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बीच जो थोड़ा-सा धागे का दर्शन हो जाता है उसी भांति का भान हो सकता है। एक जन्म नहीं अनन्तानंत जन्म उठते हुए विकल्पों के बीच आत्मा का साक्षात्कार किया व्यतीत हो चुके हैं पर जिसे पकड़ना था उसे नहीं पकड़ जा सकता है। आप पूछ सकते हैं कि क्या दिखाई पाए । उद्धार कैसे हो सकता है। देगा? आत्मा का क्या स्वरूप होगा ? लेकिन जो स्थिति चक्षुगोचर नहीं है उसे शब्दों में कैसे बांधा जायेगा ?
रूपक की भाषा में ऋषि कहते हैं -एक महल के . परन्तु 'कुछ है अवश्य' इतना तो बोध होगा ही। वही पांच झांकियां हैं, पांच रोशनदान हैं, उस महल में एक चिदानन्द रूप आत्मा है उसका संपूर्ण निर्लिप्त स्वरूप व्यक्ति बेठा है। वह कभी इस रोशनदान से झाँकता परमात्मा नाम से अभिहित होता है।
है कभी उस रोशनदान से झांकता है पर झांकने वाला
वह एक ही है। उसी भांति इस शरीर रूपी मंदिर - उपनिषदों में एक कहानी आती है। दक्ष प्रजापति में एक ही चेतनतत्त्व है। वह कभी कानों से सनता के पास विरोचन इन्द्र जिज्ञासा लेकर आता है, पूछता है की आंखों से देखता है कभी गन्ध-रस-स्पर्शादि कि मैं कौन हूँ ? आत्मा क्या है ? प्रजापति ने कहा-यहाँ
का अनुभव करता है, पर खेद है कि उस एक को पास ही एक सरोवर है। जब सारी लहरें सो जाएं,
हम जान नहीं पाते, पहचान नहीं पाते, पकड़ नहीं पानी बिल्कुल शान्त हो तब उसमें अनिमेष पलकों से
पाते। उस एक के जाते ही बोलना, चलना, चस्वना, झांककर देखो, फिर में तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा। संघना-आदि सारी क्रियाएं बन्द हो जाती हैं। इससे विरोचन सरोवर के किनारे पहुँचता है, शान्त सरोवर में
अधिक आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण और क्या हो सकता अपलक दृष्टि से झांक कर देखता है तो अपना प्रतिबिम्ब
है। आत्म-दर्शन के लिए राग-द्वेषादि कल्लोलों को स्पष्ट नजर आता है। झांकते-झांकते एक प्रश्न और
शान्त करना आवश्यक है। आचार्य कहते हैंउपस्थित हो गया। प्रजापति से जाकर पूछने लगा--दिखने वाला मैं हूँ या देखने वाला मैं हूँ ? मैं तो दुविधा में पड़ रागद्वेषा दिकल्लोलेऽलोल यन्मनोजलम् । गया हूँ। प्रजापति ने कहा-बस, यही मौलिक प्रश्न है । स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं यत्तत्वं नेतरो जनः ।। दृश्य को तो हम पकड़ते हैं पर द्रष्टा को नहीं पकड़ पाते ।
--समाधिशतक श्लो॰ ३५ शब्द को हम पकड़ते हैं पर सुनने वाले को हम नहीं पकड़ पाते वैसे ही गन्ध को हम पकड़ते हैं पर प्राता को हम नहीं राग-द्वेषादि रूप कल्लोलों से जिसका मन अलोल पकड़ पाते। यही बहिमखी और अन्तमखी दृष्टि का भेद है-चंचल नहीं है वह आत्मतत्त्व का दर्शन कर सकता है है। दृष्टि को अन्तमखी बनाना होगा। तभी आत्मा इतर-जन उसका दर्शन नहीं कर पाता।
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