होकर केवल दो पाये सामने
धनबाद जिले के अलुआरा में २९ कांस्य मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं जो पटना संग्रहालय में हैं। इनमें अधिकांश खगासन प्रतिमाओं की हथेलियां और अंगुलियाँ देह का स्पर्श करती है। ललाट पर उर्गा का अंकन है और पादपीठों पर विभिन्न पट्टिकाओं में अलंकरण के साथ-साथ लांधन बने हुए हैं । जिससे ऋषभदेव, चन्द्रप्रम, अजित. नाथ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, नेमिनाथ, पाव नाथ, महावीर और अम्बिका मूर्तियाँ सहज में पहिचानी जाती हैं । निर्माण शैली के आधार पर ये ग्यारहवीं शती के प्रारम्भ की विदित होती हैं।
मानभूम से प्राप्त एक आदिनाथ भगवान की कांस्यमूर्ति कलकत्ता के आशुतोष म्यूजियम में संरक्षित है, जो
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आभास करा देता है ।
नौवीं-दशवीं शताब्दी की हैं। कन्धे पर केशावली और मस्तक पर जट-किरीट है, चौकी पर बड़ा वृषम है और कमलासन पर आजानुबाहु प्रभु की प्रतिमा है ।
बंगाल के चौबीस परगना में नलगोड़ा एक स्थान है जहाँ तीर्थंकर नेमिनाथ स्वामी की अधिष्ठातृ यक्षी अम्बिका की सुन्दर कांस्य प्रतिमा प्राप्त हुई है । यह प्रतिमा धनुषाकार फैले हुए वृक्ष के निम्न भाग में कमलासन पर अवस्थित है जो एक सुन्दर जालीदार पादपीठ पर है जिससे आम्र वृक्ष का तना वाम पाव से निकला है। इसके पास भगवती अम्बिका का वाहन सिंह बैठा हुआ है। देवी के वायें गोद में बालक है जिसका दाहिना हाथ देवी के स्तन पर है. दाहिनी ओर दूसर। बालक निरावरण दशा में पादपीठ पर खड़ा है । देवी के हाथों में चूड़ियाँ, पैरों में नुपूर और गले में हार व कानों में कर्णफूल हैं । गोड़े से थोड़े नीचे साड़ी के गोल सल स्पष्ट परिलक्षित हैं । क्षीण कटिप्रदेश
और कृशोदर पर साड़ी लपेटी हुई है। यह प्रतिमा दशवीं शती की प्रतीत होती है।
सिरपुर की आदिनाथ प्रतिपा :
स्व० मुनिश्री कान्तिसागरजी ने अपने मध्यप्रदेश प्रवास में अनेक उपलब्धियाँ की थी जिनमें दो धात-प्रति- . माएँ वे लगभग ४० वर्ष पूर्व कलकत्ता लाये थे। इनमें एक तो वौद्ध देवो तारा की प्रतिमा अनुपम कला की साकार रूप थी, दूसरी भगवान ऋषभदेव की। उस समय विस्तृत अध्ययन कर लेख प्रकाशित किये गये थे। उन्हें वे प्रतमाएँ सिरपुर के महन्त मंगलगिरि से प्राप्त हुई थीं। मैंने पहले उनसे बीकानेर में रखने की बात की थी पर पुरातत्वाचार्य श्री जिनविजय जी के कलकत्ता पधारने पर उन्होंने उन्हें समर्पित कर दी। जिनविजय जी ने बौद्ध प्रतिमा भारतीय विद्या भवन में दे दी। कुछ वर्ष पूर्व जयपुर म्यूजि. यम के क्युरेटर श्री सत्यप्रकाश जी ने मुझे बतलाया कि वह प्रतिमा तो अमेरिका में देखी थी, यह तो हुई वौद्ध प्रतिमा की बात । दूसरी आदिनाथ प्रतिमा मैंने कलकत्ता में श्री राजेन्द्रसिंह जी सिंघी के पास देखी ।
___ मध्य प्रदेश के सभी मन्दिरों में विविध कलापूर्ण धातु प्रतिमाएं संप्राप्त हैं। इन सब में आरवी के सैतवालों के मन्दिर की धातु-प्रतिमा अपना विशिष्ट महत्व रखती है । प्रान्त की अन्य प्रतिमाओं की भाँति यह भी अर्द्धपद्मासन मुद्रा में कमलासन पर स्थित है । पश्चात् भाग में लगा हुआ तकिया एक जैनव स्तु बाह्यविधा है । तकिये के उभय पक्ष में ग्रास एवं ऊपर के मकरमुख बड़ी ही बारीकी से अभिव्यक्त है । मूल प्रतिमा के छत्रत्रय के चतुर्दिक पीपल-पत्तियों का अंकन है । यह चौबीसी है। सभी छोटी प्रतिमाएं भी अर्द्धपद्मासन मुद्रा में हैं। मूल प्रतिमा के उभयपक्ष स्थित चामरधारी और चरणों के निकट स्थित देवव चतुभुजी देवीभी अर्द्ध पद्मासन स्थित है और विविध अलंकार व आयुधों से परिपूर्ण हैं । सारी प्रतिमा चार खम्भों पर स्थित है । इस प्रतिमा में विभिन्न आकृतियाँ उत्कीणित हैं। इसका ढांचा एक मन्दिर के शिखर का
सिरपुर से प्राप्त प्रतिमा दशवीं शताब्दी की मालूम देती है। यह ताम्रवर्णी प्रतिमा कला की दृष्टि से अपना विशेष महत्व रखती है। मध्य कमलासन पर युगादिदेव विराजमान हैं जिनके स्कंध प्रदेश पर केशावली प्रसारित है । पृष्ठ भाग का अलंकृत प्रभामण्डल पर्याप्त बड़ा और कला पूर्ण है। भगवान के कमलासन पर वृषभ लांछन स्पष्ट परिलक्षित है और निम्न भाग में नवग्रहों की बड़ी मूर्तियाँ विराजमान हैं। अनेक मूर्तियों की भाँति नवग्रह कहलाने वाली मूर्तियाँ आठ ही पायी जाती हैं क्योंकि वस्तुसार के अनुसार राहु-केतु को एक ही मान लिया गया है । दाहिनी ओर अम्बिका देवी है जिसकी बाँयीं गोद में व दाहिनी और सिद्ध-बुद्ध बालक विद्यमान है। इनके दाहिनी ओर परिकर के निकले टोड़े पर यक्षराज विराजमान हैं। भगवान के वामपार्श्व में शासन देवी स्थित है।
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भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ द्वितीय भाग में भानपुर (उड़ीसा) के कुछ धातु निर्मित चौबीसी आदि के चि प्रकाशित हैं । प्रस्तुत चौबीसी प्रतिमा बड़ी ही विलक्षण और अद्वितीय विधा वाली है। कटक, भुवनेश्वर मार्ग पर नदी की मिट्टी खोदते समय नकुलभट्ट खंडायत को पाँच प्रतिमाओं की प्राप्ति हुई थी । उसने एक मंदिर बनवाकर उसमें उन्हें विराजमान कर दिया है ।
(२) वृक्ष की शाखा को पकड़ कर खड़ी अशोका या मानवी देवी जिसके आसन पर रीछ अंकित है । (३) सप्त फणा पत्रीयुक्त पार्श्वनाथ । (8) सर्प लांछन से अंकित पादपीठ पर खड़े पार्श्वनाथ । (५) कमल पुष्पयुक्त पादपीठ पर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी आदिनाथ की मूर्ति ।
इनमें आदिनाथ प्रतिमा उत्कृष्ट कला-कौशल का उदाहरण है। सुन्दर जटाजूट मण्डित प्रभु की प्रशांत मुखमुद्रा और शरीर का सौम्य गठन प्रेक्षणीय है । उस पर उत्कीणित अभिलेख के अनुसार यह श्रीकर संज्ञक व्यक्ति द्वारा निर्मापित है। ये प्रतिमाएं कला की दृष्टि से दशवीं शताब्दी की हो सकती हैं जिनका अध्ययन होना आवश्यक है।।
इन प्रतिमाओं के मध्यवर्ती चतुर्विशति पट के मध्य गोलाकार भाग में १२. ऊपर ८ और चारों कोने में ४ कुल २४ मूर्तियाँ हैं। इनके अतिरिक्त नीचे के भाग में पार्श्वनाथ और शीर्षस्थ महावीर स्वामी की प्रतिमा है। देनों ओर सिंह स्तम्भ पर तोरण अवस्थित है। निम्नभाग में देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ परिकर में अवस्थित है। यह मूर्ति सं० १०९० की निर्मित है। इसके साथ दो-दो खङ्गासन प्रतिमाएं हैं जिनमें एक पार्श्वनाथ और तीन ऋषभदेव भगवान की है। इनकी ऊँचाई ६ इंच की दो, ९इंच की एक और एक ११च की है । ग्यारह इच वाली कमलासन पर खड़ी ऋषभदेव प्रतिमा में चतुर्दिक नौ ग्रह बने हुये हैं, वह प्रतिमा भी अपने ढंग की एक ही है।
उड़ीसा के कटकपुर से प्राप्त ऋषभदेव भगवान की एक सुन्दर प्रतिमा कलकत्ता के इण्डियन म्यूजियम में प्रदशित है। यह कांस्य प्रतिमा सुन्दर पादपीठ पर कमलासन के ऊपर अवस्थित है। पादपीठ पर मध्य भाग में वृषभ ( लांछन ) बैठा हुआ है । प्रभु की कायोत्सर्ग मुद्रा में हाथों की अंगुलियां देह का स्पर्श कर रही हैं । मस्तक पर ऊँचा उष्णीष और स्कंध प्रदेश पर दोनों ओर तीन-तीन लटों में केश-राशि फैली हुई है। प्रतिमा के पादपीठ पर म्यूजियम का क्रमांक १२४३ लिखा हुआ है। दूसरी चन्द्रप्रभ प्रतिमा आशुतोष संग्रहालय में है जो ११वीं शती को मालूम देती है !
भानपुर के पास दो मील पर प्रतापपुर गाँव में भी प्रतिमाएं निकली थीं। उड़ीसा में जैन प्रतिमाएं प्रचुर परिमाण में प्राप्त हैं । कटक के चन्द्रप्रभ जिनालय में एक ऋरमदेव भगवान की धातुमय खङ्गासन प्रतिमा बड़ी भव्य है । प्रभु की केश-राशि उभय भाग में तीन-तीन लटों में प्रसारित हैं। चौरस सिंहासन के गोल कमलासन पर प्रभु खड़े हैं । उभय सिंहों के मध्य में कुम्भ रखा हुआ है ओर आगे निकले हुए अलग पाये पर लांछन स्वरूप वृषभ बैठा हुआ है।
छठी शताब्दी के शैलोद्भव राजा धर्मराज के बानुपुर ताम्रलेख में उनकी रानी कल्याण देवी द्वारा एक शतप्रबुद्ध__ चंद्र नामक जैनमुनि को कुछ भूमि देने का उल्लेख है ।
(बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ. पृ० १७०)
उड़ीसा के राजकीय संग्रहालय में, वानपुर से प्राप्त कांस्य- प्रतिमाओं का महत्वपूर्ण संग्रह है। उनमें (2) आम्रवृक्ष के नीचे बैठी, गोद में बालक को लिये हुए अम्बिका ।
अम्बिका---एलोरा की कांस्य-मूर्ति खड़ी अम्बिका के पास में एक वालक खड़ा है । द्विस्तरीय सिंहासन पर गोल कमलासन है । नीचे बालक बगल में खड़ा है ।
झवारी-मन्दिर कांस्य-जिनालय अनुकृति लगभग ११वीं
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शती की है। इसका शिखर चौरस है व चारों ओर चमुख भगवान विराजमान करने का स्थान है। यहाँ एक मूल प्रतिताविहीन परिकर मांधाता (निमाड़) से प्राप्त हुई है. जिसमें सं० १२४१ का अभिलेख है। इसमें विद्याधर यक्ष, चामरधारी पुरुष और भक्तजन बने हुए हैं।
सं० ११८८ की वनी एक शांतिनाथ प्रतिमा विक्टो. रिया व अलवर्ट म्यूजियम में है।
वैकुगम्-यहाँ के जैन मन्दिर में ७ खड़ी कांस्यमूर्तियाँ हैं जिनमें पार्श्वनाथ के सिर पर सर्पफण है। इनमें घंघराले बाल. आँखें व मुखाकृति में रुक्षता है । आकोटा की प्रतिमाएं:
आकोटा (गुजरात) से प्राप्त धातु-प्रतिमाएं बड़ौदा संग्रहालय में प्रदर्शित हैं जिनका परिचय दिया जा रहा
कायोत्सर्ग ध्यान की उच्चतम अवस्था को उजागर करती है। भगवान के ललाट पर गोल टीकी दी हुई है। प्रभु के भुजबंद स्कंध प्रदेश के नीचे पहनाये हुए हैं जिनके मुकुट की गवाक्ष शलो मणिमालावत् परिल क्षत होती है । कम्वुग्रीव प्रभु के गले का हार पर्याप्त विशाल है और हाथों में वलय पहने हुए हैं। कटिमेखला से कसी हुई धोती नीचे तक अयी हुई है। धोतो के सुघड़ सल स्पष्ट हैं और मध्यभाग में अलंकृत पर्यसत्क बंधा हुआ है । धौती की चुन्नटें वल्ली जसी लगने लगी हैं। यह प्रतिमा पूर्व-गुप्तकाल की कला का उत्कृष्ट नमूना है।
३. जीवन्त स्वामी-यह प्रतिमा भी भगवान महावीर के जीवनकाल में वनी प्रतिमाओं के अनुधावन में बनी जानेवाली प्राचीन और कलापूर्ण गुप्तकालीन प्रतिमा है । जीवन्तस्वामी की इस प्रतिमा के दोनों हाथ खण्डित हैं।
१. ऋषभदेव--यह कांस्य-प्रतिमा खङ्गासन मुद्रा में अत्यन्त सुन्दर, ७६ से० मी० ऊंची और कलापूर्ण है। एक हाथ इसका सर्वथा और आंशिक रूप में अन्यत्र भी जर्जरित-क्षतिग्रस्त हो गया है। पादपीठ तो सर्वथा लुप्त है पर इसके नीचे तक अधोवस्त्र-धोती धारण किया हुआ है। इस गुप्तकालीन कंबुग्रीव और क्षीण कटिप्रदेश वाली प्रतिमा के नेत्र रजत-मंडित और अधर ताम्रवर्णी हैं । स्कंध प्रदेश पर लटकती केशराशि वाली इस आजानुबाहु प्रतिमा को उत्तर भारत की सुन्दरतम् प्रतिमा कहा जा सकता है। यह प्रतिमा पाँचवीं शती
४. जीवन्त स्वामी-यह प्रतिमा एक अभिलेख युक्त ऊँचे पाद-पीठ पर खङ्गासन ध्यानावस्थित है। इसके आसन पर खुदे लेख से यह विदित होता है कि चन्द्रकुल की नागीश्वरी श्राविका का यह देव निमित्त दान है। इसकी लिपि ई० सं०५५० के आसपास की है । इस प्रतिमा के माथे पर मुकुट, कान में कुण्डल, वाये हाथ में ऊंचे भुजबन्द व कलाई पर वलय है । दाहिना हाथ सर्वथा लुप्त है। कटिमेखला धोती के ऊपर धारण की हुई है। मुखमण्डल के पृष्ठ भाग में सूपाकृति किनारीदार प्रभामण्डल बना हुआ है। इनका मुकुट त्रिकूट है और पहले वाली प्रतिमाओं की भाँति ऊपरी भाग में चौरस टोपी जसा आकार नहीं है । धोती की लांग मध्य में गोमूत्रिका कृति वाली है।
५. ऋषभदेव प्रतिमा-यह प्रतिमा कायोत्सर्ग-खङ्गासन मुद्रा में अवस्थित है । इस २५ से० मी० ऊंची प्रतिमा के ने चे ३३४९ से० मी० परिमाण का पादपीठ है जिसके उभय पक्ष में निकली हुई नालयुक्त कमल पर दाहिनी अर यक्ष एवं पार्श्व में अम्बिका देवी विराजमान हैं । देवी के
२. जीवन्त स्वामी-यह प्रतिमा कुछ क्षतिग्रस्त हो। जाने पर भी अत्यन्त सुन्दर है। मस्तक पर मुकुट और उसके पीछे चौरस टोपी जैसा परिधान है जिस पर गोल वातायन अलंकृति युक्त है ! ललाट के ऊपरी भाग में मस्तक के केश मुकुट के नीचे दिखाई देते हैं और स्कंध प्रदेश पर वालों की कुण्डलित लटें तीन भागों में बिखरी हुई हैं। भगवान महावीर के अद्धोंन्मिलित नेत्र, नासाग्र दृष्टि
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वयें गोड़े पर बालक बैठा हुआ है। इस अलंकृत आसन के मध्य उलटे हुए कमल का गोल आसन है जिस पर धर्मचक्र के उभय पक्ष में बैठे सुन्दर मृग प्रभु के मुखमण्डन्त को निहार रहे हैं। प्रतिमा के आकार और रिक्त स्थान में विद्रों को देखने से प्रतीत होता है कि यह अवश्य ही चतुविंशति जिन पट्टक रहा होगा जिसका तेईस प्रतिमाओं से युक्त परिकर बिछुड़ कर अलग हो गया है । इस पर निवृत्त कुल के 'जिनभद्र वाचनाचार्य के नाम का अभिलेन है। प्रस्तुत लेख की लिपि देखते हुए डा० उमाकांत शाह ने इसे सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर जैन विद्वान जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण का और सन् ५५० के लगभग का बताया है ।
भगवान आदिनाथ को वारीक धोती पहने हुए दिखाया है जिस पर सुन्दर डिजाइन बना हुआ है । आदिनाथ की प्रतिमा सवस्त्र होते हुये भी नग्नत्व- पुरुषचिन्ह स्पष्ट परिलक्षित होता है, यह आश्चर्यजनक है । यह प्रतिमा बड़ौदा संग्रहालय में है ।
६. अम्बिका देवी- यह प्रतिमा छठी शताब्दी के उत्स रार्द्ध की लेटे हुए सिंह पर ललितासन में विराजमान अम्बिका देवी की है। देवी के दाहिने गोड़े पर बालक बैठा है और दाहिनी ओर भी एक बालक खड़ा है । अलंकृत पीठ पर देवो और उसके पाश्र्ववर्ती स्तम्भ कमल-पुष्पा कृति युक्त है और उसके बगल में ग्रह बने हुए हैं। स्तम्भों में अलंकृत पट्टों के सहारे देवी विराजमान है और ऊपरी भाग में प्रभामण्डल कमल पंखुड़ियों से युक्त है। चारों ओर बेल-पत्तियों का बोर्डर है । इसके ऊपरी भाग में ध्यानस्थ जिन प्रतिमा बनी हुई है। देवी के विशाल ललाटों पर मुकुट पर्याप्त ऊँचा और किरीट युक्त है। कानों में कुण्डल, गले में एकावली हार, चन्द्रकला हार व घंटिका-घुंघरु हार, मंगलमाला पहनी हुई है। हाथों में भुजवन्द सुशोभित है । इस प्रतिमा के पृष्ठ भाग में क्षतिग्रस्त अभिलेख उत्कीर्णित है। देवी की साड़ी धारीदार है। मुखाकृति तेजस्विता -
पूर्ण है। यह प्रतिमा भी बड़ौदा संग्रहालय में प्रदर्शित है।
७. पार्श्वनाथ त्रितीर्थी यह कांस्य प्रतिमा आकोटा से प्राप्त अखण्ड सुन्दर और बड़ौदा संग्रहालय में विद्यमान ६८ प्रतिमाओं में से एक है। इसकी कला शैली में परिकर निर्माण का परिष्कृत रूप स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । पिण्डवाड़ा की प्रतिमा शैली से इसकी तुलना की जा सकती है। सतपण मण्डित पार्श्वनाथ भगवान की भव्य प्रतिमा के उभय पक्ष में जो दो काउसग्गिए ध्यानस्थ खड़े हैं वे फूलदार धोती पहने हुए है। उनके बगल में नीचे आसन पर दो चामरधारिणी अवस्थित हैं। तीनों जिन प्रतिमाओं के मस्तक पर छत्र सुशोभित है। ऊपरी भाग में एक देव ढोलक लिये बैठा है और प्रभु के छात्रों के पीछे वृक्ष के पत्ते दिखाई देते हैं प्रभु के नोचे अलंकृत पव्वासन और उलटे कमलासन के नीचे वस्त्रासन लटक रहा है। जिसके नीचे हरिण युगल युक्त धर्म चक्र है। सिंहासन के नीचे दो सिंह परिलक्षित है। इसके उभयपक्ष में दाहिनी और यक्ष व वाम पार्श्व में अम्विकादेवी विराजमान हैं । इनके आगे नौ ग्रहों की मूर्तियाँ स्पष्ट है। मध्यवर्ती दाहिने कोने में चैत्यवंदन मुद्रा में भक्त श्रावक बैठा दिखलाया है। प्रतिमा कलापूर्ण व सुन्दर है ।
प चतुर्विंशति पट्ट- यह कांस्यमय चौबीसी भी बड़ौदा संग्रहालय में प्रदर्शित है। मध्यवर्ती ऋषभदेव भगवान कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हैं। अवशिष्ट तेईस तीर्थकर पद्मासन मुद्रा में विराजित हैं। ऋषभदेव प्रतिमा के नीचे कमलासन और तन्निम्न भाग में धर्मचक्र, मृगयुगल और उभय पक्ष में नौ ग्रह बने हुए हैं। बगल में उभय पक्ष से निर्गत शाखा की भाँति कमल नाल पर वाम पार्श्व में अम्बिका देवी विराजमान हैं।
९. चामरधारिणी - यह कांस्य मूर्ति अत्यन्त सुन्दर, "लचकदार देहयष्टि युक्त है। इसके केशविन्यास और तदुपरि बंधी हुई लड़ियां व ऊपरवर्ती जूड़े के चतुर्दिक अलंकार [ ५९
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धारण किया हुआ है। इसके गले में हार व पुष्ट पयोधरों के मध्य लटकती हुई मंगलमाला नाभि से दाहिनी ओर स्थित है। हाथों में भुजबंद पहने हुए हैं। दाहिने हाथ में उत्तरीय वस्त्र का अंचल पकड़ा हुआ है और सीधा किया हुआ है । दाहिना हाथ मोड़ कर ऊपर किया हुआ है जिसमें दण्ड धारण किया हुआ लगता है। संभव है कि यह चामर की डांडी हो । दृढ़ श्रृंखलायुक्त कंदोरा और तन्निम्न भाग में कटिमेखलाकटिपट्ट परिधापित है। यह पश्चिम भारत की श्रेष्ठ कलाकृति है और बड़ौदा संग्रहालय में स्थित है ।
आकोटा के ६८ प्रतिमा समूह में अवशिष्ट प्रतिमाओं में ३० अभिलेख युक्त है जिनमें से दो संवतोल्लेख है। इनमें लगभग आधी प्रतिमाएं सातवीं शताब्दी से पूर्व की है। दो कांस्य प्रतिमाओं के मस्तक बड़े ही सौम्य और कलापूर्ण हैं. ये अवश्य ही गुप्तकालीन प्रतिमाओं के खण्डित भाग हैं।
वल्लभी (वला) की प्रतिमाएं गुजरात का वल्लभी नगर जैन धर्म का मुख्य केन्द्र रहा है. जहाँ आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में प्रथम वाचना हुई । आर्य मल्लवादी ने वि० सं० ४१४ के लगभग बौद्धों को शास्त्रार्थ में पराजित किया । वि० [सं० ५१० में फिर श्री देवद्धिं गणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में जैन श्रमणों की परिषद का द्वितीय सम्मेलन हुआ जिसमें जैनागमों को पुस्तकारूढ़ किया गया। इस समय गुजरात में जैन धर्म सर्वत्र फैल चुका था। भण्डारकर साहब ने वल्लभी से पांच खङ्गासन मुद्रा की प्रतिमाएं प्राप्त कीं, जो इस समय प्रिंस आफ वेल्स म्यूजियम, बम्बई में हैं। इनके खण्डित अभिलेखों से प्रमाणित हुआ है कि ये छठी शताब्दी मैं निर्मित हुई थीं ।
इन पाँचों प्रतिमाओं में चार पादपीठ पर स्थित हैं जिसमें तीन का ऊंचा और एक प्रतिमा का पादपीठ नीचा है और एक प्रतिमा का पादपीठ सर्वथा लुप्त हो गया है। ये सभी प्रतिमाएं गुप्तकाल की भाँति प्रलम्ब न होकर पश्चिम
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भारत की तत्कालीन शैली के अनुरूप हैं। एक प्रतिमा का दाहिना हाथ खण्डित है जो पादपीठ पर मणिमाला के गोल घेरे में अवस्थित है। एक प्रतिमा के उभय पक्ष में पादपीठ से लेकर मुखमण्डल के पीछे बने प्रभामण्डल तक धनुजाकार पट्टिका बनी हुई है। सभी के मस्तक पर घुंघराले वाल और लम्बे कान दृष्टिगोचर होते हैं। सभी प्रतिमाएँ धोती पहनी हुई हैं और गोमूत्रिका लहर की चुन्नटदार लाँग नोचे लटक रही है।
मड़ी की प्रतिमाएँ :
महड़ी गाँव, गुजरात में खुदाई से प्राप्त प्रतिमाएँ धातुमय इकती हैं। वे इस प्रकार हैं
१. जिन प्रतिमा के सिंहासन में दो सिंह और मध्य में धर्मचक्र है । उभय पक्ष में हरिण है। प्रभु के पृष्ठ भाग में दो स्तम्भ पर तोरण व प्रभामण्डल है ।
२. जिन प्रतिमा के पृष्ठ भाग में चौखट पर प्रभामण्डल है । निम्न भाग में पव्वासन के नीचे सप्तग्रह की खड़ी मूर्तियाँ दोनों ओर निकली हुईं हैं। शाखा पर यक्षयक्षिणी बैठी हुई हैं।
३. ऋषभदेव प्रतिमा के कन्धे पर कुन्तल राशि और पव्वासन के नीचे वस्त्र व दाहिनी ओर यक्षराज के अतिरिक्त कुछ अवशेन नहीं है। प्रभु के पृष्ठ भाग में कुछ नहीं है।
8.
४. पार्श्वनाथ प्रतिमा ऊंचे पाये के सिंहासन पर नौ ग्रह हैं, तदुपरि कुण्डली मारे सांप पर प्रभु प्रतिमा के उभय पक्ष में धरणेन्द्र पद्मावती हैं। प्रभु की मनोज्ञ प्रतिमा पर सुन्दर सप्तफण सुशोभित है । पिण्डवाड़ा की प्रतिमाएँ :
पिण्डवाड़ा, सिरोही रोड की प्रतिमाएँ यहाँ के मंदिर में विराजमान हैं।
१. वज्रासन जिन प्रतिमा यह सड़ी प्रतिमा कमलासन पर स्थित है। प्रभु को पहनाया कंदोरा और धोती
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खूब स्पष्ट एवं कलापूर्ण है। इस पर सं०७७४ का पाँच पंक्ति का संस्कृत अभिलेख उत्कीर्णित है।।
साराभाई का संग्रह
इनके यहाँ एक पार्श्वनाथ प्रतिमा है जो कि सुन्दर और सप्त फण मण्डित है। इसमें भी उमयपक्ष में खड़ी हुई कायोत्सर्ग मुद्रा की प्रतिमाएं हैं । निम्न भाग में चामर-धारिणी व उभय पक्ष में यक्ष-यक्षिणी अवस्थित हैं। नीचे नवग्रह बने हुए हैं व इसके धनुषाकृति पाये के मध्य में धर्मचक्र है । प्रतिमा के पृष्ठ भाग में दशवी शताब्दी का एक लेख उत्कीर्णित है जिसमें चन्द्र कुल माढ़ गच्छ के गोचि श्रावक के द्वारा मुक्ति की इच्छा से जिनेश्वर त्रितीर्थी बनाने का उल्लेख है।
२. पार्श्वनाथ त्रितीर्थी-यह प्रतिमा भी अत्यन्त सुन्दर पद्मासन स्थित सप्त-फग मण्डित है। दोनों ओर के कक्ष में स्थित कायोत्सर्ग मुद्रा की खड़ी प्रतिमाएं भी कलापूर्ण उपर्युक्त प्रतिमाओं की भाँति धोती पहिने हुए हैं । भगवान पार्श्वनाथ के पव्वासन के नीचे कमल की पंखुड़ियाँ और वस्त्र चिन्ह है । तन्निम्न माग में धर्मचक्र व उभय पक्ष में मृग युगल है। दोनों ओर सिंहासन के नीचे सिंह उत्कीर्णित है। सिंहासन के दाहिनी ओर यक्ष है जिसका वाहन गज है और बायें हाथ में फल धारण किया हुआ है। वाम पार्श्व में सिंहवाहिनी अम्बिका देवी दाहिने हाथ में आमलम्ब व बायें हाथ में वालक धारण किये अवस्थित्त हैं। यक्ष-यक्षिणी के पृष्ठ भाग में उभय पक्ष में चामर- धारिणी स्त्रियाँ खड़ी हैं और निम्न भाग में नवग्रह प्रतिमाएँ बनी हुई हैं। यह अत्यन्त सुन्दर कलाकृति भी आठवीं शताब्दी की है। वांकानेर की पार्श्वनाथ प्रतिमा :
पिण्डवाड़ा की उपर्युक्त प्रतिमा से मिलती-जुलती पार्श्वनाथ प्रतिमा सौराष्ट्र के वांकानेर में है। एक शैली होने पर भी शिल्पी भिन्न होने से सामान्य अन्तर होना स्वाभाविक है। यह प्रतिमा भी आठवीं-नौवीं शताब्दी की है और निम्न भाग में बने हुए पायों पर अवस्थित हैं।
गौड़ो पाश्वनाथ, बम्बई :
१. गौड़ीजी के मन्दिर की पार्श्वनाथ त्रितीर्थी भी सप्त- . फग मण्डित है और उसी शेली में निर्मित है जो तीन शताब्दियों से चलती आ रही है । इसके नवग्रह कुछ विशेष स्पष्ट हैं और सामने चारों पाये परिलक्षित हैं । पृष्ठ भाग में प्रतोली आकार वाले पाये पर सं० १०६३ का लेख उत्कीर्णित हैं । पिण्डवाड़ा की प्रतिमा शेली से कुछ भिन्नता और शिल्प में परिवर्तन व रेखाओं के उत्कीर्णन में कुछ न्यूनता लगती है।
२. आदिनाथ प्रतिमा- यह प्रतिमा प्रभास पाटण से आई हुई इकतीर्थी है। इसमें उभय पक्ष में चामरधारिणी मूर्तियाँ खड़ी हैं और दाहिनी ओर यक्ष व बाँयीं तरफ अम्बिका की प्रतिमा है। भगवान के पीछे प्रभामण्डल, छत्रादि न होने से लगता है कि परिकर भाग नष्ट हो गया है। इसके पृष्ठ भाग में सं० १०९० का लेख उत्कीर्णित है । प्रभु के मस्तक पर पृष्ठ भाग में गर्दन तक लटकतो केश-राशि अन्य प्रतिमाओं से पृथकता ला देती है। अहमदाबाद की प्रतिमा : __अहमदाबाद के वाघण पोल स्थित अजितनाथ जिनालय
की धातुमय कायोत्सर्ग मुद्रा की विशाल जिनप्रतिमा पिण्डवाड़ा शैली की परम्परागत अनुकृति है । यह सरल परिकर वाली आकर्षक प्रतिमा है जिसके उभयपक्ष में
गिरनार तीर्थ :
विमलनाथ परिकर--यह परिकर खूब विशाल आर कलापूर्ण है। इसके ऊपर काउसग्गिए और परिकर के निम्न भाग में सं० १५२३ का लेख भी उत्कीर्णित है। यह पहली ढूंक के चतुर्विंग देहरियों के पास एक कमरे में रखा हुआ है । इसमें षण्मुख यक्ष और विजया
शासनदेवी की भी सुन्दर प्रतिमा बनी हुई है। मूल प्रतिमा - भग्न हो जाने से यह परिकर उपेक्षित पड़ा हुआ है।
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चामरधारी अवस्थित हैं और एक साधु व एक श्रावक चैत्य वन्दन करते हुए बैठे हैं। इस पर सं० ११११ का अभिलेख भी उत्कीर्णित है ।
नीचे वाहन गरुड़ है जो कमल पुष्प पर अवस्थित है । अम्बिका देवी की अन्य धातु प्रतिमा सं०१५०६ की प्रतिष्ठित है।
दिल्ली की पार्श्वनाथ प्रतिमा :
दीववन्दर :
पिण्डवाड़ा शैली से प्रभावित एक अत्यंत सुन्दर कलापूर्ण प्रतिमा दिल्ली के चिराखाने के पार्श्वनाथ जिनालय में है। इस प्रतिमा के पृष्ठ भाग में एक अभिलेख भी उत्कीर्णित है जिससे इसका निर्माण-काल आठवीं- नवीं शती प्रतीत होता है । इस प्रतिमा की सुन्दर तक्षण शैली आज की-सी बनी हुई प्रतीत होती है । महावीर स्वामी की यह प्रतिमा वि० सं० १६०५ की वनी हुई है और महातीर्थ सम्मेतशिखर पर खरतरगच्छाचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित है । पर इसकी भीशै लोगत विशेषता है। चतुष्कोण समवसरण के आसन पर भ० महावीर विराजित हैं और उनके चारों कोणों में सिंह खड़े हुए हैं। इन चारो कोणों में चार गणधर प्रतिमाएं भगवान को वंदन करती हुई अवस्थित हैं जिनके पृष्ठ भाग में व्यक्त, मण्डित, मौर्यपुत्र और अकम्पित नाम खुदे हुए हैं । प्रभास पाटन (गुजरात):
यहाँ के मन्दिर में लक्ष्मी देवी की दो धातु-प्रतिमाएँ हैं जो परिकर में विराजित हैं। दोनों प्रतिमाओं के उभय पक्ष में गजराज अभिषेक करते हुए दिखाये गए हैं । एक के पादपीठ में भी हाथी का वाहन दिखाया गया है। एक प्रतिमा पद्मासन में और दूसरी दाहिना गोडा नीचा किये भद्रासन पर विराजित है । पाश्वयक्ष की प्रतिमा भी पायपीठ पर विराजित है जो दोनों हाथों को गोद में रखकर बैठे हैं। इनके उभय पक्ष में नाग हैं । वीकार की जैन प्रतिमाएँ:
यहाँ के सुविधिनाथ जिनालय में श्री आदिनाथ भगवान की कायोत्सर्ग मुद्रा की प्रतिमा है जो किसी विशाल परिकर के वाजू की प्रतीत होती है । इसके निम्न भाग में दाहिनी ओर शासन देवी श्री चक्रेश्वरी और वाम पार्श्व में अम्बिका की खड़ी मूत्ति है जो दाहिने हाथ में आम्रलुम्ब और वाम हाथ में बालक को लिये हुए हैं। अम्विका की प्रतिमा पूर्व काल में नेमिनाथ भगवान की अधिष्ठात्री होने पर भी जिन-मन्दिरों में तीर्थंकरों के परिकरों में पायी जाती है। खड़ी प्रतिमाएं यद्यपि अल्प ही मिलती है फिर भी बंगाल के शिल्प में देखी जाती है। चक्रेश्वरी की प्रतिमा दो हाथों में चक्र एवं तीसरे में माला और चौथे में शंख धारण की हुई है।
बीकानेर से ७० मील दूरी पर अमरसर के टीलों में सं० २०१३ में सोलह प्रतिमाएं निकली थीं जिनमें दो पाषाणमय व चौदह धातुमय थीं। वे अभी गंगा गोल्डन जुबिली म्यूजियम में प्रदर्शित हैं। इनका परिचय इस प्रकार है
१. पाश्वनाथ त्रितीर्थी-यह सप्तफगमण्डित त्रितीर्थी परिकर युक्त प्रतिमा सं० ११०४ की प्रतिष्ठित है। भगवान के पृष्ठ भाग से आये हुए साँप का शरीर चौकड़ी युक्त है और फणावली के पीछे भी प्रतिहार्याकृति और सिर पर छत्र है । उभय पक्ष में लम्ब गोलाकृति चक्र के मध्य छत्र के नीचे कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमाएं हैं जिनकी धोती के चिह्न स्पष्ट हैं.। छत्र के ऊपरी भाग में पत्ते दिखाई देते हैं । निम्न भाग में यक्षयक्षिणी एवं उभय पक्ष में चामरधारी हैं जिनके पृष्ठ भाग में पत्ते की भाँति तीखे आकार के आधार हैं: प्रभु के आसन के नीचे सिंह और दोनो तरफ पाये हैं। मध्य भाग में गुप्तोत्तरकालीन वस्त्र लटकता दिखाया है और नीचे नौ ग्रह बने हुए हैं !
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२. त्रितीर्थी प्रतिमा- यह सं० ११२७ की प्रतिष्ठित और उपकेश गच्छ के श्रावक आम्रदेव कारित है । भगवान के पृष्ठ भाग में अलंकृत प्रभामण्डल, सिर पर छत्र और ऊपरी भाग में किन्नर हैं। उभय पक्ष की खङ्गासन प्रतिमाएँ धोती पहनी हुई हैं और उनके पास चारधारी खड़े हैं। काउसग्गियों के नीचे यक्ष-यक्षिणी एवं तन्निम्न भाग में नौ ग्रह हैं। सिंहासन के पायों के पास सिंह और वीच के वस्त्र चिह्न के आगे धर्मचक्र है ।
३. चतुर्विंशति पट्टछत्र के नीचे विराजित मूलनायक प्रतिमा के उभय पक्ष में खड़े धोती पहने काउसगियों के ऊपर पद्मासन मुद्रा में जिनेश्वर और नीचे की ओर यक्ष-यक्षिणी हैं। पायेदार सिंहासन के मध्य लटकते वस्त्र के दोनों ओर सिंह और सिंहासन के पाये हैं। निम्न भाग में नौ ग्रह की पंक्ति है। परिकर के दोनों और तोरण के स्तम्भ में चार-चार जिन प्रतिमाएँ और ऊपर के वक्ष में तोरण पर दोनों ओर एक पचासन और दो-दो खन्नासन मुद्रा की प्रतिमाएं है। प्रतिमा के उमय पक्ष में अलंकृत स्तम्भ और मकर मुख प्रतीत होते हैं । सं० ११३६ में जल्लिका श्राविका द्वारा निर्मार्पित है।
४. पार्श्वनाथ पंचतीर्थी - यह प्रतिमा सं० ११६० में कर्चपूरीय गच्छ के मनोरथाचार्य द्वारा प्रतिष्ठित है । सप्तफण मण्डित पर्श्वनाथ के वगल में खड़े धोती पहने खङ्गासन प्रतिमाओं के ऊपर पद्मासन प्रतिमाएँ हैं । सिंहासन के चारों पायों के बीच दोनों सिंह बैठे हैं और उभय पक्ष में चामरधारी खड़े हैं।
५. आदिनाथ पंचतीर्थी यह प्रतिमा सं० सं० १०६३ में प्रतिष्ठित और कलापूर्ण है। भगवान की प्रतिमाओं के उभय पक्ष में खङ्गासन प्रतिमाएं धोतीयुक्त हैं और पृष्ठ भाग में अलंकृत भामण्डल है । पृष्ठ भाग के तोरण स्तम्भ पर दो पद्मासन प्रतिमाएँ और बगल में लिह और मकर मुख हैं। सिंहासन के मध्य भाग में वस्त्र
लटक रहा है. धर्मचक्र भी है। दोनो ओर सिंह और दो पाये हैं। सिंहासन के दोनों ओर राक्ष-यक्षिणी एवं नीचे चैत्यवंदन करते भक्त युगल के मध्य में नौ ग्रह स्थापित हैं।
६. देवी प्रतिमाह अश्वारूड देवी की प्रतिमा सं० १११२ में छाहड़ द्वारा निर्मापित है। देवी चारों हाथों में आयुध धारण किये है। घोड़ा चौकी पर खड़ा है ।
७ सप्तका पार्श्वनाथ प्रतिमा सतफग युक्त पार्श्वनाथ भगवान की किसी श्राविका द्वारा निर्मार्पित है और कमलासन पर विराजमान है। तोरण स्तम्भ के सहारे पृष्ठ भाग में धर्म चक्र और ऊंचे शिखर की भाँति कलश है ।
पार्श्वनाथ जन आकार के कमलासन पर विराजित भगवान की सप्तफम मंडित प्रतिमा है। उभय पक्ष में त्रिष्ठ स्तंभ और पृष्ठ भाग से सांप आकर गोडों के पास से ऊपर गया है। दोनों ओर के सौंप कुण्डली कृत न होकर पृथक प्रतीत होते हैं ।
९. आदिनाथ पंचतीर्थी सिहासन के उभय पक्ष में यक्ष-यक्षिणी, दोनों और चामरधारी के मध्य में दो काउसग्गिया और ऊपर पद्मासनस्थ प्रतिमाएँ हैं । मध्यवर्ती आदिनाथ भगवान के मस्तक पर छत्र, पृष्ठ भाग में प्रभामण्डल और उभय पक्ष में किन्नर है।
१०. पार्श्वनाथ त्रितीर्थी स्पष्ट तक्षण कला वाली इस प्रतिमा के पृष्ठ भाग में ऊँची सप्त फणावली और उभय पक्ष में धोती पहने हुये खङ्गासन प्रतिमाएँ हैं । भगवान के नीचे पव्वासन और तन्निम्र भागवर्ती कमल की पंखुड़ियों के नीचे वस्त्र लटकता हुआ उभरा पक्ष स्थित सिंहों के मध्य दिखाया है। दाहिनी ओर यक्ष व वाम पार्श्व में अम्बिका देवी विराजित हैं। मध्यवर्ती धर्मचक्र के आगे कमल पर यक्ष बैठा है ।
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११. पार्श्वनाथ त्रितीर्थी-यह प्रतिमा भी सप्तफण मण्डित है और सिंहों के ऊपर लटकते वस्त्र वाले पव्वासन पर विराजमान है । उभय पक्ष में धोती पहनी प्रतिमाएँ और ऊपर छत्र लगा हुआ है । निम्न माग में दाहिनी ओर यक्ष व वाम पार्श्व में अम्बिका देवी अलंकृत टोडी पर कमलासनस्थ है । यह प्रतिमा दुर्गराज कृत स्नात्र प्रतिमा हो सकती है।
१२. पार्श्वनाथ त्रितीर्थी-यह प्रतिमा सप्त फणोपरि पट्टिका और कलश युक्त है। सिंहासन के वस्त्र. उभय काउसग्गियों के पास स्तम्भ व निम्न भाग में नौ ग्रह हैं ।
स्नात्र प्रतिमा है। इसके पृष्ठ भाग में लिखे कुटल लिपि के लेख से यह स्पष्ट है। इसके उभय पक्ष में अवस्थित काउसग्ग मुद्रा वाली प्रतिमाएँ धोती पहनी हुई हैं ओर वे पव्वासन के नीचे से निकले हुये कमलासन पर खड़ी हैं। उभय पक्ष में एक और साँप . पर पद्मावती और दूसरी ओर गजारूढ़ देवी हैं। सिंहासन के मध्य में भी एक व्यक्ति विराजित है। निम्न भाग में नौ ग्रह और उनके उभय पक्ष में सिंहासन के पायों में से निकले हुये कमलासन पर दाहिनी ओर गजारूढ़ यक्ष और वाम पार्श्व में सिंहवाहिनी अम्बिका है जिसकी गोद में बालक परिलक्षित है। काउसग्गियों के आसन से फिर प्रतिशाखा निकलकर दोनों और अपने दोनों हाथों में वस्त्र धारण किये पुरुष बैठे हैं। प्रतिमा के सप्त फण का अर्द्धभाग खण्डित हो जाने से दूसरे पीतल के सप्त फण बना कर जोड़ दिये गये हैं। नेत्र चाँदी की मीनाकारी या रत्नजटित रहे होंगे जिन्हें निकाल डाला गया है अतः गढ़े मात्र रह गये हैं। नीचे वाले पायों पर भी सिंह खड़े हैं और मध्य भाग में एक व्यक्ति की मूर्ति है।
१३. समवसरण प्रतिमा-यह चौमुख शिखरवद्ध प्रतिमा भी देवालय जैसी लगती है. सभी प्रतिमाएं राजस्थानी शिल्प कला से अनुप्राणित है।
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इन प्रतिमाओं के साथ एक अत्यन्त सुन्दर कलापूर्ण स्त्री मूर्ति प्राप्त हुई है जो त्रिस्तरीय कमलासन पर अपनी लचीली देहयष्टि को किञ्चित् दाहिनी ओर किये खडी है। यह पैरों में नुपुर, हाथ में दोनों ओर बंगडियों के बीच चूड़ियाँ पहनी हुई हैं। साड़ी की धारियाँ बहुत ही सुन्दर हैं और उत्तरीय को भुजबन्द के पास से कलात्मक ढंग से मोड़कर नीचे गोड़ों तक लहराता दिखाया है। त्रिवलीदार गले के नीचे हार और तिलड़ी नाभि के ऊपर तक पहनी हुई है। मुद्रा की भाँति बड़े कर्णफूल सुशोभित हैं। यह प्रतिमा प्राचीन राजस्थानी कला का प्रतिनिधित्व करने वाली भाव-भंगिमा युक्त अद्भुत एवं सुन्दर है। शंकरदान नाहटा कला भवन :
हमारे इस कला भवन में जैन-जैनेतर अनेक धातुमय प्रतिमाओं का संग्रह है जिनमें दो जिन प्रतिमाएं प्राचीन और कलापूर्ण हैं।
१. पार्श्वनाथ त्रितीर्थी-यह सपरिकर प्रतिमा सं० १०२१ की क्लिपत्य कूप चैत्य की गोष्ठी द्वारा निर्मापित
२. सपरिकर इकतीर्थी-जिनेश्वर भगवान के ऊपर छत्र व पृष्ठ भाग में प्रभामण्डल फूल की पंखुड़ियों वाला है जिनके आगे पट्टिका के सहारे भगवान विराजित हैं। उभय पक्ष में चामरधारी व ऊपर वस्त्र लिये किन्नर व नीचे दोनों ओर यक्ष व अम्बिका हैं। पव्वाासन व प्रतिमा के हाथ जर्जरित होकर लुप्त हो गये हैं। इस पर “संवत् ११३० ज्येष्ठ सु० १० सांत स प्र० बारिता" अभिलेख है। श्री मोतीचंद खजानची संग्रह :
इनके संग्रह में दो चौवीसियाँ हैं जिनमें से एक सं० १२३१ की है जिसके परिकर के ऊपरी भाग में २१ प्रतिमाएँ सेमीसर्कल में हैं। मूलनायक भगवान के दोनों ओर कायोत्सर्ग मुद्रावस्थित जिन हैं। मूलनायक भगवान के नेत्रों में रजत पूरित है। परिकर के दोनों ओर अम्बिका व यक्ष है। सिंहासन पर सिंह युगल व मध्य में कोई
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देव है। परिकर के निम्न कोने में दो व्यक्ति खड़े हैं जिन पर ग्रास बना हुआ है।
दूसरी प्रतिमा सं०११७९ का चतुर्विशति पटुक है जो सुन्दर कलापूर्ण व भिन्न अलंकारिक शैली का है। इनके संग्रह में एक चन्दवा सं० १५१७ का है जिस पर जरी का काम है।
श्री चिन्तामणिजी का मन्दिर :
बीकानेर के सर्वप्राचीन श्री चिन्तामणि जी (चौवीसटा) के मन्दिर में धातु प्रतिमाओं का विशाल संग्रह है। एक ही मंदिर में इतनी प्रतिमाएं सारे भारत में नहीं नहीं है। यहाँ इस समय १११६ प्रतिमाएं हैं जिनमें १०५० प्रतिमाएं सं० १६३३ में तुरसमखान द्वारा सीरोही की लूट में फतहपुर सीकरी लाई गई थी । पाँच छः वर्ष पश्चात् सं० १६३९ आ० सु० ११ को राजा रायसिंह और मंत्री कर्मचन्द्र बच्छावत उन्हें अकवर से प्राप्त कर वीकानेर लाये। वासुपूज्य स्वामी की मूलनायक प्रतिमा के साथ कई वर्ष पूजी जाकर अधिकांश प्रतिमाएं चिन्तामणिजी के भूमिगृह में रख दी गई थीं। सं० १९८७, १९९५. २०००, २०१८ में बाहर निकाली गई थीं । हमने सर्वप्रथम इनके अभिलेख संग्रहित कर अपने "दीकानेर जैन लेख संग्रह' में प्रकाशित किये थे परन्तु तत्र स्थित प्रतिमाओं का कलात्मक अध्ययन नहीं हो सका था। थोड़ी-सी कलापूर्ण प्रतिमा समूह का चित्र उपर्युक्त ग्रंथ में दिया गया था। सं० २०३३ के जून महीने में जब उन्हें पुनः निकाला गया तो राजस्थान सरकार द्वारा श्री प्रकाशचन्द्र भार्गव को सूची निर्माण हेतु नियुक्त किया गया । उन्होंने अध्ययनपूर्वक जो लेख लिखा. जैन यति गुरुकुल स्मारिका से यहाँ साभार उद्धृत किया जा रहा है।
१. ८वीं की१. ९वीं की२.९-१०वीं की २. १०वीं की ६.११वीं को ९.१२वीं की ३३. १३वीं की १११, १४वीं की ३५८.१५वीं की ५३३, १६वीं की २४, १७वीं की १. १८वी की ६. १८-१९ वीं को ४. १९वीं की २ प्रतिमाएं हैं । इनमें से कुछ प्रमुख प्रतिमाओं का वर्णन यहाँ प्रस्तत किया जा रहा है। १. आदिनाथ प्रतिमा ( प्रतिमा संख्या १)
यह २१ से० म०४३३ से० मी० माप की आदिनाथ प्रतिमा पद्मासन ध्यान में विकसित पूर्णदल कमल पर सज्ज युक्त वस्त्रालंकृत उच्च सिंहासन पर विराजमान है। वस्त्र में गोल-गोल घेरे के अन्दर व मल पुष्प का अंकन है । सिंहासन में उच्च पीठिका के ऊपर मध्य में दो मृगों के धर्मचक्र का अंकन एक विकस्ति कमल के ऊपर दिया गया है। पीठिका पर तीर्थंकर के लांघन का अभाव ध्यान देने योग्य है।
श्री आदिनाथ के कन्धे पर उनके बाल बिखरे हुए . हैं । उन्नत ललाट, लंबी नासिका व चौड़े नथुने युक्त गंल भरा चेहरा है जिससे सौम्यता झलकती है। आँखें बड़ी-बड़ी हैं। ओठ पतले हैं पर नीचे का ओठ मोटा है। शरीर में भारीपन है । पीठिका के अग्रभाग का दाहिना पैर टूटा हुआ है। इस प्रतिमा के दोनों तरफ यक्ष और यक्षिणी की प्रतिमा रही होगी क्योंकि उनके स्थित करने के लिए सुराख बने हैं। प्रतिमा के पीछे एक लाइन का छोटा-सा लेख है। इसका अध्ययन किया जा रहा है । कला शिल्प के आधार पर यह वसन्तगढ़ से प्राप्त ऋषभनाथ जी की प्रतिमा से काफी साम्य रखती है और ७वीं शती की जान पड़ती है।
मैने इसके लेख को "ॐ सन्ति गणि" पढ़ा था और बीकानेर जैन लेख संग्रह में प्रकाशित किया था । २. तीर्थकर प्रतिमा (प्रतिमा संख्या २)
यह २० सें० मी०४७ सें० मी० की खड़ी हुई किसी पीठिका पर अवस्थित थी । यद्यपि अव पीठिका नहीं रही.
इस समय भण्डारस्थ प्रतिमाओं की संख्या १११६ है जिनमें दो पाषाण को एवं ८ धातुयंत्र हैं। कालक्रमानुसार देखा जाय तो ७वीं शती की ३. ७-८वीं की
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हुक लगा हुआ है । अधोवस्त्र के चिन्ह स्पष्टतः लक्षित हैं। चेहरा गोल भरा हुआ है । कला की दृष्टि से यह ७वीं शती की जान पड़ती है ।
३. चतुर्मुख समवसरग (प्रतिमा संख्या ४) ।
यह २१ सें० मी० ४१९ सें० मी० की चौकोर चौमुखी प्रतिमा है जिसकी प्रत्येक दिशा में दो स्तम्भों के मध्य एक ध्यानस्थ तीर्थंकर प्रतिमा युक्त थी। अब केवल तीन दिशा में एक-एक प्रतिमा है. एक ओर की प्रतिमा नहीं है। ये प्रतिमाएँ अस्थिर हैं। पूर्व में शिखर पर ध्वज था । तीर्थकर प्रतिमाओं की पीठिका पर कुबेर एवं अम्बिका अवस्थित है। ऊपर एक कोने पर एक हाथी का वड़ा ही मनोरम अंकन हुआ है। कला की दृष्टि से यह प्रतिमा ११वीं शतः की जान पड़ती है।
४. श्री पार्श्वनाथ त्रितीर्थी ( प्रतिमा संख्या १७ )
यह २४ सें० मी०४१९ सें० मी० की है। पार्वनाथ तीर्थंकर एक सिंहासन पर ध्यानमुद्रा में बैठे हुए हैं। उनके पीछे पंचमुखी सर्पफग फलाए बैठा है जिसने तीर्थकर के ऊपर छत्र का रूप धारण कर लिया है। दोनों ओर वाजू में दो अन्य तीर्थकर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं । परिकर पर विद्याधरों का अंकन है । पीठिका पर कुवेर एवं अम्बिका का अंकन हुआ है। पीठिका पर अष्ट-ग्रहों का भी अंकन हुआ है । एक वाजू में चक्र - श्वरी का अंकन है जव कि दूसरी ओर कोई अन्य देवी का अंकन था जो अव खंडित है। यह प्रतिमा ७वीं-दीं शताब्दी की प्रतीत होती है । ५. सरस्वती देवी ( प्रतिमा संख्या ६१ )
यह १३.७ सें० मी०४६.४ सें० मी० की द्विबाहु प्रतिना समभंग अवस्था में खड़ी हुई अपने दाहिने हाथ में सनाल कमल लिये हुए है। मस्तक पर वाल संवार कर एक छोटा जूड़ा बना हुआ है. इसके आगे एक छोटा मुकुट पहन रखा है। पीछे का प्रभामण्डल खंडित है। प्रभामंडल
के नीचे प्राप्य भाग से पता लगता है कि प्रभामंडल दो कगार वाला था किन्तु अलंकरण-विहीन था। सरस्वती प्रतिमा का चौड़ा ललाट, सीधी लम्बी नासिका. छोटेमोटे होंठ; लम्बी आँखें और गोल भरा हुआ चेहरा बसन्तगढ़ की सरस्वती प्रतिमा की भाँति है । स्थानीय भक्तजनों ने प्रतिमा के नेत्रों में चाँदी भरकर प्रतिमा को कुरूप कर दिया है। देवी के कानों में गोल-गोल कुण्डल हैं जो कंधों को छू रहे हैं । गले में मणियुक्त एकावली एवं उरहसूत्र धारण किये हैं जो उन्नत पयोधरों के मध्य से होता हुआ वाँयी ओर गया है। नीचे का वस्त्र बसंतगढ़ की सरस्वती प्रतिमा की भाँति धारण किया है जिसमें दोनों पैरों के मध्य एक लहरदार वस्त्र है । उत्तरीय दोनों कंधों पर से होता हुआ एड़ी तक दो शिखाओं में चला गया है। प्रतना के दाहिनी ओर का उत्तरीय खंडित है। किन्तु इसका खंडित भाग कंधे एवं एड़ी के पास दृष्टिगोचर होता है। देवी के हाथों में भुजबन्द एवं कंगन तथा पैरों में पायल है।
इस धातु सरस्वती प्रतिमा का वसन्तगढ़ की धातु सरस्वती प्रतिता से काफी साम्य है और धोती वसन्तगढ़ तीर्थंकरों की भाँति है। कला एवं मूर्ति विकास दृष्टि से यह प्रतिमा प्वीं शती की है और पश्चिमी भारतीय कला के प्रथम चरण को है। ६. जन त.थंकर (प्रतिमा संख्या ९४)
चिन्तामणि जी के मन्दिर के सभामण्डप में ४७४१४ सें० मी० की खड़ी प्रतिमा चिरकाल से थी जो अव सुरक्षित स्थान में है। इसके १० सें० मी० की नव्यपीठिका लगा दी है। यह प्रतिमा उत्तरी राजस्थान की प्रतिमाओं में काफी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह बसंतगढ़ पिण्डवाड़ा से प्राप्त दो खड़ी प्रतिमाओं से काफी साम्य रखती है। यह प्रतिमा संभवतः तुरसमखान द्वारा सिरोही से लूट के लाई हुई होगी। प्रतिमा पर लांछन न होने से यह प्रतिमा किस तीर्थकर की है. निश्चयपूर्वक कहना कठिन है।
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इस प्रतिमा की कायोत्सर्ग मुद्रा और धोती पहनने का ढंग, बसंतगढ़ पिण्डवाड़ा से बिल्कुल साम्य रखता है। उन्नत ललाट, लम्बी नासिका, चौड़े नथने और गोल भरा हुआ चेहरा है । आँखें लम्बी एवं दड़ी हैं । धुंघराले वाल एवं उष्णःश युक्त यह प्रतिमा काफी सुन्दर है फिर भी गुप्तकालीन प्रतिमा जैसा ओज नहीं है । इस प्रतिमा के हाथ लम्वे हैं जिन्हें आजानुबाहु कहा जाता है जो महापुरुषों के लक्षण में आता है। तीर्थकर के कर्ण भी लम्वे दर्शाए गए हैं, जो कि महापुरुषों के चिह्न हैं । ओठ छोटे हैं। स्थानीय भक्तों ने नकली नेत्र व नीचे लौह पीठिका भी लगा दी है।
इसी मन्दिर के परकोटे में स्थित शांतिनाथ जिनालय के मूलनायक पार्श्वनाथ की धातु प्रतिमा सं० १५४९ में श्री जिनसमुद्रसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित है। सं० १५८० में हेमविमल सूरि प्रतिष्ठित धातुमय यंत्रपट में शश्रृंजय आवू. गिरनार. नवपद, समवसरण, चौबीसी, ई.स विहरमानादि उत्कीणित हैं।
श्री महावीर स्वामी का मन्दिर ( वेदों का):
वसन्तगढ़ से प्राप्त प्रतिमा शिल्पी शिवनाग के सं० ७४४ (६८७ ईस्वी) के लेख से पता लगता है कि उसने दो प्रतिमाएं बनाई थीं। डा० उमाकान्त प्रेमचंद शाह ने वहीं से प्राप्त दोनों प्रतिमाओं को शिवनाग रचित माना है। इस प्रतिमा को भी समकालीन मानना उचित होगा क्योंकि इसका शिल्प एकदम उसी प्रकार का है।
इस मन्दिर में भी सकड़ों धातु प्रतिमाएं भण्डार में हैं जिसके पूरे लेखों के संग्रह व अध्ययन की महती अवश्यकता है। सं०१५३४ की सीमंधर प्रतिमा, सं० १५३१ का कलि कुण्ड यंत्र, सर्वतोभद्र यंत्र, दुरितारिविजय यंत्र, षोडशकरण यंत्र ( सं १९६३ दि० रत्नकीर्ति उपदेश से) ह्रींकार यंत्र ( सं०१५६९ रूद्रपल्लीय गच्छ प्र०), अष्टांग सम्यग्दर्शन यंत्र आदि कितने ही धातुमय कलात्मक उपादानों के साथ सं० १५२७ में भ० भुवनकीर्ति प्रतिष्ठित विशाल प्रतिमा सं० १७२७ उदयपुर में श्री सुमतिसागर सूरि . के उपदेश से बना सिंहासन भी यहाँ है जिसे सूत्रधार गणेश
और कंसारामान जी के पुत्र परताप ने बनाया है । अम्बिका, देवी की तं न प्रतिमाएं सं० १३५१. १३५५. १३८१ और १४६९ की प्रतिष्ठित है । चाँदी की चक्र दवरी देवी व नवपद यंत्रादि धातु की अनेक वस्तुएं हैं।
चिन्तामणि जी के मन्दिर के मूलनायक श्री आदिनाथ चतुविशति पट्टक भी दादा श्री जिनकुशलसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित और मण्डोवर के मूलनायक रूप में थी जिसे वच्छावतों के आदिपुरुष बोथरा बच्छराज जोधपुर से साथ लाये थे । मन्दिर की प्रतिष्ठा का अभिलेख सही है क्योंकि कामरां द्वारा बीकानेर पर अधिकार कर परिकर भग्न कर देने और सं० १५१२ में उसका जीर्णोद्धार का उल्लेख मूलनायक के परिकर के अभिलेख में होने से वीकाजी के राज्यकाल में प्रतिष्ठित होना निर्विवाद है। केवल वीक जी को राजा की पदवी नहीं थी। वह राजा की पदवी रायसिंह को मुगलसम्राट ने दी इससे मन्दिर की प्राचीनता को नकारा नहीं जा सकता। अपने राज्य में महाराजा राजा उपाधि हर कोई लिखते थे इस विषय में ग्रंथों की प्रशस्ति आदि से भी प्रमाणित किया जा सकता है। अस्तु ।
श्री अजितनाथ जिनालय :
यहाँ सं०१५२३ में मन्त्रीदलीय श्र.वक द्वारा निर्मापित और जिनहर्ष सूरि द्वारा प्रतिष्ठित गौतम स्वामी प्रतिमा व कुरुजांगल देश के सपादों नगर में सं० १६८८ में निर्मित पंठ पर ऊंची चौकी पर गुरु महाराज दोनों पांव नीचे कियेदैठे हैं। इसके अभिलेख में दिगम्बर साधु-साध्वियों के नाम व निर्माता का नाम भी है
श्री चन्द्रप्रभ जिनालय :
यहाँ अन्य धातु प्रतिमाओं के साथ अष्टदल कमलाकृति प्रतिमा सीरोही में निर्मित स्व० श्री जिनचन्द्र
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सूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित है। चाँदी की प्रतिमाओं में एक सं० १७६४ की सोनोपाहरू द्वारा निर्मित व दूसरी सं० १५५९ की है।
श्री सुपार्श्वनाथ मंदिर :
सम्राट सम्प्रति और चन्द्रगुप्त द्वारा निर्मापित प्राचीनतम् लेख युक्त प्रतिमाएं थीं। उस जमाने में प्राचीन लिपि का अभ्यास न होने पर भी विद्वान जैनाचार्य श्री जिनराजसूरिजो ने अम्बिका देवी की सहायता से पढ़ी थी। उन प्रतिमाओं में एक अर्जुनहेम (प्लेटिनम) की भी. पाश्र्वनाथ प्रतिमा की आश्चर्यजनक उपलब्धि हुई थी। कविवर समयसुन्दर जी ने अपने स्तवन में इसका विस्तृत वर्णन किया है। उसके साथ कुछ अन्य प्रतिमाएँ,धूपदान कंसात जोड़ी आदि उपकरण भी निकले थे । अब, वे प्रतिनाएँ कहाँ हैं और कव छिपा दी गई, पता नहीं । परन्तु अव भी गांगाणी के मंदिर में सं०९३७ के अभिलेख वाली ऋषभदेव भगवान की अत्यन्त सुन्दर कलापूर्ण प्रतिमा विराजित है जिसका परिकर कहीं भण्डार में हो संकता है।
यहाँ सं०१७९४ के चौमुखजी. सं०१५१६ की रजतपय सपरिकर नेमिनाथ प्रतिमा व सं १५८१ का कलिकुंड यंत्रादि है। श्री महावीर जिनालय ( आसानियों का चौक ) :
यहाँ सं०१३९० में ज्ञानचंद्र सरि प्रतिष्ठित मल्लिनाथ भगवान का धातुमय सिंहासन है । श्री गौड़ी पार्व जिनालय :
यहाँ सं० १२७८ में प्रतिष्ठित रूधरिका देवी की प्रतिमा है।
चूरु डिवीजन के तारानगर के प्राचीन जिनालय में सं० १०५८ की प्रतिष्ठित शीतलनाथ भगवान की धातु प्रतिमा अत्यन्त सुन्दर व कलापूर्ण है। सुजानगढ़ के मन्दिर में चांदी को थाली में घण्टाकर्ण प्रतिष्ठित हैं । देशनोक के भूरों के वास की धातुमय मूलनायक प्रतिमा शान्तिनाथ स्वामी बीकानेर में ही निर्मापित है।
जैसलमेर में हजारों जिन प्रतिमाएं जिनमें धातुनिर्मित भी संख्याबद्ध व कलापूर्ण हैं | शान्तिनाथ मन्दिर की मूलनायक प्रतिमा सं० १५३६ की प्रतिष्ठित है । गजारूढ़ श्रावक प्रतिमा सा० खेता के पुत्र की है जो सं० १५९० की निर्मापित है। चन्द्रप्रभ जिनालय में एक प्रतिमा सं० १०८६ की है जिसमें नागेन्द्र सिद्धसेन दिवाकराचार्य के गच्छ का लेख है । लौद्रवाजी में सं० १६७३ का माया वीज यंत्र व धातुमय विशाल कल्पवृक्ष प्राचीनता व कला की दृष्टि से अद्भुत वस्तु है ।
जोधपुर के सन्निकट गांगाणी तीर्थ है जहाँ सं० १६६२ में एक तलघर से लगभग ६० प्रतिमाएं निकली थी जिसमें
जोधपुर के मन्दिर में भी कई सुन्दर कलापूर्ग विविध प्रकार की प्रतिमाएं हैं। साचोर, भीनलाल, जालोर आदि प्राचीन स्थान कलापूर्गप्राचीन मूर्तियों के लिये पर्याप्त प्रसिद्ध थे।
नागौर के बड़े मन्दिर में धातु प्रतिमाएं पर्याप्त प्राचीन और कलापूर्ण भी हैं। एक मन्दिर के सभा-मण्डप में कलापूर्ण समवसरण मेरु पर्वत देखा था जो लगभग ३५-४० इंच ऊँचा होगा | नागौर जैसे प्राचीन नगर में दिगम्बर व श्वेताम्बर मन्दिरों में कलात्मक उपादानों के विषय में अन्वेषण अपेक्षित है। मुस्लिम काल से पूर्व नागौर के जिनालयों की जो संख्या व स्थिति थी. प्राचीन स्तवनादि से विदित होता है कि धातुमय तोरण व परिकर युक्त विशाल प्रतिमाओं की अवस्थिति थी। राजस्थान व गुजरात के प्रत्येक नगर में प्राप्त धातु प्रतिमाओं में कुछ न कुछ कला वैशिष्ट्य मिलता है। केशरियाजी तीर्थ में चौवीसी विधा की एक धातुमय प्रतिमा में अतीत, अनागत और वर्तमान चौबीसियों के बहत्तर जिनविव अवस्थित हैं।
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सिरोही के कलापूर्ण मन्दिर विख्यात हैं जहाँ आसपास के अनेक गाँवों में सहस्राब्द के पूर्व के मन्दिर विद्यमान हैं। बसन्तगढ़ की दुर्लभ प्रतिमाएं भी पिण्डवाड़ा के जैन मन्दिर में होने का उल्लेख आगे किया जा चुका है । सिरोही के सभी मन्दिरों में कलापूर्ण प्राचीन प्रतिमाएं हैं । श्री अजितनाथ जिनालय में १७२ धातुमय जिन प्रतिमाए हैं तथा उसके आगे वाम पार्श्व में पुरातत्व मन्दिर है जिसमें दसवीं शती से लेकर सोलहवीं शती तक की ५४० प्रतिमाएं सुरक्षित हैं। आदिनाथ जिनालय के अन्तर्गत सुमतिनाथ जी के गंभारे के भूमिगृह में १००० धातु प्रतिमाएं १२वीं से १४वीं शती तक की हैं। इस मन्दिर में २९३ सर्व धातु की व ५ रजतमय प्रतिमाएं हैं। शान्तिनाथ मन्दिर में ३३ धातु प्रतिमाएं हैं। अन्य सभी मन्दिरों में अनेक धातु प्रतिमाएं हैं।
आवू अचलगढ़ तो अपनी शिल्प समृद्धि के लिये विश्व विख्यात है। विमल प्रवन्ध से ज्ञात होता है कि विमलवसही में मूल नायक की प्रतिमा पित्तलमय थी। यतः ।। वस्तु ।। "विमलवसही विमलवसही विमल प्रासाद
पित्तलमइ अढार भारनी आदिनाथ प्रतिमा प्रसिद्धी संवत् १०८८ वर प्रतिष्ठ शुभ लग्नि
कीधी।" अचलगढ़ में विशाल जिन प्रतिमाएं १४४४ मन तौल की है जिनमें स्वर्ण का भाग भी अच्छे परिमाण में हैं। आबू की भीमावसही जिसे पित्तलहर कहते हैं, में सुन्दर और कलापूर्ण विशाल मूलनायक प्रतिमा विराजित हैं।
जैन धातु प्रतिमाएं अनेक विधाओं की प.यी जाती हैं एवं अन्य उपादान भी अनेक प्रकार के उपलब्ध हैं जिन पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जाता है।
नेर, सीरोही आदि में प्रतिष्ठित ऐसी प्रतिमाओं के मध्य स्थित कर्णिका पर यह जिन प्रतिमा और उसके आसन के निम्न भाग से भिन्न-भिन्न अष्टदल पंखुड़ियाँ पिरोकर संलग्न किये रहते हैं जिनमें आठ भगवान की आठ प्रतिमाएं बनी रहती हैं । उन्हें वन्द करने पर बन्द कमल और खोल देने पर विकसित कमलाकार में मध्य वेदी सहित नौ प्रतिमाओं के एक साथ दर्शन हो जाते हैं । दिल्ली के नौघरा मन्दिर में इस विधा का एक और विकसित रूप देखा गया है जिसमें डबल स्तर में अत्यन्त सुन्दर ढंग से जिन बिम्ब-नवपदादि बने हुये हैं । बीकानेर में अकवर-प्रतिवोधक श्री जिनचन्द्रसूरि प्रतिष्ठित कई प्रतिमाएँ हैं पर श्री जयचन्द्रजी के भण्डार में सं०१८९५ में महाराजा रणजीतसिंह के राज्यकाल में पिण्डी में. प्रतिष्ठित एक ऐसी प्रतिमा है । हमारे शंकरदान नाहटा कलाभवन में एक स्वर्णमय कमल है जिसके वीच में हाथी दाँत की जिन प्रतिमा है। दबाने पर कमल विकसित हो जाता है।
सिद्ध प्रतिमा :
अर्हन्त भगवान तो सशरीरी होते हैं पर सिद्ध भगवान तो अरूपी आत्म-प्रदेश मात्र हैं। उनका रूप चित्रण कैसे हो? इस समस्या का समाधान दिगम्बर परम्परा में निकाला गया और पीतल-रजत आदि धातु के पात को खङ्गासन काटकर मध्य में केवल अवगाहना त्रिभाग घनीभूत आत्मप्रदेश का प्रतीक आकाश प्रदेश खाली रख दिया गया । यह सिद्धमूर्ति के दर्शन की विधा केवल दिगम्बर जिनालयों में ही दृष्टिगोचर होती है। श्वेताम्बर समाज ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया । गणधर प्रतिमा
कलकत्ता मन्दिर में १६ वीं शती की दो धातुमय गौतम स्वामी जी की प्रतिमाएं हैं। गत शताब्दी में पुण्डरीक स्वामी की प्रतिमा बनवा कर प्रतिष्ठित करवायी थी। उसी समय दादासाहब के चरण भी कमलासन
अष्टदल-कमल:
लगभग चार सौ वर्ष से अष्टदल कमल युक्त प्रतिमा निर्माण के उदाहरण बीकानेर आदि में देखे गये हैं। बीका
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पर बनवाकर राजलदेसर मन्दिर में भेजे गए थे। इन्द्र प्रतिमाः
इन्द्र की चामरधारी प्रतिमाए' तो पंचतीर्थी आदि में प्रचुर परिमाण में हैं पर भगवान के जन्माभिषेक समय की एक प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में है जिसके गोद में एक छिद्र है जिसमें भगवान की प्रतिमा बैठाकर अभिषेक करने हेतु निर्मित प्रतीत होती है। इन्द्र प्रतिमा के मस्तक पर मुकुट कुण्डलादि देख कर जीवित स्वामी की प्रतिमा होने का भ्रम होता है । ऐसी प्रतिमा राय बद्रीदास कारित शीतलनाथ जिनालय के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं देखी गई।
विजय यंत्र:
आचार्य श्री जिनप्रभसूरि द्वारा विजययंत्र का प्रत्यक्ष प्रभाव अनुभव कर सम्राट मुहम्मद तुगलक ने दो ताम्रमय यंत्र वनवाकर एक आचार्यश्री को भेंट किया व दूसरा स्वयं हरदम अपने पास रखने लगा था।
घंटाकर्णयंत्र पट्ट :
ताम्रपत्र पर घण्टाकर्ण पूजा के यंत्र और मंत्राक्षरादि वाले पट भी पाये जाते हैं। हमारे कलाभवन में एक ताम्रपट्ट संग्रहीत है। नवपद-सिद्धचक्र यंत्र :
जैन समाज में चैत्र-आश्विन के अन्तिम नौ दिनों में आयंटिल पूर्वक नवपदों का आराधन किया जाता है जिसे ओली जी कहते हैं। मन्दिरों में नवपद मण्डल की रचना होकर विधि-विधान पूर्वक वृहत् पूजा भगाई जाती है। सिद्धचक्र यंत्र गट्टाजी तो स्नात्रपूजादि में नित्य ही पूजे जाते हैं । धातुमय सिद्धचक्र यंत्र चांदी पीतल और कांस्यमय प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं जिसमें कइयों में केवल नाम और कइयों में प्रतिमाएं उत्पीणित पायी जाती हैं । पाषाण पटों की भाँति धातुमय यंत्रों पर भी इस विधा का वैविध्य प्राप्त होता है । ढले हुए धातुमय यंत्र अजीमगंज के दूगड़ परिवार द्वारा शताब्दी पूर्व प्रचुर परिमाण में निर्मित हुए थे जिनमें अक्षर खुदे हुए नहीं पर ऊपर उठे हुए हैं । सिद्धचक्र मंडल के बहुत बड़े-बड़े पट्ट भी पाये जाते हैं । कलकत्ता के श्वे० पंचायती मन्दिर में एक वृहत् आकार का पट्टक है । इसमें मण्डल पूजन के सारे विधान विधिवत् बने हुये हैं। नव देवता:
जिनकांची के मन्दिर में एक यंत्र और द्वितल पादपीठ स्थित कमलासन पर मध्य में नृसिंह और उभय पक्ष में बने सिंहों पर चक्र में अष्टदल युक्त सुन्दर यंत्र बना हुआ है। मध्य में अरिहंत, ऊपर सिद्ध, फिर आचार्य, उपाध्याय, साधु के अतिरिक्त दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के प्रतीक स्वरूप जिनालय, ठवणी पर शास्त्र, धर्मचक्र व तपस्वी मुनि के चित्र उत्कीर्णित हैं। अर्हन्त भगवान के उभय पक्ष में चामर रखे हुये हैं ! चतुर्मुख प्रासाद :
मुनिश्री पुण्यविजय जी के संग्रह में धातु का एक
नौ-ग्रह दश-दिग्पाल पट्ट :
सिद्धचक्र विधानादि में मण्डलपूजा में ताम्र के नौ ग्रह दश दिग्पाल के बड़े-बड़े पट्ट बनते हैं जिनमें उनके नमस्कार पूर्वक नाम व प्रतीक खुदे रहते हैं। कई मन्दिरों में ऐसे पट्ट पाये जाते हैं ।
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अष्टमंगल :
प्राचीन शास्त्रों में पूठों पर चित्रों में और शिल्प में अष्ट मंगल प्रचुरता से पाये जाते हैं। सत्रह भेदी पूजा में भगवान के समक्ष अखंड चावलों से अष्टमंगल आलेखित होने का उल्लेख है पर वह कार्य कठिन होने से चांदी और पित्तल कांस्य के अष्टमंगल पट्ट भी सिद्धचक्र यंत्रादि की माँति प्रत्येक मन्दिर में पाये जाते हैं । पाटे पर खुदे हुए अष्टमंगल चावलों से पूरे जा सकते हैं पर आजकल चढ़ाने के इस उपादान को पूजनीय समझ कर लोग इनकी पूजा करने लगे हैं जो उचित्त नहीं ।
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सुन्दर परिकर है जो सं० १६१६ का है। इसकी कलापूर्ण अभिव्यक्ति प्रशंसनीय है। पृष्ठ भाग में विस्तृत अभिलेख है जिसमें पूर्णिमा पक्ष के विद्याप्रभसूरि द्वारा प्रतिष्ठा कराने व पाटण के ढंढेर पाड़े के श्रीमाल ज्ञातीय श्रावक परिवार के पद्मप्रभ विव निर्माण करने का उल्लेख है। इसकी मूल प्रतिमा अव नहीं है । एक छोटा-सा धातुमय जिनालय है जो चारों ओर खुला है । इसमें चतुर्मुख प्रतिमाएं विराज- मान रही होंगी । इस देहरासर का शिखर अत्यंत कलापूर्ण है। सं० १४६२ में इस चतुर्मुख प्रासाद को सा० धर्मा द्वारा स्वर्ण रौप्य से अलंकृत कराने और संघ द्वारा निर्माण कराने का उल्लेख है । यह भी मुनि पुण्यविजयजी के संग्रह
मुख आदि अलंकरण हैं: उपकरण कलश लगा हुआ है ।
नरवर का सहस्रकूट बिम्ब इस समय झांसी के जिनालय में है। यह धातुमय ढला हुआ चार साढ़े चार फुट ऊंचा नौ भागों में विभाजित खण्डों को जोड़ कर बनाया गया है। मध्य स्थित प्रतिमा ८ इंच की है. अवशिष्ट एक-डेढ़ इंच की है । समस्त प्रतिमाएं १००२ है और सं० १५१५ शक १५०९ (१) भट्टारक धर्मभूषण के उपदेश से निर्मित हैं । ऊपरी भाग में पीतल का सुन्दर कलश है।
समवसरण :
सूरत के दिगम्बर जिनालय में एक कांस्य का चतुमरव जिनालय भी धातु प्रतिमाओं की विधाओं में अपना वशिष्ट्य रखता है । इसमें चतुर्दिक तेरह प्रतिमाएं हैं जिनमें एक खगासन और वारह पद्मासनस्थ हैं । प्रथम तल में इस प्रकार ५२ हुई । द्वितीय तल में सोलह, तृतीय तल में चौमुख इस प्रकार ७२ प्रतिमाएं कलापूर्ण स्तम्भ व तोरण युक्त सुशोभित है।
सूरत के जैन मंदिर में एक धातुमय समवसरण अत्यन्त सुन्दर, कलापूर्ण और दर्शनीय है । इस विशाल समवसरण को नीचे चौरस कलापूर्ण आसन पर वृत्ताकार तीन गढ़ और वारह पर्षदा वाला बनाया है। यह सन् १०५५ का बना हुआ है । इसके प्रतोली द्वार, तोरण और विशिष्ट प्रकार का शिखर भी बेजोड़ है।
पंच मेरु :
नन्दीश्वर द्वीप :
यह भी सूरत के दि० जैन मन्दिर में पाँचों द्वीपों के पाँच मेरु के प्रतीक रूप पाँच तलों में अत्यन्त सुन्दर कलामय अभिव्यक्ति वाला बेजोड़ बना हुआ है।
ताम्रशासन
कोल्हापुर के जिनालय में एक धातुमय नन्दीश्वर विम्ब स्थापित है। जिसमें चौरस चतुर्मख प्रथम तल पर २०. द्वितीय तल पर १६, तृतीय तल पर १२ और चतुर्थ तल पर ४ जिनविम्व है। प्रतिमाएँ पद्मासन मुद्रा में हैं और ऊपर शिखर कलश युक्त है ।
सहस्रकूट जिनालय।
पाटण नगर में कांस्य का सहस्रकूट जिनालय अत्यंत सुन्दर कलापूर्ण है । यह सर्वतोभद्र की भाँति चतुर्मख
और पर्याप्त ऊंचा है। नीचे बारह पर्षदा और सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। ऊपर की तीन मंजिल में चतुर्दिन १००८ जिन प्रतिमाएं हैं, चारो कोनों में चामरधारी और मकर.
तौँ-मन्दिरों आदि के लिये राज्य की ओर से. जो भूमिदान आदि किये जाते थे, उनके अनेक ताम्रशासन संस्कृत. प्राकृत व राजस्थानी भाषा में लिखे हुए उपलब्ध हैं। बंगाल के ब्राह्मण गुहनन्दि द्वारा पहाड़पुर के जैन मन्दिर मठ को दिया गया ताम्रशासन पाँचवीं शताब्दी का है । विक्कमपुर का एक ताम्रशासन जेसलमेर में देखा था । बीकानेर के ज्ञान मंडार में नाल दादाजी की पूजा के हेतु प्राप्त राजकीय ताम्रशासन है। हमारे कला भवन में भी एक ताम्रशासन है ।
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रजतमय समवसरणादि:
उपसंहार:
बड़ौदा के नरसिंहजी की पोल में स्थित दादा पार्श्वनाथ जिनालय में एक चाँदी का विशाल समवसरण है। इसी प्रकार भारत के प्रत्येक नगर में विपुल सामग्री संप्राप्त है। कलकत्ता के पंचायती मन्दिर से विश्व विश्रुत कार्तिक महोत्सव की शोभायात्रा में धर्मनाथ स्वामी का जो समवसरण निकाला जाता है वह सं०१८९३ में हेमल्टन कम्पनी से बनवाया गया था । हेम रजत व मणियों से सुशोभित एवं मखमल-जरी से अलंकृत यह अदभुत कलाकृति है। इसके अतिरिक्त अन्य छोटे समवसरण, नौबत खाना, पट, लेश्या वृक्ष आदि अनेक कलामय वस्तुएँ हैं। फलधरा, पालने, ध्वजायें, त्रिगढ़े एवं सिंहासनादि सामग्री जैन मन्दिरों में प्रचर परिमाण में है । उपर्युक्त समवसरण के अनुकरण में कलाप्रेमी श्री भैरू दान जी कोठारी द्वारा बनवाया हुआ समवसरण बीकानेर में भी है। भारत के अनेक जिनालयों में समवसरण. कल्पवृक्ष. रथ, देवालय, सिंहासन, चतुर्दश महास्वप्नों के सेट आदि निर्माण द्वारा कला को काफी प्रोत्साहन मिला है। भगवान की अंगियाँ, स्वर्ण, रजत और रत्नजटित है जिसमें कला का प्रत्यक्ष दर्शन होता है । रजतमय प्रतिमाएं अनेक भाग्यशालियों ने निर्माण करायी थीं। मकसूदाबाद के दूगड़ परिवार ने शताब्दी पूर्व बहुत सी रजतमय प्रतिमाएं निर्माण कराई थी जो आज भी संप्राप्त है। नाकोड़ा जी की मूलनायक प्रतिमा का परिकर जतमय है। मन्दिरों की वेदियां, कपाट, सिंहासन, वंदनवार आदि अनेक मन्दिरों में विद्यमान हैं।
इस प्रकार धातु प्रतिमाओं के विराट विहंगावलोकन से प्रमाणित है कि प्रतिमादि निर्माण में धातुओं का प्रयोग अति प्राचीनकाल से होता आया है। मथुरा के देव निर्मित वैद्ध स्तूप स्वर्ण रत्नमय धातु से निर्मित थे। धंधाणी में निकली हुई सम्प्रति चन्द्रगुप्त कालीन प्रतिमाएं. बम्बई म्यूजियम की कांस्य प्रतिमा, आकोटा की जीवंत स्वामी आदि की प्रतिमाए' वल्लभी. महड़ी, वसंतगढ़, बीकानेर आदि की गुप्तकालीन शिल्प परम्पर। युक्त प्रतिमाएँ दंगाल, उड़ीसा, बिहार से प्राप्त प्रतिमाओं में कुषाण, गुप्त, पाल और मध्यकालीन शिल्पमय पंचतीथियाँ. चौवीसी. त्रितीर्थी. अपरिकर इकतीर्थी आदि कला का विकास, उसमें विभिन्न देवी-देवता, भक्तगणादि का प्रवेश अपने आप में एक विशिष्ट अध्ययन की सामग्री है। विशाल से विशालतम और लघ से लघुतम प्रतिमाएं तथा समवसरण, सहस्रकूट, मेरुगिरि आदि शिल्प व यंत्र पटादि विधाए' मथुरा के आयागपट्ट की परम्परा को उजागर करने में सक्षम है। शिल्प शास्त्र वास्तुविद्या विषयक ग्रन्थों से इस विषय में अध्ययन प्रस्तुत करना एक स्वतंत्र शोध का विषय है। इससे प्राचीन भारत के सांस्कृतिक व धार्मिक पूजा उपासना के अध्याय पर गम्भीर और मनोरंजक प्रकाश पड़ सकता है। यहाँ कुछ थोडी-सी यथाज्ञात सामग्री पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है।
आशा है विद्वान लोग इस उपयोगी विषय के शोधार्थ में सविशेष प्रवृत्त होंगे।
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इसी प्रकार बौद्ध ग्रन्थों के एक उल्लेख में भगवान महावीर के नालन्दावासी और बौद्ध महिमा को सहन न करने से खून की उल्टी होने और वहाँ से पावा ले जाने का उल्लेख मिलता है. यह भी सर्वथा गलत है । मुनि नगराज जी आदि ने भी इसे पीछे का जोड़ा हुआ माना है । प्राचीनतम् श्वेताम्बर जैनागम कल्पसूत्रादि से यह सिद्ध है कि भगवान महावीर निर्वाण के समय पूर्ण स्वस्थ थे । सोलह प्रहर तक अखण्ड देशना देते हुए निर्वाण पाये। वे अपापा या मध्यमा पावा की हस्तिपाल की रज्जुगशाला में विराजमान थे। अतः नालन्दा से अस्वस्थ अवस्था में पावा जाना और खून की उल्टी होना सर्वथा असंगत ही है। यदि बौद्ध उल्लेख को एक दृष्टि से ग्रहण कर लिया जाय तो भी वर्तमान पावापुरी ही निर्वाणस्थान सिद्ध होगा। क्योंकि अस्वस्थ अवस्था में बौद्ध ग्रन्थोक्त पावा में जाना तो सम्भव ही नहीं हो सकता ।
पावा समीक्षा की परीक्षा
पावापुरी स्थान के सम्बन्ध में कुछ पाश्चात्य विद्वानों और भारतीय अन्वेषकों ने बौद्ध साहित्य के आधार से शंका उपस्थित की है और उत्तर प्रदेश के कई स्थानों को प्राचीन पावा बताने का प्रयत्न किया है। पर जैन समाज ने, बौद्ध ग्रन्थों के आधार से जो अनिर्णित स्थान बतलाए गये उन्हें मान्य नहीं किया, क्योंकि जैन परम्परा का आधार ही जैन समाज को मान्य। हो सकता है. बौद्धों का नहीं | कारण स्पष्ट है कि बौद्ध ग्रन्थों में जो भी विवरण जैन सम्बन्ध में मिलते हैं वे भ्रामक एवं द्वेषपूर्ण प्रतीत होते हैं। इतना ही नहीं. उनके कई उल्लेख तो परस्पर विरोधी भी हैं। भगवान महावीर के निर्वाण सम्बन्धी बौद्ध ग्रन्थों में जो उल्लेख मिलते हैं वे प्रायः गलत प्रतीत होते हैं । जैसा कि एक उल्लेख में यह कहा गया है कि महावीर के निर्वाण के बाद तत्काल ही उनका संघ दो भागों में विभक्त हो कर परस्पर कलह करने लगा पर, यह बात जैनागमों के प्रकाश में सर्वथा गलत सिद्ध होती है । क्योंकि महावीर के निर्वाण के कुछ घंटों के बाद ही गौतम स्वामी को केवल ज्ञान हो गया था । उसके बाद सुधर्मा स्वामी जैन संघ के एकमात्र कर्णधार बने। अतः संघ के दो 'भागों में विभक्त होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
महावीर और बुद्ध समकालीन होने पर भी कभी परस्पर मिले नहीं । जैनागमों में बुद्ध या बौद्ध धर्म की निन्दा या विरोध में कुछ भी नहीं कहा गया जबकि बौद्ध ग्रन्थों में निग्गठनातपुत्र महावीर और उनकी विचारधारा पर स्पष्ट रूप से विरोधी स्वर तथा निन्दात्मक शब्दों का प्रयोग पाया जाता है। बौद्ध ग्रन्थ भी बुद्ध निर्वाण के काफी बाद के लिखे हुये हैं और उनमें पीछे से घोलमेल भी होता रहा है इत्यादि अनेक कारणों से बौद्ध ग्रन्थोक्त पावा भगवान महावीर का निर्वाण स्थान मान्य नहीं की जा सकती क्योंकि जहाँ बौद्धों का अधिक प्रभाव रहा वहाँ जैन कम हो गये और जहाँ जैनों का प्रभाव रहा वहाँ बौद्ध भी प्रायः कम हो गये थे। अतः बौद्ध ग्रन्थोक्त पावा जो कुशीनारा के निकटवर्ती
और मल्लों की राजधानी बतलाई जाती है, उस पावा में वैसे भी भगवान महावीर का निर्वाण होना नहीं जंचता। राजगृह-नालन्दा में भगवान ने अनेक चातुर्मास
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की बात को उस सम्प्रदाय के ग्रन्थों और प्राचीन परम्परा के आधार से बतलाना या मानना अधिक उचित है । विरोधी धर्म सम्प्रदायों की बातें जब वहुत-सी भ्रामक, गलत और द्वेषपूर्ण सिद्ध होती ही है, तव उनके आधार से जैन परम्परा की उपेक्षा करना सर्वथा अनुचित है।
किये, वहाँ जैनों का खूब प्रभाव था । अतः अन्तिम निर्वाण स्थान जैनों के प्रभाव व मान्य स्थान के आसपास ही होना अधिक तर्कसंगत और हृदय-ग्राह्य है।
पावा नामक स्थान भगवान महावीर के समय में भी तीन या तीन से अधिक थे । कुशीनारा के पास की पावा में बौद्ध प्रभाव हो अधिक होना चाहिए । जैन ग्रन्थों में महावीर के निर्वाण स्थान को मज्झिम पावा के नाम से उल्लिखित किया है जबकि बौद्ध ग्रन्थोक्त पावा को 'मज्झिन पावा' कहीं भी नहीं बतलाया है। पन्यास कल्याणविजयजी ने अपने 'श्रमण भगवान महावीर' ग्रन्थ में स्पष्ट लिखा है कि पावा नामक तीन नगरियाँ थी । जैन सूत्रों के लेखानुसार एक पावा मंगिदेश की राजधानी थी। यह देश पार्श्वनाथ पहाड़ के आसपास के भूमिभाग में फला हुआ था जिसमें हजारीबाग और मानभून जिलों के भाग शामिल हैं । दूसरी पावा कुशीनारा की और 'मल्लों की राजधानी थी। तीसरी पावा मगध जनपद में थी, यह उक्त दोनों पावाओं के मध्य में थी। पहली पावा इसके आग्नेय दिशा भाग में और दूसरी इसके वायव्य भाग में लगभग सम अंतर पर थी इसीलिये यह प्रायः मध्यमा पावा के नाम से ही प्रसिद्ध थी । भगवान महावीर के अन्तिम चातुर्मास का क्षेत्र और वीर निर्वाण भूमि इसी पावा को समझना चाहिये। बौद्ध ग्रन्थों में इस तीसरी पावा की चर्चा नहीं है । जैन ग्रन्थों में पहली पावा का उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता।
श्री सरावगी जी ने अपनी बात को सिद्ध करने के लिये मिट्टी की मोहर का जो पाठ उपस्थित करके, उससे जो अर्थ निकाला है वह तो बहुत ही हास्यास्पद-सा लगता है।
श्री सरावगी दिगम्वर सम्प्रदाय के हैं और उस सम्प्रदाय में प्राचीन जैन इतिहास एवं साहित्य की परम्परा उतनी सुरक्षित नहीं रही, जितनी श्वेताम्बर सम्प्रदाय में रही है। प्रारम्भिक निवेदन में उन्होंने इसे स्पष्टतः स्वीकार किया है कि "श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तो तीर्थ-कल्प आदि कुछ ग्रन्थ हैं भो पर दिगम्बर सम्प्रदाय में कोई ऐसा प्राचीन ग्रन्थ नहीं मिलता जिससे तीर्थों की तालिका, अवस्थिति, स्थान, मार्ग. रचना, निर्माण कालादि का ज्ञान हो सके ।" ।
श्वेताम्बर साहित्य और इतिहास की अजानकारी के कारण ही उन्होंने यहाँ तक लिख दिया कि "छठी शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक जैनों के अनेक तीर्थ विस्मृत हो गये अथवा उनके अधिकार के बाहर हो गये। आगे चलकर भट्टारकों ने और उनकी प्रेरणा से श्रद्धालु धनिकों ने मिलते-जुलते नामों के आधार पर अथवा भावुकता के तल पर कृत्रिम तीर्थों की स्थापना कर भव्य विशाल मंदिर, चैत्य, धर्मशालाएँ आदि का निर्माण करवा दिये । कुण्डलपुर, क्षत्रियकुण्ड आदि की कृत्रिमता तो प्रमाणित हो ही चुकी है। पावापुरी भी इसी प्रकार स्थापित तीर्थों में से एक है ।" वास्तव में पूर्व देश से जैन संघ जब पश्चिम और दक्षिण की
ओर चला गया तो प्राचीन तीर्थों में आवागमन अवश्य कम हो गया पर परम्परा विच्छेद नहीं हुई। न्यूनाधिक
अभी-अभी छपरा के श्री कन्हैयालाल सरावगी का 'पावा समीक्षा' नामक ग्रन्थ देखने में आया । इसमें मुख्यरूप से बौद्ध ग्रन्थों के आधार पर कुशीनारा के पास की पावा को ही भगवान महावीर का निर्वाण स्थान सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। वास्तव में जिस सठियांव या फाजिलनगर को पावा नामक स्थान वतलाया गया है उस स्थान के पक्ष में एक भी जैन प्रमाण वे नहीं दे पाये । वस्तुतः किसी भी सम्प्रदाय
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पावापुरी, कृत्रिम या स्थापित तीर्थ न होकर परम्परागत मान्य सही तीर्थ सिद्ध होता है।
हो, पर जैन संघ उन प्राचीन स्थानों में भी रहा अवश्य है। जिस तरह बिहार के मानभूम आदि जिलों में सराक जाति, सरावगीजी की बतलाई हुई शताब्दियों में निवास करती रही है जिनको सभी लोगों ने एक मत से प्राचीन जैन श्रावक माना है और उनके निवास स्थान में सरावगीजी के उल्लिखित काल में बने हुए अनेक मन्दिर और जैन मूत्तियाँ कुछ वर्षों पूर्व तो अधिक पर अभी भी थोड़े रूप में प्राप्त हैं। इसी तरह बिहार शरीफ. राजगृह आदि के आसपास एक दूसरी प्राचीन जैन जाति के लोग प्राचीन समय से, पीछे की शताब्दियों तक निवास करते रहे है। वह जाति है-महत्तियाण, जिसे संस्कृत शिलालेखों में 'मन्त्रिदलीय' कहा गया है। अनुश्रुति के अनुसार वे भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत की परम्परा के थे। सम्भव है उनमें से जैन गुरुओं का सम्पर्क न रहने से बहुत से लोग जैनधर्म भूल चुके हों। इसलिए खरतरगच्छ के मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने सं० १२११ से सं०१२२३ के बीच महत्तियाण जाति के लोगों को जैन धर्म का प्रतिबोध दिया। इस सम्बन्ध में हमारा निवन्ध 'मणिधारी जिनचन्द्रसूरि' ग्रन्थ में द्रष्टव्य है। इस जाति वाले जैन बन्ध पर्याप्त प्रतिष्ठित धर्मप्रेमी और धनवान रहे हैं। उनके नामों के आगे 'ठक्कर' विशेषण उनके भूमिपति होने का सूचक है । खरतरगच्छ की 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' के अनुसार सम्वत् १३५२ में तो महत्तियाण जाति वाले जैनी राजगृह और बिहार शरीफ के आसपास काफी संख्या में रहते थे। इसी कारण और उनके अनुरोध से रखरतरगच्छ के वाचक राजशेखर ने नालन्दा बड़गाँव में चातुर्मास किया
और वहाँ के जैनों ने विहार एवं उत्तरप्रदेश में तीर्थयात्री संघ निकाला जिसमें राजगृह, नालन्दा, पावापुरी. क्षत्रियकुण्ड. माहणकुण्ड, काकन्दी तथा वाराणसी, अयोध्या, रत्नपुरी, हस्तिनापुर आदि तीर्थों की यात्रा की। और गणिजी को पुनः लाकर विहार शरीफ में चातुर्मास कराया। इससे भगवान महावीर के वर्तमान निर्वाणस्थान
दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वान पं० बलभद्र जैन ने समस्त भारत के दिगम्बर जैन तीर्थों का इतिहास ५ वृहद खंडों में तैयार किया है। उन्होंने पावापुरी के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण लेख 'अनेकान्त' के अक्टूबर अंक में प्रकाशित करवाया है । इसमें दिगम्बर संस्कृत निर्वाण-भक्ति के श्लोक उद्धत करते हुए लिखा है कि "महावीर कमल-वन से भरे हुए और नानावृक्षों से सुशोभित पावानगर के उद्यान में कायोत्सर्ग ध्यान में आरूढ़ हो गये । पावापुर नगर के बाहर उन्नत. भूमिखंड पर कमलों से सुशोभित तालाब के बीच में निष्पाप वर्द्धमान ने निर्वाण प्राप्त किया।" इस उल्लेख से वर्तमान मान्य पावापुरी ही प्रभु का निर्वाण स्थान, दिगम्बर प्राचीन परम्परा के अनुसार भी सिद्ध होता है। कमलों के सरोवर के बीच ही वर्तमान जलमन्दिर भव्यजनों के परम आह्लाद को उत्पन्न करने वाला विद्यमान है। बौद्ध ग्रन्थोक्त सठियाँव वाली तथाकथित पावा में कमलसरोवर जानने में नहीं आया ।
सरावगीजी ने पावा समीक्षा के प्रथम परिच्छेद में लिखा है कि "उत्तरी विहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से जैन धर्म का बारहवीं शताब्दी तक पूर्णतः लोप हो गया था। बारहवीं शताब्दी तक वैशाली और मल्ल देशों से जैनों का सर्वथा वहिर्गमन हो चुका था और मुसलमानों का आतंक इन क्षेत्रों में बना हुआ था, इससे जैन अपने पूर्ववर्ती तीर्थस्थानों की ओर से उदासीन हो चुके थे
और उन्हें प्रायः भूल चुके थे । सम्भवतः बारहवीं शताब्दी के अन्तिम दशक या तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में पटना वाली वर्तमान पावापुरी में भगवान महावीर के प्रतीक की स्थापना कर दी गई। पंद्रहवीं शताब्दी तक वर्तमान पावापुरी की भगवान महावीर के निर्वाण क्षेत्र के रूप में मान्यता हो गयी थी और मध्यमा पावा की
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स्थिति को जैनी भूल चुके थे।" सरावगी जी का यह लिखना इतिहास की बड़ी मूल है, क्योंकि ईसा की बारहवीं शताब्दी तक मुसलमानों का आतंक इन क्षेत्रों में नहीं हुआ था । मुसलमानी साम्राज्य तो दिल्ली में भी वारहवीं शती के अन्त में स्थापित हुआ था । बारहवीं शताब्दी में नहीं, चौदहवीं शताब्दी में उनका आतंक माना जा सकता है। इसी तरह पन्द्रहवीं शताब्दी तक वर्तमान पावापुरी को निर्वाण क्षेत्र की मान्यता होने की बात भी सही नहीं है, क्योंकि सन् १२९५ में खरतरगच्छ के मुनियों और संघ ने वर्तमान पावापुरी को यात्रा की थी। उस समय वह निर्वाण स्थान के रूप में परम्परा मान्य ही था, अतः १५वीं शती की बात सथा गलत है ।
सरावगी जी सठियांव फाजिलनगर को ही बौद्ध ग्रन्थों के आधार से पावा होने का जगह-जगह लिखते हैं पर वह भी बौद्ध ग्रन्थों एवं भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार ठीक नहीं है क्योंकि पावा कुशीनगर से तीन गव्यूति दूर थी । गव्यूति का अर्थ भरतसिंह ने पौन योजन, आजकल की गणना में करीव छः मील बतलाया है जबकि सरावगीजी ने १२ मील बताते हुये सर्वत्र 'सठियाँव' की पुष्टि की है । 'तीन गव्यूति' का अर्थ यदि पौन योजन और छः मील डा० भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार सही है तो सठियांव और फाजिलनगर के हवाई किले तो हवा में ही उड़ जाते हैं क्योंकि वह तो १२ मील दूर है ।
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सरावगीजी ने पृष्ठ २१ में लिखा है कि वर्तमान पावापुरी में कोई पुरानी चीज नहीं मिलती। जो भी है गुप्तकाल के बाद की है, इससे इस पावापुरी की अर्वाचीनता सिद्ध होती है पर जिस स्थान को वे पावा बतला रहे हैं, वहाँ भी तो ऐसी कौन-सी जैन सामग्री प्राप्त है। वर्तमान पावापुरी में कुछ वर्षों पूर्व पर्याप्त पुरातत्त्वावशेन इधर-उधर बिखरे पड़े थे और कुछ अब भी वहाँ हैं । जलमंदिर जो वर्तमान में मकराने
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पत्थर से जड़ा हुआ है वह तो केवल ऊपरी सजावट है. उसके नीचे वे ही प्राचीन बड़ी-बड़ी ईंटें लगी हुई हैं। जब यह मन्दिर बन रहा था तो हमने स्वयं उन प्राचीन ईंटों को देखा है जो पुरातत्वज्ञों की दृष्टि से दो हजार वर्ष से भी प्राचीन हो सकती है। इसी प्रकार वर्तमान समवसरण मन्दिर में एक प्राचीन स्तूप और कुआँ है। जिनप्रभसूरिजी के सन् १३३५ के उल्लेखानुसार इसी पावापुरी में नागमण्डप था, जहाँ जनेतरों का मेला भी लगता था। वहाँ के कुएँ से पानी लाकर दीवाली के दिन बिना तेल घी के दीपक जलाते थे ।
सरावगीजी ने पृष्ठ
२२ में लिखा है कि पावा और पुरी दो अलग-अलग स्थान हैं। पावा ग्राम पुरी से प्रायः शामील उत्तर की ओर है, पावा में जैनों का कोई स्थान नहीं है, पुरी में ही दिगम्बर श्वेताम्वर मन्दिर और श्वेताम्बरों द्वारा निर्मित एक समवसरण है। पर सरावगीजी प्राचीन पावापुरी की समृद्धि और विशालता को भूल गये हैं। || मील का अन्तर तो साधारण वात
है, भगवान का समवसरण भी योजन के विस्तार में होता था वर्तमान समवसरण मन्दिर पावा के समीप ही है। भगवान महावीर का निर्वाण पावा में हुआ और उसके समीप ही अग्नि-संस्कार हुआ। इसलिए वह स्थान पुरी के नाम से प्रसिद्ध हो गया। दोनों स्थान पहले एक ही नगर के भाग थे फिर बीच में वस्ती कम हो जाने से दोनों का अलगाव हो गया। डेढ़ मील की दूरी उस प्राचीन विशाल पावा के क्षेत्रफल को देखते हुए कुछ भी नहीं है ।
पृ० २२ में ही वे सठियांव के समर्थन में एक प्रमाण उपस्थित करते हैं । वहाँ सन् १९४६ में बाबा राघवदास ने पावानगर महावीर इण्टर कालेज स्थापित किया। जिस कालेज की स्थापना हुए २५ वर्ष ही हुए हैं उसमें पावा नगर और महावीर का नाम जोड़ देने मात्र से वह भ० महावीर का निर्वाण क्षेत्र कभी मान्य नहीं हो सकता ।
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हजार वर्ष पुराने प्रमाणों को अमान्य कर २५ वर्ष के दिये हुए नाम को ऐतिहासिक महत्व और प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिये एक प्रबल प्रमाण बतलाना, कोई भी अर्थ नहीं रखता।
पृष्ठ ३० में 'महावीर और बुद्ध काल में केवल एक ही पावा थी' लिखा है-वह भी जैन साहित्य को अजानकारी का द्योतक है । केवल बौद्ध ग्रन्थ में एक पावा का उल्लेख होने से ही उस समय एक पावा थी यह लिख देना उचित नहीं है । ३ पावा के सम्बन्ध में हम पहले ही लिख चुके हैं।
पृ० ३२ में महावीर निर्वाण के ९८० वर्ष बाद में कल्पसूत्र की रचना हुई लिखा, यह भी सही नहीं है। वस्तुतः ९८० वर्ष बाद तो शास्त्र पुस्तकारूढ़ हुए थे, कल्पसूत्र की रचना तो श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी की है जो भगवान महावीर के १७० वर्ष बाद ही हुए हैं।
पृ० ३३ में सठियांव शब्द को चैत्यग्राम का अपभ्रश मानते हैं। पृ० ४२ में सठियांव को श्री पावा का अपभ्रंश बतलाना भी केवल मनोकल्पना है और भाषा-विज्ञान की अनभिज्ञता का सूचक ।
पृष्ठ २३ में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मिट्टी का मुहर को बतलाया गया है। जिसे वे 'विशिष्ट राजा या अमात्य का मुहर' और 'इस स्थान का नगर होना सिद्ध करती है' बतलाते हैं । पर पहली बात तो यह है कि यह मुहर कोई भगवान महावीर के समय की नहीं है । उसके पढ़े गये चार अक्षरों का अर्थ म से मल्ल, ह से हस्तिपाल, ल से लेखक, या ला राजा, अ से अपापा-अमात्य यह मन कल्पित अर्थ कर दिया गया है। पृ० २३ में पटना संग्रहालय के निर्देशक ने इस मुहर को गुप्तकाल से पूर्व दूसरी-तीसरी शताब्दी
और लखनऊ तथा कलकत्ता संग्रहालय के निर्देशक ने ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी का बतलाया है. लिखा है तव उसमें हस्तिपाल का नाम हो ही कैसे सकता है। इसी तरह अपापा यह नगर का नाम जैन मान्य है. बौद्ध ग्रन्थों में तो यह नाम ही नहीं मिलता। अतः उस समय इस स्थान का पावा नाम ही था मध्य पावा नहीं। वास्तव में सरावगीजी की यह कल्पना मात्र है। राजाओं की मुहर मिट्टी की नहीं हुआ करती । न तो यह 'मुहर भगवान महावीर के समय जितनी प्राचीन है और न उन । अक्षरों के अर्थ ही वे जो निकालते हैं सही हैं।
पृ० २६-२७ में मज्झिमा का अर्थ मध्य देशवर्ती कहना भी सर्वथा गलत है । मध्यदेश की सीमा के लिये पृ० ३३ में कल्पसूत्र के नामों से जो प्रमाण दिया है वह न तो कल्पसूत्र का पाठ है और न उसका मध्यदेश की सीमा सूचक अर्थ ही है। वास्तव में वह वृहत्कल्प सूत्र का पाठ है जिसमें साध साध्वियों
का विहार कहाँ-कहाँ कल्पता है उसकी सीमा बतलायी . है । यह मध्य देश की सीमा सूचक नहीं है ।
पृ०५८ में 'पावा के मल्ल महावीर के और कुशीनगर के मल्ल बुद्ध के अनुयायी थे' लिखा है पर उस पावा के मल्लमहावीर के अनुयायी थे, इस बात का प्रमाण क्या है? आगे लिखा है कि हरिवंश पुराण के वर्णन से ऐसा लगता है कि "भगवान महावीर विहार करते हुए बार-बार मध्य प्रदेश की ओर आते थे।" पर यह लिखना सर्वथा गलत है । उनके विहार चौमासों की श्वेताम्बर जैनागमों में जो सूची मिलती है उससे मध्य-प्रदेश की ओर बार-बार जाना सिद्ध नहीं होता।
पृ०६३ में मध्यम पावा वर्तमान देवरिया जनपद में कुशीनगर से प्रायः १२ मील दक्षिण पूर्व वैशाली की दिशा में थी लिखा है पर बौद्ध ग्रन्थों में जब 'मध्यम' शब्द का प्रयोग ही नहीं है तो उस पावा को मध्यम पावा बतलाना. कल्पना मात्र है।
इसी पृष्ठ में प्रतिक्रमण पीठिका के दण्डक प्रकरण का पाठ दिया है । उसमें 'सहाए' शब्द का अर्थ 'संरक्षित
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गलत किया गया है। प्राकृत 'सहाए' का 'सभा में अर्थ सीधा पड़ता है । प्रतिक्रमण पीठिका दंडक प्रकरण कौन सा है और कहाँ से प्रकाशित है-उल्लेख करना चाहिये था । उपर्युक्त पाठ के अर्थ के नीचे ही लिखा है कि 'हस्तिपाल के राज्य में निर्वाण होने का उल्लेख है' पर कल्पसूत्र और दण्डक प्रकरण दोनों पाठों में हस्तिपाल के राज्य का उल्लेख नहीं है, 'रज्जुगशाला' या 'सभा' का उल्लेख है । हमारी राय में रज्जुगशाला और सभा का उल्लेख उस स्थान का सूचक है जहाँ भगवान का निर्वाण हुआ। पर हस्तिपाल के राज्यकाल में हुआ ऐसा नहीं लगता । 'त्रिशष्टि शलाका पुरुष चरित्र', 'विविध तीर्थ कल्प, आदि के अनुसार उस समय राजा पुण्यपाल वहाँ का राजा था, जिसने भगवान से स्वप्नफल पूछे और उनसे दीक्षा ग्रहण कर मुक्ति प्राप्त की थी। हस्तिपाल राजा उसका पूर्ववर्ती राजा होगा जिसने वह 'रज्जुगशाला' या 'सभा' बनवायी थी। 'कल्पसूत्र' में 'जुण्णाए' और 'विविध तीर्थकल्प' में 'अभुक्तमान' विशेषण पाये जाते हैं । इससे ऐसा लगता है कि वह उस समय जीर्ण हो चुकी थी और राज्य के महकमें के रूप में काम नहीं आती थी । प्रभु ने उसी विशाल सभा स्थान में चातुर्मास किया। इसीलिये हस्तिपाल राजा का उल्लेख हुआ है । निर्वाण के समय वह हस्तिपाल की बनवायी हुई होने से उसी के नाम से प्रसिद्ध थी। भगवान का चातुर्मास नगर के बाहर होता था और शुल्कशाला चुंगीघर भी प्रायः बाहर ही होता है । वर्तमान पावा और पुरी दोनों मिलाजुला एक ही नगर था, जव बस्ती न रही तो अलग-अलग नाम कहलाने लगे । निर्वाण के समय हस्तिपाल का राज्य नहीं था । उसके बनाए भवन में भगवान ठहरे थे । 'कल्पसूत्र' के पाठ से ऐसा ही लगता है ।
हमारी राय में नवमल्ल और नवलिच्छवी दोनों को मिलाकर ही १८ गगराज्य थे जो काशी, कोशल देश के अन्तर्गत थे। आगे लिखा है कि "मगध वालों के सम्मिलित नहीं होने से निर्वाण का स्थान मगध से अलग सिद्ध होता है, यदि मगध्वाली पावापुरी में निर्वाण हुआ होता तो अजात. शत्र या उनके किसी प्रतिनिधि के सम्मिलित होने की बात अवश्य आती।" पर मगध वाले सम्मिलित नहीं हुए. ऐसा भी तो उल्लेख नहीं है। जब मगध की पावापुरी में निर्वाण हुआ तो वहाँ के लोगों की उपस्थिति का उल्लेख करना आवश्यक नहीं होता। अजातशत्रु सम्भव है उस समय कहीं अन्यत्र गया हुआ हो । निर्वाण की सूचना पहले से प्रचारित थोड़े ही थी, अन्यथा गौतम स्वामी दूसरे गाँव को क्यों जाते । सच्ची बात तो यह है कि श्रेणिक की मृत्यु के पश्चात् मन न लगने से उसने राजगृह से राजधानी हटा कर अंग देश की चम्पा को राजधानी करके वहाँ निवास करने लगा था जो मगध के अन्तर्गत थी।
पृ० ६६ में लिखा है कि "कल्पसूत्र में सर्वप्रथम नव मल्लई लिखा जाना विशेष अर्थ रखता है । यह कथन इसका द्योतक है कि वीर निर्वाण मल्लभूमि में हुआ था ।" पर वास्तव में नव मलई और लिच्छवी दूर से आये हुए थे अतः बाहर से आगन्तुक विशिष्ट व्यक्तियों के रूप में उनका उल्लेख हुआ है । स्थानीय व्यक्तियों का उपस्थित होना तो साधारण बात है। इनके उल्लेख की आवश्यकता नहीं होती। फिर मलों ने ७ दिन वुद्ध के शरीर को सजाने , पूजा करने में बिताये. इसका उल्लेख करके "महावीर निर्वाण के समय भी कुछ ऐसा ही हुआ था और जैसे-जैसे अन्य देशों में सूचना मिली, वहाँ के लोग भी सम्मिलित होने के लिए पावा पहुँचे" लिखा है, पर जैन ग्रन्थों के अनुसार न तो प्रभु की देह कई दिनों तक रखी गई थी और न अन्य देशों से लोगों के आने का ही उल्लेख है। जैन ग्रन्थों के अनुसार
पृ०६५ में नव मल्ल और नव लिच्छवि और अठारह काशी कौशल गणराज्यों का उल्लेख किया है, यहाँ बीच में एक 'और' लगाने से १८+१८-३६ हो जाते हैं पर
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तो उसी दिन देवों द्वारा अग्नि-संस्कार कर दिया गया और परम्परा के अनुसार इन्द्र और देव आदि प्रभु की अस्थियाँ आदि देवलोक में ले गये और रत्नकरण्डों में रख कर उनकी पूजा करने लगे।
बात है। गाँव तो वहाँ पुराना था तभी तो वहाँ मन्दिर आदि बने, गाँव कोई नया वसा कर मन्दिर आदि नहीं बनाया।
पृ० ६९ में लिखा है कि हरिवंश पुराण के समय तक वर्तमान पावापुरी की स्थापना हो चुकी थी और जिनसेन का हरिवंशपुराण शक संवत् ७०५ (वि० सं० ८४ में रचा गया था अतः सरावगीजी के उक्त लेखानुसार आठवीं शताब्दी से पूर्व ही वर्तमान पावापुरी की स्थापना हो चुकी थी। पृ० ७० में उन्होंने हरिवंश पुराण का रचनाकाल सन् १३१० ई० लिखा है. यह गलत है।
पृ० ७१ में लिखा है "बौद्ध शास्त्रों की तरह जैन ग्रन्थ सिलसिलेबार लिखे हुऐ नहीं हैं," पर वर्तमान आगम सिलसिलवार ही हैं। बौद्ध शास्त्रों की ऐतिहासिक शृखला जैन शास्त्रों की तुलना में अधिक विश्वसनीय अँचती है लिखना भी अनुचित है । जैन आगम भी विश्वसनीय सूचनाओं के भंडार हैं।
पृ० १२३ में "समाधि" शब्द का जो अर्थ किया गया है उसे देखते हुये वहाँ ."समाधि-मरण" शब्द होना चाहिए।
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पृ० ११२ में लिखा है कि "वर्तमान पावापुरी गाँव अधिक से अधिक छः-सात सौ वर्ष पुराना है। यहाँ प्राचीन कोई चीज नहीं है. जो है पन्द्रहवीं शताब्दी के लगभग की है।" पर यह गाँव भगवान की निर्वाण भूमि के रूप में ही जब तेरहवीं या इससे पूर्व की शताब्दी तक सरावगीजी को मान्य है. तब इस गाँव को छ:-सात सौ वर्ष अधिक से अधिक बतलाना तो परस्पर विरोधी
बहुत से स्थानों का सही निर्णय केवल इतिहास के आधार से नहीं किया जा सकता. परम्परा का भी अपना महत्व है। अतः समस्त जैन समाज वर्तमान मान्य पावापुरी में ही पचीस सौवां निर्वाण मनायेगा और उसी को मान्य रखने का अनुरोध किया जाता है। वौद्ध ग्रन्थोक्त पावा बौद्धों को ही मान्य हो. जैनों को नहीं।
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तथा ऊपर से नीचे खत्री लिखी जाने वाली लिपि त्संकी है जो चीन के अधिवासी संकी ने पक्षियों आदि के चरण चिन्हों से निर्माण की थी।
जैन लेखन कला
गुजरात की यह कहावत सर्वथा सत्य है कि सरस्वती का पीहर जैनों के यहां है । भगवान् ऋषभदेव ही मानव संस्कृति के जनक थे. उन्होंने ही परम्परागत युगलिक धर्म को हटाकर कर्मभूमि के असि. मसि और कृषि लक्षण को सार्थक किया था। समस्त ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के वे प्रथम शिक्षक, आदिपुरुष होने से उन्हें आदिनाथ कहा जाता है। सर्व प्रथम भगवान ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लेखन-कला, लिपिविज्ञान सिखाया. इसी से उसका नाम ब्राह्मी लिपि पड़ा । आवश्यक नियुक्ति भाष्य गाथा १३ मे "लेहं लिवी विहाणं जिणेण बंभीइ दाहिण करेण" लिखा है एवं पंचमांग भगवती सूत्र में भी सर्वप्रथम 'नमो बंभीए लिवीए' लिखकर अठारह लिपियों में प्रधान ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया गया है। बौद्ध ग्रन्थ ललितविस्तर में ६४ लिपियों के नाम हैं जिनमें भी प्रथम ब्राह्मी और खरोष्टी का उल्लेख है। बायीं ओर से दाहिनी ओर लिखी जाने वाली समस्त लिपियों का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। दाहिनी ओर से बायीं ओर लिखी जाने वाली लिपि खरोष्टी है और उसी से अरबी, फारसी. उर्दू आदि भाषाएं निकली हैं । चीनी भाषा के बौद्ध विश्वकोश के अनुसार ब्रह्म और खरोष्ट भारत में हुए हैं और उन्होंने देवलोक से लिपियां प्राप्त की
यद्यपि भगवान ऋषभदेव को असंख्य वर्ष हो गए और लिपियों का उसी रूप में रहना असंभव है और न हमारे पास उस विकास क्रम को कालावधि में आबद्ध करने वाले साधन ही उपलब्ध हैं। वर्तमान लिपियों का सम्बन्ध ढाई हजार वर्षों की प्राप्त लिपियों से जुड़ता है। यों मोहनजोदड़ों और हड़प्पा आदि की संस्कृति में पाँच हजार वर्ष की लिपियां प्राप्त हुई हैं तथा राजगृह एवं वाराणसी के अभिलेख जिसे विद्वानों ने "शंख लिपि" का नाम दिया है, पर अद्यावधि उन लिपियों को पढ़ने में पुरातत्वविद् और लिपि विज्ञान के पण्डित भी अपने को अक्षम पाते हैं । बाह्मी लिपि नाम से प्रसिद्ध लिपि का क्रमिक विकास होता रहा और उसी विकास का वर्तमान रूप अपने-अपने देशों व प्रान्तों की जलवायु के अनुसार विकसित वर्तमान भाषा-लिपियाँ हैं । खरोष्टी लिपि सैमेटिक वर्ग' की है और उसका प्रचार ईसा की तीसरी शती पर्यन्त पंजाब में था और उसके बाद वह लुप्त हो गई। पन्नवणा सूत्र में कुल लिपियों के नामोल्लेख के अतिरिक्त समवायांग सूत्र के १८ वें समवाय में अठारह लिपियों के नाम एवं विशेषावश्यक टीका के अठारह लिपि नामों में कुछ अन्तर पाया जाता है । जो भी हो यहाँ जैन लेखन कला और उसके विकास पर प्रकाश डालना अभीष्ट है।
भगवान महावीर की वाणी को गणधरों ने ग्रथित किया तथा भगवान् पार्श्वनाथ के शासन का वाङ्मय जो मिल-जुलकर एक हो गया था विशेषतः मौखिक रूप में ही निग्रंथ परम्परा में चला आता रहा । आचार्य देवद्धिंगणि क्षमाश्रमण ने वीर निर्वाण संवत् ९८० में वल्लभी में आगमों को ग्रन्थारूढ़/लिपिबद्ध किया तब से लेखन-कला का अधिकाधिक विकास हुआ। इतःपूर्व कथंचित् आगम लिखाने का उल्लेख सम्राट खारवेल के अभिलेख में पाया
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जाता है एवं अनुयोगद्वार सूत्र में पुस्तक पत्रारूढ़ श्रुत को द्रव्य-श्रुत माना है पर अधिकांश आगम मौखिक ही रहते थे. लिखित आगमों का प्रचलन नहीं था, क्योंकि श्रमण वर्ग अधिकतर जंगल, उद्यान और गिरि-कन्दराओं में निवास करते और पुस्तकों को परिग्रह के रूप में मानते थे। इतना ही नहीं. वे उनका संग्रह करना असंभव और प्रायश्चित योग्य मानते थे. निशीथ-भाष्य, कल्प-भाष्य, दशवैकालिक-चूणि में इसका स्पष्ट उल्लेख है । परन्तु पंचम काल के प्रभाव से क्रमशः स्मरण शक्ति का ह्रास हो जाने से श्रुत साहित्य को ग्रन्थारूद करना अनिवार्य हो गया था । अतः श्रुतधर आचार्य ने समस्त संघ समवाय में श्रुतज्ञान की वृद्धि के लिए ग्रन्थारूद करने की स्वीकृति को संयम वृद्धि का कारण मान्य किया और उसी सन्दर्भ में ग्रन्थ व लेखन सामग्री का संग्रह व विकास होने लगा।
पहले ताड़पत्र और बाद में कागज का उपयोग प्रचुरता से होने लगा । ग्रन्थ लेखन में वस्त्रों का उपयोग भी कभी-कभी होता था, परन्तु पत्राकार तो पाटण भण्डारस्थ सं० १४१० की धर्म-विधि आदि की प्रति के अलावा टिप्पणाकार एवं चित्रपट आदि में प्रचुर परिमाण में उसका उपयोग होना पाया जाता है । हमारे संग्रह में ऐसे कई ग्रन्थादि हैं । ताड़पत्र और वस्त्र पर ग्रन्थ लेखन का उल्लेख अनुयोग'चूणि तथा टीका में है।
लिपि और लेखन उपादान :
श्रुत लेखन में लिपि का प्राधान्य है। जैनाचार्यों ने भगवती सूत्र के प्रारम्भ में 'नमो बंभीए लिवीर' द्वारा भारत की प्रधान ब्राह्मी लिपि को स्वीकार किया। इसी से नागरी, शारदा, ठाकरी. गुरुमुखी, नेवारी, बंगला, उड़िया. तेलगु. तमिल, कन्नड़ी. राजस्थानी, गुप्त, कुटिल, गुजराती, महाजनी और तिब्बती आदि लिपि का क्रमिक विकास हुआ। उत्तर भारत के ग्रन्थों में देवनागरी लिपि का सार्वभौम प्रचार हुआ। स्थापत्य लेखों के लिये अधिकतर पाषाण शिलाफलकों का उपयोग हुआ । कहीं-कहीं काष्ठ-पट्टिका
और भित्ति लेख भी लिखे गए पर उनका स्थायित्व अल्प होने से उल्लेख योग्य नहीं रहा । दान-पत्रादि के लिये ताम्र धातु का उपयोग प्रचुरता से होता था, पर ग्रन्थों के लिये ताड़पत्र, भोजपत्र और कागज का उपयोग अधिक हुआ । यों काष्ठ के पतले फलक एवं लाक्षा के लेप द्वारा निर्मित फलकों पर लिखे ग्रन्थ भी मिलते हैं जिनका सम्बन्ध ब्रह्म देश से था। जैन ग्रन्थ लिखने में
पुस्तक लेखन के साधन :
जैनागम यद्यपि गणधर व पूर्वधर आचार्यों द्वारा रचित हैं। इनका लेखनकाल विक्रम सं० ५०० निर्णीत है। उपांग सूत्र राजप्रश्नीय में देवताओं के पढ़ने के सूत्र का जो वर्णन आता है वह समृद्धिपूर्ण होते हुए भी तत्कालीन लेखन सामग्री और ग्रन्थ के प्रारूप का सुन्दर प्रतिनिधित्व करता है। इस सूत्र में लिखा है कि पुस्तकरत्न के सभी साधन स्वर्ण और रत्नमय होते हैं । यतः
तस्स णं पोत्थ रयणस्स इमेयारूवे वण्णावासे पण्णते. तं जहा रयणमयाइ पत्तगाई, रिठ्ठामई कंबियाओ. तवणिज्जमए दोरे, नाणामणिमए गंठी, वेरुलिय-मणिमय लिप्पासणे. रिठ्ठामए छंदणे; तवणिज्जमई संकला, रिट्ठामई मसी, वइरामई लेहणी, रिट्ठामयाई अक्खराइं. घम्मिए सत्थे।' (पृष्ठ९६)
प्रस्तुत उल्लेख में लेखन कला से सम्बन्धित पत्र, कांविका,डोरा.ग्रन्थि-गांठ, लिप्यासन-दावात, छंदणय (टक्कन). सांकल, मषी-स्याही और लेखनी साधन हैं। ये १-जिस रूप में ग्रन्थ लिखे जाते थे. २-लिखने के लिए जो उपादान होना, ३-जिस स्याही का उपयोग होता और ४.लिखित ग्रन्थों को कैसे रखा जाता था, इन बातों का विवरण है।
पत्र-जिस पर ग्रन्थ लिखे जावें उसे पत्र या पन्ना कहते हैं। पत्र वृक्ष के पत्ते. ताड़पत्र. भोजपत्रादि का और बाद में कागज का उपयोग होता था, पर बांधने आदि के साधन से विदित होता है कि पत्ते अलग-अलग खुले होते थे।
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कंबिका-ताड़पत्रीय ग्रन्थ के संरक्षण के लिए रखी जाने इकपॉट ( Inkpot) से है। विज्जासणा-विद्यासन वाली काष्ठपट्टिका को आगे कांवी कहा जाता था। आजकल . और मजीसणां-मषीआसन. मषीभाजन से बना प्रतीत जो वाद की बनी हुई कविका प्रयोग में आती है वह वांस. होता है। लकड़ी. हाथीदांत आदि की होती है, जिस पर हाथ
छंदण और सांकल-दावात के ऊपर जो ढक्कन रखने से पसीने के दाग आदि नहीं लगते हैं । रेखा
लगाया जाता है उसे छंदण (आच्छादन ) कहते हैं तथा खींचने के लिए भी उसका उपयोग होता था व कुछ चौड़ी
उसे सम्बन्धित रखने वाली सांकल होती है जो दावात पट्टियाँ पत्र रखकर पढ़ने के उपयोग में भी आती थीं।।
से ढक्कन को संलग्न रखती है। पुरानी पीतल आदि की डोरा-ताड़पत्रीय ग्रन्थों के पन्ने चौड़ाई में संकरे भारी-भरकम शिखरबद्ध ढक्कनवाली दावातें आज भी कहींऔर लम्बाई में अधिक होने से वे एक दूसरे से संलग्न कहीं देखने को मिलती हैं। न रहकर अस्त-व्यस्त हो जाते थे, इसलिए उन्हें व्यव
मपी-अक्षरों को साकार रूप देने वाली मषी स्थित रखने के लिए बीच में छेदकर बांध देना अनिवार्य
'स्याही' है। मषी शब्द कज्जल का द्योतक है जो काली था। बांधने के लिए डोरे का प्रयोग होता और उस
स्याही का उपयोग सूचित करता है। रायपसेणी सूत्र लवे डोरे को फिर कसकर बांध देते थे जिससे वह दोनों
का 'रिट्ठामई मसी' और अक्षर रिष्ट रत्न के श्याम वर्ण पुट्ठों-काष्ठफलकों के बीच कसा हुआ सुरक्षित रहता।
होने से उसी का समर्थन करते हैं । आजकल दूसरे सभी ताड़पत्रीय ग्रन्थों के पश्चात् जब कागजों पर लिखने की
रंगों के साथ काली स्याही शब्द प्रयोग में आता है। प्रथा हो गईं तो भी उसके मध्य में छेद करके डोरा पिरोया जाता । वह अनावश्यक होने पर भी ताडपत्रीय पद्धति लेखनी-जिसके द्वारा शास्त्र लिखे जाएं उसे लेखनी कायम रही और मध्य भाग में चौरस या वृत्ताकार रिक्त कहते हैं। साधारणतया कलम ही लिखने के काम में स्थान छोड़ दिया जाता था। यह प्रथा उन्नीसवीं शती आती थी पर दक्षिण भारत, उड़ीसा और वर्मा की तक चलती रही। फिर भले ही उसमें अलंकरण का रूप लिपियों को ताड़पत्र पर लिखने के लिए लौह लेखनी का ताडपत्रीय ग्रन्थों की स्मृति रूदिमात्र रही हो।
आज भी उपयोग होता है पर कागज और उत्तर भारत
के ताड़पत्रादि पर लिखने वाली कलम का ही यहाँ आशय ग्रन्थि-ताडपत्रीय पुस्तक में डोरा पिरोने के बाद
समझना चाहिए। यों बंगाल आदि में पक्षियों की पांख वे निकल न जाएँ तथा ग्रन्थ नष्ट न हो जाए इसलिए
से भी लिखा जाता था। हाथीदांत, सीप, काष्ठ आदि के चपटे वाशर लगाए जाते थे जिसे ग्रंथी कहते थे।
लेखन उपादान के प्रकारान्तर:
लिप्यासन-शब्दार्थ के अनुसार तो इसका अर्थ लेखन के उपादान-कागज, ताड़पत्रादि होता है परन्तु आचार्य मलयगिरि ने इसका अर्थ मषि-भाजन अर्थात् दावात किया है । गुजरात में खडिया कहते हैं. राजस्थान में विज्जासणा कहते हैं । कविवर समयसुन्दरजी ने मजीसणां शब्द का प्रयोग किया है, पर सबका आशय
- जैसे आजकल छोटी-बड़ी विविध आकार की पुस्तकें होती हैं उसी प्रकार प्राचीन काल में विविध आकारप्रकार की पुस्तकें होने के उल्लेख दशवैकालिक सूत्र की हरिभद्रीय टीका, निशीथचूणि, वृहत्कल्पसूत्र वृत्ति आदि में पाये जाते हैं । यहाँ उनका संक्षिप्त परिचय दिया जाता है:
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गंडी पुस्तक-चौड़ाई और मोटाई में समान किन्तु विविध लंबाई वाली ताडपत्रीय पुस्तक को गडी कहते हैं । इस पद्धति के कागज के ग्रन्थों का भी इसी में समावेश होता है।
कच्छपी पुस्तक-जिस पुस्तक के दोनों किनारे संकरे तथा मध्य में कछुए की भांति मोटाई हो उसे कच्छपी पुस्तक कहते हैं। यह आकार कागज के गुटकों में तो देखा जाता है पर ताडपत्रीय ग्रन्थों में नहीं देखा जाता।
मुष्टि पुस्तक-जो पुस्तक चार अंगुल लम्बी और गोल हो. मुट्ठी में रख सकने योग्य हो उसे मुष्टि पुस्तक कहते हैं। छोटी-मोटी टिप्पणाकार पुस्तकें व आज की डायरी का इसी में समावेश हो जाता है।
पर यहां ताड़पत्र. वस्त्र, कागज, काष्ठपट्टिका, भोजपत्र, ताम्रपत्र, रौप्यपत्र. सुवर्णपत्र, पत्थर आदि का समावेश करते हैं। गुजरात, राजस्थान, कच्छ और दक्षिण में स्थित ज्ञान भण्डारों में जो भी ताड़पत्रीय ग्रन्थ उपलब्ध हैं. तेरहवीं शती से पूर्व, ताड़पत्र पर ही लिखे मिलते हैं। बाद में कागज का प्रचार अधिक हो जाने से उसे भी अपनाया गया । मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरिजी के समय विक्रम सं० १२०४ का ध्वन्यालोकलोचन' ग्रन्थ उपलब्धा है, पर टिकाऊ होने के नाते ताड़पत्र ही अधिक प्रयुक्त होते थे। महाराजा कुमारपाल, वस्तुपाल और तेजपाल के समय में भी कुछ ग्रन्थ कागज पर लिखे गए थे. फिर भी भारत की जलवायु में अधिक प्रचीन ग्रन्थ टिके नहीं रह सकते थे, जबकि जापान में तथा यारकन्द नगर के दक्षिण ६० मील पर स्थित कुगियर स्थान से भारतीय लिपि के चार ग्रन्थ वेबर साहव को मिले, जिन्हें ईसा की पांचवीं शती का माना जाता है । ताड़पत्रीय ग्रन्थों में सबसे प्राचीन एक त्रुटित नाटक की प्रति का 'भारतीय प्राचीन लिपि माला' में उल्लेख किया गया है जो दूसरी शताब्दी के आसपास की मानी गई है। ताड़पत्रों में खास करके श्रीताल के पत्र का उपयोग किया जाता था। कुमारपाल प्रवन्ध के अनुसार श्रीताल दुर्लभ हो जाने से कागज का प्रचार हो गया। पाटण भण्डार के एक विकीर्ण ताड़पत्र के उल्लेखानुसार एक पत्र का मूल्य छः आना पड़ता था।
संपुट फलक-व्यवहार पीठिका गा. ६ की टीका व निशीथ चूणि के अनुसार काष्ठफलक पर लिखी जाने वाली पुस्तक को संपुटफलक कहते हैं । विविध यंत्र, नक्शे, समवसरणादि चित्र जो काष्ठ-संपुट में लिखे जाएं. वे इसी प्रकार में समाविष्ट होते हैं।
छेद पाटी-थोड़े पन्नों वाली पुस्तक को कहते हैं, जिस प्रकार आज कागजों पर लिखी पुस्तकें मिलती हैं। उनकी लम्बाई का कोई प्रतिबन्ध नहीं, पर मोटाई कम हुआ करती थीं।
उपर्युक्त सभी परिचय विक्रम की सातवीं शताब्दी तक के लिखित प्रमाण से बतलाए गए हैं परन्तु उस काल की लिखी हुई एक भी पुस्तक आज उपलब्ध नहीं है । वर्तमान में जितने भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, पिछले एक हजार वर्षों तक के प्राचीन हैं। अतः इस काल की लेखन सामग्री पर प्रकाश डाला जा रहा है।
लिप्यासन-लेखन उपादान, लेखनपात्र-ताड़पत्र, वस्त्र, कागज इत्यादि । जैसा कि ऊपर बतलाया है राजप्रश्नीय सूत्र में इसका अर्थ मषीभाजन रूप में लिया
वस्त्र पर लिखे ग्रन्थों में धर्मविधि प्रकरण वृत्ति, कच्छली रास और त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र (अष्टम पर्व) की प्रति पत्राकार पायी जाती है जो २५ X ५ इंच की लंबी-चौड़ी है परन्तु लोकनालिका, अढ़ाई द्वीप, जम्बूद्वीप, नवपद, ह्रींकार, घण्टाकर्ण, पंचतीर्थीपट आदि के वस्त्रपट चित्र प्रचुर परिमाण में पाये जाते हैं। सिद्धाचल जी के पट तो आज भी बनते हैं और प्राचीन भी ज्ञान भण्डारों में बहुत से हैं। जम्बूदीप आदि
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के पटों में सबसे बड़ा पट कलकत्ता जैन मन्दिर में है। जो १६४१६ फुट माप का है। टिप्पणकार में बने कर्म प्रकृति, बारह व्रत टीप, अनानुपूर्वी, शत्रुजय यात्रापट आदि १-२ फुट से लेकर ३०-३० फुट जितने लम्बे पाये जाते हैं । पाटग भण्डार का संग्रहणी टिप्पगक सं० १४५३ का लिखा हुआ १६६४११|| इच का है । पन्द्रहवीं शताब्दी तक के प्राचीन कई पंचतीर्थी पट भी पाये गए हैं।
घण्टाकर्ण, ऋषिमण्डल आदि विविध प्रकार के यन्त्र आज भी लिखे जाते हैं और मन्दिरों में पाये जाते हैं । ताम्रपत्र पर ग्रन्थ लेखन का उल्लेख वसुदेव हिण्डी जैसे प्राचीन ग्रन्थ में पाया जाता है । सूरत के आगम-मन्दिर में ताम्र पर शास्त्र लिखाए गए हैं ।
बौद्धों ने हाथी दांत आदि का उपयोग ग्रन्थ लेखन में किया है, पर जैनों में उसके कांबी, ग्रन्थी, दावड़ा एवं स्थापनाचार्य (ठवणी) रूप में किया है, ग्रन्थ लेखन में नहीं। इसी प्रकार से चमड़े के सम्बन्ध में समझना चाहिए । ग्रन्थों के पुढे, पटड़ी, दावड़े आदि में उसका उपयोग हुआ है पर ग्रन्थ-लेखन में नहीं ।
भोजपत्र पर बौद्ध और वैदिक लोग अधिकांश लिखा करते थे, जैन ग्रन्थ अद्यावधि एक भी भोजपत्र पर लिखा नहीं मिलता। हां, यति लोगों ने पिछले दोतीन सौ वर्षों में मंत्र-तंत्र-यंत्रों में उसका उपयोग भले किया हो। बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद व संयुक्तागम अवश्य ही भोजपत्र पर लिखे दूसरी से चौथी शताब्दी के माने गये हैं।
शिलापट्ट पर लिखे जेनेतर नाटकादि अनेक ग्रन्थ पाये जाते हैं पर जैन ग्रन्थों में उन्नतिशिखर पुराण सं० १२२६ का लिखा हुआ वीजोल्या में है। श्री जिनवल्लभसूरिजी ने चित्रकूटीय प्रशस्ति आदि ग्रन्थ खुदवा कर मन्दिरों ' में लगवाया था। इसके सिवा मन्दिरों के प्रतिष्ठा लेख, विस्तृत श्लोकबद्ध प्रशस्ति काव्य, कल्याणक पट, तर पट्टिका, स्थविरावली पट्टक, लोकनाल, ढाई द्वीप, शतदलपद्म यंत्र पट्टक. समवसरण पट्ट, नंदीश्वर पट्ट, शत्रुजय, गिरनारादि पट्ट प्रचर परिमाण में बने पाये जाते हैं। बीसवीं शताब्दी में सागरानन्दसूरिजी ने पालीताना एवं सूरत के आगम-मन्दिरों में सभी आगम माल एवं ताम्रपट्टों पर लिखवा दिये हैं तथा वर्तमान में समयसारादि दिगम्बर ग्रन्थ भी लिखवाए जा रहे हैं।
वृक्ष की छाल का उपयोग जैनेतर ग्रन्थों में प्राप्त हुआ है। अगरु छाल पर सं० १७७० में लिखी हुई ब्रह्मवैवर्त पुराण की प्रति बड़ौदा के ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट में है। हमारे संग्रह में कुछ बंगला लिपि के ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें लकड़ी के फलक का उपयोग हुआ है तथा उनके पूठे वृक्ष की छाल व वांस पट्टी के बने हये हैं। जैन ग्रन्थों में ऐसे उपादानों का उपयोग नहीं हुआ है।
ताड़पत्र-ये ताल या ताड़ वृक्ष के पत्ते हैं। ताड़ वृक्ष दो प्रकार के होते हैं (१) खरताड़ और (२) श्रीताड़। खरताड़ के पत्ते लम्बाई और चौड़ाई में छोटे और चटक जाने वाले अल्पायु के होते हैं अतः इनका उपयोग ग्रन्थ लेखन में नहीं होता । श्री.ताड़ के वृक्ष मद्रास, ब्रह्मदेश आदि में होते हैं जिसके पत्ते बड़े चिकने, लचीले और टिकाऊ होते हैं । ये ताड़पत्र ग्रन्थ-लेखन के काम आते हैं। इन्हें प्रद हो जाने पर सीधा करके एक साथ जमीन में डाल कर सुखाया जाता है जिससे इनका रस धुप के साथ न उड़ कर उसी में रहता है और कोमलता आ जाती है । ये पत्ते लम्बाई में ३७ इंच तक के मिलते हैं । पाटन के भण्डार की प्रमेयकमलमार्तण्ड की प्रति ३७ इंच लम्बी है ।
ताम्रपत्र, रौप्यपत्र, स्वर्णपत्र, कांस्यपत्र, पंचधातु पत्रादि का प्रयोग अधिकांश मंत्र और यन्त्र लेखन में हुआ है । राजाओं के दानपत्र ताम्रपत्रों पर लिखे जाते थे। जैन शैली में नवपद यंत्र, विंशतिस्थानक यंत्र,
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कागज--इसे संस्कृत में कागद या कद्गल नाम से और गुजराती में कागल नाम से सम्बोधित किया जाता है। जैसे आजकल विविध प्रकार के कागज आते हैं; प्राचीन काल में भी भिन्न-भिन्न देशों में बने विविध प्रकार के मोटे-पतले कागज होते थे। कश्मीर, दिल्ली, बिहार, मेवाड़, उत्तर प्रदेश (कानपुर ), गुजरात ( अहमदाबाद) खंभातदेवगिरि (कागजीपुरा), उड़ीसा (वालासोर ) आदि के विविध जाति के कागजों में विशेषतः कश्मीरी, कानपुरी, अहमदावादी व्यवहार में आते हैं। कश्मीरी कागज सर्वोत्तम होते हैं। प्राचीन ज्ञानभण्डारों में प्राप्त १४वीं. १५वीं शताब्दी के कागज आज के-से बने हुए लगते हैं पर १८वी, १९वीं शताब्दी के कागजों में टिकाऊपन कम है। मिल के कागज तो बहुत कम वर्ष टिक पते हैं।
ग्रन्थादि सुगमता से लिखे जा सकते थे। पाटण भण्डार के वस्त्र पर लिखित ग्रन्थ खादी को दुहरा चिपका कर लिखा हुआ है ।
टिप्पगक-जन्म-कुण्डली, अणुपूर्वी, विज्ञप्ति-पत्र, बारहव्रतटीप आदि Scroll कागज के लीरों को चिपका कर तयार करते तथा कपड़े के लम्बे थान में वे आवश्यकतानुसार बना कर उसके साथ चिपका कर या खाली कागज पर लिखे जाते थे, जिन पर किए हु१ चित्रादि सौ-सौ फुट लम्बे तक के पाये जाते हैं।
साखन .
काष्ठ-पट्टिका-काष्ठ की पट्टियां कई प्रकार की होती थीं। काष्ठ की पट्टियों को रंग कर उस पर वर्णमाला आदि लिखी हुई 'बोरखा पाटी' पर अक्षर सीखनेजमाने में काम लेते थे। खड़ी मिट्टी के घोल से उस पर लिखा जाता था तथा ग्रन्थ निर्माण के कच्चे खरड़े मी पाटियों पर लिखे जाते थे। उत्तराध्ययन वृत्ति (सं. ११२९ ) को नेमिचन्द्राचार्य ने पट्टिका पर लिखा था जिसे सर्व देव गणि ने पुस्तकारूढ़ किया था। खोतान प्रदेश में खरोष्टी लिपि में लिखित कई प्राचीन काष्ठ पट्टिकाए प्राप्त हुई हैं।
कागज काटना-आजकल की भाँति इच्छित माप के कागज न वनकर प्राचीन काल में बने छोटे-मोटे कागजों को पेपर कटिंग मशीनों के अभाव में अपनी आवश्यकतानुसार काटना होता था और उन्हें वांस या लोहे की चीपों में देकर हाथ से काटा जाता था।
घोटाई-ग्रन्थ-लेखन योग्य देशी कागजों को घोटाई करके काम में लेते थे जिससे उनके अक्षर फटते नहीं थे । यदि वरसात की सील में पॉलिश उतर जाती तो उन्हें फिर से घोटाई करनी पड़ती थी । कागजों को फिटकड़ी के जल में डूबो कर अधसूखा होने पर अकीक कसौटी आदि के घंटे-ओपणी से घोट कर लिखने के उपयुक्त कर लिये जाते थे। आजकल के मिल-कारखानों के निर्मित कागज लिखने के काम नहीं आते । वे दिखने में सुन्दर और चमकदार होने पर भी शीघ्र गल जाते हैं।
लेखनी-आजकल लेखन कार्य फाउण्टेनपेन, डॉटपेन आदि द्वारा होने लगा है पर आगे होल्डर. पेन्सिल आदि का अधिक प्रचार था । इससे पूर्व बांस, वेत, दालचीनी के अण्ट इत्यादि से लिखा जाता था। आजकल उसकी प्रथा अल्प रह गई है, पर हस्तलिखित ग्रन्थों को लिखने में आज भी कलम का उपयोग होता है । कागज. ताड़पत्र पर लिखने के उपयुक्त ये लेखनियां थीं, पर कर्नाटक, सिंहल, उत्कल, ब्रह्मदेशादि में जहां उत्कीर्णित करके लिखा जाता है वहाँ लोहे की लेखनी प्रयुक्त होती थी। कागजों पर यंत्र व लाइनें बनाने के लिये जुजवल का प्रयोग किया जाता था जो लोहे के चिमटे के आकार की होती थी। लौह लेखनी में दोनों तरफ ये भी लगे रहते थे । आजकल के होल्डर की निबें इसी का विकसित
वस्त्रपट-कपड़े पर यन्त्र, टिप्पण आदि के लिए उसे गेहूँ या चावल की लेई द्वारा छिद्र वन्द होने पर सुखाकर के घोटाई कर लेते । जिस पर चित्र, यंत्र.
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रूप कहा जा सकता है । कलमों के घिस जाने पर उसे चाकू से पतला कर दिया जाता था तथा बीच में खड़ा चीरा देने से स्याही उसमें से उतर आने में सुविधा होती है। निबों में यह प्रथा कलम के चीरे का ही रूप है। लेखनियों के शुभाशुभ कई प्रकार के गुण दोषों को बताने वाले श्लोक पाये जाते हैं जिनमें उनकी लम्बाई, रंग, गांठ आदि से ब्राह्मणादि वर्ण, आयु, धन, संतानादि हानि वृद्धि आदि के फलाफल लिखे हैं उनकी परीक्षा पद्धति ताड़पत्रीय युग की पुस्तकों से चली आ रही है । रत्नपरीक्षा में रत्नों के श्वेत, पीत. लाल और काले रंग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र की भाँति लेखनी के भी वर्ण समझना चाहिए । इसका उपयोग कैसे व किस प्रकार करना, इसका पुराना विधान तत्कालीन विश्वास व प्रथाओं पर प्रकाश डालता है।
वतरणा-लेखनी-कलम की भाँति यह शब्द मी लिखने के साधन का द्योतक है । लिपि को लिप्यासन पर 'अवतरण करने के संस्कृत शब्द से यह शब्द बनना संभव है। काष्ठ की पाटी जिसे तेलिया पाटी कहते थे, धूल डाल कर लिखने का साधन वतरणा था । फिर स्लेट की पाटी पर वटीन व गत्ते की पाटी पर लिखने की स्लेट पेंसिल को भी भाषा में वतरणा कहते हैं । ललितविस्तर के लिपिशाला संदर्शन परिवर्त में 'वर्णातिरक' से वतरणा बनने का कुछ लोग अनुमान करते हैं ।
था। विविध शिल्पी लोग भी इसका उपयोग करते हैं।
ओलिया फांटियां-कागज की प्रतियां लिखते समय सीधी लकीरें जिसके प्रयोग में आती है वह गुजरात में ओलिया व राजस्थान में फांटिया कहलाता है। लकड़ी के फलक या गत्ते के मजबूत पूठे पर छेद कर मजवूत सीधी डोरी छोटे बड़े अक्षरों के चौड़े-संकरे अन्तरानुसार उभय पक्ष में कसकर बांध दी जाती है और उस पर इमली, चावल या रंग-रोगन लगाकर तैयार किये फांटिये पर कागज को रख कर अंगुलियों द्वारा टान कर लकीर चिन्हित कर ली जाती है। ताडपत्रीय प्रतियों पर फांटिये का उपयोग न होकर छोटी-सी विन्दु सीधी लकीर आने के लिए कर दी जाती थी। श्रावकातिचार में लेखन-ज्ञानोपकरण में इसे ओलिया लिखा है। राजस्थान में आजकल कागज के लम्बे टुकड़े को ओलिया कहते हैं जिस पर चिट्ठी लिखी जाती है।
कविका-ताड़पत्रीय लेखनोपकरण के प्रसंग में ऊपर कांबी के विषय में बतलाया जा चुका है । आजकल फुट की भांति चपटी होने से माप करके हांसिये की लकीर खींचने व ऊपर अंगुलियाँ रख कर लिखने के प्रयोग में आने वाला यह उपकरण है । यह वांस, हाथीदांत या चन्दन काष्ठादिक की होती है।
. जुजवल-इस विषय में ऊपर लेखनी के संदर्भ में लिखा जा चुका है । इसका स्वतन्त्र अस्तित्व था और संस्कृत 'युगबल' शब्द से इसकी व्युत्पत्ति संभव है। यह चिमटे के आकार की दोनों ओर लगी लेखनी वाली लोह-लेखनी थी । पुराने लहिये इसका प्रयोग लेखन समय में हांसिया आदि की लाल लकीरें खींचने में किया करते थे।
लिपि की स्वरूप दर्शिका-स्याही या रंग-पुस्तक लिखने के अनेक प्रकार के रंग या स्याही में काला रंग प्रधान है। सोना, चांदी और लाल स्याही से भी ग्रन्थ लिखे जाते हैं पर सोना, चांदी की महर्च्यता के कारण उसका प्रयोग अत्यल्प परिमाण में ही विशिष्ट शास्त्र लेखन में श्रीमन्तों द्वारा होता था । लाल रंग का प्रयोग बीच-बीच में प्रकरण समाप्ति व हांसिए की रेखा में तथा चित्रादि आलेखन में सभी रंगों का प्रयोग होता था। एक दूसरे रंग के मिश्रण द्वारा कई रंग तैयार हो जाते हैं। पूर्वकाल में ताड़पत्र, कागज आदि पर लेखन हेतु किस प्रकार स्याही बनती थीं-इस पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जाता
प्राकार-चित्रपट, यंत्र आदि लेखन में गोल आकृति बनाने में आजकल के कम्पास की भाँति प्रयोग में आता
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है । ताड़-पत्र कान्छ की जाति है. जब कि कागज व वस्त्र उससे भिन्न है। अतः प्रकृति भिन्नता के कारण तदनुकूल स्याही की रासायनिक विधि भिन्न होना स्वाभाविक है । आजकल ताड़-पत्र लेखन प्रचलित न होने से उसकी स्याही का स्वरूप प्राचीन उल्लेखों पर। आधारित है।
प्रथम प्रकार-कांटोसेरिया (धमासा ), जल भांगरा का रस. त्रिफला, कसीस, लौहचूर्ण को उकाल कर, क्वाथ वना कर, गली के रस को बराबर परिमाण में मिला कर कागज व वीजावोल मिलाने से ताड़-पत्र लेखन-योग्य स्याही बनती है । इन्हें तांबे की कढ़ाई में घोट कर एक रस कर लेना चाहिए।
पंचम प्रकार ब्रह्मदेश, कर्नाटक, उत्कलादि देशों में ताड़पत्र लोहे की सूई से कोर कर लिखे जाते हैं । उनमें अक्षरों में काला रंग लाने के लिये नारियल की टोपसी या बादाम के छिलकों को जला कर, तेल में मिलाकर लगा देना । पोंछने से ताड़पत्र साफ हो जायेगा। अक्षरों में कालापन आ जायेगा। कागज और कपड़ों पर लिखने योग्य काली स्याही: (१) जितना काजल उतना बोल, तेथी दूणा गूंद झकोल ।
जो रस भांगरा नो पड़े, तो अक्षरे अक्षरे दीवा बले ।।
द्वितीय प्रकार-कागज, पोयण, वीजावोल, भूमितला, जलभांगरा और पारे को उवलते हुए पानी में मिलाकर तावे की कढ़ाई में सात दिन तक घोट कर एक रस कर लेना चाहिये। फिर उसकी वड़ियां वना, उन्हें कूट कर रखें। फिर जव आवश्यक हो उन्हें गरम पानी में खूब मसल कर स्याही बना लेना चाहिये।
तृतीय प्रकार-कोरे काजल को मिट्टी के कोरे सिकोरे में अंगुली से मसल कर उसकी चिकनाई मिटा देना । थोड़े से गोमूत्र में भिगो देने से भी चिकनास मिट जाती है । फिर उसे निंब या खैर के गून्द के साथ वीआरस में भिगो कर खूब घोटन। । फिर वड़ी सुखा कर ऊपर की भांति करना ।
(२) काजल से आधा गूंद, गूंद से आधा वीजाबोल,
लाक्षारस. वीयारस के साथ तांबे केभाजन में मर्दन
करने से काली स्याही होती है। (३) वीआवोल अनइ लक्वाइस,
कज्जल वज्जल नइ अंबारस ॥ भोजराज मिसी निपाई.
पानउ फाटइ निसी नवि जाई । (8) लाख टांक वीस मेल, स्वाग टांक पांच मेल,
नीर टांक दो सौर लेई हांडी में चढ़ाइये । जो लौं आग दीजे तो लौं और खार सब लीजे. लोद खार बाल वाल पीस के रखाइये । मीठा तेल दीप जार काजल सोले उतार, नीकी विधि पिछानी के ऐसे ही बनाइये । चाहक चतुर नर लिख के अनूप ग्रन्थ,
बांच बांच वांच रिझरिझ मौज पाइये। (५) स्याही पक्की करने की विधि-लाख चोखो या
चीपडी पैसा ६, तीन सेर पानी में डालना, सुहागा पैसा २ डालना, लोद पैसा ३. पानी तीन पाव, फिर काजल पैसा १ घोट के सुखा देना। फिर शीतल जल में भिंगो कर स्याही पक्की कर लेना।
चतुर्थ प्रकार-गूद, नींब के गूंद से दुगुना बीजाबोल उससे दुगुना काजल (तिल के तेल से पाड़ा हुआ) को घोट कर गोमूत्र के साथ आंच देना, पात्र ताम्र का होना चाहिये। सूखने पर थोड़ा-थोड़ा पानी देते रहे व पांच तोला एक दिन परिमाण से घोटकर लोद, साजीखार युक्त लाक्षारस मिलाना। गोमूत्र में धोये भीलामा चूंटा के नीचे लगाना । फिर काले भांगरा के रस के साथ मर्दन करने से उत्तम स्याही बनती है।
(६) काजल ६ टांक, बीजाबोल १२ टांक, खेर का गंद ३६
टांक. अफीम आधा टांक, अलता पोथी ३ टांक
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फिटकड़ी कच्ची ॥ टांक. नीम के घोटे से ७ दिन ताम्रपात्र में घोटना।
फिर सुखा कर टिकड़ी की हुई स्याही को आवश्यकतानुसार पानी में घोल कर काम में लेना चाहिए। मिश्री के पानी की अपेक्षा नींबू का रस प्रयुक्त करना अधिक उपयोगी है।
अष्टगन्धः
अगर, तगर, गोरोचन, कस्तूरी, रक्त चन्दन, चन्दन. सिंदूर और केशर के मिश्रण से अष्टगन्ध बनता है। कपूर, कस्तूरी, गोरोचन, सिगरफ, केशर, चन्दन, अगर, गेहूंला से भी अष्टगन्ध बनाया जाता है ।
इन सभी प्रकारों में प्रथम प्रकार उपयोगी और सुसाध्य है। कपड़े के टिप्पणक के लिए वीजाबोल से दुगुना गूंद, गंद से दुगुनी काजल नीली स्याही दो प्रहर मर्दन करने से वज्रवत् हो जाती है।
सुन्दर और टिकाऊ पुस्तक लेखन के लिये कागज की श्रेष्ठता जितनी आवश्यक है उतनी ही स्याही की भी है। अन्यथा प्रमाणोपेत विधिवत् न बनी हुई स्याही के पदार्थ रासायनिक विकृति द्वारा कागज को गला देती है, चिपका देती है, जर्जर कर देती है । एक ही प्रति के कई पन्ने अच्छी स्थिति में होते हैं और कुछ पन्ने जर्जरित हो जाते हैं, इसमें लहिया लोगों की अज्ञानता से या आदतन गाढ़ी स्याही करने के लिये लौहचूर्ण, बीयारस आदि डाल देते हैं जिससे पुस्तक काली पड़ जाती है, विकृत हो जाती है । सुनहरी रूपहली स्याही:
यक्ष-कदमः
चन्दन, केशर, अगर, बस, कस्तूरी, मरचकंकोल, गोरोचन, हिंगुल, रतजन, सुनहरे बर्क और अंवर के मिश्रण से यक्ष-कर्दम बनता है।
अष्टगन्ध और यक्ष-कदम गुलाब जल के साथ घोटते हैं और इनका उपयोग मंत्र, यंत्र. तंत्रादि लिखने में, पूजा प्रतिष्ठादि में काम आता है।
सोना और चाँदी की स्याही बनाने के लिये वर्क को खरल में डाल कर धव के गंद के स्वच्छ जल के साथ खूब घोटते जाना चाहिए । बारीक चूर्ण हो जाने पर मिश्री का पानी डाल कर खूब हिलाना चाहिए । स्वर्णचूर्ण नीचे बैठ जाने से पानी को धीरे-धीरे निकाल देना चाहिए । तीन-चार बार धुलाई पर गूंद निकल जाएगा और सुनहरी या रूपहली स्याही तैयार हो जाएगी।
मषी-स्याही शब्द काले रंग की स्याही का द्योतक होने पर भी हरे रंग के साथ इसका वचन प्रयोग-रूद्र हो गया। लाल स्याही, सुनहरी स्याही, हरी स्याही आदि इसी प्रकार बंगाल में लाल काली, ब्लकाली आदि कहते हैं। स्याही और काली शब्द ये हरेक रंग वाली लिपि की स्वरूपदर्शिका के लिए प्रयुक्त होते हैं !
लाल स्याही:
हिंगलु को खरल में मिश्री के पानी के साथ खूब घोट कर ऊपर आते हए पीलास लिये हुये पानी को निकाल देना । इस तरह दस-पन्द्रह बार करने से पीलास निकल कर शुद्ध लाल रंग हो जाएगा। फिर उसे मिश्री और गंद के पानी के साथ घोट कर एक रस कर लेना।
चित्रकला के रंग :
सचित्र पुस्तक लेखन में चित्र बनाने के लिए ऊपर लिखित काले, लाल, सुनहरे, रूपहले रंगों के अतिरिक्त हरताल और सफेदा का भी उपयोग होता था । दूसरे रंगों के लिए भी विधि है। हरताल और हिंगुल मिलाने पर नारंगी रंग, हिंगुल और सफेदा मिलाने से गुलाबी रंग, हरताल और काली स्याही मिला कर नीला रंग बनता था ।
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(१) सफेदा ४ टांक व पेवड़ी १ टांक व सिंदूर || टांक से गौर वर्ण। (२) सिंदूर 8 टांक व पोथी गली? टांक से खारिक रंग। (३) हरताल १ टांक व गली आधा टांक से नीला रंग। (४) सफेदा १ टांक व अलता आधा टांक से गुलाबी रंग। (५) सफेदा १ टांक व गली १ टांक से आसमानी रंग। (६) सिंदूर १ टांक व पेवड़ी आधा टांक से नारंगी रंग होता है।
हस्तलिखित ग्रन्थ पर चित्र बनाने के लिए इन रंगों के साथ गोंद का स्वच्छ जल मिलाया जाता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न चित्रकला के योग्य रंगों के निर्माण की विधि के पचासों प्रयोग पुराने पत्रों में लिखे पाये जाते हैं।
जैन लिपि की परम्परा
भगवान् महावीर का विहार अधिकांश बिहार प्रान्त ( अंग-मगध-विदेह आदि ), बंगाल और उत्तर प्रदेश में हुआ था । अतः वे अर्द्धमागधी भाषा में उपदेश देते थे। जैनों का सम्बन्ध मगध से अधिक था । जैनागमों की भाषा प्राकृत है. दिगम्बर साहित्य सौरसेनी प्राकृत में और श्वेताम्बर आगम महाराष्ट्री प्राकृत में हैं। जिस प्रकार प्राकृत से अपभ्रश के माध्यम से हिन्दी, राजस्थानी. गुजराती आदि अन्य भाषाएं हुई. उसी प्रकार बंगला भाषा
और लिपि का उद्गम भी प्राकृत से हुआ है । मगध से पड़ी मात्रा का प्रयोग बंगला में गया। जब बारह वर्षी दुष्काल पड़े तो जैन श्रमण संघ दक्षिण और पश्चिम देशों में चला गया. परन्तु अपनी लिपि ब्राह्मी से गुप्त, कुटिल और देवनागरी के विकास में ब्राह्मी-देवनागरी में ब्राह्मी-बंगला का प्रभाव लेता गया। यही कारण है कि सैकड़ों वर्षों तक पड़ी मात्रा का जैनों में प्रचलन रहा। बंगला लिपि में आज भी पड़ी मात्रा है। अतः प्राचीन जैन लिपि के अभ्यासी के लिए बंगला लिपि का ज्ञान बड़ा सहायक है।
जिसप्रकार ब्राह्मी-देवनागरी लिपि में जलवायुदेशपद्धति और शिक्षक द्वारा प्रस्तुत अक्षर जमाने के उपकरणों की लिपि विविधता, रुचि-भिन्नता के अन्यान्य मरोड़ के कारण अनेक रूपों में प्रान्तीय लिपियां विभक्त हो गयीं, उसी प्रकार जैन लिपि में भी यतियों की लिपि, खरतरगच्छीय लिपि, मारवाड़ी लहियों की लिपि, गुजराती लहियों की लिपि-परम्परा पायी जाती है । कोई गोल अक्षर, कोई खड़े अक्षर, कोई बैठे अक्षर, कोई हलन्त की भाँति पूंछ वाले अक्षर, तो कई कलात्मक अलंकृताक्षर, कोई टुकड़े-टुकड़े रूप में लिखे व कोई घसीटवें अक्षर , लिखने के अभ्यस्त थे। एक ही शताब्दी के लिखे ब्राह्मण. कायस्थादि की लिपि में तो जैन लिपि से महद अन्तर है ही, जैन लिपि में भी लेखनकाल निर्णय करने में बहुत सावधानी और सतर्कता आवश्यक है। लेखन सौष्ठव:
सीधी लकीर में सघन गोल, एक दूसरे से अलग्न, शीर्ष मात्रादि अखण्ड एक जैसे, न खाली, न भीड़-भाड़ वाले अक्षर लिखने वाले लेखक भी आदर्श और उनकी लिपि भी आदर्श कहलाती है। जैन शैली में इस ओर विशेष ध्यान दिया गया है जिससे पिछली शताब्दियों में क्रमशः लेखनकला विकसित होती गई थी।
लिपि का माप-काटिये द्वारा यथेच्छ एक माप की पंक्तियों में लगभग तृतीयांश या इससे कम-बेश अंतर रख कर एक समान सुन्दर अक्षरों से प्रतियां लिखी जाती थीं जिससे अक्षर गणना करने वाले को सुविधा रहती और अक्षर भी सरल, सुवाच्य और नयनाभिराम लगते थे।
पड़ी मात्रा-ब्राह्मी लिपि से जब वर्तमान लिपियों का विकास हुआ, मात्राएँ सूक्ष्म रूप में अथवा स्वर संलग्न संकेत से लिखी जाती थीं। वे अपना बडा रूप धारण करने लगी और वर्तमान में अक्षर व्यंजन के चतुदिक
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लिखी जाने लगीं । पृष्ठि मात्रा, अपमात्रा, ऊर्ध्वमात्रा में 'उ, ऊ' की अग्रमात्रा 'रु.रू' के अतिरिक्त अधोमात्रा का रूप धारण कर लिया । पृष्ठि मात्रा में ह्रस्व इकारान्त संकेत के अतिरिक्त ऊर्ध्व और अग्रमात्रा बन गई है, जैसे के, के, को, कौ । जबकि प्राचीन काल में बंगला लिपि की भाँति कि, के, का, को लिखे जाते थे, दीर्घ ईकार का संकेत अपरिवर्तित ही रहा । संयुक्ताक्षर एवं मात्राओं के प्रयोग के कारण अक्षरों के माप में अन्तर आ जाना स्वाभाविक था अस्तु, पड़ी मात्रा लिखने की पद्धति प्रायः सतरहवीं शताब्दी के पश्चात् लुप्त हो गई । जैन लेखक :
जैन साहित्य के परिशीलन से विदित होता है कि जैन विद्वानों-श्रुतधरों ने जो विशाल साहित्य-रचना की उन्हें वे पहले काष्ठपट्टिका पर लिख कर फिर ताड़पत्र, कागज आदि पर उतारते थे। श्री देवभद्राचार्य ने जिस काष्ठोत्कीर्ग पट्टिका पर महावीर चरित्र, पार्श्वनाथ चरित्रादि लिखे थे वे उन्होंने सोमचन्द्र मुनि ( श्रीजिनदत्तसूरिजी) को भेंट किये थे । अतः इन वस्तुओं का बड़ा महत्व था । ग्रन्थकार अपने महान ग्रन्थों को स्वयं लिखते या अपने आज्ञांकित शिष्य वर्ग से प्रथमादर्श पुस्तिका लिखवाते. जिनका उल्लेख कितने ही ग्रन्थों की प्रशस्तियों में पाया जाता है। मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, स्थिरचन्द्र, ब्रह्मदत्त आदि की लिखित प्रतियां आज भी उपलब्ध हैं। श्री जिनमद्रसूरि, कमलसंयमोपाध्याय, युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि, समयसुन्दरोपाध्याय, गुणविनयोपाध्याय, यशोविजय उपाध्याय. विनयविजय, नयविजय, कीर्तिविजय, जिनहर्षगणि, क्षमाकल्याणोपाध्याय, ज्ञानसार गणि आदि बहुसंख्यक विद्वानों के स्वयं हस्तलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं | जैन यति-मुनियों, साध्वियों आदि के अतिरिक्त श्रीमन्त श्रावकों द्वारा लहिया लोगों से लिखवाई हुई बहुत-सी प्रतियां हैं । इस प्रकार जैन ज्ञानभण्डारों में लाखों प्राचीन ग्रन्थ आज भी विद्यमान हैं। पुस्तकों
के लिपिक लहिए कायस्थ, ब्राह्मण, नागर, महात्मा, भोजक आदि जाति के होते थे, जिनका पेशा ही लिखने का था और उन सैकड़ों परिवारों की आजीविका जैनाचार्यों व जैन श्रीमन्तों के आश्रय से चलती थी। वे जैन लिपि व लेखन पद्धति के परम्परागत अभिज्ञ थे और जैन लहिया-जैन लेखक कहलाने में अपना गौरव समझते थे। महाराजा श्रीहर्ष, सिद्धराज जयसिंह, राजा भोज. महारागा कुम्भा आदि विद्याविलासी नरेश्वरों को छोड़ कर एक जैन जाति ही ऐसी थी जिसके एक-एक व्यक्ति ने ज्ञान भण्डारों के लिये लाखों रुपये लगा कर अद्वितीय ज्ञानोपासना-श्रुतभक्ति की है। लाखों ग्रन्थों के नष्ट हो जाने व विदेश चले जाने पर भी आज जो ग्रन्थ-भण्डार जैनों के पास हैं वे बड़े गौरव की वस्तु हैं। ज्ञानपंचमी का आराधन एवं सात क्षेत्रों में तथा स्वतन्त्र ज्ञान द्रव्य की मान्यता से इस ओर पर्याप्त ज्ञान सेवा समृद्ध हुई। साधु-यतिजनों को स्वाध्याय करना अनिवार्य है । श्रुत लेखन स्वाध्याय है और इसीलिये इतने "ग्रन्थ मिलते हैं । आज के मुद्रण युग में भी सुन्दर लिपि में ग्रन्थ लिखवाकर रखने की परिपाटी कितने ही जैनाचार्य मुनिगण निभाते आ रहे हैं । तेरापन्थी श्रमणों में आज भी लेखन कला उन्नत देखी जाती है क्योंकि उनमें हस्त लिखित ग्रन्थ लिखने और वर्ष में अमुक-परिमाण में लेखन-स्वाध्याय की पूर्ति करना अनिवार्य है ।
लेखक के गुण-दोष :
लेख पद्धति के अनुसार लेखक सुन्दर अक्षर लिखने वाला, अनेक लिपियों का अभिज्ञ, शास्त्रज्ञ और सर्वभाषा विशारद होना चाहिए, ताकि वह ग्रन्थ को शुद्ध अविकल लिख सके । मेधावी, वाकपटु, धैर्यवान्-जितेन्द्रिय, अव्यसनी. स्वपरशास्त्रज्ञ और हल्के हाथ से लिखने वाला सुलेखक है ! जो लेखक स्याही गिरा देता हो. लेखनी तोड़ देता हो, आसपास की जमीन विगाड़ता हो, दावात में कलम डबोते समय उसकी नोक तोड़ देता
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हो वह अपलक्षणी और कूट लेखक बतलाया गया है।
लेखक की साधन सामग्री:
अक्षर लिखते छोड़ कर या अलग कागज पर लिख के उटते थे। अवशिष्ट अक्षर लिखते हुए उठ जाने पर उन्हें पुस्तक के कट जाने, जन्तु द्वारा खा जाने तथा नष्ट हो जाने के विविध संदेह रहते थे। इन विश्वासों का वास्तविकता से क्या सम्बन्ध है कहा नहीं जा सकता।
लेखक की निषिता:
जिस प्रकार ग्रन्थकार अपनी रचना में हुई स्खलना के लिए क्षमाप्रार्थी बनता है वैसे ही लेखक अपनी परिस्थिति और निष्तिा प्रकट करने वाले श्लोक लिखता है
ग्रन्थ लेखन के हेतु पीतल के कलमदान और एक विशिष्ट प्रकार के लकड़ी या कूटे के कलमदानों में लेखन सामग्री का संग्रह रहता था। हमारे संग्रह में ऐसा एक सचित्र कूटे का कलमदान है जिस पर दक्षिणी शैली से सुन्दर कृष्णलीला का चित्रांकन किया हुआ है। एक सादे कलमदान | में पुरानी लेखन सामग्री का भी संग्रह है। यह लेखन सामग्री विविध प्रकार की होती थी जिसका वर्णन ऊपर किया जा चुका है। एक श्लोक में 'क' अक्षर वाली१७ वस्तुओं की सूची उल्लिखित है
(१) कुंपी ( दावात ). (२) काजल (स्याही). (३) केश (सिर के वाल या रेशम), (8) कुश-दर्भ, (५) कम्:ल. (६) कांबी. (७) कलम. (८) कृपाणिका (छुरी), (९) कतरनी (कैंची), (१०) काष्ठपट्टिका, (११) कागज. (१२) कीकी
आंखे. (१३) कोटड़ी (कमरा). (१४) कलमदान, (१५) क्रमण-पैर, (१६) कटि-कमर और (१७) कंकड़।
इनमें आँख, पैर और कमर की मजबूती आवश्यक है। बैठने के लिए कंबल-दर्भासन व कोठरी-कमरा के अतिरिक्त अवशिष्ट स्टेशनरी लेखन सामग्री है।
लहिये लोग विविध प्रकार के आसनों में व विविध प्रकार से कलम पकड़ कर या प्रतियाँ रख कर लिखने के अभ्यस्त होने से अपने लेखनानुकूल कलम को अपर व्यक्ति को देने में हानि समझते थे। अतः पुस्तकों की पुष्पिका के साथ निम्न सुभाषित लिख दिया करते थेलेखनी पुस्तिका रामा परहस्ते गता गता। कदाचित् पुनरायाता नष्टा भ्रष्टा च धर्मिता (या चुम्बिता) ॥
यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो 'न दीयते ।। भग्नपृष्ठ - कटिग्रीवा • वक्रदृष्टिरधोमुखम् । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत् ॥ बद्धमुष्टि • कटिग्रीवा - वक्रदृष्टिरधोमुखम् । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन प्रतिपालयेत् ॥ इत्यादि ।
भ्रांतिमूलक अशुद्धियां:
. प्राचीन प्रतियों की नकल करते समय लिपि अल्पज्ञता से या भ्रांत पठन से, अक्षराकृति साम्य या संयुक्ताक्षरों की दुरूहता से अनेकशः अशुद्ध परम्परा चल पड़ती थी। एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, मिलते-जुलते अशुद्ध वाक्यों को शुद्ध करने पर नवीन पाठान्तरों की सृष्टि हो जाती, जिसका संशोधन किसी अनुभवी विद्वान् संशोधक के हाथों पड़ने पर ही संभव होता । 'च्छ' का 'त्थ' और 'त्थ" का 'च्छ' हो जाना तो मामूली बात थी।
ग्रन्थ लेखनारंभ
लेखन विराम:
लिखते समय यदि छोड़ कर उठना पड़े तो वे अपने विश्वास के अनुसार 'घ झ ट ड त प ब ल व श'
भारतीय संस्कृति में न केवल ग्रन्थ रचना में ही किन्तु ग्रन्थ लेखन के समय लहिये लोग सर्वप्रथम मंगलाचरण करते थे. यह चिरपरिपाटी है । जैन लेखक "ॐ नमः, ऐं नमः, नमो जिनाय, नमः श्री गुरुभ्यः, नमो
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लेखकों द्वारा अंक प्रयोग :
वीतरागाय, जयत्यनेकान्तकण्ठीरवः, ॐ नमः सरस्वत्यै, ॐ नमः सर्वज्ञाय, नमः श्रीसिद्धार्थसुताय" इत्यादि अपने देव, गुरु, धर्म, इष्टदेव के नाम मंगल के निमित्त लिखते थे । जैन मंगलाचरण का सार्वत्रिक प्रचार न केवल भारत में ही बल्कि, चीन, तिब्वत तक में लिखे ग्रन्थों में कातन्त्र व्याकरण का 'ॐ नमः सिद्ध' प्रचुरता से प्रचलित हुआ था। प्राचीन लिपियों के प्रारंभिक मंगल-चिन्ह शिलालेखों में, ताडपत्रीय ग्रन्थों में व परम्परा से चलते हुए अर्थन समझने पर भी रूढ़ हो गये थे । ब्राह्मी लिपि के ॐकार, ऐ कार सहस्राब्दी पर्यन्त चलते रहे और आज भी ग्रन्थ लेखन के प्रारम्भ में उन्हीं विविध रूपों को लिखने की परम्परा चल रही है । भारतीय प्राचीन लिपि माला एवं प्राचीन शिलालेखों व ग्रन्थों से उन मंगलचिन्हों का विकास चारुतया परिलक्षित होता है. | राजस्थान में सर्वत्र कातन्त्र व्याकरण का प्रथम अपभ्रष्ट पाठ वड़े ही मनोरंजक रूप में बच्चों को रटाया जाता था ।
यद्यपि ग्रन्थ की पत्र संख्या आदि लिखने के लिये अंकों का प्रयोग प्राचीन काल से होता आया है पर, साथ-साथ रोमन लिपि की भाँति, I II III IV.V आदि सांकेतिक अंक प्रणाली भी नागरी लिपि में प्रचलित थी,' जिसके संकेत अपने ढंग के अलग थे। ताडपत्रीय ग्रन्थों में और उसके पश्चात् कागज के ग्रन्थों में भी इसका उपयोग किये जाने की प्रथा थी । पत्र के दाहिनी ओर अक्षरात्मक अंक संकेत व वायीं तरफ अंक लिखे रहते थे। यह पद्धति जैन छेद आगमों. चणियों में एक जैसे पाठों में प्रायश्चित्त व मांगों के लिये भी प्रयुक्त हुई है । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत जीतकल्पसूत्र के भाष्य में सूत्र की मूल गाथाओं के अंक अक्षरात्मक अंकों में दिये हैं । इस पद्धति के ज्ञान बिना मूल प्रति की नकल करने वालों द्वारा भयंकर भूल हो जाने की संभावना है । इस प्रथा का एक दूसरा रूप नेवारी ग्रन्थों में देखा गया है । वात यह है कि श्री मोतीचन्दजी खजान्ची के संग्रह की एक प्रति को जब १९०० वर्ष प्राचीन वताया गया तो असंभव होते हुये भी मैंने स्वयं उसे देखना चाहा । प्रति देखने पर राज खुला कि संवत् वाला अंक १ बंगला लिपि का ७ था जो कि पत्रांकों का पर दी हुई उभयपक्ष की संख्या से समर्थित हो गया । इस प्रकार ६०० वर्ष का अन्तर निकल गया और नेवारी संवत् व विक्रम संवत का अंक निकालने पर उसकी यथार्थ मिति पतला कर भ्रांति मिटा दी गई । अस्तु । हमें जैन लेखकों द्वारा अक्षरात्मक अंक संकेतों का समीचीन ज्ञान प्राप्त करने हेतु उसकी तालिका जान लेना आवश्यक समझ कर यहाँ दी जा रही है
सा
.
लेखकों की ग्रन्थ लेखन समाप्ति :
ग्रन्थ लेखन समाप्त होने पर ग्रन्थ की परिसमाप्ति सूचन करने के पश्चात् लेखक संवत् पुष्पिका लिख । कर "शुभंभवतु. कल्याणमस्तु, मंगलं महाश्री लेखकः
पाठकयोः शुभंभवतु, शुभं भवतु संघस्य," आदि वाक्य लिख कर “छः।।" ब|| आकृतियाँ लिखा करते थे जो पूर्णकुम्भ जैसे संकेत होने का मुनि श्री पुण्यविजयजी ने अनुमान किया है । और भी प्राचीन ग्रन्थों में विभिन्न चिन्ह और अक्षरों पर गेरु आदि लाल रंग से रंजित ग्रन्थों के अन्तिम पत्र पाये जाते हैं। ग्रन्थ के अध्ययन, खण्ड, उद्देश्य. सर्ग, परिच्छेद, उच्छवास, लभक, काण्ड आदि की परिसमाप्ति पर सहज ध्यान आकृष्ट करने हेतु भी इन चिन्हों का उपयोग किया जाता था।
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७० मार्य या
१ - १, ३, ब, श्री.श्री २ = २, न, सि.नि.श्री श्री ३% ३.मः,श्री, श्री थी, ४- कक्क, सफा र्फकों क, का, क, क्रा, का, ५- हतं, ई ई ताले, न ना काही नाही ६% फ..फा,,मार्फ़,फ्रा,ॉ,,कफीस.
की,काही. ए ... દશક મળે
શતક અંકો १ = ल, ले . १- स, र्स २ - घ, चा.
२- सू, स्त, न. ३% ल, ला. ४- प्त, तं, ता,ता.
३= स्ना, सा, सा.
४- पस्ता,सा,सा. ५८.8.६,२.
4- स्तो, सो बो. ६- चु,
६- स्तं, स्वं, सं.
७- स्तः,सास. ९-8.8,0.8
DTV
यहां इकाई, दहाई और सैकड़ों की संख्या लिखने के समय पृथक्-पृथक अंक दिये गये हैं। पत्रांक लिखने में उनका उसी प्रकार उपयोग होता है ताकि संख्या का सही आकलन किया जा सके | चालू अंक सीधी लाइन में लिखे जाते हैं, परन्तु ताडपत्रीय व उसो शैलो
के कागज के ग्रन्थों का पत्रांक देते समय ऊपर नीचे लिखने की प्रथा थी। जेन छेद सूत्र आदि में व भाष्य, चूर्णि, विशेष चूणि, टीका आदि में अक्षरांक सीधी पंक्ति में ही लिखे गए हैं।
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उपर्युक्त तालिका के अनुसार इकाई, दहाई और सैकड़ों के
स्व१०.
O
31-1-1
१४,
थ
ช था २१. ए २४, फ्रा२६, २८:
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Pyo, ४ प्र
ܠܐ ܚܕ
*
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७२.
कृ.
.900, १४५, १७४ : त
नू
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स्ति२०,
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७७;
म्
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यह ताडपत्रीय पत्रांक लेखन पद्धति कागज पर लिखे ग्रन्थों पर चली आती थी किन्तु कई कागज की प्रतियों
५०
O
३०, ከ 3€ 3 ३
अंक का उपयोग इस प्रकार किया जाता था
6
ए
का २००२२७ ग्र
त्रिशती नामक गणित विषयक संग्रह ग्रन्थ में जैन 'अंके' रूप में एक से दस हजार तक के अक्षरांक लिखे हैं। उपर्युक्त तालिका में आये हुए एक से तीन सौ तक के अंकों के पश्चात् अधिक की तालिका यहां दी जाती है
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૧૪
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में इकाई, दहाई, सैकड़ों के संकेत न व्यवहृत कर केवल इकाई अक्षरांकों का भी व्यवहार हुआ है। यथा
एक४००.
स्व स्ति१२४०
एक
इत्यादि
८००, स्तं ९००,
" स्तु ४०० ते ५००, स्तेि ६००, स्ता ७०० स्तो स्तः १०००, क्षु २०००, क्ष३०००, क्षा ६०००, क्षा७००० ाक्षो ८०००,
४०००
५०००
९०००
१०००० इति गणितसंख्या जैनाङ्गानां समाप्ता ।
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इन अक्षरात्मक अंकों की उत्पत्ति आदि कैसे हुई यह बता सकना कठिन है. पर प्रारम्भ के तीन अक्षरों के लिए लिखे जाते स्व, स्वि, स्ति. श्री अथवा ऊं नमः या श्री श्री श्री ये मंगलीक के लिए प्रयुक्त अक्षरों से प्रारम्भ हुआ विदित होता है। आगे के संकेतों का वास्तविक बीज क्या है शोधकर वास्तविक निर्णय में अब तक विद्वानों की कल्पना सफल नहीं हो सकी है।
इन्दु, चंद्र, शीतांशु. शीतरश्मि, सितरुच, हिमकर, सोम, शशांक,सुधांशु, निशेश, निशाकर, क्षपाकर, औषधीश, दाक्षायणी प्राणेश, अब्ज, (चन्द्रवाचक अन्य शब्द भी). भू. भूमि, क्षिति, क्षमा, धरा, वसुधा, बसुन्धरा, उर्वरा, गो, पृथ्वी. धरणी, इला. कु. मही ( पृथ्वी वाचक अन्य शब्द भी ). जेवाकृत इत्यादि।
शून्यांक :
जैन छेद आगमों की चूर्णि में जहां मास, लघु मास, गुरु, चतुर्लघु, चतुर्गुरु, षड्लघु, षड्गुरु प्रायश्चित के संकेत लिखे हैं वहां उस संख्या का निदेश एक, चर, छः शून्य के द्वारा किया गया है । यथा0 . 00 0 00. ....
00 . 000. ..'
२. यम. यमल, युगल. द्वंद्व, युग्म, द्वय. पक्ष, अश्विन, नासत्य, दस्त्र, लोचन, नेत्र. नयन. इक्षण, अक्षि. दृष्टि, चक्ष, (नेत्र वाचक अन्य शब्द भी), कर्ण, श्रुति, श्रोत, (कान वाचक शब्द), वाहु, व.र, हस्त, पागी, दोष, भुज. (हाथ वाचक शब्द समूह), कर्ण, कुच, ओष्ठ, गुल्फ, जानु. जंघा, (शरीर के युग्म अवयव वाचक अन्य शब्द), अयन. कुटुम्ठ, रविचन्द्रौ इत्यादि ।
इस प्रकार खाली शून्य लघता सूचक और काले भरे शून्य गुरुत्व सूचक हैं ।
शब्दात्मक अंक :
जैनागम सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययनादि में वैदिक ग्रन्थों एवं ज्योतिष छंदादि विविध विषयक ग्रन्थों में. शिलालेखों. ग्रन्थ-प्रशस्तियों व पुष्पिकाओं में शब्दांकों का प्रयोग प्राचीन काल से चला आता है। कुछ सार्वजनिक और कुछ सांप्रदायिक, पारिभाषिक, धार्मिक, व्यावहारिक वस्तुओं के भेद की संख्या के आधार पर रूढ शब्दांकों का बिना भेद-भाव से ग्रन्थकारों, कवियों और लेखकों ने उन्मुक्त प्रयोग किया है. जिसकी तालिका वहुत बड़ी तैयार हो सकती है। यहाँ जिस-जिस अंक के लिए जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है उसे दिया जा रहा है
३. राम, त्रिपदी, त्रिकाल, त्रिगत, त्रिनेत्र. लोक, जगत. भुवन, (विश्व वाचक शब्द समूह ), गुण, काल, सहोदरा, अनल, अग्नि, वह्नि, ज्वलन, पावक, वैश्वानर, दहन, तपन, हुताशन, शिखिन, कृशानु, ( अग्नि वाचक अन्य शब्द समूह ), तत्व, त्रैत, होतृ, शक्ति, पुष्कर, संध्या, ब्रह्मा, वर्ण, स्वर, पुरुष, वचन, अर्थ. गुप्ति इत्यादि ।
४. वेद, श्रुति, समुद्र, सागर, अवधि, जलधि, जलनिधि, वाधि, नीरधि. नीर, निधि, वारिधि, वारिनिधि, उदधि, अम्बुधि, अम्बुनिधि, अंभोधि, अर्णव, (समुद्रवाचक अन्य शब्द भी ), केन्द्र, वर्ण, आश्रल, युग, तुर्य, कृत, अय, आय. दिश (दिशा), बन्धु, कोष्ठ, ध्यान, गति, संज्ञा, कषाय इत्यादि ।
५. वाण, शर, सायक, इषु, (वाण वाचक शब्द ), भूत. महाभूत, प्राण, इन्द्रिय, अक्ष, विषय, तत्व, पर्व, पांडव, अर्थ, वर्म, व्रत, समिति, कामगुण, शरीर, अनुत्तर, महाव्रत इत्यादि।
६. रस, अंग, काय, ऋतु, मासार्ध, दर्शन, राग, अरि, शास्त्र, तर्क, कारक, समास, लेश्या, क्षमारखण्ड, गुण, गुहक, गुहवकत्र इत्यादि ।
0. शून्य. विन्दु, रन्ध, ख. छिद्र, पूर्ण, गगन, आकाश. वियत्, व्योम, नभ, अभ्र, अन्तरिक्ष. अम्बरादि ।
. १. कलि, रूप, आदि, पितामह, नायक, तनु. शशि, विपु.
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७. नग, अग, भूभृत, पर्वत, शैल, अद्रि, गिरि, (पर्वत वाचक शब्दावली), ऋषि, मुनि, अत्रि, वार, स्वर, धातु, अश्व, तुरग, वाह, हय, वाजिन् ( अश्व वाचक शब्द), छंद, धी, कलत्र, भय, सागर. जलधि, (समुद्र वाचक शब्द समूह), लोक इत्यादि।
८. वस, अहि, सर्प (सर्प वाचक अन्य शब्द भी), नागेन्द्र, नाग, गज, दन्तिन्, दिग्गज, हस्तिन्, मांतग, करि, कंजर, द्विप, करटिन, (हस्ति वाचक शब्द), तक्ष, सिद्धि, भूति, अनुष्टुव, मंगल, मद. प्रभावक, कर्मन, धी गुण, बुद्धि गुण, सिद्ध गुण इत्यादि ।
९. अंक, नन्द, निधि, ग्रह, खग, हरि, नारद, रंध्र, ख, छिद्र, गो, पवन, तत्व, ब्रह्मगृप्ति, ब्रह्मवृत्ति, ग्रैवेयक इत्यादि।
१०. दिश (दिशा, आशा, ककुभ, दिशा वाचक शब्द), अंगुली, पंक्ति, रावणशिरस, अवतार, कर्मन्, यतिधर्म, श्रमणधर्म, प्राण इत्यादि ।
११. रुद्र, ईश्वर, हर, ईश, भव, भर्ग, शूलिन, महादेव, पशुपति, शिव (महादेव वाचक शब्द), अक्षौहिणी इत्यादि।
१२. रवि, सूर्य, अर्क, मार्तण्ड, द्य मणि, मानु, आदित्य, दिवाकर, दिनकर, उष्णांशु, इन, ( सूर्य वाचक शब्दावली ), मास, राशि, व्यय, चक्रिन, भावना, भिक्षु, प्रतिमा, यति प्रतिमा इत्यादि।
१३. विश्व, विश्वदेवा, वाम, अतिजगतो. 'अघोष, क्रियास्थान, यक्ष इत्यादि ।
१४. मनु, विद्या, इन्द्र, शक्र, वासव, ( इन्द्र वाचक शब्द), इत्यादि।
१७. अत्यष्ठि । १८. धृति, अब्रह्म, पापस्थानक इत्यादि । १९. अतिघुति । २०. नख, कृति इत्यादि । २१. उत्कृति, प्रकृति, स्वर्ग । २२. कृति, जाति, परिषह इत्यादि । २३. विकृति । २४. गायत्री, जिन, अर्हन इत्यादि । २५. तत्व । २७. नक्षत्र, उडु, भ । ३२. दंत, रद इत्यादि ।
३३. देव, अमर. त्रिदश, सुर इत्यादि। ४०. नरक । ४८. जगती। ४९, तान । ६४. स्त्री कला । ७२. पुरुप कला।
यहां दी गई शब्द सूची में कितनी ही वैकल्पिक हैं, अतः किस प्रसंग प्रयोग में कौन सा चालू अंक लेना है यह विचारणीय रहता है ।
रंध्र, ख और छिद्र का उपयोग शून्य के लिये हुआ है और नौ के लिये भी हुआ है । गो एक के लिये व नौ के लिये भी व्यवहृत हुआ है । पक्ष दो के लिये व पन्द्रह के लिये भी व्यवहृत हुआ है । इसी प्रकार श्रुति दो के लिये व चार के लिये, लोक और भुवन तीन, सात और चौदह के लिये, गुण शब्द तीन और छः के लिये, तत्त्व तीन, पाँच, नौ और पच्चीस के लिये, समुद्र वाचक शब्द चार और सात के लिये तथा विश्व तीन, तेरह और चौदह के लिये व्यवहत देखने में आते हैं । पुस्तक लेखन :
ताड़पत्रीय ग्रन्थ-छोटे साइज के ताडपत्रीय ग्रन्थ को दो विभाग ( कॉलम) में एवं लम्वे पत्रों पर तीन कॉलम में लिखा जाता था । विभाग के उभय पक्ष में एक डेढ़ इंच का हांसिया (मार्जिन) रखा जाता था । बीच के हांसिया में छिद्र करके डोरा पिरोया जाता था ताकि पत्र अस्त-व्यस्त न हो। पत्र के दाहिनी ओर अक्षरात्मक पत्रांक एवं बायीं तरफ अंकात्मक पत्रांक लिखे जाते थे। कितनी ही प्रतियों में उभय पक्ष में एक ही प्रकार के अंक लिखे मिलते हैं । बीच में छिद्र करने के स्थान में तथा कई प्रतियों में किनारे के हांसिये में भी हिंगुली का
१५. तिथि, घस्र, दिन, अहन, दिवस (दिवस: वाचक शब्द ), पक्ष, परमाधार्मिक इत्यादि ।
१६. नृप, भूप, भूपति, अष्टि, कला, इन्दुकला, शशिकला इत्यादि ।
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बड़ा टोका (अंगठे) से किया जाता था। विभागीय लेख के उभय पक्ष में सुन्दरता के लिये बोर्डर या दो-तीन खड़ी लकीरें खींच दी जाती थीं। ताड़पत्र के पत्ते चौड़े-संकड़े होते थे, अतः कहीं अधिक व कहीं कम पंक्तियां समविषम रूप में हो जाती थीं। लिखते-लिखते जहां पत्र संकड़ा हो जाता था, पंक्ति को शेष करके , , चन्द्र (स्टार) आदि आकृति चिन्हित कर दी जाती थी। अन्त और प्रारम्भ जहाँ से होता, वैसा ही चिन्ह संकेत सम्बन्ध मिलाने में सहायक होता था।
पिरोई जाती थी। उसी प्रकार कागज के ग्रन्थों में भी उसी पद्धति का अनुकरण कर, खाली जगह रखी जाती: पर डोरी के लिए छिद्र किए ग्रन्थ क्वचित ही पाये जाते हैं, क्योंकि कागज के पत्रों के सरकने का भय नहीं था। खाली जगह में लाल रंग आदि के टीके या फूल आदि विविध अलंकार किये हुए ग्रन्थ भी पाये जाते हैं । उभय पक्ष में ताड़पत्रीय पत्रांक लेखन पद्धति उभय प्रकार पहले-पहले पाई जाती है, बाद में केवल अंकों में पत्रांक एवं एक ओर ग्रन्थ के नाम की हुण्डी ( Heading ) लिख दी जाती थी। कितने ही संग्रह ग्रन्थों में सीरियल क्रमिक अंक चालू रखने पर भी विभागीय सूक्ष्म चोर अंक कोने में लिखे जाते थे । कागज का साइज एक होने से सभी पत्रों में एक जैसी लकीरें पंक्तियां आती थीं। जहां विभागीय परिसमाप्ति होती वहां लाल स्याही से विराम चिन्ह एवं प्रारम्भ में ||६०|| आदि तथा अंत में
छ। की पद्धति ताडपत्रीय लेखन के अनुसार ही प्रचलित थी। पुष्पिका संवत आदि पर ध्यान आकर्षण के लिये, लाल स्याही से अथवा जैसे लाल पैंसिल फिरा दी जाती है वसे गेरु रंग आदि से रंग दिया जाता था।
पुस्तक लेखन प्रारम्भ में 'दो पाई, मले मीड़ा' के बाद जिन, गणधर, गुरु, इष्टदेव. सरस्वती आदि के सूचक नमस्कार लिखा जाता और जहाँ श्रुतस्कन्ध, सर्ग, खण्ड, लंवक, उच्छवास आदि की पूर्णाहुति होती वहाँ ॥छ।। एवं समाप्ति सूचक अन्य चिन्ह लिखकर कुछ खाली जगह छोड़ कर उसी प्रकार नमस्कारादि सह आगे का विभाग चालू हो जाता। कहीं-कहीं ग्रन्थ के विभाग के शेष में या ग्रन्थ पूर्णाहुति में चक्र, कमल, कलशादि की आकृति बनायी जाती थी। बीच-बीच में जहाँ कहीं गाथा का टीका, भाष्य, चूणि शेष होने के अन्त में भी ॥छ।। लिख दिया जाता था । किन्तु रिक्त स्थान नहीं छोड़ा जाता था।
प्राचीन लेखन वैशिष्ट्य :
कागज के ग्रन्थ-प्रारम्भ में कागज के ग्रन्थ भी ताड़पत्रीय ग्रन्थों की तरह लम्बाई-चौड़ाई में छोटे मुष्टिपुस्तक के आकार में लिखते, किन्तु दो-तीन विभाग करने आवश्यक नहीं थे। कितने ही ग्रन्थों की लम्बाई ताड़पत्रीय ग्रन्थों की भाँति करके चौड़ाई भी उनसे डवल अर्थात् 8|| इंच की रखी जाती । किन्तु बाद में तेरहवीं शताब्दी के पश्चात् सुविधा के लिये १२४५ या इससे कमवेशी साइज कर दिया गया। प्रारम्भ में कागज के ग्रन्थों पर बोर्डर की लकीरें काली होती थी. पर सोलहवीं शताब्दी से लाल स्याही के बोर्डर बनने लगे । ताडपत्रीय ग्रन्थों में 'पत्रों के न सरकने के लिये खाली जगह में छिद्र करके डोरी
ग्रंथ-लेखन में जहाँ वाक्यार्थ या सम्बन्ध पूर्ण होता था वहां पूर्ग विराम, दोहरा पूर्ण विराम एवं अवांतर विषय अवतरण आदि की परिसमाप्ति पर छः|| लिखा जाता था एवं श्लोकांक भी इसी प्रकार लिखा जाता था। विशिष्ट ग्रन्थों में मूलग्रन्थ के विषय को स्पष्ट करने वाले यन्त्र, चिन्ह. लिखने के साथ-साथ श्लोक संख्या, गाथा संख्या, ग्रंथानथ, प्रशस्ति आदि लिखी जाती थी। का अविवेकी लेखक इन्हें न लिखकर ग्रन्थ के महत्व और वैशिष्ट्य को कम कर देते थे।
ताडपत्रीय ग्रन्थों के चित्र व टीके आदि के अतिरिक्त केवल काली स्याही व्यवहत होती थी। जबकि
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कागज के ग्रन्थों के लेखन में काली के अतिरिक्त सुनहरी रूपहली और लाल स्याही का प्रयोग छूट से हुआ है। सुनहरी, रूपहली स्याही में समग्र ग्रन्थ लिखे गए हैं, वैसे लाल रंग का प्रयोग पूरे ग्रन्थ में न होकर विशिष्ट स्थान, पुष्पिका, ग्रन्थान, उक्तं च, तथाहि. पूर्ण विराम
आदि में हुआ है । पर पत्रों को पृष्ठभूमि में लाल. नीला, हरा आदि सभी रंगों से रंग कर उस पर अन्य रंगों का प्रयोग हुआ है।
वबोध आदि साथ में लिखे जाने लगे तो त्रिपाठ या पंचपाठादि विभागीय लेख प्रारम्भ हुआ । इससे एक ही प्रति में टीका आदि पढ़ने की सुगमता हो गई ।
टबा या वालावबोध शैली–त्रिपाठ, पंचपाठ से भिन्न टवा लिखने की शैली में एक-एक पंक्ति के मूल बड़े . अक्षरों के ऊपर, छोटे अक्षरों में विवेचन, टबा व थोड़े से बड़े अक्षरों के ऊपर नीचे विशद छोटे अक्षरों में लिखा जाता था। आनन्दघन चौबीसी बालाववोधादि की कई प्रतियां इसी शैली की उपलब्ध हैं। विभागीय ( Column) पुस्तक, कुछ सूक्ष्माक्षरी आदि दो विभाग में लिखी हुई पुस्तकें मिलती हैं तथा कई प्रतियों में नामावली सूची, वालाववोध आदि लिखने की सुविधानुसार कॉलम बनाकर के लिखे हुए कागज के ग्रन्थ उपलब्ध हैं।
पुस्तक लेखन के प्रकार :
पुस्तकों के वाह्य आकार को लक्षित करके आगे गंडी. कच्छपी. मुष्टि आदि पुस्तकों के प्रकार बतलाए गए हैं पर जब कागज के ग्रन्थ लिखे जाने लगे तो उनकी लेखन पद्धति व आभ्यन्तरिक स्वरूप में पर्याप्त विविधता आ गई थी। कागज पर लिखे ग्रन्थ, त्रिपाठ, पंचपाठ, टव्वा. वालाववोध शैली. दो विभागी (Column ). सड़ ( Running ) लेखन. चित्रपुस्तक, स्वर्गाक्षरी, रौप्याक्षरी, सूक्ष्वाक्षरी. स्थलाक्षरी, मिश्रिताक्षरी. पौथियाकार, गुटकाकार आदि अनेक विधाओं के संप्राप्त हैं।
त्रिपाठ या त्रिपाट-ग्रन्थ के मध्य में बड़े अक्षर व ऊपर नीचे उसके विवेचन में टीकाटवा आदि सूक्ष्माक्षरों की पंक्तियां लिखी गई हों वह त्रिपाठ या त्रिपाट ग्रन्थ कहलाता है।
चित्र पुस्तक-यहां चित्र पुस्तक का आशय सचित्र पुस्तक से नहीं पर यह वह विधा है जिससे लेखनकला की खूबी से इस प्रकार जगह छोड़कर अक्षर लेखन होता है जिससे चौपट, वज्र, स्वस्तिक, छत्र, फूल आदि विविध आकृतियां उभर आती हैं और व्यक्ति का नाम भी चित्र रूप में परिलक्षित हो जाता है। कभी-कभी यह लेखन लाल स्याही से लिखा होने से लेखन कला स्वयं वोल उठती है। हांसिया और मध्य भाग में जहां छिद्र की जगह रखने की ताडपत्रीय प्रथा थी वहां विविध फूल आदि चित्रित होते ।
पंचपाठ या पंचपाट-जिस ग्रन्थ के बीच में मूलपाठ व चारों ओर के बड़े वोर्डर हांसिया में विवेचन, टीका. टवादि लिखा हो अर्थात्. लेखन पांच विभागों में हुआ हो वह पंचपाठ या पंचपाट ग्रन्थ कहलाता है ।
सूड़ या सूढ़-जो ग्रन्थ भूल टीका आदि के विभाग विना सीधा लिखा जाता हो वह सूड़ या सूढ़ (Running) लेखन कहलाता है।
प्राचीन ग्रन्थ भूल, टीकादि अलग-अलग लिखे जाते थे तब ताडपत्रीय ग्रन्थों में ऐसे कोई विभाग नहीं थे। जब भूल के साथ टीका, चूणि, नियुक्ति. भाष्य, वाला
स्वर्णाक्षरी-रोप्याक्षरी ग्रन्थ-आगे बतायी हुई विधि के अनुसार स्वर्गाक्षरी, रौप्याक्षरी और गंगा-जमनी ग्रन्थ लेखन के लिये इस स्याही का प्रयोग होता । ग्रन्थों को विशेष चमकदार दिखाने के लिए कागज के पत्रों की पृष्ठ भूमि (टैकग्राउण्ड ) लाल, काला, आसमानी, जामुनी आदि गहरे रंग से रंग कर अकीक. कसौटी. कोडा आदि से घोटकर मुलायम. पालिसदार वना लिया जाता था। फिर पूर्वोल्लिखित सोने-चांदी के वर्क चूर्ण को धव के गोंद के पानी के साथ तैयार की
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हुई स्याही से ग्रन्थ लिखा जाता था। लिखावट सूख जाने पर अकीक आदि की ओपणी से घोटकर 'ओपदार बना लिए जाते थे। इन पत्रों के बीच में व हांसिये में विविध मनोरम चित्र हंसपंक्ति, गजपंक्ति आदि से अलंकृत करके अद्वितीय नयनाभिराम बना दिया जाता था।
कतरितग्रन्थ-कागज को केवल अक्षराकृति में काट कर बिना स्याही के अलेखित ग्रन्थों में मात्र एक 'गीतगोविन्द' की प्रति बड़ौदा के गायकवाड़ ओरिएण्टल इन्स्टिट्यूट में है। बाकी फुटकर पत्र एवं चित्रादि पर्याप्त पाये जाते हैं ।
मिश्रिताक्षरी-छोटे-बड़े मिश्रित अक्षरों की प्रतियों का परिचय वर्णन टबा, बालावोध की एवं सपर्याय प्रतियों में चारुतया परिलक्षित होता है।
स्वर्गाक्षरी, रौप्याक्षरी स्याही की लिखी हुई ताड़पत्रीय पुरतकें अव एक भी प्राप्त नहीं हैं पर महाराजा कुमारपाल और वस्तुपाल महामात्य ने अनेक स्वर्णाक्षरी ग्रन्थ लिखाए थे जिसका उल्लेख कुमारपाल प्रबन्ध व उपदेशतरंगिणी में पाया जाता है। वर्तमान में प्राप्त स्वर्णाक्षरी ग्रन्थ पन्द्रहवीं शती से मिलते हैं। रौप्याक्षरी उसके परवर्ती काल से मिलते हैं। स्वर्णाक्षरी प्रतियां कल्पसूत्र और कालकाचार्य कथा की प्रचुर परिमाण में प्राप्त हैं और क्वचित् भगवती सूत्र , उत्तराध्ययन सूत्र, नवस्मरण, अध्यात्मगीता, शालिमदरास एवं स्तोत्रादि भी पाये जाते हैं।
गुटकाकार ग्रन्थ-इनका एक माप नहीं होता । ये छोटे-बड़े सभी आकार-प्रकार के पाये जाते हैं । पोथिये गुटके आदि बीच में सिलाई किये हुए, जुज सिलाई वाले भी मिलते हैं। बराबर पन्नों को काटकर सिलाई करने से आगे से तीखे और अवशिष्ट एक से होते हैं । उनकी जिल्दें भी कलापूर्ण, सुरक्षित और मखमल, छींट, किम्ख्वाप-जरी आदि की होती हैं । कुछ गुटके सिलाई करके काटे हुए आजकल के ग्रन्थों की भाँति मिलते हैं। माप में वे दफ्तर की भाँति बड़े-बड़े फुलस्केप साइज के, डिमाई साइज के व क्राउन व उससे छोटे लघु और लघुतर माप के गुटके प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं। उनमें रास, भास, स्तवन, सज्झाय, प्रतिक्रमण, प्रकरण, संग्रहादि अनेक प्रकार के संग्रह होते हैं । हमारे संग्रह में ऐसे गुटके सैकड़ों की संख्या में हैं जो सोलहवीं शताब्दी से वीसवीं शती तक के लिखे हुए हैं ।
सूक्ष्माक्षरी ग्रन्थ-ताड़पत्रीय युग में सूक्ष्माक्षरी प्रतियां नहीं मिलती. पर कागज के ग्रन्थ लेखन में सूक्ष्म अक्षरों का त्रिपाठ, पंचपाठ आदि लेखन में पर्याप्त प्रयोग हुआ। साधओं को विहार में अधिक भार उठाना न पड़े इस दृष्टिकोण से भी उसका प्रचलन उपयोगी था। ज्ञानभण्डारों में कई एक सूक्ष्माक्षरी ग्रन्थ पाये जाते हैं। यों केवल एक पत्र में दशवकालिकादि आगम लिखे मिलते हैं । तेरापंथी साधओं ने तथा कुछ कलाकारों ने सूक्ष्माक्षर में उल्लेखनीय कीर्तिमान कायम किया है, पर वे पठन-पाठन में उपयोगी न होकर प्रदर्शनी योग्य मात्र हैं।
पुस्तक संशोधन :
स्थलाक्षरी ग्रन्थ-पठन-पाठन के सुविधार्थ बिशेप कर सम्वत्सरी के दिन कल्पसूत्र मूल का पाठ संघ के समक्ष वांचने के लिये स्थलाक्षरी ग्रन्थ लिखे जाते थे। कागज युग में इसका पर्याप्त विकास दृष्टिगोचर होता है।
हस्तलिखित ग्रन्थों में प्रति से प्रति की नकल की जाती थी। ऊपर वाली प्रति यदि अशुद्ध होती तो उस विना संशोधित प्रति से नकल करने वाला भाषा और लिपि का अनभिज्ञ लेखक भ्रान्त परम्परा और भूलों की अभिवृद्धि करने वाला ही होता । फलस्वरूप ग्रन्थ में पाठान्तर, पाठभेद का प्राचर्य होता जाता और कई पाठ तो अशुद्ध लेखकों की कृपा से ग्रन्थकार के आशय से बहुत दूर चले
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जाते थे । एक जैसी प्राचीन लिपि और मोड़ के भेद से, भाषा व विषय की अनभिज्ञता से जो भ्रान्तियां नजर आती हैं उनके कुछ कारण अक्षरों की मोड़, साम्य व अन्य भ्रान्तियां हैं । यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुतकिये जाते हैं
परितुट्ठि, नचैव-नदैवं अरिदारिणी-अरिवारिणी-अविदारिणी, दोहलक्खेविया-दोहलक्वंदिया, नंदीसरदीवगमणसंभवजणमंडियं-नंदीसरदीवगमणसंभवजिणमंडियं. घाणामयपसादजणण-घणोगयपसाद जणण. गयकुलासण्ण-रायकुलासण्ण, सच्च-सत्व-सत्तं विच्छढदाणजलाविलकपोलाविगजा- . विच्छढदाणजलवित्त घोलविवजा, इत्यादि ।
१. लिपिभ्रम
म स राग ववत
था थ्य पा प्य सा स्य षा प्य
त तू द्दद्वद्ध द्र ग्र ग्ग ग्ज
२. पड़ी मात्रा विषयक भ्रम-कितने ही लेखक पड़ीमात्रा-पृष्ठमात्रा का रहस्य न समझ कर एक दूसरे अक्षर के साथ उसकी मात्रा को लगा कर भ्रान्तपाठ की सृष्टि कर डालते हैं जिससे संशोधन कार्य बड़ा दुरूह हो जाता है। यत
तन्न च्च थ
करु खर व स्व गरा घप्पवथ प्य चवठध छव जज्ञ अज ਟ ਠ ਵ ड र म तव धव न त व नु तु . प य ए फ पु भ सम
किसलयकोमलपसत्थपाणी-किंसयलक्खामलपत्यपाणी; तारानिकर-तरोनिकर-तमोनिकर; आसरासीओ-असेरासीओअसेससीओ. इत्यादि।
वु तु पप्य थ घ ज्ज व्व द्य सूस्त स्व मू त्य च्छ कृक्ष त्व च न प्रा था टाय
थ एय णा एम
ए पय ऐ पे ये क्व क्र कूक्ष तपू पृ सु मु प्ठ ष्व ष्ट ब्द त्मत्स ता त्य कूक्त क्र
३. पतितपाठ स्थान परिवर्तन-कितनी ही बार छूटे हुए पाठ को हांसिए में संशोधन द्वारा लिखा जाता है जिसे प्रतिलिपिकार संकेत न समझ कर अन्य स्थान में उसे लिख देते हैं ऐसे गोलमाल प्रतिलिपि करते समय आए दिन देखने में आते हैं।
४. टिप्पण प्रवेश-संशोधक द्वारा हांसिए पर किये गये टिप्पण पर्याय को प्रति लपिकार भ्रान्तिवा ग्रन्थ का छूटा हुआ पाठ समझकर मूल पाठ में दाखिल कर देते हैं।
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इस प्रकार कितनी ही लम्बी सूची दी जा सकती है। अक्षरभ्रांति से उत्पन्न पाठ-भेद में भिन्नार्थ, समानार्थ भी घटित हो सकता है और इस चक्कर में बड़े-बड़े विद्वान भी फंस जाते हैं । भ्रांत लेखन से उत्पन्न पाठ भेदों को देखिये
५. शब्द पण्डित लेखकों के कारण-कितने ही लेखक अमुक शब्दों के विशेष परिचित होने से मिलते-जुलते स्थान में अघटित फेरफार कर डालते हैं-भ्रांतिवश हो जाता है जिससे संशोधक के लिये बड़ी कठिनाई हो जाती है।
प्रभव-प्रसव, स्तवन-सूचन, यच्चा -यथा, प्रत्यक्षतोवगम्या प्रत्यक्षबोधगम्या, नवा-तथा, नच तब, तद्वा-तथा, पवत्तस्त-पवन्नस्स.जीवसात्मीकृतं-जीवमात्मीकृतं परिवुढि
६. अक्षर या शब्दों की अस्त-व्यस्तता-लेखक लिखते -लिखते अक्षरों को उलट-पुलट कर डालते हैं जिससे पाठान्तरों की अभिवृद्धि हो जाती है। यत-दाएइ-दाइए ।
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७. डबल पाठ-कितनी ही वार लेखक ग्रन्थ लिखते पाठ को डबल लिख डालते हैं जिससे लिखित पुस्तक में पाठ-भेद की सृष्टि हो जाती है। जैसे-सव्व पासणिएहिं सव्व पासणिएहि-सव्वपासत्थपासणिएहि. तस्सरूव-तस्सरू वस्सरूव इत्यादि ।
८. पाठ स्खलन-ग्रन्थ के विषय और अर्थ से अज्ञात लेखक कितनी ही बार भंगकादि विषयक सच्चे पाठ को डबल समझ कर छोड़ देते हैं जिससे गम्भीर भूलें पैदा होकर विद्वानों को भी उलझन में डाल देती है।
अधिक पाठ को हटाए हुए रिक्त स्थान को लकीर तथा अन्याकृति से पूर्ण कर दिया जाता था। सोलहवीं शताब्दी में प्रति संशोधन में आई हुई काटाकाटी की असुन्दरता को मिटाने के लिए सफेदा या हरताल का प्रयोग होने लगा। अशुद्धि पर हरताल लगा कर शुद्ध पाठ लिखा जाने लगा। अशुद्ध अक्षर को सुधारने के लिए जैसे 'च' का 'व' करना हो, '' का 'प' करना हो, 'थ' का 'य' करना हो तो अक्षर के अधिक भाग को हरताल आदि से ढक कर शुद्ध कर दिया जाता । यही प्रणाली आज तक चालू है। त्रूटक पाठ को लिखने के लिए तो उन्हीं चिन्हों को देकर हांसिये में लिखना पड़ता व आज भी यही रीति प्रचलित है ।
इस प्रकार अनेक कारणों से लेखकों द्वारा उत्पन्न भ्रान्ति और अर्ध-दग्ध-पण्डितों द्वारा भ्रान्ति-भिन्नार्थ को जन्म देकर ऊपर निर्दिष्ट उदाहरणों की भांति सही पाठ निर्णय में विद्वानों को बड़ी असुविधा हो जाती है ।
ग्रन्थ संशोधन के साधन :
ग्रन्थ संशोधन करने के लिए पीछी, हरताल, सफेदा, घंटो ( ओपणी), गेरु और डोरे का समावेश होता है। अतः इन वस्तुओं के सम्बन्ध में निर्देश किया जाता है। .
संशोधकों की निराधार कल्पना :
प्रायोगिक ज्ञान में अधूरे संशोधक शब्द व अर्थ ज्ञान में अपरिचित होने से अपनी मतिकल्पना से संशोधन कर नए पाठ-भेद पैदा कर देते हैं, सच्चे पाठ के बदले अपरिचित प्रयोग देकर अनर्थ कर डालते हैं। खण्डित पाठ की पूर्ति करने के बहाने संशोधकों की मति-कल्पना भी पाठभेदों में अभिवृद्धि कर देती है क्योंकि पत्र चिपक जाने से, दीमक खा जाने से रिक्त स्थान की पूर्ति दूसरी प्रति से मिलाने पर ही शुद्ध होगी अन्यथा कल्पना प्रसूत । पाठ भ्रान्त परम्परा को जन्म देने वाले होते हैं।
पींछी--चित्रकला के उपयोगी पीछी-ब्रश आदि हाथ से ही बनाने पड़ते और उस समय टालोरी-खिसकोली के वारीक बालों से वह बनती थी। ये बाल स्वाभाविक ग्रथित और टिकाऊ होते थे। कबूतर की पांख के पोलार में पिरो कर या मोटी बनाना हो तो मयूर के पांखों के ऊपरी भाग में पिरोकर तैयार कर ली जाती थी। डोरे को गोंद आदि से मजबूत कर लिया जाता और वह चित्रकला या ग्रन्थ संशोधन में प्रयुक्त हरताल, सफेदा आदि में प्रयुक्त होती थी।
ग्रन्थ संशोधन की प्राचीन अर्वाचीन प्रणाली :
ज्ञान भण्डारस्थ ग्रन्थों के विशद् अवलोकन से विदित होता है कि लिखते समय ग्रन्थ में भूल हो जाती तो ताड़पत्रीय लेखक अधिक पाठ को काट देते या पानी से पोंछ कर नया पाठ लिख देते थे । छटे हुए पाठ को देने के लिए 'A' पक्षी के पंजे की आकृति देकर किनारे XX के मध्य में 'A'देकर लिखा जाने लगा था।
हरताल-यह दगड़ी और बरगी दो तरह की होती है। ग्रन्थ संशोधन में 'वरगी हरताल' का प्रयोग होता है। हरताल के वारीक छने हुए चूर्ण को बावल के गोंद के पानी में मिला कर, घोटकर, आगे वताई हुई हिंगुल की विधि से तैयार कर सुखा कर रखना चाहिए।
सफेदा-सफेदा आज कल तैयार मिलता है। उसे
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गोंद के पानी में घोंट कर तैयार करने से ग्रन्य संशोधन में काम आ सकता है। पर हरताल का सौन्दर्य और टिकाऊपन अधिक है।
चूंटा या ओपणी-आगे लिखा जा चुका है कि । अकीक, कसौटी या दरियाई कोड़ों से कागज पर पालिस होती है। हरताल, सफेदा लगे कागजों पर ओपणी करके फिर नए अक्षर लिखने से वे फैलते नहीं-स्याही फूटती नहीं।
गेरू-जैसे आजकल विशिष्ट वाक्य, श्लोक, पुष्पिका आदि लाल पेन्सिल से अण्डर लाईन करते हैं वैसे हस्तलिखित ग्रन्थों में भी आकर्षण के लिए पद, वाक्य, गाथा. परिच्छेद, परिसमाप्ति स्थान गेरू से रंग दिए जाते थे।
डोरा-ताडपत्रीय युग में स्मृति योग्य पंक्ति, पाठ,
अधिकार, अध्ययन, उद्देश्य आदि की परिसमाप्ति स्थान में वारीक डोरा पिरो कर बढ़ा हुआ बाहर छोड़ दिया जाता था । जैसे आजकल फ्लेग चिन्हित किया जाता है और उससे ग्रंथादि का प्रसंग खोजने में सुविधा होती है. वैसे ही ताडपत्रीय युग की यह पद्धति थी। पुस्तक संशोधन के संकेत चिन्ह :
जिस प्रकार लेखन और संशोधन में पूर्ण विराम, अर्द्ध विराम, अल्प विराम, प्रश्न विराम, आश्चर्यदर्शक चिन्ह, अर्थद्योतक चिन्ह, छन्द समास द्योतक चिन्ह. शक्ति पाठ द्योतक चिन्हादि प्रचलित हैं, पुराकालीन जैन विद्वानों ने भी लेखन सौष्ठय को ध्यान में रख कर विविध चिन्हों का प्रयोग किया है । वे चिन्ह कव और किस स्थिति में प्रयुक्त होते थे उसका यहां निर्देश क्यिा जाता है -
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इन चिन्हों की पहचान इन नामों से कीजिए
१. पतितपाठ दर्शक चिह्न-लेखकों की असावधानी से छूटे हुए स्थान पर यह चिन्ह करके हांसिये पर त्रुटक पाठ लिखा जाता है और दोनों स्थान में चिन्ह कर दिए जाते हैं।
२. पतित पाठ विभाग दर्शक चिह्न—यह चिन्ह छूटे हुए पाठ को वाहर लिखने के उभय पक्ष में दिया जाता है जिससे अक्षर या पाठ का सेल-मेल न हो जाय। इसके पास 'ओ' या 'पं' करके जिस पंक्ति का हो नम्बर दिया जाता है।
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३. आकारान्त 'काना' दर्शक चिन्ह-यह अक्षर के आगे की मात्रा 'I' छूट गई हो वहां अक्षर के ऊपर दी जाती है।
१०. विभाग दर्शक चिन्ह-ऊपर दिए गये सामान्य पदच्छेद चिन्ह से डबल लाइन देकर सम्बन्ध, विषय या श्लोकार्द्ध की परिसमाप्ति पर यह लगाया जाता है ।
४. अन्याक्षर वाचन दर्शन चिन्ह-यह चिन्ह लिखे गए अक्षर के वदले दूसरा अक्षर लिखने की हालत में लगाया जाता है। जैसे 'श' के वदले 'ष', 'स' के बदले 'श', 'ज' के बदले 'य', 'प' के बदले 'क्ष' आदि। यत-सत्रु-शत्र, खट् =पट्, जज्ञ-यज्ञ. जात्रा-यात्रा आदि ।
११. एक पद दर्शक चिन्ह-एक पद होने पर भी भ्रान्ति न हो इसलिए दोनों ओर ऊपर खड़ी लाइन लगा देते थे। यत-'स्यात्पद' एक वाक्य को कोई स्यात्
और पद अलग-अलग न समझ बैठे इसीलिये वाक्य के दोनों ओर इसका प्रयोग होता था।
५. पाठ परावृत्ति दर्शक चिन्ह-अक्षर या वाक्य के । उलट-पुलट लिखे जाने पर सही पाठ बताने के लिए अक्षर पर लिख दिया जाता है । यत-'वनचर' के बदले 'वचनर' लिखा गया हो तो वचनर शब्द पर चिन्ह कर दिया जाता है।
१२. विभक्ति वचन दर्शक चिन्ह-यह चिन्ह अंक परक है । सात विभक्ति और सम्बोधन मिलाकर
आठ विभक्तियों को तीन वचनों से संवद्ध-सूचन करने के लिये प्रथमा का द्विवचन शब्द पर १२. अष्टमी के वहुवचन पर ८३ आदि अंक लिख कर निर्धान्त बना दिया जाता था । संवोधन के लिए कहीं-कहीं 'है' भी लिखा जाता था।
१३. अन्वय दर्शक चिन्ह-यह चिन्ह भी विभक्ति वचन को चिन्ह की भाँति अक लिख कर प्रयुक्त किया। जाता था, ताकि संशयात्मक वाक्यों में अर्थ भ्रांति न हो। श्लोकों में पदों का अन्वय भी अकों द्वारा दतला दिया जाता था ।
६. स्वर सन्ध्यंश दर्शक चिन्ह-यह चिन्ह सन्धि हो जाने के पश्चात् लुप्तस्वर को बताने वाला है। इन चिन्हों को भी ऊपर और कभी नोचे व अनुस्वार युक्त होने पर अनुस्वार सहित भी किया जाता है । यत55/555 इत्यादि।
७. पाठ भेद दर्शक चिन्ह-एक प्रति को दूसरे प्रति से मिलाने पर जो पाठान्तर, प्रत्यन्तर हो उसके लिये यह चिन्ह लिख कर पाठ दिया जाता है ।
८. पाठानुसंधान दर्शक चिन्ह--टं हुए पाठ को हांसिए में लिखने के पश्चात् किस पंक्ति का वह पाठ है यह अनुसंधान बताने के लिये ओ० पं० लिख कर ओली. पंक्ति का नंबर दे दिया जाता है।
१४. टिप्पणक दर्शक चिन्ह-यह चिन्ह सूत्रपाठ के भेद-पर्याय आदि दिखाने के लिए वाक्य पर चिन्ह करके हांसिए में वही चिन्ह सहित पर्यायार्थ या व्याख्या लिख दी जाती थी।
१५. विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध दर्शक चिन्ह-दूर-दूर रहे हुए शब्दों का विशेषण-विशेष्य आकलन करने के लिए ये चिन्ह कर देने से प्रवुद्ध वाचक तत्काल संबंध को पकड़ लेता, समझ सकता है।
१६. पूर्वपद परामर्शक चिन्ह-ये चिन्ह दुरुह हैं। तर्क शास्त्र के ग्रन्थ में वार-बार आने वाले तत् शब्द को अलग-अलग अर्थ-द्योतक बताने के लिए व्यर्थ के टिप्पण
९. पदच्छेद दर्शक चिन्ह-आजकल की तरह वाक्य । शब्द एक साथ न लिखकर आगे अलग-अलग अक्षर लिखें जाते थे, अतः शुद्ध पाठ करने के लिये ऊपर खड़ी लाईन का चिन्ह करके शब्द अक्षर पार्थक्य बता दिया जाता है।
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न देकर संकेत से अर्थ समझने के लिए इन चिन्हों का प्रयोग होता था। साधारण लेखकों की समझ से बाहर विचक्षण विद्वानों के ही काम में आने वाले ये चिन्ह हैं।
दार्शनिक विषय के ग्रथों के लम्बे सम्बन्धों पर भिन्न-भिन्न विकल्प चर्चा में उसका अनुसंधान प्राप्त करने के लिए इस प्रकार के चिन्ह बड़े सहायक होते हैं । विद्वान जैन श्रमण वर्ग आज भी गम्भीर संशोधन कार्य में इन शैलियों का अनुकरण करता है।
जैन लेखन कला. संशोधन कला के प्राचीन-अर्वाचीन साधनों पर यहां जो विवेचन हुआ है इससे विदित होता है कि जैन लेखन-कला कितनी वैज्ञानिक, विकसित और अनुकरगीय थी। भारतीय संस्कृति के इतिहास में जैनों का यह महान् अनुदान सर्वदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा।
जैन ज्ञान भंडारों का महत्त्व :
संघोवरि बहुमाणो पुत्थयलिहगं पभावणा तित्थे । सटाणकिच्चमेयं निच्चं सुगुरुवएसेणं ॥५॥
बारहवीं शताब्दी में सूराचार्य ने भी 'दानादिप्रकाश के पांचवें अक्षर में पुस्तक लेखन की बड़ी महिमा गायी है । उस जमाने में ग्रन्थों को ज्ञानभण्डारों में रखा । जाता था । एक हजार वर्ष पूर्व भी राजाओं के यहाँ पुस्तक संग्रह रखा जाता था, सरस्वती भण्डार हते थे। चैत्रवासियों से सम्बन्धित मठ-मन्दिरों में भी ज्ञानकक्ष अवश्य रहता था । सुविहित शिरोमणि श्री वर्द्धमानसरि -जिनेश्वरसूरि के पाटन की राजसभा में चैत्यवासियों के साथ हुए शास्त्रार्थ में पाटन के सरस्वती भण्डार से ही 'दशवैकालिक' ग्रंथ लाकर प्रस्तुत किया था । मुसलमानी काल में नालन्दा विश्वविद्यालय के ग्रंथागार की भाँति अगणित ज्ञानभण्डारों व ग्रन्थों को जलाकर नष्ट कर डाला गया था। यही कारण है कि प्राचीनतम् लिखे ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं। जिस प्रकार देवालयों और प्रतिमाओं के विनाश के साथ-साथ नव-निर्माण होता गया उसी प्रकार जैन शासन के कर्णधार जैनाचार्यों ने शास्त्र निर्माण व लेख्न का कार्य चालू रखा । जिसके प्रताप से आज वह परम्परा बच पायी । भारतीय ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में जैन ज्ञानभण्डार एक अत्यन्त गौरव की वस्तु है। ज्ञान भडारों की स्थापना व अभिवृद्धि :
हस्तलिखित ग्रन्थों के पुष्पिका लेख तथा कुमारपाल प्रबन्ध, वस्तुपालचरित्र, प्रभावकचरित्र. सुकृतसागर महाकाव्य, उपदेशतरंगिणी, कर्मचन्दमंत्रिवंश-प्रवन्ध, अनेकों रास एवं ऐतिहासिक चरित्रों से समृद्ध श्रावकों द्वारा लाखों-करोड़ों के सव्यय से ज्ञान-कोश लिखवाने तथा प्रचारित करने के दिशद् उल्लेख पाए जाते हैं । शिलालेखों की भांति ही ग्रन्थ-लेखन-पुष्पिकाओं व प्रशस्तियों का बड़ा भारी ऐतिहासिक महत्व है। जैन राजाओं, मन्त्रियों एवं धनाढ्य श्रावकों के सत्कार्यों की विरुदावली में लिखी
प्रारम्भ में जो जैन श्रमण वर्ग श्रुतज्ञान को लिपिवद्ध करने के विपक्ष में था वह समय के अनुकूल उसे परम उपादेय मानने लगा और देवद्धिंगणि क्षमाश्रमण के समय से ज्ञानोपकरण का सविशेष प्रयोग करने के लिए उपदेश देने लगा । आज हमारे समक्ष तत्कालीन लिखित वाङ्मय का एक पन्ना भी उपलब्ध नहीं है । अतः वे कैसे लिखे जाते थे, कैसे संशोधन किये जाते थे, कहां और किस प्रकार रखे जाते थे, इस विषय में प्रकाश डालने का कोई साधन नहीं है । गत एक हजार वर्ष के ग्रन्थ व ज्ञानभण्डार विद्यमान हैं जिनसे हमें मालूम होता है कि श्रुतज्ञान की अभिवृद्धि में जेन श्रमण और श्रावक वर्ग ने सविशेष योगदान किया था। श्री हरिभद्रसूरिजी ने योगदृष्टिसमुच्चय में 'लेखना पूजना दानं' द्वारा पुस्तक लेखन को योग भूमिका का अंग बतलाया है । 'मण्ह जिणाणं आण' सज्झाय में पुस्तक लेखन को निम्नोक्त गाथा में श्रावक का नित्य-कृत्य बतलाता है।
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पैथड़शाह, पर्वत कान्हा एवं भणशाली थाहरुशाह ने ज्ञानभण्डार स्थापित करने में अपनी लक्ष्मी का मुक्त हस्त से व्यय किया था । थाहरुशाह का भण्डार आज भी जैसलमेर में विद्यमान है। जैन ज्ञानभण्डारों में बिना किसी धार्मिक भेद-भाव के जो ग्रन्थ संग्रहीत किये गए. आज भी भारतीय वाङ्मय के संरक्षण में गौरवास्पद हैं। क्योंकि अनेक जैनेतर ग्रन्थों को संरक्षित रखने का श्रेय केवल जैन ज्ञानभंडारों को ही है।
हुई प्रशस्तियां किसी भी खण्ड-काव्य से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। गूर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह और कुमारपालदेव ने बहुत बड़े परिमाण में शास्त्रों की ताड़पत्रीय प्रतियां स्वर्णाक्षरी व सचित्रादि तक लिखवायी थीं। यह परम्परा न केवल जैन नरपति श्रावक वर्ग में थी परन्तु श्री जिनचन्द्रसूरिजी को अकबर द्वारा 'युगप्रधान' पद देने पर बीकानेर महाराजा रायसिंह, कुंअर दलपतसिंह आदि द्वारा भी संख्याबद्ध प्रतियां लिखवा कर भेंट करने के उल्लेख मिलते हैं एवं इन ग्रंथों की प्रशस्तियों में बीकानेर, खंभात आदि के ज्ञानभण्डारों में ग्रन्थ स्थापित करने के विशद् वर्णन पाए जाते हैं । त्रिभुवनगिरि के यादव राजा कुमारपल द्वारा प्रदत्त पुस्तिका के काष्ठफलक का चित्र , जिसमें जैनाचार्य श्री जिनदत्तसूरि और महाराज कुमारपाल का चित्र है. इस पर 'नृपतिकुमारपाल भक्तिरस्तु लिखा हुआ है। सम्राट अकबर अपनी सभा के पंडित पद्मसुन्दर का ग्रंथ भण्डार, हीरविजयसूरि को देना चाहता था, पर उन्होंने लिया नहीं, तब उनकी निश्पृहता से प्रभावित होकर उन्होंने आगरा में ज्ञानभण्डार स्थापित किया।
जैन श्रावकों ने अपने गुरुओं के उपदेश से बड़ेबड़े ज्ञानभण्डार स्थापित किए थे। भगवती सूत्र श्रवण करते समय गौतम स्वामी के छत्तीस हजार प्रश्नों पर स्वर्णं मुद्राएं चढ़ाने का पेथडशाह. सोनी संग्रामसिंह आदि का एवं छत्तीस हजार मोती चढ़ाने का वर्णन मन्त्रीश्वर कर्मचन्द्र के चरित्र में पाया जाता है । उन मोतियों के बने हुए चार चार सौ वर्ष प्राचीन चन्दवा पूठिया आदि पचास वर्ष पूर्व तक बीकानेर के बड़े उपाश्रय में विद्यमान थे। श्री जिनभद्रसूरि जी के उपदेश से जैसलमेर, पाटण, खंभात. जालोर. देवगिरि, नागौर आदि स्थानों में ज्ञानभण्डार स्थापित होने का वर्णन उपाध्याय समयसुन्दर गणि कृत 'कल्पलता' ग्रन्थ में पाया जाता है। धरणाशाह, मण्डन, धनराज और
वर्तमान में जैन ज्ञानभंडार सारे भारतवर्ष में फैले हुए हैं । यद्यपि लाखों ग्रंथ अयोग्य उत्तराधिकारियों द्वारा नष्ट हो गए. बिक गए. विदेश चले गए, फिर भी जैन ज्ञानभण्डारों में स्थित अवशिष्ट लाखों ग्रन्थ शोधक विद्वानों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं । गुजरात में पाटण, अहमदावाद, पालनपुर, राधनपुर. खेड़ा. खंभात. छाणी, बड़ौदा, पादरा, दरापरा, डभोई, सिनोर, भरोंच. सूरत एवं महाराष्ट्र में बम्बई व पूना के ज्ञानभण्डार सुप्रसिद्ध हैं। सौराष्ट्र में भावनगर, पालीताना, घोघा, लोंबडी. बढवाण, जामनगर, मांगरौल आदि स्थानों के ज्ञान भण्डार विख्यात् हैं । राजस्थान में जैसलमेर, बीकानेर, वाड़मेर, बालोतरा, जोधपुर, नागौर, जयपुर, पीपाड़, पाली, लोहावट, फलौदी, उदयपुर, गढ़सिवाना, आहौर, जालौर, मडारा, चुरु, सरदारशहर, फतेहपुर, किशनगढ़, कोटा, झुझंनं आदि स्थानों में नये-पुराने ग्रन्थ-संग्रह, ज्ञान भंडार हैं । अकेले बीकानेर से हजारों प्रतियां बाहर चले जाने व कई तो समूचे ज्ञानभण्डार नष्ट हो जाने पर भी आज वहाँ लाखों की संख्या में हस्तलिखित प्रतियां विद्यमान हैं । राजकीय अनूप संस्कृत लायब्रेरी में हजारों जैन ग्रन्थ हैं । पंजाब में अंबाला, होशियारपुर, जड़ियाला आदि के ज्ञानभण्डार दिल्ली, रूपनगर में आ गए हैं । आगरा, वाराणसी आदि उत्तर प्रदेश के स्थानों-स्थानों में अच्छे ज्ञानभण्डार हैं। उज्जैन, इन्दौर, शिवपुरी आदि मध्य प्रदेश में भी कई ज्ञानभण्डार हैं । कलकत्ता, अजीमगंज
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आदि वंगाल देश के ज्ञानभण्डारों का अपना अनोखा महत्व है। आगमों को प्रारम्भिक मुद्रण युग में सुव्यवस्थित और प्रचुर परिमाण में प्रकाशित करने का श्रेय यहां के राय धनपतसिंह दूगड़ को है । श्री पूरणचन्दजी नाहर की 'गुलाबकुमारी लाइब्रेरी' सारे देश में प्रसिद्ध है। ताड़पत्रीय प्राचीन ग्रन्थ संग्रह के लिए जिस प्रकार जैसल- मेर, पाटण और खंभात प्रसिद्ध है, उसी प्रकार कागज पर लिखे ग्रन्थ बीकानेर और अहमदावाद में सर्वाधिक हैं । दिगम्वर समाज के ताड़पत्रीय ग्रन्थों में मूडविद्री विख्यात है तथा आरा का जैन सिद्धांत भवन, अजमेर व नागौर के भट्टारकजी का भण्डार तथा जयपुर आदि स्थानों के दिगम्बर जैन ग्रन्थ भण्डार बड़े ही महत्वपूर्ण हैं। ज्ञान भण्डारों की व्यवस्था
प्राचीनकाल में ज्ञान भण्डार बिल्कुल बन्द कमरों में रखे जाते थे। जैसलमेर का सुप्रसिद्ध श्रीजिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार तो किले पर स्थित संभवनाथ जिनालय के नीचे तलघर में सुरक्षित कोठरी में था । जिसमें प्रवेश पाने के लिए अन्तर्गत कोठरी के छोटे से दरवाजे में से निकलना पड़ता था। अब भी है तो वहीं, पर आगे से कुछ सुधार हो गया है। आगे ग्रन्थों को पत्थर की पेटियों में रखते थे जहां सर्दी व जीव-जन्तुओं की विल्कुल संभावना नहीं थी । ताड़पत्रीय ग्रंथों को लकड़ी की पट्टिकाओं के बीच खादी के विटांगणों में कस कर रखा जाता था । आजकल आधुनिक स्टील की आलमारियों में अपने माप के अल्युमिनियम के डब्बों में ताड़पत्रीय ग्रंथों को सुरक्षित रखा गया है और उनकी विवरणात्मक सूची भी प्रकाश में आ गई है । प्राचीन काल में केवल ग्रन्थ के नाम मात्र और पत्र संख्यात्मकसूची रहती थी। कहीं-कहीं ग्रंथकर्ता का नाम भी अपवाद रूप में लिखा रहता था । एक ही वण्डल या डाबड़े में कागज पर लिखे अनेक ग्रन्थ रखे जाते और उन्हें क्वचित् सूत के डोरे में लपेट कर दूसरे ग्रंथ के साथ पन्नों के सेलमेल होने से वचाया जाता था। कागज की कमी से आजकल की भांति पूरा कागज लपे
टना महर्य पड़ने से कहीं-कहीं कागज की चीपों में ग्रन्थों को लपेट कर, चिपका कर रखे जाते थे। यही कारण है कि समुचित सार संभाल के अभाव में ग्रन्थों के खुले पन्ने अस्तव्यस्त होकर अपूर्ण हो जाते थे। विधुड़े पन्नों को मिलाना और ग्रन्थों को पूर्ण करना एक बहुत ही दुष्कर कार्य है।
ताडपत्रीय ग्रन्थों को उसी माप के काष्ठफलकों के बीच कस कर बांधा जाता था । कतिपय काष्ठफलक विविध चित्र समृद्धि युक्त पाये जाते हैं । शिखरवद्ध जिनालय, तीर्थकर प्रतिमा चित्र, उपाश्रय में जैनाचयों की व्याख्यान सभा, चतुर्दश महास्वप्न, अष्टमंगलीक, वेलबूटे, राजा और प्रधानादि राज्याधिकारी, श्रावक-श्राविकाएं. वादिदेवसूरि और दि० कुमुदचन्द्र के शास्त्रार्थ आदि के चित्रांकन पाये जाते हैं।
कागज के ग्रन्थ जिन डावड़े-डिव्वों में रखे जाते थे वे भी लकड़ी या कूटे के बने हुए होते थे, जिन पर विविध प्रकार के चित्र बना कर वार्निश कर दिया जाता था। उन डब्बों पर नम्वर लगाने की पद्धति भी तीर्थकर नाम, अष्टमंगलीक आदि के अभिधान संकेतमय हुआ करते थे। हस्तलिखित कागज के ग्रन्थ पूठा, पटड़ी. फाटिया आदि के वीच रखे जाते थे। पूठों को विविध प्रकार से मखमल, कारचोवी, हाथीदांत, कांच व कसीदे के काम से अलंकृत किया जाता था। कई पूठे चांदी. सोने व चन्दनादि के निर्मित पाए जाते हैं, जिन पर अष्ट मंगलीक, चतुदश महास्वप्नादि की मनोज्ञ कलाकृतियां बनी हुई हैं। कूटे के पूठों पर समवसरण, नेमिनाथ बरात, दशाणभद्र, इलापुत्र की नटविद्या आदि विषय विविध कथा-वस्तुओं से सम्बन्धित चित्रालंकृति पाई जाती हैं। कलमदान लकड़ी के अतिरिक्त कूटे के भी मजबूत हल्के और शताब्दियों तक न बिगड़ने वाले बनाए जाते थे। हमारे संग्रह में एक कलमदान पर कृष्णलीला के विविध चित्र विद्यमान हैं। जैसलमेर की चित्र समृद्धि में हंसपंक्ति, बगपंक्ति, गजपंक्ति और जिराफ जैसे जीवजन्तुओं के चित्र भी देखे गए हैं।
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जैन ज्ञानभण्डारों की व्यवस्था सर्वत्र संघ के हस्तगत रहती आई है तथा उनकी चाबियां मनोनीत ट्रस्टियों के हाथ में होते हुए भी श्रमण वर्ग और यतिजनों के कुशल संरक्षण में रहने से ये संरक्षित रहे हैं। अयोग्य उत्तराधिकारियों के हाथ में अनेक ज्ञानभण्डार रद्दी के भाव बिक कर नष्ट हो गए।
पुस्तकों को रखने के लिए जहाँ चंदन और हाथीदांत से निर्मित कलापूर्ण डिब्बे आदि होते थे वहां छोटे-मोटे स्थानों में मिट्टी के माटे, वैत के पिटारे व लकड़ी की पेटियां व दीवालों में बने आलों में भी रखे जाते थे। इन ग्रन्थों को दीमक, चूहों व ठंडक से बचाने के लिए यथा-संभव उपाय किए जाते थे। सांप की कंचुली घोड़ावज आदि औषधी की पोटली आदि रखी जाती तथा वर्षाती हवा से बचाने के लिए चौमासे में यथासंभव ज्ञानभण्डार कम ही खोले जाते थे। ग्रन्थों की प्रशस्ति में लिखे श्लोकों में जल, तेल, शिथिल बन्धन और अयोग्य व्यक्ति के हाथ से बचाने की हिदायत सतत् दी जाती रही है।
जैन समाज शास्त्रों को अत्यधिक सम्मान की दृष्टि से देखता है। ज्ञान का बहुमान, ज्ञानभक्ति आदि की विशद् उपादेयता नित्यप्रति के व्यवहार में परिलक्षित होती है। कल्पसूत्रादि आगमों की पर्युषण में गजारूढ़ शोभायात्रा निकाली जाती है, ज्ञानभक्ति, जागरणादि किए जाते हैं। भगवती सूत्रादि आगम पाठ के समय धूप-दीप तथा शोभायात्रा आदि जैनों के ज्ञान-बहुमान के ही प्रतीक हैं। ज्ञान पूजा विधिवत् की जाती है और ज्ञान द्रव्य के संरक्षण-संवर्धन का विशेष ध्यान रखा जाता है । पुस्तकों को धरती पर न रख कर उच्चासन पर रख कर पढ़ा जाता है। उसे साँपड़ा-साँपड़ी पर रखते हैं. जिसे रील भी कहते हैं। साँपड़ा शब्द सम्पुट या सम्पुटिका संस्कृत से बना है। साधु-श्रावक के अतिचार में ज्ञानोपकरण के पैर, थूक आदि लगने पर प्रायश्चित बताया है। इसलिए बैठने के आसन पर भी ग्रन्थों को नहीं रखा जाता।
कवली:
ग्रन्थ के पत्रों को अध्ययन के हेतु कवली-कपलिका में लपेट कर रखा जाता था. जिससे पत्रों के उड़ने का भय नहीं रहता। यह कवली बांस की चीप आदि को गूंथ कर ऊपर वस्त्रादि से मढ़ी रहती थी। बारहवीं शताब्दी में युगप्रधान श्री जिनदत्तसरि जी की जीवनी में कवली-कपलिका का प्रयोग होना पाया जाता है।
कांबी:
ग्रन्थ रचना के अनन्तर ग्रन्थकार स्वयं या अपने शिष्य वर्ग से अथवा विशुद्धाक्षर लेखी लहियों से ग्रन्थ लिखवाते थे और विद्वानों के द्वारा उनका संशोधन करा लिया जाता था । लहियां-लेखकों को ३२ अक्षर के अनुष्टुप छंद की अक्षर गणना के हिसाब से लेखन शुल्क चुकाया जाता था । ग्रंथ लिखवाने वालों के वंश की विस्तृत प्रशस्तियां लिखी जातीं और ज्ञानभण्डारों के संरक्षण की ओर सविशेष उपदेश दिया जाता था। ज्ञान पंचमी पर्व और उनके उद्यापनादि के पीछे ज्ञानोपकरण वृद्धि और ज्ञान प्रचार की भावना विशेष कार्यकारी हुई। ज्ञान की आशातना टालने के लिए जैन संघ सविशेष जागरुक रहा है और यही कारण है कि जैन समाज के साथ अन्य भारतीय प्रजा की अपेक्षा सरस्वती भण्डार का सम्बन्ध सर्वाधिक रहा है।
बांस, काष्ठ या हाथीदांत की चीजों की होती थी। उसी कम्बिकावली शब्द से कांबी शब्द वना प्रतीत होता है। चातुर्मास की वर्षाती हवा लग कर पत्रों को चिपक जाने से बचाने में कांबी का प्रयोग उपयोगी था।
जैन समाज ज्ञान के उपकरण दावात, कलम, पाटी, पाठा, डोरा, कंवली, साँपडा-साँपडी, कांबी, बन्धन, वीटांगणा-वेष्टन, दावड़ा, करण्डिया आदि को महर्घ्य द्रव्य से
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पारिभाषिक शब्द :
निर्मित और कलापूर्ण निर्मित कर काम में लाया है । ग्रन्थों को जैसे ठण्ड से बचाते थे वैसे धूप से भी बचाया जाता था। स्याही में गोंद की अधिकता हो जाने से ग्रन्थ के पन्ने परस्पर चिपक कर थेपड़े हो जाते हैं जिन्हें खोलने के लिए प्रमाणोपेत साधारण ठंड पहुंचा कर ठण्डे स्थान में रख कर धीरे-धीरे खोला जाता है और अक्षरादि नष्ट हो जाने से भरसक बचाने का प्रयत्न किया जाता है। ग्रन्थ और ग्रंथभण्डार से सम्बन्धित व्यक्ति को इन बातों का अनुभव होना अनिवार्य है।
प्रस्तुत निबन्ध में अनेक जैन पारिभाषिक शब्दों. उपकरणों आदि का परिचय कराया गया है फिर भी कुछ पारिभाषिक शब्दों का परिचय यहां उपयोगी समझ कर कराया जाता है।
१. हस्तलिखित पुस्तक को प्रति कहते हैं जो प्रतिकृति का संक्षिप्त रूप प्रतीत होता है।
२. हस्तलिखित प्रति के उभयपक्ष में छोड़े हुए मार्जिन को हांसिया कहते हैं और ऊपर नीचे छोड़े हुए खाली स्थान को जिह्वा या जिब्मा-जीभ कहते हैं ।
३. हांसिये के ऊपरी भाग में ग्रन्थ का नाम, पत्रांक, अध्ययन, सर्ग, उच्छवास आदि लिखे जाते हैं जिसे हुण्डी कहते हैं।
४. ग्रन्थ की विषयानुक्रमणिका को वीजक नाम से सम्बोधित किया जाता है।
ग्रन्थों की रक्षा के लिए प्रशस्ति में लिपिकर्ता निम्नोक्त श्लोक लिखा करते थे
जलाद्रक्षेत् स्थलाद् रक्षेत् रक्षेत् शिथिलबन्धनात् । मूर्खहस्ते न दातव्या एवं वदति पुस्तिका ॥१॥ अग्ने रक्षेत् जलाद रक्षेत् मूषकेभ्यो विशेषतः । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन प्रतिपालयेत् ।।२।। उदकानिलचौरेभ्यः मूषकेभ्यो हुताशनात । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन प्रतिपालयेत् ॥३।। इत्यादि
ज्ञानपंचमी पर्व:
ज्ञान की रक्षा और सेवा के लिए ज्ञान पंचमी पर्व का प्रचलन हुआ और इसके माध्यम से ज्ञानोपकरणों का प्रचुरता से निर्माण होकर ज्ञानभण्डारों की अभिवृद्धि की गई। ज्ञान पंचमी पर्वाराधन के बहाने ज्ञान की पूरी सार-संभाल होने लगी। उद्यापनादि में आए हुए मूल्यवान चन्दवे-पुठिये, झिलमिल वेष्टन आदि विविध वस्तुओं को आकर्षक और समृद्धिपूर्ण ढंग से सजाये जाने लगे। ज्ञान की वास्तविक सार-संभाल को भूल कर केवल बाह्य सजावट में रचे-पचे समाज को देख कर एक बार महात्मा गांधी जैसा सात्विक वृत्ति वाले महापुरुष को कहना पड़ा कि "यदि चोरी का पाप न लगता हो तो मैं इस ज्ञान उपादानों को जैन समाज से छीन लूं क्योंकि वे केवल सजाना जानते हैं. ज्ञानोपासना नहीं।" अस्तु ।
५. पुस्तकों के लिखित अक्षरों की गणना करके उसे ग्रन्थान तथा अन्त में समस्त अध्यायादि के श्लोकों को मिलाकर सर्व ग्रन्थ या सर्वग्रन्थाग्रन्थ संख्या लिखा जाता है।
६. मूल जैनागमों पर रची हुई गाथाबद्ध टीकाओं को नियुक्ति कहते हैं ।
७. मूल आगम और नियुक्ति पर रची हुई विस्तृत गाथाबद्ध व्याख्या को भाष्य या महाभाष्य कहते हैं । भाष्य और महाभाष्य सीधे मूलसूत्र पर भी हो सकते हैं। यों नियुक्ति, भाष्य और महाभाष्य ये सब गाथावद्ध टीका ग्रन्थ होते हैं ।
८. मूल सूत्र, नियुक्ति, भाष्य और महाभाष्य पर प्राकृत-संस्कृत मिश्रित गद्यबद्ध टीका को चूणि और विशेष चूणि नाम से पहचाना जाता है ।
९. जैनागमादि ग्रन्थों पर जो छोटी-मोटी संस्कृत व्याख्या होती है उसे वृत्ति, टीका, व्याख्या. वार्तिक,
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टिप्पणक, अवचूरि, अवचूर्णि, विषम पद व्याख्या, विषम पद पर्याय आदि विविध नामों से संबोधित किया जाता है।
१०. जैनागमादि पर गुजराती, मारवाड़ी. हिन्दी आदि भाषाओं में जो अनुवाद किया जाता है, उसे स्तबक टबा या टवार्थ कहते हैं। विस्तृत विवेचन बालावबोध कहलाता है।
११. मूल जैनागमों की गाथाबद्ध विषयानुक्रमणिका विषय वर्णनात्मक गाथाबद्ध प्रकरण को एवं कितनी ही बार प्राकृत-संस्कृत मिश्रित संक्षिप्त व्याख्या को भी संग्रहणी
नाम दिया जाता है।
इस निबन्ध में श्वेताम्बर ज्ञान भण्डारों के अनुभव के आधार पर प्राप्त सामग्री पर प्रकाश डाला गया है । दिगम्बर समाज के ज्ञान भण्डार व लेखन सामग्री पर अध्ययन अपेक्षित है । श्वेताम्बर समाज में विशेषकर मन्दिर आम्नाय के साहित्य पर विशेष परिशीलन हुआ है । आगमप्रभाकर परम पूज्य मुनिराज श्री पुण्यविजय जी महाराज की “भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखनकला" निबन्ध पर आधारित यह संक्षिप्त अभिव्यक्ति है।
पर्यषण पर्व में कल्पसूत्र की शोभायात्रा
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तत्वज्ञ सुरपति विमल बुद्धिवान स्तवना जो करी। त्रिजग मनहर शब्द रचना उदार विद्वत्ता भरी। आदिनाथ जिनेश का गुण गान मन उत्सुक भया । आश्चर्य शक्तिहीन भी इस कार्य में उद्यत हुआ ।।२।।
प्रतिविम्ब जल के चन्द्र को भी हस्तगत करने यथा। अवोध शिशु अज्ञानवश होता समुद्यत है तथा ।। विबुध पूजित नाथ तेरा स्तवन करने के लिए। बाल चाल अवश्य किन्तु सुधीजन करुणा हिये ॥३॥
भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी पद्यानुवाद )
गुणरत्न के सागर भरे प्रभु की असंभव वर्णना। असमर्थ सुरगुरु भी रहे पूरण जहाँ सुज्ञान गरिमा !! दुर्द्धर्ष सागर प्रलय वायु से उद्वेलित जो रहा। तिरने उसे निर्दल भुजा से कौन है समरथ महा ।।8।।
भक्ति प्रेरित आपकी मुनिनाथ मैं उद्यत हुआ। करने लगा गुण गान शुचि असमर्थता भूला भया ।। ज्यों प्रीतिवश निज शिशु बचाने को मृगी जाती भली। वनराज से निर्भय बनी साहस सहित भिड़ने चली ।।५।।
[समस्त जैन समाज में भक्तामर स्तोत्र का प्रचार सर्वाधिक है। इसके नित्यपाठी भी बहु संख्यक लोग हैं। इस पर अनेक टीका. वार्ता, यंत्रादि सह सचित्रप्रतियाँ भी उपलब्ध हैं। लगभग ७५ पद्यानुवादों का विभिन्न कवियों द्वारा निमित संग्रह पं० कमलकुमारजी जैन ने किया है। मैंने पहले भक्तामर का गुजराती पद्यानुवाद प्रस्तुत किया. अभी हिन्दी पद्य रचना लिखकर कुशल-निर्देश में सर्वप्रथम प्रकाशित की है। संस्कृत भाषा को समझने वाले सीमित हैं: आशा है इससे अर्थ समझ कर भक्तामर-पाठी बन्धु अधिकाधिक लाभ उठावेंगे। यद्यपि श्वे० समाज में ४४ गाथाए प्रचलित हैं पर मैंने अष्ट-प्रातिहार्यों की पूर्णता के हेतु ४८ गाथाओं के ही पद्यानुवाद किये हैं। ]
परिहास लायक हूँ सही श्रुत-ज्ञानियों के सामने । किन्तु भक्ति आपकी सुप्रयास को प्रेरक बने । मधु मास मुकुरित मंजरी के ही सशक्त प्रताप से । कोयल मधुर स्वर कूकती है मोहनी आलाप से ॥६॥
भव भ्रमण संचित पाप राशि रही आत्मा से जुड़ी। क्षण मात्र में हो स्तवन करते क्षीण जो छोटी वड़ी। निशि जगद्व्यापी तिमिर का ज्यों अंशुमाली उदय तें। तम नाश हो अविलंब उषाकाल प्रातः समय में ॥७॥
हरिगीत छन्द
सुरेन्द्र भक्तों के मुकुटमणि से प्रभान्वित चरण है। तम पाप नाशक आदि जिनका नमन अशरण प्ररण है ।। संसार सागर डूबतों के एक मात्र आधार है। अतएव पद युग में नमन मेरा सम्यक आचार है ||१||
नलिनी दल जल-कण पड़े ज्यों भासते मुक्ता सही। रसहीन मेरे वाक्य भी प्रभु के गुणावलि युक्त ही।। सज्जन सुभक्त सुधीजनों के मन हरे निश्चय यही। उत्कृष्ट रचना पंक्ति में हो मान्यता अवश्य ही ॥८||
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किरण उषाकाल पड़ते कमल सहु विकसित हुए। गतदोष प्रभु तव सत्कथा से पाप पुञ्ज सभी दहे। सूर्य तो अति दूर है पर किरण पड़ते ही अभी। सर स्थित कुमुद विकास सम स्तोत्र गुण जानें सभी ।।९।।
तेल बाती हीन नहीं किंचित् भी रठता धूम है। ऐसा अजब दीपक प्रकाशक तीन लोक अन्यून है। पर्वत प्रकम्पी वायु भी नहीं वुझा सकती है जिसे । हे नाथ आप स्व-पर प्रकाशी उपमान में रखें किसे ।।१६।।
हे भुवन-भूषण ! नाथ नहीं आश्चर्य आप शरण्य हैं। निज तुल्य सेवक करें स्वामी आप सह कारुण्य हैं। मैं भी तुम्हारी भक्ति से इच्छू न क्यों समकक्षता। गुण स्तवन करके नाम से निश्चय लहूँ पद सिद्ध का ||१०||
भानु तो है अस्त होता सदोदित प्रभु आप हैं। राहू न जिसको लीलता वारिद आवरण अव्याप हैं। सीमित प्रकाशक दिवस में जो सूर्य की उपमा कहाँ। महा महिमावंत मुनिपति आपका आसन जहाँ ।।१७।।
अनिमेष दर्शन कर प्रभु सम रूप अन्य स्थान में । नहीं प्राप्ति नहीं संतुष्टि भी अंतर हृदय अभिराम में ।। क्षीरसागर चंद्र यति जल अमृतोपम पान कर । कौन वांछक लवण जल के पान का जो अशुचिकर ।।११।।
महा मोहान्धकार नाशक आपका मुख चंद्रमा । सर्वदा है उदित जो श्री कान्ति युक्त अनोपमा ॥ राहु ग्रसे नहिं घन-घटाओं से भी अन आवरित जो । शोमा विलक्षण चंद्र तुलना नहीं त्रिजग उद्योत को ||१८||
परमाणु उत्तम शांति के जो रहे त्रिभुवन सारमय । वेजोड़ रचना देह जिनकी हुई जग जन नष्ट भय ।। सवही अणु आकर जुड़े अन्यत्र तो अप्राप्त हैं। प्रशान्त सह गुण पुंज तो जिन देह में ही व्याप्त है ।।१२।।
अहर्निश मुख चंद्र प्रभु का दीप्तिमय अनवरत है। तो रात्रि में शशि और दिन में भानु भी तो व्यर्थ है। वनराजि विकसित धान्य शोभित देश में जलवृष्टि का।' नहिं काम शीत रु ताप का जल मात्र कादासृष्टि का ||१९||
सुर नाग नर आनंददाता आपका मुख चंद्र है। त्रैलोक्य अनुपम वस्तु सहु प्रतियोगिता में मंद हैं | म्लान मुख दिन में कलंकित भासता जो है शशी। पीत वर्ण पलाश सा छविहीन देखत हैं सभी ।।१३।।
मणि-रत्न में जो दिव्य ज्योति भासमान रहे सदा । वह वालू निर्मित कांच में नहिं प्राप्त हो सकती कदा ॥ स्व-पर भावों के प्रकाशक नाथ का जो महत्व है। हरि ब्रह्म शिव प्रभृति में अप्राप्य वैसा सत्त्व है !|२०||
यूर्णिमा के चंद्र सम उज्ज्वल तुम्हारी ज्योत्सना । व्याप्त त्रिभुवन में सहु गुण त्रिजगनाथ महामना ।।। प्रभु शरणदाता आपके आश्रित सभी तो हैं सही। विचरें अबाधित यथा इच्छा कोई अटकावे नहीं ||१४||
देखना लगता है मुझको देव हरिहर ठीक हो। कर दोष गुण तुलना प्रभु से हुई संतुष्टि सही ॥ गुण मानता मैं परीक्षा कर आप प्रति श्रद्धा अटल । जो हो गईभव भवान्तर में रहेगी शाश्वत अचल ||२१||
देवांगना रति रंभ आदिक चित्त चंचल कारिका। हरिहरादि को हराये किन्तु जिन निर्विकारता ।। प्रलय काल तूफान से हैं डोलते सव गिरिवरा । • मंदराद्रि शिखर ज्यों प्रभु निर्विकार रहे स्थिरा ||१५||
सुत जन्म देती है हजारों नारियाँ नित लोक में । किन्तु नहिं समकक्ष प्रभु के लक्ष लक्ष अनेक में । दिशि-विदिशि में नक्षत्र तारे उदित अगणित हैं सही। प्राची दिशा विन अन्य कोई भानु उपजाती नहीं ॥२२॥
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साधक मुनिजन सुधिजन सब आपको परमातमा। अज्ञानतम को हरणकारी मानते सूरज समा ।। हो जाएं मृत्युंजयी हम भी आपको पाकर सही। नहीं अन्य शिव पद मार्ग कोई मान्यता मेरी यही ॥२३॥
स्वर्णिम सुमेरु शिखर पर ज्यों वार सुचि निर्झर वहे। त्यों उभय और जिनेन्द्र के ही शुभ्र चामर दुलि रहे ।। शशि समुज्ज्वल वारिधारा सम लखें अति शोभती। तीसरे प्रतिहार्य वर्णन लहर भवि मन मोहती ॥३०!!
गुण गान करने संतजन तो निरंतर उद्यम करे। अव्यय अनंत अनूप आद्य अचिंत्य असंख्य प्रभु खरे ।। सर्वज्ञ एक अनेक ब्रह्मा कामकेतु योगीश्वरा । योग मारग अमल ज्ञाता जय जयो जगदीश्वरा ॥२४॥
शशि समुज्ज्वल छत्रत्रय रवि ताप सर्व निवारते। श्वेत मुक्ताफल लड़ी बेजोड़ शोभा धारते ।। तीन जग के नाथ को ऐश्वर्यता यह प्रगट है। परमात्म की प्रतिहार्य महिमा पार पाना विक्ट है ॥३१॥
विबुध पूजित बोध-दायक आप निश्चित वर हो। त्रैलोक्य के कल्याण कर्ता आप शंकर शुद्ध हो। शिव मार्ग की विधि के विधाता सत्य ही तो आप हो। आप उत्तम पुरुष भगवन् पुरुषोत्तम गत पाप हो ॥२५॥
देवगण गंभीर स्वर से वाद्यध्वनि विस्तीर्यते। आदि जिन की दशो-दिश में यशो गाथा गीयते ॥ सधर्म की जय-घोषणा मुखरित हुई सव देश में ! दंदुभि प्रतिहार्य पंचम त्रिदशपति संदेश में !!३२।।
त्रैलोक्य के चिन्तानिवारक नाथ तुमको नमन है! सकल भूतल आभरण सुविशुद्ध प्रभु को नमन है । तीन जग ऐश्वर्यशाली परमेश्वर तुम्हें नमन है। भव जलधि शोषक परम तारक जिनेश्वर को नमन है ॥२६।।
पंचवर्णी सुमन वृष्टि पारिजात मन्दार के। नंदन-वनादि मेरुगिरि उत्पन्न भिन्न बहार के।। समवसरण सुशोभती ज्यों पंचांगी वाणी खिरी। प्रतिहार्य छट्ठा बहु सुगंधित द्वादशांगी अनुसरी ॥३३।।
मुनि ईश तेरे हृदय में गुण गण सकल आकर बसे। अवकाश लेश नहीं रहा अभिमान से अवगुण खिसे । अन्य देवों में हमें पर्याप्त आश्रय मिल रहा । सगर्व वेपर्वाह हो सपने में नहीं आना चहा ॥२७||
द्य तिवंत अमित सुज्योति शोभित प्रभामण्डल नाथ का। कोटि सूरज : शशि सुमिश्रित तेज शीतल साथ था। अंधकार नाशक रात्रि का प्रभु तेज पुंज सुहावना । सातवां प्रतिहार्य जिनवर पृष्ठे शोभित अति घना ॥३४।।
वृक्ष बारह गुणा ऊंचा प्रातिहार्य प्रथम खरा। अशोक तल काली घटा में विमल भानू जिनवरा ।। देशना वितरित किरण से जन भव्य कमल विकस्वरा। मुमुक्षु जन के हृदयगत अज्ञान-पाप-तमो-हरा ॥२८॥
आठवाँ प्रतिहार्य भाषा से संबंधित नाथ का। स्वर्गापवर्गी पथप्रदर्शक तत्व धार्मिक गाथ का ॥ निज भाष में सहु देशभाषी कलना सरलता से करे। सर्व भाषा शब्द स्पर्शी जिनोपदेश हिये धरे ॥३५॥
मणि किरण से सुविचित्र चित्रित सिंहासनोपरि राजते। ज्यों अंशुमाली उदयगिरि पर मनसि कविजन भासते ।। आदीश जिनकी देह कंचन वर्ण की महिमामयी । प्रतिहार्य यह भविजन कुमुद को शीघ्र करता निर्भयी ॥२९||
भगवान पद धरते जहां कंचन कमल संचार हो। ऐसी व्यवस्था भक्त सुरगण करे धर्म प्रचार को ।। नख कांति किरणें चमकती जिनराज ऐसे अतिशयी। भवभ्रमण-हारी तीर्थपति की है परम गरिमा सही ॥३६||
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जो समृद्धि समवसरणे नाथ 1 बारह उपदेश प्रतिभा अन्य देवों में नहीं मिलती तारा गणों में चमक किन्तु भानु की असमर्थ करने को सही अंधकार वर्जित
परिषदा । कदा ॥
न बरावरी ।
शर्वरी ||३७||
मदमत्त करिवर कपोलों पर भ्रमर गण मंडरा रहे । कुपित हो उद्धत ऐरावत सम चिधाड़ मचा रहे ।। ऐसे भयानक स्थान में तब भक्त रहते निर्मयी । कारण हृदय में आपका आसन सदा स्थित है सही ||३८||
मदमत्त गज कुंमस्थलों को पलक में जो विदारता । रक्त-रंजित श्वेत मुक्ता से जो भूमि सिंगारता ।। बेजोड़ ऐसे शक्तिशाली शेर की असमर्थता । आक्रमण न करे चरण युग गिरि की लहे जो शरणता ||३९|| त्रलयंकर तूफान प्रेरित अग्नि के शोले उड़े। दावाग्नि जो सर्वस्वभक्षी कौन कहो उससे भीड़े ॥ प्रभु नाम कीर्तन वारि सिंचित भक्त जन निर्भय रहे । आदीश प्रभु के नाम से तो अग्नि शीतलता लहे ||४०||
पिक कण्ठ जैसा नाग काला फन उठाकर सामने । फुंकार करता लाल आँखें भयंकर आता वने || प्रभु नाम विद्या नागदमनी जिस भक्त के हिरदे वसे । निर्भय निराकुल शीघ्र वह शिर चरण रख करके धसे ||४१||
गज अश्व तोपें और पायक रथ सहित चतुरंगिणी | सामने सेना नृपति गणकी चक्रव्यूह विकट बनी ॥ संग्राम में प्रभु भक्तिधर जो भिड़े शत्रु पर विजय पाता सही ज्यों अंशुमाली किरण से अंधकार क्षय ॥ ४२ ॥
कीचड़ मचा संग्राम में गज रक्त धार प्रवाह से। वोर शत्रु शस्त्र चमके अदमनीय उत्साह से | ऐसी विकट रणभूमि में दुर्जेय पर भी जय लहे। प्रभु चरण आश्रित भव्य जन तो ना कभी भी दुख सहे ||४३||
भीषण मगरमच्छ जहाँ रहते डोलते दरियाव में । बड़वाग्नि और तूफान का भय व्ध तरंग प्रवाह में ॥ डगमगाते दते जो जहाज समुद्र समाधि में। प्रभु नाम शरणा जो ग्रहे वह तट लहे निरूपाधि से ||४४||
रोग भोग जलोदरादि का महा विकराल है। उदर भार असहा पीड़ा जीवितव्य बेहाल है ॥ आदीश प्रभु के पद रजामृत हे भक्ति प्रयोग से मदनवत् लावण्य हो जाता सुरत गत रोग से ||४५||
पग हाथ में बेड़ी पड़ी जंजीर खाली कण्ठ में उभय जांघें घिस रही जो हैं निविज्ञतर पंध में | ऐसा मनुज ऋषमेश तेरा नाम जाप तत्काल बंधन भय रहित स्वयमेव हो जाता
गजमत्त सिंह दावानलादि और विषधर नाग के संग्राम सागर महाव्याधि जलोदर कुष्ठादि के !! कैद कारागार के भी भय अष्ट जो ऊपर कहे। आदीश प्रभु का स्तवन करते भक्त सह निर्भय हुए ॥ ४७ ॥
करे सदा । तदा ||४६ ॥
विचित्र जिन गुण सुमन से गूंथी यही विरुदावली । भक्ति पूरित बहु रुचिर जिन कण्ठ में स्थापी भली ॥ प्रभु मानतुंग सुभक्त रचना है प्रभावक फलप्रदा । धनलक्ष्मी सहजानंद प्रभु पद कज 'भंवर' कहे मुदा ॥४८॥
॥ इति श्री भक्तामर स्तोत्र हिन्दी पद्यानुवाद संपूर्णम् ॥
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श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्र
(पद्यानुवाद) हरिगीत छन्द
औदार्य वाले अघ विनाशक निकेतन कल्याण के श्रेष्ठतम् हैं। अभयप्रद भयभीत जगजन प्राणि के ॥ संसार सागर डूबते जन अशेष को जलपोत सम । उद्धारकारी जिन चरण-कज में नमन करते हैं हम ||१||
गुण के महोदधि जिनेश्वर की स्तुति करने को स्वयं । असमर्थ सुरगुरु विपुल मति हैं येन कृत वादी जयं ॥ कमठ शठ अभिमान चूरक धूमकेतु धूमकेतु भस्मकर | सम तीर्थपति की अल्पधी में क्या सकूंगा स्तुति कर ||२||
हे नाथ, साधारणतया भी रूप वर्णन आपका। मैं मन्द बुद्धि व्यक्ति कैसे करू तव गुण गाथ का ॥ अंधा दिवस का घूक शिशु क्या दिनमणि की वर्णना। समरथ कभी होगा ? नहीं, मेरे लिये त्यों समझना ||३||
मोहक्षय केवल्य प्राप्ति से जो नर अनुभव करे। नाथ तब गिनने गुणों की ना कभी क्षमता धरे ॥ कल्पान्त जल फैला तभी है रत्नराशि अमाप जो । असमर्थ हो जाएँगे करने सभी गणना माप को ||४||
जड़ बुद्धि मैं उद्यत हुआ हूँ स्तवन करने नाथ का । गुण असंख्य गुणोदधि के कथन विस्तृत गाथ का ॥ फैलाय निज भुज बाल जैसे उदधि के विस्तार को । वर्णन करे त्यों मैं भी कहता प्रभु गुणों के पार को ||५||
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आपके निःसीम गुण की वर्णना तो योगिजन । असमर्थ करने को बताये तो कहाँ अवकाश मम ॥ अविचार मूलक कार्य मेरा मेरा तदनुरूपी जानिये । पक्षिगण अव्यक्त बोले त्यों मुझे ही मानिये ||६||
मन वचन से अज्ञात महिमा तव स्तुति तो दूर है। नाम से भी भव भ्रमण हो जाए नष्ट जरूर है ।। तीव्र आतप ग्रीष्म में पीड़ित पथिक जन पद्म-सर। की बात क्या ? उसकी सरस वायु भी है आनंदकर ||७||
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जब हों विराजित आप स्वामी नाथ ! मानव के हृदय । कर्म-बन्धन प्रबलतम जाते शिथिल हो अभय मय ॥ वन मध्य चंदन वृक्ष के सब सर्प मय बन्धन शिथिल । मयूर का आगमन जय हो भाग जाते सर्प मिल ||५||
जिनेन्द्र प्रभु के दर्शनों से शत-शत उपद्रव नष्ट हो। तत्काल मानव के सभी जो भी भयंकर कष्ट हो । तेजस्वी नप गोपाल भानु के दरश से चोर ज्यों सब भाग जाते हैं पशुजन मुक्त निर्भय होत त्यों ||९||
किस तरह तारक जिनेश्वर। आप भविजन भक्त के वे हृदय स्थिर कर आपको ही तैरते भव समुद्र से ॥ किन्तु सही यह बात है ज्यों पवन से पूरित मशक वायु प्रभाव है वस्तुतः जा मध्यस्थित नहीं लेश शक ||१०||
हतप्रभ हुए हैं हरिहरादि देव रतिपति सामने । क्षण मात्र में प्रविनष्ट कर डाला है भगवन् आपने || जल शान्त करता अग्नि को है उस उदधि के वारि को । वडवाग्नि दुर्दर लील जाती है त्यों मारा मार को || ११||
हे नाथ, शरणागत अपरिमित निःसीम है जो प्राणिजन अप्रयास ही निस्तार हो जाते भवोदधि शीघ्रतम ॥ धार निज हृदये तुम्हें आश्चर्यकारी दाव है। मानना होगा महापुरुष का अचिन्त्य प्रभाव है || १२ ||
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कर दिया प्रभु आपने प्रविनष्ट क्रोध कषाय को । ध्वस्त फिर कैसे किया है कर्म तस्कर राव को ॥ सत्य शत प्रधान भी हिमपात ज्यों वनराजि को । दग्ध कर देते प्रभु, त्यों अष्ट कर्म समाज को ||१३||
संधान रत ज्यों योगिजन हैं हृदय में प्रभुरूप को । निश्चय कमल दल कर्णिका में राखते जिन भूप जो ॥ कान्तिमय जीवन अमल है अन्य स्थल भी तो कहो। संभव नहीं है यही कारण धार्य करते मौन हो ||१४||
करते आपका ।
जिनेन्द्र ! संसारस्थ प्राणी ध्यान अशरीरी होते देह तज क्षण मात्र परमातम दशा || ज्यों धातुएँ मृतिका में मिश्रित तीव्र अग्नि संयोग से । दृषद् क्षय स्वर्णत्व प्राप्ति होत दीप्ति ओज से ||१५|| जिस देह माध्यम भक्तजन भवदीय अन्वेषण करें । नष्ट कर देते उसे आश्चर्य नहीं पोषण करें || सत्य है निष्पक्ष मध्यस्थ महानुभाव स्वभाव यह । आश्रितों के क्लेश विग्रह हटा दें सद्भाव सह ॥ १६ ॥
अभेद बुद्धि प्रभाव से ध्याता विबुध जन आपके । आप सदृश आतमा सप्रभाव हों गत पाप से ॥ मणि मंत्रमंत्रित वारि जैसे अमृतोपम हो गया। विषजन्य सर्व विकार का अनिवार्य ही नाशक गया ॥ १७॥
हरिहरादि अन्य को जो ईश बुद्धचा मानता। गुण वीतरागी भाव से वास्तव में तव शरणागता ॥ पीलिया रोगी ज्यों शंखादि में पीले रंग को । नहीं देखता क्या ? त्यहि दृष्टि-रागि अपने अंग को ||१८||
धर्मोपदेश सामीप्य से सुप्रभाव वृक्ष अशोकला । पाता है मनुज समाज त्योंही शोक रहित अमोघता ॥ त्याग करता नींद मानव उदित सूर्य प्रताप से । त्यों जीवलोक प्रबुद्ध होते कमल अपने आप से || १९||
सुर पुष्प वृष्टि समवशरणे वृन्त बंध अधोमुखी । गिरते हैं अविरल विकस्वर त्यों मनुज होता सुखी ।। सुमन शोभन चित्त वाले आपके उपदेश से । नर-देव बंधन रहित हों सद्बोधअमृत लेश से ||२०||
गंभीर हद्गत आपके उत्पन्न वचन मनोहरा । अमर भव्यों को बनाने अमिय की उपमाधरा ॥ श्रवण पुट से पानकर जरा-जन्म-मृत्यु दुःख से छूट जाते भव्यजन हो तुष्ट आत्मिक सुख से ||२१||
श्वेत चामर को दलाते देख झुककर उच्चतर | भक्ति प्रेरित देवगण रहस्य मय प्रतिहार्य कर ॥ देते मौन सूचना हैं नम्रता से नमो इन्हें । ऊर्द्धगति निश्चित मिलेगी मोक्ष पाना है जिन्हें ||२२||
प्रभु रत्नमय उज्ज्वल सिंहासन पर विराजित हों जभी। गंभीर ध्वनिमय देशना सुनते हैं भव्य मयूर भी ।। द. खते ऐसे हैं मानो स्वर्ण मेरु शिखर पर ।" नव मेघ गर्जित उच्च स्वर आलोकते आश्चर्य भर ||२३||
नील कान्ति उठ रही जो नाथ दिव्य शरीर से । अशोक तरु के लाल पसे बदरंग लखें अधीर से ॥ वीतराग वाणी आपकी प्रभु ! श्रवण कर दें ध्यान भी। प्राणी सचेतन कौन हैं? वैराग्य प्राप्त न हो तभी ||२४||
हे मोक्षपुर के यात्रियों ! आलस्य आलस्य व्यागो शीघ्रतर । सेवा करो जिनदेव की आकर बनो अजरा अमर ॥ देव दुभि व्योम गुंजत दे रही चेतावनी । ये सार्थपति निवृत्तिपुरी के चरण सेवो सिर नमी ||२५||
आलोक प्रभु है आपका त्र्यलोक व्यापी हो रहा। तप हटा जब चन्द्र तारा का अधिकार नहीं रहा । मुक्ता जटित ही चन्द्रमा मिस तीन छत्रों के सही । सेवार्थ प्रस्तुत हो गया मानों सुशोभित वन यहीं ॥२६॥
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माणिक्यमय अरु हेममय हैं रौप्यमय त्रय कोट जो। कान्ति प्रताप यशपिण्ड ही दीखते गिरि ओट सो ॥ विस्तृत हुए सर्वत्र प्रभु गुण स्थान रिक्त नहीं मिला। समवसरण प्रभु के चतुर्दिक व्याज से शोभित किला ||२७||
देवेन्द्र नमते आपको तो पुष्पमाला दिव्य भी । रत्नमय मौलि मुकुट राजई आश्रित भव्य थी ॥ उचित ही है कार्य उनका श्री चरण शरणा ग्रहे । सुमन शोभन पुरुष भी अन्यत्र सन्तुष्टि न लहे ॥२८॥
हे नाथ भवजल उदधि से तो पराङ्मुख प्रतिकूल हैं। पर भक्त आश्रित जन सुनिश्चित तारते बिन भूल हैं । घड़ा मिट्टी का अधोमुख नदी पार उतारता । आश्चर्य कर्म विपाक विरहित यही तत्व की सारता ||२९||
जन सर्व प्रतिपालक प्रभु हैं, ईश सारे विश्व के । दुर्ज्ञेय दुर्लभ हैं, अपितु संसार वासी जीव के || अक्षर स्वभावी नित्य हैं अलिपि अलिप्त महान हैं। रक्षा करे अज्ञप्राणी की स्व पर प्रकाशी ज्ञान है ||३०||
धूलिवर्षा कमठ शठ ने की भयंकर नाथ पर । क्रुद्ध था वह दशभवों से दिया समग्र आकाश भर || विगड़ा न कुछ भी आपका छाया मलिन भी नहीं हुई। स्वयमेव ग्रस्त दुरात्म वह प्रभु ध्यानमग्न रहे सही ||३१||
हे जिन । कमठ उस दैत्य ने गर्जन भयंकर मेघ से । कर वृष्टि मूसलधार विद्यत् कड़कती अति वेग से ॥ अथाह दुस्तर वारि से भी नहिं कुछ हानि हुई । अपितु दुरात्मा कमठ को असिधार सम परिणत भई ||३२||
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केश विखरे अग्निमुख विकृत वदन नरमुण्ड की माला पड़ी कुत्सित भयंकर पिशाचों के कण्ठ थी ॥ अप्रभावित प्रभु रहे उसके भयंकर जाल से । भव भव भयंकर दुःख से वह ग्रस्त कर्म जंजाल से ||३३||
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हे त्रिजग स्वामी धन्य है जो भक्त आराधन प्रशस्त त्रिकाल उपासना करते प्रभु चरणों रोमा हो उल्लास पूर्वक अन्य साफल्य लाभ करें वही संसार से
करे |
पड़े | पड़े ॥
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कारज छोड़ के मुख मोड़ के ||३४||
हे मुनिपति ! संसार सागर में अनन्ते काल से । परिभ्रमण में करता रहा मिथ्या अनादि चाल से ॥ देखा सुना नहीं नाम गोत्र प्रभु के सुपावन मंत्र को अन्यथा ये विपत्ति नागिन क्यों ग्रसत मम तंत्र को || ३५॥
जन्म जन्मान्तर कमी नहीं आपके प्रभु चरण की। अभीष्ट फल दातार जो साफल्य अशरण शरण भी ॥ आराधना न उपासना की खेद खिन्न बना प्रभु । अन्यथा क्यों हृदय द्रावक तिरस्कृत होता विभू ||३६||
अवश्य हा मम नेत्र पर मोहान्धता छायी रही । वंचित रहा प्रभु दर्शनों से मानता मैं तो यही ।। अन्यथा ये मर्मभेदी अनर्थ पीड़ा जो सही । तत्र भक्त तो होता कभी भी दुःख का भाजन नहीं ||३७||
जग बन्धु ! ध्याया नाम पावन सुना या दर्शन किया। हो बाह्य द्रष्टा भाव भक्ति हीन बिन निर्मल हिया ॥ यही कारण आजतक मैं दुःख भाजन हो रहा। भाव शून्य क्रिया कभी नहीं सफल शास्त्रों में कहा ||३८||
हे दोन-बन्धी नाथ पालक आप है शरणागता । जितेन्द्रियों में श्रेष्ठ परम कृपालु धाम पवित्रता ॥ सद्मक्ति नत हूँ महेश है। मुझ पर दया दृष्टि करो। संसार दुःख की जड़ उखाड़ो शीघ्र तत्परता करो ||३९||
हे तीन लोक पवित्र कर्ता अशरण शरण हैं आप तो । के चरणावलंबन प्राप्त जन नष्ट करते पापको ॥ दुर्भाग्य में पाकर भी स्वामी ध्यान शून्य सदा रहा। हत कर्म से हूँ खिन्न भगवन् ! अब नहीं जाता सहा ||४०||
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वन्दनीय सुरेन्द्रगण के सर्वज्ञाता आप हैं। संसार तारक सिद्धि दाता तीन जग के नाथ हैं। दुख उदधि में डूबता मेरी सुरक्षा कीजिए। करुणा समुद्र सुदृष्टि कर सुपवित्रता मुझ दीजिए ||४||
हे जिनवरेन्द्र ! अटूट श्रद्धा-प्रेम-भक्ति भाव से। । मुख कमल रोमांच पूरित अनिमिष दृष्टि जमाव से ॥ लक्ष्य पूर्वक भव्य जन स्तवना करें विधि सहित जो। प्रभु बिंब निर्मल शक्ति दाता करे विरहित दुरित जो ॥४३||
हे नाथ ! मैं तब चरण का तुच्छ भक्त हूँ चिरकाल से। यदि भक्ति-संचित-फल मिले माँगं शरण प्रतिपाल से । जन्म-जन्मान्तर में मेरे आप ही स्वामो बनें। और नहीं कुछ कामना यह प्रार्थना मेरी सुनें ।।४२॥
भक्त जन के नेत्र रूपी कुमुद विकसितकार हैं। विमल चंद्र अत्यन्त सुन्दर और रहित विकार हैं ।। स्वर्ग की ऋद्धि अमित वे सम्पदाए' भोग कर।। कर्ममल से रहित सत्वर सिद्ध होवं मुक्ति वर ॥४४||
।। इति श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्र हिन्दी पद्यानुवाद संपूर्णम् ।।
भगवान पार्श्वनाथ व शान्तिनाथ
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क्रोधाग्नि से तो दग्ध हूँ मैं लोभ सर्प डसा मुझे। मान अजगर ने निगल डाला कहं क्या प्रभु तुझे ।। फंसा मायिक जाल में हूँ मोह मुग्ध विकल दशा। कैसे भजू प्रभु आपको हूँ चोर पल्ली में वसा ।।५।।
इह भवे या परभवे नहिं हित किया मैंने कभी। जिससे न पाया त्रिजगपति मैं सुख किंचित भी अभी ।। जन्म मेरा मात्र यों भव पूर्ण करने को सही। अज्ञान वश नर जन्म से भी लाभ कुछ पाया नहीं ||६||
रत्नाकर-पच्चीसी
(हिन्दी पद्यानुवाद)
आनन्ददाता नाथ तब मुखचन्द्र से अमृत झरे । तो भी नहीं मन सिक्त होता भक्ति गंगा से अरे ।। पाषाण से भी कठिन मेरा मन नहीं होता द्रवित । चपलता मर्कट सरिस नहीं हो कभी एकाग्र चित्त |७||
क्रीड़ा भवन मांगल्य के प्रभु मोक्ष लक्ष्मी धाम हो। नर अमर और सुरेन्द्र से पाद-पद्म ललाम हो || सर्वज्ञ द्रष्टा सर्व अतिशय धार आप प्रधान हो। चिरकाल जयवंते रहो सह कला ज्ञान निधान हो ||१||
भव भ्रमण करते काल-लब्धि पा कृपा प्रभु आपकी। दुष्प्राप्य दर्शन ज्ञान चारित्र नाश भव संताप की ।। निद्रा प्रमाद कषाय के वशवर्ती बन कर खो दिया । हे नाथ, कहँ जाकर पुकारू' भूल मैंने ही किया ।।८।।
करुणावतार महान अरु त्रय जगत के आधार हो। धन्वन्तरी दुःसाध्य वारक भव भ्रमण विकार को ।। गत राग प्रभु हो विज्ञ तो भी कहूँ मद्रिक भाव से। हार्दिक सुनें कुछ प्रार्थना मेरी सकरुणा भाव से ॥२॥
विश्व वंचन के लिए वैराग्य रंग प्रदर्शिता । लोक रंजन हेतु शाब्दिक जाल युत उपदेशिता ।। मात्र वाद विवाद हेतु अध्ययन जो कुछ किया। बाह्य साधु स्वांग धारी दंभ पूरित मम हिया ।।९।।
क्या बाल लीला कलित शिशु माता-पिता के सामने । क्रीड़ा न करता और ज्यों त्यों शब्द बोलत मन-मने ॥ त्यों नाथ चरणों में यथास्थित बात पश्चाताप से। आशय निवेदन कर रहा हूँ सरल मन आलाप से ॥३॥
मुख मलिन परदोष भाषण योग से मेरा हुआ। पर-नारि प्रति आकृष्ट होकर नेत्र द्वय दूषित किया । दूसरों का अशुभ चिंतन चित्त कलुषित हो गया। क्या कहूं मेरा भविष्य अंधकार पूरण हो रहा ॥१०॥
दारिद्रय नाशक दान नहिं किया न पाला शील भी। दुर्गति निवारक और तप से दमन इद्रिय का कमी ।। अन्तरात्म में शुभ भावना नहिं की चतुर्विध धर्म की। निष्फल गया भव भ्रमण मेरा नहिं किया सत्कर्म भी ॥४॥
कर रहा है काम राक्षस विड़म्बित विषयान्ध हूँ। हृदय द्रावक मम भयंकर दशा कैसे प्रभु कहूँ ।। सर्वज्ञ प्रभु जानो सभी तो भी प्रकट हूँ कर रहा। त्याग लज्जा नाथ आगे हृदय हल्का कर कहा ||११||
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इस लोक हितकर तुच्छ मंत्रों कुशास्त्रों को चित्त धरी। नवकार और जिनागमों की उपेक्षा मैंने करी॥ असत्संग कुदेव के दुष्कर्म बहु संचय किया। मेरा मतिभ्रम नाथ कंकर पाय रत्न गवां दिया ||१२||
रह काम धेन कल्पतरु चिन्तामणि की खोज में। आसक्त होकर दःख उठाया भवानन्दी मौज में । जिन धर्म जो प्रत्यक्ष दाता मोक्ष सुख का है सही। मुझ मूढ़ता को नाथ देखो, सेवन सुचारु किया नहीं ॥१९॥
दृष्टिगत प्रभु आपको तज अज्ञ मैंने क्या किया। ध्याय मदन को हृदयगत कर कल्पवृक्ष भुला दिया ।। कटाक्ष दृष्टि उरोज नाभि नारी की सुन्दर कटि । शृगार विषय विलास विष आकृष्ट हो देखा अति ।।१३।।
उत्तम गिने भोगों को मैंने रोग सम माने नहीं। धन आगमन इच्छा करी पर निधन आशंका नहीं ।। नरक कारागार सम रमणी है नहिं चिन्तन किया । मधु-बिन्दु तृष्णा में लगा अरु भय सभी विस्मृत किया ।।२०।।
मृगलोचनी के मुख-कमल लावण्यता को देख कर । मानस पटल पर जो लगा है राग लेश विकार कर ।। श्रुत उदधि नीर प्रक्षालते बेदाग होता हो नहीं। कैसे प्रभु इस पाप से रक्षित रहूँ सोचो सही ।।१४।।
संत हृदये स्थान प्राप्ति न की सदआचार से। नहीं यश उपार्जन भी किया कर कार्य पर उपगार के ।। तीर्थ चैत्योद्धार आदि महत् कार्य नहीं किए। भव भ्रमण करते जन्म मानव प्राप्त कर निष्फल जिये ||२१||
नहिं अंग सौष्ठव रत्न गुण समुदय भी किंचित नहीं। उत्तम कला विकसित नहीं, न ज्ञान ज्योति प्रभा कहीं ।।। प्रभुता नहीं है लेश फिर भी हम बड़े संकडी गली। अभिमान की सीमा नहीं है मूंज वट्ट नहीं जली ||१५||
वैराग्य रंग न गुरु वचन से लग सका मेरे हृदय । तब दुष्ट जन की वाणी से होता कहां मन शांतिमय ।। अध्यात्म मार्ग नहीं मिला अधोमुख घट की तरह। संचय हुआ नहीं ज्ञान का तिरना भवोदधि किस तरह ||२२||
आयुष्य क्षय होता है तो भी पाप बुद्धि नहीं गई। वय क्षीण पर मिटती नहीं विषयाभिलाषा लेश भी । यत्न औषधि का करू' पर धर्म आश्रय ना ग्रहूँ। यह महा मोह विडम्बना प्रभु आप बिन किससे कहूँ ।१६।। आत्मा नहीं परभव नहीं फिर पाप पुण्य रहा कहाँ ? नास्तिक्य मिथ्या वचन कटु-रस कर्ण-पुट पीता रहा ॥ ज्ञान सूर्य समान प्रभु से ले सका न प्रकाश भी। ले दीप कुँए में गिरा धिक्कार मुझको सत्य ही ।।१७।।
पूर्व भव नहीं पुण्य संचित अभी भी करता नहीं। आगामी भव साधन बिना प्राप्ति नहीं होगी कहीं ।। तीन भव हे त्रिजगपति यों नष्ट कर बिगड़े समी। अब आश केवल नाथ की बाजी सुधर जाये अभी ।।२३।। हे तीन लोक स्वरूप ज्ञाता, आपके सन्मुख अधिक । क्या कहा जाये मम चरित प्रभु आप जानें काल त्रिक ।। हस्तामलकवत् देखते हैं तीन जग के भाव जो । फिर कहाँ अवकाश है मेरे चरित्र छिपाव को ॥२४||
चित्त शुद्धि से नहीं देव पूजे पात्र उत्तम नहीं चाहा। श्राद्ध धर्म न श्रमण संयम पालने में मन रहा। पाय नर भव रत्न चिन्तामणि समान प्रभु अहो! निष्फल गया जीवन न पाया लांम ही रण रुदन ज्यों । १८||
आपसे बढ़कर न कोई दीन उद्धारक कहीं। मेरे सदृश नहीं पात्र करुणा जनक देखो सब मही॥ नहिं मांगता धन किन्तु लक्ष्मी मुक्ति पुरि रूपी सही। सम्यक्त्व रत्नाकर 'भंवर' को दीजिए विनती कही ||२||
॥ इति श्री रत्नाकर-पच्चीसी हिन्दी पद्यानुवाद संपूर्णम् ।।
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बंगाल के जैन पुरातत्त्व की
शोध में पाँच दिन
वीसौं वर्ष से श्री ताजमलजी बोथरा के साथ बङ्गाल के सराक क्षेत्रों में पुरातत्त्व शोध के हेतु भ्रमण करने का विचार चल रहा था, परन्तु काल-परिपाक के बिना संभव न हो सका। अभी जब समय आया तो न जेठ महीने के कड़े धूप की और न साधन सामग्री की ही अपेक्षा की गई और निकल पड़े एक सीमित समय और क्षेत्र की परिधि में भ्रमणार्थ । हमारे साथ थे अंग्रेजी 'जैन जर्नल' व बङ्गला 'श्रमण' के सम्पादक श्री गणेश जी ललवानी। हम सर्वप्रथम ता० २३ मई की रात्रि में रवाना होकर ता० २४ के ऊषः काल में विष्णुपुर पहुंचे । गाड़ियों के लेट चलने से हमें काली रात्रि नहीं ऊषःकालीन प्रकाश अनायास ही उपलब्ध हो गया । हम लोग रिक्शों द्वारा सीधे श्री रामपद मण्डल नामक सराक भाई के यहाँ पहुँचे । शौच स्नानादि से निवृत्त होकर रिक्शों पर हम लोग द्वारकेश्वर नदी के लम्बे कछार को पार कर धरापात नामक स्थान में पहुंचे। मार्ग में कई शिवालयादि देव मन्दिरों का समूह दृग्गोचर हुआ जो केवल एक गर्भगृह-शिखरी थे और उनके प्रवेश द्वार की चौड़ाई अत्यन्त संकरी रखने की प्रथा देखने में आई। धरापात
में हमें जो मन्दिर देखना अभीष्ट था, देव प्रतिमा से विहीन और एक ब्राह्मण ठाकुर (पुजारी) का आश्रय स्थान -सा हो रहा था । प्रस्तुत मन्दिर के बाह्य भाग में तीनों ओर ताकों में विशाल प्रतिमायें विराजित थीं जिनमें पृष्ठ भाग वाली में भगवान ऋषभदेव-आदिनाथ, वामपक्ष से प्रदक्षिणा . करते प्रथम शान्तिनाथ भगवान और अन्त में तीसरे आले में जेनेतर प्रतिमा लगी हुई थी। ये दोनों जिन प्रतिमायें लगभग हजार-बारह सौ वर्षों जितनी प्राचीन अवश्य ही थीं। इस मन्दिर के ठीक पीछे सड़क के पास एक और मन्दिर था जिसमें भगवान पार्श्वनाथ की एक सप्तफण मण्डित खनासन प्रतिमा विद्यमान थी । इन क्षेत्रों में जहाँ भी जिन प्रतिमायें हैं, उन्हें कहीं नेंगटेश्वर शिव, कहीं भैरव और कहीं अन्यान्य नामों से पुकारते हैं। इन सभी प्रतिमाओं में मूलनायक तीर्थङ्कर में मूलनायक तीर्थकर लांछन एवं परिकर में अन्य प्रतिमाएं उत्कीणित हैं । पहले की दोनों प्रतिमाओं के परिकर में चौबीस तीर्थङ्कर उभयपक्ष में अवस्थित हैं जबकि भगवान् पार्श्वनाथ के परिकर में बाद में महाप्रातिहार्यों के अतिरिक्त विष्णु प्रतिमा निर्माणार्थ दो हाथ और खोद कर बना दिये हैं।
धरापात से लौटकर हम लोग विष्णुपुर आये और भोजनोपरान्त बस द्वारा औंधा पहुँचे । वहाँ उतरने के लिये पूछने पर नाम साम्य से भ्रान्त सहयात्रियों के कहने पर हम कई मील आगे चले गये, जहाँ से एक दूसरे गांव 'बेलारा' जाने का मार्ग था । रेलवे क्रॉसिंग पर प्रतीक्षा करते दूसरी गाड़ी के आने पर हमलोग वापस औंधा आए । वहाँ हमें दो रिक्शे मिले जिन्हें मुंहमांगे चौदह रुपयों में भाड़ा करके हमलोग बहुलारा गाँव की और बढे व वक्षों के झरमुट वाले गाँव के बाहर एक बहुत ही ऊँचे शिखर वाले कलापूर्ण मंदिर के विशाल अहाते में पहुंचे । यहाँ का शिल्प प्रशंसनीय है और स्थापत्य शैली को देखकर भुवनेश्वर आदि उत्कल प्रान्तीय मन्दिरों की स्मृति ताजी हो
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जाता है । हम सर्वप्रथम पुरातत्त्व विभाग के अधीन 'रासमंच' नामक स्थान में गये । कहा जाता है कि रास के विशेष अवसर पर समस्त मन्दिरों के विग्रह यहाँ लाये जाते थे, परन्तु इस 'रासमंच' स्थान की निर्माण शैली ऐसी विचित्र है कि इतने विशाल पिरामिड आकृति वाले इस स्थान में स्तम्भ बाहुल्य तीन जगती के अन्तराल में सर्वत्र दर्शन दुर्लभ होते हैं । इसका सन् १५८७ ई० के आस-पास वीर हम्मीर नामक मल्ल राजा ने निर्माण करवाया था। इस मन्दिर के सामने एक अहाते में दल-मादल नामक विशालकाय अद्भुत तोप रखी है जो सन् १७४२ की बनी हुई है । इस कमान का वजन ३०० मन है और यह साढ़े बारह फुट लम्बी है । इसका मुहाना १ फुट का है और बनाने में एक लाख रुपये लगे थे। सन् १७४२ में जब मल्ल राज्य पर मराठों ने आक्रमण किया तब यही तोप उनकी रक्षा में काम आती थी।
जाती है। इसके आस-पास कभी छोटे-छोटे दूसरे मंदिर भी थे जो अब ध्वस्त हो चुके हैं। नीचे की तरफ कुछ चौरस और गोल चौकियाँ बनी हुई हैं जो किन्हीं ध्वस्त स्तूपों के प्रतीक हों, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। इस मन्दिर के चतुर्दिक शिल्पाकृतियाँ उत्कीणित हैं। मन्दिर के मध्य में शिव मूर्ति है । सामने वेदी पर तीन प्रतिमायें हैं । मध्यवर्ती प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की है जिसे वहाँ वालों ने 'अनन्तदेव' की प्रतिमा बतलायी । मालूम देता है कि कभी वहाँ अनन्तदेव गोत्रीय सराकों की बस्ती रही होगी। यह पार्श्वनाथ प्रतिमा अष्ट महाप्रातिहार्य और धरणेन्द्र पद्मावती युक्त है । ऊपर सप्तफण और पृष्ठ भाग में भी सकृिति है । परिकर में उभयपक्ष में अष्टग्रह की प्रतिमायें स्पष्ट निर्मित हैं । बङ्गाल और बिहार की सहस्राब्दि पूर्ववर्ती मूर्तिकला में नव ग्रहों के आकार स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। राजगृहवैभारगिरि के खण्डहर स्थित प्रतिमा के परिकर में ऐसी ही नवग्रह प्रतिमायें हैं जिनकी वेशभूषा हमें कुषाणकालीन समय तक ले जाकर खड़ा कर देती हैं, जबकि परवर्ती काल में पश्चिम भारत मे वे केवल सूक्ष्म चिह्न मात्र पंचतीथियों में अवशिष्ट रह गये थे। भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा के निम्न भाग में धरणेन्द्र पद्मावती है और मृत्ति-निर्मापक दम्पत्ति-युगल की चैत्यवन्दना करती हुई प्रतिमायें तो प्रायः सभी तीर्थकर प्रतिमाओं में उपलब्ध हैं । यह मन्दिर पुरातत्त्व विभाग के अधीन है।
बहुलारा से वापस आते औंधा होकर विष्णुपुर पहुँचते-पहुंचते भगवान अंशुमाली अस्ताचल पर जा खड़े हुए । हमने रात्रि में रामपद मण्डल के घर में विश्राम किया और प्रातःकाल विष्णुपुर के ऐतिहासिक स्थानों की शोभा देखने के लिये निकल पड़े।
विष्णुपुर इस समय बाँकुड़ा जिले में है । मध्यकाल . में यह स्थान मल्लभूमि की राजधानी थी और आज भी दुकानों के साइनबोडौँ में अनेकशः यह नाम देखा
विष्णुपुर के अनेक मन्दिर बड़े ही सुन्दर शिल्पाकृति वाले बङ्गाल की अद्भुत कला-शैली से युक्त हैं। जिस प्रकार आबू के जैन मन्दिरों में प्रस्तर भास्कर्य अपनी सूक्ष्मता की पराकाष्ठा के प्रबल प्रतीक हैं उसी प्रकार यहाँ के मन्दिर अपने टाली भास्कर्य निर्माण के लिये वेजोड़ और अद्भुत है । राधा - माधव का मन्दिर सन् १७३७ में राजा कृष्णसिंह की पत्नी रानी चूड़ामणि देवी ने बनवाया था। यहाँ से लाल बांध नामक विशाल जलाशय को देखने गये। इसके पास सर्वमङ्गला देवी का मंदिर है । जव स्वामी रामकृष्ण परमहंस यहाँ दर्शन करने आये, तब उन्हें भाव समाधि हो गई थी। लाल बांध से आते समय एक टेकरी पर 'गुमगढ' नामक स्थान दष्टिगोचर हुआ जो गवाक्ष-द्वारादि से विहीन विचित्रता युक्त था। कहा जाता है कि मल्ल राजा लोग लट का माल इसी स्थान में सुरक्षित रखते थे।
श्यामराय का मन्दिर सन् १६४३ ई० में रघुनाथ
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करोत विरहिणी के विरह की भाँति जाते-आते दोनों तरफ काटता ही रहता है । विष्णुपुर के ताँती लोग वस्त्र वुनते हैं. ठठेरे-कसेरे बर्तन बनाते हैं । यहाँ सराक बन्धुओं के लगभग ३० घर होंगे। सराकों के घरों में खड्डियाँ लगी हैं और वे सूत-वस्त्रादि का व्यवसाय करते हैं।
सिंह ने निर्माण कराया था। आश्चर्य तो यह है कि इतने विशाल मन्दिर में कहीं इंच भर भी जगह शिल्पाकृति से रिक्त नहीं छोड़ा । जोड़ा शिव मन्दिरकृष्ण बलराम मन्दिर रघनाथसिंह द्वितीय द्वारा स्थापित है। जोड़ बङ्गला मन्दिर भी प्रशस्त कोरणी युक्त है। इसकी छत का निर्माण दो संलग्न दुचालों वाले बङ्गले की भाँति है । राधा-श्याम मन्दिर सन् १६५८ में राजा चतन्यसिंह द्वारा प्रतिष्ठापित है । विभिन्न पौराणिक और अवतार चरित्रादि की शिल्प समृद्धि अत्यन्त प्रेक्षणीय है । सन् १६५८ में लाल जी मन्दिर की प्रतिष्ठा राजा श्री वीरसिंह ने करवाई थी।
सतरहवीं शती के उत्तरार्द्ध में राजा वीरसिंह ने पत्थरों द्वारा प्रवेशद्वार का निर्माण करवाया, दुर्ग-प्रवेश के लिये पूर्वकाल में यही एक प्रवेश द्वार था। आगे चलने पर एक प्रस्तरमय तिमंजिला रथ आता है। प्रस्तरमय रथ की प्रथा बङ्गाल, बिहार, उड़ीसा के अतिरिक्त सुदूर मैसूर राज्य के हम्पी तक में पाई जाती है। हम्पी का रथ वड़ा ही सन्दर है और इसी प्रकार कोणार्क का भी । रथयात्रा की प्रथा एक ऐसी प्राचीन प्रथा है जिससे लोगों को घर वैठे भगवान् के दर्शन हो जाते थे। वसुदेव हिण्डी नामक प्राचीन महत्वपूर्ण जैन ग्रन्थ में इसे अति प्राचीन काल से चली आयी परम्परा बतलायी गयी है।
मदनमोहन मन्दिर की प्रतिष्ठा सन् १६९४ में राजा दुर्जनसिंह ने करवाई थी। यह भी बङ्गाल की तत्कालीन टाली की कोरणी ( Terracota) का सुन्दर नमूना है। मल्लेश्वर शिव मन्दिर का निर्माण भी सन् १६२२ में वीर हम्मीरसिंह ने करवाया था।
विष्णपुर में शंख-शिल्पियों का काम भी खूब जोरों पर है। सैंकड़ों घर इसी व्यापार-उद्योग से अपने परिवार का पालन करते हैं। शंख को प्रस्तर-शिलाओं पर घिस कर अर्द्ध-चन्द्राकार क्रकच (करोत) से अंगूठी. सांखा, चूड़ी आदि विविध प्रकार की वस्तुए' तैयार करते हैं। शंख का
विष्णुपुर से ता०२५ शुक्रवार को हम लोग बस द्वारा बाँकुड़ा आये। जिले का मुख्य नगर होने से बाँकुड़ा एक बहुत बड़ा नगर है। सुख-सुविधापूर्ण मारवाड़ी धर्मशाला, नूतनगंज में ठहरे और बीकानेर के ही एक अनुभवी सहृदयी ब्यासजी के सुप्रवन्ध में दो दिन रहे । भोजनोपरांत जीपलेकर वहाँ से हम हाड़मासरा गये । वहाँ गाँव के अन्त में एक पत्थर के शिखरयुक्त छोटा मन्दिर देखा जिसमें वल्मीक के ढेर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। इनके पीछे जङ्गल में एक पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा खड़ी थी. जिस पर ग्राम्य-जन कभी-कभार सिन्दूर आदि की टीकी लगा देते होंगे। पर आश्चर्य है कि एक दुकानदार ने हमें जैन मन्दिर बतलाते हुए इस स्थान पर पहुंचा दिया। बहुलारा वाली प्रतिमा की माँति इस प्रतिमा के परिकर में अष्टग्रह, महाप्रातिहार्य, धरणेन्द्र-पद्यावती और बिम्ब निर्माता युगल की सुरुचिपूर्ण कलाभिव्यक्ति प्रेक्षणीय थी। हाडमासरा से हम लोग जीप में तत्काल लौट आये।
दूसरे दिन ता० २६ को प्रातः काल हम रिक्शा द्वारा वाँकुड़ा धर्मशाला से 'इकतेश्वर महादेव गये। वहाँ इसकी वड़ी ख्याति है। मन्दिर के बाहर नारियल, प्रसाद, मिष्ठान्न की दुकानें हैं और पण्डे लोग खड़े रहते हैं। मन्दिर में कुछ सीढ़ियाँ उतरने पर तल घर में जमीन पर रहे हुए एक स्वाभाविक त्रिकोण से लम्बे पाषाण-खंड के दर्शन हुए। कहा जाता है कि यहाँ भगवान शंकर का यही रूप है। इस चमत्कारी स्थान पर भक्त लोग 'धरणा देकर सो जाते है और अपने कार्यसिद्धि का वरदान पाकर ही लौटते हैं. ऐसा भी कहा जाता है।
वाँकुड़ा से बस द्वारा हम गौरावाड़ी गये। वहाँ से
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कंसावती नदी के तट पर बंधे हुए बाँध के पास पारसनाथ नामक गाँव था। गाँव के स्थान पर सरकार की ओर से बाँध का काम चालू था, इसीलिए गाँव वालों के कथनानुसार हमें आशा थी कि वहाँ जाने के लिये सरकारी ट्रकों द्वारा जाने-आने की सुविधा मिल जायेगी पर जब हम गौरावाड़ी की कालोनी में उतरे, सभी आफिस शायद शनिवार या अन्य किसी कारण से बन्द थे। हमें एक विद्यार्थी
और एक महिला का अच्छा साथ मिल गया जो अपने-अपने गाँव जा रहे थे। हम पैदल ही उनके साथ चल पड़े। मध्याह्न का समय था । विद्यार्थी ने हमें तीन चार मील साथ चलकर जहाँ बाँध का सरकारी आफिस था. पहुँचा दिया और उसने अपने गाँव का मार्ग पकड़ा।
बाँध के पास पहाड़ी र्ट ले पर सरकारी आफिस था। पारसनाथ गाँव का तो नाम शेष हो गया पर वहाँ आफिस के पृष्ठ भाग में हमने एक शिव मूर्ति, नन्दी और कुछ प्रस्तर खण्ड देखे । इसी पहाड़ी पर भगवान् पार्श्वनाथ की एक विशाल प्रतिमा के बारे में जो दो टुकड़ों में विभक्त थी, वहाँ वालों ने हमें बतलाया । यह प्रतिमा परिकर में चौबीसी प्रतिमायें, बिम्ब निर्माता युगल और धरणेन्द्र-पद्मावती युक्त थी। सिंहासन में सिंह और हंस के आकार मी परिलक्षित थे । वहाँ के आफिसरों के साथ उस प्रतिमा के फोटो लिये और एक मार्ग बताने वाले मजदूर को साथ लेकर हमने अम्बिका नगर का मार्ग पकड़ा। जाते समय तो कड़कड़ाती धूप में कहीं-कहीं ही क्षणिक बादलों की छाया मिल पाती थी किन्तु लौटते समय सारा आकाश मेघाच्छन्न हो गया और जोरों से तूफान चलने लगा । हम तूफान की शीतल हवा का आनन्द लेते हुए शीघ्र गति से चलते रहे पर जव बर्षा प्रारम्भ हुई तो हमें सड़क के पास ही एक ग्राम्य स्कूल का बरामदे वाला खाली कमरा मिल गया, जिसमें हमने तत्काल आश्रय ग्रहण कर लिया । पाँच दस बटोही और भी आकर बैठ गये । यह तो संतोष की बात थी। यदि जंगल में यह स्थान
न मिलता तो बड़ी दुर्दशा होती, अस्तु । जब वर्षा तूफान बन्द होकर आसमान साफ हो गया तो हम लोग कंसावती और कुमारी नदी के संगम पर बसे अम्बिकानगर में नदी को पार कर जा पहुंचे ।
अम्बिकानगर, अम्बिका देवी के मन्दिर के कारण प्रसिद्ध है। मन्दिर के पुजारी महोदय को हमने बुलवा कर मन्दिर खुलवाया । इसके शिलालेख से विदित हुआ कि इस मन्दिर का जीर्णोद्धार सन् १३२० में ता०१६ फाल्गुण को राजा राइचरण धवल ने रानी लक्ष्मीप्रिया देवी की स्मृति में कराया था । वस्त्र परिधान युक्त देवी के स्वरूप प्रतिमा लक्षणादि का हम ठीक-ठीक आकलन न कर सके पर यह खड़ी हुई मूत्ति है और जैन शासनदेवी अम्बिका मूर्ति से अभिन्न कथंचित् भिन्न शैली की परिलक्षित हुई ।
___ अम्बिकानगर में अम्बिका मन्दिर के पृष्ठ भाग में एक जन मन्दिर अवस्थित है. जिसमें थोड़ा अन्धेरा पड़ता था पर उसमें प्रतिष्ठित-अवस्थित भगवान आदिनाथऋषभदेव स्वामी की सपरिकर प्रतिमा अत्यन्त सुन्दर है। प्रभु के पृष्ठ भाग में तोरण हैं जो समवसरण के तोरण का प्रतीक है और प्रभामण्डल भी कलापूर्ण है ! भगवान के मस्तक पर जटा केशविन्यास अत्यन्त सुन्दर है । सिंहासन के नीचे वृषभ लांधन स्पष्ट है। प्रभु प्रतिमा प्रायः करके अखण्ड और अत्यन्त मनोज्ञ है । अम्बिका मन्दिर के दाहिनी ओर चौकी पर कुछ शिल्पाकृति-गोवर्द्धन और कुछ लिपि वाला प्रस्तर भी पड़ा था। हमें जल्दी लौटना था अतः अम्बिकानगर के मिष्ठान्न भण्डार से कुछ मिष्ठान्न और जल लेकर हम नदी पार होकर बाँकुड़ा जाने वाली बस में आकर बैठ गये । यथासमय बाँकुड़ा पहुँचकर धर्मशाला में निवास किया ।
बाँकुड़ा की धर्मशाला बड़ी विशाल है। रहने की सब प्रकार की सुविधाएं है। सोने के लिये खटिया उपलब्ध हो जाती है. जिसकी आमदनी से पारावत-कबूतरें दाना चुगते हुये निर्माताओं. अनुमोदकों, व्यवस्थापकों की पुण्य
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वृद्धि करते हैं । धर्मशाला की दीवारों पर सैकड़ों सुभाषित
और शिक्षाप्रद दोहे श्लोक लिखे हुये हैं जो बड़ी प्रेरणा- दायक सुरुचिपूर्ण पद्धति में है ।
बाँकुड़ा से दूसरे दिन प्रातःकाल रवाना होकर हम रेल द्वारा इन्द्रबीला पहुँचे और स्टेशन से अनतिदूर स्थित महाल कोक नामक गाँव में गये । यहाँ हमारे पूर्व परिचित जयहरि श्रावक का निवास स्थान है। ये सराक भाई सुसंस्कृत और जैन शिक्षा-दीक्षा से सुपरिचित होने के साथसाथ राजस्थान, वङ्गाल. विहार, महाराष्ट्र. गुजरात और उत्तरप्रदेशादि के सभी जैन तीर्थों में घूमे हुए हैं और जैन धर्म के प्रचार कार्य व साधुजन सेवा में ही इनकी रुचि रही है। कई वर्ष पूर्व जब यहाँ से निकटवर्ती तालाजुड़ी गाँव में भगवान आदिनाथ स्वामी की पद्मासनस्थ प्रतिमा तालाव के पाल पर प्रगट हुई थी, उस समय मैं श्री ताजमल जी साहब बोथरा के लघु भ्राता श्री हनुमानमल जी बोथरा के साथ यहाँ आया था और इन्हीं के यहाँ प्रेमपूर्ण वातावरण में ठहरकर तालाजुड़ी जाकर प्रभु दर्शन किये । अब यह प्रतिमा श्री ताजमल जी बोथरा एवं अवस्थ सराक बन्धु के प्रयत्न से कलकत्ता आ गई है और बड़े मंदिर में विराजमान है । महाल कोक में कुल ३० घरों की छोटीसी साफ-सुथरी वस्ती है जिसमें १२ घर सराकों के हैं। यहाँ एवं इधर के कई गावों में हिन्दुओं के घरों की दीवार पर चारों ओर एक काली-सी धारी-पट्टी दृष्टिगोचर होती है जो रोहण-मनसा पूजा का प्रतीक बतलाया जाता है । सराक लोग जैन धर्माचार विस्मृत होकर बंगाल के देवी पूजा आदि को मान्य करने लगे हैं पर शताब्दियाँ वीत गईं. जैन सम्पर्क छूट गया फिर भी खान-पान में शुद्ध निरामिष भोजी संस्कार आज भी विद्यमान है।
उचित समझ हम उनके यहाँ एक दिन और एक रात्रि का आतिथ्य ग्रहण कर रेल द्वारा आद्रा आये। रेल लेट होने से पूंचा जाने वाली वस निकल चुकी थी अतः तीन घण्टों की प्रतीक्षा कर दूसरी वस में बारह बजे 'पूंचा' गाँव आये । यहाँ से दो-ढाइ मील दूर पाक वड़रा है। हमें तो वहाँ जाकर तत्काल लौटना था, क्योंकि ढाई बजे की वस निकल जाने से हमें फिर एक अहोरात्र वहीं रहना पड़ता। अतः अपना सामान वहीं सुनील ठाकुर नामक सज्जन की दुकान में रख कर शीघ्र गति से पाकविड़रा पहुँचे । उस दिन वहाँ मेला होने से ग्राम्य-जन सैकड़ों की संख्या में एकत्र थे । मदोन्मत्त स्त्री-पुरुषों के समूह अपने गले में ढोल-ढक्कादि वादित्र वजाते हुए नाच रहे थे । वे लोग जिनेश्वर भगवान् की प्रतिमाओं को भैरव मानकर पूजते थे। पाकविडरा की सभी प्रतिमायें और भग्नावशेष एक ही अहाते में रखे हुए थे. जिसमें प्रविष्ट होने पर आसानी से दर्शन किया जा सकता था। इसमें अवस्थित सभी जिन प्रतिमायें अव्यवस्थित ढङ्ग से पड़ी थी। ७ फुट ऊँची खङ्गासन स्थित श्री पद्मप्रभु स्वामी की प्रतिमा-जिसका परिकर नहीं था, केवल उभयपक्ष में चामरधारी इन्द्र अवशिष्ट थे: प्रभु लांछन भी पूजन-सामग्री से ढक जाने से दृष्टिपथ लुप्त था-के दर्शन किये जो ग्राम्य-जनों के पूजनकेन्द्र थे।
पाकविरा के इस स्थान में तीन चार मन्दिर आज भी खड़े हैं पर वे खाली पड़े हैं और अखण्डित-खण्डित सभी अवशेष इसी अहाते में लाकर रख दिये गये हैं। यहाँ कतिपय विभिन्न शैली और विधाओं की प्रतिमायें दृष्टिगोचर हुईं। भगवान् आदिदेव, ऋषभ प्रभु की पाँच प्रतिमायें हैं जिनमें दो चौबीस तीर्थकरों की प्रतिमा परिकर युक्त हैं । एक पंचतीर्थी परिकर युक्त और दो खण्डित हैं, जिनमें से एक के तो दो खण्ड हुये पड़े हैं। भगवान महावीर की दो प्रतिमायें हैं जिनमें एक पंचतीर्थी
हमारा उद्देश्य था कि भाई जयहरि को साथ लेकर पाकविरा आदि उधर के प्राचीन जैन खण्डहरादि स्थानों में घूम कर जैन-अवशेषों का अध्ययन करें पर वे स्वयं उस तरफ गए हुए नहीं थे, अतः उन्हें कष्ट न देना
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परिकर, तोरण, भामण्डलादि प्रातिहार्य युक्त है। यहाँ की प्रतिमाओं के तोरण ऊपरि भाग में न होकर प्रभु के पृष्ठ भाग में सांची तोरण की भाँति हैं । अम्बिका नगर की ऋषभदेव प्रतिमा का तोरण इसी प्रकार का है । दूसरी प्रतिमा के परिकर में अष्टग्रह प्रतिमायें विद्यमान हैं। अम्विका देवी की एक खड़ी हुई प्रतिमा है एवं तीन प्रतिमाएं वृक्ष युक्त हैं। जिनमें एक में ऊपरि भाग में जिन प्रतिमा. वृक्ष के नीचे यक्ष-यक्षिणी और निम्न भाग में सप्त ग्रह मूर्तियाँ हैं। दूसरी प्रतिमा के निम्न भाग में सिंहासन के नीचे दो कलश बने हुए हैं. जिनकी रचना शैली वङ्गाल के कलशों से अभिन्न है । तीसरी प्रतिमा भी वृक्ष तल में यक्ष-यक्षिगी वाली है। एक शांतिनाथ स्वामी की खण्डित प्रतिमा है जिसमें प्रभु का लांछन हरिण स्पष्ट परिलक्षित है। एक तीर्थंकर प्रतिमा
और एक चतुर्विशति तीर्थङ्कर प्रतिमा है। एक चौमुख मन्दिर सर्वतोभद्र और एक चतुमुख स्तूप भी इन प्रतिमाओं के मध्य में विद्यमान हैं।
की गोद में बालक भगवान् को दिखाया गया है । लगभग ३१ वर्ष पूर्व क्षत्रियकुण्ड लछुवाड़ की धर्मशाला में मैंने एक काली पाषाण की लेख सहित पन्द्रह सौ वर्ष से भी प्राचीन प्रतिमा त्रिशला माता और गोद में भगवान् महावीर की देखी थी जो कुछ दिन बाद ही वहाँ से गायब हो गई । शिल्प शास्त्र और मूर्ति विज्ञान के विद्वान इस पर विशेष प्रकाश डालें । जंबू वृक्ष, शाल्मलि वृक्ष आदि पर शाश्वत जिन बिम्बों का उल्लेख है, जिनके भी शास्त्रों में वर्णन मिलते हैं। हमारे संग्रह में एक-दो सौ वर्ष प्राचीन सुन्दर चित्र में वृक्ष पर अर्हन्त प्रतिमा और सामने चतुर्विध संघ, पूजोपकरण लिये भक्तादि दिखाये हैं, पर वह भाव भी किस हेतु का है, विचारणीय है ।
वस्तुतः वङ्गाल का प्राचीन धर्म ही जैनधर्म था । वङ्गाल में यत्र-तत्र सर्वत्र जैन अवशेष ही पाये जाते हैं। हमें इन स्थानों में कहीं भी बौद्ध प्रतिमायें दृष्टिगोचर नहीं हुई। इन विभिन्न शैली और कलात्मक प्रतिमाओं का अध्ययन समय सापेक्ष है । हम तो वहाँ केवल पन्द्रह मिनट ही रुके थे । जिन प्रतिमा निर्माण शैली का प्रवाह सर्वत्र व्याप्त था । ऐसी प्रतिमायें बिहार में भी देखने में आई है।
पाकविड़रा से हम दो बजे पूंचा पहुँच गये और वस में बैठकर सीधे पुरुलिया स्टेशन आ पहुँचे । यद्यपि श्री ताजमल जी साहब और भी स्थानों में चलना चाहते थे और तीर्थाधिराज श्री सम्मेद शिखर जी की यात्रा करने की प्रबल भावना भी थी पर मौसम और मार्ग-प्रतिकूलता ने हमें कलकत्ता लौटने को बाध्य कर दिया ।
यहाँ मैंने जिन यक्ष-यक्षिणी प्रतिमाओं का उल्लेख किया है वस्तुतः यह निर्णय नहीं, कई विद्वानों ने इन्हें भगवान् के माता-पिता और कइयों ने यक्ष-यक्षिणी माना है पर मेरे विचार में यह विधा अभी विचारणीय है अतः स्त्री-पुरुष जोड़ी कह सकते हैं। माता-पिता की प्रतिमा वृक्ष के नीचे हो और वृक्ष पर अर्हन्त प्रतिमा हो, यह वात तर्कसङ्गत नहीं लगती। भगवान् की माताओं की मूर्तियाँ 'चतुर्विशति जिन मातृ पट्टक' बीकानेर, जैसलमेर आदि अनेक स्थानों में विद्यमान हैं पर उनमें माता
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जैन चित्रकला
मानव संस्कृति में प्रारम्भ से ही मन की शक्ति प्रवणता के कारण कल्पना सृष्टि के उन्मेष विस्तीर्ण होने का अवसर सुलभ था । उसके मस्तिष्क में सर्वप्रथम पट, रंग और तूलिकादि उपादान विहीन कल्पना चित्र उभरे । प्रकृति ने उसे विविध रंग दिये, अंगुलियों ने आकाश प्रदेश का अशेष पट प्राप्त किया । भगवान के गुण वर्णन में भी वह अनन्तता की अभिव्यक्ति करने के हेतु ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करने लगा, जो कि निम्न दोहे से स्पष्ट हैगयणंगण कागल करूं, सायर कर मसिपात । मेरुगिरी की लेखनी, तुहि गुण लिख्या न जात ॥
प्रस्तुत कल्पना शब्दालेखन की है न कि चित्रांकन की। कल्पना चित्रों को साकार रूप देने में प्रकृति, भौतिक वस्तुए, प्राणी जगत् और आलोक अद्भुत छाया एवं पंच वर्ण के बादलों में उभरती हुई विविध आकृतियों ने भी बड़ा योगदान दिया । इन्हीं आधार शिला पर घटनाए और भाव प्रधान अभिव्यक्तियाँ चित्रित हुई। कतिपय गुफाओं के आदिकालीन चित्रों में प्राणी जगत के साथ-साथ शिकार आदि घटनाओं का चित्रण पाया जाता है। लोकचित्र शैली इन्हीं गुफाओं में हम देखते हैं किन्तु इनका प्रारंभिक रूप गृहाङ्गण, गृहद्वार और भित्ति दीवालों पर रंगोली मृतिका रंग के रूप में आया जो कि
एक पर्व में बनते और दूसरा पर्व आने पर स्वाभाविक रूप से नष्ट हो जाते या उसे लीप-पोतकर नव निर्माण कर दिया जाता । गुहा चित्रों के विकास में आगे जाकर कुछ सधी हुई तूलिका और रंग विन्यास का उन्नयन हुआ। प्राचीन साहित्य के आलोड़न से हम उसके साकार रूप धारण करने की कथा-वस्तु पर विमर्श करेंगे। तो वह भी मनोवर्गणा के पर्यायों से संपृक्त प्रतीत होगी। किसी वस्तु विशेष को देखकर मन पर दबाव पड़ता है
और स्मृति के परत खुलते जाते हैं। ऐसी स्थिति में मानव अपने शरीर निर्माण से पूर्व की स्थिति को भी स्मृति पटल पर लाने में सक्षम हो जाता है जिसे जैन शैली में जाति स्मरण ज्ञान कहते हैं। उस अवस्था में उसे अपने पूर्व जन्म के वृत्तिन्त फिल्म की भाँति साकार हो जाते हैं । यह भी एक विशिष्ट स्थिति है। इसके माध्यम से भी चित्रकला को साकार होने में प्रश्रय मिला । आदिनाथ चरित्र में ललितांगदेव और स्वयंप्रभा देवी का रूप जाति-स्मृति द्वारा साकार होने पर अपने पूर्वजन्म देवलोक के साथी को खोजने के लिये चित्रपट का आश्रय लिया जाता है। जैन रामायण में नवकार मंत्र सुनाने वाले सेठ के साथ वृषभ का जीव राजा होकर अपना चित्र जिनालय के शिल्प में साकार कराके अपने उपकारी की पहचान प्राप्त करता है । तरंगवती मी पूर्व जन्म की जाति-स्मृति द्वारा चित्रपट आलेखन कर उसी के माध्यम से अपने प्रियतम को प्राप्त करती है। एक अन्य कथावस्तु में वृक्ष पर निवास करने वाले शुक के जोड़े को दावानल में दग्ध भाव की भवान्तर में चित्राङ्कन द्वारा स्मृति करायी जाती है। भगवान मल्लि के चित्र भाई के महल में चित्रकार द्वारा निर्माण से प्रताड़ित चित्रकार द्वारा नवनिर्माण की कथा पर्याप्त प्रसिद्ध है । प्राचीन साहित्य में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं । मंखलीपुत्र गोशालक जिस जाति का था वे चित्रपट दिखाकर ही अपनी आजीविका चलाया करते थे। बाद में उसकी आजीविका अष्टांगनिमित्त के
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आश्रित हो गई। वह आजीवक कहलाता था ।
किसी भी साधारण या सर्वोत्कृष्ट काल-वैभवपूर्ण स्थापत्य का निर्माण करने के लिए पहले उसके चित्र निर्माण द्वारा ही सारी रूप-रेखा निर्णित की जाती है अतः इस दष्टिकोण से शिल्प-स्थापत्य कला की जननी भी चित्रकला को मानना समीचीन होगा। समस्त प्रकार के यान्त्रिक उपादान और टंकशाल की मुद्राए व संचे सभी चित्रकला के आभारी हैं।
जैनागमों के परिशिलन से चित्रकला की तत्कालीन स्थिति बड़ी विकसित मालम देती है । चित्रकला सामग्री में चित्र निर्माण योग्य तूलिका और रंगों के उपयोग का विशद् वर्णन पाया जाता है। सर्वप्रथम चित्रयोग्य भूमि को तैयार करने में भित्ति, कागज, वस्त्रादिको को घोटाई करके दर्पण की भाँति प्रतिविम्ब दर्शी बनाया जाता था। एक कथा में चित्रकार ने केवल भित्ति की घोटाई पर्दे की ओट में की । सामने की दीवाल का चित्रकार अपना सम्पूर्ण चित्र निर्माण कर चुका था। राजा ने चित्रकार को इस अप्रत्याशित विलम्ब के लिये उलाहना दिया कि अभी तक चित्रांकन प्रारंभ ही क्यों नहीं हुआ। उसने परदा हटाया तो दर्शक इस बात पर विस्मित हो गये कि सामने की दीवार का चित्र इसमें पूर्णतया प्रतिविम्बित है। रंगों के निर्माण विपराक ऐसी ही वात प्रसिद्ध है कि ताजमहल में पत्थर पर म.ने का कार्य करने वाला एक कलाकार महीनों तक रंग की घोटाई करता रहा । जव उसे इसके लिये उलाहना मिला तो स्वाभिमानी चितेरे ने रंग को कुण्डी को उठाकर पत्थर पर दे मारा। सारा रंग उसपर गिर गया । बाद में देखा गया कि वह रंग पत्थर में खूब गहराई तक जा पहुँचा था।
कि वह द्विपद, चतुष्पद और वृक्षादि के एक भाग को देखकर परिपूर्ण चित्रालेखन करने में सक्षम था । आवश्यक चूणि में एक ऐसे नटपुत्र का उल्लेख है जिसने क्षिप्रातट की बालुका पर अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से एक बार देखी हुई उज्जयिनी नगरी का मानचित्र आलेखित कर डाला था।
वहत्कल्प भाष्य में निदोष और सदोषचित्र कम बतलाये हैं उनमें वक्ष, भवन, पर्वत, नदी, लता-वितान एवं स्वस्तिकादि मांगलिक पदाथों के चित्र निर्दोष एवं स्त्रियों आदि के चित्रों को सदोष कहा है । आवश्यक चूणि में कहा है कि एक परिव्राजिका ने चेटक महाराज की पुत्री सुज्येष्ठा का चित्रफलक महाराजा श्रेणिक को दिखलाया जिससे वह अपनी सुध - बुध भूल गया था । वृहत्कल्प भाष्य पीठिका में भी सागरचन्द्र के कमलामेला के चित्र दर्शन से प्रेम करने लगना उल्लिखित है ।
जैनागमों में वर्णित स्त्री की चौसठ कलाओं में चित्रकला भी एक है। भगवान पार्श्वनाथ के महलों में कथावस्तुजनित भित्ति चित्र बने हुए थे जिनमें भगवान नेमिनाथ की बारात और पशु बाड़े को देखकर उनके वैराग्य प्राप्त अभिनिष्क्रमण के चित्र मावों पर विचार करते ही वे संसार से विरक्त हुए थे। राजा शतानीक की रानी मृगावती के चित्र को देख कर ही मालवपति चण्डप्रद्योत ने उसे प्राप्त करने के लिये ही कौशाम्बी पर आक्रमण किया था । इस कथा सन्दर्भ में यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उस काल में राजमहलों में चित्र समाएँ अवश्य हुआ करती थीं। चित्रकार लोग अत्यन्त कलादक्ष थे जो किसी के शरीर का एक अवयव देख कर उसका सारा चित्र हुबहू अविकल चित्रित कर देते थे। मृगावती के चित्र को बनाने वाले का दाहिना हाथ शतानीक ने कटवा दिया था फिर भी उसने बाँये हाथ से उसका चित्र बनाकर प्रद्योत को दिखाया था।
ज्ञाता धर्म कथा में चित्रांगद की पुत्री वनकमंजरी
ज्ञाता सूत्रानुसार मिथिला के मल्लदत्त ने निष्णात चित्रकारों से हाव-भाव-विलासपूर्ण चित्रकला का निर्माण करवाया था। उसमें एक चित्रकार में इतनी विलक्षणता थी
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द्वारा चित्रित कुट्टम तल का मोर इतना तादृश था कि राजा को उसे हस्तगत करने के लिए हाथ फैलाकर नखक्षत कर लेने के साथ-साथ हास्यपात्र होना पड़ा था। चार प्रत्येक बुद्धों में से दुर्मुखराजा ने स्थपति से चित्रसभा तैयार करवा कर उसमें शुभ महर्त में प्रवेश किया जिसका उत्तराध्ययन सूत्र में वर्णन मिलता है।
राजाओं और वाराङ्गनाओं के रंग महल शृंगार रसपूर्ण वात्स्यायनादि से सम्बन्धित चित्र समृद्धियुक्त विविध प्रकार के भावोत्तेजक हुआ करते थे। कोशा वेश्या की चित्रशाला में चातुर्मास कर निर्विकार रहने वाले महामुनि "स्थूलिभद्रात अपरो न योगी" कहलाये थे।
यद्यपि प्रागैतिहासिक काल और आगमकाल की प्राचीन चित्र समृद्धि के नष्ट हो जाने से आज केवल कुछ आदिवासियों के टेढ़े-मेढ़े अंकन ही कतिपय गुफाओं में द्दग्गोचर होते हैं पर उन चित्रों को सुकुमाल पीछी से नहीं किन्तु स्थपति की छैनी हथौड़ी से उत्कीर्णित विविध विधाएं आज भी पर्याप्त उपलब्ध हैं। भूमि उल्खनन से प्राप्त न केवल टेराकोटा ही अपितु मिट्टी के घड़े आदि पर भी चित्रकलाभिव्यक्ति के विकीर्ण खण्ड यत्र-तत्र मिलते हैं।
पदुकोटा से १० मील यह एक छोटा-सा गांव है। सित्तनवासल अर्थात् सिद्ध व महापुरुषों का निवास स्थान । यह स्थान चारों ओर नार्थमलय पर्वत. पल इयादिपटी. कुदुमीय मलय और कुन्नानद कोईल नामक पर्वतों से घिरा हुआ रमणीक स्थान-छोटा सा गाँव है । सित्तनवासल का गुफामन्दिर तिरुच्चिरापल्ली के निकट है और वहाँ पल्लव कालीन चित्रकला की प्राचीन कलाकृतियाँ विद्यमान हैं। इसका निर्माता महेन्द्र वर्मा प्रथम पल्लव वंशीय राजा था और वह सातवीं शती के प्रारम्भ में हुआ है । नौवीं शती के प्रारम्भ में पाण्डया काल में इन गुफाचित्रों का पुनरुद्धार हुआ था परन्तु इसके पल्लवकालीन चित्रों पर किसी भी प्रकार की इतरपरत नहीं चढ़ी थी। गुफा मन्दिर का एक तमिल भाषा का पद्य लेख मदुरै के जैनाचार्य इलन गौतमन् द्वारा अर्द्ध मण्डप के पुनरुद्धार, अलंकरण और मुख मण्डप के निर्माण का उल्लेख करता है। पल्लव महेन्द्र वर्मा की भाँति पाण्ड्य अरिकेशरी परांकुश भी बाद में शैव हो गया था परन्तु गुफामन्दिरों का सम्बन्ध जैन परम्परा की अविच्छिन्नताओं को प्रकाशित करता है । यहाँ के भित्तिचित्रों में जलाशय के मत्स्य, पशु, पक्षी, कमलनाल युक्त पुष्प और पुष्प चयन आदि के शान्त और भावोत्पादक चित्र बड़े ही मनोज्ञ हैं। कमलनाल, बत्तक, मत्स्य और भैंसों के चित्र बड़े सुन्दर और स्वाभाविकतापूर्ण है। इन चित्रों का रंग और आकृतियाँ सौष्ठवयुक्त हैं। नर्तकी और मुकुटबद्ध राजदम्पत के चित्र बड़े सरल व प्रेक्षणीय करविन्यासयुक्त हैं। कमनीय देहयष्टि वाले प्रमाणोंपेत चित्रों की भावभंगिमा वस्तुतः आकर्षक और उस काल की प्रतिनिधि चित्र कलाभिव्यक्ति है । जैन साधु का एक चित्र केवल शान्त और सादगी का वातावरण इंगित करता है। गुफा में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिभा होने से उनकी जीवनी से सम्बन्धित इस चित्र में कलिकुण्ड पार्श्वनाथ तीर्थोत्पत्ति और हाथी द्वारा अभिषेक किये जाने के भाव हैं ।
सित्तनवासल के पश्चात् एलोरा की इन्द्रसभा की
भित्तिचित्र
प्राचीन भारतीय जैन चित्रकला के विहङ्गावलोकन के अनन्तर आइये हम वर्तमान में उपलब्ध जैन चित्रकला के उस संबल पक्ष की ओर दृष्टिपात करें जो अपने आप में जैन चित्रकला की एक अनूठी और गौरव पूर्ण देन है। कागज, ताड़पत्र, वस्त्र, काष्ठफलक और कूटे के चित्र सहस्राब्दि पूर्व के यद्यपि तिरोहित हो चुके हैं प्ररन्तु सार्द्ध सहस्राब्दि पुराकालीन भित्तिचित्र केवल गुफाओं में ही वच पाये हैं। अजन्ता की प्राचीन कला समृद्धि भारतीय श्रमण संस्कृति बौद्ध शाखा से सम्बन्धित है जबकि जैन चित्रकला को साकार उपलब्धि हम सित्तनवासल के गुफा मन्दिरों में आज भी देखते हैं । मद्रास से २५० मील और
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चित्रित कल्पवासी देव समूह के चित्र प्रारंभिक सतह के हैं। इसके विस्फारित नेत्र और रत्नाभरण बड़े मोहक हैं। दूसरी सतह विजयनगर चित्र शैली में चित्रित
भित्तियाँ एवं छत के चित्र बड़े ही महत्वपूर्ण हैं। यह स्थान औरंगाबाद से १५ मील दूर है । ये चित्र नौवींदशवीं शती के हैं और जैन ग्रन्थों के चित्राङ्कनों की अनुकृतियों के साथ-साथ पत्र, पुष्प तथा पशु-पक्षियों पर आधारित कलारूपों का भी मनोरम अंकन है। गोम्मटेश्वर का जो चित्र यहाँ उपलब्ध है, श्रमणबेलगोला की प्रतिमा शैली से उसकी तुलना की जा सकती है । ध्यानस्थ भगवान् बाहुबली के पैरों में चींटियों के वल्मीक एवं लतागुल्म देहयष्टि के चतुर्विंग आवेष्टित हैं । छत का एक कक्ष दिक्पाल समूह के चित्रांकनों से समृद्ध है। मेघ-छटा के मध्य व्योमचारी देव-देवियों और आलिंगन बद्ध विद्याधर दम्पति की सुकुमार शरीर-रचना विशाल नेत्र आदि का अंकन चित्रकला की परमोन्नत शैली के उदाहरण हैं। उनका पुष्पाञ्जलि अर्पण, पंचशब्द · शंखवादन. तालबद्ध संगीत आदि युक्त गणों के चित्र भी कम महत्त्व के नहीं हैं । दक्षिणात्य राष्ट्रकूट वंश के शासनकाल में रचे गये चित्रों के ये अवशिष्ट नमूने समस्त भारतवर्ष की तत्कालीन कला-शैली को प्रभावित करने वाले और जैन चित्रकला परम्परा की अमूल्य देन मानना पड़ेगा। गुफा नं० ३२-३३-३४ की छत पर ये भित्ति चित्र बने हुए हैं जिनकी प्रतिकृति बनवाकर इस अमूल्य देन को सुरक्षित रखना चाहिए ताकि आगामी पीढ़ी भी चिरकाल तक लाभान्वित हो।
काष्ठ फलक व ताड़पत्रीय चित्र
भित्ति चित्रों के पश्चात् काष्ठफलक चित्र व ताड़पत्रीय चित्रों की बारी आती है । दक्षिण शैली की परंपरा में होयसल कालीन भित्तिचित्र उपलब्ध नहीं हैं पर विष्णुवर्द्धन (सन् ११०६-४१) जिसे रामानुज ने वैष्णव बना लिया था–ने बेलूर और हलेविड में सुन्दर मन्दिर निर्माण कराये थे । उसकी रानी जैन धर्मावलम्बी थी एवं मंत्री गंगराज व सेनापति हुल्लि दण्डनायक भी जैन थे । उसकाल के उत्कृष्ट स्थापत्य व शिल्प कला-कृतियाँ होते हुए भी भित्ति चित्र के उदाहरण अवशिष्ट न होने से मूडबिद्री के भण्डार की होयसलकालीन चित्रकला पर ही हमें दृष्टिपात करना होगा। यहाँ की भट्टारक पीठ की ताडपत्रीय पाण्डलिपियाँ और उनके चित्र होयसल काल के हैं एवं उनकी लिपि विष्णुवर्द्धन के ताम्रशासनादि से मिलती-जुलती है । चित्रों की रंग की चटक
और रेखांकन बेलूर मन्दिर के धातु पत्रों के पुष्पाकारों से निकटता रखती है जो विष्णवद्वंन और उसकी जैन पत्नी शांतला के समकालीन मानने को प्रेरित करती है। ___ ताड़पत्रीय ग्रन्थ लम्बे तो पर्याप्त होते थे पर उनकी चौड़ाई सीमित होने से भित्ति चित्रों की माँति विशालता का अभाव होते हुए भी छोटे-छोटे चित्रों की शैली और रेखांकन में कोई अन्तर नहीं आता, अतः चित्रकला व लेखनकला की उभय दृष्टियों से इनका महत्व निर्विवाद है। दिगम्बर परम्परा के जैनागम षट् खण्डागम की धवला टीका की प्राचीन पाण्डलिपि मूड-बिद्री के भण्डार में सं० १११३ की है। इस पर तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की शासनदेवी काली का चित्र वृषभ वाहन युक्त हैं। गौरवर्णा देवी की सुकोमल देह को उजागर करने वाली लाल रंग की रेखाएं
नौवीं शती के चोल शासक भी बड़े कला-प्रेमी, उदार व अपने शैव धर्म के प्रति निष्ठावान होने के साथसाथ सभी धर्मों में समभाव रखते और प्रश्रय देते थे। तंजावुर में राज-राज ने कलापूर्ण शिवालय बनवाया. उसकी बहिन कुंदवइने तिरुमल्ले तथा अन्य स्थानों पर जैन मन्दिरों का निर्माण कराया था । चोल कालीन चित्र जो जैन स्मारकों में हैं वे नतमल्लै के बाद के हैं। इनमें विजयनगर शैली का सम्मिश्रण है । .लक्ष्मीश्वर मण्डप के निम्नतल और बाह्यकक्ष पर
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में वृक्ष है । मध्यवर्ती देवी के उभयपक्ष में चामरधारिणी परिचारिकाओं के बल खाए हुए कमनीय देह चित्र हैं और हरित वर्ण की कंचुकी परिधापित है । श्रुतदेवी के अंकुशपाश तो दिखाए हैं पर वीणा, कमण्डलु, पुस्तक आदि का अभाव इतर देवी होने की आशंका पैदा करता है।
लहरदार और बल खाती हुई हैं। वषभ के शृंग दक्षिण भारत के बैलों के अनुरूप हैं। द्वितीय कक्ष में अंकित भक्त परिवार का चित्र भी अत्यन्त मनोहर है। पर उसका ऊपरि भाग नष्ट हो गया मालम देता है। इसके केन्द्रवर्ती चित्र में भगवान महावीर स्वामी की दो सुन्दर प्रतिमाएं चित्रित हैं जिनमें एक पद्मासन और दूसरी खङ्गासन मुद्रा में स्थित है । पद्मासनस्थ प्रतिमा के आसन पर मकराकृति अलंकरण व उसके पृष्ठ भाग में सिंह व उभयपक्ष में चामरधारिणी मनोरमरूप से अंकित है। प्रभु के मस्तक पर छत्र व पृष्ठभाग में प्रभामण्डल फलक की भाँति गोल है। खङ्गासन की प्रतिमा परिकरविहीन और निम्नमाग में जानु से कुछ नीचे तक चरण-विहीन है। ताड़पत्र के रंगीन चित्र में भगवान पुष्पदन्त ( सुविधिनाथ) के अजितयक्ष तथा दूसरे कक्ष में दो भक्तगण अवस्थित दिखाये हैं । इन उभय चित्रों में एक ही रंग और लाल रेखाओं से आकृति अलंकरण है।
भगवान् वाहुबली का चित्र ( फलक २०) हरित वर्ण का और खङ्गासन स्थित है जिसकी पृष्ठभूमि लाल रंग की है पर उभयपक्ष में खड़ी हुई ब्राह्मी सुन्दरी बहिनें हरित पृष्ठभूमि पर हैं। गौर वर्णा बहिनों के वस्त्रपट लाल रंग के लहरदार हैं । बाहुबलीजी के पैरों पर लताए परिवेष्टित दिखाई हैं। फलक (२१) की श्रुतदेवी उपर्युक्त नं० १९ के सदृश है । दक्षिण भारत की ताडपत्रीय पाण्डलिपियों में और भी अनेक चित्र हैं । सिंहवाहिनी अम्बिका आम्र वृक्ष के तल उभय शिशुओं सहित जैन स्थापत्य में अति प्रसिद्ध हैं। उनका चित्र भी यहाँ उपलब्ध है। तीथंकर पार्श्वनाथ, सुपार्श्वनाथ और भक्तमण्डली. पूजा-अर्चा की सामग्री. गजवाहन युक्त मातंग यक्ष, श्रुतदेवी और महामानसी, हंसवाहिनी, कच्छप वाहनवाला अजितयक्ष आदि के चित्र भी होयसल कला के प्रभावोत्पादक कलामय सृजन है।
मूडविद्री की भव्य पाण्डुलिपियों में लाल रंग के साथ हरे रंग का भी उन्मुक्त प्रयोग हुआ है । एक पाण्डुलिपि में भगवान पार्श्वनाथ का चित्र पत्ते जसे हरितवर्ण का है. अवशिष्ट लाल रंग प्रयुक्त है । प्रभु के मस्तक पर सप्त फण छत्र है । प्रभु के आसन में उभय पक्ष में सिंह परिलक्षित है । उभयपक्ष में चामरधारी परिचारक हैं जिनकी भावभंगिमायुक्त आकृति उभयपक्ष में मुड़ी हुई और कमनीय है। उष्णीषादि अलंकरण प्रेक्षणीय हैं। दोनों और हरित पृष्ठभूमि पर धरणेन्द्र एवं पद्मावती के चित्र बने हुए हैं । धरणेन्द्र का चार भुजाओं वाला खड़ा चित्र है, उसके मस्तक पर सप्तफण सुशोभित है । पद्मावती के चित्र में भी चारों हाथों में अंकुशपाश आदि विविध आयुध हैं। देवी के मस्तक पर भी सप्तफण मण्डित हैं और उलटे हुये कमल पंखुड़ियों वाले आसन के निकट श्वेत हंस बैठा हुआ है। दूसरा कक्ष (फलक १९) श्रुतदेवी का बताया है जिसके उभयपक्ष
दक्षिण भारत की परवर्ती भित्तिचित्र कलाशैली यद्यपि सित्तनवासल आदि से अपनी कड़ियाँ जोड़नेवाले साक्ष्यों के अभाव में अलग श्रृंखला हो जाती है पर सन् १३३५ में हरिहरने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की तो उसके वंश के चार सौ वर्ष व्यापी शासनकाल ने सभी धर्मों को पल्लवित किया। अच्युतराय ने जैन और वैष्णव धर्मप्रमुखों को परस्पर मिलाकर सन्मानपूर्ण समझौता करा दिया। इस काल में कला का पर्याप्त उन्नयन हुआ। गोपुरों, मन्दिरों, मण्डपों की छत पर अगणित भित्ति चित्रों का निर्माण हुआ, जिनमें जैन कथावस्तु के अंकन भी महत्त्वपूर्ण और उल्लेखयोग्य हैं । कांचीपुरम् के
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तिरुप्पत्तिक्कुण्रम् स्थित वर्तमान मन्दिर के संगीत मण्डप के जैन चित्र उल्लेखनीय हैं। इनमें कतिपय आरंभिक काल के और अधिकांश परवर्ती काल के चित्र हैं। यह मण्डप वुक्कराय द्वितीय के जैन मंत्री इरुगप्प ने बनवाया था। अतः इसके चित्र चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण के हैं। इन चित्रों का विषय भगवान् महावीर के जीवन वत्त से सम्बन्धित है। भगवान् के जन्मोत्सव के सम्पूर्ण भाव अभिषेक पर्यन्त बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं। उत्तरकालीन सोलहवीं-सतरहवीं शती के चित्र भी ऋषभदेव, महावीर, नेमिनाथ व उनके भ्राता श्रीकृष्ण के जीवन से सम्बन्धित सुदीर्घ चित्रमालाओं का सविस्तार अंकन है। इनके साथ तमिल भाषा में लिखे शीर्षक-चित्र परिचय रहने से इस स्वस्थ परिपाटी का महत्त्व अत्यधिक हो गया है। चिदम्बरम् . तिरुवल्ल र आदि स्थानों में भी तमिल, तेलग भाषा में प्राप्त शीर्षक युक्त चित्र अपने आप में एक गौरवपूर्ण अस्तित्व रखते हैं।
इस प्रकार दक्षिणात्य कला का धारा प्रवाह शताब्दियों तक चला आया है जिसमें जैनधर्म-जैनकला का उल्लेखनीय योगदान रहा है। कलकत्ता के स्व० श्री पूरणचंदजी नाहर के संग्रह में एक ७४२१ फुट का विशाल चित्रपट है जिसमें श्रवण बेलगोला स्थित गोम्मटेश्वर बाहुबलीजी के सम्पूर्ण चित्र चित्रित हैं। एक ४||४|| साइज के समवसरण काले रंग से चित्रित मध्य स्थित गंधकुटी में हैं । वस्त्रपटों पर चित्रित और भी चित्रपट दक्षिण भारत के हम्पी आदि स्थानों में देखने में आये हैं।
तिरुप्पत्तिक्कुण्रम् के महावीर जिनालय में अंकित चित्र के ऊपरिकक्ष में भगवान ऋषभदेव के समक्ष लोकान्तिक देव के दीक्षा समय सूचनार्थ निवेदन और निम्न कक्ष में भगवान के दीक्षार्थ अभिनिष्क्रमण का भाव चित्रित है। एक दूसरा चित्र भगवान ऋषभदेव के वैराग्य और कच्छ-महाकच्छ के आख्यान युक्त चित्रित है। निम्नकक्ष में नमि-विनमि के चारित्र व ऋषभदेव स्वामी के चरणों में अवस्थिति युक्त है। तीसरे चित्र का ऊपरिकक्ष नमि-विनमि के अभिषेक समारोह और निम्नकक्ष में ऋषभदेव प्रभु की चर्या से सम्बन्धित चित्राङ्कित है। महावीर स्वामी के मन्दिर में ऋषभदेव चरित्र के अतिरिक्त एक चित्र में कृष्णलीला के विविध दृश्यों से मुखरित उभय कक्ष है। इन चित्रों में अनेक सामाजिक चित्र,
रीतिरिवाज, स्वागत परक मांगलिक उपादान, नृत्य . वाजित्रोपकरण युक्त अनेक प्रकार के चित्राङ्कन हैं।
उत्तर भारत की चित्रकला
दक्षिणापथ की चित्रकला का विहंगावलोकन करने के पश्चात् आइये, हम उत्तर भारत की जैन कलाशैली में चित्रित उपादानों की ओर भी दृष्टिपात करें। वस्तुतः कला पक्ष में जेनों का भारत को कितना अवदान है इस का लेखा-जोखा कर पाना अति कठिन है । उत्तर भारत की चित्रकला में गुजरात और राजस्थान की जो अनुपमदेन है वह केवल भारत में ही नहीं विश्व के कोने-कोने में विश्रत और प्रशंसा प्राप्त है । इसकी अनेक विधाएँ हैं । भित्तिचित्र, काष्ठ-ताड़पत्रादि, वस्त्रपट एवं कागज व कूटेपर अत्रस्थ कलाकारों की सुकुमार पीछी शताब्दियों से चलती आई है। और वह अन्य देश-प्रान्तीय धाराओं में मिश्रित हो कर नवीन कलाशैली के रूप में उद्भूत हो गई है। यही कारण है कि गुजरात की शैली में भी प्रदेशगत विभिन्नताएं एवं राजस्थानी चित्रशैली में भी बीकानेर, जयपुर, किशनगढ़, जैसलमेर, नागौर, कोटा,
दी. उदयपुर, नाथद्वारा, जोधपुर आदि की शैली भिन्नभिन्न परिलक्षित होने लगी। विदेश से आये हुये कलाकारों में ईरान, पर्शिया आदि की कला व पंजाव. काँगड़ा आदि की कला शैली के विभिन्न उन्मेष आकर मिले । मुगलकला, बुंदेलकला व अपभ्रंशकालीनकला सभी धाराएं इस प्रकार मिलने के साथ-साथ लोककला के सम्मिश्रण से मथेरण जैन चित्रकला शैली भी निकल
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पड़ी । पूर्वी भारत में बंगाल की कला का प्राचीन चित्रकला में तो नहीं पर आधुनिक जैन चित्रकला में उसका विकास और आदान-प्रदान विशाल रूप में हो गया । जोनपुर के कल्पसूत्रादि के चित्र भी अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। इन सभी शैलियों के चित्र विभिन्न रूपों में संप्राप्त हैं ।
तीर्थ में श्रीपाल चरित्र उल्लेखनीय हैं। दिल्ली नौघरा के मन्दिर में स्नात्रपूजादि के प्राचीन चित्र हैं। आधुनिक चित्र भी ऊपर पर्याप्त सुन्दर बने हैं। रंगीन कांच के टुकड़ों के चित्र भी आजकल अच्छे बनते हैं । नाकोड़ा तीर्थ में शान्तिनाथ चरित्र के एवं फलौदी पार्श्वनाथ जी में पार्श्वनाथ भगवान के मवों की पूरी जीवनी चित्रित है।
वस्त्रपट चित्रकला
दक्षिण भारत में पर्वत गुफाओं का आधिक्य होने से वहाँ के भित्तिचित्र चिरकाल तक टिके रहे पर उत्तर भारत में ईट-चूने की दीवालों पर नवनिर्माण नई शैली (फैशन) के मोह में एवं कलागत अनभिज्ञतावश बहुत से भित्तिचित्र तिरोहित हो गये । उनका स्थान आधुनिक प्राकृतिक दृश्यों व जापानी टालियों व अंग्रेजो फैशन ने ले लिया। अतः भित्ति चित्रों में प्राचीन शैली के उदाहरण क्वचित् ही मिलते हैं । फिर भी गुजरात-राजस्थान के मन्दिरों में कहीं-कहीं बच पाये हों तो सौभाग्य की बात है । नागौर के दिगम्बर जैनमन्दिर में एक विशाल तीर्थयात्रा का भित्ति चित्र देखा गया जो दो शती पूर्व का अवश्य है। गिरनारजी पर हेमचन्द्राचार्य जी का प्राचीन चित्र देखा स्मरण में आता है। कली पर बने हुए भित्तिचित्रों की प्रथा में कमी आ जाने पर भी कहीं-कहीं देखी जाती है । आधुनिक भित्ति चित्र कला तेल चित्रों से बड़ी ही विकसित और समृद्ध रूप में सर्वत्र संप्राप्त है । इसमें इतनी अधिक विविधता है कि दर्शक उसका अनुमान करते ही चकित हो जाता है । श्रीपाल चरित्र, तीर्थकर चरित्र, महापुरुषों के चरित्र, दादागुरुओं के विभिन्न चित्रित भाव, तीर्थों के चित्र, सतियों के चित्र आदि एक प्रकार के बीसों चित्रों के सेट चित्रित हैं । गत शताब्दी में यह चित्रकला पर्याप्त उन्नत हुई है। बीकानेर के भाण्डासरजी के महावीर स्वामी के मन्दिर में उस्ता मुरादबरश के हाथ से बने हुये भित्ति चित्र हैं । इसके पुत्र हसामदीन में भी अपने कुशल चित्रकार पिता की विरासत परिलक्षित है । मन्दिरों व दादाबाड़ी में पर्याप्त चित्र पाये जाते हैं। चम्पापुरी
भित्ति चित्रों के पश्चात् वस्त्रपटों की चित्रकला का कुछ परिचय कर या जाना आवश्यक है। वस्त्रपट पर बने चित्रों के अनेक प्रकार हैं। इनमें नन्दीश्वर द्वीप, लोकनालपट, ढाई द्वीप के पट, जम्बूद्वीपपट, अष्टदोपपट, चौदह राजलोक पट. पंचतीर्थपिट. शत्रुजयपट, गिरनारपट, सूरि मंत्रपट, विजय यंत्र पट, वर्तमान विद्यापट, सिद्धचक्र नवपद यंत्र पट, चिन्तामणि पाश्वनाथ पट, कलिकुण्ड मंत्र पट, विंशति स्थानक पट, ऋषिमण्डल पट, नामिऊण मंत्र पट, अट्ट-मट्टे मंत्र पट, नेमिनाथ बरात पट, समवशरण पट, ह्रीं कार पट, चौवीस तीर्थकर पट, ज्ञानबाजी, क्षेत्रसमास, कर्मप्रकृति, तीर्थयात्रा पट, विज्ञप्ति पत्र. जन्म पत्रिका टिप्पणक, सचित्र पंचाङ्ग टिप्पणक, अनानुपूर्वी, जिनालय पट, चतुर्दश महास्वप्न, अष्ट मांगलीक आदि संख्याबद्ध चित्रपट गत छः-सात सौ वर्षों में बने हुए प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं। कतिपय जैन ग्रंथ भी वस्त्र पट पर लिखे हुए संप्राप्त हैं. इनमें पत्राकार और टिप्पणकाकार ( Scroll ) भी हैं। यतः-कच्छूलीरास, धर्मविधिप्रकरण. कर्मप्रकृति, बारहव्रतरास. ओसवाल. वंश के गोत्रों की वंशावलियाँ, आगम आलापक आदि में कुछ हमारे संग्रह में भी चार-पाँचसौ वर्ष प्राचीन संप्राप्त हैं। कलकत्ता के सुप्रसिद्ध शीतलनाथ जिनालय में स्तोत्रादि वस्त्र पट पर लिखे हुए दवालों में कांच के अन्दर जड़े हुए हैं । तंत्रयुग में अनेक यतिजन हनुमानपताका, पंचांगुली, रावणपताका. घण्टाकर्ण,
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एक चश्म प्रतिमाएँ हैं ।
त्रिपुरा यंत्रादि अनेक प्रकार के यंत्रमय चित्रपटादि बनाकर अपनी पूजा में रखते थे। ब्रह्म देश की सीमा पर स्थित मणिपुर में वस्त्रपट पर चित्रित काम बहुत सस्ते में होता था। कई बन्धुओं ने वहां के चित्रपटों पर जैन चित्र अंकित करवाये हैं। गुरुजनों के पृष्ठभाग में लगाए जानेवाले पूठिये व चंदोवों पर भी जरी, कलाबत्त. तारा-सलमा व कारचोबी के कामवाले जिनमें मोती व जवाहिरात प्रचुरता से लगे हैं ऐसे पट तीर्थकर, गणधर, समवसरण, सिद्धचक्र और इन्द्रादिदेव व श्रीपाल मैनासुन्दरी के भाव वाले आज भी प्रचुर परिमाण में बनवाये जाते उपलब्ध हैं।
अब कतिपय महत्त्वपूर्ण चित्रपटों का परिचय दिया जा रहा है
भगवान पार्श्वनाथ के चतुर्दिग पाँच वलय हैं जिनकी श्वेत पृष्ठभूमि पर एक-एक कोष्ठक एक-एक नाम स्वर्गाक्षरों से लिखित है । मध्यवलय में भगवान के उभयपक्ष में धरणेन्द्र पद्मावती खड़े हुए हैं । दाहिनी
ओर धरणेन्द्र के मस्तक पर श्याम सर्प एवं ठेठ पूरे पाँव तक लंम्बी धोती पहनी हुई है जिसके बूटे व किनारी नीले रंग की है। उत्तरीय वस्त्र के बूटे व किनारी लाल रंग की है। उत्तरीय का डर बाहर तक निकला हुआ है। प्रभु के बाएँ पाश्र्व में पद्मावती देवी का जो चित्र है उसका मुखमण्डल का रंग उड़ गया है किन्तु देवी रक्तवर्णा है। वस्त्रों की अजंकृति सुन्दर बेलबूटों से युक्त है। देवी पद्मावती विविध प्रकार के आभरणों से सुसज्जित है।
इस चित्र पट के सुरक्षित न रहने से प्रथम वलय के सभी नाम उड़ गए हैं. इसमें आठ कोष्ठक हैं। द्वितीय वलय भी आठ कोष्ठकमय है। "ॐ उवज्झायाणं ह्रीं नमः" तथा "ॐसर्वसाहूणं ह्रीं नमः" दिखाई देते हैं। तीसरे वलय में काली, महाकाली, अच्छुप्ता आदि षोडश विद्यादेवियों
के नाम लिखे हैं । चतुर्थ वलय में चौबीस तीर्थंकरों की - माताओं के नाम, पंचम वलय में चारों दिशाओं-ऊपरि भाग में अग्नि, दाहिनी ओर ईशान, वामपार्श्व में नैऋत
और निम्न भाग में वायु लिखा है । अवशिष्ट वलयों में विजया, जयन्ती, वरुण, जंभा, कुबेर, वीरा आदि के नाम लिखे हैं । उपरि भाग के ह्रीं कार से साढ़े तीन आँटे लगाये हुए हैं. ये सभी लाल रंग के हैं।
(१) श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथ पट—यह पट वर्तमान में प्राप्त सभी वस्त्रपट चित्रों में प्राचीन है। यह १९४१८ इंच परिमित है। खादी के वस्त्र पर घोटाई करने के अनन्तर रंगीन व रेखा चित्रों के अनूठे सम्मिश्रण से इस चित्रपट का निर्माण हुआ है। इसके मध्यवर्ती वलय में श्रोपार्श्वनाथ भगवान की श्वेत परिकर के मध्य हरितवर्णी प्रतिमा चित्रित है। भगवान सप्तफगमण्डित हैं । इस वलय की परिधि का भीतरी भाग लगभग छः इंच का है। भगवान पार्श्वनाथ स्वामी के स्वर्ण व मुक्तालंकार परिधापित मुकुट, कर्णफूल, भुजबंद, श्रीफल, कण्ठहार व मोतियों की लड़ें व हार आदि सुशोभित हैं। भगवान के नेत्र वड़े आकर्षक व सुन्दर हैं । भालस्थल पर तिलक के स्थान पर हीरों से जड़ी हुई गोल टीकी है जिसके चतुर्दिक, लालरंग का घेरा माणिकजटित प्रतीत होता है। पद्नासनस्थ प्रमाणोपेत प्रतिमा के निम्नभाग में आसन पर सर्प का लांछन अलंकृत चित्र है । परिकर श्वेत संगमरमर का है। जिसका तोरण भाग प्रायः नष्ट- सा हो रहा है । अपरि भाग में दो दैठी हुई व नीचे उभय पक्ष में खड़ी हुई परिचारक इंद्र की मुकुटबद्ध एक-
__ इस चित्रपट के अवशिष्ट भाग की पृष्ठभूमि लाल रंग को है जिसमें ही कार के उभय पक्ष में मयर और मयूरी चित्रित हैं । मयूर का चित्र सुन्दर है और उसकी चोंच में माला धारण की हुई है. मयरी का चित्र लुप्तप्रायः है।
चित्रपट के दाहिने कोने में ४-५ इच परिमित पार्श्व यक्ष का सुन्दर चित्र है जिस पर काली स्याही से
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'श्री पार्श्व यक्ष:' लिखा हुआ है। पाश्वं यक्ष का सारा वर्ण हरित रंग का है। यक्षराज के हाथों में नकुल, पाश, वीजोरा आदि परिलक्षित हैं । ऊपरी भाग के उभय पक्ष में गोल हरित पृष्ठ भूमि में गुलाबी कमल बने हुए हैं । इनके आगे और मयूर के पृष्ठ भाग में तथा सामने मयरी के पृष्ठ भाग में दो व्यक्ति चित्रित हैं जिनके मस्तक पर श्याम केश और तन्मध्य गुलाबी रंग की खूप लगी है। एक की धोती लाल रंग की व उत्तरीय नील रंग का है। दूसरे की धोती काले रंग की व उत्तरीय लाल रंग का है। दोनों व्यक्ति व्योम स्थित होने से उनके उत्तरीय हवा में लहरा रहे हैं।
चित्रपट के ऊपरि भाग में वाम पार्श्व के चित्र में "श्री वैरुट्या देवता" लिखा है। देवी का वर्ण नील है. चारों हाथों में माला आदि धारण किये हैं। देवी का मुख-मण्डल एक चश्म हैं. नेत्र दोनों दिखाए हैं। देवी का अवशिष्ट चित्र पूरा है और मुख ह्रीं कार की ओर है । देवी का आकर्षक मुख-मण्डल का तीखा नाक और चिबुक भी सुन्दर है । यह चित्र अपभ्रश शैली के कल्प- सुत्रादि सुप्रसिद्ध जैन कला शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। देवी के वस्त्र गुलाबी और साड़ी का रंग गुलाबी
और कुछ भाग पीत वर्ण का है। ऊपरि भाग में गुलाबी रंग को छींट का चंदोवा और उभय पक्ष में मोतियों की माला के फंदेयुक्त लटकल है। देवी के पृष्ठ भाग में प्रभा-मण्डल के घेरे की गोल रेखाएं हैं।
होकर "क्रों" बीजाक्षर आलेखन में परिणत हो गया हैं।
पट के निम्न भाग में सामने दाहिनी ओर भद्रासन पर आचार्य प्रवर श्री तरुणप्रभसूरिजी महाराज विराजमान हैं । गौरवर्ण वाले आचार्य देव अपने हाथ में मुख के सामने मुखवस्त्रिका किये हुए बैठे हैं । इनका दाहिना . गोड़ा सिंहासन पर व वाँया पांव नीचे किया हुआ है। सूरिजी के बगल में रजोहरण पड़ा है और शरीर पर पतली-सी चादर ओढ़ी हुई है । चोलपटा नीचे पाँवों तक दिखाया गया है।
सिंहासन पर अष्टापद-सिंह व हाथी आदि के चित्र तीन लाल चक्रों में काली रेखा से चित्रित है। आचार्य श्री के मस्तक पर काले केश हैं एवं दाढ़ी-मूंछ का केश लंचन किया हुआ है । सूरिजी के सम्मुख भाग में काले रंग के डण्डे वाली ठवणी पर ताडपत्रीय ग्रन्थ व स्थापनाचार्यजी स्थापित हैं जिन पर फूल-पत्तीदार वस्त्र झिलमिल ढंका हुआ है और उभय पक्ष में नीचे फंदे लटक रहे हैं। ताड़पत्रीय ग्रन्थ के जरीदार वीटांगणे (वेष्टन) का स्वर्णिम रंग बहुत कुछ उतर गया है। सिंहासन के दोनों पायों का रंग उड़ गया है पर सामने पीले रंग की चित्रित फलदार पट्टी है । आचार्य श्री के समक्ष छोटे बाजोट पर नीचे शिष्य अवस्थित है जिसके दोनों हाथों में विज्ञप्तिपत्र का लंबा टिप्पणक खोल कर पढ़ते हुए दिखाया मालूम देता है।
वलव
वलय के उभय पक्ष में दो व्यक्ति चामरधारी काली दाढ़ी वाले अवस्थित हैं । ये एक हाथ ऊँचा किये चामर की डांडी पकड़े हुए हैं। चामर का रंग उड़ गया है। इन पुरुषों में एक के नील रंग की वूटेदार धोती व लाल रंग का बूटेदार उत्तरीय है । दूसरे के लाल बूटे की धोती व नील रंग का उत्तरीय धारण किया हुआ है। इनके गले में हार, हाथों में वलय व पैरों में भी नुपूर पहने हुए हैं। वाम पावस्थित पुरुष के नीचे वलय का लालघेरा समाप्त
चित्रपट के वाम पार्श्व में सामने सिंहासन पर कोई वाचनाचार्य या उपाध्याय विराजित हैं जिनके दोनों पाँव सिंहासन के नीचे हैं। जोड़े हुए दोनों हाथों के बीच मुखवस्त्रिका एवं बगल में रजोहरण धारण किया हुआ है और वे चैत्र वन्दन करते हुये प्रतीत होते हैं । इनके आगे नीचे वाजोट पर एक शिष्य बैठा हुआ है जो इसी प्रकार हाथ जोड़े हुए चैत्यवन्दन मुद्रा में है । मध्यवर्ती रिक्त स्थान को कमल के चित्रों द्वारा सुशोभित बनाया गया है।
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यह चित्र पट हमारे शंकरदान नाहटा कला भवन में है और चौदहवीं शती के शेप की उत्कृष्ट चित्रकला का नमूना है। इसका समय विक्रम संवत् १४०० के आस- पास का है।
(२) ढाई द्वीप का पट-यह पट २२४२२ इंच माप का है और सोलहवीं शती की अपभ्रश कला का सुन्दर उदाहरण होते हुए भी मध्य स्थित जम्बू द्वीप का भाग नष्ट हो कर लुप्त हो गया है। इसमें नगर, खण्ड, पर्वतादि के नाम भी लिखे हुये थे । धातकीखण्ड व पुष्कर द्वीप में एक-एक जिनेश्वर व उनके उभय पक्ष में कोणाकृति के मध्य नर-नारी युगल स्वतन्त्र कक्ष में बनाए हैं । समुद्र व नदियों का जल गहरे आसमानी रंग का है व काली लहरें व मत्स्यादि जंतु दिखाए हैं। पट के चारों कोनों में चार शाश्वत जिनालय भी कलापूर्ण शिखरबद्ध बताए है।
वलय और चतुष्कोण ह्रीं कार के मध्य रिक्त स्थान में नीचे से प्रारंभ हो कर अक्रम से उभय पक्ष में ॐ ह्रीं अ सि आ उ सा इ उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ
औ अं अः स्वाहा ॥ लिखा हुआ है । द्वितीय वलय में कमल की आठ पंखुड़ियाँ हैं जिन पर अर्हन्त भगवान के सामने अर्थात् नीचे ॐ ह्रीं सिद्धेभ्यः स्वाहा ।।२।। दाहिनी ओर ॐ ह्रीं आचार्येभ्यो स्वाहा ।।३।। ऊपरिभाग में अर्थात् पृष्ठभाग की पंखुड़ी पर ॐ ह्रीं उपाध्यायेभ्यः स्वाहा ॥४।। वाम पार्श्व की पंखुड़ी पर ॐ ह्रीं सर्व साधुभ्यः स्वाहा |५| फिर ॐ ह्रीं सम्यक् दर्शनाय स्वाहा ॥६।। तत्पश्चात् सिद्ध भगव न के बाद ॐ ह्रीं सम्यक ज्ञानाय स्वाहा ।।७।। फिर ॐ ह्रीं सम्यक चारित्राय स्वाहा ।।८।। लिख कर अंतिम पंखुड़ी पर ॐ ह्रीं सम्यक तपसे स्वाहा ||९|| लिखा है। यहाँ तक नवपदों की स्थापना पूर्ण कर तृतीय वलय में षोडश दल की पंखुड़ियाँ बनाई हैं। पंखुड़ियों के मध्यवर्ती रिक्तस्थान को काले रंग के बीच रिक्त पत्तियाँ छोड़कर अलंकरण किया गया है।
(३) सिद्धचक्रपट-यह चित्रपट एक फुट लंवा व नौ इंच चौड़ा है । इसके बीच में लाल रंग की रेखाओं से ह्रीं कार का वलय बनाकर ऊपरिभाग में ही कार से प्रारम्भ होकर साढ़े तीन आँटा लगने के बाद 'क्रों' मंत्राक्षर से शेष किया गया है । इस चक्र के मध्यवर्ती केन्द्रीय अरिहंत भगवान के चित्र से परिचय कराने का प्रयत्न किया जाता है-मध्य से प्रथम वलय के अन्दर बना हुआ चतुष्कोण ही कार भी साढ़े तीन घेरों में 'क्रों वीजाक्षर से शेष होता है । इसकी मध्यवर्ती पृष्ठभूमि चतुष्कोण है जिसमें सिंहासन पर अरिहंत भगवान विराजमान है । प्रभु प्रतिमा मुकुट, हार. भुजबंद, श्रीफल और मुक्ताहार आदि आभरणों से सुशोभित है । भगवान के स्कन्धों तक पृष्ठभूमि में सिंहासन का रंग नीला है तदुपरि भाग में हरी नाल वाले लाल रंग के बंद कमल झूल रहे हैं । प्रभु के नेत्र अणियाले और भौंहें लहरदार धनुषाकृति को है । नीचे का आसन पटकोण या अष्टकोणाकृति वाला है।
तृतीय वलय की पंखुड़ियों पर लालरंग से एक-एक पंखुड़ी छोड़ कर आठों पंखुड़ियों में ॐ णमो अरिहंताणं लिखा है। अवशिष्ट आठ पंक्तियों में ॐ ह्रीं ॐ अर्ह अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋल ल. ए ऐ ओ औ अं अः ||१|| फिर ॐ ह्रीं अहं क ख ग घ ङ ह्रीं स्वाहा ॥२॥ फिर ॐ ह्रीं अहं च छ ज झ ञ स्वाहा ।।३।। फिर ॐ ह्रीं अहं ट ठ ड ढ ण ह्रीं स्वाहा ।। फिर ॐ ह्रीं अर्ह त थ द ध न ह्रीं स्वाहा । तत्पश्चात् ॐ ह्रीं प फ ब भ म ह्रीं स्वाहा । फिर "ॐ ह्रीँ अर्ह य र ल व ह्रीं स्वाहा ।। फिर ॐ ह्रीं ॐ अहँ श ष स ह ह्रीं स्वाहा लिख कर षोडश दल की पूर्ति की गई है। चतुर्थ वलय में चार दिशा
और चार विदिशाओं में केवल ॐ ह्रीं लिख कर रिक्त रखा हुआ।
इस ह्रीं कार वलय के चतुर्दिक लाल रंग की पृष्ठ
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भूमि है जिसपर चारों कोनों में चार बड़े-बड़े चित्र बने हुए हैं। दाहिनी ओर ऊपरि भाग में नीले रंग के आसन पर धरणेन्द्र विराजमान हैं जिसके बाँए गोड़े के नीचे गजवाहन ।
और चारों हाथों में अंकुश, बीजोरा, कमलनाल और मुद्रा युक्त न्यास मालूम देता है। धरणेन्द्र के मस्तक पर सप्तफण मण्डित स्वर्ण मुकुट युक्त है। कुण्डल. हार व हाथों-पैरों में भी आभरण हैं । धोती लाल बूटीदार व उत्तरीय के काली बूटी व पत्र-युक्त हाथों में लहरा रहा है। बाँयीं और ऊपर में देवी का चित्र बना हुआ है जिसकी चार भुजाए हैं। दो हाथों में कमलनाल जेसी वस्तु है। देवी के स्वर्ण मुकुट व हार आदि सुशोभित हैं। देवी का घाघरा नीली चौकड़ी के मध्य बूटीदार व ओढणा लाल रंग की बूटीवाला है। नीचे बिछे हुए आसन पर देवी विराजमान है और बाँये गोडे के नीचे नीले बटे की छींट मण्डित प्रतोल्याकार-सा वस्त्रखण्ड बन गया है। पैरों में भी देवी ने आभूषण पहने हुए हैं और उनके सामने गोल चन्द्राकार जैसा कुछ है और नीचे एक उड़ता हुआ पुरुषाकार गरुड़ जैसा दिखाया है जो उसका वाहन है।
प्रयुक्त हुई है। इसे जिनभद्रसूरि युग की शैली का मानने के अनेक कारण हैं । यह चित्रपट हमारे कलाभवन में स्थित है।
(8) ही कार पट-यह पट ३४||३४|| इच समचौरस मिल के वस्त्र पर बना हुआ सौ वर्ष प्राचीन है और चारों ओर उलटा कर मशीन से सिलाई किया हुआ है । इसके मध्य में ह्रींकार माया बीज में चौवीस तीर्थंकरों के चित्र बने थे जो नष्ट प्रायः हो गए । सभी जिनबिम्बों के नीचे नाम लिखे हुए हैं। सामने दोनों दादा श्री जिनदत्तसूरिजी व श्री जिनकुशलसूरिजी विराजमान हैं। दूसरी ओर भी श्री जिनदत्तसूरिजी थे, चित्र नष्टप्रायः है । ह्रीं कार वलय के बाहर सात वलय
और हैं जो स्वर्णमय हैं और सभी कोष्ठ को लिखे हुये नाम नष्ट हो गए हैं। उपरि भाग में दाहिनी ओर खड़े धरणेन्द्र और वाम पार्श्व में देवी पद्मावती सिंहासन पर विराजित हैं जिसके समक्ष वाहन कुक्कुट अवस्थित है। निम्न भाग में गोरा भैरव और काला भैरव के खड़े सुनहरे चित्र हैं पर दोनों के पास श्वान वाहन काले रंग की रेखा चित्र हैं । ह्रींकार वलय के चतुर्विंग वर्तलाकार साढ़े तीन लाल लाइनों का घेरा बना हुआ है। चारों ओर लाल धारी के बीच बेल-बूटे हैं।
वलयाकार ही के नीचे के दोनों कोनों में दो देव बने हुए हैं जिसके समक्ष वाहन रूप में श्वान अवस्थित हैं। दोनों के सिर पर एक जैसा छत्र है एवं एक वस्त्र परिधापित है। दोनों मृगचर्म पहने हैं और लाल छापे का बूटेदार उत्तरीय लहरा रहा है। दोनों देव चार मुजावाले हैं, हाथों में डमरू, खप्पर, ढाल जैसी बस्तु धारण की हुई है। संभव है कि ये दोनों भैरव क्षेत्रपाल हों । वाम पार्श्व स्थित भैरव के सम्मुख एक वेदी जैसा भद्रासन बना हुआ है।
(५) कलिकुण्ड महाप्रभावक यंत्र-यह पट भी उपयुक्त ह्रीं कार पट जैसा ही समकालीन निर्मित है । मध्य में षडकोणाकृति के मध्य चतुष्कोण में पार्श्वनाथ भगवान की हरित वर्ण की प्रतिमा है । इसके नीलवर्ण की पृष्ठ भूमि है और स्वर्ण का पूरा उपयोग हुआ है । उभय पक्ष में चामरधारी अवस्थित हैं। धरणेन्द्र पद्मावती आदि के अन्य कोष्ठकों में नाम भी लिखे हुये हैं । इस वलय के बाहर दो और वलय हैं जिनके रंगीन काष्ठों में नाम थे। इस पट के चारों ओर यंत्र का नाम आलेखित है। एक कोने में निम्नोक्त लेख है।
ऊँ ह्रीं श्रीं कलिकुण्ड श्री पाश्वनाथ दुष्ट दुर्जन
इस पट के सभी चित्र बड़े सुन्दर और अपभ्रश चित्र शैली के उत्कृष्ट नमूने हैं। इसमें देव-देवियों के नाम लिखे हुये न होने से अनुमान से ही लिखा है । इसकी पृष्ठ भूमि लाल है और अपभ्रंश मध्य काल की पन्द्रहवीं शती की शैली विदित होती है। अक्षरों में पड़ी मात्रा
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वश्यं दैत्य दानव भूत प्रेत मोगा क्षेत्रपाल खवीस पिशाच डाकिणी साकणी संहारी अन्येपि दुष्ट देव देविय बंध मोहय मोहय सर्व वश्यं कुरु स्वाहा अहरीक्षा मम गच्छ स्वजन संबंधी मम श्रावक श्राविका परिग्रह सुखं कुरु कुरु स्वाहा ।।
श्री पूरणचन्दजी नाहर के संग्रह में भी अनेक प्रकार के चित्रपट हैं । ढाई द्वीप पट, नंदीश्वर द्वीप पट, रामायण के पट, ही कार पट. नेमि बरात, वर्द्धमान विद्या पट सोलहवीं शती से लेकर उन्नीसवीं शती तक के हैं। तपागच्छ वंशवृक्ष १० फुट लंबा और ४२ इच चौड़ा है जो सं०१८९० का है और उसमें अहमदाबाद के सेठ शांतिदास के वंशज सेठ वखतचंद आदि के नाम हैं।
देता है. यह नील वर्ण का है। इस चित्र पट की पृष्ठभूमि लाल है और भगवान के जलपूर्ण चित्र कक्ष के दोनों ओर तीन-तीन देवियाँ व सामने पार्श्वयक्ष तथा वाम पार्श्व में दाढ़ीवाला अश्वारोही भाला लिये खड़ा है। प्रभु के आगे तक नागराज के शरीर का अधौभाग फेला हुआ है। सामने वेदी के बाँयें तरफ एक श्रमण और दाहिनी ओर एक भक्त बैठा है। निम्न भाग में ९ ग्रह. नागराज और देवी की प्रतिमा है। प्रभु के ऊपर तीन छत्र हैं जो एक ऊपर और दो बराबर हैं। दोनों ओर टोडों पर दाढ़ी वाले व्यक्ति कमलनाल लिए अवस्थित हैं। प्रभु के दोनों ओर वाह्यभाग में दो-दो कक्ष हैं जिनमें प्रथम कक्ष में दाहिनी ओर गजारूढ़ अंकुश, पाश लिए फगमण्डित धरणेन्द्र व वाम पार्श्व में पद्मावती देवी की रक्तवर्णा खड़ी प्रतिमा है। दोनों और फिर दो चामरधारिणी अवस्थित है। अहिछत्ता वीर्थ के चारों कोणों में शत्रुजय, गिरनार, आबू और सम्मेतशिखर महातीर्थ हैं। पहाड़ों पर चढ़ते हुए यात्री परिलक्षित हैं । सम्मेतशिखरजी के जलमन्दिर में साधु और श्राविकाएं खड़े हैं। शत्रुञ्जय तीर्थ पर दोनों शिखरों के प्रतीक दो मन्दिर और पांच पाण्डव प्रतिमाए' दिखाई हैं। गिरनारजी की पहली टंक और आव तीर्थ के तीन मन्दिर दिखाए हैं अतः खरतरवसही का निर्माण चित्रपट बनने से पूर्व हो गया था। अपभ्रंश चित्र शैली का यह सुन्दर चित्रपट साराभाई के संग्रह में है।
___मुनि पुण्यविजयजी के संग्रह में अमट्टे यंत्र पट है जिसमें ह्रीं कार के बीच श्री पार्श्वनाथ भगवान विराजित हैं। इसमें अनेक देव-देवियों के सुन्दर चित्र हैं । आराधक मुनिराज भी सामने करबद्ध बैठे हैं। यह पट ई० सन १४०० के आसपास का होना अनुमानित है। एक और वर्द्धमान विद्या का यंत्रपट है जो श्री जिनमंडन गणि के लिए निर्मित है । इसके मध्य स्थित ह्रीं कार में एक चित्र है और सभी घरों में मंत्राक्षर लिखे हैं। यह भी मुनिपुण्यविजयजी के संग्रह में है।
श्री साराभाई मणिलाल नवाब ने श्री सूरिमंत्र कल्प सन्दोह व जैन चित्रावली आदि में कतिपय पट प्रकाशित किए हैं जो महत्वपूर्ण होने से यहाँ परिचय कराना आवश्यक है।
(१) पंचतीर्थी पट-शत्रुजय, गिरनार, आबू. सम्मेत शिखरादि का यह पट पन्द्रहवीं शताब्दी का बना हुआ है । इसके मध्य स्थित पार्श्वनाथ भगवान सहस्रफगा जल कमल के मध्य पद्मावतौ शीर्षस्थ ध्यानावस्था का चित्र है जो तीर्थ अहिछत्ता का कमठोपसर्ग मालूम
(२) सरिमंत्रपट-यह चित्र लाल रंग की पृष्ठ भूमि में बना हुआ मुगलकालीन है । मध्य में षट्कोण के बीच ह्रीं कार में जिन प्रतिमा है। बाहर के चार वलयों में नामयुक्त कोष्ठक हैं। बाद के वलय में आठ जिन प्रतिमाए' और तदुभय पक्ष में देवी-देवता हैं। उसके बाद के वलय में चौवीस तीर्थकर अपने-अपने वर्ण में चित्रित हैं। वलय से बाहर चारों कोनों में देवियाँ हैं, दाहिनी ओर ऊपर चतुर्भुजी, नीचे महालक्ष्मी और वाम पार्श्व
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में ऊपर सिंहवाहिनी नीचे के कोण में गजवाहिनी हैं. दोनों ही षोडशभुजी हैं। ऊपर से नीचे तक उभय पक्ष में सूरिमंत्र गत देव देवियाँ और उनके प्रतीक वने हुए हैं । ऊपरि भाग में तोरण के उभयपक्ष में चार हाथ वाले गजारूढ़ देव और निम्नभाग में एक और गुरु पादुका, मध्य में आठ कलश व दूसरी ओर विराजित हैं। यह पट साराभाई के संग्रह में है।
आराधक
(३) वर्द्धमान विद्या पट- यह खरतरगच्छ आम्नाय का १६ वीं शती के प्रारंभ का चित्र पट है । इसके मध्य में भगवान महावीर विराजित हैं, उनके परिकर में दोनों ओर उपरिभाग में कलशधारी और मातंग यक्ष, ब्रह्मशांति यक्ष एवं सिद्धायिका व एक और देवो है । नीचे के दोनों ओर कक्ष में किन्नरियां नृत्य-वाजित्ररत हैं एवं तन्निम्न भाग में नौ ग्रहों के चित्र हैं जिनके ऊपर वर्द्धमान विद्या लिखी हुई है। प्रशस्ति में लिखा है कि वर्द्धमान विद्या देवता जयसागरोपाध्याय शि० रत्नचन्द्र शि० भक्तिलाभो - पाध्यायस्य सपरिवारस्य शांति-तुष्टि करें। यह पट पं० अमृतलाल भोजक के संग्रह में है।
(४) सूरिमंत्र गर्मित वृहद्ध सिद्धचक्र पट- यह मुगल कालीन चित्रपट है जिसके मध्यवर्ती नवपदमंत्र के सात वलयों में सूरिमंत्र के अधिष्ठायक चित्र यंत्र व नवनिधि आदि चित्रित है। चारों द्वार वातायनों के उभयपक्ष में चामरधारी खड़े हैं एवं चारों कोगों में हाथी, वृषभ, अश्व, मृग पर बैठे मातंग, ब्रह्मशांति आदि देव हैं जिनके हाथ में भिन्न-भिन्न आयुध हैं और आगे-पीछे परिचारक हैं जिनके हाथों में मोरछल, चामर, भाला, नेजा आदि वस्तुएँ है सब की वेश भूषा पर मुगल प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है। यह पट साराभाई के संग्रह में है।
(५) सूरिमंत्रपट - यह राजपूत कलम का अलंकरण विहीन चित्र पट है। इसमें पट्कोण के मध्य गौतम स्वामी हैं जिनके उभय पक्ष में हाथी और चामरधारी हैं। चारों कोणों में सरस्वती, लक्ष्मी, मातंग यक्षादि चित्रित हैं।
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निम्न भाग में बाजोट पर साधु और सामने श्रावक बैठा है। उनके ऊपर 'श्रीमुनिसुन्दरसूरिगुरुभ्यो नमः' लिखा है।
(६) सूरिमंत्र गर्मित संतिकर स्तोत्र यंत्र पट- यह पट सिद्धचक्र की भाँति वृत्ताकार बना हुआ है । मध्यस्थित पट्कोण पर अर्हत भगवान और ऊपर नीचे चतुर्दिग लक्ष्मी आदि देव-देवी व मंत्र लिखित है। मध्य के वलय में संतिकर स्तोत्र व बाहरी वलय के कक्ष में मंत्रादि लिखे हुए हैं। सूरिमंत्र के पांच पीठों के देव श्रुतदेवता, त्रिभुवनस्वामिनी, लक्ष्मी, गणपिटक यक्षराज, नबग्रह आदि चित्रित हैं।
(७) ऋपिमण्डल वृहद यंत्र-यह चित्रपट लाल पृष्ठभूमि पर बना हुआ बड़ा सुन्दर है। इसके मध्य के वलय में ही कार है जिसमें चौबीस तीर्थंकर बने हैं। बाद में (१) बीजाक्षर ३५ का वलय (२) मातृकाक्षर (३) आठ मंत्राक्षरों का है फिर अष्टदल कमल का वलय है जिसमें ९ ग्रह हैं। चारो कोणों में दश दिग्पाल, धरणेन्द्र, पद्मावती, सरस्वती, लक्ष्मी, अम्बिका क्षेत्रपाल व गौतम स्वामी के चित्र हैं। निम्न भाग में नव निधि कलश हैं। वामपार्श्व में आराधक मुनि विराजित हैं। सोलहवीं शती का यह सुन्दर चित्रालंकरण युक्त व रंग की चटक भी अच्छी है।
(८) मंत्राधिराज चिन्तामणि यंत्र-यह चित्र भी उपर्युक्त चित्र की भाँति पन्द्रहवीं शती का सुन्दर चित्र है। इसकी लाल पृष्ठभूमि है. मध्य में श्री पार्श्वनाथ भगवान है और धरणेन्द्र पद्मावती भी खड़े हैं। दो वलयों मैं अष्टदल है'। बाहरी भाग में नव ग्रह, नव निधान, दस दिग्पाल, सरस्वती, लक्ष्मी त्रिभुवनस्वामिनी, क्षेत्रपाल, ब्रह्मा इन्द्र आदि हैं। चित्रों के पास सूक्ष्माक्षरों में नाम लिखे हैं। "ही" के घेरे को 'क्रों' में लाकर शेष किया गया है ।
(९) शत्रुंजय तीर्थयात्रा पट - पाटण के संघवी पाड़ा के भण्डार में सं० १४९० में आये हुए यात्री संघ के चित्रों
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वाला वस्त्रपट है जिसमें थोड़े में अधिक भाव व्यक्त किये हैं। नगर के परकोटे में दो जिनालय हैं। बाहर में एक और गाड़ी पड़ी है जिसके नीचे बैल वैठे विश्राम कर रहे हैं । एक ओर गुरु महाराज वा व्याख्यान हो रहा है । गोल जलाशय के पास यात्री खड़े हैं और खोंचे वाले विक्रेताओं से सामान क्रय कर रहे हैं। पहाड़ पर वृक्षादि भी हैं और यात्रीगण चढ़ रहे हैं।
इसी प्रकार गिरनार यात्रार्थ आए संघ के चित्र में तलहटी, नगर परकोटे में जिनालय, जलाशय, गुरु महाराज का व्याख्यान, गाड़ियां, वहली, देहरासर-रथ, चलते हुए यात्रीगण आदि सुन्दर दिखाए हैं। शत्रुजय गिरिराज दर्शन में सं० १६९८ के पंचतीर्थी पट के शव. जय पटांश का फोटो छपा है जो अहमदाबाद के सुप्रसिद्ध सेठ शांतिदास द्वारा निर्मापित है । इसमें तीर्थ के संक्षिप्त भाव दिखाये हैं । इसकी प्रशस्ति के अनुसार इसमें गिरनार आव, चंद्रप्रभ, मुनिसुव्रत, जीरावला, नवखंडा. देवकुलपाटक, हस्तिनापुर, कलिकुण्ड, फलवृद्धि, करहेटक, शंखेश्वर तीर्थादि के चित्र भी होने चाहिए।
संघवी द्वारा चौमुखीजी की टूक प्रतिष्ठा आदि का चित्र है। आचार्यों और संघपति आदि के चित्र भी अनेक और महत्वपूर्ण हैं। यह चित्रपट जैसलमेर में खरतरगच्छ की वेगड़ शाखा के जिनेश्वरसूरि के समय पं० अमरदत्त द्वारा चित्रित है जो स्वयं यात्रा में साथ थे और लगभग एक वर्ष पश्चात् सं० १६७६ वैशाख सुदि ३ में बनकर तैयार हुआ है। प्रशस्ति में अनेक नगरों के संघ और श्रावकों के नाम भी हैं । भौगोलिक दृष्टि से शत्रुञ्जय तीर्थ की तत्कालीन स्थिति की पर्याप्त जानकारी मिलती है ।
इसी चित्र शैली और बीकानेरी कलम का लगभग ३० फुट लंबा बद्रीनारायण यात्रा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण टिप्पणकचित्र श्रीलालचंदजी वोथरा के संग्रह में देखा था जिसका विवरण प्रकाशित किया जा चुका है।
तीर्थयात्रापट दो प्रकार के होते हैं। आज भी शत्रुजय पट पालीताना आदि में प्रचुर परिमाण में बनते हैं और पाषाण मय एट भी प्राचीन काल से बनते आये हैं उनका बड़ा भारी ऐतिहासिक महत्त्व है । तीर्थों के मानचित्र में नव निर्माण होते रहने से कब क्या परिवर्तन आया है यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। ये पट आकार में बहुत बड़े होते हैं । बीकानेर ज्ञान भण्डार में कतिपय और हमारे संग्रह में भी बहुत बड़ा चित्रपट है। जयपुर के खरतरगच्छीय ज्ञानभंडार में अनेक प्रकार के चित्रपट संगृहीत हैं जिनमें एक यात्रा पट जो टिप्पणक ( Scroll ) आकार में २५ फुट लंबा और २३।। इंच चौड़ा है। यह विज्ञप्तिपत्र की माँति चित्रित है। इसमें सं० १६७५ वैशाख सुदि १३ के श्रीजिनराजसूरि जी और जिनसागरसूरि के नेतृत्व में संघ यात्रा और रूपाजी
काष्ठफलक चित्र
शिल्प और चित्रकला के उपादानों में काष्ठ का स्थान भी बड़ा महत्त्वपूर्ण है। वाड़ी पार्श्वनाथ का अद्भुत गवाक्ष विदेशों के संग्रहालयों की शोभा बढ़ाता है। इसी प्रकार शत्रुञ्जय के एक जिनालय का परिपूर्ण आकार अमेरिका में विद्यमान है। काष्ठफलकादि पर चित्रित प्राचीन चित्र भी पर्याप्त प्रमाण में उपलब्ध हैं । राजमहलों में सेठ. साहूकारों के घरों व मन्दिरों के शहतीर, आला, अलमारी आदि के कपाटों पर चित्र करने की प्राचीन प्रथा थी। मन्दिरों में व्यवस्थापकों की असावधानी से एतद्विषयक सामग्री नष्ट हो गई। हस्तलिखित ग्रन्थों को रखने के लिए जो डिब्बे होते उन्हें "डाबड़ा" कहा जाता था। उन पर भी विविध भाँति के चित्राङ्कन पाये जाते हैं जिन में अष्टमङ्गल, चतुर्दश महास्वप्नादि के साथ-साथ भगवान की माता एवं फूल-पत्तियाँ और घटनाक्रम के चित्र भी अंकित रहते थे। ग्रन्थों को रखने की बड़ी पेटियाँ भी कहींकहीं सुन्दर चित्रों से युक्त कलापूर्ण होती थीं। लाक्षा व रोगन वार्निश के लेप से उन्हें चमकदार बनाया जाता था । छोटेछोटे कलमदान भी चित्र संयुक्त बनाये जाते थे।
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सुरत के संयदपुरा स्थित नंदीश्वर द्वीप मन्दिर में लकड़ी के पाटिये पर १०८ फुट का शत्रुजय गिरिराज का चित्र बना हुआ है जिसमें आगन्तुक संघ एवं तत्कालीन सभी मन्दिरों अर्थात् वि० सं०१७८० से पूर्व की सभी ट्रंकों का दृश्य चित्रित है। इस कलापूर्ण चित्र को . आचार्य श्री ज्ञानविमलसूरि जी ने चित्रित करवाया था। काष्ठमय चित्रों में यह बड़ा महत्वपूर्ण है। श्री शत्रुजय गिरिराज दर्शन में लिखा है कि सं०१६७२ का सेठ शांति दास के समय का पट आनंद जी कल्याण जी को पेढो में विद्यनान है जिसका कुछ भाग 'मार्ग' में प्रकाशित हुआ है।
कूटे के चित्र
काष्ठ-चित्रों में ताड़पत्रीय ग्रन्थों के काष्ठफलक लगभग बारहवीं शती से उपलब्ध होते हैं। इन्हें विविध माप के ताडपत्रीय ग्रन्थों के लिए उसी माप के बनाए। जाते थे। इनमें लम्बाई के अनुपात में कई कक्षों में विभाजित कर सुन्दर बेलपत्तियों के हाँसियों सहित चित्रित किए जाते थे । आठ-नौ सौ वर्ष पूर्व के बने चित्रों में रंग की चमक आज की-सी विद्यमान हैं। इन काष्ठ-पट्टिकाओं में सर्वप्राचीन हमारे संग्रह की श्री जिनदत्तसूरिजी के आचार्यपद से पूर्व की है जिसमें आचार्य गुणसमुद्र सूरिजी के साथ मुनि सोमचन्द्र (जिनदत्तसूरि ) विराजमान हैं। इसके पश्चात् जिनवल्लभसूर और श्री जिनदत्तसूरि के चित्रों वाली कई काष्ठपट्टिकाए उपलब्ध हैं जिनमें से एक पट्टिका लोहावट के भण्डार में है। त्रिभुवनगिरि के यादव राजा कुमारपाल के साथ दादा श्री जिनदत्तसूरि के प्रबचन-सभा के चित्र वाली काष्ठपट्टिका जैसलमेर के ज्ञानभण्डार में है।
वादिदेवसूरि और दिगम्बर कुमुदचंद्र के शास्त्रार्थ के भावों । की अत्यन्त सुन्दर काष्ठ-पट्टिकाए भी जैसलमेर के
श्रीजिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार की अमूल्य निधि थी जो मुनि जिनविजयजी ने लाकर भारतीय विद्या भवन में रखी । परन्तु आज वह बिड़लाजी के संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही है। जैसलमेर भण्डार में महावीर पंचकल्याणक चित्रपट्टिका, चतुर्विशति तीर्थकर मातृ-पट्टिकाए', आदिनाथ प्रभु के जीवन प्रसंग, चतुर्दशस्वप्न, जलक्रीड़ा एवं जिराफ आदि दुर्लभ प्राणियों की चित्रमय पट्टिकाए विद्यमान हैं। लौंकागच्छीय भण्डार की भगवती सूत्र की बारहवीं शती की ताड़पत्रीय प्रति की काष्ठ-पट्टिका में भगवान नेमिनाथ स्वामी के नौ भवों के चित्र हैं । इनके अतिरिक्त वेलपत्तियों आदि के चित्रयुक्त काष्ठपट्टिकाएं भी उपलब्ध है। पूर्वकाल में शत्रुजय तीर्थ पर सुन्दर काष्ठ की कोरणी व चित्र काम वाले मन्दिर थे, बाद में अग्नि उपद्रवादि के कारण उनके स्थान पर पत्थर एवं ईट-चूने द्वारा मन्दिरों का निर्माण होने लगा है।
कागज की लुग्दी, वस्त्र खण्ड और चिकनी मिट्टी आदि के संयोग से निर्मित कूटे की कई प्रकार की वस्तुए बनायी जाती थी । इनमें देवालय, सिंहासन, डाबड़े, कलम-दान आदि विविध उपादान बनते थे जिनपर सुन्दर चित्रकारी भी की जाती थी। ऐसे डाबड़े आदि लगभग चार-पाँच सौ वर्ष प्राचीन भी पाये जाते हैं। इन सभी में मिट्टी का उपयोग नहीं होता था। हमारे संग्रह में ऐसे रंगीन कांच जड़े हुए व चित्रित सिंहासन व बड़े-बड़े हाथी भी विद्यमान है। एक छोटा कलम-दान कृष्णलीला के अत्यंत सुन्दर चित्रसंयुक्त है जिसकी चित्र शैली दक्षिण भारतीय कला से प्रभावित है। कई स्थानों में कूटे की बड़ी-बड़ी कोठियों में ग्रन्थ रखे जाते थे।
ताड़पत्रीय चित्र
यद्यपि सचित्र ताड़पत्रीय ग्रन्थ स्वल्प मिलते हैं पर वे बड़े मूल्यवान हैं। प्राचीन ज्ञान भण्डारों में जो भी सचित्र ताड़पत्र पाये जाते हैं. वे जैन साहित्य की अमूल्य निधि हैं । दक्षिणापथ के ताडपत्रीय चित्रों के सम्बन्ध में आगे लिखा जा चुका है। पर उत्तर भारत के ताड़पत्र
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'श्रीताल' के पत्रों पर चित्रित लिखित होने से वे सुन्दर
और टिकाऊ होते हैं। यों तो दक्षिण भारत व उड़ीला में आज भी ताडपत्रीय ग्रंथ लिखे जाते हैं, पर वे लौह लेखनी से उत्कीणित होते हैं । उन पर बने चित्र भी वैसे ही उत्कीर्णित एवं रेखा चित्र व रंगीन चित्र भी मिलते हैं । जेन ताड़पत्रीय ग्रन्थ लेखन चित्रण आज नहीं किये जाते, अतः जो भी है पांचसौ से हजार वर्ष प्राचीन है।
पोल-अहमदाबाद के श्रावकधर्म प्रकरण सवृत्ति की एक सुन्दर ताड़पत्रीय प्रति के अत्यन्त सुन्दर चित्र देखे जो शांतिनाथ भगवान के चरित्र के १२ भवों से सम्बन्धित हैं । इसमें जालोर में श्रीजिनेश्वर सूरि प्रतिष्ठित श्री शांतिनाथ जिनालय निर्माताओं के चित्र विद्यमान हैं। यद्यपि काल दोष से अब वह जिनालय तो नहीं रहा किन्तु उसके निर्शताओं की स्मृतिशेष उपर्युक्त सुन्दर ताडपत्रीय चित्रों में आज भी विद्यमान है। उभय काष्ठपट्टिकाओं में दोनों
ओर चार लंबी चित्रमाला है। ये ८३ सें० मी० लम्बी व ६ सें० मी० चौड़ी हैं । मुनिश्री इस चित्र समृद्धि का अध्ययन प्रस्तुत करने वाले हैं। हमारे कलाभवन में तो मात्र एक ही ताडपत्रीय चित्र का नमूना है ।
कागज के सचित्र ग्रन्थ---
जेसलमेर ज्ञानभण्डार के कल्पसूत्र की ताडपत्रीय प्रति में भगवान पार्श्वनाथ के जीवन-प्रसंग के बीस चित्र हैं। दशवकालिक आदि कई प्रतियों में हाथी, कमल, श्री. देव आदि के चित्र हैं । क्रमांक ११८ में महावीर स्वामी एवं प्रवचनकर्ता आचार्य महोदय एवं श्रोताओं के चित्र हैं। क्रमांक १५९ में सं० १३४५ के पाश्वनाथ, समवसरण, अजितनाथ, शान्तिनाथ और जिनालय के चित्र हैं। इनमें स्वर्णमय स्याही भी प्रयुक्त हुई है। क्रमांक १८६ में भी चौदहवीं शतो के सरस्वती व श्रावक-श्राविकाओं के आठ सुन्दर चित्र हैं। क्रमाङ्क २०६ में सं० १२९५ के भगवान महावीर, देवी और आचार्य महाराज के तीन सुन्दर चित्र हैं । क्रमाङ्क २२८ में सपरिकर शान्तिनाथ, नं० २४४ में भ० नेमिनाथ एवं आचार्य महाराज के चित्र हैं। नं० २५७ में दो भुजा वाली खड़ी हुई सरस्वती व वैरोट्या देवी का चित्र है । क्रमाङ्क २६३ में सिद्धायिका, आचार्य महाराज, श्रावकश्राविका व पूर्णकलश का चित्र है । क्रमाङ्क २९६ में खड़ी हुई सरस्वती का सुन्दर चित्र है। क्रमाङ्क ३३५ में भ० पार्श्वनाथ, आचार्य हेमचन्द्र, अभयतिलकगणि, जिनेश्वरसरि व शाह विमलचंद्र के चित्र हैं।
चौदहवीं शताब्दी के पश्चात् प्रायः ताडपत्रीय ग्रन्थों का लेखन बंद हो गया और ग्रन्थादि लेखन बढ़या और टिकाऊ कागजों पर होने लगा। यद्यपि लेखन शैली ताड़पत्रीय ग्रंथों की ही चलती रही. बीमें छेदकर डोरा पिरोने व संख्या के अंक भी उसी शैली के एकतरफ संकेत लिपि में लिखे जाते थे, पर कागजों पर विकास का क्षेत्र प्रशस्त हो गया। ताड़पत्रीय ग्रंथों में चौड़ाई अधिक न होने से चित्रकला का अधिक विकास नहीं हो सका था, पर कागज का प्रचलन होने से उस पर लिखे जाने वाले ग्रन्थ क्रमशः दुगुने तिगुने चौड़े हो गए। उनमें चित्रकला का आश्चर्यजनक विकास हुआ। केवल कल्पसूत्र और कालकाचार्यकथा की सेकड़ों ही नहीं बल्कि हजारों प्रतियाँ लिखाई गई। श्रावकों ने स्वर्णाक्षरी. रौप्याक्षरी. गंगा-जमनी और सचित्र प्रतियों के लिखवाने में करोड़ों रुपये व्यय किए। एक-एक प्रति में पच्चीस - तीस से लेकर सैकड़ों मूल्यवान चित्र बने। बेलपत्तियों व हाँसिये के चित्रों में गज पंक्ति, हंस पंक्ति इत्यादि विविधताओं का बड़ा विकास हुआ । स्वर्ण, रजत एवं अन्य रंगों की विविधता द्वारा जैनकला शैली में आश्चर्य
पाटण व खंभात के ज्ञान भण्डारों में भी सचित्र ताडपत्रीय ग्रन्थ है। श्रीजिनेश्वरसूरि द्वितीय का सुन्दर चित्र हमने ४५ वर्ष पूर्व प्राप्त कर ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित किया था। मुनिराज श्री शीलचन्द्र विजय के पास श्री विजय नेमिसूरि ज्ञान मन्दिर, पांजरा.
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की हैं। दोनों प्रतियाँ नाहर जी के संग्रह में हैं। हमारे संग्रह में त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र के अंतिम पत्रों में आचार्य श्री जिनराजसूरिजी और सामने बाजोट पर उपाध्याय जयसागरजी बैठे हुए मालूम देते हैं । प्रशस्ति के अनुसार ये जयसागरोपाध्याय जी के ६भ्राता। पाल्हा, झोटा, मंडलिक, माल्हा, महीपति में से चार हैं। दूसरे कक्ष में साध्वियों के समक्ष इनकी धर्मपत्नियाँ भी हैं। ये आतीर्थ स्थित खरतरवसही के निर्माता दरड़ा गोत्रीय श्रावक थे । ये चित्र हरिद्रारंग की पृष्ठभूमि में चित्रित हैं।
जनक निखार आया जिससे उसके समक्ष सारे चित्र श्रीहीन-फीके पड़ गए। देवसापाड़े के सुप्रसिद्ध कल्पसूत्र के एक-एक पन्ने का मूल्य आज दस-दस हजार से कम नहीं आंका जाता। इसके चित्र इतने समृद्ध हैं कि समूचा पन्ना चित्रों से परिपूर्ण है। ग्रन्थ के तो मात्र एक दो प्रत ही लिखे गये हैं । इसके हाँसिये में संगीत, नृत्य आदि के विविध दृश्य भी बड़े आकर्षक और सुन्दर ढंग से चित्रित किये गए हैं। अहमदाबाद के खरतरगच्छीय भण्डार के सोलहवीं शती के कल्पसूत्र में ३५ चित्र हैं पर दूसरी प्रति में बीसवीं शती के लगभग ६५ सुनहरे चित्र बने हुये हैं। क्षमाकल्याणजी के भण्डार बीकानेर के चित्रों की कला शैली बीकानेरी कलम से संबंधित है । श्री पूरणचन्द जी नाहर, कलकत्ता के संग्रह में कल्पसूत्र की कई प्रतियाँ हैं जिनमें सं०१५११ की लिखित में ४६ चित्र. सोलहवीं शती की लिखित में ४३ चित्र, सत्रहवीं शती के कल्पसूत्र में अपूर्ण चित्र, एक रजत चित्रमय तथा एक उन्नीसवीं शती की प्रति में ३४ सुन्दर सुनहरे चित्र राजपूत कलम के हैं। सं० १५५३ के पत्र ११३ में सन्देहविषौषधि टीका सह ७१ चित्र सुनहरे हैं । सं०१८४५ के लिखे कल्पसूत्र में ३३ चित्र हैं। कालिकाचार्य कथा की कई सचित्र प्रतियाँ नाहरजी के संग्रह व हमारे संग्रह में एवं विभिन्न ज्ञानभण्डारों में प्रचर परिमाण में पायी जाती हैं । नाहर जी के संग्रह की स्वर्गाक्षरों ९ पत्र की प्रति में ६ चित्र और बोर्डर में विभिन्न वेलपत्तियाँ, साध-साध्वी, स्त्रियाँ और मस्तक पर भार ढोते हुए हबशी लोगों के भी सुन्दर चित्र हैं।
इनके अतिरिक्त उत्तराध्ययन सूत्र,ज्ञाता सूत्र, सुपार्श्वनाथ चरित्र आदि ग्रन्थों में भी अपभ्रंश शैली के सुन्दर चित्र किये हुए मिलते हैं। यह जैनों की विशिष्ट शैली थी जब कि इस शैली में चित्रित बालगोपाल स्तुति व वात्स्यायन शास्त्र की भी प्रतियाँ क्वचित् दृष्टिगोचर होती हैं। श्री साराभाई मणिलाल नवाब आदि ने जैन चित्रों को प्रकाश में लाने का स्तुत्य प्रयास किया है पर सर्वांगीण शोध होने की अब भी आवश्यकता है। सोलहवीं शती में यह अपभ्रश चित्र शैली अपनी उन्नति के शिखर पर थी। जौनपुर भी मुगलकाल तक जैनों का केन्द्र था । वहाँ की शैली के कल्पसूत्र दि प्रसिद्ध हैं । सतरहवीं शताब्दी की चित्रकला शैली में एक नया मोड़ आया. इस में अन्यान्य धाराएं आकर मिली और परम्पररागत लेखक-चित्रकारों के अतिरिक्त अन्यान्य कलाकार भी आ मिले । सं०१६१३ में जब चतुर्थ दादा युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने क्रियोद्धार द्वारा तीन सौ में से १६ यतिजनों को स्वीकार कर अवशिष्ट सभी को गृहस्थ-मथेरण-महात्मा बना दिया था। बीकानेर के मंत्री संग्रामसिंहजी १च्छावत की इसमें विशिष्ट भूमिका थी । वे लोग जव गृहस्थ हो गए तो आजीविका का साधन जुटाना अनिवार्य था अतः उन्हें पठन-पाठन अध्यापन, लेखन तथा चित्रकारी का काम सौंपा गया। इसके
जिनभद्र युग की परिग्रह परिमाण विधि सं० १५०१ की स्वाक्षरों में तीन चित्र हैं । आचार्य महाराज की व्याख्यान सभा एवं नंदि रचना के समक्ष व्रत ग्रहण
और वासक्षेप लेते हुए सुन्दर चित्र हैं । इसी प्रकार योगविधि की प० १०२ की प्रति में आचार्य महाराज श्री जिनभद्र सूरि व जयसागरोपाध्याय के चित्र हैं । यह सं० १४८६
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वाहन की कलम द्वारा चित्रित हैं।
अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी में मथेरणों द्वारा चित्रित प्रतियाँ पर्याप्त परिमाण में उपलब्ध है। जैन यति-साधुओं में शास्त्रलेखन की प्रथा तो थी ही। उसी के संदर्भ में भौगोलिक आदि विषयों के प्रतिपादन हेतु संग्रहणी, क्षेत्रसमास जैसी कलापूर्ण प्रतियों की बड़ी-बड़ी प्रतियाँ भी पर्याप्त परिमाण में लिखी गई।
बाद जैन ग्रन्थों का अधिकांश लेखन-चित्रग वे ही करने लगे। ये लोग जैन ग्रन्थों के चित्र, चौवीसियाँ, भित्तिचित्र एवं लक्ष्मी, गणेश आदि विविध प्रकार से लोकिक चित्र भी निर्माण करने लगे जिससे इनकी चित्र शैली में लोक कला शैली का उन्मेष हो गया। उसी मथेरग शैली में जैन ग्रन्यादिक लेखन-चित्रण होने लगा । मुगल कला के प्रभाव से वेश-भूषा एवं शैली में आमूल परिवर्तन आ गया । अपभ्रश शैली लुप्त होकर मिश्रित शैली का विकसित रूप राजस्थान की विविध शैली राजपूत कलम, उस्ता कलम, आदि में क्षेत्रीय परिवर्तन के साथ प्रचलित हो गई। श्री नाहरजी के संग्रह के इस काल के कल्पसूत्रादि के चित्रों में यह प्रभाव सुस्पष्ट परिलक्षित होता है। शाही दरबार में रहने वाले जहांगीर के चित्रकार उस्ता शालिवाहन जैसे कलाकारों से भी समृद्धि शाली जन श्रावकों ने चित्र निर्माण कराये । वाबू बहादुरसिंहजी सिंघी. कलकत्ता के संग्रह की शालिभद्र चौपई की मूल्यवान प्रति उसी के द्वारा चित्रित है। इस प्रति में जिनराजसूरि, जिनरंगसूरि, लावण्यकीर्ति मुनि एवं चित्र कराने वाले नागड़ गोत्रीय सा० भारमल्ल व राजपाल के सं० १६८१ में चित्रित ७ चित्र हमने जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि में प्रकाशित किये हैं। सं० १८५२ की प्रति के जिनराजसूरि जिनरंगसूरि के चित्र को हमने ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में दिया था। शालिवाहन ने न केवल जैन कथावस्तु को चित्रित किया था पर उसके चित्रित किया हुआ श्री विजयसेनसूरिजी को आगरा संघ द्वारा दिया हुआ विज्ञप्तिपत्र भी अपने आप में कला और इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण वस्तु है।
राजस्थानी और गुजराती का प्रचार अधिक होने से रास, चौपई, चौढालिया, चौबीसी आदि की रचनाएं भी प्रचुर परिमाण में हुई । इन रचनाओ में सर्वश्रेष्ठ व बहु प्रचलित कृतियों की अधिकाधिक और सचित्र प्रतियाँ भी लिखाई जाने लगी। उपर्युक्त शालिभद्र चौ० का प्रचार हुआ। उसकी उपर्युक्त शालिवाहन चित्रित प्रति के पश्चात् अनेकों प्रतियाँ पाई जाती हैं। कलकत्ता के श्री पूरणचंद्र जी नाहर के संग्रह में मथेरण रामकृष्ण द्वारा सं १८२६ में चित्रित प्रति है जिसे बीकानेर में चित्रित की थी। इसी रामकृष्ण के पुत्र मथेरण जयकिशन द्वारा सं १८२५ में चित्रित ४७ चित्रों वाली प्रति हमारे संग्रह में है । बीकानेर के वृहत् ज्ञान भंडार, श्रीपूज्यजी के संग्रह, महोपाध्याय विनयसागर जी के संग्रह में भी इसकी उल्लेखनीय सुन्दर प्रति है। अंजना संदरी चौपाई ४३ चित्रों वाली सं १६८९ साचौर में रचित प्रति नाहर जी के संग्रह में है जिसे बीकानेर में मथेरण अभेराम ने चित्रित किये था। श्री जिनराजसूरि चौबीसी के अतिरिक्त नाहर जी के संग्रह में सुदर्शन चौपाई (४१ सुन्दर चित्र ), शालिभद्र चौ० के १३ चित्र पूरे पृष्ठ के, सिंहलसुतत्रियमेलक रास की २९ चित्रों वाली मथेरण सूरतराम चित्रित प्रति. मानतुंगमानवती चौ० की २८ चित्रों वाली सं १८४७ की मथेरण जयकिशन चित्रित प्रति सम्यक्त्वविचार-नवतत्व बाला० की प्रति में पहले भ० महावीर का चित्र व बीच में व हाँसिये में विविध सुन्दर चित्र है, जो सं० १७१२ पटना में जिनमाणिक्यसरी
इसी शालिवाहन चित्रकार के द्वारा चित्रित मदनकनार श्रे० च० की एक प्रति सं० १६६७ में दयासमुद्र रचित अहमदाबाद के विजय नेमिसूरि ज्ञान भण्डार में है । यद्यपि इस महत्त्वपूर्ण अज्ञात प्रति में नाम व तिथि नहीं है किन्तु उमाकान्त प्रेमानन्द शाह के अनुसार यह शालि
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परम्परा के पं० महिमोदय द्वारा लिखित है। गौतम रास की प्रति में १२ पद्मासन व १ खङ्गासन चित्र की प्रति है । द्रौपदी चौपई की प्रति के १९ वें पत्र में सुभूम उद्यान का सुन्दर चित्र है । चन्द्रलेहा चौपाई में २६ सुंदर चित्र हैं । मृगाइलेखा चौपाई की प्रति में ५५ चित्र सं० १७७४ के हैं । संघयणी की प्रति में भी १८६९ में चित्रित पचासों सुन्दर चित्र हैं। चंदन मलयागिरि चौपाई की भी कई सचित्र प्रतियाँ मिलती हैं। एक गुटकाकार प्रति हमारे संग्रह में भी है। चंद राजा के रास की सचित्र प्रतियां भी मिलती है। बीकानेर में हंसराज वच्छराज चौ० की दो प्रतियां एवं मृगांव लेखा चौ० की एक प्रति एवं विक्रमादित्य खापरा चोर चौ० की एक प्रति मथेरण आसाराम चित्रित वैदर्भी चौपाई की सं० १८४६ की एक प्रति मथेरण जयकिशन चित्रित प्रतियाँ पीपाड़ के श्रीजयमल ज्ञानभंडार में हैं। वहाँ और भी कई चित्रित पट एवं संग्रहणी सूत्र की सचित्र प्रतियाँ, चंद्रलेहा चौ० की सं १८३३ की सचित्र प्रतियाँ है। बीकानेर के मथेरण अखेराम जोगी दासोत ने सं० १८०१ में बीकानेर के चित्रों का विज्ञप्ति पत्र तैयार किया जो श्री जिनभक्ति सूरि को राधनपुर भेजा गया था। इस प्रकार विभिन्न ज्ञानभंडारों व संग्रहों मैं मधेरण आदि कलाकारों द्वारा चित्रित प्रतियाँ प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं ।
सचित्र विज्ञप्ति पत्र
जैन समाज में गुरुजनों को आमन्त्रणार्थ विज्ञविपत्र भेजने की प्राचीन प्रथा है। इनमें दो प्रकार थे, एक तो खण्डकाव्य मय गद्य-पद्य अलंकारिक चित्र काव्य युक्त और दूसरे नगर के मानचित्र युक्त हमारे संग्रह में सं० १६०४ से १६११ के बीच का ऐसा ऐतिहासिक महत्वपूर्ण विज्ञतिपत्र है। सचित्र विज्ञप्निपत्रों की विधा बड़ी ही महत्वपूर्ण है। पांच दस फुट से लगा कर सौ-सौ फुट लंबे विज्ञप्तिपत्र उपलब्ध हैं । शाही चित्रकार शालिवाहन द्वारा चित्रित आगर से श्रीविजयसेन
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सूरिजी को प्रेषित विज्ञप्तिपत्र का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । हमारे संग्रह में उदयपुर का डेढ़ सौ वर्ष प्राचीन विज्ञ ते पत्र ७२ फुट लंबा है जिसमें वहाँ के सभी ऐतिहासिक स्थान एवं राणाजो, उनके महल, पीछोला तालाब, श्रीपूज्यजी व राणाजी की सवारी, काप साहब आदि के सुन्दर विशद् चित्र हैं। बीकानेर के बड़े उपाश्रय में १०८ फूट लंवा विज्ञप्तिपत्र बीकानेर चित्रकला का अप्रतिम उदाहरण है जिसमें वहाँ के भाण्डासर जी चिन्तामणिजी आदि मन्दिर व वड़ा उपाश्रय आदि के हूबहू सुन्दर चित्र लगभग १५० वर्ष प्राचीन है। इसी प्रकार जयपुर, जोधपुर, मेड़ता, सीरोही लखनऊ जैसलमेर आदि नगरों के वीसों महत्वपूर्ण सचित्र विज्ञप्ति - पत्र हैं। डा० हीरानन्द शास्त्री के सम्पादित एक ग्रन्थ में उसका सचित्र प्रकाशन हुआ है । अव भी बीसों विज्ञप्ति पत्र अप्रकाशित उपलब्ध हैं। ये सब टिप्पणकाकार ( Scroll ) मिलते हैं। जैनेतर शैली के भी क्वचित् उपादान उपलब्ध हैं। हमारे संग्रह में एक वैष्णव शैली का है व बद्रीनारायण यात्रा का उल्लेख ऊपर आया ही है। पटना के श्री राधाकृष्ण जी जालान के संग्रह में ऐसी ही बौद्ध कथा वस्तु का चित्रित टिप्पणक देखा था । कलकत्ता के आशुतोष म्यूजियम जोधपुर म्यूजियमपूरणचंद जी नाहर के संग्रह में कलकत्ता की नित्य विनय मणिजीवन जैन लायब्रेरी में ऐसे जैन विज्ञप्ति पत्र संग्रहीत है। इसी लायब्रेरी में राजवल्लभ शिल्प शास्त्र के नक्शों सहित लंबा टिप्पणक है । उपर्युक्त बीकानेर विज्ञप्निपत्र भाण्डासर जी के मन्दिर के गुम्बज में भी चित्रित भित्तिचित्र के रूप में देखा जा सकता है।
तीर्थादि के विशाल चित्र
जयपुर के तहबीलदारों के रास्ते में रहने वाले गणेश मुसव्वर चित्रकार के बनाये हुए चित्रकला सौष्ठव की दृष्टि से बड़े ही मूल्यवान और संख्या में भी प्रचुर
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पाये जाते हैं। वह सं० १९२५ से १९३७ तक तो निश्चित रूप से कलकत्ता में रहा और उससे बड़े । पंचायती मंदिर में जौहरी रिधुलालजी फोफलिया के पुत्र शिखरचंद जी तीर्थों के बड़े-बड़े मूल्यवान चित्र बनवाये। शत्रुजय. गिरनार, अष्टापद, तारंगा. केशरियाजी, पावापुरी, सम्मेतशिखर, राजगृह, चम्पापुरो, गौड़ीपार्श्वनाथ, राणकपुर, हस्तिनापुर, महावीर समवसरण, नेमिनाथ बारात. मुनिसुव्रतस्वामी आदि के नयनाभिराम चित्र सभामण्डप में लगे हुये हैं। इसी अरसे में राय बद्रीदास कारित शीतलनाथ जिनालय में भी ६०४७० इंच लंवे लगभग ३०-३५ चित्र निर्माण किये जिनमें श्री.पाल चरित्र, सोलह सती, तीर्थंकर चरित्र, दादा गुरुओं के चरित्र, कात्तिक महोत्सवजी की सवारी आदि भावों वाले अत्यन्त सुन्दर और प्रेक्षणीय हैं और जन चित्र शैली की अमूल्य निधि हैं। जियागंज के विमलनाथ जिनालय में दादासाहब के चरित्र से सम्बन्धित सुन्दर और विशल चित्र लगे हुए हैं ।
प्राचीन हैं । इन पर अष्टमंगलोक, चौदह स्वप्न, त्रिशला माता. दशाणभद्र का प्रभु वन्दनार्थ गमन, इलापुत्र की नट विद्या. नेमिनाथ भगवान की बरात, तीर्थंकरों के समवसरण, हाथी. सिंह, सरस्वती आदि विभिन्न प्रकार के सुन्दर चित्र चित्रित हैं । इनमें स्वर्णाभ रंग का भी प्रयोग होता था । हमारे संग्रह में जहांगीरकालीन वेश-भूषा का एक महत्त्वपूर्ण पूठा है एवं चमड़े के हाथी लगे हुए चित्र को पटड़ी हैं । एक पूठे पर हाथी दाँत की चीपियाँ लगी हुई हैं ।
गट्टजी आदि-पीतल, काष्ठ, चांदी के ढक्कनदार गोल डिव्वे को गट्टाजी कहते हैं। इनमें तीर्थकर पार्श्व: नाथ, नवपदजी. बीस स्थानकजी, चौबीसी आदि के सुन्दर कलापूर्ण चित्र मढ़े रहते हैं । इन चित्रों पर सोने के वर्क का मनौती काम व सच्चे मोती के हार आदि चिपकाये रहते हैं। इनमें लाल, नीला, हरा, श्वेत, स्वर्णाभ, पीत आदि सभी रंगों का प्रयोग हुआ है। पीतल के किवाड़ीदार देवालयों में भी चित्र मढ़े हुये पाये जाते हैं।
पूठे-पटड़ी
जिस प्रकार ताडपत्रीय ग्रन्थों के लिये काष्ठफलक होते थे उसी प्रकार कागज के ग्रन्थों के लिये पृठे. पटडी-फाटिये आदि गत्ते कूटे-कागज को चिपका कर मजबूत किए हुए हुअा करते हैं । रद्दी कागजों को चिपका कर बनाये हुए एक पूठे के खुल जाने पर हमने लगभग ८०० वर्ष पूर्व का श्री जिनपतिसूरिजी के समय का पालनपुर का साध्वीमण्डल का पत्र प्राप्त किया था। इन पुठों पर मखमल. साटण, जरी, कीमखाब आदि वस्त्र मढ़े हुए तथा जरी, कलाबत्तू . कारचोवो और रेशम द्वारा अष्टमङ्गल, चौदह स्वप्न, तीर्थकर माता, इन्द्रादि देव बनाये जाते रहे हैं । कई पूठों पर कांच पर किये चित्र भी मढ़े हुये मिलते हैं । इनके अतिरिक्त पूठे पर वानिश करके जो चित्र बनाये हुए मिलते हैं वे लगभग दो सौ से चार सौ वर्ष जितने
चौबीसी व अनानुपूर्वी-आजकल जिस प्रकार मुद्रित चौबीसियाँ आती हैं उसी प्रकार आगे हाथ के चित्रों वाली प्रचा परिमाण में बनायी जाती थी। कई चौवीसियाँ साधारण, कई मध्यम और कई असाधारण कला-सौष्ठव युक्त चित्रित होती थी। हमारे संग्रह की दो एक चौबीसियाँ अत्यन्त सुन्दर और कलापूर्ण हैं। इनमें जिनालय का पूरा चित्र, प्राकृतिक दृश्य व इन्द्र-इन्द्राणी आदि दिखाये गए हैं। तीर्थंकरों के वर्ण व लांछन के अनुसार चौबीस जिन चित्र निर्माण होते हैं। उनमें दादासाहब की चरण/मूत्ति, गौतम स्वामी आदि के चित्र, पद्मावती, भैरव आदि स्वेच्छानुसार वनवाकर तैयार होने लगे। जिनालयों व जिनेश्वरों व पंच कल्याणक के स्वतन्त्र चित्र भी पाये जाते हैं।
भावचित्र-शास्त्र विहित औपदेशिक भावों के चित्र
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निर्माण की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है। पुराने ज्ञानभण्डारों में मधुविन्दु, छः लेश्या, ज्ञानबाजी (चौपड़), लोकनाल, मेरुपर्वत, जन्माभिषेक, जम्बूवृक्ष-शाल्मली वृक्षादि पर जिन प्रतिमाएँ और श्रावकों द्वारा दर्शन-पूजनयुक्त तथा स्नात्रपूजादि की भाव चित्रावली दिल्लो आदि अनेक स्थानों के मन्दिरों में मढ़ी हुई व अन्य भी अनेक विधाएं संप्राप्त हैं। भारण्ड पक्षी, आकाश पुष्प, एक मस्तक अनेक देह आदि की इतनी चित्र सामग्री प्राप्त है जिसे पूर्ण रूप से व्यक्त करना कठिन है । संग्रहणी में जिस प्रकार स्वर्ग नरक आदि के चित्र हैं वैसे स्वतन्त्र रूप में भी चित्र बनाये गए । नारकी के चित्र जिनमें परमाधामी देव विविध प्रकार से कष्ट देते हैं और किस कर्म के परिणाम में क्या-क्या विपाक उदय में आया इसके उभय पक्ष के चित्र भी जैन चित्रकला में प्रचुरता से पाये जाते हैं।
हमारे संग्रह में, पीपाड़ के जयमलजी भंडार व बीकानेर की सेठिया लायब्ररी व जयपुर के विनयचंद ज्ञानभंडार में हैं। पीपाड़ का ज्ञानभंडार कला की दृष्टि से समृद्ध है जिसका उल्लेख आगे किया गया है । स्थानकवासियों में से दो सौ वर्ष पूर्व तेरापंथी निकले उनमें यति परम्परागत चली आई चित्रकला प्रचलित थी । यद्यपि वे भी मूत्ति को अमान्य रखते थे, फिर भी चित्रकला के क्षेत्र में पश्चातूपद नहीं थे। नरक-स्वर्ग आदि के परम्परागत लोकचित्रों के माध्यम से वे जनता को दुष्कृत्यों से बचने का उपदेश देते रहे हैं। पूज्य जयाचार्य के पश्चात् माधवागणि और डालगणि के समय में चित्रकला कुछ उन्नत हुई और भावचित्रों की कई विधाएं निर्मित हुई । एक कागज के मध्य में बने हुये चित्र पर किनारों को मोड़ कर उस पर बने चित्रों से विविध आकृ. तियाँ उभारी जाती हैं और आत्मा के विभिन्न योनियों में परिभ्रमण/रूपधारण की बातें बतायी जाती है। एक बड़े मुर्गे के अन्तर्गत कई रूप हो जाने की दूसरी विधा भी चल निकली । भाव चित्रों में मधुबिन्दु व षट-लेश्या तो थे ही और नये उन्मेष हुये । कमल भ्रमर के चित्र में रसलुब्ध भ्रमर का सूर्यास्त के समय कमल में बन्द हो जाने के भाव चित्र बने । घड़े के पैदे में तल भग्न, मध्य भग्न व गलबे से भग्न के माध्यम से श्रोताओं की तीन श्रेणियाँ बताई गई। हरे व सूखे वृक्ष में सूखे वृक्ष के पक्षी उसे त्यागकर हरे वृक्ष पर जा कर निवास करने लगे। कवीर की उक्ति प्रसिद्ध है
ऐतिहासिक व्यक्ति चित्र-जिसप्रकार ताडपत्रीय ग्रंथों, काष्ठफलकों आदि में जैनाचार्यों व श्रावकों के मूल्यवान चित्र संप्राप्त हैं यतः हेमचन्द्राचार्य, वादि देवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तमूरि, जिनेश्वरसूरि, अभयतिलक, कुमारपाल, यादव कुमारपाल. विमलचन्द श्रावक आदि उसी प्रकार कागज के ग्रन्थों में जिनभद्रसूरि, जयसागरोपा. ध्याय, जिनराजसूरि प्रथम व द्वितीय, जिनरंगसूरि आदि, आचार्यों के चित्र उपलब्ध हैं । ऐतिहासिक व्यक्तियों के स्वतन्त्र चित्र भी पाए जाते हैं। यतः मुनियों में जिनभक्तिसर, जिनसुखसूरि, जिनलाभसूरि, जिनचन्द्रसूरि. जिनहर्षसूरि, जिनसौभाग्यसूरि, जिनमहेन्द्रसूरि, जिनमुक्तिसूरि आदि, आचार्यों में क्षमाकल्याणोपाध्याय, ज्ञानसार, जयकीर्ति आदि, श्रावकों में शांतिदास सेठ, कर्मचन्द्रमंत्री, अमरचंद सुराणा, भानाजी भण्डारी, मोतीशाह सेठ आदि ।
हरे गाछ पर पंछी बैठा लेता नाम हरी । झड़ गये पत्ते उड़ गए पंछी ये ही रीत बुरी ।।
अब मोहे जान पड़ी ।
लौंकागच्छ में से स्थानकवासी परम्परा लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व निकली । जिसके बनवाये हुये चित्र में साधुओं के मुखवस्त्रिका बंधी हुई है। ऐसे चित्र कुछ
भाव चित्रों में उत्तराध्ययन आदि के शास्त्रीय भावों का व्यक्तिकरण हुआ । तेरापंथ में गत सौ वर्षों में व्यक्ति चित्र भी बनने लगे। माधवागणि-डालगणि के संयुक्त और स्वतन्त्र चित्रों की उपलब्धि इसके साक्ष्य
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हैं। भाव चित्रों के कलाकार मुनि कुन्दनमलजी और मुनि दुलीचन्दजी का नाम प्रधानता से लिया जाता है
बिना रंग पीछी के मात्र कर्तरिका द्वारा कागज को काटकर विविध चित्र बनाने की प्राचीन प्रथा है। ज्ञानभण्डारों एवं हमारे संग्रह में भी उसके उदाहरण विद्यमान हैं। वर्तमान में इस कार्य में निष्णात रामप्रसाद जड़िया और उनके शिष्यों में इस पद्धति की संरचना प्राप्त है ।
जैन चित्रकला में पहले शतावधानी पं० धीरजलाल शाह ने भी पर्याप्त कार्य किया। मुर्शिदाबाद के हीराचंदजी
दूगड़ और उनके सुपुत्र इन्द्र दूगड़ भारत विख्यात् चित्रकार हैं। कलकत्ता के बड़े मन्दिर में इनके द्वारा आदिनाथ जीवनी समवतरण व दादावाड़ी में दादा साहब की जीवनी का चित्र लगा है। गोकुलदास कापड़िया ने भगवान महावीर की जीवनी चित्रावली रूप में प्रस्तुत कर बड़ा ही प्रशंसनीय कार्य किया है। जसवंतसिंह बोथरा. जवरचन्द दसाणी और गणेशजी ललवानी आदि ने भी चित्रकला में प्रशंसनीय योगदान दिया है । आशा है प्राचीन और नवीन चित्रकला के क्षेत्र में नये चेहरे आकर जैन चित्रकला को उन्नति के शिखर पर आरूढ़ करेंगे ।
श्री केशरिया जी तीर्थ - चित्रकार गणेश मुसव्वर
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ब्राह्मी. खरोष्ठी, पुष्करसारी, अंग-लिपि, बंग-लिपि, मगध-लिपि, मांगल्य-लिपि, मनुष्य-लिपि, अंगुलीय लिपि, शकारि-लिपि, ब्रह्मवल्ली लिपि, द्रविड़-लिपि, कनारि-लिपि, दक्षिण · लिपि, उग्र - लिपि, संख्या-लिपि, अनुमोललिपि, ऊर्ध्वधनुलिपि, दरद - लिपि, खास्य - लिपि, . चीन-लिपि, हूण-लिपि, मध्याक्षर-विस्तर-लिपि, पुष्प-लिपि, देव-लिपि, नाग-लिपि, यक्ष-लिपि, गन्धर्व-लिपि,किन्नर-लिपि, महोरग-लिपि, असुर-लिपि, गरुड़-लिपि, मृगचक्र-लिपि, चक्र-लिपि, वायुनक-लिपि, भौम-देव-लिपि, अंतरिक्ष-देवलिपि, उत्तरकुरु-लिपि. अपरगौड़ादि-लिपि, पूर्वविदेह-लिपि, उत्क्षेप-लिपि, निक्षेप-लिपि. विक्षेप-लिपि, प्रक्षेप-लिपि, सागर लिपि, वज्र-लिपि, लेख-प्रतिलेख-लिपि, अनुद्रत लिपि, शास्त्रावर्त-लिपि. गणावर्त-लिपि, उत्क्षेपावर्त-लिपि, विक्षेपावर्त-लिपि, पादलिखित-लिपि. द्विकत्तर-पद सन्धिलिखितलिपि, दशोत्तरपद सन्धिलिखित-लिपि, अध्याहारिणी-लिपि, सर्वरुत्संग्रहणी-लिपि, विधानुलोम-लिपि, विमिश्रित-लिपि, ऋषितपस्तप्त-लिपि, धरणीप्रेक्षणा-लिपि, सर्वोषधनिष्यंदलिपि, सर्वसारसंग्रहणी-लिपि और सर्वभूतरुद्ग्रहणी-लिपि।
सांकेतिक महाराष्ट्री लिपि का एक ग्रन्थ
भारतीय भाषाओं में विविधता होने पर भी जिस प्रकार प्राकृत और संस्कृत को प्रधानता दी जाती है, उसी प्रकार भारतीय लिपियों में अनेकता होने पर भी प्रधानता ब्राह्मी लिपि को और उसके बाद खरोष्ठी को दी जा सकती है। प्राचीन अभिलेख उन्हीं उभय लिपियों में प्राप्त हैं, जिनमें ब्राह्मीलेखों का बाहुल्य है । 'पण्णवणासुत्त' आदि जैनागमों में आर्य की परिभाषा बतलाते हुए ब्राह्मी लिपि का उल्लेख किया गया है। इससे इसकी प्रतिष्ठा का विशेष रूप से पता चलता है।
पाश्चात्य विद्वानों ने ब्राह्मी आदि समस्त भारतीय लिपियों को सेमेटिक लिपि से उत्पन्न हुई बताने की चेष्टा की थी, पर एतद्विषयक अधिकारी विद्वान् स्वर्गीय डा० गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपनी भारतीय प्राचीन लिपिमाला में प्रमाणित कर दिया है कि भारतीय लिपियाँ अतिप्राचीन और स्वतन्त्र हैं | बौद्ध ग्रन्थ 'ललितविस्तर' में ६४ लिपियों की नामावली प्रस्तुत करते हुए प्रथम ब्राह्मी और खरोष्टी लिपियों का उल्लेख किया गया है। इन ६४ लिपियों की नामावली इस प्रकार है
जैनागमों के अनुसार प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव ने इस अवसर्पिणी काल में सारे लोक व्यवहार का प्रचलन किया। इससे पूर्व के मनुष्य युगलिक थे, उनकी आवश्यकताएं बहुत सीमित थीं एवं उन्हें आवश्यक वस्तुओं का अभाव नहीं था। क्रमशः आवश्यकताएं बढ़ने लगी और वस्तुओं की कमी होने लगी. अतएव भगवान् ऋषभदेव ने युगानुकूल प्रवृत्तियों की शिक्षा दी. जिसमें लिपिविज्ञान भी सम्मिलित है। उन्होंने अपनी पुत्री ब्राह्मी को १८ लिपियाँ सिखायी थीं, जिनमें प्रधान लिपि का नामकरण उसी के नाम से 'ब्राह्मी' किया । यह लिपि दाहिनी ओर से लिखी जाती है। 'आवश्यकनियुक्ति-भाष्य' गाथा १३ में "लेहं लिविविहाणं जिणेण बंभीइ दाहिणकरेणं" शब्दों द्वारा यही सूचित किया है। पंचमांग 'भगवती सूत्र' के प्रारंभ में भी "नमो बंभीए
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लिवीए" शब्दों द्वारा ब्राह्मी लिपि को नमस्कार करके उसका महत्त्व प्रदर्शित किया गया है। ___ 'समवायांग सूत्र' के १८ वें समवाय में १८ प्रकार की लिपियों का एवं ४६ वें समवाय में ब्राह्मी लिपि के ४६ मातृकाक्षर * होने का उल्लेख पाया जाता है।
१८ लिपियों को नामावली इस प्रकार है
वंभीएणं लिवीए अट्ठारसविहे लेख विहाणे पन्नते तंजहा–भी जवणाणिया, दोसाउरिया, खरोट्टिया, पुक्खरसारिया, पहाराइया. उससरिया, अक्खरपुट्टिया, भोगवयन्ती, वेणतिया, णिण्हइया, अंकलिवीगणियलिबी. गंधव्वलिवी, भूयलिवी, आदंसलिवी, महेसरी लिवी, दामिली लिवी, पुलिंदी लिवी।
गया है | जिसका अर्थ जयमंगला टीका में-"यत् साधुशब्दोपनिबद्धमप्यरक्षव्यत्यासादस्पष्टार्थः तद् म्लेच्छितं गूढ़वस्तुमन्त्रार्थम्" लिखा है। अर्थात्. 'म्लेच्छित वह है जो शुद्ध शब्द-रचना वाला होते हुए भी अक्षरों के हेरफेर से लिखने-बोलने में अस्पष्ट अर्थ वाला हो; इसका उपयोग गुप्त वात और मंत्रादि के लिए होता है। ___ 'कामसूत्र' में कौटिलीय (चाणक्यी ) और मूलदेवी का स्वरूप इस प्रकार लिखा है
दादेः क्षान्तस्य कादेश्व, स्वरयोह्र स्व-दीर्घयोः । बिन्दूष्मणोविपर्यासाद् दुर्बोधमिति संज्ञितम् ।। अकौ खगौ घडौ चैव, चटौ तपौ यशौ तथा । एते व्यस्ताः स्थिरा शेषाः मूलदेवीयमुच्यते ।।
-अधि० १ अध्या०३ सूत्र १६ अर्थात-'क' से 'थ' तक और द' से 'क्ष' तक के व्यंजन, ह्रस्व और दीर्घ स्वर, अनुस्वार और विसर्ग को उलट कर लिखने से कौटिलीय (चाणक्यी) लिपि बनती है।
मूलदेवी लिपि में 'अ' को 'क', 'ख' को 'ग', 'घ' । को 'ङ', 'च छ ज झ ञ' को 'ट, ठ, ड, ढ, ण' से 'त थ दधन को 'प फ ब भ म' से तथा 'य र ल व' को 'शष सह' से बदलना होता है।
पन्नवणासुत्त' में इन लिपियों के नामों में कुछ भिन्नता पायी जाती है। "उच्चतरिया के स्थान पर 'अंतक्खरिया', 'उयंतरिक्खिया' और 'उयंतरकरिया' तथा 'आदंसलिवी' के स्थान में 'आयासलिवी' मिलता है।
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_ 'विशेषावश्यक भाष्य' में, जो कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा सातवीं शती में रचा गया है, लिपियों की संख्या १८ बताने पर भी उनके नाम उपर्युक्त नामों से सर्वथा भिन्न पाये जाते हैं
__ हंस लिवीर भूअ लिवीर जक्खी३ तह रक्खसीय४ शेधघर उड्डी५ जवणी तुरक्को कीरीपदविड़ी९ य सिंधविया१० मालविणि११ नडि१२ नागरि१३ लाडलिवि१४ पारतीय१५ वोधव्वा तहअ निमित्तीय१६ चाणक्की१७ मूलदेवीय१८।
उपर्युक्त नामावली में अधिकांश प्रान्तीय लिपियों के नामों के साथ-साथ अन्त के दो नाम सांकेतिक लिपियों के भी प्रतीत होते हैं । वात्स्यायन के 'कामसूत्र' में इन्हें संकेत-लिपि बताते हुए "म्लेच्छितविकल्पाः " कहा
मुनि श्री पुण्यविजयजी के पास सं० १६६३ में लिखित एक लिपि-पत्रक है जिसमें मूलदेवी, सहदेवी. अंकपल्लवी, शून्यपल्लवी. रेखापल्लवी. औषध लिपि और दातासी लिपि-इन सांकेतिक लिपियों का विवरण है। इसी प्रकार साराभाई मणिलाल नवाब के पास सं० १८९७ के लिखित पत्र में सहदेवी और दातासी लिपि के उदाहरण लिखे हुए हैं। इनके लिए मुनि पुण्यविजय जी का भारतीय श्रमण संस्कृति अने लेखनकला' पृष्ठ ७ से ९ देखना चाहिए ।
* मूल में वे अक्षर कौन से हैं, यह नहीं कहा गया, पर टीकाकार के अनुसार वे अ से क्ष तक (ऋऋ लु
ल त्र ज्ञ और ळ, के अतिरिक्त ) हैं ।
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हमारे संग्रह में भी १८ वीं शती के तीन लिपिपत्रक हैं जिनमें दो पत्रों की लिपि में सांकेतिक वर्णमाला और पद्य हैं. पर लिपि का नामोल्लेख नहीं है। तीसरे पत्र में बंगालदेशी, तिलंगी, कर्णाटी और एक अज्ञात लिपि की वर्णमाला है। नामोल्लेख वाली लिपियाँ भी उन देशों की प्रचलित लिपियों से सर्वथा भिन्न हैं, अतः सांकेतिक लिपि ही मालूम देती हैं।
वर्गों की भाँति अंकों के सांके तक चिह्न भी ताडपत्रीय ग्रन्थों के पत्रांक रूप में, एवं अन्य ग्रंथों में भी पाये जाते हैं।
अंग्रेजी शासन के समय तक विस्मृत लिपियों की वर्णमाला कोई भी तैयार नहीं कर सका । पाश्चात्य विद्वानों को इन भारतीय प्राचीन लिपियों ने विस्मय में डाल दिया। उन्होंने भारतीय विद्वानों के साहाय्य से कई वर्षों तक निरन्तर श्रम करके उन उलझी हुई गुत्थियों को सुलझा कर छोड़ा। इस सम्बन्ध में मान्यवर गौरीशंकर ही० ओझा, श्री भगवानलाल इन्द्रजी, श्री काशीप्रसाद जायसवाल आदि विद्वानों के प्रयत्न विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ओझाजी की भारतीय प्राचीन लिपिमाला' हिन्दी साहित्य में अपने ढंग का एक अलग ही ग्रन्थ है।
सांकेतिक लिपियों का आविष्कार अपने भावों को गुप्त या सीमित वर्ग में रखने हेतु ही हुआ था। आज भी मंत्र-तंत्र आदि सांकेतिक लिपियों में लिखे जाते हैं। ओसवाल आदि जातियों के वंशावली लेखक भाटों ने भी अपनी सांकेतिक लिपि बना रखी है. जिससे उन बहियों को उनके अतिरिक्त यजमानादि पढ़ने में असमर्थ रहते हैं। लिपि के अतिरिक्त बोलचाल और व्यवहार में व्यापारी वर्ग एवं स्वर्णकारादि जातियों ने सांकेतिक शब्द बना रखे हैं, जिससे पास में बैठा दूसरा व्यक्ति रहस्य भी न समझ सके और उनका काम भी चलता रहे।
मध्यकाल में प्राचीन लिपियों के ज्ञान के अभाव में कितने ही प्राचीन शिलालेख और ग्रन्थ अस्तव्यस्त होकर नष्ट हो गये। कुछ गड़े धन की तालिका, मंत्र, यंत्र, स्वर्णसिद्धि आदि अन्ध परम्परा के पोरक बने । मुसलमानी साम्राज्य के समय दिल्ली में लाये हुए लौह-स्तम्भ की प्राचीन लिपि उस समय कोई भी पढ़ नहीं सका था। सं० १६६२ में जोधपुर राज्य के घंघाणी स्थान में कतिपय प्राचीन जैन मूर्तियाँ मिली थीं जिन पर महाराज संप्रति, चन्द्रगुप्तादि के लेख उत्कीर्ण थे। इन लेखों को खरतरगच्छीय भट्टारक श्री जिनराजसूरि ने अम्बिकादेवी के साहाय्य से पढ़ा था। इसका उल्लेख 'खरतरगच्छपट्टावली" में पाया जाता है।
अभिलेखों में उत्कीर्ण एवं ग्रंथ-रूप में लिखित लिपि के अतिरिक्त भारतवर्ष में कई ऐसी लिपियाँ भी हैं जिनके विषय में हमारी जानकारी अत्यन्त ही सीमित है । महाराष्ट्र देश में महानुभावी नामक एक धार्मिक सम्प्रदाय है जिसे गुजराती चक्रधर स्वामी ने (सं० १२५० से १३३०) स्थापित किया था। इनका गृहस्थावस्था का नाम हरिपाल था । महानुभावी संप्रदाय का थोड़े ही समय में बहुत प्रचार हुआ और वह महाराष्ट्र की जनता से लेकर देवगिरि के यादव-नरेशों के दरबार तक में सम्मानित हुआ । जजिया जैसे भयानक कर से कुछ समय तक इस सम्प्रदाय वाले मुक्त रहे थे । इन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति और सदाचार का अच्छा प्रचार किया। अस्पृश्यता एवं जाति तथा वर्ण-व्यवस्था को इन्होंने अमान्य किया । इस सम्प्रदाय में जाति-वर्ण के भेद-भाव बिना सभी व्यक्ति संन्यास के अधिकारी थे। इनका प्रचार इतना बढ़ा कि दक्षिण से उत्तर तक. पंजाब, काश्मीर, काबुल, अफगानिस्तान में भी इनके मठ स्थापित हो गये और अनेक संन्यासी-संन्यासिने उन मठों में रह कर धर्म-प्रचार करने लगे। उस समय वैदिक संस्कृति के अनुयायी बड़े कट्टरपंथी थे । वे इस सुधारप्रिय संप्रदाय से घबड़ाये और उन्होंने इसका जोरों से विरोध करना
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प्रारंभ कर दिया । उन्होंने इस संप्रदाय के अनुया. यियों पर झूठे दोषारोपण किये और उन्हें नाना यातनायें दी। विरोधी व्यक्तियों से अपने सिद्धान्तों तथा धर्म ग्रंथों को सुरक्षित रखने के लिये महानुभावियों ने कई साम्प्रदायिक लिपियों का आविष्कार किया, जिनमें से २५-३० प्रकार की संकेत लिपियों का पता चल चुका है। महानुभावी साधुओं ने काफी साहित्य निर्माण किया, फिर भी इन लिपियों की अनभिज्ञता के कारण अन्य विद्वान् कुछ वर्ष पूर्व तक उससे अपरिचित ही रहे । कहा जाता है कि इनके साहित्य पर गुजरात के जैनों का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है । सं० १४१० के लगभग 'सह्याद्रि' ग्रंथ के निर्माता राघवोपाध्याय ( उर्फ रवलो व्यास ) ने 'सकलसगल लिपि का निर्माण किया । सं० १४६० के लगभग कवीश्वरी अंक लिपि का गूर्जर शिव ब्यास ने आविष्कार किया था । इनके अतिरिक्त सुन्दरी लिपि, मांडल्य लिपि. वज्र लिपि, सुभद्रा लिपि. सिंह लिपि आदि में लिखित ग्रन्थ भी प्राप्त हैं । इन में वज्र लिपि और सुन्दरी लिपि का प्रचलन न्याय ब्यास ने सं० १४१० में किया था । कुछ वर्ष पूर्व महाराष्ट्र विद्वानों ने इसके पढ़ने का प्रयत्न किया और इसके द्वारा महाराष्ट्री साहित्य को एकाएक बहुत बड़ी साहित्यिक निधि प्राप्त हो गयी।
संवत् का अंक तो स्पष्ट था, पर अन्य बातें कुछ ठीक
और कुछ बेठीक रूप से पढ़ी गयी थी। उस समय वर्गमाला बनाने का विचार भी किया गया, पर उसके लिए जैसी लगन से प्रयत्न करना आवश्यक था. नहीं हो सका । इसके ऊपर के वेष्टन-वस्त्रादि को देखते हुए इसकी लिपि दक्षिणी होने का अनुमान किया गया था । यही अनुमान हुआ कि महाराष्ट्र आदि के विद्वानों से पढ़ाने का प्रयत्न किया जाना समीचीन होगा। गत वर्ष काकाजी अगरचंदजी नाहटा ने इसे बम्बई, पूना आदि स्थित कई विद्वानों को दिखाया, पर कोई भी इसे पढ़ नहीं सके । तब मुझे पढ़ने का प्रयत्न करने की प्रेरणा करते हुए वह गुटका उन्होंने मेरे पास कलकत्ते में , रख दिया । गत बालमुकुन्द गुप्त स्मृति महोत्सव के प्रसंग पर उपस्थित हिन्दी के कई विद्वानों को यह ग्रन्थ दिखाने पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति श्री . चन्द्रबली पाण्डेय ने अन्त में यही सुझाव दिया कि आप जब इसका कुछ-कुछ अंश पढ़ने में समर्थ हो सके हैं तो प्रयत्न कीजिए। वर्णमाला तैयार करके इसे आप पूरा पढ़ लेंगे। इससे उत्साहित होकर मैंने इसे पढ़ डालने का निश्चय किया और बीच का पृष्ठ खोलकर अनुमान से पढ़ना प्रारंभ कर दिया । लिपि के साथ-साथ इसकी भाषा भी मेरे लिये अपरिचित थी. फिर भी अन्ततोगत्वा इसकी एक वर्णमाला तैयार कर ली गई और इसके आधार पर इस लिपि और ग्रन्थ का कुछ परिचय प्रस्तुत लेख द्वारा कराया जा रहा है ।
कुछ वर्ण हुए हस्तलिखित ग्रंथों का संग्रह करते हुए हमें एक ऐसा ग्रन्थ मिला जिसकी लिपि बड़ी विचित्र- सी प्रतीत होती थी। हमने उसे पढ़ने के लिये कई विद्वानों की सहायता से प्रयत्न किया पर सफल न हो सके । इसमें कुछ अक्षर तो नागरी लिपि से मिलते-जुलते थे. कुछ सर्वथा भिन्न थे। इससे बड़ी दुविधा होने लगी। सिलसिलेवार पढ़े बिना इसके नामादि का पता लगाना भी संभव न हो सका। इसकी लिपि को किसी विद्वान ने कुछ और किसी ने कुछ बताया । पर पर्याप्त परिश्रम के बिना इसका निर्णय होना संभव न था । तीन वर्ण हए मैने इसकी प्रशस्ति पढ़ने का प्रयत्न किया।
यह गुटका ५४३।। इंच की साइज का है और इसकी पत्र संख्या ३१६ है किन्तु पत्रांक कहीं भी दिया हआ नहीं है । ग्रंथ पतले सफेद कागजों पर काली स्याही से लिखा गया है । दोनों ओर लाल स्याही की लकीरें देकर हाशिया छोड़ा हुआ है । सिलाई मजबूत होते हुए भी ऊपर केवल एक पतला, इकहरा, हाथ की बुनी दक्षिणी साड़ी के छीले का वस्त्र लगा हुआ है जो जीर्ण
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शीर्ण होकर नष्टप्रायः हो गया है। प्रति के अंतिम ३-४ पत्र घिस कर आधे-आधे नष्ट हो गये है । ३१५ पत्र दोनों ओर लिखे हुये हैं । पत्रांक १६१. १६२ खाली हैं । पत्रांक ६४, ७९, ८०, १६४, २४० २४१ एक तरफ लिखे हुये हैं प्रति पत्र में १० से १४ तक पंक्तियों और प्रति पंक्ति में १६ से १९ तक अक्षर हैं। अंतिम ३१६ वें पत्र में केवल ४ पंक्तियाँ हैं । अक्षर गणना से ग्रन्थ लगभग ४००० श्लोक परिमाण का प्रतीत होता है ।
"
ग्रन्थ के पुष्पिका-लेख से ज्ञात होता है कि शक संवत् १५३५ में अक्षय तृतीया सोमवार के दिन जांबू गाँव में इस प्रति का लिखना प्रारंभ किया गया था । पूर्वकाल में जांबू गाँव नासिक नगर का एक भाग था । इस प्रति के लेखक का नाम आसुटी हरीचंद्र है । हरीचंद्र है । आसुटी' सम्भवतः लेखक की उपाधि है। संकेत लिपि में लगभग २०० श्लोक प्रतिदिन लिख कर १९ दिन में, अर्थात् मिति ज्येष्ठ कृष्णा ६ शुक्रवार को जांबू गाँव में ही लेखन समाप्त किया गया है। इस ग्रन्थ का नाम पावा पाठ" है । प्रस्तुत प्रति में पूर्वार्द्ध पावा पाठ' लिखा है. अतः इसका उत्तरार्द्ध भी अवश्य होना चाहिए । महानुभावी सम्प्रदाय भक्ति प्रधान था, अतः इसका प्रतिपाद्य विषय स्वभावतः पूजा पाठ. दान, ब्राह्मण-सत्कार उपदेश प्रार्थनादि है। दीचीच में प्रसंगोपात्त कथाओं में द्य तादि दुर्व्यसनों के त्याग का भी निर्देश है। भगवान् श्रीकृष्ण, पद्मनाभि मार्कण्डेय, दत्तात्रेय अवड़ला माता महाराष्ट्र के महान् व्यक्ति चांगदेव, लख्मदेव, भाईदेव, गोपाल, हरिपाल प्रभूति व्यक्तियों तथा गुजरात, द्वारावती महाराष्ट्र बनारस, सारंगधर आदि देशों के तीर्थों तथा गोमती, तुंगभद्रादि नदियों के नाम इस ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर आये हैं । एक स्थल पर चांगदेव की जन्म भूमि राउल का नाम आया है, जो अब भी महाराष्ट्र में विद्यमान है ।
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ग्रन्थ का प्रारम्भ करते समय "श्री परेशायनमः नागरी अक्षरों में लिख कर संकेत लिपि का प्रारंभ हुआ है । समस्त ग्रन्थ, आदि से अन्त तक, प्राचीन महाराष्ट्री गद्य में लिखा गया है । बीच-बीच में एकाध अक्षर नागरी वर्णमाला का भी दे दिया है। यह पद्धति कभी-कभी भाषा से अनभिज्ञ पाठक को भ्रम में डाल देती है। एक से नौ तक के अंकों में नागरी पद्धति में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। कहीं-कहीं पद्यांक को भाँति ५-६ पंक्तियाँ लिख कर अंक दे दिये गये हैं व क्यों के बीच-बीच में ऐसे अक्षर आ ज.ते हैं जिन्हें अभी तक ठीक-ठोक नहीं पढ़ा जा सका । लिपि - पत्रक में ऐसे अक्षरों को 'अस्पष्टाक्षर' की संज्ञा दी गयी है। संयुक्ताक्षरों में कुछ सांकेतिक और कुछ नागरी वर्ण दिये हैं । मैंने उन सब का उसी रूप में लिपि-पत्रक में समावेश कर दिया है ।
भारतीय प्राचीन साहित्य में संकेत लिपि के जो वर्णन मिलते हैं, उनके विषय में ऊपर लिखा जा चुका है । महानुभावी संप्रदाय में भी २५-३० तरह की संकेत लिपियाँ थीं । आलोच्य लिपि का क्या नाम है. यह तो नहीं कहा जा सकता; पर किन-किन अक्षरों में कैसा परिवर्तन हुआ है और किस ढंग से लिखा गया है, इसका कुछ विवरण लिखा जाता है। इस लिपि में नागरी के दन्त्य 'स' 'सा' को 'अ' 'आ' मूर्धन्य 'ष' 'बी' को 'इ' 'ई' और 'ह' को 'उ' 'ऊ' माना है। 'ए' 'ऐ' में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया गया है। 'ओ' 'औं' 'उ' 'ऊ' के सदृश प्रतीत होते हैं ।
कण्ठ्य वर्ण क ख ग घ लिखा है। तालव्य वर्ग
को य र ल व' के सदृश च छ ज झ' को 'प फ ब भ के सदृश लिखा है 'छ' का रूप 'पू' के जैसा तथा कहीं-कहीं नागरी के 'छ' जैसा ही है। अनुनासिक 'ङ' तथा 'ञ' का कोई निश्चित रूप नहीं है । 'ञ'
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अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ मि ...- : ससाघवाह हहार
.. . क रव ग घ च छ मछ ) ट ठ ड ढ ण त प २ घन यर व पबछ४ तयघटdडटण
प फ ब भ म य य र ल व श ष स ह क्ष त्र ज्ञ ळ चज २०गराषमनल ३१बूंदी
- डी (अस्पष्टाक्षर ) क्त व नव्य वृ त्म श्र म्ह स्ती कृ ष्ण प्रन ब्र स्व
वड्सपल श्रीलप्रनम्ध ज्यत्त व्ह द च्य ध्य व्या स्त्र व य ग्य ग्य दृश्य ब्द स्थ कत काय ष्या त्रस्व ग्रह का ६ क्न का मृए ध्य प्तः रव्य त्य मि क्ष्मी कश्चस्व ष्ट्राग्र त्कबष्ण कस्का कतः व्यय मि उभीच स्वधात्याटप्प क्त त्य व्य व्इ भ्य ध्य द्ध ष्णु व स्नात्र ब्र स्प (संयुक्ताक्षर)
ती काकद स्णु घाव स्प के लिये लिपि-पत्रक में '४' के रूप का अनुमान कर है। तालव्य 'श' और मूर्धन्य 'ष' में कोई परिवर्तन के प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया है। मूर्धन्य वर्ण 'ट ठ नहीं है । दूसरे सभी अक्षर गुजराती की तरह खुले-मस्तक ड ढ ण' को दन्त्य वर्ण त थ द ध न' तथा 'त थ द हैं. पर श ष' को अपरिवर्तित ग्रहण करके मस्तक पर धन' को मूर्धन्य ‘ट ठ ड ढ ण' के रूप में परिवर्तित संकेत लकीर भी रखी है। 'ष' के खुले मस्तक वाले रूप को यहाँ बना लिया है । ओष्ठ्य वर्ण प फ ब भ म' को तालव्य 'इ' की मान्यता दी है। दन्त्य 'स' को हिन्दी के 'म' 'च छ ज झ ञ' में परिवर्तित किया है। 'भ' बंगला लिपि जैसा माना है. और 'ह' को 'इ' से मिलता-जुलता रूप के 'ह' के सदृश है । 'य' के दो रूप हैं-एक शून्याकार दिया है। 'क्ष' को 'उ' जैसा लिखा है। 'त्र' और 'ज्ञ '०' तथा दूसरा 'क' । 'र' के रूप में गुजराती में कोई खास परिवर्तन नहीं है। 'ळ' के 'ग' रूप में चले 'ख' या नागरी के 'अ' का निकटवर्ती आकार जाने से 'ळ' के लिए 'ल' रूप रखा गया है। प्रयुक्त हुआ है। 'ल' 'व' में ठीक 'ग' 'घ' का परिवर्तन मात्राओं के प्रयोग में केवल ह्रस्व उकारान्त के
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नमूने के तर पर ग्रंथ की कुछ पंक्तियाँ नीचे उद्धृत की जाती हैंआदि
नीचे :: बिन्दी देकर काम चलाया है। दूसरी मात्राओं के प्रयोग में विशेष परिवर्तन नहीं है पर दीर्घ ईकार पाठक को भ्रम में अवश्य डाल देता है क्योंकि मात्रा विशेष ऊँची न ले जाकर 'आ' कार की तरह ही है. जबकि आकारान्त खुले-मस्तक की अलग पाई है और ईकारान्त व्यञ्जन से मिला हुआ है। पूर्णविरामादि के लिए प्रत में। या । के चिह्न हैं किन्तु स्थान-स्थान पर अक्षर-वाक्यों के आगे-पीछ विसर्ग चिन्ह ':' का प्रचुरता से व्यवहार किया है, जो तत्कालीन महानुभावी सम्प्रदाय की अन्य मराठी संकेत-लिपियों में भी दृष्टिगोचर होता है।
महानुभावी पंथ की सांकेतिक लिपियों को महाराष्ट्र के दो-एक विद्वानों ने पढ़ने का प्रयत्न किया है। इसमें उन्हें महाराष्ट्र भाषा का ज्ञान बहुत सहायक सिद्ध हुआ। किसी भी ग्रन्थ की भाषा का ठीक ज्ञान हो तो लिपि के अक्षरों का अनुमान लगाने में बड़ी सहायता मिलती है
और तुरंत निर्णय पर पहुंचा जा सकता है । हमने हस्तलिखित ग्रन्थों की प्राचीन लिपियों का अभ्यास, उन ग्रन्थों के प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, गुजराती भाषा में होने से, सुगमता से कर लिया था, पर इस गुटके की लिपि की समस्या उससे सर्वथा भिन्न थी। इस ग्रन्थ को पढ़ने में दो कठिनाइयाँ थीं—एक संकेतलिपि की और दूसरी महाराष्ट्री भाषा की। मैं ठहरा दोनों विषयों से अनभिज्ञ, अतः पाठक मेरी परेशानी को स्वयं समझ सकते हैं। जिस भाषा के शब्दों का भी ज्ञान न हो तथा जिसकी लिपि भी अज्ञात हो, उसका प्रथम परिचय देने में अशुद्धियों का बाहुल्य अवश्यम्भावी है. पर वह एक अज्ञ व्यक्ति द्वारा सम्पादित होने के कारण उतना ही क्षतव्य और विद्वानों द्वारा संशोधन-विषयक सुझाव प्राप्त करने का अधिकारी भी है।
श्री परेशाय नमः ||0|| फळे ठा-1] कराया ब्राह्माणा चा धरी :रू: स्विकरिला :: केतुला एकू दीसू राज्य केलें । :४: श्राद्ध जालें तः ३: भार्या रतिचिया चाडा लेः । णेः ते व्हेळि ब्रह्मचयाची-:मः तें निमित्त करूणि माता पुरायें: ते य देव-रीत विजें करिताः श्रीदत्तात्रये प्रभूम्या श्री चा वेखुधरूनि जाळी तळौणि न्यः हो की धलाः श्री मुकुटावरि चवडा ठेविला : लोकु-या-तो परतागेलाः तेथ शक्ति स्वीकरिलाःःः स्विकरिला ऐसी एकि वासना ::२: युद्वारावत्ति जीए तवः ३तेथ होते :२:३-द्वारावति-||१||३: द्वारावत्ति जीए तवंः ३ तेथ होते २:३:-द्वारावति-:॥१॥३: द्वारावतिए सिखरा"डीति :२: सुपोंपुंजे भरीतिः ॥ वरिठेवीतिः गोमतियें मध्य"माणु प्रकटे खराँटेणि विद्याः ||२||""तिःयें सयासु स्विकरिलाः म रूद्धि पूरा ये ते थौणि माग तें द्वारावतिये येः गोमतियेचां तीरी जपत होतेः पूढां दंडुरोविला:ो तेथ :३: ये टाः वरि सु पठेविले वः खरांटेणि हाणि तलें दंडुमोडुणि गोमतिये मध्ये घातला तेथःओंः शक्ति स्विकरिलीः दुसरी वासणारू: स्वीकरिला :२: त्राद्वि पुरा येः ।।३।।
अन्त्य-पुष्पिका
पूर्वामुखें गुफै अवस्थान जालें : प्रशराम वाः एरागुंफे रामेश्वरा बा : ६||९||८|| एवं पूर्वार्द्ध पावा पाठं संपूर्ण समाप्तः 10.10|| श्री शके १५२५ शुभकृत नाम सवछरे वैशाख शुद्ध अक्षत्रीतिया सोमवारें जाबु गांवी लेखन आरमिले तेंः जष्ट बदि शष्टी शुक्रवारें जांबुगावी लेखन संपले : प्रांत आसुटी हरीचन्द्राची: शुभंभवतु : लेखक पाठकयो: वाचिता विजयाहो ॥छःछिः।10110||ollo||
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इस समय दो तरुण बालाए बाग के बीच में स्थित तालाब के किनारे खड़ी-खड़ी उसकी शोभा देख रही हैं। इनमें एक का नाम तरंगवती और दूसरी का नाम सारसिका है। तरंगवती ऋषभसेन सेठ की उत्यन्त लाटली पुत्री है। उसके गणित. वाचन, लेखन, नृत्य, गायन, पुष्पपालन कला, वनस्पति शास्त्र, रसायन शास्त्र आदि विषयों के निष्णात शिक्षकों के पास अभ्यास किया हुआ है।
तरंगवतो यमुनाजो की मान्यता से हुई थी अतः उसका नाम तरंगवती रखा गया। वह आठ भाइयों में सबसे छोटी और लाडली बहिन है। उसके पास खड़ी सारसिका उसकी प्रिय सखी है।
तरंगवती
शरद ऋतु के सुहावने दिन प्रारम्भ हो गये हैं। आकाश में श्वेत बादल दौड़ते मालूम देते हैं। ग्रीष्मकाल बिताने गये हुए राजहंस लौट कर यमुना नदी एवं अन्य सरोवरों में कल्लोल करने लगे हैं। नदी तट-स्थित कितने ही वन फीके, कितने ही आसमानी और कितने ही पीले बन गए हैं तो सप्तपर्ण के जंगल बरफ जैसे सफेद हो गए हैं।
इस समय मध्य देश स्थित वत्स देश अत्यन्त मनोहर लगता है। उसके धान्य भरे खेत, जलपूर्ण नदी नाले एवं हर्ष भरे मानव मन हर किसी को आनन्ददायी हैं। इसकी राजधानी कौशाम्बी तो उत्सवों का धाम हो गई है।
तालाब में गुलाबी, आसमानी और भूरे कमल खूब खिले हुए हैं जिनका पराग संग्रह करने के लिए मस्त बने भूमर गुंजार कर रहे हैं। बत्तक और चक्रवाक युगल इसमें तैर कर कल्लोल कर रहे हैं। यह दृश्य देखते-देखते तरंगवती एकाएक मूर्छित होकर भूमिसात् हो गई।
एकाएक इस घटना से सारसिका घबड़ा गई । वह दौड़ . कर तालाब से कमलपत्रों का दोना बनाकर पानी लाई और तरंगवती के मुंह पर छिड़कने लगी। थोड़ी देर में तरंगवती सचेत हो गई, उसकी आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित थी।
'बहिन । एकाएक तुम्हें क्या हो गया? कोई मधुमक्षिका ने डंक मारा या चक्कर आ गया? जो हो शीघ्र कहो. ताकि उसका उणय किया जाय!' सारसिका के इन प्रिय वचनों के उत्तर में तरंगवती ने कहा-'बहिन । न तो मुझे मधुमक्खी ने काटा और न चक्कर ही आया था। तब क्या हुआ था?' सारसिका ने पूछा।
तरंगवती ने कहा-'प्रिय सखी ! तुम बचपन से मेरी सुख-दुःख की साथीन हो और मेरी समस्त गुप्त बातें जानती हो अतः तुम्हे कहने में कोई आपत्ति नहीं किन्त. यह बात तुम्हारे मन में रखना है। इसके लिये कसम खाकर कहो कि मैं किसी के सामने प्रकट नहीं करूंगी।' सारसिका के कसम खाने पर तरंगवती ने कहा-'चक्रवाक युगल को
यहाँ के नगर सेठ ऋषभसैन का खिला हुआ बगीचा पूरे बहार में है । उसके घर की समस्त महिलाएं इस रद्यान की मौज उड़ाने के लिए निकल पड़ी हैं। पतंगिए की पांख जैसे मनोहर वस्त्र एवं विविध अलंकारों के परिधान से वे नन्दन वन में विहार करती अप्सराओं के जैसी लगती हैं। कोई फूल तोड़ती है तो कोई लतामण्डपों की कुंज गलियों में घूमती है। कोई पुष्प हार बनाती है तो कोई पक्षियों के कलरव-गीत सुनने में मस्त है।
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देखते ही मुझे पूर्व जन्म कि बातें स्मरण हो आई जिससे मैं मूर्छित हो गई थी। यह सारी बात तुम्हें संक्षेप से बतलाती हूँ ।
यहाँ से कुछ दूर अंग नामक देश है जहाँ से होकर गंगा बहती है। इसके उभय तट पर बहुत से ग्राम-नगर बसे हुए हैं। इसमें जल पक्षियों के झुण्ड के झुण्ड रहते हैं। मैं अपने पूर्व भव में वहाँ चक्रवाकी थी एवं मेरा पति शरीर से सुन्दर और स्वभाव से तपस्वी की भाँति सरल था । हम स्वतन्त्रता का पूरा आनन्द उठाते थे। चक्रवाक में जितना प्रबल और सच्चा स्नेह होता है वह सारे संसार में अप्रतिम है । हम दोनों हरदम साथ-साथ रहते । तैरने में खेलने और उड़ने में हमें एक दूसरे का वियोग असा था । एक दिन कोई महागजराज गंगा नदी में जलपान करने आया। वह सूड में भरकर इधर-उधर पानी उछालता और कालोल कर रहा था । इतने में एक यमदूत जैसा काला भीषण पारधी आकर वृक्ष के नीचे खड़ा हो लिये गया। हाथी का शिकार करने के उसने धनुष पर बाण चढ़ाकर जोर से हाथी की ओर फेंका किन्तु दुर्भाग्यवश वह हाथी को न लगकर डाल पर देठे मेरे पति को लग गया। उनकी एक पॉस कटने से मूच्छित हो वे नदी के तट पर जा गिरे। मैं भी पीछेपीछे उड़ी और उनकी वेदना सहन न होने से मूर्छित हो गई । कुछ देर बाद होश में आने पर मैंने चंचु द्वारा उनका तीर खींचकर निकाल दिया और अश्रुपूर्ण नेत्रों से अपनी पाँखों द्वारा हवा करने लगी। मैंने उन्हें जीवित समझ कर बहुत चेष्टा की कि वे कुछ बोले पर वे बोले नहीं में पुनः अचेत हो गई। चेतना लौटने पर मैंने अपनी चोंच से अपनी पांख के अन्दर के पिच्छ निकाल फेंके और उसी प्रकार स्वामी की पाँखों के पिच्छ भी चुन-चुनकर निकाले और उनसे चिपक कर विलाप करने लगी। इतने में ही वह पारधी वहाँ आया और हाथी के बदले मेरे स्वामी को मरा देख कर कहा
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'आह । प्रभु !' मैं उसके भय से उड़ कर सुदूर वृक्ष की शाखा पर जा बैठी पारधी उन्हें बालू पर रख कर काष्ठ लाने चला गया। मैं फिर डाल से उतर कर उनके पास आकर बैठ गई। मेरी वेदना का कोई पार नहीं था। इतने ही में पारधी काष्ठ लेकर आया और में आकाश में उड़ गई। पारधी ने मेरे स्वामी का अग्नि संस्कार कर चला गया। आह ! मेरे पति उस चिता में जल रहे थे। अतः मैं भी उसमें कूद पड़ी । मेरे पति के शरण में वह अग्नि भी मुझे सुख रूप लगी। इतनी बात कहकर तरंगवती फिर वेहोश हो गई। होश में आने पर उसने फिर बात आगे चलाई गंगा के तट पर मैं सती होने के पश्चात् कौशाम्बी नगरी में सेठ ऋपमसेन की पुत्री रूप में उत्पन्न हुई। एकबार आगे भी मुझे यह बात स्मरण हो आयी थी। मैंने तुम्हें संक्षेप में यह बात कही है पर अब जब तक मैं अपने पति से न मिल सकूं तका तव तुम यह बात किसी को भी नहीं कहना |
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'आज सात वर्ष से मैं अपने प्रियतम से मिलने की आशा में माता-पिता को झूठी झूठी आशाएं देती आ रही हूँ । यदि यह सम्भव नहीं हुआ तो मैं हृदय की संताप दूर करने के लिये साध्वी वन जाऊंगी, ताकि फिर संसार के बन्धनों में न फँसना पड़े ।'
यह बात सुनते ही सारसिका के भी आँखों में आंसू आ गए और वह धेर्य पंधाते हुए बोली- सखी तुम्हारा प्रेम स्वर्गीय है, वेजोड़ है । यह प्रेम तुम्हें स्वामी से अवश्य मिलन करावेगा। फिर वे दोनों जहाँ अन्य स्त्रियाँ थीं वहाँ चली गईं। इसकी माता पुत्रवधुओं को नहलाने की व्यवस्था कर रही थी । तरंगवती की आँखे लाल और मुंह उदास देखकर कहने लगी- प्रिय पुत्री ! तुम्हें क्या हुआ ?' तरंगवती ने कहा- 'मां, मेरा सिर दर्द कर रहा है । यद्यपि आज बगीचे में ही सैल सपाटा और भोजन की व्यवस्था आयोजित थी. सब लोग आनन्द मना रहे थे पर एकाएक पुत्री को अस्वस्थ देखकर माता
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रेख पर नियुक्त कर दिया । पर्व दिवस होने से स्वयं उपवास किया था, अतः सादी चटाई पर आसन जमा कर क्या होता है जानने के लिये प्रतीक्षा करने लगी।
को बड़ी चिन्ता हुई किन्तु सबके आनन्द में भंग न पड़े इसलिए सारी व्यवस्था करके स्वयं तरंगवती और सारसिका को लेकर घर आ गई ।
ये तो बड़े घर की संतान, सहज ही आँख-माथा दुखे तो वैद्य · हकीमों की दौड़ा-दौड़ी हो जाती है। ऋषभसेन ने अविलंब कुशल वैद्यों को बुलवाया। उन्होंने नाड़ी परीक्षा की, अन्य प्रश्न पूछ कर अभिप्राय दिया कि-'भय जैसी कोई बात नहीं । वाई के शरीर में कोई रोग नहीं, थकावट या मानसिक चिन्ता से ही सिर-दर्द हो गया लगता है।' संध्या समय सब लोग बगीचे से घर आ गये । दूसरे दिन से तरंगवती का सिर-दर्द तो मिट गया पर मानसिक व्याधि बढ़ गई । पर्वभव के पति की प्राप्ति के लिये उसके रोम-रोम में रटना लग गई।
तरंगवती के अपार रूप और गुणों से आकृष्ट होकर अबतक अनेक श्रीमन्त परिवारों से माँग आती थी पर चरित्र, विद्या, वय, गुण और धन आदि से योग्य न लगने से वे मांगे ठकरा दिए जाते थे।
तरंगवती को अशक्य मनोरथ कैसे सफल हो इसी की तमन्ना लगी थी अतः उसने कठिन व्रत उपवास भी किये जिससे उसका शरीर सूखने लगा ।
एकाएक उसके हृदय में एक विचार का उद्भव हआ कि मेरे स्वयं पूर्वभव के सारे प्रसंगों को चित्रों में अकन कर प्रदर्शनी लगाई जाय । संयोगवश मेरे पति को भी उन्हें देख कर पूर्वभव का स्मरण हो जाय तो हमारा मिलाप हो सकता है उसने ये विचार अपनी सखी सारसिका को कहा और थोड़े समय में ही अत्यंत कुशलतापूर्वक पूर्वभव के सारे प्रसंग आलेखित कर चित्रमाला तैयार कर डाली।
कार्तिक पूर्णिमा आने पर तरंगवती ने उन चित्रों को मूल्यवान चौखटों में मढ़ा कर अपने आंगन में प्रदर्शनी आयोजित कर सजा दिया और सारसिका को इसकी देख
ऋषमसेन सेठ की हवेली राजमार्ग पर थी और उसका आंगन कला की दृष्टि से भी अलंकार रूप माना जाता था। अतः चांदनी रात में लोग प्रदर्शनी देखने के लिये खूब आने लगे। देर तक ऐसा चलता रहा । जब भीड़ कम हुई तो एक नवयुवक अपने मित्रों के साथ चित्र प्रदर्शनी अवलोकनार्थ आया । चित्रों को देखकर वह प्रशंसा करने लगा कि-'अहो ! क्या ही सुन्दर गंगा नदी चित्रित की है ! यह चक्रवाक युगल भी कैसे तादृश बनाये हैं। ये कमल वन में साथ-साथ घूमते हैं, बालुका पर आराम करते हैं । आकाश में भी साथ-साथ उड़ रहे हैं । अहा ! ये कैसे पबित्र प्रेम में बंधे हुये हैं। अरे ! यह हाथी भी कितना सुन्दर और स्वाभाविक है ! इस शिकारी के लाल नेत्र और दीर्घकाय तो देखो। पैर चौड़े कर किस प्रकार धनुष की प्रत्यञ्चा चढ़ा कर खींच रहा है । अरे, यह चक्रवाक इसी से घायल होता है जिसका दृश्य कितना दयनीय लगता है ! और उसे अग्निशरण करते ही चक्रवाकी भी उसमें कूद कर चिता-प्रवेश कर जाती है ! यह तो अजब स्नेह ! स्वर्गीय प्रेम । इस प्रकार बोलते ही वह बेहोश हो गया। उसके मित्र भी चित्र देखने में इतने तल्लीन थे कि उन्हें इस बात का पता तक न लगा | पता लगते ही वे उसे किनारे ले जाकर हवा देने लगे । सारसिका भी उनके पीछे-पीछे गई । जब सचेत हुआ तो वह बोलने लगा'अहा ! मेरी प्रिय चक्रवाकी ! आज तुम कहाँ हो? तुम्हारे बिना यह जीवन नहीं टिक सकेगा। मित्रों ने कहा-'क्या उटपटांग बोल रहे हो? पागल तो नहीं हो गए ? कैसी चक्रवाकी और क्या हुआ है तुम्हें ?' तरुण ने कहा'मैं पागल नहीं हुआ हूँ। तुम मानो या न मानो किन्तु ये चित्र मेरी पूर्व जन्म-कथा से सम्बन्धित हैं। मैं ही
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चक्रवाक हूँ। मृत्यु पर्यन्त की घटना मुझे याद थी पर बाद में क्या हुआ वह इन चित्रों से आज मालूम कर सका । मेरी प्रिय चक्रवाकी मेरे साथ ही जलकर भस्म हो गई। हाय ! आज वह कहां मिलेगी।' सारसिका यह सुनकर चित्रों के पास आकर खड़ी हो गई । इतने में उस तरुण के एक मित्र ने आकर पूछा-'सबको पागल बना देने वाले इन चित्रों का अंकन किसने किया है ?
सारसिका ने कहा-'सेठ ऋषभसेन की पुत्री तरंगवती ने ये चित्र बनाये हैं। ये केवल कल्पना मात्र नहीं हैं, इसके पीछे तथ्य छिपा हुआ है ।'
यह बात उसने अपने मित्र से कही जिसे सुनकर वह शोकपूर्वक कहने लगा-'नगर सेठ तो बड़ा अभिमानी है । तरंगवती के लिये आयी हुई सभी माँगे उसने ठुकरा दिये हैं । मेरी माँग वह कैसे स्वीकार करेगा? मित्रों ने कहा-'तुम चिन्ता मत करो, किसी भी प्रकार से तुम्हारा सम्बन्ध तरंगवती के साथ करा देंगे। वे उसे घर की ओर ले गए। सारसिका भी पीछे-पीछे चली। राज-मार्ग पार कर एक भव्य भवन में वे सब प्रविष्ट हो गए तो उसने बाहर रुककर सारी पूछताछ कर ली।
दिन के दूसरे प्रहर में सेठ धनदेव अपने दो आत्मीय जनों के साथ सेठ ऋषभसेन के पास आया और तरंगवती की मांग की। ऋषभसेन ने कहा-'वह तो व्यापारार्थ परदेश ही घूमता रहता है और दासियों के साथ घमता है । उसे मेरी पुत्री दूं तो वह क्या सुख भोगेगी? सदा . पति वियोग में अश्रुपात करेगी, और कभी अच्छा पहिनने
ओढ़ने का मौका नहीं मिलेगा। उस प्रवासी से तो यहाँ रहने वाले किसी कंगाल को देना अच्छा है। धनदेव को यह उत्तर बहुत बुरा लगा, वह ऋद्ध होकर चला गया। सारसिका संलग्न खण्ड में बैठी हुईं सब कुछ सुन रही थी। उसने अश्र.पूर्ण नेत्रों से आकर तरंगवती को कहा। इस समाचार से वह वज्रपात से धराशायी होते वृक्ष की भाँति स्तब्ध हो गई। जव स्वस्थ हुई तो उसने कहा'सारसिके । मेरे पिता के इस जवाव को सुनकर उन्हें सरन्त आघात होगा जिससे उनका जीवितव्य भी जोखिम में आ पड़ेगा, अतः मैं एक पत्र लिखती हूँ जिसे दे आओ।' तरंगवती ने पत्र तैयार किया और सारसिका उसे लेकर पद्मदेव के मकान पहुंची । दरवानों ने अनजान व्यक्ति ज्ञातकर पूछा-'किससे मिलना है ?' सारसिका ने कहा-'पद्मदेव ने मुझे किसी कार्य के लिये बुलाया है। इससे उन्होंने अन्दर जाने दिया और एक दासी उसे पादेव के पास छोड़ गई ।
रात्रि पूर्ण हुई । प्रभात होने पर सारसिका दौड़कर तरंगवती के निकट गई और उसे आलिङ्गनबद्ध कर बोली-बहिन । काम सफल हो गया ! तुम्हारे पति का पता लग गया है। फिर उसने रात की सारी बात कही । तरंगवती ने कहा-'सखी, तुम माग्यशाली हो कि तुमने उन्हें नजरों से देखा । मैं कब उनके दर्शन करूगी ? अरे, तुमने मुझे उनका नाम तो बतलाया ही नहीं । सारसिका ने कहा'उनका नाम पद्मदेव है और उनके पिता का नाम धनदेव । उनका मकान सारे नगर में केवल अपने से ही भव्यता में कुछ न्यून है । रूप में तो वह कामदेव के जैसा है
और सचमुच वह बिल्कुल तेरे योग्य पति है।' यह कहकर वह चली गई।
पद्मदेव की हालत इस समय बड़ी खराब थी । वह गाल पर हाथ देकर चिन्तित मुद्रा में बैठा था । सारसिका ने उसे नमस्कार कर कहा-'आप जिसकी चिन्ता में बैठे हैं, उसी का सन्देश लेकर मैं आई हैं।' कहकर पत्र हाथ में रख दिया। तरंगवती ने उसमें लिखा था-पूर्वभव में जिसने आपके साथ चिता प्रवेश किया था, वही आज नगरसेठ के यहाँ पुत्री रूप में अवतरित है । आपकी खोज के निमित्त ही यह प्रदर्शनी आयोजित की गई थी। वही प्रेम आज भी कायम हो तो अपनी देह को सुरक्षित रखें व मुझे भी जीवित रखें । अपना
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यह स्नेही जीवन जब तक सुखी न हो तब तक सारी बात गुप्त रखना ।
यह पत्र पढ़कर पद्मदेव की आँखों में अश्रुधारा प्रवाहित हुई, देह कांपने लगा। पूर्व भव का स्नेह उसके हृदय में इतना ही ताजा हो गया था कि उसने कहामेरी दशा वर्णन करने की आवश्यकता नहीं । कल वाले चित्र वास्तव में मेरी पूर्व भव की कथा से सम्बन्धित थे। उन्हें देखते ही मैं मूच्छित हो गया था। वहाँ से आते ही लगभग सारी रात उसी स्थिति में बिताई। प्रातःकाल मेरे मित्रों ने मेरे पिताजी से कहा कि आप तरंगवती के लिये माँग भेजें । उन्होंने यह सुनकर कहातुम भले अन्य कन्या के लिये कहो किन्तु उसका नाम छोड़ो ! वह अभिपानो नगरसेठ नहीं मानेगा। फिर भी जब मेरे मित्रों के आग्रह से वे स्वयं वहाँ गए किन्तु उत्तर वही मिला जो पहले से सोचा हुआ था तो मैंने आत्महत्या करने का निश्चय किया और इतने में ही तुम आ गई। तुम उसके पास मेरा पत्र ले जाकर धैर्य बंधाओ कि तुम्हें वह चक्रवाकी की भाँति ही चाहता है और तुम्हारे पिता को जब तक युक्तिपूर्वक मना लिया जाय तब तक धैर्य धारण करो।
कर सारसिका से कहा । सारसिका ने कहा-'बहिन! यह तो अति- साहस होता है, इससे तुम्हारे कुल की मर्यादा भंग होगी । समय आने पर तुम्हारे पिता तुम्हारे मन की इच्छा समझ कर स्वयं उसके साथ तुम्हारा 'विवाह करने को राजी हो जायेंगे। तुम उताबली मत बनो ।'
तरंगवती ने कहा-'तुम इतनी लंबी गणना कब सीख गई? मनुष्य को सफलता प्राप्ति के लिये सभी प्रकार के जोखिम उठाना सीखना चाहिए। यदि तुम मुझे वहाँ नहीं ले जाती हो तो मैं एक घड़ी भी निकाल नहीं सकूँगी, मेरे जोवितव्य की आशा न रखना।
यह सुनकर सारसिका ने पद्मदेव के पास ले जाना स्वीकार किया ।
तरंगवती ने अपने अत्यन्त मूल्यवान वस्त्राभूषण धारण किये और कुछ रात्रि पड़ने पर दोनों घर से बाहर निकली । जब वे पादेव के मकान पर पहुँची तो वह मित्रों के साथ आंगन में बैठा सारंगी बजा रहा था। सारसिका को दूर से ही देखकर उसने अपने मित्रों को छुट्टी देते हुए कहा-'अब मैं सोऊंगा. तुम लोग भी जाओ। इस शरद रात्रि में आराम करो। उसने सारसिका को बुलाया । तरंगवती पास वाले कक्ष में छिपी खड़ी रही।
सारसिका ने आकर पद्मदेव का पत्र देकर सन्देश कहा । तरंगवती को पत्र पढ़कर अत्यन्त आनन्द हुआ । उसमें चक्रवाक की अपनी मृत्यु तक की सारी बातों के साथ-साथ अपने हृदय की स्थिति लिखी थी। उसने साथ ही आश्वासन दिया था । तरंगवती ने हर्षोल्लास से पत्र पढ़ा था पर कुछ ठंडी पड़ गई। उसने धारणा की कि पद्मदेव धैर्य धारण करने को कहता है तो क्या उसका स्नेह ढीला पड़ गया ? सारसिका ने उसका समाधान किया।
पद्मदेव ने कहा-'सारसिके ! चलो, अपने कल वाले चित्रों का निरीक्षण करने चलें । किन्तु यह तो बतलाओ मेरी आंखों के तारे के समान तरंगवती का क्या सन्देश लाई हो?' यह कहता हुआ वह उसी कक्ष में आ गया जहाँ तीरंगवती खड़ी थी। तरंगवती ने उसे बारंबार प्रेमपूर्वक देखा जिससे उसका सारा शरीर प्रफुल्लित हो गया। सारसिका ने कहा- मैं कोइ सन्देश नहीं लाई हूँ किन्तु सागर से मिलने के लिये जैसे नदी दौड़कर आती है उसी प्रकार वह
आपसे मिलने दौड़ आई है। इसी समय तरंगवती ने पद्मदेव के चरणों में गिर कर हर्षाओं से उनके चरण प्रक्षालित किये । पद्मदेवने उसे प्रेमपूर्वक उठा कर कहा-'प्रिये.
रात्रि में तरंगवती का मन तरंगों में चढ़ा और यही सोचने लगी कि कब अपने प्रियतम से जाकर मिलूं ? अन्त में उसने गुप्त रूप से जाने का निश्चय
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है । फिर वह अपने साथ रहने से बाधा-सी रहेगी अतः अभी चले चलें ।'
तरंगवती। तुम यह साहस कैसे कर सकी ? तुम्हारे पिता को सहमत कर सक. वहाँ तक प्रतीक्षा करने को मैंने तुम्हें कहा था । वे राज्य के कृपापात्र हैं, पता लगने पर वे हर उपाय से मेरे परिवार का बिगाड़ कर डालेंगे अतः तुम्हारी अनुपस्थिति ज्ञात होने से पहले ही तुम घर लौट जाओ। क्योंकि बात तो हवा में उड़कर फैल जाती है ।'
इसी समय नीचे के राजमार्ग से कोई व्यक्ति बोलता जा रहा था-'अपने आप चलकर आई हुई प्रिया, यौवन, अर्थ, राज्य, लक्ष्मी, वर्षा, समय, चांदनी और चतुर स्नेहियों के आनन्द का जो उपयोग नहीं कर सकता वह घर पर आई हुई का मूल्यांकन नहीं जानता। जीवनाधार अपनी प्रिया को प्राप्त कर जो छोड़ देता है वह दुखी होता है।'
इन वचनों से पद्मदेव के विचारों ने पलटा खाया और वह बोला-'यदि हम परदेश चले जाए तो विघ्न और आशंकाओं से छुटकारा हो सकता है ।
तरंगवती और पद्मदेव चल पड़े । नगर के द्वार दिनरात खुले रहते थे अतः वे सीधे यमुनाजी के किनारे जा पहुँचे । पद, मदेव ने यात्राए खूब की थी अतः वह नौका चलाना भी अच्छी तरह जानता था। उसने पड़ी हुई नौका का लंगर उठाया और उसमें बैठकर वे तुरंत रवाना हो गये । इसी समय दाहिनी ओर शृगाल का शब्द सुना तो पद्मदेव ने कहा-'प्रिये! उत्तम शकुन हो जाए तव तक नौका रोकें ।' उसने नौका को रोका भी. पर नदी के वेग में अटका रखना कठिन था। अतः अनिच्छा पूर्वक भी उन्हें चल देना पड़ा । नदी के प्रवाह में नौका वेग से चलने लगी । दोनों किनारों पर घना जंगल था जिसमें से जंगली जानवरों की आवाजें आ रही थीं । थोड़ी-थोड़ी दूर पर निद्रामग्न गाँव भी दिखायी पड़ते थे। पद्मदेव ने पतवार चलाते हुए कहा-'प्रिये ! कितने चिर-वियोग के पश्चात् हम मिले हैं। अहा, तुम अपने मिलन की इच्छा नहीं करती और चित्रांकन न करती तो क्या हम मिल सकते? तुमने मेरे जीवन को खूब सुखमय बना दिया है।
तरंगवती ने रोते-रोते कठिनता से कहा-'प्रियतम ! .आपकी इच्छानुसार मैं करने को प्रस्तुत हँ पर अब मेरेसे
घर वापस नहीं जाया जाएगा। फिर कितने ही विचार विमर्श के अन्त में दोनों ने पलायन कर परदेश जाने का निर्णय किया । पद्गमदेव ने कहा-'तब मैं यात्रा की तैयारी कर लेता हूँ।' तरंगवती ने अपने आभूषणादि सामान लाने के लिए सारसिका को अपने महल में भेज दिया।
तरंगवती ने लज्जा से नीचे देखते हुए कहा-'नाथ ! आप ही मेरे जीवन-धन हैं, अव मुझे कभी भी दूर न करें, आपके विना मैं जीवित नहीं रह सकंगो।'
पद्मदेव ने कहा-'तुम ऐसी कोई चिन्ता न करो, हम अब काकंदी के निकट आ पहुंचे हैं । वो दूर नगर के सफेद महल दिखाई दे रहे हैं।' फिर आलिंगन कर उसके साथ गन्धर्व विवाह कर लिया। यह प्रेम-विवाह सर्वदा स्थायी रहे. इसके लिये इष्ट देवों से प्रार्थना की।
इधर पदमदेव तैयार होकर बोला-'अब अपने को किश्चित् भी विलम्ब नहीं करना है। अतः तुम्हारे पिता को ज्ञात होने से पूर्व ही हमें चल देना चाहिए।' तरंगवती ने कहा-'पर अभी तो सारसिका नहीं आई, वह आवे तब चलें ।' पद्मदेव ने कहा-'गुप्त बात में दासी को मिलाना ठीक नहीं इससे विघ्न उपस्थित हो सकता
अब वे गंगा के संगम पर पहुंचे। नौका गंगाजी पर तैरने लगी । पूर्वभव में जैसे इस नदी के पास चक्रवाक युगल तैरते थे उसी प्रकार इस भव में मानव
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युगल तैरने लगे। उषाकाल हुआ, पशु-पक्षी जग कर कलरव करने लगे । पूर्व दिशा में सूर्य किरणों का प्रकाश सर्वत्र फैला । पद्मदेव ने कहा-'प्रिये ! अव दांतौन करने का समय हुआ ।' सामने नदी तट की बालुका पर उतरें । तरंगवती की स्वीकृति से नौका को किनारे लगाकर उतरे। अभी थोड़ी ही दूर चले थे कि झाड़ियों में से लुटेरे-डाकू निकल आये जिन्हें देखते ही तरंगवती चीख पड़ी और पद्मदेव से चिपटते हुए बोली-'अब क्या करेंगे।' पद्मदेव ने कहा-'तुमने अभी तक मेरा लाठी चलाना नहीं देखा है। छोड़ो मुझे-मैं उनकी खवर लेता हूँ। प्राण रहते मैं तुम्हारी रक्षा करूंगाचिन्ता मत करो।'
तरंगवती ने कहा-'नाथ ! मुझे अकेली छोड़कर उनसे न भिड़ें । आपका डाकूओं के हाथ से पकड़ा जाना मैं नहीं देख सकेंगी। फिर भी आप जाते हो तो मैं अपना प्राण त्याग करती हूँ, तब तक ठहरें।'
यहाँ उन्होंने इन दोनों को बंधन से बांधा और अन्दर ले गये। ध्वजा-पताका से भीतरी भाग सजाया हुआ था। यह सव देखकर पद्मदेव और तरंगवती समझ गये कि यह तो काली जी का मन्दिर है । डाकुओं का दूसरा गिरोह भी एक बड़ा डाका डालकर आया था। उन्होंने परस्पर नमस्कार किया और रति-कामदेव जैसे जोड़े को देखने लगे । उन्होंने इन्हें देखकर क्या-क्या टीकाटिप्पणी की। बस्ती में पता लगने पर छोटे-बड़े सभी इन दोनों को देखने आये। फिर उन्हें वहाँ से भी आगे ले गये जहाँ कितने ही कैदियों को भर रखा . था। एक ओर लुटेरों का गान-तान और दूसरी ओर कैदियों के भयंकर चीत्कार को देखकर वह स्थान स्वर्ग
और नरक का मिश्रित रूप प्रतीत होता था । कैदी स्त्री-पुरुष तरंगवती और पद्मदेव को देखकर मोह और दया से न जाने क्या क्या बोलने लगे । इतने में कांटों की वाड़ वाला सरदार का घर आया । उसमें घास का एक झोंपड़ा बना हुआ था जिसमें दोनों को ले गये । सरदार का तगड़ा शरीर, उसके धारण किये हथियार
और परिपार्श्व में बैठे हुए उसके साथियों से वह स्थान यमदूत के निवास जैसा लगता था। इन दोनों कैदियों ने उसे नमस्कार किया। उसने तीक्ष्ण दृष्टि से इन्हें नख से शिख पर्यन्त देख लिया और एक साथी के कान में कहा-'माता के शरद ऋतु के भोग देने के लिये यह जोड़ी उपयुक्त है । अतः इन्हें कैद में डाल दो और सख्त पहरा रखो। नवमी की रात्रि में ले आना।'
इतने में लुटेरे आ पहुँचे । तरंगवती ने उनके पैरों में पड़कर आजीजो करते हुए कहा-'तुम्हें जो कुछ चाहिये ले लो पर मेरे पति को कष्ट न दो।' उन्होंने नोका पर अधिकार करके उसमें रखा हुआ सारा धन ले लिया और तरंगवतो व पद्नदेव के सारे आभूषण उतार लिये।
ओह ! कितने बड़े परिश्रम से दोनों मिले, तो अब उनका सुखी मिलन स्वप्नवत हो गया। लुटेरों ने उन्हें कैदी बनाया और जंगल में ले चले । विंध्याचल पहाड़ के दक्षिण की ओर वे जा रहे थे। बहुत देर चलने के वाद वे एक सुन्दर पहाड़ी की खोह में प्रविष्ट हुए। वहाँ एक गुफा आई । उसके द्वार पर कितने ही मनुष्य माला और तलवार धारण किये सतर्क पहरा दे रहे थे। अन्दर से ढोलक तथा गायन व नृत्य की ध्वनि सुनाई दे रही थी। उसकी प्रतिध्वनि सारी गुफा में गूंज रही थी।
यह आज्ञा पाकर एक डाकू खड़ा हुआ और दोनों को एक घर में ले गया । यहाँ पहरेदारी ठीक लगेगी अतः पद्मदेव को एकाएक स्तम्भ से बाँध दिया । तरंगवती से यह नहीं देखा गया तो उसने कल्पान्त करते हुए कहा-'भाई! मुझे भी इसी के साथ हो बाँध दो।' कहकर पद्मदेव के पास आ गई । डाकू ने यह देखकर उसे धक्का मार कर किनारे हटा दिया। पद्मदेव
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को क्रोध आया. वह जोर लगाकर बंधन-मुक्त हो उस डाकू के साथ लड़ने का प्रयास करने लगा।' पर व्यर्थ ! इतने दृढ़ बन्धन में वह वद्ध था कि कुछ न कर सका। डाकू ने और दृढ़ता से उसे बाँध दिया और फिर मूढ़े पर बैठकर कच्चा मांस खाकर मदिरा पान करने लगा।
तरंगवती ने उस डाकू से कहा-'ये कौशाम्बी के एक व्यापारी के लाडले पुत्र हैं और मैं नगर सेठ की पुत्री हूँ । यदि हमें छोड़ दोगे तो जितना कहो हीरा, मोती और सोना देंगे । तुमलोगों में से एक व्यक्ति को हमारी चिट्ठी लेकर भेजो । धन मिलने से हमें छोड़ देना ।
उन्होंने मन ही मन इष्टदेव से प्रार्थना की और उपवास किया। वे अपना सारा समय धर्म ध्यान में ही विताने लगे । अर्द्ध रात्रि में डाकुओं की गुफा कोलाहलपूर्ण हो गई थी । कोई नाचने-कूदने लगा, कोई गाने लगा, तो कोई हो-हल्ला करने लगा। जब सब शान्त हो . गए तो वह पहरेदार आया और पद्मदेव को बन्धनमुक्त करते हुए कहा-मेरे पीछे-पीछे दोनों चले आओ। वह उन्हें अज्ञात जंगली मार्ग से लेकर चला । उस समय जंगल में कहीं दूर और कहीं निकट जंगली जानवरों की आवाज सुनायी पड़ती थी। कहीं-कहीं तो सूखे पत्तों पर उनके पदचाप की खड़खड़ाहट से नीड़ में सोए पक्षी जग पड़ते थे । इस प्रकार जब वें जंगल को उल्लंघन कर गये तो उस डाकू ने कहा-'अब अप लोग निर्भय हैं । निकटी गाँव में चले जावें । मैं भी अपने रास्ते चला जाऊँगा । अपने सरदार की आज्ञा से आपको बंधन में बाँधना पड़ा, इसके लिए क्षमा करें।
डाकू ने कहा-'हमारे सरदार ने काली माता के आगे तुम्हारा बलिदान देना निश्चित किया है। उनकी कृपा से तो हमारे सारे कार्य सफल होते हैं । उन्हें मान्यता किया हुआ भोग न दें तो हमारा सर्वनाश हो जाय।
स्वयं को ऐसे स्थल पर मरना पड़ेगा और स्वामी निर्दय बंधन में पड़े हैं-देखकर तरंगवती करुण क्रदन करने लगी। पद्मदेव ने तरंगवती को धैर्य बंधाते हुए कहा '-'मरना है तो शाँति से मरना है. शोक करने से
क्या हाथ आयेगा?' इन शब्दों से वह थोड़ी शान्त हुई पर उसका क्रंदन हरेक के हृदय को द्रवित करने वाला था। तत्र स्थित कैदी स्त्रियाँ भी यह देख रोने लगी और पूछने लगी--'वहिन ! तुम किस प्रकार इनके द्वारा पकड़ी गई ?' तरंगवती ने अपनी कथा संक्षेप से कह सुनाई। यह सुनते हुए उस डाकू का हृदय भी इतना दयाद्र हुआकि वह बेहोश हो गया। थोड़ी देर में सचेत होकर उसने पद्मदेव के बन्धन ढीले कर दिये और कहा–'तुम डरो मत, मैं तुम्हें मौत से बचा लूंगा।'
पद्मदेव ने कहा---'तुम्हारा जितना उपकार माने थोडा है। अपने सरदार की आज्ञा होते हुए भी अपने प्राणों को संकट में डालकर हमें बचाया, इसका बदला कब चुकाऊँगा ? मैं कौशाम्बी के सेठ धनदेव का पुत्र हूँ। तुम मेरे साथ चलो, तुम जो चाहोगे सो दूंगा। उस डाकू ने कहा-'समय आने पर देखंगा।' पद्मदेव ने उसे कसम दिलाते हुए कहा-कौशाम्बी आओ तब अवश्य मेरे यहां आना। तुम्हारा बदला तो कभी नहीं चुका सकता।' डाकू ने कहा-'आपको सन्तोष हुआ, यही पर्याप्त है. अब अपने आप चले जाइये ।' कहकर वह अपना मार्ग पकड़ लिया ।
यह सुनकर दोनों को आनन्द हुआ पर अभी पूर्ण विश्वास नहीं हुआ कि यहाँ से मुक्त हो जायेंगे।
तरंगवती और पद्मदेव दोनों बिना रास्ते के मैदान में जल्दी-जल्दी चलने लगे । तरंगवती कभी इस प्रकार चली नहीं थी। अनभ्यास के कारण उसके लिये चलना
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कठिन हो गया । इसलिये पदमदेव ने उसे अपनी पीठ पर उठा लिया । यद्यपि तरंगवती ने बहुत ना कही थी । थोड़ी देर में वे एक गाँव में पहुँचे । अव भय तो कोई था नहीं अतः तरंगवती को थकावट । और क्षुधा का कष्ट हुआ । उसने कहा-'स्वामिन् ! अब असह्य भूख लगी है, कहीं से कुछ प्राप्त कर लावें ।' पदमदेव के कहा-'इस जीभ ने कभी दुःख की पुकार नहीं की तो याचना तो करता ही क्या ? फिर भी तुम्हारे प्रेम के कारण वह भी करूंगा ।'
में से थोड़े सिपाहियों को लेकर आपकी खोज के लिए निकला था। आपके पिताजी और नगरसेठ ने अपने हस्ताक्षरों से पत्र लिखकर मुझे दिये हैं. वे ये रहे। पद्मदेव ने उन पत्रों को पढ़ा। उनमें किञ्चित भी क्रोध की वात नहीं थी। प्रत्युत स्नेहपूर्ण शब्दों से भरे हुये थे।
तरंगवती सीताजी के मन्दिर में बैठ गई और पद्मदेव गाँव में गया। वहाँ कितने ही सिपाही लोगों के साथ एक अश्वारोही सामने मिला। वह पद्मदेव को देखते ही नीचे उतर पड़ा और प्रणाम कर बोला'सेठजी? मैंने आपके यहाँ बहुत दिन नौकरी की है।' पद्मदेव भी उसे पहचान गया और परस्पर मिलकर पूछा-'तुम यहाँ कहाँ ?' उसने उत्तर दिया-'प्रातः होते ही नगरसेठ के घर में पता चल गया कि पुत्री नहीं दिखाई देती। अतः खोज की गई। सारसिका ने पूर्व भव से लेकर तुम दोनों के पलायन कर जाने के विचार पर्यन्त सारी बात कही। तरंगवती की माता तो उसी समय से रोने लगी। नगरसेठ आपके पिताजो के पास आये। उन्होंने नम्रतापूर्वक कहा-मेरे कठोर शब्दों से आपको जो कष्ट हुआ. उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। आपके पुत्र की खोज करावें, उसे किञ्चित भी भय का कारण नहीं। वह बिचारा परदेश में कहाँ भटकेगा? यह कहकर उन्होंने सारसिका की बतलाई हुई सारी बातों से अवगत कराया। इस वृतान्त से सब के हृदय भर आये। प्रातःकाल होते ही सारे नगर में बात फैल गई कि नगरसेठ की पुत्री व पद्मदेव को पूर्व भव याद आया है और वे दोनों निकल गए हैं। उस समय आपके पिता और नगरसेठ ने दोनों की खोज के लिए बहुत से व्यक्ति दौड़ाए। मैं भी उन्हीं
पदादेव तरंगवती के पास आया और सारा वृत्तान्त कहा । अश्वारोही ने पद्मदेव के हाथ सूजे हुए देख उसका कारण पूछा तो उसने सारी आत्मकथा कह सुनायी । फिर उस गांव में एक ब्राह्मण के घर गए जहाँ पद्मदेव और तरंगवती ने अच्छी प्रकार से भोजन किया। फिर सभी घर की ओर जाने के लिए निकल पड़े ।
दोनों के लिये घोड़े तैयार थे, सवार हो गए। पहले प्रणाशक नगर की ओर चले। यह नगर तमसा और गंगाजी के सुन्दर संगम पर बसा हुआ था । वे एक परिचित स्नेही के यहाँ उतरे, उसने दोनों को गरम जल से स्नान करवाया, तेल अभ्यंगादि कराये और अच्छी तरह भोजन कराया । फिर आराम पूर्वक सोकर थकावट उतारी। अश्वारोही ने कौशाम्बी समाचार भेज दिया कि दोनों मिल गये हैं और थोड़े समय में पहुँचेंगे। यहाँ आवश्यक आराम करने के पश्चात् उन्होंने चलने की तैयारी की। तरंगवती रथ में बैठी. पद्मदेव उसके पीछे अश्वारूढ़ होकर चला । दोनों ओर खोज के लिए आये हुए सिपाही लोग चलने लगे। गाँव में से यह मण्डली निकली तो सब लोग ठाठ देखकर चकित हो गए।
गांव से बाहर आकर पद्मदेव भी घोड़े से उतर कर रथ में बैठ गया। वे लोग धान के हरे-भरे खेत. मार्ग के विश्राम-चौतरे और पानी की प्रपाएँ देखते हुए वासालिक गाँव आये। प्रभु महावीर केवलज्ञान प्राप्ति से पूर्व छद्रमस्थावस्था में एक वटवृक्ष के नीचे रहे थे, इसीसे इसका नाम वासालिक पड़ा था। इन दोनों ने इस
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आना होता । वे कभी एक दूसरे से अलग नहीं होते। उनके स्नेहपूर्ण संसार को देखकर चाहे जिसको भी सहज मधुर ईर्षा आ जाती ।
पवित्र वटवृक्ष की प्रदक्षिणा देकर दर्शन वन्दन किया। फिर आगे चलते हुए शाखांजना नगर में आये, यहाँ इन लोगों का बड़ा सत्कार हुआ। प्रातःकाल वहाँ से रवाना होकर मध्याह्न में कौशाम्बी के निकट आ पहुंचे। एक विशाल वटवृक्ष के नीचे दोनों के पारिवारिक जन और मित्र लग आकर खड़े थे, सब लोगों ने इनका स्वागत किया । तरंगवती यहाँ से घोड़े पर बैठ गई । उसके पीहरू सारसिका आदि सखियाँ व पीछे-पीछे सवार चले । पद्मदेव भी अपने अश्वारोही मित्रों के साथ दूसरी ओर चला । नगर में उनके स्वागतार्थ तोरण बंधे थे. ध्वजापताकाएं लगी थी: देखने के लिये जनता एकत्रित थी।
नगर प्रवेश के समय कोई अंगुली निर्देश से बताने लगे कि वह पूर्व भव का चक्रवाक है और वह नगरसेठ के यहाँ अवतरित चक्रवाकी है । अहा ! क्या दोनों का स्वरूप है, दोनों की एक सरीखी जोड़ी है। इस प्रकार नागरिक जनों का वार्तालाप सुनते हुए वे पद्मदेव के घर आये। वहाँ अभिनन्दन सत्कार करने के हेतु आत्मीय, सगे-सम्बन्धी एकत्र हुए थे । दोनों ने बड़ों के चरणों में नमस्कार किया । उन्होंने दोनों को एक आसन पर बैठाकर आमूल-चूल से वृतान्त पूछा । पद्मदेव ने पूर्व-भव की सारी बात कही। यह सुनकर नगरसेठ ने कहा-'तुमने पहले ही यह सब क्यों नहीं कहा ? तुम्हें संकट भी नहीं पड़ता और पश्चात्ताप भी नहीं होता । यह बात ज्ञात होने पर कोई कभी भी अस्वीकार कर सकता है ?
एक वार वसन्त ऋतु आने पर दोनों क्रीड़ा करने के लिये वन में गए । वहाँ एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ बैठे एक महात्मा को देखा । तरंगवती और पद मदेव उन्हें नमस्कार करके सन्मुख बैठे। महात्मा ने धर्मलाभ दिया और बड़ी खूबी के साथ धर्म सिद्धान्तों का उपदेश दिया जिसे सुनकर दोनों को बड़ा आनन्द हुआ । पद्मदेव ने श्रद्धापूर्वक नमस्कार कर कहा-'मुनिराज । आपने ऐसे उत्तम जीवन की साधना कैसे स्वीकार की कृपा कर बतलायें और यह जानने की उत्कण्ठा के लिये क्षमा करें।
महात्मा ने कहा-'चम्पानगरी की राज्य सीमा पर एक बीहड़ जंगल था. जहाँ भैंसे, साँप, चील तथा जंगली हाथी भी बहुत बड़ी संख्या में रहते थे। वहाँ शिकारी भी बहुत रहते थे जो दिन भर जंगल में शिकार कर अपनी उदर-पूर्ति करते थे । मैं भी अपने पूर्व-भव में उसी जंगल में एक पारधी था। मुझे हाथी का शिकार करने में बड़ा आनन्द आता । दिनभर मुझे जंगल में घमना भी प्रिय लगता । वाण-विद्या में मैं बेजोड़ कहलाता था जिससे मुझे लोग 'सिद्धवाण' नाम से पहचानते थे । मेरे माता-पिता भी बड़े होशियार पारधी थे जिससे वे व्याधराज नाम से पहचाने जाते। मेरी माता का नाम वनसुन्दरी था ।
एक बार मैंने हाथी पर तीर फेंका तो मेरे पिता ने कहा-बेटा ! अपने कुल का जो आचार है, वह सुनो! जो हाथी दल का नायक हो और प्रजा उत्पन्न कर सकने वाला हो, उसे कभी मत मारना । जो बच्चे को लेकर जाती हो उस हथिनी को भी नहीं मारना । उसी प्रकार जो हाथी का बच्चा स्तनपान करता हो. उसे भी नहीं मारना । हाथी-हथिनी क्रीड़ा करते हों उन्हें
फिर सभी अपने-अपने घर गए और दोनों के विवाहकी तैयारियाँ हुई । बड़े ही समारोह पूर्वक दोनों का विधिवत् विवाह सम्पन्न हुआ, कौशाम्बी में ऐसा विवाहोत्सव कभी नहीं हुआ था ।
दोनों अत्यन्त स्नेहपूर्वक रहने लगे। साथ ही खानापीना, साथ ही नहाना, साथ ही घमना. साथ ही जाना
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नष्ट कर देता है । मैं शनैः शनैः चोरी करने लगा और लूट खसोट से भी धन प्राप्त करने लगा। मेरे इस नोच कार्य से मेरे माता-पिता का भी मस्तक झुक गया । एक रात्रि में चोरी करने निकला किन्तु लोगों को पता लग गया। मुझे पकड़ने लगे तो मैं निकटवर्ती जंगल में प्राण वचाकर भाग गया । विन्ध्याचल का यह जंगल शिकार से भरपूर था । उसमें लुटेरे भी बहुत से रहते थे। मैं चलते-चलते एक गुफा के सन्मुख आ पहुँचा। वहाँ सशस्त्र पहरा था । यह सिंह-गुफा नामक डाकुओं की गुफा थी। वे व्यापारी एवं वनजारों को लूट कर आनन्द करते थे । जहाँ तक होता वे ब्राह्मण, श्रमण, स्त्री, रोगी
और बालक को नहीं सताते थे । मै इस गिरोह में मिलकर डाकू बन गया ।।
भी नहीं मारना । कोई भी नर-मादा जोड़ा क्रीड़ा करता हो उसे नहीं मारना । जो इन नियमों को तोड़ता है उसका नाश हो जाता है, इस बात को अवश्य ध्यान में रखना।
'मेरा विवाह उसी जंगल में निवास करने वाले एक पारधी की रूपवती कन्या के साथ हुआ था जिससे मेरा संसार वहुत सुखी था ।
'एकवार मैं धनुष-वाण लेकर हाथी की खोज में निकला। बहुत भटकने पर भी एक भी हाथी हमारे जंगल में दृष्टिगोचर नहीं हुआ जिससे मैं उसकी खोज में ठेठ गंगातट तक जा पहुंचा। वहाँ एक हाथी को मैंने गंगातट पर जलपान करने आया हुआ देखा। मैंने तर फैंका पर वह निशाना चूक कर कुछ ऊँचा चला गया और वृक्ष पर बैठे चक्रवाक युगल से चक्रवाक को जा लगा । चक्रवाक तुरंत घायल होकर भूमि पर आ गिरा और चक्रवाकी भयंकर चीत्कार करती हुई हवा में उड़ने लगी।
'जब मैंने निकट आकर देखा तो मुझे अपार दुःख हुआ। अज्ञानता वश मेरा नियम भंग हो गया। फिर मैंने वन में से काष्ठ एकत्र कर उसका अग्निसंस्कार किया। अभी मैं थोड़ी ही दूर गया था कि चक्रवाकीभी उस चिता में आकर दग्ध हो गई। यह देखकर मुझे बड़ा पश्चाताप हुआ। हे जीव ! जो कार्य कभी नहीं किया और आज इस प्रकार कुज-धर्म का लोप किया और इन वेचारे पक्षियों के जोड़े को नष्ट कर दिया। यह पश्चात्ताप करते-करते मुझे अपने पापी जीवन से घृणा हो गयी और मैंने भी उसी चिता में अपने को अग्निशरण कर दिया। अपनी इस जीवन-शुद्धि से मै नरक में न जाकर काशी में एक सेठ के यहाँ पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । मेरा नाम रूद्रयशस् रखा गया । मैं समस्त कलाओं का अभ्यास कर निष्णात हुआ पर मुझे बाल्यकाल से ही जुए का दुव्र्यसन लग गया। जुआ एक ऐसा भयंकर दुर्गण है जो समस्त सद्गुणों को
'हमारा सरदार भाला चलाने में बड़ा निष्णात था। वह मल्लप्रिय नाम से प्रसिद्ध था। विशेषतः धनवानों को वह बहुत सताता। मैंने उसके तत्वावधान में अनेक डाकों में भाग लिया था। मेरे शौर्य के कारण सारी मंडली में मेरा बड़ा नाम था। और मैं सरदार का विश्वासी अंगरक्षक बन गया ।
एक बार हमारा गिरोह लूट करने के लिए निकला और वह एक तरुण जोड़ी को घेर कर ले आया । उनका लावण्य देख कर कालीमाता की प्रार्थना करने लगे और सरदार ने उन्हें देखकर कालीमाता को भोग चढ़ाने का निर्णय किया। उसने मुझे एकान्त में बुलाकर कहा कि इस नवमी के दिन इस जोड़ी को कालीमाता के भोग चढ़ाना है अतः तुम बराबर इन पर नजर रखना । मैं उस जोड़े को एक घर में ले गया, वहाँ पुरुष को स्तंभ से कस कर बांध दिया । यह देखकर उसकी स्त्री करुण चीत्कार कर रुदन करने लगी। जिससे अन्य कैदी स्त्रियों को भी दया आ गई और वे झुण्ड की झुण्ड मिलकर उससे पूछने लगीं कि तुम कहाँ से आये और इन लुटेरों के हाथ कैसे पड़ गए।
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'उस स्त्री ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से कहा हम किसी समय गंगातट पर चक्रवाक पक्षी थे और आनन्द से जीवन बिताते थे । एक बार एक शिकारी ने आकर हाथी पर शरसंधान किया पर वह मेरे पति को लगा जिससे वे मृत्यु प्राप्त हुए, मैं भी उनके साथ जलकर मर गई। वे कौशाम्बी के एक सेठ के यहाँ पुत्र रूप में और मैं नगरसेठ के यहाँ पुत्री रूप में जन्मी। चित्रों के माध्यम से हमने एक दूसरे को पहचान निकाला। इन्होंने मेरा मांगा भेजा पर मेरे पिता द्वारा ठुकरा देने पर एक दासी को मैं इनके पास भेजी और अंधेरी रात्रि में मैं इनके पास पहुंची। माता-पिता के भय से हम एक नौका में बैठकर निकल पड़े और गंगा नदी के तट पर इन लुटेरों के हाथ पकड़े गए।
'यह वात उसने खूब रो-रोकर सुनाई थी। जिसे सुनकर मैं तो बेहोश हो गया और मुझे अपने पूर्व भव की बात स्मरण हो आई । मैं सारी वस्तु स्थिति समझ गया जिससे मेरा हृदय द्रवित हो गया । जिन्हें एक समय निर्दयता से मार डाला था उन्हें अब जीवितव्य दान देकर बदला चुका देने का निश्चय किया। पुरुष को बन्धन मुक्त कर पिछली रात्रि में गुप्त मार्ग द्वारा जंगल से बाहर छोड़ आया। अब मैं अपने गिरोह का अपराधी हो गया था अतः वापस वहां न लौटकर मैं उत्तर दिशा की ओर चला गया । मेरा मन अब सांसारिक भोग और उसके हेतु पाप कार्य करने से विरक्त हो गया। अतः मैंने संन्यास धारण कर लिया।
दर्शनार्थ एकत्र हुए हैं। यह सुन कर मैं भी वहां भक्ति भाव से नतमस्तक हो गया। उस समय वहां निकट ही एक महात्मा ध्यानस्थ बैठे थे, मैंने उनकी चरण वन्दना कर करबद्ध प्रार्थना की-भगवन् ! मैं इस संसार समुद्र को पार करने के लिए आपका शिष्य होना चाहता हूँ, । कृपा कर मुझे अपना शिष्य बनाइये ! उस महात्मा ने कहा-आजीवन साधु धर्म पालन करना कठिन है, अतः अच्छी तरह विचार करो। किन्तु मैंने आग्रहपूर्वक उनसे अनुरोध किया तो उन्होंने मुझे दीक्षा दे दी। मैं ने धीरेधीरे साधु-जीवन के समस्त नियम और आचारांग आदि सूत्र का अभ्यास कर गया। बारह वर्ष पर्यन्त इस प्रकार स्वाध्याय में रहने से मुझे जगत के स्वरूप का ज्ञान हो गया
और अब मैं आत्म-ध्यान करता हुआ लोगों को धर्मोपदेश देता विचरण करता हूँ।'
तरंगवती और पद्गमदेव को यह बात सुनकर स्वयं अनुभव किया हुआ दुःख ताजा हो गया । वे विचारने लगे कि ये महापुरुष हमारे लिये विष और अमृत जैसे प्रमाणित हुए थे किन्तु आज इन्होंने अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त की है और हम अभी तक वैसा नहीं कर सके, अतः अब इस भोग-विलास से दूर होना चाहिए। उन्होंने मुनिराज को मस्तक नमाकर कहा- 'जो चक्रवाक युगल मानव रूप में आपके हाथ से वचा, वे हम हैं। आपने हमें दुःख से उबारा वैसे ही जन्म-मरण से भरे हुए संसार से भी उबारें! हमें साधु जीवन की पवित्र दीक्षा दें।'
मुनिवर ने कहा-'महानुभावों ! आत्मबल वालों के लिए कुछ भी अशक्य नहीं हैं। जहां तक तुम्हारी इन्द्रियाँ काम देती हैं वहां तक त्याग-तपश्चर्या का सम्यक आराधन कर अपनी आत्मा को उज्ज्वल बनाओ।' यह सुनकर उसी क्षण पद्मदेव एवं तरंगवती ने अपना शृंगार उतार डाला और दास-दासी को सौंप कर कहा-'ये आभूषण हमारे माता-पिता को संभलाकर देते हुए कह देना कि वे जन्म-मरण से विरक्त होकर पवित्रता के पथ पर आरूढ़
एक बार मैं भ्रमण करता हुआ पुरिमताल नगर जा पहुँचा। वहां एक अत्यन्त सुन्दर वटवृक्ष के पास लोगों की भीड़ देखकर मैंने पूछा कि यहां इतने सारे लोग क्यों इकट्ठे हुए हैं। लोगों ने मुझे परदेशी जानकर बतलाया कि प्राचीनकाल में श्री ऋषभदेव नामक एक महापुरुष हुए थे जिन्हें इस वटवृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। जिससे यह पवित्र तीर्थ कहलाता है । सभी लोग इसके
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हो गये हैं । हमारा जो भी अपराध हुआ हो, क्षमा करें ।'
दास-दासी यह सुनकर रो पड़े और कहने लगे'हमारे जीवन के आप ही आधार हैं, हमें निराधार करके क्यों जा रहे हैं ? कृपालु ! कृपा करो । किन्तु उनका मन अब मोह के प्रवाह में पुनः प्रवाहित होने वाला नहीं था। उन्होंने मुनिराज की ओर मुंह करके अपने हाथ से ही अपना फ्रेश लुंचन कर लिया। मुनिराज ने उन्हें यावज्जीव का व्रत उच्चारण कराया—साधु जीवन की दीक्षा दी।
जब उनके माता-पिताने यह बात सुनी तो वे तथा अन्य स्नेही स्वजन परिजन भी वहां आ पहुँचे । पद्मदेवके माता-पिता जोर-जोर से रोने लगे । ऋषभसेन सेठ धार्मिक वृत्ति वाले होने से अपने को संयमित रख सके
थे। सभी ऐसा कहने लगे कि अभी तुमलोगों ने अल्पावस्था में यह क्या किया ? किन्तु दृढ़ मन वाले दोनों ने उत्तर दिया कि
'अब सांसारिक सुखों से हमारा मन विरक्त हो गया है। भगवान महावीर के बतलाए हुए पवित्र संयमी जीवन मार्ग पर चलकर अपना आत्म-कल्याण करना चाहते हैं । आप सब का कल्याण हो ।'
तरंगवती महासती चंदनवाला की ही प्रशिष्या थी। संयम और तपश्चर्या में मस्त होकर उसने अपनी आत्मा को निर्मल बनाया और ग्रामानुग्राम विचरणकर भगवान महावीर का अहिंसा धर्म सन्देश सर्वत्र प्रचारित किया ।
मूल लेखक शतावधानी पं० धीरज लाल शाह गुजराती से अनुदित ।
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अश्वों का दान तथा सवा करोड़ द्रव्य व्यय करके पदोत्सव कराने का उल्लेख किया गया है । इसके अतिरिक्त
और भी बहुत से काव्य एवं पट्टावलियों में बेगड़गच्छ के उत्कर्ष का विशद, उल्लेख पाया जाता है । ओसवालों में वेगड़ गोत्र भी इसी कारण प्रसिद्ध हुआ और अब भी विद्यमान है। कहा जाता है कि शाह खेमा देदराणी भी इसी समय हुआ और उसने सुलतान मुहम्मद बेगड़ा को प्रचुर द्रव्य देकर दुष्काल के एक वर्ष का व्यय वहन कर महाजनों का "शाह" विरुद कायम रखकर अक्षण्ण यश उपार्जन किया था। इसी बादशाह मुहम्मद बेगड़ा के समय में देवचन्द व अमीचन्द नाम के दो तरुण जैन मित्र हुए जिनकी कहानी-इतिवृत्त कच्छ के ज्ञानमण्डार के एक वृहत् कथा-कोश से यहाँ प्रस्तुत की जा रही हैइसमें दो मित्रों की मित्रता निर्वाह के साथ-साथ देवचन्द
और वजीर पुत्री रूपसुन्दरी का उदात्त चरित अवश्य हो भारतीय संस्कृति को गौरवान्वित करने वाला है।
कसौटी
[ ऐतिहासिक शील कथा ]
अहमदाबाद में सुलतान मुहम्मद बेगड़ा राज्य करता था । गुजरात में जैन धर्म का प्रभाव बढ़ा-चढ़ा होने से वहाँ के शासक भी अपेक्षाकृत कोमल, उदार और सहिष्णु वृत्ति वाले हो गये थे । मुहम्मद बेगड़ा ने सामान्य उपाध्याय को आचार्य पद देकर गच्छाचार्य श्री जिनेश्वरसरि बनाया अर्थात् उसने स्वयं पद-स्थापना कराके अपने नाम से बेगड़ा विरूद्र दिया जिससे खरतरगच्छ की बेगड़ शाखा प्रसिद्ध हुईं । निम्नोक्त पद्य इस विषय का ज्ञातव्य देते हैं कि -
परतो पूरयो खान ने. अणहिलवाड़इ माहि हो। महाजन बंदि मुंकावीयो, मेल्यो संघ उछाहि हो | सणा।। राजनयर नइ पांगुरचा. प्रतिबध्या महमद हो। पद् ठवणो परगट कियो, दुख दुरजन गया रद्द हो ||स०७|| सींगड़ सींग बधारिया, अति ऊँचा असमान हो । धींगड़ भाई पांच सइ, घोड़ा दीधा दान हो ।स०||८|| सवा कोड़ि धन खरचीयो, हरख्यो महमद साहि हो। विरुद दियो वेगड़ तणो, प्रगट थयो जग मांहि हो ।स०||९||
[ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ] इस काव्य में सूरिजी द्वारा मुहम्मद शाह बेगड़ा को प्रतिबोध किये जाने व अपने भ्राता द्वारा पांच सौ
अहमदाबाद में मुहम्मद बेगड़ा बादशाह राज्य करता था। उसके नवलराय नामक एक वजीर था । वजीर नवलराय की पुत्री रूपसुन्दरी अत्यन्त सुन्दर व लावण्यवती थी, जो पाठशाला में पढ़ती थी। उसी नगर के अधिवासी दो व्यापारियों के पुत्र, देवचन्द व अमी. चन्द भी उसी पाठशाला में पढ़ते थे। प्रतिदिन के परिचय प्रसंग से कितने ही अरसे वाद वजीर की पुत्री रूपसुन्दरो और देवचन्द में परस्पर दृढ़ प्रोति हो गई। उन दोनों में परस्पर इतना प्रेम था कि एक दूसरे को विना देखे घड़ी भर भी रहना कठिन था। दोनों का अध्ययन शेष होने पर जब पाठशाला छोड़ने का समय आया तो रूपसुन्दरी ने देवचन्द से कहा, "अपनी पढ़ाई तो शेष हो गई, हम अब कैसे मिल सकेंगे?" देवचन्द ने रूपसुन्दरी से कहा, "इसकी तनिक भी चिन्ता मत करो, मैं प्रतिदिन रात्रि के समय तुम्हारे महल में आया करूंगा।" रूपसुन्दरी संतुष्ट होकर अपने घर आई और
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देवचन्द, अमीचन्द दोनों मित्र भी पण्डित से छुट्टी पाकर अपने-अपने घर आ गए।
"यह मेरा पुत्र है।" नकाबपोश बादशाह ने कहा, "यह बादशाह का अपराधी है. इसे रात भर अपने घर में रखो, मैं प्रातःकाल इसे बादशाह के सम्मुख उपस्थित करूंगा।" देवचन्द के पिता ने कहा, "हमने इसे घर से बाहर निकाल दिया है, तुम्हारे जो जंचे सो करो।"
अब रात्रि के समय देवचन्द का वजीर की पुत्री रूपसुन्दरी के महल में जाने का नित्यक्रम हो गया। रूपसुन्दरी ने एक डोरी की निसरणी बना रखी थी जिस के अवलंबन से देवचन्द महल में निरापद पहुँच जाता
और अपने लिये बिछाये हुए आसन पर जाकर बैठ जाता। रूपसुन्दरी अपने प्राणप्रिय मित्र के साथ रात भर शास्त्र-चर्चा करती जिससे उन दोनों के अध्ययन की पुनरावृति होने के साथ-साथ बुद्धि भी विकसित होती जाती थी। वे परस्पर दूहा, गूढा. गाहा, छन्द. हीयाली, प्रश्न-प्रहेलिका, अन्तलापिका, बहिर्लापिका आदि की पृच्छा द्वारा रात्रि व्यतीत करते और जब चार-पाँच घड़ी रात रहती तो देवचन्द अपने घर आकर सो जाता।
एक दिन ज्योंही देवचन्द अपने घर से निकलकर वजीर के घर जा रहा था त्योही संयोगवश बादशाह ने देख लिया । बादशाह काली नकाब धारण किये गश्त लगा रहा था और उसके हाथ में दुधारी तलवार थी। उसने सोचा. अभी आधी रात में यह कौन मनुष्य कहाँ जा रहा है। इस बात का निर्णय करने के लिये वह देवचन्द के पीछे-पीछे हो गया । देवचन्द ने ज्योंही वजीर की पुत्री के महल में जाने के लिये निसरणी पर पाँव रखा बादशाह ने उसका हाथ पकड़ लिया और कड़े शब्दों में पूछा. "तुम कौन हो?" देवचन्द ने कहा, "मैं चोर या जार जो भी कहो सो हूँ।" बादशाह ने उसका हाथ पकड़े हुए अपने साथ ले लिया। आगे चलकर बादशाह ने देवचन्द से पूछा, "क्या तुम्हारा यहाँ कोई सगा-सम्बन्धी है, जो तुम्हें रात भर की जमानत देकर रख सके ?" देवचन्द ने कहा, "मेरे भाई, माँ. बाप सभी हैं।" और बादशाह को अपने घर ले आया । पुकारने पर द्वार खोल कर वाप नीचे आया। बादशाह ने पूछा “सेठ! तुम्हारा यह क्या लगता है ?" उसने कहा,
फिर बादशाह ने देवचन्द से पूछा, "और कोई जामिन हो तो बोलो!" देवचन्द उसे अपने भाई के यहाँ ले गया, उसने भी पिता की भाँति रूखा उत्तर दे दिया । बादशाह ने कहा, "और भी कोई हो तो बोलो।" देवचन्द ने कहा, "मेरा एक मित्र है. उसके यहाँ चलिये ।" कहते हुए उसको अपने मित्र के गृहद्वार पर लाया और पुकार कर उसे उठाया । मित्र के नीचे आकर उपस्थित होने पर बादशाह ने पूछा, "यह तुम्हारा कौन है ?" अमीचन्द ने कहा-"यह मेरा मित्र है. प्राण है. जीवन है और सब कुछ है ।" बादशाह ने कहा, "तुम इसे रात भर की जमानत देकर रखोगे ?" अमीचन्द ने .. कहा, "इसके लिये मेरा मस्तक हाजिर है ।" यह कह कर अमीचन्द देवचन्द को अपने घर में ले गया। बादशाह ने उसके घर पर पान का पीक डालकर चिन्ह कर दिया और एक किनारे खड़ा हो गया । थोड़ी देर बाद देवचन्द मित्र की आज्ञा लेकर घर से बाहर निकल पड़ा। बादशाह उसे निकलते देख त्वरित गति से वजीर की पुत्री के महल के नीचे जा पहुंचा और निसरणी पर चढ़कर महल की राँस के बरामदे में जाकर कोने में छिप गया । देवचन्द भी थोड़ी देर में निसरणी के द्वारा महल पर जा चढ़ा । उसने देखा, दपक का प्रकाश मन्द पड़ गया है और रूपसुन्दरी शोकपूर्ण मुद्रा में गलहत्था दिये बैठी है । उसके अश्र प्रवाह से सारी अंगिया भीग गई है । उसे दीर्घ निःश्वास लेते देखकर देवचन्द ने खंखार किया तो रूपसुन्दरी एकाएक हर्षोल्लासपूर्वक उठ खड़ी हुई और उसका आगत-स्वागत करने लगी। उसने उससे पूछा, "स्वामिन ! आज आपको इतनी देर कहाँ
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लग गई ?" देवचन्द ने सारा किस्सा बताते हुए कहा
"मैं अमीचन्द से पूछकर तुम से मिलने हेतु यहाँ आया हूँ। कल प्रातःकाल तो न जाने बादशाह मेरो क्या दुर्गति करेगा ।"
देवचन्द द्वारा वर्णित सारी घटना श्रवणकर रूपसुन्दरी अत्यन्त चिन्तित हुई और थोड़ी देर तक कुछ सोचती रही। फिर वह करबद्ध होकर कहने लगो, "स्वामिन्! इतने दिनों तक हम दोनों ने किसी भी प्रकार से लेशमात्र मर्यादा का उल्लंघन किये बिना पवित्र प्रेम को निभाया है । और अब जब कि अन्तिम समय सन्निकट दिख रहा है ऐसी स्थिति में मन की हौंस मन में न रह जाय अर्थात् 'पुहुंक पण न खाधो अने हाथ पण दाधा' वाली गुजराती कहावत चरितार्थ न हो जाय। इसलिये यह चरणों की दासी प्रस्तुत है और आत्मा के साथ यह भौतिक शरीर भी जो विशुद्ध मनः संकल्प से आपके श्री चरणों में समर्पित है, यथेच्छा उपभोग द्वारा अपनो हाँस पूर्ण करें ।"
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देवचन्द ने कहा, "प्रिये रूपसुन्दरी । परमात्मा ने आज तक जो अपनो मर्यादा को सुरक्षित रखा है तो अल्पकाल के लिये क्यों इस मन, वचन और काया को अपवित्र किया जाय ? यदि हम दोनों का प्रेम सच्चा है तो अवश्य ही आगे चलकर परमेश्वर भवान्तर में अपना मिलाप करावेगा। फिर भी तुम इतना काम करना कि जब मुझे शूली देने के लिए बाहर ले जाया जाय, तुम वहाँ अवश्य उपस्थित रहना ।"
रूपसुन्दरी ने कहा, "स्वामिन में वहाँ निस्संदेह आऊंगी, पर आप मुझे पहचानेंगे कैसे ? हजारों की भीड़ के बीच खोजना भी तो कठिन होगा ।"
देवचन्द ने कहा, "यह संकेत तो तुम्हीं बताओ।" रूपसुन्दरी ने कहा, "मैं पुरुष के वेष में काले स्वांग में आकर उपस्थित होऊंगी।" देपचन्द ने कहा. "बहुत
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अच्छा, धैर्य और साहस ही हमारा संबल है।"
कहना न होगा कि बादशाह स्वयं इसी महल के कोने में छिपा छिपा सारी बातें सुन रहा था। वह साँस रोके इस प्रेमी युगल को इस एकान्त महल को इस तरुण अवस्था को इस आकर्षक रूप-राशि को, इस रात्रि के . समय को और परस्पर एकांगी प्रीति सब कुछ देख रहा था, फिर भी अपनी मर्यादा को अक्षुण्ण रखना, काजल की कोठरी में नित्य रहते हुए भी काली रेखा न लगाना । धन्यवादाह हैं ये ! देवचन्द वस्तुतः मनुष्य नहीं देव ही है. अरे ये तो वेदाग हीरे हैं । कहाँ हमारी हैवानी संस्कृति और कहाँ इस आर्यावर्त की पावन संस्कृति वस्तुतः जैसा मैंने गुरु महाराज श्रोजिनेश्वरसूरिजी से धर्म का स्वरूप सुना प्रसंगवश विजयकुमार और विजया का जो अतीतकालीन दृष्टान्त सुना, आज इस तरुण युगल में वह भावना साकार रूप में दृष्टिगोचर हो रही है । सत्य हो ऐसी अलकिक संतान के कारण ही बिना थंभे के आकाश खड़ा है तथा सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी और समुद्र अपनी मर्यादा को निभाते हुए चल रहे हैं।
इस प्रकार मन ही मन दोनों की प्रशंसा करते हुए बादशाह वजीर की हवेली से नीचे उतर गया और रूपसुन्दरी की फिर परीक्षा करने का कार्यक्रम सोचता हुआ अपने महलों में चला गया। देवचन्द ने रूपसुन्दरी से विदा माँगते हुए कहा
"आतां तथा जुहार, वलतो तणां वधामणा देव तणा विवहार मिलसुं के मिलसुं नहीं ।'
यह दोहा कह कर देवचन्द भी रूपसुन्दरी के महल से उतर कर अपने प्रिय मित्र अमीचन्द के घर आकर निश्चिन्त सो गया ।
प्रातः काल होते ही बादशाह अपनी राजसभा में आकर तख्त पर आसीन हो गया और अहलकार को आज्ञा दी कि वह अमीचन्द के पीक चिन्हित घर से
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देवचन्द को तुरन्त लाकर उपस्थित करे । राजपुरुष ने अमीचन्द के यहाँ आकर पुकारा । अमीचन्द खिड़की के आगे बैठा हुआ दातौन कर रहा था। देवचन्द को उपस्थित करने की राजाज्ञा सुनकर अमीचन्द तुरन्त उठा और देवचन्द के स्थान पर स्वयं उसके साथ चल पड़ा। अमीचन्द की स्त्री ने देवचन्द को उठाकर कहा कि "तुम्हारे भाई को राजपुरुष बुलाकर ले गया है।" देवचन्द यह सुनते ही हड़बड़ाकर उठा और दौड़ कर अमीचंद के पास जा पहुँचा । वह राजपुरुषों से कहने लगा, "अरे। तुमलोग किसे ले जा रहे हो? देवचन्द तो मैं हूँ।" अमीचन्द ने कहा, "नहीं, नहीं. देवचन्द मैं ही हूँ।" इस प्रकार कितनी देर तक दोनों का विवाद देखकर राजपुरुषों ने कहा, 'भाई, वहाँ कौन-से लड्ड बँटते हैं ? तुम दोनों में जो देवचन्द हो वही हमारे साथ चले।" देवचन्द ने बड़े ही हठ और अनुनय-विनयपूर्वक अमीचंद को अपने घर वापस भेजा और देवचन्द राजपुरुषों के साथ बादशाह के पास आया ।
शिरोपाव मँगाया और देवचन्द को नहलाकर सात बार सुनहरे शिरोपाव पहनाया। इसके बाद उसको हाथी पर बैठाकर पंच शब्द, वाजिव बजाते हुए अपनी राज कचहरी में लाया । बादशाह सिंहासनारूढ़ हुआ और देवचन्द को अपनी गोद में बैठाकर वजीर से कहा, "अरे नवलराय । तुम्हारी रूपसुन्दरी और मेरे इस पुत्र देवचन्द की जोड़ी उत्तम है. अतः इनका परस्पर विवाह हो जाना चाहिए।" वजीर ने कहा, "बादशाह सलामत की आज्ञा शिरोधार्य है । ऐसा अवश्य करें।"
___ बादशाह ने ज्योतिषियों को बुलाकर तत्काल विवाहलग्न निकाला और उसी दिन दोनों का विवाह कर के उन्हें सातमंजिला महल देकर उसमें रखा । पाणिग्रहण के पश्चात् हथलेवा छुड़ाने के अवसर पर बारह गाँवों सहित धोलका नगर दिया । कहना नहीं होगा कि बादशाह ने विवाह विधि आर्य-संस्कृति के अनुसार ही की थी। दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही बादशाह ने देवचन्द के भाई व पिता को बुलाकर उन्हें अत्यन्त तिरस्कृत करते हुए कहा--"छोरू होय ते कछोरू थाई पण मावीत्र कुमावीत्र न थाये अतः तुम लोग मेरे नगर में रहने योग्य नहीं हो ।" उन्हें नगर से निर्वासित करके बादशाह ने देवचन्द के मित्र अमीचन्द को बुलाया और उसकी मित्रता को धन्य धन्य कहकर भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए पुरस्कार पूर्वक उसके घर पहुंचाया । देवचन्द और अमीचन्द अखण्ड प्रीति पालन कर सुखी हुए ।
बादशाह ने वजीर की पुत्री का स्नेह देखने के लिए कोतवाल को बुला कर उसके कान में कहा, "इसे हरगिज मारना नहीं, पर गदहे पर बैठाकर वजीर के घर के नीचे से निकालते हुए पूर्वी दरवाजे से गुजरना।" कोतवाल शाही आज्ञानुसार देवचन्द को गदहे पर चढ़ाकर पूर्वी दरवाजे पर ले गया। बादशाह स्वयं वजीर को साथ लेकर शिकार के बहाने निकल पड़ा और घूमते-फिरते पूर्वी दरवाजे पर आ पहुँचा । बादशाह ने वजीर से कहा. "अरे नवलराय। देखो तो सही, सब लोगों से भिन्न यह काले वस्त्रों वाला सवार कोन है ?" वजीर ने घोड़े की बाग उस ओर की। बादशाह और वजीर को अपने निकट आते देखकर श्याम वस्त्रधारी सवार रूपसुन्दरी चमकी और तत्काल घोड़े को मोड़ा। वजीर ने भी सामने आकर पुत्री को पहिचाना और बादशाह से कहा, "यह तो हुजूर की फरजन्द है ।" बादशाह ने प्रसन्न होकर
मित्र देवचन्द, अमीचन्द और रूपसुन्दरी तीनों अपनी परीक्षा की कसौटी पर खरे उतरे । मुसलमान शासक मुहम्मद बेगड़ा की शासन पद्धति और विशाल हृदयता भी सराहनीय थी । वासना रहित सच्चा प्रेम, शील का आदर्श और मानवीय श्रेष्ठ गुणों से ओतप्रोत इस ऐतिहासिक वृत्तान्त का हार्द है । आचार्य जिनेश्वरसूरि के उपदेश इसकी पृष्ठभूमि में विराजमान हैं ।
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गई है उसका अर्थ आगे पीछे के सन्दर्भ को देखते हुए पेढी की स्थापना नहीं होता किन्तु जीर्णोद्धारादि कार्य को कारीगर लोग ठीक तरह से कर सकें ऐसी सुविधा होता है। इसमें सिद्धाचल उपरे शब्द का अनुसंधान करने पर यह अर्थ ध्वनित होता है।" (७) "वि० सं० १७८७ पूर्व पेढी अहमदाबाद में थी इसका सबूत पालीताने की बही-खाते में मिला है।"
आनंदजो कल्याजी पेढी के संस्थापक श्रीमद् देवचन्द्रजी
महाराज थे
श्वेताम्बर जैन समाज की प्रतिनिधि समृद्ध पेढी अनजी कल्यागजी का नाम सर्व विश्रुत है। यह पेढी ढाई सौ वर्षों से क्रमशः उन्नति करती हुई जो सेवा कर रही है वह अवश्य ही समाज के लिए गौरव का विषय है। इसके सर्वाङ्गीण इतिहास का सम्यक् ज्ञान कराने वाली पुस्तक का अभाव बराबर खटकता था। अभी विश्रुत विद्वान श्री रतिलाल दीपचंद देसाई के सम्पा. दकत्व में प्रकाशित 'सेठ आनंदजी कल्याणजीनी पेढी नो इतिहास' का प्रथम भाग प्रकाश में आया है जिसमें पेढी की गरिना के साथ-साथ छोटी-मोटी अनेक घटनाओं पर शोधपूर्ण प्रकाश डाला गया है। वे जब इस पुस्तक को लिख रहे थे तो हमलोगों ने उन्हें इस पेढी की संस्थापना श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज द्वारा होने की सूचना दी थी जिसे उन्होंने अमान्य करते हुए मुझे ता० २१-१०-८० के पत्र में इस प्रकार लिखा कि
(५) "देवविलास (ऐतिहासिक जैन-काव्य संग्रह, पृ०२८१) में पूज्य देवचंद्रजी महाराज की प्रेरणा से सिद्धाचल के ऊपर कारखाना बनने की जो बात लिखी
मैंने विचार किया कि यही समय तो श्रीमद देवचन्द्रजी महाराज के शबंजय तीर्थोद्धार का कार्यकाल है। शिलालेख, पेढी के खाता-बही, स्तवनादि अन्य प्रमाणों से विश्वस्त होकर सम्पादक महोदय सही इतिहास स्वीकार कर लिख देंगे क्योंकि उस समय श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज ही एकमात्र ऐसे सर्वोच्च ज्ञानी, सर्वगच्छमान्य, युगप्रधान कल्प महापुरुष थे जिन्होंने अपनी ३० वर्ष की आयु में अदभुत ज्ञान दशाप्राप्त की और राजस्थान से गुजरात पधार कर अपनी समस्त आयु गुजरात में बितायी। अर्थात् सं० १७७७ से सं०१८१२ तक श@जय तीर्थोद्धार के लिए उपदेश देते हुए पाटग, अहमदाबाद, खंभात. सूरत. ध्रांगध्रा, राधनपुर. लींबड़ी, बढवाण, भावनगर, नवानगर (जामनगर ). परधरी, चूड़ा आदि गुजरात के विविध स्थानों में विचरण कर अध्यात्म-ज्ञान का प्रचार किया। मूर्तिपूजा के विरोधी दंढकमत के फैलते हुए प्रचार को रोक कर बन्द पड़े मन्दिरों में पूजा प्रारम्भ करवायी। नये मन्दिरों का निर्माण एवं पुरानों का जीर्णोद्धार एवं सार-संभाल के साथ वहाँ की जनता को मूर्तिपूजा स्वीकार कराके सन्मार्ग में चढ़ाकर उपकृत किया। इसी बीच शत्रुजय के जीर्णोद्धार का कार्य सतत् चालू रहा। आपने उपदेशों द्वारा प्रेरित करते हुए अनेक बार श@जय संघ निकलवाये. गुरु महाराज श्री दीपचन्द्रोपाध्याय और शिष्यमण्डली सहित अनेकशः प्रतिष्ठाए' कराई। उस काल में उनके सनकक्ष आनेवाली एक भी प्रभावशाली प्रतिभा नहीं थी जिनके उपदेश से यह महान कार्य होता।
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श्वेतांबर समाज में गुरुजनों के उपदेश, प्रेरणा और आशीर्वाद के बिना कोई भी कार्य नहीं हुआ करता । सारे समाज में उस समय उनके जैसा विद्वान, उपदेष्टा और व्यक्तित्व वाला आत्म-लब्धि सम्पन्न अन्य कोई नहीं था। अतः श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज द्वारा पेढी की स्थापना का श्रेय स्वीकार करेंगे पर विद्वान लेखक ने ऐसा न कर महोपाध्याय विनयसागरजी को ता० ८-७-८३ के पत्र में उनके ता० ३०-५-८३ के उत्तर में मुझे लिखे हुए उपर्युक्त खुलासे का उल्लेख करते हुए इस प्रकार लिखा
'देवविलास ( पृ० २८१ ) मां आ प्रमाणे लख्यंछेतीर्थ महात्म्यनी प्ररूपणा गुरुतणी, सांभले श्रावक जन्न । सिद्धाचल उपर नवनवा चैत्यनी, जीर्णोद्धार करे सुदिन्न ||५|| कारखानो तिहां सिद्धाचल उपरे मंडाव्यों महाजन्न । द्रव्य खरचाये अगणित गिरि उपरे उलसित थाये रे तन्न ॥६॥
"आ कड़ी मां श्री सिद्धाचल उपर कारखानुं कराव्या नुं लख्यं छे तेनो अर्थ एवो समजवानो छे के जूना मन्दिरो ना जीर्णोद्धार माटे तथा नवा मन्दिरो नुं निर्माण करवा माटे शिल्पिओ अने कारीगरो ज्यां बेसो ने काम करी शके एवं कारखानुं एटले छाप गिरिरज ऊपर उ करवामां आव्यं एटले एनो अर्थ एवो नथी थती के श्रीशत्रुंजय महातीर्थ नी बधी व्यवस्था संभाली शके एवी पेढी नी स्थापना करवा मां आवी हती जो आवी पेढी नी स्थापना नो आ बात होत तो ते सिद्धाचल उपर नहीं पण, पालीताणा शहेर मां करवामां आवी होत आ कड़ो मां नो 'सिद्धाचल उपर ए शब्दो खास महत्व नो छे, जे आ भावन सूचन करे थे।
"वली आ ग्रंथ नी शुरुआत मां ऐतिहासिक सार लख्यो छे तेमां ( पृ० आ कड़ी नो जे सार नाँध्यो छे तेपण समर्थन करे छे, ते आ प्रमाणे छे
काव्यों का ५८ मा ) आ बात नं
* व्याख्यान में आपने शत्रुंजय तोर्थ की महिमा बतलाई, इससे श्रावकों ने शत्रुंजय पर कारखाना स्थापित कर नवीन चेत्य और जीर्णोद्वार करवाना आरंभ किया ।"
"एटले 'देव विलास' मां नो आ उब्जेख त्री शत्रुंजय तीर्थ नो वहीवट संभाली शके एवी पेढीनी स्थापना ने लगतो नथी, ए आप समझी शकशी"
इस पत्र में लेखक महोदय ने 'कारखाना' का अर्थ कारीगरों के काम करने का 'छपरा' किया है, जबकि इस ग्रंथ के पृ० १०६ में स्वयं "ते गिरिराज श्री शत्रुंजय तीर्थ नो वहीवट संभालती पालीताना नी पेढ़ी नो अर्थात् कारखाना नो छे" "२ तीर्थ स्थान नो वहीवट संभालती पेढी ने श्री संघ मोटे भागे, 'कारखाना' ना नाम थी ओलखे छे" शब्दों द्वारा कारखाना, कार्यालय या पेढी एक ही अर्थ के द्योतक स्वीकार किया है। पृ० १०५ ९ में पेढ़ी के लिए आठ बार कारखाना शब्द आया है। राजस्थान में भी राज्य के कई कारखाने होते थे जिनमें बीकानेर के किले में बड़ा कारखाना के आफिशर शाह नेमचंदजी कोचर थे जिनसे महाराजा गंगासिंहजी को भी पहनने के जेवर आदि माँगने पड़ते थे। अतः कारखाने का अर्थ 'छपरा' करना यह लेखक महोदय की ही विचित्र सूझ-बूझ है । पेढी में प्राप्त सर्व प्राचीन सं० १७७७-७८ के चोपड़े हैं, तदनुसार वहां का नया वर्ष आषाढ़ सुदि २ ( रथयात्रा ) से प्रारंभ होता है जबकि गुजरात में कार्तिक सुदी १ को नया संवत् होता है। सं० १७८१ से १७८४ के चोपड़ों में भी आनंदजी कल्याणजी का नाम नहीं मिलता चोपड़ों के अनुसार सं० १७५७ में सर्व प्रथम सेठ आनंदजी कल्याणजी का नाम दृष्टिगोचर होता है। इससे मालूम होता है नं० ४ चौपड़े के समय पेठी का नामकरण नहीं हुआ था जो बाद में हुआ। इस वर्ष भी पालीताना की बहियों में "अकारो
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कल्याण" राजनगर और अहमदाबाद पेढी का खाता है। इसी वर्ष चोपड़ा नं० ७ में आनंदजी कल्याणजी के नाम जमा नावें मिलता है। संभवतः पेढी का नाम भगवान के नाम पर आरम्भ समारंभ से बचने के लिए 'अकार' अर्थात् आदीश्वर दादा के कल्याणकारी सांकेतिक नाम दिया हो क्योंकि 'अकारों का नाम स्पष्ट अर्थ बोधक नहीं है।
कल्याण सुख रस में' पद कर्णगोचर हुआ तो भंडारीजी ने सुझाव दिया कि पेढी का नाम यही रखा जाय । गुजरात के सूबेदार श्री भंडारी जी द्वारा पेढी का नामकरण सुनकर उनके प्रधान श्री आणंदराम शाह को उसमें अपना नाम आते देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। संघ ने पेढी का नाम 'आनंदजी कल्याणजी प्रसिद्ध कर दिया ।
श्री आनंदजी कल्याणजी नामकरण के लिए जो जनश्रुति गीतार्थ स्थविरों के मुख से महोपाध्याय विनयसागरजी ने सुनी थी वह इस प्रकार है
अहमदाबाद में जोधपुर के श्री रतनसिंह मंडारी सूवेदार थे। उस समय अहमदाबाद के एक तत्वज्ञ सेठ शाह आणंदराम जी ढुंढियों के चक्कर में थे, श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज के पास आकर तत्वचर्चा किया करते थे। वे गुरु महाराज के अथाह ज्ञान को देखकर अभिभूत होकर मूर्तिपूजा के दृढ़ श्रद्धालु और श्रीमद् के परम भक्त हो गए। उन्होंने सूबेदार श्री रतनसिंहजी भण्डारी के समक्ष कहा-"मारवाड़ से आये हुए समस्त विद्या से पारंगत ज्ञानियों में शिरोमणि गुरु महाराज यहाँ विराजते हैं।" भण्डारी जी अपने अग्रेश्वरी श्री आणंदरामजी के साथ श्रीमद् के सम्पर्क में आये और उनके तत्व ज्ञान की गहराई देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे प्रतिदिन पूजा अर्चा करने लगे। अहमदाबाद में मृगी उपद्रव फैलने पर भण्डारी जी की प्रार्थना से श्रीमद् ने रोगोपशान्ति की। मराठा सेना के साथ रणकुजी ने जब अहमदाबाद पर चढ़ाई की तो श्रीमद् देवचंदजी महाराज की कृपा से अल्प सेना होने पर भी विजय प्राप्त कर गुजरात को बचाने में भण्डारी जी सफल हुए। अहमदाबाद में मंदिर बिम्ब प्रतिष्ठाए हुई। एक दिन सतरह भेदी पूजा हो रही थी। शत्रुजय के हेतु पेटी की स्थापना हुई उपाध्याय साधुकीति जी कृत सतरह भेदी पूजा की तेरहवीं अष्ट मंगल पूजा के अन्त में जब 'आणंद
श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज ने सं० १७७९ में खंभात के चातुर्मास में शत्रुजय महात्म्य की व्याख्या करते हुए तीर्थोद्धार के लिए सचोट उपदेश दिया। सं० १७७७ में अहमदाबाद नगोरीसराय में चातुर्मास किया तब भी माणिकलालजी स्थानकवासी को प्रतिबोध देकर ढूंढकों के पास से मुक्त कराया और उनके नूतन चैत्यालय में विम्ब स्थापना की एवं शांतिनाथजी की पोल में भूमिगृह में सहस्रफगा, सहस्रकूट विम्वादि प्रतिष्ठित किए थे। श्रीमद ने सूरत चातुर्मास करके वहाँ भी शत्रुजय के निमित्त अर्थसंग्रहार्थ आनंदजी कल्याणजी की पेढी स्थापित कराई थी जिसका नामकरण भले बाद में हुआ हो, पेढी के सं० १७९०-९१ के चौपड़ों से प्रमाणित है। सिद्धाचलजी के कारखाना की बही में "सेठजी आणंदजी कल्याणजी सुरत" तथा "श्रीसुरत सेठ आणंदजो कल्याण" नाम से प्रमाणित है। देवविलास के अनुसार शत्रुजय तीर्थोद्धार के बीच सूरत की विनती से संवत्ः १७८४ का चातुर्मास वहाँ किया । उसी समय के उपदेश प्राप्त सूरत के कल्याणचंद्र सोमचंद्र के सं०१७८५ के निर्मापित समवशरण अभिलेख से प्रमाणित है।
श्रीरतिलाल भाई ने लिखा है कि देवविलास मैं कारखानों सिद्धाचल उपरे लिखा है यदि पेढी की स्थापना का लिखते तो पालीताना में होता। परन्तु यह व्यावहारिक सत्य है कि पालीताना और सिद्धाचलजी पर्यायवाची है क्योंकि कोई भी यात्री सिद्धाचलजी पर नहीं रहते। रहते तो शहर की धर्मशाला या घरों में हैं। पहाड़ पर खाना-पीना या शौच-क्रिया भी कुछ नहीं
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विनती सुरति बंदिर' नी भली. चौमासा नी रे विशेष ।। सु०॥पाती। श्रीदेवचन्द्रजी 'सुरतिबंदिरे' कीधा भविने उपगार ।। सु० ॥ पंचासीये छयासये, जाणीये, बुद्धितणा जे भंडार | सु० ॥९॥ती०॥
करते अतः कारखाना मंडाने का अर्थ पालीताने का ही समझना चाहिए न कि 'छपरा बंधाने जैसा धृष्टतापूर्ण अर्थ जो कभी रासकार का अभिप्राय नहीं हो सकता । यात्री सांघ जो शत्रुजय जाता था सीहोर, पालीताना या गरियाधार कहीं से तीर्थ को वधाकर पड़ाव डालता था । आज समेतशिखरजी जाने वाले यात्री मधुवन जाने का नहीं कहते सदा से ही समेतशिखरजी कहते आये हैं चाहे संघ के पड़ाव पालगंज. तोपचांची, निमियाघाट कहीं भी रहे हों आज मधुवन ठहरते हैं और वहीं ठहरना खाना-पीना तलहटी के मन्दिर धर्मशालाओं से समृद्ध होने पर भी कहते समेतशिखरजी का ही है और पेढी आदि सब मधुवन में है । अतः पालीताना और सिद्धाचल नाम के चक्कर में जाना कोई औचित्य नहीं रखता। इसी रास में अनेकशः शत्रुजय, पालीत ना जो एक दूसरे के पर्यायवाची हैं, श्रीमद के अनेक बार पधारने और चैत्य-बिम्बप्रतिष्ठादि के साथ-साथ संक्षिप्त उल्लेख है । यहाँ देवविलास की उन गाथाओं को उदधृत किया जाता है
तीर्थ महात्म्य नी प्ररूपणा गुरुतणी, सांभले श्रावकज्जन्न ॥ सु०॥ सिद्धाचल ऊपर नवनवा चैत्यना. जीर्णोद्धार करे सुदिन्न ।। सु० ॥शाती० ।
पालीताणे प्रतिष्ठा करी भली, खरच्यो द्रव्य भरपूर ।। सु०॥ 'वधुसाये चैत्य शत्रुजय उपरे,
प्रतिष्ठा देवचन्दनी भूरि ||सु०||१०||ती०। इसके बाद की गाथाओं में १७९६ में १८०४ में पालीताना पधारने और वहाँ के मृगी उपद्रव दूर करने
और सं०१८०८ में शत्रुजय संघयात्रा में सं० १८१० कचरा कीका के संघों में आने और साठ हजार द्रव्य व्यय कर प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख है। सं० १८१२ में अहमदाबाद में उनका स्वर्गवास हो गया। इन्हीं वर्षों में गुजरात के अन्य स्थानों में विचर कर श्रावकों को. राजाओं को, ठाकुरों को प्रतिबोध देने तथा जिन मन्दिरादि प्रतिष्ठा कराने एवं ग्रन्थ रचना का उल्लेख है। इसके लिए देवविलास देखना चाहिए।
श्रीमद देवचंदजी महाराज ने अनेकशः पालीताना जाकर प्रतिष्ठाएँ कराई जिनके अभिलेख तत्कालीन लेखों में सर्वाधिक है पर वे अभी तक अप्रकाशित हैं। नमूने के तौर पर कापरड़ाजी के जिनालय निर्माता भानाजी भंडारी के वंशजों के एक लेख की नकल यहाँ दे रहा हूँ जिसमें श्रीमद् के द्वारा शत्रुजय, आबू. गिरनार प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख है। "स्वस्तिश्री जयो मंगला भ्युदयश्च, संवत् १७९४ वर्षे शाके १६५९ प्रवर्त्तमाने आषाढ सुदि १० रविवारे ओइस वंशे वृद्ध शाखायां नाडूल गोत्रे भंडारी जी श्री भानाजी तत्पुत्र मैं। नारायणजी पुत्र मं। ताराचंदजी पुत्र अनेक चैत्योद्धारक मं । रूपचंदजी तत्पुत्र न्याय कलित अनेक जैन शासन कार्य
कारखानो तिहाँ सिद्धाचल उपरे. मंडाव्यो महाजन्न । सु०॥ द्रव्य खरचाये अगणित गिरि उपरे. उल्लसित थाये तन्न || सु० ॥६||ती० । संवतसतर एकासीये (१७८१) ब्यासीये त्र्यासीये कारीगरे काम ।।सु चित्रकार सुधानां काम ते. दृषद् उज्वलता रे नाम ।। सु० ॥७॥तो०। फिरी ने श्रीगुरु 'राजनगरे' भला, तिहां भविने उपदेश ॥ सु० ॥
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है। आचार्य ज्ञानविमलसूरि और गीतार्थ क्षमाविजयजो श्रीमद् देवचंद्रजी का बड़ा आदर करते थे। श्री उत्तमविजयजी, पद्मविजयजी, विवेकविजयजी आदि अनेक बड़े-बड़े ग.तार्थ उनके छात्र रहे हैं. उनकी शिष्यों की भाँति सेवा की है। वे गच्छ विवाद से ऊँचे उठे हुए महापुरुष थे। तपागच्छीय योगिराज मणिचंद्रजी के समक्ष श्रीमद् देवचन्द्रजी को महाविदेह में केवलज्ञान उत्पन्न होने की और उनके उत्सव में शामिल होने की घटना एक देव ने सुनाई थी।
कारक मं । शिवचंद जी पुत्र हर्षचंद्र युतेन श्रीशत्रुजयोपरि चैत्योद्धार कारितं श्री पार्श्व बिंबं स्थापितं खरतरगच्छे श्री जिनचंदसूरि विजयराज्ये तथा प्रतिष्ठितं च महोपाध्याय श्री राजसागर जी तत्शिष्य उ० श्री ज्ञानधर्मजी तत्शिष्य उ० श्री दीपचंदजी तत्शिष्य संवेग मार्गानगी श्रे शबंजय गिरनार आबू प्रमुख चैत्य प्रतिष्ठा कारक पंडित देवचंद्रण डूंगरवाल सा भैरव वाप्त (? दास ) सा किसनदासौज सहायात् श्री जैतारण वास्तव्य पुर धरणा लि० सेवग किशोरदास बीकानेरीया । शुभं भवतु ।। श्री नेमिनाथ बिंब स्थापितं ॥"
इससे ज्ञात होता है कि श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज के उपदेश से गुजरात, राजस्थान आदि के संघ का जीर्णोद्धार कार्यों में पूर्ण सहयोग था। गुजरात, अहमदाबाद के सूबेदार श्री रतनसिंहजी भंडारी निर्मापित मंदिर की प्रतिष्ठा तपगच्छी शुभविजय के कर कमलों से हुई थी। सूरत के कल्याणचंद्र के पुत्र सोमचंद्र ने सं० १७८८ में जो बिमलवसही में हजारों के व्यय से समवशरण बनवा कर तपागच्छीय आचार्य महाराज सुमतिसागरसूरि से प्रतिष्ठा कराई उसके अभिलेख में "श्रीमत्खरतरगच्छीय उपाध्याय दीपचंद्र शिष्य पं० देवचंद्र मुखात् श्री विशेषावश्यक वृत्तिगत गणधर स्थापन समोसरण विधि श्रवणात् संजात् हर्षेन श्री १०५ श्री महावीर जिन चैत्य समवशरणाकारकारित" आदि वाक्य लिखने में अपना गौरव समझा है।
जैन शासन के स्तंभ रूप अनेक महापुरुषों ने उनके वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में केवली अवस्था में विचरने का वृत्तान्त प्रामाणिक माना है। उनका वास्तविक मूल्याङ्कन आज से ७० वर्ष पूर्व किया था १०५ ग्रन्थों के रचयिता महापुरुष योगनिष्ठ आचार्य देव श्री बुद्धिसागर सूरिजी ने। उन्होंने दीक्षा लेने से पूर्व श्रीमद् देवचन्द्र कृत आगमसार को १०० बार पढ़ा था और दीक्षा लेकर उनके समस्त ग्रन्थों को, जीवनी को प्रकाश में लाने का भागीरथ प्रयत्न किया। २५ संस्कृत श्लोकों में उनकी स्तुति और पद लिखे। उनके उपदेश से अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल, पादरा ने उनका साहित्य प्रकाशित किया। उसी प्रभाव से पादरा की लषभग ३० साध्वियाँ दीक्षित हुई खरतरगच्छ में प्रवत्तिनीजी श्री वल्लभ श्री जी और प्रवत्तिनीजी श्री विचक्षण श्रीजी के पास। श्री मोहनलाल हीमचंद वकील, मणिलाल मोहनलाल पादराकर, साहित्य महारथी मोहनलाल दलीचंद देशाई, नागकुमार मकाती, शतावधानी धीरजलाल टोकरसी शाह, पं० सुखलालजी स्वामी ऋषभदासजी ( मद्रास ), उमरावचंद जी जरगड़ उनके भक्तों ने बहुत कुछ लिखा है। योगीन्द्र युगप्रधान सद्गुरु श्री सहजानंदघनजी महाराज (भद्रमुनिजी) और गणिवर्य श्री बुद्धिमुनजी महाराज ने भी बड़ी प्रेरणा दी और गुरुदेव ने उनका साहित्य स्वयं संशोधन कर देना स्वीकार किया था। मैंने पूरी प्रेस कापियाँ तैयार की पर
श्रीमद् देवचंद्रजी के उत्तरार्द्ध जीवन का कार्यक्षेत्र गुजरात ही रहा है। उनके एक पूर्व के ज्ञानी होने की गुजरात में प्रसिद्धि है जिसका उल्लेख मस्त योगी छोटे आनंदघनजी नाम से प्रसिद्ध श्रीमद् ज्ञानसारजी ने किया है। वे लिखते हैं "आनंदघनजी टंकशाली, जिनराजसूरि बाबा अबध्यवचनी यशोविजयजी टानरटनरिया, देवचंदजी गटरपटरिया-एक पूर्व के ज्ञानी, मोहनविजयजी लटकाला आदि कहावत गुजरात में प्रसिद्ध
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उनमें से थोड़ी-सी कृतियाँ 'देवचन्द्र पद्य पीयूष' नाम से प्रकाश में आई हैं। चौबीसी विवेचन, देशनासार, अध्यात्म गीता आदि साहित्य यद्यपि प्रकाश में आये हैं पर राष्ट्रभाषा में अभी बहुत कुछ करना अपेक्षित है।
श्रीमद् देवचन्द्रजी की स्नात्रपूजा में जिन भावउर्मियों का व्यक्तिकरण हुआ है, गाने वाले आत्मविभोर हो जाते हैं। क्योंकि उनके गर्भ में आने पर माताने देवेन्द्रों द्वारा मेरुशिखर पर स्नात्र महोत्सव का स्वप्न देखा था. जिससे उनका जन्म नाम देवचन्द्र रखा गया और दक्षा नाम राजविमल होने पर भी उसी नाम से प्रसिद्धि हुई । कवियण ने 'देवविलास में यह भी लिखा है कि उनके मस्तक में मणि थी जो अग्नि-संस्कार के समय उछल कर पाताल में चली गई, किसी के हाथ नहीं आई स्नात्रपूजा में जो पदलालित्य और भावों को उल्लसित कर आत्मा को ऊँचा उठाने की शक्ति है। वह अन्य पूजाओं में नहीं, क्योंकि वह असली माल है। बाकी सब नकलें हैं फिर भी आज गच्छ व्यामोह और पक्षपात वश उससे लाभ उठाने का अनेक स्थानों में निषेध करते हैं, गाने मे मुंह चुराते हैं।
श्रमद्र की शिष्य परम्परा दो सौ वर्ष पूर्व ही शेष हो गईं। उनका जीवनचरित्र शिष्यों ने कवियण से 'देवविलास' रूप में लिखवाया था क्योंकि वे स्वयं समर्थं विद्वान होने पर भी लिखने से कहीं अतिशयोक्ति न हो जाय इस कारण निस्पृह रहे थे। देवविलास भी उनके स्वर्गवास के १४ वर्ष बाद लिखा गया तथा अन्य कवि की रचना होने से सर्वाङ्गीण जीवनी नहीं हो सकी हैं तथा घटनाएं कुछ आगे पोछे हो गयी हैं फिर भी यह अमूल्य जीवन स्रोत है। पेढी पर गुजरात पर तथा भरत क्षेत्र पर वर्तमान में महाविदेही केवली अवस्था में विचरण करने वाले उन महापुरुष का महान् उपकार है। पेढी के इतिहान में उनका नाम आने में पेढी का ही गौरव है । उनकी जीवनी का अध्ययन खुले दिल से उदारतापूर्वक करें, वे
ही पेढी के संस्थापक महापुरुष हैं। गुजरात में शोध करने पर उनकी जीवनी के अनेक बन्द पृष्ठों का उद्घा टन हो सकता है क्योंकि उन्होंने जीवन का सम्पूर्ण उत्तराद्धं वहीं व्यतीत किया और अन्तिम श्वास तक शत्रुंजय की सेवा की थी। शत्रुंजय पर कौवों का आना अमंगलकारी समझा जाने से श्रीमद् ने ही उनका आना बंद करवाया ।
नगरसेठ शान्तिदासजी के उदय से पूर्व शत्रुञ्जय तीर्थ की व्यवस्था जहाँ जहाँ के संघ के हस्तगत रही उस पर संशोधन की आवश्यकता है। पहले अगहिलपुर पाटण के संघ के हाथ में यह व्यवस्था थी। कारण श्रीजिनपतिसू रेजी महाराज सं० १२५३ में वहाँ थे और सुप्रसिद्ध भंडारी नेमिचंद्र को प्रतिबोध दिया था। उसके बाद मुसलमानों द्वारा पाटण नगर का विध्वंश होने पर सूरिजी ने घाटी गाँव में आकर चातुर्मास किया । उसके बाद कुछ समय तक व्यवस्था घोलका संघ के हस्तगत रही फिर पाटन संघ के हाथ में आई और समराशाह के जीर्णोद्वार के समय वहीं की व्यवस्था थी। मंत्रीश्वर कर्मचंद्र के पूर्वज तेजपाल रुद्रपाल के समय में व्यवस्था उनके हाथ में था । जिन्होंने सं० १३७७ में जिनकुशलसूरिजी का पाट महोत्सव किया व पाटण संघ के साथ मानतुंगविहार नामक खरतरवसही निर्माण कराई व प्रतिमाएँ भी शत्रुञ्जय के लिए पाटण में प्रतिष्ठित कराई - ऐसी बहुत सी जानकारी आवश्यक है। बादशाही फरमानो में मंत्री कर्मचंद्र को शत्रुंजय अकबर द्वारा देने का प्रमाण है । सं० १६५६ में उनके स्वर्गवास के पश्चात् बीकानेर महाराजा रायसिंह की जागीर में जब सोरठ- पालीताना था तब सं० १६५७ में सतीवाद का निर्माण हुआ जिसका सतीवाद के शिलालेख में उल्लेख है। अब तक के प्रकाशित सभी इतिहासों में सतवाद के निर्माता अहमदाबाद के सेठ शांतिदास को लिखा है जब कि शांतिदास सेठ उस समय बारह वर्ष के थे । मैंने ४५ वर्ष पूर्व इस विषय में 'जैन' पत्र में
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लिखा था कि 'सतीवाव' बीकानेर के सेठ सतीदास द्वारा निर्मापित है। पर अब तक किसी ने संशोधन नही किया । बाद में सं० १७०० के आस-पास सेठ शांतिदास के हाथ में तोर्थ व्यवस्था आई। इन सब बातों की चर्चा का यहाँ स्थान नहीं, पालीताना में भी समृद्ध आवकों के घर थे तथा गुजरात के अन्य नगर भी व्यवस्था में सम्मिलित थे ।
'टाड' स राजस्थान' में टाड साहब के अहमदाबाद, सूरत, बड़ौदा और पाटण के संघको व्यवस्थापक कमेटी द्वारा तोर्थ को संभालने के उल्लेख को लेखक महोदय ने निराधार बतलाया है पर विजयराजसूरि की सलाह से १५ वीं शती की बात लाये है जिसका प्रमाण देना आवश्यक था। इसे आप भ्रमात्मक बता सकते हैं पर श्री पूरणचन्दजी नाहर के जैन लेख संग्रह भा० ३ में प्रकाशित अमरसागर के
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शिलालेख लेखांक २५३० की सं० १८८१ (सन् १८३४) की प्रशस्ति के निम्नोक्त उल्लेख का आपके पास क्या समाधान हैं ?
प्रशस्ति नं० १ में पटवों के संघ वर्णन में लिखा है कि"श्री मूलनायकजी रे भंडार रे ताला ३ गुजरातियां रा हा सो चौथो तालो संघव्यां आपरो दियो ।"
इस से स्पष्ट है कि पेढी व्यवस्था तीर्थ व्यवस्था में अन्य नगरों का भी सहयोग था।
अन्त में पेढी एवं श्री रतिलाल भाई से निवेदन है कि इतिहास सन्दर्भ में सत्यान्वेषी होकर श्रीमद् देवचन्द्र जी महाराज की सेवाओं और उपकार पर गहराई से विचार कर इतिवृत्त के प्रकाशन में प्रयत्नशील हों और अग्रिम भागों में संशोधन करें।
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स्वर्गीय पूरण चन्दजी नाहर
संघ रत्नों की खान है। श्रीपूरणचन्द्रजी नाहर एक ऐसे हो उदात्त विचारों वाले. परिश्रमी और लगनशील साहित्य पुरातत्त्व रसिक विद्वान थे जो केवल बंगाल में ही नहीं अपितु समस्त भारत में ख्याति प्राप्त और मान्य प्रामाणिक पुरुष थे । आपके पूर्वज दो सौ वर्ष पूर्व राजस्थान से बंगाल में आकर बसे थे और धार्मिक व सामाजिक प्रवृत्तियों में अग्रगण्य रहे हैं। आपके यहाँ परम्परागत क्रिया-कलाप कीर्ति-स्तंभ की भाँति सर्वत्र परिलक्षित होते हैं। दिनाजपुर, जहाँ आपकी जमीन्दारी थी-का जिनालय, अजीमगंज का मन्दिर, कलकत्ते का कुमारसिंह हॉल व आदिनाथ जिनालय, पावापुरी का नाहर धर्मशाला. राजगृह का शान्तिभवन, पालीताना का नाहर बिल्डिग आदि स्थान इस बात के जीवन्त साक्ष्य हैं। आप बंगाल के ओसवाल समाज में सम्भवतः प्रथम ग्रेज्युएट थे। अपनी शिक्षा का सदुपयोग आपने जैन साहित्य और पुरातत्त्व की सेवा में किया । हिन्दो. अंग्रेजी और बंगला भाषा में आप समानरूप से लिखते थे और आपकी बाते प्रामाणिक मानी जाती थी। आपके पिताश्री ने स्तवनावली आदि कई पुस्तकें प्रकाशित की थी और आपका तो कहना ही क्या? अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का सम्पादन, लेखन व प्रकाशन करके आपने समाज का बड़ा उपकार किया है।
श्री नाहरजी अद्वितीय संग्राहक थे। अपने भ्राता कुमारसिंह और मातुश्री गुलाबकुमारी जी के नाम से स्थापित कुमारसिंह हॉल में गुलाबकुमारी लायब्रेरी और संग्रहालय एक तीर्थ-भूमि से कम नहीं है। जिनालय में विराजमान स्फटिक रत्न की विशाल जिन प्रतिमाएँ पूर्व और उत्तर भारत में दुर्लभ है। जिन्होंने आपके संग्रहालय की प्रतिमाएँ, चित्रों. ग्रन्थों, सिक्कों व कलात्मक वस्तुओं को देखा है वे आपकी अनुपम संग्राहक वृत्ति एवं कला प्रेम से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। आपने विविध सामग्री का असाधारण संग्रह तो किया ही था पर आपके डाक की टिकटें, दियासलाई के लेबुलों, कंकुम-पत्रिकाओं, विज्ञापनों, सामयिक पत्रिकाओं के मुख पृष्ठ एवं समाचार-पत्रों के कटिंग आदि साधारण वस्तुओं के विशिष्ट संग्रह को देखकर विस्मित हो जाना पड़ता था।
प्रथम भेंट :
मैं पचास वर्ष पूर्व जब कलकत्ता आया तो आपके
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नाम की ख्याति से परिचित हो गया था पर उन दिनों केवल जिनालय दर्शन के अतिरिक्त आपसे साक्षात्कार करने का केई प्रसंग नहीं था। ४७ वर्ष पूर्व जब साहित्य में रुचि जागी तो कविवर समयसुन्दर की रचनाओं के संग्रह के संदर्भ में आपके यहाँ जाना अनिवार्य हो गया. क्योंकि श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने कविवर की 'पाप छत्तीसी' नाहरजी के संग्रह में होने का उल्लेख किया था। मैं भाई मोहनलाल नाहटा के साथ सीधा कुमारसिंह हॉल में जा पहुंचा। दरवान ने कला भवन खोल दिया और हम लोग प्रदर्शित चित्रादि सामग्री को बारीकी से देखने में व्यस्त हो गए। थे ड़ी ही देर हुई होगी कि सौजन्यमूर्ति नाहरजी स्वयं आ पहुँचे और सम्मानपूर्वक हमें बैठाकर काफी देर तक बातचीत की और दरवान को हमारे आने की सूचना न देने के लिए कड़ा उपालंभ दिया । तदुपरान्त उन्होंने स्वयं समस्त महत्त्वपूर्ण वस्तुओं का परिचय कराया और मुझे सप्ताह में एकबार अवश्य आने का आग्रह-पूर्ग आदेश दिया । वह पाप छत्तीसी' तो हमें पूर्व प्राप्त 'पाप आलोयणा छत्तीसी' ही निकलो पर उस प्रसंग को लेकर वे अनेकशः याद दिला दिया करते थे कि आप 'पाप छत्तीसी' के प्रसंग से हमारे मित्र हुए हैं।
जाता । समव्यसनी होने के कारण नई-नई जानकारी प्राप्त होती और हमें भी उनके जैसा संग्रहालय खड़ा करने का शौक लग गया। हमारा स्वप्न साकार हुआ और उन्होंने हमें संग्राहक बना डाला। उनके यहाँ जाने पर दोपहर में जलपान तो अवश्य ही करना पड़ता यद्यपि हम दो बार से तीसरी बार भोजन नहीं करते थे पर उनके सप्रेम आदेश को अस्वीकार करने का कभी साहस नहीं कर सका। काकाजी अगरचन्दजी जैसे निवृत्ति प्रिय और अल्प आवश्यकताओं पर निर्भर रहनेवाले व्यक्ति को भी उनके साथ फल और जलपान में शामिल होना पड़ता था। यदि कभी अस्वीकृत कर दी तो कहते किघबड़ाइए मत, हम अभी बीकानेर नहीं आने वाले हैं। आप संकोच क्यों करते हैं ? हम से कुछ जवाब देते नहीं बनता। वे एक तल्ले के कमरे में बैठते थे. कुर्शी-टेबुल पर नहीं पर गद्दे पर आराम से बैठते. हमेंभो तकिया अवश्य लगाना पड़ता। धनिया,सुपारी और पान की डिबिया सामने पड़ी रहती। उनके यहां जाकर हमें मेंहमान की भाँति नहीं पर घरके सदस्य की भाँति निःसंकोच आराम के साथ बैठना पड़ता । बड़े-बड़े विद्वानों ने उनकी मिलनसारिता, आत्मीयता, कलाप्रियता, अतिथि सत्कार और सौजन्यादि गुगों की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है।
आत्मीयता और अतिथि सत्कार :
नाहरजी के साथ जब से हमारा साक्षात्कार हुआ, वे वृद्ध वयोन्मुखी थे। पर उनका उत्साह युवकों जैसा था। कला पारखी होने के साथ-साथ मनुष्य की परीक्षा में भी उनकी दृष्टि पैनी थी। विद्वानों का आवागमन आपके यहाँ बराबर रहता था और उन्हें अभीप्सित विषय की पूर्ण जानकारी प्राप्त करवाकर आपको परम संतोष होता था। नाहरजी का प्रेम हमें हफ्ते में एकबार-रविवार को तो आकृष्ट कर ही लेता। वे अपने अनुभव बताते, आये हुए पत्रों की फाइल सामने रख देते, इस प्रकार उनके साथ हमारा बहुत सा समय वार्तालाप और निरीक्षणादि में बीत
सौजन्य :
हमारी शिक्षा और ज्ञानरुचि की ओर लक्ष्य कर वे कहते कि आपने पढ़ी-पढ़ाई अंग्रेजी भी भुला दी. जिसकी आज के युग में बड़ी आवश्यकता है। यदि एक दो महीना हमारे पास रहें तो आपको इसका पर्याप्त ज्ञान हो सकता है। आप तो बड़ाबजार छोड़ कर यहाँ आते ही नहीं, जब कुछ दिनों से आते हैं तो वार्तालाप में ही समय बीत जाता है, काम तो थोड़ा ही हो सकता है। यहाँ दो तीन मास बराबर रहिये, आपका ही घर है। जम कर रहेंगे तब काम होगा। हमारे जैसे साधारण
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बाबाजी के भांग या चटनी पीसने की सिला रूप में बिहार में प्राप्त हुआ था जिसे मैंने अपने शांति भवन में लगा दिया है ! आपने इस विषय में स्वयं बोल कर एक पेज मेरे से लिखवाया भी था पर वह कार्य पूर्ण न । हो सका। यद्यपि आप लौंकागच्छ के थे पर खरतर गच्छ की महानता उन्हें निःसंकोच स्वीकार्य थी।
व्यक्ति को प्रोत्साहन देकर आगे बढ़ाने की उनमें जो भावना थी वह सौजन्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। उन दिनों 'जैन लेख संग्रह' का जैसलमेर विषयक तीसरा भाग छप रहा था जिसमें मैंने समयसुन्दरजी के कुछ ऐतिहासिक स्तवन दिए जिन्होंने उक्त ग्रन्थ में मेरे नामोल्लेख पूर्वक साभार प्रकाशित किया । एकबार साहित्य सम्मेलन के प्रसंग में कुमारसिंह हॉल में साहित्य प्रदर्शनी की गई जिसमें हमारे संग्रह की सचित्र प्रतियाँ
आदि मंगवाकर सूची में नाम सहित प्रकाशित किया । इसी प्रकार श्री बंशीलालजी कोचर के दो सामुद्रिक चित्र भी उनके नामोल्लेख सह प्रदर्शित किए, यह उनका बड़ा भारी सौजन्य था। उनके यहाँ फिरंगी नामक एक नौकर रहता था जिनके पुत्र को पढ़ा-लिखाकर मैट्रिक पास करा दिया जिससे वह अपने जीवन को ऊंचा उठा सके। वे अपने सम्पर्क में आये व्यक्ति का बड़ा ध्यान रखते थे। गुणानुराग:
खरतर गच्छ के महान् आचार्यों के प्रति आपकी भक्ति और बहुमान था। आपने स्तवनावली, सांझी संग्रह और जैसलमेर के महत्त्वपूर्ण अभिलेख प्रकाशित कर गच्छ की महान सेवा की। दादा साहब श्रीजिनकुशलसूरिजी के आप परम भक्त थे। जयसागर उपाध्याय कृत 'रिसह जिणेसर सो जयउ' स्तोत्र तो आपको कण्ठस्थ था और बड़े प्रेम पूर्वक गाया करते थे। खरतर गच्छ पट्टावली के लिए आपने कहा-मैंने रात में दो-दो बजे तक परिश्रम किया है । जो लोग ईष्यावश अभयदेवसूरि को खरतर गच्छीय नहीं मानते उन्हें सचोट सप्रमाण उत्तर देने का मेरा विचार है। उन्होंने कहा-मुझे जो सं० १४१२ की राजगृह पार्श्वनाथ प्रशस्ति मिली वह भी इसके लिए उत्कृष्ट प्रमाण है। यह प्रशस्ति, मन्दिर ध्वस्त होने पर दो टुकड़ों में विभक्त हो गई थी और मुझे उसका दूसरा टुकड़ा
ओसवाल जाति के इतिहास पर लिखे गए मुनि ज्ञानसुन्दरजी के गप्प पुराण पर आप बड़े झुंझलाते और वीर संवत् ७० में ओसवाल जाति की उत्पत्ति उन्हें बिलकुल अमान्य थी। वे उसे छठी शताब्दी से पूर्व का नहीं मानते थे। वे कहते-कभी मैं इसकी सप्रमाण आलोचना करूंगा । आपका जाति-प्रेम उल्लेखनीय था। ओसवाल सम्मेलन आदि के कृतित्त्व इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उन्हें अपने 'नाहर' गोत्र का उल्लेख जहाँ कहीं मिलता नकल कर लेते। हमारे संग्रह के नाहर गोत्र के लेखों का संग्रह तो किया ही पर जब कवि जटमल नाहर के. सम्बन्ध में यह ज्ञात हुआ कि वे उन्हीं के गोत्रीय सुकवि थे तो उन्होंने अपने व हमारे संग्रह से नवीन ज्ञात जटमल के ग्रन्थों की नकलें बड़े उत्साह के साथ करवा कर रखी। हमने स्वामी नरोत्तमदासजी के साथ उसका सम्पादन भी किया । नाहरजी उसे प्रकाशित करना चाहते थे पर उनका स्वर्गवास हो जाने पर आज चिर काल से वह अप्रकाशित ही रहा। संस्कृति व धर्मरक्षक:
आप तोर्थ रक्षा वा धर्म रक्षा में सर्वदा कटिबद्ध रहते थे। किसी ने भी जैन धर्म और संस्कृति के सम्बन्ध में कोई गलतफहमी फैलाने की चेष्टा की तो आप उसका प्रेम पूर्वक निराकरण करते, उनसे पत्र-व्यवहार आदि द्वारा भ्रम दूर करके विश्राम लेते। एकदिन वार्तालाप के प्रसंग से मैंने उन्हें बतलाया कि जगदीशसिंह गहलोत ने मारवाड़ राज्य के इतिहास में राणकपुर के मन्दिर के सम्बन्ध में लिखते हुए उसे "पातरियों का मन्दिर"
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बतलाया है तो आपने उनसे पत्र व्यवहार किया और राणकपुर के शिल्प के महत्त्व के सम्बन्ध में काफी लम्बी चर्चा चलाई । एक अन्य प्रसंग आने पर उन्होंने इस बात की मधुर चुटकी लेते हुए कहा कि आप ऐसा सिलसिला छेड़ गए कि मेरे लिये वह लम्बी उधेड़-बुन हो गई। इसी प्रकार आपने श्वेताम्बर-दिगम्बर प्राचीनता आदि के विषय में निबन्ध लिखकर भ्रम का निराकरण किया।
वकालत का सदुपयोग :
डब्बे में नाहर जी बैठे हुये थे। मैंने उन्हें देखा, ज्योंही चार नजर हुई कि मुझे अपने पास बुलाकर राजगृह में अपने शान्ति भवन में ठहरने व रसोई पानी की कुछ भी खटपट न करने के लिये कहा । हमारे साथ काकाजी अगरचन्दजी भी थे। उन्हें सिलहट जाने की जल्दी थी अतः हम एक ही दिन ठहर कर कलकत्ता जाने लगे । नाहरजी ने इसके लिये कड़ा उपालंभ दिया। उस समय कवि लल्लूलालजी गन्धर्व राजगृह आए हुए थे। जब नाहरजी को उनकी काव्य प्रतिभा मालूम हुई तो उन्होंने उन्हें अपने वहाँ निमन्त्रित किया। नाहरजी का दरवान धर्मशाला में आया. लल्लूलालजी के साथी वहाँ बैठे थे जिनके मार्फत निमन्त्रण को पाकर वे शान्तिमवन गए और एक तत्कालिक कविता सुनाई जिसमें उनके निमन्त्रण का "ये तो द्विजराज के बुलाइवै को साज है" कहकर अन्त में "नाहर वनराज है" कह कर आने का कारण दर्शाया। नाहरजी उनकी काव्य प्रतिभा से बड़े प्रभावित हुए।
असाधारण प्रभाव व अनोखी सूझ:
हमारे सिलहट के एक व्यापारी नरेन्द्रचन्द्र दास जिसमें हमारे हजारों रुपये बाकी थे, उसने अपनी सम्पत्ति देवोत्तर कर डाली। हमने उस पर हाईकोर्ट में केस कर अग्रिम कुर्की निकाली। उस मामले के कागजात नाहरजी ने गौर से देखते हुए उचित सलाह दे रहे थे इतने में ही एक बंगाली बैरिस्टर नाहरजी के यहाँ आ पहुंचे। उन्होंने नाहरजी के कहने पर कागजों को उठाया और पृष्ठों को उलट-पुलट के रख दिये। नाहरजीने मेरे से कहा-देखो, यह धन्धा कैसा है। बिना स्वार्थ ये लोग नजर उठाकर भी नहीं देखते, राय देना तो दूर रहा । हाईकोर्ट की वकालत की सनद लेकर भी मुझे इस धन्धे से साहित्य और पुरातत्त्व की सेवा ही अच्छी लगती है फिर भी अपने अनुभव का उपयोग तो करना ही चाहिये। नाहरजो ने अपने कानूनी ज्ञान का सदुपयोग राजगृह. पावापुरी आदि तीर्थों के मामलों में अच्छी तरह किया था। आपके संग्रह में ऐसी तीर्थ माला जिसपर पटना हाई कोर्ट की छाप लगी थी तथा कमलसंयमोपाध्याय लिखित स्वर्णाक्षरी पत्रादि भी थे जिन्हें उन्होंने शहादत में पेश किए थे। तीर्थों के सम्बन्ध में आपकी सेवाएं उल्लेखनीय थीं। जैन समाज का कर्तव्य है कि आप के स्टेच्यू चित्र आदि वहाँ लगाएं।
बीकानेर से ठाकुर रामसिंहजी और स्वामी नरोत्तमदासजी कलकत्ता पधारे तो मैं उन्हें नाहरजी के यहाँ ले गया। कवि जटमल नाहर की गोरा बादल कथा की जिस हस्तलिखित प्रति के आधार से बाबू श्यामसुन्दरदासजी ने उसे गद्य रचना बतलाई थी, उस प्रति का निर्णय करने के लिये हम लोग नाहरजी के साथ 'रयाल एसियाटिक सोसायटी आफ बेंगाल' में गए । नाहरजी वहाँ के विशिष्ट सदस्य थे और उनका वहाँ बड़ा प्रभाव था। बेचारे थुल-थुल शरीर वाले युरोपियन पुस्तकाध्यक्ष ने स्वयं खड़े-खड़े प्रतियों को खोज कर उपर्युक्त कथा की प्रति निकाली और हमलोंगों का अच्छा स्वागत किया। नाहरजी के इस प्रयत्न से गोरा बादल संबन्धी हिन्दी साहित्य में जो गतानुगतिक बड़ा भ्रम फैला हुआ था, उसका सदा के लिये निराकरण
गुणी जनों के प्रति आदर :
एकबार बिहार से हमलोग राजगृह जा रहे थे। संलग्न
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हो गया। आपने इसके सम्बन्ध में हुई मौत" शीर्षक वाला सुन्दर लेख लिख कर "विशाल भारत" में प्रकाशित किया। यह शीर्षक भी आप की असाधारण सूदा-बुझ का परिणाम है और गतानुगतिक साहित्य मनीषियों के लिये एक बड़ा व्यंग भी।
उत्तम परीक्षक
आप विश्वविद्यालय के सर्वोच्च कक्षाओं के मानद परीक्षक तो थे ही पर प्राचीन मुद्रा शास्त्र के भी एक मर्मज्ञ विद्वान थे। एक बार एक ऐसे सिक्के को ब्रिटिश म्यूजियम के क्यूरेटर ने नाहरजी को भुलावे में डालने के लिये नकली बतला दिया जो उस म्यूजि यम के संग्रह में भी नहीं था। नाहरजी के इस उतर से कि आप दूसरे को भुलाबे में डालिये, मै इसके महत्व से अनभिज्ञ नहीं हूँ, मुझे इसकी पूरी परीक्षा हैक्यूरेटर मुँह ताकता ही रह गया।
मिलनसारिता
एक बार मेरे पूज्य पितामह श्री शंकरदान नाहटा कलकत्ता पधारे तो उन्होंने नाहरजी से मिलने का विचार किया। नाहरजी को मालूम होते ही वे स्वयं हमारी गही आरमेनियन स्ट्रीट में आ पहुँचे ओर बड़े प्रेम पूर्वक मिलकर काफी देर तक बातचीत में लग गए।
जैन अभिलेख
नाहरजी ने प्रतिमा लेखों का बहुत बड़ा संग्रह किया था। जैन समाज में सब से पहले अभिलेखों का संग्रह करने वाले वे ही थे। दूसरे सभी संग्रह बाद में प्रकाशित हुए थे। उनके लेखों का संग्रह तीन भागों में पूर्ण हुआ। तीसरे भाग में जेसलमेर के समूचे लेख प्रकाशित किए थे। उनमें जो भी रह गए हमने मूल लेखों से मिलाने के पश्चात् अपने 'बीकानेर जेन लेख संग्रह में लगभग २०० लेख प्रकाशित कर दिए। हमें लेख संग्रह करने
की उनसे बड़ी प्रेरणा मिली थी अतः हमने अपने ३००० शिलालेख, १०० चित्र और १०० पृष्ठ की प्रस्तावना वाले इस वृहद्ध ग्रन्थ को स्वर्गीय नाहरजी की पुण्य स्मृति में उन्हें समपर्ण कर अपने को कृतकृत्य माना । 'एपिटम आफ जैनिज्म ग्रन्थ भी जैन धर्म सम्बन्धी जानकारियों से परिपूर्ण है जिसका लेखन आपने श्रीघोष महाशय के साथ किया।
अंतिम अभिलाषाएँ :
नाहरजी ने जैन लेख संग्रह के चतुर्थ भाग में मथुरा के प्राचीन लेखों का महत्वपूर्ण संकलन किया था। उन्होंने बड़े ही परिश्रम पूर्वक मूल लेखों को हिन्दी व अंग्रेजी अनुवाद सह विल्कुल तैयार कर लिया था और मथुरा जाकर एकबार फिर से लेखों को देख आने की भावना की थी पर उनका स्वर्गवास हो जाने पर वह कार्य यों ही रह गया।
उनकी इच्छा थी कि तीनों भागों की एक संयुक्त तालिका प्रकाशित कर दें ताकि इतिहास शोधकों के लिए एक महत्वपूर्ण कार्य हो जाय । यों अन्य अभिलेख संग्रहों से नाहरजी के लेख संग्रहों के परिशिष्ट अधिक स्पष्ट और महत्त्वपूर्ण थे ।
नाहरजी ने अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में हस्तलिखित प्रतियाँ की पुष्पिका - प्रशस्तियों के संग्रह की ओर ध्यान दिया था क्योंकि उनका महत्त्व भी ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो शिलालेखों से किसी प्रकार न्यून नहीं है। नाहरजी में यह विशेषता थी कि जिस काम में वे लग जाते उसे सफल बनाने में पूर्ण शक्ति लगा देते थे। अपने संग्रह की प्रशस्तियों का तो उन्होंने संग्रह किया ही पर जहाँ भी जाते प्रशस्तियाँ नकल करवा कर भेजने के लिए योग्य व्यक्तियों को निर्देश दे आते । आपकी प्रेरणा से हमने अपने संग्रह की ढाई हजार प्रशस्तियाँ एकत्र कर डाली । आपकी
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बड़ी इच्छा थी कि इनका एक विशाल संग्रह प्रकाशित हो पर आपके अकाल में ही स्वर्गवासी हो जाने से वह इच्छा मन की मन में रह गई। जैन समाज का कर्तव्य है कि उनके अमोष्ट कायों को पूरा कर के साहित्य सेवियों के लिए सामग्री सुलभ कर दें।
स्वर्गवास के पूर्व नाहरजी भारत के प्रायः समस्त जैन तीर्थों की यात्रा एवं विशिष्ट स्थानों का प्रवास कर के लौटे थे। वे घर आते ही बीमार पड़ गए । जब मैं मिलने गया तो उन्होंने कहा मेरा ज्वर उतर जाय तब आप दो चार दिन बाद आइये और थोड़ा कष्ट करके मूत्तियों के लेख और दूसरी वस्तुओं की सुव्यवस्थित तालिका बनादें कारण यह कार्य तो आपको ही करना है। उस समय किसे मालूम था कि नाहरजी से फिर मुलाकात ही नहीं होगी । पाँच-छ दिन मैं उनके यहाँ नहीं जा सका और वे स्वर्गवासी हो गए । उनकी अन्त्येष्ठि क्रिया हो जाने के पश्चात् ही मुझे वह दुःखद समाचार मालूम हुआ। काव्य और अलंकार ज्ञान :
नाहरजी सर्वतोमुखी प्रतिभा सम्पन्न थे । एकबार
काव्य अलंकार के सम्बन्ध मैं वार्तालाप होनेपर उन्होने विभिन्न छन्दों के उदाहरण बैठे-बैठे प्रस्तुत कर दिए जिनकी रचना में गणों का, मात्राओं का इस प्रकार प्रयोग होता है। उन्होंने द्र तविलम्बित छंद के उदाहरणों में "नत नरेश्वर मौलिमणिप्रभा" आदि समयसुंदर जी कृत दादा कुशल स्तोत्रका एक छंद बोला । त्रोटक छंद के उदाहरणों में अजीर्णमंजरी का श्लोक प्रस्तुत किया-"पनसेकदलं कदलं च घृतं घृत पाक विनाशन जू भरसम् तदुपद्रब नाशकरं लवणं. लवणेषुच तन्दुलवारिवरम्" तथा "शारदे वरदे तुमि कल्पतरु, तुमि भिन्न चराचर शुष्क मरु । प्रखरातप तप्त प्रखिन्न जने, वर देहि मे माता हृष्ट मने"। फिर बतलाया-"बिलेते पालाते छटफट करे नव गौड़े। बिना हैट कोट पोरे धुती पोरे मान रहे ना" इत्यादि ।
नाहरजी का स्वर्गवास हुए आज लगभग चार दशक बीत गए पर उनके कार्य-कलाप, उनकी सौम्य-शुभ्र मुद्रा, उनकी मधुर ओजस्वी वाणी आज भी मेरे हृदय-पटल पर अंकित है।
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बहत्तरवीं कला की परीक्षा
बसंतपुर नगर में अजितसेन राजा राज्य करता था। उसके सुबुद्धि नामक प्रधान और सहस्रबुद्धि नामक कोतवाल था। उसी नगर में धनावाह नामक एक साहूकार रहता था जिसके चार पुत्र थे। उनमें सबसे छोटे पुत्र का नाम श्रीदत्त था। सेठ ने श्रीदत्त को पाठशाला भेज कर उपाध्याय के पास पुरुष की बहत्तर कलाएँ सिखलाई। श्रीदत्त ने इकहत्तर कलाओं की परीक्षा दो जिसमें वह उत्तीर्ण हो गया, परन्तु बहत्तरवीं चोरी की कला अपरीक्षित रह गई तो श्रीदत्त ने सोचा इसे भी प्रयुक्त कर देखना चाहिए। इन विचारों से प्रेरित हो वह उसी नगर में रहने वाले धनाढ्य जौहरी सिंहदास के यहाँ गया। जौहरी सिंहदास ने श्रीदत्त को सम्मान पूर्वक बैठाया। श्रीदत्त ने उसके समक्ष जवाहिरात की ग्राहकी बताते हुए माल दिखाने के लिए कहा। जौहरी श्रीदत्त को लेकर ऊपर दूसरे तल्ले में गया और तिजोरी खोलकर जवाहिरात निकालने लगा। श्रीदत्त ने पास पड़ी हुई चाभियाँ लेकर अपनी जेब से मोम कि गोटियाँ निकाली और उन पर छाप लेकर अपनी जेब में डाल ली। जौहरी ने कई प्रकार के जवाहिरात दिखाए परन्तु श्रीदत्त से कोई भी सौदा नहीं पटा। श्रीदत्त सेठ को प्रणाम कर अपने घर लौट आया।
अब श्रीदत्त ने मोम की छाप के अनुसार लौहकार से नवीन चाभियाँ बनवाकर अपने पास रखी और एक चन्दन गोह खरीद कर उसे पालने-पोसने लगा। एक दिन अवसर पाकर वह गोह को लेकर निकला। आधी रात का समय था । वह सीधा सिंहदास सेठ के घर के पृष्ठ-मार्ग से गोह के प्रयोग से ऊपर चढ़ा। उसने गवाक्ष में आकर देखा कि सेठ सिंहदास ऊंघ रहा है। सेठ को निद्राधीन देखकर उसका पुत्र भी उठ कर सने चला गया था। श्रीदत्त चुपचाप जौहरी के पुत्र के स्थान पर आकर बैठ गया और खाता खोलकर कलम हाथ में ले ली। इसी समय सहस्रबुद्धि कोतवाल नगर रक्षा के हेतु घूमने निकला और जौहरी सिंहदास के घर में दीपक का प्रकाश देखकर पुकारा-- गवाक्ष में कौन बैठा है ? श्रीदत्त ने चखा जिससे कोतवाल ने समझा सेठ का पुत्र बैठा काम कर रहा है, अतः आगे निकल गया। कोतवाल के चले जाने पर श्रीदत्त उठकर तिजोरी के निकट आ गया और अपनी जेब में रखी चाभियों को उसमें डालकर बैठ गया। थोड़ी देर में अर्द्ध-रात्रि के घण्टे बजने प्रारम्भ हुए। श्रीदत्त ने घण्टे की आवाज के साथ-साथ तिजोरी खोलकर तुरन्त जवाहिरात के छः डब्बे निकाले और तिजोरी को बन्द कर दिया । इसके बाद रत्न-मंजषिकाएं और चाभियाँ लेकर धीरे से द्वार खोलकर अपने घर आ गया। वह उन पेटियों को घर में सुरक्षित छिपा कर अपने काम में लग गया।
छः महीने पश्चात् जौहरी सिंहदास ने किसी ग्राहक को दिखाने के लिए रत्नों की तिजोरी को खोला तो उसमें से छः पेटियाँ गायब मिली। सेठ का मुंह सफेद हो गया। उसने घर में सबसे पूछा, अच्छी तरह जाँच की पर जब कहीं भी पता न लगा तो राज-दरबार में जाकर प्रार्थना की-राजन् । मेरे घर से छः लाख के जवाहिरात बन्द तालों में से कोई ले गया । राजा ने सहस्रबुद्धि कोतवाल को
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बुलाकर कहा-सेठ सिंहदास के घर से जवाहिरात की छः उससे कोई रिश्ता नहीं है। यह सुनकर कोतवाल ने कहापेटियाँ चली गई, तुम क्या खाक चौकीदारी करते हो? सुनो श्रीदत्त। आज से छः मास पूर्व मध्यरात्रि में तुम देखो एक सप्ताह में तुम चोर और माल को बरामद करो सिंहदास के घर में बैठे थे, दीपक जलता देखकर जब अन्यथा चोर का दण्ड तुम्हें दिया जायगा। कोतवाल ____ मैंने पूछा-कौन बैठा है. तब तुमने वखारा था अपने तलाशी के कार्य में लग गया। राजा ने सिहदास और वैसे-ही आज भी तुमने वखारा अतः जौहरी से कहा-तुम्हारा धन सात दिन में आ गया तो ठीक. के जवाहिरात के चोर तुम्ही हो। श्रीदत्त ने कहा-वाह अन्यथा आठवें दिन मेरे खजाने सेले लेना. तुम्हें चिंता करने कोतवाल साहब, आप भी पादर देवी वाली वात करते हो। की आवश्यकता नहीं है। राजा के आश्वासन से जौहरी कोतवाल ने कहा-सो कैसे ? श्रीदत्त ने कहा-किसी गाँव तो निश्चिन्त हो गया पर सहस्रबुद्धि कोतवाल बड़ी में पादरदेवी का मंदिर था। वह देवी सबसे बलि, भारी चिता में पड़ गया कि छः महीने पूर्व गये माल भोग लेती और उन्हें कहती मैं तुम्हारे सारे विध्न का कैसे पता लगाया जाय ? उसका चित्त चिन्ता के हरण करती हूँ। किसी धूर्त ठग ने कहा-देवी । तुम्हारे मारे उदास हो गया । चिंता ऐसी ही चीज है, ही सिर विध्न आवेंगें जब ? देवी ने कहा-मैं सारे विध्न गाँव कहा है :
पर ही डाल दूंगी । वैसे ही आप 'तबेले की बला बन्दर के
सर" कह रहे हो। कोतवाल सुबह बात करने को कह कर चिंता में चतुरपन घटे, घटे कवित्त गुण गाह।
चला गया और श्रीदत्त निश्चिन्त होकर सो गया । हाम काम विद्या घटे, चिन्ता समुद्र अथाह ।।
आठवें दिन प्रातःकाल राजा ने कोतवाल को बुला चिंता समुद्र अथाह जल, दिवस भोजन नहिं भाव। घटे मित्र पर भाव , रयणि निद्रा नहु आवै।।
कर पूछा-चोर को शोध निकाला ? उसने कहा-हाँ
महाराज, पता लगाया है। इसी नगर के सेठ धनावाह रूप हीण तनु खीण, जास घट व्यापे चिंता।।
का पुत्र श्रीदत्त चोर है। राजा ने श्रीदत्त को तुरन्त __ कवि 'गद्द' कहै दहें जीव, जास घट व्यापै चिंता॥
उपस्थित करने की आज्ञा दी। राजाज्ञा से श्रीदत्त राजचिंतातुर कोतवाल को चिंता ही चिंता में सात
सभा में उपस्थित किया गया। उसने कहा-महाराज, दिन बीत गए पर वह इस विकट समस्या को सुलझा न
क्या आज्ञा है ? राजा ने कहा-जौहरी सिंहदास के रत्न सका। सातवें दिन अर्द्ध-रात्रि में जब वह बाजार में
तुमने चराये हैं, मेरा कोतवाल कभी झूठ नहीं बोलता। से निकल रहा था तो एक दुकान में दीपक जलते हुए
श्रीदत्त ने कहा-आप मुझे स्वेच्छानुसार धीज कराइये। देख कर पूछा-हाट में कौन है ? श्रीदत्त ने उत्तर में
यद मैं चोर हूँ तो दण्डित होऊँगा। राजा ने मंत्री. वखारा तो कोतवाल ने दुकान पर आकर द्वार कोतवाल सव से सलाह लेकर निर्णय दिया कि हमारे खुलवाया। श्रीदत्त ने कोतवाल को बैठने के लिए आस्न
नगर की रक्षिका श्री कालिकादेवी चमत्कारी और प्रत्यक्ष दिया और पान, सुपारी, लवंग, इलायची आदि मनुहार
हैं। वह चोर को मार देती है और साहूकार को जीवित करने लगा। कोतवाल ने पूछा-सेठ, तुम्हारे पिता का निकाल देती है अतः उस देवालय में रात भर रहकर नाम क्या है ? श्रीदत्त ने कहा-धनावाह मेरे पिता हैं और
प्रभात में निकल आने पर तुम निर्दोष प्रमाणित हो सकोगे। मैं हूँ श्रीदत्त । कोतवाल ने पूछा-अपने नगर के जौहरी
श्रीदत्त ने राजाज्ञा शिरोधार्य की। सिंहदास तुम्हारे सगे-सम्बन्धी हैं ? श्रीदत्त ने कहा-हमारा सन्ध्या समय राजा-प्रजा सभी मानव • मेदिनी
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कालिका देवी के मन्दिर के अहाते में एकत्र हुए। श्रदत्त भी सपरिवार आया और राजा को नमस्कार कर देवालय में प्रविष्ट हो गया । मन्दिर के द्वार वन्द हो गये । राजा ने मंदिर के चतुर्दिक पहरेदार बैठा दिये। सब लोग प्रातःकाल उस धीज का परिणाम जानने की इच्छा से अपने अपने घर चले गये। श्रीदत्त के घरवाले बड़ी व्यग्रता से उसके निदोष घर लौटने की कामना कर रहे थे।
के पद-चिन्ह भी देखे। पिता ने कहा-अपने शकुन हो गये अतः पहले ही वरण कर लें । पुत्र ने कहा-- पिताजी! छोटे पैरों वाली स्त्री मेरी और बड़े पैरोंवाली आपकी । आगे जाते कुछ ही दूरी पर उन्हें उन दोनों स्त्रियो से साक्षात्कार हो गया। उन्होंने स्त्रियों से पूछातुम लोग कौन हो, कहाँ रहती हो? स्त्रियों ने कहाहम रूद्रपली गाँव में रहने वाली कलंबी ज.ती की हैं. हम दोनों विधवा हैं अतः घर मांडने के लिए निकली हैं। आप लोग कौन हैं? उन्ह ने कहा- हम भी कलंवो जाति के हैं और इसी उद्देश्य से घर से निकले हैं अतः अपने परस्पर नाता कर लें। पितापुत्र ने पूर्व निर्णयानुसार उनसे सम्बन्ध कर लिया। वे दोनों माँ बेटी थी. छोटे पैरों वाली माँ थी जो पुत्र की और वड़े पैरों वाली पुत्री थी वह पिता की घरवाली हुई। वे अपने घर आकर आनन्द से गृहस्थी चलाने लगे। कुछ अरसे बाद दोनों गर्भवती हुई और दोनों ने पुत्र को जन्म दिया। अब माताजी, यह बतलाइये कि दोनों का परस्पर क्या सम्बन्ध हुआ अर्थात् वे एक दूसरे के क्या लगे? यही संशय है।
इधर श्रीदत्त ने सर्वप्रथम फल-फूल-मेवा-मिष्ठान्न आदि सामग्री से देती की पूजा की। फिर देवी की आरती करके दीपक की ज्योति के सामने बैठकर उनकी आराधना करने लगा। एक प्रहर बैतने पर सिंहवाहिनी त्रिशूल धारिणी देवी विकराल रूप में उपस्थित हुई। उन्होंने कहा- अरे पापी । चोरी और सीनाजोरी! चोरी करके भी सत्यवादी बनना चाहते हो? मेरे समक्ष तुम्हारी कारसाजी नहीं चलेगी। अपने इष्ट को स्परण करके कल मरने के लिये तैयार हो जाओ। श्रीदत्त ने विनम्र होकर कहा-माताजी, मेरे ऐसे भाग्य कहाँ जो आप के हाथ से मृत्यु हो ! परन्तु मेरे मन में एक संशय है, उसका निर्णय हुए विना मेरे मन की बात मन में ही रह जायेगी। अतः मेरा संशय दूर करके आप खशी से मारिए । देवी ने कहा-तुम अपने संशय की बात कहो। श्रीदत्त ने कहा- सुनिये माताजी! पली नामक एक गाँव है. जिसमें कलंबी जाति के दो पिता-पुत्र रहते हैं। कर्म संयोग से दोनों की स्त्रियाँ मर जाने से वे विधुर हो गये। उन्होंने विचार किया स्त्री के बिना घर क्या? अतः वे अपना घर बसाने के उद्देश्य से नाता (विधवा-विवाह) करने के लिये घर से चल पड़े। दो चार दिन में वे रूद्र नामक गाँव में आकर ठहरे। वहाँ से प्रातः काल रवाना होते समय उन्हें अच्छे शकुन हुए। बाप ने कहा--- बेटा, ये शकुन कहते हैं कि आगे जाने पर हमें दो स्त्रियाँ मिलेगी, जिनके साथ अपना सम्बन्ध होगा। उन्होंने थोड़ी दूर जाने पर मार्ग में दो स्त्रियों
श्रीदत्त की बात सुनकर देवी विचार में पड़ गयी और एक प्रहर बीत जाने के बाद भी वह एक-दूसरे के सम्बन्ध का निर्णय नहीं कर सकी। देवी ने झंझला कर कहा-पापी, तुम मुझे इस प्रकार वारजाल में फंसाकर ठगना चाहते हो? श्रीदत्त ने कहानहीं माताजी, अभी रात्रि तो तीन प्रहर बाकी है. अधीर न होकर स्वस्थ चित्त से विचार कर मेरा संशय मिटाइये। मैं आप के आगे भागकर तो नहीं जाऊँगा। देवी यह सुन वापिस मूर्ति के पास आ बैठी। देवी विचार करते-करते किसी निर्णय पर न पहुंची तो उसने फिर आकर श्रीदत्त से कहा। श्रीदत्त उन्हें बारम्बार संशय निवारणार्थ प्रेरित करता रहा। देवी इधर पशोपेश में रही और उधर प्रभात होते ही
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द्वार खुल गया। श्रीदत्त एक क्षण में बाहर कूद पड़ा। पहरेदार उसे राजसभा में ले गये। वह राजा को सहर्ष प्रणाम करके बैठा। राजा ने कोतवाल को बुलाकर उसे मिथ्यादोषारोपण के अपराध में शूली का दण्ड दिया।
श्रीदत्त ने अनुनयपूर्वक कहा--महाराज। यदि अपराध क्षमा करें तो एक बात कहूँ। राजा ने कहा, कहो। कहो। तुम्हें तो सात गुनाह माफ है। श्रीदत्त ने कहा-आप ऐसे बुद्धिमान कोतवाल को क्यों मार रहे हैं जिसने छ: मास के वाद भी मेरा चखारना पहिचान लिया। श्रीदत्त ने आदि से अन्त तक सारी बात राजा के पास निवेदन की। राजा ने कहा-तब देवी झठी हुई ? श्रीदत्त ने रात की सारी बात खोलकर
कही कि उसने किस प्रकार देवी को वारजाल में उलझा कर चतुराई से अपनी प्राणरक्षा की। श्रीदत्त की बात सुनकर राजा व सभी सभासद् उसके बुद्धिबल की प्रशंसा करते हुए धन्य - धन्य कहने लगे । श्रीदत्त ने घर से जवाहिरात की छहो पेटियाँ मंगाकर राजा को संभलाई। राजा ने पूछा-तुमने यह सब प्रपंच क्यों किया? उसने कहा-श्रीमान, मैने बहत्तरवीं कला की परीक्षा करने के लिए ही यह कार्य किया था। राजा ने श्रीदत्त को प्रधान मंत्री पद दिया। बुद्धिमान कोतवाल को सम्मानित करने के साथ सिंहदास सेठ को बुलाकर उनकी अमानत जवाहिरात सुपुर्द की। श्रीदत्त अपने वुद्धिबल से उत्तरोत्तर उन्नति शिखर पर आरूढ़ होकर सुखी हुआ।
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है" लिखते हुए "महाकवि वाग्भट्ट ने इसी नगर में नेमि निर्वाण काव्य रचा था" लिखा है यतः
अहिच्छत्र पुरोत्पन्न प्राग्वाट कुल शालिनः । छाहस्य सुतश्चक्र प्रबन्धं वाग्भट्टः कवि ।।
अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ तीर्थ
जब अहिच्छत्रा का ध्वंश ही हो गया तो वहाँ रचना कैसे हुई। वास्तव में यह अहिच्छत्रा उत्तर प्रदेश का प्रस्तुत तीर्थ न होकर राजस्थान की ही नगरी है। पोरवाड़ जाति श्रीमालनगर (भीनमाल) और राजस्थान से ही संबन्धित थी और सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने नागौर को अहिच्छत्रा माना है। नागौर के निकट ओसतरां गाँव भी है एवं उच्छित्तवालओसतवाल गोत्र भी ओसवाल जाति में विद्यमान है जिसके प्रतिमा-लेखादि पाये जाते हैं और सुप्रसिद्ध तपागच्छाचार्य विजयदेवसुरि का जन्म इसी गोत्र में हुआ था । अतः नेमि-
निर्वाण काव्य के रचयिता निश्चित ही राजस्थान की अहिच्छत्रा के थे वह चाहे नागोर हों या ओसतरां। अस्तु।
[ प्राचीन ऐतिहासिक तीर्थ अहिच्छत्रा के सम्बन्ध में जब अस्त-व्यस्त दि० उल्लेख सामने आये तो काकाजी अगरचंद जी के आदेशानुसार श्वेताम्बर प्रमाणों को एकत्र किया और निबन्ध रूप में प्रकाशित किया।
प्रस्तुत निबन्ध में उल्लिखित शिलालेखों के गण, कुल, यात्री संघों के विवरण, और आगम ग्रन्थादि के उल्लेखों से अहिच्छत्रा श्वेताम्बर जैन तीर्थ प्रमाणित होता है।]
कनिंघम साहब को सन् १८९४ में अहिच्छत्रा में से एक ताम्बे का सिक्का प्राप्त हुआ था जिसके एक तरफ पुष्प सहित कलश अंकित था और दूसरी ओर "श्री महाराज हरिगुप्तस्य" लिखा हुआ था । यह लेख विक्रम की छठी शताब्दी का है। यह कोई गुप्त वंश का राजा होना चाहिए क्योंकि पुष्प सहित कलश जैनों का मांगलिक कलश है और मथुरा के स्थापत्य में वह मुख्यता से आलेखित हुआ है। ये राजर्षि जैनाचार्य हो गये हैं जो हूण सम्राट तोरमाण के गुरु थे। मालवपति देवगुप्त हर्षवर्द्धन के ज्येष्ठ भ्राता राज्यवर्द्धन से युद्ध में हारकर गुप्त वंश के जैनाचार्य हरिगुप्त के शिष्य बन गए हों यह बात पुरातत्त्वाचार्य श्री जिनविजयजी ने अपने कुवलयमाला विषयक लेख में लिखी हैं।
तीर्थकरों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष पांच प्रसंगों को कल्याणक की संज्ञा दी गई है, अर्थात् जिससे जीवों का कल्याण हो या जो आत्म कल्याण में साधन-कारण हो। ये प्रसंग जिन तिथियों और स्थानों में घटते हैं उन तिथियों को कल्याण-तिथि और स्थान को कल्याणक-तीर्थ कहा जाता है । प्रथम तथंकर भगवान ऋषभदेव के च्यवन, जन्म और दीक्षा अयोध्या में, केवलज्ञान पुरिमताल और निर्वाण अष्टापद पर हुआ। ये तीनों स्थान आज भी तीर्थ रूप में मान्य हैं. जब कि अष्टापद हिमालय के हिम राशि में अदृश्य-लुप्त हो गया है। इसी तरह अन्य सभी त.थंकरों की कल्याणक
श्री विजेन्द्रकुमार जैन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित अहिच्छत्रा तीर्थ की स्मारिका में “अहिच्छत्रा नगर का ध्वंश १००४ ई० के उपरान्त ग्यारहवीं शती ई० में ही हो गया लगता
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तिथियों व स्थानों का विवरण पाया जाता है। और उन तिथियों की आराधना तप और जाप आदि विशेष रूप से मान्य किया जाता है। कल्याणक तीर्थों की यात्रायें करके धर्मनिष्ठ व्यक्ति अपने को भाग्यशाली मानते हैं। भगवान नेमिनाथ का जन्म सौरीपुर. दीक्षा. केवल ज्ञान व निर्वाण गिरनार पर्वत पर हुआ किन्तु अन्य स्थानों के सम्बन्ध में विस्मृति होती गई अतः उनकी जहाँ पुनस्र्थापना की गई वे स्थापना तोर्थ रूप में मान्य हुआ क्योंकि बीच-बीच में राजनैतिक उथल-पुथल व उपद्रवादि के कारण कल्याणक भूमियों की यात्रा बन्द-सी हो गई थी। अतः कल्याणक भूमियों का सही पता लगाकर निर्णय करना कठिन है। पर राजगृह, गिरनार आदि पर्वत सो अपने स्थान पर स्थित हैं अतः ऐसे स्थानों के सम्बन्ध में तो विशेष शंका का अवकाश नहीं है।
इस महान् उपसर्ग का ध्यान आया तो उपसर्ग निवारणार्थ उनके मस्तक पर सप्तफण या सहस्रफण धारण कर देवी पद्मावती सहित वह भक्ति करने लगा। जिस स्थान पर यह उपसर्ग हुआ और अहि अर्थात् सर्प ने फण फेलाकर उपसर्ग निवारण किया वह स्थान अहिच्छत्रा नाम से प्रसिद्ध हुआ। भ० पार्श्वनाथ का यह विशिष्ट जीवन-प्रसंग होने से अहिच्छत्रा तीर्थ रूप में मान्य हो गया। श्वेताम्बर जैनागमों में आचारांग सूत्र सबसे पहला और प्राचीनतम मान्य आगम है। उसकी भद्रबाहु रचित नियुक्ति में उस समय के प्रसिद्ध जैन तीर्थों का उल्लेख निम्न गाथा में हुआ है
अठ्ठावय-उज्जिते गयग्गपएय धम्मचक्केय ।
पास रहावत्त नगं चमरुप्पायं च वंदामि ।। ३३ ।। "गजान पदे दशार्णकूट वत्तिनी तथा तक्षशिलायां धर्मचक्र तथा अहिच्छत्रायां पार्श्वनाथस्य धरणेन्द्र महिमा स्थाने।"आच रांग नियुक्ति ।
भगवान पार्श्वनाथ ऐतिहासिक काल में हुए, यह बात सर्वमान्य है । उनका च्यवन, जन्म एवं दीक्षा तो वाराणसी नगरी में हुई जो काशी-वाराणसी के नाम से आज भी सर्वमान्य तीर्थ रूप में प्रसिद्ध है, अन्य १९ तीर्थकरों के साथ-साथ भगवान पार्श्वनाथ का निर्वाण भी सम्मेतशिखर तीर्थपर हुआ। यह दिगम्बर-श्वेताम्बर सभी को मान्य है पर पार्श्वनाथ स्वामी का केवल-ज्ञान स्थान कई श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार वाराणसी में हुआ . और दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार अहिच्छत्रा क्षेत्र में हुआ।
पर यह दोनों सम्प्रदायों को मान्य है कि केवलज्ञान से पूर्व और दीक्षा के बाद बीच के ८३ दिनों में कमठ के जीव मेघमाली द्वारा भ० पार्श्वनाथ को सबसे बड़ा उपसर्ग हुआ । वह स्थान पहले शंखावती नाम से प्रसिद्ध था पर जब मेघमाली देव द्वारा अन्य उपसर्ग के बाद भयंकर मेघ-वृष्टि का उपसर्ग हुआ. पृथ्वी जलजलाकार हो गयी, नासाग्र तक पानी आ गया तब पंचाग्नि साधक कमठ तापस की धूनी में से जिस सर्प की रक्षा की थी और जो धरणेन्द्र देव हुआ था उसके उपयोग में भगवान पर
इससे पूर्ववर्ती तीन गाथाओं में यह कहा गया है कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप-वैराग्य-विनय जिन कारणों से शुद्ध बनता है उनका लक्षण कहूँगा। तीर्थंकर भगवन्तों के प्रवचन प्रचारक, प्रभावक आचार्यों के केवल-मनपर्यव अवधिज्ञान, वक्रियादि अतिशायी लब्धिधारी मुनियों के सन्मुख जाने, नमस्कार करने, उनका दर्शन करने, गुणों का कीर्तन करने उनकी पूजा करने, से दर्शन-ज्ञान-चारित्र वैराग्य गुणों की शुद्धि होती है।
जन्म कल्याणक स्थान, जन्माभिषेक स्थान, दीक्षा स्थान. श्रमणावस्था की विहारभूमि. केवल-ज्ञानोत्पत्ति स्थान और निर्वाण कल्याणक भूमि को तथा देवलोक, असुरादि के भुवन, मेरुपर्वत, नंदीश्वर के चैत्यों और व्यन्तर देवों के भूमिस्थ नगरों में रही हुई जिन प्रतिमाओं को तथा अष्टापद १, उज्जयंत २. गजाग्रपद ३, धर्मचक्र ४. अहिच्छत्रा स्थित पार्श्वनाथ ५, रथावर्त तीर्थ ६, चमरो
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त्पात ७ इन नामों से प्रसिद्ध जैन तीर्थों में स्थित जिन प्रतिमाओं को मैं वन्दन करता हूँ।
गणतो बह्मदासियातो कुलतोउचेनगरितो साखातो गणिस्य आर्य पुशिलस्य शिशिनि दतिलाति ति हरिनंदिस्य भगिनिये निवर्तना साविकानां वद्धकिनिनं जिनदासि रुद्रदेव दाता गाला रुद्रदेवसा निना रुद्र..."गहमित्र...""कुमारशिरि बमद दासि हस्तिसेना ग्रहशिरि रुद्रदता जयदासि मित्रशिरि।
मुनि कल्याणविजयजी ने लिखा है नियुक्ति की गाथा ३३२ वों में नियुक्तिकारने तत्कालीन भारतवर्ष में प्रसिद्धि पाये हुए ७ अशाश्वत तीर्थों को बन्दन किया है। मुनि कल्याणविजय जी ने इन सातों प्राचीन जैन तीर्थों की यथाज्ञात जानकारी दी है उसमें अहिच्छत्रा तीर्थ के सम्बन्ध में जिनप्रभसूरि के अहिच्छत्रा नगरी कल्प का आवश्यक उद्धरण दिया है।
आचारांग नियुक्ति परम्परागत श्वेताम्बर मान्यतानुसार चतुर्दश पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी रचित है जो वीर निर्वाण संवत् १७० में स्वर्गवासी हुए । अतः अब से २३३५ वर्ष पूर्व का यह श्वेताम्बरोल्लेख अहिच्छत्रा तीर्थ की प्राचीनता व प्रसिद्धि का सबल प्रमाण है।
"अर्थात् सं० १२ वर्षा के चतुर्थमास १० वें दिन कोटिकगण ब्रह्मदासीय कुल और उच्चानगरी शाखा के आर्य पुशिल की शिष्या दतिला "हरिनन्दिनी भगिनी की आज्ञा से सुतार श्रावक श्राविकाओं जिनदासी रुद्रादेवा, दाता, गाला ( गांव ) की रुद्रदेव सामीरुद्र'"ग्रहमित्र'"कुमारश्री वमदासी (वामदासी) हस्तिसेना. ग्रहश्री रुद्रदत्ता, जयदासी मित्रश्री..." ( ने बिंब करवाया )"
डॉ० फुहरर की उल्लिखित सं० ७४ की चौमुख प्रतिमा के चारों ओर दो-दो पंक्तियों में खुदे लेख की नकल भी यहाँ दे रहें हैं।
. "सं० ७०४ ग्र०१ दि०५ अय वरणतो कुलातो वजनकरितो शाखातो अयशीरकातो""""न धनस्य वाचकस्य । शिशिनिये अर्य गहवलाये पण ति धारिये शिशिनिये आर्य दासिये देवस्य कटुं विनये धरवायाये दति सशुये।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अहिच्छत्रातीर्थ प्राचीनकाल से मान्य व प्रसिद्ध रहा है इसकी पुष्टि वर्तमान के पाश्चात्य विद्वानों की खोज से प्राप्त मूर्तियों व शिलालेखों से भी हो जाती है। ई० सन् १८९२ में डा० फूहरर ने जब शोध कार्य किया तो उन्होंने अपनी लखनऊ म्यूजियम की अप्रिल की खोज रिपोर्ट में लिखा है कि -"इस प्राचीन स्थान में मूर्तियाँ, पब्बासन और अनेक वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं । एक प्राचीन जीर्ग जैन मन्दिर उत्खनन द्वारा एक खण्डित मूर्ति हस्तगत हुई । यह मूति पब्बासन सहित ध्यान मुद्रा में पब्बासन रूप में हैं। पब्बासन के मध्य भाग में उभयपक्ष में सिंह खड़े हैं, मध्य में धर्मचक्र के पास दोनो ओर एक-एक पुरुष मूर्ति को वन्दन करते हुए अवस्थित हैं। मूत्ति के नीचे पब्बासन में एक अभिलेख 'उत्कीणित है जो कुशानकालीन 'ब्राह्मीलिपि में हैं
"अर्थात् सं०७४ की ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास के पाँचों दिन"देवकीपत्नी धरवला ने बारणगण-कुल वज्र नगरी शाखा और आस्रक ( संभोग ) तीन धन "वाचक की"शिष्या ग्रहवला की आज्ञा से. दान'
(सन् १९११ के अगस्त सितम्बर कान्स हेरल्ड में प्रकाशित लेखानुसार जैन सत्यप्रकाश, वर्ष १३ अं०४)
ये दोनों प्रतिमायें इस समय कहाँ है ? इनके फोटो व शिलालेख प्रकाशित होने चाहिए।
भगवान पार्श्वनाथ की जीवनी सम्बन्धी श्वेताम्बर साहित्य में प्रस्तुत उपरोक्त अहिच्छत्रा का उल्लेख प्रायः
"सं० १०२ व ४ दि० १० एत्तस्य पूर्बायां कोट्टियातो
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सभी पार्श्वनाथ चरित्र लेखकों ने किया है। ग्यारह अंगों में मूल आगम सूत्रों में छठ्ठ ज्ञातासूत्र में अहिच्छत्रा नाम आया है यतः
"१. तीसेणं चंपाए नयरीए उत्तर पुरच्छिमे दिसि भाए अहिच्छत्रा नाम नयरी होत्या रिद्वत्थमिय समिद्धा वण्णओ, तत्थणं अहिच्छत्राएं नयरीए कनगकेउ नाम राया होत्था
“२. सेयं खलु मम विपुलं पणिय भंडमायाए अहिच्छत्तं नगरं वाणिज्जाए गमित्तए ।
"३. अहिछतं नगरं वाणिज्जाए गमित्त ते" (ज्ञाताधर्म कथा. पृ० १९२)
तीर्थंकरों के स्वतन्त्र जीवन चरित्र तो बाद में रचे गए हैं. पहले प्रसंगवश ज्ञातासूत्र आदि आगम, कल्पसूत्र, आवश्यक निर्युक्ति, पउमचरियं वसुदेव- हिण्डी आदि में विवरण मिलता है फिर ५४ या ६३ शलाका पुरुष चरित्रों में संयुक्त रूप में श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों संप्रदाय के रचित ग्रन्थों में २४ तीर्थंकर १२ चक्रवर्ती, ९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव के चरित्र पाये जाते हैं। इनमें से श्वेताम्बर ग्रंथों में सं० ९२५ में शीलाचार्य रचित चउपन्न महापुरुष चरिये का सर्वप्रथम स्थान है इसमें कुछ बातों की भिन्नता लिए हुए पार्श्वनाथ चरित्र वर्णित है। इस ग्रन्थ पार्श्वनाथ के उपसर्ग के वर्णन में धरणेन्द्र ने हजार फणा के छत्र का विकुर्वण भगवान के ऊपर किया वह एक तरह से मण्डप जैसा बन गया आदि लिखा है । स्वतंत्र पार्श्वनाथ चरित्रों में सं० ११६८ में देवभद्रसूरि रचित चरित्र ( प्रकृत ) तीसरे प्रस्ताव में कुछ भिन्न वर्णन करते हुए लिखा है
।
"प्रभु ने ऊपर त्रण रात्रि सूधि छत्र धारण क त्यार पछी स्वामीए अन्यत्र विहार कर्यो पछी ते नगरी पृथ्वीतल ने विषे प्रसिद्धि ने पामी ।"
इसके थोड़े वर्ष बाद हेमचन्द्राचार्य रचित त्रिषष्टि-शलाका
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पुरुष चरित्र पर्व ९ सर्ग ३ में लिखा है कि भगवान विचरते हुए किसी नगरी के निकट तापसाश्रम के समीप कुएं के पास एक वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित रहे. वहाँ मेघमाली ने बहुत से उपसर्ग किये। घनघोर वर्षों का जल भगवान के नासिका तक आने पर धरणेन्द्र ने आकर प्रभु के नीचे कमल विकुर्वग किए और स्वयं छत्र धारण करके रहा धरणेन्द्र की स्त्रियों नृत्य करने लगी मैनाली प्रभु के चरणों में गिरा ।
वहां से विहार कर वाराणसी के आश्रमपदोद्यान पधारने पर धातकी वृक्ष के नीचे प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ।
आचार्य हेमचन्द्र के इस उल्लेख से उपसर्ग स्थान अहिच्छत्रा और केवल ज्ञान स्थान वाराणसी भिन्न. भिन्न स्थान सिद्ध होते हैं और केवलज्ञान वाराणसी के आश्रमपदोद्यान में होने का स्पष्ट उल्लेख है ।
सं० ११६५ के पार्श्वनाथ चरित्र में अहिच्छत्रा का स्पष्ट उल्लेख है ही इसके बाद १४ वीं शताब्दी में तो जिनप्रमसूरि ने यह तीर्थ यात्रा स्वयं की लगती है। उन्होंने जो इस तीर्थ का स्वतन्त्र कल्प रचा है उसमें उस समय जो प्रतिमाएँ वापी कूप स्थानादि का उल्लेख वहाँ की औषधियाँ और जल का प्रभाव बताते लिखा है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने विविध तीर्थ कल्प के चौरासी महातीर्थ नाम संग्रह कल्प में "अहिच्छत्राय त्रिभुवन भानु" दिया है और पार्श्वनाथ तीर्थों में उल्लेखनीय होने से कल्प में सम्मिलित किया है। एवं फलवद्धि पार्श्वनाथ कल्प में उस समय के प्रसिद्ध पार्श्वनाथ सम्बन्धी तीर्थ स्थानों के नाम दिए हैं जिसमें अहिच्छत्रा का भी नाम है
"कलिकुण्ड कुक्कुडे सर सिरिपव्यय संखेसर सेरि सय महरा वाराणसी अहिच्छता थंभणय अज्जाहर पवरनयर देवपट्टण - करहेडय नागद्दह सिरिपुर - सामिणी
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चारुप - दिपुरी-उज्जेणी - सुद्धदती - हरिकंखी लिबोडयाइ वहाँ प्राकार कारकों ने जैसे-जैसे उरग रूपी धरणेन्द्र ठाण वट्टमाण · "
ने कुटिल गति से सर्पण किया उसी प्रकार से ईट-निवेश
किया । आज भी वैसा ही प्राकार रत्न दृष्टिगोचर होता अन्त में फलवद्धि पार्श्वनाथ तीर्थ का महात्म्य
है। संघ ने श्री पार्श्वनाथ भगवान का चैत्य निर्माण बतलाते हुए लिखा है कि इस तीर्थ की यात्रा करने से
कराया। चैत्य के पूर्व दिशा में अतिमधुर प्रसन्नोदक उपरोक्त पार्श्वनाथ सम्बन्धी सभी अन्य तीर्थों की यात्रा
कमठ जलधर से भरे हुए सात जलपूर्ण कुण्ड हैं । हो गई ऐसा सम्प्रदाय पुरुषों का उपदेश है।
उन कुण्डों के जल में विधिपूर्वक स्नान करने वाली जिनप्रभसूरि के उपरोक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है। मृतवत्सा स्त्रियाँ स्थिरवत्सा होती हैं। उन कुण्डों की कि चौदहवीं शती में अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ श्वेताम्बर मान्य मिट्टी से धातुर्वादी लोग धातु-सिद्धि होना बतलाते हैं। उल्लेखनीय तीर्थ रहा है। अब इस तीर्थ के स्वतन्त्र पाषाण शिला से मुद्रित मुख वाली सिद्धि रस-कू.पका भी कल्प का हिन्दी अनुवाद नीचे दिया जा रहा है जिससे यहाँ दृष्टिगोचर होती हैं। जहाँ म्लेच्छ राजा द्वारा इसका विशिष्ट महात्म्य भलीभाँति उजागर हो जाएगा।
अग्निदाह आदि अनेक उद्घाटनोपक्रम निष्फल हो गए।
अहिच्छत्रा- तीर्थ कल्प
त्रिभुवनभानु के नाम से प्रकट श्री पार्श्वनाथ जिनेश्वर को नमस्कार करके अहिच्छत्रा नगरी का कल्प किंचित् यथाश्रत कहूँगा।
इसी जंबुद्वीप के भारतवर्ष में मध्य खण्ड स्थित कुरु-जांगल जनपद में शंखावती नामक ऋद्धि-समृद्ध नगरो थी। वहाँ भगवान पार्श्वनाथस्वामी छास्थ विहार में विचरते हुए कायोत्सर्ग स्थित रहे। पूर्व निबद्ध वैर के कारण कमठासुर ने अविच्छिन्न धारा प्रवाह से बरसता हुआ मेघ विकुर्वण किया, जिससे सारे भूमण्डल में जलजलाकार होकर भगवंत के आकण्ठ जल आ गया।
उस नगर के भीतर और बाहर सवा लाख कुंएं और वापिकाए हैं। मधुरोदक की यात्रा के लिए आये हुए लोगों और पवनाथ चैत्यों में स्नान करते हुए लोगों को आज भी कमठ प्रखर तूफान और काली मेघ घटा .
और गर्जन व बिजली आदि दिखाता है । मूल चैत्य . के निकट सिद्धक्षेत्र में श्री पार्श्वनाथ स्वामी का धरणेन्द्रपद्मावती सेवित चैत्य है। प्राकार के समीप श्रीनेमिनाथ भगवान की प्रतिमा सहित सिद्ध-बुद्ध कलित आम्र लुम्ब धारिणी सिंहवाहिनी अम्बिकादेवी विद्यमान है। चन्द्र किरणों की भाँति निर्मल जल से परिपूर्ण उत्तरा नामक वापी है जहाँ स्नान करने और वहाँ की मिट्टी का लेप करने से कुष्टियों का कुष्ट रोग शान्त हो जाता है । धन्वन्तरि कूप की विचित्र वर्णवाली मिट्टी से गुरु आम्नाय से सोना बनता है। ब्रह्मकुण्ड के तट पर उगी हुई मण्डूक ब्राह्मी के पत्तों का चूर्ण एक वर्ण वाली गाय के दूध के साथ पीने से प्रज्ञा मेधा सम्पन्न निरोग और किन्नर की भाँति स्वर होता है। वहाँ उपवन के समस्त वृक्षों में औषधियाँ उपलब्ध होती हैं जो उन उन कार्यों को सिद्ध करती है जैसे जयन्ती. नागदमणी, सहदेवी, अपराजिता, लक्ष्मणा, त्रिवर्णी, नकुली, सकुली, साक्षी, सुवर्णशिला, मोहनी.
पंचाग्नि साधक कमठ तापस द्वारा जलाए काठ में दग्ध साँप को निकाले गए प्रभु उपकार को स्मरण कर नागराज धरणेन्द्र ने अवधिज्ञान से देखा और अपनी अग्रमहिषियों के साथ आकर मणिरत्नमय सहस्रफणालंकृत छत्र प्रभु के ऊपर करके कुण्डलीकृत नागराज ने उन्हें ग्रहण कर उस उपसर्ग को निवारण किया। तभी से उस नगरी का नाम अहिच्छत्रा हो गया ।
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सामली, रविभक्ता, निर्विषी, मोरशिखा, शल्या, विशल्या प्रभृत महौषधियाँ यहाँ विद्यमान हैं। यहाँ हरिहर, हिरण्यगर्म, चण्डिकाभवन. ब्रह्मकुण्ड आदि लौकिक
तो गणातो थानियातो कुलातो वइर (तो) (सा) खातो आर्य अरह (मह)।
२ सिसिनि धामथाये (१) ग्रहदतस्यधि-धनहथि ।
तीर्थ हैं।
यह नगरी महातपस्वी सुगृहीत नामधेय कृष्णर्षि की जन्मभूमि है। तत्पद पंकज पराग कण निपात से पवित्रीकृत एक वस्त्र वाले पार्श्वनाथ भगवान को स्मरण करने से आधि-व्याधि, सर्पविष, सिंह. हाथी, रण, चोर, जल, अग्नि, राज्य, दुष्टग्रह, मारि, भूत, प्रेत, शाकिनी, प्रमुख क्षुद्रोपद्रव विशेष कर भव्य जीवों को पराभव नहीं करते। सकल अतिशयों की निधान रूप यह नगरी है।
यह अहिच्छत्रा नगरी का कल्प पद्मावती धरणेन्द्र और कमठ के प्रिय श्री जिनप्रभसरि ने संक्षेप में वर्णन किया है।
|| अहिच्छत्रा कल्प समाप्त हुआ ग्रन्थाग्रं ३६ ।।
अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ कल्प में श्री जिनप्रभसूरिजी ने एक ऐतिहासिक तथ्य और महत्वपूर्ण उल्लेख किया है कि अहिच्छत्रा में सुगृहीत नामधेय महा तपस्वी कण्ह ऋषि का जन्म हुआ था।
"तहा एसा नयरी महातवस्सिस्स सुगिहीय नामधेअस्स कण्हरिसिणोजम्मभूमित्ति ।"
ये कण्ह ऋषि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के थे जो काफी प्राचीन काल में हो गए है। मथुरा के जैन पुरातत्त्व में उनकी मूर्ति भी प्राप्त है। जैन साहित्य के इतिहास पृ० १२४ में मथुरा के एक खण्डित पट्ट का अभिलेख युक्त चित्र छपा है जिसमें स्तंभों पर छज्जे के ऊपरि भाग में मध्य में स्तूप और उभय पक्ष में दो-दो जिन नमि-नेमि-पार्श्व-महावीर की चार प्रतिमाएं हैं। ऊपर नीचे ब्राह्मी लिपि में अभिलेख उत्कीणित है।
१ (सि) द्धम् सं०९५ (१) ग्री २ दि १८ कोट्टय (1)
अर्थात्-सिद्ध संवत् ९५ (१) ग्रीष्म ऋतु के दूसरे महीने में १८ वें दिन कोटिक गण के थानीय कुल की वज्र शाखा के आर्य महा (दिन ) शिष्यणी धामथ की बीनती से गृहदत्त की पुत्री और धनहथी (धनहस्ति) का पुत्री की ( भेंट)।
नीचे कण्हमुनि खड़े हैं जिनके दाहिने हाथ में ऊंचा किया हुआ रजोहरण और बाएं हाथ में वस्त्र-खण्ड है। दाहिनी ओर अभयमुद्रा में स्त्री खड़ी है और बाएं तरफ सप्तफणधारी धरणेन्द्र करबद्ध अवस्थित हैं । आगे दो व्यक्तियों में एक करबद्ध खड़ा है। चित्र परिचय में सं०९५ माँ जैन यति कण्हनी मूर्ति, मथुरा, पृ० १२४ लिखा है । अहिच्छत्रा में जिन कण्ह ऋषि की जन्म भूमि होने का लिखा है वे संभवतः यही हैं। वैसे आठवीं शताब्दी में एक अन्य कण्ह मुनि राजस्थान में हुए हैं उनके संबन्ध में पं० लालचंद भगवानदास गाँधी का लेख द्रष्टव्य है।
जिनप्रभसूरि के बाद उत्तर प्रदेश, बिहार और पूर्व देश में मुसलमानी साम्राज्य के कारण काफी हलचल रही अतः आवागमन बहुत कठिन हो गया । जिनप्रभसूरि द्वारा उल्लिखित मूत्तियां भी संभवतः उसके बाद कई नष्ट हो गई, कई स्थानांतरित हो गई तथा भूगर्भ उत्खनन होने पर उसमें से भी निकलना संभव है।
श्री महेन्द्रप्रमसूरि कृत तीर्थमाला
सवृत्ति में
सिवनयरि कुसग्गवणे पासो पडिमं ठिओअ धरणिंदो। उवरि तिरत्तं छत्तं धरिसु कासीय वर महिमं ५९ तं हेउं सा नयरी अहिच्छत्ता नामओ जणे जाया।
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तहियं नमिमो पासं विग्ध विणासं गुणावासं "६० पडिमाए ठियं पास कमठो हरि करि पिसाय पमुहेहिं । उवसग्गिअ तो वरिसइ अखंड जुग मुसल धाराहि "६१ उदगं जेण नासग्गं पत्त तो लहु करेइ धरणिंदो। जिग उवरि फणा छत्तं भोगेगय देह वहि परिहिं "६२ चरणाहो गुरुनालं कमलंतो कमठ खामिउं नट्ठो। धरणो गउ सवासं जिय उव सग्गं नमह पास “६३
स्ववासं निजसदनं गतः हे जनाः तत्र जिनोपसर्ग निराकृ. तोपसर्ग श्री पार्वेशं नमतः ॥६३।। इति श्री पार्वतीर्थ माहात्म्यम् ॥
मुनिप्रभसूरि कृत अष्टोत्तरी तीर्थमाला में-- अहिछत्ता छई त्रिभुवन भाj, अंतरीखु श्रीपुरि वरकाणुउं. नागद्रहि नवखंडो ॥१३॥
--जैन सत्य प्रकाश, वर्ष १२ अंक ४.५। पाटण के संघवीपाड़ा भण्डार में प्रति न०२१८ में अपभ्रंश भाषा की अहिछत्रा के नवफण मंडित पार्श्व नमस्कार गा० ५ की कृति का आदि अन्त
आदि-जयचिंतामणि जयनाहु जय नवफग मंडिय
जय वाणारसि जाय काय जिय नीलसिखंडिय जय वामाइ (ए) वि-आससेणकुल नहयल भूषण जय देवासुर-श्रमण संघ संथुय धुय दूषण ता देव देव धरणिंद)य कमठ दप्प चूरंतु
पउमावइ पणमिय चलण मण वंछिय पूरंतु ||१|| अंत चेडय-सयडालघरे नवफणपास जिणिंदु ।
नमि सरवण अहिछत्रपुरे खरतर संतिसमुद्द ।।५।।
टीका-शिवनारे कुशाग्रवने श्री पार्श्वः प्रतिमांस्थितः कायोत्सर्गे स्थितः भक्त्या च ज्ञानेन तत्ज्ञात्वा धरणेन्द्रः पातालात् आगत्य उपरि त्रिरात्रं छत्रं अधार्षीत् वर महिमानं आकर्षीत् वरमहिमानं नाट्य रंगादि प्रभोः पुरस्तानेत्यर्थः ॥५९|| ततो हेतोः सा नगरी जने लोके नामतो 'अहिच्छत्रा' जाता तस्या नगर्या अहिच्छत्रे ते नाम लोक स्तदादि प्रघुष्ट मित्यर्थः तत्र पार्श्व नमामः किं वि० विघ्नविनाशं विघ्नानां विनाशो यस्मात् पुनः किं वि० गुणवासं गुणानां आवासं अहिना सर्पण छत्रं धृत मित्यर्थःऽतो अहिच्छत्रा नाम जने प्ररूपितः ॥६०|| पुन प्रकारान्तरेण पार्श्व तीर्थ माह प्रतिमायां कायोत्सर्गे स्थितं पार्व कमठो हरि करि पिशाच प्रमुखैः उपसर्य सिंह हस्ति वेतालरूपैः उपसर्गान् कृत्वा ततो अखंड युग मुंसल धारामि वर्षति अखण्डा अविच्छिन्ना युग मुंसल प्रमाण स्थूलत्वेन जलधाराः कमठस्तदाववरेत्यर्थः ॥६१॥ उदकं पानीयं जिन नाशाग्रः श्री पार्श्व प्रभु नाशिकाग्रं यावत् प्राप्तं ततो. ऽवधिना तत् ज्ञात्वा तत्रागतो धरणेन्द्रो लघुशीघ्र जिनस्यो. परि फगा छत्रं करोति नागेन (भोगेनश्वपश्चात् ) शरीरेण च देहावहिं परिधि वेष्टनं च प्रभोः करोति यद्वा किं विशिष्ट फगा छत्र भोगे न शरीरेण देह परिधि देहे श्री पार्श्वतनौ बहु परिधिःपरीतता यस्य सर्प रूपो नागेन्द्रः स्वशरीरेण प्रभु शरीरं आवेष्ट्य फग मण्डल प्रभोः छत्रं यस्पदेति कृतवानित्यर्थः ॥६२|| चरणधः पादयोरधस्तात् गुरु नाजं (कमल) च करोति ततः श्री धरणेन्द्रण प्रयुक्ताःऽवधिना स्वरूप ज्ञात्वा वर्जितः कमठः क्षमयित्वा नष्टः धरण नागेन्द्र
पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में खरतरगच्छ के लोकहिताचार्य आदि पूर्व देश की यात्रा करने गए जिसका विवरण विज्ञप्ति-महालेख में पाया जाता है । इससे पहले सं० १३५२ में कलिकाल केवली श्री जिनचंद्रसरि जी की आज्ञा से वा० राजशेखर गणि, सुबुद्धिराज गणि आदि संघ सहित पूर्व देश के जैन तीर्थों की यात्रा करने गए व नालंदा चौमासा कर हस्तिनापुर संघ निकालने का विवरण 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' में मिलता है। १५वीं शती के उत्तरार्द्ध में जिनवर्द्धनसरि जौनपुर के ५२ संघपतियों के साथ पूरब की यात्रा करने पधारे थे पर इन तीनों के मार्गवर्ती स्थानादि का पूरा विवरण नहीं मिलता । संभव है उनके जाने का मार्ग अहिच्छत्रा से दूर व अलग पड़ता हो ।
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दा
अहिच्छत्रा की यात्रा का वर्णन सतरहवीं शताब्दी से पुनः मिलने लगता है। सं० १६६१ चैत्र सुदि २ को आगरा के मुकीम हीरानंद ने पूरब देश की-समेतशिखरजी की यात्रा का संघ निकाला था जिसमें कविवर बनारसीदास । के पिता खड़गसेन भी सम्मिलित हुए थे। वीरविजय (खरतरगच्छीय मुनि तेजसार शिष्य ) ने इस यात्रा वर्णन गर्भित चैत्यपरिपाटो की रचना की है। इसमें अहिच्छत्रा की यात्रा का इस प्रकार वर्णन है
कअरजी दलाल श्वेताम्बर श्रावक थे। सं० १६६७ में आगरा के श्वे० जैन संघ की ओर से तपागच्छ के आचार्य विजयसेनसूरि को भेजे गए विज्ञप्तिपत्र में जिन ८८ श्रावकों व संघपतियों के नाम हैं उनमें ये भी हैं । यह विज्ञप्ति पत्र 'एन्सिएन्ट विज्ञप्तिपत्र.ज' में डा० हीरानंद शास्त्री ने . बड़ौदा सरकार से प्रकाशित किया है।
कवि बनारसीदास के अहिच्छत्रा यात्रा करने के ५ वर्ष बाद सं० १६८० में कवि आनन्दकीर्ति ने मिगसर सुदि १२ रविवार को अहिच्छत्रा की यात्रा कर संघ की आशा पूर्ण करने का अपने १८ गाथा के स्तवन में लिखा है, इस संघ में और कहां-कहां यात्रा की तथा संघपति कौन था इसका उल्लेख नहीं मिलता।
अउचह प्रण, पंच जिण, रयणपुरी धूमनाथ, सौरीपुर हथणाउरइ'. अहिछत्ति पारसनाथ ॥१८॥ इस सोलसइइकसठा वरसई. बहुत तीरथ वंदिया, वरदेव पूरब का अपूरब, भविक जण आणदिया । सिरि तेजसार सुसीस भावइ वीरविजय पयंपए. नित पढ़त गुणतां हुवइ मंगल, मिलइनवनिध संपए ॥१९||
दूसरा वर्णन सं० १६७५ में कवि बनारसीदासजी की यात्रा का विवरण है । बनारसीदास जी उस समय श्वेताम्बर-खरतरगच्छ के अनुयायी थे। उन्होंने सं०१६७५ के पौष मास में सं० वरधमान कुंअरजी दलाल के संघ सहित अहिच्छत्रा और हस्तिनापुर की यात्रा की थी। अपनी माता और भार्या के साथ रथ में वैठ कर यात्री संघ के साथ वहाँ पधारे थे। उन्होंने अपने आत्मचरितअर्द्धकथानक के निम्न चौपाई में लिखा है
__इसके बाद के तीन श्वेताम्बर जैन कवियों के अहिच्छत्रा तीर्थयात्रा के उल्लेख प्राचीन तीर्थमाला संग्रह में प्रकाशित हुए हैं जिसका संपादन, प्रकाशन अब से ६५ वर्ष पूर्व सं० १९७८ में जैनाचार्य विजयधर्मसूरि ने किया था। इसमें प्रकाशित तीन उल्लेखों में पहला उल्लेख में शलविजय कृत तीर्थमाला का सं० १७११ का है
पहिला देस मेवाति कहूं. अहिछत्रापुरि पासजी लहुँ ।
दूसरा उल्लेख सं० १७१७ का विजयसागर कृत सम्मेतशिखर तीर्थमाला में प्राप्त है
अहिछत्रइ उत्तम नमइ, मथुरा गढ़ ग्वालेर ।
तीसरा उल्लेख सं० १७५० का सौभाग्यविजय कृत तीर्थमाला का इस प्रकार है
करि विवाह आए घर माँहि । मनसा भई जात को जाहिं। वरधमान कुंअरजी दलाल । चल्यो संघ इक तिन्ह के नाल |
५७९ ॥ अहिच्छत्ता-हथनापुर जात । चले बनारसि उठि परभात । माता और भारजा संग । रथ बैठे धरि भाउ अभंग ।।
५८०॥ पचहत्तरे पोह सुभ घरी । अहिछत्ते की पूजा करी। फिरि आए हथनापुर जहाँ । सांति कुंथु अर पूजे तहां ॥
. ५८१ ॥ उपर्युक्त पद्यों में उल्लिखित संघपति वरधमान
जी हो आगरा थी ईसान में, जीहो श्री अहिछत्रा पास, जी हो कुरू जंगल ना देशमा, जीहो परतष पूरे आस ।।१९।।
इसी ग्रंथ के पृ० १४१ में प्रकाशित मेघविजय कृत सं० १७२१ लिखित पाश्वनाथ १०८ नाममाला में
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अहिछत्तउ भड़कुल चलवेसर चीलोख़इ. सामलउ सुमसामी, सेव करू मन कोइ ||१२||
शान्तिकुशल कृत (सं० १६६७ में रचित) स्तवन मेंमुहर पास वेइ वली, अहिछत्रों हो आणी धुराय । कल्याणसागर कृत पार्श्व चैत्य परिपाटी मेंनवलखो नासे सदा अहिछत्ते हो दीठे सुख थाय । उपरोक्त तीनों तं थंमालाएं आचार्य विजयधर्मसूरिजी ने प्राचीन तीर्थमाला संग्रह में प्रकाशित की है।
सुप्रसिद्ध विद्वान मेघविजय कृत 'परम गुरु पर्व लेख जो सं० १७४७ में अमरोहा में रचित है, की १६वीं - १७वीं गाथा में अहिच्छत्रा तीर्थोत्पत्ति विषयक उल्लेख इस प्रकार है
पूर्वयत्कमठः शठश्च कृतवान् वैकृत्य मन्तर्दिया, नीरन्प्रनत नीरवाह विगलत्पानीय वर्षाभरात् । तत्रच्छत्र पवित्र चित्र रचनां चक्रेऽहि चक्र. श्वर, स्तीर्थ पार्श्व विमोरिहा जनितदाऽहिच्छत्र पुर्याइयम् ||१६|| लोकाशांवर भर्ति भर्तु रमला मूर्ति जंगल्या सुरे रासेव्या चरि कति विघ्न विवह ध्वंशं तदा सेविनाम् । अहिच्छत्रित पार्श्व शाश्वत रवेरुद्यत् फणानां पदा, दचिश्चारु सहस्त्र वैभव भृत स्तीर्थं समर्थों श्रिया ||१७|| तीर्थमाला संग्रह के 'संक्षिप्त सार' के फुटनोट में उन्होंने इस प्रकार लिखा है
१ अहिच्छत्रा - बरेली जिले में ऐओनला ( Aonla ) नामनु गाम छे, तेनी उत्तर मां ८ माइल ऊपर रामनगर (Ramnagar) नामनुं गाम छे आ रामनगर थी दक्षिण मां 3|| माइल ना घेराव मां केटलाक खंडीयरो छे. आज अहिच्छत्रा कहेवा मां आवे छे जिनप्रभसूरिए अहिच्छत्ता कल्प मां अहिच्छत्तानी उत्पत्ति, पार्श्वनाथ प्रभु नुं मंदिर एनी पूर्व दिशा माँ आवेला सात कुण्डो, मूल चैत्य नी नजीक सिद्धक्षेत्र माँ धरणेन्द्र पद्मावती युक्त
पार्श्वनाथ प्रभुनुं मंदिर गढनी पासे नेमिनाथनी मूर्ति सहित सद्ध अने बुद्ध थी युक्त आंबा नी लुंब हाथ माँ छे, जेने एवि सिंहवाहन वाली अंबादेवी तेमज बीजापण केटला लौकक तीर्थो विगेरे नुं वर्णन कयुछे अत्यारे तेना स्मृति चिन्हों - खंडीयरोज मात्र छे. प्राचीन शोधखोज ना परिणामे अत्यार सूधी माँ जैनों ना बे प्राचीन माँ प्राचीन स्तूपो जाहेर माँ आव्या छे तेमां अहिंनोपग एक छे, अने बीजो मथुरा नो ।
हमारे संग्रह में अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ स्तवन की एक और प्रति है। १९ पद्यों के इस स्तवन में पार्श्वनाथ भगवान् के पंचकल्याणकों का वर्णन करने के साथ-साथ अहच्छत्रा के उपसर्ग का भी प्रसंग वर्णित है। इस स्तवन में अहिच्छत्रा का पूर्वनाम शिवपुरी लिखा है और आदिसागर सरोवर के पास प्रभु के मेरुगिरि की भांति अडिग रहने, कमठ के उपसर्ग करने व धरणेन्द्र के द्वारा ऊंचे करके प्रभु के मस्तक पर अहिच्छता (फग) करने, पद्मावती के गीत नाटक करने के साथ-साथ प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न होने का वर्णन किया है। चौथी ढाल में धरणेन्द्र द्वारा नगरी अहिच्छत्रा यथार्थ नाम देने का उल्लेख है। खरतरगच्छ के कवि दयातिलक वाचक के शिष्य नित्यविजय ने यहां की यात्रा अपने गुरु के साथ सं० १७६३ ज्येष्ठ वदी १ को कर के इस स्तवन की रचना की थी । आनंदकीति और नित्यविजय के दोनों स्तवन अप्रकाशित होने से इस लेख के साथ प्रकाशित किये जा रहे हैं।
सं० १६६२ से १६६९ तक सरतरगच्छीय जयनिधान गणि ने भी पूर्व देश में विचर कर यात्राएँ की वे लिखते हैं
सिवनगरी सिरि पासजी, कमठासुर बल ताजइ रे । उपर्युक्त सभी उल्लेखों से यह तीर्थ प्राचीन काल से श्वेताम्बर मान्य रहना सिद्ध होता पर इन यात्रा
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प्रसंगादि से अवगत होने पर भी डा० ज्योतिप्रसाद जैन,* पं० बलभद्र जैन,* * और विजेन्द्रकुमार जैन* * * आदि ने केवल दिगम्बर तीर्थ होने और श्वेताम्बर मूर्तियों, लेखों के प्राप्त न होने का लिख दिया है वह उचित नहीं है। जहाँ तक अहिच्छत्रा तीर्थ सम्बन्धी उल्लेख का प्रश्न है, तीर्थवन्दन संग्रह के पृ० ११८ में डा० विद्याधर जोहरापुरकर* * * * ने स्पष्ट लिख दिया है कि निर्वाणकांड के नाम मात्र के उल्लेख के अतिरिक्त और कोई विवरण या उल्लेख दिगम्बर साहित्य में प्राप्त नहीं हैं। जब कि श्वे० साहित्य के उल्लेख निरन्तर और अनेकों प्राप्त हैं। इसी तथ्य को उजागर करने के लिए प्रस्तुत निबन्ध को काफी खोज करने के बाद लिखा गया है। इन पुष्ट प्रमाणों से फलित होता है कि अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ तीर्थ श्वेताम्बर मान्य तीर्थ था और वहाँ की यात्रा करने आचार्य मुनि एवं श्रावक
संघ समय-समय पर जाते रहे हैं। निकटवर्ती स्थानों में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के घर न होने के कारण यह उपेक्षित हो गया और दिगम्बर समाज ने इसके प्रति विशेष रुचि दिखाई और आज उनके अधिकार में है पर यहाँ की कई मूर्तियाँ अन्य स्थानों से लाई गई हैं। बून्दी से तीन प्रतिमा २० वर्ष पूर्व लाने का उल्लेख पं० बलभद्र जैन ने अपने ग्रन्थ में किया ही है। लेख वाली प्रतिमा भी वीर सं० २४८१ में महावीरजी में प्रतिष्ठित हुई थी । यहाँ की किसी भी प्राचीन प्रतिमा में दिगम्बर सम्प्रदाय का अभिलेख नहीं है, पादुका का शिलालेख भी नया है।
अन्त में यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि कायोत्सर्ग स्थित दिगम्बर मद्रा की प्रतिमाओं को दिगम्बर सम्प्रदाय की बतलाई जाती है, यह भ्रममात्र है । प्राचीन
* श्वेताम्बर परम्परा सम्मत आगमों में आचारांग नियुक्ति को छोड़कर अन्यत्र अहिच्छता विषयक विशेष वर्गन प्राप्त नहीं होता। -श्री अहिच्छत्रा पाश्र्वनाथ स्मारिका, पृ०६०।
* * "यहाँ श्वेताम्बर परम्परा की एक भी प्रतिमा न मिलने का कारण यही प्रतीत होता है कि यहाँ पाश्वनाथ काल में दिगम्बर परम्परा की ही मान्यता, प्रभाव और प्रचलन रहा है।" - उत्तर प्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थ, पृ० १०३ ।
* * * "लगभग एक हजार वर्ष से नगरी उजाड़ पड़ी रही। सुदूर दक्षिण में अधिकांशतः रचे जाने वाले मध्य. कालीन दिगम्बर साहित्य में तथा प्रायः उसी काल में गुजरात सौराष्ट्र में रचे जाने वाले श्वेताम्बरी साहित्य में यह प्रायः उपेक्षित रही। और आज भी श्वेताम्बर मुनि कल्याणविजय जैसे खोजी विद्वानों को यह लिखना पड़ा कि उपर्युक्त अहिच्छत्रा स्थान वर्तमान में कुरु देश को किसी भूमि भाग में खण्डहरों के रूप में भी विद्यमान है या नहीं, इसका विद्वानों को पता लगाना चाहिए।" मुनि कल्याणविजयजी राजस्थान गुजरात में ही विचरे इसलिए “अहिच्छत्रा न देखने से वृद्धावस्था के कारण भूल गये हों पर उन्होंने स्वयं भगवान महावीर' के पृ० ३५४ में बरेली से २० मील रामनगर
अहिच्छत्रा का स्थान निर्णय किया है। यों बहुत वर्ष पहले विजयधर्मसूरि और न्यायविजय जी त्रिपुटी ने इस स्थान का निर्गय कर ही दिया था। न्यायविजय जी ने तो काफी विस्तार से प्रकाश डाला है। जैन सत्य प्रकाश में बहुत वर्ष पूर्व नाथालाल छगनलाल शाह के इस विषय में दो लेख प्रकाशित हो चुके थे।
* * * * "अहिच्छत्रा के पार्श्वनाथ को निर्वाण काण्ड ( अतिशय क्षेत्र काण्ड ) में बन्दन किया है। इस संग्रह के अन्य किसी लेखक एक ( ने भी ) इसका उल्लेख नहीं किया । जिनप्रभसूरि ने इस क्षेत्र के विषय मैं कल्प लिखा है ।" (विविध तीर्थकल्प पृ०१४) । "महुराए अहिच्छत्ते वीरपासं तहेव वंदामि'-निर्वाण काण्ड, पृ० ३७ ।
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श्वे० लेखों की प्रतिमाएं दि० मुद्रा की मथुरा में प्राप्त हुई हैं अतः ऐसी प्रतिमायें समान रूप में दोनों सम्प्रदाय मान्य थी। प्राचीनकाल की ऐसी प्रतिमाओं को दिगम्बर सम्प्रदाय का ही बतलाना सर्वथा अनुचित है।
पं० बलभद्र जैन ने पार्श्वनाथ कालीन दिगम्बर परम्परा का प्रभाव लिखा है पर प्राचीन जैनों के अनुसार तो पार्श्वनाथ के अनुयायी मुनि वस्त्रधारी थे । अहिच्छत्रा पर तो श्वेताम्बर प्रभाव था ही यह प्राचीन काल से अब तक के श्वेताम्बर उल्लेखों से स्पष्ट है । यों प्राचीन काल में जैन तीर्थ दोनों सम्प्रदाय के लिए समान रूप से मान्य रहे हैं ।
तीर्थंकरों के उपसर्ग-स्थान बहुत से हैं पर तीर्थरूप में मान्य होने का महत्व केवल अहिच्छत्रा को ही मिला है। तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रायः सभी प्रतिमाएं फण युक्त होती हैं चाहें सात फग, नौ फग या सहस्रफण | जैसी भी हो श्वेताम्बर और दिगम्बर सभी के मान्य है । उस की कला में विविधता और विकास की प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होती है पर मस्तक पर फणों का होना यह अहिच्छत्रा तीर्थ की ही देन है। पद्मावती के मस्तक पर पार्श्वनाथ स्वामी की विविध प्रतिमाएं पाई जाती हैं । मन्दिरों में अधिष्ठातृ रूप पद्मावती प्रतिमा के मस्तक पर भी पार्श्वनाथ प्रतिमा निर्मित होती है।
तीर्थंकरों के पाँच कल्याणकवाले स्थान तो तीर्थं रूप में प्रसिद्ध है और उनके उपसर्ग स्थल की तीर्थ रूप में प्रसिद्धि अहिच्छत्रा की ही है और इतने लम्बे काल का अर्थात् भ० महावीर से पहले २८०० वर्ग का दोनों सम्प्रदाय का यह प्राचीन मान्य तीर्थ है।
श्रीजिनप्रभसूरिजी ने अहिच्छत्रा नगरी कल्प की प्रारंभिक गाथा में "तिहुअण माणूति जए पयर्ड" वाक्य द्वारा तथा चतुरशीति महातीर्थ नाम संग्रह कल्पः में "अहिच्छत्रायां त्रिभुवन भानुः" वाक्य द्वारा संबोधित किया है।
मुनिप्रभसूरि ने भी अपनी अष्टोतरी तीर्थमाला में अहिच्छत्रा के पार्श्वनाथ भगवान को त्रिभुवन भानु नाम से संबोधित किया है अतः यह पार्श्वनाथ स्वामी के विविध नामों की भाँति श्वेताम्बर परम्परा में प्रसिद्ध प्राचीन नाम है जो परवर्ती काल में विस्मृत हो गया प्रतीत हंता है। पाटन भंडार के शांतिसमुद्र कृत अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ नमस्कार गा० ५ में अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ को नवफण मंडित लिखा है। युगप्रधान दादा श्रीजिनदत्त सूरिजी ने नरहड़ आदि स्थानों में नवफणा पार्श्वनाथ प्रतिमाएं प्रतिष्ठित की उसका आधार अहिच्छत्रा तीर्थ हो तो आश्चर्य नहीं निश्चित तो अहिच्छत्रा में वैसी प्राचीन प्रतिमा प्राप्त होने पर ही कहा जा सकता है।
आनन्दकीर्त्तिकृत अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ स्तवन (सं० १६८०)
ढाल १ नणदलरी
अहिछत्ता प्रभु भेटीया, मन धरि अधिक उच्छाह हो जिनवर रोम रोम मन ऊल्हस्यउ दूरि गयउ दुःख दाह हो जिनवर ||| १ || अंकणी ॥ पासनाह जगि परगड़उ महियल महिमा जास हो जि० इण कलि तो सम को नहीं, दिन दिन अधिक प्रकाश हो जि० ||२|| ajo समरथ साहिब तूं सदा, सयल जन्तु आधार हो जि० दूर देशथी आविया कीजइ सेवक सार हो जि० ॥३॥ अं० पुण्य जोगि मंइ पामियउ दरसण श्री जिनराज हो जि० नख शिख मुझ आनंद भयउ फलिया बंधित काज हो जि० ॥४॥ अंo हिव हूं सरणइ ताहरउ दीन हीन प्रतिपाल हो जि० निज सेवक आणंद सु. कूरम नयण निहालि हो जि० ॥५॥अं०
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ढाल २- सजनी री
नित्यविजयकृत अहिच्छत्रा पार्व
स्तवन (सं० १७६३)
दाल १-नींद्रडली बैरणि होइ रही ए जाति
मात पिता तूंही सदा, तूं-ही जाण सुजाण ललना । भवि भवि तूं ही वालहउ, प्रभु भावइ जाण म जाण ||६||
ललना। मा०॥ पासनाह जागि सेहरउ, नयन सुधारस मेह ललना। नयन वयन देखत सदा. रोमंचित हुवे देह ललना ॥७॥मा०। हुँ बालक प्रभु ताहरउ, तूं साहिब सिरदार ललना । भव सायर बीहामणउ.तिणथी पार उतार ललना ॥८॥ मा०। सेवक जन दुखिया थका, हुवइ साहिब नई लाज ललना। तिण कारण विमाहरा रे, उत्तम सारउ काज ललना ।।९||
मा०। देस देस जस ताहरउ. गावइ बाल गोपाल ललना। कृपा करी नइ माहरा, रोग सोग दुख टाल ललना ||१०|| चीतइ चढियउ माहरइ. अंतरयामी एक ललना। प्रेम करउ आणंदस, एहिज उत्तम टेक ललना ॥११॥ मा०।
ढाल ३-महिदी री मन मोहयउ तह माहरउरे, तुम रंग राती देह। रू' रू' रंग भेटी रह्यउ रे, अउ कछु अधिक सनेह ।।१२।। अहिछत्ता प्रभु भेटीया रे, मन धरी अधिक अणंद । सुंदर रूप सुहांमणउ, प्रभु दीठा चित लाय ।। पाप ताप दूरइ गयउ रे, पवित्र थई मुझ काय ।।१३।। अ०।। सरीसइ संखेसरइरे, गउड़ी फलवद्धि पास । राजनगर खंभातइ रे, ठाम ठाम पूरइ आस ||१४|| अ०)। तँ सुरतरु सुरमणि समउरे, वछित पूरणहार । वाट घाट नित जागतउ रे, जाणइ सयल संसार ||१५|| अं हरिहर ब्रह्मादिक घणा रे, मुझ दीठा न सुहाई। तो सरिखउ जगि को नहीं रे, जिग भेटयां दुख जाई ||१६||
अंol संवत सोले अस्सीयइरे, मगसिर सुदि रविवार । बारस दिन प्रभु भेटीया रे मन धरि हरख अपार ।।१७।।अ०|| सुख संपति करिजे सदा रे, साहिब सुजस निवास । आणंदकीरति सं सदा रे, श्री संघ पूरी आस ॥१८अ
काशी देश पूरब दिशि कहै, नयरी तिहा हो वाणारसी नाम | निकट बहै गंगा नदी, ऋद्धे भरी हो सोभे अभिराम ||१|| परगट अहिछत्तो पासजी, गुण गाउं हो मनधरि उछरंग ॥पर०||
आंकणी।। तिहां अश्वसेन राजा अछेपटराणी हो वामा परधान । तसु उयरइ प्रभु अवतरचा. चेत्र बदि चथि हो सौहै यामिनी नै ग्यान ॥२।प०|| निरमल चवदह सुपना दीठा, मन हरषी हो बामा दे माता। गरभ कल्याणक गुणनिलो, बहुउच्छव हो हरि कीयो विख्यात
॥३||प०॥ पोष दसमि प्रभु जनमीया, सुर नर तिरि हो नारकी पायो सुख तीनेइ त्रिभुवन हरखीया, बहु सुखिया हो किणनै नहीं दुःख
___|पoll ढाल २-राधे तेरे नैन बाण मधु सुंभरे-ए देशी
जोवन में जब परवरचा हो प्रभु परमावती परण्या पासकुमारजी अहो गावं मन उछरंग परगटपासजी अहो दीपै तेज दिणंद,
अहिछत्त पासजी । संसार ना सुख भोगव्या हो जब कारण इक उपना ।
पा० अहोगावं अहिं० ||५|| नेमिनाथ जान चीतरी हो, पेखी पास जिना पा० वैरागी भए राजसू हो. तिहां भावी बारह भावना पा०६|| ए संसार असार है रे, जैसे जगि स्युपनां पा० दीखत कुं दीखै सही रे हो, है न कछु अपना ।पा।
अहो गा० आ० ||७|| ग्रीषम भीषम रितु समै हो, तिसीयां मृग तृसनां पा०) तैसैई यह जाणीयै हो. जोबन चंचल जीवनां ।। पा० ॥८।। पोष इग्यारस तप लीयो तब, मनपर्यव उपनां ।पा। चउसठि इंद्र चिहुँ दिसइ हो, करइ प्रभु कुं वंदना ॥ पा०९॥
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प्रतिमा थापी तेणइ ठामै. इंद्रइ भविक हित कामइ जी। हिवश्री पास सुखे विचरंता, अबोह जीवां ऊधरतांजी
||१६||प०॥ सउ वरसां सीम पाली काया. समेतशिखर जिणरायाजी । श्रावण सुदि अष्टमी शिव पहुँता.
तेतीस मुनि साथि हुंताजी ॥१७॥०॥ इण परि पंच कल्याणक गाया, अहिंधत्ता जात आया जी। पुण्यै नर भव सफला पाया,
पातक दूरि पुलायाजी ॥१८|पon
ढाल ३-राग मारणी चौरासी दिन लगि हिव चित्त में हो, काय बोसराय मौन कीध विहरता प्रभु सिवपुरी नै कन्है रे, बड़तल काउसग्ग लीध ॥१०॥ प्रगट विराजे हो अहिछत्त पासजी हो.
गुण गावं मन उद्यरंग ।। प्र०॥ आंकणी॥ आदि सागर सरवर नै आगले होमेरुगिरि जेम अडग्ग । कमठ सठ तापस नो जीव छै तिको हो,
मेघमाली करइ उवसग्ग ||११|| प्र०॥ वायु विकुर्वी झड़ लागौ वरसवा हो. मूसलधार प्रमाण । प्रभु नासा सीम पांणी ऊंचो चढ्यो हो.
धरणेन्द्र आयो सावधान ॥१२॥ प्र० ।। माथै प्रभु नै अहि छत्र मांडीयो हो. ऊंचा लिया आणी भक्ति। बत्तीस बद्ध नाटक कर पद्मावती हो.
'नाचे नवी नवी करी सक्ति ॥ १३ ॥ प्र०॥ समता दमता रस मांहि झीलता हो,ध्यावतां शुक्कल ध्यान । चैत्र किसन दिन चउथि नै उपनो हो,
निरमल केवलज्ञान ||१७||प्र०|| ढाल ४-सुणि बहिनी एहनो
॥ कलश ॥
संवत गुण रस मुनि धराये (१७६३) ज्येष्ठ पहिले मास ए। कृष्ण पक्षइ प्रथम पडिवा मनहपूरी आस ए॥ दयातिलक वाचक भाव भत्तइ आय अहिछत्तइ मनगमइ । नित्यविजय जंपइ पास जिणवर सेव मुझ मन में गमे ।।१९।। इति अहिधता पार्श्वनाथ वृद्धस्तवनम् । सं० १७८५ ॥
अहिछत्तौ पारसनाथ कीधौ, नाम यथारथ दीधोजी अहिछत्ता नयरीय वसाई. धरणेन्द्र शोभ बधाईजी ॥१५|| परगट अहिछत्तोजी परसै. मन वंछित तसु सरिस्यैजी
॥ १० ॥
आगरा के लोढा कुंअरपाल सोनपाल के संघ वर्णन रास में खरतरगच्छीय कवि विनयसागर ने कम्पिलपुर यात्रा के अनन्तर अहिच्छत्ता यात्रा का उल्लेख इस प्रकार किया है
अहिच्छत्तइ आवी करी, वधा श्री पास जिणंद रे।
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होंगे और भोजन के योग्य बनेंगे। वैसे ही. कोरे क्रियाकाण्ड भक्ति के बिना केवल काया कष्ट ही सिद्ध होंगे। भगवान कृष्ण की भक्ति का प्रचार गौरांग महाप्रभु ने खूब किया. जिससे प्रभु-दर्शन और आत्म-सिद्धियाँ प्राप्त हुई। अनेक प्रकार की चमत्कारिक घटनायें प्रत्यक्ष देखकर लोग निष्ठावान बने। जिसने संकीर्तन और धुन आदि को अपनाया. वे अपने आराध्य के प्रति पूर्णतया समर्पित होकर अपनी ध्येय-सिद्धि में सफल हुए। संकीर्तन से, भक्ति से, निष्ठा से विष भी अमृत में परिवर्तित हो जाता है। भक्त शिरोमणि मीरा का उदाहरण जगत् प्रसिद्ध है। अतः आराध्य के प्रति समर्पण भाव ही आत्म-शक्ति को प्रकट करने वाला है । उन्हें लब्धियाँ. सिद्धियाँ आदि प्राप्त हो जाती हैं और सात्विक जीवन कर, बर्बर और अत्याचारी मनुष्य को अपने अनुकूल बनावे, उसकी तो बात ही क्या, हिंसक पशु साँप आदि भी सब शान्त हो जाते हैं। प्रेम. भक्ति का अमोघ अस्त्र जिसके पास है, उसे संसार में कुछ भो दुर्लभ नहीं।
जैन धर्म में भक्ति और संकीर्तन
साधना के अनेक मार्ग हैं। जिसप्रकार एक ही गन्तव्य स्थान के लिए भिन्न-भिन्न मार्गों से गमन किया जा सकता है। दूरी का अन्तर भले ही हो पर वे एक दूसरे के विरोधी नहीं. प्रत्युत सहयोगी ही कहलायेंगे, उसी प्रकार साधना मार्ग में ज्ञान-मार्ग और भक्ति-मार्ग का प्राधान्य है। ज्ञान-मार्ग एक इंजन की भाँति है. जिसे अनेक प्रकार के कल-पुजौँ से संचालित किया जाता है। वह श्रम-साध्य और दुरूह है। किन्तु भक्ति-मार्ग उसके पीछे लगने वाले डिब्बों की भाँति है। उससे जुड़ जाने वाले डिब्बे अवश्य ही गन्तव्य स्थान को प्राप्त करेंगे और जो विभक्त रहेंगे वे पड़े रह जाएंगे। भक्ति में केवल एकनिष्ठ श्रद्धा की आवश्यकता है। जहाँ ज्ञान-मार्ग में अभिमान, ईर्ष्या आदि दोषों का बड़ा खतरा है. वहाँ भक्ति-मार्ग में लघुता, दीनता, सम्पूर्ण समर्पण भाव और ध्येयप्राप्ति की तमन्ना ही प्रधान है।
नाम संकीर्तन की स्वर लहरी बाह्य और आभ्यन्तर समस्त वातावरण को परिवर्तित कर, शुद्ध सात्विक भावों के परमाणु बिखेर कर, पापियों की पाप-भावना नष्ट कर सन्मार्ग के प्रति गतिशील बना देती है। अतः प्रभु नाम-कीर्तन-भक्ति का जितना अधिकाधिक प्रचार होगा. देश की उन्नति में चमत्कारिक रूप से परिवर्तन लाकर विश्व-मैत्री की स्थापना करेगी।
संकीर्तन के प्रताप से भक्तों को पाँचों इन्द्रियाँ भगवानमय अनुभूति प्राप्त कराती हैं। स्पर्शनेन्द्रिय दिव्य स्पर्श अनुभव कराती है। रसनेन्द्रिय दिव्य स्वाद सहस्रदल कमल द्वारा दिव्य अमृत पान कराती है। घ्राणेन्द्रिय दिव्य सुगन्धि की वह अनुभूति करातो है कि वाह्य जगत् उसका आकलन नहीं कर सकता। चक्षुइन्द्रिय दिव्य-दर्शन द्वारा भगवान् के दरबार की भक्ति भरी लीलायें प्रदर्शित कराती हैं। श्रोत्रेन्द्रिय तो विविध राग-रागिनियाँ और
यदि भगवान के प्रति हृदय में भक्ति नहीं हो, एकनिष्ठा न हो. तो सारे क्रिया-काण्ड छाई पर लीपने के सदृश्य हैं। आहार के लिए चावल मौजद है पर उन्हें कोरे ही आग पर चढ़ा देगें तो वे जल जायेंगे। अतः हम अपनी बुभुक्षा उनसे न मिटा सकेंगे। यदि चावलों के साथ हम जल का मिश्रण करके डालेगें तो वे सिद्ध
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प्रश्न था । चिन्तन चल रहा था। रात्रि में स्वप्न में भालों की नोक के छिद्र को देखकर सुई की नोंक पर छिद्र करने से सारी समस्या हल हो गई। यह बात हमें यह रहस्य बतलाती है कि आत्मा की अचिन्त्य शक्तियाँ भक्त को भगवान के रूप में अपनी धारणा के अनुसार सिद्धि प्राप्त करा देती हैं।
बीणा. वेणु, बंशी आदि वांछित स्वर तालबद्ध सुनाती हैं। यह सिद्ध हो जाने पर जब जैसी इच्छा हो संकीर्तन की ध्वनि सुनते हुए आत्मा बाह्य जगत् से हट कर अन्तर में रमण करने लगती है। जब नाद ध्वनि खुल जाती है तब अगम रेडियो द्वारा यथेच्छ संगीत सुनता है। भक्त इसका प्रत्यक्ष अनुभव करता है. पर यह साधना की प्राथमिक भूमि है। वहीं न अटक कर उसे तो आगे बढ़ना है । आत्म-साक्षात्कार परमात्म साक्षात्कार करना है। साधक यदि पंचेन्द्रियों के विषयों में अटक जायेगा अर्थात् राज दरबार में स्वागतार्थ प्रगटित दिव्यों में अटक जाएगा तो वह राजा के दर्शन कैसे करेगा? उसे तो आत्मानुभूति मार्ग से आगे बढ़ कर आराध्य प्रभु से एकत्व प्राप्त करना है. जो वह है, वही मैं हूं । 'सोहम्' की इस साधनानुभूति में भक्त साधक आनन्द विभोर हो जाता है। वही भक्ति की परम उपलब्धि है।
प्रार्थना और नाम-संकीर्तन को सभी धर्मों में आवश्यक माना गया है। उसके प्रभाव से सभी प्रकार के भय, चिन्ता आदि से मुक्त होकर भक्त निर्भय हो जाता है। जिस प्रकार अपनी मां की गोद में बालक सर्वथा निर्भय रहता है, उसी प्रकार प्रभु नाम संकीर्तन उसे अष्ट महाभयों से उबार कर सर्वथा सुरक्षित कर देता है।
भगवान की पूजन विधि में भक्ति ही सार है, भावना प्रधान है, साधना सामग्री तो स्थिरता, एकाग्रता के लिए रूपक है । जिस प्रकार हम जलादि से भगवान का अभिषेक करते हैं, परन्तु उसमें वास्तविक जल तो भक्ति है। अध्यात्म-तत्त्ववेत्ता श्रीमद् देवचन्द्रजी के शब्दों में 'कलश पाणी मिसे भक्ति जल सींचता' ही रहस्य है। भक्तामर स्तोत्र के कर्ता श्री मानतुंगसूरि अपने 'नमिऊण' संज्ञक भयहर स्तोत्र में भगवन्नाम संकीर्तन के प्रभाव का वर्णन इस प्रकार करते हैं
भक्त लोग भगवान को विविध स्तुति से. निन्दास्तुति के उपालम्भ से विरूदाते हैं। वह विद्या-विलास है. पर अन्तर-हृदय के तार, टेलीवीजन या टेलीफोन की भाँति जोड़ने के लिए भक्ति करना. धुन करना. संकीर्तन करना उत्तम और निरापद मार्ग है। उससे भक्त को अपने आराध्य के प्रति एकाग्रता आने से उसके साक्षात् दर्शन हो जाते हैं। भक्त जिस रूप में भगवान को आकलित करता है. उसी रूप में भगवान के दर्शन पाता है। वास्तव में वे अपनी आत्मा की अचिन्त्य शक्तियां हैं. जो मक्त को भगवान रूप में, वैज्ञानिक को विज्ञान स्फुरणा रूप में साफल्य-लाभ देती है। भक्त अपने आराध्य की अपनी धारणा के अनुसार विवध लीलाओं . के दर्शन कर आत्म • तुष्टि और ध्येय - सिद्धि प्राप्त करता है । वास्तव में लगनशीलता, चित्त की एकाग्रता उसके कार्यसिद्धि में सहायक होती है । सिगर सिलाई मशीन के निर्माता को सारी सफलता मिली. पर सुई के साथ धागा जाने पर वापस कैसे आवे यही
रोग-जल-जलण-विसहर-चोरारि-मईद-गय-रण भयाई।
पास जिण-नाम संकित्तणेण पसमंति सव्वाई ॥
अर्थात्-भगवान पार्श्वनाथ के नाम संकीर्तन से रोग जल, अग्नि, साँप, चेर, शत्र, सिंह, हाथी तथा युद्ध के भय नष्ट हो जाते हैं।
श्री जिनवल्लभसूरिजी कृत लघु अजित शान्ति स्तोत्र में कहा है कि
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भजन कीर्तन करें । नवमी की रात को यह आयोजन हुआ और अर्द्धरात्रि में तूफान व पत्थर वर्षा से सारे पट टूट कर उड़ गये. केवल सुपार्श्वनाथ भगवान का पट स्थिर रहा । लोग विस्मित होकर कहने लगे-'ये अरिहंत देव हैं। उस पट को सारे नगर में घुमाया, पट यात्रा प्रवर्तित हुई।
अरि-करि-हरि-तिण्हुण्हंबु-चौराहि-वाही समर-डमर-मारी - रुद्द - खुद्दोवसग्गा। पलय मजिय संत-कित्तणे झत्ति जंती निविड़ तर तमोहा भक्खरा लुखियव्व ।।
-जैसे सूर्य के स्पर्श मात्र से अति निविड़ अन्धकार समूह शीघ्र नष्ट हो जाता है वैसे श्री अजितनाथ और शान्तिनाथ भगवान का गुण संकीर्तन स्तुति से शत्रु, हाथी, सिंह, तृषा, गरमी, पानी और आधि-व्याधि, संग्राम डमर, मारि और व्यन्तरादि के मंयकर उपद्रवों का नाश होता है।
भक्ति-स्तुति-संकीर्तन के प्राचीन जैनागमों में अगणित उदाहरण पाये जाते हैं । शरणापन्नता तो वहाँ पद-पद पर प्रधान हैं। चार शरण में समर्पण भाव ही तो है। तीर्थकरों के समवसरण में देव-देवीगण वाद्य नृत्य और गीत लय के साथ संकीर्तन करते थे। जिनालय वस्तुतः समवसरण के ही प्रतीक हैं। उनमें नृत्य-वाजित्र और संकीर्तन के कक्ष-मण्डप सर्वत्र हैं ही। स्तंभों पर इन गीत नाद वाजिवरत किन्नर, गान्धों और देवियों की कलामय भाव-भंगिना युक्त अगणित मूर्तियां बनी रहती है। आबू. आर.सन, देवगढ़, जैसलमेर आदि के मन्दिरों में ये शिल्प भक्ति-संकीर्तन के अमर प्रतीक हैं।
भगवान महावीर स्वामी के शिष्य नन्दिषेण कृत 'अजित शान्ति स्तोत्र' प्राकृत भाषा की एक प्राचीनतम कृति है जो ४२ छन्दों में हैं और उसके प्राचीनतम दुर्लभ छंद आज भी राग-रागिणी के साथ बोले जाते हैं। इसमें भक्ति-शरणापन्नता और प्रभु-वर्णन के सभी रस ऊंडेल दिये गये हैं। प्रभु नाम संकीर्तन का महत्व निम्नोक्त मागहिआ ( मागधिका) छंद में कहा है कि
अजिय जिण सुह पवत्तगं, तब पुरिसुत्तम नाम कित्तणं । तह य धिइ-मइ-पवत्तणं, तव य जिणत्तम संति कित्तणं ।।
-हे पुरुषों में उत्तम अजितनाथ । हे जिनोत्तम शान्तिनाथ। तुम दोनों के नाम संकीर्तन-स्तवन सुख देने वाला तथा धैर्य और बुद्धि प्रकटाने वाला है।
इसी स्तोत्र के रत्नमाला छंद (जं सुरसंघा सा सुरसंघा) में बतलाया है कि देवों और असुरों का संघ भगवान की भक्ति में वैर-भाव भुलाकर कैसे वाहनों में और कैसी वेश-भूषा में आते हैं।
मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई में एक विशाल जैन स्तूप निकला, जिसकी मूर्तियाँ मथुरा, लखनऊ एवं विदेशों के संग्रहालयों में हैं। उसके इतिहास में विविध तीर्थकल्प में श्रीजिनप्रभसूरि महाराज ने लिखा है-यह लाखों वर्ष पूर्व कुवेरा देवी ने स्थापित किया, जो देव-निर्मित बौद्ध स्तूप कहलाता है। एका-एक प्रगट होने पर ये किसके आराध्य देव हैं ? इस बात का निर्णय करने के लिए चित्रपट में अपने अपने देवों को आलेखित कर रात भर
ज्ञाता सूत्र और रायपसेणीय सूत्र में द्रोपदी. सरियाम देव आदि की भक्ति का विशद् वर्णन पाया जाता है। सतरह भेदी पूजा में नृत्य, संकीर्तन और वाद्य आदि प्रधान है। पूजा साहित्य बहुत विशाल है, आये दिन उत्सवों में पूजा-भजन रात्रि-जागरण आदि भक्ति के आयोजन प्रचुरता से जैन समाज में होते ही रहते हैं।
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श्री धनदेवी माताजी स्तवन
[ भाषा : अपभ्रंश ]
रयणकूट संट्ठाण सोहट्ठिय हंपी पुर वर, तुंगभद्द तड पुव्व काल किक्किध मनोहर थप्पिय सहजाणंद सुगुरु सिरि रायचंदास्सम, गुरु जिणयत्त णिव्वाण दीह जह जोत्ति अणोवम-१
माया सिरि धणलच्छि सिरोमणि निय चेयण रय, करुण सहावी लद्धि सिद्धि जह वयण अभिय मय, कच्छ पएसे संभराई उवएस सुवंसिय, सिवजी कंकुम बप्प माय कुच्छी सर हंसिय"२
सिसुवय पयड़िय अलव सत्ति पुग देवाधिट्ठिय, पुव्वजम्म कय पुण्ण का जिनयत्त सुदिठ्ठिय; सहस सत्त मुणि रुद्द भवे जिण धम्म पइट्टिय, सेट्ठि सआ भंतीय अभय माउलहर चिठ्ठिय"३
श्री महिमाप्रमसागर प्रशस्ति
[ भाषा : अपभ्रंश ]
कछ भुज निव खंगार राय बालत्तण भत्तह. आमंतिय सम्माण सहिय खलु विम्हिय पत्तहः चोर चरड़ भय दूर करिय वच्छल गुणोअय, पाणिग्गहणे कन्नदाण खंगार सयं किय"४
जय महिमप्पह समण मउड़ जय ललिय चंदप्पह । आदरिय संजम रयणत्तय आराहण सुविहिय पह॥ पहु पासनाह कल्लाण तित्थ संठिय दुइ वच्छर । सक्किय पाइय वागरण साहित्त कव्व अज्झयण सुहकर ||१||
दंसिय सुहणे सरल दिणे पयडिय निय देहइ. भद्द गुरु चाउमास ठिय महालच्छी गेहइ : ऊन पावागिरि तित्थ पत्त पमुइय मत्तिब्भर, पत्त बीह गिह चत्त बिक्कपुर सरण मुर्ण सर"५
नाण सरोवर ण्हवण सयय अपमत्त चारित्त रय। महोवज्झाय पय हेउ समयसुंदर मह पबंधकय ।। तित्थ जत्त विहरिय कमेण कलिकत्ता पउधारिय । पवयण पभाव बोहिय बहुल बुह सुपसंसह कारिय ॥२॥
फरसिय अय पारसमणि गुरु कंचण परिवत्तिय, निय नाणेण वास वुट्टि किय संसय विरहिय: लद्धि-सिद्धि सुपमाव विरल नह गइ नाणाविह, मरण समाहि करण कज्ज जीवइ पड़िबोहिय"६
हीराउत दफतरिय वंस अकलुस हीरग सम । निम्मल सुदिढ चरित्त वयण पालग गुण अणुवम || अज्झत्ततत्त सज्झाय झाण अणदिण अज्जोवउ । गुण मणि संगह सील अपमत्त गुणठाण आरोहउ ||३||
जीयजसा अज्जा रयण सुवियक्खण मंडलु । भद्द सहाबी माय कुच्छि -सर जुग मुणि हंसस । तणया अगर जसु कित्तिधर पुहविय तल सुपसिद्धउ। जयउ सुचिर सहबप्प छत्त 'भमर' हवउ समिद्धउ ||४||
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खरतरगच्छ प्रशस्ति
[भाषा : संस्कृत ]
ढाटी-शान्तिनगर मण्डन जिन
प्रतिष्ठा स्तवन
सेवो सेवो हो धरि भाव शान्ति जिणंदा । भव जल तारण नाव, अचिरा के नंदा से०||
जिनदत्तं गुरु नत्वा सूरेश्च कुशल प्रभोः । सुविहितस्य मार्गस्य लिख्यतेऽयं प्रशस्तिका ।।१।। गच्छे खरतरे स्वच्छ क्षमाकल्याण पाठको । शुद्ध साधु क्रिया धारी विद्वज्जनै शिरोमणिः ॥ २॥ श्रमणार्या सुसंघोऽभूत् परम्परा सुविस्तृता। तपस्वी क्रिया पात्राश्च गणाधीश परम्परा ।।३।। सूरि पदं प्राप्तोयेन 5जीमगंज पुरेवरे । श्रीहरिसागराचार्य जैनधर्म प्रभावकः ॥ ४॥ पट्टोद्धारक सद्वक्ता सूरि आणंदसागरः । वीरपुत्राभिधानेन ख्याति माप्त सुभारते ॥ ५ ॥ सुमति सिन्धपाध्याय प? श्रीमणिसागरः । प्राप्त सूरि पदं येन शास्त्र वादि शिरोमणिः ॥ ६॥ सत्काव्य कला प्रतिभा-धारी कवीन्द्र सूरयः । रचितानि यैश्च सत्पूजा स्तव काव्यान्यनेकशः ॥ ७॥ श्री हेमेन्द्र गणाधीश तत्पट्ठोदय सागरः । द्वितीयो नुयोगाचार्यः कान्त्यब्धिः सुप्रभावकः ।। ८॥ संघ यात्रा सुसंस्थान मुपधानाद्यऽनेकशः। प्रतिष्ठा जिन बिम्बादि कारितानि महोत्सवः ॥ ९ ।। समायोजित संघेन जयपुरेहि सदुत्सवे । आषाढ़ षष्ठी दिवसे सूरि पदे द्रौ सद्गुरौ ||१०|| स्वनाम धन्य प्रतापीश्च सन्मुनि मोहनलालजित् । जिनयशः सूरि पट्टे जिनद्धि रत्नसूरयः ॥११॥ लब्धि केशर बुद्धिश्च पाठक-पन्यासौ-गणी। जयानन्द क्रियापात्र प्रवचने वाचस्पति ।।१२।। आगमज्ञा सद्विदुषी आर्या श्री सज्जनाभिधा। प्रवर्तिनी पदारूढ़ा कवयित्री सल्लेखिका ||१३|| भक्तया भंवरलालेन' गुंफितोऽयं प्रशस्तिका । शासनोन्नति कुर्वन्तु दीर्घायुषि गुरुत्तमा ।।१४।।
सोलम जिनवर पंचम चंक्री, हस्तिनापुर महाराज ||शांति।। गर्भ में आते मारि निवारी. सार्या भविक जन काज
|शांति||शासे०| विश्वसेन नप कंवर पदे में, वरस पच्चीस हजार ||शांति०| छः खण्ड साधी राज्य दीपाया. आत्मार्थ दीक्षाधार
__||शांशसे०| केवल पाकर भवि प्रतिबोधे, लाख वर्ष आयुधार शांoll समेतशिखर पर मोक्ष सिधाये, चक्रायुध गणधार
||शांo||३| | आत्म स्वभाव प्रत्यक्ष करण को, पुष्टालंबन हेतु ॥शांoll दाढी नगर में भव्य जिनालय, भवसागर का सेतु
|शां|8|| सेगा समति शीतल जिन उभय पक्ष में,त्रिरत्न प्राप्ति काज शां०|| सारे जगत के शांत परमाणु, आय मिले मानो आज
शां||शासेका शासन सुरी निर्वाणी गरुड़ यक्ष, दादाजिनदत्तगुरुराज ||शां०।। माघ सुदि पक्ष दशमी गुरु दिन, करी प्रतिष्ठा शुभ काज
शां ||से|| दो हजार सतरं में भट्टारक, जिन विजयेन्द्र महाराज शांoll सुव्रत-देवेन्द्र श्रीउपदेशात्.किया उत्तम काज ||शां०/७||से०|| पारख सुगनचंद लूणकरण पांची. देवी संपत स खकार |शांoll रूप विजय मुनिराज पधारे, संघ चतुर्विध मंगलवार
॥शां०८से|| क्षायिक दर्शन पाऊं प्रभू में, अथवा दो भक्तिकी पाज ||शां०|| चरण कमल में 'भंवर' रहे नित, चाहूं ननर सुर राज ||शां०||९||
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श्री चम्पापुरी मण्डन वासुपूज्य
जिन स्तवन श्री वासपूज्य जिनेन्द्र भेटो, चंपानगर मझार रे । वसपूज्य नंदन त्रिजगवंदन, जाया सुतसुखकार रे ॥श्री012 च्यवन जन्म दीक्षा कल्याणक केवल अतिहि उदार रे । निर्वाण मोक्ष हुए वहाँ से, शिवरमणी भरतार रे ||श्री०||२ सत्तर धनुष की काय शोभित, लक्ष बहुत्तर आयुरे । महिष लंछन सेवता पद कुमर वर यक्षराय रे ॥श्री०।३ रक्त वर्ण शरीर सुन्दर, चण्डा शासन देवि रे । सम्यक्त व प्राप्ति बाद त.जे, भवे सिद्धिजेह रे ||श्री०॥४ घासठ थे गणधर प्रभु के, सिद्धि हो गए सर्व रे । 'भंवर' चम्पानगर भेट्या ज्ञान पंचमीपर्व रे ॥श्री०५
मणिधारी दादा श्री जिनचन्द्र
सूरि स्तवन
शान्ति जिन स्तवन शान्ति दरस मन मायो री, सब सुख कन्द । सोलम जिनवर विश्वसेन नृप अंगज आप कहायो री,
अचिरानन्द ||१|| गर्भ स्थित प्रभु मारि निवारी हस्तिनागपुर रायो री,
त्रिभुवन बंध ||२|| चक्री पंचम प्रबल पुण्यधर जिन अरिहंत कहायो री,
काटे कर्म फंद ||३|| समेत-शिखर गिरि मोक्ष सिधाये जय जय सब मिल गायोरी,
चौसठ इंद्र ||४|| चैत्य प्रतिष्ठा देशनोक में नव्योद्धार करायो री,
मिल सह संघ ||५|| सुख हित मोक्ष कार कहो प्रभुजी भव्य भक्ति चित्त चायो री.
मिटे सब द्वन्द ।'६|| दो हजार अठाइस वर्षे, ज्येष्ठ शुक्ल दस वारो री,
गुरु अमित आनन्द ||७|| तीर्थ कैलाश सह शिखर प्रतिष्ठा दंड ध्वजा लहरायो री.
दत्त कुशल मुणिंद |||| 'भंवर' कहे प्रतपो चिर काले संघ श्रेय कल्याणो री,
जब लग रवि चंद ||९||
सुगुरु सुनो अरदास. काटो भव पास, दादा मणिधारी.
आये हम शरण तुम्हारी || देल्हण माता कुक्षी जाये, रासल पितु घर हुलराये । विक्रमपुर मरुधर में लीन अवतारी |आये||१|| बारह सौ में कम तीन बरस, जन्मे. दीक्षा वैराग्य सुरस । षटवर्षायु में जिनदत्त पास में धारी |आये०।२।। आठ वर्ष के आचारज, पद पाये प्रतिमा के धारक । चौदह वर्षे पद युग प्रधान सुखकारी |आये॥३।। श्रीमाल मंत्रिदल ओसवंश, प्रतिबोधा जीते बादि वृद। करि बिम्ब प्रतिष्ठा और जिनालय भारी |आये||४|| दिल्लीपति मदनपालराजा, बन भक्त सुजस डंका वाजा । कुलचंद्रादिक पर कीनी कृपा अपारी |आये||५|| बारह तेवीसे स्वर्ग गति, पाये दिल्ली में शुद्ध मती। अल्पायु में कर शासन सेवा भारी |आये।६।। गुरु सम्यग दर्शन के दाता. तुम ही हो मात तात भ्राता। आत्मा के उद्धारक तुम जय कारी |आये।७।। दादा दूजा महरोली में, पूजे सब जन रंग रोली में। शासन उन्नति करो 'मवर' कहे बलिहारी |आये|८||
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क्षणिकाएँ
नम्रता
आत्मा का अस्तित्व
बाँस सहज ही अकड़ा रहता फल-युक्त आम्र अधिक झुकता वह समूल काटा जाता
यह
क्या है आत्मा? वह दृश्य नहीं फिर भी बतलाआ कथ्य नहीं अव्यक्त सही अभिव्यक्ति क्या? अनुभूति करो। वह तुरंत उठा पत्थर मारा पीड़ा होती है कहाँ है, वह दिखलाओ सही उत्तर पाया अनुभूति यही ।
सिंचित हो सेवा पाता. सेवा देता शोभा लेता।
छाया
देखती हो दर्पण में किन्तु उसमें तुम नहीं स्वदेह में हो स्थित
प्रतिक्रमण
जीवन की पाटी पर जो गलत लिखा उसे मिटा दो भविष्य में सतर्क रहो यही तो है प्रतिक्रमण ।
छाया मात्र कहीं।
पर-स्त्री
त्याग
देह को अपना मानना देहाध्यास । उसे छोड़ जल-कमलवत् रहना त्याग ।
सूर्य महान है दर्शनीय-वन्दनीय पर ताकने योग्य नहीं परस्त्री पर दृष्टि पड़ी तद्वत् दृष्टि नीची करने की शिक्षा यही है पवित्रता की रक्षा।
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पूज्य गुरुदेव युगप्रधान श्री सहजानन्दघनजी महाराज
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योगीन्द्र-युगप्रधान महामहिम श्री सहजानंदघन गुरुदेवाष्टकम्
भद्रः सद्गुरु वर्य पूज्य सहजानंदः सदा राजत आत्मज्ञो निखिलार्थ बोध निपुणः कारुण्यमूर्तिमहान् देवैः पूजित पादपद्म विमलश्चेन्द्रादिभिः सर्वशो वन्देऽहं विनयेन तं गुरुवरं श्री भावि तीर्थङ्करम् ॥१॥
मान्योयः शुभ कच्छ देश विषये डुम्राभिधे मण्डल ऊकेशे परमार वंश सुवरे श्री नागजी श्रेष्ठिनः गेहे श्री नयनोदरान्ननु समुत्पन्नो वरेण्यः प्रभुः वन्देऽहं विनयेन तं गुरुवरं श्री भावि तीर्थङ्करम् ||२||
प्राग्जन्मार्जित साधना स्मृति वशाच्छी मोहमय्यांपुरि घोषणाब्धि विमोहकेन गगनाज्जातेन यः प्रेरितः त्यागेप्सुजिनरत्नसूरि गुरुणा सौम्येन संदीक्षितो वन्देऽहं विनयेन तं गुरुवरं श्री भावि तीर्थङ्करम् ॥३॥
आमेटेडर पल्लि मुत्कलसरर्षीकेश पावापुरी गोकाकेषु च कन्दरासु कठिनं मौनं सुतप्त तपः वर्षाणां त्रितयं च येन मुनिना स्तुत्येन मान्येन वै वन्देऽहं विनयेन तं गुरुवरं श्री भावि तीर्थङ्करम् ॥५॥ ऊर्ण श्री शिववाटिकोदयसर ग्रामेषु बै बोरडौ धर्मोद्योत करेण येन च मुदा यात्रा कृता पावनी श्री सीमंधर नोदितैर्युगवरोपाधिः प्रदत्तः सुरै येस्मैतं प्रणमामि भक्ति भरितः श्री भावि तीर्थङ्करम् ।।६।।
झानालोक युतेन लब्धिमुनिना ज्ञानाम्बुधौ स्नापितो वर्ष द्वादशकं च यो गुरुवरैः सार्द्ध सदाराजितः नाना क्लेश युतेच घोर तपसा पश्चादिगिरौ संस्थितो वन्देऽहं विनयेन तं गुरुवरं श्री भावि तीर्थङ्करम् ॥४॥
प्राप्त पावन रत्नकूट विदिते कर्णाट देशे नगे स्थाने सद्गुरु पूर्व जन्म विदिते दिव्ये शुभे भूषिते श्री मद्राज विराजितेन्दु विमलः संस्थापितो ह्या प्रभो वन्देऽहं विनयेन तं गुरुवरं श्री मावि तीर्थङ्करम् ।।७।।
अब्दे पाण्डव युग्म विंशति शते श्री पौषमासे शुभे पूर्वार्द्ध सुखदे त्रयोदश दिने भौमेच वारे वरे अल्पज्ञ 'भ्रमरे'ण ह्यष्टक मिदं भक्त्या प्रणीतं मुदा भव्येभ्यः परितोषदं प्रियकरं पुण्यैक सम्वर्द्धनम् ॥८॥
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युगप्रधान सद्गुरु स्मृति गीत
हम्पी के योगी कहां तुम गये हो हमें आत्म दर्शन कराते-कराते ॥
क्रिया जड़ बना जो तीर्थंप का शासन मार्ग से कोशों भटक के विपथग उन्हें राह सम्यक् दिखाने के हेतु हुए अवतर्ण हे युग के प्रवर्तक
करी दीर्घ साधना गिरि कन्दरा में आत्मा की ज्योति जगाते जगाते || १||
ज्ञाता द्रष्टा महाव्रत संयुत भव भव में साधन किया संयमरत लब्धि सिद्धयादि अतिशय धारी रहे जिनके चरणों में देवेन्द्रादि भी नत
तपःपूत साधन प्रयोगी
नहाते-नहाते ||२||
इन्द्रिय मनका भावात्म निगृह नहीं साम्प्रदायिक भेदादि आग्रह अध्यात्म ज्ञान की कुंजी के धारक कर्मक्षयार्थ किया था अभिग्रह कठिन तप ध्यानादि में रत अहर्निश प्रेम की गंगा वहाते वहाते ||३||
केवल
शान्त-सुधारस
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पद
सीमंधर प्रभु युगप्रवर क्षयोपशम से गहन ज्ञान संपद गुरुराज जिनदत्त आदि से प्रेरित तेरा संभाल मंत्रेक सुविशद
आत्मिक प्रसादि लगे वोटने जो अतिशय वाणी सुनाते-सुनाते ॥४॥
न सोचा था इतनी जल्दी करोगे महाविदेह जाने की तैयारी पंचमकाल お हम हैं अभागे पाया न तुमको हे आत्म-विहारी समता से कष्ट सहे आत्मानंदी विदेही गुणों में समाते समाते ||५||
बनो हमारे सहायक प्रभु तुम अनंत गुणों का अंश पावें हम कृपालु तुम्हारी कृपा जो रही है। अनंत आशीर्वच यद्यपि अपात्र हम
निकालो 'भंवर' से नैया हमारी समकित पतवार दो ज्यों पार पाते ||६||
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राजस्थानी भाषा सप्तक
धरती माता आंख्या फाड़े उडीक रेयी उण पूतां नै, मरु मेवाड़ी ढूंढाड़ी हाडोती माध्यम सशक्तां कंतां नै: रतनां री कीमत आंकणियो कोई झंवरी जद आसी. मायड़ भासा री जग-मग ज्योत विध-विध भांत जगा
पासी
पिंगल डिंगल वैण सगाई छंद कत्थक गद्य पद्य सिगलो, नवसर हार बणा सतरंगी ओपै सुरसति रे कंठ भलौ; वेदाग पाच नै काच गि#गौ आक दूध री नहिं परिव्या, शब्द ब्रह्म रा असल भाव बीजों में नहीं है इण
सरिखा २ हुयां सरण्डर शस्तर पाती नांख्यां जंग लाग जिणी तरियां, भूला पड़ ज्यावै स्वेच्छा सं बीजी बोली नै अनुसरियां तगड़ो भंडार भर्यो पड़ियौ जूने साहित रो अणगिणती. बिण बरत्याँ. हम तम अंग्रेजी री कुदाल खाडा
खुणती"३
आ तोन क्रोड़ जनत्ता री बोली रख दीनी गिरवै-अडाणै. घर रा जाया घट्टी चाटै पेडा देवां पाडोसणां नैः लाजां मर जावो बोलण में आपाणौ गौरव-हीर मरयौ, घर री खांड कड़कड़ी जाणी चोरी रै गुड़ से मुंह
भरयो"५
फावंस ग्रीयर्सन रवि टैसीटोरी जो कर उजियालो. महत्त बतायो पण बीत्यो सईको नई जाण्यो धोलो कालो: बीजी भाषावां सिर उठायने पायी मान्यता धींगाणै. बोलै जिणरा बोर बिकै अणबोल्यां रतन पड़या
छांन""४
ललकार रेई मायड़ भासा क्यं दूध लजावो थे म्हारो, अमृत नै छोड़ धूल धाणी पीवण टूक्या पाणी खारौ: थे सिगलां स्यूं इधका सूरा मेधावी दानी रुखवाला, हौ भारत मां री शान सदाचारी कीरत धर
मूंछाला"६ घणी उन्नती ज्ञान-विज्ञान विविध भाषा अभ्यास करो, पण मत भूलो इण जामण नै सेवा कर उणायत नै हरौ; झंडो ऊंचौ मरु भाषा राजस्थान जाण नै मान करौ, रचना नानाविध प्रबल भाव मय भारती माँ भंडार
भरौ"७
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अजबघर रा क्यूरेटर
मूरती री तख्ती उपर स्त्री मूरती लिख्योड़ो देख र बा नै म्हें कैयो आप नै दूसरी सिगळी मूरत्यां किसै देवी देवता री है लक्षण देख'र लिखणों चइजतो । पण इण पुरस री मूरती नैं स्त्री भूरती किस तरै लिखी ? क्यूरेटर सा'व कैयो-नहीं-नहीं ठीक देवी री मूर्ति तो है । मैं कैयो आप मुलायजो फरमावो इण रै स्तन कोयनी। शिल्प सास्तर रै नियम मुजब लुगाई पीन पयोधरा हुणी जोईजै तो आ
कई कुलखणी लुगाई है? इत्तै मैं ही म्हारा मुनीम गणपतकोई अढ़ाई वरसां पैली री बात है। हूं आसाम
लालजी कैयौ-बाबू सा'ब कंवारी छोरी हुसी। मैं कैयो गावाटी गयो हो असैसमैंट री नकल वास्तै । इनकम
-आप इण रो मूंदो तो देखो । मूंछयां वळ खायोड़ी टैक्स रै दफ्तर सं आंवतै रस्तै में अजबघर देखण री मन
मौजूद है। जणे क्यूरेटर साब कैयौ-नहीं नहीं मूंछयां तो में आई। इयां तो दस बरसां पैली जद आसाम म्यूजियम री
कोनी। मैं कैयौ हाथ लगार देखो। उणाँ हाथ फेरयो चीज्यां रो संग्रह हुँतो ही जण छोटै रूप में देख चुक्यो
तो मूंछया परतख हाथ रै रड़की । जण तत्काळ असि हो पण अब के फेर विकास हुयोड़ रूप नै सरसरी निजर
सटेंट नै कैयो तख्ती फौरन बदळो। मनै कैयो-भूल हयगी. सं देखण री मनस्या ही, साथै म्हारा मुनीम गणपतलाल
ठीक करवा देतूं। जी हा। अजवघर में गया । पुरातत्व विभाग देख्यो ।
आगै चाल्या । छोटा-मोटा केई सुधारा बताया। थोड़ा सिलालेख जिका भी बिना बाँच्योड़ा सा लाग्या।
आखर एक लकड़ी री देवळी आगै जा'र खड़ा हुया । मूरत्यां रै परिचय में 'एक पुरुष' या 'एक स्त्री' जिसी
वैरो परिचय लिखोड़ो हौ इन्द्र की मूर्ति । मैं कैयौ-साब परिचायक तख्ती लागोड़ी देखी। अणमवी क्यूरेटर री
आ मूरती तौ मनै मुगलकाळीन लागै है । इण रे पाग कभी मालूम हुई। पाछा निकळ'र क्यूरेटर रै दफ्तर में
उण जमानै री है तथा पैरेस भी बिसौ ही दी है। क्यूरेटर गया । क्यूरेटर सा'ब विराजिया हा । सिस्टाचार सं
साब-कैयो आ हिंदू मिंदर मैं लागोड़ी ही जिकै सं मुगलां म्हांनै ले जार बैठाया। मैं केयो-हूं थांसं थोड़ी बात
री संभव कोनी। मैं कैयो-वै जमानै री हुणे स मुगल करणी चाऊ हूं | वां कैयो-इंग्रेजी या आसामियां किसी
हुणौ जरूरी कोनी पण हिंदू मूरत्यां ऊपरलो पैरेस वगैरे भाषा में बोल सो ? में कैयो-हूं तो हिन्दी या बंगला
मुगल काळीन हो सके है। पण ओ हाथ में कंई है? में बात करतूं । दूसरी में बोल नहीं सकू। जणे आं।
कंई इंद्र होको भी पीवतो होबां कैयौ ओ वाज है । मनै दोनां में आपरै दाय आवै जिकी में बात करो, मतलब तो
तो होको ही लाग्यौ । मैं-कैयो टोबाकू रो प्रचार अमभाव समझण सूं है।
रीका वाला साहद इंद्रपुरी तक कर दिया जिकै सं इंदर री मैं वा सं म्युजियम री सूची या चित्रावळी मांगी
मूरती में हुक्को मौजूद है। सिगला उपस्थित आदमी पण कोई तैयार नहीं हुणे सं निरास हणो पड्यो। मैं खिल खिलार हसण लागग्या । केयो-थां किताइ परिचय ठीक को लिख्यानी भूल्यां है। इण तरै मैं म्यूजियम में मनोरंजन करते अणभव जणे वे म्हारै साथै म्यूजियम में गया । दो-चार करयो कै कित्ताई म्यूजियमां रा क्यूरेटर तौ म्यूजियम में मूरत्यां रो परिचय वगैरै री बात हुणे रै बाद एक पुरस ई राखणे लायक है।
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राजा सूरसिंघजी रो न्याव
राजा रायसिंघजी बीकानेर में बड़ा परतापी हुया है । उणां सं पैलास राजा 'राव' बजता इणां सूं ही राजा री पदवी चालू हुई। 'राजा तो रायसिंघ और सै राई, भोजन तो खीर खांड, और सब पेट भराई कहावत प्रिसिद्ध है। रायसिंघजी रा वेटा सुरसिंघजी भी राजा सावरा बड़ा लाडला हा । राजा सूरसिंघजी वड़ा न्याववान हा उणां री बुद्धि बड़ी तिव्बर ही तथा न्याव करण रो ढंग घणो आछो हो जिकै सुं वां री कीरती नामदरी देस परदेस में जार वास कर लियो ।
जोधपुर माराज सूरसिंघ जी सूं घणी अपणायत राखता तथा पूरा वाकफकार हा एकवार जोधपुर । दरवार विराजिया• राजा रजवाडा री बात नीसरी जद माराजा सायव घणी घणी सोभा करते राजा सूरसिंहजी ३ न्यावरी प्रससा करी मुसाहबाँ मांय सूं एक कैथीराज रो हुकम हुवें तो हूँ बीकानेर जायने बणां रे न्याव री परीख्या करू ? माराजजी कैयो-भले ! पण जांवतै सनद ले जाउयो । उण नै दरबार आपरे खास दसकता री रूक्को कर दियो के ओ म्हारो आदमी है। राज रो न्याव देखण रे वास्ते बीकानेर जायें है सो इण रे बोवार में कोई चूक हुवै तौ माफ करज्यो।
मुसायबजी जोधाणै सू चाल्या । दर कूचा दर मजळ चालता बीकानेर सैर में आयर कंदोइयां रे बजार में उतरथा । परदेसी रो वैस, खाली दुकान देख'र बैठाया। सामने कंदोई री दुकान । मीठो भुजिया लेर, चावो भूको करियो फेर ठंडो पाणी पीर थोड़ो आडो ह्यग्यो । वैरो ध्यान हो कंदोई खानी । जिता पइसा बट्टे ट्रक र राखतो रैयो सिंज्या रा रोकड़ में जिला रूपिया हा बोरैवार नोट कर जोड़ लीया । अठी ने कंदोई तो सोधो आदमी हो, बापड़े रैं खाते रोकड़ रो जमा खरच हो कोयनी । कूंजड़े रै गल्लै री दाई लाल बूसी री कोथली में रुपिया पईसा भेळा करर घरां जावण री त्यारी करी। ईने परदेसी, खनै ई कोटवाळी ही जठै आयर कोटवाल ₹ आगे कूक्यो- हजूर हूँ गरीब परदेसी मारियो जाऊँला । फलाणे कंदोई म्हारै थेली में इतना रुपिया पइसा हा जिका खोस नै राख लीय हूं कई खाऊंला नै ककर जोधपुर जाऊंला । अड़ो घोळ - दुपारै रो इन्याव मैं तो कठैई नी देखियो कोतवाळ सा । आपने इन बात रो न्याव कर म्हांरी थेली दराणी जौईजै । कोटवाळ सा'ब सिपाई ने मेजर कंदोई ने बुलायो कंदोई कैवेमर्ने गरीब ने कियां याद करचो ? कोटवाळ साव कैयो-तें इये परदेसी री थैली क्यों खोसी ? इण रा इत्ता रुपियां आना पईसा उण में हा। ओ फरियाद करे है, इन री थेली परी सौंप कंदोई कैयो-कोटवाळ साक आतो म्हारे दिनभर री बिकरी री रोकड़ है. मैं तो कोई री थेली खोसी को नी ।
कोटवाळ सा'ब विचारियो-आं दोनां में कुण साचो नै कुण कूड़ो ? कंदोई री वात, चैरो-मोरो देखतां तो साचो हूणो चाईजे पण ओ बापड़ो परदेसी भी झूठो मालूम को देवैनी दूसरे में परदेसी से न्याय करणौ रो म्हारी हक कोनी। कई करू ? मनै तो ओ मामलो हजुर दरबार रै आगेई राखणो पड़सी । इस तरे ३ विचार सं कोटवाल सा'ब दोनों ने खेली है साथै दरवार में पैस
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कर दिया. दरबार सा'ब दोनां री बात सुण ने पैली परदेसी नै पूछयो । परदेसी कैयो-हजर आपरै राम-राज मैं हूँ लूटीज ग्यो। ओ तो पाणी में लाय लागै जड़ो बणाव हुयो । हूँ गरीब परदेसी कई खाऊंला नै कींकर म्हारै देस जाऊला मैं तो इण कंदोइडै री दुकान में आयने कलेवो करियो नै इण म्हारो नाणो ई परो खोस्यो । परदेस में बटाऊरो कुण सीरी? आप जैड़ा मोटा माईतां री मैर हुवैला हजूर मनै म्हारी नागै री कोथली दरावोला तो हूँ जीऊंला । इण तरै परदेशी रो-रोंक'र आपरो विलाप करण लाग्यो ।
राजाजी देख्यो कंदोई झूठो, चोर तो दीसै कोयनी, ओ भी परदेसी है रोवै है झूठ नहीं बोलणो जोईजै। अच्छया बिचारसां । कैयौ-कंदोई ! तूं थारै घरै जा काल न्याव करसां । परदेसी नै मोदीखानै सूं आटो, घी, मसाला, सीधो दिरा दियो र कैयो तूं ई खा, पीर आराम कर, काल आयै ।
____ दूजै दिन भोर में दोनूं जणा हजूर खनै आया जिके सू पेली उकळते पाणी रै कड़ायलिग में रुपिया री थेली छोड़ दी। रुपियां रो चिकणास सिगळी उतर'र पाणी ऊपर आयग्यो। कंदोई रै दिन भर री बिकरी रा रुपिया बतार परदेसी नै गिरफ्तार करणे रो हुकम हुयो। हजूर फरमायो---- परदेसी ने बांध कर' जेल ठोक दो । इण तरै भले आदम्यां ने फंसाणै रा उपाव करें।
दरबार सा'ब सूरसिंघजी कंदोई नै पूथ्यो—क्यू भाई, परदेसी कैवे सो साच है ? कंदोई कैयो हजर । आप मां-वाप हो मैं तो म्हारी सारे दिन री रोकड़ भेली कर र बिकरी पईसा लायो । ईयै परदेसी म्हारै खनै मीठो-भुजिया जरूर लिया हा पण मैं इण री थेली को खोसीनी।
ठीक अन मौके परदेसी जोधपुर रो खास रुक्को राजा साव रे चरणां मैं नाख गुनै री माफी मांगी। दरबार उण नै बड़े आदर मान सू सिरोपाव देर रवाने करियो । कंदोई आपरी थेली ले'र आपरै घरै आयो।
दरबार सा'ब पूछयो कित्ता रुपिया हा? इण रेजबाब में कंदोई कैयो-हजर । म्हारै तो गिणती बीजी की ई कोय थी नी । ज्यों बटया भेळा करर लायो हूँ। परदेसी आनापाई सूधा बताया जिका गिण्या सं पूरा ठीक निकळया ।
मुसायबजी जोधपुर आया । जोधाणनाथ आगे बीकाणनाथ रे न्याव री घणी सोमा करी।
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भगवान महावीर की जन्मभूमि
क्षत्रियकुण्ड
एक नाम के कई नगर गाँव प्राचीनकाल में थे और आज भी पाये जाते हैं। नाम साम्य से वे भी भ्रान्त हो गए और अपनी शोध की सत्यता प्रमाणित करते हुए ऐतिहासिक शोध दृष्टिविहीन भारतीय जनता को भी अपनी स्थापनाए मान्य कराने में सफल हो गए। भारतीय मान्यता लोकोक्ति. पौराणिक श्रद्धा पर ही अवलम्बित थी जबकि पाश्चात्य विद्वानों की शोधपद्धति भाषा-विज्ञान लिपि-विज्ञान और तुलनात्मक अध्ययन पर
आधारित होने से निष्ठामूलक थी। इन पाश्चात्य विद्वानों से प्रभावित होकर कतिपय भारतीय विद्वान और जैनाचार्य तक उनका समर्थन करने लग गये । पाश्चात्य शोध के भ्रम ने भगवान महावीर के जन्मस्थान, कैवल्य स्थान और निर्माणस्थान को भी सन्दिग्ध बतलाने का साहस किया और उन्हें स्थापनातीर्थ होना बतला दिया। श्री कन्हैयालाल सरावगी ने सठियाँव को, भगवती प्रसाद जी खेतान आदि ने पडरौना को बिना किसी पुरातात्विक प्रमाण के ही भगवान की निर्वाणभूमि पावापुरी होना प्रदर्शित किया जो बौद्ध साहित्य की गलत समझ और अपनी हठधर्मिता ही है। मुझे दस वर्ष पूर्व 'महातीर्थ पावापुरी' पुस्तिका लिखकर यथाशक्ति भ्रान्ति निवारण की चेष्टा करनी पड़ी थी।
अनादि अनन्तकाल के प्रवर्तमान कालचक्र में वर्तमान में अवसर्पिणी का पांचवा आरा है। प्रत्येक कालचक्र में उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी काल होता है। हम जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में निवास करते हैं जिसमें प्रत्येक काल के मध्य में चौबीस तीर्थकर सर्वोच्च महापुरूष होते हैं जो लोक के अनन्त जीवों के महान उपकारी और मोक्ष मार्ग के प्रकाशक, भवसमुद्र से तारक होते हैं । इस काल की चौबीसी में भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर स्वामी पर्यन्त चौबीस तीर्थकर हुए हैं जिनमें नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी को ऐतिहासिक महापुरुष होना इतिहासज्ञों को भी स्वीकार्य है। शास्त्रों में सवकी पंचकल्याणक तिथियां और च्यवन. जन्म, दीक्षा, कैवल्य और निर्वाण स्थान बतलाये हैं जो तीर्थ रूप में मानने की प्राचीनतम परम्परा है। शास्त्रों में विराट वर्णन होते हुए भी मध्यकालीन देश की अव्यवस्था ने उन्हें भुला दिया है। जैन परम्परा में तीर्थयात्रा की परम्परा के कारण उससे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद नहीं हुआ परन्तु बौद्ध स्थान तो सर्वथा विस्मृत हो गये थे, जिन्हें पाश्चात्य विद्वानों ने अपनी शोधदृष्टि से प्रकाशित किया।
भगवान महावीर का जन्मस्थान क्षत्रियकुण्ड ग्राम नगर होना प्राचीन जैनागमों से भली-भांति सिद्ध है। पर यह क्षत्रियकुण्ड कौन सा है. किस स्थान पर है यह प्रश्न गत ६०-७० वर्षों से उठा है। दिगम्बर साहित्य में कण्डपुर के स्थान में कहीं कुण्डलपुर भी लिखा मिलता है जो कि पांचवी शती के यति वृषभ और सतरहवीं शती के मराठी कवि चिमण पंडित के अतिरिक्त कहीं नहीं देखा गया । श्वेताम्बर समाज के पास आगम
और ऐतिहासिक प्रमाण थे और क्षत्रियकुण्ड को सहस्राब्दियों से मानता आया था पर दिगम्बर समाज के जन्म स्थान का कोई तीर्थ न होने से लगभग सौ वर्ष पूर्व
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श्रीभूषण के शिष्य थे, ने अपनी सर्वतीर्थवन्दना में क्षत्रियकुण्ड यात्रा कर जिनभवन की वन्दना करने का निम्नोक्त वर्णन किया है
नालन्दा के निकटवर्ती स्थान कुण्डलपुर को जन्मस्थान मानकर मन्दिरादि स्थापित किए । वस्तुतः वह भगवान की जन्मभूमि क्षत्रियकुण्ड होना सर्वथा असंभव था क्योंकि उसके निकटवर्ती ब्राह्मणकुण्ड आदि आगमोक्त स्थान न होने से भौगोलिक स्वीकृति भी अप्राप्त थी। इधर अप्रामाणिक स्थान की अमान्यता और दूसरी ओर पाश्चात्यों व कई भारतीय विद्वानों द्वारा वैशाली के वसुकुण्ड को क्षत्रियकुण्ड मान्यता देने से दिगम्बर समाज ने उसे ही भगवान की जन्म भूमि होने की मान्यता स्वीकार कर ली।
क्षत्रियकुण्ड पवित्र सिद्धारथ नृप सारह त्रिशला उर उत्पन्न वर्धमान भव तारह राज्य भौग मद तज्यो मोह पच्छर सवि छड्यो अंगीकृत तप निविड़ मान मकरध्वज दंडयो क्षत्रियकुण्ड जिनभुवन ने वंदन पातक परिहरे ब्रह्म ज्ञान कर जोड़ि कर त्रिकरण शुद्ध वदंन करे ।।७५/
मगधनरेश कोणिक द्वारा वैशाली को नष्ट करने के बाद उसका नाम शेष हो गया था। दिगम्बर साहित्य में कहीं उज्जैन को विशाला-ौशाली बतलाया तो तीर्थमालाओं
और ज्ञानसार जी के जिनप्रतिमा स्थापित ग्रामादि में बिहार शरीफ को पैशाली, तुंगिया आदि से अभिधार्य किया है। जहां नैशाली अज्ञात थी, क्षत्रियकुंड और जन्मस्थान नाम से उसको प्रकाश में लाने वालों द्वारा प्रचारित किया गया तब लछुवाड़ के निकटवर्ती क्षत्रियकुण्ड को तत्रस्थ जनता जन्मस्थान नाम से शताब्दियों से पहचानतो आई है । मुनिराज श्री दर्शनविजयजी जव सं० १९८७ में वहां गये तो उन्हें जन्मस्थान की ग्रामीणों में प्रसिद्धि के लोक विश्वास का हठीभूत अनुभव हुआ था।
श्वेताम्बर यात्रा विवरण तो बहुत से प्राप्त हैं जो आगे बतलाये जायेंगे । यहां की जो भगवान महावीर स्वामी की प्राचीन प्रतिमाए पूज्यमान हैं उनमें जन्मस्थान मन्दिर की प्रतिमा लगभग १५०० वर्ष प्राचीन है। पचास वर्ष पूर्व जब हमने प्रथम वार क्षत्रियकुण्ड की यात्रा की थी तो वहां की धर्मशाला-लछुवाड़ में भगवान की माता त्रिशला महारानी की मूर्ति जिनकी गोद में बालक भगवान महावीर थे व जिस पर प्राचीन गुप्त लिपि का अभिलेख उत्कीणित था, दृष्टिगोचर हुई थी, शीघ्रता में न पढ़ सके न छाप लेने का ही साधन था। कुछ महीनों बाद जब हमारे मित्र श्री ताजमलजी बोथरा यात्रार्थ आये तो उन्हें प्रतिमा कलकत्ता लाने को कहा पर वह मूति सुरक्षित न रही, गायब हो चुकी थी। इस तीर्थभूमि जो जमइ-नवादा रोड पर स्थित सिकन्दरा से दो मील दूर लछुवाड़ जहां मन्दिर और धर्मशाला है-से तीन मील कुण्डघाट होकर जाना पड़ता है। नदी के दोनों ओर मन्दिर है जो प्रवचन कल्याणक और दीक्षा कल्याणक के हैं। पहाड़ उल्लंघन करके जन्मस्थान मन्दिर जाना पड़ता है। वहाँ अन्य मार्ग से मोटर भी जाती है।
श्वेताम्बर संप्रदाय सेकड़ों वर्षों से भगवान महावीर का जन्मस्थान क्षत्रियकुण्ड जहां मानता है, वहां के समर्थक अनेक साहित्यिक व पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध हैं । सात सौ वर्षों से तो यहां दूर-दूर से श्वेताम्बर यात्री तीर्थयात्रा करते आ रहे हैं जिन के प्रामाणिक उल्लेख प्रचुर परिमाण में संप्राप्त है। आगे जैन तीर्थों की सम्मिलित यात्रा बिना किसी सांप्रदायिक भेद-भाव से की जाती थी। सतरहवीं शती के दि० ब्रह्म ज्ञानसागर जो काष्टा संघ नंदीतट गच्छ के भट्टारक
कुछ वर्ष पूर्व तक तो उपर्युक्त क्षत्रियकुण्ड की ही भगवान महावीर की च्यवन, जन्म व दीक्षा तीन
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पर
कल्याणकों की भूमि निर्विवाद रूप में मान्य थी पाश्चात्य अन्वेषकों ने जब वसाद प्राचीन वैशाली को खोज निकाला और जेनागमों में भगवान महावीर के लिए प्रयुक्त वैशालिक विदेशदत्त विदेहजात्य शब्द पढ़े तो उन्होंने धारणा बना ली कि भगवान का जन्मस्थान वैशाली ही है। इसका समर्थन जैन आचार्य श्री विजयेन्द्र
सूरि और मुनि कल्याणविजय जी ने भी कर दिया। इससे अन्य लोगों को भी वैशाली को भगवान महावीर का जन्मस्थान मानने की प्रेरणा मिली। बिहार सरकार ने वैशाली के विकास के लिए काफी प्रयत्न व प्रोत्साहन दिया। वहाँ महावीर जयन्ती विशाल रूप से मनायी जाने लगी। राज्यपाल अणे और महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के सान्निध्य में जब जयन्ती मनायी गयी तो पावापुरी से प्रतिमा ले जाकर स्नात्रपूजादि की गईं। मैं भी उस उत्सव में सम्मिलित हुआ था । डा० योगेन्द्र मिश्र ने वैशाली के उन्नयन में पर्याप्त योगदान दिया । इससे दिगम्बर समाज प्रभावित होकर वहाँ जैन मन्दिर और जैन विद्या शोध संस्थान भवन निर्माणादि में सक्रिय हो गया । दि० समाज मान्य नालन्दा वाला कुण्डलपुर तो अप्रामाणिक था ही अतः उनका वैशाली की ओर झुकाव होना स्वाभाविक ही था। पर श्वेताम्बर समाज के पास अपने मान्य क्षत्रियकुण्ड ( लछ्वाड़ ) के सम्बन्ध में काफी प्राचीन परम्परा रही है। इसलिए आचार्य विजयेन्द्रसूरिजी और मुनि कल्याणविजयजी के समर्थन के वावजूद भी उसका झुकाव बैशाली की ओर नहीं हो सका। मुनिश्री दर्शनविजय जी ( त्रिपुटी) ने तो गुजरात में वैशाली जन्मस्थान अमान्य करते हुए श्वेताम्बर समाज द्वारा परम्परागत मान्य क्षत्रियकुण्ड की पुष्टि में एक ग्रन्थ भी पैंतीस वर्ष पूर्व लिखकर प्रकाशित कराया। परन्तु खेद है कि विद्वानों का ध्यान उस ओर नहीं गया और वे पाश्चात्य अन्वेषकों के प्रवाह में ही प्रवाहित होते गये।
वर्तमान में कई लोगों द्वारा भगवान महावीर की जन्मभूमि वैशली किन आधारों पर मानी जाती है, उनपर विचार करते हुए वह भ० महावीर की जन्मभूमि क्यों नहीं - इस पर प्रकाश डालकर फिर परम्परागत श्वेताम्बर मान्य क्षत्रियकुण्ड को जन्मस्थान की प्राचीनता और युक्ति पुरस्सर पृष्टि पर विमर्श करना अभीष्ट है।
डा० हर्मन जाकोबी ने भ० महावीर की जन्मभूमि वौद्धों के महावग्ग सूत्र में बुद्ध के कोटिग्राम पधारने का उल्लेख देख कर कुण्डग्राम को कोटिग्राम बतला दिया। डा० होंर्नेल ने कोल्लाग को क्षत्रियकुण्ड बतलाया क्योंकि कोल्लाग का उल्लेख जैन ग्रन्थों में आता है और वैशाली के निकट है वसुकुण्ड को लोगों ने क्षत्रियकुण्ड मानकर उसे भगवान महावीर का जन्मस्थान बतला दिया। मुनि कल्याणविजयजी ने वैशाली के एक विभाग को क्षत्रियकुण्ड बतलाया और विजयेन्द्र सूरि जी ने पूर्व मान्यताओं का संशोधन करते हुए वसुकुण्ड को क्षत्रियकुण्ड स्वीकार कर लिया। पर वास्तव में किसी भी बौद्ध या जेन ग्रंथ में देश ली का उपनगर क्षत्रियकुण्ड या ब्राह्मणकुण्ड था, नहीं बतलाया है । वसुकुण्ड और क्षत्रियकुण्ड में भी कोई नाम साम्य नहीं है। अतः ये सभी मान्यताएं' मनगढन्त, कल्पित और निराधार है। कोल्लाग भी कई थे अतः वैशाली के निकटवती कोलुआ को क्षत्रिय कुंड के निकट वाला कोल्लाग ही है यह मान्यता देना भी सही नहीं है।
कल्पसूत्रादि प्राचीन प्रामाणिक आगमों से यह भलीभांति सिद्ध है कि क्षत्रियकुण्ड एक स्वतंत्र ग्राम और बड़ा नगर था वहां के जमालि और प्रियदर्शना ( भगवान के बेटी-जंवाई ) ने पांच सौ पुरुषों व एक हजार स्त्रियों के साथ दीक्षा ग्रहण की थी इससे वहां बड़ी भारी जनसंख्या वाली वस्ती होने का प्रबल संकेत मिलता है। कल्पसूत्र में भगवान महावीर के पिता और क्षत्रिय
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इसलिए ये विशेषण मातृपक्ष के सूचक हो हैं। ज्ञात. ज्ञातपुत्र. ज्ञातसुत आदि आपके विशेषण पितृपक्ष सूचक हैं। भगवान महावीर की माता वैशाली के उच्चकुलीन लिच्छवी चेटक महाराजा की बहिन थी इसलिए पीहर पक्ष का गौरव माना जाना स्वाभाविक ही है। मगधराज श्रेणिक को पत्नी चेलना को विदेह-कन्या और उसके पुत्र कोणिक-अजातशत्रु को वैदेही-पुत्र तथा गुप्त वंशी राजा चन्द्रगुप्त की पत्नी कुमारदेवी को लिच्छवी-जाता, समुद्रगुप्त को लिच्छवी दौहित्र कहा जाता है।
सूत्रकृतांग की टीका में वैशालिक शब्द की टीका करते हुए लिखा है
कुण्ड के राजा सिद्धार्थ की राजसभा और सभासदों का वर्णन करते हुए लिखा है-अनेक गणनायक, दण्डनायक, राज्येश्वर, तलवर, मांडविक, कौटुम्बिक मंत्री. महामंत्री. गणक. द्वारपाल, अमात्य, पीठमर्दक, अंगरक्षक, सेठ, सेनापति, पार्षद, सार्थवाह, दूत, सन्धिपाल आदि, से सिद्धार्थ राजा परिवेष्टित थे। भगवान के नामकरण के प्रसंग में धनधान्य वृद्धि के साथ सामन्त राजा भी वशवतीं हुए लिखा है । इससे क्षत्रियकुण्ड को वैशाली का एक उपविभाग मान लेना किसी भी प्रकार से औचित्य नहीं रखता । वैशाली के समर्थक आचार्य विजयेन्द्रसूरिजी ने भी अपने तीर्थंकर महावीर के पृ० ८५ में 'यह कुण्डपुर वैशाली का उपनगर नहीं था, बल्कि एक स्वतंत्र नगर था.' लिखा है। इसी ग्रन्थ के पृष्ठ ८७ में वैशाली और कुण्डग्राम की दूरी सवा मील थी. लिखा है पर यह सम्भव नहीं, क्योंकि वैशाली बहुत बड़ा नगर था उसमें ७७०७ राजाओं का गणतन्त्र परिषद होने के उल्लेख बौद्ध शास्त्री में स्पष्टतः संप्राप्त हैं। डा० हारनेल ने लिखा है वैशाली के तीन विभाग थे, जिनमें पहले विभाग में सुवर्ण कलश वाले ७००० घर थे. बीच के विभाग में रजत कलश वाले १४००० घर थे और अन्तिम विभाग में ताम्र कलश वाले २१००० घर थे अतः उसका विस्तार कई मीलों में होगा । इसलिए सवा मील में ही स्वतंत्र क्षत्रियकुण्ड राज्य हो यह सम्भव नहीं । पृ० ८५ में उन्होंने ही लिखा है कि 'वैशालिक' नामकरण के कारण भगवान महावीर का जन्म स्थान वैशाली मानना पूर्णतः त्रुटिपूर्ण होगा।
विशाला जननी यस्य, विशालं कुलभेव वा। विशालं प्रवचनं चास्य, तेन वैशालिको जिनः ।।
अब श्वेताम्बर सम्प्रदाय मान्य वर्तमान क्षत्रियकुण्ड के सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डाला जाता है जिसपर विचार कर भगवान महावीर की जन्मभूमि की वास्तविकता का पाठकगण स्वयं निर्णय कर सकेंगे।
क्षत्रियकुण्ड के पास ही ब्राह्मणकुण्ड ग्राम नगर था यह प्राचीन जैनागमों से भली-भाँति सिद्ध है और वर्तमान क्षत्रियकुंड के पास माहणा ग्राम है जो आगमोक्त माहणकुण्ड का ही प्रसिद्ध नाम है। इसी प्रकार भगवान के दीक्षा प्रसंग में लिखा गया है कि इन्होंने मार्गशीर्ष कृष्ण १० को तृतीय प्रहर में ज्ञातरखण्डवन में दीक्षा स्वीकार की और कुमारग्राम पधारे । दूसरे दिन प्रातः काल कोल्लाग सन्निवेश में दो दिन के उपवास का पारणा बहुल ब्राह्मण के वहाँ क्षीर से किया । यहाँ से भगवान 'मोराक सन्निवेश पधारे । आवश्यक नियुक्ति में कुमारग्राम पधारने का उल्लेख इस प्रकार है
भगवान महावीर के विदेहदत्त. वैशालिक आदि जो विशेषण आगमों में दिये हैं उनके आधार पर विदेहवर्ती वैशाली भगवान की जन्मभूमि थी यह सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है पर वस्तुतः यह विशेषता भगवान महावीर के ननिहाल के सूत्र हैं क्योंकि भगवान की माता त्रिशला को ही विदेहदिन्ना आदि विशेषण दिये गए हैं पर पिता श्री सिद्धार्थ राजा के लिए नहीं।
बहिआ य णाय संडे. आपुच्छित्तण नायए सत्वे । दिवस मुहुत सेसे. कुमार गामं समणुपत्तो |मा० १११ ।।
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कुमारग्राम आज भी वर्तमान क्षत्रियकुण्ड के पास लघुवाड़ से तीन मील दूरी पर स्थित है और तीर्थमालाओं से पता चलता है कि वहाँ पर भगवान के प्रथम परिषह स्थान की स्मृति में वृक्ष के नोचे चरणपादुकाए स्थापित थीं। अभी थोड़े अरसे पूर्व उन चरणों को लाकर लछवाड़ धर्मशाला में रखा गया सुना है । लछुवाड़ से ८ मील दूर कोनाग ग्रान है जो कोल्लाग का ही अपभ्रंश रूप है। कोल्लाग से पूर्व १० मील पर मौरा गांव है । अतः आगमोक्त क्षत्रियकुंड के निकटवर्ती स्थानों की संगति इसी क्षत्रिय कुण्ड से बराबर बैठ जाती है। मुनि दर्शनविजयजी ने लिखा है कि राजधानी के परखण्डा में एक जिन प्रतिमा भी है जिसे लोग अन्य नाम से पूजते हैं।
एक प्रामाणिक इतिहास ग्रन्थ प्रस्तुत करना चाहता हूँ। कल्पसूत्र में उल्लिखित क्षत्रियकुण्ड के विस्तृत भू-भाग में यत्र-तत्र मिट्टी के बड़े-बड़े स्तूपों का अगर उत्खनन हो तो प्रामाणिक इतिहास लेखन की बहुत सामग्री मिल सकती है। उदाहरणस्वरूप एक स्तूप से अनायास भगवान महावीर की मिट्टी की मूर्ति मिली है जो मेरे पास सुरक्षित है जिस पर अज्ञात लिपि भी है। मेरा यह दावा है कि वैशाली के हिमायतियों ने कोई ऐसा तथ्य अद्यावधि प्रस्तुत नहीं किया है जिसे महत्व दिया जा सके । इतिहास के बड़े-बड़े विद्वानों से मेरी जबर्दस्त टक्कर भी होती रही है और अन्त में उन्होंने मेरे तथ्य को स्वीकार भी किया है।
क्ति
वर्तमान क्षत्रियकुण्ड के आस-पास कई गांवों में प्राचीन जंन मन्दिर थे जिनका उल्लेख तीर्थमालाओं में पाया जाता है। महादेव-सिमरिया (लघुवाड़ से पूर्व ) में पांच जिनालय थे जिनकी प्रतिमाएं वहाँ के लोगों ने तालाब में डाल दी। यद्यपि आस-पास के गाँवों में काफी जैन अवशेष नष्ट कर दिए गये फिर भी खोज करने पर आज भी मिल सकते हैं।
योगेन्द्र युगप्रधान गुरुदेव श्री सहजानंदघनजी ने क्षत्रियकुण्ड-जन्मस्थान में कई महीनों तक रहकर साधना की। उन्होंने तथा साधक तपस्वी श्री मनमोहनराजजी भणशाली जो वहां काफी समय तक रहे थे ने अपनी अनु- . भूतियों से क्षत्रियकुण्ड-जन्मभूमि को सही बतलाया था ।
डा० श्यामानंद प्रसाद ने सन् १९७९ में जमुई से एक 'श्रमण भगवान महावीर का जन्म स्थान क्षत्रियकुण्ड ग्राम' पुस्तक प्रकाशित की है इसमें इन्होंने भी क्षत्रियकुण्ड (जमुई) की सप्रमाण पुष्टि की है।
___ इस प्रदेश के जैनेतर अधिवासियों में भी भगवान महावीर की जन्मभूमि के प्रति बड़ी श्रद्धा है । सिकन्दरा के डा० भगवानदास केशरी ने बहुत वर्ष पूर्व वर्तमान क्षत्रियकुण्ड को सिद्ध करते हुए एक लेख प्रकाशित किया था । मैं उनके साथ ३० वर्ष पूर्व कई गाँवों में घूमा था और पुरातत्वावशेष देखे थे। लछुवाड़ में ही जन्मे हुए नरेशचंद्र मिश्र ने 'श्रमण' में 'श्री महावीर की सच्ची जन्मभूमि' लेख प्रकाशित किया और उसमें वर्तमान क्षत्रियकुण्ड की पुष्टि की। उनका 'वर्तमान काव्य' भी 'श्रमण' में सन् १९६८ से ७० तक छपता रहा फिर एक लेख 'क्षत्रियकुण्ड-कल्याणविजय जी का भ्रम' 'श्रमण' में प्रकाशनार्थ लिखा। ता०२३-३-७४ को मननपुर ( मुंगेर ) से उन्होंने मुझे लिखा कि मैं क्षत्रियकुण्ड के संबंध में
वैशाली भगवान महावीर का ननिहाल और विहार भूमि थी पर जन्मस्थान क्षत्रियकुण्ड वहां नहीं था, क्यों कि किसी भी ग्रन्थ में क्षत्रियकुण्ड और ब्राह्मणकुण्ड को वैशाली का विभाग होना नहीं बतलाया है। अतः केवल पैशालिकविदेह शब्द और एकाध स्थान के नाम-साम्य के आधार पर उसे जन्मभूमि कह देना सर्वथा अनुचित है। मुनिश्री दर्शन विजयजी महाराज ने अपने क्षत्रियकुण्ड' ग्रन्थ में विविध प्रकार से सं० २००६ में पैशाली के समर्थक विद्वानों को कई असंगतियां बतलाई हैं जिन्हें विस्तारभय से यहां नहीं लिखा है।
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वर्तमान क्षत्रियकुण्ड अति प्राचीन स्थान है। कुण्डचाट पर नदी के दोनों ओर दो प्राचीन जिनालय है एवं पहाड़ी पार करने पर जन्मस्थान का मन्दिर आता है। जहां सिद्धार्थ राजा का महल था वर्तमान जन्मकश्यामक मन्दिर से दो मील लोचा पानी में जंगल झाड़ी के बीच उसके लण्डर विद्यमान हैं। यहां के मन्दिरों की ईंटें पन्द्रह सौ वर्ष प्राचीन हैं । प्राचीन काल में क्षत्रियकुण्ड यात्रार्थ जेन यात्री सव समय-समय पर विशाल परिमाण में आता रहता था। इस प्रदेश के अधिकारियों के पूर्वज जैन थे एवं भरत चक्रवर्ती के मंत्री श्रीदल के वंशज मंत्रिदलीय महतियाण जैन जाति इन तीर्थों की देख-रेख बर बर करती रहती थी तथा पड़ोसी प्रान्तों में भी प्राचीन जैनजाति सराक (श्रावक) निवास करते थे जो समय-समय पर यात्रार्थ आते थे। यद्यपि प्राचीन साहित्य नष्ट हो जाने से एवं उनकी नकलें करके प्रचारित न रहने से अधिक उल्लेख नहीं पाये जाते फिर भी वहां के ऐतिहा सिक संघ यात्रा वर्गन जो मिलते हैं वे प्राचीन अविच्छिन्न परम्परा को ही प्रमाणित करते हैं।
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चेत्यवासी परम्परा समाप्त हो जाने से उनका इतिहास भी लुप्त हो गया। सुविहित परम्परा वर्तमान गच्छों का इतिहास भी परवर्ती परम्परा से ही विस्तृत लिखा गया। युगप्रधानाचार्य गुर्वावली एक प्राचीन और अत्यन्त प्रामाणिक ग्रन्थ है जिसमें चौदहवीं शताब्दी तक की घटनाएँ दैनन्दिनी की भाँति सवस्तिार आलेखित मिलती हैं। उसमें लिखा है कि सं० १३५२ में कलिकाल केवली श्री जिनचन्द्रसूरिजी के उपदेश से वाचक राजशेखर, सुबुद्धिराज, हेमतिलक गणि पुण्यकीर्ति गणि रत्नमंदिर मुनि सहित श्री वज्रगांव ( नालन्दा) में विचरे। वहां के ठक्कुर रत्नपल सा० चाहड़ प्रधान श्रावक प्रेषित श्रावक भाई हेमराज बांबू सपरिवार सा० दोहित्थ पुत्र मूलदेव श्रावक ने श्री कोशाम्बी, वाराणसी. काकन्दी, राजगृह पावापुरी, नालन्दा, क्षत्रियकुण्ड
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ग्राम
अयोध्या, रत्नपुरादि जिन जन्म कल्याणकादि पवित्र स्थानों की यात्रा की। उन्हीं श्रावक संघ के साथ समुदाय सहित राजशेखरगणि ने हस्तिनापुर तीर्थादि यात्रा करके राजगृह समीपवर्ती उद्दड़-बिहार ( बिहार सरीफ) में चातुर्मास किया, नन्दी महोत्सव माला-रोपणादि उत्सव सम्पन्न हुए ।
सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक प्रतिशोधक सुप्रसिद्ध शासन प्रभावक श्री जिनप्रभसूरिजी भी तीर्थमाला स्तव में विधिवत् वन्दना करने का उल्लेख करते हैं। यतः खत्तियकुंड गामे पावा नालिंद जंभियग्गामें । एवं उन्होंने चतुराशीति तीर्थं नाम कल्प तथा शत्रुंजय तीर्थकल्प में भी 'कुण्डग्राम' का उल्लेख किया है।
सं० १४३१ में अयोध्या स्थित श्री लोकहिताचार्य के प्रति अणहिलपुर से श्री जिनोदयसूरि प्रेषित विज्ञप्ति - महालेख से विदित होता है कि लोकहिताचार्य जी इतः पूर्व मंत्रिदलीय बंशोद्भव ठ० चन्द्रांगज सुश्रावक राजदेव आदि के निवेदन से बिहार व राजगृह में विचरे थे। उस समय वहां कई नव्य जिन प्रासादों का निर्माण हुआ था सूरिजी वहां से ब्राह्मणकुण्ड व क्षत्रियकुण्ड जाकर यात्रा कर आये फिर वापस राजगृह आकर विपुलाचल व वैभारगिरि पर विम्बादि की प्रतिष्ठा कराई ।
श्री जिनवर्द्धनसूरि रास (सं० १४८१ रचित) में उनके पांच वर्ष पर्यन्त पूर्व देश में विचरण कर नाना धर्म प्रभावना करने का उल्लेख है, जिसमें पावापुरी, नालन्दा, कुण्डग्राम काकन्दी तीर्थ की यात्रा का भी वर्णन है । श्री जिनवर्द्धन सूरिजी ने स्वयं सं० १४६७ में पूरवदेश चेत्य परिपाटी की रचना की है जिसमें ब्राह्मणकुंड, क्षत्रियकुंड और काकन्दी की यात्रा करने का निम्नोक्त उल्लेख किया है।
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पावापूर नालिंदा गामि, कुंडगामि कार्यदीठामि । वीर जिणेसर नयर विहारि जिनवर वंदह सवि विस्तारि ॥
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श्री जिनवर्द्धन सूरिजी ने पूरब देश चैत्य परिपाटी स्तवन (सं०१४६१-८६) में लिखा है कि
होने का उल्लेख किया है। इसी तीर्थमाला में समेतशिखर महातीर्थ से २० कोश दूर ऋजुवालुका तट पर जंभीग्राम में भगवान महावीर के केवलज्ञान स्थान में मन्दिर होने का महत्वपूर्ण उल्लेख भी किया है।
सिद्ध गुणराय सिद्धत्थकुल मंडणं, रुद्ददालिद्द दोहाग दुह खंडणं दभण कुंडपुरि थुणउ जण रंजणं, खित्तिया कुंड गामंमि वीरंजिणं
॥२२॥
श्री विजयदानसूरि के शिष्य श्रीपति के नाम युक्त भयरव कृत तीर्थमाला में अलवर से निकले संघ के वर्णन में पावापुरी से विहार और तंगिया होकर क्षत्रियकुंड ब्राह्मणकुंड बढ़ते जाने का उल्लेख देखिये
__ सुप्रसिद्ध विद्वान जयसागरोपाध्याय ने सं० १५२४ में राजगृह में प्रतिष्ठादि कराए जिनके अभिलेख विद्यमान हैं। उन्होंने वहां से जाकर क्षत्रियकुण्ड की भी यात्रा की थी जिसका उल्लेख सं० १५२५ फा० ६०५ जौनपुर में लिखित आवश्यक पुष्पिका व उसी संवत् में लिखित दशवैकालिक वृत्त की प्रशस्ति में पाया जाता है।
जोइय नगरी तुंगया जिहां थया श्रावक सुविचार श्रीमुख वीर प्रशंसिया, दनेसूर हो समकित धार ॥६॥
खत्रीकुण्ड सोहामणउ जिहा जनम्यउ चरम जिणंद आजतीरथ नउ राजियउ जसु सेवर हो चउसठि इन्द ।।२।।
आचार्य मुनिप्रभसूरि ने अपनी तीर्थमाला में माहण खलिय कुंडह गामिहि, राजगृहि पावापुर ठामहि लिखा है । कवि हंससोम ने सं० १५६५ में यात्रा की जिसका वर्णन उन्होंने तीर्थमाला में इस प्रकार किया है
कोस त्रिणि तिहां थी अछइ. माहणकुंड सुक्षेत्र सुरसुख भोगवि अवतर्या, तिण बीरइ हो किय ठाम पवित्र ॥६३।।
जिणहर बे नमि चालीया, इस नगर ऊपरी अधकोश जन्मभूमि जिन गुण थुगुं हिव टलिया बहु भवचा दोष ॥६४।।
हवइ चालिया क्षत्रीकुंड मनि भाव धरीजइ तीस कोस पंथइ गया देवल देखीजइ निरमल कुंड करी सनान घोअति पहिरिजइ वीरनाह वंदी करी महापूज रचीजइ बालपणि क्रीड़ा करी ए. देखी आमली रूख राय सिद्धारथ तिहाँ घरइ, प्रेखंता गई तिस भूख २३
काकंदी नगरी कही इक जोअण गाऊ एक । सुविधिनाथ तिहाँ जनमिया, ते थानक हो थुणउ धरिय
विवेक ॥६५॥
चउद सहस मुणिवर मला, तिहां मांहि प्रशंसइ वीर । भद्रानंदन जोइय धन धन्न हो साहस धीर ॥६६॥
सं० १६०९ में तपागच्छीय पुण्यसागर ने भी इस प्रकार लिखा है
दोइ क्रोस पासिइ अछइ, माहणकुंड गाम देवानंदा तणी कूखि अवतरवा ठाम ते पूरइ मुझ मन आस, भावन भाबइ गौरड़ी ए। गाइ नितु रास वीरनह निहालतां ए ने प्रतिमा वंदी करी. सारिय सवि काम पांच कोश काकंद नयर श्री सुविधिह जन्म ||
क्षत्रियकुण्ड सुठाम महावीर जिन जिण रामतिरमइंए । ए चठवीसइ नाम पूरव दिसि जाणी संघ आवइ यान्ना
घणाए ।।१४३॥
यहां पर कवि ने सिद्धार्थ राजा का महल, आमली क्रोड़ा वृक्ष देखने तथा कुण्ड में स्नान करने का एवं जिन प्रतिमा की महापूजा रचाने का वर्णन किया है। वे राजगृह से ३० कोश चलकर आये थे और यहाँ से पांच कोस सुविधिनाथ भगवान के जन्म कल्याणक तीर्थ काकन्दी जाने का और वहाँ से आते ६० कोश चम्पानगर
___सं० १६७० में आगरा के लोढा कुंअरपाल सोनपाल के यात्री संघ के विवरण में खरतरगच्छीय कवि विनयसागर ने इस प्रकार लिखा है
खित्रीकुंड सुहामणउ. तिह जनम्या श्री वर्धमान रे। काकंदीपुरि वंदीयइ. श्री सुविधिनाथ जिन माण रे ॥७२॥
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संवत १७११-१२ में शीलविजयजी ने पूर्व देश के
सं० १७५० में सौभाग्यविजय रचित तीर्थमाला में तीर्थों की यात्रा की थी जिसका वर्णन उन्होंने बड़ी इस प्रकार लिखा हैतर्थमाला में इस प्रकार किया है
कोश छबीस विहार थकी चि० क्षत्रीकंड कहेवाय । तिहां थी आव्या क्षत्रिकुण्ड, वीरजी वंदु माहण कुण्ड । परवत तलहटियें वसे चि० मथरापुरछे जाय ||१३|| . च्यवन जन्म वीर ना अहिठाण, पावापुरी पाम्या निर्वाण ॥
कोश दोय परबत गयाँ, चि० माहणकंड कहे तास । इसमें क्षत्रियकुण्ड के कल्याणक मंदिरों के अतिरिक्त
ऋषभदत्त ब्राह्मण तणों चि० हतो तिणे ठामे वास ॥१४।। माहणझुण्ड में भी वोर प्रभु को वन्दन करने का उल्लेख किया है । तपागच्छीय विजयदेवसरि के समय में हिवणां तिह तटनी वहै चि० गाम ठाम नहीं कोय । विजयसागर ने समेतशिखर तीर्थमाला में इसप्रकार जीरण श्री जिनराज ना चि० वंदु देहरा दोय ||१५|| लिखा है--
तिहां थी परवत ऊपरि चढणा चि० कोश जिसे छे च्यार । खांति खरी खत्रीकंडनी जाणी जन्म कल्याण हो वीरजी।। गिरि कड़खें एक देहरों चि० वीर बिंब सुखकार ||१६|| चैत्र सुकल तेरसि दिने, यात्रा करी सुप्रमाण हो वीरजी ।।
तिहाँ थी क्षत्रियकंड कहै चि० कौश दोय भूमि होय । मास वसंत वनि विस्तरइ, मलयाचल ना वाय हो वीरजी।
देवल पूजसहु वले चि० पिण तिहाँ नवि जाये कोय ||१७|| वनराजो फूली-फली, परिमल पुहवी न माय हो वीरजी ॥ मओरिय मचकुंद मोगरा, मरुआ मंजरि वंत हो वीरजी
गिरि फरसी ने आवीया चि० गाम कोराई नाम । वउलसिरि वली पाडली. भृग युगल विलसंत हो वीरजी।।
प्रथम परीषह वीर ने चि० वड़ तले छे ते ठाम |१८|| कुसुमकली मनि मोकली. बिमणा दमणानी जोडि हो वीरजी। तिहाथी चिहुँ कोशे भली चि० काकंदी कहैवाय । तलहटीई दोय देहरा. पूज्या जिन मनि कोड़ि हो बोरजी ।। धन्नो अणगार ए नगर नो चि० आज काकंदी कहैवाय ।।१९।। सिद्धारथ घर गिरि शिरि तिहां वंदू एक बिंब हो वीरजी। सौभाग्यविजयजी ने लिखा है कि बिहार से क्षत्रिय विहूं कौशे ब्राह्मणकुंड छइ. वीरह मूल कुटुंब हो वीरजी ।। ___ कुण्ड बीस कोश है। वे मथुरापुर-तलहटी के मार्ग से
दो कोश गये और नदो के दोनों ओर जो दो प्राचीन पूजिय गिरिथकी ऊतरचा, गामि कुमारिय जाय हो वीरजी।
मंदिर हैं. वहां ब्राह्मणकुण्ड और ऋषभदत्त का घर लिखा प्रथम परीषह चउतरई, वंद्या वीर ना पाय हो वीरजी ।।
है। वहाँ से पर्वत पर जन्मस्थान के वर्तमान मन्दिर गये इस तीर्थमाला में तलहटी में दो मंदिर व जन्म फिर वहाँ से दो कोश क्षत्रियकुंड ( सिद्धार्थ राजा का महलस्थान में एक जिन बिम्ब एवं वहाँ से दो कोश ब्राह्मण- जन्मस्थान ) लिखा है. वहाँ कोई नहीं जाता, मन्दिर कुण्ड एवं कुनारिय गाँव जाकर जहाँ भगवान का प्रथम के दर्शन करके ही लोग लौट आते हैं। इन्होंने भी उपसर्ग हुआ-चोतरेपर वीर प्रभु के चरणों की वन्दना भगवान के प्रथम उपसर्ग स्थान कुमारि गाँव को जिसे करने का उल्लेख है। वहाँ से सुविधिनाथ जन्मभूमि आज कोराई कहते हैं. वड़ के नीचे यात्रा करने का काकन्दी ७ कोश तथा विहार से २६ कोश होने का उल्लेख किया है। यहाँ से काकंदी. जहां का धन्ना महत्वपूर्ण उल्लेख है।
अणगार था, चार कोश बतलाया है।
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तीर्थमालाओं के उपर्युक्त वर्णनों से स्पष्ट है कि गत आठ सौ वर्षों की यात्रा के प्रमाण वीरप्रभु की जन्मभूमि को सहस्राब्दि से चलती आई परम्परा का प्रबल संकेत देती है। वहां का ब्राह्मण कुंड माहणा और कुमारिय। कोराई गांव तथा पुरातत्व सामग्री इस बात की साक्षी है। कोल्लाग आज कोनाग कहलाता है । जिस वैशाली को भगवान महावीर की जन्मभूमि बताया जाता है, वहां न । तो पुरातत्व है न परम्परा । बसुकुंड को क्षत्रियकुण्ड बताना किसी प्रकार भी बुद्धिगम्य नहीं है। कोल्लाग सन्निवेश को वैशाली का कोल्हुआ बताते हैं पर कोल्लाग कई थे । अतः सारी बातों पर विचार करने पर भगवान महावीर की जन्मभूमि श्वेताम्बर जैनागम एवं हजारों वर्षों की परम्परा से मान्य क्षत्रियकुण्ड ही प्रनाणित है।।
विद्यमान थे। जब उन्हें भगवान के निर्वाण की सूचना शीघ्र ही मिल गई तो उन्होंने प्रतिपदा के दिन उपवास कर लिया और बहिन प्रियदर्शना के द्वारा उन्हें पारणा कराने से भाई दूज पर्व प्रसिद्ध हो गया । यदि क्षत्रिय कुण्ड गैशाली का विभाग होता तो न वह वच ही पाता और न इतनी दूर तत्काल खबर ही मिलती जिससे वह उपवास कर लेता । यह बात तो इस परम्परागत क्षत्रियकुण्ड, जो पावापुरी से अधिक दूर नहीं है, की ही समर्थक है ।
भगवान महावीर की जन्मभूमि नैशाली नहीं थी इसके विषय में एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रमाण यह कहा जा सकता है कि वैशाली के राजा चेटक का मगध नरेश कणिक के साथ तो महाशिला कण्टक संग्राम हुआ
और कलवालक साधु के माध्यम से मुनिसुव्रत स्तूप भंग कर पैशाली को नष्ट कर वहां गधों से हल चलाने की प्रतिज्ञा पूर्ण की। क्षत्रियकुण्ड को मैशाली का उपनगर मानने वालों की राय में तो वैशाली के साथ क्षत्रियकुण्ड भी नष्ट हो गया क्योंकि यह घटना भगवान के निर्वाण से लगभग दस-पन्द्रह वर्ष पूर्व घटित हो चुकी थी और नन्दीवर्द्धन जो भगवान के बड़े भ्राता क्षत्रियकुण्ड के स्वतन्त्र राजा थे. भगवान के निर्वाणकाल में
एक बात और महत्वपूर्ण है कि भगवान की भाषा अर्द्धमागधी थी जो भगवान की मातृभाषा निश्चित रूप से थी-के आगमादि प्रमाण भरे पड़े हैं । आगम भी उसी भाषा में है। कहीं भी बज्जी भाषा जो विदेह देश की थी उल्लेख नहीं है । अतः यह स्थान आगे कभी मगध में रहा हो किन्तु भाषा तो मगध की ही थी। यदि क्षत्रियकुण्ड कभी विदेह देश की सीमा में भी रहा हो तो भी जन्मस्थान पैशाली का उपनगर कभी नहीं हो सकता। वह तो भगवान का ननिहाल था । चेटक महाराजा की सभी पुत्रियां भारत के बड़े-बड़े देशाधिपतियों के यहाँ विवाहित थीं और भगवान का वंश बहुत ऊँचा था और इस क्षत्रियकुण्ड के स्वतन्त्र नरेश्वर थे और चेटक की पुत्री भी भगवान के बड़े भ्राता नन्दिवर्द्धन को ब्याही थी। अतः शास्त्रप्रमाण और इतिहास प्रमाण व परम्परा से यही क्षत्रियकुण्ड है । पाश्चात्य विद्वानों के भ्रान्त अन्धानुकरण में न जाकर सत्यान्वेषी-सत्यानुगामी बनें ।
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बीकानेर का एक प्राचीन सचित्र विज्ञप्ति - लेख
राजस्थान भारती के जनवरी १२४७ (१ अंक ४) में बीकानेर के एक विशिष्ट सचित्र विज्ञप्तिपत्र का परिचय दिया गया था । वह विज्ञप्तिपत्र सं० १८९८ में अजीमगंज में स्थित खरतरगच्छ आचार्य जिन सौभाग्यसूरिजी को बीकानेर के जैन संघ की ओर से भेजा गया था। अद्यावधि प्राप्त समस्त सचित्र विज्ञप्ति लेखों में वह सबसे बड़ा है एवं उसमें चित्र भी बड़े सुन्दर एवं कलापूर्ण हैं।
बीकानेर के बड़े उपाश्रय के जिस वृहत् ज्ञान भंडार में उपरोक्त विज्ञप्तिपत्र था. उस समय तक उसके अति रिक्त उससे प्राचीन दो और सचित्र विज्ञप्तिपत्र भी इस भंडार में सुरक्षित हैं, यह विदित न हो सका था । क्योंकि ये पत्र विना सूची के बंडलों में बंधे पड़े थे । इधर कुछ वर्षों में उन बंडलों का निरीक्षण करते हुये वे अवलोकन में आये। अतः प्रस्तुत लेख में उनमें से बीकानेर के सचित्र विज्ञप्ति पत्र का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।
प्रस्तुत सचित्र विज्ञप्ति लेख पूर्वप्रकाशित विज्ञप्ति पत्र से बहुत छोटा है अतः स्वाभाविकतया चित्रों की संख्या उससे कम है । पर प्राचीनता को दृष्टि से इस लेख का
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विशेष महत्व है । यह लेख उसकी अपेक्षा अधिक विद्वतापूर्ण होने से इसका महत्व और भी बढ़ जाता है । पूर्व प्रकाशित लेख से यह पत्र ९७ वर्ष पूर्व लिखित है अर्थात् वह पत्र १८१८ का था. और यह १८०१ का है । उस पत्र के चित्रकार का नाम नहीं मिला था इस चित्र में चित्रकार का नाम भी मिल जाता है। यह पत्र खरतरगच्छ के आचार्य जिनभक्तिसूरिजी की सेवा में बीकानेर से राधनपुर भेजा गया था। पूर्व पत्र श्रावक संघ की ओर से भेजा गया था. तब यह यति नन्दलाल के विशेष प्रयत्न से भेजा गया है। श्रावकों के वंदन की तो सूचना मात्र इसमें है । यह विज्ञप्ति लेख ९ फीट ७|| इंच लंबा और ९ इंच चौड़ा है। ऊपर का ७।। इंच का भाग बिल्कुल खाली है, जिसमें मङ्गलसूचक '॥ श्री ॥' लिखा हुआ है । अवशिष्ट ९ फुट में ५ फुट में चित्र है और ४ फुट में विज्ञप्ति लेख लिखा हुआ है। प्रथम चित्रों का विवरण देकर फिर लेख का विवरण दिया जा रहा है
सर्व प्रथम नवफन मंडित पार्श्वनाथ जिनालय का चित्र है जिसके तीन शिखर हैं। ये उत्तुंग शिखर लंब गोलाकृति हैं । मध्यवर्ती शिखर ध्वज दंड मंडित है। परवर्ती चित्र में सुख शय्या में सुषुप्त तं शंकर । माता और तद्दर्शित चतुर्दश महास्वप्न तथा ऊपरि भाग में अष्टमांग लक चित्र बने हुए हैं। तत्पश्चात् महाराजा का चित्र है जो संभवतः बीकानेर नरेश जोरावरसिंहजी होंगे, जिनका बर्णन विज्ञप्तिपत्र में नीचे आता है। उनके पृष्ठ भाग में अनुचर चँवर बीज रहा है और सन्मुख जाजम पर दो मुसाहिब ढाल लिये वैठे हैं। इसके बाद नगर के चौहटे का संक्षिप्त दृश्य दिखाया गया है । चौरास्ते के चारों ओर चार दुकाने हैं जिनमें से तीन रिक्त हैं। अवशेष में पुरानी बीकानेरी पगड़ीधारी व्यापारी बैठे हैं। जिन सबके लम्बी अंगरखी पहनी हुई है। दुकानदारों में लेखधारी, तराजूधारी, व गांधी आदि धन्धे
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वाले दिखाये गये हैं । इसके बाद का चित्र जिन्हें यह विज्ञप्ति लेख भेजा गया है उन श्री पूज्य जी "जिनभक्ति सूरिजी का है, जो सिंहासन पर विराजमान हैं. पीछे चंवरधारी खड़ा है. श्री पूज्यजी स्थूल काय हैं। उनके सामने स्थापनाचार्य तथा हाथ में लिखित पत्र है वे जरी की बूटियोंवाली चद्दर ओढ़े हुये व्याख्यान देते हुए दिखाये गये हैं । सामने तीन श्रावक, दो साध्वियां व दो श्राविकाएं स्थित हैं। पूठिये पर चित्रकार ने श्रीपूज्यजी का नाम व इस लेख को चित्रित कराने वाले नन्दलाल जी का उल्लेख करते हुये अपना नामोल्लेख इन शब्दों में किया है :
'सबी भट्टारकजी री पूज्य श्री श्री जिनभक्तिजी री है। करवतं वनाररूजी श्री श्री नन्दलालजी पठनार्थ ||०|| मथेन अखराम जोगीदासोत श्री बीकानेर मध्ये चित्र संजुक्त || श्री श्री ॥
उपर्युक्त लेख से चित्रकार जोगीदास का पुत्र अखेराम प्रथेन था और धीकानेर में ही विद्वद्वयं नन्दलालजी की प्रेरणा से ये चित्र बनाये गये सिद्ध हैं। तदनंतर लेख प्रारम्भ होता है।
प्रारम्भ के संस्कृत श्लोकों में मंगलाचरण के रूप में आदिनाथ, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ और महावीर भगवान् की स्तुति एवं वंदना करके १४ श्लोकों में राधनपुर नगर का वर्णन है। फिर श्लोकों में जिनमक्ति ८ सूरिजी का वर्णन करके गद्य में उनके साथ पाठक नयमूर्ति पाठक राजसोम, वाचक पूर्णभक्ति, माणिक्य सागर, प्रीतसागर, लक्ष्मीविलास, मतिविलास, ज्ञानविलास और खेतसी आदि १८ मुनियों के होने का उल्लेख किया गया है, फिर बीकानेर का वर्णन कर महाराजा जोरावरसिंह का वर्णन गद्य में करके दो पद्य दिये हैं । फिर नगर वर्णन के दो श्लोक देकर वीकानेर में स्थित नेमिरंगगणि, दानविशाल, हर्षकलश, हेमचन्द्र आदि की
वंदना सूचित करते हुए उभय ओर के पर्वाधिराज के समाराधन पूर्व प्रदत्त व प्राप्त समाचार पत्रों का उल्लेख किया है । तदनन्तर विक्रमपुर के समस्त श्रावकों की वंदना निवेदित करते हुए वहां के प्रधान व्याख्यान में पंचमांग भगवती सूत्र वृत्ति सहित के लघु व्याख्यान में शत्रुंजय महात्म्य के बांचे जाने का निर्देश है । स० १८०१ के मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी को लेख तैयार हुआ व भेजा गया है। उपर्युक्त पूरा लेख संस्कृत भाषा में है। इसके बाद दो सवैये और दो दोहे हिन्दी में हैं। जिनमें जिनभक्तिसूरिजी का गुण वर्णन करते हुए उनके प्रताप बढ़ाने का आशीर्वाद दिया गया है । दूसरे सवैये में उनके नन्दलाल द्वारा कहे जाने का उल्लेख है।
विज्ञप्ति लेख टिप्पणाकार है। उसके मुख्य पृष्ठ पर 'वीनती श्री जिनमक्तिसूरिजी महाराज ने चित्रां समेत लिखा है।
लेख परिचय यहां समाप्त होता है। अब इसमें आये हुए सूरिजी व विद्वान् मुनियों के नामों से जिनका कुछ विशेष परिचय प्राप्त है उनका विवरण दिया जा रहा है
2.
१. जिनमक्तिसूरिजी ये श्रेष्ठीय गोत्रीय शाह : हरचंद की पत्नी हरसुखदे की कुक्षि से इंदपालसर में सं० १७७० के ज्येष्ठ सुदी ३ को उत्पन्न हुए थे। मूल नाम भीमराज था। सं० १७७९ की माघ सुदी ७ को जिनसुखसूरिजी से आपने दीक्षा ली। दीक्षा नाम भक्तिक्षेम था । सं० १७८० में रिणी में जिनसुखसूरिजी ने व्याधि उत्पन्न होने पर अपना अन्तकाल निकट जान जेठ वदी ३ को इन्हें आचार्य पद दिया । सं० १८०४ जेठ सुदी ४ का कच्छ स्थित मांडवी में आपका स्वर्गवास हुआ। गूढ़ा नगर के अजित जिनालय की आपने प्रतिष्ठा की प्रीतिसागर आदि आपके कई शिष्य थे, जिनकी परम्परा में अमृतधर्म क्षमाकल्याण
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आदि अच्छे विद्वान् हुए हैं। इस परम्परा की विस्तृत नामावली वृहत् ज्ञान-मंडार में प्राप्त है । आ० जिनभक्ति सूरिजी के स्तवनादि उपलब्ध हैं। ये वहुत स्थूलकाय थे। हमारे ऐतिहासिक जन काव्य संग्रह में आपके परिचयात्मक गीत व चित्र पृ० २५२ पर छपे हैं । अन्य दो चित्र वृहद् ज्ञान-भंडार व ऋषभदेव मन्दिर में लगे हैं। इनके पट्टधर जिनलामसूरिजी अच्छे विद्वान् थे। इनका अध्ययन उ० धर्मवद्धन के पास हुआ था ।
विद्यागुरु थे। इनकी परम्पर! की नामावली हमारे ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह के पृ०६३ में दी हुई है।
३. नन्दलाल : ये अच्छे विद्वान थे। इनके रचित. _ 'गार-वैराग्य-तरंगिणी वृत्ति'. 'अष्टान्हिका व्याख्यान', 'सिद्धान्त रत्नावली व्याख्या', 'गजसिंह चौपाई' आदि प्राप्त हैं । दानविशाल आपके शिष्य थे। 'शृगार वैराग्य-तरंगिणी वृत्ति उन्हीं के आग्रह से बनाई गई थी। आगरा और बंगाल की ओर भी आपने विहार किया था । नन्दलाल आपका दीक्षा से पूर्ववर्ती नाम प्रतीत होता है। दीक्षा नाम नेमिरंग है। इनकी दीक्षा सं० १७५६ फागुन सुदी ७ सोजत में हुई थी। जिनचन्द्रसूरिजी के पास आपने दीक्षा ली थी । इनके गुरु का नाम रत्नसुन्दर था ।
२. उपाध्याय राजसोम : आप तत्कालीन यतियों में अच्छे विद्वान् थे। आपके रचित 'श्रुतज्ञानपूज। संस्कृत में और 'ऊंदररासों' और कई स्तवन 'आदि राजस्थानी भाषा में प्राप्त हैं । उपाध्याय क्षमाकल्यागजी के आप
CCTION
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जैन मुनियों के नामान्त पद या नन्दियाँ
अनन्त चतुष्टय विराजित आत्मा अपने विशुद्ध रूप में अरूपी और अनामी है, परन्तु देहधारी होने से उसकी पहचान के लिए नाम स्थापन अनिवार्य है। चार प्रकार के निक्षेपों में नाम. स्थापना. द्रव्य और भाव हैं। ये सत्य माने गये हैं। आदिकाल से नाम रखने की परिपाटी चली आ रही है। भगवान ऋषभदेव की माता के उनके गर्भ में आनेपर देखे वृषभ स्वप्न के अनुसार उनका नाम ऋषभ रखा गया । चतुर्दश महास्वप्नों में प्रथम स्वप्न वृषम ही था। अन्य नाम भी घटनाओं के परिवेश में रखे गये। जैसे महामारी शान्त होने से शान्तिनाथ, ऋद्धि सम्पदा में वृद्धि होने से वर्द्धमान इत्यादि । कुछ नाम प्रकृति से, कुछ संस्कृति से, कुछ घटना विशेष से एवं कुछ परम्परागत देश प्रथा आदि से सम्बन्धित होते थे। जन्म समय के ग्रह-नक्षत्रों की अवस्थिति भी इसमें प्राधान्य रखती थी। पाणिनी ने अष्टाध्यायी में नाम व पद आदि का विशद विवेचन किया है। अपने-अपने देश की भाषा, धर्म और जातिगत प्रथा कालानुरूप संघ प्रणाली देखते आर्य, मुनि, स्थविर, गणि आदि उपाधि सम्बोधन होता था। पहले जो प्राकृत रूप थे वे उनके संस्कृत रूपों में प्रयुक्त होने लगे। फिर
जब अपभ्रंशकाल आया तो शब्दों का तदनुरुप परिवर्तन हो गया । बोलचाल की भाषा में नागभट्ट नाहड़, देवमट्ट-देहड़, वाग्भट्ट-बाहड़, त्यागभट्ट-चाहड़, मंधरटींवड़, पृथ्वीधर - पेथड़ आदि में उत्तरार्द्ध का लोप होकर 'ड' प्रत्यय लग गए। 'ण' प्रत्यय भी लगे। जैसेजसहड़-जालहण, आल्हादन-आल्हण, प्रल्हादन-पाल्हण आदि संख्याबद्ध उदाहरण दिये जा सकते हैं। आचार्यों के कक्कसूरि. नन्नसूरि, जजिगसूरि आदि नाम भी अपभ्रशकाल की देन है।
आज के परिवेश में नाम के आदि पद उपर्युक्त प्रथा के साथ-साथ नामान्त में जैसे राजस्थान में लाल, चंद, राज, मल्ल, दान. सिंह, करण, कुमार आदि प्रचलित हैं वैसे ही गूर्जर देश का ही समझना चाहिए क्योंकि प्राचीन काल में दोनों भाषाए एक ही थी । अब तो अनेक नाम सीमाओं का उल्लंघन कर सार्वत्रिक प्रचलित हो गए हैं। पूर्वकाल में वेश-भूषा और नामों से देश व जाति की पहचान हो जाती थी किन्तु आज वह भेद गौण . होता जा रहा है, अस्तु ।
तीर्थंकर महावीर के समय प्रवर्जित होने पर नाम परिवर्तन की अनिवार्यता नहीं थी। इतिहास साक्षी है कि सभी अपने गृहस्थ नाम से ही पहचाने जाते थे। तब प्रश्न होता है कि गृहस्थावस्था त्यागकर मुनि होने पर नाम परिवर्तन कर नवीन नामकरण कब से और क्यों किया जाने लगा ? इसपर विचार करने से लगता है कि चैत्यवास के युग से तो यह प्रथा प्रारंभ हुई होगी पर इसका कारण यही मालूम देता है कि गृहत्याग के पश्चात् मुनि जीवन एक तरह से नया जन्म हो जाता है । गृहसम्बन्ध-विच्छेद के लिए वेशपरिवर्तन की माँति गृहस्थ सम्बन्धी रिश्ते, स्मृतिजन्य भावनाओं को त्याग. मोहपरिहार और वैराग्य वृद्धि के लिए इस प्रथा की उपयोगिता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। श्री आत्मारामजी महाराज ने सम्यक्त्व शल्यो
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१. गिरी, २. पुरी, ३. भारती, ४. सागर, ५. आश्रम. ६. पर्वत. ७. तीर्थ, ८. सरस्वती, ९, वन, १०. आचार्य ।
श्वेताम्बर जैन ग्रन्थों में नामकरण विधि का सबसे प्राचीन, विशद और स्पष्ट उल्लेख खरतरगच्छ की रुद्रपल्लीय शाखा के आचार्य श्री वर्द्धमानसूरिजी रचित 'आचार दिनकर' नामक ग्रन्थ में विस्तार के साथ मिलता है जो वि० सं० १४६८ का० सु०१५ जालन्धर देश पंजाब के नन्दवनपुर (नांदौन) में विरचित है। इसमें नाम परिवर्तन का कारण बतलाते हुए लिखा है कि
पूर्वहि जैन साधुत्वे सूरित्वेपि समागते । न नाम्नां परिवतोभून्मुनीनां मोक्ष गामितां ।। ६ ।।
द्वार के पृ० १३ में बतलाया है कि 'पंचवस्तु' नामक ग्रंथ में इस प्रथा का उल्लेख पाया जाता है।
नाम परिवर्तन की प्रथा श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित है जो स्थानकवासी, तेरापंथी. लौंका, कडुआमती के अतिरिक्त मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में तो है ही परन्तु वे लोग स्वामी, ऋषि, मुनि आदि विशेषण मात्र लगा देते हैं। आजकल तो तेरापंथी समाज में भी नाम परिवर्तन करने की प्रथा कथंचित् प्रचलित हो गई है। दिगम्बर सम्प्रदाय में सागर, भूषण, कीर्ति आदि नामान्त पद प्रचलित हैं। यतः-शांतिसागर, देशभूषण, महावीर कीति। आनंद नंदी भी विद्यमान है। यतः विद्यानंद, सहजानंद आदि। इनके साथ-साथ चंद और सेन भी गण/ संघ की परिपाटी में प्रचलित है। वर्तमान काल में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के तपागच्छ में सागर, विजय, विमल
और मुनि एवं खरतरगच्छ में सागर व मुनि नाम प्रचलित हैं। पायचंदगच्छ में चन्द्र और अंचल गच्छ में सागर नामान्त पद ही पाये जाते हैं जव कि प्राचीन इतिहास में इनके अतिरिक्त बहु संख्यक नामान्त पद व्यवहृत देखने में आते हैं। हमें इस निबन्ध में इन नामान्त पद जिन्हें 'नन्दी' कहा जाता है पर विस्तार से विचार करना है।
इस प्रकार के नाम परिवर्तन की प्रथा भारत और यूरोप आदि देशों के राज्य तन्त्र में तो पायी जाती ही है पर दीक्षान्तर नाम परिवर्तन की प्रथा वेदिक सम्प्रदाय में भी प्राप्त हैं । 'दर्शन प्रकाश' नामक ग्रंथ में संन्यासियों के दस प्रकार के नामों का उल्लेख संप्राप्त है। यतः
१. गिरी-सदाशिव, २. पर्वत पुरुष. ३. सागर-शक्ति, ४. वन-रुद्र, ५. अरिण-ॐकार, ६. तीर्थ-ब्रह्म, ७. आगमविष्णु, ८. मठ-शिव. ९. पुरी-अक्षर, १०. भारती-परब्रह्म ।
'भारत का धार्मिक इतिहास' ग्रन्थ के पृष्ठ १८० में दस नामान्तपद इस प्रकार बतलाये हैं
साम्प्रतं गच्छ संयोगः क्रियते वृद्धि हेतवे। महा स्नेहायायुषे च लाभाय गुरु शिष्ययोः ।। ७ ।। ततस्तेन कारणेन नाम राश्यनुसारतः । गुरु प्रधानतां नीत्वा विनयेनानुकीर्तयेत् ॥ ८॥
नंदी, नाम के पूर्वपद के सम्बन्ध में पृ० ३८६ में लिखा है कि-नाम तथा योनि १ वर्ग २ लामालाभ ३ गण ४ राशि भेद ५ शुद्धं नामं धात्
नाम स्यात्पूर्वतः साधोः शुभो देव गुणागमैः। जिन कीति रमा चन्द्र शीलोदय धनैरपि ।।२०।।
विद्या विमल कल्याणै र्जीव मेघ दिवाकरः। मुनि त्रिभुवनांभोजेः सुधा तेजो महानृपैः ।।२१।। दया भाव क्षमा सूरैः सुवर्ण मणि कर्मभिः । आनन्दानन्त धर्मेश्च जय देवेन्द्र सागरैः ॥२२॥
सिद्धि शान्ति लब्धि बुद्धि सहज ज्ञान दर्शनैः । चारित्र वीर विजय चारु राम मृगाधिपैः ।।२३।।
मही विशाल विबुध विनयै नय संयुतैः। सर्व प्रबोध रूपैश्च गण मेरु वरै रपि ।।२४।।
२२८ ]
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जयन्त योग ताराभिः कला पृथ्वी हरि प्रियैः ।
एतत् प्रभृतिभिः पूर्व पदै
मुनि नामान्त पद
स्यादभिधानः ||२५||
शशाङ्क कुम्भ शैलाब्धि कुमार प्रम वलभैः । सिंह कुञ्जर देवैश्च दत्त कीर्ति प्रियै रपि ॥ २६ ॥
प्रवरानन्द निधि श्री राज सुन्दर शेखरैः । वर्धना कर हंसैश्च रत्नमेरु समूर्तिभिः ||२७||
सार भूषण धर्मेश्च केतु पुनव पुण्डकैः । ज्ञान दर्शन वीरेश पदैरेनि स्तथोत्तरः ||२८|| जायन्ते साधु नामानि स्थितैः पूर्व पदात्परैः । अन्यानि यानि सहज नामानि विदितानि च । २९||
नृणा तान्युत्तम पदै भूषा यवत दानतः । एवं विदध्यात्सुगुरुः साधुनां नाम कीर्त्तनम् ||३०|| एतेष्वेव परं सुरपदं स्यात्तत्पदागमे । गच्छ स्वभाव संज्ञासु नविमेदोऽभिधानतः ||३१|| उपाध्याय वाचनायें नामानि खलु साधुवत् । व्रतिनीनां तु नामानि यतिवत्पूर्वः पदैः ||३२|| साध्वी नाम |
स्युरुत्तर पदैरेभि रनन्तर सभी रितः । मतिश्चूलाप्रभा देवी लब्धि सिद्धिवती मुखैः ||३३||
प्रवर्तिनो नाम प्येवं नामानि परिकीर्त्तयेत् । महत्तराणां तैः पूर्वैः सर्वे पूर्व पदै रपि ||३४||
श्री स्तर पदे कार्या नान्यासु व्रतिनीषु च । मुनि नामानि सर्वाणि स्त्रिया मादादि योजनात् ||३५|| जायन्ते व्रतिनी संज्ञाः श्रान्तेः केश्चिन्महत्तराः । विशेषान्नादि सेनान्ताः संज्ञास्युजिन कीर्तनम् ||३६|| शेषा नामानि तुल्यान्युभयोरपि सर्वदा । विप्राणामपि नामानि वृद्धार्ह द्विष्णु वेधतां ||३७||
गणेश कार्तिकेयार्क चंद्र शंकर धीमताम् । विद्याधर समुद्रादि कल्पद्र, जय योगिनाम् ||३८||
सामानयुत्तमानां च नामानि परि कल्पयेत् । ब्रह्मचारि क्षुल्लकयो नं नाम्नां परिवर्तनम् ||३९||
( इसके बाद क्षत्रिय वैश्यादि के नामकरण का उल्लेख सर्व गाथा ४९ तक है। )
भावार्थ सार - प्राचीन काल में साधु एवं सूरिपद के समय नाम परिवर्तन नहीं होते थे, पर वर्त्तमान में गच्छ संयोग वृद्धि के हेतु ऐसा किया जाता है । १ योनि २ वर्ग ३ लभ्यालभ्य ४ गग और ५ राशिमेद को ध्यान में रखते हुए शुद्ध नाम देना चाहिए। नाम में पूर्व पद एवं उत्तर पद इस प्रकार दो पद होते हैं । उनमें मुनियों के नामों में पूर्व पद निम्नोक्त रखे जा सकते हैं
१ शुभ, २ देव. ३ गुग, ४ आगम, ५ जिन, ६ कीर्त्ति ७रमा (लक्ष्मी) ८ चन्द्र ९शील १० उदय, ११ धन, १२ विद्या १३ विमल, १४ कल्याण, १५ जीव, १६ मेघ, १७ दिवाकर, १८ मुनि, १९ त्रिभुवन, २० अंभोज (कमल). २१ सुधा २२ तेज, २३ महा. २४ नृप. २५ दया, २६ भाव, २७ क्षमा, २८ सूर, २९ सुवर्ण, ३० मणि, ३१ कर्म, ३२ आनंद, ३३ अनन्त ३४ धर्म, ३५ जय. ३६ देवेन्द्र, ३७ सागर, ३८ सिद्धि, ३९ शान्ति, ४० लब्धि, ४१ बुद्धि, ४२ सहज ४३ ज्ञान. ४४ दर्शन, ४५ चारित्र, ४६ वीर. ४७ विजय ४८ चारु. ४९ राम ५० सिंह (मृगाधिप) ५१ मही ५२ विशाल ५३ विबुध, ५४ विनय ५५ नय ५६ सर्व ५७ प्रवोध, ५८ रूप, ५९ गण. ६० मेरु, ६१ वर, ६२ जयन्त, ६३ योग, ६४ तारा, ६५ कला, ६६ पृथ्वी ६७ हरि ६८ प्रिय
मुनियों के नाम के अन्त्य पद ये हैं
१ शशांक (चन्द्र), २ कुंभ, ३ शैल, ४ अब्धि, ५ कुमार, ६ प्रम, ७ वल्लभ प सिंह, ९ कुंजर, १० देव ११ दत्त,
[ २२९
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१२ कात्ति: १३ प्रिय, १४ प्रवर, १५ आनंद, १६ निधि, १७ राज. १८ सुन्दर, १९ शेखर, २० वर्द्धन, २१ आकर. २२ हंस, २३ रत्न, २४ मेरु, २५ मूत्ति, २६ सार, २७ भूषण, २८ धर्म, २९ केतु (ध्वज), ३० पुण्डक (कमल). ३१ पुङ्गव, ३२ ज्ञान, ३३ दर्शन, ३४ वीर इत्यादि ।
समझना चाहिए। आगे ब्राह्मण क्षत्रियों के नामों के पद भी बताये हैं। विशेष जानने के लिए मूल ग्रन्थ का ४० वाँ उदय (पृ०३८६-८९) देखना चाहिए।
सूरि, उपाध्याय. वाचनाचार्यों के नाम भी साधुवत् समझें । साध्वियों के नामों में पूर्व पद तो मुनियों के समान ही समझें। उत्तर पद इस प्रकार है--
१ मति, २ चूला, ३ प्रभा. ४ देवी, ५ लब्धि,६ सिद्धि ७ वती।
प्रवर्तिनी के नाम भी इसी प्रकार हैं । महत्तरा के नामों में उत्तर पद 'श्री' रखना चाहिए ।
जिनकल्पी का नामान्त पद 'सेन' इतना विशेष
१ अमृत १५ चंद्र २९ निवास २ आकर १६ चारित्र ३० नंदन ३ आनंद १७ चित्त ३१ नंदि
१८ जय ३२ पद्म ५ उदय १९ णाग ३३ पति ६ कमल २० तिलक ३४ पाल ७ कल्याण
२१ दर्शन ३५ प्रिय ८ कलश २२ दत्त ३६ प्रबोध ९ कल्लोल २३ देव ३७ प्रमोद १० कीर्ति २४ धर्म ३८ प्रधान ११ कुमार २५ ध्वज ३९ प्रभ १२ कुशल २६ धीर ४० भद्र १३ कंजर २७ निधि ४१ मक्त
१४ गणि २८ निधान ४२ भक्ति निम्नोक्त नामान्त पदों का भी उल्लेख मात्र मिलता है, पर व्यवहृत होते नहीं देखे गये
कनक, पर्वत, चरित्र, ललित, प्राज्ञ. ज्ञान, मुक्ति, २३० ]
खरतरगच्छ में इन नामान्त पदों को वर्तमान में नांदि 'या' 'नंदी' कहते हैं और इनकी संख्या चौरासी (८४) बतलायी जाती है जब कि ऊपर नाम ६८ ही दिये हैं। विशेष खोज करने पर हमें बीकानेर में खरतरगच्छीय श्री पूज्य श्री जिनचारित्रसरिजी के दफ्तर एवं अनेक फुटकर पत्रों में ऐसी ८४ नामान्त पद सूची उपलब्ध हुई पर उन सब में पुनरुक्ति रूप से पाये नामों को बाद देने पर जब ७८ रह गये तो खरतरगच्छ गुर्वावली आदि में प्रयुक्त नामों को अन्वेषण करने पर जो नये नामान्त उपलब्ध हुए उन सब को अक्षरानुक्रम सूची यहाँ प्रस्तुत की जा रही हैं४३ भूषण ५७ रंग ७१ सागर ४४ भंडार ५८ लब्धि ७२ सार ४५ माणिक्य ५९ लाम ७३ सिंधुर ४६ मुनि ६० वर्द्धन ७४ सिंह ४७ मूर्ति ६१ वल्लम ७५ सुख ४८ मेरू ६२ विजय ७६ सुन्दर ४९ मंडण ६३ विनय ७७ सेन ५० मन्दिर ६४ विमल ७८ सोम ५१ युक्ति ६५ विलास ७९ सौभाग्य ५२ रथ ६६ विशाल ८० संयम ५३ रत्न ६७ शील ८१ हर्ष ५४ रक्षित ६८ शेखर २ हित ५५ राज ६९ समुद्र ८३ हेम ५६ रुचि ७० सत्य ८४ हंस
दास. गिरि, नंद. मान, प्रीति, छत्र, फण. प्रभद्र. तिय, हिंस. गज, लक्ष्य, वर धर, सूर, सुकाल, मोह, क्षेम, वीर ( खरतरगच्छ में नहीं). तुंग (अंचल गच्छ में)। इनमें
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से कई पदनाम के पूर्वपद रूप में अवश्य व्यव्हत हैं।
नाम परिवर्तन में प्रायः यह ध्यान रखा जाता है कि मुनि की राशि उसके पूर्व नाम की ही रहे। बहुत से स्थानों में प्रथमाक्षर भी वहीं रखा जाता है। जैसेसुखलाल का दीक्षित नाम सुखलाम, राजमल का नाम राजसुन्दर, रत्नसुन्दर आदि।
तपागच्छ
इसी प्रकार साध्वियों की नन्दियें (नामान्त पद) भी ८४ ही कही जाती हैं पर उनकी सूची अद्यावधि कहीं भी हमारे अवलोकन में नहीं आई। हमने प्राचीन ग्रंथों. पत्रों, टिप्पणकों आदि से इतने नामान्त पद प्राप्त किये हैं
१ श्री, २ माला, ३ चूला. ४ वती, ५ मति, ६ प्रभा, ७ लक्ष्मी. ८ सुन्दरी. ९ सिद्धि, १० निद्धि, ११ वृद्धि, १२ समृद्धि, १३ वृष्टि, १४ दर्शना, १५ धर्मा, १६ मंजरी, १७ देवी, १८ श्रिया, १९ शोभा, २० वल्ली, २१ ऋद्धि, २२ सेना, २३ शिक्षा, २७ रुचि, २५ शीला, २६ विजया. २७ महिमा, २८ चन्द्रिका।
अब दिगम्बर सम्प्रदाय एवं खरतरगच्छ के अतिरिक्त श्वेताम्बरीय गच्छों में कितने ही मुनि नामान्त पदों का उल्लेख देखने में आया है. उनका विवरण भी यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
दिगम्बर
नंदि, चन्द्र, कीत्ति, भूषण-ये प्रायः नन्दि संघ के मुनियों के नामान्त पद हैं। सेन, भद्र. राज, वीर्य-ये प्रायः सेन संघ के मुनि नामान्त पद हैं । (विद्वद्ररत्नमाला, पृ०१८)
श्री लक्ष्मीसागर सूरि (सं०१५०८-१७) के मुनियों के नामान्त पद-तिलक, विवेक, रुचि, राज. सहज, भूषण, कल्याण, श्रुत. शीति, श्रीति, मूत्ति, प्रमोद, आनन्द, नंदि. साधु, रत्न, मंडग, नंदन, वर्द्धन, ज्ञान, दर्शन, प्रम, लाभ, धर्म, सोम, संयम, हेन, क्षेम, प्रिय, उदय, माणिक्य. सत्य. जय, विजय, सुन्दर, सार, धीर, वीर, चारित्र, चंद्र, भद्र, समुद्र, शेखर, सागर, सूर, मंगल, शील, कुशल, विमल, कमल, विशाल, देव, शिव, यश, कलश, हर्ष, हंस, ५७ इत्यादि पदान्ताः सहस्रशः । (सोमचारित्र कृत गुरुगुणरत्नाकर काव्य, द्वितीय सर्ग)
श्री हीरविजयसूरिजी के समुदाय की १८ शाखायें
१ विजय, २ विमल, ३ सागर, ४ चन्द्र, ५ हर्ष, ६ सौभाग्य, ७ सुन्दर, ८ रत्न, ९धर्म, १० हंस, ११ आनंद, १२ वर्द्धन. १३ सोम, १४ रुचि, १५ सार, १६ राज. १७ कुशल.१८ उदय । (ऐतिहासिक सझायमाला. पृ०१०)
खरतरगच्छ की विशेष परिपाटियाँ
उपकेश गच्छ की २२ शाखाएँ
१ सुन्दर, २ प्रभ, ३ कनक, ४ मेरु. ५ सार, ६ चंद्र, ७ सागर, ८ हंस, ९ तिलक, १० कलश, ११ रत्न, १२ समुद्र, १३ कल्लोल. १४ रंग, १५ शिखर, १६ विशाल. १७ राज, १८ कुमार, १९ देव, २० आनंद, २१ आदित्य, २२ कुंभ । (उपकेश गच्छ पट्टावली. जैन साहित्य संशोधक)
उपर्युक्त नन्दी सूचियों से स्पष्ट है कि कहीं-कहीं दिगम्बर विद्वान यह समझने की भूल कर बैठते हैं कि भूषण. सेन, कीर्ति आदि नामान्त पद दिगम्बर मुनियों के ही हैं, वह ठीक नहीं है। इन सभी नामान्त पदों का व्यवहार श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी हुआ है।
नंदियों के सम्बन्ध की खरतरगच्छ में कतिपय विशेष परिपाटियाँ देखने-जानने में आई हैं जिनसे अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का पता चलता है. अतः उनका विवरण यहाँ दिया जाता है।
१ खरतरगच्छ के आदि पुरुष श्री वर्द्धमानसूरि के शिष्य श्री जिनेश्वर सूरिजी पट्टधर आचार्यों के नाम का पर्व पद "जिन" रुढ हो गया है। इसी प्रकार इन शिष्य संवेगरंगशाला निर्माता श्री जिनचन्द्र सूरिजी से
[ २३१
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चतुर्थ पट्ट पर यही नाम रखे जाने की प्रणाली रुद हो गई है।
२ युगप्रधानाचार्य गुर्वावली से स्पष्ट है कि उस समय सामान्य आचार्य पद के समय, इसी प्रकार 'उपाध्याय', 'वाचनाचार्य' पदों के एवं साध्वियों के 'महत्त।' पद प्रदान के समय भी कभी-कभी नाम परिवर्तन अर्थात् नवीन नामकरण होता था।
३ तपागच्छादि में गुरु-शिष्य का नामान्त पद एक ही देखा जाता है.. पर खरतरगच्छ में यह परिपाटी नहीं है। गुरु का जो नामान्त पद होगा, वही पद शिष्य के लिये नहीं रखे जाने की एक विशेष परिपाटी है। इसमें शान्तिहर्ष के शिष्य जिनहर्ण गणि का नाम अपवाद रूप में कहा जा सकता है । भिन्न नन्दी प्रथा अर्थात् गुरु के नामान्त पद भिन्न होने वाले मुनि ने अपने ग्रन्थादि में यदि गच्छ का उल्लेख नहीं किया हो तो उसके खरतर गच्छीय होने की विशेष संभावना की जा सकती है।
के पृ० २५९ से २६१ में प्रकाशित की है। यह सूची हमें उनके दो विहारपत्रों में संवतानुक्रम से चातुर्मास
और विशिष्ट घटनाओं के उल्लेख सहित उपलब्ध हुई थी। दीक्षा समय एक साथ जितने भी मुनियों की दीक्षा हो उन सबका नामान्त पद एक ही रखा जाय यह परिपाटी बहुत ही महत्वपूर्ण है। इतःपूर्व यह अनिवार्य नहीं रहा होगा । इस महत्त्वपूर्ण प्रथा से उस समय के अधिकांश मुनियों की दीक्षा का अनुक्रम नन्दी अनुक्रम से प्राप्त हो जाने से हमें तत्काकीन विद्वानों व शिष्रों का इस वैज्ञानिक पद्धति से सम्पादन करने में बड़ी सुविधा हो गई थी जैसे-गुणविनय और समयसुन्दर दोनों समकाल न मूर्धन्य विद्वान थे पर दीक्षा पर्याय में कौन छोटा-बड़ा था यह जानने के लिए नन्दी अनुक्रम का सहारा परम उपयोगी सिद्ध हुआ। इसके अनुसार हम कह सकते हैं कि गुणविनय की दीक्षा प्रथम हुई थी क्योंकि उनकी 'विनय' नन्दी का क्रमाङ्ग ८ वां है और 'सुन्दर' नन्दी का क्रमाङ्क २० वां है।
__उपर्युक्त नन्दी प्रथा से आकृष्ट हो कर हमने विकीर्ण पत्रों में, पृष्ठे टिप्पणिका, हर्ष टिप्पणिका आदि में इसकी विशेष शोध की। श्री पूज्यों के दफ्तर तो इसके विशेष
आकर हैं। पीछे के दफ्तरों को देखने से पता चलता है कि एक नंदी (नामान्त पर ) एक साथ दीक्षित मुनियों के लिए एक ही बार व्यवहृत न हो कर कई बार दीक्षाएँ दिये जाने पर चलती रहती थी। अर्थात् 'चन्द्र' नन्दी चालू की और उसमें अधिक दीक्षाएं नहीं हुई तो एक दो वर्ष चल सकती है अथवा निधन जैसी दुर्घटना या दीक्षा नाम स्थापन में गुरु-शिष्य के नाम, मुहूर्तराशि आदि प्रतिकूल बैठ जाने से नन्दी बदली जाती थी अन्यथा गच्छ नायक की इच्छा और लामा-लाभ के हिसाब से लम्बे समय भी चल सकती थी।
६-युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि जी से अब तक तो खरतरगच्छ में एक और विशेष प्रणाली देखी जाती है कि
४ साध्वियों के नामान्त पद के लिए नं०३ वाली बात न होकर गुरुणी-शिष्या का नामान्त पद एक ही देखा गया है।
५ सब मुनियों की दीक्षा पट्टधर गच्छनायक आचार्य के हाथ से ही होती थी । क्वचित् दूर देश आदि में विराजने आदि विशेष कारण से अन्य आचार्य महाराज, उपाध्यायों आदि विशिष्ट पद स्थित गीतार्थों को आज्ञा देते या वासक्षेप प्रेषण करते तब अन्य भी दीक्षा दे सकते थे। नवदीक्षित मुनियों का नामकरण गच्छनायक आचार्य द्वारा स्थापित नंदी (नामान्तपद) के अनुसार ही होता था।
ऊपरिवर्गित चौरासी नन्दियों में सर्वाधिक नन्दियों की स्थापना अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान श्री जिनचंद्रसरि जी ने की थी। उनके द्वारा स्थापित ४४ नन्दियों की सूची हमने अपने 'युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूर' ग्रन्थ
२३२ ]
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सर्वांग पूर्ण इतिहास तेयार हो जाता। यदि किसी भंडार में, बिना सूची के अटाले में सौभाग्यवश मिल जाए तो उसकी पूरी शोध होना आवश्यक है।
पट्टधर आचार्य नामान्त पद जो होगा. सर्वप्रथम वही नंदी स्थापित की जायगी। जैसे जिनचंद्र सूरि जी जब पहले मुनियों को दीक्षा देंगे तो उनका नामान्त पद भो अपने नामान्त पदानुसार 'चन्द्र ' ही रखेंगे। उनके प्रथम शिष्य सकलचंद्र गणि थे। इसी प्रकार जिनसुखसूरि पहले 'सुख' नंदी, जिनलाभसूरि 'लाभ' नंदि: जिनभक्तिसूरि 'भक्ति' नंदी ही सर्वप्रथम रखेंगे। अर्थात् नवदीक्षित मुनियों का नामान्त पद सर्वप्रथम वही रखा जायगा। यह प्रथा श्री जिनहर्ष सूरिजी से लुप्त हो गई क्योंकि उन्होंने प्रथम 'आनंद' नंदी स्थापित की थी।
सं० १७०० से वर्तमान तक का एक दफ्तर जयपुर गद्दी के वर्तमान श्रीपूज्य श्री जिनधरणेन्द्रसूरिजी तक का उपलब्ध है जिसमें पुराने दफ्तर का अनेकशः जिक्र है। इसी प्रकार खरतरगच्छ की अन्यान्य शाखाओं के दफ्तर मिल जाए तो कितना उत्तम हो । बीकानेर श्रीपूज्यों की गद्दी का दफ्तर हमने देखा है एवं आचार्य शाखा की कुछ दीक्षा नंदी सूचियां मिली हैं। अन्य सभी शाखाओं की खो गई-नष्ट हो गई है परन्तु इनमें जो दीक्षित यति-मुनियों की नामावली दी है वह इस प्रकार है
श्रीमन्नृपति विक्रमादित्य राज्यात संवत् १७०७ वर्ष शाके १५७२ प्रमिते मासोत्तमे वैशाख मासे शुभे शुक्ल पक्षे तृतीयायां तिथौ श्री मज्जेशलमेरु मध्ये भट्टारक । श्री जिनरत्नसूरिभिलाभ नंदी कृता ।।
पूर्वनाम मोहण केशव
दीक्षा नाम महिमालाम कनकलाम
गुरु नाम उ० राजविजय गणेः पदारंग रौ
मिती मिगसर सुदि १२ जेसलमेरु मध्ये
७----खरतरगच्छ में समाचारी-मर्यादा प्रवर्तक श्री जिनपतिसूरि जी ने दफ्तर-इतिहास या डायरी रखने की बहुत ही सुंदर और उपयोगी परिपाटी चलाई थी। ऐसी दफ्तर वही में जिस संवत् मिती को जिन्हें दीक्षित किया एवं सूरि पद, उपाध्यायादि पद दिए उनकी पूरी नामावली लिख लेते थे। जहाँ-जहाँ विचरते वहाँ की प्रतिष्ठा, संघ-यात्रादि महत्वपूर्ण कार्यों एवं घटनाओं का उल्लेख उसमें अवश्य किया जाता एवं विशिष्ट श्रावकों के नाम, परिचय, भक्ति, कार्यादि का विवरण लिखा जाता रहा । जैसलमेर भंडार की प्राचीन सूची में ऐसी ३५० पत्रों की प्रति होने का उल्लेख देखा था पर वह अनुपलब्ध है। खरतरगच्छ अनेक शाखाओं में विभक्त हो गया और वे शाखाए' नाम शेष हो गई और सामग्री भी नष्ट हो गई। यदि वे उपलब्ध होती तो खरतरगच्छ का ऐसा सर्वांगपूर्ण व्यवस्थित इतिहास तैयार होता जैसा शायद ही किसी गच्छ का हो। भारतीय इतिहास में ये दफ्तर / इतिहास गुर्वावली आदि अत्यन्त मूल्यवान सामग्री हैं। हमें सर्वप्रथम दफ्तर जिसका नाम युगप्रधानाचार्य गुर्वावली है. सं० १३९३ तक का उपलब्ध हुआ । उसके बाद सं० १७०० से वर्तमान तक का परवर्ती दफ्तर उपलब्ध है । मध्यकालीन जिनभद्रसूरिजी और यु०प्र० जिनचंद्रसूरि जी के समय के दफ्तर मिल जाते तो
श्रीजिताम्
डाहा खेतसी हेमराज वीदौ वस्तौ अमीचंद
दयालाम क्षमालाम हर्षलाभ विजयलाभ विद्यालाभ उदयलाम
सुमतिधर्म रौ
कुशलधीर रौ
मिती फागुण वदी १ मेड़तानगरे भूपति
भक्तिलाभ खेतसी
कुशललाम शांतिलाम
ठाकुरसी
शान्तिहर्ष रौ
[ २३३
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लद्धौ
सांवल
सुखलाम सुमतिरंग रौ संतोषौ
सुमतिलाम साधुहर्ण रौ लक्ष्मीलाभ
सहजहर्ण रौ मिती फागुण सुदि ५ श्री जयतारण मध्ये कचरौ
कर्पूरलाभ उदयहण रौ उदयचंद
आणंदलाम ज्ञानमूर्ति रौ तोडर
ज्ञानलाभ रायसिंह राजलाभ
राजहण रौ भावसिंह भुवनलाम
मतिहर्ण रौ खेतो नयनलाभ
ज्ञानहर्ष रौ ( पूवालिया ग्राम) मिती वैशाख सुदि ३ आगरामध्ये जेसिंघ
यशोलाम गुणसेन रौ कर्मचंद
कान्तिलाम कल्याणविजय रौ योधौ
जयलाम महिमाकुमार रौ बालचंद
विनयलाम विनयप्रमोद रौ यह दीक्षाए केवल १ वर्ष में एक ही नन्दी में हुई है। श्री जिनरत्नसूरिजी श्रीपूज्य आचार्य थे जो पंचमहाव्रतधारी थे। उस जमाने में उन्हें 'यति । कहते थे। साधु, यति, ऋषि, मुनि, श्रमण, निर्ग्रन्थ
आदि दस पर्यायवाची शब्द हैं । सं० १७०७ से पूर्व इन्होंने या पूर्ववर्ती आचार्यों ने दीक्षाए दी उनकी सूचियां प्राप्त हैं। इससे वे कहाँ-कहाँ विचरे, कहाँ, किसे, किस सम्वत्. मिती, स्थान में दीक्षा दी. गुरु का नाम, गृहस्थावस्था का नाम, दीक्षित नाम आदि अनेक बातों का पता चल जाता है। एक-एक नन्दी में दस. बीस. पचास, सत्तर तक दीक्षाए हुई जिनका प्रामाणिक विवरण ऐसे दफ्तरों में मिलता है। यदि इतिहासकारों के पास ये बहुमूल्य दस्तावेज हों तो उनकी अनेक समस्याए हल हो सकती हैं, प्रामाणिक विवरण प्राप्त करने का परिश्रम और समय की बचत हो सकती है और बहुमूल्य । प्रामाणिक इतिहास लिखा जा सकता है।
नन्दी या नामान्त पद सम्बन्धी जिन-जिन मर्यादाओं. विधाओं का ऊपर उल्लेख किया है वह सब खरतरगच्छ की श्री जिनभद्रसूरि परम्परा वृहत्-शाखा के दृष्टिकोण से लिखी गई हैं। संभव है इस विशाल गच्छ की अनेक शाखाओं में परिपाटी की भिन्नता भी हो। यह शोध विषय-सामग्री की उपलब्धि पर निर्भर है।
वर्तमान में उपयुक्त परिपाटी केवल यति समाज में ही है। जहाँ परम्परा में हजारों यतिजन थे क्रमशः आचारहीन होते गये, क्रियोद्धार करने वाले मुनियों से उनका सम्बन्ध विच्छेद हो गया । यतिजन भी गृहस्थवत् हो गये। मर्यादाएं मरणोन्मुख होती जाने से अव दफ्तर लेखन की प्रणाली नाम शेष हो रही है। खरतरगच्छीय मुनियों में अभी एक शताब्दी से उन प्राचीन परिपाटियों प्रणालियों का व्यवहार बंद हो गया है। अव उनमें केवल 'सागर' नन्दी और श्री मोहनलालजी महाराज के समुदाय में 'मुनि' एवं साध्वियों में 'श्री' नामान्त पद ही रूढ़ हो गया है। गुरु-शिष्यों का एक 'नामान्त पद' हो जाने से उतना सौष्ठव नहीं रहा । साध्वियों के नाम
और दीक्षा आदि का विवरण जयपुर श्री पूज्यजी के दफ्तर में सं० १७८३ से उपलब्ध है। आधुनिक परिवेश में इतिहास. लेखन परिपाटी परिवर्तन से विशृखलता आ सकती है।
हमारे ऐतिहासिक परिशीलन में गत पचास वर्षों में खरतरगच्छीय दृष्टिकोण से जो देखा, अनुभव किया वही ऊपर लिखा गया है। इसी प्रकार अन्य विद्वानों को अन्य गच्छों के नामान्त पद सम्बन्धी विशेष परिपाटियों का अनुसन्धान कर उनपर प्रकाश डालना अपेक्षित है। आशा है इस और विद्वद्गण ध्यान देकर इतिहास के बन्द पृष्ठों को खोलने का प्रयास करेंगे।
यह निबन्ध एक संभावित विशद् इतिहास की भूमिका मात्र है जिसके गर्भ में सैकड़ों पृष्ठों की महत्वपूर्ण सामग्री छिपी पड़ी है जिसका अनुशीलन-प्रकाशन समयोचित व अपरिहार्य है।
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नाहटा-वंश-प्रशस्तिः
सरस्वती नमस्कृत्य गुरुदेवप्रसादतः । वर्गयामि समासेन स्वीयां वंशप्रशस्तिकाम् ।।२।। अस्त्युपकेशवंशेऽस्मिन् नाहटा-नाम-गोत्रकः । विद्या-वैभव-सम्पन्नो राजते वैक्रमे पुरे ॥२॥ पूते खरतरे गच्छे क्षत्रियान् परमारजान् । जिनादिर्बोधयामास दत्तान्तो मुनिसत्तमः ।।३।। नाहटा-'जालसो'-वंशे अर्हद्धर्मानुवर्तकः । तस्मिन्गमानमल्लस्य ताराचन्द्रः सुतऽभवत् ॥४॥ तत्सुतो जैतरूपाख्यो ग्राम डांडूसर स्थितः । राज्ञा सम्मानितश्चापि ग्रामलोकेन पूजितः ।।५।। चत्वारस्तत्सुता आसन् धर्म-कर्म-परायणाः । ऊदी-नाम्नी सुता जाता नालग्रामे विवाहिता ।।६।। सुश्रेष्उय दयचन्द्राख्यो राजरूपो द्वितीयकः । देवचन्द्रस्तृतीयश्च बुधमल्लश्चतुर्थकः ।।७।। ग्वालपाड़ा नगर्यां च, गत्वा ह्यदयसंकः | व्यापार स्थापयामास तत्र वाणिज्यवृत्तिकः ॥८|| प्रवासं च विधायैष वर्ष-द्वाविंशतिपूर्वकम् । अर्थलाभ यशोलामं कृतवान् निजभ्रातृयुक, |९|| तस्याभवन त्रयः पुत्राः राजरूपस्य धीनिधेः । लक्ष्मीचन्द्रस्तथा दान-मल्लः शंकरदानकः ||१०|| प्रथमोऽस्थान्निजे गेहे द्वितीयोदयचन्द्रकः । तृतीयो देवचन्द्रस्य गृहेऽभूच्च सुदत्तकः ।।११।। रु(११)द्राङ्क(२)न्दु(१)शुभे वर्षे लक्ष्मीचन्द्रो ह्यजायत । द्विषष्टिवैक्रमे स्वर्ग चतस्रश्च गताः सुताः ।।१२।। 'पन्नाधाई' वरावरजी कालोवाईति चाभिधा । गोग्रासढिंगलान या वै विततार सहस्रशः ||१३||
शृङ्गाराङ्कन्दु (१९१६) सद्वर्गे जातो वै दानमल्लकः । उदारो धामिकश्चैव ख्यातनामा सुकीतितः ।।१४।। खनिधिद्वयचन्द्र (१९९०) च श्रावणे प्रतिपत्तिथौ ।
क्षमाप्य सकलान भूतान दिवं यातः समाधिना ॥१५॥ भोमसी-मोतीलालाख्यौ देवचन्द्रस्य पुत्रकौ । स्वार्यातौ, गृहीतो वै शंकरदानो दत्तकः ॥१६॥ श्रेष्ठशंकरदानस्य गुणानां बृहती ततिम् । वर्णयितुं न शक्तोऽहं धीर-वीर-मनस्विनः ।।१७।। शून्यनेत्राङ्कचन्द्राब्दे (१९३०) जातः शंकरदानकः । आजानुबाहु-पुण्यात्मा, अङ्गष्ठरसवल्लिकः ||१८|| पुनीता चुन्नीवाई च गृहश्री रत्नकुक्षिका । बोथरा-खेतसी-पुत्री सौख्यसम्पत्प्रवधिनी ||१९|| श्रद्धालुर्धार्मिकः श्रेष्ठी सौम्यो दीर्घविचारकः । परोपकारलीनात्मा ह्यप्रमादी विशेषतः ॥२०॥ दक्षो व्यापारवाणिज्ये नाडीज्ञानविशारदः । ज्योतिभैषज्यशास्त्रज्ञः साधुभक्तिपरायणः ॥२१|| श्रीकृपाचन्द्रसुरे। खरतरनमोरवेः । अभयजैनग्रन्थानां माला सच्छिक्षया कृता ।।२२।। दानमल्लस्य गेहे च चातुर्मास्ये निधापिता । सद्धर्मज्ञानवृद्ध्यै वै स्वापत्येषु विशेषतः ॥२३।। एकोनद्विसहस्राब्दे माघशुक्ले चतुर्दशे । त्यक्त्वा चतुर्विधाहारं स्वर्यातः शुभभावतः ।।२४।। श्रेष्ठिशंकरदानस्य पञ्च पुत्राः सदाशयाः । पुत्रिके च प्रजाते द्वे स्वर्णा-मग्नाभिधानिके ॥२५॥ ज्येष्ठो भैरवदानोऽभूत् प्रशान्तो नरसत्तमः । देवनिघ्नो गुरोभक्तः सर्वलोकस्य सेवकः ।।२६।।
युग्मवाणमिते ( १९५२) वर्षे जन्म यस्या महामतेः । मण्डलादि-समाध्यक्ष-भारो व्यूढश्च तेन वे ॥२७॥
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२३६ ]
शान्तः
मार्ग (शीर्ष) कृष्णतृतीयायां वाणेन्दुविशतौ तथा । प्रस्थानं कृतवान् स्वर्ग भैरुदानः श्रेष्ठिवरः ||२८|| स्वभयराजश्च विद्याशीलो गुणाग्रणीः । शिक्षा समाज सेवायां व्यापृतश्च दिवानिशम् ||२९|| वणवण (१९५५) जन्म यस्य शुभे क्षणे । मधुकृष्णस्य पष्ठयां वे भार्या गङ्गा वभूव च ||३०|| सप्तसप्ततिवैशाखे (१९७७) स्वस्तिथिः कृष्णसप्तमी । जाता स्वनयराजस्य चम्पा नाम्नी सुपुत्रिका ||३१||
तृतीयः शुभराजश्च साहसिक - शिरोमणिः । व्यापारदक्षो वर्चस्वी प्रमादमुक्तः कर्मठः ||३२|| वसुवागनिधी चन्द्र (१९५८) मासे मार्गसुशी कि । शुक्जपष्ठयां सुवेलायां जन्म यस्य महामतेः ||३३||
।
युगप्रवान योगीन्द्र सहजानन्दगुरोः कृपा । आत्मज्ञानरसास्वादी भक्तिशीलो विशेषतः ||३४|| पचपष्टितमे आश्विन कृष्णे त्रयोदशे । जातो मघासुनक्षत्रे चतुर्थी मेघराजकः ||३५|| चीरैरपहता यस्य शैशवे स्वर्ण-श्रृंखला साहसेनोद्धृता येन संस्तुतः कोट्टपालकैः ||३६|| ऋषि-वसु-निधौ चन्द्र दानमलस्य दत्तकः | परोपकार प्रेमी च नानागुणगणान्वितः ॥३७॥ पञ्चमोऽगरचन्द्रो वे धर्मिष्ठो ज्ञानवान् महान् अध्यात्मरससिक्तो यः क्रियाशीलः सतांवरः ||३८|| ऋषिऋत्यचन्द्रा (१९६७) चतुर्थ्यां चैत्रकृष्णके । अग्रचन्द्रस्य संजातो बीकानेरे शुभोद्भवः ||३९|| बहुज्ञो ज्ञानपूतश्च लेखने निशि वासरे पुरातत्वेतिवृत्तस्य व्यापृतः शोधने तथा ॥४०॥ । हिन्द्या च राजस्थान्या च नाना ग्रन्था गवेषिताः । निवन्धा लिखिता नैकाः सूचीपत्रं विशेषतः ||४१||
जिनदत्तप्रभोरप्ट शताब्द्य त्सव संगमे । जैनेतिहास रत्नाख्यं विरुद प्राप्तवान् महत् ||४२|| अल्यादिगजेऽखिल विश्वजेन सस्थागरी विज्ञजनैः प्रदत्तः । यस्ता उपाधितरणीय एवं विद्यादिशोभी किल वारिध्यन्तः ||४३|| आरानगय गुणिवर्समध्ये सम्मानितो यः किल राज्यपालैः । सिद्धान्युक्ते भतने पुराणे सिद्धान्त प्राचार्य पदेन मान्यः ॥ ४४||
ग्रन्थाः सम्पादिता येन भूमिकालो चनायुताः । अप्रमत्तः सदा विज्ञो हाम्रान्तः शास्त्रशीलने ।।४५ श्रमिकनपुराधीश शार्दूलसिंह भूमिपे स्थापितं शोधसंस्थान राजस्थान्यां यशस्करम् ||४६ || निदेशकपदं तत्र प्राप्य मान्य प्रशस्तकम् । व्याख्याता लिखिताश्चैव ग्रन्थास्तेन महद्धिकाः ॥४७॥ श्रेष्ठिनो मेरुदानस्य रत्नत्रयीव सुतत्रयी भंवर हर्षचन्द्रश्च सप्त सुपुत्रका जाता पेपा इचर्ज-संपदः । छोटा बाधू पुन पांची वसु-दर्शनांके चन्द्रे शुभे आश्विन नासके । अश्लेषायुतद्वादश्यां जन्म मंगलवासरे || ५०||
।
विमलचन्द्रकस्तथा ॥४८
कमलाबाईति सप्तमी ||४९||
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श्रेष्ठिनो लक्ष्मिचन्द्रस्य दत्तको भंवरलालकः । भाषा-लिपि-पुरातत्त्व-कथा-साहित्य लेखकः ||५|| अग्रचन्दस्य सहायः कार्ये शीघ्रगतिः पुनः । सम्पादिताः कृता ग्रन्था बहुला वै अनूदिताः ।।५२।। पुत्रः पावकुमारोऽभूत् एम० काप० उपाधिकः । द्वितीयः पद्मचन्द्रश्च पौत्रः पौत्री तथैव च ॥५३||
श्रीकान्ता-चन्द्रकान्तेति जाता च पुत्रिकाद्वयी ।
सुशील-सुनीलवरौ समीरच राजेशकः ॥५४।। सुतास्तुर्या हर्षचन्द्रो ललिताशोकदिलीपाः । प्रदीपाख्यश्चिरञ्जीवी विद्याध्ययनतत्परः ॥५५।। श्रेष्ठिश्रीशुभराजस्य तनसुखोऽतिप्रियः । तनयः प्रकाशाभिधः पुत्रिके प्रतिभाप्रभे ॥५६।।
आत्मजौ मेघराजस्य केसरि वंशिलालकौ । तनसुखः कनिष्ठश्च जाताः पञ्च सुताः शुभाः ॥५७।। भँवरी-सूरज-पुष्पा-माणकदेवी च निर्मला। नीलम-प्रेमा-ताराश्च, पौत्र्यः, पौत्री देवेन्द्रकः ।।५८|| अग्रचन्द्रमनस्विनः द्वौ सुतौ पञ्च पुत्रिकाः। धर्मचन्द्रो विजयश्च ज्येष्ठी शान्तिश्च कन्यके ।।५२|| किरणसन्तोषकान्ताश्च पौत्री राजेन्द्रनामकः ।
चिरं नन्दतु सद्वंशः नाहटा वटवृक्षवत् ।।६०|| पुनश्च बुधमल्लस्य त्रिलोक-तेजकर्णाभिधौ सुतौ । रेखचन्द्रस्तुलारामस्तेजकर्णस्य द्वौ सुतौ ॥६॥ बालचन्द्रो द्वितीयस्य छगनीनाथीति सूते । सत्पुत्रो बालचन्द्रस्य मनोहरः स्वर्गतः ॥६२|| मोहिनी विदुषी पुत्री सद्वैराग्ये च दीक्षिता । पावें विचक्षणश्रियश्चन्द्रप्रभेति विश्रुता ॥६३|| शब्दशास्त्र-कोश काव्यजैनागमानां पारगा । शतध्यात्री बोधदात्री शीलालङ्कारभूषिता ॥६४|
कीर्तिजुषो ग्रन्थालयः स्थापितो विश्वविश्रुतः।।
लिखित-मुद्रित ग्रन्थाः सन्ति यत्रार्धलक्षकाः ॥६५॥ मुद्रा-चित्र-पुरातत्त्व-मुतिसत्कः सुसंग्रहः । श्रेष्ठशंकरदानस्य कलाभवने प्रदर्शितः ॥६६॥ तयोरेव शुभनाम्ना कृतः सुकृतकोषकः । सप्तक्षेत्रे सुपुण्यस्य वृद्धयर्थं सुमहाशयः ॥६७|| जलालसरसुग्रामे ग्रामे डाँसरे तथा । कारितौ सजलौ कूपौ परोपकृतिहेतवे ॥६८।। ग्रामे जामसरे शुभे धर्मशालापि कारिता । शिक्षालयेभ्यश्च दत्तो. द्रव्यराशिर्मुहुर्मुहुः ॥६९|| श्रीजिनकृपाचन्द्राख्य-सूरीन्द्रसदुपाश्रये । जीर्णोद्धाराद्विस्तीर्ण व्याख्यानगृहं कारितम् ||७|| शत्रुञ्जये जिनदत्त-ब्रह्मचर्याह आश्रमे । कारितो हॉलः पुण्यार्थ, राजगृहपावापुरे ॥७१।। आदिनाथप्रमोश्चैत्ये. नाहटागापाटके । गर्भगृहे सुमनोज्ञ संगमर्मरः कारितः ||७२।। रजतमयी सदङ्गी पुनर्भक्त्यर्थ ढौकिता । नानापुण्यकार्येषु च दत्तमना अहनिशम् ॥७३|| अमृतसर 'दा' वाट्या रूप्यकाणि सहस्रशः । अन्येष्वपि स्थानेषु च सत्कार्येषु वै दत्तवान् ।।७४।। मणिसागरोपाध्यायान् सुगुरुनाकार्य पुनः । वर्षा-सुवासद्वयं च कारयामास भक्तितः ॥७५|| तीर्थराजो विमलाद्रे रुपत्यकायां श्रद्धया । कारापिता धर्मशाला जैनभवनं विश्रुतम् ॥७६।।
[स
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श्रीजगजीवनाश्रमे कोलायते गृहद्वार । निर्मितं भूरिदानेन भूरिकीत्तिश्चीपाजिता ७७|| पार्श्वनाथप्रमोश्चैत्ये आसामे ग्वालपाटके । कारिता श्रीमहासिंहकोष्टागारिकादि सह ||७|| कृतमुद्धारप्रतिष्ठाञ्च ध्वस्तालयभूकम्पया । जयचन्द्रोपाध्यायेन दानमल्ले उपस्थिते ॥७९|| ठाकुरवाडीसम्पत्तिवृत्तिमर्यादा च शुभा । कारिता शंकरदानेन स्वयं महत्परिश्रमैः ॥८॥ डाण्डूसर-जोधासर-महाजनादिपुराणां । कृत्वा हि राजपुत्राणां साहाय्यं संचित यशः ॥८॥ कालिकातापुर्या जैन भवने प्रचुरं धनं । दत्तं गवालपाड़े च औषधालयहेतवे ||२|| अभयग्रन्थमालायां नानाग्रन्थाः प्रकाशिताः । अल्पमूल्या अमूल्याश्च सर्वोपकृत हेतवे ॥८३|| अभयरत्नसारश्च पूजासंग्रहनामकः । सतीमृगावतीसंज्ञो विधवाकृत्यतुर्यकः ॥८४ जिनराजभक्त्यादर्शः स्नात्रपूजेति पुस्तिका | भक्तिकर्तव्यात्मसिद्धि-दर्शनीयमन्दिराह्वाः ।।८।। जिनचन्द्रसूरिवृत्तं बुधश्लाघ्यं सत्शोधकं । ऐतिह्यकाव्यसंग्रहो वृत्तं सोमसंघपतेः ।।८६|| श्रीजिनकुशल सूरमणिधारिणश्च पुनः । गुरोजिनत्तसूरेश्चरितं वैदुषीयुतम् ॥८॥ कुसुममाला तथैव ग्रन्थावलिः ज्ञानसारः । रत्नपरीक्षा रामाय(णं) काव्यत्रयी जीवदया ।।५८|| बीकानेर-जैन-लेख-संग्रह-नामको ग्रन्थः । त्रिसहस्रलेखात्मको विस्तृतभूमिकायुतः ॥८९|| गुरोः सहजानन्दस्य संकीर्तनं सदुत्तमं । एते स्वकीयसंस्थया ग्रन्थाः सर्वे प्रकाशिताः ॥९॥ पुनरपि श्रीमद्देव-चन्द्रग्रन्थमाला शुभा । स्थापिता द्विशताब्द्यन्ते श्रीजिनभक्तिभावतः ॥९१।। चौबीसी-बीसी-स्तवाश्च सार्थाः पंच सुभावनाः । अष्टक-प्रवचनाली सार्थः स्वाध्यायसंग्रहः ||९२।। चत्वारश्चरितग्रन्थाः कृता बुद्धिमुनिना । बुधेन लब्धि मुनिना काव्यानि च निर्मितानि ।।१३।। अगरचन्द्रेण कृता बद्धा भवरलालेन। शार्दूलसंस्थया ग्रन्थाः काले काले प्रकाशिताः ॥९|| समाशृङ्गारउद्योतो जसवन्तादिभक्तमा(लकः) । राजगृह-कायमरासो फेरूग्रन्थावली च ॥९५।। राजस्थाने हस्तलेखा खण्डद्वये प्रकाशिताः । निर्मिता च प्राचीना काव्यरूपपरम्परा ||९६|| जिनराजेण प्रणीता कुसुमाञ्जलिर्विश्रुता । धर्मवर्द्धन-जिनहर्ण, सीतारामचतुष्पदी ॥९७|| कविसमयसुन्दर कृताः रासाश्च पंचकाः । हम्मीरायण पद्मिनी-पीरदान ग्रन्थावली ।।९८|| कालिकाता-शान्तिचैत्यसार्धशताब्दिकायां च । स्मारिकेतिवृत्तसत्का सम्पादिता ज्ञानप्रदा ||९९||
चन्द्रांकनिधिवसुचन्द्र (१८९१) ग्वालपाडास्थानके।
ब्रह्मपुत्रनदीतीरे सद्व्यापारश्च स्थापितः ॥१००।। उदय-राजरूपकौ सुप्रसिद्धौ महीतले । पश्चाच्चापड़े स्थाने च राजरूपलक्ष्मीचन्द्रौ ||१०१।। वसुबाणांकचन्द्राब्दे (१९५८) विपगि स्थापितवन्तौ । पश्चादभयकरणागरचन्द्रनाम्ना पुनः ॥१०२।। इन्द्रियदर्शननिधिचन्द्र बोलपुरे वरे । शान्तिनिकेतने शुभे व्यापारालयः स्थापितः ।।१०३।। एकोनसप्ततिवर्षे कालिकातापुरे वरे । राजरूप भेरूदाननाम्ना व्यापारः स्थापितः ॥१०४।। शून्यसिद्धय के चन्द्रे च श्रीहट्ट स्थापना कृता । मेघागरचन्द्रनाम्न शुभफलदायिनः ।।१०।। चन्द्रांके बावरहाटे अगरचन्द्र नाहटे । तिनाम्नाढतदारी च कृता कर्पटहट्टिका ॥१०६।। द्विसहस्राब्दे द्वय तरे हाथरसामृतसरश्रीचरकरीमोगंजादिषु व्यापारः स्थापितः ।।१०७।। मोहमय्यां कलकत्तायां हट्टिकादि व्यापारकः । त्रिपुरे आउट् एजन्सी संचालिता बृहत्तरा ||१०८।। प्रशस्ति मालिका एषा सुधीजनसदाग्रहात् । कृता भंवरलालेन गीर्वाणभाषया मुदा ॥१०९|| त्रयपक्षखयुग्माब्दे ज्येष्ठ शुक्ल सुवासरे । एकादश्यां विक्रमारव्ये सत्पुरे निर्मिते वरे ॥ ११०॥
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आमन्त्रित शोध निबन्ध
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इस संस्कृति के लोग भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए देव-शक्तियों पर आश्रित रहने वाले थे, इनके द्वारा यज्ञ में पशुबलि दी जाती थी, इनका जीवन संघर्षमय व अ-सुरक्षा भावना से ग्रस्त था। दैनिक जीवन में और शत्रुओं के प्रति व्यवहार में वे पूर्णतः अहिंसक नहीं कहे जा सकते। कहीं कहीं तो इनकी क्रूरता के उदाहरण भी दृष्टिगोचर होते हैं।
ठीक इसके विपरीत, देश में पर्यटनशील व्रात्य लोगों
की परम्परा विद्यमान थी, जो व्रतनिष्ठ एवं अहिंसा भारतीय संस्कृति और जैन
धर्म के आराधक थे, जिनका विश्वास आत्म-कल्याण व
आत्म-शुद्धि में था। यह परम्परा भी, बहुत सम्भवतः धर्म-साधना
सिन्धु घाटी की सभ्यता के निर्माताओं की तरह, श्रमण
संस्कृति की अनुयायी थी। -डॉ० दामोदर शास्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, दिल्ली
देवों और असुरों के मध्य हुआ संघर्ष भी एक प्रकार से दो संस्कृतियों या जातियों के मध्य था । विद्वानों
का अनुमान है कि असुर राजा प्रायः अहिंसक जेन संस्कृति आर्य सभ्यता के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो एक
' से सम्बद्ध थे। यह बात और है कि विद्वष के कारण तथ्य प्रकट होता है कि वैचारिक प्रतिद्वंद्विता की स्थिति
'असुर' शब्द को 'हिंसक' का पर्यायवाची बना दिया प्राचीन काल से है। भारत भूमि दो प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी
गया। विष्णपुराण के अनुसार असुर लोग आहेत धर्म विचार-धाराओं या संस्कृतियों की संगम-स्थली रही है।
के अनुयायी थे । उनका अहिंसा में पूर्ण विश्वास ये संस्कृतियां हैं-वैदिक संस्कृति और श्रमण ( जैन )
था। यज्ञ व पशुबलि में उनकी अनास्था थी।४ श्राद्ध संस्कृति ।
व कर्मकाण्ड के वे विरोधी थे।५ महाभारत में असुर हड़प्पा व मोहन-जो-दड़ो की सभ्यता के अवशेषों से
राजा बलि अपने मुख से आत्म-साधना का जो वर्णन यह सिद्ध हो गया है कि इस सभ्यता के निर्माता लोग
करता है वह जैन धर्म के सर्वथा अनुकूल है । ६ जैन धर्म के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के अनुयायी तथा यौगिक ध्यानादि क्रियाओं द्वारा आत्म-साधना के उपासक जैन संस्कृति के तीर्थंकरों की परम्परा ने भारतीय थे। इस संस्कृति के समानान्तर दूसरी संस्कृति थी- समाज को समय-समय पर जो सद्ज्ञान दिया, उसका वैदिक संस्कृति । वेद में स्थान-स्थान पर वैदिक देवताओं प्रभाव यह हुआ है कि वैदिक संस्कृति में भी अहिंसा धर्म के प्रति की गई प्रार्थनाओं से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि को बहुमान मिलता गया। वीतराग धर्म के प्रति वैदिक । द्र० अथर्व वेद, २/५/३ । २ द्र० विष्ण पुराण, ३/१७-१८ ; देवी भागवत ४/१३/५४-५७; मत्स्य पुराण, २४/४३-४६; पद्म पुराण
(सृष्टि खण्ड), १३/१७०-४१३ । ३ विष्णु पु०, ३/१८/२६ । ४ विष्णु पु०, ३/१८/२७-२८ । ५ विष्णु पु०, ३/१८/२६-३० । ६ महाभारत ( शान्ति पर्व ), २२७ अ० (गीता प्रेस)।
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फलस्वरूप व्याव
संस्कृति के अनुयायी भी आकृष्ट हुए । सम्भवतः प्रारम्भ में उन अनुयायियों के प्रति वैदिक संस्कृति के लोगों के मन में अनादर का भाव रहा है, किन्तु कालान्तर में समन्वय का रास्ता अपना कर उदार दृष्टिकोण का परिचय दिया गया । दोनों ही संस्कृतियों में परस्पर वैचारिक आदान-प्रदान बढ़ता रहा । हारिक जीवन के आचार-विचारों की दृष्टि से दोनों संस्कृतियों में मौलिक फर्क कर पाना प्रायः मुश्किल हो जाता है । अहिंसा परम धर्म है, राग-द्वेषादि सांसारिक दुःख के हेतु हैं, मनोविकारों पर विजय तथा शुद्ध आत्मतत्व की उपलब्धि से मुक्ति प्राप्त हो सकती है —— इत्यादि बातें दोनों संस्कृतियों में लगभग समान आदर व दृढ़ता के साथ स्वीकारी गई ं, और यही कारण है कि उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता, पुराण आदि वैदिक संस्कृति के परवर्ती आदरणीय ग्रन्थों में जैन संस्कृति के स्वर स्थल - स्थल पर ढूंढ़े जा सकते हैं ।
अपने उच्च आदर्शों के कारण जैन ( श्रमण ) संस्कृति भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग बन गई। यही कारण है कि वैदिक धर्म की अपेक्षा पुरुषार्थ- कर्तव्यता के रूप में जैन धर्म को अधिक आदरणीय स्थान मिला, जिसका प्रमाण निम्नलिखित पद्य है
यहाँ तक कि भगवान् राम को भी एक वैदिक संस्कृति के ग्रन्थ में शांति प्राप्ति हेतु जिनेन्द्र की आत्मसाधना का अनुकरण करने की भावना प्रकट करते हुए वर्णित किया गया है
७
〃
श्रोतव्यः सौगतो धर्मः, कर्तव्यः पुनरार्हतः । वैदिको व्यवहर्तव्यः, ध्यातव्यः परमः शिवः ॥७
९
षड्दर्शनसमुच्चय पर मणिभद्रकृत टीका ( पद्य ८ पर)।
योगवाशिष्ठ ( वैराग्य प्रकरण ), १५/८ ।
ऋग्वेद, १०/१४, ४/५३/२, १०/१२/१ ।
१२ ऋग्वेद, १०/३३/६, १०/८२/७, १०/८२/३
१३ ऋग्वेद, १२/१२/१-७ ( पृथ्वी सूक्त ) ।
२ ]
नाह रामो न मे वांछा, भावेषु च न मे मनः । शांतिमासितुमिच्छामि, स्वात्मनीव जिनो यथा ॥
वैदिक संस्कृति का प्रारम्भ में लक्ष्य जिस स्वर्ग की प्राप्ति था, " उस स्वर्ग का वातावरण भौतिक समृद्धि, कामसुख, भोगलिप्सा का प्रतीक होते हुए भी, वासनाअतृप्ति, अशांति तथा विनश्वरता से मुक्त नहीं समझा गया और परवर्ती काल में वैदिक संस्कृति का लक्ष्य स्वर्ग के स्थान पर पुण्य-पाप से परे की मुक्त स्थिति हो गया। १० इसी तरह यज्ञ का स्वरूप क्रमशः अहिंसक होता गया और 'द्रव्य-यज्ञ' की अपेक्षा 'ज्ञान-यज्ञ' को प्रमुखता मिल गई । १ १ यह सब जैन संस्कृति का वैदिक संस्कृति पर प्रभाव ही था ।
किन्तु दोनों संस्कृतियों में मूलभूत अन्तर समाप्त हो गया हो ऐसी बात नहीं। संक्षेप में वह अन्तर मूलतः दो बातों में है । जहाँ वैदिक संस्कृति ईश्वर या किसी अलौकिक शक्तिधारी व्यक्ति को इस जगत् का कर्त्ता, हर्ता व नियन्ता मानती है, वहीं जैन संस्कृति, ईश्वर का अस्तित्व मानती हुई भी, ईश्वर के सृष्टिकर्तापन का निषेध करती है और जगत के मूलभूत दो तत्वों'जीव व अजीव में अन्तर्निहित स्वभाव-भूत शक्ति से ही जगत् का नियमन स्वीकारती है । दूसरी बात यह कि जहाँ वैदिक संस्कृति में जिन देवताओं को पूज्य माना जाता रहा है, उनकी पूज्यता उनकी चमत्कारिक शक्ति, विविध सुख-साधन, ऐश्वर्य तथा व्यावहारिक सामाजिक गुणों आदि पर आधारित है, किन्तु जैन संस्कृति में पूज्यता की कसौटी व्यक्ति की 'वीतरागता' है । वेदों में जिस देव-शक्ति को अलंघ्य, दुर्ज्ञेय, जगत्-विधाता, १२ तथा पृथ्वी - रक्षक १३ बता कर स्थल - स्थल पर प्रार्थना आदि
१० मुण्डकोपनिषद्, ३/१/३, १/२/७३ ।
११
महाभारत (शान्ति पर्व), १२ / २७२ ; भागवत पुराण, ११ / ५ / ११-१३; गीता०, ४/३३ ।
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की गई है, जिस देव समाज का अनुकरण करने की १४ है। वह 'धर्म' धार्मिक बाह्य क्रियाकाण्डों की अपेक्षा तथा उससे सख्य-भाव 'मैत्री' स्थापित करने की१५ आत्मा की स्वाभाविक स्थिति में निहित है। और वह कामना की गई है, उस देव-समाज का परवर्ती रूप जो स्वाभाविक स्थिति उसकी वीतरागता, समता-भाव है। व्याख्यात हुआ है वह रागद्वेषयुक्त समाज से भिन्न नहीं। वीतराग स्थिति में पहुँच कर आत्मा स्वयं 'धर्म' का रूप किन्तु जैन संस्कृति में जिन पंच-परमेष्ठियों को पूजनीय बन जाता है । १७ संक्षेप में धर्म करने की वस्तु नहीं, देव रूप में आदर प्राप्त है, वे वीतरागता की मूर्ति हैं। बल्कि 'जीने की' वस्तु है। धर्म किया नहीं जाता है,
वह साधक की स्वाभाविक क्रिया बन जाए, इसी के लिए भगवान महावीर के समय की परिस्थिति :
साधक प्रयत्नशील रहता है। दूसरे शब्दों में धर्म ऊपर भगवान महावीर के समय में वैदिक संस्कृति में जो से या बाहर से थोपी जाने वाली चीज नहीं, वह तो बुराइयाँ व्याप्त थीं, उनमें जातिप्रथा, अस्पृश्यता, उच्च- स्वयं से उदभूत होने वाली स्थिति है। चारित्र को आत्मा नीच की भावना, आडम्बरपूर्ण धार्मिक क्रिया-काण्ड, से जोड़ने से तात्पर्य यह भी है कि धर्म बाहर-भीतर एक अन्ध श्रद्धा आदि प्रमुख थीं। इसके अतिरिक्त बुद्धिजीवी है, चिन्तन, और आचार में एकरूपता आवश्यक है ।१८ समाज की स्थिति भी सन्तोषप्रद नहीं थी। यद्यपि वैचा- जैन धर्म या साधना का आचरण स्वाभाविक रूप से रिक उर्वरता अधिक मात्रा में थी, पर विभिन्न दार्शनिक ही किया जाना चाहिए । अर्थात क्षेत्र और काल को तथा मतवाद परस्पर-विरोध से स्वयं अप्रतिष्ठित हो रहे थे।१६ साधक की शक्ति को ध्यान में रखकर धर्म-अधर्म के भगवान महावीर ने जगत् को 'अनेकान्त दृष्टि' दी और व्यवहार-पक्ष का मान-दण्ड नियत किया जाना उचित अहिंसा को व्यावहारिक जगत् के साथ-साथ वैचारिक है। अन्यथा 'धर्म' किसी व्यक्ति के लिए अस्वाभाविक जगत में भी प्रतिष्ठित कर दिया। इस प्रकार एक ओर भी हो सकता है। बालक, वृद्ध, स्वस्थ, रोगी-इन साम्यवाद व परस्पर-मैत्री पर आधारित समाज की रचना विविध अवस्थाओं में धर्म का एक स्वरूप निर्धारित नहीं तो प्रस्तुत हुई ही, साथ ही दूसरी ओर विविध वैचारिक किया जा सकता ।१९ किन्तु सभी प्रकार के साधकों को दृष्टिकोणों को परस्पर अविरोधपूर्वक फलने-फूलने का अंत में पहुंचना एक ही स्थिति में है, ऐसी स्थिति जहां वातावरण भी तैयार हुआ। फलस्वरूप, भारतवर्ष धर्म और साधक दोनों एकरूपता प्राप्त कर लेते हैं। बौद्धिक व वैचारिक उत्कर्ष को लिए बंजर भूमि न इसलिए अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने से पूर्व सारी स्थितियां बनकर सर्वदा उर्वर भूमि बना चला आ रहा है । साधन-मात्र हैं, साध्य नहीं। जैन धर्म व्यवहार्य :
अहिंसा-धर्म का स्वरूप : जैन ध. ऐसा नहीं है कि जिसका व्यवहार या आचरण
हिंसा का हेतु हिंसा करने वाले व्यक्ति के मन में बैठा
हिसा का हतु हसा करन सम्भव न हो, बल्कि वह तो आत्मा का स्वाभाविक रूप द्वष और अज्ञान 'मोह' है ।२० हिंसा की क्रिया द्विविध
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१४ ऋग्वेद, १०/१६१/२; अथर्व वेद, ५/१६/७ (पप्पलाद शाखा)। १५ ऋग्वेद, १/८६/२। १६ अन्ययोगव्यबच्छेदिका ( हेमचन्द्र ), २६ । १७ प्रवचनसार, १/६२ । १८ प्रवचनसार, ३/३७; तुलनीय उत्तराध्ययन, २६/५.१ । १९ प्रवचनसार, ३/३०-३१ । २. प्रवचनसार, २/५७, ८३, ८८, ६६ ।
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रूप से होती है। स्व-हिंसा और पर-हिंसा। हिंसा का असुभोपयोग हैं, जिन्हें किसी भी प्रकार उपादेय नहीं विचार उठते ही हिंसक व्यक्ति की आत्मा स्वरूपच्युत हो समझना चाहिए। इस स्थिति से ही तो ऊपर उठना जाती है और वह स्वयं का वध कर लेता है । इसके अनन्तर जैन साधना की प्रारम्भिक अवस्था है। वीतरागता की 'पर-जीव' के प्राणों का घात होता है। कभी-कभी स्थिति शुद्धोपयोग है जो मोक्ष का साक्षात कारण है और हिंसा का विचार मन में उठकर रह जाता है या पर-जीव साधना की सीमा है। साधना में विषयराग को छोड़कर . का हिंसा का प्रयास सफल नहीं हो पाता-ऐसी स्थिति स्वधर्म तथा धर्मोपयोगी साधनों के प्रति अपने को अनुरक्त में भले ही व्यावहारिक रूप से हिंसा न दिखाई पड़े, करना पड़ता है। इस स्थिति में साधक में स्वभावतः वैचारिक दृष्टि से हिंसक व्यक्ति की आत्मा की हिंसा तो हो पंच-परमेष्ठी आदि में भक्ति का भाव रहता है। जीवों ही गई और हिंसा का फल उस व्यक्ति को मिलेगा ही। पर दया, अनुकम्पा, करुणा आदि के भाव भी यथासामग्री
साधक में उत्पन्न होते हैं। यह सारी स्थिति शुभोपयोग इस प्रकार हिंसा के दो भेद हैं-अन्तरंग हिंसा, और
रूप कही जाती है। यह शुभोपयोगी स्थिति अशुभोबहिरंग हिंसा । अशुद्धोपयोग अन्तरंग हिंसा और पर-जीव
पयोगी स्थिति की अपेक्षा उपादेय या प्रशस्त कही जा का प्राणोच्छेद बहिरंग हिंसा है। किन्तु बहिरंग हिंसा के
सकती है, किन्तु साधक का कर्तव्य है कि वह इस स्थिति कर्म का बन्ध कारक होना या न होना अन्तरंग हिसा पर को संसार-बन्ध का कारण समझते हुए शुद्धोपयोग की निर्भर है। २२ अन्तरंग हिंसा के अभाव में बहिरंग हिंसा
स्थिति पर पहुंचने के लिए प्रयत्नशील रहे । २३ शुभीका कुफल व्यक्ति को नहीं भोगना पड़ेगा। इसीलिए
पयोग से भले ही पुण्य मिलता हो, किन्तु पुण्य प्राप्त कहा गया कि यतनापूर्वक ( समिति ) आचरण करने वाले स्वर्गादि का सख भी एक दृष्टि से बन्धन ही है । २४ साधक को व्यावहारिक हिंसा के होने पर भी बन्ध नहीं
यदि शुभोपयोग की स्थिति भी सम्यक्त्व से आलोकित हो होता, जबकि यतनापूर्वक आचरण न करने वाले को तो परम्परा से मोक्ष प्राप्त होना कहा गया है। २५ बाह्य हिंसा न होने पर भी, स्वात्म-घात का दोष लगेगा
शभोपयोग की स्थिति में यदि मोहयस्तता हो तो शुद्धात्मही। अंतरंग हिंसा के अभाव में बहिरंग हिंसा स्वतः
प्राप्ति असम्भव है ।२६ इसके विपरीत, शुद्धोपयोग को अप्रतिष्ठित हो जाएगी।
लक्ष्य कर आगे बढ़ने वाला साधक, शुभोपयोग की प्रवृत्ति
करता हुआ भी दोषग्रस्त नहीं होता। व्यवहार धर्म और वीतरागता की साधन :
यद्यपि वीतरागता की स्थिति ही साधक का लक्ष्य है, मुनि अवस्था में साधक शुभोपयोग करता हुआ भी किन्तु वहाँ तक पहुंचने में कई सीढ़ियाँ पार करनी पड़ती अपने संयम का घात न हो-इसका विशेष ख्याल रखता है, मोह, राग और द्वेष के स्तर को क्रमशः भेद कर ही है।२७ साथ ही वह शुभोपयोग को कभी मुख्यता प्रदान बढ़ना सम्भव है। हिंसा, द्वेष, अपकार आदि कार्य नहीं करता, शद्धोपयोग की तुलना में गौण ही रखता
२१ द्र० प्रवचनसार, २/५७ पर जयसेनाचार्य कृत टीका; कार्तिकेयानुप्रेक्षा, २/३१ । २२ प्रवचन सार, ३/१७ पर अमृतचन्द्र कृत टीका ।
प्रवचन सार, १४६, १/५, १/१९, ३/५४ पर अमृतचन्द्र कृत टीका। २४ समयसार, ३/१४६ ; प्रवचनसार १/७७ । २५ रयणसार, १०; प्रवचनसार, ३/५५ पर जयसेन कृत टीका । २६ प्रवचनसार, १/७६ ।
प्रवचनसार, ३/५० ।
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है ।२८ प्रशस्त राग की पात्रता-अपात्रता भी फल की इसीलिए, सम्भवतः करुणा को मोह का चिह्न बताया अनुकूलता-प्रतिकूलता की 'अल्पता-अधिकता' करती गया है।३३ जब कि सभी जीवों में आत्मा एक जैसी है । २९ गृहस्थ ( सागार ) साधक की दृष्टि में शुभोपयोग है तो उनमें छोटे-बड़े, ऊँच-नीच की भावना लानाकी स्थिति 'अशुभोपयोग की तुलना में' मुख्य रूप से 'अज्ञान' ही कहा जाएगा।३४ परमार्थतः तो सांसारिक ग्राह्य है। शुभोपयोग में स्थिरता के अनन्तर ही वह पदार्थ, यहाँ तक कि अपना शरीर भी स्थायी नहीं, अतः शुद्धोपयोग के प्रति अग्रसर हो सकता है, इसीलिए कुछ उनके आधार पर स्वयं को उच्च तथा दूसरे को नीच विचारक 'सराग चारित्र' को वीतराग चारित्र में साधन समझना असंगत ही है ।३५ इसके अतिरिक्त, दानादि मानते हैं ।३० किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव अपने पद के अनुरूप कार्यों में कतृ त्व-भावना भी त्याज्य है, क्योंकि पारमार्थिक पुण्याचरण करता हुआ वीतराग चारित्र में रहता हुआ, दृष्टि से कोई द्रव्य किसी ‘पर द्रव्य' का कर्ता ही नहीं उसका दिव्य वैभव फल भोगता हुआ भी पुण्याचरण होता ।३६ कोई भी देव या मनुष्य हो, किसी का न तो को मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं मानता, उस प्राप्त वैभव । उपकार कर सकता है और न अपकार ही।३७ अपने को स्वपद नहीं स्वीकारता। .
शुभाशुभ कर्म ही अपना शुभ या अशुभ करते हैं। मैं व्यवहार-धर्म करते हुए भी व्यवहार से ऊपर उठना कैसे किसी को मारता हूँ या जिलाता हूँ-यह भावनाएं सम्भव:
'मूढ़ता' हैं ।३८ करुणा, अनुकम्पा, दया आदि कार्य प्रशस्त होते हुए उक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि अनु- भी शुभोपयोग वीतरागता की तुलना में कुछ नीची स्थिति कम्पा, दया, करुणा आदि कार्य किए तो जाएँ,३९ किन्तु के द्योतक हैं । ३१ इसका कारण यह है कि इन कार्यों में ममत्व, कतृत्व तथा अहंभावनाओं को निकाल कर ।४० 'राग' भाव है जो बन्ध का कारण कहा गया है । ३२ जव इसीलिए व्यवहार-धर्म के आचरण के विषय में आचार्यों कोई व्यक्ति किसी पर दया, करुणा आदि प्रदर्शित करता का निर्देश है कि ये पुण्य-प्राप्ति हेतु न किये जाएँ ।४१ है तो उसके मन में किसी को दयनीय समझने की, तथा इस निर्देश को ध्यान में रख कर साधक व्यावहारिक पर-उपकार करने के स्वसामर्थ्य को प्रदर्शित करने की धरातल से ऊपर उठता हुआ क्रमशः शुद्धात्म-प्राप्ति के भावना होती है, यह भावना अज्ञानमूलक होती है। लक्ष्य तक पहुँच जाएगा। निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, २८ प्रवचनसार, ३/५४ पर अमृतचन्द्र कृत टीका । २. प्रवचनसार, ३/५४ पर जयसेन कृत टीका । १० प्रवचनसार, ३/७५ पर जयसेन कृत टीका ; आत्मानुशासन, १२२ ।
प्रवचनसार, ३/४५ पर अमृतचन्द्र कृत टीका। ३२ प्रवचनसार, २/८७, ३/४३ ।
प्रवचनसार, १/८५।
प्रवचनसार, २/२२ । ३५ प्रवचनसार, २/१०१ । ३६ समयसार, ३/३१ (६६); प्रवचनसार, २/६८। ३७ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३१६ (१२/३१६ )। ३८ समयसार, ७/२५०, २५६ ; प्रवचनसार, १/७६ । ३९ उत्तराध्ययन, ६/२; पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ३०; सूत्रकृतांग, १/११-१२ । ४. पंचास्तिकाय, १६६ दशवेकालिक, ६/६ ।। ४१ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १२/४०६; भावसंग्रह, ४०४ ।
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ऐसी श्रद्धा के साथ शद्धात्म-प्राप्ति के अनुकूल चारित्र- ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं: पालन करने वाले साधक को मुक्ति मिलती है, अन्यथा यह लोक जीव तथा अजीव का क्रीडा-स्थल है।४५ प्रशस्त बाह्याचरण तो पुण्यबन्ध का कारण है। जो दोनों ही तत्व अनादि व अनन्त है ।४६ संसार की शुद्धात्मा को प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखते, और प्रक्रिया स्वभावतः होती रहती है। भौतिक जगत छोटेसर्वविधि पुण्यकार्य करते हैं, वे मोक्ष को तो पाते ही नहीं, बड़े पिण्डों का निर्माण व भंग उनमें निहित रूक्ष व. बल्कि संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं ।४ २
स्निग्ध शक्ति पर निर्भर है।४७ आत्मा के कर्म 'बन्ध'
का निर्माण भी पौद्गलिक शक्ति के कारण स्वतः सम्भव स्वरूप में पूर्ण स्थिरता न आने से शुभ राग की होता है ।४८ संसार में जीवों के सुख-दुःख का तारतम्य स्थिति हो भी, तो साधक को चाहिए कि वह निजात्म- भी कर्मकृत है।४९ इस प्रकार विश्व की व्यवस्था तत्वों स्वरूप में विशेष लीनता बनाए रखे। यदि इसमें में समाविष्ट नियमों के द्वारा होती है किसी ईश्वरीय कमजोरी रही तो उपशम श्रेणी से आरोहण करना होगा, शक्ति को नियामक आदि के रूप में मानने की कोई क्षपक श्रेणी से नहीं। ऐसी स्थिति में राग का सम्पूर्ण जरूरत नहीं। अभाव सम्भव नहीं होगा । अतः पुण्याचरण को भी साधक जैन दृष्टि से स्वयंभू तथा ईश्वर की स्थिति प्रत्येक 'स्व' भाव न समझे, विभाव रूप से ही माने ।
आत्मा को वीतरागता से प्राप्त हो सकती है ।५. किन्तु
इस स्थिति में आत्मा 'पर-पदार्थों' को न ग्रहण करता साधना करने वाले की अवस्था पर शभोपयोग की है, न छोड़ता है और न उनके रूप में परिणमन करता है मुख्यता व गौणता समझनी चाहिए। सम्यग्दृष्टि गृहस्थ अपितु स्वस्वरूपस्थित रहता है ।५१ यद्यपि जैसे दर्पण में
के लिए अशुभोपयोग के त्याग की दृष्टि से शुभोपयोग घटपटादि-पदार्थ प्रतिबिंबित होते हैं, वैसे ही व्यावहारिक . की मुख्यता है, किन्तु वही शुभोपयोग उच्च स्तर के दृष्टि से केवली के ज्ञान में ज्ञय पदार्थों की सत्ता है ।५२ साधक के लिए, शुद्धात्मपरिणति के लक्ष्य की दृष्टि से इस प्रकार जैन दृष्टि से ईश्वर संसार का नियामक गौण कहा जाएगा।४३ पहले साधक विषयों से अनुराग नहीं। प्रत्येक जीव वीतरागता प्राप्त कर ईश्वरीय महनीय छोड़ दे, फिर गुणस्थान-क्रम से बढ़ते-बढ़ते रागादि से पद प्राप्त कर सकता है ।५३ संसार के कार्यों में वीतराग रहित शुद्धात्मा में स्थित होता हुआ, अहेत आदि में की आसक्ति कभी हो ही नहीं सकती। उक्त ईश्वरत्व की भक्ति-विषयक राग भी छोड़ दे ।४४ ।।
शक्ति प्रत्येक आत्मा में निहित है।५४ ४ २ भावपाहुड़, ८४ ; समयसार, ३/१५३ ।
प्रवचनसार, ३/५४ पर जयसेन कृत टीका । ४ पंचा स्तिकाय, १६७ गाथा पर तात्पर्यवृत्ति टीका। ४५ प्रवचनसार, २/३७ ; २/४४ पर अमृतचन्द्र कृत टीका ; उत्तराध्ययन, ३६/२ ।
प्रवचनसार, २/३,११, २/६ पर अमृतचन्द्र कृत टीका । ४७ प्रवचनसार, २/७४-७५ ।
प्रवचनसार, २/७७-७८; पंचास्तिकाय, ६५ ।
प्रवचनसार, २/६५ पर अमृतचन्द्र कृत टीका । ५० प्रवचनसार, १/१६, १/१५; पंचास्तिकाय, २६,१७२।
प्रवचनसार, १/३२। प्रवचनसार, १/३१ पर आधारित जयसेन कृत टीका ।
प्रवचनसार, १/८१ । ५४ समाधिशतक, ९८%3 प्रवचनसार, १/१५ ।
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असमर्थ हैं । न केवल जैन धर्म अपितु सभी आध्यात्मिक धर्मों ने एकमत से इस तथ्य को स्वीकार किया है कि समस्त दुःखों का मूल कारण आसक्ति, तृष्णा या ममत्व बुद्धि है किन्तु तृष्णा की समाप्ति का उपाय इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं है। भौतिकवाद हमें सुख और सुविधा के साधन तो दे सकता है किन्तु वह मनुष्य की आसक्ति या तृष्णा का निराकरण नहीं कर सकता। इस दिशा में उसका प्रयत्न तो टहनियों को काटकर जड़ को सींचने के समान है। जैन आगमों में स्पष्टरूप से कहा गया है कि तृष्णा आकाश के समान अनन्त है, उसकी पूर्ति सम्भव नहीं है । ३ यदि हम मानव जाति को स्वार्थ,
हिंसा, शोषण, भ्रष्टाचार एवं तजनित दुःखों से मुक्त सन्दर्भ में
करना चाहते हैं तो हमें भौतिकवादी दृष्टि का त्याग करके -डॉ० सागर
आध्यात्मिक दृष्टि का विकास करना होगा। श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान, वाराणसी
अध्यात्मवाद क्या है ? मानव जाति को दुःखों से मुक्त करना ही भगवान महावीर का प्रमुख लक्ष्य था। उन्होंने इस तथ्य को गहराई किन्तु यहाँ हमें यह समझ लेना होगा कि अध्यात्मवाद से समझने का प्रयत्न किया कि दुःख का मूल किसमें है। से हमारा क्या तात्पर्य है ? अध्यात्म शब्द की व्युत्पत्ति . इसे स्पष्ट करते हुए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि अधि+आत्म से है अर्थात् वह आत्मा की श्रेष्ठता या समस्त भौतिक और मानसिक दुःखों का मूल व्यक्ति की उच्चता का सूचक है। आचारांग में इसके लिए कामासक्ति या भोगासक्ति है। यद्यपि भौतिकवाद मनुष्य 'अज्झतं.४ शब्द का प्रयोग है जो आन्तरिक पवित्रता की कामनाओं की पूर्ति के द्वारा दुःखों के निवारण का या आन्तरिक विशुद्धि का सूचक है। जैन धर्म के अनुसार प्रयत्न करता है किन्तु वह उस कारण का उच्छेद नहीं कर अध्यात्मवाद वह दृष्टि है जो यह बताती है कि भौतिक सकता, जिससे दुःख का यह स्रोत प्रस्फुटित होता है। सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही अन्तिम लक्ष्य नह भौतिकवाद के पास मनुष्य की कामासक्ति या तृष्णा को दैहिक एवं आर्थिक मूल्यों के परे उच्च मूल्य भी है और समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। वह इच्छाओं की इन उच्च मूल्यों की उपलब्धि ही जीवन का अन्तिम पूर्ति के द्वारा मानवीय आकांक्षाओं को परितृप्त करना लक्ष्य है। जैन विचारकों की दृष्टि में अध्यात्मवाद का चाहता है किन्तु यह अग्नि में डाले गये घृत के समान अर्थ है पदार्थ को परममूल्य न मान कर आत्मा को परमउसे परिशान्त करने की अपेक्षा बढ़ाता ही है। उत्तरा- मूल्य मानना। भौतिकवादी दृष्टि मानवीय दुःख और ध्ययन सूत्र में बहुत ही स्पष्टरूप से कहा गया है कि चाहे सुख का आधार वस्तु को मानकर चलती है। उसके स्वर्ण और रजत के कैलास के समान असंख्य पर्वत भी अनुसार सुख और दुःख वस्तुगत तथ्य है। भौतिकवादी खड़े हो जाये किन्तु वे मनुष्य की तृष्णा को पूरा करने में सुखों की लालसा में वस्तुओं के पीछे दौड़ता है और
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उत्तराध्ययन , ३२/६ । वही, ६/४८ । वही। आचारांग, ५/३६,५/२७ ।
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उनकी उपलब्धि हेतु चोरी, शोषण एवं संग्रह जैसी व्यक्ति की दृष्टि 'स्व' में नहीं अपितु 'पर' अर्थात पदार्थ में सामाजिक बुराईयों को जन्म देता है। इसके विपरीत केन्द्रित रहती है। वह 'पर' में स्थित होता है। यह जैन अध्यात्मवाद हमें यह सिखाता है कि सुख और दुःख पदार्थ केन्द्रित दृष्टि ही या 'पर' में स्थित होना ही भौतिकका केन्द्र वस्तु में न होकर आत्मा में है। जैन दर्शन के वाद का मूल आधार है । जैन दार्शनिकों के अनुसार ‘पर' अनुसार सुख-दुःख आत्मकृत हैं ।५ अतः वास्तविक आनन्द अर्थात् आत्मेतर वस्तुओं में अपनत्व का भाव और पदार्थ की उपलब्धि पदार्थों से न होकर आत्मा से होती है। को परम मूल्य मानना यही भौतिकवाद या मिथ्या दृष्टि उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्टरूप से कहा गया है कि 'आत्मा का लक्षण है । आत्मवादी या अध्यात्मवादी व्यक्ति की दृष्टि ही अपने सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है। वही पदार्थ-केन्द्रित न होकर आत्म-केन्द्रित होती है। वह आत्मा अपना मित्र है और वही अपना शत्रु है, सुप्रतिष्ठित को ही परम मूल्य मानता है और स्वस्वरूप या स्वभावदशा अर्थात् सदगुणों में स्थित आत्मा मित्र है और दुष्प्रतिष्ठित की उपलब्धि को ही अपनी साधना का लक्ष्य बनाता है। अर्थात दगणों में स्थित आत्मा शत्र है ।।६ आतुरप्रकरण इसे ही जेन पारिभाषिक शब्दावली में सम्यक दृष्टि कहा नामक जैन ग्रन्थ में अध्यात्म का हार्द स्पष्ट करते हुए गया है। भौतिकवाद मिथ्यादृष्टि है और अध्यात्मवाद कहा गया है कि 'शान और दर्शन से युक्त शाश्वत आत्म- सम्यक्दृष्टि है । तत्व ही मेरा है, शेष सभी बाह्य पदार्थ संयोग से उपलब्ध आत्मा का स्वरूप एवं साध्य : हुए हैं। इसलिए वे मेरे अपने नहीं हैं। इन संयोगजन्य यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठ सकता है कि उपलब्धियों को अपना मान लेने या उन पर ममत्व रखने जैनधर्म में आत्मा का स्वरूप क्या है ? आचारांग सूत्र के कारण ही जीव दुःख-परम्परा को प्राप्त होता है अतः में आत्मा के स्वरूप लक्षण को स्पष्ट करते हुए कहा उन सांयोगिक पदार्थों के प्रति ममत्व भाव का सर्वथा गया है कि 'जो आत्मा है वह विज्ञाता है और जो विसर्जन कर देना चाहिए। संक्षेप में जेन अध्यात्मवाद विज्ञाता है वही आत्मा है। इस प्रकार ज्ञाताभाव में के अनुसार देह आदि सभी आत्मेतर पदार्थों के प्रति स्थित होना ही स्व-स्वभाव में स्थित होना है। आधुनिक ममत्व बुद्धि का त्याग ही साधना का मूल उत्स है। मनोविज्ञान में चेतना के तीन पक्ष माने गये हैं-ज्ञानात्मक, वस्तुतः जहाँ अध्यात्मवाद पदाथे के स्थान पर आत्मा को भावात्मक और संकल्पात्मक। उसमें भावात्मक और अपना साध्य मानता है, वहाँ भौतिकवाद में पदार्थ ही संकल्पात्मक पक्ष वस्तुतः भोक्ताभाव और कर्त्ताभाव के परम मूल्य बन जाता है। अध्यात्मवाद में आत्मा ही सूचक हैं। जब तक आत्मा कर्ता ( doer ) या भोक्ता परम मूल्य होता है। जेन अध्यात्मवाद आत्मोपलब्धि के (enjoyer ) होता है तब तक वह स्व-स्वरूप को उपलब्ध लिए पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग आवश्यक नहीं करता है क्योंकि यहां चित्त विकल्प या आकांक्षा बनी मानता है। उसके अनुसार ममता के विसर्जन से ही रहती है। अतः उनके द्वारा चित्त-समाधि या आत्मोसमता (equanimity ) का सर्जन होता है।
पलब्धि संभव नहीं है। विशुद्ध ज्ञाताभाव या साक्षी भाव जैन अध्यात्मवाद का लक्ष्य आत्मोपलब्धि:
भी ऐसा तथ्य है जो आत्मा को निराकुल समाधि की जैनधर्म में ममत्व के विसर्जन को ही आत्मोपलब्धि का अवस्था में स्थित कर दुःखों से मुक्त कर सकता है । एकमात्र उपाय इसलिए माना गया है कि जब तक एक अन्य दृष्टि से जैनधर्म में आत्मा का स्वरूप व्यक्ति में ममत्व बुद्धि या आसक्ति भाव रहता है तब तक लक्षण समत्व (equanimity ) भी बताया गया है। ५ उत्तराध्ययन, २०३७ । ६ वही। ७ आतुर प्रकरण, २६, २७ । ' आचारांग, ५/१०४ ।
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भगवतीसूत्र में गौतम ने महावीर के सम्मुख दो प्रश्न उप- है। अतः जैनधर्म में समता को आत्मा या चेतना का स्थित किये-आत्मा क्या है और उसका साध्य क्या स्वभाव कहा गया है और उसे ही धर्म के रूप में परिभाहै? महावीर ने इन प्रश्नों के जो उत्तर दिये थे वे जैन । षित किया गया है। यह सत्य है कि जैनधर्म में धर्मधर्म के हार्द को स्पष्ट कर देते हैं। उन्होंने कहा था। साधना का मूलभूत लक्ष्य कामना, आसक्ति, राग-द्वेष और कि 'आत्मा समत्व स्वरूप है और समत्व की उपलब्धि कर वितके आदि मानसिक असन्तुलनों और तनावों को समाप्त लेना यही आत्मा का साध्य है। आचारांगसूत्र में भी कर अनासक्त और निराकुल वीतराग चेतना की उपलब्धि समता को धर्म कहा गया है। वहां समता को धर्म
माना गया है। आसक्ति या ममत्व बुद्धि का लक्ष्य राग
और द्वेष के भाव उत्पन्न कर व्यक्ति को पदार्थापेक्षी इसलिए कहा गया है कि वह हमारा स्व-स्वभाव है और वस्तु स्वभाव हीधर्म है-वत्थु सहावो धम्मो। जैन दार्शनिकों बनाना है। आसक्त व्यक्ति अपने को 'पर' में खोजता के अनुसार स्वभाव से भिन्न आदर्श की कल्पना अयथार्थ
है। जबकि अनासक्ति या वीतरागता व्यक्ति को 'स्व'
में केन्द्रित करती है । दूसरे शब्दों में जैनधर्म में वीतरागता है । जो हमारा मूल स्वभाव और स्वलक्षण है वही हमारा
की उपलब्धि को भी जीवन का परम लक्ष्य घोषित किया साध्य हो सकता है। जैन परिभाषा में नित्य और
गया है। क्योंकि वीतराग ही सच्चे अर्थ में समभाव में अथवा निरपवाद वस्तु धम ही स्वभाव है। आत्मा का स्व-स्वरूप साक्षी भाव में स्थित रह सकता है। जो चेतना समभाव
और आत्मा का साध्य दोनों ही समता है। यह बात या साक्षी भाव में स्थित रह सकती है वही निराकल दशा जीव-विज्ञान की दृष्टि से भी सत्य सिद्ध होती है। आधुनिक को प्राप्त होती है और जो निराकुल दशा को प्राप्त होती जीव-विज्ञान में भी समत्व के संस्थापन को जीवन का है वही शाश्वत सुखों का आस्वाद करती है। जैनधर्म . लक्षण बताया गया है। यद्यपि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में आत्मोपलब्धि या स्वरूप उपलब्धि को जो जीवन का 'समत्व' के स्थान पर 'संघर्ष को जीवन का स्वभाव लक्ष्य माना गया है वह वस्तुतः वीतराग दशा में ही सम्भव बताता है और कहता है कि 'संघर्ष ही जीवन का नियम है और इसीलिए प्रकारान्तर से वीतरागता को ही जीवन है, मानवीय इतिहास वर्ग संघर्ष की कहानी है।' किन्तु का लक्ष्य कहा गया है। वीतरागता का ही दूसरा नाम यह एक मिथ्या धारणा है। संघर्ष सदैव ही निराकरण समभाव या साक्षीभाव है। यही समभाव हमारा वास्तका विषय रहा है। कोई भी चेतन सत्ता संघर्षशील विक स्वरूप है। इसे प्राप्त कर लेना ही हमारे जीवन का दशा में नहीं रहना चाहती। वह संघर्ष का निराकरण परम लक्ष्य है । करना ही चाहती है। यदि संघर्ष निराकरण की वस्तु है तो उसे स्वभाव नहीं कहा जा सकता है। संघर्ष साध्य और साधना मार्ग का आत्मा से अभेद : मानव इतिहास का एक तथ्य हो सकता है किन्तु वह मनुष्य के विभाव का इतिहास है स्वभाव का नहीं। जैनधर्म में साधक, साध्य और साधनामार्ग तीनों ही चैत सिक जीवन में तनाव या विचलन पाये जाते हैं किन्तु आत्मा से अभिन्न माने गये हैं। आत्मा ही साधक वे जीवन के स्वभाव नहीं हैं, क्योंकि जीवन की प्रक्रिया है, आत्मा ही साध्य है और आत्मा ही साधना मार्ग है । सदैव ही उन्हें समाप्त करने की दिशा में प्रयासशील है। अध्यात्मतत्वालोक में कहा गया है कि आत्मा ही संसार चैतसिक जीवन का मूल स्वभाव यही है कि वह बाह्य और है और आत्मा ही मोक्ष है। जब तक आत्मा कषाय और आन्तरिक उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं से उत्पन्न विक्षोभों इन्द्रियों के वशीभूत है वह संसार है किन्तु, जब वह . को समाप्त कर समत्व को बनाये रखने का प्रयास करता इन्हें अपने वशीभूत कर लेता है तो मुक्त कहा जाता
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भगवती। आचारांग, ८/३१ ।
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है ।।१ आचार्य अमृतचन्द्रसूरि समयसार की टीका में सम्यक् दिशा में नियोजित होकर साधनामार्ग बन जाते लिखते हैं कि 'पर द्रव्य का परिहार और शद्ध आत्मतत्व हैं। जैन दर्शन में सम्यक ज्ञान. सम्यक की उपलब्धि ही सिद्धि है। १२ आचार्य हेमचन्द्र ने भी सम्यक् चारित्र को, जो मोक्ष मार्ग कहा गया है, उसका साध्य और साधक में भेद बताते हुए योगशास्त्र में कहा मूल हार्द इतना ही है कि चेतना के ज्ञानात्मक, भावात्मक है कि 'कषाय और इन्द्रियों से पराजित आत्मा बद्ध और और संकल्पात्मक पक्ष क्रमशः सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन - उनको विजित करनेवाजी आत्मा ही प्रबुद्ध पुरुषों द्वारा और सम्यक् चारित्र के रूप में साधनामार्ग बन जाते हैं। मुक्त कहा जाता है।'१३ वस्तुतः आत्मा की वासनाओं
इस प्रकार साधनामार्ग भी आत्मा ही है। आचार्य से युक्त अवस्था ही बन्धन है और वासनाओं और विकल्पों
कुन्दकुन्द कहते हैं कि 'मोक्षकामी को आत्मा को जानना से रहित शुद्ध आत्मदशा ही मोक्ष है। जैन अध्यात्मवाद
चाहिए, आत्मा पर ही श्रद्धा करनी चाहिए और आत्मा का कथन है कि साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं वरन् उसके अन्दर है। धर्म साधना के द्वारा जो कुछ पाया
की ही अनुभूति (अनुचरितव्यश्च ) करना चाहिए ।
सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, प्रत्याख्यान (त्याग), संवर (संयम) जाता है वह बाह्य उपलब्धि नहीं अपितु निज गुणों का
और योग सब अपने आपको पाने के साधन हैं। क्योंकि पूर्ण प्रकटन है। हमारी मूलभूत क्षमतायें साधक अवस्था
यहाँ आत्मा ज्ञान में है, दर्शन में है, त्याग में है, संवर में और सिद्ध अवस्था में समान ही है। साधक और सिद्ध
है और योग में है।' १४ व्यवहार नय से जिन्हें ज्ञान, दर्शन अवस्थाओं में अन्तर क्षमताओं का नहीं, वरन् क्षमताओं
और चारित्र कहा गया है, वे निश्चय नय से तो आत्मा को योग्यताओं में बदल देने का है। जिस प्रकार बीज
ही हैं। वृक्ष के रूप में विकसित होने की क्षमता रखता है और वह वृक्ष रूप में विकसित होकर अपनी पूर्णता को प्राप्त त्रिविध साधनामार्ग: कर लेता है वैसे ही आत्मा भी परमात्म दशा प्राप्त करने की क्षमता रखता है और उसे उपलब्ध कर पूर्ण हो जाता
मोक्ष की प्राप्ति के लिए त्रिविध साधनाहै। जैनधर्म के अनुसार अपनी ही बीजरूप क्षमताओं मागं बताया गया है। तत्वार्थ सूत्र में सम्यक ज्ञान, को पूर्ण रूप से प्रकट करना ही मुक्ति है। जैन साधना । करना ही मति है। माना सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र को मोक्षमार्ग कहा गया
है।१५ 'स्व' के द्वारा 'स्व' को उपलब्ध करना है। निज में
रात जान सम्यक दर्शन,
उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यक ज्ञान, सम प्रसुप्त जिनत्व को अभिव्यक्त करना है। आत्मा को ही
सम्यक चारित्र और सम्यक तप ऐसे चतुर्विध मोक्षमार्ग परमात्मा के रूप में पूर्ण बनाना है। इस प्रकार आत्मा
का भी विधान है,१६ किन्तु जैन अचार्यों ने तप का का साध्य आत्मा ही है।
अन्तर्भाव चारित्र में करके इस त्रिविध साधना मार्ग को ही मान्य किया है।
जैनधर्म का साधना मार्ग भी आत्मा से भिन्न नहीं सम्भवतः यह प्रश्न हो सकता है कि त्रिविध साधनाहै। हमारी चेतना के ही ज्ञान, भाव और संकल्प के पक्ष मार्ग का ही विधान क्यों किया गया है ? वस्तुतः त्रिविध
अध्यात्मतत्वालोक। समयसार टीका। योगशास्त्र। समयसार । तत्त्वार्थ सूत्र, १/१ । उत्तराध्ययन, २८/२।
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साधनामार्ग के विधान में जैनाचार्यों की एक गहन मनो- त्रिविध साधनामार्ग का ही एक रूप है। गीता में वैज्ञानिक सूझ रही है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय प्रसंगान्तर से त्रिविध साधना मार्ग के रूप में प्रणिपात, चेतना के तीन पहलू माने गए हैं-१ ज्ञान, २ भाव परिप्रश्न और सेवा का भी उल्लेख है।८ इनमें प्रणिपात
और ३ संकल्प । चेतना के इन तीनों पक्षों के सम्यक् श्रद्धा का, परिप्रश्न ज्ञान का और सेवा कर्म का प्रतिविकास के लिए ही त्रिविध साधनामार्ग का विधान किया निधित्व करते हैं। उपनिषदों में श्रवण, मनन और निदिगया है। चेतना के भावात्मक पक्ष को सही दिशा में ध्यासन के रूप में भी त्रिविध साधनामार्ग का प्रस्तुतीकरण नियोजित करने के लिए सम्यक दर्शन, ज्ञानात्मक पक्ष को हुआ है। यदि हम गहराई से देखें तो इनमें श्रवण श्रद्धा सही दिशा में नियोजन के लिए ज्ञान और संकल्पात्मक के, मनन ज्ञान के और निदिध्यासन कर्म के अन्तर्भत पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिए सम्यक् हो सकते हैं। चारित्र का प्रावधान किया गया है।
पाश्चात्य परम्परा में भी तीन आदेश उपलब्ध होते
हैं-१ स्वयं को जानो (know thyself ), २ स्वयं जैन-दर्शन के समान ही बौद्ध-दर्शन में भी त्रिविध
को स्वीकार करो (accept thyself ) और ३ स्वयं साधनामार्ग का विधान है। बौद्ध-दर्शन के इस त्रिविध
ही बन जाओ (be thyself)।१९ पाश्चात्य चिन्तन के साधनामार्ग के तीन अंग हैं-१ शील, २ समाधि और
तीन आदेश ज्ञान, दर्शन और चारित्र के ही समकक्ष हैं। ३ प्रज्ञा ।'७
आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्व, आत्मस्वीकृति में श्रद्धा का .. हिन्दू धर्म के ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग भी तत्व और आत्मनिर्माण में चारित्र का तत्व उपस्थित है। .
चिन्तन के
जैन दर्शन
बौद्ध दर्शन
| हिन्दू धर्म
गीता
उपनिषद्
पाश्चात्यदर्शन ।
मनन
सम्यक् ज्ञान सम्यक् दर्शन सम्यक् चारित्र
प्रज्ञा समाधि शील
ज्ञान भक्ति
परिप्रश्न प्रणिपात
श्रवण निदिध्यासन
know thyself accept thyself
be thyself
कर्म
सेवा
त्रिविध साधनामार्ग तथा मुक्ति :
उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार दर्शन के बिना ज्ञान नहीं कुछ भारतीय विचारकों ने इस त्रिविध साधनामार्ग
होता और ज्ञान के अभाव में आचरण सम्यक नहीं होता के किसी एक ही पक्ष को मोक्ष प्राप्ति का साधन
है और सम्यक् आचरण के अभाव में मुक्ति भी नहीं होती
है । २० इस प्रकार मुक्ति की प्राप्ति के लिए तीनों ही मान लिया है । आचार्य शंकर मात्र ज्ञान से और रामानुज । मात्र भक्ति से मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार करते हैं। अगा का होना आवश्यक है। लेकिन जैन दार्शनिक ऐसे किसी एकान्तवादिता में नहीं
सम्यक् दशन का अथ गिरते हैं। उनके अनुसार तो ज्ञान, कर्म और भक्ति की समवेत साधना ही मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है। इनमें से जैन आगमों में दर्शन शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त किसी एक के अभाव में मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। हुआ है और इसके अर्थ के सम्बन्ध में जैन परम्परा में १७ सुत्तनिपात, २८/८। १८ गीता, ४/३४ । १९ Psychology and Morals, p 32.
उत्तराध्ययन सूत्र, २८/३० ।
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काफी विवाद रहा है। दर्शन शब्द को ज्ञान से अलग (४) अनुकम्पा अर्थात् दूसरे व्यक्ति की पीड़ा को आत्मवत् करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध, प्रज्ञा और पीड़ा समझना और उसके प्रति करुणा का भाव रखना ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है । दर्शन शब्द का दृष्टिकोण- और (५) आस्तिक्य अर्थात् पुण्य-पाप, पुनर्जन्म, कर्मपरक अर्थ भी लिया गया है। प्राचीन जैनागमों में सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करना । दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग उसके दृष्टिकोणपरक अर्थ का द्योतक है। उत्तराध्ययन सूत्र तथा
सम्यक् दर्शन के छः स्थान : तत्त्वार्थसूत्र में दर्शन शब्द का अर्थ तत्वश्रद्धा भी माना जिस प्रकार बौद्ध-साधना के अनुसार दुःख है, दुःख का गया है ।२१ परवर्ती जैन साहित्य में दर्शन शब्द को देव कारण है, दुःख से निवृत्ति हो सकती है और दुःखनिवृत्ति गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी का मार्ग है इन चार आर्य-सत्यों की स्वीकृति सम्यक प्रयुक्त किया गया है। इस प्रकार जैन परम्परा में सम्यक् दृष्टि है, उसी प्रकार जैन-साधना के अनुसार षट् स्थानकों दर्शन आत्म-साक्षात्कार, तत्व श्रद्धा, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, (छः बातों) की स्वीकृति सम्यक दर्शन है-(१) आत्मा है, श्रद्धा और भक्ति आदि अनेक अर्थों को अपने में समेटे
(२) आत्मा नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता
है, (४) आत्मा कृत-कर्मों के फल का भोक्ता है, सम्यक् दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहें या तत्वा (५) आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है और (६) मक्ति का श्रदा उसमें वास्तविकता की दृष्टि से अधिक अन्तर नदी उपाय ( माग) हा होता है। अन्तर होता है उनकी उपलब्धि की विधि में । जैन तत्व-विचारणा के अनुसार इन षटस्थानकों पर एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसी सत्य का दृढ प्रतीति सम्यग्दर्शन की साधना का आवश्यक अंग है । उद्घाटन कर वस्तुतत्व के यथाथे स्वरूप को जानता है दृष्टिकोण की विशद्धता एवं सदाचार दोनों ही इन पर किन्तु दूसरा व्यक्ति ऐसे वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास निर्भर है : ये षट स्थानक जैन-साधना के केन्द्र बिन्दु हैं। करके भी वस्तुतत्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है। यद्यपि यहाँ दोनों का ही दृष्टिकोण यथार्थ होगा, फिर सम्यक् ज्ञान का अर्थ : भी एक ने उसे स्वानुभूति में पाया है तो दूसरे ने उसे
दृष्टिकोण की विश द्धि पर ही ज्ञान की सम्यक्त्वता श्रद्धा के माध्यम से । श्रद्धा ही सम्यक् दृष्टि हो तो भी
निर्भर करती है। अतः जैन साधना का दूसरा चरण है वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ स्वानुभूति ही है।
सम्यग्ज्ञान । सम्यक-ज्ञान को मुक्ति का साधन स्वीकार और यही सम्यक् दर्शन का वास्तविक अर्थ है। ऐप्ता
किया गया है, लेकिन कौन-सा ज्ञान मुक्ति के लिए सम्यग्दर्शन होता है निर्विकार निराकुल चित्तवृत्ति से,
आवश्यक है, यह विचारणीय है। जैन दर्शन में सम्यक अतः प्रकारान्तर से उसे भी सम्यग्दृष्टि कहा जाता है।।
ज्ञान के दो रूप पाये जाते हैं। सामान्य दृष्टि से सम्यक
ज्ञान वस्तु तत्व का उसके अनन्त पहलुओं से युक्त ज्ञान सम्यक् दर्शन के पाँच लक्षण :
है और इस रूप में वह विचार शुद्धि का माध्यम है। जैन धर्म में सम्यक् दर्शन के निम्न पाँच लक्षण बताये जैन-दर्शन के अनुसार एकांगी ज्ञान मिथ्यात्व है क्योंकि गये हैं-(१) सम अर्थात् समभाव, (२) संवेग अर्थात् वह सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप करता है। जब तक आत्मा के आनन्दमय स्वरूप की अनुभूति अथवा सत्या- आग्रह बुद्धि है तब तक वीतरागता सम्भव ही नहीं है और भीप्सा, (३) निर्वेद अर्थात् अनासक्ति या वैराग्य, जब तक वीतराग दृष्टि नहीं है तब तक यथार्थ ज्ञा
२१
उत्तराध्ययन, २८/३५; तत्त्वार्थ सूत्र, १/२ । २२ आत्मसिद्धि, पृ० ४३ ।
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असम्भव है। जैन दर्शन के अनुसार सत्य के अनन्त पहलुओं को जानने के लिए अनेकान्त दृष्टि सम्यक् ज्ञान की अनिवार्य शर्त है। एकान्त दृष्टि या वैचारिक आग्रह अपने में निहित छद्म राग के कारण सत्य को रंगीन कर देता है । अतः एकान्त और आग्रह सत्य के साक्षात्कार में बाधक है। जैन साधना की दृष्टि से वीतरागता को उपलब्ध करने के लिए वैचारिक आग्रह का परित्याग और अनाग्रही दृष्टि का निर्माण आवश्यक है और इसके माध्यम से प्राप्त ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है । सम्यक्ज्ञान का अर्थ है सम्पज्ञान का अर्थ है वस्तु को उसके अनन्त पहलुओं से जानना ।
I
जैनधर्म में एक अन्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान आत्मअनात्म का विवेक है । यह सही है कि आत्मतत्व को ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता है, उसे ज्ञाता ज्ञेय' केत के आधार पर नहीं जाना जा सकता है, क्योंकि वह स्वयं ज्ञान स्वरूप है, शाता है और शाता कभी शेय नहीं बन सकता अतः आत्मज्ञान दुरूह है लेकिन अनात्म तरवतो ऐसा है जिसे हम ज्ञाता और शेय के द्व ेत के आधार पर जान सकते हैं। सामान्य व्यक्ति भी अपने साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान ही सकता है कि उसके ज्ञान के विषय क्या हैं ? और दूसरे वह यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि जो उसके ज्ञान के विषय हैं वे उसके स्वस्वरूप नहीं हैं, वे अनात्म हैं। सम्यक् ज्ञान आत्मज्ञान है, किन्तु आत्मा को अनात्म के माध्यम से ही पहचाना जा सकता है । अनात्म के स्वरूप को जानकर अनात्म से आत्म का भेद करना यही भेद-विज्ञान है और यही जैन दर्शन में सम्ब ज्ञान का मूल अर्थ है।
इस प्रकार जैन दर्शन में सम्यक ज्ञान आत्म-अनात्म का विवेक है। जैनों की पारिभाषिक शब्दावली में इसे भेदविज्ञान कहा जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र सूरि के अनुसार जो 'कोई सिद्ध हुए हैं वे इस आत्म-अनात्म के विवेक या भेद-विज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो बन्धन में हैं, वे इसके अभाव के कारण ही हैं। २० आचार्य कुन्दकुन्द ने समय
२३ समयसार टीका, १३२ ।
२४
सार में इस भेद - विज्ञान का अत्यन्त गहन विवेचन किया है किन्तु विस्तारपूर्वक यह विवेचन यहाँ सम्भव नहीं है २४
सम्यक् चारित्र का चारित्र का अर्थ
जैन परम्परा में साधना का तीसरा चरण सम्यक् चारित्र है । इसके दो रूप माने गए हैं - ( १ ) व्यवहार चारित्र और (२) निश्चय चारित्र आचरण का बाह्य पक्ष या आचरण के विधि-विधान व्यवहार चारित्र कहे जाते है। जबकि आचरण की अन्तरात्मा निश्चय चारित्र कही जाती है। जहाँ तक नैतिकता के वैयक्तिक दृष्टिकोण का प्रश्न है अथवा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न है, निश्चयात्मक चारित्र ही उसका मूलभूत आधार है । लेकिन जहाँ तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है, चारित्र का बाह्य पक्ष ही प्रमुख है !
निश्चय दृष्टि (real view point ) से चारित्र का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि है । मानसिक या चैत सिक जीवन में समत्व की उपलब्धि ही चारित्र का पारमार्थिक या नेश्वयिक पक्ष है। वस्तुतः चारित्र का यह पक्ष आत्म-रमण की स्थिति है। नेश्चयिक चारित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है। अप्रमत्त चेतना की अवस्था में होने वाले सभी कार्य शुद्ध ही माने गए हैं। चेतना में जब राग, द्वेष, कपाय और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शांत हो जाती है तभी सच्चे नैतिक एवं धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है । साधक जब जीवन की प्रत्येक क्रिया के सम्पादन में आत्म जाग्रत होता है, उसका आचरण बाह्य आवेगों और वासनाओं से चालित नहीं होता है तभी वह सच्चे अर्थों में नैश्चयिक चारित्र का पालनकर्ता माना जाता है । यही नैश्चयिक चारित्र मुक्ति का सोपान कहा गया है।
व्यवहार चारित्र - व्यवहार चारित्र का सम्बन्ध आचार के नियमों के परिपालन से है। व्यवहार चारित्र को देश
देखें ० जैन बौद्ध और गीता का साधनामार्ग, अध्याय ५ ।
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व्रती चारित्र और सर्ववती चारित्र ऐसे दो वर्गों में विभाजित दर्शन में आचरण के पूर्व सम्यक ज्ञान का होना आवश्यक किया गया है। देशवती चारित्र का सम्बन्ध गृहस्थ है फिर भी वे यह स्वीकार नहीं करते हैं कि अकेला ज्ञान उपासकों से और सर्ववती चारित्र का सम्बन्ध श्रमण वर्ग से ही मुक्ति का साधन हो सकता है। महावीर ने ज्ञान और है। जैन-परम्परा में गृहस्थाचार के अन्तर्गत अष्टमूलगुण, आचरण दोनों से समन्वित साधना-पथ का उपदेश दिया
बारह व्रत और ग्यारह प्रतिमाओं का पालन है। सूत्रकृतांग में महावीर कहते हैं कि 'मनुष्य चाहे वह आता है । श्रमणाचार के अन्तर्गत पंचमहाव्रत, रात्रिभोजन ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो अथवा अनेक शास्त्रों का जानकार निषेध, पंचसमिति, तीन गुप्ति, दस यतिधर्म, बारह हो यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है तो वह अपने कृत्य अनुप्रेक्षाएं, बाईस परीषह, अट्ठाइस मूलगुण, बावन अनाचार कर्मों के कारण दुःखी ही होगा।२७ उत्तराध्ययन सूत्र में आदि का विवेचन उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त भोजन, कहा गया है कि 'अनेक भाषाओं एवं शास्त्रों का वस्त्र, आवास सम्बन्धी विधि-निषेध है।
आत्मा को शरणभूत नहीं होता। दुराचरण में अनुरक्त
अपने आपको पंडित मानने वाले लोग वस्तुतः मूर्ख ही साधनत्रय का पूर्वापर सम्बन्ध :
हैं। वे केवल वचनों से ही अपनी आत्मा को आश्वासन दर्शन, ज्ञान और चारित्र की पूर्वापरता को लेकर देते हैं । २८ आवश्यक नियुक्ति में ज्ञान और आचरण के जैन विचारणा में कोई विवाद नहीं है। जैन आगमों में पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन अत्यन्त विस्तृत रूप से दर्शन की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि सम्यक् किया गया है। आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि 'आचरणदर्शन के अभाव में सम्यक चारित्र नहीं होता। भक्त विहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसार-समुद्र से पार परिज्ञा में कहा गया है कि दर्शन से भ्रष्ट ( पतित ) ही नहीं होते ।' ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को वास्तविक रूप में भ्रष्ट हैं, चारित्र से भ्रष्ट भूष्ट नहीं हैं लोक प्रसिद्ध अंध पंगु न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए क्योंकि जो दर्शन से युक्त है वह संसार में अधिक परिभूमण आचार्य लिखते हैं कि जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं नहीं करता जबकि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति संसार से मुक्त चलता है या अकेला अंधा अथवा अकेला पंगु इच्छित नहीं होता है।२५ कदाचित चारित्र से रहित सिद्ध भी साध्य को नहीं पहंचता वेसे ही मात्र ज्ञान अथवा मात्र हो जावे लेकिन दर्शन से रहित कभी भी मुक्त नहीं होता। क्रिया से मुक्ति नहीं होती. अपित दोनों के सहयोग से ही वस्तुतः दृष्टिकोण या श्रद्धा ही एक ऐसा तत्व है जो मक्ति होती है ।२. व्यक्ति के ज्ञान और आचरण को सही दिशा निर्देश कर सकता है। आचार्य भद्रबाहु आचारांग नियुक्ति में कहते जैन पर्व की आध्यात्मिक प्रकृति : हैं कि सम्यक् दृष्टि से ही तप, ज्ञान और सदाचरण सफल न केवल जैन साधना पद्धति की प्रकृति ही अध्यात्महोते हैं । २६
वादी है अपितु जैन पर्व भी मूलतः आध्यात्मवादी ही है। जहाँ तक ज्ञान और चारित्र का सम्बन्ध है जैन जैन पर्व आमोद-प्रमोद के लिए न होकर आत्म-साधना विचारकों ने चारित्र को ज्ञान के बाद ही स्थान दिया है। और तप-साधना के लिए होते हैं । उनमें मुख्यतः तप, त्याग, उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही बताया गया है कि सम्यक व्रत एवं उपवासों की प्रधानता होती है। जैनों के प्रसिद्ध ज्ञान के अभाव में सदाचरण नहीं होता। इस प्रकार जैन पवों में श्वेताम्बर परम्परा में पर्यषण पर्व और दिगम्बर
२५ भक्तपरिज्ञा, ६५-६६ । २६ आचारांगनियुक्ति, २२१ ।
सूत्रकृतांग, २/१/३। २८ उत्तराध्ययन, ६/६-११ । २९ आवश्यकनियुक्ति, ६५-६७ ।
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परम्परा में दश लक्षण पर्व है जो भाद्रपद में मनाये जाते में लोक मंगल या लोक कल्याण का कोई स्थान ही नहीं हैं। इन दिनों में जिन-प्रतिमाओं की पूजा, उपवास है। जैनधर्म यह तो अवश्य मानता है कि वैयक्तिक साधना आदि व्रत तथा धर्म-ग्रन्थों का स्वाध्याय यही साधकों की की दृष्टि से एकाकी जीवन अधिक उपयुक्त है। किन्तु दिनचर्या के प्रमुख अंग होते हैं। इन पर्यों के दिनों में जहाँ इसके साथ ही वह यह भी मानता है कि उस साधना से दिगम्बर परम्परा में प्रतिदिन क्षमा, विनम्रता, सरलता, प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में पवित्रता, सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य आदि दस धर्मों (सद्गुणों) होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात का की विशिष्ट साधना की जाती है वहाँ श्वेताम्बर परम्परा साक्षी है । १२ वर्षों तक एकाकी साधना करने के पश्चात में इन दिनों में प्रतिक्रमण के रूप में आत्म-पर्यावलोचन वे पुनः सामाजिक जीवन में लौट आये। उन्होंने चतुर्विध किया जाता है। श्वेताम्बर परम्परा का अन्तिम दिन संघ की स्थापना की तथा जीवन भर उसका मार्गदर्शन संवत्सरी पर्व के नाम से मनाया जाता है और इस दिन करते रहे। जैनधर्म सामाजिक कल्याण और सामाजिक समग्र वर्ष के चारित्रिक स्खलन या असदाचरण और वैर- सेवा को आवश्यक तो मानता है, किन्तु वह व्यक्ति के विरोध के लिए आत्म-पर्यावलोचन (प्रतिक्रमण) किया सुधार से समाज के सुधार की दिशा में आगे बढ़ता है । जाता है एवं प्रायश्चित्त ग्रहण किया जाता है। इस दिन व्यक्ति समाज की प्रथम इकाई है। जब तक व्यक्ति नहीं शत्रु-मित्र आदि सभी से क्षमा-याचना की जाती है। इस सुधरेगा तब तक समाज नहीं सुधर सकता। जब तक दिन जेन साधक का मुख्य उद्घोष होता है-'मैं सब व्यक्ति के जीवन में नेतिक और आध्यात्मिक चेतना का जीवों को क्षमा प्रदान करता हूँ सभी जीव मुझे क्षमा प्रदान विकास नहीं होता तब तक सामाजिक जीवन में सुव्यवस्था करें। सभी प्राणी वर्ग से मेरी मित्रता है और किसी से और शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती। जो व्यक्ति कोई वैर-विरोध नहीं है।' इन पर्व दिनों में अहिंसा का अपने स्वार्थों और वासनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर सकता पालन करना और करवाना भी एक प्रमुख कार्य होता है। वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता। लोक-सेवक प्राचीन काल में अनेक जैनाचार्यों ने अपने प्रभाव से और जन-सेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और द्वन्द्वों से दूर शासकों द्वारा इन दिनों को अहिंसक दिनों के रूप में रहें यह जैन आचार-संहिता का आधारभूत सिद्धान्त घोषित करवाया था। इस प्रमुख पर्व के अतिरिक्त है। चरित्रहीन व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिए घातक अष्टान्हिका पर्व, श्रत पंचमी तथा विभिन्न तीर्थंकरों के ही सिद्ध होंगे। व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त गर्भ-प्रवेश, जन्म, दीक्षा, कैवल्य-प्राप्ति एवं निर्वाण दिवसों जो संगठन या समुदाय बनते हैं वे सामाजिक जीवन के को भी पर्व के रूप में मनाया जाता है। इन दिनों में सच्चे प्रतिनिधि नहीं है। क्या चोर, डाकू और शोषकों
वत रखा जाता है और जिन-प्रतिमाओं का समाज, समाज कहलाने का अधिकारी है ? महावीर की विशेष समारोह के साथ पूजा की जाती है। दीपावली की शिक्षा का सार यही है कि वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति का पर्व भी भगवान महावीर के निर्वाण दिवस के रूप में ही सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में प्रवृत्ति का आधार बन जैन समुदाय के द्वारा बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। सकती है। प्रश्न व्याकरण सूत्र में कहा गया है कि
भगवान का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के जैन अध्यात्मवाद और लोक कल्याण के प्रश्न :
रक्षण एवं करुणा के लिए है।३० जैन साधना में अहिंसा,
सत्य, स्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के जो पांच व्रत माने यह सत्य है कि जैनधर्म संन्यास मागी धर्म है। उसकी गये हैं वे केवल वैयक्तिक साधना के लिए नहीं हैं, वे सामासाधना में आत्म शुद्धि और आत्मोपलब्धि पर अधिक जोर जिक मंगल के लिए भी हैं। वे आत्म-शुद्धि के साथ ही दिया गया है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन धर्म हमारे सामाजिक सम्बन्धों की शद्धि का प्रयास भी हैं।
० प्रश्नव्याकरण, २/१/२ ।
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जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित को सदैव ही महत्त्व दिया है । जैनधर्म में तीर्थंकर, गणधर और सामान्य केवली के जो आदर्श स्थापित किये गये हैं और उनमें जो तारतम्यता निश्चित की गई है उसका आधार विश्व-कल्याण, वर्ग-कल्याण और व्यक्ति-कल्याण की भावना ही है । इस त्रिपुटी में विश्व कल्याण के लिए प्रवृत्ति करने के कारण ही तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है । स्थानांगसूत्र में ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि की उपस्थिति इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन साधना केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक ही सीमित नहीं है वरन् उसमें लोकहित या लोक कल्याण की प्रवृत्ति भी पायी जाती है । ३१
क्या जैनधर्म जीवन का निषेध सिखाता है ?
जैनधर्म में तप-त्याग की जो महिमा गायी गई है। उसके आधार पर भ्रान्ति फैलाई जाती है कि जैनधर्म जीवन का निषेध सिखाता है अतः यहाँ इस भ्रान्ति का निराकरण कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैनधर्म के तप-त्याग का अर्थ शारीरिक एवं भौतिकी जीवन की अस्वीकृति नहीं है। आध्यात्यिक मूल्यों की स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों की पूर्णतया उपेक्षा की जावे। जैनधर्म के अनुसार शारीरिक मूल्य अध्यात्म के बाधक नहीं, साधक हैं । निशीथ भाष्य में कहा गया है कि मोक्ष का साधन ज्ञान है, ज्ञान का साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है । ३२ शरीर शाश्वत आनन्द के कूल पर ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से उसका मूल्य भी है, महत्व भी है और उसकी सार-सम्भाल भी करनी है । किन्तु ध्यान रहे दृष्टि नौका पर नहीं कूल पर होना है, नौका साधन है साध्य नहीं । भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की एक साधन के रूप में स्वीकृति जैनधर्म और सम्पूर्ण अध्यात्म विद्या का हार्द है । यह वह विभाजन रेखा है जो अध्यात्म और स्थानांग, १० ।
३१
निशीथभाष्य, ४७ /६१ ।
३३
आचारांग, २ / १५ ।
३४ उत्तराध्ययन, ३२ / १०१ ।
३२
१६]
भौतिकवाद में अन्तर स्पष्ट करती है। भौतिकवाद में भौतिक उपलब्धियां या जैविक मूल्य स्वयमेव साध्य है, अन्तिम है, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च मूल्यों का साधन है। जैनधर्म की भाषा में कहें तो साधना के द्वारा वस्तुओं का ग्रहण, दोनों ही संयम ( समत्व ) की साधना के लिए है। जैनधर्म की सम्पूर्ण साधना का मूल लक्ष्य तो एक ऐसे निराकुल, निर्विकार, निष्काम और वीतराग मानस की अभिव्यक्ति है जो कि वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के समस्त तनावों एवं संघर्षो को समाप्त कर सके । उसके सामने मूल प्रश्न दैहिक एवं भौतिक मूल्यों की स्वीकृति या अस्वीकृति का नहीं है अपितु वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में शान्ति की संस्थापना है । अतः जहां तक और जिस रूप में दैहिक और भौतिक उपलब्धियां उसमें साधक हो सकती हैं, वहां तक वे स्वीकार्य हैं, और जहां तक वे उसमें बाधक हैं, वहीं तक त्याज्य हैं । भगवान् महावीर ने आचारांग एवं उत्तराध्ययन सूत्र में इस बात को बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है । वे कहते हैं कि 'जब इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क होता है, तब उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप सुखद - दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं है कि इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या दुःखद अनुभूति न हो, अतः त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं अपितु उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होनेवाले राग-द्वेष का करना है, ३३ क्योंकि इन्द्रियों के मनोज्ञ या अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए ही राग-द्वेष ( मानसिक विक्षोभों ) का कारण बनते हैं अनासक्त या वीतराग के लिए नहीं । ३४ अतः जैनधर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन की जीवन के निषेध की नहीं ।
जैन अध्यात्मवाद की विशेषताएँ :
(क) ईश्वर वाद से मुक्ति - जैन अध्यात्मवाद ने मनुष्य को ईश्वरीय दासता से मुक्त कर मानवीय स्वतन्त्रता की
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प्रतिष्ठा की है। उसने यह उद्घोष किया कि न तो ईश्वर और न कोई अन्य शक्ति ही मानव की निर्धारक है । मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है। जैनधर्म किसी विश्वनियन्ता ईश्वर को स्वीकार करने के स्थान पर मनुष्य में ईश्वरत्व की प्रतिष्ठा की और यह बताया कि व्यक्ति ही अपनी साधना के द्वारा परमात्म- दशा को प्राप्त कर सकता है। उसने कहा 'अप्पा सो परमप्या अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है। मनुष्य को किसी की कृपाकांक्षी न बनकर स्वयं ही पुरुषार्थ के द्वारा परमात्मपद को प्राप्त करना है ।
(ख) मानव मात्र की समानता का उद्घोष— जैनधर्म की दूसरी विशेषता यह है कि उसने वर्णवाद जातिवाद आदि उन सभी अवधारणाओं की जो मनुष्यमनुष्य में ऊँच-नीच का भेद उत्पन्न करती है अस्वीकार किया। उसके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं। मनुष्यों में श्रेष्ठता और कनिष्ठता का आधार न तो जाति विशेष या कुल विशेष में जन्म लेना है और न सत्ता और सम्पति ही। वह वर्ण, रंग, जाति, सम्पत्ति और सत्ता के स्थान पर आचरण की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता है । उत्तराध्ययन सूत्र के १२ वें एवं २५ वें अध्याय में वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मण की श्रेष्ठता की अवधारणा पर करारी चोट करते हुए यह कहा गया है कि जो सर्वथा अनासक्त, नेधावी और सदाचारी है वही सच्चा ब्राह्मण है। और वही श्रेष्ठ है न कि किसी कुल विशेष में जन्म लेनेवाला व्यक्ति ।
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उत्तराध्ययन, १२ / ४४ वही, १२ / ४६ ।
(ग) यश आदि बाह्य किया काण्डों का आध्यात्मिक अर्थ- जैन परम्परा ने यश, तीर्थ-स्नान आदि धर्म के नाम पर किये जानेवाले बाह्य क्रियाकाण्डों की न केवल आलोचना की अपितु उन्हें एक आध्यात्मिक अर्थ भी प्रदान किया। उत्तराध्ययनसूत्र में यश के आध्यात्मिक स्वरूप का सविस्तार विवेचन है। उसमें कहा गया है कि जीवात्मा अग्निकुण्ड है। मन, वचन, काया की प्रवृत्तियां ही कलछी ( चम्मच ) है और कर्मों ( पापों ) का नष्ट करना ही आहुति है । यही यज्ञ शान्तिदायक है और ऋषियों ने ऐसे ही यश की प्रशंसा की है। *५ तीर्थ स्नान को भी आध्यात्मिक अर्थ प्रदान करते हुए कहा गया है कि धर्म जलाशय है। ब्रह्मचर्यं घाट ( तीर्थ ) है ; उसमें स्नान करने से ही आत्मा निर्मल और शुद्ध हो जाती है । ३६
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(घ) दान, दक्षिणा आदि के स्थान पर संयम की श्रेष्ठता - यद्यपि जैन परम्परा ने धर्म के चार अंगों में दान को स्थान दिया है किन्तु वह यह मानती है कि दान की अपेक्षा भी संयम ही श्रेष्ठ है । उत्तराध्ययन में कहा गया है कि प्रति मास सहस्रों गायों का दान करने की अपेक्षा संयम का पालन अधिक श्रेष्ठ है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा ने धर्म को रूढ़िवादिता और कर्मकाण्डों से मुक्त करके आध्यात्मिकता से सम्पन्न बनाया है ।
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सकती है, जब कि वह वैचारिक दृष्टि से अपने को कभी अनुदार नहीं होने देती । इसी लिए जन-कल्याण के निमित्त वैचारिक उदारता की शत आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य मानी गई है। लोकमार्ग का नेतृत्व वही कर सकता है, जो विचार से उदार होता है और आचार की दृष्टि से 'आत्मनेपदी' । आचार की दृष्टि से जो केवल 'परस्मैपदी' होता है, उसका विचार या आचार कभी लोकग्राह्य नहीं होता । इसलिए, सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति में आत्मचिन्तन को सर्वोपरि महत्व दिया गया है।
उदारवादी दृष्टि से यह स्पष्ट है कि आत्मचिन्तन श्रमण-संस्कृति का उदात्त
का सम्बन्ध आत्म-संयम या आत्मनियन्त्रण या आत्मदमन दृष्टिकोण
से जुड़ा हुआ है। श्रमण तीर्थकर भगवान महावीर ने
आत्मदमन को बड़ा कठिन बताया है। उन्होंने कहा है : - डॉ श्रीरंजन सूरिदेव
अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पा हु खलु दुद्दमो । भू० पू० संपादक, परिषद् पत्रिका
अप्पा दन्तो सुही होइ अस्सि लोए परस्थ य ॥ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना
__-उत्तरा० १/१५ मानव-समाज में जब वैचारिक ह्रास आ जाता है, निश्चय ही, दुर्दम आत्मा का दमन करनेवाला व्यक्ति तब उसमें संकीर्णता का प्रवेश होता है और उसकी ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है। आत्मदमन चिन्तनधारा का उदात्त दृष्टिकोण संशय के धुंधलके में आत्मपीड़न का पर्याय है । आत्मा के अनुकूल वेदनीय सुख दिग्भ्रान्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में विशेष रूप से है और प्रतिकूल वेदनीय दुःख । तीर्थकर पुरुष चँ कि सर्वजाति और धर्म ही संकीर्णता के प्रवेश-द्वार हुआ करते भूतहित के आकांक्षी होते हैं, इसलिए वे प्रतिकूल वेदहैं । जाति और धर्म के प्रति दुराग्रह या हठाग्रह ही वेचा- नीयता पर विजय पाने के निमित्त आत्मदमन या आत्मरिक संकीर्णता को जन्म देता है। इस सन्दर्भ में श्रमण
पीड़न करते हैं। अर्थात्, परत्राण के लिए प्रतिकूल को संस्कृति का दृष्टिकोण इसलिए उदात्त है कि वह अनकल बनाकर आत्मसुख अनुभव करते हैं। और, सही - वैचारिक संकीर्णता का सर्वथा प्रत्याख्यान करती है। माने में उदार व्यक्ति वही होता है, जो परदुःख के
श्रमण-संस्कृति और वैदिक-संस्कृति के बीच, ऐति- विनाश के लिए आत्मदुःख को वरण करने में ही सुख का हासिक दृष्टिकोण से कोई स्पष्ट विभाजक रेखा नही अनुभव करता है। इसलिए, 'वसुदेव हिण्डी' के 'धम्मिल्लखींची जा सकती। ये दोनों संस्कृतियाँ चक्रगति के अनु- चरित' में धर्म की परिभाषा करते हुए संघदासगणि वाचक क्रम से समय-समय पर अपनी सत्ता स्थापित करती रही ने कहा है : 'परस्स अदुक्खकरणं धम्मोत्ति' । इस प्रकार हैं। जिस संस्कृति में जितनी अधिक वैचारिक उदारता सम्पूर्ण श्रामण्य संस्कृति परदुःख के विनाशमूलक उदारता रहेगी, उसकी सत्ता उतनी ही अविचल और लोकाटत की उदात्त भावना से ओतप्रोत है। होगी। अधुना श्रमण-संस्कृति के प्रति अत्यधिक लोकाग्रह भगवान महावीर के पंचयाम धर्म में श्रमण-संस्कृति का कारण उसकी वैचारिक उदारता ही है।
के उदात्त दृष्टिकोण का ही भव्यतम विनियोग हुआ है। __ कोई भी संस्कृति मानव-जिजीविषा की पूर्ति के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँचों साधनों की प्राप्ति के उपायों का समर्थ निर्देश तभी कर साधारण जन-जीवन को उदात्त दृष्टिकोण से संवलित
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करनेवाले ऐसे विचार-बिन्दु हैं, जिनसे सम्यक् दर्शन, कर बैठते हैं। इसीलिए, भगवान महावीर ने कर्मणा सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की उपलब्धि सम्भव जाति की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए कहा: होती है और मोक्ष का मार्ग उद्घाटित होता है।
कम्मुणा बम्भणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ। लोकेषणा या लोकहित श्रमण संस्कृति के उदात्त कम्मुणा बइस्सो होइ सुद्धो हवइ कम्मुणा ॥ दृष्टिकोण का महनीय पक्ष है। आधुनिक लोकदृष्टि
-उत्तरा० २५/३१ इसलिए अनुदार हो गई है कि वह हिंसा, असत्य, चोय- अहिंसावाद पर अनास्था के कारण ही आज समाज वृत्ति, काम-लिप्सा और संचय-वृत्ति से आक्रान्त है । अनु- में जातिगत हीनभावना का विस्तार हो रहा है। जाति दारता ही संकीर्ण विचार की जननी है। आज के वक्रजड़ के सम्बन्ध में हमारा दृष्टिकोण उदात्त नहीं रह गया है। लोग दुख्यिा के विष से मूच्छित हैं । आत्म हित के लिए हम इसीलिए, ऊँच-नीच. छआछत आदि के घेरे में बन्दी परहित का प्रत्याख्यान उनका धर्म हो गया है। आस- बनते जा रहे हैं। श्रमण-संस्कृति दुरभिमान को चनौती पड़ोस के जलते हुए घरों के बीच अपने घर को सुरक्षित देती है और सघोष उदघोषणा करती है : 'मत्ती मे समझने का प्रमाद ही उनका आत्मसंस्कार बन गया है। सव्वभएसु ।' परदुःख के विनाश में आत्मसुख को सही न मानकर वे सामाजिक अवधारणा के सन्दर्भ में अपरिग्रहवाद आत्मसुख को परदुःख का कारण बनाना उचित समझते
भी श्रमण-संस्कृति के उदात्त दृष्टिकोण का परिचय प्रस्तुत हैं। श्रमण-संस्कृति इसी अनुदार दृष्टि के निमूलन के करता है। अपरिग्रह का तात्पर्य धन के प्रति स्वामित्व की प्रयास के प्रति सतत् आस्थाशील है ।
भावना का परित्याग है। अनावश्यक संचय से सामान्य श्रमण-संस्कृति अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के लोकजीवन को कष्ट पहुँचता है। घूसखोरी, जमाखोरी, उदात्त दृष्टिकोण की त्रिपुटी पर आधृत है। अनेकान्त की मिलावट,तस्करी आदि का व्यापार परिग्रहका ही जघन्यतम उदार विचारधारा श्रमण-संस्कृति का महाघ अवदान है। रूप है। हम धन से दूसरे की सहायता करते भी हैं, तो अनेकान्त यदि वैचारिक उदात्त दृष्टिकोण का प्रतीक है. स्वामित्व की भावना रखकर ही। स्वामित्व की भावना तो अहिंसा और अपरिग्रह आचारगत उदारता का परि- का त्याग हम नहीं कर पाते। इससे अपरिग्रह का सही चायक । श्रमण-संस्कृति का अहिंसावाद भी सीमित परिधि रूप तिरोहित ही रह जाता है। और फिर, हम संकीर्ण की वस्तु नहीं है। प्राणीवध जैसी द्रव्यहिंसा से भी अधिक भावना से ऊपर नहीं उठ पाते, हमारा वैचारिक दृष्टिकोण व्यापक भावहिंसा पर श्रमण-संस्कृति बल देती है। उसका उदात्त नहीं हो पाता । श्रमण-संस्कृति अपरिग्रह के माध्यम मन्तव्य है कि मूलतः भावहिंसा ही द्रव्यहिंसा का कारण से हमें उदात्त दृष्टिकोण प्रदान करती है, जिससे हमारे है । यदि भावहिंसा पर नियन्त्रण हो जाय, तो फिर द्रव्य- अन्तर्मन में सर्वोदय की भावना का संचार होता है और हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठे। आज सामाजिक जीवन में जनमानस ग्रहण की संकीर्ण भावना से त्याग की उदात्त भावहिंसा की प्रधानता से ही द्रव्यहिंसा होती है और यही भूमि की ओर अभिमुख होता है । फिर भयंकर युद्ध और भीषण रक्तपात में परिणत हो श्रमण-संस्कृति का अनेकान्तवाद उसकी उदात्त दृष्टि जाती है।
का एक ऐसा प्रकाश-स्तम्भ है, जिससे सम्पूर्ण विश्व का जाति और धर्म की भावना में संकीर्णता आने पर जीवन-दर्शन आलोकित है। अनेकान्त, जनसमुदाय को हिंसा का उदय स्वाभाविक है। इस स्थिति में पुण्य की दुराग्रहवा दिता की संकीर्ण मनोवृत्ति से मुक्त होने की परिभाषा परोपकार न होकर सामान्य वैयक्तिक पूजा- प्रेरणा देता है। दर्शन के क्षेत्र में या फिर जीवन के पाठ में निःशेष हो जाती है। जात्याभिमान हमें अधःपतन व्यावहारिक जगत में व्याप्त श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ की भावना के की ओर ले जाता है और इससे हम मानवता का निरादर व्यामोह का विलोप अनेकान्त से ही सम्भव है। नीर-क्षीर
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विवेक की सम्प्राप्ति एकमात्र अनेकान्त से ही हो सकती दया-भावना से ही सम्भव है । ज्ञान की ही सक्रिय अवस्था है। सत के प्रति आसक्ति और असत् के प्रति वैराग्य दया है। ज्ञान की सक्रियता के लिए दया अनिवार्य है। अनेकान्त की भावना से ही आता है।
कहना चाहिए कि ज्ञान और दया दोनों एक ही सिक्के ___ भाषिक शुद्धि की दृष्टि से स्याद्वाद और वैचारिक के दो पहलू हैं। इसीलिए, अनन्त ज्ञान से सम्पन्न शद्धि की दृष्टि से अनेकान्तवाद की स्थापना श्रमण- तीर्थकर दयालु' या 'कल्याण मित्र' की संज्ञा से सम्बोधित संस्कृति की उदात्तता का ही पार्यन्तिक रूप है। आज हम किसी वस्तु को एकान्त दृष्टि से सत्य मानने का भम ब्रह्मचर्य की व्याख्या में भी श्रमण-संस्कृति ने उदार पालते हैं। किन्तु, अनेकान्तवाद इस भम को दूर करता दृष्टिकोण से काम लिया है। अन्यत्र जहाँ 'मरणं बिन्दहै। किन्तु वस्तु को हम एकान्त दृष्टि से सत्य मानकर प.तेन जीवनं विन्दुधारणात्' का कठोर निर्देश मिलता अपनी अनदात्त दृष्टि का ही परिचय देते हैं। कोई भी है, वहीं श्रमण-संस्कृति ने 'स्वदारसन्तोष-वत' को मानव एकान्त भाव से पूर्ण नहीं होता। यदि हम किसी ब्रह्मचर्य का दरजा दिया है। आज ब्रह्मचर्य के नाम दर्शन के तत्त्वज्ञ को ही पण्डित मान लेते हैं, तो यह ।
पर उन्मुक्त यौनमेध का जो नग्न ताण्डव दृष्टिगत होता है, एकान्त दृष्टि हुई। सम्भव है, उस पण्डित को सांख्यिकी उसका संयमन 'स्वदारसन्तोष-वत' से सहज ही सम्भव में तत्त्वज्ञता प्राप्त नहीं, तो फिर उसे एकान्त भाव से है। एकमात्र अपनी पत्नी में ही सन्तोष के व्रत का पालन पण्डित कहना उचित भी नहीं। अनेकान्त दृष्टि से दर्शन किया जाय, तो कामोष्मा से प्रतप्त आधुनिक समाज में की अपेक्षा यदि वह पण्डित है. तो सांख्यिकी की अपेक्षा संयम के स्वर्गीय सुख की अवतारणा हो जाय। पण्डित नहीं भी है। इसी विचारधारा के आधार पर श्रमण-संस्कृति अपने उदात्त दृष्टिकोण के कारण ही
अनेकान्त में 'सप्तभंगी नय' की प्रतिष्ठा हुई है। इस नय व्यष्टिगत धारणा की अपेक्षा समष्टिगत धारणा के प्रति . के द्वारा हम एकान्त से अनेकान्त की ओर प्रस्थान करते आग्रहशील है। वह 'भूमा वे सुखं नाल्पे सुखमस्ति' के
हैं, जहाँ हमें सम्पूर्ण जागतिक स्थिति का सही अभिज्ञान सिद्धान्त का समर्थन करती है। वह प्रमा (तद्वत प्राप्त होता है और उदात्त दृष्टिकोण से संवलित होने का तत्प्रकारकं ज्ञानं) पर आस्था रखत अवसर मिलता है। सर्वधर्मसमन्वय की समस्या का समा- को नकार देती है। वह सिद्धान्तों के भटकाव की स्थिति धान भी अनेकान्त ही दे सकता है ।
नहीं उत्पन्न करती। वह तो जीवन को सन्त्रास, कुण्ठा, ज्ञान और दया श्रमण-संस्कृति के मेरुदण्ड हैं। ये दोनों अनास्था, विसंगति आदि दुर्भावनाओं के घात-प्रतिघातों ऐसे दिव्य तत्त्व हैं, जिनमें उदात्त दृष्टिकोण का अपार से बचने को प्रेरित करती है, ताकि मानव अपनी मानवता सागर तरंगित होता रहता है। कोई भी ज्ञानी पुरुष की चरम परिणति के सुमेरु पर विराजमान हो सके, अनुदार नहीं हो सकता और किसी भी दयाल की सिद्ध शिला पर आसीन होकर पल्योपम भूमि को आयत्त विचारधारा संकीर्ण नहीं होती। किन्तु, दया की भावना कर सके । का उदय बिना ज्ञान के सम्भव नहीं। इसीलिए, जिनवाणी आज का मानव नितान्त परिग्रही हो गया है। उसने की मान्त्रिक भाषा है : 'पढम णाणं तओ दया ।' श्रमण- अपने इर्द-गिर्द अनेक आडम्बर चिपका रखे हैं । अज्ञानता संस्कृति में ज्ञान को ही प्रमाण माना गया है। ज्ञान भी और दयाहीनता के कारण वह अनपेक्षित आभिजात्य भावना ऐसा, जो स्व और पर को समान रूप से आभासित करे में पड़कर मानवता की गरिमा से परिच्युत हो गया है।
और उसमें किसी प्रकार का बाधा-व्यवधान न हो। वह बाह्य जगत् में अकर्म को कर्म और कर्म को अकर्म इसीलिए आचार्य सिद्धसेन ने कहा है : 'प्रमाणं स्वपरा- मान बैठा है। भौतिकता से अतिपरिचय के कारण वह भासि ज्ञानं बाध विवर्जितम् ।' उदात्त दृष्टिकोण के लिए आध्यात्मिकता की अवज्ञा कर रहा है । उसका कोई भी ज्ञान का होना अनिवार्य है और ज्ञान का क्रियान्वयन कथन न तो सुचिन्तित होता है, न ही वह कोई सुविचारित
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कार्य कर पाता है। कुल मिलाकर, आधुनिक मानव समाज सकती है। क्योंकि, श्रमण-संस्कृति के पंचयाम धर्म में में आत्मप्रदर्शन की मिथ्या गतानुगतिकता की ऐसी लहर मानव की चेतना को अनावश्यक आग्रह से अलग कर छा गई है कि वह सिवाय दूसरे का छीनने के अलावा अपेक्षित अनाग्रह के ज्योतिष्पथ की ओर ले चलने की और कुछ सोच ही नहीं सकता। श्रमण-संस्कृति ने अपरिमित शक्ति है। कहना न होगा कि श्रमणइसीलिए, अस्तेयभावना को सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठा संस्कृति में जीवन के विधायक अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षदी है।
जैसे अवर्णवाद, धार्मिक आचरण के नाम पर हिंसा एवं ईशोपनिषद् की 'तेन त्यक्तेन भञ्जजीथा मा गृधः परिग्रहमूलक आडम्बरों का प्रतिक्षेप, सैद्धांतिक मतों का कस्य स्विद्धनम्' जैसी सामाजिक भावना को उदबुद्ध करने
समन्वय, सामाजिक जीवन में समतावाद की स्थापना के वाली चेतावनी को आज के मानव ने नजरअन्दाज कर
द्वारा स्त्री-पुरुषों के लिए समान प्रगति की योजना, दिया है, इसीलिए उसमें चौर्यवृत्ति आ गई है। आत्मधन
अधिक धन का प्रत्याख्यान और प्राप्त धन का स्वामित्वकी अपेक्षा परधन के प्रति तृष्णा से वह निरन्तर आकुल
हीन समान वितरण, पूँजीवाद का विरोध, ऊँच-नीच
और स्पृश्यास्पृश्य जैसी समाजोत्थान-विरोधी भावना व्याकुल हो रहा है। फलतः, उपके संयम का चाबुक
का निराकरण आदि-प्रति निहित हैं, जिनसे उसके उदात्त बेकार हो गया है और इन्द्रियों के घोड़े बे-लगाम हो गये
दृष्टिकोण का प्रत्यक्ष परिज्ञान प्राप्त होता है। हैं। उसके जैसा कामगृधू व्यक्ति काम से ही काम को शान्त करना चाहता है। घी से आग को ठण्डा करना श्रमण-संस्कृति में श्रमण, ब्राह्मण, मनि और तापस चाहता है ! और इसके लिए वह चौर्यवृत्ति से ही अपने के लिए किसी निर्धारित वेश-विशेष की आवश्यकता सुख-सन्तोष की सामग्री जुटाने में प्रबल पुरुषार्थ मान नहीं । भगवान महावीर ने इनकी परिभाषा उपस्थित करते रहा है और हिंसा तथा मिथ्यात्व के प्रति एकान्त आग्रह- हुए निर्देश किया है : शील हो उठा है।
न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बम्भणी। सारस्वत में भी आज अजीब छीना-झपटी चल रही
न मुणी रणवासेण कुसचीरेण न तावसो॥ है। गीता की 'स्वधर्म निधनं श्रेयः परधर्मों भयावहः' की
समयाए समणो होइ बम्भचेरेण बम्भणो । चेतावनी भी उसे याद नहीं रह गई है। फलतः, उसकी णाणेण य मुणी होइ तवेणं होइ तावसो | जिन्दगी की गाड़ी समतल सड़क को छोड़कर उबड़खाबड़ रास्ते में दौड़ पड़ी है। कृत्रिम पाश्चात्य संस्कृति
निस्सन्देह, केवल सिर मुड़ा लेने से कोई श्रमण नहीं की चकाचौंध में पड़ उसने अपनी सहज प्राच्य संस्कृति हाता, न हा आकार क जप स
होता, न ही ओंकार के जप से ब्राह्मण । जंगल में रहने से की उपेक्षा कर दी है। यहाँ तक कि अपनी भाषा और ही मुनि नहीं होता और न कुश तथा चीवर धारण करने साहित्य को भी वह मूल्यहीन मानने लगा है। उसके से तपस्वी। वस्तुतः, जो समता से सम्पन्न है, वही श्रमण मूल्यांकन की तुला ही अभारतीय हो गई है।
है, ब्रह्मचर्य का उपासक ही ब्राह्मण है, ज्ञानी ही मुनि है
और तप करनेवाला ही तपस्वी। यही कारण है कि आधुनिक मानव विभिन्न मतवादों और साम्प्रदायिक रूढियों की वात्या में विलण्ठित हो इस प्रकार, श्रमण-संस्कृति ने प्रत्येक व्यक्ति को रहा है। उसका अपना ज्ञानबोध अहंकार के अँधेरे में डूब उत्थान के मार्ग का अधिकारी घोषित किया है। अपनी गया है। ऐसी स्थिति में श्वमण-संस्कृति के पंचयाम साधना से सर्वसामान्य व्यक्ति भी पारमेश्वर्य की सिद्धि धर्म की प्रोज्ज्वल प्रभा उसके तिमिरावृत्त हृदय को भास्वर सुलभ कर सकता है । श्रमण-संस्कृति ने ईश्वर के कतृत्व बना सकती है। उसके दिग्भृष्ट जीवन-पोत के लिए को नकारते हुए मानव के अजेय पुरुषार्थ के प्रति अडिग अनेकान्त जयपताका दिशासूचक यन्त्र का काम कर आस्था अभिव्यक्त की है। आत्मशक्ति के प्रति अविश्वास
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हो जाने के कारण ही वह किसी पारमेश्वरी शक्ति की जीवन-दर्शन श्रमण-संस्कृति के जीवन-दर्शन का ही कल्पना कर उसके प्रति समर्पित हो जाता है। परवत्ती- परवर्ती व्यापक विस्तार है, जिसकी उदात्त विचारधारा कालीन भक्त कवि चण्डीदास की प्रसिद्ध काव्य-पंक्ति- परम्परानुक्रम से विकसित होकर आज की सामाजिक एवं 'सबार ऊपरे मानुस सत्य में श्रमण-संस्कृति का ही उदात्त आर्थिक अभ्युत्थानमूलक राष्ट्रीय योजना विंशसूत्री कार्यदृष्टिकोण समाहित है।
क्रम से आ जुड़ी है। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति न .
होगा कि राष्ट्रीय अभियान के प्रत्येक पड़ाव पर या श्रमण-संस्कृति के उदात्त विचारप्रधान दार्शनिक सामाजिक जीवन के हर मोड़ पर प्रगति और उत्कर्ष का चिन्तन ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को भी अनुकूलित मन्त्र फूंकनेवाली श्रमण-संस्कृति को किसी विशिष्ट देश, किया था और गाँधीजी के प्रसिद्ध ग्यारह व्रतों में प्रारम्भ काल, आयु, नाम, गोत्र आदि की सीमा में रखकर देखने के पाँच व्रत भगवान महावीर के ही पंचयाम धर्म से की अपेक्षा सम्पूर्ण विश्व के सन्दर्भ में मंगलकारी उदात्त आकलित हैं। कहना यह चाहिए कि महात्मा गाँधी का दृष्टिकोण का ही पर्याय समझना समीचीन है।
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आत्मतत्त्व का साक्षात्कार -संघ प्रमुख श्री चन्दन मुनि
जहाँ अध्यात्म की बात उठती है वहीं परमात्मा के साक्षात्कार का प्रश्न उठ खड़ा होता है। परमात्मा क्या है ? उसका साक्षात्कार कैसे किया जाय ? बिना साक्षात्कार के केवल सुनी हुई बात पर विश्वास कैसे किया जा सकता है ? आज का वैज्ञानिक युग प्रयोगात्मक ज्ञान का युग है । विज्ञान केवल सिद्धान्त नहीं देता उनका प्रैक्टिकल रूप प्रस्तुत करता है। इसलिए आज के मनुष्य को आत्मा-परमात्मा के दर्शन को समझाने में शास्त्रों की दुहाई काम नहीं देती। बिना अनुभव की श्रद्धा स्थिति नहीं पा सकती । भगवान् महावीर की दृष्टि भी प्रयोगात्मक रूप को पुष्टि देती है। वे नहीं कहते कि 'मैं कहता हूँ इसलिए तुम मान लो वे कहते हैं 'अपणा सच्च मेसेजा' तुम अपनी आत्मा से सत्य की खोज शुरू करो, स्वयं सत्य का दर्शन करो । केवल दर्शन नहीं सम्यग् दर्शन करो, फिर सम्पद-ज्ञान और सम्यक्-चरित्र को विकसित करो। सम्यक् दर्शन ही शब्दान्तर से साक्षात्कार का द्योतक है।
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आमतौर पर जैन लोग सम्यग्दर्शन को श्रद्धा से जोड़ते हैं पर वास्तव में थोड़ा-सा फर्क है । श्रद्धा पैदा की नहीं जा सकती, सम्यग्दर्शन सम्यक् अवलोकन के कारण स्वयं उत्पन्न हो जाती है। उसे थोपा नहीं जा सकता वह स्वतः उद्भूत हो जाती है। वह सम्यग्दर्शन की परिणति है। हाँ, तो प्रश्न यह है कि आत्म-साक्षात्कार
कैसे किया जाय ? इसी विषय पर दिगम्बर - आम्नाय के उज्ज्वल नक्षत्र पूज्यपाद स्वामी 'समाधिशतक' में लिखते हैं
सर्वेन्द्रियाणि संयम्य, स्तिमितेनान्तरात्मना । यत्क्षणं पश्यतो भाति, तत् तत्त्वं परमात्मनः ॥ - सं० श० ३०
सभी इन्द्रियों का संयम करके स्तिमित- शान्त, निर्विकल्प अन्तरात्मा के द्वारा क्षणभर देखने वाले को जो भासित होता है वही परमात्मा-तत्त्व है । यानि वह परमात्मा तत्त्व की ही झलक है ।
तात्पर्य यह है कि जब कर्णादि इन्द्रियों की संयमित करके, शब्द-रूप- गन्ध-रस स्पर्शादि से ध्यान हटाकर अन्तर्मुखी बनते हैं तब किसकी झलक भासित होती है ? वह क्या है ? इंद्रियां, मन शान्त है, पूर्ण निर्विकल्प स्थिति है वह आत्मतत्त्व है । उस शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार ही परमात्मतत्व का साक्षात्कार है जब तक हम शब्द रूप आदि इन्द्रियों के विषयों पर ही अटके रहते हैं उनका ही ध्यान है, उनका ही चिन्तन है, उनकी ही अभिलाषा है, उनका ही आकर्षण है फिर आत्मदर्शन की कैसे आशा की जा सकती है ? इस तत्त्व को तो बड़ी गहराई से पकड़ा जा सकता है, दूसरे व्यापारों को रोककर ही इसे देखा जा सकता है। आद्यशंकराचार्य ने 'विवेक चूड़ामणि' में आत्मदर्शन का उपाय बतलाते हुए कहा है :
नष्टे पूर्व विकलने तु, यावदन्यस्य नोदयः । निर्विकल्पिक चैतन्यं, तावतुस्पष्ट विभासते ॥
पूर्व विकल्प के नष्ट हो जाने पर जब तक दूसरा विकल्प उदित नहीं होता, इसके बीच जो एक सूक्ष्म समय स्पष्ट आभास है उसमें निर्विकल्पिक चैतन्य का मिलता है।
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अर्थात् एक विकल्प आया और चला गया, दूसरा विकल्प अभी पैदा नहीं हुआ, उसके बीच की जो स्थिति है वह किसकी है केवल साक्षीभाव से देखनेवाला ही उसे पकड़ सकता है । वे आत्म-दर्शन के क्षण होते हैं । एक माला का एक मनका जैसे आगे खिसका दूसरा मनका जब तक उस मनके से संलग्न नहीं हुआ, उन दो मणकों के
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बीच जो थोड़ा-सा धागे का दर्शन हो जाता है उसी भांति का भान हो सकता है। एक जन्म नहीं अनन्तानंत जन्म उठते हुए विकल्पों के बीच आत्मा का साक्षात्कार किया व्यतीत हो चुके हैं पर जिसे पकड़ना था उसे नहीं पकड़ जा सकता है। आप पूछ सकते हैं कि क्या दिखाई पाए । उद्धार कैसे हो सकता है। देगा? आत्मा का क्या स्वरूप होगा ? लेकिन जो स्थिति चक्षुगोचर नहीं है उसे शब्दों में कैसे बांधा जायेगा ?
रूपक की भाषा में ऋषि कहते हैं -एक महल के . परन्तु 'कुछ है अवश्य' इतना तो बोध होगा ही। वही पांच झांकियां हैं, पांच रोशनदान हैं, उस महल में एक चिदानन्द रूप आत्मा है उसका संपूर्ण निर्लिप्त स्वरूप व्यक्ति बेठा है। वह कभी इस रोशनदान से झाँकता परमात्मा नाम से अभिहित होता है।
है कभी उस रोशनदान से झांकता है पर झांकने वाला
वह एक ही है। उसी भांति इस शरीर रूपी मंदिर - उपनिषदों में एक कहानी आती है। दक्ष प्रजापति में एक ही चेतनतत्त्व है। वह कभी कानों से सनता के पास विरोचन इन्द्र जिज्ञासा लेकर आता है, पूछता है की आंखों से देखता है कभी गन्ध-रस-स्पर्शादि कि मैं कौन हूँ ? आत्मा क्या है ? प्रजापति ने कहा-यहाँ
का अनुभव करता है, पर खेद है कि उस एक को पास ही एक सरोवर है। जब सारी लहरें सो जाएं,
हम जान नहीं पाते, पहचान नहीं पाते, पकड़ नहीं पानी बिल्कुल शान्त हो तब उसमें अनिमेष पलकों से
पाते। उस एक के जाते ही बोलना, चलना, चस्वना, झांककर देखो, फिर में तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा। संघना-आदि सारी क्रियाएं बन्द हो जाती हैं। इससे विरोचन सरोवर के किनारे पहुँचता है, शान्त सरोवर में
अधिक आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण और क्या हो सकता अपलक दृष्टि से झांक कर देखता है तो अपना प्रतिबिम्ब
है। आत्म-दर्शन के लिए राग-द्वेषादि कल्लोलों को स्पष्ट नजर आता है। झांकते-झांकते एक प्रश्न और
शान्त करना आवश्यक है। आचार्य कहते हैंउपस्थित हो गया। प्रजापति से जाकर पूछने लगा--दिखने वाला मैं हूँ या देखने वाला मैं हूँ ? मैं तो दुविधा में पड़ रागद्वेषा दिकल्लोलेऽलोल यन्मनोजलम् । गया हूँ। प्रजापति ने कहा-बस, यही मौलिक प्रश्न है । स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं यत्तत्वं नेतरो जनः ।। दृश्य को तो हम पकड़ते हैं पर द्रष्टा को नहीं पकड़ पाते ।
--समाधिशतक श्लो॰ ३५ शब्द को हम पकड़ते हैं पर सुनने वाले को हम नहीं पकड़ पाते वैसे ही गन्ध को हम पकड़ते हैं पर प्राता को हम नहीं राग-द्वेषादि रूप कल्लोलों से जिसका मन अलोल पकड़ पाते। यही बहिमखी और अन्तमखी दृष्टि का भेद है-चंचल नहीं है वह आत्मतत्त्व का दर्शन कर सकता है है। दृष्टि को अन्तमखी बनाना होगा। तभी आत्मा इतर-जन उसका दर्शन नहीं कर पाता।
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है। वर्तमान में अर्द्ध-मागधी वाङमय महावीर की देशना पर ही आधारित है जिसे उनके गणधरों ने ग्रथित किया। उसी ग्रथित वाणी को हमने आगम नाम से संशित किया है।
आगम के दो प्रकार हैं : अर्थागम और सूत्रागम ।
तीर्थङ्कर अर्थ का जो व्याख्यान करते हैं उसे अर्थागम कहते हैं और गणधर उस व्याख्यात अर्थ का जो सूत्ररूप
में ग्रन्थन करते हैं उसे सूत्रागम कहा गया है। जैन वाङमय और उसका
दिगम्बर मान्यता में तीर्थङ्कर की वाणी अनक्षरा है ।
वे उपदेश की भाषा में कुछ नहीं बोलते। उनके रोम-रोम क्रमिक विकास
से दिव्य ध्वनि निःसृत होती है और समवसरण में वही
ध्वनि उपस्थित श्रोतागण की अपनी-अपनी भाषाओं में - श्री मदन कुमार मेहता, कलकत्ता
परिणत हो जाती है।
श्वेताम्बर परम्परा में तीर्थङ्कर अर्द्धमागधी भाषा में जैन वाङमय अतल जलधि के सदृश गहन, विशाल
प्रवचन करते हैं। वह अर्द्ध-मागधी भाषा समवसरण में . व गंभीर है। विरल अध्यवसायी मनीषियों ने ही उसमें
उपस्थित सभी आर्यों-अनार्यों की भाषा में परिणत हो अवगाहन करने का प्रयत्न किया है और प्राप्त मुक्ताकण
जाती है। जैनागमों में इसे तीर्थ'करों का वचन-वैशिष्ट्य चूणियों और टीकाओं के रूप में प्रस्तुत कर भावी संतति
कहा गया है। को गहन श्रत-वारिधि में आलोड़न के लिये प्रेरित किया है।
भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे। तीर्थ कर ___ वाङ् का वाचिक अर्थ वाक् है । अर्थात् जिस साहित्य
महावीर अर्थ रूप में जो उपदेश देते थे उन्हें गणधर शब्द
बद्ध कर लेते थे। गणधरों द्वारा ग्रथित सूत्रागम द्वादशांगी का सृजन वाचना या वाणी के द्वारा हो, जिसे प्रबुद्ध व्यक्ति ग्रहण कर अपने स्मृति-कोष में संग्रह कर ले । अतः
के रूप में विद्यमान है। इन बारह अंग शास्त्रों में बारहवां वाङ्मय को श्रुत भी कहा गया है। जो ज्ञान सुनकर ।
दृष्टिवाद अंग विलुप्त है। ये सभी गणधर चौदह पूर्वधर, अधीत किया जाय वह श्रत है। श्रत का यह क्रम भगवान द्वादशांगी वाणी तथा समस्त गणिपिटक के धारक थे। महावीर के पश्चात् परवर्ती अनेक आचायौं तक अवि
भगवान महावीर की उपस्थिति में ही उनके नौ च्छिन्न रूप में चला। ज्ञान की यह मंदाकिनी एक के ।
गणधर कालगत होकर निर्वाण प्राप्त हो गये थे। महास्थविर कंठ से निःसृत होकर दूसरे के श्रवण कुंड में गिरकर आगे
इन्द्र भूति गौतम व महास्थविर आर्य सुधर्मा महावीर के प्रवहमान हुई और पुन: दूसरे के कण्ठ को रसाप्लावित
निर्वाण के पश्चात विमुक्त हुए। अतः महावीर के निर्वाण करती हुई अन्य के कर्ण कुहर में विनिमजित हो गई।
के पश्चात आर्य सुधर्मा उनके उत्तराधिकारी हुए। यद्यपि यह क्रम प्रायः सहस्र वर्ष पर्यन्त चला।
महाश्रमण इन्द्रभूति गौतम ज्येष्ठ थे परन्तु महावीर के तीर्थंकर महावीर जैन धर्म के अन्तिम तीर्थपति थे। निर्वाण के साथ ही उन्हें केवल-ज्ञान व केवल-दर्शन की एक तीर्थंकर अपने पूर्ववर्ती तीर्थ करों की देशना को प्राप्ति हो गई थी। उन्होंने राग और द्वेष को जीत लिया प्ररूपित नहीं करता। अतः सृजन के रूप में हमें भगवान था । वे वीतरागी हो गये थे । वीतरागी श्रमण संघ-शासक महावीर के पूर्वकालीन तीर्थङ्करों की वाणी उपलब्ध नहीं नहीं बनते अतः संघ-शासन के संचालन का भार आर्य
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सुधर्मा पर पड़ा। वर्तमान में जितनी भी श्रमण परम्पराये बिना छेद सूत्रों के गम्भीर अध्ययन कोई साधु, आचार्य विद्यमान हैं वे सभी सौधर्म परम्परा से ही संबंधित हैं। या उपाध्याय जैसे उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर प्रतिष्ठित अतः भगवान महावीर के पश्चात् द्वादशवाणी के संदेश- नहीं हो सकता। वाहक आय सुधमा बन । उन्हान महावार-वाणा का द्वादश छेद सूत्र छ: है: अंगों के रूप में पुनराकलन किया। वर्तमान आगम (१) निशीथ (२) महानिशीथ (३) व्यवहार साहित्य सुधर्मा की ही देन है । द्वादश अंग निम्न हैं: (४) दशाश्रतस्कन्ध (५) वृहत्कल्प (६) पंचकल्प ।
(१) आचारांग (२) सूत्रकृतांग (३) स्थानांग (४) मूल सूत्र चार हैं : समवायांग (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती) (६) ज्ञाता
(१) उत्तराध्ययन (२) दशवैकालिक (३) आवश्यक धर्मकथांग (७) उपासकदशांग (८) अन्तगडदशांग (४) पिण्ड निर्यक्ति तथा ओघनिर्यक्ति । (E) अनुत्तरोपपातिक (१०) प्रश्नव्याकरण (११) विपाक
इन सूत्रों का मूल नाम क्यों पड़ा यह भी विचारणीय एवं (१२) दृष्टिवाद। अंगों के साथ उपांगों का भी
प्रश्न है । प्राचीन ग्रन्थों में मूल शब्द कहीं भी व्यवहृत नहीं सृजन किया गया। अंग और उपांग की यह पद्धति मात्र
हुआ है। इन सूत्रों का अपने में अत्यन्त महत्त्व है। वस्तुतः जैन श्रत साहित्य में ही नहीं वरन वैदिक साहित्य में भी
भगवान महावीर के मूल भावों का इनमें चयन किया गया विद्यमान है। वेदों के सम्यग अध्ययन के लिये वेदांगों की
था, अतः इनका नाम मूल पड़ा हो-ऐसा सापेक्ष अर्थ रचना की गई थी। बिना वेदांगों के अध्ययन के वेदों का
परिकल्पित किया जा सकता है। अथवा उनमें धर्म, समुचित रूप नहीं समझा जा सकता।
आचार, दर्शन एवं आदर्शों का अद्भुत संकलन उपलब्ध __ जैन श्रत साहित्य में भी अंगों के साथ उपांगों की है, अतः ये मूल आदर्शों से परिपूर्ण मूल सूत्र हैं । रचना की गई है । ये उपांग भी अंग सूत्रों की तरह संख्या
नन्दीसूत्र एवं अनुयोग द्वार : में १२ ही हैं, अन्तर इतना ही है कि अंग गणधरों द्वारा गुंफित है तथा उपांग स्थविर आचार्यों द्वारा रचित
___ नन्दीसूत्र के रचयिता आचार्य देवर्द्धिगणि हैं। यह है । १२ उपांग निम्न हैं :
एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। इनमें अनेक विषयों का तलस्पर्शी (१) उववाइय (२)रायपसेणइय (३)जीवाजीवाभिगम
प्रतिपादन है । जैन वाङमय के विकास में इसका बहुमूल्य (४) पण्णवणा (५) सूरपण्णत्ति (६) चन्दपण्ण त्ति
योगदान रहा है। (७) जंबूद्दीप पण्णत्ति (८) णिरयावलिया (६)
___अनुयोग द्वार के रचयिता आचार्य आर्यरक्षित
हैं। यह ग्रन्थ प्रश्नोत्तर शैली से रचित है। विभिन्न कप्पवदंसिया (१०) पुप्फिया (११) पुप्फचूलिया (१२) व हिदशा।
विषयों पर प्रश्नोत्तरों द्वारा प्रकाश डाला गया है। इसमें
बहुत ही गंभीर विषयों का सरलता से प्रतिपादन किया १२ अंगों की विषय दृष्टि के अनुसार ये १२ उपांग
गया है। परस्पर सम्बद्ध होने चाहिये परन्तु इस प्रकार का पारस्परिक सामंजस्य इनमें नहीं मिलता। यह एक दस पइपणग (दश प्रकीर्णक) आश्चर्य का विषय है।
प्रकीर्णक ग्रन्थ उन ग्रन्थों को कहा जाता है जो जैन वाङमय में छेदसूत्रों का अपना स्थान है। श्रमणों तीर्थङ्करों के शिष्यों द्वारा विविध विषयों पर रचे जाते के आचार विषयक नियम जो भगवान महावीर ने निर्धा- हैं। प्रकीर्णक ग्रन्थों की परम्परा आदि काल से चली आ रित किये थे उनको उत्तरवर्ती आचार्यों ने छेद सूत्रों में रही है । वर्तमान में दस प्रकीर्णक ग्रन्थ माने गये हैंविविध परिवर्तन के साथ ग्रन्थित कर लिये । साधु जीवन (१)चउसरण (२)आउर पच्चक्खाण (३) महापच्चक्खाण के लिये छेद सूत्रों का अध्ययन आवश्यक माना गया है। (४) भत्तपरिण्णा (५) तंडलवेयालिय (६) संथारग
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(७) गच्छायार (८) गणिविजा (६) देविंदथव अन्तेवासी थे। उनके अवसान के पश्चात् आर्य यशोभद्र (१०) मरणसमाही।
के ऊपर संघ-संचालन के साथ समस्त श्रत साहित्य अधीत उपयुक्त आगमों में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समुदाय करने-कराने का भार आया । वे चौदह पूर्वधर थे। मुख्यतया ४५, आगम स्वीकृत करता है जो इस आचार्य यशोभद्र ने ही नन्द राजाओं को प्रतिबोधित प्रकार है:
कर अहंत धर्म में दीक्षित किया था। ११ अंग
___आचार्य यशोभद्र ने एक नवीन परम्परा का सूत्रपात १२ उपांग
किया । उन्होंने एक के स्थान पर दो उत्तराधिकारी मनोनीत किये। एक थे आचार्य सम्भूतिविजय और दूसरे थे
आचार्य भद्रबाहु । संघ-संचालन का भार ज्येष्ठ उत्तरा२ नन्दी सत्र व अनुयोगदार
धिकारी सम्भूति विजय पर था। आचार्य भद्रबाहु का १० प्रकीर्णक
उनके जीवन काल तक संघ-व्यवस्था से सीधा कोई संबंध
न था । स्थानकवासी व तेरापंथी सम्प्रदाय द्वारा ३२ आगम
भद्रबाहु महाप्रभावक आचार्य थे। ये छेद सूत्रों के ही प्रामाणिक रूप में स्वीकार किये गये हैं। वे इस
प्रणेता तथा चतुर्दश पूर्वधर थे। इनके निधन के साथ ही प्रकार हैं:
चतुर्दश पूर्वधर परम्परा समाप्त हो गई। जम्बू स्वामी के
अनन्तर महावीर धर्म संघ के ये पंचम आचार्य थे ११ अंग सूत्र १२ उपांग सूत्र
__ प्रथम वाचना-आचार्य भद्रबाहु के काल में १२ ४ छेद सूत्र
वर्षीय दुष्कर अकाल पड़ा। इससे सारी संघ-व्यवस्था ४ मूल सूत्र
अस्तव्यस्त हो गई। साधु समाज पर भी इसका भयंकर १ आवश्यक सूत्र
प्रभाव पड़ा। अनेक मेधावी व ज्ञानी श्रमण कालकवलित हो गये, अनेक दूरस्थ प्रदेशों में चले गये। सुनने-सुनाने
और अधीत करने की परम्परा में विक्षेप पड़ गया। ज्ञान दिगम्बर परम्परा में वर्तमान में अंग-उपांग साहित्य का बहुमूल्य भण्डार लेखन के अभाव में विस्मृति के गर्भ .. विद्यमान नहीं है। उनकी मान्यता है कि वीर-निर्वाण के में समा गया। दुष्काल के उपरान्त अवशिष्ट साधु समाज पांच सौ वर्ष पश्चात न अंग साहित्य ही रहा और न पुनः पाटलीपुत्र में एकत्रित हुआ। सबसे पहली आवपूर्व ज्ञान के धारक ही रहे। मात्र पूर्वज्ञान व ग्यारह अंगों श्यकता यह महसूस की गई कि श्रत-सम्पदा का कैसे का आंशिक ज्ञान ही रहा जिसे परवत्ती आचार्यों ने संरक्षण किया जाय। आचार्य स्थलिभद्र, जो आचार्य विभिन्न ग्रन्थों में ग्रथित किया है।
भद्रबाहु के मनोनीत उत्तराधिकारी थे, के नेतृत्व में आर्य सुधर्मा के निर्वाण के पश्चात
समागत श्रतज्ञ श्रमणों द्वारा ११ अंगों का पुनर्सकलन स्थान पर पट्टधर हुए। जम्ब अन्तिम केवली थे। आर्य हुआ । इसे हम प्रथम वाचना कहते हैं। जम्बू के उत्तराधिकारी आर्य प्रभव हुए। आर्य प्रभव के आचार्य भद्रबाहु पर्यन्त श्वेताम्बर व दिगम्बर मान्यता उत्तराधिकारी आर्य शय्यम्भव हुए। ये श्रुत केवली थे सदृश ही हैं। यहीं से दिगम्बर-श्वेताम्बर श्रुतधारा का तथा दशवकालिक जेसे महान सूत्र के रचनाकार थे। प्रवाह दो विभिन्न धाराओं के रूप में प्रवाहित होता है। शय्यम्भव की दशवैकालिक के रूप में जैन वाङमय को श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार जो श्रत साहित्य ११ अंग अनुपम देन है। आर्य यशोभद्र आचार्य शय्यम्भव के उपलब्ध है-वह तीर्थकर महावीर द्वारा उपदिष्ट तथा
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गणधरों द्वारा ग्रन्थित है। दिगम्बर यह बात स्वीकृत नहीं वीर-निर्वाण के एक सहस्र वर्ष पश्चात आचार्य देवधि करते ।
गणि क्षमाश्रमण के आचार्यत्व में वल्लभी में तीसरी वाचना
समायोजित की गई। इसमें समस्त आगम साहित्य द्वितीय वाचना-पाटलीपुत्र की प्रथम वाचना के
लिपिबद्ध किया गया। सम्प्रति जो भी जैन वाङमय विद्यपरचात् ग्यारह अंगों का ज्ञान उसी प्रकार श्रत परम्परा से प्रवाहित रहा। शिष्य ने गुरु से मुखाग्र अधीत किया
मान है उसके लिये हम युगप्रधान आचार्य देवर्धिगणि क्षमा
श्रमण के चिरऋणी हैं। यदि ऐसा न होता तो समस्त श्रत-. और स्मृति कोष में संरक्षित कर लिया। पुनः शिष्य ने .
साहित्य विशृखलित होकर नष्ट हो जाता अथवा श्रतज्ञ अपने प्रशिष्य को उसी प्रकार अधीत करवाया। पर स्मृति की भी एक सीमा होती है । शनैः शनैः विशाल ज्ञान राशि
विद्वानों के अवसान के साथ ही विस्मृति के महासागर में
विलीन हो जाता। को धारण करने वाले शिष्यों-प्रशिष्यों की कमी होती गई। वीर-निर्वाण के सात सौ वर्षों के पश्चात पुनः १२ वर्षों का
पनवों का आगमों के लिखित रूप में उपलब्ध हो जाने के दुष्काल पड़ा। नन्दी चूणी में उल्लेख है कि अकाल में पश्चात् आचार्यों को अक्षय निधि प्राप्त हो गई। फिर तो अनेक मेधावी श्रतज्ञों का अवसान हो गया । श्रत परम्परा
सहस्र लोहिये लिपिक सूत्रों की प्रतिलिपियाँ करने में लग अस्तव्यस्त हो गई। दुर्भिक्ष के पश्चात युग प्रधान आचार्य गये। नगर-नगर में ज्ञान के भण्डार स्थापित हो गये । स्कन्दिल के नेतृत्व में मथुरा में श्रत संरक्षण के लिये
मनीषियों को श्रत सागर में अवगाहन करने का अवसर आगम-वाचना का आयोजन किया गया। सुविज्ञ आगम
प्राप्त होने लगा। प्राकृत के साथ संस्कृत शिक्षा की ओर वेत्ता मुनिगणों को बुलाया गया। जिन्हें जिस रूप में
ध्यान गया। फिर तो उनको समझने स्पष्टीकरण करने स्मरण था उसी रूप में संकलित किया गया। मथुरा में
के लिये चूर्णियों, टीकाओं की रचनायें हुई। मूल होने से इसे माथुरी वाचना कहते हैं।
प्राकृत के साथ संस्कृत में टीकायें की गई। आचार्य
हरिभद्र, शीलंकाचार्य, शान्त्याचार्य, मल्लधारी हेमचन्द्र, ___ माथुरी वाचना के समानान्तर ही आचार्य नागार्जुन मलयगिरि, क्षेमकीर्ति, अभय देवसूरि आदि अनेक महाकी अध्यक्षता में वल्लभी (गुजरात) में एक साधु-सभा प्रभावक आचार्यों ने विशेष टीकायें लिखकर श्रत साहित्य समवेत हुई। उसमें भी उपस्थित मुनियों ने अपनी-अपनी
को करामलकवत स्पष्ट कर दिया। स्मृति के आधार पर समस्त अंगों-उपांगों का संकलन व राम्पादन किया। स्मृति आधार होने से इतिवृत्तात्म- याद चाणया या टाकाय न हाता ता हम श्रुत ज्ञान कता में पिष्ट-पेषण होता है। ग्रन्थ-विस्तार कम करने में कोरे ही रह जाते। के लिये अन्य सूत्र का निर्देश देकर सूत्रकार आगे बढ़ गये । खंभात, पाटन व जैसलमेर के ज्ञान भण्डार अपने में तीसरी वाचना-दो-दो वाचनायें सम्पन्न होने पर बहुमूल्य निधियाँ समेटे हुए आज भी श्रत सुरक्षा की
अमर गाथा सुना रहे हैं। भी लेखन द्वारा श्रत साहित्य सुरक्षित रखने की चेष्टा नहीं हुई। वही मुखाग्र रखने की परिपाटी ही रही। अतः वर्तमान में भी हिन्दी, अंग्रेजी व इतर भाषाओं में श्रत साहित्य कुछ ही मेधावी श्रमणों तक ही सीमित रह जेनागमों का प्रकाशन किया गया है जो र गया। अतः तत्कालिक समाज ने चिन्तित होकर स्मृति है। इस सम्बन्ध में हम यदि सम्प्रदायगत कार्य न कर एक आधार के स्थान पर लेखन द्वारा श्रत साहित्य को संरक्षित मंच से समवेत कार्य करें तो श्रत साहित्य अधिक महिमाकरने का संकल्प किया।
मण्डित हो सकता है।
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जैन दर्शन के आलोक में । नयवाद और द्रव्यवाद
स्वीकार नहीं करता है और व्यवहार नय अभेद को नहीं मानता है। नैगम नय का आधार है. भेद और अभेद, ये दोनों एक पदार्थ में विद्यमान हैं। ये सर्वथा रूप से एक हैं, दो नहीं । परन्तु मुख्य एवं गौण भाव से दो हैं । इस दृष्टिकोण में प्रमुखता एक की ही रहती है। द्वितीय सन्मुख रहता है पर गौण रूप से। कभी धर्म मुख्य बनता है और कभी धीं मुख्य बन जाता है। प्रयोजन
और अपेक्षा के अनुसार क्रम में परिवर्तन होता रहता है । ऋजुसूत्र नय का आधार है चरम भेद। यह केवल वर्तमान पर्याय को ही यथार्थ मानता है, उसे ही वास्तविक मानता है । पूर्व एवं पश्चात् की पर्यायों को नहीं। शब्द भेद के अनुसार अर्थ का भेद होता है। यही शब्द नय का मूल
आधार है। प्रत्येक शब्द का अर्थ अलग-अलग है। एक -श्री रमेश मुनि शास्त्री अर्थ के दो वाचक नहीं होते हैं। यही समभिरुढ़ नय की
___ मूल भित्ति है। एवंभूत नय के अनुसार अर्थ के लिये नयवाद जैन दर्शन का एक अतीव मौलिक और अति शब्द प्रयोग उसकी प्रस्तुत क्रिया के अनुसार होना विशिष्ट वाद है। चेतन एवं अचेतन के यथार्थ स्वरूप चाहिये । समभिरूढ़ नय अर्थ की क्रिया में अप्रवृत्त शब्द को समझने के लिये प्रस्तुत वाद एक सर्वांग पूर्ण को उसका वाचक मानता है। वह वाचक और वाच्य के दृष्टिकोण व्यक्त करता है और भिन्न-भिन्न एकान्तिक प्रयोग को त्रैकालिक मानता है। किन्तु एवंभूत नय दृष्टियों में आधारभूत समन्वय स्थापित करता है । स्याद्वाद वाच्य-वाचक के प्रयोग को केवल वर्तमान काल में ही सिद्धान्त का यही मूल आधार है।
स्वीकार करता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार सात नयों नयवाद को समझने के लिये यह नितान्त अनिवार्य के विषय इस रूप में बनते हैं : कि उनके मूल को जानने का प्रयास किया जाए। (१) नैगम-अर्थ का भेद, अभेद और दोनों सामान्य रूपेण वैचारिक जगत में तीन धाराएँ प्रवाहित (२) संग्रह-अभेद । हैं। वे ये हैं-ज्ञानाश्रयी, अर्थाश्रयी और शब्दाश्रयी । (क) पर संग्रह-चरम अभेद जो विचार संकल्प मूलक होता है, उसे ज्ञानाश्रयी कहते
(ख) अपर संग्रह–अवान्तर अभेद हैं। नैगमनय ज्ञानाश्रयी विचार धारा है। जो अर्थ की
(३) व्यवहार-भेद, अवान्तर भेद मीमांसा करता है वह अर्थाश्रयी विचार है। संग्रह, (४) ऋजुसूत्र-चरम भेद व्यवहार और ऋजुसूत्र ये तीनों नय अर्थाश्रयी विचार- (५) शब्द-भेद धारा को लिये हुए हैं। ये नय अर्थ के भेद और अभेद (६) समभिरूढ़-भेद की मीमांसा करते हैं। अर्थाश्रित अभेद व्यवहार को संग्रह (७) एवंभूत-भेद नय में लिया गया है। शब्द,श्रयी विचार धारा वह है जो
इन सात नयों में संग्रह नय की दृष्टि अभेद है । भेद शब्द को प्रधान मानकर चलती है। शब्द, समभिरुढ़ और दृष्टियाँ पाँच है और नेगम नय की दृष्टि भेद और एवंभूत ये तीनों नय शब्दाश्रयी विचार हैं ।
अभेद-दोनों से संयुक्त है। वह संयुक्त दृष्टि इस तथ्य अभेद संग्रह दृष्टि का प्रमुख आधार है और भेद का संसूचक है कि अभेद में ही भेद है और भेद में ही व्यवहार दृष्टि का प्रधान आधार है। संग्रहनय भेद को अभेद है । जैन दर्शन ने भेद के साथ ही अभेद को स्वीकार
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किया है। चेतन और अचेतन ये दोनों पदार्थ ही सत् हैं। अतएव सरख की अपेक्षा से अभिन्न है। पर इन दोनों में स्वभाव भेद अवश्य है, इसलिये भिन्न है । वास्तव में अभेद और भेद दोनों तात्त्विक है क्योंकि भेद-शून्य अभेद में अर्थ किया नहीं होती है, विशेष में ही अर्थ क्रिया होती है । परन्तु अभेद शून्य भेद में भी अर्थ क्रिया नहीं होती है, कारण और कार्य का सम्बन्ध नहीं मिलता है। पूर्व क्षण उत्तर क्षण का कारण तभी बनता है जबकि दोनों में एक ध्र ुव, अर्थात् अभेदांश, अन्वयी माना जाए | एतदर्थ ही जैन दर्शन अभेदाश्रित भेद, और भेदाfar अभेद को मानता है। नय के मुख्य भेद दी हैं। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । नैगम, संग्रह, व्यवहार व ऋजुसूत्र चार नय द्रव्यार्थिक हैं और शब्द, समभिपढ़ और एवंभूत तीन नय पर्यायार्थिक है आध्यात्मिक दृष्टि से नय का वर्गीकरण दो प्रकारसे हुआ है— निश्चय नय और व्यवहार नय। जो नय पदार्थ के मूल और पर निरपेक्ष स्वरूप को बतलाता है वह निश्चय नय कहलाता है और जो नय पराश्रित दूसरे पदार्थों के निमित्त से समुत्पन्न पदार्थ स्वरूप को बतलाता है उसे व्यवहार नय कहते हैं। निश्चय नय भूतार्थ है और व्यवहार नय अभूतार्थ है । तात्पर्य की भाषा में यों भी कहा जा सकता है कि पदार्थ के पारमार्थिक तात्त्विक शुद्ध स्वरूप का ग्रहण निश्चय नय से होता है और अशुद्ध अपारमार्थिक स्वरूप का ग्रहण व्यवहार नय से होता है । व्यवहार नय के मुख्य प्रकार दो हैं : सद्भुत व्यवहार नय और असदभूत व्यवहार नय । एक पदार्थ में गुण गुणी के भेद से, भेद को विषय करने वाला सद्भूत व्यवहार नय है। इसके भी दो प्रकार हैं: उपचरित सभूत व्यवहार नय एवं अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय । सोपाधिक गुण और गुणी में भेद ग्रहण करने वाला उपचरित सद्भुत व्यवहार नय है | freपाधिक गुण और गुणी में भेद ग्रहण करने वाला अनुपचरित सद्द्भुत उपहार नव है। जिस प्रकार जीव का मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि लोक में व्यवहार होता है व्यवहार में उपाधि रूप ज्ञानावरण कर्म के आवरण से कलुषित आत्मा का मल सहित ज्ञान होने से जीव के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान और मनःपर्यंव ये चारों क्षयोपशमिक
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ज्ञान सोपाधिक हैं ¡ अतएव इसे उपचरित सद्भुत व्यवहार नय कहते हैं। निरुपाधिक गुण गुणी के भेद को ग्रहण करने वाला अनुपचारित सद्भूत व्यवहार नय है। उपाधि से मुक्त गुण के साथ जब उपाधि रहित जीव का सम्बन्ध प्रतिपादित किया गया है। तब निरुपाधिक गुण-गुणी के भेद से अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नय सिद्ध हो जाता है। जैसे केवल ज्ञान आत्मा का सर्वथा निरावरण क्षायिक ज्ञान है। अतएव वह निरुपाधिक है । असद्द्भुत व्यवहार नय के दो प्रकार हैं: उपचरित असद्भुत व्यवहार नय एवं अनुपचरित असदभूत व्यवहार नय संश्लेषयुक्त पदार्थ के सम्बन्ध को विषय करने वाला जो नय है वह अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे जीव का शरीर यहाँ पर जीव और देह का सम्बन्ध परिकल्पित नहीं है । किन्तु जीवन पर्यन्त स्थायी होने से अनुपचरित है। जीव एवं देह के भिन्न होने से वह असद्भूत व्यवहार भी है। संश्लेषरहित पदार्थ के सम्बन्ध को विषय करने वाला उपचरित अद्भूत व्यवहार नय है जैसे रामप्रसाद का धन ! यहाँ पर रामप्रसाद का धन के साथ सम्बन्ध माना गया है । किन्तु वास्तव में वह परिकल्पित होने से उपचरित है। रामप्रसाद और धन ये दोनों वस्तुतः भिन्नभिन्न द्रव्य हैं । एक नहीं है। रामप्रसाद और धन का यथार्थ सम्बन्ध नहीं है।
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निश्चय नय पर निरपेक्ष स्वभाव का प्रतिपादन करता
है । जिन-जिन पर्यायों में पर-निमित्त पड़ जाता है उन्हें वह शुद्ध नहीं कहता है। पर जन्य पर्यायों को वह पर मानता है। जैसे जीव के राग-द्वेष, काम-क्रोध, मोह-लोभ प्रभृति भावों में यद्यपि जीव स्वयं उपादान होता है, यही राग - रूप से परिणति करता है परन्तु यह जो भाव है वह कर्म निमित्तक है। अतएव इन्हें वह आत्मा के निज रूप नहीं मानता है। अन्य जीवों और संसार के समस्त अन्य अजीवों को वह अपना मान ही नहीं सकता। परन्तु जिन आत्म-विकास के स्थानों में पर का किञ्चित् मात्र भी निमित्त होता है उन्हें वह 'स्व' नहीं, 'पर' मानता है निश्चय नय की दृष्टि से जीव बद्ध नहीं प्रतीत होता । कर्म बद्ध अवस्था जीव का कालिक स्वभाव नहीं है ।
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क्योंकि कर्म का क्षय होने पर उसकी सत्ता नहीं रहती है। का कार्य है। जब हम कहते हैं कि ज्ञान स्वयं आत्मा है निश्चय नय में जीव के विशुद्ध और निर्विकार स्वरूप का तो यह निश्चय नय की भाषा है और ज्ञान आत्मा का संदर्शन होता है, किन्तु जीव का वैभाविक-भाव परि- एक मौलिक गुण है तो यह व्यवहार नय की भाषा हुई। लक्षित नहीं होता है। निश्चय नय में मन, तन और यहाँ पर आत्मा गुणी है और उसका गुण 'ज्ञान' है। इन्द्रियाँ भी नहीं झलकती है। क्यों कि वे आज हैं, कल गुण कभी भी गुणी से विलग नहीं हो सकता। गुणी और नहीं भी हैं। आत्मा का कर्म बद्ध रूप, स्पृश्य रूप, भेद गुण में अखण्डता और अभेदता होती है। व्यवहार नय रूप तथा अनियत रूप जो साधारण दृष्टि में झलकता है, की दृष्टि से आत्मा को गुणी माना जाता है और ज्ञान को पर है। आत्मा बद्ध नहीं है, अस्पृश्य है, नियत है और उसका गुण माना गया है। यह भेद दृष्टि का प्रतिपादन अभिन्न है। जब तक यह परिबोध नहीं होगा, तब तक है। जैन दर्शन के मन्तव्य के अनुसार गुणी और गुण का जीव भव-बन्धनों से विमुक्त नहीं हो सकता। जहाँ पर तादात्म्य सम्बन्ध है। किन्तु आधार-आधेय भाव का विकल्प है, भेद है वहाँ निश्चय नहीं है। निश्चय नय सम्बन्ध नहीं है जिस प्रकार घृत और पात्र में होता है। वस्तुतः विकल्प और भेद से रहित होता है। उसमें देह, घृत आधेय है और उसका आधार पात्र है। पात्र में इन्द्रिय, मन, कर्म आदि से परे एकमात्र शुद्धतम आरम- घी संयोग सम्बन्ध से रहता है। परन्तु घृत और पात्र की तत्व पर दृष्टि रहती है। कर्म पुद्गल का जो उदय भाव स्वतन्त्र सत्ता है। उनमें तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है है वह यथार्थ में निश्चय दृष्टि का लक्ष्य नहीं है । उसका जबकि जीव और उसके ज्ञान गुण का सम्बन्ध तादात्म्य प्रमुख लक्ष्य है-व्यवहार नय को लांघकर परम विशुद्ध है। जैन दर्शन के अभिमतानुसार गुणी और गुण में न निर्विकार स्थिति पर पहुँचना, जहाँ पर किसी भी प्रकार एकान्त भेद होता है और न एकान्त अभेद। पर का मोह नहीं है, क्षोभ नहीं है, पर्यायों की प्रतिपल- कथंचित् भेद है, और कथंचित अभेद है। ज्ञानगुण जीव . प्रतिक्षण परिवर्तित हो रही दशा, जो भेद रूप दृष्टिगोचर द्रव्य के अतिरिक्त कहीं नहीं रहता है । यह सद्भुत व्यवहार होती है, उससे भी परे जो अभेद-द्रव्यमय भाव है, जो नय है । अनादि काल से अशुद्ध नहीं हुआ है और जब वह अशुद्ध नहीं हुआ तब शुद्ध भी कहाँ रहा? इस प्रकार अशुद्ध एवं निश्चय नय और व्यवहार नय इन दोनों को समझने शुद्ध इन दोनों से परे निर्विकल्प, त्रिकाली, एकमेवा- के लिये कुछ तथ्य और भी ज्ञातव्य हैं। जीव और बद्ध द्वितीय निज स्वरूप है। वही शद्ध निश्चय नय का स्वरूप होने वाले कम-पुद्गल को एक क्षेत्रावगाही बताया गया है। शुद्ध निश्चय नय द्रव्य प्रधान है, वह नारक, तिर्यञ्च है। आकाश रूप क्षेत्र में जीव एवं कर्म दोनों रहते हैं। आदि पर्यायों को ग्रहण नहीं करता है। किन्तु आत्मा के इन दोनों का एक ही क्षेत्र है। प्रस्तुत कथन व्यवहार दृष्टि विशद्ध ज्योतिर्मय स्वरूप को ही ग्रहण करता है। अन्य से है। निश्चय नय की अपेक्षा से प्रत्येक द्रव्य अपने में कोई भी उसके लिये ज्ञातव्य नहीं रहता है और उपादेय ही रहता है। किसी दूसरे में नहीं । जीव जीव में रहता भी नहीं रहता है।
है, कर्म कर्म में रहता है। व्यवहार नय की दृष्टि से जीव आत्मा के असंख्यात और अनन्त विकल्पों का और कर्म एक क्षेत्रावगाही और संयोगी होने से दोनों का परित्याग कर स्व-स्वरूप की प्रतीति करना ही निश्चय नय क्षेत्र एक कहा गया है । जैसे दूध और पानी मिलने पर यह है। निश्चय नय निमित्त को न पकड़ कर उपादान को नहीं कहा जा सकता कि यह दूध का जल है। बल्कि ही पकड़ता है जब कि व्यवहार नय की दृष्टि निमित्त कहा जाता है कि यह दूध है क्योंकि ये दोनों एकमेल हो पर ही होती है। निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों गये हैं। किन्तु निरचय नय की दृष्टि से दूध दूध है, में यह भी अन्तर है कि निश्चय नय अभेद प्रधान है और पानी पानी है। एक क्षेत्रावगाही होने मात्र से दोनों एक व्यवहार नय भेद प्रधान है। भेद में अभेद देखना यह नहीं हो सकते । वैसे ही जीव और कर्म एक क्षेत्रावगाही निश्चय नय है और अभेद में भेद देखना यह व्यवहार नय होने से एक नहीं हो सकते। जीव और कर्म इन दोनों
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की सत्ता पृथक्-पृथक् है। दोनों का स्वभाव एक दूसरे गुण और पर्याय वाला द्रव्य है। उत्पाद एवं व्यय के स्थान से भिन्न है।
पर 'पर्याय' शब्द प्रयुक्त है और ध्रौव्य के स्थान पर 'गुण' ज्ञाता का वह अभिप्राय विशेष 'नय' है जो शब्द का प्रयोग हुआ है। उत्पाद तथा व्यय परिवर्तन के प्रमाण के द्वारा जानी हुई वस्तु के एक अंश-विरोष को सूचक हैं, ध्रौव्य नित्यता की संसचना देता है। गुण ग्रहण करता है। प्रमाण में अंश का विभाजन नहीं हो नित्यता का सूचक है और पर्याय परिवर्तन का वाचक सकता। वह तो पदार्थ को समग्र भाव से ही ग्रहण करता है। प्रत्येक पदार्थ के दो रूप होते हैं-एकता और है। जैसे-यह घड़ा है। घट अनन्त धर्मात्मक है। वह अनेकता। सदृशता और विसदृशता, नित्यता और अनिरूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि अनेक गुण-धर्मों से संयुक्त त्यता, स्थायित्व और परिवर्तन, इन दोनों में से प्रथम पक्ष है । उन गुणों का वर्गीकरण न करके सम्पूर्ण रूप से जानना ध्रौव्य का वाचक है, गुण का सूचक है। द्वितीय पक्ष 'प्रमाण' है और उन गुणों का विभाजन करके जानना उत्पाद और व्यय का प्रतीक है, पर्याय सचक है । पदार्थ 'नय' है। प्रमाण और नय ये दोनों ज्ञान की ही प्रवृ- के स्थायित्व में स्थिरता रहती है, एकरूपता होती है। त्तियाँ हैं। जब ज्ञाता की दृष्टि पूर्ण रूप से ग्रहण करने परिवर्तन में पूर्व रूप का क्षय होता है और उत्तर रूप की की होती है तब उसका ज्ञान प्रमाण' होता है। जब उत्पत्ति होती है। पदार्थ के उत्पाद एवं विनाश में व्यय उसका उसी प्रमाण से ग्रहण की हुई पदार्थ को खण्ड-खण्ड और उत्पत्ति के रहते हुए पदार्थ सर्वथा रूप से विनष्ट रूप से ग्रहण करने का अभिप्राय होता है तब उस अंश- नहीं होता, न सर्वथा नवीन ही उत्पन्न होता है। उत्पाद ग्राही अभिप्राय को 'नय' कहा जाता है। इस प्रकार एवं विनाश के मध्य एक प्रकार की स्थिरता रहती है, यह स्पष्ट है कि प्रमाण और नय ये दोनों ज्ञान के ही जो न विनष्ट होता है और न उसकी उत्पत्ति ही पर्याय हैं।
होती है। प्रमाण को सकलादेश कहा है और नय को विकला
जैन साहित्य का परिशीलन-अनुशीलन करने से विदित देश कहा गया है। सकलादेश में पदार्थ के समस्त धर्मों
होता है कि 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग सामान्य के लिये भी की विवक्षा होती है। किन्तु विकला देश में एक धर्म के
हुआ है। सामान्य एवं जाति को प्रगट करने के लिये अतिरिक्त अन्य धर्मों की विवेचना नहीं होती है।
द्रव्य और व्यक्ति या विरोष को प्रगट करने के लिये सारपूर्ण शब्दों में यह कथन भी यथार्थता को लिये 'पर्याय' शब्द का प्रयोग किया जाता है। सामान्य या हुए है कि नयवाद जैन दर्शन का एक प्राणभूत तत्त्व है द्रव्य दो प्रकार का है। तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता
और दाशे निक-विचारणाओं के समन्वय का आधार- सामान्य। एक ही काल में अवस्थित अनेक देश में रहने स्तम्भ है।
वाले, अनेक पदार्थों में जो सदृशता की अनुभूति होती है जैन दर्शन में द्रव्य, सत. पदार्थ, तत्त्व. तत्त्वार्थ उसे 'तियेक् सामान्य' कहते हैं। जब कालकृत भिन्नआदि शब्दों का प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में हुआ है। भिन्न अवस्थाओं में किसी द्रव्य का अन्वय अथवा एकत्व तत्त्व सामान्य के लिए इन सभी शब्दों का प्रयोग हआ है। विवक्षित हो, एक विशेष वस्तु की अनेक अवस्थाओं की जैन दर्शन तत्व और सत इन दोनों को एकार्थक मानता है। एक-एकता अथवा धोव्य अपेक्षित हो, तब उस धाव्य द्रव्य और सत् में भी एकान्ततः कोई भेद नहीं है। सत्ता सूचक अंश को ऊध्र्वता-सामान्य कहा जाता है। सामान्य की अपेक्षा से सभी सत् हैं। जो सन है वही अन्य जिस प्रकार सामान्य का वर्गीकरण दो प्रकार से हुआ रूप से असत् है। इसी मोलिक दृष्टि को संलक्ष्य में रख है उसी प्रकार विशेष के दो प्रकार हैं-तियक सामान्य कर कहा गया है कि सब एक हैं, क्योंकि सभी सत् हैं। के साथ रहने वाले जो विशेष विवक्षित हो, वह तिर्यक
सत् का स्वरूप क्या है? इस प्रश्न के समाधान में विशेष कहलाता है और ऊर्वता सामान्याश्रित जो पर्याय कहा गया है कि सत् उत्पाद, व्यय और धोव्यात्मक है। हो, उसे ऊर्वता विशेष कहते हैं। द्रव्य के ऊर्ध्वता
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सामान्याश्रित पर्यायों को परिणाम भी कहा गया है। विशेष तथा परिणाम ये दोनों द्रव्य के परिणाम है, क्योंकि ये दोनों परिवर्तनशील हैं। परिणाम में कालभेद की प्रमुखता अवश्य रहती है जब कि विशेष में देश भेद की प्रधानता होती है। जो काल की दृष्टि से परिणाम हैं वे ही देश-दृष्टि से विशेष हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि पर्याय, परिणाम, विशेष, उत्पाद और उपय ये सभी शब्द एकार्थक हैं। द्रव्य-विशेष की विविध अवस्थाओं में इन समस्त शब्दों का अन्तर्भाव हो जाता है। द्रव्य और पर्याय का यथार्थ स्वरूप समझ लेने के पश्चात् यह जान लेना अति आवश्यक है कि द्रव्य और पर्याय इन दोनों में परस्पर क्या सम्बन्ध है । द्रव्य और पर्याय ये दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं या अभिन्न है इस विचारणीय प्रश्न का समाधान यह है कि आत्मा एक द्रव्य है और सामायिक आत्मा की एक अवस्थाविशेष है अर्थात् उसकी एक पर्याय है। सामायिक आत्मा से भिन्न नहीं है । तथ्य यह है कि पर्याय द्रव्य से भिन्न नहीं है। यह द्रव्य और पर्याय की अभेद दृष्टि है। इस दृष्टिकोण का जो समर्थन हुआ है वह आपेक्षिक है । किसी दृष्टि से आत्मा और सामायिक ये दोनों एक हैं । क्योंकि सामायिक आत्मा की एक अवस्था है-आत्मपर्याय है। अतएव सामायिक आत्मा से अभिन्न है, अभेद है। अन्यत्र द्रव्य और पर्याय के भेद का समर्थन किया गया है। पर्याय अस्थिर है, तथापि द्रव्य स्थिर है। इस कथन से स्पष्टतः भेद-रष्टि झलकती है। यदि द्रव्य और पर्याय इन दोनों का परस्पर में एकान्ततः अभेद होता तो पर्याय के विनष्ट होते ही द्रव्य का भी क्षय हो जाता । इसका अर्थ यह है कि पर्याय द्रव्य नहीं है । द्रव्य और पर्याय ये दोनों कथंचित भिन्न हैं । पर्याय बदलती रहती है किन्तु द्रव्य अपने आप में अपरिवर्तनशील है । पर्याय-दृष्टि की प्रमुखता की दृष्टि से द्रव्य एवं पर्याय हुन दोनों के कथंचित् भेद का समर्थन किया जा सकता है । द्रव्य-दृष्टि की प्रधानता से द्रव्य और पर्याय के कथंचित अभेद की परिपुष्टि की जा सकती है। दृष्टि-भेद से द्रव्य और पर्याय के अभेद एवं भेद की विवेचना की जाती है ।
इसी प्रकार आत्मा और शान के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया गया है। ज्ञान आत्मा का एक मौलिक और अतीव विशिष्ट गुण है। ज्ञान की अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है। होता रहता है । किन्तु 'आत्मा' द्रव्य वही रहता है । ऐसी अवस्था में ज्ञान और आत्मा कथंचित् भिन्न है । ज्ञान गुण की आत्मा से भिन्न सर्वतन्त्र - स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । वह आत्मा की ही एक अवस्था विशेष है। इस रष्टिकोण से स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा और शान इन दोनों में कथंचित् अभिन्नता है यदि ज्ञान और आत्मा में एकान्ततः अभेद होता तो ज्ञान गुण के विनाश के साथ ही साथ 'आत्म द्रव्य' का भी क्षय हो जाता। ऐसी अवस्था
।
में एक शाश्वत - अक्षय 'आत्मा' द्रव्य की सिद्धि नहीं होती । यदि आत्मा और शान इन दोनों में कथंचित भेद नहीं होता तो एक व्यक्ति के ज्ञान और दूसरे व्यक्ति के ज्ञान में कोई अन्तर नहीं होता । एक व्यक्ति के ज्ञान की स्मृति अन्य व्यक्ति को भी हो जाती । अथवा इस व्यक्ति के ज्ञान का स्मरण उसे स्वयं को भी नहीं हो पाता। ऐसी अवस्था में ज्ञान के क्षेत्र में अव्यवस्था हो जाती । अतएव आत्मा और शान का कथंचित्र भेद और कथंचित् अभेद मानना ही सर्वथा उचित है। तथ्य यह है कि द्रव्य-दृष्टि से आत्मा और ज्ञान का अभेद सम्बन्ध हैं । और पर्याय की अपेक्षा से दोनों का भेद मानना चाहिये ।
द्रव्य के कितने भेद हैं ? प्रस्तुत प्रश्न के समाधान में कहा गया है कि जहाँ तक द्रव्य सामान्य का प्रश्न
एक है। वहाँ किसी भी प्रकार की भेद कल्पना ससु त्पन्न ही नहीं है। जो द्रव्य है, वह तत्त्व है और सत् है । सत्ता सामान्य की दृष्टि से चिन्तन किया जाय तो एक और अनेक सामान्य और विशेष, चेतन एवं अचेतन गुण और पर्याय सभी एक है। अनेक नहीं है । उक्त दृष्टिकोण संग्रह नय की अपेक्षा से सत्य है। संग्रह नव सर्वत्र अभेद देखता है। भेद की उपेक्षा करके अभेद का जो ग्रहण है वह संग्रह नय का प्रमुख कार्य है। इसी सन्दर्भ में यह तथ्य भी ज्ञातव्य है कि अभेदग्राही संग्रह नय भेद का निषेध नहीं करता है। अपितु भेद को अपने क्षेत्र से बाहर अवश्य समझता है। प्रस्तुत नय का अन्तिम विषय सत्ता सामान्य है। हर द्रव्य सत् है ।
सत्ता
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सामान्य का जो ग्रहण है वह एकता का अन्तिम सोपान द्रव्यों में धर्मास्तिकाय द्रव्य गति का सहायक कारण है है। जहाँ समूचे भेद भेद-रूप से सत् होते हुये भी और अधर्मास्तिकाय द्रव्य स्थिति का है। इस गति और अभेद रूप से प्रतिभासित होते हैं। सत्ता भेदों को विनष्ट स्थिति का आधार आकाशास्तिकाय द्रव्य है और उस नहीं करती है अपितु उनमें सद्भाव और एकत्व में लगने वाले समय का बोधक काल द्रव्य है। यह गति संस्थापित करती है, भेद के रहते हुए भी अभेद और स्थिति रूप क्रिया करने वाले दो द्रव्य हैं-एक है का संदर्शन होता है अनेकता में भी एकता दृष्टि- जीवास्तिकाय और दूसरा है पुदगलास्तिकाय। हम जो गोचर होती है। इस दृष्टि से द्रव्य अथवा तत्त्व एक है। कुछ भी विविधताएं और विचित्रताएँ देखते हैं, वे सभी यदि हम द्वैत-दृष्टि से चिन्तन करते हैं तो द्रव्य को
जीव एवं पुद्गल द्रव्य पर आधारित हैं। इनके द्वारा दो रूपों में देख सकते हैं। ये दो रूप इस प्रकार हैं
लोक-व्यवस्था का चक्र चलता रहता है। ये सभी द्रव्य
अनादि-अनन्त हैं। जीव और अजीव । चैतन्य धर्म वाला 'जीव' है और उससे सर्वथा विपरीत 'अजीप' है। इस प्रकार समूचा छहों द्रव्यों में आकाश द्रव्य सर्वत्र व्यापक है और लोक दो विभागों में विभक्त हो जाता है। जीव और अन्य द्रव्य उसके व्याप्य हैं। आकाश धर्म-अधर्म आदि अजीव के अन्य भेद करने पर द्रव्य के छः भेद हो जाते शेष पाँच द्रव्यों के साथ भी रहता है और उनके अतिरिक्त हैं। जीव द्रव्य अरूपी है, अमूर्त है। अजीव द्रव्य के उनसे बाहर भी रहता है। वह अनन्त है। अतः आकाश दो भेद हैं-रूपी और अरूपी। पुदगल रूपी द्रव्य है। के जितने विभाग में छहो द्रव्य रहते हैं, उसको लोक कहा अरूपी अजीव द्रव्य के चार भेद हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मा- जाता है। लोक के अतिरिक्त शेष अनन्त आकाश स्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल । इन छः द्रव्यों में अलोक हैं। प्रथम के पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं और काल द्रव्य अन- यह समूचा लोक शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, स्तिकाय है।
अवस्थित है। इस लोक को किसी ने बनाया नहीं है और ___ अस्तिकाय का अभिप्राय है-प्रदेश-बहुत्व । अस्ति न कोई इसका रक्षक है, न नाशक है। किन्तु यह अनादि और काय इन दो शब्दों से अस्तिकाय शब्द निर्मित हुआ है, जीव और अजीव से व्याप्त है। यद्यपि लोकाकाश और है। 'अस्ति' का शब्दार्थ है-विद्यमान होना और अलोकाकाश की सीमा-विभाजन करने के लिये दोनों के काय का अर्थ है-प्रदेशों का समूह । जहाँ अनेक प्रदेशों मध्य कोई रेखा-विशेष खींची हुई नहीं है तथापि एक का समूह होता है उसे 'अस्तिकाय' कहते हैं। उक्त प्राकृतिक भेद अवश्य है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय छहों द्रव्यों के समुच्चय को लोक कहा गया है। लोक आदि द्रव्य जितने आकाश के क्षेत्र में विद्यमान हैं उतने का ऐसा कोई विभाग नहीं है जहाँ पर यह द्रव्य न क्षेत्र को लोकाकाश कहा गया है और उसके अतिरिक्त शेष हो। सभी द्रव्यों के लिये लोक आधारभूत है। इसी अनन्त आकाश को अलोकाकाश कहा जाता है। आकाश सन्दर्भ में एक चिन्तनीय प्रश्न खड़ा होता है कि लोक द्रव्य में धर्म-अधर्म आदि द्रव्यों को अवकाश देने के गुण का स्वरूप षड्द्रव्यात्मक क्यों है ? क्या इनके अतिरिक्त को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया गया है। जैसे अन्य कोई द्रव्य नहीं है ? इसका समाधान यह है कि इस घड़ा है, उसमें जल भरा है। उस जलपूर्ण घट में इतनी चराचर विश्व में प्रमुख द्रव्य दो हैं-जीव और अजीव। भी जगह नहीं है कि अन्य कोई वस्तु डालने पर उसमें वे स्थिर भी हैं और गतिशील भी हैं। यह स्थिति और समा जाए। लेकिन यदि उसमें मुट्ठी भर शक्कर डाल गति बिना आधार के नहीं हो सकती। जीव एवं पुद्गल । दी जाए तो वह भी उसमें समा जाती है और जल का की गति और स्थिति आदि के कारण क्या है ? इन कारणों स्तर भी उतना ही बना रहता है। प्रश्न उबुद्ध होता की विवेचना ही समूचा लोक है और उन सभी कारणों को है घड़ा जब जल से भरा है तो शक्कर को समाने के लिये संलक्ष्य में रखकर ही छः द्रव्य माने गये हैं। इन छहों घट में स्थान कहाँ से आया? इसका समाधान यह है कि
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घड़े में पानी भरा है, पर उस जल में भी आकाश है। इस समूचे लोक के अधः, मध्य और ऊर्ध्व यह तीन वह आकाश ही अन्य वस्तुओं को अवकाश देता है । अत- विभाग होने का मध्य बिन्दु मेरु पर्वत के मूल में है। इस एव शक्कर के उदाहरण के अनुसार धर्म-अधर्म पुद्गल मध्यलोक के बीचोबीच जम्बूद्वीप है और जम्बूद्वीप के भी आदि द्रव्य भी आकाश में अवकाश देने के कारण अव- मध्य में मेरु पर्वत है जिसका पाया 'जमीन में एक स्थित है।
हजार योजन और ऊपर जमीन पर ६६००० योजन ऊँचा इस षड्द्रव्यात्मक लोक का आकार 'सुप्रतिष्ठक
है। जमीन के समतल भाग पर इसकी लम्बाई-चौड़ाई संस्थान' वाला है। जमीन पर एक सकोरा उलटा, उस
चारों दिशाओं में दस हजार योजन की है । पर दूसरा सकोरा सीधा और उस पर तीसरा सकोरा
मेरु पर्वत के पाये के एक हजार योजन में नौ सौ उलटा रखने से जो आकार बन जाता है वही लोक का
योजन के नीचे अधोलोक प्रारम्भ हो जाता है और सातवें आकार होता है। लोक के इस आकार का कथन अन्य
नरक तक का लोक 'अधोलोक' है। अधोलोक के ऊपर रूपक के द्वारा भी समझाया गया है। जैसे कि इस लोक
१८०० योजन तक ‘मध्यलोक' है। मध्यलोक के ऊपर का आकार कटि-प्रदेश पर हाथ रखकर तथा पेरों को
का सभी क्षेत्र मुक्ति स्थान पर्यन्त 'ऊर्ध्व लोक' है। इन पसार कर नृत्य करने वाले व्यक्ति के समान है। अतः
तीनों लोकों में अधोलोक एवं ऊर्ध्वलोक इन दोनों की लोक को पुरुषाकार की उपमा से उपमित किया गया है।
ऊँचाई, चौड़ाई से अधिक है तथा मध्यलोक में ऊँचाई प्रथम रूपक में औंधे सकोरे पर दूसरे सीधे और तीसरे
की अपेक्षा लम्बाई-चौड़ाई अधिक है। क्योंकि मध्यलोक औंधे सकोरे के रखने से बनने वाली आकृति सुगमता से
की ऊँचाई तो केवल १८०० योजन-प्रमाण और लम्बाईसमझ में आ जाती है और यह औंधे और फिर सीधे और
चौड़ाई एक रजू प्रमाण है। फिर उलटे सकोरे के रखने से बनने वाले आकार से लोक के अधोलोक, मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक के आकार का परि- सारपूर्ण शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जहाँ बोध भी सरलता से हो जाता है। प्रथम उलटे रखे हुये हम रहते हैं वह लोक है। लोक का सदभाव अलोक सकोरे के समान अधोलोक है,ऊपर सकरा और नीचे चौड़ा के अभाव में नहीं हो सकता। अतः अलोक भी है। लोक दूसरे सीधे रखे हुये सकोरे के तल भाग के सदृश मध्यलोक और अलोक का विभाजन नवीन नहीं है, शाश्वत है, और उससे लेकर पाँचवें देवलोक तक का भाग नीचे नित्य है, ध्रव है और उनके विभाजन के जो तत्त्व हैं वे सकरा और ऊपर चौड़ा है तथा द्वितीय के ऊपर रखे गये शाश्वत हैं। यह एक ज्ञातव्य तथ्य है कि कृत्रिम पदार्थ तृतीय उलटे सकोरे के समान पाँचवें देवलोक से लेकर से शाश्वतिक वस्तु का विभाजन नहीं हो सकता। छहों सर्वार्थसिद्ध विमान तक का आकार है ।
द्रव्य शाश्वतिक है, अनादि निधान है।
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परिणाम है ।२ प्राचीन साहित्य में शरीर के वर्ण, आणविक आभा और उससे प्रभावित होने वाले विचार इन तीनों अर्थों में लेश्या पर विश्लेषण किया गया है। शरीर का वर्ण और आणविक आभा को द्रव्य लेश्या कहा जाता है और विचार को भाव लेश्या ।४ द्रव्य लेश्या पुद्गल है। पुद्गल होने से वैज्ञानिक साधनों के द्वारा भी उन्हें जाना जा सकता है और प्राणी में योग प्रवृत्ति से होने वाले भावों को भी समझ सकते हैं। द्रव्य लेश्या के पुदगलों पर वर्ण का प्रभाव अधिक होता है। वे पुद्गल कर्म,
द्रव्य-कषाय, द्रव्य-मन, द्रव्य-भाषा के पुद्गलों से स्थूल हैं लेश्या : एक विश्लेषण
किन्तु औदारिक-शरीर, वे क्रिय-शरीर, शब्द, रूप, रस, -साहित्य वाचस्पति श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री गन्ध आदि से सूक्ष्म हैं। ये पुद्गल आरमा के प्रयोग में
आने वाले पुद्गल हैं अतः इन्हें प्रायोगिक पुद्गल कहते लेश्या जैन-दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है। हैं। यह सत्य है कि ये पुद्गल आत्मा से नहीं बँधते हैं, जैन-दर्शन के कर्म सिद्धान्त को समझने में लेश्या का किन्तु इनके अभाव में कर्मबन्धन की प्रक्रिया भी नहीं महत्वपूर्ण स्थान है। इस विराट विश्व में प्रत्येक संसारी होती। आत्मा में प्रतिपल प्रतिक्षण होने वाली प्रवृत्ति से सूक्ष्म कर्म आत्मा जिसके सहयोग से कर्म में लिप्त होती है, वह पदगलोंका आकर्षण होता है। जब वे पुद्गल स्निग्धता व लेश्या है। लेश्या का व्यापक दृष्टि से अर्थं करना चाहें तो रुक्षता के कारण आत्मा के साथ एकमेव हो जाते हैं तब इस प्रकार कर सकते हैं कि पुद्गल द्रव्यके संयोग से होने उन्हें जैन दर्शन में 'कर्म' कहा जाता है।
वाले जीवके परिणाम और जीवकी विचार शक्ति को प्रभालेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है । जीव वित करने वाले पुद्गल द्रव्य और संस्थान के हेतुभूत वर्ण से पुद्गल और पुद्गल से जीव प्रभावित होते हैं। जीव और कान्ति । भगवती सूत्र में जीव और अजीव दोनों की को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेक समूह हैं । उनने आत्म-परिणति के लिए लेश्या शब्द व्यवहृत हुआ है । से एक समूह का नाम लेश्या है। उत्तराध्ययन की वृहत् जैसे चूना और गोबर से दीवार का लेपन किया जाता है वृत्ति में लेश्या का अर्थ आणविक आभा, कान्ति, प्रभा वैसे ही आत्मा पुण्य-पाप या शुभ और अशुभ कर्मों से
और छाया किया है। मूलाराधना में शिवार्य ने लिखा लोपी जाती है अर्थात जिसके द्वारा कर्म आत्मा में लिप्त है 'लेश्या छाया पुद्गलों से प्रभावित होने वाले जीव हो जाते है वह लेश्या है।५ १ बृहद वृत्ति, पत्र ६५०। लेशयति श्लेषयतीवात्मनि जननयननिति लेश्या-अतीव चक्षुराक्षेपिकास्निग्धदीप्त रुपा
छाया। २ मूलाराधना, ७/१६०७ । जब बाहिरलेस्साओ, किण्हादीओ ध्वति पुरिसस्स । अब्भन्तरलेस्साओ, तहकिण्हादीय
पुरिसस्स ॥ (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ४६४। वपणोदयेण जणिदो सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा। सा सोढा किण्हादी
अणेयभेया सभेयेण ॥ (ख) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५.३६ । ४ उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५४० । ५ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ४८६, ५० स० (प्रा०) १/१४२-३ ।
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दिगम्बर आचार्य वीरसेन के शब्दों में 'आत्मा और गणधर गौतम ने भगवान महावीर से जिज्ञासा कीकर्म का सम्बन्ध कराने वाली प्रवृत्ति लेश्या है ।' ६ मिथ्यात्व भगवन् ! बाण के जीवों को मार्ग में जाते समय कितनी अवत, कषाय, प्रमाद और योग के द्वारा कर्मों का सम्बन्ध क्रियाएँ लगती हैं ? उसके हर एक अवयव की कितनी आत्मा से होता है । क्या वे ही लेश्या हैं ? पूज्यपाद ने क्रियाएँ होती हैं ? उत्तर में भगवान ने कहा-गौतम, सर्वार्थ सिद्धि में कषायों के उदय से अनुरंजित मन, वचन चार-पाँच क्रियाएँ होती हैं। क्योंकि मार्ग में जाते समय
मार्गवी जीवों को वह संत्रस्त करता है। वाण के प्रहार राजवातिक में अकलंक ने भी उसी का अनुसरण से वे जीव अत्यन्त सिकड जाते हैं। प्रस्तुत सन्तापकारक किया है।
स्थिति में जीव को चार क्रियाएँ लगती हैं, यदि प्राणाति__ सार यह है कि केवल कषाय और योग लेश्या नहीं पात हो जाय तो पाँच क्रियाएँ लगती हैं। यही स्थिति है, किन्तु कषाय और योग दोनों ही उसके कारण हैं। तेजो-लेश्या की भी है। उसमें भी चार-पाँच क्रियाएँ इसलिए लेश्या का अन्तर्भाव न तो योग में किया जा लगती हैं। अष्टस्पशी पुद्गल-द्रव्य मार्गवती जीवों को सकता है और न कषाय में। क्योंकि इन दोनों के संयोग उद्वेग न करे, यह अस्वाभाविक है। भगवती में स्कन्दक से एक तीसरी अवस्था समुत्पन्न होती है जेसे शरबत । मनि का 'अविहिलेश्य' यह विशेषण है जिसका अर्थ है कितने ही आचार्य मानते हैं कि लेश्या में कषाय की प्रधा- उनकी लेश्या यानि मनोवृत्ति संयम से बाहर नहीं है।११ नता नहीं अपितु योग की प्रधानता होती है क्योंकि केवली आचारांग के प्रथम श्रतस्कन्ध में श्रद्धा का उत्कर्ष प्रतिमें कषाय का अभाव होता है, किन्तु योग की सत्ता रहती पादित करते हुए मनोयोग के अर्थ में लेश्या का प्रयोग है, इसलिए उसमें शुक्ल लेश्या है।
हुआ है। शिष्य गुरु की दृष्टि का अनुगमन करे । षट् खण्डागम की धवला टीका में लेश्या के सम्बन्ध उनकी लेश्या में विचरे अर्थात उनके विचारों का अनुमें निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, गमन करे । १२ प्रज्ञापना, जीवाभिगम, उत्तराध्ययन, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि आगम साहित्य में लेश्या शब्द का अल्प-बहुत्व प्रभृति अधिकारों के द्वारा चिन्तन किया है। प्रयोग वर्ण प्रभा और रंग के अर्थ में भी हुआ है। प्रज्ञाआगम साहित्य में अट्ठाइस लब्धियों का वर्णन है। उनमें पना में देवों के दिव्य प्रभाव का वर्णन करते हुए द्युति, एक तेजस् लब्धि है। तेजोलेश्या अजीव है। तेजो- प्रभा, ज्योति, छाया, अचि और लेश्या शब्द का प्रयोग लेश्या के पुद्गलों में जिस प्रकार लाल प्रभा और कान्ति हुआ है । १३ इसी प्रकार नारकीय जीवों के अशुभ कर्म होती है वैसी ही कान्ति तेजस लब्धि के प्रयोग करने वाले विपाकों के सम्बन्ध में गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत कीपुद्गलों में भी होती है। इसी दृष्टि से तेजस्-लब्धि के क्या सभी नारकीय जीव एक सदश लेश्या और एक सदृश साथ लेश्या शब्द भी प्रयुक्त हुआ है।
वर्ण वाले होते हैं या असमान ? समाधान करते हुए
६ धवला, ७, २, १, सू० ३, पृ०७ । . सर्वार्थसिद्धि. २/B. तत्वार्थ राजवार्तिक २/६/८। ८ तत्त्वार्थ राजवार्तिक, २, ६, ८, पृ० १०६ । ' धवला, १, १, १, ४, पृ० १४६ । १० तत्तेणं से उसु उडढं बेहासं उविहिए समाणे जाई तत्थ पाणाई अभिहणई वत्तेति लेस्सेत्ति-भग० २/५, उ०६ । ११ अविहिल्लेसे, भगवती, २-२, उ०१ । १२ आचारांग, अ० ५। १३ प्रज्ञापना, पद २।
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भगवान महावीर ने कहा-सभी जीव समान लेश्या और हैं। कषाय होने पर लेश्या में चारों प्रकार के बन्ध समान वर्ण वाले नहीं होते । जो जीव पहले नरक में उत्पन्न होते हैं। प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध का सम्बन्ध योग हुए हैं वे पश्चात उत्पन्न होने वाले जीवों की अपेक्षा से है और स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध का सम्बन्ध विशुद्ध वर्ण वाले और लेश्या वाले होते हैं। इसका कारण कषाय से है। जब कषाय जन्य बन्ध होता है तब लेण्याएं नारकीय जीवों के अप्रशस्त वर्ण नाम कर्म की प्रकृति तीव्र कम स्थिति वाली होती है। केवल योग में स्थिति और अनुभाग वाली होती है जिसका विपाक भव सापेक्ष्य है। अनुभाग नहीं होता, जेसे तेरहवें गुणस्थानवी अरिहन्तों जो जीव पहले उत्पन्न हुए हैं इन्होंने बहुत सारे विपाक के ईर्यापथिक क्रिया होती है, किन्तु स्थिति, काल और को पा लिया है, स्वल्प अवरोष है। जो बाद में उत्पन्न अनुभाग नहीं होता। जो दो समय का काल बताया गया हुए हैं उन्हें अधिक भोगना है। एतदर्थ पूर्वोत्पन्न विशुद्ध है वह काल वस्तुतः ग्रहण करने का और उत्सर्ग का काल हैं और पश्चादुत्पन्न अविशुद्ध हैं। इसी तरह जिन्होंने है। वह स्थिति और अनुभाग का काल नहीं है। अप्रशस्त लेश्या-द्रव्यों को अधिक मात्रा में भोगा है वे
तृतीय अभिमतानुसार लेश्या द्रव्य योगवर्गणा के विशुद्ध हैं और जिनके अधिक शेष हैं वे अविशुद्ध लेश्या
अन्तर्गत स्वतन्त्र द्रव्य है। बिना योग के लेश्या नहीं वाले हैं।
होती। लेश्या और योग में परस्पर अन्वय और व्यतिरेक हम पूर्व लिख चुके हैं कि लेश्या के दो भेद हैं- सम्बन्ध है। लेश्या के योग निमित्त में दो विकल्प द्रव्य और भाव । द्रव्यलेश्या पुद्गल विशेषात्मक है । इसके समुत्पन्न होते हैं। क्या लेश्या को योगान्तर्गत द्रव्य रूप स्वरूप के सम्बन्धमें मुख्य रूप से तीन मान्यताएं प्राप्त हैं- मानना चाहिए ? अथवा योग निमित्त कर्म द्रव्य रूप ? कर्मवर्गणा निष्पन्न, कर्म निस्यन्द और योगपरिणाम ।१४ यदि वह लेश्या द्रव्य-कर्म रूप है तो घातीकर्म द्रव्य रूप है उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार शांतिसरि का अभि
____ या अघाती कर्म द्रव्य रूप है ? लेश्या घातीकर्म द्रव्य रूप
नहीं है। क्योंकि घाती कर्म नष्ट हो जाने पर भी लेश्या मत है कि द्रव्य लेश्या का निर्माण कर्मवर्गणा से होता है।
होती है। यदि लेश्या को अघाती कर्म द्रव्य स्वरूप माने यह द्रव्य लेश्या कर्मरूप है तथापि वह आठ कर्मों से पृथक् है, जैसे कि कार्मण शरीर। यदि लेया को कर्मवर्गणा
तो अघाती कर्मों वालों में भी सर्वत्र लेश्या नहीं है ।
चौदहवें गुणस्थान में अघाती कर्म है, किन्तु वहां लेश्या निष्पन्न न माना जाय तो वह कर्म स्थिति विधायक नहीं
का अभाव है। इसलिए योग-द्रव्य के अन्तर्गत ही द्रव्य बन सकती। कर्म लेश्या का सम्बन्ध नामकर्म के साथ
स्वरूप लेश्या मानना चाहिए। है। उसका सम्बन्ध शरीर रचना सम्बन्धी पुद्गलों से है। उसकी एक प्रकृति शरीर नामकर्म है। शरीर नाम
लेश्या से कषायों की वृद्धि होती है ; क्योंकि योग कर्म के पुद्गलों का एक समूह कर्म लेण्या है ।१५
द्रव्यों में कषाय बढ़ाने का सामर्थ्य है। प्रज्ञापना की टीका
में आचार्य ने लिखा है-कर्मों के द्रव्य विपाक होने वाले दूसरी मान्यता की दृष्टि से लेश्या द्रव्य कर्म निस्यन्द और उदय में आने वाले दोनों प्रयत्नों से प्रभावित होते रूप है । यहां पर निस्यन्द रूप का तात्पर्य बहते हुए कर्म- हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अपना कर्तृत्व दिखाते प्रवाह से है। चोदहवें गुण स्थान में कम की सत्ता है, हैं। जिसे पित्त-विकार हो उसका क्रोध बढ़ जाता है। प्रवाह है। किन्तु वहाँ पर लेश्या नहीं है। वहाँ पर नये ब्राह्मी का सेवन ज्ञानावरण को कम करने में सहायक है। कर्मों का आगमन नहीं होता।
मदिरापान से ज्ञानावरण का उदय होता है। दही के ___ कषाय और योग ये कर्म बन्धन के दो मुख्य कारण सेवन से निद्रा की अभिवृद्धि होती है। निद्रा जो दर्शना१४ प्रज्ञा० पद १७ टीका, पृ० ३३३ । १५ कर्म द्रव्यलेश्या इति सामान्याऽभिधानेऽपि शरीर नामकर्म द्रव्यष्येव कर्म द्रव्य लेश्या। कार्मण शरीरवत् पृथगेव
काष्टकात कर्म वर्गणा निष्पन्नानि कम लेश्या द्रव्यानीति तत्त्वं पुनः। उत्तरा०, अ० ३४ टी०, पृ. ६५० ।
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वरण का औदयिक फल है। अतः स्पष्ट है कषायोदय में पर लेश्या भी है, तथापि स्थिति का बन्धन नहीं होता अनुरंजित योग प्रवृत्ति है। (लेश्या) स्थितिपाक में है। प्रश्न है-समुच्छिन्न शुक्ल ध्यान को ध्याते हुए सहायक होती है।
चौदहवें गुण स्थान में चार कर्म विद्यमान हैं तथापि वहां गोम्मटसार में आचार्य नेमिचन्द्र ने योग-परिणाम पर लेश्या नहीं है। उत्तर है-जो आत्माएँ कर्म युक्त स्वरूप लेश्या का वर्णन किया है । १७ आचार्य पूज्यपाद हैं उन सभी के कर्म-प्रवाह चालू ही रहें. ऐसा नियम नहीं ने सर्वार्थ सिद्धि में '८ और गोम्मटसार के जीव काण्ड
है। यदि इस प्रकार माना जायेगा तो योग परिणाम खण्ड में कषायोदय अनुरंजित योग प्रवृति को लेश्या
लेश्या का अर्थ होगा योग ही लेश्या है। किन्तु इस कहा है। प्रस्तुत परिभाषा के अनुसार दसवें गुण स्थान प्रकार नहीं है। उदाहरण के रूप में सूर्य के बिना किरणे तक ही लेश्या हो सकती है। प्रस्तुत परिभाषा अपेक्षाकृत
नहीं होती; किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि किरणें ही होने से पूर्व की परिभाषा से विरुद्ध नहीं है। अब हम सूर्य हैं। तात्पर्य यह है बहता हुआ जो कर्म प्रवाह है संक्षेप में तीनों परिभाषाओं के सम्बन्ध में चिन्तन करेंगे। वही लेश्या का उपादान कारण है। __ प्रथम कर्मवर्गणानिष्पन्न लेश्या को मानने वाली
तृतीय योग-परिणाम लेश्या कर्म निस्यन्द स्वभाव युक्त एक परम्परा थी, किन्तु इस पर विस्तार के साथ लिखा नहीं है। यदि इस प्रकार माना जायेगा तो ईपिथिक हुआ साहित्य उपलब्ध नहीं है।
मार्ग स्थिति बन्ध बिना कारण का होगा। आगम साहित्य द्वितीय कर्म निस्यन्द लेश्या मानने वाले आचार्गाने में ही समय स्थिति वाले अन्तमहूर्त काल को भी निर्धारित योग-परिणाम लेश्या को स्वीकार नहीं किया है। इनका
काल माना है। अतः स्थिति बन्ध का कारण कषाय मन्तव्य है कि लेश्या योग-परिणाम नहीं हो सकती क्योंकि '
नहीं अपितु लेश्या है। जहाँ पर कषाय रहता है वहाँ कर्मबन्ध के दो कारणों में से योग के द्वारा प्रवृत्ति और पर तान
पर तीव्र बन्धन होता है। स्थिति बन्ध की परिपक्वता प्रदेश का ही बन्ध हो सकता है. स्थिति और अनभाग का कषाय से होती है। अतः कर्म प्रवाह को लेश्या मानना बन्ध नहीं हो सकता। जबकि आगम साहित्य में स्थिति तक संगत नहीं है। का लेश्या काल प्रतिपादित किया गया है, वह इस कर्मों के कर्मसार और कर्म-असार ये दो रूप हैं। परिभाषा को मानने से घट नहीं सकेगा। अतः कर्म प्रश्न हैं -कर्मों के असार भाव को निस्यन्द मानते हैं तो निस्यन्द लेश्या मानना ही तर्क संगत है ।२० जहाँ पर असार कर्म प्रकृति से लेश्या के उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध का लेश्या की स्थिति काल का बन्धन होता है वहाँ पर चारों कारण किस प्रकार होगा ? और यदि कर्मों के सार भाव का बन्ध होगा। जहाँ पर कषाय का अभाव है वहाँ पर को निस्यन्द कहेंगे तो आठ कर्मों में से किस कर्म के सार योग के द्वारा दो का ही बन्धन होगा। उपशान्त मोह भाव को कहें। यदि आठो ही कर्मों का माना जाय
और क्षीण मोह आत्माओं में कर्म-प्रवाह प्रारम्भ है, वहां तो जहां पर कर्मों के विपाक का वर्णन है वहां पर किसी १६ प्रज्ञापना, १७ टीका, पृ० ३३० । १७ अयदोत्तिछ लेस्साओ, सहतियलेस्साहु देस विरद तिये।
तत्तो सुक्का लेस्सा, अजोगिठाणं अलेस्सं तु ॥ -गोम्मटसार, जीव काण्ड, ५३२ १८ भावलेश्या कषायोदयरंजितायोगप्रवृत्तिरितिकृत्या औदयिकीत्युच्यते । -सर्वार्थ सिद्धि, अ० २, सू०२। १. जोगपउती लेस्सा कषायउदयाणुरंजिया होइ ।
'तत्तो दोणं कज्ज बन्धचउक्कं समुद्दि ठं॥ -गोम्मटसार, जीव काण्ड, ४६० २० (क) उत्तराध्ययन, अ० ३४ टी०, पृ० ६५० ।
(ख) प्रज्ञापना, १७, पृ०, ३३१ । २१ उत्तराध्ययन, अ० ३४, पृ० ६५० ।
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भी कर्म का लेश्या के रूप में विपाक का प्रतिपादन नहीं (३) कापोतलेश्या अशुद्ध क्लिष्ट हुआ है। एतदर्थ योग परिणाम को ही लेश्या मानना (४) तेजस लेश्या शुद्ध । अक्लिष्ट चाहिए ।२२ उपाध्याय विनय विजयजी ने लोक-प्रकाश में (५) पदम लेश्या शुद्धतर अक्लिष्टतर इस तथ्य को स्वीकार किया है । २३
(६) शुक्ललेश्या शुद्धतम अक्लिष्टतम भावलेश्या आत्मा का परिणाम विशेष है, जो संक्लेश
प्रस्तुत अशुद्धि और शुद्धि का आधार केवल निमित्त और योग के अनुगत है। संक्लेश के जघन्य, मध्यम,
ही नहीं अपितु निमित्त और उपादान दोनों हैं। अशद्धि उत्कृष्ट ; तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम ; मन्द, मन्दतर, मन्दतम
का उपादान कषाय की तीव्रता है और उसके निमित्त आदि विविध भेद होने से भाव लेश्या के अनेक प्रकार हैं;
कृष्ण, नील, का पोत रंगवाले पुद्गल हैं और शद्धि का तथापि संक्षेप में उसे ६ भागों में विभक्त किया है । अर्थात
उपादान कषाय की मन्दता है और उसके निमित्त रक्त, मन के परिणाम शुद्ध और अशुद्ध दोनों ही प्रकार के होते
पीत और श्वेत रंग वाले पुद्गल हैं। उत्तराध्ययन में हैं और उनके निमित्त भी शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार लेश्या का नाम, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, के होते हैं। निमित्त अपना प्रभाव दिखाता है जिससे स्थान. स्थिति, गति और आयु इन ग्यारह प्रकार से मन के परिणाम उससे प्रभावित होते हैं। दोनों का पार
लेश्या पर चिन्तन किया है । २६ स्परिक सम्बन्ध है। निमित्त को द्रव्यलेश्या और मन के
___आचार्य अकलंक ने तत्त्वार्थराजवार्तिक २७ में लेश्या परिणाम को भाव लेश्या कहा है। जो पुद्गल निमित्त बनते हैं, उनमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श सभी होते हैं
पर (१) निर्देश (२) वर्ण (३) परिणाम (४) संक्रम तथापि उनका नामकरण वर्ण के आधार पर किया गया
(५) कर्म (६) लक्षण (७) गति (८) स्वामित्व (६) साधना है। सम्भव है गन्ध, रस और स्पर्श की अपेक्षा वर्ण मानव
. (१०) संख्या (११) क्षेत्र (१२) स्पर्शन (१३) काल को अधिक प्रभावित करता है। कृष्ण, नील और कपोत
(१४) अन्तर (१५) भाव (१६) अल्प बहुत्व इन सोलह
प्रकारों से चिन्तन किया है। ये तीन रंग अशुभ हैं और इन रंगों से प्रभावित होने वाली लेश्याएँ भी अशुभ मानी गयी हैं और उन्हें अधर्म-लेश्याएं जितने भी स्थल परमाणु स्कन्ध हैं वे सभी प्रकार के कहा गया है ।२४ तेजस्, पद्म और शुक्ल ये तीन वर्ण रंगों और उपरंगों वाले होते हैं। मानव का शरीर स्थूल शुभ हैं और उनसे प्रभावित होने वाली लेश्याएँ भी शुभ स्कन्ध वाला है। अतः उसमें सभी रंग है। रंग होने हैं। इसलिए तीन लेश्याओं को धर्म लेश्या कहा है ।२५ से वह बाह्य रंगों से प्रभावित होता है और उसका प्रभाव
अशुद्धि और शुद्धि की दृष्टि से ६ लेश्याओं का वर्गी- मानव के मानस पर भी पड़ता है। एतदर्थ ही भगवान करण इस प्रकार किया है
महावीर ने सभी प्राणियों के प्रभाव व शक्ति की दृष्टि से (१) कृष्ण लेश्या अशुद्धतम
क्लिष्टतम शरीर और विचारों को छः भागों में विभक्त किया है (२) नीललेश्या अशुद्धतर क्लिष्टतर और वही लेश्या है। २२ (क) न लेश्या स्थिति हेतवः किन्तु कषायाः लेश्यास्तु कषायोदयान्तर्गताः अनुभाग हेतवः अतएव च स्थिति
पाक विशेषतस्य भवति लेश्या विशेषण । -उत्तराध्ययन, ३४, पृ० ६५० ।
(ख) प्रज्ञापत्ता, १७, पृ० ३३१ । २३ लेसाणां निक्खेवो च उकओ दुविहो उ होई नायव्यो। -लोक प्रकाश, ५३४
उत्तराध्ययन, ३४/५६ ।
उत्तराध्ययन, ३४/५७ । २६ उत्तराध्ययन, ३४/३ । २७ तत्त्वार्थराजवार्तिक, १६, पृ० २३८ ।
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डॉ० हर्मन जेकोबी ने लिखा है जेनों के लेश्याओं के है। वस्त्र कम करना और वस्त्रों का पूर्ण त्याग कर देना सिद्धान्त में तथा गोशालक के मानवों को छः विभागों में अभिजातियों की श्रेष्ठता व ज्येष्ठता का कारण है। विभक्त करने वाले सिद्धान्त में समानता है। इस बात
अपने प्रधान शिष्य आनन्द से तथागत बुद्ध ने कहाको सर्वप्रथम प्रोफेसर ल्युमेन ने पकड़ा; पर इस सम्बन्ध में
मैं भी छः अभिजातियों का प्रतिपादन करता हूँ।
है मेरा विश्वास है जैनों ने यह सिद्धान्त आजीविकों से लिया और उसे परिवर्तित कर अपने सिद्धान्तों के साथ समन्वित
१ कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक (नीच कुल में पैदा
हुआ) हो और कृष्ण धर्म (पापकृत्य) करता है। कर दिया।२८ प्रो० ल्युमेन तथा डॉ. हर्मन जेकोबी ने मानवों का
२ कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक हो और शुक्ल धर्म
करता है। छ: प्रकार का विभाजन गोशालक द्वारा माना है, पर अंगुत्तरनिकाय से स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत विभाजन
३ कोई व्यक्ति कृष्णा भिजातिक हो और अकृष्णगोशालकद्वारा नहीं अपितु पूरणकश्यपके द्वारा किया गया अशुका
अशक्ल निर्वाण को समुत्पन्न करता है। था।२९ दीघनिकाय में छः तीर्थंकरों का उल्लेख है, ४ कोई व्यक्ति शुक्लाभिजातिक ( उच्च कुल में उनमें पुरणकश्यप भी एक हैं जिन्होने रंगों के समुत्पन्न हुआ) हो तथा शुक्ल धर्म (पुण्य) करता है। आधार पर छ: अभिजातियां निश्चित की थीं। वे इस
५ कोई व्यक्ति शुक्लाभिजातिक हो और कृष्ण धर्म प्रकार हैं
करता है। १ कृष्णाभिजाति-क्रूर कर्म करने वाले सौकरिक,
६ कोई व्यक्ति शुक्ला भिजातिक हो और अशुक्लशाकुनिक प्रभृति जीवों का समूह ।
अकृष्ण निर्वाण को समुत्पन्न करता है।३२ २ नीलाभिजाति-बोद्ध श्रमण और कुछ अन्य कम- प्रस्तुत वर्गीकरण जन्म और कर्म के आधार पर किया वादी, क्रियावादी भिक्षुओं का समूह ।
गया है। इस वर्गीकरण में चाण्डाल, निषाद आदि जातियों ३ लोहिताभिजाति-एक शाटक निर्ग्रन्थों का समूह। को शुक्ल कहा है। कायिक, वाचिक और मानसिक ४ हरिद्राभिजाति-श्वेत वस्त्रधारी या निर्वस्त्र । जो दुश्चरण हैं वे कृष्ण धर्म हैं और उनका जो श्रेष्ठ ५ शुक्ला भिजाति-आजीवक श्रमण-श्रमणियों का आचरण है वह शुक्ल धर्म है पर निर्वाण न कृष्ण है, न समूह ।
शुक्ल है। ६ परम शुक्लाभिजाति-आजीवक आचार्य, नन्द, इस वर्गीकरण का उद्देश्य है नीच जाति में समुत्पन्न वत्स, कृष, सांस्कृत्य मस्करी गोशालक प्रभृति का व्यक्ति भी शुक्ल धर्म कर सकता है और उच्च कुल में
उत्पन्न व्यक्ति भी कृष्णधर्म करता है। धर्म और निर्वाण आनन्द की जिज्ञासा पर तथागत बुद्ध ने कहा--ये का सम्बन्ध जाति से नहीं है। छः अभिजातियाँ अव्यक्त व्यक्ति द्वारा किया हुआ प्रति- प्रस्तुत विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि पूरणकश्यप पादन है। प्रस्तुत वर्गीकरण का मूल आधार अचेलता और तथागत बुद्ध ने छः अभिजातियों का जो वर्गीकरण २८ Sacred Books of the East, Vol. XLV, Introduction p.xxx. २९ अंगुत्तरनिकाय, ६-६-३, भाग ३, पृ०६३ । ३० दीघनिकाय, १/२, पृ०१६, २० । ३१ अंगुत्तरनिकाय, ६/६/३, भाग ३, पृ० ३५, ६३-६४ | ३२ (क) अंगुत्तरनिकाय, ६/६/३, भाग ३, पृ० ६३-६४ ।
(ख) दीघनिकाय, ३/१०, पृ० २२५ ।
समूह ।
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किया है उसका सम्बन्ध लेश्या के साथ नहीं है । लेश्याओं कि जैन दर्शन ने यह वर्णन महाभारत से लिया है । क्योंकि का जो सम्बन्ध है वह एक-एक व्यक्ति से है। विचारों अन्य दर्शनों ने भी रंग के प्रभाव की चर्चा की है। पर को प्रभावित करने वाली लेश्याएं एक व्यक्ति के जीवन में जैनाचार्यों ने इस सम्बन्ध में जितना गहरा चिन्तन किया समय के अनुसार छः भी हो सकती है।
है इतना अन्य दर्शनों ने नहीं किया। उन्होंने तो केवल छः अभिजातियों की अपेक्षा लेश्या का जो वर्गीकरण इसका वर्णन प्रासंगिक रूप से ही किया है। अतः डॉ० है वह वर्गीकरण महाभारत से अधिक मिलता-जुलता है। हमन जेकोबी का यह मानना कि लेश्या का वर्णन जैनियों एकबार सनत्कुमार ने दानवों के अधिपति वृत्रासुर से कहा ने अन्य परम्पराओं से लिया है, तर्कसंगत नहीं है। -प्राणियों के छः प्रकार के वर्ण हैं : (१) कृष्ण (२) धूम्र कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण ने गति के कृष्ण और ३) नील (४) रक्त (५) हारिद्र ओर (६) शक्ल | कृष्ण शक्ल में दो विभाग किये। कृष्ण गति वाला पुनः-पुनः और नील वर्ण का सुख मध्यम होता है। रक्त वर्ण अधिक जन्म-मरण ग्रहण करता है, शक्ल गति वाला जन्म और सहन करने योग्य होता है। हारिद्र वर्ण सुखकर होता मरण से मुक्त हो जाता है । ३६
धम्मपद ३७ में धर्म के दो विभाग किये हैं-कृष्ण और ___ महाभारत में कहा है-कृष्ण वर्ण वाले की गति नीच शुक्ल । पण्डित मानव को कृष्ण धर्म का परित्याग कर होती है। जिन निकृष्ट कर्मों से जीव नरक में जाता है शुक्ल धर्म का पालन करना चाहिए। वह उन कर्मों में सतत आसक्त रहता है। जो जीव नरक महर्षि पतंजलि ने कर्म की दृष्टि से चार जातियां प्रतिसे निकलते हैं उनका वर्ण धूम्र होता है जो रंग पशु-पक्षी पादित की हैं-(१) कृष्ण (२) शक्ल-कृष्ण (३)शक्ल (४) जाति का है। मानव जाति का रंग नीला है । देवों का अशक्ल-अकृष्ण, जो क्रमशः अशद्धतर, अशद्ध, शद्ध और रंग रक्त है-वे दूसरों पर अनुग्रह करते हैं। जो विशिष्ट
शद्धतर है। तीन कर्मजातियां सभी जीवों में होती हैं, देव होते हैं उनका रंग हारिद्र है। जो महान साधक हैं
किन्तु चौथी अशक्ल-अकृष्ण जाति योगी में होती है । ३८ उनका वर्ण शक्ल है।४ अन्यत्र महाभारत में यह भी प्रस्तुत सूत्र पर भाष्य करते हुए लिखा है कि उनका कर्म लिखा है कि दुष्कर्म करने वाला मानव वर्ण से परिभृष्ट कृष्ण होता है जिनका चित्त दोष कलुषित या क्रूर है । हो जाता है और पुण्य कर्म करने वाला मानव वर्ण के पीड़ा और अनुग्रह दोनों विधाओं से मिश्रित कर्म शक्लउत्कर्ष को प्राप्त करता है । ३५
कृष्ण कहलाता है। यह बाह्य साधनों से साध्य होता है । तुलनात्मक दृष्टि से हम चिन्तन करें तो सहज ही तप, स्वाध्याय और ध्यान में निरत व्यक्तियों के कर्म परिज्ञात होता है कि जैन दृष्टि का लेश्या-निरूपण और केवल मन के अधीन होते हैं। उनमें बाह्य साधनों की किसी महाभारत का वर्ण-विश्लेषण-ये दोनों बहुत कुछ समा- भी प्रकार की अपेक्षा नहीं होती और न किसी को पीड़ा नता को लिये हुए हैं । तथापि यह नहीं कहा जा सकता है दी जाती है, एतदर्थ यह कर्म शुक्ल कहा जाता है। जो
३३ षड जीववर्णा परमं प्रमाणं, कृष्णो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम् । ___रक्तं पुनः सह्यतर सुखं तु, हारिद्रवर्ण सुसुखं च शुक्लम् ।। -महाभारत, शांति पर्व, २८०/३३ । ३४ महाभारत, शांति पर्व, २८०/३४-४७ । ३५ महाभारत, शांति पर्व, २६१/४-५ । ३६ शुक्लकृष्णे गती ह्य ते, जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययाऽवर्तते पुनः॥ -गीता ८/२६ । ३७ धम्मपद, पंडितवरग, श्लोक १६ । ३८ पातञ्जल योगसूत्र, ४/७ ।
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नाम
वेग
(३) तेजस्
लाल
पुण्य के फल की भी आकांक्षा नहीं करते उन क्षीण-क्लेश सत्त्वगुण से मन का मैल मिट जाता है, अतः वह शक्ल चरमदेह योगियों के अशुक्ल-अकृष्ण कर्म होता है। है। शिव स्वरोदय में लिखा है-विभिन्न प्रकार
प्रकृति का विश्लेषण करते हुए उसे श्वेताश्वतर के तत्त्वों के विभिन्न वर्ण होते हैं, जिन वर्गों से प्राणी उपनिषद् में लोहिन, शक्ल और कृष्ण रंग का बताया प्रभावित होता है।४१ वे मानते हैं कि मूल में प्राणतत्त्व गया है ।३९ सांख्य कौमुदी में कहा गया है जब रजोगुण एक है। अणओं की कमी-बेशी, कम्पन वा वेग से उसके के द्वारा मन मोह से रंग जाता है तब वह लोहित है, पांच विभाग किये गये हैं। जैसे:
रंग आकार
रस या स्वाद (१) पृथ्वी अल्पतर पीला चतुष्कोण
मधुर (२) जल अल्प सफेद या बैंगनी अर्द्ध चन्द्राकार
कसैला तीव्र
त्रिकोण
चरपरा (४) वायु तीव्रतर नीला या आसमानी गोल
खट्टा (५) आकाश तीव्रतम काला या नीलाभ अनेक बिन्दु गोल
कड़वा सर्व वर्णक मिश्रित रंग) या आकार शून्य जैनाचार्यों ने लेश्या पर गहरा चिन्तन किया है। पूर्वापेक्षया कम। नीले, आसमानी रंग से प्रकृति में उन्होंने वर्ण के साथ आत्मा के भावों का भी समन्वय शीतलता का संचार होता है। हरे रंग से न अधिक किया है। द्रव्यलेश्या पौद्गलिक है। अतः आधुनिक उष्मा बढ़ती है और न अधिक शीतलता का ही संचार वैज्ञानिक दृष्टि से भी लेश्या पर चिन्तन किया जा होता है, अपितु सम-शीतोष्ण रहता है। सफेद रंग से सकता है।
प्रकृति सदा सम रहती है। लेश्या : मनोविज्ञान और पदार्थ विज्ञान
रंगों का शरीर पर भी अद्भुत प्रभाव पड़ता है। मानव का शरीर, इन्द्रियाँ और मन ये सभी पुद्गल लाल रंग से स्नायु मण्डल में स्फूर्ति का संचार होता है । से निर्मित हैं। पुद्गल में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नीले रंग से स्नायविक दुर्बलता नष्ट होती है, धातुक्षय होने से वह रूपी है। जैन साहित्य में वर्ण के पाँच प्रकार सम्बन्धी रोग मिट जाते हैं तथा हृदय और मस्तिष्क में बताये हैं-काला, पीला, नीला, लाल और सफेद । शक्ति की अभिवृद्धि होती है। पीले रंग से मस्तिष्क की आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से सफेद रंग मौलिक नहीं है। दुर्बलता नष्ट होकर उसमें शक्ति संचार होता है, कब्ज, वह सात रंगों के मिलने पर बनता है। उन्होंने रंगों के यकृत, प्लीहा के रोग मिट जाते हैं। हरे रंग से ज्ञानसात प्रकार बताये हैं। यह सत्य है कि रंगों का प्राणी तन्तु व स्नायु-मण्डल सुदृढ़ होते हैं तथा धातुक्षय सम्बन्धी के जीवन के साथ बहुत ही गहरा सम्बन्ध है। वैज्ञानिकों रोग नष्ट हो जाते हैं । गहरे नीले रंग से आमाशय संबंधी ने भी परीक्षण कर यह सिद्ध किया है कि रंगों का प्रकृति रोग मिटते हैं। सफेद रंग से नींद गहरी आती है। पर, शरीर पर और मन पर प्रभाव पड़ता है। जैसे लाल, नारंगी रंग से वायु सम्बन्धी व्याधियाँ नष्ट हो जाती है नारंगी, गुलाबी, बादामी रंगों से मानव की प्रकृति में और दमा की व्याधि भी शान्त हो जाती है । बैगनी रंग उष्मा बढ़ती है। पीले रंग से भी उष्मा बढ़ती है किन्तु से शरीर का तापमान कम हो जाता है।
३९ अजामेकां लोहित शक्ल कृष्णां बहवीः प्रजा सृजमानां सरुपाः ।
...अजो ह्य को जुषमाणोऽनुशेते, जहात्थेना मुक्त भोगाम जोऽन्यः॥ -श्वेताश्वतर उपनिषद् ४/५।। ४. सांख्य कौमुदी, पृ० २००। ४१ आपः श्वेता क्षितिः पीता, रक्तवर्णों हुताशनः ।
मारुतो नीलजीभूतः, आकाशः सर्ववर्णक ।। -शिव स्वरोदय, भाषा टीका, श्लो० १५६, पृ०४२।
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प्रकृति और शरीर पर ही नहीं, किन्तु मन पर भी रंगों उत्पन्न नहीं करते इसलिए वे अप्रशस्त व अशभ हैं और का प्रभाव पड़ता है जैसे, काले रंग से मन में असंयम, कहीं पर अच्छे विचारों को उत्पन्न करते हैं, अतः वे हिंसा एवं करता के विचार लहराने लगेंगे। नीले रंग प्रशस्त व शभ है। क्रोध से अग्नि तत्त्व प्रदीप्त हो जाता से मन में ईर्ष्या, असहिष्णता, रस-लोलुपता एवं विषयों है, उसका वर्ण लाल माना गया है। मोह से जल तत्त्व के प्रति आसक्ति व आकर्षण उत्पन्न होता है। कापोत की अभिवृद्धि हो जाती है, उसका वर्ण सफेद या बैगनी रंग से मन में वक्रता, कुटिलता अंगड़ाइयाँ लेने लगती माना गया है। भय से पृथ्वी तत्त्व प्रधान हो जाता है, हैं। अरुण रंग से मन में ऋजुता, विनम्रता एवं धर्म प्रेम इसका वर्ण पीला है। लेश्याओं के वर्णन में भी क्रोध, की पवित्र भावनाएं पैदा होती हैं। पीले रंग से मन में मोह, और भय आदि अन्तर में रहे हुए हैं और उनका क्रोध-मान माया-लोभ आदि कषाय नष्ट होते हैं और मानस पर असर होता है। कहीं पर श्याम रंग को भी साधक के मन में इन्द्रिय विजय के भाव तरंगित होते हैं। प्रशस्त माना है जैसे नमस्कार महामन्त्र के पदों के सफेद रंग से मन में अपूर्व शान्ति तथा जितेन्द्रियता के साथ जिन रंगों की कल्पना की गयी है उसमें 'नमो निर्मल भावों का संचार होता है।
लोए सव्वसाहणं' का वर्ण कृष्ण बताया है। साधु अन्य दृष्टि से भी रंगों का मानसिक विचारों पर जो
के साथ जो कृष्ण वर्ण की योजना की गयी है वह कृष्ण प्रभाव होता है उसका वर्गीकरण चिन्तकों ने अन्य रूप से
लेश्या जो निकृष्टतम चित्तवृत्ति को समुत्पन्न करने हेतु
अप्रशस्त कृष्ण वर्ण है उससे पृथक है, कृष्ण लेश्या का जो प्रस्तुत किया है, यद्यपि वह द्वितीय वर्गीकरण से कुछ पृथ
कृष्ण वर्ण है उससे साधु का जो कृष्णवर्ण है वह भिन्न है कता लिए है। जैसे, आसमानी रंग से भक्ति सम्बन्धी
और प्रशस्त है। भावनाएं जाग्रत होती है। लाल रंग से काम-वासनाएं उबुद्ध होती है। पीले रंग से तार्किक शक्ति की अभी- पाश्चात्य देशों में वैज्ञानिक रंगों के सम्बन्ध में वद्धि होती है। गुलाबी रंग से प्रेम विषयक भावनाएं गम्भीर अध्ययन कर रहे हैं। कलर थेरॉपी रंग के आधार जाग्रत होती है। हरे रंग से मन में स्वार्थ की भावनाएं पर समुत्पन्न हुई है। रंग से मानव के चित्त व शरीर पनपती है। लाल व काले रंग का मिश्रण होने पर मन की भी चिकित्सा प्रारम्भ हुई है जिसके परिणाम भी बहुत में क्रोध भड़कता है।
अच्छे आये हैं ।४२ जब हम इन दोनों प्रकार के रंगों के वर्गीकरण पर आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से विद्युत चुम्बकीय तरंगें तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करते हैं तो ऐसा ज्ञात होता बहुत ही सूक्ष्म हैं। वे विराट विश्व में गति कर रही हैं। है कि प्रत्येक रंग प्रशस्त और अप्रशस्त दो प्रकार का है। वैज्ञानिकों ने विद्युत चुम्बकीय स्पेक्ट्रम का सामान्य रूप कहीं पर लाल, पीले और सफेद रंग अच्छे विचारों को से विभाजन इस प्रकार से किया है :
रेडियो तरंगें
सूक्ष्म तरंगें
अवरक्त
दृश्यमान
| परा बैगनी
एक्स-रे गामा किरणे
तरंग दैर्घ्य प्रस्तुत चार्ट से यह स्पष्ट होता है कि विश्व में जितनी विकिरणों का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है जो विकिरणे भी विकिरणें हैं उन विकरणों की तुलना में जो दिखायी दृष्टिगोचर नहीं होती है। त्रिपार्श्व के माध्यम से उनके सात देती है उन विकिरणों का स्थान नहीं जैसा है। पर उन वर्ण देख सकते हैं। जैसे बैगनी, नीला, आकाश सटश ४२ देखिए 'अषुओर आभा', ले० प्रो० जे० सी० ट्रस्ट ।
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नीला, हरा, पीला, नारंगी और लाल। इन विकिरणों नील और कापोत लेश्याएं तीन कर्म-बन्धन में सहयोगी में एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि क्रमशः इन रंगों में व प्राणी को भौतिक पदार्थों में लिप्त रखती हैं। ये आवृत्ति ( frequency ) कम होती है और तरंग दैर्ध्य लेश्याएं आत्मा के प्रतिकूल हैं, अतः इन्हें आगम-साहित्य ( wave length ) में अभिवृद्धि होती है। बैगनी रंग में अशुभ व अधर्म लेश्याएं कहा गया है और इनसे तीव्र के पीछे की विकिरणों को परा बेगनी (ultra-violet) कर्म-बन्धन होता है। और लाल रंग के आगे की विकिरणों को अवरक्त (infra
उसके पश्चात की विकिरणों की तरंगें अधिक लम्बी red) कही जाती हैं । प्रस्तुत वर्गीकरण में वर्ण की मुख्यता
होती हैं और उनमें आवृत्ति कम होती है। इसी तरह तेजो, है। किन्तु जितनी विकिरणें हैं उनके लक्षण, आवृत्ति और तरंग दैर्ध्य हैं।
पद्म व शुक्ल लेश्याएँ तीघ्र कर्म बन्धन नहीं करती। इनमें
विचार, शुभ और शुभतर होते चले जाते हैं । इन तीन विज्ञान के आलोक में जब हम लेश्या पर चिन्तन लेश्या वाले जीवों में क्रमशः अधिक निर्मलता आती है । करते हैं तो सूर्य के प्रकाश की भांति यह स्पष्ट होता है इसलिए ये तीन लेश्याए शुभ हैं और इन्हें धर्म-लेश्याएं कि छः लेश्याओं के वर्ण और दृष्टिगोचर होने वाले कहा गया है ! वर्ण-पट spectrum के रंगों की तुलना इस प्रकार की उपयुक्त पंक्तियों में हमने जो विकिरणों के साथ जा सकती है
तुलना की है वह स्थूल रूप से है। तथापि इतना स्पष्ट दिखायी दिया जाने वाला वर्ण-पट
लेश्या है कि लेश्या के लक्षणों में वर्ण की प्रधानता है। विकिरणों (१) परा बैगनी से बैगनी तक कृष्ण लेश्या में आवृत्ति और तरंग की लम्बाई होती है। विचारों में (२) नीला
नीललेश्या जितने अधिक संकल्प-विकल्प के द्वारा आवर्त होंगे वे (३) आकाश सदृश नीला
कापोतलेश्या उतने ही अधिक आत्मा के लिए अहितकर होंगे। एतदर्थ - (४) पीला
तेजोलेश्या ध्यान और उपयोग व साधना के द्वारा विचारों को स्थिर (५) लाल
पद्मलेश्या करने का प्रयास किया जाता है। (६) अवरक्त तथा आगे की विकिरणें शुक्ललेश्या हम पूर्व ही बता चुके हैं कि लेश्याओं का विभाजन
डॉ. महावीर राज गेलड़ा ने 'लेश्याः एक विवेचन' रंग के आधार पर किया गया है। प्रत्येक व्यक्ति के चेहरे शीर्षक लेख४३ में जो चार्ट दिया है उसमें उन्होंने के आस-पास एक प्रभा-मण्डल विनिर्मित होता है जिसे वर्ण के स्थान पर पाँच ही वर्ण लिये हैं, हरा व नारंगी 'ओरा' कहते हैं। वैज्ञानिकों ने इस प्रकार के कैमरे वर्ण छोड़ दिये हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में तेजोलेश्या का निर्माण किये हैं जिनमें प्रभा-मण्डल के चित्र भी लिये जा रंग हिंगुल की तरह रक्त लिखा है और पद्मलेश्या का रंग सकते हैं। प्रभा-मण्डल के चित्र से उस व्यक्ति के अन्तहरिताल की तरह पीत लिखा है। किन्तु डॉ० गेलड़ा ने निस में चल रहे विचारों का सहज पता लग सकता है। तेजोलेश्या को पीले वर्ण वाली और पद्म लेश्या को लाल यदि किसी व्यक्ति के आस-पास कृष्ण आभा है फिर वर्ण वाली माना है, वह आगम की दृष्टि से उचित नहीं भले ही वह व्यक्ति लच्छेदार भाषा में धार्मिक-दार्शनिक है। लाल के बाद आगमकार ने पीत का उल्लेख क्यों चर्चा करे तथापि काले रंग की वह प्रभा उसके चित्त की किया है इस सम्बन्ध में हम आगे की पंक्तियों में विचार कालिमा की स्पष्ट सूचना देती है। भगवान महावीर. करेंगे।
तथागत बुद्ध, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, कर्मयोगी श्रीकृष्ण, .. तीन जो प्रारम्भिक विकिरणें हैं, वे लघुतरंग वाली प्रेममूर्ति क्राइस्ट आदि विश्व के जितने भी विशिष्ट और पुन:-पुनः आवृत्ति वाली होती हैं। इसी तरह कृष्ण, महापुरुष हैं उनके चेहरों के आसपास चित्रों में प्रभामण्डल ४३ देखिए° पूज्य प्रवर्तक श्री अंबालालजी म० अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० २५२ ।
[ ४५
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बनाये हुए दिखाई देते हैं जो उनकी शुभू आभा को है। कापोतलेल्या में नीला रंग फीका हो जाता है । प्रकट करते हैं। उनके हृदय की निर्मलता और अगाध कापोतलेश्या वाले व्यक्ति की वाणी व आचरण में वक्रता स्नेह को प्रकट करते हैं। जिन व्यक्तियों के आस-पास होती है। वह अपने दुर्गणों को छिपाकर सदगुणों को काला प्रभामण्डल है उनके अन्तमानस में भयंकर दुर्गणों प्रकट करता है।४६ नील लेश्या से उसके भाव कुछ का साम्राज्य होता है। क्रोध की आंधी से उनका मानस अधिक विशुद्ध होते हैं। एतदर्थ ही अधर्मलेश्या होने सदा विक्षुब्ध रहता है, मान के सर्प फूत्कारें मारते रहते पर भी धर्मलेश्या के सन्निकट है। हैं, माया और लोभ के बवण्डर उठते रहते हैं।४४ वह स्वयं कष्ट सहन करके भी दूसरे व्यक्तियों को दुःखी बनाना
चतुर्थ लेश्या का रंग शास्त्रकारों ने लाल प्रतिचाहता है। वैदिक साहित्य में मृत्यु के साक्षात देवता यम
पादित किया है। लाल रंग साम्यवादियों की दृष्टि से का रंग काला है, क्योंकि यम सदा यही चिन्तन करता क्रांति का प्रतीक है। तीन अधर्म लेश्याओं से निकलकर रहता है कब कोई मरे और मैं उसे ले आऊँ। कृष्ण वर्ण जब वह धर्मलेश्या में प्रविष्ट होता है तब यह एक प्रकार पर अन्य किसी भी रंग का प्रभाव नहीं होता। वैसे ही से क्रांति ही है अतः इसे धर्मलेश्या में प्रथम स्थान दिया कृष्णलेश्या वाले जीवों पर भी किसी भी महापुरुष के गया है । वचनों का प्रभाव नहीं पड़ता। सूर्य की चमचमाती किरणे
वैदिक परम्परा में संन्यासियों को गैरिक अर्थात लाल जब काले वस्त्र पर गिरती है तो कोई भी किरण पुनः
काइ भा किरण पुनः रंग के वस्त्र धारण करने का विधान है। हमारी दृष्टि से नहीं लोटती। काला वस्त्र में सभी किरणं डूब जाती हैं। उन्होंने जो यह रंग चना है वह जीवन में क्रांति करने की जो व्यक्ति जितना अधिक दुगणों का भण्डार होगा दृष्टि से ही चना होगा। जब साधक के अन्तर्मानस में उसका प्रभामण्डल उतना ही अधिक काला होगा। यह
क्रांति की भावना उबुद्ध होती है तो उसके शरीर का
र काला प्रभामण्डल कृष्णलेश्या का स्पष्ट प्रतीक है।
प्रभामण्डल लाल होता है और वस्त्र भी लाल होने से वे द्वितीय लेश्या का नाम नीललेश्या है। यह कृष्ण- आभामण्डल के साथ घुलमिल जाते हैं। जब जीवन में लेश्या से श्रेष्ठ है। उसमें कालापन कुछ हलका हो जाता लाल रंग प्रकट होता है तब उसके स्वार्थ का रंग नष्ट है। नीललेश्या वाला व्यक्ति स्वार्थी होता है। उसमें हो जाता है। तेजोलेश्या वाले व्यक्ति का स्वभाव नम्र व ईर्ष्या, कदाग्रह, अविद्या, निर्लजता, द्वेष, प्रमाद, रस- अचपल होता है। वह जितेन्द्रिय, तपस्वी, पापभीरु और लोलुपता, प्रकृति की क्षुद्रता और बिना विचारे कार्य करने मुक्ति की अन्वेषणा करने वाला होता है।४७ संन्यासी की प्रवृत्ति होती है।४५ आधनिक भाषा में हम उसे का अर्थ भी यही है। उसमें महत्त्वाकांक्षा नहीं होती। सेल्फिश कह सकते हैं। यदि उसे किसी कार्य में लाभ उसके जीवन का रंग ऊषाकाल के सूर्य की तरह होता है। होता हो तो वह अन्य व्यक्ति को हानि पहुँचाने में संकोच उसके चेहरे पर साधना की लाली और सूर्य के उदय की नहीं करता। किन्तु कृष्णलेश्या की अपेक्षा उसके विचार तरह उसमें ताजगी होती है। कुछ प्रशस्त होते हैं।
पंचम लेश्या का नाम पद्म है। लाल के बाद पद्म तीसरी लेश्या का नाम कापोत है जो अलसी पुष्प अर्थात पीले रंग का वर्णन है। प्रातःकाल का सूर्य ज्योंकी तरह मटमैला अथवा कबूतर के कण्ठ के रंगवाला होता ज्यों ऊपर उठता है उसमें लालिमा कम होती जाती है
४४ उत्तराध्ययन, ३४/२१-२२ ।
उत्तराध्ययन, ३४/२२-२४ । ४६ उत्तराध्ययन, ३४/२५-२६ । ४७ उत्तराध्ययन, ३४/२७-२८ ।
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और सोने की तरह पीत रंग प्रस्फुटित होता है। लालरंग में उत्तेजना हो सकती है पर पीले रंग में कोई उत्तेजना नहीं है । पद्मलेश्या वाले साधक के जीवन में क्रोध-मानमाया-मोह की अल्पता होती है । चित्त प्रशांत होता है । जितेन्द्रिय और अल्पभाषी होने से वह ध्यान साधना सहज रूप से कर सकता है । ४८ पीत रंग ध्यान की अवस्था का प्रतीक है । एतदर्थ ही बौद्ध संन्यासियों के वस्त्र का रंग पीला है । वैदिक परम्पराओं के संन्यासियों के वस्त्र का रंग लाल है जो क्रांति का प्रतीक है और बौद्ध भिक्षुओं के वस्त्र का रंग पीला है वह ध्यान का प्रतीक है।
वह
षष्ठश्या नाम शुक्ल है। शुभ्र या श्वेत रंग समाधि का रंग है । श्वेत रंग विचारों की पवित्रता का प्रतीक है। शुक्ललेश्या वाले व्यक्ति का चित्त प्रशान्त होता है । मन, वचन, काया पर वह पूर्ण नियन्त्रण करता है । जितेन्द्रिय है । ४९ एतदर्थ ही जैन श्रमणों ने श्वेत रंग को पसन्द किया है । श्वेत रंग के वस्त्र धारण करते हैं । उनका मंतव्य है कि वर्तमान में हम में पूर्ण विशुद्धि नहीं है, तथापि हमारा लक्ष्य है शुक्ल ध्यान के द्वारा पूर्ण विशुद्धि को प्राप्त करना । एतदर्थ उन्होंने श्वेत वर्ण के वस्त्रों को चुना है ।
लेश्याओं के स्वरूप को समझने के लिए जैन साहित्य में कई रूपक दिये हैं। उनमें से एक-दो रूपक हम प्रस्तुत कर रहे हैं । छः व्यक्तियों की एक मित्र मंडली थी। एक दिन उनके मानस में ये विचार उद्बुद्ध हुए कि इस समय जंगल में जामुन खूब पके हुए T हम जाँय और उन
जामुनों को भरपेट खायें। वे छहों मित्र जंगल में पहुँचे । फलों से लदे हुए जामुन के पेड़ को देखकर एक मित्र ने कहा यह कितना सुन्दर जामुन का वृक्ष है ! फलों से लबालब भरा हुआ है । और फल भी इतने बढ़िया हैं कि देखते ही मुंह में पानी आ रहा है। इस वृक्ष पर चढ़ने की अपेक्षा यही श्रेयस्कर है कि कुल्हाड़ी से वृक्ष को जड़
४८ उत्तराध्ययन, ३४ / २६-३० ।
४९
उत्तराध्ययन, ३४ / ३१-३२ ।
आवश्यक, हरिभद्रया वृत्ति, पृ० २४५ ।
५०
से काट दिया जाय जिससे हम आनन्द से बैठकर खूब फल खा सकें।
दूसरे मित्र ने प्रथम मित्र के कथन का प्रतिवाद करते हुए कहा – सम्पूर्ण वृक्ष काटने से क्या लाभ है ? केवल शाखाओं को काटना ही पर्याप्त है ।
तृतीय मित्र ने कहा- मित्र, तुम्हारा कहना भी उचित नहीं है । बड़ी-बड़ी शाखाओं को काटने से भी कोई फायदा नहीं है । छोटी-छोटी शाखाओं को काट लेने से ही हमारा कार्य हो सकता है । फिर बड़ी शाखाओं को निरर्थक क्यों काटा जाय ?
चतुर्थ मित्र ने कहा - मित्र, युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । को काटने की कोई आवश्यकता के गुच्छों को ही तोड़ना पर्याप्त है ।
तुम्हारा कथन भी मुझे छोटी-छोटी शाखाओं नहीं है । केवल फलों
पांचवें मित्र ने कहा- फलों के गुच्छों को तोड़ने से क्या लाभ ? उस गुच्छे में तो कच्चे और पके दोनों ही प्रकार के फल होते हैं । हमें पके फल ही तोड़ना चाहिए । निरर्थक कच्चे फलों को क्यों तोड़ा जाय ? छठे मित्र ने कहा- मुझे तुम्हारी चर्चा ही निरर्थक प्रतीत हो रही है । इस वृक्ष के नीचे टूटे हुए हजारों फल पड़े हुए हैं । इन फलों को खाकर ही हम पूर्ण संतुष्ट हो सकते हैं । फिर वृक्ष, टहनियों और फलों को काटनेतोड़ने की आवश्यकता ही नहीं ।
प्रस्तुत रूपक' द्वारा आचार्य ने लेश्याओं के स्वरूप को प्रकट किया है । छः मित्रों में पूर्व पूर्व मित्रों के परिणामों की अपेक्षा उत्तर- उत्तर मित्रों के परिणाम शुभ, शुभतर और शुभ म I क्रमशः उनके परिणामों में संक्लेश की न्यूनता और मृदुता की अधिकता है । इसलिए प्रथम मित्र के परिणाम कृष्ण लेश्या वाले हैं दूसरे के नील लेश्या वाले, तीसरे की कापोत लेश्या, चतुर्थ की तेज लेश्या, पांचवें की पद्म लेश्या और छठे की शुक्ल लेश्या है ।
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एक जंगल में डाकुओं का समूह रहता था। ये दूसरों को लूटकर अपना जीवनयापन करते थे । एक दिन छः डाकूओं ने सोचा कि किसी शहर में जाकर हम डाका डालें। वे छः डाकू अपने स्थान से प्रस्थित हुए। छः डाकूओं में से प्रथम डाकू ने एक गांव के पास से गुजरते हुए कहा - रात्रि का सुहावना समय है । गाँव के सभी लोग सोए हैं। हम इस गांव में आग लगा दें ताकि सोधे हुए सभी व्यक्ति और पशु-पक्षी आग में झुलस कर खत्म हो जायें उनके कन्दन को सुनकर बड़ा आनन्द आएगा।
1
दूसरे डाकू ने कहा- बिना को क्यों मारा जाय ? जो हमारा मानवों को ही मारना चाहिए।
तीसरे डाकू ने कहा- मानवों में भी औरतें और बालक हमें कभी भी परेशान नहीं करते। इसलिए उन्हें मारने की आवश्यकता नहीं । अतः पुरुष वर्ग को ही मारना चाहिए ।
चतुर्थ डाकू ने कहा- सभी पुरुषों को भी मारने की आवश्यकता नहीं है । जो पुरुष शस्त्रयुक्त हों केवल उन्हें मारना चाहिए ।
मतलब के पशु-पक्षियों विरोध करते हैं उन
पांचवें डाकू ने कहा- जिन व्यक्तियों के पास शस्त्र है किन्तु जो हमारा किसी भी प्रकार का विरोध नहीं करते, उन व्यक्तियों को मारने से भी क्या लाभ है
छठे डाकू ने कहा- हमें अपने कार्य को करना है। पहले ही हम लोग दूसरों का धन चुराकर पाप कर रहे है, और फिर जिसका धन हम अपहरण करते हैं, उन व्यक्तियों
५३
४]
के प्राण को लटना भी कहीं बुद्धिमानी है? एक पाप के साथ दूसरा पाप करना अनुचित ही नहीं बिलकुल अनुचित है ।
इन छहों डाकूओं के भी विचार क्रमशः एक दूसरे से निर्मल होते हैं, जो उनकी निर्मल भावना को व्यक्त करते हैं। ५१
उत्तराध्ययननियुक्ति में ५२ लेश्या शब्द पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन करते हुए कहा है कि लेश्या के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से चार निक्षेप होते हैं। नो-कर्म लेश्या और नो-अकर्म लेश्या ये दो निक्षेप और भी होते है। नो कर्म लेश्या के जीव नो-कर्म और अजीव नोकर्म ये दो प्रकार है । जीव नो-कर्म लेश्या भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक के भेद से वह भी दो प्रकार की है। इन दोनों के कृष्ण आदि सात-सात प्रकार हैं
1
अजीव नो-कर्म लेश्या द्रव्य - लेश्या के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारक, आमरण, वादन की छाया रूप है। कितने ही आचार्यों का मन्तव्य है कि औदारिक, ओदारिक मिश्र, वैकिय, वैकिय मिश्र, आहारक आहारक- मिश्र, कार्मण काय का योग ये सात शरीर हैं तो उनकी छाया भी सप्तवर्णात्मिका होगी, अतः लेश्या के सात भेद मानने चाहिए । ५३
५१ लोक प्रकाश, सर्ग २, श्लोक ३६३-३८०१ ५२ जागग भविपसरीरा तबहरित्ता य साणो दुबिहा कम्मा नो कम्ने यानो कम्मे हुन् दुविहा उ ॥ ३५ ॥ जीवाणमजीवाणय दुविहा जीवाण होई नायव्त्रा । भवमभव सिद्धियाणं दुविहाणवि होई सत्तविहा || ३६ || अजीव कम्मनो दव्वलेसा सा दसविहा उनायव्वा । चंदाण य सूराण य गहगण णक्खत्ततारा ॥ ३७ ॥ आसरण छायणा दंशगाण मणि कामिणी णजालेसा । अजीव दव्वलेसा नायव्वा दसविहा एसा ॥ ३८ ॥
और
किसे भाव लेश्या कहें ?
लेश्या के सम्बन्ध में एक गम्भीर प्रश्न है कि किस लेश्या को द्रव्य लेश्या कहें क्योंकि आगम साहित्य में कहीं कहीं पर द्रव्य लेश्या के अनुरूप भाव परिणति बतायी गयी है, तो कहीं पर द्रव्य लेश्या के विपरीत भाव परिणति बतायी गयी है । जन्म
- उत्तराध्ययन, ३४, पृ० ६५०
पद
सप्तमी संयोगजा इयं च शरीरच्छायात्मका परिगृह्यते अन्येत्वौदारिकौ दारिकमि अमित्यादि भेदतः सप्त विधत्वेन जीवशरीरस्य तच्छायामेव कृष्णादिवर्णरूपां नोकर्माणि सप्त विधां जीव द्रश्य लेश्या मन्यते तथा ।
- उत्तराध्ययन ३४, टीका, जयसिंह सूरि, पृ० ३५०
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से मृत्यु तक एक ही रूप में जो हमारे साथ रहती है वह पूर्ण करने वाला व्यक्ति असुरादि देव हो सकता है ? यह द्रव्य लेश्या है। नारकीय जीवों में तथा देवों में जो प्रश्न आगम मर्मज्ञों के लिए चिन्तनीय है। कहां पर लेश्या का वर्णन किया गया है वह द्रव्य लेश्या की दृष्टि द्रव्य लेश्या का उल्लेख है और कहां पर भावलेश्या का से किया गया है। यही कारण है कि तेरह सागरिया जो उल्लेख-इसकी स्पष्ट भेद-रेखा आगमों में नहीं दी गयी किल्विषिक देव हैं वे जहाँ एकान्त शुक्ल लेश्यी हैं वहीं वे है, जिससे विचारक असमंजस में पड़ जाता है । एकान्त मिथ्यादृष्टि भी हैं। प्रज्ञापना में ताराओं का
उपर्यक्त पंक्तियों में जैन दृष्टि से लेश्या का जो रूप वर्णन करते हुए उन्हें पांच वर्ण वाले और स्थित लेश्या वाले बताया गया है।५४ नारक और देवों को जो स्थित
रहा है उस पर और उसके साथ ही आजीवक मत में, बौद्ध
मत में व वैदिक परम्परा के ग्रंथों में लेश्या से जो मिलतालेश्या कहा गया है, सम्भव है पाप और पुण्य की प्रकर्षता के कारण इनमें परिवर्तन नहीं होता हो। अथवा यह भी
जुलता वर्णन है उस पर हमने बहुत ही संक्षेप में चिन्तन हो सकता है कि देवों में पर्यावरण की अनुकूलता के कारण
किया है। उत्तराध्ययन, भगवती, प्रज्ञापना और उत्तरवत्ती
साहित्य में लेश्या पर विस्तार से विश्लेषण है, किन्तु शुभ द्रव्य प्राप्त होते हों और नारकीय जीवों में पर्यावरण
विस्तार भय से हमने जान करके भी उन सभी बातों पर की प्रतिकूलता के कारण अशुभ द्रव्य प्राप्त होते हों।
प्रकाश नहीं डाला है। यह सत्य है कि परिभाषाओं की वातावरण से वृत्तियां प्रभावित होती हैं। मनुष्य गति और तिर्यंच गति में अस्थित लेश्याएं हैं।
विभिन्नता के कारण और परिस्थतियों को देखते हुए
स्पष्ट रूप से यह कहना कठिन है कि अमुक स्थान पर पृथ्वीकाय में कृष्ण, नील और कापोत ये तीन अप्रशस्त अमुक लेश्या ही होती है। क्योंकि कहीं पर द्रव्य लेश्या लेश्याएं बतायी गयी हैं। ये द्रव्य लेश्या हैं या भाव लेश्या ? की दृष्टि से चिन्तन है, तो कहीं पर भाव लेश्या की दृष्टि क्योंकि स्फटिक मणि, हीरा, मोती आदि रत्नों में धवल से और कहीं पर द्रव्य और भाव दोनों का मिला हुआ प्रभा होती है, इसलिए द्रव्य अप्रशस्त लेश्या कैसे सम्भव वर्णन है। तथापि गहराई से अनुचिन्तन करने पर वह है ? यदि भाव लेश्या को माना जाय तो भी प्रश्न है कि विषय पूर्णतया स्पष्ट हो सकता है । आधुनिक विज्ञान की पृथ्वीकाय से निकलकर कितने ही जीव केवल-ज्ञान को दृष्टि से भी जो रंगों की कल्पना की गयी है उनके साथ प्राप्त करते हैं तो पृथ्वीकाय के उस जीव ने अप्रशस्त भाव भी लेश्या का समन्वय हो सकता है इस पर भी हमने लेश्या में केवली के आयुष्य का बन्धन कैसे किया? भवन- विचार किया है। आगम के मर्मज्ञ मनीषियों को चाहिए पति और वाण व्यन्तर देवों में चार लेश्याएँ हैं-कृष्ण, कि इस विषय पर शोध कार्य कर नये तथ्य प्रकाश में नील, कापोत और तेजो। तो क्या कृष्ण लेश्या में आयु लाएँ।
५४ ताराओं, पञ्च वष्णोओ ठिपले साचारिणो। ----प्रज्ञापना, पद।
[
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Prakrit Textual Criticism --Dr. Satyaranjan Banerjee
Calcutta University
1. Introduction : Statement of the Problem:
The Prakrit language, or more properly, the Middle Indo-Aryan, belongs to the middle period of the Indo-Aryan language which is the Indic branch of the Indo-Iranian sub-branch of the Indo-European family of languages. So it is a connecting link between old Indo-Aryan (i.e. Vedic and Classical Sanskrit ) on the one hand and the New Indo-Aryan languages (such as, Hindi, Marathi, Gujarati, Bengali, Oriya, Bihari, Assamese etc.) on the other.
Prakrit is a vast subject. It covers literatures for over 1500 years beginning from the time of Mahavira and Buddha ( 7th or 6th Century B. C. ) down to the time of the emergence of New Indo-Aryan (i. e. 1000 A. D.) or even later than that. It includes literature written in Inscriptional Prakrits, nearly about 1500 in number and distributed geographically in almost all parts of India - South, North-West, West, North
and East; it includes literature in Pali, both canonical and non-canonical, and also literature written by the Jains in Ardha-magadhi, Sauraseni, Maharastri and Apabhramsa. There are some non-Jain poets, such as, Satavahana, Pravarasena, Vakpatiraja, Rajasekhara, Abdul Rahaman and several others. Sanskrit dramas offer us a great variety of Prakrit dialects beginning from the time of 2nd or 1st Century B. C. down to the time of tenth Century A. D. or even later than that. Prakrit being a common speech and its dialects being representatives of different parts of India, the variety of Prakrit dialects makes it more difficult to handle any Prakrit texts easily. It also includes some other Prakrits, such as, Kharosthi, Niya and Gandhari or Prakrit Dhammapada, outside India.
Apart from the Inscriptional Prakrits, our knowledge on Prakrit language and its dialects and sub-dialects, commonly known as "Literary Prakrits", is mainly based on the works of Prakrit grammarians and the dramatic and rhetorical works of Sanskrit writers. The Sanskrit dramaturgists, such as, Bharata, Dhananjaya, Visvanatha, Singhabhupala, Sagaranandi and others, have given in their respective treatises only the names of Prakrit dialects which should be or is to be spoken by persons belonging to different strata of the society. The distribution of Prakrit dialects in Sanskrit dramas is, therefore, based on a sort of socio-linguistic pattern, no matter whether the author of a particular drama belongs to any particular region of India and speaking a particular
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dialect of Prakrit. While distributing the Prakrit dialects in a Sanskrit drama, not a single author has shown any lack of knowledge by which the prescriptions of the dramaturgists are generally violated. But at the same time, it should be borne in mind that not a single dramaturgist has ever given any characteristic features of the dialect that they are prescribing for the dramatists. Bharata, of course, has given some general features of Prakrit, but but nothing about dialects So where do the Sanskrit authors get the characteristics from? Did the dramatists know the characteristic features of Prakrit dialects from their own personal experience, or from books current at their times ?
Our knowledge about Prakrit and its dialects is mainly based on the grammarians beginning from Vararuci (4th or 5th Cent. A. D.) down to Markandeya ( 16th or 17th Cent. A. D.)-Vararuci and Hemacandra being the oldest and the best representatives of Prakrit grammarians. Although most of the Prakrit grammarians are later than the Prakrit literature, the features of Prakrit including dialects as prescribed by the grammarians are in major, if not in all cases, preserved in the works of the Prakrit writers and Sanskrit dramatists as we find them printed to-day.
Butto a scholar, it seems, there are works where features of dialects as described by the grammarians are not fully preserved, not even in essential forms. Herein lies the main
difficulty in handling a Prakrit passage in a text. When a scholar opens up a Prakrit book and peruses a few passages, he can easily detect that such book is written mainly in X dialect, but it is also interspersed with other Y and Z forms. As a result what happens is this that we assume a different dialect for the justification of variety of forms. This assumption may be partly true at times, but sometimes it seems too much adherence to the manuscripts forgetting that some forms might be scribal errors or wrong representation of spelling, unless they can be justified historically. Therefore, in editing a Prakrit text, the problems which a linguist faces are mainly
i) dialectal,
ii) orthographic, and iii) selection of readings..
2. Problems in editing a Prakrit text: i) Dialectal
said above, it is a very didetermine the dialect of a While editing some Prakrit texts, even scholars like Jacobi, Pischel were
As we have fficult task to Prakrit passage.
puzzled in determining the question of language of the text.
Hermann Jacobi has assumed a Jain Maharastri dialect of those texts which are non-canonical on the one hand but written by the Jains on the other. In a similar way Richard Pischel has postulated a Jain Sauraseni of those Jain texts which are written in Sauraseni. At the time of Pischel, of course, no Digambara canonical literature was pub[ us
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lished, and so he had no comment on them. the inscriptions. Take, for example, the A few books by Kundakunda and Umasvami drama of Asvaghosa. We are all grateful to were available, and on the basis of those Luders (Bruchstruck buddhistischen Dramen, books he had established the Jain Sauraseni. 1911 ) who has presented the fragBut recently the earliest canonical literature ments of some Buddhist dramas discovered of the Digambara Jains were published first in Turkestan and dated by him in the first in 1939 and then completed the whole lot in or second cent. A. D. In his opinion, there subsequent years by 1960, after which most are three types of Prakrit dialect employed of the earlier editions were being reprinted. by Asvaghosa in his plays. To use his The first of the series is Satkhandagama terminology, they are old Sauraseni, old which is written in Sauraseni dialect, but Magadhi and old Ardha magadhi. The Dusta's again influenced by the older Ardha-magadhi speech in three important points is similar and the Maharastri as well, giving it a name to the Magadhi of the Prakrit grammarians, which is called by Pischel as Jain Sauraseni. it substitutes I for r, reduces all three sibiThe assumption of these two dialects--Jain lants to s'; and has e in the nominative Maharastri and Sauraseni is based on a notion singular of masculine nouns in a. But it that probably these two dialects are different ignores the rules of the grammarians in from the normal features of the language ascertain respects ; hard letters are not sofemblamed and treasured up by Prakrit gram- tend (eg., bhoti ), nor soft consonants marians. But how far they differ from elided (e.g., Kumuda-gandha ), when inMaharastri and Sauraseni is a moot question ter-vocalic. There is no tendency to cerebraand how far these differences are systematic lize n and in Kälanä the dental replaces the to form a separate dialectis another problem. cerebral. Fuller forms of consonants remain These are the questions which normally in hangho (hamho) and bambhana ( bampuzzle the readers of Prakrit. With regard hana ). Certain consonantal changes are to the Inscriptional Prakrits and Pali, the irregular : ry >jj and not yy ; e.g., ajja, śc question is not severe, but with the Prakrit >cch, ks >kkh, not sk or cch, st>tth not and Apabhramsa and partly with the early sự, kissa > kiša, ahakam than ahake, hake, literary specimens of some modern. Indo- haje, ( Keith, Sanskrit Drama, p. 86 ). Aryan languages, the problem of readings
But it is a point worth noting here that is acute.
not a single grammarian has ever described Although inscriptions are written docu- any old features of Sauraseni, Magadhi or ments and we have more reliability in ins
Ardha-magadhi. How should we justify these criptions than in the manuscripts, the
forms then ? Should we reconsider the earlier writers do not offer the fea- judgment of the manuscripts ? tures of Prakrit that can go on at par with ii) Orthographic
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lars including Senart himself were not happy with the reading. The tu prefixed to dampati is difficult to solve. T. W. Rhys Davids and William Stede's Pali English Dictionary, The Pali Text Society, London, ( 1972 ) has explained the formation of the word thus :
The orthography of manuscripts is some- times responsible for the selection of a reading particularly of a Jain manuscript. The peculiar way of writing na and na, y and th, ş and ph, jh and bh and many other conjuncts makes us responsible for a wrong selec- tion. Unless one is thoroughly conversant with the calligraphy of Mss, one cannot do any justice to the reading of a Prakrit passage. I need not dwell upon this point here in detail.
iii) Selection of readings
Leaving aside the orthographic representation of Prakrit, we shall now pass on to the next problem, i.e, selection of readings. It is a fact worth noting here that sometimes some editions are responsible for the peculiar, forceful and incongruous reading of a text. In this respect, we shall divide our examples into two groups. In group A, some of the grammatical texts are discussed, where the selection of a particular reading, instead of another, has caused us trouble in determining the linguistic features of a particular language. In group B, the readings of some Prakrit texts are analysed.
A. Grammatical texts
Let us first take Senart's edition of Ka- ccayana's Pali Grammar. Under the sutra- jāyāya tudam-jāni patimhi (II. 7. 24. No. 34)
-jāyā iccetāya tudamjāni iccete adesă honti patimhi pare. jäyāya pati tudam pati jāyāya pati jänipati. Senart has read the sentence as tu-dampati meaning 'husband and wife', and after that the word is included in all the Pali Dictionaries. But most of the scho-
"Tudampati (dual ) husband and wife. I turdial. for du, Skt dve. dampati from dama-domus Skt. daypati = Gk. despotes ; cf. also Kern Toev. 11. 93. who compares tuvantuva for duvanduva ]."
In reality, the word is not tudampati, but simply, dampati as in Sanskrit, meaning husband and wife. tu is, in fact an emphatic particle meaning 'but', and the passage means, but (=tu) when jāyā is compounded with pati, we get the compound as dampati, jänipati and jäyāpati.
Coming to the field of Prakrit, the situation seems to be worse For one word, we could have several forms in Prakrit and at times it is difficult to think which one is correct. Take, for example, the reading isi in Cowell's edition of Vararuci's Prakrita-prakasa. Cowell has accepted the reading isi with a short initial i under the vrtti of a sutra id-isat-pakva-svapna-vetasa-vyajanamặdangāngāreşu, 1.3 i.e., (in a group of words beginnig with işat etc. i is substituted for the first a ), whereas he has given the variant reading with long i in the foot-note as isi. In fact, the reading with long i is the correct one, as in all the editions of all Prakrit grammarians so far known to us, the word isi with long i at the initial is given, which is also Cowell's reading in
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the foot-note. Moreover, there is no reason but not in vişțara. Even then some scholars why the Sanskrit long i in işat should be think that the sutras are not clear, Actually short in Prakrit. The use of this word is I feel that the reading should be ştah sto also found with long i (cf. isisi cumbiāim viņțarasya as one sutra. From the method etc. in Sakuntaia Act I, prologue). As Cowell of framing the sutras, it is seen that the prehas given the alternative reading in the foot ceeding sutra is dusprekşa-sadşkşayoh kşasya note, this should not be taken as printing kkho vā (XIII. 2) where words are particularly mistake. The question of dialect will not mentioned for the Sakari dialect, it is quite also help us in solving this reading.
possible also that the next sutra should Hultzsch's edition of Simharaja's Prakrita
contain a word as well, and the subsequent
sutras are also framed with regard to some rupavatara offers us another difficulty. Sim
words. There is no reason to think ştah haraja has based his grammar on Hema.
Stah as a general rule. candra and Trivikrama, as far as examples are concerned. But with regard to I,
B. Prakrit texts Hultzsch has edited his text with cerebral
Let us now consider some of the textual 1 in cases where others will have simple or
readings of Prakrit. dental I. In fact, cerebral 1 is a rare occurence in Prakrit. The reason that Hultzsch's Sten Konow's edition of Karpuramanjari edition contains cerebral , 1 is due to the fact
(KM) is a great problem. Here the prob. that he has edited his text from a lem is not only of reading but also of lanSouth Indian manuscript preserved in the guage. According to general belief the KM Royal Asiatic Society of London, where is written in a Sauraseni dialect. But Konow Sanskrit I is written as ,l, which Hultzsch has never mentioned it in so many words. thinks a variety of Prakrit. That is why in in his opinion Rajasekhara's KM is written Bhasa's dramas this cerebral I is preserved. in a sort of mixed Prakrit-between MahaOn the basis of this feature L. D. Barnett rastri and Sauraseni. In his edition what once thought that there was a southern
we find is that the verses are in Maharastri school of Prakrit grammarians as well. and the proses are in Sauraseni following (JRAS, 1921 ).
the dictum as laid down in the works of While giving the characteristic features
dramaturgy. After 35 years, M. Ghosh edited of Sakari, Purusottama in his Prakritanusa
that text again. In his edition all the passa
ges are in Sauraseni. Konow has consulted sana has given two sutras as
several Mss, and some of the best Mss do ştah sțah XIII. 3.
contain the readings in Sauraseni even in Vistarasya XIV. 4.
verses which he has either corrected for the Some have suggested "na viştarasy" i.e. sake of dramaturgy or neglected as improper
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readings. Ghosh has done just the opposite. For example : Sten Konow : hou (Ms. bhodu),Ghosh bhodu
phurau (Ms. phuradu), phuradu etc.
With regard to some of the readings of Desinamamala, Pischel remarks:
"Another great difficulty was raised by the examples which Hemacandra adds at the end of the commentary on each stanza of the ekārtha sabdas. These examples are either void of all sense, or of an incredible stupidity. ...... It was a most disgusting task to make out the sense, or rather non-sense, of these examples, some of which have remained rather obscure to me." (Pischel's edition of Desinamarnala, Poona, 1938, pp. 29-30)
The assumption of the reading sunahi meaning triņu ('hear me') and ayade as independent words in Pischel's edition followed by other editions, gives us a sense that does not appear to be happy and consistant. But these two words when combined suņähit ayade=Skt sunabhi-küpa acting as a bahuvphi compound representing vocative singular form of a feminine base ending in a and refering to adaye as an attributive adjunct, refering to adaye as will present us a good sense. because the comparison nābhikūpa, näbhigarta etc. is rather usual in Indian literature, and even Hemacandra uses this comparison more than once in the same book.
This remark of Pischel depends upon the selection, of readings which, at times, seems to be ineffective poetically. Let us take one example to demonstrate this truth.
Pischel's reading :
adae suņāhi ayade aņāda-adayana-pie sarasi kāle/amdhamdhuma-vinaya-varaha-vväthänam tamittha anado kim
(Hc. I. 18. verse 15 )
The next difficulty is with the root sarasi. The use of the Prakrit root sara as an equivalent to Sanskrit root smp 'to remember' is far less common than the Sanskrit root sr 'to go'. And it may be added here that of the root sms, the form sumara very often puts in appearance in Prakrit literature, and the form sara is extremely rare. Hance ! suggest sarasi meaning 'go'. It is also suggested that aņāda- adayaņa-pie should be taken in a locative form qualifying the word käle, i. e., 'the time pleasing to the paramours and courtesans' which no doubt yeilds a good sense, happy and consistent. and sarasi in the sense of 'going', its object; being amdhamdhum, when aviņaya-varahavvăţthâņam will stand in opposition to it, i.e., the going of an unchaste lady to the well which is the meeting place of the paramours and courtesans.
The Prakrit word tam should stand for
The English translation on the basis of this reading will be as follows:
"O you the courtesan, hear (me), oh well, are you remembering the time favourable to a paramour and a courtesan? Well is the (meeting place of a paramour and an unchaste lady, is there any paramour ?"
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tad, meaning 'therefore'; so tam ittha anado kim should be translated as 'is there any paramour (waiting for you)?' So the translation of the improved reading should be as follows:
"Oh, you the courtesan whose naval cavity is like a well, are you going at this time pleasing to the paramour and the courtesan to (that) well which is the meeting. place of the paramour and the courtesan ? Why, is there any paramour (waiting for you)?"
It is very difficult to get a very good edition of Prakrit texts. Take, for example, the editions of Kalidasa's Sakuntala by two eminent scholars - Monier-Williams and Richard Pischel. Both have claimed that they have paid much attention to the readings of the text and have carefully preserved the Mss. Pischel has an advantage over Monier-Williams with regard to Prakrit passages, which, Pischel believes, have been presented correctly. These two editions differ so much that they represent two different recensions. But with regard to the treatment of labial b and semivowel v, these two scholars vary too much. About the retention of v, Pischel is in favour of the grammarians, while MonierWilliams has a strong predilection for the historical development of the sound and prefers b. The common reader is at a loss to decide which course to adopt. This problem is summed up in my book-The Eastern School of Prakrit Grammarians, (p.99) which is quoted below:
"He (i.e. Pischel) says that the gramma
설득]
rians are not to be corrected with the help of the manuscripts; but the manuscripts are to be improved upon with the help of the grammarians. But it can be added here that the peculiar characteristics of an eastern Prakrit, supported by the eastern grammarians should not be rectified with the evidence of the western grammar. So the Prakrit readings, in regard to labial b, cannot be summarily rejected. It should also be noted that the readings given by Monier-Williams seem to be based on an outlook of the historical background answering to the reliability of
or two other readings of the different manuscripts, while it will appear as almost certain that the readings given by Pischel reveal a strong predilection for grammar."
In the Jain canonical texts the problem is different. We are all aware of mistakes that a scribe makes while copying the Mss from another one, or writing from the dictation of a person. The copyist may or may not be educated in the subject. As a result the Mss may contain some mistakes which obviously defy the genuineness of the language. These mistakes are at times regarded as "archaic" or earlier features of a language. Take, for an example, the one reading of the Uttaradhyayana sutra (1.5) kanakundagam caittapam vittham bhumjai süyare evam silam caittaham dussile ramai mie
Here the reading with longi in ramai is difficult to accept, but for "archaic". Similar types of readings of long i of verbs, such as vuccai (1.2), nikkanjjai (1.4) are abundant.
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The readings with short i are also available in the foot-notes.
Besides these are orthographic problems in Jain texts. The use of ya-śruti, dental and cerebral n, the sporadic cases of voiceless changing into voiced, and so on. These problems will remain as long as the principles of editing Prakrit texts are not followed.
variations are such that it is difficult to follow any particular reading from the Mss. The copyists are not always learned, moreso, they may not have any knowledge or a very limited knowledge of the language and hence every possibility of making mistakes. The phonetics of the language is not always regular. Sometimes the copyists add something to the Mss. to improve upon the text. It is, therefore, not an easy task to edit a Prakrit text, as is normally the case with Sanskrit or with Pali.
3. Manuscripts vs Grammarians :
4. Emendation :
It is my personal feeling that some sorts of emendations are necessary to edit a Prakrit text--if the Mss. of a particular text do not help us much-recording, of course, the variants at the foot-note. (Cf. my edition of Kramadisvara's Prakrit Grammar, $ 26, pp 19-22).
5. Conclusion :
Having discussed some difficulties and anomalies of Prakrit texts, what remains now is a great task for the scholars to determine the principles we follow in editing a Prakrit text. The basic problem is whether the gram- marians or the manuscripts are to be followed. It is not easy to answer the ques. tion, particularly when most of the scholars think that any kind of linguistic phenomenon is possible in Prakrit. Perhaps under the tacit influence of this so-called ideas, some of the Prakrit forms have been incorporated in some editions which sometimes baffle and betray some of the basic notions of Prakrit language including dialects as enunciated by Prakrit grammarians. It is true that Prakrit grammarians are not very old, and most of the authors belong at a time when the language was almost stereotyped like Sanskrit. As a result the Prakrit features as embalmed and treasured up by the gram. marians vary from author to author, except a few general forms which are co- mmon to all. The texts of Prakrit manus- cripts are not always uniformly common; the
The above are some of the specimens taken at random to show the linguistic problems of Prakrit and Prakrit textual criticism. it is indeed very difficult to form direct cutand-dry principles for this purpose, unless we base our arguments on some priniciples by which grammarians are involved in the matter. In conclusion, I can just say that I have endeavoured to present a picture of editing Prakrit texts, and leave with the readers to judge its value or revalue of some Prakrit passages presented in this dissertation.
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1. J. N. Madvig-Adversaria, Copenhagen, 1871.
2. F. W. Hall-Companion to Classical Texts, Oxford, 1913.
3.
S. M. Katre-Introduction to Indian Textual Criticism, 1st edn 1941 (2nd edn 1954), Poona, 1941.
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10. G. Pasqualia-Storia della tradizione e critica del texts, 2nd edn, Florence, 1970. 11. James Willis-Latin Textual Criticism, University of Illinois, Urbana, 1972.
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प्रतिभा के कारण हेमचन्द्र 'कलिकाल सर्वज्ञ' से सम्बोधित
हुए।
हेमचन्द्र का बहुमुखी व्यक्तित्व महान है । आपके 'सिद्ध हेम शब्दानुशासन' ( व्याकरण ) के अतिरिक्त 'लिंगानुशासन' (व्याकरण), 'संस्कृत द्वयाश्रय' ( महाकाव्य ), 'प्राकृत द्वयालय' या 'कुमारपाल चरित' (महाकाव्य ), 'काव्यानुशासन' (अलंकार), 'छंदोऽनुशासन' (छंद शास्त्र), 'अभिधान चिन्तामणि' (कोष), 'अनेकार्थ संग्रह' (कोष), 'देशीनाममाला' (कोष), 'निघंटुकोष'(वैद्यक कोष), 'प्रमाण
मीमांसा' (न्याय), योगशास्त्र','त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र' अपभ्रश वैयाकरण हेमचन्द्र
(महापुराण) आदि अन्य अनेक ग्रन्थ३ विविध विषयों का के दोहे
निरूपण करते हैं। अपने व्याकरण में जनसाधारण में
प्रचलित दोहों को उदाहृत करके आपने लोक साहित्य की -डॉ० आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', अलीगढ़
महान सम्पत्ति की सुरक्षा की है साथ ही अपभ्रश काव्य पाणिनी की कोटि के महान वैयाकरण होते हुए हेम
का 'दोहा' काव्यरूप के स्वरूप समझने की प्रामाणिक
सामग्री प्रस्तुत की है। दोहा या दूहा अपभूश का लाडला चन्द्र काव्य-प्रणयन में भी किसीसे पीछे नहीं रहे। वे अपभ्रश के ही नहीं संस्कृत और प्राकृत के भी कवि कोविद
छंद है।५ हेमचन्द्र के दोहे अपभ्रश काव्य में महनीय
हैं।६ साहित्यिक सौन्दर्य से सम्पृक्त आपके दोहे अपभ्रंश थे। एक व्यक्ति में ऐसी विरोधी रुचियों का समन्वय
साहित्य में निरुपमेय निधि है। वस्तुतः अपभृश वाङ्गमय विलक्षण है। असाधारण प्रतिभा के धनी हेमचन्द्र का । आरम्भिक नाम चंगदेव था। जैनदीक्षा ग्रहण करने के
के हेमचन्द्र आधार स्तम्भ हैं । पश्चात् आपका नाम हेमचन्द्र पड़ा। आप श्वेताम्बर जैन हेमचन्द्र द्वारा उदाहृत दोहों का सरसता, भाव-तरथे और गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज एवं उनके लता एवं कलागत सौन्दर्य की दृष्टि से 'गाथा सप्तशती' भतीजे कुमारपाल के समसामयिक प्रतिष्ठित पण्डित थे। के समान ही मूल्य है। इन दोहों में निसर्ग-सिद्ध काव्यत्व आप अधिकतर समय अन्हिलवाड़ में रहे ।' आपका समय की गरिमा निहित है। विषयवस्तु की दृष्टि से ये दोहे संवत् ११४५ से सं० १२२६ तक का है। अपनी प्रखर वीरभावापन्न, शृगारिक, नीतिपरक, अन्योक्तिपरक, वस्तु
१ अपभ्रश साहित्य, हरिवंश कोछड़, पृष्ठ ३२१ । २ (क) हिस्ट्री आफ मिडीवल हिन्दू इन्डिया, भाग ३, पृष्ठ ४११ ।
(ख) जैन साहित्य और इतिहास, नाथूराम प्रेमी, पृष्ठ ४४८ । ३ (क) काव्यानुशासन की भूमिका, रसिकलाल पारीख, पृष्ठ २६१ ।
(ख) अपभूश पाठमाला, प्रथम भाग, नरोत्तमदास स्वामी, पृष्ठ ६३ । ४ हिन्दी साहित्य की भूमिका, डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ १३ । ५ (क) अपभ्रंश भाषा और साहित्य, डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ ११७ ।
(ख) जैन साहित्य की हिन्दी साहित्य को देन, श्री रामसिंह तोमर, प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृष्ठ ४६८ । ६ आदिकालीन हिन्दी साहित्य शोध, डॉ० हरीश, पृष्ठ १५ ।
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वर्णनात्मक और धार्मिक भेदों में विभक्त किए जा सकते हैं । ७ डॉ० नेमीचन्द्र शास्त्री कहते हैं -- “ इनमें शृंगार, रतिभावना, नखशिख चित्रण, धनिकों के विलासभाव, रणभूमि की वीरता, संयोग, वियोग, कृपणों की कृपणता, प्रकृति के विभिन्न रूप और दृश्य, नारी की मसृण और मांसल भावनाएँ एवं नाना प्रकार के रमणीय दृश्य अंकित हैं । विश्व की किसी भाषा के कोष में इस प्रकार के सरस पद्य उदाहरणों के रूप नहीं मिलते। १८
हेमचन्द्र के अनेक दोहे हिन्दी साहित्य के आदिकालीन साहित्य का निरूपण करते हुए सुविज्ञ समीक्षकों द्वारा उद्घृत किए गए हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहासवेत्ताओं
क्षत्रिय नारियों की वीरता के आदर्श-आकलन में निम्न दोहा प्रस्तुत किया है :
भल्ला हुआ जु मारिया बाहिणि महारा कन्तु । लज्जेज्जंतु वयं सिअहुं जइ भग्गा घर अंतु ॥
वीर रस के दोहों में नारी की दर्पोक्तियों का विशेष महत्त्व है। डॉ०हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में- "स्त्रियों की अद्भुत दर्षोक्ति जो आगे चलकर डिंगल कविता की जान बन गई, इन दोहों में प्रथमबार बहुत ही दृप्त स्वर में प्रकट हुई है । " " नायिका के कथन द्रष्टव्य हैं : ऐ सखि ! . बेकार बक-बक मत कर। मेरे प्रिय के दो ही दोष हैंजब दान करने लगते हैं तो मुझे बचा लेते हैं और जब जूझने लगते हैं तो करवाल को :
महु तो वे दोसड़ा हेल्लि म शंखहि आलु | देन्तहो हउँ पर उ-वरिय जुज्झन्तहो करवालु || यदि शत्रुओं की सेना भागी है तो इसीलिए कि मेरा प्रिय वहाँ है और यदि हमारी सेना भागी है तो इसीलिए कि वह मर गया है :
जब भग्गा पारक्कडा तो सहि मज्झपिएण । अह भग्गा अम्हत्तणा सो ते मारि अडेण ||
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जहाँ वाणों से वाण कटते हैं, टकराती है उसी भट घटा समूह में प्रकाशित करता है :
जहिं कपिज्जइ सरिण सरु छिज्जइ खग्गिण खग्गु । तहिं तेहइ भड घड निवहि कन्तु पयासइ मग्गु ||
जब प्रिय देखता है कि अपनी सेना भाग खड़ी हुई है और शत्रु का बल वर्द्धित हो रहा है तब चन्द्रमा की महीन रेखा के समान मेरे प्रिय की तलवार खिल उठती है और प्रलय मचा देती है :
तलवार से तलवार मेरा प्रिय मार्ग को
भग्गउँ देखिवि निययवलु वलु पसरिअउँ परस्स । उम्भिलइ ससिरेह जिवं करि करवालु पियस्स ||
इस जन्म में भी और अगले जन्म में भी, हे गोरि ! ऐसा पति देना जो अंकुश के बन्धन को अस्वीकार कर देने वाले मदमत्त हाथियों से अनायास भिड़ सके :
आयई जम्महि अन्नहिं वि गोरि सु दिज्जहि कन्तु । गयमत्तहँ चत्तकुस हैं जो अब्भिडहि हसन्तु ||
वह देखो, हमारा प्रिय वह है जिसका बखान सैकड़ों लड़ाइयों में हो चुका है । वह, जो अंकुश को अस्वीकार करने वाले मत्त गजराजों के कुम्भ विदीर्ण कर रहा है :
संग एहि जुवणिअइ देवबु अम्हारा कन्तु । अहिमत्तहँ चत-सहँ गय कुम्भेहि वारन्तु ||
७ अपभ्रंश काव्य परम्परा और विद्यापति, डॉ० अंबादंत पंत, पृष्ठ ३५६ ।
८
प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृष्ठ ५४० ।
हिन्दी साहित्य का आदिकाल, पृष्ठ ६३ ।
१० हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, पृष्ठ २२४-२२५ ।
६० ]
डॉ० नामवर सिंह वीर रस से पगे-सने दोहों के विषय में कहते हैं- “यहाँ पुरुष का पौरुष ही नहीं, उसके पार्श्व में वीर रमणी का दर्प भरा प्रोत्साहन भी मिलेगा, यदि एक ओर शिव का ताण्डव है तो दूसरी ओर उनके पार्श्व में शक्ति का लास्य भी है ।" १०
सामान्यतः नारियाँ कामना करती हैं कि किसी तरह मेरे प्रियतम लड़ाई - भिड़ाई के कामों से अवकाश पाकर मेरे आंचल तले सुख-शांति से कुछ दिन बिताएँ । ऐसी
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नारियाँ प्रायः दुर्लभ हैं जिन्हें युद्ध के बिना उदासीन मह- नहीं पहुँच पाता तो बेचारी नायिका अपने अंगों पर खीझ सूमती हो । नायिका का कथन है कि-प्रिय, यह किस देश प्रकट करती है। कविश्री हेमचन्द्र की सूझ और कल्पना में आ गए ! जब से यहाँ आए हो युद्ध का अकाल पड़ा अत्यन्त चमत्कारी है: हुआ है। अरे किसी ऐसे देश में चलो, जहाँ खड्ग का अइ तंगत्तण जं थणहं सौ छेयउ न हु लाहु । व्यवसाय होता हो। हम तो युद्ध के बिना दुर्बल हो गए सहि जइ केम्बइ तुडि-वसेण अहरि पहुच्चइ नाहु । और अब बिना युद्ध के स्वस्थ न होंगे।
रूपकातिशयोक्तियों द्वारा कविश्री हेमचन्द्र ने 'रूपखग्ग विसाहिउ जहिं लहहुँ पिय तहि देसहिं जाहुँ । वर्णन' में सौन्दर्य एवं चमत्कार उत्पन्न कर दिया है । रण-दुब्भिक्खें भग्गाई विण जुज्झें न बला हुँ । कबरी बन्ध समन्वित मुख सौन्दर्य के वर्णन में कविश्री ने
इस प्रकार हेमचन्द्र के वीर रस के दोहे डिंगल की चन्द्रमा और राहु के मल्ल युद्ध की संभावना व्यक्त की है वीर परम्परा को स्पष्ट करने में सहायक है । ११ इन दोहों तो भूमर कुल के सदृश नायिका के केश ऐसे लग रहे हैं में वीर रस का अभिनव स्वर भास्वर है, युद्ध-वर्णन विचित्र मानो अन्धकार के बच्चे मिलकर खेल रहे हैं। नायिका है, अदभूत है, योद्धा लड़ते-लडते पावों में अपनी अत डियाँ का प्रिय दोषी है, मन उसका लाचार है, सखी कहने आती उलझ जाने, सिर कंधे पर झल जाने पर भी तलवार से तो नायिका नम्रता की नर्मदा में अवगाहन करती हुई हाथ नहीं हटाता। उत्साह का यह अदभुत रूप मात्र युद्ध- कहती हैं कि जब प्रिय सदोष है तो ऐसी बात एकांत में क्षेत्र में ही नहीं अपितु जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी परि- कहो लेकिन ऐसे एकांत में कि मेरा मन भी न जानने पाए लक्षित है।
क्योंकि वह तो प्रिय का पक्षपाती है। पर नायिका को शृगारिक दोहों की परम्परा 'गाहासतसई या लौकिक
एकांत कहाँ प्राप्त होता है : शृगारिक मुक्तकों से संश्लिष्ट की जाती है। ऐसे बहुत
भण सहि निहु अउँ तेव मई जइ पिउ दिट सदोसु । से दोहे हैं जिनमें नायिका स्वयं नायक की वीरता की चर्चा जेवं न जाणइ मज्झु मणु पक्खावडिअं तासु ॥ करती है। अनेक दोहे रतिवृत्ति प्रधान होते हुए भी वीर विरह वर्णन में ऊहात्मकता के अभिदर्शन होते हैं । रस पूर्ण दिखाई पड़ते हैं। विशद्ध शृगारिक दोहों में एक कृश तनु वियोगिनी बाला को आँसुओं से चोली को नायिका अपनी सखी या दूती से अथवा दूती, सखी या गीली करते हुए और उष्ण उच्छ, वा सों से सुखाते हुए अन्य कोई स्त्री पात्र नायिका से रति वृत्ति को जागरित दिखाया है। मान सम्बन्धी दोहों में बड़ी मार्मिकता है। करने वाले भाव व्यक्त करती है। कहीं स्वयं नायिका कभी नायिका मान करती है तो कभी नायक । प्रियतम पथिक से वाक्चातुर्य के द्वारा गोपनवृत्ति की अभिव्यक्ति को देखने पर हलचल में वह मनस्विनी मान करना भूल करती है। कविश्री हेमचन्द्र अपनी प्रौढोक्तियों के द्वारा जाती है । एक नायिका मान करने का संकल्प करती है और आलम्बन, आश्रय, उद्दीपन या अनुभाव मात्र का वर्णन सारी रात ऐसी ही कल्पनाओं में बिता देती है किन्तु जब करते दिखाई देते हैं। कहीं नायिका के सम्पूर्ण अंगों का प्रिय का आगमन होता है तो मन धोखा दे जाता है। और कहीं उसके विशेष अंगों-मुख, नेत्र, स्तन, कटि आदि मान विरह के अतिरिक्त प्रवास विरह के अनेक उद्धरण का वर्णन करते हैं। हेमचन्द्र द्वारा निरूपित मुग्धा नायिका मिलते हैं। मान विरह में कृत्रिमता या विलासिता अधिक की खीझ देखते ही बनती है। कविश्री का कथन कि प्रतीत होती है किन्तु प्रवास-विरह में स्नेह अत्यन्त तप्त और किशोरी के स्तनों के बीच की दूरी इतनी कम है कि उद्दीप्त हो जाता है। डॉ. नामवर सिंह ने शृगारपरक उसमें नायक का मन भी नहीं अट सकता। जब ये स्तन दोहों की समीक्षा करते हुए कहा है-"इस तरह प्रणयी इतने उत्तुंग हो जाते हैं कि प्रिय उनके कारण अधरों तक जीवन के इन दोहों में वह सादगी, सरलता और ताजगी
११ हिन्दी साहित्य, डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ २२ ।
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है जो हिन्दी के समूचे रीतिकाव्य में भी मुश्किल से नव अनुभूति की अभिव्यक्ति है। नीति के ये उपदेश मिलेगी। कला वहाँ जरूर है, चातुरी वहाँ खूब है, एक- जीवन के व्यवहार से सम्बन्धित हैं। इनकी अभिव्यञ्जना एक शब्द में अधिक से अधिक चमत्कृत करने की शक्ति के लिए कविश्री ने उपयुक्त दृष्टान्त प्रस्तुत किए हैं : भी हो सकती है मतलब यह कि वहाँ गागर में गागर सामरू उप्परि तण धरइ तलि घल्लइ रयणाई। भरने की करामात हो सकती है लेकिन गागर में सागर सामि सुभिच्च वि परिहरइ संमाणेइ खलाई ॥ जितना ही अमृत भरने की जो चेष्टा यहाँ है, उस पर
अर्थात सागर तृणों को तो अपने ऊपर धारण करता है रीझने वाले सुजान भी कम नहीं है। कठिन काम गागर में
और रत्नों को भीतर तल में डालता है, स्वामी सुभृत्य सागर भरना हो सकता है लेकिन गागर में अपना हृदय भर
की तो उपेक्षा करता है किन्तु खलों का सम्मान करता है। देना कहीं अधिक कठिन है। हेम व्याकरण के इन दोहों की स्थिति ऐसी ही है। आर्या और गाहा सतसई की तरह
महत्त्वाकांक्षियों के आदर्श का निरूपण करते हुए इस दोहावली के भी एक-एक दोहे पर दर्जनों प्रबन्ध
कविश्री का कथन है कि कमलों को छोड़कर भूमर समूह काव्य निछावर किए जा सकते हैं।१२
हाथियों के गण्डस्थल से मद पान करने की आकांक्षा रखते
हैं और वहाँ जाते हैं। दुर्लभ को प्राप्त करने की जिनकी ____ हेम व्याकरण में भ्रमर, कुंजर, पपीहा, केहरि, धवल,
इच्छा रहती है, वे दूरी को कुछ भी नहीं समझते । महाद्रुम आदि को लेकर बड़ी ही हियहारी अन्योक्तियाँ कही गई हैं। 'भूमर' संदर्भित अन्योक्ति द्रष्टव्य है :
कमलई मेल्लवि अलि-उलं करि-गंडाई महंति ।
अ-सुलह-मेच्छण जाहं भलि तेण वि दूर गणंति ।। भमर म रुणझणि रणउइ सा दिसि जोइ म रोइ ।
सा मालइ देसंतरिथ जसु तुहूँ मरहि विओइ ।। इस प्रकार अपभश वैयाकरण हेमचन्द्र ने अपने अर्थात् हे भूमर ! अरण्य में रुनझुन ध्वनि मत कर, उस
'शब्दानुशासन' में वीर, शृगार तथा अन्य रसों से अनुदिशा को देखकर मत रो, वह मालती दूसरे देश चली
प्राणित दोहों को व्याकरण के नियमों को समझाने हेतु गई जिसके वियोग में तुम मर रहे हो।
व्यवहार में लिया है। जिसमें कहीं नीति सम्बन्धी उक्तियाँ
हैं तो कहीं धार्मिक सूक्तियों या अन्योक्तियों का समायोजन ' 'धवल बैल' सम्बन्धी अन्योक्ति भी मार्मिक बन पड़ी
हुआ है। इन दोहों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिहै। अपने स्वामी के गुत्भार (अधिक परेशानी) को
शयोक्ति, विभावना, हेतु, अर्थान्तरन्यास, दृष्टान्त, उदादेखकर धवल बैल खेद करता है कि मैं ही दो खण्ड करके क्यो न दोनों ओर जोत दिया गया :
हरण आदि अलंकारों के सुन्दर विनियोग से काव्य-सौन्दर्य
का उत्कर्ष परिलक्षित है। इनसे गोरखनाथ, संत कबीर धवलु विसुरइ सामि अहो गरुआ भर पिक्खेवि ।।
आदि परवर्ती कवियों ने प्रेरणा ग्रहण की है। हेमचन्द्र हउँ कि न जत्तउ दुहुँ दिसिहिं खण्डइँ दो पिण करेवि ।।
युग की अपभृश भाषागत एवं साहित्यिक प्रवृत्तियों को 'महाद्रुम' विषयक अन्योक्ति भी कम महत्त्व लिए नहीं समझने की दृष्टि से इन दोहों की महत्ता असं दिग्ध है। है। चिड़ियाँ महान दुमों के सिर पर बैठकर फल खाती
अपभूश काव्य में धार्मिक साहित्य की प्रचुरता के हैं और शाखाओं को भी तोड़ डालती हैं फिर भी महाद्रुम
मध्य वीर और शृगार रस के इतने उत्कृष्ट छंद उसके उनका कुछ भी अपराध नहीं गिनते :
साहित्यिक गौरव के उत्कर्ष विधायक हैं। धार्मिक क्षेत्र से सिरिं चडिया खन्ति त्फलई पुणु डालई मोडन्ति । दूर ये दोहे लौकिक अपभ्रंश काव्य की मनमोहक झांकी तो विं महद्दुम सउणाहँ फलानि पुनः शाखा मोटयन्ति ।। प्रस्तुत करते हैं। वस्तुतः हेमचन्द्र के दोहे अपभश वाङ्गमय हेमचन्द्र द्वारा उदधृत नीति सम्बन्धी दोहों में अभि- में मुक्तक काव्य के सफल वाहन हैं।
१२ हिन्दी के विकास में अपभृश का योग, पृष्ठ २२८ ।
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written chiefly by Brahmins for Brahmins. Moreover, the enormous respect for tradition and the urge to preserve it in all its purity resulted in a faithful following of the traditional frame-work in all intellectual endeavours, so much so that the chapter titles of almost all texts in a particular branch of science sound alike. If any innovations were made it was always within this framework. The lack of discrimination in the selection of ideas and the reluctance to discard outmoded concepts, coupled with
Thakkura Pheru and the and the a language of limited accessibility, resulted
in the stagnation of Indian science in the
middle ages. There is one more factor which contributed to this decline. This is the ab
sence of communication, and therefore absence of any interaction, between science and technology. While the writers on scientific subjects were upper caste Brahmins, the practitioners of technology were artisans of low social standing. The techniques employed by the latter in their professions were rarely recorded in writing these were transmitted orally from father to son or from master craftsman to apprentice and remained in many cases guild or trade secrets.
Popularisation of Science in India in the 14th Century
--Sreeramula Rajeswara Sarma Aligarh Muslim University
[Sri Bhanwar Lal Nahata's services to the cause of learning are indeed manifold. Historians of Science will be ever indebted to him for the discovery and the publication of Thakkura Pheru's scientific works in Prakrit.]
1.0 Until the introduction of English in India, scientific texts as well as other scholarly works were written mainly in Sanskrit and that too in metrical form. Though Sanskrit had the advantage of being the pan-Indian medium of communication, its accessibility within any region of India was limited, and the writings in Sanskrit were naturally elitist in character, being
0.2 The literature of the Jainas offers some sort of an exception to this general state of affairs. Though the Jainas respected Sanskrit as a vehicle of scholarly exposition, Prakrit also enjoyed religious sanction among them. Even while writing in Sanskrit, there was often a conscious attempt to simplify the language for the sake of wider under
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standing. The Jaina monks played an active role in the affairs of the community and seem to have been responsible for the spread of learning to all strata of society, notably to the more numerous mercantile class of Vaisyas. In Gujarat where Jainism was influential, the Jainas of the merchant class played prominent role in the middle ages. A Jaina called Vira was the superin- tendent and minister of four successive rulers Mularaja, Camundaraya, Vallabharaya and Durlabharaya at the close of the tenth century and beginning of the eleventh. His son Vimala was the commander-in-chief of Bhima I and built in 1031 the famous Vimalavasahi temple with its exquisite marble carvings on Mt. Abu. In the thirteenth century. Vastupala served the Vaghela rulers as their Chief-minister and was a great patron of learning. 3
was controlled by them. The members of the Srimala caste, in particular, specialised in minting and money-exchange. Even after the political domination of northern India by Muslims from the thirteenth century onwards, the expertise represented by this banker's caste was utilised by the Muslim rulers of Delhi in their minting operations, just as Hindu and Jaina masons and stonecarvers were employed in the construction of the Islamic monuments. The Kharatara chronicle mentions a number of wealthy Jainas from Delhi who enjoyed good relations with the rulers.
1.0 Notable among these members of the Srimala caste in the employment of the Sultans of Delhi is Thakkura Pheru who stands out as a writer on a wide range of scientific subjects in popular speech. He wrote six scientific works : Vastusara on architecture and iconography, Jyotisasara on astrology and astronomy, Ratnapariksa on gemmology, Ganitasara on arithmetic, Dhatutpatti on metallurgy and perfumery trade,
· 0.3 Aside from these instances of political power, commerce was the exclusive forte of the Jainas, and much of the economic activity in the Gujarat-Rajasthan-Delhi region
1. For instance, Jinapala writing at Delhi in 1248, explains at the end of his Kharatara
gacchalamkara-yugapradhanacarya-gurvavali, a chronicle of the pontiffs of the Kharatara sect, how he simplified Sanskrit in this work in order that even children can understand it. Henceforth this chronicle will be referred to as the Kharatara chronicle. It was published in the Kharataragaccha-brhadgurvavali, ed. Jinavijaya Muni, Bombay
1966. Jina pala's statement occurs on p. 50. 2. Cf. U. P. Shah, "Coinage of Early Chalukyas of Anhillavada-Patan", Journal of the
Numismatic Society of India, XVI. 2 (1954 ), pp. 239-42. 3. Cf. B. J. Sadesera, Literary Circle of Mahamatya Vastupala, Bombay 1953. 4. Cf. John Scott Deyell, Living without Silver : The Monetary History of Early Medieval
India ( The University of Wisconsin-Madison Ph. D. Thesis, 1982. Xerography in 1983 by the University Microfilms Internationai, Ann Arbour ), Vol. I. p. 339.
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and Dravyapariksa on assay and moneyexchange.
1.1 Pheru's biography can be pieced together from the personal references in his works. His first known work was written in 1291,9 hence his birth may have taken place around 1270. His native place was Kannana situated in the modern state of Haryana, and this place was not far from the then imperial capital Delhi. It was then a centre of pilgrimage for the Jainas. Pheru was born in a prosperous banker's family belonging to the Kharatara sect of the Svetambara Jainas. Pheru's grandfather, Kaliya or Kalasa, was a prominent banker of Kannana. It is not stated where Pheru's father Canda resided, but unlike his father, Canda had the title Thakkura. The Kharatara chronicle lists a number of prominent Jainas by their names, castes and titles. A cursory survey of those enjoying the title of Thakkura shows that they are all from Delhi. This would suggest that Thakkura was a court title and that Canda may have been associated with the Sultan's treasury at Delhi.
town Kannana. There in 1291, presumably at the conclusion of his formal education, he composed a eulogy of the pontiffs of his sect. Sometime later, but much before 1315, he joined the treasury of Alauddin Muhammad Khalji at Delhi and was apparently in charge of the jewellery. This job inspired him to write the Ratnapariksa, a manual on gemmology, for the instruction of his son Hemapala in 1315. In the same year he wrote two more works: the Jyotisasara on astrology and the Vastusara on architecture. In 1318 he must have been the assaymaster in the mint of Qutbuddin Mubarak Shah and produced his invaluable Dravyapariksa on assay and money-exchange. According to the Kharatara chronicle, he participated in that year in a pilgrimage to the holy places around Delhi. The chronicle reports further that in 1323 he joined the pilgrim congregation to Satrunjaya in Gujarat.? It is not known if he was still employed at the court, but the very mention of his name among the Jaina prominence of Delhi suggests that he may have continued his services under Ghiyasuddin Tughluq as well. Thus, like Vira of Gujarat, Pheru also served four successive Sultans, Alauddin Muhammad Khalji ( 1296-1316 ),
1.2 Nothing is known about Pheru's early life and education, but it is likely that he was brought up and educated at his native
6 All Pheru's works are published in the Thakkura-Pheru-viracita-Ratnapariksadi-sapta
granthasamgraha, ed. Jinavijaya Muni, Jodhpur 1961. For other editions of the individual texts, see my Thakkura Pheru's Rayanaparikkha : A Medieval Prakrit Text on Gemmology, Aligarh 1984. • This is the Kharataragaccha-yugapradhana-catuhpadika, a eulogy of the pontiffs of his
sect, written in Apabhramsa. ? See Kharataragaccha-brhadgurvavali, pp. 66-68, 72-77.
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Shihabuddin Umar (1316), Qutbuddin Mubarak Shah ( 1316-1320 ) and Ghiyas- uddin Tughluq ( 1320-1325 ).
1.3 It is noteworthy that Pheru's literary activity was not limited to his caste or professional interests only but extended beyond these to encompass astrology, architecture, metallurgy etc. Though well-read in Sanskrit. Pheru did not choose that language for his scientific writings nor did he choose the literary Prakrit of the Jaina clergy but wrote instead a mixture of Prakrit and Apabhramsa. Perhaps he was reluctant to abandon Prakrit altogether but at the same time wished to be understood by a wide strata of professionals like bankers, jewellers, traders, architects and masons. This way his language probably came very close to the spoken language of his day. Though he broke with the tradition of writing in Sanskrit, he still adopted the metrical form which is more suitable for memorising. However, in order to enhance the practical utility of his works, he included a large number of tables and occasional diagrams. With this background, we shall now discuss his scientific works individually in a chronological sequence as far as possible.
into three chapters. The first deals with astrological matters related to the selection of the site for house-building, auspicious moments for beginning the construction, for occupying the house etc. Normally these topics are dealt with in astrological works and not in those on architecture. But Pheru quite pragmatically includes them in his work on architecture and merely touches upon them in his book on astrology. The second chapter discusses the iconography of Jaina images and the third the architecture of various types of temples. V. S. Agrawala was of the opinion that this text "must have served as a practical hand book for architects of Jaina temples in the early Sultanate period." The Kharatara chronicle describes many instances of the construction of Jaina temples, installation of idols etc. in the Rajasthan-Delhi region in this period. It will be interesting to make a comparison of the theory expounded in this work with the extant examples of this period.
2.2 The Jyotisasara, also written in 1315, deals with the usual topics of astrology and the related areas of astronomy. This work contains many tables of computation and a detailed list of contents in Sanskrit at the end. The work is apparently meant for the use of the Jainas in the territory of Delhi, for at one place computations are given for Delhi and Hansi ; the latter was the first military outpost beyond Delhi.
2.1 The Vastusara, completed on the auspi- cious festival of the Vijayadasami ( ca. 19 September 1315 ) at Kannana, is divided
8 "A Note on Medieval Temple Architecture", Journal of the United Provinces Historical
Society, XVI. 1 ( 1943 ), p. 112.
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At the beginning of the work, Pheru this work, Pheru states that (i) he has mentions the authorities consulted by him. studied the earlier Sanskrit texts on gemmoI list them here to indicate his vast learning. Togy, (ii) seen the ocean-like vast collection These are Haribhadra, Naracandra, Padmapra- of gems in Alauddin's treasury and (iii) bha, Jauna, Varahamihira, Lalla, Parasara and observed the gem-testing by other experts. Garga. The first three are Jainas. The Jainas To put it differently, Pheru (i) acquired held jyotisa ( i.e. astronomy, astrology and theoretical knowledge from the existing mathematics ) in high esteem and wrote a literature, (ii) had the practical experience large number of works on this subject. The of handling gems in the royal treasury, and influence of these Jaina writers on Pheru is (iii) underwent a period of apprenticeship considerable. Haribhadra ( ninth century ) under experts. One would call this a truly wrote an astrological work called Lagnakun- modern scientific approach Pheru was dalika.' Pheru apparently followed him in indeed well placed to fulfil all the three naming the chapters of his work dvaras conditions. His wide learning and good (doorways). Padmaprabha Suri's Bhuvana- command of Sanskrit enabled him to read dipika or Grahabhavaprakasa, written in Sanskrit manuals on gemmology by Buddha1164, was an immensely popular text. There bhatta, Agastya, Brhaspati and others. Seare several commentaries on it, and about condly, Alauddin amassed enormous quanthree hundred manuscripts of this work are tities of gems and precious metals during his extant today.10 Naracandra Suri (d. ca. 24 campaigns, and his treasury must indeed August 1230 ) was a teacher of the famous have resembled an ocean full of gems. There Vastupala and the author of the Jyotisasara, can be no doubt that many of the gems also known as Naracandra or Naracandra- were of a rare quality. An exquisite diamond paddhati. This was also a very popular work,
said to have been acquired by Alauddin for there are some two hundred and odd reached the hands of the Mughal emperor manuscripts available today.11 Pheru's aim
Babur in 1523. Babur states that it is so seems to be to present the teachings of
valuable that a judge of diamonds valued it these Sanskrit works in simple Prakrit.
at half the daily expense of the whole 2.3 The Ratnapariksa on gemmology was world"12 Thirdly, Alauddin's court bosted also written in 1315. At the beginning of of Muslim experts also who were well versed
9 Cf. Ambalal P. Shah, Jaina Sahitya ka Brhad Itihas, Vol. V, Varanasi 1969, p. 168. 19 Cf. David Pingree, Census of the Exact Science in Sanskrit, Series A, Vol. 4, Philadel
phia 1981, pp. 173-179. 11. Ibid., Vol. 3, Philadelphia 1976, pp. 132-36.
Memoirs of Zehir-ed-Din Muhammad Babur, tr. John Leyden and William Erskins, London 1921, Vol. II, pp. 191-92. Many historians and gemmologists thought this diamond to be indentical with the famous Koh-i-Nur, but this view is no more favoured
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in Islamic gemmology. The quartermaster- carats. Perhaps gems beyond this weight were general was such an expert, so was the not offered for sale in the market but were court poet Amir Khusrau. Under these surrendered to the royal treasury.13 circumstances, one would expect that Pheru's treatise would (i) present Indian
Besides this innovation of a separate theories of gemmology, (ii) describe some section on the price tariff, there is another of the rarest gems in the royal treasury, and aspect where the Ratnapariksa distinguishes (iii) display some acquaintance with Islamic itself. It is the description of the gems imporgemmology, in particular with the Arab ted from Persia (spinel, cornelian and turdiscoveries about the specific gravity of
quoise ). Pheru was the first Indian gemmoquo
logist to describe these gems, and his inforgems.
mation is quite precise and accurate as can But Pheru's aim was modest, namely to
be seen from the contemporary Arabic works provide his son with a practical handbook
on gemmology.14 containing the contemporary tariff of prices along with some amount of the traditional Though the Ratnapariksa cannot be theory and lore of gems. Therefore, he para- counted among Pheru's best works, it phrases the earlier writings - sometimes exemplifies certain characteristics of Pheru indiscriminately-on the mythology, proper- as a writer. These characteristics are as ties and sources of gems. About the sources, follows: (i) Where there exists a corpus of he is most careless, repeating often the traditional literature on a subject, he is content same lists of places enumerated by the ear to follow the traditional framework and to lier writers, sometimes even misunderstanding present the material in Prakrit (as in the them. But unlike the earlier writers who description of gems ). (ii) However, he mention the price of each gem separately makes innovations in the traditional framealong with its description, Pheru has an work if practical considerations demand entire section where he quotes the prices them (e.g. the price tariff ; see also 2.4 very systematically, first in verses and then below). (iii) But where there is no tradiin tables for easy reference. Though the tional literature to lean on, he writes from royal treasury might be overflowing with his practical knowledge, and is most original gems of large size, the prices quoted are and precise (eg. on the gems imported only for gems weighing up to 18.35 metric from Persia ). The Dhatutpatti (see 2.5) 13 Fernao Nuniz reports in the sixteenth century that in the kingdom of Vijayanagara all
diamonds exceeding 25 ct. were to be given to the king's treasury. See Robert Sewell,
A Forgotten Empire : Vijayanagara, (reprint ) Delhi 1962, p. 369. 14 Cf. Eilhard Wiedemann, Aufsaetze zur arabischen Wissenschaftsgeschichte, hrgg.
Wolfdietrich Fischer, Hildesheim/New York, Vol. I, pp. 835-53.
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and more particularly the Dravyapariksa ( see 2.6) belong to this category of original works.
from this the volume of the space occupied by the doors and windows, and then reduce the remainder by three-twentieths, the latter being the volume of the mortar (III. 70-71 ). The result when divided by the volume of a single brick yields the number of bricks.
AS
2.4 The Ganitasara or arithmetic in not dated but must have been written before 1318. Compared to the previous text, this one is more innovative, not so much in the theoretical portions but in the application of arithmetical rules to a wide range of areas. It is a common place to say that arithmetic is one of the most practical of sciences, its rules being employed by tra- ders, masons, carpenters, tax-collectors and the like for the calculations connected with their professions. The units of measurement and the examples to illustrate arithmetical rules given by Pheru throw a flood of light on the economic and social conditions of this period. Here a few examples will suffice.
Historically more significant is the following statement : "The munaraya is like a circular tower with a spiral stairway in the middle, as far as the inside is concerned. But the difference is this : the wall contains half triangles and half circles" ( III. 80 ). The meaning of the cryptic last sentence is that in a horizontal cross-section of the munaraya, the outer circumference consists of alternate triangles and semicircles. It should be remembered that about a hundred years before this time, Qutbuddin Aibak built the Qutb Minar in Delhi and that Alauddin himself started constructing another tower twice as high. Now, the lower story of the Qutb Minar consists of alternately angular and circular columns, and it is clear that Pheru is referring here to such a tower with fluted columns.
In the section on solid geometry, Pheru gives the rules for the volumes of domes (gonamta), square and circular towers with spiral stairways in the middle (payaseva), towers with fluted columns (munaraya), niches ( taka ), staircase (sopana ), bridges (pulabamdha ) and so on (Ill. 74-86 ). It should be noted that some of these are new architectural features being introduced by the Muslim rulers into India in this period. The purpose of such rules is to enable the chief mason to calculate the number of bricks or stones needed for these construc- tions. To do this calculation more exactly, Pheru informs us, one should first calculate the total volume of the wall space, subtract
in another section, dealing with cloth (IV. i. 18-37 ), Pheru mentions different kinds of silk, woollen and cotton materials, the rate of shrinkage or loss in washing, cutting and sewing, and the area of cloth needed to make various types of tents. There is a last section (IV. iii. 1-17 ) listing the average yields of grains, pulses, etc. per bigha, the average yield of molasses and brown sugar per maund of sugarcane, the amount of clarified butter that can be obta
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ined from cow's and buffalo's milk and so rak Shah. Pheru states that he wrote this on. Mention must also be made of Pheru's work on the basis of his direct experience of rule for converting Vikrama dates into Hijri various types of coins while he was emplodates and vice versa (IV. i. 17 ) which is yed in the Delhi mint. The expression probably the first such rule to be formulated dravyapariksa denotes the examination of in India. It must be emphasized that all this the metal content in coins or the assay. is not germane to arithmetic as such, but since there was no official rate of exchange Pheru is adapting arithmetic here to suit the at that time for different currencies, the needs of a variety of professions.
official or private money exchangers priced 2.5 The Dhatutpatti, also not dated,
a coin on the basis of its metal content. For deals with a heterogeneous mixture of
this purpose the coins had to be assayed topics, namely origin of metals, extraction of
either by melting some samples or, if the metals and perfumery articles. In the shape
coins were few and of gold or silver, by it has come down, the text does not seem
rubbing them on the touchstone.15 Pheru to be complete or even continuous. Perhaps
states that he wrote this work for the sake here are separate extracts from the lost
of his son and brother who may have been Bhugarbhaprakasa said to have been written
embarking on the profession of money by Pheru. Even so, the present text offers
exchangers. valuable material. The section on the per
The Dravyapariksa can be divided into fumery articles describes the properties,
two parts. The first part (w. 1-50 ) deals varieties, provenance and prices of camphor,
mainly with the techniques of refining gold aloe wood, sandalwood, musk, saffron etc.
and silver and of determining their fineness, But more important is the section which
and thus provides the necessary technical discusses the techniques of extracting or
background for money exchange. The second preparing brass, copper, lead, tin, bronze,
part ( v. 51-149 ) can be termed a coin mercury, vermillion, red lead etc. This and
catalogue and is numismatically most valuathe first part of the Dravyapariksa (to be
ble. Here are described the mullu tullu discussed below ) show Pheru's familiarity
davvo namam thanam, the name, provenance, with metal technology, and are unique weight, average metal content and the contributions to the history of metallurgy
exchange rate in terms of the Khalji currency. in medieval India.
This data is given both in verses and in 2.6 The Dravyapariksa was written in tables for some 260 types of coins belong1318 during the reign of Qutbuddin Muba- ing to the thirteenth and early fourteenth 15 See my paper, 'Varnamalika System of Determining the Fineness of Gold in Ancient
and Medieval India". Aruna-Bharati : Professor A. N. Jani Felicitation Volume, Baroda 1983, pp. 369-389.
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centuries, issued by various kingdoms of northern India. Some of the coins described here are no more extant and the Dravya- pariksa remains the only testimony we have for the monetary history of several kingdoms.
Of the names listed by Pheru, some are based on the denomination, some on the king who issued them, some on the shape and some on the ornaments The different kingdoms that issued these coins include Khurasan, Multan, Jalandhar, Banaras, Tahangarh, Malwa, Canderi, Devagiri, Gujarat, Narwar and, of course, Delhi. It is worth noting that where a number of coins from a single kingdom are listed, these are arran- ged in the correct chronological sequence.
Now we turn to the most valuable data, the metal content. In the case of gold and silver coins, Pheru gives their degree of fineness. For coins made of alloy, the weight of each metal per 100 specimens is listed. Such information must have been obtained by Pheru, in most cases, by his own assay. Some of his assays, done through what would be considered primitive methods today, have been compared with modern assays and found to be quite accurate.16
and 63 types by the latter. It should be noted that Mubarak issued these 63 types during the brief span of his reign from 1316 to 1318. Apart from the large number of types, the quality of his coinage was far superior to that of his predecessors. Nelson Wright observes : "The coinage of Qutbuddin Mubark stands out for its boldness of design and the variety of its inscriptions... There is perhaps no finer coin in the whole preMughal series than the broad square gold tankah of high relief struck at Qutbabad Fort,
Occupying a high position at the mint, Pheru must have had an active role in issuing these diverse types of coins and in the improvements in minting technology. It is indeed fortunate that he shared his master's enthusiasm for coins and, drawing upon his own experience and that of his caste, left us an excellent guide to the coinage of norther
3.0 It is now pertinent to ask whether Pheru's attempt at popularisation of science has had any impact or emulation. Pherhaps a thorough survey of the Jaina Mss. collections in Gujarat and Rajasthan may one day bring to light some scientific texts written in popular speech, but on the whole the tradition of writing in Sanskrit metres was so strong that Pheru's example was rarely followed. On gemmology, however, there
The most interesting and comprehensive list is naturally of the coinage issued by the Sultans of Delhi, especially Alauddin and his successor Qutbuddin Mubarak. Pheru lists 12 types of coins issued by the former
16 Cf. John Scott Deyell, op. cit., I, p. 344. 17 H. Nelson Wright, The Coinage and Metrology of the Sultans of Delhi, (reprint) New
Delhi 1974, pp. 107-8.
[ op
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are some texts written in old Hindi and old
Rajasthani by jewellers and even by Jaina
monks. But these are faithful renderings of the Sanskrit originals and do not exhibit any innovations.18 An old Gujarati text of the fifteenth or sixteenth century called Vividhavarnaka enumerates tamkapariksa (i.e. examination of coins ) as one of the sciences, 19 but except the Dravyapariksa no
other text on this subject has been discov. ered so far.
Just as English is used today in India for the sake of pan-Indian or even worldwide communication, the Hindu and Jaina scientists wrote in the pan-Indian medium of Sanskrit until it was replaced by English. Thakkura Pheru, therefore, remains the only versatile scholar to have attempted to popularise science.
18 Cf. Agarchand Nahata and Bhanwar Lal Nahata, Ratnapariksa, Calcutta n. d. 19 See Varnaka-Samuccaya, ed. B. J. Sandesera, Pt 1, Baroda 1956, p. 48.
up
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पद्मसुन्दर की एक अज्ञात
रचना : यदुसुन्दर
- डॉ० सत्यव्रत गवर्नमेण्ट कॉलेज, श्री गंगानगर (राज० )
तपागच्छ के सुविज्ञात आचार्य तथा सम्राट अकबर के आध्यात्मिक मित्र उपाध्याय पद्मसुन्दर का यदुसुन्दरमहाकाव्य उनकी नव प्राप्त कृति है। जैन साहित्य में कालिदास, माघ आदि प्राचीन अग्रणी कवियों के अनुकरण पर अथवा उनकी समस्यापूर्ति के रूप में तो कुछ काव्यों का निर्माण हुआ है, किन्तु यदुसुन्दर एकमात्र ऐसा महाकाव्य है, जिसमें संस्कृत महाकाव्य - परम्परा की महानता एवं तुच्छता के समन्वित प्रतीक, श्रीहर्ष के नैषधचरित को रूपान्तरित ( एडेप्ट ) करने का दुस्साध्य कार्य किया गया है । महान् कृति का रूपान्तरण विष के समान है, जिससे आहत मौलिकता को पाण्डित्यपूर्ण क्रीड़ाओं की संजीवनी से भी पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता । पद्मसुन्दर ने श्रीहर्ष की दृप्त बहुश्रुतता, कृत्रिम भाषा तथा जटिल - दुरूह शैली के कारण वज्रवत् दुर्मेंद्यय नैषधचरित का उपयोगी रूपान्तर प्रस्तुत करने का
प्रशंसनीय प्रयत्न किया है किन्तु उसे अनेकशः, अपनी असहायता अथवा नैषध के दुर्धर्ष आकर्षण के कारण काव्य को संक्षेप करने को बाध्य होना पड़ा है जिससे यदुसुन्दर कहीं-कहीं रूपान्तर की अपेक्षा नैषधचरित के लघु संस्करण का आभास देता है । यदुसुन्दर में मथुराधिपति यदुराज समुद्रविजय के अनुज वसुदेव तथा विद्याधर- सुन्दरी कनका के विवाह तथा विवाहोत्तर केलियों का वर्णन है, जो प्रायः सर्वत्र श्रीहर्ष का अनुगामी है ।
यदुसुन्दर अभी अमुद्रित है । बारह सर्गों के इस महत्त्वपूर्ण काव्य की एकमात्र उपलब्ध हस्तप्रति ( संख्या २८५८, पुण्य ), अहमदाबाद स्थित लालपत भाई दलपत भाई भारतीविद्या संस्थान में सुरक्षित है । प्रस्तुत विवेचन, ५४ पत्रों के इसी पत्रलेख पर आधारित है 1
कवि परिचय तथा रचनाकाल :
पद्मसुन्दर उन जैन साधुओं में अग्रगण्य थे, जिनका मुगल सम्राट अकबर से घनिष्ठ सम्बन्ध था । उनकी मैत्री की पुष्टि पद्मसुन्दर के ग्रन्थों से भी होती है । अकबर शाहि शृंगार दर्पण से स्पष्ट है कि अकबर की सभा में पद्मसुन्दर को उसी प्रकार प्रतिष्ठित पद प्राप्त था, जैसे जयराज बावर को मान्य था और आनन्दराय ( सम्भवतः आनन्दमेरु ) हुमायूँ को । हर्षकीतिरचित धातुतरंगिणी के निम्नोक्त उल्लेख के अनुसार पद्मसुन्दर न केवल अकबर की सभा में समादृत थे, उन्हें जोधपुर नरेश मालदेव से भी यथेष्ट सम्मान प्राप्तथा । सम्राट् अकबर ने जो ग्रन्थसंग्रह आचार्य हीरविजय को भेंट किया था, वह उन्हें तपागच्छीय पद्मसुन्दर से प्राप्त हुआ था । उनके दिवंगत होने पर वह ग्रन्थराशि सम्राट् के पास सुरक्षित थी । पद्मसुन्दर के परवर्ती कवि देव विमलगणि ने अपने हीर सौभाग्य में इस घटना तथा उक्त ग्रन्थ राशि में सम्मिलित प्रस्तुत यदुसुन्दर सहित नाना ग्रन्थों का आदरपूर्वक उल्लेख किया है। हीरविजय अकबर से सम्वत् १६३६ में
१ शृङ्गारदर्पण, प्रशस्ति, २ ।
२ (अ) हीरसौभाग्य, १४.६१-६२, ६६ ।
( आ ) वही, १४.६६, स्वोपज्ञटीका : काव्यानि कादम्बरी - पद्मानन्द-यदुसुन्दराद्यानि ।
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फतेहपुर सीकरी में मिले थे। पद्मसुन्दर का निधन निश्चय छोड़ कर विद्याधर-नगरी में शरण लेता है। द्वितीय सर्ग ही इससे पूर्व हो चुका था। पद्मसुन्दर का प्रमाणसुन्दर में एक हंस, कनका के महल में आकर, 'यदुकुल के गगन शायद सम्बत् १६३२ की रचना है । इस आधार पर पण्डित के सूर्य' वसुदेव के गुणों का बखान करता है । वसुदेव का नाथूराम प्रेमी ने उनकी मृत्यु सं०१६३२ तथा १६३६ के बीच चित्र देखकर कनका अधीर हो जाती है। हंस उसकी मानी है । परन्तु यदुसुन्दर की प्रौढ़ता को देखते हुए यह मनोरथपूर्ति का वचन देकर उड़ जाता है। विरहव्यथित पदमसुन्दर की अन्तिम कृति प्रतीत होती है। हीर सौभाग्य कनका को सच्चिदानन्द से सान्द्र ब्रह्म के अद्वत रूप की में जिस मार्मिकता से सम्राट के भावोच्छवास का निरूपण तरह सर्वत्र वसुदेव दिखाई देता है। ततीय सर्ग के किया गया है, उससे भी संकेत मिलता है कि पद्मसुन्दर प्रारम्भिक ३३ पद्यों में कनका के विप्रलम्भ का वर्णन है । का निधन एक-दो वर्ष पूर्व अर्थात् सं० १६३७-३८ धनपति कुवेर बाह्योद्यान में आकर वसुदेव को कनका के (सन् १५८०-८१) के आस-पास हुआ था । यदि पास, उसका प्रणय निवेदन करने के लिये दूत बन कर जाने पद्मसुन्दर का देहान्त सं० १६३७-३८ में माना जाए, को प्रेरित करता है। कुबेर के प्रभाव से वह, अदृश्य रूप तो यदुसुन्दर को सम्वत् १६३२ ( प्रमाण सुन्दर का रचना- में, बेरोक अन्तःपुर में पहुँच जाता है ( भवतु तनुः परेरवर्ष) तथा १६३८ को मध्यवर्ती काल में रचित मानना लक्ष्या ३.७२)। वहाँ वह वास्तविक रूप में प्रकट होकर सर्वथा संगत होगा, यद्यपि काव्य में प्रान्त प्रशस्ति का कुबेर के पूर्वराग की वेदना का हृदयस्पशी वर्णन करता है अभाव है तथा अन्यत्र भी इसके रचनाकाल का कोई सूत्र और कनका को उसका वरण करने के लिये प्रेरित करता हस्तगत नहीं होता।
है (श्रीदं पति ननु वृणुष्व ३.१४७)। दूत उसे देवों की उपाध्याय पदमसुन्दर अपनी बहमुखी विद्वता के शक्ति तथा स्वर्ग के सुखों का प्रलोभन देकर, कुवेर की कारण ख्यात हैं। उन्होंने काव्य, ज्योतिष, दर्शन, कोश, और उन्मुख करने का प्रयत्न अवश्य करता है पर कनका साहित्यशास्त्र आदि के ग्रन्थों से साहित्यिक निधि को अडिग रहती है। दूत धनपति को छोड़ कर साधारण समृद्ध बनाया है। शृङ्गार दर्पण के अतिरिक्त उनकी प्रायः पुरुष ( वसुदेव ) का वरण करने के उसके निश्चय की अन्य सभी रचनाएँ अप्रकाशित हैं। पार्श्वनाथ काव्य के
बालिशता की कड़ी भर्त्सना करता है। उसकी अविचल कुछ सर्ग 'सम्बोधि' में प्रकाशित हुए हैं। देवविमल ने
निष्ठा तथा करुणालाप से दूत अन्ततः द्रवित हो जाता है हीरसौभाग्य की स्वोपज्ञ टीका में पद्मसुन्दर के
और वह दौत्य को भूल कर सम्भमवश अपना यथार्थ मालवरागजिनध्रवपद से उद्धरण दिये हैं,५ जो अभी तक परिचय दे देता है। पति को साक्षात देखकर कनका अज्ञात तथा अनुपलब्ध है।
'लज्जा के सिन्धु' में डूब गयी। वसुदेव वापिस आकर
कुबेर को वास्तविकता से अवगत कराता है। चतुर्थ सर्ग कथानक
में देवता, विभिन्न द्वीपों के अधिपति और पृथ्वी के दृप्त यदुसुन्दर की कथावस्तु यदुवंशीय वसुदेव तथा एवं प्रतापी शासक, कनका के स्वयंबर में आते हैं । कुवेर विद्याधर राजकुमारी कनका के विवाह तथा विवाहो- की अंगूठी पहनने से वसुदेव भी कुबेर के समान प्रतीत परान्त क्रीड़ाओं के दुर्बल आधारतन्तु पर अवलम्बित है। होने लगता है और सभा को दो कुबेरों का भ्रम हो जाता पौरांगनाओं के प्रति अपने उच्छखल आचरण के कारण, है। सर्ग के शेष भाग तथा पंचम सर्ग में वेत्रधारिणी दस अग्रज समुद्रविजय की भर्त्सना से रुष्ट होकर वसुदेव देश आगन्तुक राजाओं का क्रमिक परिचय देती है। छठे सर्ग
३ जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३६६ । ४ सम्बोधि, १०११-४ । ५ हीरसौभाग्य, ११.१३५, टीका : 'जिनवचन पद्धतिरुक्ति चंगिम मालिनी' इति पद्मसुन्दर कृत मालवराग जिनध्रुवपदे।
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में वास्तविक कुबेर तथा कुवेर रूपधारी वसुदेव का वर्णन है । रूपसाम्य के कारण कनका उलझन में पड़ जाती है । अंगूठी उतारने से वसुदेव का यथार्थ रूप प्रकट हो जाता है । कनका माला पहनाकर उसका वरण करती है । सप्तम सर्ग में क्रमशः कनका तथा वसुदेव की विवाहपूर्व सज्जा का वर्णन है । कनका का पाणिग्रहण, विवाहोत्तर भोज तथा नववधू की विदाई अष्टम सर्ग का विषय है । षड् ऋतु वर्णन पर आधारित नवम् सर्ग चित्रकाव्य के चमत्कार से परिपूर्ण है I दसवें सर्ग में अरिष्टपुर की राजकुमारी रोहिणी स्वयंवर में अन्य राजाओं को छोड़ कर, विद्याबल से प्रच्छन्न वसुदेव का वरण करती है जिससे उनमें युद्ध ठन जाता है । ग्यारहवें सर्ग में नवदम्पति के मथुरा में आगमन तथा सम्भोग क्रीड़ा का वर्णन है । बारहवें सर्ग में सन्ध्या, चन्द्रोदय तथा प्रभात के परम्परा - गत वर्णन के साथ काव्य समाप्त हो जाता है ।
दुसुन्दर की रचना यद्यपि नैषध का संक्षिप्त रूपान्तर करने के लिये की गयी है तथापि घटनाओं के संयोजन में पद्मसुन्दर अपनी सीमाओं और उद्देश्य दोनों को भूल गये हैं । उनकी दृष्टि में स्वयंवर काव्य की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है | काव्य के चौथाई भाग को स्वयंवर - वर्णन पर क्षय करने का यही कारण हो सकता है । निस्सन्देह यह उसके आदर्शभूत नैषध चरित के अत्यधिक प्रभाव का फल है | पांच सर्गों का स्वयंवर वर्णन (१० - १४ ) नैषध के विराट् कलेवर में फिर भी किसी प्रकार खप जाता है । यदुसुन्दर में, चार सर्गों में ( ४-६, १०), स्वयंवर का अनुपातहीन वर्णन कवि की कथाविमुखता की पराकाष्ठा है । अन्तिम सर्ग को नवदम्पति की कामकेलियों का उद्दीपक भी मान लिया जाए, नवें सर्ग का ऋतु वर्णन काव्यशास्त्रीय नियमों की खानापूर्ति के लिये किया गया प्रतीत होता है। दसवें सर्ग में रोहिणी के स्वयंवर का चित्रण सर्वथा अनावश्यक है। यह वसुदेव के रणशौर्य को उजागर करने की दृष्टि से किया गया है जो महाकाव्य के नायक के लिये आवश्यक है। ये सभी सर्ग कथानक के स्वाभाविक अवयव न होकर बलात् चिपकाये गये प्रतीत होते हैं । इन्होंने काव्य का आधा भाग हड़प लिया है । यदुसुन्दर का मूल कथानक शेष छः सर्गों तक सीमित है ।
पद्मसुन्दर को प्राप्त श्रीहर्ष का दाय: यदुसुन्दर तथा नैषध चरित :
नैषध चरित की पाण्डित्यपूर्ण जटिलता तथा शैली की क्लिष्टता के कारण उत्तरवर्ती कवि उसकी ओर उस तरह प्रवृत्त नहीं हुए, जैसे उन्होंने कालिदास अथवा माघ के दाय को ग्रहण किया है। पद्मसुन्दर नैषध चरित के गुणों (?) पर मुग्ध थे पर उसका विशाल आकार उनके लिये दुस्साध्य था । अतः उन्होंने यदुसुन्दर में नैषध का अल्पाकार संस्करण प्रस्तुत करने का गम्भीर उद्योग किया है । कथानक की परिकल्पना और विनियोग में पद्मसुन्दर श्रीहर्ष के इतने ऋणी हैं कि यदुसुन्दर को, मित्र पात्रों से युक्त नैषध की प्रतिच्छाया कहना अनुचित न होगा ।
दुसुन्दर के प्रथम सर्ग में यदुवंश की राजधानी मथुरा का वर्णन नैषध चरित के द्वितीय सर्ग में विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर के वर्णन से प्रेरित है । श्रीहर्ष ने नगरवर्णन के द्वारा काव्यशास्त्री नियमों को उदाहृत किया है, मथुरा के सामान्य वर्णन में उसकी स्वर्ग से श्रेष्ठता प्रमाणित करने की प्रवृत्ति लक्षित होती है । द्वितीय सर्ग में नैषध के दो सर्गों ( ३,७ ) को रूपान्तरित किया गया है। कनका का सौन्दर्य चित्रण स्पष्टतः दमयन्ती के नखशिख वर्णन ( सप्तम सर्ग ) पर आधारित तथा उससे अत्यधिक प्रभावित है । श्रीहर्ष की भाँति पद्मसुन्दर ने भी राजकुमारी के विभिन्न अंगों का एकाधिक पद्यों में वर्णन करने की पद्धति ग्रहण की है परन्तु उसका वर्णन संक्षिप्त तथा क्रमभंग से दूषित है, हालांकि यह नैषध की शब्दावली से भरपूर है । सर्ग के उत्तरार्द्ध में हंस का दौत्य नैषध के तृतीय सर्ग के समानान्तर प्रसंग का अनुगामी है । दोनों काव्यों में हंस को, नायिका को नायक के प्रति अनुरक्त करने की महत्त्वपूर्ण भूमिका सौंपी गयी है जिसके फलस्वरूप वह अपने प्रेमी के सान्निध्य के लिये अधीर हो जाती है । दोनों काव्य में हंसों के तर्क समान हैं तथा वे अन्ततः नायकों को दौत्य की सफलता से अवगत करते हैं । तृतीय सर्ग में पद्मसुन्दर ने नैषध चर के पूरे पाँच विशालकाय सर्गों को संक्षिप्त करने का घनघोर परिश्रम किया है । कनका के पूर्वराग के चित्रण पर दमयन्ती के विप्रलम्भ-वर्णन ( चतुर्थ सर्ग ) का इतना
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गहरा प्रभाव है कि इसमें श्रीहर्ष के भावों की, लगभग उसी की शब्दावली में, आवृत्ति करके सन्तोष कर लिया गया है। श्रीहर्ष ने काव्याचार्यों द्वारा निर्धारित विभिन्न शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक विरह दशाओं को इस प्रसंग में उदाहृत किया है । पद्मसुन्दर का वर्णन इस प्रवृत्ति से मुक्त है तथा केवल ४७ पद्यों तक सीमित है । दूतकर्म स्वीकार करने से पूर्व वसुदेव को वही आशंकाएँ मथित करती हैं ( ३.५७-७० ) जिनसे नल पीड़ित है ( नैषध ५. ६६-१३७ I दूत का महल में, अदृश्य रूप में प्रवेश तथा वहाँ उसका आचरण दोनों काव्यों में समान रूप से वर्ण है । ६ श्रीहर्ष ने छठे सर्ग का अधिकतर भाग दमयन्ती के सभागृह, दूती की उक्तियों तथा दमयन्ती के समर्थ प्रत्युत्तर (६.५८ - ११० ) पर व्यय कर दिया है ; पद्म सुन्दर ने समान प्रभाव तथा अधिक स्पष्टता के साथ उसे मात्र चौबीस पद्यों में निबद्ध किया है। अगले ४७ पद्यों से वेष्टित तृतीय सर्ग का अंश नैषध के आठवें सर्ग का प्रतिरूप है । कुबेर के पूर्वराग का वर्णन (३.१२२४१) नैषध चरित के आठवें सर्ग में दिक्पालों की विरह वेदना की प्रतिध्वनि मात्र है ( ८.६४ - १०८ ) । अन्तिम साठ पद्य नैषध चरित के नवम सर्ग का लघु संस्करण प्रस्तुत करते हैं । उनमें विषयवस्तु की भिन्नता नहीं है और भाषा तथा शैली में पर्याप्त साम्य है । दूत का अपना भेद सुरक्षित रखने का प्रयत्न, नायिका का उसका नामधाम जानने का आग्रह तथा दूत के प्रस्तावका प्रत्याख्यान, नायिका के करुण विलाप से द्रवित होकर दूत का आत्मपरिचय देना – ये समूची घटनाएँ दोनों काव्यों में पढ़ी जा सकती हैं। श्रीहर्ष को इस संवाद की प्रेरणा कुमारसम्भव के पंचम सर्ग से मिली होगी। वहाँ भी शिव वेष बदल कर आते हैं और अन्त में अपना वास्तविक रूप प्रकट करते हैं । नैषध चरित तथा यदुसुन्दर में दमयन्ती और कनका दूत की उक्तियों का मुँहतोड़ जवाब देती हैं" जबकि पार्वती के पास बहु के तर्कों का समर्थ उत्तर केवल
६
यदुसुन्दर, ३.७२-११४; नैषधचरित, ६.८-४४ ।
यदुसुन्दर, ३.१५०-१५७; नैषध चरित, ६.२७-३२ ।
• संसारमात्मना तनोषि संसारमसंशयं यतः । नैषध०, ६.१०४ ।
तद्विन्दुच्युतकमपातान्मां दांतमेव किमु दातमलं करोषि । यदुसुन्दर, ३.१६० ।
७
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यही है-न कामवृत्तिर्वचनीयमीक्षते ( कुमार ५.८२ ) । कालिदास के उमा - बटु-संवाद में मनोवैज्ञानिक मार्मिकता है । श्रीहर्ष और पद्मसुन्दर इस कोमल प्रसंग में भी चित्र काव्य के गोरख धन्धे में फंसे रहते हैं । उन्हें रोती हुई दमयन्ती तथा कनका ऐसी दिखाई देती हैं, जैसे आंसू गिरा कर क्रमशः 'संसार' का 'ससार' तथा 'दांत' को 'दात' बनाती हुई बिन्दुच्युतक काव्य की रचना कर रही हों। "
पद्मसुन्दर के स्वयंवर - वर्णन पर नैषध का प्रभाव स्पष्ट है । श्रीहर्ष का स्वयंवर-वर्णन अलौकिकता की पर्तों में दबा हुआ है । उसमें पृथ्वीतल के शासकों के अतिरिक्त देवों, नागों, यक्ष, गन्धर्वों आदि का विशाल जमघट है, जिसका श्रीहर्ष ने पूरे पांच सर्गों में (१०-१४) जमकर वर्णन किया है । यदुसुन्दर का वर्णन भी इसके समान ही कथानक के प्रवाह में दुर्लध्य अवरोध पैदा करता है । पद्मसुन्दर ने नैषध में वर्णित बारह राजाओं में से दस को यथावत ग्रहण किया है, पर वह नैषध की भांति अतिमानवीय कर्म नहीं है यद्यपि उसमें भी देवों, गन्धर्वों आदि का निर्भ्रान्त संकेत मिलता है। वर्णन की लौकिक प्रकृति के अनुरूप पद्मसुन्दर ने अभ्यागत राजाओं का परिचय देने का कार्य कनका की सखी को सौंपा है, जो कालिदास की सुनन्दा के अधिक निकट है । श्रीहर्ष ने रघुवंश के छठे सर्ग के इन्दुमती स्वयंवर की सजीवता को विकृत बनाकर उसे एक रूढ़ि का रूप दे दिया है । सातवें सर्ग में वर-वधू का विवाह पूर्व आहार्य प्रसाधन नैषध के पन्द्रहवें सर्ग का, भाव तथा घटनाक्रम में इतना ऋणी है कि उसे श्रीहर्ष के प्रासंगिक वर्णन की प्रतिमूर्ति माना जा सकता है । कहना न होगा, नैषध का यह वर्णन स्वयं कुमारसम्भव के सप्तम सर्ग पर आधारित है, जहाँ इसी प्रकार वर-वधू को सजाया जा रहा है । विवाहसंस्कार तथा विवाहोत्तर सहभोज के वर्णन ( अष्टम सर्ग )
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में पद्मसुन्दर ने अपने शब्दों में नैषध के सोलहवें सर्ग पद्मसुन्दर के पार्श्वनाथ काव्य में प्रचारवादी स्वर की आवृत्ति मात्र कर दी है। नैषध के समान इसमें भी मुखर हैं पर यदुसुन्दर में कवि का जो बिम्ब उभरता है, बारातियों और परिवेषिकाओं का हास-परिहास बहुधा वह चमत्कारवादी आलंकारिक का बिम्ब है। यह स्पष्टतः अमर्यादित है। खेद है, पद्मसुन्दर ने अपनी पवित्रता- नैषध के अतिशय प्रभाव का परिणाम है । पद्मसुन्दर का वादी वृत्ति को भूलकर इन अश्लीलताओं को भी काव्य उद्देश्य 'ग्रन्थ ग्रन्थि' से काव्य को जटिल बनाना नहीं है, में स्थान दिया है। अगले दो सर्ग नैषध से स्वतन्त्र हैं। परन्तु उसका काव्य नेषध की मूलवृत्ति तथा काव्य अन्तिम दो सर्ग, जिनमें क्रमशः रतिक्रीड़ा और सन्ध्या, रूढ़ियों से शन्य नहीं है। पद्मसुन्दर को श्रीहर्ष की तरह चन्द्रोदय आदि के वर्णन हैं, नैषध के अत्यधिक ऋणी हैं। शृंगारकला का कवि मानना तो उचित नहीं है, न ही कालिदास, कुमारदास तथा श्रीहर्ष के अतिरिक्त पद्म वह कामशास्त्र का अध्ययन करने के बाद काव्य रचना सुन्दर ही ऐसा कवि है जिसने वर-वध के प्रथम समागम में प्रवृत्त हुआ है पर जिस मुक्तता से उसने विवाहोत्तर का वर्णन किया है। स्वयं श्रीहर्ष का वर्णन कुमारसम्भव भोज में बारातियों के हास-परिहास और नवदम्पती की के अष्टम सर्ग से प्रभावित है। श्रीहर्ष ने कालिदास के रति केलि का वर्णन किया है, वह उसकी रति विशारदता भावों को ही नहीं, रथोद्धता छन्द को भी ग्रहण किया है। का निश्चित संकेत है। कनका का नखशिख वर्णन यदुसुन्दर के ग्यारहवें सर्ग में भी यही छन्द प्रयुक्त है। (२.१-४७) भी उसकी कामशास्त्र में प्रवीणता को बारहवें सर्ग का चन्द्रोदय आदि का वर्णन, नैषध की तरह बिम्बित करता है। अष्टम् सर्ग का ज्यौनार-वर्णन तो (सर्ग २१) नवदम्पती की सम्भोगकेलियों के लिये समु- खुल्लमखुल्ला मर्यादा का उल्लंघन है। उसके अन्तर्गत
वरण निर्मित करता है। इसमें श्रीहर्ष के बारातियों और परिवेषिकाओं की कुछ चेष्टाएं बहुत भावों तथा शब्दावली की कमी नहीं है। वस्तुतः काव्य फूहड़ और अश्लील हैं । १. श्रीहर्ष के समान इन अश्लीलमें मौलिकता के नाम पर भाषा है, यद्यपि उसमें भी श्रीहर्ष ताओं को पद्मसुन्दर की विलासिता का द्योतक मानना की भाषा का गहरा पुट है।
तो शायद उचित नहीं पर यह उसकी पवित्रतावादी धार्मिक
वृत्ति पर करारा व्यंग्य है, इसमें दो मत नहीं हो सकते। पद्मसुन्दर की काव्य प्रतिभा:
नैषधचरित के इस सर्वव्यापी प्रभाव के कारण पद्म- आदर्शभूत नैषधचरित की भाँति यदुसुन्दर का सुन्दर को मौलिकता का श्रेय देना उसके प्रति अन्याय अंगी रस शृगार है । पद्मसुन्दर को नवरसों का परम्पराहोगा। यदुसुन्दर में जो कुछ है, वह प्रायः सब श्रीहर्ष गत विधान मान्य है (नवरसनिलयः को नु सौहित्यकी पूँजी है। फिर भी इसे सामान्यतः पद्मसुन्दर की मेति २८३) पर वह शृंगार की सर्वोच्चता पर मुग्ध 'मौलिक' रचना मानकर कवि की काव्य प्रतिभा का है। उसकी परिभाषा में शृंगार की तुलना में अन्य रस मूल्यांकन किया जा सकता है।
तुच्छ हैं (अन्य रसातिशायी शृंगार ६.५३)। शान्त
९ विस्तृत विवेचन के लिये देखिये मेरा निबन्ध 'Yadusundara: A Unique Adaptation of Naisadhacarita', VIJ ( Hoshiarpur ), xx. 103-123. अन्यः स्फुट स्फटिक चत्वर संस्थितायास्तन्व्या वररांगमनबिम्बितमोक्षमाणः । सामाजिकेषु नयनांचल सूचनेन सांहासिनं स्फुटमचीकरदच्छ हासः॥ यदु०, ८.३७ वृत्तं निधाय निजभोजनेऽसौ सन्मोदकद्वयमतीव पुरः स्थितायाः। संघाय वक्षसि दृशं करमर्दनानि चक्रे त्रपानतमुखी सुमुखी बभूव ॥ वही, ८.५२ प्रागर्थयन्निकृत एष विलासवत्या तत्सुंमुखं विटपतिः स भुजि क्रियायाम् । क्षिप्त्वांगुलीः स्ववदने ननु मार्जितानलेहापदेशत इयं परितोऽनुनीता ॥ वही, ८५४
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रस को तो उसने जड़ता का जनक मान कर उसकी खिल्ली है। पर पदमसुन्दर ने 'भूभूत' को समस्त पद में डाल उड़ायी है (शान्तरसैकमन्दधी ४.४१)। यदुसुन्दर में कर कल्पना के सौन्दर्य और काव्यात्मक प्रभाव को नष्ट यद्यपि शृगार के दोनों पक्षों का व्यापक चित्रण मिलता है कर दिया है। अतः मुल की भाँति यह नायिका की किन्तु कथानक की प्रकृति के अनुरूप इसमें विप्रलम्भ को व्यथा की व्यंजना नहीं करा सकती। अधिक महत्त्व दिया गया है। तृतीय सर्ग में कनका और कुबेर के पूर्वराग का वर्णन है, जो नैषध के क्रमशः चतुर्थ तनुतनुरुह जव्यधतो व्यथा भवति तत्र विलासवतीहृदि । .
यदुजभूभदसौ स्थितिमाश्रयद्यदुत बाधत एव किमदभुतम् ।। तथा अष्टम् सर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। निराश कनका की विप्रलम्भोक्तियाँ भी इसी सर्ग में समाहित हैं। परन्तु कवि ने श्रीहर्ष के पदचिह्नों पर चलकर, अपने निम्नोक्त पद्य कनका के विरह की तीव्रता को अधिक विप्रयोग-निरूपण पर कल्पना-शीलता की इतनी मोटी पर्ते प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करता है। वह हृदय में धधकती चढ़ा दी हैं कि विप्रलम्भ की वेदना का आभास तक नहीं ज्वाला को शान्त करने के लिये वक्ष पर सरस कमल रखना होता। समूचा विप्रलम्भ-वर्णन अहोक्तियों का संकलन- चाहती है पर वह कमल उसके अंगों का स्पर्श करे, इसके सा प्रतीत होता है। ऐसे कोमल प्रसंगों में कालिदास पूर्व ही उसकी गर्म आहों से जलकर बीच में ही राख तीव भावोद्रेक करता है पर पदमसुन्दर संवेदना से शून्य हो जाता है। कल्पना सचमुच बहुत मनोरम है। प्रतीत होता है। उसपर अपनी नायिका की विरहवेदना
विरहदाहशमाय गृहाण निजकरण सरोज मुरोजयोः । का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसे रोती कनका आँसू
द्रुतमपि श्वसितोष्मसमीरणादजनि मुम्मुर इत्यजहात्ततः ॥ गिरा कर ‘दान्त' को 'दात' बनाती तथा प्रेम काव्य की रचना करती प्रतीत होती है (३.१६०, १७४) ।
३.२१ निस्सन्देह यह नेषध का रूपान्तर की विवशता का परिणाम यह असहायता की पराकाष्ठा है। कहना न होगा, है पर इन क्लिष्ट कल्पनाओं और हथकण्डों के कारण ही यह कल्पना भी नेषध चरित्र से ली गयी है। १२ उसका विप्रलम्भ चित्रण निष्प्राण तथा प्रभावशून्य बना है। यदसन्दर के ग्यारहवें सर्ग में सम्भोग शुगार का उसमें सहृदय भावुक के मानस को छूने की क्षमता नहीं है, मधुर चित्रण है। यद्यपि यह वर्णन कालिदास तथा श्रीहर्ष भले ही कनका क्रन्दन करती रहे या अपने भाग्य को
के प्रासंगिक वर्णनों से प्रेरित है, पर इसमें उन्हीं की भाँति
गवानी पेरित है. पर दम रन्द्री: कोसती रहे।
वर-वधू के प्रथम समागम का मनोवैज्ञानिक निरूपण किया - कछ कल्पनाएँ अवश्य ही अनठी हैं। यदि शरीर में गया है। लजीली नववधू समय बीतने के साथ-साथ छोटा-सा बाल भी चभ जाए, उससे भी पीडा होती है। केसे अनुकूल बनती जाती है, पद्मसुन्दर ने इसका हृदयकनका को वेदना का अनुमान करना कठिन है क्योंकि ग्राही अंकन किया है। भावसन्धि का यह चित्र नवोढा उसके कोमल हृदय में छोटा-मोटा बाल नहीं, विशालकाय के लज्जा तथा काम के द्वन्द्व की सशक्त अभिव्यक्ति है। पहाड़ (भूभृत-राजावसुदेव) घुस गया है। इस स्थातुमेनमनिरीक्ष्य नाददात्सुभृ वो रतिपतिनं च त्रपा । कल्पना का सारा सौन्दर्य श्लेष पर आधारित है। पद्म- वीक्षितुं वरयितर्यनारतं तदृशौ विदधतुगतागतम् ॥ सुन्दर की यह कल्पना नेषध के एक पद्य की प्रतिच्छाया
११ निविशते यदि शकशिखा पदे सृजति सा कियतीमिव न व्यथाम् ।
मृदुतनोर्वितनोतु कथं न तामवनिभृत प्रविश्य हृदि स्थितः ।। नैषध०, ४.११ १२ स्मरहुताशनदीपितया तथा बहु मुहुः सरसं सरसीरुहम् ।
श्रयितुमर्धपये कृतमन्तरा वसितनिर्मितमर्मरमुज्झितम् ॥ वही, ४.२६
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यदुसुन्दर में वीर रस की भी कई स्थलों पर निष्पत्ति हुई। दसवें सर्ग का युद्धवर्णन दो कौड़ी का है । यह वीररसचित्रण में कवि की कुशलता की अपेक्षा उसके चित्रकाव्य में प्रेम को अधिक व्यक्त करता है । वैसे भी इस वर्णन में वीर रस के नाम पर वीर रसात्मक रूढ़ियों का निरूपण किया गया है जो तब तक साहित्य में गहरी जम चुकी थी । चतुर्थ तथा पंचम सर्ग में अभ्यागत राजाओं के पराक्रम के वर्णन में वीर रस के कुछ चित्र सुन्दर तथा प्रभावशाली हैं। वे बहुधा श्रीहर्ष के वर्णनों पर आधारित हैं। श्रीहर्ष की तरह पद्मसुन्दर का वीर रस दरबारी कवियों का 'टिपिकल वीर रस' है, जिसमें अतिशयोक्ति और शब्दछटा का आडम्बर दिखाई देता है । साकेत नरेश की वीरता के वर्णन वाले इस पद्य में वीर रस की यही प्रवृत्ति मिलती है ।
एतद्दोर्दण्ड चण्डद्युतिकरनिकर त्रासिता रातिराज
स्तस्यौ यावद्विशंको द्रुमकुसुमलता कुंज पुंजे निलीय । वीक्ष्यैतन्नामधेयांकित निशितशरध्वस्त पंचाननास्यो
ताशकं करकं व्रजतु विवशधीः कां दिशं कांदिशीकः ॥ ४.६२ पद्मसुन्दर की प्रकृति नैषध की तरह, वियोग अथवा संयोग की उद्दीपनगत प्रकृति है । तृतीय सर्ग का उपवनवर्णन ( ३५-४४ ), जो नैषध के प्रथम सर्ग के उपवन - चित्रण ( ७६-११६ ) का समानान्तर है, वसुदेव की विरहवेदना को भड़काता है। नवें तथा बारहवें सर्ग के प्रकृति-वर्णन संयोग के उद्दीपन का काम देते हैं । ये क्रमशः वसुदेव तथा रोहिणी और कनका की सम्भोग क्रीड़ाओं के लिये समुचित पृष्ठभूमि निर्मित करते हैं । नवें सर्ग में ऋतुवर्णन के द्वारा शास्त्रीय नियमों की खानापूर्ति करने का प्रयत्न किया गया है। चित्रकाव्य पर समूचा ध्यान केन्द्रित होने के कारण पद्मसुन्दर यहाँ प्रकृति का बिम्बचित्र प्रस्तुत करने में सफल नहीं हुए हैं 1 उपजीव्य नैषध के समान यदुसुन्दर के बारहवें सर्ग
१३ नैषध०, २२-१३ ; यदुसुन्दर, १२ ८ ।
१४ नैषध०, २२ ३२ ; यदुसुन्दर, १२-१५ । १५ यदुसुन्दर १२-७४ |
का प्रकृति-वर्णन दूरारूढ़ कल्पनाओं और अप्रस्तुतों के दुर्वह बोझ से आक्रान्त है । श्रीहर्ष के काव्य में पाण्डित्यपूर्ण उड़ान की कमी नहीं है पर उन्नीसवें और बीसवें सर्गों में वह सब सीमाओं को लांघ गया | इन वर्णनों में उसने ऐसी विकट कल्पनाएँ की हैं, जो वर्ण्य विषय को स्पष्ट करने की अपेक्षा उसे धूमिल कर देती हैं । यदुसुन्दर में उन सबको आरोपित करना सम्भव नहीं था, फिर भी पद्मसुन्दर ने श्रीहर्ष के अप्रस्तुतों को उदारता से ग्रहण किया है । सन्ध्या के समय लालिमा धीरे-धीरे मिटती जाती है और तारे आकाश में छिटक जाते हैं, इस दृश्य के चित्रण में पद्मसुन्दर ने श्रीहर्ष के कई भावों की आवृत्ति की है। उसने पहले रूपक के द्वारा इसका वर्णन किया । सन्ध्या रूपी सिंही ने दिन के हाथी को अपने नखों से फाड़ दिया है । उसकी विशाल काया से बहता रक्त, सान्ध्य राग के रूप में, आकाश में फैल गया है और उसके विदीर्ण मस्तक से झरते मोती तारे बनकर छिटक गये हैं ( १२.६ ) | श्रीहर्ष ने आकाश को मूर्ख के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसने सूर्य का स्वर्णपिण्ड बेच कर बदले में, कौड़ियाँ खरीद ली हैं । पद्मसुन्दर ने इसके विपरीत अस्ताचल को व्यवहार कुशल क्रेता का रूप दिया है । उसने सन्ध्या की आग में शुद्ध सूर्य रूपी स्वर्णपिण्ड हथिया लिया है और उसके बदले में आकाश को निरर्थक कौड़ियाँ ( तारें ) बेच दी है । १३ सूर्य के अस्त होने पर चारों ओर अंधेरा गिरने लगा है । कवि की कल्पना है कि काजल बनाने के लिये सूर्य रूपी दीपक पर आकाश का सिकोरा औंधा रखा गया था। काजल इतना भारी हो गया है कि वह विशाल सिकोरा भी उसके भार से दब कर नीचे गिर गया है। उसने दीपक को बुझा दिया है। और वह काजल अन्धकार बन कर चारों तरफ बिखर गया है । १४ श्रीहर्ष के अनुकरण पर पद्मसुन्दर ने सूर्य को बाज़ का रूप देकर सन्तुलन की सब सीमाओं को लांघ दिया है । १५ इन क्लिष्ट कल्पनाओं ने पद्मसुन्दर के प्रकृतिवर्णन को ऊहात्मक बना दिया है ।
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पहले संकेत किया गया है कि पद्मसुन्दर की भाषा है। इसमें केवल एक व्यंजन-क के आधार पर रचना पर भी श्रीहर्ष का गहरा प्रभाव है। जहाँ उसने उपजीव्य के द्वारा कवि ने अपना पाण्डित्य बघारा है । काव्य का स्वतन्त्र रूपान्तर किया है, वहाँ उसकी भाषा, कुः कां ककंक कैका किकाककु कैकिका । उसके पार्श्वनाथ काव्य की तरह, विशद तथा सरल है;
कां कां कककका काक ककाकुः कंकका कका । १०.४४ परन्तु जहाँ उसे नेषध का, लगभग उसी की पदावली में
पद्मसुन्दर की भाषा में समास-बाहुल्य की कमी नहीं पुनराख्यान करने को विवश होना पड़ा है, वहाँ उसकी भाषा में प्रौढ़ता का समावेश होना स्वाभाविक था ।
है पर उसकी सरलता को देखते हुए उसे वेदी-प्रधान
कहना उचित होगा। वैदी की सुबोधता पद्मसुन्दर सामान्यतः यदुसुन्दर की भाषा को सुबोध कहा की भाषा की विशेषता है। अपनी क्लिष्टता के बावजूद जाएगा पर काव्य में नैषध के प्रभाव से मुक्त दो स्थल नेषध की भाषा पदलालित्य से इतनी विभूषित है कि ऐसे हैं, जिनमें पद्मसुन्दर अपने उद्देश्य से भटक कर, 'नैषधे पदलालित्यम्' उक्ति साहित्य में श्रीहर्ष के भाषाचित्रकाव्य में अपना रचना-कौशल प्रदर्शित करने के फेर गुण की परिचायक बन गयी। यदुसुन्दर के अधिकतर में फंस गये हैं। इन सर्गों में यदुसुन्दर का कर्ता स्पष्टतः पद्यों में पदलालित्य मिलेगा, जो उसकी भाषा को नयी माघ के आकर्षण से अभिभूत है, जिसने इसी प्रकार आभा प्रदान करता है। पदलालित्य अनुप्रास पर आधारित ऋतुओं तथा युद्ध के वर्णनों को बौद्धिक व्यायाम का है जिसका काव्य में व्यापक प्रयोग किया गया है । अखाड़ा बनाया है। पद्मसुन्दर का षड ऋतुवर्णनवाला नैषधचरित वक्रोक्ति-प्रधान काव्य है। यदुसुन्दर भी नवाँ सर्ग आद्यन्त यमक से भरपूर है। इसमें पद, पाद, नैषध की इस विशेषता से अप्रभावित नहीं है। उत्प्रेक्षा, अर्द्ध तथा महायमक आदि यमकभेदों के अतिरिक्त कवि
अपह नुति, अतिशयोक्ति, समासोक्ति का स्वतन्त्र अथवा ने अनुलोम-प्रतिलोम, षोडशदल कमल, गोमूत्रिका बन्ध
मिश्रित प्रयोग यदुसुन्दर की वक्रोक्ति का आधार है । आदि साहित्यिक हथकण्डों पर हाथ चलाया है।
सापह्नवोत्प्रेक्षा तथा सापह्नवातिशयोक्ति के प्रति पद्मसुन्दर शिशुपालवध की तरह पद्मसुन्दर का युद्धवर्णन एक
का प्रेम नैषध से प्रेरित है। अप्रस्तुत प्रशंसा, . व्यंजनात्मक, यक्षरात्मक तथा वर्ण, मात्रा, बिन्दुच्युतक
अर्थान्तरन्यास, दृष्टान्त, पर्यायोक्त आदि वक्रोक्ति के आदि चित्रकाव्य से जटिल तथा बोझिल है, यद्यपि ऋतु
पोषक अन्य अलंकार हैं, जिसका पद्मसुन्दर ने रुचिपूर्वक वर्णन की अपेक्षा इसकी मात्रा यहाँ कम है। इनसे कवि के
प्रयोग किया है। काव्य में प्रयुक्त उपमाएँ कवि की पाण्डिल्य का संकेत अवश्य मिलता है पर ये काव्य की
कुशलता की परिचायक है । पद्मसुन्दर ने अन्य अलंकारों ग्राह्यता में बाधक हैं, इसमें सन्देह नहीं। निम्नांकित
के संकर के रूप में भी उपमा का प्रयोग किया है। महायमक से कवि के यमक की करालता का अनुमान किया
इस प्रकार यदुसुन्दर का समूचा महत्त्व इस तथ्य में जा सकता है।
निहित है कि इसमें नवीन पात्रों के माध्यम से नैषध चरित सारं गता तरलतारतरंगसारा
का संक्षिप्त रूपान्तर प्रस्तुत किया गया है। मौलिकता सारंगता तरलतार तरंगसारा। के अभाव के कारण यदुसुन्दर ख्याति प्राप्त नहीं कर सारंगता तरलतार तरंगसारा
सका। सम्भवतः यही कारण है कि इसकी केवल एक सारंगता तरलतार तरंगसारा ।।६.२६
हस्तलिखित प्रति उपलब्ध है। फिर भी यदुसुन्दर तथा
नेषध चरित का तुलनात्मक अध्ययन करना अतीव रोचक चित्रकाव्य का विकटतम रूप प्रस्तुत पद्य में मिलता तथा उपयोगी है।
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कर्ता के सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। अतः अभी इस रचना को अज्ञातकतृक ही मानना होगा। आरामसोहाकहा की परम्परा एवं अन्य पाण्डुलिपियों के सम्बन्ध में विचार करने के पूर्व इस कथा को संक्षेप में प्रस्तुत करना उपयोगी होगा।
.
कथा वस्तु
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कुशात देश है। वहाँ के बलासक नामक ग्राम में अग्निशर्मा नामक ब्राह्मण रहता
था। उसके ज्वलनशिखा नामक पत्नी थी। उनके विद्यत्प्रभा अप्रकाशित आरामसोहाकहा
नामक पुत्री थी। जब वह आठ वर्ष की थी तभी
किसी रोग से पीड़ित होकर उसकी मां का देहावसान हो (पद्य) : एक परिचय गया। तब घर का सारा काम विद्युत्प्रभा के ऊपर आ
पड़ा। गायों को चराने, घर का काम करने और पिता -डॉ० प्रेम सुमन जैन
की सेवा-टहल करने में वह बहुत थक जाती थी। अतः सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
एकदिन उसने पिता से कह दिया कि वह दूसरी शादी
करके पत्नी ले आवे। इससे उसे घर के कामों से छुटकारा प्राकृत कथा साहित्य में आरामशोभाकथा एक
तो मिलेगा। किन्तु विद्यत्प्रभा की जो सौतेली मां आयी महत्वपूर्ण लौकिक कथा है। जिनपूजा के महात्म्य को
वह इतनी आलसी और कुटिल थी कि विद्युत्प्रभा को प्रतिपादित करने के उद्देश्य से यह कथा उदाहरण के रूप
पहले जैसा ही घर-बाहर के कार्यों में अकेले जुटना पड़ता में कही गयी है। प्राकृत, संस्कृत, गुजराती एवं हिन्दी
था। इसे वह अपने कर्मों का फल मानती हुई सहन करने भाषा में आरामशोभाकथा को कई कथाकारों ने प्रस्तुत
लगी। किया है। किन्तु मूल प्राकृत कथा अभी तक स्वतंत्र रूप से प्रकाशित नहीं हो सकी है। इस अप्रकाशित आराम
एकबार विद्यत्प्रभा जब गायों को चरा रही थी तो सोहाकहा की पाण्ड लिपि मुझे लालभाई दलपतभाई भार- वहाँ उसने एक सांप रूपी देवता की प्राण रक्षा की। इससे तीय संस्कृति मंदिर, अहमदाबाद के ग्रन्थभण्डार का प्रसन्न होकर उस नागदेवता ने उसे वरदान दिया कि सर्वेक्षण करते समय २-३ वर्ष पूर्व प्राप्त हुई थी। प्राकृत उसके सिर पर एक हरा-भरा कुंज ( आराम ) सदेव बना गाथाओं में निबद्ध इस कथा की यह अभी तक उपलब्ध रहेगा, जिससे उसे कभी धूप नहीं लगेगी। यह कंज एकमात्र पाण्डुलिपि है। यद्यपि इस कथा की अन्य प्रतियां आवश्यकतानुसार छोटा-बड़ा होता रहता था। एकदिन विभिन्न ग्रन्थभण्डारों में प्राप्त होने के संकेत है, किन्तु पाटलीपुत्र के राजा जितशत्रु ने विद्यत्प्रभा के साहस और अभी वे उपलब्ध नहीं हो सकी हैं।
कंज से प्रभावित होकर उसे अपनी पटरानी बना लिया । ___ आरामसोहाकहा की इस पाण्डुलिपि में कुल १० पन्ने
विद्यत्प्रभा को वह आरामशोभा के नाम से पुकारने लगा। हैं, जो दोनों ओर लिखे हैं। इसमें कुल ३२० प्राकृत।
उनके दिन सुख से व्यतीत होने लगे। गाथाएं हैं। किन्तु आदि-अन्त में कोई प्रशस्ति नहीं है। इधर आरामशोभा की सौतेली मां के एक पुत्री अतः रचनाकार, लिपिकार आदि के सम्बन्ध में कुछ भी उत्पन्न हुई। उसके जवान होने पर उस सौतेली मां ने ज्ञात नहीं होता है। प्राकृत साहित्य के अन्य किसी ग्रन्थ चाहा कि जितशत्रु राजा आरामशोभा के स्थान पर उसकी में भी प्राकृत पद्यों में रचित आरामसोहाकहा एवं उसके पुत्री को पटरानी बना ले। अतः उसने गर्भवती आराम
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शोभा को अपने घर बुलाया और उसके पुत्र के जन्म हो मणिभद्र सेठ के एक बगीचा था जो सिंचे जाने जाने पर उसे एक कँए में डाल दिया और उस पुत्र के पर भी सूखता जा रहा था। इससे वह सेठ बहुत दुःखी साथ अपनी पुत्री को आरामशोभा बनाकर राजा के पास था। तब कुलधर की पुत्री ने चार प्रकार के आहारमात्र भिजवा दिया। राजा को नकली आरामशोभा पर शक का व्रत लेकर शासन देवी की पूजा की। उसकी तपस्या जरूर हुआ किन्तु पुत्र की प्रसन्नता में उसने विशेष ध्यान के फल से वह सूखता हुआ बगीचा फिर से हरा-भरा हो. नहीं दिया।
गया । इससे प्रसन्न होकर सेठ ने उस पुत्री को बहुत-सा धन असली आरामशोभा को अपने पुत्र को देखने की पुरस्कार में दिया। उस पुत्री ने उस धन से जिन प्रतिमा बड़ी इच्छा हुई तो उसने उसी नागदेवता को स्मरण के ऊपर तीन छत्र और मुकुट आदि बनवा दिये तथा किया। नाग देवता की कृपा से वह पुत्र का दर्शन करने मन्दिर में रथ इत्यादि का दान दिया। इस प्रकार धार्मिक रात्रि में जाने लगी। किन्तु सूर्योदय के पूर्व उसे वापिस कार्य करते हुए वह पुत्री मरणोपरान्त स्वर्ग में देवता हुई। लौटना पड़ता था। एक दिन राजा ने असली आरामशोभा देवता के भोगों को भोगकर वह विद्यत्प्रभा के रूप में को पकड़ लिया और वापिस नहीं आने दिया। तब से उत्पन्न हुई। पूर्वजन्म के बचपन में धर्म न करने के कारण उसके सिर से वह कुज गायब हो गया। किन्तु आराम- वह विद्युतप्रभा बचपन में दुःखी हुई, जिनप्रतिमा पर छत्र शोभा को पुनः अपना पद और गौरव प्राप्त हो गया। प्रदान करने से उसे सिर पर कुंज की शोभा प्राप्त हुई और उसने अपनी सौतेली माँ और बहिन को भी क्षमा कर तपश्चरण आदि करने के कारण उसे राज्य-सुख प्राप्त हुआ । दिया।
मुनि के द्वारा इस प्रकार अपना पूर्वजन्म वृत्तान्त सुनकर एकदिन आरामशोभा राजा के साथ वीरभद्र मुनि आरामशोभा ने पति के साथ वैराग्य धारण कर तपश्चरण के समीप गई। वहाँ उसने अपने पूर्वजन्म के सम्बन्ध में किया एवं सद्गति प्राप्त की। उनसे पछा कि मेरे ऊपर छत्र के आकार का कुंज क्यों कथा की लोकप्रियता स्थित हुआ और मुझे पहले दुःख और बाद में सुख क्यों
आरामशोभा कथा जेन कथाकारों को बहुत प्रिय रही प्राप्त हुए ? मुनिराज ने उसके पूर्वजन्म की कथा कही।
है। अतः प्राकृत, संस्कृत एवं गुजराती भाषाओं में इसके चम्पा नगरी में कुलधर वणिक रहता था। उसके आठ कई संस्करण प्राप्त होते हैं। उनकी संक्षिप्त जानकारी यहाँ पुत्रियाँ थीं। सात की तो अच्छे घरों में शादियाँ हो गयी
प्रस्तुत की जा रही है। थीं किन्तु आठवीं पुत्री पुण्य-रहित होने के कारण अविवाहित थी। तभी उस नगर में नन्दन नामक एक वणिक- प्राकृत सस्करण पुत्र आया। कुलधर ने उससे अपनी आठवीं पुत्री का विवाह (१) अभी तक प्राप्त जानकारी के अनुसार आचार्य कर दिया और उसके साथ उसे दक्षिण भारत भेज श्री प्रद्युम्नसूरिकृत मूलशुद्धिप्रकरण पर श्री देवचन्द्रसूरि दिया किन्तु वह नन्दन वणिक रास्ते में ही अपनी पत्नी द्वारा लिखित वृत्ति में सर्वप्रथम तीर्थङ्कर भक्ति के उदाहरण को छोड़कर चला गया।
रूप में आरामशोभा कथा प्राकृत गद्य एवं पद्य में प्रस्तुत वह कुलधर की पुत्री भटकती हुई दूसरे नगर में पहुँच
की गयी है। आरामशोभा के पुनः पटरानी पद प्राप्त कर मणिभद्र सेठ के घर कार्य करने लगी। मणिभद्र उसे करने की कथा तक प्राकृत गद्य एवं पद्य का प्रयोग किया पुत्री की भाँति रखने लगा। एकबार जब मणिभद्र सेठ गया है एवं उसके बाद पूर्वजन्म की कथा केवल गाथाओं ने अपने यहाँ एक जिनमन्दिर बनवाया तब वह कुलधर
कार
में कही गया है। कथा इस प्रकार
में कही गयी है। कथा इस प्रकार प्रारम्भ होती है । की पुत्री वहाँ विनयपूर्वक जिनभक्ति करने लगी। उस तत्थ य परिस्सम किलंतनर-नारी हिययं व बहुमासं,
१ भोजक, अमृतलाल (सं०), मूलशुद्धिप्रकरण (प्रथम भाग), अहमदाबाद, १६७१, पृ० २२-३४ ।
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महामुणिव्व सुसंवर, कामिणीयणसीसंव ससीमंतयं अस्थि मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति की आरामसोहाकहा एवं थलासयं नाम महागामं ।।
अज्ञातकृत कथा की गाथाओं में कोई समानता नहीं है। कथा के अन्त में कहा गया है:
सूक्ष्म अध्ययन करने पर भाषा की कुछ समानता मिल मणुयत-सुरत्ताई कमेण सिवसंययं लहिस्संति । सकती है। कथा अंश लगभग एक जैसा है। कुछ स्थान एयं जिणभत्तीए अणण्ण सरिसं फलं होइ ।।२०१॥ के नामों में अन्तर है ।
यह मूल शुद्धिप्रकरणवृत्ति ई० सन् १०८६.६० में इस प्राकृत आरामशोभा कथा की अब तक निम्न रची गयी थी। अतः आरामशोभा कथा का अब तक ज्ञात पाण्डुलिपियों का पता चला है : २ यह प्राचीन रूप है।
१ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति मंदिर, (२) प्राकृत की ३२० गाथाओं में आरामसोहाकहा
अहमदाबाद, ( प्रस्तुत पाण्डुलिपि), नं० १६०५ कि रचना किसी अज्ञात कवि ने की है। उसी का परिचय
_२ विजयधर्म लक्ष्मी ज्ञान-मंदिर, वेलनगंज, आगरा, इस लेख में दिया जा रहा है। यह रचना भाषा की दृष्टि
नं. १६०१ से १२वीं शताब्दी की होनी चाहिये। इसका प्रारम्भ इस
३ देला उपासरा भण्डार, अहमदाबाद, नं० १३४ प्रकार हुआ है :
४ देला उपासरा भण्डार, अहमदाबाद, नं० १०० झविज्ज मूलभूअं दुवारभूअं पइन्व निहिभूअं । आहारभायणमिमं सम्मत्तं चरणघमस्स ॥१॥
५ विमलगच्छ उपासरा ग्रन्थ भण्डार, फल्सापोल,
अहमदाबाद, नं०६२७,८५२ इस सम्म सम्मत्तं जो समणो सावगो घरइ हिअए । ६ विमलगच्छ उपासरा ग्रन्थभण्डार, हजपटेलपोल, अपुव्व सो इदि लहेह आरामसोहु ब्वं ।।४।। ___ अहमदाबाद, डव्वा नं० १५, पोथी नं० ५. कारामसोहवुत्ता कह समत्ता तए सिरी लद्धा । ७ भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना, इअपुट्ठो अ जिणंदो आणं देणं कहइ एवं ॥५।।
१८८७-६१ का कलेक्शन, नं० १२६३ यहाँ यह स्पष्ट है कि सम्यक्त्व का महत्व प्रतिपादन ८ भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पना, कर उसके उदाहरण में आरामशोभा की कथा कही गयी
पीटर्सन रिपोर्ट १, नं० २३६ है। पांचवीं गाथा में आणंदेणं शब्द विचारणीय है। ऐसा
६ लीबंडी जैन ग्रन्थ भण्डार, नं० ६८१ प्रतीत होता है कि आनन्द नामक व्यक्ति द्वारा पूछे जाने
___ इन पाण्डुलिपियों की प्राप्ति एवं उनके अवलोकन से पर जिनेन्द्र ने इस कथा को कहा है। यह आनन्द श्रावक
पता चलेगा कि इनमें कोई प्रशस्ति आदि है अथवा नहीं। है अथवा साधु यह शोध का विषय है।
सम्पादन-कार्य के लिये भी इनसे मदद मिल सकती है। इस ग्रन्थ के अन्त में कोई प्रशस्ति नहीं है। केवल इतना कहा गया है कि 'हे भव्व जीव ! आरामशोभा की
इस ग्रन्थ में कुछ उद्धरणों का प्रयोग हुआ है। अन्य तरह आप भी सम्यक्त्व में अच्छी तरह प्रयत्न करें,
ग्रन्थों में उनकी खोज करने से इस ग्रन्थ के रचनाकाल जिससे कि शीघ्र ही शिव-सुख को प्राप्त करें।
का निर्धारण हो सकता है। कुछ उद्धरण यहाँ प्रस्तुत हैंआरामसाहिआ विव इअ सम्म दंसणम्मि भो भव्वा । (क) दंसण-भट्ठो भठो दसण मुट्ठस्स नत्थि निव्वाणं । कुणह पयतं तुम्भे जह अहरा लहह सिवसुक्खं ॥३२०॥ सिझंति चरण-रहिआ दंसणरहिआ न सिज्झंति ॥३॥' इति सम्यक्त्व उपरि आरामशोभा कथा ! (ख) बालस्स माय-मरणं भज्जा-मरणं च जोवणारमे। ॥ श्री शुभं भवतु ॥
थेरस्स पुत-मरणं तिन्नि वि गुरुआइ दुक्खाई ॥१२॥
२ वेलणकर, एच० डी०, जिनरत्नकोश, पूना १६४४, पृ० ३३-३४ । ३ यह गाथा दर्शनपा हुड़ ( कुन्दकुन्द ) एवं भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक में यथावत उपलब्ध है।
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(ग) पुवभवे जं कम सुहासुहं जेण जेण भावेण । संस्कृत संस्करण ___ जीवेण कयं तं चिरं परिणमई तम्मि कालम्मि ॥१३॥ (1) संस्कृत में जिनहर्षसूरि (ई० सन् १४८१), मलय(घ) विहलं जो अबलंबई आवइपडि व जो समुद्धरइ। हंसगणि एवं माणिक्य सुन्दरगणि ने आरामशोभा कथा
सरणागयं च रक्खइ तिहिं तिसु अलंकिआ पुहवी।।३६।। लिखी है। यह ज्ञात नहीं हो सका है कि ये संस्करण (ङ) धम्मेण सुह-संपया सुभगया नीरोगया आवया-चतं । प्रकाशित हैं या नहीं। इनकी पाण्ड लिपियां विभिन्न .
दीहरभाउअं इह भवे जम्मो सुरम्मे कुले ॥२२३। ग्रन्थ भण्डारों में प्राप्त हैं। संस्कृत के जैन कथा-ग्रन्थों (च) दिव्वरूवमउव्वं जव्यणभरो सती सरीरे जणे। में आरामशोभाकथा का उल्लेख किया गया है।
किती होइ सुधम्मओ परभवे सग्गापवरगस्सिरी ॥२२४॥ गुजराती संस्करण
(३) आरामशोभाकथा की तीसरी रचना प्राकृत गद्य (५) आरामशोभाकथा गुजराती में भी लिखी गयी में है। हरिभद्रसूरिकृत 'सम्यक्त्वसप्तति' पर संघतिलक ने है। गुजराती के 'आरामशोभारास' की भूमिका में सम्पाई. सन् १३६५ में प्राकृत में वृत्ति लिखी है। इस वृत्ति दकों ने इस कथा की निम्नांकित गुजराती रचनाओं का में आरामशोभा की जो कथा दी गयी है उसका प्रारम्भ उल्लेख किया है : इस प्रकार होता है:
(क) आरामशोभारास (राजकीर्ति), ई० सन् १४७६ । ___ इहेव जम्बूरूक्खालं कियदीव मज्झट ठिए अक्खंडछक्खं- (ख) आरामशोभा चौपाई (विनयसमुद्र ), ई. डमंडिए बहुविहसुहनिवह निवासे भारहे वासे असेसलच्छि- सन् १५२७। संनिवेसो अस्थि-कुसट्टदेसो।।
(ग) आरामशोभाचरित (पुंज ऋषि ), ई. ___ इस पूरी रचना में ३० प्राकृत एवं संस्कृत के पद्यों सन् १५६६ । का भी प्रयोग हुआ है। अन्त में कहा गया है :५
(घ) आरामशोभा चौपाई ( समय प्रमोद ), ई० आरामसोहाइ चरित्तमेयं निसामिऊणं सवणा भियामं । सन् १६१० के लगभग । कुणेह देवाण गुरुणवेया-वच्चं सया जेण लहेह सुक्खं ॥ (ङ) आरामशोभा चौपाई (राजसिंह ), ई०
इस कथा को मूल रूप में डा. राजाराम जैन ने सन् १६३१ । पाइयगज्ज-संगहो नामक अपनी पाठयपुस्तक में प्रकाशित
(च) आरामशोभा चौपाई ( दयासार ), ई० किया है। यद्यपि विभिन्न प्रतियों के आधार पर इसका सन् १६४८ । सम्पादन किया जाना शेष है। ला० द० संस्कृति विद्या
(छ) आरामशोभारास (जिनहष), ई० सन् १६६० । मंदिर, अहमदाबाद में इस प्राकृत (गद्य) आरामसोहा कथा इस तरह ज्ञात होता है कि आरामशोभाकथा जनकी २ प्रतियां प्राप्त हैं। संख्या-३२६० एवं २५६०। जीवन में बहुत लोकप्रिय रही है। जिनभक्ति के लिये
४ सम्यक्त्व सप्तति ( संघतिलककृतवृत्तिसहित ), सं० ललितविजय मुनि, १६१६ । ५ मुनि यशोभद्र (सं०), आरामसोहाकहा, नेमिविज्ञान ग्रन्थरत्न (३), सूरियपुर, सन् १९४० । ६ (क) जैन ग्रन्थ भण्डार, लींबड़ी, पोथी नं० ७०१ ।
(ख) श्री जैन संघ भण्डार, पाटण, डव्वा नं० ६, पोथी नं०६। ७ (क) देसाई, जैन साहित्यनी इतिहास, १६३३, पृ० ४७१ ।
(ख) चौधरी, जी० सी०, जैन साहित्य का वृहत् इतिहास, भाग ६, पृ० ४१७ । ८ कथा मंजूषा (भाग ७)–आरामशोभारास (सं०), जयंत कोठारी एवं कीर्तिका जोशी, अहमदाबाद, १६८३ ।
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मध्यकाल में यह प्रमुख दृष्टांत रहा है। कथा की लौकि कता के कारण इसे अधिक प्रसिद्धि मिली है।
हिन्दी संस्करण
किसी
हिन्दी लेखक ने
(६) आरामशोभाकथा को स्वतन्त्र रूप से नहीं लिखा है। किन्तु प्राचीन कथा के आधार पर हिन्दी में उसका संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किया है । श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री द्वारा सम्पादित जैन कथा भाग ६६ में आराम शोभाकथा प्रस्तुत की गयी है। कथा सीरिज में भी 'जादुई कुंज' के नाम से प्रस्तुत किया गया है 1
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अमर चित्र
इस कथा को
कथा के मानक रूप एवं अभिप्राय
आरामशोभाकथा एक लोककथा है । अतः इसमें लोकतत्त्वों की भरमार है । इस कथा के मानक रूप इस प्रकार हैं :
२. अकेली बालिका पर घर के कार्यों का भार
२. सर्प का मनुष्य की वाणी में बोलना
३. कृतज्ञ नागकुमार द्वारा साहस के कार्य के लिये वरदान देना ।
४. क्षेत्र के रूप में कुंज का अश्चर्य
५. राजा द्वारा गुणी गरीब कन्या से विवाह
६. सौतेली माता द्वारा सोतेली पुत्री को मारने का प्रयत्न ७. नागकुमार द्वारा अवश्य रूप से सहायता
८. कुँए में ढकेलना किन्तु वहाँ पर भी रक्षा ६. पुत्र जन्म पर माँ को परिवर्तन कर देना १०. असली पत्नी को राजा के द्वारा बाद में पहिचान लेना ११. पुत्र दर्शन के लिये देवता की समय-मर्यादा की शर्त
१२. शर्त तोड़ने पर देवता के वरदान का लुप्त होना १३. नायिका द्वारा सौतेली मां एवं बहिन को क्षमा प्रदान करना
१४. मुनि से पूर्व जन्म का वृत्तान्तश्रवण
१५. पति द्वारा जंगल में छोड़कर चले जाना १६. धर्मं पिता सेठ द्वारा आश्रय देना
१७. अपने अतिशय गुणों से धर्मपिता को संकट से बचाना १८. जिनमंदिर निर्माण और जिनपूजा के फलस्वरूप सद्गति
१६. कर्मफल शृंखला
२०. वर्तमान जीवन की घटनाओं का तालमेल पूर्वजन्म की घटनाओं से बैठाना
इन मानकरूपों को देखने से पता चलता है कि १-१३ तक के मानकरूप एक लौकिक कथा के हैं। उनका जैनधर्म से कुछ लेना-देना नहीं है और १४ २० तक के । - मानक रूप किसी भी धर्म के साथ जोड़े जा सकते है। वस्तुतः आरामशोभा कथा में दो कथाबों को एक साथ मिला दिया गया है।
परवर्ती कथाओं पर प्रभाव
आरामशोभाकथा का मूल अभिप्राय माता - विहीन पुत्री और सौतेली माता का स्वार्थ है। इस अभिप्राय को पूरी तरह व्यक्त करने के लिये कई कथाकारों ने लेखनी चलाई है। सन् १९५० में अपभ्रंश कवि उदयचन्द्र ने 'सुगन्धदशमीकथा' लिखी है। इसकी कथा का उत्तरभाग आरामशोभाकथा से मिलता जुलता है। डा० हीरालाल जैन ने इसकी कुछ समान विशेषताओं की ओर संकेत किया है । सौतेली बेटी की अवहेलना एवं अपनी
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९
श्री पुष्कर मुनि, जैन कथा भाग ६६, उदयपुर, १६७६ ।
,
'जादुई कुंज' मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' के जैन कहानियाँ, भाग १२ में प्रकाशित कथा पर आधारित . है । लेखक ने जैन कहानियाँ में प्रकाशित कथा का उल्लेख नहीं किया है । इसका अंग्रेजी अनुवाद भी Jaina Stories में प्रकाशित है । - संपादक
१० जैन, हीरालाल, सुगंधदशमीकथा, ११४०, भूमिका, पृ० १८
[ પ્
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सगी पुत्री को उसका पद दिलाने की चाह दोनों में समान उसकी सौतेली मां उसे उत्सव में नहीं जाने देती और है, यद्यपि तरीकों में अन्तर है। सौतेली माता द्वारा अपनी पुत्रियों को सजाकर वहाँ भेजती है। किन्तु सौतेली पुत्री की अवमानना करने की घटना सुगन्धदशमी राजकुमार अन्ततः सिन्ड्रेला को ही अपनी रानी बनाता कथा के संस्कृत (सन् १४७२), गुजराती (१४५०), है। जर्मन कहानी 'अश्पुटेल' में जो सौतेली लड़की मराठी (१८वीं सदी) एवं हिन्दी ( १७५०) संस्करणों है वह बिल्कुल आरामशोभा से मिलती-जुलती है। हैजल में भी प्राप्त होती है।
वृक्ष आरामशोभा के जादुई कुंज की तरह मददगार के
रूप में प्रस्तुत किया गया है। अन्ततः 'अश्पुटेल' को सौतेली माता का अपनी पुत्री को रानी बनाने के राजकुमार अपनी रानी बना लेता है। १२ इस तरह अभी निष्फल प्रयास एवं सौतेली पुत्री को सताने की घटनाएं आरामशोभा कथा की भारतीय एवं विश्वसाहित्य की विश्वसाहित्य में भी प्राप्त होती हैं। डा. जैन ने दो कथाओं के साथ तुलना करने से और भी नये तथ्य सामने कथाओं का उल्लेख किया है । फ्रेंच कहानी 'सिन्ड्र ला' में आ सकते हैं।
११ द स्लीपिंग ब्यूटी एण्ड अदर फेयरी टेल्स फ्राम द ओल्ड फ्रेन्च ( रिटोल्ड बाइ ए. टी० विलचर-कोडच )। १२ जेकब लुडविक कार्लग्रिम, दि किंडर उण्ड हाउस मारवेन, ( अंग्रेजी अनुवाद : ग्रिम्सटेल्स )। ८६ ]
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आत्मज्ञानी श्रीमद् राजचंद्र
- नलिनाक्ष पंड्या वल्लभ विद्यानगर, गुजरात
उन्नीसवीं शताब्दी में गुजरात में तीन महान पुरुष हुए थे । एक थे वैदिक परंपरा के उद्धारक महर्षि दयानंद सरस्वती, जिनका जन्म मोरबी रियासत के टंकारा गाँव में औदीच्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था। दूसरे थे भारत के राष्ट्रपिता विश्ववंद्य महात्मा गांधी, जो पोरबंदर के लब्ध-प्रतिष्ठ मोढ वणिक परिवार में पैदा हुए थे। तीसरे महापुरुष जो हुए वह थे मोरबी राज्य के ववाणिया ग्राम के रायचंद भाई मेहता, जो श्रीमद् राजचंद्र के नाम से सुप्रसिद्ध हुए । दयानंद ने धर्मोद्धार की दिशा दिखाई, गांधीजी हमें राष्ट्रोद्धार के मार्ग पर ले गये, और श्रीमद् राजचंद्र आत्मोद्धार के पथ-प्रदर्शक बने ।
श्रीमद् के आत्मनिष्ठ जीवन एवं चिंतन का उनके परिचय में आने वालों पर ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा था कि अपने अल्पायु में भी वह अनेक भक्त और अनुयायियों का समुदाय छोड़ गये थे, जिनके द्वारा स्थापित संस्थाएँ आज भी कई स्थानों पर उनके विचारों के प्रसार में प्रवृत्त हैं। ये स्मारक - संस्थाएँ ववाणिया, वडवा, खंभात, अगास, ईडर, राजकोट, उत्तरसंडा, नरोडा, नार, सुणाव, काविठा, भादरण, वसो, बोरसद, वटामण, धामण, सडोदरा, ( सभी गुजरात में), आहोर ( राजस्थान ), हंपी (कर्णाटक), बम्बई, देवलाली ( महाराष्ट्र ), इन्दौर ( म०प्र० ) और मोम्बासा ( केन्या, अफ्रीका ) में स्थित हैं ।
भक्ति और आध्यात्मिक प्रवृत्ति की ऐसी विरासत छोड़ जाने वाला यदि कोई संन्यासी होता तो इसमें नई बात नहीं थी, पर इस गुरु के बारे में आश्चर्य इस बात का है कि वह एक गृहस्थाश्रमी व्यापारी था और उसने केवल ३३ वर्ष की अल्पायु में ही अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी थी ।
श्रीमद् का जन्म सन् १८६७ में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था । वयस्क होने पर बम्बई में वे हीरेजवाहिरात के व्यापार में साझेदारी से जुड़े थे। अपने अंतिम एक-दो वर्षों को छोड़कर जीवन का अधिकतर समय उन्होंने व्यापार में ही बिताया था । तथापि आध्यात्मिक ज्ञान व सिद्धि के जिस उच्च स्तर तक वे पहुँच पाये थे इसका कारण उनकी अन्तःस्थ आध्यात्मिकता थी । सात वर्ष की आयु में उन्हें जातिस्मरण हुआ था । तभी से उनमें वैराग्य भाव उदय होने लगा था। उनकी बौद्धिक क्षमता भी असाधारण थी । १३ वर्ष की आयु में उन्होंने अष्टावधान का प्रयोग कर दिखाया था । इस क्षमता को निरन्तर विकसित करके वे शतावधानी बन सके थे। बम्बई में उन्होंने शतावधान के कुछ प्रयोग भी किये थे, जिन्हें आत्मसाधना में बाधक मानकर बाद में बंद किया था ।
यह श्रीमद् की ज्ञानपिपासा ही थी जिसने उनको वेद, वेदान्त, गीता, भागवत, कुरान, जेन्द अवेस्ता और जैन आगमों का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया था । इस प्रकार विविध धर्म धाराओं के ज्ञाता होने पर भी वे शास्त्रपंडित न बने रहकर आध्यात्मिक अनुभूति में विश्वास रखते थे । इसीलिए वे विचारधारा के वाद-विवाद को व्यर्थ मानते थे और आत्मदर्शन व आत्मप्रतीति पर बल देते थे । श्रीमद् के आत्मज्ञान से प्रभावित होने वालों में महात्मा गांधी भी थे । युवावस्था में जब उन्हें किसी आध्यात्मिक समस्या का सामना करना पड़ा था तब गांधी जी ने प्रत्यक्ष या पत्र के माध्यम से श्रीमद् से मार्गदर्शन प्राप्त किया था । इस तथ्य को स्वीकार करते हुए गांधीजी ने श्रीमद् राजचंद्र को अपना आध्यात्मिक गुरु बताया । यद्यपि श्रीमद् की भी उनमें सांप्रदायिक
निष्ठा जैन धर्म के प्रति थी, फिर संकीर्णता का नितांत अभाव था ।
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इसका कारण उन्हें सभी प्रमुख धर्मों का अध्ययन होने के एषणाएं नहीं थीं। यदि कोई अभीप्सा थी तो वह साथ-साथ संभवतः यह भी था कि उनके पिता सनातन- आत्मदर्शन की थी, जैसा कि उनके एक पत्र से प्रकट धर्मी दशा श्रीमाली वणिक थे और माता जैनी थी। होता है : 'रात्रि और दिवस केवल परमार्थ का ही वास्तव में श्रीमद को उसी धार्मिकता में विश्वास था जो मनन रहता है। आहार भी वही है, निद्रा भी वही है, सांप्रदायिकता से परे हो। उन्होंने लिखा है : 'संसार में शयन भी वही है, स्वप्न भी वही है, भय भी वही है, भोग. मान्यता भेद के बंधनों से तत्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। भी वही है, परिग्रह भी वही है, चाल भी वही है, आसन सच्चा सुख व आनंद इनमें नहीं है।' कई प्रसंगों पर भी वही है। अधिक क्या कहें। अस्थि, मांस और मज्जा श्रीमद् ने वेदान्त, श्रीकृष्ण, जनक विदेही, शंकराचार्य, को एक ही रंग चढ़ा हुआ है। रोम मात्र जैसे उसी के वामदेव, शुकदेव, नारद भक्ति सूत्र, योग वासिष्ठ, जड़भरत, विचार में रत है, और इस कारण से न कुछ देखना भाता कबीर, मीरा, नरसिंह मेहता, सुंदरदास आदि के दृष्टान्त है, न कुछ संघना भाता है; न कुछ सुनना भाता है, न दिये हैं. जो उनकी असांप्रदायिक समदर्शिता के परिचायक कछ चखना भाता है और न ही स्पर्श करना भाता है। न हैं। वस्तुतः उनके विचारों में आध्यात्मिक विषयों के बोलने की चाह है, न मौन रहने की ; न बैठने की चाह है, बारे में मौलिक चिंतन पर आधारित सत्यान्वेषी दृष्टि न जगने की: न खाने की चाह है, न भखे रहने की : न दिखाई देती है।
असंग की चाह है, न संग की; न लक्ष्मी की चाह है, न स्वयं आत्मोन्मुखी होने की वजह से जैसे-जैसे अपने अलक्ष्मी की; ऐसी स्थिति है। तथापि इसके प्रति कोई अनुभवों के प्रकाश में वे जीवन को समझते गये, श्रीमद् आशा या निराशा के भाव की अनुभूति नहीं होती।' उन विचारों को कागज पर या डायरी में लिखते गये। श्रीमद की आत्मानुभूति की उत्कंठा उनकी इन काव्ययदि कोई दूरस्थ व्यक्ति भी अपनी किसी समस्या का पंक्तियों में सुचारू रूप से अभिव्यक्त हुई हैं : • आध्यात्मिक समाधान चाहता तो वे पत्र के द्वारा मार्ग
अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे, दर्शन देते थे। इसी कारण महात्मा गांधी के शब्दों में
क्यारे थईशं बाह्यान्तर निग्रंथ जो? कहें तो उनकी लेखनी की यह असाधारणता है कि उन्होंने
सर्व सम्बंधन बंधन तीक्ष्ण छेदीने, सिर्फ वही लिखा जो स्वयं अनुभव किया हो। उसमें कहीं
विचरशुं कब महरपुरुषने पंथ जो ? कृत्रिमता नहीं है। दूसरों को प्रभावित करने के लिए उन्होंने एक पंक्ति भी लिखी हो ऐसा मैंने नहीं पाया ।' भक्ति को वे आत्मसाधना का श्रेष्ठ साधन मानते
श्रीमद् द्वारा लिखित इन फुटकर नोट और पत्रों के थे : 'अनेक दृष्टि से विचार करने पर मैं इस दृढ़ निर्णय रूप में ही उनके अधिकतर विचार संग्रहित हैं। तदुपरांत पर पहुँचा हूँ कि भक्ति माग ही सर्वोपरि है ।' आत्मज्ञान उनकी तीन रचनाएँ 'मोक्षमाला', 'भावनाबोध' और के लिए उतना ही आवश्यक वे आत्म निष्ठों के सत्संग को 'आत्मसिद्धिशास्त्र' हैं। 'मोक्षमाला' में धार्मिक समस्याओं मानते थे। उनकी दृष्टि में सत्संग वह है जिससे आत्मको जैन दर्शन के आधार पर समझाया गया है. 'भावना- सिद्धि हो सके। उत्तम शास्त्र में निरंतर दत्तचित्त रहना बोध' में आत्मश्रेयार्थी के लिए उपयोगी मार्गदर्शन है. भी उनके मत से सत्संग ही है। तथा आत्म सिद्धिशास्त्र' में आत्मदर्शन विषयक विचारों को संसार व्यवहार के प्रति श्रीमद् निर्लिप्त थे : 'संसार के पद्य में समझाया गया है। चूंकि श्रीमद की मातृभाषा प्रति हमें परम उदासीन भाव है । यदि यह संसार सुवर्णका गुजराती थी, उनका समूचा साहित्य गुजराती भाषा में है। बन जाये तो भी हमारे लिए तृणवत रहेगा और केवल श्रीमद् की कृतियों में स्पष्ट रूप से झलकने वाला तत्त्व
परमात्मा की विभूति के रूप में भक्ति-धाम बना रहेगा।' उनकी तीव्र आध्यात्मिक उत्कंठा है। यही कारण है कि उनके इसी अनासक्ति भाव की वजह से वे भिन्न व स्वयं गृहस्थाश्रमी होने पर भी उनमें कोई सांसारिक विरोधी लगने वाली व्यापार और धर्म की प्रवृत्तियों का
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सम्मिलन कर सके थे। अपनी दुकान में व्यापारी सौदों देखने के साथ ही पहचान जायेगा, क्योंकि पूर्ण आत्मज्ञान की बातचीत करने के तुरन्त पश्चात् वे आध्यात्मिक में न केवल स्वयं का अपितु अन्य के व्यक्तित्व का ज्ञान पाठ, लेखन या चर्चा में सहजता से लीन हो सकते थे। भी स्वतः निहित है। अपनी विरल हिन्दी काव्य-रचना श्रीमद की इस लाक्षणिकता से मुग्ध होकर गांधीजी ने में श्रीमद् ने कहा है : लिखा है कि 'जो लाखों के सौदों की बातचीत करके शीघ्र जब जान्यो निज रूप को, तब जान्यो सब लोक । ही आत्मज्ञान की गहन बातें लिखने में खो जाये उसकी नहि जान्यो जिन रूप को, सब जान्यो सो फोक ।। जाति व्यापारी की न होकर शुद्ध ज्ञानी की ही हो
हमारे देश में प्राचीन काल में कई ऋषि, मुनि, साधु सकती है।
आदि हो गये हैं जिन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त किया था, पर ___ अपनी व्यावसायिक सफलता से श्रीमद ने यह सिद्ध इसके लिए उन्होंने सांसारिक बंधनों को त्यागकर अरण्यकर दिया था कि मनुष्य नीतिमान रहकर भी व्यापार कर वास किया था, जबकि श्रीमद संसार एवं संसार के सकता है। व्यापार-वाणिज्य में प्रचलित अप्रामाणिकता मोहमायारूपी प्रलोभनों के बीच जलकमलवत रहकर के सम्बन्ध में उनका कहना था कि शद्ध आत्मज्ञानी को अर्वाचीन युग में आत्मज्ञान पा सके थे। यही उनकी सबसे ठगना असंभव है। पूर्ण आत्मज्ञानी धोखेबाज व्यक्ति को बड़ी सिद्धि थी।
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राजस्थान का एक प्राचीन ।
तीर्थ जावर
श्रेष्ठी कान्हा ने वीर विहार नामक जैन मंदिर बनवाया था। यह परिवार देलवाड़ा (मेवाड़) का रहने वाला था एवं व्यापार हेतु डूंगरपुर एवं जावर में भी रहता था । वीर-विहार में खरतरगच्छ की पिप्पलिका शाखा एवं जिनभद्रसूरि की मुख्य शाखा के साधुओं के भी अप्रका-. शित लेख हैं जिनका उल्लेख आगे किया जा रहा है।
यहां का मुख्य मंदिर शांति जिनालय है। यह अब भग्न है। इसका निर्माण वि. सं० १४७८ में श्रेष्ठी धनपाल ने किया है .३ जिसके लिये शिलालेख में 'श्री शत्रु
जय-गरनार-अबंद जीरापल्ली-चित्रकूटा दि तीर्थ यात्रा कृतः श्री संघ मुख्य' लिखा है। यह शिलालेख लम्बा एवं ऐतहासक मह व का है। इसमें प्रारम्भ में 'संवत १४७८
वर्ष पौष श० ५ राजा धराज श्री मोकलदेव विजयराज्यो' -श्री रामवल्लभ सोमानी, जयपुर शब्द है । इससे इस बात की पुष्टि होती है कि यह उस समय
मेवाड़ राज्य में सम्मिलित था। इसकी प्रतिष्ठा तपागच्छ जावर उदयपुर से डूंगरपुर के मार्ग से टीडी के सोमसुन्दर सूरि ने की थी। सोम सौभाग्य काव्य में से १० कि० मी० दूर है। प्राचीन काल से ही यह दिये गये वर्णन के अनुसार सोमसुन्दर सूरि मेवाड़ में स्थान जस्ते की खानों के लिये प्रसिद्ध रहा है। वि० देलवाड़ा एवं चित्तौड़ कई बार पधारे थे। गोड़वाड़ - सं०७०३ के सामोली के शिलालेख के अनुसार वसंतगढ़ जिनमें राणकपुर भी सम्मिलित है इनका कार्य-क्षेत्र था । निवासी श्रेष्ठी जैतक व्यापार हेतु इस क्षेत्र में आया था। जावर के इस लेख में तपागच्छ के मुख्य साधुओं के नाम उस समय यहां जस्ता एवं चांदी बड़ी मात्रा में खानों से हैं जो इस प्रतिष्ठा के समय वहां उपस्थित थे । यथा-मुनि निकलती थी। इसीलिये यह क्षेत्र मेवाड़ के राजाओं के सुन्दर, जयचंद्र, भुवन सन्दर, जिन सुन्दर, जिनकीति विशाल हाथ से छीनकर कुछ समय कल्याणपुर के गुहिलोत शासकों राज, रत्नशेखर उदयनन्दि,महोपाध्याय सत्यशेख एवं बागड़ के अधीन भी रहा। मध्यकाल में महाराणा सोमदेव आदि। इतने मुख्य साधुओं के एक साथ होने
लाखा ने इसे जीताया। उसके लिए मेवाड़ के शिलालेखों से पता चलता है कि यह प्रतिष्ठा काफी विशाल स्तर पर _ में योगिनीपुर जावर को जीतने का लिखा है। वि० सं० हुई थी। इस मंदिर का वर्णन कवि लावण्य समय विर
१४६२ के एक ताम्रपत्र के अनुसार महाराणा लाखा ने चित सुमति साधु सूरि विवाहलो में किया गया है। इसमें देवी के मंदिर के निमित्त २ टंका दिये थे।' महाराणा लिखा है कि नगर के मध्य अत्यन्त सुन्दर शांति जिन लाखा के ही राज्य का उल्लेख वि० सं० १४६४ की मलय- विहार है (नगर विचिहिं अति रुअ डलउ शांति जिणंद गिरि की सप्तति टीका की प्रशस्ति के श्लोक १२ में बिहार रे)। श्रेष्ठी कान्हा द्वारा वि० सं० १४८६ में देवहै ।२ इस प्रशस्ति में एक महत्त्वपूर्ण सूचना यह भी है कि कुलिका बनाई गई थी जिसका सूत्रधार सहदेव था। इसी १ लेखक की कृति हिरट्री ऑफ मेवाड़, पृ० ११२ । २ एल० डी० इन्स्टिटयूट, अहमदाबाद द्वारा हस्तलिखित ग्रंथों की सूची भाग के अंत में पृ० ६२ पर दी
गई प्रशस्ति । ३ विजयधर्म सूरि, जैन लेख संग्रह, भाग १, सं० १४३ । ४ एन्यूअल रिपोर्ट आन इंडियन एपिग्राफी, वर्ष ५६-५७, सं० ५१७ ।
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तिथि के एक अन्य लेख में इसी मंदिर में जिन सागर श्राद्धवरैविहारा।' खरतरगच्छ के कुछ साधु वि० सं० सूरि का नाम दिया है।" ये लेख मूल रूप से मैं देख नहीं १४६२ में आये थे। इनके नाम हैं क्षमामूर्ति, विवेकहंस, सका हूँ किन्तु संभवतः किसी खरतरगच्छ से सम्बन्धित उदयशील, मेरु कुंजर आदि। वि० सं० १४६४ का एक अन्य मंदिर के ये लेख रहे होंगे। जिनभद्रसूरिजी ने जावर में लेख एक खंडित मंदिर के स्तम्भ पर है। लेख बहुत घिस खरतरगच्छ का मंदिर बनवाया था संभवतः ये लेख उसी गया है। इसमें "वि० सं० १४६४ माघ सुदि १३ महावीर मंदिर के खंडहर के हों।
चैत्ये . खरतरगच्छे जिनसागर सूरिभिः' पाठ पढ़ा जाता वि० सं० १४७८ के बाद खरतरगच्छ के कई लेख है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि महावीर की प्रतिमा की यहाँ से मिले हैं। वि० सं० १४८६ के लेख में श्री कान्हा प्रतिष्ठा उस समय की गई थी। मूर्ति पर भी लेख है श्रष्ठी द्वारा बनाये वीर विहार में सुपार्श्वनाथ देवक लिका और एक अन्य लघु लेख में श्री जिनकुंजर सूरिभिः नाम की प्रतिष्ठा श्री जिनसागर सूरि (पिप्पलिका शाखा, दिया हुआ है। वि० सं० १४६५ के एक लेख में धर्मघोष खरतरगच्छ) द्वारा कराये जाने का उल्लेख है । लेख इस प्रकार गच्छ के हरिकलश आदि के नाम हैं। वि० सं० ज्येष्ठ है-'संवत् १४८६ फा० श०३ दिने ऊकेश जातीय सा० शु० ५ के एक लेख में रामचन्द्र सूरि का नाम है। पद्मा भार्या पदमादे पुत्र गोइद भार्या गउरदे सुत एक उन्नतिशील नगर होने के कारण बागड़ और सा० आंबा सा० सांगण, सह ऐव, सन्मध्ये सहदेव भायों मेवाड़ के शासकों के मध्य यह विवाद का विषय बना हुआ पोई पुत्र श्रीधर ईसर पुत्री राजि प्रभृति कुटुम्ब पुतेन भं० था। महाराणा कंभा ने इसे जीता था। इसके लेखों कान्हा कारित प्रासारे स्व श्रयोथं श्री सुपाश्व जिनयुत देव में जावर को जीतने का उल्लेख है ( योगिनी पुरम कलिका कारिता प्रतिष्ठिताश्रीखरतरगच्छाधीशेन श्री जिन- जेयमप्यसों योगिनी चरण किंकरो नपः ) राजस्थानी सागर।' इसी मंदिर में वि० सं० १५०४ का एक लेख की गीतगोविन्द की टीका की प्रशस्ति में 'योगिनी भणीये और है। इसमें खरतरगच्छ के जिनभद्रसूर के आम्नाय महामाया तेहनो प्रामाद पाम्बो योगिनीपर जावर पाठ के साधओं के नाम हैं। मूल लेख इस प्रकार है -'संवत् मथा के लिये प्रयुक्त हआ है। ऐमा लगत है कि १५०४ वर्षे कात्तिक वदी १३ दिने श्री जापुर नगरे श्री महाराणा के अन्तिम दिनों में मालवे के सुल्तान मोहम्मद खरतरगच्छे श्री जिनभद्रसू रिगच्छाधिराजादेशे भं० कान्हेन खिलजी ने ज'वर पर आक्रमण कर यहाँ के देवी के मंदिर कारित श्री वीर-विहारे प० भानुप्रभग ण, समयप्रभगणि को नष्ट कर दिया था। अतः कंभा ने इसे वापस सोमधीर मुनिः अहर्निसं (श) श्री वीर चरणं प्रणमति
जीर्णोद्ध र कराया। यहाँ के जैन मंदिरों का भी महत्त्व बहुभक्त्या सूत्रधारी लोंका महावीर चरणाय नमः।
अत्यधिक था। वि० सं० १५.०८ में नाडोल में तपागच्छ जिनभद्रसूर ने जावर में मंदिर बनाने के लिए संभ- के रत्नशेखर सूर ने श्रेष्ठी जगसी परिवार द्वारा एक वतः किमी श्रेष्ठी को निर्देश दिये थे। इमका स्पष्ट विशाल प्रतिष्ठा समारोह कराया था। इस अवसर पर प्रतिउल्लेख वि० सं० १४६७ के संभवनाथ मंदिर, जैसलमेर के ष्ठित प्रतिमायें चोपानेर, चित्रकूट, जावर, कायंद्रा, इस लेख में है। यथा 'श्री उज्जयंताचल चित्रकूट मांडव्य नागदा ओसिया, नागोर कंभलगढ़ अदि स्थानों पर भेजी पूर्जावर मुख्यकेषु स्थानेषु येषामुपदेश वाक्या निर्मा पिताः थी। इस प्रकार से भेजी गई प्रतिमाओं में कुंभलगढ़ ५ उपरोक्त, सं० ५.२२।
जैन लेख संग्रह, भाग ३ ( पूरणचंद नाहर द्वारा सम्पादित ), लेख सं० २.३० ! ७ लेखक की कृति जेन इन्स्क्रिप्शन्स आफ राजस्थान, पृ० १३१ । ८ उपरोक्त । ९ लेखक की कृति महाराणा कुम्भा, पृ०६८। १° जिन विजय, जैन लेख संग्रह, भाग २, सं० ३७२ ।
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में नीलकंठ मंदिर के पास छोटे जैन मंदिर में यह मूर्ति इसमें सबसे ऊपर श्री रषबदेव प्रसादातु शब्द होने अब भी विद्यमान है । जावर में भी यह मूर्ति उपलब्ध है। से यह जैनधर्म से सम्बन्धित है। इसमें कई नाम तपागच्छ के रत्नशेखर सूरि से सम्बन्धित सुमति
हैं। यथा देपा, जुपा, नरा, पेयोली, बीरम नाथा, उदा व साधु विवाहलो में एक घटना वर्णित है। इसके अनुसार मंगरा का समस्त संघ का उल्लेख है। उसमें महाराणा जावर के निवासी गणपति शाह के एक पुत्र नयराज हुआ। सांगा का नाम होने से महत्वपूर्ण है। यह अभी अप्रकाशित इसने रत्नशेखर सूरि से दीक्षा ग्रहण की। गुरु गुण रत्नाकर
है। वि० सं० १५६७ का एक लेख बनवीर का भी यहाँ काव्य में भी रत्नशेखर सूरि के जावर पधारने का से मिला है। महाराणा प्रतापसिंह के समय की एक उल्लेख है ( श्री भेद पाट पृथिवीमुकटाभ मज्जा ग्रंथ प्रशस्ति वि० सं० १६४३ की मिली है। इसमें साधु पद्रभिधान नगर समहं समीपुः १०७ श्लोक)।११ उक्त दिन कृत्य की प्रतिलिपि जावर में करने का उल्लेख है विवाहलो में प्रारम्भ में इस नगर का सुन्दर वर्णन है। (संवत् १६४३ वर्षे आश्विन वदि ४ सोमे श्री मेवाड़देशे इसके अनुसार इस नगर में धातु की सात खाने थीं ( सातइ राणा प्रतापसिंह राज्ये श्री जावरमध्ये जीराऊलीया कीका धातु नई आगर)। वि० सं० १७४६ की शील विजय की लिखितं)। अकबर के बाद जहाँगीर ने मेवाड़ में कई तीर्थ माला में भी यहाँ सात धातु की खाने होने का उल्लेख _वर्षों तक निरन्तर आक्रमण किया। उस समय वहाँ के किया हुआ है ( सात धातु तणुअहिठाणं)। सुमति साधु सारे देवालय भग्न कर दिये। मेवाड़ और मुगल सन्धि हो विवाहलो में जावर का प्रारम्भ में जो वर्णन दिया गया
जाने के बाद मेवाड़ के सारे जैन व वैष्णव मन्दिरों का व्यापक उसके अनुसार यहाँ काफी समृद्धि थी। १२ आसपास कई जीर्णोद्धार हुआ था। वि० सं० १६६४ में यहाँ के जैन तालाब बनाये गये थे। इस नगर में कई उल्लेखनीय
मंदिर जीर्णोद्धार का लम्बा लेख है। लेख का कुछ अंश श्रेष्ठी रहते थे एवं अच्छा बाजार था।
इस प्रकार है : 'संवत् १६६४ वर्षे शाके १५६० प्रवर्तमाने महाराणा कुम्भा के बाद महाराणा उदा शासक हुआ ।
वैशाख मासे शक्ल पक्षे तृतीया तिथौ शनिवासरे भेदपाटउसे हटाकर कंभा का दूसरा पुत्र रायमल शासक हुआ। देशे महाराजाधिराज महाराणा श्री जगतसिंहजी विजयराणो रायमल ने जावर अपनी बहिन रमाबाई को जागीर में कुमर श्री राजसिंह आदेशात योगिनीपुर वरे श्री शांतिनाथ दिया था। इसका विवाह गिरिनार के शासक चूड़ा बिंब स्थापित य उधरी मोहण-सुत वीर जी पंचोली सवराम, समा राजा मंडलीक के साथ हुआ था। इसके मोहम्मद दोसी सुजा तेलहरा धनजी सा० पंचाइण सा समरथ बेगड़ा से हारने के बाद मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लेने से सा दशरथ मुंजावत महता केसर महता लधु चोखा उतवेला रमाबाई मेवाड़ में आ गई थी तब उसे जावर दिया था। यहाँ धना भा० साम पोरवाड समस्तसंघ उधरी मोहण प्रसाद से वि० सं० १५५४ का एक विस्तृत शिलालेख मिला है ।१३ उधराण कृतं प्रतिमा स्थापिता संघ पूजा कृत सलावट इसके अनसार इसने कंभलगढ में दामोदर मंदिर, एक ताजु चद...' वि० सं० १७२८ में जावर निवासी पंडित सरोवर एवं जावर में रमा स्वामी का मंदिर बनाया था।
चतुराजी जो माड़ाहड़गच्छ के थे आबू में यात्राकर वहाँ जावर के निवासी ओसवाल सूरा ने नाणा ( गोड़
लेख भी उत्कीर्ण कराया; संवत १७२८ वर्षे वैशाख सुदि
११ दिने मड़ाहड़गच्छे पंडित चतरा जी यात्रा सफल वास वाड़) में पार्श्वनाथ की मूर्ति वि० सं० १५७२ में . स्थापित की थी। जावर में वि० सं० १५८० की १२वें
जावर । किताबों की एक सुरह है जो काफी घिमी हुई है। बहुचर्चित गीत गोविन्द की सचित्र प्रति की प्रतिलिपि ११ गुरु गुण रत्नाकर, श्लोक १०१। १२ सुमति साधु विवाहलो की एक नकल स्व० अगरचंदजी नाहटा ने मुझे भिजवाई थी। यह वर्णन उसी के अनुसार है । १३ जावर का अभिलेख इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली, वि० सं० १६५८, पृ० २१५-२२५ पर प्रकाशित है। वीर
विनोद के पहले भाग में भी इसका मुल पाठ उपलब्ध है ।
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१६वीं शताब्दी में जावर में की गई थी। जावर से माता रमानाथ मंदिर में भूमिदान का उल्लेख है। रमानाथ जी के मंदिर के आगे एक वि० सं० १६५५ आषाढ़ शक्ल मंदिर के स्तम्भों पर वि० सं० १७७६ का १४ पंक्तियों ६ की सुरह है। उसमें पेयोली माण्डण शाह भामा का लघु लेख है जिसमें हरिहर आदि के नाम हैं। इसी (प्रसिद्ध भामाशाह से भिन्न ) आदि द्वारा कुछ 'चढ़ावा' मंदिर के बाहर महाराणा भीमसिंह की सुरह लगी है । करने का वर्णन है । अम्बा माता के अतिरिक्त दूसरे माताजी यह सारी मिट्टी में दब गई केवल 'सिध श्री महाराजाके मंदिर के पास महाराणा राजसिंह का एक लेख है धिराज महाराणाजी श्री श्री श्री भीमसिंघ जी आदेसातु यह बहुत घिस गया है, केवल इतना पढ़ा जाता है 'सिद्ध प्रतदवे पेयोली परताप' लिखा है। श्री गणेश गौत्र देव्या प्रसादातु महाराजाधिराज महाराणा ऐसा प्रतीत होता है कि मराठा काल में यह नगर जी श्री राजसिंहजी आदेशात जावर...' पुरानी कचहरी उजड़ गया था। निरन्तर मराठों के आक्रमण से लोग के पास एक सुरह वि० सं० १८१५ की है । इसमें महाराणा गांव छोड़कर चले गये। अब नयी बस्ती बस गई है। राजसिंह के समय देपुरा सदाराम द्वारा तालाब में किन्तु ये मंदिर अब खंडहर हैं।
यह लेख जावर माइन्स के एक अधिकारी के आग्रह पर मैंने कई वर्षों पूर्व तैयार किया था। काफी सूचना श्री नाहटाजी से भी ली थी। जावर माइन्स के अधिकारियों ने घमने एवं लेखों की प्रतिलिपि करने में सहायता दी थी। मैं इन सबका कृतज्ञ हूँ।
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कर काम किया जाता था। खास-खास व्यक्तियों से खास-खास काम की बात करने के लिये बीच में पर्दा टांग कर बात कर ली जाती थी। साधारण काम-काज के लिये जनानी ड्योढ़ी पर सरदार, प्रधान आदि आते और डावड़ी ( दासी) के साथ उत्तर-प्रत्युत्तर कहला दिया जाता। बाईजीराज सरदारकंअर की दासी बड़ी चतुर थी। वह उत्तर-प्रत्युत्तर का काम बड़ी खूबी से करती
थी। काम-काज करते-करते वह इतनी होशियार हो गई रामप्यारी का रिसाला
थी कि राज्य की नीति और काम-काज में दखल रखने
लगी। रामप्यारीबाई की सलाह बाईजीराज झालीजी -लक्ष्मी कुमारी चूण्डावत
मानने लगी। उसका अपना अलग रूतबा जम गया ।
रामप्यारीबाई का बाकायदा हुकम चलता था। वह लोगों राजस्थान मरहठों की लूट और हमलों से परेशान था।
को छुड़वा देती और गिरफ्तार तक करवा लेती। प्रधान मेवाड़ मरहठों से तो दुःखी था ही पर गृह-कलह से उसकी
पद पर आरूढ़ अमरचन्द्र सनाढय जैसे योग्य और विशिष्ट वर्बादी और भी बढ़ती जा रही थी। चंडावतों और
व्यक्ति को पकड़ने के लिये उसने अपने आदमी भेज दिये शत्कावतों का आपसी वैमनस्य उस समय अपनी चरम
और घर लुटवा दिया। यहाँ तक कि एक पूरा रिसाला सीमा पर पहुँच चुका था।
रामप्यारीबाई के अधीन था जो उसके हुकम पर चलता - अपने पुत्र हमीरसिंहजी और भीमसिंहजी को बहुत
था। वह रामप्यारी का रिसाला कहलाता था। उसके ही कम उमर में छोड़कर महाराणा अड़सीजी स्वर्गवासी हो
मर जाने के बाद भी लगभग १०० वर्ष तक रामप्यारी का
। गये। ऐसी विषम स्थिति में मेवाड़ राज्य की जिम्मेवारी
रिसाला ही कहलाता था। आधुनिक ढंग से फौजों
माना ही करना नाबालिग महाराणा की माता झालीजी सरदार कंअर पर
को तरतीब दी गई, तब वह उनमें मिलाया गया। उसका आ गई। वे बाईजीराज की गादी पर आसीन थी।
मकान रामप्यारी की बाड़ी के नाम से प्रसिद्ध है। कर्नल मेवाड़ राज्य के अन्तःपुर का प्रबन्ध, शासन, परम्परा से
टाड शुरू में आये तब उनके रहने के लिये रामप्यारी की चले आते दस्तुर और सांस्कृतिक रीति-रस्म की देखभाल
बाड़ी में ही प्रबन्ध किया गया। बाद में उस मकान में करने वाली महिला वाइजीराज कहलाती थी। राज्य
सरकारी तोपखाना और मैगजिन रहे। अब उसका कुछ परिवार की योग्य एवं बुजुर्ग महिला को इस पद पर
र अंश बोहेड्डा की हवेली कहलाता है। प्रतिष्ठित किया जाता था। इस पद के भार व व्यय के लिये अतिरिक्त खर्च राज्य से उन्हें मिलता था। राज्य तत्कालीन राजनीति में रामप्यारी एक प्रमुख पात्र सम्बन्धी कोई सलाह भी बाईजीराज को देने का अधिकार थी। उस समय गृह-कलह और मरहठों के उपद्रवों से होता था। पर्दे में रहते हुये भी स्त्रियों द्वारा राज्य का मेवाड़ की दशा शोचनीय थी। खजाने में पैसा नहीं था काम सम्भालने की प्रथा मेवाड़ के राजघराने में शुरू से और वेतन न मिलने के कारण सिन्धी फौजों ने आकर
है। पुत्र की नाबालिग अवस्था में माता से पूछ महलों पर धरना दे दिया।' चारों ओर चिन्ता छा गई।
१ अडसीजी के समय में मेवाड़ी सरदारों के खिलाफ हो जाने से उन्हें बाहर से सेना का प्रबन्ध करना पड़ा। उसी
समय सिन्धी, अरबी एवं विलायती फौजों का गठन किया गया। तब से मेवाड़ में सिन्धी, अरबी और बलौच आदि बाहर से आकर बसे हुये हैं। मेवाड़ में सोलह उमरावों के अलावा १७वां उमराव सिन्धी मुसलमान है। इस १७वें उमराव की स्थापना महाराणा अड़सीजी ने ही की थी।
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महाराणा अडसीजी ने जो बाहर से सिन्धियों की बड़ी स्वामिनी बनकर दुःख, क्लेश और चिन्ताएँ ही देखी हैं। फौज बुलाकर रखी थी, वह सम्भल नहीं रही थी। उसका मैं तो चाहती हूँ कि मेरा बेटा इन प्रपंचों से दूर ही रहे । खर्च निभाना मेवाड़ राज्य की शक्ति के बाहर की बात राजा बनने की अपेक्षा एक साधारण मनुष्य ज्यादा सुखी थी। सिन्धी सिपाही महलों पर धरना दिये बैठे थे। रहता है। लोगों ने जनानी ड्योढ़ी पर जाकर अर्ज सरदार प्रधान लोग समझा रहे थे परन्तु सिन्धी मानते न करवाई-'आप ऐसा करके तो अपने इकलौते बेटे के जीवन थे। रामप्यारी उत्तर-प्रत्युत्तर करती दिन में जनाने से को और ज्यादा खतरे में डालेंगी। गद्दी पर बैठने वाला बाहर ड्योढ़ी तक पचासों चक्कर लगाती। चालीस दिन गद्दी के उत्तराधिकारी का जीवित रहना कैसे पसन्द तक धरना तथा समझाना-बुझाना चलता रहा। अन्त में करेगा ?' बाईजीराज ने कुरावडु के रावतअजुनसिंह जी चूंडावत को भीमसिंहजी साढे नौ वर्ष की आय में गद्दी पर बैठे। बुलाया। उनके समझाने पर सिन्धी माने, पर इस शर्त
राज्य की शासन डोर चूंडावतों के हाथ में थी। शत्काके साथ जब तक रुपयों का प्रबन्ध हो, हमारी ओल में
वतों और चंडावतों का आपस का द्वेष था ही। शत्कावतों किसी को रखा जाय। 'ओल' का अर्थ होता था कि
के नेता भीडर के रावत मोहकम सिंहजी रुष्ट होकर भीडर शिष्ट व्यक्ति को उनके सुपुर्द कर दिया जावे। रामप्यारी जाथे। राज्य का कार्य अर्जन सिंह चंडावत की ने आकर बाईजीराज से सिन्धियों की शर्त कही। बाईजी
सलाह से मुसाहिब लोग चला रहे थे। राज झालाजी विचार में पड़ गई। ओल में किसी को रखे बिना कोई चारा नहीं। परन्तु किस व्यक्ति को रखा
र बाईजीराज की आज्ञा से रामप्यारी ने जाकर मुसाजाय ? उस समय उनके पास ही उनके ६ साल के हिबा से कहा, 'महाराणा साहिब की जन्मगांठ आई है। छोटे पुत्र भीमसिंह जी बैठे थे। वे एकदम बोल उठे- उसे मनाने के लिये खचे का प्रबन्ध करो।' परन्तु मुसा'मुझे ओल में भेज दो।' इतना सुनते ही बाइजीराज का हिवों ने मना कर दिया कि रुपये नहीं हैं और प्रबन्ध नहीं स्नेह उमड़ा और नेत्र दुःख के आँसुओं से गीले हो गये। हा सकता। मुसाहिबा
सा हो सकती। मुसाहिबों का ऐसा उत्तर सुनकर रामप्यारी उन्होने प्यार से बेटे को छाती से लगा लिया। रामप्यारी बोली, 'रुपयों का प्रबन्ध तुम्हें करना पड़ेगा। यदि प्रबन्ध ने भीमसिंहजी को गोदी में उठाकर सिन्धियों को सौंप नहीं कर सकते तो मुसाहिबी क्यों करते हो?' इस पर दिया। अर्जनसिंहजी भी साथ हो गये। दो वर्ष तक किसी ने कहा, 'हम तो नहीं कर सकते, तू कर ले।' सिन्धियों ने भीमसिंहजी तथा अर्जनसिंहजी को अपनी रामप्यारी बड़ी जबानदराज थी और बाईजीराज उसको ओल में रखा।
मानती थी। वह बोली 'तुम्हारे भरोसे मुसाहिबी नहीं
पड़ी है। यहाँ राज्य में काम करने वालों की कमी नहीं भीमसिंहजी के ओल में से लौटने के थोड़े दिन बाद है। तुम चंडावतों की ताकत पर भूल रहे हो। जाकर महाराणा हमीर सिंहजी का कम उम्र में देहान्त हो गया। कह देना रावत अजन सिंह जी को कि वर्षगांठ मनाई भीमसिंहजी मेवाड़ की गद्दी के उत्तराधिकारी थे। पर जाएगी और रुपयों का प्रबन्ध करना पड़ेगा। अगर बाईजीराज इन्हें गद्दी पर बेठाने से इन्कार कर गई। उनसे नहीं होता है तो काम छोड दें। बाईजीराज ने कहा, मुझे राज्य नहीं चाहिये। मैं अपने बेटे की कुशलता में ही खुश हैं। इस राज्य के लिये मेरे
जनानी ड्योढ़ी पर एक अहलकार सोमचन्द गान्धी पति मारे गये। खिलती जवानी में मेरा लड़का षड्यन्त्रों
नामक व्यक्ति रहता था। उसने समय को आँका और का शिकार हुआ, दुष्टों ने उसे जहर दिया। मुझे राज्य
रामप्यारी से कहने लगा, 'अर्जुन सिंहजी को बाईजीराज से नफरत हो गयी है। राज्य के लालच में इन्सान में
बड़ा योग्य समझती हैं। अगर मुझे प्रधानगी सौंपे तो मैं इन्सानियत नहीं रहती। वहाँ रात-दिन षड़यन्त्र, कुचक्र
सारा प्रबन्ध कर दिखाऊँ।' और धोखे-बाजी के सिवाय कुछ नहीं। मैंने राज्य की बाईजीराज चिढ़ी हुई तो थी ही, रामप्यारी ने उन्हें
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उसी समय सोमचन्द
उल्टा सीधा कहकर राजी कर लिया । सोमचन्द गाँधी को प्रधान पद दे दिया गया । तत्काल चूंडावतों के विरोधियों के पास गया और तुरन्त रुपयों का प्रबन्ध कर बाईजीराज को रुपये नजर कर दिये । सोमचन्द ने बड़ी नीतिज्ञता से काम लिया । चूंडावतों के विरोधियों को अपनी ओर मिलाकर अपना दल मजबूत कर लिया। कोटा के जालिमसिंहजी झाला को उसने अपना मद्दगार बना लिया। महाराणा को लेकर सोमचन्द गान्धी भींडर गया और मोहकम सिंहजी शत्कावत को मनाया | वे बीस वर्ष से नाराज हो रहे थे । महाराणा के अपने यहाँ आने से वे तुरन्त साथ हो गये । उदयपुर लाकर मोहकम सिंहजी को शासन की डोर सौंप दी गई। अब चूंडावतों के स्थान पर शत्कावतों का हुकम चलने लगा । सोमचन्द गान्धी और रामप्यारी की सलाह से सारा काम होने लगा । शत्कावतों के हाथ
शासन शक्ति देने से चूंडावत नाराज होकर अपने-अपने ठिकानों को चले गये। शत्कावत चूंडावतों को हानि पहुँचाने की सोचते और चूंडावत शत्कावतों को ।
सोमचन्द गान्धी ने काम बड़ी खूबी से सम्हाला । सोमचन्द और मोहकम सिंहजी ने मिलकर सोचा कि मेवाड़ के कई इलाके मरहठों ने दबा रखे हैं । यह मेवाड़ के लिये सम्मान और अर्थ दोनों ही प्रकार से हानिकारक हैं। इन इलाकों को हमें वापिस लेना चाहिये ।
महाराणा और बाईजीराज ने भी इसे स्वीकार किया । तलवार के बल के सिवाय कोई दूसरा मार्ग नहीं था । उन्होंने मरहठों को राजस्थान से बाहर निकालने की योजना बनाई । दूसरी रियासतों से भी इस सम्बन्ध में बातचीत की। मरहठों से गये हुये इलाकों को छीनने के लिये कोटा और जोधपुर भी सहमत हो गये। कोटा से फौज लेकर आने को तो जालिमसिंहजी तैयार थे । जोधपुर के प्रधान ज्ञानमल ने सोमचन्द गान्धी के नाम जोधपुर की आतुरता विशेष पत्र लिखकर प्रकट की । योजना पूरी तरह से तैयार थी । एक ही जगह आकर सोमचन्द गान्धी रूक रहा था। चूंडावत नाराज होकर अपने ठिकानों पर चले गये थे। जब तक चूंडावतों को सम्मिलित नहीं किया जाय तब तक आगे कदम बढ़ाना
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मुमकिन नहीं था । सोमचन्द के कई बार प्रयास करने पर भी चूंडावत राजी नहीं हो रहे थे । सलाह हो रही थी कि उन्हें कैसे मनाया जाय । रामप्यारी ने कहा, 'मुझे इजाजत दी जाय। मैं जाकर उन्हें मनाती हूँ । मुझे विश्वास है कि आपके चरणों में उन्हें लाकर रहूँगी ।' रामप्यारी अपना रिसाला सजाकर चूंडावतों के पाटवी सलूम्बर के रावत भीमसिंहजी के पास आई । यहाँ पर रामप्यारी ने अपनी कार्य कुशलता का पूरा परिचय दिया । उसने चूंडावतों को पीढ़ियों तक की गई पूर्व सेवाओं का उल्लेख किया। उसने मेवाड़ की दुर्दशा का करुणाजनक विवरण दिया । फिर मरहठों को निकाल बाहर करने पर उसने कहा, देश की खुशहाली का चित्र सामने रखा । 'इस समय की सेवाएँ चूंडावतों की कीर्ति को इतिहास में अमिट रखेंगी ।" फिर आपस की गलतफहमियों को दूर किया। उसने बाईजीराज की ओर से उनकी दिलजमई की आगे के वादे किये । येन-केन-प्रकारेण रामप्यारी भीमसिंहजी को अपने साथ उदयपुर ले ही आई। उनके साथ ही आमेर, हमीरगढ़, भदेसर, कुरावड़ आदि के चूंडावत सरदार भी अपनी जमीतों को लेकर आए । इन्होंने उदयपुर आकर कृष्णविलास में डेरा डाल दिया । इधर भींडर के मोहकमसिंहजी शत्कावत भी कोटा जाकर वहाँ की पाँच हजार सेना लेकर उसी दिन आ गये । इनका डेरा चम्पाबाग में हुआ ।
कई लोग ऐसे थे जो स्वार्थों के कारण यह एकीकरण होने देना नहीं चाहते थे। उन्होंने चूंडावतों के डेरे पर जाकर कहा, 'आप लोगों को फँसाने का यह जाल मात्र है । शरकावत कोटा से इसीलिये जाकर फौज लाए हैं। धोखा देकर आप लोगों को मारा जावेगा।' इसके साथ यह सुनकर चूंडावत आपे से कई प्रमाण भी दिये गये । बाहर हो गये और रवाना होने का नक्काड़ा बजा दिया | जांगड लोग जोश दिलाने के दोहे बोलने लगे :
धन जां रे चंडा धणी, भूपत भुजां मेवाड़ | करता आंटो जो करे, बड़का हंदी बाड़ | चूंडावत उदयपुर से चल पड़े। ज्योंही यह खबर सोमचन्द गान्धी को मिली, वह दौड़ा हुआ रामप्यारी को लेकर बाईजीराज के यहाँ पहुँचा और अर्ज की कि किये
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कराये पर पानी फिरता है। वे स्वयं पधार कर चुंडावतों की। अहिल्याबाई ने अपनी सेना भेजी। सिन्धिया की को मना लावें। माँ बेटों को अगर मना कर लाती है सेना भी मार्ग में इससे मिल गई। मन्दसोर से शिवा तो कोई नई बात नहीं।
_नाना भी इनके साथ हो गये। बाईजीराज झालीजी उसी समय पलाणा गाँव पहुँची।
हड़क्याखाल पर मरहठों की सम्मिलित सेना के साथ चूंडावतों से जाकर रामप्यारी ने इस प्रकार कहा, 'आपके
मुकाबला हुआ। बरछों और तलवारों से बड़ी जोरदार पीछे-पीछे आप लोगों की माँ आई हैं। कभी माँ नाराज
लड़ाई हुई । मेवाड़ी सेना के कई वीर मारे गये । देलवाड़ा होती है तो बेटा माफी मांग लेता है। कभी बेटा नाराजी
के राजरणा कल्याणसिंहजी झाला बड़ी वीरता से लड़े। होता है तो माँ मना लेती है। अब आपकी माँ आई
उनका सारा शरीर घावों से भर गया। उस समय की है। आप लोग उनके पास चले और माँ-बेटे मिलकर घर उनकी वीरता के कई दोहे प्रसिद्ध हैं। उनमें से एक दोहा की बात करें ।' रामप्यारी से ऐसा सुनकर चूंडावत सरदार
इस प्रकार है: बाईजीराज के पास उसी समय चले आये। रामप्यारी ने कहा, 'आप लोग दूसरों की बातों में
कल्ला हमल्ला थां किया, पोह उगन्ते सूर । क्यों आते हैं ? यह गंगाजली लेकर एक दूसरे के मन का
चढत हडक्या खाल पे, नरां चढायो नूर ॥ बहम निकाल लें।' इसके बाद बाईजीराज ने गंगाजली
लिखने योग्य विशेष बात यह है कि असल में प्रतिभा और श्रीनाथजी की तस्वीर सिर पर रखकर सौगन्ध खाई और योग्यता पर किसी जाति या वर्ग विशेष का ठेका कि उनके साथ किसी प्रकार धोखा नहीं होगा। इसी नहीं होता है। रामप्यारी एक साधारण दासी ही थी प्रकार चंडावत सरदारों ने भी गंगाजली उठाकर स्वामी- परन्तु उस समय उसने मेवाड की बिगडती हुई स्थिति को भक्त बने रहने की शपथ खाई।।
बड़ी बुद्धिमत्ता एवं चतुराई से सम्भाला। मेवाड़ के शीघ्र ही मेवाड़ी सैनिकों ने जावर और नींबाहेड़ा के इतिहास के अन्य महत्वपूर्ण नामों के साथ-साथ रामप्यारी इलाकों से मरहठों को निकाल कर आक्रमण की तैयारी और उसके रिसाले का नाम भी अमर रहेगा।
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तृतीय ही हैं क्योंकि वह स्त्रीलम्पट और दुराचारी था। वंश भास्कर के अनुसार उस ढूंढ राक्षस के नाम पर ही उसके विचरण क्षेत्र का नाम दूंढाड़ विख्यात हुआ :
आमैर सों दिस वारुनी, अजमेर सों सिव ओर में । ढुंढार नामहि देस भी, यह ढुंढ ढुंढन दौर में ॥
बीसलदेव विषयक इस जनश्रुति का यही आशय लगता है कि वह अपनी दुष्टता एवं दुराचरण के कारण निरीह प्रजाजनों पर अत्याचार करने लगा होगा जिससे यह प्रदेश उजाड़ हो गया तथा लोक में वह राक्षस संज्ञा से
अभिहित हो गया। ढूंढाड़ का नामकरण रावल नरेन्द्र सिंह ने ब्रीफ हिस्ट्री आफ जयपुर
-राघवेन्द्र मनोहर
नामक ग्रन्थ में लिखा है कि जीबनेर पर्वत का नाम ढूंढ है
जहाँ अजमेर के चौहान नरेश बीसल देव ने अपने विरोधियों राजस्थान विश्व विद्यालय, जयपुर
( प्रमुखतः मेवासी मीणों) को दंढ-दंढ कर समाप्त करने जयपुर के आसपास का क्षेत्र ढंढाड़ के नाम से के लिए मुकाम किया था। विख्यात रहा है। इस इलाके का यह नाम कब और इस प्रकार जहाँ रावल साहब का मत है कि जीबनेर क्यों पड़ा इस बारे में कोई सुनिश्चित जानकारी नहीं पर्वत का नाम ढूंढ था वहीं दूसरी ओर वंश भास्कर के मिलती। ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में इसके नामकरण अनुसार राक्षस का नाम दूंढ था ( व्यक्तियों को ढूंढके सम्बन्ध में विभिन्न संभावनाओं पर विचार करना
ढूंढ कर खाने के कारण)। इस सम्बन्ध में वंश भास्कर में 'समीचीन होगा।
स्पष्ट उल्लेख है : सर्वप्रथम वंश भास्कर ने एक जनश्रुति का उल्लेख
सब जन खाये ढुंढि सठ, इहि कारण अभिधान । किया है कि चौहान नरेश बीसलदेव अपने दुराचरण के
रक्खस को ढुंढहि रहयो, बस्यो उतहि बलवान || कारण शापित हो ढंढ नामक राक्षस बन गया तथा तथा, प्रजाजनों का भक्षण करने लगा। वह अजमेर को उजाड़ जुब्बनगर दै दाहिने, अवनि उद्धरन आस । कर ईशानकोण में स्थित जीबनेर कस्बे की ओर उन्मुख अन्नल नृप अजमेर बन, पत्तो रक्खस पास ॥ हुआ तथा वहाँ पर्वत शृग पर उकड़ बैठकर नर-भक्षण जुब्बनेर अजमेर बिच, देस विरचि उद्यान । करने लगा।
दुढ तहां ढंढत रहै, प्राणिन पालन प्राण !! खाय मनुज उतके सुखल, ईस कोन दिस ओर ।
हनुमान शर्मा ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ नाथावतों के जुब्बनेर पुर लों जबहि, रहयो मचावत शोर ॥ इतिहास में आमेर के ढुंढाकृति पहाड़ के नाम से ढूंढाड़ उतके जन रवावत अटल, कबहु श्रांत अतिकाय । नाम पड़ने की बात कही है पर इसका कोई पुष्ट प्रमाण जुब्बनेर गिरि शृग जो उकर बैठत आय ॥
नहीं मिलता। अजमेर में बीसलदेव (विग्रहराज) नाम के चार एक पौराणिक मान्यता के अनुसार ढुंढा नामक एक राजा हो गये हैं। संभवतः उक्त बीसलदेव विग्रहराज राक्षसी (हिरणकश्यप की बहिन) थी जो इस क्षेत्र में
१ वंश भास्कर, पृ० १३०३-४ ।
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रहती थी। उसका विचरण क्षेत्र होने से संभवतः यह ढूंढाड़ नाम से यह क्षेत्र लगभग तीन-चार सौ वर्षों से इलाका ढूंढाड़ कहलाया हो। नवजात शिशुओं की मंगल लोक में ज्ञात है। लिखित प्रमाण भी इससे पहले नहीं कामना के लिए ढूंढ पूजने की रीति आज भी इस क्षेत्र में ले जाते। लेकिन इसके नामकरण के बारे में फिर भी प्रचलित है। लेकिन इस मान्यता का कोई ऐतिहासिक यह निरचयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि यह नाम कब आधार नहीं मिलता।
और क्यों पड़ा। भाषा विज्ञान की दृष्टि से देखें तो पाते हैं कि ढूंढाड़
दाङ क्षेत्र के नामकरण के पीछे सबसे अधिक युक्तिशब्द राजस्थानी की विभिन्न बोलियों में निर्जन और उजाड़ प्रदेश के अर्थ में अनेकशः आया है। संभवतः
संगत और विश्वसनीय बात यह लगती है कि अचरोल के
निकटवतीं पहाड़ों से निकलने वाली इस क्षेत्र की प्रमुख वीरान इलाका होने के कारण यहाँ जीवन-यापन करना
नदी का नाम ढूंद है। यह नदी इस इलाके के व्यापक दुष्कर रहा हो इसीलिए इसे विविध राक्षसों के विचरण का प्रदेश मानकर अनेक असंगत व निराधार मान्यतायें बना
और विस्तृत भू-भाग में बहती है। वह काफी ली गई।
पुरानी है और इसका पाट बहुत चौड़ा है। अभी कुछ
वर्ष पूर्व १९८१ में ढूंढ नदी में आयी भीषण बाढ़ ने प्रलय गाजर मेवो कांस खड़, मरद ज पून उघाड़ ।
का केसा ताण्डव किया था। उसकी विनाश लीला ने धै ओझर अस्तरी, अहो घर ढूंढाड़ ॥
इस इलाके के कई सौ गाँवों अर्थात एक बहुत बड़े क्षेत्र को ढूंढाड़ देस राक्षस धरा, दई वास नह दीजिए।
प्रभावित किया। बहुत सम्भव है ढूंढ नदी के प्रवाह इस मान्यता में भी ज्यादा दम नहीं है क्योंकि क्षेत्र का बोध कराने की दृष्टि से इस भू-भाग का नाम भौगोलिक दृष्टि से यह इलाका इतना निर्जन और वीरान ढूंढाड़ पड़ गया हो। पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में ढूंढाड़ के .. कभी नहीं रहा।
नामकरण का यही सबसे विश्वसनीय कारण लगता है।
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