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________________ इन अक्षरात्मक अंकों की उत्पत्ति आदि कैसे हुई यह बता सकना कठिन है. पर प्रारम्भ के तीन अक्षरों के लिए लिखे जाते स्व, स्वि, स्ति. श्री अथवा ऊं नमः या श्री श्री श्री ये मंगलीक के लिए प्रयुक्त अक्षरों से प्रारम्भ हुआ विदित होता है। आगे के संकेतों का वास्तविक बीज क्या है शोधकर वास्तविक निर्णय में अब तक विद्वानों की कल्पना सफल नहीं हो सकी है। इन्दु, चंद्र, शीतांशु. शीतरश्मि, सितरुच, हिमकर, सोम, शशांक,सुधांशु, निशेश, निशाकर, क्षपाकर, औषधीश, दाक्षायणी प्राणेश, अब्ज, (चन्द्रवाचक अन्य शब्द भी). भू. भूमि, क्षिति, क्षमा, धरा, वसुधा, बसुन्धरा, उर्वरा, गो, पृथ्वी. धरणी, इला. कु. मही ( पृथ्वी वाचक अन्य शब्द भी ). जेवाकृत इत्यादि। शून्यांक : जैन छेद आगमों की चूर्णि में जहां मास, लघु मास, गुरु, चतुर्लघु, चतुर्गुरु, षड्लघु, षड्गुरु प्रायश्चित के संकेत लिखे हैं वहां उस संख्या का निदेश एक, चर, छः शून्य के द्वारा किया गया है । यथा0 . 00 0 00. .... 00 . 000. ..' २. यम. यमल, युगल. द्वंद्व, युग्म, द्वय. पक्ष, अश्विन, नासत्य, दस्त्र, लोचन, नेत्र. नयन. इक्षण, अक्षि. दृष्टि, चक्ष, (नेत्र वाचक अन्य शब्द भी), कर्ण, श्रुति, श्रोत, (कान वाचक शब्द), वाहु, व.र, हस्त, पागी, दोष, भुज. (हाथ वाचक शब्द समूह), कर्ण, कुच, ओष्ठ, गुल्फ, जानु. जंघा, (शरीर के युग्म अवयव वाचक अन्य शब्द), अयन. कुटुम्ठ, रविचन्द्रौ इत्यादि । इस प्रकार खाली शून्य लघता सूचक और काले भरे शून्य गुरुत्व सूचक हैं । शब्दात्मक अंक : जैनागम सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययनादि में वैदिक ग्रन्थों एवं ज्योतिष छंदादि विविध विषयक ग्रन्थों में. शिलालेखों. ग्रन्थ-प्रशस्तियों व पुष्पिकाओं में शब्दांकों का प्रयोग प्राचीन काल से चला आता है। कुछ सार्वजनिक और कुछ सांप्रदायिक, पारिभाषिक, धार्मिक, व्यावहारिक वस्तुओं के भेद की संख्या के आधार पर रूढ शब्दांकों का बिना भेद-भाव से ग्रन्थकारों, कवियों और लेखकों ने उन्मुक्त प्रयोग किया है. जिसकी तालिका वहुत बड़ी तैयार हो सकती है। यहाँ जिस-जिस अंक के लिए जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है उसे दिया जा रहा है ३. राम, त्रिपदी, त्रिकाल, त्रिगत, त्रिनेत्र. लोक, जगत. भुवन, (विश्व वाचक शब्द समूह ), गुण, काल, सहोदरा, अनल, अग्नि, वह्नि, ज्वलन, पावक, वैश्वानर, दहन, तपन, हुताशन, शिखिन, कृशानु, ( अग्नि वाचक अन्य शब्द समूह ), तत्व, त्रैत, होतृ, शक्ति, पुष्कर, संध्या, ब्रह्मा, वर्ण, स्वर, पुरुष, वचन, अर्थ. गुप्ति इत्यादि । ४. वेद, श्रुति, समुद्र, सागर, अवधि, जलधि, जलनिधि, वाधि, नीरधि. नीर, निधि, वारिधि, वारिनिधि, उदधि, अम्बुधि, अम्बुनिधि, अंभोधि, अर्णव, (समुद्रवाचक अन्य शब्द भी ), केन्द्र, वर्ण, आश्रल, युग, तुर्य, कृत, अय, आय. दिश (दिशा), बन्धु, कोष्ठ, ध्यान, गति, संज्ञा, कषाय इत्यादि । ५. वाण, शर, सायक, इषु, (वाण वाचक शब्द ), भूत. महाभूत, प्राण, इन्द्रिय, अक्ष, विषय, तत्व, पर्व, पांडव, अर्थ, वर्म, व्रत, समिति, कामगुण, शरीर, अनुत्तर, महाव्रत इत्यादि। ६. रस, अंग, काय, ऋतु, मासार्ध, दर्शन, राग, अरि, शास्त्र, तर्क, कारक, समास, लेश्या, क्षमारखण्ड, गुण, गुहक, गुहवकत्र इत्यादि । 0. शून्य. विन्दु, रन्ध, ख. छिद्र, पूर्ण, गगन, आकाश. वियत्, व्योम, नभ, अभ्र, अन्तरिक्ष. अम्बरादि । . १. कलि, रूप, आदि, पितामह, नायक, तनु. शशि, विपु. [ ९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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