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भगवान महावीर की जन्मभूमि
क्षत्रियकुण्ड
एक नाम के कई नगर गाँव प्राचीनकाल में थे और आज भी पाये जाते हैं। नाम साम्य से वे भी भ्रान्त हो गए और अपनी शोध की सत्यता प्रमाणित करते हुए ऐतिहासिक शोध दृष्टिविहीन भारतीय जनता को भी अपनी स्थापनाए मान्य कराने में सफल हो गए। भारतीय मान्यता लोकोक्ति. पौराणिक श्रद्धा पर ही अवलम्बित थी जबकि पाश्चात्य विद्वानों की शोधपद्धति भाषा-विज्ञान लिपि-विज्ञान और तुलनात्मक अध्ययन पर
आधारित होने से निष्ठामूलक थी। इन पाश्चात्य विद्वानों से प्रभावित होकर कतिपय भारतीय विद्वान और जैनाचार्य तक उनका समर्थन करने लग गये । पाश्चात्य शोध के भ्रम ने भगवान महावीर के जन्मस्थान, कैवल्य स्थान और निर्माणस्थान को भी सन्दिग्ध बतलाने का साहस किया और उन्हें स्थापनातीर्थ होना बतला दिया। श्री कन्हैयालाल सरावगी ने सठियाँव को, भगवती प्रसाद जी खेतान आदि ने पडरौना को बिना किसी पुरातात्विक प्रमाण के ही भगवान की निर्वाणभूमि पावापुरी होना प्रदर्शित किया जो बौद्ध साहित्य की गलत समझ और अपनी हठधर्मिता ही है। मुझे दस वर्ष पूर्व 'महातीर्थ पावापुरी' पुस्तिका लिखकर यथाशक्ति भ्रान्ति निवारण की चेष्टा करनी पड़ी थी।
अनादि अनन्तकाल के प्रवर्तमान कालचक्र में वर्तमान में अवसर्पिणी का पांचवा आरा है। प्रत्येक कालचक्र में उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी काल होता है। हम जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में निवास करते हैं जिसमें प्रत्येक काल के मध्य में चौबीस तीर्थकर सर्वोच्च महापुरूष होते हैं जो लोक के अनन्त जीवों के महान उपकारी और मोक्ष मार्ग के प्रकाशक, भवसमुद्र से तारक होते हैं । इस काल की चौबीसी में भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर स्वामी पर्यन्त चौबीस तीर्थकर हुए हैं जिनमें नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी को ऐतिहासिक महापुरुष होना इतिहासज्ञों को भी स्वीकार्य है। शास्त्रों में सवकी पंचकल्याणक तिथियां और च्यवन. जन्म, दीक्षा, कैवल्य और निर्वाण स्थान बतलाये हैं जो तीर्थ रूप में मानने की प्राचीनतम परम्परा है। शास्त्रों में विराट वर्णन होते हुए भी मध्यकालीन देश की अव्यवस्था ने उन्हें भुला दिया है। जैन परम्परा में तीर्थयात्रा की परम्परा के कारण उससे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद नहीं हुआ परन्तु बौद्ध स्थान तो सर्वथा विस्मृत हो गये थे, जिन्हें पाश्चात्य विद्वानों ने अपनी शोधदृष्टि से प्रकाशित किया।
भगवान महावीर का जन्मस्थान क्षत्रियकुण्ड ग्राम नगर होना प्राचीन जैनागमों से भली-भांति सिद्ध है। पर यह क्षत्रियकुण्ड कौन सा है. किस स्थान पर है यह प्रश्न गत ६०-७० वर्षों से उठा है। दिगम्बर साहित्य में कण्डपुर के स्थान में कहीं कुण्डलपुर भी लिखा मिलता है जो कि पांचवी शती के यति वृषभ और सतरहवीं शती के मराठी कवि चिमण पंडित के अतिरिक्त कहीं नहीं देखा गया । श्वेताम्बर समाज के पास आगम
और ऐतिहासिक प्रमाण थे और क्षत्रियकुण्ड को सहस्राब्दियों से मानता आया था पर दिगम्बर समाज के जन्म स्थान का कोई तीर्थ न होने से लगभग सौ वर्ष पूर्व
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