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________________ प्रारंभ कर दिया । उन्होंने इस संप्रदाय के अनुया. यियों पर झूठे दोषारोपण किये और उन्हें नाना यातनायें दी। विरोधी व्यक्तियों से अपने सिद्धान्तों तथा धर्म ग्रंथों को सुरक्षित रखने के लिये महानुभावियों ने कई साम्प्रदायिक लिपियों का आविष्कार किया, जिनमें से २५-३० प्रकार की संकेत लिपियों का पता चल चुका है। महानुभावी साधुओं ने काफी साहित्य निर्माण किया, फिर भी इन लिपियों की अनभिज्ञता के कारण अन्य विद्वान् कुछ वर्ष पूर्व तक उससे अपरिचित ही रहे । कहा जाता है कि इनके साहित्य पर गुजरात के जैनों का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है । सं० १४१० के लगभग 'सह्याद्रि' ग्रंथ के निर्माता राघवोपाध्याय ( उर्फ रवलो व्यास ) ने 'सकलसगल लिपि का निर्माण किया । सं० १४६० के लगभग कवीश्वरी अंक लिपि का गूर्जर शिव ब्यास ने आविष्कार किया था । इनके अतिरिक्त सुन्दरी लिपि, मांडल्य लिपि. वज्र लिपि, सुभद्रा लिपि. सिंह लिपि आदि में लिखित ग्रन्थ भी प्राप्त हैं । इन में वज्र लिपि और सुन्दरी लिपि का प्रचलन न्याय ब्यास ने सं० १४१० में किया था । कुछ वर्ष पूर्व महाराष्ट्र विद्वानों ने इसके पढ़ने का प्रयत्न किया और इसके द्वारा महाराष्ट्री साहित्य को एकाएक बहुत बड़ी साहित्यिक निधि प्राप्त हो गयी। संवत् का अंक तो स्पष्ट था, पर अन्य बातें कुछ ठीक और कुछ बेठीक रूप से पढ़ी गयी थी। उस समय वर्गमाला बनाने का विचार भी किया गया, पर उसके लिए जैसी लगन से प्रयत्न करना आवश्यक था. नहीं हो सका । इसके ऊपर के वेष्टन-वस्त्रादि को देखते हुए इसकी लिपि दक्षिणी होने का अनुमान किया गया था । यही अनुमान हुआ कि महाराष्ट्र आदि के विद्वानों से पढ़ाने का प्रयत्न किया जाना समीचीन होगा। गत वर्ष काकाजी अगरचंदजी नाहटा ने इसे बम्बई, पूना आदि स्थित कई विद्वानों को दिखाया, पर कोई भी इसे पढ़ नहीं सके । तब मुझे पढ़ने का प्रयत्न करने की प्रेरणा करते हुए वह गुटका उन्होंने मेरे पास कलकत्ते में , रख दिया । गत बालमुकुन्द गुप्त स्मृति महोत्सव के प्रसंग पर उपस्थित हिन्दी के कई विद्वानों को यह ग्रन्थ दिखाने पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति श्री . चन्द्रबली पाण्डेय ने अन्त में यही सुझाव दिया कि आप जब इसका कुछ-कुछ अंश पढ़ने में समर्थ हो सके हैं तो प्रयत्न कीजिए। वर्णमाला तैयार करके इसे आप पूरा पढ़ लेंगे। इससे उत्साहित होकर मैंने इसे पढ़ डालने का निश्चय किया और बीच का पृष्ठ खोलकर अनुमान से पढ़ना प्रारंभ कर दिया । लिपि के साथ-साथ इसकी भाषा भी मेरे लिये अपरिचित थी. फिर भी अन्ततोगत्वा इसकी एक वर्णमाला तैयार कर ली गई और इसके आधार पर इस लिपि और ग्रन्थ का कुछ परिचय प्रस्तुत लेख द्वारा कराया जा रहा है । कुछ वर्ण हुए हस्तलिखित ग्रंथों का संग्रह करते हुए हमें एक ऐसा ग्रन्थ मिला जिसकी लिपि बड़ी विचित्र- सी प्रतीत होती थी। हमने उसे पढ़ने के लिये कई विद्वानों की सहायता से प्रयत्न किया पर सफल न हो सके । इसमें कुछ अक्षर तो नागरी लिपि से मिलते-जुलते थे. कुछ सर्वथा भिन्न थे। इससे बड़ी दुविधा होने लगी। सिलसिलेवार पढ़े बिना इसके नामादि का पता लगाना भी संभव न हो सका। इसकी लिपि को किसी विद्वान ने कुछ और किसी ने कुछ बताया । पर पर्याप्त परिश्रम के बिना इसका निर्णय होना संभव न था । तीन वर्ण हए मैने इसकी प्रशस्ति पढ़ने का प्रयत्न किया। यह गुटका ५४३।। इंच की साइज का है और इसकी पत्र संख्या ३१६ है किन्तु पत्रांक कहीं भी दिया हआ नहीं है । ग्रंथ पतले सफेद कागजों पर काली स्याही से लिखा गया है । दोनों ओर लाल स्याही की लकीरें देकर हाशिया छोड़ा हुआ है । सिलाई मजबूत होते हुए भी ऊपर केवल एक पतला, इकहरा, हाथ की बुनी दक्षिणी साड़ी के छीले का वस्त्र लगा हुआ है जो जीर्ण [ १५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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