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________________ चारुप - दिपुरी-उज्जेणी - सुद्धदती - हरिकंखी लिबोडयाइ वहाँ प्राकार कारकों ने जैसे-जैसे उरग रूपी धरणेन्द्र ठाण वट्टमाण · " ने कुटिल गति से सर्पण किया उसी प्रकार से ईट-निवेश किया । आज भी वैसा ही प्राकार रत्न दृष्टिगोचर होता अन्त में फलवद्धि पार्श्वनाथ तीर्थ का महात्म्य है। संघ ने श्री पार्श्वनाथ भगवान का चैत्य निर्माण बतलाते हुए लिखा है कि इस तीर्थ की यात्रा करने से कराया। चैत्य के पूर्व दिशा में अतिमधुर प्रसन्नोदक उपरोक्त पार्श्वनाथ सम्बन्धी सभी अन्य तीर्थों की यात्रा कमठ जलधर से भरे हुए सात जलपूर्ण कुण्ड हैं । हो गई ऐसा सम्प्रदाय पुरुषों का उपदेश है। उन कुण्डों के जल में विधिपूर्वक स्नान करने वाली जिनप्रभसूरि के उपरोक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है। मृतवत्सा स्त्रियाँ स्थिरवत्सा होती हैं। उन कुण्डों की कि चौदहवीं शती में अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ श्वेताम्बर मान्य मिट्टी से धातुर्वादी लोग धातु-सिद्धि होना बतलाते हैं। उल्लेखनीय तीर्थ रहा है। अब इस तीर्थ के स्वतन्त्र पाषाण शिला से मुद्रित मुख वाली सिद्धि रस-कू.पका भी कल्प का हिन्दी अनुवाद नीचे दिया जा रहा है जिससे यहाँ दृष्टिगोचर होती हैं। जहाँ म्लेच्छ राजा द्वारा इसका विशिष्ट महात्म्य भलीभाँति उजागर हो जाएगा। अग्निदाह आदि अनेक उद्घाटनोपक्रम निष्फल हो गए। अहिच्छत्रा- तीर्थ कल्प त्रिभुवनभानु के नाम से प्रकट श्री पार्श्वनाथ जिनेश्वर को नमस्कार करके अहिच्छत्रा नगरी का कल्प किंचित् यथाश्रत कहूँगा। इसी जंबुद्वीप के भारतवर्ष में मध्य खण्ड स्थित कुरु-जांगल जनपद में शंखावती नामक ऋद्धि-समृद्ध नगरो थी। वहाँ भगवान पार्श्वनाथस्वामी छास्थ विहार में विचरते हुए कायोत्सर्ग स्थित रहे। पूर्व निबद्ध वैर के कारण कमठासुर ने अविच्छिन्न धारा प्रवाह से बरसता हुआ मेघ विकुर्वण किया, जिससे सारे भूमण्डल में जलजलाकार होकर भगवंत के आकण्ठ जल आ गया। उस नगर के भीतर और बाहर सवा लाख कुंएं और वापिकाए हैं। मधुरोदक की यात्रा के लिए आये हुए लोगों और पवनाथ चैत्यों में स्नान करते हुए लोगों को आज भी कमठ प्रखर तूफान और काली मेघ घटा . और गर्जन व बिजली आदि दिखाता है । मूल चैत्य . के निकट सिद्धक्षेत्र में श्री पार्श्वनाथ स्वामी का धरणेन्द्रपद्मावती सेवित चैत्य है। प्राकार के समीप श्रीनेमिनाथ भगवान की प्रतिमा सहित सिद्ध-बुद्ध कलित आम्र लुम्ब धारिणी सिंहवाहिनी अम्बिकादेवी विद्यमान है। चन्द्र किरणों की भाँति निर्मल जल से परिपूर्ण उत्तरा नामक वापी है जहाँ स्नान करने और वहाँ की मिट्टी का लेप करने से कुष्टियों का कुष्ट रोग शान्त हो जाता है । धन्वन्तरि कूप की विचित्र वर्णवाली मिट्टी से गुरु आम्नाय से सोना बनता है। ब्रह्मकुण्ड के तट पर उगी हुई मण्डूक ब्राह्मी के पत्तों का चूर्ण एक वर्ण वाली गाय के दूध के साथ पीने से प्रज्ञा मेधा सम्पन्न निरोग और किन्नर की भाँति स्वर होता है। वहाँ उपवन के समस्त वृक्षों में औषधियाँ उपलब्ध होती हैं जो उन उन कार्यों को सिद्ध करती है जैसे जयन्ती. नागदमणी, सहदेवी, अपराजिता, लक्ष्मणा, त्रिवर्णी, नकुली, सकुली, साक्षी, सुवर्णशिला, मोहनी. पंचाग्नि साधक कमठ तापस द्वारा जलाए काठ में दग्ध साँप को निकाले गए प्रभु उपकार को स्मरण कर नागराज धरणेन्द्र ने अवधिज्ञान से देखा और अपनी अग्रमहिषियों के साथ आकर मणिरत्नमय सहस्रफणालंकृत छत्र प्रभु के ऊपर करके कुण्डलीकृत नागराज ने उन्हें ग्रहण कर उस उपसर्ग को निवारण किया। तभी से उस नगरी का नाम अहिच्छत्रा हो गया । [ १९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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