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सभी पार्श्वनाथ चरित्र लेखकों ने किया है। ग्यारह अंगों में मूल आगम सूत्रों में छठ्ठ ज्ञातासूत्र में अहिच्छत्रा नाम आया है यतः
"१. तीसेणं चंपाए नयरीए उत्तर पुरच्छिमे दिसि भाए अहिच्छत्रा नाम नयरी होत्या रिद्वत्थमिय समिद्धा वण्णओ, तत्थणं अहिच्छत्राएं नयरीए कनगकेउ नाम राया होत्था
“२. सेयं खलु मम विपुलं पणिय भंडमायाए अहिच्छत्तं नगरं वाणिज्जाए गमित्तए ।
"३. अहिछतं नगरं वाणिज्जाए गमित्त ते" (ज्ञाताधर्म कथा. पृ० १९२)
तीर्थंकरों के स्वतन्त्र जीवन चरित्र तो बाद में रचे गए हैं. पहले प्रसंगवश ज्ञातासूत्र आदि आगम, कल्पसूत्र, आवश्यक निर्युक्ति, पउमचरियं वसुदेव- हिण्डी आदि में विवरण मिलता है फिर ५४ या ६३ शलाका पुरुष चरित्रों में संयुक्त रूप में श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों संप्रदाय के रचित ग्रन्थों में २४ तीर्थंकर १२ चक्रवर्ती, ९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव के चरित्र पाये जाते हैं। इनमें से श्वेताम्बर ग्रंथों में सं० ९२५ में शीलाचार्य रचित चउपन्न महापुरुष चरिये का सर्वप्रथम स्थान है इसमें कुछ बातों की भिन्नता लिए हुए पार्श्वनाथ चरित्र वर्णित है। इस ग्रन्थ पार्श्वनाथ के उपसर्ग के वर्णन में धरणेन्द्र ने हजार फणा के छत्र का विकुर्वण भगवान के ऊपर किया वह एक तरह से मण्डप जैसा बन गया आदि लिखा है । स्वतंत्र पार्श्वनाथ चरित्रों में सं० ११६८ में देवभद्रसूरि रचित चरित्र ( प्रकृत ) तीसरे प्रस्ताव में कुछ भिन्न वर्णन करते हुए लिखा है
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"प्रभु ने ऊपर त्रण रात्रि सूधि छत्र धारण क त्यार पछी स्वामीए अन्यत्र विहार कर्यो पछी ते नगरी पृथ्वीतल ने विषे प्रसिद्धि ने पामी ।"
इसके थोड़े वर्ष बाद हेमचन्द्राचार्य रचित त्रिषष्टि-शलाका
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पुरुष चरित्र पर्व ९ सर्ग ३ में लिखा है कि भगवान विचरते हुए किसी नगरी के निकट तापसाश्रम के समीप कुएं के पास एक वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित रहे. वहाँ मेघमाली ने बहुत से उपसर्ग किये। घनघोर वर्षों का जल भगवान के नासिका तक आने पर धरणेन्द्र ने आकर प्रभु के नीचे कमल विकुर्वग किए और स्वयं छत्र धारण करके रहा धरणेन्द्र की स्त्रियों नृत्य करने लगी मैनाली प्रभु के चरणों में गिरा ।
वहां से विहार कर वाराणसी के आश्रमपदोद्यान पधारने पर धातकी वृक्ष के नीचे प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ।
आचार्य हेमचन्द्र के इस उल्लेख से उपसर्ग स्थान अहिच्छत्रा और केवल ज्ञान स्थान वाराणसी भिन्न. भिन्न स्थान सिद्ध होते हैं और केवलज्ञान वाराणसी के आश्रमपदोद्यान में होने का स्पष्ट उल्लेख है ।
सं० ११६५ के पार्श्वनाथ चरित्र में अहिच्छत्रा का स्पष्ट उल्लेख है ही इसके बाद १४ वीं शताब्दी में तो जिनप्रमसूरि ने यह तीर्थ यात्रा स्वयं की लगती है। उन्होंने जो इस तीर्थ का स्वतन्त्र कल्प रचा है उसमें उस समय जो प्रतिमाएँ वापी कूप स्थानादि का उल्लेख वहाँ की औषधियाँ और जल का प्रभाव बताते लिखा है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने विविध तीर्थ कल्प के चौरासी महातीर्थ नाम संग्रह कल्प में "अहिच्छत्राय त्रिभुवन भानु" दिया है और पार्श्वनाथ तीर्थों में उल्लेखनीय होने से कल्प में सम्मिलित किया है। एवं फलवद्धि पार्श्वनाथ कल्प में उस समय के प्रसिद्ध पार्श्वनाथ सम्बन्धी तीर्थ स्थानों के नाम दिए हैं जिसमें अहिच्छत्रा का भी नाम है
"कलिकुण्ड कुक्कुडे सर सिरिपव्यय संखेसर सेरि सय महरा वाराणसी अहिच्छता थंभणय अज्जाहर पवरनयर देवपट्टण - करहेडय नागद्दह सिरिपुर - सामिणी
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