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तिथियों व स्थानों का विवरण पाया जाता है। और उन तिथियों की आराधना तप और जाप आदि विशेष रूप से मान्य किया जाता है। कल्याणक तीर्थों की यात्रायें करके धर्मनिष्ठ व्यक्ति अपने को भाग्यशाली मानते हैं। भगवान नेमिनाथ का जन्म सौरीपुर. दीक्षा. केवल ज्ञान व निर्वाण गिरनार पर्वत पर हुआ किन्तु अन्य स्थानों के सम्बन्ध में विस्मृति होती गई अतः उनकी जहाँ पुनस्र्थापना की गई वे स्थापना तोर्थ रूप में मान्य हुआ क्योंकि बीच-बीच में राजनैतिक उथल-पुथल व उपद्रवादि के कारण कल्याणक भूमियों की यात्रा बन्द-सी हो गई थी। अतः कल्याणक भूमियों का सही पता लगाकर निर्णय करना कठिन है। पर राजगृह, गिरनार आदि पर्वत सो अपने स्थान पर स्थित हैं अतः ऐसे स्थानों के सम्बन्ध में तो विशेष शंका का अवकाश नहीं है।
इस महान् उपसर्ग का ध्यान आया तो उपसर्ग निवारणार्थ उनके मस्तक पर सप्तफण या सहस्रफण धारण कर देवी पद्मावती सहित वह भक्ति करने लगा। जिस स्थान पर यह उपसर्ग हुआ और अहि अर्थात् सर्प ने फण फेलाकर उपसर्ग निवारण किया वह स्थान अहिच्छत्रा नाम से प्रसिद्ध हुआ। भ० पार्श्वनाथ का यह विशिष्ट जीवन-प्रसंग होने से अहिच्छत्रा तीर्थ रूप में मान्य हो गया। श्वेताम्बर जैनागमों में आचारांग सूत्र सबसे पहला और प्राचीनतम मान्य आगम है। उसकी भद्रबाहु रचित नियुक्ति में उस समय के प्रसिद्ध जैन तीर्थों का उल्लेख निम्न गाथा में हुआ है
अठ्ठावय-उज्जिते गयग्गपएय धम्मचक्केय ।
पास रहावत्त नगं चमरुप्पायं च वंदामि ।। ३३ ।। "गजान पदे दशार्णकूट वत्तिनी तथा तक्षशिलायां धर्मचक्र तथा अहिच्छत्रायां पार्श्वनाथस्य धरणेन्द्र महिमा स्थाने।"आच रांग नियुक्ति ।
भगवान पार्श्वनाथ ऐतिहासिक काल में हुए, यह बात सर्वमान्य है । उनका च्यवन, जन्म एवं दीक्षा तो वाराणसी नगरी में हुई जो काशी-वाराणसी के नाम से आज भी सर्वमान्य तीर्थ रूप में प्रसिद्ध है, अन्य १९ तीर्थकरों के साथ-साथ भगवान पार्श्वनाथ का निर्वाण भी सम्मेतशिखर तीर्थपर हुआ। यह दिगम्बर-श्वेताम्बर सभी को मान्य है पर पार्श्वनाथ स्वामी का केवल-ज्ञान स्थान कई श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार वाराणसी में हुआ . और दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार अहिच्छत्रा क्षेत्र में हुआ।
पर यह दोनों सम्प्रदायों को मान्य है कि केवलज्ञान से पूर्व और दीक्षा के बाद बीच के ८३ दिनों में कमठ के जीव मेघमाली द्वारा भ० पार्श्वनाथ को सबसे बड़ा उपसर्ग हुआ । वह स्थान पहले शंखावती नाम से प्रसिद्ध था पर जब मेघमाली देव द्वारा अन्य उपसर्ग के बाद भयंकर मेघ-वृष्टि का उपसर्ग हुआ. पृथ्वी जलजलाकार हो गयी, नासाग्र तक पानी आ गया तब पंचाग्नि साधक कमठ तापस की धूनी में से जिस सर्प की रक्षा की थी और जो धरणेन्द्र देव हुआ था उसके उपयोग में भगवान पर
इससे पूर्ववर्ती तीन गाथाओं में यह कहा गया है कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप-वैराग्य-विनय जिन कारणों से शुद्ध बनता है उनका लक्षण कहूँगा। तीर्थंकर भगवन्तों के प्रवचन प्रचारक, प्रभावक आचार्यों के केवल-मनपर्यव अवधिज्ञान, वक्रियादि अतिशायी लब्धिधारी मुनियों के सन्मुख जाने, नमस्कार करने, उनका दर्शन करने, गुणों का कीर्तन करने उनकी पूजा करने, से दर्शन-ज्ञान-चारित्र वैराग्य गुणों की शुद्धि होती है।
जन्म कल्याणक स्थान, जन्माभिषेक स्थान, दीक्षा स्थान. श्रमणावस्था की विहारभूमि. केवल-ज्ञानोत्पत्ति स्थान और निर्वाण कल्याणक भूमि को तथा देवलोक, असुरादि के भुवन, मेरुपर्वत, नंदीश्वर के चैत्यों और व्यन्तर देवों के भूमिस्थ नगरों में रही हुई जिन प्रतिमाओं को तथा अष्टापद १, उज्जयंत २. गजाग्रपद ३, धर्मचक्र ४. अहिच्छत्रा स्थित पार्श्वनाथ ५, रथावर्त तीर्थ ६, चमरो
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