SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्राह्मी. खरोष्ठी, पुष्करसारी, अंग-लिपि, बंग-लिपि, मगध-लिपि, मांगल्य-लिपि, मनुष्य-लिपि, अंगुलीय लिपि, शकारि-लिपि, ब्रह्मवल्ली लिपि, द्रविड़-लिपि, कनारि-लिपि, दक्षिण · लिपि, उग्र - लिपि, संख्या-लिपि, अनुमोललिपि, ऊर्ध्वधनुलिपि, दरद - लिपि, खास्य - लिपि, . चीन-लिपि, हूण-लिपि, मध्याक्षर-विस्तर-लिपि, पुष्प-लिपि, देव-लिपि, नाग-लिपि, यक्ष-लिपि, गन्धर्व-लिपि,किन्नर-लिपि, महोरग-लिपि, असुर-लिपि, गरुड़-लिपि, मृगचक्र-लिपि, चक्र-लिपि, वायुनक-लिपि, भौम-देव-लिपि, अंतरिक्ष-देवलिपि, उत्तरकुरु-लिपि. अपरगौड़ादि-लिपि, पूर्वविदेह-लिपि, उत्क्षेप-लिपि, निक्षेप-लिपि. विक्षेप-लिपि, प्रक्षेप-लिपि, सागर लिपि, वज्र-लिपि, लेख-प्रतिलेख-लिपि, अनुद्रत लिपि, शास्त्रावर्त-लिपि. गणावर्त-लिपि, उत्क्षेपावर्त-लिपि, विक्षेपावर्त-लिपि, पादलिखित-लिपि. द्विकत्तर-पद सन्धिलिखितलिपि, दशोत्तरपद सन्धिलिखित-लिपि, अध्याहारिणी-लिपि, सर्वरुत्संग्रहणी-लिपि, विधानुलोम-लिपि, विमिश्रित-लिपि, ऋषितपस्तप्त-लिपि, धरणीप्रेक्षणा-लिपि, सर्वोषधनिष्यंदलिपि, सर्वसारसंग्रहणी-लिपि और सर्वभूतरुद्ग्रहणी-लिपि। सांकेतिक महाराष्ट्री लिपि का एक ग्रन्थ भारतीय भाषाओं में विविधता होने पर भी जिस प्रकार प्राकृत और संस्कृत को प्रधानता दी जाती है, उसी प्रकार भारतीय लिपियों में अनेकता होने पर भी प्रधानता ब्राह्मी लिपि को और उसके बाद खरोष्ठी को दी जा सकती है। प्राचीन अभिलेख उन्हीं उभय लिपियों में प्राप्त हैं, जिनमें ब्राह्मीलेखों का बाहुल्य है । 'पण्णवणासुत्त' आदि जैनागमों में आर्य की परिभाषा बतलाते हुए ब्राह्मी लिपि का उल्लेख किया गया है। इससे इसकी प्रतिष्ठा का विशेष रूप से पता चलता है। पाश्चात्य विद्वानों ने ब्राह्मी आदि समस्त भारतीय लिपियों को सेमेटिक लिपि से उत्पन्न हुई बताने की चेष्टा की थी, पर एतद्विषयक अधिकारी विद्वान् स्वर्गीय डा० गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपनी भारतीय प्राचीन लिपिमाला में प्रमाणित कर दिया है कि भारतीय लिपियाँ अतिप्राचीन और स्वतन्त्र हैं | बौद्ध ग्रन्थ 'ललितविस्तर' में ६४ लिपियों की नामावली प्रस्तुत करते हुए प्रथम ब्राह्मी और खरोष्टी लिपियों का उल्लेख किया गया है। इन ६४ लिपियों की नामावली इस प्रकार है जैनागमों के अनुसार प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव ने इस अवसर्पिणी काल में सारे लोक व्यवहार का प्रचलन किया। इससे पूर्व के मनुष्य युगलिक थे, उनकी आवश्यकताएं बहुत सीमित थीं एवं उन्हें आवश्यक वस्तुओं का अभाव नहीं था। क्रमशः आवश्यकताएं बढ़ने लगी और वस्तुओं की कमी होने लगी. अतएव भगवान् ऋषभदेव ने युगानुकूल प्रवृत्तियों की शिक्षा दी. जिसमें लिपिविज्ञान भी सम्मिलित है। उन्होंने अपनी पुत्री ब्राह्मी को १८ लिपियाँ सिखायी थीं, जिनमें प्रधान लिपि का नामकरण उसी के नाम से 'ब्राह्मी' किया । यह लिपि दाहिनी ओर से लिखी जाती है। 'आवश्यकनियुक्ति-भाष्य' गाथा १३ में "लेहं लिविविहाणं जिणेण बंभीइ दाहिणकरेणं" शब्दों द्वारा यही सूचित किया है। पंचमांग 'भगवती सूत्र' के प्रारंभ में भी "नमो बंभीए १४८] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy