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अहिछत्तउ भड़कुल चलवेसर चीलोख़इ. सामलउ सुमसामी, सेव करू मन कोइ ||१२||
शान्तिकुशल कृत (सं० १६६७ में रचित) स्तवन मेंमुहर पास वेइ वली, अहिछत्रों हो आणी धुराय । कल्याणसागर कृत पार्श्व चैत्य परिपाटी मेंनवलखो नासे सदा अहिछत्ते हो दीठे सुख थाय । उपरोक्त तीनों तं थंमालाएं आचार्य विजयधर्मसूरिजी ने प्राचीन तीर्थमाला संग्रह में प्रकाशित की है।
सुप्रसिद्ध विद्वान मेघविजय कृत 'परम गुरु पर्व लेख जो सं० १७४७ में अमरोहा में रचित है, की १६वीं - १७वीं गाथा में अहिच्छत्रा तीर्थोत्पत्ति विषयक उल्लेख इस प्रकार है
पूर्वयत्कमठः शठश्च कृतवान् वैकृत्य मन्तर्दिया, नीरन्प्रनत नीरवाह विगलत्पानीय वर्षाभरात् । तत्रच्छत्र पवित्र चित्र रचनां चक्रेऽहि चक्र. श्वर, स्तीर्थ पार्श्व विमोरिहा जनितदाऽहिच्छत्र पुर्याइयम् ||१६|| लोकाशांवर भर्ति भर्तु रमला मूर्ति जंगल्या सुरे रासेव्या चरि कति विघ्न विवह ध्वंशं तदा सेविनाम् । अहिच्छत्रित पार्श्व शाश्वत रवेरुद्यत् फणानां पदा, दचिश्चारु सहस्त्र वैभव भृत स्तीर्थं समर्थों श्रिया ||१७|| तीर्थमाला संग्रह के 'संक्षिप्त सार' के फुटनोट में उन्होंने इस प्रकार लिखा है
१ अहिच्छत्रा - बरेली जिले में ऐओनला ( Aonla ) नामनु गाम छे, तेनी उत्तर मां ८ माइल ऊपर रामनगर (Ramnagar) नामनुं गाम छे आ रामनगर थी दक्षिण मां 3|| माइल ना घेराव मां केटलाक खंडीयरो छे. आज अहिच्छत्रा कहेवा मां आवे छे जिनप्रभसूरिए अहिच्छत्ता कल्प मां अहिच्छत्तानी उत्पत्ति, पार्श्वनाथ प्रभु नुं मंदिर एनी पूर्व दिशा माँ आवेला सात कुण्डो, मूल चैत्य नी नजीक सिद्धक्षेत्र माँ धरणेन्द्र पद्मावती युक्त
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पार्श्वनाथ प्रभुनुं मंदिर गढनी पासे नेमिनाथनी मूर्ति सहित सद्ध अने बुद्ध थी युक्त आंबा नी लुंब हाथ माँ छे, जेने एवि सिंहवाहन वाली अंबादेवी तेमज बीजापण केटला लौकक तीर्थो विगेरे नुं वर्णन कयुछे अत्यारे तेना स्मृति चिन्हों - खंडीयरोज मात्र छे. प्राचीन शोधखोज ना परिणामे अत्यार सूधी माँ जैनों ना बे प्राचीन माँ प्राचीन स्तूपो जाहेर माँ आव्या छे तेमां अहिंनोपग एक छे, अने बीजो मथुरा नो ।
हमारे संग्रह में अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ स्तवन की एक और प्रति है। १९ पद्यों के इस स्तवन में पार्श्वनाथ भगवान् के पंचकल्याणकों का वर्णन करने के साथ-साथ अहच्छत्रा के उपसर्ग का भी प्रसंग वर्णित है। इस स्तवन में अहिच्छत्रा का पूर्वनाम शिवपुरी लिखा है और आदिसागर सरोवर के पास प्रभु के मेरुगिरि की भांति अडिग रहने, कमठ के उपसर्ग करने व धरणेन्द्र के द्वारा ऊंचे करके प्रभु के मस्तक पर अहिच्छता (फग) करने, पद्मावती के गीत नाटक करने के साथ-साथ प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न होने का वर्णन किया है। चौथी ढाल में धरणेन्द्र द्वारा नगरी अहिच्छत्रा यथार्थ नाम देने का उल्लेख है। खरतरगच्छ के कवि दयातिलक वाचक के शिष्य नित्यविजय ने यहां की यात्रा अपने गुरु के साथ सं० १७६३ ज्येष्ठ वदी १ को कर के इस स्तवन की रचना की थी । आनंदकीति और नित्यविजय के दोनों स्तवन अप्रकाशित होने से इस लेख के साथ प्रकाशित किये जा रहे हैं।
सं० १६६२ से १६६९ तक सरतरगच्छीय जयनिधान गणि ने भी पूर्व देश में विचर कर यात्राएँ की वे लिखते हैं
सिवनगरी सिरि पासजी, कमठासुर बल ताजइ रे । उपर्युक्त सभी उल्लेखों से यह तीर्थ प्राचीन काल से श्वेताम्बर मान्य रहना सिद्ध होता पर इन यात्रा
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