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६. रेखाचित्र, संस्मरण और कहानियाँ लिखने में अत्यन्त निष्णात हैं। राजस्थानी और हिन्दी दोनों में लिखते हैं। पात्र का चित्रण अत्यन्त सजोव और मार्मिक होता है। पुस्तक पठनीय है।
७. लगभग दस वर्षों से एकाकी हो 'कुशल निर्देश' मासिक पत्रिका का सम्पादन सफलता पूर्वक कर रहे हैं।
८. स्वतन्त्र रूप से लिखित, अनुदित, संपादित, संशोधित पुस्तकें एवं शताधिक लेख भी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, अभिनन्दन स्मृति ग्रन्थों में प्रकाशित हो चुके हैं। और अब भी निरन्तर लिखते रहते हैं।
९. आज मी खरतरगच्छ का इतिहास, बच्छावत वंश का इतिहास, विचाररत्नसार का अनुवाद, सहजानन्द पत्रावली आदि के कार्य भी उती मनोवृत्ति और लगन के साथ पूर्ण करने में संलग्न हैं ।
१०. इतने अधिक निःस्पृह हैं कि कोई भी कलात्मक वस्तु ग्रन्थ या मुद्रित पुस्तकें प्राप्त होती तो तत्काल ही उन्हें काकाजी के पास संग्रहालय हेतु भिजवा देते थे। अपनी कहकर अपने पास नहीं रखते थे ।
११. पारिवारिक सम्बन्धों में अंग्रजों के कारण आर्थिक हानि भी उठानी पड़ी तो उसे मूक दर्शक की तरह सहते रहे। बड़ों के प्रति उनके हृदय में आदर- बहुमान होने के कारण कभी मुंह नहीं खोल सके। सम्पत्ति को कर्माधीन ही समझ कर शान्ति धारण कर ली। इससे अधिक समत्व मिलना भी दुष्कर है ।
१२. धर्म आगम, साहित्य, कला, इतिहास और पुरातत्व के अधिकृत विद्वान हैं। इस सम्बन्ध में कोई लेखक तथ्यविरुद्ध लिखता है, तो तत्काल ही पत्राचार द्वारा या लेख द्वारा शालीनता के साथ वस्तुस्थिति का दिग्दर्शन करा देते हैं। यदि कोई भाषण के मध्य में मनमाने ढंग से विपरीत प्ररूपणा करता है, तो तत्क्षण ही जोशीली वाणी में प्रामाणिकता के साथ निराकरण कर देते हैं ।
१३. जिस कार्य को कृत संकल्प होकर हाथ में ले लेते हैं, तो खान-पान आराम को भूलकर साहसपूर्वक एक आसन से घंटों तक बैठकर उसे पूर्ण करके ही विश्राम करते हैं । चाहे प्रतिदिन १५-१६ घंटे भी काम क्यों न करना पड़े। आज भी ढलती अवस्था में भी इनकी यही मनोवृति है।
१४. नाम लिप्सा रखे बिना आज भी अन्य लेखकों और सम्पादकों की पुस्तकों के संशोधन और प्रूफ आदि रात्रि में देखते ही रहते हैं।
१५. एक समय जयन्ती के अवसर पर प्रसिद्ध विद्वान् मुनि श्री नगराजजी ने श्री पूज्य जिनचन्द्रसूरिजी को 'युगप्रवान' और श्री पूज्यजी ने उन्हें 'राष्ट्रसन्त' की उपाधि से अलंकृत किया, तो इन्होंने उसी समय 'दासानुदासा इव चाटुकारा... पद्य बनाकर, मुनिश्री को सम्बोधित कर दिया था। निर्भयतापूर्वक विरोध करने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते हैं ।
१६. विनम्रता और शिष्टता की प्रतिमूर्ति है अशिष्ट वाक्यों का प्रयोग यहाँ तक कि उपहास में भी अशा लीनता इनको किंचित भी रुचिकर नहीं हैं । एक संस्मरण स्मृतिपटल पर उभर रहा है :
वि० सं० २००१ में ये कटिदर्द से अत्यधिक पीड़ित थे। फिर भी ये उल्टे लेटकर घण्टों तक प्रतिलिपि करते रहते थे।
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बैठना या बैठकर काम करना इनके लिये दूभर था। श्री जिनपालोपाध्याय की सरतरगच्छ गुर्वावली के
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