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हमारे संग्रह में भी १८ वीं शती के तीन लिपिपत्रक हैं जिनमें दो पत्रों की लिपि में सांकेतिक वर्णमाला और पद्य हैं. पर लिपि का नामोल्लेख नहीं है। तीसरे पत्र में बंगालदेशी, तिलंगी, कर्णाटी और एक अज्ञात लिपि की वर्णमाला है। नामोल्लेख वाली लिपियाँ भी उन देशों की प्रचलित लिपियों से सर्वथा भिन्न हैं, अतः सांकेतिक लिपि ही मालूम देती हैं।
वर्गों की भाँति अंकों के सांके तक चिह्न भी ताडपत्रीय ग्रन्थों के पत्रांक रूप में, एवं अन्य ग्रंथों में भी पाये जाते हैं।
अंग्रेजी शासन के समय तक विस्मृत लिपियों की वर्णमाला कोई भी तैयार नहीं कर सका । पाश्चात्य विद्वानों को इन भारतीय प्राचीन लिपियों ने विस्मय में डाल दिया। उन्होंने भारतीय विद्वानों के साहाय्य से कई वर्षों तक निरन्तर श्रम करके उन उलझी हुई गुत्थियों को सुलझा कर छोड़ा। इस सम्बन्ध में मान्यवर गौरीशंकर ही० ओझा, श्री भगवानलाल इन्द्रजी, श्री काशीप्रसाद जायसवाल आदि विद्वानों के प्रयत्न विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ओझाजी की भारतीय प्राचीन लिपिमाला' हिन्दी साहित्य में अपने ढंग का एक अलग ही ग्रन्थ है।
सांकेतिक लिपियों का आविष्कार अपने भावों को गुप्त या सीमित वर्ग में रखने हेतु ही हुआ था। आज भी मंत्र-तंत्र आदि सांकेतिक लिपियों में लिखे जाते हैं। ओसवाल आदि जातियों के वंशावली लेखक भाटों ने भी अपनी सांकेतिक लिपि बना रखी है. जिससे उन बहियों को उनके अतिरिक्त यजमानादि पढ़ने में असमर्थ रहते हैं। लिपि के अतिरिक्त बोलचाल और व्यवहार में व्यापारी वर्ग एवं स्वर्णकारादि जातियों ने सांकेतिक शब्द बना रखे हैं, जिससे पास में बैठा दूसरा व्यक्ति रहस्य भी न समझ सके और उनका काम भी चलता रहे।
मध्यकाल में प्राचीन लिपियों के ज्ञान के अभाव में कितने ही प्राचीन शिलालेख और ग्रन्थ अस्तव्यस्त होकर नष्ट हो गये। कुछ गड़े धन की तालिका, मंत्र, यंत्र, स्वर्णसिद्धि आदि अन्ध परम्परा के पोरक बने । मुसलमानी साम्राज्य के समय दिल्ली में लाये हुए लौह-स्तम्भ की प्राचीन लिपि उस समय कोई भी पढ़ नहीं सका था। सं० १६६२ में जोधपुर राज्य के घंघाणी स्थान में कतिपय प्राचीन जैन मूर्तियाँ मिली थीं जिन पर महाराज संप्रति, चन्द्रगुप्तादि के लेख उत्कीर्ण थे। इन लेखों को खरतरगच्छीय भट्टारक श्री जिनराजसूरि ने अम्बिकादेवी के साहाय्य से पढ़ा था। इसका उल्लेख 'खरतरगच्छपट्टावली" में पाया जाता है।
अभिलेखों में उत्कीर्ण एवं ग्रंथ-रूप में लिखित लिपि के अतिरिक्त भारतवर्ष में कई ऐसी लिपियाँ भी हैं जिनके विषय में हमारी जानकारी अत्यन्त ही सीमित है । महाराष्ट्र देश में महानुभावी नामक एक धार्मिक सम्प्रदाय है जिसे गुजराती चक्रधर स्वामी ने (सं० १२५० से १३३०) स्थापित किया था। इनका गृहस्थावस्था का नाम हरिपाल था । महानुभावी संप्रदाय का थोड़े ही समय में बहुत प्रचार हुआ और वह महाराष्ट्र की जनता से लेकर देवगिरि के यादव-नरेशों के दरबार तक में सम्मानित हुआ । जजिया जैसे भयानक कर से कुछ समय तक इस सम्प्रदाय वाले मुक्त रहे थे । इन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति और सदाचार का अच्छा प्रचार किया। अस्पृश्यता एवं जाति तथा वर्ण-व्यवस्था को इन्होंने अमान्य किया । इस सम्प्रदाय में जाति-वर्ण के भेद-भाव बिना सभी व्यक्ति संन्यास के अधिकारी थे। इनका प्रचार इतना बढ़ा कि दक्षिण से उत्तर तक. पंजाब, काश्मीर, काबुल, अफगानिस्तान में भी इनके मठ स्थापित हो गये और अनेक संन्यासी-संन्यासिने उन मठों में रह कर धर्म-प्रचार करने लगे। उस समय वैदिक संस्कृति के अनुयायी बड़े कट्टरपंथी थे । वे इस सुधारप्रिय संप्रदाय से घबड़ाये और उन्होंने इसका जोरों से विरोध करना
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