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________________ तहियं नमिमो पासं विग्ध विणासं गुणावासं "६० पडिमाए ठियं पास कमठो हरि करि पिसाय पमुहेहिं । उवसग्गिअ तो वरिसइ अखंड जुग मुसल धाराहि "६१ उदगं जेण नासग्गं पत्त तो लहु करेइ धरणिंदो। जिग उवरि फणा छत्तं भोगेगय देह वहि परिहिं "६२ चरणाहो गुरुनालं कमलंतो कमठ खामिउं नट्ठो। धरणो गउ सवासं जिय उव सग्गं नमह पास “६३ स्ववासं निजसदनं गतः हे जनाः तत्र जिनोपसर्ग निराकृ. तोपसर्ग श्री पार्वेशं नमतः ॥६३।। इति श्री पार्वतीर्थ माहात्म्यम् ॥ मुनिप्रभसूरि कृत अष्टोत्तरी तीर्थमाला में-- अहिछत्ता छई त्रिभुवन भाj, अंतरीखु श्रीपुरि वरकाणुउं. नागद्रहि नवखंडो ॥१३॥ --जैन सत्य प्रकाश, वर्ष १२ अंक ४.५। पाटण के संघवीपाड़ा भण्डार में प्रति न०२१८ में अपभ्रंश भाषा की अहिछत्रा के नवफण मंडित पार्श्व नमस्कार गा० ५ की कृति का आदि अन्त आदि-जयचिंतामणि जयनाहु जय नवफग मंडिय जय वाणारसि जाय काय जिय नीलसिखंडिय जय वामाइ (ए) वि-आससेणकुल नहयल भूषण जय देवासुर-श्रमण संघ संथुय धुय दूषण ता देव देव धरणिंद)य कमठ दप्प चूरंतु पउमावइ पणमिय चलण मण वंछिय पूरंतु ||१|| अंत चेडय-सयडालघरे नवफणपास जिणिंदु । नमि सरवण अहिछत्रपुरे खरतर संतिसमुद्द ।।५।। टीका-शिवनारे कुशाग्रवने श्री पार्श्वः प्रतिमांस्थितः कायोत्सर्गे स्थितः भक्त्या च ज्ञानेन तत्ज्ञात्वा धरणेन्द्रः पातालात् आगत्य उपरि त्रिरात्रं छत्रं अधार्षीत् वर महिमानं आकर्षीत् वरमहिमानं नाट्य रंगादि प्रभोः पुरस्तानेत्यर्थः ॥५९|| ततो हेतोः सा नगरी जने लोके नामतो 'अहिच्छत्रा' जाता तस्या नगर्या अहिच्छत्रे ते नाम लोक स्तदादि प्रघुष्ट मित्यर्थः तत्र पार्श्व नमामः किं वि० विघ्नविनाशं विघ्नानां विनाशो यस्मात् पुनः किं वि० गुणवासं गुणानां आवासं अहिना सर्पण छत्रं धृत मित्यर्थःऽतो अहिच्छत्रा नाम जने प्ररूपितः ॥६०|| पुन प्रकारान्तरेण पार्श्व तीर्थ माह प्रतिमायां कायोत्सर्गे स्थितं पार्व कमठो हरि करि पिशाच प्रमुखैः उपसर्य सिंह हस्ति वेतालरूपैः उपसर्गान् कृत्वा ततो अखंड युग मुंसल धारामि वर्षति अखण्डा अविच्छिन्ना युग मुंसल प्रमाण स्थूलत्वेन जलधाराः कमठस्तदाववरेत्यर्थः ॥६१॥ उदकं पानीयं जिन नाशाग्रः श्री पार्श्व प्रभु नाशिकाग्रं यावत् प्राप्तं ततो. ऽवधिना तत् ज्ञात्वा तत्रागतो धरणेन्द्रो लघुशीघ्र जिनस्यो. परि फगा छत्रं करोति नागेन (भोगेनश्वपश्चात् ) शरीरेण च देहावहिं परिधि वेष्टनं च प्रभोः करोति यद्वा किं विशिष्ट फगा छत्र भोगे न शरीरेण देह परिधि देहे श्री पार्श्वतनौ बहु परिधिःपरीतता यस्य सर्प रूपो नागेन्द्रः स्वशरीरेण प्रभु शरीरं आवेष्ट्य फग मण्डल प्रभोः छत्रं यस्पदेति कृतवानित्यर्थः ॥६२|| चरणधः पादयोरधस्तात् गुरु नाजं (कमल) च करोति ततः श्री धरणेन्द्रण प्रयुक्ताःऽवधिना स्वरूप ज्ञात्वा वर्जितः कमठः क्षमयित्वा नष्टः धरण नागेन्द्र पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में खरतरगच्छ के लोकहिताचार्य आदि पूर्व देश की यात्रा करने गए जिसका विवरण विज्ञप्ति-महालेख में पाया जाता है । इससे पहले सं० १३५२ में कलिकाल केवली श्री जिनचंद्रसरि जी की आज्ञा से वा० राजशेखर गणि, सुबुद्धिराज गणि आदि संघ सहित पूर्व देश के जैन तीर्थों की यात्रा करने गए व नालंदा चौमासा कर हस्तिनापुर संघ निकालने का विवरण 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' में मिलता है। १५वीं शती के उत्तरार्द्ध में जिनवर्द्धनसरि जौनपुर के ५२ संघपतियों के साथ पूरब की यात्रा करने पधारे थे पर इन तीनों के मार्गवर्ती स्थानादि का पूरा विवरण नहीं मिलता । संभव है उनके जाने का मार्ग अहिच्छत्रा से दूर व अलग पड़ता हो । [ १९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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