SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन दोनों काका-भतीजों का साहित्यिक-जगत् की प्रत्येक गति-विधि में इतना अधिक सामञ्जस्य रहा है कि ये परस्पर एक-दूसरे के पूरक बन कर अभिन्न/अद्वैत रूप में आगे बढ़ते ही रहे। इन दोनों के कार्यों का विभागीकरण करना वस्तुतः टेढ़ी खीर है। किन्तु इनकी वह अजस्रधारा भी कुछ वर्षों से नान और अर्थ को दृष्टि से एक पक्ष की ओर से खण्डित होती हुई-सी दृष्टिपथ में आती है। इन दोनों के सम्मिलित एवं सक्रिय प्रयत्नों से दो वैशिष्ट्यपूर्ण एवं चिरस्थायी कार्य सम्पन्न हुए थे: १. अभय जैन ग्रन्थालय (बीकानेर) जैसा विशालतम संग्रहालय स्थापित हुआ। जिसमें ७० हजार हस्तलिखित ग्रन्थ, लगभग ४० हजार मुद्रित पुस्तकें. शताधिक पत्र-पत्रिकाओं की फाइलें, राजाओं, आचार्यों आदि की पत्रावलियां और सहस्राधिक ग्रन्थों की पाण्डुलिपियां सुरक्षित हैं। संग्रहालय की सामग्री का उपयोग कर शताधिक शोधार्थी पी० एच० डी० कर चुके हैं । २. शंकरदान नाहटा कला भवन की स्थापना। इसमें प्राचीन चित्र, चित्रपट्ट, पुरातात्विक अवशेष, मुद्राए', सचित्र ग्रन्थ, काष्ठ-पट्टिकाएं एवं विविध प्रकार की सामग्री प्रचुर परिमाण में संग्रहीत है। श्री भंवरलालजी के कलकत्ता रहने के कारण एवं श्री अगरचन्दजी के स्वर्गवास के पश्चात् ये दोनों संस्थायें दुर्व्यवस्था के चंगुल में जकड़ती जा रही है। यहाँ पर यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि भवरलालजी के शताधिक लेख अगरचन्दजी के नाम से भी छपे हैं । सर्वदा अगरचन्दजी के वशंवद होकर चलने में ही इन्होंने अपनी गरिमा समझी है। ४२ वर्षों के सतत् सम्पर्क में मैंने श्री मँवरलालजी में जो कुछ वैशिष्ट्य देखा, उसका संक्षिप्त लेखा-जोखा अब प्रस्तुत करता हूँ। १. आशुकवि हैं । कविपदधारक न होते हुए भी, प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी और राजस्थानी भाषा में तत्क्षण छन्दो. बद्ध रचना कर लेते हैं। रचना में यत्र-तत्र व्याकरण की दृष्टि से स्खलना अवश्य हो जाती है, किन्तु भावों की दृष्टि से रचना प्रशस्त हो होती है। भक्तामर स्तोत्र का हिन्दी पद्यानुवाद तो एक रात्रि में ही पूर्ण कर दिया था। २. विधिवत् क्रमिक अध्ययन के अभाव में भी प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश, राजस्थानी, गुजराती भाषाओं का अच्छा ज्ञान है। पढ़ने और अर्थ करने में भी पूर्ण दक्ष हैं। ३. ग्रन्थों की पडिलिपि मात्रा के अतिरिक्त प्राचीन मूर्तिलेखों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों की उत्तर भारत य लिपि पढ़ने में सिद्धहस्त हैं। यही नहीं. ब्राह्मी और कुटिल लिपि के लेखों को भी दक्षतापूर्वक पढ़ लेते हैं। ४. मूर्तिकला और चित्रकला की सूक्ष्नताओं का विशिष्ट ज्ञान है और उसमें अच्छी पैठ है। कालानुसार उसका निरूपण भी गहराई के साथ कर लेते हैं। ५. अक्षर सुवाच्य, सुन्दर एवं मनमोहक हैं। साथ ही सूक्ष्म अक्षर लिखने में भी सिद्धहस्त हैं। मेरे जैसा तो उसे आईग्लास बिना पढ़ नहीं पाता। [ ५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy