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________________ त्पात ७ इन नामों से प्रसिद्ध जैन तीर्थों में स्थित जिन प्रतिमाओं को मैं वन्दन करता हूँ। गणतो बह्मदासियातो कुलतोउचेनगरितो साखातो गणिस्य आर्य पुशिलस्य शिशिनि दतिलाति ति हरिनंदिस्य भगिनिये निवर्तना साविकानां वद्धकिनिनं जिनदासि रुद्रदेव दाता गाला रुद्रदेवसा निना रुद्र..."गहमित्र...""कुमारशिरि बमद दासि हस्तिसेना ग्रहशिरि रुद्रदता जयदासि मित्रशिरि। मुनि कल्याणविजयजी ने लिखा है नियुक्ति की गाथा ३३२ वों में नियुक्तिकारने तत्कालीन भारतवर्ष में प्रसिद्धि पाये हुए ७ अशाश्वत तीर्थों को बन्दन किया है। मुनि कल्याणविजय जी ने इन सातों प्राचीन जैन तीर्थों की यथाज्ञात जानकारी दी है उसमें अहिच्छत्रा तीर्थ के सम्बन्ध में जिनप्रभसूरि के अहिच्छत्रा नगरी कल्प का आवश्यक उद्धरण दिया है। आचारांग नियुक्ति परम्परागत श्वेताम्बर मान्यतानुसार चतुर्दश पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी रचित है जो वीर निर्वाण संवत् १७० में स्वर्गवासी हुए । अतः अब से २३३५ वर्ष पूर्व का यह श्वेताम्बरोल्लेख अहिच्छत्रा तीर्थ की प्राचीनता व प्रसिद्धि का सबल प्रमाण है। "अर्थात् सं० १२ वर्षा के चतुर्थमास १० वें दिन कोटिकगण ब्रह्मदासीय कुल और उच्चानगरी शाखा के आर्य पुशिल की शिष्या दतिला "हरिनन्दिनी भगिनी की आज्ञा से सुतार श्रावक श्राविकाओं जिनदासी रुद्रादेवा, दाता, गाला ( गांव ) की रुद्रदेव सामीरुद्र'"ग्रहमित्र'"कुमारश्री वमदासी (वामदासी) हस्तिसेना. ग्रहश्री रुद्रदत्ता, जयदासी मित्रश्री..." ( ने बिंब करवाया )" डॉ० फुहरर की उल्लिखित सं० ७४ की चौमुख प्रतिमा के चारों ओर दो-दो पंक्तियों में खुदे लेख की नकल भी यहाँ दे रहें हैं। . "सं० ७०४ ग्र०१ दि०५ अय वरणतो कुलातो वजनकरितो शाखातो अयशीरकातो""""न धनस्य वाचकस्य । शिशिनिये अर्य गहवलाये पण ति धारिये शिशिनिये आर्य दासिये देवस्य कटुं विनये धरवायाये दति सशुये। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अहिच्छत्रातीर्थ प्राचीनकाल से मान्य व प्रसिद्ध रहा है इसकी पुष्टि वर्तमान के पाश्चात्य विद्वानों की खोज से प्राप्त मूर्तियों व शिलालेखों से भी हो जाती है। ई० सन् १८९२ में डा० फूहरर ने जब शोध कार्य किया तो उन्होंने अपनी लखनऊ म्यूजियम की अप्रिल की खोज रिपोर्ट में लिखा है कि -"इस प्राचीन स्थान में मूर्तियाँ, पब्बासन और अनेक वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं । एक प्राचीन जीर्ग जैन मन्दिर उत्खनन द्वारा एक खण्डित मूर्ति हस्तगत हुई । यह मूति पब्बासन सहित ध्यान मुद्रा में पब्बासन रूप में हैं। पब्बासन के मध्य भाग में उभयपक्ष में सिंह खड़े हैं, मध्य में धर्मचक्र के पास दोनो ओर एक-एक पुरुष मूर्ति को वन्दन करते हुए अवस्थित हैं। मूत्ति के नीचे पब्बासन में एक अभिलेख 'उत्कीणित है जो कुशानकालीन 'ब्राह्मीलिपि में हैं "अर्थात् सं०७४ की ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास के पाँचों दिन"देवकीपत्नी धरवला ने बारणगण-कुल वज्र नगरी शाखा और आस्रक ( संभोग ) तीन धन "वाचक की"शिष्या ग्रहवला की आज्ञा से. दान' (सन् १९११ के अगस्त सितम्बर कान्स हेरल्ड में प्रकाशित लेखानुसार जैन सत्यप्रकाश, वर्ष १३ अं०४) ये दोनों प्रतिमायें इस समय कहाँ है ? इनके फोटो व शिलालेख प्रकाशित होने चाहिए। भगवान पार्श्वनाथ की जीवनी सम्बन्धी श्वेताम्बर साहित्य में प्रस्तुत उपरोक्त अहिच्छत्रा का उल्लेख प्रायः "सं० १०२ व ४ दि० १० एत्तस्य पूर्बायां कोट्टियातो [१९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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