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यदुसुन्दर में वीर रस की भी कई स्थलों पर निष्पत्ति हुई। दसवें सर्ग का युद्धवर्णन दो कौड़ी का है । यह वीररसचित्रण में कवि की कुशलता की अपेक्षा उसके चित्रकाव्य में प्रेम को अधिक व्यक्त करता है । वैसे भी इस वर्णन में वीर रस के नाम पर वीर रसात्मक रूढ़ियों का निरूपण किया गया है जो तब तक साहित्य में गहरी जम चुकी थी । चतुर्थ तथा पंचम सर्ग में अभ्यागत राजाओं के पराक्रम के वर्णन में वीर रस के कुछ चित्र सुन्दर तथा प्रभावशाली हैं। वे बहुधा श्रीहर्ष के वर्णनों पर आधारित हैं। श्रीहर्ष की तरह पद्मसुन्दर का वीर रस दरबारी कवियों का 'टिपिकल वीर रस' है, जिसमें अतिशयोक्ति और शब्दछटा का आडम्बर दिखाई देता है । साकेत नरेश की वीरता के वर्णन वाले इस पद्य में वीर रस की यही प्रवृत्ति मिलती है ।
एतद्दोर्दण्ड चण्डद्युतिकरनिकर त्रासिता रातिराज
स्तस्यौ यावद्विशंको द्रुमकुसुमलता कुंज पुंजे निलीय । वीक्ष्यैतन्नामधेयांकित निशितशरध्वस्त पंचाननास्यो
ताशकं करकं व्रजतु विवशधीः कां दिशं कांदिशीकः ॥ ४.६२ पद्मसुन्दर की प्रकृति नैषध की तरह, वियोग अथवा संयोग की उद्दीपनगत प्रकृति है । तृतीय सर्ग का उपवनवर्णन ( ३५-४४ ), जो नैषध के प्रथम सर्ग के उपवन - चित्रण ( ७६-११६ ) का समानान्तर है, वसुदेव की विरहवेदना को भड़काता है। नवें तथा बारहवें सर्ग के प्रकृति-वर्णन संयोग के उद्दीपन का काम देते हैं । ये क्रमशः वसुदेव तथा रोहिणी और कनका की सम्भोग क्रीड़ाओं के लिये समुचित पृष्ठभूमि निर्मित करते हैं । नवें सर्ग में ऋतुवर्णन के द्वारा शास्त्रीय नियमों की खानापूर्ति करने का प्रयत्न किया गया है। चित्रकाव्य पर समूचा ध्यान केन्द्रित होने के कारण पद्मसुन्दर यहाँ प्रकृति का बिम्बचित्र प्रस्तुत करने में सफल नहीं हुए हैं 1 उपजीव्य नैषध के समान यदुसुन्दर के बारहवें सर्ग
१३ नैषध०, २२-१३ ; यदुसुन्दर, १२ ८ ।
१४ नैषध०, २२ ३२ ; यदुसुन्दर, १२-१५ । १५ यदुसुन्दर १२-७४ |
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का प्रकृति-वर्णन दूरारूढ़ कल्पनाओं और अप्रस्तुतों के दुर्वह बोझ से आक्रान्त है । श्रीहर्ष के काव्य में पाण्डित्यपूर्ण उड़ान की कमी नहीं है पर उन्नीसवें और बीसवें सर्गों में वह सब सीमाओं को लांघ गया | इन वर्णनों में उसने ऐसी विकट कल्पनाएँ की हैं, जो वर्ण्य विषय को स्पष्ट करने की अपेक्षा उसे धूमिल कर देती हैं । यदुसुन्दर में उन सबको आरोपित करना सम्भव नहीं था, फिर भी पद्मसुन्दर ने श्रीहर्ष के अप्रस्तुतों को उदारता से ग्रहण किया है । सन्ध्या के समय लालिमा धीरे-धीरे मिटती जाती है और तारे आकाश में छिटक जाते हैं, इस दृश्य के चित्रण में पद्मसुन्दर ने श्रीहर्ष के कई भावों की आवृत्ति की है। उसने पहले रूपक के द्वारा इसका वर्णन किया । सन्ध्या रूपी सिंही ने दिन के हाथी को अपने नखों से फाड़ दिया है । उसकी विशाल काया से बहता रक्त, सान्ध्य राग के रूप में, आकाश में फैल गया है और उसके विदीर्ण मस्तक से झरते मोती तारे बनकर छिटक गये हैं ( १२.६ ) | श्रीहर्ष ने आकाश को मूर्ख के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसने सूर्य का स्वर्णपिण्ड बेच कर बदले में, कौड़ियाँ खरीद ली हैं । पद्मसुन्दर ने इसके विपरीत अस्ताचल को व्यवहार कुशल क्रेता का रूप दिया है । उसने सन्ध्या की आग में शुद्ध सूर्य रूपी स्वर्णपिण्ड हथिया लिया है और उसके बदले में आकाश को निरर्थक कौड़ियाँ ( तारें ) बेच दी है । १३ सूर्य के अस्त होने पर चारों ओर अंधेरा गिरने लगा है । कवि की कल्पना है कि काजल बनाने के लिये सूर्य रूपी दीपक पर आकाश का सिकोरा औंधा रखा गया था। काजल इतना भारी हो गया है कि वह विशाल सिकोरा भी उसके भार से दब कर नीचे गिर गया है। उसने दीपक को बुझा दिया है। और वह काजल अन्धकार बन कर चारों तरफ बिखर गया है । १४ श्रीहर्ष के अनुकरण पर पद्मसुन्दर ने सूर्य को बाज़ का रूप देकर सन्तुलन की सब सीमाओं को लांघ दिया है । १५ इन क्लिष्ट कल्पनाओं ने पद्मसुन्दर के प्रकृतिवर्णन को ऊहात्मक बना दिया है ।
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