SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 429
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहले संकेत किया गया है कि पद्मसुन्दर की भाषा है। इसमें केवल एक व्यंजन-क के आधार पर रचना पर भी श्रीहर्ष का गहरा प्रभाव है। जहाँ उसने उपजीव्य के द्वारा कवि ने अपना पाण्डित्य बघारा है । काव्य का स्वतन्त्र रूपान्तर किया है, वहाँ उसकी भाषा, कुः कां ककंक कैका किकाककु कैकिका । उसके पार्श्वनाथ काव्य की तरह, विशद तथा सरल है; कां कां कककका काक ककाकुः कंकका कका । १०.४४ परन्तु जहाँ उसे नेषध का, लगभग उसी की पदावली में पद्मसुन्दर की भाषा में समास-बाहुल्य की कमी नहीं पुनराख्यान करने को विवश होना पड़ा है, वहाँ उसकी भाषा में प्रौढ़ता का समावेश होना स्वाभाविक था । है पर उसकी सरलता को देखते हुए उसे वेदी-प्रधान कहना उचित होगा। वैदी की सुबोधता पद्मसुन्दर सामान्यतः यदुसुन्दर की भाषा को सुबोध कहा की भाषा की विशेषता है। अपनी क्लिष्टता के बावजूद जाएगा पर काव्य में नैषध के प्रभाव से मुक्त दो स्थल नेषध की भाषा पदलालित्य से इतनी विभूषित है कि ऐसे हैं, जिनमें पद्मसुन्दर अपने उद्देश्य से भटक कर, 'नैषधे पदलालित्यम्' उक्ति साहित्य में श्रीहर्ष के भाषाचित्रकाव्य में अपना रचना-कौशल प्रदर्शित करने के फेर गुण की परिचायक बन गयी। यदुसुन्दर के अधिकतर में फंस गये हैं। इन सर्गों में यदुसुन्दर का कर्ता स्पष्टतः पद्यों में पदलालित्य मिलेगा, जो उसकी भाषा को नयी माघ के आकर्षण से अभिभूत है, जिसने इसी प्रकार आभा प्रदान करता है। पदलालित्य अनुप्रास पर आधारित ऋतुओं तथा युद्ध के वर्णनों को बौद्धिक व्यायाम का है जिसका काव्य में व्यापक प्रयोग किया गया है । अखाड़ा बनाया है। पद्मसुन्दर का षड ऋतुवर्णनवाला नैषधचरित वक्रोक्ति-प्रधान काव्य है। यदुसुन्दर भी नवाँ सर्ग आद्यन्त यमक से भरपूर है। इसमें पद, पाद, नैषध की इस विशेषता से अप्रभावित नहीं है। उत्प्रेक्षा, अर्द्ध तथा महायमक आदि यमकभेदों के अतिरिक्त कवि अपह नुति, अतिशयोक्ति, समासोक्ति का स्वतन्त्र अथवा ने अनुलोम-प्रतिलोम, षोडशदल कमल, गोमूत्रिका बन्ध मिश्रित प्रयोग यदुसुन्दर की वक्रोक्ति का आधार है । आदि साहित्यिक हथकण्डों पर हाथ चलाया है। सापह्नवोत्प्रेक्षा तथा सापह्नवातिशयोक्ति के प्रति पद्मसुन्दर शिशुपालवध की तरह पद्मसुन्दर का युद्धवर्णन एक का प्रेम नैषध से प्रेरित है। अप्रस्तुत प्रशंसा, . व्यंजनात्मक, यक्षरात्मक तथा वर्ण, मात्रा, बिन्दुच्युतक अर्थान्तरन्यास, दृष्टान्त, पर्यायोक्त आदि वक्रोक्ति के आदि चित्रकाव्य से जटिल तथा बोझिल है, यद्यपि ऋतु पोषक अन्य अलंकार हैं, जिसका पद्मसुन्दर ने रुचिपूर्वक वर्णन की अपेक्षा इसकी मात्रा यहाँ कम है। इनसे कवि के प्रयोग किया है। काव्य में प्रयुक्त उपमाएँ कवि की पाण्डिल्य का संकेत अवश्य मिलता है पर ये काव्य की कुशलता की परिचायक है । पद्मसुन्दर ने अन्य अलंकारों ग्राह्यता में बाधक हैं, इसमें सन्देह नहीं। निम्नांकित के संकर के रूप में भी उपमा का प्रयोग किया है। महायमक से कवि के यमक की करालता का अनुमान किया इस प्रकार यदुसुन्दर का समूचा महत्त्व इस तथ्य में जा सकता है। निहित है कि इसमें नवीन पात्रों के माध्यम से नैषध चरित सारं गता तरलतारतरंगसारा का संक्षिप्त रूपान्तर प्रस्तुत किया गया है। मौलिकता सारंगता तरलतार तरंगसारा। के अभाव के कारण यदुसुन्दर ख्याति प्राप्त नहीं कर सारंगता तरलतार तरंगसारा सका। सम्भवतः यही कारण है कि इसकी केवल एक सारंगता तरलतार तरंगसारा ।।६.२६ हस्तलिखित प्रति उपलब्ध है। फिर भी यदुसुन्दर तथा नेषध चरित का तुलनात्मक अध्ययन करना अतीव रोचक चित्रकाव्य का विकटतम रूप प्रस्तुत पद्य में मिलता तथा उपयोगी है। ८० ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy