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________________ दा अहिच्छत्रा की यात्रा का वर्णन सतरहवीं शताब्दी से पुनः मिलने लगता है। सं० १६६१ चैत्र सुदि २ को आगरा के मुकीम हीरानंद ने पूरब देश की-समेतशिखरजी की यात्रा का संघ निकाला था जिसमें कविवर बनारसीदास । के पिता खड़गसेन भी सम्मिलित हुए थे। वीरविजय (खरतरगच्छीय मुनि तेजसार शिष्य ) ने इस यात्रा वर्णन गर्भित चैत्यपरिपाटो की रचना की है। इसमें अहिच्छत्रा की यात्रा का इस प्रकार वर्णन है कअरजी दलाल श्वेताम्बर श्रावक थे। सं० १६६७ में आगरा के श्वे० जैन संघ की ओर से तपागच्छ के आचार्य विजयसेनसूरि को भेजे गए विज्ञप्तिपत्र में जिन ८८ श्रावकों व संघपतियों के नाम हैं उनमें ये भी हैं । यह विज्ञप्ति पत्र 'एन्सिएन्ट विज्ञप्तिपत्र.ज' में डा० हीरानंद शास्त्री ने . बड़ौदा सरकार से प्रकाशित किया है। कवि बनारसीदास के अहिच्छत्रा यात्रा करने के ५ वर्ष बाद सं० १६८० में कवि आनन्दकीर्ति ने मिगसर सुदि १२ रविवार को अहिच्छत्रा की यात्रा कर संघ की आशा पूर्ण करने का अपने १८ गाथा के स्तवन में लिखा है, इस संघ में और कहां-कहां यात्रा की तथा संघपति कौन था इसका उल्लेख नहीं मिलता। अउचह प्रण, पंच जिण, रयणपुरी धूमनाथ, सौरीपुर हथणाउरइ'. अहिछत्ति पारसनाथ ॥१८॥ इस सोलसइइकसठा वरसई. बहुत तीरथ वंदिया, वरदेव पूरब का अपूरब, भविक जण आणदिया । सिरि तेजसार सुसीस भावइ वीरविजय पयंपए. नित पढ़त गुणतां हुवइ मंगल, मिलइनवनिध संपए ॥१९|| दूसरा वर्णन सं० १६७५ में कवि बनारसीदासजी की यात्रा का विवरण है । बनारसीदास जी उस समय श्वेताम्बर-खरतरगच्छ के अनुयायी थे। उन्होंने सं०१६७५ के पौष मास में सं० वरधमान कुंअरजी दलाल के संघ सहित अहिच्छत्रा और हस्तिनापुर की यात्रा की थी। अपनी माता और भार्या के साथ रथ में वैठ कर यात्री संघ के साथ वहाँ पधारे थे। उन्होंने अपने आत्मचरितअर्द्धकथानक के निम्न चौपाई में लिखा है __इसके बाद के तीन श्वेताम्बर जैन कवियों के अहिच्छत्रा तीर्थयात्रा के उल्लेख प्राचीन तीर्थमाला संग्रह में प्रकाशित हुए हैं जिसका संपादन, प्रकाशन अब से ६५ वर्ष पूर्व सं० १९७८ में जैनाचार्य विजयधर्मसूरि ने किया था। इसमें प्रकाशित तीन उल्लेखों में पहला उल्लेख में शलविजय कृत तीर्थमाला का सं० १७११ का है पहिला देस मेवाति कहूं. अहिछत्रापुरि पासजी लहुँ । दूसरा उल्लेख सं० १७१७ का विजयसागर कृत सम्मेतशिखर तीर्थमाला में प्राप्त है अहिछत्रइ उत्तम नमइ, मथुरा गढ़ ग्वालेर । तीसरा उल्लेख सं० १७५० का सौभाग्यविजय कृत तीर्थमाला का इस प्रकार है करि विवाह आए घर माँहि । मनसा भई जात को जाहिं। वरधमान कुंअरजी दलाल । चल्यो संघ इक तिन्ह के नाल | ५७९ ॥ अहिच्छत्ता-हथनापुर जात । चले बनारसि उठि परभात । माता और भारजा संग । रथ बैठे धरि भाउ अभंग ।। ५८०॥ पचहत्तरे पोह सुभ घरी । अहिछत्ते की पूजा करी। फिरि आए हथनापुर जहाँ । सांति कुंथु अर पूजे तहां ॥ . ५८१ ॥ उपर्युक्त पद्यों में उल्लिखित संघपति वरधमान जी हो आगरा थी ईसान में, जीहो श्री अहिछत्रा पास, जी हो कुरू जंगल ना देशमा, जीहो परतष पूरे आस ।।१९।। इसी ग्रंथ के पृ० १४१ में प्रकाशित मेघविजय कृत सं० १७२१ लिखित पाश्वनाथ १०८ नाममाला में १९६ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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