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लिवीए" शब्दों द्वारा ब्राह्मी लिपि को नमस्कार करके उसका महत्त्व प्रदर्शित किया गया है। ___ 'समवायांग सूत्र' के १८ वें समवाय में १८ प्रकार की लिपियों का एवं ४६ वें समवाय में ब्राह्मी लिपि के ४६ मातृकाक्षर * होने का उल्लेख पाया जाता है।
१८ लिपियों को नामावली इस प्रकार है
वंभीएणं लिवीए अट्ठारसविहे लेख विहाणे पन्नते तंजहा–भी जवणाणिया, दोसाउरिया, खरोट्टिया, पुक्खरसारिया, पहाराइया. उससरिया, अक्खरपुट्टिया, भोगवयन्ती, वेणतिया, णिण्हइया, अंकलिवीगणियलिबी. गंधव्वलिवी, भूयलिवी, आदंसलिवी, महेसरी लिवी, दामिली लिवी, पुलिंदी लिवी।
गया है | जिसका अर्थ जयमंगला टीका में-"यत् साधुशब्दोपनिबद्धमप्यरक्षव्यत्यासादस्पष्टार्थः तद् म्लेच्छितं गूढ़वस्तुमन्त्रार्थम्" लिखा है। अर्थात्. 'म्लेच्छित वह है जो शुद्ध शब्द-रचना वाला होते हुए भी अक्षरों के हेरफेर से लिखने-बोलने में अस्पष्ट अर्थ वाला हो; इसका उपयोग गुप्त वात और मंत्रादि के लिए होता है। ___ 'कामसूत्र' में कौटिलीय (चाणक्यी ) और मूलदेवी का स्वरूप इस प्रकार लिखा है
दादेः क्षान्तस्य कादेश्व, स्वरयोह्र स्व-दीर्घयोः । बिन्दूष्मणोविपर्यासाद् दुर्बोधमिति संज्ञितम् ।। अकौ खगौ घडौ चैव, चटौ तपौ यशौ तथा । एते व्यस्ताः स्थिरा शेषाः मूलदेवीयमुच्यते ।।
-अधि० १ अध्या०३ सूत्र १६ अर्थात-'क' से 'थ' तक और द' से 'क्ष' तक के व्यंजन, ह्रस्व और दीर्घ स्वर, अनुस्वार और विसर्ग को उलट कर लिखने से कौटिलीय (चाणक्यी) लिपि बनती है।
मूलदेवी लिपि में 'अ' को 'क', 'ख' को 'ग', 'घ' । को 'ङ', 'च छ ज झ ञ' को 'ट, ठ, ड, ढ, ण' से 'त थ दधन को 'प फ ब भ म' से तथा 'य र ल व' को 'शष सह' से बदलना होता है।
पन्नवणासुत्त' में इन लिपियों के नामों में कुछ भिन्नता पायी जाती है। "उच्चतरिया के स्थान पर 'अंतक्खरिया', 'उयंतरिक्खिया' और 'उयंतरकरिया' तथा 'आदंसलिवी' के स्थान में 'आयासलिवी' मिलता है।
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_ 'विशेषावश्यक भाष्य' में, जो कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा सातवीं शती में रचा गया है, लिपियों की संख्या १८ बताने पर भी उनके नाम उपर्युक्त नामों से सर्वथा भिन्न पाये जाते हैं
__ हंस लिवीर भूअ लिवीर जक्खी३ तह रक्खसीय४ शेधघर उड्डी५ जवणी तुरक्को कीरीपदविड़ी९ य सिंधविया१० मालविणि११ नडि१२ नागरि१३ लाडलिवि१४ पारतीय१५ वोधव्वा तहअ निमित्तीय१६ चाणक्की१७ मूलदेवीय१८।
उपर्युक्त नामावली में अधिकांश प्रान्तीय लिपियों के नामों के साथ-साथ अन्त के दो नाम सांकेतिक लिपियों के भी प्रतीत होते हैं । वात्स्यायन के 'कामसूत्र' में इन्हें संकेत-लिपि बताते हुए "म्लेच्छितविकल्पाः " कहा
मुनि श्री पुण्यविजयजी के पास सं० १६६३ में लिखित एक लिपि-पत्रक है जिसमें मूलदेवी, सहदेवी. अंकपल्लवी, शून्यपल्लवी. रेखापल्लवी. औषध लिपि और दातासी लिपि-इन सांकेतिक लिपियों का विवरण है। इसी प्रकार साराभाई मणिलाल नवाब के पास सं० १८९७ के लिखित पत्र में सहदेवी और दातासी लिपि के उदाहरण लिखे हुए हैं। इनके लिए मुनि पुण्यविजय जी का भारतीय श्रमण संस्कृति अने लेखनकला' पृष्ठ ७ से ९ देखना चाहिए ।
* मूल में वे अक्षर कौन से हैं, यह नहीं कहा गया, पर टीकाकार के अनुसार वे अ से क्ष तक (ऋऋ लु
ल त्र ज्ञ और ळ, के अतिरिक्त ) हैं ।
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