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है" लिखते हुए "महाकवि वाग्भट्ट ने इसी नगर में नेमि निर्वाण काव्य रचा था" लिखा है यतः
अहिच्छत्र पुरोत्पन्न प्राग्वाट कुल शालिनः । छाहस्य सुतश्चक्र प्रबन्धं वाग्भट्टः कवि ।।
अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ तीर्थ
जब अहिच्छत्रा का ध्वंश ही हो गया तो वहाँ रचना कैसे हुई। वास्तव में यह अहिच्छत्रा उत्तर प्रदेश का प्रस्तुत तीर्थ न होकर राजस्थान की ही नगरी है। पोरवाड़ जाति श्रीमालनगर (भीनमाल) और राजस्थान से ही संबन्धित थी और सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने नागौर को अहिच्छत्रा माना है। नागौर के निकट ओसतरां गाँव भी है एवं उच्छित्तवालओसतवाल गोत्र भी ओसवाल जाति में विद्यमान है जिसके प्रतिमा-लेखादि पाये जाते हैं और सुप्रसिद्ध तपागच्छाचार्य विजयदेवसुरि का जन्म इसी गोत्र में हुआ था । अतः नेमि-
निर्वाण काव्य के रचयिता निश्चित ही राजस्थान की अहिच्छत्रा के थे वह चाहे नागोर हों या ओसतरां। अस्तु।
[ प्राचीन ऐतिहासिक तीर्थ अहिच्छत्रा के सम्बन्ध में जब अस्त-व्यस्त दि० उल्लेख सामने आये तो काकाजी अगरचंद जी के आदेशानुसार श्वेताम्बर प्रमाणों को एकत्र किया और निबन्ध रूप में प्रकाशित किया।
प्रस्तुत निबन्ध में उल्लिखित शिलालेखों के गण, कुल, यात्री संघों के विवरण, और आगम ग्रन्थादि के उल्लेखों से अहिच्छत्रा श्वेताम्बर जैन तीर्थ प्रमाणित होता है।]
कनिंघम साहब को सन् १८९४ में अहिच्छत्रा में से एक ताम्बे का सिक्का प्राप्त हुआ था जिसके एक तरफ पुष्प सहित कलश अंकित था और दूसरी ओर "श्री महाराज हरिगुप्तस्य" लिखा हुआ था । यह लेख विक्रम की छठी शताब्दी का है। यह कोई गुप्त वंश का राजा होना चाहिए क्योंकि पुष्प सहित कलश जैनों का मांगलिक कलश है और मथुरा के स्थापत्य में वह मुख्यता से आलेखित हुआ है। ये राजर्षि जैनाचार्य हो गये हैं जो हूण सम्राट तोरमाण के गुरु थे। मालवपति देवगुप्त हर्षवर्द्धन के ज्येष्ठ भ्राता राज्यवर्द्धन से युद्ध में हारकर गुप्त वंश के जैनाचार्य हरिगुप्त के शिष्य बन गए हों यह बात पुरातत्त्वाचार्य श्री जिनविजयजी ने अपने कुवलयमाला विषयक लेख में लिखी हैं।
तीर्थकरों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष पांच प्रसंगों को कल्याणक की संज्ञा दी गई है, अर्थात् जिससे जीवों का कल्याण हो या जो आत्म कल्याण में साधन-कारण हो। ये प्रसंग जिन तिथियों और स्थानों में घटते हैं उन तिथियों को कल्याण-तिथि और स्थान को कल्याणक-तीर्थ कहा जाता है । प्रथम तथंकर भगवान ऋषभदेव के च्यवन, जन्म और दीक्षा अयोध्या में, केवलज्ञान पुरिमताल और निर्वाण अष्टापद पर हुआ। ये तीनों स्थान आज भी तीर्थ रूप में मान्य हैं. जब कि अष्टापद हिमालय के हिम राशि में अदृश्य-लुप्त हो गया है। इसी तरह अन्य सभी त.थंकरों की कल्याणक
श्री विजेन्द्रकुमार जैन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित अहिच्छत्रा तीर्थ की स्मारिका में “अहिच्छत्रा नगर का ध्वंश १००४ ई० के उपरान्त ग्यारहवीं शती ई० में ही हो गया लगता
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