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शीर्ण होकर नष्टप्रायः हो गया है। प्रति के अंतिम ३-४ पत्र घिस कर आधे-आधे नष्ट हो गये है । ३१५ पत्र दोनों ओर लिखे हुये हैं । पत्रांक १६१. १६२ खाली हैं । पत्रांक ६४, ७९, ८०, १६४, २४० २४१ एक तरफ लिखे हुये हैं प्रति पत्र में १० से १४ तक पंक्तियों और प्रति पंक्ति में १६ से १९ तक अक्षर हैं। अंतिम ३१६ वें पत्र में केवल ४ पंक्तियाँ हैं । अक्षर गणना से ग्रन्थ लगभग ४००० श्लोक परिमाण का प्रतीत होता है ।
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ग्रन्थ के पुष्पिका-लेख से ज्ञात होता है कि शक संवत् १५३५ में अक्षय तृतीया सोमवार के दिन जांबू गाँव में इस प्रति का लिखना प्रारंभ किया गया था । पूर्वकाल में जांबू गाँव नासिक नगर का एक भाग था । इस प्रति के लेखक का नाम आसुटी हरीचंद्र है । हरीचंद्र है । आसुटी' सम्भवतः लेखक की उपाधि है। संकेत लिपि में लगभग २०० श्लोक प्रतिदिन लिख कर १९ दिन में, अर्थात् मिति ज्येष्ठ कृष्णा ६ शुक्रवार को जांबू गाँव में ही लेखन समाप्त किया गया है। इस ग्रन्थ का नाम पावा पाठ" है । प्रस्तुत प्रति में पूर्वार्द्ध पावा पाठ' लिखा है. अतः इसका उत्तरार्द्ध भी अवश्य होना चाहिए । महानुभावी सम्प्रदाय भक्ति प्रधान था, अतः इसका प्रतिपाद्य विषय स्वभावतः पूजा पाठ. दान, ब्राह्मण-सत्कार उपदेश प्रार्थनादि है। दीचीच में प्रसंगोपात्त कथाओं में द्य तादि दुर्व्यसनों के त्याग का भी निर्देश है। भगवान् श्रीकृष्ण, पद्मनाभि मार्कण्डेय, दत्तात्रेय अवड़ला माता महाराष्ट्र के महान् व्यक्ति चांगदेव, लख्मदेव, भाईदेव, गोपाल, हरिपाल प्रभूति व्यक्तियों तथा गुजरात, द्वारावती महाराष्ट्र बनारस, सारंगधर आदि देशों के तीर्थों तथा गोमती, तुंगभद्रादि नदियों के नाम इस ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर आये हैं । एक स्थल पर चांगदेव की जन्म भूमि राउल का नाम आया है, जो अब भी महाराष्ट्र में विद्यमान है ।
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ग्रन्थ का प्रारम्भ करते समय "श्री परेशायनमः नागरी अक्षरों में लिख कर संकेत लिपि का प्रारंभ हुआ है । समस्त ग्रन्थ, आदि से अन्त तक, प्राचीन महाराष्ट्री गद्य में लिखा गया है । बीच-बीच में एकाध अक्षर नागरी वर्णमाला का भी दे दिया है। यह पद्धति कभी-कभी भाषा से अनभिज्ञ पाठक को भ्रम में डाल देती है। एक से नौ तक के अंकों में नागरी पद्धति में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। कहीं-कहीं पद्यांक को भाँति ५-६ पंक्तियाँ लिख कर अंक दे दिये गये हैं व क्यों के बीच-बीच में ऐसे अक्षर आ ज.ते हैं जिन्हें अभी तक ठीक-ठोक नहीं पढ़ा जा सका । लिपि - पत्रक में ऐसे अक्षरों को 'अस्पष्टाक्षर' की संज्ञा दी गयी है। संयुक्ताक्षरों में कुछ सांकेतिक और कुछ नागरी वर्ण दिये हैं । मैंने उन सब का उसी रूप में लिपि-पत्रक में समावेश कर दिया है ।
भारतीय प्राचीन साहित्य में संकेत लिपि के जो वर्णन मिलते हैं, उनके विषय में ऊपर लिखा जा चुका है । महानुभावी संप्रदाय में भी २५-३० तरह की संकेत लिपियाँ थीं । आलोच्य लिपि का क्या नाम है. यह तो नहीं कहा जा सकता; पर किन-किन अक्षरों में कैसा परिवर्तन हुआ है और किस ढंग से लिखा गया है, इसका कुछ विवरण लिखा जाता है। इस लिपि में नागरी के दन्त्य 'स' 'सा' को 'अ' 'आ' मूर्धन्य 'ष' 'बी' को 'इ' 'ई' और 'ह' को 'उ' 'ऊ' माना है। 'ए' 'ऐ' में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया गया है। 'ओ' 'औं' 'उ' 'ऊ' के सदृश प्रतीत होते हैं ।
कण्ठ्य वर्ण क ख ग घ लिखा है। तालव्य वर्ग
को य र ल व' के सदृश च छ ज झ' को 'प फ ब भ के सदृश लिखा है 'छ' का रूप 'पू' के जैसा तथा कहीं-कहीं नागरी के 'छ' जैसा ही है। अनुनासिक 'ङ' तथा 'ञ' का कोई निश्चित रूप नहीं है । 'ञ'
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