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सामली, रविभक्ता, निर्विषी, मोरशिखा, शल्या, विशल्या प्रभृत महौषधियाँ यहाँ विद्यमान हैं। यहाँ हरिहर, हिरण्यगर्म, चण्डिकाभवन. ब्रह्मकुण्ड आदि लौकिक
तो गणातो थानियातो कुलातो वइर (तो) (सा) खातो आर्य अरह (मह)।
२ सिसिनि धामथाये (१) ग्रहदतस्यधि-धनहथि ।
तीर्थ हैं।
यह नगरी महातपस्वी सुगृहीत नामधेय कृष्णर्षि की जन्मभूमि है। तत्पद पंकज पराग कण निपात से पवित्रीकृत एक वस्त्र वाले पार्श्वनाथ भगवान को स्मरण करने से आधि-व्याधि, सर्पविष, सिंह. हाथी, रण, चोर, जल, अग्नि, राज्य, दुष्टग्रह, मारि, भूत, प्रेत, शाकिनी, प्रमुख क्षुद्रोपद्रव विशेष कर भव्य जीवों को पराभव नहीं करते। सकल अतिशयों की निधान रूप यह नगरी है।
यह अहिच्छत्रा नगरी का कल्प पद्मावती धरणेन्द्र और कमठ के प्रिय श्री जिनप्रभसरि ने संक्षेप में वर्णन किया है।
|| अहिच्छत्रा कल्प समाप्त हुआ ग्रन्थाग्रं ३६ ।।
अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ कल्प में श्री जिनप्रभसूरिजी ने एक ऐतिहासिक तथ्य और महत्वपूर्ण उल्लेख किया है कि अहिच्छत्रा में सुगृहीत नामधेय महा तपस्वी कण्ह ऋषि का जन्म हुआ था।
"तहा एसा नयरी महातवस्सिस्स सुगिहीय नामधेअस्स कण्हरिसिणोजम्मभूमित्ति ।"
ये कण्ह ऋषि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के थे जो काफी प्राचीन काल में हो गए है। मथुरा के जैन पुरातत्त्व में उनकी मूर्ति भी प्राप्त है। जैन साहित्य के इतिहास पृ० १२४ में मथुरा के एक खण्डित पट्ट का अभिलेख युक्त चित्र छपा है जिसमें स्तंभों पर छज्जे के ऊपरि भाग में मध्य में स्तूप और उभय पक्ष में दो-दो जिन नमि-नेमि-पार्श्व-महावीर की चार प्रतिमाएं हैं। ऊपर नीचे ब्राह्मी लिपि में अभिलेख उत्कीणित है।
१ (सि) द्धम् सं०९५ (१) ग्री २ दि १८ कोट्टय (1)
अर्थात्-सिद्ध संवत् ९५ (१) ग्रीष्म ऋतु के दूसरे महीने में १८ वें दिन कोटिक गण के थानीय कुल की वज्र शाखा के आर्य महा (दिन ) शिष्यणी धामथ की बीनती से गृहदत्त की पुत्री और धनहथी (धनहस्ति) का पुत्री की ( भेंट)।
नीचे कण्हमुनि खड़े हैं जिनके दाहिने हाथ में ऊंचा किया हुआ रजोहरण और बाएं हाथ में वस्त्र-खण्ड है। दाहिनी ओर अभयमुद्रा में स्त्री खड़ी है और बाएं तरफ सप्तफणधारी धरणेन्द्र करबद्ध अवस्थित हैं । आगे दो व्यक्तियों में एक करबद्ध खड़ा है। चित्र परिचय में सं०९५ माँ जैन यति कण्हनी मूर्ति, मथुरा, पृ० १२४ लिखा है । अहिच्छत्रा में जिन कण्ह ऋषि की जन्म भूमि होने का लिखा है वे संभवतः यही हैं। वैसे आठवीं शताब्दी में एक अन्य कण्ह मुनि राजस्थान में हुए हैं उनके संबन्ध में पं० लालचंद भगवानदास गाँधी का लेख द्रष्टव्य है।
जिनप्रभसूरि के बाद उत्तर प्रदेश, बिहार और पूर्व देश में मुसलमानी साम्राज्य के कारण काफी हलचल रही अतः आवागमन बहुत कठिन हो गया । जिनप्रभसूरि द्वारा उल्लिखित मूत्तियां भी संभवतः उसके बाद कई नष्ट हो गई, कई स्थानांतरित हो गई तथा भूगर्भ उत्खनन होने पर उसमें से भी निकलना संभव है।
श्री महेन्द्रप्रमसूरि कृत तीर्थमाला
सवृत्ति में
सिवनयरि कुसग्गवणे पासो पडिमं ठिओअ धरणिंदो। उवरि तिरत्तं छत्तं धरिसु कासीय वर महिमं ५९ तं हेउं सा नयरी अहिच्छत्ता नामओ जणे जाया।
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